जाति-स्मरण:
महावीर-उपाय—(प्रवचन—तेरहवां)
पहले
थोड़ी सी बातें
प्रश्नों के
संबंध में ही
लें।
यह
जरूर पूछा जा
सकता है कि
यदि पता हो, एक दुर्घटना
होने वाली है,
तो रुक जाना
चाहिए, क्यों
जाना?
मैंने
जो मेहरबाबा
का उदाहरण
दिया, वह
सिर्फ समझाने
को। इस बात को समझाने
को कि क्या
होने वाला है
इसे भी जानने की
पूरी संभावना
है। लेकिन जो
उन्होंने
किया, मैं
उसके पक्ष में
नहीं हूं।
उनका उतर जाना
या मकान में न
ठहरना, इसके
मैं पक्ष में
नहीं हूं।
क्योंकि मेरी
मान्यता यह है
कि जीवन में
अगर पूर्ण
आनंद और पूर्ण
शांति उपलब्ध
करनी हो तो
स्वयं को
प्रवाह में
ऐसे छोड़ देना
चाहिए जैसे
किसी ने नदी
में अपने को
छोड़ दिया हो--जो
तैरता नहीं है,
जो सिर्फ
बहता है, जो
हो रहा हो, उसमें
सहज बहता है।
जीसस
को जिस दिन
सूली लगी, उसके एक
क्षण पहले
जीसस ने जोर
से चिल्ला कर
कहा, हे
परमात्मा, यह
क्या करवा रहा
है!
शिकायत
आ गई, और
परमात्मा गलत
कर रहा है, यह
भी आ गया, और
जीसस
परमात्मा से
ज्यादा जानते
हैं, यह भी
आ गया। लेकिन
तत्क्षण जीसस
को समझ में आ गई
बात कि भूल हो
गई। तो दूसरा
वाक्य जो
उन्होंने कहा,
वह यह कहा
कि मुझे क्षमा
कर। मैं क्या
जानता हूं!
तेरी मर्जी
पूरी हो। फिर
तो इसके बाद
जो आखिरी वचन उन्होंने
बोला, उसमें
कहा कि इन सब
लोगों को माफ
कर देना, क्योंकि
ये लोग नहीं
जानते कि ये
क्या कर रहे हैं।
यह उन
लोगों की तरफ
इशारा करके
कहा, जो
उन्हें सूली
दे रहे थे। और
मेरी अपनी समझ
यह है कि जिस
क्षण जीसस ने
यह कहा कि हे
परमात्मा, यह
क्या कर रहा
है, यह
क्या करवा रहा
है, यह
क्या दिखला
रहा है, तब
तक वे जीसस ही
हैं। और जैसे
ही उन्होंने
समग्र मन से
यह कहा कि
तेरी मर्जी
पूरी हो, क्षमा
कर, उसी
क्षण वे
क्राइस्ट हो
गए।
तो
मैंने जो यह
कहा कि
मेहरबाबा लौट
गए मकान से या
हवाई जहाज से
उतर गए, इसका
बहुत गहरा
अर्थ यह है कि
व्यक्ति का
अहंकार अभी
शेष है, अभी
सुरक्षित है,
अभी विश्व
के प्रवाह में
वह अपने अलग
होने को, अपने
पृथक होने को,
अपने को
बचाने को आतुर
और उत्सुक है।
तो जो
मैंने कहा, तो मैंने यह
नहीं कहा कि
जो किया है, वह ठीक किया।
कहा मैंने कुल
इतना है कि इस
बात की संभावना
है कि पूर्व
से जाना जा
सके। लेकिन
परम स्थिति तो
यही है कि
जीवन एक बहाव
हो--तैरना भी न रह
जाए। जिंदगी
जहां ले जाए
और जो हो, उसके
साथ चुपचाप
राजी हो जाना
है। ऐसी
स्थिति को ही
मैं आस्तिकता
कहता हूं। मैं
कहूंगा मेहर
बाबा आस्तिक
नहीं हैं।
अब
मुश्किल होगी
यह बात समझना।
आस्तिकता का मतलब
ही यह है।
मृत्यु भी आए
तो वह वैसे ही
स्वीकृत है, जैसा जीवन
स्वीकृत था।
भेद क्या है
मृत्यु और जीवन
में? मकान
के बचने में
और गिरने में
फर्क क्या है?
कहूंगा तो
मैं गलत ही
वैसा करने को।
मैं तो राजी
नहीं हूं।
जिंदगी जैसी
सहज जाती है
चुपचाप, मौन,
जैसे पौधे
अंकुरित होते
हैं, फूल
बनते
हैं--इतना ही
शांत और
चुपचाप बहाव
होना चाहिए।
जिसमें
अहंकार कोई
अवरोध ही नहीं
डालता, कोई
बाधा ही नहीं
डालता। तो ही
मुक्ति, तो
ही मुक्ति
पूरे अर्थ में
संभव है। इसलिए
मैं तो वैसा
करने को गलत
ही कहता हूं।
और
दूसरी बात भी
इसने पूछी है, वह भी बहुत
अच्छी है। यदि
संकल्प से सब
हो सकता है, तब तो फिर
कुछ भी किया
जा सकता है--धन
भी, यश
भी--कुछ भी
इकट्ठा किया
जा सकता है, चाहे
परोपकार के
लिए, चाहे
परस्वार्थ के
लिए।
यह भी
थोड़ा समझने
जैसा है।
निश्चित ही
किया जा सकता
है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है, लेकिन
वही कर सकेगा,
जो अभी धन
के नीचे जी
रहा है।
अभी कल
ही बात होती
थी, रामकृष्ण
को कैंसर हो
गया और
रामकृष्ण के
भक्त उनसे
कहने लगे कि
आप एक बार
क्यों नहीं कह
देते हैं मां
को कि कैंसर
ठीक करो!
तो
रामकृष्ण ने
कहा, दो बातें
हैं। एक तो जब
मैं उसके
सामने होता हूं,
तब कैंसर
भूल ही जाता
है। यानी ये
दो बातें एक साथ
होती ही नहीं।
जब मैं उस दशा
में होता हूं,
तब कैंसर
होता ही नहीं;
और जब कैंसर
होता है, तब
मैं उस दशा
में नहीं
होता। इन
दोनों का कहीं
तालमेल नहीं
होता। और अगर
हो भी जाए तो
मैं परमात्मा
को कहूं कि
कैंसर ठीक कर
दे, इसका
मतलब हुआ कि
मैं परमात्मा
से ज्यादा जानता
हूं। इसलिए जो
हो रहा है, उसे
सहज स्वीकार
के और कोई
मार्ग नहीं।
विवेकानंद
बहुत गरीब थे।
पिता मरे
विवेकानंद के
तो बहुत कर्ज
छोड़ गए। तो कई
लोगों ने
विवेकानंद को
कहा, रामकृष्ण
के पास जाते
हो, उनसे
पूछ लो कोई
तरकीब, कोई
रास्ता कि धन
उपलब्ध हो जाए,
कर्ज चुका
दो। ऐसी
हालतें थीं कि
दिन-दिन भर विवेकानंद
भूखे घूमते
रहते, खाने
को नहीं था।
या घर में
इतना कम खाने
को होता कि
मां अकेली खा
सकती या विवेकानंद
खा सकते, तो
वे कहते, आज
मैं मित्र के
घर निमंत्रित
हूं, तुम
खाना खा लो, मैं खाना
खाकर लौटता
हूं। और वे
भूखे हंसते हुए
घर आ जाते कि
बहुत ही बढ़िया
खाना आज मित्र
के घर मिला।
इतना भी नहीं
था घर में
उपाय, इंतजाम।
तो
मित्रों ने
कहा, रामकृष्ण
से पूछ लो। और
रामकृष्ण के
पास
विवेकानंद गए
और कहा कि क्या
करूं, बहुत
गरीबी है।
उन्होंने कहा,
इसमें कहने
की क्या बात
है। सुबह मां
को कह देना
प्रार्थना के
बाद कि ठीक कर
दे, सब
इंतजाम कर दे।
विवेकानंद गए,
प्रार्थना
करके वापस
लौटे।
रामकृष्ण ने
पूछा, कहा?
तो
विवेकानंद ने
कहा कि मुंह
ही न खुला, क्योंकि
यह बात ही
अशोभन मालूम
पड़ी कि प्रार्थना
से भरे चित्त
में और पैसे
को ले आया
जाए।
फिर
दूसरे दिन, फिर तीसरे
दिन, भूखे
हैं, रोटी
नहीं मिल रही
है, कर्जदार
पीछे पड़े हैं,
और
रामकृष्ण
रोज-रोज पूछते
हैं: क्यों, आज कहा? तो
वह लौट कर कहते
हैं कि नहीं परमहंसदेव,
यह नहीं हो
सकेगा, क्योंकि
जब प्रार्थना
में होता हूं,
तब इतना बड़ा
धनी हो जाता
हूं कि
निर्धनता
कहां, कैसी!
कौन निर्धन!
और जब
प्रार्थना के
बाहर आता हूं,
तब फिर वही
निर्धन हो
जाता हूं, जो
था। तो जब
प्रार्थना के
बाहर होता हूं,
तब तो मन करने
लगता है कह
दूं, लेकिन
जब प्रार्थना
में होता हूं
तो मुझसे धनी
कोई होता ही
नहीं।
संकल्प
जितना-जितना प्रगाढ़
होता चला
जाएगा, उतना
ही उसका उपयोग
कम होता चला
जाएगा।
यह
समझने जैसी
बात है। असल
में संकल्प के
उपयोग की
हमारी जो
चित्त-वृत्ति
है, वह
संकल्प के न होने
के कारण ही
है। जैसे-जैसे
संकल्प होता
जाएगा घना, प्रगाढ़,
वैसे-वैसे
संकल्प का
उपयोग बंद
होता चला जाएगा।
इस जगत
में सिर्फ
शक्तिहीन ही
शक्ति के
उपयोग की बात
सोचते हैं। इस
जगत में जिनके
पास शक्ति है, वे कभी
उपयोग करते ही
नहीं, क्योंकि
शक्ति की
उपलब्धि में
ही शक्ति के
अनुपयोग की
संभावना भी
छिपी है। आकस्मिक,
अनायास कुछ
होता हो, हो
जाता हो; लेकिन
सचेत, विचारपूर्वक
कोई ऐसा उपयोग
नहीं होता। और
फिर हमें ऐसा
लगता है--हमें
ऐसा लगता है, क्योंकि धन
हमारे लिए
मूल्यवान
मालूम होता है।
एक
छोटा बच्चा है, खिलौने उसे
बहुत मूल्यवान
हैं। और उसका
पिता उससे
कहता है कि भगवान
से मैं जो भी
प्रार्थना
करूं, वह
हो जाए। तो वह
कहता है, मेरे
लिए खिलौने
क्यों नहीं
मांग लेते? तो वह बाप
कहे, पागल,
खिलौने
मांग कर भी
क्या करेंगे!
लेकिन
बाप के लिए
खिलौने बेकार
हो गए हैं, और यह
कल्पना के
बाहर है कि
परमात्मा से
खिलौने
मांगने जाया
जाए। लेकिन
बच्चे को यह
समझ के बाहर
है कि खिलौने
जैसी बढ़िया
चीज भगवान से
क्यों नहीं
मांग लेते हो!
सबूत हो जाएगा
कि कैसा भगवान
है, कैसी
शक्ति है।
खिलौने
जब तक हमें
सार्थक हैं, तब तक हमें
लगता है कि
अगर भगवान भी
मिल जाए तो
खिलौने ही
मांग लेंगे।
अगर संकल्प जग
जाए तो धन ही
ले लेना है।
ऐसे चित्त में
संकल्प जगेगा
भी नहीं, यह
भी ध्यान रहे।
ऐसे चित्त की
हमारी धारणा
होगी तो
संकल्प कभी
जगेगा नहीं।
संकल्प जग
सकता है अगर
ये चित्त की
धारणाएं चली
जाएं। और संकल्प
जग जाए तो फिर
इनका प्रयोग
करने का उपाय
नहीं, क्योंकि
वे धारणाएं छूटें, तभी
संकल्प जगता
है।
यानी
कठिनाई कुछ
ऐसी है कि
जैसा बैंक के
संबंध में कहा
जाता है कि
बैंक उस आदमी
को पैसे उधार देता
है, जिसे
पैसे की कोई
जरूरत नहीं
है। और जिस
आदमी को जरूरत
हो, उसे
बैंक पैसा
उधार नहीं
देता, क्योंकि
जिसे जरूरत हो
उससे लौटने की
संभावना नहीं
है। तो बैंक
पक्का पता लगा
लेता है कि इस
आदमी को पैसे
की जरूरत तो
नहीं है तो
फिर बैंक
जितना चाहे
उतना उधार
देता है। और
पक्का पता लग
जाए कि इस
आदमी को पैसे
की बहुत जरूरत
है तो बैंक
हाथ खींच लेता
है, पैसे
नहीं देता।
यह बड़ा
उलटा है नियम।
होना तो ऐसा
ही चाहिए था कि
जिसे पैसे की
जरूरत हो, उसे बैंक
पैसा दे।
लेकिन बैंक
उसको पैसा
नहीं देता।
बैंक सिर्फ
उसी को पैसा
देता है, जिसको
कोई जरूरत
नहीं है।
यह जो
विराट शक्ति
है परमात्मा
की, यह
उन्हीं को
उपलब्ध हो
जाती है, जिन्हें
कोई जरूरत
नहीं है। और
जिन्हें
जरूरत है, उन्हें
उपलब्ध नहीं
होती!
