कुल पेज दृश्य

शनिवार, 7 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--04)

संयम नहीं--महावीर-विवेक—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न:

आपके कल के प्रवचन में एक बात विशेष नई थी, वह यह कि तीर्थंकर पहले जन्म में ही कृतकृत्य हो चुके होते हैं और करुणावश संसार में दुबारा आते हैं। अगर ऐसा है तो महावीर को इस जन्म में जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं, इसके बाद अगले जन्म में भी करुणावश आने से क्या चीज रोक पाई? यूं तो फिर आते ही रहना चाहिए था। और जो वापस करुणावश आते हैं तो क्या वे अपनी मर्जी से आते हैं कि यह भी आटोमैटिक होता है?

ह बात बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में, जिसके जीवन का कार्य पूरा हो चुका है, वह ज्यादा से ज्यादा एक ही बार वापस लौट सकता है। और वापस लौटने का कारण है।
जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाना बंद कर दे, तो पिछले मोमेंटम से साइकिल थोड़ी देर बिना पैडल चलाए आगे जा सकती है, लेकिन बहुत देर तक नहीं। तो जैसे एक व्यक्ति के जीवन-कार्य पूरे हो चुके तो उसके अनंत जीवन की वासनाओं ने जो मोमेंटम दिया है, जो गति दी है, वह ज्यादा से ज्यादा सौ वर्षों तक, ज्यादा से ज्यादा, उसे एक बार और लौटने का अवसर दे सकती है, उससे ज्यादा नहीं। जैसे पैडल बंद कर दिए हैं तो भी साइकिल थोड़ी दूर तक चलती जा सकती है, लेकिन बहुत दूर तक नहीं।

और यह भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न समय की अवधि होगी। क्योंकि पिछले जीवन की कितनी गति और कितनी शक्ति चलने की शेष रह गई है, वह प्रत्येक की अलग-अलग होगी। इसलिए बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई करुणा से लौटना चाहे और न लौट सके।
तो इसलिए महीपाल जी जो दूसरा प्रश्न पूछते हैं वह भी विचारणीय है, "क्या वे अपनी मर्जी से लौटते हैं?'
लौटते तो वे अपनी मर्जी से हैं। लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ मर्जी से ही लौट आएं। अगर थोड़ी शक्ति शेष रह गई है तो मर्जी सार्थक हो जाएगी। और अगर शक्ति शेष नहीं रह गई है तो मर्जी निरर्थक हो जाएगी। उस स्थिति में करुणा दूसरे रूप ले सकती है, लेकिन लौट नहीं सकते हैं वे।
और यह भी समझ लेना उचित है, जैसे मैंने कहा कि साइकिल चलाते वक्त पैडल बंद हो जाएं, जिस दिन वासना क्षीण हो गई, उस दिन पैडल चलने बंद हो गए। लेकिन चाक थोड़ी दूर और चल जाएंगे--अपनी ही मर्जी से। अगर वह व्यक्ति साइकिल से नीचे उतर जाना चाहे तो उसे कोई रोकने वाला नहीं है, वह अपनी ही मर्जी से अब भी बैठा हुआ है, पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, वासना क्षीण हो गई है। लेकिन अब भी देह के वाहन का वह उपयोग करता है। तो थोड़ी दूर तक। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अब देह के वाहन को चलाने की कोई शक्ति शेष ही न बची हो।
तो अक्सर इसीलिए ऐसा हो जाता है कि इस तरह की आत्माओं के दूसरे जन्मों का जीवन अति क्षीण होता है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति, जो कि तीस-पैंतीस साल ही जी पाते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है, मोमेंटम बहुत कम है। अक्सर ऐसा होता है कि इस तरह की आत्माओं का जीवन अत्यल्प होता है, जैसे जीसस क्राइस्ट, अत्यल्प जीवन मालूम होता है। यह जो अत्यल्प जीवन है, वह इसी कारण है, और कोई कारण नहीं है। मोमेंटम ही इतना है।
अपनी ही मर्जी से लौट सकते हैं, न लौटना चाहें तो कोई लौटाने वाला नहीं है। लेकिन लौटना चाहें तो अगर शक्ति शेष है तो ही लौट सकते हैं।
फिर मैंने कहा कि लेकिन करुणा से कोई नहीं रोक सकता है। शरीर नहीं उपलब्ध होगा, तब दोहरी बातें हो सकती हैं। या तो वैसा व्यक्ति किसी दूसरे के शरीर का उपयोग करे, जैसा कि मक्खली गोशाल ने किया।
यह भी संदर्भ में महावीर के है, इसलिए समझ लेना उचित है। कहानियां कहती हैं कि मक्खली गोशाल बहुत वर्षों तक महावीर के साथ रहा, फिर उसने साथ छोड़ दिया। फिर वह महावीर के विरोध में स्वतंत्र विचारक की हैसियत से खड़ा हुआ। लेकिन जब महावीर ने शिष्यों को कहा कि मक्खली गोशाल तो मेरा शिष्य रह चुका है, मेरे साथ रहा है, तो उसने स्पष्ट इनकार किया। उसने कहा: वह मक्खली गोशाल जो आपके साथ था, मर चुका है। यह तो मैं बिलकुल ही एक दूसरी आत्मा उसके शरीर का उपयोग कर रही हूं। मैं वह व्यक्ति नहीं हूं।
यह बात साधारणतया महावीर के अनुयायी समझते रहे हैं कि झूठ है, लेकिन यह झूठ नहीं है। यह बात बिलकुल ही सच है। मक्खली गोशाल नाम का जो आदमी महावीर के साथ रहा था, वह अति साधारण व्यक्ति था। किन्हीं कारणों से असमय में उसकी मृत्यु हुई और उसकी देह का उपयोग एक दूसरी स्वतंत्र चेतना ने किया, जो तीर्थंकर की ही हैसियत की थी। लेकिन अपना शरीर उपलब्ध करने में असमर्थ थी, तो उसने मक्खली गोशाल के शरीर का उपयोग किया। और इसीलिए इस व्यक्ति का, जो अब यह नया व्यक्ति बना पुराने शरीर में, मक्खली गोशाल, इसका महावीर से कोई मेल नहीं हो सका। यह एक बिलकुल स्वतंत्र चेतना थी, जिसका अलग अपना काम था और वह अपना काम किया उसने। और इसलिए मक्खली गोशाल भी तीर्थंकर होने का एक दावेदार था।
उस युग में अकेले महावीर या बुद्ध ही नहीं थे, मक्खली गोशाल था, अजित केशकंबल था, संजय वेलट्ठीपुत्त था, प्रबुद्ध कात्यायन था, पूर्ण काश्यप था--ये सबके सब तीर्थंकर की हैसियत के लोग थे। लेकिन सब अलग-अलग परंपराओं के तीर्थंकर थे। उसमें से सिर्फ दो की परंपराएं पीछे शेष रह गईं--एक महावीर की और एक बुद्ध की। बाकी सब परंपराएं खो गईं।
तो एक रास्ता तो यह है कि वैसा व्यक्ति प्रतीक्षा करे असमय में किसी के शरीर के छूट जाने की और उसमें प्रवेश कर जाए। अब उसकी शरीर ग्रहण करने की कोई उसमें शक्ति नहीं है। तो एक तो उपाय यह है। यह भी कई बार प्रयोग किया गया है। दूसरा उपाय यह है कि वह व्यक्ति अशरीरी रह कर थोड़े से संबंध स्थापित करे और अपनी करुणा का उपयोग करे। उसका भी उपयोग किया गया है, कि कुछ चेतनाओं ने अशरीरी हालत से संदेश भेजे हैं, संबंध स्थापित किए हैं।
और जो कल-परसों बात छूट गई थी थोड़ी, जो मैंने कहा कि मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया है। उसकी तो पूरी साइंस है। मूर्ति का सबसे पहले प्रयोग अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित करने के लिए किया गया है।
जैसे महावीर की मूर्ति है। इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आंख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें, फिर आंख बंद कर लें, तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे की फिल्म पर रह जाता है, वैसा दरवाजे का निगेटिव आंख पर रह जाएगा। और उस निगेटिव पर भी ध्यान अगर केंद्रित किया जाए तो उसके बड़े गहरे परिणाम हैं।
तो महावीर की मूर्ति या बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है, जो अशरीरी आत्माओं से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। तो महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आंख बंद कर ली और निरंतर के अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से संबंधित होने का मार्ग बन जाता है। और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी संपर्क स्थापित कर सकती हैं। यह अनंत काल तक हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है।
तो मूर्ति पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है। और बड़ी गहरी डिवाइस है, जिसके माध्यम से जिनके शरीर खो गए हैं और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। तो फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई संबंध खोजा जा सके। अशरीरी आत्माएं भी संबंध खोजने की कोशिश करती हैं।
तो करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है। और आज भी जगत में ऐसी चेतनाएं हैं, जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। थियोसाफी का सारा का सारा जो विकास हुआ, वह अशरीरी आत्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसाफी का पूरा केंद्र इस जगत में पहली दफा बहुत व्यवस्थित रूप से--ब्लावट्स्की, अल्काट, एनीबीसेंट, लीडबीटर--इन चार लोगों ने पहली दफे अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अदभुत चेष्टा की है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं।
संदेश तो कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती। लेकिन तब तक आसानी है उस अशरीरी चेतना से संबंध स्थापित करने की, जब तक करुणावश वह भी संबंध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करुणा अंतिम वासना है। है वासना ही। सब वासनाएं जब क्षीण हो जाती हैं तो करुणा ही शेष रह जाती है। लेकिन अंततः करुणा भी क्षीण हो जाती है।
इसलिए पुराने शिक्षक, पुराने मास्टर्स, धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है, तब उनसे संबंध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक संबंध स्थापित करना सरल है, क्योंकि वे भी आतुर हैं। लेकिन जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अंतिम वासना गिर गई, तब फिर संबंध स्थापित करना निरंतर मुश्किल होता चला जाता है। जैसे कुछ शिक्षकों से अब संबंध स्थापित करना करीब-करीब मुश्किल हो गया है।
महावीर से संबंध स्थापित करना अब भी संभव है। लेकिन उसके पहले के तेईस तीर्थंकरों से किसी से भी संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। और इसीलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर-कीमती हो गए। उसका बहुत बुनियादी जो कारण है, वह यह है कि अब उन तेईस से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता है--किसी तरह का भी।

प्रश्न:

तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह जो मोक्ष कहलाता है, जहां आत्मा चली गई है और सारे जगत में लीन हो गई है, फिर उस आत्मा से कैसे संबंध स्थापित हो?

