'ज्योतिष
अर्थात अध्यात्म :
(प्रश्रोत्तर
चर्चा)
बुडलैण्ड
बम्बई दिनांक 9
जुलाई 1971
कुछ
बातें जान
लेनी जरूरी
हैं। सबसे
पहले तो यह
बात जान लेनी
जरूरी है कि
वैज्ञानिक
दृष्टि से
सूर्य से
समस्त सौर्य
परिवार का—मंगल
का,
बृहस्पति
का, चंद्र
का, पृथ्वी
का जन्म हुआ
है। ये सब
सूर्य के ही
अंग हैं। फिर
पृथ्वी पर
जीवन का जन्म
हुआ—पौधों से
लेकर मनुष्य
तक। मनुष्य
पृथ्वी का अंग
है, पृथ्वी
सूरज का अंग
है। अगर हम
इसे ऐसा समझे—स्व
मां है, उसकी
एक बेटी है और
उसकी एक बेटी
है—उन तीनों
के शरीर का
निर्माण एक ही
तरह के सेल्स
से, एक ही
तरह के
कोष्ठों से
होता है।
और
वैज्ञानिक एक
शब्द का
प्रयोग करते
हैं एम्पैथी
का,
समानुभूति
का। जो चीजें
एक से ही पैदा
होती है उनके
भीतर एक अंतर
समानुभूति
होती है।
सूर्य से
पृथ्वी पैदा
होती है, पृथ्वी
से हम सबके
शरीर निर्मित
होते हैं।
थोड़े ही दूर
फासले पर सूरज
हमारा
महापिता है।
सूर्य पर जो
भी घटित होता
है वह हमारे
रोम—रोम में
स्पंदित होता
है—होगा ही।
क्योंकि
हमारा रोम—रोम
भी सूर्य से
ही निर्मित है।
सूर्य इतना
दूर दिखायी
पड़ता है, इतना
दूर नहीं है।
हमारे रक्त के
एक—एक कण में
और हड्डी के
एक—एक टुकड़े
में सूर्य के
ही अणुओं का
वास है। हम
सूर्य के ही
टुकड़े हैं। और
यदि सूर्य से
हम प्रभावित
होते हों तो
इसमें कुछ
आश्रर्य नहीं
है—एम्पैथी है,
समानुभूति
है।
समानुभूति
को भी थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है। तो
ज्योतिष के एक
आयाम में
प्रवेश हो
सकेगा।
अगर
एक ही अंडे से
पैदा हुए दो
बच्चों को दो
कमरों में बंद
कर दिया जाए
तो समानुभूति
के संबंध में
कुछ प्रयोग
किए जा सकते
हैं। और इस
तरह के बहुत
से प्रयोग
पिछले पचास
वर्षों में
किए गए हैं।
तो एक ही अंडज
जुडवां
बच्चों को दो
कमरों में बंद
कर दिया गया, फिर
दोनों कमरों
में एक साथ
घंटी बजायी
गयी है और
दोनों बच्चों
को कहा गया है',
उनको जो
पहला खयाल आता
हो वह उसे
कागज पर बना लें।
या तो पहला
चित्र उनके
दिमाग में आता
हो तो उसे
कागज पर बना
लें।
और
बड़ी हैरानी की
बात है कि अगर
बीस चित्र बनवाए
गए हैं दोनों
बच्चों से तो
उसमें नब्बे
प्रतिशत
दोनों बच्चों
के चित्र एक
जैसे हैं।
उनके मन में
जो पहली
विचारधारा
पैदा होती है, जो
पहला शब्द
बनता है या जो
पहला चित्र
बनता है, ठीक
उसके ही करीब
वैसा ही विचार
दूसरे जुड़वां
बच्चे के भीतर
भी बनता और
निर्मित होता
है।
इसे
वैज्ञानिक
कहते हैं—एम्पैथी, समानुभूति।
इन दोनों के
बीच इतनी
समानता है कि
ये एक से प्रतिध्वनित
होते हैं। इन
दोनों के भीतर
अनजाने
मार्गों से
जैसे कोई जोड़
है, कोई
संवाद है, कोई
कम्युनिकेशन
है। सूर्य और
पृथ्वी के बीच
भी ऐसा ही
कमुनिकेशन, ऐसा ही
संवाद—सेतु है—ऐसा
ही संबंध है, प्रतिपल!
सूर्य, पृथ्वी
और मनुष्य उन
तीनों के बीच
निरंतर संवाद
है, एक
निरंतर
डायलाग है।
लेकिन वह जो
संवाद है, डायलाग
है वह बहुत
गुह्य है और
बहुत आंतरिक
है और बहुत सूक्ष्म
है। उसके
संबंध में
थोड़ी—सी बातें
समझेंगे तो
खयाल में आएगा।
अमरीका
में,
एक रिसर्च
सेंटर है—ट्री
रिंग रिसर्च
सेंटर।
वृक्षों में,
जो वृक्ष आप
काटें तो वृक्ष
के तने में
आपको बहुत से
रिंग्स, बहुत
से वर्तुल
दिखायी
पड़ेंगे।
फनीर्चर पर जो
सौंदर्य
मालूम पड़ता है
वह उन्हीं
वर्तुलों के
कारण है। पचास
वर्ष से यह
रिसर्च
केंद्र, वृक्षों
में जो वर्तुल
बनते हैं उन
पर काम कर रहा
है। प्रो.
डगलस अब उसके
डायरेक्टर
हैं, जिन्होंने
अपने जीवन का
अधिकांश
हिस्सा, वृक्षों
में जो वर्तुल
बनते हैं, चक्र
बन जाते हैं, उन पर ही
पूरा व्यय
किया है। बहुत
से तथ्य हाथ
लगे हैं। पहला
तथ्य तो सभी
को ज्ञात है
साधारणत: कि
वृक्ष की उम्र
उसमें बने हुए
रिंग्स के
द्वारा जानी
जा सकती है—जानी
जाती है, क्योंकि
प्रतिवर्ष एक
रिंग वृक्ष
में निर्मित
होता है। एक
छाल.. .वृक्ष की
कितनी उम्र है,
उसके भीतर
कितने रिंग
बने हैं इनसे
तय हो जाता है।
अगर पचास साल
पुराना है, उसने पचास
पतझड़ देखे हैं
तो पचास रिंग
उसके तने में
निर्मित हो
जाते हैं और हैरानी
की बात यह है
कि इन तनों पर
जो रिंग
निर्मित होते
हैं वह मौसम
की भी खबर
देते हैं।
अगर
मौसम बहुत
गर्म और गीला
रहा हो तो जो
रिंग है वह
चौड़ा निर्मित
होता है। अगर
मौसम बहुत
सर्द और सूखा
रहा हो तो जो रिंग
है वह बहुत
सकरा निर्मित
होता है।
हजारों साल
पुरानी लक्खी
को काटकर पता
लगाया जा सकता
है कि उस वर्ष
जब यह रिंग
बना था तो
मौसम कैसा था।
बहुत वर्षा
हुई थी या
नहीं हुई थी।
सूखा पड़ा था
या नहीं पड़ा
था। अगर बुद्ध
ने कहा है कि
इस वर्ष बहुत
वर्षा हुई तो
जिस
बोधिवृक्ष के
नीचे वह बैठे
थे वह भी खबर
देगा कि वर्षा
हुई कि नहीं
हुई। बुद्ध से
भूल—चूक हो
जाए,
वह जो वृक्ष
है, बोधिवृक्ष,
उससे भूल—चूक
नहीं होती।
उसका रिंग बड़ा
होगा, छोटा
होगा।
डगलस
इन वर्तुलों
की खोज करते—करते
एक ऐसी जगह
पहुंच गया है
जिसकी उसे
कल्पना भी
नहीं थी। उसने
अनुभव किया कि
प्रत्येक
ग्यारहवें
वर्ष पर रिंग
जितना बडा
होता है उतना
फिर कभी बड़ा
नहीं होता। और
वह ग्यारह
वर्ष वही वर्ष
है जब सूरज पर सर्वाधिक
गतिविधि होती
है। हर
ग्यारहवें
वर्ष पर सूरज
में एक रिदम, एक
लयबद्धता है,
हर ग्यारह
वर्ष पर सूरज
बहुत सक्रिय
हो जाता है।
उस पर रेडियो
एक्टीविटी
बहुत तीव्र
होती है। सारी
पृथ्वी पर उस
वर्ष सभी
वृक्ष मोटा रिंग
बनाते हैं।
एकाध जगह नहीं,
एकाध जंगल
में नहीं—सारी
पृथ्वी पर, सारे वृक्ष
रेडियो एक्टिविटी
से अपनी रक्षा
के लिए मोटा रिंग
बनाते हैं। वह
जो सूरज पर
तीव्र घटना
घटती है ऊर्जा
की, उससे
बचाव के लिए
उनको मोटी
चमड़ी बनानी
पड़ती हैं, हर
ग्यारह वर्ष।
इससे
वैज्ञानिकों
में एक नया
शब्द और नयी
बात शुरू हुई।
मौसम सब जगह
अलग होते है।
कहीं सर्दी है, कहीं
गर्मी है, कहीं
वर्षा है, कहीं
शीत है—सब जगह
मौसम अलग है।
इसलिए अब तक
कभी पृथ्वी का
मौसम, क्लाइमेट
ऑफ दी अर्थ—ऐसा
कोई शब्द
प्रयोग नहीं
होता था।
लेकिन अब डगलस
ने इस शब्द का
प्रयोग करना
शुरू किया है—क्लाइमेट
ऑफ द अर्थ। ये
सब छोटे—मोटे
फर्क तो है ही,
लेकिन पूरी
पृथ्वी पर भी
सूरज के कारण
एक विशेष मौसम
चलता है। जो
हम नहीं पकड़
पाते, लेकिन
वृक्ष पकड़ते
हैं। हर
ग्यारहवें
वर्ष पर वृक्ष
मोटा रिंग
बनाते हैं, फिर रिंग
छोटे होते
जाते हैं। फिर
पांच साल के
बाद बड़े होने
शुरू होते हैं,
फिर
ग्यारहवें
साल पर जाकर
पूरे बड़े हो जाते
हैं।
अगर
वृक्ष इतने
संवेदनशील
हैं और सूरज
पर होती हुई
कोई भी घटना
को इतनी
व्यवस्था से
अंकित करते
हैं तो क्या
आदमी के चित्त
में भी कोई पर्त
होगी, क्या
आदमी के शरीर
में भी कोई
संवेदन का
सूक्ष्म रूप
होगा, क्या
आदमी भी कोई
रिंग और
वर्तुल
निर्मित करता
होगा अपने
व्यक्तित्व
में? अब तक
साफ नहीं हो
सका। अभी तक
वैज्ञानिकों
को साफ नहीं
है कोई बात कि
आदमी के भीतर
क्या होता है।
लेकिन यह
असंभव मालूम
होता है कि जब
वृक्ष भी सूर्य
पर घटती
घटनाओं को
संवेदित करते
हों तो आदमी
किसी भांति
संवेदित न
करता हो।
ज्योतिष, जो
जगत में कहीं
भी घटित होता
है वह मनुष्य
के चित्त में
भी घटित होता
है, इसकी
ही खोज है।
इस
पर हम पीछे
बात करेंगे कि
मनुष्य भी
वृक्षों जैसी
ही खबरें अपने
भीतर लिए चलता
है,
लेकिन उसे
खोलने का ढंग
उतना आसान
नहीं है जितना
वृक्ष को
खोलने का ढंग
आसान है।
वृक्ष को काटकर
जितनी सुविधा
से हम पता लगा
सकते हैं उतनी
सुविधा से
आदमी को काटकर
पता नहीं लगा
सकते। आदमी को
काटना
सूक्ष्म
मामला है और
आदमी के पास
चित्त है
इसलिए आदमी का
शरीर उन
घटनाओं को नहीं
रिकार्ड करता,
चित्त
रिकार्ड करता
है। वृक्षों
के पास चित्त
नहीं है।
इसलिए शरीर ही
उन घटनाओं को
रिकार्ड करता
है।
एक
और बात इस
संबंध में
खयाल में ले
लेने जैसी है।
जैसा मैंने
कहा,
प्रति
ग्यारह वर्ष
मैं सूरज पर
तीव्र रेडियो एक्टीविटी,
तीव्र
वैद्युतिक
तूफान चलते
हैं—ऐसा प्रति
ग्यारह वर्ष
पर एक रिदम, ठीक ऐसा ही
एक दूसरा बड़ा
रिदम भी पता
चलना शुरू हुआ
है और वह है
नब्बे वर्ष का,
सूरज के ऊपर।
और वह और
हैरान
करनेवाला
और
यह जो मैं कह
रहा हूं ये सब
वैज्ञानिक
तथ्य हैं।
ज्योतिषी इस
संबंध में कुछ
नहीं कहते हैं।
लेकिन मैं
इसलिए यह कह
रहा हूं कि
उनके आधार पर
