—(ओशो)
(अंधों
की बस्ती है
रोशनी बेचता
हूं)
......एक
आदमी है, अंधा
है। तो हमें
ख्याल होता
है कि शायद
उसको अँधेरा
ही दिखाई देता
होगा। यह
हमारी
भ्रांति है।
अँधेरा देखने
के लिए भी आँख
के बिना
अँधेरा भी
दिखाई नहीं पड
सकता।....
.....क्योंकि
अँधेरा जो है,
वह आँख का
अनुभव है।
जिससे प्रकाश
का अनुभव होता
है, उसी से
अंधकार का भी
अनुभव होता
है। जो जन्मांध
है, उसे
अंधेरे का भी
कोई पता नहीं।
अँधेरा भी जानेगा
कैसे?......
.......मैं
वह कहा रहा
हूं जो मेरी
प्रतीति है,
मेरा अनुभव
है। मैं वह
कहा रहा हूं
जो कि शास्त्रों
की अन्तर्निहित
आत्मा है।
मगर शास्त्रों
के शब्द मैं
उपयोग नहीं कर
रहा हूं। शब्द
तो बदल दिए
जाने चाहिए।
अब तो हमें
नये शब्द
खोजने होगे।
हर सदी को
अपने शब्द
खोजने होते
है। तो मैं
वहीं कहा रहा
हूं जो बुद्ध
ने कहा,
कृष्ण ने कहा, मुहम्मद
ने कहा,
जीसस ने कहा, लेकिन अपने
ढंग से......
सत्य सार्वभौम है—(प्रवचन—1)
मैं
कहता हूं आंखन
देखी,
(अंतरंग
भेंट वार्ता)
वुडलैण्ड,
मुम्बई,
दिनांक
28 फरवरी 1971
भगवान
श्री, आपका
साहित्य पढ़ा
है। आपको सुना
भी है। आपकी
वाणी बड़ी सम्मोहक
और बातें बड़ी
साफ हैं। आप
कभी महावीर पर
बोलते हैं कभी
कृष्ण पर चर्चा
करते हैं कभी
बुद्ध की
बातें करते
हैं कभी क्राइस्ट
और मुहम्मद पर
भी छत कुछ कह
डालते हैं।
गीता की
अत्यंत
प्रभावोत्पादक
मीमांसा करते
हैं। वेद और
उपनिषद का
विवेचन करने
में भी नही
चूकते। यहां
तक कि
गिरजाघरों
में जाकर भी
प्रवचन कर आते
हैं। ऊपर से
आप कहते हैं
उपरोक्त
व्यक्तियों
से मैं किसी
से भी
प्रभावित
नहीं हूं।
मेरा इनसे कोई
लेना—देना
नहीं है। इनको
मानते भी नहीं
हैं। उधर
प्राचीन
मान्यताओं और
शास्रों पर
निरंतर
प्रहार करते
हैं धर्मों की
बुराई करते
हैं। फिर क्या
आप अपना पंथ
या मत चलाना
चाहते हैं या
आप यह बताना
चाहते हैं कि
आपका ज्ञान
अपार है या आप
लोगों को 'कन्फयूज'
करना चाहते
हैं? आठों
पहर शब्द ही
शब्द बोलते
हैं। शब्दों
से ही समझाते
हैं सूचनाएं
देते हैं और
शब्दों की
पकड़ से कहीं
पहुंचोगे नहीं
यह भी बताते
रहते हैं!
कहते आप यह
हैं कि मुझे
मानना नहीं पकड़ना
नहीं नहीं तो
वही भूल हो
जाएगी; और
निषेध
निमंत्रण है
ऐसा भी आप
दर्शाते हैं।
तो कृपया यह
बताएं कि आप
क्या हैं कौन
हैं और क्या
करना चाहते
हैं क्या कहना
चाहते है:
आपका मकसद
क्या है?
