'मैं कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र, 1966—67
यह क्या हो
गया है? मनुष्य को
यह क्या हो
गया है? मैं
आश्रर्य में
हूं कि इतनी
आत्म
विपन्नता, इतनी
अर्थहीनता और
इतनी घनी ऊब
के बावजूद भी
हम कैसे जी
रहे हैं!
मैं
मनुष्य की
आत्मा को
खोजता हूं तो
केवल अंधकार
ही हाथ आता है
और मनुष्य के
जीवन में
झांकता हूं तो
सिवाय मृत्यु
के और कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता है।
जीवन
है, लेकिन
जीने का भाव
नहीं। जीवन है,
लेकिन एक
बोझ की भांति।
वह सौन्दर्य,
समृद्धि और
शांति नहीं है।
और आनन्द न हो,
आलोक न हो
तो निश्चय ही
जीवन नाम—मात्र
को ही जीवन रह
जाता है।
पशु
पक्षी और पौधे
भी हमसे
ज्यादा सघनता, समृद्धि
और संगीत में
जीते हुए
मालूम होते हैं।
लेकिन शायद
कोई कहे कि
मनुष्य की
समृद्धि तो दिन
दूनी रात
चौगुनी बढ़ती
जा रही है—फिर
भी आप यह क्या
कह रहे हैं? उत्तर में
मै कहूंगा— 'परमात्मा
मनुष्य को
उसकी तथाकथित
समृद्धि से
बचाए। वह
समृद्धि नहीं,
बस केवल
दरिद्रता और
दीनता को
भुलाने का
उपाय है। यह
समृद्धि, शक्ति
और प्राप्ति
सब स्वयं से
पलायन है।’ मैं, समृद्धि
के वस्रों को
उतारकर, जब
मनुष्य को
देखता हूं तो
उसकी आन्तरिक
दरिद्रता को
देखकर हृदय
बहुत विषाद से
भर जाता है।
क्या इस दीखता
को छिपाने और
विस्मरण करने
के लिए ही हम
समृद्धि को
नहीं ओढ़े हुए
हैं?
जो
थोड़ा सा भी
विचार करेगा, वह सहज ही
इस सत्य से
परिचित हो
जाएगा।
आत्महीनता से
पीड़ित
व्यक्ति पद को
खोजते है, और
आत्म
दरिद्रता से ग्रसित
धन और सम्पदा
को। भीतर जो
है, उससे
पलायन करने को
उसके विपरीत
ही हम बाहर स्वयं
को निर्मित
करने लगते हैं।
अहंकारी
विनीत बन जाते
हैं और
अतिकामी
ब्रह्मचर्य
और साधुता में
स्वयं को भुला
लेना चाहते
हैं।
मनुष्य
जो भीतर होता
है, साधारणत:
ठीक उससे
विपरीत ही वह
बाहर स्वयं को
प्रकट करता है।
इसलिए ही
दरिद्र
सम्पदा को
खोजते हैं और
जो सम्पदाशाली
होते हैं, वे
दखिता को वरण
कर लेते हैं!
क्या आपने
दरिद्रों को
सम्राट और
सम्राटों को
दरिद्र होते
नहीं देखा है?
इसलिए
यह न कहें कि
मनुष्य की
समृद्धि बढ़ गई।
वस्तुओं की
समृद्धि तो
बढ़ी है पर
मनुष्य की समृद्धि
नहीं। वह और
भी द्ररिद्र
हो गया है।
स्मरण रहे कि
बाह्य
समृद्धि को
बढ़ाने की पागल
दौड़ में वह
निरत्तर और भी
द्ररिद्र ही
होता जाएगा।
क्योंकि इस
दौड़ में वह यह
भूलता ही जा
रहा है कि एक
और प्रकार की
समृद्धि भी है, जो बाहर
नहीं, स्वयं
के भीतर ही
उपलब्ध की
जाती है।
वस्तुओं का
बढ़ता जाना ही
एकमात्र
विकास नहीं है।
एक और विकास
भी है जिसमें
स्वयं मनुष्य
भी बढ़ता है।
निश्चय ही वही
विकास
वास्तविक है
जिसमें
मानवीय चेतना
ऊर्ध्वगमन
करती है और
प्रगाढ़ता, सौन्दर्य,
संगीत और
सत्य को
उपलब्ध होती
है।
मैं आप
से ही पूछना
चाहता हूं कि
क्या आप वस्तुओं
के संग्रह से
ही संतुष्ट
होना चाहते
हैं, या
कि चेतना के
विकास की भी
प्यास आप के
भीतर है?
