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शनिवार, 21 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--20)

महावीर: परम-स्वातंत्र्य की उदघोषणा—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्न:
कस्तूर भाई ने पूछा है कि महावीर प्राकृत भाषा में क्यों बोले, संस्कृत में क्यों नहीं?
ह प्रश्न सच में गहरा है। संस्कृत कभी भी लोक-भाषा नहीं थी, सदा से पंडित की भाषा है, दार्शनिक की, विचारक की। प्राकृत लोक-भाषा थी--साधारणजन की, अशिक्षित की, अपढ़ की, ग्रामीण की। शब्द भी बड़े अदभुत हैं।
प्राकृत का मतलब है: नेचुरल, स्वाभाविक।
संस्कृत का मतलब है: रिफाइंड, परिष्कृत।
प्राकृत से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने। प्राकृत मौलिक, मूल भाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है।

इसलिए संस्कृत शब्द शुरू हुआ उस भाषा के लिए, जो संस्कारित हो चुकी। साधारणजन के असंस्कारों से जिसे छुड़ा लिया गया। संस्कृत धीरे-धीरे इतनी परिष्कृत होती चली गई कि वह अत्यंत थोड़े से लोगों की भाषा रह गई।
लेकिन पंडित-पुरोहित के यह हित में है कि जीवन का जो भी मूल्यवान है, वह सब ऐसी भाषा में हो, जिसे साधारणजन न समझता हो। साधारणजन जिस भाषा को समझता हो, उस भाषा में अगर धर्म का सब कुछ होगा तो पंडित-पुरोहित और गुरु बहुत गहरे अर्थों में अनावश्यक हो जाएंगे। उनकी आवश्यकता मूलतः शास्त्र का अर्थ करने में है--शास्त्र क्या कहता है इसका अर्थ! साधारणजन की भाषा में ही अगर सारी बातें होंगी तो पंडित का क्या प्रयोजन? वह किस बात का अर्थ करे?
पुराने जमाने में विवाद को हम कहते थे--शास्त्रार्थ!
शास्त्रार्थ का मतलब है: शास्त्र का अर्थ!
दो पंडित लड़ते हैं--विवाद यह नहीं है कि सत्य क्या है, विवाद यह है कि शास्त्र का अर्थ क्या है! पुराना सारा विवाद सत्य के लिए नहीं है, शास्त्र के अर्थ के लिए है! व्याख्या क्या है शास्त्र की! और इतनी दुरूह, इतनी परिष्कृत शब्दावली विकसित की गई थी कि साधारणजन की तो हैसियत के बाहर है कि वह क, , ग भी समझ ले! और जिस बात को साधारणजन कम से कम समझ पाए, उस बात को जो समझता हो, वह अनिवार्यरूपेण जनता का नेता और गुरु हो सकता है।
इसलिए इस देश में दो परंपराएं चल रही थीं। एक परंपरा थी जो संस्कृत में ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोड़े से लोगों की, एक प्रतिशत लोगों का भी उसमें हाथ न था; बाकी सब दर्शक थे। ज्ञान का जो गंभीर आंदोलन चलता था, वह बहुत अल्प, थोड़े से इंटेलेक्चुअल्स, थोड़े से अभिजातवर्गीय लोगों का था। जनता को तो जो जूठा उससे मिल जाता था, वही उसके हाथ पड़ता था। जनता अनिवार्यरूप से अज्ञान में रहने को बाध्य थी।
महावीर और बुद्ध दोनों ने जन-भाषाओं का उपयोग किया, जो लोग बोलते थे, उसी भाषा में वे बोले। और शायद यह भी एक कारण है कि हिंदू-ग्रंथों में महावीर के नाम का कोई उल्लेख नहीं हो सका। न उल्लेख होने का कारण है--क्योंकि संस्कृत में न उन्होंने कोई शास्त्रार्थ किए, संस्कृत में न उन्होंने कोई दर्शन विकसित किया, संस्कृत में न उनके ऊपर उनके समय में कोई शास्त्र निर्मित हुआ! तो संस्कृत को जानने वाले जो लोग थे--जैसे आज भी यह हो सकता है, आज भी हिंदुस्तान में अंग्रेजी दो प्रतिशत लोगों की अभिजात भाषा है--यह हो सकता है कि मैं हिंदी में बोलता ही चला जाऊं तो दो प्रतिशत लोगों को यह पता ही न चले कि मैं भी कुछ बोल रहा हूं। वे अंग्रेजी में पढ़ने और सुनने के आदी हैं। और तब यह भी हो सकता है कि एक बिलकुल साधारणजन अंग्रेजी में बोलता हो, तो वह दो प्रतिशत लोगों के लिए विचारणीय बन जाए।
महावीर चूंकि अत्यंत जन-भाषा में बोले, इसलिए पंडितों का जो वर्ग था, स्कालर्स की जो दुनिया थी, उसने उनको बाहर ही समझा। वे ग्राम्य ही थे, उनको उसने भीतर नहीं लिया। इसलिए किसी ग्रंथ में भी--हिंदू-ग्रंथ में--महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। महावीर जैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बड़ी परंपरा, मूल-धारा की परंपरा में, उसके शास्त्रों में, उस समय के लिपिबद्ध ग्रंथों में, उसका कोई नाम उल्लेख भी न हो! विरोध में भी नहीं! अगर कोई हिंदू-ग्रंथों को पढ़े तो शक होगा कि महावीर जैसा व्यक्ति कभी हुआ भी या नहीं हुआ? अकल्पनीय मालूम पड़ता है कि ऐसे व्यक्ति का नाम उल्लेख--विस्तार तो बात दूसरी है--नाम उल्लेख भी नहीं है!
और मैं उसके बुनियादी कारणों में एक कारण मानता हूं कि महावीर उस भाषा में बोल रहे हैं, जो जनता की है। पंडितों से शायद उनका बहुत कम संपर्क बन पाया। हो सकता है हजारों पंडित अपरिचित ही रहे हों कि यह आदमी क्या बोलता है! क्योंकि पंडितों का एक अपना बुर्जुआपन, एक अभिजात भाव है, वे साधारणजन नहीं हैं! न वे साधारणजन की भाषा में बोलते, न सोचते। वे असाधारणजन हैं! वे किसी चूजन-फ्यू, चुने हुए लोग हैं, उन चुने हुए लोगों की दुनिया का सब कुछ न्यारा है! साधारणजन से उसका कुछ लेना-देना नहीं! साधारणजन तो भवन के बाहर हैं, मंदिर के बाहर हैं! कभी-कभी दया करके, कृपा करके साधारणजन को भी वे कुछ बता देते हैं, लेकिन गहरी और गंभीर चर्चा तो वहां मंदिर के भीतर चल रही है, जहां अपढ़ को, साधारण को प्रवेश निषिद्ध है।
महावीर और बुद्ध की बड़ी से बड़ी क्रांतियों में एक क्रांति यह भी है कि उन्होंने धर्म को ठेठ बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। ठेठ गांव के बीच में! वह किसी भवन के भीतर बंद चुने हुए लोगों की बात न रही! सबकी, जो सुन सकता है, जो समझ सकता है, उसकी बात हो गई। और इसीलिए उन्होंने संस्कृत का उपयोग नहीं किया।
और भी कारण हैं।
असल में प्रत्येक भाषा, जो किसी परंपरा से संबद्ध हो जाती है, उसके अपने एसोसिएशन हो जाते हैं। उसका प्रत्येक शब्द एक निहित अर्थ ले लेता है। और उसका किसी भी शब्द का प्रयोग खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि उस शब्द का प्रयोग करते ही उस शब्द के साथ जुड़ी हुई परंपरा का सारा भाव पीछे खड़ा हो जाता है। इस अर्थ में जनता की जो सीधी-सादी भाषा है, वह अदभुत है। वह काम करने की, व्यवहार करने की, जीवन की भाषा है। उसमें बहुत अनगढ़ शब्द हैं, जिनको नए अर्थ दिए जा सकते हैं।
और महावीर को जरूरी था कि वे जैसा सोच रहे थे, वैसे अर्थ के लिए नई शब्दावली हो। कठिन था उनको कि संस्कृत से वे शब्दावली को उपयोग में ला सकें, क्योंकि संस्कृत सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से परंपराबद्ध विचार की एक विशेष दिशा में काम कर रही थी। उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ हो गया था। उसमें ईश्वर का एक अर्थ था। वह अर्थ निश्चित हो गया था। ईश्वर शब्द का प्रयोग करना खतरे से खाली न था, क्योंकि वह अर्थ उसके पीछे खड़ा हो जाता था। तो उचित यह था कि ठीक अनगढ़ जनता की भाषा को सीधा उठा लिया जाए। उसे नए अर्थ, नए तराश, नए कोने उसको दिए जा सकते हैं।
तो वह सीधी जनता की भाषा उठा ली और उस जनता की भाषा में अदभुत चमत्कारपूर्ण व्यवस्था दी। यह और भी कारणों से उपयोगी है। यह यह भी बताता है कि महावीर का मन जिसको शास्त्रीय कहते हैं, एकेडेमिक कहते हैं, वह नहीं था। कुछ लोग होते हैं, जिनका मन शास्त्रीय होता है। जो सोचते हैं तो शास्त्र में! समझते हैं तो शास्त्र में! जीते हैं तो शास्त्र में। शास्त्र के बाहर उन्हें कोई जीवन होता ही नहीं! अगर उनकी बातचीत सुनने जाएंगे तो ऐसा पता चलेगा कि जिंदगी यानी शास्त्र! शास्त्र के बाहर कहीं कुछ है ही नहीं! और शास्त्र बड़ी संकीर्ण चीज है। जिंदगी बड़ी विराट चीज है। उनके प्रश्न भी उठते हैं तो जिंदगी से नहीं आते, वे किताब से आते हैं! वे अगर कुछ पूछेंगे भी तो वे इसलिए पूछते हैं कि उन्होंने जो कुछ किताबें पढ़ी हैं! उनकी सीधी जिंदगी से कोई प्रश्न नहीं उठते!
और इस लिहाज से, बड़े हैरानी की बात है यह कि कभी ग्रामीण से ग्रामीण व्यक्ति भी जीवन से संबंधित प्रश्नों की बात उठा देता है, जब कि पंडित से वैसी आशा करनी असंभव है। पंडित प्रश्न भी उधार ही पूछता है! यानी प्रश्न भी उसका अपना नहीं होता, उत्तर तो बहुत दूर की बात है! वह प्रश्न भी उसने किताब में पढ़ा होता है! और जब वह प्रश्न पूछता है, तब उसके पास उत्तर तैयार होता है। यानी वह आपसे कोई बड़े प्रश्न से उत्तर की आकांक्षा नहीं कर रहा है, वह शायद आपका परीक्षण ही कर रहा है कि आपको भी यह उत्तर पता है या नहीं पता है!
उत्तर भी उसके पास है, प्रश्न भी उसके पास है! प्रश्न से भी पहले वह उत्तर को पकड़ कर बैठा हुआ है! और अब वह जो प्रश्न उठा रहा है, वह आथेंटिक नहीं है, प्रामाणिक नहीं है, उसके प्राणों से नहीं आता है! तो शास्त्रीय लोग भी हैं, जिनकी सारी जिंदगी किताबों के बंद पन्नों के भीतर गुजरती है!
महावीर खुली जिंदगी के पक्षपाती हैं--खुले आकाश के नीचे नग्न खड़े हैं। खुली जिंदगी, कच्ची जिंदगी, जो रा लाइफ जैसी है, वे उसको छूना और स्पर्श करना चाहते हैं। और सीधा, आमने-सामने एनकाउंटर करना चाहते हैं जिंदगी का। इसलिए शास्त्र को बिलकुल हटा देते हैं। शास्त्रीयता को हटा देते हैं। शास्त्रीय व्यवस्था को हटा देते हैं।
