अध्याय—13
सूत्र—
अमानित्वमदम्भिन्वमीहंसा
क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योयासनं
शौचं
स्थैर्यमविनिग्रह:।।
7।।
हन्द्रियाथेषु
वैराग्यमनहंकार
एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदौषानुदर्शनम्।।
8।।
और
हे अर्जुन,
श्रेष्ठता के
अभिमान का अभाव, दंभाचरण का
अभाव,
प्राणिमात्र
को किसी
प्रकार भी न
सताना,
क्षमाभाव,
मन—वाणी की
सरलता,
श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की सेवा—
उपासना,
बाहर— भीतर की
शुद्धि, अंतःकरण
की स्थिरता, मन और इंद्रियों
सहित शरिर का
निग्रह तथा इस
लोक और परलोक
के संपूर्ण
भोगों में
आसक्ति का
अभाव और
अहंकार का भी
अभाव एवं जन्म, मृत्य्र, जरा और रोग
आदि में दोषों
का बारंबार
दर्शन करना, ये सब ज्ञान
के लक्षण हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि चेतना
के खो जाने पर
प्राप्त
समाधि क्या
मूर्च्छा की
अवस्था है? रामकृष्ण
परमहंस कई
दिनों तक मृतप्राय
अवस्था में
लेटे रहते थे!
चेतना के खो
जाने पर बहुत
बार बाहर से
मूर्च्छा जैसी
प्रतीति होती
है। रामकृष्ण
अनेक बार, हमारे
लिए बाहर से
देखने पर, अनेक
दिनों के लिए
मूर्च्छित हो
जाते थे। शरीर
ऐसे पड़ा रहता
था, जैसे
बेहोश आदमी का
हो। पानी और
दूध भी प्रयासपूर्वक,
जबरदस्ती
ही देना पड़ता
था।
जहां
तक बाहर का
संबंध है, वे
मूर्च्छित थे;
और जहां तक
भीतर का संबंध
है, वे जरा
भी मूर्च्छित
नहीं थे। भीतर
तो होश पूरा
था। लेकिन यह
होश, यह
चेतना हमारी
चेतना नहीं है।
कल
कृष्ण के
सूत्र में
हमने समझा कि
चेतना दो तरह
की हो सकती है।
एक तो चेतना
जो किसी वस्तु
के प्रति हो
और किसी वस्तु
के द्वारा
पैदा हुई हो।
चेतना, जो कि किसी
वस्तु का
प्रत्युत्तर
हो। आप बैठे
हैं, कोई
जोर से आवाज
करता है; आपकी
चेतना उस तरफ
खिंच जाती है,
ध्यान
आकर्षित होता
है। आप बैठे
हैं, मकान
में आग लग जाए,
तो सारा जगत
भूल जाता है।
आपकी चेतना
मकान में आग
लगी है, उसी
तरफ खिंच जाती
है। मकान में
आग लगी हो, तो
आप बहुत चेतन
हो जाएंगे, अगर नींद भी
आ रही हो, तो
खो जाएगी।
आपको ऐसी
एकाग्रता कभी न
मिली होगी, जैसी मकान
में आग लग जाए,
तो तब
मिलेगी। आपने
लाखों बार
कोशिश की होगी
कि सारी
दुनिया को
भूलकर कभी
क्षणभर को परमात्मा
का ध्यान कर
लें। लेकिन जब
भी ध्यान के
लिए बैठे
होंगे, हजार
बातें उठ आई
होंगी, हजार
विचार आए
होंगे। एक
परमात्मा के
विचार को
छोड्कर सभी
चीजों ने मन
को घेर लिया
होगा। लेकिन
मकान में आग
लग गई हो, तो
सब भूल जाएगा।
सारा संसार
जैसे मिट गया।
मकान में लगी
आग पर ही
चित्त एकाग्र
हो जाएगा।
यह भी
चेतना है।
लेकिन यह
चेतना बाहर से
पैदा हुई है; यह बाहर
की चोट में
पैदा हुई है; यह बाहर पर
निर्भर है। तो
कृष्ण ने कहा
कि ऐसी चेतना
भी शरीर का ही
हिस्सा है। वह
भी क्षेत्र है।
फिर क्या ऐसी
भी कोई चेतना
हो सकती है, जो किसी चीज
पर निर्भर न
हो, जो
किसी के
द्वारा पैदा न
होती हो, जो
हमारा स्वभाव
हो? स्वभाव
का अर्थ है कि
किसी कारण से
पैदा नहीं होगी;
हम हैं, इसलिए
है, हमारे
होने में ही
निहित है।
जब कोई
आवाज करता है
और आपका ध्यान
उस तरफ जाता
है, तो
यह ध्यान का
जाना आपके
होने में
निहित नहीं है।
यह आवाज के
द्वारा
प्रतिपादित
हुआ है, यह
बाई—प्रोडक्ट
है; यह
आपका स्वभाव
नहीं है।
ऐसा
सोचें कि बाहर
से कोई भी
संवेदना नहीं
मिलती, बाहर कोई
घटना नहीं
घटती, और
फिर भी आपका
होश बना रहता
है। इस चेतना
को हम आत्मा
कहते हैं। और
बाहर से पैदा
हुई जो चेतना
है, वह
धारणा है, ध्यान
है। कृष्ण ने
उसे भी शरीर
का हिस्सा
माना है।
रामकृष्ण
जब बेहोश हो
जाते थे, तो उनकी
धृति खो गई, उनका ध्यान
खो गया, उनकी
धारणा खो गई।
अब बाहर कोई
कितनी भी आवाज
करे, तो
उनकी चेतना
बाहर न आएगी।
लेकिन अपने
स्वरूप में वे
लीन हो गए हैं;
अपने
स्वरूप में वे
परिपूर्ण
चैतन्य हैं।
जब उनकी समाधि
टूटती थी, तो
वे रोते थे और
वे चिल्ला—चिल्ला
कर कहते थे कि
मां मुझे वापस
वहीं ले चल। यहां
कहां तूने
मुझे दुख में
वापस भेज
दिया! उसी
आनंद में मुझे
वापस लौटा ले।
जिसको
हम मूर्च्छा
समझेंगे, वह उनके लिए
परम आनंद था।
बाहर से सब
इंद्रियां
भीतर लौट गई
हैं। बाहर जो
ध्यान जाता था,
वह सब वापस
लौट गया। जैसे
गंगा
गंगोत्री में
वापस लौट गई।
वह जो चेतना
बाहर आती थी
दरवाजे तक, अब नहीं आती;
अपने में
लीन और घिर हो
गई।
हमारे
लिए तो रामकृष्ण
मूर्च्छित ही
हो गए। और अगर
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिकों
से पूछें, तो वे
कहेंगे, हिस्टीरिकल
है; यह
घटना
हिस्टीरिया
की है।
क्योंकि
पश्चिम के
मनोविज्ञान
को अभी भी उस दूसरी
चेतना का कोई
पता नहीं है।
अगर
रामकृष्ण
पश्चिम में
पैदा होते, तो
उन्हें
पागलखाने ले
जाया गया होता।
और जरूर
मनसविदों ने
उनकी
चिकित्सा की
होती और
जबरदस्ती होश
में लाने के
प्रयास किए
जाते।
एक्टीवायजर
दिए जाते, जिनसे
कि वे ज्यादा
सक्रिय हो
जाएं।
इंजेक्शन
लगाए जाते, शरीर में
हजार तरह की
कोशिश की जाती,
ताकि चेतना
वापस लौट आए।
क्योंकि
पश्चिम का
मनोविज्ञान
बाहर की चेतना
को ही चेतना
समझता है।
बाहर की चेतना
खो गई, तो
आदमी मूर्च्छित
है, मरने
के करीब है।
रोमां
रोला ने लिखा
है कि सौभाग्य
की बात है कि
रामकृष्ण
पूरब में पैदा
हुए, अगर
पश्चिम में
पैदा होते, तो हम उनका
इलाज करके
उनको ठीक कर
लेते। ठीक कर
लेने का मतलब
कि उन्हें हम
साधारण आदमी
बना लेते, जैसे
आदमी सब तरफ
हैं। और वह जो
परम अनुभूति
थी, उसको
पश्चिम में
कोई भी पहचान
न पाता।
पश्चिम
का एक बहुत
बड़ा विचारक और
मनोवैज्ञानिक
है, आर.
डी. लैंग। आर
.डी लैग का
कहना है कि
पश्चिम में
जितने लोग आज
पागल हैं, वे
सभी पागल नहीं
हैं; उनमें
कुछ तो ऐसे
हैं, जो
किसी पुराने
जमाने में संत
हो सकते थे।
लेकिन वे
पागलखानों
में पड़े हैं।
क्योंकि
पश्चिम की समझ
भीतर की चेतना
को स्वीकार
नहीं करती। तो
बाहर की चेतना
खो गई, कि
आदमी
विक्षिप्त
मान लिया जाता
है।
हम
रामकृष्ण को
विमुक्त मानते
हैं। फर्क
क्या है? हिस्टीरिया
और रामकृष्ण
की मूर्च्छा
में फर्क क्या
है? जहां
तक बाहरी
लक्षणों का
संबंध है, एक
से हैं।
रामकृष्ण के
मुंह से भी
फसूकर गिरने
लगता था, हाथ—पैर
लकड़ी की तरह
जकड़ जाते थे, मुर्दे की
भाति वे पड़
जाते थे। हाथ—पैर
में पहले कंपन
आता था, जैसे
हिस्टीरिया
के मरीज को
आता है। और
इसके बाद वे
जड़वत हो जाते
थे। सारा होश
खो जाता था।
अगर उस समय हम
उनके पैर को
भी काट दें, तो उनको पता
नहीं चलेगा।
यही तो
हिस्टीरिया
के मरीज को भी
घटित होता है।
कोमा में पड़
जाता है, बेहोशी
में पड़ जाता
है। लेकिन
फर्क क्या है?
इस
घटना में ऊपर
से देखने में
तो कोई फर्क
नहीं है। और
अगर हम
चिकित्सक के
पास जाएंगे, तो वह भी
कहेगा, यह
भी
हिस्टीरिया
का एक प्रकार
है। लेकिन
भीतर से बड़ा
फर्क है।
क्योंकि
हिस्टीरिया
का मरीज जब
वापस लौटता है
अपनी
मूर्च्छा से,
तो वही का
वही होता है
जो मूर्च्छा
के पहले था।
रामकृष्ण जब
अपनी
मूर्च्छा से
वापस लौटते हैं,
तो वही नहीं
होते जो
मूर्च्छा के
पहले थे। वह
आदमी खो गया।
अगर वह
आदमी क्रोधी
था, तो
अब यह आदमी
क्रोधी नहीं
है। अगर वह
आदमी अशांत था,
तो अब यह
आदमी अशांत
नहीं है। अगर
वह आदमी दुखी
था, तो अब
यह आदमी दुखी
नहीं है। अब
यह परम आनंदित
है।
हिस्टीरिया
का मरीज तो
हिस्टीरिया
की बेहोशी के
बाद वैसा का
वैसा ही होता
है, जैसा
पहले था। शायद
और भी विकृत
हो जाता है।
बीमारी उसे और
भी तोड़ देती
है। लेकिन
समाधि में गया
व्यक्ति नया
होकर वापस लौटता
है; पुनरुज्जीवित
हो जाता है।
उसके जीवन में
नई हवा और नई
सुगंध और नया
आनंद फैल जाता
है। पश्चिम
में वे लक्षण
से सोचते हैं;
हम परिणाम
से सोचते हैं।
हम कहते हैं
कि समाधि के
बाद जो घटित
होता है, वही
तय करने वाली
बात है कि
समाधि समाधि
थी या मूर्च्छा
थी।
रामकृष्ण
सोने के होकर
वापस आते। और
जिस मूर्च्छा
से कचरा जल
जाता हो और
सोना निखर आता
हो, उसको
मूर्च्छा
कहना उचित
नहीं है। वह
जो रामकृष्ण
का
वासनाग्रस्त
व्यक्तित्व था,
वह समाप्त
हो जाता है; और एक
अभूतपूर्व, एक परम
ज्योतिर्मय
व्यक्तित्व
का जन्म होता है।
तो जिस
मूर्च्छा से
ज्योतिर्मय
व्यक्तित्व
का जन्म होता
हो, उसको
हम बीमारी न
कहेंगे; उसको
हम परम
सौभाग्य
कहेंगे।
परिणाम से
निर्भर होगा।
रामकृष्ण
की बेहोशी
बेहोशी नहीं
थी। क्योंकि
अगर वह बेहोशी
होती, तो
रामकृष्ण का
वह जो दिव्य
रूप प्रकट हुआ,
वह प्रकट
नहीं हो सकता
था। बेहोशी से
दिव्यता पैदा नहीं—होती।
दिव्यता तो।
परम चैतन्य से
ही पैदा होती
है; परम
होश से ही
पैदा होती है।
पर हमारे लिए
देखने पर तो
रामकृष्ण
बेहोश हैं।
लेकिन भीतर वे
परम होश में
हैं।
ऐसा
समझें कि
द्वार—दरवाजे
सब बंद हो गए
जहां से
किरणें बाहर
आती थीं होश
की।
इंद्रियां सब शांत
हो गईं और
भीतर का दीया
भीतर ही जल
रहा है; उसकी कोई
किरण बाहर
नहीं आती।
इसलिए हम
पहचान नहीं
पाते। लेकिन
यह बेहोशी
बेहोशी नहीं
है। अगर फिर
भी कोई जिद्द
करना चाहे कि
यह बेहोशी ही
है, तो यह
बडी
आध्यात्मिक
बेहोशी है। और
यह शब्द उचित
नहीं है। हम
तो इसे परम
होश कहते हैं।
और पश्चिम के
मनोविज्ञान
को आज नहीं कल
यह भेद
स्वीकार करना
पड़ेगा। इस
संबंध में
खोजबीन शुरू
हो गई है।
अभी तक
तो फ्रायड के
प्रभाव में
उन्होंने संतों
को और पागलों
को एक ही साथ
रख दिया था।
जीसस के संबंध
में ऐसी
किताबें लिखी
हैं पश्चिम
में
मनोवैज्ञानिकों
ने, जिनमें
सिद्ध करने की
कोशिश की है
कि जीसस भी न्यूरोटिक
थे, विक्षिप्त
थे।
स्वभावत:, कोई आदमी
जो कहता है, मैं ईश्वर
का पुत्र हूं
हमें पागल ही
मालूम पड़ेगा।
कोई आदमी जो
यह दावा करता
है कि मैं
ईश्वर का पुत्र
हूं हमें पागल
मालूम पड़ेगा।
या तो हम
समझेंगे कि
धूर्त है या
हम समझेंगे
पाखंडी है या
हम समझेंगे
पागल है। कौन
आदमी अपने होश
में दावा
करेगा कि मैं
ईश्वर का
पुत्र हूं!
