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मंगलवार, 10 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--07)

अनुभूति की महावीर-अभिव्यक्ति—(प्रवचन—सातवां)
त्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति कैसे मिले, यही बड़े से बड़ा सवाल महावीर के सामने इस जन्म में था। और यह सवाल इतना बड़ा न होता, क्योंकि महावीर पहले शिक्षक नहीं हैं, जिनके सामने अभिव्यक्ति की बात उठी हो। जिन्होंने भी सत्य को जाना है, उन सभी के सामने यही सवाल है। लेकिन महावीर के सामने सवाल कुछ और बहुत ही गहरे रूप में उपस्थित हुआ था, जैसा कभी नहीं हुआ था। और महावीर के व्यक्तित्व की विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने सत्य की जो अनुभूति हुई है, उसकी अभिव्यक्ति को जीवन के समस्त तलों पर प्रकट करने की कोशिश की है।
मनुष्य तक कुछ बात कहनी हो, कठिन तो बहुत है, लेकिन फिर भी बहुत कठिन नहीं है। लेकिन महावीर ने एक चेष्टा की जो अनूठी है और नई है। और वह चेष्टा यह है कि पौधे, पशु-पक्षी, देवी-देवता, सब तक--जीवन के जितने तल हैं, सब तक--उन्हें जो मिला है उसकी खबर पहुंच जाए!
फिर महावीर के बाद ऐसी कोशिश करने वाला, ठीक वैसी कोशिश करने वाला दूसरा आदमी नहीं हुआ। असीसी के संत फ्रांसिस ने थोड़ी सी कोशिश की है पक्षियों और पशुओं तक बात पहुंचाने की यूरोप में। और अभी-अभी श्री अरविंद ने बड़ी कोशिश की है पदार्थ तक, मैटर तक चेतना के स्पंदन पहुंचाने की। लेकिन महावीर जैसा प्रयास न तो पहले कभी हुआ था, न महावीर के बाद हुआ है।
तो वे जो बारह वर्ष आमतौर से सत्य की साधना के लिए समझे जाते हैं, वे सत्य की उपलब्धि जो हुई है उसकी अभिव्यक्ति के लिए साधन खोजने के वर्ष हैं। और इसीलिए ठीक बारह वर्षों बाद महावीर सारी साधना का त्याग कर देते हैं। नहीं तो साधना का कभी त्याग नहीं किया जा सकता। सत्य की उपलब्धि की जो साधना है, उसका तो कभी त्याग किया ही नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य की उपलब्धि की जो साधना है, वह ऐसी नहीं है कि सत्य उपलब्ध हो जाए तो व्यर्थ हो जाए।
जैसा मैंने सुबह कहा कि सत्य की उपलब्धि का मार्ग है: अमूर्च्छित चेतना, अप्रमाद, विवेक, जागरण, अवेयरनेस। तो ऐसा नहीं है कि जिसको सत्य उपलब्ध हो जाए वह अवेयरनेस, जागरण, अप्रमाद का त्याग कर दे। यह असंभव है। क्योंकि जो सत्य उपलब्ध होगा, उस सत्य की उपलब्धि में जागरण अनिवार्य हिस्सा होगा। यानी वह सत्य भी जागी हुई चेतना का एक रूप ही होगा। इसलिए फिर ऐसा नहीं है कि जागरण छोड़ दिया जाए।
साधना सिर्फ वही छोड़ी जा सकती है, जो परम उपलब्धि की तरफ न हो, बल्कि मीन्स की तरह, साधन की तरह उपयोग की गई हो। जैसे आप यहां एक बैलगाड़ी में बैठ कर आएं, तो यहां उतर कर बैलगाड़ी को छोड़ देंगे, क्योंकि बैलगाड़ी कहीं पहुंचाने का साधन थी, इसके बाद व्यर्थ हो जाती है।
जो साधन कहीं जाकर व्यर्थ हो जाते हैं, वे साध्य के हिस्से नहीं होते, इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन जो साधन अनिवार्यतः साध्य में विकसित होते हैं, वे कभी भी व्यर्थ नहीं होते हैं। विवेक कभी भी व्यर्थ नहीं होगा। सत्य की पूर्ण उपलब्धि पर विवेक व्यर्थ नहीं होगा, बल्कि विवेक पूर्ण होगा।
लेकिन महावीर बारह वर्ष की साधना के बाद सब छोड़ देते हैं! और यह भी उनके पीछे चलने वाले चिंतक कभी नहीं विचार कर पाए कि यह कैसी बात है! इसका कोई उत्तर भी नहीं दे पाए। न दे पाने का कारण था, क्योंकि वे समझ ही न सके कि यह केवल अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साधन खोजने का इंतजाम था, आयोजन था। वे माध्यम मिल गए हैं और आयोजन व्यर्थ हो गया है। यानी आयोजन शाश्वत नहीं था, सामयिक था, जरूरत का था, इससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं था।
क्या किया जीवन के समस्त तलों तक अपनी अनुभूति की प्रतिध्वनि, तरंग पैदा करने के लिए?
तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो अस्तित्व का मूक अंग है--जैसे पत्थर है, पौधा है, पक्षी हैं, पशु हैं। यह अस्तित्व का मूक अंग है। इसमें फर्क हैं, पत्थर में और पशु में बहुत। लेकिन यह एक विभाग है, जहां पशु और पत्थर के बीच का फासला है, लेकिन मूक है अंग। अगर इस मूक अंग से संबंधित होना हो किसी व्यक्ति को और अपने अनुभव को इस तक पहुंचाना हो, तो उसे परम जड़ अवस्था, परम मूक अवस्था में उतरना पड़ेगा, तभी उसका तालमेल, सामंजस्य इस लोक से हो सकेगा।
उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति वृक्ष के पास बैठ कर परिपूर्ण मूक हो जाए, ऐसा जैसे कि जड़ हो गया, जैसे कि अब उसका शरीर कोई जीवित वस्तु नहीं है, और चेतना उसकी परिपूर्ण शांत होती चली जाए और उस जगह पहुंच जाए जहां एक शब्द नहीं है, तो इस परिपूर्ण मूक अवस्था में वृक्ष से संवाद संभव है।
रामकृष्ण निरंतर ऐसी अवस्था में उतरते रहे, जिसे रामकृष्ण की मैं जड़ समाधि कहता हूं। जहां वे दिनों बीत जाते और बेहोश पड़े रहते। उस बेहोश अवस्था में वे चारों तरफ का जो बेहोश अस्तित्व का हिस्सा है, उससे संबंधित हो जाते।
एक दिन बहुत अदभुत घटना घटी। वे एक नाव से जा रहे हैं, नाव पर बैठे हैं, आंख उनकी बंद है और वे किस क्षण खो जाते हैं, कुछ पता नहीं। आंख बंद है और एकदम से वे चिल्लाए हैं कि मत मारो! मुझे क्यों मारते हो? मैंने क्या बिगाड़ा है? मुझे मारते क्यों हो?
चारों तरफ नाव पर बैठे उनके मित्र और भक्त हैरान हो गए हैं कि उन्हें कौन मार रहा है! और कोई उन्हें मारेगा कैसे! और मारने का कारण भी नहीं कुछ! और कोई मौजूद भी नहीं है! वे उन्हें हिलाते हैं और कहते हैं, क्या हुआ आपको? कहते हैं, कोई मुझे बहुत कोड़े मारता है। चादर उतारी है तो कोड़े के चिह्न हैं पीठ पर। तब तो और हैरानी हो गई! लोगों ने उनसे कहा, लेकिन हम सब मौजूद हैं, किसी ने आपको मारा नहीं! रामकृष्ण ने हाथ उठाया नदी के उस पार, कहा, देखते नहीं वे सब मिल कर मुझे मार रहे हैं।
एक आदमी को कुछ लोग मार रहे हैं। कोड़ों से मार रहे हैं। जब नाव उस तरफ लगी है तो जाकर हैरानी हुई है कि उस आदमी की पीठ पर, जहां कोड़ों के निशान हैं, वहीं रामकृष्ण की पीठ पर कोड़ों के निशान हैं।
यह कैसे संभव हुआ? यह किस अवस्था में संभव हुआ? और यह इतनी अभूतपूर्व घटना है और इतनी ज्यादा पुरानी भी नहीं और इतने आंखों देखे गवाह इसके थे। यह हुआ एक ऐसी चित्त की अवस्था में, जब मूक स्थिति में आस-पास के समस्त जगत से एक तादात्म्य हो जाता है।
और यह ध्यान रहे कि पूछा जा सकता है कि जिस आदमी को मारा गया था, उसी से तादात्म्य हुआ? जो मार रहे थे, उनसे नहीं? और वृक्ष थे, पौधे थे, सड़कों पर चलते लोग थे, नावों में बैठे लोग थे, उनसे नहीं?
तो भी थोड़ी समझने की बात है। आपके पैर में कांटा गड़ जाए तो आपकी चेतना का तादात्म्य कांटे के बिंदु से हो जाता है। सारे शरीर को भूल जाती है चेतना और जहां कांटा गड़ा है, वहीं चेतना खड़ी हो जाती है। पैर में कांटा नहीं गड़ा था तो आपको पैर का पता भी नहीं था। और पैर में कांटा गड़ा है तो अब शरीर में किसी हिस्से का पता नहीं है, बस उसी का पता रह गया है।
तो जब विराट तादात्म्य भी उपलब्ध होता है तो भी जहां दुख है, जहां गड?न है, जहां पीड़ा है, बस वहां तादात्म्य सबसे ज्यादा स्पष्ट और प्रखर हो जाता है।
