खतरा
पूना में पकता
रहा—(अध्याय—तीन)
(1974—1981)
पूना
में जो घटा
उसने पश्रिम
का ध्यान
तुरंत आकर्षित
किया। इतना
ज्यादा कि 1978 तक
भगवान श्री
रजनीश के
आश्रम में
पूरी दुनिया
से प्रतिदिन
कोई 2,०००
से अधिक
आगंतुक आते थे,
जिनमें, स्वभावत:,
पत्रकार भी
शामिल थे।
मुख्य
आकर्षण भगवान
स्वयं थे।
जैसा कि
बर्नार्ड
लेविन ने कहा
है, वे
एक '' असाधारण
चुंबक’‘ थे।
उन सात सालों
में उन्होंने
रोज सुबह
प्रवचन दिये
केवल उन
किन्हीं-कभार
अवसरों को
छोड्कर जबकि
उनका शरीर
अस्वस्थ रहा
हो। 1978 में
मार्सेल मियर
ने लिखा: ‘‘वे
एक विशाल, खुले
सभागृह में
बैठते है और
रोज सुबह दो
घंटों तक लगभग
दो हजार लोगों
के सामने बिना
किसी लिखित
टिप्पणी का
सहारा लिये
बोलते है।
उनके
प्रवचनों के
विषय होते
है-झेन, बौद्धधर्म,
सूफीवाद, हिंदू धर्म,
बाइबिल, फ्रॉयड,
हां, एडलर
के सिद्धान्त,
आधुनिक
आणविक भौतिकी,
प्रतिष्ठित
दार्शनिक तथा
पूर्वीय
सद्गुरु।’’ पूना के
प्रवचनों का
जिन लोगों ने
भी वर्णन किया
है, निरपवाद
रूप से उन
सबने भगवान की
‘‘विद्वता
तथा विषयों के
असाधारण
विस्तार’‘ का
जिक्र किया है।
‘‘उनके
संदर्भ, भावदशा
और ढंग
चकाचौंध कर
देते हैं। ऐसा
प्रतीत होता
है कि
उन्होंने सभी
पूर्वीय सद्गुरुओं
के संदेश का
सारतत्व पचा
लिया है और
अधिकांश
पाश्रात्य
दार्शनिकों
तथा मनस्विदों
को भी, '' रोनाल्ड
कॉनवे ने लिखा,
198० में।
उन्होंने आगे
लिखा कि जिन
अत्यंत
असाधारण लोगों
से उनकी मुलाकात
हुई है, रजनीश
उनमें एक है। ‘‘पूर्वीय
दर्शन, पाश्रात्य
कुइद्धवादी
परम्परा तथा
मनोविज्ञान
से उनका
आश्रर्यकारी
परिचय है’‘ -रोनाल्ड
क्लार्क, प्राध्यापक,
धार्मिक
अध्ययन विभाग,
यूनिवर्सिटी
ऑफ ओरेगॅन। ‘‘रजनीश में
एक अत्यंत
प्रतिभाशाली
मस्तिष्क... .एक
असाधारण वक्तृत्व
कला, एक
विशाल
सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि और
एक पूर्वीय
ऋषि का
करिश्मा
साकार हुआ है।
उनकी किताबें
(जो उनके
प्रवचनों से
संकलित की
जाती है)
ध्यान पर मिल
सकनेवाली
सर्वोपरि मुग्धकारी
कृतियां हैं’‘
-क्लाडिओ
लेम्परेली, 'तेक्रीक
देल्ला
मेदीताज़ने
ओरियन्ताले'.
(टेक्रीक्स
ऑफ ईस्टर्न
मेडीटेशन)। ‘‘वे कोई
साधारण गुरु
नहीं है।
उन्होंने
बहुत ऊंची
शिक्षा पायी
है, वे
धाराप्रवाह
अंग्रेजी
बोलते है, पूर्वीय
धार्मिक
परम्पराओं की
समूची धारा से
परिपूर्णरूपेण
परिचित है, उन्हें
पूर्वीय और
पश्रिमी
मनस्विचकित्सा
का पूरा
विज्ञान भी अवगत
है, और इस
सबसे भी बढ़कर
वे दारुण रूप
से हाजिरजवाब
है '' -जॉन
आर.फ्राय, ' फ्रायिग
पैन ' मैगजीन
( अमेरिका)।
भारतीय
पत्रकारों ने
भी उनकी
गुणवत्ता
स्वीकार की है।
नई दिल्ली से
प्रकाशित
बौद्धिक
पत्रिका 'पेट्रियट'
में, 1981
में, के.एम.तलगेरी ने
लिखा: ‘‘उनके
प्रवचनों को
सुनकर लगता है
कि वे एक
तांत्रिक, सूफी,
हसीद, ईसाई
रहस्थदर्शी
जेन और योगी
हैं। उनकी
देशनाओ (यदि
यह शब्द उचित
है) में
रहस्यवाद की
सभी प्राचीन
प्रणालियों
का सर्वोत्कृष्ट
समाहित है।’’
बर्नार्ड
लेविन ने, जो एक
आध्यात्मिक
नक्शा तैयार
करने के लिए
पूरब के
विस्तृत दौर
पर निकले थे
और उसी
सिलसिले में
198० में कई दफे
आश्रम में आए
थे (उस नक्शे
में भगवान को
सर्वोच्च
श्रेणी मिली)
प्रवचनों का -वर्णन
करते हुए 'दि
लंडन टाइप्स'
में लिखा: ‘‘दृश्य है एक
विशाल
कामचलाऊ सभागार;
'जो
अण्डाकार
है-पत्थर के
फर्शवाला एक
शामियाना-यह
चारों तरफ से
खुला है, किंतु
कपड़े और
नालीदार टिन
के पतली से
बनी हुई
सादीसी छत है,
जो पतले, अनगढ़ लक्खी
के खंभों पर
टिकी है। फर्श
पर कोई 15०० लोग
बैठे हैं, उनमें
से नाजुक लोग
(जिनमें मैं
भी हूं) पतली
गद्दयों पर
बैठे हैं। वे
सब एक
संगमर्मर के
ऊंचे मंच की
ओर मुखातिब होकर
बैठे है, जो
उस सभागार की
एक ओर ठीक
मध्य में
बनाया गया है,
उस पर एक
सादी, घूमनेवाली
कुर्सी रखी
हुई है (जो कि
मेरे हिस्से
में पड़ी इस
जमीन और गद्दी
इत्यादि से
कहीं अधिक
आरामदेह
दिखाई दे रही
है), स्टैष्ठ
पर रखा हुआ एक
ध्वनिक्षेपक
(माइक्रोफोन)
कुर्सी के एक
हत्थे पर
प्रक्षेपित
है, समय है
सुबह के पौने
आठ। हम पूना
में है।
‘‘पहला
आश्चर्य है.