जो
मात्र
वस्तुओं में
ही संतुष्टि
सोचता है वह
अंतत: असंतोष
के और कुछ भी नहीं
पाता है, क्योंकि
वस्तुएं तो
केवल सुविधा
ही दे सकती
हैं, और निश्चय
ही सुविधा और
संतोष में
बहुत भेद है।
शुविधा कष्ट
का अभाव है, संतोष आनन्द
की उपलब्धि है।
आपका
हृदय क्या
चाहता है? आपके
प्राणों की
प्यास क्या है?
आपके
श्वासों की
तलाश क्या है?
क्या कभी
आपने अपने
आपसे ये प्रश्न
पूछे हैं? यदि
नहीं, तो
मुझे पूछने
दें। यदि आप
मुझसे पूछें
तो मैं कहूंगा—
'उसे पाना
चाहता हूं
जिसे पाकर फिर
कुछ और पाने
को नहीं रह
जाता।’ क्या
मेरा ही उत्तर
आपकी
अंतराआओं में
भी नहीं उठता
है?
यह मैं
आपसे ही नहीं
पूछ रहा हूं
और भी हजारों
लोगों से पूछता
हूं और पाता
हूं कि सभी
मानव—हृदय
समान हैं और
उनकी
आत्यंतिक चाह
भी समान ही है।
आत्मा
आनंद चाहती है—पूर्ण
आनन्द, क्योंकि तभी
सभी चाहो का
विश्राम आ
सकता है। जहां
चाह है, वहां
दुख है
क्योंकि वहां
अभाव है।
आत्मा
सब अभावों का
अभाव चाहती है।
अभाव का पूर्ण
अभाव ही आनन्द
है और वह
स्वतंत्रता
भी है, मुक्ति
भी, क्योंकि
जहां कोई भी
अभाव है, वहीं
बंधन है, सीमा
है और
परतंत्रता है।
अभाव जहां
नहीं है, वहीं
परममुक्ति
में प्रवेश है।
आनन्द
मोक्ष है और
मुक्ति आनन्द
है। निश्चय
ही जो परम
आकांक्षा है, वह
बीजरूप में
प्रत्येक में
प्रसुप्त
होनी चाहिए
क्योंकि, जिस
बीज में वृक्ष
न छिपा हो, उसमें
अंकुर भी नहीं
आ सकता है।
हमारी जो चरम
कामना है, वहीं
हमारा
आत्यंतिक
स्वरूप भी है;
क्योंकि
स्वरूप ही
अपने पूर्ण
विकास में आनन्द
और
स्वतंत्रता
में परिणत हो
सकता है।
स्वरूप ही
सत्य है और
उसकी पूर्ण
उपलब्धि ही सन्तोष
बनती है।
स्वरूप
की सम्पदा को
जो नहीं खोजता
है, वह
विपदाओं को ही
सम्पदाएं
समझता रहता है।
निश्चय ही
बाहर की कोई
भी उपलब्धि
अभावों का
अभाव नहीं ला
सकती है, क्योंकि
बाहर की कोई
भी सम्पत्ति
भीतर के अभाव
को कैसे भर
सकेगी! अभाव
आतंरिक है, तो बाहर की
किसी भी विजय
से उसका भराव
नहीं होता है।
इसलिए सब पाकर
भी कुछ भी
पाया—सा
प्रतीत नहीं
होता है, और
बाहर सब होकर
भी व्यक्ति
भीतर रिक्त ही
बना रहता
बुद्ध
ने कहा है— 'तृष्णा
दुष्पूर है।’
कैसा
आश्रर्य है कि
चाहे हम कुछ
भी पा लें, फिर भी
पाने पर जो
प्रतीत होता
है, वह
उतना ही रहता
है जितना पाने
के पूर्व था।
इसलिए
सम्राटों और
भिखारियों का
अभाव समान ही
होता है। उस
तल पर उनमें
कोई भी भेद
नहीं है।
फिर, बाह्य
संगीत की दिशा
में जो मिला
हुआ भी मालूम
होता है, उसकी
भी कोई सुरक्षा
नहीं है, क्योंकि
किसी भी क्षण
वह छिन सकता
या नष्ट हो सकता
है। अंततः
मृत्यु तो उसे
छीन ही लेती
है। जो छीना
जा सकता है, उसे हमारे
अन्तर्हदय
कभी भी अपना न
मान पाते हों
तो आश्रर्य ही
क्या! इसलिए
ही सम्पत्ति
सुरक्षा नहीं
देती है, हालांकि
हम उसे
सुरक्षा के लिए
खोजते हैं।
उल्टे हमें ही
उसकी सुरक्षा
करनी होती है।
यह ठीक