महावीर ने इस दिशा में मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे गहरे प्रयोग किए हैं। और आप जान कर हैरान होंगे कि महावीर की अहिंसा की जो बात निकली है, वह अहिंसा की बात किसी तत्व-विचार से नहीं निकली है, और न वह अहिंसा की बात इस बात से निकली है कि अहिंसक जो होगा, वह मोक्ष जाएगा। वह अहिंसा की बात निकली है नीचे के जगत से तादात्म्य से। और उस तादात्म्य में जो पीड़ा उन्होंने अनुभव की है नीचे के जगत की, उस पीड़ा की वजह से अहिंसा उनके जीवन का परम तत्व बन गया।
इसमें दो बातें समझने जैसी हैं। आमतौर से यही समझा जाता है कि जो अहिंसक है, वह मोक्ष की साधना कर रहा है। अहिंसा से जीएगा तो मोक्ष जाएगा। लेकिन ऐसे लोग मोक्ष चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जीए हैं। न तो क्राइस्ट अहिंसक हैं, न रामकृष्ण, न मोहम्मद। ऐसे लोग मोक्ष चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जीए हैं।
इसलिए जिनको यह खयाल है कि अहिंसा से जीने से मोक्ष जाएंगे, वे महावीर को समझ नहीं पाए हैं। बात बिलकुल ही दूसरी है। महावीर ने नीचे के, मनुष्य से नीचे का जो मूक जगत है, उससे जो तादात्म्य किया है और उसकी जो पीड़ा अनुभव की है, वह पीड़ा इतनी सघन है कि अब उसे और पीड़ा देने की कल्पना भी असंभव है। उसे जरा सी भी पीड़ा पहुंचानी महावीर के लिए असंभव है। इतनी असंभव किसी के लिए भी नहीं रही कभी भी, जितनी महावीर के लिए असंभव हो गई। और यह जिस अनुभव से आया है वह अनुभव था उस जगत को अपने प्राणों में जो अनुभव हुआ है, उसे विस्तीर्ण करने का प्रयोग था।
इस प्रयोग में अहिंसा निर्मित होने में दो बातें बनीं। एक तो यह कि जो पीड़ा अनुभव की, जो सफरिंग उन्होंने अनुभव की नीचे के जगत की, वह इतनी ज्यादा है कि उसमें जरा भी कोई बढ़ती करे किसी भी कारण से तो असह्य है। और दूसरी बात उन्होंने यह अनुभव की कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाए तो नीचे के जगत से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। यानी हम तादात्म्य उसी से स्थापित कर सकते हैं, जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक-भाव, आक्रामक-भाव विलीन हो गया हो और प्रेम-भाव का उदय हो गया हो। तादात्म्य सिर्फ उसी से संभव है। तो अगर मूक जगत से तादात्म्य स्थापित करना है तो अहिंसा शर्त भी है, नहीं तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता।
जैसे मैंने संत फ्रांसिस का नाम लिया। इस आदमी ने पशुओं के साथ संबंध स्थापित करने में बेजोड़ काम किया है, अदभुत काम किया है। तो इस बात की आंखों देखी गवाहियां हैं कि अगर संत फ्रांसिस नदी के किनारे खड़ा हो जाता तो सारी मछलियां तट पर इकट्ठी हो जातीं, सारी नदी खाली हो जाती! तट पर फ्रांसिस का बैठना कि सारी मछलियां...और न केवल मछलियां इकट्ठी हो जातीं बल्कि छलांग लगातीं फ्रांसिस को देखने के लिए। जिस वृक्ष के नीचे बैठ जाता, उस जंगल के सारे पक्षी उस वृक्ष पर आ जाते। न केवल वृक्ष पर आ जाते, उसकी गोद में उतरने लगते, उसके सिर पर बैठ जाते, उसके कंधों को घेर लेते।
संत फ्रांसिस से जब भी किसी ने पूछा कि यह कैसे संभव है, तो उसने कहा, और कोई कारण नहीं है, वे भलीभांति जानते हैं कि मेरे द्वारा उनके लिए कोई भी नुकसान कभी नहीं पहुंच सकता।
और पक्षियों के पास एक इंटयूटिव फोर्स है, एक अंतःप्रज्ञा है, जो हमने बहुत पहले खो दी है। जान कर आप हैरान होंगे कि जापान में एक ऐसी चिड़िया है--साधारण चिड़िया है, जो गांव में आमतौर से होती है और दिन भर गांव में दिखाई पड़ती है--भूकंप आने के चौबीस घंटे पहले वह चिड़िया गांव छोड़ देती है! अभी हमने भूकंप की जांच-पड़ताल के जितने भी उपाय किए हैं, वे भी दो-ढाई घंटे से पहले खबर नहीं दे सकते, और वह खबर भी बहुत विश्वसनीय नहीं होती। लेकिन वह चिड़िया चौबीस घंटे पहले एकदम गांव छोड़ देती है! उस चिड़िया का गांव में न दिखाई पड़ना और पक्का है कि चौबीस घंटे के भीतर भूकंप आ जाएगा। बड़ी कठिनाई की बात रही कि वह चिड़िया कैसे जान पाती है! क्योंकि चिड़िया के पास जानने के कोई यंत्र नहीं हैं, कोई शास्त्र नहीं है, कोई विधि नहीं है।
ऊपर उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले सैकड़ों पक्षी हैं, जो प्रतिवर्ष सर्दी के दिनों में जब बर्फ पड़ेगी तो आकर यूरोप के समुद्र के तटों पर आएंगे। बर्फ जब पड़नी शुरू हो जाती है, तब अगर वे यात्रा शुरू करें तो उनका आना बहुत मुश्किल है, इसलिए बर्फ गिरने के महीने भर पहले वे पक्षी उड़ान शुरू कर देते हैं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वे जिस दिन उड़ान शुरू करते हैं, उसके ठीक एक महीने बाद बर्फ गिरनी शुरू होती है। फिर वे हजारों मील का फासला तय करके यूरोप के समुद्रत्तटों पर आते हैं। और बर्फ गिरनी बंद हो इसके महीने भर पहले, वे वापस यात्रा शुरू कर देते हैं! वे कभी नहीं भटकते हैं। यह हजारों मील के रास्ते पर वे कभी नहीं भटकते हैं! वे जहां से आते हैं, ठीक अपनी जगह वापस लौट जाते हैं!
पक्षियों के और पशुओं के जगत में जिन लोगों ने और प्रवेश किया है, वे बहुत हैरान हुए हैं कि उनके पास एक अंतःप्रज्ञा है, एक इंटयूशन है, जो बिना बुद्धि के उन्हें चीजों को साफ कर देती है। इसलिए वे मित्र के पास सुरक्षित हो जाते हैं और शत्रु के पास असुरक्षित हो जाते हैं--इसे कहने की जरूरत नहीं होती। यह जो हमारे हृदय में भाव की धारा उठती है, प्रेम की या घृणा की, उसके स्पंदन काफी हैं कि वे उन्हें स्पर्श कर लेते हैं और वे हमसे सचेत हो जाते हैं।
महावीर ने अहिंसा के तत्व पर जो इतना बल दिया है, उस बल का और कोई कारण नहीं है। एक तो कारण यह है कि नीचे के मूक जगत से पूर्ण अहिंसक वृत्ति के बिना संबंधित होना असंभव है। और दूसरा कारण यह है कि जब उससे संबंधित हो जाएं तो उस मूक जगत की इतनी पीड़ाओं का बोध होता है, इतनी अंतहीन अनंत पीड़ाएं हैं उसकी कि उसमें हम किसी भी भांति थोड़ा भार हलका कर सकें तो शुभ है। भार न बढ़े इसकी भावना भी पैदा हो जानी स्वाभाविक है।
बुद्ध भी इस बात को नहीं समझे। गौतम बुद्ध का भी सत्य के अनुभव को संवादित करने का जो प्रयोग है, वह मनुष्यों से ज्यादा गहराई पर नहीं गया। वह मनुष्य से ज्यादा गहराई पर नहीं गया। असल में सच बात यह है कि न जीसस ने, न बुद्ध ने, न जरथुस्त्र ने, न मोहम्मद ने, किसी ने भी मनुष्यत्तल से नीचे जो एक मूक जगत का फैलाव है, जहां से हम आ रहे हैं, जहां हम कभी थे, जिससे हम पार हो गए हैं...।
महावीर की दृष्टि यह है कि जहां हम कभी थे और जहां से हम पार हो गए हैं, उस जगत के प्रति भी हमारा एक अनिवार्य कर्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दें। और उसे खबर पहुंचा दें कि वह कैसे पार हो सकता है।
और मेरी समझ यह है कि महावीर ने जितने पशुओं और जितने पौधों की आत्माओं को विकसित किया है, उतना इस जगत में किसी दूसरे आदमी ने कभी नहीं किया है। यानी आज पृथ्वी पर जो मनुष्य हैं, उनमें से बहुत से मनुष्य सिर्फ इसलिए मनुष्य हैं कि उनकी पशुऱ्योनि में या उनकी पौधे की योनि में या उनके पत्थर होने में महावीर जैसे किसी व्यक्ति ने संदेश भेजे और उन्हें बुलावा भेज दिया था। इस बात की भी खोज-बीन की जा सकती है कि कितने लोगों को उस तरह की प्रेरणा उपलब्ध हुई और वे आगे आए।
यह इतना अदभुत कार्य है कि अकेले इस कार्य की वजह से महावीर मनुष्य के मनस और जीवन के मनस के बड़े से बड़े ज्ञाता बन जाते हैं। यानी अगर उन्होंने अकेले सिर्फ एक ही यह काम किया होता तो भी मनुष्य-जाति के मुक्तिदाताओं में, बल्कि जीवन-शक्ति के मुक्तिदाताओं में उनका स्मरण चिरस्मरणीय होगा--अगर इतना ही काम सिर्फ किया होता।
