सामायिक:
महावीर-साधना—(प्रवचन—ग्यारहवां)
महावीर
की
साधना-पद्धति
में केंद्रीय
है सामायिक।
यह शब्द बना
है समय से और
पहले इस शब्द
को थोड़ा सा
समझ लेना बड़ा
उपयोगी होगा।
पदार्थ
का अस्तित्व
है तीन आयाम
में, थ्री
डायमेंशनल है:
लंबाई, चौड़ाई,
ऊंचाई।
किसी भी पदार्थ
में तीन
दिशाएं हैं
यानी पदार्थ
का अस्तित्व
इन तीन दिशाओं
में फैला हुआ
है। अगर आदमी
में हम पदार्थ
को नापने जाएं
तो लंबाई मिलेगी,
चौड़ाई मिलेगी, ऊंचाई
मिलेगी। और
अगर
प्रयोगशाला
में आदमी की
काट-पीट करें
तो जो भी
मिलेगा वह
लंबाई, चौड़ाई,
ऊंचाई में
घटित हो
जाएगा। लेकिन
आदमी की आत्मा
चूक जाएगी हाथ
से। आदमी की
आत्मा लंबाई,
चौड़ाई और ऊंचाई की
पकड़ में नहीं
आती।
तीन
आयाम हैं
पदार्थ के, आत्मा का
चौथा आयाम है,
फोर्थ
डायमेंशन है।
लंबाई, चौड़ाई,
ऊंचाई, ये
तो तीन दिशाएं
हैं, जिनमें
सभी वस्तुएं आ
जाती हैं।
लेकिन आत्मा की
एक और दिशा है
जो वस्तुओं
में नहीं है, जो चेतना की
दिशा है, वह
है टाइम, वह
है समय। समय
जो है, अस्तित्व
का चौथा
डायमेंशन, चौथा
आयाम है।
तो
वस्तु तो हो
सकती है तीन
आयाम में, लेकिन चेतना
कभी भी तीन
आयाम में नहीं
होती, वह
चौथे आयाम में
होती है। जैसे
अगर हम चेतना
को अलग कर लें
तो दुनिया में
सब कुछ होगा, सिर्फ समय, टाइम नहीं
होगा। समझ लें
कि इस पहाड़ पर
कोई चेतना
नहीं है तो
पत्थर होंगे,
पहाड़ होगा,
चांद
निकलेगा, सूरज
निकलेगा, दिन
डूबेगा, उगेगा,
लेकिन समय
जैसी कोई चीज
नहीं होगी।
क्योंकि समय
का बोध ही
चेतना का हिस्सा
है। चेतना के
बिना समय जैसी
कोई चीज नहीं
है। कांशसनेस
जो है, उसके
बिना समय नहीं
है। और अगर
समय न हो तो
चेतना भी नहीं
हो सकती।
इसलिए वस्तु
का अस्तित्व तो
है लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई
में, और
चेतना का
अस्तित्व है
काल में, समय
की धारा में।
आइंस्टीन
ने तो फिर बहुत
अदभुत काम
किया है इस
तरफ और उसने
ये चारों आयाम
जोड़ कर
अस्तित्व की
परिभाषा कर दी
है। स्पेस और
टाइम, काल
और क्षेत्र दो
अलग चीजें
समझी जाती रही
हैं सदा से।
समय अलग है, क्षेत्र अलग
है। आइंस्टीन
ने कहा, ये
अलग चीजें
नहीं हैं, ये
दोनों इकट्ठी
हैं और एक ही चीज
के हिस्से
हैं।
तो
उसने एक नया
शब्द बनाया: स्पेसियोटाइम।
टाइम और स्पेस
को, दोनों को;
काल और
क्षेत्र को, दोनों को
जोड़ दिया। ये
अलग चीजें
नहीं हैं। क्योंकि
किसी भी चीज
के अस्तित्व
में, तीन
चीजें तो हमें
ऊपर से दिखाई
पड़ती हैं; तो
उसे हम लंबाई,
चौड़ाई,
ऊंचाई में
नाप-जोख सकते
हैं, लेकिन
अस्तित्व
होगा ही नहीं।
हम बता सकते
हैं कि कौन सी
चीज कहां है, किस जगह है, लेकिन अगर
हम यह न बता
सकें कि कब है,
अगर हम समय
भी न बता सकें
तो उस वस्तु
का हमें कोई
पता नहीं
चलेगा। तो
आइंस्टीन ने
तो अस्तित्व
की
अनिवार्यता
मान लिया समय
को, वह
अनिवार्यता
है अस्तित्व
की।
इस बात
का पहला बोध
महावीर को हुआ
है। पहला बोध
उन्हें इस बात
का हुआ है कि
समय चेतना की
दिशा है।
चेतना का कोई
अस्तित्व
अनुभव में भी
नहीं आ सकता
समय के बिना।
समय का जो बोध
है, जो भाव है,
वह चेतना का
अनिवार्य अंग
है। तो महावीर
ने तो आत्मा
को समय ही कह
दिया। और इस
बात में और भी
बातें
अंतर्निहित
हैं।
इस जगत
में सब चीजें
परिवर्तनशील
हैं। सब चीजें
क्षणभंगुर
हैं, आज हैं, कल नहीं हो
जाएंगी। सब
चीजें समय की
धारा में बदलती
हैं, मिटती
हैं, बनती
हैं। आज बनती
हैं, निर्मित
होती हैं, कल
बिखरती हैं, परसों विदा
हो जाती हैं।
सिर्फ इस जगत
की लंबी धारा
में समय भर एक
ऐसी चीज है, जो नहीं
बदलता, जो
सदा है। इस
पूरी धारा में
टाइम भर एक
ऐसी चीज है, जो कभी नहीं
बदलता, जिसके
भीतर सब
बदलाहट होती
है, जो न हो
तो बदलाहट न
हो सकेगी।
अगर
समय न हो तो
बच्चा बच्चा
रह जाएगा, जवान नहीं
हो सकता। कैसे
जवान होगा? कली कली रह
जाएगी, फूल
नहीं हो सकती।
क्योंकि
परिवर्तन की
सारी संभावना
समय में है।
तो जगत
में सब चीजें
समय के भीतर
हैं और परिवर्तनशील
हैं, लेकिन
समय अकेला समय
के बाहर है और
परिवर्तनशील
नहीं है। तो
समय अकेला शाश्वत
तत्व है, जो
सदा था, सदा
होगा। और ऐसा
कभी भी नहीं
हो सकता कि जो
न हो। क्योंकि
किसी चीज के न
होने के लिए
भी समय जरूरी
है। समय के
बिना कोई चीज
नहीं भी नहीं
हो सकती। जैसे
जन्म के लिए
समय जरूरी है,
मृत्यु के
लिए भी समय
जरूरी है।
बनने के लिए भी
समय जरूरी है,
मिटने के
लिए भी समय
जरूरी है।
जैसे
उदाहरण के लिए
हम इसे ऐसा
समझें। यह
कमरा है, इसमें
से हम सब
चीजें बाहर
निकाल सकते
हैं या बहुत
चीजें इस कमरे
के भीतर भर
सकते हैं, लेकिन
इस कमरे के
भीतर जो स्पेस
है, जो जगह
है, उसे हम
बाहर नहीं
निकाल सकते, कोई उपाय
नहीं है। चाहे
मकान रहे और
चाहे जाए, क्षेत्र
तो रहेगा।
मकान क्षेत्र
में ही बनता है,
स्पेस में,
और क्षेत्र
में ही विलीन
हो जाता है, लेकिन
क्षेत्र
रहेगा, स्पेस
रहेगी। ठीक
ऐसे ही समझने
की जरूरत है
कि समय की जो
धारा है, उस
धारा में सब
चीजें बनेंगी,
मिटेंगी,
आएंगी, जाएंगी,
लेकिन समय
रहेगा। समय
एकमात्र
शाश्वत तत्व है,
इटरनल एलीमेंट
जिसे हम कह
सकें--सदा से, और सदा वह
समय है।
महावीर
आत्मा को समय
का नाम इसलिए
भी देना चाहते
हैं कि वही
तत्व शाश्वत, सनातन, अनादि,
अनंत, सदा
से और सदा
रहने वाला है।
सब आएगा, जाएगा;
वही भर सदा
रहने वाला है।
इस कारण भी वे
आत्मा को समय
का नाम देते
हैं। और इस
कारण भी समय
का नाम देते
हैं कि आमतौर
से--हमें खयाल
में नहीं हैं
ये बातें, लेकिन
महावीर की
दृष्टि इस
संबंध में भी
बहुत गहरी
गई--आमतौर से
हम समय के तीन
विभाग करते हैं:
अतीत, वर्तमान
और भविष्य। लेकिन
यह विभाजन
बिलकुल गलत
है। अतीत
सिर्फ स्मृति
में है और
कहीं भी नहीं,
और भविष्य
केवल कल्पना
में है और
कहीं भी नहीं,
है तो सिर्फ
वर्तमान।
इसलिए समय के
तीन विभाजन
गलत हैं, अतीत,
भविष्य, वर्तमान।
समय का तो एक
ही अर्थ हो
सकता है, वर्तमान
जो है, वही
समय है।
लेकिन
वर्तमान
कितना है
हमारे हाथ में? अगर कोई
पूछे, कितना
वर्तमान
हमारे हाथ में
है? तो
क्षण का भी
कोई लाखवां
हिस्सा हमारे
हाथ में नहीं
है। तो जो
क्षण का अंतिम
हिस्सा हमारे
हाथ में है, उसको महावीर
समय कहते हैं।
अंतिम
हिस्सा।
जैसे
कि पदार्थ को
वैज्ञानिकों
ने तोड़ कर
अंतिम परमाणु
पर ला दिया है
और अब परमाणु
को भी तोड़ कर इलेक्ट्रांस
पर ला दिया
है। इलेक्ट्रान
वह हिस्सा है, जो अंतिम
खंड है, जिसके
आगे और खंड
संभव नहीं।
क्योंकि
वैज्ञानिक
पदार्थ का
विश्लेषण कर
रहा है, इसलिए
उसने पदार्थ
के अंतिम खंड
को पकड़ने
की कोशिश की
है। और महावीर
चेतना का
विश्लेषण कर
रहे हैं, इसलिए
चेतना का
अंतिम एटम पकड़ने
की कोशिश की
है। उस अंतिम
अणु का नाम
समय है। समय
वह विभाजन है
वर्तमान क्षण
का, जो
हमारे हाथ में
होता है।
लेकिन
वह इतना छोटा
हिस्सा है, जैसे अणु
दिखाई नहीं
पड़ता, परमाणु
दिखाई नहीं
पड़ता, ऐसे
ही क्षण का वह
हिस्सा भी
हमारे बोध में
नहीं आ पाता।
जब वह हमारे
बोध में आता
है, तब तक
वह जा चुका
होता है। वह
इतना बारीक
हिस्सा है, इतना छोटा
टुकड़ा है कि
जब हम जागते
हैं, तब तक
वह जा चुका
है। यानी
हमारे होश से
भरने में भी
इतना समय लग
जाता है कि समय
जा चुका है।
जैसे
इस क्षण हमारे
हाथ में क्या
है? अतीत
नहीं है, वह
जा चुका।
भविष्य अभी
आया नहीं है।
दोनों के बीच
में एक बारीक
बाल के हजारवें
हिस्से का एक
छोटा सा टुकड़ा
हमारे हाथ में
होगा। लेकिन
वह इतना छोटा
टुकड़ा है कि
जब हम होश से भरेंगे
उसके प्रति कि
यह रहा
वर्तमान, तब
तक वह जा चुका
है, तब तक
वह अतीत हो
चुका है।
तो
महावीर आत्मा
को समय इस
अर्थ में भी
कह रहे हैं कि
जिस दिन आप
इतने शांत हो
जाएं कि वर्तमान
आपकी पकड़ में
आ जाए, उस
दिन आप
सामायिक में
प्रवेश कर गए।
इसका मतलब यह
हुआ कि इतना
शांत चित्त
चाहिए, इतना
शांत, इतना
निर्मल कि
वर्तमान का जो
कण है अत्यल्प,
छोटा सा कण,
वह भी झलक
जाए। अगर वह
भी झलक जाए तो
समझना चाहिए
कि हम सामायिक
को उपलब्ध हुए,
यानी समय के
अनुभव को
उपलब्ध हुए।
समय हमने जाना,
हमने देखा,
समय को
अनुभव किया।
अब तक
हमने समय को
अनुभव नहीं
किया है। हम
कहते हैं, हमारे पास
घड़ी भी है, हम
समय नापते भी
हैं, हम
बताते भी हैं
कि इस समय
इतना बजा है, लेकिन जब हम
कहते हैं इतना
बजा है, वह
बज चुका। जब
हम कहते हैं
कि इस वक्त आठ
बजा है। जितनी
देर में हमने
यह कहा कि आठ
बजा है, उतनी
देर में आठ बज
चुका, घड़ी
आगे जा चुकी।
जरा कण भर भी
सरक गई, आगे
हो गई। यानी
हम जब भी कुछ
कह पाते हैं, अतीत का ही
कह पाते हैं।
जब भी पकड़
पाते हैं, अतीत
को ही पकड़
पाते हैं। ठीक
वर्तमान
हमारे हाथ से
चूक जाता है।
और अतीत
कल्पना, स्मृति
है सिर्फ, वह
है नहीं अब।
है वर्तमान।
एक्झिस्टेंस
जो है, अस्तित्व
जो है, वह
अभी एक समय का
है और उस एक
समय का हमें
कोई बोध नहीं
है। क्योंकि
हम इतने
व्यस्त हैं, इतने उलझे
और अशांत हैं
कि उस छोटे से
क्षण की हमारे
मन पर कोई छाप
नहीं बन पाती,
न हमें वह
दिखाई पड़ पाता
है। उससे हम
चूकते ही चले
जाते हैं।
समय से
निरंतर चूकते
चले जाते हैं
हम। तो हम
अस्तित्व से
परिचित कैसे
होंगे? क्योंकि
अस्तित्व है
समय का। वही
है, बाकी
तो सब या तो हो
चुका या अभी
हुआ नहीं है।
जो है, उससे
ही प्रवेश
करना होगा। और
उसका हमें बोध
ही नहीं हो
पाता, उसे
हम पकड़ ही
नहीं पाते।
तो
महावीर इसलिए
भी सामायिक
कहते हैं और
आत्मा को समय
कहते हैं कि
तुम आत्मा को
उपलब्ध तब हुए, जब तुम समय
का दर्शन कर
लो, उसके
पहले तुम
आत्मा को
उपलब्ध नहीं
हो। क्योंकि
जब तुम
अस्तित्व का
ही अनुभव नहीं
कर पाते तो
तुम्हारे
अस्तित्व का
मतलब क्या है?
