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गुरुवार, 5 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--01)

महावीर से प्रेम—(प्रवचन—पहला)

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।
और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है--प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है।

तो महावीर से प्रेम करने में महावीर से बंधना नहीं होता। महावीर से प्रेम करते हुए बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम किया जा सकता है। क्योंकि जिस चीज को हम महावीर में प्रेम करते हैं, वह और हजार-हजार लोगों में उसी तरह प्रकट हुई है।
महावीर को थोड़े ही प्रेम करते हैं। वह जो शरीर है वर्धमान का, वह जो जन्मतिथियों में बंधी हुई एक इतिहास रेखा है, एक दिन पैदा होना और एक दिन मर जाना, इसे तो प्रेम नहीं करते हैं। प्रेम करते हैं उस ज्योति को जो इस मिट्टी के दीए में प्रकट हुई। यह दीया कौन था, यह बहुत अर्थ की बात नहीं। बहुत-बहुत दीयों में वह ज्योति प्रकट हुई है।
जो ज्योति को प्रेम करेगा, वह दीए से नहीं बंधेगा; और जो दीए से बंधेगा, उसे ज्योति का कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि दीए से जो बंध रहा है, निश्चित है कि उसे ज्योति का पता नहीं चला। जिसे ज्योति का पता चल जाए उसे दीए की याद भी रहेगी? उसे दीया फिर दिखाई भी पड़ेगा?
जिसे ज्योति दिख जाए, वह दीए को भूल जाएगा। इसलिए जो दीए को याद रखे हैं, उन्हें ज्योति नहीं दिखाई दी। और जो ज्योति को प्रेम करेगा, वह इस ज्योति को, उस ज्योति को थोड़े ही प्रेम करेगा! जो भी ज्योतिर्मय है--जब एक ज्योति में दिख जाएगा उसे, तो कहीं भी ज्योति हो, वहीं दिख जाएगा। सूरज में भी, घर में जलने वाले छोटे से दीए में भी, चांदत्तारों में भी, आग में--जहां कहीं भी ज्योति है, वहीं दिख जाएगा।
लेकिन अनुयायी व्यक्तियों से बंधे हैं, विरोधी व्यक्तियों से बंधे हैं। प्रेमी भर को व्यक्ति से बंधने की कोई जरूरत नहीं। और मैं प्रेमी हूं। और इसलिए मेरा कोई बंधन नहीं है महावीर से। और बंधन न हो तो ही समझ हो सकती है, अंडरस्टैंडिंग हो सकती है।
यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि महावीर को चर्चा के लिए क्यों चुना?
बहाना है सिर्फ। जैसे एक खूंटी होती है, कपड़ा टांगना प्रयोजन होता है, खूंटी कोई भी काम दे सकती है। महावीर भी काम दे सकते हैं ज्योति के स्मरण में--बुद्ध भी, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी। किसी भी खूंटी से काम लिया जा सकता है। स्मरण उस ज्योति का जो हमारे दीए में भी जल सकती है।
स्मरण मैं महान मानता हूं, अनुकरण नहीं। और स्मरण भी महावीर का जब हम करते हैं, तो भी महावीर का स्मरण नहीं है वह, स्मरण है उस तत्व का, जो महावीर में प्रकट हुआ। और उस तत्व का स्मरण आ जाए तो तत्काल स्मरण आत्म-स्मरण बन जाता है। और वही सार्थक है, जो आत्म-स्मरण की तरफ ले जाए।
लेकिन महावीर की पूजा से यह नहीं होता। पूजा से आत्म-स्मरण नहीं आता। बड़े मजे की बात है, पूजा आत्म-विस्मरण का उपाय है। जो अपने को भूलना चाहते हैं, वे पूजा में लग जाते हैं। और उनके लिए भी महावीर खूंटी का काम देते हैं, बुद्ध, कृष्ण, सब खूंटी का काम देते हैं। जिसे अपने को भूलना ही हो, वह अपने भूलने का वस्त्र उनकी खूंटी पर टांग देता है। अनुयायी, भक्त, अंधे, अनुकरण करने वाले भी महावीर, बुद्ध, कृष्ण की खूंटियों का उपयोग कर रहे हैं आत्म-विस्मरण के लिए! पूजा, प्रार्थना, अर्चना--सब विस्मरण हैं।
स्मरण बहुत और बात है। स्मरण का अर्थ है कि हम महावीर में उस सार को खोज पाएं, देख पाएं--किसी रूप में, कहीं पर भी--वह सार हमें दिख जाए, उसकी एक झलक मिल जाए, उसका एक स्मरण आ जाए कि ऐसा भी हुआ है, ऐसा भी किसी व्यक्ति में होता है, ऐसा भी संभव है। यह संभावना का बोध तत्काल हमें अपने प्रति जगा देगा, कि जो किसी एक में संभव है, जो एक मनुष्य में संभव है, वह फिर मेरी संभावना क्यों न बने! और तब हम पूजा में न जाएंगे, बल्कि एक अंतर्पीड़ा में, एक इनर सफरिंग में उतर जाएंगे। जैसे जले हुए दीए को देख कर बुझा हुआ दीया एक आत्म-पीड़ा में उतर जाए, और उसे लगे कि मैं व्यर्थ हूं, मैं सिर्फ नाम मात्र को दीया हूं, क्योंकि वह ज्योति कहां? वह प्रकाश कहां? मैं सिर्फ अवसर हूं अभी जिसमें ज्योति प्रकट हो सकती है, लेकिन अभी हुई नहीं।
लेकिन बुझे हुए दीयों के बीच बुझा हुआ दीया रखा रहे, तो उसे खयाल भी न आए, पता भी न चले। तो करोड़ बुझे हुए दीयों के बीच में भी जो स्मरण नहीं आ सकता, वह एक जले हुए दीए के निकट आ सकता है।
महावीर या बुद्ध या कृष्ण का मेरे लिए इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है कि वे जले हुए दीए हैं। और उनका खयाल और उनके जले हुए दीए की ज्योति की लपट एक बार भी हमारी आंखों में कौंध जाए, तो हम फिर वही आदमी नहीं हो सकेंगे, जो हम कल तक थे। क्योंकि हमारी एक नई संभावना का द्वार खुलता है, जो हमें पता ही नहीं था कि हम हो सकते हैं। उसकी प्यास जग गई। यह प्यास जग जाए, तो कोई भी बहाना बनता हो, उससे कोई प्रयोजन नहीं। तो मैं महावीर को भी बहाना बनाऊंगा, कृष्ण को भी, क्राइस्ट को भी, बुद्ध को भी, लाओत्से को भी।
फिर हममें बहुत तरह के लोग हैं। और कई बार ऐसा होता है कि जिसे लाओत्से में ज्योति दिख सकती है, उसे हो सकता है बुद्ध में ज्योति न दिखे। और यह भी हो सकता है कि जिसे महावीर में ज्योति दिख सकती है, उसे लाओत्से में ज्योति न दिखे। एक बार अपने में ज्योति दिख जाए, तब तो लाओत्से, बुद्ध का मामला ही नहीं है, तब तो सड़क पर चलते हुए साधारण आदमी में भी ज्योति दिखने लगती है। तब तो फिर ऐसा आदमी ही नहीं दिखता, जिसमें ज्योति न हो। तब तो आदमी बहुत दूर की बात है, पशु-पक्षी में भी वही ज्योति दिखने लगती है। पशु-पक्षी भी बहुत दूर की बात है, पत्थर में भी वह ज्योति दिखने लगती है। एक बार अपने में दिख जाए, तब तो सबमें दिखने लगती है। लेकिन जब तक स्वयं में नहीं दिखी है, तब तक जरूरी नहीं है कि सभी लोगों को महावीर में ज्योति दिखे।
उसके कारण हैं। व्यक्ति-व्यक्ति के देखने के ढंग में भेद है। और व्यक्ति-व्यक्ति की ग्राहकता में भेद है। और व्यक्ति-व्यक्ति के रुझान और रुचि में भेद है। एक सुंदर युवती है, जरूरी नहीं सभी को सुंदर मालूम पड़े।
मजनूं को पकड़ लिया था उसके गांव के सम्राट ने। और मजनूं की पीड़ा की खबरें उस तक पहुंची थीं। उसका रात देर तक वृक्षों के नीचे रोना और चिल्लाना, उसकी आंखों से बहते हुए आंसू। गांव भर में उसकी चर्चा। तो सम्राट ने दया करके उसे बुला लिया और कहा कि तू पागल हो गया है? लैला को मैंने भी देखा है, ऐसा क्या है? बहुत साधारण है। उससे सुंदर लड़कियां तेरे लिए मैं इंतजाम कर दूंगा। दस लड़कियां बुला ली थीं उसने। कतार लगवा दी थी द्वार के सामने कि देख!
नगर की सुंदरतम लड़कियां वहां उपस्थित थीं, राजा का निमंत्रण था। लेकिन मजनूं ने देखा तक नहीं और मजनूं खूब हंसने लगा और उसने कहा कि आप समझे नहीं। लैला को देखने के लिए मजनूं की आंख चाहिए। और वह आंख आपके पास नहीं। तो हो सकता है, लैला आपको साधारण दिखे। लैला में मैं ही देख सकता हूं असाधारण, मैं मजनूं हूं।
मजनूं की आंख लैला को पैदा करती है, आविष्कार करती है, उदघाटन करती है। यानी लैला होने के लिए एक मजनूं चाहिए। नहीं तो लैला लैला भी नहीं होती, उसका पता भी नहीं चलता, उसका आविष्कार भी नहीं होता।
और एक-एक व्यक्ति में बुनियादी भेद है। इसलिए दुनिया में इतने तीर्थंकर, इतने अवतार, इतने गुरु हैं। और इसलिए ऐसा हो सकता है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही गांव में एक ही दिन ठहरे और गुजरे हों, एक ही इलाके में वर्ष-वर्ष घूमे हों, फिर भी गांव में किन्हीं को बुद्ध दिखाई पड़े हों, किन्हीं को महावीर दिखाई पड़े हों और किन्हीं को दोनों न दिखाई पड़े हों।
तो जब मैं कुछ देखता हूं, तो जो है, दिखाई पड़ रहा है, वही महत्वपूर्ण नहीं है, मेरे पास देखने की एक, एक विशिष्ट दृष्टि है। और वह प्रत्येक व्यक्ति की अलग है। किसी को महावीर में वह ज्योति दिखाई पड़ सकती है। और तब इस बेचारे की मजबूरी है। हो सकता है वह कहे कि बुद्ध में कुछ भी नहीं। और वह कहे, जीसस में क्या है? मोहम्मद में क्या है? लेकिन उसकी नासमझी है। वह जरा जल्दी कर रहा है। वह बहुत सहानुभूतिपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है, वह समझ नहीं रहा है। और जब कोई उससे कहेगा कि महावीर में कुछ भी नहीं है, तो वह क्रोध से भर जाएगा। अब भी वह नहीं समझ पा रहा है कि जब मैं कहता हूं कि जीसस में कुछ नहीं दिखाई पड़ता, तो हो सकता है कि किसी को महावीर में कुछ भी न दिखाई पड़े। महावीर में जो है, उसे देखने के लिए एक विशिष्ट आंख चाहिए।
और जमीन पर भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। बहुत भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं। कोई उनकी जातियां बनाना भी मुश्किल है, इतने भिन्न तरह के लोग हैं। लेकिन एक बार दिख जाए फ्लेम--तब सब भिन्नताएं खो जाती हैं। सब भिन्नताएं दीयों की भिन्नताएं हैं, ज्योति की भिन्नता नहीं है। दीए भिन्न-भिन्न हैं, बहुत-बहुत आकार के हैं, बहुत-बहुत रूप के हैं, बहुत-बहुत रंगों के हैं, बहुत-बहुत कारीगरों ने उन्हें बनाया है, बहुत-बहुत उनके स्रष्टा हैं, उनके निर्माता हैं। तो हो सकता है कि जिसने एक ही तरह का दीया देखा हो, दूसरे तरह के दीए को देख कर कहने लगे, यह कैसा दीया? ऐसा दीया होता ही नहीं! लेकिन जिसने एक बार ज्योति देख ली--चाहे कोई भी रूप हो, चाहे कोई भी आकार हो--जिसने एक बार ज्योति देख ली, दूसरी किसी भी रूप, किसी भी आकार की ज्योति को देख कर वह यह न कह सकेगा, यह कैसी ज्योति है? क्योंकि ज्योतिर्मय का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव नहीं है। और दीए का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव है। ज्योतिर्मय का अनुभव निराकार का अनुभव है।
दीया एक जड़ है, पदार्थ है--ठहरा हुआ, रुका हुआ। ज्योति एक चेतन है, एक शक्ति--जीवंत, भागी हुई। दीया रखा हुआ है। ज्योति जा रही है। और कभी खयाल किया कि ज्योति सदा ऊपर की तरफ जा रही है! कोई भी उपाय करो, दीए को कैसा ही रखो--आड़ा कि तिरछा, उलटा कि नीचा, छोटा कि बड़ा, इस आकार का कि उस आकार का--ज्योति है कि बस भागी जा रही है ऊपर को। कैसी भी ज्योति हो, भागी जा रही है ऊपर को। निराकार का अनुभव है ज्योति में--ऊर्ध्वगमन का। वह सतत ऊपर और ऊपर जा रही है।
और कितनी जल्दी ज्योति का आकार खो जाता है, देर नहीं लगती। देख भी नहीं पाते कि आकार खो जाता है। पहचान भी नहीं पाते, आकार खो जाता है। ज्योति कितनी जल्दी छोटा सा आकार लेती है, फिर निराकार में खो जाती है। फिर खोजने चले जाओ, मिलेगी नहीं तुम्हें। थी अभी--अभी थी और अब नहीं है! लेकिन ऐसा कहीं हो सकता है कि जो था, वह अब न हो जाए?