रंग, वहां
बैठा हुआ लगभग
अक्षरश: हर
व्यक्ति
गैरिक वस्त्र
पहने हुए है।
परिधानों के
प्रकार अनेक
हैं, केवल
रंग को छोड्कर-हालांकि
उसके रंगत-
भेद (शेड) लगभग
पीले से लगभग
लाल तक है-जो
सब का एक-सा है।
दूसरा आश्चर्य
यह है कि इस
गैरिक सागर
में आरपार एक
गहन मौन
व्याप्त है; ध्वनिविस्तारक
पर न खांसने
का निवेदन
सुनायी पड़ता
है, लेकिन
वह अनावश्यक
है, क्योंकि
यह मौन अभंग
है और 'मौत के
सन्नाटे ' से
भी गहरा है।
उस मौन की
संगिनी है, निश्रलता; वह
गैरिक-सागर
जैसे जम गया
हो-पाषाण-मूर्तिओं
की कतारों पर
कतारें।
‘‘उस
सन्नाटे में
दरार पड़ती है
एक कार के
पहियों की
चुरमुराहट के
साथ एक कीमती
इंजन की
घुरघुराहट की
ध्वनि से।
जैसे-जैसे वह
निकट आती है, मुझे एक
तीसरे
आश्रर्य का
अनुभव हुआ:
मेरी एकमात्र
गर्दन है जो
उस दिशा में
घूमी हुई है।
‘‘एक
गैरिक
वस्त्रधारी, इस क्षण की
सतर्कता से
प्रतीक्षा
करता हुआ, कार
का दरवाजा
खोलने के लिए
आगे बढ़ता है; उससे बाहर
आती है, मनोहर
धीमी चाल से, बिना किसी
जल्दी में, एक आकृति जो
श्वेत परिधान
में है, पांवों
में सादी सफेद
चप्पलें
शोभित है। वे
मंदगति से
सभागृह में
आते हैं, हाथ
परंपरागत
भारतीय
नमस्कार की
मुद्रा में जुड़े
हुए, और
फिर
संगमर्मरी
मंच की
सीढ़ियां चढ़कर
ऊपर आते हैं।
कुर्सी के
सामने खड़े
होकर, पूरे
18० डिग्री के
कोण में घूमकर
वे पूरे
सभागृह को
अपना मौन
अभिवादन पेश
करते हैं; गैरिक
श्रोता-समूह
द्वारा वह
अभिवादन
प्रस्तरित है।
वे लंबे हैं, हालांकि
असाधारण रूप
से नहीं, सिर
का ऊपरी भाग
बालरहित
लेकिन पीछे
लंबे-लंबे झूल
रहे बाल, और
अत्यधिक घनी,
लहराती
सफेद दाढी से
युक्त। मुस्कुराकर
वे कुर्सी में
बैठ जाते हैं।
एक अनुवर्ती
आगे बढ़कर
उन्हें एक
क्लिपबोर्ड थमा
देता है। वे
उसे अपनी गोद
पर रखते है, खोलते हैं, उसमें से एक
कागज का
टुकड़ा
निकालते हैं
और पौने दो
घंटे तक बिना
किसी विराम, झिझक, पुनरुक्ति,
लिखित
टिप्पणियों
का सहारा लिये
बोलते हैं।
''…..यद्यपि
मैं उनके
वक्तृत्व-कौशल
की कुछ झलक आपको
दे सकता हूं
और अवश्य उनके
शब्द भी
उद्धृत कर
सकता हूं
लेकिन इस सबका
जो विस्मयजनक
परिणाम आता
है-वह परिणाम
जो श्रोता को
प्रशा और प्रेम
के
देदीप्यमान
आलोक से नहला
देता लगता है-वह
कुछ ऐसी बात
है जिसे अनुभव
करना सरल है, वर्णन करना
कठिन।
‘‘उनकी
आवाज मंद, मुलायम
और असाधारण
रूप से सुंदर
है, उनकी
अंग्रेजी
आश्रर्यजनक
रूप से
मुहावरेदार
है और व्याकरण
की दृष्टि से
लगभग, यद्यपि
सर्वथा नहीं,
परिशुद्ध
है। उनकी
भंगिमाओं में
एक सम्मोहक
लावण्य और मुखरता
है। उनकी
उंगलियां
असाधारण रूप
से लंबी है, और वे अपने
हाथ, खास
कर बाएं का
उपयोग अनंत
प्रकार से
तरह-तरह की
अभिव्यक्तियां
देने के लिए
करते हैं
‘‘वे
जो कहते है, वह बहुत
शक्तिशाली
ढंग से और
धाराप्रवाही
भाषा में
व्यक्त होता
है; मैंने
जितने भी
वक्ता सुने
हैं उन सब में
वे सबसे
विलक्षण हैं,
हालांकि
उनकी शैली में
लोगों को
उत्तेजित करने
की कोई ध्वनि
नहीं है, और
वे जो कहते
हैं उसके गर्भ
में कोई
भाषणबाजी या
सिखाने का भाव
नहीं होता। वे
उद्धरणों तथा
संदर्भों का
खुलकर उपयोग
करते हैं ( और
लगता है कि ये
सब उनके पास
लिखे हुए होते
है, जैसे
कि कुछ मजाक
भी, लेकिन
इससे अधिक
टिप्पणियों
का उपयोग वे
नहीं करते)।
मैंने तीन
दिनों में
लगातार जो तीन
प्रवचन सुने,
उनमें उन्होंने
बर्ट्रष्ठ
रसल, विलियम
जेम्स, नॉर्बर्ट
वियेनर, ई.ई.
कमिग्स, नीत्शे,
व्हिट्मन
और कुछ अन्य
को उद्धृत
किया। उनके
कुछ संदर्भों
पर संदेह होता
है : क्या
फ्रायड दूसरो
की आंखों में
झांकने से
भयाक्रान्त
था; क्या
जुग मृत्यु से
भयाक्रांत था
और जब-जब भी वह
इजिप्त की
ममीज़ देखने की
अपनी पुरानी
चाह पूरी करने
के लिए यात्रा
पर निकलने की
तैयारी करता
तब-तब
मनोदैहिक
बीमारी में पड़
जाता था? क्या
मनोचिकित्सकों
में
आत्महत्या
करने की दर आम
जनता से
दुगुनी है? क्या
अमेरिकन आदमी
एक मकान में
औसतन तीन साल
रहता है, और
क्या अमेरिकन
विवाहों की
अवधि भी उतनी
ही है?
‘‘यदि
वह सत्य नहीं है...
.रजनीश कोई
जानकारी
मुहय्या नहीं
कर रहे हैं
बल्कि हम तक
एक सत्य पहुंचा
रहे है, जो
चेतन विचार और
उसकी सारी
धरोहर के पार
है, ठीक
वैसे ही जैसे
मनुष्य की
अत्यंत
महत्वपूर्ण
गतिविधियां
मस्तिष्क के
पार होती हैं।
उनके शब्दों
के उद्धरण
ले-ले कर
मैंने कितने ही
पन्ने भर डाले
हैं, लेकिन
मुझे इसका
पूरा-पूरा
अहसास है कि
उद्धरण उस
मनातीत
अंतर्दृष्टि
का केवल एक
तंतु भर पेश
करते है, उस
आवेश और दृढ़
विश्वास के
संदर्भ (जो कि
उनके द्वारा
बड़ी सावधानी
से गूंथे और
साकार किये जाते
हैं, जबकि
उनके पास कोई
टिप्पणियों
का सहारा भी
नहीं होता) से
सर्वथा हटकर
जिनमें कि वे
संजोये गये
होते हैं। फिर
भी:
‘‘हम
भगोड़े कहलाते
है, लेकिन
अगर तुम्हारे
घर में आग लगी
हो और तुम भाग
निकलो तो कोई
तुम्हें
भगोड़ा नहीं
कहता।’’
‘‘जो
आदमी बंटा हुआ
है, वह
स्वयं का
स्वामी कभी.
नहीं बन सकता।’’
‘‘मानवता
से मेरी कभी
मुलाकात नहीं
हुई, मेरी
मुलाकात केवल
मानवों से हुई
है।’’
‘‘लोग
मनुष्यता से
प्रेम करते
हैं और
मनुष्यों की
हत्या करते है।’’
‘‘जिस
तरह बीमारी
संक्रामक है,
उसी तरह
स्वास्थ्य भी
संक्रामक है।’’
‘‘तुम
औरों को कैसे
प्रेम कर सकते
हो जबकि तुम स्वयं
को प्रेम नहीं
करते हो? ''
‘‘यदि
तुम स्वेच्छा
से नर्क भी
जाओ तो तुम
वहां प्रसन्न
रहोगे, यदि
तुम्हें
तुम्हारी
इच्छा के
विरुद्ध स्वर्ग
में भी भेजा
जाए तो तुम
उससे घृणा
करोगे।’’
‘‘जो
व्यक्ति
तुम्हारा
गुलाम होता है,
तुम भी उसके
गुलाम हो जाते
हो, गुलामी
सदा
पारस्परिक
‘‘जो
राजनीतिज्ञ
सीढी के आखिरी
पायदान तक चढ़
जाता है वह छू
दिखाई देता है,
क्योंकि
चढ़ना ही उसकी
एकमात्र खूबी
है जो वह
जानता है और
अब आगे चढ़ने
के लिए कुछ
नहीं बचा। वह
उस कुत्ते की
भांति है जो
हर कार के
पीछे भौंकता
हुआ दौड़ता है
और अगर वह
किसी कार से
आगे निकल जाए
तो बेवकूफ
दिखाई देने
लगता है।’’
‘‘जो
व्यक्ति खुला
हुआ नहीं है
वह कब में जी रहा
है।’’
‘‘जैसा
कि मैने कहा, अपने
संदर्भों से
विलग किये गये
ये शब्द रजनीश
के प्रवचन का
प्रभाव नहीं
ला सकते। (ये
सारे प्रवचन
शब्दशः
प्रकाशित हुए
हैं। साल भर
में लगभग पचास
पुस्तकें
प्रकाशित होती
है और वे सब की
सब कैसेट के
रूप में भी
उपलब्ध हैं)।
उनके शब्दों
के प्रभाव और
रिझावनेपन के
अलावा- और एक
इनसे भी बड़ी
शक्ति, प्रेमसिक्त
ऊर्जा का एक
प्रवाह, जो
आसपास के
वातावरण में
उनके बोलने के
साथ-साथ झरता
रहता है-जो है
और जो मेरे
साथ रह गया है,
वह है उनके
कथन का गहन
आशय।
‘‘प्रवचन
के अंत में
(जिसे वे
निरपवाद रूप
से ' आज
इतना ही' के
साथ समाप्त
करते है) वे
उसी नाटकीय
ढंग से विदा
लेते हैं, जिस
ढंग से उनका
प्रवेश होता
है। उनके जाने
के बाद मैं
भीड़ का
निरीक्षण
करता रहा, और
मेरा वैसा
करना बहुत ही
शिक्षाप्रद
रहा। बहुतेरे
तो उसी स्थिति
में बैठे रहे
जिस स्थिति
में वे प्रवचन
के दौरान बैठे
थे, और
उन्होंने जो
कुछ सुना था
उस पर मौन
होकर ध्यान कर
रहे थे। कुछ
उस संगमर्मर
के मंच के पास
आए, जिस पर
से वे बोले थे,
और उसके अरपार
साष्टांग पड़
रहे। जाहिर था
कि वे गुरु
द्वारा
निःसारित
ऊर्जा तरंगों
को पी रहे थे, और सचमुच ही
सोचा जा सकता
है कि ऊर्जा
का कुष्ठ वहां
बन ही गया
होगा, जिसमें
साधक स्वयं को
निमज्जित कर
सकते हों। कुछ
युगल
आलिंगनबद्ध
हो गये, और
देर तक वैसे
ही बने रहे; किसी का
ध्यान उनकी
तरफ नहीं गया,
संकोच अथवा
झिझक का
प्रदर्शन तो
दूर रहा, और
यह दृश्य मुझे
सारे दिन
आश्रम में
दिखने को था।
और इसका
स्पष्टीकरण
खोजना कठिन
नहीं है:
रजनीश की शिक्षा,
गहरे में, प्रेम की है,
और वहां की
पूरी हवा इससे
आपूर है। जिस
प्रेम की ओर
वे इशारा करते
है वह, अवश्य
रूपेण, शरीर
का भावोन्माद
नहीं है, लेकिन
कुछ लोगो का वह
यात्रा पथ इस
पगडंडी के पास
से जाता हो तो
इसमें कुछ
आश्रर्य की
जगह नहीं।
इसमें संदेह
नहीं कि ये
बातें, और
साथ में रजनीश
की यह दलील कि
हम अपने प्राकृतिक
आवेगों का
अतिक्रमण कर
सकें इसके लिए