ज्योतिष को वैज्ञानिक
ढंग से समझना
आपके लिए आसान
हो सकेगा।
नब्बे वर्ष का
एक दूसरा
वर्तुल है जो
कि अनुभव किया
गया है। उसके
अनुभव की कथा
बडी अदभुत
इजिप्त
के एक सम्राट
ने आज से चार
हजार साल पहले
अपने वैज्ञानिकों
को कहा था कि
नील नदी में
जब भी जल घटता
है,
बढ़ता है, उसका पूरा
ब्योरा रखा
जाए। अकेली
नील एक ऐसी
नदी है जिसकी
चार हजार वर्ष
की बायोग्राफी
है—उसकी जीवन
कथा है पूरी।
और किसी नदी
की कोई
बायोग्राफी
नहीं है, उसकी
जीवन कथा है
पूरी। कब
इसमें इंचभर
पानी बढ़ा है., उसका पूरा
रिकार्ड है—चार
हजार वर्ष
फैरोहों के
जमाने से लेकर
आज तक।
फैरोह
का अर्थ होता
है—सूर्य, इजिप्टी
भाषा में।
फैरोह, जो इजिप्त
के सम्राटों
का नाम था, वह
सूर्य के आधार
पर है। और इजिप्त
में ऐसा खयाल
था कि सूर्य
और नदी के बीच
निरंतर संवाद
है। और फैरोह,
जो कि सूर्य
के भक्त थे, उन्होंने
कहा कि नील का
पूरा रिकार्ड
रखा जाए।
सूर्य के
संबंध में तो
हमें अभी कुछ
पता नहीं है
लेकिन कभी तो
सूर्य के संबंध
में पता हो
जाएगा, तब
यह रिकार्ड
काम दे सकता
है। तो चार
हजार साल की
पूरी कथा है
नील नदी की।
उसमें इंचभर
पानी कब बढा, इंचभर कब कम
हुआ, कब
उसमें पूर आया
कब पूर नहीं
आया। कब नदी
बहुत तेजी से
बही और कब नदी
बहुत धीमी' बही, इसका
चार हजार वर्ष
का लंबा
इतिहास इंच—इंच
उपलब्ध है।
इजिप्त
के एक विद्वान
तस्मान ने
पूरे नील की
कथा लिखी और
अब सूर्य के
संबंध में वे
बातें ज्ञात
हो गयीं जो
फैरोद्रों के
वक्त ज्ञात
नहीं थीं और जिसके
लिए फैरोहों
ने कहा था, प्रतीक्षा
करना! इन चार
हजार साल में
जो कुछ भी नील
नदी में घटित
हुआ है वह
सूरज से
संबंधित है।
और नब्बे वर्ष
की रिदम का
पता चलता है, हर नब्बे
वर्ष में
सूर्य पर एक
अभूतपूर्व
घटना घटती है।
वह घटना ठीक
वैसी ही है
जिसे हम
मृत्यु कहते हैं—या
जन्म कह सकते
हैं।
ऐसा
समझ लें, सूर्य
नब्बे वर्ष
में पैंतालीस
वर्ष तक जवान
होता है और पैंतालीस
वर्ष तक बूढा
होता है। उसके
भीतर जो ऊर्जा
के प्रवाह
बहते हैं वह
पैंतालीस
वर्ष तक तो
जवानी की तरफ
बढ़ते हैं, क्लाइमेक्स
की तरफ जाते
हैं। सूरज
जैसे जवान
होता चला जाता
है, और
पैंतालीस साल
के बाद ढलना
शुरू हो जाता
है, उसकी
उम्र जैसे
नीचे ढलने—गिरने
लगती है और
नब्बे वर्ष
में सूर्य
बिलकुल का हो
जाता है।
नब्बे
वर्ष में जब
सूर्य का होता
है तब सारी पृथ्वी
भूकंपों से भर
जाती है।
भूकंपों का
संबंध नब्बे
वर्ष के
वर्तुल से है।
सूर्य उसके
बाद फिर जवान
होना शुरू
होता है। वह बड़ी
भारी घटना है।
क्योंकि सूरज
पर इतना
परिवर्तन
होता है कि पृथ्वी
उससे कंपित हो
जाए,
यह बिलकुल
स्वाभाविक है।
लेकिन जब
पृथ्वी जैसी
महाकाय वस्तु
भूकंपों से भर
जाती है तो
आदमी जैसी छोटी—सी
काया में कुछ
भी न होता
होगा? ज्योतिषी
सिर्फ यही
पूछते रहे
हैं! वे कहते
हैं, यह
असंभव है। पता
हो तुम्हें या
न पता हो, लेकिन
आदमी की काया
भी अछूती नहीं
रह सकती।
पैंतालीस
वर्ष जब सूरज
जवान होता है
उस वक्त जो
बच्चे पैदा
होते हैं, उनका
स्वास्थ्य
अदभुत रूप से
अच्छा होगा।
और जब पैतालीस
वर्ष सूरज
बूढ़ा होता है,
उस वक्त जो
बच्चे पैदा होंगे
उनका
स्वास्थ्य
कभी भी अच्छा
नहीं हो पाता।
जब सूरज खुद
ही ढलाव पर
होता है तब जो
बच्चे पैदा
होते हैं उनकी
हालत ठीक वैसी
है जैसे पूरब को
नाव ले जानी
हो और पश्चिम
को हवा बहती
हो। तो फिर
बहुत डांड
चलाने पड़ते
हैं, फिर
पतवार बहुत
चलानी पड़ती है
और पाल काम नहीं
करते। फिर पाल
खोलकर नाव
नहीं ले जायी
जा सकती, क्योंकि
उल्टे बहना
पड़ता है।
जब
सूरज ही बूढ़ा
होता है, सूरज
जो कि प्राण
है सारे सौर
परिवार का तब,
तब जिसको भी
जवान होना है
उसको उल्टी
धारा में
तैरना पड़ता है
हवा के खिलाफ।
उसके लिए
संघर्ष भारी
है। जब सूरज
ही जवान हो
रहा होता है
तो पूरा सौर
परिवार
शक्तियों से
भरा होगा और
उठान की तरफ
होगा। तब जो
पैदा होता है,
वह जैसे पाल
वाली नाव में
बैठ गया। पूरब
की तरफ हवाएं
बह रही हैं, उसे डांड भी
नहीं चलानी है,
पतवार भी
नहीं चलानी है,
श्रम भी
नहीं करना है,
नाव खुद बह
जाएगी। पाल
खोल देना है, हवाएं नाव
को ले जाएंगी।
इस
संबंध में अब
वैज्ञानिकों
को प्रतीत
होने लगा है
कि सूरज जब
अपनी चरम
अवस्था में
आता है तब
पृथ्वी पर कम
से—कम
बीमारियां
होती हैं। और
जब सूरज अपने
उतार पर होता
है तब पृथ्वी
पर सर्वाधिक
बीमारियां
होती हैं।
पृथ्वी पर पैंतालीस
साल
बीमारियों के
होते हैं और
पैंतालीस साल
कम बीमारियों
के होते हैं।
नील ठीक चार
हजार वर्षों
में हर नब्बे
वर्ष में इसी
तरह जवान और
बूढ़ी होती रही
है। जब सूरज
जवान होता है
तब नील में सर्वाधिक
पानी होता है।
वह पैंतालीस
वर्ष तक उसमें
पानी बढ़ता चला
जाता है। और
जब सूरज ढलने
लगता है, बूढ़ा
होने लगता है
तो नील का
पानी नीचे
गिरता चला
जाता है, फिर
वह शिथिल होने
लगती है और
बूढ़ी हो जाती
है।
आदमी
इस विराट जगत
में कुछ अलग—
थलग नहीं है।
इस सबका
इकट्ठा जोड़ है।
अब तक हमने जो
भी श्रेष्ठतम
घड़ियां बनाई
हैं वह कोई भी
उतनी टु द
टाइम, इतना
ठीक से समय
नहीं बताती
जितनी पृथ्वी
बताती है।
पृथ्वी अपनी
कील पर तेईस
घंटे छप्पन
मिनट में एक
चक्कर पूरा
करती है। उसी
के आधार पर
हमने चौबीस
घंटे का हिसाब
तैयार किया
हुआ है। और
हमने घड़ी
बनायी है। और
पृथ्वी काफी
बड़ी चीज है।
अपनी कील पर
वह ठीक तेईस
घंटे छप्पन
मिनट में एक
चक्र पूरा
करती है। और
अब तक कभी भी
ऐसा नहीं समझा
गया था कि
पृथ्वी कभी भी
भूल करती है
एक सेकेंड की
भी। लेकिन
कारण कुल इतना
था कि हमारे
पास जांचने के
ठीक उपाय नहीं
थे। और हमने
साधारण जांच
की थी।
लेकिन
जब नब्बे वर्ष
का वर्तुल
पूरा होता है
सूर्य का तो
पृथ्वी की घड़ी
एकदम डगमगा जाती
है। उस क्षण
में पृथ्वी
ठीक अपना
वर्तुल पूरा
नहीं कर पाती।
ग्यारह वर्ष
में जब सूरज
पर उत्पात
होता है—जब भी
पृथ्वी अपनी
यात्रा में नए—नए
प्रभावों के
अंतर्गत आती
है तभी उसकी
अंतर्घडी
डगमगा जाती है।
जब
भी कोई नया
प्रभाव, कोई
नया काज्मिक
इन्फ्लुएंस,
कोई
महातारा करीब
हो जाता है
तभी ऐसा हो
जाता है। और
करीब का मतलब,
इस महा—आकाश
में बहुत दूर
होने पर भी
चीजें बहुत
करीब हैं।
क्योंकि सब
अदृश्य
संबंधों से
गुंथा हुआ है।
हमारी भाषा
बहुत समर्थ
नहीं है
क्योंकि जब हम
कहते हैं, जरा—सा
करीब आ जाए तो
हम सोचते हैं
जैसे कोई
हमारे पास
आदमी आ गया।
नहीं, फासले
बहुत बड़े हैं।
उन फासलों में
जरा—सा भी
अंतर पड़ जाता
है, जो कि
हमें कहीं पता
भी नहीं चलेगा
तो भी पृथ्वी
की कील डगमगा
जाती है।
पृथ्वी
को हिलाने के
लिए बड़ी शक्ति
की जरूरत है।
इंचभर हिलाने
के लिए भी तो
महाशक्तियां
जब गुजरती है
पृथ्वी के पास
से,
तभी वह हिल
पाती है।
लेकिन वे
महाशक्तियां
जब पृथ्वी के
पास से गुजरती
हैं तो हमारे —
पास से भी
गुजरती हैं।
और ऐसा नहीं
हो सकता है कि
जब पृथ्वी
कंपित होती है
तो उस पर लगे
हुए वृक्ष
कंपित न हों।
और ऐसा भी
नहीं हो सकता
है कि जब
पृथ्वी कंपित
होती है तो उस
पर जीता और
चलता हुआ
मनुष्य कंपित
न हो—सब कंप
जाता है।
लेकिन
कंपन इतने
सूक्ष्म हैं
कि हमारे पास
कोई उपकरण
नहीं थे अब तक
कि हम जांच
करते कि पृथ्वी
कंप जाती है।
लेकिन अब तो
उपकरण हैं।
सेकेंड़ के
हजारवें
हिस्से में भी
कंपन होता है
तो हम पकड़
लेते हैं।
लेकिन आदमी के
कंपन को पकड़ने
के उपकरण अभी
भी हमारे पास
नहीं है। वह
मामला और भी
सूक्ष्म
आदमी
इतना सूक्ष्म
है,
और होना
जरूरी है, अन्यथा
जीना मुश्किल
हो जाएगा। अगर
चौबीस घंटे
आपको चारों ओर
के प्रभावों
का पता चलता
रहे तो आप जी न
पाएंगे। आप जी
सकते हैं तभी,
जब कि आपको
आस—पास के
प्रभावों का
कोई पता नहीं
चलता। एक और
नियम है। वह
नियम यह है कि
न तो हमें
अपनी शक्ति से
छोटे प्रभावों
का पता चलता
है और न अपनी
शक्ति से बड़े
प्रभावों का
पता चलता है।
हमारे प्रभाव
के पता चलने
का एक दायरा
है।
जैसे
समझ लें कि
बुखार चढ़ता है
तो 98 डिग्री
हमारी एक सीमा
है। और 11०
डिग्री हमारी
दूसरी सीमा है।
12 डिग्री में
हम जीते हैं।
9० डिग्री से
नीचे गिर जाए
तापमान तो हम
समाप्त हो
जाते हैं। उधर
11० डिग्री के
बाद जाए तो हम
समाप्त हो
जाते हैं।
लेकिन क्या आप
समझते हैं, दुनिया
में गर्मी 12
डिग्री की ही
होती है?
