अध्याय—13
सूत्र—
इति
क्षेत्रं तथा
ज्ञानं
ज्ञेयं चोक्तं
समासत:।
मद्भक्त
एतद्विज्ञाय
मद्यावायोपयद्यते।।
18।।
प्रकृतिं
पुरूषं चैव
विद्यनादी
उभावपि।
क्किारांश्च
गुणांश्चैव
विद्धि
प्रकृतिसम्भवान्।।
19।।
कार्यकरणकर्तृन्वे
हेतु:
प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष:
सुखदुखानां
भोक्तृत्वे
हैतुरूच्यते।।
20।।
हे अर्जुन,
इस प्रकार
क्षेत्र तथा
ज्ञान अर्थात
ज्ञान का साधन
और जानने
योग्य
परमात्मा का
स्वरूप
संक्षेप से
कहा गया, इसको
तत्व से जानकर
मेरा भक्त
मेरे स्वरूप
को प्राप्त
होता है।
और हे
अर्जुन,
कृति अर्थात
त्रिगुणमयी
मेरी माया और
पुरुष अर्थात
क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को
ही तू अनादि
जान और
रागद्वेषदि
विकारों को तथा
त्रिगुणास्थ्य
संपूर्ण
यदार्थो को भी
प्रकृति से ही
उत्पन्न हुए जान।
क्योंकि
कार्य और करण
के उत्पन्न
करने में
प्रकृति हेतु
कही जाती है
और पुरुष सुख—
दुखों के
भोक्तापन में
अर्थात भोगने
में हेतु कहा
जाता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि व्यक्ति
का ढांचा, उसका
व्यक्तित्व
जानने के लिए
गुरु का उपयोग
होता रहा है।
पर क्या हम
किसी के
सम्मोहन में,
हिप्नोसिस
में अपना टाइप,
अपना ढांचा
नहीं जान सकते?
क्या
सम्मोहन का
प्रयोग साधना
के लिए खतरनाक
भी हो सकता है?
सम्मोहन
एक बहुत
पुरानी
प्रक्रिया है।
लाभप्रद भी है, खतरनाक
भी। असल में
जिस चीज से भी
लाभ पहुंच
सकता हो, उससे
खतरा भी हो
सकता है। खतरा
होता ही उससे
है, जिससे
लाभ हो सकता
हो। जिसमें
लाभ की शक्ति
है, उसमें
नुकसान की
शक्ति भी होती
है।
तो
सम्मोहन कोई
होमियोपैथिक
दवा नहीं है
कि जिससे
सिर्फ लाभ ही
पहुंचता हो और
नुकसान न होता
हो।
सम्मोहन
के संबंध में
बड़ी
भ्रांतिया
हैं। लेकिन
पश्चिम में तो
भ्रांतियां
टूटती जा रही
हैं। पूरब में
भ्रातियों का
बहुत जोर है।
और आश्चर्य की
बात तो यह है
कि पूरब ही
सम्मोहन का
पहला खोजी है।
लेकिन हम उसे
दूसरा नाम
देते थे। हमने
उसे योग—तंद्रा
कहा है। नाम
हमारा बढ़िया
है। नाम सुनते
ही अंतर पड़
जाता है।
हिप्नोसिस
का मतलब भी
तंद्रा है। वह
भी ग्रीक शब्द
हिप्नोस से बना
है,
जिसका अर्थ
नींद होता है।
दो
तरह की नींद
संभव है। एक
तो नींद, जब
आपका शरीर थक
जाता है, रात
आप सो जाते
हैं। वह
प्राकृतिक है।
दूसरी नींद है,
जो चेष्टा
करके आप में
लाई जा सकती
है, इनडघूस्त
स्लीप। योग—तंद्रा
या सम्मोहन या
हिप्नोसिस
वही दूसरी तरह
की नींद है।
रात जब आप
सोते हैं, तब
आपका चेतन मन
धीरे—धीरे, धीरे— धीरे
शात हो जाता
है। और अचेतन
मन सक्रिय हो
जाता है। आपके
मन की गहरी
परतों में आप
उतर जाते हैं।
सम्मोहन में
भी
चेष्टापूर्वक
यही प्रयोग किया
जाता है कि
आपके मन की
ऊपर की पर्त, जो रोज
सक्रिय रहती
है, उसे
सुला दिया
जाता है। और
आपके भीतर का
मन सक्रिय हो
जाता है।
भीतर
का मन ज्यादा
सत्य है।
क्योंकि भीतर
के मन को समाज
विकृत नहीं कर
पाया है। भीतर
का मन ज्यादा
प्रामाणिक है।
क्योंकि भीतर
का मन अभी भी
प्रकृति के
अनुसार चलता
है। भीतर के
मन में कोई
पाखंड, कोई
धोखा, भीतर
के मन में कोई
संदेह, कोई
शक—सुबहा कुछ
भी नहीं है।
भीतर का मन
एकदम निर्दोष
है। जैसे पहले
दिन पैदा हुए
बच्चे का जैसा
निर्दोष मन
होता है, वैसा
निर्दोष मन
भीतर है। धूल
तो ऊपर—ऊपर जम
गई है। मन के
बाहर की परतों
पर कचरा
इकट्ठा हो गया
है। भीतर जैसे
हम प्रवेश
करते हैं, वैसा
शुद्ध मन
उपलब्ध होता
है।
इस
शुद्ध मन को हिप्नोसिस
के द्वारा
संबंधित, हिप्नोसिस
के द्वारा इस
शुद्ध मन से
संपर्क
स्थापित किया
जा सकता है।
स्वभावत:, लाभ
भी हो सकता है,
खतरा भी।
अगर
कोई खतरा
पहुंचाना
चाहे, तो भी
पहुंचा सकता
है। क्योंकि वह
भीतर का मन
संदेह नहीं
करता है। उससे
जो भी कहा
जाता है, वह
मान लेता है।
वह परम
श्रद्धावान है।
अगर
एक पुरुष को
सम्मोहित
करके कहा जाए
कि तुम पुरुष
नहीं, स्त्री
हो, तो वह
स्वीकार कर
लेता है कि
मैं स्त्री
हूं। उससे कहा
जाए कि अब तुम
उठकर चलो, तुम
स्त्री की
भांति चलोगे।
तो वह पुरुष, जो कभी
स्त्री की
भांति नहीं
चला, स्त्री
की भांति चलने
लगेगा। उस पुरुष
को कहा जाए कि तुम्हारे
सामने यह गाय
खड़ी है—और वहा
कोई भी नहीं खडा
है—अब तुम दूध लगाना
शुरू करो, तो
वह बैठकर दूध
लगाना शुरू कर
देगा।
वह
जो अचेतन मन
है,
वह परम
श्रद्धावान
है। उससे जो
कहा जाए, वह
उस पर प्रश्न
नहीं उठाता।
वह उसे
स्वीकार कर
लेता है। यही
श्रद्धा का
अर्थ है। वह
यह नहीं कहता
कि कहां है
गाय? वह यह
नहीं कहता कि
मैं पुरुष हूं
स्त्री नहीं
हूं। वह संदेह
करना जानता ही
नहीं। संदेह
तो मन की ऊपर
की पर्त, जो
तर्क सीख गई
है, वही
करती है।
इसका
लाभ भी हो
सकता है, इसका
खतरा भी है।
क्योंकि उस
परम
श्रद्धालु मन
को कुछ ऐसी
बात भी समझाई
जा सकती है, जो व्यक्ति
के अहित में
हो, जो
उसको नुकसान
पहुंचाए।
मृत्यु तक
घटित हो सकती
है। सम्मोहित
व्यक्ति को
अगर भरोसा
दिला दिया जाए
कि तुम मर रहे
हो, तो वह
भरोसा कर लेता
है कि मैं मर
रहा हूं।
उन्नीस
सौ बावन में
अमेरिका में
एटी—हिप्नोटिक
एक्ट बनाया
गया। यह पहला
कानून है हिप्नोसिस
के खिलाफ
दुनिया में
कहीं भी बना।
क्योंकि चार
लड़के
विश्वविद्यालय
के एक छात्रावास
में सम्मोहन
की किताब पढ़कर
प्रयोग कर रहे
थे। और
उन्होंने एक
लड़के को, जिसको
बेहोश किया था,
भरोसा दिला
दिया कि तू मर
गया है। वे
सिर्फ मजाक कर
रहे थे। लेकिन
वह लड़का सच
में ही मर गया।
वह हृदय में
इतने गहरी बात
पहुंच गई—वहा
कोई संदेह
नहीं है—मृत्यु
हो गई, तो
मृत्यु को
स्वीकार कर
लिया। शरीर और
आत्मा का
संबंध तत्क्षण
छूट गया। तो
हिप्नोसिस के
खिलाफ एक
कानून बनाना
पड़ा।
अगर
मृत्यु तक पर
भरोसा हो सकता
है,
तो फिर किसी
भी चीज पर
भरोसा हो सकता
है।
तो
सम्मोहन का
लाभ भी उठाया
जा सकता है।
पश्चिम में
बहुत बड़ा
सम्मोहक था, कूए।
कूए ने लाखों
मरीजों को ठीक
किया सिर्फ
सम्मोहन के
द्वारा। अब तक
दुनिया का कोई
चिकित्सक
किसी भी
चिकित्सा
पद्धति से
इतने मरीज ठीक
नहीं कर सका
है, जितना
कूए ने सिर्फ
सम्मोहन से
किया। असाध्य
बीमारियां
दूर कीं।
क्योंकि
भरोसा दिला
दिया भीतर कि
यह बीमारी है
ही नहीं। इस
भरोसे के आते
ही शरीर बदलना
शुरू हो जाता
है।
कूए
ने हजारों
लोगों की शराब, सिगरेट,
और तरह के
दुर्व्यसन
क्षणभर में
छुड़ा दिए क्योंकि
भरोसा दिला
दिया। मन को
गहरे में
भरोसा आ जाए
तो शरीर तक
परिणाम होने
शुरू हो जाते
हैं।
तो
लाभ भी हो
सकता है। अगर
आपको ध्यान
नहीं लगता है, सम्मोहन
में अगर आपको
सुझाव दे दिया
जाए, दूसरे
दिन से ही
आपका ध्यान
लगना गहरा हो
जाएगा। आप
प्रार्थना
करते हैं, लेकिन
व्यर्थ के
विचार आते हैं।
सम्मोहन में
कह दिया जाए
कि प्रार्थना
के क्षण में
कोई भी विचार
न आएंगे, तो
प्रार्थना
आपकी परम शात
और आनंदपूर्ण
हो जाएगी, कोई
विचार का विष्य
न रह जाएगा।
आपकी साधना
में सहयोग
पहुंचाया जा
सकता है।
योग
के गुरु
सम्मोहन का
प्रयोग करते
ही रहे हैं
सदियों से।
लेकिन कभी
उसका प्रयोग
जाहिर और
सार्वजनिक नहीं
किया गया। वह
निजी गुरु के
और शिष्य के
बीच की बात थी।
और जब गुरु
किसी शिष्य को
इस योग्य मान
लेता था कि अब
उसके अचेतन
में प्रवेश
करके काम शुरू
करे,
तो ही
प्रयोग करता
था। और जब कोई
शिष्य किसी
गुरु को इस
योग्य मान लेता
था कि उसके
चरणों में सब
कुछ समर्पित
कर दे, तभी
कोई गुरु उसके
भीतर प्रवेश
करके सम्मोहन का
प्रयोग करता
था।
रास्ते
पर काम करने
वाले सम्मोहक
भी हैं। स्टेज
पर प्रयोग
करने वाले
सम्मोहक भी
हैं। उनके साथ
आपका कोई
श्रद्धा का
नाता नहीं है।
उनके साथ आपका
नाता भी है, तो
व्यावसायिक
हो सकता है कि
आप पांच रुपया
फीस दें और वह
आपको
सम्मोहित कर
दे। लेकिन जो
आदमी पांच
रुपए में
उत्सुक है
सम्मोहित
करने को, वह
आपको नुकसान
पहुंचा सकता
है।
इस
तरह की घटनाएं
दुनियाभर के
पुलिस थानों
में रिपोर्ट
की गई हैं कि
किसी ने किसी
को सम्मोहित
किया और उससे
कहा कि रात तू
अपनी तिजोरी में
चाबी लगाना
भूल जाना; या
रात तू अपने
घर का दरवाजा
खुला छोड़ देना।
पोस्ट हिप्नोटिक
सजेशन! आपको
अभी बेहोश
किया जाए, आपको
बाद के लिए भी
सुझाव दिया जा
सकता है कि आप
अड़तालीस घंटे
बाद ऐसा काम
करना। तो आप
अड़तालीस घंटे
बाद वैसा काम
करेंगे और आपको
कुछ समझ में
नहीं आएगा कि
आप क्यों कर
रहे हैं। या
आप कोई तरकीब
खोज लेंगे, कोई
रेशनलाइजेशन,
कि मैं
इसलिए कर रहा
हूं।
मैं
एक युवक पर
प्रयोग कर रहा
था पोस्ट हिप्नोटिक
सजेशन के। उसे
मैंने बेहोश
किया और उसे
मैंने कहा कि
छ: घंटे बाद तू
मेरी फला नाम
की किताब को
उठाएगा और
उसके
पंद्रहवें
पेज पर दस्तखत
कर देगा। फिर
वह होश में आ
गया। छ: घंटे
बाद की बात है।
वह अपने काम
में लग गया।
मैंने वह
किताब अलमारी
में बंद करके
ताला लगा दिया।
ठीक
छ: घंटे बाद
उसने आकर मुझे
कहा कि मुझे
आपकी फलां नाम
की किताब पढ़नी
है। मैंने
पूछा कि तुझे
अचानक क्या
जरूरत पड गई? उसने
कहा कि नहीं, मुझे कई दिन
से खयाल है
पढ़ने का। अभी
मेरे पास
सुविधा है, तो मैं पढ़ना
चाहता हूं।
मैंने उसे
चाबी दी और
उसने खोला, और जब मैं
भीतर पहुंचा
कमरे में, तो
वह किताब पढ़
नहीं रहा था, वह पंद्रह
नंबर के पृष्ठ
कर दस्तखत कर
रहा था।
जब
वह पकड़ गया
दस्तखत करते, तो
बहुत घबडाया;
और उसने कहा
कि मेरी समझ
के बाहर है, लेकिन मुझे
बड़ी बेचैनी हो
रही थी कि कुछ
