महावीर:
आत्यंतिक
स्वतंत्रता
के प्रतीक—(प्रवचन—तेईसवां)
प्रश्न:
यह
सच है कि
आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर
कैसे अज्ञान
में गिरती है?
कैसे बंधन
में गिरती है?
कैसे शरीर
ग्रहण करती
है--जब कि शरीर
छोड़ना है, जब
कि शरीर से
मुक्त होना है?
यह कैसे
संभव हो पाता
है?
यह
सवाल
महत्वपूर्ण
है और बहुत
ऊपर से देखे
जाने पर समझ
में नहीं आ
सकेगा। थोड़े
भीतर गहरे झांकने
से यह बात
स्पष्ट हो
सकेगी कि ऐसा
क्यों होता
है। जैसे, इस कमरे में
आप हैं और आप
इस कमरे के
बाहर कभी भी
नहीं गए हैं, कभी गए ही
नहीं। इस कमरे
में आप हैं, बड़े आनंद
में हैं, बड़ी
शांति में हैं,
बड़े
सुरक्षित। न
कोई भय, न
कोई अंधकार, न कोई दुख; लेकिन इस
कमरे के बाहर
आप कभी नहीं
गए हैं।
तो इस
कमरे में रहने
की दो शर्तें
हो सकती हैं: एक
तो यह कि आपको
कमरे के बाहर
जाने की कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। यानी
आप जाना भी
चाहें तो आप
नहीं जा सकते
हैं। आप
परतंत्र हैं
इस कमरे में
रहने को--एक तो
शर्त यह हो
सकती है। दूसरी
शर्त यह हो
सकती है कि आप
स्वतंत्र
पूरे हैं बाहर
जाने को, लेकिन
आप अपनी समझ
के कारण बाहर
नहीं जाते हैं।
क्योंकि बाहर
दुख है, क्योंकि
बाहर पीड़ा है,
बाहर भटक
जाना है, बाहर
अशांति है। ये
दो शर्तें हो
सकती हैं।
अगर आप
परतंत्र हैं
बाहर जाने के
लिए, तो आपका
सुख, आपकी
शांति, आपकी
सुरक्षा, सभी
थोड़े दिनों
में आपको कष्टदायी
हो जाएंगी, क्योंकि
परतंत्रता से
बड़ा कष्ट और
कोई भी नहीं
है। अगर आपको
सुख में रहने
के लिए भी
बाध्य किया जाए
तो सुख भी दुख
हो जाएगा।
बाध्यता
इतना बड़ा दुख
है कि बड़े से
बड़े सुख को--यानी
एक आदमी को हम
कहें कि हम
तुम्हें सारे
सुख देते हैं
सिर्फ
स्वतंत्रता
नहीं, यानी
यह भी
स्वतंत्रता
नहीं देते कि
अगर तुम चाहो
तो इन सुखों
को भोगने से
इनकार कर सको,
तुम्हें
भोगना ही पड़ेगा--तो
परतंत्रता
इतना बड़ा दुख
है कि सारे सुखों
को मिट्टी कर
देगी। और अगर
यह शर्त हो इस
कमरे के भीतर
रहने की कि
बाहर नहीं जा
सकते, सुख
नहीं छोड़ सकते,
तो ये सब
सुख अत्यंत
दुख हो
जाएंगे। और
बाहर निकलने
की प्यास इतनी
तीव्र हो
जाएगी, विद्रोह
इतना गहरा हो
जाएगा, जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
और यह शर्त कि बाहर
नहीं जा सकोगे,
अनिवार्य
रूप से बाहर
ले जाने का
कारण बनेगी। और
यह भी हो सकता
है फिर कि
बाहर दुख हो, लेकिन फिर
भी आप भीतर
आना पसंद न
करें, क्योंकि
भीतर से बाहर
जाने की कोई
आज्ञा नहीं है।
एक स्थिति यह
है।
दूसरी
स्थिति यह है
कि आपको पूरी
स्वतंत्रता है, आप बाहर
जाएं या भीतर
रहें। लेकिन
आप कभी बाहर
नहीं गए हैं।
आपने भीतर के
सब सुख, सब
शांति, सब
ज्ञान जाना
है। लेकिन
बाहर अज्ञात
है, और आप
बाहर जाते
हैं। और
जाएंगे तो ही
तो जान सकेंगे
कि बाहर क्या
है! जानेंगे, जानने के
लिए यात्रा
करेंगे, भटकेंगे, दुख भोगेंगे,
तब फिर वापस
लौटेंगे। और
अब जब आप वापस
आएंगे तो पहले
का ही सुख
आपको करोड़
गुना ज्यादा
मालूम पड़ेगा,
क्योंकि
बीच में दुख
का एक अनुभव, अज्ञान का
एक
अनुभव--पीड़ा
से आप गुजरे
हैं।
हो
सकता है कि
पहले वह कमरे
के भीतर के
सुख आपको सुख
भी न मालूम
पड़े हों, क्योंकि
आपको कोई दुख
न था; और
प्रकाश आपको
प्रकाश न
मालूम पड़ा हो,
क्योंकि
आपने अंधेरा न
देखा था। अब
जब आप बाहर के
जगत से वापस
लौटते हैं, तब आप जानते
हैं कि प्रकाश
क्या है।
क्योंकि आपने
अंधेरा जाना,
क्योंकि
आपने पीड़ा
जानी, इसलिए
आप अब आनंद को
पहचानते हैं।
तो पहले का सुख
रहा भी होगा
तो भी
बोधपूर्वक न
रहा होगा, कांशस
नहीं हो सकते
हैं उसके आप।
आप मूर्च्छित
ही रहे होंगे,
उस सुख में
भी मूर्च्छित
रहे होंगे।
लेकिन जब बाहर
के सारे दुखों
को झेल कर, बड़ी
कठिनाइयों से
वापस कदम
उठा-उठा कर
अपने घर पर आप
पहुंचते हैं,
तब आप सचेतन
पहुंचते हैं।
यानी
मेरा कहना यह
है कि आत्मा
उसी अवस्था
में पुनः
पहुंचती है, जिस अवस्था
में वह थी। यह
संसार की पूरी
यात्रा उसे
किसी नई जगह
नहीं पहुंचा
देती है--वहीं,
जहां वह सदा
थी। लेकिन इस
यात्रा के बाद
पहुंचना
अनुभव को
सचेतन, गहरा,
अदभुत बना
देता है। यानी
वही स्थिति अब
मोक्ष मालूम
होती है--वही
स्थिति! वह
स्थिति तब भी
थी, लेकिन
तब वह मोक्ष न
थी, हो
सकता है, तब
वह बंधन जैसी
ही मालूम पड़ी
हो। क्योंकि
आपको विपरीत
कोई अनुभव न
था।
आत्मा
स्वतंत्र है
स्वयं के बाहर
जाने के लिए, इसके लिए
कोई
परतंत्रता
नहीं है।
आत्मा स्वतंत्र
है भटकने के
लिए। और
स्वतंत्रता
का हमेशा यही
अर्थ होता है,
जहां भूल
करने की
स्वतंत्रता न
हो, वहां
स्वतंत्रता
नहीं है। भूल
करने की स्वतंत्रता
गहरी से गहरी
स्वतंत्रता
है।
आत्मा
स्वतंत्र है, पहली बात।
यानी आत्मा
अमर है, आत्मा
ज्ञानपूर्ण
है; उतना
ही गहरा यह
सत्य भी है कि
आत्मा
स्वतंत्र है,
उस पर कोई
परतंत्रता
नहीं है।
स्वतंत्रता
का मतलब होता
है कि वह चाहे
तो सुख उठाए, चाहे तो दुख
उठाए; चाहे
तो ज्ञान में
जीए और चाहे
तो अंधकार में
खो जाए; चाहे
तो वासना में
जीए और चाहे
वासना से
मुक्त हो जाए।
स्वतंत्रता का
मतलब यह है कि
ये दोनों
मार्ग उसके
लिए बराबर
खुले हुए हैं।
और इसलिए बहुत
अनिवार्य है
कि
स्वतंत्रता
की यह संभावना
उसे उन
स्थितियों में
ले जाएगी, जो
दुखदायी हों।
और तभी उस
अनुभव से वह
वापस लौट सकती
है।
तो
मैंने जैसा
कहा निगोद, निगोद वह स्थिति
है, जहां
आत्माएं वही
हैं, जो वे
हैं। निगोद
वह स्थिति है,
जहां
उन्होंने कोई
विपरीत अनुभव
नहीं किया। निगोद वह
स्थिति है, जहां
उन्होंने
स्वतंत्रता
का उपयोग नहीं
किया। इसलिए निगोद एक
परतंत्रता की
स्थिति है।
संसार
वह स्थिति है, जहां आत्मा
ने
स्वतंत्रता
का उपयोग करना
शुरू किया। वह
भटकी, उसने
भूलें कीं, उसने दुख
पाए, उसने
शरीर ग्रहण
किए, उसने
न मालूम कितने
प्रकार के
शरीर ग्रहण
किए, उसने
हजारों तरह की
वासनाएं पालीं
और पोसीं
और प्रत्येक
वासना के
अनुकूल
शरीरों को
ग्रहण किया।
यह भी उसकी स्वतंत्रता
है। यानी अगर
मैंने शरीर
ग्रहण किया है
तो यह मेरा डिसीजन
है, यह
मेरा निर्णय
है। इसमें
दुनिया में
कोई मुझे
धक्के नहीं दे
रहा है कि तुम
शरीर ग्रहण
करो। यह मेरी
परम
स्वतंत्रता
की संभावना का
ही एक हिस्सा
है कि मैं
शरीर ग्रहण
करूं।
फिर
मैं कौन सा
शरीर ग्रहण
करूं, यह भी
मेरी
स्वतंत्रता
है--कि मैं
चींटी बनूं, कि हाथी
बनूं, कि
आदमी बनूं, कि देवता
बनूं, कि
प्रेत बनूं, क्या बनूं, यह भी सवाल
मेरे ऊपर ही
निर्भर है।
इसके लिए भी
कोई मुझे
धक्के नहीं दे
रहा है। लेकिन
चूंकि मेरी
आत्मा
स्वतंत्र है,
इसलिए मैं
इन सारी चीजों
का उपयोग कर
सकता हूं। और
उपयोग के बाद ही
मैं इनसे
मुक्त हो सकता
हूं, इनके
पहले मुक्त भी
नहीं हो सकता।
इसलिए निगोद में
जो आत्मा है, वह अमुक्त
है। अमुक्त का
कुल मतलब इतना
है कि उसने
स्वतंत्रता
का उपभोग ही
नहीं किया।
प्रश्न:
निगोद
में तो आत्मा
मूर्च्छित
रहती है!
