महावीर:
सत्य अनेकांत—(प्रवचन—उन्नीसवां)
प्रश्न:
भगवान
महावीर ने
इंद्र को
स्पष्ट कहा कि
मुझे स्वयं
कर्मों से
युद्ध करना है, तो भी वह एक
देवता को
देख-रेख के
लिए नियुक्त कर
गया! इस घटना
में क्या कोई
औचित्य है?
इसमें
दो बातें
समझने योग्य
हैं।
एक तो कर्मों
से युद्ध, अज्ञान से
युद्ध स्वयं
ही करना है।
महावीर इस बात
की जरा भी
तैयारी में
नहीं थे कि
कोई भी उनके
संघर्ष में
सहयोगी बने।
सहयोगी को
बिलकुल ही
स्वीकार न
करना, बड़े
मूल्य की बात
है। चाहे
स्वयं देवता
ही सहयोग के
लिए क्यों न
कहें, महावीर
सहयोग के लिए राजी
नहीं हैं।
क्योंकि
महावीर की
दृष्टि यह है
कि इस खोज में
कोई संगी-साथी
नहीं हो सकता
है। और इस खोज
में जो
संगी-साथी के
लिए रुकेगा, ठहरेगा; वह
खोज से ही
वंचित रह
जाएगा। यह
नितांत अकेले
की खोज है।
और
जिसे नितांत
अकेले होने का
साहस है, वही
इस खोज पर जा
भी सकता है।
मन तो
हमारा यही
करता है कि
कोई साथ हो, कोई गुरु
साथ हो, कोई
मित्र साथ हो,
कोई जानकार
साथ हो, कोई
मार्गदर्शक
साथ हो, कोई
सहयोगी साथ हो;
अकेले होने
के लिए हमारा
मन नहीं करता।
लेकिन
जब तक कोई
अकेला नहीं हो
सकता है, तब
तक आत्मिक खोज
की दिशा में
इंच भर भी आगे
नहीं बढ़ा जा
सकता।
अकेले
होने की
सामर्थ्य, दि करेज
टु बी अलोन,
सबसे कीमती
बात है।
हम तो
दूसरे को साथ
लेना
चाहेंगे।
महावीर को कोई
निमंत्रण
देता है आकर
कि मुझे साथ
ले लो, मैं
सहयोगी बन जाऊंगा,
तो भी वे
सधन्यवाद वह
निमंत्रण
वापस लौटा देते
हैं! कथा यह है
कि देव इंद्र
खुद कहता है
आकर कि मैं
साथ दूं, सहयोगी
बनूं! तो वे
कहते हैं, क्षमा
करें, यह
खोज ऐसी नहीं
है कि कोई
इसमें साथी हो
सके, यह
खोज तो नितांत
अकेले ही करने
की है।
क्यों? यह अकेले का
इतना आग्रह
क्यों है?
अकेले
के आग्रह में
बड़ी गहरी
बातें हैं।
पहली बात
तो यह है कि जब
हम दूसरे का
साथ मांगते
हैं, तभी हम
कमजोर हो जाते
हैं। असल में
साथ मांगना ही
कमजोरी है। वह
हमारा कमजोर
चित्त ही है, जो कहता है
साथ चाहिए। और
कमजोर चित्त
क्या कर पाएगा?
जो पहले से
ही साथ मांगने
लगा, वह कर
क्या पाएगा? तो पहली तो
जरूरत यह है कि
हम साथ की
कमजोरी छोड़
दें।
और
पूरी तरह जो
अकेला हो जाता
है--जिसके
चित्त से संग
की, साथ की
मांग, समाज
की, सहयोग
की इच्छा मिट
जाती है; यह
बड़ी अदभुत बात
है कि जो इस
भांति अकेला
हो जाता है, जिसे किसी
के संग की कोई
इच्छा नहीं
है--सारा जगत
उसे संग देने
को उत्सुक हो
जाता है! इस
कहानी में जो
दूसरा मतलब है,
वह यह कि
खुद देवता भी
उत्सुक हैं उस
व्यक्ति को
सहारा देने को,
जो अकेला
खड़ा हो गया! जो
साथ मांगता है,
उसे तो साथ
मिलता नहीं।
नाम मात्र को
लोग साथी हो
जाते हैं, साथ
मिलता नहीं।
असल में मांग
से कोई साथ पा
ही नहीं सकता
है।
लेकिन
जो मांगता ही
नहीं साथ, जो मिले हुए
साथ को भी
इनकार कर देता
है, उसके
लिए सारे जगत
की शुभ
शक्तियां
आतुर हो जाती
हैं साथ देने
को। कहानी तो
काल्पनिक है,
मिथ है, पुराण
है, गाथा
है, प्रबोध
कथा है। वह
कहती यह है कि
जब कोई व्यक्ति
नितांत अकेला
खड़ा हो जाता
है तो जगत की
सारी शुभ
शक्तियां उसको
साथ देने को
आतुर हो जाती
हैं!
लेकिन
अगर ऐसा
व्यक्ति उनका
साथ लेने को
भी तैयार हो
जाए, तो भी भटक
जाता है। तो
भी भटक जाता
है इसलिए कि फिर
उसकी यह साथ
लेने की बात
इस बात की खबर
है कि मन के
किसी कोने में,
किसी अंधेरे
कोने में संग
और साथ की
इच्छा शेष रह
गई थी। इसलिए
निमंत्रण तो
मिला है
महावीर को कि
हम साथ देते
हैं, लेकिन
वे कहते हैं, हम साथ लेते
नहीं।
तो जब
जगत की सारी
शुभ शक्तियां
भी साथ देने को
तत्पर हों, तब भी वैसा
आदमी अकेला
होने को ही, अकेला ही
होने की
हिम्मत को
कायम रखता है।
यह बड़ा
टेंपटेशन है,
यह बड़ी उत्प्रेरणा
है कि अगर
भीतर कहीं भी
कुछ, कहीं
भी छिपा हो
कोई भाव साथी
का, संगी
का, समाज
का, तो वह
प्रकट हो जाए।
महावीर
उसे भी इनकार
कर देते हैं!
इस भांति वे अकेले
खड़े हो जाते
हैं। और यह
इतनी बड़ी घटना
है मनोजगत में
किसी व्यक्ति
का पूर्णतया
अकेले खड़े हो
जाना, जिसके
मन के किसी भी
पर्त पर किसी
तरह के साथ की
कोई आकांक्षा
नहीं रह गई, यह व्यक्ति
एक अर्थ में
अदभुत रूप से
मुक्त हो गया।
क्योंकि बांधती
है हमारी साथ
की इच्छा।
गहरे में बंधन
वही है।
समाज
को छोड़ कर
भागना बहुत
आसान है, लेकिन
समाज की इच्छा
से मुक्त हो
जाना बहुत कठिन।
आदमी अकेला
नहीं होना
चाहता। कोई भी
कारण खोज कर
वह किसी के
साथ होना
चाहता है।
अकेले में
बहुत भयभीत
होता है कि
कोई भी नहीं
है, मैं
बिलकुल अकेला
हूं। हालांकि
सच्चाई यह है कि
जब सब हैं, तब
भी हम अकेले
हैं। तब भी
कौन साथ है
किसके? और
कैसे कोई किसी
के साथ हो
सकता है? आस-पास
हो सकते हैं, निकट हो
सकते हैं, साथ
कैसे हो सकते
हैं?
हमारी
यात्राएं
अकेली हैं।
लेकिन हम एक
साथ का भ्रम
पैदा कर लेते
हैं!
पति-पत्नी साथ
का एक भ्रम
पैदा कर लेते
हैं।
मित्र-मित्र
पैदा कर लेते
हैं, गुरु-शिष्य
पैदा कर लेते
हैं--एक भ्रम
कि कोई साथ है,
अकेला नहीं
हूं। और मजे
की बात यह है
कि वह दूसरा
आदमी भी इसी
भ्रम में है
कि कोई साथ है,
अकेला नहीं
हूं! और वे
दोनों इस भ्रम
को पोस कर बड़े
सुख में हैं
कि कोई साथ है,
कोई डर
नहीं! लेकिन
साथ कौन किसके
है? मैं
मरूंगा तो बस
मैं मरूंगा।
मैं जीऊंगा
तो बस मैं जीऊंगा।
और आज भी अपने
मन की
गहराइयों में,
वहां मैं
अकेला हूं।
वहां कौन साथ
है मेरे?
तो जब
तक मैं साथ
मांगता
रहूंगा, तब
तक मैं अपने
मन की
गहराइयों में
भी नहीं उतर
सकता।
क्योंकि साथ
हो सकता है
परिधि पर, केंद्र
पर साथ नहीं
हो सकता, वहां
तो मैं अभी
अकेला हो जाऊंगा।
साथ हो सकता
है परिधि पर, जहां हमारे
शरीर छूते हैं
बस वहां, उतनी
दूर तक हम साथ
हो सकते हैं।
और जो व्यक्ति
साथ के लिए
आतुर है, वह
परिधि पर ही जीएगा, वह
कभी केंद्र पर
नहीं सरक
सकता।
क्योंकि जैसे-जैसे
अपने भीतर गया,
वैसे-वैसे
साथ खोया और
गया।
अभी हम
इतने लोग यहां
बैठे हैं, हम सब आंख
बंद करके शांत
हो जाएं और
भीतर जाएं, तो यहां
एक-एक आदमी ही
रह जाता है, सब अकेले रह
जाते हैं।
यहां फिर कोई
दूसरा साथ
नहीं रह जाता।
दो व्यक्ति एक
साथ ध्यान में
थोड़े ही जा
सकते हैं। एक
साथ बैठ सकते
हैं जाने के
लिए, जाएंगे
तो
अकेले-अकेले
ही। और जैसे
ही भीतर सरके
कि वहां कोई
भी नहीं है, फिर हम
अकेले रह गए।
तो जो
व्यक्ति साथ
के लिए बहुत
आतुर है, वह
आदमी परिधि के
भीतर नहीं जा
सकता। साथ को
पूरी तरह कोई
इनकार कर दे, निगेट कर दे, अस्वीकार
कर दे, तो
ही अपने भीतर
जा सकता है।
क्योंकि तब
परिधि पर होने
का कोई रस
नहीं रह जाता।
यह थोड़ी समझने
की बात है।
हम
अपनी परिधि पर
जीते ही इसलिए
हैं कि वहां दूसरों
के होने की
सुविधा है। हम
अपने केंद्र पर
इसीलिए नहीं
होते कि वहां
हमारे अकेले
होने का उपाय
है, वहां कोई
दूसरा साथ
नहीं हो सकता।
समाज
को छोड?ने
का जो मतलब है,
वह यह नहीं
है कि एक आदमी
जंगल भाग जाए।
क्योंकि हो
सकता है जंगल
में वह
वृक्षों के
साथ दोस्ती कर
ले, पक्षियों
के साथ दोस्ती
कर ले, जानवरों
के साथ दोस्ती
कर ले, पहाड़ों
के साथ दोस्ती
कर ले। यह
सवाल नहीं है
कि वह भाग जाए,
क्योंकि
वहां भी वह
संग खोज लेगा,
वहां भी वह
साथ खोज लेगा।
सवाल
गहरे में यह
है कि कोई
व्यक्ति
परिधि से भीतर
जाने का उपाय
करे तो उसे
दिखाई पड़ेगा
कि परिधि के
संबंधों की जो
आकांक्षा है, वह छोड़ देनी
पड़ेगी।
इससे
यह सवाल नहीं
उठता है कि वह
संबंध तोड़
देगा। संबंध
रह सकते हैं, लेकिन अब
उनकी कोई
आकांक्षा
उसके भीतर
नहीं रह गई
है। अब वे
परिधि के खेल
हैं। और जो
लोग परिधि पर
जी रहे हैं, वह उनके लिए
परिधि पर खड़ा
हुआ भी मालूम
पड़ेगा, लेकिन
अपने तईं वह
अकेला हो गया
है, वह
निपट अकेला हो
गया है और
अपने भीतर
जाना शुरू कर
दिया है।
महावीर
की जो
अंतर्यात्रा
है, उसमें
चूंकि कोई
संगी-साथी
नहीं हो सकता,
इसलिए वे सब
संग को
अस्वीकार कर
देते हैं। लेकिन
जैसे ही कोई
सब संग
अस्वीकार
करता है, जीवन
की सारी
शक्तियां
उसका साथी
होना चाहती हैं!
जो अकेला है, जो असहाय है,
जो असुरक्षित
है--जीवन उसके
लिए सुरक्षा
भी बनता है, सहारा भी
बनता है, सहायता
भी बनता है!
