'मैं
कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966—67
मैं
मनुष्य को
जड़ता में डूबा
हुआ देखता हूं।
उसका जीवन
बिलकुल
यांत्रिक बन
गया है।
गुरजिएफ ने
ठीक ही उसके
लिए मानव यंत्र
का प्रयोग
किया है। हम
जो भी कर रहे
हैं, वह कर
नहीं रहे हैं,
हमसे हो रहा
है। हमारे
कर्म सचेतन और
सजग नहीं हैं।
वे कर्म न
होकर केवल
प्रतिक्रियाएं
हैं।
मनुष्य
से प्रेम होता
है,
क्रोध होता
है, वासनाएं
प्रवाहित
होती हैं। पर
ये सब उसके
कर्म नहीं हैं,
अचेतन और
यांत्रिक
प्रवाह हैं।
वह इन्हें
करता नहीं है,
ये उससे
होते हैं। वह
इनका कर्ता
नहीं है, वरन
उसके द्वारा
किया जाना है।
इस
स्थिति में
मनुष्य केवल
एक अवसर है, जिसके
द्वारा
प्रकृति अपने
कार्य करती है।
वह केवल एक
उपकरण मात्र
है। उसकी अपनी
कोई सत्ता, अपना कोई होना
नहीं है। वह
सचेतन जीवन
नहीं, केवल
अचेतन
यांत्रिकता
है।
यह
यांत्रिक
जीवन मृत्यु
तुल्य है।
जड़ता
और
यांत्रिकता
से ऊपर उठने
से ही वास्तविक
जीवन प्रारंभ
होता है।
एक
युवक कल मिलने
आए थे। वे
पूछते थे कि
जीवन का किस
दिशा में
उपयोग करूं कि
बाद में
पछताना न पड़े।
मैंने कहा— 'जीवन
का एक ही
उपयोग है कि
वास्तविक
जीवन प्राप्त
हो। अभी आप
जिसे जीवन जान
रहे हैं, वह
जीवन नहीं है।’
जिसे
अभी जीवन मिला
नहीं, उसके
सामने उपयोग
का प्रश्न ही
नहीं उठता।
सत्य—जीवन की
उपलब्धि न
होना ही जीवन
का दुरुपयोग है।
उसकी उपलब्धि
ही सदुपयोग है।
उसका अभाव ही
पछताना है।
उसका होना ही
आनंद है।
जो
स्वयं ही
अस्तित्व में
न हो,
वह कर भी
क्या सकता है?
जिसकी
सत्ता अभी
प्रसुप्त है,
उससे हो भी
क्या सकता है?
जो
सोया हुआ है, उसमें
एकता नहीं, अनेकता है।
महावीर ने कहा
है— 'यह
मनुष्य बहुचित्तवान
है।’ सच ही
हममें एक
व्यक्ति नहीं,
अनेक
व्यक्तियों
का आवास है।
हम व्यक्ति
नहीं, एक
भीड़ हैं।
और, भीड़
तो कुछ भी निश्चय
नहीं कर सकती।
क्योंकि वह
निर्णय और
संकल्प नहीं
कर सकती।
इसके
पूर्व हम कुछ
कर सकें, हमारी
सत्ता का
जागरण, हमारी
आत्मा, हमारे
व्यक्ति का
होश में आना
आवश्यक है।
व्यक्तियों
की अराजक भीड़
की जगह
व्यक्ति हो, बहुचित्तता
की जगह चैतन्य
हो, तो
हममें
प्रतिकर्म की
जगह कर्म का
जन्म हो सकता
है। जुग ने
इसे ही
व्यक्ति—केंद्र
उपलब्धि कहा
है।
सजग
व्यक्ति के
अभाव में जीवन
के समस्त
प्रयास
व्यर्थ हो
जाते हैं, क्योंकि
न तो उनमें एक
सूत्रता होती
है और न एक
दिशा होती है,
उल्टे वे
स्व—विरोधी
होते हैं। जो
एक निर्मित
करता है, उसे
दूसरा नष्ट कर
देता है। वह
स्थिति ऐसी है
जैसे किसी ने
एक ही बैलगाड़ी
में चारों ओर
बैल जोत लिए
हों और चालक
सोया है, फिर
भी कहीं
पहुंचने की
आशा करता है।
मनुष्य
का साधारण
जीवन ऐसा ही
है। उसमें
लगता है कि
गति हो रही है, लेकिन
कोई गति नहीं
होती। सब
प्रयास
निद्रित हैं
और इसलिए
शक्ति के अपव्यय
से अधिक कुछ
नहीं है।
मनुष्य कहीं
पहुंच तो नहीं
पाता पर केवल
शक्ति—रिक्त
होता जाता है,
और जिसे
जीवन समझा था
वह केवल एक
क्रमिक और
धीमा आत्मघात
सिद्ध होता है।
जिस
दिन जन्म होता
है,
उस दिन ही
मृत्यु
प्रारंभ हो
जाती है। वह
आकस्मिक नहीं
आती है। वह
जन्म का ही
विकास है।
जो
वास्तविक
जीवन की
प्राप्ति में
नहीं लगे हैं, उन्हें
जानना चाहिए
कि वे केवल मर
रहे है।
जिन्होंने