और हमेशा ऐसी जरूरत पड़ जाती है कि कुछ लोग वापस जिंदगी का हमें स्मरण दिलाएं। नहीं तो किताबें बड़ी खतरनाक भी हैं। किताब, किताब, किताब, धीरे-धीरे हम यह भूल ही जाते हैं कि जिंदगी कुछ और है, किताब कुछ और है। एक तो घोड़ा वह है, जो बाहर सड़क पर चल रहा है। एक घोड़ा वह है, जो शब्दकोश में लिखा हुआ है। घोड़े का अर्थ शब्दकोश में दिया हुआ है। घोड़ा सड़क पर चल रहा है। जिंदगी भर जो किताबों में उलझे रहते हैं, वे किताब के घोड़े को ही असली घोड़ा समझने लगें तो बहुत आश्चर्य नहीं है।
हां, इतना जरूर है कि किताब के घोड़े पर चढ़ने की भूल कोई कभी नहीं करता। लेकिन किताब के परमात्मा पर प्रार्थना करने की भूल निरंतर हो जाती है! किताब का परमात्मा इतना ही सही मालूम होने लगता है, जितना कि असली परमात्मा होगा! लेकिन किताब का परमात्मा एक बात ही और है।
शब्द आग आग नहीं है। और किसी मकान पर आग लिख देने से मकान नहीं जल जाता है। आग बात ही और है। आग तो कुछ बात ऐसी है कि आग शब्द भी जल जाएगा उसमें। वह भी नहीं बच सकेगा।
लेकिन भूल होने का डर है कि शब्द आग को कहीं हम आग न समझ लें। और शब्द परमात्मा को कहीं हम परमात्मा न समझ लें। और जो शब्दों की दुनिया में जीते हैं, उनसे यह भूल होती ही है। उन्हें याद ही नहीं रह जाता कि कब जिंदगी से वे खिसक गए हैं और एक शब्दों की दुनिया में भटक गए हैं! उसका अपना जगत है।
महावीर उस शब्द-जाल से भी बाहर आ जाना चाहते हैं। इसलिए शब्द-जाल था संस्कृत का। आम जनता की बातचीत तो सीधी-सादी है। उसमें जाल नहीं है। न व्याख्या है, न परिभाषा है। जिंदगी को इंगित करने वाले शब्द हैं। उन्होंने वे ही शब्द पकड़ लिए, और सीधी जनता से बात की। वे जनता के आदमी हैं इस अर्थों में। वे पंडित नहीं हैं। और उन्होंने यह भी न चाहा कि उनके शास्त्र निर्मित हों।
किसी ने पूछा भी है एक सवाल, कि महावीर के बहुत पूर्व काल से लिखने की कला विकसित हो गई थी और जैसा जैन तो कहते हैं कि खुद प्रथम तीर्थंकर ने लोगों को लिखने की कला सिखाई! तो प्रथम तीर्थंकर को हुए तो कितना काल व्यतीत हो चुका था, लोग खुद लिखना जानते थे, पढ़ना जानते थे, किताब बन सकती थी! फिर महावीर के जीते जी, महावीर ने जो कहा, उसका शास्त्र क्यों निर्मित नहीं हुआ?
हमें ऐसा लगता है कि लिखने की कला न हो, तो ही शास्त्र निर्मित होने में बाधा पड़ती है। लिखने की कला हो तो शास्त्र निर्मित होना ही चाहिए। मेरी अपनी दृष्टि यह है कि महावीर की चूंकि बुद्धि शास्त्रीय नहीं है, उन्होंने नहीं चाहा होगा कि उनका शास्त्र निर्मित हो। और जब तक उनका बल चला होगा, तब तक उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की होगी।
उसके भी कारण हैं। क्योंकि जैसे ही शास्त्र निर्मित होता है, वैसे ही व्यक्ति की चेतना जीवन से, अस्तित्व से, एक्झिस्टेंस से अलग होकर शब्दों की दुनिया में प्रवेश कर जाती है। और एक ऐसे काल्पनिक लोक में भटकने लगती है, जो लगता बहुत सच है, लेकिन होता बिलकुल भी नहीं है।
तो महावीर ने सुनिश्चित रूप से शास्त्र को रोकनी की कोशिश की होगी। इसलिए मर जाने के दोत्तीन सौ, चार सौ वर्षों तक, जब तक कि लोगों को उनका स्मरण रहा होगा स्पष्ट कि शास्त्र नहीं लिखने हैं, तब तक शास्त्र नहीं लिखा जा सका होगा। लेकिन हमारा मोह भारी है, हम प्रत्येक चीज को स्मृति में रख लेना चाहते हैं। तो कहीं ऐसा न हो कि महावीर का कहा हुआ विस्मरण हो जाए, कहीं ऐसा न हो कि महावीर विस्मरण हो जाएं। तो हमारे पास उपाय क्या है--हम लिपिबद्ध कर लें, शास्त्रबद्ध कर लें, फिर नहीं खोएगा! महावीर खो जाएंगे, शास्त्र बचेगा!
लेकिन कभी हमें सोचना चाहिए कि जब महावीर जैसा जीवंत व्यक्ति भी खो जाता है तो शास्त्र में तुम बचा कर क्या महावीर को बचा सकोगे? महावीर जैसे व्यक्ति तो यही उचित समझेंगे कि जब व्यक्ति ही विदा हो जाता है, और जहां सभी चीजें परिवर्तनीय हैं, और सभी आती हैं और चली जाती हैं, वहां कुछ भी थिर न हो। वहां शब्द और शास्त्र भी थिर न हो, वह भी खो जाए। क्योंकि जीवन का नियम जब यह है--जन्मना और मर जाना, होना और मिट जाना--और महावीर को भी जब वह जीवन का नियम नहीं छोड़ता है, तो महावीर की वाणी पर भी यह क्यों लागू न हो? हम क्यों यह आशा बांधें कि हम शब्दों को बचा कर बचा लेंगे? क्या बचेगा हमारे हाथ में!
अंगारा कभी नहीं बचता। अंगारा तो बुझ ही जाता है। राख बच सकती है। अंगारे को आप सदा नहीं रख सकते। राख को सदा रख सकते हैं। राख बड़ी सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है। अंगारे को तो थोड़ी देर ही रखा जा सकता है, क्योंकि जीवंत है। अंगारा तो बुझेगा, अंगारे को आप सतत नहीं रख सकते। असल में अंगारा जिस क्षण जलना शुरू हुआ है, उसी क्षण बुझना भी शुरू हो गया है। एक पर्त जल गई है, वह राख हो गई; दूसरी पर्त जल रही है, वह राख हो रही है; तीसरी पर्त जलेगी, वह राख होगी। पर्त-पर्त थोड़ी देर में अंगार जो है, वह राख हो जाएगा। अंगारा तो नहीं बचेगा, अंगारा तो जाएगा; क्योंकि अंगारा जीवित है। जो भी जीवित है, वह जाएगा।
लेकिन राख बचाई जा सकती है करोड़ों वर्षों तक। क्योंकि राख मृत है। उस पर जीवन के नियम काम नहीं करते। वह मरा हुआ हिस्सा है, जिससे जीवन जा चुका। नियम तो हो चुका पूरा, राख पड़ी रह गई है। अब राख को हम बांध कर रख सकते हैं! और खतरा यह है कि कहीं राख को हम अंगार न समझने लगें। कभी राख अंगार थी, लेकिन राख बनी ही तब, जब अंगार न हो गया।
अब इसमें बहुत मजा है सोचने जैसा! सोचने की दो बातें हैं--राख अंगार थी और राख अंगार नहीं थी। राख अंगार थी इसका मतलब यह कि अंगार से ही राख आई है। अंगार के जीने से ही राख का आना हुआ है। लेकिन एक अर्थ में राख कभी भी अंगार नहीं थी, क्योंकि जहां-जहां राख हो गई थी, वहां-वहां अंगार तिरोहित हो गया था। राख जो थी, वह जीवित अंगार की छूटी हुई छाया है। जीवित अंगार की जो छाया छूट गई, जो रेखा छूट गई। अंगार तो गया, राख हाथ में रह गई। राख को संजो कर रखा जा सकता है।
महावीर ने चाहा होगा कि राख को भी मत सजाना, संवारना; क्योंकि असली सवाल अंगार था, वह तो बचेगा नहीं, उसे तो तुम संभाल नहीं सकोगे--राख संभाल कर रख लोगे! और फिर कल यह धोखा होगा तुम्हारे मन को कि यही है अंगार! और तब इतनी बड़ी भ्रांति पैदा होगी, जितनी महावीर की सब वाणी खो जाए, तो भी पैदा होने को नहीं है।
हिम्मतवर आदमी रहे होंगे। अपनी स्मृति के लिए कोई व्यवस्था न करना, बड़े साहस की बात है। मृत्यु के विरोध में हम सभी ये उपाय करते हैं कि किसी तरह--हम तो मरेंगे, लेकिन किसी तरह स्मृति की एक रेखा हमारे पीछे शेष रह जाए! वह बची ही रहे। फिर वह शब्द हो, कि पत्थर पर लगा हुआ नाम हो, कि शास्त्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!
हमारा मन, मरने वाला मन, न मरने की आकांक्षा करता है! मरेगा सब, यह हमें पता है, तो न मरने के लिए हम कुछ व्यवस्था कर जाते हैं!
महावीर ने जीते जी न मरने की कोई व्यवस्था नहीं की। क्योंकि महावीर की दृष्टि यह है, जो मरने वाला है, वह मरेगा ही; जो नहीं मरने वाला है, वह नहीं ही मरता है। और जो मरने वाले को बचाने की कोशिश करते हैं, वे बड़ी भ्रांति में पड़ जाते हैं, वे अक्सर राख को अंगार समझ लेते हैं!
शास्त्र में जो धर्म है--वह राख है!
जीवन में जो धर्म है--वह अंगार है!
तो जीते जी उन्होंने शास्त्र निर्मित नहीं होने दिया। तीन-चार सौ वर्ष तक, जब तक कि लोगों को खयाल रहा होगा उस आदमी का, उसके निषेध का, उसके इनकार का, तब तक उन्होंने टेंपटेशन को, प्रलोभन को रोका होगा। लेकिन जब वह स्मृति शिथिल पड़ गई होगी, भूल गई होगी, धीरे-धीरे विस्मरण के गर्त में चली गई होगी, तब उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यही रह गया होगा कि हम कैसे सुरक्षित कर लें, जो भी उन्होंने कहा है!
यह ध्यान रखने की बात है कि आज तक जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी सत्य है, जो भी सुंदर है--वह लिखा नहीं गया है, वह कहा ही गया है! जो भी महत्वपूर्ण है आज तक पूरी पृथ्वी पर--वह लिखा नहीं गया है, वह कहा ही गया है!
कहने में एक बड़ी जीवंत बात है। लिखने में सब मुर्दा हो जाता है। क्योंकि जब हम कहते हैं तो कोई सामने होता है, जिससे कहते हैं। अकेले में तो कह नहीं सकते। कोई जीवंत सामने होता है। लिखने में कोई सामने नहीं होता, अंधकार होता है।
कहते हैं हम किसी से, लिखते हैं हम न किसी के लिए! किसी के लिए नहीं लिखते! कौन पढ़ेगा? कोई भी पढ़ेगा। तो लिखने के समक्ष कोई भी मौजूद नहीं है, सिर्फ लिखने वाला मौजूद है। बोलने के समक्ष--सिर्फ बोलने वाला मौजूद नहीं है, बोलने वाले से भी ज्यादा सुनने वाला मौजूद है। और एक जीवंत संपर्क है।
इस जीवंत संपर्क के कारण न तो उन्होंने शास्त्रों की भाषा उपयोग की, न शास्त्रीयता उपयोग की, न अपने पीछे शास्त्र की रेखा बनने दी है।
और लोकमानस की, सामान्यजन की...बहुत पुराना संघर्ष है यह, अभी भी पूरा नहीं हो पाया। ऐसी धारणा रही है कि धर्म जो है, वह थोड़े से चुने हुए लोगों की बात है! और सत्य जो है, वह बहुत थोड़े से लोगों की समझ की बात है, सबकी बात नहीं है!
मुझसे लोग आ-आकर कहते हैं कि आप ऐसी बातें लोगों से मत कहिए, ये बातें तो बहुत थोड़े से लोगों के लिए हैं! सामान्य आदमी को मत कहिए, सामान्य आदमी इनसे भटक जाएगा!
अब यह बड़े मजे की बात है कि सामान्य आदमी को सत्य भटकाता है; और असत्य जो है, वह मार्ग पर लाता है! और मेरी दृष्टि यह है कि वह बेचारा सामान्य ही इसीलिए है कि उसे सत्य की कोई खबर नहीं मिलती।

