'मैं
कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966 —
67
मैं
सुनता हूं कि
मनुष्य का
मार्ग खो गया
है। यह सत्य
है। मनुष्य का
मार्ग उसी दिन
खो गया, जिस
दिन उसने
स्वयं को
खोजने से भी
ज्यादा मूल्यवान
किन्हीं और
खोजों को मान
लिया।
मनुष्य
के लिए सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण
और सार्थक
वस्तु मनुष्य
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं हैं।
उसकी पहली खोज
वह स्वयं ही
हो सकता है।
खुद को जाने
बिना उसका
सारा जानना
अन्तत: घातक
ही होगा।
अज्ञान
के हाथों में
कोई भी ज्ञान
सृजनात्मक नहीं
हो सकता, और
ज्ञान के
हाथों में
अज्ञान भी
सृजनात्मक हो
जाता है।
मनुष्य
यदि स्वयं को
जाने और जीते, तो
उसकी शेष सब
जीते उसकी और
उसके जीवन की
सहयोगी होंगी।
अन्यथा वह
अपने ही हाथों
अपनी कब्र के
लिए गड्डा
खोदेगा।
हम
ऐसा ही गड्डा
खोदने में लगे
हैं। हमारा ही
श्रम हमारी
मृत्यु बनकर
खड़ा हो गया है।
पिछली
सभ्यताएं
बाहर के
आक्रमणों और
संकटों से
नष्ट हुई थीं।
हमारी सभ्यता
पर बाहर से
नहीं, भीतर से
संकट है।
बीसवीं सदी का
यह समाज यदि
नष्ट हुआ तो
उसे आत्मघात
कहना होगा और
यह हमें ही
कहना होगा
क्योंकि बाद
में कहने को
कोई भी बचने
को नहीं है।
संभाव्य
युद्ध इतिहास
में कभी नहीं
लिखा जाएगा।
यह घटना
इतिहास के
बाहर घटेगी, क्योंकि
उसमें तो
समस्त मानवता
का अन्त होगा।
पहले के लोगों
ने इतिहास
बनाया, हम
इतिहास
मिटाने को
तैयार हैं।
और
इस आत्मघाती
सम्भावना का
कारण एक ही है।
वह है, मनुष्य
का मनुष्य को
ठीक से न
जानना। पदार्थ
की अनन्त
शक्ति से हम
परिचित हैं—परिचित
ही नहीं, उसके
हम विजेता भी
है। पर मानवीय
हृदय की
गहराइयों का
हमें कोई पता नहीं।
उन गहराइयों
में छिपे विष
और अमृत का भी
कोई ज्ञान
नहीं है।
पदार्थाणु
को हम जानते
है,
पर आत्माणु
को नहीं। यही
हमारी
विडम्बना है।
ऐसे शक्ति तो
आ गई है, पर
शान्ति नहीं।
अशान्त और
अप्रबुद्ध
हाथों से आई
हुई शक्ति से
ही यह सारा
उपद्रव है।
अशांत और
अप्रबुद्ध का
शक्तिहीन
होना ही शुभ होता
है। शक्ति सदा
शुभ नहीं। वह
तो शुभ हाथों
में ही शुभ
होती है।
हम
शक्ति को
खोजते रहे, यही
हमारी भूल हुई।
अब अपनी ही
उपलब्धि से
खतरा है। सारे
विश्व के
विचारकों और
वैज्ञानिकों
को आगे स्मरण
रखना चाहिए कि
उनकी खोज
मात्र शक्ति के
स्तइए न हो।
उस तरह की
अंधी खोज ने
ही हमें इस
अंत पर लाकर खड़ा
किया है।
शक्ति
नहीं, शान्ति
लक्ष्य बने।
स्वभावत: यदि
शान्ति
लक्ष्य होगी,
तो खोज का
केन्द्र
प्रकृति नहीं,
मनुष्य
होगा। जड़ की
बहुत खोज और
शोध हुई। अब
मनुष्य का और
मन का अन्वेषण
करना होगा।
विजय की
पताकाएं
पदार्थ पर
नहीं, स्वयं
पर गाड़नी
होंगी।
भविष्य
का विज्ञान
पदार्थ का
नहीं, मूलत:
मनुष्य का
विज्ञान होगा।
समय आ गया है
कि यह
परिवर्तन हो।
अब इस दिशा
में और देर
करनी ठीक नहीं
है। कहीं ऐसा
न हो कि फिर
कुछ करने को
समय भी शेष न बचे।
जड़
की खोज में जो
वैज्ञानिक आज
भी लगे हैं, वे
दकियानूसी है,
और उनके
मस्तिष्क
विज्ञान के
आलोक से नहीं,
परम्परा और
रूढ़ि के
अंधकार में ही
डूबे कहे जावेंगे।
जिन्हें थोड़ा
भी बोध है और
जागरूकता है,
उनके
अन्वेषण की
दिशा आमूल बदल
जानी चाहिए।
हमारी सारी
शोध मनुष्य को
जानने में लगे,
तो कोई भी
कारण नहीं है
कि जो शक्ति
पदार्थ और प्रकृति
को जानने और
जीतने में
इतने अभूतपूर्व
रूप से सफल
हुई है, वह
मनुष्य को
जानने में सफल
न हो सके।
मनुष्य भी निश्चय
ही जाना, जीता
और परिवर्तित
किया जा सकता
मैं
निराश होने का
कोई भी कारण
नहीं देखता।
हम स्वयं को
जान सकते हैं
और स्वयं के
ज्ञान पर
हमारे जीवन और
अन्तःकरण के
बिलकुल ही नये
आधार रखे जा
सकते है। एक
बिलकुल ही
अभिनव मनुष्य
को जन्म दिया
जा सकता है।
अतीत में
विभिन्न
धर्मों ने इस
दिशा में बहुत
काम किया है,
लेकिन वह
कार्य अपनी
पूर्णता और
समग्रता के लिए
विज्ञान की
प्रतीक्षा कर
रहा है।
धर्मों ने
जिसका
प्रारंभ किया
है, विज्ञान
उसे पूर्णता
तक ले जा सकता
है। धर्मों ने
जिसके बीज बोए
हैं, विज्ञान
उसकी फसल काट
सकता है।
पदार्थ
के संबंध में
विज्ञान और
धर्म के रास्ते
विरोध में पड़
गए थे, उसका
कारण
दकियानूसी
धार्मिक लोग
थे। वस्तुत:
धर्म पदार्थ
के संबंध में
कुछ भी कहने
का हकदार नहीं
था। वह उसकी
खोज की दिशा
ही नहीं थी।
विज्ञान उस
संघर्ष में विजय
हो गया, यह
अच्छा हुआ।
लेकिन इस विजय
से यह न समझा
जाए कि धर्म
के पास कुछ
कहने को नहीं
है। धर्म के
पास कुछ कहने
को है और बहुत
मूल्यवान सम्पत्ति
है। यदि उस
सम्पति से लाभ
नहीं उठाया
गया तो उसका कारण
रूढ़िग्रस्त
पुराणपंथी
वैज्ञानिक
होंगे। एक दिन
एक दिशा में धर्म
विज्ञान के
समक्ष हार गया
था। अब समय है
कि उसे दूसरी
दिशा में विजय
मिले और धर्म
और विज्ञान
सम्मिलित हों।
उनकी संयुक्त
साधना ही
मनुष्य को
उसके स्वयं के
हाथों से
बचाने में
समर्थ हो सकती
है।
पदार्थ
को जानकर जो
मिला है, आत्मज्ञान
से जो मिलेगा,
उसके समक्ष
वह कुछ भी
नहीं है।
धर्मों ने वह
सम्भावना
बहुत थोड़े
लोगों के लिए
खोली है। वैज्ञानिक
होकर वह द्वार
सबके लिए खुल
सकेगा। धर्म विज्ञान
बनै और
विज्ञान धर्म
बने, इसमें
ही मनुष्य का
भविष्य और हित
है।
मानवीय
चित्त में
अनन्त
शक्तियां हैं
और जितना उनका
विकास हुआ है, उससे
बहुत ज्यादा
विकास की
प्रसुप्त
सम्भावनाएं
हैं। इन
शक्तियों की
अवस्था और
अराजकता ही
हमारे दुख के
कारण हैं, और
जब व्यक्ति का
चित्त
अव्यस्थित और
अराजक होता है
तो वह अराजकता
समष्टि चित्त
तक पहुंचते ही
अनन्तगुणा हो
जाती है।
समाज
व्यक्तियों
के गुणनफल के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। वह हमारे
अंतर्सम्बन्धों
का ही फैलाव
है। व्यक्ति
ही फैलकर समाज
बन जाता है।
इसलिए स्मरण
रहे कि जो
व्यक्ति में
घटित होता है, उसका
ही वृहत रूप
समाज में
प्रतिध्वनित
होगा। सारे
युद्ध मनुष्य
के मन में लड़े
गए हैं और सारी
विकृतियों की
मूल जड़ें मन
में ही हैं।
समाज
को बदलना है
तो मनुष्य को
बदलना होगा; और
समष्टि के नये
आधार रखने हैं,
तो व्यक्ति
को नया जीवन
देना होगा।
मनुष्य
के भीतर विष
और अमृत दोनों
हैं।
शक्तियों की
अराजकता ही
विष है और
शक्तियों का
संयम, सामंजस्य
और संगीत ही
अमृत है।
जीवन
जिस विधि से
सौन्दर्य और
संगीत बन जाता
है,
उसे ही मैं
योग कहता हूं।
जो
विचार, जो
भाव और जो
कर्म मेरे
अंत: संगीत के
विपरीत जाते
हों, वे ही
पाप हैं, और
जो उसे पैदा
और समृद्ध
करते हों, उन्हें
ही मैंने
पुण्य जाना है।
चित्त की वह
अवस्था जहां
संगीत शून्य
हो जाय और सभी
पूर्ण अराजक
हों, नर्क
है और वह
अवस्था
स्वर्ग है, जहां संगीत
पूर्ण हो।
भीतर
जब संगीत
पूर्ण होता है
तो ऊपर से
पूर्ण का
संगीत अवतरित
होने लगता है।
व्यक्ति जब
संगीत हो जाता
है,
तो समस्त
विश्व का
संगीत उसकी ओर
प्रवाहित होने
लगता है।
संगीत
से भर जाओ तो
संगीत आकृष्ट
होता है; विसंगीत
विसंगति को
आमंत्रित
करेगा। हम में
जो होता है, वही हम में
आने भी लगता
है, उसकी
संग्राहकता
और
संवेदनशीलता
हम में होती
है।
उस
विज्ञान को
हमें निर्मित
करना है, जो
व्यक्ति के
अंतर्जीवन को
स्वास्थ्य और
संगीत दे सके।
यह किसी और
प्रभु के
राज्य के लिए
नहीं वरन इसी
जगत और पृथ्वी
के लिए है। यह
जीवन ठीक हो
तो किसी और
जीवन की चिंता
अनावश्यक है।
इसके ठीक न
होने से ही
परलोक की
चिंता पकडती है।
जो इस जीवन को
सम्यक रूप
देने में सफल
हो जाता है, वह अनायास
ही समस्त भावी
जीवनों को
सुदृढ़ और शुभ
आधार देने में
भी समर्थ हो
जाता है।
वास्तविक
धर्म का कोई
संबंध परलोक
से नहीं है।
परलोक तो इस
लोक का परिणाम
है।
धर्मों
का परलोक की
चिन्ता में
होना बहुत घातक
और हानिकारक
हुआ है। उसके
ही कारण हम
जीवन को शुभ
और सुन्दर
नहीं बना सके।
धर्म परलोक के
लिए रहे और
विज्ञान
पदार्थ के लिए—इस
भांति मनुष्य
और उसका जीवन
उपेक्षित हो
गया। परलोक पर
शाख और दर्शन
निर्मित हुए
और पदार्थ की
शक्तियों पर
विजय पाई गई।
किन्तु जिस
मनुष्य के लिए
यह सब हुआ, उसे
हम भूल गए। अब
मनुष्य को
सर्वप्रथम
रखना होगा। विज्ञान
और धर्म दोनों
का केन्द्र
मनुष्य बनना
चाहिए। इसके
लिए जरूरी है
कि विज्ञान
पदार्थ का मोह
छोड़े और धर्म
परलोक का। उन
दोनों का यह
मोहत्याग ही
उनके सम्मिलन
की भूमि बन
सकेगा।
धर्म
और विज्ञान का
मिलन और सहयोग
मनुष्य के इतिहास
में सबसे बड़ी
घटना होगी।
इससे बहुत
सृजनात्मक
ऊर्जा का जन्म
होगा। वह
समन्वय ही अब
सुरक्षा देगा।
उसके
अतिरिक्त और
कोई मार्ग
नहीं है। उनके
मिलन से पहली
बार मनुष्य के
विज्ञान की उत्पति
होगी और
विज्ञान में
ही अब मनुष्य
का जीवन और भविष्य
है।
'मैं
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