पहले तो महावीर, बुद्ध,
क्राइस्ट
या मोहम्मद—उनसे
मैं प्रभावित
नहीं हूं।
इसका अर्थ यह
कि धर्म की एक
खूबी है कि वह
एक अर्थ में
सदा पुराना है।
इस अर्थ में, कि वैसी
अनुभूति अनंत
लोगों को हो
चुकी है। धर्म
की कोई
अनुभूति ऐसी
नहीं है कि
कोई व्यक्ति
कहे कि वह
मेरी है। इसके
दो कारण हैं।
एक तो धर्म की
अनुभूति होते
ही 'मेरा' मिट जाता है।
इसलिए 'मेरे'
का दावा इस
जगत में सब
चीजों के लिए
हो सकता है, सिर्फ धर्म
की अनुभूति के
लिए नहीं हो
सकता। सिर्फ
वही अनुभूति 'मेरे' की
सीमा के बाहर
पड़ती है, क्योंकि
इसकी
अनिवार्य
शर्त है कि 'मेरा' मिट
जाए तो ही वह
अनुभूति होती
है। इसलिए कोई
व्यक्ति धर्म
की अनुभूति को
'मेरी' नहीं
कह सकता। न ही
कोई व्यक्ति
धर्म की
अनुभूति को
नयी कह सकता
है। क्योंकि
सत्य नया और
पुराना नहीं
होता। इस अर्थ
में मैं
महावीर, जीसस,
कृष्ण और
मोहम्मद के
नाम, औरों—औरों
के नाम भी
लेता हूं।
उन्हें
अनुभूति हुई
है। लेकिन जब
मैं कहता हूं
मैं उनसे
प्रभावित नहीं
हूं तो मेरा
मतलब यह है कि
मै जो कह रहा
हूं वह मैं
उनसे
प्रभावित
होकर नहीं कह
रहा हूं। मैं
खुद भी जानकर
कह रहा हूं।
और अगर मैं
उनका नाम भी
ले रहा हूं तो
चूंकि मेरा
जानना उनसे मेल
खाता है इसलिए
ले रहा हूं।
मेरे लिए
कसौटी मेरा
अनुभव है। उस
कसौटी पर
उन्हें भी मैं
ठीक पाता हूं
इसलिए उनके
नाम लेता हूं।
इसलिए
प्रभावित
उनसे जरा भी
नहीं हूं। मैं
जो भी कह रहा
हूं वह उनसे
प्रभावित
होकर नहीं कह
रहा हूं।
मैं
जो भी कह रहा
हूं अपने ही
अनुभव से कह
रहा हूं।
लेकिन मेरे
अनुभव पर वे
लोग भी खरे
उतरते है।
इसलिए उनका
नाम भी ले रहा
हूं। वे मेरे
लिए गवाह हो
जाते है। मेरे
अनुभवों के
लिए वे भी
गवाह हैं।
लेकिन इस
अनुभूति को, जैसा
कि मैने कहा, नया नहीं
कहा जा सकता।
लेकिन एक
दूसरे अर्थ
में उसे
बिलकुल नया भी
कहा जा सकता
है। और यही
धर्म का बुनियादी
रहस्य और
पहेली है। उसे
नया इसलिए कहा
जाता है कि
जिस व्यक्ति
को भी कभी वह
अनुभव होगा
उसके लिए
बिलकुल ही नया
है। उसे उसके
पहले नहीं हुआ
है। किसी और
को हुआ होगा।
लेकिन किसी और
के होने से
उसका क्या
लेना—देना है।
जिस व्यक्ति
को भी अनुभव
होगा उसके लिए
नया है। उसके
लिए इतना नया
है, कि वह
इसकी तुलना भी
नहीं कर सकता
कि यह कभी हुआ
होगा। या किसी
को हुआ होगा
जहां तक उस
व्यक्ति की
चेतना का
संबंध है, यह
अनुभूति पहली
ही दफा हुई है।
और फिर धर्म
की अनुभूति
इतनी ताजी और
कुंआरी है, 'वर्जिन' है,
जब भी किसी
को होगी उसे
यह खयाल भी
नहीं आ सकता है
कि यह पुरानी
हो सकती है।
जैसे
फूल सुबह खिला
हो,
उसकी
पंखुड़ी पर ओस
हो और अभी
सूरज की किरण
पड़ी हो, इतनी
ताजी है। इस
फूल को देखकर,
जिसने पहली
दफा यह फूल
देखा हो, वह
यह नहीं कह
सकता कि फूल
पुराना है।
हालांकि रोज
सुबह फूल उगते
रहे हैं, खिलते
रहे है। और
रोज सुबह धूप
और ओस और सूरज
की किरणों ने
नए फूलों को
घेरा है। रोज
किसी की आंखों
ने उन फूलों
को देखा होगा।
लेकिन जिस
आदमी ने पहली
दफा उस फूल को
देखा है वह यह
सोच भी नहीं
सकता कि यह
पुराना हो
सकता है। यह
इतना नया है
कि अगर वह यह
घोषणा करे कि
सत्य बिलकुल पुराना
कभी नहीं होता,
सदा नया ही
है, एकदम
मौलिक ही है, तो भी गलत
नहीं है।
धर्म
को हम इसलिए
पुरातन और
सनातन कह सकते
है,
क्योंकि
सत्य सदा है।
और धर्म को हम
इसलिए नया और
नवीनतम कह
सकते हैं, नूतन
कह सकते हैं, क्योंकि
सत्य का अनुभव
जब भी होता है,
तो जिस
व्यक्ति पर भी
वह आघात पड़ता
है, उसकी
प्रतीति एकदम
नए की, और
ताजे की और
कुंआरे की
होती है। यदि
कोई व्यक्ति
इन दोनों में
से कोई भी एक
धारा पकड़ ले
तो वह व्यक्ति
कभी असंगत
मालूम नहीं पड
सकता। अगर वह
कहे कि सत्य
सनातन है और कभी
न कहे कि सत्य
नया है, तो
आपको कभी कोई
अड़चन और
असंगति
दिखायी नहीं पड़ेगी।
क्योंकि कोई 'इनकसिस्टेंसी'
नहीं है।
कोई व्यक्ति
पकड़ ले सकता
है कि सत्य
नया है और
नूतन है।
गुरजिएफ
से पूछेंगे तो
वह कहेगा
पुराना है, सनातन
है।
कृष्णमूर्ति
से पूछेंगे तो
वह कहेंगे नया
है, बिलकुल
नया है।
पुराने से कुछ
वास्ता ही
नहीं। पुराना
है ही नहीं।
ये दोनों
व्यक्ति
बिलकुल ही
संगत मालूम
पड़ेंगे। तो जो
सवाल आप मुझसे
पूछ सकते हैं
वह गुरीजएफ से
नहीं पूछ सकते।
वह सवाल
कृष्णमूर्ति
से भी नहीं
पूछ सकते।
लेकिन मेरी
अपनी प्रतीति
ऐसी है कि यह अर्धसत्य
है। ये दोनों
अर्धसत्य है।
अर्धसत्य सदा
ही संगत हो
सकता है।’कंसिस्टेंट'
हौ सकता है।
पूर्ण सत्य
सदा ही असंगत
होगा, 'इनकंसिस्टेंट'
होगा।
क्योंकि
पूर्ण में
विरोधी को भी
समाहित करना होगा।
अधूरे में हम
विरोधी को छोड़
सकते हैं। एक
आदमी कहता है
प्रकाश ही प्रकाश
है बस सत्य, तो वह
अंधेरे को
असत्य कर देता
है। उसके
असत्य करने से
अंधेरा छूट
नहीं जाता, लेकिन वह
संगत हो जाता
है। जब अंधेरे
को इनकार ही
कर दिया तो अब
कोई सवाल न
रहा। उसे कोई
संगति
बिठालने की
जरूरत न रही।
उसके वक्तव्य
सीधे, साफ
और गणित के
जैसे हो सकते है।
उसके वक्तव्य
में पहेली
नहीं रह जाएगी।
जो
आदमी कहता है
अंधेरा ही
अंधेरा है, प्रकाश
धोखा है उसकी