आदमी
बारह डिग्री
के भीतर जीता
है। दोनों
सीमाओं के इधर—उधर
गया कि खो
जाएगा। उसका
एक बैलेंस, संतुलन
है। 98 और 11० के
बीच उसको अपने
को सम्हाले
रखना है। ठीक
ऐसा ही बैलैंस
सब जगह है।
मैं आपसे बोल
रहा हूं आप
सुन रहे हैं—
अगर मैं बहुत
धीमे बोलूं तो
ऐसी जगह आ
सकती है कि
मैं बोलूं और
आप न सुन पाएं।
लेकिन यह आपको
खयाल में आएगा
कि बहुत धीमे
बोला जाए तो
सुनायी नहीं
पड़ेगा, लेकिन
आपको यह खयाल
में न आएगा कि
इतने जोर से बोला
जाए कि आप न
सुन पाएं।
आपको कठिन
लगेगा
क्योंकि जोर
से बोलेंगे तो
सुनाई पड़ेगा
ही।
नहीं, वैज्ञानिक
कहते हैं, हमारे
सुनने की भी
डिग्री है।
उससे नीचे भी
नहीं सुन पाते,
उससे ऊपर भी
हम नहीं सुन
पाते। हमारे
आस—पास भयंकर
आवाजें गुजर
रही हैं।
लेकिन हम सुन
नहीं पाते। एक
तारा टूटता है
आकाश में, कोई
नया ग्रह
निर्मित होता
है या बिखरता
है तो भयंकर
गर्जनावाली
आवाजें हमारे
चारों तरफ से
गुजरती हैं।
अगर हम उनको
सुन पाएँ तो
हम तत्काल
बहरे हो जाएं।
लेकिन हम
सुरक्षित हैं
क्योंकि
हमारे कान
सीमा में ही
सुनते हैं। जो
सूक्ष्म है
उसको भी नहीं
सुनते, जो
विराट है उसको
भी नहीं सुनते।
एक दायरा है, बस उतने को
सुन लेते हैं।
देखने
के मामले में
भी हमारी वही
सीमा है।
हमारी सभी
इंद्रियां एक
दायरे के भीतर
है,
न उसके ऊपर,
न उसके नीचे।
इसीलिए आपका
कुत्ता आपसे
ज्यादा सूंघ
लेता है। उसका
दायरा सूंघने
का आपसे बडा
है। जो आप
नहीं सूंघ
पाते, कुत्ता
सूंघ लेता है।
जो आप नहीं
सुन पाते, आपका
घोड़ा सुन लेता
है। उसके
सुनने का
दायरा आपसे
बड़ा है। एक
डेढ़ मील दूर
सिंह आ जाए तो
घोडा चौककर
खड़ा हो जाता
है। डेढ़ मील
के फासले पर
उसे गंध आती
है। आपको कुछ
पता नहीं चलता।
अगर आपको सारी
गंध आने लगें,
जितनी गंध
आपके चारों
तरफ चल रही
हैं तो आप
विक्षिप्त हो
जाएंगे।
मनुष्य एक कैप्सूल
में बंद है, उसका सीमांत
है, उसकी
बाउंड्री है।
आप
रेडियो लगाते
हैं और आवाज
सुनाई पड़नी
शुरू हो जाती
है। क्या आप
सोचते हैं, जब
रेडियो लगाते
हैं तब आवाज
आनी शुरू होती
है? आवाज
तो पूरे समय
बहती ही रहती
है। आप रेडियो
लगाएं या न
लगाएं। लगाते
हैं तब रेडियो
पकड़ लेता है, बहती तो
पूरे वक्त
रहती है। दुनिया
में जितने
रेडियो
स्टेशन है, सबकी आवाजें
अभी इस कमरे
से गुजर रही
हैं। आप
रेडियो
लगाएंगे तो पकड़
लेंगे। आप
रेडियो नहीं
लगाते हैं, तब भी गुजर
रही हैं।
लेकिन आपको
सुनाई नहीं पड़
रही हैं।
जगत
में न मालूम
कितनी
ध्वनियां हैं
जो चारों तरफ
हमारे गुजर
रही हैं।
भयंकर कोलाहल
है—वह पूरा
कोलाहल हमें
सुनाई नहीं
पड़ता, लेकिन
उससे हम
प्रभावित तो
होते ही हैं।
ध्यान रहे, वह हमें
सुनाई नहीं
पड़ता, लेकिन
उससे हम
प्रभावित तो
होते ही हैं।
वह हमारे रोएं—रोएं
को स्पर्श
करता है।
हमारे हृदय की
धड़कन— धड़कन को
छूता है।
हमारे स्नायु—स्नायु
को कंपा जाता
है। वह अपना
काम तो कर ही
रहा है। उसका
काम तो जारी
है। जिस सुगंध
को आप नहीं
सूंघ पाते
उसके अणु आपके
चारों तरफ
अपना काम तो
कर ही जाते हैं।
और अगर उसके
अणु किसी
बीमारी को लाए
हैं तो आप को
दे जाते हैं।
आपकी जानकारी
आवश्यक नहीं
है किसी वस्तु
के होने के
लिए।
ज्योतिष
का कहना है कि
हमारे चारों
तरफ ऊर्जाओं
के क्षेत्र
हैं,
एनर्जी
फील्डस हैं
और वह पूरे
समय हमें
प्रभावित कर
रहे हैं। जैसे
ही बच्चा जन्म
लेता है तो वह
जगत के प्रति,
जगत
प्रभावों के
प्रति फंस
जाता है। जन्म
को वैज्ञानिक
भाषा में हम
कहें एक्सपोजर,
जैसे कि
फिल्म को हम
एक्सपोज करते
हैं कैमरे में।
जरा सा शटर आप
दबाते हैं एक
क्षण के लिए, कैमरे की
खिड़की खुलती
है और बंद हो
जाती है। उस
क्षण में जो
भी कैमरे के
समक्ष आ जाता
है वह फिल्म
पर अंकित हो
जाता है।
फिल्म
एक्सपोज हो गई।
अब दुबारा उस
पर कुछ अंकित
न होगा— अंकित
हो गया। और अब
यह फिल्म उस
आकार को सदा
अपने भीतर लिए
रहेगी।
जिस
दिन मां के
पेट में पहली
दफा गर्भाधान
होता है तो
पहला
एक्सपोजर
होता है। जिस
दिन मां के
पेट से बच्चा
बाहर आता है, जन्म
लेता है, उस
दिन दूसरा
एक्सपोजर
होता है। और
यह दोनों
एक्सपोजर
संवेदनशील
चित्त पर फिल्म
की भांति
अंकित हो जाते
हैं। पूरा जगत
उस क्षण में
बच्चा अपने
भीतर अंकित कर
लेता है। और
उसकी
एम्पेथीज, समानुभूतियां
निर्मित हो
जाती हैं।
ज्योतिष
इतना ही कहता
है कि यदि वह
बच्चा जब पैदा
हुआ है तब अगर
रात है. और
जानकर आप
हैरान होंगे
कि सत्तर से
लेकर नब्बे
प्रतिशत
बच्चे रात में
पैदा होते
हैं! यह थोड़ा
हैरानी का है.
क्योंकि
आमतौर से पचास
प्रतिशत होने
चाहिए। चौबीस
घंटे का हिसाब
है,
इसमें कोई
हिसाब भी न हो,
बेहिसाब भी
बच्चे पैदा
हों, तो
बारह घंटे रात,
बारह घंटे
दिन, साधारण
संयोग और
कांबिनेशन से
ठीक है, पचास—पचास
प्रतिशत हो
जाएं! कभी भूल—चूक
दो चार
प्रतिशत इधर—उधर
हो, लेकिन
नब्बे
प्रतिशत तक
बच्चे रात में
जन्म लेते हैं—
दस प्रतिशत तक
बच्चे
मुश्किल से
दिन में जन्म
लेते हैं।
अकारण नहीं हो
सकती यह बात, इसके पीछे
बहुत कारण
समझें, एक
बच्चा रात में
जन्म लेता है
तो उसका जो
एक्सपोजर है,
उसके चित्त
की जो पहली
घटना है जगत
में अवतरण की
वह अंधेरे से
संयुक्त होती
है, प्रकाश
से संयुक्त
नहीं होती। यह
तो सिर्फ
उदाहरण के लिए
कह रहा हूं
क्योंकि बात
तो और
विस्तीर्ण है।
सिर्फ उदाहरण
के लिए कह रहा
हूं—उसके
चित्त पर जो
पहली घटना है
वह अंधकार है।
सूर्य
अनुपस्थित है।
सूर्य की
ऊर्जा
अनुपस्थित है।
चारों तरफ जगत
सोया हुआ है।
पौधे अपनी
पत्तियों को
बंद किए हुए
हैं। पक्षी
अपने पंखों को
सिकोड़कर आंखें
बंद किए हुए
अपने घोंसलों
में छिप गए
हैं। सारी
पृथ्वी पर
निद्रा है।
हवा के कण—कण
में चारों तरफ
नींद है। सब
सोया हुआ है।
जागा हुआ कुछ
भी नहीं है।
यह पहला
इम्पेक्ट है
बच्चे पर।
अगर
हम बुद्ध और
महावीर से
पूछें तो वह
कहेंगे कि
अधिक बच्चे
इसलिए रात में
जन्म लेते हैं
क्योंकि अधिक आत्माएं
सोयी हुई हैं—एस्लीप
हैं। दिन को
वे नहीं चुन
सकते पैदा
होने के लिए।
दिन को चुनना
कठिन है। और
हजार कारण है, एक
कारण
महत्वपूर्ण
है यह भी—अधिकतम
लोग सोये हुए
हैं, अधिकतम
लोग तंद्रित
हैं, अधिकतम
लोक निद्रा
में हैं, अधिकतम
लोग आलस्य में,
प्रमाद में
हैं। सूर्य के
जागने के साथ
उनका जन्म
ऊर्जा का जन्म
होगा, सूर्य
के डूबे हुए
अंधेरे की आडू
में उनका जन्म
नींद का जन्म
होगा। रात में
एक बच्चा पैदा
हो रहा है तो
एक्सपोजर एक
तरह का
होनेवाला है।
जैसे कि हमने
अंधेरे में एक
फिल्म खोली हो
या प्रकाश में
एक फिल्म खोली
हो तो
एक्सपोजर
भिन्न
होनेवाले हैं।
एक्सपोजर की
बात थोड़ी और
समझ लेनी
चाहिए क्योंकि
वह ज्योतिष के
बहुत
गहराइयों से
संबंधित है।
जो
वैज्ञानिक
एक्सपोजर के
संबंध में खोज
करते हैं वे
कहते हैं कि
एक्सपोजर की
घटना बहुत बड़ी
है,
वह छोटी
घटना नहीं है।
क्योंकि
जिंदगीभर वह
आपका पीछा
करेगी। एक
मुर्गी का
बच्चा पैदा
होता है। पैदा
हुआ कि भागने
लगता है
मुर्गी के
पीछे। हम कहते
हैं कि मां के
पीछे भाग रहा
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, नहीं।
मां से कोई
संबंध नहीं है।
एक्सपोजर का
सवाल है। हम
कहते, अपनी
मां के पीछे
भण रहा है
लेकिन वैज्ञानिक
कहते हैं, नहीं!
पहले हम भी
ऐसे सोचते थे
कि मा के पीछे
भाग रहा है, लेकिन बात
ऐसी नहीं है।
और अब सैकड़ों
प्रयोग किए गए
तो बात स्पष्ट
हो गयी है।
वैज्ञानिकों
ने सैकड़ों
प्रयोग किए।
मुर्गी का
बच्चा जन्म
रहा है, अंडा
फूट रहा है, चूजा बाहर
निकल रहा है
तो उन्होंने
मुर्गी को हटा
लिया और उसकी
जगह एक रबर का
गुब्बारा रख दिया।
बच्चे ने जिस
चीज को पहली
दफा देखा वह
रबर का गुब्बारा
था, मां
नहीं थी। आप
चकित होंगे यह
जानकर कि वह
एक्सपोज्ड
हो गया। इसके
बाद वह रबर के
गुब्बारे को
ही मां की तरह
प्रेम कर सका।
फिर वह अपनी
मां को नहीं
प्रेम कर सका।
रबर का
गुब्बारा, हवा
में वह गुब्बारा
उड़ेगा या सरकेगा,
तो वह पीछे
भागेगा। उसकी मां
भागती रहेगी
तो उसकी फिक्र
ही नहीं करेगा।
रबर के
गुब्बारे के
प्रति वह
आश्रर्यजनक
रूप से
संवेदनशील हो गया।
जब थक जाएगा
तो गुब्बारे
के पास टिककर
बैठ जायेगा।
गुब्बारे को
प्रेम करने की
कोशिश करेगा।
गुब्बारे से
चोंच लड़ाने की
कोशिश करेगा—लेकिन
मां से नहीं।
इस
संबंध में बहुत
काम लारेंज
नाम के वैज्ञानिक
ने किया है और उसका
कहना है, वह जो फर्स्टमूमेंट
ऑफ एक्सपोजर
है, बड़ा महत्वपूर्ण
है। वह मां से
इसलिए
संबंधित हो
जाता है—मां
होने की वजह
से नहीं, फर्स्ट
एक्सपोजर की वजह
से। इसलिए नहीं,
कि वह मां है—इसलिए
उसके पीछे दौड़ता
है; इसलिए कि
वही सबसे पहले
उसको उपलब्ध
होती है—इसलिए
उसके पीछे
दौड़ता है।
अभी
इस पर और काम
चला है। जिन
बच्चों को मां
के पास बड़ा न
किया जाए वह
किसी सी को जीवन
में कभी प्रेम
करने को समर्थ
नहीं हो पाता—एक्सपोजर
ही नहीं हो
पाता। अगर एक
बच्चे को उसकी
मां के पास बड़ा
न किया जाए तो स्त्री
का जो प्रतिबिंब
उसके मन में बनना
चाहिए वह बनता
ही नहीं। और
अगर पश्चिम
में आज होमोसेक्यूअलिटी
बढ़ती हुई है
तो उसके एक
बुनियादी
कारणों में वह
भी एक कारण है।
हेट्रोसेक्यूअल, विजातीय
यौन के प्रति
जो प्रेम है
वह पश्चिम
में कम होता
चला जा रहा है।
और सजातीय यौन
के प्रति
प्रेम बढ़ता चला
जाता है, जो
कि विकृति है—लेकिन
वह विकृति होगी,
क्योंकि दूसरे
यौन के प्रति
जो प्रेम है पुरुष
का स्री के प्रति
और स्त्री का
पुरुष के प्रति
वह बहुत—सी शर्तों
के साथ है।
पहला तो एक्सपोजर
जरूरी है—बच्चा
पैदा हो तो
उसके मन पर
क्या एक्सपोज
हो! अब यह बहुत
सोचने जैसी
बात है। दुनिया
में स्रियां
तब तक सुखी न हो
पाएंगी जब तक उनका
एक्सपोजर मां के
साथ हो रहा है।
उनका प्रथम एक्सपोजर