प्रश्न:

बोलते हैं न अधिकारी को ज्ञान देना चाहिए!

कोई भी अनधिकारी नहीं है--ज्ञान की दृष्टि से। और कौन निर्णायक है कि कौन अधिकारी है? निर्णय कौन करेगा?
फूल नहीं कहता कि अधिकारी को सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, अधिकारी को सुगंध देंगे। सूरज नहीं कहता कि अधिकारी को प्रकाश मिलेगा। श्वास नहीं कहती कि अधिकारी के हृदय में चलूंगी। खून नहीं कहता, अधिकारी के भीतर बहूंगा। सारा जगत नहीं कहता, अधिकारी की मांग नहीं करता। सिर्फ ज्ञान के संबंध में पंडित कहता है, अधिकारी पहले पक्का हो जाए! क्यों?
सारा जीवन अनधिकारी को मिला हुआ है, सिर्फ ज्ञान भर अधिकारी को मिलेगा? तो भगवान बड़ा नासमझ है, अनधिकारियों को जीवन दे देता है! और पंडित बड़ा ज्ञानी है, वह अधिकारी का पक्का कर ले, तब ज्ञान देता है!
अधिकारी की बात ही अत्यंत व्यापारिक और तरकीब की बात है। तब वह उसको देना चाह रहा है, जिससे उसे कुछ मिलता हो। वह मिलना किसी भी तल पर हो सकता है--इज्जत, आदर, श्रद्धा, धन, मान, सम्मान। वह किसी भी तरकीब से उसको देगा, जिससे कुछ मिलने का पक्का हो। और उसको देगा, जो उसका अपना है। सबको नहीं दे देगा। ऐसे खुले हाथ, अपरिचित, अनजान, अजनबी ले जाए, ऐसा नहीं कर देगा। इसी वजह से ज्ञान को गुरु-शिष्य की परंपरा में बांधने की तरकीब चली! वह सबसे खतरनाक तरकीब है। उस तरकीब में कभी भी ज्ञान विस्तीर्ण नहीं हो सका।
एडीसन को अगर पता चल गया कि बिजली कैसे बनती है, तो वह ज्ञान सबके लिए हो गया। और एडीसन ने नहीं पूछा कि अधिकारी कौन है जिसके घर में बिजली जले। वह ज्ञान सबका हो गया, वह सबके उपयोग में आ गया। सबके लिए खुली किताब हो गई, जो भी उपयोग में लाना चाहे, ले आए।
विज्ञान इसीलिए जीता धर्म के खिलाफ कि धर्म था थोड़े से लोगों के हाथ में, और विज्ञान ने सत्य को दे दिया सबके हाथ में। विज्ञान की जीत का कारण यह है कि विज्ञान ने पहली दफे ज्ञान को सार्वलौकिक बना दिया, युनिवर्सल बना दिया। और धार्मिक लोगों ने ज्ञान को बना लिया था बिलकुल ही सीमित दायरे में, रेखा में बहने वाला, सोच-विचार कर किसको देना, नहीं देना! और कई बार ऐसा होता था कि जानने वाला आदमी पात्र को, अधिकारी को खोजते-खोजते ही मर जाता था। और उसे अधिकारी भी नहीं मिलता था!
मैंने सुना है एक फकीर हिमालय की एक तराई पर रहता था और नब्बे वर्ष का हो गया था। अनेक बार लोगों ने आकर उससे कहा था कि हमें ज्ञान दो। पर उसने कहा, अधिकारी के सिवाय ज्ञान तो किसी को मिल नहीं सकता। अधिकारी लाओ! शर्तें उसकी ऐसी थीं कि वैसा आदमी पूरी पृथ्वी पर भी खोजना मुश्किल था। अधिकारी की शर्तें उसकी ऐसी थीं! यानी ऐसा ही है कि जैसे कोई डाक्टर किसी से कहे कि हम बीमार को दवा नहीं देते, हम तो स्वस्थ आदमी को दवा देंगे, स्वस्थ आदमी ले आओ!
अब मेरी अपनी समझ यह है कि स्वस्थ आदमी डाक्टर के पास जाएगा नहीं। अधिकारी जो हो गया है, वह किसी से मांगने जाएगा नहीं। क्योंकि जिस दिन अधिकार उपलब्ध होता है, उस दिन तो अपनी ही उपलब्धि हो जाती है। उस दिन कोई किसी के पास जाता है? जिस दिन पात्रता पूरी होती है, उस दिन तो परमात्मा खुद ही उतर आता है। उस दिन किसी को कोई पूछने जाता है? तलाशने जाता है?
अनधिकारी ही खोजता है, अधिकारी खोजेगा भी क्यों? यानी खोज का सवाल ही नहीं है। अधिकारी का तो मतलब है कि जिसका अधिकार हो गया, अब तो ज्ञान उसे मिलेगा। अब यह कोई मामला नहीं, इसका हक हो गया। यानी अब तो वह सीधी मांग कर सकता है इस बात की। तो अधिकारी तो किसी के पास जाता नहीं। जाता है अनधिकारी। और वे अनधिकारी के लिए शर्तें हैं!
तो लोग थक गए थे, फिर वह बूढ़ा हो गया, बहुत बूढ़ा! फिर एक दिन उसने एक आदमी को--रास्ते से गुजरता था--उसको कहा, सुनो! ज्यादा दिन नहीं हैं, मैं तीन दिन में मर जाऊंगा। और गांव में जितने लोगों को खबर हो सके पहुंचा दो, जिसको भी ज्ञान चाहिए हो, जो मैंने जाना है, सुनना चाहता हो, वह एकदम चला आए। उस आदमी ने कहा, लेकिन मेरा गांव बहुत छोटा है और अधिकारी वहां कोई भी नहीं। उसने कहा, अब अधिकारी, गैर-अधिकारी का सवाल नहीं है, क्योंकि तीन दिन बाद मैं मर जाने को हूं। तुम तो जाते जाओ, जो भी आ जाए, उसको ले आओ।
वह आदमी गांव में गया, उसने डुंडी पीट दी। उस बूढ़े से तो लोगों का कभी कुछ संबंध नहीं बन सका था। फिर भी किसी की दुकान पर आज काम नहीं था तो उसने कहा, चलो मैं चला चलता हूं। किसी को आज नौकरी नहीं मिली थी तो उसने कहा, चलो मैं भी चला चलता हूं। किसी की पत्नी मर गई थी, उसने कहा कि चलो हम भी चलते हैं। किसी का कुछ हो गया था। कोई दस-बारह लोग मिल गए और वे पहाड़ पर चढ़ कर गए।
लेकिन वह जो ले जा रहा था, वह मन में बड़ा चिंतित था कि इनको तो वह सबको फौरन ही बाहर निकाल देगा, क्योंकि इनमें कोई भी अधिकारी नहीं है, कोई भी पात्र नहीं है। उसने डरते-डरते जाकर कहा कि दस-बारह लोग आए हैं, लेकिन आपके अधिकार के नियम में कोई उतरेगा?
उसने कहा, वह बात ही मत करो। एक-एक को भीतर लाओ। तो उसने पूछा कि आपने वह अधिकार की बात छोड़ दी? उसने कहा, सच बात यह है कि जब तक मेरे पास ही नहीं था, तब तक मैं इस भांति अपने को बचाता था कि अनधिकारी को कैसे दूं। मेरे पास ही नहीं था देने को कुछ! लेकिन यह मानने की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि मेरे पास ही नहीं है। तो तरकीब मैंने यह निकाली थी कि पात्र कहां है जिसको मैं दूं? लेकिन अब जब मुझे हो गया है, तब प्राण ऐसे आतुर हैं कि कोई अपात्र भी आ जाए, क्योंकि अपात्र भी, जो मैं दूंगा, उसको लेते ही पात्र हो जाएगा, क्योंकि अपात्र रह कैसे सकेगा? तो अब मेरी फिक्र नहीं है कि तुम किसको लाते हो; तुम ले आओ, बस मैं उसको कह देना चाहता हूं। अब कोई अपात्र नहीं है। मैं अज्ञानी था, सब अपात्र थे! मैं ज्ञानी हुआ हूं, सब पात्र हो गए हैं!
महावीर ने इस संबंध में बड़ी भारी क्रांति की। ठेठ बाजार में पहुंचा दी सारी बात। इससे क्रोध भी बहुत हुआ। ट्रेड सीक्रेट्स की बातें भी तो हैं। पंडित का धंधा इस पर चलता था कि बात गुप्त थी, इसोटेरिक थी, छिपी हुई थी। बात सबमें खुल गई तो बहुत मुश्किल हो गया।
आप जानते हैं कि डाक्टर प्रिस्क्रिप्शन लिखता है दवाई का, तो लैटिन और ग्रीक का उपयोग करता है। सीधी-सादी अंग्रेजी का भी उपयोग नहीं करता, हिंदी की तो बात दूर! लैटिन और ग्रीक शब्दों का उपयोग दवाइयों के नाम के लिए किया जाता है! उसका कारण है कि अगर आपको उसका ठीक-ठीक नाम, जो आप जानते हैं, पता चल जाए, तो आप उसके लिए पांच रुपए देने को राजी नहीं होंगे। आप कहेंगे, यह बाजार में दो पैसे में मिल सकती है। सीक्रेट यह है कि वह जो उसने लिखा है, वह आपकी पकड़ के बाहर है कि क्या है। हो सकता है उसने लिखा हो अजवाइन। लेकिन लिखा है लैटिन में--अजवाइन का सत! और आप गए बाजार में, कहने लगे अजवाइन का सत तो हम घर ही निकाल लेंगे, इसके लिए हम पांच या दस रुपए नहीं दे सकते। लेकिन अजवाइन का सत लिखा है ग्रीक में, और आपको कुछ पता चलता नहीं कि क्या मतलब है। आप दो पैसे की चीज भी दस रुपए में खरीद कर लाते हैं। और बड़ी प्रसन्नता से घर लौटते हैं कि दवा मिल गई!
पूरा मेडिकल प्रोफेशन बेईमानी कर रहा है, क्योंकि अगर सीधी-सीधी बातें लिख दी जाएं तो सब दुकानें दवाई की खतम होने के करीब पहुंच जाएं, क्योंकि दवाइयां बहुत सस्ती हैं। और उन्हीं चीजों से बनी हैं, जो बाजार में आम मिल रही हैं। लेकिन एक तरकीब उपयोग की जा रही है निरंतर, कि नाम अंग्रेजी में भी नहीं है सीधा, लैटिन और ग्रीक में नाम है! तो अंग्रेजी पढ़ा-लिखा आदमी भी नहीं समझ सकता। फिर डाक्टर जिस ढंग से लिखते हैं, वह ढंग भी कारण है उसमें। यानी वह लैटिन और ग्रीक भी आप ठीक से नहीं समझ सकते कि क्या लिखा हुआ है, वह भी सिर्फ दुकानदार समझता है, जो बेचता है दवा! वह भी पक्का समझता है कि नहीं समझता--बड़े अज्ञान में भी काम चलता है!
मैंने सुना है कि एक आदमी को किसी की चिट्ठी आई थी। किसी डाक्टर ने चिट्ठी लिखी थी, उसके घर पर उसने भोज बुलवाया हुआ था। और डाक्टर नहीं आ सकता था तो उसने क्षमा मांगी थी। लेकिन निरंतर आदत के वश उसने उसी ढंग से लिख दिया था, जैसा वह प्रिस्क्रिप्शन लिखता था। उस आदमी ने बहुत पढ़ा; उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि वह आ रहा है कि नहीं आ रहा है! तो उसने सोचा कि छोड़ो, मेरी समझ में नहीं आएगा, जरा चल कर केमिस्ट को दिखा लूं, वह तो कम से कम डाक्टरों की भाषा समझता है, वह बता देगा कि क्या लिखा है। उसने जाकर वह चिट्ठी केमिस्ट को दी।
केमिस्ट ने चिट्ठी देखी, कहा कि रुकिए, भीतर गया दो बोतलें निकाल कर ले आया! उसने कहा, माफ करिए, यह बोतल का सवाल ही नहीं है। इसमें उसने सिर्फ क्षमा मांगी है कि मैं आज भोज में आ सकूंगा कि नहीं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि बात क्या है।
यह जो सारा का सारा खेल चलता है...तो पंडित ने एक तरकीब निकाली हुई है बहुत पुराने दिन से, वह यह है कि जनता की भाषा में सीधी-सीधी बात मत कहना कभी भी। उसको ऐसी शब्दावली में कहना कि जनता के लिए वह रहस्य हो जाए। वह उसकी समझ के बाहर पड़ जाए। और तब वह तुमसे समझने आएगी।
इसलिए दुनिया में दो तरह के लोग हुए हैं। एक जो जीवन के रहस्य को खुला बनाना चाहते हैं, ताकि प्रत्येक के लिए द्वार खुल जाए। और एक मिस्ट्रीफायर्स हैं, जो जीवन में जो रहस्य नहीं ही है, उसको जबरदस्ती चारों तरफ से गोल-गोल करके उसे ऐसी स्थिति में खड़ा कर देना चाहते हैं कि वह किसी के लिए भी सीधा-सरल सत्य न हो जाए।
उमर खय्याम ने लिखा है कि जब मैं जवान था तो मैं साधुओं के पास गया, संतों के पास गया, ज्ञानियों के पास गया, पंडितों के पास गया--एंड केम आउट ऑफ दि सेम डोर व्हेअरइन आई वेंट इन--और उसी दरवाजे से बाहर आया जिससे भीतर गया; क्योंकि मेरी कुछ पकड़ में ही नहीं पड़ा कि वहां हो क्या रहा है। सबके पास गया, लेकिन उसी दरवाजे से वापस लौटना पड़ा, जिस दरवाजे से गया था। यानी वही का वही वापस लौटा, जो मैं था, क्योंकि मेरी कुछ पकड़ में नहीं पड़ा कि वहां हो क्या रहा है! कौन सी बातें वहां चल रही हैं! किन शब्दों की वे बातें कर रहे हैं! किन लोगों की चर्चा हो रही है! जीवन से उनका कोई सीधा संपर्क नहीं है।
महावीर की क्रांतियों में एक क्रांति इसको भी गिनना चाहिए कि उन्होंने धर्म के गुह्य रूप को, वह जो इसोटेरिक था, वह जो छिपा हुआ था, उसको उघड़ा हुआ कर दिया। इसलिए पंडित उन पर अगर नाराज रहे हों तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि उन्होंने बड़ा बुरा काम किया।
ऐसे जैसे कि कोई डाक्टर सीधी हिंदी में लिखने लगे कि अजवाइन का सत ले आओ! तो दूसरे सारे डाक्टर उस पर नाराज हो जाएं कि तुम क्या कर रहे हो? तुम क्या सब धंधा चौपट करवा देने को हो? तो महावीर पर पंडितों की नाराजगी बड़ी अर्थपूर्ण है।
इसलिए उन्होंने सीधी-सीधी जन-भाषा का उपयोग किया है। और शास्त्रों की भाषा को एकदम छोड़ दिया है, जैसे कि शास्त्र हों ही न। महावीर इस तरह बोल रहे हैं जैसे कि शास्त्र रहे ही नहीं, उनका उल्लेख भी नहीं करते! ऐसा नहीं है कि उन शास्त्रों में कुछ भी न था। उन शास्त्रों में बहुत कुछ था। और महावीर जो कह रहे हैं, कोई खोज करेगा तो उन शास्त्रों में भी मिल जाएगा।
लेकिन महावीर उन शास्त्रों को बीच में लाना ही नहीं चाहते हैं। क्योंकि उनको लाते ही शास्त्रीयता आती है, पांडित्य आता है, सारी दुकान आती है, सारी व्यवस्था! वे ऐसे बोल रहे हैं, जैसे कि कोई पहला आदमी जमीन पर खड़े होकर बोल रहा हो, जिसको किसी शास्त्र का कोई पता नहीं। यह सोचने जैसी बात है।
क्या तेरा सवाल है बोल?