हमें उनमें से
सचेतन रूप से
गुजरना होगा
(क्योंकि यदि
हम उनके दमन
के असंभव
कृत्य में लगे
तो वे हमसे
बदला लेंगे)
और आश्रम में
चलने वाले
विविध 'एनकाउंटर
ग्रुप' बाहर
के उन अफ़वाहबाजों
के दिमाग में
होते है जब वे
आश्रम के काले
कारनामों के
किस्से गढ़कर
प्रसारित करते
है।
''....जैसे
ही मैं शेष
श्रोताओं के
साथ बाहर
निकला, मैने
एक प्रयोग
शुरू किया, जिसे मैने
कुछ हफ्तों
पहले लंदन में,
या निशित
रूप से कहें
तो
सेलफ्रिजेस
में किया था।
उस पहले मौके
पर, मैं
खरीद-फरोख्त
करने के लिए
आयी भीड़ में
से एक-एक
चेहरे को
सजगता से
निरखता
हुआ-परखता हुआ
गुजरा था कि उनमें
से कितनों के
भीतर वह अखण्डता
है, वह
प्रशांति, जो
आंतरिक
प्रसन्नता से
प्रस्फुटित
होती है, और
उससे यह पता
चलता है कि इस
आदमी ने अपने
भीतर के मालिक
को जानकर जीवन
की बान
परिस्थितियों
पर मालकियत पा
ली है। मैने
कुछ दो सौ
चेहरों को
निहारा था और
उसके बाद मै
और न निहार
सका था, क्योंकि
वहा बिखरी हुई
दुख की गाथा
जो मैंने देखी
वह इतनी
सार्वभौम थी,
भीतर के
अनसुलझे
द्वन्द्वों
का तनाव, खालीपन
और खोयापन, विरह, अपराध-भाव
और भय का दर्द।
‘‘अब, बुद्ध
सभागार से
बाहर निकलते
ही, जिन
सैकड़ों
चेहरों को
मैंने देखा, उनमें मुश्किल
से मैं एक भी न
खोज सका जो
लंदन में देखे
हुए चेहरों से
मिलता-जुलता
हो। ये चेहरे
खो गये हुए
अथवा विरक्त न
लगते थे; ये
चेहरे उन
स्री-पुरुषों
के नहीं थे
जिन्होंने
अपना बोझ
एक-दूसरे के
कंधों पर डाल
दिया था; ये
चेहरे उन
लोगों के भी
नहीं थे
जिन्होंने संघर्ष
करना छोड़ दिया
है और जिस दुनियां
का सामना नहीं
कर पाए उससे
मुंह मोड़ लिया
है; लगभग
निरपवाद रूप
से ये चेहरे
प्राणवान थे,
अभिव्यंजक
थे; मननशील,
प्रशांत, दिलचस्पीपूर्ण
और उत्सुकता
से ओतप्रोत थे।
एक शब्द में
कहें तो :
निदोंष थे।’’
बर्नार्ड
लेविन कोई
कच्चे खिलाड़ी
नहीं है। फिर
भी वे स्वयं
और उन जैसे कई
सख्त
व्यावसायिक
पत्रकार जो
अपने व्यवसाय
का गहन संदेहवाद
साथ लेकर आए, इसी तरह
की रिपोर्ताज़
लेकर लौटे। डच
पत्रकार
मासेंल मियर
वर्णन करते है
कि यह
प्रक्रिया
उनके साथ किस
तरह घटी : ‘‘प्रारंभ
के कुछ दिनों
तक मैं अभी भी
अपने पूर्वाग्रहों
को समेटे रहा।
धार्मिक
पंथों में
मुझे कोई
खासियत कभी
नहीं दिखी, मेरी समूह की
भावनाएं
उपभोक्ता
संगठनों से
कभी आगे नहीं
गयीं, और
मैं गुरुओं के
बिना जी सकता
था। मैंने ऐसे
बहुत से यूरोप
के निवासी
भारत में
घूमते देखे थे
जिन्होंने कई
सैकड़ो
डालरों का
मूल्य चुराकर
स्वयं को आध्यात्मिक
रहस्यों में
दीक्षित
करवाया था।
उसके गहरे
अर्थ मेरे सिर
के ऊपर से
निकल जाते थे,
सिर्फ एक कम
रहस्यपूर्ण
बात को छोड़कर
कि शिष्य गरीब
होता चला जाता
है और गुरु
अमीर होता चला
जाता है।
''मुझे
सचमुच इसका
भरोसा नहीं था
कि अभी भी
सच्चे
सद्गुरु होते
है। और यदि वे
सचमुच कहीं है,
तो भगवान
रजनीश की
भांति इतने
प्रगट रूप से
स्वयं को
प्रदर्शित
नहीं करेंगे।
मुझे वे निश्चित
ही बेबूझ लगे,
क्योंकि
उनके बारे में
मैंने जो भी
सुन या पढ़ रखा
था वह सब सीधे
मेरे दिल में
उतर गया था।
आश्रम के
वातावरण से भी
मैं कुछ दब सा
गया था। मैंने
देखा कि
बहुत-से लोग
आलिंगन कर रहे
थे, रो रहे
थे, नाच रहे
थे, और मैं
खुद शारीरिक
रूप से इतना
उमुक्त नहीं
था।
''…...मेरे
लिए उनके उस
प्रथम दर्शन
का वर्णन कर
पाना कठिन है,
जब वे दोनों
हाथ जोड़े हुए
पारंपरिक
नमस्कार की
मुद्रा में
प्रविष्ट हुए
थे। आप कह
सकते है कि
मैं सीधा ही
सम्मोहित हो
गया। मेरी आंखों
में बिलकुल
सहज ही आंसू आ
गये। मेरी समझ
में कुछ नहीं
आ रहा था
क्याकि मेरे साथ
कुछ घट रहा था
जिस पर मेरा
कोई वश नहीं
था, और ऐसा
मेरे साथ शायद
ही कभी हुआ है।
'' अंग्रेजी
प्रवचनों ने
मुझे शब्दशः
छिन्न-भिन्न
कर दिया।
उन्होंने कोई
क्रांतिकारी
नवीनताओं का
उद्घोष नहीं
किया, परन्तु
उन्होंने
मुझे उन
तथ्यों के
सीधे सम्पर्क
में ला दिया
जो मेरे भीतर
सोये पड़े थे..