यह काम बड़ा कठिन है। क्योंकि नीचे के तल पर तादात्म्य स्थापित करना अत्यंत दुरूह बात है। उसके दो कारण हैं। हमसे जो ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना हमेशा सरल है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है उसके तादात्म्य से। जो हमसे ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना बहुत सरल है। यह कहना बहुत सरल है कि मैं परमात्मा हूं, लेकिन यह कहना बहुत कठिन है कि मैं पशु हूं।
चूंकि नीचे अहंकार को चोट लगती है, ऊपर अहंकार को तृप्ति मिलती है। ऊपर तादात्म्य स्थापित कर लेना इसलिए भी आसान है कि हम सब ऊपर जाना चाहते हैं, हमारी गहरी आकांक्षा ऊपर जाने की है। तो हमारे चित्त की ऊपर की तरफ उन्मुखता होती है, खुलाव होता है। जैसे नदी समुद्र की तरफ भाग रही है। समुद्र की तरफ भागना बहुत आसान है, क्योंकि ढाल उस तरफ है, उन्मुखता उस तरफ है। लेकिन कोई नदी, गंगा गंगोत्री की तरफ जाने का विचार करे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाए, क्योंकि वहां चढ़ाव है और वहां सागर भी नहीं है।
महावीर की यह चेष्टा कि पीछे के लोक, मनुष्य से पीछे की स्थितियों की तरफ लौटना और वहां जो जाना गया है, उसकी तरंगें पहुंचा देना, बड़ा कठिन है। एक तो पीछे का हमें कभी खयाल ही नहीं आता। ध्यान रहे, पीछे का हमें कभी खयाल नहीं आता। हमें सदा आगे का खयाल आता है। जो हम रह चुके हैं, वह हम भूल चुके होते हैं, उससे कोई संबंध भी नहीं रह जाता।
और भूलने का भी कारण है, क्योंकि जो अपमानजनक है, उसे हम स्मरण नहीं रखना चाहते हैं। असल में अतीत जन्मों को भूल जाने का जो कारण है गहरे से गहरा, वह यही है कि हम उन्हें स्मरण रखना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हम नीचे से, नीचे से आ रहे हैं, उसको हम भूल जाना चाहते हैं।
एक गरीब आदमी है, वह अमीर हो जाए। तो सबसे पहला काम अमीर होकर जो वह करना चाहता है, वह सब स्मृति के सब चिह्न मिटा देना चाहता है, जो उसकी गरीबी को कभी भी बता सकें कि यह कभी गरीब था। यहां तक कि गरीबी के दिनों में जिनसे उसकी दोस्ती थी, उनसे वह मिलने से कतराने लगता है, क्योंकि उनकी दोस्ती, उनकी पहचान सबको खबर देती है कि आदमी कभी गरीब था। वह अब नए संबंध बनाता है, नई दोस्तियां कायम करता है। वह नीचे को भूल जाता है।
तो जब अमीर आदमी गरीब मित्रों तक को छोड़ सकता है तो पीछे की पशुऱ्योनियां, पक्षियों की योनियां, पौधों की योनियां, पत्थरों की योनियां जो रही हों, उन्हें आकर भूल जाना चाहे, तो आश्चर्य नहीं। फिर उनसे तादात्म्य स्थापित करने की कौन फिक्र करे?
महावीर ने पहली बार चेष्टा की है। और चेष्टा की जो विधि है, उसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। अगर किसी भी व्यक्ति को पीछे की अविकसित स्थितियों से तादात्म्य बनाना है तो उसे अपनी चेतना को, अपने व्यक्तित्व को उन्हीं तलों पर लाना पड़ता है, जिन तलों पर वे चेतनाएं हैं। जिन तलों पर वे चेतनाएं हैं, उन्हीं तलों पर लाना पड़ता है।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि महावीर का चिह्न सिंह है। और उसका कारण शायद आपको कभी भी खयाल में नहीं आया होगा, और न आ सकता है। और उसका कुल कारण इतना है कि पिछली चेतनाओं से तादात्म्य स्थापित करने में महावीर को सबसे ज्यादा सरलता सिंह से तादात्म्य करने में मिली। कोई और कारण नहीं है। उनका व्यक्तित्व भी सिंह जैसा है। वे पिछले जन्मों में सिंह रह चुके हैं। और इसलिए लौट कर उससे तादात्म्य बनाना उनके लिए एकदम सरल हो गया। यानी सच तो ऐसा है कि जब उनका सिंह से तादात्म्य हुआ तो उन्होंने पूरी तरह जाना होगा कि मैं सिंह हूं। और यह उनका प्रतीक बन गया, चिह्न बन गया।
और उनके व्यक्तित्व में वे बातें भी हैं, जो सिंह में हों। सिंह के व्यक्तित्व की अपनी कुछ बातें हैं--जैसे झुंड में नहीं चलेगा, भीड़ में नहीं चलेगा; अकेला, एकदम अकेला खड़ा रहेगा। महावीर में वैसा गुण है। सिंह में जो आक्रमण है, जीत का, विजय का जो अदम्य भाव है, वह महावीर में है। सिंह में जैसा अभय, फियरलेसनेस है, वह महावीर की साधना का प्रथम सूत्र है। यह चिह्न आकस्मिक नहीं है।
कोई चिह्न कभी आकस्मिक नहीं है। उस चिह्न के पीछे बहुत साइकिक मामला है। पीछे जुंग ने बहुत काम किया इस संबंध में। और उसने आर्च टाइप खोज निकाले। और उसने इस बात की खोज की कि प्रत्येक व्यक्ति के मनस में कुछ चिह्न हैं, जो उस व्यक्तित्व के चिह्न हैं। और अगर उन चिह्नों को समझा जा सके तो हम उस व्यक्तित्व को उघाड़ने में बड़े सफल हो सकते हैं। यह जो महावीर के नीचे सिंह बना हुआ है, यह उस व्यक्तित्व की पहचान की कुंजी है।
पीछे उतर कर तादात्म्य स्थापित करना, चेतना को निरंतर-निरंतर शिथिल, शिथिल और शिथिल, और चेतना को उस स्थिति में ले आना है जहां चेतना में कोई गति नहीं रह जाती, जहां चेतना बिलकुल शिथिल, शांत और विराम को उपलब्ध हो जाती है, और शरीर बिलकुल जड़ अवस्था को। शरीर में कोई कंपन नहीं रह जाता और चेतना बिलकुल ही शिथिल, शून्य हो जाती है। शरीर जब जड़ हो और चेतना शिथिल, शून्य हो तब किसी भी वृक्ष, पशु, पौधे से तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है।
और एक मजे की बात है कि अगर वृक्षों से तादात्म्य स्थापित करना हो तो किसी खास वृक्ष से तादात्म्य स्थापित करने की जरूरत नहीं है। एक वृक्षों की पूरी जाति से एक साथ तादात्म्य स्थापित हो सकता है। क्योंकि वृक्षों के पास व्यक्तित्व अभी पैदा नहीं हुआ, अभी इंडिविजुअलटी पैदा नहीं हुई, अभी वे स्पेसीज की तरह जीते हैं।
यानी जैसे कि गुलाब के पौधे से तादात्म्य स्थापित करने का मतलब है, समस्त गुलाबों से तादात्म्य स्थापित हो जाना। क्योंकि किसी पौधे के पास अभी व्यक्ति का भाव नहीं है, अभी अहंकार और अस्मिता नहीं है।
लेकिन मनुष्यों से अगर तादात्म्य स्थापित करना हो तो बहुत कठिन बात है। हां, आदिवासी जातियों से इकट्ठा तादात्म्य स्थापित अभी भी हो सकता है। क्योंकि वे कबीले की तरह जीते हैं। उनका कोई व्यक्ति नहीं है, एक-एक व्यक्ति नहीं है। लेकिन जितना सभ्य समाज होगा, जितना सुसंस्कृत होगा, उतना मुश्किल हो जाएगा।
जैसे अगर बर्ट्रेंड रसेल से तादात्म्य स्थापित करना हो तो वह सीधा एक व्यक्ति से तादात्म्य स्थापित करना है। अंग्रेज जाति से तादात्म्य स्थापित करने में और किसी से भी तादात्म्य स्थापित हो जाए, बर्ट्रेंड रसेल छूट जाएगा बाहर। उसके पास अपना व्यक्तित्व है।
जितने नीचे हम उतरते हैं, उतना व्यक्तित्व नहीं है, इसलिए एक अर्थ में तादात्म्य पूरी जाति से होता है। और यह जो तादात्म्य है, इस तादात्म्य की स्थिति में जो भी भाव संकल्प किया जाए, वह प्रतिध्वनित होकर उन सारे लोगों तक व्याप्त हो जाता है। जैसे गुलाब के पौधों की जाति से तादात्म्य, आइडेंटिटी स्थापित की गई हो तो उस क्षण में जो भी भावत्तरंग पैदा की जाए, वह समस्त गुलाबों तक संक्रमित हो जाती है।
ऐसी अवस्था में महावीर ने बहुत समय गुजारा। और ऐसी अवस्था को उपलब्ध करने में उन्हें बहुत सी बातें करनी पड़ीं, जो कि पीछे समझाने वालों को बहुत मुश्किल होती चली गईं। जैसे महावीर खड़े हैं और कोई उनके कानों में खीले ठोंक दे, तो महावीर को पता नहीं चलता। पता न चलने का कारण यह है कि जैसे हम पत्थर में खीला ठोंक दें, तो पत्थर को पता चलता है? पत्थर को पता नहीं चलता। क्योंकि चेतना उस जगह है, जहां ऐसी चीजें पता नहीं चलतीं। सब करीब-करीब अचेतन है।
तो महावीर के कान में जब खीले ठोंके जा रहे हैं तो उनको पता नहीं चलता। पता न चलने का कारण यह है कि उस समय वे वैसी चीजों से तादात्म्य कर रहे हैं, जिनको पता नहीं चल सकता खीले ठोंके जाने से।