तो ज्योति एक मिलन है आकार और निराकार का। प्रतिपल आकार निराकार में जा रहा है। हम आकार तक देख पाएं, तो भी हम अभी ज्योति को नहीं देख पाए, क्योंकि वह जो आकार के पार संक्रमण हो रहा है निराकार में, वही है।
और इसलिए ऐसा हो जाता है कि दीयों को पहचानने वाले इन ज्योतियों के संबंध में झगड़ा करते रहते हैं! और दीयों को पकड़ने वाले ज्योतियों के नाम पर पंथ और संप्रदाय बना लेते हैं! और ज्योति से दीए का क्या संबंध है? ज्योति से दीए की संगति भी क्या है? दीया सिर्फ एक अवसर था, जहां ज्योति घटी।
और वह जो ज्योति का आकार दिखा था, वह भी सिर्फ एक अवसर था, जहां से ज्योति निराकार में गई।
वर्धमान तो दीया है, महावीर ज्योति हैं। सिद्धार्थ तो दीया है, बुद्ध ज्योति हैं। जीसस तो दीया है, क्राइस्ट ज्योति हैं। लेकिन हम दीयों को पकड़ लेते हैं। और महावीर के संबंध में सोचते समय वर्धमान के संबंध में सोचने लगते हैं! भूल हो गई। और वर्धमान को जो पकड़ लेगा, वह महावीर को कभी नहीं जान सकेगा। सिद्धार्थ को जो पकड़ लेगा, उसकी बुद्ध से कभी पहचान ही नहीं होगी। और जीसस को, मरियम के बेटे को जिसने पहचाना, वह क्राइस्ट को, परमात्मा के बेटे को कभी नहीं पहचान पाएगा। उससे क्या संबंध है! वे दोनों बात ही अलग हैं। लेकिन हमने दोनों को इकट्ठा कर रखा है--जीसस-क्राइस्ट, वर्धमान-महावीर, गौतम-बुद्ध--दीए और ज्योति को! और ज्योति का हमें कोई पता नहीं है, दीए को हम पकड़े हैं!
मेरा दीयों से कोई संबंध नहीं है। कोई अर्थ ही नहीं देखता हूं उनमें। और फिर दीए तो हम हैं ही। इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। दीए हम सब हैं ही, ज्योति हम हो सकते हैं, जो हम अभी नहीं हैं। ज्योति की चिंता करनी चाहिए। तो इधर महावीर को निमित्त बना कर ज्योति का विचार करेंगे। जिनको महावीर की तरफ से ही ज्योति पहचान में आ सकती है, अच्छा है, वहीं से पहचान आ जाए। जिनको न आ सकती हो, उनके लिए कुछ और निमित्त बनाया जा सकता है। सब निमित्त काम दे सकते हैं।
बहुत विशिष्ट हैं महावीर, इसलिए सोचना तो बहुत जरूरी है उन पर। लेकिन विशिष्ट किसी दूसरे की तुलना में नहीं। आमतौर से हम ऐसा ही सोचते हैं कि जब हम कहते हैं कोई व्यक्ति विशिष्ट है, तो हम पूछते हैं, किससे? जब मैं कहता हूं बहुत विशिष्ट हैं महावीर, तो मैं यह नहीं कहता हूं कि बुद्ध से, कि मोहम्मद से। तुलना में नहीं कह रहा हूं। बहुत विशिष्ट हैं इस अर्थ में, जो घटना घटी उससे। यह जो घटना घटी, यह जो ज्योतिर्मय होने की घटना और निराकार में विलीन हो जाने की घटना घटी, उससे विशिष्ट हैं।
उस अर्थ में जीसस विशिष्ट हैं, मोहम्मद विशिष्ट हैं, कन्फ्यूशियस विशिष्ट हैं। उस अर्थ में वही विशिष्ट है, जो आकार को खोकर निराकार में चला गया। यही है विशिष्टता। हम अविशिष्ट हैं, हम साधारण हैं। साधारण इस अर्थ में कि वह घटना अभी नहीं घटी।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं, साधारण और असाधारण। साधारण से मेरा मतलब है, जो अभी सिर्फ दीया हैं, ज्योति बन सकते हैं। साधारण असाधारण का अवसर है, मौका है, बीज है। और असाधारण वह है, जो ज्योति बन गया और गया वहां--उस घर की तरफ जहां पहुंच कर शांति है, जहां आनंद है, जहां खोज का अंत है और उपलब्धि है।
इसलिए विशिष्ट जब मैं कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है कि किसी से विशिष्ट। विशिष्ट जब मैं कह रहा हूं तो मेरा मतलब है साधारण नहीं, असाधारण। हम सब साधारण हैं और हम सब असाधारण हो सकते हैं। और जब तक हम साधारण हैं, तब तक हम साधारण के बीच में भी साधारण-असाधारण के जो भेद खड़े करते हैं, वे एकदम नासमझी के हैं।
साधारण बस साधारण ही है, वह चपरासी है कि राष्ट्रपति, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये साधारण के ही दो रूप हैं--चपरासी पहली सीढ़ी पर, राष्ट्रपति आखिरी सीढ़ी पर। चपरासी भी चढ़ता जाए तो राष्ट्रपति हो जाए, और राष्ट्रपति उतरता आए तो चपरासी हो जाए। चपरासी चढ़ जाते हैं और राष्ट्रपति उतर आते हैं, दोनों काम चलते हैं। यह एक ही सीढ़ी पर सारा खेल है--साधारण की सीढ़ी पर।
साधारण की सीढ़ी पर सभी साधारण हैं, चाहे वे किसी भी पायदान पर खड़े हों, वे किसी भी सीढ़ी पर खड़े हों--नंबर एक की, कि नंबर हजार की, कि नंबर शून्य की--इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सीढ़ी साधारण की है। और इस साधारण की सीढ़ी से जो छलांग लगा जाते हैं, वे असाधारण में पहुंच जाते हैं।
असाधारण की कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए असाधारण दो व्यक्तियों में नीचे-ऊपर कोई नहीं होता। फिर कई लोग पूछते हैं कि बुद्ध ऊंचे कि महावीर? कि कृष्ण ऊंचे कि क्राइस्ट? तो वे अपनी साधारण की सीढ़ी के गणित से असाधारण लोगों को सोचने चल पड़े हैं। और ऐसे पागल भी हैं कि किताबें भी लिखते हैं कि कौन किससे ऊंचा! और उन्हें पता नहीं कि ऊंचे और नीचे का जो खयाल है, वह साधारण दुनिया का खयाल है। असाधारण ऊंचा और नीचा नहीं होता। असल में जो ऊंचे-नीचे की दुनिया के बाहर चला जाता है, वही असाधारण है। तो वहां कैसी तौल कि कबीर कहां कि नानक कहां! और ऐसी किताबें हैं और ऐसे नक्शे बनाए हैं लोगों ने कि कौन किस सीढ़ी पर खड़ा है वहां भी! कि कौन आगे है, कौन पीछे है, कौन किस खंड में पहुंच गया है! वह साधारण लोगों की दुनिया है, और साधारण लोगों के खयाल हैं। वे वहां भी वही सोच रहे हैं!
वहां कोई ऊंचा नहीं है, कोई नीचा नहीं है। असल में ऊंचा और नीचा जहां तक है, वहां तक दीया है। बड़ा और छोटा जहां तक है, वहां तक दीया है। ज्योति बड़ी और छोटी होती नहीं। ज्योति या तो ज्योति होती है या नहीं होती। ज्योति बड़ी और छोटी का क्या मतलब है?
और निराकार में खो जाने की क्षमता छोटी ज्योति की उतनी ही है, जितनी बड?ी से बड़ी ज्योति की। और निराकार में खो जाना ही असाधारण हो जाना है। तो छोटी ज्योति कौन? बड़ी ज्योति कौन? छोटी ज्योति धीरे-धीरे खोती है? बड़ी ज्योति जल्दी खो जाती है? यह वैसी ही भूल है...इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा।
हजारों साल तक ऐसा समझा जाता था कि अगर हम एक मकान की छत पर खड़े हो जाएं और एक बड़ा पत्थर गिराएं और एक छोटा पत्थर--एक साथ--तो बड़ा पत्थर जमीन पर पहले पहुंचेगा, छोटा पत्थर पीछे। हजारों साल तक यह खयाल था, किसी ने गिरा कर देखा नहीं था। क्योंकि यह बात इतनी साफ-सीधी मालूम पड़ती थी और उचित, और तर्कयुक्त, कि कोई यह कहता भी अगर कि चलो जरा छत पर गिरा कर देखें, तो लोग कहते, पागल हो, इसमें भी कोई सोचने की बात है? बड़ा पत्थर पहले गिरेगा। बड़ा मास है, ज्यादा मास है, छोटा पत्थर छोटा सा है, पीछे गिरेगा। बड़ा पत्थर जल्दी आएगा, छोटा पत्थर धीरे आएगा।
लेकिन उन्हें पता नहीं था कि बड़ा पत्थर और छोटा पत्थर का सवाल नहीं है गिरने में, सवाल है ग्रेविटेशन का, सवाल है जमीन की कशिश का। और वह कशिश दोनों पर बराबर काम कर रही है, छोटे और बड़े का उस कशिश के लिए भेद नहीं।
तो जब पहली दफा एक आदमी ने चढ़ कर "पिसा' के टावर पर और गिरा कर देखा--वह अदभुत आदमी रहा होगा--गिरा कर देखे दो पत्थर छोटे और बड़े। और जब दोनों पत्थर साथ गिरे तो वह खुद ही चौंका। उसको भी विश्वास न आया कि ऐसा होगा। बार-बार गिरा कर देखे कि पक्का हो जाए, नहीं तो लोग कहेंगे कि पागल है, ऐसा कहीं हो सकता है!