जीवन
के आंतरिक
नियम ऐसे हैं
कि अगर
पूर्णतया कोई हेल्पलेस
है, कोई
पूर्णतया
असहाय है, तो
सारा जीवन
उसका सहायक बन
जाता है। ये
जीवन के भीतरी
नियम हैं। ये
नियम वैसे ही
हैं, जैसे
कि चुंबक लोहे
को खींच लेता
है। और हम कभी
नहीं पूछते कि
क्यों खींच
लेता है? हम
कहते हैं, यह
नियम है कि
चुंबक में ऐसी
शक्ति है कि
वह लोहे को
खींच लेता है।
मैं
आपसे यह कहना
चाहता हूं कि
यह भी नियम है
कि जो व्यक्ति
भीतर से
पूर्णतः
असहाय खड़ा हो
गया, सारे जगत की
सहायता उसकी
तरफ चुंबक की
तरह खिंचने
लगती है।
क्यों खिंचने
लगती है, यह
सवाल नहीं है।
यह नियम है।
नियम का मतलब
यह है कि
असहाय होते ही
कोई व्यक्ति बेसहारे
नहीं रह जाता,
सब सहारे
उसके हो जाते
हैं। और जब तक
कोई व्यक्ति
अपना-अपना
सहारा खोज रहा
है, तब तक
वह गहरे
अर्थों में
असहाय होता
है।
वही कल
मैं कहना भी
चाहता था। कल
की जो चर्चा थी, उसमें यह
बात उठी थी कि
सुरक्षा
चाहिए, सेफ्टी
चाहिए, सिक्योरिटी
चाहिए, तो
हम ऐसा कुछ
करें, जिसमें
सुरक्षा रहे,
असुरक्षित
न हो जाएं। जब
कि सच बात यह
है कि असुरक्षित,
पूर्ण
असुरक्षित
चित्त को ही
परमात्मा की
सुरक्षा
उपलब्ध होती
है। और जो खुद
ही अपनी
सुरक्षा कर
लेता है, उसे
परमात्मा की
कोई सुरक्षा
उपलब्ध नहीं
होती, क्योंकि
वह परमात्मा
के लिए तो
मौका ही नहीं
दे रहा है, वह
तो अपना
इंतजाम खुद
किए ले रहा
है।
मैं एक
कहानी कहता
रहा हूं कि
कृष्ण भोजन को
बैठे हैं, और दो-चार
कौर लिए हैं
और भागे हैं
थाली छोड़ कर! रुक्मिणी
ने उनसे पूछा,
आपको क्या
हो गया? जाते
कहां हैं? लेकिन
उन्होंने
सुना नहीं, वे द्वार तक
चले गए हैं
दौड़ते हुए, जैसे कहीं
आग लग गई हो!
रुक्मिणी
भी उठी, उनके
दो-चार कदम
पीछे गई है।
फिर वह दरवाजे
पर ठिठक गए, वापस लौट आए,
थाली पर बैठ
कर चुपचाप
भोजन करने
लगे!
रुक्मिणी
ने कहा कि
मुझे बड़ी
पहेली में डाल
दिया! एक तो आप
ऐसे भागे कि
मैंने पूछा
कहां जा रहे
हैं, तो उसका
उत्तर देने तक
की भी आपको
सुविधा न थी।
और फिर आप ऐसे
दरवाजे से लौट
आए कि जैसे कहीं
भी न जाना था!
हुआ क्या है?
तो
कृष्ण ने कहा
कि मुझे प्रेम
करने वाला, मेरा एक
प्यारा एक
रास्ते से
गुजर रहा है।
लोग उस पर
पत्थर फेंक
रहे हैं, और
वह है कि
मंजीरे बजाए
चला जा रहा है
और मेरा ही
गीत गाए चला
जा रहा है! लोग
पत्थर फेंक
रहे हैं और
उसने उत्तर भी
नहीं दिया है
उनका कोई, मन
में भी उत्तर
नहीं दिया है,
मन में भी
वह सिर्फ देख
रहा है कि लोग
पत्थर मार रहे
हैं, उसके
माथे से खून
की धारा बह
रही है! तो
मेरे जाने की
जरूरत पड़ गई
थी। इतने बेसहारे
के लिए अगर
मैं न जाऊं तो
फिर मेरा अर्थ
क्या है?
तो
रुक्मिणी ने पूछा, फिर लौट
क्यों आए? उन्होंने
कहा, लेकिन
जब तक मैं
दरवाजे पर गया,
वह बेसहारा
नहीं रह गया
था। उसने
मंजीरे नीचे फेंक
दिए और पत्थर
हाथ में उठा
लिए। उसने
अपना इंतजाम
कर लिया, अब
मेरी कोई
जरूरत नहीं।
उसने मेरे लिए
मौका नहीं
छोड़ा है। वह
खाली जगह नहीं
छोड़ी है, जहां मेरी
जरूरत पड़ जाए।
जब
व्यक्ति अपना
इंतजाम कर
लेता है तो
जीवन की
शक्तियों के
लिए कोई उपाय
नहीं रह जाता।
और हम सब अपना
इंतजाम कर
लेते हैं और
इसीलिए हम वंचित
रह जाते हैं।
संन्यासी
का मतलब ही
सिर्फ इतना है
कि जो अपने
लिए इंतजाम
नहीं करता और
छोड़ देता है सब
इंतजाम।
असुरक्षा
में खड़ा हो
जाना संन्यास
है--टु बी इन इनसिक्योरिटी।
सब तरह की
असुरक्षा में, जहां कि वह
मानता ही नहीं
कि मैं अपने
लिए कोई सुरक्षा
करूं। बड़ी
कठिन बात है।
क्योंकि मन को
इस बात के लिए
राजी करना कि
असुरक्षा में
खड़े हो जाओ, मत करो
इंतजाम! इंतजाम
ही मत करो! छोड़
दो सब इंतजाम!
वह
मलूक ने कहा
है, उसकी बात
बहुत कम समझी
गई। कम समझी
गई, लेकिन
अगर महावीर को
कहता तो
महावीर समझते
उसकी बात।
मलूक ने कहा
है कि पंछी
काम नहीं करते,
अजगर चाकरी
नहीं करता! वह
कहता है कि, मलूक कहता
है कि सबको
देने वाला राम
है। पक्षी कोई
काम नहीं करते,
अजगर कोई
नौकरी करने
नहीं जाता! और
मलूक कहता है
कि सबको देने
वाला राम है!
यह
समझी नहीं गई
बात। लोगों ने
समझा कि यह तो
बड़े आलस्य की
बात सिखाई जा
रही है। यानी
इसका तो मतलब
यही है कि कोई
कुछ न करे।
इसका मतलब है
कोई कुछ न करे
और जैसे पक्षी
और अजगर पड़े
हैं, ऐसा पड़ा
रह जाए; तब
तो सब खतम हो
जाए।
लेकिन
मलूक कुछ और
कह रहा है, वह आलस्य की
बात नहीं कह
रहा है। वह यह
कह रहा है कि
करो या न
करो--भीतर से
जैसा पक्षी
असुरक्षित है
कि कल का कोई
पता नहीं, सांझ
का कोई भरोसा
नहीं; जैसे
अजगर
असुरक्षित
पड़ा है, जिसके
पास कोई बैंक
बैलेंस नहीं,
कोई इंतजाम
नहीं, कोई
सुरक्षा
नहीं--ऐसा भी
चित्त है। ऐसा
भी चित्त हो
सकता है। और
जब ऐसा चित्त
हो जाता है तो फिर
राम ही सब कुछ
हो जाता है
सहारा, फिर
कोई सहारा
नहीं खोजना
पड़ता। यह कोई
आलस्य की
शिक्षा नहीं
है, यह
बहुत गहरे में
असुरक्षा के
स्वीकार की
शिक्षा है।
और
महावीर ऐसी
असुरक्षा में
असंग खड़े हो
गए हैं--न कोई
संगी, न कोई
साथी, क्योंकि
वह भी हमारी
सुरक्षा का
उपाय है।
एक
स्त्री अकेले
होने में डरती
है, उसे पति
चाहिए। जगत
बड़ा
असुरक्षित है,
जगत बड़ा भय
देने वाला है।
एक पति चाहिए,
वह उसकी
सुरक्षा बन
जाएगा।
पति भी
शायद
असुरक्षित
है। शायद वह
भी नहीं पाता
इसमें कि
सेफ्टी है, क्योंकि
स्त्रियां
उसे आकर्षित
करेंगी, स्त्रियां
उसे खींचेंगी।
और तब बड़ी
असुरक्षा
पैदा हो सकती
है। इसलिए एक
स्त्री चाहिए,
जो उसे
दूसरी
स्त्रियों के
खिंचाव से
बचाने के लिए
सुरक्षा बन
जाए, जो
उसे दूसरे
खिंचावों से
रोक सके और
कोई खतरा, कोई
उपद्रव
जिंदगी में न
हो। जिंदगी
व्यवस्थित हो
जाए, सिस्टमैटिक हो जाए, सारा
इंतजाम हो जाए
और हम इंतजाम
कर लें।
अहंकार
इंतजाम जब
करता है, तब
परमात्मा का
इंतजाम छोड़
देना पड़ता है।
और जब अहंकार
सारी
व्यवस्था छोड़
देता है, तो
परमात्मा के
हाथ सारी
व्यवस्था चली
जाती है।
महावीर
इसलिए किसी
तरह के सहयोग, संग, साथ,
सुरक्षा
लेने को तैयार
नहीं हैं। वे
कहते हैं, बिलकुल
अकेले, अकेले
ही खोजेंगे। भटकेंगे, उसमें कुछ
हर्ज नहीं है,
क्योंकि
भटकना भी खोज
में अनिवार्य
हिस्सा है।
क्योंकि
भटकने में ही वह
प्राण, वह
चेतना जगती है,
जो पहुंचाएगी।
तो भटकने का
कोई भय नहीं
है। इसलिए वे
सब तरह के
सहारे को
इनकार करते
हैं।
लेकिन
ध्यान रहे, ऐसे व्यक्ति
को सब तरह के
सहारे स्वयं
आकर उपलब्ध
होने लगते
हैं! जो भागते
हैं जिन चीजों
के पीछे, उन्हीं
को नहीं
उपलब्ध कर
पाते, और
जो ठहर जाते
हैं या विपरीत
चल पड़ते हैं, उनके पीछे
चीजें चलने
लगती हैं।
जीवन
की गहराइयों
में कहीं कोई
बहुत शाश्वत नियमों
की व्यवस्था
भी है। उसमें
एक नियम यह भी
है कि जिसके
पीछे आप भागेंगे, वह आपसे
भागता चला
जाएगा। और
जिसका मोह आप
छोड़ देंगे और
अपनी राह चल पड़ेंगे,
आप अचानक
पाएंगे कि वह
आपके पीछे चला
आया है।
धन को
जो छोड़ते हैं, उनके आस-पास
धन चला आता
है। मान को जो
छोड़ते हैं, उनके आस-पास
सम्मान की
वर्षा होने
लगती है। सुरक्षा
जो छोड़ देते
हैं, उन्हें
सुरक्षा
उपलब्ध हो
जाती है। सब
जो छोड़ देते
हैं, शायद
सब उन्हें
उपलब्ध हो
जाता है। एक
घर जो छोड़ते
हैं, शायद
सब घर उनके हो
जाते हैं। एक
प्रेम की फिक्र
जो छोड़ देते
हैं, शायद
सबका प्रेम
उनका हो जाता
है।
और
महावीर इसे
बहुत स्पष्ट
देख रहे हैं, इसलिए वे
कहीं बीच में
कोई पड़ाव
नहीं डालना
चाहते। और
इंद्र के
निमंत्रण को
अस्वीकार
करने में उनकी
यही भावना
प्रकट हुई है।
हां, इस
संबंध में कोई
प्रश्न हो, खयाल में
आता हो तो उठा
लेंगे।
प्रश्न:
आपने
कहा, यह
कथा है। यह
कथा है या
वास्तव में
बातचीत हुई है
इंद्र और
महावीर में?
हां, यह बिलकुल कथा
है। बिलकुल
कथा है।
प्रश्न:
तो
फिर इसका
उल्लेख इस ढंग
से क्यों आया
है कि महावीर
ने इंद्र से
बातचीत की?
असल
में कठिनाई
क्या है, हम
कहानियां ही
समझ सकते हैं।
और कहानियां
भी तभी समझ
सकते हैं, जब
वे ऐतिहासिक
हों। इसकी बात
कर ही लें।
हम
कहानियां ही
समझ पाते हैं।
और कहानियां
भी तब समझ
पाते हैं, जब वे हमें
ऐतिहासिक हैं,
ऐसा कहा
जाए। अगर कोई
कहानी
ऐतिहासिक
नहीं, तो
हम कहेंगे, बस कहानी
है। फिर हम
उसे समझ ही
नहीं पाएंगे। जब
कि सवाल यह
नहीं है कि
कहानी हुई या
नहीं हुई, यह
सवाल ही नहीं
है। सवाल यह
है कि कहानी क्या
कहती है? क्या
है अर्थ? क्या
है प्रयोजन?