आत्मा
तो सबके भीतर
है संभावना की
तरह, सत्य की
तरह नहीं।
जैसे एक बीज
में छिपा हुआ
है वृक्ष, एक
संभावना की
तरह, सत्य
की तरह नहीं।
बीज वृक्ष हो
सकता है। हम भी
आत्मा हो सकते
हैं। जब हम यह
कहते हैं कि
सबके भीतर
आत्मा है तो
उसका मतलब
सिर्फ इतना है
कि हम भी
आत्मा हो सकते
हैं, अभी
हैं नहीं। और
हम उसी क्षण
आत्मा हो
जाएंगे, जिस
दिन अस्तित्व
आमने-सामने
हमारे हो
जाएगा। उसी
क्षण, जब
हम अस्तित्व
को देखने, जानने,
पहचानने
में समर्थ हो
जाएंगे, उसी
क्षण हम भी
अस्तित्ववान
हो जाएंगे।
उसके पहले हम
अस्तित्ववान
नहीं हैं।
इसे और
इस तरह समझा
जा सकता है, अतीत और
भविष्य मन के
हिस्से हैं और
वर्तमान
आत्मा का हिस्सा
है। तो मन
हमेशा अतीत और
भविष्य में
रहता है, या
तो पीछे या
आगे, यहां
इसी वक्त अभी
नहीं। नाउ,
अब, ऐसी
कोई चीज मन
में नहीं होती,
होती ही
नहीं। मन
संग्रह है
अतीत का और
भविष्य की
योजनाओं का।
तो मन
जीता है अतीत
और भविष्य
में। और अतीत
और भविष्य के
बीच में एक अत्यंत
बारीक रेखा है, जो दोनों को तोड़ती है, वह वर्तमान
है। और वह
इतनी बारीक है
कि उस बारीक
रेखा के अनुभव
के लिए हमें
अत्यंत शांत
होना जरूरी
है। जरा सा
कंपन कि हम
चूक जाएंगे।
यानी कंपन जरा
सा भी हुआ
हममें भीतर, तो उतनी देर
में तो वह
निकल जाएगी
रेखा। हमारा कंपन
उसे नहीं पकड़
पाएगा।
इसलिए
अकंप चेतना
जिस दिन हो
जाए--अकंप, कोई कंपन ही
नहीं है भीतर,
तो छोटा सा
कंपन भी समय
के क्षण का
हमें दिखाई पड़ेगा।
वह जो दर्शन
है समय का, वह
दर्शन हमें
अस्तित्व में
उतार देता है।
यानी ऐसा
समझें कि
वर्तमान का
क्षण ही द्वार
है अस्तित्व
में प्रवेश
का। ब्रह्म
में प्रवेश
कहें, सत्य
में प्रवेश
कहें, मोक्ष
में प्रवेश
कहें, कुछ
भी कहें।
वर्तमान के
क्षण से ही हम
प्रविष्ट
होते हैं। वही
है द्वार। और
वह चूक-चूक
जाता है।
एक
कहानी मैंने
सुनी है। सुनी
है कि एक अंधा
आदमी है, और
एक बड़े भारी
राजभवन में
भटक गया है।
बड़ा है भवन, हजारों
द्वार हैं उस
भवन के, लेकिन
एक ही द्वार
खुला है, सब
द्वार बंद
हैं। वह अंधा
आदमी द्वारों
को टटोलता-टटोलता-टटोलता--बड़ा
भवन है! मीलों
का उसका घेरा
है। द्वारों
को
टटोलता-टटोलता,
कि शायद कोई
खुला द्वार
मिल जाए। बस, पहुंचा जा
रहा है खुले
द्वार के
करीब। ऐसे हजार
द्वार
टटोलते-टटोलते
वह थक गया है।
और जब वह ठीक
उस द्वार पर
पहुंचा है जो
खुला है, तो
उसे खुजान
उठ गई है।
उसने माथे पर खुजाया है
और वह द्वार
फिर चूक गया!
अब फिर हजारों
द्वार हैं, फिर हजारों
द्वार हैं और
वह फिर टटोल
रहा है, फिर
टटोल रहा है, फिर टटोल
रहा है। वह
मीलों के
चक्कर के बाद
फिर उस द्वार
पर आया है, लेकिन
इतना थक गया
है
टटोलते-टटोलते
कि उसने टटोलना
बंद कर दिया
है, वह ऊब
गया है। वह
टटोलना छोड़
देता है कि कब
तक टटोलता
रहूं? आखिर
है भी वह
द्वार कि नहीं?
लेकिन इतने
में वह द्वार
फिर निकल गया
है। लेकिन
क्या करेगा
अंधा आदमी!
निकलना है तो
ऊबे या न ऊबे, फिर टटोलना
शुरू करता है।
ऐसा वर्षों
बीतते हैं उस
कथा में, और
वह अंधा आदमी
बार-बार उस
खुले द्वार के
पास से आकर
चूक जाता है।
वह जो
कहानी है, वर्षों, जन्मों
तक हम समय के
द्वार को
टटोलते हुए
घूम रहे हैं
कि कहां से
द्वार मिल जाए
मोक्ष का! कहां
से द्वार मिल
जाए जीवन का!
कहां से द्वार
मिल जाए आनंद
का! टटोलते
आते हैं, टटोलते
आते हैं। या
तो हम बंद
द्वार टटोलते
हैं जो अतीत
के हैं, जो
बंद हो चुके, या हम
भविष्य के
द्वार टटोलते
हैं, जो
हैं ही नहीं।
जो हैं नहीं, उनको हम
टटोल नहीं
सकते। जो नहीं
हो गए हैं, उनको
भी टटोल नहीं
सकते। लेकिन
एक द्वार जो
खुला है
वर्तमान का, वह बार-बार
चूक जाता है।
उस वक्त हम और
कुछ करने लगते
हैं और वह चूक
जाता है। या
तो माथा खुजाने
लगते हैं या
कुछ और करने
लगते हैं और
वह चूक जाता
है। मतलब यह
है कि जब भी उस
द्वार पर हम
आते हैं, हम
आक्यूपाइड
होते हैं, किसी
और चीज में
व्यस्त होते
हैं।
वर्तमान
के क्षण में
हम सदा व्यस्त
हैं, इसलिए वह
चूक जाता है।
इसलिए
सामायिक का
अर्थ है, अन-आक्यूपाइड
होना, अव्यस्त
होना। व्यस्त
बिलकुल नहीं
हैं, कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं, कुछ
भी नहीं सोच
रहे हैं, तो
ही उस समय को
हम पकड़
पाएंगे।
क्योंकि हम कुछ
कर रहे हैं तो
चूक जाएंगे, उतनी देर
में तो वह
निकल गया। वह
निकलता ही चला
जा रहा है।
महावीर
ने यह नाम बड़े
गहरे प्रयोजन
से दिया है।
वे तो यही
कहने लगे कि
समय ही आत्मा
है। और समय को
जान लो, समय
में खड़े हो
जाओ, समय
को पहचान लो
और देख लो, तो
तुम अपने को
देख लोगे, अपने
को पहचान लोगे,
अपने को जान
लोगे।
लेकिन
समय को जानना
ही बहुत
मुश्किल बात
है। शायद सबसे
ज्यादा कठिन
बात समय को
जानना है।
सबसे ज्यादा
दुर्लभ, आर्डुअस वर्तमान
में खड़े होना
है। क्योंकि
हमारी पूरी
आदत ही या तो
पीछे होने की
होती है या
आगे होने की
होती है। पूरा
हैबिट फार्मेशन
है हमारा।
एक
आदमी को पूछो
कि क्या कर
रहे हो? तो
या तो उसे
अतीत में
पाओगे या उसे
भविष्य में
पाओगे। या तो
वह उन दृश्यों
को देख रहा है
जो जा चुके; या उन
दृश्यों की
सोच रहा है जो
आएंगे। लेकिन शायद
ही कभी किसी
व्यक्ति को
पाओगे कि वह
कहे, मैं
कुछ भी नहीं
कर रहा हूं।
कुछ भी नहीं
कर रहा हूं, मैं यहीं
हूं। ऐसा आदमी
ही नहीं
मिलेगा। ऐसा आदमी
मिल जाए तो
समझना वह
सामायिक में
था उस वक्त, वह उस वक्त
ध्यान में था।
उस क्षण में
वह कहीं भी
व्यस्त नहीं
था, बस था।
इसे तो
हम थोड़ा
सोचें। जस्ट
बीइंग। कुछ
नहीं कर रहे
हैं, बस हैं।
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं।
मंत्र भी नहीं
जप रहे हैं।
श्वास भी नहीं
देख रहे हैं।
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं।
जैसे
मैं श्वास
देखने के लिए
कहता हूं, वह अभी
सामायिक नहीं
है। वह सिर्फ
इसलिए कह रहा
हूं कि आपकी
और व्यर्थ
दूसरी व्यस्तताएं
छूट जाएं। एक
ही व्यस्तता
रह जाए कम से
कम, बहुत व्यस्तताएं
न रहें, एक
ही व्यस्तता
रह जाए। एक ही
व्यस्तता रह
जाए तो कहूंगा,
अब इससे भी
छलांग लगा
जाएं। इतनी
बहुत सी व्यस्तताएं
छूट गईं, एक
ही व्यस्तता
रह गई कि
श्वास ही देख
रहे हैं। अब
यह ऐसी
व्यस्तता है
कि न इसमें
कोई धन-कमाई
का उपाय है, न इससे कोई
लाभ है, न
कोई--तो यह एक
ऐसी व्यस्तता
है कि इससे
छलांग लगाने
में कठिनाई
नहीं पड़ेगी।
यह एक ऐसी
व्यर्थ
व्यस्तता है,
ऐसी यूजलेस
आक्युपेशन
है यह कि
इस--अगर आप
सबसे छूट गए
तो इससे छूटने
में देर नहीं
लगेगी। जैसे
ही मैं कहूंगा
छोड़ें, तो
आप तो बहुत
देर से तैयार
ही थे कि कब
इसको छोड़ दें।
बाकी से आप
छूट जाएं तो
इससे छलांग
लगाई जा सकती
है।
यह भी
लेकिन आक्युपेशन
है, यह अभी
सामायिक नहीं
है। यह
सामायिक के
पहले की सीढ़ी
है सिर्फ
छलांग लगाने
की। जैसे जंपिंग
बोर्ड होता है
न नदी के
किनारे! तख्ता
लगा हुआ है, जिस पर खड़े
होकर छलांग
लगाई जाती है,
ऐसा यह जंपिंग
बोर्ड है।
यहां अगर आप
पहुंच गए हैं
तो अब एक ही
छलांग में आप
सागर में
पहुंच सकते
हैं।
तो कुछ
भी हम कर रहे
हैं, तब तक हम
चूकते जाएंगे
वर्तमान से।
जब हम कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं, जब हम
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं, तब हम उतर
जाएंगे।
लेकिन यह
हमारी समझ के
एकदम बाहर हो
जाता है कि
कोई ऐसा मौका
भी हमें मिले,
जब हम कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं, बस
हैं।
और अगर
यह समझ में आ
जाए तो कोई
कठिनाई नहीं
है बहुत।
इसमें क्या
कठिनाई है कि
कुछ क्षणों के
लिए आप बस हो
जाएं, कुछ न
करें। कमरे
में पड़े हैं
या कोने में
टिके हैं, सिर्फ
हैं, कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं, बस
हैं। आखिर
होना इतना
कठिन क्या है?