से समझ लें कि
बाह्य
सम्पत्ति, सुविधाओं
और शक्तियों
से न अभाव
मिटता है, न
असुरक्षा
मिटती है, न
भय मिटता है।
उनके मिथ्या
आश्वासन में
ज्यादा से
ज्यादा व्यक्ति
उन्हें भूला
भर रह सकता है।
इसलिए ही सम्पत्ति
को मद कहा है।
उसकी मादकता
में जीवन की
वास्तविक
स्थिति के दर्शन
नहीं हो पाते
हैं और अभाव
का इस भांति विस्मरण
अभाव से भी
बुरा है, क्योंकि
उसके कारण
अभाव को
मिटाने की
वास्तविक
दिशा में
दृष्टि नहीं
उठ पाती है।
जीवन
में जो अभाव
है, वह
किसी वसु
शक्ति या सम्पदा
के न होने के
कारण नहीं है,
क्योंकि उन
सबों के मिल
जाने पर भी
उसे मिटते नहीं
देखा जाता है।
जिनके पास सब
कुछ है, क्या
उनकी द्ररिद्रता
से आप परिचित
नहीं हैं? आपके
पास जो कुछ है,
क्या उससे
जरा भी आपकी
दरिद्रता और
दीनता मिटी है?
सम्पत्ति
में और
सम्पत्ति के
होने में बहुत
भेद है। बाहर
की सम्पत्ति, शक्ति, सुरक्षा—सभी
उस वास्तविक
सम्पत्ति की
छायाएं भर है
जो भीतर है।
अभावों
का मूल कारण
बाहर की किसी
उपलब्धि का होना
नहीं, वरन
स्वयं की
दृष्टि का
बाहर होना है।
इसलिए जो अभाव
कुछ पाकर नहीं
मिटते हैं, वे ही
दृष्टि के
भीतर छूने पर
पाए ही नहीं
जाते हैं।
आत्मा
का स्वरूप ही
आनन्द है, वह उसका
कोई गुण नहीं,
वरन उसका
स्वरूप ही है।
आत्मा का
आनन्द से कोई
संबंध नहीं है,
वस्तुत:
आत्मा ही
आनन्द है। वे
दोनों एक ही
सत्य के नाम
हैं। सत्ता की
दृष्टि से जो
आत्मा है, अनुभूति
की दृष्टि से
वही आनन्द है।
लेकिन, उस आनन्द
को आत्मा मत
समझ लेना जिसे
साधारणत: ' आनन्द'
कहा जाता है।
वह ' आनन्द'
आनन्द नहीं
है, क्योंकि
आनन्द के
मिलते ही फिर
आनन्द की सब
खोज बन्द हो
जाती है।
जिसके मिलने
से खोज और
बढ़ती है, जिसके
पाने से
तृष्णा और
प्रबल होती है,
जिसे पाकर
जिसके खोने का
भय पीड़ित करता
है, वह
आनन्द का
मिथ्या आभास
है, आनन्द
नहीं! निश्चय
ही वह जल, जल
नहीं है, जिससे
प्यास और भी
बढ़ जाती हो।
क्राइस्ट
का वचन है : 'आओ, मैं
उस कुएं का
पानी तुम्हें
दूं जिसे पीने
से प्यास सदा
को मिट जाती
है।’
हम सुख
को ही आनन्द
समझ लेते है
जबकि सुख
आनन्द का आभास—मात्र
है, छाया
और परछाईं है।
इस आभास और
भ्रम में ही
अधिक लोग जीवन
को गंवा देते
हैं और अन्ततः
अतृप्ति और
असन्तोष के और
कुछ भी उन्हें
हाथ नहीं लगता
है। निश्चय
ही यदि कोई
मनुष्य झील के
पानी में चांद
के प्रतिबिम्ब
को देख उसे
खोजने को निकल
पड़े तो अन्ततः
वह क्या पा
सकेगा?
वस्तुत:
उसकी खोज उसे
जितना ज्यादा
झील की गहराई
में डुबाएगा
उतना ही
ज्यादा वह
वास्तविक चांद
से दूर निकलता
जाएगा। सुख की
खोज में ऐसे
ही व्यक्ति
आनन्द से दूर
निकल जाते हैं।
सुख को खोजते—खोजते
जो मिलता है
वह सुख नहीं, दुख ही
होता है। क्या
जो मैं कह रहा
हूं उसकी
सच्चाई आपको
दिखाई नहीं
पडती है? क्या
आपका स्वयं का
जीवन—अनुभव इस
सत्य की गवाही
नहीं है कि
सुख की खोज अन्तत:
दुख के तट पर
ले आती है?