प्रयोजन
तो खो जाते
हैं और
सामान्य मन जो
है हमारा, वह जड़ता
को पकड़ लेता
है।
मैं एक
शिविर में, एक पहाड़ पर
था। एक जगह
देखने गए, कोई
सन-सेट
प्वाइंट
था--सूर्यास्त,
वहां देखने
गए। दो बहनें
मेरे साथ थीं।
बड़ी धूप थी, सूर्य तो ढल
रहा था, लेकिन
बड़ी धूप थी।
शायद हम आधा
घंटा जल्दी
पहुंच गए थे।
तो एक बेंच पर
मुझे
उन्होंने
बिठा दिया।
फिर उन्हें
चिंता हुई कि
बहुत धूप में
मुझे ले आई
हैं। तो वे
दोनों मेरे
सामने आकर खड़ी
हो गईं और
उन्होंने कहा
कि हम आपके
लिए छाया बने
जाते हैं। हम
आपके लिए छतरी
बन जाएं, इसमें
एतराज तो नहीं
है? मैंने
कहा, कोई
भी एतराज नहीं
है। लेकिन
मैंने उनसे
कहा कि इसको
तुम लिख रखना।
और तब कभी एक
दिन यह बात जो
है, ऐतिहासिक
तथ्य बन जाएगी
कि मैं धूप
में था और दो
बहनें मेरे
लिए छतरी बन
गईं। इसको तुम
लिख रखना।
और
उन्होंने जो
कहा था, वह
बिलकुल ही ठीक
कहा था, इसमें
जरा भी
भूल-चूक नहीं
है कि वे छतरी
बन गईं। लेकिन
क्या वे छतरी
बन गईं? और
इसे लिखा जा
सकता है। और
इसे लिखने में
जरा भी असत्य
नहीं बोला जा
रहा है।
उन्होंने वही
काम किया जो
छतरी करती। वे
मेरे लिए छाया
बन गईं। उन्होंने
धूप झेली, मैं
छाया में बैठा
रहा। और इसे
लिखने में कोई
कठिनाई नहीं
है कि दो
बहनें मेरे
लिए छाया बन गईं,
छतरी बन
गईं।
लेकिन
कभी यह उपद्रव
की बात हो
सकती है कि
क्या दो
स्त्रियां
छतरी बन गई
थीं? तब हम
काव्य नहीं
समझ पा रहे
हैं, तब हम
बड़ी जड़ता
से चीजों को
पकड़ रहे हैं।
और अब
तक काव्य नहीं
समझा गया। और
हमारा जो भी अदभुत
व्यक्ति पैदा
होता है, वह
इतना अदभुत
होता है कि
उसके आस-पास
काव्य पैदा
होगा ही, उसके
आस-पास कथाएं
पैदा होंगी
ही। कथाएं सच
हैं ऐसा नहीं,
व्यक्ति
ऐसा था कि
उसके आस-पास
कथाएं पैदा
होंगी ही।
उसके व्यक्तित्व
से ढेर काव्य
पैदा होंगे।
लेकिन बहुत
जल्दी काव्य
काव्य नहीं रह
जाएगा हमारी पकड़
में, हम
उसे जोर से
पकड़ लेंगे। और
जब हम जोर से
पकड़ लेंगे, तब कविता तो
मर जाएगी और
तथ्य निकालने
की चेष्टा
शुरू हो
जाएगी। वहीं
जाकर जीवन
झूठे हो जाते
हैं।
महावीर
का, बुद्ध का,
मोहम्मद का,
जीसस का
सारा जीवन
झूठा हो गया।
झूठे होने का कुल
कारण इतना है
कि जो काव्य
था, जो
कविता थी, और
बड़े प्रेम में
कही गई थी...। और
बहुत बार ऐसा
होता है कि
इतनी अनूठी
हैं जीवन की
घटनाएं कि उन्हें
शायद तथ्यों
में कहा ही
नहीं जा सकता,
उनके साथ
हमें काव्य
जोड़ना ही पड़ता
है। और जब हम
काव्य जोड़ते
हैं, तभी
कठिनाई हो
जाती है।
जैसे
मैंने यह कहा
अभी, मोहम्मद
के संबंध में
कहानी है कि
जहां भी मोहम्मद
जाते, एक
बदली सदा उनके
ऊपर छाया किए
रहती। अब जिन
लोगों ने भी
मोहम्मद को
जाना है, जो
उनके पास जीए
होंगे, उनको
लगा होगा कि
ऐसे आदमी पर
सूरज भी धूप
करे, यह
ठीक नहीं है।
ऐसे आदमी पर
बदली भी खयाल
रखे, यह
बिलकुल ठीक
है। यह बड़ा
गहरा भाव है
जो कवि ने, देखने
वाले ने, प्रेम
करने वाले ने
फैला दिया है।
और बदली पर वह
फैला दिया है,
जो उसके मन
में था। जो
उसके मन में
था कि ऐसे आदमी
पर बदली भी
छाया करे, यह
जरूरी है।
यानी बदली भी
उपेक्षा करे
ऐसे आदमी की, यह बरदाश्त
के बाहर है।
यह कविता तो
ठीक थी, लेकिन
फिर जब यह
तथ्य की तरह
पकड़ लेते हैं
हम, तो
बहुत कठिनाई
हो जाती है, तब हम
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
तो मैं
मानता हूं कि
सभी
महापुरुषों
के, सभी उन
अद्वितीय
व्यक्तियों
के आस-पास
हजार तरह के
काव्य को जन्म
मिलता है। उस
काव्य को बाद
के लोग इतिहास
समझ लेते हैं
और तब उन
व्यक्तियों
का जीवन ही
झूठा हो जाता
है। और अगर हम
सिर्फ तथ्य
लिखें, तो
तथ्य इतने
रूखे मालूम
पड़ते हैं, कि
महावीर जैसे
व्यक्ति के
आस-पास तथ्य
लिखें कैसे? वे बिलकुल
रूखे मालूम
पड़ते हैं, उनमें
कोई जान नहीं
मालूम पड़ती, उन पर काव्य चढ़ाना ही
पड़ता है, उन्हें
काव्य देना ही
पड़ता है, नहीं
तो वे बड़े
रूखे-सूखे हो
जाते हैं।
जैसे
समझें, एक
व्यक्ति किसी
स्त्री को
प्रेम करता हो,
तो प्रेम
में वह ऐसी
बातें कहता है,
जो तथ्य
नहीं हैं; लेकिन
फिर भी सत्य
हैं। और जरूरी
नहीं है कि कोई
चीज तथ्य न हो
तो सत्य न हो, नहीं तो
काव्य खतम ही
हो जाएगा, फिर
काव्य का कोई
सत्य ही नहीं
रह जाएगा।
और कुछ
लोग हैं ऐसे, जैसे प्लेटो।
तो वह प्लेटो
कहता है कि
कवि नितांत
झूठे हैं और
दुनिया से जब
तक कविता नहीं
मिटती, तब
तक झूठ नहीं
मिटेगा! ऐसे
लोग हैं, जो
कहते हैं कि
कविता नितांत
झूठी है।
लेकिन
उनसे उलटे लोग
भी हैं और
उनकी पकड़
ज्यादा गहरी
है, वे कहते
हैं, अगर
कविता ही झूठी
है तो फिर
जीवन में कुछ
सच ही नहीं रह
जाता, फिर
जीवन सब व्यर्थ
है।
अब एक
युवक एक युवती
को प्रेम करता
हो तो वह उससे
कहता है कि
तेरा चेहरा
चांद की तरह
है। अब यह बात
बिलकुल अतथ्य
है, फिक्शन
है। इससे झूठी
और कोई बात हो
सकती है? किसी
स्त्री का
चेहरा और चांद
की तरह कैसे
हो सकता है? कहां चांद!
अगर आइंस्टीन
से जाकर कहो कि
हम ऐसा मानते
हैं कि एक
स्त्री का
चेहरा चांद की
तरह है, तो
वह कहेगा तुम
बिलकुल पागल
हो गए हो।
चांद का इतना
वजन है कि एक
स्त्री क्या,
सारी
स्त्रियां
पृथ्वी की
इकट्ठी होकर
उस वजन को
नहीं झेल
पाएंगी। तो वह
स्त्री का
चेहरा कैसे हो
सकता है? और
चांद पर बड़े
खाई-खड्ड हैं।
यह कहां का
बेहूदा खयाल
तुम्हारे दिमाग
में आया कि
तुम एक स्त्री
को चांद सा
बता रहे हो!
लेकिन
जिसने कहा, वह फिर भी
कहेगा कि नहीं,
चेहरा तो
चांद ही है।
असल में वह
कुछ और कह रहा है।
वह यह कह रहा
है कि चांद को
देख कर जैसा
लगता है--चांद
से कोई मतलब
ही नहीं
है--चांद को
देख कर मन में
जो छाया छूट
जाती है, चांद
को देख कर आंख
बंद कर लो और
मन में जो
चांदी की धार
छूट जाती है, चांद को
सोचो और जो
शीतलता मन को
घेर लेती है, चांद को
सोचो और जो
प्रकाश और आभा
मन को तर कर देती
है, किसी
का चेहरा देख
कर भी वैसा हो
सकता है!
चांद
से कुछ
लेना-देना
नहीं है। और
अगर किसी के
चेहरे को देख
कर किसी को
ऐसा हुआ है तो
वह हकदार है
कि कहे कि
उसका चेहरा
चांद की भांति
है। लेकिन इस
कविता को अगर
कभी गणित और
विज्ञान की
कसौटी पर कसने
चले गए तो
गलती में पड़
जाओगे।
इसलिए
मैं इन सारी
बातों को रूपक
कथाएं कहता हूं, जिनके
माध्यम से कुछ
बातें कही गई
हैं, जो कि
शायद और
माध्यम से कही
ही नहीं जा
सकती हैं।
जीसस से किसी
ने पूछा कि आप
कहानियां
क्यों कहते
हैं? आप
सीधा क्यों
नहीं कह देते?
तो जीसस ने
कहा, सीधी
बात समझने वाले
लोग अभी पैदा
कहां हुए हैं,
जो सीधी बात
समझ जाएं। तो
कहानी कहनी
पड़ती है। फिर
जीसस ने कहा, कहानी कहने
में एक और
फायदा है, जो
नहीं समझ पाते
उनका कोई
नुकसान नहीं
होता है। जो
नहीं समझ पाते
उनका कोई
नुकसान नहीं
होता, क्योंकि
सिर्फ एक
कहानी
उन्होंने
सुनी है। लेकिन
जो समझ पाते
हैं, वे
कहानी में से
वह निकाल लेते
हैं, जो
निकालना था।
और
कभी-कभी सीधे
सत्य नुकसान
भी पहुंचा
सकते हैं, अगर न समझ
में आएं तो
कठिनाई में
डाल सकते हैं।
क्योंकि उनको
कहानी कह कर
आप टाल नहीं
सकते, तो
वे आपकी
जिंदगी पर
भारी भी हो
सकते हैं। लेकिन
कहानी है तो
टाल भी देते
हैं। लेकिन जो
देख सकता है, वह खोज लेता
है।
कहानियां
सत्यों को
कहने का एक
ढंग हैं--ऐसे ढंग
से कि सत्य
रूखा भी न रह
जाए, मृत भी न
हो जाए, जीवंत
हो जाए। लेकिन
अगर नासमझ
आदमी के हाथ
में कहानियां
पड़ जाएं तो
उनको सत्य बना
ले सकता है और सत्य
बना कर सारे
व्यक्तित्व
को झूठ कर दे
सकता है। तो
मैं उनको रूपक
कथाएं, बोध-कथाएं
ही कहता हूं।
उनमें बड़ा बोध
छिपा है, लेकिन
वे ऐतिहासिक
तथ्य नहीं
हैं।
प्रश्न:
महावीर
ने किसी दूसरे
का सहारा लेने
से इनकार कर
दिया, सही
बात है। लेकिन
साथ ही साथ
प्रश्न यह उठता
है कि जितना
महत्वपूर्ण
सहारा न लेना
है, उतना
ही
महत्वपूर्ण
सहारा न देना
भी होना चाहिए।
लेकिन उनकी
अभिव्यक्ति
और उसके बाद
फिर श्रावक और
श्रमण और यह
सारी चीज
है--यह दूसरे
को सहारा देने
वाली बात हुई।
तो इस पहलू पर
क्यों नहीं
विचार किया
गया कि मैं जब
सहारा नहीं
लेता हूं तो
मैं सहारा
दूसरे को देने
वाला भी कौन
हूं?
इसे
भी समझना
चाहिए। यह बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रश्न है। यह
बड़ा
महत्वपूर्ण
प्रश्न है। और
साधारणतः ऐसा
ही दिखाई
पड़ेगा कि अगर
कोई व्यक्ति
सहारा नहीं ले
रहा है तो
बिलकुल ठीक
बात यह है कि वह
किसी को सहारा
भी न दे। ऐसा
बिलकुल ठीक
दिखेगा, यह
बिलकुल
तर्कयुक्त
मालूम पड़ेगा।
लेकिन तर्क
एकदम भ्रांत
है और फैलेसियस
है। कहां है फैलेसी, कहां है
भ्रांति, वह
समझ लेनी
चाहिए।
जब हम
यह कहते हैं
कि सहारा नहीं
लेना है तो इसका
कुल मतलब इतना
है, इसका कुल
मतलब इतना है
कि भीतर जाने
में, भीतर
जाने में, जब
भी मैं भीतर
जाऊं तो मैं
किसी को साथ
नहीं ले सकता
हूं। कोई साथ
लेने का उपाय
नहीं है भीतर
जाने में।
भीतर मुझे
अकेला ही जाना
पड़ेगा। अकेले
ही जाना
एकमात्र
मार्ग है वहां
पहुंचने का।
इसलिए मैं सब
सहारे इनकार
करता हूं।
लेकिन यह बात
अगर मैं किसी
को कहने
जाऊं--यह बात
कि किसी का
सहारा मत लेना,
क्योंकि
सहारा लोगे तो
भटक जाओगे, सहारा लोगे
तो भीतर न जा
सकोगे--यह बात
मैं अगर किसी
को कहने जाऊं
तो एक अर्थ
में मैं सहारा
दे रहा हूं।
एक अर्थ में
मैं सहारा दे
रहा हूं, और
एक अर्थ में
मैं सारे
सहारे से उसको
बचा रहा हूं।
ये दोनों
बातें हैं।
महावीर
जो सहारा दे
रहे हैं, वह
इसी तरह का
है। वह इसी
तरह का सहारा
है कि वे लोगों
को कह रहे हैं
कि मैं अकेला
भीतर गया। जब
तक मैंने
सहारा पकड़ा, तब तक मैं
भीतर नहीं
गया। तुम भी
तो कहीं सहारा
नहीं पकड़ रहे
हो? अगर
सहारा पकड़ रहे
हो तो भीतर
नहीं जा सकोगे,
बेसहारे हो जाओ। इसे
अगर हम कहें
तो कह सकते
हैं, सहारा
तो दे रहे हैं
वे, लेकिन
सहारा वे यह
दे रहे हैं कि
तुम सहारा मत पकड़
लेना, मेरा
भी मत पकड़
लेना!