और जब दौड़ कर उसने विश्वविद्यालय में खबर दी, जिसका वह अध्यापक था, तो अध्यापकों ने कहा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। छोटा और बड़ा पत्थर साथ-साथ कैसे गिर सकते हैं? छोटा पत्थर छोटा है, बड़ा पत्थर बड़ा है। बड़ा पहले गिरेगा, छोटा पीछे गिरेगा। और उन्होंने जाने से इनकार किया! पंडित सबसे ज्यादा जड़ होते हैं। अध्यापक थे, विश्वविद्यालय के पंडित थे, उन्होंने कहा, यह हो ही नहीं सकता। जाने की जरूरत नहीं। देखने कौन जाए? फिर भी, बामुश्किल प्रार्थना करके वह ले गया। और जब पंडितों ने देखा कि बराबर दोनों साथ गिरे, तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कोई जालसाजी है। क्योंकि ऐसा हो कैसे सकता है? या शैतान का कोई हाथ है! ऐसा हो नहीं सकता। इस उदाहरण को मैं इसलिए कह रहा हूं कि जमीन में एक ग्रेविटेशन है, एक कशिश है, एक गुरुत्वाकर्षण है नीचे खींचने का। और परमात्मा में, निराकार में भी एक ग्रेविटेशन है ऊपर खींचने का, एक कशिश है। यह जो निराकार फैला हुआ है ऊपर, वह चीजों को ऊपर खींचता है। हम जमीन की कशिश को तो पहचान गए हैं, बाकी ऊपर की कशिश को हम नहीं पहचान पाए हैं, क्योंकि जमीन पर हम सब हैं, उस ऊपर की कशिश पर कभी कोई जाता है। और जो जाता है, वह लौटता नहीं, तो कुछ खबर मिलती नहीं। वह जो ऊपर की कशिश है, उसी का नाम ग्रेस है।
इसका ग्रेविटी, उसका ग्रेस; इसका गुरुत्वाकर्षण, उसका प्रभु-प्रसाद। कोई और नाम भी दे दें, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वहां छोटी और बड़ी ज्योति का सवाल नहीं है, कोई ज्योति भर बन जाए, बस। छोटी ज्योति उतनी ही गति से चली जाती है जितनी बड़ी ज्योति--बड़ी से बड़ी ज्योति जाएगी। वह ग्रेस खींच लेती है निराकार की। इसलिए वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं है, क्योंकि छोटे-बड़े का वहां कोई अर्थ ही नहीं है।
तो बुद्ध या महावीर, कौन बड़ा, कौन छोटा--यह साधारण लोगों की गणित की दुनिया है, जिससे हम हिसाब लगाते हैं। और साधारण गणित की दुनिया से असाधारण लोगों को नहीं तौला जा सकता, इसलिए वहां कोई बड़ा-छोटा नहीं है। साधारण से बाहर जो हुआ, वह बड़े-छोटे की गणना के बाहर हो जाता है।
इसलिए इससे बड़ी भ्रांति कोई और नहीं हो सकती है कि कोई कृष्ण में, कोई क्राइस्ट में, कोई बुद्ध में, महावीर में तौल करने बैठे। कोई कबीर में, नानक में, रमण में, कृष्णमूर्ति में कोई तौल करने बैठे। कौन बड़ा, कौन छोटा? कोई छोटा-बड़ा नहीं है।
लेकिन हमारे मन को बड़ी तकलीफ होती है, अनुयायी के मन को बड़ी तकलीफ होती है। हमने जिसे पकड़ा है, वह बड़ा होना ही चाहिए। और इसीलिए मैंने कहा कि अनुयायी कभी नहीं समझ पाता। समझ ही नहीं सकता। अनुयायी कुछ थोपता है अपनी तरफ से। समझने के लिए बड़ा सरल चित्त चाहिए। अनुयायी के पास सरल चित्त नहीं होता। विरोधी भी नहीं समझ पाता, क्योंकि वह छोटा करने के आग्रह में होता है, अनुयायी से उलटी कोशिश में लगा होता है।
प्रेमी समझ पाता है। इसलिए जिसे भी समझना हो उसे प्रेम करना है। और प्रेम सदा बेशर्त है। अगर कृष्ण को इसलिए प्रेम किया कि तुम मुझे स्वर्ग ले चलना, तो यह प्रेम शर्तपूर्ण हो गया, इसमें कंडीशन शुरू हो गई। अगर महावीर को इसलिए प्रेम किया कि तुम्हीं सहारे हो, तुम्हीं पार ले चलोगे भवसागर के, तो शर्त शुरू हो गई, प्रेम खतम हो गया। प्रेम है बेशर्त। कोई शर्त ही नहीं है। प्रेम यह नहीं कहता कि तुम मुझे कुछ देना। प्रेम का मांग से कोई संबंध ही नहीं है। जहां तक मांग है वहां तक सौदा है, जहां तक सौदा है वहां तक प्रेम नहीं है।
सब अनुयायी सौदा कर रहे हैं, इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नहीं कर पाता। और विरोधी किसी और से सौदा कर रहा है, इसलिए विरोधी हो गया है। और विरोधी भी इसीलिए हो गया है कि उसे सौदे का आश्वासन नहीं दिखाई पड़ता कि ये कृष्ण कैसे ले जाएंगे! तो कृष्ण को उसने छोड़ दिया, इनकार कर दिया। प्रेम का मतलब है बेशर्त। प्रेम का मतलब है वह आंख, जो परिपूर्ण सहानुभूति से भरी है और समझना चाहती है। मांग कुछ भी नहीं है।
तो महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा, कोई मांग नहीं, कोई सौदा नहीं, कोई अनुकरण नहीं, कोई अनुयायी का भाव नहीं, एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि कि एक व्यक्ति हुआ, जिसमें कुछ घटा। हम देखें कि क्या घटा, पहचानें कि क्या घटा, खोजें कि क्या घटा। इसलिए जैन कभी महावीर को नहीं समझ पाएगा, उसकी शर्त बंधी है। जैन महावीर को कभी नहीं समझ सकता। बौद्ध बुद्ध को कभी नहीं समझ सकता।
इसलिए प्रत्येक ज्योति के आस-पास जो अनुयायियों का समूह इकट्ठा होता है, वह ज्योति को बुझाने में सहयोगी होता है, उस ज्योति को और जलाने में नहीं! अनुयायियों से बड़ा दुश्मन खोजना बहुत मुश्किल है। इन्हें पता ही नहीं, ये दुश्मनी कर देते हैं।
अब महावीर का जैन होने से क्या संबंध? कोई भी नहीं। महावीर को पता ही न होगा कि वे जैन हैं। और पता होगा तो बड़े साधारण आदमी थे, फिर उस असाधारण दुनिया के आदमी नहीं थे, जिसकी हम बात करते हैं। महावीर को पता भी नहीं हो सकता सपने में कि मैं जैन हूं। न क्राइस्ट को पता हो सकता है कि मैं ईसाई हूं।
और जिनको यह पता है, वे समझ नहीं पाएंगे। क्योंकि जब हम समझने के पहले कुछ हो जाते हैं, तो जो हम हो जाते हैं वह हमारी समझ में बाधा डालता है। जो हम हो जाते हैं, वह हमारी समझ में बाधा डालता है। क्योंकि हम हो पहले जाते हैं, और फिर हम समझने जाते हैं। समझने जाना हो तो खाली मन चाहिए।
इसलिए जो जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है, हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, वह समझ सकता है, वह सहानुभूति से देख सकता है, उसकी प्रेमपूर्ण दृष्टि हो सकती है; क्योंकि उसका कोई आग्रह नहीं है। उसका अपना होने का कोई आग्रह नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि हम जन्म से ही जैन हो जाते हैं! जन्म से हिंदू हो जाते हैं! मतलब जन्म से ही हमारे धार्मिक होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
अगर कभी भी मनुष्य को धार्मिक बनाना हो तो जन्म से धर्म का संबंध बिलकुल ही तोड़ देना जरूरी है। जन्म से कोई कैसे धार्मिक हो सकता है? और जो जन्म से ही पकड़ लिया किसी धर्म को, अब वह समझेगा क्या? समझने का मौका क्या रहा? अब उसके आग्रह निर्मित हो गए, प्रेज्युडिस, पक्षपात निर्मित हो गए। अब वह महावीर को समझ ही नहीं सकता, क्योंकि महावीर को समझने के पहले महावीर तीर्थंकर हो गए, परम गुरु हो गए, सर्वज्ञ हो गए, परमात्मा हो गए। अब परमात्मा को पूजा जा सकता है, समझा थोड़े ही जा सकता है। तीर्थंकर का गुणगान किया जा सकता है, समझा तो नहीं जा सकता है। समझने के लिए तो अत्यंत सरल दृष्टि चाहिए, जिसका कोई पक्षपात नहीं।
इसलिए मैं कह सकता हूं कि महावीर को समझ सका हूं, क्योंकि मेरा कोई पक्षपात नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। लेकिन हो सकता है, जो मेरी समझ है, वह शास्त्रों में न मिले। मिलेगी ही नहीं। न मिलने का कारण पक्का है, क्योंकि शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो बंधे हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो अनुयायी हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जो जैन हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जिनके लिए महावीर तीर्थंकर हैं, सर्वज्ञ हैं। शास्त्र उन्होंने लिखे हैं, जिन्होंने महावीर को समझने के पहले कुछ मान लिया है।
मेरी समझ शास्त्र से मेल न खाए...और यह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि समझ कभी भी शास्त्र से मेल नहीं खाएगी। समझ और शास्त्र में बुनियादी विरोध रहा है। शास्त्र नासमझ रचते हैं। नासमझ इस अर्थों में कि वे पक्षपातपूर्ण हैं। नासमझ इस अर्थों में कि वे कुछ सिद्ध करने को आतुर हैं। नासमझ इस अर्थों में कि समझने की उतनी उत्सुकता नहीं है, जितनी कुछ सिद्ध करने की।
एक व्यक्ति हैं, वे आत्मा के पुनर्जन्म पर शोध करते हैं। मुझे किसी ने उन्हें मिलाया। तो उन्होंने मुझसे कहा...हिंदुस्तान, हिंदुस्तान के बाहर, न मालूम कितने विश्वविद्यालयों में वे बोले हैं। यहां के एक विश्वविद्यालय से संबंधित हैं तो उस विश्वविद्यालय में एक विभाग ही बना रखा है जो पुनर्जन्म के संबंध में खोज करता है। कुछ मित्र उन्हें मेरे पास लाए थे मिलाने। बीस-पच्चीस मित्र इकट्ठे हो गए थे। आते ही उनसे बात हुई तो पहले मैंने उनसे पूछा कि आप क्या कर रहे हैं? तो उन्होंने कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है।
मैंने उनसे कहा कि एक बात निवेदन करूं, अगर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहते हैं, ऐसा कहते हैं, तो आप अवैज्ञानिक हो गए। वैज्ञानिक होने की पहली शर्त यह है कि हम कुछ सिद्ध नहीं करना चाहते, जो है उसे जानना चाहते हैं। वैज्ञानिक होना है अगर, तो आपको कहना चाहिए, हम जानना चाहते हैं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है? आप कहते हैं, मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है, तो आपने यह तो पहले ही मान लिया है कि पुनर्जन्म होता है, अब सिर्फ सिद्ध करने की बात रह गई है, सो आप उसको वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर रहे हैं। तो अवैज्ञानिक तो आप हो ही गए।
मैंने कहा, इसमें विज्ञान का नाम बीच में मत डालें व्यर्थ। वैज्ञानिक बुद्धि कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहती, जो है, उसे जानना चाहती है। और शास्त्रीय बुद्धि इसीलिए अवैज्ञानिक हो गई है कि वह कुछ सिद्ध करना चाहती है, जो है, उसे जानना नहीं चाहती। जो है, हो सकता है हमारे मानने, समझने, सोचने से बिलकुल भिन्न हो, विपरीत हो।
तो इसलिए शास्त्रीय बुद्धि का आदमी, परंपरा से बंधा, संप्रदाय से बंधा, भयभीत है, सत्य पता नहीं कैसा हो? और सत्य कोई हमारे अनुकूल ही होगा, यह जरूरी नहीं। और अनुकूल ही होता तो हम कभी के सत्य में मिल गए होते। संभावना तो यही है कि वह प्रतिकूल होगा। हम असत्य हैं, वह प्रतिकूल होगा। लेकिन हम सत्य को अपने अनुकूल ढालना चाहते हैं, और तब सत्य भी असत्य हो जाता है। सब शास्त्रीय बुद्धियां असत्य की तरफ ले जाती हैं।
तो मेरी बात न मालूम कितने तलों पर मेल नहीं खाएगी। मेल खा जाए, यही आश्चर्य है। कहीं खा जाए तो वह संयोग की बात है। न खाना बिलकुल स्वाभाविक होगा।
फिर शास्त्र से मेरी पकड़ नहीं है।
महावीर को खोजने का एक ढंग तो यह है कि महावीर के संबंध में जो परंपरा है, जो शास्त्र हैं, जो शब्द हैं, जो संगृहीत है, हम उसमें जाएं। और उस सारी परंपरा के गहरे पहाड़ को तोड़ें, खोदें और महावीर को पकड़ें कि कहां हैं महावीर। महावीर को हुए ढाई हजार साल हुए। ढाई हजार सालों में जो भी लिखा गया महावीर के संबंध में, हम उस सबसे गुजरें और महावीर तक जाएं। यह शास्त्र के द्वारा जाने का रास्ता है, जैसा कि आमतौर से जाया जाता है। लेकिन मैं मानता हूं कि इस मार्ग से कभी जाया ही नहीं जा सकता है। कभी भी नहीं जाया जा सकता। आप जहां पहुंचेंगे, उसका महावीर से कोई संबंध ही नहीं होगा। उसके कारण हैं। वे थोड़े हमें समझ लेने चाहिए।
महावीर ने जो अनुभव किया, किसी ने भी जो अनुभव किया, उसे शब्द में कहना कठिन है--पहली बात। जिसे भी कोई गहरा अनुभव हुआ है, वह शब्द की असमर्थता को एकदम तत्काल जान पाता है कि बहुत मुश्किल हो गई। परमात्मा का, सत्य का, मोक्ष का अनुभव तो बहुत गहरा अनुभव है, साधारण सा प्रेम का अनुभव भी अगर किसी व्यक्ति को हुआ हो, तो वह पाता है कि क्या कहूं, कैसे कहूं?
नहीं, शब्द में नहीं कहा जा सकता। प्रेम के संबंध में अक्सर वे लोग बातें करते रहेंगे, जिन्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ है। जो प्रेम के संबंध में बहुत आश्वासन से बातें करता हो, समझ ही लेना कि उसे प्रेम का अनुभव नहीं हुआ है। क्योंकि प्रेम के अनुभव के बाद हेजीटेशन आएगा, आश्वासन नहीं रह जाएगा। बहुत डरेगा, वह चिंतित होगा कि कैसे कहूं, क्या कहूं? कहता हूं तो गड़बड़ हो जाती है सब। जो कहना चाहता हूं, वह पीछे छूट जाता है। जो कभी सोचा भी नहीं था, वह शब्द से निकल जाता है। जितनी गहरी अनुभूति, शब्द उतने थोथे और व्यर्थ, क्योंकि शब्द हैं सतह पर निर्मित। और शब्द हैं उनके द्वारा निर्मित, जो सतह पर जीए हैं।
अब तक संतों की कोई भाषा विकसित नहीं हो सकी। जो भाषा है, वह साधारणजनों की है। और साधारणजनों की भाषा में असाधारण अनुभव को डालना ऐसा ही कठिन है, जैसे कि हम संगीत सुनें--जैसे कि हम संगीत सुनें और कोई बहरा आदमी कहे कि संगीत तो मैं सुन नहीं सकता, तो तुम संगीत को पेंट कर दो, चित्र बना दो, तो शायद थोड़ा मैं समझ सकूं। क्या किया जाए संगीत को पेंट करने के लिए? कैसे पेंट करें?
की है कोशिश लोगों ने। राग और रागिनियों को भी चित्रित किया है। लेकिन वे भी उनकी ही समझ में आ सकती हैं, जिन्होंने संगीत सुना हो, बहरे आदमी को वे भी कुछ नहीं समझ पड़तीं। वे भी समझ नहीं पड़तीं। मेघ घिर गए हैं, वर्षा की बूंदें आ गई हैं, और मोर नाचने लगे। और एक लड़की है, और उसकी साड़ी उड़ी जाती है, वह घर की तरफ भागी चली जाती है। उसके पैर के घूंघर बज रहे हैं।
अब किसी राग को किसी ने चित्रित किया है। लेकिन बहरे आदमी ने कभी आकाश के बादलों का गर्जन नहीं सुना, इसलिए चित्र में बादल बिलकुल ही शांत मालूम पड़ते हैं, उनके गर्जन का कोई सवाल ही नहीं उठता। बहरे आदमी ने कभी पैरों में बंधे घूंघर की आवाज नहीं सुनी। तो घूंघर दिख सकते हैं, पर घूंघर से क्या होगा? क्योंकि जो दिखता है घूंघर, वह घूंघर है ही नहीं।
जो दिखता है, वह दीया है; घूंघर तो कुछ और है जो घटता है। वह जो घूंघर दिखता है, वह नहीं है घूंघर। घूंघर तो कुछ और है, जो घटता है। जो दिखता है वह और है। घूंघर सुना जाता है। और जो दिखता है और सुना जाने में बड़ा फर्क है। एक चीज दिखाई पड़ रही है घूंघर, पैर में बंधे, लेकिन जिसने कभी घूंघर नहीं सुना उसे क्या दिखाई पड़ रहा है? उसे एक चीज दिखाई पड़ रही है, जिसका घूंघर से कोई संबंध नहीं।
वह चित्र बिलकुल मृत है, क्योंकि उस चित्र से ध्वनि का कोई जन्म उस आदमी को नहीं हो सकता, जिसने ध्वनि नहीं सुनी।
मगर यह भी आसान है, क्योंकि कान और आंख एक ही तल की इंद्रियां हैं। यह इतना कठिन नहीं है। है तो बिलकुल ही कठिन, लेकिन फिर भी उतना कठिन नहीं है। जब कोई व्यक्ति अतींद्रिय सत्य को जानता है, तो सभी इंद्रियां एकदम व्यर्थ हो जाती हैं और जवाब देने में असमर्थ हो जाती हैं। बोलना पड़ता है इंद्रिय से--और जो जाना गया है, वह वहां जाना गया है, जहां कोई इंद्रिय माध्यम नहीं थी। एक इंद्रिय माध्यम है जानने में तो दूसरी इंद्रिय अभिव्यक्ति में माध्यम नहीं बन पाती। और अगर इंद्रिय माध्यम ही न हो अनुभव का, तो फिर इंद्रिय कैसे अभिव्यक्ति के लिए रास्ता दे सकती है?
इसलिए जो जानता है, वह एकदम मुश्किल में पड़ जाता है। बहुत बार तो वह मौन ही हो जाता है। मौन भी बड़ी पीड़ा देता है, क्योंकि लगता है उसे कि कहूं। लगता है कि कह दूं, क्योंकि चारों तरफ वह उन लोगों को देखता है, जिनको भी यह हो सकता है। और उन्हें दुखी देखता है, और आंसुओं से भरी हुई आंखें देखता है। क्लांत चेहरे देखता है, चिंता से भरे हुए हृदय देखता है। चारों तरफ रुग्ण, विक्षिप्त मनुष्य को देखता है। और भीतर देखता है, जहां परम आनंद घटित हो गया है। और उसे लगता है कि इसे भी हो सकता है जो मेरे निकट खड़ा है। कोई कारण नहीं है, कोई बाधा नहीं है, कोई रुकावट नहीं है। तो इसे कह दूं। और कहने में शब्द एकदम असमर्थ हो जाते हैं।
तो महावीर जैसा व्यक्ति जब बोलता है तो पहला तो झूठ वहां हो जाता है, जब वह बोलता है। और जो उसने बोला, वह एक प्रतिशत भी वह नहीं है जो उसने जाना। फिर भी वह हिम्मत करता है, साहस जुटाता है, और सोचता है शायद नहीं हजार किरणें पहुंचेंगी, तो एक किरण पहुंचेगी। खबर तो पहुंच जाएगी। वह बोलता है।
अगर महावीर की ही वाणी पकड़ कर कोई महावीर की खोज करने जाए तो भी महावीर नहीं मिलेंगे। ठेठ महावीर को सुन कर ही कोई अगर महावीर की वाणी पकड़ कर खोजने जाए, तो एंगल बिलकुल बदल जाएगा। जो महावीर की वाणी को ही पकड़ कर महावीर की खोज में जाएगा, वह कहीं पहुंचेगा, जहां महावीर बिलकुल नहीं होंगे। बिलकुल चूक कर निकल जाएगा बगल से। बिलकुल ही चूक जाएगा। क्योंकि शब्द में नहीं जाना है, जो महावीर ने जाना है। वह जाना है निःशब्द में और हमने पकड़ा शब्द। अब शब्द से हम जहां जाएंगे, वह वहां नहीं ले जाने वाला, जहां निःशब्द में जानने वाला गया होगा।
और फिर पच्चीस सौ साल बाद...महावीर का शब्द जिन्होंने सुना, उनमें से जिन्होंने समझा होगा थोड़ा-बहुत, वे मौन में चले गए होंगे। जिनको थोड़ी भी समझ आई होगी और पकड़ आई होगी, और निःशब्द की झलक का जरा सा इशारा मिला होगा, वे निःशब्द में भागे होंगे। जिनकी समझ में नहीं आया होगा, वे शब्द संग्रह करने में भागे होंगे। तो महावीर के पास जो समझा होगा, वह मौन में गया होगा, जो नहीं समझा होगा, वह गणधर बन गया होगा।
अब यह बड़ा उलटा मामला है। आमतौर से हम सोचते हैं कि महावीर के पास जो गणधर हैं, वे उनके सबसे ज्यादा समझने वाले लोग हैं। इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता। महावीर के पास जो सबसे ज्यादा समझने वाला आदमी होगा, वह तो मौन में चला गया होगा। वह तो गया होगा खोजने वहां। और जो सबसे कम समझने वाला है, वह महावीर क्या बोले हैं, उसको दूसरे तक पहुंचाने की व्यवस्था करने में लग गया होगा। तो गणधर वह नहीं है...।
परिग्रही जो व्यक्ति होगा, वह सब चीज संग्रह करता है--चाहे धन संग्रह करे, चाहे शब्द संग्रह करे, चाहे यश संग्रह करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक परिग्रह की वृत्ति है मनुष्य के भीतर कि इकट्ठा कर लो। लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं, जिनके इकट्ठे करने में कुछ थोड़ा-बहुत अर्थ भी हो सकता है। जैसे कोई धन इकट्ठा करे, तो धन इकट्ठा करने में थोड़ा अर्थ हो सकता है, क्योंकि धन परिग्रह की वृत्ति से ही पैदा हुआ है, और परिग्रह की वृत्ति का ही वाहन है, और परिग्रह की वृत्ति की ही विनिमय की मुद्रा है। यानी परिग्रही व्यक्ति का ही धन आविष्कार है। तो धन को कोई संग्रह करे तो सार्थक भी है, क्योंकि धन परिग्रह का ही माध्यम है और परिग्रह के लिए ही है। लेकिन जिस अनुभव से महावीर गुजरे हैं, वह अपरिग्रह में घटा। और उनके शब्दों को जो इकट्ठा कर रहा है, वह परिग्रही वृत्ति का व्यक्ति है।
इसलिए अक्सर ऐसा हुआ कि महावीर को उत्सुकता नहीं है शब्द संग्रह की, न बुद्ध को है, न क्राइस्ट को है। नहीं तो महावीर भी किताब लिख सकते हैं। लेकिन महावीर किताब नहीं लिखे, और कृष्ण भी किताब नहीं लिखे, और बुद्ध भी किताब नहीं लिखे, और जीसस भी किताब नहीं लिखे। सिर्फ लाओत्से ने इन असाधारण लोगों में किताब लिखी और वह भी जबरदस्ती में लिखी।
लाओत्से ने अस्सी साल की उम्र तक किताब नहीं लिखी। और लोग कहते रहे कि कुछ लिखो तो वह कहता कि जो लिखूंगा, वह झूठ हो जाएगा और जो लिखना है, वह लिखा नहीं जा सकता। इसलिए इस उपद्रव में मैं नहीं पड़ता। अस्सी साल तक बचा, लेकिन सारे मुल्क में यह भाव पैदा हो गया कि अब बूढ़ा हुआ जाता है, अब मर जाएगा और जो जानता है वह खो जाएगा। फिर लाओत्से अंतिम उम्र में पर्वतों की तरफ चला गया। उसका पता नहीं, वह कब मरा, उसका कुछ पता नहीं। वह पर्वतों में चला गया सब छोड़-छाड़ कर। उसने कहा, इसके पहले कि मृत्यु छीने, मुझे खुद ही चला जाना चाहिए। आखिर मृत्यु की प्रतीक्षा भी क्यों करनी! इतना परवश भी क्यों होना!
तो वह जब चीन की सीमा-रेखा छोड़ने लगा, तो चीन के सम्राट ने उसको रुकवा लिया अपनी चुंगी-चौकी पर, और कहा कि टैक्स चुकाए बिना नहीं जाने देंगे। तो लाओत्से ने कहा, कैसा टैक्स? न हम कोई सामान ले जाते बाहर, न कुछ लाते; अकेले जाते हैं, खाली हैं। सच तो यह है कि जिंदगी भर से खाली हैं, कुछ सामान कभी था ही नहीं जिस पर टैक्स देना पड़े। टैक्स कैसा?
