अध्याय—13
सूत्र—
समं
सर्वेषु
भूतेषु
तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स पश्यति।।
27।।
समं
पश्यीन्ह
सर्वत्र
अमवीस्थतमीश्वरम्।
न
हिनस्मात्मनात्मानं
ततो याति पंरा
गतिम् ।। 28।।
प्रकृत्यैव
च कर्मीणि
क्रियमाणानि
सर्वशः।
यः
पश्यति
तथात्मानमकर्तारं
ग़ पश्यति।। 29।।
यदा
भूतपृथग्भावमेकस्थमनयश्यति।
तत
एव च विस्तारं
ब्रह्म
सम्यद्यते
तदा।। 30।।
हम
प्रकार जानकर
जो पुरुष नष्ट
होते हुl सब
बराबर भूतों
में नाशरीहत परमेश्वर
को समभाव मे
स्थित देखता
है, वही
देखता है।
क्योंकि
वह पुरुष सब
में समभाव से
स्थित हुए
परमेश्वर को
समान देखता हुआ,
अपने द्वारा
आपको नष्ट
नहीं करता है, इससे वह परम
गति को
प्राप्त होता
है।
और
जो पुरुष
संपूर्ण
क्रमों को सब
प्रकार से
प्रकृति से ही
किए हुए देखता
है तथा आत्मा
को अकर्ता
देखता है वही
देखता है।
और
यह पुरूष जिस
काल में भूतों
के न्यारे—
न्यारे भाव को
एक परमात्मा
के संकल्य के
आधार स्थित
देखता है तथा
उस परमात्मा
के संकल्प से
ही संपूर्ण
भूतों का विस्तार
देखता है? उस
कम में
सच्चिदानंदधन
ब्रह्म को
प्राप्त होता
है।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि प्राय:
लोग ऐसा सोचते
हैं कि योग या
अध्यात्म की
ओर वे ही झुकते
हैं, जो
मस्तिष्क के
विकार से
ग्रस्त हैं, भावुक हैं
या जीवन की
कठिनाइयों से
संत्रस्त हैं।
प्राय: पागलपन
या उन्माद को
साधना का
प्रस्थान
बिंदु मान
लिया जाता है!
जो
ऐसा सोचते हैं, वै
थोड़ी दूर तक
ठीक ही सोचते
हैं। भूल उनकी
यह नहीं है कि
जो लोग मन से
पीड़ित और परेशान
हैं, वे ही
लोग ध्यान, योग और
अध्यात्म की
ओर झुकते हैं;
यह तो ठीक
है। लेकिन जो
अपने को सोचते
हैं कि मानसिक
रूप से पीड़ित
नहीं हैं, वे
भी उतने ही
पीडित हैं और
उन्हें भी झुक
जाना चाहिए।
मनुष्य
का होना ही संत्रस्त
है। मनुष्य
जिस ढंग का है, उसमें
ही पीड़ा है।
मनुष्य का
अस्तित्व ही
दुखपूर्ण है।
इसलिए असली तो
नासमझ वह है, जो सोचता है
कि बिना
अध्यात्म की
ओर झुके हुए आनंद
को उपलब्ध हो
जाएगा। आनंद
पाने का कोई
उपाय और है ही
नहीं। और जो
जितनी जल्दी
झुक जाए, उतना
हितकर है।
यह
बात सच है कि
जो लोग
अध्यात्म की
ओर झुकते हैं, वे
मानसिक रूप से
पीड़ित और
परेशान हैं।
लेकिन दूसरी
बात भी खयाल
में ले लेना, झुकते ही
उनकी मानसिक
पीड़ा समाप्त
होनी शुरू हो
जाती है।
झुकते ही
मानसिक
उन्माद
समाप्त हो
जाता है। और
अध्यात्म की
प्रक्रिया से
गुजरकर वे
स्वस्थ, शांत
और आनंदित हो
जाते हैं।
देखें
बुद्ध की तरफ, देखें
महावीर की तरफ,
देखें
कृष्ण की तरफ।
उस आग से
गुजरकर सोना
निखर आता है।
लेकिन जो
झुकते ही नहीं,
वे पागल ही
बने रह जाते
हैं।
आप
ऐसा मत सोचना
कि अध्यात्म
की तरफ नहीं
झुक रहे हैं, तो
आप स्वस्थ हैं।
अध्यात्म से
गुजरे बिना तो
कोई स्वस्थ हो
ही नहीं सकता।
स्वास्थ्य का
अर्थ ही होता
है, स्वयं
में ?? हो
जाना। स्वयं
में स्थित हुए
बिना तो कोई
स्वस्थ हो ही
नहीं सकता। तब
तक तो दौड़ और
परेशानी और
चिंता और तनाव
बना ही रहेगा।
तो
जो झुकते हैं, वे
तो पागल हैं। जो
नहीं झुकते
हैं, वे और
भी ज्यादा
पागल हैं।
क्योंकि झुके
बिना पागलपन
से छूटने का
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए यह
मत सोचना कि
आप बहुत
समझदार हैं।
क्योंकि आपकी
समझदारी का
कोई मूल्य
नहीं है। अगर
भीतर चिंता है,
पीड़ा है, दुख है, तो
आप कितना ही
जानते हों, कितनी ही समझदारी
हो, वह कुछ
काम न आएगी।
आपके भीतर
पागलपन तो
इकट्ठा हो ही
रहा है।
और
मैंने कहा कि
आदमी का होना
ही पागलपन है।
उसके कारण हैं।
क्योंकि आदमी
सिर्फ बीज है, सिर्फ
एक संभावना है
कुछ होने की।
और जब तक वह हो
न जाए तब तक
परेशानी
रहेगी। जब तक
उसके भीतर का
फूल पूरा खिल
न जाए, तब
तक बीज के
प्राण तनाव से
भरे रहेंगे।
बीज टूटे, अंकुरित
हो और फूल बन
जाए, तो ही
आनंद होगा।
दुख
का एक ही अर्थ
है
आध्यात्मिक
भाषा में, कि
आप जो हैं, वह
नहीं हो पा
रहे हैं। और
आनंद का एक ही
अर्थ है कि आप
जो हो सकते
हैं, वह हो
गए हैं। आनंद
का अर्थ है कि
अब आपके
भीतर
कोई संभावना
नहीं बची आप
सत्य हो गए
हैं। आप जो भी
हो सकते थे, वह
आपने आखिरी
शिखर छू लिया
है। आप अपनी
पूर्णता पर
पहुंच गए हैं।
और जब तक
पूर्णता
उपलब्ध नहीं
होती, तब
तक बेचैनी
रहेगी।
जैसे
नदी दौड़ती है
सागर की तरफ, बेचैन,
परेशान, तलाश
में, वैसा
आदमी दौड़ता है।
सागर से मिलकर
शांति हो जाती
है। लेकिन कोई
नदी ऐसा भी
सोच सकती है
कि ये पागल नदियां
हैं, जो
सागर की तरफ
दौड़ रही हैं।
और जो नदी
सागर की तरफ
दौड़ना बंद कर
देगी, वह
सरोवर बन
जाएगी। नदी तो
सागर में
दौड़कर मिल
जाती है, विराट
हो जाती है।
लेकिन सरोवर
सडता है केवल,
कहीं
पहुंचता नहीं।
अध्यात्म
गति है, मनुष्य
के पार, मनुष्य
के ऊपर, वह
जो आत्यंतिक
है, अंतिम
है, उस
दिशा में।
लेकिन आप अपने
को यह मत समझा
लेना कि सिर्फ
पागल इस ओर
झुकते हैं।
मैं तो
बुद्धिमान
आदमी हूं। मैं
क्यों झुकूं!
आपकी
बुद्धिमानी
का सवाल नहीं
है। अगर आप
आनंद को
उपलब्ध हो गए
हैं,
तब कोई सवाल
नहीं है झुकने
का। लेकिन अगर
आपको आनंद की
कोई खबर नहीं
मिली है, और
आपका हृदय नाच
नहीं रहा है, और आप समाधि
के, शांत
होने के परम
गुह्य रहस्य
को उपलब्ध
नहीं हुए हैं,
तो इस डर से
कि कहीं कोई
पागल न कहे, अध्यात्म से
बच मत जाना।
नहीं तो जीवन
की जो परम खोज
है, उससे
ही बच जाएंगे।
पागल
झुकते हैं
अध्यात्म की
ओर,
यह सच है।
लेकिन वे पागल
सौभाग्यशाली
हैं, क्योंकि
उन्हें कम से
कम इतना होश
तो है कि झुक
जाएं इलाज की
तरफ। उन
पागलों के लिए
क्या कहा जाए,
जो पागल भी
हैं और झुकते
भी नहीं हैं, जो बीमार भी
हैं और
चिकित्सक की
तलाश भी नहीं करते
और चिकित्सा
की खोज भी
नहीं करते।
उनकी बीमारी
दोहरी है। वे
अपनी बीमारी
को स्वास्थ्य
समझे बैठे हैं।
मेरे
पास रोज ऐसे
लोग आ जाते
हैं,
जिनके पास
बड़े—बड़े सिद्धांत
हैं, जिन्होंने
बड़े शास्त्र
अध्ययन किए
हैं। और
जिन्होंने
बड़ी उधार
बुद्धि की
बातें इकट्ठी
कर ली हैं।
मैं उनसे कहता
हूं कि मुझे
इसमें कोई
उत्सुकता
नहीं है कि आप
क्या जानते
हैं। मेरी
उत्सुकता
इसमें है कि
आप क्या हैं।
अगर आपको आनंद
मिल गया हो, तो आपकी
बातों का कोई
मूल्य है मेरे
लिए, अन्यथा
यह सारी की
सारी बातचीत
सिर्फ दुख को
छिपाने का
उपाय है।
तो
बुनियादी बात
मुझे बता दें, आपको
आनंद मिल गया
है? तो फिर
आप जो भी कहें,
उसे मैं सही
मान लूंगा। और
आनंद न मिला
हो, तो आप
जो भी कहें, उस सबको मैं
गलत मानूंगा,
चाहे वह
कितना ही सही
दिखाई पड़ता हो।
क्योंकि
जिससे जीवन का
फूल न खिलता
हो, उसके
सत्य होने का
कोई आधार नहीं
है। और जिससे
जीवन का फूल
तो बंद का बंद
रह जाता हो, बल्कि और
ज्ञान का कचरा
उसे दबा देता
हो और खुलना
मुश्किल हो
जाता हो, उसका
सत्य से कोई
भी संबंध नहीं
है।
मेरे
हिसाब में
आनंद की तरफ
जो ले जाए, वह
सत्य है; और
दुख की तरफ जो
ले जाए, वह
असत्य है। अगर
आप आनंद की
तरफ जा रहे
हैं, तो आप
जो भी कर रहे
हैं, वह
ठीक है। और
अगर आप आनंद
की तरफ नहीं
जा रहे हैं, तो आप कुछ भी
कर रहे हों, वह सब गलत है।
क्योंकि
अंतिम कसौटी
तो एक ही बात
की है कि आपने
जीवन के परम
आनंद को अनुभव
किया या नहीं।
तो
ये मित्र ठीक
कहते हैं, विक्षिप्त
लोग झुके हुए
मालूम पड़ते
हैं। लेकिन
सभी
विक्षिप्त
हैं।
मनसविद
से पूछें, कौन
स्वस्थ है? जिसको आप
नार्मल, सामान्य
आदमी कहते हैं,
उसे आप यह
मत समझ लेना
कि वह स्वस्थ
है। वह केवल
नार्मल ढंग से
पागल है। और
कोई खास बात
नहीं है। और
पागलों जैसा
ही पागल है।