पुरुष के साथ
होना चाहिए।
पहला
इम्पेक्ट
लड़की के मन पर
पिता का पड़ना
चाहिए तो ही
वह किसी पुरुष
को भरपूर मन
से प्रेम करने
में समर्थ हो
पायेगी। अगर
पुरुष स्त्री
से जीत जाता
है तो उसका
कुल कारण इतना
है कि लड़के और
लड़कियां
दोनों ही मां
के पास बड़े होते
हैं।
लड़के
का एक्सपोजर
तो बिलकुल ठीक
होता है स्त्री
के प्रति, लेकिन
लड़की का एक्सपोजर
बिलकुल ठीक
नहीं होता।
इसलिए जब तक दुनिया
में लड़की को
पिता का
एक्सपोजर
नहीं मिलता तब
तक स्त्रियां
कभी भी पुरुष
के समकक्ष खडी
नही हो सकेंगी—
न राज नीति के द्वारा,
न नौकरी के द्वारा,
न आर्थिक स्वतंत्रता
के द्वारा।
क्योंकि
मनोवैज्ञानिक
अर्थों में एक
कमी उनमें रह
जाती है। अब
तक की पूरी
संस्कृति उस
कमी को पूरा
नहीं कर पायी।
अगर एक छोटा—सा
गुब्बारा
मुर्गों के
लिए इतना
प्रभावी हो
जाता है, इतना
ज्यादा कि उनका
चित्त. कि
उनका चित्त
सदा के लिए
उससे निर्मित
हो जाता है! तो
ज्योतिष कहता
है, जो भी
चारों तरफ
मौजूद है, द
होल यूनिवर्स,
वह सभी का
सभी उस प्रथम
एक्सपोजर के
क्षण में, उस
चित्त के
खुलने के क्षण
में भीतर
प्रवेश कर जाता
है। और जीवन भर
की सिम्पैथीज
और
एन्टीपैथीज
निर्मित हो
जाती हैं। उस
क्षण जोन क्षत्र
पृथ्वी को
चारों तरफ से
घेरे हुए हैं
वे सभी अनंत
अर्थों में
चित्त को
संकेत कर जाते
हैं। नक्षत्र
घेरे हुए हैं,
उसका कुल
मतलब इतना है
कि उस क्षण
पृथ्वी के ऊपर
उन नक्षत्रों
की रेडियो
एक्टीविटी का
प्रभाव पड़ रहा
है।
अब
वैज्ञानिक
मानते हैं कि
प्रत्येक यह
की रेडियो
एक्टीविटी
अलग है। जैसे
वीनस——उससे जो
रेडियो
सक्रिय तत्व हमारी
तरफ आते है वह
चाँद के रेडियो
सक्रिय तत्वों
से भिन्न है।
जैसे ज्यूपिटर—उससे
जो रेडियो तत्व
हम तक आते हैं
वह सूर्य के
रेडियो तत्वों
से भिन्न हैं।
क्योंकि इन
प्रत्येक
ग्रहों के पास
अलग तरह की
गैसों और अलग
तरह के तत्वों
का वातावरण है।
उन सबसे अलग—अलग
प्रभाव
पृथ्वी की तरफ
आते हैं। और
जब एक बच्चा
पैदा हो रहा
है तो पृथ्वी
के चारों तरफ
क्षितिज को
घेरकर खड़े हुए
जो भी नक्षत्र
हैं—ग्रह हैं, उपग्रह
है, दूर
आकाश में
महातारे हैं,
वे सब के सब
उस एक्सपोजर
के क्षण में
बच्चे के चित्त
पर गहराइयों
तक प्रवेश कर
जाते है। फिर
उसकी
कमजोरियां, उसकी ताकते,
उसका
सामर्थ्य, सब
सदा के लिए
प्रभावित हो
जाता है।
अब
जैसे
हिरोशिमा में
एटम बम के
गिरने के बाद पता
चला,
उसके पहले
पता नहीं था।
हिरोशिमा में
एटम जब तक
नहीं गिरा था
तब तक इतना
खयाल था कि
एटम गिरेगा तो
लाखों लोग
मरेंगे।
लेकिन यह पता
नहीं था कि
पीढ़ियों तक
आनेवाले बच्चे
प्रभावित हो
जाएंगे।
हिरोशिमा और
नागासाकी में
जो लोग मर गए—मर
गए! वह तो एक
क्षण की बात
थी, समाप्त
हो गई। लेकिन
हिरोशिमा में
जो वृक्ष बच
गए, जो
जानवर बच गए, जो पक्षी बच
गए, जो
मछलियां बच
गयीं, जो
आदमी बच गए वे
सदा के लिए
प्रभावित हो
गए।
अब
वैज्ञानिक
कहते है कि दस
पीढ़ियों में
हमें पूरा
अंदाजा लग
पायेगा कि
क्या—क्या
परिणाम हुए।
क्योंकि इनका
सब कुछ रेडियो
एक्टीविटीज
से प्रभावित
हो गया। अब जो
सी बच गयी है
उसके शरीर में
जो अंडे है वह प्रभावित
हो गए है। अब
वह अंडे, कल
उनमें से एक
अंडा बच्चा
बनेगा वह
बच्चा वैसा ही
बच्चा नहीं
होगा जैसा
साधारणत: होता
है। क्योंकि
एक विशेष तरह
की रेडियो
सक्रियता उस अंडे
में प्रवेश कर
गयी है। वह
लंगड़ा हो सकता
है, लूला
हो सकता है, अंधा हो
सकता है। उसकी
चार आंखें भी
हो सकती हैं, आठ आंखें भी
हो सकती है।
कुछ
भी हो सकता है!
अभी हम कुछ भी
नहीं कह सकते, वह
कैसा होगा।
उसका
मस्तिष्क
बिलकुल रुग्ण
भी हो सकता है,
प्रतिभाशाली
भी हो सकता है,
वह जीनियस
भी पैदा हो
सकता है, जैसा
जीनियस कभी
पैदा न हुआ हो।
अभी हमें कुछ
भी पता नहीं
कि वह क्या
होगा। इतना
पका पता है कि
जैसा होना
चाहिए—साधारणत:
आदमी, वैसा
वह नहीं होगा।
अगर
एटम की रेडियो
ऊर्जा ऐसा कर
सकती है जो कि बहुत
छोटी ताकत है—हमारे
लिए वह बहुत
बड़ी है। एक
एटम एक लाख
बीस हजार
आदमियों को
मार पाया हिरोशिमा
और नागासाकी
में—फिर भी
तुलनात्मक
दृष्टि में वह
बहुत छोटी ताकत
है। सूर्य के
ऊपर जो ताकत
है उसका हम
इससे कोई हिसाब
नहीं लगा सकते
हैं—जैसे
अरबों एटम बम
एक साथ फूट
रहे हों! उतनी
रेडियो
एक्टीविटी
सूरज के ऊपर
है : और
असाधारण है
यह!
क्योंकि
सूरज चार अरब
वर्षों से तो
पृथ्वी को गर्मी
दे रहा है और
उससे पहले से
और अभी भी वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कम से कम चार
हजार वर्ष तक तो
उसके ठंडे
होने की कोई
भी संभावना
नहीं।
प्रतिदिन
इतनी गर्मी.
और सूरज दस
करोड़ मील दूर
है पृथ्वी से।
हिरोशिमा में
जो घटना घटी
है उसका
प्रभाव दस मील
से ज्यादा दूर
नहीं पड़ता। दस
करोड़ मील दूर
सूरज है चार
अरब वर्षों से
तो वह हमें सब, सारी
गर्मी दे रहा
है, फिर भी
अभी रिक्त
नहीं हुआ। पर यह
सूरज कुछ भी
नहीं है। इससे
भी महासूर्य
हैं। ये सब
तारे जो हैं
आकाश में, ये
महासूर्य है।
और इसमें से
प्रत्येक से
अपनी
व्यक्तिगत और
निजी क्षमता
की सक्रियता
हम तक
प्रवाहित होती
है।
एक
बहुत बडा
वैज्ञानिक, जो
अंतरिक्ष में
फैलती
ऊर्जाओं के
संबंध में अध्ययन
कर रहा है, माइकेल
गाकलिन, उसका
कहना है कि
जितनी
ऊर्जाएं हमें
अनुभव में आ
रही हैं उनमें
से हम एक
प्रतिशत के
संबंध में भी
पूरा नहीं
जानते। जब से
हमने कृत्रिम
उपग्रह छोड़े
हैं पृथ्वी के
बाहर, तब
से उन्होंने
हमें इतनी
खबरें दी हैं
कि हमारे पास
न शब्द हैं उन
खबरों को
समझने के लिए,
न हमारे पास
विज्ञान है।
और इतनी
ऊर्जाएं इतनी
एनर्जी चारों
तरफ बह रही
होंगी; इसकी
हमें कल्पना
ही नहीं थी।
इस संबंध में
एक बात और
खयाल में ले
लेनी जरूरी है।
ज्योतिष
कोई विकसित
होता हुआ नया
विज्ञान नहीं
है। हालत
उल्टी है।
ताजमहल अगर
आपने देखा है
तो यमुना के
उस पार कुछ
दीवारें आपको
उठी हुई दिखाई
पड़ी होंगी।
कहानी यह है
कि शाहजहां ने
मुमताज के लिए
तो ताजमहल
बनवाया और
अपने लिए, जैसा
संगमरमर का
ताजमहल है ऐसी
अपनी कब्र के
लिए संगमूसा
का काले पत्थर
का महल वह
यमुना के उस
पार बना रहा
था। लेकिन यह
पूरा नहीं हो
पाया। ऐसी कथा
सदा से
प्रचलित थी, लेकिन अभी
इतिहासज्ञों
ने खोज की है
तो पता चला कि
वह जो उस तरफ
दीवारें उठी खड़ी
हैं वह किसी
बननेवाले महल
की दीवारें
नहीं हैं, वह
किसी बहुत बड़े
महल की, जो
गिर चुका—खंडहर
है! पर उठती
दीवारें और
खंडहर एक से
मालूम पड़ सकते
हैं। एक नये
मकान की दीवार
उठ रही है—
अधूरी है, मकान
बना नहीं।
हजारों साल
बाद तय करना
मुश्किल हो
जाएगा कि नये
मकान की बनी
दीवार है या
किसी बने बनाए
मकान की, जो
गिर चुका—उसके
बचे खुचे
अवशेष हैं, खंडहर हैं।
पिछले
तीन सौ सालों
से यही समझा
जाता था कि वह
जो दूसरी तरफ
महल खड़ा हुआ
है,
वह शाहजहां
बनवा रहा था, वह पूरा
नहीं हो पाया।
लेकिन अभी जो
खोजबीन हुई है
उससे पता चलता
है कि वह महल
पूरा था। और न
केवल यह पता
चलता है कि वह
महल पूरा था, बल्कि यह भी
पता चलता है
कि ताजमहल
शाहजहां ने
खुद कभी नहीं
बनवाया। वह भी
हिंदुओं का
बहुत पुराना
महल है, जिसको
उसने सिर्फ
कनवर्ट किया।
जिसको सिर्फ
थोड़ा—सा फर्क
किया। और कई
दफे इतनी
हैरानी होती
है कि जिन
बातों को हम
सुनने के आदी
हो जाते हैं, फिर उनसे
भिन्न बात को
हम सोचते भी
नहीं!
ताजमहल
जैसी एक भी
कब्र दुनिया
में किसी ने
नहीं बनायी।
कब ऐसी बनायी
भी नहीं जाती।
कब्र ऐसी
बनायी ही नहीं
जाती। ताजमहल
के चारों तरफ
सिपाहियों के
खड़े होने के
स्थान हैं।
बंदूकें और
तोपें लगाने
के स्थान हैं, कब्रों
की बंदूकें और
तोपें लगाकर
कोई रक्षा नहीं
करनी पड़ती। वह
महल है पुराना,
उसको सिर्फ
कन्वर्ट किया
गया है कब्र
में। वह दूसरी
तरफ भी एक
पुराना महल है
जो गिर गया, जिसके खंडहर
शेष रह गए।
ज्योतिष
भी खंडहर की
तरह है। एक
बहुत बड़ा महल
था,
पूरा
विज्ञान था, जो ढह गया।
कोई नयी चीज
नहीं है, कोई
नया उठता हुआ
मकान नहीं है।
लेकिन जो
दीवारें रह
गयी हैं उनसे
कुछ पता नहीं
चलता कि कितना
बड़ा महल उसकी
जगह रहा होगा।
बहुत बार सत्य
मिलते हैं और
खो जाते हैं।
अरिस्टीकारस
नाम के एक
यूनानी ने
जीसस से दो सौ, तीन
सौ वर्ष पूर्व
यह सत्य खोज
निकाला था कि
सूर्य केंद्र
है, पृथ्वी
केंद्र नहीं
है।
अरिस्टीकारस
का यह सूत्र, हेलियो
सेंट्रिक
सिद्धात कि
सूरज केंद्र
पर है, जीसस
से तीन सौ
वर्ष पहले खोज
निकाला गया था,
लेकिन जीसस
के सौ वर्ष
बाद टोलिमी ने
इस सूत्र को उलट
दिया और
पृथ्वी को फिर
केंद्र बना
दिया। और फिर
दो हजार साल
लग गए केपलर
और कोपरनिकस को
खोजने में
वापस, कि
सूर्य केंद्र
है, पृथ्वी
केंद्र नहीं।
दो हजार साल
तक
अरिस्टीकारस
का सत्य दबा
पड़ा रहा। दो
हजार साल बाद
जब कोपरनिकस
ने फिर से कहा
तब
अरिस्टीकारस
की किताबें
खोजी गयीं।
लोगों ने कहा,
यह तो
हैरानी की बात
है।
अमरीका
कोलंबस ने
खोजा, ऐसा पश्चिम
के लोग कहते
हैं। एक बहुत
प्रसिद्ध
मजाक प्रचलित
है आस्कर वाइल्ड
का। वह अमरीका
गया हुआ था।
उसकी मान्यता
थी कि अमरीका
और भी बहुत
पहले, खोजा
जा चुका है।
और यह सच है।
यह सच्चाई है
कि अमरीका
बहुत दफे खोजा
जा चुका और
पुन: पुन: खो
गया। उससे
संबंध—सूत्र
टूट गए।
एक
व्यक्ति ने
आस्कर वाइल्ड
को पूछा कि हम
सुनते हैं कि
आप कहते हैं, अमरीका
पहले ही खोजा
जा चुका है।
तो क्या आप
नहीं मानते कि
कोलंबस ने
पहली खोज की।
और अगर कोलंबस
ने पहली खोज
नहीं की तो
अमरीका बार—बार
क्यों खो गया।
तो आस्कर
वाइल्ड ने
मजाक में कहा
कि कोलंबस ने
पुन: खोज की ही
है, रि—डिस्कवर्ड
अमेरिका, इट
वाज डिसकवर्ड सो
मेनी टाइम, बट एवरी टाईम
हश्ड— अप। हर
बार इसको
दबाकर चुप
रखना पड़ा, क्योंकि
उपद्रव को बार—बार
दबाना या
भुलाना जरूरी
था!