वृक्ष हैं,
पत्थर हैं,
पहाड़ हैं, चांदत्तारे हैं, सब
हैं। और शायद
वे इसीलिए
इतने सुंदर
हैं कि समय
में कहीं गहरे
डूबे हुए हैं।
हम शायद इसीलिए
इतने कुरूप, इतने परेशान,
चिंतित, दुखी
और हैरान हैं,
क्योंकि
समय से भागे
हुए हैं, समय
के बाहर छिटक
गए हैं। जैसे
जीवन के
मूल-स्रोत से
कहीं झटका लग
गया है, जड़ें
उखड़ गई हैं, हम कहीं और
हैं।
दो तरह
की क्रियाएं
हैं, एक तो
हमारे शरीर की
क्रियाएं
हैं। शरीर की
क्रियाएं तो
हमारी निद्रा
में भी शिथिल
हो जाती हैं, बेहोशी में
भी बंद हो
जाती हैं।
शरीर की क्रियाओं
को रोकना बहुत
कठिन भी नहीं
है। शरीर की
क्रियाओं से
कोई गहरी बाधा
भी नहीं है।
उसके भीतर
हमारी मन की
क्रियाएं हैं,
मेंटल प्रोसेसेस
हैं, वही
हैं असली
बाधाएं।
क्योंकि वे ही
हमें समय से
चुकाती हैं, शरीर नहीं चुकवाता
हमें समय से।
शरीर का
अस्तित्व तो
निरंतर वर्तमान
में है।
यह
ध्यान रहे कि
लोग आमतौर से
साधक होने की
स्थिति में शरीर
के दुश्मन हो
जाते हैं, जब कि शरीर
बेचारे की कोई
दुश्मनी ही
नहीं है। शरीर
तो निरंतर समय
में है। शरीर
तो एक क्षण को
भी न अतीत में
जाता, न
भविष्य में
जाता; शरीर
तो वहीं है, जहां है।
शरीर ने तो
कभी भी किसी
आदमी को नहीं
भटकाया है आज
तक, भटकाता
है मन।
क्योंकि मन
कहीं-कहीं
जाता है; जहां
नहीं है वहां
जाता है। रात
आप सोते हैं, शरीर तो
होगा श्रीनगर
में, मन
कहीं भी हो
सकता है। आप
दिन में बैठे
हैं, शरीर
तो है चश्मेशाही
पर, मन
कहीं भी हो
सकता है। शरीर
तो सदा वहीं
है, जहां है।
शरीर अन्यथा
हो नहीं सकता,
उसका कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
साधक आमतौर से
शरीर से
दुश्मनी साध
लेता है, जिसने
कभी कोई
नुकसान
पहुंचाया ही
नहीं। साधक का
गहरे अर्थों
में जो प्रयोग
है, वह
होना चाहिए मन
पर। किसी न
किसी तरह उसे
नो-माइंड की
स्थिति में
पहुंचना है, अ-मन की।
कबीर ने कहा, अमनी। ऐसी
अवस्था में
पहुंच जाना है
जहां मन नहीं है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि मन
होगा तो
क्रिया होगी।
और किसी भी
तरह की क्रिया
होगी तो मन
बना रहेगा।
इसलिए मन किसी
भी तरह की
क्रिया के लिए
राजी है। आप
कहो, दुकान
करो। तो वह
कहता है ठीक, दुकान करते
हैं। आप कहें
दुकान नहीं, पूजा करनी
है। वह कहता
है चलो, पूजा
करते हैं। मन
कहता है, कुछ
भी करो तो हम
राजी हैं।
क्योंकि करने
मात्र में मन
बच जाता है।
तब मंत्र जपो,
तो वह कहता,
चलो हम राजी
हैं। कोई भी
क्रिया करो तो
मन कहता हम
बिलकुल राजी
हैं।
लेकिन
मन से कहो कि
हम कुछ भी
नहीं करना
चाहते, थोड़ी
देर को हम कुछ
भी नहीं करते,
तो मन
बिलकुल राजी
नहीं है। तो
मन पूरी कोशिश
करेगा आपको
कुछ न कुछ
करवाने की। वह
यही कहेगा, तो कम से कम
इतना ही करो
कि मन से लड़ो।
विचारों को
निकाल बाहर
करो, विचार
को आने मत
देना। ध्यान
करो। मन कहेगा
चलो, तो
ध्यान ही करो,
लेकिन कुछ
करो जरूर।
क्योंकि बिना
किए काम नहीं
चल सकता। बिना
किए कैसे काम
चल सकता है?
एक
सम्राट जापान
का एक झेन मॉनेस्ट्री
देखने गया।
बड़ी मॉनेस्ट्री
है, बड़ा
आश्रम है, पहाड़ों
पर दूर तक
फैले हुए भवन
हैं, बड़ा
बीच में पगोडा
है। सम्राट
द्वार पर ही
उस आश्रम के
प्रधान
भिक्षु को
कहता है बूढ़े
को, कि मैं
सब, सब
देखने आया हूं,
कहां आप
क्या करते
हैं। एक-एक
जगह मुझे दिखा
दें, कहां
क्या करते
हैं।
वह
बूढ़ा ले जाता
है, जहां
भिक्षु स्नान
करते हैं। वह
कहता है, यहां
भिक्षु स्नान
करते हैं। वह
सम्राट कहता
है, इन सब
फिजूल की
बातों को मुझे
मत दिखाइए।
असली चीज जहां
करते हों, वह
बताइए। फिर वह
ले जाता है, वह कहता है, भिक्षु यहां
पाखाना करते
हैं।
वह
सम्राट कहता
है, क्या
बेकार की
बातों में आप
मेरा समय जाया
कर रहे हैं।
मैं यह पूछता हूं,
भिक्षु
जहां जरूरी
चीजें करते
हों। उस भिक्षु
ने कहा, जो-जो
जरूरी करते
हैं, वह
मैं आपको बता
रहा हूं। यहां
अध्ययन करते
हैं, यह
पुस्तकालय
है। यहां भोजन
करते हैं, यह
चौका है। यहां
व्यायाम करते
हैं। उस सम्राट
ने कहा कि
क्या तुम
फिजूल की
चीजों में
मुझे भटका रहे
हो! बीच में जो
बड़ा भवन है, वहां क्या
करते हैं?
जब
सम्राट उससे
यह पूछता कि
उस बड़े भवन
में क्या करते
हैं, तो
भिक्षु ऐसे हो
जाता, जैसे
बहरा है, सुनता
ही नहीं!
दूसरी बातें
बताने लगता
है। कहता है
कि यहां बगीचा
लगाते हैं
भिक्षु। यहां
भिक्षु यह
करते हैं, वहां
भिक्षु चक्रमण
करते हैं, शाम
को टहलते हैं।
सम्राट फिर
पूछता है, यह
सब मैं समझ
गया, यह सब
ठीक है; वहां
क्या करते हैं?
उस बड़े भवन
में क्या करते
हैं? बस, उस बड़े भवन
की बात से वह
ऐसा चुप हो
जाता है कि न कोई
बड़ा भवन है, न कोई
प्रश्न पूछा
गया है।
सम्राट
उकता गया, परेशान हो
गया। दरवाजे
पर वापस आ गया
है, अपने
घोड़े पर सवार
हो गया है।
उसने कहा, या
तो मैं पागल
हूं या तुम
पागल हो। यह
बड़ा भवन जो
दिखाई पड़ता है,
है या नहीं?
और इस बड़े
भवन में करते
क्या हो? और
बोलते क्यों
नहीं तुम, बहरे
क्यों हो जाते
हो? बाकी
सब बात सुन लेते
हो, यही
बात तुम क्यों
नहीं सुनते हो?
उस
भिक्षु ने कहा, आप मुझे बड़ी
मुश्किल में
डाल देते हैं।
असल में वह
जगह ऐसी है, जहां हमें
जब कुछ नहीं
करना होता है,
हम जाते
हैं। और आप
पूछते हो, क्या
करते हो? अब
या तो मैं बताऊं
कुछ करना, तो
गलती हो जाए, और या मैं चुप
रह जाऊं।
क्योंकि आप
करने की ही
भाषा समझते हो,
इसलिए
मैंने
स्नानगृह
दिखलाया, पाखाना
दिखलाया, अध्ययन-कक्ष
दिखलाया, जहां
हम कुछ करते
हैं। आप पूछते
हो, वहां
क्या करते हो?
तो मैं एकदम
चुप हो जाता
हूं, क्योंकि
वहां हम कुछ
करते ही नहीं।
वहां जिसको
करना हो उसे जाने
की मनाही है।
वहां करने की
भाषा चलती ही नहीं।
वहां तो जब
किसी को कुछ
भी नहीं करना
होता तो कोई
चुपचाप चला
जाता है। वह
हमारा ध्यान-भवन
है।
तो
सम्राट ने कहा, समझ गया। तो
वहां तुम
ध्यान करते हो?
तो उस
भिक्षु ने कहा,
फिर वही भूल
हुई जाती है, क्योंकि
ध्यान का मतलब
ही है कुछ न
करना।
जब तक
हम कुछ कर रहे
हैं, तब तक
ध्यान नहीं हो
सकता। लेकिन
ध्यान शब्द में
भी क्रिया
जुड़ी हुई है।
सामायिक शब्द
में वह क्रिया
भी नहीं है।
ध्यान से लगता
है, कुछ
करने की बात
है। सामायिक
में करने को
कुछ भी नहीं
रह जाता।
सामायिक का
मतलब ही है, अपने में
होना, समय
में होना।
करना नहीं है
वहां, बिकमिंग नहीं है
वहां; बीइंग
की बात है, होना
सिर्फ। करने
को कुछ भी
नहीं है वहां,
सिर्फ हो
जाना है अपने
में। हम सब
भागे-भागे हैं
बाहर-बाहर।
कुछ न कुछ कर
रहे हैं, कुछ
न कुछ हो रहे
हैं। ऐसा कभी
भी नहीं है, जब हम कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं, कुछ
भी नहीं हो
रहे हैं; बस
हैं।
जैसे
आकाश में कभी
देखा हो चील
को तैरते हुए।
चील तैरती है
कभी, तब पंख भी
नहीं हिलाती।
पंख भी ठहर
जाते हैं। कुछ
भी नहीं करती,
बस रह जाती
है। कभी चील
को पर तौलते
देखा हो तो गौर
से देखना। न, कुछ भी नहीं
करती फिर, ऐसा
पर भी नहीं
हिलाती। पर भी
ठहर गए हैं।
हवा पर रह
जाती है, तुल
जाती है।
वैसा
ही कुछ होना
भीतर भी है।
जब हम सिर्फ
तुल जाते हैं, पंख भी नहीं
हिलाते, कुछ
भी नहीं करते
भीतर, सब
सन्नाटा और
चुप हो जाता
है। बस होते
हैं। ऐसी जो जस्ट
बीइंग की, होने
की स्थिति है,
अवस्था है;
क्रिया
नहीं, स्टेट
ऑफ बीइंग; स्टेट
ऑफ एक्शन नहीं,
कर्म नहीं,
क्रिया
नहीं, कोई
प्रोसेस नहीं;
जहां हम बस
सिर्फ होते
हैं, कुछ
भी नहीं करते;
उस स्थिति
का नाम है
सामायिक।
इसलिए
जब कोई पूछता
है सामायिक
कैसे करें? तो इससे और
गलत सवाल दूसरा
नहीं पूछ सकता
है। इससे
ज्यादा गलत
सवाल दूसरा
नहीं हो सकता।
हमारी सारी
भाषा चिंतना
करने पर खड़ी
है। न करने का
हमें कोई खयाल
ही नहीं है!