जीसस के
वक्तव्य पागल
के वक्तव्य
मालूम होते
हैं।
लेकिन
जो व्यक्ति भी
भीतर की चेतना
को अनुभव करता
है, ईश्वर
का पुत्र तो
छोटा वक्तव्य
है, वह
ईश्वर ही है।
मंसूर या
उपनिषद के ऋषि
जब कहते हैं, अहं
ब्रह्मास्मि,
हम ब्रह्म
हैं, तो
पश्चिम का
मनोवैज्ञानिक
समझेगा कि बात
कुछ गड़बड़ हो
गई; दिमाग
कुछ खराब हो
गया।
उनका
सोचना भी ठीक
है, क्योंकि
ऐसे पागल भी
हैं। आज
पागलखानों
में अगर खोजने
जाएं, तो
बहुत—से पागल
हैं। कोई पागल
कहता है, मैं
अडोल्फ हिटलर
हूं। कोई पागल
कहता है कि
मैं बैनिटो
मुसोलिनी हूं।
कोई पागल कहता
है कि मैं
स्टैलिन हूं।
कोई पागल कहता
है, मैं
नेपोलियन हूं।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि एक आदमी
ने बर्ट्रेंड
रसेल को पत्र
लिखा।
बर्ट्रेंड
रसेल की एक
किताब प्रकाशित
हुई, उसमें
उसने कुछ
जूलियस सीजर
के संबंध में
कोई बात कही
थी। एक आदमी
ने पत्र लिखा
कि आपकी किताब
बिलकुल ठीक है,
सिर्फ एक
वक्तव्य गलत
है।
रसेल
को आश्चर्य
हुआ। क्योंकि
किताब में
बहुत—सी क्रांतिकारी
बातें थीं, जो लोगों
को पसंद नहीं
पड़ेगी। यह कौन
आदमी है, जो
कहता है कि सब
ठीक है, सिर्फ
एक बात गलत है!
तो रसेल ने
उसे निमंत्रण दिया
कि तुम भोजन
पर मेरे घर आओ।
मैं भी जानना
चाहूंगा कि
जिस आदमी को
मेरी सारी
बातें ठीक लगी
हैं, उसे
कौन—सी बात
गलत लगी! वह
मेरे लिए भी
विचारणीय है।
रसेल
ने प्रतीक्षा
की। सांझ को
वह आदमी आया।
उसने कहा, बाकी
किताब बिलकुल
ठीक है। मैं
आपकी सब
किताबें पढ़ता
रहा हूं। सभी
किताबें ठीक
हैं। पर एक
बात इसमें
आपने बिलकुल
गलत लिखी है।
रसेल
ने बड़ी
जिज्ञासा, उत्सुकता
से पूछा कि
कौन—सी बात
गलत लिखी है? तो उसने कहा
कि आपने किताब
में लिखा है
कि जूलियस सीजर
मर गया है। यह
गलत है!
जूलियस
सीजर को मरे
सैकड़ों साल हो
गए हैं। रसेल
बहुत चौंका कि
उसने गलती भी
क्या खोजी है
कि जूलियस
सीजर मर गया
है, यह
आपने लिखा है,
यह बिलकुल
गलत है। तो
रसेल ने पूछा,
आपके पास
प्रमाण? उसने
कहा कि प्रमाण
की क्या जरूरत
है! मैं जूलियस
सीजर हूं।
मनोविज्ञान
कहेगा, यह आदमी
पागल है।
लेकिन मैसूर
कहता है, मैं
ब्रह्म हूं।
उपनिषद के ऋषि
कहते हैं, हम
स्वयं
परमात्मा हैं।
रामतीर्थ ने
कहा है कि यह
सृष्टि मैंने
ही बनाई है; ये चांद—तारे
मैंने ही चलाए
हैं।
रामतीर्थ से
कोई पूछने आया
कि सृष्टि
किसने बनाई? तो रामतीर्थ
ने कहा, क्या
पूछते हो!
मैंने ही बनाई
है।
निश्चित
ही, यह
स्वर भी
पागलपन का
मालूम पड़ता है।
और ऊपर से
देखने पर, जो
आदमी कहता है,
मैं जूलियस
सीजर हूं वह
कम पागल मालूम
पड़ता है बजाय
रामतीर्थ के,
जो कहते हैं,
ये चांद—तारे?
ये मैंने ही
इन्हीं
अंगुलियों से
चलाए हैं। यह
सृष्टि मैंने
ही बनाई है।
ये
वक्तव्य
बिलकुल एक से
हैं ऊपर से और
भीतर से
बिलकुल भिन्न
हैं। और
भिन्नता का
प्रमाण क्या
होगा? भिन्नता
का प्रमाण यह
होगा कि यह
जूलियस सीजर जो
अपने को कह
रहा है, यह
दुखी है, पीड़ित
है, परेशान
है। इसे नींद
नहीं है, चैन
नहीं है, बेचैन
है। और यह जो
रामतीर्थ कह
रहे हैं कि
जगत मैंने ही बनाया,
ये परम आनंद
और परम शांति
में हैं।
ये
क्या कह रहे
हैं, इस
पर निर्भर
नहीं करता। ये
क्या हैं, उसमें
खोजना पड़ेगा।
और आप भला
नहीं कहते कि
जूलियस सीजर
हैं या महात्मा
गांधी हैं या
जवाहरलाल नेहरू
हैं, ऐसा
आप कोई दावा
नहीं करते, तो भी आप ठीक
होश में नहीं
हैं, तो भी
आप विक्षिप्त
हैं। और
रामतीर्थ यह
दावा करके भी
विक्षिप्त
नहीं हैं कि
जगत मैंने ही
बनाया है।
रामतीर्थ का यह
वक्तव्य किसी
बड़ी गहरी अनुभुति
की बात है।
रामतीर्थ
यह कह रहे हैं
कि इस जगत की
जो परम चेतना
है, वह
मेरे भीतर है।
जिस दिन उसने
इस जगत को
बनाया, मैं
भी उसमें सम्मिलित
था। मेरे बिना
यह जगत भी
नहीं बन सकता,
क्योंकि
मैं इस जगत का
हिस्सा हूं।
और परमात्मा
ने जब यह जगत
बनाया, तो
मैं उसके भीतर
मौजूद था।
मेरी मौजूदगी
अनिवार्य है;
क्योंकि
मैं मौजूद हूं।
इस जगत
में कुछ भी
मिटता नहीं।
विनाश असंभव
है। एक रेत के
कण को भी नष्ट
नहीं किया जा
सकता। वह
रहेगा ही। आप
कुछ भी करो, मिटाओ, तोड़ो, फोड़ो,
कुछ भी करो,
वह रहेगा; उसके
अस्तित्व को
मिटाया नहीं
जा सकता। जो
चीज अस्तित्व
में है, वह
शून्य में
नहीं जा सकती।
तो
चेतना कैसे
शून्य में जा
सकती है! मैं
हूं इसका अर्थ
है कि मैं था
और इसका अर्थ
है कि मैं रहूंगा।
कोई भी हो रूप, कोई भी हो
आकार, लेकिन
मेरा विनाश
असंभव है।
विनाश घटता ही
नहीं। जगत में
केवल
परिवर्तन
होता है, विनाश
होता ही नहीं।
न तो कोई चीज
निर्मित होती
है और न कोई
चीज विनष्ट
होती है। केवल
चीजें बदलती
हैं, रूपांतरित
होती हैं, नए
आकार लेती हैं,
पुराने
आकार छोड़ देती
हैं। लेकिन
विनाश असंभव
है।
विज्ञान
भी स्वीकार
करता है कि
विनाश संभव नहीं
है। धर्म और
विज्ञान एक
बात में राजी
हैं, विनाश
असंभव है।
तो
रामतीर्थ अगर
यह कहते हैं
कि मैंने ही
बनाया था, तो यह
वक्तव्य बड़ा
अर्थपूर्ण है।
यह किसी पागल
का वक्तव्य
नहीं है। सच
तो यह है कि उस
आदमी का
वक्तव्य है, जो पागलपन
के पार चला
गया है। और जो
अब यह देख
सकता है, अनंत
श्रृंखला
जीवन की, और
जो अब अपने को
अलग नहीं
मानता है, उस
अनंत
श्रृंखला का
एक हिस्सा
मानता है।
बाहर
से देखने पर
बहुत बार
पागलों के
वक्तव्य और
संतों के
वक्तव्य एक से
मालूम पड़ते
हैं; भीतर
से खोजने पर
उनसे ज्यादा
भिन्न
वक्तव्य नहीं
हो सकते।
इसलिए पश्चिम
में अगर धर्म
की
अप्रतिष्ठा
होती जा रही है,
तो उसमें
सबसे बड़ा कारण
मनोविज्ञान
की अधूरी खोजें
हैं।
मनोविज्ञान
जो बातें कहता
है, वे आधी
हैं और आधी
होने से
खतरनाक हैं।
साधारण
आदमी बीच में
है। साधारण
आदमी से जो
नीचे गिर जाता
है, पागल
हो जाता है।
वह भी
एबनार्मल है,
वह भी
असाधारण है।
साधारण आदमी
से जो ऊपर चला
जाता है, वह
भी एबनार्मल
है, वह भी
असाधारण है।
और पश्चिम
दोनों को एक
ही मान नेता
है। साधारण
आदमी से नीचे
कोई गिर जाए, तो पागल हो
जाता है; ऊपर
कोई उठ जाए तो
महर्षि हो
जाता है।
दोनों असाधारण
हैं; दोनों
साधारण नहीं
हैं। और
पश्चिम की यह
मूलभूत
भ्रांत धारणा
है कि साधारण
स्वस्थ है।
इसलिए साधारण
से जो भी हट
जाता है, वह
अस्वस्थ है।
तो
रामकृष्ण
अस्वस्थ हैं, बीमार
हैं, पैथालाजिकल
हैं। उनका
इलाज होना
चाहिए। हमने
जिनकी पूजा की
है, पश्चिम
उनका इलाज
करना चाहेगा।
लेकिन
पश्चिम में भी
विरोध के स्वर
पैदा होने शुरू
हो गए हैं। और
पश्चिम में भी
नए
मनोवैज्ञानिकों
की एक कतार
खड़ी होती जा
रही है, जो कह रही है
कि हमारी समझ
में भांति है।
और हम बहुत—से
लोगों को
इसलिए पागल
करार देते हैं
कि हमें पता
ही नहीं कि हम
क्या कर रहे
हैं। उनमें
बहुत—से लोग
असाधारण
प्रतिभा के
हैं।
एक
बहुत मजे की
बात है कि
असाधारण
प्रतिभा के
लोग अक्सर
पागल हो जाते
हैं। इसलिए
पागलपन में और
असाधारण
प्रतिभा में
कोई संबंध
मालूम पड़ता है।
अगर पिछले
पचास वर्षों
के सभी
असाधारण
व्यक्तियों
की आप खोजबीन
करें, तो
उनमें से पचास
प्रतिशत कभी न
कभी पागल हो गए।
पचास प्रतिशत!
और जो उनमें
श्रेष्ठतम है,
वह जरूर एक
बार पागलखाने
हो आता है।
निजिंस्की या
वानगाग या
मायकोवस्की, नोबल प्राइज
पाने वाले
बहुत—से लोग
जिंदगी में
कभी न कभी
पागल होने के
करीब पहुंच
जाते हैं या
पागल हो जाते
हैं। क्या
कारण होगा? कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
हमारे पागलपन
की व्याख्या
में कुछ भूल
है?
असाधारण
प्रतिभा का
आदमी ऐसी
चीजें देखने
लगता है, जो साधारण
आदमी को दिखाई
नहीं पड़ती।
इसलिए साधारण
आदमियों से
उसका संबंध
टूट जाता है।
असाधारण
प्रतिभा का
आदमी ऐसे
अनुभव से
गुजरने लगता
है, जो
सबका अनुभव
नहीं है। वह
अकेला पड़ जाता
है। अगर वह
आपसे कहे, तो
आप भरोसा नहीं
करेंगे।
जीसस
कहते हैं कि
शैतान मेरे
पास खड़ा हो
गया और मेरे
कान में कहने
लगा कि तू ऐसा
काम कर। मैंने
कहा, हट
शैतान!
अगर
कोई आदमी—आपकी
पत्नी, आपका पति
आपसे आकर कहे
कि आज रास्ते
पर अकेला था, शैतान मेरे
पास में आ गया
और कान में
कहने लगा, ऐसा
कर। तो आप
फौरन संदिग्ध
हो जाएंगे।
फोन उठाकर
डाक्टर को खबर
करेंगे कि कुछ
गड़बड़ हो गई है।
अगर
आपके पति ऐसी
खबर दें..। ऋषि
कहते हैं, देवताओं
से उनकी बात
हो रही है।
अगर आपकी
पत्नी आपसे
कहे कि आज सुबह
इंद्र देवता
से चर्चा हो
गई, तो आप
क्या करिएगा?
दफ्तर
जाइएगा? फिर
दफ्तर नहीं
जाएंगे। आप
चिंता में पड़
जाएंगे कि अब
बाल—बच्चों का
क्या होगा! यह
स्त्री पागल
हो गई।
और अगर
यह आपकी
दृष्टि पत्नी
या पति के
बाबत है, तो आप कितनी
ही बातें करते
हों, आप
उपनिषद और वेद
पढ़कर मान नहीं
सकते कि ये
बातें
ज्ञानियों की
हैं। आप कितनी
ही श्रद्धा
दिखाते हों, वह झूठी
होगी।
क्योंकि भीतर
तो आप समझेंगे
कि कुछ दिमाग
इनका खराब है।
कहां देवता!
कहा देविया!
यह सब क्या हो
रहा है?