.एक तरह की
हतोत्साह कर
देनेवाली
प्रत्यभिज्ञा।
सबसे महत्वपूर्ण
बात यह थी कि
मुझे तत्क्षण
इस बात का
यकीन हो गया
कि वहां, उस
श्वेत कुर्सी
पर कोई बैठा
था, जो
अपने अनुभव से
बोल रहा था।
मेरे
पूर्वाग्रह
विलीन हो गए।’’
जीन
लियेल ने 'वले' मैगजीन
( 1977) में कुछ इसी
किस्म का
अनुभव वर्णित
किया।
उन्होंने
लिखा : ‘‘इस
अनोखे आश्रम
को खुद अपनी आंखों
से देखने हाल
ही में मैं
वहां गयी थी।
स्काटिश चर्च
की दृढ़निष्ठा
में पली-बढ़ी
मैं, मुझे
कई सवाल पूछने
थे, कई
प्रतिबंधों
को पार करना
था, लेकिन,
बारह दिन तक
भगवान के
अतुलनीय
प्रवचनों को
सुनने के बाद,
अब सारी
अनिश्रितताए
विदा हो चुकी
है... अपने जीवन-दर्शन
में उन्होंने
जो भी कहा, मेरे
देखे उसमें
सत्य का
सुनश्रित
स्वर था : एक
नया अनुभव।’’
इस तरह, भगवान की
ख्याति फैल
चली, और
उसके साथ वे
विवाद भी जो
वे समय-समय पर
खड़े करते थे।
जैसाकि
रोनाल्ड
कॉनवे ने इस
बारे में कहा
है : ‘‘दूसरा
गाल सामने
करने का चिर-समादृत
सिद्धान्त
रजनीश के लिए
नहीं है। जहां
वे दिव्य और
पार्थिव
प्रेम की ऐसी
चर्चा कर सकते
हैं जो हृदय
को पिघला दे, वहां वे
राजनीतिकों, परंपरागत
चर्चों
धर्मविदों और
जनता के मनपसंद
व्यक्तियों
पर इस कदर
दुःसाहसी
उग्रता से
प्रहार करते
हैं कि उनका
सर्वाधिक
निष्ठावान
श्रोता भी चौक
जाए। भारतीय
संसद में
रजनीश की
प्रशंसा भी
हुई है और
प्रतिवाद भी।
पश्रिमी
जर्मनी के
समाचार पत्र
उनके संबंध
में विवादों
से भरे हुए है,
क्योंकि
जर्मन
राष्ट्रीयता
के लोग आश्रम
में सबसे अधिक
हैं।’’
कॉनवे
ने भगवान के
एक भारतीय
शिष्य के इन
शब्दों को
उद्धृत किया
है : ‘‘चूंकि
वे किसी अन्य
की तुलना में
बहुत आगे की बात
देख सकते है
भगवान जानते
है कि वे चाहे
जो भी कहें
उन्हें गलत
समझा ही जाएगा।
इसलिए वे
हमारे इस पागल
और खतरनाक जगत
को जैसा देखते
हैं वैसा ही
कह देते है, फिर तुम्हें
बुरा लगे या
भला लगे। वे
सभी सनातन
धार्मिक
कोटियों को
समाप्त करने
का प्रयास
करते है और
कहीं पाखष्ठ
अथवा वाग्जाल
के आडम्बर की
हल्की-सी भनक
भी आए, तो
उसके प्रति वे
बहुत निर्दय
हो उठते हैं।’’
सेक्स
के बारे में
समाज के जो
दोहरे मानदण्ड.है
उसके प्रति
भगवान निर्दय
थे, और
उनके इस
निर्भीक कथन
से कि काम का
दमन करने से
चित्त उससे
आविष्ट हो
जाता है, रुढ़िवादी
भारतीय प्रेस
बहुत कुद्ध हो
उठा था। शायद
यह पहला मौका
था जब
वर्णमाला के
इन तीन अक्षरों
ने उनके
पृष्ठों पर
एक-दूसरे के
अगल-बगल जगह
पायी थी। इस
विषय पर अपनी
अरुचि को
भद्दी
शीघ्रता से लांघते
हुए भारतीय
पत्रकारों ने
एक नया शब्द गढ़
डाला: 'सेक्स
गुरु', और
फिर शीघ्रता
से तदनुरूप
बीभत्स कहानियां
तैयार करने
में लग गये।
बिडम्बना यह
है, रोनाल्ड
क्लार्क के
शब्दों में
कहें तो, कि
वास्तव में
रजनीश का
लक्ष्य था ‘‘शिष्यों को
उनकी
काम-ऊर्जा को
आध्यात्मिक
उपलब्धि की
दिशा में
नियोजित करने
और काम का अतिक्रमण
कर जाने की
दिशा में
मार्गदर्शन
करना।’’ सच
तो यह है कि
भगवान श्री
रजनीश की 4००
से भी अधिक
प्रकाशित
पुस्तकों में
केवल एक
पुस्तक है
जिसके शीर्षक
में 'सेक्स'
शब्द है- 'फ्रॉम सेक्स
टू
सुपर-कांशसनेस'
(संभोग से
समाधि की ओर)।
फिर भी उनको
दिया गया
अभिधान 'सेक्स
गुरु' आज
तक चला आ रहा
है।
अधिकांश
अफवाहें जो आज
भी उनका पीछा
कर रही हैं-और
जिसको पीली
पत्रकारिता
निहुर रूप से
पीटे चली जाती
है-उनका उद्गम
इसी काल में
हुआ था। और
उनमें से
अधिकांश की
जड़ें झूठ में
थीं। लेकिन यह
अधिक सरल था
और दकियानूसी
पाठकों को
रुचिकर था
(अधिक
प्रतियां
बिकती थीं) कि
सनसनीखेज
कहानियां
छापी जाएं
बजाय इसके कि
यहां जो महत
घटना घट रही
थी उसको
समझाने का
प्रयास किया
जाए। केवल
पेशेवरों ने
वैसी कोशिश की।
बर्नार्ड
लेविन ने लिखा
है कि ‘‘इस
तरह के आंदोलनों
के साथ
अनिवार्य व
सामान्यरूपेण
जुड़नेवाली
काले
कारनामों की
कहानियां, जिनमें
कामजन्य अनुचित
घटनाओं का
इंगित हो, यह
सब यहां
भी मौजूद है।
उतने ही
अनिवार्य हैं
नशीली दवाओं
के उपयोग के
आरोप, बेशक,
क्योंकि
लंबे
बालोंवाले
युवकों का
संबंध लोकप्रिय
कल्पित कथाओं
में हमेशा
नशीली दवाओं से
जोड़ा जाता है (
और रजनीश के
शिष्यों में
अधिकांश लोग
युवा है)। और
निश्रित ही ये
आरोप पश्चिम
में ही पैदा
किये, निखारे
और छापे गये
हैं। फिर भी
रजनीश के
मुख्यालय में
थोड़ी देर को
हो आना भी इस
तरह की
धारणाओं को
विदा कर देने
के लिए काफी
है। अफवाहें
हमेशा उसके
विषय के संबंध
में कम, अफवाह
फैलानेवालो
के संबंध में
ही ज्यादा कहती
हैं-हमेशा ऐसा
ही होता है-और
इस मामले में
तो वह जो कहती
है वह काफी
अर्थगर्भित
है।’’
लेविन
आगे बढ़कर इसे
स्पष्ट करते
हैं: ‘‘इस
असाधारण गुरु
ने जो दुश्मनी
अर्जित की है
वह
आश्रर्यजनक
नहीं है।
क्योंकि सारे
संदेहों से
परे, रजनीश
एक ऐसा प्रभाव
है जो सब कुछ। अस्तव्यस्त
कर देता है।
प्रवचन
सभागार की ओर
(जिसे 'बुद्ध
सभागार' कहते
है) ले जाने
वाला रास्ता
जहां खत्म
होता है वहां
लिखा है. 'जूते
और मस्तिष्क
यहां छोड़ दें।
'जूते
उतारने में
कोई समस्या
नहीं, लेकिन
दूसरे नियम के
खिलाफ आदमी की
हर प्रवृत्ति
आक्रोश करती
हुई बगावत कर
उठती है। और फिर
भी इस बात की
प्रत्यभिज्ञा
के लिए ध्यान
की वर्षों
लंबी साधना की
जरूरत नहीं है
कि जो भी
प्राणवान
उपलब्धियां
और प्रभाव है
जो आदमी के
जीवन को
प्रेरित करते
है, अपना
काम करने के
लिए मस्तिष्क
को किनारे कर
देते हैं; जैसे
कला, श्रद्धा,
निद्रा, आनंद,
मृत्यु
घृणा, हंसी,
भय-इनमें से
कोई भी
मस्तिष्क के
तल पर समझे नहीं
जा सकते, और
न इनके काम
करने के ढंग
ही। और
निश्रित ही, मनुष्य के
भीतर एक और
ऐसा क्षेत्र
है, जो
अपने
अस्तित्व के
लिए मस्तिष्क
पर निर्भर नहीं
करता और न ही
मस्तिष्क से
कोई विश्लेषण
मांग सकता है,
और वह है :
प्रेम।
‘‘यही
रजनीश का पेशा
है, और यही
ईसा का पेशा
था, और
बुद्ध का, और
लाओखू का, और
उन सब
शानोपलब्ध
सद्गुरुओं का
जो सदियों-सदियों
से इन्हीं दो
तत्वों के
गवाह रहे हैं.