सम्राट ने बहुत मजाक की उससे, और कहा कि टैक्स तो बहुत-बहुत लिए जाते हो, इतनी संपत्ति कभी कोई आदमी ले ही नहीं गया है। सब कुछ न कुछ दे जाते हैं, तुम बोलते ही नहीं हो कि क्या तुम्हारे भीतर है। वह सब चुका दो। कम से कम टैक्स दे दो, संपत्ति मत दो। कम से कम टैक्स तो दे जाओ, नहीं तो हम क्या कहेंगे कि एक आदमी के पास था और बिलकुल ले गया। बिलकुल ले गया चुपचाप। ऐसा नहीं हो सकता, हम चुंगी-चौकी के बाहर नहीं जाने देंगे।
जबरदस्ती लाओत्से को रोक लिया। वह भी हंसा, उसने कहा, बात तो शायद ठीक ही है। ले तो जाता हूं। लेकिन देने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए ले जाता हूं। और कोई...देना मैं भी चाहता हूं। अगर तुम कहते हो तो...।
तो उसने एक छोटी सी किताब लिखी है। उस तरह के असाधारण लोगों में लिखने वाला वह अकेला आदमी है। पर पहला ही वाक्य यह लिखा: कि बड़ी भूल हुई जाती है, जो कहना है, वह कहा नहीं जा सकता; और जो नहीं कहना है, वही कहा जाएगा। सत्य बोला नहीं जा सकता, जो बोला जा सकता है, वह सत्य हो नहीं सकता। बड़ी भूल हुई जाती है। और मैं इसको जान कर लिखने बैठा हूं, इसलिए जो भी आगे पढ़ो, इसको जान कर पढ़ना। जो भी आगे पढ़ो मेरी किताब में, इसे जान कर पढ़ना कि सत्य बोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा सकता; और जो कहा जा सकता है, वह सत्य हो नहीं सकता। दैट व्हिच कैन बी सेड, इज़ नाट दि ताओ; वह जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है। इसे पहले समझ लेना, फिर किताब पढ़ना
तो किसी ने किताब लिखी नहीं। जिसने लिखी, उसने यह शर्त पहले लगा दी। यानी सच तो यह है कि जो समझ जाएगा, वह इसके आगे किताब पढ़ेगा ही नहीं। मामला ही यह है। लाओत्से होशियार आदमी मालूम होता है। राजा समझा कि हम चुंगी लिए ले रहे हैं, वह गलती में पड़ गया। जो समझेगा वह इसके आगे किताब पढ़ेगा नहीं। बात खतम हो गई। जो नहीं समझेगा, वह पढ़ता रहे, उससे कोई मतलब भी नहीं। तो नासमझ किताबें पढ़ रहे हैं, समझदार रुक जाते हैं।
बुद्ध, महावीर जैसे लोगों ने किताब लिखी नहीं। कारण हैं बहुत। पक्का नहीं है कि जो कहना है, वह कहा जा सकता है। फिर भी कहा। कहने का माध्यम उन्होंने चुना, लिखने का नहीं चुना। उसका भी कारण है। क्योंकि कहने का माध्यम प्रत्यक्ष है, आमने-सामने है। और मैं गया, आप गए, कि खो गया। लिखने का माध्यम स्थायी है, आमने-सामने नहीं है, परोक्ष है। न मैं रहूंगा, न आप रहेंगे, वह रहेगा। वह हमसे स्वतंत्र होकर रह जाएगा।
कहने में भूल होती है, लेकिन फिर भी सामने है आदमी। अगर मैं कुछ कह रहा हूं तो आप मुझे देख रहे हैं, मेरी आंख को देख रहे हैं। मेरी तड़प, मेरी पीड़ा को भी देख रहे हैं। मेरी मुसीबत भी देख रहे हैं कि कुछ है, जो कि नहीं कहा जा सकता, तो हो सकता है आप थोड़ा समझ जाएं। लेकिन एक किताब है। फिर तो न आंख है, तड़प है, न पीड़ा है। सब साफ-सुथरा, सीधा है। फिर किताब बचती है।
इनमें से किसी ने भी यह फिक्र नहीं की कि बचे। इन सबकी फिक्र यह थी कि कह दें तो बात खतम हो जाए। इससे ज्यादा उसको बचाना नहीं है। लेकिन बचा ली गई। बचाने वाले लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा, इसको बचाना होगा, बड़ी कीमती चीज है, इसको बचा लो।
उन्होंने बचाने की कोशिश की। फिर उनकी बचाई गई किताब पर किताबें चलती आईं। उनकी बचाई गई किताब पर टीकाएं, टीकाएं होती रहीं। और वह बचाना भी महावीर के ठीक सामने नहीं हो सका। उसका कारण है कि शायद महावीर ने इनकार किया होगा, बुद्ध ने इनकार किया होगा कि यह सामने न हो। लिखना मत! तो तीनत्तीन सौ, चार-चार सौ, पांच-पांच सौ वर्ष बाद हुआ। यानी जो लिखा गया है, वह भी सुन कर नहीं लिखा गया है। किसी ने सुना है, फिर किसी ने किसी से कहा है, ऐसे दो-चार पीढ़ी बीत गई हैं, और कहते-कहते-कहते वह लिखा गया है।
तो महावीर ही असमर्थ हैं कहने में। फिर उनको सुनने वाले ने किसी से कहा है, फिर उसने किसी से कहा है, फिर उसने किसी से कहा है, फिर दो-चार-पांच पीढ़ियों के बाद वह लिखा गया। फिर उस लिखे पर टीकाएं चल रही हैं, विवाद चल रहे हैं। वे हमारे पास शास्त्र हैं अब। अगर इन शास्त्रों से--किसी को महावीर से चूकना हो, तो इससे सुगम उपाय नहीं है, इन शास्त्रों में चला जाए। बस वह महावीर पर नहीं पहुंच सकेगा।
तो मैं कोई शास्त्रों से महावीर तक पहुंचने की न तो सलाह देता हूं, और न मैं उस रास्ते से उन तक गया हूं, और न मानता हूं कि कोई कभी जा सकता है। तो मैं बिलकुल ही अशास्त्रीय व्यक्ति हूं। अशास्त्रीय भी कहना ठीक नहीं, एकदम शास्त्र-विरोधी।
फिर महावीर पर पहुंचने का क्या रास्ता है? शास्त्रीय रास्ता दिखाई पड़ता है, इसलिए साधु-संन्यासी शास्त्र खोले हुए खोज रहे हैं कि खोज लें महावीर को। और क्या रास्ता है? और क्या मार्ग है? और अगर सारे शास्त्र खो जाएं, तो साधु-संन्यासियों और पंडितों के हिसाब से महावीर खो जाएंगे। क्या बचाव है? अगर सारे शास्त्र खो जाएं, तो महावीर का क्या बचाव है? महावीर खो जाएंगे।
लेकिन क्या सत्य का अनुभव खो सकता है? क्या यह संभव है कि महावीर जैसी अनुभूति घटे और अस्तित्व के किसी कोने में सुरक्षित न रह जाए? क्या यह संभव है कि कृष्ण जैसा आदमी पैदा हो और सिर्फ आदमी की लिखी किताबों में उसकी सुरक्षा हो? और अगर किताबें खो जाएं तो कृष्ण खो जाएं?
अगर ऐसा है, तो न कृष्ण का कोई मूल्य है, न महावीर का कोई मूल्य है। आदमी के रिकार्ड ही अगर, क्लर्कों के रिकार्ड, गणधरों के रिकार्ड ही अगर सब कुछ हैं, तो ठीक है, किताबें खो जाएंगी और ये आदमी खो जाएंगे।
इतना सस्ता नहीं है यह मामला। इतनी बड़ी घटनाएं घटें जिंदगी में, अरबों-खरबों वर्ष में अरबों-खरबों लोगों के बीच कभी कोई एक आदमी परम सत्य को उपलब्ध होता हो, तो इसके परम सत्य के उपलब्ध होने की घटना सिर्फ कमजोर आदमियों की कमजोर भाषा में सुरक्षित रहे और अस्तित्व में इसकी सुरक्षा का कोई उपाय न हो, ऐसा नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता।
इसलिए एक और उपाय है। यानी मेरा कहना यह है कि जगत में जो भी महत्वपूर्ण घटता है, महत्वपूर्ण तो बहुत दूर की बात, साधारण गैर-महत्वपूर्ण घटता है, वह भी किन्हीं तलों पर सुरक्षित होता है। महत्वपूर्ण तो सुरक्षित होता ही है, वह तो कभी नष्ट नहीं होता।
इसलिए जो भी महत्वपूर्ण घटा है जगत में कभी भी, वह मनुष्य पर नहीं छोड़ दिया गया है कि आप उसे सुरक्षित करें। यह तो ऐसे ही होगा कि अंधों के एक समाज में एक आदमी को आंख मिल जाए, और उसे प्रकाश दिखाई पड़े, और अंधों के ऊपर निर्भर हो कि तुम उसके अनुभव को सुरक्षित रखना। अंधों पर छूटे यह बात कि तुम्हारे बीच जो एक आंख वाला आदमी पैदा हुआ था, उसे जो अनुभव हुआ, तुम उसे सुरक्षित रखना--तुम वेद बनाना, तुम आगम रचना, तुम गीता लिखना, तुम सुरक्षित रखना। तुम बाइबिल बनाना, तुम सुरक्षित रख लेना।
और अंधे सुरक्षित रख लें। और फिर अंधों पर अंधों की कमेंट्रीज होती चली जाएं, टीकाएं होती चली जाएं। और हजार, दो हजार साल बाद आंख वाले आदमी की देखी गई बात अंधों के द्वारा सुरक्षित की गई हो और अंधों के द्वारा व्याख्याएं की गई हों। और फिर उनके द्वारा हम आंख वाले आदमी की बात को खोजने निकलें, तो हमसे ज्यादा मूढ़ कोई दूसरा नहीं होगा।
तो मैं यह कहना चाहता हूं कि अस्तित्व में कुछ भी खोता नहीं। सच तो यह है कि अभी भी मैं जो बोल रहा हूं, यह कभी खोएगा नहीं। आप भी जो बोल रहे हैं, वह भी नहीं खोएगा। जो शब्द एक बार पैदा हो गया है, वह तक नहीं खोएगा कभी।
आज हम जानते हैं, लंदन में कोई बोल रहा है, तो रेडियो से हम यहां श्रीनगर में उसे सुनते हैं। आज से दो सौ वर्ष पहले नहीं सुन सकते थे। और दो सौ वर्ष पहले कोई मान भी नहीं सकता था कि यह कभी भी संभव होगा कि लंदन में कोई बोलेगा और श्रीनगर में कोई सुनेगा। कोई नहीं मान सकता था। लेकिन क्या आप समझते हैं कि उस दिन लंदन में जो बोला जा रहा था, वह श्रीनगर में नहीं सुना जा रहा था? यानी मेरा मतलब यह है कि उस दिन जो भी ध्वनित्तरंगें लंदन में बोलने से पैदा हो रही थीं, वे श्रीनगर की इस डल झील के पास से नहीं गुजरती थीं?
अगर नहीं गुजरती होतीं तो आज आप रेडियो में भी कैसे पकड़ लेते? अभी भी, यहां से भी गुजर रही हैं सब तरंगें। सारे जगत में अभी जो बोला जा रहा है, वह भी आपके पास से गुजर रहा है। सिर्फ डिवाइस, सिर्फ एक यांत्रिक तरकीब की जरूरत है, जिससे वह पकड़ा जा सके, बस। यानी मेरा कहना यह है कि कृष्ण ने अगर कभी भी बोला है, तो आज भी उसकी ध्वनित्तरंगें किन्हीं तारों के निकट से गुजर रही हैं।
यह भी ध्यान रहे कि लंदन में जो बोला गया है, ठीक आप उसी वक्त नहीं सुन लेते हैं उसे। क्योंकि ध्वनित्तरंगों को आने में समय लगता है। तो जब लंदन में बोला जाता है, तब आप नहीं सुनते हैं, थोड़ी देर बाद सुनते हैं; ठीक उसी वक्त नहीं सुन लेते हैं, थोड़ी देर बाद सुनते हैं। मतलब यह हुआ कि उतनी देर ध्वनित्तरंगें आप तक यात्रा करती हैं।
जो कभी भी बोला गया है, उसकी ध्वनित्तरंगें आज भी यात्रा करते हुए किन्हीं तारों के पास से गुजर रही हैं। और अगर उन तारों के लोगों के पास व्यवस्था होगी यंत्रों की तो वे उन्हें पकड़ लेते होंगे। यानी किसी तारे पर आज भी महावीर के वचन सुने जा सकते हैं, सुने जा रहे होंगे।
इसका क्या मतलब हुआ? इसके और मतलब हुए। इसका मतलब यह हुआ कि इस अनंत आकाश में--अनंत है इसीलिए कुछ नहीं खोता--जो भी पैदा होता है, वह यात्रा करता रहता है।
यह मैं ध्वनि की बात कर रहा हूं, लेकिन और सूक्ष्म तरंगें हैं, जहां अनुभूति की तरंगें शेष रहती हैं। जब हम बोलते हैं, तब ध्वनि की तरंग पैदा होती है, लेकिन जब हम अनुभव करते हैं, तब भी एक घटना घटती है और तरंगें पैदा होती हैं, जो कि और भी सूक्ष्म आकाश में यात्रा करती हैं। तो अगर रेडियो हो सके तो हम आकाश--स्थूल आकाश में घूमती हुई ध्वनित्तरंगों को पकड़ लेते हैं। अगर और कोई व्यवस्था आंतरिक हो सके तो और सूक्ष्म आकाश में हुए अनुभवों की तरंगों को पुनः पकड़ा जा सकता है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि मैं यह कह रहा हूं कि जगत में जो भी श्रेष्ठतम अनुभव हुए हैं, जितने गहरे अनुभव हुए हैं, उतने गहरे आकाश के तल पर उनके रिकार्ड सदा सुरक्षित हैं। वे कभी विनष्ट नहीं होते। और आदमियों पर नहीं छोड़ गया है कि वे किताबें लिख कर उनको सुरक्षित कर लें।
इसका मतलब यह हुआ कि अगर हम उन गहराइयों में अपने भीतर उतरें, यदि हम विशिष्ट ध्यान रख कर उतरें, तो हम विशिष्ट व्यक्तियों की अनुभूति से तत्काल प्रत्यक्ष संबंध जोड़ सकते हैं। लेकिन अगर हम कोई विशिष्ट व्यक्ति का ध्यान रख कर न उतरें, तो हम अपनी ही अंतर-अनुभूति में उतर जाते हैं। अपने भीतर गहरे उतरने वाला व्यक्ति उन टयूनिंग्स की भी व्यवस्था कर सकता है, जहां वह महावीर, या बुद्ध, या जीसस, या कृष्ण से संयुक्त हो जाए।
संयुक्त होने का मतलब यह नहीं है कि कृष्ण कहीं बैठे हैं, जिनसे संयोग हो जाएगा। वह दीया तो टूट गया, और वह ज्योति भी खो गई। लेकिन उस ज्योति ने जो अनुभव किया था, उस अनुभव की सूक्ष्म तरंगें अस्तित्व की गहराइयों में आज भी सुरक्षित हैं। और उतनी गहराइयों पर आप उतरें--विशिष्ट ध्यान लेकर।
अगर महावीर का पूर्ण ध्यान लेकर आप उस गहराई पर उतरे हैं तो आपके लिए वे द्वार खुल जाते हैं जहां महावीर की अनुभूतियों की सूक्ष्म तरंगें आपको उपलब्ध हो जाएं। और जब भी दुनिया में कभी इस तरह के अनुभवों से जुड़ा जाता है, तो और कोई जुड़ने का रास्ता नहीं है। इसलिए सब आदमी की किताबें खो जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
एक द्वीप था, महाद्वीप--अटलांटिस। लंबा समय हुआ, वह डूब गया सागर में। अब वह पृथ्वी पर नहीं है। कभी था। और उसका कोई रिकार्ड शेष नहीं रह गया, क्योंकि रिकार्ड भी डूब गए उस द्वीप के साथ। जैसे कि एशिया डूब जाए--पूरा का पूरा एशिया। परिवर्तन हो और सागर हावी हो जाए, एशिया पूरा डूब जाए। और एशिया के सारे रिकार्ड भी उसके साथ डूब जाएं। और आज तो यह भी है कि एशिया के कुछ रिकार्ड लंदन में भी हैं और न्यूयार्क में भी हैं, जो बच जाएं। उस दिन तो यह भी संभव नहीं था। उस दिन तो हमें पता ही नहीं था दूसरे कुछ का।
अटलांटिस नाम का एक महाद्वीप पूरा का पूरा डूब गया, कई करोड़ वर्ष पहले। लेकिन कुछ लोग जो गहराइयों में उतरते रहे, वे निरंतर इसकी खबर देते रहे कि एक महाद्वीप पूरा का पूरा डूब गया है। और वे इसका रिकार्ड करते चले गए। इसके कोई रिकार्ड नहीं बचे, लेकिन इजिप्त के कुछ फकीरों ने, तिब्बत के कुछ साधकों ने, इसके रिकार्ड्स, इस बात के रिकार्ड कि एक पूरा का पूरा महाद्वीप डूब गया है, यह मेरे अनुभव में आता है। बहुत पहले डूब गया है। और इसकी, कुछ आंतरिक खोज करने वाले लोग इसकी निरंतर खोज में लगे रहे कि वह कैसा द्वीप था? कैसे लोग थे? कैसी उनकी व्यवस्था थी?