रामकृष्ण
बातें कर रहे
हैं काली से।
घंटों उनकी
चर्चा हो रही
है। अगर आप
देख लेते, तो आप
क्या समझते? आपको तो
काली दिखाई
नहीं पड़ती।
आपको तो सिर्फ
रामकृष्ण
बातें करते
दिखाई पड़ते।
तो आप
पागलखाने में
देख सकते हैं, लोग बैठे
हैं, अकेले
बातें कर रहे
हैं, बिना
किसी के।
दोनों तरफ से
जवाब दे रहे
हैं। तो
स्वभावत: यह
खयाल उठेगा कि
कुछ
विक्षिप्तता
है।
विक्षिप्तता
में और
असाधारणता
में कुछ संबंध
मालूम पड़ता है।
या फिर हमारी
व्याख्या की
भूल है।
असाधारण
व्यक्ति ऐसी
चीजों को देख
लेते हैं, जो
साधारण
व्यक्तियों
को कभी दिखाई
नहीं पड़ सकतीं;
और ऐसे
अनुभव को
उपलब्ध हो
जाते हैं, जिसका
साधारण
व्यक्ति को
कभी स्वाद
नहीं मिलता।
फिर वे ऐसी
बातें कहने
लगते हैं, जो
साधारण
व्यक्ति के
समझ के पार
पड़ती हैं। फिर
उनके जीवन में
ऐसी घटनाएं
होने लगती हैं,
जो हमारे
तर्क, हमारे
नियम, हमारी
व्यवस्था को
तोड़ती हैं।
हमारी
जिंदगी एक
राजपथ है, बंधा हुआ
रास्ता है।
असाधारण लोग
रास्ते से
नीचे उतर जाते
हैं; पगडंडियों
पर चलने लगते
हैं। और ऐसी
खबरें लाने
लगते हैं, जिनका
हमें कोई भी
पता नहीं है, जो हमारे
नक्शों में
नहीं लिखी हैं,
जो हमारी
किताबों में
नहीं हैं, जो
हमारे अनुभव
में नहीं हैं।
पहली बात यही
खयाल में आती
है कि इस आदमी
का दिमाग खराब
हो गया।
रामकृष्ण
भी पागल मालूम
पड़ेंगे।
रामकृष्ण ही
क्यों, रामकृष्ण
जैसे जितने
लोग हुए हैं
दुनिया में कहीं
भी, वे सब
पागल मालूम
पड़ेंगे।
लेकिन एक फर्क
खयाल रख लेंगे,
तो भेद साफ
हो जाएगा। अगर
कोई पागलपन
आपको शुद्ध कर
जाता हो, अगर
कोई पागलपन
आपको मौन और शांत
और आनंदित कर
जाता हो, अगर
कोई पागलपन
आपको जीवन के
उत्सव से भर
जाता हो, अगर
कोई पागलपन
आपके जीवन को
चिंता और
वासना से
छुटकारा दिला
देता हो, अगर
कोई पागलपन
आपके जीवन में
संसार का जो
बंधन है, जो
कष्ट है, जो
पीड़ा है, जो
जंजीरें हैं,
उन सब को
तोड़ देता हो, तो ऐसा
पागलपन
सौभाग्य है और
परमात्मा से
ऐसे पागलपन की
प्रार्थना
करनी चाहिए।
और अगर
कोई समझदारी
आपकी जिंदगी
को तकलीफों से
भर देती हो, और कोई
समझदारी आपकी
जिंदगी को
पीड़ा और तनाव
से घेर देती
हो, और कोई
समझदारी आपकी
जिंदगी को
कारागृह बना देती
हो, और कोई
समझदारी आपको
सिवाय दुख और
सिवाय नर्क के
कहीं न ले जाती
हो, तो
परमात्मा से
प्रार्थना
करनी चाहिए कि
ऐसी समझदारी
से मेरा
छुटकारा हो।
यही
मैं मूर्च्छा
के लिए भी
कहूंगा। कोई
मूर्च्छा अगर
आपके जीवन में
आनंद की झलक ले
आती हो, तो वह
मूर्च्छा
चैतन्य से
ज्यादा कीमती
है। और सिर्फ
कोई होश आपको
निरंतर तोड़ता
जाता हो, तनाव
और चिंता से
और संताप से
भरता हो, तो
वह होश
मूर्च्छा से
बदतर है।
कसौटी
क्या है? कसौटी है
आपका अंतिम फल,
क्या आप हो
जाते हैं। ऊपर
के लक्षण
बिलकुल मत
देखें।
परिणाम क्या
होता है! अंत
में आपके जीवन
में कैसे भूल
लगते हैं!
तो
रामकृष्ण के
जीवन में जो
फूल लगते हैं, वे किसी
पागल के जीवन
में नहीं लगते।
रामकृष्ण के
जीवन से जो
सुगंध आती है,
वह किसी
मूर्च्छित, कोमा में, हिस्टीरिया
में पड़ गए
व्यक्ति के
जीवन से नहीं
आती। उसी
सुगंध के
सहारे हम
उन्हें
परमहंस कहते
हैं। और अगर
उस सुगंध की
आप फिक्र छोड़
दें, और
सिर्फ लक्षण
देखें और
डाक्टर से
जांच करवा लें,
तो वे भी
मूर्च्छित
हैं, और
हिस्टीरिया
के बीमार हैं,
और उनके
इलाज की जरूरत
है।
दो तरह
की चेतना है।
एक चेतना जो
बाहर के दबाव
से पैदा होती
है—प्रतिक्रिया, रिएक्शन।
उस चेतना को
कृष्ण कहते
हैं, वह
क्षेत्र का ही
हिस्सा है, वह छोड़ने
योग्य है। एक
और चेतना है, जो किसी
कारण से पैदा
नहीं होती; जो मेरा
स्वभाव है, जो मेरा
स्वरूप है, जो मेरे
भीतर छिपी है,
जिसका झरना
मैं लेकर ही
पैदा हुआ हूं
या ज्यादा
उचित होगा
कहना कि मैं
और उसका झरना
एक ही चीज के
दो नाम हैं।
मैं वह झरना
ही हूं।
लेकिन
इस झरने का
पता तभी चलेगा, जब हम
बाहर के आघात
से पैदा हुई
चेतना से अपने
को मुक्त कर
लें। नहीं तो
हमारा ध्यान
निरंतर बाहर
चला जाता है
और भीतर ध्यान
पहुंच ही नहीं
पाता। समय ही
नहीं मिलता, अवसर ही
नहीं मिलता।
हमारी
जिंदगी में दो
काम हैं।
जिसको हम
जागना कहते
हैं, वह
जागना नहीं है।
जिसको हम
जागना कहते
हैं, वह
बाहर की चोट
में हमारी
चेतना का
उत्तेजित रहना
है। बाहर की
चोट में चेतना
का उत्तेजित
रहना है। और
जिसको हम नींद
कहते हैं, वह
भी नींद नहीं
है। वह भी
केवल थक जाने
की वजह से है।
बाहर की
उत्तेजना अब
हमको
उत्तेजित
नहीं कर पाती,
हम थककर पड़
जाते हैं।
जिसको हम नींद
कहते हैं, वह
थकान है। और
जिसको हम
जागरण कहते
हैं, वह
चोटों के बीच
चुनाव, चुनौती
के बीच हमारे
भीतर होती
प्रतिक्रिया है।
कृष्ण
और बुद्ध और क्राइस्ट
दूसरे ढंग से
जागते हैं और
दूसरे ढंग से
सोते हैं।
उनकी नींद
थकान नहीं है, उनकी
नींद विश्राम
है। उनका
जागरण बाहर का
आघात नहीं है,
उनका जागरण
भीतर की
स्फुरणा है।
और जो व्यक्ति
थककर नहीं
सोया है, वह
नींद में भी
जागता रहता है।
इसलिए कृष्ण
ने कहा है कि योगी,
जब सब सोते
हैं, तब भी
जागता है।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि वह
रातभर बैठा
रहता है आंखें
खोले। कई पागल
वैसी कोशिश भी
करते हैं कि
रातभर आंखें
खोले बैठे रहो।
क्योंकि योगी
रात सोता नहीं
है। इसलिए
नासमझ यह
सोचने लगते
हैं कि अगर
रात न सोए, तो योगी
बन जाएंगे! या
नींद कम करो—चार
घंटा, तीन
घंटा, दो
घंटा—जितना कम
सोओ, कम से
कम उतने योगी
हो गए।
कृष्ण
का वैसा मतलब
नहीं है। योगी
भरपूर सोता है; आपसे
ज्यादा सोता
है, आपसे
गहरा सोता है।
लेकिन उसकी
नींद शरीर में
घटती है, क्षेत्र
में घटती है; क्षेत्रज्ञ
जागा रहता है।
शरीर विश्राम
में होता है, भीतर वह
जागा होता है।
वह रात करवट
भी बदलता है, तो उसे करवट
बदलने का होश
होता है। रात
उसकी बेहोश
नहीं है। और
ध्यान रहे, उसकी रात
बेहोश नहीं है—कृष्ण
ने दूसरी बात
नहीं कही है, वह भी मैं
आपसे कहता हूं—आपका
दिन भी बेहोश
है। योगी रात
में भी जागता
है, भोगी
दिन में भी
सोता है। इसका
यह मतलब नहीं
है कि दिन में
अगर आप घंटे, दो घंटे सो
जाते हों, उससे
मेरा मतलब
नहीं है। भोगी
दिन में भी
सोता है, उसका
मतलब यह है कि
उसके भीतर की
चेतना तो जागती
ही —नहीं।
केवल आघात, चोट उसको
जगाए रखती है।
अभी
मनसविद कहते हैं
कि जितना
शोरगुल चल रहा
है दुनिया में, बड़े
शहरों में, उसकी वजह से
लोग बहरे होते
जा रहे हैं।
और सौ साल अगर
इसी रफ्तार से
काम आगे जारी
रहा, तो सौ
साल के बाद
शहरों में कान
वाला आदमी मिलना
मुश्किल हो
जाएगा। इतना
आघात पड़ रहा
है कि कान
धीरे— धीरे जड़
हो जाएंगे।
वैसे अभी भी
आप बहुत कम
सुनते हैं; और अच्छा ही
है। अगर सब
सुनें, जो
हो रहा है
चारों तरफ, तो आप पागल
हो जाएंगे।
और
इसलिए आज नए
बच्चे हैं, तो
रेडियो बहुत
जोर से चलाते
हैं। धीमी
आवाज से चेतना
में कोई चोट
ही नहीं पड़ती,
काफी
शोरगुल हो। नए
जो संगीत हैं,
नए युवक—युवतियों
के जो नृत्य
हैं, वे
भयंकर शोरगुल
से भरे हैं।
जितना शोरगुल
हो उतना ही
अच्छा, थोड़ा
अच्छा लगता है।
क्योंकि छोटे—मोटे
शोरगुल से तो
कोई चोट ही
नहीं पैदा
होगी। तेज
चुनौती चाहिए,
तेज आघात
चाहिए, तो
थोड़ा—सा रस
मालूम होता है
कि पैदा हो
रहा है। लेकिन
यह कब तक
चलेगा?
पश्चिम
में उन्होंने
नए रास्ते
निकाले हैं।
केवल चोट से
भी काम नहीं
चलता, तो
बहुत तरह के
प्रकाश लगा
लेते हैं।
प्रकाश बदलते
रहते हैं तेजी
से। बहुत जोर
से शोर मचता
रहता है। कई
तरह के नाच, कई तरह के
गीत चलते रहते
हैं। एक
बिलकुल
विक्षिप्त
अवस्था हो जाती
है। तब घंटेभर
उस विक्षिप्त
अवस्था में
रहकर किसी
आदमी को लगता
है, कुछ
जिंदगी है; कुछ जीवन का
अनुभव होता
है!
हम
इतने मर गए
हैं कि जब तक
बहुत चोट न हो, तो जीवन
का भी कोई
अनुभव नहीं
होता। धीमे
स्वर तो हमें
सुनाई ही न
पड़ेंगे। और
जीवन के
नैसर्गिक
स्वर सभी धीमे
हैं। वे हमें
सुनाई नहीं
पड़ेंगे। रात
का सन्नाटा
हमें सुनाई
नहीं पड़ेगा।
हृदय की अपनी
धड़कन हमें
सुनाई नहीं
पड़ेगी।
आपने
कभी अपने खून
की चाल की
आवाज सुनी है? वह बहुत
धीमी है, वह
सुनाई नहीं
पड़ेगी। लेकिन
आवाज तो हो
रही है। बक
मिनिस्टर
फुलर ने लिखा
है कि मैं पहली
दफा एक ऐसे
भवन में गया, एक विज्ञान
की
प्रयोगशाला
में, जो
पूर्णरूपेण
साउंड—प्रूफ
थी, जहां
कोई आवाज बाहर
से भीतर नहीं
जा सकती थी।
लेकिन मुझे
भीतर दो तरह
की आवाजें
सुनाई पड़ने
लगीं। तो मुझे
जो वैज्ञानिक
दिखाने ले गया
था, उससे
मैंने पूछा कि
यह क्या बात
है! आप तो कहते
हैं, एब्सोल्युट
साउंड—प्रूफ
है। लेकिन
यहां दो तरह
की आवाजें आ
रही हैं!