कि प्रेम ही
वह बल है जो
हरे डंठल में
से पुष्प को
गुजारता है, बाहर लाता
है, और कि
हमें जो होना
है वह हम हैं
ही, जो हम
होना चाहते
हैं या हमें
होना चाहिए, वह हम हैं ही।
मनुष्य
जन्मतः
स्वतंत्र है,
और हर कहीं
वह जंजीरों
में जकड़ा हुआ
मिलता है। या
जैसा कि रजनीश
कहते हैं, ‘‘मेरा
संदेश है. मन
को विसर्जित
करो और तुम
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाओगे।
सरल-चित्त हो
जाओ, और
तुम परमात्मा
से जुड़ जाओगे।
इस ख्याल को
छोड़ दो कि तुम
विशिष्ट हो।
साधारण हो जाओ
और तुम
असाधारण बन
जाओगे। अपनी
अंतरात्मा के
प्रति
प्रामाणिक हो
जाओ और समस्त
धर्मों का
पालन हो जाता
है। और जब
तुम्हारे पास
मन नहीं होता,
तब
तुम्हारे पास
हृदय होता है।
जब तुम मन में
नहीं होते तभी
तुम्हारा
हृदय धड़कना
शुरू करता है,
तभी
तुम्हारे पास
प्रेम होता है।
अ-मन यानी
प्रेम। प्रेम
है मेरा संदेश।
या इसे जब वह
अधिक
संक्षिप्त
रूप में कहते
हैं: 'प्रत्येक
व्यक्ति परिपूर्ण
पैदा होता है।
और प्रत्येक
पर परमात्मा
के हस्ताक्षर
हैं, अपूर्णता
सीखी हुई बात
है।
पूना
का विक्षुब्ध
करनेवाला
प्रभाव केवल
प्रवचनों तक
ही सीमित नहीं
था। जैसा कि
एलन एटकिन्सन
ने 1981 में 'सैटरडे
रिव्यू में
आश्रम का
विश्लेषण
करते हुए कहा : ‘‘रजनीश नाम
की इस घटना का
सबसे
आश्रर्यजनक
पहलू था उनके
द्वारा
स्थापित
मनस्विकिस्ता
समूह, जिनमें
हइनया के
श्रेष्ठतम
मनस्विद तथा
मनस्विकित्सक
काम कर रहे थे।
ये समूह, 'मन
की सफाई' करने
के निमित्त, पश्रिम तथा
पूरब में
सिखायी
जानेवाली 'चेतना
विस्तारक' विधियों
के सर्वाधिक
रूपों का
उपयोग करते थे।’’
उनके
निर्भीक
प्रयोगों ने
पत्रकारों का
ध्यान खींच
लिया। ३ हो' मैगजीन
(इटली) ने अपने
जुलाई 1978 के अंक
में लिखा : '' आज
हजारों
पश्रिमी
मनस्विकित्सकों
के लिए-फिर वे
राइकवादी हों
या जुगवादी, मानवीयतावादी
मनोविज्ञान
के अनुयायी
हों, अमेरिकन,
ब्रिटिश, जर्मन हों, रॉजर्स, लैंग
और जेनोव के
मित्र और सहचर
हों, इन
सबके लिए पूना
एक हकीकत बन
गया है, मात्र
प्रतीक नहीं।
वह विश्व में
मनोवैश्लेषिक
चिकित्सा का
सबसे बड़ा
केंद्र है। हर
महीने पूना
में, या और
ठीक से कहें
तो भगवान श्री
रजनीश आश्रम में,
4० या 5०
एनकाउंटर
समूह होते हैं।
और इसका मतलब
हुआ कि 1977 में 1०,००० लोगों
ने इसमें भाग
लिया। समूह का
नेतृत्व
करनेवाले, जिनकी
संख्या लगभग
5० है, जो
सभी पश्रिम के
हैं, पूरे
समय आश्रम में
काम करते हैं..
.मेरी पहली ही
यात्रा में
जिस बात ने
मुझे सबसे
ज्यादा प्रभावित
किया वह यह थी
कि वे सब
मनस्विकित्सक-जो
सुप्रसिद्ध
और अपने-अपने
देशों में
अपने व्यवसाय
के अग्रणी
व्यक्ति थे-
आश्रम में काम
करने के लिए
अपना व्यवसाय
छोड़ आए, संपदाएं
छोड़ आए, जहां
इन्हें मिलता
है दो समय का
भोजन, एक
बिस्तर, भगवान
के प्रवचन में
जाने की मुफ्त
टिकट, और
कुछ नहीं।’’
बर्नार्ड
लेविन ने कहा : ‘‘जिन
विविध
चेतना-विस्तारक
चिकित्सा-विधियों
का प्रयोग
वहां होता है
(उनमें मसॉज, रिक़ेक्सॉलॉजी,
अलेक्यंडर
तकनीक, आक्युपंक्चर,
राल्फिंग, पॉस्चुरल
इंटिग्रेशन, हिप्नोसिस,
काउंसलिंग,
रिबर्थिग, सक्रिय
ध्यान और
बहुत-से अन्य
शामिल हैं) वे
सब उन लोगों
के संपूर्णता
की ओर विकास
के लिए
बहुमूल्य हैं
जो इस
आध्यात्मिक
सुपर बाजार
में खरीदारी
करने आते हैं।’’
रोनाल्ड
कॉनवे ने लिखा
: ‘‘वहां पर
सिखायी जाने
वाली कई
सक्रिय
विधियां अहंकार
अथवा नाभि पर
मनन करने से
कोई सरोकार नहीं
रखतीं। एक डच
मनस्विद ने
मुझसे कहा कि
उनसे परामर्श लेने
के लिए जो लोग
आते हैं उनका
मानना है कि इस
समय आश्रम में
संभवत: विश्व
का श्रेष्ठतम
समूह
मनोचिकित्सा
केन्द्र है।
इस केंद्र के
अनेक नेता
न्यूयार्क, लंदन, म्यूजिक
और
कैलिफोर्निया
में
प्रशिक्षित
हुए है।
बहुतेरे पूरी
तरह से
शिक्षित
डॉक्टर या
मनस्विद हैं,
जो संन्यास
के संस्कृत
नामों में छिप
गये है।
व्यावसायिक
रूप से
प्रशिक्षित
पाश्रात्य संदेहवादियों
ने भी इस तथ्य
को स्वीकार
किया है कि
रजनीश सवाधिक
प्रतिभावान
प्राकृतिक मनस्विदों
तथा
मनस्विकित्सा
के
प्रवर्तकों में
एक हैं।’’
मासेंल
मियर ने 1978 में कुछ
चिकित्सा
समूहों में
भाग लिया था।
उनका अनुभव
उनके ही
शब्दों में : ‘‘इन समूहों
में क्या घटा.