और आप जान कर हैरान होंगे कि कुछ लोगों ने निरंतर मेहनत करके, सिर्फ अंतर-अनुभव से, उस महाद्वीप के सारे के सारे नक्शे वापस निर्मित किए। अगर यह एक आदमी ने नक्शे निर्मित किए--उस जाति के लोगों के चेहरे, उस जाति का धर्म, उस जाति की मान्यताएं, खयाल, अनुभूतियां, इन पर सारा का सारा इंतजाम किया--अगर एक व्यक्ति करे तो बड़ा मुश्किल था, क्योंकि इसका पक्का कैसे माना जाए कि यह आदमी कल्पना नहीं कर रहा है? कल्पना कर सकता है। लेकिन अलग-अलग लोगों ने इसके प्रयोग किए और निकटतम सहमतियों पर पहुंच गए कि वह नक्शा ऐसा होगा। और धीरे-धीरे इन लोगों के दबाव में...।
वैज्ञानिक तो पहले बिलकुल इनकार किए कि यह कभी हो ही नहीं सकता, क्योंकि इसका कोई रिकार्ड ही नहीं। ऐसा कोई द्वीप कभी रहा नहीं--महाद्वीप। इसका कोई हिसाब ही नहीं है कहीं भी। लेकिन ये लोग अपना काम करते चले गए और इन लोगों के दबाव में अंततः वैज्ञानिकों को भी चिंतना पड़ी कि कुछ हो सकता है। और इसकी खोज-बीन वैज्ञानिक ढंगों से की गई और पता चला कि ऐसा एक महाद्वीप निश्चित ही डूबा और वह आज भी समुद्र के तल में पड़ा हुआ है। और जहां इन मिस्टिक्स ने कहा था कि वह है, वह करीब-करीब वहां है। और उसके ऊपर बड़ी गहराई की पानी की पर्तें हैं। और इन्होंने जो कहा था कि उसमें इस तरह के पहाड़ होने चाहिए, इन-इन रेखाओं पर, वहां पहाड़ भी हैं। इसका भी वैज्ञानिक अनुसंधान चला। और अब अटलांटिस पर बड़ी खोज चलती है कि क्या वहां से कुछ उपलब्ध हो सकेगा?
लेकिन इसकी पहली खबर देने वाले वे लोग थे, जिनके पास कोई...कोई मतलब न था, और उनकी बात ही बिलकुल झूठ समझी गई। वह जो अटलांटिक महासागर है, उसके नीचे अटलांटिस डूबा हुआ है।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं आपको यह खयाल दिला सकूं कि मेरा कोई रास्ता शास्त्र के मार्ग से बिलकुल नहीं है। और मेरी यह भी समझ है कि उस मार्ग से कोई मार्ग भी नहीं है कभी। इसलिए जो भी लोग उस मार्ग पर पड़ गए हैं, वे सिर्फ भटकाने वाले सिद्ध हुए हैं, वे कहीं ले जाने वाले सिद्ध नहीं हुए। सरल वही है। किताब पढ़ने से ज्यादा सरल और क्या हो सकता है! हालांकि कुछ लोगों के लिए वह भी कठिन है। किताब पढ़ने से ज्यादा सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन आकाशिक रिकार्ड्स, जिनकी मैं बात कर रहा हूं, कि अस्तित्व की गहराइयों में अनुभूतियां सुरक्षित रह जाती हैं, वहां से उन्हें वापस पकड़ा जा सकता है, और वहां से उनसे पुनः जीवन-संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।
तो मैं यह जो चर्चा करूंगा इधर, उसका शास्त्रों से आप तालमेल खोजने की कोशिश में ही मत पड़ना, उससे कोई संबंध नहीं है। किसी और द्वार से ही मैं चेष्टा करता हूं। उस चेष्टा में जो कुछ मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं आपसे कहता चलूंगा। और इसलिए जब तक कोई और लोग मेरे साथ उस प्रयोग को करने को राजी न हों, तब तक मेरी बात अथारिटेटिव है या नहीं, कुछ निर्णय नहीं हो सकता। उसके निर्णय का कोई उपाय ही नहीं है दूसरा, जब तक कि कुछ लोग इस बात के लिए राजी न हों कि वे मेरे साथ प्रयोग करने को राजी हो जाएं। और तब मैं लिख कर रख दूं कि तुम्हें यह अनुभव होगा, और उन्हें हो जाए, तो फिर कुछ बात बने।
तो उसी आशा में यह सारी बात मैं करूंगा कि कुछ लोग निकल आएं शायद। विवाद का तो इसमें उपाय ही नहीं है कुछ। क्योंकि विवाद किससे करना है? लेकिन हो सकता है कुछ लोग इस प्रेरणा से भर जाएं और हिम्मत जुटाएं, तो आविष्कार हो सकता है। और तभी कोई तौल हो सकती है, जो मैं कह रहा हूं वह कहां तक, कितने दूर तक क्या अर्थ रखता है। अब इसमें इतने उलटे मामले आ जाएंगे और आपके पास कोई उपाय नहीं होगा कि क्या करें!
पश्चिम में एक फकीर था अभी, गुरजिएफ। सारी ईसाइयत का इतिहास यह कहता है कि जुदास ने जीसस को मरवाया, जुदास ने जीसस को तीस रुपयों में बेचा, और जुदास जीसस का दुश्मन है। क्योंकि जुदास...जो आदमी मरवा दे, वह दुश्मन तो है।

      प्रश्न: शिष्य नहीं था वह?

शिष्य था, लेकिन दगाबाज था। बिट्रे किया, धोखा दिया, और जीसस को बिकवा दिया और जीसस को सूली उसी वजह से लगी। उसने ही पकड़वाया रात को आकर। जीसस रात में ठहरे हुए हैं और जुदास लाया है दुश्मन के सिपाहियों को और जीसस को पकड़वा दिया है। तो जुदास से ज्यादा गंदा नाम ईसाइयत के इतिहास में दूसरा नहीं है। यानी किसी आदमी को गाली देनी हो तो जुदास कह दो। तो इससे बड़ी कोई गाली नहीं है। जीसस को फांसी लगवाने से बड़ा और बुरा हो भी क्या सकता है?