महाभारत
अमरीका की
चर्चा करता है।
अर्जुन की एक
पत्नी
मेक्सिको की
लड़की है।
मेक्सिको में
जो प्राचीन
मंदिर है वह
हिंदू मंदिर
है जिन पर
गणेश की मूर्तियां
तक खुदी हुई
हैं। बहुत बार
सत्य खोज लिए
जाते है, खो जाते
हैं। बहुत बार
हमें सत्य
पकड़ में आ
जाता है, फिर
खो जाता है।
ज्योतिष
उन बड़े से बड़े
सत्यों में से
एक है जो पूरा
का पूरा खयाल
में आ चुका और
खो गया। उसे
फिर से खयाल
में लाने के
लिए बड़ी
कठिनाई है।
इसलिए मैं
बहुत—सी
दिशाओं से
आपसे बात कर
रहा हूं।
क्योंकि ज्योतिष
पर सीधी बात
करने का अर्थ
होता है कि वह
जो सड़क पर
ज्योतिषी
बैठा है, शायद
मैं उस संबंध
में कुछ कह
रहा हूं।
जिसको आप चार
आने देकर और
अपना भविष्य
फल निकलवा आते
हैं। शायद
उसके संबंध
में या उसके
समर्थन में
कुछ कह रहा
हूं।
नहीं
ज्योतिष के
नाम पर सौ में
से निन्यान्नबे
धोखाधड़ी है।
और वह जौ सौवा
आदमी है, निन्यान्नबे
को छोड्कर उसे
समझना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि वह
कभी इतना
डागमेटिक
नहीं हो सकता
कि कह दे कि
ऐसा होगा ही।
क्योंकि वह
जानता है कि
ज्योतिष बहुत
बड़ी घटना है।
इतनी बड़ी घटना
है कि आदमी
बहुत झिझककर
ही वहां पैर
रख सकता है।
जब
मैं ज्योतिष
के संबंध में
कुछ कह रहा
हूं तो मेरा
प्रयोजन है कि
मैं उस पूरे—पूरे
विज्ञान को
आपको बहुत तरफ
से उसके दर्शन
करा दूं उस
महल के। तो
फिर आप भीतर
बहुत आश्वस्त
होकर प्र्वेश
कर सकें। और
मैं जब
ज्योतिष की
बात कर रहा
हूं तो ज्योतिषी
की बात नहीं
कर रहा हूं।
उतनी छोटी बात
नहीं है। पर
आदमी की
उत्सुकता उसी
में है कि
उसको पता चल
जाए कि उसकी
लड़की की शादी
होगी कि नहीं
होगी। इस
संबंध में यह
भी आपको कह
दूं कि
ज्योतिष के तीन
हिस्से हैं।
स्व—जिसे
हम कहें
अनिवार्य, एसेंशियल,
जिसमें
रत्तीभर फर्क
नहीं होता।
वही सर्वाधिक
कठिन है उसे जानना।
फिर उसके बाहर
की परिधि है—नान
एसेंशियल, जिसमें
सब परिवर्तन
हो सकते हैं।
मगर हम उसी को
जानने को
उत्सुक होते
हैं और उन दोनों
के बीच में एक
परिधि है—सेमी
एसेंशियल, अर्द्ध
अनिवार्य, जिसमें
जानने से
परिवर्तन हो
सकते हैं, न
जानने से कभी
परिवर्तन
नहीं होंगे।
तीन हिस्से
करते हैं।
एसेशियल—जो
बिलकुल गहरा
है, अनिवार्य
है, जिसमें
कोई अंतर नहीं
हो सकता है।
उसे जानने के
बाद उसके साथ
सहयोग करने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
धर्मों
ने इस
अनिवार्य
तथ्य की खोज
के लिए ही ज्योतिष
की ईजाद की—उस
तरफ गए। उसके
बाद दूसरा है—सेमी
एसेंशियल, अर्द्ध
अनिवार्य —
अगर जान लेंगे
तो बदल सकते
हैं, अगर
नहीं जानेंगे
तो नहीं बदल
पाएंगे।
अज्ञान रहेगा
तो जो होना है
वही होगा। जान
होगा तो
अल्टरनेटिब्ज,
विकल्प हैं—बदलाहट
हो सकती है।
और तीसरा सबसे
ऊपर का सरफेस,
वह है—नान
एसेंशियल।
उसमें कुछ भी
जरूरी नहीं है।
सब सांयोगिक
है। लेकिन —हम
जिस ज्योतिष
की बात समझते
हैं, वह
नान एसेंशियल
का ही मामला
है।
एक
आदमी कहता है, मेरी
नौकरी लग
जाएगी या नहीं
लग जाएगी।
चांद—तारों के
प्रभाव से
आपकी नौकरी के
लगने, न
लगने का कोई
भी गहरा संबंध
नहीं है। एक
आदमी पूछता है,
मेरी शादी
हो जाएगी या
नहीं हो जाएगी।
शादी के बिना
भी समाज हो
सकता है। एक
आदमी पूछता है
कि मैं गरीब
रहूंगा कि
अमीर रहूंगा।
एक समाज कम्युनिस्ट
हो सकता है, कोई गरीब और
अमीर नहीं
होगा।
ये
नान एसेंशियल
हिस्से हैं जो
हम पूछते हैं।
एक आदमी पूछता
है कि अस्सी
साल में मैं
सड़क पर से
गुजर रहा था
और एक संतरे
के छिलके पर
पैर पड़कर गिर
पड़ा तो मेरे
चांद—तारों का
इसमें कोई हाथ
है या नहीं।
अब कोई चांद—तारे
से तय नहीं
किया जा सकता
कि फलां—फलां
नाम के संतरे
से और फलां—फलां
सड़क पर आपका पैर
फिसले। यह
निपट गंवारी
है। लेकिन
हमारी
उत्सुकता
इसमें है कि
आज हम निकलेंगे
सड़क पर, छिl कि पर पैर
पडकर फिसल तो
नहीं जाएगा।
यह नान
एसेंशियल है।
यह हजारों
कारणों पर
निर्भर है
लेकिन इसके
होने की कोई
अनिवार्यता
नहीं है। इसका
बीइंग से, आत्मा
से कोई संबंध
नहीं है। यह
घटनाओं की सतह
है।
ज्योतिष
से इसका कोई
लेना—देना
नहीं है। और
चूंकि
ज्योतिषी इस
तरह की बात—चीत
में लगे रहते
हैं इसलिए
ज्योतिष का
भवन गिर गया।
ज्योतिष के
भवन के गिर
जाने का कारण
यही हुआ। कोई
भी बुद्धिमान
आदमी इस बात
को मानने को
राजी नहीं हो
सकता कि मैं
जिस दिन पैदा
हुआ उस दिन
लिखा था कि
मरीन ड्राइव
पर फलां—फलां
दिन एक छिलके
पर मेरा पैर
पड़ जाएगा और
मैं फिसल
जाऊंगा। न तो
मेरे फिसलने
का चांद—तारों
से प्रयोजन है, न
उस छिलके का
कोई प्रयोजन
है। इन बातों
से संबंधित
होने के कारण
ज्योतिष बदनाम
हुआ। और हम
सबकी
उत्सुकता यही
है कि ऐसा पता
चल जाए। इससे
कोई संबंध
नहीं है।
सेमी
एसेंशियल हैं
कुछ बातें
जैसे—जन्म, मृत्यु
सेमी
एसेंशियल है।
अगर आप इसके
बाबत पूरा जान
लें तो उसमें
फर्क हो सकता
है। और न
जानें तो फर्क
नहीं होगा।
चिकित्सा की
हमारी
जानकारी बढ़
जाएगी तो हम
आदमी की उम्र
लबा कर लेंगे—कर
रहे हैं। अगर
हमारी एटम बम
की खोज—बीन और
बढ़ती चली गयी
तो हम लाखों
लोगों को एक साथ
मार डालेंगे—मारा
है। यह सेमी
एसेंशियल, अर्द्ध
अनिवार्य जगत
है, जहां
कुछ चीजें हो 'सकती हैं, नहीं भी हो
सकती हैं। अगर
जान लेंगे तो
अच्छा है।
क्योंकि
विकल्प चुने
जा सकते हैं।
इसके बाद
एसेंशियल, अनिवार्य
का जगत है।
वहां कोई
बदलाहट नहीं
होती।
लेकिन
हमारी
उत्सुकता
पहले तो नान
एसेंशियल में
रहती है। कभी
शायद किसी की
सेमी
एसेंशियल तक
जाती है। वह
जो एसेंशियल
है,
अनिवार्य
है, अपरिहार्य
है, जिसमें
कोई फर्क होता
ही नहीं, उस
केंद्र तक
हमारी पकड़
नहीं जाती, न हमारी
इच्छा जाती है।
महावीर
एक गांव के
पास से गुजर
रहे हैं, और
महावीर का एक
शिष्य गोशालक
उनके साथ है, जो बाद में
उनका विरोधी
हो गया। एक
पौधे के पास
से दोनों
गुजरते हैं।
गोशालक
महावीर से
कहता है कि
सुनिये यह
पौधा लगा हुआ
है—क्या सोचते
हैं आप, यह
फूल तक
पहुंचेगा या
नहीं
पहुंचेगा।
इसमें फूल
लगेंगे या
नहीं लगेंगे,
यह पौधा
बचेगा या नहीं
बचेगा। इसका
भविष्य है या
नहीं।
महावीर
आंख बंद करके
उसी पौधे के
पास खड़े हो
जाते हैं।
गोशालक
पूछ्ता है, कहिए
आंख बंद करने
से क्या होगा,
टालिए मत।
उसे पता भी
नहीं कि
महावीर आंख
बंद करके
क्यों खडे हो
गए हैं? वह
एसेंशियल की
खोज कर रहे
हैं। इस पौधे
के बीइंग में
उतरना जरूरी
है, इस
पौधे की आत्मा
में उतरना
जरूरी है।
बिना इसके
नहीं कहा जा
सकता कि क्या होगा?
आंख खोलकर
महावीर कहते
हैं कि यह
पौधा फूल तक
पहुंचेगा।
गोशालक
उनके सामने ही
पौधे को
उखाड़कर फेंक
देता है, और
खिलखिलाकर
हंसता है, क्योंकि
इससे ज्यादा
और अतर्क्य
प्रमाण क्या
होगा? महावीर
के लिए अब कुछ
और कहने की
जरूरत क्या है? उसने पौधे
को उखाड़कर
फेंक दिया, उसने कहा कि
देख लें। वह
हंसता है, महावीर
मुझुराते हैं।
वे दोनों अपने
रास्ते चले
जाते हैं।
सात
दिन बाद वापस
उसी रास्ते पर
लौट रहे हैं।
जैसे ही
महावीर और वे
दोनों उस दिन
गांव में पहुंचे
थे वैसे ही
बड़ी भयंकर
वर्षा हुई थी।
सात दिन तक
मूसलाधार
पानी पड़ता रहा।
सात दिन तक
निकल नहीं सके।
फिर लौट रहे
हैं। जब लौटते
हैं तो ठीक उस
जगह आकर
महावीर खड़े हो
गार हैं जहां
वे सात दिन
पहले आंख बंद
करके खड़े थे।
देखा कि वह
पौधा खड़ा है।
जोर से वर्षा
हुई,
उसकी जड़ें
वापस गीली
जमीन को पकड़
गयीं और पौधा
खड़ा हो गया।
महावीर
फिर आंख बंद
करके उसके पास
खड़े हो गार, गोशालक
बहुत परेशान
हुआ। उस पौधे
को फेंक गए थे।
महावीर ने आंख
खोली, गोशालक
ने पूछा कि
हैरान हूं
आश्रर्य! इस
पौधे को हम
उखाड़कर फेंक
गए फिर खड़ा हो
गया। महावीर
ने कहा, यह
फूल तक
पहुंचेगा। और
इसीलिए मैं आंख
बंद करके और
खड़े होकर इसे
देखा!
इसकी
आंतरिक पोटेंशियलिटी, इसकी
आंतरिक
संभावना क्या
है? इसके
भीतर की
स्थिति क्या
है? तुम
इसे बाहर से
फेंक दोगे
उठाकर तो भी
यह अपने पैर
जमाकर खड़ा हो
सकेगा? यह
कहीं
आत्मघाती तो
नहीं है—सुसाइडल
इंस्टिंक्ट
तो नहीं है इस
पौधे में, कहीं
यह मरने को
उत्सुक तो
नहीं है!
अन्यथा तुम्हारा
सहारा लेकर मर
जाएगा। यह
जीने को तत्पर
है! अगर यह
जीने को तत्पर
है तो जिएगा
ही। मैं जानता
था कि तुम इसे
उखाड़कर फेंक
दोगे।
गोशालक
ने कहा, आप
क्या कहते हैं?
महावीर ने
कहा, जब
मैं इस पौधे
को देख रहा था
तब तुम भी पास
खड़े थे, तुम
भी दिखायी पड़
रहे थे। और
मैं जानता था
कि तुम इसे
उखाड़कर
फेंकोगे।
इसलिए ठीक से जान
लेना जरूरी है
कि पौधे की
खड़े रहने की आंतरिक
क्षमता कितनी
है? इसके
पास आत्म—बल
कितना है। यह
कहीं मरने को
तो उत्सुक
नहीं है कि
कोई बहाना
लेकर मर जाए
तो तुम्हारा
बहाना लेकर भी
मर सकता है।
अन्यथा
तुम्हारा
उखाड़कर फेंक
गया पौधा पुन:
जड़ें पकड़ सकता
है।
गोशालक
को दुबारा उस
पौधे को
उखाड़कर
फेंकने की
हिम्मत न पड़ी—डरा।
पिछली बार
गोशालक हंसता
हुआ गया था, इस
बार महावीर
हंसते हुए आगे
बढ़े। गोशालक
रास्ते में
पूछने लगा, आप हंसते
क्यों है? महावीर
ने कहा, मैं
सोचता था कि
देखें, तुम्हारी
सामर्थ्य
कितनी है। तुम
दुबारा इसे
उखाड़कर
फेंकते हो या
नहीं?