पूरी भीड़ उसके
जैसे ही पागल
है। इसलिए वह
पागल नहीं
मालूम पड़ता।
जरा ही ज्यादा
आगे बढ़ जाता
है, तो
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है।
पागल
में और आप में
जो अंतर है, वह
मात्रा का है,
गुण का नहीं
है। थोड़ा
डिग्रीज का
फर्क है। आप
निन्यानबे
डिग्री पर हैं
और पागल सौ
डिग्री पर
उबलकर पागल हो
गया है। एक
डिग्री आप में
कभी भी जुड़
सकती है, किसी
भी क्षण। जरा—सी
कोई घटना, और
आप पागल हो
सकते हैं।
बुद्धिमान
से बुद्धिमान
आदमी को जरा—सी
गाली दे दो और
वह पागल हो
जाता है। वह
तैयार ही खड़ा
था;
एक छोटी—सी
गाली ऊंट पर
आखिरी तिनके
का काम करती
है और ऊंट बैठ
जाता है। आपकी
बुद्धिमानी
जरा में सरकाई
जा सकती है; उसका कोई
मूल्य नहीं है।
आप किसी तरह
अपने को
सम्हाले खड़े
हैं।
इस
सम्हाले खड़े
रहने से कोई
सार नहीं है।
यह
विक्षिप्तता
से मुक्त होना
जरूरी है। और
योग
विक्षिप्तता
से मुक्ति का
उपाय है।
अच्छा है कि
आप अपनी
विक्षिप्तता
को पहचान लें।
ध्यान
रहे,
बीमारी को
पहचान लेना
अच्छा है, क्योंकि
पहचाने से
उपाय हो सकता
है, इलाज
हो सकता है।
बीमारी को
झुठलाना —
खतरनाक है।
क्योंकि
बीमारी
झुठलाने से
मिटती नहीं, भीतर बढ़ती
चली जाती है।
लेकिन
अनेक बीमार
ऐसे हैं, जो इस
डर से कि कहीं
यह पता न चल
जाए कि हम
बीमार हैं, अपनी बीमारी
को छिपाए रखते
हैं। अपने
घावों' को
ढांक लेते हैं
फूलों से, सुंदर
वस्त्रों से,
सुंदर
शब्दों से और
अपने को भुलाए
रखते हैं।
लेकिन धोखा वे
किसी और को
नहीं दे रहे
हैं। धोखा वे
अपने को ही दे
रहे हैं। घाव
भीतर बढ़ते ही
चले जाएंगे।
पागलपन ऐसे
मिटेगा नहीं,
गहन हो
जाएगा। और आज
नहीं कल उसका
विस्फोट हो
जाएगा।
अध्यात्म
की तरफ
उत्सुकता
चिकित्सा की
उत्सुकता है।
और उचित है कि
आप पहचान लें
कि अगर दुखी
हैं,
तो दुखी
होने का कारण
है। उस कारण
को मिटाया जा
सकता है। उस
कारण को
मिटाने के लिए
उपाय हैं। उन
उपायों का
प्रयोग किया
जाए, तो
चित्त स्वस्थ
हो जाता है।
आप
अपनी फिक्र
करें; दूसरे
क्या कहते हैं,
इसकी बहुत
चिंता न करें।
आप अपनी चिंता
करें कि आपके
भीतर बेचैनी
है, संताप
है, संत्रस्तता
है, दुख है,
विषाद है, और आप भीतर
उबल रहे हैं
आग से और कहीं
कोई छाया नहीं
जीवन में, कहीं
कोई विश्राम
का स्थल नहीं
है! तो फिर भय न करें।
अध्यात्म
आपके जीवन में
छाया बन सकता
है, और योग
आपके जीवन में
शांति की
वर्षा कर सकता
है।
अगर
प्यासे हैं, तो
उस तरफ सरोवर
है। और प्यासे
हैं, तो
सरोवर की तरफ
जाएं। सिर्फ
बुद्ध या
कृष्ण जैसे
व्यक्तियों
को योग की तरफ
जाने की जरूरत
नहीं है, क्योंकि
योग से वे
गुजर चुके हैं।
आपको तो जरूरत
है ही। आपको
तो जाना ही
होगा। एक जन्म
आप झुठला सकते
हैं, दूसरे
जन्म में जाना
होगा। आप अनेक
जन्मों तक
झुठला सकते
हैं, लेकिन
बिना जाए कोई
उपाय नहीं है।
और जब तक कोई
अपने भीतर के
आत्यंतिक
केंद्र को
अनुभव न कर ले,
और जीवन के
परम स्रोत में
न डूब जाए, तब
तक
विक्षिप्तता
बनी ही रहती
है।
दो
शब्द हैं। एक
है
विक्षिप्तता
और एक है, विमुक्तता।
मन का होना ही
विक्षिप्तता
है। ऐसा नहीं
है कि कोई—कोई
मन पागल होते
हैं; मन का
स्वभाव ही
पागलपन है। मन
का अर्थ है, मैडनेस। वह
पागलपन है। और
जब कोई मन से
मुक्त होता है,
तो स्वस्थ
होता है, तो
विमुक्त होता
है।
आमतौर
से हम सोचते
हैं कि किसी
का मन खराब है
और किसी का मन
अच्छा है। यह
जानकर आपको
हैरानी होगी, योग
की दृष्टि से
मन का होना ही
खराब है। कोई
अच्छा मन नहीं
होता। मन होता
ही रोग है।
कोई अच्छा रोग
नहीं होता; रोग बुरा ही
होता है।
जैसे
हम अगर कहें, अभी
तूफान था सागर
में और अब
तूफान शांत हो
गया है। तो आप
मुझसे पूछ सकते
हैं कि शांत
तूफान कहां है?
तो मैं
कहूंगा, शांत
तूफान का अर्थ
ही यह होता है
कि अब तूफान नहीं
है। शांत
तूफान जैसी
कोई चीज नहीं
होती। शांत
तूफान का अर्थ
ही होता है कि
तूफान अब नहीं
है। तूफान तो
जब भी होता है,
तो अशांत ही
होता है।
ठीक
ऐसे ही अगर आप
पूछें कि शांत
मन क्या है, तो
मैं आपसे
कहूंगा कि
शांत मन जैसी
कोई चीज होती
ही नहीं। मन
तो जब भी होता
है, तो अशांत
ही होता है।
शांत
मन का अर्थ है
कि मन रहा ही
नहीं। मन और अशांति
पर्यायवाची
हैं। उन दोनों
का एक ही मतलब
है। भाषाकोश
में नहीं; भाषाकोश
में तो मन का
अलग अर्थ है
और अशांति का
अलग अर्थ है।
लेकिन जीवन के
कोश में मन और
अशांति एक ही
चीज के दो नाम
हैं। और शांति
और अमन एक ही
चीज के दो नाम
हैं। नो—माइंड,
अमन।
जब
तक आपके पास
मन है, आप
विक्षिप्त
रहेंगे ही। मन
भीतर पागल की
तरह चलता ही
रहेगा। और अगर
आपको भरोसा न
हो, तो एक
छोटा—सा
प्रयोग करना
शुरू करें।
अपने
परिवार को या
अपने मित्रों
को लेकर बैठ जाएं।
एक घंटे
दरवाजा बंद कर
लें। अपने
निकटतम दस—पांच
मित्रों को
लेकर बैठ जाएं, और
एक छोटा—सा
प्रयोग करें।
आपके भीतर जो
चलता हो, उसको
जोर से बोलें।
जो भी भीतर
चलता हो, जिसको
आप मन कहते हैं,
उसे जोर से
बोलते जाएं—ईमानदारी
से, उसमें
बदलाहट न करें।
इसकी फिक्र न
करें कि लोग
सुनकर क्या
कहेंगे। एक
छोटा—सा खेल
है। इसका
उपयोग करें।
आपको
बड़ा डर लगेगा
कि यह जो भीतर
धीमे— धीमे चल
रहा है, इसको
जोर से कहूं? पत्नी क्या
सोचेगी! बेटा
क्या सोचेगा!
मित्र क्या
सोचेंगे!
लेकिन अगर सच
में हिम्मत हो,
तो यह
प्रयोग करने
जैसा है।
फिर
एक—एक व्यक्ति
करे;
पंद्रह—पंद्रह
मिनट एक—एक
व्यक्ति बोले।
जो भी उसके
भीतर हो, उसको
जोर से बोलता
जाए। आप एक
घंटेभर के
प्रयोग के बाद
पूरा कमरा अनुभव
करेगा कि हम
सब पागल हैं।
आप
कोशिश करके
देखें। अगर
आपको डर लगता
हो दूसरों का, तो
किसी दिन
अकेले में ही
पहले करके देख
लें। आपको पता
चल जाएगा कि
पागल कौन है।
लेकिन राहत भी
बहुत मिलेगी।
अगर इतनी
हिम्मत कर
सकें मित्रों
के साथ, तो
यह खेल बड़े
ध्यान का है; बहुत राहत
मिलेगी।
क्योंकि भीतर
का बहुत—सा कचरा
बाहर निकल
जाएगा, और
एक हल्कापन आ
जाएगा और पहली
दफा यह अनुभव
होगा कि मेरी
असली हालत
क्या है। मैं
अपने को
बुद्धिमान
समझ रहा हूं; बड़ा सफल समझ
रहा हूं; बड़े
पदों पर पहुंच
गया हूं; धन
कमा लिया है; बड़ा नाम है; इज्जत है; और भीतर यह
पागल बैठा है!
और इस पागल से छुटकारा
पाने का नाम
अध्यात्म है।
मेहरबाबा
उन्नीस सौ
छत्तीस में
अमेरिका में थे।
और एक व्यक्ति
को उनके पास
लाया गया। उस
व्यक्ति को
दूसरों के
विचार पढ़ने की
कुशलता
उपलब्ध थी।
उसने अनेक
लोगों के
विचार पढे थे।
वह किसी भी
व्यक्ति के
सामने आंख बंद
करके बैठ जाता
था;
और वह
व्यक्ति जो
भीतर सोच रहा
होता, उसे
बोलना शुरू कर
देता।
मेहरबाबा
वर्षों से मौन
थे। तो उनके
भक्तों को, मित्रों को
जिज्ञासा और
कुतूहल हुआ कि
वह जो आदमी
वर्षों से मौन
है, वह भी
भीतर तो कुछ
सोचता होगा!
तो इस आदमी को
लाया जाए
क्योंकि वे तो
कुछ बोलते
नहीं।
तो
उस आदमी को
लाया गया। वह
मेहरबाबा के
सामने आंख बंद
करके, बड़ी
उसने मेहनत की।
पसीना—पसीना
हो गया। फिर
उसने कहा कि
लेकिन बड़ी
मुसीबत है। यह
आदमी कुछ
सोचता ही नहीं।
मैं बताऊं भी
तो क्या
बताऊं! मैं
बोलूं तो भी क्या
बोलूं! मैं आंख
बंद करता हूं
और जैसे मैं
एक दीवाल के
सामने हूं
जहां कोई
विचार नहीं है।
इस
निर्विचार
अवस्था का नाम
विमुक्तता है।
जब तक भीतर
विचार चल रहा
है,
वह पागल है,
वह पागलपन
है। यह ऐसा ही
समझिए कि आप
बैठे—बैठे
दोनों टल
चलाते रहें
यहां। तो आपको
पड़ोसी आदमी
कहेगा, बंद
करिए टांग
चलाना! आपका
दिमाग ठीक है?
आप टांगें
क्यों चला रहे
हैं? टांग
को चलाने की
जरूरत है, जब
कोई चल रहा हो
रास्ते पर।
बैठकर टांग
क्यों चला रहे
हैं?
मन
की भी तब
जरूरत है, जब
कोई सवाल
सामने हो, उसको
हल करना हो, तो मन चलाएं।
लेकिन न कोई
सवाल है, न
कोई बात सामने
है। बैठे हैं,
और मन की टांगें
चल रही हैं।
यह
विक्षिप्तता
है, यह
पागलपन है।
आपका
मन चलता ही
रहता है। आप
चाहें भी
रोकना, तो
रुकता नहीं।
कोशिश करके
देखें। रोकना
चाहेंगे, तो
और भी नहीं
रुकेगा। और
जोर से चलेगा।
और सिद्ध करके
बता देगा कि
तुम मालिक
नहीं हो, मालिक
मैं हूं। छोटी—सी
कोई बात रोकने
की कोशिश करें।
और वही—वही
बात बार—बार
मन में आनी
शुरू हो जाएगी।
लोग बैठकर राम
का स्मरण करते
हैं। राम का
स्मरण करते
हैं, नहीं
आता। कुछ और—और
आता है, कुछ
दूसरी बातें
आती हैं। एक
महिला मेरे
पास आई, वह
कहने लगी कि
मैं राम की
भक्त हूं।
बहुत स्मरण
करती हूं
लेकिन वह नाम
छूट—छूट जाता
है और दूसरी
चीजें आ जाती
हैं!
मैंने
कहा कि तू एक
काम कर। कसम
खा ले कि राम
का नाम कभी न
लूंगी। फिर
देख। उसने कहा, आप
क्या कह रहे
हैं! मैंने
कहा, तू
कसम खाकर देख।
और हर तरह से
कोशिश करना कि
राम का नाम भर
भीतर न आने
पाए।
वह
तीसरे दिन
मेरे पास आई।
उसने कहा कि
आप मेरा दिमाग
खराब करवा
दोगे। चौबीस
घंटे सिवाय
राम के और कुछ
आ ही नहीं रहा है।
और मैं कोशिश
में लगी हूं
कि राम का नाम
न आए,
और राम का
नाम आ रहा है!
मन
सिद्ध करता है
हमेशा कि आप
मालिक नहीं
हैं,
वह मालिक है।
और जब तक मन
मालिक है, आप
पागल हैं। जिस
दिन आप मालिक
हों, उस
दिन स्वस्थ
हुए स्वयं में
स्थित हुए।
अध्यात्म
से गुजरे बिना
कोई भी स्वस्थ
नहीं होता है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ऐसा कहा
जाता है कि
भगवान की
इच्छा के बिना
पत्ता भी नहीं
हिलता। यदि यह
बात सच है, तो
हमारा सारा
जीवन उनकी इच्छा
के अनुसार ही
चलता है। तो
फिर हमें जो
भले—बुरे
विचार आते हैं,
अच्छे—बुरे
काम बनते हैं,
वह भी उनकी
ही इच्छा के
अनुसार होता
है! फिर तो
साधना का भी
क्या प्रयोजन है?
फिर तो
स्वयं को
बदलने का भी
क्या अर्थ है?
गर यह
बात समझ में आ
गई,
तो साधना का
फिर कोई प्रयोजन
नहीं है।
साधना शुरू हो
गई। अगर इतनी
ही बात खयाल
में आ जाए कि
जो भी कर रहा
है, वह
भगवान कर रहा
है, तो
मेरा कर्तापन
समाप्त हो गया।
सारी
साधना इतनी ही
है कि मेरा
अहंकार
समाप्त हो जाए।
फिर अच्छा भी
वही कर रहा है, बुरा
भी वही कर रहा
है। फिर अच्छे—बुरे
का कोई सवाल
ही नहीं रहा।
वही कर रहा है,
दोनों वही
कर रहा है।
दुख वही दे
रहा है, सुख
वही दे रहा है।
जन्म उसका, मृत्यु उसकी।
बंधन उसका, मुक्ति उसकी।
फिर मेरा कोई
सवाल न रहा।
मुझे बीच में
आने की कोई
जरूरत न रही।
फिर साधना की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
क्योंकि
साधना हो गई।
शुरू हो गई।
यह
विचार ही परम
साधना बन
जाएगा। यह
खयाल ही इस
जीवन से सारे
रोग को काट
डालेगा।
क्योंकि सारा
रोग ही अहंकार, इस
बात में है कि
मैं कर रहा
हूं। यह
समर्पण का परम
सूत्र है।
लोग
इसे समझ लेते
हैं,
यह
भाग्यवाद है।
यह भाग्यवाद
नहीं है। भारत
के इस विचार
को बहुत
कठिनाई से कुछ
थोड़े लोग ही
समझ पाए हैं।
यह कोई वाद
नहीं है। यह
एक प्रक्रिया
है साधना की।
यह साधना का
एक सूत्र है।
यह कोई सिद्धांत
नहीं है कि
भगवान सब कर
रहा है। यह एक
विधान, एक
प्रक्रिया, एक विधि है।
ऐसा
अगर कोई अपने
को स्वीकार कर
ले कि जो भी कर
रहा है, परमात्मा
कर रहा है, तो
वह मिट जाता
है, उसी
क्षण शून्य हो
जाता है। और
जैसे ही आप
शून्य होते
हैं, बुरा
होना बंद हो
जाएगा। आपको
बुरा बंद करना
नहीं पड़ेगा।
यह
जरा जटिल है।
बुरा होना बंद
हो जाएगा। दुख
मिलना समाप्त
हो जाएगा, क्योंकि
बुरा होता है
सिर्फ अहंकार
के दबाव के
कारण। और दुख
मिलना बंद हो
जाएगा, क्योंकि
दुख मिलता है
केवल अहंकार
को। जिसका
अहंकार का घाव
मिट गया, उस
पर चोट नहीं
पड़ती फिर। फिर
उसे कोई दुख
नहीं दे सकता।
इसका
मतलब हुआ कि
अगर कोई
स्वीकार कर ले
कि परमात्मा
सब कुछ कर रहा
है,
फिर कुछ
करने की जरूरत
न रही। और
बुरा अपने आप
बंद होता चला
जाएगा, और
दुख अपने आप
शून्य हो
जाएंगे। जिस
मात्रा में यह
विचार गहरा
होगा, उसी
मात्रा में
बुराई
विसर्जित हो
जाएगी।
क्योंकि
बुराई के लिए
आपका होना
जरूरी है।
आपके बिना
बुराई नहीं हो
सकती।
भलाई
आपके बिना भी
हो सकती है। भलाई
के लिए आपके
होने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। सच तो यह
है कि भलाई के
लिए आपका होना
बाधा है। आप
जब तक हैं, भलाई
हो ही नहीं
सकती। चाहे
भलाई का ऊपरी
ढंग दिखाई भी
पड़ता हो भले जैसा,
भीतर बुराई
ही होगी। वह
जो आप भीतर
बैठे हैं, वह
बुरा ही कर
सकता है। और
जैसे ही आप
विदा हो गए, मूल आधार खो
गया बुराई का।
फिर आपसे जो
भी होगा, वह
भला है; आपको
भला करना नहीं
पड़ेगा।
लेकिन
इसको, इस
विचार को पूरी
तरह से अपने
में डुबा लेना
और इस विचार
में पूरी तरह
से डूब जाना
बड़ा कठिन है।
क्योंकि
अक्सर हम इसको
बड़ी होशियारी
से काम में
लाते हैं। जब
तक हमसे कुछ
बन सकता है, तब तक तो हम
सोचते हैं, हम कर रहे
हैं। जब हमसे
कुछ नहीं बन
सकता, हम
असफल होते हैं,
तब अपनी
असफलता
छिपाने को हम
कहते हैं कि
परमात्मा कर
रहा है।
हम
बहुत धोखेबाज
हैं। और हम
परमात्मा के
साथ भी धोखा
करने में जरा
भी कृपणता
नहीं करते।
जब
भी आप सफल
होते हैं, तब
तो आप समझते
हैं, आप ही
कर रहे हैं।
और जब आप असफल
होते हैं, तब
आप कहते हैं, भाग्य है; उसकी बिना
इच्छा के तो
पत्ता भी नहीं
हिलता।
नेपोलियन
बोनापार्ट ने
अपने पत्र में
लिखा है अपनी
पत्नी को।
बहुत कीमती
बात लिखी है।
उसने लिखा है
कि मैं
भाग्यवाद का
भरोसा नहीं
करता हूं। मैं
पुरुषार्थी
हूं। लेकिन
भाग्यवाद को
बिना माने भी
नहीं चलता।
क्योंकि अगर
भाग्यवाद को न
मानो, तो अपने
दुश्मन की
सफलता को फिर
कैसे समझाओ! उसकी
क्या
व्याख्या हो!
फिर मन को बड़ी
चोट बनी रहती
है।
अपनी
सफलता
पुरुषार्थ से
समझा लेते हैं।
अपने दुश्मन
की सफलता
भाग्य से, कि
भाग्य की बात
है, इसलिए
जीत गया, अन्यथा
जीत कैसे सकता
था! पड़ोसियों
को जो सफलता
मिलती है, वह
परमात्मा की
वजह से मिल
रही है। और
आपको जो सफलता
मिलती है, वह
आपकी वजह से
मिल रही है।
नहीं तो मन
में बड़ी तकलीफ
होगी।
अपनी
हार स्वीकार
करने का मन
नहीं है। अपनी
सफलता
स्वीकार करने
का जरूर मन है।
हारे हुए मन
से जो इस तरह
के सिद्धांत
को स्वीकार
करता है कि
उसकी आज्ञा के
बिना पत्ता भी
नहीं हिलता, वह
आदमी कुछ भी
नहीं पा सकेगा।
उसके लिए सिद्धांत
व्यर्थ है।
यह
किसी हारे हुए
मन की बात नहीं
है। यह तो एक
साधना का
सूत्र है। यह
तो जीवन को
देखने का एक
ढंग है, जहां
से कर्ता को
हटा दिया जाता
है। और सारा
कर्तृत्व
परमात्मा पर
छोड़ दिया जाता
है।
एक
और मित्र ने
सवाल पूछा है।
वे दो—तीन दिन
से पूछ रहे
हैं इसी संबंध
में।
उन्होंने
पूछा है कि आप
बहुत जोर देते
हैं भाग्यवाद
पर......।
मैं
जरा
भी जोर नहीं
देता भाग्यवाद
पर। भाग्यवाद
हजारों
विधियों में
से एक विधि है
जीवन को
रूपांतरित
करने की, अहंकार
को गला डालने
की।
उन
मित्र ने कहा
है कि अगर
भाग्यवाद ही सच
है,
तो आप बोलते
क्यों हैं?
वे
समझे नहीं
अपनी ही बात।
अगर भाग्यवाद
ही सच है, तो
क्यों का कोई
सवाल ही नहीं;
परमात्मा
ही मुझसे
बोलता है।
बोलते क्यों
हैं, यह
कोई सवाल नहीं
है।
उन
मित्र ने पूछा
है,
अगर
भाग्यवाद ही
सच है, तो
आप लोगों से
क्यों कहते
हैं कि साधना
करो?
यह मेरा
भाग्य है कि
मैं उनसे कहूं
कि साधना करो।
इसमें मैं कुछ
कर नहीं रहा
हूं। यह मेरी
नियति है। और
यह आपकी नियति
है कि आप सुनो, और
बिलकुल करो मत।
भाग्य
कोई वाद नहीं
है। भाग्य
जीवन को देखने
का एक ढंग और
जीवन को बदलने
की एक कीमिया
है। यह कोई
कमजोरों की
बात नहीं है, कि
बैठ गए हाथ पर
हाथ रखकर, सिर
झुकाकर कि
क्या करें, भाग्य में
नहीं है। यह
बहुत हिम्मत
की बात है और
बहुत ताकतवर
लोगों की बात
है, कि जो
कह सकें कि
सभी कुछ उस
परमात्मा से
हो रहा है, सभी
कुछ, बेशर्त।
अच्छा या बुरा,
सफलता या
असफलता, मैं
अपने को हटाता
हूं। मैं बीच
में नहीं हूं।
अपने
को हटाना बहुत
शक्तिशाली
लोगों के हाथ
की बात है।
कमजोर अपने को
हटाने की ताकत
ही नहीं रखते।
जैसे
ही आप यह समझ
पाएंगे कि
भाग्य एक विधि
है,
एक टेक्नीक!