तो
कठिनाई जो है, वह कल भी यह
बात उठी थी, कल वह यह कह
रहे थे महेश
योगी, कि
अगर जो मैं
कहता हूं तो
फिर मुझे
शिक्षक होने
का कोई हक
नहीं है। वह
यह कह रहे थे
कि अगर मैं
खंडन करता हूं
विधि का, तो
फिर मुझे
शिक्षक होने
का कोई हक
नहीं है।
वह ठीक
कह रहे थे।
लेकिन फिर भी
मैं कहता हूं
कि मुझे हक
है। क्योंकि
मैं जो खंडन
करता हूं विधि
का, वह मैं
कहना चाहता
हूं लोगों से
कि किसी विधि
से तुम न जा
सकोगे। यह जो
कठिनाई है न, हमारी जो
कठिनाई है, मैं यह कहना
चाहता हूं
लोगों से कि
किसी विधि से,
किसी मेथड
से तुम न जा
सकोगे। इतना
मुझे कहना है।
और जो
मैं दे रहा
हूं, यह कोई मेथड नहीं
है। यह जो मैं
दे रहा हूं, यह कोई मेथड
नहीं है। यह
केवल मैं यह
खबर कर रहा
हूं कि इस मेथड
के चक्कर में
तुम मत पड़
जाना, नहीं
तो भटक जाओगे,
मैं भटका
हूं। यह खबर
मैं तुम्हें
दे देता हूं।
और यह मैं
तुम्हें कोई मेथड नहीं
दे रहा हूं, इसलिए एक
अर्थ में मैं
शिक्षक नहीं
हूं, और एक
अर्थ में मुझे
शिक्षक होने
का हक है। हक
का मतलब सिर्फ
इतना है कि
मैं इतनी बात
कहने का हकदार
हूं कि मैं
किसी को इतनी
बात कह दूं कि
विधि से कोई कभी
नहीं पहुंचा
है, इसलिए
तुम विधि मत
पकड़ लेना। और
मेरी बात भी मत
पकड़ लेना, इसकी
भी तुम
खोज-बीन करना।
क्योंकि इसको
भी अगर तुमने
पकड़ा तो यह
तुम्हारी
विधि हो
जाएगी। इसलिए
मैं कहता हूं
कि जिंदगी
बहुत जटिल है।
वहां सीधे...।
यूनान
में एक तर्क
चलता था।
यूनान के नीचे
सिसली
छोटा सा एक
द्वीप है। और सोफिस्ट
विचारक हुए, जो बड़े
अदभुत थे एक
अर्थ में, और
एक अर्थ में
बिलकुल फिजूल
थे। अदभुत इस
अर्थ में थे
कि जितना तर्क
उन्होंने
किया, जगत
में किसी ने
भी नहीं किया।
और फिजूल इस
अर्थ में थे
कि उन्होंने
सिर्फ तर्क
किया, और
कुछ भी नहीं
किया। तो वे
प्रत्येक चीज
को खंडित कर
सकते थे और
प्रत्येक चीज
का समर्थन कर
सकते थे।
क्योंकि उनका
कहना यह था कि
कोई भी चीज
ऐसी नहीं है, जो एक पहलू
से खंडित न की
जा सके और
दूसरे पहलू से
समर्थित न की
जा सके।
इसलिए
वे कहते थे, यह सवाल ही
नहीं है कि
सत्य क्या है,
सवाल यह है
कि तुम्हारा
दिल क्या है, तुम्हारी
मर्जी क्या
है! तो वे कहते
थे, हम
पैसे पर भी
सत्य को सिद्ध
करते हैं।
उनको कोई
नौकरी पर भी
रख ले, तो
वह जो कहेगा, वे उसको सही
करेंगे। वह जो
कहेगा, वे
उसको सत्य
सिद्ध कर
देंगे! और कल
उनसे विपरीत
आदमी उनको
नौकरी पर रख
ले तो वे उसकी
बात सिद्ध कर
देंगे!
उनका
कहना यह था कि
कोई चीज सिद्ध
है नहीं, जिंदगी
इतनी जटिल है
कि उसमें सब
पहलू मौजूद
हैं। और तर्क
देने वाला
सिर्फ उस पहलू
को जोर से ऊपर
उठा लेता है, जो पहलू वह
सिद्ध करना
चाहता है; और
शेष पहलुओं को
पीछे हटा देता
है, और कुछ
भी नहीं करता।
लेकिन
अगर हमें पूरी
जिंदगी देखनी
हो तो हमें खयाल
रखना पड़ेगा कि
यह बात सच है
कि किसी का सहारा
कभी मत लेना, क्योंकि
सहारा भटकाने
वाला होगा। और
यह बात तो फिर
इसके साथ ही
जुड़ गई कि मैं
आपको सहारा दे
रहा हूं यह
बात कह कर--अब
आप क्या
करिएगा? अब
क्या करिएगा?
तो वे
कहते थे...सिसली
नीचे एक छोटा
द्वीप है। और सोफिस्ट
एक उदाहरण
लेते थे कि सिसली
से एक आदमी आया
और उसने एथेंस
में आकर कहा
कि सिसली
में सब लोग
झूठ बोलने
वाले हैं! तो
एक आदमी ने खड़े
होकर उससे
पूछा कि तुम
कहां के रहने
वाले हो? उसने
कहा, मैं सिसली का
रहने वाला
हूं। तो उसने
कहा, हम
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए।
तुम कहते हो सिसली में
सब झूठ बोलने
वाले लोग हैं,
तुम सिसली
के रहने वाले
हो, तुम एक
झूठ बोलने
वाले आदमी हो,
अब हम
तुम्हारी बात
का क्या करें?
और तुम कहते
हो सिसली
में सब झूठ
बोलने वाले
लोग हैं! अगर
हम यह बात मान
लें तो सिसली
में कम से कम
एक आदमी है, जो सच बोलता
है, और
तुम्हारी बात
गलत हो जाती
है। अगर हम यह
बात न मानें, अगर हम यह
बात न मानें
कि सिसली
में सब झूठ
बोलने वाले
लोग हैं, अगर
हम यह न मानें
तो हम तुम्हें
झूठ मानते हैं
तो भी मुश्किल
हो जाती है।
तो एक आदमी ने
खड़े होकर कहा
कि हम करें
क्या? अब
उस आदमी को
शायद कुछ भी
नहीं सूझा
होगा कि अब वह
क्या करे, क्या
कहे!
जिंदगी
इतनी जटिल है
कि ये दोनों
बातें सही हो
सकती हैं। सिसली
में सब झूठ
बोलने वाले
लोग हो सकते
हैं, इस आदमी
का वक्तव्य
सही हो सकता
है। क्योंकि यह
हो सकता है कि
सब लोग सब समय
झूठ न बोलते
हों! सब लोग
झूठ बोलते हों,
अलग-अलग समय
झूठ बोलते
हों! सब मौकों
पर झूठ न
बोलते हों! सब
लोग झूठ बोलते
हों, सब मौकों
पर न बोलते
हों! इस मौके
पर यह आदमी न
बोल रहा हो! जिंदगी
इतनी जटिल है
कि हम उसे जब
कभी एक कोने से
पकड़ कर आग्रह
करने लगते हैं,
तभी हमारा
आग्रह झूठ हो
जाता है।
परसों
कोई पूछ रहा
था अनेकांत के
लिए, तो इस
संदर्भ में वह
खयाल में ले
लेना जरूरी
है। महावीर कहते
हैं इस आग्रह
को एकांत, कि
जीवन के एक
पहलू को पकड़
कर कोई इस तरह
दावा करे कि
पूरी जिंदगी
है! तो वह कहते
हैं, यह है
एकांत, यह
है एकांतवादी।
इसने एक कोना
देखा है और एक
ही कोने को
देख कर पूरी
जिंदगी के
मामले में निष्कर्ष
निकाल लिए!
इसने सब कोने
अभी नहीं देखे।
और महावीर
कहते हैं, सब
कोने अगर यह
देख लेगा तो
यह दावा छोड़
देगा। क्योंकि
इसे ऐसे कोने
मिलेंगे, जो
ठीक इससे
विपरीत हैं और
इतने ही सही
हैं, जितना
यह सही है! और
तब यह दावा
नहीं करेगा।
महावीर
बड़े अदभुत
हैं। वे कहते
हैं, सत्याग्रह
भी गलत है, सत्य
का आग्रह भी
गलत है, क्योंकि
वह भी एकांत
है। क्योंकि
सत्य के अनेक
पहलू हैं। और
सत्य इतनी बड़ी
बात है कि ठीक
एक सत्य से
विपरीत सत्य
भी सही मिल
सकता है, और
दोनों एक साथ
सही हो सकते
हैं!
इसलिए
महावीर कहते
हैं कि मैं अनेकांतवादी
हूं। अनेकांतवादी
का मतलब यह
होता है कि जो
सब एकांतों
का स्वीकार
करता है और सब एकांतों
का एकांत की
तरह अस्वीकार
करता है। जो
एक आदमी आकर
महावीर को
कहता है, आत्मा
शाश्वत है कि
अशाश्वत? तो
महावीर
कहेंगे, शाश्वत
भी, अशाश्वत
भी! वह आदमी
कहेगा, यह
दोनों कैसे हो
सकते हैं? तो
महावीर
कहेंगे, किस
कोने से खड़े
होकर तुम
देखते हो। अगर
तुम शरीर को
ही आत्मा
समझते हो, जैसा
कि नास्तिक
समझता है, तो
अशाश्वत है।
अगर तुम आत्मा
को शरीर से
भिन्न समझते
हो, परिवर्तन
से भिन्न
समझते हो, जैसा
कि आत्मवादी
समझता है, तो
आत्मा शाश्वत
है। और मैं
कोई एक
वक्तव्य न
दूंगा, क्योंकि
एक वक्तव्य
एकांत होगा।
अनेकांत
का अर्थ है कि
जीवन के सब
पहलुओं को एक
साथ
स्वीकृति।
वह हम
सब कहानी
जानते हैं कि
एक हाथी के
पास पांच अंधे
खड़े हो गए
हैं। और जिसने
पैर छुआ है, उसने कहा कि
हाथी खंभे की
तरह है, केले
के वृक्ष की
तरह है! जिसने
कान देखे हैं,
उसने कहा कि
हाथी! तुम
पागल हो गए हो!
हाथी मैंने
देखा है, छुआ
है, जाना
है, हाथी गेहूं साफ
करने वाले सूप
की तरह है! और
उन सबने
अपने-अपने
दावे किए हैं।
और उनके कोई
भी दावे गलत
नहीं हैं। और
उनके सब दावे
गलत हैं।
क्योंकि हाथी
न तो खंभे की
तरह है, न
सूप की तरह है!
और हाथी में
कुछ है जो सूप
की तरह है और
कुछ है जो
खंभे की तरह
है!
महावीर
कहते हैं कि
अगर कोई आदमी
दीया जला कर
वहां पहुंच
जाए और उन
पांच अंधों को
विवाद करते
देखे तो वह
आदमी जिसने
दीया जला लिया
है, वह क्या
करे? वह
किसका साथ दे?
वह किस वादी
के साथ हो जाए--सूपवादी
के साथ कि खंभवादी
के साथ? वह
किस इज्म के
साथ हो जाए
जिसने दीया
जला लिया?