गोशालक
ने पूछा कि
आपको तो पता
चल जाना चाहिए
कि मैं उखाड़कर
फेंकूंगा या
नहीं, तब
महावीर ने कहा,
वह गैर
अनिवार्य है।
उखाडकर फेंक
भी सकते हो, नहीं भी
फेंक सकते हो।
अनिवार्य यह
था कि पौधा
अभी जीना
चाहता था।
उसके पूरे
प्राण जीना चाहते
थे, वह
अनिवार्य था।
वह एसेंशियल
था। यह तो गैर
अनिवार्य है,
तुम फेंक भी
सकते हो, नहीं
भी फेंक सकते
हो— तुम पर
निर्भर है।
लेकिन तुम
पौधे से कमजोर
सिद्ध हुए हो—हार
गए। महावीर से
गोशालक के
नाराज हो जाने
के कुछ कारणों
में एक कारण
यह पौधा भी था!
जिस
ज्योतिष की
मैं बात कर
रहा हूं उसका
संबंध
अनिवार्य से, एसेंशियल
से, फाउण्डेशनल
से है। आपकी
उत्सुकता
ज्यादा से
ज्यादा सेमी
एसेंशियल तक
आती है। पता
लगाना चाहते
हैं कि कितने
दिन जियूंगा,
मर तो नहीं
जाऊंगा, जीकर
क्या करूंगा।
जी ही लूंगा
तो क्या
करूंगा, इस
तक आपकी उत्सुकता
नहीं पहुंचती।
मरूंगा तो
मरने में क्या
करूंगा, इस
तक आपकी
उत्सुकता
नहीं पहुंचती।
घटनाओं तक
पहुंचती है, आत्माओं तक
नहीं पहुंचती।
जब मैं जी रहा
हूं तो यह तो
घटना है सिर्फ—जीकर
मैं क्या कर
रहा हूं? —जीकर
मैं क्या हूं?
—वह मेरी
आत्मा है! जब
मैं मरूंगा वह
तो घटना होगी।
लेकिन मरते
क्षण में मैं
क्या होऊंगा,
क्या
करूंगा, वह
मेरी आत्मा
होगी। हम सब
मरेंगे। मरने
के मामले में
सबकी घटना एक—सी
घटेगी। लेकिन
मरने के संबंध
में, मरने
के क्षण में
हमारी स्थिति
सब की भिन्न
होगी—कोई मुस्कुराते
हुए भी तो मर
सकता है!
मुल्ला
नसरुद्दीन से
कोई कुछ पूछता
है,
और वह अब
मरने के करीब
है। उससे कोई
पूछ रहा है कि
आपका क्या
खयाल है, मुल्ला!
लोग जब पैदा
होते हैं तो
कहां से आते हैं,
मरते हैं तो
कहां जाते हैं?
मुल्ला ने
कहा, जहां
तक अनुभव की
बात है, मैंने
लोगों को पैदा
होते वक्त
रोते ही पैदा
होते देखा। और
मरते वक्त
रोते ही जाते
देखा है।
अच्छी जगह से
न आते हैं, न
अच्छी जगह
जाते हैं।
इनको देखकर जो
अंदाज लगता है,
न अच्छी जगह
से आते हैं, न अच्छी जगह
जाते हैं। आते
हैं तब भी
रोते हुए
मालूम पड़ते
हैं, जाते
हैं तब भी
रोते हुए
मालूम पड़ते
हैं।
लेकिन
नसरुद्दीन
जैसा आदमी
हंसता हुआ
मरता है। मौत
तो घटना है, लेकिन
हंसते हुए
मरना आत्मा है।
तो आप कभी
ज्योतिषी से
पूछिए कि मैं
हंसते हुए
मरूंगा कि
रोते हुए
मरूंगा। पूरी
पृथ्वी पर एक
आदमी ने नहीं
पूछा ज्योतिषी
से जाकर कि
मैं मरते वक्त
हंसते हुए
मरूंगा कि
रोते हुए मरूंगा।
यह पूछने जैसी
बात है, लेकिन
यह एसेंशियल
एस्ट्रोलाजी
से जुड़ी हुई बात
है।
आप
पूछते हैं, कब
मरूंगा? जैसे
मरना अपने आप
में मूल्यवान
है बहुत! कब तक
जियूंगा? —जैसे
बस जी लेना
काफी है!
किसलिए
जियूंगा, क्यों
जियूंगा, जीकर
क्या करूंगा,
जीकर क्या
हो जाऊंगा? —कोई पूछने
नहीं आता!
इसलिए महल गिर
गया। क्योंकि
वह महल गिर
जाएगा, जिसके
आधार नान
एसेंशियल पर
रखे हैं। गैर
जरूरी चीजों
पर जिसकी हमने
दीवारें खड़ी कर
दी हों, वह
कैसे टिकेगा—
आधारशिलाए
चाहिए।
मैं
जिस ज्योतिष
की बात कर रहा
हूं और आप
जिसे ज्योतिष
समझते रहे हैं, उससे
वह ज्योतिष
भिन्न है
गुणात्मक रूप
से, और
गहरा है। उसके
आयाम और हैं।
मैं इस बात की
चर्चा कर रहा
हूं कि कुछ
आपके जीवन
में...
अनिवार्य
आपके जीवन में
और जगत के जीवन
में संयुक्त
है, लयबद्ध
है। अलग—अलग
नहीं है।
उसमें पूरा
जगत भागीदार
है। उसमें आप
अकेले नहीं हैं।
जब
बुद्ध को
ज्ञान हुआ, तब
बुद्ध ने
दोनों हाथ
जोड़कर पृथ्वी
पर सिर टेक
दिया। कथा है
कि आकाश से
देवता बुद्ध
को नमस्कार करने
आए थे कि वह
परम ज्ञान को
उपलब्ध हुए
हैं। बुद्ध को
.पृथ्वी पर
हाथ टेके सिर
रखे देखकर वे
चकित हुए।
उन्होंने
पूछा, तुम,
और किसको
नमस्कार कर
रहे हो? क्योंकि
हम तो तुम्हें
नमस्कार करने
स्वर्ग से आते
हैं। हम तो
नहीं जानते कि
बुद्ध भी किसी
को नमस्कार
करे, ऐसा
कोई है।
बुद्धत्व तो
आखिरी बात है।
बुद्ध ने आंखें
खोलीं और
बुद्ध ने कहा,
जो भी घटित
हुआ है उसमें
मैं अकेला
नहीं हूं सारा
विश्व है। तो
इस सबको
धन्यवाद देने
के लिए सिर
टेक दिया है।
यह एसेंशियल
एस्ट्रोलाजी
से बंधी हुई
बात है—सारा
जगत।
इसलिए
बुद्ध अपने
भिक्षुओं से
कहते थे कि जब
भी तुम्हें
कुछ भी भीतरी
आनंद मिले—तत्क्षगा
अनुगृहीत हो
जाना समस्त
जगत के क्योंकि
तुम अकेले
नहीं हो। अगर
सूरज न निकलता, अगर
चांद न निकलता,
अगर एक
रत्तीभर भी
घटना और घटी
होती तो
तुम्हें यह
नहीं
होनेवाला था
जो हुआ है।
माना कि
तुम्हें हुआ
है, लेकिन
सबका हाथ है।
सारा जगत
उसमें इकट्ठा
है—एक काज्मिक,
जागतिक
अंतर संबंध का
नाम ज्योतिष
है।
बुद्ध
ऐसा नहीं
कहेंगे कि
मुझे हुआ है।
बुद्ध इतना ही
कहते हैं कि
जगत को मेरे
माध्यम से हुआ
है। यह जो
घटना घटी है
एनलाइटेनमेंट
की,
यह जो
प्रकाश का
आविर्भाव हुआ
है, यह जगत
ने मेरे बहाने
जाना है। मैं
सिर्फ एक
बहाना हूं। एक
क्रास रोड, जहां सारे
जगत के रास्ते
आकर मिल गए
हैं।
कभी
आपने खयाल
किया है कि चौराहा
बड़ा भारी होता
है। लेकिन
चौराहा अपने
में कुछ नहीं
होता, वह जो
चार रास्ते
आकर मिले होते
हैं, उन
चारों को हटा
लें तो चौराहा
विदा हो जाता
है। हम सब
क्रिसक्रास
प्वाइंट्स
हैं जहां जगत
की अनंत
शक्तियां आकर
एक बिंदु को
काटती हैं। वह
व्यक्ति
निर्मित हो
जाता है, इंडीवीजुअल
बन जाता है।
वह
जो सारभूत
ज्योतिष है
उसका अर्थ
केवल इतना ही
है कि हम अलग
नहीं हैं। एक, उस
एक ब्रह्म के
साथ हैं। उस
एक ब्रह्मांड
के साथ हैं और
प्रत्येक
घटना भागीदार
है। तो बुद्ध
ने कहा है कि
मुझसे पहले जो
कुछ बुद्ध हुए
उनको नमस्कार
करता हूं और मेरे
बाद जो बुद्ध
होंगे उनको
नमस्कार करता
हूं।
किसी
ने पूछा, आप
उनको नमस्कार
करें जो आपके
पहले हुए, यह
समझ में आता
है क्योंकि हो
सकता है, उनसे
कोई जाना—अनजाना
ऋण हो, क्योंकि
जो आपसे पहले
जान चुके हैं
उनके ज्ञान ने
आपको साथ दिया
हो, लेकिन
जो अभी हुए ही
नहीं, उनसे
आपको क्या
लेना—देना है,
उनसे आपको
कौन—सी सहायता
मिली है मे तो
बुद्ध ने कहा,
जो हुए हैं
उनसे भी मुझे
सहायता मिली
है, जो अभी
नहीं हुए हैं
उनसे भी मुझे
सहायता मिली
है। क्योंकि
जहां मैं खड़ा
हूं वहां अतीत
और भविष्य एक
हो गए हैं।
वहां जो जा
चुका है, वह
उससे मिल रहा
है जो अभी आने
को है। वहां
सूर्योदय और
सूर्यास्त एक
ही बिन्दु पर मिल
रहे हैं। तो
मैं उन्हें भी
नमस्कार करता
हूं जो होंगे।
उनका भी मुझ
पर ऋ??ण है
क्योंकि अगर
वे भविष्य में
न हों तो मैं आज
न हो सकूंगा।
इसको
समझना थोड़ा
कठिन पड़ेगा.।
यह एसेंशियल
एस्ट्रोलाजी
की बात है। कल
जो हुआ है अगर
उसमें से कुछ
भी खिसक जाए
तो मैं न हो
सकूंगा। क्योंकि
मैं एक शृंखला
में बंधा हुआ
हूं। यह समझ
में आता है।
अगर मेरे पिता
न हौं जगत में
तो मैं न हो
सकूंगा। यह
समझ में आता
है। क्योंकि
एक कड़ी अगर
विदा हो जाएगी
तो मैं न हो सकूंगा।
अगर मेरे पिता
के पिता न हों, तो
मैं न हो
सकूंगा
क्योंकि कड़ी
विसर्जित हो जाएगी।
लेकिन मेरा
भविष्य, अगर
उसमें कोई कड़ी
न हो तो मैं न
हो सकूंगा, समझना मुश्किल
पड़ेगा।
क्योंकि उससे
क्या लेना—देना,
मैं तो हो
ही गया हूं!