हूं-हूं, इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। यह मैं पूरी बात कर लूं, फिर आपको कहूं।
तेईस तीर्थंकर इसीलिए एकदम गैर-ऐतिहासिक हो गए मालूम पड़ते हैं। उनके गैर-ऐतिहासिक हो जाने का और कोई कारण नहीं है, वे बिलकुल ऐतिहासिक व्यक्ति थे। लेकिन आध्यात्मिक लोक में उनके अंतिम संबंध का सूत्र भी क्षीण हो जाने के कारण अब उनसे लौट कर कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।
महावीर से अभी भी संबंध स्थापित हो सकता है। और इसलिए महावीर अंतिम होते हुए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गए--उस धारा में। बुद्ध से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। जीसस से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। कृष्ण से अभी भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। हमें पच्चीस सौ वर्ष बहुत लंबे मालूम पड़ते हैं, क्योंकि हमारा कालमान बहुत छोटा है। शरीर से छूट जाने पर पच्चीस सौ वर्ष ऐसे हैं, जैसे क्षण गुजरा हो। मोहम्मद से अभी भी संबंध स्थापित हो सकता है।
इसलिए जिन परंपराओं के शिक्षकों से अभी संबंध स्थापित हो सकता है, वे परंपराएं फैलती-फूलती हैं। जिन परंपराओं के शिक्षकों से अब कोई संबंध स्थापित नहीं हो सकता, वे एकदम सूख कर नष्ट हो जाती हैं, क्योंकि उनका मूल स्रोत से संबंध ही टूट जाता है। और इसीलिए नए शिक्षक जीतते हुए मालूम पड़ते हैं, पुराने शिक्षक हारते हुए मालूम पड़ते हैं।
अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि महावीर से पहले तेईसवें तीर्थंकर को ज्यादा वक्त नहीं हुआ, ढाई सौ वर्ष का ही फासला है, लेकिन उस तीर्थंकर से भी संबंध स्थापित करना मुश्किल हो गया था। इसलिए उस तीर्थंकर के निकट जीने वाले को भी महावीर के पास आ जाना पड़ा। लेकिन एक बुनियादी विरोध भीतर छूट गया, जिसने पीछे परंपरा को दो खंडों में तोड़ने में हाथ बंटाया। क्योंकि मूलतः वे शिक्षक पार्श्व से संबंधित थे, और उनका प्रेम, और उनका समर्पण और उनका द्वार पार्श्व के प्रति खुला था। लेकिन, चूंकि पार्श्व खो गए बहुत जल्दी और उनसे कोई संबंध स्थापित करना संभव न हुआ, इसीलिए महावीर के पास वे आए। लेकिन उनका मन, उनका ढंग, उनका व्यक्तित्व पार्श्व के अनुकूल था। इसलिए दो धाराएं फौरन टूटनी शुरू हो गईं। वे आ गए पास, लेकिन भेद थे।
और इसलिए किसी ने पूछा है कि एक ही समय में दो तीर्थंकर क्यों नहीं होते?
उसका कोई कारण नहीं है। उसका--एक परंपरा में एक ही समय में दो तीर्थंकर नहीं होते, उसका कुल कारण इतना है कि अगर एक तीर्थंकर काम कर रहा है उस परंपरा का, तो दूसरा तत्काल विलीन हो जाता है, उसकी कोई जरूरत नहीं होती। जैसे एक ही कक्षा में एक ही समय में दो शिक्षक की कोई जरूरत नहीं होती। बेमानी है, एकदम बेमानी है, मीनिंगलेस है। उससे सिर्फ बाधा ही पैदा होगी और कुछ भी न होगा। एक उपद्रव ही होगा कि एक ही कक्षा में दो-चार शिक्षक एक ही पीरियड में उपस्थित हो जाएं। तो उसकी वजह से सिर्फ कन्फ्यूजन फैलेगा। एक शिक्षक पर्याप्त होता है। इसलिए एक शिक्षक अगर काम कर रहा है तो दूसरा शिक्षक अगर होने की स्थिति में भी है तो विलीन हो जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं होती।
करुणा पीछे भी काम कर सकती है और पीछे भी संबंध स्थापित किए जा सकते हैं।
तिब्बत चीन के हाथ में चले जाने से जो बड़े से बड़ा नुकसान हुआ है, वह भौतिक अर्थों में नहीं नापा जा सकता। वह सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बुद्ध से तिब्बत के लामाओं का प्रतिवर्ष एक दिन निकट संपर्क स्थापित होता रहा था। वह परंपरा को घात पहुंच गया।
प्रतिवर्ष बुद्ध पूर्णिमा के दिन पांच सौ विशिष्ट भिक्षु और लामा एक विशेष पर्वत पर, मानसरोवर के निकट, उपस्थित होते रहे थे। यह अत्यंत सीक्रेट, अत्यंत गुप्त व्यवस्था थी। और ठीक पूर्णिमा की रात, ठीक समय पर, बुद्ध का साक्षात्कार पांच सौ व्यक्तियों को निरंतर हजारों वर्षों से होता रहा था। और इसलिए तिब्बत का बौद्ध भिक्षु जितना जीवंत और जितना गहरा था, उतना दुनिया का कोई बौद्ध भिक्षु नहीं था। क्योंकि और किसी के जीवित संपर्क नहीं थे बुद्ध से। एक वर्ष की शर्त पूरी होती रही थी निरंतर--वह बुद्ध पूर्णिमा के दिन। और यह इन दिनों को मनाने का भी कारण यह है कि उन दिनों पर संपर्क आसानी से स्थापित हो सकता है। वे दिन उस चेतना की स्मृति में भी महत्वपूर्ण दिन हैं। और उन महत्वपूर्ण दिनों पर वह ज्यादा करुणा विगलित हो सकती है और वह भी आतुर हो सकती है कि किसी प्यासे से संबंधित हो जाए।
तो ऐसा नहीं कि ठीक पांच सौ भिक्षुओं के समक्ष बुद्ध अपने पूरे रूप में ही प्रकट होते रहे थे। यह भी संभव है। क्योंकि हमारा यह शरीर गिर जाता है, इससे ही ऐसा मत मान लेना कि हमारे सब शरीर की होने की संभावना गिर जाती है। सूक्ष्म शरीर कभी भी रूप-आकार ले सकता है। और अगर बहुत से लोग आकांक्षा करें तो सूक्ष्म शरीर के रूप-आकार ले लेने में कठिनाई नहीं है।
ऐसा होगा सूक्ष्म शरीर कि अगर तलवार उसमें से निकालो तो तलवार निकल जाएगी, कुछ कटेगा नहीं। अत्यंत सूक्ष्म अणुओं का बना हुआ शरीर होगा। मनो-अणुओं का ही कहना चाहिए, साइकिक एटम्स का।
अब तक विज्ञान तो पहुंच सका है जिन अणुओं पर वे मैटीरियल एटम्स हैं, भूत-अणु हैं। लेकिन जिन्होंने और आंतरिक जीवन में खोज की है, वे उन अणुओं की भी खबर दिए हैं, जिनको साइकिक एटम्स कहना चाहिए, मनो-अणु। मनो-अणुओं की भी एक देह है, मनो-काया भी है एक, मेंटल-बॉडी जैसी चीज भी है।
तो अगर बहुत लोग आकांक्षा करें और एकाग्र-चित्त होकर प्रार्थना करें और करुणा शेष रह गई हो किसी चेतना में, अब शरीर नहीं पकड़ सकती है जो, तो वह मनो-देह में प्रकट हो सकती है।
सब मूर्तियां बहुत गहरे में उस मनो-देह को प्रकट करने की एक उपाय मात्र हैं। सब प्रार्थनाएं, सब आकांक्षाएं उस चेतना को विगलित करने के उपाय मात्र हैं कि उससे किसी तरह का संबंध स्थापित हो सके। और यह बहुत इसोटेरिक टेक्नीक्स की बात है।
तो इसलिए मंदिर-मस्जिद में जो सब हो रहा है, वह है तो सब कचरा जो हो रहा है अब, लेकिन जो व्यवस्था है पीछे वह बड़ी अर्थपूर्ण है। और उस अर्थपूर्ण व्यवस्था का उपयोग जो जानते हैं, वे करते ही रहे हैं और आज भी करते हैं। क्षीण होती जाती है निरंतर वह संभावना, क्योंकि वे हमें खयाल ही मिटते जाते हैं कि हम क्या करें।
ऐसा ही है जैसे कि समझें कि तीसरा महायुद्ध हो जाए, दुनिया खतम हो जाए, कुछ लोग बच जाएं और हमारा यह बिजली का पंखा उनको मिल जाए। तो वे अतीत के संस्मरण की तरह इसे रखे रहें कि पता नहीं यह किस काम का था। लेकिन उन्हें कुछ भी समझ में न आ सके कि यह हवा भी करता रहा होगा। क्योंकि न उनके पास बिजली का ज्ञान रह जाए, न उनके पास प्लग का ज्ञान रह जाए, न इस पंखे की आंतरिक व्यवस्था को समझने की उनकी अक्ल रह जाए।
तो हो सकता है, वे अपने म्यूजियम में इस पंखे को रख लें। तार को रख लें। रेल के इंजन को संभाल कर रख लें। और हो सकता है कि पूजा भी करने लगें अतीत के रेलिक्स, अतीत के स्मरणों की तरह। लेकिन उन्हें कोई पता न होगा कि यह रेल का इंजन हजारों लोगों को खींच कर भी ले जाता रहा होगा, क्योंकि न पटरियां बचें, न इंजीनियरिंग के शास्त्र बचें, न कोई खबर देने वाला बचे कि कैसे चलता होगा, कैसे क्या होता होगा। क्योंकि कोई भी व्यवस्था हजारों विशेषज्ञों पर निर्भर करती है।
हो भी सकता है कि एक आदमी ऐसा बच जाए जो कहे कि मैं रेल में बैठा था, और यह इंजन जो था, रेल के डिब्बे खींचने का काम करता था। लेकिन लोग उससे कहें कि तुम चला कर बता दो, तो वह कहे कि मैं सिर्फ बैठा था, मैं चला कर नहीं बता सकता हूं। बाकी इतना मुझे पक्का स्मरण है कि मैं इस गाड़ी में बैठा था, इसमें हजारों लोग बैठते थे और यह गाड़ी एक गांव से दूसरे गांव जाती थी। लेकिन मैं चला कर नहीं बता सकता, मैं बैठा था, इतना पक्का है। और यह बैठने वाला चिल्लाता रहे और किताबें भी लिखे कि यह रेल का इंजन है, इसमें लोग बैठते थे, चलाते थे। लेकिन कोई इसकी सुनेगा नहीं, क्योंकि यह चला कर नहीं बता सकेगा।
तो हर दिशा में--बाह्य या आंतरिक--हजारों उपाय खोजे जाते हैं। लेकिन कभी-कभी आमूल सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं, खो जाती हैं अंधकार में। और खो जाती हैं अगर उनके विशेषज्ञ खो जाएं। हजार कारण होते हैं खो जाने के।
आज मंदिर और मस्जिद बचे हुए हैं; तंत्र, यंत्र, मंत्र, सब बचे हुए हैं बहुत-बहुत रूपों में। लेकिन कुछ उनका मतलब नहीं है। क्योंकि उनसे क्या हो सकता था, इसका कुछ पता नहीं है; वह कैसे हो सकता था, इसका भी कुछ पता नहीं है। और तब जैसे रेल के इंजन की पूजा करे कोई जाति आगे भविष्य में, ऐसा हम मंदिरों में मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं।
हां, कुछ लोगों को स्मृति रह गई थी कि कुछ होता था, उनके पीछे वालों को भी वे कह गए हैं कि कुछ होता था, वे आज भी मंदिरों के घेरे में उनकी सुरक्षा के लिए खड़े हुए हैं। लेकिन उनके पास कुछ भी बताने को नहीं है कि क्या होता था, क्या हो सकता था। वे करके कुछ भी नहीं बता सकते।
चेतनाएं जैसे ही मुक्त होती हैं, मुक्ति के पहले सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए। मुक्ति होती ही उस चेतना की है, जिसकी सारी वासनाएं समाप्त हो गईं।
लेकिन अगर सारी वासनाएं समाप्त हो जाएं तो अमुक्त स्थिति और मुक्त स्थिति के बीच सेतु क्या होगा? दोनों को जोड़ता कौन होगा? तो वह तो आत्मा अपने को पहचान ही न सकेगी, क्योंकि उसने अपने को वासना में ही जाना था। और अगर सारी वासनाएं एक क्षण में समाप्त हो जाएं और दूसरे क्षण कोई वासना न रह जाए तो वह आत्मा अपने को पहचान ही नहीं सकेगी कि मैं वही हूं।
इसलिए जब सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, तब सिर्फ सेतु की तरह एक वासना शेष रह जाती है, जिसको मैं करुणा कह रहा हूं--कंपैशन शेष रह जाता है। यही उसका पुराने जगत से एकमात्र सूत्र होता है, ब्रिज होता है। अमुक्त आत्मा और मुक्त आत्मा के बीच जो एक सेतु है, वह करुणा का है। लेकिन अंततः सेतु के पार हो जाता है सब और करुणा भी चली जाती है।
तो तीर्थंकर का होना करुणा की वासना से होता है। और एक जन्म से ज्यादा असंभव है इस मोमेंटम में जाना, इस गति में जाना। इसलिए एक जन्म से ज्यादा नहीं हो सकते हैं। और जैसा मैंने कहा कि सभी ज्ञानियों को ऐसा हो जाता है, ऐसा भी नहीं है।
इसलिए महावीर की स्थिति में अनेक लोग पहुंचते हैं, लेकिन सभी तीर्थंकर नहीं हो जाते। क्योंकि मुक्ति का आकर्षण इतना तीव्र है, मुक्ति का आनंद इतना तीव्र है कि बहुत बलशाली लोग ही वापस लौट सकते हैं, एक जन्म के लिए ही सही। और ये बलशाली लोग एक जन्म में लौट कर इतना इंतजाम कर जाते हैं, पूरा इंतजाम कर जाते हैं, यानी उनके लौटने का प्रयोजन ही यह होता है असल में कि वे पूरा इंतजाम कर जाते हैं कि जब वे शरीर ग्रहण नहीं कर सकेंगे, तब उनसे कैसे संबंध स्थापित किया जा सकेगा। अब इसकी बहुत व्यवस्था है।
इसलिए...जैसे समझ लें कि एक पिता है, उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं और वह लंबी यात्रा पर जा रहा है, जहां से वह कभी नहीं लौटेगा। तो वह अपने बच्चों के लिए इंतजाम कर जाता है सब तरह का। उन्हें कह जाता है कि इस-इस पते पर चिट्ठी लिखना तो मुझे मिल जाएगी। वह घर में अपना एक चित्र भी छोड़ जाता है कि जब तुम बड़े हो जाओ तो तुम पहचानना कि मैं ऐसा था।
वह उन बच्चों के लिए स्मृति भी छोड़ जाता है कि तुम जब बड़े हो जाओ तो जो मैं तुमसे कहना चाहता था, वह इसमें लिखा है, वह तुम समझ लेना। और जब भी मुझसे संबंध स्थापित करना चाहो तो यह मेरा फोन नंबर होगा। इस विशेष फोन नंबर पर तुम मुझसे संपर्क स्थापित कर सकोगे। मैं नहीं लौट सकूंगा अब। अब लौटना असंभव है।
तो प्रत्येक करुणापूर्ण शिक्षक, एक बार लौट कर सारा इंतजाम कर जाता है कि पीछे उससे कैसे संबंध स्थापित किए जा सकेंगे। जब शरीर खो जाएगा तो उसका कोड नंबर क्या होगा, जिस विशेष मनःस्थिति में जिस मनस-विशेष कोड नंबर पर उससे संपर्क स्थापित हो जाएगा।
सारे धर्मों के विशेष मंत्र कोड नंबर हैं। जिन मंत्रों के निरंतर उच्चारण से ध्यानपूर्वक, चित्त एक विशेष टयूनिंग को उपलब्ध होता है और उस टयूनिंग में विशेष शिक्षकों से संबंध स्थापित हो सकते हैं। वे बिलकुल कोड नंबर हैं, वे बिलकुल टेलीफोनिक नंबर हैं कि चित्त अगर उसी ध्वनि में अपने को गतिमान करे तो एक विशिष्ट टयूनिंग पर उपलब्ध हो जाता है। और वह कोड नंबर किसी एक शिक्षक का ही है, वह दूसरे के लिए काम में नहीं आ सकता। दूसरे के लिए वह उपयोगी नहीं है। और इसीलिए इन कोड नंबरों को अत्यंत गुप्त रखने की व्यवस्था की गई। इसलिए चुपचाप अत्यंत गुप्तता में ही वे दिए जाते हैं।