यही
स्वाभाविक भी
है, क्योंकि
कोई परछाईं या
प्रतिबिम्ब
केवल अपने
बाह्य रूप में
ही मूल के
समान है।
वस्तुत: जो
उसमें दिखाई
पड़ता है, उससे
बिलकुल भिन्न
ही उसमें पाया
जाता है।
प्रत्येक
सुख, आनन्द
का आश्वासन और
आकर्षण देता
है, क्योंकि
वह आनन्द की
छाया है।
लेकिन उसके
पीछे जाने पर
कुछ भी नहीं
मिलता है, सिवाय
असफलता, विषाद
और दुख के; क्योंकि
आपकी छाया को
पकड़कर भी मैं
आपको कैसे पा
सकता हूं? और
फिर, यदि
आपकी छाया को पकड़
लूं तो भी
मेरी मुट्ठी
में क्या कुछ
हो सकता है?
यह भी
स्मरण दिला
दूं कि
प्रतिबिम्ब
सदा ही विरोधी
दिशा में बनते
हैं। मैं एक
दर्पण के
सामने खड़ा हो
जाऊं तो दर्पण
में जहां मैं
दिखाई पड़ रहा
हूं वह ठीक उस
जगह से विपरीत
है जहां मैं
हूं। ऐसा ही
सुख भी है। वह
अपने में
मूलत: दुख है
क्योंकि वह
आनन्द का प्रतिबिम्ब
है, आनन्द
तो भीतर है, इसलिए सुख
बाहर मालूम
होता है!
आनन्द आनन्द
है, इसलिए
सुख वस्तुत:
दुख है।
मैं जो
कह रहा हूं
उसे किसी भी
सुख का पीछा
जान लो।
प्रत्येक सुख
अनिवार्यत:
अन्त में दुख
में परिणत हो
जाता है और जो
अन्त में जैसा
है, वह
वस्तुत: आरम्भ
में भी वैसा
होता है।
हमारे
पास आंखें
गहरी नहीं
होती हैं, इसीलिए
जिसके दर्शन
प्रारम्भ में
होने थे, उसके
दर्शन अन्त
में हो पाते
हैं। यह
असम्भव है कि
जो अन्त में
प्रकट हो, वह
आरम्भ से ही
उपस्थित न रहा
हो। अन्त तो
आरम्भ का ही
विकास है।
आरम्भ में जो
अप्रकट था वही
अन्त में
प्रकट हो जाता
है। पर न केवल
हमारी आंखें
उथला देखती
हैं वरन
अधिकांशत: तो
वे देखती ही नहीं
हैं। हम अकसर
उन्हीं
रास्तों पर
बार—बार चले
जाते हैं, जिन
पर बहुत बार
पूर्व में
जाकर भी दुख, पीडा और
अवसाद को झेल
चुके होते हैं।
जहां
दुख के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
पाया, उसी
ओर फिर—फिर
जाते हैं।
क्यों? क्योंकि
शायद उसके
अतिरिक्त और
कोई मार्ग हमें
दिखाई ही नहीं
पड़ता है।
इसलिए मैंने
कहा कि हम न
केवल धुंधला
और उथला देखते
हैं बल्कि हम
देखते ही नहीं
हैं। बहुत कम
लोग हैं जो
जीवन में आंखों
का उपयोग करते
हों।
आंखें
तो सबके पास
हैं, लेकिन
आंखों के होते
हुए भी
अधिकांश
अन्धे बने
रहते हैं।
जिसने स्वयं
के भीतर नहीं
देखा है, उसने
कभी अपनी आंखों
का उपयोग ही
नहीं किया है।
केवल वही कह
सकता है कि 'मैं आख वाला
हूं जिसने
स्वयं को देखा
है; क्योंकि
जो स्वयं को
ही नहीं देखता
है, वह और
क्या देखेगा?
आंखों
की शुरुआत
स्वयं को ही
देखने से होती
है और जो स्वयं
को देखता है, दूसरे
देखते हैं कि
उसके चरण सुख
की दिशा में
नहीं जा रहे हैं।
वह व्यक्ति
आनन्द की दिशा
में चलना
प्रारम्भ कर
देता है। सुख
की दिशा स्वयं
से संसार की
ओर है; आनन्द
की दिशा संसार
से स्वयं की
ओर है।
'मैं कौन
हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966 — 67
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें