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रविवार, 15 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--08)

मूर्ति—पूजा : से अमूर्त की और—(प्रवचन—आठवां)

'गहरे पानी पैठ'.
अंतरंग चर्चा ,
बम्बई दिनांक 16 जून 1971

 डाक्टर फ्रेंक रोडाल्फ ने अपना पूरा जीवन एक बहुत ही अनूठी प्रक्रिया की खोज में लगाया। उस प्रक्रिया के संबंध में थोड़ा आपसे कहूं तो मूर्ति—पूजा को समझना आसान हो जाएगा। पृथ्वी पर जितनी भी जंगली जातियां हैं, आदिवासी हैं, वे सब एक छोटे—से प्रयोग से सदा से परिचित रहे हैं। उस प्रयोग की खबरें कभी—कभी तथाकथित सभ्य लोगों तक भी पहुंच जाती हैं। रोडाल्फ ने उसी संबंध में अपना पूरा जीवन लगाया और जिस नतीजों पर वह खोजी पहुंचा है वे बड़े अदभुत हैं।

आदिवासियों में प्रचलित है यह बात कि किसी भी व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस व्यक्ति को कोई भी बीमारी भेजी जा सकती है। बीमारी ही नहीं, उसकी मृत्यु भी उसे भेजी जा सकती है। फ्रेंक रोडाल्फ ने अपने जीवन के तीस वर्ष इस खोज में लगाए कि इस बात में कितनी सच्चाई है। क्या यह हो सकता है कि एक व्यक्ति की मिट्टी की प्रतिमा बनायी जाए और उसे कोई भी बीमारी भेजी जा सके? या उसकी मौत भी भेजी जा सके?
अत्यंत संदेह से भरा हुआ चित्त लेकर, वैज्ञानिक की बुद्धि लेकर यह व्यक्ति अमेजान के आदिवासियों के बीच वर्षों तक रहा, बड़ी कठिनाई में पड़ गया क्योंकि घटना को सैकड़ों बार आंखों के सामने घटते देखा। हजारों मील दूर भी वह व्यक्ति हो, तो भी उसकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उस तक विशेष बीमारियां, और उसकी मौत भी भेजी जा सकती है! वर्षों के अध्ययन के बाद यह तय हो गया कि यह घटना घटती है। लेकिन कैसे घटती है, इसके पीछे राज क्या है, इसके पीछे प्रक्रिया क्या है?
रोडाल्फ ने लिखा है कि प्रक्रिया के संबंध में जो बातें मुझे पता चल सकी हैं और जिन पर मैंने स्वयं प्रयोग करके देख लिया है, वे तीन हैं—एक, मिट्टी की प्रतिमा जरूरी नहीं है कि उस व्यक्ति की शक्ल से बिलकुल मिलती—जुलती बने। बनाना भी कठिन है, अति मुश्किल है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उस शक्ल से मिले, महत्वपूर्ण यह है कि उस मिट्टी की प्रतिमा में उस व्यक्ति की शक्ल को प्रतिष्ठित किया जा सके। जैसे अगर कोई मिट्टी की प्रतिमा बनाए आपकी, तो वह तो कोई बहुत बड़ा मूर्तिकार हो तब आप की शक्ल से मिला पाए, तब भी पूरी न मिला पाए। एक साधारण आदमी मिट्टी की प्रतिमा आपकी बनाएगा, तो वह सिर्फ प्रतीक होगी। चेहरा तो नहीं होगा—सिर होगा, हाथ—पैर होंगे, एक दूर का प्रतीक भर होगा।
लेकिन रोडाल्फ का कहना है कि अगर वह व्यक्ति आंख बंद करके और आपकी पूरी की पूरी प्रतिमा को मन में पूरा स्मरण कर सके और उसको इस मिट्टी की प्रतिमा पर आरोपित कर सके, तो यह प्रतिमा आपका प्रतीक बनकर सक्रिय हो जाएगी। उसे प्रतिस्थापित करने की भी व्यवस्था है।
मैंने पीछे तिलक के संबंध में आपसे कहा कि आपके दोनों आंखों के बीच में, तीसरी आंख की संभावना के संबंध में योग का निष्कर्ष है। वह जो तीसरी आंख है आपकी, वह बहुत बड़ी आशा की शक्ति रखती है अपने में। —रस्ता समझ सकते हैं कि बहुत बड़ा ट्रांसमिशन का केंद्र है। अगर आप अपने बेटे को या अपने नौकर को या किसी को कोई आशा देते हैं, बाप अपने बेटे को कहता है, फलां काम कर लाओ, और बेटा इनकार कर देता है तो आप थोड़ा प्रयोग करके देखना। अगर आप दोनों आंखों के बीच में अपने ध्यान को केंद्रित करके बेटे को कहें कि फलां काम कर लो, तब आप देखना कि दस में से नौ मौकों पर इनकार करना असंभव हो जाएगा। और इससे उल्टा करके आप देखना कि आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित मत करना, तो दस में से नौ मौकों पर इनकार करना संभव हो जाएगा।
अगर आप अपनी दोनों आंखों के बीच में ध्यान को केंद्रित करके कोई भी बात फेंकें तो वह साधारण शक्ति की नहीं, असाधारण शक्ति लेकर गतिमान हो जाती है। अगर किसी व्यक्ति की प्रतिमा को मन में रखकर, और उसकी छोटी प्रतिमा को ध्यान में लेकर आज्ञा के चक्र से, अगर गीली मिट्टी के बनाए हुए लोंदे पर फेंक दिया जाए, तो वह मिट्टी का लोंदा साधारण मिट्टी का लोंदा नहीं रह जाता, वह आप की आज्ञा से संक्रामित और आविष्ठ हो जाता है। और अगर उस मिट्टी की प्रतिमा के दोनों आंखों के बीच में आप ध्यान करके कोई भी बीमारी का स्मरण कर सकें, सिर्फ एक मिनट, तो वह व्यक्ति उस बीमारी से संक्रामित हो जाएगा। वह कितनी ही दूर हो, इसका कोई सवाल नहीं उठता। उसकी मृत्यु तक घटित हो सकती है।
रोडाल्फ ने अपने पूरे जीवन के अध्ययन के बाद यह लिखा है कि यह बात सुनने में हैरानी की लगती थी, लेकिन जब मैंने इसके प्रयोग देखे तो मैं चकित रह गया! वृक्षों की प्रतिमा बनाकर, आदिवासियों ने उसके सामने वृक्षों को तत्काल सूखने पर मजबूर कर दिया। वह वृक्ष, जो अभी हरा— भरा था, उसके पत्ते कुम्हला गए। वह वृक्ष जो अभी जीवित मालूम पड़ता था, मरने की प्रक्रिया पर रुग्ण हो गया। पानी डालते रहे, पानी सींचते रहे, किसी तरह का नुकसान वृक्ष को बाहर से नहीं पहुंचने दिया गया; लेकिन महीने भर में वृक्ष सूखकर नष्ट हो गया। जो वृक्ष पर हो सकता है, वह व्यक्ति पर भी हो सकता है।
रोडाल्फ की इस प्रक्रिया की इसलिए मैं बात करना चाहता हूं कि मूर्ति—पूजा भी इसी प्रक्रिया का एक एक विराट आयाम में प्रयोग है। अगर हम व्यक्तियों को बीमार कर सकते है, व्यक्तियों की मृत्यु ला सकते हैं तो कोई भी कारण नहीं है कि हम, जो व्यक्ति मृत्यु के पार जा चुके हैं, उनसे पुन: संबंध स्थापित कर सकें। और कोई कारण नहीं है कि इस जगत में जो विराट व्याप्त है उस विराट के निकट पहुंचने के लिए हम कोई छलांग मूर्ति से ले सकें!
मूर्ति—पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़नेवाला बीच में एक सेतु चाहिए। संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्‍चित ही वह सेतु निर्मित ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे, आपको अमूर्त का तो कोई पता ही नहीं है। चाहे कोई कितनी ही बात करता हो निराकार परमात्मा की, अमूर्त परमात्‍मा की, वह बात ही रह जाती है, आपको कुछ खयाल में नहीं आता।
असल में आपके मस्तिष्क के पास जितने अनुभव हैं वे सभी मूर्त के अनुभव हैं, आकार के अनुभव हैं। निराकार का आपको एक भी अनुभव नहीं है। और जिसका कोई भी अनुभव नहीं है उस संबंध में कोई भी शब्द आपको कोई स्मरण न दिला पाएगा। और निराकार की बात आप करते रहेंगे और आकार में जीते रहेंगे। अगर उस निराकार से कोई भी संबंध स्थापित करना हो, तो कोई ऐसी चीज बनानी पड़ेगी जो एक तरफ से आकारवाली हो और दूसरी तरफ से निराकारवाली हो। यही मूर्ति का रहस्य है।
इसे मैं फिर से समझा दूं आपको। कोई ऐसा सेतु बनाना पड़ेगा जो हमारी तरफ आकारवाला हो, परमात्मा की तरफ निराकार हो जाए। हम जहां खड़े हैं वहां उसका एक छोर तो मूर्त हो, और जहां परमात्‍मा है—दूसरा छोर, उसका अमूर्त हो जाए, तो ही सेतु बन सकता है। अगर वह मूर्ति बिलकुल मूर्ति है तो फिर सेतु नहीं बनेगा, अगर वह मूर्ति बिलकुल अमूर्त है तो भी सेतु नहीं बनेगा। मूर्ति को दोहरा काम करना पड़ेगा। हम जहां खड़े हैं वहां उसका छोर दिखायी पड़े, और जहां परमात्मा है वहां निराकार में खो जाए। इसलिए यह मूर्तिपूजा शब्द बहुत अदभुत है, और जो अर्थ मैं आपसे कहूंगा, वह आपके खयाल में कभी भी नहीं आया होगा।
अगर मैं ऐसा कहूं कि मूर्ति—पूजा शब्द बड़ा गलत है, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। असल में मूर्ति—पूजा
शब्द बिलकुल ही गलत है। गलत इसलिए है कि जो व्यक्ति पूजा करना जानता है, उसके लिए मूर्ति मिट जाती है। और जिसके लिए मूर्ति दिखायी पड़ती है उसने कभी पूजा की नहीं है, उसे पूजा का कोई पता नहीं है। और मूर्ति—पूजा शब्द में हम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं—एक पूजा का और एक मूर्ति का। ये दोनों एक ही व्यक्ति के अनुभव में कभी नहीं आते। इसमें मूर्ति शब्द तो उन लोगों का है जिन्होंने कभी पूजा नहीं की; और पूजा उनका है जिन्होंने कभी मूर्ति नहीं देखी।
अगर इसे और दूसरी तरह से कहा जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि पूजा, जो है वह मूर्ति को मिटाने की कला है। वह जो मूर्ति है, आकारवाली, उसको मिटाने की कला का नाम पूजा है। उसके मूर्त हिस्से को गिराते जाना है, गिराते जाना है! थोड़ी ही देर में वह अमूर्त हो जाती हैं। थोडी ही देर में इस तरफ जो मूर्त हिस्सा था; वहाँ से शुरुआत होती है पूजा की और जब पूजा पकड़ लेती है साधक को तो थोड़ी ही देर में वह छोर खो जाता है और अमूर्त प्रगट हो जाता है।
मूर्ति—पूजा शब्द 'सेल्फ कंट्राडिक्टरी' है। इसलिए जो पूजा करता है, वह हैरान होता है कि मूर्ति कहां है? और जिसने कभी पूजा नहीं की वह कहता है कि इस पत्थर को रखकर क्या होगा? इस मूर्ति को रखकर क्या होगा? यह दो तरह के लोगों के अनुभव हैं, जिनका कहीं तालमेल नहीं हुआ। और इसलिए दुनिया में बड़ी तकलीफें हुईं।
आप मंदिर के पास से गुजरेंगे तो मूर्ति दिखायी पड़ेगी, क्योंकि पूजा के पास से गुजरना आसान नहीं है। तो आप कहेंगे कि पत्थर की मूर्तियों से क्या होगा? लेकिन जो उस मंदिर के भीतर कोई एक मीरा अपनी पूजा में लीन हो गयी है, उसके लिए वहां कोई मूर्ति नहीं बची। पूजा घटित होती है मूर्ति विदा हो जाती है। मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, मूर्ति खो जाती है। वह जो हमें दिखायी पड़ती है वह इसीलिए दिखायी पड़ती है कि हमें पूजा का कोई पता नहीं है।
और दुनिया में जैसे—जैसे पूजा कम होती जाएगी, वैसे—वैसे मूर्तियां बहुत दिखायी पड़ेगी, और जब बहुत मूर्तियां दिखायी पड़ेंगी, तो पूजा कम हो जाएगी और मूर्तियो को हटाना पड़ेगा, क्योंकि इन पत्थरों को रख कर क्या करिएगा? उनका कोई प्रयोजन नहीं है। साधारणत: लोग सोचते हैं कि जितना पुराना आदमी होता है, जितना आदिम, उतना मूर्तिपूजक होता है। जितना आदमी बुद्धिमान होता चला जाता है, उतना मूर्ति को छोड़ता चला जाता है। सच नहीं है यह बात। असल में पूजा का अपना विज्ञान है। वह जितना ही हम उससे अपरिचित होते चले जाते हैं, उतनी ही कठिनाई होती चली जाती है।
इस संबंध में एक बात और आपको कह देना उचित होगा। हमारी यह दृष्टि नितांत ही भ्रांत और गलत है की आदमी ने सभी दिशाओं में विकास कर लिया है, इवोल्‍यूशन हो गया है। जब हम कहते है विकास तो उससे सा भ्रम पैदा होता है किस भी दिशाओं में विकास हो गया होगा, इवोल्‍यूशन हो गया होगा। आदमी की जिंदगी इतनी बड़ी चीज है, अगर आप एकाध चीज में विकास कर लेते हैं तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप किसी दूसरी चीज में पीछे छूट जाते हैं।
अगर आज विज्ञान पूरी तरह विकसित है, तो धर्म के मामले में हम बहुत पीछे छूट गए हैं। कभी धर्म विकसित होता है, तो विज्ञान के मामले में पीछे छूट जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक आयाम में हम कुछ जान लेते हैं, तो दूसरे आयाम को भूल जाते हैं।
अट्ठारह सौ अस्सी में यूरोप में अलामीरा की गुफाएं मिलीं। उन गुफाओं में बीस हजार साल पुराने चित्र थे और रंग ऐसा कि जैसे कल सांझ को चित्रकार ने किया हो। डॉन मार्सिलानो, जिसने वह गुफाएं खोजी, उस पर सारे यूरोप में बदनामी हुई उसकी। लोगों ने यह शक किया कि अभी इसने पुतवाकर रंग तैयार करवा लिए हैं, अभी गुफा में रंग पोते गए हैं। और जो भी चित्रकार देखने गया उसी ने कहा कि यह मार्सिलानो की धोखाधड़ी है, इतने ताजे रंग पुराने तो हो ही नहीं सकते।
उन चित्रकारों का कहना भी ठीक ही था, क्योंकि वान गॉग के चित्र सौ साल पुराने नहीं हैं, लेकिन वे सब फीके पड़ गए हैं। और पिकासो ने अपनी जवानी में जो चित्र रंगे थे, उसके बूढ़े होने के साथ वे चित्र भी बूढ़े हो गए। आज सारी दुनिया के किसी भी कोने में, चित्रकार जिन रंगों का प्रयोग करते हैं, उनकी उम्र सौ साल से ज्यादा नहीं है। सौ साल में वे फीके हो ही जानेवाले है।