संबंध स्थापित हो सके, इसलिए बहुत उपाय छोड़ जाते हैं, चिह्न छोड़ जाते हैं, मूर्तियां छोड़ जाते हैं, शब्द छोड़ जाते हैं, मंत्र छोड़ जाते हैं, विशेष आकृतियां, जिनको तंत्र कहें, वे छोड़ जाते हैं। यंत्र छोड़ जाते हैं, जिन आकृतियों पर चित्त एकाग्र करने से विशिष्ट दशा उपलब्ध होगी चित्त की, उस दशा में उनसे संबंध स्थापित हो सकेगा।
लेकिन वह सब खो जाता है। और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उनसे संपर्क स्थापित होना बंद होता चला जाता है। तो जब उनसे पूरा संपर्क टूट जाता है, तब उनके पास कोई उपाय नहीं रह जाता। और तब वैसे शिक्षक धीरे-धीरे खो जाते हैं, विलीन हो जाते हैं।
ऐसे अनंत शिक्षक मनुष्य-जाति में पैदा हुए हैं। सभी शिक्षकों का अपना काम था, वह उन्होंने पूरा किया और पूरी मेहनत भी की है। कुछ जीवंत परंपराएं हैं, जिनमें कि वह चलता है। जैसे कि तिब्बत का लामा है--दलाई लामा है। बड़ी अदभुत बात है, लेकिन बड़ी कीमत की है।
जब एक दलाई लामा मरता है तो वह सब चिह्न छोड़ जाता है कि मेरा अगला जन्म जो होगा, उसमें तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे। वह सारे चिह्न छोड़ जाता है। मेरा अगला जन्म होगा तो तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे, ये-ये मेरे चिह्न होंगे। और ये सवाल तुम मुझसे पूछना तो ये जवाब मैं तुम्हें दूंगा। तब तुम पक्का मान लेना कि मैं वही आदमी हूं। नहीं तो तुम पहचानोगे कैसे, तुम मानोगे कैसे कि मैं वही हूं!
तो पिछला दलाई लामा मरा था, जो अभी दलाई लामा है इसका पहला गुरु जब मरा--यह वही आत्मा है--तो वह चिह्न छोड़ कर गया था कि पूरे तिब्बत में खोज-बीन करना इतने वर्षों के बाद और जो लड़का इन चीजों का यह जवाब दे दे समझना कि वह मैं हूं। और वे बातें अत्यंत गुप्त हैं, वे सीलबंद मुहर उत्तर हैं उनके, वह कोई खबर किसी को मिल नहीं सकती।
फिर सारे तिब्बत में खोज शुरू हुई। और सारे तिब्बत में सैकड़ों-हजारों बच्चों से पूछे गए वही सवाल, लेकिन कोई बच्चा कैसे जवाब देता! इस बच्चे ने सब जवाब दे दिए। तो स्वीकृत कर लिया गया कि वह पुरानी आत्मा उसमें उतर आई है। और तब उसको फिर जगह पर बिठा दिया गया। सिर्फ शरीर नया हो गया, आत्मा वही है।
शिक्षक यह भी करते रहे ताकि वे अनंत जन्मों तक निरंतर उपयोगी हो सकें। जब खो जाएं वे जन्मों से, तब भी वे उपयोगी हो सकें, इसकी भी व्यवस्था करते रहे।
तो एक जन्म से ज्यादा तो नहीं हो सकता यह। लेकिन जन्म बंद हो जाने के बाद बहुत समय तक संबंध स्थापित रह सकते हैं। संबंध स्थापित रहने के दो सूत्र रहेंगे: उस शिक्षक की करुणा की वासना शेष रह गई हो जितनी दूर तक और जितने दूर तक उससे संबंध होने के सूत्र साफ और स्मरण में रह गए हों।
इसीलिए जैसा मैंने कल कहा कि तीन-चार सौ, पांच सौ, छह सौ वर्ष तक तो जरूरत नहीं पड़ती है लिखने की कि क्या कहा था, क्योंकि बार-बार संबंध स्थापित करके जांच की जा सकती है कि यही कहा था कि नहीं कहा था। लेकिन जब वे सूत्र क्षीण होने लगते हैं और संबंध स्थापित करना मुश्किल होने लगता है, तब लिखने की बारी आती है।
इसलिए पुराना कोई भी महत्वपूर्ण ग्रंथ सैकड़ों वर्षों तक नहीं लिखा गया, क्योंकि तब तक वे सूत्र थे जिनसे कि संबंध जोड़ कर हम पूछ सकते थे, जान सकते थे कि यही कहा है, यही कहा था? तो लिखने की कोई जरूरत न थी। लेकिन जब संबंध क्षीण होने लगे और वे अंतिम शिक्षक मरने लगे जिनका संबंध हो सकता था, तो फिर उनसे कहा कि अब लिख दिया जाए। अब पूरी बात लिख दी जाए।
जैसे कि सिक्खों के मामले में हुआ। दसवें गुरु के बाद कोई व्यक्ति नजर नहीं आया जो कि ग्यारहवां गुरु हो सकेगा। तो जरूरी हुआ कि ग्रंथ लिख दिया जाए, क्योंकि अब संभावना नहीं है कि कांटैक्ट हो सकेगा। बाकी दस गुरु की जो उनकी परंपरा है, उसमें निरंतर संपर्क स्थापित है। इसलिए वह नानक से टूटती नहीं है। उसमें कोई कठिनाई नहीं पड़ती है। नानक निरंतर उपलब्ध हैं, संबंध जोड़ा जा सकता है। गद्दी पर बिठालने की जो बात थी, वह बात धीरे-धीरे पीछे तो बड़ी स्वार्थ की बात हो गई, लेकिन बड़ी अर्थ की थी। बहुत अर्थ की थी। लेकिन हम सभी अर्थ की बातों को व्यर्थ कर सकते हैं।
अब जैसे कि शंकराचार्य की गद्दियों पर जो शंकराचार्य बैठे हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं, कुछ भी मतलब नहीं। अब उनका गद्दी पर बैठना बिलकुल पोलिटिकल इलेक्शन जैसा मामला है। लेकिन प्राथमिक रूप से शंकराचार्य अपनी जगह उस आदमी को बिठाल गया है, जिससे वह संबंध स्थापित रख सकेगा। और कोई मतलब नहीं है उसका। अपनी जगह उस आदमी को बिठाल दिया जा रहा है, जिससे कि अब वह संबंध स्थापित रख सकेगा। मर कर भी वह मरेगा नहीं इस जगत में। उसका एक संबंध-सूत्र कायम रहेगा। एक व्यक्ति मौजूद रहेगा, जिससे कि वह काम जारी रखेगा। और उस व्यक्ति को वह कह कर जाएगा, समझा कर जाएगा कि वह कैसे व्यक्ति को चुन कर बिठा देगा, ताकि इस व्यक्ति के खो जाने पर भी संबंध-सूत्र जारी रहेगा।
पर वे संबंध-सूत्र खतम हो गए। अब शंकराचार्य से किसी शंकराचार्य का कोई संबंध-सूत्र नहीं है, कांटैक्ट टूट गया। इसलिए अब सब फिजूल बात हो गई। अब उसमें कोई मूल्य नहीं रह गया। अब वह मामला सिर्फ धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा का है कि कौन आदमी बैठे।
तो झगड़े हैं, अदालत में मुकदमे भी चलते हैं और सब निर्णय अदालत करती है कि कौन आदमी हकदार है, गद्दी का हकदार कौन है!
यह निर्णय करने की बात ही नहीं है। यह प्रश्न ही नहीं है निर्णय करने का। क्योंकि यह निर्णय कौन करेगा? यह निर्णय पुराना शिक्षक कर सकता था, पिछला शिक्षक कर सकता था। और तब कई बार ऐसा हुआ है कि बिलकुल ऐसे लोगों के हाथ में गद्दी सौंप दी गई है, जिनके बाबत किसी को कोई खयाल ही न था।
एक शिक्षक मर रहा था चीन में। पांच सौ उसके भिक्षु थे। उसने खबर भेजी कि जो भी भिक्षु चार पंक्तियों में मेरे दरवाजे पर आकर लिख जाए धर्म का सार, उसको मैं अपनी जगह बिठा जाऊंगा, क्योंकि मेरा वक्त विदा का आ गया, अब मैं जाता हूं। तो पांच सौ थे, बड़े ज्ञानी पंडित थे उसमें। और सबको पता था कि कौन जीतेगा, क्योंकि सबसे बड़ा जो पंडित था, वही जीतेगा। उस पंडित ने जाकर द्वार पर लिख दिया है शिक्षक के धर्म को चार सूत्रों में। लिख दिया है कि मनुष्य की आत्मा एक दर्पण की भांति है, उस पर विकार की, विचार की धूल जम जाती है, उस धूल को पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है। मनुष्य की आत्मा दर्पण की भांति है, उस पर विकार की, विचार की धूल जम जाती है, उसे पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है।
सारे लोग पढ़ गए हैं और सबने कहा कि अदभुत है, बात तो पूरी हो गई। और तो कुछ होता ही नहीं आत्मा में, सिर्फ धूल जम जाती है, उसको सिर्फ झाड़ देने का...। लेकिन गुरु सुबह उठा है, बूढ़ा गुरु अस्सी वर्ष का, उसने देखा। उसने कहा कि यह किस नासमझ ने दीवाल खराब की है, उसको पकड़ कर लाया जाए इसी वक्त!
तो वह पंडित तो एकदम भाग गया। वह इसलिए भाग गया कि उसने कहा कि वह तो गुरु पकड़ लेगा फौरन, क्योंकि यह तो सब किताबों से पढ़ कर उसने लिखा था। सारे आश्रम में चर्चा हुई कि...वह दस्तखत भी नहीं कर गया था नीचे इसी डर से कि अगर गुरु पसंद करेगा तो कह दूंगा जाकर कि मैंने लिखा है, अगर वह नापसंद करेगा तो झंझट के बाहर हो जाएंगे। सारे आश्रम में चर्चा चल पड़ी कि क्या हो गया, इतने अदभुत वचन!
तो एक आदमी आज से कोई बारह साल पहले आया था और बारह साल पहले इस बुङ्ढे के पैर को पकड़ कर उसने कहा था कि संन्यासी होना है मुझे। तो इस बूढ़े आदमी ने पूछा था कि तुझे संन्यासी दिखना है या कि होना है? तो इसने कहा था, दिख कर क्या करेंगे? और दिखना होता तो आपसे पूछने की क्या जरूरत थी? हम दिख जाते। होना है!
तो उसने कहा, तो होना फिर बहुत मुश्किल है। होना है तो फिर एक काम कर। आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं, उनका जो चौका है, जहां चावल बनता है, खाना बनता है, तू चावल कूटने का काम कर। और अब दुबारा मेरे पास मत आना। आना ही मत। जरूरत होगी तो मैं तेरे पास आऊंगा। न किसी से बात करना, न किसी से चीत करना, न कपड़े बदलना, चुपचाप जैसा तू है उस आश्रम के चौके के पीछे चावल कूटने का काम कर। और दुबारा आना मत भूल कर अब मेरे पास। जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा, नहीं जरूरत होगी तो बात खतम हो गई है।
वह युवक बारह साल पहले से आश्रम के पीछे जाकर चावल कूटता रहा था। लोग धीरे-धीरे उसको भूल ही गए थे, क्योंकि वह और कोई काम ही नहीं करता था। वह आश्रम के पीछे चावल कूटता रहता था। न किसी से बोलता था। सुबह उठता था, चावल कूटता था; शाम थक जाता था, सो जाता था। बारह साल हो गए थे। न कभी गुरु उसके पास गया, न कभी वह दुबारा पूछने आया।
आज सारे आश्रम में एक ही चर्चा थी, तो भोजनालय में भी भिक्षु वही चर्चा कर रहे थे। वह चावल कूट रहा था। उसके पास से दोत्तीन भिक्षु चर्चा करते निकले कि बड़ी हद्द कर दी गुरु ने, इतने सुंदर वचनों को, इतने श्रेष्ठ वचनों को कह दिया कचरा हैं। तो वह चावल कूटने वाला जो बारह साल से चुपचाप चावल कूटता था...लोग उसको भूल ही गए थे, उसके पास से भी निकलते थे तो कौन ध्यान देता था! फिर वे सब बड़े भिक्षु थे, ज्ञानी थे। वह साधारण चावल कूटने वाला था। तो चावल कूटते-कूटते वह भी हंसने लगा। तो उन भिक्षुओं ने रुक कर उसको देखा कि तुम भी हंसते हो! किस बात से हंसते हो? तो उसने कहा कि ठीक ही गुरु ने कहा, क्या कचरा लिखा है। तो उन्होंने कहा कि अरे, तू एक चावल कूटने वाला, बारह साल से सिवाय चावल तूने कुछ और कूटा नहीं, और तू भी वक्तव्य दे रहा है इस पर! तो तुझको पता है कि धर्म क्या है?
उसने कहा, मुझे पता तो है, लेकिन लिखना भूल गया हूं। पता तो मुझे हो गया है, लेकिन लिखना भूल गया है, लिखें कैसे? और धर्म क्या लिखा जा सकता है! इसलिए मैं अपना चावल ही कूटता रहता हूं। खबर तो मुझको भी मिल गई थी कि वह दरवाजे पर लिखने के लिए कहा है, लेकिन एक तो यह कि कौन गद्दी की झंझट में पड़े! और दूसरा यह कि लिखें कैसे?
तो उन भिक्षुओं ने कहा कि अच्छा--वह सिर्फ मजाक में उसको, कि चलो अब यह भी, इसको भी ले चलो--हम लिख देंगे, तू बोल दे। तो उसने कहा कि यह हो सकता है। धर्म के साथ अक्सर यह हुआ है, बोला किसी ने, लिखा किसी ने। यह हो सकता है, क्योंकि हम जिम्मेवार न रहे। हमसे कोई न कह सकेगा कि तुमने लिखा। हम सिर्फ बोले।
चल कर उसने कहा कि मैं बोल देता हूं। उसने बोल दिया और उन भिक्षुओं ने दीवाल पर लिख दिया। वह जो चार पंक्तियां लिखी थीं, जो काट दी थीं गुरु ने, उसके बगल में उसने दूसरी चार पंक्तियां लिखीं। उसने कहा, कौन कहता है कि आत्मा दर्पण की भांति है! जो दर्पण की भांति है, उस पर तो धूल जम ही जाएगी। आत्मा का कोई दर्पण ही नहीं है, धूल जमेगी कहां? जो इस सत्य को जान लेता है वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
गुरु भागा हुआ आया और उसको पकड़ लिया और कहा कि तू भाग मत जाना, क्योंकि ऐसे लोग निकल कर भाग जाते हैं। तूने ठीक बात लिख दी। उसने कहा, लेकिन मुझसे गलती हो गई। मैं अपना चावल ही कूटना चाहता हूं। मैं किसी का गुरु वगैरह नहीं होना चाहता।
लेकिन उसके गुरु ने कहा कि तेरे बिना कोई चारा नहीं। तुझसे मेरा संबंध हो सकेगा पीछे भी। उसको अपनी गद्दी दे गया और उसने कहा कि मैं जानता था--उसके बूढ़े गुरु ने कहा कि मैं जानता था--अगर कोई लिख सकेगा तो वह एक चावल कूटने वाला है, जो बारह साल से लौटा नहीं है, चावल ही कूट रहा है। और जिसने इतनी शिकायत भी नहीं की एक बार कि गुरु अब तक नहीं आया, मर जाएंगे तब आएगा क्या? तो मैं जानता था कि उसको मिल ही गया है, इसलिए नहीं लौटा।
तो उसने कहा कि सब मिल गया था। इसलिए आपके आने की प्रतीक्षा भी न थी, आने की जरूरत भी न थी। क्योंकि चावल कूटता रहा, कूटता रहा, कूटता रहा। कुछ दिन तक विचार चले पुराने, क्योंकि नए विचार का कोई उपाय ही न था; न किसी से बात करता, न कुछ पढ़ता। चावल ही कूटता। अब चावल कूटने से विचार कहीं पैदा होते हैं! तो धीरे-धीरे सब विचार मर गए, चावल कूटना ही रह गया। जब सब विचार मर गए और सिर्फ चावल कूटना रह गया तो मैं इतने तेजी से जागा, जिसका कोई हिसाब न था। सारी चेतना मुक्त हो गई।
यह जो खो गया शिक्षक है, वह करुणावश कुछ रास्ते तो छोड़ जाता है पीछे। लेकिन सभी चीजें क्षीण हो जाती हैं। और सभी संपर्क-सूत्र शिथिल पड़ जाते हैं और खो जाते हैं।