    प्रश्न: गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रयोग किया तो दो साधु तो महावीर की जान बचाने के लिए उठ खड़े हुए और उनका शरीर कपड़ों की भांति जल गया और वे मर गए। जब तीसरा उठा तो महावीर ने उसको रोक लिया। तो जब दो मर गए तो उस समय वे तटस्थता क्यों रखे? या फिर उनमें इतनी करुणा थी तो उन्होंने क्यों नहीं उनको बचाया?

असल में कहानियों को समझना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि वे प्रतीक हैं। और उन प्रतीकों में बड़ी बातें हैं, जो खोली जाएं तो खयाल में आ सकती हैं, न खोली जाएं तो बड़ी कठिनाइयां पैदा करती हैं।
महावीर पर गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रयोग किया है। वह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, एक ऐसी यौगिक प्रक्रिया का प्रयोग कर रहा है कि जिसमें कोई भी जल जाए और भस्म हो जाए।
इसका प्रश्न बहुत बढ़िया है कि महावीर को बचाने के लिए एक साधु उठा, वह नष्ट हो गया; दूसरा उठा, वह मर गया; महावीर देखते रहे! तीसरा उठा, उसको महावीर ने रोक लिया! यह यह पूछती है कि क्या दो के समय महावीर तटस्थता रखे और तीसरे के समय तटस्थता छोड़ दी? या कि दो के समय उन्हें कोई करुणा न आई और तीसरे पर करुणा आ गई? क्या बात है? अगर रोकना था तो पहली बार ही रोक देना था, ताकि दो व्यक्ति न मर पाते। या नहीं ही रोकना था, तटस्थ ही रहना था, तो तटस्थ ही रहना था--कोई मरता या जीता, इसकी कोई चिंता नहीं होनी थी।
इसमें बहुत बातें हो सकती हैं। पहली तो बात यह है कि व्यक्ति किसलिए उठा, यह बड़ा महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति उठा पहला, जरूरी नहीं है कि महावीर को बचाने उठा हो। सिर्फ दिखाने उठा हो कि मैं बचा सकता हूं। सिर्फ अहंकार से उठा हो। और अहंकार को कोई भी नहीं बचा सकता, महावीर भी नहीं बचा सकते। अहंकार तो जलेगा और नष्ट होगा। अहंकार को महावीर भी नहीं बचा सकते।
कहानी तो सीधी-सीधी होती है, लेकिन पीछे हमें उतरने की जरूरत होती है। पहला आदमी किसलिए उठा? क्या वह यह सोचता है कि क्या करेगा गोशालक मेरा, मैं उससे ज्यादा प्रबल हूं! अभी उसे पछाड़ कर रख दूंगा! तो महावीर चुपचाप बैठे रह गए होंगे। क्योंकि असल में वहां एक महावीर का साधु और दूसरा गोशालक ऐसा नहीं था, वहां दो गोशालक थे। वहां जो झगड़ा खड़ा हो गया था, उसमें एक महावीर का साधु नहीं था। उसमें दो गोशालक थे, दो अहंकार थे; जो लड़ने को खड़े हो गए थे। तो महावीर चुप रह गए होंगे। चुप रहना ही पड़ेगा, कोई उपाय न रहा होगा।
तीसरे व्यक्ति के संबंध में क्यों महावीर उसे रोक दिए हैं? हो सकता है, तीसरा व्यक्ति किसी अहंकार से न उठा हो, विनम्र सीधा-सादा आदमी रहा हो। सिर्फ आहुति देने उठा हो, कोई अहंकार से नहीं। एक व्यक्ति और मरे, इतनी देर भी महावीर जी जाएं, इसलिए उठा हो। तो महावीर ने रोका हो कि बस...।
असल में कहानियां ये सब नहीं कह पातीं, और हजारों साल से चलने के बाद रूखे तथ्य हाथ में रह जाते हैं, जिनके पीछे की सब व्यवस्था साथ में नहीं रह जाती कि क्या कारण होगा! लेकिन अगर महावीर को हम समझ सकते हैं, तब हमें बहुत कठिनाई नहीं मालूम पड़ती। जिन दो व्यक्तियों को बचाने के लिए वे नहीं कुछ कहे हैं, वे दो व्यक्ति ऐसे होंगे, जिनके बचाने के लिए कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। वे दो व्यक्ति ऐसे होंगे, जो महावीर के लिए खड़े ही नहीं हो रहे हैं, अपने लिए ही खड़े हो रहे हैं। जो गोशालक को भी कुछ दिखा देना चाहते हैं कि हम भी कुछ हैं। तो महावीर के पास सिवाय दर्शक होने के कोई उपाय नहीं रह गया होगा।
तीसरे व्यक्ति को उन्होंने रोका है, तो जरूर इसका मतलब गहरा हो सकता है। गहरा यह हो सकता है कि तीसरा व्यक्ति न अहंकार से उठा हो। न--यह भी एक अहंकार है कि मैं बचा लूंगा--इस भाव से भी न उठा हो। सिर्फ उठा इसलिए हो कि इतनी देर तक और--मैं मरूंगा, उतनी देर तक महावीर और बचते हैं। इतनी विनम्रता से उठा हो तो फिर महावीर को कुछ कहना पड़ेगा, रोकना पड़ेगा।
महावीर के चित्त में क्या होता है, यह हमें कठिन हो जाता है, क्योंकि हम तो ऊपर से तथ्य देखते हैं न, कि दो को मर जाने दिया और एक को बचाया! हमें खयाल में नहीं आता कि क्या कारण भीतर हो सकते हैं। भीतर से महावीर के देखने खड़े होंगे तो सिवाय इसके और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा। उन दो के प्रति भी करुणा रही होगी। उन दो के प्रति भी करुणा रही होगी--क्योंकि महावीर के लिए करुणा कोई शर्तबंद चीज नहीं है, कि इस व्यक्ति के लिए रहेगी और उसके लिए नहीं रहेगी। लेकिन वे दोनों करुणा के लिए बहरे रहे होंगे। महावीर यह भी जानते हो सकते हैं कि उन्हें रोकने से कोई मतलब नहीं है। क्योंकि कुछ लोग हैं, जो रोकने से और बढ़ते हैं!
हजार बातें हैं। कुछ लोग हैं, जो रोकने से और बढ़ते हैं! न रोके जाएं तो शायद रुक जाएं; रोकने से और तेजी में आते हैं। अहंकारी व्यक्ति ऐसा ही होता है, उसे रोको तो वह और तेज होता है। तो महावीर चुप रहे हों।
एक घटना मैं तुम्हें समझाऊं। मैं जब पढ़ता था तो एक युवक मेरे साथ पढ़ता था, उसका एक बंगाली लड़की से प्रेम था। वह इतना दीवाना था, इतना पागल था, कि वह दो साल यूनिवर्सिटी छोड़ कर कलकत्ता जाकर रहा, ताकि ठीक बंगाली हाव-भाव, बंगाली भाषा, बंगाली कपड़ा, उठना-बैठना, सब बंगाली हो जाए! वह दो साल बंगाली होकर लौट आया। और इतना बंगाली हो गया था कि वह हिंदी भी बोलता तो ऐसे बोलता जैसे कि बंगाली हिंदी बोलता है! वह हिंदी भी ठीक नहीं बोलता था फिर, हिंदी में भी वही भूलें करता था, जो बंगाली को करनी चाहिए। ऐसा बिलकुल निपट बंगाली होकर आ गया था!
लेकिन ऐन वक्त पर उस लड़की ने इनकार कर दिया! उस लड़की को भी मैं पूछा कि क्या बात हो गई है? क्या इनकारी का कारण है? तो उस लड़की ने कहा कि वह मेरे पीछे इतना पागल है और इतनी गुलाम वृत्ति से भरा हुआ है कि ऐसे गुलाम को पति की तरह पाना मुझे आनंदपूर्ण नहीं है। यानी कोई व्यक्ति तो चाहिए! यानी जिसमें कुछ तो अपना हो, कुछ व्यक्तित्व हो। तो मैं नहीं...।
अब बड़ी मजेदार घटना घटी कि वह बेचारा सिर्फ इसलिए झुका चला जा रहा था, और सब स्वीकार करता चला जाता था! वह लड़की कहे रात तो रात, और लड़की कहे दिन तो दिन, ऐसा भाव ले लिया था उसने! लेकिन यही कारण उस लड़की को विवाह से इनकार करने का बना। उसने इनकार कर दिया।
वह तो...मैं जानता था कि कुछ खतरा होगा। एक रात मुझे खबर आई, कोई नौ बजे होंगे। एक ही बेटा था अपने बाप का वह, वृद्ध बाप थे। जिस दिन यह घटना घटी, उसने इनकार किया; उसने एक कमरे में अपने को बंद कर लिया, ताला अंदर से लगा लिया, और जो भी बाहर से कहे दरवाजा खोलो, वह कहे अब मेरी लाश निकलेगी और मुझसे बात मत करो। अब जिंदा मेरे निकलने की कोई जरूरत नहीं है। घबराहट फैल गई। भीड़ इकट्ठी हो गई, सब प्रियजन इकट्ठे हो गए। बूढ़ा बाप रोए। जितना रोए, उतनी उसकी जिद्द बढ़ती जाए!
मुझे खबर आई, मैं गया। मैंने देखा वहां बाहर का सब इंतजाम, मैंने कहा कि ये सब मिल कर इसको मार डालेंगे। क्योंकि उसका जोश बढ़ता चला जा रहा है भीतर। जितना वे समझाते हैं कि अच्छी लड़की ला देंगे! वह कहता, अच्छी लड़की? मेरे लिए कोई लड़की ही नहीं है दूसरी। अच्छे-बुरे का सवाल नहीं है। जितना वे समझाते हैं कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे--बेटा, दरवाजा खोलो! बेटा है कि बढ़ता चला जा रहा है! वह रुकता नहीं!
मैं वहां गया, भीड़ वहां इकट्ठी है, दस-पच्चीस लोग थे। मैंने उनसे कहा कि अगर आप उसे बचाना चाहते हैं तो कृपा कर दरवाजे से हट जाएं, मुझे बात करने दें। मैं दरवाजे पर गया। मैंने उससे कहा, अरुण, अगर मरना है तो इतना शोरगुल मचाने की जरूरत नहीं, मरने वाले इतना शोरगुल नहीं मचाते। ये जीने वालों के ढंग हैं--इतना शोरगुल मचाना। मरने वाले चुपचाप मर जाते हैं, तुम्हें तीन घंटे हो गए, क्या तीन-चार साल लगेंगे तुम्हें मरने में? तुम जल्दी मरो; ताकि हम सब लोग तुम्हें मरघट तक पहुंचा कर निश्चिंत हो जाएं।
उसने चुपचाप सुना, कुछ नहीं बोला! अभी बड़ा चिल्ला-चिल्ला कर बोलता था! मैंने कहा, बोलते क्यों नहीं? उसने कहा, हां, मैं मर जाऊंगा। मैंने कहा, तुम... इसमें हमें कोई एतराज ही नहीं है। कौन किस को रोक सकता है कभी? मरने वाले को कोई नहीं रोक सकता। आज रोकेंगे, कल मर जाओगे। इसलिए रोकें भी क्यों? दरवाजा खोलो। मरने वाले ऐसे दरवाजे बंद करके भयभीत दिखाई पड़ते हैं? एक ही तो भय है जिंदगी में कि मर न जाएं, और तो फिर कोई भय ही नहीं है। और तुमने जब वह भय भी त्याग कर दिया, अब तुम किससे डर कर अंदर बंद हो--दरवाजा खोलो!
उसने दरवाजा खोला और मुझे नीचे से ऊपर तक ऐसे देखा, जैसे मैं उसका दुश्मन हूं। और मैंने कहा कि तुम मेरे साथ गाड़ी में बैठ जाओ और चलो। उसने कहा, कहां जाना है? मैंने कहा कि भेड़ाघाट, जबलपुर में अच्छी जगह है मरने के लिए। समझदार आदमी कम से कम मरने के लिए अच्छी जगह तो चुन ले! नासमझ तो जिंदा रहने के लिए भी अच्छी जगह नहीं चुनता। तो तू भेड़ाघाट मर। और मैं तेरा मित्र रहा इतने दिन तक, तो मेरा कर्तव्य है कि तुझे आखिरी विदा कर आऊं। यानी मित्र का यही मतलब है कि जो हर वक्त काम आए, मुसीबत के वक्त काम आए। इस वक्त तेरे कोई काम नहीं पड़ेगा। इस वक्त मैं ही तेरे काम पड़ सकता हूं। तो उसने मुझे ऐसे देखा कि यह आदमी पागल हो गया है क्या! लेकिन अब मुझसे कुछ कहने की हिम्मत न रही। क्योंकि अब धमकी देने का कोई सवाल न था कि मैं मर जाऊंगा। यह धमकी तो बेमानी थी। वह चुपचाप चला आया!
रात हम दोनों सोए, दोनों तरफ बिस्तर लगा कर बीच में एक अलार्म घड़ी रख कर। मैंने कहा, अब ठंडी रात है, और हो सकता है कि मेरी नींद न खुले, और अलार्म बजे, तो तुम कृपा करके मुझे उठा देना, क्योंकि तीन बजे हमें निकल चलना चाहिए, एक घंटे का रास्ता है। एक घंटे का रास्ता है। तुम वहां कूद जाना, मैं अंतिम नमस्कार करके लौट आऊंगा। और मुझे फिर वापस भी आना है। और भोर होने के पहले आना चाहिए, नहीं तो तुम तो मरोगे, फंसूंगा मैं। तो तीन बजे ही ठीक होगा।
उसने मुझे, सब बातें वह मेरी ऐसे सुनता था, ऐसे चौंक कर, लेकिन वह मुझसे कुछ कहता नहीं था! रात हम सो गए, अलार्म बजा तो उसने जल्दी से बंद किया। जब मैं हाथ ले गया तो वह अलार्म बंद कर रहा था! उसका हाथ मैंने हाथ में ले लिया। मैंने कहा, ठीक है, मेरी भी नींद खुल गई। उसने कहा, लेकिन अभी मुझे बहुत ठंड मालूम होती है। मैंने कहा, ये सब जीने वालों की ही बातें हैं, ठंड मालूम होना, गर्मी मालूम होना। ये कोई मरने वालों के खयाल नहीं हैं। ठंड का अब क्या सवाल? यह आखिरी ठंड है। घंटे भर की बात है, सब खतम! और मुझे वापस भी लौटना है। मैंने उससे कहा कि ठंड मुझे लगेगी, क्योंकि तू जब डूब जाएगा, तब मुझे वापस भी फिर आना है।
वह एकदम गुस्से में बैठ गया और बोला कि आप मेरे दोस्त हो कि दुश्मन? आप मेरी जान लेना चाहते हो? मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? मैंने कहा, मैं तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता हूं और न तुमने कभी मेरा कुछ बिगाड़ा है। लेकिन अगर तुम जीना चाहते हो तो मैं जीने में साथी हो जाऊंगा। अगर तुम मरना चाहते हो, मैं उसमें साथी हो जाऊंगा। मैं तुम्हारा साथी हूं। तुम्हारी क्या मर्जी है?
उसने कहा कि मैं जीना चाहता हूं। मैंने कहा, फिर सांझ से इतना शोरगुल क्यों मचा रहे हो?
अब इस आदमी को क्या हुआ, देखते हो? वह आदमी अब भी जिंदा है। और जब भी मुझे मिलता है तो मुझसे कहता है कि आपने मुझे बचाया, नहीं तो मैं मर जाता। वे सारे बाहर के लोग मुझे मारने की तैयारी करवा रहे थे। वे जितना मुझे बचाने की बातें करते, उतना मेरा जोश चढ़ता चला जाता। आदमी के मन को समझना बड़ा मुश्किल है, एकदम मुश्किल है। और आदमी कैसे काम करता है? किस भांति आदमी का चित्त काम करता है? वह आदमी कभी नहीं बचता, वह मर ही जाता। उसका मरना पक्का था उस दिन।
तो क्यों महावीर किसी को नहीं रोकते हैं, किसी को रोकते हैं, इसे एकदम ऊपर से नहीं पकड़ लेना। इसे बहुत भीतर से देखने की बात होनी चाहिए कि महावीर के लिए क्या कारण हो सकता है। करुणा उनकी समान है। लेकिन व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं। रोकना किसके लिए सार्थक होगा, किसके लिए नहीं सार्थक होगा, यह भी वे जानते हैं। कौन रोकने से रुकेगा, यह भी वे जानते हैं। कौन रोकने से और बढ़ेगा, यह भी वे जानते हैं। कौन किस कारण से बढ़ रहा है, यह भी वे जानते हैं। और इसलिए हो सकता है दो व्यक्तियों को नहीं, दो सौ व्यक्तियों को भी हो सकता है न रोकते।
एक-एक व्यक्ति भिन्न-भिन्न है। उसकी सारी व्यवस्था भिन्न-भिन्न है। और उस व्यक्ति को अगर हम गौर से देखेंगे तो हमें उसके साथ भिन्न-भिन्न व्यवहार करना पड़ेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न हो जाता हूं। मैं न भी भिन्न-भिन्न होऊं, तब भी प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, और उसे देख कर मुझे कुछ करना जरूरी है।
फिर और भी बहुत सी बातें महावीर देखते हैं जो कि साधारणतः नहीं देखी जा सकतीं। उनकी मैं इसलिए बात नहीं करता हूं कि वे एकदम अदृश्य की बातें हैं। महावीर यह देख सकते हैं, इस व्यक्ति की उम्र समाप्त हो गई है, यह सिर्फ निमित्त है इसके मरने का, इसलिए चुप भी रह सकते हैं। और कोई कारण भी न हो, सिर्फ इतना ही देखते हैं, यह आदमी की उम्र तो गई है और सिर्फ निमित्त है इसके मरने का। और निमित्त सुंदर है, इसे मर जाने दें। और एक व्यक्ति, उम्र समाप्त नहीं हुई है और व्यर्थ उलझाव में पड़ा जाता है, व्यर्थ उपद्रव में पड़ रहा है, सोच सकते हैं, रोक लें। किन्हीं क्षणों में मरना भी हितकर है, जीने से भी ज्यादा हितकर है किन्हीं क्षणों में। लेकिन उतने क्षण की अनुभूति और उतनी गहराई का बोध हमें नहीं खयाल में आ सकता है।
अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं तो कोई ऐसा क्षण भी हो सकता है, जब मैं उसको चाहूं कि वह मर ही जाए। हालांकि यह कैसी बात है! क्योंकि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसे हम कभी भी नहीं मरने देना चाहते। चाहे जीना उसका मरने से ज्यादा दुखदायी हो जाए, तो भी हम उसे जिंदा रखना चाहते हैं कोई भी हालत में।
वह बड़ी उलटी बात है। एक बूढ़ा बाप है, नब्बे साल का हो गया है, बीमार है, दुखी है, आंख नहीं है, उठ नहीं सकता, बैठ नहीं सकता, फिर भी बेटे, बहू, बेटियां प्रेम में उसको जिंदा रखे चले जा रहे हैं, इसकी चेष्टा कर रहे हैं उसको जिंदा रखने की!
अब पता नहीं यह प्रेम है या बहुत गहरे में टार्चर की इच्छा है। कहना बहुत मुश्किल है। इस बुङ्ढे को सताने की बहुत गहरी इच्छा काम कर रही है, ऊपर से प्रेम की भाषा है? या कि सच में ही प्रेम है? अगर सच में यह प्रेम है तो बड़ा अजीब प्रेम मालूम पड़ता है, कि मेरे सुख के लिए, कि आप जिंदा रहें, मैं आपको दुख में भी जिंदा रखना चाहूं, तो प्रेम नहीं है। मैं दुखी होना पसंद करूंगा। आप मर जाएंगे, मुझे दुख होगा, पीड़ा होगी, एक खाली घाव रह जाएगा, जो कभी नहीं भरेगा, वह मैं पसंद करूंगा। लेकिन यह पीड़ा और दुख आपका नहीं सहूंगा
मगर ऐसे प्रेम को समझ पाना बहुत कठिन होगा कि कोई बेटा अपने बाप को लाकर और जहर दे दे, और कहे कि अब नहीं जीना है आपको, क्योंकि मेरा प्रेम नहीं कहता कि आपको जिलाऊं। मुझे दुख होगा आपके मरने से, वह दुख मैं सहूंगा। लेकिन आप, मुझे दुख न हो इसलिए जीएं...!
ऐसे क्षण हो सकते हैं। लेकिन उस बेटे का प्रेम फिर समझ में आना बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन कभी एक वक्त आएगा दुनिया में जब कि बेटे इतना प्रेम भी करेंगे, पत्नियां इतना प्रेम करेंगी, पति इतने प्रेम करेंगे। प्रेम का मतलब ही यह है कि हम दूसरे को दुख में न डाल रखें। उसे हम कितने सुख में ले जा सकें। मेरा विचार न हो प्रमुख, कि उसके होने न होने से मुझे क्या होगा, यह सवाल नहीं है बड़ा।
तो इसलिए किसी भी घटना में बहुत गहरे उतरने की जरूरत है और तब हमें खयाल में आ सकता है कि क्या प्रयोजन रहे होंगे। और न भी खयाल में आए तो भी जल्दी निष्कर्ष मत लेना, क्योंकि जल्दी निष्कर्ष बहुत महंगी चीज है। और महावीर जैसे व्यक्तियों के प्रति जल्दी निष्कर्ष बहुत ही महंगा है। क्योंकि उन्हें समझना हमें सदा कठिन है, उन्हें मिसअंडरस्टैंड करना हमें सदा सरल है। उस तरह के जो व्यक्ति हैं, उन्हें समझना तो हमें सदा ही कठिन है। हमारी गहरी से गहरी समझ भी संदिग्ध ही रहेगी। हां, उनके संबंध में कोई नासमझी, कोई मिसअंडरस्टैंडिंग बनानी अत्यंत सरल है। क्योंकि जिस जगह हम खड़े होते हैं, वहां से जो हमें दिखाई पड़ता है, हम वही सोच सकते हैं।
हम वही सोच सकते हैं न, जहां हम खड़े हैं! जिन्हें दूर तक दिखाई पड़ता है, वे क्या सोचते हैं, वे कैसे सोचते हैं, वे सोचते भी हैं कि नहीं सोचते हैं, यह भी हमारे लिए तय करना मुश्किल हो जाता है। वे किस भांति जीते हैं? क्यों उस भांति जीते हैं? अन्यथा क्यों नहीं जीते? यह भी हमें सोचना मुश्किल हो जाता है। हम ज्यादा से ज्यादा अपना ही रूप प्रोजेक्ट कर सकते हैं। हम यही सोच सकते हैं कि इस हालत में हम होते तो क्या करते! दो आदमियों को न मरने देते, या फिर तीनों को ही मरने देते। दो ही उपाय थे हमारे सामने। पर चूंकि हम, उस चेतना स्थिति का हमें कोई अनुभव नहीं है, जो बहुत दूर तक देखती है, बहुत दूरगामी है, और जिसका हमें कोई खयाल नहीं है।
महावीर और गोशालक--जब गोशालक उनके साथ था--तो एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और गोशालक उनसे पूछता है, जो होने वाला है, वही होता है? महावीर कहते हैं, ऐसा ही है। जो होने वाला है, वही होता है। तो पास में ही जिस खेत से वे गुजर रहे हैं, दो पंखुड़ियों वाला एक पौधा लगा हुआ है, जिसमें अभी कली आने को है, कल फूल बनेगी। गोशालक उस पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है और महावीर से कहता है कि यह पौधा फूल होने वाला था और अब नहीं होगा।
वे दोनों गांव से भिक्षा लेकर वापस लौटते हैं। इस बीच पानी गिर गया है और वह जो पौधा फेंका था निकाल कर, पानी गिरने से कीचड़ हो गई है, उस पौधे ने फिर कीचड़ में जड़ें पकड़ ली हैं, वह फिर खड़ा हो गया है! जब वे उसी जगह से वापस लौटते हैं तो महावीर उससे कहते हैं कि देख, वह कली फूल बनने लगी है। वह पौधा पकड़ लिया है जमीन फिर, और कली फूल बन रही है।
जिसे दूर तक दिखाई पड़ता है, उसे बहुत सी बातें दिखाई पड़ती हैं, जो हमारे खयाल में भी कभी नहीं होतीं। और जिंदगी इतना लंबा विस्तार है कि जैसे कोई किसी एक उपन्यास के एक पन्ने को फाड़ ले और उस पन्ने को पढ़े, तो क्या तुम सोचते हो कि उस पन्ने से पूरे उपन्यास के बाबत कोई नतीजा निकाल सके? कुछ भी न निकाल सके। हो सकता है उपन्यास बिलकुल उलटे नतीजों पर अंत हो, जो उस पन्ने में लिखा है उससे बिलकुल भिन्न चली जाए। क्योंकि यह पन्ना सिर्फ उस लंबी यात्रा का एक छोटा सा हिस्सा है। पूरा उपन्यास जानना पड़े।
जिंदगी में हम भी क्या करते हैं कि एक टुकड़े को उठा लेते हैं और उस टुकड़े को फैला कर पूरी जिंदगी को जांचने चल पड़ते हैं! मुश्किल है। ऐसा नहीं जांचा जा सकता। पूरी जिंदगी देखनी पड़े। और पूरी जिंदगी को देखें हम, तो इस एक टुकड़े को भी समझ सकते हैं। नहीं तो यह टुकड़ा भी हमारी समझ में नहीं आ सकता।
और क्या तेरा एक था, वह और बोल दे।

प्रश्न:

ध्यान के लिए शुद्धीकरण की आवश्यकता है। और जब भी व्यक्ति का मन केंद्र पर है, जब भी व्यक्ति केंद्र पर है तो उसकी जो बाह्य क्रिया है, उठना-बैठना, यह सब उसकी सहज अवस्था में हो जाती है। तो जब भी महावीर बैठते हैं ध्यान के लिए, तो जैसे कुक्कुटासन है और गौदोहासन है--यह विचित्र अवस्था है!