लेकिन जब मार्सिलानो की खोज पूरी तरह सिद्ध हुई, और उन गुफाओं का निर्णायक रूप से निष्कर्ष निकल गया कि वे बीस हजार साल से पुरानी हैं, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, रंग बनाने के संबंध में वे हम से बहुत विकसित रहे होंगे। हम आज चांद पर पहुंच सकते हैं, लेकिन सौ साल से ज्‍यादा चलनेवाला रंग बनाने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। और बीस हजार साल पहले जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, वे कुछ कीमिया जानते थे, जिसका हमें आज बिलकुल पता नहीं है।
इजिप्‍ट की ममीज हैं, कोई दस हजार साल पुरानी! वह आदमी के शरीर हैं, वह जरा भी नहीं खराब हुए है, वह ऐसे ही रखे हैं, जैसे कल रखे गए हों। और आज तक भी राज नहीं खोला जा सका है कि किन रासायनिक द्रव्यों का उपयोग किया गया था जिससे कि लाशें इतनी सुरक्षित, दस हजार साल तक रह सकीं।
वैज्ञानिक कहते है, वह ठीक वैसी ही है, जैसे कल आदमी मरा हो। किसी तरह का डिटीरिओरेशन, किसी तरह का उनमें हास नहीं हुआ है। पर हम साफ नहीं कर पाए अभी तक, कि कौन से द्रव्यों का उपयोग हुआ है। इजिप्‍त के पिरामिडों पर जो पत्थर चढ़ाए गए हैं, अभी भी हमारे पास कोई क्रेन नहीं है जिनसे हम उन्हें चढ़ा सकें। आदमी के तो वश की बात ही नहीं है, लेकिन जिन लोगों ने वे पत्थर चढ़ाए थे उनके पास क्रेन रही होगी, इसकी संभावना कम मालूम होती है। तो जरूर उनके पास कोई और टेकनीक, कोई तरकीबें रही होंगी, जिनसे वह पत्थर चढ़ाए गए हैं और जिनका हमें कोई अंदाज नहीं है।
और जीवन के सत्य बहु—आयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और एक ही काम तक पहुंचने की बहुत सी टेकनीक और बहुत सी विधियां हो सकती है। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तब हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते है।
मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी, यह सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो काज्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ, जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है। जिन लोगों ने भी निर्मित विकसित। ही होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था।
हम कहते हैं कि हमने बिजली खोज ली है। निश्‍चित ही हम उन कौमों से ज्यादा सभ्य हैं जो बिजली नहीं खोज सकीं। निश्‍चित ही हमने रेडियो वेब्ज खोज लिए हैं और हम क्षणों में एक खबर को दूसरे मुल्क में पहुंचा पाते हैं। निश्‍चित ही जो लोग सिर्फ अपनी आवाज पर निर्भर करते हैं और चिल्लाकर फर्लांग दो फर्लांग तक आवाज पहुंचा पाते हैं, उनसे हम ज्यादा विकसित हैं।
लेकिन जिन लोगों ने जीवन की परम सत्ता के साथ संबंध जोड़ने का सेतु खोज लिया था, उनके सामने हम बहुत बच्चे हैं। हमारी बिजली, और हमारा रेडियो और हमारे अन्य आविष्कार सब खिलौने हैं। जीवन के परम रहस्य से जुड्ने की जो कला है, उसकी खोज, किसी एक दिशा में जिन लोगों ने बहुत मेहनत की थी, उसका परिणाम थी।
मूर्ति का प्रयोजन है हमारी तरफ, मनुष्य की तरफ आकार हो उसमें, और उस आकार में से कहीं एक द्वार खुलता हो जो निराकार में ले जाता हो। जैसे मेरे घर की खिड़की है, घर की खिड़की तो आकारवाली ही होगी। जब घर ही आकारवाला है, तब खिड़की निराकार नहीं हो सकती। लेकिन खिडकी खोलकर जब आकाश में झांकने कोई जाए तो निराकार में प्रवेश हो जाता है। और अगर मैं किसी को कहूं कि मैं अपने घर की खिड़की को खोलकर निराकार के दर्शन कर लेता हूं और अगर उस आदमी ने कभी खिड़की से झांककर आकाश को न देखा हो तो वह कहेगा, कैसी पागलपन की बात है! इतनी छोटी—सी खिड़की से निराकार का दर्शन कैसे होता होगा? इतनी छोटी—सी खिड़की से जिसका दर्शन होता होगा वह ज्यादा से ज्यादा खिड़की के बराबर ही हो सकता है, उससे बड़ा कैसे होगा? उसकी बात तर्कयुक्त है। अगर उसने खिडकी से झांककर कभी आकाश नहीं देखा है तो उसको राजी करना कठिन होगा। हम उसे समझा न पायेंगे कि छोटी—सी खिडकी भी निराकार आकाश में खुल सकती है। खिड़की का कोई बंधन उस पर नहीं लगता, जिस पर वह खुलती है।
मूर्ति का कोई बंधन अमूर्ति के ऊपर नहीं है, मूर्ति तो सिर्फ द्वार बन जाती है अमूर्त के लिए। इसलिए जिन लोगों ने भी समझा कि मूर्ति, अमूर्त के लिए बाधा है उन्होंने दुनिया में बड़ी नासमझी पैदा करवाई। और जिन्होंने यह सोचा कि हम खिड़की को तोड़कर आकाश को तोड़ देंगे, वह तो फिर निपट ही पागल हैं। मूर्ति को तोड़कर हम अमूर्त को तोड़ देंगे, तो फिर उनके पागलपन का कोई हिसाब ही नहीं! लेकिन मूर्ति को तोड्ने का खयाल उठेगा, अगर पूजा की कला और कीमिया का पता न हो।
दूसरी बात, पूजा कुछ ऐसी चीज है, सब्जेक्टिव, आंतरिक, निजी कि उसकी कोई अभिव्यक्ति और कोई प्रदर्शन नहीं हो सकता। जो भी निजी है इस जगत में, और आंतरिक है, उसका कोई प्रदर्शन संभव नहीं है। मेरे हृदय को काटकर ,.,.. जा सकता है तो प्रेम उसमें नहीं मिलेगा, क्रोध भी नहीं मिलेगा, घृणा भी नहीं मिलेगी क्षमा भी नहीं ''करुणा भी नहीं मिलेगी। फेफड़ा मिलेगा, सिर्फ फुफुस मिलेगा, जो हवा को पंप करने का काम करता है।
और अगर आपरेशन की टेबल पर रखकर मेरे हृदय की सब जांच पड़ताल करके डाक्टर यह सर्टिफिकेट दे दें कि इस आदमी ने कभी प्रेम का अनुभव नहीं किया, घृणा का अनुभव नहीं किया, क्योंकि हमने आपरेशन की टेबल पर सब जांच पड़ताल कर ली है, सिवाय हवा को फेंकने के पंप के और कुछ भी नहीं है भीतर, तो क्या मेरे पास कोई उपाय होगा कि मैं सिद्ध कर सकूं कि मैंने प्रेम किया? या मेरी बात यह टेबल के आस—पास खड़े हुए डाक्टर मानने को राजी होंगे? कठिन है मामला!
डाक्टर इतना ही कह सकते हैं कि आपको भ्रम पैदा हुआ होगा। मैं उनसे यह जरूर पूछ सकता हूं कि आपको कभी प्रेम और घृणा का अनुभव हुआ है? अगर वे तर्कयुक्त है तो वे कहेंगे कि हमें भी इस तरह के भ्रम हुए है, श्रम, इल्‍यूजंस हुए हैं। बाकी टेबल पर जो रखा है वह वास्तविक तथ्य है। यहां सिर्फ हवा को फेंकने का फुफुस है भीतर, हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है।
आंख का आपरेशन करके सारा उपाय कर लिया जाए तो भी इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने देखे गए होंगे। अगर हम एक आदमी की आंख का पूरा यंत्र खोलकर टेबल पर रख लें, तो भी हमें अनंतकाल तक खोज करने पर भी इसका पता नहीं चलेगा कि इस आंख ने रात को बंद हालत में कोई सपने भी देखे होंगे। लेकिन हम सबने सपने देखे हैं। उन सपनों का अस्तित्व कहां है? या तो हमने झूठे सपने देखे, लेकिन झूठे सपने कहने का क्या मतलब होता है? झूठे हैं, तो भी देखे तो हैं ही। वह घटे तो हैं ही, कितने ही असत्य रहे हों, तो भी वह घटना तो हमारे भीतर हुई है। और कितना ही झूठा सपना रहा हो, अगर जोर से घबराहट पैदा हो गई है, और जागकर पाया है तो हृदय धड़कता हुआ पाया है। और कितना ही झूठा सपना द,—रर हो, अगर उसमें रोये हैं और आंख खोलकर देखी है तो आंख में आंसू पाए हैं। कुछ भीतर घटा तो है ही।'' आंख के कण—कण को भी तोड़कर देख लेने पर इसका कोई पता नहीं चलता कि भीतर सपने जैसी कोई घटना घटती है। सब सब्जेक्टिव है, आंतरिक है, कोई बाह्य प्रदर्शन संभव नहीं है।
मूर्ति तो दिखायी पडती है, उसका बाह्य प्रदर्शन हो सकता है, वह आंख की तरह है, वह फेफ्ले की तरह है। पूजा दिखाई नहीं पड़ सकती वह प्रेम की तरह है, वह भीतर देखे गए स्‍वप्‍न की तरह है। इसलिए जब आप मंदिर के पास से जाते है तो आपको मूर्ति दिखाई पडती है, पूजा तो कभी दिखाई नहीं पडती। इसलिए अगर मीरा को आपने किसी मूर्ति के आगे नाचते देखा है तो सोचा होगा, पागल है। स्वभावत:, क्योंकि पूजा तो दिखाई नहीं पड़ती है उसकी, इसलिए किसी श्रम में है वह, पत्थर के सामने नाचती है, पागल है!
रामकृष्ण को पहली दफा जब दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की तरह रखा गया तो दो—चार—आठ दिन में ही बड़ी—बड़ी चर्चाएं कलकत्ते में फैलनी शुरू हो गईं। कमेटी के पास लोग गए, ट्रस्टियों के पास लोग गए और कहा कि इस आदमी को अलग कर दो। क्योंकि हमने बड़ी गलत बातें सुनी है। हमने सुना है कि वह फूल को पहले सूंघ लेता है, फिर मूर्ति को चढ़ाता है। और हमने यह भी सुना है कि प्रसाद को पहले चख लेता है, और फिर प्रसाद को चढ़ाता है। यह तो पूजा भ्रष्ट हो गई!
रामकृष्ण को कमेटी ने बुलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं आप? हमने सुना है कि फूल आप पहले सूंघ लेते हैं, फिर परमात्मा को चढ़ाते हैं, और भोग आप पहले खुद लगा लेते हैं, फिर परमात्मा को चढाते है? रामकृष्ण ने कहा, ही, क्योंकि मैंने मेरी मां को देखा है, वह खाना बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी फिर मुझे देती थी। क्योंकि वह कहती थी कि पता नहीं, तुझे देने योग्य बना भी कि नहीं! तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकूंगा, और फूल जब तक मैं न सूंघ लूं तो मैं कैसे चढ़ाऊं? पता नहीं, सुगंधित है भी या नहीं।
पर उन्होंने कहा, तब तो सारी पूजा का विधान टूट जाएगा? रामकृष्ण ने कहा, कैसी बात करते हैं, पूजा का कोई विधान होता है, प्रेम का कोई विधान होता है? कोई कास्टीट्यूशन होता है? कोई विधि होती है? जहां विधि होती है पूजा मर जाती है। जहां विधान हो जाता है, वहीं प्रेम मर जाता है। यह तो आंतरिक उदभाव है, अत्यंत निजी, अत्यंत वैयक्तिक! और फिर भी उसमें एक यूनिवर्सल, एक सार्वभौम तथ्य है जो पहचाना जा सकता है।
जब एक प्रेमी प्रेम करता है और जब दूसरा प्रेमी प्रेम करता है तो दोनों ही प्रेम करते हैं, फिर भी दो ढंग से करते हैं। उनमें बड़े गहरे फर्क होते हैं और फिर भी गहराई में एक समानता होती है। उन दोनों के प्रेम की अपनी निजता, इंडीवीजुएलिटी होती है, और फिर भी दोनों के प्रेम के भीतर कहीं एक ही आत्‍मा का वास होता
पर पूजा तो दिखाई नही पड़ेगी, मूर्ति दिखाई पड़ेगी। और हम एक शब्द बनाए है, मूर्ति—पूजा, जो बिलकुल ही गलत है। पूजा है मूर्ति को मिटाने कागा! अब यह बात बडी अजीब लगती है। क्योंकि भक्त पहले मूर्ति बनाता है, फिर भक्त मूर्ति मिटाता है। मिटाता है बड़े चिन्मय अर्थों से, बनाता है बडे मृण्मय अर्थों में। बनाता है मिट्टी में और मिटाता है परम सत्ता में। इसलिए एक और आपको खयाल दिला दूं।
इस देश में हजारों साल तक हमने मूर्तियां बनायीं और विसर्जित कीं। अब भी हम मूर्तियां बनाते और विसर्जित करते है। कई दफा तो मन को बडी हैरानी होती है। न मालूम कितने लोगो ने मुझे आकर कहा होगा इतनी सुंदर काली की प्रतिमा बनाते हैं और फिर इसको पानी में डाल आते हैं। गणेश को बिठाते है, बनाते हैं सजाते हैं, इतना प्रेम प्रगट करते है और एक दिन उठाकर तालाब में डुबा देते हैं। पागलपन ही हुआ न निपट? पर इस विसर्जन के पीछे एक बड़ा खयाल है।
असल में पूजा का रहस्‍य ही यह है कि बनाओ और विसर्जित करो। इधर बनाओ मूर्ति आकार में, और मिटाओ निराकार में। यह तो प्रतीक है सिर्फ। काली को बनाया है, पूजा है, फिर नदी में डाल आते हैं, आज हमें तकलीफ होती है डाल आने में। क्योंकि हमें पता ही नहीं है इस बात का कि बनाकर अगर हमने पूजा की होती, तो हमने एक और गहरे अर्थों में पहले ही विसर्जन कर दिया होता। लेकिन वह तो हमने किया नहीं। मूर्ति बनाकर रखी, सजायी, बहुत सुंदर बनाई, फिर जब पीडा होती है उसको डुबाने जब जाते हैं; क्योंकि बीच में जो असली काम था वह तो हुआ नहीं।
नहीं, अगर बीच में पूजा की घटना घट जाती तो मूर्ति बनी रहती और हमारे हृदय ने उसे विसर्जित कर दिया होता—परमात्मा में! और तब, जब हम उसे डुबाने जाते नदी में तो वह चली हुई कारतूस की तरह होती उसके भीतर कुछ न होता। काम तो उसका हो चुका होता। लेकिन आज जब आप मूर्ति को डुबाने जाते हैं तो वह चली हुई कारतूस नहीं होती है, भरी हुई कारतूस होती है। कुछ नहीं चला। सिर्फ भरकर रख ली थी कारतूस, और डुबाने जा रहे हैं, तो पीड़ा होनी स्वाभाविक है।
जो लोग उसको डुबा आए थे इक्कीस दिन के बाद उन्होंने इक्कीस दिन में कारतूस चला ली थी। वह इक्कीस दिन में उसको विसर्जित कर चुके थे। पूजा है विसर्जन। मूर्ति का छोर तो हमारी तरफ है, जहां से हम यात्रा शुरू करेंगे और पूजा वह विधि है, जहां से हम आगे बढ़ेंगे। मूर्ति पीछे छूट जाएगी फिर शेष पूजा ही रह जाएगी। मूर्ति पर जो रुक गया उसने पूजा नहीं जानी; पूजा पर जो चला गया, उसने मूर्ति को पहचाना। इस मूर्ति के पीछे, इस मूर्ति के प्रयोग में, इस पूजा में क्या मूल आधार सूत्र है?