हजारों टेक्नीक
हैं। मगर
भाग्य बहुत
गजब की टेक्नीक
है। अगर इसका
उपयोग कर सकें,
तो आप चौबीस
घंटे के लिए
उपयोग कर के देखें।
तय
कर लें कि कल
सुबह से परसों
सुबह तक जो
कुछ भी होगा, परमात्मा
कर रहा है, मैं
बीच में नहीं
खड़ा होऊंगा।
चौबीस
घंटे में आप
ऐसे संतोष और
ऐसी शांति और
ऐसी आनंद की
झलक को उपलब्ध—होंगे, जो
आपने जीवन में
कभी नहीं जानी।
और ये चौबीस
घंटे फिर खतम
नहीं होंगे, क्योंकि एक
बार रस आ जाए
स्वाद आ जाए
ये बढ़ जाएंगे।
यह आपकी पूरी
जिंदगी बन
जाएगी।
एक
दिन के लिए आप
भाग्य की विधि
का प्रयोग कर
लें,
फिर कोई
तनाव नहीं है।
सारा तनाव इस
बात से पैदा
होता है कि
मैं कर रहा
हूं। स्वभावत:
इसलिए पश्चिम
में ज्यादा
तनाव है, ज्यादा
टेंशन है, ज्यादा
मानसिक
बेचैनी है।
पूरब में इतनी
बेचैनी नहीं
थी। अब बढ़ रही
है। वह पश्चिम
की शिक्षा से
बढ़ेगी, क्योंकि
पश्चिम की
शिक्षा का
सारा आधार
पुरुषार्थ है।
और पूरब की
शिक्षा का
सारा आधार
भाग्य है।
दोनों विपरीत
हैं।
पूरब
मानता है कि
सब परमात्मा
कर रहा है। और
पश्चिम मानता
है,
सब मनुष्य
कर रहा है।
निश्चित ही, जब सब
मनुष्य कर रहा
है, तो फिर
मनुष्य को
उत्तरदायी
होना पड़ेगा।
फिर चिंता
पकड़ती है।
धोंडू। फर्क
देखें।
बर्ट्रेंड
रसेल परेशान
है कि तीसरा
महायुद्ध न हो
जाए। उसकी
नींद हराम
होगी।
आइंस्टीन
मरते वक्त तक
बेचैन है कि
मैंने एटम बम
बनने में
सहायता दी है; कहीं
दुनिया बरबाद
न हो जाए।
मरने के थोड़े
दिन पहले उसने
कहा कि अगर
मैं दुबारा
पैदा होऊं, तो मैं
वैज्ञानिक
होने की बजाय
एक प्लंबर होना
पसंद करूंगा।
मुझसे भूल हो
गई। क्योंकि
दुनिया नष्ट
हो जाएगी।
लेकिन
एक बात मजे की है
कि आइंस्टीन
समझ रहा है कि
मेरे कारण
नष्ट हो जाएगी।
बर्ट्रेंड
रसेल सोच रहे
हैं कि अगर शांति
का उपाय मैंने
न किया, हमने
न किया, तो
दुनिया नष्ट
हो जाएगी। इधर
कृष्ण की
दृष्टि
बिलकुल उलटी
है।
कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं कि
जिनको तू
सोचता है कि
तू मारेगा, उन्हें
मैं पहले ही
मार चुका हूं।
वे मर चुके
हैं। नियति सब
तय कर चुकी है।
बात सब हो
चुकी है।
कहानी का सब
लिखा जा चुका
है। तू तो
सिर्फ
निमित्त है।
इन
दोनों में
फर्क देखें।
इन दोनों में
फर्क यह है कि
पश्चिम में
सोचा जाता है
कि आदमी
जिम्मेवार है।
अगर आदमी
जिम्मेवार है
हर चीज के लिए, तो
चिंता पकड़ेगी,
एंग्जायटी
पैदा होगी।
फिर जो भी मैं
करूंगा, मैं
जिम्मेवार
हूं। फिर हाथ
मेरे कंपेंगे,
हृदय मेरा
कपेगा। आदमी
कमजोर है। और
जगत बहुत बड़ा
है। और सारी
जिम्मेवारी
आदमी पर, तो
बहुत घबड़ाहट
पैदा हो जाती
है। इसलिए
पश्चिम
इतना विक्षिप्त
मालूम हो रहा
है। इस
विक्षिप्तता
के पीछे
पुरुषार्थ का
आग्रह है।
पूरब
बड़ा शांत था।
यहां जो भी हो
रहा था, कोई
जिम्मेवारी
व्यक्ति की न
थी, उस परम
नियंता की थी।
यह सच है या
झूठ, यह
सवाल नहीं है।
पुरुषार्थ
ठीक है कि
भाग्य, यह
सवाल नहीं है।
मेरे लिए तो
पुरुषार्थ
चिंता पैदा
करने का उपाय
है। अगर किसी
को चिंता पैदा
करनी है, तो
पुरुषार्थ
सुगम उपाय है।
अगर आपको
चिंता में रस
है, तो आप
सारी
जिम्मेवारी
अपने ऊपर ले
लें। और अगर
आपको चिंता
में रस नहीं
है और समाधि
में रस है, तो
सारी
जिम्मेवारी
परमात्मा पर
छोड़ दें।
परमात्मा न भी
हो, तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता। आपके
छोड़ने से फर्क
पड़ता है।
समझ
लें।
परमात्मा न भी
हो,
कहीं कोई
परमात्मा न हो,
लेकिन आप
परमात्मा पर
छोड़ दें, आपसे
उतर जाए आपके
खयाल से हट
जाए; आप
जिम्मेवार
नहीं हैं, कोई
और जिम्मेवार
है, बात
समाप्त हो गई।
आपकी चिंता
विलीन हो गई।
चिंता के मूल
आधार में
अस्मिता, अहंकार,
मैं है।
इसे
एक विधि की
तरह समझें और
प्रयोग करें, तो
आप चकित हो
जाएंगे। आपकी
जिंदगी को
बदलने में
भाग्य की
धारणा इतना
अदभुत काम कर
सकती है, जिसका
कोई हिसाब
नहीं है।
लेकिन
बहुत सजग होकर
उसका प्रयोग
करना पड़े। कोई
आदमी आपको
गाली देता है, तो
आप स्वीकार
करते हैं कि
परमात्मा की
मर्जी है।
आपके भीतर
क्रोध आ जाता
है, तो भी
आप स्वीकार
करते हैं कि
परमात्मा की
मर्जी। मार—पीट
हो जाती है, तो भी आप
स्वीकार करते
हैं कि
परमात्मा की
मर्जी। वह
आपकी छाती पर
बैठ जाता है, तो भी आप
स्वीकार करते
हैं कि
परमात्मा की
मर्जी; या
आप उसकी छाती
पर बैठ जाते
हैं, तो भी
आप स्वीकार
करते हैं कि
परमात्मा की
मर्जी है।
ध्यान
रहे,
जब वह आपकी
छाती पर बैठा
हो, तब
स्वीकार करना
बहुत आसान है
कि परमात्मा
की मर्जी है; जब आप उसकी
छाती पर बैठे
हों, तब
स्वीकार करना
बहुत मुश्किल
है कि
परमात्मा की
मर्जी है।
क्योंकि आप
काफी कोशिश
करके उसकी
छाती पर बैठ
पाए हैं। उस
वक्त मन में
यही होता है
कि अपने
पुरुषार्थ का
ही फल है कि
इसकी छाती पर
बैठे हैं।
सुख
के क्षण में
परमात्मा की
मर्जी साधना
है। सफलता के
क्षण में
परमात्मा की
मर्जी साधना
है। विजय के
क्षण में
परमात्मा की
मर्जी का
स्मरण साधना
है।
तो
आपकी जिंदगी
बदल जाती है।
अनिवार्यरूपेण
आप बिलकुल नए
हो जाते हैं।
चिंता का
केंद्र टूट
जाता है।
अब
हम सूत्र को
लें।
इस
प्रकार जानकर
जो पुरुष नष्ट
होते हुए सब
चराचर भूतों
में नाशरहित
परमेश्वर को
समभाव से
स्थित देखता
है,
वही देखता
है ' कौन
देखता है? कौन
जानता है? किसके
पास दर्शन है,
दृष्टि है?
उसकी
व्याख्या है।
किसका जानना
सही जानना है?
और किसके
पास असली आंख
है? कौन
देखता है?
इस
प्रकार जानकर
जो पुरुष नष्ट
होते हुए सब
चराचर भूतों
में नाशरहित
परमेश्वर को
समभाव से
स्थित देखता
है,
वही देखता
है। यह संसार
हम सब देखते
हैं। इसमें
सभी नाश होता
दिखाई पड़ता है।
सभी
परिवर्तित
होता दिखाई
पड़ता है। सभी
लहरों की तरह
दिखाई पड़ता है,
क्षणभंगुर।
इसे देखने के
लिए कोई बड़ी
गहरी आंखों की
जरूरत नहीं है।
जो आंखें हमें
मिली हैं, वे
काफी हैं। इन आंखों
से ही दिखाई
पड़ जाता है।
लेकिन
बड़ी कठिनाई है।
इन आंखों से
ही दिखाई पड़
जाता है कि
यहां सब
क्षणभंगुर है।
लेकिन हममें
बहुत—से लोग आंखें
होते हुए
बिलकुल अंधे
हैं। यह भी
दिखाई नहीं
पड़ता कि यहां
सब क्षणभंगुर
है। यह भी
दिखाई नहीं
पड़ता। हम
क्षणभंगुर
वस्तुओं को भी
इतने जोर से
पकड़ते हैं, उससे
पता चलता है
कि हमें भरोसा
है कि चीजें पकड़ी
जा सकती हैं
और रोकी जा
सकती हैं।
एक
युवक मेरे पास
आया और उसने
कहा कि एक
युवती से मेरा
प्रेम है।
लेकिन कभी
प्रेमपूर्ण
लगता है मन, और
कभी घृणा से
भर जाता है।
और कभी मैं
चाहता हूं
इसके बिना न
जी सकूंगा। और
कभी मैं सोचने
लगता हूं इसके
साथ जीना मुश्किल
है। मैं क्या
करूं?
मैंने
उससे पूछा, तू
चाहता क्या है?