करना है। और
कुछ समझ में
नहीं आ रहा था
कि क्या करना
है। और दस्तखत
करते ही मेरा
मन एकदम हलका
हो गया, जैसे
कोई बोझ मेरे
ऊपर से उतर
गया है। पर
मैंने क्यों
दस्तखत किए
हैं, मुझे
कुछ पता नहीं
है।
तो
ऐसी रिपोर्ट
की गई हैं
पुलिस में कि
किसी सम्मोहक
ने किसी को
सम्मोहित कर
दिया और उससे
कहा कि तू जाते
वक्त अपने
पैसे की थैली
यहीं छोड़ जाना, अपना
मनीबैग यहीं
छोड़ जाना; या
अपनी चेक बुक
यहीं छोड़ जाना।
वह आदमी चेक
बुक वहीं छोड़
गया जाते वक्त।
तब तो खतरे हो
सकते हैं।
अचेतन
मन बड़ा
शक्तिशाली है।
आपके चेतन मन
की कोई भी
शक्ति नहीं है।
आपका चेतन मन
तो बहुत ही
कमजोर है।
इसीलिए तो आप
संकल्प करते
हैं कि सिगरेट
नहीं पीऊंगा, छोड़
दूंगा; और
घंटेभर भी
संकल्प नहीं
चलता है।
क्योंकि जिस
मन से आपने
किया है, वह
बहुत कमजोर मन
है। उसकी ताकत
ही नहीं है
कुछ। अगर यही
संकल्प भीतर
के मन तक
पहुंच जाए, तो यह
महाशक्तिशाली
हो जाता है।
फिर उसे तोड़ना
असंभव है।
सम्मोहन
के द्वारा
व्यक्ति का ढांचा
खोजा जा सकता
है। लेकिन
सम्मोहित ऐसे
व्यक्ति से ही
होना, जिस पर
परम श्रद्धा
हो।
व्यावसायिक
सम्मोहन करने
वाले व्यक्ति
से सम्मोहित
मत होना।
क्योंकि उसकी
आपमें
उत्सुकता ही
व्यावसायिक
है। आपसे कोई
आत्मिक और आंतरिक
संबंध नहीं है।
और जब तक
आत्मिक और आंतरिक
संबंध न हो, तब तक किसी
व्यक्ति को
अपने इतने
भीतर प्रवेश करने
देना खतरनाक
है।
इसलिए
गुरु तो
प्रयोग करते
रहे हैं।
लेकिन इस
प्रयोग को सदा
ही निजी समझा
गया है। यह सार्वजनिक
नहीं है। दो
व्यक्तियों
के बीच की
निजी बात है।
कभी—कभी तो... यह
प्रयोग पूरा
भी तभी हो
सकता है, जब कि
बहुत निकट और
प्रगाढ़ संबंध
हों।
जैसे
कि स्टेज पर
कोई सम्मोहित
कर रहा है
आपको, तो आप
कितने ही
सम्मोहित हो
जाएं, आपके
भीतर एक
हिस्सा
असम्मोहित बना
रहता है।
क्योंकि आपको
डर तो रहता ही
है कि पता
नहीं, यह
आदमी क्या
करवाए! तो अगर
वह कहे कि गाय
का दूध लगाओ, तो आप लगा
लेंगे। वह कहे
कि आप स्त्री
की तरह चलो, तो चल लेंगे।
लेकिन अगर वह
कोई ऐसी बात
कहे, जो
आपके अंतःकरण
के विपरीत
पड़ती है, अनुकूल
नहीं पड़ती है,
या आपकी
नैतिक दृष्टि
के एकदम खिलाफ
है, तो आप तत्क्षण
जाग जाएंगे और
इनकार कर
देंगे।
जैसे
किसी जैन को
जो बचपन से ही
गैर—मांसाहारी
रहा है, सम्मोहित
करके अगर कहा
जाए कि मांस
खा लो, वह
फौरन जग जाएगा;
वह सम्मोहन
टूट जाएगा उसी
वक्त।
किसी
सती स्त्री को, जिसका
अपने पति के
अलावा कभी
किसी के प्रति
कोई भाव पैदा
नहीं हुआ है, अगर उसे कहा
जाए सम्मोहन
में कि इस
व्यक्ति को
चूम लो, उसकी
फौरन नींद खुल
जाएगी, सम्मोहन
टूट जाएगा।
लेकिन अगर
स्त्री का मन
दूसरे
पुरुषों के
प्रति जाता
रहा हो, तो
सम्मोहन नहीं
टूटेगा, क्योंकि
इसमें कुछ खास
विरोध नहीं हो
रहा है। शायद
उसकी दबी हुई
इच्छा ही पूरी
हो रही है।
तो
जब कोई
व्यावसायिक
रूप से किसी
को सम्मोहित
करता है, तो
आपके भीतर एक
हिस्सा तो सजग
रहता ही है।
बहुत गहरे
प्रवेश नहीं
हो सकता।
लेकिन जब कोई
गुरु और शिष्य
के संबंध में
सम्मोहन घटित
होता है, तो
प्रवेश बहुत आंतरिक
हो जाता है।
व्यक्ति अपने
को पूरा छोड़
देता है।
इसलिए समर्पण
का इतना मूल्य
है, श्रद्धा
का इतना मूल्य
है।
सम्मोहन
के माध्यम से
निश्चित ही
व्यक्ति के टाइप
का पता लगाया
जा सकता है।
सम्मोहन के
द्वारा
व्यक्ति के
पिछले जन्मों में
प्रवेश किया जा
सकता है।
सम्मोहन के
द्वारा
व्यक्ति के
भीतर कौन—से
कारण हैं, जिनके
कारण वह
परेशान और
उलझा हुआ है, वे खोजे जा
सकते हैं। और
सम्मोहन के
माध्यम से
बहुत—सी बातों
का निरसन किया
जा सकता है, रेचन किया
जा सकता है; बहुत—सी
बातें मन से
उखाड़कर बाहर
फेंकी जा सकती
हैं।
हम
जो भी करते
हैं ऊपर—ऊपर
से,
वह ऐसा है, जैसे कोई
किसी वृक्ष की
शाखाओं को काट
दे। शाखाएं
कटने से वृक्ष
नहीं कटता, नए पीके
निकल आते हैं।
वृक्ष समझता
है कि आप कलम
कर रहे हैं।
जब तक जड़ें न
उखाड़ फेंकी
जाएं, तब
तक कोई
परिवर्तन
नहीं होता।
वृक्ष फिर से
सजीव हो जाता
है।
आप
मन के ऊपर—ऊपर
जो भी कलम
करते हैं, वह
खतरनाक है। वह
फायदा नहीं
करती, नए
अंकुर निकल
आते हैं। वही
बीमारियां और
घनी होकर पैदा
हो जाती हैं।
जड़ उखाड़कर
फेंकना हो, तो गहरे
अचेतन में
जाना जरूरी है।
लेकिन
सम्मोहन
अकेला मार्ग
नहीं है। अगर
आप ध्यान करें, तो
खुद भी अपने
भीतर इतने ही
गहरे जा सकते
हैं। सम्मोहन
के द्वारा
दूसरा
व्यक्ति आपके
भीतर गहरे
जाता है और
आपको सहायता
पहुंचा सकता
है। ध्यान के
द्वारा आप
स्वयं ही अपने
भीतर गहरे जाते
हैं और अपने
को बदल सकते
हैं।
जिन
लोगों को
ध्यान में
बहुत कठिनाई
होती हो, उनके
लिए सम्मोहन
का सहारा लेना
चाहिए। लेकिन
अत्यंत निकट
संबंध हो किसी
गुरु से, तभी।
और जो व्यक्ति
ध्यान में
सीधे जा सकते
हों, उनको
सम्मोहन के
विचार में
नहीं पड़ना
चाहिए। उसकी
कोई भी जरूरत
नहीं है।
और
सम्मोहन का भी
सहारा इसीलिए
लेना चाहिए कि
ध्यान में
गहरे जाया जा
सके,
बस। और किसी
काम के लिए
सहारा नहीं
लेना चाहिए।
क्योंकि बाकी
सब काम तो
ध्यान में
गहरे जाकर किए
जा सकते हैं।
सिर्फ ध्यान न
होता हो, तो
ध्यान में
कैसे मैं गहरे
जाऊं, सम्मोहन
का इसके लिए
सहारा लिया जा
सकता है।
सम्मोहन
गहरी
प्रक्रिया है
और बड़ी
वैज्ञानिक है।
और मनुष्य के
बहुत हित में
सिद्ध हो सकती
है। लेकिन
स्वभावत:, जो
भी हितकर हो
सकता है, वह
खतरनाक भी है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि
हमें नीचे बह
रही
प्राकृतिक
ऊर्जा के ऊपर
ऊर्ध्वगमन की
चेष्टा क्यों
करनी चाहिए?
कोई
नहीं कहता है
कि आप चेष्टा
करें। आपकी
ऊर्जा नीचे बह
रही है, उससे
दुख हो रहा है,
उससे पीड़ा
हो रही है, उससे
जीवन व्यर्थ
रिक्त हो रहा
है। तो आपको
ही लगता हो कि
पीड़ा हो रही
है, दुख हो
रहा है, जीवन
व्यर्थ जा रहा
है, तो ऊपर
ले जानी चाहिए।
कोई आपसे कह
नहीं रहा है
कि आप ऊपर ले
जाएं। और किसी
के कहने से आप
कभी ऊपर ले भी
न जाएंगे।
लेकिन
नीचे का अनुभव
ही पीड़ादायी
है। ऊर्जा का
नीचे जाने का
अर्थ है दुख, ऊर्जा
का ऊपर जाने
का अर्थ है
आनंद। लेकिन
नीचे जाती
ऊर्जा अगर
सिर्फ दुख ही
देती हो, तब
तो सभी लोग
रुक जाएंगे।
लेकिन नीचे
जाती ऊर्जा
सुख का
प्रलोभन देती
है और अंत में
दुख देती है।
इसीलिए तो
इतने लोग
उसमें बहे चले
जाते हैं।
नीचे बहती हुई
ऊर्जा आशा
बंधाती है कि
सुख मिलेगा।
आशा ही रहती
है, दुख
मिलता है।
लेकिन हम इतने
बुद्धिहीन
हैं कि प्रथम
और अंतिम को
कभी जोड़ नहीं
पाते। हजार
बार दुख पाकर
भी फिर जब नया
प्रलोभन आता है,
तो हम उसी
मछली की तरह
व्यवहार करते
हैं, जो
अनेक बार आटे
को पकडने में
कांटे से पकड़
गई है, लेकिन
फिर जब आटा
लटकाता है
मछुआ, तो
फिर मछली आटे
को पकड़ लेती
है।
आटे
और काटे में
मछली संबंध
नहीं जोड़ पाती।
हम भी नहीं
जोड़ पाते कि
हम जहां—जहं।
सुख की आशा
रखते हैं, वहां—वहां
दुख मिलता है,
सुख मिलता
नहीं। लेकिन
इसका हम संबंध
नहीं जोड़ पाते।
जहां
भी आपको दुख
मिलता हो, आप
थोड़ा सोचें कि
वहां आपने सुख
चाहा था। सुख
न चाहा होता, तो दुख मिल
ही नहीं सकता।
दुख मिलता ही
तब है, जब
हमने सुख चाहा
हो। आटे को
कोई मछली
पकड़ेगी, तो
ही काटे से
जकड़ सकती है।
लेकिन जब काटे
से मछली जकड़
जाती है, तब
वह भी नहीं
सोच पाती कि
इस आटे के
कारण मैं काटे
में फंस गई
हूं। आप भी
नहीं सोच पाते
कि जब दुख में
आप उलझते हैं,
तो किसी सुख
की आशा में
फंस गए हैं।
नीचे बहती
ऊर्जा पहले
सुख का
आश्वासन देती
है, फिर दुख
में गिरा देती
है। ऊपर उठती
ऊर्जा पहले
कष्ट, तप, साधना, जो
कि कठिन है; द्वार पर ही
मिलता है दुख
ऊपर जाती
साधना में, लेकिन अंत
में सुख हाथ
आता है।
तो
आप एक बात ठीक
से समझ लें, दुख
अगर पहले मिल
रहा हो और
पीछे सुख
मिलता हो, तो
आप समझना कि
ऊर्जा ऊपर की
तरफ जा रही है।
और अगर सुख
पहले मिलता
हुआ लगता हो
और पीछे दुख
हाथ में आता
हो, तो
ऊर्जा नीचे की
तरफ जा रही है।
यह लक्षण है
कि आपकी शक्ति
कब निम्न हो
रही है और कब
ऊर्ध्व हो रही
है।
कोई
भी आपसे नहीं
कहता कि आप
अपनी जीवन
शक्ति को ऊपर
ले जाएं।
लेकिन आप आनंद
चाहते हैं, तो
जीवन शक्ति को
ऊपर ले जाना
पड़ेगा।
समस्त
धर्म जीवन
शक्ति को ऊपर
ले जाने की
विधियां है।
सारा योग, सारा
तंत्र, सब
एक ही बात की
चेष्टा है कि
आपके जीवन की
जो ऊर्जा नीचे
गिरती है, वह
ऊपर कैसे जाए।
और एक बार ऊपर
जाने लगे, तो
दूसरे जगत का
प्रारंभ हो
जाता है।
देखा
आपने, पानी
नीचे की तरफ
बहता है।
लेकिन पानी को
गरम करें और
पानी भाप बन
जाए, तो
ऊपर की तरफ
उड़ना शुरू हो
जाता है। पानी
ही है। लेकिन
सौ डिग्री पर
भाप बन गया, और क्रांतिकारी
अंतर हो गया।
आयाम बदल गया।
दिशा बदल गई।
पहले नीचे की
तरफ बहता था; पहले कहीं
भी पानी होता,
तो वह गड्डे
की तलाश करता,
अब आकाश की
तलाश करता है।
आपके
भीतर जो जीवन
है,
जो एनर्जी
है, जो
ऊर्जा है, वह
भी एक विशेष
प्रक्रिया से
गुजरकर ऊपर की
तरफ उठनी शुरू
हो जाती है।
उस ऊपर उठती
हुई ऊर्जा को
हमने
कुंडलिनी कहा है।
साधारणत:
जैसा आदमी
पैदा होता है
प्रकृति से, वह
ऊर्जा नीचे की
तरफ जाती है।
जमीन का
ग्रेविटेशन
उसे नीचे की
तरफ खींचता है।
जमीन की कशिश
नीचे की तरफ
खींचती है। और
आप नीचे की
तरफ चौबीस
घंटे खिंच रहे
हैं। और
जिंदगी उतार
है। बच्चा
जितना पवित्र
होता है, का
उतना पवित्र
नहीं रह जाता।
बड़ी अदभुत बात
है!