जीसस
का एक बहुत
अदभुत वचन है, आश्चर्यजनक
है, कहा है
कि जो अपने को बचाएगा, वह नष्ट हो
जाएगा; और
जो अपने को
खोने को राजी
है, उसे
कोई भी नष्ट
नहीं कर सकता
है। जो मांगेगा,
उससे छीन
लिया जाएगा; और जो छोड़ कर
भागने लगेगा,
उसे दे दिया
जाएगा।
असल
में मांगने
वाला चित्त
संकल्प कर ही
नहीं सकता, इसे ध्यान
रखना। उसका
कारण है
क्योंकि
मांगने वाला
चित्त इतना
दीन और दरिद्र
होता है कि संकल्प
जैसी बड़ी
संपदा उसके
पास नहीं हो
सकती। असल में
न मांगने वाला
ही संकल्प कर
सकता है।
लेकिन हम
संकल्प भी
इसलिए करना
चाहते हैं कि
कुछ मांग
लेंगे और तब
सारी कठिनाई
हो जाती है, सारी
असुविधा हो
जाती है।
तीसरी
बात भी इधर ही
कर लेनी
चाहिए। जैसा
मैंने कहा कि
महावीर को कोई
फर्क नहीं
पड़ता, शादी
हो तो ठीक, न
हो तो ठीक, सब
बराबर है। एक
सीमा पर सब
बराबर है। और
जहां सब बराबर
है, वहीं
मुक्ति है। और
जहां तक भेद
है, वहां
तक मुक्ति
नहीं है। जहां
तक शर्त है
हमारी, च्वाइस
है कि ऐसा
होगा तो ही
ठीक और ऐसा
होगा तो सब
गलत हो जाएगा,
वहां तक हम
बंधे हुए लोग
हैं। क्योंकि बांधता
क्या है? च्वाइस
ही बांधती
है। चुनाव ही बांधता
है। मैं कहता
हूं बस ऐसा, तब तो ठीक, शांत रहूंगा,
आनंदित
रहूंगा; ऐसा
हुआ तो फिर
मैं अशांत हो जाऊंगा, गैर-आनंदित
हो जाऊंगा।
तो फिर मेरी
शांति और
अशांति और
मेरा आनंद और
निरानंद बंधे
हुए हैं कहीं।
मैं मुक्त
नहीं हूं। ऐसा
नहीं है कि मैं
हर हालत में
आनंदित
रहूंगा।
जो
आदमी हर हालत
में आनंदित है, उसकी कोई
शर्त नहीं है।
उसकी तो यह भी
शर्त नहीं है
कि वह बीमार
रहे कि स्वस्थ,
जिंदा रहे
कि मर जाए, शादी
हो कि न हो, मकान
हो कि न हो।
उसको कोई शर्त
ही नहीं है।
बेशर्त जीता
है। जो भी हो, जीता है।
तो यह
पूछना जरूरी
है। लेकिन
शायद मेरे
संबंध में कुछ
तुम्हें पता
नहीं, इसलिए
ऐसा पूछते हो।
शादी के लिए
मना तो मैंने
कभी किया ही
नहीं। मना
करने की कोई
बात ही नहीं
है, क्योंकि
मना भी वही
करता है, जिसके
मन में कहीं
हां छिपा हो।
हां छिपा होता
है तो ही न
सार्थक होती
है। और कई बार
तो ऐसा होता
है कि न का
मतलब ही हां
होता है, यानी
न सिर्फ ऊपर
ही ऊपर होती
है, हां
भीतर होती है।
मैं तो
विश्वविद्यालय
से लौटा तो घर
के लोग चिंतित
ही थे कि, सबसे
बड़ी चिंता यही
थी, शादी
ही बड़ी चिंता
थी। तो मुझसे
पहली ही रात मेरी
मां ने पूछा
कि शादी के
संबंध में
क्या खयाल है?
तो
मैंने उससे
कहा कि दोत्तीन
बातें समझने
जैसी हैं। उठा
दिया सवाल तो
बहुत ही अच्छा
है। पहला तो
यह कि मैंने
अब तक शादी नहीं
की, इसलिए
मुझे कोई
अनुभव नहीं, तो मेरे हां
और न दोनों ही
गैर-अनुभवी के
होंगे, तो
क्या मतलब है
उन हां और न
का। तुमने
शादी की है, तुम्हारा
जिंदगी का
अनुभव है। तो
तुम पंद्रह दिन
सोच लो और
मुझे पंद्रह
दिन सोचने के
बाद कहना कि
तुमने अगर
शादी करके कोई
ऐसा आनंद पाया
हो, जिससे
तुम्हारा
बेटा वंचित न
रह जाए, तो
तुम मुझसे कह
देना, मैं
शादी कर
लूंगा। और अगर
तुम्हें लगता
हो कि शादी
करके तुमने
कोई आनंद नहीं
पाया, और
तुम्हें शादी
के बाद कई दफे
ऐसा खयाल आया
हो कि न की
होती तो ही
अच्छा था, तो
तुम मुझे सचेत
कर देना कि
कहीं मैं कर न
बैठूं।
प्रश्न:
यह
तो न ही हो गई!
न, मेरी तरफ से
न न है, न
हां है। मेरी
तरफ से मैं
कोई बात ही
नहीं कर रहा।
मेरी तरफ से
कोई कंडीशन
ही नहीं, कोई
शर्त ही नहीं
है। मैंने बात
सीधी सामने रख
दी, क्योंकि
मेरा कोई
अनुभव नहीं है,
अभी मैंने
शादी की नहीं
है। कर सकता
हूं, इसकी
कोई कठिनाई
नहीं है।
लेकिन जो मुझे
प्रेम करते
हैं, उनको
इतना तो मेरे
लिए सोचना ही
चाहिए कि
उन्होंने जो
अनुभव किया है,
वह अगर ऐसे
किसी आनंद का
है, जिससे
मैं वंचित
रहूं तो
उन्हें दुख
होगा, तो
मैं शादी कर
लूंगा। फिर
मुझसे पूछना
ही मत, मुझसे
कहना शादी
करो। और अगर
कहीं
तुम्हारा ऐसा
अनुभव हो कि
तुमने दुख
पाया हो, दुख
ही पाया हो, तो यह तो मां
होने के नाते
पहला काम
तुम्हारा
होगा कि कहीं
भूल-चूक से
मैं शादी न कर
लूं, तुम
मुझे सचेत कर
देना।
तुम्हारी बात
सुन कर मैं
फिर कुछ विचार
कर लूंगा।
पंद्रह
दिन बाद उसने
मुझे कहा, मुश्किल में
डाल दिया है, क्योंकि
खोजने गई हूं
तो कैसा आनंद!
अब मैं तो नहीं
कह सकती थी कि
करो, वैसे
तुम्हारी
मर्जी।
मैंने
कहा तो अब जब
मेरी मर्जी
होगी, मैं
तुमसे
कहूंगा। यानी
तब तक के लिए
बात तो स्थगित
हो गई न। जब
मेरी मर्जी
होगी, मैं
तुमसे
कहूंगा। और वह
मर्जी नहीं
हुई। न मैंने
कभी नहीं कहा
है, अभी भी
नहीं कहा है।
अभी भी कोई समझाने-बुझाने
वाला आ जाए तो
मैं राजी हो
सकता हूं।
इसमें क्या
मुश्किल है!
इसमें कोई
तकलीफ की बात
नहीं है।
इसमें कोई
अड़चन भी नहीं
है।
मेरे
पिता के एक
मित्र थे। बड़े
वकील थे, बड़े
तार्किक थे।
तो पिता ने
उनको कहा कि
आप आकर जरा
समझाएं। वे आ
गए। दूसरे
गांव रहते थे।
रात आकर रुके।
तो बड़े
दबंग आदमी थे, बड़े वकील थे,
बड़े
तार्किक, बड़े
नेता थे।
मुझसे आते ही
से कहा कि
चाहे कितने ही
दिन मुझे
रुकना पड़े
यहां, मैं
यह सिद्ध करके
जाने वाला हूं
कि शादी बड़ी उपयोगी
है। मैंने कहा,
इसमें देर
की जरूरत ही
नहीं। आज ही, इतने दिन
क्या रुकने की
जरूरत है, आप
मुझे समझा दें,
अभी मैं
राजी हो जाऊंगा।
लेकिन ध्यान
रहे, यह
एकतरफा तो
नहीं रहेगा
मामला!
उन्होंने
कहा, क्या
मतलब?
मैंने
कहा कि आप समझाएंगे
तो मुझे भी
कुछ बोलने का
हक होगा?
बिलकुल
हक होगा।
मैंने
कहा कि अगर
आपने सिद्ध कर
दिया कि शादी करना
आनंदपूर्ण है, तो मैं कल
सुबह हां भर
दूंगा। शादी
हो जाए। और अगर
कहीं यह सिद्ध
हो गया कि
आनंदपूर्ण
नहीं है, तो
आपका क्या
इरादा है, आप
शादी छोड़ने को
राजी हैं? क्योंकि
अकेला एकतरफा
तो ठीक नहीं
है न यह सब, यह
तो अन्याय हो
जाएगा। यानी
मैं तो दांव
लगाऊं जिंदगी,
और आप बिना
दांव के लड़ते
हों, तब तो
मजा नहीं
आएगा।
उन्होंने
कहा कि ठहर
जाओ, मैं सुबह
तुमसे बात
करूंगा। सुबह
मेरे उठने के
पहले वे जा ही
चुके थे। पिता
से कह गए थे कि
मैं इस झंझट
में नहीं
पड़ता। इस झंझट
की मुझे कोई जरूरत
नहीं।
संदिग्ध
तो हमारा मन
है भीतर। फिर
बाद में बहुत
वर्ष बाद जब
मुझे मिले, तो उन्होंने
कहा कि तुमने
मुझे बहुत
चिंता में डाल
दिया, रात
भर मैं सो
नहीं सका। और
फिर मैंने कहा
कि यह ज्यादती
होगी, क्योंकि
मैं खुद ही
छोड़ने की हालत
में रहता हूं
निरंतर। यह
बिलकुल
ज्यादती
होगी। तो
मैंने कहा कि
इस बात में मुझे
पड़ना ही
नहीं है, और
मैं हार जाता,
क्योंकि
मैं तो भीतर
से ही कमजोर
था। यानी मैं
तो खुद ही इस
पक्ष का हूं
कि यह बहुत
गलती हो गई है,
लेकिन अब
कोई उपाय
नहीं।
मैंने
लेकिन मना
नहीं किया अभी
तक। कोई समझाने
वाला नहीं आया, कोई क्या
करे, इसमें
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए
उसकी चिंता
नहीं लेनी
चाहिए।
प्रश्न:
कर्म
के संबंध में
महीपाल जी
पूछते हैं कि
यह जो विकास
हो रहा है, पशु-पक्षी
हैं, मनुष्य
योनि तक आ रहे
हैं, यह
सहज विकास का
ही परिणाम है आटोमेटिक,
अपने आप चल
रहा जो विकास
है, या कि
उनकी सचेत
चेष्टा भी
इसमें सहयोगी है?
विकास
दो तलों पर चल
रहा है।
डार्विन की
खोज बड़ी गहरी
है लेकिन एकदम
अधूरी है।
डार्विन ने
शरीरों के
विकास पर सारा
का सारा
सिद्धांत
निर्धारित
किया है।
शरीरों
में एक
विकास-क्रम
मालूम पड़ता
है। ऐसा मालूम
पड़ता है कि
कभी न कभी, कुछ लाख
वर्ष पहले
बंदर के ही शरीर
से मनुष्य के
शरीर की गति
हुई होगी। ऐसा
बंदर के
शरीर-व्यवस्था,
उसके
मस्तिष्क, उसकी
हड्डी, मांस-पेशियां, सब ऐसी खबर
देती हैं कि
उससे ही
मनुष्य का शरीर
आया होगा। और
ऐसे खोज
करते-करते कहा
जा सकता है कि
किसी न किसी
रूप में मछली
से सारी जीवनऱ्यात्रा
शुरू हुई
होगी। और मछली
भी किसी न
किसी प्रकार
के पौधे से ही
आई होगी। इस
सबके लिए लंबा
वैज्ञानिक अन्वेषण
हुआ है। और यह
बात तय हो गई
है कि इस तरह
एक क्रमिक
विकास शरीर
में हो रहा
है।
लेकिन
चूंकि
विज्ञान
आत्मा की
फिक्र ही नहीं
करता, इसलिए
उसकी बात एकदम
अधूरी है। यह
बात बिलकुल ही
ठीक है कि
शरीरों में
विकास हो रहा
है, लेकिन
यह अधूरी है।
और आधे सत्य
असत्य से भी ज्यादा
खतरनाक होते
हैं, क्योंकि
आधे सत्यों
में सत्य होने
का भ्रम पैदा
होता है, पूर्ण
सत्य होने का
भ्रम पैदा
होता है।
यह
विकास का आधा
हिस्सा है।
आधा हिस्सा है, जिसके लिए
महावीर जैसे
लोगों की खोज
कीमती है। वे
यह कहते हैं
कि चेतना भी
विकसित हो रही
है। अगर शरीर
ही है सिर्फ, तब तो सब
विकास आटोमेटिक
है। अगर शरीर
ही है बस, तब
तो सब विकास
अपने आप हुआ
है।
परिस्थितिगत
है और प्रकृति
के नियम के
अनुकूल होता
चला जा रहा
है। क्योंकि
शरीर अकेला
अगर हो तो
इच्छा का सवाल
ही नहीं उठता।
लेकिन अगर
चेतना भी है
तो विकास आटोमेटिक
कोई हालत में
नहीं हो सकता,
क्योंकि
चेतना का मतलब
ही यह है कि जो आटोमेटिक
नहीं है, जिसमें
स्वेच्छा है।
एक
पंखा चल रहा
है, तो पंखे
का चलना
बिलकुल आटोमेटिक
है, यांत्रिक
है, स्वचालित
है। पंखे की
कोई इच्छा काम
नहीं कर रही।
लेकिन अगर
पंखे की आत्मा
भी हो तो पंखा
कभी कह भी
सकता है कि आज
बहुत सर्दी है,
नहीं चलते।
या कह भी सकता है
कि आज बहुत थक
गए हैं, बस
अब नहीं आज
चलने का मन
है। कभी तेजी
से भी चल सकता
है--अगर
प्रेमी पास आ
जाए। और अगर
दुश्मन आ जाए
तो बंद भी हो
सकता है।
लेकिन पंखे के
पास कोई चेतना
नहीं है, इसलिए
गति जो है, वह
स्वचालित है।
चेतना
है, यही इस
बात का सबूत
है कि विकास स्वचालित,
आटोमेटिक नहीं हो
सकता, उसमें
चेतना सक्रिय
रूप से भाग
लेगी। और चेतना
भाग ले रही
है। इसलिए जो
हमें विकास
दिख रहा है, जितने पीछे
हम उतरते हैं,
जितने पीछे,
उतना ही
स्वचालित
विकास की
मात्रा बढ़ती
चली जाती है
और सचेष्ट
विकास की
मात्रा कम
होती चली जाती
है--जितने
पीछे हम हटते
हैं।
जैसे
अमीबा है, आखिरी, पहला
कदम जीवन ने
जहां उठाया, तो वहां हम
कह सकते हैं
कि शायद
निन्यानबे
प्रतिशत तो आटोमेटिक
है, एकाध
प्रतिशत
विकास
स्व-इच्छा से
हो सकता है। लेकिन
जैसे-जैसे हम
ऊपर की तरफ
आते हैं, जैसे
मनुष्य है, तो मनुष्य
के साथ तो
मामला ऐसा है
कि अगर विकास
होगा तो निन्यानबे
प्रतिशत
स्वेच्छा से
होगा, नहीं
तो विकास होगा
ही नहीं।
और
इसीलिए
मनुष्य कोई
पचास हजार
वर्षों से ठहर
गया है। यानी
मनुष्य में अब
कोई विकास
परिलक्षित
नहीं हो रहा
है आटोमेटिक।
दस लाख वर्ष
के भी जो शरीर
मिले हैं, उन शरीरों
में भी कोई
विकास नहीं
हुआ है। दस लाख
वर्ष के जो
अस्थिपंजर
मिले हैं और
हमारे अस्थिपंजर
में कोई
बुनियादी
फर्क नहीं पड़ा
है। न हमारे
मस्तिष्क में
कोई बुनियादी
फर्क पड़ा है।
तो ऐसा
प्रतीत होता
है कि मनुष्य
में तो निन्यानबे
प्रतिशत
स्वेच्छा पर
निर्भर
करेगा। कोई
बुद्ध, कोई
महावीर, यह
स्वेच्छा का
विकास है। और
अगर हम
स्वचालित विकास
की प्रतीक्षा
करते रहें तो
एक ही प्रतिशत
विकास की
संभावना है, जो बहुत
धीरे-धीरे
घिसटती
रहेगी।
जितने
पीछे हम जाते
हैं, उतना
स्वेच्छा कम
है, यांत्रिकता
ज्यादा है।
मनुष्य तक आते
हैं तो
स्वेच्छा
ज्यादा है, यांत्रिकता
कम है। लेकिन
निम्नतम
स्थिति में भी
एक अंश
स्वेच्छा का
है। वह एक अंश
स्वेच्छा का
ही उसे चेतन
बनाता है, नहीं
तो चेतन होने
का कोई अर्थ
नहीं है। यानी
चेतन होने का
अर्थ ही यह है
कि विकास में
हम भागीदार
हैं और पतन
में हम जिम्मेवार
हैं। चेतना का
मतलब ही यह है
कि दायित्व है
हमारा, रिस्पांसिबिलिटी है, जो भी
हो रहा है
उसमें, हम
जो हैं उसमें,
हम जो हो
सकते हैं
उसमें। अंततः
हम जिम्मेवार हैं।
सारा
विकास--चाहे
पशु, पक्षी,
मछली, कीड़े-मकोड़े, पौधा--कोई
भी विकसित हो
रहा हो, उसकी
भी इच्छा सक्रिय
होकर काम रही
है।
पहचानना
मुश्किल है
हमें, पहचानना
बहुत मुश्किल
हो जाता है कि
हम कैसे पहचानें!