तो उसने कहा,
चाहता तो
मैं यही हूं
कि सतत मेरा
प्रेम इसके प्रति
बना रहे। फिर
मैंने उससे
कहा कि तू
दिक्कत में
पड़ेगा।
क्योंकि इस
जगत में सभी
क्षणभंगुर है,
प्रेम भी।
यह तो तेरी
आकांक्षा ऐसी
है, जैसे
कोई आदमी कहे
कि मुझे भूख
कभी न लगे; पेट
मेरा भरा ही
रहे। भूख लगती
है, इसीलिए
पेट भरने का
खयाल पैदा
होता है। भूख
लगनी जरूरी है,
तो ही पेट
भरने का
प्रयास होगा।
और पेट भरते
ही भूख मिट
जाएगी। लेकिन
पेट भरते ही
नई भूख पैदा
होनी शुरू हो
जाएगी। एक
वर्तुल है।
रात
है,
दिन है। ऐसे
ही प्रेम है
और घृणा है।
आकर्षण है और विकर्षण
है। आदर है और
अनादर है।
हमारी
सारी तकलीफ यह
होती है कि
अगर किसी व्यक्ति
के प्रति
हमारा आदर है, तो
हम कोशिश करते
हैं, सतत
बना रहे। वह
बना रह नहीं
सकता।
क्योंकि आदर
के साथ वैसे
ही रात भी
जुड़ी है अनादर
की। और प्रेम
के साथ घृणा
की रात जुड़ी
है।
और
सभी चीजें
बहती हुई हैं, प्रवाह
है। यहां कोई
चीज थिर नहीं
है। इसलिए जब
भी आप किसी
चीज को थिर
करने की कोशिश
करते हैं, तभी
आप मुसीबत में
पड़ जाते हैं।
लेकिन कोशिश
आप इसीलिए
करते हैं कि
आपको भरोसा है
कि शायद चीजें
थिर हो जाएं।
जवान
आदमी जवान बने
रहने की कोशिश
करता है।
सुंदर आदमी
सुंदर बने
रहने की कोशिश
करता है। जो
किसी पद पर है, वह
पद पर बने
रहने की कोशिश
करता है।
जिसके पास धन
है, वह धनी
बने रहने की
कोशिश करता है।
हम सब कोशिश
में लगे हैं।
हमारे
अगर जीवन के
प्रयास को एक
शब्द में कहा जाए, तो
वह यह है कि
जीवन है
परिवर्तनशील
और हम कोशिश
में लगे हैं
कि यहां कुछ
शाश्वत मिल
जाए। कुछ
शाश्वत। इस
परिवर्तनशील
प्रवाह में हम
कहीं पैर रखने
को कोई भूमि
पा जाएं, जो
बदलती नहीं है।
क्योंकि
बदलाहट से बड़ा
डर लगता है।
कल का कोई
भरोसा नहीं है।
क्या होगा, क्या नहीं
होगा, सब
अनजान मालूम
होता है। और
अंधेरे में
बहे चले जाते
हैं। इसलिए हम
सब चाहते हैं
कोई ठोस भूमि,
कोई आधार, जिस पर हम
खड़े हो जाएं, सुरक्षित।
सिक्योरिटी
मिल जाए यह
हमारी चेष्टा
है। यह चेष्टा
बताती है कि
हमें
क्षणभंगुरता
दिखाई नहीं
पड़ती।
यहां
सभी कुछ
क्षणभर के लिए
है। हमें यही
दिखाई नहीं
पड़ता। कृष्ण
तो कहते हैं, और
वही देखता है,
जो
क्षणभंगुर के
भीतर शाश्वत
को देख लेता
है।
हमें
तो क्षणभंगुर
ही नहीं दिखाई
पड़ता। पहली
बात।
क्षणभंगुर न
दिखाई पड़ने से
हम अपने ही मन
के शाश्वत
निर्मित करने
की कोशिश करते
हैं। वे झूठे
सिद्ध होते
हैं। वे सब
गिर जाते हैं।
हमारा
प्रेम, हमारी
श्रद्धा, हमारा
आदर, हमारे
सब भाव मिट
जाते हैं, धूल—धूसरित
हो जाते हैं।
हमारे सब भवन
गिर जाते हैं।
हम कितने ही
मजबूत पत्थर
लगाएं, हमारे
सब भवन खंडहर
हो जाते हैं।
हम जो भी
बनाते हैं इस
जिंदगी में, वह सब
जिंदगी मिटा
देती है। कुछ
बचता नहीं। सब
राख हो जाता
है। लेकिन फिर
भी हम स्थिर
को बनाने की
कोशिश करते
रहते हैं, और
असफल होते
रहते हैं।
हमारे जीवन का
विषाद यही है।
संबंध
चाहते हैं
स्थिर बना लें।
वे नहीं बन
पाते। हमने
कितनी कोशिश
की है कि पति—पत्नी
का प्रेम
स्थिर हो जाए, वह
नहीं हो पाता।
बड़ा विषाद है,
बड़ा दुख है,
बड़ी पीड़ा है।
कुछ स्थिर
नहीं हो पाता।
मित्रता
स्थिर हो जाए
शाश्वत हो जाए।
कहानियों में
होती है।
जिंदगी में
नहीं हो पाती।
कहानियां
भी हमारी
मनोवांछनाए
हैं। जैसा हम
चाहते हैं
जिंदगी में हो, वैसा
हम कहानियों
में लिखते हैं।
वैसा होता
नहीं। इसलिए
हर कहानी, दो
प्रेमियों का
विवाह हो जाता
है—या कोई
फिल्म या कोई
कथा—और खत्म
होती है कि
इसके बाद दोनों
आनंद से रहने
लगे। यहां
खत्म होती है।
यहां कोई
जिंदगी खत्म
नहीं होती।
कहानी
चलती है, जब तक
विवाह नहीं हो
जाता और शहनाई
नहीं बजने लगती।
और शहनाई बजते
ही दोनों
प्रेमी फिर
सदा सुख—शांति
से रहने लगे, यहां खत्म
हो जाती है।
और आदमी की
जिंदगी में
जाकर देखें।
शहनाई
जब बजती है, उसके
बाद ही असली
उपद्रव शुरू
होता है। उसके
पहले थोड़ी—बहुत
सुख—शांति रही
भी हो। उसके
बाद बिलकुल
नहीं रह जाती।
लेकिन उसे हम
ढांक देते हैं।
वहां से परदा
गिरा देते हैं।
वहां कहानी
खत्म हो जाती
है। वह हमारी
मनोवांछा है,
ऐसा होना
चाहिए था। ऐसा
होत नहीं है।
हम
अपनी
कहानियों में
जो—जो लिखते
हैं,
वह अक्सर
वही है, जो
जिंदगी में
नहीं होता। हम
अपनी
कहानियों में
उन चरित्रों
को बहुत ऊपर
उठाते हैं
आसमान पर, जो
जिंदगी में हो
नहीं सकते।
जिंदगी तो
बिलकुल
क्षणभंगुर है।
वहा कोई चीज
थिर होती नहीं;
टिक नहीं
सकती। टिकना
वहां होता ही
नहीं।
इसे
ठीक से समझ
लें।
क्षणभंगुर है
जगत चारों तरफ।
हम इस जगत से
डरकर अपना एक
शाश्वत मन का
जगत बनाने की
कोशिश करते
हैं। वह नहीं
टिक सकता।
हमारा क्या
टिकेगा, हम
खुद
क्षणभंगुर
हैं। बनाने
वाला यह मन
क्षणभंगुर है।
इससे कुछ भी
बन नहीं सकता।
और जिस
सामग्री से यह
बनाता है, वह
भी क्षणभंगुर
है।
लेकिन
अगर हम
क्षणभंगुरता
में गहरे
देखने में सफल
हो जाएं, हम
क्षणभंगुरता
के विपरीत कोई
शाश्वत जगत बनाने
की कोशिश न
करें, बल्कि
क्षणभंगुरता
में ही आंखों
को पैना गड़ा
दें, तो
क्षणभंगुरता
के पीछे ही, प्रवाह के
पीछे ही, वह
जो अविनश्वर
है, वह जो
परमात्मा है
शाश्वत, वह
दिखाई पड़
जाएगा।
दो
तरह के लोग
हैं जगत में।
एक वे, जो
क्षणभंगुर को
देखकर अपने ही
गृह—उद्योग
खोल लेते हैं
शाश्वत को
बनाने के। और
दूसरे वे, जो
क्षणभंगुर को
देखकर अपना
गृह—उद्योग
नहीं खोलते
शाश्वत को
बनाने का, बल्कि
क्षणभंगुर
में ही गहरा
प्रवेश करते
हैं। अपनी
दृष्टि को
एकाग्र करते
हैं। और
क्षणभंगुर की
परतों को पार
करते हैं।
क्षणभंगुर
लहरों के नीचे
वे शाश्वत के
सागर को
उपलब्ध कर
लेते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, इस
प्रकार जानकर
जो पुरुष नष्ट
होते हुए सब
चराचर भूतों
में नाशरहित परमेश्वर
को समभाव से
स्थित देखता
है, वही
देखता है।
उसके
पास ही आंख है, वही
आंख वाला है, वही
प्रज्ञावान
है, जो इस
सारी
क्षणभंगुरता
की धारा के
पीछे समभाव से
स्थित शाश्वत
को देख लेता
है।
एक
बच्चा पैदा
हुआ। आप देखते
हैं,
जीवन आया।
फिर वह बच्चा
जवान हुआ, फिर
का हुआ और फिर
मरघट पर आप
उसे विदा कर
आए। और आप
देखते हैं, मौत आ गई।
कभी
इस जन्म और
मौत दोनों के
पीछे समभाव से
स्थित कोई चीज
आपको दिखाई
पड़ी?
जन्म दिख
जाता है, मृत्यु
दिख जाती है।
लेकिन जन्म और
मृत्यु के
भीतर जो छिपा
हुआ जीवन है, वह हमें कभी
दिखाई नहीं
पड़ता।
क्योंकि जन्म
के पहले भी
जीवन था, और
मृत्यु के बाद
भी जीवन होगा।
मृत्यु
और जन्म जीवन
की विराट
व्यवस्था में
केवल दो
घटनाएं हैं।
जन्म एक लहर
है और मृत्यु
लहर का गिर
जाना है।
लेकिन जिससे
लहर बनी थी, वह
जो सागर था, वह जन्म के
पहले भी था और
मृत्यु के बाद
भी होगा। वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
तो
जन्म के समय
हम बैंड—बाजे
बजा लेते हैं
कि जीवन आया, उत्सव
हुआ। फिर
मृत्यु के समय
हम रो— धो लेते
हैं कि जीवन
गया, उत्सव
समाप्त हुआ, मौत घट गई।
लेकिन दोनों
स्थितियों
में हम चूक गए
उसे देखने से,
जो न कभी
पैदा होता है
और न कभी नष्ट
होता है। पर
हमारी आंखें
उसको नहीं देख
पातीं।
अगर
हम जन्म और
जीवन के भीतर
परम जीवन को
देख पाएं, तो
कृष्ण कहते
हैं, तो
तुम्हारे पास आंख
है।
तो
आंख की एक
परिभाषा हुई
कि
परिवर्तनशील
में जो शाश्वत
को देख ले। जहां
सब बदल रहा हो, वहा
उसे देख ले, जो कभी नहीं
बदलता है। वह आंख
वाला है।
इसलिए
हमने इस मुल्क
में फिलासफी
को दर्शन कहा
है। फिलासफी
को हमने दर्शन
कहा है। दर्शन
का अर्थ है यह, जो
देख ले शाश्वत
को
परिवर्तनशील
में। बनाने की
जरूरत नहीं है;
हमारे बनाए
वह न बनेगा।
वह मौजूद है।
वह जो
परिवर्तन है,
वह केवल ऊपर
की पर्त है, परदा है।
उसके भीतर वह
छिपा है, चिरंतन।
हम सिर्फ परदे
को हटाकर
देखने में सफल
हो जाएं।
हम
कब तक सफल न हो
पाएंगे? जब तक
हम अपने गृह—उद्योग
जारी रखेंगे
और शाश्वत को
बनाने की कोशिश
करते रहेंगे।
जब तक हम
परिवर्तन के
विपरीत अपना
ही सनातन
बनाने की
कोशिश करेंगे,
तब तक हम
परिवर्तन में
छिपे शाश्वत
को न देख पाएंगे।
गृहस्थ
का
आध्यात्मिक
अर्थ होता है, जो
अपना शाश्वत
बनाने में लगा
है। संन्यस्थ
का
आध्यात्मिक
अर्थ होता है,
जो अपना
शाश्वत नहीं
बनाता, जो
परिवर्तन में
शाश्वत की खोज
में लगा है।
गृहस्थ
का अर्थ है, घर
बनाने वाला।
संन्यस्थ का
अर्थ है, घर
खोजने वाला।
संन्यासी उस
घर को खोज रहा
है, जो
शाश्वत है ही,
जिसको किसी
ने बनाया नहीं।
वही परमात्मा
है, वही
असली घर है।
और जब तक उसको
नहीं पा लिया,
तब तक हम
घरविहीन, होमलेस,
भटकते ही
रहेंगे।
गृहस्थ
वह है, जो
परमात्मा की
फिक्र नहीं
करता। यह
चारों तरफ
परिवर्तन है,
इसके बीच
में पत्थर की
मजबूत
दीवालें
बनाकर अपना घर
बना लेता है
खुद। और उस घर
को सोचता है, मेरा घर है, मेरा आवास
है।
गृहस्थ
का अर्थ है, जिसका
घर अपना ही
बनाया हुआ है।
संन्यस्थ का
अर्थ है, जो
उस घर की तलाश
में है जो
अपना बनाया
हुआ नहीं है, जो है ही।
दो
तरह के शाश्वत
हैं,
एक शाश्वत
जो हम बनाते
हैं, वे
झूठे ही होने
वाले हैं।
हमसे क्या
शाश्वत
निर्मित होगा!