तो
वैज्ञानिक
हंसने लगा।
उसने कहा, वे
आवाजें बाहर
से नहीं आ रही
हैं, वह
आपके खून की
चाल की आवाज
है। आपका हृदय
धड़क रहा
है, वह
आपने कभी ठीक
से सुना नहीं।
अब यहां कोई
आवाज नहीं है,
तो आपके
हृदय की धड़कन
जोर से आ रही
है। और आपका
खून जो चल रहा
है शरीर के
भीतर, उसमें
जो घर्षण हो
रहा है, उसकी
आवाज आ रही है।
ये दो आवाजें
आपके भीतर हैं।
आप अंदर ले आए।
बाहर से कोई
आवाज भीतर
नहीं आ सकती।
आपने
कभी अपने खून
की आवाज सुनी
है? नहीं
सुनी है। खून
की आवाज तो
आपको सुनाई
नहीं पड़ती है
और बहुत—से
लोग बैठकर
भीतर ओंकार का
नाद सुनने की
कोशिश करते
हैं! वह अति
सूक्ष्म है; वह आपको कभी
सुनाई नहीं पड़
सकती।
अब यह
खून की आवाज
तो स्थूल आवाज
है; जैसे
झरने की आवाज
होती है, वैसे
खून की भी
आवाज है।
लेकिन वही
आपको सुनाई
नहीं पड़ी; आप
सोच रहे हैं
कि ओंकार का
नाद सुनाई पड़
जाए! वह तो परम
गढ़, परम
सूक्ष्म, आखिरी
आवाज है। जब
सब तरह से
व्यक्ति
पूर्ण शांत हो
जाता है, तभी
वह सुनाई पड़ती
है। तब भीतर
निनाद होने
लगता है; तब
वह जो ओम भीतर
गूंजता है, वह पैदा हुआ ओम
नहीं है।
इसलिए हमने
उसको अनाहत
नाद कहा है।
आहत नाद का
अर्थ है, जो
चोट से पैदा
हो। अनाहत नाद
का अर्थ है, जो बिना चोट
के अपने आप
पैदा होता रहे।
वह सुनाई
पड़ेगा। लेकिन
तब हमें अपनी
चेतना को बाहर
के आघात से छुटकारा
कर लेना जरूरी
है।
रामकृष्ण
जब मूर्च्छित
हैं, तब
उन्होंने
बाहर की तरफ
से अपने द्वार—दरवाजे
बंद कर लिए
हैं। अब वे
भीतर का अनाहत
नाद सुन रहे
हैं। अब
उन्हें भीतर
का ओंकार
सुनाई पड़ रहा
है।
लेकिन
हर से
मूर्च्छित
होना जरूरी
नहीं है। और
भी विधियां
हैं, जिनमें
बाहर भी होश
रखा जा सकता
है और भीतर भी।
लेकिन वे थोड़ी
कठिन हैं, क्योंकि
दोहरी
प्रक्रिया हो
जाती है।
बुद्ध
कभी बेहोश
नहीं हुए।
रामकृष्ण
जैसा बेहोश
होकर गिरे, ऐसा
बुद्ध के जीवन
में कोई
उल्लेख नहीं
है कि वे
बेहोश हुए हों।
न कृष्ण के
जीवन में हमने
सुना है, न
जीसस के जीवन
में सुना है, न मोहम्मद
के जीवन में सुना
है कि बेहोश
हो गए।
रामकृष्ण के
जीवन में वैसी
घटना है। और
कुछ संतों के
जीवन में वैसी
घटना है।
तो
बुद्ध कभी
बेहोश नहीं
हुए बाहर से
भी। तो बुद्ध
की प्रक्रिया
रामकृष्ण की
प्रक्रिया से
ज्यादा कठिन
है। बुद्ध
कहते हैं, दोनों
तरफ होश रखा
जा सकता है, भीतर भी और
बाहर भी।
जरूरत नहीं है
बाहर से बंद
करने की। बाहर
भी होश रखा जा
सकता है और
भीतर भी। हम
बीच में खड़े
हो सकते हैं।
वह जो परम
चेतना है, बाहर
और भीतर के
बीच की देहली
पर खड़ी हो
सकती है। और
दोनों तरफ होश
रख सकते हैं।
लेकिन
अति जटिल है
बात। इसलिए
उचित है कि
रामकृष्ण की
तरफ से ही
चलें; दूसरी
घटना भी घट
जाएगी बाद में।
रामकृष्ण ने
आधा काम बांट
लिया है। बाहर
की तरफ से होश
छोड़ दिया है, सारा होश
भीतर ले गए
हैं। एक दफा
भीतर का होश
सध जाए, तो
फिर बाहर भी
होश साधा जा
सकता है।
रामकृष्ण
का प्रयोग सरल
है बुद्ध के
प्रयोग से। और
साधारण आदमी
को रामकृष्ण
का प्रयोग
ज्यादा आसान
है, बजाय
बुद्ध के
प्रयोग के।
क्योंकि
बुद्ध के
प्रयोग में दो
काम एक साथ साधने
पड़ेंगे; ज्यादा
समय लगेगा, और ज्यादा
कठिनाई होगी;
और अत्यंत
अड़चनों से
गुजरना पड़ेगा।
रामकृष्ण की
प्रक्रिया
बड़ी सरल है।
बाहर को छोड़ ही
दें एक बार और
भीतर ही डूब
जाएं। एक दफा
भीतर का रस
अनुभव में आ
जाए तो फिर
बाहर भी उसे
जगाए रखा जा
सकता है।
एक
और मित्र ने
पूछा है कि
ऐसा सुना है
कि देवताओं को
भी अगर मुक्ति
चाहिए हो, तो
मनुष्य का
शरीर धारण
करना पड़ता है।
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के बीच का तादात्म्य
टूटना क्या
देव—योनि में
संभव नहीं है?
मनुष्य
होने की क्या
जरूरत है? अगर
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
का संबंध
टूटने से ही
परम ज्ञान
घटित होता है,
तो देवता इस
संबंध को
क्यों नहीं
तोड़ सकते? इसके
लिए मनुष्य के
शरीर में आने
की जरूरत क्या
है?
थोड़ा टेक्निकल, थोड़ा
तकनीकी सवाल
है। लेकिन
समझने जैसा है
और आपके काम
का भी है।
देवता तो यहां
मौजूद नहीं
हैं, लेकिन
आपके भी काम
का है, क्योंकि
आपको भी कुछ
बात समझ में आ
सकेगी।
देव—योनि
से मुक्ति
संभव नहीं, इसका बड़ा
गहरा कारण है।
और मनुष्य—योनि
से मुक्ति
संभव है, बड़ी
गहरी बात है।
और इससे आप यह
मत सोचना कि
कोई मनुष्य—योनि
का बड़ा गौरव
है इसमें। ऐसा
मत सोच लेना।
कुछ अकड़ मत
जाना इससे कि
देवताओं से भी
ऊंचे हम हुए, क्योंकि इस
मनुष्य—योनि
से ही मुक्ति हो
सकती है।
नहीं; ऊंचे—नीचे
का सवाल नहीं
है; अकड़ने
की कोई बात
नहीं है। सच
तो, अगर
ठीक से समझें,
तो थोड़ा दीन
होने की बात
है। कारण यह
है कि देव—योनि
का अर्थ है कि
जहां सुख ही
सुख है। और
जहां सुख ही
सुख है, वहां
मूर्च्छा घनी
हो जाती है।
दुख मूर्च्छा
को तोड़ता है।
दुख
मुक्तिदायी
है। पीड़ा से
छूटने का मन
होता है। सुख
से छूटने का
मन ही नहीं
होता।
आप भी
संसार से
छूटना चाहते
हैं, तो
क्या इसलिए कि
सुख से छूटना
चाहते हैं? दुख से
छूटना चाहते
हैं। दुख से
छूटना चाहते
हैं, इसलिए
संसार से भी
छूटना चाहते
हैं। अगर कोई
आपको तरकीब
बता दे कि
संसार में भी
रहकर और दुख
से छूटने का
उपाय है, तो
आप मोक्ष का
नाम भी न
लेंगे। आप
भूलकर फिर
मोक्ष की बात
न करेंगे। फिर
आप कृष्ण
वगैरह को
कहेंगे कि आप
जाओ मोक्ष। हम
यहीं रहेंगे।
क्योंकि दुख
तो छोड़ा जा
सकता है, सुख
मिल सकता है, फिर मोक्ष
की क्या जरूरत
है?
संसार
को छोड़ने का
सवाल ही इसलिए
उठता है कि अगर
हम दुख को
छोड़ना चाहते
हैं, तो
सुख को भी
छोड़ना पड़ेगा।
वे दोनों साथ
जुड़े हैं।
संसार
में सुख और
दुख मिश्रित
हैं। सब सुखों
के साथ दुख
जुड़ा हुआ है।
सुख पकड़ा नहीं
कि दुख भी पकड़
में आ जाता है।
आप सुख को
लेने गए और
दुख की जकड़
में फंस जाते
हैं। सुख चाहा
और दुख के लिए
दरवाजा खुल
जाता है।
स्वर्ग
या देव—योनि
का अर्थ है, जहां सुख
ही सुख है।
जहां सुख ही
सुख है, वहां
छोड़ने का खयाल
ही न उठेगा।
इसलिए देवता
गुलाम हो जाते
हैं, छोड़ने
का खयाल ही
नहीं उठता।
नरक से
भी मुक्ति
नहीं हो सकती
और स्वर्ग से
भी मुक्ति
नहीं हो सकती।
जिन्होंने ये
वक्तव्य दिए
हैं, उन्होंने
बड़ी गहरी खोज
की है।
क्योंकि नरक
में दुख ही
दुख है, और
अगर दुख ही
दुख हो, तो
आदमी दुख का
आदी हो जाता
है। यह थोड़ा
समझ लें।
अगर
दुख ही दुख
जीवन में हो, सुख की
कोई भी
अनुभूति न हो,
तो आदमी दुख
का आदी हो
जाता है। और
जहां सुख का
कोई अनुभव ही
न हो, वहां
सुख की आकांक्षा
भी धीरे—धीरे
तिरोहित हो
जाती है। सुख
की आकांक्षा
वहीं पैदा
होती है, जहां
आशा हो। इसलिए
दुनिया में
जितनी सुख की
आशा बढ़ती है, उतना दुख
बढ़ता जाता है।
पांच सौ साल
पीछे शूद्र
इतने ही दुख
में था, जितना
आज दुख में है।
शायद ज्यादा
दुख में था।
लेकिन दुखी
नहीं था, क्योंकि
उसे कभी खयाल
ही नहीं था कि
शूद्र के अतिरिक्त
कुछ होने का
उपाय है। अब
उसे पता है; अब आशा खुली
है। अब उसे
पता है कि
शूद्र होना
जरूरी नहीं है,
वह
ब्राह्मण भी
हो सकता है।
शूद्र होना
अनिवार्य
नहीं है। अब
गाव की सड़क ही
साफ करना
जिंदगी की कोई
अनिवार्यता नहीं
है; अब वह
राष्ट्रपति
भी हो सकता है।
आशा का द्वार
खुल गया है।
अब वह
सड़क पर बुहारी
तो लगा रहा है, लेकिन
बड़े दुख से।
वहीं वह पांच
सौ साल पहले
भी बुहारी लगा
रहा था, लेकिन
तब कोई दुख
नहीं था।
क्योंकि दुख
इतना मजबूत था,
उसके बाहर
जाने की कोई
आशा नहीं थी, कोई उपाय
नहीं था, इसलिए
बात ही खतम हो
गई थी।
नरक
में कोई साधना
नहीं करता, और
स्वर्ग में भी
कोई साधना
नहीं करता।
क्योंकि नरक
में दुख इतना
गहन है और आशा
का कोई उपाय
नहीं है, कि
आदमी उस दुख
से ही राजी हो
जाता है। जब
दुख आखिरी हो,
तो हम राजी
हो जाते हैं।
जब तक आशा
रहती है, तब
तक हम लड़ते
हैं।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जब तक आशा
रहती है, तब तक हम
लडते हैं। और जहां
तक आशा रहती
है, वहां
तक हम लड़ते
हैं। और जब
आशा टूट जाती
है, हम शांत
होकर बैठ जाते
हैं। लड़ाई खतम
हो गई।
स्वर्ग
में भी कोई
साधना नहीं
करता है, क्योंकि सुख
से छूटने का
खयाल ही नहीं
उठता। सुख से
छूटने का कोई
सवाल ही नहीं
है। मनुष्य
दोनों के बीच
में है।
मनुष्य दोनों
है, नरक भी
और स्वर्ग भी।
मनुष्य आधा
नरक और आधा
स्वर्ग है। और
दोनों
मिश्रित है।
वहां दुख भी
सघन है और सुख
की आशा भी। और
हर सुख के बाद
दुख मिलता है,
यह अनुभूति
भी है। इसलिए
मनुष्य
चौराहा है, उसके नीचे
नरक है, उसके
ऊपर स्वर्ग है।
स्वर्ग में
आदमी सुख से
राजी हो जाता
है, नरक
में दुख से
राजी हो जाता
है; मनुष्य
की अवस्था में
किसी चीज से
कभी राजी नहीं
हो पाता।
मनुष्य
असंतोष है। वह
असंतुष्ट ही
रहता है। कुछ
भी हो, संतोष
नहीं होता।
इसलिए साधना
का जन्म होता
है।
जहां
असंतोष
अनिवार्य हो, कोई भी
स्थिति हो। आप
झोपड़े में हों,
तो दुखी
होंगे; और
आप महल में
हों, तो
दुखी होंगे।
आपका होना, मनुष्य का
होना ही ऐसा
है कि वह
तृप्त नहीं हो
सकता।
अतृप्ति वहां
बनी ही रहेगी।
उसके होने के
ढंग में ही
उपद्रव है। वह
बीच की कड़ी है।
आधा उसमें
स्वर्ग भी
झांकता है, आधा नरक भी झांकता
है।
मनुष्य
के पास अपना
कोई
व्यक्तित्व
नहीं है। वह
आधा—आधा है; अधूरा—अधूरा
है, सीढ़ी
पर लटका हुआ
है; त्रिशंकु
की भांति है।
इसलिए जो
मनुष्य साधना
नहीं करता, वह असाधारण
है। जो मनुष्य
साधना में
नहीं उतरता, वह असाधारण
है। नरक में
नहीं उतरता, समझ में आती
है बात।
स्वर्ग में
नहीं उतरता, समझ में आती
है। अगर आप
साधना में
नहीं उतरते, तो आप
चमत्कारी हैं।
क्योंकि आपका
होना ही
असंतोष है। और
अगर आपको इस
असंतोष से भी
साधना का खयाल
पैदा नहीं
होता, तो
आश्चर्य है।
जगत
में बड़े से
बड़ा आश्चर्य
यह है कि कोई
मनुष्य हो और
साधक न हो। यह
बड़े से बड़ा
आश्चर्य है।
स्वर्ग में
देवता होकर
कोई साधक हो, यह
आश्चर्य की
बात होगी। नरक
में होकर कोई
साधक हो, यह
भी आश्चर्य की
बात होगी।
मनुष्य होकर
कोई साधक न हो,
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है।
क्योंकि आपके
होने में
असंतोष है। और
असंतोष से कोई
कैसे तृप्त हो
सकता है! साधना
का इतना ही
मतलब है कि
जैसा मैं हूं
उससे मैं राजी
नहीं हो सकता,
मुझे स्वयं
को बदलना है।
इसलिए
मनुष्य को चौराहा
कहा है
ज्ञानियों ने।
स्वर्ग से भी
लौट आना पड़ेगा।
जब पुण्य चुक
जाएंगे, तो सुख से
लौट आना पड़ेगा।
और जब पाप चुक
जाएंगे, तो
नरक से लौट
आना पड़ेगा।
और
मनुष्य की
योनि से तीन
रास्ते
निकलते हैं।
एक, दुख
अर्जित कर लें,
तो नरक में
गिर जाते हैं;
सुख अर्जित
कर लें, तो
स्वर्ग में
चले जाते हैं।
लेकिन दोनों
ही क्षणिक हैं,
और दोनों ही
छूट जाएंगे।
जो भी अर्जित
किया है, वह
चुक जाएगा, खर्च हो
जाएगा। ऐसी
कोई संपदा
नहीं होती, जो खर्च न हो।
कमाई खर्च हो
ही जाएगी।
नरक भी
चुक जाएगा, स्वर्ग
भी चुक जाएगा,
जब तक कि यह
खयाल न आ जाए
कि एक तीसरा
रास्ता और है,
जो कमाने का
नहीं, कुछ
अर्जित करने
का नहीं, बल्कि
जो भीतर छिपा
है, उसको
उघाड़ने का है।
स्वर्ग भी
कमाई है, नरक
भी। और आपके
भीतर जो
परमात्मा
छिपा है, वह
कमाई नहीं है;
वह आपका
स्वभाव है। वह
मौजूद ही है।
जिस दिन आप
स्वर्ग और
नर्क की तरफ
जाना बंद करके
स्वयं की तरफ
जाना शुरू कर देते
हैं, उस
दिन फिर लौटने
की कोई जरूरत
नहीं है।
मुसलमान
फकीर औरत हुई
है, राबिया।
एक दिन लोगों
ने देखा कि वह
बाजार में
भागी जा रही
है। उसके एक
हाथ में पानी
का एक कलश है
और एक हाथ में
एक जलती हुई
मशाल है।
लोगों ने कहा कि
राबिया, क्या
तू पागल हो गई?
शक तो हमें
बहुत बार होता
था तेरी बातें
सुनकर कि तू
पागल हो गई है।
अब तूने यह
क्या किया है!
यह क्या खेल, नाटक कर रही
है? कहा
भागी जा रही
है? और यह
पानी और यह
मशाल किसलिए?
तो
राबिया ने कहा
कि इस पानी
में मैं तुम्हारे
नर्क को
डुबाना चाहती
हूं और इस
मशाल से
तुम्हारे
स्वर्ग को
जलाना चाहती
हूं। और जब तक
तुम स्वर्ग और
नरक से न छूट
जाओ, तब
तक तुम्हारा
परमात्मा से
कोई मिलना
नहीं हो सकता।
अब हम
सूत्र को लें।
और हे
अर्जुन, श्रेष्ठता
के अभिमान का
अभाव, दंभाचरण
का अभाव, प्राणिमात्र
को किसी
प्रकार भी न
सताना, क्षमा—
भाव, मन—वाणी
की सरलता, श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की सेवा,
बाहर— भीतर
की शुद्धि, अंतःकरण की
स्थिरता, मन
और इंद्रियों
सहित शरीर का
निग्रह तथा इस
लोक और परलोक
के संपूर्ण
भोगों में
आसक्ति का अभाव
और अहंकार का
भी अभाव एवं
जन्म, मृत्यु,
जरा और रोग
आदि में दुख
और दोषों का
बारंबार दर्शन
करना, ये
सब ज्ञान के
लक्षण हैं।
कौन है
ज्ञानी? क्योंकि कल
कृष्ण ने कहा
कि ज्ञानी जान
लेता है तत्व
से इस बात को
कि क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
अलग हैं। तो
जरूरी है, अब
हम समझ लें कि
ज्ञानी कौन है?
कौन जान
पाएगा इस भेद
को? कौन इस
भेद को जानकर
अभेद को
उपलब्ध होगा?
तो अब
ज्ञानी के
लक्षण हैं। एक—एक
लक्षण पर खयाल
कर लेना जरूरी
है।
श्रेष्ठता
के अभिमान का
अभाव—शुरू बात, क्योंकि
ज्ञान के साथ तत्क्षण
श्रेष्ठता का
भाव पैदा होता
है कि मैं
श्रेष्ठ हूं
दूसरे निकृष्ट
हैं, मैं
जानता हूं
दूसरे नहीं
जानते हैं; मैं ज्ञानी
हूं दूसरे
अज्ञानी हैं।
ज्ञान के साथ
जो सबसे पहला
रोग, जिससे
बचना जरूरी है,
वह
श्रेष्ठता का
अहंकार है।
ब्राह्मण
की अकड़ हम
देखते हैं। अब
उसकी कम होती
जा रही है, क्योंकि
चारों तरफ से
उस पर हमला पड़
रहा है। नहीं
तो ब्राह्मण
की अकड़ थी।
ब्राह्मण की
शक्ल ही देखकर
कह सकते हैं
कि वह ब्राह्मण
है। उसके नाक
का ढंग, उसके
आंख का ढंग, उसके चेहरे
का रोब! चाहे
वह भीख मांगता
हो, लेकिन
फिर भी
ब्राह्मण
पहचाना जा
सकता है कि वह
ब्राह्मण है।
उसकी आंख, उसका
श्रेष्ठता का
भाव, एक
अरिस्टोक्रेसी,
एक गहरा
आभिजात्य, भीतर
मैं श्रेष्ठ
हूं! चाहे वह
नंगा फकीर हो,
चाहे कपड़े
फटे हों, चाहे
हाथ में
भिक्षा का
पात्र हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
भीतर
एक
दीप्ति
श्रेष्ठता की
जलती रहेगी।
एक बड़े
मजे की घटना
घटी है मनुष्य
के इतिहास में।
और वह यह कि
हिंदुस्तान
में हमने
ब्राह्मण को
क्षत्रिय के
ऊपर रख दिया
था; तलवार
के ऊपर ज्ञान
को रख दिया था।
इसलिए
हिंदुस्तान
में कभी क्रांति
नहीं हो सकी।
क्योंकि
दुनिया में जब
भी कोई उपद्रव
होता है, उसकी
जड़ में
ब्राह्मण
होता है। कहीं
भी हो, समझदार
ही उपद्रव
करवा सकता है,
नासमझ तो
पीछे चलते हैं।
अगर यह पश्चिम
में इतनी क्रांति
की बात चलती
है..।
मार्क्स
को मैं
ब्राह्मण
कहता हूं।
लेनिन को, ट्राटस्की
को ब्राह्मण
कहता हूं।
ब्राह्मण का
मतलब, इटेलिजेंसिया;
वह जो सोचती
है, विचारती
है। उस सोचने—विचारने
वाले की
श्रेष्ठता को
अगर आपने जरा
भी चोट पहुंचाई,
तो वह
उपद्रव खड़ा कर
देता है। वह
फौरन लोगों को
भड़का देता है।
सिर्फ
हिंदुस्तान
अकेला मुल्क
है, जहां
पांच हजार साल
में कोई क्रांति
नहीं हुई।
इसका राज क्या
है? सारी
दुनिया में क्रांति
हुई, हिंदुस्तान
में क्रांति
नहीं हुई।
उसका सीक्रेट
क्या है? सीक्रेट
है कि हमने
ब्राह्मण को,
जो उपद्रव
कर सकता है, उसको पहले
ही ऊपर रख
दिया। उसको
कहा कि तू तो
श्रेष्ठ है।
फिर एक
बड़े मजे की
घटना घटी कि
ब्राह्मण
भूखा मरता रहा, दीन रहा,
दुखी रहा, लेकिन कभी
उसने बगावत की
बात नहीं की, क्योंकि
उसकी भीतरी
श्रेष्ठता
सुरक्षित है।
और जब वह
श्रेष्ठ है, तो कोई
दिक्कत नहीं
है।
रूस
फिर इसका
अनुगमन कर रहा
है। कोई सोच
भी नहीं सकता, लेकिन
रूस इसका फिर
अनुगमन कर रहा
है। आज रूस ने
सब वर्ग तो
मिटा दिए, लेकिन
ब्राह्मण को
ऊपर बिठा रखा
है। जिसको वे
एकेडेमीसिएंस
कहते हैं वहा।
वे जितने भी
बुद्धिवादी
लोग हैं—लेखक
हैं, कवि
हैं, वैज्ञानिक
हैं, डाक्टर
हैं, वकील
हैं—जिनसे
उपद्रव की कोई
भी संभावना है,
उनका एक
आभिजात्य
वर्ग बना दिया
है।
रूस
में लेखक इतना
समादृत है, जितना
जमीन पर कहीं
भी नहीं। कवि
इतना समादृत
है, जितना
जमीन पर कहीं
भी नहीं।
वैज्ञानिक, सोचने—समझने
वाला आदमी
समादृत है।
उसको ऊपर बिठा
दिया है। उसको
फिर ब्राह्मण
की कोटि में
रख दिया है।
रूस में क्रांति
तब तक नहीं हो
सकती अब, जब
तक यह
ब्राह्मण का
आभिजात्य न
टूटे।
दो
प्रयोग हुए
हैं।
हिंदुस्तान
ने प्रयोग किया
था पांच हजार
साल पहले। रूस
उसका अनुकरण
कर रहा है, जाने—अनजाने।
ब्राह्मण को
ऊपर बिठा दो, फिर उपद्रव
नहीं होगा।
उसकी
श्रेष्ठता
सुरक्षित रहे,
फिर कोई बात
नहीं है। भीख
मांग सकता है
वह, लेकिन
उसकी भीतरी
अकड़ कायम रहनी
चाहिए। आप
उसको सिंहासन
पर भी बिठा दो
और कहो कि
विनम्र हो जाओ,
भीतर की अकड़
छोड़ दो, वह
सिंहासन को
लात मार देगा।
ऐसे सिंहासन
का कोई मूल्य
नहीं है। उसे
भीतर का
सिंहासन
चाहिए।
जैसे
ही किसी
व्यक्ति को
ज्ञान का जरा—सा
स्वाद लगता है
कि एक भीतरी
श्रेष्ठता
पैदा होनी
शुरू हो जाती
है। उसकी चाल
बदल जाती है।
उसकी अकड़ बदल
जाती है।
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञान का
लेकिन पहला
लक्षण वे कह
रहे हैं, श्रेष्ठता
के अभिमान का
अभाव।
ब्राह्मण
को विनयी होना
चाहिए; यह उसका
पहला लक्षण है।
यह होता नहीं।
नहीं होता, इसीलिए पहला
लक्षण बताया।
जो नहीं होता,
उसकी चिंता
पहले कर लेनी
चाहिए। जो
बहुत कठिन है,
उसकी फिक्र
पहले कर लेनी
चाहिए।
ज्ञान
आए तो उसके
साथ—साथ
विनम्रता
बढ़ती जानी
चाहिए। अगर
ज्ञान के साथ
विनम्रता न
बढ़े, तो
ज्ञान जहर हो
जाता है।
ज्ञान के साथ
विनम्रता
समानुपात में
बढ़ती जाए तो
ज्ञान जहर
नहीं हो पाता
और अमृत हो
जाता है।
श्रेष्ठता
के अभिमान का
अभाव, दंभाचरण
का अभाव...।
आचरण
दो तरह से
होता है। एक
तो आचरण होता
है, सहज—स्फूर्त।
और एक आचरण
होता है, दंभ
आयोजित। आप
रास्ते पर जा
रहे हैं और एक
भूखा आदमी हाथ
फैला देता है।
आप दो पैसे
उसके हाथ में
रख देते हैं, सहज दया के
कारण, वह
भूखा है इसलिए।
लेकिन
रास्ते पर कोई
भी नहीं है, अकेले
हैं, और
भूखा आदमी हाथ
फैलाता है, आप बिना
देखे निकल
जाते हैं।
रास्ते पर लोग
देखने वाले
मौजूद हैं, तो आप दो
पैसे दे देते
हैं। अगर साथ
में मित्र
मौजूद हैं, या ऐसा समझ
लीजिए कि आपकी
लड़की की शादी
हो रही है और
लड़का लड़की को
देखने आया है,
वह आपके साथ
है, और
भिखमंगा हाथ
फैला देता है;
दो पैसे की
जगह आप दो दे
देते हैं
ये दो
रुपए आप दामाद
को दे रहे हैं, होने
वाले दामाद को।
आप एक दंभ का
आचरण कर रहे
हैं। आप उसको
दिखला रहे हैं
कि मैं क्या
हूं! इसका
भिखारी से कोई
लेना—देना
नहीं है।
भिखारी से कोई
संबंध ही नहीं
है। भिखारी को
आपने पैसे दिए
ही नहीं। और
आपको कोई न
भीतर दया है, न कोई करुणा
है, न कोई
सवाल है। आप
एक दंभ आरोपित
कर रहे हैं, एक आयोजन कर
रहे हैं। तो
आप अच्छे आदमी
भी हो सकते
हैं दंभ—आचरण
के कारण।
ध्यान
रहे, सहज
बुरा आदमी भी
बेहतर है। कम
से कम सहज तो
है। और जो सहज
है, वह कभी
अच्छा हो सकता
है। क्योंकि
बुराई दुख
देती है। दुख
कोई भी नहीं
चाहता। आज
नहीं कल सुख
की तरफ जाएगा;
खोजेगा, तो
बुराई को
छोड़ेगा।
लेकिन हम झूठे
अच्छे आदमी
हैं। यह बहुत
खतरनाक
स्थिति है।
झूठे अच्छे
आदमी का मतलब
है कि हम
अच्छे बिलकुल
नहीं हैं और
बाहर हमने एक
अच्छा आरोपण
कर रखा है।
रिस्पेक्टिबिलिटी.।
मां—बाप
बच्चों से
कहते हैं कि
देख, इज्जत
मत गंवा देना,
हमारा खयाल
रखना, किसका
बेटा है। वे
उसको यह नहीं
कह रहे हैं कि
अच्छा काम
करना अच्छा है।
वे यह कह रहे
हैं, अच्छा
काम करना
अहंकार—पोषक
है। वे यह कह
रहे हैं, घर
की इज्जत का
खयाल रखना। वे
उससे यह नहीं
कह रहे हैं कि
अच्छे होने
में तेरा आनंद
होना चाहिए।
वे यह कह रहे
हैं, घर की
इज्जत का सवाल
है, प्रतिष्ठा
का सवाल है, वंश का सवाल
है।
वे
उसको अहंकार सिखा
रहे हैं। वे
कह रहे हैं कि
समझना कि तू
किसका बेटा है।
वे उसको झूठ
सिखा रहे हैं।
वह लड़का अब
दंभ से आचरण
करेगा। वह
अच्छा भी होगा, तो अच्छे
के पीछे भी
वासना यही
होगी कि आदर—सम्मान
मिले।
रिस्पेक्टिबिलिटी
दंभाचरण है, आदर की
तलाश। लेकिन
हमने सारा
आचरण आदर पर खड़ा
कर रखा है। हम
एक—दूसरे को
यही समझा रहे
हैं, सिखा
रहे हैं। सारी
शिक्षा, सारा
संस्कार, कि
अगर बुरे हुए,
तो
बेइज्जती
होगी। और
बेइज्जती से
आदमी डरता है,
इसलिए बुरा
नहीं होता।
आपको
असलियत का तो
तब पता चले, जब आप
लोगों से कह
दें कि कोई
फिक्र नहीं, बुरे हो जाओ,
बेइज्जती
नहीं होगी। और
अगर हम एक ऐसा
समाज बना लें,
जिसमें
बुरे होने से
बेइज्जती न
होती हो, तब
आपको पता
चलेगा कि
कितने आदमी
अच्छे हैं।
अभी तो बुराई
से बेइज्जती
मिलती है, अहंकार
को चोट लगती
है, तो
आदमी अच्छा
होने की कोशिश
करता है।
अच्छे होने की
आकांक्षा में
भी अच्छे होने
का खयाल नहीं
है, अच्छे
होने की आकांक्षा
में अहंकार का
पोषण है।
कृष्ण
कहते हैं
ज्ञानी के लिए
लक्षणों में, दंभाचरण
का अभाव। वह
आचरण सहज
करेगा, जो
ठीक लगता है, वही करेगा।
जो आनंदपूर्ण
है, वही
करेगा। सिर्फ
इसलिए कुछ
नहीं करेगा कि
लोग क्या कहेंगे।
लोग अच्छा
कहेंगे या
बुरा कहेंगे,
यह उसकी
विचारधारा न
होगी।
हम तो
हर समय यही
सोचते हैं कि
लोग क्या
कहेंगे।
लोगों की
हमारी फिक्र
इतनी ज्यादा
है कि अगर मैं
आपको कह दूं
कि कल सुबह आप
मरने वाले हैं, तो जो
आपको पहले
खयाल आएगा, वह यह है कि
मरघट मुझे कौन
लोग पहुंचाने
जाएंगे। फलां
आदमी जाएगा कि
नहीं? मिनिस्टर
जाएगा कि नहीं?
गवर्नर
जाएगा कि नहीं?
मरने के बाद
अखबार में
मेरी खबर
छपेगी कि नहीं?
लोग क्या
कहेंगे?
बहुत
लोगों के मन
में यह इच्छा
होती है कि
मरने के बाद
लोग मेरे
संबंध में
क्या कहेंगे, उसका कुछ
पता चल जाए। इस
तरह की लोगों
ने कोशिश भी
की है।
एक
आदमी ने, राबर्ट
रिप्ले ने
अपने मरने की
खबर उड़ा दी।
सिर्फ इसलिए
कि अखबारों
में पता चल
जाए, और
कौन—कौन क्या—क्या
कहता है, उसे
मैं एक दफा पढ़
तो लूं। वह
मरने के ही
करीब था, डाक्टरों
ने कहा था कि
अब बस, चौबीस
घंटे, छत्तीस
घंटे से
ज्यादा नहीं
बच सकते। तो
उसने अपने
सेक्रेटरी को
बुलाया और कहा
कि तू एक काम
कर। तू खबर कर
दे कि मैं मर
गया। मैं अपनी
खबर अखबारों
में पढ़ लेना
चाहता हूं कि
मेरे मरने के
बाद लोग मेरे
संबंध में
क्या कहते हैं।
दूसरे
दिन जब उसने
खबर पढ़ ली और
अच्छी—अच्छी
बातें पढ़ लीं
उसके संबंध
में, क्योंकि
मरने के बाद
लोग अच्छी
बातें कहते ही
हैं, शिष्टाचारवश।
और शायद इसलिए
भी कि जब हम
मरेंगे, तो
लोग भी खयाल
रखेंगे। बाकी
और तो कुछ खास
बात..। जब आप
किसी आदमी के
संबंध में
सुनें कि सभी
लोग अच्छी
बातें कर रहे
हैं, समझ
लेना कि मर
गया। नहीं तो
जिंदा आदमी के
बाबत सभी लोग
अच्छी बात कर
ही नहीं सकते।
बड़ा कठिन है, बड़ा कठिन है।
अखबारों
में अच्छी
बातें सुनकर
रिप्ले बहुत संतुष्ट
हो गया। और
उसने कहा कि
अब अखबार
वालों को खबर
कर दो कि मेरी
तस्वीर निकाल
लें मरने की
खबर पढ़ते हुए।
मैं मनुष्य—जाति
के इतिहास का
पहला आदमी हूं
जिसने अपने
मरने की खबर
पढ़ी। फिर उसने
अखबारों में
दूसरी खबर
छपवाई।
निश्चित
ही वह पहला
आदमी था, जिसने अपने
मरने की खबर पढ़ी
और जिसने अपनी
मृत्यु पर
लोगों के
द्वारा दिए गए
संदेश पढ़े।
दूसरों की फिक्र
इतनी है कि
आदमी मरते
क्षण में भी
अपनी फिक्र
नहीं करता।
जिंदगी की तो
बात ही अलग, मौत भी आ रही
हो, तो
दूसरों की
चिंता होती है।
आप यह
जो दूसरों की
चिंता करके
जीते हैं, तो आपका
सारा आचरण दंभ—आचरण
होगा।
शानी
सहज जीएगा; उसके
भीतर जो है, वैसा ही
जीएगा; परिणाम
जो भी हो। दुख
मिले, तो
दुख झेलने को
राजी रहेगा।
सुख मिले, तो
सुख झेलने को
राजी रहेगा।
समभाव से जो
भी परिणाम हो,
उसको
झेलेगा, लेकिन
जीएगा सहजता
से। आपकी तरफ
देखकर नहीं
जीएगा। वह
किसी तरह का
आरोपण, किसी
तरह का मुखौटा,
किसी तरह के
वस्त्र आपकी
नजर से नहीं
पहनेगा। उसे
जो ठीक लगेगा,
जो उसका आंतरिक
आनंद होगा।
दंभाचरण
का अभाव, प्राणिमात्र
को किसी
प्रकार भी न
सताना..।
वह भी
ज्ञान का
लक्षण है।
क्यों? क्योंकि
जितना ही हम
किसी को सताते
हैं, उतने
ही हम सताएं
जाते हैं। यह
कोई दूसरे पर
दया करने के
लिए नहीं है
ज्ञानी का लक्षण।
यह सिर्फ
ज्ञानी की
बुद्धिमत्ता
है, उसका
सहज बोध है, कि जब मैं
किसी को सताता
हूं तो मैं
अपने सतानें
के लिए आयोजन
कर रहा हूं।
सिर्फ
अज्ञानी ही
दूसरे को सता
सकता है, क्योंकि
उसका मतलब है
कि उसे पता ही
नहीं है कि
मैं क्या कर
रहा हूं। अपने
लिए ही काटे
बो रहा हूं।
यह अज्ञानी ही
कर सकता है।
शानी
तो देखता है
जीवन के अंत: —संबंधों
को, कि
जो मैं करता
हूं वही मुझ
पर वापस लौट
आता है। जगत
एक
प्रतिध्वनि
है। जो भी मैं
बोलता हूं वही
मुझ पर बरस
जाता है। अगर
मैं गाली
फेंकता हूं तो
गालियां मेरे
पास लौट आती
हैं। और अगर
मैं मुस्कुराहट
फेंकता हूं तो
हजार
मुस्कुराहटें
मेरी तरफ वापस
लौट आती हैं।
जगत वही लौटा
देता है, जो
हम उसे देते
हैं। यह
ज्ञानी का
अनुभव है, यह
कोई सिद्धांत
नहीं है। वह
जानता है कि
मैं दुख दूंगा,
तो मैं दुख
देने के लिए
लोगों को
आमंत्रित कर रहा
हूं,।
आप
किसी को दुख
देकर देखें।
सीधी—सी बात
है कि जब आप
किसी को दुख
देते हैं, तो आप
उसको प्रेरित
करते हैं कि
वह आपको दुख दे।
इसे आप
ऐसा समझें कि
जब कोई आपको
दुख देता है, तो आपके
मन में क्या
होता है? जब
कोई आपको दुख
देता है, तो
जो पहली बात
आपके मन में
बनती है, वह
यह कि इसको
कैसे दुगुना
दुख दें। आप
उपाय में लग
जाते हैं कि
इसको कैसे दुख
दें। यह सीधा—सा,
सरल—सा नियम
है। इसलिए
ज्ञानी
प्राणिमात्र
को भी किसी
प्रकार से
नहीं सताना
चाहता है।
क्षमा
भाव.......।
क्षमा
का अर्थ लोग
समझते हैं कि
दूसरे पर दया करना।
नहीं, वैसा
अर्थ नहीं है।
क्योंकि दया
में भी अहंकार
है। क्षमा बड़ी
सूक्ष्म बात
है।
क्षमा
का अर्थ है, मनुष्य
की कमजोरी को
समझना और यह
जानना कि मैं
खुद भी कमजोर
हूं दूसरा भी
कमजोर है। खुद
की कमजोरी का
अनुभव ज्ञानी
को होता है, वह अपनी
सीमाएं जानने
लगता है, अपनी
सीमाएं जानने
के कारण वह प्रत्येक
मनुष्य के
प्रति
क्षमावान हो
जाता है, क्योंकि
वह समझता है
कि सबकी
कमजोरी है। जो
ज्ञानी आपकी
कमजोरी के
प्रति
क्षमावान नहीं,
समझना कि
उसने अभी अपना
आत्म—विश्लेषण
नहीं किया।
मैंने
सुना है, यहूदी फकीर
बालशेम के पास
एक युवक आया।
उस युवक ने
कहा कि मैं
महापापी हूं।
कोई भी सुंदर
स्त्री मुझे
रास्ते पर
दिखती है, तो
उसे भोगने का
मन होता है।
फिर मैं कुढ़ता
हूं परेशान
होता हूं। कोई
भी अच्छी चीज
दिखाई पड़े, तो चोरी
करने का मन
होता है। कर न
पाऊं, यह
दूसरी बात है,
लेकिन मन तो
हो जाता है।
जरा—सा कोई
मुझे दुख
पहुंचा दे, तो उसकी
हत्या करने का
मन होता है।
मैं महापापी
हूं। तो मुझे
कोई कठोर दंड
दो।
बालशेम
ने कहा कि
तूने स्वीकार
किया, इतना
काफी है। बस, तू इसको
स्मरण रखना कि
जो तुझे होता
है, ऐसा ही
दूसरे को भी
होता है। तो
अगर तुझे कल
पता चले कि
फला आदमी फलां
की स्त्री के
प्रति बुरी
तरह से देख
रहा था, तो
तू निंदा से
मत भर जाना।
तू समझना कि
मनुष्य कमजोर
है, क्योंकि
तू कमजोर है।
तू क्षमा को
जन्म देना।
पर उस
युवक ने कहा
कि नहीं, मुझे सजा दो,
मुझे दंड दो।
बालशेम ने कहा
कि अगर मैं
तुझे दंड दूं
तो तू भी
दूसरे को दंड
देना चाहेगा
और क्षमा कभी
पैदा न होगी।
अगर मैं तुझे
कहूं कि तुझे
इतना दंड देता
हूं क्योंकि
तूने दूसरे की
स्त्री की तरफ
बुरी नजर से
देखा; तो
तू दंड झेल
लेगा, लेकिन
तेरा अहंकार
मजबूत होगा।
और कल अगर
किसी ने कहा
कि फला आदमी
दूसरे की स्त्री
की तरफ बुरी
नजर से देख
रहा है, तो
तू चाहेगा कि
इसको दंड दिया
जाए। तू
क्षमावान
नहीं होगा।
मैं तुझे यही
दंड देता हूं
कि कोई दंड नहीं
देता। सिर्फ
तू इतना खयाल
रखना, जब
दूसरे में कोई
भूल देखे, तो
खयाल रखना कि
वे सारी भूलें
और भी बड़े रूप
में तेरे भीतर
मौजूद हैं।
दूसरा क्षम्य
है।
ज्ञानी
विश्लेषण
करता है अपना।
उस विश्लेषण
से सारी
मनुष्यता से
उसकी पहचान हो
जाती है।
ज्ञानी का यह
अनिवार्य
लक्षण है कि
ज्ञानी निंदा
नहीं करेगा, दंडित
नहीं करेगा; वह यह नहीं
कहेगा कि तुम
महापापी हो और
नरक में सडोगे।
वह तुम्हारे
ऊपर खड़े होकर
तुम्हें नीचा
दिखाने की
कोशिश भी नहीं
करेगा।
क्योंकि उसने
अपना
विश्लेषण
किया है, उसने
अपनी स्थिति
भी जानी है।
और अपनी
स्थिति को
जानकर वह पूरी
मनुष्यता की
स्थिति से
परिचित हो गया
है।
लेकिन
उस युवक ने
कहा कि नहीं, जब तक आप
मुझे दंड न
देंगे, तब
तक मैं जाऊंगा
नहीं। मैं
इतना बड़ा पापी
हूं! तो
बालशेम ने कहा,
तू कुछ भी
पापी नहीं है।
तुझसे बड़ा मैं
रहा हूं। तू
कुछ भी नहीं
है। तुझसे बड़ा
मैं रहा हूं।
और मैं भी
किसी दिन एक
गुरु के पास
गया था और दंड
मैंने भी चाहा
था।
अहंकार
बड़ा सूक्ष्म
है। बड़े दंड
से भी प्रसन्न
होता है। कोई दंड
नहीं मिल रहा
है, तो
उसे लग रहा है
कि मुझे समझा
ही नहीं जा
रहा है। समझ
रहे हैं कि
कोई छोटा—मोटा
पापी! मैं बार—बार
कह रहा हूं कि
मैं बड़ा पापी
हूं। मुझे कोई
बड़ा दंड दो।
बड़े दंड में
भी मजा रहेगा।
कोई छोटा—मोटा
पापी नहीं हूं;
कोई आम पापी
नहीं हूं—चलता—फिरता,
ऐरा—गैरा—खास
पापी हूं।
तो
बालशेम ने कहा, मैं भी
किसी गुरु के
पास गया था।
और मैंने भी
कहा था, मैं
महापापी हूं;
मुझे बड़ा
दंड दो। मेरे
गुरु ने कहा
था कि तुझे
दंड नहीं
दूंगा। और याद
रखना तू भी
किसी को दंड
मत देना, सिर्फ
क्षमा का भाव
देना।
कृष्ण
कहते हैं, ज्ञानी
का लक्षण है
क्षमा का भाव।
वह
जानता है, आदमी
कमजोर है। वह
जानता है, आदमी
मुश्किल में
है। वह जानता
है, आदमी
बड़ी दुविधा
में है। वह
जानता है कि
आदमी जैसा भी
है, बड़ी
जटिलता में है।
इसलिए उसे
दोषी क्या
ठहराना!