आप मेरा मतलब समझ रहे हैं? जिस प्राणी-जगत से वे संबंध स्थापित किए हुए खड़े हैं, उस प्राणी को कान में खीला ठोंके जाने से पता नहीं चलेगा, इसलिए महावीर को भी अभी पता नहीं चल सकता है। अगर महावीर का कोई इस वक्त हाथ भी काट लेगा तो उन्हें पता नहीं चलेगा, जैसे कोई वृक्ष की एक शाखा को काट ले। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका तादात्म्य क्या है।
हम सब जानते हैं कि लोग अंगारों पर कूद सकते हैं। तादात्म्य किससे है, इस पर सब बात निर्भर करती है। अगर उस व्यक्ति ने किसी देवता से तादात्म्य किया हुआ है, तो वह अंगारे पर कूद जाए, जलेगा नहीं; क्योंकि वह देवता नहीं जल सकता है। जो सीक्रेट है, वह कुल इतना है, वह आदमी तो फौरन जल जाएगा, लेकिन अगर उसने अपना तादात्म्य किसी देवता से किया हुआ है, उसके साथ अपने को एक मान लिया है और उसकी धुन में नाचता हुआ चला जा रहा है, तो उसके नीचे अंगारों के ढेर लगा देने पर भी उसके पांव पर फफोला भी नहीं आएगा। क्योंकि जिससे उसका तादात्म्य है, चेतना उस वक्त वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर देती है।
हमारे तादात्म्य पर निर्भर करता है कि हम कैसा व्यवहार करेंगे। ये जो हम मनुष्य हैं अभी, यह भी गहरे में हमारा तादात्म्य ही है। इसलिए मनुष्य को कैसे व्यवहार करना चाहिए, वैसा हम व्यवहार करते हैं। गहरे में यह भी हमारी मनोभूमि की पकड़ है कि मैं मनुष्य हूं, तो फिर हम मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहे हैं।
इस संबंध में बहुत सी घटनाएं खयाल में मुझे आती हैं। महावीर के तो जीवन में बहुत जगह हैं जहां समझना मुश्किल हो जाता है। नहीं समझने की वजह से हम कहते हैं आदमी क्षमावान है, अक्रोधी है, क्रोध नहीं करता, क्षमा...। यह सब ठीक है--क्रोध न करे, क्षमा करे। लेकिन कान में खीला ठुंके और पता न चले, यह अकेले अक्रोधी और क्षमावान को नहीं होने वाला है। कितना ही अक्रोधी हो, अक्रोध अलग बात है, लेकिन कान में खीला ठुंके और पता न चले, यह बिलकुल अलग बात है। यह तभी हो सकता है जब महावीर बिलकुल चट्टान की तरह हों उस हालत में।
सुकरात एक रात खो गया। घर के लोग रात भर परेशान रहे। सुबह मित्र खोजने निकले। तो वह एक वृक्ष के नीचे, जहां बर्फ पड़ी है, सब बर्फ से ढंका हुआ है--उसके घुटने-घुटने तक बर्फ में डूबा हुआ है! वह वृक्ष से टिका हुआ खड़ा है! उसकी आंखें बंद हैं! और वह बिलकुल ठंडा है, सिर्फ धीमी सी सांस चल रही है!
तो उसे हिलाया है। बामुश्किल वह होश में आया है। उसके हाथ-पैर पर मालिश की है। उसे गर्म किया है। कपड़े पहनाए हैं। फिर जब वह थोड़ा होश में आया है, उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे थे?
उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई। रात जब मैं खड़ा हुआ तो सामने कुछ तारे थे, मैं उनको देख रहा था। और कब मेरा तारों से तादात्म्य हो गया, मुझे याद नहीं। और कब मैंने ऐसा जाना कि मैं तारा हूं, मुझे कुछ पता नहीं। और तारे तो ठंडे होते ही हैं, इसलिए मैं ठंडा होता चला गया। और चूंकि मैं तारा समझ रहा था अपने को, इसलिए कोई बात ही नहीं उठी। घर लौटने का सवाल नहीं था। वह तो तुमने जब मुझे हिलाया है, तब मैं जैसे एक दूसरे लोक से वापस लौटा हूं।
हम जहां तादात्म्य कर लेते हैं, वही हो जाते हैं। तादात्म्य की कला बड़ी अदभुत बात है। और जरा सी चूक हो जाए तादात्म्य में तो सब गड़बड़ हो जाए।
महावीर पहला जो अभिव्यक्ति का उपाय खोज रहे हैं, वह है भूत, जड़, मूक जगत; उस सब में तरंगें पहुंचाने का। और ये तरंगें अब तो वैज्ञानिक ढंग से भी अनुभव की जा सकती हैं।
तीर्थ और मंदिर जिस दिन पहली बार खड़े हुए, उनके खड़े होने का कारण बहुत ही अदभुत था, वह यही था। अगर महावीर जैसा व्यक्ति इस कमरे में रह जाए कुछ दिन तो इस कमरे से उसका तादात्म्य हो जाता है। और इस कमरे के रग-रग पर, कण-कण पर उसकी तरंगें अंकित हो जाती हैं। फिर इस कमरे में बैठना किसी दूसरे के लिए बड़ा सार्थक हो सकता है, बड़ा सहयोगी हो सकता है।
इस कमरे में अगर एक आदमी ने किसी की हत्या कर दी हो या आत्महत्या कर ली हो, तो आत्महत्या के क्षण में इतनी तीव्र तरंगों का विस्फोट होता है--क्योंकि आदमी मरता है, टूटता है--इतनी तीव्र तरंगों का विस्फोट होता है कि सैकड़ों वर्षों तक इस कमरे की दीवाल पर उसकी प्रतिध्वनियां अंकित रह जाती हैं।
और यह हो सकता है, एक रात आप इस कमरे में आकर सोएं और रात आप एक सपना देखें आत्महत्या करने का। वह आपका सपना नहीं है। वह सपना सिर्फ इस कमरे की प्रतिध्वनियों का आपके चित्त पर प्रभाव है। और यह भी हो सकता है कि इस कमरे में रहने से आप किसी दिन आत्महत्या कर गुजरें। यह भी बहुत कठिन नहीं है।
तो इससे उलटा भी हो सकता है कि अगर महावीर या मीरा जैसा कोई व्यक्ति इस कमरे में बैठ कर एक तरंगों में जीया हो तो यह कमरा उसकी तरंगों से भर जाएगा। इसके कण-कण में...क्योंकि उधर जो कण दिखाई पड़ रहा है हमें मिट्टी का और इधर जो हममें कण है, उनमें कोई बुनियादी भेद नहीं है। वे सब एक से ही विद्युत के कण हैं। और सब विद्युत के कण तरंगों को पकड़ सकते हैं और तरंगों को दे सकते हैं। कमजोर आदमी को वे तरंगें दे देते हैं और शक्तिशाली आदमी से उनको तरंगें लेनी पड़ती हैं।
मैंने परसों बोधिवृक्ष की बात की थी। इस वृक्ष को इतना आदर देने का और तो कोई भी कारण नहीं है। वृक्ष ही है, बुद्ध उसके नीचे बैठ कर अगर निर्वाण को भी उपलब्ध हुए तो क्या मतलब है? लेकिन मतलब है। मतलब निश्चित है। इस वृक्ष के नीचे निर्वाण की घटना घटी, तो उस क्षण में इतनी तरंगें बुद्ध के चारों तरफ विस्फोट की तरह फैली हैं कि यह वृक्ष उसका सबसे बड़ा गवाह है। और इस वृक्ष के कण-कण में उसकी तरंगों का अंकन है। और आज भी जो उसकी सीक्रेट साइंस जानता है, वह उस वृक्ष के नीचे बैठ कर आज भी उन तरंगों को वापस अपने में बुला ले सकता है।
तो आकस्मिक नहीं था कि हजार-हजार, दो-दो हजार, तीनत्तीन हजार मील का बौद्ध भिक्षु चक्कर लगा कर उस वृक्ष के पास, दो क्षण उस वृक्ष के पैरों में पड़े रहने को आते रहे। आकस्मिक नहीं है। पीछे तो सारी की सारी विज्ञान की बात है। सम्मेद शिखर है या गिरनार है या काबा है या काशी है या जेरुसलम है--उन सबके साथ कुछ संकेत और कुछ गहरी लिपियों में कुछ खुदा हुआ है उनकी तरंगों में।
धीरे-धीरे नष्ट हुआ है। धीरे-धीरे नष्ट हुआ है। करीब-करीब इस समय पृथ्वी पर कोई भी जीवित तीर्थ नहीं है--जीवित तीर्थ! सब तीर्थ मर गए हैं। क्योंकि उनकी सब तरंगें नष्ट हो गई हैं या इतनी तरंगों का उनके ऊपर और आघात हो गया है, इतने लोगों के आने-जाने का, कि वे करीब-करीब कट गई हैं और समाप्त हो गई हैं। लेकिन इस बात में तो अर्थ था ही, इस बात में तो अर्थ है ही। जड़ से जड़ वस्तु पर भी तरंगें क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।
अभी एक नवीनतम प्रयोग बहुत हैरानी का है। वह प्रयोग यह है कि जैसे-जैसे हम अणु को तोड़ कर और परमाणुओं को तोड़ कर इलेक्ट्रांस की दुनिया में पहुंचे हैं, तो वहां जाकर एक नया अनुभव आया है, जो बहुत घबड़ाने वाला है और जिसने विज्ञान की सारी व्यवस्था उलट दी है।
वह अनुभव यह है कि अगर इलेक्ट्रांस को बहुत खुर्दबीनों से आब्जर्व किया जाए, निरीक्षण किया जाए, तो जैसा वह अनिरीक्षित व्यवहार करता है, निरीक्षण करने पर उसका व्यवहार बदल जाता है, वह वैसा व्यवहार नहीं करता! कोई उसे नहीं देख रहा है तो वह एक ढंग से गति करता है और खुर्दबीन से देखने पर वह डगमगा जाता है और गति बदल देता है!
अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि पदार्थ का अंतिम अणु भी मनुष्य की आंख और आब्जर्वेशन से प्रभावित होता है। ऐसे ही जैसे आप अकेले सड़क पर चले जा रहे हैं, कोई नहीं है सड़क पर, फिर अचानक किसी खिड़की में से कोई झांकता है और आप बदल गए। आप दूसरी तरह चलने लगे। अभी जिस शान से आप चल रहे थे, वैसा नहीं चल रहे हैं। अभी गुनगुना रहे थे, गुनगुनाना बंद हो गया।
अपने बाथरूम में आप स्नान कर रहे हैं। गुनगुना रहे हैं या नाच रहे हैं या आईने के सामने मुंह बना रहे हैं। और अचानक आपको पता चले कि बगल के छेद से कोई झांकता है, आप दूसरे आदमी हो गए।
लेकिन आब्जर्वेशन आदमी को फर्क ला दे, यह समझ में आता है; लेकिन अणु भी, परमाणु भी निरीक्षण से डगमगा जाएं, तो बड़ी हैरानी की बात है। और इस बात की खबर देते हैं कि हम कुछ गलती में हैं। वहां भी प्राण, वहां भी आत्मा, वहां भी देखने से भयभीत होने वाला, देखने से सचेत हो जाने वाला, देखने से बदलने वाला मौजूद है।
इन परमाणुओं तक भी महावीर ने खबर पहुंचाने की कोशिश की है। इस खबर पहुंचाने के लिए ही जैसा मैंने कहा, पहले तो वे अनेक बार ऐसी अवस्थाओं में पाए गए, जहां हम कहेंगे कि वे जीवित हैं या मृत हैं, कहना मुश्किल है। और ये अवस्थाएं लाने के लिए उन्हें कुछ और प्रयोग करने पड़े, वे भी हमें समझ लेने चाहिए।
महावीर का चार-चार महीने तक, पांच-पांच महीने तक भूखा रह जाना बड़ा असाधारण है। कुछ न खाना और शरीर को कोई क्षीणता न हो, शरीर को कोई नुकसान न पहुंचे, शरीर वैसा का वैसा ही बना रहे!
शायद ही आपने कभी सोचा हो या जो जैन मुनि और साधु-संन्यासी निरंतर उपवास की बात करते हैं, उनमें से--ढाई हजार वर्ष होते हैं महावीर को हुए--एक भी यह नहीं बता सकता कि तुम चार महीने, पांच महीने का उपवास करो तो तुम्हारी क्या गति होगी! यह महावीर को क्यों नहीं हो रहा है ऐसा? चार-चार, पांच-पांच महीने तक यह आदमी नहीं खा रहा है, बारह वर्ष में मुश्किल से जोड़त्तोड़ कर एकाध वर्ष भोजन किया है न! यानी बारह दिन के बाद एक दिन तो निश्चित ही, कभी दो दिन, कभी दो महीने बाद, कभी-कभी--इस तरह चलाया है।
लेकिन इसके शरीर को कोई क्षीणता उपलब्ध नहीं हुई है। इसका शरीर परिपूर्ण स्वस्थ है--असाधारण रूप से स्वस्थ है, असाधारण रूप से सुंदर है। क्या कारण है?
अब मेरी अपनी जो दृष्टि है, जैसा मैं देख पाता हूं, वह यह है कि जो व्यक्ति नीचे के तल पर पदार्थ के परमाणुओं, पौधों के परमाणुओं, पक्षियों के परमाणुओं को इतना बड़ा दान दे रहा है, अगर ये परमाणु उसे प्रत्युत्तर देते हों तो आश्चर्य नहीं। यह प्रत्युत्तर है। यह परमाणु जगत का प्रत्युत्तर है। जो आदमी पास में पड़े हुए पत्थर की आत्मा को भी जगाने का उपाय कर रहा हो, जो पास में लगे वृक्ष की चेतना को भी जगाने के लिए कंपन भेज रहा हो, अगर ऐसे व्यक्ति को सारे पदार्थ-जगत से प्रत्युत्तर में बहुत सी शक्तियां मिलती हों तो आश्चर्यजनक नहीं है। और उसे वे शक्तियां मिल रही हैं।
आखिर वृक्ष को हम भोजन बना कर लेते हैं। काटते हैं, पीटते हैं, आग पर पकाते हैं। फिर वह जो वृक्ष है, वह जो वृक्ष का पत्ता है या फल है, इस योग्य होता है कि हम उसे पचा सकें और वह हमारा खून और हड्डी बन जाए। बनता तो वृक्ष ही है। और वृक्ष क्या है? मिट्टी ही है। और मिट्टी क्या है? सूरज की किरणें ही हैं। वे सब चीजें मिल कर एक फल में आती हैं, फल हम लेते हैं, हमारे शरीर में पचता है और पहुंच जाता है।
आज नहीं कल विज्ञान इस बात को खोज लेगा कि जो किरणों को पीकर वृक्ष का फल डी विटामिन लेता है, क्या जरूरत है कि इतनी लंबी यात्रा की जाए कि हम फल को लें और फिर डी विटामिन हमें मिले। सूरज की किरण से सीधा क्यों न मिले! या सूरज की किरण को हम एक छोटे कैप्सूल में क्यों न बंद करें और वह आदमी को दे दें। ताकि वह पचास फल खाने में जितना डी विटामिन इकट्ठा कर पाए, एक कैप्सूल उसको पहुंचा दे।
आज नहीं कल विज्ञान उस दिशा में गति करता है। लेकिन विज्ञान की गति और तरह की है, वह छीन-झपट की है। वह छीन-झपट की है। महावीर की भी एक तरह की गति है। और वह गति भी किसी दिन खुल जाएगी। वह गति भी किसी दिन स्पष्ट हो सकेगी कि क्या यह संभव नहीं है--आखिर पानी ही तो हमें बचाता है, हवा बचाती है, सूरज बचाता है, यही सब तो हमारा भोजन बनते हैं--क्या यह संभव नहीं है कि बहुत गहरे प्रतिदान में जो आदमी इन सबके लिए एकात्म साध रहा हो, उसको इनसे भी प्रत्युत्तर में कुछ मिलता हो, जो हमें कभी नहीं मिलता, या मिलता है तो बहुत श्रम से मिलता है!
इस तरह की दो घटनाएं और घटी हैं। अभी यूरोप में एक औरत जिंदा है, जिसने तीस साल से भोजन नहीं किया है! और वह परिपूर्ण स्वस्थ है! और मजे की बात यह है कि वह वैसी ही सुंदर है और वैसी ही स्वस्थ है, जैसे महावीर रहे होंगे! और तीस साल से उसने कुछ भी नहीं लिया, उसके शरीर में नहीं गया। उसके सब एक्स-रे हो चुके हैं, सब जांच-पड़ताल हो चुकी है, उसका पेट सदा से खाली है। तीस साल से उसने कुछ भी नहीं लिया। लेकिन उसका एक छटांक भर वजन भी नहीं गिरता है नीचे! वह परिपूर्ण स्वस्थ है! न केवल वजन नहीं गिरता है बल्कि एक और अदभुत घटना है, जो उसके साथ चलती है।
ईसाइयों में, ईसाई फकीरों में एक तादात्म्य का प्रयोग है, जो स्टिगमेटा कहलाता है। जैसे जीसस को जिस दिन सूली लगी, शुक्रवार के दिन, तो उनके दोनों हाथों पर खीले ठोंके गए। तो जो ईसाई फकीर, जो ईसाई साधक जीसस से तादात्म्य कर लेते हैं, शुक्रवार के दिन वे ऐसा हाथ फैला कर बैठ जाते हैं, और हजारों लोगों के सामने उनके हाथों में अचानक छेद हो जाते हैं और खून बहने लगता है। वह जीसस से तादात्म्य के आधार पर। यानी उस क्षण में वे भूल गए हैं कि मैं हूं, वे जीसस हैं। शुक्रवार का दिन आ गया, और सूली पर वे लटका दिए गए, उनके हाथ फैल जाते हैं। हजारों लोग देख रहे हैं, उनकी गद्दी फटती है और खून बहना शुरू हो जाता है।
इस औरत को, तीस साल से खाना तो लिया नहीं है इसने और तीस साल से प्रति शुक्रवार को सेरों खून इसके हाथ से बह रहा है! दूसरे दिन हाथ ठीक हो जाता है और सब घाव विलीन हो जाते हैं! और उसके वजन में कमी नहीं आती! तो पश्चिम में घटना घटे तो वहां तो बहुत वैज्ञानिक चिंतन चलता है किसी बात पर--बहुत चिंतन, लेकिन उनकी पकड़ में अब तक नहीं आ सका कि बात क्या हो सकती है।
बंगाल में एक औरत थी, उसे मरे कुछ दिन हुए हैं। वह कोई चालीस वर्ष, पैंतालीस वर्ष तक उसने कोई भोजन नहीं किया। बहुत स्वस्थ वह नहीं थी, पर साधारण स्वस्थ थी। पैंतालीस वर्ष भोजन न करने से कोई असुविधा नहीं आ गई थी। चलती-फिरती थी, बूढ़ी औरत थी, सब ठीक था।
उसका पति जिस दिन मरा, उस दिन उसने भोजन नहीं लिया। और घर के लोगों ने कहा, समझाया-बुझाया, भोजन ले लो। उसने कहा, मैं पति के मरने के बाद भोजन कैसे ले सकती हूं! तो घर के लोगों ने और मित्रों ने भी कहा कि ठीक है, एक-दो दिन रहने दो। ठीक भी कहती है, वह कैसे ले सकती है! दो दिन बीत गए, तब फिर लोगों ने कहा। तो उसने कहा कि अब तो पति के मरने के बाद ही सब दिन हैं। यानी अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक दिन कि दो दिन कि तीन दिन, अब तो बाद में ही सब हैं। और जब उस दिन राजी हो गए थे तो अब तुम राजी ही रहो। अब बाद में मैं कैसे भोजन ले सकती हूं? अब बात खतम हो गई है।
वह पैंतालीस साल जिंदा रही। उसने कोई भोजन नहीं लिया। लेकिन वैज्ञानिक उसकी भी चिंतना करते रहे, विचार करते रहे, उनको साफ नहीं हो सका कि बात क्या है।
मेरी अपनी समझ यह है, और महावीर से ही वह समझ मेरे खयाल में आती है...।

प्रश्न:

जोधपुर के पास ऐसी ही एक औरत है।

हां, हो सकती है। हो सकती है, कोई कठिनाई नहीं है। सिर्फ सीक्रेट हमारे खयाल में नहीं है। किसी न किसी तरह से परमाणुओं का जगत, सूक्ष्म जगत, सीधा भोजन देता हो, इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं है। वह कैसे देता हो, किस ढंग से देता हो, वे दूसरी बातें हैं। लेकिन सूक्ष्म जगत से सीधा भोजन मिलता हो, और बीच में माध्यम न बनाना पड़ता हो।
महावीर को ऐसा भोजन मिला है। और इसलिए महावीर के पीछे जो भूखे मर रहे हैं, वे बिलकुल पागल हैं। वे निपट शरीर को गला रहे हैं और नासमझी कर रहे हैं। इसलिए महावीर के उपवास को मैं कहता हूं, वह उपवास है, और बाकी जो पीछे लोग अनशन कर रहे हैं, वह सिर्फ मांसाहार है--अपना ही मांस पचा जाते हैं। एक दिन के उपवास में एक पौंड मांस पच जाता है।
तो चाहे हम दूसरे का मांस खाएं कि अपना खाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मांसाहार ही है। क्योंकि शरीर की जरूरत है उतने की। उतनी कैलरी चाहिए, उतनी गर्मी चाहिए, उतनी शक्ति चाहिए, वह शरीर लेगा। अगर आप बाहर से नहीं देते हैं तो वह शरीर से ही पचा लेगा। तो उतनी चर्बी पचा जाएगा। उस पचाने में आप उपवास समझेंगे। वह उपवास नहीं है।
शरीर में कोई फर्क न आए, शरीर जैसा था वैसा रहे, तब तो जानना चाहिए कि भोजन के सूक्ष्म मार्ग उपलब्ध हो गए हैं। सिर्फ भोजन बंद नहीं किया गया है, भोजन के अति सूक्ष्म मार्ग उपलब्ध हो गए हैं।
और महावीर जो तीन-चार महीने के बाद एकाध दिन भोजन लेते हैं, वह इसलिए नहीं लेते हैं कि एक दिन के भोजन लेने से कोई फर्क पड़ जाएगा। क्योंकि जब चार महीने भोजन के बिना एक आदमी रह सकता है, तो आठ महीने क्यों नहीं? वह भोजन लेना सिर्फ इस बात को छिपाने के लिए है कि जो हो गया है, उसकी बात न करनी पड़े। वह निपट धोखा है। निपट धोखा है वह। वह सिर्फ इस सीक्रेट को छिपाने के लिए है कि अगर साल, दो साल भूखा रह जाए आदमी, तो लोग पूछेंगे यह हुआ कैसे!
और यह हर किसी को बताना खतरनाक भी हो सकता है। सभी बातें सभी को बताने के लिए नहीं भी हैं। सभी बातें सभी को बताने के लिए नहीं भी हैं--यह ध्यान में रखना चाहिए। इसलिए जो बातें भी मैं कह रहा हूं, उनमें कुछ सूत्र छोड़े जा रहा हूं। इसलिए उनका कभी प्रयोग नहीं किया जा सकता। आप उनका प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
वह सिर्फ इसलिए कि लोगों को यह सांत्वना रहे कि ठीक है, वे खाना ले लेते हैं। और एक दिन खाना ले लेते हैं दो-चार महीने में, बात खतम हो जाती है।
महावीर पाखाना नहीं जाते, पेशाब नहीं जाते। बड़ी चिंतना की बात रही है कि यह कैसे हो सकता है! महावीर को पसीना नहीं बहता। यह कैसे हो सकता है?
अगर भोजन लेंगे तो यह सब होगा, क्योंकि यह भोजन से जुड़ा हुआ हिस्सा है। अगर आप भीतर डालेंगे तो बाहर निकालना पड़ेगा। लेकिन अगर सूक्ष्मता से भोजन मिलने लगे तो इसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता। निकालने को कुछ है ही नहीं। इतना सूक्ष्म है भोजन कि निकालने लायक कुछ भी उसमें से बचता नहीं है। वह सीधा विलीन हो जाता है।
तो महावीर की अहिंसा को भी इस तरफ से समझने की कोशिश करनी जरूरी है, और तरफ से भी हम समझने की कोशिश करेंगे। महावीर के लंबे उपवास समझ लेने जरूरी हैं कि वह सूक्ष्म भोजन प्राप्त करने की प्रक्रिया उन्हें उपलब्ध है।
काशी में एक संन्यासी था, विशुद्धानंद। और उसने एक अत्यंत प्राचीन विज्ञान को, जो एकदम खो गया था, फिर से पुनरुज्जीवित कर लिया था--वह है सूर्य-किरण विज्ञान। उस आदमी ने इस तरह के लेंस बनाए थे कि एक मरी हुई चिड़िया को ले जाकर आप रख दें, वह उस लेंस से सूरज की किरणों को पकड़ेगा और उस चिड़िया पर डालेगा, थोड़ी देर कुछ करता रहेगा बैठा हुआ और आपके सामने चिड़िया तड़फड़ाएगी और जिंदा हो जाएगी!
और ये प्रयोग पश्चिम के डाक्टरों के सामने भी किए गए और यूरोप से आने वाले ना-मालूम कितने लोगों ने ये प्रयोग अपनी आंख के सामने देखे। जिंदा चिड़िया को बिठाल दें, वह फिर लेंस को रखेगा, फिर कुछ और ढंग से किरणें डालेगा, और कुछ करेगा और चिड़िया मर जाएगी!
उसका कहना था कि सूर्य की किरण से सीधा जीवन और मृत्यु आ सकती हैं, बीच में कुछ और लेने की जरूरत नहीं। सीधा जीवन आ सकता है, सीधी मृत्यु आ सकती है।
और बात में गहरी सच्चाइयां हैं। सारा जीवन जो हमें पृथ्वी पर दिखाई पड़ रहा है, वह सूरज की किरण से बंधा हुआ है। सूरज अस्त हो जाए, सारा जीवन अभी अस्त हो जाएगा। न पौधे होंगे, न फूल होंगे, न पक्षी होंगे, न आदमी होगा--कोई भी नहीं होगा। प्राणी हो सकते हैं, सूरज न हो तब भी, लेकिन देह नहीं होगी। देह और प्राण का संबंध सूरज की किरण से ही जुड़ा है। अदेही हो सकेंगे, देहहीन हो सकेंगे, लेकिन देह नहीं होगी।
और अभी चांद से लौटते वक्त जो एक घटना घटी है, वह विचारणीय है--बहुत ज्यादा विचारणीय है। चांद से वे लौट आए हैं और चांद पर कोई नहीं पाया गया है। कोई पाने को है भी नहीं ऐसे। लेकिन लौटते वक्त उनके नीचे के जो ट्रांसमीटर्स हैं और जो रेडियो स्टेशंस हैं, जहां वे पकड़ रहे हैं, वहां इतने जोर की चीख-पुकार, इतना कोलाहल, इतना रोना, इतना हंसना सुना गया है कि जैसे करोड़-करोड़ भूत-प्रेत एकदम से चिल्ला रहे हों! ये तीन आदमी अगर कोशिश भी करें चिल्लाने की, रोने की, तो भी कोई स्थिति में ये करोड़-करोड़ भूत-प्रेतों की आवाजों का भ्रम पैदा नहीं कर सकते। और उनसे लौटने पर पूछा गया तो उन्होंने कहा, हमें तो कुछ भी पता नहीं! हम तो विश्राम करते चले आ रहे हैं!
यह इस बात की गहरी सूचना है और खबर है कि चांद पर कोई देहधारी तो नहीं है, क्योंकि चांद पर अभी वह स्थिति नहीं पैदा हुई, जहां देह प्रकट हो सके, लेकिन चांद पर अदेही आत्माओं की पूरी उपस्थिति है।
सूर्य की किरणों ने यहां देह और प्राण को जोड़ने में बड़ा उपाय किया है। तो सूर्य की किरणों से सीधा भी कुछ हो ही सकता है। आंख से भी सूरज की किरणें पी जा सकती हैं और जीवनदायी हो सकती हैं। त्राटक के बहुत से प्रयोग सीधे सूरज से जीवन खींचने के प्रयोग हैं। वे सिर्फ एकाग्रता के प्रयोग नहीं हैं। सीधा सूरज से जीवन खींचने के प्रयोग हैं। और एक दफे वह उतर जाए खयाल तो सूरज से कहीं से भी जीवन खींचा जा सकता है।
तिब्बत में एक विशेष प्रकार का योग होता है, जिसको सूर्यऱ्योग ही कहते हैं। तिब्बत में तो भयंकर सर्दी है। सूरज कभी दिखता है, नहीं दिखता है। बर्फ ही बर्फ जमी है। नंगा फकीर भी उस बर्फ पर बैठा रहेगा और आप पाएंगे उसके शरीर से पसीना चू रहा है! नंगा बैठा हुआ है, सारे तरफ से पसीना झर रहा है! बर्फ पर ही नंगा बैठा हुआ है--रात, सूरज का कोई पता नहीं है और पसीना टपक रहा है! उसकी प्रक्रिया है कि सूर्य कहीं भी हो, उससे संबंधित हुआ जा सकता है! उससे संबंधित होते ही ऊष्णता पूरे शरीर में व्याप्त होनी शुरू हो जाती है। बर्फ भी कुछ कर नहीं सकती है।
यह जो मैं कह रहा हूं, वह इस खयाल से कह रहा हूं ताकि आपके खयाल में आ सके कि महावीर ने नीचे के जगत से जो संबंध स्थापित किए तो नीचे के जगत ने भी उत्तर दिए हैं। महावीर को नीचे के जगत ने भी उत्तर दिए हैं। फिर कहानियों में हमने इन्हें पिरो कर लिखा है जो कि कविताएं बन जाती हैं। कहानी है, कविता है, यह कहती है कि महावीर चलते हों तो कांटा अगर सीधा पड़ा हो तो महावीर को देख कर तत्काल उलटा हो जाता है।
ये हमारी कहानियां हैं। और एक बात बहुत गहरी उसमें कहने की कोशिश की गई है, वह यह कि प्रकृति भी महावीर के प्रतिकूल होने की कोशिश नहीं करती, अनुकूल होने की कोशिश करती है। क्योंकि जिसने इतना प्रकृति को प्रेम दिया हो, इतना तादात्म्य दिया हो, वह प्रकृति कैसे उसके प्रतिकूल होने की कोशिश करे!
मोहम्मद के संबंध में कहा जाता है कि मोहम्मद चलते हैं, तो एक बदली उनके ऊपर छाया की तरह चलती रहती है। ऐसा कोई बदली चले, यह जरूरी नहीं है। चल भी सकती है। लेकिन बात जो कहना जरूरी है, वह यह है कि जरूर जो लोग जहां से संबंध बनाते हैं, वहां से कुछ हो सकता है। उत्तर जरूर मिलेंगे। सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपके प्रेम का उत्तर देता ही है। उत्तर चारों तरफ से आते हैं।
और ध्यान रहे, उत्तर वही होते हैं, जो हम फेंकते हैं--वे ही गूंजते हैं, प्रतिध्वनित होते हैं, लौट आते हैं। तो महावीर की अहिंसा का उत्तर अगर अहिंसा की तरह चारों तरफ से लौटे, तो आश्चर्य की बात नहीं है।
तो पहली तो बात यह है कि महावीर ने नीचे के तल से संबंध स्थापित किए, मूक जगत से। नीचे मूक जगत है। फिर बीच में मनुष्य का जगत है, जो शब्द का जगत है। और फिर मनुष्य के ऊपर देवताओं का जगत है, जो मौन जगत है। ये तीन जगत हैं। मूक का मतलब--जहां वाणी अभी प्रकट नहीं हुई। शब्द का जगत--जहां वाणी प्रकट हो गई। मौन का जगत--जहां वाणी वापस खो गई। देवताओं के पास कोई वाणी नहीं है।

प्रश्न:

शरीर भी नहीं है?

रीर भी नहीं है। पशुओं के पास भी कोई वाणी नहीं है। लेकिन शरीर है। वाणी अभी प्रकट नहीं हुई। यंत्र है पशुओं के पास, वाणी प्रकट हो सकती है।

प्रश्न:

पशुओं की अपनी भाषा है?

हने मात्र को। भाषा नहीं है, सिर्फ संकेत हैं। संकेत कामचलाऊ हैं और बड़े सीमित हैं। यानी जैसे कि मधुमक्खियों के कोई चार संकेत हैं उनके पास। तो वे चार संकेत दे सकती हैं।

प्रश्न:

पक्षियों के ऊपर तो हमारे शास्त्र हैं!

हूं ?

प्रश्न:

पक्षियों की आवाजों के लिए तो ग्रंथ हैं!

हां, हां, पक्षियों से बात की जा सकती है, लेकिन पक्षियों के पास अपनी वाणी नहीं है। आप संबंध जोड़ सकते हैं। पक्षियों के पास अपनी कोई वाणी नहीं है। पक्षी आपसे कुछ कह नहीं सकता है। लेकिन पक्षी कुछ अनुभव कर सकता है। और अगर आप अनुभव के तल पर उससे संबंध जोड़ लें, तो आप जान सकते हैं वह क्या अनुभव कर रहा है। वह आपसे कुछ कहता नहीं, सिर्फ आप उसके अनुभव को जान सकते हैं कि वह क्या कर रहा है।
जैसे एक कुत्ता रो रहा है। तो कुत्ता रोकर आपसे कुछ कह नहीं रहा है। कुत्ते के तो भीतर कुछ हो रहा है, जिससे वह रो रहा है। लेकिन अगर आप संबंध जोड़ सकें उसके भीतर से तो शायद आप पता लगा सकते हैं कि पड़ोस में कोई मरने वाला है, इसलिए रो रहा है। लेकिन कुत्ते को यह भी पता नहीं है कि पड़ोस में कोई मरने वाला है, इसलिए रो रहा है। यह रोने की घटना तो उसके चित्त में इस तरह की तरंगें लग रही हैं पास से आकर कि कहीं मृत्यु, कहीं मृत्यु। और यह बिलकुल मूक अनुभव है। इस मूक अनुभव में वह रो रहा है, चिल्ला रहा है। आपसे कुछ कह सकता नहीं है। कहने का कोई उपाय नहीं है उसके पास। और आप भी उसके चिल्लाने से कुछ नहीं समझ सकते हैं।
तो जो हम कहते हैं कि पशुओं की या पक्षियों की भाषा सीखने के संबंध में बड़े प्रयोग किए गए हैं। निश्चित किए गए हैं और बहुत दूर तक सफलता पाई गई है। लेकिन उसमें उनकी कोई वाणी नहीं पकड़ लेता है। उनके पास कोई शब्द, वर्ण, अक्षर से निर्मित कोई वाणी नहीं है। अनुभूति के तल जरूर हैं। अनुभूति की तरंगें हैं। वे अगर आप पकड़ लें तो आप उन कोड को खोल सकते हैं। आप खोल सकते हैं कि उसको क्या एहसास हो रहा होगा।
तो तीन तल में मैं बांट देता हूं जीवन को। एक मूक, जहां वाणी प्रकट हो सकती है, अभी प्रकट नहीं हुई, जहां सिर्फ अनुभव है, भाव है, शब्द नहीं हैं। दूसरा मनुष्य का जगत, जहां शब्द प्रकट हो गया है, जहां हम शब्द के द्वारा काम करने लगे हैं, बात करने लगे हैं, विचार करने लगे हैं, संवाद करने लगे हैं। तीसरा मनुष्य से ऊपर देवताओं का जगत, जहां वाणी खो गई है, व्यर्थ हो गई है, अब उसकी कोई जरूरत नहीं रही, अब बिना शब्द के ही बातचीत हो सकती है, मौन ही संभाषण बन सकता है।
ये तीन जगत हैं। इनमें सर्वाधिक कठिन पशुओं का जगत मालूम पड़ता है, पौधों का, पक्षियों का, पत्थरों का। लेकिन सर्वाधिक कठिन वह नहीं है। इसमें कठिन देवताओं का जगत भी मालूम पड़ सकता है, क्योंकि जहां शब्द नहीं हैं, वहां अभिव्यक्ति कैसे होती होगी--मौन।
मगर वह भी इतना कठिन नहीं है। सबसे ज्यादा कठिन संभाषण का जगत मनुष्य का है। जिसने संवाद के लिए शब्द ईजाद कर लिए हैं। और शब्द इस तरह ईजाद कर लिए हैं उसने कि करीब-करीब शब्दों के कारण ही संवाद होना मुश्किल हो गया है। सबसे सरल देवताओं का जगत है, जहां मौन विचार हो सकता है।
इसलिए यह जो कहा जाता है कि महावीर के समोशरण में पहली उपस्थिति देवताओं की है, उसका अर्थ सिर्फ इतना ही है। सबसे सरल संभाषण उनसे हो सकता है। शब्द बीच में बाधा नहीं हैं। शब्द बीच में माध्यम ही नहीं हैं। सीधा जो भाव यहां उठे, वह संप्रेषित हो जाता है। बीच में किसी को यात्रा करने की जरूरत नहीं रह जाती।
जैसे हम देखते हैं कि टेलीफोन है, तो टेलीफोन में एक वायर की व्यवस्था है, जो दूसरे फोन से जुड़ा हुआ है। फिर वायरलेस है, जिसमें बीच में कोई वायर नहीं है, सीधा कांटैक्ट है। वायर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। सीधा संप्रेषण हो जाता है। ऐसे ही एक संभाषण शब्द के द्वारा है, जहां शब्द मुझे और आपको जोड़ता है। और एक संभाषण ऐसा भी है, जहां शब्द भी बीच में नहीं हैं, सिर्फ मौन है और मौन में जो अनुभव होता है, वह संप्रेषित हो जाता है।
तो देवताओं के साथ सत्य की वार्ता सबसे ज्यादा सरल है। इसलिए पहली उपस्थिति उनकी रही हो तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। यह स्वाभाविक है।

प्रश्न:

ये देवी-देवता सब हुए हैं?

हैं ही। हुए हैं नहीं, हैं ही। उसकी हम धीरे-धीरे बात कर सकेंगे कि क्या उस संबंध में भी थोड़ी बात जान लेनी उचित होगी। पशु-पक्षी भी महावीर के समोशरण में उपस्थित हैं। उन्हें सुनने को उपस्थित हैं। यह भी बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि पशु-पक्षी सुनने को उपस्थित होंगे। मनुष्य भी उपस्थित हैं।
पशु-पक्षियों को जो कहा गया है, शायद उन्होंने भी सुना है; देवताओं को जो कहा गया है, उन्होंने भी सुना है; मनुष्यों को जो कहा गया है, उन्होंने शायद नहीं सुना है। क्योंकि उनके पास शब्द हैं और समझदारी का खयाल है, जो बड़ा खतरनाक है। मनुष्य को यह खयाल है कि मैं सब समझ लेता हूं। यह बड़ी भारी बाधा है।
और शब्द सुनता है, और शब्द को पकड़ने का, संग्रह करने का उसने उपाय ईजाद कर लिया है--भाषा। वह सब संगृहीत कर लेता है। वह कहता है, यही कहा है न, यह सब लिखा हुआ है। शब्द पकड़ लेता है। फिर शब्दों की वह व्याख्या कर लेता है। और भटक जाता है।
इसलिए मनुष्य के साथ बड़ी कठिनाई है। क्योंकि मनुष्य पशु है, लेकिन पशु रह नहीं गया है। मनुष्य देवता हो सकता है, लेकिन अभी हो नहीं गया है। वह बीच की कड़ी है। अगर ठीक से हम समझें तो मनुष्य ठीक अर्थों में प्राणी नहीं है, सिर्फ कड़ी है। पशु से चला आया है वह आगे, लेकिन पशु बिलकुल खो नहीं गया है।
इसलिए जरूरी जो चीजें हैं, वह अब भी भाषा के बिना करता है। जैसे क्रोध आ जाए तो वह चांटा मारता है। प्रेम आ जाए तो वह गले लगाता है। जो जरूरी चीजें हैं, वह अभी भी भाषा के साथ नहीं करता, भाषा अलग कर देता है फौरन। उसका पशु एकदम प्रकट हो जाता है। पशु के पास कोई भाषा नहीं है, तो प्रेम है तो गले लगा लेता है, क्रोध है तो चांटा मार देता है। वह नीचे उतर रहा है। वह भाषा छोड़ रहा है। वह जानता है कि भाषा समर्थ नहीं है। इसलिए जो बहुत जरूरी चीजें हैं, उसमें वह गैर-भाषा के काम करता है। या फिर जो बहुत और ज्यादा जरूरी चीजें हैं, जिनमें भाषा बिलकुल बेकार हो जाती है तो मौन से काम करना पड़ता है।
मनुष्य पशु नहीं रह गया है और अभी देवता भी नहीं हो गया है। वह बीच में खड़ा है। एक तरह का क्रास-रोड, एक तरह का चौरस्ता है, जो सब तरफ से बीच में पड़ता है। और कहीं भी जाना हो तो मनुष्य से हुए बिना जाने का कोई उपाय नहीं है। इस मनुष्य को समझाने की चेष्टा ही सबसे ज्यादा कठिन चेष्टा है। देवता समझ लेते हैं, जो कहा जाता है वैसा ही, क्योंकि बीच में कोई शब्द नहीं होते, व्याख्या करने का कोई सवाल नहीं होता। पशु समझ लेते हैं, क्योंकि उनसे कहा ही नहीं जाता, व्याख्या की कोई बात ही नहीं होती, सिर्फ तरंगें प्रेषित की जाती हैं, तरंगें पकड़ ली जाती हैं।
जैसे कि अब यह टेपरिकार्डर मुझे सुन रहा है। यह भी मुझे सुन रहा है, आप भी मुझे सुन रहे हैं। इस कमरे में कोई देवता भी उपस्थित हो सकता है। यह टेपरिकार्डर कोई व्याख्या नहीं करता, यह सिर्फ रिसीव कर लेता है, सिर्फ तरंगों को पकड़ लेता है। इसलिए कल इसको बजाएंगे तो जो उसने पकड़ा है, वह दोहरा देगा।
पदार्थ के तल पर और पशु के तल पर जो रिसेप्टिविटी है, वह इसी तरह की सीधी है। सिर्फ तरंगें संप्रेषित हो जाती हैं। देवता के तल पर अर्थ सीधे प्रकट हो जाते हैं। मनुष्य के तल पर तरंगें पहुंचती हैं, अर्थ वह खुद खोजता है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब उसकी सब व्याख्याएं खड़ी हो जाती हैं। व्याख्याओं पर व्याख्याएं खड़ी हो जाती हैं।
जैसा मैंने कहा कि महावीर शायद अकेले व्यक्ति हैं जिन्होंने न मालूम कितने पशुओं, न मालूम कितने पक्षियों, न मालूम कितने पौधों को आमंत्रित किया है मनुष्य की तरफ। दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। वे ही शायद अकेले ऐसे व्यक्ति हैं--और लोगों ने भी चेष्टा की है, बहुत लोगों ने सफलता पाई है--जिन्होंने देवताओं को भी मनुष्य की तरफ आकर्षित किया है। इस पर हम पीछे बात करेंगे। मनुष्यों से कैसे संप्रेषण किया है, वह कल हम बात करेंगे; और देवताओं से कैसे संप्रेषण हो सकता है, वह हम बात करेंगे। बारह वर्ष की पूरी साधना अभिव्यक्ति संप्रेषण की साधना है--कैसे पहुंचाया जा सके जो पहुंचाना है। और जैसे ही वह उनकी साधना पूरी हो गई है, वह उन्होंने छोड़ दी है और वे पहुंचाने के काम में लग गए हैं।
दो छोटे सूत्र अंत में खयाल रख लेने चाहिए। पशु के पास संप्रेषण करना हो तो मूक होना पड़ेगा। मूक का मतलब यह है कि वाणी खो ही देनी पड़ेगी, रह ही नहीं जाएगी भीतर, करीब-करीब मूर्च्छित और जड़ जैसा मालूम पड़ने लगेगा व्यक्ति। लेकिन शरीर जड़ होगा, मन जड़ होगा, चेतना पूरी भीतर जागी होगी, जाग्रत होगी। अगर मनुष्य से संबंध जोड़ना है तो दो उपाय हैं। जो मनुष्य साधना से गुजरें, उनके साथ बिना शब्द के संबंध जोड़ा जा सकता है। क्योंकि साधना से गुजर कर उन्हें उस हालत में लाया जा सकता है, जहां देवता होते हैं। तब वे मौन में समझ सकते हैं। जैसा मैंने कल कहा कि महाकाश्यप को बुद्ध ने कहा कि वह मैंने तुझे दे दिया है, जो मैं शब्दों से दूसरों को नहीं दे सका। और या फिर सीधी वाणी है, जो सीधी उनसे कही जाए, वे उसे सुनें, समझें। लेकिन वे नहीं समझ पाते।
इसलिए महावीर की कथा यह है कि महावीर कहते हैं, गणधर सुनते हैं, गणधर लोगों को समझाते हैं। यह बड़ा खतरनाक मामला है। महावीर किसी को कहते हैं, वह सुनता है, फिर वह जैसा समझता है, वह व्याख्या करके लोगों को समझाता है। बीच में एक मध्यस्थ खड़ा हो जाता है। और महावीर से सीधा संबंध नहीं जुड़ पाता, क्योंकि हम शब्दों को समझ सकते हैं, अनुभूतियों को नहीं। और या फिर हम अनुभूतियों में प्रवेश करें, ध्यान में जाएं, समाधि में उतरें और उस जगह खड़े हो जाएं, जहां शब्द के बिना तरंगें पकड़ी जा सकती हैं। एक रास्ता वह है। और नहीं तो फिर, फिर जो मध्यस्थ होंगे, व्याख्याएं होंगी, शब्द होंगे--सब भटक जाएगा, सब खो जाएगा।
जो भी शास्त्र निर्मित हैं, वे आदमियों को बोले गए शब्दों के द्वारा निर्मित हैं। वे शब्द भी सीधे महावीर के नहीं हैं। वे शब्द भी बीच में किए गए कंमेंटेटर्स के, टीकाकारों के हैं। और फिर हमने अपनी समझ और बुद्धि के अनुसार उनको संगृहीत किया है, अपनी व्याख्या की है। और इसलिए सब लड़ाई-झगड़ा है, सब उपद्रव है।
महावीर ने मौन में क्या कहा है, उसे पकड़ने की जरूरत है। या उन्होंने जिनसे मौन से बोला जा सकता था, उन ध्यानियों से या देवताओं से क्या कहा है, उसे पकड़ने की जरूरत है। या जिनके साथ शब्द का उपयोग असंभव था, उन पक्षियों, पौधों, पत्थरों को क्या कहा, उसे पकड़ना जरूरी है। और जो मैंने पहले दिन कहा, वह सब किसी गहनतम अस्तित्व की गहराइयों में सुरक्षित है। वह सब वापस पकड़ा जा सकता है। सिर्फ उन स्टेट्स ऑफ माइंड में हमें उतरना पड़े, तो हम उसे फिर पकड़ ले सकते हैं।
आज इतना ही।


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