वह प्रत्येक
अंधे से कहेगा
कि तुम ठीक
कहते हो, लेकिन
पूरा ठीक नहीं
कहते हो। और
वह प्रत्येक अंधे
से कहेगा कि
तुम्हारा तुम
जिसे विरोधी समझ
रहे हो वह भी
तुम्हारा
विरोधी नहीं
है, वह भी
हाथी के एक
अंग के बाबत
बात कर रहा है,
तुम भी एक
अंग के बाबत
बात कर रहे
हो। और पूरा
हाथी, तुम
जो कहते हो उन
सबका जोड़ और
उससे ज्यादा
भी है, सिर्फ
जोड़ ही नहीं
है। क्योंकि
एक अंधे का
अनुभव खंभे का
और एक अंधे का
अनुभव सूप का।
अगर इन पांचों
अंधों के
अनुभव को भी
हम जोड़ लें तो
भी असली हाथी
नहीं बनेगा।
वह असली हाथी
इन सबके अनुभव
से ज्यादा भी
है। क्योंकि
कुछ तो ऐसा है,
जो हाथी ही
अनुभव कर सकता
है कि वह क्या
है, जिसको
न अंधा अनुभव
कर सकता, और
न दीया जलाने
वाला अनुभव कर
सकता है।
यानी
पूरी तरह देख
लो हाथी को, तो भी हाथी
हाथी कैसा
अनुभव करता है,
यह हम कभी
अनुभव नहीं कर
सकते। वह भी
एक अनुभव है।
और हो सकता है
हाथी का वह
अनुभव, अगर
हाथी कभी कह
सके, तो न
तो पांच अंधों
से मेल खाए और
न दीया जलाने वाले
से मेल खाए, हाथी को जो
अनुभव होता
हो।
तो
महावीर यह
कहते हैं कि
अनुभव के अनंत
कोण हैं। और
प्रत्येक कोण
पर खड़ा हुआ
आदमी सही है। बस, भूल यहां हो
जाती है कि वह अपने
कोण को
सर्वग्राही
बनाना चाहता
है, आल कांप्रिहेंसिव
कर लेता है।
वह कहता है, यहां जो
मैंने जाना, वही सब ठीक
है। और हम
जल्दी करते
हैं इस बात की।
इसकी जल्दी
होती है हमारे
मन में।
क्योंकि हमें
ऐसा लगता है
कि अगर हमने
एक ही कोना
जान लिया और
पूरी तरह से
जान लिया तो
हम सोचते हैं
कि बस जानना
पूरा हो गया! अब
हमने पूरा जान
लिया।
यहां
समझ लें, यह
बिजली का बल्ब
जला हुआ है।
इस बिजली के
बल्ब को
बुझाना हो तो
एक आदमी डंडे
से बल्ब को
चोट कर दे, बल्ब
बुझ जाएगा।
दूसरा आदमी
कैंची लाए और
वायर को काट
दे, बल्ब
बुझ जाएगा।
तीसरा आदमी
बटन दबा दे, बल्ब बुझ
जाएगा। और
प्रत्येक
आदमी जाकर यह
कह सकता
है...जिस आदमी
ने कैंची से
वायर काटा, वह कह सकता
है कि बिजली
वायर थी, काटी
कि गई। जिस
आदमी ने बल्ब फोड़ दिया, वह कह सकता
है कि बिजली
बल्ब थी, फोड़ी कि
गई। तीसरा
आदमी कहता है,
बटन बिजली
थी, दबाई
कि खतम हुआ।
और यह भी हो
सकता है कि
बटन भी न दबे, बल्ब भी न
फूटे, तार
भी कायम रहे
और बिजली खो
जाए। किसी ने
यह भी देखा हो,
तो वह कहे
कि इस सबमें
कोई भी बिजली
नहीं है। क्योंकि
ये सब बरकरार
थे और मैंने
देखा कि एक दिन
बिजली नहीं
थी। ये चारों
आदमी
अपनी-अपनी दृष्टि
से बिलकुल ही
ठीक कहते हैं।
और प्रत्येक
की दृष्टि ऐसी
लगती है कि
दूसरे की
दृष्टि के
विरोध में है!
लेकिन
महावीर यह
कहते हैं कि
विरोधी
दृष्टि ही
नहीं है, अनेकांत
का मतलब यह
है। महावीर यह
कहते हैं कि
विरोधी
दृष्टि ही
नहीं है, सब
कांप्लीमेंटरी
विजंस
हैं। यह बड़ी
अदभुत बात है।
वे यह कहते
हैं कि विरोधी
जैसी कोई चीज
ही नहीं है, कंट्राडिक्टरी
कोई है ही
नहीं, सब कांप्लीमेंटरी
व्यूज
हैं! और सब
एक-दूसरे के
परिपूरक हैं
और सब एक ही सत्य
के कोने हैं!
यह बात
कभी किसी आदमी
ने नहीं कही
थी। विरोधी दृष्टि
ही नहीं है! जो
हमें विरोधी
दिखाई पड़ रही
है, वह सिर्फ
हमारी सीमित
दृष्टि के
कारण विरोधी दिखाई
पड़ रही है! अगर
हम पूरे को
देख सकें तो
वह विरोधी
नहीं रह जाने
वाली है, वह
भी एक सहयोगी
दृष्टि है, कांप्लीमेंटरी है। पूरे
सत्य को वह भी
घेरती है।
और फिर
भी महावीर
कहते हैं कि
सब दृष्टियां
हम जोड़ लें, तब भी सत्य
पूरा नहीं हो
जाता; क्योंकि
और दृष्टियां
हो सकती हैं, जो हमारे
खयाल में ही न
हों। तो इसलिए
अनेक की संभावना
रखते हैं वे, एक का आग्रह
नहीं करते। और
उस युग में
उनके कम से कम
प्रभाव पड़ने
का कारण यही
था।
बुद्ध
की एक दृष्टि
है, उनकी
दृष्टि पक्की
है। वे अपनी
दृष्टि पर बिलकुल
सख्ती से खड़े
हैं। उस
दृष्टि में वह
इंच मात्र
यहां-वहां
नहीं हिलते।
और जब कोई
आदमी सख्ती से
एक दृष्टि पर
बात करता है
तो लोगों को अपील
भी होती है, क्योंकि
लगता है कि वह
आदमी कुछ
जानता है, ढीला-ढाला
नहीं है दिमाग
उसका, हर
किसी बात में
हां नहीं कह
देता, हर
किसी बात में
न नहीं कह
देता; बहुत
साफ विजन है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, साफ
विजन जिसको हम
कहते हैं, वह
एकांतवादी
होता है!
क्योंकि वह
बिलकुल एक बात
पक्की कह देता
है कि बिलकुल
सूप जैसा है
हाथी, इसमें
रत्ती भर गुंजाइश
नहीं शक की।
और जो इससे
अन्यथा कहता
है, वह
पागल है, नासमझ
है, अज्ञानी
है, मूढ़ है; वह
साफ कह देता
है। और वह
बिलकुल पक्का
है। उसने हाथी
को सूप की तरह
जाना है और
बात खतम हो गई है।
लेकिन
एक आदमी है, जो कहता है, हां, हाथी
सूप की तरह भी
है; हां, हाथी सूप की
तरह नहीं भी
है! हां, हाथी
खंभे की तरह
भी है, हाथी
खंभे की तरह
नहीं भी है! जो
सब दृष्टियों में
कहता है कि
हां, ऐसा
भी है; हां,
ऐसा नहीं भी
है!
मेरे
पिता हैं, मुझे निरंतर
बचपन में उनसे
बहुत परेशानी
रही। मेरी समझ
के ही बाहर
था। मेरे घर
में सब तरह के
लोग थे।
नास्तिक भी थे
घर में मौजूद,
कोई
कम्युनिस्ट
भी था, कोई
सोशलिस्ट था,
कोई कांग्रेसी
था। बड़ा
परिवार, उसमें
सब तरह के लोग
थे। घर पूरी
की पूरी एक जमात
थी, जिसमें
सब तरह के लोग
थे! और
अपनी-अपनी
दृष्टि पर बड़े
पक्के लोग थे।
और जिसे ठीक
समझते थे, उसको
ठीक ही समझते थे;
जिसको गलत
समझते थे, उसको
गलत ही समझते
थे! इसमें कोई
समझौते का उपाय
भी न था!
और मैं
बड़ा हैरान था
कि मेरे पिता
को अगर जाकर कोई
कहे कि ईश्वर
नहीं है, तो
वह कहेंगे कि
ठीक कहते हो!
और कोई कहे
ईश्वर है, तो
वह कहेंगे कि
ठीक कहते हो!
यह मैंने बहुत
बार सुना उनके
मुंह से, सब
तरह की बात
में स्वीकृति
देखी, तो
मैंने उनसे
पूछा कि यह
बात क्या है? आप सब बातों
को स्वीकार कर
लेते हो, यह
तो बड़ी
मुश्किल बात
है! या तो हम सब
नासमझ हैं कि
हमारी किसी
बात पर आपको
कोई, इस
योग्य ही नहीं
है कि आप उसको
इनकार
करें--सब ठीक
कैसे हो सकते
हैं?
उन्होंने
कहा कि सत्य
बहुत बड़ा है।
इतना बड़ा है
कि वह सबको
समा लेता है।
उसमें आस्तिक
भी समा जाता
है और नास्तिक
भी। और सत्य
अगर इतना छोटा
है कि उसमें
सिर्फ आस्तिक
समाता है, तो ऐसे सत्य
की कोई जरूरत
नहीं है, बहुत
छोटा है, अत्यंत
संकीर्ण है।
और सत्य संकीर्ण
कैसे हो सकता
है? सत्य
होगा विराट, उसमें सब
समा जाएंगे, इसलिए सबके
लिए हां कहा
जा सकता है।
और कोई
चाहे तो सबके
लिए न भी कह
सकता है! न
इसलिए कह सकता
है कि कोई भी
सत्य पूरे को
नहीं घेरेगा
और हां इसलिए
कह सकता है कि
कोई भी सत्य
पूरे सत्य का
हिस्सा होगा।
और
इसलिए जो
जानता है, वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएगा कि
वह क्या कहे! हां
कहे कि न कहे? या दोनों
कहे? या
चुप रह जाए?
तो
महावीर की जो
स्थिति है, वह ऐसी लगी
है उस समय
लोगों को कि
जैसे कन्फ्यूज्ड
है, महावीर
साफ नहीं
मालूम
पड़ते--हर किसी
बात में हां
कहते हैं, हर
किसी में न
कहते हैं!
इसका मतलब है
या तो इन्हें पता
नहीं, या
पता है तो
साफ-साफ पता
नहीं। या
साफ-साफ पता है
तो पता नहीं
ये लोगों के
साथ क्या करना
चाहते हैं, किस तरह की
बातें कहते
हैं! इसलिए
महावीर का विचार
सार्वलौकिक
नहीं बन पाया,
सारे जगत
में प्रचारित
नहीं हो सका।
आज जब
जीसस, मोहम्मद,
कृष्ण, बुद्ध
का या
कन्फ्यूशियस
का नाम लिया
जाता है तो
अक्सर ही साथ
में महावीर का
नाम नहीं लिया
जाता है!
महावीर का नाम
छोड़ दिया जाता
है! महावीर
कोई
अंतर्राष्ट्रीय
नाम नहीं है
अभी भी! करोड़ों
लोग मिल
जाएंगे
पृथ्वी पर, जो महावीर
के नाम को कभी
भी नहीं सुने
हैं!
यह बड़ी
हैरानी की बात
है। इतना
अदभुत
व्यक्ति, इतने
कम लोगों तक
उसकी खबर
पहुंची हो, कुछ गहरा
कारण है। और
वह गहरा कारण
यह कि महावीर
वादी नहीं
हैं। और जो
वादी नहीं है,
उसकी बात
हमारी समझ में
आना बहुत
मुश्किल हो जाएगी।
वह सुबह कुछ, सांझ कुछ, दोपहर कुछ
मालूम पड़ेगा।
उसका हर
वक्तव्य दूसरे
वक्तव्य का
विरोधी मालूम
पड़ेगा! वह
सेल्फ-कंट्राडिक्शन
से भरा हुआ
मालूम पड़ेगा
कि कभी यह
आदमी यह कह देता
है, कभी यह
कह देता है! हम कंसिस्टेंट
आदमी चाहते
हैं। हम चाहते
हैं सुसंगत; जो बात कहे, फिर वही
कहता रहे।
टाल्सटाय
ने कहीं कहा
है कि जब मैं
जवान था तो
मैं सोचता था
कि कंसिस्टेंट
विचारक ही
असली विचारक
है, जो
बिलकुल
सुसंगत बात
कहता है। एक
चीज कहता है
तो उसके विरोध
में कभी दूसरी
बात नहीं
कहता। लेकिन
अब जब मैं
बूढ़ा हो गया
हूं तो मैं
जानता हूं कि
जो सुसंगत है,
उसने विचार
ही नहीं किया।
क्योंकि
जिंदगी सारे कंट्राडिक्शंस
से भरी है। जो
विचार करेगा,
उसके विचार
में भी कंट्राडिक्शंस
आ जाएंगे--आ ही
जाएंगे। वह
ऐसा सत्य नहीं
कह सकता, जो
एकांगी, पूर्ण
और दावेदार
हो। उसके
प्रत्येक
सत्य की घोषणा
में भी झिझक
होगी। लेकिन
झिझक उसके
अज्ञान की
सूचक बन जाएगी,
जब कि झिझक
उसके ज्ञान की
सूचक है!