अगर आप
कुछ भूल कर
लेते हैं, तो कुछ
आश्चर्य नहीं है।
स्वाभाविक
मालूम होता है।
सच तो यह है कि
अगर आप भूल
नहीं करते हैं,
तो बड़ा
अस्वाभाविक
मालूम होता है।
आदमी इतना
कमजोर, इतनी
शक्तियों का
दबाव, इतनी
जटिलताएं, इतनी
मुसीबतें, उनके
बीच में भी
आदमी किसी तरह
अपने को
सम्हाले रहता
है।
कृष्ण
कहते हैं, क्षमा का
भाव, मन—वाणी
की सरलता...।
सरलता
को थोड़ा खयाल
में ले लेना
चाहिए कि उसका
क्या अर्थ
होता है।
सरलता का अर्थ
होता है, बिना किसी
कपट के। सरलता
का अर्थ होता
है, सीधा—सीधा।
सरलता का अर्थ
होता है, बिना
किसी योजना को
बनाए, बिना
किसी
कैलकुलेशन के,
बिना किसी
गणित के।
छोटे
बच्चे में
सरलता होती है।
अगर उसको
क्रोध आ गया
है, तो
वह आग की तरह
जल उठता है, भभक उठता है।
उस क्षण ऐसा
लगता है, सारी
दुनिया को
नष्ट कर देने
की उसकी मर्जी
है। और क्षणभर
बाद वह फूल की
तरह मुस्कुरा
रहा है। और
जिसको वह
मारने को खड़ा
हो गया था, नष्ट
कर देने को, उसी के साथ
खेल रहा है।
जो भीतर था, उसने बाहर
ले आया, जैसा
था, वैसा
ही बाहर ले
आया। उसने यह
नहीं सोचा कि
लोग क्या
सोचेंगे।
उसने यह नहीं
सोचा कि
दुनिया क्या
कहेगी। उसने
यह नहीं सोचा
कि इससे नरक
जाऊंगा या स्वर्ग
जाऊंगा। उसने
कुछ सोचा ही
नहीं, जो
भीतर था, वह
बाहर ले आया।
बच्चे
में सरलता है।
और इसलिए
बच्चा अभी रो
रहा है, अभी
मुस्कुरा
सकता है। कई
दफे बड़ों को
बड़ी हैरानी
होती है कि ये
बच्चे भी किस
तरह के हैं!
अभी रो रहा था,
अभी
मुस्कुरा रहा
है। बड़े
धोखेबाज
मालूम पड़ते है,
पाखंडी
मालूम पड़ते
हैं। इतने
जल्दी यह हो कैसे
सकता है कि
अभी यह रो रहा
था, अभी
मुस्कुरा रहा
है! आप रोएं, तो दो—चार
दिन लग जाएंगे
मुस्कुराने
में। क्योंकि
वह रोना आप
में सरकता ही
रहेगा। पर आप
कारण समझते
हैं?
अभी एक
मित्र आए; सालभर
पहले पत्नी चल
बसी। वे अभी
तक नहीं हंस
पा रहे हैं।
सालभर हो गया,
रो ही रहे
हैं। वे मुझसे
बोले कि मुझे
किसी तरह रोने
से छुटकारा
दिलाइए।
मैंने कहा कि
अगर मेरी आप
समझते हों, तो मेरा
समझना ऐसा है
कि आप ठीक से
रोए नहीं हैं।
नहीं तो सालभर
कैसे रोते! आप
ऐसे ही
कुनकुने—कुनकुने
रो रहे हैं, ल्यूकवार्म।
शक्ल लंबी
बनाए हुए हैं।
दिल खोलकर
नहीं रो लिए।
छाती पीटकर, नाचकर, कूदकर,
जैसा करना
हो, ठीक से
रो लें। चौबीस
घंटे निकाल
लें, मैंने
उनसे कहा, छुट्टी
के और चौबीस
घंटे रो लें।
चौबीस साल
रोने की बजाय
चौबीस घंटे रो
लें। फिर हंसी
अपने आप आ
जाएगी। रोना
निकल जाए तो
हंसी आ जाती
है।
वह
छोटा बच्चा एक
क्षण में रोता
है, एक
क्षण में
हंसता है।
उसका
कारण यह नहीं
है कि वह धोखा
दे रहा है।
उसका कारण यह
नहीं है कि
उसकी हंसी
झूठी है। उसका
कारण यह है कि
उसका रोना
इतना सच्चा था
कि निकल गया, बात खतम
हो गई। अब वह
हंस रहा है।
आपका रोना
भी झूठा है, हंसना भी
झूठा है। ऊपर
से चिपकाया
हुआ है। दोनों
ही झूठे हैं।
जिंदगी चल रही
है झूठ में।
दोनों तरफ झूठ
के चक्के लगाए
हुए हैं गाड़ी
में। कहीं
नहीं पहुंच
रही है जिंदगी,
तो कहते हैं,
कहीं
पहुंचती नहीं।
प्रयोजन क्या
है? लक्ष्य
नहीं मिलता!
वह
लक्ष्य
मिलेगा क्या!
दोनों चक्के
झूठे हैं। वे
दिखाई पड़ते
हैं, पेंटेड
हैं। चक्के
नहीं हैं।
सरलता
का अर्थ है, जैसा
भीतर हो, वैसा
ही बाहर प्रकट
कर देना। बड़ी
कठिनाई होगी।
आप कहेंगे, आप उपद्रव
की बात कह रहे
हैं। उपद्रव
की है, इसीलिए
तो कम लोग सरल
हो पाते हैं।
जटिल आप
इसीलिए तो हो
जाते हैं, क्योंकि
सरल होना
मुश्किल है।
अगर 'सरल
होंगे, तो
बहुत—सी
कठिनाइयां
झेलनी पड़ेगी।
बहुत—सी
कठिनाइयां
झेलनी पड़ेगी,
बहुत—सी
अड़चनें झेलनी
पड़ेगी।
इसीलिए तो
आदमी उनसे
बचने के लिए
कठिन हो जाता
है, जटिल
हो जाता है।
एक
आदमी सुबह—सुबह
मिलता है। मन
में होता है
कि इस दुष्ट
की शक्ल कहां
से दिखाई पड़
गई! अब दिनभर
खराब हुआ। और
उससे आप
नमस्कार करके
कहते हैं कि
धन्यभाग कि आप
दिखाई पड़ गए।
बड़ी कृपा है।
बड़े दिनों में
दिखाई पड़े।
बड़े दिन से
बड़ी इच्छा थी।
और भीतर कह
रहे हैं, यह दुष्ट
कहा से सुबह
दिखाई पड़ गया!
अब यह
जो भीतर और
बाहर हो रहा
है, अगर
आप सीधे ही कह
दें कि
महानुभाव, कहां
से दिखाई पड़
गए आप सुबह से,
दिनभर खराब
हो गया। तो आप
कठिनाई में
पड़ेंगे।
क्योंकि यह
आदमी झंझट
डालेगा। यह
आपको फिर ऐसे
ही जाने नहीं
देगा। फिर दिन
तो दूर है, यह
अभी आपको
उपद्रव खड़ा कर
देगा। यह शक्ल
फिर दिनभर में
करेगी, वह
तो अलग रही
बात; लेकिन
यह अभी कोई
मुसीबत खड़ी कर
देगा। तो आप
ऊपर एक झूठा
आवरण खड़ा कर
लेते हैं।
जिंदगी की
जरूरतें आपको
झूठा बना देती
हैं।
लेकिन
ज्ञानी के लिए
कृष्ण कहते
हैं, कठिनाई
भला हो, लेकिन
उसको मन—वाणी
की सरलता
चाहिए। वह
वैसी ही बात
कह देगा,
जैसी है। इसका
यह मतलब नहीं
है कि वह किसी
को चोट पहुंचाना
चाहता है।
इसका यह भी
मतलब नहीं है
कि वह किसी को
अपमानित करना
चाहता है।
इसका सिर्फ
इतना मतलब है
कि वह जैसा
भीतर है, चाहता
है कि लोग उसे
बाहर भी वैसा
ही जानें। फिर
इसके कारण जो
भी कठिनाई
झेलनी पड़े, वह झेल लेगा।
लेकिन अपने को
झूठा नहीं
करेगा।
दो
उपाय हैं, या तो
बाहर की
कठिनाई से
बचने के लिए
भीतर जटिल हो
जाएं; और
या फिर बाहर
की कठिनाई
झेलने की
तैयारी हो, तो भीतर सरल
हो जाएं।
संतत्व
की सबसे बड़ी
तपश्चर्या
सरलता है। कोई
धूप में खड़ा होना
संतत्व नहीं
है। और न कोई
सिर के बल खड़े
होकर अभ्यास
करे, तो
कोई संत हो
जाएगा। ये सब
कवायदें हैं
और इनका कोई
बहुत बड़ा मूल्य
नहीं है।
संतत्व की
असली संघर्ष
की तपश्चर्या
है सरलता, क्योंकि
तब आपको बड़ी
मुसीबतें
झेलनी पड़ेगी।
बड़ी मुसीबतें
झेलनी पड़ेगी,
क्योंकि
चारों तरफ
आपने झूठ का
जाल बिछा रखा
है।
आपने
ऐसे आश्वासन
दे रखे हैं, जो आप
पूरे नहीं कर
सकते। आपने
ऐसे वक्तव्य
दे रखे हैं, जो असत्य
हैं। आपने
सबको धोखे में
रख छोड़ा है और
आपके चारों तरफ
एक झूठी
दुनिया खड़ी हो
गई है। सरलता
का अर्थ है, यह दुनिया
गिरेगी, खंडहर
हो जाएगा।
क्योंकि आप
अपनी पत्नी से
कहते ही चले
जा रहे हैं कि
मैं तुझे
प्रेम करता
हूं। वह मानती
नहीं। वह रोज पूछती
है कि प्रेम
करते हैं? हजार
ढंग से पूछती
है कि आप मुझे
प्रेम करते हैं?
पति—पत्नी
एक—दूसरे से
पूछते हैं बार—बार, तरकीबें
निकालते हैं
पूछने की, कि
आप मुझे अभी
भी प्रेम करते
हैं? क्योंकि
भरोसा तो
दोनों को नहीं
आता, आ भी
नहीं सकता।
क्योंकि
दोनों धोखा दे
रहे हैं।
पत्नी भी
जानती है कि
जब मैं ही
नहीं करती हूं
प्रेम, तो
दूसरे का क्या
भरोसा! पति भी
जानता है कि
जब मैं ही
नहीं करता हूं
प्रेम, तो
पत्नी का क्या
भरोसा!
इसलिए
दोनों छिपी
नजरों से जांच
करते रहते हैं
कि प्रेम है
भी या नहीं।
और एक—दूसरे
से पूछते रहते
हैं। और जब एक—दूसरे
से पूछते हैं, तो गले लगाकर
एक—दूसरे को
आश्वासन देते
हैं कि अरे, तेरे सिवाय
जन्मों—जन्मों
में न किसी को
किया है, न
कभी करूंगा।
जन्मों—जन्मों
की बात कर रहे
हैं और भीतर
सोच रहे हैं कि
इसी जन्म में
अगर छुटकारा
हो सके! वह
भीतर चल रहा
है।
संतत्व
की सबसे बड़ी
तपश्चर्या है, सरल हो
जाना। शुरू
में बहुत
कठिनाई होगी।
लेकिन कठिनाई
शुरू में ही
होगी, थोड़े
ही दिन में कठिनाइयां
शांत हो
जाएंगी। और
थोड़े दिन में
आप पाएंगे कि
कठिनाइयों के
ऊपर उठ गए। और
जब आप सरल हो
जाएंगे, तो
लोग आपकी बात
का बुरा भी न
मानेंगे।
शुरू
में तो बहुत
बुरा मानेंगे, क्योंकि
आप एकदम
बदलेंगे और
लगेगा कि यह
क्या हो गया!
यह आदमी कल तक
क्या था, आज
क्या हो गया!
एकदम पतन हो
गया इस आदमी
का। कल तक
कहता था प्रेम,
आज कहता है
कि एक क्षण
प्रेम का मुझे
कोई पता ही
नहीं है।
मैंने कभी
तुझे प्रेम
किया नहीं है।
शुरू
में कठिनाई
होगी, लेकिन
जैसे—जैसे
सरलता बढ़ती
जाएगी, प्रकट
होने लगेगी, वैसे—वैसे
कठिनाई विदा
हो जाएगी। और
एक मजा है, सरलता
में झेली गई
कठिनाई भी सुख
देती है और जटिलता
में आया सुख
भी दुख ही हो
जाता है।
क्योंकि हम
भीतर इतनी
गांठों से भर
जाते हैं कि
सुख हममें
प्रवेश ही
नहीं कर सकता।
हम भीतर इतने
अशांत हो जाते
हैं कि अब कोई शांति
की किरण हममें
प्रवेश नहीं
कर सकती।
तो
कृष्ण कहते
हैं, मन—वाणी
की सरलता, श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की सेवा—उपासना...।
इतनी
क्यों बातें
जोड़नी? श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की सेवा—उपासना।
क्या जरूरत है
इतनी बातें
जोड्ने की
गुरु की उपासना
में?
कारण
है। किसी को
भी गुरु
स्वीकार करना
मनुष्य के लिए
अति कठिन है।
इस जगत में
कठिनतम बातों
में यह बात है
कि किसी को
गुरु स्वीकार
करें।
क्योंकि गुरु
स्वीकार करने
का अर्थ होता
है, मैंने
अपने को
स्वीकार किया
कि मैं
अज्ञानी हूं।
गुरु को
स्वीकार करने
का अर्थ होता
है, मैंने
स्वीकारा कि
मैं अज्ञानी
हूं। यह बड़ी
कठिन बात है।
हमारा मानना
होता है कि हम
तो शानी हैं
ही।
तो
शिष्य बनना
बहुत कठिन है।
शायद
सर्वाधिक
कठिन बात कही
जा सकती है, शिष्य
बनना, सीखने
की तैयारी।
अहंकार को
छोड़ना पड़े
पूरा।
और फिर
किसी को गुरु
स्वीकार करना, किसी को
अपने से ऊपर
स्वीकार करना,
बड़ा जटिल है।
मन तो यही
कहता है कि
मुझसे ऊपर कोई
भी दुनिया में
नहीं है। और
सब हैं, मुझसे
नीचे हैं। हर
आदमी अपने को
शिखर पर मानता
है। यह सहज मन
की दशा है।
तो
किसी को अपने
से ऊपर मानना
बडी कठिन है
बात। हम कामचलाऊ
ढंग से मान
लेते हैं।
इसलिए किसी को
शिक्षक बना
लेना आसान है, गुरु
बनाया कठिन है।
और फर्क है
गुरु और
शिक्षक में।
शिक्षक का
मतलब है, यह
कामचलाऊ
संबंध है। !