लेकिन हम अपने
स्वभाव को
करने में कभी
भी नहीं जान
सकेंगे, क्योंकि
करना सदा
दूसरे के साथ
है। सूक्ष्मतम
तलों पर जब भी
हम कुछ कर रहे
हैं, सदा
और के साथ कर
रहे हैं। और
जब भी हम
कर्ता बन रहे
हैं, तभी
हम कुछ और बन
रहे हैं, जो
हम नहीं हैं।
तभी हम कोई
अभिनय अपने
ऊपर ले रहे
हैं, जो हम
नहीं हैं।
जैसे
एक आदमी
दुकानदार बन
रहा है, यह
एक अभिनय है, एक एक्टिंग
है, जो वह
अपने ऊपर ले
रहा है। कोई
आदमी
दुकानदार है
थोड़े ही। कोई
आदमी दुकानदार
है? कोई
आदमी
दुकानदार
नहीं है।
दुकानदार
होना जीवन के
इस बड़े नाटक
में उसका
अभिनय है। एक
दूसरा आदमी
नौकर बन रहा
है, एक
तीसरा आदमी
मिनिस्टर बन
रहा है, एक
चौथा आदमी
शिक्षक बन रहा
है। कोई आदमी
शिक्षक है या
कोई आदमी नौकर
है?
ये
अभिनय हैं, जो आदमी ले
रहे हैं। जो
इस जिंदगी के
बड़े नाटक में
वे
संभालेंगे।
और
संभालते-संभालते
यह भूल जाएंगे
कि ये अभिनय
थे और हम कुछ
और थे, जिन्होंने
यह अभिनय
स्वीकार किया
था। और धीरे-धीरे
अभिनय से
तादात्म्य हो
जाएगा और
लगेगा यही हम
हैं। तो
दुकानदार को
फिर बड़ा
मुश्किल है
दुकानदार न हो
जाना--एक क्षण
को भी।
मैं
कलकत्ता में
एक घर में
मेहमान था। उस
घर की गृहिणी
ने मुझे
कहा--उसका पति
चीफ जस्टिस है
हाईकोर्ट
का--उसकी
पत्नी ने मुझे
कहा कि मैं आपसे
कहती हूं, क्योंकि वे
आपको सुनते
हैं, उत्सुक
हैं, आपको
समझने की
कोशिश करते
हैं। कृपा
करके इतना उनसे
कह दें कि
कभी-कभी चीफ
जस्टिस न हो
जाएं तो बड़ा
अच्छा रहे। ये
चौबीस घंटे
चीफ जस्टिस
हैं! ईवेन
इन बेड! उसने
कहा कि बिस्तर
में भी, तब
भी वे चीफ
जस्टिस हैं।
तो उनकी वजह
से हम बड़े
परेशान हैं।
वे घर में
घुसते हैं और घर
एकदम अदालत हो
जाती है।
बच्चे संभल कर
बैठ जाते हैं,
सब काम
सुचारु रूप से
होने लगता है,
चीफ जस्टिस
आ गए।
अब यह
आदमी जो है न, यह जो एक्शन
इसने लिया हुआ
है, जो
नाटक लिया हुआ
है, भूल
गया है कि वह
नाटक है। यह
रिलैक्स हो ही
नहीं रहा कभी।
हम
जानते हैं
भलीभांति कि
कपड़े का
दुकानदार रात
में चादर भी फाड़ देता
है सपने में, ग्राहकों को
बेच देता है
सामान। नींद
खुलती है, तब
पता चलता है
कि चादर उसने फाड़ दी! वह
दिन भर कपड़ा
काट रहा है, फाड़
रहा है, सपने
में भी वही कर
रहा है! सपने
में भी वही हो
गया है, जो
वह है! सपने
में हम वही
होते हैं, जो
हम चौबीस घंटे
दिन में हैं।
हम करेंगे
क्या!
हमारे
एक्शन ने, हमारी
क्रिया ने
हमारे सारे
व्यक्तित्व
को चारों तरफ
से घेरा हुआ
है। ऐसा कभी
नहीं है जब कि
हम बिलकुल रिलैक्स्ड
हैं; और
वही हैं, जो
हैं, और
कुछ अंगीकार
नहीं कर रहे
हैं, कुछ
ऊपर ग्रहण
नहीं कर रहे
हैं, कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं।
क्योंकि जब भी
हम कुछ करेंगे,
कोई अभिनय
शुरू हो
जाएगा।
और
ध्यान रहे, जब तक हम
अभिनय में हैं,
तब तक हम
आत्मा में
नहीं हो सकते।
आत्मा में अगर
होना है तो सब
तरह के मंचों
से नीचे उतर
आना पड़ेगा, सब तरह के
अभिनय से नीचे
उतर आना
पड़ेगा। अभिनय
बदल लेना बहुत
आसान है। एक
दुकानदार
संन्यासी हो
सकता है, तब
वह एक नई
दुकान खोल
लेगा, तब
वह संन्यासी
होने के अभिनय
में पड़ जाएगा।
लेकिन समस्त अभिनयों
से कभी घड़ी भर
को बाहर उतर
जाना, कभी
घड़ी भर को--कि
आप न दुकानदार
रहे, न
संन्यासी रहे,
न गृहस्थ
रहे, न
पिता रहे, न
मां रहे, न
बेटे रहे, न
पति रहे, न
पत्नी
रहे--आपने सब
क्रिया और सब
अभिनय को उतार
कर एक तरफ रख
दिया और कहा
कि इस वक्त तो
मैं वही हो
जाता हूं, जो
था जन्म के
पहले और जो हो जाऊंगा
मरने के बाद।
झेन
फकीर लोगों से
कहते हैं--जब
कोई उनके पास
आता है तो वे
कहते हैं--तुम आंख
बंद करके एक
काम करो, कोशिश
करो खोजने की
कि तुम्हारा
ओरिजिनल फेस क्या
है? जब तुम
जन्मे नहीं थे,
तुम्हारा
चेहरा कैसा था?
उससे कहते
हैं कि तुम
जाकर एक
अंधेरे कमरे
में बैठ जाओ, जरा इसकी
खोज करो कि
तुम्हारा ओरिजिनल
फेस क्या है? जब तुम पैदा
नहीं हुए थे, तब तुम्हारा
चेहरा कैसा था?
कुछ तो
चेहरा रहा
होगा।
तो वह
आदमी जाता है, सोचता है, कोशिश करता
है। क्योंकि
हम सबको यह
खयाल है कि
चेहरा हर हालत
में रहना ही
चाहिए। और
हमें यह खयाल
ही नहीं है कि
चेहरा सब
ग्रहण किया हुआ
है। एक भीतर फेसलेसनेस
भी है, जहां
कोई चेहरा
नहीं है।
तो वह
आदमी खोजता है
कि ओरिजिनल
फेस क्या है? मेरा मूल
चेहरा क्या है?
परेशान हो
जाता है, थक
जाता है कि
मैं जब पैदा
नहीं हुआ था
तो कैसा था? कैसा मेरा
चेहरा था? आकर
बार-बार खबर
देता है कि
शायद ऐसा था।
तो वह कहता है
कि यह तो तुम
इसी की नकल
बता रहे हो। यह
तो इसी चेहरे
से
मिलता-जुलता
है, जो तुम
कह रहे हो। यह
कहां था? मां
के पेट में यह
कहां था? मां
के पेट के
पहले यह कहां
था? जरा और
खोजो, और
खोजो। खोज
चलती है, चलती
है, चलती
है, किसी
दिन विस्फोट
होता है और
उसे खयाल आता
है कि मेरा
भीतर कोई
चेहरा है भी!
चेहरे तो सब
बाहर से लिए
हुए हैं, सब
मुखौटे हैं।
बाजार
से एक आदमी
मुखौटा खरीद
कर शेर बन
जाता है तो हम
उस पर हंसते
हैं और हम
मां-बाप से
खरीद कर एक
चेहरा ले आए, एक मुखौटा, और बड़े
प्रसन्न हैं
और सोच रहे
हैं यह चेहरा
मेरा है! यह
मुखौटा है
बिलकुल, जो
जरा गहरी
दुनिया के
बाजार से
खरीदा गया है।
जो ठेठ बाजार
से नहीं लाया
गया, लेकिन
फिर भी बाजार
से लाया गया
है, फिर भी
बाहर से लाया
गया है। भीतर
कोई चेहरा ही
नहीं है। भीतर
कोई नाम नहीं
है। भीतर कोई
क्रिया नहीं
है। भीतर कोई
अभिनय नहीं
है।
तो अगर
स्वभाव को
जानना हो, जो मैं हूं, उसे ही
जानना हो तो
मुझे सारी
क्रिया, सारे
चेहरे, सारे
अभिनय छोड़ कर
थोड़ी देर को
तो बाहर खड़े
हो जाना
पड़ेगा। इस
थोड़ी देर को
बाहर खड़े हो
जाने का नाम
सामायिक है।
और एक बार
मुझे पहचान आ
जाए कि मेरा
कोई नाम नहीं,
मेरा कोई
चेहरा नहीं, मेरा कोई
शरीर नहीं, मेरा कोई
कर्म नहीं, मेरा कोई
अभिनय नहीं; मेरा तो
मात्र होना है,
अस्तित्व
मात्र मेरा
स्वभाव है और
जानना मात्र
मेरी प्रकृति
है, तो एक
मुक्ति, एक
विस्फोट होगा,
जो विस्फोट
व्यक्ति को
जीवन के समस्त
चक्कर के बाहर
तत्क्षण खड़ा
कर देता है।
और उसे लगता
है कि मैं
अभिनय में था
और इसलिए एक
चक्कर था और
एक खेल था।
अभिनय में ऐसी
भूल हो जाती
है।
और कई
बार खयाल भी
नहीं रहता, क्योंकि
अभिनय हम जन्म
के साथ ही पकड़
लेते हैं।
हमारी सारी
सभ्यता, सारी
संस्कृति, सारी
शिक्षा
प्रत्येक
व्यक्ति को उसका
ठीक रोल दे
देने की है, और तो क्या
है। यानी
एक-एक आदमी को
उसका ठीक-ठीक
अभिनय मिल जाए,
इसकी सारी
व्यवस्था है।
तो हमारी पूरी
व्यवस्था ऐसी
है कि
प्रत्येक
व्यक्ति को एक
चेहरा मिल जाए,
वह बिना
चेहरे का न रह
जाए। उसको एक
काम मिल जाए, एक अभिनय
मिल जाए, वह
व्यवस्थित हो
जाए, अपना
नाटक में काम
करे, चेहरा
निभाए और
जिंदगी गुजार
दे।
सारी
व्यवस्था--जिस
आदमी को चेहरा
न मिल पाए, अभिनय न मिल
पाए, हम
कहते हैं, वह
आदमी भटक गया,
खो गया।
उसके पास न
कोई काम है, न कोई धाम
है। वह क्या
करता है, कुछ
पता नहीं
चलता। वह कौन
है, कुछ
पता नहीं
चलता।
तो हम
सब उन आदमियों
को सफल कहते
हैं, जो आदमी
इस अभिनय में
जितना
तादात्म्य कर
लेते हैं और
जितने गहरे
उतर जाते हैं।
एक
चित्रकार था
गोगां, वह
चालीस वर्ष की
उम्र तक
ब्रोकर था, एक दलाल था।
और सफल दलाल
था और खूब
कमाया उसने पैसा।
पत्नी थी, बच्चे
थे। और कभी
किसी ने सोचा
नहीं था कि
गोगां एक रात
घर से नदारद
हो जाएगा। रात
सोया था, पत्नी
को नमस्कार
करके, बच्चों
को प्रेम करके
और आधी रात कब
चला गया घर से,
पता नहीं
चला। न कभी
किसी दूसरी
स्त्री में उत्सुक
देखा गया था
कि पत्नी यह
विचार करे कि
कहीं भाग गया
किसी स्त्री
के साथ। न कभी
किसी क्लब में,
न किसी शराब
में, न
किसी जुए में
कोई उत्सुकता
थी। बड़ा
सीधा-सादा, साफ-सुथरा
आदमी था।
कमाता था, घर
था; काम था,
घर था, बस
इससे ज्यादा
कुछ भी न था।
बच्चों से
प्रेम था, पत्नी
से प्रेम था।
कोई झगड़ा
न हुआ था, कोई
घटना न घटी
थी। अचानक वह
आदमी रात कहां
नदारद हो गया,
दो साल तक
पता न चला!