एक, जिस परम सत्य की आप खोज में चले हैं, या परम शक्ति की खोज में चले हैं, उसमें छलांग लगाने के लिए कोई जंपिंग बोर्ड, कोई जगह जहां से आप छलांग लगाएंगे! उस परम के लिए कोई जगह की जरूरत नहीं है, पर आपको तो खड़े होने के लिए जगह की जरूरत पड़ेगी, जहां से आप छलांग लगाएंगे। माना कि सागर में कूदने चले है, सागर है अनंत, पर आप तो तट के किसी किनारे पर खड़े होकर ही छलांग लेंगे न? छलांग लेने तक तो तट पर ही होंगे न! छलांग लेते ही तट के बाहर हो जाएंगे। लेकिन पीछे लौटकर तट को इतना धन्यवाद तो देंगे न, कि तुझसे ही हमने अनंत में छलांग ली थी। उल्टा दीखता है।
साकार से निराकार में छलांग हो सकती है? अगर तर्क में सोचने जाएंगे, तो गलत है बात। साकार से निराकार में छलांग कैसे होगी? साकार तो और साकार में ही ले जाएगा। कृष्णमूर्ति से पूछेंगे तो वह कहेंगे, नहीं होगी छलांग। शब्द से निःशब्द में कैसे कूदिएगा। नहीं, पर सब छलांगें साकार से निराकार में होती हैं! क्योंकि गहरे में साकार, निराकार के विपरीत नहीं है, निराकार का ही एक हिस्सा है और अविभाजित हिस्सा है। विभाजित हमें दिखाई पड़ता है, हमारी देखने की क्षमता सीमित है, इसलिए—अन्यथा अविभाज्य है!
जब हम सागर के किनारे खड़े होते हैं और तट को देखते हैं तो स्वभावत: हमें लगता है कि तट सागर से अलग है। वह जो दूसरा तट है सागर के उस पार, बहुत—बहुत दूर, वह अलग है। तो फिर हमें पता नहीं है! तो थोड़ा हमें सागर में नीचे उतरकर देखना चाहिए तो हम पाएंगे, यह तट और दूसरा तट नीचे से जुड़े हैं। अगर हम वैज्ञानिक की भाषा में सोचें, ठीक—ठीक भाषा में सोचें, तो एक बहुत मजेदार घटना पता चलेगी। सागर में मिट्टी है पूरी तरह, और मिट्टी में सागर सब जगह छिपा है। जहां गड्डा खोदिए वहीं पानी निकल आता है। सागर में गड्डा खोदिण्र, मिट्टी निकल आएगी। अगर इसको ठीक वैज्ञानिक भाषा में कहें तो इसका मतलब हुआ कि सागर में मिट्टी की मात्रा जरा कम और पानी की मात्रा ही जरा ज्यादा है। फर्क मात्रा का है, डिग्रीज का है पर दोनों अलग जरा भी नहीं हैं, सब संयुक्त है।
जिसको हम साकार कहते हैं, वह भी निराकार से संयुक्त है। जिसको हम निराकार कहते हैं, वह साकार से संयुक्त है और हम साकार में खड़े है। मूर्ति की दृष्टि, इस सत्य को स्वीकार करके चलती है कि हम साकार में खड़े हैं, वह हमारी स्थिति है। उसको इनकार करने का उपाय नहीं है। और हम जहां खड़े हैं, वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है।
ध्यान रहे, हमें जहां होना चाहिए वहां से यात्रा शुरू नहीं होती; हम जहां हैं वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है। बड़ी तार्किक दृष्टियां वहां से शुरू करती हैं यात्रा, जहां हमें होना चाहिए। जो हम हैं ही नहीं, वहां से यात्रा शुरू नहीं हो सकती। जहां हम है, यात्रा वहीं से शुरू होगी।
हम कहां है? हम मूर्त में जी रहे हैं। हमारी सारी अनुभव की संपदा मूर्त की संपदा है। हमने कुछ भी ऐसा नहीं जाना जो .मूर्त न हो, आकारवाला न हो। हमने सब आकार में जाना है। प्रेम किया है तो आकार को, और घृणा की है तो आकार को; आसक्त हुए है तो आकार में और अनासक्ति साधी है तो आकार में। मित्र बने हैं तो आकार में और शत्रु बनाए है तो आकार में। हमने जो भी किया है वह आकार है। मूर्ति इस सत्य को स्वीकार करती है। और इसलिए अगर हमें निराकार की यात्रा पर निकलना है तो हमें निराकार के लिए भी आकार देना पड़ेगा। निश्चित ही ये आकार अपनी—अपनी प्रतिमा के आकार होंगे। किसी ने महावीर में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने कृष्ण में निराकार को अनुभव किया है, किसी ने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं। जिसने जीसस में निराकार के दर्शन किए हैं, जिसने जीसस की आंखों में झांका, और वह दरवाजा मिल गया उसे, जिससे खुला आकाश दिखाई पड़ता है।
जिसने जीसस का हाथ पकड़ा, थोड़ी देर में वह हाथ मिट गया और अनंत का हाथ, हाथ में आ गया। जिसने जीसस की वाणी सुनी, और शब्द नहीं शब्द के जो पार है, उसकी प्रतिध्वनि हृदय में गज गयी, वह अगर जीसस की मूर्ति बनाकर पूजा में लग सके तो निराकार में छलांग के लिए उसे इससे ज्यादा आसान कोई और बात न हो सकेगी।
किसी को कृष्ण में दिखाई पड़ा है, किसी को बुद्ध में, किसी को महावीर में। जहां से भी, और सबसे पहले हमें 'किसी' में ही दिखाई पड़ेगा, यह स्मरण रखें। सबसे पहले हमें सीधा, शुद्ध निराकार दिखाई नहीं पड़ जाएगा। शुद्ध निराकार को देखने की हमारी क्षमता और पात्रता नहीं है। निराकार भी बंधकर ही आएगा कहीं तभी हमें दिखाई पड़ेगा। अवतार का यही अर्थ है, निराकार का बंधा हुआ रूप, निराकार की सीमा। उल्टा लगता है, पर यही अर्थ है अवतार का। एक झरोखा, जहां से बड़ा आकाश दिखाई पड़ जाता है—एक झलक! निराकार से सीधी मुलाकात नहीं होगी। पहले तो कहीं आकार में ही उसकी प्रतीति होगी। फिर जिस आकार में उसकी प्रतीति हो जाए, उस आकार से बार—बार उसी प्रतीति में उतरना आसान हो जाएगा।
बुद्ध को जिसने देखा है, बुद्ध की प्रतिमा को देखते ही प्रतिमा भूल जाएगी और बुद्ध सजीव हो उठेंगे। जिसने बुद्ध को चाहा है और प्रेम किया है, उसके लिए ज्यादा देर नहीं लगेगी कि यह पत्थर की प्रतिमा विलीन हो जाए और सजीव व्यक्तित्व स्थापित हो जाए। तो बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि कृष्ण हों, कि क्राइस्ट हों, वे सब अपने पीछे व्यवस्थाएं छोड़ गए हैं। जिन व्यवस्थाओं से उनको चाहने वाला व्यक्ति कभी भी उनसे पुन: संबंधित हो जाए। और आकार बहुत बड़ी व्यवस्था है। और मूर्ति को बनाने की जो कला है या विज्ञान है, उसमें बहुत—सी बातों का खयाल और हिसाब रखा गया है। अगर उतनी सारी बातों के हिसाब और खयाल से मूर्ति बनाई गई हो तो गहरे परिणाम ले आएगी। जैसे, दो—तीन बातें खयाल कर लेने जैसी है—
अगर आपने बुद्ध की प्रतिमाएं देखी है तो बुद्ध की प्रतिमाओं को, हजारों प्रतिमाओं को देखकर भी एक बात पकी अनुभव में आ जाएगी कि प्रतिमाएं व्यक्ति की कम, और किसी भाव दशा की ज्यादा हैं। बुद्ध की हजार प्रतिमाएं रखी हों तो वे व्यक्ति की कम, किसी भाव दशा की, स्टेट्स आफ माइंड की प्रतिमाएं ज्यादा हैं। अगर बुद्ध को गौर से देखेंगे, बुद्ध की प्रतिमा पर ध्यान करेंगे तो थोड़ी ही देर में एहसास होना शुरू हो जाएगा एक अदभुत अनुकंपा का—एक महाकरुणा का! जो आपको चारों तरफ से घेरने लगेगी।
बुद्ध का उठा हुआ हाथ, या बुद्ध की आधी मुंदी हुई पलकें, बुद्ध के चेहरे का अनुपात, बुद्ध के बैठने का ढंग, बुद्ध के मुडे हुए पैर, बुद्ध की जो सारी की सारी आनुपातिक व्यवस्था, वहां व्यवस्था किसी गहरे में आपके भीतर करुणा से संबंध जोड्ने का उपाय है।
कोई पूछ रहा था फ्रांस के एक बहुत बड़े चित्रकार सेजा से कि तुम यह चित्र बनाते हो, किसलिए? तो सेजा ने कहा कि इसलिए चित्र बनाता हूं कि मेरे हृदय में जो भाव था, खोजता हूं कि उस भाव के लिए आकार क्या होगा? और आकार बना देता हूं। अगर कोई उस आकार पर ठीक से ध्यान करे तो वह उस भाव को उपलब्ध हो जाएगा जो मेरे भीतर था।
आप जब किसी चित्रकार का चित्र देखते हैं तो सिर्फ आकार देखते हैं, आपको खयाल भी नहीं होता इस बात का कि तब आप चित्रकार की आत्मा को न समझ पाएंगे। एक कागज पर कोई आड़ी—टेढी लकीरें खींच दे, तो सिर्फ आड़ी—टेढी लकीरें नहीं होतीं।
अगर आप उन पर ध्यान करें तो आपके भीतर चित्र उतना ही आड़ा— —टेढ़ा हो जाएगा। क्योंकि चित्त का एक नियम है कि वह जो देखता है, उसके अनुरूप प्रतिध्वनित होता है, रिजोनेंट होता है। अगर उतनी ही लकीरें, आड़ी—टेढ़ी न खींची जाएं और एक विशेष अनुपात में खींची जाएं तो आपका चित्त उनको देखकर उस विशेष अनुपात को उपलब्ध होता है।
एक फूल को देखकर आपको जो खुशी उपलब्ध होती है, आपको पता भी नहीं होगा कि वह फूल की कम, फूल की पंखडियों के अनुपात की है। फूल के होने का जो ढंग है वह आपके भीतर आपके हृदय को भी फूल के होने का ढंग देता है।
अगर एक सुन्दर व्यक्ति कै चेहरे को देखकर आपको आकर्षण पैदा होता है तो आपका कुल कारण इतना ही नहीं है कि उस व्यक्ति का चेहरा किसी हिसाब से सुन्दर है। गहरे में असली कारण यह है कि उस व्यक्ति का सुन्दर चेहरा आपके भीतर सौंदर्य का रिजोनेंस पैदा करता है।
आपके भीतर भी कोई चीज उस सुन्दर के साथ सुन्दर हो उठती है, और कुरूप के साथ कुरूप हो जाती है। कुरूप व्यक्ति के पास बैठकर आपको जो परेशानी होती है वह क्या परेशानी है? सुन्दर व्यक्ति के पास बैठकर आपको जो सुखद प्रतीति होती है वह कौन—सी प्रतीति है? असल में सुन्दर अनुपात आपके भीतर भी सौंदर्य की धारा को बहाता है और आपको सुन्दर बना जाता है।
कुरूप का अर्थ ही केवल इतना है, गैर आनुपातिक, नॉन प्रपोर्शनेट, आड़ा—तिरछा, जिससे भीतर कोई समरस ध्वनि पैदा नहीं होती, संगीत पैदा नहीं होता, विशृंखलता पैदा होती है, अराजकता पैदा होती है, भीतर सब कंपित हो जाता है।
जर्मनी का एक चित्रकार, नृत्यकार पीछे आत्‍महत्‍या करके मरा, निजिंस्की उसका नाम था। जब उसने आत्‍महत्‍या की और उसके घर की जांच—पड़ताल हुई तो जो लोग भी उसके घर में गए वे दस—पन्द्रह मिनट के बाद बाहर आ गए और उन्होने कहा कि उसके घर में जाना ठीक नहीं है। वहां कोई भी आदमी इतने दिन रुक जाए तो आत्महत्या कर लेगा। बड़ी अजीब—सी बात थी। उस घर के भीतर क्या होगा?
निजिंस्की ने एक—एक दीवार को इस तरह से चित्रितकिया था— सिर्फ दो ही रंगों का उपयोग करता था वह, अपने आखिरी दो साल में—लाल सुर्ख और काला। बस ये दो ही रंग का उपयोग करता था—एक—एक दीवार, फर्श, छत सब पुती हुई, पर रंग सिर्फ काला और लाल। दो साल से वह यही काम कर रहा था भीतर, पागल हो गया था, आश्चर्य नहीं! और आत्महत्या भी कर ली तो आश्चर्य नहीं।
जिन लोगों ने उसके मकान को देखा, बाद में उन सभी लोगों ने कहा कि उस मकान के भीतर दो साल कोई भी रह जाए तो पागल होकर रहेगा। और आत्महत्या दो साल तक भी बच जाए करने से यह काफी मालूम पड़ता है। निजिंस्की अदभुत हिम्मत का आदमी रहा होगा। सारा का सारा वातावरण, पूरा का पूरा इतना अराजक था कि जिसका कोई हिसाब नहीं। आप जो भी देखते हैं उसकी प्रतिध्वनि भीतर होती है और आप किसी गहरे अर्थों में उसी जैसे हो जाते हैं। बुद्ध की सारी मूर्तियां करुणा के आस—पास निर्मित हैं, क्योंकि करुणा बुद्ध का आंतरिक संदेश है, कम्पैशन! और करुणा आ जाए, तो बुद्ध कहते है, सब आ गया। करुणा का क्या अर्थ? प्रेम नहीं है करुणा का अर्थ। प्रेम तो हम सबको आता है और चला जाता है।
करुणा ऐसे प्रेम का नाम है जो आती तो है लेकिन फिर जाती नहीं। और प्रेम में तो दूसरे से कुछ न कुछ पाने की, गहरे में सूक्ष्म आकांक्षा होती है। करुणा में इस बात का बोध होता है कि किसो के पास कुछ देने को नहीं है तो कोई देगा कैसे? प्रत्येक इतना दीन है कि देने को तो किसी के पास कुछ नहीं है, इसलिए करुणा है। करुणा में कोई मांग नहीं है, क्योंकि किससे मांगें, किसी के पास कुछ भी नहीं है। दान का कोई खयाल नहीं है, लेकिन इतनी महाकरुणा के आविर्भाव में अपने आप हृदय के द्वार खुल जाते हैं और ही कुछ बंटना शुरू हो जाता है।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा था कि तुम ध्यान करो, पूजा करो, प्रार्थना करो लेकिन स्मरण रखना, पूजा और प्रार्थना और ध्यान के बाद तुम्हें जो शांति मिले, तत्‍क्षण उसे बांट देना—स्प क्षण भी अपने पास मत रखना। तुम्हें मैं अधार्मिक कहूंगा, अगर तुमने एक क्षण भी अपने पास रखा। जब तुम्हें आनन्द का अनुभव हो ध्यान के बाद, तत्‍क्षण प्रार्थना करना कि हे प्रभु उन सबको मिल जाए जिन्हें आवश्यकता है। खोल देना अपना द्वार हृदय का और बह जाने देना जहां—जहां गड्डे हैं! वहां—वहां एक क्षण भी रोकना मत, नहीं तो मैं तुम्हें अधार्मिक कहूंगा। यह जो महाकरुणा है, इसी को बुद्ध ने महामुक्ति कहा है।
तो बुद्ध की सारी प्रतिमाएं इस अनुपात में निर्मित की गयी हैं कि उनकी पूजा करनेवाला व्यक्ति उनके सानिध्य में बैठकर उस रिजोनेन्स को, उस प्रतिध्वनि को उपलब्ध हो जाए जहां वह करुणा का प्रवाह अनुभव करने लगे। अब अगर बुद्ध की प्रतिमा के पास बैठकर पूजा करेंगे तो कैसे करेंगे?
मैं एक उदाहरण ले रहा हूं ताकि आपको और भी खयाल आ सके। अगर बुद्ध की प्रतिमा पर पूजा करनी है, तो पूजा का केन्द्र बुद्ध का हृदय बनाना पड़ेगा। जिसको यह पता नहीं है, वह बुद्ध की मूर्ति से कभी भी परिचित नहीं हो पाएगा। क्योंकि बुद्ध की मूर्ति का जो निहित ध्येय है वह आपके भीतर महाकरुणा का जन्म है। और करुणा का जो केन्द्र है वह हृदय है।
इसलिए बुद्ध की मूर्ति पर ध्यान करते वक्त हृदय पर, बुद्ध के हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा। एक तरफ बुद्ध के हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा और दूसरी तरफ अपने हृदय पर ध्यान रखना पड़ेगा। दोनों के हृदय एक साथ धड़क रहे हैं, इसकी प्रतीति में गहरा उतरना पड़ेगा; और एक क्षण आएगा कि अपना ही हृदय धड़कता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा, बल्कि अपने ही हृदय से जैसे एक धागा जुड़ा हो और बुद्ध की प्रतिमा के भीतर भी हृदय धड़कता हो। यह सिर्फ मालूम ही नहीं पड़ेगा, बुद्ध की प्रतिमा पर ठीक हृदय की धड़कन खुली आंख से भी अनुभव होने लगेगी।
और जब ऐसी धड़कन बुद्धि की प्रतिमा पर अनुभव हो, तो समझना कि बुद्ध में प्राण की प्रतिष्ठा हुई। नहीं तो प्राण की प्रतिष्ठा नहीं है, और पूजा का कोई अर्थ नहीं है। यह नियम है बुद्ध का हृदय, पत्थर की मूर्ति का हृदय जब आपको बिलकुल धड़कता हुआ मालूम पड़ने लगे और ये बिलकुल मालूम पड़ सकता है, पड़ता है। अगर आपके हृदय की धड़कन पर ठीक ध्यान किया गया और बुद्ध के हृदय पर ध्यान किया गया तो दोनों में संयोग स्थापित हो जाता है। तब आपका ही हृदय बुद्ध की प्रतिमा में भी धड़कता है!
जैसे कि दर्पण में आपकी प्रतिछवि दिखायी पड़ती हो! दर्पण में आपने खयाल किया कभी? दर्पण में जो आपकी तस्वीर दिखायी पड़ती है उसका हृदय धड़कता है या नहीं धड़कता है? पर दर्पण में धड़कता है तो हम कहते हैं, ठीक है, दर्पण तो दर्पण है। मूर्ति भी गहरे अर्थो में दर्पण है, एक आध्यत्यिक अर्थों में दर्पण है। और ठीक ऐसे ही मूर्ति में हृदय धड़कता हुआ मालूम पड़ने लगेगा। और जब हृदय धड़कता हुआ मालूम पड़े तब पूजा की शुरुआत होगी। जब तक मूर्ति में हृदय न धडूके तब तक पूजा की शुरुआत नहीं हो सकती, क्योंकि मूर्ति तब तक पत्थर है, तब तक मूर्ति नहीं बनी। यह भी खयाल में ले लें कि तब तक मूर्ति पत्थर है जब तक मूर्ति मूर्ति नहीं बनी, जब तक कि जीवन्त न हो गयी हो, जब तक उसमें प्राण प्रतिष्ठा न हो गयी हो।
अब अगर बुद्ध की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो हृदय पर करना पड़ेगा। अगर महावीर की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो दूसरा केन्द्र है। अगर क्राइस्ट की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो तीसरा केन्द्र है। अगर कृष्ण की प्रतिमा पर ध्यान करना है तो चौथा केन्द्र है। और दुनियां में जितनी प्रतिमाएं है, प्रत्येक प्रतिमा किसी पृथक केन्द्र पर निर्मित है।
और बड़ी हैरानी की बात यह है कि उन प्रतिमाओं को हजारों साल तक समाज पूजता रहेगा और उसे कुछ पता नहीं होगा कि वह किस केन्द्र की प्रतिमा को पूज रहा है! और अगर केन्द्र का पता नहीं है तो आपका प्रतिमा से कभी कोई संबंध नहीं होगा। आप फूल रखकर आ जाएंगे, धूप जला आएंगे, हाथ जोड़कर घर लौट आएंगे, आप पत्थर के सामने से ही लौट आए। क्योंकि ध्यान रहे, पत्थर को प्रतिमा बनाना पडता है! वह मूर्तिकार नहीं बनाएगा, वह आपको बनाना पड़ेगा! मूर्तिकार तो सिर्फ आकार देगा पत्थर को। पर उसको प्राण कौन देगा? प्राणपूजा करनेवाला देगा!
मूर्ति को प्राण दिए बिना वह पत्थर है। प्राण दिए जाने के बाद पूजा का प्रारम्भ होता है। पूजा क्या है? अगर आप किसी मूर्ति को प्राण देने में समर्थ हो जाएं तो फिर पूजा क्या है? फिर पूजा क्या होगी! जैसे ही मूर्ति को प्राण दिया जा सके वैसे ही वह जीवन्त व्यक्तित्व हो गया।
इसको थोड़ा समझना जरूरी होगा। जैसे ही कोई चीज जीवन्त हो जाए, उसमें आकार और निराकार दोनों समाविष्ट हो जाते है। क्योंकि देह तो आकार है और जीवन निराकार है। जीवन का कोई आकार नहीं है, देह का आकार है। इसलिए मेरा हाथ कोई काट दे तो मेरा जीवन नहीं कइटता। अगर मेरी आंखें बन्द हों और मेरे पूरे शरीर से मेरे पूरे संबंध तोड़ दिए गए हों, और मेरा हाथ काट दिया जाए तो मुझे पता भी नहीं चलेगा। ऐसा किया जा सकता है कि मेरे मस्तिष्क को पूरा का पूरा निकाल लिया जाए बाहर, और उसे बिलकुल पता न चले कि शरीर अलग हो गया, क्योंकि जीवन का कोई आकार नहीं है—जीवन निराकार है।
जहां भी जीवन है वहां आकार और निराकार का मिलन है। पदार्थ का आकार है, चेतना का कोई आकार नहीं। जब तक मूर्ति पत्थर है, तब तक आकार है। और जैसे ही उसको प्राण दिया, प्रतिष्ठा हुई और भक्त ने अपने हृदय को मूर्ति में धड़काया। ध्यान रहे, जो भक्त अपने हृदय को मूर्ति में न डाल सकेगा वह भक्त परमात्मा के हृदय को अपने में डालने की पात्रता न पा सकेगा। पात्रता ही यही है। जैसे ही भक्त अपने हृदय को मूर्ति में डाल पाता है और मूर्ति जीवंत हो जाती है, वैसे ही मूर्ति दोनों बातें हो गयी—एक तरफ आकार रहा और दूसरी तरफ से निराकार का द्वार खुल गया! अब उस द्वार से यात्रा करने का नाम पूजा है।
पूजा के संबंध में पहली बात तो यह कि वह है मूर्त से अमूर्त की यात्रा। उसके एक—एक कदम हैं। बुनियादी आधार, मूल कदम जो है पूजा का वह यह है कि व्यक्ति सेल्फ सैट्रिक है, स्व—केन्द्रित है। हमारी जीने की सारी व्यवस्था ऐसी है कि जैसे 'मैं' सारी दुनिया का केन्द्र हूं। ऐसे हम जीते हैं, सब चांद—तारे मेरे लिए घूम रहे हैं, पक्षी मेरे लिए उड़ रहे हैं, सूरज मेरे लिए निकलता है। इस सारे जगत का केन्द्र हूं—'मैं'। साधारण व्यक्ति जिसने पूजा को नहीं जाना, स्व—केन्द्रित होकर जीता है। कुछ भी हो, मैं केन्द्र पर हूं बाकी सारा विश्व मेरी परिधि यही हमारी सब की दृष्टि है। पूजा में इस दृष्टि के विपरीत चलना पड़ेगा। पूजा का सार सूत्र है—केन्द्र कहीं और है, मैं परिधि हूं। अधार्मिक आदमी का सार सूत्र है—मैं केंद्र हूं और सब जगह परिधि है। अगर परमात्मा भी कहीं होगा तो वह परिधि पर है, केन्द्र मैं हूं। वह भी मेरे लिए है।
जब मैं बीमार हो जाऊं तो मेरी बीमारी ठीक कर दे, मेरे लड़के को नौकरी न मिले तो नौकरी लगवा दे। किसी मुसीबत में पड़ जाऊं तो मेरा सहारा बन जाए, वह भी मेरे लिए है। ध्यान रहे, जिस आदमी ने इस भांति सोचा हो कि परमात्मा मेरे लिए है, उसकी आस्तिकता, नास्तिकता से ज्यादा बदतर है। उसे खयाल ही नहीं, वह क्या कह रहा है।
पूजा का अर्थ है, प्रार्थना का अर्थ है, धार्मिक भाव का अर्थ है कि अब तू केन्द्र हुआ और मैं परिधि हूं। जैसे ही मूर्ति जीवंत हो गयी और उसका हृदय धड़कने लगा, जैसे ही यह प्रतीत हुआ कि मूर्ति में प्राण आ गए, निराकार प्रवेश कर गया; वैसे ही जो दूसरा बुनियादी सूत्र है वह यह है, कि अब मैं परिधि पर हूं तू केन्द्र पर है। अब मैं तेरे लिए नाचूंगा, तेरे लिए गाऊंगा, तेरे लिए लिए श्वास लूंगा। अब जो कुछ भी होगा, तेरे लिए होगा।
रामकृष्ण के पास एक बहुत बड़ा ज्ञानी ठहरा हुआ था, तोतापुरी। तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा, तू कब मूर्ति में उलझा रहेगा? अब निराकार की यात्रा पर निकल! तो रामकृष्ण ने कहा, जरूर निकलूंगा। रामकृष्ण सबसे सीखने को सदा तैयार थे, जो भी सिखाने आ जाता था उससे सीखने को तैयार थे। रामकृष्ण ने कहा, जरूर निकलूंगा, लेकिन जरा रुको, मैं जरा मां को भीतर जाकर पूछ आऊं। तोतापुरी ने कहा, कौन मां? रामकृष्ण ने कहा, काली है न जो, उससे मैं जरा पूछ आऊं। तोतापुरी ने कहा, यही तो मैं तुम्हें रोकने को कह रहा हूं कि पत्थर में कब तक उलझे रहोगे? और तुम वहीं पूछने जा रहे हो? तो रामकृष्ण ने कहा, बिना पूछे तो कोई उपाय नहीं। क्योंकि जिस दिन पूजा शुरू हुई थी उस दिन मैं परिधि पर हो गया हूं और मां को केन्द्र पर रख लिया है, अब तो बिना पूछे कोई उपाय नहीं, अब तो मैं हूं ही नहीं। अब मैं जो भी कर सकता हूं वह उन्हीं के लिए है। उनकी आज्ञा हो गयी तो ठीक और उनकी आशा नहीं हुई तो ठीक। उनकी बिना आज्ञा के मोक्ष भी अब व्यर्थ है और उसकी आज्ञा हो नर्क के लिए भी, तो मैं राजी हूं। क्योंकि जिस दिन पूजा की थी उस दिन इसी शर्त पर तो पूजा शुरू हुई थी कि मैं परिधि हो गया, तुम केन्द्र हो। उनसे बिना पूछे अब कुछ भी नहीं हो सकता है। तोतापुरी के तो समझ के बाहर पड़ी बात।
मूर्ति—पूजा छोड़ने के लिए मूर्ति से पूछने जाएंगे रामकृष्ण, तो कैसे छूटेगी मूर्ति—पूजा? जिसको छोड़ना है उससे पूछना क्या है? और छोड़ने के लिए पूछना पड़ता है? रामकृष्ण तब तक भीतर चले गए हैं, तोतापुरी पीछे—पीछे जाकर खड़े हो गए हैं। देखा, रामकृष्ण की आंखों से तरल आंसुओ की धारा बहती है। वह रो रहे हैं और बार—बार कह रहे हैं कि नहीं, आज्ञा दे दे। फिर रोते हैं, कहते हैं, नहीं, आज्ञा दे दे। तोतापुरी राह देखते होंगे, आज्ञा दे दे। फिर प्रसन्न हो गए, फिर नाचने लगे हैं।
तोतापुरी ने कहा, क्या हुआ? कहा, आज्ञा मिल गयी, अब राजी हूं! अब कोई सवाल नहीं है। केन्द्र पर रखने का अर्थ है, अब से मेरा जीवन समर्पित जीवन होगा। पूजा का अर्थ है, समर्पित जीवन—पूजा का अर्थ है, अब मैं ऐसे जिऊंगा जैसे परमात्मा के लिए जी रहा हूं। उठूंगा—बैठूंगा उसके लिए, खाऊंगा—पिऊंगा उसके लिए, बोलूंगा—चुप होऊंगा उसके लिए।
केन्द्र पर जैसे ही किसी ने निराकार को रखा, वैसे ही एक अदभुत प्रवाह शुरू होता है, एक फैलाव शुरू होता है। हम अपने ही हाथ से सिकुड़कर बैठे हैं। बीज टूट जाता है और वृक्ष बनने लगता है। हम सिकुड़कर बैठे हैं, सब तरफ से दबाकर बैठे हैं—'मैं' —वह टूट जाता है। फिर बड़े अंकुर निकलते हैं और फैलने शुरू हो जाते हैं कि पूरे विराट को घेर लें। और बड़े आश्चर्य की बात है, और धर्म ऐसे बहुत से आश्रयों से भरा हुआ है, कि जो व्यक्ति अपने को बचाता है वह मिटा लेता है और जो अपने को खो देता है वह अपने को पा लेता है—यह पूजा का आधार है।
परमात्मा को रखना है केन्द्र पर, स्वयं को रख देना है परिधि पर! बहुत कठिन है। हमें खयाल ही नहीं होता है कि यह कैसे हो सकेगा, क्योंकि हम पैदा होते से ही अपने को केन्द्र मानकर जीते हैं।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि तुम जाकर कुछ दिन मरघट में रह आओ। तीन महीने तो अनिवार्य था। कोई भी भिक्षु संन्यास ले, तो उसे तीन महीने मरघट में रहना पड़े। भिक्षु कहते भी कि हम आपके पास सीखने आए हैं, मरघट से क्या होगा? बुद्ध कहते, पहले तुम मरघट में रहो, तीन महीने बाद तुम आ जाना। उससे तुम्हारे 'मैं' का केन्द्र शिथिल हो जाए तो आसानी होगी।
तीन महीने, रोज सुबह—सांझ कोई आएगा, कोई मरेगा, कोई जलेगा और तुम देखते रहोगे, देखते रहोगे। कभी तीन महीने में एकाध दिन तो खयाल आएगा कि तुम्हारे लिए यह जगत नहीं चल रहा है। तुम नहीं थे, तब भी चल रहा था। यह आदमी जो तुम्हारे सामने जल रहा है, यह अभी थोडी देर पहले इसी खयाल में था कि जगत मेरे लिए चल रहा. है। जगत को पता भी नहीं चला, यह आदमी समाप्त हो गया है! सागर को खबर भी नहीं हुई और लहर मिट गयी! तुम देखो और देखते रहना, किसी भी दिन, जिस दिन तुम्हें खयाल आ जाए कि यह जगत तुम्हारे लिए नहीं चल रहा है—तुम आ जाना!
उसी दिन आराधना शुरू हो सकेगी, उसी दिन साधना शुरू हो सकेगी। जब तक तुम केन्द्र पर हो तब तक पूजा का, प्रार्थना का, ध्यान का कोई भी उपाय नहीं है। भांति ही लेकिन बहुत मजबूत है। पूजा शुरू होती है इस भ्रांति के विसर्जन से। इसलिए पूजा में 'मैं' शब्द गिर जाता है और 'तू, शब्द महत्वपूर्ण हो जाता है। 'तू ही है', यह महत्वपूर्ण हो जाता है।
ध्यान रहे, पहले भक्त मूर्ति को मिटाता है और अमूर्त का द्वार खोलता है। फिर अपने को मिटाता है और पूजा में प्रवेश होता है। मूर्ति के भीतर से अमूर्त का द्वार खोल लेने पर स्वयं को मिटाना सरल हो जाता है। सरल इसलिए हो जाता है कि जैसे दिखायी पड़ता है कि एक पत्थर की मूर्ति भी अमूर्त के लिए द्वार बन गयी और निराकार को दिखाने लगी तो मेरा यह शरीर भी... निराकार के लिए द्वार बन सकता हूं! लेकिन मूर्ति को भूला तो निराकार दिखायी पड़ा। अब स्वयं को अं तो और भी गहरी छलांग लग सकती है।
ध्यान रहे, दो आकारों में तो भेद होता है लेकिन दो निराकारों में कोई भेद नहीं होता। सच तो यह है कि दो का शब्द आकार के लिए ही प्रयोग करना ठीक है, निराकार के लिए दो कहने का कोई अर्थ नहीं—निराकार एक ही होता है। जब मूर्ति निराकार हो गयी और भक्त भी निराकार हो गया तो दो निराकार नहीं बचते, एक ही निराकार हो जाता है। निराकार में तो दो और तीन का सवाल नहीं है, संख्या का उपाय नहीं है। आकार या संख्या, यह तो आधार हैं—लेकिन आधार को व्यवहृत करने की, उसको प्रयोग में लाने की अनेक विधियां हैं।
दो—चार सूत्र समझ लेने जैसे है। जैसे—सूफियों ने पूजा के लिए नृत्य को गहरा मूल्य दिया। भक्तों ने भी दिया—मीरा ने, चैतन्य ने बहुत—बहुत मूल्य दिया। नृत्य की कुछ खूबियां है, जिनके कारण अनेक—अनेक भक्ति की साधनाओं ने नृत्य को चुना। नृत्य की पहली खूबी तो यह है कि नृत्य करते समय अधिकतम यह प्रतीति होती है कि आप शरीर नहीं हैं। नृत्य की जो गति है, जो मूवमेंट है, उस तीव्र गति में, थोड़ी ही देर में आप और आपके शरीर का साथ छूट जाता है। असल में आपकी चेतना और आपके शरीर का साथ, एक एडजेस्टमैंट है, एक संयोजित व्यवस्था है। आप जो काम दिन—रात करते रहते हो सुबह से सांझ तक, उस काम करने में वह संयोग कभी नहीं टूटता है, वह व्यवस्थित है।
गुरजिएफ कहा करता था, जैसे किसी डिब्बे में बहुत सी चीजें रखी हों और कोई जोर से डिब्बे को हिला दे तो उसके भीतर का सब अरेंजमेंट, भीतर की सारी व्यवस्था अस्त—व्यस्त हो जाती है। कोई पत्थर का टुकड़ा नीचे था वह ऊपर आ जाता है, कोई ऊपर था वह बीच में चला जाता है, कोई बीच में था वह किनारे चला जाता है। उस डिब्बे के भीतर चीजों का जो समायोजन था वह सब अस्त—व्यस्त हो जाता है। और अगर उस डिब्बे के पत्थरों को एक ही तरह से रहने की आदत से कोई अहंकार पैदा हो गया हो कि हम है—वह टूट जाता है। उनको पता चलता है कि— 'मैं नहीं हूं,! यह तो सब टूट गया! यह तो सिर्फ व्यवस्था थी, यह एक अरेंजमेंट था।
तो सूफियों ने, चैतन्य ने, मीरा ने नृत्य का गहरा उपयोग किया। और दरवेश नृत्य तो बहुत ही गहरे हैं। इतने जोर से गति देना है शरीर को, कि फकीर की जितनी सामर्थ्य हो, जितनी ऊर्जा हो, जितनी शक्ति हों—पूरी दांव पर लगा देनी है, शरीर का रोयां रोयां नाचने और कांपने लगे। उस स्थिति में, जो हमारी चेतना और शरीर के बीच में जो संबंध स्थापित हो गया है, वह टूट जाता है। अचानक पता चलता है कि शरीर अलग है, और मैं अलग हूं। पूजा के लिए इसका उपयोग कीमती हो जाता है।
ईसाइयों के दो सम्प्रदाय हुए है—एक सम्प्रदाय अब भी काफी बड़ी प्रभावशाली शक्ति रखता है—केकर्स! एक दूसरा सम्प्रदाय था—शेकर्स। ये नाम सूचक हैं। शेकर्स—उस सम्प्रदाय का नाम था जो शरीर को शेक... इतने जोर से शरीर को कंपाते थे पूजा के वक्त, कि उनका नाम शेकर्स पड गया। शरीर को इतने जोर से कंपाना था—रोयां रोया कंपन बन जाए, ट्रेम्बलिंग हो जाए। घंटों पसीना—पसीना हो जाएगा साधक! मूर्ति के सामने खड़ा है और सारे शरीर को कम्पन दे रहा है। कम्पन इतना तीव्र है कि थोडी ही देर में सारे शरीर से पसीने की धाराएं बहने लगेंगी। और वह घटना घटेगी जहां शरीर से चेतना अलग मालूम पड़ेगी। और अलग मालूम पड़े तो पूजा पर चली आ सकती है।
केकर्स—नाम भी इसलिए पड़ा, क्केकिग का अर्थ भी वही होता है। भूकम्प को कहते हैं आप—अर्थकेक। इतने जोर से शरीर में भूकम्प पैदा करना है कि शरीर के भीतर का जो आयोजन है वह टूट जाए। इस प्रकार नृत्य का उपयोग किया गया पूजा में अनेक—अनेक ढंगों से। और नृत्य ने भारी से भारी सहायता पहुंचाई है स्वयं के भीतर निराकर को अलग कर लेने के लिए। संगीत, भजन और कीर्तन का भी इसी भांति उपयोग हुआ है।
ध्वनिशास्र का कुछ थोड़ा—सा रूप खयाल में ले लेना जरूरी है। फिजिक्स, आज भौतिकशास्त्र जैसा मानता है, उसके हिसाब से, जीवन की जो आखिरी इकाई है, वह विद्युत है। लेकिन भारतीय और पूर्वीय मनीषि जैसा मानते रहे हैं कि पदार्थ की जो अन्तिम इकाई है, वह ध्वनि है, विद्युत नहीं!