प्रश्न:

एक दूसरी आपने जो बात कही वह भी कुछ विचित्र लगी। आपने उपवास की जो तुलना दी थी--भोजन कर लिया पर भोजन न करे के समान, विवाह कर लिया पर विवाह न करे के समान। इतना तक समझ में आया, पर संतान उत्पत्ति कर दी और संतान उत्पत्ति न करे के समान! मैथुन किया पर न करे के समान! वह प्रक्रिया तो ऐसी नजर आती है कि बिना वासना और तृष्णा के हो ही न पाए शायद।

हीं, सवाल तो एक ही है सदा। अगर बिना वासना और तृष्णा के भोजन हो सके तो मैथुन क्यों नहीं? सवाल क्या किया, यह नहीं है। सवाल कैसे किया, यही है। अगर किसी भी क्रिया को करते समय पीछे साक्षी खड़ा है और देख रहा है तो कोई भी क्रिया बंधनकारी नहीं है। भोजन करते समय अगर साक्षी पीछे देख रहा है कि भोजन किया जा रहा है और मैं अलग खड़ा हूं तो भोजन सिर्फ शरीर में जा रहा है। पीछे अछूता कोई खड़ा है, जिसको कुछ भी नहीं छू सकता, जो सिर्फ द्रष्टा है भोजन किए जाने का।
अब ध्यान रखें, भोजन शरीर में जा रहा है और मैथुन में शरीर से कुछ बाहर जा रहा है। उसका भी साक्षी हुआ जा सकता है। साक्षी तो किसी भी क्रिया का हुआ जा सकता है, चाहे वह अंतर्गामी हो चाहे बहिर्गामी। असल में जो भोजन में शरीर में जा रहा है, वही मैथुन में शरीर के बाहर जा रहा है। भोजन में क्या जा रहा है भीतर? उसी का सारभूत फिर मैथुन से बाहर जा रहा है। लेकिन यह जा रहा है शरीर में, आ रहा है शरीर में। और अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो गई। तब नदी से गुजर सकते हो और ऐसे कि पांव न भीगें। पांव तो भीग ही जाएंगे। नदी से गुजरोगे तो पांव तो भीगेंगे। लेकिन बिलकुल ऐसे जैसे पांव न भीगें। अगर पीछे कोई साक्षी रह गया है तो बात खतम हो गई।
इसलिए गहरे में प्रश्न साक्षी-भाव का है, टु बी ए विटनेस, सिर्फ, और कुछ भी नहीं। फिर कौन सी क्रिया है, इससे कोई संबंध नहीं है। जैसे ही क्रिया के साक्षी हुए, कर्ता मिट गया। कर्ता मिटा कि कर्म मिट गया, क्रिया रह गई सिर्फ। अब यह क्रिया हजारों कारणों से उदभूत हो सकती है।
तो वह जो तुम कहते हो संतति, बिलकुल ही, बिलकुल ही उसमें कोई वासना न हो। और सच तो यह है कि जब ऐसी संतति पैदा होती है जिसमें कोई  वासना न हो, तब केवल शरीर एक उपकरण बना है एक क्रिया का, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ है। चेतना उपकरण नहीं बनी।
लेकिन साधारणतः मैथुन में आदमी बिलकुल खो जाता है, होश तो रह ही नहीं जाता, बेहोश हो जाता है। तब केवल शरीर ही उपकरण नहीं बनता, भीतर आत्मा सो गई होती है, मर्ूच्छित हो गई होती है। और मैथुन का जो विरोध है, वह सिर्फ इसीलिए है कि आत्मा की मर्ूच्छा सर्वाधिक मैथुन में होती है। अगर वहां आत्मा अमर्ूच्छित रह जाए तो बात खतम हो गई। कोई बात ही न रही।
और प्रश्न भोजन का नहीं है। वह भी एक क्रिया है। किसी भी क्रिया में--जैसे अभी तुम मुझे सुन रहे हो, सुनना एक क्रिया है। अगर तुम साक्षी हो जाओ तो तुम पाओगे कि सुना भी जा रहा है और तुम दूर खड़े होकर सुनने को देख भी रहे हो। जैसे मैं बोल रहा हूं और मैं साक्षी हूं, तो मैं बोल भी रहा हूं और पूरे वक्त मैं जानता हूं कि मेरे भीतर अबोला भी कोई खड़ा हुआ है। और असल में अबोला जो खड़ा है, वही मैं हूं। जो बोला जा रहा है, वह सिर्फ उपकरण है, वह साधन है। वह मैं नहीं हूं।
चल रहे हो रास्ते पर और अगर जाग जाओ तो तुम पाओगे: चल भी रहे हो, और कुछ भीतर अचल भी खड़ा है, जो नहीं चल रहा है, जो कभी चला ही नहीं, जो चल ही नहीं सकता है। और अगर चलने की क्रिया में तुम पूरे जाग गए हो तो तुम पाते हो कि चलने की क्रिया हो रही है और भीतर कोई अचल भी खड़ा है। और इस अचल का बोध हो जाए तो तुम किसी दिन कह सकते हो कि मैं कभी चला ही नहीं। और हजारों लोगों ने तुम्हें चलते देखा होगा। और रिकार्ड होंगे तुम्हारे चलने के और फोटोग्राफ होंगे तुम्हारे चलने के कि तुम चले थे, यह रहा फोटो, और अदालत निर्णय देगी कि हां तुम चले थे। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कहोगे कि वह सिर्फ दिखाई पड़ा था तुम्हें कि हम चले थे। लेकिन भीतर मैं अचल था, कोई नहीं चला था।
तो कौन सी क्रिया है, यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण। क्या क्रिया के भीतर तुम जागे हुए हो? अगर जागे हुए हो तो तुम क्रिया से भिन्न हो गए। और तब क्रिया जगत के बृहत् इस जाल का एक हिस्सा हो गई। जैसे श्वास चल रही है और अगर तुम देख रहे हो तो श्वास का चलना न चलना जगत की विराट व्यवस्था का हिस्सा हो गया और तुम बिलकुल बाहर होकर देखने लगे कि श्वास चल रही है। जैसे तुमने सूरज को उगते और डूबते देखा; सूरज दूर है, लेकिन श्वास कोई बहुत पास थोड़े ही है। फासला इतना ही है। श्वास जरा पास चल रही है।
एक पक्षी मैथुन कर रहा है। वह देह तुमसे थोड़ी दूर है, लेकिन तुम्हारी देह उससे कुछ तुम्हारे पास थोड़े ही है। एक पक्षी को मैथुन करते देख कर तुम यह तो नहीं कहते कि मैं मैथुन कर रहा हूं। तुम कहते हो, मैं देख रहा हूं, पक्षी मैथुन करता है। तुम बाहर हो गए।
एक तल पर जिस दिन चेतना संपूर्ण रूप से साक्षी हो जाती है, यह शरीर दूर खड़े पक्षी से ज्यादा अर्थ का नहीं रह जाता। उतना ही फासला हो जाता है। और तब तुम कह सकते हो--शरीर से हो रहा है।
कठिन मालूम पड़ता है हमें। कठिन इसलिए मालूम पड़ता है कि हम मैथुन में निरंतर मर्ूच्छित हुए हैं, भोजन में मर्ूच्छित हुए हैं। सब चीजों में मर्ूच्छित हुए हैं।
गुरजिएफ एक फकीर था अभी, तो उसका काम था कि लोग उसके पास आएं...तो बहुत अदभुत था वह व्यक्ति। इस सदी में जो थोड़े से दो-चार लोग जानते हैं, उनमें से एक आदमी था। तो वह लोगों को ऐसी चीजें सिखाता था कि तुम सोच ही नहीं सकते। लोगों को कहता, क्रोध करो! और ऐसा अवसर पैदा कर देता कि उनको क्रोध करवाता। जैसे कि आप आए हो तो वह ऐसे उपद्रव खड़े करवा देगा आपके चारों तरफ कि आप क्रोधित हो ही जाओ और आप चिल्लाने लगो और आगबबूला हो जाओ। और सारा इंतजाम होगा कि आपको आगबबूला किया जाए। और फिर वह एकदम से कहेगा: देखो, क्या हो रहा है!
और तुम चौंक गए हो। आंखें लाल हैं और हाथ कंप रहे हैं। और तुम हंसने लगे हो। तुम्हारा हाथ अब भी कंप रहा है और आंखें लाल हैं। तुम्हारे ओंठ फड़क रहे हैं, तुम्हारा मन किसी की गर्दन दबा देने का है। और उसने कहा कि देखो! और तुम्हें याद आ गया कि उसने क्रोध का इंतजाम करवाया सब पूरा का पूरा। अब तुमने देखा और तुम एक क्षण में अलग हो गए हो, क्रोध इधर रह गया है, तुम अलग खड़े हो। और तब सब शांत हो गया है भीतर। शरीर अब भी कंप रहा है।
जैसा कभी तुमने देखा हो, रात सपना देखा हो, डर गए हो, नींद खुल गई, हाथ कंप रहे हैं, सांस तेजी से चल रही है। नींद खुल गई है और सपना टूट गया और अब तुम जानते हो, अब तुम हंसते हो कि सपना था। लेकिन अभी हाथ कंप रहे हैं, अभी सांस धड़क रही है और अभी डर मौजूद है। और तुम जानते हो कि अब तुम जग गए हो और वह सपना था सिर्फ। लेकिन सपने का इंपैक्ट इतने जल्दी थोड़े ही चला जाएगा। शरीर को वक्त लगेगा शांत होने में।
तो वह सब तरह के उपाय करता और लोगों को उन उपायों के बीच में कहता कि जागो! और अगर उस वक्त सुनाई पड़ जाए बात और आदमी जाग जाए...।
तंत्र ने इसके उपाय किए बहुत। नग्न स्त्री को सामने बिठाया हुआ है, और साधक उसे देख रहा है और खोता चला जा रहा है। आंखों में उसके सम्मोहन आता चला जा रहा है, वह भूला चला जा रहा है। तभी कोई चिल्लाता है कि जागो! और वह एक क्षण में जाग कर देखता है। और सब शिथिल हो गया है। नग्न स्त्री सामने रह गई है चित्रवत। उसका कंपता हुआ मन और शरीर रह गया है दूर। और भीतर कोई जाग गया है और देख रहा है। और वह हंसता है कि क्या पागलपन था!
यह सारी की सारी व्यवस्था किसी भी क्षण जागने में उपयोगी हो सकती है। तो ऐसी कोई क्रिया नहीं है, जिसमें न जागा जा सके। हां, मैथुन सर्वाधिक कठिन है। उसका कारण है। उसका कारण है कि मैथुन ऐसी क्रिया है जो मनुष्य के ऊपर प्रकृति ने नहीं छोड़ी। अगर छोड़ दी जाए तो शायद कोई पुरुष, कोई स्त्री कभी मैथुन करने को राजी ही न हो। अगर मनुष्य पर छोड़ दी जाए तो कोई कभी राजी ही न हो। क्योंकि ऐसी एब्सर्ड, ऐसी व्यर्थ, ऐसी बेमानी क्रिया है। तो प्रकृति ने उसके लिए बहुत गहरी हिप्नोसिस डाली है भीतर, इतना गहरा सम्मोहन और मर्ूच्छा डाली है कि उसी मर्ूच्छा के प्रभाव में ही कोई कर सकता है, नहीं तो कर नहीं सकता। मुश्किल पड़ जाए। तो वह मर्ूच्छा गहरी डाली है।
मैं इस पर बहुत प्रयोग करता था और बड़े हैरानी के अनुभव हुए। एक युवक मेरे पास था। तो उस पर मैंने वर्षों हिप्नोसिस के, सम्मोहन के प्रयोग किए। उसको मैंने सम्मोहित करके बेहोश किया है। पास में एक तकिया पड़ा है। और उससे मैं बेहोशी में कहता हूं कि उठने के पंद्रह मिनट बाद तू इस तकिए को चूमना चाहेगा और कोई उपाय नहीं कि तू इसको चूमने से रुक जाए। तुझे इसे चूमना ही पड़ेगा।
अब उसे होश वापस लौटा दिया है। वह होश में आ गया है। अब वह बैठा है। और अब सब लोगों को पता है। पंद्रह लोग अगर बैठे हैं, सबको पता है। अब वह लड़का बार-बार चोरी से उस तकिए को देखता है, जैसे कोई किसी स्त्री को देखता हो। अब वे पंद्रह ही जाग कर उसको देख रहे हैं कि क्या मामला है। वह कभी मौका मिल जाए तो चुपचाप उसे छू लेता है फिर। और उसके मन में इतनी गहरी हिप्नोसिस है कि तकिए ने एक सेक्सुअल अर्थ ले लिया है। और वह खुद भी संकोच कर रहा है कि यह क्या पागलपन है कि वह तकिए को देखूं! लेकिन अब उसका भीतर पूरा मन तकिए की तरफ डोला चला जा रहा है।
अब तकिया यहां रखा है, वह वहां बैठा है। तो वह किसी भी बहाने आकर, यहां पास आकर बैठ गया है। बहाना बिलकुल दूसरा है। क्योंकि तकिए के पास आकर बैठने के लिए वह कैसे कह सकता है? वह कहता है कि मुझे वहां से सुनाई नहीं पड़ता, तो मैं ठीक से आपके पास आकर बैठ जाता हूं।
मैंने तकिया उठा कर इस तरफ रख लिया है। वह इधर तकिए के पास आकर बैठ गया है। अब वह बड़ा बेचैन है। अब वह कहता है कि वहां जरा दीवार से टिक कर बैठना मुझे ठीक होगा। वह आकर दीवार से टिक कर बैठ गया है। वह तकिए की तलाश में है। मैंने तकिया उठाकर, जाकर अलमारी में बंद करके लॉक कर दिया है। और पंद्रह मिनट पूरे हुए जाते हैं और वह बेचैन है, बिलकुल तड़फ रहा है। और वह कहता है, चाबी दीजिए। उस अलमारी में मेरा फाउंटेन पेन रखा हुआ है। तकिए का वह कैसे कहे! वह खुद भी नहीं सोच पा रहा है कि तकिए के लिए मैं कैसे कहूं!
और हम सब बैठे हैं। उसको चाबी दे दी गई है। उसने जाकर ताला खोला है। वह सब तरफ देख रहा है। फाउंटेन पेन उठाता है और झुक कर तकिए को चूम लेता है और एकदम रिलैक्स्ड हो जाता है। अब हम उससे पूछते हैं कि तुम यह क्या कर रहे हो? वह कहता है--एकदम रोने लगता है--कि मेरी समझ के बाहर है कि यह मैं क्या कर रहा हूं। लेकिन वह परेशान है, इस तकिए से मेरा क्या हो गया है! लेकिन मैं इसको चूम कर बड़ा हलका हो गया हूं।
तकिए के प्रति तक यह हालत पैदा की जा सकती है। किसी भी चीज के प्रति हिप्नोसिस दी जा सकती है।
तो प्रकृति ने मैथुन के साथ एक हिप्नोसिस डाली हुई है, एक सम्मोहन डाला हुआ है। उसी सम्मोहन के प्रभाव में सारा खेल चलता है। और इसलिए आदमी बिलकुल विवश पाता है। जब एक सुंदर चेहरा उसे खींचता है तो वह अपनी सामर्थ्य में, होश में नहीं है, बिलकुल बेहोश है।
इस हिप्नोसिस को तोड़ा जाए, इसको तोड़ने की विधियां हैं। और इस हिप्नोसिस को तोड़ने की सबसे बड़ी, सम्मोहन को तोड़ने की सबसे बड़ी विधि साक्षी होना है। तो सम्मोहन एकदम टूट जाता है, कट जाता है एकदम।
और जब सम्मोहन कट जाता है तो महावीर जैसे व्यक्ति को स्त्री में कोई आकर्षण नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण। महावीर को पिता बनने में कोई अर्थ और आकर्षण नहीं है, लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण। और महावीर बिलकुल पैसिव आनलुकर की तरह मैथुन से भी गुजर सकते हैं। इसमें कोई, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। एक दफा हिप्नोसिस टूट जाए, बस। सम्मोहन टूट जाए, तब तो किसी भी क्रिया से आदमी देखता हुआ गुजर सकता है।
और जिस दिन मैथुन से कोई देखता हुआ गुजर जाता है, उसी दिन मैथुन से मुक्त हो जाता है। फिर मैथुन में कोई मतलब न रहा, क्योंकि हिप्नोसिस पूरी तरह टूट गई। लेकिन ऐसा व्यक्ति इनकार करने का भी कोई कारण नहीं मानता है। यही हमें खयाल में...ऐसा व्यक्ति इनकार करने का भी कोई कारण नहीं मानता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति को इनकार करने में भी कोई अर्थ नहीं है।
जैसे कि उस युवक से कहो कि तुम तकिए को चूमना चाहते हो? तो वह कहेगा, नहीं-नहीं, मैं नहीं चूमना चाहता। क्योंकि बात एब्सर्ड मालूम पड़ती है कि तकिए को और चूमूं! वह इनकार करेगा। हो सकता है वह त्याग करके मंदिर में कसम खा ले कि मैं कसम खाता हूं भगवान की, तकिए को कभी नहीं चूमूंगा। लेकिन तकिए के प्रति उसका पागलपन जारी है। इस कसम में भी वह छिपा है।
इसलिए ब्रह्मचर्य काम से छूट जाना नहीं है, काम से जाग जाना है। तब हम कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं, ब्रह्मचर्य को उपलब्ध! और अदभुत है वह। उसकी उपलब्धि बहुत अदभुत है। कितनी हजार-हजार स्त्रियां उसे घेरे हुए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कृष्ण को कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई संबंध ही नहीं है।
इसलिए वह लीला हम उसे कहते हैं कि वह लीला है, खेल है। जस्ट ए प्ले। और वह पूरे वक्त जागा हुआ है, उसे कोई मतलब नहीं होता है।
जीवन में जीना है तो दो रास्ते हैं। सोकर जीओ--तो भोजन भी सोकर करोगे तुम नींद में, कपड़े भी सोए हुए पहनोगे, प्रेम भी सोए हुए करोगे, सेक्स से भी सोए हुए गुजरोगे। दूसरा एक रास्ता है, जागे हुए--प्रत्येक क्रिया जागे हुए। सेक्स सर्वाधिक गहरी क्रिया है, क्योंकि बायलॉजी और जीव-विज्ञान और पूरी प्रकृति उसमें उत्सुक है कि संतति जारी रहे। इसलिए बहुत गहरी मर्ूच्छा डाली है।
लगता है हमें कठिन, लेकिन कुछ भी कठिन नहीं है। साक्षी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। इसलिए मैंने ऐसा कहा कि महावीर की पत्नी है, लेकिन अविवाहित; महावीर को पुत्री हुई है, लेकिन निःसंतान। महावीर की कोई संतान नहीं है। महावीर की कोई पत्नी भी नहीं है।
हमें दो बातें बड़ी सरलता से समझ में आ जाती हैं। स्त्री की तरफ भागता हुआ आदमी समझ में आ जाता है। स्त्री से भागता हुआ आदमी भी समझ में आ जाता है। स्त्री की तरफ मुंह किए समझ में आ जाता है, स्त्री की तरफ पीठ किए समझ में आ जाता है।
लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसके लिए स्त्री ही मिट गई है, चुपचाप खड़ा आदमी हमें समझ में बहुत मुश्किल से आता है। न भागता, न जाता। न स्त्री के प्रति उन्मुख है, न स्त्री से विमुख है। न राग में है, न विराग में है।
इसलिए महावीर के लिए शब्द जो उपयोग हुआ है, वीतराग, बड़ा अदभुत है। वीतराग का मतलब विरागी नहीं है। और जो लोग विरागी समझ रहे हैं, वे समझ ही नहीं पा रहे हैं। वीतराग का मतलब है राग से ही मुक्त। राग में विराग है। राग और विराग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह हो सकता है, एक आदमी राग की दुश्मनी में विरागी हो जाए, विराग की दुश्मनी में रागी हो जाए।
लेकिन वीतरागी का मतलब है कि जिसका राग और विराग गया, जो सहज खड़ा रह गया। न भागता है, न आता है। न बुलाता है, न भयभीत है। वीतराग का मतलब ही यह है कि जहां न राग है, न विराग है।
और महावीर के पीछे चलने वाला जो साधक है, वह राग से विराग को पकड़ता है। राग को बदलता है विराग में। विरागी सिर्फ उलटा रागी है, शीर्षासन करता हुआ रागी, सिर्फ सिर के बल खड़ा हो गया है। रागी कहता है: छुऊंगा, स्पर्श करूंगा, प्रेम करूंगा, जीऊंगा। विरागी कहता है: छुऊंगा नहीं, स्पर्श नहीं करूंगा, प्रेम नहीं करूंगा, जीऊंगा ही नहीं। भय है, खतरा है बंध जाने का। एक बंधने को आतुर है, एक बंधने से भयभीत है। लेकिन बंधन दोनों के केंद्र में है, दोनों की नजर में बंधन है। इसलिए रागी विरागी की पूजा करने में निकल जाएंगे।
वीतरागी को पहचानना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वीतरागी हमारी कटेगरी से, नाप-जोख से बाहर पड़ जाता है एकदम। तराजू के इस पलड़े पर रखो तो भी तौल हो जाती है, तराजू के उस पलड़े पर रखो तो भी तौल हो जाती है। तराजू से उतर जाओ तो तौल कहां? राग एक पलड़ा है, विराग दूसरा पलड़ा है। दोनों पर तौल हो सकती है। लेकिन वीतराग की तौल क्या होगी? वीतराग को कैसे तौलोगे?
महावीर को सताए जाने का जो लंबा उपक्रम है, उस लंबे उपक्रम में वीतरागता कारण है। विरागी को इस मुल्क ने कभी नहीं सताया, यह ध्यान में रहे। और महावीर के जमाने में कोई विरागियों की कमी न थी। विरागी सदा आदृत रहा है। विरागी को कभी नहीं सताया, क्योंकि रागी विरागी को कभी सता ही नहीं सकते।
रागी सदा विरागी को पूजते हैं, क्योंकि रागी को लगता है कि मैं कैसी गंदगी में उलझा हूं! विरागी कैसा मुक्त हो गया है सारी गंदगी से! लेकिन वीतरागी को दोनों सताते हैं--रागी भी और विरागी भी। क्योंकि रागी को लगता है कि यह आदमी कैसा है, यह तो--और विरागी को लगता है कि यह सब तोड़े जा रहा है, सब नष्ट किए जा रहा है।
महावीर को दो तरह के दुश्मन सता रहे हैं। एक जो रागी है, वह सता रहा है, वह पत्थर मार रहा है, वह कह रहा है, यह आदमी विरागी नहीं है। एक विरागी भी सता रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी कैसा विरागी है!
वीतरागी को पहचानना ही मुश्किल है। द्वंद्व को हम पहचान सकते हैं, निर्द्वंद्व को नहीं। द्वैत को हम पहचान सकते हैं, अद्वैत को नहीं। और महावीर की पूरी वृत्ति वीतराग की है, पूरा भाव वीतराग का है। और प्रत्येक स्थिति में। क्योंकि वीतरागी के लिए स्थिति का सवाल नहीं है। स्थिति, वह रागी कहता है कि ऐसी स्थिति चाहिए। और विरागी कहता है कि ऐसी स्थिति चाहिए।
रागी कहता है: स्त्री हो, धन हो, पैसा हो, यह सब होना चाहिए, इसके बिना मैं जी नहीं सकता। विरागी कहता है: स्त्री न हो, धन न हो, पैसा न हो, इसके साथ मैं जी नहीं सकता। यानी जीने की दोनों की कंडीशन है, शर्त है। एक की शर्त ऐसी है, एक की शर्त वैसी है। लेकिन दोनों का जीना कंडीशनल है। वीतरागी कहता है: जो हो, जो हो! उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह अछूता खड़ा है। जो आदमी अछूता खड़ा है वह बेशर्त होगा। बेशर्त आदमी को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए महावीर का जमाना महावीर को बिलकुल नहीं पहचान पाया। बहुत मुश्किल था पहचानना, कठिन था। इसलिए महावीर को निरंतर यातना दी जा रही है, निरंतर सताया जा रहा है।
उस आदमी को हम सताएंगे ही जो हमारे सब मापदंडों से अलग खड़ा हो जाए, जिस पर हम तौल न कर सकें, लेबल न लगा सकें कि यह है कौन। लेबल लगा लें तो हमें सुविधा हो जाती है। एक लेबल लगा दिया कि यह आदमी फलां है, तो फिर हम लेबल के साथ व्यवहार करते हैं, आदमी के साथ नहीं। पक्का पता लगा लिया कि यह आदमी संन्यासी है, लिख दिया संन्यासी है। फिर संन्यासी के साथ जो करना है, हम इसके साथ करते हैं। लिख दिया रागी है, तो जो रागी के साथ करना है, वह हम इसके साथ करते हैं। लेकिन एक आदमी ऐसा है कि जिस पर लेबल लगाना मुश्किल है कि कौन है--यह है कौन!
तो महावीर बरसों तक इस हालत में घूमे हैं कि लोग पूछ रहे हैं, यह है कौन! यह आदमी कैसा है! और महावीर कोई उत्तर नहीं दे रहे, महावीर मौन हैं। क्योंकि है कौन, इसका क्या उत्तर देना है! कोई लेबल होता तो वे उत्तर दे देते। तो महावीर निरंतर मौन हैं। लोग जो कहते हैं, वे चुपचाप खड़े हैं। सब सह लेते हैं।
एक गांव के पास खड़े हैं। गाय चराने वाला अपनी गाय और बैल को उनके पास छोड़ जाता है और कहता है, जरा देखना! मैं अभी लौट कर आता हूं, मेरी कोई गाय खो गई है। तो वे यह भी नहीं कहते कि मैं नहीं देखूंगा, इतना कह दें तो मामला खतम हो जाए। वे यह भी नहीं कहते कि मैं देखूंगा, इतना कह दें तो भी बात खतम हो जाए। वह आदमी एक लेबल लगा ले, झंझट के बाहर हो जाए। महावीर खड़े रहते हैं, जैसे कि सुना अनसुना किया, जैसे प्रश्न पूछा नहीं गया, ऐसे ही खड़े रह जाते हैं।
वह आदमी चला गया खोजने। वह सांझ होते-होते खोज कर लौट कर आता है तो गाय-बैल जो बैठे थे, महावीर के पीछे छोड़ गए थे, वे उठ कर जंगल में चले गए। तो उस आदमी ने महावीर को पूछा कि वे गाय-बैल कहां गए? तब भी वे वैसे ही खड़े हैं, क्योंकि आने-जाने का हिसाब ही नहीं रखते वे। वे वैसे ही खड़े हैं। वह कहता है कि तुमने उसी वक्त क्यों नहीं कह दिया था? तब भी वे वैसे ही खड़े हैं। तब वह आदमी समझता है कि इसने चुरा लिए, इसने कहीं छिपा दिए, आदमी बेईमान है। वह मार-पीट करता है। वे मार-पीट को भी सह रहे हैं। फिर भी वैसे ही खड़े हैं। लेकिन थोड़ी देर में वे गाय-बैल लौट आए हैं जंगल के बाहर, सांझ होने लगी, धूप ढल गई है तो वापस लौट रहे हैं। तो वह आदमी बहुत दुखी होता है, वह क्षमा मांगता है, तब भी वे वैसे ही खड़े हैं!
यह आदमी कोई शर्त में नहीं, कोई लेबल में नहीं, जो हो रहा है, उसमें वैसे ही खड़ा है। अब यह अदभुत घटना है। जो भी हो रहा है। कुछ भी हो रहा हो, इसे इससे मतलब ही नहीं कि क्या हो रहा है। यह हर हालत में वैसे ही खड़ा है और सब चीजों को देख रहा है। इस व्यक्ति को समझने में बड़ी कठिनाई है।
तो पीछे जिन्होंने शास्त्र लिखे, उन्होंने कहा, महावीर बड़े क्षमावान हैं, उन्होंने क्षमा कर दिया है, कोई मारता है तो उसको क्षमा कर देते हैं!
वे समझ नहीं पाए लोग। क्षमा सिर्फ वही करता है, जो क्रोधित हो जाता है। क्षमा जो है, वह क्रोध के बाद का हिस्सा है। महावीर को क्षमावान कहना महावीर को समझना ही नहीं है। महावीर को क्रोध ही नहीं उठ रहा है, क्षमा कौन करेगा? किसको करेगा? महावीर देख रहे हैं। वे ऐसा ही देख रहे हैं कि इस आदमी ने ऐसा-ऐसा किया, पहले मारा, फिर क्षमा मांगी। देख रहे हैं कि ऐसा-ऐसा हुआ। थिंग्स आर सच। और खड़े हैं चुपचाप। और सब देख रहे हैं, इसमें कोई चुनाव भी नहीं कर रहे हैं, वे च्वाइस भी नहीं कर रहे हैं कि ऐसा होना था और ऐसा नहीं होना था।
ऐसे निरंतर-निरंतर-निरंतर वे राग और विराग के बाहर हो गए हैं, चुनाव के बाहर हो गए हैं, अच्छे-बुरे के बाहर हो गए हैं, कौन क्या कहता है, इसके बाहर हो गए हैं।
यह वीतरागता परम उपलब्धि है, जो जीवन में संभव है। यानी जीवन की यात्रा में जो परम बिंदु है, वह वीतरागता का है। वह जीवन का अंतिम बिंदु है, क्योंकि उसके पार फिर मुक्ति की यात्रा शुरू हो गई। वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं है। रागी मुक्त नहीं हो सकता, विरागी मुक्त नहीं हो सकता। दोनों बंधे हैं।
लेकिन हम, जो समझते नहीं हैं, तो हम वीतराग का मतलब विरागी करते हैं कि जो राग से छूट गया।
नहीं, विराग राग ही है, सिर्फ उलटा राग है। जो राग मात्र से छूट गया।
राग शब्द बड़ा अच्छा है, समझने जैसा है। राग का मतलब होता है: कलर, रंग। कहते हैं न, राग-रंग! राग का मतलब होता है, रंग। विराग का मतलब होता है: उससे उलटा रंग। आंखें हमारी हमेशा रंगी हैं, कुछ रंग है आंख पर, कोई कलरिंग है। उस रंग से ही हम देखते हैं। तो चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है। चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है आंख का। चीजें वैसी नहीं दिखाई पड़तीं, जैसी वे हैं। तो रंगी आंख कभी सत्य को नहीं देख सकती हैं।
अब एक रागी है, तो उसे राह से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है तो लगता है स्वर्ग है। स्त्री सिर्फ स्त्री है। रागी को लगता है स्वर्ग है। विरागी बैठा है वहीं एक दरख्त के नीचे, उसको लगता है नरक जा रहा, आंख बंद करो। स्त्री सिर्फ स्त्री है। विरागी को दिखता है नरक जा रहा है। इसलिए विरागी लिखता है अपनी किताबों में--स्त्री नरक का द्वार है। और रागी लिखता है कि स्त्री स्वर्ग है, वही मुक्ति है, वही आनंद है। स्त्रियां सोचेंगी, वे भी ऐसा ही लिखेंगी।
रागी स्त्री को स्वर्ग बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। विरागी स्त्री को नरक बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। वीतरागी खड़ा रह जाता है: स्त्री स्त्री है। वह अपने रास्ते जाती है, जाती है; मैं अपनी जगह खड़ा हूं, खड़ा हूं। न वह स्वर्ग है, न वह नरक है। वह उसके बाबत कोई निष्कर्ष नहीं लेता, क्योंकि उसकी आंख में कोई रंग नहीं है, रंग-मुक्त है। इसलिए जो जैसा है, वैसा उसे दिखाई पड़ता है। बात खतम हो जाती है। वह कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं करता। वह कुछ भी अपनी तरफ से नहीं ढालता। न वह कहता है सुंदर है किसी को, न वह कहता है असुंदर है। क्योंकि सुंदर और असुंदर हमारे रंग हैं, जो हम थोपते हैं। चीजें सिर्फ चीजें हैं। न तो कुछ सुंदर है, न कुछ असुंदर है। हमारा भाव है, जो हम उनमें ढाल देते हैं।
अब जैसे हम देखते हैं कि आज सुशिक्षित घर, सुरुचिपूर्ण घर में कैक्टस लगा हुआ है। कैक्टस!