अज्ञानी
जितनी
तीव्रता से
दावा करता है, उतना ज्ञानी
के लिए करना
बहुत मुश्किल
है। असल में
अज्ञान सदा
दावा करता है,
दावा कर
सकता है।
क्योंकि समझ
इतनी कम है, देखा इतना
कम है, जाना
इतना कम है, पहचाना इतना
कम है कि उस कम
में वह
व्यवस्था बना
सकता है।
लेकिन जिसने
सारा जाना और
जिंदगी के सब
रूप देखे, उसे
व्यवस्था
बनानी
मुश्किल हो
जाती है।
महावीर
के अनेकांत का
यही अर्थ है
कि कोई दृष्टि
पूरी नहीं है, कोई दृष्टि
विरोधी नहीं
है, सब
दृष्टियां
सहयोगी हैं और
सब दृष्टियां
किसी बड़े सत्य
में समाहित हो
जाती हैं। और
जो बड़े सत्य
को जानता है, जो विराट
सत्य को जानता
है--न वह किसी
के पक्ष में
होगा, न वह
किसी के
विपक्ष में
होगा। ऐसा
व्यक्ति ही
निष्पक्ष हो
सकता है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि सिर्फ
अनेकांत की
जिसकी दृष्टि
हो वही
निष्पक्ष हो
सकता है। और
इसलिए मैं
कहता हूं कि
जैनी अनेकांत
की दृष्टि
वाले लोग नहीं
हैं। क्योंकि
वे पक्षधर हैं, उनका पक्ष
है, उनकी प्रिज्युडिस
है। वे कहते
हैं, हम
महावीर के
पक्ष में हैं!
और
महावीर का कोई
पक्ष नहीं हो
सकता।
क्योंकि अनेकांत
जिसकी दृष्टि
है, उसका
पक्ष कहां? सब पक्ष
उसके हैं, कोई
पक्ष उसका
नहीं है। सब
पक्षों में
अनुस्यूत
सत्य उसका है,
लेकिन किसी
पक्ष का दावा
उसका नहीं है।
तो महावीर का
पक्ष कैसे हो
सकता है?
महावीर
को दोहरे
नुकसान
पहुंचे। पहला
नुकसान तो यह
पहुंचा कि
बहुजन तक उनकी
बात नहीं पहुंच
सकी। दूसरा
नुकसान यह
पहुंचा कि जिन
तक उनकी बात
पहुंची, वे
पक्षधर हो गए!
तो कुछ मित्र
न बन पाए, और
जो मित्र बने,
वे शत्रु
सिद्ध हुए! यह
इतनी दुर्घटनापूर्ण
बात है कि एक
तो मित्र न बन
पाए बहुत, क्योंकि
बात ऐसी थी कि
इतने मित्र
खोजने मुश्किल
थे। जो मित्र
बने, वे
शत्रु सिद्ध
हुए, क्योंकि
वे पक्षधर हो
गए! और महावीर
पक्षधरता के
विपरीत हैं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
अनेकांत को भी
उनके अनुयायियों
ने
अनेकांतवाद
नाम दे दिया!
अनेकांत
का मतलब है, वाद का
विरोध।
अनेकांत
का मतलब है, वाद नहीं।
क्योंकि
वाद हमेशा
पक्ष होगा, दृष्टि होगी,
नय होगा, एक दावा
होगा। वाद का
मतलब ही होता
है दावा। अनेकांत
को वाद जोड़
देना, फिर
दावा शुरू हो
गया। यानी फिर
अनेकांत के पीछे
चलने वाले
लोगों ने एक
नया दावा
बनाया, और
जब कि वह दावे
का विरोध था!
इसी
खयाल में यह
भी समझ लेना
चाहिए कि
महावीर शायद हजार, दो हजार
वर्ष बाद पुनः
प्रभावी हो
सकें, उनका
विचार फिर
बहुत लोगों के
काम में आ
सके। क्योंकि
जैसे-जैसे
दुनिया आगे बढ़
रही है, एक
बहुत अदभुत
घटना घट रही
है। वह यह है
कि वादी चित्त
नष्ट हो रहा
है, वादी
चित्त रोज-रोज
नष्ट हो रहा
है। पक्षधर रोज-रोज
बेमानी होता
जा रहा है। और
जितनी
बुद्धिमत्ता
और विवेक बढ़
रहा है, उतना
आदमी
निष्पक्ष
होता चला जा
रहा है!
संप्रदाय
जाएगा, वाद
जाएगा--आज
नहीं कल, ज्यादा
दिन टिकने
वाला नहीं है।
जिस दिन वाद चला
जाएगा, उस
दिन हो सकता
है कि आज जो
नाम बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ते
हैं, वे कम
महत्वपूर्ण
हो जाएं; और
जो नाम आज तक
एकदम ही
गैर-महत्व का
मालूम पड़ा है,
वह एकदम
पुनः महत्व
स्थापित कर
सकता है।
लेकिन
जैन अगर
महावीर के
पीछे पड़े रहे
तो महावीर के
विचार की
क्रांति सब
लोगों तक कभी
भी नहीं पहुंच
सकती है। यानी
महावीर के
आस-पास जो पक्षधर
लोग इकट्ठे हो
गए हैं, उन्होंने
महावीर की
गर्दन घोंट दी
है।
प्रश्न:
आंतरिक
जीवन में
असुरक्षा का
भाव काफी कठिन
है, लेकिन वह
कर सकेंगे।
व्यावहारिक
जीवन में या बाह्य
जीवन में वह
असुरक्षा का
भाव कैसे प्रयोग
किया जा सकता
है? जैसे
कि बिजनेस है
या तो सर्विस
है, या तो जो
बाह्य जीवन है,
इसमें
असुरक्षा का
भाव कैसे
प्रयोग कर
सकते हैं?
समझा
मैं। असल में
सवाल बाहर और
भीतर का नहीं
है, सवाल इस
बात का है, इस
सत्य को जानने
का कि हम
असुरक्षित
हैं। आपको कोई
असुरक्षा का
भाव भी नहीं
करना है, यह
तथ्य है, यह
सिर्फ एक
फैक्ट है कि
हम असुरक्षित
हैं। क्या
सुरक्षित
है--बाहर या
भीतर, या
कहीं भी?
संबंध
सुरक्षित हैं?
नहीं
हैं
सुरक्षित। कल
जो अपना था, वह आज भी
अपना होगा, यह पक्का है?
जो आज अपना
है, वह कल
सुबह अपना
होगा, यह
पक्का है? कुछ
भी पक्का नहीं
है।
सम्मान
सुरक्षित है?
जरा भी
सुरक्षित नहीं
है। कल जिसके
पीछे भीड़ थी, आज वह आदमी
जिंदा है या
मर गया, इसका
भी कोई पता
नहीं चलता।
कौन सी चीज
सुरक्षित है?
धन
सुरक्षित है?
असुरक्षा
भाव नहीं है, असुरक्षा इस
सत्य का बोध
है कि जीवन
असुरक्षित
है। जैसा जीवन
है, वह
असुरक्षित
है। न जन्म का
भरोसा, न
जवानी का
भरोसा, न
शरीर का भरोसा,
किसी भी चीज
का कोई भरोसा
नहीं है।
इस
सत्य का बोध
और इस सत्य के
बोध के साथ
जीना--भीतर, बाहर, दोनों
तलों पर।
मैं यह
नहीं कहता हूं
कि एक आदमी
मकान न बनाए। मैं
यह कहता हूं
कि मकान बनाते
वक्त भी जाने
कि असुरक्षा
खतम नहीं होती, असुरक्षा
अपनी जगह खड़ी
है; मकान
रहे तो, मकान
न रहे तो।
ज्यादा से
ज्यादा जो
फर्क पड़ता है,
वह इतना कि
जिसके पास
मकान नहीं है
उसे असुरक्षा
प्रतीत होती
है और जिसके
पास मकान है
उसे प्रतीत
नहीं होती, लेकिन वह
खड़ी अपनी जगह
है, उसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ गया।
गरीब
भी असुरक्षित
है, अमीर भी,
लेकिन अमीर
को सुरक्षा का
भ्रम पैदा
होता है! तो यह
मैं नहीं कहता
हूं, यह
मैं नहीं कहता
हूं कि परिवार
न बसाएं, कि विवाह न
करें, कि
मित्र न बनाएं,
यह मैं नहीं
कहता हूं। यह
जानते हुए कि
सब असुरक्षित
है, और तब
आपकी
क्लिंगिंग
नहीं होगी, तब आप जी-जान
से नहीं पकड़
लेंगे, क्योंकि
आप जानते हैं
कि न पकड़ो या
पकड़ो, असुरक्षा
अपनी जगह खड़ी
है! तब धन भी
होगा तो आप धनी
नहीं हो
पाएंगे, क्योंकि
धनी होने का
कोई कारण नहीं
है। तब धन भी
होगा, आप
दरिद्र बने
रहेंगे, क्योंकि
आप जानते हैं
कि दरिद्रता
अपनी जगह खड़ी
है, वह धन
से नहीं मिट
जाती। तब
कितना ही
अच्छा स्वास्थ्य
होगा तो भी
मौत भूल नहीं
जाएगी, क्योंकि
आप जानेंगे, अच्छे और
बुरे
स्वास्थ्य का
सवाल नहीं
है--मौत है, वह
खड़ी है। वह
बीमार के लिए
भी खड़ी है, स्वस्थ
के लिए भी खड़ी
है।
असुरक्षा
का बोध, अवेयरनेस
ऑफ इनसिक्योरिटी,
असुरक्षा
की भावना
नहीं। यानी
आपको करनी
नहीं है, यह
करने का सवाल
ही नहीं है।
मजा तो यह है, हम सुरक्षा
की भावना
कर-कर के
असुरक्षा के
बोध को मिटाते
हैं और
असुरक्षा
सत्य है!
अभी भावनगर
में था तो एक
चित्रकार को
मेरे पास लाए।
वह कई वर्ष
अमरीका रह कर
लौटा और बड़ी प्रतिभा
का युवक है।
लेकिन परेशान
हो गए हैं मां-बाप, पत्नी
परेशान है! वे
सब मेरे पास
आए--पत्नी, मां-बाप।
बूढ़े हैं और
एक ही लड़का है
और उसी पर सब
लगा दिया है!
और अब बड़ी
मुश्किल हो गई
है! उन्होंने
मुझे आकर कहा
कि हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए हैं, हमारा
लड़का बिलकुल ही
व्यर्थ की असुरक्षाओं
से परेशान है,
व्यर्थ के
भय इसे पीड़ित
किए हुए हैं, जो कभी नहीं
होना, उसके
साथ यह मरा जा
रहा है!
क्या
हुआ है?
कहा कि
यह लड़का अगर
बाहर जाए, किसी को
अंधा देख ले, तो एकदम घर
लौट आता है, बिस्तर पर
लेट जाता है, कंपने लगता
है। और कहता
है, कहीं
मैं अंधा तो
नहीं हो जाऊंगा!
अब बताइए, उसकी
मां और पिता
मुझे कहने लगे,
यह क्या
पागलपन है? कोई मर जाए
पड़ोस में तो
उसकी हमें
फिक्र नहीं होती,
जितनी हमें
इसकी फिक्र
होती है कि
इसको पता न चल
जाए। क्योंकि
इसे पता चला
कि यह दो-चार
दिन के लिए
बिलकुल ठंडा
हो जाता है और
कहता है कि
मैं मर तो
नहीं जाऊंगा!
हम
समझा-समझा कर
परेशान हो गए, उन्होंने
मुझे कहा।
अमरीका में
उसका मनोविश्लेषण
भी करवाया, उससे भी कुछ
हित नहीं हुआ।
हिंदुस्तान
के भी कुछ
डाक्टरों को
दिखा चुके हैं,
उससे कुछ
फायदा नहीं
हुआ। जिसके
पास भी ले जाते
हैं वह कहता
है, ये
फिजूल के भय
हैं। अभी तुम
पूरे जवान हो,
कहां मर
जाओगे? तुम्हारी
आंखें बिलकुल
ठीक हैं। हम
परीक्षाएं
करवा देते हैं
आंख की, आंख
तुम्हारी
बिलकुल ठीक
है।
वह यह
कहता, यह सब
तो ठीक है; लेकिन
क्या यह पक्का
है कि आंख ठीक
हो तो अंधा नहीं
हो सकता आदमी?
क्या यह
बिलकुल पक्का
है कि आदमी
जवान हो तो नहीं
मरता? वह
यह कहता, यह
हम सब समझ
जाते हैं; लेकिन
फिर भी भय पकड़ता
है। एक आदमी लंगड़ा हो
गया है तो
मुझे डर लगता
है, मैं लंगड़ा
तो नहीं हो जाऊंगा?
और वह
युवक मेरे पास
बैठा है, वह
इतना डरा हुआ
है! मैंने
उसके पिता को,
उसकी मां को
और उसकी पत्नी
को कहा कि तुम
सरासर झूठी
बातें इस युवक
को सिखा रहे
हो, एकदम
झूठी। वह युवक
बिलकुल ठीक कह
रहा है।
मैंने
इतना कहा कि
वह युवक जो
सिर झुकाए, रीढ़ नीची
किए बैठा था, उसकी रीढ़
ऊंची हो गई, उसने सिर
ऊंचा किया!