आधुनिक विज्ञान मानता है कि विद्युत, पदार्थ की अन्तिम रचना का आखिरी हिस्सा है जिससे सारी चीजें बनी हैं—विद्युत, इलेक्ट्रान्स। पूर्वीय मनीषि मानते हैं कि ध्वनि समस्त पदार्थ का आधारभूत हिस्सा है। दोनों में से कुछ भी सच हो, लेकिन दोनों के बीच एक गहरा संबंध है, वह खयाल में ले लेना चाहिए।
क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, ध्वनि विद्युत का एक रूप है, और भारतीय मनीषि कहते हैं कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है—ये दोनों बातें कितनी पृथक मालूम पड़ती हैं लेकिन इस दूसरी सच्चाई की घोषणा से दोनों बातों में पृथकता न के बराबर रह जाती है। वैज्ञानिक कहते हैं, ' ध्वनि विद्युत का एक रूप है—ए मोड ऑफ इलैक्ट्रिसिटी '। भारतीय मनीषि कहते हैं 'विद्युत ध्वनि का रूप है—ए मोड ऑफ साऊंड'। सम्भावना यह हो सकती है कि दोनों ही बातें सच हों और एक ही साथ सच हों। और संभावना यह है कि ये दोनों ही बातें सच होंगी और आज नहीं कल, हम उस असली तत्व को खोज लेंगे जिसका एक रूप ध्वनि है और दूसरा रूप विद्युत है, जो इन दोनों के बीच का लिंक है।
शायद अध्यात्म की तरफ से खोज करने के कारण भारतीय मनीषि ध्वनि पर पहुंचा, और पदार्थ की खोज करने के कारण पश्चिमी मनीषि विद्युत पर पहुंचा। ध्यान रहे, स्वयं के भीतर खोज की है भारतीय मनीषि ने, पदार्थ के भीतर नहीं। तो स्वयं के भीतर, आपका जो स्वयं का बोध है, वह ध्वनि का आखिरी हिस्सा है। जब तक आपको अपना बोध रहेगा, आपके भीतर ध्वनि का बोध रहेगा।
जितने आप भीतर गहरे उतरेंगे उतनी ध्वनि सूक्ष्म होती जाएगी..? सूक्ष्म होती जाएगी... सूक्ष्म होती जाएगी। एक घड़ी आखिरी आएगी जब बिलकुल शून्य रह जाएगा; शून्य की भी ध्वनि है— 'साउन्डलेस साउष्ड'। उसको भारतीय मनीषि अनहद नाद कहते रहे हैं। वह जो नाद है—जबकि ऐसा मालूम पड़ता है जैसे शून्य आ गया। लेकिन शून्य का भी अपना सन्नाटा है, उसकी भी अपनी ध्वनि है। वह उस शून्य के सन्नाटे की आखिरी पकड है। मनुष्य की चेतना में खोज करने की वजह से जो आखिरी चीज मिलती है, निराकार में उतरने के पहले, वह ध्वनि है। इसलिए उनका कहना बिलकुल ठीक था कि अन्तिम तत्व ध्वनि होनी चाहिए।
वैज्ञानिक पदार्थ की खोज करके जिस आखिरी तत्व पर पहुंचते हैं जिसके आगे सब खो जाता है, निराकार आ जाता है, वह विद्युत कण है। सोचने जैसा यह है, कि पदार्थ का जो आखिरी कण. क्या चेतना का आखिरी —क्या उससे पहले होगा या पीछे.. या आगे होगा? निश्‍चित ही चेतना, पदार्थ से ज्यादा गहन वस्तु है। निश्‍चित ही चेतना, पदार्थ से ज्यादा रहस्यमय वस्तु है। और सम्भावना यही है कि चेतना का जो अन्तिम कण हो वह पदार्थ के अन्तिम कण से आगे हो। इसलिए भारतीय मनीषि ध्वनि को विद्युत कण से आगे रखने की दृष्टि से प्रस्तावित किए हुए हैं।
संगीत, कीर्तन, भजन, प्रार्थना, मंत्र, सब ध्वनि के उपयोग हैं। और प्रत्येक ध्वनि के साथ आपके भीतर एक स्थिति पैदा होती है। ऐसी कोई भी ध्वनि नहीं है जो आपके भीतर कोई स्थिति पैदा न कर जाती हो। सब ध्वनियां आपके भीतर एक स्थिति पैदा करती हैं। और अब तो साउण्‍ड इलेक्ट्रानिक पर काम करनेवाले वैज्ञानिकों का खयाल है कि अब तक हम इनकार किये वह ठीक नहीं था। अब तो बात जाहिर और साफ हो गई है, कि जिस पौधे में फूल महीने भर बाद आनेवाले हैं उसके पास अगर एक विशेष प्रकार का वाद्य बजाया जाए तो फूल महीनेभर पहले आ जाते हैं। जो गाय सेर भर दूध देती है उसके पास विशेष ध्वनि बजायी जाए तो उसका दूध बिलकुल खो जाता है, या दुगुना भी हो जाता है। असल में ध्वनि का आघात होता है आपकी चेतना पर। ध्वनि आघात करती है आपके भीतर जाकर। हम तलवार से आपकी सिर्फ गर्दन काट सकते हैं लेकिन ध्वनि की तलवार से आपके मन को भी काट सकते हैं। तलवार आपके मन को न काट पाएगी, लेकिन ध्वनि की धार ज्यादा तीक्ष्ण है जो मन को भी काट जाएगी।
ऐसी ध्वनि की तीव्र धारों के प्रयोग किए गए, जिनसे मन कट जाए, और साधक मिट जाए, भक्त मिट जाए और अनन्त की यात्रा पर निकल जाए। सभी धर्मों ने विशेष ध्वनियों कै प्रयोग किए हैं। विशेष ध्वनियों पर हजारों वर्ष की साधना से बड़े परिष्कार हुए।
अभी एक साधक मेरे पास जापान से था, वह जिस सम्प्रदाय में दो वर्ष साधना करके आ रहा था, वह है—सोटो झेन। उसमें साधक को मुंह मुंह—इस तरह की आवाज करवाई जाती है—चौबीस घण्टे। साधक खाना खा लेता है, विश्राम कर लेता है, बस इतना छोड्कर तीन बजे रात उठ आता है। खान करके बैठ जाता है मुंह.. मुंह... मुँह बोलता रहता है। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, आप कल्पना नहीं कर सकते कि क्या होगा, क्योंकि एक ध्वनि का कभी इतना प्रयोग नहीं किया है।
तीन दिन के बाद उस साधक के भीतर विचार क्षीण हो जाते हैं। मुंह और मुंह की ही आवाज भीतर गूंजने लगती है। एक तूफान भीतर पैदा हो जाता है मुंह... मुंह.. मुंह! सारे शब्द गिर जाते हैं। मुंह की ध्वनि तलवार बन जाती है तीन दिन में, और सब विचारों को काटकर गिरा देती है।
सात दिन पूरे होते—होते उस साधक को 'मुंह' की आवाज करनी नहीं पड़ती। वह चाहे बैठा हो, चाहे चल रहा हो, 'मुंह' की आवाज अपने आप चलने लगती है। वह उसके रोएं रोएं में व्याप्त हो जाती है। खाना खाना मुश्किल हो जाता है उसको, क्योंकि जब वह खाना खा रहा है तब भी मुंह—मुंह—मुंह की आवाज चल रही है। नींद सात दिन के बाद कठिन हो जाती है, क्योंकि वह सो रहा है लेकिन ओंठ उसके मुंह—मुंह—मुंह में लगे हुए हैं। नींद में वह आवाज उसके भीतर घुसती जा रही है।
इक्कीस दिन पूरे होते—होते वह साधक शेरों की तरह दहाड़ने लगता है—मुं. ह.! और चिल्लाने लगता है। उसकी आंखें बदल जाती हैं। उसका चेहरा बदल जाता है, उसका ढंग बदल जाता है। वह बिलकुल रोरिग..... सिंहनाद करने लगता है— 'मुंह' का। और गुरु उसको लगाए रखता है कि वह जारी रखे। जैसे ही सिंहनाद शुरू होता है वैसे ही गुरु उससे कहता है, जोर—जोर से, और जोर से। फिर खाना, पीना, सोना, बन्द हो जाता है। खा ही नहीं सकता, गैप ही नहीं रखता— 'मुंह' की आवाज चलती ही रहती है।
चौथे सप्ताह में उसकी नींद, उसका भोजन, उसका खान सब विदा हो जाता है—सिर्फ 'मुंह' की आवाज चलती रहती है। वह बिलकुल पागल हो जाता है। ठीक उस जगह पहुंच जाता है जहां पागल आदमी मुश्‍किल से कभी पहुंचता है। उस किनारे पर, जहां उसको कोई होश नहीं है, सिर्फ एक आवाज 'मुंह' रह गई है। उससे पूछो नाम तुम्हारा, वह कहेगा—मुंह। एक महीना निरन्तर ऐसा करते उसे अपने शरीर का बोध नहीं रह जाता, बल्कि एक ध्वनि का बोध भर रह जाता है। मैं कौन हूं उसे पता नहीं रहता। उस पर सब पाबंदी रखनी पड़ती है, उसको रोककर रखना पड़ता है, वह कहीं भी जा सकता है, वह कुछ भी कर सकता है। अब उसे कुछ भी पता नहीं है, अब उस पर चौबीस घण्टे विजिल, पहरा रखना पड़ता है।
जिस दिन से उसमें सिंह की आवाज शुरू होती है और खाना—पीना, नींद बन्द हो जाती है, उस दिन से उस पर पूरा पहरा रखना पड़ता है। अचानक आखिरी क्षणों में वह आखिरी आवाजें लगाता है। इतनी भयंकर आवाजें लगाता है कि जिसका कोई हिसाब हम नहीं लगा सकते। जितनी शक्ति होती है वह सारी आवाज में ही निकलती है। जैसे भीतर कोई घाव खुल गया या भीतर कोई प्रेत जग गया है, और वह आवाजें लगाए चला जाता है। आखिरी हुंकार जैसे ही उसकी हो जाती है वैसे ही सब शान्त हो जाता है। जैसे लहर उठी तूफान की आखिरी छलांग लेकर, और गिर गई। जैसे आखिरी क्लाइमेक्स आ गया, आखिरी चरम स्थिति आ गई, और सब चीजें बिखर गयीं। फिर वह आदमी गिर जाता है।
कभी सात दिन, कभी पन्द्रह दिन, और कभी इक्कीस दिन भी वह बिलकुल शान्त पड़ा रहता है। हाथ—पैर भी नहीं हिलाता, सब शान्त हो जाता है। और जब सात दिन, या चौदह दिन या पन्द्रह दिन बाद वह आदमी वापस लौटता है तो वह वही आदमी नहीं होता, वह दूसरा ही आदमी होता है।
तब वे कहते हैं, 'द ओल्ड मैन हैज डाइड', वह पुराना आदमी मर गया, अब वह नया आदमी है। इसमें कुछ भी पुराना नहीं खोजा जा सकता है—न इसका क्रोध, न इसका काम, न इसका लोभ, उसका कुछ भी पुराना आदमी नहीं खोजा जा सकता। यह बिलकुल नया आदमी है। इस कष्टी जीव से, पुराने से इसका सातत्य टूट गया है। 'मुंह ' के प्रयोग से, ध्वनि के इतने तीव्र आह्वान से, पूरी चेतना का रूपांतरण हो गया। ओम् भी वैसे ही ध्वनि है।
सारी दुनिया के सब धर्मों के पास अपनी ध्वनियां हैं, जो पूजा में उपयोग की जाती हैं। उनकी पूजा में जैसे—जैसे गहराई बढ़ती जाती है वैसे—वैसे भीतर ध्वनि की चोट से रूपान्तरण होने शुरू हो जाते हैं। भजन, कीर्तन भी विशेष ध्वनियों के आधार हैं, और इसीलिए पुनरुक्ति पर जोर है। अगर आपने एक भजन एक दिन किया, दूसरे दिन दूसरा भजन किया, तीसरे दिन तीसरा भजन किया तो परिणाम नहीं होंगे। सतत चोट चाहिए, एक ही केन्द्र पर सतत चोट चाहिए! जैसे कोई आदमी एक हथौड़ी से कील एक जगह ठोंक दे, फिर दूसरी जगह ठोंक दे, फिर तीसरी जगह ठोंक दे तो उससे कोई उसकी कील ठुकने वाली नहीं है।
एक आदमी एक जगह कुआं खोद ले दो फीट, दो फीट दूसरी जगह खोद ले और तीसरी जगह खोद ले, उससे कोई कुंआ खुदने वाला नहीं है। सतत एक ही बिन्दु पर खुदाई होनी चाहिए, इसलिए पुनरुक्ति पर इतना आग्रह रहा है। इतना आग्रह कि एक महीने भर आदमी 'मुंह' और 'मुंह' की पुनरुक्ति कर रहा है, या ओम् की ध्वनि लगा रहा है। एक ही गीत की कड़ी को दोहराए चला जा रहा है, एक ही धुन को किए चला जा रहा है।
इसमें खतरा भी है कि अगर इसको मैकेनिकल, यांत्रिक ढंग से किया तो मेहनत बेकार चली जाएगी। लेकिन अगर इसको पूरे प्राण डालकर किया. अगर यों ही आदमी बैठा हुआ मु... मु.. मु करता है, जैसे एक काम कर रहा है तो कुछ परिणाम नहीं होगा। यह 'मुंह' इसका प्राण बन जाए, जीवन—मरण का सवाल बन जाए, यह दांव लगा दे अपना सब, यह आवाज ऐसी मुंह से न कर दे। इस आवाज में इसके शरीर का रोया—रोया सम्मिलित हो जाए, इसके एक—एक सेल, एक—एक कोष्ठ की ऊर्जा इसमें लग जाए, इसकी एक—एक स्रायु इसमें संयुक्त हो जाए, खून इसका पुकारने लगे, हड्डियां, मांस—पेशी एक एक चिल्लाने लगे! इसका पूरा का पूरा अस्तित्व 'मुंह' की आवाज बन जाए तो ध्वनि के द्वारा परिणाम हो पाएगा।
भक्त भी एक ही कड़ी दोहराए चला जाए वर्षों तक। वह एक ही क्ली दोहराने का प्रयोजन है। चोट करनी है एक ही जगह, और चोट करते ही चले जाना है जब तक कि द्वार खुल ही न जाए। और द्वार खुल जाता है।
पूजा में ध्वनि का, नृत्य का, कीर्तन का इन सबका उपयोग हुआ है और इन सबका उपयोग मूर्ति के सामने है। ताकि किसी भी क्षण यह खयाल न भूल जाए। क्योंकि अकेला नृत्य एक बात है, वह तो नर्तक भी कर रहा है, नर्तकी भी कर रही है, उसको कोई परम ज्ञान उपलब्ध नहीं हो जाता। वह नृत्य के लिए ही नृत्य कर रहा है, तब कोई परम ज्ञान से संबंध न होगा।
यह मूर्ति के सामने चल रहा है सारा क्रम।, उस मूर्ति के सामने चल रहा है जिसमें अपने प्राण डाल दिए है। वह मूर्ति चौबीस घण्टे स्मरण दिलाती रहेगी कि नृत्य के लिए नृत्य नहीं है, यह नृत्य तो परिधि पर है, केन्द्र तो वहां है—केन्द्र तो तू है, उसके लिए सारा नृत्य चल रहा है।
यह स्मरण बना ही रहे पूरे वक्त कि यह नृत्य मूर्ति के आस—पास चल रहा है। यह नृत्य के लिए नृत्य नहीं है, यह किसी परम सत्ता में छलांग लेने की तैयारी है। वह मूर्ति सतत स्मरण दिलाती रहेगी तो ही, अन्यथा नाच नाचनेवाले हैं, वह गीत गानेवाले हैं, भक्तों से बहुत अच्छा गीत गा लेते हैं। उससे कुछ भी न होगा। गानेवाला गाने के लिए गाता है—प्रयोजन गीत है, या प्रयोजन संगीत है। भक्त को संगीत से प्रयोजन नहीं है, भक्त को गीत से प्रयोजन नहीं है, भक्त को राग बिठालने से प्रयोजन नहीं है, भक्त को प्रयोजन कुछ और है।
वह प्रयोजन यह है कि वह इतना मस्त हो जाए, वह इतना छोड़ पाए अपने को, कि कोई भी हो, कोई भी धारा उसे बहा ले जाए अनन्त की तरफ। वह परिधि बन जाए और केन्द्र कोई और बन जाए और वह बह सके, प्रवाहित हो सके। यह सब प्रवाहित होने के लिए एक लिक्किडिटी पैदा हो सके उसमें, सब तरल हो जाए और बहने लगे।
अकसर आपको भक्त रोता हुआ मिल जाएगा, वह दुख से नहीं रोता है, आनन्द से रोता है। और आंसू भीतर जब कुछ तरल होता है तभी बहते हैं—चाहे दुख में तरल हो जाए, चाहे सुख में तरल हो जाए। भीतर जब सब कुछ तरल हो जाता है तभी आंसू बहने शुरू हो जाते हैं। अभी तक वैज्ञानिक ठीक से नहीं बता पाए हैं कि आंसुओ का प्रयोजन क्या है आदमी के शरीर में? ज्यादा से ज्यादा जो खोज पाए है, वह इतना ही खोज पाए हैं कि आंख पर जो धूल वगैरह जम जाती है, उसकी सफाई का प्रयोजन दिखायी पड़ता है। और कोई प्रयोजन नहीं दिखायी पड़ता इन ग्रंथियों का आंख के भीतर। जो आंसुओ की ग्रन्धियां हैं। उनका एक ही प्रयोजन मालूम पड़ता है—आंख की सफाई कर सकें।
लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि आंख की सफाई की जरूरत तभी पड़ती है जब कोई आनन्द में होता है या दुख में होता है! बाकी समय आंख पर धूल नहीं जमती। बाकी समय आंख की सफाई की कोई जरूरत नहीं पड़ती। जब भी भीतर ओव्हरफ्लोइंग होती है, कुछ अतिरेक हो जाता है—चाहे दुख का, चाहे सुख का, तभी आंसू बहना शुरू हो जाता है।
ये आंसू की ग्रनथियां तभी खुलती है जब भीतर कुछ तरल हो जाता है, और बहना शुरू हो जाता है। भक्त भी रोये, पर भक्तों का रोना बहुत अलग है। कोई गैर भक्त नहीं जान सकता कि भक्त क्यों रोये! क्या हुआ उनके भीतर कि वे रो रहे हैं। आप देखेंगे, तो शायद लगेगा कि कोई तकलीफ है जीवन में, तो भगवान के सामने हाथ जोड़कर रो रहे हैं। जो तकलीफ से भगवान के सामने रो रहा है वह तो अभी केन्द्र खुद है, वह अभी भक्त नहीं है, अभी उसे पूजा का कोई पता नहीं है। नहीं, लेकिन एक क्षण ऐसा आता है कि जब चेतना बिलकुल तरल हो जाती है, सब ठोसपन—फ्रोजननेस.. जहां—जहां जम गये हैं भीतर हम, वह सब मिट जाता है, पिघल जाता है। बर्फ के टुकड़े नहीं रह जाते भीतर, तरल पानी हो जाता है, बहाव आ जाता है। तब आसुंओं की धारा अविरल शुरू हो जाती है। वह आंसू किसी परम अनुकम्पा को धन्यवाद देने के लिए बहते हैं—किसी परम प्रसाद को, किसी 'पेस' को। कुछ जो उतरना शुरू हुआ है, उसको देने के लिए हमारे पास आंसुओ के सिवाय और कुछ भी नहीं बचता।
वह जो हमें मिला है, उसकी हममें कोई पात्रता नहीं है! जो आनन्द उतरना शुरू हुआ है उसको सम्हालने की भी हमारे पास कोई जगह नहीं है! जो बरस रहा है हमारे ऊपर, वह हम कभी सोच भी नहीं सकते, सपने में भी, कि हमें कभी मिल पाएगा। अब उसको धन्यवाद देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं है, न शब्द धन्यवाद दे पाएंगे कुछ भी। उस वक्त आंख एक अलग ही ढंग से रोती है।
भक्त की आंख जैसी रोयी है वैसी कभी किसी की आंख नहीं रोयी है। प्रेमी की आंख भी रोती है, पर उसमें वह बात नहीं होती। प्रेमी की आंख में भी बहुत तरह की क्षुद्रताएं इकट्ठी हो जाती हैं, लेकिन भक्त की आंख अकारण ही रोती है। कोई प्रयोजन नहीं है, अब कोई उपाय नहीं है, निरुपाय है भक्त। वह परमात्मा को धन्यवाद देना चाहे तो मुंह से शब्द नहीं निकलता, और जब मुंह नहीं बोलता तब आंख अपने ढंग से बोलना शुरू करती है। पूजा की पूर्णता आंसुओं में है, तरलता में है, बह जाने में है!