बच्चा
जैसा निर्दोष
होता है, बूढ़ा
वैसा निर्दोष
नहीं रह जाता।
होना तो उलटा
चाहिए।
क्योंकि जीवन
होना चाहिए एक
विकास। यह तो
हुआ पतन।
अगर
हम के आदमी के
मन को खोल
सकें, तो हम
पाएंगे कि
बूढ़ा आदमी
डर्टी, एकदम
गंदा हो जाता
है। जीवन की
सारी की सारी
वासना तो बनी
रहती है और
शक्ति सब खो
जाती है। और
वासना मन में
घूमती है।
जैसे—जैसे
आदमी बूढ़ा
होने लगता है,
शरीर की
शक्ति तो खोती
जाती है और
वासना चित्त
को घेरती है।
क्योंकि
चित्त कभी भी
का नहीं होता,
वह जवान ही
बना रहता है।
तो बड़ी गंदगी
घिर जाती है।
बच्चे
और बूढ़े में
विकास न दिखाई
देकर, पतन
दिखाई पड़ता है।
कारण सिर्फ एक
है, कि
बच्चे की
ऊर्जा अभी
बहनी शुरू
नहीं हुई है।
जैसे—जैसे वह
बड़ा होगा, ऊर्जा
नीचे की तरफ
बहनी शुरू
होगी। और अगर
कोई प्रयोग न
किए जाएं, तो
ऊर्जा ऊपर की
तरफ न बहेगी।
इन
मित्र ने यह
भी पूछा है कि
अगर साक्षी— भाव
या साधना लानी
पड़ती है, तब
तो फिर वह
अप्राकृतिक
हो गई। तो
क्या प्रकृति
का विरोध करना
ठीक है?
प्रकृति
नीचे भी है और
ऊपर भी है। जब
भाप आकाश की
तरफ उड़ती है, तब
भी प्राकृतिक
नियमों का ही
अनुगमन कर रही
है। और जब
पानी नीचे की
तरफ बहता है, तब भी
प्राकृतिक नियमों
का ही अनुगमन
कर रहा है।
ऊपर
की तरफ ले
जाने वाले
नियम भी
प्राकृतिक हैं।
और नीचे की
तरफ ले जाने
वाले नियम भी
प्राकृतिक
हैं। चुनाव
आपको कर लेना
है। और मनुष्य
स्वतंत्र है
चुनाव के लिए, यही
मनुष्य की
गरिमा है।
मनुष्य की
खूबी यही है।
पशुओं से
उसमें
विशेषता है, तो सिर्फ एक,
कि पशु
चुनाव करने को
स्वतंत्र
नहीं है। उसको
कोई च्वाइस
नहीं है। उसकी
ऊर्जा नीचे की
तरफ ही बहेगी।
वह चुनाव नहीं
कर सकता ऊपर
की तरफ बहने
का। वह चाहे
तो भी नहीं कर
सकता। वह चाह
भी नहीं सकता।
पशु
बंधा हुआ है, नीचे
की तरफ ही
बहेगा।
मनुष्य को संभावना
है। अगर वह
कुछ न करे, तो
नीचे की तरफ
बहेगा। अगर
कुछ करे, तो
ऊपर की तरफ भी
बह सकता है।
मनुष्य के पास
उपाय है। और
जौ मनुष्य
चुनाव नहीं
करता, वह
पशु ही बना रह
जाता है। वह
कभी मनुष्य
नहीं बन पाता।
क्योंकि फिर
पशु में और
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
एक ही शुरुआत
है फर्क की और
वह यह है कि हम
चुन सकते हैं।
हम चाहें तो
ऊपर की तरफ भी
बह सकते हैं।
एक
बड़े मजे की
बात है। चूंकि
हम ऊपर की तरफ
भी बह सकते
हैं,
इसलिए हम
पशु से भी
ज्यादा नीचे
गिर सकते हैं।
अगर आदमी पशु
होना चाहे, तो सभी
पशुओं को मात
कर देता है।
दुनियाभर के सारे
जंगली
जानवरों को भी
इकट्ठा कर लें,
तो भी हिटलर
का मुकाबला
नहीं कर सकते,
चंगेजखा का
मुकाबला नहीं
कर सकते।
दुनिया का कोई
पशु आदमी जैसा
पशु नहीं हो
सकता, अगर
आदमी पशु होना
चाहे।
क्योंकि
जितने आप ऊपर
उठ सकते हैं, उतने ही
अनुपात में
नीचे गिर सकते
हैं। जितने
बड़े शिखर पर
चढ़ने की
संभावना है, उतनी ही बड़ी
खाई में गिर
जाने की भी
संभावना साथ
ही जुड़ी हुई
है। शिखर और
खाई साथ—साथ
चलते हैं। पतन
और विकास साथ—साथ
चलते हैं।
लेकिन
कोई भी पशु
बहुत नीचे
नहीं गिर सकता।
आप जंगल में
चले जाएं, तो
आप पता भी
नहीं लगा सकते
कि कौन—सा सिंह
ज्यादा पशु है।
सभी सिंह एक
जैसे पशु हैं।
भूख लगती है, चीर—फाड़कर
खा जाते हैं।
लेकिन दो
सिंहों में
कोई फर्क नहीं
किया जा सकता।
एक सिंह नीचा
गिर गया है और
एक सिंह ऊंचा
है, ऐसा आप
फर्क नहीं कर
सकते।
आदमी
ऊपर उठना चाहे, तो
बुद्ध और
कृष्ण भी और
क्राइस्ट भी
उसमें पैदा हो
जाते हैं। और
नीचे गिरना
चाहे, तो
चंगेज और
नादिर और
हिटलर और
स्टैलिन भी
पैदा हो जाते
हैं। कोई अड़चन
नहीं है। और
आदमी कुछ न
करे, तो
साधारण किस्म
का पशु रह
जाता है।
ऊपर
की तरफ जाने
के लिए श्रम
करना होगा।
लेकिन श्रम के
कारण आप यह मत
समझ लेना कि
वह
अप्राकृतिक
है। आदमी जमीन
पर चलता है।
नाव में पानी
में चलता है।
हवाई जहाज में
हवा में चलता
है। अब
अंतरिक्ष यान
हमने बनाए हैं, वे
आकाश में हवा
के पार भी चले
जाते हैं।
अप्राकृतिक
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
अप्राकृतिक
तो घटित ही
नहीं हो सकता।
हवा
में जब आदमी उड़
रहा है हवाई जहाज
में,
तब भी
प्रकृति के
नियमों का ही
उपयोग कर रहा
है। और जब
आदमी नहीं
उड़ता था, तो
उसका मतलब यह
नहीं है कि तब
नियम नहीं थे।
नियम थे, हमें
उनका पता नहीं
था।
तो
जब आप
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होते हैं, तब
भी आप प्रकृति
के ही नियमों
का काम कर रहे
हैं। और जब आप
कामवासना में
गिरते हैं, तब भी
प्रकृति के ही
नियमों का काम
हो रहा है।
एक
हवाई जहाज जब
हवा में उड़ता
है,
तब भी
प्रकृति के
नियम काम रहे
हैं। और जब
हवाई जहाज में
कुछ गड़बड हो
जाती है और
हवाई जहाज ऊपर
से नीचे गिरकर
जमीन पर
टकराता है, तब भी
प्रकृति के ही
नियम काम कर
रहे हैं।
आप
कितने ढंग से
प्रकृति के
नियमों का
अपने अनुकूल
उपयोग करते
हैं,
उस मात्रा
में आपके जीवन
में आनंद फलित
होता है। और
आप किस मात्रा
में प्रकृति
के नियमों का
उपयोग नहीं कर
पाते अपने
अनुकूल या
अपने को नियमों
के अनुकूल
नहीं बना पाते,
उस मात्रा
में दुख होता
है।
ऊपर
की यात्रा भी
प्राकृतिक ही
है,
अप्राकृतिक
नहीं; लेकिन
उच्चतर
प्रकृति की
तरफ है। नीचे
की यात्रा भी
प्राकृतिक है,
लेकिन
निम्न है। और
जो निम्न है, वह दुख लाता
है। और जो
निम्न है, वह
नरक बन जाता
है। और जो
श्रेष्ठ है, उच्च है, वह
स्वर्ग बन
जाता है और
आनंद की
संभावना के
द्वार खुल
जाते हैं।
लेकिन
कोई आपसे कह
नहीं रहा है
कि आप ऐसा
करें। और किसी
के कहने से आप
करेंगे भी
नहीं।
तो
मैं तो आपसे
इतना ही कह
रहा हूं कि आप
पहचानें कि
अगर आप दुख
में हैं, तो आप
पहचान लें कि
आप नीचे की
तरफ जा रहे हैं।
और आपको अगर
दुख में ही
रहना हो, तो
फिर कुशलता से
नीचे की तरफ
जाएं। लेकिन
नीचे की तरफ
जाकर सुख की
आशा न करें।
वह आशा गलत है।
और आपको लगता
हो कि दुख को
बदलना है जीवन
से और आनंद की
यात्रा करनी
है, तो ऊपर
की तरफ उठना
शुरू हों। और
ऊपर की तरफ
उठने में पहले
कष्ट होगा; उसको ही
हमने तप कहा
है।
जब
भी कोई पहाड़
की तरफ चढ़ेगा, तो
परेशानी होगी।
पहाड़ से उतरते
वक्त कोई
परेशानी नहीं
होती। सभी
चढ़ाव
कष्टपूर्ण
हैं। लेकिन
सभी चढ़ावों के
अंत पर
विश्राम है।
और कष्ट के
बाद जो
विश्राम है, उसका स्वाद,
उसका मूल्य
ही कुछ और है।
और
बहुत मजे की
बात है। अगर
एक हवाई जहाज
से आपको
एवरेस्ट पर
उतार दिया जाए, तो
आपको वह आनंद
कभी उपलब्ध न
होगा, जो
हिलेरी और
तेनसिह को
चढकर एवरेस्ट
पर पहुंचकर
हुआ है। आप भी
उसी जगह खड़े
हो जाएंगे
हवाई जहाज से
उतरकर, जिस
जगह हिलेरी और
तेनसिह जाकर
खड़े हुए थे।
लेकिन जो आनंद
उनको मिला था,
वह आपको न
मिलेगा।
क्योंकि आनंद
सिर्फ मंजिल
में ही नहीं
है, यात्रा
में भी है। और
यात्रा से
मंजिल अगर अलग
कर ली जाए, तो
कोरी, निस्सार,
रसहीन हो
जाती है।
इसलिए
शार्टकट
खोजने की
फिक्र नहीं
करनी चाहिए।
क्योंकि
जितना
शार्टकट आप
खोज लेंगे, उतना
ही मंजिल का
रस चला जाएगा।
यात्रा का
अपना सुख है।
और यात्रा का
सुख ही इकट्ठा
होकर मंजिल पर
उपलब्ध होता
है। जो यात्रा
से बचने की
कोशिश करता है,
वह एक दफे
पहुंच भी सकता
है। लेकिन उस
पहुंचने में
कोई भी रस न
होगा, कोई
भी रस न होगा।
जो
लोग बद्री और
केदार की यात्रा
पैदल करते रहे
थे,
उनका मजा और
था। अब बस से
जा सकते हैं, अब वह बात न
रही। कल हवाई जहाज
से सीधा
उतरेंगे; कोई
रस न रह जाएगा।
क्योंकि
यात्रा और
मंजिल दो
चीजें नहीं
हैं। यात्रा
का ही अंतिम
पडाव है मंजिल।
और जिसने
यात्रा ही काट
दी, एक
अर्थ में उसकी
मंजिल ही कट
गई।
यात्रा
के कष्ट से
भयभीत न हों, क्योंकि
मंजिल के सुख
में उसका भी
अनुदान है।
इसी
संदर्भ में एक
मित्र ने और
पूछा है कि
स्लेटर ने
चूहे के
मस्तिष्क में
इलेक्ट्रोड्स
डालकर उसके
मस्तिष्क के
विशेष तंतु
कंपित करके
संभोग का आनंद
दिलाया।
समाधि भी
अस्तित्व से
एक तरह का
संभोग है।
क्या यह संभव
नहीं है कि
मस्तिष्क के
कोई तंतु
समाधिस्थ
अवस्था में
कंपित होते
हों? और
इनकी
वैज्ञानिक
व्यवस्था की
जा सके, तो
फिर साधारण
आदमी को भी
उसके समाधि
वाले तंतुओं
को कंपित करके
समाधि का
अनुभव दिया जा
सकता है। फिर
साधना की, योग
की कोई जरूरत
न रहेगी। योग
तो कहता है कि
समाधि को
उपलव्य करने
वाला सहस्रार
चक्र तक
मस्तिष्क में
छिपा हुआ है!