कांटे वाले पौधे?

हां, कांटे वाले पौधे, मरुस्थल में उगने वाले, गांव के बाहर लगते थे--धतूरा, नागफनी--वह आज घर के बैठकखाने में लगा हुआ है! आज से सौ साल पहले अगर उसे कोई बैठकखाने में ले आता तो उस आदमी को हम पागलखाने ले गए होते कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है! नागफनी घर में लगाने की चीज है? लेकिन गुलाब एकदम बहिष्कृत हो गया है, नागफनी आ गई उसकी जगह। सुशिक्षित आदमी के घर में नागफनी लगी हुई है। क्या हो गया? नागफनी एकदम सुंदर हो गई। जो कभी सुंदर न थी। जो कुरूपता का साकार रूप थी सदा, वह आज एकदम सौंदर्य की अनुभूति बन गई! क्या हो गया?
रंग बदल गया। एकदम रंग बदल गया। और हर बार हम रंग से ऊब जाते हैं तो बदल लेते हैं, क्योंकि एक ही रंग में देखते-देखते ऊब हो जाती है। गुलाब-गुलाब को हजार साल तक सुंदर-सुंदर कहते वह ऊब हो गई, कि छोड़ो बाहर करो, इसको घर के बाहर करो। ब्राह्मण-ब्राह्मण को आदर देते बहुत ऊब हो गई, तो अब शूद्र को बिठाओ।
नागफनी शूद्र थी बहुत दिन तक, अब एकदम ब्राह्मण हो गई। गांव के बाहर--अंत्यज। जैसे शूद्र रहता था वैसे नागफनी भी रहती थी बेचारी। एकदम से अभिजात हो गई, घर के भीतर आ गई।
ऊब हो जाती है। और ऊब का मजा है कि ऊब सदा अति पर ले जाती है। जब भी हम एक चीज से ऊबते हैं तो ठीक उससे उलटी चीज पर चले जाते हैं।
जो आदमी नाच-गाने से ऊब जाएगा, एकदम मंदिर चला जाएगा। खाने से ऊब जाएगा, उपवास करने लगेगा। कपड़ों से ऊब जाएगा, त्याग करने लगेगा। धन से ऊब जाएगा, धर्म की तरफ चला जाएगा। मधुशाला से ऊबेगा, मंदिर जाएगा। मंदिर से ऊबा हुआ आदमी मधुशाला की खोज में निकलता है। जहां से हम ऊबते हैं, उलटे हो जाते हैं। राग से ऊब जाते हैं तो विराग पकड़ लेता है। विराग से ऊब जाते हैं तो राग पकड़ने लगता है।
और अगर हम रागियों और विरागियों के मस्तिष्क को खोल कर देख सकें तो बड़ी हैरानी होगी कि उनके भीतर हमें उलटे आदमी मिलेंगे। रागी के भीतर निरंतर विरागी होने का भाव मिलेगा। बुरी से बुरी स्थिति में भी रागी के भीतर विरागी का भाव मिलेगा।
इसलिए रागी विरागी की पूजा करते हैं। वह उनका गहरा भाव है। वे भी होना चाहते हैं यही। और विरागी के भीतर अगर हम झांकें तो रागी के प्रतिर् ईष्या मिलेगी। जैसे रागी के मन में विरागी के प्रति आदर मिलेगा, विरागी के मन में रागी के प्रतिर् ईष्या मिलेगी।
इसलिए विरागी निरंतर रागियों को गाली दे रहा है। वह गालीर् ईष्या-जन्य है। भीतर मन में उसके भी यही कामना है। जो-जो उसकी कामना है, उस-उस के लिए रागी को गाली दे रहा है कि तुम यह-यह पाप कर रहे हो, नरक में सड़ोगे। वह डरा रहा है, धमका रहा है, लेकिन भीतर उसके कामना वही है।
मुझे बड़े से बड़े साधु मिलते हैं। सामने तो आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, एकांत में सिवाय सेक्स के दूसरी बात ही नहीं उनके चित्त में होती। और बड़े घबड़ाते हैं और कहते हैं, कैसे इससे छुटकारा हो, बस यही घेरे हुए है। चौबीस घंटे परमात्मा की और मोक्ष की चर्चा चल रही है, लेकिन भीतर वासना का दौर चल रहा है पूरे वक्त!
और यह हो सकता है कि मधुशाला में बैठा हुआ, वेश्या के घर में बैठा हुआ एक आदमी कई बार संन्यासी हो जाता हो मन में कि छोड़ो सब बेकार है।
उलटा खींचता रहता है। रागी विरागी हो जाता है, विरागी रागी हो जाता है। जो इस जन्म में रागी है, अगले जन्म में विरागी हो जाए; जो इस जन्म में विरागी है, अगले जन्म में रागी हो जाए।
यह जान कर मैं बहुत हैरान हुआ हूं। इधर कुछ बहुत से गहरे प्रयोगों ने कुछ अजीब से नतीजे दिए हैं, जो कि चौंकाने वाले हैं। जैसे कि एक आदमी है, जो बिलकुल ही राग-रंग में पड़ा हुआ है। उसके पिछले जन्म में उतरने की कोशिश करो तो तुम दंग रह जाओगे कि वह संन्यासी रह चुका है। और संन्यासी रहते वक्त उसने इतना विरोध पाल लिया संन्यासी होने से कि यह जन्म उसका रागी का हो गया।
एक स्त्री मेरे पास आती थी और उसे बड़ी आतुरता थी कि किसी तरह पिछले जन्मों में उतर जाए। मैंने उसे बहुत कहा कि यह आतुरता छोड़, क्योंकि इसमें कठिनाई में पड़ सकती है। उसको बड़ा सती-साध्वी होने का खयाल! और उसे इतना उसका भाव पकड़ा कि मुझे शक ही था कि पिछले जन्म में वह वेश्या रह चुकी होनी चाहिए, नहीं तो इतने जोर से सती-साध्वी होने का भाव नहीं पकड़ता है। वह जिससे ऊब गई है, वह नए जन्म की शुरुआत बन जाती है। फिर भी वह नहीं मानी तो मैंने कहा कि ठीक है, तू प्रयोग कर।
वह छह महीने तक पिछले जन्म में उतरने का, जाति-स्मरण करने का प्रयोग करती थी। और एक दिन आकर एकदम चिल्लाने-रोने लगी और कहा कि मुझे किसी तरह भुलाओ, क्योंकि मैं तो दक्षिण के किसी मंदिर में देवदासी थी, वेश्या थी। और मैं इसको भूलना चाहती हूं, मैं इसे याद ही नहीं करना चाहती हूं कि ऐसा कभी हुआ।
मैंने कहा, जो याद आ गया, उसे भूलना मुश्किल है।
इसलिए प्रकृति ने सारी व्यवस्था की है कि पिछला आपको याद न आए, क्योंकि पिछले आप निरंतर रूप से उलटे रहे होंगे। आमतौर से लोग सोचते हैं कि इस जन्म में जो संन्यासी है, उसने पिछले जन्म में संन्यासी होने का अर्जन किया होगा। ऐसा मामला नहीं है। इस जन्म में जो विरागी है, वह पिछले जन्म में राग के चक्कर में घूम चुका, उस अति को छू चुका, और अब ऊब गया था और नए जन्म में उसने नई व्यवस्था को पकड़ा है।
राग और विराग के बीच हम अनेक जन्मों में घूम चुके हैं। ऐसा नहीं है कि राग-राग में ही घूमते रहे हैं। बहुत बार राग हुआ है, बहुत बार विराग हुआ है, वीतराग कभी नहीं हो सका है और वह कभी होगा भी नहीं, क्योंकि एक अति पर जाकर ठीक पेंडुलम दूसरी अति पर जाना शुरू हो जाता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि इसकी फिक्र मत करें कि हमें क्या होना है--रागी कि विरागी। फिक्र इसकी करें कि हम जो भी हों, उसी में हम जागें। हम कुछ होने की चिंता छोड़ दें। तो वह जो जागना है, वह वीतरागता में ले जाएगा। और वह वीतरागता बिलकुल ही भिन्न बात है।
और इसी संदर्भ में यह भी जैसा मैंने कहा जाति-स्मरण का, पिछले स्मरण का, महावीर की बड़ी से बड़ी देनों में अगर कोई देन है तो वह जाति-स्मरण है--पिछले जन्मों का स्मरण। बड़ी से बड़ी जो देन है, वह उस तरह की ध्यान-पद्धतियां हैं, जिनसे व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में उतर जाए।
और एक व्यक्ति अगर अपने पिछले जन्मों में उतर जाए और दो-चार जन्म भी जान ले तो बहुत हैरान हो जाएगा। फिर वह वही आदमी नहीं हो सकता जो अभी था। क्योंकि वह पाएगा यह सब तो मैं बहुत बार कर चुका, इससे उलटा भी कर चुका--यह सब मैं बहुत बार कर चुका और कुछ भी नहीं पाया। हर बार घूम कर जैसे कि चाक के स्पोक घूम कर फिर अपनी जगह आ जाते हैं, ऐसे ही मैं घूमा और अपनी जगह आ गया।
कई बार लगा चाक को कि ऊपर पहुंच गया हूं, लेकिन जब उसे लग रहा था ऊपर पहुंचा हूं, तभी नीचे आना शुरू हो गया था। कई बार चाक को लगा कि बिलकुल नीचे गिर गया हूं नरक में, और जब उसको लगा था कि बिलकुल नीचे गिर गया हूं, तभी ऊपर चढ़ना शुरू हो गया। बहुत बार स्वर्ग छुआ, बहुत बार नर्क छुआ। बहुत बार दुख छुए, बहुत बार सुख छुए। बहुत बार राग छुआ, बहुत बार विराग छुआ, सब द्वंद्वों में चक्र घूम चुका है। अगर एक दस-पांच जीवन स्मरण आ जाएं तो यह सब इतनी बार हो चुका है कि अब इसी में चुनाव का कोई मतलब नहीं है।
तो जाति-स्मरण का मतलब यह है कि यह द्वंद्व हम बहुत बार भोग चुके हैं, इन दोनों से हम जाग सकें, इन दोनों में चुनाव का कोई उपाय नहीं। लेकिन मन का नियम यह है कि जो वह करता है, उससे उलटे को चुनता है। इसलिए संन्यासियों के पास रागियों की भीड़ होती है। जो वह चुनता है, अभी कर रहा है, उसके अनकांशस में, अचेतन में उलटे का इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब वह सेक्स में होता है, तब उसको ब्रह्मचर्य की बातें खयाल में आने लगती हैं। और जब वह ब्रह्मचर्य साधता है, तब सेक्स की बातें खयाल आने लगती हैं। जब वह भोजन कर रहा होता है, तब वह सोचता है कि भोजन त्याग कैसे करूं और जब भोजन त्याग करता है तब भोजन का स्मरण आने लगता है।
इतना अदभुत है यह मामला हमारा--द्वंद्व में घूमने की व्यवस्था--और हम एक बार एक ही जगह होते हैं, इसलिए दूसरा हमें आकर्षित करता रहता है उलटा। अगर दो-चार जन्मों का यह स्मरण आ जाए कि हम दोनों तरफ घूम चुके हैं तो फिर तीसरा उपाय है। और वह जो तीसरा उपाय है, वही महावीर का उपाय है--वीतरागता। इन दोनों में कोई अर्थ नहीं, तो अब क्या करूं, तीसरा क्या रास्ता है? अगर भोग नहीं, अगर योग नहीं, तो तीसरा क्या रास्ता है?
तीसरा रास्ता सिर्फ यह है कि दोनों के प्रति जाग जाऊं। तो त्रिकोण बन जाता है। जैसे कि एक ट्राएंगल है। उस ट्राएंगल की, उस त्रिकोण की, त्रिभुज की नीचे की एक रेखा है, जिस पर दो द्वंद्व हैं--इधर राग है, उधर विराग है। जो इधर होता है, वह उधर आना चाहता है; जो उधर होता है, वह इधर जाना चाहता है। और इन्हीं दोनों के बीच हम घूमते रहते हैं। जो इन दोनों से जागता है, वह जो ट्राएंगल का, त्रिभुज का ऊपर का छोर है, वहां पहुंच जाता है।
वह वीतराग है। वह दोनों के पार हो गया, न वह राग में है, न वह विराग में है। लेकिन जो राग में खड़ा है और जो विराग में खड़ा है, उन दोनों के लिए बेबूझ हो जाता है कि यह आदमी कहां है। क्योंकि हमारे होने की परिभाषा में दो ही बिंदु हैं--राग और विराग; यह आदमी कहां है? और इस आदमी को समझना मुश्किल हो जाता है। लेकिन समझने का प्रश्न नहीं है। यह आदमी हम दोनों को समझ पाता है और हम दोनों इस आदमी को बिलकुल नहीं समझ पाते।
जाति-स्मरण का प्रयोग महावीर की बड़ी से बड़ी देन है। और मैं समझता हूं उस पर कोई काम नहीं हो सका। असली बात वही है। उस साधना से गुजार कर किसी भी व्यक्ति को वीतरागता में लाया जा सकता है--किसी भी व्यक्ति को! और जब तक उस साधना से कोई नहीं गुजरता, तब तक वह यही होगा कि अगर रागी है तो विरागी हो जाएगा और विरागी है तो रागी हो जाएगा। और ये दोनों एक से मूढ़तापूर्ण हैं, इन दोनों में कोई चुनाव का सवाल नहीं है।
और हमें रोज दिखाई पड़ता है यह कि हम विरोधी को अनजाने चुनने लगते हैं। महलों में जो आदमी बैठा हुआ है, वह निरंतर यह कहता है कि झोपड़ी का मजा यहां कहां! औरर् ईष्या करता है झोपड़ी के आदमी से कि उसकी नींद, उसकी मौज! झोपड़ी में जो बैठा है, वह पूरे वक्त महल के लिएर् ईष्यालु है कि जो महल में हो रहा है वह यहां कहां! झोपड़ी में मरे जा रहे हैं। झोपड़ी वाला महल की तरफ जा रहा है, महल वाला झोपड़ी की तरफ आ रहा है। बड़े शहर वाला छोटे गांव की तरफ भाग रहा है, छोटे गांव वाला बड़े शहर की तरफ भाग रहा है। पूरे समय जहां हम हैं, उससे विपरीत की तरफ हम जा रहे हैं; क्योंकि जहां हम हैं, वहां हम ऊब जाते हैं, वहां हम बोरडम से भर जाते हैं। और जिससे हम ऊब गए हैं, उससे उलटे की तरफ हम जाते हैं।
जैसे पूरब भौतिकवाद की तरफ जाएगा, क्योंकि अध्यात्म से ऊब गया है। और पश्चिम अध्यात्म की तरफ आएगा, क्योंकि भौतिकवाद से ऊब गया है। तो पश्चिम में इस वक्त जो जोर से चिंतना है, वह यह कि क्या है अध्यात्म? कैसे हम आध्यात्मिक हो जाएं? और पूरब की जो इस वक्त चिंतना है पूरी की पूरी, वह यह है कि हम कैसे वैज्ञानिक हो जाएं? कैसे धन आए? कैसे समृद्धि आए? कैसे अच्छे मकान? कैसे अच्छी मशीन?
पूरब का व्यक्तित्व भौतिकवाद की तरफ जा रहा है, पश्चिम का व्यक्तित्व अध्यात्म की तरफ आ रहा है। वही भूल। यह बहुत दफे हो चुका। व्यक्ति में भी वही होता है, समाज में भी वही होता है, राष्ट्र में भी वही होता है। अति, दूसरी अति हमें पकड़ लेती है।
महावीर कहते हैं कि दोनों अतियों में बहुत बार हम घूम चुके, दोनों विरोधों में हम बहुत बार घूम चुके। क्या कभी हम जागेंगे और उस जगह खड़े हो जाएंगे, जहां कोई अति नहीं है, कोई विरोध नहीं है, द्वंद्व नहीं है?
इस स्थिति का नाम वीतरागता है। और यह सभी में है। ध्यान रखें, सभी में है।
जैसे एक आदमी क्रोध कर रहा है। तो क्रोध करके आपने कभी खयाल किया कि आप क्रोध करने के बाद क्या करते हैं? आप पछतावा करते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो क्रोध के बाद पछतावा न करता हो। और अगर मिल जाए तो बहुत अदभुत है। क्रोध करके पछतावा! पछतावा अब दूसरी अति है। क्रोध किया कि पछतावा आया। पछतावे के वक्त आदमी सोचता है कि हम बड़े भले आदमी हैं, देखो हमने क्रोध कर लिया, लेकिन पछतावा भी करते हैं। क्रोध किया कि क्षमा पीछे आएगी। विपरीत आता रहेगा सारे जीवन के सब तलों पर।
यह कभी आपने खयाल किया कि जिसको आप प्रेम करेंगे उसके प्रति आपकी घृणा इकट्ठी होने लगती है? फ्रायड ने पहली दफा इस तथ्य की तरफ सूचना दी कि जिसको आप प्रेम करते हैं, उसके प्रति आपकी घृणा इकट्ठी होने लगती है। क्योंकि प्रेम तो आप कर लेते हैं, फिर प्रेम से ऊबने लगते हैं, अब करेंगे क्या? और जिस व्यक्ति से आप घृणा करते हैं पूरी, उससे बहुत संभावना है कि उसके प्रति आपका प्रेम इकट्ठा होने लगे।
एक यहूदी फकीर था। उसने एक किताब लिखी और किताब बड़ी क्रांतिकारी थी। तो यहूदियों का जो सबसे बड़ा धर्मगुरु था, जो रब्बी था, उसने वह किताब अपने एक मित्र के हाथ उसको भेंट भेजी कि जाकर रब्बी को मेरी किताब भेंट कर आ! और उस यहूदी फकीर ने--हसीद था वह, बगावती फकीर था--उसने कहा कि सिर्फ इतना ही खयाल रखना कि जब तुम रब्बी को किताब दो तो रब्बी क्या कहते हैं, क्या करते हैं, उसे जरा ध्यान से देख लेना। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं, तुम सिर्फ नोट कर लाना कि उन्होंने क्या कहा, क्या किया, गुस्से में आए, नाराज हुए, किताब फेंकी, कैसा चेहरा था, क्या, सब खबर ले आना।
वह आदमी गया, उसने किताब दी। उसने कहा कि यह फलां-फलां फकीर ने किताब भेजी है। रब्बी ने किताब को तो देखा भी नहीं, हाथ में उठा कर दरवाजे के बाहर फेंक दिया और कहा कि भागो यहां से! इस तरह की किताबों को छूना भी अधर्म और पाप है।
रब्बी की औरत पास में बैठी थी। उसने कहा कि ऐसा क्यों करते हैं! फेंकना भी हो तो वह आदमी चला जाए तो पीछे फेंक सकते हैं। और फिर इतनी हजारों किताबें घर में हैं, एक कोने में उसको भी रख दें, न पढ़ना हो न पढ़ें। लेकिन ऐसा क्यों करते हैं? पर रब्बी आगबबूला हो गया, लाल हो गया।
उस आदमी ने नमस्कार किया, वापस आया। उस फकीर ने पूछा, क्या हुआ?
उसने कहा कि ऐसा-ऐसा हुआ है। रब्बी तो बड़ा खतरनाक है। उसकी पत्नी बहुत भली है। रब्बी ने तो किताब बाहर फेंक दी और कहा कि हटो यहां से, भाग जाओ यहां से। आग हो गया एकदम।
उस फकीर ने कहा, और उसकी पत्नी जो बहुत भली है, जिसको तुम कहते हो, उसने क्या किया? कहा, उसने कहा कि किताब को उठा लाओ। उसने नौकर से किताब बुलवा ली और कहा, घर में इतनी किताबें हैं, यह भी रखी रहेगी, ऐसा भी क्या! और अगर फेंकनी हो तो पीछे फेंक देना, लेकिन सामने ऐसा क्यों करते हो?
तो उस फकीर ने कहा कि रब्बी से तो अपना कभी मेल हो सकता है, लेकिन उसकी पत्नी से कभी नहीं। उस फकीर ने कहा कि रब्बी से तो अपना मेल हो ही जाएगा। रब्बी को तो किताब पढ़नी ही पड़ेगी। वह तो किताब पढ़ेगा ही, मगर पत्नी उसकी कभी नहीं पढ़ेगी।
तो उस आदमी ने पूछा कि आप तो उलटी बात कह रहे हैं। रब्बी बड़ा नाराज था, एकदम आगबबूला हो गया था।
उसने कहा, वह नाराज हुआ था तो थोड़ी देर में नाराजगी शिथिल होगी। नाराज कोई कितनी देर रहेगा? और जब कोई आग में चढ़ जाता है ऊपर तो वापस उसे शांति में लौटना पड़ता है। जब कोई श्रम करता है तो विश्राम करना पड़ता है। जब कोई जागता है तो सोना पड़ता है। उलटा तो जाना ही पड़ता है। तो रब्बी कितनी देर क्रोध में रहेगा? आखिर डिग्री नीचे आएगी, शांत होगा, किताब उठा कर लाकर पढ़ेगा। लेकिन उसकी पत्नी, उससे कोई आशा नहीं, क्योंकि उसकी कोई डिग्री ही नहीं। वह क्रोध में नहीं गई तो क्षमा में भी नहीं लौटेगी। उसने चीजों को इतनी तटस्थता से लिया है कि उससे अपना कोई संबंध नहीं बन सकता।
जब हम क्रोध कर रहे हैं, तभी क्षमा इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है। जब हम क्षमा कर रहे हैं, तभी क्रोध इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब हम प्रेम कर रहे हैं, तभी घृणा इकट्ठी होने लगती है। जब हम घृणा कर रहे हैं, तभी प्रेम इकट्ठा होने लगता है। और यही द्वंद्व है आदमी का कि जिसको प्रेम करता है, उसको घृणा करता है; जिसको घृणा करता है, उसको भी प्रेम करता है। मित्र सिर्फ मित्र ही नहीं होते, शत्रु भी होते हैं। और शत्रु सिर्फ शत्रु ही नहीं होते, मित्र भी होते हैं। और इसलिए निरंतर यह होता है...।
इधर मैं निरंतर अनुभव करता हूं कि अगर कोई आदमी मुझे बहुत जोर से प्रेम करने लगे तो मैं जानता हूं कि यह आदमी जल्दी जाएगा, क्योंकि इसकी घृणा इकट्ठी होने लगेगी। और मैं उसके लिए चिंतित हो जाता हूं कि यह आदमी जाएगा। और अब इसके बिना जाए लौटने का कोई उपाय नहीं होगा। और कोई आदमी अगर जोर से मुझे घृणा करने लगे, क्रोध करने लगे, तो मैं जानता हूं कि वह आएगा, क्योंकि इतनी घृणा में कैसे जीएगा, वह तो लौटना पड़ेगा।
महावीर कहते हैं, सब द्वंद्व बांधता है। दूसरे से, उलटे से बांध देता है। इसलिए द्वंद्व के प्रति जागने से वीतरागता उपलब्ध होती है। न काम, न ब्रह्मचर्य; तब सच में ही ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। न क्रोध, न क्षमा; तब सच में ही क्षमा उपलब्ध होती है, क्योंकि उससे विपरीत फिर होता ही नहीं। न हिंसा, न अहिंसा; तब सच्ची अहिंसा उपलब्ध होती है, क्योंकि फिर उसके विपरीत कुछ होता ही नहीं।
और इसलिए बहुत भूल हो जाती है। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि महावीर की अहिंसा वह अहिंसा नहीं है जो हिंसा के विपरीत है। हिंसा के विपरीत जो अहिंसक है, वह तो आज नहीं कल हिंसक हो ही जाएगा। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल है, क्योंकि वह हिंसा के विपरीत नहीं है। जहां न हिंसा रह गई है, न अहिंसा रह गई है, वहां जो रह गया है, उसको महावीर अहिंसा कह रहे हैं।
तो फिर जब अहिंसा पर बात करेंगे तो खयाल में आ सकेगी। कुछ और हो तो पूछें।
     