बहुत ढंगों से, बहुत प्रकार से मूर्ति का उपयोग इस परम अनुभूति के लिए किया गया है। जो मूर्ति के खिलाफ बोलते हैं उन्हें पूजा का कोई पता नहीं होता। और तब ठीक है, उनके बोलने का उतना ही उपयोग है जितना किसी भी अज्ञानी के बोलने का कोई उपयोग हो सकता है। लेकिन इस सदी में उस तरह की बातें बहुत प्रभावी हो गयी हैं, क्योंकि और लोगों को भी कोई पता नहीं है। और जब किसी को भी कोई पता न हो तो जो भी हमें कहा जाए उसे स्वीकार करने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता।

और मन का एक नियम है—निषेध की बात को जल्दी स्वीकार कर लेता है, क्योंकि निषेध की बात में कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ता है। एक आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, तो उसे कुछ भी सिद्ध नहीं करना। वह सदा कह सकता है। जो कहता है, 'है' वह सिद्ध करके बता दे। 'नहीं है' कहने के लिए कोई भी तो सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी पड़ती। 'है' —तो फिर सिद्ध करने की चेष्टा करनी पड़ती है! इसलिए निषेध को स्वीकार करने के लिए मन बड़ी जल्दी राजी हो जाता है। विधेय को स्वीकार करने के लिए मन बड़ी बाधा डालता है, क्योंकि मन को फिर श्रम उठाना पड़ता है। पूजा एक विधेय है, मूर्ति भी एक विधेय है। इनकार करना हो, कोई कठिनाई नहीं है, कह दो कि नहीं है।
तुर्गनेव ने एक छोटी—सी कहानी लिखी है। लिखा है कि गांव में एक आदमी था—बहुत बुद्धिमान आदमी था, बहुत प्रतिभाशाली आदमी था। उसी गांव में एक महामूढ़ भी था। उस महामूढ़ ने इस बुद्धिमान आदमी से जाकर पूछा कि मुझे भी बुद्धिमान होने का कोई रास्ता बता दो। उस बुद्धिमान आदमी ने पूछा कि तुझे बुद्धिमान दिखना है, कि होना है। क्योंकि 'होने' का रास्ता बहुत लंबा है। 'दिखना' हो तो बहुत आसान है मामला। उसने कहा, आसान ही बताइए, कठिन अपने से न हो सकेगा। होने की झंझट छोड़िए, दिखना काफी है, दिखने से काम चल जाएगा।
उस बुद्धिमान आदमी ने कहा कि होने में तो कभी भूल—चूक भी हो सकती है, लेकिन दिखने में कभी भूल—चूक नहीं होगी। उस महामूढ़ ने कहा, फिर और भी अच्छा है, आप देर न करिए। उस बुद्धिमान आदमी ने उसके कान में एक मंत्र बोल दिया और उस दिन से गांव में खबर होनी शुरू हो गयी कि वह आदमी बुद्धिमान हो गया। सच ही सारे गांव में खबर फैलने लगी—दूसरे दिन से, सुबह से चर्चा सारे गांव में चलने लगी। क्या मंत्र फूंक दिया! एक छोटा—सा मंत्र, एक निषेध का सूत्र उसे दे दिया।
उसने कहा, जब भी कोई कुछ कहे, फौरन इनकार करो। जैसे कोई कहे कि शूतैं—पूजा में कुछ है, कहो कि कुछ भी नहीं है। बोलो, कहां है! उस आदमी ने पूछा, अगर मुझे पता न हो तो भी? तू पते की फिक्र ही मत कर। तू सिर्फ इनकार करते जाना। कोई कहे कि कालिदास की किताब बहुत अदभुत है। तू कहना, कचरा है—क्या है उसमें? सिद्ध करो! कोई कहे, बिथोवन का संगीत परम स्वर्गीय है, तू कहना कि नर्क में भी ऐसा संगीत बजता है। तुम सिद्ध करो कि स्वर्ग का कैसा है! तू बस एक बात याद रख, इनकार करना और जो गड़बड़ करे, उससे कहना सिद्ध करो।
पंद्रह दिन में वह आदमी गांवभर में महाबुद्धिमान हो गया। लोगों ने कहा, उसका ओंर—छोर पाना कठिन है। किसी ने कहा कि शेक्सपीयर ने इतने सुंदर गीत लिखे। उसने कहा, क्या रखा है, कचरा है। स्कूल के बच्चे लिख सकते हैं। जो शेक्सपीयर की तारीफ कर रहा था, वह डर गया। क्योंकि कुछ भी सिद्ध करना कठिन बात है। और कुछ भी असिद्ध करने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं है।
हमारी यह सदी बहुत अर्थों में कई तरह की मूढ़ताओं की सदी है। हमारी छूता का जो सबसे बड़ा आधार है वह निषेध है। पूरी सदी कुछ भी इनकार किए चली जाती है। और दूसरे भी सिद्ध नहीं कर पाते तब वे भी निषेध की धारा में खड़े हो जाते हैं। लेकिन ध्यान रहे, जितना निषेधात्मक होगा जीवन, उतना ही क्षुद्र हो जाएगा। क्योंकि इस जगत क। कोई भी सत्य विधेयक हुए बिना उपलब्ध नहीं होता। जितना निषेधात्मक होगा जीवन उतना बुद्धिमान ऊपर से दिखायी पड़ेगा, भीतर बहुत बुद्धिहीन हो जाएगा।
जितना निषेधात्मक होगा जीवन, उतनी ही सत्य की, सौंदर्य की, आनंद की, किसी की किरण भी नहीं उतरेगी। क्योंकि कोई भी महत्तर अनुभव विधायक चित्त में ही अवतरित होता है। निषेधात्‍मक चित्त में कोई भी महत्वपूर्ण अनुभव अवतरित नहीं होता। असल में जिसने कहा, नहीं, उसका मन बंद हो जाता है।
कभी शब्द का खयाल किया है आपने? अपने कमरे को बंद करके जोर से कहकर देखना, 'नहीं' —तब आपको पता चलेगा, सारा हृदय सिकुड़कर बंद हो गया है। और उसी कमरे में जोर से कहना— 'हां' और आपको पता लगेगा, सारे हृदय ने पंख खोलकर जैसे आकाश में उड़ान ली है।
शब्द ऐसे ही निर्मित नहीं होते हैं। उनकी समानांतर घटना भीतर घटती है। 'नहीं' कहते ही भीतर कोई चीज बंद हो जाती है और सिकुड़ जाती है। और 'हां' कहते ही कोई चीज खुल जाती है।
सेंट अगस्टीन से किसी ने पूछा, क्या है तेरी प्रार्थना, क्या है तेरी पूजा? तो सेंट अगस्टीन ने कहा, यस, यस, यस माई लॉर्ड! इतनी ही मेरी पूजा है। हां, हां, हां मेरे प्रभु! इतनी ही मेरी पूजा है। इतनी ही मेरी प्रार्थना है। वह तो नहीं समझा होगा कि वह क्या कह रहा है, लेकिन जो हृदय इस पूरे जीवन को 'हां' कहने के लिए तैयार हो जाए वह आस्तिक है।
आस्तिकता का अर्थ ईश्वर को 'हां' कहना नहीं, 'हां' कहने की क्षमता है। नास्तिक का अर्थ ईश्वर को इनकार करना नहीं, नास्तिक का अर्थ, '' के अतिरिक्त किसी भी क्षमता का न होना। बस, एक ही क्षमता, 'नहीं' —तो ठीक है—वैसा आदमी सिकुड़ता जाएगा, सिकुड़ता जाएगा और सड जाएगा। 'हां' —और वैसा आदमी खुलता है, और खुलता है, फैलता है और विराट तक उसकी उड़ान संभव हो पाती है।
मूर्ति—पूजा एक बहुत विधायक विधि, एक पोजिटिव उपाय है। पर इतनी बातें सोचकर, समझकर गहरे उतरेंगे तब आपको पता चलेगा कि मूर्ति में, पूजा में, मूर्ति—पूजा में.. मूर्ति तो कहां है? पूजा ही है! मूर्ति तो बस शुरुआत है। और एक पूजा परमात्मा की है, यह भी ठीक है, लेकिन गहरे में तो आपका ही रूपांतरण है। परमात्मा तो बहाना है—उस बहाने, अपने को बदलने में सुविधा मिल जाती है। जिस डाक्टर रोडाल्फ की मैं बात कर रहा था शुरू में, इस आदमी ने एक और महत्वपूर्ण नियम खोजा है, वह मैं आपसे कहूं जो इसके लिए उपयोगी होगा।
जब भी हमारे मस्तिष्क में कोई विचार पैदा होता है तो उस विचार को यात्रा करनी पड़ती है स्नायुओं से, मांसपेशियों से, शरीर के तंत्र से। समझ लो कि मेरे मन में विचार पैदा हुआ कि मैं आपको प्रेम करूं और आपका हाथ अपने हाथ में ले लूं। मेरे मस्तिष्क का यह विचार अपनी यात्रा शुरू करता है। और मेरे शरीर के बहुत से यांत्रिक ढांचे को पार करके मेरी हाथ की अंगुलियों तक आता है।
रोडाल्फ ने मनुष्य के स्नायुओं पर महत्वपूर्ण खोज करके यह पता लगाया है कि जब विचार पैदा होता है कि मैं प्रेम करूं और आपका हाथ अपने हाथ में ले लूं तब अगर उसको हम मान लें कि उसमें सौ शक्ति है, सौ की पोटेशियलिटी है तो उंगली तक पहुंचते—पहुंचते एक ही पोटेंशियलिटी रह जाती है। अगर हम सौ शक्ति मान लें उसमें तो उंगली तक आते एक शक्ति, निन्यान्नबे की शक्ति, बीच के स्न्‍नायुओं में जो ट्रांसफर होने की यात्रा है, उसमें खो जाती है। सभी विचार हमारे व्यक्तित्व की बाहरी पर्त तक आते—आते बिलकुल निर्जीव हो जाते है
इसीलिए तो जब मन में हम सोचते हैं कि किसी का हाथ प्रेम से हाथ में ले लें तब जितना सुखद मालूम पड़ता है, उतना सुखद तब नहीं मालूम पड़ता है जब हम हाथ में हाथ लेते हैं। तब ऐसा लगता है कि कुछ खास न हुआ। यह बात क्या हो गई? यह कुछ खास क्यों न हुआ?
एक आदमी संभोग के संबंध में सोचता रहता है, बड़ा सुख मन में पाता है। लेकिन संभोग के कृत्य में जाकर सिर्फ डिप्रेस्ट होकर लौटता है। पीछे से लगता है कि इसमें कुछ हुआ नहीं। बात क्या हो गयी? मस्तिष्क में जो विचार था वह सौ की पोटेशियलिटी का था। जब तक वह शरीर की परिधि तक आता है तब तक एक की पोटेशियलिटी रह जाती है। और कभी—कभी एक की भी नहीं रह जाती। और कभी—कभी नैगेटिव पोटेशियलिटी भी हो जाती है। अगर रुग्ण शरीर हो तो शरीर की यात्रा में इतनी शक्ति पी जाता है वह विचार कि पहुंचते—पहुंचते निगेटिव हो जाता है। यानी कई बार ऐसा हो जाता है कि जिसका हाथ—हाथ में लेकर सोचा था सुख मिलेगा, उसका हाथ लेकर सिर्फ दुख मिलता है—ऋणात्मक हो जाता है। रोडाल्फ का कहना है कि अगर यही स्थिति है तो आदमी कभी सुख न पा सकेगा।
क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है कि विचार मेरे मस्तिष्क से सीधी छलांग लगाकर आपके मस्तिष्क में प्रवेश कर जाए? धर्म कहता है, ऐसा उपाय है। और रोडाल्फ भी कहता है, उसके अपने हजारों प्रयोगों के आधार पर, कि विचार सीधी छलांग भी लगा सकते हैं। तब, मेरे मन में जो विचार उठा है वह मेरे पूरे शरीर की यात्रा करके मेरे शरीर के माध्यम से आप तक जाए, इस पूरी चैनल का, इस पूएर यंत्र का उपयोग नहीं किया जाता।
तब मैं अपने विचार को अपने आज्ञाचक्र पर आंख बंदकर के रोकता हूं और सीधा उसे छलांग लगाकर आपके आज्ञाचक्र में पहुंचाता हूं। सारी टेलीपैथी, सारा विचार का संक्रमण इसी कला पर निर्भर है। रोडाल्फ ने एक—एक हजार मील दूर तक विचार संक्रमित करके बताए, दूसरे प्रयोगों में।
रूस में हावर्ड ने, और दूसरे प्रयोगों में दूसरे लोगों ने भी बहुत दूर तक विचार का संक्रमण करके बताया। तब कुछ नहीं... अपने विचार को सिकुड़कर अपने आज्ञाचक्र पर इकट्ठा कर लेना है, जैसे कि कोई घूमता हुआ छोटा—सा सूर्य आपके विचार का बन गया और आपके मस्तिष्क में घूमने लगा हो भीतर। उसे छोटा करते जाना है, कन्सट्रेट... कन्सट्रेट—छोटे से छोटा, ताकि वह ज्यादा पोटेंशियल हो जाए। शरीर पर फैलता है तो पोटेशियलिटी कम हो जाती है। उसे इकट्ठा करते जाना है। बस एक छोटा—सा बिंदु रह जाए प्रकाश का, ऐसा अनुभव कर लेना है—कि मेरा विचार एक प्रकाश का छोटा—सा बिंदु रह गया, जितना छोटा कर सकें, उसे छोटा करते जाना। एक घड़ी आती है, जब वह इतना छोटा हो जाता है कि उसके आगे छोटा नहीं हो सकता, वहां घड़ी छलांग लगवा देने की घड़ी है! तब सिर्फ इतना खयाल करना है कि वह मस्तिष्क से छलांग लगाकर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में चला गया है। वह दूसरा व्यक्ति चाहे कितनी ही दूर हो, सिर्फ आपकी कल्पना में होना चाहिए कि वह दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रवेश कर गया, उसके आज्ञाचक्र पर चला गया। वह ट्रांसफर हो जाएगा! टेलीपैथी, विचार का संक्रमण बिना माध्यम के इस कला पर निर्भर है।
इसलिए बिंदु की साधना धर्म ने बहुत—बहुत रूपों में की है। बिंदु की साधना का यही वैज्ञानिक रूप है। इसका व्यक्ति में भी उपयोग कर सकते हैं और इसको हम परमात्मा के लिए भी उपयोग कर सकते हैं।
जैसे महावीर की मूर्ति रखकर आप बैठें। महावीर की तो चेतना खो गयी अनंत में। लेकिन इस मूर्ति के सामने अगर बैठकर आप अपनी, पूरे के पूरे प्राणों की ऊर्जा को आज्ञाचक्र पर इकट्ठा करके छलांग लगवा दें मूर्ति के मस्तिष्क में, तो तत्‍क्षण वह विचार महावीर की चेतना तक संक्रमित हो जाएगा। इस माध्यम से न मालूम कितने लोगों ने, न मालूम कितने पीछे आनेवाले लोगों को हजारों वर्ष तक सहायता पहुंचायी है। उनके लिए फिर बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट मरे हुए व्यक्ति नहीं रहते, जीवित व्यक्ति रहते है— अभी और यहीं। उनके लिए बात सीधी सामने होती है। और इसका प्रयोग सीधा परमात्म—शक्ति में छलांग लगाने के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन परमात्मा का केन्द्र आप कहां खोजेंगे? इस अपने मस्तिष्क में इकट्ठे हुए बिंदु को आप कहां छलांग लगाकर भेजेंगे?
सरल पड़ेगा, एक मूर्ति के माध्यम से इसे संक्रमित कर देना। इसको अनंत में सीधा फेंकने में बड़ी कठिनाई होगी। फेंका जा सकता है अनंत में भी सीधा, लेकिन उसके अलग टेकनीक है। जिन धर्मों ने मूर्ति का प्रयोग नहीं किया उन धर्मों ने उन टेकनीकों का प्रयोग किया है जिनसे अनंत में सीधी छलांग लगाई जा सकती है, लेकिन अति कठिन है।
इसलिए जो धर्म मूर्ति का प्रयोग नहीं करते वे थोड़े—बहुत दिन में घूम—फिरकर मूर्ति का प्रयोग शुरू कर देते है। अब जैसे कि इस्लाम ने मूर्ति का प्रयोग नहीं किया, लेकिन मस्जिद का प्रयोग शुरू हो गया। फकीरों की मजारें बन गयीं, फकीरों की समाधियां बन गयीं—उनका प्रयोग शुरू हो गया। आज भी मुसलमान दुनिया के किसी भी कोने में प्रार्थना करता है तो काबा के पत्थर की तरफ चेहरा करता है, अभी भी। वह काबा का जो पत्थर है वह इस बिंदु को उछालने के लिए काम में लाया जाने लगा—जों जानते है सिर्फ! जो नहीं जानते, वे तो सिर्फ मुंह करके खड़े हो जाते है। ऐसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि काबा पत्थर पर बिंदु को फेंका जाए कि किसी मूर्ति पर फेंका जाए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मूर्ति के चरण चूमे जाएं कि काबा के पत्थर का जाकर बोसा लिया जाए। कोई फर्क नहीं पड़ता, एक ही बात है।
मुहम्मद का कोई चित्र नहीं रखा, मुहम्मद की कोई मूर्ति नहीं बनाई, तो उससे क्या फर्क पड़ता है? दूसरा काम करना पड़ा। यह बड़े मजे की बात है, मुहम्मद का चित्र नहीं बनाया, मूर्ति नहीं बनायी; तो फिर बहुत छोटे फकीरों की मजारों पर फूल चढ़ाने पड़ते है। मुहम्मद के बराबर का सब्स्‍टीट्यूट नहीं खोजा जा सका फिर।
तो अगर कृष्ण आशा देते हों कि कोई फिक्र नहीं, मेरी मूर्ति के चरणों में तू आ जा, तो मैं मानता हूं कि बहुत दूरगामी हैं वे। क्योंकि कृष्ण की समझ यह है कि आदमी मूर्ति से तो बच न सकेगा। अनंत में सीधी छलांग लगानी इतनी दुष्कर है कि कभी करोड़ में एक आदमी लगाएगा। बाकी करोड़ का क्या होगा? अगर कृष्ण की मूर्ति न मिली तो क—ख—ग की मूर्ति मिलेगी जो बिलकुल ही साधारण होगी।
मुहम्मद की मूर्ति से बचने का परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह हुआ है कि गांव में एक फकीर मर जाता है तो उसकी मजार पर मुसलमान इकट्ठा होने लगते हैं। उसमें मुसलमान का कसूर नहीं है, उसमें मनुष्य की वह जो आंतरिक सुविधा है, वही है कारण। मैं भी मानता हूं कि मुहम्मद की मूर्ति से जो पैदा हो सकता वह इस मजार से नहीं हो सकता। हालांकि मुहम्मद जो कह रहे थे, बिलकुल ठीक कर रहे थे कि मूर्ति की कोई जरूरत नहीं है।
मगर करोड़ में एकाध आदमी के लिए वह बात ठीक है। और जिस आदमी के लिए वह बात ठीक है उस आदमी के लिए किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। मूर्ति की नहीं, उसके लिए काबा की भी कोई जरूरत नहीं, उसके लिए कुरान की भी कोई जरूरत नहीं, उसके लिए इस्ताम की भी कोई जरूरत नहीं, गीता की भी कोई जरूरत नहीं, कृष्ण की, बुद्ध की, किसी की भी कोई जरूरत नहीं। उस आदमी के लिए तो सभी कुछ बेकार है। वह सीधा ही जा सकता है। पर बाकी सबके लिए? बाकी सबके लिए सबकी जरूरत है! और उचित यह होगा कि श्रेष्ठतम मिले उन्हें।
जब जरूरत ही है तो उचित होगा कि बजाय हम किसी फकीर की मूर्ति बनाएं गांव के एक अच्छे आदमी की मूर्ति और मजार पूजे, उससे बेहतर है कि बुद्ध या कृष्ण या मुहम्मद या महावीर जैसे व्यक्ति की मूर्ति से यात्रा हो। जब जाना ही है सागर में, तो गांव की बनी डोंगी में यात्रा करना खतरे से खाली नहीं है। तब फिर विशाल पोत में, बड़े जहाज में यात्रा की जा सकती है। जब बुद्ध को नाव उपलब्ध होती हो, तो किसी आदमी ने गांव में ताबीज निकाल दिए हों, या किसी आदमी के आशीर्वाद से कोई बीमार ठीक हो गया हो, उसकी मजार पर इकट्ठा होना बिलकुल पागलपन है।
लेकिन अगर बुद्ध की मूर्ति उपलब्ध न होगी तो आदमी की जरूरत है भीतरी, कि वह कोई दूसरा सन्सील्यूट खोजेगा। ऊपर से दिखाई पडता है कि जिन लोगों ने इनकार कर दिया उन्होंने बड़ी ऊंची बात की। लेकिन् हजारों, लाखों साल का अनुभव था, जिन्होंने इनकार नहीं किया था, उनके साथ भी—उनके साथ भी अनुभव था कि आदमी को जरूरत पड़ेगी ही। वह आदमी की भीतरी कठिनाई है कि वह अनंत पर सीधा नहीं जा सकता, उसे एक बीच में पड़ाव चाहिए। वह पड़ाव जितना श्रेष्ठतम मिल सके उतना बेहतर है।
मूर्ति, दुनिया में ऐसा कोई समाज नहीं रहा आज तक अस्तित्व में, जहां निर्मित न हुई हो। एक भी मनुष्य जाति का कोई कबीला नहीं रहा कहीं, किसी भी कोने में, जहां किसी न किसी भी रूप से मूर्ति निर्मित न हुई हो। स्वभावत: इससे पता चलता है कि मनुष्य की, मनुष्यता की कोई आंतरिक जरूरत मूर्ति से पूरी होती है। सिर्फ हमारी सदी है, जिसे मूर्ति का खयाल टूटना शुरू हुआ है इन दौ सौ, ढाई सौ वर्षों में। मूर्ति, ऐसा मालूम होने लगी है कि वह व्यर्थ का बोझ है—उसे हटा दिया जाए। लेकिन हटाने के पहले अगर मूर्ति—पूजा का पूरा खयाल साफ हो जाए तो मैं नहीं सोचता हूं कि इस जगत में कोई बुद्धिमान आदमी उसे हटाने को राजी होगा। हां, अगर मूर्ति—पूजा का वितान ही खयाल में न रह जाए तो मूर्ति हटानी ही पड़ेगी, उसे बचाया नहीं जा सकता। वह अपने आप ही गिर जाएगी।
आज लोग पूजा भी कर रहे हैं बिना जाने, मूर्ति के सामने हाथ भी जोड़ रहे हैं बिना जाने। कोई हृदय का भाव नहीं रह गया है, सिर्फ औपचारिकता रह गई है। यह औपचारिक लोग ही मूर्ति को मिटवाने का कारण बनेंगे! क्योंकि यह मूर्ति भी पूज आते हैं और इनकी जिंदगी में तो कोई फर्क पैदा नहीं होता! यही खबर लाते हैं कि बेकार है।
एक आदमी चालीस साल से मूर्ति—पूजा कर रहा है और कुछ भी नहीं हो रहा है। वह अपने बेटे को कह रहा है कि तू भी मंदिर चल। वह बेटा पूछने लगा है कि आपको कुछ भी नहीं हुआ है चालीस साल में, आप मुझे कहां और किसलिए ले जाना चाहते हैं? कोई जवाब भी नहीं है उनके पास, क्योंकि हुआ हो तो जवाब की जरूरत नहीं रहती।
सुना है मैंने, ईसप की कथा है एक छोटी—सी, एक सिंह जंगल में एक—एक जानवर से पूछ रहा है—पूछता है एक भालू से कि क्या खयाल है तुम्हारा? जंगल का मैं राजा हूं न? भालू कहता है बिलकुल ही, निश्‍चित ही। कौन इस पर शक कर सकता है? और यही पूछता है एक चीते से। चीता थोड़ा—सा संकोच खाता है। फिर कहता है, नहीं, ठीक ही है बात, बिलकुल ठीक है। आप राजा हैं।
पूछता है वह फिर एक हाथी से। हाथी उसे उठाता है अपनी सूंड में और लपेटकर बहुत दूर फेंक देता है। सिंह नीचे गिरकर वहां से कहता है कि महाशय, अगर आपको जवाब का पता नहीं है तो सीधा मना क्यों नहीं कर देते हैं, फेंकने की क्या जरूरत है? सीधे ही कह दिया होता, इतनी तकलीफ की क्या जरूरत थी? कि आपको मालूम नहीं है, मैं चला जाता! मगर जो हाथी फेंक सकता है उठाकर, वह उसके जवाब देने बैठे!
कौन राजा है, इसके जवाब थोड़े ही देने पड़ते हैं। जो मूर्ति को पूज रहा है उसको जवाब न देना पडे, अगर उसको पूजा का पता हो। उसकी जिंदगी जवाब है। उसकी आंख, उसका उठना, उसका बैठना, वह जवाब बन जाए। लेकिन उसको जवाब देने पड़ते हैं... जवाब देने पड़ते हैं! वे जवाब कुछ भी नहीं हैं। ऐसे ही लोग जो मूर्ति को पूज रहे हैं, मूर्ति को हटवाने का कारण बन गए हैं। पूजा का ही पता नहीं है, बस हाथ में मूर्ति रह गयी है।
इसलिए मैंने पूजा की बात आपसे कही, कि उसे समझ लें, वह इनर टोटल ट्रांसफामेंशन है! अंतर समग्रता से परिवर्तन की व्यवस्था है! मूर्ति तो सिर्फ बहाना है—जैसे किसी खूंटी पर कोई कोट टांग दे—टांगना है कोट! आप मुझे देख लें कि खूंटी पर कोट टांग रहा हूं और आप मुझसे कहने लगे, कि क्या पागलपन है, इस खूंटी से क्या होगा? तो मैं आपसे कहूंगा कि खूंटी से कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो कोट टांगने की व्यवस्था है। खूंटी नहीं होती तो फिर किसी खोली पर टांगते, दरवाजे की नोक पर टांगते। वह तो टांगना पड़ेगा। लेकिन कोट टांगते वक्त आपको कोट दिखायी पड़ता है, खूंटी दिखायी नहीं पड़ती; इसलिए आप झंझट खड़ी नहीं करते और सवाल नहीं उठाते।
मूर्ति तो खूंटी है, पूजा है असली चीज, लेकिन मूर्तिपूजा के वक्त आपको पूजा तो दिखायी नहीं पड़ती, कोट तो दिखायी नहीं पड़ता, खूंटी दिखायी पड़ती है। आप कहते हैं, क्यों दीवार खराब कर रखी है? किसलिए रोक रखा है इस खूंटी को? कोट हो गया अदृश्य खूंटी रह गयी है दृश्य। पूजा का कोई भी पता नहीं है आपके पास! मूर्ति बैठी रह गयी है, तो मूर्ति बड़ी असहाय हो गयी है और बड़ी पराजित हो गयी है। और बच न सकेगी, क्योंकि पूजा का प्राण ही उसे बचा सकता है। इसलिए मैंने पूजा की बात आपसे कही।

 'गहरे पानी पै' :
(अंतरंग चर्चा)
बुडलैंड बम्बई,
दिनांक 16 जून 1971



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