शाश्वत तो वह
है, जिससे
हम निर्मित
हुए हैं। आदमी
जो भी बनाएगा,
वह टूट
जाएगा, बिखर
जाएगा। आदमी
जिससे बना है,
जब तक उसको
न खोज ले, तब
तक सनातन, शाश्वत,
अनादि, अनंत
का कोई अनुभव
नहीं होता।
और
जब तक उसका
अनुभव न हो
जाए,
तब तक हमारे
जीवन में
चिंता, पीड़ा,
परेशानी
रहेगी।
क्योंकि जहां
सब कुछ बदल
रहा है, वह।
निश्चित कैसे
हुआ जा सकता
है? जहां पैर
के नीचे से
जमीन खिसकी जा
रही हो, वहा
कैसे निश्चित
रहा जा सकता
है? जहां
हाथ से जीवन
की रेत खिसकती
जाती हो, और
जहां एक—एक पल
जीवन रिक्त
होता जाता हो
और मौत करीब
आती हो, वहां
कैसे
शांत
रहा जा सकता
है?
वहां कोई
कैसे आनंदित
हो सकता है? जहां चारों
तरफ घर में आग
लगी हो, वहां
कैसे उत्सव और
कैसे नृत्य चल
सकता है?
असंभव
है। तब एक ही
उपाय है कि इस
आग लगे हुए घर
के भीतर हम छोटा
और घर बना लें, उसमें
छिप जाएं अपने
उत्सव को
बचाने के लिए।
लेकिन वह बच
नहीं सकता।
परिवर्तन की
धारा, जो
भी हम बनाएंगे,
उसे तोड़
देगी।
बुद्ध
का वचन बहुत
कीमती है।
बुद्ध ने कहा
है,
ध्यान रखना,
जो बनाया जा
सकता है, वह
मिटेगा।
बनाना एक छोर
है, मिटना
दूसरा छोर है।
और जैसे एक
डंडे का एक
छोर नहीं हो
सकता, दूसरा
भी होगा ही।
चाहे आप कितना
ही छिपाओ, भुलाओ,
डंडे का
दूसरा छोर भी
होगा ही। या
कि आप सोचते
हैं कोई ऐसा
डंडा हो सकता
है, जिसमें
एक ही छोर हो? वह असंभव है।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
जो बनता है,
वह मिटेगा।
जो निर्मित
होता है, वह
बिखरेगा।
दूसरे छोर को
भुलाओ मत। वह
दूसरा छोर है
ही, उससे
बचा नहीं जा
सकता। लेकिन
हमारी आंखें
अंधी हैं। और
हम ऐसे अंधे
हैं, हमारी
आंखों पर ऐसी
परतें हैं कि
जिसका हिसाब
नहीं। मैं एक
उजड़े हुए नगर
में मेहमान था।
वह नगर कभी
बहुत बड़ा था।
लोग कहते हैं
कि कोई सात
लाख उसकी
आबादी थी। रही
होगी, क्योंकि
खंडहर गवाही
देते हैं।
केवल सात सौ
वर्ष पहले ही
वह नगर आबाद
था। सात लाख
उसकी आबादी थी।
और अब मुश्किल
से नौ सौ आदमी
उस नगर में
रहते हैं। नौ
सौ कुछ की
संख्या तख्ती
पर लगी हुई है।
उस
नगर में इतनी—इतनी
बड़ी मस्जिदें
हैं कि जिनमें
दस हजार लोग एक
साथ नमाज पढ़
सकते थे। इतनी—इतनी
बड़ी
धर्मशालाएं
हैं,
जिनमें अगर
गाव में एक
लाख लोग भी
मेहमान हो जाएं
अचानक, तो
भी कोई अड़चन न
होगी। आज वहां
केवल नौ सौ
कुछ आदमी रहते
हैं। सारा नगर
खंडहर हो गया
है।
जिन
मित्र के साथ
मैं ठहरा था, वे
अपना नया मकान
बनाने की
योजना कर रहे
थे। वे इतने
भावों से भरे
थे नए मकान के;
मुझे नक्शे
दिखाए माडल
दिखाए कि ऐसा
बनाना है, ऐसा
बनाना है। और
उनके चारों
तरफ खंडहर
फैले हुए हैं!
उनकी भी उम्र
उस समय कोई
साठ के करीब
थी। अब तो वे
हैं ही नहीं।
चल बसे। मकान
बनाने की
योजना कर रहे
थे।
उनकी
सारी योजनाएं
सुनकर मैंने
कहा,
लेकिन एक
बार तुम घर के
बाहर जाकर ये
खंडहर भी तो
देखो। उन्हें
मेरी बात
सुनकर ऐसा लगा,
जैसे मैं भी
कहां खुशी की
बात में एक
दुख की बात
बीच में ले
आया। वे बड़े
उदास हो गए।
उन्होंने
मेरी बात
टालने की
कोशिश की।
उन्होंने कहा
कि नहीं, मैंने
खंडहर तो देखे
हैं। फिर
लेकिन वही
माडल, वही
चर्चा।
मैंने
कहा,
आपने नहीं
देखे।
क्योंकि
जिन्होंने ये
बनाए थे, उन्होंने
आपसे भी बहुत
ज्यादा सोचा
होगा। इतने
बड़े महल आप
नहीं बना
सकोगे। आज न
बनाने वाले
हैं, न
उनके महल बचे।
सब मिट्टी हो
गया है। आप जो
बनाओगे वह
मिट्टी हो
जाएगा, इसको
ध्यान में
रखकर बनाना।
वे कहने लगे
कि आप कुछ ऐसी
बातें करते हो
कि मन उदास हो
जाता है। अकारण
आप उदास कर
देते हैं।
मैं
आपको उदास
नहीं कर रहा
हूं। दूसरा
छोर देखना
जरूरी है।
दूसरे छोर को
देखकर बनाओ।
दूसरे छोर को
जानते हुए
बनाओ। जो भी
बनाएंगे, वह
मिट जाएगा।
हमारा
बनाया हुआ
शाश्वत नहीं
हो सकता। हम
शाश्वत नहीं
हैं। लेकिन
हमारे भीतर और
इस परिवर्तन
के भीतर कुछ
है,
जो शाश्वत
है। अगर हम
उसे देख लें.।
उसे
देखा जा सकता
है। परिवर्तन
को जो
साक्षीभाव से
देखने लगे, थोडे
दिन में
परिवर्तन की
पर्त हट जाती
है और शाश्वत
के दर्शन होने
शुरू हो जाते
हैं।
परिवर्तन से
जो लड़े नहीं, परिवर्तन को
जो देखने लगे;
परिवर्तन
के विपरीत कोई
उपाय न करे, परिवर्तन के
साथ जीने लगे,
परिवर्तन
से भागे नहीं,
परिवर्तन
में बहने लगे;
न कोई लड़ाई,
न कोई झगड़ा,
न विपरीत
में कोई आयोजन,
जो
परिवर्तन को
राजी हो जाए
सिर्फ जागा
हुआ देखता रहे।
धीरे— धीरे.।
परिवर्तन की
पर्त बहुत
पतली है। होगी
ही। परिवर्तन
की पर्त बहुत
मोटी नहीं हो
सकती, बहुत
पतली है, तभी
तो क्षण में
बदल जाती है।
धीरे—धीरे
परिवर्तन की
पर्त मखमल की
पर्त मालूम होने
लगती है। उसे
आप हटा लेते
हैं। उसके पार
शाश्वत दिखाई
पड़ना शुरू हो
जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, नाशरहित
परमेश्वर को
जो समभाव से
स्थित देखता
है, वही
देखता है।
क्योंकि वह
पुरुष समभाव
से स्थित हुए
परमेश्वर को
समान देखता
हुआ अपने
द्वारा आपको
नष्ट नहीं
करता है। इससे
वह परम गति को
प्राप्त होता
है।
क्योंकि
वह पुरुष
समभाव से
स्थित हुए
परमेश्वर को
समान देखता
हुआ अपने
द्वारा आपको
नष्ट नहीं
करता है। इसे
समझ लें। इससे
वह परम गति को
प्राप्त होता
है।
हम
अपने ही
द्वारा अपने
आपको नष्ट
करने में लगे
हैं। हम जो भी
कर रहे हैं, उसमें
हम अपने को
नष्ट कर रहे
हैं। लोग, अगर
मैं उनसे कहता
हूं कि ध्यान
करो, प्रार्थना
करो, पूजा
में उतरो, तो
वे कहते हैं, समय कहां! और
वे ही लोग ताश
खेल रहे हैं।
उनसे मैं
पूछता हूं
क्या कर रहे
हो? वे
कहते हैं, समय
काट रहे हैं।
उनसे मैं कहूं
ध्यान करो। वे
कहते हैं, समय
कहां! होटल
में घंटों
बैठकर वे
सिगरेट फूंक
रहे हैं, चाय
पी रहे हैं, व्यर्थ की
बातें कर रहे
हैं। उनसे मैं
पूछता हूं क्या
कर रहे हो? वे
कहते हैं, समय
नहीं कटता, समय काट रहे
हैं।
बड़े
मजे की बात है।
जब भी कोई काम
की बात हो, तो
समय नहीं है।
और जब कोई बे—काम
बात हो, तो
हमें इतना समय
है कि उसे
काटना पड़ता है।
ज्यादा है
हमारे पास
समय!
कितनी
जिंदगी है
आपके पास? ऐसा
लगता है, बहुत
ज्यादा है; जरूरत से
ज्यादा है। आप
कुछ खोज नहीं
पा रहे, क्या
करें इस
जिंदगी का। तो
ताश खेलकर काट
रहे हैं।
सिगरेट पीकर
काट रहे हैं।
शराब पीकर काट
रहे हैं।
सिनेमा में
बैठकर काट रहे
हैं। फिर भी
नहीं कटती, तो सुबह जिस
अखबार को पढ़ा,
उसे दोपहर
को फिर पढकर
काट रहे हैं।
शाम को फिर
उसी को पढ़ रहे
हैं।
कटती
नहीं जिंदगी; ज्यादा
मालूम पड़ती है
आपके पास। समय
बहुत मालूम पड़ता
है और आप
काटने के उपाय
खोज रहे हैं।
पश्चिम
में विचारक
बहुत परेशान
हैं। क्योंकि
काम के घंटे
कम होते जा
रहे हैं। और
आदमी के पास
समय बढ़ता जा
रहा है। और काटने
के उपाय कम
पड़ते जा रहे
हैं। बहुत
मनोरंजन के
साधन खोजे जा
रहे हैं, फिर
भी समय नहीं
कट रहा है।
तो
पश्चिम के
विचारक घबडाए
हुए हैं कि
अगर पचास साल
ऐसा ही चला, तो
पचास साल में
मुश्किल से एक
घंटे का दिन
हो जाएगा काम
का। वह भी
मुश्किल से।
वह भी सभी
लोगों के लिए
काम नहीं मिल
सकेगा।
क्योंकि टेक्नालाजी,
यंत्र सब
सम्हाल लेंगे।
आदमी खाली हो
जाएगा।
बड़े
से बड़ा जो
खतरा पश्चिम
में आ रहा है, वह
यह कि जब आदमी
खाली हो जाएगा
और समय काटने
को कुछ भी न
होगा, तब
आदमी क्या
करेगा? आदमी
बहुत उपद्रव
मचा देगा। वह
कुछ भी काटने
लगेगा समय
काटने के लिए।
वह कुछ भी
करेगा; समय
काटेगा।
क्योंकि बिना
समय काटे वह
नहीं रह सकता।
आपको
पता नहीं चलता।
आप कहते रहते
हैं कि कब
जिंदगी के
उपद्रव से छुटकारा
हो! कब दफ्तर
से छूटूं! कब
नौकरी से मुक्ति
मिले! कब
रिटायर हो
जाऊं! लेकिन
जो रिटायर होते
हैं,
उनकी हालत
देखें।
रिटायर होते
ही से जिंदगी
बेकार हो जाती
है। समय नहीं
कटता।
मनसविद
कहते हैं कि
रिटायर होते
ही आदमी की दस
साल उम्र कम
हो जाती है।
अगर वह काम
करता रहता, दस
साल और जिंदा
रहता।
क्योंकि अब
कहां काटे? तो अपने को
ही काट लेता
है। अपने को
ही नष्ट कर
लेता है।
यह
सूत्र कहता है
कि जो व्यक्ति
परिवर्तन के भीतर
छिपे हुए
शाश्वत को
समभाव से देख
लेता है, वह
फिर अपने आपको
नष्ट नहीं
करता।
नहीं
तो हम नष्ट
करेंगे। हम
करेंगे क्या? इस
क्षणभंगुर के
प्रवाह में हम
भी क्षणभंगुर का
एक प्रवाह हो
जाएंगे। और हम
क्या करेंगे?