प्रश्न:

आपने जो अशरीरी आत्मा के बारे में कहा है, उससे ऐसा लगता है कि इस पर स्वतंत्र रूप से फिर कभी विचार करने की भी आवश्यकता है। कारण है कि उसमें कई प्रश्न हमारे सामने उठते हैं। और हमारी कई आस्थाएं और कई विश्वास, ऐसा लगता है जैसे खंडित हो जाते हैं। और सबसे बड़ी बात--जो विश्वास खंडित होता है, वह बुद्ध पर होता है कि बुद्ध ने मृत्यु और जीवन के रहस्य को जानने के लिए और जीवन और मृत्यु से अभय प्राप्त करने के लिए इतनी साधना की। लेकिन वही बुद्ध दलाई लामा के रूप में केवल अपने जीवन को बचाने के लिए ही चीनियों के उस चंगुल से भाग करके यहां पर आता है! वही बुद्ध जिसने अभय भव, अप्प दीपो भव, वह कहा। वही बुद्ध दलाई लामा के रूप में आकर के एक कावर्ड के रूप में हमारे सामने आ जाता है! तो ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिससे लगता है कि या तो वे बुद्ध झूठ थे या यह दलाई लामा जो उनके चिह्न-रूप में आए हैं, ये झूठ हैं। ऐसे कई प्रश्न हैं।

मझा मैं। यह प्रश्न बहुत अच्छा है, इसको तो ले ही लें। असल में चीजें जैसी हमें दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही नहीं होतीं। दलाई लामा को समझना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जिस भाषा में हम सोचने के आदी हैं, उसमें निश्चय ही वह भागा अपने को बचाने को, कायर मालूम पड़ता है। लड़ना था, जूझना था, भागना क्या था! ऐसा ही हमें दिखाई पड़ता है, जो बिलकुल सीधा और साफ है।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि दलाई लामा के भागने में बहुत और अर्थ है। ऊपर से यही दिखाई पड़ता है कि दलाई भागा, बचाया अपने को--बड़ा कायर है। सचाई इतनी नहीं है। सचाई  ऊपर से ही इतनी दिखाई पड़ रही है। दलाई  लामा का भागना अत्यंत करुणापूर्ण, महत्वपूर्ण है। दलाई अगर वहां लड़ता तो हमारी नजरों में वह बहुत बहादुर हो जाता। लेकिन दलाई लामा को कुछ और बचा कर भागना था, जो हमें दिखाई ही नहीं पड़ रहा है, जो कि लड़ने में नष्ट हो सकता था।
समझ लें कि एक मंदिर है और एक पुजारी है। और यह पुजारी किन्हीं गहरी संपत्तियों का अधिकारी भी है, जो इसके मरते ही एकदम खो जा सकती हैं। खो जा सकती हैं इस अर्थों में कि उनसे संबंध का फिर कोई सूत्र नहीं रह जाएगा। और जरूरी है कि इसके पहले कि यह मरे, वे सारे सूत्र और वह सारी संपत्तियों की खबर किन्हीं को दे दे।
दलाई लामा के पास बहुत इसोटेरिक सूत्र हैं, जिसे इस समय जमीन पर मुश्किल से चार-पांच लोग समझ सकें। दलाई लामा का भाग आना अत्यंत जरूरी था। तिब्बत का उतना मूल्य नहीं है, जितना मूल्य दलाई लामा जो जानता है और जो वह किसी को दे सकता है, उसका है। और तिब्बत की हार भी निश्चित थी।
यह भी बहुत समझने जैसी बात है। तिब्बत की हार बिलकुल निश्चित थी। तिब्बत का चीन में डूबना निश्चित था। यह भी दलाई लामा को दिखाई पड़ सकता है, जो दूसरे को दिखाई नहीं पड़ सकता। और अगर ऐसा साफ दिखाई पड़ता हो तो उचित लड़ना नहीं है, उचित चुपचाप हट जाना है--उस सबको लेकर जो बचाना ज्यादा कीमती है। और तिब्बत तो बचेगा नहीं और वह सब बच सकता है भागने से।
और आज दलाई बैठ कर वह सारा प्रयोग कर रहा है। दस-पच्चीस लोगों को साथ लेकर, जिनको लेकर वह भाग आया है कीमती लोगों को, उनको सारी संपदा जो भी वह जानता है, वह दे रहा है। उसके मरने का तो कोई सवाल ही नहीं है। वह तो मरेगा ही। वह तिब्बत में भी मर सकता था, यहां भी मरेगा, मरने से बचने का प्रश्न ही नहीं है।
बहुत बार ऐसा हुआ है। यह पहली बार नहीं हुआ। हिंदुस्तान में बौद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा हिंदुस्तान से। एक वक्त आया कि हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा। और भागना इसलिए जरूरी हो गया कि यहां भूमि बिलकुल बंजर हो गई उनके लिए। उनको ग्रहण करने के लिए, जो उनके पास था, कोई नहीं बचा। अपनी जान का सवाल न था। लेकिन जो वे जानते थे, जो बीज उनके पास थे, जो किसी भूमि में अंकुरित हो सकते थे, उनको भाग कर सारे एशिया में खोज करनी पड़ी कि कहीं और हो सकता है कुछ!
और उन्होंने बड़ी कृपा की कि वे चीन चले गए, तिब्बत चले गए, बर्मा चले गए, थाई चले गए और जाकर उन्होंने वहां बीज आरोपित कर दिए। फिर उनके बीजों से आज फिर बीज लौटने की संभावना बन सकती है।
लेकिन यह हो सकता था, उस वक्त वे भी भिक्षु जो भागे इस मुल्क से कायर मालूम पड़े होंगे। लड़ना था यहां, जाना कहां था! लेकिन जिनके पास कुछ है वे लड़ने से ज्यादा उसको बचाने की फिक्र करेंगे। जैसे कि बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठे और बोधि को प्राप्त हुए, वह मूल वृक्ष नष्ट हो गया, लेकिन उसकी एक शाखा अशोक ने लंका भेज दी थी, वह लंका में सुरक्षित रही। अब वापस उसकी एक शाखा उस वृक्ष की जगह आ गई। मूल वृक्ष तो नष्ट हो गया। नष्ट किया ही गया होगा, क्योंकि जब बौद्धों के पैर उखड़ गए तो सब नष्ट कर दिया गया।
आप हैरान होंगे जान कर कि बुद्ध का जो मंदिर है, उसका पुजारी भी ब्राह्मण है, वह बौद्ध नहीं है। वह संपत्ति भी एक ब्राह्मण पुजारी की है--वह मंदिर और सारी व्यवस्था। वह सब नष्ट हो गया। लेकिन अशोक के द्वारा भेजी गई उस वृक्ष की एक शाखा लंका में पल्लवित हो गई। उस शाखा की फिर एक शाखा लाकर हम लगा सके। वह उस वृक्ष का एक बच्चा मौजूद है।
यह तो वृक्ष का मैंने इसलिए कहा कि प्रतीक की तरह खयाल में आ जाए। तिब्बत में फिर वह हालत आ गई कि तिब्बत चीन के हाथ में जाएगा। और कम्युनिज्म जितनी जोर से दुनिया से इसोटेरिक साइंस को खतम कर सकता है, उतनी कोई चीज खतम नहीं कर सकती।
यह आपको खयाल में नहीं है। कम्युनिज्म, जो भी आंतरिक सत्य हैं और उनके जो भी सूत्र हैं, उनको जड़-मूल से काटने में उत्सुक है। और जहां भी जाएगा, वहां सबसे पहले जो काम करेगा, वह उस मुल्क की जो आंतरिक संपदा है, उसको बिलकुल तोड़ डालेगा।
तो तिब्बत कम्युनिस्टों के हाथ में जाने के बाद तिब्बत में जो सबसे पहली चोट होने वाली थी, वह चोट थी उनकी जो...। और तिब्बत बहुत अदभुत था इस अर्थों में कि दुनिया में तिब्बत के पास सर्वाधिक बहुमूल्य संपत्ति है आंतरिक सत्यों की, क्योंकि दुनिया से कटा हुआ जीया। दुनिया की उसे कोई खबर न थी, दुनिया का कोई संबंध न था उसको। दुनिया का तालमेल उससे न था। वह दूर अकेले में, एकांत में चुपचाप पड़ा था। और अतीत की जो भी संपदा थी जानने की, वह सब उसने संरक्षित कर ली थी।
दलाई का भागना बहुत जरूरी था। लेकिन मुश्किल है कि कोई आदमी इसकी तारीफ कर सके, लेकिन मैं तारीफ करता हूं। और मैं मानता हूं दलाई वहां लड़ता--दो कौड़ी की बात थी वह लड़ना न लड़ना। कायर नहीं है आदमी, लेकिन जो बचा कर ले आया है, उसे आरोपित कर देना जरूरी है।
लेकिन इस मुल्क में लोगों को खयाल भी नहीं है कि दलाई के साथ एक बहुत बड़ी मूल शाखा वापस लौटी है, जो यह मुल्क उससे फायदा उठा सकता है। लेकिन मुल्क को कोई मतलब नहीं है! मुल्क को कोई मतलब ही नहीं है! कोई संबंध ही नहीं है दलाई से मुल्क का! वह आपके मुल्क में है, यह घटना बहुत महत्वपूर्ण है। यह आसान न था, उसको ले आना आसान न था। यह बिलकुल अवसर है, वक्त है, समय है कि उसको यहां आ जाना पड़ा है और उसका हम फायदा ले सकते हैं। बहुत से इसोटेरिक, बहुत से गुह्य सत्य हैं, जो उससे पता चल सकते हैं।
लेकिन हमें कोई मतलब नहीं है, हमें कोई प्रयोजन नहीं है! और हमको दिखता ऊपर से यही है...मैं ऐसा नहीं मानता। मैं ऐसा नहीं मानता।
अगर समझ लीजिए कि यहां मैं हूं और मुझे लगे कि इस देश में उस बात से कोई मतलब नहीं हल होने वाला है, नहीं हैं वे लोग...। अब ये बहुत सी बातें हैं, और बहुत और तरह की बातें हैं। अब मैं आपको कहूं कि जिन लोगों से मेरे इस जीवन में संबंध बन रहे हैं, उनमें से मैं बहुतों को पहचानता हूं, जिनसे मेरे पिछले जीवन में संबंध थे। और उनके लिए सारी मेहनत करूं। और कल मुझे ऐसा लगे... चालीस करोड़, पचास करोड़ के मुल्क से मुझे कोई मतलब नहीं है। मतलब दो-चार सौ लोगों से है। चालीस-पचास करोड़ के साथ भी जो मेहनत कर रहा हूं, उन दो-चार सौ लोगों को अपने पास ले आऊं उसके लिए। और कल मुझे ऐसा लगे कि वे दो-चार सौ लोग मेरे करीब आ गए हैं। और कल मुझे ऐसा लगे कि मुल्क समझो कम्युनिस्टों के हाथ में जाता है या ऐसे लोगों के हाथ में जाता है, जो कि जड़ काट देंगे, तो मैं चार सौ लोगों को लेकर कहीं भी भाग जाना पसंद करूंगा।
आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? मैं उन चार सौ लोगों को लेकर भाग जाना पसंद करूंगा। पचास करोड़ से मुझे कोई प्रयोजन ही नहीं है। मैं उन चार सौ लोगों को लेकर भाग जाऊंगा कहीं भी दूर जंगल में। दुनिया को यही लगेगा कि यह आदमी भाग गया, कुछ लड़ा नहीं, वक्त पर काम नहीं आया। लेकिन मैं जानता हूं कि मुझे क्या करना चाहिए।
वह दलाई लामा थोड़े से लोगों को लेकर भाग आया है। और उन थोड़े से लोगों में उन कीमती लोगों को बचा लाया है, जो कि आगे शाखाएं सिद्ध हो सकें। और हो सकता है, दो सौ वर्ष बाद, सौ वर्ष बाद, पचास वर्ष बाद तिब्बत की हवाएं ठीक हो जाएं और दलाई लामा जो बचा ले, वह वापस तिब्बत में आरोपित हो सके। इसकी आशा में लगा हुआ है। जो सारी आशा और आकांक्षा है, जिसके पीछे इतना कष्ट झेलता है कोई, वह आशा और आकांक्षा यह है कि चीज बच जाए। और अगर पचास साल बाद या सौ साल बाद--क्योंकि कोई जिंदगी एक सी थोड़े ही चलती रहती है। पचास, एक सौ साल में सारी चीजें बदल जाएंगी, तो तिब्बत में फिर वापस लौट आया जा सकता है। वे चीजें फिर तिब्बत वापस पहुंच सकती हैं।
लेकिन वे सत्य हमें दिखाई नहीं पड़ते, वह संपदा हमारी आंखों की संपदा नहीं है। वे सारे बहुमूल्य ग्रंथ अपने साथ ले आया है, जो सिर्फ तिब्बती में ही सुरक्षित रहे हैं। वे सब ग्रंथ अपने साथ ले आया है दलाई, जो सिर्फ तिब्बती में सुरक्षित हैं, संस्कृत में नष्ट हो गए हैं। सिर्फ दलाई की संपदा हैं वे और उनको किसी भी हालत में बचाना जरूरी है।
अब यह हम सोचें कि जो आदमी हिंदुस्तान से भिक्षु भाग कर गया तिब्बत या चीन...। हिंदुस्तान में ग्रंथों का सफाया किया गया बुरी तरह से, बौद्धों के सारे सूत्र-ग्रंथ यहां नष्ट किए गए। जो लोग यहां से भाग गए ग्रंथों को लेकर, वे आज चीनी में, तिब्बती में, बर्मी में सुरक्षित हैं। अब वे फिर वापस लौटाए जा सकते हैं। अब ऐसे-ऐसे अदभुत ग्रंथ हमने खो दिए, जिनका कोई हिसाब नहीं है। हमने ही उनको जला डाला, उनका कोई हिसाब नहीं है।
तो उस दिन तो ऐसा ही लगा होगा कि बोधिधर्म चीन क्यों जा रहा है? भागता है जिंदगी से? लेकिन बोधिधर्म ने ध्यान की जो मूल शाखा थी बुद्ध की, उसको नष्ट नहीं होने दिया। उस एक आदमी पर निर्भर था वह मामला। वह एक आदमी मर जाए रास्ते में तो इतनी बड़ी संपदा नष्ट होती थी, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल था।
बुद्ध के जीवन में एक बहुत अदभुत घटना है। एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध एक फूल लेकर आए हैं। ऐसा कभी नहीं आते हैं। किसी ने रास्ते में फूल दे दिया है, वे उसको लेकर आकर मंच पर बैठ गए हैं, फिर चुप बैठे रहे हैं। बड़ी देर हो गई, फिर भिक्षु राह देखते-देखते थक गए हैं कि वे बोलें, बोलें, बोलें। फिर बेचैनी शुरू हो गई कि चुप क्यों हैं? बोलते क्यों नहीं? तब वे हंसने लगे हैं। उनकी हंसी सुन कर एक महाकाश्यप नाम का भिक्षु जोर से हंसा है।
यह आदमी कभी बोला ही नहीं था इसके पहले। यह चुप ही रहता था। यह कभी बोलता ही नहीं था। यह जोर से हंसा है। बुद्ध ने उसे बुलाया और उसको हाथ में वह फूल दे दिया और भिक्षुओं से कहा कि जो मैं बोल कर दे सकता था, वह मैंने तुम्हें दिया, जो मैं बोल कर नहीं दे सकता था, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं।
कोई चीज ट्रांसफर की गई, जो दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध ने कहा कि जो मैं नहीं दे सकता था शब्द से, वह मैं महाकाश्यप को दिए देता हूं। हजारों साल से यह पूछा जाता रहा कि महाकाश्यप को दिया क्या? कौन सी चीज ट्रांसफर की गई थी? लेकिन अगर शब्द में बुद्ध कह सकते तो वे खुद ही कह दिए होते। तो अब कौन कहे कि क्या हुआ?
महाकाश्यप बुद्ध की आंतरिक संपदा का, इसोटेरिक साइंस का अधिकारी बना। और महाकाश्यप का कोई नाम नहीं होगा, क्योंकि न उसने कोई किताब लिखी। महाकाश्यप का बौद्ध-ग्रंथों में ही नाम खोजना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके नाम का कोई कारण नहीं। लेकिन वह इतनी घटना है। और महाकाश्यप के पास जो था, वह खोज-खोज कर किन्हीं व्यक्तियों को देता रहा, क्योंकि वह मामला देने का था, वह मामला समझाने का नहीं था। जब कोई उस योग्यता में था, तब वह ट्रांसफर कर दिया गया।
महाकाश्यप की परंपरा में भिक्षु था बोधिधर्म। बोधिधर्म हिंदुस्तान से भागा, क्योंकि हिंदुस्तान में उसे कोई आदमी नहीं मिला जिसको वह ट्रांसफर कर दे; जो उसके पास था वह मर जाएगा। वह मर जाएगा, तो हिंदुस्तान से भागा और चीन में एक आदमी को ट्रांसफर किया।
चीन में वह परंपरा कुछ पीढ़ियों तक चली और अंततः उस परंपरा को जापान ट्रांसफर करना पड़ा, क्योंकि कोई आदमी चीन में उपलब्ध नहीं हुआ। अब वह जापान में जिंदा है। अब वह जापान में जिंदा है। जो झेन है, वह महाकाश्यप पहला गुरु है झेन का। और अब वह जापान में है, सुजुकी जापान में उसका आखिरी गुरु है अभी। लेकिन अब ऐसा डर हो गया है कि वह जापान में भी कोई ले सकता है कि नहीं।
तो सुजुकी पूरी जिंदगी से यूरोप और अमरीका में मेहनत कर रहा है किसी को ट्रांसफर कर देने के लिए। रिसेप्टिव माइंड चाहिए न! और जापान में आशा नहीं बनती है अब, क्योंकि जापान एकदम मैटीरियलिस्टिक हुआ है, सारी चेतना जड़ता से भर गई है।
तो एक तरफ जो विकास होता है, दूसरी तरफ पतन हो जाता है कई बार। अब जापान एकदम आधुनिक है, अत्याधुनिक है। तो किसको वह दिया जाए? अब वह बूढ़ा आदमी, हद बूढ़ा आदमी सुजुकी पूरी जिंदगी से यूरोप में भटक रहा है। लेकिन दोत्तीन आदमी उसको मिल गए। फ्रांस में एक फ्रेंच है हूबर्ट बिनायट, एक अमेरिकन है अलेन वाट्स, उसने उनको दे दिया। अब उसका छुटकारा हो गया। अब वे जानेंगे, समझेंगे।
महाकाश्यप के पास जो था, वह हूबर्ट बिनायट के पास है, अलेन वाट्स के पास है। कुछ चीजें इतनी गुह्य हैं, इतनी गहरी हैं कि उसको रिसीव करने के लिए आदमी चाहिए न! पर वह तो सब हमें दिखाई पड़ता नहीं कि वह सब कैसे चलता है। वह सब कैसे जाता है, हमें दिखाई नहीं पड़ता। और जिसके पास है, वह जानता है उसकी तकलीफ को कि क्या करे, वह उसको कैसे पहुंचा दे कि वह बच जाए। मैं तो मर जाऊं, लेकिन कुछ मेरे पास है, तो वह बच जाए। वह मुझसे ज्यादा कीमती है, वह बचना चाहिए, वह कहीं किसी के काम आता रहेगा पीढ़ियों-पीढ़ियों तक।
इसलिए उसको ऐसा मत लें। ऐसा नहीं है मामला।