निश्चित
ही,
स्लेटर
जैसे
मनोवैज्ञानिकों
का यही खयाल
अइ है कि
समाधि भी
यंत्रों के
द्वारा पैदा
की जा सकती है।
न केवल खयाल
है, बल्कि
यंत्र भी
निर्मित हो गए
हैं। न केवल
यंत्र
निर्मित हो गए
हैं, हजारों
—लाखों लोग
पश्चिम में
यंत्रों का
उपयोग भी कर रहे
हैं। कोई हजार
रुपए की कीमत
का यंत्र है।
उस यंत्र से
आप मस्तिष्क
में तार जोड़
देते हैं, यंत्र
को चला देते
हैं और यंत्र
आपके मस्तिष्क
के भीतर की
तरंगों की खबर
देने लगता है।
एक
खास तरंग, जिसको
पश्चिम में वे
अल्फा कहते
हैं, अल्का
तरंग में आदमी
ध्यान की
अवस्था में
पहुंच जाता है।
तो यंत्र खबर
देने लगता है
कि आपमें कब
अल्फा पैदा
होती है। और
जैसे ही अल्फा
पैदा होती है,
यंत्र आवाज
करता है और आप
समझ जाते हैं
कि अल्फा तरंग
पैदा हो गई।
अब इसी तरंग
में आपको ठहरे
रहना है।
यंत्र
की सहायता से
आप थोड़े दिन
में ठहरना सीख
जाते हैं।
बहुत कठिन
नहीं है। दों—चार
दिन में आप
ठहरना सीख
जाते हैं।
क्योंकि आपको
अंदाज हो जाता
है,
यंत्र खबर
देता है कि
ठीक यही चीज
अल्का है।
क्योंकि
यंत्र आवाज
करता है और आप
पहचान जाते
हैं कि अल्फा
भीतर पैदा हो
रही है। बस, अब इसी तरंग
में रुक जाना
है। एक दो—चार
दिन के अभ्यास
से।
मेरे
पास वह यंत्र
है। इधर मैं
उस पर प्रयोग
किया हूं। दों—चार
दिन के अभ्यास
से आप ध्यान
अनुभव करने
लगते हैं।
बहुत शांति और
विश्राम
अनुभव होता है।
ध्यान जो लोग
करते हैं, जब
वे ध्यान की
अवस्था में
हैं, तब यह
यंत्र लगा
दिया जाए, तो
फौरन अल्फा की
आवाज देना
शुरू कर देता
है।
तो
अब तो पश्चिम
में वे इसकी
भी जांच करने
में सफल हो गए
हैं कि कौन
आदमी ध्यान
में है, कौन
नहीं है। अब
आप झूठा दावा
नहीं कर सकते,
क्योंकि
यंत्र खबर
देगा कि आप
ध्यान में हैं
या नहीं हैं।
आप ऐसे ही
नहीं कह सकते
कि मैं ध्यान
में हूं।
क्योंकि वह
यंत्र को धोखा
नहीं दिया जा
सकता। आप धोखा
देने की कोशिश
करेंगे, फौरन
अल्फा चली
जाएगी, क्योंकि
धोखा देने का
खयाल भी बाधा
है। जरा—सा
कोई विचार आएगा,
यंत्र आवाज
बंद कर देगा।
जैसे ही विचार
बंद होंगे, यंत्र आवाज
देने लगेगा।
इस
यंत्र पर काफी
काम चल रहा है।
लेकिन इस
यंत्र से जो
पैदा होता है, वह
भी
यात्रारहित
मंजिल है। और
इसलिए एक बहुत
मजे की बात
खयाल में वहां
भी आनी शुरू
हो गई है कि इस
यंत्र से भी
अल्फा पैदा हो
जाती है और
ध्यान करने
वालों को भी
अल्का पैदा
होती है।
लेकिन ध्यान
करने वाला
कहता है, परम
आनंद मुझे मिल
रहा है। और यह
अल्फा, यंत्र
से पैदा हुआ
वाला आदमी
कहता है, मुझे
थोड़ी शांति
मालूम पड़ रही
है। दोनों के
वक्तव्य में
बुनियादी भेद
है।
ध्यान
करने वाला
कहता है, मुझे
परम आनंद मिल
रहा है। और
यंत्र दोनों
के बाबत एक ही
खबर दे रहा है
कि अल्का!
यंत्र में कोई
फर्क नहीं है।
जो समाधि का
प्रयोग कर के
पहुंचा है
उसके बाबत, और जो केवल
मशीन के साथ
तारतम्य
बिठाया है उसके
बाबत, यंत्र
एक—सी खबर
देता है।
लेकिन मशीन से
जिसने सीखा है,
वह कहता है,
मुझे थोड़ी शांति
मालूम पड़ती है।
और जो ध्यान
से आया है, वह
कहता है, मुझे
आनंद मालूम
पड़ता है। तब
बड़ी कठिनाई है।
तब
अभी विचारकों
को संदेह पैदा
होने लगा है
कि यंत्र से
जो चीज पैदा
हो रही है, वह
शायद बाह्य
रूप से एक—सी
है, लेकिन
भीतरी हिस्से
पर भिन्न है।
क्योंकि जिस
आदमी ने तीस
साल ध्यान
किया है, वह
कहता है, मुझे
परम आनंद की, परम ब्रह्म
की अनुभूति हो
रही है। और यह
मशीन से तो
तीन महीने में
उतनी स्थिति पैदा
हो जाएगी, जितनी
बुद्ध को
वर्षों में
पैदा हुई है।
महावीर को
वर्षों में—वर्षों
में भी कहना
ठीक नहीं, जन्मों
में पैदा हुई।
उतना तो तीन
महीने में यह
यंत्र पैदा कर
देगा।
लेकिन
जिन लोगों में
तीन महीने में
इस यंत्र ने
वह हालत पैदा
कर दी, वे
बुद्ध नहीं हो
जाते। न तो
उनके जीवन में
कोई परिवर्तन होता
है, न उनके
जीवन में कोई
सत्य, न
उनके जीवन में
कोई
प्रफुल्लता, न उनके जीवन
में कोई उत्सव
आता है। उनके
जीवन में वह
सुगंध नहीं
दिखाई पड़ती, जो बुद्ध के
जीवन में
दिखाई पड़ती है।
तो कुछ
बुनियादी
भीतरी फर्क
होगा। वह फर्क
क्या है? क्योंकि
यंत्र तो कहता
है, दोनों
में एक—सी
तरंगें पैदा
हो रही हैं।
वह फर्क है, यात्रा का
फर्क। वह फर्क
है, असली
फूल और बाजार
से खरीद लाए
फूल—अपने
बगीचे में
पैदा किए गए
फूल और जाकर
बाजार से एक
फूल खरीद लाएं
हैं, टूटा
हुआ, उसमें
जो फर्क है।
यह
जो यंत्र से
पैदा हो रहा
है,
यह ऊपर से
चेष्टित और
आरोपित है। मन
यह अभ्यास सीख
लेगा, और
इस यंत्र के साथ
तालमेल बिठा
लेगा। तालमेल
बैठ जाने से शांति
मालूम पड़ेगी।
और जिन लोगों
को अशांति से
तकलीफ है, उनके
लिए यंत्र
उपयोगी है।
लेकिन ध्यान
की पूर्ति
नहीं होगी।
ध्यान की
पूर्ति असंभव
है।
इसको
हम ऐसा समझें।
स्लेटर का जो
प्रयोग मैंने
आपसे कहा कि
चूहे को उसने
संभोग का
प्रयोग करा
दिया यंत्र से, और
चूहा प्रयोग
करता चला गया।
इसमें भी वही
फर्क है।
अगर
किसी स्त्री
से आपका प्रेम
है—जो जरा
मुश्किल बात
है। क्योंकि
आमतौर से तो
लोग सोचते हैं
कि सभी को प्रेम
है। प्रेम
इतनी ही कठिन
बात है, जैसा
कभी—कभी कोई
वैज्ञानिक
होता है। कभी—कभी
कोई कवि होता
है। कभी—कभी
कोई दार्शनिक
होता है। कभी—कभी
कोई चित्रकार
होता है। ऐसे
ही कभी—कभी
कोई प्रेमी
होता है।
प्रेमी भी सब
लोग होते नहीं।
अगर
सच में ही
किसी पुरुष को
किसी स्त्री
से प्रेम है, तो
उस स्त्री के
साथ संभोग में
जो आनंद उसे
उपलब्ध होगा,
वह स्लेटर
का यंत्र पैदा
नहीं करवा
सकता। ही, अगर
आपको स्त्री
से कोई प्रेम
नहीं है और आप
किसी वेश्या
के पास संभोग
करने चले गए
हैं, तो जो
आपको क्षणभर
की जो प्रतीति
होगी संभोग में—मुक्तता
की, खाली
हो जाने की, बोझ के उतर
जाने की—वह
स्लेटर के
यंत्र से भी
हो जाएगी।
यंत्र
के द्वारा भी
वह संभोग पैदा
हो सकता है, जो
उस व्यक्ति के
साथ आपको पैदा
होता है, जिससे
आपका कोई गहरा
प्रेम नहीं है।
लेकिन अगर
प्रेम है, तो
यंत्र फिर उस
संभोग को पैदा
नहीं कर सकता।
अगर
आपको सिर्फ मन
की थोड़ी—सी शांति
चाहिए, जो कि
ट्रैंक्वेलाइजर
से भी पैदा हो
जाती है, तो
वैसी ही शांति
आपको अल्फा
तरंगें पैदा
करने वाले
यंत्र से भी
पैदा हो जाएगी।
लेकिन
अगर ध्यान
आपकी कोई
आत्मिक
यात्रा है, जैसी
बुद्ध की खोज
है, महावीर
की खोज है, ऐसी
अगर कोई खोज
है, जिस पर
आपका पूरा
जीवन समर्पित
है, यह कोई
शांति की तलाश
नहीं है, सत्य
की तलाश है; यह केवल दुख
और बोझ के कम
होने की बात
नहीं है, आनंद
में स्थापित
होने की बात
है, यह कोई
कामचलाऊ
जिंदगी ठीक से
चल सके, इसलिए
थोड़ी शांति
रहे, ऐसी
व्यवस्था
नहीं है, बल्कि
परम मुक्ति
कैसे अनुभव हो,
उसकी खोज है;
तो फिर
यंत्र से यह
आनंद, यह
समाधि, यह
ध्यान उपलब्ध
नहीं होगा।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि
मैं कोई यंत्र
का विरोध कर
रहा हूं। मैं
सिर्फ इतना कह
रहा हूं कि
यंत्र का भी
उपयोग करना
अच्छा है।
उससे कम से कम शांति
तो मिलेगी। और
यह भी खयाल
आएगा कि जब
यंत्र से इतनी
शांति मिल
सकती है, तो
ध्यान से
कितनी
संभावना हो
सकती है और
समाधि से कितना...!
एक झलक उससे
मिलेगी, वह
झलक अपने आप
में बुरी नहीं
है। लेकिन अगर
कोई सोचता हो
कि यंत्र योग
की जगह ले
लेंगे, तो
भूल में है।
कोई अगर सोचता
हो कि यंत्र
प्रेम की जगह
ले लेंगे, तो
भूल में है
वह
जो आंतरिक है, उसकी
जगह कोई भी
यंत्र नहीं ले
सकता। लेकिन
अगर आपकी
जिंदगी सिर्फ
बाह्य है, तो
यंत्र उसकी
जगह ले सकते
हैं।
अब
हम सूत्र को
लें।
हे
अर्जुन, इस
प्रकार
क्षेत्र तथा
जान अर्थात
ज्ञान का साधन
और जानने
योग्य
परमात्मा का
स्वरूप संक्षेप
से कहा गया।
इसको तत्व से
जानकर मेरा
भक्त मेरे
स्वरूप को
प्राप्त होता
है।
क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ
के संबंध में, ज्ञान
और ज्ञान के
साधन के संबंध
में, कृष्ण
कहते हैं, मैंने
थोड़ी—सी बातें
कहीं। इनको
अगर कोई तत्व
से जान ले, तो
वह मेरे
स्वरूप को
प्राप्त होता
है।
तत्व
से जानकर! इसे
हम समझ लें।
एक
तो जानकारी है
सूचना की। कोई
कहता है, हम
सुन लेते हैं
और हम भी जान
लेते हैं। वह
तत्व से जानना
नहीं है। एक
जानकारी है
अनुभव की, स्वयं
के साक्षात की।
हम ही जानते
हैं। तब हम
तत्व से जानते
हैं।
एक
आदमी कहता है
कि सागर का जल
खारा है। हम
समझ गए। जल भी
हमने देखा है।
सागर भी हमने
देखा है।
खारेपन का भी
हमको पता है।
समझ गए। वाक्य
का अर्थ हमारी
समझ में आ गया
कि सागर का जल
खारा है।
लेकिन यह अर्थ
शाब्दिक है।
हमने सागर के
जल को कभी चखा
नहीं। और बिना
चखे हमें कुछ
पता न चलेगा।
चखकर जो हमें
पता चलेगा, वह
तत्व से ज्ञान
होगा। अनुभव
से अपने जो
ज्ञान होता है,
वह तत्व है।
दूसरे से भी
उसके संबंध
में खबर मिल
सकती है।
खतरा
यह है कि हम
दूसरे से मिली
खबरों को भी
अपना ज्ञान
समझ लेते हैं।
इसी तरह
दुनिया में
अनेक लोग
अज्ञानी के
अज्ञानी मर
जाते हैं, इस
भांति में कि
वे जानते हैं,
इस भ्रांति में
कि उन्हें
ज्ञान है।
रोज
मुझे ऐसे
लोगों से
मिलना हो जाता
है,
जिन्हें
शास्त्र
कंठस्थ हैं।
अगर कृष्ण भी
मिल जाएं और
फिर से उनसे
कहा जाए कि
गीता कहो, तो
दोहरा न
सकेंगे।
क्योंकि
कृष्ण को कोई
यह कंठस्थ
नहीं है। बहुत—सी
बातें छूट
जाएंगी, बहुत—सी
नई जुड़ जाएंगी।
सब ढांचा बदल
जाएगा। लेकिन
इनको जिनको
गीता कंठस्थ
है, इनसे
भूल होने का
उपाय नहीं है।
ये कृष्ण में
भी भूलें बता
सकते हैं।
क्योंकि
कृष्ण दुबारा
दोहरा न
सकेंगे। यह तो
सहजस्फूर्त
थी। मगर इनको
कंठस्थ है।
ये
जो कंठस्थ हैं, इनको
धीरे— धीरे यह
भांति पैदा हो
जाती है कि
इन्हें पता है।
ऐसा
हुआ एक बार कि
इंग्लैंड में
एक प्रतियोगिता
रखी गई।
प्रतियोगिता
यह थी कि सारी
दुनिया से
अभिनेता
आमंत्रित किए
गए थे कि वे
चार्ली
चैपलिन का अभिनय
करें। चार्ली
चैपलिन को
मजाक सूझा; उसने
सोचा मैं भी
क्यों न किसी
और नाम से
अभिनय में
सम्मिलित हो
जाऊं! मुझे तो
पुरस्कार
निश्चित है।
शक की कोई बात
ही नहीं, क्योंकि
चार्ली
चैपलिन का ही
अभिनय करना था
दूसरों को।
सारी
दुनिया में
अनेक जगह
प्रतियोगिताएं
हुईं और फिर
सौ प्रतियोगी
लंदन में
इकट्ठे हुए; किसी
को शक भी नहीं
था कि उसमें
एक चार्ली चैपलिन
भी है। वे सभी
चार्ली
चैपलिन जैसे
लग रहे थे।
वैसी ही मूंछ
लगाई थी। वैसे
ही कपड़े पहने
थे। वैसी ही
चाल चलते थे।
तो उसमें
चार्ली
चैपलिन भी छिप
गया था। वह भी
किसी दूसरे
नाम से भर्ती
हो गया था।
अगर
पता चल जाता
आयोजकों को, तो
उसे निकाल
बाहर करते।
क्योंकि उसका
तो कोई सवाल
ही नहीं था।
फिर तो
प्रतियोगिता
खराब ही हो गई।
इसलिए वह
छिपकर ही
सम्मिलित था।
मगर
कठिनाई तो तब
हुई,
जब उसको
तीसरा नंबर
मिला। और जब
पता चला कि वह
मौजूद था और
नंबर तीन आया
चार्ली
चैपलिन की नकल
करने में, तब
तो बड़ी हैरानी
हुई कि यह बात
क्या हो गई!
दूसरे लोग हाथ
मार ले गए।
क्योंकि
दूसरे लोगों
के लिए सिर्फ
नकल थी बंधी
हुई! चार्ली
चैपलिन को सहज
मामला है।
उसने कुछ नया
कर दिया होगा,
जो उसने
पहले कभी नहीं
किया था। उसी
में फंस गया
वह। क्योंकि
जो उसने पहले
नहीं किया था,
वह तो
निरीक्षकों
को भी पता
नहीं था, जजेस
को भी पता
नहीं था। और
जो उसने पहले
नहीं किया था,
वह तो
चार्ली
चैपलिन का
माना ही नहीं
जा सकता। और
उसे कभी खयाल
ही नहीं था कि
अपनी नकल कैसे
करनी। उसने
जिंदगीभर जो
भी किया था, वह सहज था।
पहली दफा उसने
नकल करने की
कोशिश की। खुद
ही हार गया
अपनी ही नकल
में! नंबर तीन पर
आया।
आप
पक्का समझिए
कि अगर कृष्ण
भी कहीं बिठा
दिए जाएं
प्रतियोगिता
में कंठस्थ
गीता वालों से, हारेंगे।
इनसे जीतने का
कोई उपाय नहीं
है। ये हाथ
मार ले जाएंगे।
क्योंकि इनको
बिलकुल
कंठस्थ है, यंत्रवत।
ज्ञान
को कंठस्थ
होने की जरूरत
ही नहीं है।
सिर्फ अज्ञान
कंठस्थ करता
है। कंठस्थ का
मतलब ही यह है
कि तुम्हें
पता नहीं है।
तुम्हारे
भीतर नहीं है।
सिर्फ कंठ में
है। शब्दों की
याददाश्त है।
हम सबको शब्द
याद हैं। और
शब्दों के याद
होने से
भ्रांति होती
है कि हमें
मालूम है।
शब्द खतरनाक
हैं। अगर बार—बार
दोहराते रहें, तो
आप ही भूल
जाते हैं कि
पता नहीं है।
ईश्वर, ईश्वर,
ईश्वर
सुनते—सुनते
ऐसा लगने लगता
है कि हमें
मालूम है कि ईश्वर
है। आत्मा, आत्मा, आत्मा
सुनते—सुनते
आप भूल ही
जाते हैं कि
आत्मा न हमें
पता है कि
क्या है, न
कोई अनुभव है,
न कोई स्वाद
है।
यह
बड़ी खतरनाक
स्थिति है। क्योंकि
शब्द एक भ्रम
पैदा कर देते
हैं,
एक हवा पैदा
कर देते हैं
चारों तरफ कि
मालूम है।
अगर
कोई आपसे पूछे, आत्मा
है? आप
फौरन कहेंगे,
हौ। बिना एक
रत्तीभर शक
पैदा हुए कि
हमें कुछ भी पता
नहीं है कि
आत्मा है या
नहीं है।
और
जितने आप
विश्वास से कह
रहे हैं, है, उतने ही
विश्वास से
रूस में किसी
से पूछो, वह
कहता है, नहीं
है। क्योंकि
बचपन से उसको
सिखाया जा रहा
है, नहीं
है, नहीं
है। आपको
सिखाया जा रहा
है, है, है।
आप दोनों एक
से हैं। जरा
भी फर्क नहीं
है। वह भी
तोते की तरह
दोहराया गया
है उसको कि
आत्मा नहीं है।
और आपको भी
तोते की तरह
दोहराया गया
है कि आत्मा
है।
ऊपर
से देखने पर
कितना फर्क
मालूम पड़ता
है! आप लगते
हैं आस्तिक और
वह रूस का
आदमी लगता है
नास्तिक। आप
दोनों एक से
हैं। न तो आप
आस्तिक हैं, न
वह नास्तिक है।
वह भी, जो
उसने सुना है,
दोहरा रहा
है। जो आपने
सुना है, आप
दोहरा रहे हैं।
फर्क क्या है?
फर्क तो
पैदा होगा, जब तत्व से
ज्ञान होगा।
सुनी
हुई बातचीतों
का कोई भी
मूल्य नहीं है।
और उसी आदमी
को मैं
बुद्धिमान
कहता हूं,
जो यह याद रख
सके कि सुनी
हुई बातें
मेरा ज्ञान
नहीं है। सुनी
हुई बातों को
एक तरफ रखे।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि सुनी
हुई बातें
बुरी हैं। यह
भी नहीं कह रहा
हूं कि सुनी
हुई बातों का
कोई उपयोग
नहीं है।
लेकिन इतना
स्मरण होना
चाहिए कि क्या
है मेरी
स्मृति और
क्या है मेरा
ज्ञान! क्या
मैंने सुना है
और क्या मैंने
जाना है!
जो
जाना है, वही
तुम्हारा है,
वही तत्व है।
जो नहीं जाना
है, सुना
है, वह
सिर्फ
धारणाएं हैं,
प्रत्यय
हैं, कंसेप्ट्स
हैं। उनसे कोई
जीवन बदलेगा
नहीं।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
जो तत्व से
जानता है, वह
मेरा भक्त
मेरे स्वरूप
को उपलब्ध हो
जाता है।
स्वभावत:, जो
तत्व से
जानेगा, वह
परम ईश्वर के
स्वरूप के साथ
एक हो ही
जाएगा। उसे
कोई बाधा नहीं
है।
और
हे अर्जुन, प्रकृति
अर्थात
त्रिगुणमयी
मेरी माया और
पुरुष अर्थात
क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को
ही तू अनादि
जान।
यह
प्रश्न
विचारणीय है
और बहुत
ऊहापोह मनुष्य
इस पर करता
रहा है।
हमारे
मन में यह
सवाल उठता ही
रहता है कि
किसने बनाया
जगत को? किसने
बनाया? कौन
है स्रष्टा? जरूर कोई
बनाने वाला है।
हमारा मन यह
मान ही नहीं
पाता कि बिना
बनाए यह जगत
हो सकता है।
बनाने वाला तो
चाहिए ही।
तो
हम बच्चों
जैसी बातें
करते रहते हैं
और हम बच्चों
जैसी बातें
प्रचारित भी
करते रहते हैं
कि जैसे
कुम्हार घडे
को बनाता है, ऐसा
स्रष्टा है
कोई, जो
सृष्टि को
बनाता है।
कृष्ण
कहते हैं, तू
दोनों को
अनादि जान, प्रकृति को
भी और पुरुष
को भी।
वे
बनाए हुए नहीं
हैं,
वे सदा से
हैं। कभी
प्रकट होते
हैं, कभी
अप्रकट।
लेकिन मिटता
कुछ भी नहीं
है और न कुछ
बनता है। कभी
दृश्य होते
हैं, कभी
अदृश्य। लेकिन
जो अदृश्य है,
वह भी है।
जो दृश्य है, वही नहीं है;
अदृश्य भी
है। आज मौजूद
है, कल गैर—मौजूद
हो जाता है।
यह गैर—मौजूदगी
भी अस्तित्व
का एक ढंग है।
यह न होना भी
होने का एक
प्रकार है।
क्योंकि
बिलकुल
परिपूर्ण रूप
से नहीं तो जो
है, वह हो
ही नहीं सकता।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
प्रकृति भी
और पुरुष भी!
वह
जो दिखाई पड़ता
है वह, और वह जो
देखता है वह, वे दोनों
अनादि हैं।
उनका कोई
प्रारंभ नहीं
है। उनके
प्रारंभ की
बात ही बचकानी
है।
एक
मित्र ने सवाल
पूछा है।
उन्होंने
पूछा है कि
विज्ञान तो
धर्म से जीत गया
संघर्ष में!
वह इसीलिए जीत
गया कि वह जो
भी कहता है, स्पष्ट
है। और धर्म
जो भी कहता है,
वह स्पष्ट
नहीं है। और
उन मित्र ने
यह कहा है कि
धर्म अभी तक
नहीं बता पाया
कि जगत को
किसने बनाया?
सृष्टि
कैसे हुई? क्यों
हुई?
उनके
प्रश्न में
थोड़ा अर्थ है।
धर्म
तो वस्तुत:
कहता है कि
जगत अनादि है; किसी
ने बनाया नहीं
है। बनाने की
बात ही बच्चों
को समझाने के
लिए है। और इस
संबंध में
विज्ञान भी
राजी है।
विज्ञान भी
कहता है कि
अस्तित्व
प्रारंभ—शून्य
है।
ईसाइयत
से विज्ञान की
थोड़ी कलह हुई।
और कलह का
कारण यह था कि
ईसाइयत ने तय
कर रखा था कि
जगत एक खास तारीख
को बना। एक
ईसाई पादरी ने
तो तारीख और
दिन सब निकाल
रखा था। जीसस
से चार हजार
चार साल पहले, फला—फलां
दिन, इतने
बजे सुबह जगत
का निर्माण
हुआ!
विज्ञान
को अड़चन और
कलह शुरू हुई
ईसाइयत के साथ।
विज्ञान और
धर्म का
संघर्ष नहीं
है। विज्ञान
और ईसाइयत में
संघर्ष हुआ जरूर, क्योंकि
ईसाइयत की
बहुत—सी
धारणाएं
बचकानी थीं।
और विज्ञान ने
कहा कि यह तो
बात एकदम गलत
है कि चार
हजार साल पहले
जीसस के
पृथ्वी बनी या
जगत बना।
क्योंकि
पृथ्वी में
ऐसे प्रमाण
उपलब्ध हैं, जो लाखों—लाखों
साल पुराने
हैं।
आदमी
लेकिन बड़ा
बेईमान है। और
आदमी अपने लिए
जो भी ठीक
मानना चाहता
है,
उसको ठीक
मान लेता है।
तरकीबें
निकाल लेता है।
जिस बिशप ने
यह सिद्ध किया
था कि जीसस के
चार हजार चार
साल पहले
पृथ्वी बनी, उसने एक
वक्तव्य
जाहिर किया।
और उसने कहा
कि हम यह
मानते हैं कि
पृथ्वी में ऐसी
चीजें मिलती
हैं, जो
लाखों साल
पुरानी हैं।
अब
यह बड़ी कठिन
बात है। अगर
पृथ्वी में
ऐसी चीजें
मिलती हैं, जो
लाखों साल
पुरानी हैं, तो पृथ्वी
कैसे बन सकती
है चार हजार
साल पहले या छ:
हजार साल पहले?
उस
बिशप ने कहा
कि भगवान के
लिए सभी कुछ
संभव है। उसने
चार हजार साल
पहले पृथ्वी
बनाई और पृथ्वी
में ऐसी चीजें
रख दीं जो
लाखों साल
पुरानी मालूम
पड़ती हैं; लोगों
की भक्ति की
परीक्षा के
लिए! कि लोग
अगर सच में
निष्ठावान
हैं, तो वे
कहेंगे, हमारी
तो निष्ठा है।
यह भगवान
हमारी
परीक्षा ले
रहा है।
ये
आदमी के
बेईमान होने
के ढंग इतने
हैं कि वह अपनी
बेईमानी में ईश्वर
तक को भी फंसा
लेता है।
ईश्वर ने बनाई
तो चार हजार
साल पहले ही
चीजें, लेकिन
ईश्वर के लिए
क्या असंभव
है! सर्व
शक्तिशाली है।
उसने उसको इस
ढंग से बनाया
कि वैज्ञानिक
धोखा खा जाते
हैं कि लाख
साल पुरानी है।
सिर्फ छांटने
के लिए कि जो
असली आस्तिक
हैं, वे
राजी रहेंगे,
और जो नकली
आस्तिक हैं, वे नास्तिक
हो जाएंगे।
उसने यह तरकीब
बिठाई।
लेकिन
कृष्ण की
धारणा बहुत
वैज्ञानिक है।
वे कहते हैं
कि प्रकृति और
पुरुष का कोई
आदि—प्रारंभ
नहीं है।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि इस जगत का
प्रारंभ नहीं
है।
इसका
फर्क समझ लें।
प्रकृति
का कोई
प्रारंभ नहीं
है,
पुरुष का
कोई प्रारंभ
नहीं है। आपके
शरीर का कोई
प्रारंभ नहीं
है और आपकी आत्मा
का भी कोई
प्रारंभ नहीं
है। लेकिन
आपका प्रारंभ
है। आपकी
आत्मा भी
अनादि है और
आपका शरीर भी
अनादि है।
क्योंकि शरीर
में क्या है
जो आपके पहले
नहीं था! सभी
कुछ था।
मिट्टी थी, हड्डी—मांस,
जो भी आपके
भीतर है, वह
सब था; किसी
रूप में था।
अगर
आपके शरीर की
सब चीजें
निकाली जाएं, तो
वैज्ञानिक
कहते हैं, कोई
चार, साढ़े
चार रुपए का
सामान उसमें
निकलता है।
अल्युमिनियम,
तांबा, पीतल
सब है। बहुत
थोड़ा— थोड़ा है।
सब निकाल लिया
जाए, तो
कोई सस्ते
जमाने में
साढ़े चार रुपए
का होता था, अब कुछ
महंगा होता
होगा। लेकिन
यह सब था।
शरीर
भी आपका अनादि
है। और आपके
भीतर जो छिपी
हुई आत्मा है, वह
भी अनादि है।
लेकिन आप
अनादि नहीं
हैं। आपका तो
जन्म हुआ।
आपका तो
म्युनिसिपल
के दफ्तर में
सब हिसाब—किताब
है। कब आप
पैदा हुए, कहां
पैदा हुए, कैसे
पैदा हुए, वह
सब है।
आप
पैदा हुए, आप
एक जोड हैं।
आप तत्व नहीं
हैं, आप एक
कंपाउंड हैं।
इलिमेंट नहीं
हैं, संयोग
हैं। संयोग का
जन्म होता है; और संयोग का
वियोग होता है,
विनाश होता
है। लेकिन जो
तत्व है, उसका
विनाश नहीं
होता। जब आप
मरेंगे, तो
शरीर अपनी
दुनिया में
लौट जाएगा
मिट्टी—पत्थर
की। और आपकी
चेतना चेतना
की दुनिया में
लौट जाएगी। वे
दोनों पहले भी
थे।
आप? आप
एक संयोग हैं
दो के। आपका
जन्म होता है,
आपका अंत
होता है।
भारतीय
मनीषा कहती है
कि न तो
प्रकृति का
कोई आदि है, न
कोई अंत है।
और न पुरुष का
कोई आदि है और
अंत है। लेकिन
संसार का आदि
और अंत है।
संसार
ऐसे ही है, जैसे
आपका शरीर और
आत्मा के
मिलने से आपका
व्यक्तित्व।
ऐसे ही इतने
सारे पुरुषों
और इस प्रकृति
के मिलने से
जो प्रकट होता
है संसार, वह
प्रारंभ होता
है और उसका
अंत होता है।
हम
जिस संसार में
रह रहे हैं, वह
सदा नहीं था।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
हमारा सूरज
कोई चार हजार
साल में ठंडा
हो जाएगा।
अरबों वर्ष से
गरमी दे रहा
है। उसकी गरमी
चुकती जा रही
है। चार हजार
साल और, और
वह ठंडा हो
जाएगा। उसके
ठंडे होते ही
पृथ्वी भी
ठंडी हो जाएगी।
फिर पौधा यहां
नहीं फूटेगा;
फिर बच्चे
यहां पैदा
नहीं होंगे, फिर श्वास
यहां नहीं
चलेगी, फिर
यहां जीवन
शून्य हो
जाएगा।
आदमी
ही नहीं मरता, पृथ्वियां
भी मरती हैं।
अभी हमारी
पृथ्वी जीवित
है, लेकिन
वह भी बुढ़ापे
के करीब पहुंच
रही है। अभी
कई पृथ्वियां
मृत हैं। अभी
कई पृथ्वियां
जन्मने के
करीब हैं। अभी
कई पृथ्वियां
जवान हैं। अभी
कई पृथ्वियां
बचपन में हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं, कम
से कम पचास
हजार ग्रहों
पर जीवन है।
पचास हजार
पृथ्वियां
हैं कम से कम, जिन पर जीवन
है। उसमें कोई
बिलकुल
बच्चों जैसी
है। अभी— अभी
उसमें काई फूट
रही है और घास
उग रहा है, अभी
और बड़ा जीवन
नहीं आया है।
कोई बिलकुल की
हो गई है; सब
सूख गया है।
आदमी भी जा
चुके हैं, प्राणी
भी जा चुके
हैं; आखिरी
काई भी सूखती
जा रही है।
कोई बिलकुल
बंजर हो गई है,
मृत। कोई
अभी गर्भ में
है; अभी
तैयारी कर रही
है। जल्दी ही
जीवन का अंकुर
उस पर फूटेगा।
पृथ्वियां
आती हैं, खो
जाती हैं।
संसार बनते
हैं, विनष्ट
हो जाते हैं।
लेकिन मूल
तत्व दो हैं, प्रकृति और
पुरुष, प्रकृति
और परमात्मा,
पदार्थ और
चैतन्य, वे
दोनों अनादि
हैं।
तब
एक सवाल उठेगा
मन में, तो
फिर हम कहते
हैं कि
ब्रह्मा, विष्णु,
महेश—ब्रह्मा
बनाता है, विष्णु
सम्हालते हैं,
महेश
मिटाते हैं—इनका
क्या अर्थ?
ये
भी सम्हालते, मिटाते,
बनाते हैं
संसारों को, अस्तित्व को
नहीं। ये भी
एक संसार को
बनाते हैं।
इसलिए
बौद्धों ने तो
अनेक ब्रह्मा
माने हैं।
क्योंकि
जितने संसार
हैं, उतने
ब्रह्मा।
क्योंकि हर संसार
को बनाने की
शक्ति का नाम
ब्रह्मा है; ब्रह्मा कोई
व्यक्ति नहीं
हैं।
सम्हालने की
शक्ति का नाम
विष्णु है; विष्णु कोई
व्यक्ति नहीं
हैं। विनष्ट
हो जाने की
संभावना का
नाम शिव है; शिव कोई
व्यक्ति नहीं
हैं।
तो
जहां—जहां
जीवन है, जीवन
का विस्तार है,
और जहां—जहां
जीवन का अंत
है, वहा—वहां
ये तीन
शक्तियां काम
करती रहेंगी।
लेकिन इन सबका
संबंध
संसारों से है।
इसलिए
बहुत मजेदार
घटना बौद्ध
कथाओं में है।
वह यह कि जब
बुद्ध को
ज्ञान हुआ, तो
जो पहला
व्यक्ति
जिज्ञासा
करने आया, वह
था ब्रह्मा।
ब्रह्मा ने
आकर सिर टेक
दिया बुद्ध के
चरणों में और
कहा कि मुझे ज्ञान
दें। हमें तो
बड़ी घबड़ाहट
होगी।
क्योंकि
ब्रह्मा
बनाने वाला
संसार का, वह
बुद्ध के
चरणों में आया
पूछने कि मुझे
ज्ञान दें!
ब्रह्मा
संसार को
बनाने वाला
जरूर है, लेकिन
संसार को वह
बनाता ही
इसलिए है कि
उसमें संसार
को बनाने की
वासना है।
बुद्ध वासना—मुक्त
हो गए। इसलिए
बुद्ध' ब्रह्मा
से ऊपर हो गए।
बुद्ध शुद्ध
पुरुष हो गए।
ब्रह्मा उनसे
नीचे रह गया।
क्योंकि
ब्रह्मा भी
बनाता है।
बनाने का अर्थ
ही है कि
कामवासना है।
जहां वासना
नहीं है, वहां
कोई सृजन न
होगा। इसलिए
हम ब्रह्मा को
मुक्त नहीं
मानते।
ब्रह्मा को भी
हम मानते हैं
कि वह भी बंधन
में है, क्योंकि
बनाने का...।
स्वभावत:, आप
एक छोटी—सी
दुकान चलाते
हैं, कितनी
मुसीबत है!
अगर ब्रह्मा
को हम समझें
और इतने सारे
संसार को
चलाता है, तो
उसकी मुसीबत
का हम अंदाज
लगा सकते हैं।
उसकी मुसीबत
का हम खयाल कर
सकते हैं।
इतना बड़ा
संसार अगर
किसी को चलाना
पड़ रहा है, तो
उसके पीछे एक
तो प्रगाढ़
कामना होनी
चाहिए, अंतहीन
वासना होनी
चाहिए। और फिर
उसका उपद्रव
और जाल भी
होगा ही।
वह
बुद्ध से कहता
है ब्रह्मा—यह
कथा मीठी है—कि
मुझे भी कुछ
जान दें, मैं
भी उलझा हूं
अभी, मेरा
मन भी शात
नहीं है। आप
जहां पहुंच गए
हैं, वहां
से कुछ अमृत
मेरे लिए भी!
लेकिन
बुद्ध चुप हैं।
और बुद्ध को
जब ज्ञान हुआ, तो
उन्हें लगा कि
अब बोलने की
क्या जरूरत।
जो जाना है, वह कहा नहीं
जा सकता। और
जो सुनने वाले
हैं, उनमें
कोई समझ भी न
पाएगा। इसलिए
व्यर्थ की
मेहनत नहीं
करनी है।
तो
ब्रह्मा उनके
पैर पर सिर रख—रखकर
बार—बार कहता
है कि आप
लोगों से कहें, क्योंकि
हम हजारों—हजारों
साल तक
प्रतीक्षा
करते हैं कि
कोई बुद्ध हो,
तो हमें कुछ
ज्ञान मिले।
हम भी कुछ जान
पाएं। हमें भी
कुछ पता चले
कि क्या है।
ब्रह्मा
का यह पूछना
बड़ा मजेदार है।
उसे भी पता
नहीं कि क्या
है। वह भी
अपनी वासना
में जी रहा है।
हम
सब छोटे—छोटे
ब्रह्मा हैं, जब
हम बनाते हैं।
और हम सब छोटे—छोटे
विष्णु हैं, जब हम
सम्हालते हैं।
और हम सब छोटे—छोटे
शिव हैं, जब
हम मिटाते हैं।
इसी को विराट
करके देखें, तो पूरे
संसार का खयाल
आ जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, लेकिन
दो मौलिक तत्व,
प्रकृति और
पुरुष अनादि
हैं। और राग—द्वेष
आदि विकारों
को तथा
त्रिगुणात्मक
संपूर्ण
पदार्थों
को भी प्रकृति
से ही उत्पन्न
हुआ जान।
और
जो कुछ भी
तुझे दिखाई
पड़ता है इस
जगत में पैदा
होता हुआ—राग—द्वेष, विकार,
त्रिगुण—यह
संपूर्ण
पदार्थ, इनको
तू प्रकृति के
ही रूप जान।
ये प्रकृति से
ही पैदा हुए
हैं।
तत्व
दो हैं, प्रकृति
और पुरुष।
बाकी जितना
फैलाव दिखाई
पड़ता है, वह
दो में से
किसी से जुड़ा
होगा। तो
कृष्ण कहते
हैं, यह
जितना
विस्तार है
माया का, त्रिगुण
का; ये जो
भी दिखाई पड़
रहे हैं
पदार्थ, इतने
रूप, इतने
रंग, इतना
परिवर्तन; ये
सब प्रकृति से
ही उत्पन्न
हुए जान। ये
प्रकृति में
ही उत्पन्न
होते हैं और
प्रकृति में
ही लीन होते
रहते हैं।
जिससे ये
उत्पन्न होते
हैं और जिसमें
लीन होते हैं,
उसी का नाम
प्रकृति है।
यह
प्रकृति शब्द
हमारा बड़ा
अदभुत है। ऐसा
शब्द दुनिया
की किसी भी
भाषा में नहीं
है। अंग्रेजी
में अक्सर हम
प्रकृति को
नेचर या क्रिएशन
से अनुवादित
करते हैं।
दोनों ही गलत
हैं। प्रकृति
शब्द का अर्थ
है,
कृति के
पहले। उसका
अर्थ है, प्रि—क्रिएशन।
शब्द बहुत
अनूठा है।
प्रकृति का अर्थ
है कि कृति के
पहले। जब कुछ
भी नहीं था, तब भी जो था।
जब कुछ भी
नहीं बना था, तब भी जो था, प्रि—क्रिएशन।
पहले जो था, सृजन के भी
पहले जो था, उसका नाम
प्रकृति है।
इसलिए
प्रकृति को
क्रिएशन तो
अनुवाद किया
ही नहीं जा सकता।
नेचर भी
अनुवाद नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि नेचर
तो,
जो हमें
दिखाई पड़ रहा
है, वह है।
प्रकृति
सांख्यों का
बड़ा अनूठा
शब्द है। उसका
अर्थ है, जो
कुछ दिखाई पड़
रहा है, यह
जब नहीं था और
जिसमें छिपा
था, उसका
नाम प्रकृति
है। जो कुछ
दिखाई पड़ रहा
है, जब यह
सब मिट जाएगा
और उसी में
डूब जाएगा
जिससे निकला
है, उसका
नाम प्रकृति
है। तो
प्रकृति है वह,
जिससे सब
निकलता है और
जिसमें सब लीन
हो जाता है।
प्रकृति है
मूल उदगम सभी
रूपों का।
क्योंकि
कार्य और कारण
के उत्पन्न
करने में हेतु
प्रकृति कही
जाती है। और
पुरुष सुख—दुखों
के भोक्तापन
में अर्थात
भोगने में हेतु
कहा जाता है।
इन
दो बातों को
बहुत गौर से
समझ लेना
चाहिए। जिनकी
साधना की
दृष्टि है, उनके
लिए बहुत काम
की है।
कार्य
और कारण के
उत्पन्न करने
में हेतु प्रकृति
कही जाती है।
और पुरुष सुख—दुखों
के भोक्तापन
में अर्थात
भोगने में हेतु
कहा जाता है।
घटनाएं घटती
हैं प्रकृति
में,
भोग की
कल्पना और
मुक्ति की
कल्पना घटती
है पुरुष में।
एक
फूल खिला। फूल
का खिलना
प्रकृति में
घटित होता है।
और अगर कोई
आदमी न हो
पृथ्वी पर, तो
फूल न तो
सुंदर होगा और
न कुरूप। या
होगा? कोई
आदमी नहीं है
जगत में, एक
फूल खिला एक
पहाड़ के
किनारे। वह
सुंदर होगा कि
कुरूप होगा? वह सुखद
होगा कि दुखद
होगा? वह
किसी को
आनंदित करेगा
कि किसी को
पीडित करेगा?
कोई है ही
नहीं पुरुष।
सिर्फ
फूल खिलेगा। न
सुंदर होगा, न
असुंदर; न
सुखद, न लेकिन
फूल खिलेगा, फूल अपने
में पूरी तरह
से खिलेगा।
फिर
एक पुरुष
प्रकट होता है।
फूल के पास
खड़ा हो जाता
है। फूल तो
प्रकृति में
खिल रहा है।
पुरुष के मन
में,
पुरुष के
भाव में, कल्पना
खिलनी शुरू हो
जाती है फूल
के साथ—साथ
समानांतर।
पुरुष कहता है,
सुंदर है।
यह सुंदर का
जो फूल खिल
रहा है, यह
पुरुष के भीतर
खिल रहा है।
फूल बाहर खिल
रहा है। यह जो
सुंदर होने का
भाव खिल रहा
है, यह
पुरुष के भीतर
खिल रहा है।
और अगर पुरुष
कहता है सुंदर
है, तो सुख
पाता है, सुख
भोगता है। अगर
पुरुष कहता है
असुंदर है, तो दुख पाता
है।
और
ऐसा नहीं है।
सुंदर और
असुंदर
धारणाओं पर
निर्भर करते
हैं। आज से सौ
साल पहले कोई
सोच भी नहीं
सकता था कि कैक्टस
के पौधे को घर
में रखेगा। सौ
साल पहले कोई
रख लेता, तो हम
उसका
पागलखाने में
इलाज करवाते।
कैक्टस का
पौधा गांव के
बाहर लोग अपने
खेत के चारों
तरफ बागुड़ लगाने
के काम में
लाते रहे हैं।
सुंदर है, ऐसा
कभी किसी ने
सोचा नहीं था।
अब
हालत ऐसी है
कि जिनको भी
खयाल है
सौंदर्य का
थोड़ा—बहुत, वे
गुलाब वगैरह
को निकाल बाहर
कर रहे हैं
घरों से, कैक्टस
के पौधे लगा
रहे हैं!
जिनको कहें
अवांगार्द जो
बहुत
आभिजात्य हैं,
जिनको
सौंदर्य का
बड़ा बोध है, या जो अपने
समय से बहुत
आगे हैं, वे
सब तरह के ऐड़े—तिरछे
काटो वाले
पौधे घरों में
इकट्ठे कर रहे
हैं। उनमें
ऐसे पौधे भी
हैं कि अगर
काटा लग जाए, तो जहर हो
जाए खून में।
लेकिन उसकी भी
चिंता नहीं है।
पौधा इतना
सुंदर है यह
कि मौत भी
झेली जा सकती है।
कोई
सोच नहीं सकता
था सौ साल
पहले कि ये
कैक्टस के
पौधे सुंदर
होते हैं। अभी
हो गए है।
ज्यादा दिन
चलेंगे नहीं।
सब फैशन है।
अभी गुलाब के
सौंदर्य की
चर्चा करना
बड़ा आर्थोडाक्स, पुराना,
दकियानूसी
मालूम पड़ता है।
कोई कहने लगे,
बड़ा सुंदर
गुलाब है। तो
लोग कहेंगे, क्या फिजूल
की बातें कर
रहे हो! कितने।
लोग कह चुके।
सब उधार है।
दुनिया हो गई,
सारा संसार
गुलाब की चर्चा
करके थक गया।
अब हटाओ गुलाब
को। आउट आफ
डेट है।
बिलकुल
तिथिबाह्य है।
कैक्टस की कुछ
बात हो।
पिकासो
ने अपनी एक
डायरी में
लिखा है कि
मैं एक स्त्री
के प्रेम में
पड़ गया हूं।
स्त्री सुंदर
नहीं है।
लेकिन उस
स्त्री में एक
धार है। सुंदर
तो नहीं है।
लेकिन फिर वह
लिखता है कि
सुंदर की भी
क्या बकवास!
यह तो बहुत
पुरानी धारणा
है। धार है, जैसे
कि काट दे, जैसे
तलवार में धार
होती है। उस
धार में मुझे
रस है।
यह
कैक्टस का
प्रेम ही होगा, जो
स्त्री तक फैल
रहा है। धार, काट दे!
सौंदर्य भी
मुरदा—मुरदा
लगता है
पुराना। अगर
कालिदास का
सौंदर्य हो, पिकासो को
बिलकुल न
जंचेगा। वह जो
कालिदास जिस
सौंदर्य की
चर्चा करता है,
कुंदन जैसे
सुंदर शरीर की,
स्वर्ण—काया
की, वह
पिकासो को
नहीं जंचेगा।
मैंने
सुना है, एक
गांव में ऐसा
हुआ कि एक
दलाल जो लोगों
की शादी
करवाने का काम
करता था, एक
युवक को बहुत
तारीफ करके एक
स्त्री
दिखाने ले गया।
उसने उसकी ऐसी
तारीफ की थी
कि जमीन पर
ऐसी सुंदर
स्त्री खोजना
ही मुश्किल है।
युवक
भी बड़े उत्साह
में,
बड़ी
उत्तेजना में
था। और कुछ भी
खर्च करने को
तैयार था शादी
के लिए। दलाल
ने इतनी बातें
बांध दी थीं, दलाल ने ऐसी
चर्चा की थी
और इतनी
कविताएं
उद्धृत की थीं,
और इतने
शास्त्रों का
उल्लेख किया
था, और
स्त्री के रंग—रूप
और एक—एक अंग
का ऐसा वर्णन
किया था कि
युवक बिलकुल उत्तेजित
था कि शीघ्रता
से मुझे ले
चलो, दर्शन
करने दो।
लेकिन
जब युवक ने
दर्शन किया, तो
उसके हाथ—पैर
ढीले पड़ गए।
उसने दलाल के
कान में कहा
कि क्या इस
स्त्री की तुम
बातें कर रहे
थे! इसको तुम
सुंदर कहते हो?
इसकी आंखें
ऐसी भयावनी
हैं, जैसे
कि भूत—प्रेत
हो। यह इतनी
लंबी नाक
मैंने कभी
देखी नहीं।
इसके दात सब
अस्तव्यस्त
हैं। इसको
किसी बच्चे को
डराने के काम
में लाया जा सकता
है। तुम इसको
सुंदर कह रहे
थे?
उस
दलाल ने कहा, तो
मालूम होता है,
तुम
दकियानूसी हो।
इफ यू डोंट
लाइक ए पिकासो,
दैट इज नाट
माई फाल्ट—और
अगर तुम
पिकासो के
चित्र पसंद
नहीं करते, तो इसमें
मेरा कोई दोष
नहीं है।
पिकासो ने ऐसे
ही चित्र बनाए
हैं। उसने कहा,
मैं तो
पिकासो जैसा—नोबल
प्राइज
पुरस्कृत
व्यक्ति—और
अगर तुम उसके
चित्र में
सौंदर्य नहीं
देख सकते, तो
मेरा कोई कसूर
नहीं है। यह
स्त्री उसी का
प्रतीक है। यह
आधुनिक बोध है।
यह तुम कहा का
दकियानूसी
खयाल रखे हुए
हो! कालिदास
पढ़ते हो? क्या
करते हो?
आदमी
के भीतर वह जो
चैतन्य है, वह
भाव निर्मित
करता है।
भोक्ता, फिर
भाव से भोगता
है।
ध्यान
रहे,
अगर आप भाव
से भोगते हैं,
तो भाव से
दुख भी पाएंगे,
सुख भी
पाएंगे, दोनों
पाएंगे। और
मजा यह है कि
फूल बाहर है।
न सुंदर है, न कुरूप है।
और यह भाव
आपका है।
तो
कृष्ण कहते
हैं कि सब
कार्य—कारण
उत्पन्न करने
में प्रकृति
है हेतु और
पुरुष सुख—दुखों
के भोक्तापन
में अर्थात
भोगने में हेतु
कहा जाता है।
सुख—दुख
तुम पैदा करते
हो,
वह प्रकृति
पैदा नहीं
करती।
प्रकृति
निष्पक्ष है।
कहना चाहिए, प्रकृति को
पता ही नहीं
है कि तुम
नाहक सुख—दुख
भोग रहे हो।
एक
फूल को पता चलता
होगा कि तुम
बड़े आनंदित हो
रहे हो कि तुम
बड़े दुखी हो
रहे हो? फूल
को कुछ पता
नहीं चलता।
फूल को कुछ
लेना—देना
नहीं है। फूल
अपने तईं खिल
रहा है।
तुम्हारे लिए
खिल भी नहीं
रहा है। तुमसे
कोई संबंध ही
नहीं है। तुम
असंगत हो।
लेकिन तुम एक
भाव 'पैदा
कर रहे हो। उस भाव
से तुम
डावाडोल हो
रहे हो। वह
भाव तुम्हारे
भीतर है।
मेरे
एक मित्र हैं।
बैठे थे एक
दिन गंगा के
किनारे मेरे
साथ। अचानक
बहुत उत्साह
में आ गए।
मैंने पूछा, क्या
हुआ? इशारा
किया, दूर
घाट पर एक
सुंदर स्त्री
की पीठ। बोले
कि मैं अब न
बैठ सकूंगा।
बड़ा अनुपात है
शरीर में। और
बाल देखते
हैं! और झुकाव
देखते हैं!