उसका यथातथ्य
बयान कर पाना
बहुत मुश्किल
है। मोटे तौर
पर, हमारे
भीतर के जिन
पहलुओं को
हमने इससे
पहले कभी नहीं
छुआ था, उनका
हमें सख्त
सामना करना
पड़ता था। मैने
ऐसी हरकतें
कीं, जिनको
रोजमर्रा के
जीवन में करने
की मैं सोच भी
नहीं सकता था।
कभी-कभी मैं
नर्क के बहुत
करीब होता, कभी सातवें
स्वर्ग में।
कभी मैं लोगों
को गहन
परिवर्तनों
से गुजरते देखता।
ये चिकित्सक
विश्व के
सर्वाधिक
योग्य
चिकित्सक रहे
होंगे। वे खुद
संन्यासी है,
जिसका और सब
बातों के
अलावा मतलब
हुआ कि वे अपनी
सेवाएं
निःशुल्क
देते हैं। भाग
लेने वालों को
अपने अहंकार
एवम् व्यक्तित्व
को छोड्कर शेष
समस्त यथार्थ
के प्रति सजग होने
के लिए कोई 2० विविध
विधियों का
उपयोग किया
जाता है, जिनमें
गेस्टाल्ट, एन्काउंटर
थेरेपी, बायो-एनर्जी,
स्कीमिग
एष्ठ
हिप्रोसिस
थेरेपी, साइकोड्रामा,
पूर्वीय
विधियां, जैसे
जेन ध्यान, योग, ताइ-ची
और बौद्ध तथा
हिंदू ध्यान
की विधियां शामिल
है।
समूह-चिकित्सा
ने मुझ पर
गहनतम प्रभाव
डाला।
मनोवैज्ञानिक
वर्तुल में
पूना विश्व के
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण 'विकास-केन्द्र'
के रूप में
विख्यात हो
गया है।’’
ऊपर
जिन
ध्यान-पद्धतियों
का उल्लेख
किया गया है, वे भगवान
द्वारा आधुनिक
मनुष्य के लिए
विशेष रूप से
विकसित की गयी
है। रहस्यवाद
की अनेकों
अलग-अलग
शाखाओं की
प्राचीन
विधियों से
इन्हें लिया
गया है।’’ ध्यान
की इन विधियों
द्वारा आश्रम
सचमुच चेतना
में परिवर्तन
ला देता है, '' आद्रियस उहूलिग
ने 'नेवे
जुरचेर
ज़ाइतुंग' (स्विट्जरलैष्ठ)
में लिखा।
उहूलिग
ने, जो 1981
की मई में
दिल्ली से
राजनयिकों के
एक दल के साथ
आश्रम में आए
थे, संन्यासियों
और अन्य लोगों
के बीच दिखाई
देने वाले
फर्क का श्रेय
भगवान के 'बुद्धों
के
मनोविज्ञान' को, चिकित्सा
समूहों और
ध्यान को दिया।
अंत में
उन्होंने कहा,
‘‘रजनीश के
अहाते में
सचमुच कुछ
असाधारण घट
रहा है:
व्यक्ति
मुक्त किये जा
रहे हैं, अर्थात,
सारे
प्रतिबंधों
और सामाजिक
नियंत्रणों
से असंस्कारित
किये जा रहे
हैं।’’
कनाडा
की 'शेतलेन'
मैगजीन के
पाठकों के लिए,
जनवरी 1981 में,
मारिस रॉय
ने इस प्रकार
विवरण दिया : ‘‘दरअसल ऐसा
लगता है कि
पूना का आश्रम
हजारों साल
पुरानी
पूर्वीय
परंपराओं का
आधुनिक
पाश्रात्य
विधियों के
साथ
सम्मिश्रण
करने का एक
बहुत ही साहसी
और फलदायी
प्रयास है.. .वह
एक साथ एक ध्यान
केन्द्र, उत्सव
का स्थान और
एक विराट
प्रयोगशाला
है, जहां
चेतना का
अन्वेषण करने
की नई तकनीकें
आविष्कृत की
जाती है।’’
तो कुल
मिलाकर इस सब
का अर्थ क्या
हुआ?
निश्चय
ही, संदर्भ
से बाहर लिये
जाने पर, सेक्स,
सम्मोहन, चीखने-चिल्लाने
के एनकाउंटर
ग्रुप और
अनिर्बंध
हषोंन्मादित
ध्यान, सब
पीली
पत्रकारिता
को पर्याप्त
गोला-बारूद देते
थे, जिससे
कि वे भगवान
और उनके आश्रम
पर यदि भयप्रद
नहीं तो कम से
कम
विवादास्पद
कहानियां गढ सकें।
लेकिन आश्रम
सचमुच किस तरह
का था?
