सत्य की
महावीर-उपलब्धि—(प्रवचन—पांचवां)
महावीर
के बचपन के
संबंध में
थोड़ी सी बातें
कल सोचीं।
जैसा मैंने
कहा, तीर्थंकर
की चेतना का
व्यक्ति
पूर्णता को छूकर
लौटा होता है।
इसका अर्थ यह
हुआ कि महावीर
के लिए इस
जीवन में करने
को कुछ भी
बाकी नहीं रहा
है, सिर्फ देने
को बाकी रहा
है, पाने
को कुछ भी
बाकी नहीं रहा
है। यह बात
अगर समझ में
आए तो इस बात
की बड़ी गहरी निष्पत्तियां
होंगी। पहली
निष्पत्ति तो
यह होगी कि
साधारणतः
महावीर के
संबंध में जो
समझा जाता है
कि उन्होंने
त्याग किया, वह बिलकुल
व्यर्थ हो
जाएगी।
आज इस
बात को समझ
लेना ठीक से
जरूरी है कि
महावीर ने कभी
भी भूल कर कोई
त्याग नहीं
किया है।
त्याग दिखाई पड़ा
है, महावीर
ने कभी भी
नहीं किया है।
और जो दिखाई पड़ता
है, वही
सत्य नहीं है,
क्योंकि जो
दिखाई पड़ता है
वह देखने
वालों पर ज्यादा
निर्भर होता
है बजाय इसके
कि जो उन्होंने
देखा।
भोग से
भरे हुए लोगों
को किसी भी
चीज का छूटना त्याग
मालूम पड़ता
है। और इसलिए
महावीर के जीवन
पर जिन्होंने
लिखा, उन्होंने
रत्ती-रत्ती
एक-एक चीज का
हिसाब बताया
है कि
क्या-क्या
छोड़ा, कितने
बड़े महल थे, कितना बड़ा
राज्य था, कितने
हाथी थे, कितने
घोड़े थे, कितने
मणि-माणिक्य
थे--उस सबका
एक-एक हिसाब
दिया है! यह
हिसाब देने
वाले भोगी
चित्त के लोग
थे, इतना
तो निश्चित
होता है, क्योंकि
इन्हें हीरे,
मणि-माणिक्य,
घोड़ेऱ्हाथी और महल बहुत
मूल्यवान
मालूम होते
थे। इनको महावीर
ने छोड़ा, यह
घटना इनके लिए
बहुत
चमत्कारपूर्ण
मालूम हुई
होगी।
क्योंकि भोगी
चित्त कुछ भी
छोड़ने में
समर्थ नहीं है,
वह सिर्फ
पकड़ सकता है, छोड़ नहीं
सकता। हां, उससे छुड़ाया
जा सकता है, लेकिन छोड़
नहीं सकता। और
जब वह देखता
है कि कोई
व्यक्ति सहज
ही छोड़ कर जा
रहा है तो
इससे ज्यादा
महत्वपूर्ण
और
चमत्कारपूर्ण
घटना उसे मालूम
नहीं हो सकती।
लेकिन
महावीर जैसी
चेतना कुछ भी
छोड़ती नहीं है, क्योंकि उस
तल पर कुछ भी पकड़ने का
भाव ही नहीं
रह जाता है।
जो पकड़ते
हैं, वे
छोड़ भी सकते
हैं। जो पकड़ते
ही नहीं हैं, जिनकी कोई
क्लिंगिंग
नहीं है, उनके
छोड़ने का भी
कोई सवाल नहीं
है।
महावीर
ने कुछ भी
नहीं त्यागा
है। जो व्यर्थ
है, उसके बीच
से वे आगे बढ़
गए हैं। लेकिन
हम सबको दिखाई
पड़ेगा कि बहुत
बड़ा त्याग
हुआ। और ऐसा
दिखाई पड़ने
में हम पकड़ने
वाले चित्त के
परिग्रही लोग
हैं, यही
सिद्ध होगा, और कुछ भी
सिद्ध न होगा।
महावीर
त्यागी थे, ऐसा तो नहीं
है, लेकिन महावीर
को जिन लोगों
ने देखा, वे
भोगी थे, इतना
सुनिश्चित
है। भोगी के
मन में त्याग
का बड़ा मूल्य
है। उलटी
चीजों का ही
मूल्य होता
है। बीमार
आदमी के मन
में
स्वास्थ्य का
बड़ा मूल्य है,
स्वस्थ
आदमी को पता
भी नहीं चलता।
बुद्धिहीन के
मन में
बुद्धिमत्ता
बड़ी मूल्यवान है,
लेकिन
बुद्धिमान को
कभी पता भी
नहीं चलता। जो
हमारे पास
नहीं है, उसका
ही हमें बोध
होता है। और
जो हम पकड़ना
चाहते हैं, उसे कोई
दूसरा छोड़ता
हो तो भी हम
आश्चर्य से चकित
रह जाते हैं।
लेकिन
यहां मैं
महावीर के
भीतर से चीजों
को कहना चाहता
हूं। महावीर
कुछ भी नहीं
छोड़ रहे हैं।
और जो व्यक्ति
कुछ छोड़ता है, छोड़ने के
बाद उसके पीछे
छोड़ने की पकड़
शेष रह जाती
है। जैसे एक
आदमी लाख रुपए
छोड़ दे, तो
लाख रुपए छोड़
देगा, लेकिन
लाख रुपए
मैंने छोड़े, यह पकड़ पीछे
शेष रह जाएगी।
यानी भोगी
चित्त त्याग
को भी भोग का
ही उपकरण
बनाता है। भोगी
चित्त धन को
ही नहीं पकड़ता,
त्याग को भी
पकड़ लेता है।
असल सवाल तो
क्लिंगिंग
माइंड का है, पकड़ने वाले चित्त
का है। वह अगर
सब कुछ त्याग
कर दे तो वह इस
सबका
हिसाब-किताब
रख लेगा अपने
मन में कि
क्या-क्या
मैंने त्यागा
है, कितना
मैंने त्यागा
है। ऐसे त्याग
का कोई भी
मूल्य नहीं
है। यह भोग का
ही दूसरा रूप
है, परिग्रह
का ही दूसरा
रूप है।
लेकिन
एक और तरह का
त्याग है, जहां चीजें
छूट जाती हैं,
क्योंकि
चीजों को पकड़ने
से हमारे भीतर
की कोई तृप्ति
नहीं होती, बल्कि चीजों
को पकड़ने
से हमारे भीतर
का विकास
अवरुद्ध होता
है।
हम
चीजें पकड़ते
क्यों हैं? चीजों को पकड़ने
का कारण क्या
है? हम
चीजों को पकड़ते
हैं, क्योंकि
चीजों के बिना
एक इनसिक्योरिटी,
एक
असुरक्षा
मालूम पड़ती
है। अगर मेरा
कोई भी मकान
नहीं है तो
मैं
असुरक्षित
हूं, किसी
दिन सड़क पर
पड़ा हो सकता
हूं, हो
सकता है मर
रहा होऊं और
मुझे कोई
छप्पर न मिले।
तो असुरक्षित
हूं, इनसिक्योरिटी है, इसलिए
मकान को जोर
से पकड़ता
हूं। धन को
जोर से पकड़ता
हूं, क्योंकि
कल का क्या
भरोसा! तो कल
के लिए कुछ इंतजाम
चाहिए।
जिस
व्यक्ति के मन
में जितनी
असुरक्षा का
भाव है, वह
उतना चीजों को
जोर से पकड़ेगा।
लेकिन जिस चेतना
को यह पता हो
गया है कि
चेतना के तल
पर कोई
असुरक्षा है
ही नहीं, वहां
न कोई भय है, वहां न कोई
पीड़ा है, न
कोई दुख है, वहां न कोई
मृत्यु
है--ऐसा जिसे
पता चल गया है,
वह कुछ भी
नहीं पकड़ता।
पकड़ता था
असुरक्षा के
कारण, असुरक्षा
न रही तो पकड़
भी न रही। और
जो अपने भीतर
प्रविष्ट हुआ
है वह तो
प्रतिक्षण और
प्रतिपल इतने
आनंद से भर
गया है कि कल
का सवाल कहां
है कि कल क्या
होगा! आज काफी
है!
जीसस
निकलते थे एक बगीचे के
पास से और बगीचे
में फूल खिले
हैं। और जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा: देखते हो
इन फूलों को!
सोलोमन, खुद
सोलोमन भी, अपनी पूरी
समृद्धि में
इतना शानदार न
था।
एक बड़ा
सम्राट
सोलोमन जिसने
सारी पृथ्वी
के धन को
इकट्ठा कर
लिया था। वह
भी अपनी पूरी
समृद्धि में
और साम्राज्य
में इन साधारण
से फूलों के
मुकाबले न था।
देखते हो इनकी
शानदार चमक, इनकी
मुस्कुराहट, इनका नाच! और
साधारण से
गरीब लिली के
फूल हैं! तो
किसी शिष्य ने
पूछा है, कारण
क्या है? राज
क्या है इसका
कि सोलोमन
लिली के फूलों
से भी ज्यादा
शानदार न था?
तो
जीसस ने कहा, फूल अभी
जीते हैं, सोलोमन
कल के लिए
जीता था। फूल
अभी हैं, उन्हें
कल की कोई भी
चिंता नहीं।
आज काफी है। और
तुम भी फूलों
की तरह हो रहो
कि आज काफी हो
जाए।
तो
जिसके लिए आज
का, अभी का यह
क्षण काफी है,
आनंद से भरा
है, वह कल
के क्षण की
चिंता नहीं
करता। इसलिए
कल के क्षण के
लिए इकट्ठा
करने का
पागलपन भी
उसके भीतर
नहीं है। वह
जीता है। तो
ऐसा व्यक्ति
कुछ पकड़ता
नहीं, छोड़ने
का सवाल ही
नहीं है।
छोड़ना तो आता
है पीछे। त्याग
तो आता है
पीछे। जब पकड़
आ जाए तो सवाल
उठता है कि छोड़ो।
ऐसा व्यक्ति पकड़ता ही
नहीं।
और
ध्यान रहे, जिसको पकड़ आ
गई है, अगर
वह छोड़ेगा तो
पकड़ तो बाकी
रहेगी, छोड़ने
को पकड़ लेगा।
वह पकड़ तो
उसकी आदत का
हिस्सा हो गई
है। उसने धन
पकड़ा था, अब
वह त्याग पकड़
लेगा। उसने
मित्र पकड़े
थे, अब वह
परमात्मा पकड़
लेगा।
पति-पत्नी पकड़े
थे, अब वह
पुण्य-पाप-धर्म
इत्यादि पकड़
लेगा। कल खाते-बही
पकड़े थे, अब वह
शास्त्र पकड़
लेगा।
शास्त्र भी
खाते-बही ही
हैं। और धर्म
भी सिक्का है,
जो कहीं और
चलता है। और
पुण्य भी
मोहरें हैं, जो कहीं काम
पड़ती हैं। अब
वह उनको पकड़
लेगा।
इसलिए
ध्यान देने की
यह बात है कि
जो व्यक्ति पकड़ने के
चित्त से भरा
है, वह अगर
त्याग करेगा
तो भी त्याग
नहीं होने वाला
है। इसलिए
सवाल त्याग
करने का नहीं
है, सवाल पकड़ने
वाले चित्त की
वस्तुस्थिति
को समझ लेने
का है। अगर
हमारी समझ में
आ गया कि यह है
चित्त पकड़ने
वाला और पकड़ना
व्यर्थ हो गया,
तो पकड़
विलीन हो
जाएगी--त्याग
नहीं
होगा--पकड़ विलीन
हो जाएगी और
चीजें ऐसे दूर
हो जाएंगी, जैसे वे दूर
हैं ही।
कौन सा
मकान किसका है? एक पागलपन
तो यह है कि
पहले मैं यह
मानूं कि यह मकान
मेरा है। और
फिर दूसरा
पागलपन यह है
कि मैं इसका
त्याग करूं कि
इस मकान का
मैं त्याग करता
हूं।
लेकिन
ध्यान रहे, अगर यह मकान
मेरा नहीं है
तो मैं त्याग
करने वाला कौन
हूं? त्याग
में भी मेरी
मालकियत तो
शेष है। मैं
कहता हूं, यह
मकान मैं
त्याग करता
हूं। मैं ही
त्याग करता
हूं न! और
त्याग मैं कर
सकता हूं उसका,
जो मेरा है
ही नहीं? तो
त्याग करने
वाला यह मान
कर ही चलता है
कि यह मकान
मेरा है।
और
वस्तुतः जो
त्याग की घटना
घटती है, वह
इस सत्य से
घटती है कि
किसी को पता
चलता है कि यह
मकान, यह
मेरा है ही
नहीं, तो
त्याग कैसा!