मैं जरा जाकर,
शक्ल देख
आऊं। मैंने
कहा, जाओ।
वे
गए। मैं
उन्हें देखता
रहा। बड़े
आनंदित जा रहे
थे। उनके पैर
में नृत्य था।
कोई खींचे जा
रहा है जैसे
चुंबक की तरह।
और जब वे इस
स्त्री के पास
पहुंचे, तो
भक्क से जैसे
ज्योति चली गई।
वे एक साधु
महाराज थे, वे स्नान कर
रहे थे।
लौट
आए,
बड़े हताश।
सब सुख लुट
गया। माथे पर
हाथ रखकर बैठ
गए। मैंने कहा,
क्या मामला
है? कहने
लगे, अगर
यहीं बैठा
रहता तो ही
अच्छा था।
साधु महाराज
हैं। वह बाल
से ः धोखा हुआ।
वहा स्त्री थी
नहीं।
लेकिन
उतनी देर
उन्होंने
स्त्री का सुख
लिया था, जो
वहा नहीं थी।
वह सुख उनके
अपने भीतर था।
और अगर वहीं
बैठे—बैठे चले
जाते, तो
शायद कविताएं
लिखते। क्या
करते, क्या
न करते। शायद
जिंदगीभर याद
रखते वह
अनुपात शरीर
का, वह
झुकाव, वे
गोल बांहें, वे बाल, वह
गोरा शरीर, वह जिंदगीभर
उन्हें सताता।
संयोग से बच
गए। देख लिया।
छुटकारा हुआ।
लेकिन दोनों
भाव भीतर थे।
साधु महाराज
को कुछ पता ही
नहीं चला कि
क्या हो रहा
है उनके आस—पास।
वे दोनों उनके
अपने ही भीतर
उठे थे।
सांख्य
की धारणा है, वही
कृष्ण कह रहे
हैं, कि
तुम जो भी भोग
रहे हो, वह
तुम्हारे
भीतर उठ रहा
है। बाहर
प्रकृति
निष्पक्ष है।
उसे तुम्हारा
कुछ लेना—देना
नहीं है। तुम
चाहे सुख पाओ,
तुम चाहे
दुख पाओ, तुम
ही जिम्मेवार
हो।
और
अगर यह बात
खयाल में आ
जाए कि मैं ही
जिम्मेवार हूं,
तो मुक्त होना
कठिन नहीं है।
तो फिर ठीक है,
जब मैं ही
जिम्मेवार हूं?
और प्रकृति
न तो सुख पैदा
करती है और न
दुख, मैं
ही आरोपित
करता हूं। सुख
और दुख मेरा
आरोपण है
प्रकृति के
ऊपर; सुख
और दुख मेरे
सपने हैं, जिन्हें
मैं फैलाता हूं, और फैलाकर
फिर भोगता हूं।
अपने ही हाथ
से फैलाता हूं
और खुद ही
फंसता हूं और
भोगता हूं।
अगर यह बात
खयाल में आनी
शुरू हो जाए, तो बड़ी
अदभुत क्रांति
घट सकती है।
जब
आपके भीतर सुख
का भाव उठने
लगे,
तब जरा
चौंककर खड़े हो
जाना और देखना
कि प्रकृति
कुछ भी नहीं
कर रही है, मैं
ही कुछ भाव
पैदा कर रहा
हूं। आपके
चौंकते ही भाव
गिर जाएगा।
आपके होश में
आते ही भाव
गिर जाएगा।
प्रकृति वहा
रह जाएगी, सुख—दुखरहित,
पुरुष भीतर
रह जाएगा, सुख—दुखरहित।
पुरुष
जब प्रकृति की
तरफ दौड़ता है
और आरोपित होता
है,
तो सुख—दुख
पैदा होते हैं।
और जो उस सुख—दुख
में पड़ा है, वह द्वंद्व
में और अज्ञान
में है।
सुख—दुख
के बाहर है
आनंद। आनंद है
पुरुष का स्वभाव; सुख—दुख
है आरोपण
प्रकृति पर।
सुख—दुख है, पुरुष अपने
को देख रहा है
प्रकृति में,
प्रकृति का
उपयोग कर रहा
है दर्पण की
तरह। अपनी ही
छाया को देखकर
सुखी या दुखी
होता है।
कभी—कभी
आप भी अपने
बाथरूम में
अपने को ही
आईने में
देखकर सुखी—दुखी
होते हैं। कोई
भी वहां नहीं
होता। आईना ही
होता है। अपनी
ही शक्ल होती
है। उसको ही
देखकर कभी बड़े
सुखी भी होते
हैं,
गुनगुनाने
लगते हैं गीत।
जिनके पास गले
जैसी कोई चीज
नहीं है, वे
भी बाथरूम में
गुनगुनाने से
नहीं बच पाते।
अगर कोई ऐसा
आदमी मिल जाए,
जो बाथरूम
में नहीं
गुनगुनाता, तो समझना कि
योगी है।
बाथरूम
में तो लोग
गुनगुनाते ही
हैं। वे किसको
देखकर
गुनगुनाने
लगते हैं? कौन—सी
छवि उनको ऐसा
आनंद देने
लगती है? अपनी
ही। अपने ही
साथ मौज लेने
लगते हैं।
करीब—करीब
प्रकृति के
साथ हम जो भी
खेल खेल रहे
हैं,
वह दर्पण के
साथ खेला गया
खेल है। फिर
कभी दुखी होते
हैं, कभी
सुखी होते हैं,
और वह सब
हमारा ही खेल
है, हमारा
ही नाटक है।
इसे थोडा बोध
में लेना शुरू
करें। घटनाएं
प्रकृति में
घटती हैं, भावनाएं
भीतर घटती हैं।
और भावनाओं के
कारण हम
परेशान हैं, घटनाओं के
कारण नहीं। और
बड़ा मजा यह है
कि अगर हम कभी
इस परेशानी से
मुक्त भी होना
चाहते हैं, तो हम
घटनाएं
छोड्कर भागते
हैं, भावनाओं
को नहीं छोड़ते।
एक
आदमी दुखी है
घर में, गृहस्थी
में। वह
संन्यास ले
लेता है, हिमालय
चला जाता है।
मगर उसे पता
ही नहीं है कि
वह दुखी इसलिए
नहीं था कि
वहा पत्नी है,
बच्चा है, दुकान है। उसके
कारण कोई दुखी
नहीं था। वे
तो घटनाएं हैं
प्रकृति में।
दुखी तो वह
अपनी भावनाओं
के कारण था।
भावनाएं तो
साथ चली
जाएंगी
हिमालय में भी।
और वहा भी वह
उनका आरोपण कर
लेगा।
मैंने
सुना है, एक
आदमी शांति की
तलाश में चला
गया जंगल। बड़ा
परेशान था कि
बाजार में बड़ा
शोरगुल है, बड़ा उपद्रव
है। जंगल में
जाकर वृक्ष के
नीचे खड़ा ही
हुआ था कि एक
कौए ने बीट कर
दी। सिर पर
बीट गिरी।
उसने कहा कि
सब व्यर्थ हो
गया। जंगल में
भी शांति नहीं
है!
जंगल
में भी कौए तो
बीट कर ही रहे
हैं। और कौआ
कोई आपकी
खोपड़ी देखकर
बीट नहीं कर
रहा है। न
बाजार में कोई
आपकी खोपड़ी
देखकर कुछ कर
रहा है। कहीं
कोई आपकी
फिक्र नहीं कर
रहा है।
घटनाएं घट रही
हैं। आप
भावनाग्रस्त
होकर घटनाओं
को पकड़ लेते
हैं और जकड़
जाते हैं।
और
यह तो दूर कि
असली घटनाएं
पकड़ती हैं, लोग
सिनेमा में
बैठकर रोते
रहते हैं।
लोगों के
रूमाल देखें
सिनेमा के
बाहर निकलकर,
गीले हैं। आंसू
पोंछ रहे हैं!
वह तो सिनेमा
में अंधेरा
रहता है, इससे
बड़ी सुविधा है।
सबकी नजर परदे
पर रहती है, तो पड़ोस में
कोई नहीं
देखता। और लोग
झांक लेते हैं
कि कोई नहीं
देख रहा है, अपना आंसू
पोंछ लेते हैं।
क्या
हो रहा है
परदे पर? वहा
तो कुछ भी
नहीं हो रहा
है। वहा तो
केवल धूप—छाया
का खेल है। और
आप इतने
परेशान हो रहे
हैं! आप धूप—छाया
के खेल से भी
परेशान हो रहे
हैं! अगर कोई एक
डाकू किसी का
पीछा कर रहा
है पहाड़ की
कगार पर, तो
आप तक की
श्वास रुक
जाती है। आप
सम्हलकर बैठ
जाते हैं। रीढ़
ऊंची हो जाती
है। श्वास रुक
जाती है। जैसे
कोई आपका पीछा
कर रहा है या
आप किसी का पीछा
कर रहे हैं।
और आप कुछ भी
नहीं कर रहे
हैं। आप सिर्फ
कुर्सी पर
बैठे हुए हैं।
थोड़ी देर में
प्रकाश हो
जाएगा।
साख्य
शास्त्र ने
इसको उदाहरण
की तरह लिया
है कि जैसे
कोई नर्तकी
नाचती हो, तो
उसके नाच में
जो आप रस ले
रहे हैं, वह
आपके भीतर है।
और आपके भीतर
रस है, इसलिए
नर्तकी नाच
रही है, क्योंकि
उसको लोभ है
कि आपको रस
होगा, तो
आप कुछ देंगे।
अगर आपके भीतर
रस चला जाए, नर्तकी नाच
बंद कर देगी
और चली जाएगी।
सांख्य
शास्त्र कहता
है कि जिस दिन
पुरुष रस लेना
बंद कर देता
है,
प्रकृति
उसके लिए
समाप्त हो
जाती है।
प्रकृति हट
जाती है परदे
से। उसकी कोई
जरूरत न रही।
सुख
और दुख मेरे
प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन
हैं। मैंने
उन्हें
आरोपित किया
है निष्कलुष
प्रकृति पर।
प्रकृति का
कुछ भी दोष
नहीं है।
प्रकृति में
तो घटनाएं
घटती रहती हैं।
वे घटती
रहेंगी, मैं
नहीं रहूंगा
तब भी। और मैं
नहीं था तब भी।
वे घटती ही
रहती हैं।
उनसे मेरा कुछ
लेना—देना
नहीं है।
लेकिन मैं, यह जो पुरुष
है भीतर.।
इस
पुरुष शब्द को
भी ठीक से समझ
लेना जरूरी है।
यह भी वैसा ही
अदभुत शब्द है, जैसा
प्रकृति। ये
दोनों शब्द
सांख्यों के
हैं। और
सांख्य की पकड़
बड़ी
वैज्ञानिक है।
प्रकृति
का अर्थ है, जो
कृति के पूर्व
है। और पुरुष
का अर्थ है—वह
उसी से बना है,
जिससे पुर
बनता है; नागपुर
या कानपुर में
जो पुर लगा है,
पुरुष उसी
शब्द से बना
है—पुरुष का
अर्थ है, जिसके
चारों तरफ नगर
बसा है और जो
बीच में है।
पुर के बीच
में जो है, वह
पुरुष।
तो
सारी प्रकृति
पुर है और
उसके बीच में
जो बसा है, जो
निवासी है, वह पुरुष है।
सारी घटनाएं
नगर में घट
रही हैं। और
वह बीच में जो
बसा है, अगर
होशपूर्वक
रहे, तो
उसे कुछ भी न
छुएगा, स्पर्श
भी न करेगा।
वह कुंवारा ही
आएगा और
कुंवारा ही
चला जाएगा। वह
कुंवारा ही है।
जब आप उलझ
जाते हैं, तब
भी वह कुंवारा
है, क्योंकि
उसे कुछ छू
नहीं सकता।
निर्दोषता
उसका स्वभाव
है।
इसलिए
कोई पाप पुरुष
को छूता नहीं, सिर्फ
आपकी भ्रांति
है कि छूता है।
कोई पुण्य
पुरुष को छूता
नहीं; सिर्फ
भांति है कि
छूता है। कोई
सुख—दुख नहीं
छूता। पुरुष
स्वभावत:
निर्दोष है।
लेकिन
यह जिस दिन
होश आएगा, उसी
दिन आप सजग
होकर जाग
जाएंगे और
पाएंगे कि टूट
गया वह
तारतम्य सुख—दुख
का। आप भीतर
रहते बाहर हो
गए। आप पुरुष
हो गए; पुर
के बीच पुर से
अलग हो गए।
प्रकृति
और पुरुष की
इस दृष्टि को
सिर्फ सिद्धांत
की तरह, सिद्धांत
की भाति समझने
से कोई सार
नहीं है। इसे
थोड़ा जिंदगी
में पहचानना।
कहां प्रकृति
और कहां पुरुष,
इसका बोध
रखना। और जब
प्रकृति में
पुरुष आरोपित
होने लगे, तो
चौंककर खड़े हो
जाना और
आरोपित मत
होने देना।
थोड़ी—
थोड़ी कठिनाई
होगी; शुरू—शुरू
में अड़चन
पड़ेगी।
पुरानी आदत है।
जन्मों—जन्मों
की आदत है।
पता ही नहीं
चलता और आरोपण
हो जाता है।
फूल देखा नहीं
और पहले ही कह
देते हैं, सुंदर
है; बड़ा
आनंद आया। अभी
ठीक से देखा
भी नहीं था।
अभी ठीक से
पहचाना भी
नहीं था कि
सुंदर है या नहीं।
कह दिया। रुके
थोड़ा। और
पुरुष को
आरोपित न होने
दें। आरोपण है
बंधन, और
आरोपण से
मुक्त हो जाना
है मुक्ति।
पांच
मिनट कोई उठे
नहीं। कीर्तन
में सम्मिलित
हों, और फिर
जाएं।
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