जिन
लोगों ने
सिर्फ
अफवाहों का
पुनलेंखन
करके पन्ने भरने
के बजाय स्वयं
अन्वेषण करना
पसंद किया उन्होंने
आश्रर्यजनक
रूप से एक
आदर्श-लोक का
चित्र
प्रस्तुत
किया। बहुतों
ने, लेविन
की भांति, उन
लोगों को
देखकर आश्रम
का मूल्यांकन
किया जिन्होंने
अपने जीवन में
भगवान के साथ
रहने का चुनाव
किया था : ‘‘यदि
यह सच है, और
मैं नहीं देख
पाता कि कैसे
नहीं होगा, कि वृक्ष की
पहचान उसके
फलों से की
जानी चाहिए, तो भगवान
श्री रजनीश के
शिष्य-जिन्हें
वे नव-संन्यासी
कहते है-एक
असाधारण रूप
से उत्कृष्ट फसल
हैं, जो इस
बात की गवाह
है कि उसका
वृक्ष एक विरल
किस्म का
श्रेष्ठ
वृक्ष है।
रजनीश आश्रम
की सर्वप्रथम
गुणवत्ता जो
किसी भी
आगंतुक को
वहां दिखती
है-और वह
बार-बार दिखती
ही चली जाती
है-वह यह कि ये
लोग कितनी
सरलता और
निश्रितंता
से अपनी आस्था
का वरण किये
हुए है।
यद्यपि ये
अडिग रूप से
आश्वस्त है
(मुझे सिर्फ
एक व्यक्ति
मिला जिसके
भीतर
थोड़ा-बहुत संदेह
अवशिष्ट था)
कि रजनीश ने
इन्हें अपने
जीवन का अर्थ
खोज लेने और
अस्तित्व में
अपना स्थान
प्राप्त कर
लेने के योग्य
बनाया है, फिर
भी इनमें
धर्मांधता का
कोई लेश न था
और अधिकांश
लोगों में तो
उत्तप्त
धमोंत्साह तक
न था।’’
एलन
एटकिन्सन ने
इसी तरह के
मापदण्ड का
उपयोग किया : ‘‘पश्चिम
की
मनस्विकित्सा
विधियों के
साथ ध्यान को
जोड़कर
पूना-तकनीक का
विकास बेजोड़
लगता है-और
उससे यह सिद्ध
होता है कि
रजनीश के बारे
में कोई कुछ
भी क्यों न
सोचे, उनके
पास निश्रित
रूप से, कम
से कम, सभी
उम्र के और
जीवन के सभी
क्षेत्रों से
लोगों को आकर्षित
करने की एक
विशिष्ट
जन्मजात
प्रतिभा है।
रजनीश ने पूना
में जिस
प्रकार के
लोगों को आकर्षित
किया है उससे
पता चलता है
कि यह आश्रम आत्मिक
सांत्वना
देनेवाला
केवल एक और
स्थान होने
अथवा निराश
युवकों और
बढ़ती उम्र के
हिप्पियों का
आश्रय-स्थल
होने से कितनी
दूर लगता है।
रजनीश-आन्दोलन
के कुछ अत्यंत
निष्ठावान
शिष्य और
कार्यकर्ता
डाक्टर, शिक्षक
और भूतपूर्व
पुरोहित है।’’
जॉन फ्राय
ने लिखा कि : ‘‘संन्यासियों
का एक
असामान्य रूप
से बड़ा वर्ग ऐसा
है जो भगवान
का नाम तक
सुनने से पहले
सफल हो गये
लोगों में था।
वे
व्यावसायिक
रूप से, कलात्मक
रूप से और
शैक्षिक रूप
से सफल थे। वे
मंजिल पर
पहुंच चुके थे।’’
एटकिन्सन
द्वारा किये
गये वर्णन के
अनुसार आश्रम '' अतिशय
ऊर्जावान
(कर्मठ) और प्रमुदित
स्थान था जहां
दिन संगीत, नृत्य और
गायन से भरपूर
होते, साथ-साथ
विविध प्रकार
के कला-कौशलों
और हस्तकलाओं
से भी।’’ रोनाल्ड
कॉनवे ने लिखा
कि '' आश्रम
में तेईस
डॉक्टर थे, खासी अच्छी
संख्या में
दंत-चिकित्सक,
प्लम्बर, चित्रकार, सब किस्म के
मेकेनिक, बढ़ई,
मुद्रक, गृह-सज्जा
करने वाले, रसोइये-बुकबाइंडर,
दर्जी और साबुन
बनानेवाले तक।
आश्रम का अपना
निजी
सुसज्जित
अस्पताल था, अपनी
कार्यशालाएं
भोजनालय, डाकघर
और दुकान। जिस
देश में गंदगी
और संदूषण आम
हैं, वहां
आश्रम की सुविधाएं
अत्यंत
साफ-सुथरी थीं।
भारतीय
समाचार
पत्रों ने भी
आश्रम के
निवासियों के
संबंध में
अनुकूल रायें
दीं। 1981
के जून में 'डेली' ने
लिखा : ‘‘संन्यासी
विश्व भर के
प्रतिभाशाली
लोगों में से
थे। उनमें
रायल
ड्रामेटिक
अकादमी के
सदस्य थे, कला,
सिनेमा और
संगीत जगत के
अग्रणी लोग थे,
और अत्यंत
परिष्कृत
पश्चिम से आए
हुए कुछ
तंत्रविद भी
थे। पूना के
लोग कुछ भी
कहें, किंतु
रजनीश के
लोगों में एक
उत्कृष्टता
थी। वे अपने
अटपटे ढंग से
इस शहर में एक
जगमगाहट, एक
चमकदमक और एक
चारुता लाए।
रजनीश आश्रम
ने एक ही जगह
इतनी प्रतिभा
इकट्ठी कर दी
थी जितनी शायद
ही कोई संस्था
दावा कर सके।
रजनीश थिएटर
ग्रुप बम्बई
के रंगमंच पर
कुछ बेहतरीन अभिनय
कला ले आया।
उनके
संगीतकारों
को आधुनिक
पाश्रात्य
संगीत की अधिक
समझ थी, खास
कर जाज और सूज
की। कुछ और
सृजनात्मक
कलाओं के
क्षेत्र में
रजनीश आश्रम
के पास
सर्वश्रेष्ठ
उद्यान-वैज्ञानिक
और
हाइड्रोपोनिक-कृषि
के विशेषज्ञ
थे। आश्रम की
कार्यशालाओं
में साबुन और
प्रसाधन की
अन्य वस्तुएं
भी बनती थीं।’’
बर्नार्ड
लेविन ने
निष्कर्ष
प्रस्तुत
किया था : ‘‘कार्यशालाएं
विस्तीर्ण और
प्रभावशाली
हैं, ये
लोग कोई छींट
या लाइनोकट से
खिलवाड़ करने
में जूझ रहे
नौसिखिए नहीं
हैं, वरन्
सधे हुए
कारीगर हैं जो
फर्नीचर, धातुओं
के सामान, चांदी
के जड़ाऊ सामान,
स्कीन
प्रिंटिंग और
उस तरह की
अन्य वस्तुएं आंदित
कर रहे
हैं-उच्च कोटि
की। और खास
बात यह कि
लगभग इन सभी
ने बिना किसी
पूर्व-प्रशिक्षण
के इन कामों
को शुरू किया
था। उससे भी
आगे बढ़कर
दूसरी बात कि
स्पष्टत: वे
अपने काम करने
में प्रसन्न
है। आश्रम में
संन्यासियों
के अल्पकालीन
आवास को मैंने
हॉलीडे कहे
जाते सुना है
(कई लोग एकाध
महीने या ऐसे
ही कुछ के लिए
आते हैं और
बहुधा अपनी
वार्षिक
छुट्टियों का
इसके लिए
उपयोग करते
हैं), यदि
ऐसा ही है, तो
यह विलक्षण
चिकित्सामय
गुणवत्ताओं
से भरपूर
हॉलीडे है, क्योंकि मुझे
एक भी ऐसा
आदमी नहीं
मिला जिसने इस
अनुभव से
उपलब्धि की
गवाही न दी हो,
और ऐसा भी
आदमी नहीं
मिला जिस पर
इस उपलब्धि के
प्रगट लक्षण न
हों।
खतरनाक?
क्या
आप चाहेंगे कि
उतने सब के
लिए
जिम्मेवार व्यक्ति
आप के देश में
हो?
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