दो साल
बाद पता चला
कि वह पेरिस
में एक चित्रकार
के पास
चित्रकला सीख
रहा है। घर के
लोग भागे गए, पत्नी भागी
गई। कहा, तुम्हें
क्या हो गया? तुम आए
क्यों? तो
उसने कहा कि
बस ऐसा खयाल आ
गया कि कोई जिंदगी
भर दलाल होने
का ही अभिनय
करता रहूंगा?
चालीस साल
गुजार दिए, उस रात एकदम
खयाल आया कि
यह क्या कर
रहा हूं? क्या
दलाल ही बना
रहूंगा
जिंदगी भर? कोई दलाल
होना ही मेरा
कोई स्वत्व है?
उसकी
पत्नी ने कहा, यह मेरी कुछ
समझ में नहीं
आता। इसका
क्या मतलब है?
उसने कहा, इसका मतलब
यह है कि
मैंने कहा कि
यह कोई मेरा चेहरा
तो नहीं है, ग्रहण किया
हुआ चेहरा है,
तो बदल लें
चेहरे को।
तो
उसने कहा, हम बच्चे और
पत्नी?
तुम्हारे
लिए मैं
इंतजाम कर आया
हूं। लेकिन अब
मैं किसी का
पति नहीं हूं
और किसी का
बाप नहीं हूं।
क्योंकि यह
कोई जिंदगी भर
बाप ही बना
रहूं और पति
ही बना रहूं?
किसी
की समझ में
नहीं आया कि
मालूम होता है
आदमी पागल हो
गया। दस
वर्षों
निरंतर मेहनत
करके वह
दुनिया के
श्रेष्ठतम
चित्रकारों
में एक हो
गया। लेकिन एक
दिन अचानक
लोगों ने पाया
कि जब उसके
चित्र लाखों
में बिकने लगे
हैं, वह छोड़ कर
चला गया। किसी
ने उससे पूछा
कि यह तुम
क्या कर रहे
हो? तुम्हारी
इतनी
प्रतिष्ठा हो
गई है अब, इतना
तुमने श्रम
किया है!
तो
उसने कहा कि
कोई भी अभिनय
मेरा स्वभाव
नहीं है। मैं
अपने चेहरे की
खोज में लगा
हूं। मैं किसी
नकली चेहरे को
पकड़ना
नहीं चाहता।
नहीं
आपसे कह रहा
हूं कि आप जो
कर रहे हैं, वह छोड़ कर
भाग जाएं। कह
रहा हूं कुल
जमा इतना कि
जो चेहरा आपका
सख्त मजबूती
से आपने पकड़
लिया है, वही
आप हैं, इस
भ्रम में न
पड़े रहें। वह
आपके होने का
एक ढंग है, होना
नहीं है। वह
आपके
जीवन-पद्धति
का, अभिनय
का एक रूप है।
जो आप कर रहे
हैं, वह
जरूरी है; करेंगे,
करना है, लेकिन आपकी
न करने की भी
कोई अवस्था
होनी चाहिए, जहां आप कुछ
भी नहीं कर
रहे हैं; जहां
सारे संबंध, सारी
क्रियाएं, सारे
अभिनय क्षीण
हो गए हैं। आप
ही रह गए हैं बस
अपने होने
में।
ऐसा जो
क्षण उपलब्ध
हो जाए तो समय
का बोध शुरू
होता है और
व्यक्ति
स्वयं में थिर
हो जाता है, रुक जाता
है। और वह जो
अनुभूति है, एक बार भी
मिल जाए तो
दुबारा कभी
खोती नहीं। फिर
आप कितना ही
कुछ करते रहें,
आप
प्रत्येक
करने में
जानते हैं कि
न करने की धारा
भीतर बह रही
है। फिर आप
किसी भी अभिनय
में लगे रहें,
आप जानते
हैं कि अभिनय
है, थोड़ी
देर के बाद
मंच से उतर कर
घर चले जाना
है। यह स्मृति
इतनी साफ हो
जाती है, इतनी
पैनी हो जाती
है कि गहरे से
गहरे क्षण में
भी वह बोध
स्पष्ट रहता
है, कि
उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
फिर आप
अभिनेता होने
से तादात्म्य
नहीं कर लेते
हैं अपना।
अभिनय
जीवन-व्यवस्था
का अंग हो
जाता है, लेकिन
अभिनय के बाहर
आपकी सत्ता की
झलक मिलनी शुरू
हो जाती है।
कृष्ण
के
जीवन-व्यवहार
को जो नाम
दिया है, वह
है लीला। लीला
का मतलब यह
है--खेल, लीला
का मतलब है
नाटक; लीला
का मतलब है
सच्चा नहीं, माना हुआ।
जो
व्यक्ति
सामायिक को
उपलब्ध हो
जाएगा, उसका
जीवन लीला हो
जाएगी। उसका
जीवन लीला हो
जाएगी, यह
ध्यान रहे।
उसका जीवन
चरित्र नहीं
रह जाएगा, चरित्र
नहीं है उसका
जीवन फिर।
इसलिए
राम के जीवन
को हम कभी
लीला नहीं
कहते, वह
रामचरित्र है;
वह गहरे में
चरित्र है, वहां नीति
की पकड़ गहरी
है, वहां
अभिनय भारी
है। लेकिन
कृष्ण के
मामले को हम
कहते हैं
लीला।
क्योंकि वहां
चीजें तरल हैं,
किसी चीज की
पकड़ नहीं है, सब खेल है।
और भीतर एक
आदमी बाहर खड़ा
है, जो खेल
के बिलकुल
बाहर है।
क्या
ऐसा कर सकते
हैं आप कि कभी
क्षण भर को
खेल के बाहर
उतर आएं? वे
वस्त्र उतार
दें जो नाटक
के मंच पर
पहने थे, और
वे चेहरे भी
निकाल कर रख
दें, और वह मेक-अप भी
हटा दें जो
काम करता था
मंच पर, और
खाली घर लौट
आएं जैसे आप
हैं।
ऐसा, ऐसा अगर कर
सकें तो इसके
पहले हिस्से
का नाम प्रतिक्रमण
है, इस
लौटने का नाम।
और दूसरे
हिस्से का नाम,
जब आप अपने
में ठहर गए
हैं--जैसे यह
झींगुर बोल रहा
है, जैसे
वृक्षों में
पत्ते लग रहे
हैं, जैसे
आकाश से चांद
की किरणें गिर
रही हैं, ऐसे
ही किसी क्षण
में आप कुछ कर
नहीं रहे हैं।
जो हो रहा है, हो रहा है।
श्वास चल रही
है, चल रही
है, आप चला
नहीं रहे हैं।
आंख झपक रही
है, झपक
रही है, आप झपका नहीं
रहे हैं। पैर
थक गया है, हिल
गया है, हिल
गया है, आपने
हिलाया नहीं
है। और आप
बिलकुल ऐसे हो
गए हैं जैसे
हैं ही नहीं।
उस क्षण में
आपको पता चल
सकेगा कि मैं
कौन हूं, मेरी
आत्मा क्या है,
मेरा
अस्तित्व
क्या है। और
एक बार इसका
पता चल जाए तो
जीवन फिर
दूसरा है। फिर
जीवन वही कभी
नहीं होगा, जो था। इसे
हम कुछ दो-चार
उदाहरणों से
समझने की
कोशिश करें।
एक
फकीर है मारपा, वह अपने
गुरु के पास
गया है। वह
तिब्बत में हुआ।
वह अपनी गुरु
की तलाश में
वह अपने गुरु
के पास गया
है। गुरु लेटा
हुआ है। वह
गुरु से कहता
है, आप इस
समय क्या कर
रहे हैं? तो
उसका गुरु
कहता है, किसी
समय मैंने कुछ
नहीं किया। वह
मारपा कहता है,
कुछ तो कर
ही रहे होंगे।
बिना किए कैसे
हो सकते हैं? उसका गुरु
कहता है, करने
वाला कभी हुआ
है? बिना
किए ही कभी
कोई होता है।
किया कि गए, नहीं किया
कि पाया। तो
मारपा कहता है,
कुछ समझ में
नहीं आता। तो
उसका गुरु
कहता है, समझने
की कोशिश कर
रहा है, इसलिए
समझ में कैसे
आएगा? समझने
की कोशिश मत
कर। देख, जान,
पहचान; समझने
की कोशिश मत
कर।
एक
जर्मन विचारक
है हेरीगेल, जापान गया।
और जापान में
उन्होंने
बहुत सी
तरकीबें खोजी
हैं जिनके
माध्यम से वह
सामायिक में
ले जाना
सिखाते हैं, मेडीटेशन में ले जाना
सिखाते हैं।
उनमें कई हैं,
जैसे फ्लावर
अरेंजमेंट
भी एक है, फूल
जमाने की कला
भी एक है, जिससे
आदमी ध्यान को
उपलब्ध हो।
जिस दिन फूल जमाने
की कला में
कोई निष्णात
हो जाता है और
उसका गुरु
पूछता है कि
बहुत अच्छे
जमाए फूल! तो
वह कहता है, ऐसा मत कहें,
ऐसा मत कहें;
फूल जम गए।
कहता है, ऐसा
मत कहें; फूल
जम गए। मैं
केवल निमित्त
बन गया, फूल
जम गए। मैं
सिर्फ
निमित्त बन
गया, फूल
जम गए। मैंने
कुछ किया नहीं,
फूल जम गए।
फूल ऐसे ही
जमना चाहते
थे। मेरा
उन्होंने
उपयोग ले लिया
और फूल जम गए।
मैंने फूल
जमाए नहीं।
फूल
जमाने से भी
सिखाते हैं, तलवार चलाने
से भी सिखाते
हैं, तीर
चलाने से भी
सिखाते हैं।
हेरीगेल
जिस गुरु के
पास गया वह
धनुर्विद्या
से ध्यान
सिखाता था।
तीन साल तक हेरीगेल
ने
धनुर्विद्या
सीखी। उसके
निशाने अचूक
हो गए। उसके
निशाने में
भूल-चूक बंद
हो गई, शत-प्रतिशत
ठीक हो गए।
लेकिन गुरु है
कि रोज कहता
है कि नहीं, नहीं, नहीं,
अभी कुछ भी
नहीं हुआ। वह हेरीगेल
कहता है कि
मैं परेशान हो
गया तीन साल
मेहनत करते-करते।
मेरा एक
निशाना नहीं
चूकता है और
आप कहते हैं
कुछ नहीं हुआ!
उसके
गुरु ने कहा, निशाने से
लेना-देना
क्या है।
लेकिन अभी तीर
तू चलाता है, चलता नहीं।
वह गुरु कहता
है, अभी
तीर तू चलाता
है, तेरा एफर्ट
जारी है। हमें
निशाने से
क्या मतलब!
निशाना लगे न
लगे, यह
गौण बात है।
और निशाना
क्यों न लगेगा?
निशाना
लगेगा क्यों
नहीं? निशाना
लगेगा।
निशाने से कुछ
लेना-देना
नहीं है।
लेकिन तू तीर
चलाता है, तीर
अभी चलता
नहीं।
तीन
साल परेशान हो
गया। वह वैसे
भी धनुर्विद्या
का पहले से
अभ्यासी था।
जो भी देखने
आता है, वह
कहता है, हेरीगेल, अदभुत हो
तुम। उसका
निशाना बाल भी
नहीं चूकता
है। उसका कोई
निशाना नहीं
चूकता है, महीनों
से उसका
निशाना नहीं
चूका। लेकिन
उसका गुरु है
कि रोज कह
देता है, नहीं,
अभी कुछ
नहीं हुआ।
आखिर
थक गया हेरीगेल
और उसने कहा, अब क्षमा
करें, अब
मैं लौट जाऊं।
लेकिन गुरु ने
कहा, सर्टिफिकेट
नहीं दे
सकूंगा। इतना
लिख सकता हूं
कि तीन साल
मेरे पास रहा,
लेकिन असफल
लौटता है। वह
कहता है कि
मेरे सब निशाने
ठीक लगते हैं।
उसने कहा, निशाने
से हमें कोई
मतलब ही नहीं
है। तू ठीक नहीं
है, निशाने
से हम क्या
करें! हम तुझे
देख रहे हैं, निशाने से
हमें क्या
करना है। तू
ही ठीक नहीं है।
क्योंकि तू
अभी तक भी ऐसा
नहीं हो पाया
है कि तीर चले,
अभी तू तीर
चलाता है।
हेरीगेल
पश्चिमी आदमी
है, उसकी समझ
के बाहर है
बिलकुल यह
बात। वह लिखता
है अपनी किताब
में कि मेरी
समझ के ही
बाहर है कि
तीर चलेगा
कैसे जब तक
मैं न चलाऊंगा?
यह तो
बिलकुल
एब्सर्ड है।
यह तो बिलकुल
निपट बकवास
मालूम पड़ती है
कि तीर अपने
आप चलेगा कैसे,
जब तक मैं
नहीं चलाऊंगा?
और मैं
चलाता हूं तो
वह कहता है, बाधा पड़ गई।
और मैं नहीं चलाऊंगा
तो तीर चलता
नहीं। और वह
कहता है, ऐसा
चलाओ जैसा कि
तुमने न चलाया
हो, बस तीर
चल जाए। तुम
निमित्त भर
रहो। तीर तुमसे
चल जाए। तुम
मत चलाओ, तुम
मत आओ बीच
में। तुम
क्रिया मत बनो,
तुम कर्ता
मत बनो।
थक गया
आखिर, तीन
साल बाद उसने
एक दिन कहा कि
मैं कल टिकट
बुक करवा आया
हूं, मैं
वापस लौटता
हूं। गुरु ने
कहा, जैसी
मर्जी। हेरीगेल
लौट आया है।
दूसरे
दिन सांझ को
उसका हवाई
जहाज है, सुबह
वह अंतिम विदा
लेने गुरु के
पास जाता है।
तो गुरु दूसरे
शिष्यों को
तीर चलाना
सिखा रहा है। हेरीगेल
एक बेंच पर
बैठ गया है।
उसके गुरु ने
तीर उठाया है,
तीर चलाया
है। हेरीगेल
एकदम से खड़ा
हो गया, गया
है गुरु के
पास, बिना
बोले धनुष हाथ
में लिया है, तीर चलाया
है। गुरु ने
कहा, ठीक!
तीर चल गया।
उसने हेरीगेल
ने कहा, लेकिन
इतने दिनों से
क्यों नहीं हो
सका? उसने
कहा, तू
इतने दिन से
कोशिश में लगा
था। आज तू
कोशिश में
नहीं था, आज
तू ऐसे ही आकर
बैठा था कि
विदा ले लेनी
है। आज तू
कोशिश में
नहीं था, ऐसे
ही बैठा था कि
विदा ले लेनी
है।
हेरीगेल
ने कहा कि हां, मैं आज तक
देख ही नहीं
सका आपको। आज
मैंने पहली
दफा देखा कि
तीर चल रहा है
और आदमी मौजूद
नहीं है। फिर
तो मैं उठा।
फिर मैं यह भी
नहीं कह सकता
अब कि उठा--उठ
गया। तीर हाथ
में आ गया।
तीर चल गया।
गुरु ने कहा, अब मैं तुझे
लिख कर दे
सकता हूं। बस,
एक ही दिन
काफी है, बात
खतम हो गई।
तुझे समझ में
आ गया फर्क।
हम
कर्ता हैं, अकर्ता कभी
भी नहीं। एक
क्षण को भी
अकर्ता हो जाएं
तो बात हो गई।
वह एक क्षण
अकर्ता का ही
सामायिक का
क्षण है।
एक और
घटना मुझे याद
आती है। चीन
में एक हुईऱ्हाई
फकीर हुआ, वह अपने
गुरु के पास
गया है। और वह
गुरु से कहता
है कि मुझे
मोक्ष पाना है,
सत्य पाना
है। उसका गुरु
कहता है, जब
तक पाना है, तब तक कहीं
और जा; जब
पाना न हो, तब
मेरे पास आना।
तो वह
कहता है, जब
मुझे पाना
नहीं होगा तो
मैं आपके पास किसलिए आऊंगा?
तो
उसका गुरु कहता
है, मत आना।
लेकिन जब तक
पाना है, तब
तक मुझसे क्या
लेना-देना!
पाना है, तब
तक तू कहीं और
जा। क्योंकि
पाने की भाषा
ही तनाव की
भाषा है। जब
तक तू कहता है
पाना है, तो
पाना होगा
भविष्य में और
तू होगा अभी, और तेरा मन खिंचेगा
भविष्य तक
सेतु बन जाएगा,
तनाव हो जाएगा।
तो वह
उससे पूछता है, तो आप कुछ
पाने के लिए
नहीं करते? उसने कहा कि
नहीं, जब
तक हम पाने के
लिए कुछ करते
थे, नहीं
पाया; जिस
दिन पाना छोड़
दिया, उसी
दिन पा लिया।
वह कहता है, मेरे बूढ़े
गुरु ने मुझसे
कहा था, खोजो
और खो दोगे; मत खोजो और
पा लो। तब मैं
भी नहीं समझा
था कि मामला
क्या है। मत
खोजो और पा लो,
खोजोगे और खो दोगे।
डू नाट सीक
एंड फाइंड।
खोजो मत और पा
लो। मेरे गुरु
ने जब मुझसे
यह कहा था तो
मैंने कहा, ये तो
बिलकुल
पागलपन की
बातें हैं।
खोजेंगे नहीं
तो पाएंगे
कैसे? तो
मेरे गुरु ने
मुझसे कहा था
कि तुम खोजते हो,
इसीलिए खो
रहे हो; क्योंकि
जिसे तुम
खोजते हो, उसे
तुम पाए ही
हुए हो। एक
क्षण तुम खोज
तो रोको, दौड़
तो रोको; ताकि
तुम देख सको
कि क्या
तुम्हें मिला
ही हुआ है। तो
उसने कहा, मैं
भी तुझसे कहता
हूं कि जब तक
पाना हो, तू
कहीं और खोज
ले; और जब न
पाना हो, तब
आ जाना।
वह
युवक
बहुत-बहुत
आश्रमों में
भटकता फिरा। बहुत-बहुत
जगह खोज की
है। थक गया, परेशान हो
गया, कहीं
कुछ मिलता
नहीं, कहीं
कुछ पाया नहीं
जा सकता।
थका-मांदा
वापस लौटा है।
उससे उसका
गुरु पूछता है,
क्या इरादे
हैं, और खोजोगे?
वह
कहता है, नहीं।
मैं बहुत थक
गया। कुछ
खोजना नहीं है,
विश्राम के
लिए आया हूं।
तो
उसने कहा, आओ। स्वागत
है! क्योंकि
कभी-कभी जो
श्रम से नहीं
मिलता, वह
विश्राम में
मिल जाता है।
कभी-कभी जो
श्रम से नहीं
मिलता, वह
विश्राम में
मिल जाता है।
सच तो यह है कि
श्रम से मिलता
वह है, जो
पराया हो। और
विश्राम में
वह मिलता है, जो स्वयं
में है।
विश्राम में
ही मिल सकता
है, जो
स्वयं में है।
सामायिक
परम विश्राम
है, टोटल रिलैक्सेशन
है। न अतीत
में जाना, न
भविष्य में
जाना; न
कुछ पाना, न
कहीं कुछ
खोजना; बस
जहां हैं, वहीं
रह जाना; तो
संपत्ति उघड़
जाती है।
बुद्ध
को जिस दिन
उपलब्धि हुई, उस दिन सुबह
उनसे लोगों ने
पूछा कि आपको
क्या मिला?
बुद्ध
ने कहा, मिला
कुछ भी नहीं, जो मिला ही
हुआ था, वही
मिल गया है।
जो मिला ही
हुआ था!
कैसे
मिला?
तो
बुद्ध ने कहा, कैसे की बात
मत पूछो। जब
तक कैसे की
भाषा में मैं
भी सोचता था, तब तक नहीं
मिला; क्योंकि
मैं खोजता था।
जो मिला ही
हुआ था, उसको
खोजता था। फिर
मैंने सब खोज
छोड़ दी। और जिस
क्षण मैंने
खोज छोड़ी,
पाया कि वह
तो है; जिसे
मैं खोजता था,
वह है ही।
असल
में स्वभाव का
मतलब क्या है? स्वरूप का
मतलब क्या है?
स्वरूप का
मतलब है, जो
है ही। और खोज
का मतलब है वह,
जो नहीं है,
उसे हम खोज
रहे हैं।
इसलिए
जब कोई आदमी
आत्मा को
खोजने लगता है
तो वह एब्सर्ड
एफर्ट
में लग गया।
जब कोई आदमी
कहने लगता है
मैं आत्मा को खोजूंगा, तब वह
पागलपन में लग
गया। क्योंकि
आत्मा को कौन
खोजेगा? कैसे
खोजेगा? वह
तो है ही
हमारे पास, सदा ही है।
जब हम खोज रहे
हैं तब भी, जब
नहीं खोज रहे
हैं तब भी।
फर्क इतना ही
पड़ता है, खोजने
में हम उलझ
जाते हैं, चूक
जाते हैं।
नहीं खोजते
हैं, दिख
जाता है, मिल
जाता है, उपलब्ध
हो जाता है।
अगर यह
बात ठीक से
खयाल में आ
जाए कि
सामायिक है
अप्रयास; एफर्ट नहीं, एफर्टलेसनेस। सामायिक
है--खोज नहीं, सीकिंग नहीं;
नो सीकिंग--अखोज। यह
खयाल में आ
जाए कि
सामायिक कोई
लक्ष्य नहीं
है, जो
भविष्य में
है। सामायिक
है अभी और
यहीं। और अगर
हम लक्ष्य को
खोजते हुए भटक
रहे हैं तो चूकते
चले जाएंगे।
चूकते ही चले
जाएंगे, अनंत
जन्मों तक चूकते
चल जाएंगे।
तो
क्या आप इसी
क्षण में हो
सकते हैं कुछ
भी बिना करे? तो आप वहीं
पहुंच जाएंगे,
जहां
महावीर सदा से
खड़े हैं।
लेकिन हमारा
मन वही-वही
प्रश्न
बार-बार उठाए
जाता है: कैसे
करें? क्या
करें? कहां
जाएं? कहां
खोजें?
जो
जानते हैं, वे कहेंगे, उसे खोजो जो
खोजने की
इच्छा कर रहा
है। जो जानते
हैं, वे
कहेंगे, और
कहीं मत, जहां
से प्रश्न उठा
है, वहीं
उतर जाओ। वे
कहेंगे, जहां
यह जो भीतर
पूछ रहा है कि
आत्मा को कैसे
पाएं, मोक्ष
को कैसे पाएं,
इसी में उतर
जाओ। और इसी
में उतरने से
मोक्ष मिल
जाएगा और
आत्मा मिल
जाएगी। यही है
आत्मा, यही
है मोक्ष।
लेकिन
कहीं कुछ
मनुष्य के
चित्त की पूरी
यांत्रिकता
में कुछ
बुनियादी भूल
है, कुछ
चुकाने का
उपाय है कि वह
चूकता ही चला
जाता है। बस
एक बारीक सी
बात उसके खयाल
में नहीं आ पाती
कि जो मुझे
पाना है, वह
मुझे किसी न
किसी अर्थों
में मिला ही
हुआ है।
यह अगर
बहुत स्पष्ट
रूप से खयाल
में आ जाए तो दूसरी
बात खयाल में
आ जाएगी कि
इसे श्रम से
नहीं पाना है, इसे विश्राम
में पाना है।
तब यह भी समझ
में आ जाएगा
कि पाने की
भाषा ही गलत
है। जो पाया
ही हुआ है, उसका
ही आविष्कार
कर लेना है।
इसलिए
आत्म-उपलब्धि
नहीं होती, सिर्फ
आत्म-आविष्कार
होता है।
डिस्कवरी है,
कुछ ढंका था,
उसे उघाड़
लेना है। और
ढंका है हमारी
खोज करने की
प्रवृत्ति से,
ढंका है
हमारे कहीं और
होने की
स्थिति से। हम
कहीं और न हों
तो उघड़
जाएगा, अपने
से उघड़
जाएगा, अभी
उघड़
जाएगा।
सामायिक
न तो कोई
क्रिया है, न कोई
अभ्यास है, न कोई
प्रयत्न है, न कोई साधना
है, न कोई
साधन है।
एक
छोटी सी घटना
से समझाऊं। मुछाला
महावीर में
पहला कैंप
हुआ। तो
राजस्थान में
एक वृद्ध
महिला है भूरबाई, वह भी उस
कैंप में आई।
उसके साथ उसके
दस-पच्चीस भक्त
भी आए। फिर तो
जब भी मैं
राजस्थान गया
हूं, इधर
निरंतर प्रति
वर्ष हर जगह भूरबाई
आती रही है
अपने
दस-पच्चीस
लोगों को
लेकर। सैकड़ों
लोग पूजा करते
हैं उसकी, सैकड़ों
लोग पैर छूते
हैं, सैकड़ों लोग उसे
मानते हैं। और
ऐसे वह निपट
साधारण ग्रामीण
स्त्री है, न कुछ बोलती,
न कुछ
बताती। लेकिन
लोग पास बैठते
हैं, उठते
हैं, सेवा
करते हैं, चले
आते हैं।
ज्यादा से
ज्यादा वह
प्रेम करती है
लोगों को, उनको
खिला देती है,
उनकी सेवा
कर देती है और
विदा कर देती
है। फिर भी
लेकिन सैकड़ों
लोग उसको
प्रेम करते
हैं उसके पास
जाकर।
तो वह
आई। पहले दिन
ही सुबह की
बैठक में
मैंने समझाया
कि ध्यान क्या
है। जैसे अभी
आपसे कहा
सामायिक क्या
है, वह मैंने
कहा कि क्या
है। और यह कहा
कि करना नहीं
है, न-करने
में डूब जाना
है।
उस भूरबाई
के पास एक
बहुत बढ़िया
व्यक्ति कोई
पच्चीस वर्ष
से उसकी सेवा
करते हैं। कभी
तो वह
हाईकोर्ट के
बड़े एडवोकेट
थे, फिर
उन्होंने सब
छोड़ कर वह भूरबाई
के दरवाजे पर
ही बैठ गए।
उसके कपड़े
धोते हैं, उसके
पैर दबा देते
हैं और आनंदित
हैं, वह भी
आए थे।
सांझ
को जब सब
ध्यान करने आए
तो उन सज्जन
ने मुझे आकर
कहा कि बड़ी
अजीब बात है, भूरबाई को हमने
बहुत कहा कि
ध्यान करने
चलो, वह
खूब हंसती है।
वह खूब हंसती
है। जब हम
उससे बार-बार
कहते हैं कि
चलो, हम आए
ही इसीलिए हैं,
तो वह कहती
है कि तुम
जाओ। और जब हम
बहुत नहीं माने
तो उसने कहा
कि तुम जाते
हो कि नहीं
यहां से? तुम
जाओ यहां से!
तुम ध्यान
करो।
तो
उसने मुझे आकर
कहा कि मुझे
बड़ी हैरानी
हुई कि हम आए किसलिए
हैं? और वह तो
आती नहीं कमरे
को छोड़कर। मैं
इधर आया और
उसने दरवाजा
बंद कर लिया।
तो
मैंने कहा, कल जब वह
सुबह आए तो
उसके सामने ही
मुझसे पूछना।
सुबह
वह बुढ़िया
आई और मेरे
पैर पकड़ कर
खूब हंसने लगी
और कहने लगी, रात बड़ा मजा
हुआ। आपने
सुबह कितना
समझाया कि
ध्यान करना
नहीं है और
हमारा यह
एडवोकेट कहता
है कि ध्यान
करने चलो। तो
मैंने इससे
कहा, तू
जल्दी से जा
यहां से, क्योंकि
करने वाला
रहेगा तो कुछ
न कुछ करेगा, तो दूसरों
को भी गड़बड़
करेगा। तू
जल्दी से जा यहां
से, तू
ध्यान कर। और
जैसे ही यह
बाहर आया, मैंने
दरवाजा बंद
किया और मैं
ध्यान में चली
गई। और आपने
ठीक कहा, करने
से नहीं हुआ, वर्षों तक
नहीं हुआ करने
से। और कल रात
हुआ, क्योंकि
मैंने कुछ न
किया, बस
मैं पड़ गई, जैसे
मर गई हूं।
पड़ी रही, पड़ी
रही--हो गया।
और यह बेचारा
कहता था कि
ध्यान करने
चलो। और यह
इधर ध्यान
करने आया और
मैं उधर ध्यान
में गई। और यह
बेचारा चूक
गया। इसको आप
समझाओ कि यह
करने की बात
भूल जाए।
करने
की बात हमें
नहीं भूलती, किसी को भी
नहीं भूलती।
इसलिए मुझे भी
समझने से आप
निरंतर चूक
जाते हैं कि
मैं क्या कह
रहा हूं।
महावीर को
समझने से भी
लोग निरंतर
चूके हैं कि
वे क्या कह
रहे हैं।
एक
छोटी सी घटना
और, फिर हम
ध्यान के लिए बैठें।
लाओत्से
एक जंगल से
गुजर रहा है, उसके साथ
उसके
दस-पच्चीस
शिष्य हैं।
किसी राजा का
बड़ा महल बन
रहा है और
जंगल में हर
वृक्ष से शाखाएं
काटी जा रही
हैं, तने काटे
जा रहे हैं, लकड़ियां काटी जा रही
हैं। पूरा
जंगल कट रहा
है। सिर्फ एक
वृक्ष है बहुत
बड़ा, जिसके
नीचे हजार बैलगाड़ियां
ठहर सकती हैं,
उसमें से
किसी ने एक
शाखा भी नहीं
काटी है। तो लाओत्से
अपने शिष्यों
से कहता है कि
जरा जाओ, उस
वृक्ष से पूछो
कि उसके पास
सीक्रेट क्या
है? जब
सारा जंगल कट
रहा है तो यह
वृक्ष कैसे बच
गया? इस
वृक्ष के पास
जरूर कोई राज
है। जाओ, जरा
वृक्ष से पूछ
कर आओ।
शिष्य
वृक्ष का
चक्कर लगा कर
आते हैं।
लाओत्से ने
कहा तो लगा
आते हैं, लेकिन
वृक्ष क्या
कहेगा? लौट
कर कहते हैं
कि हम चक्कर
लगा आए, मगर
वृक्ष से क्या
पूछें? हां,
यह बात जरूर
है कि वृक्ष
बड़ा भारी है, किसी ने
नहीं काटा!
बड़ी छाया है
उसकी, बड़े
पत्ते हैं
उसके, बड़े
दूर-दूर तक
पक्षी
विश्राम कर
रहे हैं, नीचे
हजार बैलगाड़ी
ठहर सकती हैं।
तो लाओत्से ने
कहा, तो
फिर जाओ, उन
लोगों से पूछो
जो दूसरे
वृक्षों को
काट रहे हैं
कि इसको क्यों
नहीं काटते? राज जरूर है
वृक्ष के पास
कुछ।
तो वे
गए हैं और एक
बढ़ई से
उन्होंने
पूछा जो लकड़ियां
काट रहा है कि
तुम इस वृक्ष
को क्यों नहीं
काटते? तो
उस बढ़ई ने कहा,
इस वृक्ष को
काटना बड़ा
मुश्किल है।
यह वृक्ष बिलकुल
लाओत्से की
भांति है। उन
शिष्यों ने
कहा, लाओत्से
की भांति! हम
लाओत्से के
शिष्य हैं।
तो
उन्होंने कहा
और भी ठीक हुआ, बिलकुल
लाओत्से की
भांति! यह
बिलकुल बेकार
है, किसी
काम का ही
नहीं है। लकड़ी
कोई सीधी नहीं
है, सब लकड़ियां
तिरछी हैं, किसी काम
में नहीं पड़तीं।
लकड़ियों
को जलाओ तो धुआं
देती हैं।
जलाने के भी
काम की नहीं
हैं। यह वृक्ष
बिलकुल ही
बेकार है, न
सीधा है, न
काम का है, न
किसी मतलब का
है। इसे काटे
भी कौन? इसलिए
यह बचा हुआ
है।
वे
लौटे और
उन्होंने कहा
कि बड़ी अजीब
बात हुई। बढ़ई
ने कहा है कि
लाओत्से की
भांति है यह
वृक्ष। तो
लाओत्से ने
कहा, बिलकुल
ठीक किया। इसी
वृक्ष की
भांति हो जाओ।
न कुछ करो, न
कुछ पाने की
कोशिश करो।
क्योंकि जिन
वृक्षों ने
सीधे होने की
कोशिश की, देख
रहे हो, कैसे
कट रहे हैं!
जिन वृक्षों
ने सुंदर होने
की कोशिश की, देख रहे हो, कैसी आरी
फेरी जा रही
है! जिन
वृक्षों ने कुछ
भी बनने की
कोशिश की, उनकी
हालत देख रहे
हो? एक भर
वृक्ष है, जिसने
कुछ बनने की
कोशिश नहीं
की। जो हो गया,
हो गया।
तिरछा तो
तिरछा, आड़ा तो आड़ा,
धुआं
निकलता है तो
धुआं निकलता
है। देखो कैसा
बच गया
है--बिलकुल
लाओत्से
जैसा। मेरे ही
जैसा है, लाओत्से
ने कहा। और
ऐसे ही हो जाओ
अगर बचना हो
और बड़ी छाया
पानी हो और तुम्हारी
शाखाओं में
बड़े पक्षी
विश्राम करें और
तुम्हें कोई
कभी काटने न
आए।
उसके
शिष्यों ने
कहा, हम फिर भी
ठीक से न समझे
कि यह बात
क्या है, यह
तो और एक
पहेली हो गई।
वृक्ष से तो
हम नहीं पूछ
सके, लेकिन
जब आप कहते हैं
कि मेरे ही
भांति यह
वृक्ष है तो
हम आपसे ही पूछ
लेते हैं कि
राज क्या है? तो लाओत्से
ने कहा, राज
यह है कि मुझे
कभी कोई हरा
नहीं सका, क्योंकि
मैं पहले से
ही हारा हुआ
था। मुझे कभी
कोई उठा नहीं
सका, क्योंकि
मैं सदा उस
जगह बैठा, जहां
से कोई उठाने
आता ही नहीं।
मैं जूतों के
पास ही बैठा
सदा। मेरा कोई
कभी अपमान
नहीं कर सका, क्योंकि
मैंने कभी मान
की कामना नहीं
की।
लाओत्से
ने कहा यह कि
मैंने कुछ
होना नहीं चाहा, कुछ होना ही
नहीं चाहा--अ ब
स कुछ भी नहीं
होना चाहा, धनी नहीं
होना चाहा, यशस्वी नहीं
होना चाहा, विद्वान नहीं
होना
चाहा--मैंने
कुछ होना ही
नहीं चाहा, इसलिए मैं
वही हो गया, जो मैं हूं।
अगर मैं कुछ
और होना चाहता
तो मैं चूक
जाता। यह
वृक्ष--ठीक
कहते हैं वे
लोग--मेरे ही
जैसा है, इसने
कुछ नहीं होना
चाहा; इसलिए
जो था, वही
हो गया।
और परम
आनंद है वही
हो जाना जो हम
हैं। जो हम
हैं, उसी में
हो जाना परम
आनंद है। जो
हम हैं, उसी
में रम जाना
मुक्ति है। जो
हम हैं, उसी
को उपलब्ध कर
लेना सत्य है।
सामायिक
को अगर ऐसा
देखेंगे तो
समझ में आ
जाएगा। और
मंदिरों में
जो सामायिक की
जा रही है, अगर वहां
समझने गए तो
फिर कभी समझ
में नहीं आएगा।
वे सब करने
वाले लोग हैं।
वे वहां भी
सामायिक कर
रहे हैं! वे
वहां भी
व्यवस्था दे
रहे हैं--मंत्र
है, जाप है,
इंतजाम है;
सब कर रहे
हैं! वह सब
क्रिया है और
क्रिया के पीछे
लोभ है।
क्योंकि ऐसी
कोई क्रिया ही
नहीं, जिसके
पीछे लोभ न हो,
पाने की
कामना न हो।
स्वर्ग है, मोक्ष है, आत्मा है; कुछ न कुछ
उन्हें पाना
है, उसके
लिए वे यह
क्रिया कर रहे
हैं।
और
जिसकी अभी
पाने की
आकांक्षा है, वह सब पा ले, सिर्फ स्वयं
को नहीं पा
सकता।
क्योंकि
स्वयं को पाने
की आकांक्षा
से नहीं पाया
जा सकता। क्योंकि
पाने की सब
आकांक्षा
स्वयं के बाहर
ले जाती है।
जब पाने की
कोई आकांक्षा
नहीं तो आदमी
स्वयं में लौट
आता है, अपने
घर वापस। यह
जो घर वापस
लौट आना है और
घर में ही ठहर
जाना है, इसका
नाम सामायिक
है।
महावीर
ने अदभुत
व्यवस्था की
है उस अक्रिया
में उतर जाने
की, होने
मात्र में उतर
जाने की।
जिसकी समझ में
आ जाए उसे
करने का सवाल
नहीं है फिर, और जिसकी
समझ में न आए, वह कुछ भी
करता रहे, कोई
फर्क पड़ने
वाला नहीं है।
प्रश्न:
एक
बात जरा सी, वह अड़तालीस
मिनट का इसमें
क्या हिसाब है?
कुछ
मतलब नहीं है।
कुछ मतलब नहीं
है। यहां
मिनट-विनट
का सवाल ही
नहीं है, एक
समय भर ठहर
जाना काफी है।
प्रश्न:
पंक्तियां
अड़तालीस मिनट
में पढ़ी जाती
हैं, इसलिए
मैंने पूछा।
एक
क्षण का जो हजारवां
हिस्सा है, लाखवां हिस्सा, उसमें
भी अगर तुम
ठहर गए तो बात
हो गई।
प्रश्न:
ये
सूत्र क्यों
बांधे हैं
सामायिक में? ये सूत्र
महावीर के समय
से ही बांधे
हुए सूत्र हैं?
सूत्र
अनुयायी
बनाते हैं और बांधते
हैं, महावीर
का कोई संबंध
नहीं है। असल
में सदा यह कठिनाई
है कि अनुयायी
क्या करता है,
यह बड़ा
मुश्किल
मामला है। वह
कुछ भी--जो वह
कर सकता है, करता है। और
वह सब इंतजाम
कर देता है
पूरा का पूरा।
और उसमें जो महत्वपूर्ण
था, वह
इंतजाम में ही
मर जाता है।
और अनुयायी
बेचारा प्रेम
से इंतजाम
करता है। वह
कहता है, सब
व्यवस्थित कर
दो। लोग पूछते
हैं, क्या
करना चाहिए? कितनी देर
करना चाहिए? कैसे करना
चाहिए? तो
कुछ तो इंतजाम
करो, नहीं
तो लोग कैसे
समझेंगे? सामान्य
आदमी कैसे समझेगा?
सामान्य
आदमी के लिए
वह इंतजाम कर
देता है। उस
इंतजाम में
सत्य मर जाता
है। और फिर वह
इंतजाम चलता
है और सत्य का
उससे कोई
संबंध नहीं रह
जाता है।
और
महावीर जैसे
लोगों को
समझना ही
मुश्किल है पहली
बात तो।
क्योंकि वे जो
बात कह रहे
हैं, वह इतनी
गहराई की है, और हम जहां
खड़े हैं, वह
इतने उथलेपन
में हैं, बल्कि
उथलेपन
में भी तट पर
खड़े हुए हैं।
और वहां से जो
हमारी समझ में
आता है, वह
हम इंतजाम कर
लेते हैं।
अनुयायी सारी
व्यवस्था
देता है। और
कुछ
व्यवस्थापक
मस्तिष्क होते
हैं, जो
सदा व्यवस्था
देते रहते
हैं। वे किसी
भी चीज को
व्यवस्थित कर
देते हैं। और
जब वे व्यवस्थित
कर देते हैं
तो कुछ चीजें
ऐसी हैं, जो
व्यवस्था में
ही मर जाती
हैं। असल में
जीवंत कोई भी
चीज व्यवस्था
में मर जाती
है।
तो
मेरा कहना है, समझ में आए
तो आए, न आए
तो न आए, व्यवस्था
मत देना; क्योंकि
व्यवस्था दी
तो जिनकी समझ
में भी कभी आ
सकता था, उनकी
में भी कभी
नहीं आएगा
फिर। इसलिए
उसको अव्यवस्थित
ही छोड़ देना; जैसा है
वैसा ही छोड़
देना।
प्रश्न:
किसी
से कहना हो
अगर सामायिक, तो क्या
कहेंगे?
हां, जो मैंने यह
कहा न...।
प्रश्न:
सामायिक
करना तो है ही
नहीं।
नहीं, बिलकुल नहीं
करना।
प्रश्न:
तो
क्या कहेंगे? शब्द क्या
है उसके लिए?
उसका
कुल मतलब इतना
है कि कुछ देर
के लिए, कुछ
देर के लिए
कुछ भी नहीं
करना है; और
जो हो रहा है, होने देना
है। विचार आते
हैं, विचार
आने देना; भाव
आते हैं, भाव
आने देना; हाथ
हिले, हिलने
देना; पैर
करवट बदले, बदलने
देना--सब होने
देना। थोड़ी
देर के लिए कर्ता
मत रह जाना, बस साक्षी
रह जाना। जो
हो रहा है, होने
देना। कुछ मत
करना। अपनी
तरफ से कुछ भी
मत करना। तो
जो अवस्था
उत्पन्न होगी,
वह सामायिक
है। यानी
सामायिक के
लिए कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। अगर आप
कुछ भी न कर
रहे हों थोड़ी
देर, तो जो
हो जाएगा, उसका
नाम सामायिक
है।
तो वह
जो कठिनाई
होती है न, कठिनाई यह
होती है कि
सामायिक तो
घटेगी, उसकी
फ्लावरिंग
होगी। और वह
तब होगी, जब
आप बिलकुल ही
अप्रयास में
पड़े हों। जैसे
कभी आपने खयाल
किया हो, किसी
का नाम आपको
भूल गया है और
आप कोशिश कर
रहे हैं याद
करने की और वह
नहीं याद आ
रहा है, और
फिर आप ऊब गए
और थक गए और
आपने कोशिश
छोड़ दी, और
आप दूसरे काम
में लग गए और
अचानक वह नाम
आ गया है। तो
अब अगर कोई
कहे कि हमें
किसी का नाम
भूल जाए और उसे
याद करना हो
तो हम क्या
करें? तो
उससे हम क्या
कहें?
उससे
हम यह कहेंगे
कि कम से कम
नाम याद करने
की कोशिश मत
करना। तो वह
कहेगा, हमको
नाम ही तो याद
करना है। और
आप यह क्या
कहते हैं? उससे
हम कहेंगे कि
नाम याद करने
की कोशिश मत करना
तो नाम आ
जाएगा। और
तुमने कोशिश
की तो मुश्किल
में पड़ जाओगे,
क्योंकि
तुम्हारी
कोशिश टेंस
कर देती है
मस्तिष्क को।
तो उसमें से
जो आना भी
चाहिए, वह
भी नहीं आ
पाता, मस्तिष्क
सख्त हो जाता
है।
जुजुत्सु
एक कला होती
है युद्ध की, लड़ाई की, कुश्ती
की। तो आमतौर
से जब दो
आदमियों को
लड़ने के लिए
हम सिखाते हैं
तो हम उसको
हमला सिखाते
हैं कि तुम
दूसरे पर हमला
करना। लेकिन जुजुत्सु
में वे यह
सिखाते हैं कि
तुम हमला मत
करना, जब
दूसरा हमला
करे तो तुम
बिलकुल राजी
हो जाना; कोआपरेट करना उससे, जब दूसरा
हमला करे।
जैसे वह घूंसा
मारे तुम्हारी
छाती पर, तो
तुम कोआपरेट
करना, तुम
छाती में उसके
घूंसे के लिए
जगह बना देना।
तुम बिलकुल
राजी होकर
घूंसे को पी
जाना। तो उसके
हाथ की हड्डी
टूट जाएगी और
तुम बच जाओगे।
बहुत
कठिन है यह!
क्योंकि जब
कोई आपकी छाती
में घूंसा
मारे तो आपकी
छाती सख्त हो
जाएगी फौरन।
बचाव करेगी न!
और सख्ती में
आपकी हड्डी
टूटने वाली
है।
जैसे
दो आदमी चल
रहे हैं एक बैलगाड़ी
में बैठे, एक शराब पीए
हुए है और एक
बिलकुल शराब
पीए हुए नहीं
है। बैलगाड़ी
उलट गई। तो जो
शराब पीए हुए
है, उसको
चोट लगने की
संभावना कम है,
जो शराब
नहीं पीए है, उसको चोट
लगेगी। उसका
कुल कारण यह
है कि वह शराब
जो पीए है, वह
हर हालत में
राजी है। वह
उलट गई तो वह
उसी में उलट
गया, यानी
उसने कोई बचाव
का उपाय ही
नहीं किया।
लेकिन वह जो
होश में है, वह बैलगाड़ी
उलटी तो वह
सजग हुआ। उसने
कहा, मरे!
बचाओ! तो अब वह
सब सख्त हो
गया। स्ट्रेंड
हो गया। तो जो
हड्डियां
सख्त हो गईं
उन पर जरा सी
चोट लगी कि वे टूटीं। और
वह इसलिए शराब
पीने वाला
इतना गिरता है
सड़कों पर, कभी
हड्डी टूटते
देखी उसकी
बेचारे की? आप जरा गिर
कर देखो! तो
कुल कारण इतना
है कि वह ऐसे
गिरता है जैसे
बोरा गिर रहा
है, उसमें
कुछ है ही
नहीं। गिर गए
तो गिर गए, वह
उसी के लिए
राजी हो गए।
तो उसको चोट
नहीं लगती।
तो जुजुत्सु
कहता है कि
अगर चोट न
खानी हो तो
ऐसे गिरना, ऐसे गिरना
कि जैसे गिरे
ही हुए हो, यानी
तुम इसका कोई,
इसका--नहीं
गिरना है ऐसा
खयाल ही मत ले
आना मन में।
प्रश्न:
गिरना
भी नहीं है!
हां, गिरना भी
नहीं है इस
अर्थ में, तो
चोट नहीं
खाओगे। और
दूसरा जब हमला
करे तो तुम पी
जाना उसके
हमले को, तुम
राजी हो जाना।
ठीक
सामायिक का
मतलब भी यह है
कि चारों तरफ
से चित्त पर
बहुत तरह के
हमले हो रहे
हैं, विचार
हमला कर रहा
है, क्रोध
हमला कर रहा
है, वासना
हमला कर रही
है, सबके
लिए राजी हो
जाना। कुछ
करना ही मत, जो हो रहा है
होने देना और
चुपचाप पड़े रह
जाना। एक क्षण
को भी अगर यह
हो जाए--एक
क्षण को भी
मुश्किल है, क्योंकि हम
करने को इतने
आतुर हैं कि
विचार आया
नहीं कि हम उस
पर सवार हुए, या तो उसके
साथ गए या
उसके विरोध
में गए। हम बिलकुल
तैयार ही हैं
लड़ने को।
मैं जब
समझाना चाहूं
तो यही कह
सकता हूं कि
कुछ न करना, जो हो रहा हो
उसको एक घड़ी
भर देखना।
तेईस घंटे तो
हम कुछ करते
ही हैं, एक
घंटा ऐसा कर
लेना कि नहीं
कुछ करेंगे, बैठे रहेंगे;
जो होगा, होने देंगे;
देखेंगे कि
यह हो रहा है।
इसे सिर्फ
देखना है, साक्षी
रह जाना है।
साक्षी-भाव
ही सामायिक
में प्रवेश
दिला देता है।
आज
इतना ही।
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