मेरा नहीं है,
यह बोध
पर्याप्त है,
कुछ छोड़ना
नहीं पड़ता। जो
मेरा नहीं है,
वह छूट गया।
और चीजें थोड़े
ही हमें बांधे
हुए हैं, चीजें
और हमारे बीच
में मेरे का
एक भाव है जो बांधे
हुए है।
एक
मकान है, उसमें
आग लग गई है।
और घर का
मालिक रो रहा
है, चिल्ला
रहा है। और
फिर भीड़ में
से कोई कहता
है, आप
क्यों परेशान
हो रहे हैं? आपको पता
नहीं, आपके
बेटे ने मकान
बेच दिया है, और पैसे मिल
गए हैं। बेटे
ने खबर नहीं
दी आपको? और
वह आदमी एकदम
हंसने लगा। और
उसने कहा, ऐसा
है क्या?
अब भी
वही मकान जल
रहा है। अब भी
आदमी वही है, सब भीड़ वही
है, लेकिन
अब वह उसका
मकान नहीं रह
गया है। मकान
बेचा जा चुका
है, अब वह
मेरा नहीं है।
वह हंस रहा है
और अब वह ऐसी हलकी
बातें कर रहा
है जैसी कि और
सारे लोग कर रहे
थे कि बहुत
बुरा हो गया, कि मकान जल
गया है।
लेकिन
तभी उसका बेटा
भागा हुआ आता
है। वह कहता
है, वह आदमी
बदल गया है।
रुपए अभी मिले
नहीं थे, सिर्फ
बेचा था, लेकिन
वह आदमी बदल
गया है। और वह
आदमी फिर चिल्लाने
लगा है कि मैं
मर गया, मैं
लुट गया, अब
क्या होगा! एक
क्षण में मेरा
फिर जुड़ गया
है--मकान मेरा
ही है और जल रहा
है!
तो
मकान के जलने
की पीड़ा है या
मेरे के जलने
की? और अगर
मेरे के जलने
की पीड़ा है तो
जो आदमी कहता
है मेरा मकान,
उसकी भी पकड़
है, जो
आदमी कहता है
मेरा मकान, मैं त्याग
करता हूं, उसकी
भी पकड़ है।
लेकिन जो आदमी
कहता है कौन
सा मकान मेरा
है! कोई मकान
मुझे पता नहीं
चलता कि मेरा
कौन सा मकान
है। मेरा कोई
मकान ही नहीं
है, मैं
बिलकुल बिना
मकान के हूं। अगृही का
मतलब यह है। अगृही का
मतलब यह नहीं
है कि जिसने
घर छोड़ दिया। अगृही का
मतलब यह है कि
जिसने पाया कि
कोई घर है ही
नहीं। इसे ठीक
से समझ लेना।
संन्यासी
को हम कहते हैं
अगृही, गृहस्थ
नहीं। लेकिन
कौन है अगृही?
जिसने घर
छोड़ दिया? उसका
घर बाकी है।
वह चाहे
पहाड़ों में, चाहे हिमालय
में चला जाए, उसका घर
बाकी है। जिस
घर को छोड़ आया
है, वह भी
उसका घर है। अगृही का
मतलब है जिसने
पाया कि घर तो
कहीं है ही
नहीं। होमलेस!
घर है ही नहीं।
यहां घर कहीं
है ही नहीं।
कोई घर मेरा नहीं
है।
संन्यासी
का मतलब यह
नहीं है कि
जिसने पत्नी का
त्याग किया।
संन्यासी का
मतलब है कि
जिसने पाया कि
पत्नी कहां है? संन्यासी का
मतलब यह नहीं
है कि जिसने
साथी छोड़ दिए।
संन्यासी का
मतलब जिसने
पाया कि साथी
कहां है? खोजा
और पाया कि नोव्हेयर,
साथी तो
कहीं भी नहीं
है कोई, बिलकुल
अकेला हूं।
यह
दोनों बातों
में बुनियादी
भेद है। पहले
में हम कुछ
पकड़ कर छोड़ने
की कोशिश कर
रहे हैं, दूसरे
में हम पाते
हैं कि पकड़ का
उपाय ही नहीं है,
किसको पकड़ें?
कहां पकड़ने
जाएं?
तो
महावीर कुछ त्याग
नहीं रहे हैं।
जो उनका नहीं
है, वह दिखाई
पड़ गया है।
इसलिए कोई पकड़
नहीं है। इसलिए
यह कहना
बिलकुल
व्यर्थ की बात
है कि वे सब
छोड़ कर जा रहे
हैं। वे जान
कर जा रहे हैं
कि कुछ भी
उनका नहीं है।
और अगर हम इस
बात को समझ
लेंगे तो
महावीर के
बाबत, समस्त
त्याग के बाबत
हमारी दृष्टि
ही दूसरी हो
जाएगी। तब हम
लोगों को यह न समझाएंगे
कि तुम छोड़ो
और तुम त्याग
करो। हम लोगों
को समझाएंगे
तुम देखो कि
तुम्हारा है
क्या? तुम्हारा
है कुछ?
एक
सम्राट
था--इब्राहिम।
उसके द्वार पर
एक संन्यासी
सुबह से ही
बड़ा शोरगुल
मचा रहा है और
पहरेदार से
कहता है, मुझे
भीतर जाने दो,
मैं इस सराय
में ठहरना
चाहता हूं। और
वह पहरेदार
कहता है, तुम
पागल हो गए हो!
संन्यासी हो
कि पागल हो? यह सराय
नहीं, यह
सम्राट का महल
है, उनका
निवास स्थान
है। तो वह
कहता है, फिर
मैं उसी
सम्राट से बात
कर लूं, क्योंकि
हम तो सराय समझ
कर इसे आए हैं
और इसमें
ठहरना चाहते
हैं।
वह
धक्का देकर
भीतर चला जाता
है। सम्राट भी
आवाज सुन रहा
है, सब बातें
सुन रहा है और
उससे कहता है,
तुम आदमी
कैसे हो! यह
मेरा निजी महल
है, मेरा
निवास है, यह
सराय नहीं, सराय दूसरी
जगह है।
वह
संन्यासी
कहता है, मैं
समझा कि
पहरेदार ही
नासमझ है। आप
भी नासमझ हैं!
पहरेदार
क्षमा के
योग्य था।
आखिर बेचारा
पहरेदार ही
था। आपको भी
यही खयाल है
कि आपका
निवास-स्थान
है, आपका
घर है?
सम्राट
ने कहा, खयाल!
यह मेरा है।
खयाल नहीं है
यह मेरा, यह
मेरा है ही।
संन्यासी
ने कहा, बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया मैं।
कुछ दो-चार-दस
साल पहले मैं
आया था, तब
भी यही झंझट
हो गई थी। और
मैंने कहा कि
मैं इस सराय
में ठहर जाऊं,
तब
तुम्हारी जगह
एक दूसरा आदमी
बैठा हुआ था
और वह कहता था,
यह मेरा महल
है। यह मकान
मेरा है!
तो उस
इब्राहिम ने
कहा, वे मेरे
पिता थे। उनका
अब देहावसान
हो गया।
उस
फकीर ने कहा, मैं उनके
पहले भी आया
था, तब एक
और बुङ्ढे
को पाया था।
वह भी इसी जिद्द
में था कि यह
उसका है! जब
यहां हर बार
मकान के मालिक
बदल जाते हैं,
रहने वाले
बदल जाते हैं,
तो इसको
सराय कहना
चाहिए कि
निवास? और
मैं फिर आऊंगा
कभी, पक्का
है कि तुम मिलोगे?
वायदा करते
हो? और तुम
न मिले तो फिर
बड़ी दिक्कत हो
जाएगी। फिर
कोई मिलेगा, वह कहेगा
मेरा है। तो
मुझे ठहर ही
जाने दो। यह सराय
ही है, किसी
की नहीं है।
जैसे तुम ठहरे
हो, वैसे
मैं भी ठहर
सकता हूं।
इब्राहिम
उठा सिंहासन
से, उस फकीर
के पैर छुए और
कहा कि तुम
ठहरो, लेकिन
अब मैं जाता
हूं। उसने कहा,
लेकिन कहां
जाते हो? उसने
कहा कि मैं तो
इसी भ्रम में
ठहरा हुआ था कि
यह मकान है।
अगर सराय हो
गया तो बात
खतम हो गई। जो
मैं ठहरा था
तो इन दीवालों
की वजह से
थोड़े ही ठहरा
था। ठहरा था
इस वजह से कि
मेरा है, मकान
है, निवास
है। लेकिन अब
तुम कहते हो
सराय है; तो
ठीक है, तुम
ठहरो, मैं
जाता हूं।
वह
सम्राट छोड़ कर
चला गया। इस
सम्राट ने
त्याग किया? नहीं, मकान
नहीं था, सराय
थी--यह दिखाई
पड़ गया, बात
खतम हो गई।
सराय का कोई
त्याग करता है?
सराय का कोई
त्याग नहीं
करता। सराय
में ठहरता है
और विदा होता
है।
ऐसा
बोध महावीर
जन्म के साथ
लेकर पैदा हुए
हैं। ऐसा बोध
हम चाहें तो
इस जन्म में
भी उपलब्ध हो
सकता है। और
ऐसे बोध के
लिए जो जरूरी
है, वह
संपत्ति का
त्याग नहीं, संपत्ति के
सत्य का अनुभव
है। संपत्ति
का त्याग हो
सकता है उतना
ही
अज्ञानपूर्ण
हो, जितना
संपत्ति का
संग्रह था।
इसलिए प्रश्न
संग्रह और
त्याग का नहीं
है, प्रश्न
सत्य के अनुभव
का है।
संपत्ति क्या
है? है कुछ
मेरी?