वही
मतलब है, मूर्च्छित
का भी वही
मतलब है।
सचेतन वह
मोक्ष में
होगी। और
सचेतन वह तभी
होगी, जब
दुख उठाएगी, पीड़ा उठाएगी,
कष्ट भोगेगी,
तभी सचेतन
होगी। जब अपनी
स्वतंत्रता
का दुरुपयोग
करेगी, तभी
सचेतन होगी।
प्रश्न:
निगोद
से आत्मा
संसार में
क्यों आती है?
हां, वही बात हो
रही थी। तुम
जरा देर से आए,
जरा पीछे
सुन लेना।
यानी मैं यह
कह रहा हूं कि स्वतंत्रता,
फ्रीडम जो है, वह
आत्मा का
मूलभूत
हिस्सा है। और
स्वतंत्रता
का अर्थ ही यह
होता है कि
मैं जहां जाना
चाहूं, मेरे
ऊपर कोई बंधन
नहीं है।
अगर
मैं वासना में
उतरना चाहूं
तो मैं गहरी
से गहरी वासना
में उतर सकता
हूं। संसार की
कोई शक्ति
मुझे रोकने को
नहीं है।
बल्कि, चूंकि
आत्मा
स्वतंत्र है,
इसलिए
संसार की
प्रत्येक
शक्ति मुझे
साथ देगी। मैं
वासना में
उतरना चाहता
हूं, संसार
मेरे लिए सीढ़ियां
बना देगा।
परमात्मा की
सारी
शक्तियां
मेरे हाथ में
मुझे उपलब्ध
हो जाएंगी।
मैं शरीर ग्रहण
करूं, कैसा
शरीर ग्रहण
करूं। तो मेरी
वासना जैसी होगी,
वैसा मैं
शरीर ग्रहण कर
लूंगा। यह
सारी की सारी
स्वतंत्रता
का ही हिस्सा
है।
लेकिन
जब यह शरीर
ग्रहण करना, यह दुख, यह
पीड़ा, यह
परेशानी, यह
भटकन, यह
अनंत यात्रा,
यह आवागमन,
यह
पुनरुक्ति, बार-बार, बार-बार
यह चक्कर जब
जोर पकड़ने
लगेगा, जब सफरिंग
गहरी होगी, तो मुझे कुछ
न कुछ याद पड़ना
शुरू हो
जाएगा--कोई घर,
जो मैंने
कभी छोड़ दिया।
यह जो
हमें स्मृति
है न, वह निगोद
की है। यानी
यह जो हमको
स्मरण है कि
कहीं कुछ गलत
हो रहा है। अशांत
नहीं होना है,
शांत होना
है। शांति
अच्छी लगती है,
अशांति
बुरी लगती है।
क्यों? शांति
में हम किसी
क्षण में रह
चुके हैं, अन्यथा
यह कैसे संभव
था? दुख
बुरा लगता है,
आनंद अच्छा
लगता है। आनंद
की कोई गहरी
स्मृति कहीं
भीतर है, जो
कहती है कि
वापस लौट चलो,
वही अच्छा
था।
लेकिन
उसको भी इतना
अनंत-अनंत काल
व्यतीत हो गया
है उस यात्रा
में गए हुए, कि बहुत
स्पष्ट चित्र
नहीं है कि हम
कहां लौट जाएं?
क्या करें?
लेकिन
बार-बार ऐसा
अनुभव होता है
कि कहीं हम गलत
हैं, कहीं
किसी फारेन
लैंड में हैं,
कहीं किसी
विजातीय, किसी
विदेशी जगत
में हम हैं।
जहां हमें
होना चाहिए, वहां हम
नहीं हैं।
समथिंग मिसप्लेस्ड।
कुछ न कुछ चीज
कहीं और रख गई
है, ऐसा
प्रतिपल
प्रतीत होता
रहता है।
यही
प्रतीति धर्म
बनती है। इसी
प्रतीति की गहरी
से गहरी
जिज्ञासा फिर
से पुनर्खोज
बनती है उस
जगह की, जहां
से हमने
स्वतंत्रता
का उपयोग शुरू
किया था, उस
बिंदु की, जहां
हम थे और जहां
से हम चल पड़े।
अब हम फिर वापस
लौटें। यह जो
वापस लौटना है,
यह भी हमारा
निर्णय है। यह
उसी
स्वतंत्रता
का सदुपयोग
है। हम वापस
लौटते हैं।
हम उसी
बिंदु को अब
फिर पुनः
उपलब्ध जब
होंगे, तो
यह बिंदु
यद्यपि वही
होगा, लेकिन
हम बदल गए
होंगे।
इसे
समझ लेना
जरूरी है। उसी
जगह हम फिर
वापस पहुंच
जाएंगे, जहां
से हमने
यात्रा शुरू
की थी। लेकिन
जब हम अब
पहुंचेंगे, जगह वही
होगी, लेकिन
हम? हम बदल
गए होंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के जीवन में
एक बहुत अदभुत
घटना है। वह
एक गांव के
बाहर बैठा हुआ
है, अपने
गांव के बाहर
एक झाड़ के
नीचे। चांदनी
रात है, एक
व्यक्ति उसके
पास आया, जिसने
हजारों
रुपयों से भरी
एक थैली उसके
सामने पटकी और
कहा, नसरुद्दीन,
मैं करोड़पति
हूं। मेरे पास
रुपयों के
अंबार हैं, लेकिन सुख
नहीं। तो मैं
सारी पृथ्वी
पर घूम रहा
हूं कि सुख
कैसे पाऊं?
कहां पाऊं?
और मुझे
कहीं सुख नहीं
मिला। हां, लोगों ने
मुझे बार-बार
कहा कि नसरुद्दीन
से मिलो, शायद
वह तुम्हें
सुख का कोई
रास्ता बता
दे। तो मैं
कैसे सुख पाऊं?
सब मेरे पास
है, सुख
नहीं है। मुझे
कोई रास्ता
बताओ!
नसरुद्दीन
ने दो क्षण
उसे देखा, आंख बंद की, फिर एकदम से
उठा और उसकी
वह जो लाखों
रुपए की थैली
थी, उसको
लेकर भागा। वह
आदमी चिल्ला
कर उसके पीछे भागा
कि नसरुद्दीन!
यह तुम क्या
कर रहे हो? तुमसे
ऐसी आशा न थी।
यह तुम कर
क्या रहे हो!
तुम मेरे रुपए
चुरा कर भागे
जा रहे हो!
नसरुद्दीन
तो तेजी से
भागा। गांव
उसका परिचित
है। वह आदमी
अपरिचित है।
वह गली-कूचों
में चक्कर
देने लगा। आधी
रात का वक्त
है, गांव
सन्नाटे में
है। वह आदमी
चिल्लाता है,
लोग उठते भी
हैं तो भी
किसी की समझ
में नहीं आता
कि हो क्या
गया है! पूरे
गांव में
चक्कर देकर और
नसरुद्दीन
ने उस आदमी को
थका मारा है।
वह बिलकुल लथड़
गया है, चिल्ला
रहा है कि हाय,
लुट गया! हे
भगवान बचाओ!
मर गया! अब
मेरा क्या होगा?
और वह भागता
हुआ पूरे गांव
में चक्कर
लगवा रहा है।
आखिर
में वह नसरुद्दीन
उसी झाड़ के
नीचे आकर थैली
को पटक कर झाड़
के पीछे खड़ा
हो गया। वह
आदमी आया, उसने थैली
हाथ में ले
ली। उसने कहा,
धन्यवाद, हे भगवान
धन्यवाद!
नसरुद्दीन
ने कहा, दिस
इज़ टू वन मेथड ऑफ गेटिंग हैप्पीनेस।
यह भी एक
तरकीब है सुख
पाने की। उसने
कहा कि देख, यही थैली
तेरे पास पहले
भी थी, लेकिन
तूने ऐसे पटक
दिया था जैसे
कचरा। यही
थैली अब भी है,
लेकिन बीच
के अनुभव ने...।
यह भी सुख
पाने की एक तरकीब
है। नसरुद्दीन
ने उससे कहा
कि यह भी एक
तरकीब है!