इस
क्षणभंगुर के
प्रवाह में, इससे लड़ने
में हम कुछ
इंतजाम करने
में, सुरक्षा
बनाने में, मकान बनाने
में, धन
इकट्ठा करने
में, अपने
को बचाने में
सारी शक्ति
लगा देंगे और
यह सब बह
जाएगा। हम
बचेंगे नहीं।
वह सब जो हमने
किया, व्यर्थ
चला जाएगा।
थोड़ा
सोचें, आपने
जो भी जिंदगी
में किया है, जिस दिन आप
मरेंगे, उसमें
से कितना
सार्थक रह
जाएगा? अगर
आज ही आपकी
मौत आ जाए, तो
आपने बहुत काम
किए हैं—अखबार
में नाम छपता
है, फोटो
छपती है, बड़ा
मकान है, बड़ी
गाड़ी है, धन
है, तिजोरी
है, बैंक
बैलेंस है, प्रतिष्ठा
है, लोग
नमस्कार करते
हैं, लोग
मानते हैं, डरते हैं, भयभीत होते
हैं, जहां
जाएं, लोग
उठकर खड़े होकर
स्वागत करते
हैं—लेकिन मौत
आ गई आज।
इसमें से तब
कौन—सा सार्थक
मालूम पड़ेगा?
मौत आते ही
यह सब व्यर्थ
हो जाएगा। और
आप खाली हाथ
विदा होंगे।
आपने
जिंदगी में
कुछ भी कमाया
नहीं; सिर्फ गंवाया।
आपने जिंदगी गंवाई।
आपने अपने को
काटा और नष्ट
किया। आपने
अपने को बेचा
और व्यर्थ की
चीजें खरीद लाए।
आपने आत्मा गंवाई
और सामान
इकट्ठा कर
लिया।
जीसस
ने बार—बार
कहा है कि
क्या होगा
फायदा, अगर
तुमने पूरी
दुनिया भी जीत
ली और अपने को
गंवा दिया? क्या पाओगे
तुम, अगर
तुम सारे
संसार के
मालिक भी हो
गए और अपने ही
मालिक न रहे?
महावीर
ने बहुत बार
कहा है कि जो
अपने को पा लेता
है,
वह सब पा
लेता है। जो
अपने को गंवा
देता है, वह
सब गंवा देता
है। हम सब
अपने को गंवा
रहे हैं। कोई
फर्नीचर खरीद
ला रहा है
आत्मा बेचकर।
लेकिन हमें
पता नहीं चलता
कि आत्मा बेची, क्योंकि
आत्मा का हमें
पता ही नहीं
है। हमें पता
ही नहीं, हम
कब उसको बेच
देते हैं; कब
हम उसको खो
आते हैं।
जिसका हमें
पता ही नहीं, वह संपदा कब
रिक्त होती
चली जाती है।
चार
पैसे के लिए
आदमी बेईमानी
कर सकता है, झूठ
बोल सकता है, धोखा दे
सकता है। पर
उसे पता नहीं
कि धोखा, बेईमानी,
झूठ बोलने
में वह कुछ
गंवा भी रहा
है, वह कुछ
खो भी रहा है।
वह जो खो रहा
है, उसे
पता नहीं है।
वह जो कमा रहा
है चार पैसे, वह उसे पता
है। इसलिए
कौड़िया हम
इकट्ठी कर
लेते हैं और
हीरे खो देते
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, वही
आदमी अपने को
नष्ट करने से
बचा सकता है, जिसको सनातन
शाश्वत का
थोड़ा—सा बोध आ
जाए। उसके बोध
आते ही अपने
भीतर भी
शाश्वत का बोध
आ जाता है।
जो
हम बाहर देखते
हैं,
वही हमें
भीतर दिखाई
पड़ता है। जो
हम भीतर देखते
हैं, वही
हमें बाहर
दिखाई पड़ता है।
बाहर और भीतर
दो नहीं हैं, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
अगर
मुझे सागर की
लहरों में
सागर दिखाई पड़
जाए,
तो मुझे
मेरे मन की
लहरों में
मेरी आत्मा भी
दिखाई पड़
जाएगी। अगर एक
बच्चे के जन्म
और एक के की
मृत्यु में लहरें
मालूम पड़े और
भीतर छिपे हुए
जीवन की झलक मुझे
आ जाए तो मुझे
अपने बुढ़ापे,
अपनी जवानी,
अपने जन्म,
अपनी मौत
में भी जीवन
की शाश्वतता
का पता हो जाएगा।
इस बोध का नाम
ही दृष्टि है।
और इस बोध से
ही कोई परम
गति को
प्राप्त होता
है।
और
जो पुरुष
संपूर्ण
कर्मों को सब
प्रकार से प्रकृति
से ही किए हुए
देखता है तथा
आत्मा को
अकर्ता देखता
है,
वही देखता
है।
वही
जो मैं आपसे
कह रहा था।
चाहे आप ऐसा
समझें कि सब
परमात्मा कर
रहा है, तब भी
आप अकर्ता हो
जाते हैं।
सांख्य कहता
है, सभी
कुछ प्रकृति
कर रही है, तब
भी आप अकर्ता
हो जाते हैं।
मूल
बिंदु है, अकर्ता
हो जाना। नान—डुअर,
आप करने
वाले नहीं हैं।
किसी को भी
मान लें कि
कौन कर रहा है,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
सांख्य की
दृष्टि को
कृष्ण यहां
प्रस्तावित कर
रहे हैं।
वे
कह रहे हैं, जो
पुरुष
संपूर्ण
कर्मों को सब
प्रकार से प्रकृति
से ही किए हुए
देखता है तथा
आत्मा को अकर्ता
देखता है, वही
देखता है। और यह
पुरुष जिस काल
में भूतों के
न्यारे—न्यारे
भाव को एक
परमात्मा के
संकल्प के
आधार पर स्थित
देखता है तथा
उस परमात्मा
के संकल्प से
ही संपूर्ण
भूतों का
विस्तार
देखता है, उस
काल में
सच्चिदानंदघन
को प्राप्त
होता है।
जो
कुछ हो रहा है, जो
भी कर्म हो
रहे हैं, वे
प्रकृति से हो
रहे हैं। और
जो भी भाव हो
रहे हैं, वह
परमात्मा से
हो रहे हैं, वह पुरुष से
हो रहे हैं।
पुरुष
और प्रकृति दो
तत्व हैं।
सारे कर्म
प्रकृति से हो
रहे हैं और
सारे भाव पुरुष
से हो रहे हैं।
इन दोनों को
इस भांति
देखते ही आपके
भीतर का जो
आत्यंतिक
बिंदु है, वह
दोनों के बाहर
हो जाता है। न
तो वह भोक्ता
रह जाता है और
न कर्ता रह
जाता है, वह
देखने वाला ही
हो जाता है।
एक तरफ देखता
है प्रकृति की
लीला और एक
तरफ देखता है
भाव की, पुरुष
की लीला। और
दोनों के पीछे
सरक जाता है।
वह तीसरा
बिंदु हो जाता
है, असली
पुरुष हो जाता
है। तो कृष्ण
कहते हैं, वह
सच्चिदानंदघन
को प्राप्त हो
जाता है।
ऐसा
जो देखता है, वही
देखता है।
बाकी सब अंधे
हैं।
जीसस
बहुत बार कहते
हैं कि अगर
तुम्हारे पास आंखें
हों,
तो देख लो।
अगर तुम्हारे
पास कान हों, तो सुन लो।
जिनसे
वे बोल रहे थे, उनके
पास ऐसी ही आंखें
थीं, जैसी
आपके पास आंखें
हैं। जिनसे वे
बोल रहे थे, वे कोई बहरे—
लोग नहीं थे।
कोई ग्ते—बहरों
की भीड़ में
नहीं बोल रहे
थे। लेकिन वे
निरंतर कहते
हैं कि आंखें
हों, तो
देख लो। कान
हों, तो
सुन लो। क्या
मतलब है उनका?
मतलब
यह है कि
हमारे पास आंखें
तो जरूर हैं, लेकिन
अब तक हमने
उनसे देखा
नहीं। या जो
हमने देखा है,
वह देखने
योग्य नहीं है।
हमारे पास कान
तो जरूर हैं, लेकिन हमने
उनसे कुछ सुना
नहीं; और
जो हमने सुना
है, न
सुनते तो कोई
हर्ज न था।
चूक जाते, तो
कुछ भी न
चूकते। न देख
पाते, न
सुन पाते जो
हमने सुना और
देखा है, तो
कोई हानि नहीं
थी।
थोड़ा
हिसाब लगाया
करें कभी—कभी, कि
जिंदगी में जो
भी आपने देखा
है, अगर न
देखते, क्या
चूक जाता? भला
ताजमहल देखे
हों। न देखते,
तो क्या चूक
जाता? और
जो भी आपने
सुना है, अगर
न सुनते, तो
क्या चूक जाता?