उसने मुझे गौर
से देखा। उसने
कहा, क्या
कहते हैं आप, मैं ठीक
कहता हूं? मैंने
कहा, तुम
ठीक कहते हो।
आंख का कोई
भरोसा नहीं, जिंदगी का
भी कोई भरोसा
नहीं। और
तुम्हारे मां-बाप
सरासर झूठ बोल
कर तुममें एक
भ्रम पैदा करवाना
चाहते हैं। जब
कि सच तुम्हीं
कहते हो और ये
बिलकुल झूठ
कहते हैं। तुम
बिलकुल ठीक
कहते हो।
लेकिन
मैंने कहा कि
तुम इससे
भागना क्यों
चाहते हो? भाग कहां
सकते हो? क्या
तुम मरने से
बच सकते हो? कोई रास्ता
है बचने का? उसने कहा कि
कैसे बच सकता
हूं? तो
फिर मैंने कहा,
फिर मृत्यु
की स्थिति है,
इसको
स्वीकार कर
लेना चाहिए।
जिससे बच ही
नहीं सकते, वह है, तो
फिर इसमें
चिंता की क्या
बात है?
तो
उसने कहा, नहीं ऐसी
चिंता की बात
नहीं मालूम
होती, लेकिन
ये सब मुझे
समझाते हैं कि
नहीं, यह
बात ही झूठ है,
तो मैं
द्वंद्व में
पड़ जाता हूं।
उधर तो मुझे लगता
है कि मौत
होगी और ये
लोग कहते हैं
कि नहीं, नहीं
होगी; तो
मैं द्वंद्व
में पड़ जाता
हूं, मैं
परेशानी
में...। आप कहते
हैं, मौत
होगी?
मैंने
कहा, वह
बिलकुल पक्का
है। कल सुबह
भी पक्का नहीं
कि तुम जिंदा
उठोगे। इसलिए
आज की रात
मिली है, ठीक
से सो जाओ, कल
सुबह का कोई
भरोसा नहीं।
मैंने
उससे पूछा कि
तुम्हें आंख
जाने का डर
क्या है?
तो
उसने कहा, फिर मैं
पेंट कैसे कर
पाऊंगा? अगर
मेरी आंख चली
गई तो मैं
पेंट कैसे
करूंगा?
तो
मैंने कहा, जब तक आंख है,
तब तक तुम
पेंट कर लो, क्योंकि आंख
का कोई भरोसा
नहीं, कल न
भी हो। तो जब
तुम्हारी आंख
नहीं होगी, तब तुम पेंट
नहीं कर
सकोगे। अभी तुम्हारी
आंख है तो तुम
उससे पेंट
नहीं कर रहे हो,
और आंख नहीं
होगी इस चिंता
में नष्ट किए
दे रहे हो! वह
तो है पक्का, आंख खतम हो
सकती है। अगर
यह पक्का है
तो तुम शीघ्रता
से पेंट करो, क्योंकि आंख
खो जाएगी। और
दुनिया में
कोई तुम्हें
भरोसा नहीं
दिलवा सकता।
मैं तुम्हें
कोई भरोसा
नहीं
दिलवाता।
मां-बाप
लाए थे मेरे
पास इसलिए कि
मैं उसे आश्वासन
दे दूं। वे तो
बहुत घबड़ा गए
कि आप यह क्या कह
रहे हैं? हम
तो और मुश्किल
में पड़
जाएंगे।
मैंने कहा, मुश्किल में
आप नहीं
पड़ेंगे।
वह
युवक दूसरे
दिन सुबह मेरे
पास आया, उसने
कहा, चार साल
बाद मैं पहली
दफा सो पाया!
क्योंकि जब
मैंने कहा ऐसा
है, और ऐसा
हो सकता है, तो अब क्या
सवाल है? अब
ठीक है, बात
खतम हो गई।
संघर्ष
कहां है? अगर
मौत है और
उसकी
स्वीकृति है
तो संघर्ष कहां
है? नहीं, मौत है और
स्वीकृति
नहीं है! तो हम
मौत नहीं है ऐसे
भाव पैदा करते
रहते हैं! और
इस तरह की
व्यवस्था
करते हैं कि
पता ही न चले
कि मौत है।
मरघट गांव के
बाहर बनाते
हैं इसीलिए कि
ऐसा पता न चले
कि मौत जिंदगी
का कोई हिस्सा
है--जिंदगी के
बाहर! गांव
में किसी को
पता ही नहीं
चलता कि कोई
मरता है!
मरघट
होना चाहिए
गांव के ठीक
बीच में, जहां
से दिन में दस
दफे निकलना
पड़े आदमी को, और दस दफे
खबर आए कि मौत
खड़ी है। उसको
बनाते हैं
गांव के बाहर,
ताकि किसी
को पता ही न
चले कि मौत है!
हां, जब
कोई मर जाए तो
उसको भेज आते
हैं, लेकिन
जिंदा आदमी को
बचाते हैं!
कोई मर
जाए, रास्ते
से अरथी
निकलती हो तो बच्चे
को मां भीतर
घर के बुला
लेती है, दरवाजा
बंद कर देती
है कि अरथी
निकलती है
बेटा, भीतर
आ जाओ! जब कि
मां में थोड़ी
समझ हो तो सब
बच्चों को
बाहर ले आना
चाहिए कि बेटा,
अरथी
निकलती है
इसको ठीक से
देख लो। कल
मैं मरूंगी, परसों तुम
मरोगे। यह
जीवन का सत्य
है, इससे
भागने का, बचने
का कोई उपाय
नहीं है।
असुरक्षा
के बोध का यह
मतलब है, उसकी
हमें पूरी
कांशसनेस
होनी चाहिए, वह अचेतन
में दबा न रह
जाए, चेतन,
हमें खयाल
में हो। तो
हमारी जिंदगी
बिलकुल दूसरी
होगी। कुछ
जो-जो चल रहा
है, उसमें
कुछ फर्क नहीं
हो जाएगा, लेकिन
आप बिलकुल बदल
जाएंगे।
आप
बिलकुल बदल
जाएंगे। आपकी
पकड़ बदल जाएगी, आसक्ति बदल
जाएगी, राग
बदल जाएगा, द्वेष बदल
जाएगा। आप
आदमी दूसरे हो
जाएंगे, क्योंकि
क्या राग करना,
क्या द्वेष
करना! अगर
जिंदगी इतनी
असुरक्षित है
तो यह सब
पागलपन का
क्या अर्थ है?
क्योंर् ईष्या करनी!
क्या
आकांक्षा
करनी! क्या
महत्वाकांक्षा!
वह बोध आपकी
इन सारी चीजों
को मिटा
जाएगा। यानी
मेरा सारा जोर
इस बात पर है
कि अगर हम
जीवन के तथ्य
को देख लें तो
हम सत्य की
तरफ अपने आप
गति कर जाएंगे।
हम
क्या किए हैं
कि तथ्य तक को
झुठला दिया
है! सब तरफ से
लीप-पोत कर
ऐसा कर दिया
है कि वह तथ्य
ही नहीं रहा
है! और झूठ से
सत्य की
यात्रा नहीं
हो सकती। तथ्य
से सत्य तक जाया
जा सकता है, लेकिन तथ्य
को छिपा कर, बदल कर, तोड़-मरोड़ कर, परवर्ट करके
हम कभी सत्य
तक नहीं जा
सकते।
महावीर
भी उसी को
संन्यास कहते
हैं। लेकिन अब
जिसको हम
संन्यासी कहते
हैं, वह हमारा
बिलकुल उलटा
आदमी है।
संन्यासी हमारे
गृहस्थ से आज
ज्यादा
सुरक्षित है!
गृहस्थ का
दिवाला निकल
सकता है, संन्यासी
का कोई दिवाला
निकलने का
सवाल नहीं है!
गृहस्थ के ऊपर
हजार चिंताएं
और झंझटें
हैं।
संन्यासी के
ऊपर वे
चिंताएं और झंझटें भी
नहीं हैं!
संन्यासी
बिलकुल सिक्योर्ड
है।
अगर आज
संन्यासी को
हम देखें तो
आज उलटी बात दिखाई
पड़ती है, वह
यह कि
संन्यासी
ज्यादा
सुरक्षित है।
न बाजार के
भाव से कोई
चिंता है, न
किसी बात से
कोई चिंता है,
न कोई
दिक्कत है, न कोई
कठिनाई है!
खाने-पीने का
इंतजाम है, भक्त हैं, समाज है, मंदिर
है, स्थानक
है--सब इंतजाम
है, आश्रम
है--सब इंतजाम
है! संन्यासी
इस समय सबसे ज्यादा
सुरक्षित
हालत में है!
जब कि
संन्यासी का
मतलब यह है कि
जिसने सुरक्षा
का मोह छोड़
दिया, जो इस
बोध के प्रति
जाग गया कि सब
असुरक्षित है।
और जो अब
सुरक्षा के
खयाल में भी
नहीं रहा है।
अब जो जीने
लगा, असुरक्षा
में ही जीने
लगा! कल की बात
ही नहीं करता,
भविष्य का
विचार ही नहीं
करता, योजना
नहीं बनाता, बस
क्षण-क्षण जीए
चला जाता है।
जो होगा होगा,
वह उसके लिए
राजी है। मौत,
तो राजी है।
जीवन, तो
राजी है। दुख,
तो राजी है।
सुख, तो राजी
है।
ऐसी
चित्त दशा का
नाम रिननसिएशन
या संन्यास
है। और ऐसा
व्यक्ति अगृही
है। अगर बहुत
गहरे में
खोजने जाएं तो
सुरक्षा गृह
है, असुरक्षा
अगृह है।
सुरक्षा में
जीने वाला, सुरक्षा की
व्यवस्था
करने वाला
गृहस्थ है। सुरक्षा
में न जीने
वाला, असुरक्षा
की स्वीकृति
में जीने वाला
संन्यस्थ
है, अगृही है।
इसमें
एक प्रश्न
किसी ने पूछा
है कि महावीर
ने
संन्यासियों
से यह क्यों
कहा कि तुम गृहस्थों
की विनय मत
करना? उनको
तुम नमस्कार
मत करना, उनका
तुम आदर मत
करना, ऐसी
बात क्यों
महावीर ने कही?
इसे
संन्यासी और
गृहस्थ के बीच
बना लेने से
गलती हो जाती
है। असल में
अगर हम बहुत गौर
से देखें तो
जो असुरक्षित
व्यक्ति है, जो ऐसे जी
रहा है जैसे
हवा-पानी जीता
है। वह जो सुरक्षा
के भ्रम में
और सपने में
और नींद में खोया
है...यह ऐसा ही
है कि जैसे
कोई कहे कि
जागे हुए आदमी
को, कि तू
सोए हुए आदमी
को नमस्कार मत
करना! यह ऐसा
ही है, जैसे
कोई कहे जागे
हुए आदमी को
कि सोए हुए
आदमी को
नमस्कार मत
करना।
क्योंकि
बिलकुल बेकार है,
आदमी सोया
हुआ है। सोए
हुए को आदर मत
देना, क्योंकि
कहीं ऐसा न हो
कि आदर उसके
सोए हुए होने
को और बढ़ाए।
तो लगता तो
ऐसा है...।
लेकिन
महावीर के
पीछे आने वाले
साधुओं ने
इससे दूसरा ही
मतलब निकाला
है! उन्होंने
इसे बिलकुल
अहंकार की
प्रतिष्ठा
बना लिया है!
यानी वे कुछ
ऊंचे हैं, अहंकार में
प्रतिष्ठित
हैं, सम्मानित
हैं, पूज्य
हैं, दूसरे
को उनकी पूजा
करनी है!
लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि
महावीर ने यह
कहीं नहीं कहा
कि साधु
गृहस्थ से
पूजा ले। संन्यासी
गृहस्थ से
विनय मांगे, यह भी कहीं
नहीं कहा। कहा
इतना है कि
गृहस्थ को अगृही
विनय न दे।
क्योंकि
गृहस्थ से
मतलब ही इतना
है कि जो
अज्ञान में
घिरा हुआ खड़ा
है। इसके अज्ञान
को तोड़ना है
तो इसके
अहंकार की
तृप्ति को जगह-जगह
से गिराना
जरूरी है, इसके
अहंकार को
बढ़ाना उचित
नहीं है।
अहंकार
न बढ़ जाए गृही
का इसलिए
महावीर कहते
हैं, साधु उसे
विनय न करे।
लेकिन उन्हें
पता नहीं था
शायद कि उनका
साधु ही इसको
अहंकार का
पोषण बना लेगा
और साधु ही इस
अहंकार में
जीने लगेगा कि
उसे पूजा मिलनी
चाहिए और वह
अविनीत हो
जाएगा! और
महावीर को कल्पना
भी नहीं है कि
साधु अविनीत
हो सकता है, इसलिए वे
कहते हैं।
यानी बड़ी
कठिनाई जो है,
उनको
कल्पना ही
नहीं है कि
साधु और
अविनीत हो सकता
है!
साधुता
का तो मतलब ही
है: पूर्ण
विनम्रता में जीना, चौबीस घंटे।
यानी कोई न भी
हो पास में तो
भी विनम्रता
में ही जीना, वह तो
साधुता का
मतलब ही है।
क्योंकि
साधुता का
मतलब है
सरलता। और
सरलता
अविनम्र कैसे
होगी?