लेकिन गुरजिएफ पहला आदमी है, जिसने कहा, यह बात सरासर झूठी है। जुदास दुश्मन नहीं है, जीसस का दोस्त है। और पकड़वाने में जीसस का षडयंत्र है, जुदास का नहीं। यानी जीसस चाहते हैं कि पकड़े जाएं और सूली पर लटकाए जाएं। और जुदास उनका सेवक है। और इतना बड़ा सेवक है कि जब जीसस उसे कहते हैं कि तू मुझे पकड़वा, तो उनके बाकी शिष्यों की किसी की हिम्मत नहीं है इस काम को करवाने की। लेकिन जुदास तो सेवक है, वह कहता है: आपकी आज्ञा! जुदास जीसस को पकड़वा देता है।
तो गुरजिएफ ने सबसे पहले यह कहा कि मैं उन गहराइयों से इस बात की खोज, आपको खबर देता हूं कि जुदास दुश्मन नहीं है और जुदास जैसा मित्र पाना मुश्किल है कि जो कि मरवाने तक की आज्ञा को मानने को चुपचाप शिरोधार्य कर ले और चला जाए। इसीलिए...सारी ईसाइयत कहती है कि जुदास के पैर पड़े ईसा ने, पकड़े जाने के पहले। ईसाइयत कहती है, कितना अदभुत था जीसस कि जो पकड़वा रहा था, उसके पैर छुए, पैर धोए
गुरजिएफ कहता है कि पैर पड़ने योग्य था आदमी जुदास। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है कि जिसने इसमें भी इनकार न किया--जब जीसस ने कहा कि तू मुझे पकड़वा दे और मेरी फांसी लगवानी जरूरी है। अगर मेरी फांसी नहीं लगती तो जो मैं कह रहा हूं, वह खो जाएगा। मेरी फांसी लगती है तो सील-मोहर हो जाएगी। और मेरी फांसी ही अब मेरा काम कर सकती है और कोई उपाय नहीं है। तो तू मुझे फांसी लगवा दे।
फांसी से बचाने वाले मित्र खोजना आसान है, फांसी लगवाने वाला मित्र खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब गुरजिएफ ने पहली दफा यह बात कही, तो यह बड़ी मुश्किल का मामला हो गया। और सारी ईसाइयत ने बड़ा विरोध किया कि यह क्या बकवास है? यह तुम क्या कहते हो? यह तो हमारा सब हिसाब पलट गया। यह तो बात ही ठीक नहीं है। लेकिन एक आदमी हिम्मत जुटा कर नहीं आया कि आकर कोशिश करता कि यह आदमी कहता कहां से है। लेकिन मैंने प्रयोग किए और मैं हैरान हुआ कि वह ठीक कहता है: जुदास दुश्मन नहीं है, जुदास ही दोस्त है। वह फकीर ठीक कहता है, वह गलत कहता ही नहीं बिलकुल। मगर बड़ी मुश्किल से खोज पाया होगा, क्योंकि सारा का सारा...।
तो मेरा कहना है कि शास्त्र खोज का रास्ता तो है ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ी रुकावट है, क्योंकि माइंड को ऐसी बातों से भर देता है जो कि हो सकता है नहीं भी हों। और तब उनसे नीचे उतरना, उनके विपरीत जाना, भिन्न जाना ही मुश्किल हो जाता है। एकदम मुश्किल हो जाता है।
और महावीर के संबंध में तो बहुत ज्यादा हुई है यह बात। हद की है, जिसका हिसाब लगाना ही मुश्किल है। बहुत ही हद की है।
गुरजिएफ ने यह जो...तो इसको उसने नाम दिया क्राइस्ट ड्रामा। उसने कहा कि यह सूली-वूली सब खेल है। यह सूली बिलकुल खेल है और नाटक है पूरा रचा हुआ, जिसमें जीसस ने इस खयाल पर अपने मित्र को राजी कर लिया है और अपने आस-पास की हवा को कि जो मैं कह रहा हूं, अब अगर उसे तुम्हें बहुत दूर तक पहुंचाना हो उसकी खबर, तो मेरी फांसी लगवा देना जरूरी है, नहीं तो यह बात खो जाएगी। मेरी फांसी ही मूल्यवान बनेगी।
इसलिए क्रास मूल्यवान बन गया। क्रास का मूल्य, जीसस से ज्यादा मूल्यवान क्रास हो गया।
ये जो...इस तरह की बहुत सी बातें हैं, जो बहुत ही मुश्किल में डालेंगी। लेकिन उनके संबंध में विवाद करने का कोई उपाय नहीं है, उनके संबंध में प्रयोग करने का ही उपाय है। इधर इन दिनों में बहुत बात होगी, जो शायद आपको पहली दफे ही खयाल में आए, पहली दफे ही सुनें आप।
लेकिन इस कारण न तो मैं कहता हूं कि मान लेना कि मैंने कही, और न कहता हूं कि इसलिए इनकार कर देना कि पहली दफे किसी ने कही। अगर सच में ही प्रेम हो तो खोज पर निकलना। उस खोज के मार्ग की भी हम बात करेंगे कि वह कैसे खोज में हम जा सकते हैं। और फिर जो भी प्रश्न इसमें उठते चले जाएंगे, वे सब प्रश्न ले लेंगे।
इस मौके का उपयोग, आप गहरे भी जाएं, भीतर जाएं, उसके लिए भी करना चाहिए। और जो बातें भी मैं कहूंगा, वे बातें भी, आप थोड़े गहरे चलते हैं तो ही आपको साफ भी दिखाई पड़ेंगी, कि मैं कह क्या रहा हूं! यानी किन दृश्यों की बात कर रहा हूं, और किन गहराइयों की बात कर रहा हूं, किस आकाश की बात कर रहा हूं, वह आपको भी थोड़ी सी उसकी कुछ झलक भी मिले, तो ही जो मैं कह रहा हूं वह भी ठीक से समझ में आ सकता है।
इसलिए जब यहां हैं ही इस मौके पर, तो इस शांत और एकांत का तो पूरा उपयोग कर लेना चाहिए। तो मैंने सोचा ही ऐसा है कि आपको अभी मैं डीप मेडिटेशन के लिए, गहरे ध्यान के लिए कुछ सुझाव दे दूं, जिनका आप शेष समय में भी उपयोग करें, और एक घंटे के लिए कहीं भी--पहाड़ के पास, बगिया में, झील पर--एक घंटा बैठ कर भी उपयोग करें।
और दोपहर को, एक घंटे के लिए, आपको मैं व्यक्तिगत समय दूंगा। एक-एक व्यक्ति को कुछ भी उस संबंध में पूछना हो सिर्फ--और किसी संबंध में नहीं--उस संबंध में पूछना हो, उसका कुछ व्यक्तिगत उलझाव हो, अड़चन हो, तो वह उस वक्त बात कर ले। और जितना उसे वक्त चाहिए, उतना बात कर ले, नहीं तो हमेशा अतृप्ति रह जाती है वह।
तो जरूरी नहीं है कि रोज ही सबको वक्त मिल जाए। कल एक-दो, तीन-चार, जितने बात कर सकें, उतने कर लें, और फिर दूसरे बात कर लेंगे। और इतने, दस-पंद्रह दिन का साथ है, तो सबका हो सकेगा। तो दस मिनट, पंद्रह मिनट, जितना जिसको लगे, वह अपना पूरा सुलझाव ले ले।
गहरे ध्यान की पहली जरूरत तो यह है कि उसका स्मरण जितने ज्यादा समय तक रह सके, उतना ही गहरा हो सकता है। तो एक सरल सी प्रक्रिया पर रोज दिन भर खयाल रखें। चलते, उठते, बैठते, सोते, जब तक खयाल रहे श्वास पर खयाल रखें, पूरे वक्त। स्मृति श्वास पर रहे। श्वास भीतर जा रही है तो हमारी स्मृति भी उसके साथ भीतर जाए--बोध भी, कांशसनेस भी--कि श्वास भीतर गई। श्वास बाहर जा रही है तो बोध भी श्वास के साथ बाहर जाए। आप श्वास पर ही तैरने लगें। श्वास पर ही चेतना की नाव को लगा दें। बाहर जाए तो बाहर, भीतर जाए तो भीतर। श्वास के साथ ही आपका भी कंपन होने लगे। और इसे बिलकुल न भूलें कभी। जब भी भूल जाएं, और जैसे ही याद आए, फौरन फिर शुरू कर दें। घूमने गए हैं, बगीचे में गए हैं--कहीं भी गए हैं, कार में बैठे हैं, तो इसको नहीं छोड़ देना है। इसको सतत ही स्मरण रखें।
तो एक तीन-चार दिन में वह स्मरण टिकने लगेगा। और जैसे-जैसे स्मरण टिकेगा, वैसे-वैसे ही आपका चित्त शांत होने लगेगा। ऐसी शांति जो आपने कभी नहीं जानी होगी। क्योंकि जब चित्त पूरा श्वास के साथ चलता है तो विचार अपने आप बंद होने लगते हैं। विचार का उपाय ही नहीं रहता, क्योंकि दो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। श्वास पर चित्त होगा तो विचार बंद होंगे, और विचार पर चित्त जाएगा तो श्वास पर चित्त नहीं रह जाएगा। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं, ये असंभव हैं। इसीलिए श्वास पर ध्यान रखने को कह रहा हूं, ताकि विचार वहां से खो जाएं।
और विचार सीधे हटाने हों तो बहुत कठिन है, क्योंकि वह सप्रेशन हो जाता है। यहां हम हटा नहीं रहे विचारों को, विचारों से कोई संबंध ही नहीं। हम तो अपनी पूरी चेतना को दूसरी जगह लिए जा रहे हैं। और चूंकि चेतना वहां नहीं होती जहां विचार हैं, इसलिए उनको हट जाना पड़ता है। यानी हम किसी आदमी को यह नहीं कह रहे हैं कि तुम इस कमरे को छोड़ो, यह कमरा ठीक नहीं है, तुम भागो यहां से, और उस आदमी को यह कमरा अच्छा लग रहा है। नहीं, हम उसको यह कह रहे हैं कि बाहर बगिया है, बड़े अच्छे फूल लगे हैं, आते हो क्या? हम उससे कमरा छोड़ने की बात ही नहीं कर रहे। कह रहे हैं, बाहर फूल हैं, बगिया है, सूरज निकला है, आते हो क्या? हम बाहर आने का निमंत्रण दे रहे हैं, कमरा छोड़ने का आग्रह नहीं कर रहे। बाहर आएगा तो कमरा छूट जाएगा, इसलिए कमरे की हमें चिंता नहीं करनी है।
तो विचार छोड़ने का खयाल ही नहीं करना है, श्वास पर ध्यान चला जाए तो विचार छूट जाते हैं। क्योंकि श्वास बिलकुल दूसरा तल है, जहां विचार नहीं है। और विचार एक दूसरा तल है, जहां श्वास का स्मरण नहीं हो सकता। तो ये बिलकुल ही अपोजिट प्रक्रियाएं हैं। तो अगर एक पर ले जाते हैं तो दूसरे से अपने आप मुक्ति हो जाती है।
तो पूरे समय, ऐसा नहीं कि कभी थोड़ी-बहुत देर। तब फिर गहरा नहीं हो पाएगा। पूरे समय! सुबह उठें तो पहला स्मरण श्वास का। रात सोएं तो अंतिम स्मरण श्वास का। तो अपने आप आपका बोलना कम हो जाएगा। विचार तो कम होंगे ही, बोलना कम हो जाएगा। क्योंकि जब आप बोलेंगे, आपका ध्यान श्वास से हट जाएगा फौरन।
इसलिए मैं मौन रखने को भी नहीं कहता, क्योंकि वे दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं, आप बोले कि श्वास से ध्यान गया। श्वास पर ध्यान रखना है तो बोलना बंद करना होता है। अपने आप हो जाता है। तो कम बोलना पड़ेगा। बहुत कम बोलिए।
नहीं तो अक्सर होता क्या है, इतनी शांत जगह में भी आकर हम जब बातें करते हैं, तो शांत जगह बेमानी हो जाती है। और शांति का जो इंपैक्ट है, वह हममें प्रवेश ही नहीं कर पाता। वह बातों की जो हम दीवाल खड़ी रखते हैं। जैसे कि आप बैठ कर यहां अगर कमरे में बात करने लगे, तो आप भूल जाएंगे कि आप श्रीनगर में हैं, कि इधर डल लेक है, कि पहाड़ी है--सब गया। वह जो बातों का तल है, वह आपको सब भुला देगा। तो जैसे आप बंबई में होते, दिल्ली में होते, वही हो जाएगा, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
तो बातचीत से बचें और ध्यान उस पर ले जाएं। बातचीत अपने आप क्षीण हो जाएगी। यानी मैं चाहता हूं कि पंद्रह दिन में धीरे-धीरे ऐसा हो जाए कि बातचीत न ही हो जाए। बिलकुल जरूरी है, एसेंशियल है, जैसे कि पानी चाहिए, ऐसी बातचीत रह जाए। अकारण, व्यर्थ, फिजूल बातचीत न रह जाए। तो उसका ध्यान रखें। तो ही गहरा होगा। तो मौन अपने आप!
मौन भी दमन नहीं, कि बोलना ही नहीं है, ऐसा नहीं कह रहा हूं। बोलें, लेकिन बोलना एसेंशियल जो हो वही, जो जरूरत का है, काम का पड़ गया है, उतना; बाकी चुप। और चुप इसलिए कि ध्यान श्वास पर रखना है।
थोड़ा एकांत में भी जाएं, जब भी मौका मिल जाए। साथ मत ले जाएं किसी को, क्योंकि जब दूसरा साथ होता है, तो ध्यान दूसरे पर होता है। बड़ी सूक्ष्मता से अगर खयाल करेंगे, जब भी दूसरा मौजूद हो तो आप उसको भूल नहीं सकते। इस कमरे में आप अकेले बैठे हैं और इस कमरे में एक आदमी को और लाकर बिठाल दिया और आपसे कहा, आपको कोई मतलब नहीं, आपको जो करना है करिए। आप चाहे किताब पढ़ो और चाहे आप कुछ भी करो, वह आदमी यहां मौजूद है, यह आप भूल नहीं सकते। और आपकी चेतना सतत उसके होश से भरी रहेगी। और अगर आप भूल जाओ तो वह भी बुरा मानता है। पत्नी के साथ हो और आप भूल गए हो तो पत्नी भारी बुरा मानती है। पति को अगर पत्नी भूल गई तो पति बुरा मानता है।
असल में हम बुरा ही तब मानते हैं, जब दूसरा हमें भूलता है, उसी सेकेंड में बुरा मानते हैं। क्योंकि हमारी पूरी आकांक्षा, दूसरे की अटेंशन हम पर हो, यह बनी रहती है। और जिसको हम प्रेम वगैरह कहते हैं, मित्रता वगैरह कहते हैं, वह कुछ नहीं है, वह एक-दूसरे पर अटेंशन देने का एक-दूसरे को सुख है, और कुछ भी नहीं। दूसरा मुझे याद रखे हुए है। उसके कारण हैं बहुत गहरे। कारण यह है कि हमको अपना तो कोई स्मरण नहीं है। तो हम अपने अस्तित्व को दूसरे को स्मरण करा कर ही अनुभव कर पाते हैं, और कोई उपाय नहीं है। अगर दूसरा भूल गया तो हम गए।
समझ लीजिए कि आप यहां हैं और आपको बाकी सब मित्र भूल गए, तो आपके होने में क्या रह गया? आप गए। आपका अस्तित्व ही खतम हो गया। आप हो ही नहीं फिर। समझ लें कि पंद्रह दिन यहां हैं और दीपचंद को सारे लोग भूल गए। दीपचंद कहीं जाता है, कोई देखता ही नहीं, कोई नमस्कार नहीं करता, कोई कहता नहीं कहो, कैसे हो? कोई नहीं पूछता, कोई फिकर नहीं करता, कोई देखता ही नहीं उसकी तरफ, कोई ध्यान ही नहीं देता। दीपचंद एकदम मिट गए। क्योंकि दीपचंद अपने भीतर तो कुछ हैं नहीं। एक अटेंशन का ही जोर है, जो कुछ हैं। इसलिए जो अटेंशन देता है, वह प्यारा मालूम पड़ता है। जो नहीं देता, वह दुश्मन मालूम पड़ता है। जो मुंह फेर लेता है, वह दुश्मन है। जो पास आ जाता है, वह मित्र है। और हमारी सारी रिलेशनशिप उसी पर खड़ी है--पति-पत्नी की, प्रेमी-प्रेयसी की, मित्र की, इसकी-उसकी, बाप-बेटे की--सब उसी पर खड़ी है, अटेंशन दो। अगर बाप को लगता है कि बेटा अटेंशन नहीं दे रहा, उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा, तो सब गड़बड़ हो गया। बेटे को लगा कि बाप अटेंशन नहीं दे रहा, तो सब गड़बड़ हो गया।
लोग बीमार पड़ते हैं इसलिए कि दूसरा ध्यान दे। क्योंकि अगर ऐसे ध्यान नहीं मिलता, तो पत्नी बीमार पड़ गई है। तो अब तो पति को ध्यान देना पड़ेगा। अब तो बैठेगा छुट्टी लेकर दफ्तर छोड़ कर। स्त्रियों की तीस प्रतिशत से ज्यादा बीमारियां सिर्फ अटेंशन की बीमारियां हैं। जैसे ही उनको लगा कि ध्यान नहीं दिया जा रहा कि वे बीमार पड़ीं। और फिर कोई और उपाय नहीं है उनके पास कि कैसे आपके ध्यान को आकृष्ट करें।
जिन बच्चों को मां का प्रेम नहीं मिलता, वे निरंतर बीमार पड़ते हैं। बीमार पड़ने का और कोई कारण नहीं है। मां की कमी नहीं है, अटेंशन की कमी है। मां का वहां कोई भारी मतलब नहीं है। और मां से ज्यादा अटेंशन कोई नहीं दे पाता न! इसलिए फिर सब कमी हो गई। नर्स रख दो तुम तो वह दूध पिला देती, अटेंशन नहीं देती; कपड़े पहना देती, अटेंशन नहीं देती। अटेंशन है ही नहीं उसकी उस पर, उसकी अटेंशन अपनी घड़ी पर है कि उसको पांच बजे जाना है। इसलिए बच्चे को फौरन फील होना शुरू हो जाता है कि कुछ कमी हो रही है। यानी कपड़ा नहीं चाहिए, कपड़े से ज्यादा ध्यान चाहिए। ध्यान भोजन है बहुत गहरा, वह न मिले तो चूक हो जाती है।
इसलिए दूसरे को साथ न ले जाएं, नहीं तो वह मांग करता है पूरे वक्त कि आप अटेंशन दो। और आप भी मांग करते हो कि वह अटेंशन दे। और यह सौदा साथ में चलता है, म्युचुअल है, इसलिए दोनों को देना पड़ता है। तो अकेले जाएं थोड़ी देर को। और यहां भी ऐसा ही फील करें कि अकेले हैं। जैसे कोई दूसरा है नहीं साथ। थोड़ी देर के लिए कोई साथ नहीं है, हम अकेले हैं। इसको थोड़ा खयाल करेंगे तो, तो ही आप श्वास पर ध्यान दे पाएंगे, नहीं तो सब्स्टीटयूट दूसरे मिल गए, तो फिर गया मामला।
श्वास पर पूरे वक्त ध्यान रखें। और घंटे, आधा घंटे को कभी भी एकांत में बैठ कर इंटेंस ध्यान रखें। आंख बंद कर लें और श्वास पर ही ध्यान रखें। क्योंकि बाहर चलते, काम करते, बार-बार चूक ही जाता है। क्योंकि इसका खयाल नहीं है न, इसलिए चूक जाता है। अब पैर में कांटा गड़ गया तो अटेंशन कहां ध्यान श्वास पर रहेगा? ध्यान तो कांटे पर चला जाएगा फौरन। प्यास लगी है तो अटेंशन कैसे श्वास पर रहेगा? ध्यान तो पानी पर चला जाएगा।
तो एक घंटे के लिए कहीं एकांत में जाकर बैठ जाएं। रात इतनी बढ़िया होगी, कपड़े-वपड़े पहन कर कहीं भी एक दीवाल से टिक जाएं और बैठे रहें। और पूरा घंटा श्वास में ही बिता दें। तो इन पंद्रह दिनों में इतना बड़ा काम हो जाएगा, जो कि आप अकेले पंद्रह वर्षों में नहीं कर पाएंगे। जो यहां हो सकता है। इसमें दो-चार घटनाएं घटेंगी, उनकी चिंता नहीं करनी है। जैसे कि श्वास पर जितना ध्यान देंगे, नींद कम हो जाएगी। तो उसकी जरा भी चिंता नहीं लेनी है। जितनी देर नींद खुली रहे, बिस्तर पर भी श्वास पर ही ध्यान रखें।
तीन-चार-पांच दिन श्वास पर ध्यान रखने से नींद उड़ भी जा सकती है किसी की, उससे जरा भी चिंता नहीं लेनी है। क्योंकि श्वास पर ध्यान रखने से नींद से जो काम होता है, वह पूरा हो जाता है, और कोई कारण नहीं है। इतना विश्राम मिल जाता है।
नींद दो तरह से खतम होती है--टेंशन से भी और रिलैक्सेशन से भी। चिंता से भी नींद खतम हो जाती है, क्योंकि चिंता इतना तनाव से भर देती है कि मस्तिष्क शिथिल ही नहीं हो पाता तो नींद खतम हो जाती है। और अगर कोई ध्यान का प्रयोग करे तो इतना शिथिल-शांत हो जाता है कि नींद से जो शांति की जरूरत थी, वह पूरी हो जाती है। इसलिए नींद का कोई कारण नहीं रह जाता, वह विदा हो जाती है। तो उसका ध्यान नहीं करेंगे। जरा भी फिकर नहीं करेंगे।
और कुछ अजीब-अजीब अनुभव हो सकते हैं। तो उन पर भी चिंता नहीं करेंगे, वे अलग-अलग सबको हो सकते हैं। एक से होते भी नहीं। तो इसीलिए एक घंटे का दोपहर वक्त दिया है कि वैसा कोई अनुभव हो तो मुझसे अलग बात कर लेना। और उसकी बात किसी दूसरे से आप मत करना। क्योंकि दूसरा सिर्फ हंसेगा और आपको पागल समझेगा। क्योंकि वैसा अनुभव उसको नहीं हो रहा है। इसलिए उसको दूसरे से कहना ही मत कभी। क्योंकि वह सबको अलग-अलग होगा। इसलिए कोई को कभी सिंपैथी नहीं मिलेगी।
हो सकता है किसी को श्वास पर ध्यान देते-देते ऐसा लगे कि उसका शरीर बहुत बड़ा हो गया है, और एकदम फैल गया है, विस्तार हो गया है उसके शरीर का। वह एकदम घबड़ा जाए कि यह क्या हो गया? अब उठ सकेंगे कि नहीं उठ सकेंगे? इतना भारी हो जाए कि बिलकुल पत्थर हो गया। या इतना हलका हो जाए कि ऐसा लगे कि जमीन से ऊपर उठ गया है, कि जमीन और मेरे बीच फासला हो गया है, कि मैं ऊपर उठा जा रहा हूं, कि मैं लौट पाऊंगा कि नहीं लौट पाऊंगा?
कुछ भी लग सकता है। एकदम श्वास पर ध्यान देते-देते अचानक लग सकता है कि सिंकिंग हो रही है, श्वास डूबी जा रही है, और कहीं मैं मर तो नहीं जाऊंगा? गहन अंधकार का अनुभव हो सकता है। तेज चमकती बिजलियों का अनुभव हो सकता है। सुगंध अनुभव हो सकती है, अजीब तरह की दुर्गंध अनुभव हो सकती है। कुछ भी हो सकता है। बहुत तरह की बातें हो सकती हैं।
तो उनको चुपचाप खुद ही अपने भीतर रख लें, उसको किसी से कहना ही मत। उसको तो मुझे, जब मैं आपको प्राइवेट में मिलूंगा दरवाजा बंद करके तब आप मुझ को कह देना। और मुझे कह कर फिर आप दुबारा उसकी कभी किसी से बात मत करना।
उसके कई कारण हैं। एक तो दूसरा कभी उस पर विश्वास नहीं करेगा। कभी नहीं करेगा, उसका कारण है कि वैसा उसको हो नहीं रहा। और वह हंसेगा, और उसकी हंसी आपको नुकसान पहुंचाएगी। बहुत गहरा नुकसान पहुंचाएगी। दूसरी बात है कि हमें जो अनुभव होते हैं, अगर हम उनकी बात कर दें, तो फिर दुबारा नहीं होते। वे दुबारा नहीं होते। क्योंकि वे होते हैं अनायास, और जब हम उनकी बात कर देते हैं तो हम पूरे कांशस हो जाते हैं। तो फिर वे नहीं होते।
और भी एक बड़े मजे की बात है कि ये जो गहरी अनुभूतियां हैं, उनको बिलकुल सीक्रेट की तरह छिपाना चाहिए भीतर, नहीं तो ये बिखर जाती हैं। इनकी जो पोटेंशियल फोर्स है, इनमें भी बड़ी ताकत है। तो जैसे हम तिजोड़ी के भीतर धन को छिपा देते हैं। और जैसे कि हम कपड़े पहनते हैं और शरीर की गर्मी को भीतर रोक लेते हैं। सर्दी पड़ रही है तो हम कपड़े पहने हुए हैं। क्यों पहने हुए हैं? वह एक ही कि सर्दी हमारी गर्मी को खींच लेगी बाहर। शरीर की गर्मी को बाहर ले जाएगी और शरीर मुश्किल में पड़ जाएगा। तो पूरे वक्त हमारा शरीर बाहर के संपर्क में अपनी गर्मी खो रहा है, अपनी शक्ति खो रहा है। जब बहुत गहरी अनुभूतियां हमें होती हैं तो एक पर्टिकुलर टाइप ऑफ एनर्जी, एक खास तरह की शक्ति पैदा होती है उन अनुभवों के साथ। अगर आपने बात की, तो वह तत्काल बिखर जाती है और खो जाती है।
तो उसकी बात ही नहीं करना। निकटतम सगे को भी उसकी बात मत करना। उसको पता ही नहीं चलने देना किसी को, उसको बिलकुल अपने अंदर छिपा लेना, ताकि वह एनर्जी बढ़े, गहरी हो, और और गहरे अनुभवों में ले जाए। इसलिए उसकी बात नहीं करना।
और सबसे मैं अलग ही बात करूंगा कि क्या करना, उसको जो लग रहा है उसके साथ। यह जो जनरल था, वह मैंने कह दिया। इसको आप कल से शुरू करें। और फिर देखेंगे, जैसा होगा वैसी बात करेंगे।

      प्रश्न: श्वास पर ध्यान केंद्रित करना और "मैं कौन हूं'...

श्वास पर ध्यान केंद्रित करना बहुत गहरा प्रयोग है, बहुत गहरा प्रयोग है। "मैं कौन हूं' भी बहुत गहरा प्रयोग है, लेकिन बहुत दूसरी दिशा से, बहुत दूसरी दिशा से। वह विचार की दिशा से ही निर्विचार में जाने की कोशिश है। और यह निर्विचार से ही शुरू होता है।
वह जो है विचार ही है, "मैं कौन हूं' वह विचार ही है। और विचार को ही इतनी तीव्रता में ले जाना है कि जाकर वह निर्विचार में उतार दे आपको। यह जो है निर्विचार से ही शुरू करना है, यहां विचार छोड़ ही देना है।
तो "मैं कौन हूं' में कुछ लोगों को तनाव भी हो सकता है और कुछ लोगों को परेशानी भी हो सकती है। इसमें किसी को तनाव नहीं होगा, किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। और मैं बहुत तरह की विधियों की बात करता हूं। और सिर्फ इस कारण करता हूं कि बहुत तरह के लोग हैं, किसको कौन सी विधि कब पकड़ जाएगी कहना मुश्किल है। फिर जिसको जो पकड़ जाए, वह उससे चला जाए।
और कोई एक सौ बारह विधियां हो सकती हैं। वह भी एक दफा सोच रहे हैं, लाला जी की वह भी इच्छा है, कि एक बार उन एक सौ बारह विधियों पर इकट्ठा मैं एक सात-आठ दिन बैठ कर बात करूं। ताकि एक पूरा संकलन पूरी विधियों का अलग हो जाए। तो उनसे कोई भी व्यक्ति पकड़ ले अपने लिए, उसके लिए क्या उपयोगी हो सकता है। और इसलिए मैं हर कैंप में विधि बदल देता हूं।

आज इतना ही।


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