प्रश्न:

जो आपने बोला साक्षी का, तो भोजन शरीर की मांग है; मैथुन, जो सेक्स है, वह अनुभूति है। जब मूर्च्छा होती है, तब यह अनुभूति पैदा होती है। जब साक्षी होता है, तब यह मूर्च्छा हो ही नहीं सकती और अनुभूति हो ही नहीं सकती, तो मैथुन कैसे हो सकता है?

साधारणतः ठीक कह रहे हो। साधारणतः बिलकुल ठीक कह रहे हो, बिलकुल ठीक कह रहे हो। लेकिन कोई भी क्रिया दो तरह से हो सकती है: या तो उस क्रिया में डूबो तो, या उस क्रिया के बाहर खड़े रह जाओ तो।
जब डूबोगे तुम उस क्रिया में, तब तुम र्मूच्छित हो जाओगे। जब तुम क्रिया के बाहर खड़े रहोगे तो तुम साक्षी रहोगे। पहली हालत में मैथुन तुम्हारी जरूरत होगी, दूसरी हालत में कोई और जरूरत हो सकती है। और बहुत तरह की जरूरत--जैसा मैंने अभी कहा कि ज्ञान को ट्रांसफर करने की बात है। अब यह तुम हैरान होओगे कि कुछ लोग जो इस स्थिति में पहुंच जाएं, जहां मैथुन बिलकुल अनावश्यक हो गया, फिर भी जिस शरीर की संभावना उनके पास है, उसको वे ट्रांसफर करना चाहें। वे उस शाखा को भी तोड़ न देना चाहें, वह शाखा भी कीमत की है। जैसे बुद्ध जैसा व्यक्ति या महावीर जैसा व्यक्ति।
एक तो आत्मा की यात्रा है, लेकिन एक शरीर भी चाहिए, जो उतनी कीमती आत्मा को पकड़ता हो। वैसे व्यक्ति यह भी न चाहें...क्योंकि महावीर तक आते-आते जो वीर्य-अणु विकसित हुआ है, वह साधारण नहीं है। आत्मा असाधारण है, ऐसा तो है ही, लेकिन जो वीर्य-अणु महावीर तक आते-आते विकसित हुआ है, वह भी साधारण नहीं है। वे उसको भी ट्रांसफर करना चाहें।
तब मैथुन अर्थपूर्ण नहीं है। मैथुन उनका रस नहीं है। तब मैथुन भी एक जैसे भोजन या स्नान या सोना या उठना या बैठना, वैसी ही एक बाह्य जरूरत की चीज है और उपयोगी हो सकती है। बिलकुल उपयोगी हो सकती है। बल्कि हो सकता है कि हजार, दो हजार वर्ष बाद जब कि हमारा ज्ञान जेनेटिक्स का और बढ़ जाएगा--अभी बहुत बढ़ गया है--तो शायद हम नाराज हों जीसस पर कि वह जो वीर्य-अणु की उतनी लंबी यात्रा थी, जो जीसस पर आकर इस भांति फलीभूत हुई, वह वीर्य-अणु की संपदा जारी क्यों न रखी? हम नाराज हो सकते हैं। क्योंकि वह दुबारा नहीं संभव है। वह करोड़ों-लाखों वर्षों की यात्रा के बाद उस तरह का वीर्य-अणु, विशिष्ट वीर्य-अणु जीसस के शरीर में है और जीसस के शरीर के साथ खो जाती है वह शाखा।
मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम? यानी यह हो सकता है। अभी तो संभव नहीं था पहले, लेकिन आज से हजार साल बाद, बल्कि पांच सौ साल बाद, बल्कि शायद पचास साल बाद यह संभव हो जाएगा कि बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वीर्य-अणुओं को हम सुरक्षित रख सकें।
आइंस्टीन जैसे आदमी के वीर्य-अणु को सुरक्षित रखने की जरूरत है, क्योंकि यह संभावना मुश्किल से फलीभूत होती है। यह साधारण संभावना नहीं है। आइंस्टीन जैसे व्यक्ति का वीर्य-अणु सुरक्षित रखने की जरूरत है। और कभी आइंस्टीन जैसी स्त्री उपलब्ध हो जाए, आइंस्टीन के मरने के दो सौ साल बाद--अब तो वीर्य-अणु सुरक्षित रह सकता है--तो उस स्त्री के अणु से इस अणु के संयोग से जो व्यक्ति पैदा किया जा सके, वह ऐसा अनूठा होगा, जैसा आइंस्टीन भी नहीं था।
तो वह तो जैसे-जैसे समझ हमारी बढ़ती है, वैसे-वैसे हम श्रेष्ठ लोगों के वीर्य-अणुओं को नष्ट नहीं होने देंगे, उनको हम बचा कर रखेंगे। और उस वक्त तो कोई और उपाय नहीं था, अब तो यह उपाय है।
अब तो यह उपाय है कि मैथुन अनिवार्य नहीं है, वीर्य-अणु सुरक्षित किया जा सकता है। बिना मैथुन के वीर्य-अणु सक्रिय हो सकता है और उससे संतति हो सकती है। लेकिन उस वक्त यह उपाय नहीं था।
तो मेरा मानना है कि यह भी ध्यान में हो सकता है। बुद्ध ने भी एक बेटे को जन्म दिया, महावीर ने एक बेटी को। और यह खयाल हो सकता है पीछे। लेकिन बहुत कांबिनेशंस की बात है। वह भी संरक्षित रहना चाहिए। पर तब मैथुन रस नहीं है आपका। समझे आप? मैं कह रहा हूं मैथुन में जब रस है, तब आप डूबते हैं; जब रस नहीं है, तब कोई बात नहीं है, तब वह एक बिलकुल यांत्रिक क्रिया है।

प्रश्न:

वह बायोलॉजिकल कैसे हो सकता है? बायोलॉजिकल क्या है कि मूरूच्छित होने से पीछे अनुभूति होती है। और बिना अनुभूति के सेक्स कैसे हो सकता है? बायोलॉजिकल कैसे हो सकता है?

नुभूति वगैरह कुछ नहीं होती आपको। जो होता है कुल जमा, वह इतना होता है कि आपके चित्त का तनाव शरीर से शक्ति के बाहर निकल जाने से रिलैक्स हो जाता है, और कुछ नहीं होता आपको। उस रिलैक्सेशन को आप बड़ी अनुभूति समझ लेते हैं। अनुभूति वगैरह कुछ नहीं होती आपको। फिर तनाव इकट्ठा हो जाता है, फिर बोझ इकट्ठा हो जाता है; फिर वीर्य की शक्ति से बाहर निकल जाता है, आप फिर रिलैक्स हो जाते हैं। अनुभूति क्या खाक होती है आपको! अनुभूति हुई क्या है कभी!
अनुभूति हो सकती है, लेकिन उसके सब उपाय दूसरे हैं, वह मामला फिर सेक्स का नहीं। बायोलॉजिकली तो सिर्फ आपके टेंशन को रिलैक्स कर देता है। इसलिए बहुत रिलैक्स लोगों के लिए उसकी जरूरत भी नहीं रह जाती, बहुत टेंस लोगों के लिए जरूरत बढ़ जाती है। जितना टेंशन बढ़ता है, उतना सेक्स बढ़ता है।
पश्चिम में जो इतनी सेक्सुअलिटी है, उसका और कोई कारण नहीं है, चित्त अत्यंत तनावग्रस्त हो गया है, उस तनाव को शिथिल करने के लिए अब एक ही उपाय है कि शरीर से शक्ति बाहर हो जाए। वह रिलीजिंग वाल्व है आपकी शक्ति का, और कुछ नहीं है इससे ज्यादा। तो बहुत जिसको कहें कनसनट्रेटेड शक्ति एकदम से बाहर हो जाती है। सारे शरीर के स्नायु शिथिल हो जाते हैं। उतनी कनसनट्रेटेड शक्ति के निकलने पर शिथिल होना ही पड़ेगा। और यह जो शिथिलता आपको मालूम पड़ती है, आप समझते हैं कि यह आपको सेक्स का अनुभव हो रहा है। यह सिर्फ आया हुआ रिलैक्सेशन काम कर रहा है। दो दिन बाद आप फिर टेंस हो जाते हैं, दस दिन बाद फिर टेंस हो जाते हैं, फिर रिलैक्स होने की जरूरत पड़ जाती है। जैसे कि आपके कुकर में या हीटर में वाल्व लगा हुआ है, ज्यादा गर्मी हो गई तो उस वाल्व से निकल जाती है, वैसा वाल्व है सिर्फ। और बायोलॉजी उसका उपयोग कर लेती है।
इसमें कोई...अनुभूति क्या हो जाती है? अनुभूति कुछ भी नहीं होती। मजा यह है, अनुभूति कुछ भी नहीं होती। लेकिन जब तनाव बढ़ जाता है तो फिर जरूरत हो जाती है तो फिर वह हो जाता है।
इसलिए जो लोग जितने शिथिल, शांति से जीते हैं, उनके लिए उतनी ही अनावश्यक हो जाती है बात। उस स्थिति में भी उनके लिए दूसरे कारण प्रभावित कर सकते हैं, विचार दे सकते हैं और वे मैथुन का भी एक क्रिया की तरह उपयोग कर सकते हैं। वह जो मैं कह रहा हूं, उनके लिए कोई अनुभव वगैरह की बात नहीं है उसमें, कोई अनुभव की बात नहीं है।

प्रश्न:

एक जो बात आपने आज कही वह शायद ज्यादा महत्वपूर्ण है और बहुत दिनों से, जो भी जैन धर्म पर सोचते हैं, उनके मन में चक्कर काटती है। आपने कहा, महावीर वीतराग हैं, न रागी हैं, न वैरागी। लोग इसे दूसरी तरह से भी कहते हैं: वे राग-द्वेष दोनों से मुक्त हैं। पर प्रश्न यह है कि मान लीजिए स्त्री का आकर्षण, यह भी व्यर्थ है, स्त्री की रिपल्शन, यह भी व्यर्थ है। समाज की व्यवस्था के लिए यह उपदेश आपका जो है वीतरागता का, वह सामान्य स्तर पर बरता जा सके, इसकी बहुत कम आशा है। यानी चालीस करोड़, पैंतालीस करोड़ लोग वीतराग हो जाएंगे, इसकी आशा बहुत कम है। और जो समाज का नियंत्रण है, उसके लिए संयम चाहे वह ऊपरी भी क्यों न हो, आवश्यक सा प्रतीत होता है। महावीर ने या आपने स्वयं ने इसके लिए क्या सोचा है? क्या समाज की व्यवस्था के लिए वह नियंत्रण जो ऊपरी है और अध्यात्म की दृष्टि से व्यर्थ सा भी है, पर समाज की दृष्टि से तो बहुत उपयोगी है। उस नियंत्रण के बारे में क्या तो महावीर कहना चाहते थे और क्या आप कहना चाहेंगे?