सत्य—जीवन की
ओर अपने को
गतिवान नहीं
किया है, मृत्यु
के अतिरिक्त
उनका भविष्य
और क्या हो सकता
है! जीवन के दो
अंत हो सकते
हैं जीवन या
मृत्यु। या तो
हम और वृहत्तर
तथा विराट
जीवन में पहुंच
सकते हैं या
समाप्त हो
सकते हैं।
स्मरण
रहे कि जो अंत
हो सकता है, वह
आरंभ से ही
मौजूद होता है।
आरंभ में जो
नहीं है, वह
अंत में भी
नहीं हो सकता।
अंत प्रकट
होकर वही है, जो कि प्रकट
होकर आरंभ था।
और, तब
यदि जीवन के
दो अंत हो
सकते हैं, तो
उसमें निश्चय
ही प्रारंभ से
ही दो दिशाएं
और संभावनाएं
वर्तमान होनी
चाहिए। उसमें
जीवन और
मृत्यु दोनों
सन्निहित हैं।
जड़ता मृत्यु
का बीज है, चैतन्य
जीवन का।
मनुष्य इनका
द्वैत है।
मनुष्य
जीवन और
मृत्यु का
मिलन है।
मनुष्य चेतना
और जड़ता का
संगम है।
मनुष्य
यंत्र भी है, पर
उसमें कुछ ऐसा
है, जो
यंत्र नहीं है।
उसमें अयांत्रिकता
भी है। वह
तत्व जो जड़ता
और
यांत्रिकता
को समझ पाता है,
और उसके
प्रति सजग और
जागरूक हो
पाता है वही तत्व
उसकी अयांत्रिकता
है। इस
अयांत्रिक
दिशा को पकड़कर
ही जीवन तक
पहुंचा जाता
है।
मैं
जो अपने में
चेतना पा रहा
हूं यह बोध पा
रहा हूं कि 'मैं
हूं, यह
बोध—किरण ही
मुझे सत्ता
में ले जाने
का मार्ग बन सकती
है। साधारणत:
यह किरण बहुत
धूमिल और
अस्पष्ट है।
पर
वह अवश्य है
और उसका होना
ही
महत्वपूर्ण
है। अंधेरे
में वह धूमिल
किरण ही
प्रकाश तक
पहुंच सकने की
क्षमता की
सूचना और
संकेत है।
उसका होना ही
निकट ही
प्रकाश—स्रोत
के होने का
सुसमाचार है।
मैं तो एक
किरण के होने
से ही सूरज के
होने के
विश्वास से भर
जाता हूं। उसे
जानकर ही क्या
सूरज को नहीं
जान लिया जाता?
मनुष्य
में जो बोधि—किरण
है वह उसके
बुद्धत्व का
इंगित है।
मनुष्य
में जो होश का
मंदा—सा आभास
है,
वह उसकी
सबसे बड़ी
संभावना है, वह उसकी
सबसे बड़ी
संपत्ति है।
उससे
बहुमूल्य
उसमें कुछ भी
नहीं है। उसके
आधार पर चलकर
वह स्वयं तक
और सत्ता तक
पहुंच सकता है।
वह जीवन, वृहत्तर
जीवन और
ब्रह्म की
दिशा है।
जो
उन पर नहीं है, वे
उसके विपरीत
हैं, क्योंकि
तीसरी कोई
दिशा ही नहीं
है। उस पर या
उसके विपरीत
दो ही विकल्प
हैं। अभी जो
आभास है, उसे
या तो विनाश
की ओर ले जाया
सकता है या
विकास की ओर।
या तो बोध से
बोधि में जाया
जा सकता है या
फिर और
मूर्च्छा में।
सामान्य
जीवन का
यांत्रिक
वृत्त अपने आप
संबोधि के
प्रकाश—शिखरों
पर नहीं ले
जाता। यह
शाश्वत नियम
है कि कुछ न
करें तो नीचे
आना अपने आप
हो जाता है, लेकिन
ऊपर जाना अपने
आप नहीं होता।
पतन न कुछ
करने से ही हो
जाता है, लेकिन
उन्नयन नहीं
होता। जड़ता
अपने आप आ
जाती है, जीवन
अपने आप नहीं
आता। मृत्यु
बिना बुलाए आ
जाती है, पर
जीवन को
बुलावा देना
होता है।
बोध
की जो किरण
प्रत्येक के
भीतर है, उसमें
और उसके सहारे
गति करनी है।
जैसे—जैसे
भीतर गति होती
है, वैसे—वैसे
बोध के आयाम
उद्घाटित
होते हैं और
व्यक्ति जड़ता
और
यांत्रिकता
के पार होने
लगता है।
जैसे—जैसे
वह चैतन्य के
फाड़ होते
स्वरूप से
परिचित होता
है,
वैसे—वैसे
उसकी अनेक—चित्तता
विसर्जित होने
लगती है और
उसमें कुछ घना
और एकाग्र
केंद्रित
होने लगता है।
इस प्रक्रिया
के परिणाम से
वह व्यक्ति
बनता है।
'मैं
कौन हूं?'
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