पशु-पक्षियों
को हम कैसे
जानें कि उनकी
स्वेच्छा से
वे विकसित
होकर और ऊंची
योनियों में प्रवेश
कर रहे हैं!
एक ही
रास्ता है। और
रास्ते हो
सकते हैं
लेकिन सरलतम
एक ही है। और
वह यह है कि जो
मनुष्य-चेतनाएं
आज हैं, अगर
हम उन्हें
उनके पिछले
जन्मों में
उतार सकें तो
हम पा जाएंगे
पता इस बात का
कि वे पिछले जन्मों
में पशुओं और
पौधों से भी
होकर आए हैं।
जाति-स्मरण
के गहरे
प्रयोग
महावीर ने किए
हैं। और
प्रत्येक
व्यक्ति जो
उनके निकट आता, उसे
जाति-स्मरण के
प्रयोग में ले
जाते, ताकि
वह जान सके कि
उसकी पिछली
यात्रा क्या
है। यहां तक
भी वह जान सके
कि वह पशु कब
था, कैसा
पशु था, क्या
पशु होने में
उसने किया कि
वह मनुष्य हो सका।
और अगर यह उसे
पता चल जाए कि
पशु होने में उसने
कुछ किया, जो
उसे मनुष्य
बनाया, तो
उसे खयाल में
हो सकता है कि
मनुष्य होने
में कुछ करे
तो और ऊपर जा
सकता है। कुछ
करने से ही वह
आया है।
महावीर
एक व्यक्ति को
समझा रहे थे।
रात है। महावीर
का संघ ठहरा।
हजारों
साधु-संन्यासी
ठहरे हुए हैं।
एक बड़ी
धर्मशाला में
निवास है। एक राजकुमार
भी दीक्षित
हुआ है, लेकिन
वह नया
दीक्षित है।
पुराने
साधुओं को ज्यादा
ठीक जगह मिल
गई है। वह जो
बीच का रास्ता
है धर्मशाला
का, उस पर
ही सोया हुआ
है। रात भर
उसे बड़ी तकलीफ
हुई है, उसे
बड़ा कष्ट हुआ
है। एक तो यह
भारी अपमान है,
वह
राजकुमार था।
कभी जमीन पर
चला नहीं था
और आज गलियारे
में सोना पड़ा
है। वृद्ध साधुओं
को कमरे मिल
गए हैं। वह
गलियारे में
पड़ा हुआ है।
रात भर कोई
गलियारे से
निकलता है, फिर उसकी
नींद टूट जाती
है।
वह
बार-बार सोचने
लगा कि बेहतर
है, मैं लौट
जाऊं। बेहतर
है, इससे
तो अच्छा था, जो था, वही
ठीक था। यह क्या
पागलपन में
मैं पड़ गया
हूं! ऐसा
गलियारों में
पड़े-पड़े तो
मौत हो जाएगी।
यह तो व्यर्थ
की जिंदगी हो
गई। यह मैंने
क्या गलती कर
ली!
सुबह
महावीर ने उसे
बुलाया और कहा
कि तुझे पता
है कि पिछले
जन्म में तू
कौन था?
मुझे
कुछ पता नहीं।
तो
महावीर उससे
उसके पिछले
जन्म की कथा
कहते हैं। वे
उससे कहते हैं
कि पिछले जन्म
में तू हाथी
था। और जंगल
में आग लगी, सारे पशु, सारे पक्षी
भागे, तू
भी भागा। जब
तू पैर उठा
रहा था और सोच
रहा था कि
किधर को जाऊं,
तभी तूने
देखा कि एक
छोटा सा खरगोश
तेरे पैर के
नीचे आकर बैठ
गया। उसने
समझा कि पैर
छाया है, बचाव
हो जाएगा। और
तू इतना
हिम्मतवर था
कि तूने नीचे
देखा कि खरगोश
है तो तूने
फिर पैर नीचे नहीं
रखा। तू फिर
पैर ही ऊंचा
किए खड़ा रहा।
आग लग गई, तू
मर गया, लेकिन
तूने खरगोश को
बचाने की मरते
दम तक चेष्टा
की। उस कृत्य
की वजह से तू
आदमी हुआ है।
उस कृत्य ने
तुझे मनुष्य
होने का
अधिकार दिया
है। और आज तू
इतना कमजोर है
कि रात भर
गलियारे में
सो नहीं सका
तो भागने की
सोचने लगा!
तो उसे
याद आती है
अपने पिछले
जन्म की। और
उसे पता चलता
है कि ऐसा था।
तब फिर बदल
जाता है। तब सब
बदल जाता है।
तब भागने का, पलायन का, छोड़ने का, जरा से कष्ट
से भयभीत हो
जाने का, सारी
बात समाप्त हो
जाती है। अब
वह ज्यादा सुदृढ़
संकल्प पर खड़ा
हो जाता है।
वह एक नई भूमि
उसे मिल जाती
है कि मैं...यह
संभव ही नहीं
रहता उसके लिए,
सोचना भी
संभव नहीं
रहता।
तो एक
रास्ता यह है
कि हम
व्यक्तियों
को उनके पिछले
जन्म-स्मरणों
में ले जाएं, उससे पता
चलेगा कि वे
किस योनि से
कैसे विकसित
हुए, कौन
सी घटना थी, जिस घटना ने
मूलतः उन्हें
हकदार बनाया
कि वे ऊपर की
जिंदगी में
चले जाएं। एक
रास्ता यह है।
यही सरलतम
रास्ता है।
दूसरा
रास्ता कठिन
है बहुत। और
वह रास्ता यह
है कि हम दस-पांच
पशुओं के निकट
रहें और उनसे
आंतरिक संबंध
स्थापित करें
तो हमें पता
चल जाए कि
उसमें भी
अच्छे आदमी
हैं, बुरे
आदमी हैं; अच्छी
आत्माएं हैं,
बुरी
आत्माएं हैं;
अच्छे
प्राणी हैं, बुरे प्राणी
हैं; सज्जन
हैं, दुर्जन
हैं। तो हमें
पता चले कि वे
जो दस कुत्ते
हमें दिखाई पड़
रहे हैं, वे
सब एक जैसे
कुत्ते नहीं
हैं। उन दस का
अपना व्यक्तित्व
है।
स्विट्जरलैंड
की एक स्टेशन
पर एक कुत्ते
का स्मारक बना
हुआ है। वह
दुनिया में
अकेला स्मारक
है कुत्ते के
लिए। बड़ा
स्मारक है। एक
आदमी के पास
कुत्ता
है--उन्नीस सौ
तीस या बत्तीस
के करीब की
घटना है--उसके
पास कुत्ता है, वह रोज उसे, जब वह दफ्तर
जाता है सुबह
दस बजे की
ट्रेन पकड़ कर
तो उसे स्टेशन
छोड़ने आता है।
जब वह जाता है तब
वह खड़ा हुआ
उसे विदा देता
रहता है। ठीक
पांच बजे जब
वह आता है तो
पांच बजे की
ट्रेन पर वह हमेशा
स्टेशन पर खड़ा
रहता है, जहां
उसका मालिक
उतरता है।
ऐसा
निरंतर चला
है। ऐसा कभी
नहीं हुआ कि
वह सुबह छोड़ने
न आया हो, ऐसा
भी कभी नहीं
हुआ कि वह ठीक
पांच बजे अपने
मालिक को लेने
न आया हो।
लेकिन
एक दिन ऐसा
हुआ कि मालिक
गया और नहीं
लौटा। मालिक
तो मर गया। एक
दुर्घटना हुई
शहर में और
मालिक मर गया।
पांच बजे
कुत्ता लेने
आया। गाड़ी आकर
खड़ी हो गई, लेकिन मालिक
नहीं उतरा। तो
फिर उसने
एक-एक डब्बे
में जाकर झांका,
चिल्लाया, पुकारा; लेकिन
मालिक नहीं
है। फिर तो
स्टेशन के
लोगों ने उसे
भगाने की बहुत
कोशिश की, लेकिन
किसी भी हालत
में वह भागने
को राजी नहीं हुआ।
और हर
ट्रेन, जो
भी ट्रेन आई, उसी ट्रेन
पर वह अपने
मालिक को
खोजता रहा।
ऐसा पंद्रह
दिन उसने पानी
नहीं पीया,
खाना नहीं
खाया। और वह
उसी जगह खड़े
हुए मर गया, जहां उसका
मालिक उसे रोज
पांच बजे की
ट्रेन से आकर
मिलता था। सब
तरह के उपाय
किए गए कि वह
एक टुकड़ा रोटी
का खा ले, उसने
इनकार कर दिया;
कि वह एक
जरा सा पानी
पी ले, उसने
इनकार कर
दिया।
सारे
स्विट्जरलैंड
के अखबारों
में सब तरफ चर्चा
हो गई, उस
कुत्ते के
बड़े-बड़े फोटो
छपे। लेकिन उस
कुत्ते ने
हटने से वहां
से इनकार कर
दिया। उसको भगाओ,
वह फिर
पांच-दस मिनट
बाद वहां हाजिर
है। उसने
स्टेशन का
पीछा नहीं
छोड़ा। और जब
तक जिंदा रहा,
वह हर गाड़ी
पर चिल्लाता
रहा, रोता
रहा, उसकी
आंख से आंसू
टपकते रहे। और
वह है कि एक-एक डिब्बे
में झांक रहा
है। कमजोर हो
गया है, चल
नहीं पाता तो
अपनी जगह ही
बैठा है और रो
रहा है, हर
गाड़ी पर। वह
वहीं, उसी
जगह मर गया, जहां मालिक
को उसे मिलना
था।
अब ऐसा
कुत्ता
साधारण
कुत्ता नहीं
है। ऐसा कुत्ता
साधारण
कुत्ता नहीं
है। इसके
व्यक्तित्व
में कुछ ऐसा
है जो कि
मनुष्यों तक
में कम होता
है। यह गति कर
जाएगा। इसकी
गति
सुनिश्चित है।
यह उस जगह से
ऊपर उठ जाने
वाला है। इसने
मनुष्य होने
का एक बड़ा कदम
रख लिया। इसकी
चेतना ने एक
कदम उठा लिया
है, जो इसे
आगे ले ही
जाएगी। उसका
स्मारक बनाया
है उसकी
स्मृति में।
और स्मारक के
लायक कुत्ता था।
कई आदमी
स्मारक के
लायक नहीं
होते, जिनके
स्मारक बने
हुए हैं।
तो
दूसरा रास्ता
यह है कि हम पशु-पक्षियों
के निकट उनको
जानें-पहचानें।
उसके भी
प्रयोग किए गए
हैं। और बहुत
से प्रयोगों
के आधार पर ही
यह कहा जा
सकता है कि
विकास हो रहा
है, वह
स्वेच्छा से
हो रहा है।
इसलिए सारे
प्राणी विकसित
नहीं हो पाते
हैं। जो श्रम
करते हैं उस
दिशा में थोड़ा,
वे विकसित
हो जाते हैं।
जो नहीं श्रम
करते, वे
पुनरुक्ति
करते रहते हैं
उसी योनि में।
अनंत
पुनरुक्ति भी
हो सकती है।
लेकिन कभी न
कभी वह क्षण आ
जाता है कि
पुनरुक्ति भी उबा देती
है। और बहुत
गहरे प्राणों
में ऊपर उठने की
आकांक्षा
पैदा कर देती
है।
तो
विकास किया
हुआ है, चेतना
श्रम कर रही
है विकास में।
चेतना जितनी
विकसित होती
चली जाती है, उतने विकसित
शरीर भी
निर्माण करती
है। इसलिए शरीर
में भी जो
विकास हो रहा
है, वह भी
जैसा डार्विन
समझता है कि
स्वचालित है,
आटोमेटिक है, वैसा
नहीं है।
जितनी
चेतना तीव्र
विकास ग्रहण
कर लेती है, उतना शरीर
के तल पर भी
विकास होना
अनिवार्य हो
जाता है। वह
होता है पीछे,
पहले नहीं
होता। यानी
किसी बंदर का
शरीर अगर कभी
आदमी का शरीर
बनता है तो
तभी जब किसी
बंदर की आत्मा
इसके पूर्व
आदमी की आत्मा
का चरण उठा चुकी
होती है। उस
आत्मा की
जरूरत के लिए
ही पीछे से
शरीर भी
विकसित होता
है।
आत्मा
का विकास पहले
है, शरीर का
विकास पीछे
है। शरीर
सिर्फ अवसर
बनता है।
जितनी आत्मा
विकसित होती
चली जाती है, उतना विकसित
अवसर शरीर को
भी बनना पड़ता
है। कभी भी
मनुष्य और भी
आगे गति कर
सकता है और
ऐसी चेतना
विकसित हो
सकती है, जो
मनुष्य से श्रेष्ठतर
शरीरों को
जन्म दे सके।
इसमें कोई कठिनाई
नहीं है।
लेकिन
मनुष्य तक आ
जाना साधारण
घटना नहीं है।
लेकिन जो
मनुष्य है, उसे खयाल
नहीं होता कि
मनुष्य तक आ
जाना हम ऐसे
लेते हैं कि
हम पैदा हो गए
हैं, और हम
जिंदगी ऐसे
गंवाते हैं, जैसे कि
मुफ्त में मिल
गई हो!