यह बोध
त्याग बनता
है। लेकिन ऐसा
त्याग किया नहीं
जाता। इसलिए
ऐसे त्याग के
पीछे कर्ता का
भाव इकट्ठा
नहीं होता।
ऐसे त्याग के
पीछे कर्ता का
भाव इकट्ठा
नहीं होता। और
जिस कर्म के
पीछे कर्ता का
भाव इकट्ठा
नहीं होता, उस कर्म से
कोई बंधन पैदा
नहीं होता है।
और जिस कर्म
से भी कर्ता
का भाव पैदा
होता है, वह
कर्म बंधन का
कारण हो जाता
है। यानी कर्म
कभी नहीं बांधता,
कर्म के साथ
कर्ता का भाव
जुड़ा हो तो ही बांधता
है। और कर्ता
का जो भाव है, वही हमारा
कारागृह
है--अहंकार।
तो
महावीर से अगर
कोई कहे कि यह
तुमने त्याग किया? तो वे
हंसेंगे, कहेंगे,
किसका
त्याग? जो
मेरा नहीं था,
वह नहीं था,
यह मैंने
जान लिया।
त्याग कैसे
करूं? त्याग
दोहरी भूल
है--भोग की
दोहरी भूल।
भोग पीछा नहीं
छोड़ रहा है।
तो
पहली तो बात
यह समझ लें कि
महावीर जैसे
व्यक्ति को
त्यागी कहने
की भ्रांति
में कभी नहीं पड़ना
चाहिए, सिर्फ
अज्ञानी
त्यागी हो
सकते हैं, ज्ञानी
कभी त्यागी
नहीं होते।
ज्ञानी इसलिए त्यागी
नहीं होते, क्योंकि
ज्ञान तो
त्याग है ही, उसे त्यागी
होना ही नहीं
पड़ता। उसके
लिए कोई प्रयास,
कोई इफर्ट,
कोई श्रम
नहीं उठाना
पड़ता।
अज्ञानी को
त्याग करना
पड़ता है और
श्रम लेना
पड़ता है, संकल्प
बांधना पड़ता
है, साधना
करनी पड़ती है।
अज्ञानी को
त्याग करना पड़ता
है। अज्ञानी
के लिए त्याग
एक कर्म है।
और इसलिए अज्ञानी
का जब त्याग
होता है तो
अज्ञानी त्याग
किया, ऐसे
कर्ता का
निर्माण कर
लेता है। यह
कर्ता उसका
पीछा करता है।
और यही कर्ता
गहरे में
हमारा
परिग्रह है।
संपत्ति
हमारा
परिग्रह नहीं
है--कर्ता, वह
जो डुअर
है, मैंने
किया, वही
हमारा...।
कभी
आपने सोचा, रात आप सपना
देखते हैं और
नींद में आपने
एक आदमी की
हत्या कर दी।
सुबह आप उठे
और आपको याद
आया कि सपने में
एक आदमी की
हत्या कर दी
है। फिर क्या
आप ऐसा कहते
हैं कि यह
हत्या मैंने
की? चूंकि
ऐसा नहीं कहते,
इसलिए कोई
पश्चात्ताप
भी नहीं पकड़ता
है। आप सुबह
बिलकुल
हलके-फुल्के
हैं। एक आदमी
की हत्या की
है रात, और
सुबह आप मस्त
हैं। क्योंकि
सपने में आप
द्रष्टा रहे,
कर्ता नहीं
हो पाए। सुबह
आप जानते हैं
सपना देखा था।
सुबह आप जानते
हैं--सपना
देखा था। इसलिए
रात हत्या कर
दी है, तो
अब सुबह से
हाथ-पैर नहीं
धो रहे हैं, पछता नहीं
रहे हैं और घबड़ा
भी नहीं रहे
हैं कि पाप हो
गया। आप जानते
हैं कि देखा
था सपना। या
हो सकता है
सपने में आप संन्यासी
हो गए हों, सब
त्याग कर दिया
हो, लेकिन
सुबह आप हंसते
हैं, क्योंकि
फिर द्रष्टा
हो गए आप। आप
द्रष्टा हो गए
फिर।
हां, हो सकता है
सपने में जब
सोए रहे हों
तो हत्या करके
भागे हों, छाती
धड़क गई हो,
पसीना छूट
गया हो, छिप
गए हों कि अब
फंसे, अब
फंसे। और हो
सकता है सपने
में जब त्याग
किया हो तो
अकड़ कर चले
हों, फूलमालाएं पहनी हों, रास्ते पर
जुलूस निकले
हों, स्वागत-
सत्कार हुआ हो
और अकड़ कर
समझा हो कि हां
मैंने सब कुछ
त्याग कर
दिया। लेकिन
सुबह जाग कर
आप कहते हैं
सपना था। सपना
था का मतलब यह
कि मैं
द्रष्टा था।
अब इस
बात को ठीक से
समझ लेना कि
जिस चीज के हम
द्रष्टा हो
जाते हैं, वह सपना हो
जाती है। जिस
चीज के भी हम
द्रष्टा हो
जाते हैं, वह
सपना हो जाती
है। और जिस
चीज के हम
कर्ता हो जाते
हैं, वह
सत्य हो जाती
है। चाहे वह
सपना ही हो, जब हम कर्ता
हो जाते हैं
सपने में, तो
वह सत्य हो
जाता है सपना।
और चाहे जीवन
का सत्य ही
क्यों न हो, जब हम
द्रष्टा हो
जाते हैं, तब
वह सपना हो
जाता है।
यानी
सपने को अगर
सत्य बनाना हो
तो कीमिया, जो केमिकल फार्मूला
है, वह यह
है कि आप
द्रष्टा भर मत
होना। अगर
सपने को सत्य
बनाना हो तो
उसकी
केमिस्ट्री
यह है कि आप
द्रष्टा भर मत
होना, आप
कर्ता हो जाना,
तो सपना
बिलकुल सत्य
हो जाएगा। और
ठीक इससे उलटी
कीमिया यह है
कि आप जिसको
सत्य कहते हैं,
उसके आप
द्रष्टा हो
जाना, कर्ता
भर मत बनना, और सब सत्य
एकदम सपना हो
जाएगा।
तो
महावीर छोड़ कर
इसलिए नहीं जा
रहे हैं कि अपना
था और छोड़ना
है, और छोड़
रहे हैं। नहीं,
एक सपना टूट
गया और
द्रष्टा हो गए
हैं और बाहर हो
गए हैं। अब
कोई लौट कर
उनसे कहे भी
कि कितनी संपदा
थी जो वह छोड़ी?
तो वे कहेंगे,
सपने की कोई
संपदा होती है?
सपने में
कोई त्याग
होता है?
भोग भी
सपना है, त्याग
भी सपना है, क्योंकि
दोनों हालत
में कर्ता
मौजूद है। इसलिए
ज्ञानी न
त्यागी है, न भोगी है, सिर्फ
द्रष्टा रह
गया है। और
इसलिए जो भी
द्रष्टा रह
जाए उसके जीवन
से भोग और
त्याग दोनों एक
साथ विदा हो
जाते हैं। ऐसा
नहीं कि त्याग
बच रहता है और
भोग विदा हो
जाता है। भोग
और त्याग एक
ही सिक्के के
दो पहलू थे, वह फिंक
जाता है। और
दूसरी दृष्टि
से देखें तो
इसका अर्थ ही
वीतराग हुआ।
अगर
मैं कर्ता
नहीं हूं तो वीतरागता
फलित हो जाएगी
और अगर मैं
कर्ता हूं तो
या राग फलित
होगा या विराग
फलित होगा, या भोग होगा
या त्याग होगा,
या दुख होगा
या सुख होगा।
द्वंद्व में
सब कुछ होगा, लेकिन
निर्द्वंद्व
कुछ भी नहीं
हो पाएगा।
तो
महावीर त्याग
करते हैं, ऐसी धारणा
है। जो उन्हें
मानते हैं, उनके
अनुयायी हैं,
उनके पीछे
चलते हैं, उन
सबकी ऐसी
धारणा है कि
वे त्याग करते
हैं, महात्यागी
हैं। और मुझे
लगता है, इसमें
वे केवल अपने
भोग की वृत्ति
की खबर दे रहे
हैं, महावीर
का उन्हें कुछ
भी पता नहीं
है। और यह सवाल
महावीर का
नहीं है, दुनिया
में जब भी
किसी व्यक्ति
से त्याग हुआ
है तो वह ऐसे
ही हुआ है।
मैंने
सुना है, एक
फकीर रात एक
सपना देखा। और
सुबह उठा, तो
जो शिष्य उसका
पास से गुजरता
था, उसने
कहा, सुनो
जरा, मैंने
एक सपना देखा
है, क्या
तुम उसकी
व्याख्या
करोगे? तुम
व्याख्या कर
सकोगे? मैंने
एक बहुत अदभुत
सपना देखा है।
उसने कहा, ठहरिए, मैं
अभी व्याख्या
किए देता हूं।
वह शिष्य गया
और पानी का
भरा हुआ घड़ा
उठा लाया।
उसने कहा, जरा
आप अपनी आंख
धो डालिए। वह
गुरु खूब
हंसने लगा है।
तभी एक दूसरा
शिष्य गुजर
रहा है, उसने
कहा, सुनो-सुनो,
एक मैंने
बहुत अदभुत
सपना देखा है
और इस नासमझ
को मैंने कहा
था कि
व्याख्या कर,
तो यह पानी
का घड़ा ले आया
और कहता है कि
मुंह धो डालिए।
तुम व्याख्या
करोगे?
उसने
कहा, एक दो
क्षण रुकें,
मैं अभी
आया। वह एक कप
में चाय लेकर
आ गया है और कहा,
अगर मुंह धो
लिया हो तो
थोड़ा चाय पी
लें। तो गुरु
खूब हंस रहा
है और वह कहता
है कि अगर आज
यह घड़ा न लाया
होता तो इसको
मैंने कान पकड़
कर बाहर कर दिया
होता और अगर
आज तू चाय
लेकर न आ गया
होता तो अब इस
आश्रम में
ठहरने का उपाय
न था। सपने की
कहीं
व्याख्या
करनी होती है?
सपना सपना
दिख गया, बात
खतम हो गई।
सपने की भी
कहीं
व्याख्या
करनी होती है?
तो ठीक ही
किया कि पानी
ले आया, उसने
कहा, हाथ-मुंह
धो डालिए, बात
खतम हो गई, अब
क्या मामला
है। अब
हाथ-मुंह धो
डालना ही काफी
है। अब और कोई
व्याख्या की
जरूरत नहीं।
सपने
की कोई
व्याख्या
नहीं करनी
होती। व्याख्या
सदा सत्य की
होती है, सपने
की नहीं हो
सकती। सपने की
क्या
व्याख्या? सपने
का बोध त्याग
है। सपने का
बोध! जो जीवन
हम जी रहे हैं,
वह एक सपने
की भांति
है--इस बात का
बोध, फिर
कहां कुछ पकड़ता
है?
मैंने
सुना है, एक
सम्राट का
बेटा मर रहा
है। वह उसकी
खाट के पास
बैठा है। चार
दिन, पांच
दिन, दस
दिन बीत गए
हैं और बेटा
रोज डूबता जा
रहा है। और एक
ही लड़का है और
बचने की कोई
उम्मीद नहीं।
वही आशा थी
बुढ़ापे की, वही भविष्य
था। वह सम्राट
न सो पाता है, न जग पाता है,
बेचैन है, परेशान है।
और
चिकित्सकों
ने कह दिया है
कि आज रात
बेटे के बचने
की कोई उम्मीद
नहीं।
तो
सम्राट उसी के
पास कुर्सी
रखे बैठा है, कब बेटे की
सांस टूट जाए,
कुछ पता
नहीं। जितनी
देर साथ रह
लें, उतना
ही अच्छा। कई
दिन का जगा है,
कोई रात दो
बजे सम्राट की
नींद लग गई
है। और उसने
एक सपना देखा
है कि उसके
बारह बेटे हैं,
इतने सुंदर,
इतने
स्वस्थ, जैसे
कभी देखे नहीं,
जैसे कभी
किसी के हुए
नहीं। बड़ा
चक्रवर्ती
सम्राट है, सारी पृथ्वी
का राजा है।
अदभुत स्फटिक
के महल हैं।
स्वर्ण-पथ
हैं। सुंदर नारियां
हैं, सुंदर
पत्नियां
हैं, सब
सुख हैं। कोई
सुख की कमी
नहीं।
और तभी
वह जो बेटा
बाहर पड़ा था, वह मर गया
है। राजा की
पत्नी चिल्ला
कर रोई है।
सपना टूट गया
है। और राजा चुपचाप
बैठा रह गया
है। थोड़ी देर
चुप रहा, फिर
हंसने लगा, फिर रोने
लगा, फिर
हंसने लगा।
उसकी पत्नी ने
कहा, आपको
क्या हो गया!
आप पागल तो
नहीं हो गए?
उसने
कहा, पागल? कह
नहीं सकता
पहले पागल था
कि अब पागल हो
गया हूं। मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया
हूं। रानी ने कहा,
मुश्किल? मुश्किल की
क्या बात है? और क्या
मुश्किल है, बेटा मर गया
है, यही
बड़ी मुश्किल
है।
उसने
कहा, यह सवाल न
रहा। अब मैं
दिक्कत में
हूं कि मेरे बारह
बेटे मर गए, उनके लिए
रोऊं कि मेरा
एक बेटा यह मर
गया मैं इसके
लिए रोऊं--मैं
रोऊं किसके
लिए? या
तेरह के लिए इकट्ठा
रोऊं? तो
तेरह के लिए
इकट्ठा रोना
बड़ा मुश्किल
है, क्योंकि
तेरह होते
नहीं। वे बारह
एक सपने के थे
और जब मैं उस
सपने में था, तब यह था ही
नहीं लड़का, कहां गया था
मुझे पता नहीं,
खो गया था।
और अब जग गया
हूं तो यह एक
ही बचा है, अब
वे बारह खो गए
हैं। और जैसे उन
बारह के साथ
यह एक बिलकुल
भूल गया था, वैसे इस एक
के साथ वे
बारह बिलकुल
भूल गए हैं। क्या
सच है क्या
झूठ है, मैं
इस मुश्किल
में पड़ गया
हूं। रोऊं तो
किसके लिए
रोऊं? उन
बारह के लिए
रोऊं या इस एक
के लिए रोऊं? या तेरह के
लिए रोऊं? और
तेरह का जोड़
नहीं बनता। और
या फिर किसी
के लिए न
रोऊं।
क्योंकि एक
सपना बनता है,
एक टूट जाता
है, एक
बनता है, दूसरा
बन जाता है।
रोऊं किसके
लिए? मैं
पागल था। अब
मैं पागल नहीं
हूं।
तो इस
राजा को हम यह
न कहेंगे कि
इसने अपने बेटे
का मोह त्याग
दिया। नहीं, यह बात ही
व्यर्थ होगी
अब। अब हम यह न
कहेंगे कि
इसने बेटे का
मोह त्याग
दिया, यह
अनासक्त हो
गया, यह
निर्मोही हो
गया। नहीं, यह हम कुछ भी
न कहेंगे। अब
हम सिर्फ इतना
ही कहेंगे कि
बेटा सत्य न
रहा।
निर्मोही
होने के लिए
भी बेटे का
सत्य होना
जरूरी है।
मोही होने के
लिए भी बेटे
का सत्य होना
जरूरी है। अब
हम इतना ही
कहेंगे, बेटा
एक सपना हो
गया, बात
खतम हो गई। अब
यह राजा को
बेटे का मोह
छूट गया, ऐसा
नहीं; बेटा
सत्य ही न
रहा।
और अगर
बेटा सत्य न
रहे तो क्या
बाप सत्य रह
जाएगा? इससे
हम और थोड़ा
भीतर जाएंगे
तो पता चलेगा
कि जब बेटा
असत्य हो गया
तो बाप की
क्या सत्यता
रह जाएगी? उन
बारह बेटों के
साथ वह बाप भी
तो मर गया, जो
सपने में था, वह अब कहां
है? इस
बेटे के साथ
इसका बाप भी
मर गया, वह
अब कहां है?
अगर
जीवन का एक
कोना भी सपना
हो जाए--इसे
ध्यान से ले
लें--अगर जीवन
का एक कोना भी
सपना हो जाए तो
आप फिर पूरे
जीवन को सपना
होने से न बचा
सकेंगे, क्योंकि
सब इंटरलिंक्ड
है। अगर बेटा
असत्य है तो
बाप असत्य हो
गया। फिर सत्य
क्या बचेगा? सब संबंध
असत्य हो गए।
अगर जीवन का
एक कोना भी दिखने
लगे कि सपना
है तो वह सपना
पूरे जीवन पर फैल
जाएगा और सपने
का एक कोना
अगर दिखने लगे
यह सत्य है तो
वह सत्य पूरे
सपने पर फैल
जाएगा।
यहां
जिंदगी के जो
अनुभव हैं, वे टोटल हैं,
खंड-खंड
नहीं हैं। ऐसा
नहीं कह सकता
कोई आदमी कि
एक चीज भर
मेरे लिए जीवन
में सपना होगी,
बाकी सब
सत्य है। अगर
ऐसा कोई आदमी
कहता है तो वह
गलती में पड़ा
हुआ है, सपना
उसे कुछ भी
नहीं हुआ है।
सपना होगा तो
पूरा सपना हो
जाता है। और
सत्य होगा तो
पूरा सत्य
रहता है। सपने
और सत्य के
बीच कोई
समझौता नहीं
हो सकता--बारह
बेटे और एक
बेटे को जोड़ा
नहीं जा सकता,
तेरह नहीं
हो सकते।
महावीर
को ऐसा जो बोध
है, वह बोध
उनका त्याग बन
गया है। ऐसा
हमें दिखा कि
त्याग बन गया
है, क्योंकि
हम भोगी हैं
और हम सिर्फ
त्याग की भाषा
समझ सकते हैं।
और इसलिए
हैरानी होगी,
त्यागियों
के पास भोगी
इकट्ठे हो
जाते हैं, क्योंकि
सिर्फ भोगी ही
त्याग को पकड़
पाते हैं। और
यह अदभुत बात
है कि महावीर
जैसे
अपरिग्रही के
लिए, अगृही के लिए, महावीर
जैसे सब कुछ
त्याग में खड़े
व्यक्ति के
पीछे जो वर्ग
इकट्ठा हुआ, वह अत्यंत
भोगी, अत्यंत
परिग्रही है!
अब महावीर के
पीछे जैनों की
जो परंपरा खड़ी
है, वह
जैनों से
ज्यादा धनी, परिग्रही, सब इकट्ठा
करने वाले लोग
इस मुल्क में
दूसरे नहीं
हैं।
यह
थोड़ा
विचारणीय है।
इसके पीछे
अर्थ है। इसके
पीछे अर्थ यह
है कि त्याग की
भाषा भोगी को
बहुत पकड़ती
है और भोगी
आस-पास इकट्ठा
खड़ा हो जाता
है। और एक
उलटा जाल बन
जाता है। और
यह सदा हुआ
है।
अब
जीसस जैसे
आदमी के
पीछे--जो कहता
है, जो
तुम्हारे एक
गाल पर चांटा
मारे दूसरा कर
देना; जो
कहता है, कोई
तुम्हारा कोट
छीने तो कमीज
भी दे देना--उस आदमी
के पीछे जो
लोग इकट्ठे
हुए, उन्होंने
जितनी तलवार
चलाई जमीन पर
और जितना खून
किया, उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
असल
में, जो बहुत
घृणा से भरे
हैं उन्हें
प्रेम की भाषा
एकदम पकड़
लेगी। वह उनकी
कमी है। वे
उसे पूरा कर
लेना चाहते
हैं। भोगी
त्याग से अपने
को पूरा कर
लेना चाहता
है। खुद नहीं
त्याग कर सकता,
कोई बात
नहीं, त्यागी
को पकड़ लेता
है। प्रेम की
जिनके मन में
कमी है, वे
कुछ नहीं कर
सकते खुद तो
एक प्रेम का
संदेश देने
वाले को पकड़
लेते हैं।
सारी दुनिया
में सदा ऐसा
हुआ है।
अनुयायी
अक्सर गुरु से
उलटे होते हैं,
क्योंकि
उलटी चीजें
लोगों को
आकर्षित करती
हैं और पास
बुला लेती
हैं। और ये जो
उलटे लोग हैं,
ये जो भी
रिकार्ड
स्थापित करते
हैं, वह
एकदम गलत होता
है, क्योंकि
वह इनका सूचक
होता है।
इसलिए
दुनिया के उन
सारे लोगों के
संबंध में...मन
का जो द्वंद्व
है और उलटा
होना है, उसमें
एक-दो बातें
और समझ लेनी
जरूरी हैं। हम
सबके मन दो
खंडों में
बंटे हुए
हैं--चेतन और
अचेतन में
बंटे हुए हैं।
एक मन जिसे हम
जानते हैं और
एक मन जिसे हम
खुद भी नहीं
जानते हैं। और
मन के रहस्यों
में जो सबसे
कीमती रहस्य
है, वह यह
है कि जो
हमारे चेतन मन
में होता है
उससे ठीक उलटा
हमारे अचेतन
मन में होता
है।
अगर
चेतन मन में
कोई आदमी बहुत
विनम्र है, बहुत हंबल,
तो अचेतन मन
में बहुत ईगोइस्ट,
बहुत
अहंकारी
होगा। यानी
चेतन मन से
ठीक उलटा उसका
अचेतन होगा।
अचेतन उलटा ही
होता है। और
हमें उसका कोई
पता नहीं होता
कि हमारा ही मन
का बड़ा हिस्सा
पीछे छिपा हुआ
हमसे उलटा है।
और वह अचेतन
ही इसलिए हो
जाता है कि हम
उलटे हिस्से
को दबाते जाते
हैं, वह
पीछे अंधेरे
में छिपता चला
जाता है। जो
हमें
प्रीतिकर है,
उसे हम चेतन
में बचा लेते
हैं; और जो
अप्रीतिकर है,
उसे पीछे
हटा देते हैं।
यह जो पीछे
हमारे मन बैठा
हुआ है, यह
ठीक उलटा होता
है--जैसे हम
ऊपर से दिखाई
पड़ते हैं, उससे।
तो ऊपर
से जो आदमी
त्याग की बहुत
प्रशंसा कर रहा
हो, उसके
अचेतन में भोग
की आकांक्षा
होती है। और अगर
किसी आदमी ने
जान कर त्याग
किया, चेष्टा
करके त्याग
किया, तो
त्याग करते से
ही उसका मन
भोग की
आकांक्षा में
लीन हो जाएगा।
क्योंकि वह
पीछे छिपा हुआ
मन अपनी मांग
शुरू कर देगा।
और इसलिए आप
कोई भी काम
करके देखें, हमेशा मन
उलटी बातें
करता रहेगा।
अगर
कोई आपको गाली
दे और आप झगड़ा
करके लड़ लें
तो घर लौट कर
आप पाएंगे कि
पश्चात्ताप
हो रहा है: यह
ठीक नहीं किया, यह बुरा
किया कि गाली
का जवाब गाली
से दिया कि क्रोध
किया। लेकिन
आप ऐसा मत
सोचना कि आपने
इससे उलटा
किया होता तो
कोई फर्क पड़ने
वाला था।
अगर
कोई ने गाली
दी होती और आप
बिना गाली दिए
हुए चुपचाप घर
लौट आए होते
तो मन कहता कि
बहुत बुरा
किया, ऐसे
चुपचाप लौट
आना ठीक है
क्या? जब
उसने गाली दी
थी तो अन्याय
को सहना उचित
है क्या? आप
जो करके आएंगे,
मन उलटे का
सुझाव पीछे से
देना शुरू
करेगा। आप जो
भी निर्णय
लेंगे, उससे
उलटा निर्णय
भी आपके मन
में संगृहीत
होगा।
इसलिए
गुरजिएफ एक
फकीर था, तो
जब भी कोई
साधक उसके पास
आता तो आठ-दस
दिन तो उसे
खिलाना-पिलाना,
और इतनी
शराब पिलाना
जिसका कोई
हिसाब नहीं। उसकी
बड़ी बदनामी हो
गई, इसलिए
कोई उसके पास
न जाए कि वह
शराब पहले पिलाएगा।
और वह तो नियम
था। जो शराब
पीने को इनकार
करे, उसे
तो वह सीमा के
भीतर न घुसने
दे, अपने
पास न आने दे।
और आठ-दस दिन
रात दो-दो बज
जाएंगे, तीनत्तीन बज जाएंगे, वह शराब पर
शराब पिलाए
जाएगा अपने
हाथ से। और इन
आठ-दस दिनों
में जब वह
आदमी बार-बार
बेहोश हो
जाएगा, तभी
गुरजिएफ उसका
अध्ययन करेगा
कि वह आदमी है कैसा।
क्योंकि जो वह
ऊपर से दिखला
रहा है, उससे
ठीक उसका उलटा
भीतर बैठा हुआ
है।
तो वह
यह कहता था कि
मैं तुम्हारे
फाल्स फेस से, तुम्हारे
झूठे चेहरे के
साथ मेहनत
नहीं करूंगा।
तुम्हारे
भीतर क्या है,
उसे मुझे
जान लेना
जरूरी है।
अब वह
जो आदमी बड़ी
अच्छी-अच्छी
बातें कर रहा
था, वह शराब
पीकर एकदम
गालियां बक
रहा है। ये
गालियां बकने
वाला आदमी
भीतर बैठा है।
कभी
आपने सोचा, शराब
गालियां बना
सकती है? शराब
के पास कोई
ताकत नहीं है
कि गालियों को
निर्मित कर
दे। गालियां
भीतर दबा ली
हैं और सदवचन
ऊपर इकट्ठे कर
लिए हैं। तो
जब शराब पीते
हैं तो चेतन
मन बेहोश हो
गया। अब वह जो
भीतर है, वह
निकलना शुरू
हो गया।
यह बड़े
आश्चर्य की
बात है, अगर
साधु-संतों को
शराब पिलाई
जाए तो उनके
भीतर से
हत्यारे, व्यभिचारी
निकलेंगे। और
अगर व्यभिचारियों
को शराब पिलाई
जाए तो उनके
भीतर से
साधु-संत की
झलक भी मिल
सकती है, क्योंकि
उलटा भीतर
बैठा हुआ है।
वह जो आदमी निरंतर
पाप कर रहा है,
वह निरंतर
आकांक्षा कर
रहा है: कब
छुटकारा होगा
इससे? कैसे
इससे बाहर
निकलूंगा? यह
सब क्या हो
रहा है? इससे
मैं कैसे बाहर
जाऊं?
यह जो
बात है कि हम
अपने से उलटा
अपने भीतर
इकट्ठा कर
लेते हैं, अगर यह
हमारे खयाल
में हो तो हम
महावीर को भूल
कर त्यागी
नहीं कहेंगे।
भूल कर त्यागी
कहेंगे ही
नहीं।
क्योंकि
महावीर जैसा
व्यक्तित्व इंटिग्रेटेड
होता है, उसके
भीतर दो खंड
नहीं होते, एक ही होता
है। अगर वह
भोग करेगा तो
पूरा, अगर
त्याग करेगा
तो पूरा, इसमें
दो हिस्से
नहीं होते। वह
जो भी करेगा, उसमें पूरा
मौजूद होगा।
जैसे हम
समुद्र को कहीं
से भी चखें और
वह खारा होगा,
ऐसे महावीर
जैसे व्यक्ति
को हम कहीं से
भी पकड़ें,
वह वही होगा,
जैसा है।
हम ऐसे
नहीं हैं।
हमें अलग-अलग
कोनों से पकड़ा
जाए तो हममें
से अलग-अलग
आदमी
निकलेंगे।
मंदिर में
हममें से एक
आदमी निकलता
है, शराबखाने में हममें
से दूसरा आदमी
निकलता है, मित्र के
साथ तीसरा
निकलता है, दुश्मन के
साथ चौथा
निकलता है, दुकान पर
पांचवां
निकलता है, ताश खेलते
वक्त छठवां
निकलता है।
हमारे भीतर के
आदमी का हिसाब
नहीं है कि
हमारे कितने
चेहरे हैं, जो हम
वक्त-वक्त पर
निकाल लेते
हैं।
ठीक
अर्थों में
त्याग उसी
व्यक्ति से
फलित हो सकता
है, जिसका
व्यक्तित्व
पूरा अखंड हो
गया। ऐसे व्यक्ति
का भोग भी
त्याग ही है, क्योंकि ऐसे
व्यक्ति में
दो हिस्से ही
नहीं हैं। इसमें
उलटे हिस्से
नहीं हैं इस
व्यक्ति के
भीतर। इसलिए
इसमें दूसरे
व्यक्तित्व
के उदय होने की
कभी कोई
संभावना नहीं
है।
लेकिन
हमने तो
द्वंद्व की
भाषा में सब
सोचा है। दो
में तोड़े बिना
हम सोच नहीं
सकते। तो हम
कहेंगे:
महावीर
त्यागी हैं, भोगी नहीं।
हम कहेंगे:
क्षमावान हैं,
क्रोधी
नहीं। हम
कहेंगे:
अहिंसक हैं, हिंसक नहीं।
हम कहेंगे:
दयापूर्ण हैं,
क्रूरतापूर्ण
नहीं। हम दो
हिस्सों में तोड़त्तोड़
कर चलेंगे। और
तब हम महावीर
जैसे व्यक्ति
को कभी भी
नहीं समझ पा
सकते हैं।
अखंड
व्यक्ति में
द्वंद्व
विलीन हो जाता
है। न वहां
त्याग है, न वहां भोग।
वहां एक नई ही
घटना घटी है, जिसके लिए
शब्द खोजना
मुश्किल है।
या तो हम उसे त्यागपूर्ण
भोग कहें या भोगपूर्ण
त्याग कहें।
एक ऐसी घटना
घटी है, जिसे
एक शब्द से
चुन कर नहीं
पकड़ा जा सकता।
या तो हम उसे
क्रोधपूर्ण
क्षमा कहें या
क्षमापूर्ण
क्रोध कहें।
दो टुकड़ों
को अलग करके
नहीं कहा जा
सकता।
और
क्रोधपूर्ण
क्षमा का क्या
मतलब होता है? क्षमापूर्ण
क्रोध का क्या
मतलब होता है?
कोई मतलब
नहीं होता। वे
मीनिंगलेस
हैं, अर्थहीन
हैं। जिसे हम
कहें
मित्रतापूर्ण
शत्रु या
शत्रुतापूर्ण
मित्र, इसका
क्या मतलब
होगा? इसका
कोई मतलब नहीं
होगा। या तो
शत्रु का मतलब
होता है या
मित्र का मतलब
होता है। इन
दोनों को मिला
देने से कोई
मतलब नहीं
होता।
इसलिए
ठीक रास्ता यह
है कि हम
दोनों का
निषेध कर दें, वहां दोनों
नहीं हैं। न
वहां त्याग है,
न वहां भोग
है। लेकिन
हमारा मन होता
है कि वहां है
क्या? वहां
कुछ तो होना
चाहिए! वहां
है क्या? न
वहां घृणा है,
न वहां
प्रेम है। न
वहां हिंसा है,
न वहां
अहिंसा है।
फिर वहां है
क्या?
तो
चूंकि हम
समझने में
मुश्किल हो
जाएंगे कि वहां
क्या है, इसलिए
हमने उचित
समझा है कि जो
बुरा है, उसे
इनकार कर दो, जो भला है, उसे स्थापित
कर दो। कह दो:
महावीर भोगी
नहीं हैं, त्यागी
हैं; कह दो:
हिंसक नहीं
हैं, अहिंसक
हैं; क्रोधी
नहीं हैं, क्षमावान
हैं। लेकिन
द्वंद्व को
बचा लो।
अब
हमने कभी सोचा
ही नहीं है कि
जो आदमी क्रोधी
नहीं है, वह
क्षमा कैसे
करेगा? जिसे
कभी क्रोध
नहीं हुआ, वह
क्षमा कैसे
करेगा? किसको
क्षमा करेगा?
कैसे क्षमा
करेगा? क्षमा
के पहले क्रोध
अनिवार्य है।
और जो आदमी भोगी
नहीं है, वह
त्यागी का
उसका क्या
अर्थ होता है?
कोई अर्थ ही
नहीं होता।
क्योंकि भोगी
ही सिर्फ
त्यागी हो
सकता है। वे
दोनों जुड़े
हैं साथ-साथ, इकट्ठे हैं।
लेकिन हमारी
कल्पना में
चूंकि यह नहीं
आता, इसलिए
हम एक खंड को
हटा कर एक को
बचा लेना चाहते
हैं।
असल
में वह हमारी
आकांक्षा का
सबूत है, महावीर
के सत्य का
नहीं। हम
चाहते हैं कि
हमारे भीतर
क्रोध न हो, क्षमा हो; हिंसा न हो, अहिंसा हो; परिग्रह न
हो, अपरिग्रह
हो; बंधन न हो,
मोक्ष हो।
यह हमारी
चाहना है। और
हमारी चाहना बताती
है कि क्या
है। घृणा है, चाहते हैं
हम प्रेम हो!
हिंसा है, चाहते
हैं अहिंसा
हो! बंधन है, चाहते हैं
मुक्ति हो!
हमारी चाह दो
बातें बताती
है। हमारी चाह
का मतलब ही
होता है, जो
नहीं है, उसकी
ही चाह होती
है। हम हैं
कुछ और, और
चाहते ठीक
उलटे को हैं, इसी को हम
थोप लेते हैं।
जिन्हें हम
आदर्श पुरुष
बना लेते हैं,
उन पर थोप
देते हैं। और
उस व्यक्ति को
समझना मुश्किल
हो जाता है।
क्या
यह संभव नहीं
है कि एक
व्यक्ति में
दोनों न हों? इसमें
कठिनाई क्या
है? इसमें
कठिनाई क्या है
कि एक व्यक्ति
में न प्रेम
हो, न घृणा
हो? जरूरी
क्यों है कि
इन दो में से
कोई एक हो ही? न भोग हो, न
त्याग हो।
जरूरी क्या है
कि दोनों में
से कोई एक हो
ही? लेकिन
हमारी
कंसेप्शन में,
हमारी
धारणा में आना
मुश्किल हो
जाएगा कि ऐसा आदमी
कैसा होगा, जिसमें
दोनों नहीं
हैं।
और
जिसमें दोनों
नहीं हैं, वही अखंड हो
सकता है, नहीं
तो खंड-खंड
होगा, टुकड़े-टुकड़े
में होगा। और
जिसमें दोनों
नहीं हैं, वही
मुक्त हो सकता
है, क्योंकि
द्वंद्व में
कोई मुक्ति
कभी संभव नहीं
है। और इसलिए
महावीर जैसे
व्यक्ति
बेबूझ हो जाते
हैं, हमारी
पकड़ के बाहर
हो जाते हैं।
चीन
में एक दस
चित्र हैं। और
किसी अदभुत
चित्रकार ने
वे दस चित्र
बनाए हैं।
पहला चित्र है, जिसमें एक
आदमी अपने
घोड़े पर सवार
जंगल की तरफ
जा रहा है।
पहले चित्र
में घोड़े पर
सवार एक आदमी
जंगल की तरफ
जा रहा है।
लेकिन कुछ बात
ऐसी है कि
आदमी कहीं और
जाना चाहता है,
घोड़ा कहीं
और जाना चाहता
है, इसलिए
बड़ा तनाव है।
और घोड़ा वहां
कैसे जाना चाहे,
जहां आदमी
जाना चाहता है?
घोड़ा घोड़ा
है, आदमी
आदमी है। और
आदमी को घोड़ा
कैसे समझे? घोड़े को
आदमी कैसे
समझे? तो
घोड़ा किसी और
रास्ते पर
जाना चाहता है,
आदमी किसी
और रास्ते पर
जाना चाहता
है। बड़े तनाव
में दोनों उस
चित्र में
हैं।
दूसरे
चित्र में
घोड़ा आदमी को
पटक कर भाग
गया है। असल
में आदमी ने
घोड़े पर चढ़ने
की कोशिश की
तो घोड़ा आदमी
को पटकेगा।
अब जिस पर हम चढ़ेंगे, वह हमको पटकेगा।
तो आदमी को
पटक कर घोड़ा
भाग गया। आदमी
पड़ा है परेशान
और घोड़ा भाग
गया है!
तीसरे
चित्र में
आदमी घोड़े को
खोजने निकला
है। घोड़े का
कहीं कोई पता
नहीं चल रहा
है। जंगल ही
जंगल है और
आदमी घोड़े को
खोजने निकला
है।
चौथे
चित्र में
घोड़े की पूंछ
एक वृक्ष के
पास भर दिखाई
पड़ती
है--सिर्फ
पूंछ।
पांचवें
चित्र में
आदमी पास पहुंच
गया है और
पूरा का पूरा
घोड़ा दिखाई
पड़ता है। और
छठवें चित्र
में आदमी ने
घोड़े की पूंछ पकड़
ली है। और
सातवें चित्र
में आदमी फिर
घोड़े पर सवार
हो गया है। और
आठवें चित्र
में फिर घोड़े
पर सवार होकर
घर की तरफ
वापस लौट रहा
है। नौवें
चित्र में
घोड़े को बांध
दिया है, आदमी
उसके पास बैठा
है, घोड़ा
बिलकुल शांत
है, आदमी
बिलकुल शांत
है। दसवें
चित्र में
दोनों खो गए
हैं, सिर्फ
जंगल रह गया
है--न घोड़ा है, न आदमी है।
ये दस
चित्र पूरी
साधना के
चित्र हैं।
लेकिन आखिरी
चित्र में
दोनों खो गए
हैं। लड़ाई ही
खो गई है, द्वंद्व
ही खो गया है।
नौ चित्रों
में बहुत तरह
से लड़ाई चली
है। और जब तक
लड़ाई चलती रही
है, जब तक
दोनों हैं, तब तक कुछ न
कुछ उपद्रव
होता रहा है।
लेकिन आखिरी
चित्र में
दोनों ही खो
गए हैं; अब
न घोड़ा है, न
घोड़े का मालिक
है, कोई भी
नहीं है, खाली
चित्र रह गया
है।
जिंदगी
में द्वंद्व
की लड़ाई है।
क्रोध से हम
लड़ रहे हैं, घृणा से हम
लड़ रहे हैं, हिंसा से हम
लड़ रहे हैं, भोग से हम लड़
रहे हैं। तो
जिससे हम लड़
रहे हैं, उस
पर हम सवार
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
और जिस पर हम
सवार होने की
कोशिश कर रहे
हैं, वह
हमको पटके दे
रहा है, बार-बार
पटक रहा है।
तो भोगी
त्यागी होने
की कोशिश करता
है, रोज-रोज
पटकें खा
जाता है, फिर
गिर जाता है, फिर परेशान
हो जाता है।
एक घर
में मैं
मेहमान था कलकत्ते
में। उस घर के
बूढ़े आदमी ने
मुझसे कहा कि
मैंने
ब्रह्मचर्य
की जीवन में
तीन बार
प्रतिज्ञा की।
बहुत
व्यंग्यपूर्ण
बात थी यह, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
की अगर तीन
बार प्रतिज्ञा
लेनी पड़े तो
ऐसा
ब्रह्मचर्य
है कैसा? क्योंकि
एक ही बार
लेनी चाहिए
प्रतिज्ञा
ब्रह्मचर्य
की। तो मैं तो
खूब हंसने लगा,
लेकिन मेरी
बगल का आदमी
नहीं समझ सका
जो वहां पास
बैठा था। उसने
कहा, आपने
बड़ी साधना की!
वह
बूढ़ा भी हंसने
लगा। तो उस
आदमी ने पूछा
कि फिर बस तीन ही
बार ली, फिर
चौथी बार नहीं
ली? तो उस
बूढ़े आदमी ने
कहा कि तुम यह
मत सोचना कि तीसरी
बार सफल हो
गया। नहीं, तीन बार
असफल होकर फिर
मैंने हिम्मत
ही छोड़ दी, चौथी
बार नहीं ली।
और उस
बूढ़े आदमी ने
मुझे कहा कि
जब मैंने बिलकुल
छोड़ दिया खयाल
ही कि लड़ना ही
नहीं है--क्योंकि
तीन दफा हार
चुका, बहुत
हो चुका--तो
मैं एकदम
हैरान हुआ, मुझ पर
सेक्स की इतनी
कम पकड़ कभी भी
नहीं थी। जिस
दिन मैंने यह
तय किया कि अब
लड़ना ही नहीं,
अब जो है सो
ठीक है--और
मेरी पकड़ एकदम
ढीली हो गई।
और मेरी पकड़
बड़ी जोर से थी,
क्योंकि
मैं इतना
संकल्प कर रहा
था, इतना
व्रत कर रहा
था।
असल
में व्रत, संयम, त्याग,
संघर्ष कर
किससे रहे हैं
हम? जिससे
हम कर रहे हैं,
उसको हमने
मान लिया।
जिससे हम लड़ने
लगे, उसको
हमने समान
स्वीकृति दे
दी। और अगर हम
उस पर कभी
किसी बेमौके
चढ़ भी जाएंगे
तो कितनी देर
चढ़े रहेंगे? अगर आप एक
दुश्मन की
छाती पर बैठ
भी जाएं तो जिंदगी
भर तो नहीं
बैठे रहेंगे,
कभी तो उसकी
छाती छोड़ेंगे।
और दुश्मन अगर
कोई दूसरा
होता तो अपने
घर चला जाता।
यह दुश्मन ऐसा
नहीं है कि
दूसरा है, अपना
ही हिस्सा है।
जिस दिन आप छोड़ेंगे,
वह वापस लौट
कर खड़ा हो
जाता है।
और एक
मजे की बात है
कि जिसको आप
दबाते हैं--तो
आपके ही दो
हिस्से, आप
ही दबाने वाले,
आप ही दबने
वाले तो जिसे
आप दबाते हैं
वह तो विश्राम
कर लेता है
हिस्सा और जो
दबाता है, वह
थक जाता है।
तो थोड़ी देर
में उलटा
सिलसिला शुरू
हो जाता है।
इसलिए जिस चीज
को आप दबाइएगा
थोड़े दिन में
आप पाएंगे कि
आप उससे दबे
हुए हैं।
क्योंकि जो
हिस्सा दब गया,
वह विश्राम
कर रहा है। और
जो दबा रहा है,
उसको श्रम
करना पड़ रहा
है। श्रम करने
वाला थकेगा,
विश्राम
करने वाला सबल
हो जाएगा।
इसलिए रोज
उलटा परिवर्तन
हो जाता है।
लड़ेंगे
तो हारेंगे।
और दबाएंगे तो
गिरेंगे।
लेकिन खोज
बिलकुल दूसरी
बात है।
पहले
चित्रों में
वह आदमी घोड़े
पर जबरदस्ती सवार
हो रहा है।
दूसरे
चित्रों में
वह खोज पर निकला
है। खोज लड़ाई
नहीं है। तो
एक आदमी क्रोध
से लड़ रहा है, यह एक बात
है। और एक
आदमी क्रोध की
खोज में निकला
है कि क्रोध
क्या है, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। और जब
वह खोज पर
निकला है, तब
उसे पूंछ
दिखाई पड़ गई
है। थोड़ा सा
दिखा है। फिर
पूंछ के करीब
और चला गया है
तो पूरा घोड़ा
दिखाई पड़ गया
है। फिर उसने
घोड़े को पकड़
लिया है, क्योंकि
जिसे हम समझ
लेते हैं, उससे
लड़ना नहीं
पड़ता, उसे
हम ऐसे ही सहज
पकड़ लेते हैं,
क्योंकि वह
अपना ही
हिस्सा है।
उससे लड़ना क्या
है? वह
अपना ही हाथ
है। बाएं को
दाएं हाथ से लड़ाएं तो
क्या फायदा
होगा? वह
घोड़े को लेकर
घर की तरफ चल
पड़ा है। उसने
घोड़े को लाकर
घोड़े की जगह
बांध दिया है,
वह उसके पास
चुपचाप बैठा
हुआ है। वह अब
लड़ नहीं रहा
है, न सवार
हो रहा है। अब
कोई संघर्ष ही
नहीं है, घोड़ा
अपनी जगह है, वह अपनी जगह
है। क्रोध
अपनी जगह बैठा
है, आदमी
अपनी जगह बैठा
है। चुपचाप
दोनों अपनी जगह
बैठे हैं। और
दसवें चित्र
में दोनों
विलीन हो गए
हैं। क्रोध भी
विलीन हो गया
है, क्रोध
से लड़ने वाला
भी विलीन हो
गया है। तब क्या
रह गया है? एक
खाली चित्र रह
गया है। दसवां
चित्र बहुत अदभुत
है, वह
कोरा ही कैनवस
है, उसमें
कुछ भी नहीं
है।
इसलिए
कई बार ऐसा
हुआ कि वे दस
चित्र जब किसी
को भेंट किए
गए, किसी ने
किए, तो
उसने कहा कि
नौ तो ठीक हैं,
दसवें की
क्या जरूरत है?
क्योंकि वह
बिलकुल खाली
कैनवस का
टुकड़ा है। तो
उसे कहा गया
कि दसवां ही
सार्थक है, बाकी नौ तो
सिर्फ तैयारी
है। बाकी नौ
में कुछ नहीं
है, जो है
वह इस दसवें
में है। तो आदमी
पूछता है, लेकिन
इसमें कुछ भी
तो नहीं है!
उस
चेतना में कुछ
भी नहीं है, कोई द्वंद्व
नहीं, सब
खो गया है, रिक्तता
रह गई है, खाली
आकाश रह गया
है, शून्य
रह गया है।
कोई द्वंद्व
नहीं है, सब
अखंड हो गया
है।
ऐसा
अखंड व्यक्ति
ही देने में
समर्थ है।
खंडित
व्यक्ति देने
में समर्थ
नहीं है। और
इसलिए ऐसा
अखंड व्यक्ति
ही तीर्थंकर
जैसी स्थिति
में हो सकता
है। मेरा कहना
है, यह
महावीर लेकर
ही पैदा होते
हैं। और जो
हमें दिखाई पड़
रहा है, वह
हमारी
भ्रांतियों
की कथा है।
और हम
कभी चीजों के
बहुत पास जाकर
नहीं देखे हैं, सदा दूर से देखे
हैं। बहुत
फासले से हम
देखते हैं
चीजों को। पास
से हम देख भी
नहीं सकते, क्योंकि पास
से देखना हो
तो खुद ही
गुजरना पड़े
उनसे। इसके
पहले देख भी
नहीं सकते।
यानी महावीर
घर से कैसे गए
हैं, इसे
हम कैसे देख
सकते हैं, क्योंकि
वैसे हम कभी
अपने घर से गए
ही नहीं। यह
हमारे लिए
देखना
मुश्किल है।
मुश्किल
इसलिए है
सिर्फ कि हम
पास से कभी
गुजरे ही नहीं
किसी चीज के
कि हम भी देख
लेते। बहुत
फासला है। कोई
गुजरता है और
हम देखते हैं,
भूल हो जाती
है। क्योंकि
जब कोई गुजरता
है तो उसकी
बाह्य
व्यवस्था भर
दिखाई पड़ती
है। उसका भीतरी
अनुभव दिखाई
नहीं पड़ता। और
सब कथाएं, जो
भी लिखा गया
है, वे
एकदम बाहर से
खींचे गए
चित्र हैं।
और
बाहर से यही
दिखाई पड़ता है
कि महल था, महल छोड़
दिया; धन
था, धन छोड़
दिया; पत्नी
थी, पत्नी
छोड़ दी; प्रियजन,
रिश्तेदार,
निकट-मित्र,
सब छोड़ दिए।
यही दिखता है।
यही दिख सकता
है। और तब
त्याग की एक
व्यवस्था हम
खड़ी करेंगे और
उस त्याग की
व्यवस्था में
बहुत से लोग छोड़ने
की कोशिश
करेंगे और मर
जाएंगे और
दिक्कत में पड़
जाएंगे। बहुत
लोग यही कोशिश
करेंगे कि हम
भी छोड़ दें
मकान को, लेकिन
मकान पीछा
करेगा।
एक जैन
मुनि थे। वे
बीस वर्ष पहले
अपनी पत्नी को
छोड़ कर गए।
उनकी जीवन-कथा
किसी ने लिखी
तो मेरे पास
वह लाया। तो
यूं ही मैं
उसे उलटा-पलटा
कर देखता था।
तो उसमें एक
वाक्य मुझे
पढ़ने को मिला।
बीस साल हो गए
हैं पत्नी को
छोड़े हुए, काशी में
रहते हैं।
पत्नी मरी है,
तार आया है,
तो
उन्होंने तार
पढ़ कर कहा कि
चलो, झंझट
छूटी। तो उस
जीवन-कथा
लिखने वाले ने
लिखा है: कैसा
परम त्यागी
व्यक्ति, कि
पत्नी मरी तो
सिर्फ एक
वाक्य मुंह से
निकला कि चलो
झंझट छूटी। और
कुछ भी न
निकला।
मैंने--वे
लेखक खुद
किताब लेकर आए
थे--मैंने उनसे
कहा कि इस
किताब को बंद
करो, किसी को
बताना मत।
उसने कहा, क्यों?
मैंने कहा,
तुमको यह
पता नहीं कि
तुम क्या लिखे
हो इसमें! अगर
ऐसा ही हुआ है
तो फिर बीस
साल पहले जिस
पत्नी को छोड़
कर तुम्हारा
मुनि चला गया
था, उसकी
झंझट बाकी थी?
यानी अब
उसके मरने से
कहता है, झंझट
छूटी! तो झंझट
बाकी थी। किसी
न किसी चित्त के
तल पर झंझट
जारी थी। यह
पत्नी के मरने
की प्रतिक्रिया
नहीं है, यह
प्रतिक्रिया
चित्त के भीतर
झंझट चलने की
है। झंझट खतम
हुई पत्नी के
मरने से!
पत्नी के छोड़ने
से भी पूरी न
हुई वह झंझट? क्योंकि वह
पत्नी है, यह
भी न मिटा।
क्योंकि उस
पत्नी को छोड़ा
है, यह भी न
मिटा।
क्योंकि उस
पत्नी का क्या
होता होगा, यह भी न
मिटा। यह कुछ
भी न मिटा। तो
अब वह मर गई तो
झंझट छूटी।
मैंने
कहा, और यह भी
हो सकता है कि
तुम्हारे इस
मुनि ने कई दफे
चाहा हो कि
पत्नी मर जाए,
क्योंकि
इसका यह कहना
इसकी भीतरी
आकांक्षा का
सबूत भी हो
सकता है। इसने
कई बार चाहा
हो कि यह मर
जाए। शायद
छोड़ने के पहले
इसने चाहा हो
कि यह मर जाए, वह नहीं मरी,
तो इसने
शायद बाद में
भी कई दफे
सोचा हो कि यह
मर जाए।
क्योंकि यह
शब्द बड़ा
अदभुत है और
इसके पूरे
अचेतन की खबर
लाता है।
एक
दूसरी घटना
सुनाता हूं।
एक फकीर गुजर
गया है। उसका
एक शिष्य है, जिसकी बड़ी
ख्याति है।
इतनी ख्याति
है, गुरु
से भी ज्यादा।
और लोग कहते
हैं, वह
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
है--शिष्य जो
है, वह परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
है। लाखों लोग
इकट्ठे हुए
हैं, गुरु
मर गया है। वह
शिष्य मंदिर
के द्वार पर ही
बैठा छाती
पीट-पीट कर रो
रहा है। तो
लोग बड़े चौंके
हैं, क्योंकि
ज्ञानी और रोए!
तो
दो-चार जो
निकट हैं, उन्होंने
कहा, यह आप
क्या कर रहे
हो? सब
जिंदगी भर की
इज्जत पर पानी
फिर जाएगा। आप
और रोते हो!
ज्ञानी और रोए!
तो उस
आदमी ने आंखें
ऊपर उठाईं
और कहा, ऐसे
ज्ञानी से
छुटकारा
चाहता हूं, जो रो भी न
सके। नमस्कार!
इतनी भी आजादी
न बचे तो ऐसा
ज्ञानी मुझे
नहीं होना।
क्योंकि
ज्ञान की खोज
हम आजादी के
लिए किए हैं।
ज्ञान एक नया बंधन
बन जाए और
मुझे सोचना
पड़े कि क्या
कर सकता हूं, क्या नहीं
कर सकता हूं, तो मैं
क्षमा चाहता
हूं। तुमसे
कहा किसने कि
मैं ज्ञानी
हूं?
फिर भी
उन लोगों ने
कहा कि ठीक है, यह तो ठीक
है। लेकिन आप
ही तो समझाते
थे कि आत्मा
अमर है और
आत्मा नहीं
मरती। आप काहे
के लिए रो रहे
हैं? उसने
कहा, आत्मा
के लिए, पागल,
रो कौन रहा
है? वह
शरीर भी बहुत
प्यारा था। वह
शरीर भी बहुत
प्यारा था। और
वैसा शरीर अब
दोबारा नहीं
हो सकेगा।
अद्वितीय था
वह। आत्मा के
लिए रो कौन
रहा है? शरीर
कुछ कम था
क्या प्यारा!
फिर उस
आदमी ने कहा, उस फकीर ने
कहा कि तुम
मेरी चिंता मत
करो, क्योंकि
मैंने ही अपनी
चिंता छोड़ दी
है। अब तो जो
होता है, सो
होता है। हंसी
आती है तो
हंसता हूं, रोना आता है
तो रोता हूं।
अब मैं रोकता
ही नहीं कुछ, क्योंकि अब
रोकने वाला भी
कोई नहीं है।
कौन रोके? किसको
रोके? क्या
रोकना है? क्या
बुरा है, क्या
भला है? क्या
पकड़ना है,
क्या छोड़ना
है? सब जा
चुका है। जो
होता है, होता
है। जैसे हवा
चलती है तो
वृक्ष हिलते
हैं, वर्षा
आती है तो
बादल आते हैं,
सूरज
निकलता है तो
फूल खिलते
हैं--बस ऐसा ही
है। न तुम फूल
से जाकर कहते
हो कि क्यों
खिले हो, और
न तुम बादल की
बदलियों से
कहते हो कि
तुम क्यों आई
हो, और न तुम
सूरज से कहते
हो कि क्यों
निकले हो। तो
मुझसे क्यों
पूछते हो कि
क्यों रो रहे
हो? कोई
मैं रो रहा
हूं! रोना आ
रहा है। मैं
कोई रोने वाला
नहीं हूं।
वे तो
बहुत मुश्किल
में पड़ गए
हैं। और किसी
एक ने कहा कि
आप तो कहते थे, सब माया है, सब सपना है।
तो वह
कहता है, अभी
मैं कब कह रहा
हूं कि सब
माया नहीं, सब सपना
नहीं! मेरा
रोना--अगर
उतनी ठोस देह
भी सत्य साबित
न हुई, उतनी
ठोस देह भी
सत्य साबित न
हुई, तो
मेरे ये तरल
आंसू कितने
सत्य हो सकते
हैं? वह
आदमी यह कह
रहा है, उतनी
ठोस देह भी
असत्य हो गई, सपना हो गई, तो मेरे तरल
आंसू कितने
सत्य हो सकते
हैं!
इसे
समझना हमें
मुश्किल हो
जाएगा। उस
मुनि को समझना
बहुत आसान है, जिसने कहा
कि झंझट छूटी।
क्योंकि
हमारा चित्त
भी वैसा ही है,
वह द्वंद्व
में ही जीता
है। इतना
निर्द्वंद्व
होना बहुत
मुश्किल है कि
जहां रोना भी
क्रिया न रह
जाए, जहां
उसके भी हम
कर्ता न रह
जाएं, जहां
उसके भी हम
द्रष्टा हो
जाएं, जहां
उसे भी हम
रोकें न, टोकें न,
कुछ बंधन न
डालें, कुछ
व्यवस्था न
बांधें; जो
होता हो, होता
हो। जैसे
वृक्षों में
पत्ते आते हों
और जैसे आकाश
में तारे
निकलते हों, ऐसा ही सब हो
जाए। ऐसा अखंड
व्यक्ति ही
सत्य को
उपलब्ध होता
है और ऐसे
अखंड व्यक्ति से
ही सत्य की
अभिव्यक्ति
हो सकती है।
लेकिन
इतना अखंड हो
जाना ही सत्य
की अभिव्यक्ति
के लिए काफी
नहीं है। अखंड
व्यक्ति भी, हो सकता है, सत्य को
बिना
अभिव्यक्त
किए मर जाए।
और बहुत से
अखंड व्यक्ति
सत्य को बिना
प्रकट किए ही
समाप्त हो
जाते हैं। यह
ऐसा ही है
जैसे कि
सौंदर्य को
जान लेना
सौंदर्य को
निर्मित करना
नहीं है।
एक
आदमी सुबह के
उगते सूरज को
देखता है और
अभिभूत हो गया
सौंदर्य से, लेकिन यह
अभिभूत हो
जाना
पर्याप्त
नहीं है कि वह
एक चित्र बना
दे सुबह के
सूरज उगने का।
अभिव्यक्त कर
दे इसको, जरूरी
नहीं है। तुम
सुबह बैठे हो
वृक्ष के नीचे
और एक पक्षी
ने गीत गाया
और तुम डूब गए
संगीत में।
तुमने अनुभव
किया है संगीत,
लेकिन
जरूरी नहीं कि
वीणा उठा कर
तुम गीत को पुनर्जन्म
दे दो।
यानी
सत्य की
अनुभूति एक
बात है और
अभिव्यक्ति
बिलकुल दूसरी
बात है। बहुत
से
अनुभूति-संपन्न
व्यक्ति बिना
अभिव्यक्ति
दिए समाप्त हो
जाते हैं।
दुनिया
में कितने लोग
हैं जो
सौंदर्य को
अनुभव नहीं
करते। लेकिन
कितने कम लोग
हैं, जो
सौंदर्य को
चित्रित कर
पाते हैं।
कितने लोग हैं,
जिनके
प्राणों को
आंदोलित नहीं
कर देता संगीत।
लेकिन कितने
कम लोग हैं, जो संगीत को
अभिव्यक्त कर
पाते हैं।
कितने लोग हैं,
जिन्होंने
प्रेम नहीं
किया! लेकिन
प्रेम की दो कड़ियों
में, प्रेम
की दो कड़ी लिख
पाना बिलकुल
दूसरी बात है।
तो
यहां दोत्तीन
बातें कहूं, ताकि आगे का
सिलसिला खयाल
में रह सके।
पहली बात, अनुभूति
हो जाना अखंड
की पर्याप्त
नहीं है अभिव्यक्ति
के लिए, कुछ
और करना पड़ता
है
अभिव्यक्ति
के लिए--अनुभूति
के अतिरिक्त।
और अगर वह और न
किया जाए तो
अनुभूति होगी
और व्यक्ति खो
जाएगा।
तीर्थंकर वैसा
अनुभवी है, जो कुछ और
करता
है--अभिव्यक्ति
के लिए।
इसलिए
महावीर की जो
बारह वर्ष की
साधना है, वह मेरे लिए
सत्य-उपलब्धि
के लिए नहीं
है। सत्य तो
उपलब्ध है, उसकी
अभिव्यक्ति
के सारे
माध्यम खोजे
जा रहे हैं उन
बारह वर्षों
में। और ध्यान
रहे, सत्य
को जानना तो
कठिन है ही, सत्य को
प्रकट करना और
भी कठिन है।
सत्य को उपलब्ध
करना तो कठिन
है, उससे
भी ज्यादा
कठिन है यह कि
सत्य को कम्युनिकेट
करना। तो
महावीर की...।
आप पूछ
सकते हैं कि
अगर महावीर को
सब मिल गया है
तो फिर यह
तपश्चर्या, यह साधना, यह उपवास, यह बारह
वर्षों का
लंबा काल, यह
क्या हो रहा
है? क्या
कर रहे हैं वे?
अगर मैं
कहता हूं कि वे
तो पाकर लौटे
हैं, तो यह
क्या कर रहे
हैं?
तो
जितना गहरा
मैंने देखने
की कोशिश की, उतना मैं इस
नतीजे पर
पहुंचा हूं कि
ये अभिव्यक्ति
के सब उपकरण खोजे जा
रहे हैं। और
अभिव्यक्ति
बहुत तलों पर
महावीर ने
करने की कोशिश
की है, जिसकी
कि कम
शिक्षकों ने
फिक्र की है कभी
भी। यानी जीवन
के जितने तल
हैं और जीवन
के जितने रूप
हैं, सब
रूपों तक सत्य
की खबर
पहुंचाने की
अदभुत तपश्चर्या
महावीर ने की
है।
यानी
मनुष्य से ही
नहीं बोल देना
है, क्योंकि
मनुष्य तो
सिर्फ जीवन की
एक छोटी सी घटना
है। जीवन की
यात्रा की
मनुष्य सिर्फ
एक सीढ़ी है।
एक ही सीढ़ी पर
सत्य नहीं
पहुंचा देना
है, मनुष्य
के पीछे की
सीढ़ियों पर भी
पहुंचा देना है।
मनुष्य से
भिन्न
सीढ़ियों पर भी
पहुंचा देना
है। यानी
पत्थर से लेकर
और देवता तक
भी सुन सकें, इसकी सारी
व्यवस्था
खोजने में
बारह वर्ष व्यतीत
हुए हैं। जो
चेष्टा है, वह यह है कि
जीवन के सब
रूपों से कम्युनिकेशन
और संवाद हो
सके, सब
रूपों पर
अभिव्यक्त
किया जा सके।
तो वह तपश्चर्या
सत्य-उपलब्धि
के लिए नहीं
है, वह
तपश्चर्या
सत्य की
अभिव्यक्ति
खोजने के लिए
है। और तुम
हैरान होओगे,
सुबह सूरज
को देख कर
सौंदर्य को
अनुभव कर लेना
बहुत सरल है, लेकिन उगते
हुए सूरज को
चित्रित करने
में हो सकता
है जीवन लग
जाए, तब आप
समर्थ हो
पाएं।
विनसेंट
वानगॉग ने
अंतिम जो
चित्र
चित्रित किया
है, वह है
सूर्यास्त
का। यह इधर
मनुष्य-जाति
में हुए
दो-चार बड़े
चित्रकारों
में एक है
वानगॉग। और
अंतिम चित्र
उसने सूर्यास्त
का...और
सूर्यास्त का
चित्र पूरा
करके ही उसने
आत्महत्या कर
ली थी। और लिख
गया था कि
जिसे चित्रित
करने के लिए
जीवन भर से
कोशिश कर रहा था,
वह काम पूरा
हो गया। और अब
सूर्यास्त ही
चित्रित हो
गया। अब और
रहने का अर्थ
क्या है? और
इतनी
आनंदपूर्ण
घड़ी से मरने
के लिए और
अच्छी घड़ी अब
न मिल सकेगी।
सूर्यास्त
चित्रित हो
गया है। और वह
मर गया है।
और इस
चित्र को
चित्रित करने
के लिए--आप
हैरान हो
जाएंगे कि इस
चित्र को
चित्रित करने
के लिए उसने
कैसी
मुश्किलें उठाईं।
उसने सूर्य को
कितने रूपों
में देखा।
सुबह से भूखा
खेतों में पड़ा
रहा, जंगलों
में पड़ा रहा, पहाड़ों पर
पड़ा रहा। सूरज
की पूरी
यात्रा, उसके
भिन्न-भिन्न
चेहरे, उसकी
भिन्न-भिन्न स्थितियां,
उसके
भिन्न-भिन्न
रंग, उसका
भिन्न-भिन्न--वह
तो प्रतिपल
भिन्न होता चला
जा रहा है।
उगने से लेकर
डूबने तक उसकी
सारी यात्रा।
ओरिलीज
में, जहां यूरोप
में सबसे
ज्यादा सूरज
तपता है, वहां
एक वर्ष
तक--थोड़ा
नहीं--एक वर्ष
तक वह सूरज का
उगना और डूबना
देखता रहा।
पागल हो गया।
क्योंकि इतनी
गर्मी सहना
असंभव हो गई।
एक वर्ष तक
निरंतर आंखें
सूरज पर टिकीं,
आंखों ने
जवाब दे दिया
और सिर घूम
गया। एक साल पागलखाने
में रहा। जब
पागलखाने से
वापस हुआ तो
उसने कहा, अब
चित्रित कर
सकूंगा।
क्योंकि जब
जीया ही न था, उसे देखा ही
न था, उसके
साथ ही न रहा
था तो कैसे
चित्रित करता?
एक
सूर्यास्त को
चित्रित करने
के लिए एक
आदमी एक वर्ष
तक सूरज को
देखे, पागल
हो जाए, तब
चित्रित कर
पाए, तो सत्य
को--जिसका कि
कोई प्रकट रूप
नहीं दिखाई पड़ता--उसे
कोई जाने, फिर
शब्द में, और-और
माध्यमों से
उसे पहुंचाने
की कोशिश करे,
तो उसके लिए
लंबी साधना की
जरूरत पड़ेगी।
महावीर
की जो साधना
है, वह
अभिव्यक्ति
के उपकरण
खोजने की
साधना है। कठिन
है, बहुत
ही कठिन है।
तो उसे समझने
की हम कोशिश
करेंगे कि वे
उस साधना में
कैसे वह
अभिव्यक्ति
के लिए एक-एक, एक-एक सीढ़ी
खोज रहे हैं, एक-एक मार्ग
खोज रहे हैं, कैसे वे
संबंध बना रहे
हैं अलग-अलग
जीवन की स्थितियों
से, योनियों
से, कैसा
संबंध
स्थापित कर
रहे हैं।
वह
हमारे खयाल
में आ जाएगा तो
पूरी दृष्टि
और हो जाएगी, सोचने की
बात ही और हो
जाएगी।
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