मझा। पहली बात तो यह कि वीतरागता करोड़ों लोगों के लिए कठिन तो है, असंभव नहीं। और कठिन होने का बड़े से बड़ा कारण यह है कि कठिन मान ली गई है--बड़े से बड़ा कारण! यह हमारी धारणा है कि कठिन है--किसी चीज के प्रति--तो वह कठिन हो जाती है। हमारी धारणा ही चीजों को कठिन और सरल बनाती है। जब मैं कहता हूं कठिन है, असंभव नहीं, तो मेरा मतलब यह है कि कठिन भी इसलिए नहीं है कि वीतरागता की प्रक्रिया कठिन है, बल्कि हमारे राग और विराग की पकड़ कठिन है। इसलिए उसे छोड़ने में मुश्किल हो जाती है।
यानी जैसे एक आदमी पहाड़ चढ़ रहा है, और बड़ा बोझ लिए हुए है, गट्ठर बांधे हुए है, पत्थर बांधे हुए है और चढ़ रहा है। और वह आदमी कहता है, पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन है। तो हम उससे कहें, पहाड़ पर चढ़ना इतना कठिन नहीं है, जितना कठिन तुम्हारा बोझ है, तुम इसे छोड़ सको तो पहाड़ पर तुम बड़ी सरलता से चढ़ सकते हो। असली सवाल पहाड़ पर चढ़ने की कठिनाई का नहीं है, जितना कि तुम बोझ बांधे हुए हो, जिसके साथ तुम नहीं चढ़ सकते, और उसे तुम छोड़ना नहीं चाहते, इसलिए कठिन हुआ जा रहा है। मेरा मतलब समझे न?
एक-एक आदमी जिस तरह के मानसिक बोझ को पकड़े हुए है, उसकी वजह से वीतरागता कठिन है। और अगर वह यह भी मान ले कि कठिन है तो वह बोझ को तो छोड़ता ही नहीं, बल्कि बोझ को और पकड़ लेता है, ताकि सिद्ध हो जाए कि बिलकुल कठिन है, वह सरल है ही नहीं मामला।
सच्चाई में तो यह है हालत कि राग और विराग बहुत ही कठिन है, असंभव है, असंभव है। न तो तुम राग से कुछ उपलब्ध कर पाते हो कभी भी और न विराग से कुछ उपलब्ध कर पाते हो।

प्रश्न:

समाज व्यवस्था भी नहीं बन पाती।

मैं बात करता हूं न!
राग से तुम कभी भी कुछ उपलब्ध नहीं कर पाते हो, सिर्फ राग से तुम विराग की प्रवृत्ति उपलब्ध कर पाते हो और विराग से राग की प्रवृत्ति उपलब्ध कर पाते हो। यानी राग की उपलब्धि ही क्या है--सिर्फ विराग को पकड़ा देना। और विराग की उपलब्धि है राग को पकड़ा देना। और यह वीसियस सर्किल है। इसकी उपलब्धि कुछ है ही नहीं। तुम स्वयं को तो कभी उपलब्ध कर ही नहीं सकते दोनों हालत में। तो व्यक्ति ही नहीं बन पाते हो तुम, अगर राग और विराग में पड़े हुए हो तो।
और वह जो लोग कहते हैं कि राग और द्वेष से छूट जाना वीतरागता है, वह बड़ी गलत व्याख्या कर रहे हैं। वे विराग को बचा जाते हैं। राग और द्वेष से मुक्त हो जाना अगर वीतरागता का अर्थ उन्होंने किया, तो वे विराग को बचा जाते हैं। और वह तरकीब है बहुत, शरारत है।
राग का ठीक विरोधी विराग है, द्वेष नहीं। द्वेष तो राग का ही हिस्सा है, विरोधी नहीं है, विरोधी तो विराग है। द्वंद्व विराग का है राग से, द्वेष से नहीं। तो वे तरकीब से बचा गए। उन्होंने विरागी को बचा लिया और विरागी और वीतरागी को उन्होंने सीढ़ी बना दिया, कि विराग से फिर वीतराग की सीढ़ी जाती है।
मैं यह कह रहा हूं: चाहे राग से जाओ, चाहे विराग से, वीतराग होने का फासला दोनों से बराबर है।
     

प्रश्न:

इसे वे निश्चय-दृष्टि कहते हैं, पर व्यवहार-दृष्टि में कहते हैं अंतर है!

से हम समझें।
तो दूसरी बात यह कि अगर यह कठिन नहीं है, क्योंकि जो स्वभाव है, वह अंततः कठिन नहीं हो सकता, विभाव ही कठिन हो सकता है। और जो स्वभाव है, वह इतना आनंदपूर्ण है कि उसकी एक झलक मिलनी शुरू हो जाए तो हम कितने ही पहाड़ उसके लिए चढ़ जाते हैं। बस झलक जब तक नहीं मिलती, तब तक कठिनाई है। और झलक राग और विराग मिलने नहीं देते हैं। ये जरा ही सा हटें तो उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जैसे आकाश में बादल घिरे हुए हैं और सूरज की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती, जरा सा बादल सरके और किरण झांकने लगती है। राग और विराग के द्वंद्व की जरा सी भी झांक टूट जाए--खिड़की, तो वीतरागता का आनंद एकदम बहने लगता है। और वह बहने लगे तो कितनी ही यात्रा पर जाना संभव है, कठिन नहीं है।
लेकिन हम क्या करते हैं? हम राग से विराग में जाते हैं, विराग से राग में आते हैं। वे दोनों ही एक से घेरने वाले बादल हैं। इसलिए कभी संध भी नहीं मिलती उसको जानने की। राग-विराग में डोलते हुए मनुष्यों का जो समाज है, वह नियम बनाएगा। बनाएगा ही, क्योंकि राग-विराग में डोलता हुआ आदमी बहुत खतरनाक आदमी है। उसके लिए नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम कौन बनाएगा? वही राग-विराग में डोलते हुए आदमी नियम भी बनाएंगे। राग-विराग में डोलते हुए लोग खतरनाक हैं, राग-विराग में डोलते हुए नियम बनाने वाले और भी खतरनाक हैं।
यानी मामला ऐसा है जैसे पागलों का पागलखाना है एक, तो पागलों के लिए कुछ नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम बनाने वाले भी पागल हों, तो नियम और खतरनाक होंगे, क्योंकि पागल नियम बनाएंगे--और पागलों के लिए! तो पागल ही खतरनाक हैं, फिर पागल नियम बनाते हैं, तब और खतरा शुरू हो जाता है। तो समाज ऐसे ही खतरे में जी रहा है।
और जब हम यह कहते हैं कि वीतरागता की तरफ जाना है, जो हम यह नहीं कहते कि नियम तोड़ देना है। हम यह नहीं कह रहे। मैं तो यह कह रहा हूं कि जो व्यक्ति थोड?ी सी भी वीतरागता की तरफ गया, उसके लिए नियम अनावश्यक है। यानी वह जीता ही ऐसा है कि उससे किसी को कभी दुख, पीड़ा--यह सब सवाल नहीं है। हां, कोई उससे दुख लेना ही चाहे तो बात अलग है। उसकी मुक्ति है उसे।
महावीर तो ऐसे जीते हैं कि उनसे किसी को दुख-सुख का सवाल नहीं है, लेकिन कोई दुख-सुख लेना चाहता है तो वह लेता है। लेकिन पूरा जिम्मा लेने वाले पर ही है। महावीर का देने का कोई हाथ नहीं है उसमें जरा भी। कोई दुख लेगा, कोई सुख लेगा, वह उस लेने वाले पर निर्भर है। महावीर तो जैसे जीते हैं, वे जीते हैं।
जितना वीतराग चित्त होगा, उतना विवेकपूर्ण होगा। पूर्ण वीतरागता पूर्ण विवेक है। और विवेक के लिए किसी संयम की जरूरत नहीं, किसी नियम की जरूरत नहीं, क्योंकि विवेक स्वयं ही संयम है। अविवेक के लिए संयम की जरूरत है। इसलिए सब संयमी अविवेकी होते हैं। जितनी बुद्धिहीनता होगी, उतना संयम बांधना पड़ता है। यानी बुद्धि की कमी को पूरा वे संयम से करने की कोशिश करते हैं। लेकिन संयम से बुद्धि की कमी पूरी नहीं होती। और अब तक हमने जो समाज बनाया है, वह बुद्धि की कमी को संयम से पूरा करने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हजारों साल हो गए, लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा है।

प्रश्न:

पर समाज तो बड़ा है, उसे तोड़ दें तो समाज ही...।

ह मैं नहीं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह वैसी ही बात है जैसे पागलखाने के लोग कहें कि अगर हम ठीक हो जाएंगे तो पागलखाने का क्या होगा?
फिर पागलखाना ही टूट जाएगा न! अगर लोग विवेकपूर्ण हो जाएं तो समाज तो नहीं होगा, जैसा हम समाज समझते रहे हैं, बिलकुल बुनियादी फर्क हो जाएंगे। लेकिन पहली दफा ठीक अर्थों में समाज होगा।
अभी क्या है--समाज है और व्यक्ति नहीं है। और समाज जो है वह सब व्यक्तियों को अपने घेरे में कसे हुए है। और समाज केवल व्यवस्था का नाम है। व्यवस्था वजनी है और व्यक्ति कमजोर है। व्यवस्था छाती पर बैठी है और व्यक्ति नीचे दबा है।
कल भी व्यवस्था होगी, जिस व्यक्ति की मैं बात कर रहा हूं अगर वह बढ़ जाए--विवेकपूर्ण व्यक्ति, वीतराग चित्त से भरा हुआ व्यक्ति, जीवन के आनंद से भरा हुआ व्यक्ति--तो भी व्यवस्था होगी। लेकिन व्यक्ति की छाती पर नहीं होगी, व्यक्ति के लिए ही व्यवस्था होगी।
अभी हालत यह हो गई है कि व्यवस्था के लिए व्यक्ति हो गया है। और तब भी समाज होगा, लेकिन तब समाज दो व्यक्तियों, दस व्यक्तियों, हजार व्यक्तियों के बीच के इंटर-रिलेशनशिप का नाम होगा, अंतर्संबंध का नाम होगा। व्यक्ति केंद्र होगा, समाज गौण होगा। और समाज केवल हमारे अंतर्व्यवहार की व्यवस्था होगी। और विवेकपूर्ण व्यक्ति का अंतर्व्यवहार किसी बाहरी संयम और नियम से नहीं चलेगा, एक आंतरिक अनुशासन से चलता है। तो जब तक ऐसा नहीं हो जाता है, तब तक जो समाज है, वह चल रहा है, वह चलेगा।
यह ऐसा ही है कि जैसे हम कहें कि सब लोग स्वस्थ हो जाएंगे तो डाक्टरों का और अस्पतालों का क्या होगा?
लोग स्वस्थ हो जाते हैं तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह कोई अच्छा काम नहीं है जो डाक्टर और अस्पताल को करना पड़ रहा है। अच्छा लग रहा है, क्योंकि हम बीमार होने का काम किए चले जाते हैं। अच्छा नहीं है, क्योंकि जो हम गलत करते हैं, उसको पोंछने का काम करना पड़ता है सिर्फ, और तो कुछ करना नहीं पड़ता।
तो जैसे-जैसे विवेक विकसित हो, वीतरागता विकसित हो, तो समाज होगा, अंतर्संबंध होंगे, लेकिन वे बड़े गौण हो जाएंगे, व्यक्ति प्रमुख हो जाएगा। और उसका अंतर-अनुशासन असली बात होगी।
इसलिए मेरा कहना यह है कि समाज की व्यवस्था में व्यक्ति को संयम देने की चेष्टा कम होनी चाहिए, विवेक देने की व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए। विवेक से संयम आएगा और संयम से विवेक कभी नहीं आता है।

प्रश्न:

पर जब तक विवेक न हो, संयम की आवश्यकता समाज के लिए है?

नी ही रहेगी। वह ऐसा ही है जैसे कि...।

प्रश्न:

महावीर भी ऐसा ही समझते थे?

मझेंगे ही। इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं है, इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं है। यानी जब तक विवेक नहीं है, तब तक किसी न किसी तरह के नियमन की व्यवस्था बनी रहेगी। लेकिन यह ध्यान में रहे कि किसी नियम की व्यवस्था से विवेक आने वाला नहीं है। इसलिए विवेक को जगाने की सतत कोशिश जारी रखनी पड़ेगी। और संयम और नियम की व्यवस्था को सिर्फ नेसेसरी ईविल, आवश्यक बुराई समझना होगा। वह कोई गौरव की बात नहीं है।
चौरस्ते पर एक पुलिस वाला खड़ा है, इसलिए लोग बाएं-दाएं चल रहे हैं, यह कोई सौभाग्यपूर्ण बात नहीं है। लोगों को दाएं-बाएं चलना चाहिए और पुलिस वाले को विदा होना चाहिए, व्यर्थ एक आदमी को हम परेशान कर रहे हैं। और किस काम के लिए परेशान कर रहे हैं कि वह लोगों को दाएं-बाएं चलाता रहे! और लोग कैसे बुद्धिहीन हैं कि अगर इस चौरस्ते पर पुलिस वाला न हो तो वे बाएं-दाएं भी नहीं चलेंगे!
तो उसका मतलब यह है कि समाज ने बुद्धि पैदा करने की कोशिश ही नहीं की है अब तक! और पुलिस वाले से काम ले रहा है विवेक का! करोड़ों लोग निकल रहे हैं इस सड़क से और एक पुलिस वाला सब्स्टीटयूट हो गया करोड़ों लोगों के विवेक का! यह पुलिस वाला भी विवेकहीन आदमी है। तो वह किसी तरह चला लेता है बाएं-दाएं। लेकिन फर्क क्या पड़ता है? बस बाएं-दाएं चलना हो जाता है, एक्सीडेंट थोड़े कम होते हैं सड़क पर।
लेकिन अगर हमने समझा कि विवेक की कमी इसने पूरी कर दी तो हम गलती में हो गए हैं। यह सिर्फ सूचक है कि विवेक नहीं है। और हमें कोशिश करनी चाहिए कि विवेक आ जाए, ताकि हम इसको विदा कर दें।
नीति, संयम, नियम धीरे-धीरे विदा हो सकें, ऐसा विवेक हमें जगाना चाहिए। जिस समाज में कोई नियम नहीं होगा, कोई संयम नहीं होगा, लोग विवेक से जीते होंगे, वह पहली दफा समाज बना, नहीं तो समाज का सिर्फ धोखा चल रहा है।

प्रश्न:

नहीं, इसमें सहमति है, जो आप कह रहे हैं। जहां मतभेद मुझे लगा, जैन-विचारकों के मतभेद, वह जिसको आप कह रहे हैं नियम, यद्यपि वे अंततोगत्वा छोड़ने के लिए हैं और व्यर्थ हैं, उसे वे व्यवहार-दृष्टि नाम देते हैं। तो उस व्यवहार-दृष्टि की कोई आंशिक उपयोगिता है या सर्वथा नहीं है, इस पर मतभेद चलता है जैन-विचारकों में।

ह चलेगा उनमें, वह उनमें चलेगा, क्योंकि विचारक द्रष्टा नहीं है। और वह जो चला रहा है, जैसे कि उन्होंने मान रखा है कि एक व्यवहार-दृष्टि और एक निश्चय-दृष्टि, ऐसी कोई चीज ही नहीं होती। दृष्टि तो एक ही है, निश्चय-दृष्टि। व्यवहार को दृष्टि कहना ऐसा ही है जैसे कि यह कहना कि कुछ लोगों की आंख की दृष्टि होती है, कुछ लोगों की अंधी दृष्टि होती है, ऐसे ही कहना है। हम कहें कि अंधे की भी आंख तो होती है, सिर्फ देखती नहीं; और आंख वाले की भी आंख होती है, सिर्फ देखती है, इतना ही फर्क है; बाकी आंख तो दोनों में ही होती है--तो एक अंधी आंख होती है और एक देखने वाली आंख होती है।
व्यवहार-दृष्टि अंधे की आंख है। वह दृष्टि है ही नहीं। दृष्टि तो एक ही है, जहां से दर्शन होता है, वह तो निश्चय है। व्यवहार की जो सारी बातचीत है और ऐसा दो हिस्से करना कि यह भी एक दृष्टि है और इसकी भी जरूरत है, यह सिर्फ अंधे अपने को तृप्ति देने की कोशिश कर रहे हैं। यानी अंधा यह भी मानने को राजी नहीं है कि मैं अंधा हूं। वह कहता है कि मेरा अंधा होना भी बहुत जरूरी है, आंख की तरफ जाने के लिए मेरे अंधे होने की बड़ी आवश्यकता है, वह यह कह रहा है!
कोई दृष्टि नहीं हैं दो। दृष्टि तो एक ही है। व्यवहार-दृष्टि सिर्फ समझौता है। और अंधों के विचारक हैं अपने। अंधों के ही विचारक होते हैं। आंख मिल गई, वहां से दर्शन शुरू होता है, विचार खतम होता है। वहां कोई सोचता-वोचता नहीं, वहां देखता है। और तब दो टुकड़े हो गए, तब दो टुकड़े हो गए हैं।
और ये दो टुकड़ों ने बड़ा नुकसान किया है। क्योंकि वह व्यवहार-दृष्टि वाला कहता है कि यह भी जरूरी है, पहले तो इसको ही पूरा करना पड़ेगा, फिर इसके बाद दूसरी बात उठेगी, साधते-साधते। व्यवहार-दृष्टि साधते-साधते निश्चय-दृष्टि उपलब्ध होगी--इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती। व्यवहार-दृष्टि छोड़ते-छोड़ते निश्चय-दृष्टि उपलब्ध होती है।

प्रश्न:

(अस्पष्ट रिकाघडग)

साधने का सवाल ही नहीं है, छोड़ने का सवाल है। यानी अंधेपन को साधते-साधते आंख मिलेगी, ऐसा नहीं है। अंधेपन को छोड़ते-छोड़ते आंख मिलेगी।
व्यवहार-दृष्टि छोड़नी है, क्योंकि वह दृष्टि नहीं, दृष्टि का धोखा है। उपलब्ध तो निश्चय-दृष्टि करनी है। और इसलिए मैं फिर दो भी शब्द नहीं लगाना पसंद करता, क्योंकि वह निश्चय लगाना बेमानी है। वह तो व्यवहार के खिलाफ लगाना पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूं अंधापन छोड़ना है, दृष्टि उपलब्ध करनी है। निश्चय का क्या सवाल है? ऐसी भी कोई दृष्टि होती है जो अनिश्चित हो? तो फिर उसको दृष्टि कहना फिजूल है।
और व्यवहार की कोई दृष्टि नहीं होती। ऐसा ही है जैसे एक अंधा आदमी है, अपनी लकड़ी को टेक-टेक कर रास्ता बना लेता है, दरवाजा खोज लेता है। अब वह आदमी कहता है कि लकड़ी की भी बड़ी जरूरत है। ठीक ही कहता है; क्योंकि अंधा है। लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए, वह अगर कहे कि आंख मिल जाए तो भी लकड़ी की जरूरत है, तो हम उसे कहेंगे कि तुम फिर पागल हो, तुम्हें पता ही नहीं कि आंख मिलने से क्या होता है।
व्यवहार-दृष्टि हमारी स्थिति है--अंधेपन की। निश्चय-दृष्टि हमारी संभावना है--आंख की। और जितना हम इसे छोड़ेंगे, जितना हम जागेंगे, उतनी वह उपलब्ध होगी। इसलिए व्यवहार-दृष्टि सीढ़ी नहीं है, जिससे निश्चय-दृष्टि पर पहुंचना है। व्यवहार-दृष्टि बाधा है, जिसे तोड़ना है, ताकि निश्चय-दृष्टि उपलब्ध हो सके।
आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें