जागा सो
महावीर: सोया
सो अमहावीर—(प्रवचन—बाईसवां)
प्रश्न:
अगर
मन ही जागरण
है, तो इसकी
मूर्च्छा का
क्या कारण है?
यह
मूर्च्छा
कहां से पैदा
हुई?
महावीर
से किसी ने
पूछा, साधु
कौन है?
स्वभावतः
अपेक्षा रही
होगी कि
महावीर साधु की
परिभाषा
करेंगे।
लेकिन महावीर
ने जो किया, वह परिभाषा
नहीं थी, इशारा
था।
उन्होंने
कहा, साधु वह
है, जो
जाग्रत है; और असाधु वह
है, जो
मूर्च्छित
है।
सुत्ता, सो अमुनि:
वह जो सोता है,
वह असाधु
है।
असुत्ता, मुनि: जो
नहीं सोता है,
जागा हुआ है,
वह साधु है।
यह
सवाल पूछने
जैसा है कि
अगर जागृति, चेतना हमारा
स्वभाव है, स्वरूप है, तो फिर यह
मूर्च्छा
कहां से आ गई
है?
इसे
समझना भी
उपयोगी होगा।
मूर्च्छा का
अर्थ हमें
खयाल में नहीं
है। मूर्च्छा
का अर्थ जागृति
से उलटा नहीं
है, मूर्च्छा
का अर्थ है
जागृति का और
कहीं उपस्थित
होना। यह खयाल
में आ जाए तो
कठिनाई नहीं
रह जाएगी।
हमें ऐसा लगता
है कि अगर
स्वभाव
जागृति है तो
फिर मूर्च्छा
कहां है?
समझ
लें, एक टार्च
हमारे पास है,
जिसका
स्वभाव
प्रकाश है, और टार्च जल
रही है। फिर
हम कहते हैं, जब टार्च जल
रही है और
स्वभाव टार्च
का प्रकाश है,
फिर अंधेरा
कहां है? लेकिन
टार्च का एक
फोकस है और
जिस बिंदु पर
पड़ता है, वहां
तो प्रकाश है,
शेष सब जगह
अंधेरा हो
जाता है। और
यह भी हो सकता
है कि टार्च
खुद अंधेरे
में हो, इसमें
कुछ विरोध
नहीं है।
टार्च का फोकस
बाहर की तरफ
पड़ रहा है, यद्यपि
टार्च का
स्वभाव
प्रकाश है, लेकिन टार्च
खुद अंधेरे
में खड़ी है।
हमारा
स्वभाव तो
जागरण है, लेकिन हमारी
जागृति बाहर
की तरफ फैली
हुई है। हम तब
भी जाग्रत
हैं। एक आदमी
सड़क पर चल रहा
है, चारों
तरफ देखता है,
दुकानें
दिखाई पड़ रही
हैं, लोग
दिखाई पड़ रहे
हैं। नहीं तो
चलेगा कैसे
अगर सोया हुआ
हो? सब
दिखाई पड़ रहा
है, सिर्फ
एक आदमी को
छोड़ कर, जो
वह स्वयं है।
सब तरफ जागृति
फैली हुई है, सब दिखाई पड़
रहा है--सड़क, दुकान, मकान,
तांगा, कार,
रिक्शा--सब;
सिर्फ एक
बिंदु भर
दिखाई नहीं पड़
रहा, वह जो
स्वयं है!
इसका
मतलब यह हुआ
कि जागृति दो
तरह से हो
सकती है:
बहिर्मुखी और
अंतर्मुखी।
अगर
बहिर्मुखी
जागृति होगी
तो अंतर्मुखता
अंधकारपूर्ण
हो जाएगी।
वहां मूर्च्छा
हो जाएगी।
मूर्च्छा का
कुल मतलब इतना
है कि प्रकाश
की धारा उस
तरफ नहीं बह
रही है। अगर जागृति
अंतर्मुखी
होगी तो बाहर
की तरफ मूर्च्छा
हो जाएगी।
साधारणतः
जागृति के ये
दो ही रूप हो
सकते हैं, अंतर्मुखता
और
बहिर्मुखता।
अगर कोई
बहिर्मुखी है
तो
अंतर्मुखता
में बाधा
पड़ेगी, अगर
कोई
अंतर्मुखी है
तो
बहिर्मुखता
में बाधा
पड़ेगी।
लेकिन
अंतर्मुखता
का अगर और
विकास हो तो
एक तीसरी
स्थिति भी
जागृति की
उपलब्ध होती
है, जहां
अंतर और बाह्य
मिट जाता है, जहां सिर्फ
प्रकाश रह
जाता है। वह
पूर्ण जाग्रत,
जहां बाहर
और भीतर का
भेद भी मिट
जाता है। लेकिन
बहिर्मुखता
से कभी कोई इस
तीसरी स्थिति
में नहीं
पहुंच सकता
है।
पहली
स्थिति है
बहिर्मुखता, दूसरी
स्थिति है
अंतर्मुखता, तीसरी
स्थिति है ट्रांसेंडेंस।
तीसरी स्थिति
है दोनों के
पार हो जाना।
और इस पार हो
जाने का जो
बिंदु है, वह
अंतर्मुखता
है। इस पार हो
जाने का बिंदु
बहिर्मुखता
नहीं है।
क्योंकि जब हम
बाहर हैं, तब
तो हम अपने पर
भी नहीं हैं।
तो अपने से और
ऊपर जाने की
तो कोई
संभावना नहीं
है। बाहर से
लौट आना है
अपने पर, और
फिर अपने से
भी ऊपर चले
जाना है। उस
स्थिति में
बाहर-भीतर सब
प्रकाशित हो
जाते हैं।
मूर्च्छा
का अर्थ अभी
जिसे हम समझ
लें, वह इतना
ही है कि हम
बाहर हैं।
बाहर हैं का
मतलब हमारा अटेंशन, हमारा ध्यान
बाहर है। और
जहां हमारा
ध्यान है, वहां
जागृति है; और जहां
हमारा ध्यान
नहीं है, वहां
मूर्च्छा है।
समझो
कि तुम भागी
चली जा रही हो, मकान में आग
लग गई है, पैर
में कांटा गड़
गया है, लेकिन
पता नहीं चलता
कि पैर में
कांटा गड़ा
है। मकान में
लगी है आग तो
पैर में गड़े
कांटे का पता
कैसे चले? सारा
ध्यान आग लगे
हुए मकान पर
अटक गया है। पैर
तक जाने के
लिए ध्यान की
एक छोटी सी
किरण भी नहीं
है, जो
शरीर से पैर
तक पहुंच जाए
यात्रा करके
और पता लगा ले
कि कांटा गड़
गया है।
फिर
मकान की आग
बुझ गई है, फिर सब ठीक
हो गया, और
अचानक पैर का
कांटा दुखने
लगा है! इतनी
देर तक पैर के
कांटे का कोई
पता नहीं था, क्योंकि
ध्यान वहां
नहीं था, ध्यान
कहीं और था।
जहां हमारा
ध्यान है, वहां
हम जाग्रत थे।
जहां हमारा
ध्यान नहीं था,
वहां हम
मूर्च्छित
थे।
काशी
नरेश ने कोई
पचास वर्ष
पहले एक
आपरेशन कराया।
वह अपने तरह
का आपरेशन था, क्योंकि वे
किसी तरह की
मूर्च्छा की
दवा लेने को
तैयार न थे और
डाक्टर बिना
मूर्च्छा की
दवा दिए उतना
बड़ा पेट का
आपरेशन करने
को तैयार न थे।
लेकिन नरेश का
कहना था कि
मुझे गीता
पढ़ने दी जाए।
जब मैं गीता
पढूंगा, तब
फिर कोई खतरा
नहीं है।
क्योंकि मेरा
सारा चित्त
वहां होगा। तो
मूर्च्छित
करने की अलग
से जरूरत क्या
है? मैं
वहां
मूर्च्छित
रहूंगा ही पेट
में। लेकिन
डाक्टर इस बात
को मानने को
राजी न थे।
इसमें खतरा
था। एक सेकेंड
को भी अगर
ध्यान पेट पर
आ गया तो
मृत्यु हो
जाएगी। उतना
बड़ा आपरेशन
था।
तो
पहले
उन्होंने
प्रयोग के लिए
जांच-पड़ताल की
और पाया कि वह
जब गीता पढ़ते
हैं, तब वह
कहीं भी नहीं
रह जाते, बस
वह गीता ही पर
हो जाते हैं।
तो यह पहला
आपरेशन था
अपने तरह का, जो एक
व्यक्ति की
ध्यान की धारा
को एक तरफ बहाने
से किया गया।
आपरेशन हुआ और
सफल हुआ। वे
अपनी गीता
पढ़ते रहे और
पेट का उनका
आपरेशन किया गया!
किसी भी तरह
की बेहोशी की कोई
दवा नहीं दी
गई थी! और जिन
डाक्टरों ने
किया, वे
चकित ही रह
गए।
अब
कुल हुआ इतना
कि अगर किसी
का चित्त पूरा
गीता की तरफ
प्रवाहित हो
सके तो कोई
कठिनाई नहीं
है कि उसका एक
अंग काट दिया
जाए और उसे
पता न चले।
क्योंकि पता
चलता है ध्यान
की धारा को।
ध्यान की धारा
वहां तक जाए
तो पता चलता
है, नहीं तो
नहीं पता चलता
है।
कई
बार उलटी
घटनाएं भी घटी
हैं। एक आदमी
दो या तीन
वर्षों से
पैरालिसिस से
बीमार एक मकान
में पड़ा हुआ
था। हिल-डुल
भी नहीं सकता, उठ भी नहीं
सकता।
चिकित्सक
परेशान थे, क्योंकि
वस्तुतः उस
आदमी को
पैरालिसिस
नहीं थी, लकवा
नहीं था। कोई
शारीरिक कारण
न थे। किसी न किसी
तरह उसको
मानसिक लकवा
था। उसे खयाल
था कि लकवा लग
गया है। और
खयाल इतना
मजबूत हो गया
था कि वह
हाथ-पैर
हिला-डुला भी
नहीं सकता था,
उठ भी नहीं
सकता था! फिर
तीन साल से
निरंतर पड़ा था
बिस्तर पर। और
ध्यान निरंतर लकवे पर ही
रहा तीन
वर्षों तक, वह लकवा
मजबूत ही होता
चला गया था।
तीन
वर्ष बाद एक
दिन आधी रात
उसके मकान में
आग लग गई और एक
सेकेंड को
उसका ध्यान लकवे से हट
कर आग पर चला
गया, जो
बिलकुल
स्वाभाविक
था। वह आदमी
निकल कर मकान
के बाहर आ
गया। जब बाहर
आ गया और
लोगों ने उसे
देखा, तो
लोगों ने कहा,
अरे तुम? तो उसने
देखा, वह
वापस लकवा
खाकर गिर पड़ा।
क्या, हुआ क्या? यह आदमी
बाहर आया कैसे?
अगर यह लकवा
सच में था तो
यह आदमी बाहर
मकान के आ
नहीं सकता।
पूरी अटेंशन
उसकी लकवे
से हट गई।
इतने जोर से
हटी, मकान
में आग लगी, कि उसे स्मरण
भी न रहा कि
मेरा शरीर भी
है, शरीर
को लकवा भी
है। यह कोई
बात स्मरण न
रही, वह
बाहर आ गया।
लेकिन जैसे ही
स्मरण दिलाया
गया कि वह
वापस गिर पड़ा!
अब वह खुद ही
नहीं मान सकता
कि यह कैसे
संभव हुआ! यह
अब गिर जाना
क्या है? फिर
पूरा का पूरा
ध्यान लकवे
पर आ गया।
हमारा
ध्यान जहां है, वहां हम
जाग्रत हो
जाते हैं।
जहां से हमारा
ध्यान हट जाता
है, वहां
हम मूर्च्छित
हो जाते हैं।
अगर हम ठीक से
समझें तो
मूर्च्छा
हमारी जागृति
की छाया है। जहां
मूर्च्छा
होती है, वहां
जागृति नहीं
होती; जहां
जागृति होती
है, वहां
मूर्च्छा
नहीं होती। लेकिन
जिस तरफ
जागृति का रुख
होगा, उससे
ठीक उलटी तरफ
मूर्च्छा का
रुख होगा।
तो
एक तरफ देखने
में प्रश्न
ठीक मालूम
पड़ता है कि
स्वभाव हमारा
जागरण है, चेतना है, तो यह
अचेतना कैसी?
यह
मूर्च्छा
कैसी? लेकिन
इसी स्वभाव के
कारण है वह
भी। वह भी इसी की
छाया है पीछे
पड़ने वाली।
हम
रास्ते पर
चलते हैं, सूरज निकला
हुआ है, हमारी
छाया बनती है।
हम पूरे
प्रकाशित हैं,
पीछे एक
छाया बनती है।
हम प्रकाशित
हैं, यह भी
सूरज के कारण;
और हमारे
पीछे जो छाया
बनती है, यह
भी सूरज के
कारण। छाया
बनने का कारण
कोई और नहीं
है और हमारे
प्रकाशित
होने का कोई
कारण और नहीं
है। लेकिन हम
पूछ सकते हैं
कि जो हम तक को
प्रकाशित कर
देता है, वह
इतनी सी छाया
को प्रकाशित
नहीं करता?
असल
में जितने
हिस्से में हम
प्रकाश को रोक
लेते हैं, उतने हिस्से
में पीछे छाया
बन जाती है।
वह छाया हमारे
द्वारा रोका
गया प्रकाश
है। अगर हम
कांच के
व्यक्ति हों
तो फिर छाया
नहीं बनेगी।
क्योंकि हम
ट्रांसपैरेंट
होंगे, फिर
हमारे आर-पार
किरण निकल
जाएगी, फिर
कोई छाया
नहीं। कांच की
कोई छाया नहीं
बनेगी। जितना
पारदर्शी
होगा, उतनी
छाया नहीं
बनेगी। अगर
थोड़ा भी अपारदर्शन
है, तो
उतनी छाया बन
जाएगी। तो अगर
पूर्ण
पारदर्शी
व्यक्तित्व
हो, तो फिर
छाया नहीं
बनेगी सूरज
की।
इसे
इस तरह भी
समझना चाहिए
कि हमारा
स्वभाव तो
प्रकाश है, लेकिन अभी
हमारा प्रकाश
किन्हीं-किन्हीं
केंद्रों पर
प्रवाहित
होता है। वह
दीए की भांति
कम, बैटरी
की भांति
ज्यादा है।
बैटरी भी दीया
बन सकती है, सिर्फ उसके
फोकस को अलग
कर देने की
बात है। ऊपर
से फोकस को
अलग करके अगर
हम बैटरी को
रख देंगे तो
बैटरी दीया बन
जाएगी। असल
में बैटरी
दीया ही है, सिर्फ उस पर
एक फोकस भी
लगा हुआ है।
अगर हम दीए पर
भी एक फोकस
लगा दें तो
प्रकाश बंध
जाएगा और उस
धारा में
बहेगा।
तो
हमारा चित्त
जो है, वह
फोकस का काम
कर रहा है
पूरे वक्त।
भीतर प्रकाश
है, चित्त
फोकस का काम
कर रहा है।
जितना बड़ा
हमारा चित्त
होता है, जैसा
चित्त होता है,
वैसा फोकस
बनता है। जिस
चीज पर हमारा
चित्त अटक
जाता है, सारे
प्रकाश की
धारा वहीं
बहने लगती है।
चित्त बाहर भी
ले जा सकता है
और अगर हम
चित्त को बंद कर
दें तो भीतर
भी ले जा सकता
है। लेकिन अगर
चित्त बिलकुल
मिट जाए तो
फोकस टूट जाए।
फिर बाहर-भीतर
कुछ न रह जाए, सिर्फ
प्रकाश रह
जाए।
चित्त
के तोड़ने की
साधना ही
अंततः...क्योंकि
समझिए मेरी
बात को--चित्त
जो है, बीच
का माध्यम है।
और चित्त का
उपयोग है। और
जैसे हमारी
आंख है, हमने
खयाल नहीं
किया, आंख
है हमारी, पूरे
वक्त आंख की
पुतली
छोटी-बड़ी होती
रहती है।
जितने प्रकाश
की जरूरत है, वह उस
मात्रा में
छोटी या ज्यादा
हो जाती है।
धूप में तुम
जाओ तो पुतली सिकुड़
कर छोटी हो गई,
क्योंकि
उतनी रोशनी को
भीतर जाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
अंधेरे में
तुम आए, पुतली
बड़ी हो गई, क्योंकि
अब ज्यादा
प्रकाश भीतर
जाए तो ही दिखाई
पड़ सकता है।
तो पूरे वक्त
आंख की जो
पुतली है, उसका
जो लेंस है, वह पूरे
वक्त छोटा हो
रहा, बड़ा
हो रहा--आटोमेटिक;
जैसी जरूरत
है, वैसा
हो जा रहा है।
वैसे
ही हमारा
चित्त भी है, वह भी
छोटा-बड़ा हो
रहा है पूरे
वक्त। और जैसी
जरूरत है, वैसा
उसका फोकस बन
जाता है। अगर
मकान में आग लगी
है तो फोकस
एकदम छोटा हो
जाता है। सब तरफ
से प्रकाश को
खींच कर मकान
पर ही रोक
देता है, क्योंकि
इस समय
इमरजेंसी की
बात है। इस
वक्त और कहीं
ध्यान जाए कि
पिक्चर देखने
जाना है, कि
परीक्षा देनी
है, कि
किताब पढ़नी
है, तो फिर
यह मकान की आग
को कौन बचाएगा?
तो
इस वक्त चित्त
सब चीजों को
अलग कर देता
है और फोकस
बिलकुल छोटा
सा हो जाता है, जो सिर्फ
मकान को देखता
है। बस, मकान
में आग लगी
है।
तुम
एक खतरे से
गुजर रहे हो, नीचे खाई है,
खड्ड है, एक पैर फिसल
जाए, नीचे
गिर जाओगे।
चित्त का फोकस
एकदम छोटा हो
जाएगा। अब
तुम्हें कुछ न
दिखाई पड़ेगा।
अब तुम्हें बस
वह दो फीट का
छोटा सा
रास्ता, और
तुम; और
फोकस सारा का
सारा वहीं हो
जाएगा। सब तरफ
से चित्त हट
आएगा। ऊपर चांदत्तारे
भी होंगे, किसी
मतलब के नहीं
हैं अब। चित्त
के लिए इतनी ही
जरूरत है अभी
कि वह सजग रहे,
छोटा फोकस
हो। थोड़ी जगह
पर ज्यादा
प्रकाश पड़े।
खतरे
के बाहर हो।
एक आदमी आरामकुर्सी
पर बैठा हुआ
है, अभी वह
घोड़े पर सवार
था और एक पतली
सी पगडंडी से
निकलता था
पहाड़ की, जहां
से गिरता तो
प्राण निकल
जाते, तो
चित्त का फोकस
एकदम छोटा हो
गया था। बस
एक-एक कदम
दिखाई पड़ रहा
था। वही आदमी
घर लौट आया, अब वह आरामकुर्सी
पर बैठा हुआ
है, चित्त
का फोकस खूब
बड़ा हो गया।
अब वह जमाने
भर की बातें
एक साथ सोच
रहा है। जमाने
भर की बातों
को एक साथ सोच
रहा है--घर की, दुकान की, मित्रों की,
दुश्मनों
की। अब चित्त
बिलकुल फोकस
पूरा बड़ा हो
गया है। बड़ा
पर्दा हो गया
है, जैसे
फिल्म का, जिसमें
हजारों चीजें
चल रही हैं एक
साथ। और कोई
चिंता नहीं, वह आराम से
बैठा हुआ है।
आरामकुर्सी
पर बैठ कर
चित्त का फोकस
सबसे बड़ा होता
है। क्योंकि
उस वक्त फिर
कोई चिंता
नहीं, कोई
इमरजेंसी
नहीं, कोई
खतरा नहीं; आप निश्चिंत
बैठे हैं।
चित्त को जहां
भागना है, भागना
है; दौड़ना
है, दौड़ना
है; जो चित्र
बनाने हैं, बनाने हैं।
कितना ही बड़ा
हो जाए।
इमरजेंसी में,
दुर्घटना
में चित्त
एकदम छोटा
फोकस ले लेता
है।
यह
चित्त हमारा
फोकस ले रहा
है। और इस
चित्त को बाहर
देखने की
निरंतर जरूरत
है। बचपन से
पैदा हुए कि
बाहर देखने की
जरूरत है, भीतर देखने
की जरूरत नहीं
है। भूख लगती
तो मां को
देखना पड़ता है,
प्यास लगती
तो पानी को
देखना पड़ता
है। चौबीस घंटे
बचपन से चित्त
को बाहर देखना
पड़ रहा है। जीवन
जो है, बाहर
के साथ निरंतर
संघर्ष है। तो
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, अनंत जन्मों
में निरंतर
बाहर
देखते-देखते
यह स्मृति ही
भूल जाती है
कि चित्त का
फोकस भीतर की
तरफ भी हो
सकता है। यह
सवाल ही नहीं
उठता। करीब-करीब
फिक्स्ड
फोकस हो गया।
चीजें ठहर
गईं। अब वह
बाहर की तरफ
ही देख पाता
है। भीतर का
सवाल भी नहीं
उठता कि भीतर
कैसे देखे?
ध्यान
का मतलब यही
है कि हम
चित्त के फोकस
को भीतर की
तरफ ले जाने
का उपाय करते
हैं। बाहर की तरफ
से शिथिल करते
हैं, बाहर की
तरफ से बंद
करते हैं कि
भीतर जा सके।
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
यह स्थिति आ
जाए कि चित्त
भीतर की तरफ
भी देखने लगे,
जैसा अभी
बाहर की तरफ
देखता है। यह
नंबर दो की
स्थिति--अंतर्मुखता,
इंट्रोवर्शन। लेकिन तब
भी पूर्ण
जागरण नहीं
है। क्योंकि चित्त
भीतर देखेगा
तो बाहर हम
मूर्च्छित हो
जाएंगे।
इसलिए
यह हो सकता है
कि एक आदमी
ध्यान में बैठा
हुआ है और
उसके पैर पर
सांप काट जाए, उसे पता न
चले।
वाल्मीकि की कथा
है, वह
ध्यान में
बैठे हैं, चारों
तरफ चींटियों
ने आकर बांबी
बना ली उनके पूरे
शरीर पर, तो
उनको पता ही
नहीं है!
रामकृष्ण
अंतर्मुखी हो
जाते तो तीनत्तीन
चार-चार दिन
बेहोश पड़े
रहते। न फिर
भोजन है, न
फिर पानी है, न कोई सवाल
है! फिर चार
दिन उनको कुछ
पता नहीं। वह
चित्त भीतर की
तरफ चला गया।
पहली
बात खतरनाक थी, दूसरी बात
कुछ कम खतरनाक
नहीं है।
चूंकि पहली बात
जीवन की
व्यर्थता में
उलझा देती थी
एकदम और भीतर
से तोड़ देती
थी, दूसरी
बात जीवन से
तोड़ देती है
और भीतर ऐसे डुबा देती
है कि सब तरफ
से दरवाजे बंद
हो गए! पहली बात
भी अधूरी थी, दूसरी बात
भी अधूरी है।
असल
में एक तीसरी
स्थिति और है, जब कि हम
फोकस ही तोड़
देते हैं। न
हम भीतर देखते,
न बाहर
देखते, सिर्फ
देखना रह जाता
है, सिर्फ
प्रकाश रह
जाता है--न
बाहर की तरफ
बहता हुआ, न
भीतर की तरफ
बहता
हुआ--सिर्फ
प्रकाश। डिफ्यूज्ड
लाइट रह जाता
है, जिसका
कोई फोकस नहीं
है। जैसे एक
दीया जल रहा है,
सब तरफ एक
सा प्रकाश फैल
गया।
पर
दीए से भी हम
ठीक से नहीं
समझ सकते। दीए
से भी हम ठीक
से नहीं समझ
सकते, क्योंकि
फिर भी दीए का
भी बहुत गहरे
में छोटा सा
फोकस है।
इसलिए दीया
छूट जाता है, अपने प्रकाश
के बाहर छूट
जाता है।
उदाहरण के लिए
खयाल में ले
लेने की बात
है।
तीसरी
स्थिति है, जहां न
व्यक्ति
अंतर्मुखी है,
न
बहिर्मुखी है;
जहां
व्यक्ति
सिर्फ है; न
बाहर की तरफ
देख रहा, न
भीतर की तरफ
देख रहा; बस
है। यह बस
होना मात्र का
नाम है जागृति,
पूर्ण
जागृति।
तो
महावीर कहते
हैं, ऐसा जो
पूरी तरह जाग
गया, वह
साधु है। जो
सोया है, वह
असाधु है।
असाधु
दो तरह के हो
सकते हैं। एक, जो बाहर की
तरफ सोया हुआ
है; एक, जो
भीतर की तरफ
सोया हुआ है।
साधु एक ही
तरह का हो
सकता है: जो अब
सोया ही हुआ
नहीं है, जिसकी
मूर्च्छा अब
कहीं भी नहीं है।
और
इसलिए एक और
छोटा सा बारीक
फर्क खयाल में
ले लेना चाहिए
कि इसीलिए कनसनट्रेशन, एकाग्रता और
मेडिटेशन, ध्यान
में बुनियादी
फर्क है, जो
मैं निरंतर
जोर देता हूं।
कनसनट्रेशन
का मतलब ही यह
है कि ध्यान
किसी एक बिंदु
पर एकाग्र हो
जाए। लेकिन
शेष सब जगह सो
जाएगा।
जैसा
कि महाभारत
में कथा है कि
द्रोण ने पूछा
है अपने सारे
शिष्यों से कि
वृक्ष पर
तुम्हें क्या
दिखाई पड़ता है? तो किसी ने
कहा, पूरा
वृक्ष दिखाई
पड़ता है। किसी
ने कहा, वृक्ष
के पीछे सूरज
निकला है, वह
भी दिखाई पड़ता
है। किसी ने
कहा, दूर
जो गांव है, वह भी दिखाई पड़ता
है, पूरा
आकाश दिखाई
पड़ता है; बादल
दिखाई पड़ते
हैं, सब
दिखाई पड़ता
है। अर्जुन
कहता है कि
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता, सिर्फ वह जो
पक्षी लटकाया
हुआ है नकली, उसकी आंख
दिखाई पड़ती
है। तो द्रोण
कहते हैं, तू
ही ठीक
एकाग्र-चित्त
है।
एकाग्र-चित्त
का मतलब यह
हुआ कि जिस
बिंदु को हम
देख रहे हैं, बस सारा
ध्यान वहीं हो
गया है, सिकुड़
कर एक जगह आ
गया है। शेष
के प्रति बंद
हो गया, शेष
के प्रति सो
गया।
तो
एकाग्रता एक
बिंदु के
प्रति जागरण
और शेष सब
बिंदुओं के
प्रति सो जाना
है। चंचलता भी
एक बिंदु के
प्रति जागरण, शेष सबके
प्रति सोना है,
लेकिन
चंचलता-एकाग्रता
में थोड़ा फर्क
है।
एकाग्रता
का बिंदु
बदलता नहीं, चंचलता का
बिंदु निरंतर
बदलता चला
जाता है। फर्क
नहीं है दोनों
में।
एकाग्रता में
एक बिंदु रह
गया है, शेष
सब सो गया है।
सब तरफ
मूर्च्छा है,
बस एक बिंदु
की तरफ जागृति
रह गई है।
चंचलता में भी
यही है, लेकिन
फर्क इतना है
कि चंचलता में
यह एक बिंदु
तेजी से बदलता
रहता है। अभी
यह है, अभी
वह है, अभी
वह है। रहता
एक ही बिंदु
है: कभी क, कभी
ख, कभी ग, और शेष के
प्रति सोया
रहता है।
ध्यान
का मतलब है, ऐसा कोई
बिंदु ही नहीं
है, जिसके
प्रति चित्त
सोया हुआ है।
बस, जागा
हुआ है। तो
ध्यान
एकाग्रता
नहीं है। ध्यान
चंचलता भी
नहीं है।
ध्यान बस
जागरण है। और इसे
और गहराई में
समझें, तो
आमतौर से हम
किसी के प्रति
जागते हैं।
किसी के प्रति
जागते हैं, सिर्फ जागते
नहीं। अगर हम
किसी के प्रति
जागते हैं तो
हम समग्र के
प्रति नहीं
जाग सकते। अगर
तुम मेरी बात
सुन रहे हो, तो शेष सारी
आवाजें जो जगत
में चारों तरफ
हो रही हैं, वे तुम्हें
सुनाई नहीं
पड़ेंगी। मेरी
तरफ एकाग्रता
हो जाएगी। तो
बाहर कोई
पक्षी
चिल्लाया, कोई
कुत्ता भौंका,
कोई निकला;
उसका
तुम्हें पता
नहीं चलेगा।
यह एकाग्रता हुई।
जागरूकता
का अर्थ होगा
कि एक साथ, युगपत, जो
भी हो रहा है; वह सब पता चल
रहा है। हम
किसी एक चीज
के प्रति जागे
हुए नहीं हैं।
समस्त जो हो
रहा है, उसके
प्रति जागे
हुए हैं। मेरी
बात भी सुनाई
पड़ रही है, कौआ
आवाज लगा रहा
है, वह भी
सुनाई पड़ रहा
है, एक
कुत्ता भौंका,
वह भी सुनाई
पड़ रहा है। और
यह अलग-अलग
नहीं, क्योंकि
काल में ये एक
साथ घट रहे
हैं। यानी अभी
जब हम बैठे
हैं, तब
हजार घटनाएं
घट रही हैं।
इन सबके प्रति
एक साथ जागा
हुआ होना।
तो
महावीर उसको
ही अमूर्च्छा
कहेंगे, जागरण
कहेंगे। और
ऐसा जागरण
इतना बड़ा हो
जाए कि न केवल
बाहर की आवाज
सुनाई पड़ रही,
अपने श्वास
की धड़कन भी
सुनाई पड़ रही
है, अपने
आंख का पलक का
हिलना भी पता
चल रहा है, भीतर
चलते विचार भी
पता चल रहे
हैं। जो भी हो
रहा है, इस
क्षण में जो
भी हो रहा है, जो भी इस
क्षण में मेरी
चेतना के
दर्पण पर प्रतिफलित
हो रहा है, वह
सब मुझे पता
चल रहा है।
अगर
वह समग्र मुझे
पता चल रहा
है--भीतर से
लेकर बाहर तक, तो फोकस टूट
गया, तब
जागरण रह गया।
यह पूर्ण
स्वभाव की
उपलब्धि हुई।
यह
पूर्ण स्वभाव
सदा से हमारे
पास है। हम
उसका उपयोग
ऐसा कर रहे
हैं। हम उसका
उपयोग ऐसा कर
रहे हैं कि वह
कभी पूर्ण
नहीं हो पाता, बल्कि
अपूर्ण
बिंदुओं पर हम
पूरी ताकत लगा
कर सीमित कर
लेते हैं।
जागरण हमारे
पास है, लेकिन
हमने कभी
जागरण का
समग्र के
प्रति प्रयोग
नहीं किया है।
नहीं प्रयोग
करने के कारण
शेष के प्रति
मूर्च्छा है,
कुछ के
प्रति
जागरूकता है।
और
इसलिए यह सवाल
पैदा हो जाता
है कि
मूर्च्छा
कहां से आई?
मूर्च्छा
कहीं से भी
नहीं आई है, मूर्च्छा
हमारे द्वारा
निर्मित है।
और निरंतर
अनुभव और समझ
से दिखाई पड़
जाएगा तो
मूर्च्छा
विसर्जित हो
जाएगी। और तब
हम
ट्रांसपैरेंट
हो जाएंगे, पारदर्शी हो
जाएंगे। तब
सिर्फ जागरण
होगा, उसकी
कोई छाया नहीं
बनेगी। कहीं
भी कोई छाया नहीं
बनेगी।
प्रश्न:
तीर्थंकरों
के जीवन में
हम यह नहीं
देखते कि
पूर्व तीर्थंकरों
की परंपरा के
आचार्य या
साधु
विद्यमान थे, परंतु
महावीर के समय
पार्श्वनाथ
की परंपरा के
आचार्य थे
केशी आदि। वह
परंपरा बाद
में भी चलती
रही है, इसका
क्या कारण था?
नए
तीर्थंकर का
जन्म तो
पुरातन
परंपरा के लुप्तप्राय
होने पर होता
है। जब आचार्य
पार्श्वनाथ
के उपासक थे
तो नवीन संघ
की स्थापना
अथवा नवीन
तीर्थ की
स्थापना
क्यों की गई? और पुरानी
भी कैसे चलती
रही?
पहली
बात तो यह
समझनी चाहिए
कि परंपरा
बनती ही तब है, जब जीवित खो
जाता है।
परंपरा जीवित
की अनुपस्थिति
पर रह गई सूखी
रेखा है।
परंपरा तो चल
सकती है
करोड़ों वर्ष
तक, और
जीवित न हो।
असल में जो भी
जीवित है, उसकी,
जब तक वह
जीवित है, परंपरा
बनती ही नहीं।
परंपरा बनती
ही तब है, जब
जीवित खो जाता
है। और हमारे
हाथ में सिर्फ
अतीत का मृत
बोझ रह जाता
है, वही
परंपरा को
बनाता है।
मैंने
सुना है, एक
घर में बूढ़ा
बाप था, उसके
छोटे बच्चे
थे। बाप भी मर
गया, मां
भी मर गई, तब
बच्चे बहुत ही
छोटे थे। देर
उम्र में वे
बच्चे हुए थे।
फिर वे बड़े
हुए, तो उन
बच्चों ने
निरंतर देखा
था अपने पिता
को, कि रोज
भोजन के बाद
आले पर जाकर
वह कुछ
उठाता-रखता
था। पिता के
मर जाने पर
उन्होंने
सोचा कि यह
काम रोज का
था। यह कोई
साधारण काम न
होगा। जरूर
कोई अनुष्ठान
होगा। तो
उन्होंने
जाकर आले पर
देखा तो वहां
बाप ने दांत
साफ करने के
लिए एक छोटी
सी लकड़ी रख छोड़ी
थी। वह पिता
रोज भोजन के
बाद उठता, आले
पर जाकर दांत
साफ करता।
उन
बच्चों ने
सोचा कि इस
लकड़ी का जरूर
कोई अर्थ है।
यह तो उन्हें
पता नहीं था
कि अर्थ क्या
हो सकता है।
यह भी पता
नहीं था कि
पिता बूढ़ा था, उसे दांत
साफ करने के
लिए लकड़ी की
जरूरत थी। पर
इतना वे करते
थे नियमित रूप
से कि आले के
पास जाते, लकड़ी
को उठा कर
देखते, वापस
रख देते। तो
पिता का नियम
रोज पालन करते
थे।
फिर
वे बड़े हुए।
फिर उन्होंने
बहुत कमाई की, फिर
उन्होंने नया
मकान बनाया।
तो उन्होंने
सोचा इतनी
छोटी सी लकड़ी
भी क्या रखनी!
अब उन्हें कुछ
भी पता न था कि
वह लकड़ी किसलिए
थी। तो
उन्होंने एक
सुंदर कारीगर
से एक बड़ा लकड़ी
का डंडा
बनवाया, उस
पर खुदाई
करवाई और उसे
आले में
उन्होंने स्थापित
कर दिया! बड़ा
आला बनाया। अब
रोज उठाने की
तो बात न रही।
उनके भी बच्चे
पैदा हो गए थे,
उन बच्चों
ने भी अपने
पिता को बड़े
आदर भाव से उस
आले के पास
जाते देखा था।
फिर
उनके पिता भी
चल बसे। फिर
उनके बच्चे
रोज जाकर वहां
नमस्कार कर
लेते थे, क्योंकि
उनके पिता उस
आले के पास
भोजन के बाद जरूर
ही जाते थे।
यह नियमित
कृत्य हो गया था।
परंपरा बन गई।
अब यह परंपरा
थी। अब इसमें कुछ
भी अर्थ न रह
गया था। एक जड़
लीक पकड़ जाती
है, जो
पीछे चलती है।
महावीर
के समय में
लीक थी। पिछले
तीर्थंकर के विचार
की लीक छूट गई
थी। आचार्य थे, साधु थे; लेकिन
मृत थी धारा।
मृत धारा
कितने ही समय
तक चल सकती
है। और मृत
धारा जिद्दी
हो जाती है।
महावीर ने नई
विचार-दृष्टि
को जन्म दे
दिया। नई हवा
फैली, नया
सूरज निकला, लेकिन
पुरानी लीक पर
चलने वाले
लोगों ने नए
को स्वीकार
नहीं किया। वे
अपनी लीक को
बांधे हुए
चलते चले गए।
तो ऐसा भी हुआ
कि महावीर ने
जो कहा था, वह
भी चला; और
जो पिछली
परंपरा का था,
वह भी चलता
रहा एक मृत
धारा की तरह।
थोड़ी सी उसकी
रूप-रेखा भी
चलती रही।
यह
प्रश्न
सार्थक दिखाई
पड़ता है, लेकिन
सार्थक नहीं
है। परंपरा
मात्र होने से
कुछ जीवित
नहीं होता।
बल्कि उलटी ही
बात है, जब
कोई चीज
परंपरा बनती
है, तब मर
गई होती है, तभी परंपरा
बनती है। और
आचार्यों का
होना जरूरी नहीं
है कि वे किसी
जीवित परंपरा
के वंशधर हों।
सच
तो यह है कि
उनका होना इसी
बात की खबर है
कि अब कोई
जीवित अनुभवी
व्यक्ति नहीं
रह गया, जो
जानता हो।
इसलिए जो जाना
गया था, उस
जाने गए को
जानने वाले
लोग--जानने
वाला स्वयं
नहीं--जो किसी
ने जाना था
कभी, उसको
जानने वाले
लोग गुरु का
काम निबाहने
लगते हैं।
साधु भी थे।
लेकिन न तो
साधु से कुछ होता
है, न
शिक्षकों से,
गुरुओं से
कुछ होता है, जब तक कि
जीवित अनुभव
को लिए हुए
कोई व्यक्ति न
हो। और वे
व्यक्ति खो गए
थे। वे
व्यक्ति नहीं थे।
इसलिए
महावीर के
मार्गदर्शन
में इस बात से
कोई अवरोध
नहीं पड़ता है
कि पिछले
तीर्थंकर के
लोग शेष थे।
उनमें जो भी
थोड़े समझदार, जीवित साधक
थे, वे तो
महावीर के साथ
आ गए। जो नहीं
थे, जिद्दी
थे, अंधे
थे, आग्रह
रखते थे, वे
अपनी लीक को
पकड़ कर चलते
चले गए!
फिर
ऐसे
व्यक्तियों
का जन्म पिछले
व्यक्तियों
से नहीं जोड़ा
जा सकता। जोड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है। जब
भी जगत में
जरूरत होती है, प्राण पुकार
करते हैं, तब
कोई न कोई
उपलब्ध चेतना करुणावश
वापस लौट आती
है। जब भी
जरूरत होती
है--जरूरत पर
निर्भर है।
हमारी पुकार
पर निर्भर है।
जैसे इस युग
में धीरे-धीरे
पुकार कम होती
चली गई है।
किसी
ने पीछे कहा
था कि एक वक्त
था कि लोग
ईश्वर को
इनकार करने का
भी कष्ट करते
थे, अब अधिक
लोग तो ऐसे
हैं जो इनकार
करने का कष्ट भी
नहीं उठाना
चाहते। ईश्वर
को इनकार करने
में भी
उत्सुकता थी,
जो इनकार
करता था, वह
रस लेता था।
अब ऐसे लोग
अधिक हैं जो
कहेंगे, बस,
छोड़ो। ठीक है, हो
तो हो, न हो
तो न हो! ईश्वर
के अस्तित्व
को इनकार करने
की भी फुरसत
किसी को नहीं
है! स्वीकार
करने की यात्रा
तो बहुत दूर
है, स्वीकार
की खोज तो
बहुत दूर है, लेकिन इनकार
करने के लिए
भी फुरसत में
कोई नहीं है!
लोग कहेंगे कि
ठीक है।
नीत्शे
ने कहा है कि
जल्दी वह वक्त
आएगा--ईश्वर
के लिए कहा, कि जल्दी वह
वक्त आएगा--जब
तुम्हें कोई
इनकार भी नहीं
करेगा। तुम उस
दिन के लिए
तैयार रहो। यानी
पूजेगा
नहीं, यह
तो बात दूसरी
है; इनकार
नहीं करेगा, उस वक्त के
लिए भी तुम
तैयार रहो!
ठीक
कहा उसने।
पूरे युग की
एक की
भाव-दृष्टि बता
दी है कि
स्थिति क्या
है। और जिसकी
हमारे गहरे
प्राणों में
आकांक्षा और
प्यास होती है, वह आकांक्षा
और प्यास ही
उसका जन्म
बनती है।
एक गङ्ढा है।
पहाड़ पर पानी
गिरता है, पहाड़ पर
नहीं भरता
पानी, गिरता
पहाड़ पर है, भरता गङ्ढे
में है। गङ्ढा
तैयार है, प्रतीक्षा
कर रहा है, पानी
भागा हुआ चला
आता है, गङ्ढे में भर जाता
है। शायद
हममें से कोई
यह कहे कि पानी
की बड़ी करुणा
है कि वह गङ्ढे
में भर गया।
शायद
हममें से कोई
कहे कि गङ्ढे
की बड़ी पुकार
है, क्योंकि
वह खाली है, इसलिए पानी
को आना पड़ा।
बाकी गहरे में
ये दोनों
बातें एक साथ
सच हैं। जब भी
जरूरत है, जब
भी प्राण
प्यासे हैं, तभी कोई भी
उपलब्ध चेतना
इस गङ्ढे
को भरने के
लिए उतर आती
है।
जरूरत
थी महावीर के
वक्त। पुरानी
परंपरा चलती
थी, पुराने
गुरु थे, लेकिन
मृत थे, कोई
जीवन उनमें न
था। इसलिए
उनके
आविर्भाव पर
कोई असंगति की
बात नहीं कही
जा सकती।
प्रश्न:
महावीर
ने हमें नया
क्या दिया? प्रेम की
चर्चा तो जब
से
मनुष्य-जाति
है, तबसे
ही होती आई
है।
हूं!
सत्य न तो नया
है, न पुराना
है; सत्य
सदा है। और जो
सदा है, वह
न तो कभी
पुराना होता
और न कभी नया
हो सकता है।
जो नया होता
है, वह कल
पुराना हो
जाएगा। जो आज
पुराना दिखता
है, वह कल
नया था। लेकिन
सत्य न तो नया
है, क्योंकि
सत्य कभी
पुराना नहीं
होगा; और न
सत्य पुराना
है, क्योंकि
सत्य कभी नया
नहीं था। असल
में सत्य के
संबंध में नए
और पुराने शब्द
एकदम व्यर्थ
हैं। नया वह
होता है, जो
जन्मता है।
पुराना वह
होता है, जो
बूढ़ा होता है।
सत्य न जन्मता,
न बूढ़ा होता,
न मरता।
लहर
नई हो सकती है, लहर पुरानी
भी हो सकती है,
लेकिन सागर
न नया है, न
पुराना है।
बादल नए हो
सकते हैं, बादल
पुराने भी हो
सकते हैं, लेकिन
आकाश न नया है,
न पुराना
है। असल में
आकाश वह है, जिसमें नया
बनता, पुराना
होता; पुराना
मिटता, नया
बनता है।
लेकिन स्वयं
आकाश न तो नया
है, न
पुराना है।
सत्य
भी नया और
पुराना नहीं
है। इसलिए जब
भी कोई दावा
करता है कि यह
सत्य बहुत
प्राचीन है, तब वह मूढ़तापूर्ण
दावा करता है।
या जब कोई
दावा करता है
कि यह सत्य
बिलकुल नया है,
तब वह भी मूढ़तापूर्ण
दावा करता है।
नए-पुराने के
दावे ही
नासमझी से भरे
हुए हैं।
और
दो ही तरह के
दावेदार लोग
दुनिया में
हुए हैं। एक
हैं जो कहते
हैं कि यह
सत्य पुराना
है, हमारी
किताब में
लिखा हुआ है।
और हमारी
किताब इतने
हजार वर्ष
पुरानी है।
दूसरे
दावेदार हैं,
वे कहते हैं,
यह सत्य
बिलकुल नया है,
क्योंकि
किसी किताब
में नहीं लिखा
हुआ है। लेकिन
सत्य के संबंध
में ऐसे कोई
दावे नहीं किए
जा सकते हैं।
फिर भी, फिर
क्या कहा जा
सकता है? फिर
यही कहा जा
सकता है कि जो
सत्य निरंतर
है, उससे
भी हमारा
निरंतर संबंध
नहीं रहता है।
संबंध कभी-कभी
होता है।
सत्य
निरंतर है, सत्य एक
निरंतरता है,
कंटिन्यूटी है, शाश्वतता
है, इटरनिटी है। लेकिन
इससे यह जरूरी
नहीं है कि
आकाश हमारे
ऊपर निरंतर है
तो हम आकाश को
देखते भी हों।
यह जरूरी नहीं
है। कोई आदमी
जीवन भर जमीन
को देखते हुए भी
गुजार दे सकता
है।
और
अगर कोई एक
ऐसा गांव हो, जहां के
सारे लोग जमीन
की तरफ देख कर
ही वक्त गुजारते
हों, और उस
गांव में किसी
को पता ही न हो
कि आकाश भी है,
और अगर एक
आदमी आकाश की
तरफ आंखें
उठाए और चिल्ला
कर लोगों को पुकारे कि
देखते हो, आकाश
है? तुम
क्यों जमीन की
तरफ आंखें गड़ाए
हुए मरे जा
रहे हो?
तो
शायद उनमें से
कोई कहे कि
इसने बड़ा नया
सत्य बताया!
या शायद कोई
उनमें से कहे, इसमें क्या
नया है? हमारे
बाप-दादों ने,
हमारे
पुरखों ने
आकाश की बातें
किताबों में लिखी
हुई हैं।
लेकिन वे
दोनों ही गलत
होंगे। सवाल
यह नहीं है कि
आकाश के संबंध
में कुछ कहा
गया है कि नहीं
कहा गया है।
सवाल यह भी
नहीं है कि
आकाश के संबंध
में जो कहा
गया है वह नया
है या पुराना
है। सवाल यह
है कि क्या
उससे हमारा
निरंतर संबंध
है?
महावीर
जो कहते हैं, बुद्ध जो
कहते हैं, जीसस
जो कहते हैं, कृष्ण जो
कहते हैं, वह
शायद वही है, जो निरंतर
मौजूद है।
लेकिन उससे
हमारा निरंतर
संबंध टूट
जाता है। वे
फिर
चिल्ला-चिल्ला
कर, पुकार-पुकार
कर उस तरफ
आंखें उठवाते
हैं। आंखें उठ
भी नहीं पातीं
कि हमारी
आंखें फिर
वापस लौट आती
हैं।
इस
अर्थ में अगर
हम देखेंगे, तो जब भी कोई
व्यक्ति सत्य
को उपलब्ध
होता है तो
कहना चाहिए, नया ही
उपलब्ध होता
है। व्यक्ति
नया ही उपलब्ध
होता है सत्य
को। सत्य चाहे
नया-पुराना
नहीं है, लेकिन
व्यक्ति तो जब
भी उपलब्ध
होता है, तो
वह उसका अनुभव
है और नया है
और पहली दफे
हुआ है, और
उसे कभी भी
नहीं हुआ था।
और इस अर्थ
में भी सत्य
को नया कहा जा
सकता है, क्योंकि
दूसरे का सत्य
बासा हो जाता
है और हमारे
लिए कभी भी
काम का नहीं
होता। हमारे
लिए तो फिर
काम का होगा, जब वह फिर
नया होकर
हमारा संबंध
उससे जुड़ जाए।
महावीर
ने क्या नया
दिया, यह
सवाल नहीं है।
क्योंकि नया
अगर दिया भी
होगा तो अब
एकदम पुराना
हो गया। सवाल
यह नहीं है कि
महावीर ने
क्या नया
दिया। सवाल यह
है कि आमजन
जैसा जीता है,
क्या
महावीर उससे
भिन्न जीए? वह जीना
बिलकुल नया
था। नया इस
अर्थ में नहीं
कि वैसा पहले
कभी भी कोई
नहीं जीया
होगा। कोई भी
जीया हो, करोड़ों
लोग जीए हों, तो भी फर्क
नहीं पड़ता। जब
मैं किसी को
प्रेम करता
हूं तो वह
प्रेम नया ही
है। मुझसे
पहले करोड़ों
लोगों ने
प्रेम किया है,
लेकिन कोई
प्रेमी यह
मानने को राजी
नहीं होगा कि
मैं जो प्रेम
कर रहा हूं, वह बासा और
पुराना है। वह
नया ही है, उसके
लिए बिलकुल
नया है। और
दूसरे का
प्रेम किसी
दूसरे के किसी
काम का नहीं
है। वह
अनुभूति अपनी
ही काम की है।
तो
महावीर
बिलकुल ही
अपने तईं सत्य
को उपलब्ध होते
हैं। जो
उन्हें
उपलब्ध हुआ है, वह बहुतों
को उपलब्ध हुआ
होगा, बहुतों
को उपलब्ध
होता रहेगा।
लेकिन उस
उपलब्धि पर
किसी व्यक्ति
की कोई
सील-मुहर नहीं
लग जाती। यानी
मैं अगर कल सुबह
उठ कर सूरज को देखूं, तो
आप आकर मुझसे
यह नहीं कह
सकते हैं कि
तुम बासे
सूरज को देख
रहे हो, क्योंकि
मैं भी इस
सूरज को देख
चुका हूं। इसे
करोड़ों लोग
देख चुके हों,
तब भी सूरज
बासा नहीं हो
जाता आपके
देखने से। और
जब मैं देखता
हूं, तब
मैं नया ही
देखता
हूं--उतना ही
ताजा, जितना
ताजा आपने
देखा होगा।
सूरज पर कुछ बासे होने
की, कुछ बासे
होने की छाप
नहीं बन जाती।
सत्य पर भी
नहीं बन जाती।
ठीक है, प्रेम
की चर्चा बहुत
लोगों ने की
है, बहुत
लोग करते
रहेंगे, लेकिन
फिर भी जब भी
कोई प्रेम को
उपलब्ध होगा,
तब वह नया
ही उपलब्ध
होगा। महावीर
जब प्रेम को
उपलब्ध हुए
हैं, जिसे
वे अहिंसा
कहते हैं, तो
वे नए ही
उपलब्ध हुए
हैं।
सत्य
के संबंध में
तो नया-पुराना
नहीं होता, लेकिन
अनुभूति के
संबंध में
नया-पुराना
होता है। और
अभिव्यक्ति
के संबंध में
तो बहुत
नया-पुराना
होता है।
महावीर ने जो
अभिव्यक्ति
दी है अहिंसा
को, वह तो
एकदम अनूठी और
नई है। शायद
वैसी किसी ने भी
पहले नहीं दी
थी।
अभिव्यक्ति
नई हो सकती है,
क्योंकि
अभिव्यक्ति
पुरानी पड़
जाती है। अब महावीर
की अभिव्यक्ति
भी पुरानी पड़
गई। आज अगर
मैं कुछ
कहूंगा, कल
पुराना पड़
जाएगा। कल तो
बहुत दूर है, मैंने कहा
और वह पुराना
पड़ा। क्योंकि
मैंने कहा कि
वह अतीत में
गया।
अभिव्यक्ति
नई भी होती है, अभिव्यक्ति
इसीलिए
पुरानी भी पड़
जाती है। सत्य
न नया होता और
इसीलिए
पुराना भी नहीं
पड़ता है।
लेकिन
फिर भी जब
किसी व्यक्ति
को उपलब्ध
होता है तो
एकदम नया ही
उपलब्ध होता
है--ताजा, युवा,
अछूता, अस्पर्शित,
एकदम
कुंवारा। और
इसलिए जिसको
उपलब्ध होता है,
वह अगर
चिल्ला कर
कहता है कि
नया सत्य मिल
गया, तो उस
पर नाराज भी
नहीं हो जाना
है। उसे ऐसा
ही लगा है।
उसके जीवन में
पहली दफे ही
यह सूरज निकला
है। किसी और
के जीवन में
निकला होगा, इससे संबंध
भी क्या है? उसे बिलकुल
ही नया हुआ
है। वह एकदम
ताजा हो गया
उसके स्पर्श
से। इसलिए वह
चिल्ला कर कह
सकता है कि
बिलकुल नया
है।
शास्त्रों
में खोजी जा
सकती है वही
बात, जो उसे
हुई है। और
शास्त्र का
अधिकारी कह
सकता है कि
क्या नया है? हमारी किताब
में लिखा है।
वह लिखा होगा
किताब में।
सारी किताबों
में भी लिखा
हो, तब भी
जब व्यक्ति को
सत्य मिलेगा
तो उसकी प्रतीति
ताजे की, नए
की उपलब्धि की
ही होगी। इसे
हम यूं भी कह
सकते हैं कि सत्य
सदा जीवंत है,
इसलिए सदा
ताजा और नया
है। यह हमारे
कहने की दृष्टि
पर निर्भर
करता है कि हम
क्या कहते
हैं।
मेरी
अपनी समझ यह
है कि
प्रत्येक
व्यक्ति को सत्य
नया ही उपलब्ध
होता है। और
सत्य सदा से
है, लेकिन जब
वह व्यक्ति
संबंधित होता
है, तब
उसके लिए नया
हो जाता है।
और प्रत्येक
व्यक्ति जो
अभिव्यक्ति देता
है अपनी
अनुभूति को, वह भी नई
होती है।
क्योंकि वैसी
अभिव्यक्ति कोई
दूसरा
व्यक्ति नहीं
दे सकता है।
क्योंकि वैसा
कोई दूसरा
व्यक्ति न हुआ
है, न है, न हो सकता
है।
असल
में मेरे पैदा
होने में--अब
हम कितनी साधारण
सी बात समझते
हैं एक
व्यक्ति का
पैदा हो जाना!
मेरे पैदा
होने में या
आपके पैदा
होने में
कितना बड़ा जगत
इनवाल्व्ड
है, इसका
हमें कोई खयाल
नहीं है! मेरे
पैदा होने में
आज तक, इस
समय के बिंदु
तक विश्व की
जो भी स्थिति
थी, वह सब
की सब
जिम्मेवार
है। और अगर
मुझे फिर से पैदा
करना हो तो
ठीक इतनी ही
विश्व की
स्थिति पूरी
की पूरी
पुनरुक्त हो,
तो ही मैं
पैदा हो सकता
हूं, नहीं
तो नहीं पैदा
हो सकता। मेरे
पिता चाहिए, मेरी मां
चाहिए। वे भी
उन्हीं पिताओं
और माताओं से
पैदा होने
चाहिए, जिनसे
वे पैदा हुए।
और वे भी...।
और
इस तरह हम
पीछे लौटते
चले जाएं। तो
हम पाएंगे कि
पूरी विश्व की
स्थिति एक
छोटे से
व्यक्ति को
पैदा होने में
संयुक्त है, जुड़ी हुई
है। और अगर
इसमें एक इंच
भी इधर-उधर हो
जाए तो मैं
पैदा नहीं हो
सकूंगा, जो
भी होगा, वह
कोई दूसरा
होगा। और अगर
मुझे पैदा
करना हो तो
इतने जगत का
पूरा का पूरा
अतीत फिर से
पुनरुक्त हो,
तभी मैं
पैदा हो सकता
हूं, जिसकी
कोई संभावना
नहीं दिखाई
पड़ती। यह कैसे
पुनरुक्त
होगा?
तो
एक व्यक्ति को
दुबारा पैदा
नहीं किया जा
सकता। और
इसलिए एक
व्यक्ति के
अनुभव को, उसकी
अभिव्यक्ति
को भी दुबारा
पैदा नहीं किया
जा सकता। इस
अर्थ में हम
देखने चलें तो
सत्य का अनुभव
चूंकि व्यक्तिगत
है, इंडिविजुअल है, एक-एक
को होता है।
वह एकदम एक ही
अनुभव भी प्रत्येक
को
भिन्न-भिन्न
होता है।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
एक बूढ़ा आदमी
था जो रवींद्रनाथ
के पड़ोस में
रहता था। पिता
के दोस्तों
में से था, तो अक्सर
उनके घर आ
जाता। और
रवींद्रनाथ
को बहुत परेशान
करता।
क्योंकि
रवींद्रनाथ
जो ईश्वर की, आत्मा की, परमात्मा की
कविताएं
लिखते तो खूब
हंसता, और
ऐसा हाथ पकड़
कर हिला कर
कहता, अनुभव
हुआ है? ईश्वर
को देखा है? और इतना
खिलखिला कर
हंसता कि
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
उस आदमी से डर
पैदा हो गया।
क्योंकि वह
कहीं सड़क पर
मिल जाता तो
मैं बच कर
निकल जाता, क्योंकि वह
वहीं पकड़ लेता,
कहता अनुभव
हुआ है ईश्वर
का? ईश्वर
को देखा है? और मेरी
हिम्मत न पड़ती
कहने की। और
सच में ही अनुभव
क्या हुआ था!
कविताएं लिख
रहा था। तो वह
आदमी इतना
ज्यादा
परेशान करने
लगा था।
लेकिन
एक दिन, रवींद्रनाथ
ने कहा, वर्षा
के दिन हैं, वह घर के
बाहर समुद्र
की तरफ गए हैं,
सूरज निकला
है, सुबह
का वक्त है।
तो समुद्र के
जल पर भी सूरज
का प्रतिबिंब
बना है, और
रास्ते के
किनारे जो
पोखर और डबरे
और गंदे पानी
के गङ्ढे
भरे हैं, उन
सबमें भी सूरज
का प्रतिबिंब
बना है। और
रवींद्रनाथ
लौटते वक्त
उनको अचानक
ऐसा लगा है कि सागर
का जो
प्रतिबिंब है
और इस गंदे डबरे
में जो
प्रतिबिंब बन
रहा है, इन
दोनों में कोई
भेद है? क्या
गंदे डबरे
में बनने की
वजह से
प्रतिबिंब भी
गंदा हो गया है?
रवींद्रनाथ
को यह प्रश्न
उठा। डबरा
गंदा है, लेकिन
जो प्रतिबिंब
बना है, क्या
वह प्रतिबिंब
भी गंदे डबरे
में गंदा हो
जाएगा? और
स्वच्छ जल में
स्वच्छ
होगा--प्रतिबिंब?
अचानक जैसे
एक विस्फोट हो
गया। उन्हें
लगा कि प्रतिबिंब
को तो गंदा
डबरा छू भी
कैसे सकता है?
वह जो रिफ्लेक्शन
है, वह
कैसे गंदा
होगा? वह
तो चाहे शुद्ध
जल में बने, चाहे गंदे
जल में, वह
तो वही है।
लेकिन फिर भी
सागर में वह
और दिखाई पड़
रहा है, गंदे
डबरे में
और दिखाई पड़
रहा है।
उस
दिन वह इतनी
खुशी से लौटे
कि रास्ते पर
जो भी मिलने
लगा, वह इतने
आनंद से भर गए
कि उसे गले लगाते,
आलिंगन
करते। होश न
रहा। वह आदमी
भी मिल गया, जिससे वह बच
कर निकलते थे।
वह आदमी भी
मिल गया। उनको
पहली दफे लगा
आज कि वह भी
ईश्वर है, क्योंकि
आज उन्हें
पहली दफे यह
खयाल हुआ था
कि डबरा कोई
कैसा भी
हो...उसे भी
उन्होंने गले
लगा लिया और
आलिंगन करने
लगे।
उस आदमी
ने कहा कि ठीक
है, ठीक है; अब मैं
पहचाना कि
तुझे हो गया
है। अब नहीं पूछूंगा।
उस आदमी ने
कहा, अब
नहीं पूछूंगा!
क्योंकि जब
मैं तेरे पास
आता था तो तू
ऐसा बचता था
मुझसे कि मुझे
लगता था, इसको
कैसे ईश्वर का
अनुभव हुआ
होगा? मैं
भी तो ईश्वर
ही हूं। यानी
अगर ईश्वर का
अनुभव हो गया
तो अब किससे
बचना? किससे
भागना? अब
तुझे हो गया, अब ठीक है।
अब मैं देखता
हूं तेरी आंख
में।
तीन
दिन तक यह
हालत रही।
आदमी चुक गए
तो गाय, भैंस,
घोड़े, जो
भी मिल जाते, उनसे भी गले
लगते! वे भी
चुक गए तो
वृक्ष! तीन दिन
यह अवस्था थी।
रवींद्रनाथ ने
लिखा है कि उन
तीन दिनों में
जो जाना, बस
फिर वह जीवन
भर के लिए
संपदा बन गया।
सब चीज में
वही दिखाई
पड़ने लगा। वह
एक छोटी सी
घटना ने, कि
गंदे डबरे
में बना हुआ
प्रतिबिंब
सागर में बने
प्रतिबिंब से
गंदा थोड़े ही
हो जाएगा! वह
तो वही है।
फिर
भी सागर का
प्रतिबिंब सागर
का प्रतिबिंब
है, डबरे का डबरे
का है। तो
महावीर में जो
प्रतिबिंब
बनेगा सत्य का,
वह वही है
जो मुझमें बने,
आपमें बने,
किसी में
बने। लेकिन
फिर भी महावीर
का महावीर का
होगा, मेरा
मेरा होगा, आपका आपका
होगा। चांद तो
वही है, सूरज
तो वही है, सत्य
तो वही है, लेकिन
प्रतिबिंब--प्रतिबिंब
भी वही है, लेकिन
जिन-जिन में
बनता है, वे
अलग-अलग हैं।
और फिर जब वे
उसकी
अभिव्यक्ति
देने जाते हैं,
तब तो और
अलग हो जाते
हैं।
महावीर
के पहले भी
चर्चा थी
प्रेम की, बाद में भी
रहेगी, लेकिन
महावीर में जो
प्रतिबिंब
बना है, वह
निपट महावीर
का अपना है।
वैसा
प्रतिबिंब न
कभी बना था, न बन सकता
है।
प्रश्न:
क्या आप
मत-मतांतरों
के पक्षपाती
हैं? क्या
बुद्ध के
अनुयायी
बौद्ध, महावीर
के जैन, ईसा
के ईसाई आदि
संप्रदाय
समाप्त करके
मानव-धर्म की
एक स्थापना
नहीं की जा
सकती?
मैं
मत-मतांतरों
का तनिक भी पक्षपाती
नहीं हूं। न
तो कोई जैन है, न कोई बौद्ध
है, न कोई
हिंदू है, न
कोई ईसाई है, न कोई
मुसलमान है।
दुनिया में दो
तरह के ही लोग
हैं सिर्फ:
धार्मिक और
अधार्मिक। और
जो धार्मिक है,
वह बुद्ध हो
सकता है, महावीर
हो सकता है, कृष्ण हो
सकता है, क्राइस्ट
हो सकता है; लेकिन हिंदू,
जैन, मुसलमान,
ईसाई नहीं
हो सकता है।
धार्मिक
व्यक्ति तो उस
स्रोत पर
पहुंच जाता
है। उस स्रोत
पर पहुंचे हुए
व्यक्ति को
फिर
सांप्रदायिक
होने का कोई कारण
नहीं रह जाता।
दो
तरह के लोग
हैं, मैंने
कहा, धार्मिक
और अधार्मिक।
तो धार्मिक
व्यक्ति तो
स्वयं ही वही
हो जाता है, जो बुद्ध या
महावीर हो
सकते हैं।
अधार्मिक व्यक्ति
न बुद्ध हो
पाता, न
महावीर हो
पाता, तो
वह जैन हो
जाता और बौद्ध
हो जाता!
अधार्मिक आदमियों
के संप्रदाय
हैं, धार्मिक
आदमी का कोई
संप्रदाय
नहीं है।
इसे
ऐसा भी कह
सकते हैं कि
धर्म का कोई
संप्रदाय ही
नहीं है, सब
संप्रदाय
अधर्म के हैं।
अधार्मिक
आदमी महावीर
होने की
हिम्मत नहीं
जुटा पाता; जीसस नहीं
हो सकता, बुद्ध
नहीं हो सकता,
कृष्ण नहीं
हो सकता।
अधार्मिक
आदमी क्या करे?
अधार्मिक
आदमी भी
धार्मिक होने
का मजा लेना चाहता
है और धार्मिक
हो नहीं सकता,
क्योंकि
धार्मिक होना
एक बड़ी
क्रांति से
गुजरना है, तब वह एक
सस्ता रास्ता
निकाल लेता
है। वह कहता
है, महावीर
तो हम नहीं हो
सकते लेकिन
जैन तो हो सकते
हैं। वह यह
कहता है कि हम
महावीर को मान
तो सकते हैं
अगर महावीर
नहीं हो सकते,
मानने में
तो कोई कठिनाई
नहीं हमें। हम
महावीर के
अनुयायी तो हो
सकते हैं, तो
हम जैन हैं।
लेकिन
उसे पता नहीं
कि जिन हुए
बिना जैन कोई
कैसे हो सकता
है? जिसने
जीता नहीं
सत्य को, वह
जैन कैसे हो
सकता है? महावीर
इसलिए जिन हैं
कि उन्होंने
जीता सत्य को।
यह इसलिए जैन
है कि यह
महावीर को
मानता है!
प्रबुद्ध
हुए बिना कोई
बुद्ध या
बौद्ध कैसे हो
सकता है? जागे
बिना कोई
बौद्ध कैसे हो
सकता है? बुद्ध
जाग कर बुद्ध
हुए। जागने का
अर्थ ही रखता
है बुद्ध
शब्द। गौतम
बुद्ध--गौतम
तो उनका नाम
है; बुद्ध
का अर्थ है
जागा हुआ, जो
जाग गया।
बुद्ध को तो
जागना पड़ा
बुद्ध होने के
लिए। लेकिन हम
जागने की तो
हिम्मत नहीं
जुटा पाते, तो हम बुद्ध
को मान लेते
हैं और बौद्ध
हो जाते हैं!
जीसस
को तो सूली पर
लटकना पड़ा
क्राइस्ट
होने के लिए।
लेकिन सूली पर
लटकना तो बहुत
मुश्किल, तो
हम एक सूली
बना लेते हैं
लकड़ी की, चांदी
की, सोने
की, गले
में लटका लेते
हैं और
क्रिश्चियन
हो जाते हैं!
ये तरकीबें हैं
धार्मिक होने
से बचने की!
संप्रदाय
तरकीबें हैं
धार्मिक होने
से बचने की।
धर्म का कोई
संप्रदाय
नहीं है।
धार्मिक आदमी
का कोई मत
नहीं है।
धार्मिक आदमी
का कोई पक्ष
नहीं है। सब
अधार्मिक
आदमी के झगड़े
हैं।
मेरा
तो कोई पक्ष
नहीं, कोई
मत नहीं।
महावीर से
मुझे प्रेम है,
इसलिए
महावीर की बात
करता हूं।
बुद्ध से मुझे
प्रेम है, तो
बुद्ध की बात
करता हूं।
कृष्ण से मुझे
प्रेम है तो
कृष्ण की बात
करता हूं।
क्राइस्ट से प्रेम
है तो
क्राइस्ट की
बात करता हूं।
किसी का
अनुयायी नहीं
हूं। और किसी
का मत चलना
चाहिए, इसका
भी पक्षपाती
नहीं हूं।
इस
बात का जरूर
आग्रह मन में
है कि इन सबको
समझा जाना
चाहिए।
क्योंकि
इन्हें समझने
से बहुत परोक्ष
रूप से हम
अपने को समझने
में निरंतर समर्थ
होते चले जाते
हैं। इनके
पीछे चलने से
कोई कहीं नहीं
पहुंच सकता, लेकिन इन्हें
अगर कोई पूरी
तरह से समझे
तो स्वयं को समझने
के लिए बड़े
गहरे आधार
उपलब्ध हो
जाते हैं।
और
दूसरी बात
पूछी है कि
क्या एक
मानव-धर्म की स्थापना
नहीं की जानी
चाहिए?
वे
सब नासमझी की
बातें हैं।
दुनिया में
कभी एक धर्म
स्थापित नहीं
हो सकता। असल
में सभी धर्मों
ने यह कोशिश
कर ली है, और
इस कोशिश ने
इतना पागलपन
पैदा किया, जिसका हिसाब
नहीं। इस्लाम
भी यही चाहता
है कि एक ही
धर्म स्थापित
हो
जाए--इस्लाम!
ईसाई भी यही
चाहते हैं कि
एक धर्म
स्थापित हो
जाए! बौद्ध भी
यही चाहते हैं,
जैन भी यही
चाहेंगे कि एक
ही धर्म रह
जाए--मानव-धर्म!