और
मेरी अपनी समझ
यह है कि
मोक्ष और निगोद
में इतना ही
फर्क है। जो
थैली थी, वह
खो दी गई।
थैली थी, यह
निगोद है।
यह मोक्ष की
यात्रा का
पहला बिंदु है,
जहां हम थे।
थैली खो दी गई,
यह संसार
है। थैली वापस
पा ली गई, यह
मोक्ष। और यह
खो देना बहुत
अनिवार्य है।
नहीं तो आप इस
थैली में क्या
है, इसका
अर्थ ही भूल
जाएंगे। यह खो
देना अनिवार्य
हिस्सा है। और
खोकर जब आप
दुबारा पाते हैं,
तब आपको पता
चलता है कि
आनंद क्या है।
निगोद
में भी वही था,
पर उसे खोना
जरूरी था, ताकि
वह पाया जा
सके।
असल
में जो मिला
ही हुआ है, उसका हमें
पता होना बंद
हो जाता है।
जो हमें मिला
ही हुआ है, धीरे-धीरे
हम उसके प्रति
अचेतन हो जाते
हैं, मूर्च्छित
हो जाते हैं।
क्योंकि उसे
याद रखने की
कोई जरूरत ही
नहीं होती। यह
सवाल ही मिट
जाता है हमारे
मन से कि वह है,
क्योंकि वह
है ही। वह
इतना है कि जब
हम थे, तब
वह था। तो
जरूरी है कि
उसे फिर से
सचेतन होने के
लिए खो दिया
जाए।
तो
संसार आत्मा
की यात्रा में
खोने का बिंदु
है, और वह भी
हमारी
स्वतंत्रता
है। पर निगोद
और मोक्ष में
जमीन-आसमान का
फर्क है।
बिलकुल एक ही स्थितियां
हैं, लेकिन
निगोद
बिलकुल
मूर्च्छित है,
मोक्ष
बिलकुल अमूर्च्छित
है। और निगोद
को मोक्ष
बनाने की जो
प्रक्रिया है,
वह संसार
है। यानी इस
प्रक्रिया के
बिना निगोद
मोक्ष नहीं बन
सकता।
इसलिए
अगर हम
स्वतंत्रता
के तत्व को
समझ लें तो
हमें सब समझ
में आ जाएगा
कि यह सारी
यात्रा हमारा
निर्णय है। यह
हमारा चुनाव
है। हमने ऐसा चाहा
है, इसलिए
ऐसा हुआ है।
हमने जो चाहा
है, वही हो
गया है। कल
अगर हम न
चाहेंगे इसे,
तो यह होना
बंद हो जाएगा।
परसों अगर हम
बिलकुल न
चाहेंगे, निर्णय
छोड़ देंगे, च्वाइस छोड़
देंगे--वही
संन्यास का
अर्थ है कि जब
हम न चाहेंगे,
हम छोड़
देंगे; हम
नहीं चाहते
हैं अब--हम
वापस लौटना
शुरू हो जाएंगे।
वही बिंदु
हमें फिर
उपलब्ध होगा,
लेकिन हम
बदल गए होंगे।
इस खोने की
यात्रा में
हमने विपरीत
का अनुभव किया
होगा। हमने
दरिद्रता जानी
होगी, अब
वह संपत्ति
हमें फिर
संपत्ति
मालूम पड़ेगी।
दुख जाना होगा,
वह आनंद
हमें आनंद
मालूम पड़ेगा।
और
इसलिए
प्रत्येक
आत्मा के जीवन
में यह अनिवार्य
है कि वह
संसार से
घूमे। और
इसलिए कई बार ऐसा
हो जाता है कि
संसार में जो
बहुत गहरे उतर
जाते हैं, जिनको हम
पापी कहते हैं,
वे उतनी ही
तीव्रता से
वापस भी लौट
आते हैं। और
जो साधारणजन
जिसे हम कहते
हैं, जो
पाप भी नहीं
करता, जो
संसार में भी
गहरे नहीं
उतरता, वह
शायद मोक्ष की
तरफ भी उतनी
जल्दी नहीं
लौटता, क्योंकि
लौटने में
तीव्रता तभी
होगी, जब
दुख और पीड़ा
भी तीव्र हो
जाएं। जब हम
इतनी पीड़ा से
गुजरेंगे कि
लौटना जरूरी
हो जाएगा। लेकिन
अगर हम बहुत
पीड़ा से नहीं
गुजरे तो शायद
लौटना जरूरी न
हो।
जैसे
वह थैली लेकर नसरुद्दीन
भागा था, पूरी
थैली लेकर भाग
गया था, पीड़ा
भारी थी। वह
दो रुपए लेकर
भागा होता तो
हो सकता था उस
आदमी ने थैली
बांधी होती और
अपने घर चला
गया होता कि
ठीक है, जाने
दो। लेकिन तब
इस थैली की
उपलब्धि का वह
रस नहीं हो
सकता था, क्योंकि
यह थैली फिर
वही की वही
थी। और वह आदमी
फिर गांव-गांव
में पूछता कि
आनंद का
रास्ता क्या
है, सुख
कैसे मिले? नसरुद्दीन ने कहा यह कि
सुख को खोओ, तो मिलेगा!
अब यह बड़ा
उलटा मालूम
पड़ता है। जिसे
पाना है, उसे
खोओ! क्योंकि
अगर वह पाया
ही हुआ है तो
उसका पता ही
नहीं चलेगा।
तो
संसार में हम
वही खोते हैं, जो हमें
मिला हुआ है।
मोक्ष में हम
वही पा लेते
हैं, जो
हमें मिला ही हुआ
था। और यह
सारा का सारा
जो चक्र है, वह
स्वतंत्रता
के केंद्र पर
घूमता है। और
जितना ज्ञान,
जितना आनंद,
उससे भी
गहरी
स्वतंत्रता, फ्रीडम। इसलिए
मुक्ति की
हमारी इतनी
आकांक्षा है,
बंधन का
इतना विरोध
है। और मुक्त
हम होना चाहते
हैं--लेकिन
बंधन को अनुभव
कर लेंगे तभी।
प्रश्न:
आत्मा
स्वतंत्र है, लेकिन वासना
के कारण
परतंत्र हो गई?
वासना
भी उसकी
स्वतंत्रता
है।
प्रश्न:
वही
चुनती है वह
भी?
वही
चुनती है।
बंधन भी वही
चुनती है।
यानी मैं स्वतंत्र
हूं कि चाहूं
तो हथकड़ी
अपने हाथ में
बांध लूं, कोई मुझे
रोकने वाला
नहीं है। मैं
स्वतंत्र हूं
कि चाहूं तो हथकड़ी
अपने हाथ में
बांध लूं, कोई
मुझे रोकने
वाला नहीं है।
और इसके लिए
भी स्वतंत्र
हूं कि चाबी
से लॉक करके
चाबी को फेंक
दूं कि उसे
खोजना ही
मुश्किल हो
जाए, इसके
लिए भी मैं
स्वतंत्र
हूं। मैं इसके
लिए भी
स्वतंत्र हूं
कि अपनी हथकड़ी
पर सोना चढ़ा
लूं और उसको
आभूषण बना
लूं। मैं इसके
लिए भी
स्वतंत्र
हूं। लेकिन
अंतिम निर्णय
मेरा ही है।
यहां कोई किसी
को परतंत्र
नहीं कर रहा
है। हम होना
चाहते हैं तो
हो रहे हैं, हम नहीं
होना चाहते तो
नहीं होंगे।
बहुत
गहरे में जो बंधन
है वासना का, वह भी हमारा
चुनाव है। कौन
तुमसे कहता है
कि वासना करो?
तुम्हें
लगता है कि
वासना को
जानें, पहचानें;
शायद उसमें
भी सुख हो, उसे
खोजें; तो
तुम यात्रा
करो। यात्रा
जरूरी है ताकि
तुम जानो कि
सुख वहां नहीं
था और दुख ही
था। और दुख अगर
वासना का
प्रकट हो
जाएगा तो तुम
वासना छोड़ दो।
तब भी तुम्हें
कोई रोकने
नहीं आएगा कि
क्यों वासना छोड़ी जा
रही है? कोई
तुम्हें कहने
नहीं आया कभी
कि क्यों तुम
वासना पकड़ रहे
हो?
मनुष्य
की
स्वतंत्रता
परम है, अल्टिमेट है, चरम
है। उसके ऊपर
कोई भी नहीं
कहने वाला कि
तुम यह क्यों...?
और
स्वतंत्रता
तभी पूर्ण है,
जब बुरे के
भी करने का हक
हो।
अगर
कोई यह कहे कि
अच्छा-अच्छा
करने की
स्वतंत्रता
है, बुरा
करने की नहीं,
तो
स्वतंत्रता
कैसी है यह? यानी हमेशा
यह ध्यान रहे
कि अगर अच्छे
ही अच्छे करने
की
स्वतंत्रता
हो...।
एक बाप
अपने बेटे से
कहे कि तुझे
मंदिर जाने की
स्वतंत्रता
है, लेकिन
वेश्यालय
जाने की नहीं,
तो यह मंदिर
जाने की
स्वतंत्रता
कैसी स्वतंत्रता
हुई? यह तो
परतंत्रता
हुई। बाप कहे
कि मंदिर जाने
की तुझे
स्वतंत्रता
है, बस तू
मंदिर ही जा
सकता है।
वेश्यालय
जाने की स्वतंत्रता
नहीं है, वहां
तू नहीं जा
सकता। तो यह
स्वतंत्रता
कैसी हुई?
यह
स्वतंत्रता न
हुई, यह मंदिर
जाने को
स्वतंत्रता
का नाम देना
झूठा है। यह
बाप
परतंत्रता को
स्वतंत्रता
के नाम से लाद
रहा है। लेकिन
अगर बाप
स्वतंत्रता
देता है तो वह
कहता है कि
तुझे हक है, कि तू चाहे
तो मधुशाला जा,
तू चाहे तो
मंदिर जा। तू
अनुभव कर, सोच,
समझ। जो
तुझे ठीक लगे,
कर। परम
स्वतंत्रता
का मतलब होता
है, सदा
भूल करने की
स्वतंत्रता
भी।
प्रश्न:
और
इसी स्वतंत्रता
के कारण ही
भूल होती है?
स्वतंत्रता
के कारण भूल
नहीं होती।
स्वतंत्रता के
कारण भूल नहीं
होती।
प्रश्न:
चुनाव
बुरे का ही
होता है न?
यह
जरूरी नहीं
है।
प्रश्न:
ज्यादातर?