तो
महावीर को यह
कल्पना ही
नहीं है कि
साधु और अविनम्र
हो सकता है।
हां, गृहस्थ
अविनम्र हो
सकता है, क्योंकि
अहंकार में
जीता है, वही
उसका घर है, तो उसे विनय
मत देना।
लेकिन भूल हो
गई मालूम होता
है। भूल ऐसी
हो गई कि
उन्हें पता
नहीं कि साधु
भी एक प्रकार
का गृहस्थ हो
सकता है! इसका
कोई खयाल नहीं
है उन्हें कि
साधु भी बदला
हुआ गृहस्थ हो
सकता है।
सिर्फ कपड़े
बदल कर, वेश
बदल कर साधु
हो सकता है और
उसकी
चित्त-वृत्तियों
की सारी मांग
वही हो, जो
गृहस्थ की
होती है, उससे
भी ज्यादा हो।
पर इसकी कोई
कल्पना ही नहीं
थी।
असल
बात यह है कि
जिसे हम साधु
कह रहे हैं, वह साधु ही
नहीं है। यह
बड़े मजे की
बात है कि जिसे
हम गृहस्थ कह
रहे हैं, वह
तो गृहस्थ है;
जिसे हम
साधु कह रहे
हैं, वह
साधु नहीं है,
वह गृहस्थ
का ही दूसरा
रूप है! साधु
एकदम पृथ्वी
से विलीन हो
गया है। साधु
खोजना ही
मुश्किल है।
ऐसे तो लाखों
में संख्या है,
लेकिन साधु
खोजना
मुश्किल है।
जापान
के एक सम्राट
ने एक दफा
अपने वजीरों
को कहा कि तुम
जाकर पता लगाओ, अगर कहीं
कोई साधु हो
तो मैं उससे
मिलना चाहता
हूं। तो वजीरों
ने कहा, यह
बहुत मुश्किल
काम है।
सम्राट ने कहा,
मुश्किल? मैं तो रोज
सड़क से
भिक्षुओं को,
साधुओं को
निकलते देखता
हूं। उन वजीरों
ने कहा कि वह
सब ठीक है, वे
दिखने वाले
साधु हैं।
साधु ही चाहिए
न? बहुत कठिन
है, वर्षों
लग सकते हैं।
फिर भी हम खोज
करते हैं। उन्होंने
बहुत खोज-बीन
की। आखिर वे
खबर लाए कि एक
पहाड़ पर एक
बूढ़ा है। और
जल्दी करिए, क्योंकि वह
किसी भी क्षण
मर सकता है, अत्यंत बूढ़ा
है। आप जल्दी
चलिए। हम सब
खोज-बीन करके
लाए हैं--वह
आदमी है कि
साधु है।
सम्राट
गया तो वह
बूढ़ा वृक्ष से
दोनों पैर
फैलाए हुए
आराम से टिका
हुआ बैठा था।
सम्राट जाकर खड़ा
हो गया तो
उसने न तो
सम्राट को उठ
कर नमस्कार
किया, जैसा
कि सम्राट की
अपेक्षा थी!
क्योंकि
सम्राट आया है
तो कम से कम उठ
कर नमस्कार
करना चाहिए, न उसने पैर सिकोड़े, वह पैर
फैलाए ही बैठा
रहा! न उसने
इसकी कोई
फिक्र की कि
सम्राट आया है
तो कुछ हुआ है!
वह जैसा बैठा
था, बैठा
रहा!
सम्राट
ने कहा कि आप
जाग तो रहे
हैं न? नींद
में तो नहीं
हैं? मैं
सम्राट हूं।
खड़े होकर
नमस्कार करने
का शिष्टाचार
नहीं निभाते
हैं आप! पैर
फैला कर अशिष्ट
ग्रामीणों की
तरह बैठे हैं!
और मैं तो यह
सुन कर आया कि
मैं एक साधु
के पास जा रहा
हूं!
वह
बूढ़ा खूब
खिल-खिला कर
हंसने लगा। और
उसने कहा कि
कौन सम्राट और
कौन साधु! ये
सब नींद के हिस्से
हैं। उस बूढ़े
ने कहा, कौन
सम्राट, कौन
साधु! ये सब
नींद के
हिस्से हैं।
कौन किसको आदर
दे, कौन
किससे आदर ले?
ये सब नींद
के हिस्से
हैं। अगर साधु
के पास आना हो
तो सम्राट
होना छोड़ कर
आओ, क्योंकि
सम्राट और
साधु का मेल
कैसे होगा? बड़ा मुश्किल
हो जाएगा। तुम
कहीं पहाड़ पर
खड़े हो, हम
कहीं गङ्ढे
में विश्राम
कर रहे हैं।
मेल कहां होगा?
मुलाकात
कैसे होगी? साधु से
मिलना है तो
सम्राट होना
छोड़ कर आओ। और
रही पैर सिकोड़ने-फैलाने
की बात। अगर
शरीर पर ही
नजर है तो
यहां तक आने
की व्यर्थ
कोशिश क्यों
की? अगर इस
पर ही दृष्टि
अटकी है तो
नाहक तुम पहाड़
चढ़े, मेहनत
हुई, पसीना
बह गया। वापस
लौट जाओ।
बात
सुन कर सम्राट
को लगा कि
आदमी असाधारण
है। उसके पास
कुछ दिन रुका, उसके जीवन
को देखा, परखा,
पहचाना।
उसके जीने को
समझा। बहुत
आनंदित हुआ।
जाते वक्त एक
बहुमूल्य
मखमल का कोट, जिसमें
लाखों रुपए के
हीरे-जवाहरात
जड़े हैं--उसने
कहा कि मैं यह
कोट आपको भेंट
करना चाहता हूं।
तो उस
साधु ने कहा
कि तुम भेंट
करो और मैं न
लूं तो तुम
दुखी होओगे।
लेकिन तुम तो
भेंट करके चले
जाओगे, ये
जंगल के
पशु-पक्षी ही
यहां मेरे
जान-पहचान के
हैं, ये सब
मुझ पर बहुत
हंसेंगे कि
बुढ़ापे में भी
इसको बचपना सूझा? उस
फकीर ने कहा, बुढ़ापे में
इसको बचपना...!
ये सब हंसेंगे,
बहुत
हंसेंगे! ये
सब बंदर, ये
पक्षी, ये
सब बहुत हंसने
लगेंगे कि इस
बूढ़े को देखो,
क्या सूझा!
ये बंदर, ये
पक्षी, ये
कौए, ये
तोते, इनको
हीरे-जवाहरात
का कोई भी
मूल्य नहीं
है। तुम सोचते
हो कि करोड़ों
की चीज दिए जा
रहे हो, लेकिन
वे आंखें कहां,
जो इनको
करोड़ों का समझती
हैं? इधर
मैं निपट
अकेला हूं। ये
पशु-पक्षी
मेरे साथी हैं,
ये इनको कंकड़-पत्थर
समझेंगे और
मुझको पागल
समझेंगे। तुम
यह कोट ले
जाओ। किसी दिन
कोई बहुमूल्य
चीज तुम्हें
लगे तो ले आना,
जिसको यहां
भी समझा जा
सके। इस एकांत
पहाड़ पर, इन
सूने खड़े
वृक्षों के
नीचे, ये
पक्षी, यह
आकाश, ये चांदत्तारे
जिसे
बहुमूल्य समझ
सकें, किसी
दिन हो तो ले
आना।
वह
सम्राट वापस
लौटा। उसने
अपने वजीरों
से कहा कि
मुझे कुछ न
कुछ तो भेंट
देनी ही चाहिए।
लेकिन ऐसी कौन
सी बहुमूल्य
चीज है जिसे
मैं वहां ले
जा सकूं?
तो उन वजीरों ने
कहा कि वह तो
सिर्फ आप ही
हो सकते हैं।
लेकिन आपको
बदल कर जाना पड़े, साधु होकर
जाना पड़े, क्योंकि
वह बहुमूल्य
चीज सिर्फ
साधुता ही हो सकती
है जो उस पहाड़
पर, उस
एकांत जंगल
में भी पहचानी
जा सके। आदमी
के मूल्य तो
राजधानी की
सड़कों पर
पहचाने जा
सकते हैं, परमात्मा
के मूल्य
एकांत में भी
पहचाने जा
सकते हैं।
जहां कोई भी
पारखी नहीं है,
वहां भी वे परखे जा
सकते हैं।
साधुता
का अर्थ ही खो
गया है। तो
साधु के नाम से
जो बैठे हैं, वे आमतौर से
बदले हुए
गृहस्थ हैं, जिन्होंने
कपड़े बदल लिए
हैं। और वे
काम वही कर
रहे हैं।
अब एक
साधु मुझे
मिलते थे। तो मैंने
उनसे कहा कि
यह मुंह-पट्टी
आप बांधे हुए
हैं, यह सच में
आपको लगती है
कि कुछ बांधने
जैसी है? उन्होंने
कहा कि बिलकुल
नहीं लगती। तो
फिर मैंने कहा,
इसे छोड़
देनी चाहिए।
तो
उन्होंने कहा
कि छोड़ अगर
इसे दें तो कल
खाने-पीने का
क्या हो? ठहरने
का क्या हो? कौन सम्मान
दे? यह
मुंह-पट्टी की
वजह से सब
व्यवस्था है!
यह गई, सब
व्यवस्था चली
जाएगी!
अब यह
मुंह-पट्टी भी
व्यवस्था का
इंतजाम है! यह
भी पट्टा है
इस बात का कि
तुम हमें
सुरक्षा दोगे, हम यह
मुंह-पट्टी बांधते
हैं, हम यह
गेरुआ वस्त्र
पहनते हैं।
यह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता कि
ये भी
सिक्योरिटी मेजर्स
हैं। वैसे ही, जैसे हम कुछ
इंतजाम कर रहे
हैं, ऐसा
ही यह भी साधु
इंतजाम कर रहा
है। यह भी हिम्मत
करने को राजी
नहीं है कि
खड़ा हो जाए, कि कोई दे
देगा तो ठीक, नहीं देगा
तो नहीं देगा।
रोटी मिलेगी
तो ठीक, नहीं
मिलेगी तो
नहीं मिलेगी।
इतनी हिम्मत
जुटा कर यह
खड़ा न हो जाए
तो इसे गृहस्थ
से भिन्न कहने
का कारण क्या
है?
सिर्फ
एक ही कारण है
कि गृहस्थ
दूसरों का
शोषण करता है, यह गृहस्थों
का शोषण करता
है। गृहस्थ जो
शोषण करता है,
उसकी वजह से
पापी हुआ जा
रहा है; और
यह उन पापियों
का जो शोषण
करता है, उसकी
वजह से पापी
नहीं हो रहा
है! यह
पुण्यात्मा
है! यह किसी
बंधन में नहीं
है! इसने बंधन
में न होने का
भी इंतजाम
किया हुआ है!
लेकिन इंतजाम ही
बंधन है, यह
इसे खयाल में
नहीं है।
यह
साधु की जो
कल्पना
महावीर के मन
में है, उस
कल्पना का
साधु इतना
विनम्र होगा
कि उसे विनीत
होने की जरूरत
ही नहीं है।
विनीत होना
पड़ता है सिर्फ
अहंकारियों
को। वह इतना
सरल होगा कि
कौन साधु है, कौन गृहस्थ
है--इसकी
पहचान
मुश्किल
होगी।
लेकिन
जो उन्होंने
कहा है, वह
सिर्फ यह कहा
है कि
मूर्च्छित
व्यक्ति को जाग्रत
व्यक्ति
सम्मान न दे।
लेकिन
मजा यह है कि
बिना इसकी
फिक्र किए कि
हम जाग्रत हैं
या नहीं, सम्मान
न दिया जाए तो
सब गड़बड़ हो
जाता है। उसमें
आधी शर्त खयाल
में रखी गई, कि जाग्रत
व्यक्ति
मूर्च्छित को
सम्मान न दे।
दूसरा
मूर्च्छित है,
यह पक्का है,
लेकिन हम
जाग्रत हैं या
नहीं, यह
अगर पक्का
नहीं है तो शर्त
कहां पूरी हो
रही है! और
दूसरा
मूर्च्छित है,
यह पता भी
हमें तभी चल
सकता है, जब
हम जाग्रत
हों। पता ही
नहीं चल सकता
कि आदमी सोया
हुआ है। यहां
दस आदमी कमरे
में सोए हुए हैं,
सिर्फ जागे
हुए आदमी को
पता चल सकता
है कि बाकी
लोग सोए हुए
हैं। सोए हुओं
को पता नहीं
चल सकता कि
कौन सोया हुआ
है!
और
जाग्रत
व्यक्ति को
कैसी
विनम्रता, कैसा अविनय!
वह सवाल ही
नहीं है, वह
प्रश्न ही
नहीं है। पर
ध्यान उनका
यही है कि
मूर्च्छित को
सम्मान कम हो;
अमूर्च्छित को सम्मान
हो, ताकि
समाज अमूर्च्छा
की तरफ बढ़े और
व्यक्ति अमूर्च्छित
दिशा की तरफ
अग्रसर हो।
साधु
के लिए सम्मान
के लिए बड़ा
ध्यान
उन्होंने
किया है। और
सिर्फ इसलिए
कि साधु वह है, जो सम्मान
नहीं मांगता।
जो सम्मान
नहीं मांगता,
जो सम्मान
की आकांक्षा
नहीं करता। जो
समाज ऐसे
व्यक्तियों
को सम्मान
देता है, वह
समाज
धीरे-धीरे निरहंकारिता
की तरफ बढ़ने
का कदम उठाता
है।
आज
इतना ही।
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