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं कि अगर
भविष्य में भी
जो होनेवाला
है,
वह न हो तो
मैं न हो
सकूंगा।
क्योंकि
भविष्य और
अतीत दोनों के
बीच की मैं
कड़ी हूं।
कहीं भी कोई
भी बदलाहट
होगी तो मैं
वैसे नहीं हो
सकूंगा जैसा
हूं। कल ने भी
मुझे बनाया, आनेवाला कल
भी मुझे बनाता
है—यही
ज्योतिष है—बीता
कल ही नहीं, आनेवाला कल
भी—जा चुका ही
नहीं, जो आ
रहा, वह भी—जो
सूरज पृथ्वी
पर उगे वह
नहीं, जो
उगेंगे वह भी।
वह भी भागीदार
हैं। वह भी आज
के क्षण को
निर्मित कर
रहे हैं।
क्योंकि जो
वर्तमान का
क्षण है यह हो
ही न सकेगा
अगर भविष्य का
क्षण इसके आगे
न खड़ा हो! उसके सहारे
ही यह हो पाता
है।
हम
सब के हाथ
भविष्य के
कन्धे पर रखे
हुए हैं। हम
सबके पैर अतीत
के कन्धों पर
पड़े हुए हैं।
हम सबके हाथ
भविष्य के
कन्धों पर रखे
हुए हैं। नीचे
तो हमें
दिखायी पड़ता
है कि अगर
मेरे नीचे जो
खड़ा है वह न हो
तो मैं गिर
जाऊंगा।
लेकिन भविष्य
में मेरे जौ
फैले हाथ हैं, वह
जो कन्धों को
पक्के हुए हैं,
अगर वह भी न
हों तो भी मैं
गिर जाऊंगा।
जब
कोई व्यक्ति
अपने को इतनी
आन्तरिक एकता
में अतीत और
भविष्य के बीच
जुड़ा हुआ पाता
है तब वह
ज्योतिष को
समझ पात्रा है।
तब ज्योतिष
धर्म बन जाता
है,
तब ज्योतिष
अध्यात्म हो
जाता है। और
नहीं तो, वह
जो नान
एसेंशियल है,
गैर जरूरी
है उससे जुड़कर
ज्योतिष सड़क
की मदारीगिरी
हो जाता है, उसका फिर
कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
श्रेष्ठतम
विज्ञान भी
जमीन पर गडकर
धूल की कीमत
के हो जाते
हैं। हम उनका
क्या उपयोग
करते हैं उस
पर सारी बात निर्भर
है। इसलिए मैं
बहुत द्वारों
से एक तरफ
आपको धक्का दे
रहा हूं कि
आपको यह खयाल
में आ सके—सब
संयुक्त है—संयुक्तता,
इस जगत का
एक परिवार
होना या एक
आर्गनिक बॉडी होना,
एक शरीर की
तरह होना।
मैं
सांस लेता हूं
तो पूरा का
पूरा शरीर
प्रभावित
होता है। सूरज
सांस लेता है
तो पृथ्वी
प्रभावित
होती है और
दूर के
महासूर्य है, वे
भी कुछ करते
हैं तो पृथ्वी
प्रभावित
होती है। और
पृथ्वी
प्रभावित
होती है तो हम
प्रभावित होते
हैं। सब चीज, छोटा—सा
रोया तक महान
सूर्यों के
साथ जुड़कर
कंपता है, कंपित
होता है। यह
खयाल में आ
जाए तो हम
सारभूत
ज्योतिष में प्रवेश
कर सकेंगे। और
असारभूत
ज्योतिष की जो
व्यर्थताएं
हैं उनसे भी
बच सकेंगे।
क्षुद्रतम
बातें हम
ज्योतिष से
जोड़कर बैठ गए हैं—
अति
क्षुद्रतम! —जिनका
कहीं भी कोई
मूल्य नहीं है।
और उनको
जोड्ने की वजह
से बड़ी कठिनाई
होती है, जैसा
हमने जोड़ रखा
है कि एक आदमी
गरीब पैदा होगा
तो इसका संबंध
ज्योतिष से
होगा। नहीं, गैर जरूरी
बात अगर आप
नहीं जानते
हैं तो ज्योतिष
से संबंध जुड़ा
रहेगा। अगर आप
जान लेते है
तो आपके हाथ
में आ जाएगा।
एक
बहुत मीठी
कहानी आपको
कहूं तो खयाल
में आए।
जिन्दगी ऐसी
ही बेलेन्स है, ऐसा
ही सन्तुलन है।
मुहम्मद का एक
शिष्य है, अली।
और अली, मुहम्मद
से पूछता है
कि बड़ा विवाद
है सदा से कि
मनुष्य
स्वतंत्र है
अपने कृत्य
में या परतंत्र
है—बंधा है कि
मुक्त है! मैं
जो करना चाहता
हूं वह कर
सकता हूं या
नहीं कर सकता
हूं। सदा से
आदमी ने यह
पूछा है।
क्योंकि अगर
हम कर ही नहीं
सकते कुछ तो
फिर किसी आदमी
को कहना कि
चोरी मत करो, झूठ मत बोलो,
ईमानदार
बनो, नासमझी
है!
एक
आदमी अगर चोर
होने को बदा
है तो यह
समझाते फिरना
कि चोरी मत
करो,
नासमझी है!
या फिर यह हो
सकता है कि एक
आदमी के भाग्य
में बदा है कि
वह यही समझता
रहे कि चोरी न करो—जानते
हुए कि चोर
चोरी करेगा, बेईमान
बेईमानी
करेगा, असाधु
असाधु होगा, हत्या
करनेवाला
हत्या करेगा,
लेकिन अपने
भाग्य में यह
बदा है कि
लोगों को कहते
फिरो कि चोरी
मत करो! —एब्सर्ड
है!
अगर
सब सुनिश्चित
है तो समस्त
शिक्षाएं
बेकार है—सब
प्रोफेट्स, सब
पैगम्बर, सब
तीर्थंकर
व्यर्थ हैं।
महावीर से भी
लोग पूछते हैं,
बुद्ध से भी
लोग पूछते हैं
कि अगर होना
है, वही
होना है तो आप
समझा क्यों
रहे हैं—किसलिए
समझा रहे हैं।
मुहम्मद
से भी अली
पूछता है कि
आप क्या कहते
हैं?
अगर महावीर
से पूछा होता
अली ने, तो
महावीर ने
जटिल उत्तर
दिया होता। और
बुद्ध से पूछा
होता तो बड़ी
गहरी बात कही
होती। लेकिन
मुहम्मद ने
वैसा उत्तर
दिया था जो
अली की समझ
में आ सकता था।
कई बार
मुहम्मद के
उत्तर बहुत
सीधे और साफ
हैं। अकसर ऐसा
होता है कि जो
लोग कम पढ़े—लिखे
हैं, ग्रामीण
हैं उनके
उत्तर सीधे और
साफ होते हैं—जैसे,
कबीर के या
नानक के, या
मुहम्मद के या
जीसस के—बुद्ध
और महावीर और
कृष्ण के
उत्तर जटिल
हैं। वह
संस्कृति का
मक्खन है।
जीसस की बात
ऐसी है जैसे
किसी ने लट्ठ
सिर पर मार
दिया हो। कबीर
तो कहते ही
हैं—कबिरा खड़ा
बजार में, लिए
लुकाठी हाथ।
लट्ठ लिए
बाजार में खड़े
हैं कबीर। कोई
आये हम उसका
सिर खोल दें।
मुहम्मद
ने कोई बहुत
मेटाफिजिकल
बात नहीं की।
मुहम्मद ने
कहा अली, एक
पैर उठाकर खड़ा
हो जा.! अली ने
कहा, हम
पूछते हैं कि
कर्म करने में
आदमी
स्वतंत्र है
या परतंत्र।
मुहम्मद ने
कहा, तू
पहले एक पैर
उठा। अली
बेचारा एक पैर,
बायां पैर
उठा खड़ा हो गया।
मुहम्मद ने
कहा, अब तू
दायां भी उठा
ले। अली ने
कहा, आप
क्या बात करते
हैं। तो
मुहम्मद ने
कहा, अगर
तू चाहता पहले
तो दाहिना भी
उठा सकता था।
अब नहीं उठा
सकता।
मुहम्मद ने
कहा कि एक पैर
उठाने को आदमी
सदा स्वतंत्र
है। लेकिन एक
पैर उठाते ही
तत्काल दूसरा
पैर बंध जाता
है।
वह
जो नान
एसेंशियल
हिस्सा है
हमारी
जिन्दगी का, गैर
जरूरी हिस्सा
है, उसमें
हम पूरी तरह
पैर उठाने को
स्वतंत्र हैं,
लेकिन
ध्यान रखना, उसमें उठाए
गए पैर भी
एसेंशियल
हिस्से में बन्धन
बन जाते हैं।
वह जो बहुत
जरूरी है वहां
भी फंसाव पैदा
हो जाता है।
गैर जरूरी
बातों में फंस
जाते हैं।
मुहम्मद ने
कहा, तू
उठा सकता था
पहला पैर भी—दाया
भी उठा सकता
था, कोई
मजबूरी न थी।
लेकिन अब
चूंकि तू
बायां उठा
चुका इसलिए
दायां उठाने
में असमर्थता
होगी। आदमी की
सीमाएं है।
सीमाओं के
भीतर
स्वतंत्रता
है।
स्वतंत्रता
सीमाओं के
बाहर नहीं है।
बहुत
पुराना
संघर्ष है
आदमी के
चिन्तन का।
अगर आदमी पूरी
तरह स्वतंत्र
है जैसा
ज्योतिषी
साधारणत: कहते
हुए मालूम
पड़ते है, कि सब
शुनिश्रित है,
जो विधि ने
लिखा है वह
होकर रहेगा तो
फिर सारा धर्म
व्यर्थ हो
जाता है। और
या फिर जैसा
कि तथाकथित
तर्कवादी और
बुद्धिवादी
गुरु कहते हैं
कि सब
स्वच्छन्द है,
कुछ बंधा
हुआ नहीं है, कुछ होने का निश्चित
नहीं है, कुछ
अनिश्चित है—तो
जिन्दगी एक
केऑस और एक
अराजकता और एक
स्वच्छन्दता
हो जाती है।
फिर तो यह भी
हो सकता है कि
मैं चोरी करूं
और मोक्ष पा
जाऊं, हत्या
करूं और
परमात्मा मिल
जाए। क्योंकि
जब कुछ भी
बंधा हुआ नहीं
है और किसी भी
कदम से कोई
दूसरा कदम
बंधता नहीं है
और अब कहीं भी
कोई नियम और
सीमा नहीं है...!
फिर
मुझे खयाल आता
है मुल्ला
नसरुद्दीन का।
मुल्ला एक
मस्जिद के
नीचे से गुजर
रहा है और एक
आदमी मस्जिद
के ऊपर से गिर
पड़ा। अजान
पढ़ने चढ़ा था
मीनार पर, ऊपर
से गिर पड़ा।
मुल्ला के
कन्धे पर गिरा।
मुल्ला की कमर
टूट गयी।
अस्पताल में
मुल्ला भर्ती
है, उसके
शिष्य उसको
मिलने गए और
शिष्यों ने
कहा, मुल्ला,
इस
र्दुघटना से
क्या मतलब
निकलता है? हाऊ डू यू
इन्टरप्रीट
इट, इस
घटना की
व्याख्या
क्या है? क्योंकि
मुल्ला हर
घटना की
व्याख्या
निकालता था।
मुल्ला
ने कहा, इससे
साफ जाहिर
होता है कि
कर्म का और फल
का कोई संबंध
नहीं है। कोई
आदमी गिरता है,
किसी की कमर
टूट जाती है।
इसलिए अब तुम
कभी कर्मफल के
सैद्धान्तिक
विवाद में मत
पड़ना। यह बात
सिद्ध होती है
कि गिरे कोई, कमर किसी की
टूट सकती है।
वह आदमी तो
मजे में है, वह मेरे ऊपर
सवार हो गया
था, फंसा
मैं! न मैं
अजान पढ़ने चढ़ा,
मैं अपने घर
लौट रहा था, हमारा कोई
संबंध ही न था—फिर
भी फंसा मै!
इसलिए
आज से कर्मफल
के सिद्धांत
की बातचीत बन्द!
कुछ भी हो
सकता है.. .कुछ
भी हो सकता है!
कोई कानून
नहीं है—अराजकता
है—नाराज था, स्वाभाविक
है! उसकी कमर
जो टूट गयी थी।
दो
विकल्प सीधे
रहे है—एक
विकल्प तो यह
है कि
ज्योतिषी, साधारणत:
जैसे सड़क पर
बैठनेवाला
ज्योतिषी कहता
है... वह चाहे
गरीब आदमी का
ज्योतिषी हो
चाहे मोरारजी
देसाई का
ज्योतिषी हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। वह सड़क
का है
ज्योतिषी
जिससे कोई नान
एसेंशियल
बातें पूछने
जाता है कि
इलेक्शन में
जीतेंगे कि
हार जाएंगे—जैसे
कि आपके
इलेक्शन से
चांद—तारों का
कोई लेना—देना
है। वह कहता
है, सब
बंधा हुआ है।
कुछ इंचभर
यहां वहां
नहीं हो सकता।
वह भी गलत
कहता है।
और
दूसरी तरफ
तर्कवादी है।
वह कहता है, किसी
चीज का कोई
संबंध नहीं है।
कुछ भी घट रहा
है, सांयोगिक
है, चांस
है—कोइन्सीडेंट
है, संयोग
है। यहां कोई
नियम नहीं है।
सब अराजकता है।
वह भी गलत
कहता है। यहां
कोई नियम है।
क्योंकि वह बुद्धिवादी
कभी बुद्ध की
तरह आनंद से
भरा हुआ नहीं
मिलता'। वह
शुद्धवादी ही
धर्म और ईश्वर
को और आत्मा को
तर्क से इनकार
कर लेता है
लेकिन कभी
महावीर की
प्रसन्नता को
उपलब्ध नहीं
होता। जरूर
महवीर कुछ
करते है, जिससे
उनकी
प्रसन्नता
फलित होती है।
और
बुद्ध कुछ
करते हैं
जिससे उनकी
समाधि निकलती
है। और कृष्ण
कुछ करते हैं
जिससे उनकी
बांसुरी के
स्वर अलग है।
स्थिति
तीसरी है और
तीसरी स्थिति
यह है, जो
बिलकुल
सारभूत है, जो बिलकुल
अंतरतम है वह
बिलकुल सुनिश्रित
है। जितना हम
अपनी केंद्र
की तरफ आते
हैं उतना निश्चय
के करीब आते
हैं। जितना हम
अपनी परिधि की
तरफ, सरकमफेरेंस
की तरफ जाते
हैं उतना
संयोग के करीब
जाते हैं।
जितना हम बाहर
की घटना की
बात कर रहे है
उतनी सांयोगिक
बात है। जितनी
ही भीतर की
बात कर रहे
हैं उतनी ही
नियम और
विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्रित
बात हो जाती
है। दोनों के
बीच में भी
जगह है जहां
बहुत रूपांतरण
होते हैं।
जहां
जाननेवाला
आदमी विकल्प
चुन लेता है।
नहीं
जाननेवाला
अंधेरे में
वही चुन लेता
है जो भाग्य
है। जो अंधेरे
में है, वह
जो संयोग है, उसको पकड़
लेता है।
तीन
बातें हुईं।
ऐसा क्षेत्र
है जहां सब सुनिश्रित
है। उसे जानना
सारभूत
ज्योतिष को
जानना है। ऐसा
क्षेत्र है, जहां
सब अनिश्चित
है। उसे जानना
अनिश्चित है।
उसे जानना
व्यावहारिक
जगत को जानना
है। और ऐसा
क्षेत्र जो
दोनों के बीच
में है, उसे
जानकर आदमी जो
नहीं होना
चाहिए उससे बच
जाता है, जो
होना चाहिए
उसे कर लेता
है। और अगर
परिधि पर या
केंद्र के
मध्य में आदमी
इस भांति जिए
कि केंद्र पर
पहुंच जाए तो उसकी
जीवन की
यात्रा
धार्मिक हो
जाती है। और
अगर इस भांति
जिए कि केंद्र
पर कभी न
पहुंच पाए तो
उसके जीवन की
यात्रा
अधार्मिक हो
जाती है।
जैसे, एक
आदमी चोरी
करने खड़ा है।
चोरी करना कोई
नियति नहीं है।
चोरी करनी ही
पड़ेगी, ऐसा
कोई सवाल नहीं
है।
स्वतंत्रता
पूरी मौजूद है।
हां, करने
के बाद एक पैर
उठ जाएगा, दूसरा
पैर फंस जाएगा।
करने के बाद न
करना मुश्किल
हो जाएगा।
करने के बाद
बचना मुश्किल
हो जाएगा। किए
हुए का सारा
का सारा
प्रभाव
व्यक्तित्व को
ग्रसित कर
लेगा। लेकिन
जब तक नहीं किया
है तब तक
विकल्प मौजूद
है। हां और न
के बीच में
आदमी का चित्त
डोलता है। अगर
वह न करे तो
केंद्र की तरफ
आ जाएगा। अगर
वह हां कर दे
तो परिधि पर
चला जाएगा। वह
जो मध्य में
है चुनाव, वहां
अगर वह गलत को
चुन ले तो
परिधि पर फेंक
दिया जाता है
और अगर सही को
चुन ले तो
केंद्र की तरफ
आ जाता है—उस
ज्योतिष की
तरफ जो हमारे
जीवन का
सारभूत है।
कुछ
बातें मैंने
कहीं। आज
मैंने एक बात
आपसे कही और
वह यह कि
सूर्य के हम
फैले छुए हाथ
हैं। सूर्य से
जन्मती है
पृथ्वी, पृथ्वी
से जन्मते हैं
हम। हम अलग
नहीं हैं, हम
जुड़े हैं। हम
सूर्य की ही
दूर तक फैली
हुई शाखाएं और
पत्ते है।
सूर्य की जड़ों
में जो होता
है वह हमारे
पत्ते के रोएं—रोएं
रेशे—रेशे तक
फैल जाता है
और कंपित कर
जाता है। यदि
यह खयाल में
हो तो हम जगत
के बीच एक
पारिवारिक
बोध को उपलब्ध
हो सकते है।
तब हमें स्वयं
की अस्मिता और
अहंकार में जीने
का कोई
प्रयोजन नहीं
है।
और
ज्योतिष की
सबसे बड़ी चोट
अहंकार पर है।
अगर ज्योतिष
सही है तो
अहंकार गलत है, ऐसा
समझें। और अगर
ज्योतिष गलत
तो फिर अहंकार
के अतिरिक्त
कुछ सही होने
को नहीं बचता।
अगर ज्योतिष
सही है तो जगत
सही है और मैं
गलत हूं अकेले
की तरह। जगत
का एक टुकड़ा
ही हूं मैं, एक हिस्सा
ही, और वह
भी कितना
नाचीज टुकड़ा
हूं जिसकी कोई
गणना भी नहीं
हो सकती।
अगर
ज्योतिष सही
है तो मैं
नहीं हूं—शक्तियों
का एक प्रवाह
है,
उसी में एक
छोटी लहर मैं
हूं—किसी बड़ी
लहर पर सवार!