हूं, हूं, यह भी समझने जैसी बात है। महावीर को ज्ञान भी हुआ गौदोहासन में! जैसे कोई गौ को दुहते वक्त बैठता है उकडूं, ऐसे बैठे-बैठे महावीर को परम ज्ञान की उपलब्धि हुई है। ये बड़े अजीब आसन हैं। न तो वे गौ दुह रहे थे, यह बड़ी उलटी स्थिति मालूम पड़ती है। ऐसा महावीर बैठे किसलिए थे? ध्यान में, ध्यान अवस्थित होने में ऐसे किसी आसन की कभी बात भी नहीं है। इसे समझना चाहिए।
इसमें तीन बातें समझनी जरूरी हैं। इसमें तीन बातें जरूरी हैं। पहली बात तो यह समझनी जरूरी है कि हमें ऐसा लगता है कि गौदोहासन बड़ा असहज है। ऐसा नहीं है। किसी को सहज हो सकता है। सहज और असहज हमारी आदतों की बातें हैं।
पश्चिमी व्यक्ति को हम यहां ले आएं तो जमीन पर बैठना इतना असहज है, पालथी मार कर बैठना तो ऐसी असहज बात है कि इसे एक पश्चिमी व्यक्ति को सीखने में छह महीने भी लग सकते हैं। और छह महीने मालिश भी चले उसकी और बेचारा हाथ-पैर भी सिकोड़े, तभी वह ठीक से पालथी मार कर--और फिर भी वह सहज नहीं होने वाला। यानी फिर भी वह जब बैठा है तो वह चेष्टारत ही होगा। क्योंकि पश्चिम में नीचे बैठता ही नहीं कोई, सब कुर्सी पर बैठते हैं।
इसलिए नीचे बैठने की जो हमारे लिए अत्यंत सहज बात मालूम होती है, वह जो लोग नहीं बैठते, उनके लिए अत्यंत असहज है। क्या सहज है? जो अभ्यास में है, वही हमें सहज मालूम पड़ता है। जिसका अभ्यास नहीं है, वह असहज मालूम होने लगता है।
हो सकता है महावीर निरंतर पहाड़ में, जंगल में, वर्षा में, धूप में, ताप में, सर्दी में; न कोई घर, न कोई द्वार; न बैठने के लिए कोई आसन, न कोई कुर्सी, न कोई गद्दी; कुछ भी नहीं है। यह बहुत कठिन नहीं है कि महावीर सहज जंगल में रोज उकडूं ही बैठते रहे हों। यह बहुत कठिन नहीं है। फिर महावीर की एक धारणा और अदभुत है। महावीर कहते हैं, जितना कम से कम पृथ्वी पर दबाव डाला जा सके उतना अच्छा, क्योंकि उतनी कम हिंसा होने की संभावना है।
महावीर रात सोते हैं तो करवट नहीं बदलते! क्योंकि जब एक ही करवट सोया जा सकता हो तो दूसरी करवट लक्जरी है। है न? दूसरी करवट जो है, अत्यंत विलासपूर्ण है। जब एक ही करवट सोया जा सकता हो, तो अकारण दूसरी करवट लेने में व्यर्थ ही कोई चींटी, कोई मकोड़ा मर जाए, क्या जरूरत? एक ही करवट से काम चल जाता है। कम से कम हिंसा है एक करवट में ही। दूसरी करवट में कुछ हिंसा हो ही जाती है, हो ही जाएगी। और हमसे शायद न भी हो, महावीर से तो हो ही जाएगी। किसी वृक्ष के तले जंगल में सो रहे हैं, करवट बदलेंगे, पचास चींटियां मर जा सकती हैं।
फिर महावीर कहते हैं, अनावश्यक है, लक्जूरिअस है, यानी विलासपूर्ण है, आमोदपूर्ण है। जरूरत क्या है? एक करवट काफी है। तो महावीर एक ही करवट सो लेते हैं, वे दूसरी करवट बदलते ही नहीं रात भर।
तो ऐसा जो व्यक्ति है, वह मुझे लगता है कि उकडूं बैठना पृथ्वी पर सबसे कम दबाव डालता है, क्योंकि दोनों पंजे ही छूते हैं। पालथी मार कर पृथ्वी का ज्यादा हिस्सा घेरता है। और इतनी ज्यादा हिंसा की संभावना बढ़ जाती है। तो कुछ आश्चर्य नहीं कि महावीर ऐसे ही उकडूं बैठते रहे हों। उनकी जो दृष्टि है, उनकी अपनी जो समझ है, वह समझ यह है कि क्यों व्यर्थ किसी के जीवन को नुकसान पहुंचाना?
तो हमें असहज लगता हो तो पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि हमें असहज लगता हो, इसलिए असहज है, ऐसा मत सोचना। हमारे लिए अभ्यासगत नहीं है, किसी के लिए अभ्यासगत हो सकता है। सारी पृथ्वी पर लोग अलग-अलग ढंग से उठते, बैठते, सोते, खाते-पीते हैं। जो हमें बिलकुल सहज लगता है, दूसरे को बिलकुल सहज न लगेगा।
हम हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हैं, बिलकुल सहज लगता है। कुछ कौमें हैं, जो जीभ निकाल कर नमस्कार करती हैं! दो आदमी मिलेंगे तो दोनों जीभ निकाल देंगे! अब हम सोच भी नहीं सकते कि किसी से नमस्कार करना हो तो जीभ निकाल दो। और अगर किसी से नमस्कार किया जीभ निकाल कर, तो झगड़े की संभावना ज्यादा है। हमारे लिए बिलकुल असहज बात मालूम पड़ती है कि क्या पागलपन है कि दो आदमी मिलें तो जीभ निकालें! लेकिन दो आदमी मिलें तो हाथ जोड़ें, यह कौन सी बात है? अगर हाथ जोड़े जा सकते हैं, जीभ निकाली जा सकती है।
कुछ कौमें हैं, जो मिलती हैं तो नाक से नाक रगड़ कर नमस्कार करती हैं। बिलकुल उनके लिए सहज मालूम होगा। लेकिन हम दो आदमियों को सड़क पर नाक से नाक लगाते देखें, हमें थोड़ी हैरानी होगी कि कुछ दिमाग खराब हो गया है। पश्चिम में चुंबन अत्यंत सरल, सहज सी बात है। हमारे लिए भारी ऊहापोह की बात है कि कोई आदमी सड़क पर दूसरे आदमी को चूम ले। चुंबन हमारे लिए नमस्कार नहीं है। पश्चिम में सहज नमस्कार का हिस्सा है।
जो अभ्यास में हो जाता है हमारे वह सहज लगने लगता है, जो अभ्यास में नहीं वह असहज लगने लगता है।
महावीर अहिंसा की दृष्टि से दो पंजों पर बैठते रहे होंगे। वह सर्वाधिक न्यूनतम हिंसा उसमें है। दूसरा, उनके लिए सहज भी हो सकता है। अगर आप दस आदमियों को रात सोते देखें, तो आप दसों आदमियों को अलग ढंग से सोते देखेंगे। क्योंकि हम देखते नहीं, नहीं तो अगर एक-एक आदमी को...अभी अमरीका में एक उन्होंने लेबोरेटरी बनाई, जिसमें अब तक वे दस हजार लोगों को सुला कर देख चुके हैं। कोई बीस साल से एक्सपेरिमेंट चलता है, और जिसमें अजीब नतीजे निकाले उन्होंने। कोई दो आदमी एक जैसा सोते तक नहीं! यानी और सब बातें तो बेजोड़ हैं ही, यानी दो आदमी सोते भी अपने-अपने ढंग से हैं। सोने का ढंग, उठने का ढंग भी अपना-अपना है।
दूसरी बात यह ध्यान देनी चाहिए कि इस जगत में असहज कुछ भी नहीं है। परिस्थिति अनुकूल-प्रतिकूल, व्यक्ति के सोचने-समझने का ढंग, जीने की व्यवस्था अलग-अलग स्थितियां ला सकती है। जैसे आमतौर से महावीर या तो खड़े होकर ध्यान करते हैं, वह भी साधारण नहीं लगता। क्योंकि साधारणतः लोग बैठ कर ध्यान करते हैं। महावीर खड़े होकर ध्यान करते हैं। महावीर की जो ध्यान की व्यवस्था है, वह शायद खड़े होकर करने में ज्यादा सरल पड़ती है, क्योंकि मूर्च्छा और तंद्रा का कोई उपाय नहीं है।
और हो सकता है, उकडूं बैठने में भी वही दृष्टि हो। उकडूं बैठ कर भी आप सो नहीं सकते। जितने आप एट ईज हो जाते हैं, उतनी ही तंद्रा के आने की संभावना बढ़ जाती है। नींद आ सकती है। महावीर कहते हैं, पूर्ण सजग भीतर रहना है। पूर्ण सजगता के लिए उनका अथक श्रम है। हो सकता है, निरंतर प्रयोग से उन्हें लगा हो कि उकडूं बैठ कर नींद आने का कोई उपाय नहीं है। वे उकडूं बैठने लगे हों।
फिर वे ट्रेडीशनल माइंड नहीं हैं, यह भी समझ लेना चाहिए। महावीर परंपरागत मस्तिष्क नहीं हैं। जिसको नॉन-कनफर्मिस्ट कहते हैं, परंपरा-मुक्त, बल्कि एक अर्थ में परंपरा-निषेधक, वे वैसे व्यक्ति हैं। वे किसी भी चीज में किसी का अनुकरण करेंगे, ऐसा नहीं है। उन्हें जो सहज और आनंदपूर्ण लगेगा, वे वैसा ही करेंगे। जगत में किसी ने किया हो या न किया हो, यह सवाल नहीं है। तो इसमें भी क्यों?
लेकिन हम सब परंपरा-अनुयायी होते हैं। सब कैसे बैठते हैं, वैसे ही हम बैठते हैं! सब कैसे खड़े होते हैं, वैसे ही हम खड़े होते हैं! सब कैसे वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही हम वस्त्र पहनते हैं! सब कैसी बातें करते, वैसी ही हम बातें करते हैं! क्योंकि सबके साथ हमें रहना है और सबसे भिन्न होकर खड़ा होना अत्यंत कठिन है। इसलिए सबके साथ यूनिफार्मिटी बांध कर चलना सरल मालूम पड़ता है।
महावीर इस तरह के व्यक्ति नहीं हैं। वे कहते हैं, सब क्या करते हैं, यह सवाल नहीं है; मुझे क्या करने जैसा लगता है, वही सवाल है। और हो सकता है, मुझसे पहले किसी को भी करने जैसा न लगा हो; और हो सकता है, मेरे बाद भी किसी को करने जैसा न लगे; लेकिन जो मुझे करने जैसा लगता है, उसका हमें अधिकार है। मैं वैसे ही जीऊंगा, वैसा ही करूंगा। इस अर्थों में वे निपट व्यक्ति-स्वातंत्र्य के अपूर्व पक्षपाती हैं--पूर्ण व्यक्ति-स्वातंत्र्य के। यानी ऐसी-ऐसी बातों में भी, जिनमें कि हम कहेंगे, इसमें स्वातंत्र्य की क्या जरूरत है?
यह भी समझ लेना जरूरी है इस प्रसंग में कि हमारे शरीर की और हमारे मन की दशाओं के बीच में एक तरह का तादात्म्य हो जाता है। जैसे आपने देखा हो, कोई आदमी चिंतित होगा, सिर खुजलाने लगेगा। सभी नहीं खुजलाने लगेंगे। कोई चिंतित होगा तो सिर खुजलाने लगेगा। अगर यह आदमी बिना कारण भी सिर खुजलाने लगे तो आप पाएंगे, यह चिंतित हो जाएगा।
यह एसोसिएशन हो जाता है। यह एसोसिएशन हो जाता है, प्रत्येक चीज जुड़ जाती है। तो एक आदमी की शारीरिक गतिविधि में भी उसकी मानसिक गतिविधि जुड़ जाती है। अगर शरीर की गतिविधि बदल दी जाए तो उसके मन की पुरानी गतिविधि के तोड़ने में सहायता मिलती है।
तो कई बार साधक ऐसी व्यवस्था करता है, जिसमें उसका ओल्ड माइंड, उसका पुराना मन अभिव्यक्ति न पा सके। क्योंकि पुराने मन की जो-जो आदतें थीं, वह उनके बिलकुल विपरीत काम करने लगता है। वह उस पुराने मन को मौका नहीं देता सबल होने का।
हमें यह खयाल में नहीं है कि हमारी छोटी-छोटी बातें जुड़ी हुई हैं। हमें यह भी खयाल में नहीं है कि हम खास तरह के कपड़े जब पहनते हैं तो हम खास तरह के आदमी हो जाते हैं। और दूसरी तरह के कपड़े पहनते हैं तो दूसरी तरह के आदमी हो जाते हैं। और एक ढंग से बैठते हैं, तो एक तरह के आदमी हो जाते हैं; और दूसरे ढंग से बैठते हैं, दूसरे ढंग के आदमी हो जाते हैं। क्योंकि हमारा जो मस्तिष्क है, वह इन छोटे-छोटे संकेतों पर जीता और चलता है। बहुत छोटे-छोटे संकेत उसने पकड़ रखे हैं!
अब हो सकता है कि महावीर का उकडूं बैठना एक अजीब घटना है। साधारणतः कोई उकडूं नहीं बैठता। उनका यह उकडूं बैठना, यह गौदोहासन में ध्यान करने जाना, मेरी दृष्टि में गहरे से गहरा यह अर्थ रखता है कि चित्त को इस तरह बैठने के कोई जोड़ नहीं हैं पुराने। इस शरीर की स्थिति में बैठने पर पुराना चित्त असर्ट नहीं कर सकता, वह जोर नहीं डाल सकता। और नए चित्त की तरफ ले जाने में सरलता हो सकती है।
और अंतिम बात खयाल में लेनी चाहिए वह यह...।
एक झेन फकीर हुआ, उसकी मृत्यु करीब आई। वह मरने के करीब है। सब मित्र और प्रियजन इकट्ठे हो गए हैं। वह बड़ा ख्यातिनाम है, लाखों लोग उसे प्रेम करते हैं, हजारों लोगों तक खबर पहुंच गई है। उसके झोपड़े के चारों तरफ मेला लग गया है। निकटतम शिष्य उसके आस-पास खाट के खड़े हैं। वह खाट से उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं एक बात पूछना चाहता हूं, कभी तुमने किसी आदमी के खड़े-खड़े मर जाने की खबर सुनी?
तो उन लोगों ने कहा, खड़े-खड़े मर जाने की! कोई खड़ा-खड़ा मरेगा किसलिए? लोग सोए-सोए ही मरते हैं, क्योंकि मरने के पहले ही लोग लेट जाते हैं। तभी भीड़ में से एक आदमी ने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है, पक्का मुझे पता नहीं, कि वह खड़ा-खड़ा ही मर गया था।
तो उसने कहा, फिर जाने दो। तुमने कभी किसी आदमी के चलते-चलते मरने की खबर सुनी है? तो लोगों ने पूछा, आप ये बातें क्यों पूछ रहे हैं? चलते-चलते मरना! कोई चलते-चलते किसलिए मरेगा? असल में चलना रुक जाता है, इसीलिए तो मरता है। फिर भी भीड़ में से एक आदमी ने कहा कि नहीं-नहीं, यह भी हमने सुना है। कभी प्राचीन समय में एक आदमी हुआ है, जो चलते-चलते मर गया।
तो उस फकीर ने कहा, यह भी जाने दो। मतलब अपने लिए कोई ढंग खोजना पड़ेगा, उस फकीर ने कहा, जैसा कि कोई भी न मरा हो। तो लोगों ने कहा, आप ये क्या बातें कर रहे हैं? उस फकीर ने कहा, अच्छा तो ऐसा करो कि शीर्षासन करते हुए किसी के मरने की खबर सुनी? लोगों ने कहा, यह न तो सुना और न सोचा कभी कि कोई आदमी शीर्षासन करते मर जाएगा!
उस फकीर ने कहा, तो चलो फिर यही ठीक रहेगा। क्योंकि दूसरों के जैसे क्या मरना! मरने में एक आथेंटिसिटी होनी चाहिए न! एक अपनी प्रामाणिकता होनी चाहिए। क्या दूसरे जैसे मरना! सब लोग ऐसे ही मरते हैं...।

प्रश्न:

यह अहंकार नहीं है?

मझो पहले, जल्दी मत करो।
वह आदमी शीर्षासन के बल खड़ा हो गया और मर गया। लेकिन लोग बहुत डरे। और उसकी लाश को कौन नीचे उतारे, यह भी भय समा गया। क्योंकि मतलब यह है कि आदमी मर ही गया सच में? क्योंकि शीर्षासन वह अब भी कर रहा था। मर तो गया था। सांस लोगों ने जांच ली; हृदय के पास जाकर देखा, धक-धक बंद है, सांस बंद है। लोगों को फिर भी यह लगे कि जो आदमी अभी शीर्षासन कर रहा है, इसको ठठरी पर बांधना!
तो भीड़ में बड़ी शंका फैल गई। तो लोगों ने कहा कि अच्छा ठहरो थोड़ा, इसको कुछ मत करो। इसकी बहन भी पास में रहती है, वह भी भिक्षुणी है एक मंदिर में, पास के मंदिर में है। तो उसको बुला लाओ। वह इसकी बड़ी बहन है। इसकी आदतों से ठीक से परिचित भी होगी--इसके साथ क्या करना चाहिए।
बहन भागी आई। उसने आकर उसको जोर का धक्का दिया और कहा कि अभी तक शरारत नहीं छोड़ते हो? मरते वक्त भी कोई ऐसी बातें करनी पड़ती हैं? जिंदगी भर अपने जैसे होने की दौड़ थी, अभी मरने में भी उसको कायम रखोगे? तो वह आदमी खिलखिलाया, हंसा और गिर गया और मर गया। अभी तक वह मरा नहीं था। यानी अभी तक वह मजाक कर रहा था, मरने के लिए भी मजाक कर रहा था!
एकदम से सोचोगे तो फौरन खयाल आ जाएगा कि ऐसा आदमी अहंकारी तो नहीं? लेकिन जो आदमी अपनी मौत के साथ भी मजाक कर सकता है, वह अहंकारी हो सकता है? हम अपनी जिंदगी के साथ भी मजाक नहीं कर सकते। असल में हम सदा दूसरे के साथ मजाक करते हैं। अहंकार सदा दूसरे के साथ मजाक करता है, सिर्फ निरहंकारी अपने साथ भी मजाक कर सकता है। जिंदगी की तो बात जिंदगी, मरने वक्त भी इतना नॉन-सीरियस है, अहंकारी कभी भी नॉन-सीरियस नहीं होता, अहंकारी सदा सीरियस है, सदा गंभीर। सब चीजें गंभीर हैं वहां। यह आदमी कैसा बच्चों के खेल जैसा मामले को ले रहा है--मरने को! और उसमें भी खिलवाड़ कर रहा है! और जब वह गिर पड़ा हंसते हुए तो उस भीड़ में हंसी का फव्वारा छूट गया कि क्या अदभुत आदमी था! मरते वक्त भी...!
और उसकी बहन इतना कह कर धक्का मार कर चली गई। उसने कहा कि यह क्या शरारत करते हो? बचपन से नटखटपन की आदत अभी भी जारी रखे हो? गंभीर होना चाहिए साधु को! यह क्या तुम गैर-गंभीरता कर रहे हो? मरना हो तो ढंग से मरो, जैसा लोग मरते हैं। उसको धक्का दे दिया, वह खूब खिल-खिला कर हंसा है, गिर पड़ा और मर गया है!
अहंकार हमें जल्दी से खयाल में आ सकता है, क्योंकि हमारा खयाल यह है कि जब भी कोई व्यक्ति व्यक्ति होने की कोशिश करता है तो वह अहंकारी है। और यह बड़े मजे की बात है कि जिस व्यक्ति के पास व्यक्तित्व नहीं होता, उसी के पास अहंकार होता है। इसे थोड़ा समझ लेना।
असल में अहंकार सब्स्टीटयूट है व्यक्तित्व का। जो नहीं है, उसकी घोषणा करके हम अपने मन को समझा रहे हैं। लेकिन जिसके पास व्यक्तित्व होता है, उसे अहंकार होता ही नहीं। दिख सकता है बहुत बार, क्योंकि वह आदमी आथेंटिकली इंडिविजुअल होगा। वह जैसा है, वैसा ही होगा, वह इस दुनिया की कोई फिक्र नहीं करेगा।
लेकिन न फिक्र करना उसका, उसका मोटिव नहीं है, उसकी इच्छा नहीं है। वह तो जो होना चाहता है, वह है। अब इसमें अगर इनकार हो जाता है सारे जगत को तो हो जाए, इस इनकार को करने वह नहीं गया है। जब कोई व्यक्ति जो होने को पैदा हुआ है, वही हो जाता है, तभी वह अहंकार से मुक्त होता है।
और अहंकार है क्या असल में? अहंकार उस आत्मा का सब्स्टीटयूट है, जो हमारे भीतर होनी चाहिए और नहीं है। उसकी जगह हम अहंकार को बनाए हुए हैं। अहंकार जो है, वह आत्मा का धोखा देने का काम कर रहा है। जैसे किसी आदमी के पास असली हीरे नहीं हैं तो उसने नकली हीरे की अंगूठी पहन रखी है एक। नकली हीरे की अंगूठी जो है, वह असली हीरे की झलक पैदा करती है दूसरों की आंखों में। लेकिन जिसके पास असली हीरे की अंगूठी है, वह नकली हीरे की अंगूठी किसलिए पहने? वह उसे फेंक देगा। वह दो कौड़ी की हो गई।
जिसके पास आत्मा है, वह अहंकार से उसका संबंध ही गया। क्योंकि अहंकार की जरूरत ही इसलिए थी कि कोई आत्मा तो भीतर थी नहीं, तो हमने एक फाल्स एंटाइटी खड़ी कर रखी थी कि यह मैं हूं। अहंकार कहता था, यह मैं हूं! और उसे पता था ही नहीं कि वह कौन है! जिसे पता चल जाए कि वह कौन है, वह फेंक देगा। अहंकार से उसे क्या लेना-देना रहा।
लेकिन हमें ऐसे आदमी को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि हम दो ही भाषाएं समझते हैं: या तो वह अहंकारी हो तो हम समझते हैं, या विनम्र हो तो हम समझते हैं। और विनम्रता जो है, अहंकार का ही सूक्ष्मतम रूप है। और ऐसा जो व्यक्ति है, न तो अहंकारी होगा, न विनम्र होगा। न वह किसी के हाथ जोड़ने जाएगा और न किसी से हाथ जुड़वाने की चिंता रखेगा। वह जैसा है, वैसा जीएगा। और वैसा आदमी दुनिया को कहेगा, तुम जैसा जीना चाहो, जीयो। लेकिन ऐसे व्यक्ति को हमें पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। बहुत बार ऐसा व्यक्ति हमें अहंकारी मालूम पड़ेगा, क्योंकि ऐसे व्यक्ति की मौजूदगी ही हमारे अहंकार को चोट पहुंचाएगी। और ऐसा व्यक्ति चूंकि विनम्रता ग्रहण नहीं करेगा, इसलिए हमारे अहंकार को ऐसे व्यक्ति से कोई तृप्ति नहीं मिलेगी।
विनम्रता है क्या? दूसरे के अहंकार को तृप्ति देना। तो जो व्यक्ति दूसरे के अहंकार को तृप्ति दे देता है, हम कहते हैं, यह बड़ा विनीत आदमी है, बहुत विनम्र आदमी है! लेकिन उसकी विनम्रता हम पहचानते कैसे हैं? पहचानते इसलिए हैं कि वह इतना झुक कर हमें नमस्कार करता है। हमें न! मुझे नमस्कार करता है झुक कर, तो मेरे अहंकार को तृप्ति दे रहा है, तो मेरे लिए विनम्र हो गया।
असल में विनम्रता की भाषा भी अहंकारियों ने खोजी है। अब वह दूसरों को कहते हैं, सब विनम्र हो जाओ, विनम्रता बड़ी ऊंची चीज है। क्योंकि अगर विनम्र सब हो जाओगे तो ही वे अहंकार को खड़ा कर सकेंगे। नहीं तो उनका अहंकार कहां खड़ा होगा? सभी अविनम्र हो गए तो मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन जो व्यक्ति होने की खोज है, सर्च फॉर दि इंडिविजुअल है, उसमें न तो कोई अहंकार है, न कोई विनम्रता है। वह यह कह रहा है कि मैं मैं हूं, आप आप हैं, इन दोनों में झगड़ा क्या है? यानी मुझे मुझे होने दें, आप आप हों; इसमें कोई झगड़ा नहीं लेना है। वह न विनम्रता पाल रहा है, न अहंकार पाल रहा है। वे दोनों एक ही चीजें हैं। वह यह कह रहा है कि मैं मैं हूं, तुम तुम हो; अब बीच में झंझट क्या लेनी है? तुम तुम रहो, मुझे मुझे होने दो।
लेकिन यह हमें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि यह आदमी यह कह रहा है कि हमसे...तो हमारे अहंकार से इसका कोई संबंध नहीं मिलता। हम चाहते हैं या तो हमारी गर्दन दबाए, तो हम समझें कि यह कुछ है। या हम इसकी गर्दन दबाएं तो हम समझें कि यह कुछ है। लेकिन वह यह कहता है, कोई किसी की गर्दन मत दबाओ। तुम तुम हो, मैं मैं हूं। कृपा करो, तुम्हें जैसा रहना हो, तुम रहो; मुझे जैसा रहना है, मुझे रहने दो। लेकिन न हम खुद रह सकते हैं, वैसे जैसे हमें रहना चाहिए; न हम दूसरे को रहने देना चाहते हैं!
और फिर जो आदमी अपने पर मजाक कर ले, वह आदमी बहुत अदभुत है। अपने पर मजाक करना बहुत कठिन बात है। दूसरे पर मजाक हम करते हैं। और दूसरे पर मजाक हम करते ही इसलिए हैं कि मजाक एक शिष्ट तरकीब है दूसरे को अपमानित करने की। एक शिष्ट तरकीब है। एक तरकीब है, जिसमें दूसरा हमसे झगड़ भी नहीं सकता, क्योंकि मजाक ही तो कर रहे हैं, और हम उसे गहरी चोट भी पहुंचा देते हैं। हम उसे अपमानित भी कर देते हैं। अपमानित करने का जो शिष्ट ढंग है, वह मजाक है।
तो दूसरे का व्यंग्य हम कर सकते हैं, दूसरे पर हंस सकते हैं। लेकिन अपने पर हंसने वाला आदमी, अपनी जिंदगी पर हंसने वाला आदमी और अपनी मौत पर भी हंसने वाला आदमी बहुत अनूठा है। बहुत ही अनूठा है। क्योंकि वह बुनियादी खबर दे रहा है कि अब दूसरे का तो सवाल ही नहीं रहा, यह हम खुद ही अपने पर हंसने जैसी हालत पाते हैं। खुद अपने पर भी हंसने जैसी हालत पाते हैं। यानी यह जो मेरा व्यक्तित्व है, यह भी हंसने योग्य ही है। इसमें कुछ ऐसी बात नहीं है, इसे गंभीरता से लेने का सवाल नहीं है।
लेकिन दुनिया में साधु-संत बड़े गंभीर होकर बैठे हैं, अति गंभीर होकर बैठे हैं! और उनकी गंभीरता का एक बड़ा बुनियादी कारण है कि उन्होंने दूसरों का मजाक करना बंद कर दिया और अपना मजाक वे सीख नहीं पाए हैं। उनकी गंभीरता का जो बहुत गहरे में कारण है, हंसें कैसे? दूसरे की मजाक बंद कर दी है, क्योंकि वह गलत थी। और अपनी मजाक का शुरू करना तो बहुत कठिन बात है, वह हो नहीं सकती। तो वे गंभीर हो गए हैं, भारी गंभीर हो गए हैं।
यह जो गंभीरता दिखती है साधु में, उसका कारण यह है। नहीं तो वह एकदम हलका हो जाएगा, एकदम वेटलेस हो जाएगा। एकदम हलका हो जाए, क्योंकि बात ही क्या है? वह किसी भी चीज पर हंस सकता है। और जो अपने पर हंस सकता है, वह जब कभी दूसरे पर भी हंसता है तो चोट नहीं पहुंचाता। जो अपने पर हंस सकता है, वह अगर दूसरे पर भी हंसता है तो चोट नहीं पहुंचाता; बल्कि जो आदमी अपने पर हंस सकता है और दूसरे पर हंसता है, तो उस दूसरे को लगता है कि वह आदमी हमको भी अपना ही मानता है। नहीं तो इसके बिना हंसता भी नहीं। समझ रही हो न उसकी बात? हमें जो जल्दी से खयाल उठते हैं, उनको बहुत जल्दी मत पकड़ लेना। बहुत गहरे से गहरे जाकर खोजना चाहिए कि कहां क्या हो सकता है।
यह जो मैंने घटना कही इस फकीर की, वह इसीलिए कही कि मैं यह कह सकूं कि व्यक्ति हैं, जो मरने का भी अपना ढंग, जो मृत्यु को भी एक प्रामाणिकता और एक व्यक्तित्व देना चाहते हैं! और महावीर इन व्यक्तियों में अदभुत हैं। वे प्रत्येक चीज को अपना व्यक्तित्व--जैसा उन्हें लगता है। यानी संसार के शास्त्र कहें कि गौदोहासन में किसी को ज्ञान हुआ है? और महावीर गौदोहासन में बैठ कर ज्ञान को पा लेंगे!
कबीर के मरने का वक्त आया। तो मरते वक्त तक कबीर काशी में थे। काशी के पास थोड़ी दूर पर मगहर एक गांव है। और कथा यह है कि काशी में तो गधा भी मरे तो देवता हो जाता है। और मगहर में अगर देवता भी मरे तो गधा हो जाता है। तो लोग काशी मरने आते हैं! मगहर के लोग तो सब काशी मरने आते हैं, क्योंकि मगहर में तो बड़ा डर रहता है। तो काशी में, एक दस-पांच दिन पहले मरने के करीब कोई हुआ, कि उसको ले आते हैं, सांस काशी में टूटे।
कबीर जिंदगी भर काशी में रहे, मरने का वक्त आया तो कहा कि मुझे मगहर ले चलो! तो लोगों ने कहा, आप पागल हो गए हैं? मगहर से तो कोई मरने यहां आता है। जिंदगी भर तो यहां जीए, मगहर मरने जाते हो? मगहर में मरता है आदमी, गधा हो जाता है!
कबीर ने कहा, वह ठीक है। अगर काशी में मरने की वजह से देवता हुए तो अपना क्या हुआ! यानी काशी की वजह से हो गए देवता, अपना क्या हुआ! अगर मगहर में मर कर देवता हो सके तो कुछ बात भी होगी, लगेगा कि कुछ किया भी। और अगर मगहर में मरने से गधा हुए तो वह मगहर की वजह से हुए; काशी में मरने से देवता हुए, वह काशी की वजह से हुए। दोनों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि किसी और ही वजह से बात हो गई। फर्क तो अपनी वजह से होना चाहिए। तो मुझे पता कैसे चले कि अपनी ही वजह से देवता हुए हैं? काशी में तो झंझट हो जाएगी। अगर हो गए देवता तो काशी की वजह होगी। मगर मरे कबीर मगहर में! अब ऐसे जो लोग हैं...।
तो महावीर यह कह रहे हैं कि यह कोई सवाल नहीं है कि इस आसन में ध्यान होगा, कि उस आसन में ध्यान होगा। आसन से ध्यान का कोई संबंध ही नहीं है। यह तीसरी बात जो मैं कहना चाहता था: आसन से ध्यान का कोई संबंध ही नहीं है। ध्यान किसी भी आसन में हो सकता है। क्योंकि ध्यान है आंतरिक घटना, आसन है बाहर शरीर की स्थिति। और आसन का ठीक से अर्थ समझ लें। तो जो आसान हो, वही आसन है। तो जो जिसको आसान हो! सभी को एक जैसा आसान नहीं भी होता है।
तो महावीर यह भी इससे सूचना देना चाह रहे हैं कि कोई पद्मासन में, कि सिद्धासन में ही ध्यान होगा और ज्ञान की उपलब्धि होगी, वह गलत है, क्योंकि इस भांति तो तुम ज्ञान को शरीर की बैठक से बांध रहे हो। शरीर से क्या लेना-देना है! भीतर जो है वह, वह किसी भी आसन में हो सकता है।
महावीर की वह जो गौदोहासन की स्थिति, जिसमें उनको केवल-ज्ञान हुआ, जैनियों ने हिम्मत नहीं की कि अपने मंदिरों में वैसी मूर्तियां बना कर रखें। मूर्तियां सब बनाई हैं पद्मासन में, क्योंकि पुरानी धारणा यह है कि ज्ञानी को पद्मासन में ज्ञान होता है!
अब ये मजे की बातें हैं। यानी वह आदमी सब गड़बड़ करके गया, तुमने सब फिर व्यवस्थित कर दिया, वही पुराने का पुराना! वह आदमी ऐसे आसन में बैठ कर केवल-ज्ञान को उपलब्ध हुआ...।