तुमसे हम सीख
लेते हैं, उसके
बदले में हम
तुम्हें कुछ
दे देते हैं।
तुम्हारी फीस
ले लो। हम
तुम्हें धन दे
देते हैं, तुम
हमें ज्ञान दे
दो, बात
खतम हो गई। यह
गुरु का संबंध
नहीं है।
शिक्षक
का संबंध ऐसा
है, रास्ते
पर किसी आदमी
से पूछा कि
स्टेशन का रास्ता
किधर जाता है।
बस, इतनी
बात है। उसने
रास्ता बता
दिया। आपने
उसको धन्यवाद
दे दिया, अपने
रास्ते पर चले
गए। कुछ लेना—देना
नहीं है।
शिक्षक और
विद्यार्थी
का संबंध ऐसा
है, उसमें
कामचलाऊ
रिश्ता है, उपयोगिता का
संबंध है।
गुरु
और शिष्य का
रिश्ता गैर—उपयोगिता
का है और
उसमें कोई
कामचलाऊ बात
नहीं है। और
इसीलिए गुरु
को शिष्य कुछ
भी तो नहीं दे
सकता।
प्रत्युत्तर
में कुछ भी
नहीं दे सकता, कोई धन
नहीं दे सकता।
पुराने
दिनों में तो
व्यवस्था यह
थी कि गुरु
भोजन भी
विद्यार्थी
को देगा, आश्रम में
रहने की जगह
भी देगा। उसकी
सब भांति
फिक्र करेगा,
जैसे पिता
अपने बेटे की
फिक्र करे।
ज्ञान भी देगा
और बदले में
कुछ भी नहीं
लेगा।
आप
कठिनाई में
पड़ेंगे उस
आदमी के साथ, जो बदले
में कुछ न ले।
जो बदले में
कुछ ले ले, उससे
तो हमारा नाता—रिश्ता
समानता का हो
जाता है। जो
बदले में कुछ
न ले, उससे
हमारा नाता—रिश्ता
समानता का कभी
नहीं हो पाता।
वह ऊपर होता
है, हम
नीचे होते हैं।
तो
इतने
आग्रहपूर्वक
कृष्ण कहते
हैं, श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की सेवा—उपासना।
श्रद्धा—
भक्ति की बहुत
जरूरत पड़ेगी।
और इसका एक
मनोवैज्ञानिक
रूप भी समझ
लेना जरूरी है।
मनसविद
कहते हैं कि
जिस व्यक्ति
से भी हम कुछ लेते
हैं और उसके
उत्तर में
नहीं दे पाते, उसके
प्रति हमारे
मन में
दुश्मनी पैदा
होती है।
क्योंकि उस
आदमी ने हमें
किसी तरह नीचा
दिखाया है। एक
मेरे मित्र
हैं। बड़े
धनपति हैं और
बड़े दंभी हैं।
और बड़े भले
आदमी हैं। और
जब भी कोई
मुसीबत में हो,
तो उसकी
सहायता करते
हैं। कम से कम
उनके
रिश्तेदारों
में तो कोई भी
मुसीबत में हो,
तो वे हर
हालत में
सहायता करते
हैं। मित्र, परिचित, कोई
भी हो, सहायता
करते हैं।
एक दिन
मेरे पास आकर
वे कहने लगे
कि मैंने जिंदगी
में सिवाय
दूसरों की
सहायता के कुछ
भी नहीं किया, लेकिन
कोई भी मेरा
उपकार नहीं
मानता है!
उलटे लोग मेरी
निंदा करते
हैं। जिनकी
मैं सहायता
करता हूं वे
ही निंदा करते
हैं। जिनको
मैं पैसे से
सब तरह की सुविधा
पहुंचाता हूं
वे ही मेरे
दुश्मन बन जाते
हैं। तो कारण
क्या है? किस
वजह से ऐसा हो
रहा है?
तो
मैंने उनसे
कहा कि आप
उनको भी कुछ
उत्तर देने का
मौका देते हैं
कि नहीं? तो उन्होंने
कहा कि उसकी
तो कोई जरूरत
ही नहीं है।
मेरे पास पैसा
है, मैं
उनकी सहायता
कर देता हूं।
तो फिर, मैंने
कहा कि कठिनाई
है। क्योंकि
वे क्या करें!
जब आप उनकी
सहायता करते
हैं, तो
आपको लगता है
कि आप बहुत
अच्छा काम कर
रहे हैं; लेकिन
जिसकी सहायता
की जाती है, वह आदमी तो
अनुभव करता है
कि उसका अपमान
हुआ। ऐसा मौका
आया कि किसी
की सहायता
लेनी पड़ी। और
फिर लौटा सकता
नहीं है, आप
किसी को
लौटाने देते
नहीं हैं। तो
फिर वह आपका
दुश्मन हो
जाएगा। वह
आपका उत्तर
किसी न किसी
तरह तो देगा।
दो ही
उपाय हैं, या तो आप
उसकी कोई
सहायता लें और
उसको भी ऊपर होने
का कोई मौका
दें। और नहीं
तो फिर वह
आपकी सहायता
झूठी थी, धोखे
की थी, आप
आदमी बुरे हैं,
ये सब खबरें
फैलाकर अपने
मन को यह
सांत्वना दिलाएगा
कि इतने बुरे
आदमी से नीचे
होने का कोई सवाल
ही नहीं; इस
बुरे आदमी से
तो मैं ही ऊपर
हूं। यह वह कंसोलेशन,
सांत्वना
खोज रहा है।
आदमी
के मन की बड़ी
जटिलता है।
गुरु
से आप ज्ञान
लेते हैं, लौटा तो
कुछ भी नहीं
सकते।
क्योंकि
ज्ञान कैसे
लौटाया जा
सकता है! उससे जो
मिलता है, उसका
कोई
प्रत्युत्तर
नहीं हो सकता।
इसलिए भारत
में बड़े
आग्रहपूर्वक
यह कहा है कि
श्रद्धा और
भक्ति सहित।
अगर
बहुत प्रगाढ़
श्रद्धा हो, तो ही
शिष्य गुरु के
विरोध में
जाने से बच
सकेगा, नहीं
तो दुश्मन हो
जाएगा। आज
नहीं कल शिष्य
के दुश्मन हो
जाने की संभावना
है। वह दुश्मन
हो ही जाएगा।
वह कोई न कोई
बहाना और कोई
न कोई कारण
खोजकर शत्रुता
में खड़ा हो
जाएगा, तभी
उसको राहत
मिलेगी कि
झंझट मिटी, इस आदमी के
बोझ से मुक्त
हुआ।
इसलिए
हमने बहुत
खोजबीन करके
श्रद्धा और
भक्ति को
अनिवार्य
शर्त माना है
शिष्य की, तभी
शिष्य गुरु के
साथ उसके
मार्ग पर चल
सकता है और
दुश्मन होने
से बच सकता है।
नहीं तो गुरु
का शिष्य
दुश्मन हो ही
जाएगा।
इसे हम
ऐसा समझें कि
बेटे बाप के
दुश्मन हो जाते
हैं। इसलिए
हमने बाप के
प्रति बहुत
श्रद्धा का
भाव पैदा करने
की कोशिश की
है, नहीं
तो बेटे बाप
के दुश्मन हो
ही जाएंगे।
क्योंकि बाप
से सब मिलता
है, और
लौटाने का
क्या है।
पर बाप
से तो जो
मिलता है, वह
लौटाया भी जा
सकता है, क्योंकि
बाह्य
वस्तुएं हैं।
गुरु से जो
मिलता है, वह
तो लौटाया ही
नहीं जा सकता
है। वह तो ऐसी
घटना है कि
उसको लौटाने
का सिर्फ एक उपाय
है कि तुम
किसी और को
शिष्य बना
देना। बस, वही
उपाय है, और
कोई उपाय नहीं
है। जो तुमने
गुरु से पाया
है, वह तुम
किसी और शिष्य
को दे देना, यही उपाय है।
गुरु तक
लौटाने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
श्रद्धा—
भक्ति सहित
गुरु की
उपासना। बाहर—
भीतर की
शुद्धि, अंतःकरण की
स्थिरता, मन—इद्रियों
सहित शरीर का
निग्रह।
इन
सबके संबंध
में मैंने
काफी बात पीछे
की है।
लोक—परलोक
के संपूर्ण
भोगों में
आसक्ति का
अभाव और
अहंकार का भी
अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग
आदि में दुख और
दोषों का
बारंबार
दर्शन, ये
सब ज्ञान के
लक्षण हैं।
आखिरी
बात जिसकी अभी
चर्चा नहीं
हुई, उसकी
हम बात कर लें।
जन्म, मृत्यु,
जरा, रोग,
दुख
इत्यादि में
बारंबार
दोषों का
दर्शन, ये
सब ज्ञान के
लक्षण हैं।
जब आप
पर कोई बीमारी
आती है, कोई दुख आता
है, कोई
असफलता घटित
होती है, कोई
संताप घेर
लेता है, तब
आप क्या करते
हैं? तब आप तत्क्षण
यही सोचते हैं
कि किन्हीं
दूसरे लोगों
की शरारत षड़यंत्र
के कारण आप
कष्ट पा रहे
हैं। तो यह अज्ञानी
का लक्षण है।
ज्ञानी
लक्षण यह है
कि जब भी वह
दुख पाता है, तब वह
सोचता है कि
जरूर मैंने
कोई दोष किया,
मैंने कोई
पाप किया, मैंने
कोई भूल की, जिसका मैं
फल भोग रहा
हूं। ज्ञान का
लक्षण यह है
कि जब भी दुख
मिले, तो
अपने दोष की
खोज करना।
जरूर कहीं न
कहीं मैंने
बोया होगा, इसलिए मैं
काट रहा हूं।
अज्ञानी
दूसरे को दोषी
ठहराता है, ज्ञानी
सदा अपने को
दोषी ठहराता है।
और इसलिए
अज्ञानी दोष
से कभी मुक्त
नहीं होता,
ज्ञानी दोष से
मुक्त हो जाता
है। अगर मुझे यह
प्रगाढ़ प्रतीति
होने लगे—और
होगी ही—अगर
हर दुख में, हर पीड़ा में,
हर रोग में, हर मृत्यु
में मैं यही
जानूंगा कि
मेरी कोई भूल
है, तो
निश्चित ही
आगे उन भूलों
को करना
मुश्किल हो
जाएगा। जिन दोषों
से इतना दुख
पैदा होता है,
उनको करना
असंभव हो
जाएगा। मेरा
मन संस्कारित
हो जाएगा।
मुझे यह स्मरण
गहरे में बैठ
जाएगा, तीर
की तरह चुभ
जाएगा।
अगर
सभी दुख मेरे
ही कारण से
पैदा हुए 'हैं, तो
फिर आगे मेरे
दुख पैदा होने
मुश्किल हो
जाएंगे, क्योंकि
मैं अपने
कारणों को
हटाने लगता।
लेकिन
अज्ञानी के
दुख दूसरों के
कारण से पैदा
होते हैं।
इसलिए उसके
हाथ में कोई
ताकत ही नहीं
है, वह कुछ
कर सकता नहीं।
दूसरे जब
बदलेंगे, सारी
दुनिया जब
बदलेगी, तब
वह सुखी हो
सकता है!
अज्ञानी
सुखी होगा, जब सारी
दुनिया बदल
जाएगी और कोई
गड़बड़ नहीं
करेगा, तब।
ऐसा कभी होने
वाला नहीं है।
ज्ञानी अभी
सुखी हो सकता
है, इसी
क्षण सुखी हो
सकता है।
क्योंकि वह
मानता है कि
दुख मेरे ही
किसी दोष के
कारण हैं।
मुसलमान
फकीर
इब्राहीम एक
रास्ते से
गुजरता था।
उसके शिष्य
साथ थे।
इब्राहीम के
प्रति उनका
बड़ा आदर, बड़ा भाव, बड़ा
सम्मान था। वह
आदमी भी वैसा
पवित्र था।
अचानक
इब्राहीम के
पैर में पत्थर
की चोट लगी और
जमीन पर गिर
पड़ा, पैर
लहूलुहान हो
गया।
शिष्य
बहुत चकित हुए, शिष्य
बहुत हैरान
हुए। शिष्यों
ने कहा कि यह
किसी की शरारत
मालूम पड़ती है।
कल शाम को हम
निकले थे, तब
यह पत्थर यहां
नहीं था। और
सुबह आप यहां
से निकलेंगे
और मस्जिद
जाएंगे सुबह
के अंधेरे में,
किसी ने यह
पत्थर जानकर यहां
रखा है।
दुश्मन काम कर
रहे हैं।
इब्राहीम
ने कहा, पागलों, फिजूल
की बातों में
मत पड़ो। रुको।
और इब्राहीम
घुटने टेककर
परमात्मा को
धन्यवाद देने
बैठ गया।
प्रार्थना
करने के बाद
उसने कहा, हे
परमात्मा, तेरी
बड़ी कृपा है।
पाप तो मैंने
ऐसे किए हैं
कि आज फांसी
लगनी चाहिए थी,
सिर्फ
पत्थर की चोट
से तूने मुझे
छुड़ा दिया।
तेरी अनुकंपा
अपार है।
ज्ञानी का
लक्षण है, जब
भी कोई पीड़ा
आए, तो
खोजना, कहीं
अपनी कोई भूल,
अपना कोई
दोष, जिसके
कारण यह दुख आ
रहा होगा।
ये
कृष्ण ने
ज्ञान के
लक्षण कहे हैं।
इन लक्षणों को
जो भी पूरा
करने लगे, वह धीरे—धीरे
ज्ञान के
मंदिर की तरफ
बढ़ने लगता है।
और मंदिर बहुत
दूर नहीं है।
जहां आप खड़े
हैं, बहुत
पास है।
लेकिन
जिस ढंग से आप
खड़े हैं, बहुत दूर है,
क्योंकि आप
पीठ किए खड़े
हैं। इन
लक्षणों के
विपरीत आप सब
कुछ कर रहे
हैं। आपकी पीठ
है मंदिर की
तरफ। इसलिए
अगर आप और गहन
अंधकार में, और अज्ञान
में, और
दुख में
प्रवेश करते
चले जाते हैं,
तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है।
पांच
मिनट रुकेंगे।
कोई भी
व्यक्ति बीच
से न उठे। बीच
से उठने में
बाधा पड़ती है।
पांच मिनट
कीर्तन में
भाग लें, और फिर
जाएं।
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