लेकिन
मानव-धर्म
उनका वही होगा,
जो उनका
धर्म है! उसको
ही वे मानव
मात्र का धर्म
बना देना
चाहते हैं।
यह
कोशिश असफल
होने को बंधी
हुई है।
क्योंकि मनुष्य-मनुष्य
इतना
भिन्न-भिन्न
है कि कभी एक धर्म
होगा, यह
असंभव है। हां,
धार्मिकता
हो सकती है, एक धर्म
नहीं। इन
दोनों बातों
के भेद को भी
समझना चाहिए।
तो
मैं किसी
मानव-धर्म के
भी पक्ष में
नहीं हूं।
क्योंकि अगर
मैं मानव-धर्म
की किसी कोशिश
में लगूं तो
वह सिर्फ हजार
धर्मों में एक
हजार एक और
होगा, इससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं हो सकता।
सभी धर्म जब
आए तो वे
मानव-धर्म की
ही आवाज लेकर
आए! और
उन्होंने कहा
कि मनुष्य का
एक धर्म
स्थापित करना
है। लेकिन
उन्होंने एक की
संख्या और बढ़ा
दी और उनसे
कोई अंतर नहीं
पड़ सका।
मेरी
दृष्टि यह है
कि मानव-धर्म
एक हो, यह
बात ही गलत
है।
धार्मिकता हो
जीवन में! धार्मिकता
के लिए किसी संगठना की
जरूरत नहीं है
कि सारे
मनुष्य
इकट्ठे हों।
एक ही मस्जिद
में इकट्ठे, एक मंदिर
में, एक
झंडे के
नीचे--ये सब
पागलपन की
बातें हैं। धर्म
का इनसे कोई
लेना-देना
नहीं है। हां,
पृथ्वी
धार्मिक हो, इसकी चेष्टा
होनी चाहिए।
मनुष्य
धार्मिक हो, इसकी चेष्टा
होनी चाहिए।
कोई एक मनुष्य-धर्म
निर्मित करना
है तो फिर वही
पागलपन शुरू
होगा। और फिर
एक संप्रदाय
खड़े होकर नया
उपद्रव करेगा
और कुछ भी
नहीं कर सकता
है।
तो
मैं किसी
मानव-धर्म को
स्थापित करने
की चेष्टा में
भी नहीं हूं।
मेरी तो
चेष्टा कुल
इतनी है कि
धार्मिकता
क्या है, टु
बी रिलीजियस
होने का मतलब
क्या है, यह
साफ हो जाए।
और जगत में
धार्मिक होने
की आकांक्षा
जग जाए। और
फिर जिसको जिस
ढंग से धार्मिक
होना हो, वह
हो। वे कैसी
टोपी लगाएं, वे चोटी
रखें कि दाढ़ी
रखें, कि
वे कपड़े गेरुए
पहनें कि
सफेद पहनें,
कि वे मंदिर
में जाएं कि
मस्जिद में, कि पूरब हाथ
जोड़ें कि
पश्चिम में, यह एक-एक
व्यक्ति की
स्वतंत्रता
हो। इसके लिए कोई
संगठन, कोई
शास्त्र, कोई
परंपरा
आवश्यक नहीं
है।
तो
मैं इस चेष्टा
में नहीं हूं
कि एक
मानव-धर्म
स्थापित हो।
मैं इस चेष्टा
में हूं कि
धर्मों के नाम
से संप्रदाय
विदा हों। बस
वे जगह खाली
कर दें, उनकी
कोई जगह न रह
जाए। आदमी हो,
संप्रदाय न
हों। और आदमी
को धार्मिक
होने की कामना
कैसे पैदा हो,
उसका
प्रयास हो।
फिर हर आदमी
अपने ढंग से
धार्मिक हो और
जिसको जैसा
ठीक लगे, वैसा
हो। सिर्फ
धार्मिक होने
की बात समझ
में आ जाए कि
क्या है! उतनी
बात खयाल में
आ जाए तो
दुनिया में
धार्मिकता
होगी, संप्रदाय
नहीं होंगे।
लेकिन कोई
मानव-धर्म नहीं
बन जाएगा, धार्मिकता
होगी। और
एक-एक व्यक्ति
अपने ढंग से
धार्मिक
होगा। और जगत
में दो तरह के
लोग रह जाएंगे:
धार्मिक और
अधार्मिक।
अधार्मिक वे,
जो धार्मिक
होने के लिए
राजी नहीं हैं।
लेकिन
मेरी अपनी
दृष्टि यह है
कि अगर
संप्रदाय मिट
जाएं तो
अधार्मिक
आदमी अत्यल्प
रह जाएगा।
क्योंकि बहुत
से लोग तो
इसलिए
अधार्मिक हैं
कि ये
सांप्रदायिक
जो लोग हैं, इनकी
मूर्खताएं
देख कर कोई
बुद्धिमान
आदमी धर्म के
साथ खड़े होने
को राजी नहीं
है। कोई बुद्धिमान
आदमी इनके साथ
खड़ा नहीं हो
सकता। ये बुद्धुओं
की इतनी बड़ी
जमातें हैं कि
इनमें
बुद्धिमान का
खड़ा होना
मुश्किल है।
तो वह अंततः
अधार्मिक जैसा
प्रतीत होने
लगता है। और
खोज-बीन की
जाए तो शायद
पता चले कि
उसके धार्मिक
होने की अभिलाषा
इतनी तीव्र थी
कि इनमें से
कोई उसे तृप्त
नहीं कर सका, इसलिए वह
अलग खड़ा हो
गया। अगर
संप्रदाय मिट
जाएं तो
दुनिया में
धार्मिक आदमी
के प्रति भी
जो विरोध है, वह भी विलीन
हो जाएगा।
और
धार्मिकता तो
इतने आनंद की
बात है कि यह
असंभव है ऐसा
आदमी खोजना, जो धार्मिक
न होना चाहता
हो। लेकिन
धार्मिकता बननी
चाहिए
स्वतंत्रता।
धार्मिकता
बननी चाहिए
सहजता।
धार्मिकता
बननी चाहिए
सविचार, विवेक।
धार्मिकता न
तो हो पाखंड, न हो दमन, न
हो जबरदस्ती,
न हो जन्म
से, न हो
रिचुअल से, न हो
क्रिया-कांड
से।
धार्मिकता हो
मन से, समझ
से, अंडरस्टैंडिंग
से। तो पृथ्वी
पर धर्म होगा--मानव-धर्म
नहीं; रिलीजन नहीं, रिलीजसनेस। और उस पर
मेरा जोर है।
और
मेरा कहना है
कि कोई आदमी
क्या अपने को
कहता है, इससे
क्या प्रयोजन
है? वह
क्या है, यह
सवाल है। वह
कैसी
प्रार्थना
करता है, यह
सवाल नहीं है।
वह किससे
प्रार्थना
करता है, यह
सवाल नहीं है।
वह प्रेयरफुल
है, प्रार्थनापूर्ण है, यह
सवाल है। वह
आदमी किस
शास्त्र को
सत्य कहता है,
किस परंपरा
को सत्य कहता
है, यह बात
व्यर्थ है।
सार्थक बात यह
है, क्या
वह आदमी सत्य
के अन्वेषण
में संलग्न है?
वह आदमी किस
प्रकार के
प्रेम
को--ईसाइयत के
प्रेम को, कि
जैनियों की अहिंसा
को, कि
बौद्धों की
करुणा
को--किसका
शोरगुल मचाता
है, किसका
नारा लगाता है,
यह सवाल
नहीं है। सवाल
यह है, क्या
वह आदमी
प्रेमपूर्ण
है? क्या
वह आदमी
अहिंसक है? क्या उस
आदमी में
करुणा है?
और
करुणा का कोई लेबिल हो
सकता है? और
प्रेम पर कोई
छाप हो सकती
है कि कैसा
प्रेम? किताबें
हैं ऐसी जिनके
शीर्षक हैं:
क्रिश्चियन
लव, ईसाई
प्रेम! अब
ईसाई प्रेम
क्या बला होगी?
क्या मतलब
होगा ईसाई
प्रेम का? प्रेम
हो सकता है।
यह
हमारे खयाल
में आ जाए तो
मैं किसी
मानव-धर्म के
लिए चेष्टारत
नहीं हूं।
पुरानी दो तरह
की चेष्टाएं
हुईं, दोनों
असफल हो गईं।
एक चेष्टा तो
किसी एक धर्म
ने कोशिश की
कि वह सबका
धर्म बन जाए, वह सफल नहीं
हो सकी। उससे
बहुत रक्तपात
हुआ, बहुत
उपद्रव फैला,
बहुत फैनेटिसिज्म
पैदा हुआ। फिर
उससे हार कर
एक दूसरी
चेष्टा हुई, वह यह कि सब
धर्मों में
सारभूत जो है,
उसको निकाल
कर, निचोड़ कर इकट्ठा
कर लिया जाए।
जैसे
थियोसाफी ने
वह प्रयोग
किया, कि
सब धर्मों में
जो-जो
महत्वपूर्ण
है, सबको
निकाल लो।
प्रश्न:
अकबर
ने भी किया
था।
अकबर
ने भी
दीने-इलाही की
शक्ल में उसकी
कोशिश की।
अकबर भी असफल
हुआ, थियोसाफी
भी असफल हुई।
वह भी संभव
नहीं हो सका।
वह कोशिश भी
इसीलिए असफल
हुई कि उसने
भी सब
संप्रदायों
को मान्यता तो
दे ही दी।
यानी यह तो
कहा नहीं कि
सांप्रदायिक
होना गलत है।
उसने कहा कि
सांप्रदायिक
होने में कोई
गलती नहीं है।
तुम्हारे पास
भी सत्य है, वह भी हम ले
लेते हैं!
कुरान से भी, बाइबिल से; हिंदू से, मुसलमान से;
सबसे ले
लेते हैं!
सबको जोड़ कर
हम एक
मानव-धर्म बना
लेते हैं!
उससे
कोई संप्रदाय
खंडित न हुआ।
संप्रदाय अपनी
जगह खड़े रहे
और थियोसाफी
एक नया
संप्रदाय बन
गया! उससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ा। थियोसाफिस्ट
का अपना लॉज, अपना मंदिर,
अपनी
व्यवस्था हो
गई। थियोसाफिस्ट
की अपनी पूजा
का ढंग, अपना
हिसाब हो गया!
यह एक नया
धर्म खड़ा हो
गया। उसका
अपना तीर्थ
बना, अपना
सब हिसाब हुआ,
वह सब ठीक
हो गया। लेकिन
उससे किसी
पुराने संप्रदाय
को कोई चोट
नहीं पहुंची।
दो
कोशिशें की
गईं: या तो एक
धर्म
सर्वग्राही हो
जाए, वह नहीं
हुआ; और
फिर कोशिश यह
की गई कि सभी
धर्मों में जो
सार है, उसको
इकट्ठा कर
लिया जाए, वह
भी असफल हो
गया।
अब
मैं आपको
तीसरी दिशा
सुझाना चाहता
हूं और वह यह
कि संप्रदाय
मात्र का
विरोध किया
जाए, संप्रदाय
मात्र को
विसर्जित
किया जाए और
धार्मिकता की
स्थापना की
चेष्टा की जाए।
धर्म की नहीं,
धार्मिकता
की।
अगर
वह संभव हो
सके तो
मानव-धर्म तो
नहीं बनेगा; कोई एक धर्म
नहीं, एक
चर्च नहीं
होगा, एक
पोप नहीं होगा,
एक झंडा
नहीं होगा; लेकिन फिर
भी बहुत गहरे
अर्थों में
मानव-धर्म स्थापित
हो जाएगा। उस
गहरे अर्थ में
ही मेरी दृष्टि
है।
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