प्रश्न:

वह तो निर्वाण की स्थिति की है!

सली घटना तो केवल-ज्ञान की है, निर्वाण वगैरह तो मूल्य की बातें नहीं हैं। असली घटना तो केवल-ज्ञान की है, जब केवल-ज्ञान घटित हुआ। निर्वाण तो अच्छे आदमी को हम मर गया ऐसा कहना ठीक नहीं समझते, इसलिए निर्वाण वगैरह कहते हैं। यानी अच्छा आदमी मरता है तो मर गया, ऐसा कैसे कहें, इसलिए इसको निर्वाण कहते हैं। वह तो सिर्फ शरीर का छूटना है। मगर उससे भी गहरे में शरीर पहले छूट चुका, वह है केवल-ज्ञान की घटना।
लेकिन वह हमने हिम्मत नहीं की। क्योंकि महावीर हमको तक एब्सर्ड मालूम पड़ेंगे ऐसे गौदोहासन में बैठे हुए! हमको भी ऐसा लगेगा कि यह तो जरा कुछ जंचती नहीं बात। तो कैसे महावीर जंचने चाहिए, हम वैसा उनको बना लेते हैं! और सदा यह होता है, सब बातों में यह होता है, कैसे जंचने चाहिए!
अब दिगंबर महावीर के नग्न चित्र भी बनाएंगे--तो कितनी हमारी कमजोरी है--तो एक झाड़ के पास बनाएंगे, जिसमें झाड़ की शाखाओं में उनकी नग्नता छिपा देंगे! यानी जो लंगोटी उन्होंने छोड़ी है, तैयार करवा देंगे! मगर नग्न सीधा खड़ा न कर सकेंगे! तस्वीर बनाएंगे, एक झाड़ की शाखाएं निकाल देंगे और झाड़ की शाखाओं में नंगापन छिपा देंगे! ये महावीर से ज्यादा होशियार लोग हैं!
अब या तो ऐसे ही झाड़ के पास ही महावीर खड़े रहते रहे हों कि कहीं नंगापन न दिख जाए। तो फिर झंझट क्या है? इससे तो लंगोटी अच्छी, कि अपन कहीं जा भी तो सकते हैं पहन कर! यह झाड़ के साथ खड़े रहना तो बहुत ही गड़बड़ है। लेकिन हमारा जो दिमाग है, अत्यंत क्षुद्र, वह सब फौरन ढाल लेता है अपने हिसाब से। और फिर जो शक्ल हम बनाते हैं, जो व्यवस्था हम देते हैं, वह हमारी होती है। वह सच्ची नहीं होती।
अब एक आदमी नंगा होने की हिम्मत करे तो उसके अनुयायी उसको नंगा न होने देंगे। अगर वह हो ही जाए, न माने, तो वे कोई तरकीबें निकाल लेंगे और पीछे उसको लीप-पोत कर बराबर कर देंगे, कि वह आदमी नंगा नहीं था! और इस तरह सारी चीजों में चलता है। और इसलिए क्रांतियां पैदा होती हैं और मर जाती हैं। और इसलिए रोज-रोज क्रांति की जरूरत पड़ जाती है। रोज-रोज उन लोगों की जरूरत है, जो फिर से आकर चीजों को तोड़ दें।
और यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, लेकिन यही होता रहा है कि जितना बड़ा क्रांतिकारी होगा, उसको उतना ही ज्यादा लीप-पोत दिया जाएगा। इसलिए यह खयाल में रखना चाहिए कि दुनिया में जो बड़े क्रांतिकारी नहीं हुए, उनकी आथेंटिक, प्रामाणिक स्थिति हमें उपलब्ध है। वे जैसे थे, वैसा हमें उपलब्ध है। लेकिन दुनिया में जो बड़े क्रांतिकारी हुए, उनको हमने लीप-पोत दिया, उनका हमें कोई पता नहीं कि वे कैसे थे! बिलकुल और ही शक्ल उपलब्ध है, जैसे कि वे कभी भी नहीं रहे होंगे!
तो यह प्रश्न ठीक ही है। वे सब चीजों में जो उन्हें ठीक लगता है, वैसा ही करते हैं। वे किसी देवता से नहीं पूछेंगे, किसी गुरु से नहीं पूछेंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि इस आसन में नहीं होगा। यह कैसे बैठे हो? ऐसे कहीं ज्ञान हुआ है किसी को? तो वे कहेंगे, तुम अपने रास्ते जाओ। क्योंकि ज्ञान को अगर आना है तो मेरी शर्तों पर, मैं कोई ज्ञान की शर्तें मानने जाने वाला नहीं हूं। यानी मेरी शर्तों पर, मैं जैसा हूं, उसको वैसे में ही आना है। और अगर कोई व्यक्ति इतना हिम्मतवर और साहसी है तो परमात्मा को उसी की शर्तों पर आना पड़ेगा। शर्तों का मतलब यह कि वह जैसा है, उसको वैसा ही आना पड़ेगा। कोई रुकावट इसमें नहीं पड़ सकती।
यह अगर खयाल में आ जाए तो व्यक्ति-स्वातंत्र्य की धारणा स्पष्ट होती है। तब मैं कहता हूं कि किसी भी आसन में--सोए, बैठे, लेटे, खड़े, कैसे भी ध्यान हो सकता है। यह अपने-अपने चुनाव की बात है कि कैसा उसके लिए सरल लग सकता है। क्योंकि गौदोहासन तक में एक व्यक्ति मोक्ष जा चुका, इसलिए अब चिंता की बात नहीं है। यानी अब, अब किसी भी आसन में यह घटना घट सकती है। लेकिन शायद ही एकाध जैन मुनि हो, जो गौदोहासन में बैठा मिल जाए। वह परंपरागत ढंग बांध कर बैठा हुआ है, उसको चलाए चला जाता है!
ये परंपरा को तोड़ने के प्रतीक हैं सिर्फ। यानी ऐसा व्यक्ति छोटी-मोटी चीजों में भी परंपरा को तोड़ देना चाहेगा। यानी ऐसी क्षुद्र बातों में भी वह कहेगा कि नहीं, मैं जैसा हूं, वैसा हूं। और प्रत्येक व्यक्ति में इतना साहस आना चाहिए, तो ही व्यक्ति साधक हो सकता है। और जिस दिन परम साहस प्रकट होता है, उस दिन सिद्ध होने में क्षण भर की देर नहीं है।

आज इतना ही।

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