यह
जरूरी नहीं
है। यह जरूरी
नहीं है।
क्योंकि चुनाव
बुरे का करने
के बाद जिन्होंने
चुनाव भले का
किया है, वह
भी चुनाव
उन्हीं का है।
यानी जो मोक्ष
गए हैं, मोक्ष
जाने में वे
उतना ही चुनाव
कर रहे हैं, जितना जो
संसार में आ
रहे हैं, वे
चुनाव कर रहे
हैं। असल में
जो मंदिर की
तरफ जा रहा है,
वह भी उसका
चुनाव है, जो
वेश्यालय की
तरफ जा रहा है,
वह भी उसका
चुनाव है; जहां
तक
स्वतंत्रता
का संबंध है, दोनों बराबर
हैं।
स्वतंत्रता
का दोनों उपयोग
कर रहे हैं।
यह दूसरी बात
है कि एक बंधन
बनाने के लिए
उपयोग कर रहा
है, एक
बंधन तोड़ने के
लिए उपयोग कर
रहा है। यह
बिलकुल दूसरी
बात है।
और
इसके लिए भी
हमें
स्वतंत्रता
होनी चाहिए कि
अगर मैं बंधन
ही बनाना
चाहता हूं और हथकड़ी ही
डालना चाहता
हूं तो दुनिया
में मुझे कोई
रोक न सके, नहीं तो वह
भी परतंत्रता
होगी। यानी
अगर मान लो, मैं हथकड़ी
डाल कर बैठना
चाहता हूं, जंजीरें
बांध कर पैरों
में, और
दुनिया मुझे
कहे कि हम न
करने देंगे, तो यह तो
परतंत्रता हो
जाएगी। यानी
यह परतंत्रता
होगी और हथकड़ियां
मुझे डालने की
स्वतंत्रता
स्वतंत्रता
ही है, क्योंकि
अंतिम
निर्णायक मैं
हूं।
और जो
मैं कह रहा
हूं, वह यह कह
रहा हूं कि
अगर सुख को
जानना हो तो
दुख की
स्वतंत्रता भोगनी ही
पड़ेगी। उसकी
ही पृष्ठभूमि
में, उसकी
ही काली
पृष्ठभूमि
में सुख की
सफेद रेखाएं उभरेंगी।
हम
वहीं लौट जाते
हैं, जहां से
हम आते हैं, लेकिन न तो
हम वही रह
जाते, न
वही बिंदु वही
रह जाता।
क्योंकि
हमारी सब दृष्टि
बदल जाती है।
एक संत फिर
बच्चा हो जाता
है, लेकिन
एक बच्चा संत
नहीं है।
प्रश्न:
तो
फिर मोक्ष की
अवस्था में
फिर अगर वह
वापस चाहे, प्रयास करे
आना--समझो करुणावश
ही--तो फिर वह
एक चुन सकता
है। चुनाव तो
फिर भी हो
सकता है?
बिलकुल
चुनाव हो सकता
है। बिलकुल
चुनाव हो सकता
है। बिलकुल
चुनाव हो सकता
है, लेकिन
सिर्फ करुणावश
ही।
प्रश्न:
हां, करुणावश ही फिर आना...?
करुणावश
ही, करुणावश ही हो सकता
है चुनाव आने
का। लेकिन फिर
वह संसार में
आता नहीं, हमें
दिखता भर है
आया हुआ। यह
भी समझ लेना
जरूरी है। हम
जिस भांति
संसार में आते
हैं, फिर
वह उस भांति
संसार में नहीं
आता।
मैं
पीछे कहीं एक
वक्तव्य दिया
हूं। जापान में
एक फकीर था, जो
छोटी-मोटी
चोरी कर लेता
और जेलखाने
चला जाता। और
उसके घर के
लोग परेशान
थे। वह बूढ़ा
हो गया। उसके
अनुयायी
परेशान थे। वे
कहते थे, हमारी
बड़ी बदनामी
होती है
तुम्हारे
पीछे। और तुम
आदमी ऐसे हो
कि हमें प्रेम
करना पड़ता है।
तुम्हारे
पीछे हम भी बदनाम
होते हैं--कि
किसको तुम
मानते हो, जो
चोरी करता है
और जेल चला
जाता है! अब तो
तुम बूढ़े हो
गए, अब तो
यह बंद करो।
लेकिन
वह कहता कि
फिर वे जो जेल
में बंद हैं, उनको खबर
कौन देगा कि
बाहर कैसा मजा
है! तो मैं उन्हें
खबर देने जाता
हूं। और कोई
रास्ता नहीं
है इसलिए
छोटी-मोटी
चोरी कर लेता
हूं, और
जेल चला जाता
हूं। और वहां
जो बंद हैं, उनको खबर
देता हूं बाहर
की, कि
बाहर कैसी
स्वतंत्रता
है! उनको कौन
खबर देगा? वहां
अगर चोर ही
चोर जाते
रहेंगे, और
चोर ही चोर
वहां जाते
हैं।
लेकिन
इस फकीर का
जाना बहुत
भिन्न है। और
यह फकीर एक
अर्थों में
जाता ही नहीं, क्योंकि न
तो यह चोरी
करता है चोरी
के लिए--जब यह
भीतर इसको हथकड़ियां
डाली जाती हैं
तब भी यह कैदी
नहीं है, और
जब यह जेल में
बंद किया जा
रहा है तब भी
यह कैदी नहीं
है। यह कैद से
बाहर का आदमी
है। बल्कि और
कैदियों को भी
मुक्त करने के
खयाल से आया
हुआ है।
तो जो
बुद्ध या
महावीर या
जीसस जैसा
आदमी जमीन पर
आता है तो
हमें लगता है
कि वह आया, सच में वह
आता नहीं। सच
में यानी इस
अर्थ में कि
अब यह संसार
उसके लिए
संसार नहीं
है। यह संसार
अब उसके लिए
संसार नहीं
है। अब यह
उसके अनुभव की
यात्रा नहीं है,
यह हो चुकी।
अब इसमें उसकी
कोई पकड़ नहीं
है, कोई
जकड़ नहीं है।
अब इसमें कोई
रस नहीं है।
इसमें कुल
करुणा इतनी है
कि वे जो और
भटक रहे हैं, उनको वह खबर
दे जाए कि एक
और लोक है, जहां
पहुंचना हो
गया है, जहां
पहुंचना हो
सकता है। इस करुणावश
उतरना हो सकता
है, लेकिन
यह करुणा
अंतिम वासना
है।
यह
करुणा भी
अंतिम वासना
है। क्योंकि
अगर बहुत गौर
से देखें तो
करुणा में भी
थोड़ा सा अज्ञान
शेष है। बहुत
थोड़ा सा
अज्ञान, जिसको
अज्ञान नहीं
कह सकते, लेकिन
जिसको ज्ञान
भी नहीं कहा
जा सकता। बहुत
बारीक अज्ञान
की रेखा शेष
है, वह यह
है कि किसी को
मुक्त किया जा
सकता है--एक। क्योंकि
जो अपनी
स्वतंत्रता
से अमुक्त हुए
हैं, उनको
तुम कैसे
मुक्त करोगे?
दो--कोई दुख
में है, यह
भी अज्ञान है।
क्योंकि वह
दुख उसका
बिलकुल निर्णय
है। और
तीसरा--किसी
को भी उसके समय
के पहले वापस
लौटाया जा
सकता है, यह
भी संभव नहीं
है। उसका
अनुभव तो पूरा
होगा ही। यानी
अगर इस सब पर
हम गौर करें
तो यह, इसलिए
करुणा जो है, वह अंतिम, दि लास्ट
इग्नोरेंस
है। पर इसे
इग्नोरेंस कहने
में, अज्ञान
कहने में भी
बुरा लगता है।
क्योंकि वह इतने
प्रेम से जन्मता
है वैसा
अज्ञान! इसलिए
वह एक बार, एकाध
बार जन्म ले
सकता है, इससे
ज्यादा नहीं।
क्योंकि तब तक
वह करुणा भी क्षीण
हो जाएगी, वह
भी गल जाएगी।
प्रश्न:
विलीन
हो जाएगी?
हां, वह भी विलीन
हो जाएगी।
प्रश्न:
यह
बात आपने कैसे
कही कि समय के
पहले नहीं लौटाया
जा सकता?
समय
के पहले का
मतलब यह नहीं
है कि किसी का
समय कोई तय
है। समय के
पहले का मतलब
यह है कि उसका
पूरा भोग तो
हो जाए। समय
के पहले का
मतलब यह नहीं है
कि एक तारीख
तय है कि उस
तारीख को तुम लौटोगी।
तारीख तय नहीं
है, लेकिन
तुम्हारा
अनुभव तो पूरा
हो जाए। उसके
पहले तुम्हें
नहीं लौटाया
जा सकता।
प्रश्न:
वह
मेरे पर ही डिपेंड
करता है कब
लौटना?
बिलकुल
ही, तुम पर ही
निर्भर करता
है। नहीं तो
परतंत्र हो
जाओगी तुम, फिर मुक्ति
नहीं हो सकती
तुम्हारी कभी
भी। अगर किसी
ने तुम्हें
मुक्त कर दिया
तो यह नई तरह की
परतंत्रता होगी
यह, कभी
तुम मुक्त
नहीं हो
सकतीं। और
इसको मैं कहता
हूं परम
स्वतंत्रता
है आत्मा
को--दुख भोगने की,
नरकों की यात्रा
करने की, पीड़ाओं
में उतरने की;र् ईष्याओं
में, जलन
में, सब
में उतर जाने
की उसे पूरी
स्वतंत्रता
है। और कोई
उसे नहीं लौटा
सकता जब तक
कि...।
प्रश्न:
उनके
उतरने की
जरूरत क्या है
फिर? जो
आत्माएं
उतरती हैं, जो अपनी
करुणा की
अंतिम इच्छा
से उतरती हैं,
उनके उतरने
की भी जरूरत
नहीं है?
वही
तो मैं कह रहा
हूं कि सच में
जरूरत नहीं
है।
प्रश्न:
कोई
चेंज ही नहीं
होगा अगर सब
बराबर ही है!
सच
में कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन यह मैं
कह रहा हूं कि
करुणा अंतिम
वासना है और
यह उनका चुनाव
है। यानी यह
जो मैं कह रहा
हूं कि
स्वतंत्रता, परम
स्वतंत्रता
है हमें। अगर
मैं आज मुक्त
हो जाता हूं
और फिर भी लौट
आना चाहता हूं,
तो दुनिया
में मुझे कोई
रोकने को नहीं
है। यानी मुझे
अगर ऐसा लगता
है कि आपके
द्वार पर
खटखटाऊं, यह
भी जानते हुए,
यह भी हो
सकता है कि
मैं जानता
होऊं
भलीभांति कि
किसी को जगाया
नहीं जा सकता
उसके पहले, यह भी हो
सकता है कि
मैं जानता
होऊं कि किसी
को जागने के
पहले जगाया
नहीं जा सकता,
सबकी अपनी
सुबह है और
वक्त पर होगी।
सबकी नींद
पूरी होगी, तभी वे
जागेंगे। और
हो सकता है
बीच में जगाना
दुखद भी हो, क्योंकि वे
फिर सो जाएं।
यानी आखिर
नींद तो पूरी
हो जानी चाहिए
न किसी की! मैं
जाकर उसका पांच
बजे दरवाजा
खटखटा दूं और
वह जग भी आए, करवट बदले, और फिर सो
जाए। और शायद
पहले वह छह
बजे उठ आता, अब वह आठ बजे
उठे, क्योंकि
वह जो बीच का
गैप पड़ा, यह
भी नुकसान दे
जाए उसे। यह
जानते हुए भी!
यानी
यह सवाल आप
जगेंगे कि
नहीं यह नहीं
है, सवाल यह
है कि मैं जाग
कर जो आनंद
अनुभव कर रहा हूं,
वह मुझे
परेशान किए दे
रहा है, वह
आनंद मुझे कहे
दे रहा है कि
जाओ, किसी
के द्वार
खटखटा दो।
यानी अब बहुत
गहरे में हम
समझें तो आप
नहीं हैं
सेंटर करुणा
के। यानी आप
जगेंगे कि
नहीं, यह
विचारणीय
नहीं है, लेकिन
जो जग गया है, वह एक ऐसे
आनंद को अनुभव
करता है कि
अंतिम वासना
उसकी यह होगी
कि वह अपने
प्रियजनों को
खबर कर दे।
अपने प्रियजनों
को खबर कर दे, भला प्रियजन
उसको गाली दें
कि बेवक्त
नींद तोड़ दी।
यह कौन दुश्मन
दरवाजा खटखटा
रहा है! यह दूसरी
बात है, यानी
यह सवाल ही
नहीं है। यह
बहुत गहरे में
देखने पर यह
करुणा उसका
अपना चुनाव
है। इससे आपसे
कोई बहुत
संबंध नहीं
है।
वासना
भी अपना चुनाव
है। जैसे समझ
लें कि मैं
आपको प्रेम
करने लगूं। मैं
आपको प्रेम
करने लगूं तो
यह मेरा चुनाव
है। जरूरी
नहीं है कि आप
मुझे प्रेम
करें। और जरूरी
नहीं है कि
मेरे प्रेम से
आपको आनंद भी
मिले। और यह
भी हो सकता है
कि मेरा प्रेम
आपको दुख दे।
और यह भी हो
सकता है कि
मेरा प्रेम
आपको परेशानी
में डाले। यह
सब हो सकता है, फिर भी मैं
आपके लिए
प्रेम से भरा
हुआ हूं। यह मेरी
भीतरी बात है।
और मैं प्रेम
करूंगा। और यह
आपके लिए क्या
लाएगा, कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता।
हालांकि मेरा
प्रेम कोशिश
करेगा कि आपके
लिए हित आए, भला आए, मंगल
आए; लेकिन
यह जरूरी नहीं
है।
करुणा
को मैं कह रहा
हूं अंतिम
वासना। सारी
वासनाएं
जिसकी क्षीण
हो गईं, उसका
मतलब है कि उस
आदमी को आनंद
उपलब्ध हो गया।
उसकी सारी
वासनाएं
क्षीण हो गईं,
उसे आनंद
उपलब्ध हो
गया। अंतिम
वासना एक रह
जाती है कि यह
आनंद औरों को
भी उपलब्ध हो
जाए। अब अपने
लिए पाने को
कुछ भी शेष
नहीं रहा।
अपने लिए पाने
को कुछ भी शेष
नहीं रहा।
उसने आनंद पा
लिया। अब एक
अंतिम वासना
शेष रह जाती
है, जो यह
कहती है कि यह
आनंद औरों को
भी उपलब्ध हो जाए।
और वह भी इतना
तीव्र भाव है!
हालांकि वह भी
चुनाव है।
इसलिए
जरूरी नहीं है
कि सभी शिक्षक
वापस लौटें।
इसलिए मैंने
कहा कि यह मौज
की बात है कि
कोई सीधा
चुपचाप विलीन
हो सकता है
मोक्ष में।
लेकिन कोई
ठिठक जाए, वापस लौट
आए। हालांकि
वह भी एक जन्म,
दो जन्म के
बाद विलीन हो
जाएगा। जाएगा
कहां? जाने
का सवाल नहीं
है कहीं और।
लेकिन वह
अंतिम उपाय कर
सकता है।
लेकिन
यह भी अज्ञान
का ही हिस्सा
है--बहुत गहरे
में। क्योंकि
अगर पूर्ण
ज्ञान हो तो
यह बात भी खतम
हो जाने वाली
है कि ठीक है, जो जा रहा है
अपनी-अपनी
स्वतंत्रता
है, अपनी-अपनी
यात्रा है।
लेकिन वैसा
पूर्ण ज्ञानी
हमें अत्यंत
कठोर मालूम
पड़ेगा, अत्यंत
कठोर।
क्योंकि राह
चलते अगर कोई
प्यासा पड़ा है
तो शायद वह
उसको पानी भी
न दे। क्योंकि
वह कहेगा, अपनी-अपनी
यात्रा है।
हालांकि बहुत
हमें कठोर
मालूम पड़ेगा,
हद कठोर
मालूम पड़ेगा।
अपनी-अपनी
यात्रा है। प्यास
भी तुम्हारा
चुनाव है।
तुमने जो पीछे
किया, जो
हुआ, जैसे
तुम चले, वैसे
तुम पहुंचे।
प्रश्न:
व्यक्तित्व
तो रहेगा उतनी
देर तक, जितनी
देर वह चुनाव
में है या
जितनी देर इस
वासना में है?
हां, व्यक्तित्व
रहेगा तब तक।
तब तक
व्यक्तित्व रहेगा,
जब तक जरा
सी भी, क्षीण
वासना भी शेष
है करुणा की, तब तक
व्यक्तित्व
रहेगा। पूर्ण वासना
निषेध होने पर
ही
व्यक्तित्व
विलीन हो जाता
है।
तो
पूर्ण--वैसा
व्यक्ति तो
हमें बहुत
कठोर मालूम
पड़ेगा, यानी
शायद हम उसे
समझ ही न पाएं
कि यह आदमी
कैसा है! कोई
आदमी कुएं में
डूब कर मर रहा
हो तो वह खड़ा
देखता रहेगा।
अपनी-अपनी
यात्रा है, अपना-अपना
चुनाव है।
इसको तो पकड़ना
ही मुश्किल हो
जाएगा, इसको
तो पहचानना ही
मुश्किल हो
जाएगा।
कोई
आदमी आग में
हाथ डाल रहा
हो तो वह खड़ा
देखता रहेगा।
वह कहेगा, अपना-अपना
अनुभव है, अपना-अपना
ज्ञान है। आग
में हाथ
डालोगे, तब
अनुभव होगा कि
हाथ जलता है, तब जानोगे
कि जलता है।
अब मैं कह कर
क्यों व्यर्थ
की बाधा डालूं?
मेरे कहने
से कुछ होगा
नहीं। तुम तो
हाथ डालोगे ही,
तभी तुम
जानोगे। और
अगर बिना हाथ
डाले तुमने जान
लिया तो हो
सकता है और
कष्टों में पड़
जाओ। क्योंकि
मैं तुम्हें
कह दूं कि आग
में हाथ डालने
से हाथ जलता
है और तुम मान
जाओ, लेकिन
तुम्हारा
अनुभव न हो, कल तुम्हारे
घर में आग लग
जाए और तुम
भीतर पड़े रहो
और तुम सोचो
कि कौन जलता
है! तो
जिम्मेवार कौन
होगा? यानी
फिर तो
जिम्मेवार
मैं ही होऊंगा
न! इससे तो
अच्छा था कि
तुम हाथ डाल
लेते और जल
जाते, तो
कल जब
तुम्हारे घर
में आग लगती
तो तुम निकल
बाहर हो जाते।
क्योंकि
तुम्हारा
अनुभव काम
करता।
अपना
अनुभव ही काम
करता है।
और
इसलिए
व्यक्तित्व
के विदा होने
की जो अंतिम
वेला होगी, उस वेला में
करुणा प्रकट
होगी। वह ऐसे
ही है, जैसे
सूर्यास्त की
लालिमा। कभी
खयाल नहीं किया
कि सूर्यास्त
की लालिमा का
क्या मतलब है?