अगर
आपके पास ऐसी
कोई चीज देखने
में आई हो, जो
आप कहें कि
उसे अगर न
देखते, तो
जरूर कुछ चूक
जाता, और
जीवन अधूरा रह
जाता। और ऐसा
कुछ सुना हो, कि उसे न
सुना होता, तो कानों का
होना व्यर्थ
हो जाता। अगर
कुछ ऐसा देखा
और ऐसा सुना
हो कि मौत भी
उसे छीन न सके
और मौत के
क्षण में भी
वह आपकी संपदा
बनी रहे, तो
आपने आंख का
उपयोग किया, तो आपने कान
का उपयोग किया,
तो आपका
जीवन सार्थक
हुआ है।
कृष्ण
कहते हैं, वही
देखता है, जो
इतनी बातें कर
लेता है—परिवर्तन
में शाश्वत को
पकड़ लेता है, प्रवाह में
नित्य को देख
लेता है, बदलते
हुए में न
बदलते हुए की
झलक पकड़ लेता
है। वही देखता
है।
कर्तृत्व
प्रकृति का है।
भोक्तृत्व
पुरुष का है।
और जो दोनों
के बीच साक्षी
हो जाता है।
जो दोनों से
अलग कर लेता
है,
कहता है, न मैं
भोक्ता हूं और
न मैं कर्ता
हूं...।
सांख्य
की यह दृष्टि
बड़ी गहन
दृष्टि है।
कभी—कभी वर्ष
में तीन
सप्ताह के लिए
छुट्टी निकाल
लेनी जरूरी है।
छुट्टियां
हम निकालते
हैं,
लेकिन
हमारी
छुट्टियां, जो हम रोज
करते हैं, उससे
भी बदतर होती
हैं। हम
छुट्टियों से
थके—मादे
लौटते हैं। और
घर आकर बड़े
प्रसन्न
अनुभव करते
हैं कि चलो, छुट्टी खत्म
हुई; अपने
घर लौट आए।
छुट्टी है ही
नहीं। हमारा
जो हॉली—डे है,
जो अवकाश का
समय है, वह
भी हमारे
बाजार की
दुनिया की ही
दूसरी झलक है।
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
लोग
पहाड़ पर जाते
हैं। और वहां
भी रेडियो
लेकर पहुंच
जाते हैं।
रेडियो तो घर
पर ही उपलब्ध
था। वह पहाड़
पर जो सूक्ष्म
संगीत चल रहा
है,
उसे सुनने
का उन्हें पता
ही नहीं चलता।
वहां भी जाकर
रेडियो वे उसी
तेज आवाज से
चला देते हैं।
उससे उनको तो
कोई शांति
नहीं मिलती, पहाड़ की
शांति जरूर
थोड़ी खंडित
होती है। सारा
उपद्रव लेकर
आदमी अवकाश के
दिनों में भी
पहुंच जाता है
जंगलों में।
सारा उपद्रव
लेकर! अगर उस
उपद्रव में
जरा भी कमी हो,
तो उसको
अच्छा नहीं
लगता। वह सारा
उपद्रव वहां
जमा लेता है।
इसलिए
सभी सुंदर
स्थान खराब हो
गए हैं।
क्योंकि वहां
भी होटल खड़ी
करनी पड़ती है।
वहां भी सारा
उपद्रव वही
लाना पड़ता है, जो
जहां से आप
छोड्कर आ रहे
हैं, वही
सारा उपद्रव
वहा भी ले आना
पड़ता है जहां आप
जा रहे हैं।
अगर
यह कृष्ण का
सूत्र समझ में
आए,
तो इसका
उपयोग, आप
वर्ष में तीन
सप्ताह के लिए
अवकाश ले लें।
अवकाश का मतलब
है, एकांत
जगह में चले
जाएं। और इस
भाव को गहन
करें कि जो भी
कर्म हो रहा
है, वह
प्रकृति में
हो रहा है। और
जो भी भाव हो
रहा है, वह
मन में हो रहा
है। और मैं
दोनों का
द्रष्टा हूं
मैं सिर्फ देख
रहा हूं। जस्ट
ए वाचर ऑन दि
हिल्स, पहाड़
पर बैठा हुआ
मैं सिर्फ एक
साक्षी हूं।
सारा कर्म और
भाव का जगत
नीचे रह गया।
सारा भाव और
कर्म मेरे
चारों तरफ चल
रहा है और मैं
बीच में खडा
हुआ
देख रहा हूं।
और मैं तीन
सप्ताह सिर्फ
देखूंगा। मैं
देखने को नहीं
भूलूंगा। मैं
स्मरण रखूंगा
उठते—बैठते, चाहे
कितनी ही बार
चूक जाऊं; बार—बार
अपने को लौटा
लूंगा और खयाल
रखूंगा कि मैं
सिर्फ देख रहा
हूं मैं सिर्फ
साक्षी हूं।
मुझे कोई
निर्णय नहीं
लेना है, क्या
बुरा, क्या
भला; क्या
करना, क्या
नहीं करना।
मैं कोई
निर्णय न
लूंगा। मैं
सिर्फ देखता
रहूंगा।
तीन
सप्ताह इस पर
आप प्रयोग
करें, तो
कृष्ण का
सूत्र समझ में
आएगा। तो शायद
आपकी आंख से
थोड़ी धूल हट
जाए और आपको
पहली दफा
जिंदगी दिखाई
पड़े। आंख से
थोड़ी धूल हट
जाए और आंख
ताजी हो जाए।
और आपको बढ़ते
हुए वृक्ष में
वह भी दिखाई
पड़ जाए, जो
भीतर छिपा है।
बहती हुई नदी
में वह दिखाई
पड़ जाए, जो
कभी नहीं बहा।
चलती, सनसनाती
हवाओं में वह
सुनाई पड़ जाए,
जो बिलकुल
मौन है। सब
तरफ आपको
परिवर्तन के
पीछे थोड़ी—सी
झलक उसकी मिल
सकती है, जो
शाश्वत है।
लेकिन
आपकी आंख पर जमी
हुई धूल थोड़ी
हटनी जरूरी है।
उस धूल को
हटाने का उपाय
है,
साक्षी के
भाव में
प्रतिष्ठा।
अगर आप तीन
सप्ताह अवकाश
ले लें, बाजार
से नहीं, कर्म
से, कर्ता
से; भोग से
नहीं, भोक्ता
से..।
भोग
से भाग जाने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। आप अपनी
पत्नी को
छोड्कर भाग
सकते हैं जंगल
में। पत्नी
भाग सकती है
मंदिर में पति
को छोड्कर।
भोग से भागने
में कोई अड़चन
नहीं है, क्योंकि
भोग तो बाहर
है। लेकिन
भोक्ता भीतर
बैठा हुआ छिपा
है, वह
हमारा मन है।
वह वहां भी
भोगेगा। वह
वहा भी मन में
ही भोग के
संसार
निर्मित कर लेगा।
वही रस लेने
लगेगा।
वहां
भीतर से मैं
भोक्ता नहीं
हूं भीतर से
मैं कर्ता
नहीं हूं ऐसी
दोनों धाराओं
के पीछे साक्षी
छिपा है। उस
साक्षी को
खोदना है।
उसको अगर आप
खोद लें, तो
आपको आंख
उपलब्ध हो
जाएगी। और आंख
हो, तो
दर्शन हो सकता
है।
शास्त्र
पढ़ने से नहीं
होगा दर्शन, दृष्टि
हो, तो
दर्शन हो सकता
है। शब्द सुन
लेने से नहीं
होगा सत्य का
अनुभव; आंख
हो, तो
सत्य दिखाई पड़
सकता है।
क्योंकि सत्य
प्रकाश जैसा
है। अंधे को
हम कितना ही
समझाएं कि
प्रकाश कैसा है,
हम न समझा
पाएंगे। अंधे
की तो आंख की
चिकित्सा
होनी जरूरी है।
ऐसा
हुआ कि एक
गांव में
बुद्ध ठहरे, और
एक अंधे आदमी
को लोग उनके
पास लाए। और
उन .लोगों ने
कहा कि यह
अंधा मित्र है
हमारा, बहुत
घनिष्ठ मित्र
है। लेकिन यह
बड़ा तार्किक
है। और हम
पांच आंख वाले
भी इसको समझा
नहीं पाते कि
प्रकाश है। और
यह हंसता है
और हमारे तर्क
सब तोड़ देता
है। और कहता
है कि तुम
मुझे अंधा
सिद्ध करने के
लिए प्रकाश का
सिद्धांत गढ़
लिए हो।
यह
अंधा आदमी
कहता है कि
प्रकाश वगैरह
है नहीं। तुम
सिर्फ मुझे
अंधा सिद्ध
करना चाहते हो, इसलिए
प्रकाश का सिद्धांत
गढ़ लिए हो, तुम
सिद्ध करो।
अगर प्रकाश है,
तो मैं उसे
छूकर देखना
चाहता हूं।
क्योंकि जो भी
चीज है, वह
छूकर देखी जा
सकती है। अगर
तुम कहते हो, छूने में
संभव नहीं है,
तो मैं चखकर
देख सकता हूं।
अगर तुम कहते
हो, उसमें
स्वाद नहीं है,
तो मैं सुन
सकता हूं। तुम
प्रकाश को
बजाओ। मेरे
कान सुनने में
समर्थ हैं।
अगर तुम कहते
हो, वह
सुना भी नहीं
जा सकता, तो
तुम मुझे
प्रकाश की गंध
दो, तो मैं
सूंघ लूं।
मेरे
पास चार
इंद्रियां
हैं। तुम इन
चारों में से
किसी से
प्रकाश से
मेरा मिलन
करवा दो। और
अगर तुम चारों
से मिलन
करवाने में
असमर्थ हो, तो
तुम झूठी
बातें मत करो।
न तो तुम्हारे
पास आंख है और
न मेरे पास आंख
है। लेकिन तुम
चालाक हो और
मैं सीधा—सादा
आदमी हूं। और
तुमने मुझे
अंधा सिद्ध
करने के लिए
प्रकाश का सिद्धांत
गढ़ लिया है।
उन
पाचों
मित्रों ने
कहा कि इस
अंधे को हम
कैसे समझाएं? न
हम चखा सकते, न स्पर्श
करा सकते, न
कान में ध्वनि
आ सकती।
प्रकाश को
कैसे बजाओ? तो हम आपके
पास ले आए हैं।
और आप हैं
बुद्ध पुरुष,
आप हैं परम
ज्ञान को
उपलब्ध। इतना
ही काफी होगा
कि हमारे अंधे
मित्र को आप प्रकाश
के संबंध में
कुछ समझा दें।
बुद्ध
ने कहा, तुम
गलत आदमी के
पास आ गए। मैं
तो समझाने में
भरोसा ही नहीं
करता। तुम
किसी वैद्य के
पास ले जाओ इस
अंधे आदमी को।
इसकी आंख का
इलाज करवाओ।
समझाने से
क्या होगा? तुम पागल हो?
अंधे को
समझाने बैठे
हो। इसमें
तुम्हारा
पागलपन सिद्ध
होता है। तुम
इसकी
चिकित्सा
करवाओ। तुम
इसे वैद्य के
पास ले जाओ।
इसकी आंख अगर
ठीक हो जाए, तो तुम्हारे
बिना तर्क के
भी, तुम्हारे
बिना समझाए यह
प्रकाश को
जानेगा। और
तुम अगर इनकार
करोगे कि
प्रकाश नहीं
है, तो यह
सिद्ध करेगा
कि प्रकाश है।
आंख के
अतिरिक्त कोई
प्रमाण नहीं
है।
संयोग
की बात थी कि
वे उसे वैद्य
के पास ले गए।
उन्हें यह कभी
खयाल ही नहीं
आया था। वे
सभी पंडित थे, सभी
ब्राह्मण थे,
सभी ज्ञानी
थे। सब तरह से
तर्क लगाकर
समझाने की
कोशिश कर ली
थी। यह उन्हें
खयाल ही चूक
गया था कि आंख
न हो तो
प्रकाश को
समझाया कैसे
जाए! प्रकाश
कोई समझाने की
बात नहीं, अनुभव
की बात है।
चिकित्सक
ने कहा कि
पहले क्यों न
ले आए? इस आदमी
की आंख अंधी
नहीं है, केवल
जाली है। और छ:
महीने की दवा
के इलाज से ही
जाली कट जाएगी।
यह आदमी देख
सकेगा। तुम
इतने दिन तक
कहां थे?
उन्होंने
कहा,
हम तो तर्क
में उलझे थे।
हमें न इस
अंधे आदमी की आंख
से कोई
प्रयोजन था।
हमें तो अपने सिद्धांत
समझाने में रस
था। वह तो
बुद्ध की कृपा
कि उन्होंने
कहा कि
चिकित्सक के
पास ले जाओ।
छ:
महीने बाद उस
आदमी की आंख
ठीक हो गई। तब
तक बुद्ध तो
बहुत दूर जा
चुके थे।
लेकिन वह आदमी
बुद्ध को
खोजता हुआ
उनके गांव तक
पहुंचा। उनके
चरणों पर गिर
पड़ा। बुद्ध को
तो खयाल भी
नहीं रहा था
कि वह कौन है।
बुद्ध ने पूछा, तू
इतना क्यों
आनंदित हो रहा
है? तेरी
क्या खुशी? इतना उत्सव
किस बात का? तू किस बात
का धन्यवाद
देने आया है? मेरे चरणों
में इतने आनंद
के आंसू क्यों
बहा रहा है? उसने कहा कि
तुम्हारी
कृपा। मैं यह
कहने आया हूं
कि प्रकाश है।
लेकिन
प्रकाश तभी है, जब
आंखें हैं।
कृष्ण
कह रहे हैं, उस
आदमी को मैं
कहता हूं आंख
वाला, जो
परिवर्तन में
शाश्वत को देख
लेता है।
पांच
मिनट रुके।
कोई बीच से
उठे नहीं।
कीर्तन पूरा
हो,
तब जाएं।
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