मनुष्य
हो जाना
असाधारण घटना
है। लंबी
प्रक्रियाओं, लंबी चेष्टाओं,
लंबे श्रम
और लंबी
यात्रा से
मनुष्य की
चेतना की
स्थिति
उपलब्ध होती
है। लेकिन अगर
हमने ऐसा मान
लिया कि मुफ्त
में मिल गई
है--और अक्सर
ऐसा होता है।
अमीर बाप का
बेटा जब घर
में पैदा होता
है तो वह घर की
संपत्ति को
मुफ्त में हुआ
ही मान लेता
है। इसलिए
अमीर बाप का
बेटा एक ही
काम करता है
कि बाप की
अमीरी कैसे
विसर्जित हो
जाए, इसकी
चेष्टा में लग
जाता है। एक
आदमी कमाता है
तो उसका बेटा गंवाता
है। क्योंकि
बेटे को अमीरी
जन्म से
उपलब्ध होती
है, उसे
लगता है कि यह
तो, यह तो
है, अब
इसका करना
क्या है! उसे
कभी खयाल भी
नहीं होता कि
कितने श्रम से
वह अमीरी खड़ी
की गई है।
फोर्ड
एक दफे
इंग्लैंड
आया। स्टेशन
पर उतर कर उसने
इंक्वायरी
आफिस में जाकर
पूछा कि लंदन
में सबसे
सस्ती होटल
कौन सी है? संयोग से इंक्वायरी
वाला आदमी
फोर्ड को
पहचानता था, चेहरे को
जानता था।
उसने कहा, आप!
सस्ती होटल
पूछते हैं! आप
फोर्ड ही हैं
न?
उसने
कहा, हां, मैं
फोर्ड ही हूं।
सस्ती होटल
कौन सी है
सबसे ज्यादा?
उसने कहा, मुझे हैरानी
में डालते
हैं। आपका
बेटा आता है तो
वह आते ही से
पूछता है, सबसे
महंगी होटल
कौन सी है!
उसने
कहा, वह फोर्ड
का बेटा है, मैं फोर्ड
हूं। मैं गरीब
आदमी था, मुश्किल
से श्रम करके
पैसा कमा पाया
हूं। वह अमीर
आदमी पैदा हुआ
है, वह
श्रम करके
गरीब होने की
कोशिश करेगा।
मैं गरीब आदमी
था। मैं सचेत
हूं पूरी तरह
कि कैसे कमा
पाया हूं। वह
अमीर बेटा है,
वह फोर्ड का
लड़का है।
साधारण का
लड़का है? फोर्ड
ने कहा कि वह
किसी साधारण
आदमी का लड़का है?
हेनरी
फोर्ड का लड़का
है। उसको
ठहरना ही
चाहिए महंगी
से महंगी में।
लेकिन मैं
ठहरा हेनरी फोर्ड,
तो मुझे
तो...।
वह
हेनरी फोर्ड
एक पुराना कोट
पहने रहता था, जो वह
वर्षों से
पहनता था। वह
कभी बदलता ही
नहीं था उसको।
वह फट गया तो सिलवा
लेता, ठीक
करवा लेता।
किसी मित्र ने
कहा कि आपको
यह कोट शोभा
नहीं देता।
हेनरी
फोर्ड ने कहा, लोग मुझे
पहचानते हैं
कि मैं हेनरी
फोर्ड हूं, कोई भी कोट पहनूं, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। मुझे
लोग भलीभांति
पहचानते हैं
कि मैं हेनरी
फोर्ड हूं, कोई भी कोट पहनूं।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। यह
तो मेरे
बच्चों के लिए
है कि शानदार
कोट पहनें,
ताकि लोग
पहचान सकें कि
हेनरी फोर्ड
के लड़के हैं।
उनको कौन
पहचानेगा! और
मेरा तो चलता
है। मेरा यह
कोट कैसा है, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। मैं
क्या पहनता
हूं, इससे
क्या फर्क
पड़ता है!
लेकिन मेरे
बेटों को कीमती
कोट चाहिए, तभी वे
पहचाने जा
सकेंगे कि
किसके बेटे
हैं, हेनरी
फोर्ड के बेटे
हैं।
होता
क्या है कि हम
एक जन्म में
जो कमाते हैं, दूसरे जन्म
में वह हमारी
सहज उपलब्धि
होती है। यानी
दूसरे जन्म
में वह हमें
संपत्ति की तरह
मिलती है, जो
हमने पिछले
जन्म में
कमाया है। और
पिछला जन्म
हमें भूल जाता
है जैसे कि
बेटे को बाप
का श्रम भूल
जाता है। ऐसा
हमें भी, हमारी
पिछली अवस्था
में जो हमने
कमाया है, पिछले
जन्म में, वह
इस जन्म में
भूल जाता है।
इस जन्म में
हमारी
उपलब्धि होती
है वह। और तब
हमें खयाल भी
नहीं रह जाता,
और तब हम
अक्सर गंवाना
शुरू करते
हैं।
यह धन
के बाबत ही
नहीं होता, यह पुण्य के
बाबत भी यही
होता है, यह
ज्ञान के बाबत
भी यही होता
है, चेतना
के बाबत भी
यही होता है, कि फिर हम
अवसर का उपयोग
और बढ़े, इसके
लिए नहीं कर
पाते। तो जो
हो गया है, वहीं
हम अटक जाते
हैं। इसलिए
बहुत लोग एक
ही योनि में
बार-बार
पुनरुक्त
होते हैं। लाख
बार भी
पुनरुक्त हो
सकते हैं।
नीचे कोई नहीं
जाता। नीचे
जाने का कोई
उपाय नहीं है!
पीछे कोई नहीं
लौट सकता।
लेकिन जहां
हैं, वहीं
पुनरुक्त हो
सकता है या
आगे जा सकता
है।
दो ही
उपाय हैं--या
तो आगे जाएं
या जहां हैं
वहीं भटकते रह
जाएं। और जहां
हैं, अगर आप
वहीं भटकते
हैं तो विकास
अवरुद्ध हो जाएगा,
रुक जाएगा।
और अगर आगे
जाते हैं तो
विकास फलित
होगा।
विकास
चेष्टा
निर्भर है, संकल्प निर्भर
है, साधना
निर्भर है।
इसीलिए इतना
बड़ा प्राणी-जगत
है, लेकिन
मनुष्यों की
संख्या बहुत
कम है। बढ़ती भी
है तो बहुत
धीमे बढ़ती है।
आज हमें लगता
भी है कि बहुत
जोर से बढ़ रही
है, तो भी
वह हम सिर्फ
मनुष्य को ही
सोचते हैं, इसलिए ऐसा
लगता है। अगर
हम प्राणी-जगत
को देखें तो
असंख्य
प्राणी-जगत
में क्या
हमारी संख्या
है! हमसे
ज्यादा छोटी
जाति का कोई
प्राणी नहीं
है इस जगत
में। एक घर
में इतने
मच्छर हो सकते
हैं जितनी
पूरी
मनुष्य-जाति
है। और कितनी
करोड़ों योनियां
हैं और एक-एक
योनि में
कितने असंख्य
व्यक्ति हैं!
इतने
थोड़े से लोग, जैसे एक
मंदिर कोई
बनाए और बड़ी
भारी नींव भरे,
फिर
उठते-उठते-उठते-उठते
आखिर मीनार पर
एक छोटी सी
कलगी उठी रह
जाए। ऐसा बड़ा
भवन है जीवन
का, उसमें
मनुष्य की
कलगी बड़ी छोटी
सी ऊपर उठी रह गई
है। उसकी कोई,
अगर हम सारे
प्राणी-जगत को
देखें तो
हमारी कोई
संख्या ही
नहीं है। हम
एक बड़े समुद्र
में एक छोटी
बूंद से ज्यादा
नहीं हैं।
लेकिन अगर हम
मनुष्यों को
देखें तो हमें
बहुत ज्यादा
मालूम पड़ता है
कि काफी, साढ़े
तीन अरब आदमी
हैं। और हमें
चिंता हो गई
है कि हम कैसे
बचाएंगे इतने
आदमियों को, कैसे खाना जुटाएंगे,
कैसे मकान बनाएंगे, क्या
करेंगे।
लेकिन यह कोई
बड़ी संख्या
नहीं है।
और
ध्यान रहे, मेरी अपनी
जो समझ है, जब
जरूरत पैदा
होती है, तो
नए उपाय
तत्काल
विकसित हो
जाते हैं।
जैसे आने वाले
पचास वर्षों
में आदमी जन्म
को, जीवन
को रोकने की
सब चेष्टाएं
करेगा, लेकिन
जीवन रुकेगा
नहीं। चेष्टा
बहुत की जाएगी
लेकिन जीवन
रुकेगा नहीं।
चेष्टा का फल
इतना ही हो
सकता है कि
जितनी
तीव्रता से
गति हो, शायद
वह न हो।
लेकिन इन आने
वाले पचास
वर्षों में
भोजन के नए
रूप विकसित हो
जाएंगे।
जैसे
हम समुद्र के
पानी से भोजन
निकाल सकेंगे।
जैसे
सिंथेटिक फूड
विकसित हो
जाएंगे, जो
हम फैक्ट्री
में बना
सकेंगे। जैसे
हवा से सीधा
भोजन खींचा जा
सकेगा या सूरज
की किरण से
सीधा भोजन
लिया जा
सकेगा। आने
वाले पचास
वर्षों में
भोजन के बिलकुल
नए रूप विकसित
होंगे, जो
कभी नहीं थे
पृथ्वी पर।
और
दूसरी बात जो
मैं समझता हूं, बहुत कीमत
की है, लेकिन
खयाल में नहीं
है। जैसे बड़ी
चेष्टा चली
चांद पर जाने
की, अब
मंगल पर जाने
की चलेगी, यह
चेष्टा
पृथ्वी पर
संख्या के
अधिक बढ़ जाने
का आंतरिक
परिणाम है। यह
ऊपर से दिखाई
पड़ता है कि
रूस और अमरीका
में दौड़ लगी
हुई है चांद
पर जाने की, लेकिन बहुत
गहरे में
संख्या
मनुष्य की आने
वाले सौ
वर्षों में
इतनी तीव्रता
से बढ़ने का डर
है--वह हमें
खयाल नहीं है,
वह हमारा
अनकांशस भय
है--कि नई जमीन
की खोज शुरू
हो गई, जहां
हम आदमी को
पहुंचा सकें।
ऐसा सदा हुआ।
एक
जमाना था आदमी
खानाबदोश था, एक जगह से
दूसरी जगह
भटकता रहता था,
क्योंकि एक
जगह का खाना
खतम हो जाता
था, फल टूट
गए, तो
दूसरी जगह चला
जाता था। फिर
आदमी इतने हो
गए कि एक जगह
के फल नहीं
टूटे, सभी
जगह के फल एक
साथ टूटने लगे
तो दूसरी जगह
कहां जाओ। तो
फिर जमीन पर
हमें पैदावार
करनी पड़ी, खेती
करनी पड़ी। फिर
खेती भी
पर्याप्त
नहीं साबित
हुई, तो
हमें औद्योगिक
व्यवस्था
करनी पड़ी। अब
वह भी पर्याप्त
साबित नहीं
होगी, तो
हमें नई
व्यवस्थाएं
करनी पड़ें।
और
अंतिम
व्यवस्था यह
होगी कि
पृथ्वी इतनी
भारग्रस्त हो
जाए, क्योंकि
इतने प्राणी
अगर व्यक्ति
उनके मुक्त
होने लगें बड़ी
संख्या में
नीचे की
योनियों से, तो कहीं
दूसरी जगह
हमको खोजनी
पड़े। वह जगह
हम कोई दूसरे
कारणों से
खोजते रहेंगे,
यह दूसरी
बात है, क्योंकि
हमें बहुत कुछ
साफ नहीं है
कि क्या होता
है भीतर।
लेकिन भीतर
अचेतन शक्ति
धक्के देती
रहेगी कि
पृथ्वी के
बाहर जगह खोजो,
क्योंकि आज
नहीं कल, पृथ्वी
के बाहर बसने
की जरूरत पड़
ही जाने वाली
है।
जैसा
मैंने कहा कि
जब नई चेतना
विकसित होती
है, तो नए
शरीर ग्रहण
करने पड़ते
हैं। जब एक
चेतन समाज की
संख्या बढ़ती
है, तो नए
ग्रह-उपग्रह
बसाने पड़ते
हैं। पहला
जीवन भी जो इस
पृथ्वी पर आया
है, वह भी
वैज्ञानिक
नहीं बता पाते
कि कैसे आ
गया।
वैज्ञानिक
विकास बता
पाते हैं, लेकिन
विकास तो किसी
चीज का होता
है, जो हो।
विकास तो बाद
की बात है।
जीवन आया कहां
से? जीवन आ
कैसे गया? विकास
तो ठीक है कि
मछली आदमी बन
गई। लेकिन मछली,
वह प्राण
कहां से आया? कि कोई कहे
पौधा मछली बन
गया, तो
पौधे में वह
प्राण कहां से
आया? यानी
प्राण को कहीं
न कहीं से आने
की जरूरत है।
और
इसलिए मैं
आपसे कहना
चाहता हूं
दूसरी बात, और वह यह कि
जब एक मां
गर्भ के योग्य
होती है, तो
एक आत्मा
उसमें प्रवेश
करती है। जब
एक पृथ्वी या
एक उपग्रह
जीवन के योग्य
हो जाता है, तो दूसरे
ग्रहों-उपग्रहों
से जीवन वहां
प्रवेश करता
है। और कोई
उपाय नहीं है।
यानी जो पहला
जीवाणु है, वह सदा ट्रांस-माइग्रेट
करता है। उसके
सिवा कोई उपाय
नहीं है। वह
किसी दूसरे
ग्रह से...हो
सकता है उस
ग्रह पर जीवन
समाप्त होने
के करीब आ गया
हो, तो
पहला जीवन
वहां से आएगा।
इसी
संबंध में यह
भी समझ लेना
जरूरी है, जो आपने
पूछा कि बुद्ध
और महावीर या
मैं या कोई भी,
जो इतना
श्रम करते हैं
कि लोग विकसित
हों, तो
कहीं ऐसा कभी
हुआ है?
ऐसा
बहुत बार हुआ
है। क्योंकि
हमारी दृष्टि
बहुत छोटी है।
और हम जानते
कितना हैं? अगर आदमी का
इतिहास हम
जानते हैं तो
मुश्किल से
जीसस के बाद
व्यवस्थित
रूप से, दो
हजार वर्ष से।
इसलिए
इतिहास जीसस
से शुरू होता
है। इसलिए तो हम
लिखते हैं ईसा
के बाद और ईसा
के पहले। ईसा
के बाद का
इतिहास
व्यवस्थित है, उसके पहले
सब धूमिल है।
फिर भी अगर हम
बहुत खींचें
तो पांच हजार
साल से पहले
का हमें कुछ
अंदाज नहीं
बैठता।
पृथ्वी
पर आदमी दस
लाख वर्षों से
है। पृथ्वी दो
अरब वर्षों से
है। लेकिन
पृथ्वी बहुत
नया जन्म है।
सूरज पृथ्वी
से कई हजार
अरब वर्ष पहले
से है। लेकिन
हमारा सूरज
सारे जगत में
सबसे नया सूरज
है। और जो
चारों तरफ
हमें तारे
दिखाई पड़ते
हैं, वे सब महासूर्य
हैं, जिनमें
हमारा सूरज
बहुत छोटा है।
पृथ्वी से सूरज
साठ हजार गुना
बड़ा है, लेकिन
यह सबसे छोटा
तारा है। इससे
करोड़-करोड़,
दो-दो करोड़
गुने बड़े
तारे हैं। ये
हमें
छोटे-छोटे
दिखाई पड़ते हैं,
क्योंकि
फासला अंतहीन
है।
सूरज
से हम तक किरण
आने में दस
मिनट लगते
हैं--सूर्य की
किरण आने में।
और किरण की
गति होती है
एक सेकेंड में
एक लाख छियासी
हजार मील। दस
मिनट सूरज से
आने में लगते
हैं।
जो
सूरज के बाद
निकटतम तारा
है, उससे चार
वर्ष लगते हैं
हम तक किरण के
आने में! गति
वही है--एक लाख
छियासी हजार
मील प्रति सेकेंड!
सूरज के बाद
जो निकटतम
तारा है, उससे
चार वर्ष लग
जाते हैं आने
में! रोशनी
चलेगी आज, आएगी
चार वर्ष बाद!
इतना हमारा
फासला है।
लेकिन वह
निकटतम तारा
है। उसके बाद
जो तारा है, उससे सात
वर्ष लगते हैं
हम तक आने में!
और उसके बाद
फासले बढ़ते
चले जाते हैं।
ऐसे
तारे हैं कि
जब पृथ्वी बनी
थी, यानी दो
अरब वर्ष पहले,
तब की उनकी
रोशनी चली, अब आ पाई है!
और ऐसे तारे
हैं कि जब
पृथ्वी नहीं थी,
तब उनकी
रोशनी चली थी,
वह अब पहुंच
पा रही है!
और ऐसे
तारे हैं कि
जिनकी रोशनी
अभी तक नहीं पहुंची
है। और ऐसे भी
तारे होंगे, जिनकी रोशनी
कभी नहीं पहुंचेगी!
पृथ्वी बनेगी
और मिट चुकी
होगी, और
उनकी चली हुई
रोशनी आएगी, तब तक
पृथ्वी बन कर
जा चुकी होगी,
तब उनकी
रोशनी पहुंचेगी!
यह जो
अंतहीन
विस्तार है, इस अनंत
विस्तार में
अनेक पृथ्वियां
हैं, अनेक पृथ्वियों
पर जीवन है।
उन जीवनों ने
अनेक बार
अंतिम स्थिति
भी पाई है।
असल में बुद्ध,
महावीर या
क्राइस्ट
जैसे लोग न
केवल मनुष्य-जाति
के अतीत में
प्रवेश करते
हैं, बल्कि
जीवन की समस्त
संभावनाएं
समस्त लोकों
में, उनमें
भी प्रवेश
करने की कोशिश
करते हैं। और
वहीं से
आश्वासन पाते
हैं इस बात का
कि पूर्णता
बहुत बार हो
चुकी है। वह
आश्वासन
आकस्मिक नहीं
है। वह आश्वासन
इस बात का है
कि पूर्णता
बहुत बार हो
चुकी है।
लेकिन हमारी
दृष्टि बहुत
छोटी है।
एक
कीड़ा है, वह
वर्षा में
पैदा होता है,
फिर वर्षा
में ही मर
जाता है। उससे
कोई कहे कि वर्षा
फिर आएगी; तो
वह कहेगा, कभी
सुना नहीं, कभी आई नहीं;
न मेरे
मां-बाप ने
कहा, न
मेरे पुरखों
ने कोई किताब
में लिखा।
वर्षा एक ही
बार आती है।
क्योंकि कोई
कीड़े ने दो
बार वर्षा
नहीं देखी।
क्योंकि वह
कीड़ा तो वर्षा
ही में पैदा
होता है, वर्षा
ही में मर
जाता है। किसी
पुरखे ने नहीं
देखी कभी उसके,
तो अनुभूति
का कोई सवाल
नहीं है। और
स्मृति लिखने
का और स्मृति
बचाने का कोई
सवाल नहीं है।
हम
पृथ्वी पर ही
जीते हैं और
पृथ्वी पर ही
मर जाते हैं।
और जानने की
सीमा इतनी
छोटी है कि हमें
पता नहीं कि
इस अंतहीन
विस्तार में, इस पूरे ब्रह्मांड
में
कितने-कितने लोकों में
जीवन है। उस
जीवन से भी
संबंध
स्थापित करने
की निरंतर चेष्टाएं
की गई हैं।
वैज्ञानिक
चेष्टा तो अब
चल रही है, धार्मिक
चेष्टा बहुत
पुरानी है। और
संबंध स्थापित
किए गए हैं।
उन संबंधों ने
बड़े आश्वासन दिए
हैं। और उन
आश्वासनों ने
यह भरोसा दिया
है कि अगर
कहीं भी जीवन
और गहराई में
विकसित हुआ है,
और आनंद में
विकसित हुआ है,
कि मनुष्य
दिव्य हो गया
है कहीं, तो
यहां भी हो
सकता है। कोई
बाधा नहीं।
फिर
दूसरा और बड़ा
आश्वासन यह है
कि जो व्यक्ति
इस तरह की
कोशिश कर रहा
है, वह तो
उपलब्ध हो ही
गया है। और
जिस दिन उसने
जान लिया है
कि यह हो सकता
है, उस दिन
संभावना खुल
गई कि सबके
लिए हो सकता
है। कोई बाधा
नहीं है। अगर
हम स्वयं बाधा
न बनें तो वह
संभावना खुल
सकती है।
पृथ्वी पर भी
वह होगा। देर
लग सकती है, लेकिन समय
के इतने बड़े
प्रवाह में
देर का कोई अर्थ
ही नहीं होता।
कोई अर्थ ही
नहीं है देर
का। बस देर हमारे
छोटे मापदंड
की वजह से है।
नापने का गज बहुत
छोटा है, उससे
हम नापते हैं,
बहुत लंबा
मालूम पड़ता
है।
अभी
बुद्ध को या
महावीर को हुए
वक्त ही कितना
हुआ? ढाई हजार
वर्ष हुए।
हमारे लिए बड़ा
लंबा फासला है।
लेकिन जिस विस्तार
की मैं बात कर
रहा हूं, उसमें
ढाई हजार वर्ष
का क्या मतलब
है? कोई भी
तो मतलब नहीं
है। कोई भी तो
मतलब नहीं है।
ढाई हजार वर्ष
का क्या मतलब
होता है? हमारे
नाप की बात
है।
एक
चींटी एक आदमी
के ऊपर चढ़
जाती है तो
समझती है
हिमालय पर
पहुंच गई।
निश्चित ही, नाप है। एक
आदमी सो रहा
है और एक
चींटी उसके
ऊपर चढ़ गई है, तो वह सोचती
है हिमालय पर
पहुंच गई है!
और पहुंच ही
गई है। इसमें
कोई झूठ भी
नहीं है।
क्योंकि
चींटी और आदमी
का अनुपात है।
चींटी का नाप
कितना?
हमारा
नाप कितना? बहुत छोटा
नाप है। और वह
छोटा नाप
हमारी जिंदगी
के हिसाब से
है। सत्तर साल
या सौ साल
हमारी जिंदगी
है, तो
उससे हम नापते
हैं।
लेकिन
जैसे
व्यक्तियों
के अतीत में
उतरने की संभावना
है, कुछ
शिक्षकों ने
जीवन के अतीत
में भी उतरने
की चेष्टा की
है। वह अलग
यात्रा है और
अलग उसकी विधियां
हैं। यह जीवन
को पूरा मान
लिया है, एक
इस पृथ्वी का
जीवन। यह
पृथ्वी का
जीवन कहां से
आता है? किन
लोकों से?
उन लोकों
में भी...इस
जीवन के भीतर
कहीं न कहीं
उन लोकों
की स्मृति भी
दबी है। उन लोकों
में भी इस
स्मृति से
प्रवेश हो
सकता है। विज्ञान
शायद प्रवेश
नहीं भी कर
पाएगा।
क्योंकि चांद
पर विज्ञान
पहुंचा, बड़ी
कीमती घटना
घटी है। लेकिन
अब अगर मंगल
पर पहुंचना है
तो एक वर्ष
जाने में और
एक वर्ष आने
में लगेगा। और
सूर्य के
जितने उपग्रह
हैं, उनमें
किसी पर जीवन
नहीं है
पृथ्वी को छोड़
कर। सूर्य के
उपग्रह को छोड़
कर अगर किसी
दूसरे सूर्य
के उपग्रह पर
जाना है, तो
मनुष्य की
उम्र काम की
नहीं है। यानी
अगर दो सौ
वर्ष आने-जाने
में लगें, तो
पिता जाए और
बेटा लौटे।
कोई उपाय नहीं
है। और कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
दो सौ वर्ष बहुत
छोटा है। जिस
तारे से चार
वर्ष लगते हैं
प्रकाश आने
में, तो जिस
दिन हम प्रकाश
की गति का
वाहन बना लें,
उस दिन चार
वर्ष लगेंगे
हमको आने में,
आने-जाने
में आठ वर्ष
लग जाएंगे।
लेकिन
प्रकाश की गति
का वाहन कभी
हो सकेगा? क्योंकि बड़ी
कठिनाई यह है
कि प्रकाश की
गति जिस चीज
में भी हो जाए,
वही प्रकाश
हो जाएगा।
यानी वह किरण
ही हो जाएगी
वह चीज। अगर
उतनी गति पर
किसी भी चीज
को चलाया तो
वह ताप की वजह
से किरण हो
जाएगी। तो
प्रकाश की गति
असंभव मालूम
पड़ती है।
क्योंकि
प्रकाश की गति
पर एक हवाई
जहाज चला, तो
जैसे ही वह
उतनी गति पकड़ेगा
कि वह जलेगा, पिघलेगा और प्रकाश
हो जाएगा।
क्योंकि उतने
ताप पर, उतनी
गति पर उतना
ताप पैदा हो
जाता है, और
उतने ताप पर
किरण बन जाती
है। वह प्रकाश
इसीलिए तो
प्रकाश है कि
उतनी गति से
चल रहा है।
तो
प्रकाश की गति
पर किसी दिन
वाहन ले जाया
जा सकेगा, यह असंभव है।
तो विज्ञान
कभी दूसरे
जीवनों से
संबंध बना सकेगा,
यह
करीब-करीब
असंभव बात है।
लेकिन इतना हो
सकता है कि
विज्ञान की इस
सारी खोज-बीन
के बाद यह हमें
खयाल में आ
सके कि धर्म
यह संबंध बना
सकता है।
यह जान
कर आपको
हैरानी होगी
कि जैसे ही
अंतरिक्ष की
यात्रा शुरू
हुई है, रूस
और अमरीका
दोनों ही योग
में अत्यधिक
उत्सुक हो गए
हैं। अमरीका
ने एक कमीशन
बिठाया तीन-चार
मनोवैज्ञानिकों
का, सारी
दुनिया का
चक्कर लगाओ और
क्या विचार का
संप्रेषण
बिना माध्यम
के हो सकता है,
इसकी खबर
लाओ। इसकी
खबरें लाई गई
हैं। क्योंकि
इस बात का डर
है कि एक
अंतरिक्ष में
यात्री गया है
और उसका यंत्र
बिगड़ जाए, वह
कोई खबर न दे
सके तो वह
अंतहीन में खो
जाएगा। उसका
फिर हमें
दुबारा कभी
पता भी नहीं
लगेगा कि वह
कहां गया। तो
एक सब्स्टीटयूट
व्यवस्था
होनी ही चाहिए
कि अगर यंत्र
भी खो जाए तो
वह सीधा विचार
के संप्रेषण
से खबर दे
सके।
अगर
विचार का
संप्रेषण
सीधा हो सके
तो ही संभावना
है कि हम
दूसरे लोकों
के जीवन से
संबंध
स्थापित कर
सकें।
क्योंकि तब
विचार को गति
का सवाल ही
नहीं है।
विचार में समय
लगता ही नहीं।
सिर्फ एक ही
यात्रा है इस
जगत में, विचार
की, जिसमें
समय नहीं
लगता। यानी
अगर मैं विचार
संप्रेषित कर
सकता हूं, तो
मैंने
संप्रेषित
किया और आपने
पाया, इसके
बीच में पल भी
नहीं गिरता।
वह जिसको महावीर
समय कहते हैं,
पल का भी लाखवां
हिस्सा, वह
भी नहीं
गिरता। विचार समयातीत
संप्रेषित
होता है, ट्रांसफर होता है। तो
किसी दिन
विचार के संप्रेषण
से ही दूसरे
जीवनों से
संबंध
स्थापित हो सकता
है।
महावीर, बुद्ध, जीसस,
जरथुस्त्र
ऐसे जीवन की
तलाश में हैं।
और संबंध
स्थापित करने
की पूरी
चेष्टा की गई
है और कुछ
बातें खोज भी
ली गई हैं कि
वह संबंध
स्थापित हो
सकता है, हुआ
है। उस संबंध
के आधार पर
कामना बनती है,
आशा बनती है
कि पृथ्वी पर
भी यह हो सकता
है। इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है। तो वह
खयाल में लेने
की बात है।
और
अंतिम बात, सुबह जो
मैंने कहा
उससे साफ हुआ
होगा कि एक ही जन्म
नहीं है।
जन्मों की एक
लंबी यात्रा
है। हम जो आज
हैं, वह हम
एकदम आज के ही
नहीं हैं। हम
कल भी थे, परसों
भी थे। एक
अर्थ में हम
सदा थे।
किन्हीं भी
रूपों
में--कभी पशु
में, कभी
पक्षी में, कभी पत्थर
में, कभी
खनिज में, कभी
इस ग्रह पर, कभी किसी और
ग्रह पर--हम
सदा थे। होने
के साथ हम एक
हैं।
अस्तित्व में
हमारी
प्रतिध्वनि
सदा थी। लेकिन
मूर्च्छित से
मूर्च्छित
थी। अमूर्च्छित
होती चली गई
है, जाग्रत
होती चली गई
है।
अभी हम
सबको लगता है
कि महावीर की
बात करते हैं, लेकिन हममें
से सभी थे।
जरूरी नहीं है
कि महावीर से
संबंधित हुए,
जरूरी नहीं
कि महावीर के
पास थे, जरूरी
नहीं कि
महावीर के
प्रदेश में थे,
लेकिन सब
थे। कहीं
होंगे, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
सब थे। यह भी हो
सकता है कि
हममें से कोई
महावीर के ठीक
निकट भी रहा
हो। उस गांव
में भी रहा हो,
जहां से
महावीर गुजरे
हों। जरूरी
नहीं कि हम
मिलने गए हों।
क्योंकि
महावीर गांव
से गुजरें
तो कितने लोग
मिलने जाते
हैं? यह
कोई आवश्यकता
नहीं। एक गांव
में ठहरे भी
हों तो दस-बीस
लोग भी मिले
हों तो ठीक है,
नहीं मिले
हों तो भी
जरूरी नहीं।
हम सदा
थे और हम सदा
रहेंगे। हां, मूर्च्छित
या अमूर्च्छित,
दो बातें हो
सकती हैं। अगर
मूर्च्छित
रहे हों तो
हमारा होना, न होना
बराबर था। जब
से हम अमूर्च्छित
होते हैं, जागते
हैं, चेतन
होते हैं, तभी
से हमारे होने
में कोई अर्थ
है। और जितने हम
चेतन होते चले
जाते हैं उतना
ही हमारा होना
गहरा होता
जाता है। उतना
ही
एक्झिस्टेंस,
अस्तित्व
जो है, वह प्रगाढ़, समृद्ध होता
चला जाता है।
शायद उस अर्थ
में होना
हमारा अभी भी
नहीं है। अभी
भी बस हम हैं।
यह जो
होने की लंबी
यात्रा है, इसमें बहुत
बार शरीर
बदलने जरूरी
हैं। क्योंकि
शरीर
क्षणभंगुर है,
उसकी सीमा
है, वह चुक
जाता है। असल
में कोई
पदार्थ से
निर्मित वस्तु
शाश्वत नहीं
हो सकती।
पदार्थ से जो
भी निर्मित
होगा, वह बिखरेगा।
जो बनेगा, वह
मिटेगा।
तो
शरीर बनता है, मिटता है; बनता है, मिटता
है। लेकिन
पीछे जो जीवन
है; वह न
बनता, न
मिटता। वह सदा
नए-नए बनाव
लेता है।
पुराने बनाव
नष्ट हो जाते
हैं, फिर
नए बनाव लेता
है। ये नए
बनाव उसकी
संस्कार, उसकी
कंडीशनिंग, उसने पिछले
जीवन में क्या
जीया, क्या
भोगा, क्या
किया, क्या
जाना--इन सबका
इकट्ठा सार
अंश हैं।
उसे
समझने के लिए दोत्तीन
बातें समझ
लेनी चाहिए।
एक तो शरीर
हमें दिखाई
पड़ता है, जो
हमारा ऊपर है।
एक और शरीर है,
ठीक इसके
जैसे ही आकृति
का, जो इस
शरीर में
व्याप्त है।
उसे सूक्ष्म
शरीर कहें, सटल बाडी
कहें, कार्मण शरीर कहें, कर्म शरीर
कहें--कुछ भी
नाम
दें--मनो-शरीर
कहें, काम
चलेगा। इस
शरीर से ठीक
बिलकुल ऐसा ही,
अत्यंत
सूक्ष्म
परमाणुओं से
निर्मित
सूक्ष्म देह
है। जब यह
शरीर गिर जाता
है, तब भी
वह देह नहीं
गिरती। वह देह
आत्मा के साथ यात्रा
करती है। उस
देह की खूबी
है कि आत्मा की
जैसी
मनोकामना
होती है, वह
देह वही आकार
ग्रहण कर लेती
है। पहले वह
देह आकार
ग्रहण करती है,
और तब उस
आकार की देह
में वह प्रवेश
कर सकती है।
अगर एक
सिंह मरे, तो उसके
शरीर के पीछे
जो छिपा हुआ
सूक्ष्म शरीर
है, वह
सिंह का होगा,
लेकिन वह
मनो-काया है।
मनो-काया का
मतलब यह है कि
जैसे हम पानी
एक गिलास में
डालें, तो
उस गिलास का
हो जाए रूप
उसका, बर्तन
में डालें, तो बर्तन
जैसा हो जाए, बोतल में
भरें, बोतल
जैसा हो जाए।
हमारी स्थूल
देह सख्त है, पत्थर के
बर्फ की तरह।
और हमारी
सूक्ष्म देह तरल,
लिक्विड है। वह किसी
भी आकार को
ग्रहण कर सकती
है तत्काल।
तो अगर
एक सिंह मरे
और उसकी आत्मा
विकसित होकर
मनुष्य बनना
चाहे, तो
मनुष्य शरीर
ग्रहण करने के
पहले उसकी
सूक्ष्म देह
मनुष्य की
आकृति को ग्रहण
कर लेती है।
वह उसकी
मनो-आकृति है।
सुंदर, कुरूप,
अंधा, लंगड़ा, स्वस्थ,
बीमार--वह
उसकी
मनो-आकृति है,
जो उसकी देह
को पकड़ जाती
है। सूक्ष्म
शरीर जैसे ही
देह ग्रहण कर
लेता है, मनो-आकृति
बन जाता है, वैसे ही
उसकी खोज शुरू
हो जाती है
गर्भ के लिए।
अब यह
भी समझना
जरूरी है कि
एक व्यक्ति, एक स्त्री
और पुरुष जीवन
में अनेक
संभोग करते हैं,
लेकिन सभी
संभोग गर्भ
नहीं बनते। और
यह भी जान कर
हैरानी होगी
कि एक संभोग
में एक
व्यक्ति के
इतने
वीर्याणु
नष्ट होते हैं,
जिससे
अंदाजन एक करोड़
बच्चे पैदा हो
सकते थे। यानी
एक पुरुष अगर
जिंदगी में
साधारणतः
आमतौर से कोई
तीन हजार से लेकर
चार हजार
संभोग करता है,
और एक संभोग
में अंदाजन एक
करोड़
बच्चों की
संभावना के
बीज हैं।
तो अगर
एक पुरुष के
सारे अणु
प्रयुक्त हो
सकें और
वास्तविक बन
सकें, तो एक
पुरुष अंदाजन
चालीस करोड़
बच्चों का
पिता बन सकता
है। एक पूरा
राष्ट्र एक
पुरुष के बीज
अणुओं से
संभावना ले
सकता है।
स्त्री की यह
संभावना नहीं
है, क्योंकि
उसका महीने
में सिर्फ एक
ही बीज परिपक्व
होता है। वह
महीने में
सिर्फ एक
व्यक्ति को
जन्म दे सकती
है। लेकिन एक
भी नहीं दे
पाती, क्योंकि
नौ महीने फिर
वह एक व्यक्ति
उसके व्यक्तित्व
को रोक लेता
है।
लेकिन
सभी संभोग
सार्थक नहीं
होते। और उसका
कारण यह
है...अभी तक
वैज्ञानिक
नहीं सोच पाते, उसका कारण
क्या है। सभी
संभोग सार्थक
क्यों न हों? स्त्री का
बीज मौजूद है,
पुरुष के एक
करोड़ बीज
एकदम से हमला
करते हैं। और
ध्यान रहे, जो बाद में
प्रकट होते
हैं गुण, वे
बीज में ही
छिपे होते
हैं। पुरुष के
सारे वीर्याणु
एग्रेसिव
होते हैं, हमलावर
होते हैं, तेजी
से हमला करते
हैं। स्त्री
का बीज पैसिव,
प्रतीक्षा
करता, अवेटिंग
में होता है।
वह हमला नहीं
करता। वह
सिर्फ बैठा
हुआ
प्रतीक्षा
करता है।
ये जो
एक करोड़
वीर्याणु हैं, इतनी तेजी
से गति करते
हैं कि कांप्टीशन
वहीं शुरू हो
जाता है! यह
जान कर आप
हैरान होंगे,
वहां से
प्रतियोगिता
शुरू हो जाती
है! वहां जो
प्रतियोगिता
में आगे निकल
जाता है, वह
जाकर
स्त्री-अणु से
एक हो जाता
है। जो पीछे
छूट जाता है, वह हार जाता
है; थक
जाता है, समाप्त
हो जाता है।
लेकिन
प्रत्येक बार
संभोग गर्भ
नहीं बनता, उसका
वैज्ञानिक
कारण नहीं खोज
पाते अब तक, और नहीं खोज
पाएंगे। उसका
कारण यह है कि
गर्भ तभी बन
सकता है, जब
वैसी आत्मा
प्रवेश करने के
लिए आतुर हो, उत्सुक हो।
वह हमें दिखाई
नहीं पड़ता। दो
अणु मिलते हैं,
इतना हमें
दिखाई पड़ता
है। स्त्री और
पुरुष के अणुओं
का मिलन सिर्फ
अपरचुनिटी
है, जन्म
नहीं है; सिर्फ
अवसर है, जिसमें
एक आत्मा उतर
सकती
है--सिर्फ
अवसर मात्र, जिसमें एक
आत्मा उतर
सकती है।
प्रश्न:
लेकिन
अब तो संभावना
है बगैर संभोग
के ही उतर सकती
है।
संभोग
से कोई संबंध
ही नहीं है
संभावना का।
संबंध तो
सिर्फ दो
अणुओं के मिलन
का है। वह
मिलन संभोग के
द्वारा हो रहा
है, यह
प्रकृति की
व्यवस्था है;
कल सीरिंज
के द्वारा हो
सकता है, वह
विज्ञान की व्यवस्था
हो जाएगी।
प्रश्न:
उनमें
से हर एक अणु
भी उसमें
इस्तेमाल हो
सकते हैं?
हां, वे हो सकते
हैं। और वे
तभी हो सकेंगे,
जब इतनी
आत्माएं जन्म
लेने के लिए
आतुर और उत्सुक
हो जाएं कि
गर्भ व्यर्थ
हो जाए। और
इसीलिए मैं कह
रहा हूं कि सब
जरूरतें
अनुकूल तैयार होती
हैं, वह
हमारे खयाल
में नहीं आता।
यानी अब तक इस
बात की जरूरत
ही नहीं पड़ी
थी कि हम
वीर्य-अणु को
और स्त्री-अणु
को
प्रयोगशाला
में जाकर
बच्चा पैदा
करें, लेकिन
अब जरूरत पड़
जाएगी। पड़
जाएगी इसलिए
कि स्त्री की
संभावना
समाप्त होने
के करीब आ गई।
वह एक बच्चे
को नौ महीने
में जन्म दे
सकती है। एक
स्त्री कितने
ही बच्चे जन्म
दे तो
बीस-पच्चीस
बच्चों से ज्यादा
जन्म नहीं दे
सकती। अधिकतम
जन्म देने वाली
स्त्री ने
छब्बीस
बच्चों को
जन्म दिया। उसकी
संभावना इससे
ज्यादा नहीं
है।
लेकिन
अगर मनुष्य
आत्माओं का
तीव्र आगमन हो, तो फौरन
उपाय करने
पड़ेंगे। वह
हमको दिखता
नहीं कि हम किसलिए
उपाय कर रहे
हैं। आखिर हम
ये उपाय किसलिए
कर रहे हैं? तभी वह संभव
हो सकता है।
और तब तो एक
व्यक्ति के
पूरे के पूरे
चालीस करोड़
बीजाणुओं
का भी गर्भाधारण
हो सकता है।
लेकिन वह होगा
तभी, जब
आत्मा आने को,
उतरने को
आतुर हो।
और
मेरा मानना है
कि ये जो एक करोड़
की संभावना है
एक संभोग में, और एक
व्यक्ति में
चालीस करोड़
की संभावना है,
यह संभावना
ही इसलिए है
कि आज नहीं कल,
हजार वर्ष
बाद, दस
हजार वर्ष बाद,
इतनी जीव
आत्माएं
मुक्त होंगी
कि इन सब
अणुओं की
जरूरत पड़ने
वाली है। नहीं
तो यह बेमानी
है, इनका
कोई मतलब नहीं
है। और
प्रकृति
बेमानी कोई
काम करती ही
नहीं। जो भी
शरीर में है, उसकी कोई
गहरी
सार्थकता है।
वह हमें पता
हो या हमें
पता न हो। और
अगर आज उसकी
सार्थकता
नहीं तो कल
उसकी
सार्थकता हो
सकती है।
एक मां
और एक बाप के
व्यक्तित्व से
निर्मित जो
बीजाणु हैं, वे संभावना
बनते हैं एक
ऐसे व्यक्ति
की, जो इन
दोनों की
संभावनाओं से
तालमेल खाता
हो, उसके
जन्म की
संभावना बनते
हैं। इसलिए जो
लोग समझ सकते
हैं इस
विज्ञान को, वे यह भी
निश्चित करवा
सकते हैं बहुत
गहरे में कि
कैसे बच्चे
उनको पैदा
हों! कैसे
बच्चे उनको
पैदा
हों--क्योंकि
उनकी मनोदशा,
उनके
मनोभाव, संभोग
के क्षण में
उनकी
चित्त-स्थिति
निर्धारित
करेगी।
तो यह
जो महावीर और
इन सबके संबंध
में हमें ढेर
कहानियां
प्रचलित
मिलती हैं, वे किसी
अर्थ में
सार्थक हैं।
जैसे कि
महावीर के
संबंध में है
कि इतने स्वप्न
आते हैं। या
बुद्ध के
संबंध में कि
इतने स्वप्न
आते हैं।
स्वप्न
आते हैं या
नहीं आते हैं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
महत्वपूर्ण
सिर्फ इतना है
कि ऐसे स्वप्न
जिस चित्त में
आते हों, उस
चित्त की एक
विशिष्ट
अवस्था होगी
तो ये स्वप्न
आएंगे। सब
स्वप्न सबको
नहीं आते।
चित्त की
अवस्था पर
स्वप्न
निर्भर होते
हैं।
एक
आदमी क्रोधी
है तो वह ऐसे
स्वप्न देखता
है, जिनमें
क्रोध होगा।
एक आदमी कामी
है तो ऐसे सपने
देखता है, जिनमें
काम होगा। एक
आदमी लोभी है
तो ऐसे सपने
देखता है, जिनमें
लोभ होगा।
स्वप्न वे ही
हैं, जो
व्यक्ति के
चित्त की
अवस्थाएं
हैं।
महावीर
जैसा व्यक्ति
पैदा हो तो
साधारण मनोदशा
में पैदा नहीं
हो जाता। उसके
माता-पिता के भीतर
चित्त की, शरीर की एक
विशिष्ट
अवस्था जरूरी
है, तभी
वैसी आत्मा
प्रवेश कर
सकती है। और
उसके पहले के
लक्षण भी
जरूरी हैं। वे
लक्षण भी
होंगे। वे
लक्षण भी जरूरी
हैं। प्रतीक
हैं वे लक्षण
सिर्फ। वे इस बात
की खबर देते
हैं कि
चित्त...।
जैसे
कि फ्रायड
कहता है--अभी
फ्रायड ने जो
काम किया वह
बहुत कीमती
है--वह कहता है
कि अगर कोई आदमी
सपने में मछली
देखता है, तो वह सेक्स
का प्रतीक है
मछली जो है।
अब यह हजारों
सपनों का अध्ययन
करने के बाद
यह नतीजा
निकाला कि
मछली देखना जो
है, वह
किसी अर्थ में
सेक्स से
संबंधित है।
मछली जो
प्रतीक है, वह
जननेंद्रिय
का प्रतीक है।
यह गलत भी हो
सकता है उसका
खयाल। लेकिन
जो हजार सपने
उसने अध्ययन
किए हैं, उनमें
ऐसा लगता है
कि यह हो सकता
है।
अभी तक
महावीर के
सपनों या
बुद्ध के
सपनों का कोई
मनोवैज्ञानिक
अध्ययन नहीं
हुआ, उनकी
माताओं के
सपनों का। हो
सकता है।
लेकिन बड़ी
कठिनाई है जो,
वह यह है कि
ऐसे व्यक्ति
बहुत संख्या
में पैदा नहीं
हुए, इसलिए
तौल बिठालने
के लिए उपाय
नहीं है बहुत।
तौल नहीं बिठाली
जा सकती कि
अगर महावीर की
मां को सफेद
हाथी दिखाई
पड़े, तो
साधारणतः
सफेद हाथी
दिखाई पड़ते ही
नहीं, पहली
बात। एक तो
हाथी ही
मुश्किल से
दिखाई पड़ता
है। आप इतने
यहां लोग बैठे
हैं, शायद
ही किसी को
सपने में हाथी
दिखाई पड़े। और
हाथी अगर
दिखाई भी पड़े
तो वह सफेद हो,
इसकी
संभावना और
न्यून हो जाती
है।
अब
महावीर की मां
को अगर सफेद
हाथी दिखाई
पड़ता है, तो
अब यह अपवाद
एक ही है।
यानी इस तरह
के अगर सौ, दो
सौ सपने
अध्ययन न किए
जा सकें, तो
सफेद हाथी किस
बात का प्रतीक
है, यह तय
करना मुश्किल
है।
लेकिन
कोई फ्रायड ने
पहली दफा यह
काम नहीं किया
है। जैनों के
चौबीस तीर्थंकरों
की माताओं को
देखे गए सपनों
में तालमेल
है। और उसकी
फिक्र की जाती
रही है कि
तीर्थंकर
पैदा होता है, तो उसकी मां
को क्या सपने
आते हैं उसके
पहले। उसकी
चित्त-दशा
क्या है!
कितनी शांत है,
अशांत है, आनंदपूर्ण
है, प्रेमपूर्ण
है, घृणापूर्ण है, क्रोधपूर्ण
है; कैसी
है--पवित्र है,
दिव्य है, साधारण है, क्षुद्र
है--कैसी है।
यह बिलकुल ठीक
है कि ऐसी ही
चित्त की
विशिष्ट दशा
में ऐसी आत्मा
उतर सकती है।
चंगेज
खां या तैमूरलंग
पैदा हों तो
भी फिक्र की
जानी चाहिए कि
कैसे सपने
उनकी माताएं
देखती हैं।
फिक्र नहीं की
गई है। हिटलर
पैदा हो, स्टैलिन
पैदा हो, तो
कैसे सपने
उनकी मां
देखती है, इसकी
भी फिक्र की
जानी चाहिए।
तो शायद हमें
यह साफ हो सके
कि चित्त की
एक विशिष्ट
दशा में ऐसी
आत्मा
प्रविष्ट
होती है।
इतना
तो तय है कि हर
दशा में हर
आत्मा
प्रविष्ट नहीं
होती है। मां
और बाप सिर्फ
अवसर बनते हैं
आत्मा के
उतरने के, अवतरण के।
आत्मा एक शरीर
को छोड़ती है, जैसे ही
मरती है
मूर्च्छित हो
जाती है, और
जन्म तक
मूर्च्छित ही
रहती है। यानी
मां के पेट के
नौ महीने भी
मूर्च्छित ही
रहते हैं साधारणतया।
लेकिन कुछ
आत्माएं सचेत
मरती हैं, तो
वे मां के पेट
में भी सचेत
हो सकती हैं।
जो सचेत मरेगा,
वह मां के
पेट में भी
सचेत होगा।
इसलिए
ये कहानियां
बहुत आकस्मिक
नहीं हैं कि मां
के पेट में भी
कुछ सीखा जा
सके और बाहर
की बातें सुनी
जा सकें या
बाहर के अर्थ
ग्रहण किए जा
सकें। यह बहुत
असंभव नहीं
है। अगर कोई
चेतना सचेत
रूप में मरी
है, मरते
वक्त पूर्ण
चेतन थी, होश
नहीं खोया था,
शरीर
होशपूर्वक
छोड़ा, तो
वह आत्मा
होशपूर्वक
शरीर ग्रहण भी
करेगी। और मां
के पेट में भी
होशपूर्वक
होगी।
लाओत्से
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह बूढ़ा ही
पैदा हुआ, क्योंकि पैदा
होते से ही
उसने ऐसे
लक्षण दिखाए
जो कि अत्यंत
वृद्ध ज्ञानी
में होने
चाहिए। और बड़े
बचपन से उसमें
ऐसी बातें
दिखाई पड़ने
लगीं, जो
कि बड़े अनुभव
के बाद ही हो
सकती हैं।
सचेतन
रूप से मरा
हुआ व्यक्ति
सचेतन रूप से
पैदा हो सकता
है।
तो
महावीर के मां
के पेट में
संकल्प करने
की बात अर्थ
रखती है। इस
बात का संकल्प
करने की बात
कि अपने
माता-पिता को
दुख नहीं दूंगा।
उनके जीते-जी
संन्यास नहीं
लूंगा। इस बात
का संकल्प
गर्भ में किया
गया है, यह
अर्थपूर्ण हो
सकता है।
लेकिन
सामान्यतया हम
मरते समय
बेहोश हो जाते
हैं और जन्म
तक वह बेहोशी
जारी रहती है।
असल
में प्रकृति
की यह
व्यवस्था है
मूर्च्छा करने
की। जैसे हम
आपरेशन करते
हैं एक आदमी
का, तो
मूर्च्छित कर
देते हैं, ताकि
मूर्च्छा में
जो भी हो उसे
पता न चल सके, क्योंकि पता
चलना बहुत घबड़ाने
वाला भी हो
सकता है।
इसलिए
प्रकृति की
व्यवस्था है
मरने के पहले
मूर्च्छित और
जन्म तक मूर्च्छा
ही रहेगी।
और इस
मूर्च्छा में
जो भी होगा, जैसा मैंने
कहा है कि
आत्मा ग्रहण
करेगी, तो
वह बिलकुल आटोमेटिक
है। आटोमेटिक
का मतलब यह है
कि आत्मा का
रुझान जैसा है
अचेतन, वह
उस तरफ यात्रा
कर जाएगी।
सचेतन
रूप से जन्म
बहुत कम लोग
लेते हैं। वे
ही लोग सचेतन
रूप से जन्म
ले सकते हैं, जिन्होंने
पिछले जीवन
में चेतना की
बड़ी गहरी उपलब्धि
की है, वे
सचेतन रूप से
जन्म ले सकते
हैं। और तब वे
जानते हैं
पिछले जन्म को,
मृत्यु को,
मरने के बाद
को।
तिब्बत
में एक प्रयोग
होता
है--बारदो।
दुनिया में
जिन लोगों ने
खोज की है
मृत्यु के
बाबत, उसमें
सबसे ज्यादा
खोज तिब्बत
में हुई है।
बारदो एक
अदभुत प्रयोग
है। जब एक
आदमी मरता है
तो भिक्षु
उसके आस-पास
खड़े होकर
बारदो का
प्रयोग करते
हैं। जब वह मर
रहा होता है, तब वे उसे
चिल्ला कर
कहते हैं कि
होश रख, होश
रख, सम्हल,
बेहोश मत हो
जाना, क्योंकि
एक बड़ा मौका
आया है, जो
फिर दुबारा सौ
वर्ष बाद शायद
आए। यह मरने का
मौका अगर सौ
वर्ष बाद आए, तो उसे
हिलाते हैं, जगाते हैं।
आप
हैरान होंगे, आस्पेंस्की नाम का एक
अदभुत विचारक
चलते-चलते मरा,
लेटा नहीं।
अभी मरा, एक
दस-पंद्रह साल
पहले। और अपने
सारे शिष्यों को
इकट्ठा कर
लिया मरने के
पहले और चलता
रहा और उसने
कहा कि मैं
होश में ही
मरूंगा। मैं
लेटना भी नहीं
चाहता कि कहीं
झपकी न लग
जाए। चलता ही
रहा।
जो लोग
मौजूद थे, उन लोगों ने
लिखा है कि जो
अनुभव हमें
हुआ उस दिन, वह हमें कभी
नहीं हुआ था, कि कोई आदमी
इतने होश से
मर सकता है!
टहलता ही रहा
और कहता रहा
कि बस अब यह
होता है, अब
यह होता है, अब यह होता
है। अब मैं
यहां डूब रहा
हूं, अब
मैं इस जगह
पहुंच रहा हूं,
अब बस इतने
सेकेंड में
सांस चली
जाएगी। वह
एक-एक चीज को
नाप कर बोलता
रहा। और पूरा
सचेत मरा। मरा
तब खड़ा था।
बारदो
में वे उस
आदमी को
चिल्ला-चिल्ला
कर सचेत करते
हैं कि जागे
रहना, सो मत
जाना। हिलाते
हैं, उसको
पूरी कोशिश
करते हैं, उसको
कहते हैं कि
देखो ऐसा-ऐसा
होगा, घबड़ाओ मत, बेहोश
मत हो जाना।
और फिर
एक-एक...अगर वह
आदमी होश में
रह जाता है तो
फिर बारदो की
प्रक्रिया
आगे चलती है।
फिर उसको बताते
हैं कि अब ऐसा
होगा देख, गौर
से देख भीतर
कि अब ऐसा
होगा, अब
ऐसा होगा, अब
शरीर से इस
तरह छूटेगा।
अब शरीर छूट
गया है। तू घबड़ाना
मत। तू मर
नहीं गया।
शरीर छूट गया
है, लेकिन
देख तेरे पास
देह है, गौर
से देख। घबड़ा
मत। वे सारा, वह पूरा
प्रयोग करवाएंगे
मरते वक्त।
वह
मरने की
प्रक्रिया
बहुत कीमती है, कि उस वक्त
अगर किसी को
सचेत रखा जा
सके तो उसके
जीवन में एक
क्रांति हो गई,
जो बहुत
अदभुत है।
लेकिन रखा
उसको ही जा
सकता है, जो
जीवन में सचेत
होने का
प्रयोग कर रहा
हो, नहीं
तो नहीं रखा
जा सकता।
मैं
जिस श्वास के
अभ्यास के लिए
आप से कह रहा हूं, अगर वह जारी
रखते हैं तो
मृत्यु के
वक्त में कोई
संपत्ति काम
नहीं आएगी, कोई मित्र
काम नहीं आएगा,
वह श्वास की
जागरूकता ही
सिर्फ काम आती
है। क्योंकि
जो श्वास के
प्रति जागरूक
है, श्वास
जैसे-जैसे
डूबने लगती है,
वह अपनी
जागरूकता
जारी रखता है।
और श्वास के डूबने
के साथ वह
देखता है कि
मृत्यु उतरने
लगी, श्वास
जाने लगी और
मृत्यु उतरने
लगी। और उसने श्वास
का इतना
जागरूक होने
का अभ्यास
किया है कि जब
श्वास बिलकुल
नहीं रह जाती,
तब भी वह
जागा रह जाता
है।
बस, वही प्वाइंट
है, जहां
से उसकी नई
यात्रा शुरू
हो गई जागरण
की। तब फिर
उसका जन्म
एकदम जागरूक
जन्म है। और
एक दफा कोई
जागरूक मर जाए,
फिर दूसरी
जिंदगी
बिलकुल दूसरी
है, क्योंकि
पिछले जन्म का
कुछ भी नहीं
भूलता फिर। वह
गैप नहीं आता
बीच में
विस्मृति का,
जो भुला दे।
कंटिन्यूटी
जारी रहती है।
वे
बारदो में बड़ी
चेष्टा करते
हैं। अब मैं
कितना चाहता
हूं कि बारदो
जैसी स्थिति
इस मुल्क में
पैदा की जाए, जो कभी नहीं
हो सकी। यहां
मरने के नाम
से फिजूल
मूर्खतापूर्ण
बातें
प्रचलित हैं,
जिनका कोई
लेना-देना
नहीं है। कोई
मनोवैज्ञानिक
प्रक्रिया
नहीं जगा पाए
हैं कि मरते
हुए आदमी के
लिए हम सहयोगी
हो जाएं।
सहयोगी
हम हो सकते
हैं। और उसी
माध्यम से वह
व्यक्ति जब
दुबारा जन्म
लेगा तो उसके
जन्म की पिछली
यात्रा उसके
सामने रहेगी
सदा। वह आदमी
दूसरे ढंग का
हो जाएगा।
उसके दूसरे
जन्म में
साधना अनिवार्य
हो जाएगी। अब
वह दूसरे जन्म
को खोने को तैयार
नहीं हो सकता
है।
वह जो
सूक्ष्म शरीर
है, जिसकी
मैंने बात कही,
उसी
सूक्ष्म शरीर
में वे सूखी
रेखाएं बनती
हैं जो सुबह
मैंने कहीं।
वे सूखी
रेखाएं बनती
कहां हैं? वे
कर्म जो हमने
किए और वे फल
जो हमने भोगे,
वह जो हम
जीए, उस
सबकी सूक्ष्म
रेखाएं उस
सूक्ष्म शरीर
पर बनती हैं।
वह जो सूक्ष्म
शरीर
है--इसीलिए
उसका एक नाम
मैंने कहा, कार्मण शरीर।
तो
महावीर का तो
बहुत स्पष्ट
खयाल है कि जो
भी हमने जीया
और भोगा उसके
भोग के कारण
विशेष प्रकार
के परमाणु
हमारे
सूक्ष्म शरीर
से जुड़ जाते हैं।
जैसे एक
क्रोधी आदमी
है, तो वह एक
विशेष प्रकार
के परमाणु
अपने सूक्ष्म
शरीर में जोड़
लेता है।
अब ये
हमको...अब तो
साइंस बहुत सी
बातें कहती है।
साइंस कहती है
कि जब आप
क्रोध में
होते हैं तो
आपके खून में
खास तरह का पायज़न
छूट जाता है।
जब आप प्रेम
में होते हैं, तब एक दूसरे
तरह का ड्रग
आपके खून में
छूट जाता है।
जब एक आदमी
किसी स्त्री
या कोई स्त्री
किसी पुरुष के
प्रति दीवानी
या पागल हो
जाती है प्रेम
में, तो
उसके खून में साइकोडेलिक
ड्रग्स छूट
जाते हैं, जिनकी
वजह से सम्मोहन
पैदा हो जाता
है, और
स्त्री उतनी
सुंदर दिखाई
पड़ने लगती है,
जितनी वह है
नहीं।
अगर
आपको किसी
स्त्री से
प्रेम नहीं है
तो एल.एस.
डी. का एक
इंजेक्शन लगा
कर किसी भी
स्त्री को देखें, जिससे आपका
प्रेम नहीं, और आप एकदम
दीवाने हो
जाएंगे।
क्योंकि एल.एस.डी.
का इंजेक्शन
जो है, वह
आपके शरीर में
वे ड्रग्स छोड़
देता है, जो
प्रेमी के
शरीर में अपने
आप छूटते हैं।
बस उन ड्रग्स
के छूटते से
कोई भी स्त्री
आपको अपूर्व
सुंदरी दिखाई
पड़ेगी, यह
सवाल नहीं है
कि फलां
स्त्री। एक
साधारण सी
कुर्सी ऐसी
अद्वितीय
दिखाई पड़ती है
एल.एस.डी.
का ड्रग लेने
के बाद कि
जैसी कोई
स्त्री भी कभी
सुंदर नहीं
दिखाई पड़ी
होगी। एक
साधारण सा फूल
इतना सुंदर हो
जाता है, अलौकिक
हो जाता है।
तो एल.एस.डी.
की शरीर में
गति होने से
सब बदल जाता
है। तो जब हम
क्रोध करते
हैं, तब एक तरह
का पायज़न;
प्रेम करते
हैं, तब एक
तरह का एंटी-पायज़न, और
इस तरह के
सारे के सारे
रस शरीर में
छूटते रहते
हैं। यह तो
शरीर के तल पर
हो रहा है।
लेकिन सूक्ष्म
शरीर के तल पर
भी हो रहा है।
जब आप क्रोध
कर रहे हैं तो
सूक्ष्म शरीर
के साथ विशेष
तरह के परमाणु
संबंधित हो
रहे हैं, जब
आप प्रेम कर
रहे हैं तो
विशेष तरह के
परमाणु
संबंधित हो
रहे हैं।
इस
शरीर के छूट
जाने पर वह
सूक्ष्म शरीर
ही सूखी
रेखाओं की तरह
आपके भोगे गए
जीवन को लेकर
नई यात्रा
शुरू करता है।
और वह सूक्ष्म
शरीर ही नए
शरीर ग्रहण
करता है।
इसलिए वह अंधा
हो सकता है।
इसलिए वह काना
हो सकता है।
इसलिए वह लंगड़ा
हो सकता है।
बुद्धिमान हो
सकता है, बुद्धिहीन
हो सकता है।
प्रत्येक
मृत्यु में
स्थूल देह
मरती है। फिर अंतिम
मृत्यु है महामृत्यु--जिसे
हम मोक्ष कहते
हैं, उसमें वह
सूक्ष्म शरीर
भी मर जाता
है। जिस दिन
सूक्ष्म शरीर
मर जाता है, उस दिन
व्यक्ति का
मोक्ष हो गया।
यह
शरीर तो हर
बार मरता है।
वह भीतर का
शरीर हर बार
नहीं मरता। वह
तभी मरता है, जब उस शरीर
के रहने का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता--जब
व्यक्ति न कुछ
करता है, न
भोगता है, न
कर्ता बनता है,
न किसी कर्म
को ऊपर लेता
है, न कोई
प्रतिक्रिया
करता है। जब
व्यक्ति सिर्फ
साक्षी मात्र
रह जाता है, तब सूक्ष्म
शरीर पिघलने
लगता है, बिखरने
लगता है।
साक्षी
की जो
प्रक्रिया है, वह सूक्ष्म
शरीर को ऐसे
पिघला देती है,
जैसे सूरज
निकले और बर्फ
पिघलने लगे।
साक्षी के
निकलते ही
सूक्ष्म शरीर
के परमाणु
पिघल कर बहने
लगते हैं।
जिस
दिन सूक्ष्म
शरीर समाप्त
हो जाता है, उस दिन आदमी
कह सकता है...और
यह पिघलना ऐसा
ही अनुभव होता
है, जैसे
कि आपको
सर्दी-जुकाम
पकड़ गया है और
जुकाम उतर रहा
है तो आप
अनुभव करते
हैं, किसी
को बता नहीं
सकते कि अब
जुकाम नीचे
उतर रहा है।
सूक्ष्म शरीर
का पिघलना
साक्षी को इसी
तरह पता चलता है
कि कोई चीज
भीतर पिघल कर
बहती चली जा
रही है।
और जिस
दिन सूक्ष्म
शरीर पिघल
जाता है, आत्मा
और शरीर
बिलकुल पृथक
दिखाई पड़ने
लगते हैं।
सूक्ष्म शरीर
जोड़ है। वह
पृथक नहीं
दिखाई पड़ने
देता। वह
दोनों को जोड़
कर रखता है।
और जिस दिन ये
पृथक दिखाई पड़
जाते हैं, वह
आदमी कह देता
है, अब यह
आखिरी यात्रा
है। अब इसके
बाद लौटना मुश्किल
है।
बुद्ध
को जिस दिन
ज्ञान हुआ तो
बुद्ध ने कहा, वह घर गिर
गया, जो
सदियों से
नहीं गिरा था।
वह घर के
बनाने वाले
कारीगर विदा
हो गए, जो
सदा उस घर को
बनाते थे। अब
मेरे लौटने की
कोई उम्मीद न
रही; क्योंकि
मैं कहां
लौटूंगा! वह
घर ही न रहा, जिसमें सदा
लौटता था!
और वह
घर जो है, वह
है सूक्ष्म
शरीर का घर।
हमारे सारे
कर्म, हमारे
कर्मों के फल,
हमारा भोग,
हमारा जीया
हुआ जीवन, वह
सब उस सूक्ष्म
शरीर पर जैसे
स्लेट पट्टी
पर रेखाएं बन
जाती हैं, वैसा
बन जाता है।
उस सूक्ष्म
शरीर को गलाना
ही साधना है।
अगर मुझसे कोई
पूछे कि
तपश्चर्या का
क्या मतलब, तो मैं
कहूंगा, सूक्ष्म
शरीर को गलाना
तपश्चर्या
है।
और तप
शब्द का उपयोग
इसीलिए करते
हैं कि तप का मतलब
होता है, तीव्र
गर्मी, जैसे
सूर्य की
गर्मी। ऐसी
गर्मी भीतर
साक्षी से
पैदा करनी है
कि सूक्ष्म
शरीर पिघल जाए
और गल जाए, तप
का मतलब वह
है। तप का
मतलब धूप में
खड़े होना नहीं
है। वह पागल
है आदमी जो
धूप में खड़े
होकर तप कर
रहा है। एक और
धूप की बात
है। एक और तप
की बात है।
भीतर जो पैदा
करनी है, जिससे
सूक्ष्म शरीर
गल जाए और बह
जाए।
जब महावीर
को कहते हैं महातपस्वी, तो उसका
मतलब यह नहीं
है कि धूप में
खड़े हुए शरीर
को सता रहे
हैं। और जब
महावीर को
कहते हैं काया
को मिटाने
वाले, तो
उस काया का इस
काया से कोई
मतलब नहीं है।
उस काया का
मतलब ही उस
काया से है, वह जो भीतर
की काया है।
वही असली काया
है। यह तो
बार-बार मिलती
है।
आप इस
कमीज को अपनी
काया नहीं
कहते, क्योंकि
रोज इसे बदल
लेते हैं।
शरीर को काया
कहते हैं, क्योंकि
जिंदगी भर उसे
नहीं बदलते।
महावीर भलीभांति
जानते हैं कि
यह शरीर भी तो
कई बार बदल
लेते हैं।
लेकिन एक और
काया है, जो
कभी नहीं
बदलती। बस एक ही
बार खतम होती
है, बदलती
नहीं।
तो उस
काया के
पिघलाने में
लगा हुआ जो
श्रम है, वही
तपश्चर्या
है। और उस
काया को
पिघलाने के लिए
जो प्रक्रिया
है, वही
साक्षी-भाव, सामायिक या
ध्यान है। और
वह हमारे
स्मरण में आ
जाए और उसके
प्रयोग से हम
गुजर जाएं तो
फिर कोई
पुनर्जन्म
नहीं है।
पुनर्जन्म
रहा है सदा, रहेगा, अगर
हम कुछ न
करें। लेकिन
ऐसा हो सकता
है कि फिर
पुनर्जन्म न
हो। तब हम
विराट जीवन के
साथ एक हो
जाते हैं। ऐसा
नहीं कि हम
मिट जाते हैं,
ऐसा नहीं कि
हम समाप्त हो
जाते हैं, बस
ऐसा ही जैसे
बूंद सागर हो
जाती है।
मिटती-विटती
नहीं, लेकिन
मिट भी जाती
है। बूंद की
तरह मिट जाती
है, सागर
की तरह रह
जाती है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, आत्मा ही
परमात्मा हो
जाती है।
लेकिन नहीं समझे
उनके पीछे
वाले कि क्या
मतलब है। मतलब
इसका है कि
आत्मा की बूंद
खो जाती है
उसमें जो परमात्मा
है, वह एक
हो जाती है।
उस
एकता में, उस परम
अद्वैत में
परम आनंद है, परम शांति
है, परम
सौंदर्य है।
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