सुबह
भी लालिमा
होती है, लेकिन
वह उदय की
लालिमा है, वह वासना
की। अभी सूरज
बढ़ेगा और चढ़ेगा,
अभी फैलेगा
और विस्तीर्ण
होगा, अभी
जलेगा और तपेगा,
अभी दोपहर
पाएगा, जवान
होगा। सुबह की
लालिमा सिर्फ
खबर है जन्म की।
वह भी वासना
है, लेकिन
विकासमान, फैलने
वाली, एक्सपैंडिंग।
सांझ
को फिर आकाश
लाल हो जाएगा, वह
सूर्यास्त की
लालिमा है, लेकिन विदा
की। वह अंतिम
लालिमा है, लेकिन अब
फैलने की नहीं,
अब सिकुड़ने
की है। अब सब सिकुड़ता
जा रहा है। सब
सूरज सिकुड़
रहा है, सब
किरणें वापस
लौट रही हैं, सूरज डूबा चला
जा रहा है।
लेकिन
लौटती किरणें
भी तो लालिमा फेंकेंगी।
उगती किरणों
ने फेंकी थी।
और अगर किसी
को पता न हो तो
उगते और डूबते
सूरज में भेद
करना मुश्किल
हो सकता है।
अगर पता न हो, एक आदमी
दो-चार दिन
बेहोश रहा हो
और एकदम होश में
लाया जाए और
उससे कहा जाए,
यह सूरज डूब
रहा है कि उग
रहा है? तो
उसे थोड़ा वक्त
लग जाए।
क्योंकि उगता
और डूबता सूरज
एक सा लगता
है। किरणों का
जाल एक में फैलता
होता, एक
में सिकुड़ता
होता। एक में
लालिमा बढ़ती
होती, एक
में घटती
होती। लेकिन
लालिमा दोनों
में होती, किरणें
दोनों में
होतीं। थोड़ी
देर लग सकती
है उसे भी
पहचानने में
कि यह लालिमा सिकुड़ने
की है कि
फैलने की है।
तो
पहला जन्म, जहां
व्यक्तित्व
किरण होता है,
वहां से
वासना फैलती
है। वासना है
फैलती हुई इच्छाएं,
फैलती
हुई--सूर्योदय।
जब सब इच्छाएं
सिकुड़ जाती
हैं और सूरज
का सिर्फ गोल
हिस्सा रह गया
डूबता हुआ, आखिरी; लेकिन
फिर भी लालिमा
है; डूबते
की है, लेकिन
फिर भी है। यह
आखिरी लालिमा
है। यह करुणा
है। यह डूब
जाएगा। और कई
बार चूक हो
जाती है। हम
समझते हैं कि
सूरज उग रहा
है और जब तक हम
समझ पाते हैं,
तब तक वह
डूब जाता है।
तब हम उससे
कुछ लाभ नहीं ले
पाते। यह बहुत
बार होता है।
बुद्ध
गांव में आते, महावीर भी
गांव में आते;
तुम्हारे
गांव में भी
आए होंगे, तुम
भी उस गांव
में रहे
होओगे। जीसस
भी आए, कृष्ण
भी आए; लेकिन
हो सकता है
तुमने समझा हो
कि यह अभी सूर्योदय
हो रहा है। यह
आदमी वासनाग्रस्त
है। और तुम
चूक गए होओ और
तब तक सूरज
डूब गया। फिर
रोते बैठे
रहो। तब कुछ
भी नहीं हो
सकता, तब
जानने के लिए
कोई उपाय नहीं
रह जाता।
लेकिन
उगता-डूबता
सूरज एक जैसे
मालूम पड़ते
हैं। तो हो
सकता है बुद्ध
जिस गांव में
आए हों, अनेक
लोगों ने सोचा
हो कि यह भी सब
वासना है।
एक
गांव में
बुद्ध तीन बार
गुजरे जीवन
में। और गांव
में एक आदमी
था, जो अपनी
दुकान पर लगा
रहा। और लोगों
ने उससे कहा
भी कि बुद्ध
आए हैं, तो
उसने कहा कि
दुबारा आएंगे,
तब! अभी तो
बहुत ग्राहकी
है, अभी तो
मौसम है, अभी
तो
खरीद-फरोख्त
का वक्त है!
दुबारा जब आएंगे,
तब सुन
लूंगा। ऐसा
तीन बार बुद्ध
उस गांव से
गुजरे।
आखिर
बुद्ध भी क्या
कर सकते हैं? कितनी बार
गांव से गुजर
सकते हैं!
आखिर बुद्ध की
भी सीमा है।
और गांव बहुत
हैं। और बुद्ध
भी कर क्या
सकते हैं? अगर
ग्राहकी चलती
ही रहे और
दुकान बंद ही
न करनी हो, तो
कोई भी क्या
कर सकता है? तीसरी बार
भी बुद्ध
गुजरे, तब
वह आदमी बूढ़ा
हो गया था।
फिर उससे
लोगों ने कहा
कि चलते नहीं
हो? उसने
कहा, आज तो
बहुत काम है।
दुबारा जब
आएंगे!
फिर
बुद्ध दुबारा
उस गांव में
नहीं आए।
लेकिन एक दिन
उस गांव में
खबर आई कि
पड़ोस के जंगल
में, पड़ोस के
गांव में
बुद्ध का
अंतिम दिन है।
लोग इकट्ठे हो
रहे हैं
दूर-दूर से।
वे मरने के
करीब हैं और
उन्होंने कह
दिया है कि वे
जल्दी ही डूब
जाएंगे, अस्त
हो जाएंगे। तो
जिन्हें जो
पूछना हो, भागो।
तो उस
आदमी ने दुकान
बंद की। शायद
दुकान भी बंद
नहीं कर पाया।
घर के लोगों
ने कहा, क्या
करते हो यह? अभी बहुत वक्त
है। अभी काम
है, अभी
दुकान पर लोग
हैं। उसने कहा
कि वह तो ठीक है,
लेकिन फिर
उस आदमी से
मिलना नहीं हो
पाएगा। और
बहुत चूक गया,
काफी चूक
गया। वह आदमी
भागता हुआ
दूसरे गांव गया।
बुद्ध
ने, वहां लोग
जो इकट्ठे हुए
थे, उनसे
पूछा कि
तुम्हें कुछ
और पूछना हो!
तो उन सबने
कहा कि हमने
इतना पूछा और
इतना जाना, अब कुछ भी
पूछने को नहीं
है। अब तो
करने को है कि
हम कुछ करें।
तो बुद्ध ने
कहा, फिर
मैं विदा लूं।
तीन बार
उन्होंने
पूछा, जैसी
उनकी आदत थी।
क्योंकि हो
सकता है, एक
दफे संकोच में
कोई न पूछे, हो सकता है
दूसरी दफे
हिम्मत न जुटा
पाए, तीसरी
दफे तो पूछ
ले। तो तीन
बार उन्होंने
पूछा--कि कुछ
पूछना? कुछ
पूछना? कुछ
पूछना? लेकिन
लोग रो रहे
थे। उन्होंने
कहा, कुछ
भी नहीं पूछना
है, अब
क्या पूछने को
है? तब
बुद्ध ने कहा,
फिर मैं
विदा लूं। और
वे वृक्ष के
पीछे चले गए।
ध्यान में
बैठे और डूबने
लगे।
तब वह
आदमी भागा हुआ
पहुंचा। तब
उसने जाकर कहा
कि बुद्ध कहां
हैं? तो लोगों
ने कहा, चुप!
अब बात मत
करना, अब
वे जा चुके।
अब वे वृक्ष
के पीछे चले
गए। अब वे
शांति से अपने
में उतर रहे
हैं, वापस
डूब रहे हैं!
व्यक्तित्व
छोड़ रहे हैं, निर्वाण में
जा रहे हैं। पर
उस आदमी ने
कहा, मेरा
क्या होगा? क्योंकि मैं
तो चूक ही गया,
उनसे कुछ
पूछना था। तो
उन लोगों ने
कहा, पागल
हो गए हो? वे
चालीस साल से
इसी इलाके में
चक्कर लगाते
थे, तब तू
कहां था? उसने
कहा, दुकान
पर बहुत भीड़
थी। भीड़ तो आज
भी थी, लेकिन
तब मैंने समझा
अभी सूरज उगता
हुआ है, तब
मुझे यह खयाल
न था कि डूबने
का वक्त भी
जल्दी आ
जाएगा। पर
मुझे पूछना है,
देर मत करो,
क्योंकि
सूरज तो डूबा
जा रहा है।
लेकिन भिक्षुओं
ने कहा कि चुप,
जोर से आवाज
मत करना।
अन्यथा वे
इतने करुणावान
हैं कि वापस
लौट सकते हैं।
लेकिन
तभी बुद्ध
बाहर आ गए
वृक्ष के और
उन्होंने कहा, ऐसा मत करो, नहीं तो
सदियों तक लोग
मेरा नाम धरेंगे
कि बुद्ध
जिंदा थे और
एक आदमी पूछने
आया और द्वार
से खाली हाथ
लौट गया। अभी
मैं हूं। क्या
तुझे पूछना है?
यह जो
लौटना है, यह उतना ही
लौटना है, जितना
कि सच में कोई
मोक्ष से
लौटे। इसमें
कुछ बहुत फर्क
नहीं है। पर
यह अंतिम
वासना है और
यह अंतिम
वासना भी
अर्थपूर्ण
है। यह है, इसलिए
जगत में इतने
ज्ञान की
संभावना हो
सकी। यह है, इसलिए जगत
में इतने
विचार का जन्म
हो सका। अगर
यह न हो तो जगत
में प्रकाश की
कोई खबर ही न
आए। अगर कोई
आदमी इतना करुणावान
न हो कि इसलिए
चोरी करे कि जेलखाने
में आए, तो जेलखाने
के लोग हो
सकता है भूल
ही जाएं कि
बाहर कोई जगत भी
है। नहीं
पक्का है कि
इनकी बात सुन
कर हम जग ही
जाएंगे, लेकिन
एक बात पक्की
है कि ये जगे
हुए लोग हमारे
मन में भी
लौटने की, जगने
की कोई न कोई
सूक्ष्म
वासना पैदा कर
जाते हैं। ये जगे हुए
लोग, इनकी
मौजूदगी, इनकी
बात, इनका
चलना, इनका
उठना, इनका
बैठना, हमारे
भीतर भी कहीं
कोई, कहीं
कोई धक्का दे
जाता है। शायद
अपने घर की याद
दिला जाते
हैं।
यह
करुणा इसलिए
अर्थपूर्ण
है। यानी मेरी
दृष्टि में तो
जगत में कुछ
भी अर्थहीन
नहीं है।
वासना भी
अर्थपूर्ण है, करुणा भी
अर्थपूर्ण है,
निगोद भी
अर्थपूर्ण है,
मोक्ष भी
अर्थपूर्ण
है। संसार
किसी से कम
अर्थपूर्ण
नहीं। लेकिन
सबके पीछे जो
परम तथ्य है, वह
स्वतंत्रता
का है। वह हम
स्वतंत्रता
के तत्व का
प्रयोग कर रहे
हैं। कैसा कर
रहे हैं, यह
हम पर निर्भर
है। अपने ही
हित के लिए कर
रहे हैं, अहित
के लिए कर रहे
हैं, यह हम
पर निर्भर है।
अपने सुख के
लिए कर रहे हैं,
अपने दुख के
लिए कर रहे
हैं, यह हम
पर निर्भर है।
और इसकी भी
स्वतंत्रता
है।
और
महावीर या
बुद्ध जैसे
व्यक्तियों
ने ईश्वर को
जो इनकार किया, उसमें एक
कारण यह भी
है। ईश्वर के
इनकार में, भगवान के
इनकार में
भगवत्ता का
इनकार नहीं है।
दि गॉड इज़ रिफ्यूटेड
बट नाट दि
डिवाइन।
ईश्वर इनकार
कर दिया है, लेकिन ईश्वरपन
में पूर्ण
स्वीकृति है।
अगर ईश्वर को
मानें तो
स्वतंत्रता
खंडित हो
जाएगी।
स्वतंत्रता फिर
पूरी नहीं हो
सकती। और अगर
उसके रहते
स्वतंत्रता
पूरी है, तो
वह बेमानी है।
यानी अगर वह
है भी और उसको
हम कहते भी
हैं कि वह
स्रष्टा, नियामक,
और फिर कहते
हैं कि आदमी
पूरा
स्वतंत्र। तो
महावीर कहते
हैं, इन
दोनों में मेल
नहीं है। उसकी
मौजूदगी भी बाधा
बनेगी। उसका
नियमन किसी तरह
की परतंत्रता
होगा।
परमात्मा
का इनकार करते
हैं, ताकि
परतंत्रता का
कोई उपाय न रह
जाए। इसका यह
मतलब नहीं है
कि वे
परमात्मा को
इनकार करते हैं,
इसका मतलब
यह है कि
परमात्मा के
व्यक्तित्व को
इनकार कर देते
हैं। और
परमात्मा को डिफ्यूज्ड
बीइंग बना
देते हैं। वे कहते
हैं कि वह
सबमें
व्याप्त, लेकिन
नियामक नहीं।
सबमें
व्याप्त परम
स्वतंत्र जो
है, वही
परमात्मा है।
उसके ऊपर वे
किसी को नहीं
बिठाते, क्योंकि
उसके ऊपर बिठालने
से परतंत्रता
में खंडन हो
जाएगा।
फिर हो
सकता है, परमात्मा
की इच्छा
हो--जैसा कि
साधारण
आस्तिक मानता है
कि उसकी इच्छा
हुई तो उसने
जगत बनाया--तो
फिर हम बिलकुल
परतंत्र
मालूम होते
हैं। यानी हमारी
इच्छा से हम
जगत में नहीं
हैं, उसकी
इच्छा से हम
जगत में हैं।
तो फिर उसकी
इच्छा होगी तो
जगत मिटा देगा,
हम मोक्ष
में हो
जाएंगे। और जब
तक उसकी इच्छा
नहीं होगी तब
तक कोई उपाय
भी नहीं है! तब
जगत बहुत
बेमानी है, कठपुतलियों
का खेल हो
जाता है, जिसमें
कोई अर्थ नहीं
रह जाता।
जहां
स्वतंत्रता
नहीं है, वहां
कोई अर्थ नहीं
है। जहां परम
स्वतंत्रता है,
वहां
प्रत्येक चीज
में अर्थ है।
और परम स्वतंत्रता
की घोषणा के
लिए ईश्वर को
इनकार कर देना
पड़ा कि उसको
नहीं हम कोई
जगह देंगे, वह है नहीं।
साधारण
आस्तिक की
दृष्टि में
ईश्वर नियामक
है, नियंता
है, स्रष्टा
है, क्रिएटर,
कंट्रोलर
है। तो
स्वतंत्रता
खतम हो गई।
परम
आस्तिक, गहरे
आस्तिक की
दृष्टि में
ईश्वर यानी
स्वतंत्रता।
गॉड ईक्वल
टू फ्रीडम,
टोटल फ्रीडम।
वह जो परम
स्वतंत्रता
के व्याप्त
कण-कण हैं, उन
सबका समग्र
नाम ही
परमात्मा है।
अगर
इसको हम समझ
पाएं तो फिर
पापी को दोष
देने का कोई
कारण नहीं।
इतना ही कहने
की जरूरत है कि
तूने
स्वतंत्रता
को जिस ढंग से
चुना है, वह
दुख लाएगी।
इससे ज्यादा
कुछ भी कहने
का नहीं।
लेकिन वह कह
सकता है कि
अभी मुझे दुख
अनुभव करने
हैं। निंदा का
कोई कारण नहीं,
कंडेमनेशन
का कोई सवाल
नहीं। मैं
कहता हूं कि मुझे
गङ्ढे
में उतरना है।
आप कहते हैं, गङ्ढे में प्रकाश
नहीं होगा, सूरज की
किरणें गङ्ढे
तक नहीं पहुंचेंगी,
वहां
अंधेरा है।
मैं
कहता हूं, लेकिन मुझे गङ्ढे का
अनुभव लेना
है। तो अगर
आपने अनुभव
लिया हो गङ्ढे
का तो गङ्ढे
में जाने की सीढ़ियां
मुझे बता दें।
अगर आप गए हों गङ्ढे में,
और आप जरूर
गए होंगे, क्योंकि
आप कहते हैं, वहां सूरज
की किरणें
नहीं पहुंचतीं।
मैं भी जानना
चाहता हूं, मैं गङ्ढे
में जाना
चाहता हूं, ताकि गङ्ढे
में जाने की
वासना विदा हो
जाए। तो निंदा
कहां है?
मेरी
दृष्टि में
पापी से पापी
व्यक्ति की
कोई निंदा
नहीं है और
पुण्यात्मा
से
पुण्यात्मा व्यक्ति
की कोई
प्रशंसा नहीं
है। क्योंकि
सवाल नहीं है
यह। यानी वह
अपनी
स्वतंत्रता
का उपयोग कर
रहा है, तुम
अपनी का करो।
और मजा यह है
कि तुम तो सुख
के लिए कर रहे
हो, प्रशंसा
की बात क्या
है? प्रशंसा
ही करनी हो तो
उसकी करो, जो
अपनी
स्वतंत्रता
का दुख के लिए
उपयोग कर रहा
है। यानी अजीब
आदमी है, हिम्मतवर
भी है, साहस
की भी जरूरत
है। क्योंकि
दुख उठाता है और
दुख में जाने
के लिए
स्वतंत्रता
का और उपयोग
कर रहा है। हो
सकता है, वह
इतना दुख जान
कर लौटे कि
उसके लिए सुख
की गहराइयों
का अंत न रहे।
सभी को
जाना पड़ेगा
अंधकार में, ताकि वे
प्रकाश तक आ
सकें। और सभी
को स्वयं को खोना
पड़ेगा, ताकि
वे स्वयं को
पा सकें। यह
बहुत उलटी बात
मालूम पड़ती है,
लेकिन यही
है। और कोई
अगर इसको भी
पूछे कि ऐसा क्यों
है? तो
बेमानी पूछता
है। ऐसा है।
यानी कोई अगर
ऐसा भी पूछे
कि ऐसी
स्वतंत्रता
क्यों है? अब
इसका कोई मतलब
नहीं है। ऐसा
है। और इससे
अन्यथा नहीं
है, इसके
सिवाय जानने
का कोई उपाय
नहीं है।
आग
जलाती है। कोई
पूछे कि क्यों
जलाती है? तो हम
कहेंगे, आग
जलाती है। बस
एक उपाय है कि
न जलना हो, हाथ
मत डालो
आग में; जलना
हो, हाथ
डाल दो; बाकी
आग जलाती है।
और आग क्यों
जलाती है, इसका
कोई उपाय नहीं
है। और बर्फ
क्यों ठंडा है?
बर्फ ठंडा
है और आग आग
है। और उपाय
यह है कि तुम
बर्फ में ठंडक
न चाहते हो तो
मत जाओ, चाहते
हो तो चले जाओ,
बाकी बर्फ
ठंडा है और आग
गर्म है। और
चीजें जैसी
हैं, वैसी
हैं।
स्वतंत्रता
जो है, वह
जगत की मौलिक
स्थिति है।
स्टेट ऑफ अफेयर्स--ऐसा
है। और इससे
अन्यथा नहीं
है। और इसके
आगे जाने का
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
अगर कोई कहे
कि किसने यह
स्वतंत्रता
दी? तो
ध्यान रहे, दी गई
स्वतंत्रता
स्वतंत्रता
नहीं होती। अगर
कोई कहे, किसने
यह
स्वतंत्रता
दी? तो दी
गई
स्वतंत्रता
स्वतंत्रता
नहीं होती। फिर
वह भारतीय
स्वतंत्रता
जैसी हो जाती
है। किसी ने
स्वतंत्रता
नहीं दी है।
अगर कोई कहे
कि किसने
स्वतंत्रता
ली? तो
स्वतंत्रता
तभी लेनी पड़ती
है, जब कि
परतंत्रता
हो। नहीं तो
स्वतंत्रता
लेने का कोई
सवाल नहीं है।
अगर
स्वतंत्रता
है--तो न तो कोई
उसे देता, न उसे कोई
लेता; वह
है। वह जगत का
स्वरूप है, वह
वस्तुस्थिति
है, वह
स्वभाव है। और
उसके उपयोग की
बात है अब।
कोई उसको दुख के
लिए करता है, करे। कोई
सुख के लिए
करता है, करे।
सुख वाला
चिल्ला कर कह
सकता है कि भई
देखो, उस
तरफ जाते हो, दुख होगा।
फिर भी दुख
वाला कह सकता
है कि आप गए, तब मैं नहीं
चिल्लाया। आप
क्यों परेशान
होते हैं? मुझे
जाने दें। तो
बात समाप्त हो
जाती है। इससे
ज्यादा कोई
मतलब नहीं है।
मुझे
निरंतर लोग
पूछते हैं कि
आप इतना लोगों
को समझाते हैं, क्या हुआ? मैंने कहा, यह तो पूछना
ही गलत बात
है। अगर हम यह
पूछते हैं तो
हम उनकी
स्वतंत्रता
पर बाधा डालते
हैं। यानी
मेरा काम था
कि मैंने
चिल्ला दिया।
यह मेरा चुनाव
था चिल्लाना।
उन्होंने
मुझे कहा भी
नहीं था कि चिल्लाओ।
यह मेरी मौज
थी कि मैं
चिल्लाया। यह
मेरा चुनाव
था। उनकी मौज
थी कि
उन्होंने
सुना, या
मौज थी कि
नहीं सुना, या मौज थी कि
सुना और
अनसुना किया।
इस सबमें वे
स्वतंत्र थे।
इसके आगे पूछने
की जरूरत ही
नहीं। इसके
आगे बात का
कोई सवाल ही
नहीं।
हम सब
अपनी
स्वतंत्रता
में जी रहे
हैं और दुख या
सुख हमारे
निर्णय हैं।
और इसलिए बड़ी
मौज है। इसलिए
जिंदगी बड़ी
रसपूर्ण है।
क्योंकि कहीं
कोई रोकने
वाला नहीं है, कहीं कोई
मालिक नहीं है,
हम ही मालिक
हैं। और इतना
समझ में आ जाए
तो फिर और
क्या समझने को
शेष रह जाता
है?
प्रश्न:
यहीं
रहना है, फिर कभी न निगोद
की अवस्था और
न मोक्ष की
अवस्था...?
उनका
निर्णय है।
प्रश्न:
वह
भी उनका ही
निर्णय है?
बिलकुल
निर्णय है।
कोई निर्णायक
है ही नहीं
आपके सिवाय।
वह उनका
निर्णय है। अब
जैसे कि नसरुद्दीन
उसका थैला
लेकर भाग गया।
वह आदमी यह भी
निर्णय कर
सकता है कि
ठीक है, ले
जाओ, हम
नहीं आते पीछे,
और कभी न
लौटे। वह उसका
निर्णय है कि
वह पीछा करता
है। और तब तक
पीछा करता है,
जब तक पा
नहीं लेता।
लेकिन वह कह
सकता है कि ठीक
है, ले
जाओ।
तो हो
सकता है नसरुद्दीन
को उसे खोजना
पड़े कि वह
आदमी कहां गया? और हालत
उलटी हो जाए।
हालत यह हो
जाए कि नसरुद्दीन
खोजते थक जाए,
दुखी हो जाए,
परेशान हो
जाए। क्योंकि
वह कोई चोर तो
था नहीं, वह
तो बेचारे को
लौटाना था।
प्रश्न:
यह
निर्णय करना
कौन कराता है, उसका उत्तर
नहीं है?
कोई
नहीं कराता, आप करते
हैं। आप करते
हैं। कोई
कराएगा तो फिर
कैसे बात हो
गई? आप
करते हैं।
प्रश्न:
जैसे
स्वतंत्रता
है, वैसे ही
उत्तर हो गया
न?
हां, बिलकुल वैसे
ही है। आप ही
निर्णय करते
हैं।
स्वतंत्रता
का मतलब यह
हुआ कि
निर्णायक आप
हैं। और आप ही
निर्णय करते
हैं।
प्रश्न:
प्रारब्ध
क्या हुआ फिर?
कुछ
भी प्रारब्ध
नहीं है--आपके
किए हुए
निर्णय हैं।
आपके किए हुए
निर्णय हैं।
प्रश्न:
सब
अपने ही
पुरुषार्थ
हैं?
हां, हां, अपने
किए हुए
निर्णय
प्रारब्ध बन
जाते हैं।
जैसे कि समझो
कि मैंने एक
निर्णय किया
कि इस कमरे
में बैठूंगा,
तो एक ही हो
सकता है न! या
तो कमरे में
बैठूं या बाहर
बैठूं।
निर्णय करते
ही से
प्रारब्ध
शुरू हो जाता
है। निर्णय का
मतलब है कि
मैं प्रारब्ध
निर्मित कर
रहा हूं।
अब मैं
एक ही काम कर
सकता हूं, या तो बाहर
बैठूं या
भीतर। भीतर
बैठता हूं तो यह
प्रारब्ध हो
गया मेरा।
निर्णय, काम
शुरू हो गया।
अब मैं बाहर
नहीं हो सकता
इसी के साथ।
एक ही साथ
बाहर नहीं हो
सकता। अगर बाहर
जाऊंगा
तो भीतर नहीं
होऊंगा। तो
भीतर के
सुख-दुख भीतर
मिलेंगे, बाहर
के सुख-दुख
बाहर
मिलेंगे। अब
वह फिर मेरा
प्रारब्ध
होगा, क्योंकि
मैंने निर्णय
किया और वह
मैं भोगूंगा।
अब एक
आदमी ने
निर्णय किया
कि मैं धूप
में बैठूंगा।
तो ठीक है, तो धूप का जो
भी फल होने
वाला है, वह
मिलने वाला
है। इसमें कोई
दुनिया में
जिम्मेवार
नहीं है। धूप
का काम है, वह
धूप है; आपका
काम है कि आप
निर्णय किए
हैं बाहर
बैठने का।
आपका
चेहरा काला हो
जाएगा; वह
जिम्मेवारी
आपकी है, वह
प्रारब्ध हो
जाएगा। लेकिन
आज अगर चेहरा
काला हो गया
तो उसको ठीक
करने में दस
दिन लग जाएंगे।
तो दस दिन तक
प्रारब्ध
पीछा करेगा।
क्योंकि वह जो
हो गया, उसका
क्रम होगा
फिर।
तो हम
जिसको
प्रारब्ध
कहते हैं, वे हमारे
अतीत में किए
गए निर्णयों
का इकट्ठा सार-अंश
है। वह हमने
निर्णय किए थे,
वह उनकी
व्यवस्था हो
गई है। वह
हमको करना पड़
रहा है।
प्रश्न:
और
अभी
पुरुषार्थ
करेंगे तो
फिर...?
बिलकुल
ही। वह तो
सवाल ही नहीं
पुरुषार्थ और
प्रारब्ध का।
पुरुषार्थ का
मतलब ही नहीं
कुछ है। तुम स्वतंत्र
हो आज भी। और
आज तुम जो
करोगी, वह
फिर निर्णय
बनेगा, और
फिर एक तरह का
प्रारब्ध
निर्मित होगा
उससे।
बहुत
गौर से देखें
तो मोक्ष भी
एक प्रारब्ध
है। वह जो
आदमी स्वतंत्र
होने का
निर्णय करता, करता, करता,
करता, अंततः
मुक्त हो जाता
है। संसार भी
एक प्रारब्ध
है।
प्रारब्ध
का मतलब ही
इतना होता है:
तुमने कुछ निर्णय
किया, फिर
उस निर्णय का
फल भोगा।
प्रश्न:
शास्त्रों
में
पुरुषार्थ और
भवितव्यता
बताई है, उसका क्या
है?
शास्त्रों
से मुझे कुछ
मतलब ही नहीं
है।
शास्त्रों से
क्या
लेना-देना!
शास्त्र
लिखने वाले की
मौज थी कि
उसने लिखे, तुम्हारी
मौज है, पढ़ो न पढ़ो!
उससे क्या
फर्क पड़ता है!
नहीं, वह
कहीं बांधता
नहीं। उससे
क्या
लेना-देना है?
उससे क्या
प्रयोजन है?
प्रश्न:
व्यक्तिगत
इच्छा, वही
मेन इंपार्टेंट
प्वाइंट है?
वही
है। वही है।
प्रश्न:
तो
यह रहने की भी
स्वतंत्रता
अपनी है?
बिलकुल
अपनी है।
प्रश्न:
कोई
अथॉरिटी
नहीं है?
यह
भी कोई कभी
नहीं आएगा
आपको रोकने, कि आप कितनी
देर हो गए
भटकते हुए।
कोई सवाल नहीं
है। क्योंकि
कोई है नहीं।
कोई है नहीं, जो आपसे आकर
कहेगा कि अनंत
काल हो गया।
प्रश्न:
और
फिर वासना के
बाद मुक्त
अवस्था में, उस समय
स्वतंत्रता
का उपयोग वह
संसार में आने
के लिए करता
है?
नहीं
कर सकता, क्योंकि
एक आदमी आग
में हाथ डालने
के लिए पहली
दफा
स्वतंत्रता
का उपयोग कर
सकता है; लेकिन
जल जाने के
बाद उपयोग
करेगा, मुश्किल
है। मेरा मतलब
समझी न तू! एक
आदमी स्वतंत्रता
का उपयोग कर
सकता है आग
में हाथ डालने
का।
एक
बच्चा है, वह दीए पर
हाथ रख कर लौ
पकड़ सकता है।
स्वतंत्रता
का उसने उपयोग
किया। लेकिन
हाथ जल गया, अनुभव हुआ।
अब दुबारा इस
बच्चे से कम
आशा है कि यह
आग की लौ पकड़े,
क्योंकि
इसका अनुभव भी
इसके साथ खड़ा
हो गया। अब इस
स्वतंत्रता
का वैसा उपयोग
करना मुश्किल है।
तो जो
मुक्त हो गया, वह संसार के
दुख झेलने के
लिए वासना करे,
यह असंभव
है। यह
असंभावना
उसके अनुभव के
कारण है, और
कोई नहीं है।
चाहे तो आ जाए,
लेकिन चाह
नहीं सकता।
यानी यह जो, चाहे तो कोई
रोकने वाला
नहीं है उसको।
महावीर
अगर सिद्धशिला
छोड़ कर और
वापस दिल्ली
आना चाहें तो
कोई रोक नहीं
सकता। कौन
रोकने वाला है? लेकिन
महावीर नहीं आ
सकते, क्योंकि
अब अनुभव भी
साथ है। दिल्ली
का अनुभव काफी
भोग लिया, वह
दुख काफी झेल
लिया। वह
अनुभव इतना
गहरा हो गया
कि उसका कोई
अर्थ नहीं है,
उसका कोई
प्रयोजन नहीं
है।
आज
इतना ही।
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