कभी—कभी भ्रम
पैदा हो जाता
है, कि मैं
भी हूं। वह
बड़ी लहर खयाल
में नहीं रह
जाती और बड़ी
लहर भी किसी
सागर पर सवार
है। उसका तो
बिलकुल खयाल
नहीं रह जाता।
नीचे से सागर
हाथ अलग कर
लेता है। बडी
लहर बिखरने
लगती है, बड़ी
लहर बिखरती है,
मैं खो जाता
हूं।
अकारण
दुख ले लेता
हूं कि मिट
रहा हूं
क्योंकि
अकारण मैंने सुख
लिया था कि
हूं। अगर उसी
वक्त देख लेता
कि मैं नहीं
हूं बड़ी लहर
है,
बड़ा सागर है।
सागर की मर्जी
कि उठता हूं
सागर की मर्जी
कि खो जाता
हूं। अगर ऐसी
भाव दशा बन
जाती है कि
अनंत की मर्जी
का मैं एक
हिस्सा हूं तो
कोई दुख न था।
हां, वह
तथाकथित सुख
फिर नहीं हो
सकता जो हम
लेते रहते हैं।
मैंने जीता, मैंने कमाया,
वह सुख भी
नहीं रह जाएगा।
वह दुख भी
नहीं रह जाएगा
कि मैं मिटा, मैं बर्बाद
हुआ, मैं
डूब गया, नष्ट
हो गया, हार
गया, पराजित
हुआ, यह
दुख ही नहीं
रह जाएगा।
और
जब यह दोनों
सुख और दुख
नहीं रह जाते
तब हम उस
सारभूत जगत
में प्रवेश
करते हैं, वहां
आनंद है।
ज्योतिष आनंद
का द्वार बन
जाता है। अगर
हम ऐसा देखें
कि वह हमारी
अस्मिता को
गलाता है, हमारा
अहंकार
बिखेरता है, हमारी इगो
को हटा देता
है तो ज्योतिष
धर्म है।
लेकिन यदि हम
बाजार में, सड़क पर
ज्योतिषी के
पास जाते हैं
तो अपने अहंकार
की सुरक्षा के
लिए पूछते हैं,
कि घाटा तो
नहीं लगेगा? यह लाटरी तो
मिल जाएगी न? कि नहीं
मिलेगी? यह
धंधा हाथ में
लेते हैं, सफलता
निश्चित है न?
अहंकार के
लिए हम पूछने
जाते हैं और
मजा यह है कि
ज्योतिष पूरा
का पूरा
अहंकार के
विपरीत है।
ज्योतिष
का अर्थ यह है, आप
नहीं हो, जगत
है। आप नहीं
हो, ब्रह्मांड
है। विराट
शक्तियों का
प्रभाव है, आप कुछ भी
नही हैं। इस
ज्योतिष की
तरफ खयाल आए, और तभी आ
सकता है जब हम
इस विराट जगत
के बीच अपने
को एक हिस्से
की तरह देखें।
इसलिए मैंने
कहा कि सूर्य
से किस भांति
सारा का सारा
विस्तार
संयुक्त है और
जुड़ा हुआ है।
अगर सूर्य से
हमें पता चल
जाए कि हम
जुड़े हुए हैं
तो फिर हमें
पता चलेगा कि
सूर्य और
महासूर्य से
जुड़ा हुआ है।
कोई
चार अरब सूर्य
हैं और वैज्ञानिक
कहते हैं, इन
सभी सूर्यों
का अन्य किसी
महासूर्य से
जन्म हुआ है।
अब तक हमें
उसका कोई अंदाज
नहीं है। वह
कहां होगा? कैसे पृथ्वी
अपनी कील पर
घूमती है और
साथ ही सूरज
का चक्कर
लगाती है!
ऐसे
ही सूरज अपनी
कील पर घूमता
है और किसी
बिंदु का
चक्कर लगा रहा
है। उस बिंदु
का ठीक—ठीक
पता नहीं है
कि वह बिंदु
क्या है जिसका
सूरज चक्कर
लगा रहा है।
विराट चक्कर
जारी है। जिस
बिंदु का सूरज
चक्कर लगा रहा
है वह बिंदु और
सूरज का पूरा
का पूरा सौर
परिवार भी
किसी और एक
महाबिंदु के
चक्कर में
संलग्न है।
मंदिरों
में परिक्रमा
बनी है। वह
परिक्रमा
इसका प्रतीक
है कि इस जगत
में सारी
चीजें किसी की
परिक्रमा कर
रही हैं।
प्रत्येक
अपने में घूम
रहा है और फिर
किसी की
परिक्रमा कर
रहा है। फिर
वे दोनों
मिलकर किसी और
बड़ी की परिक्रमा
करते हैं। फिर
वे तीनों
मिलकर और किसी
की परिक्रमा
करते हैं। वह
जो अल्टीमेट
है,
परम है, परात्पर
है, जिसकी
सभी परिक्रमा
कर रहे हैं, उसको ही
ज्ञानियों ने
ब्रह्म कहा है।
उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा
नहीं कर रहा
है, जो
अपने में भी
नहीं घूम रहा
है और किसी की
परिक्रमा भी
नहीं कर रहा
है।
ध्यान
रखें, जो अपने
में घूमेगा वह
किसी की
परिक्रमा
जरूर करेगा।
जो अपने में
भी नहीं
घूमेगा वह फिर
किसी की परिक्रमा
नहीं करता। वह
शून्य और शांत
है। वह है
धुरी, यह
है वह कील जिस
पर सारा
ब्रह्मांड
घूम रहा है, जिससे सारा
ब्रह्मांड
फैलता है और
सिङ्ता है।
हिंदुओं ने तो
सोचा है कि जैसे
कली फूल बनती
है, फिर बिखर
जाती है ऐसे ही
पूरा जगत खिलता
है, फैलता है,
एक्सपेंड होता
है। और फिर प्रलय
को उपलब्ध हो
जाता है। जैसे
दिन होता है
और रात होती
है ऐसे ही
सारा जगत का
दिन और फिर
सारे जगत की
रात हो जाती
है।
जैसा
मैंने कहा कि
ग्यारह वर्ष
का एक क्रम है, नब्बे
वर्ष का एक
क्रम है। ऐसा
हिंदू
विचारकों का
खयाल है कि
अरबों—खरबों
वर्ष का भी एक
क्रम है। उस
क्रम में जगत
उठता है, जवानहोताहै।
पृथ्वियां पैदा
होती है, चांद—तारे
फैलते है, बस्तियां
बसती हैं। लोग
जन्मते हैं, करोड़ों—करोड़ों
प्राणी पैदा
होते हैं—और
कोई एक अकेली
पृथ्वी पर हो
जाते हैं—ऐसा
नहीं।
अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कम—से—कम पचास
हजार ग्रहों
पर जीवन होना
चाहिए, कम—से—कम!
यह मिनिमम है,
न्यूनतम है—इतना
तो होगा ही।
इससे ज्यादा
हो सकता है।
इतने बड़े
विराट जगत में
अकेली पृथ्वी
पर जीवन हो, यह संभव
नहीं मालूम होता।
पचास हजार
ग्रहों पर, पचास हजार
पृथ्वियों पर
जीवन है। अनंत
फैलाव है, फिर
सब सिकुड़ जाता
है।
यह
पृथ्वी सदा
नहीं थी, सदा
नहीं होगी।
जैसे मैं सदा
नहीं था, नहीं
होऊंगा। वैसे
यह पृथ्वी सदा
नहीं थी, सदा
नहीं होगी। यह
सूरज भी सदा
नहीं था, सदा
नहीं होगा। ये
चांद तारे भी
सदा नहीं थे, सदा नहीं
होंगे। इनके होने
और न होने का वर्तुल
घूमता रहता है।
उस विराट पहिए
में हम भी किसी
एक पहिए की
धुरी पर न होने
जैसे कही हैं,
और हम सोचते
हो कि हम अलग है
तो हमारी स्थिति
वैसी ही है जैसी
कि मुल्लानसरुद्दीन
की थी जबकि वह
पहली ही बार हवाई
जहाज में सवार
हुआ था।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
हवाई जहाज में
सवार हुआ। और
जल्दी पहुंच
जाए इसलिए हवाई
जहाज के भीतर
चलने लगा—जल्दी
पहुंच जाने के
खयाल से!
स्वाभाविक
तर्क है कि
अगर जल्दी
चलिएगा तो
जल्दी पहुंच
जाइएगा।
यात्रियों ने उसे
पकड़ा और कहा कि
आप क्या कर रहे
हैं,
उसने कहा कि
मै थोड़ा जल्दी
में हूं। जमीन
पर जो उसका
तर्क था, वही
उसका यहां भी
था।
वह
पहली ही बार
हवाई जहाज में
सवार हुआ था।
जमीन पर वह
जानता था कि
जल्दी चलिए तो
जल्दी पहुंच
जाते हैं।
हवाई जहाज पर
भी वह जल्दी चल
रहा था—इसका बिना
खयाल किए कि उसका
चलना अब असंगत
है। अब तो
हवाई जहाज चल
ही रहा है। वह
चलकर सिर्फ
अपने को थका
ले सकता है—जल्दी
नहीं
पहुंचेगा। यह हो
सकता है कि पहुंचते—पहुंचते
इतना थक जाए कि
उठ भी न पाए।
उसे विश्राम कर
लेना चाहिए।
उसे आँख बद करके
लेट जाना चाहिए।
लेकिन नहीं, नसरुद्दीन
ऐसी बातों में
आने वाला नहीं
है और न ही
हमारे अन्य
बुद्धिमान ही
आनेवाले हैं।
धार्मिक
व्यक्ति मै
उसे कहता हूं जो
इस जगत की
विराट गति के
भीतर विश्राम को
उपलब्ध है। जो
जानता है कि
विराट चल रहा
है—जल्दी नहीं
है। मेरी
जल्दी से कुछ
होगा नहीं।
अगर मैं इस
विराट की
लयबद्धता में
एक बना रहूं
तो वही काफी
है,
वही
आनंदपूर्ण है।
ज्योतिष
पर इसीलिए
आपसे मैंने
इतनी बातें कही
हैं कि यह
खयाल में आ
जाए तो
ज्योतिष आपके
लिए अध्यात्म
का द्वार
सिद्ध हो सकता
है।
'ज्योतिष
अर्थात
अध्यात्म' :
(प्रश्रोत्तर
चर्चा )बुडलैण्ड
बम्बई
दिनांक
10 जुलाई 1971
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