भी कठिनाई
नहीं है।
कठिनाई उस
आदमी की है जो
कहता है कि
अंधेरा भी है
और प्रकाश भी
है। और जो
आदमी दोनों को
स्वीकार करता
है वह किसी गहरे
अर्थ में यह
बात भी स्वीकार
करेगा कि
दोनों—अंधेरा
और प्रकाश—एक
ही चीज के दो
छोर है।
अन्यथा
प्रकाश के
बढ़ने से
अंधेरा नहीं
घट सकता, अगर
दोनों अलग
चीजें हों।
अन्यथा
प्रकाश के कम
होने से
अंधेरा नहीं
बढ़ सकता, अगर
दोनों अलग
चीजें हों।
लेकिन प्रकाश
को कम—ज्यादा
करने से
अंधेरा कम—ज्यादा
होता है। अर्थ
साफ है, कि
अंधेरा कहीं
प्रकाश का ही
हिस्सा है।
उसका ही दूसरा
छोर है। इसे
छुओ तो वह भी
प्रभावित हो
जाता है।
मैं
पूरे ही सत्य
को कहने की
कोशिश में
कठिनाई में
पड़ता हूं। तो
मैं दोनों
बातें एक साथ
कहता हूं कि
सत्य सनातन है, नया
कहना गलत है।
और कह भी नहीं
पाता कि मैं
दूसरी चीज भी
कहना चाहता हूं
कि सत्य सदा
नया है, पुराना
कहने का कोई
अर्थ ही नहीं
है। यहां मैं
सत्य को उसकी
पूरी की पूरी
स्थिति में
पकड़ने की
कोशिश में हूं।
और जब भी सत्य
को उसकी पूरी
स्थिति में
पकड़ा जाएगा, जब उसे अनेक
अर्थ में पकड़ा
जाएगा तो
विरोधी
वक्तव्य एक
साथ देने
होंगे।
महावीर का
स्यातवाद ऐसे
ही विरोधी
वक्तव्यों का
संतुलन है, एक ही साथ।
तो ठीक जो कहा
है पहले वचन
में, दूसरे
में उसके
विपरीत बोलना
पडेगा।
क्योंकि उससे,
जो विपरीत
शेष रह गया है,
उसे भी
समाहित करना
है, उसे भी 'कोम्प्रीहेण्ड'
करना है।
अगर वह बाहर
रह गया तो यह
सत्य पूरा
नहीं होगा।
इसलिए
जो सत्य बहुत
साफ दिखायी
पड़ते हैं और
सुलझे हुए
दिखायी पड़ते
हैं,
वे अधूरे
होते हैं।
पूरे सत्य की
अपनी मजबूरी
है, वही
उसका सौंदर्य
भी है, वही
उसकी जटिलता
भी है। लेकिन
वह जो विपरीत
को भी समाहित
कर लेना है, वही सत्य की
शक्ति भी है।
असत्य
अपने से
विपरीत को
समाहित नहीं
कर सकता, यह
बहुत मजे की
बात है। असत्य
अपने से
विपरीत के
विरोध में खड़े
होकर ही जीता
है। लेकिन
सत्य अपने से
विपरीत को भी
पी जाता है।
तो एक अर्थ
में असत्य कभी
भी बहुत उलझा
हुआ नहीं
होता—सीधा—साफ
होता है।
लेकिन सत्य
में उलझाव
होंगे, क्योंकि
अस्तित्व में
उलझाव हैं। और
सारा जीवन
विरोधी से
निर्मित है।
बिना विरोध के
जीवन में एक
भी चीज नहीं
है। हां, हमारा
मन जो है, हमारा
तर्क जो है वह
विरोध से
निर्मित नहीं
है। तर्क जो
है हमारा वह
संगत होने की
चेष्टा है और
अस्तित्व जो
है वह असंगत
होना ही है।
अस्तित्व में
सब असंगतियां
एक साथ खड़ी
हैं। जन्म के
साथ मृत्यु
जुड़ी है। तर्क
में विपरीत को
काटकर ही चलते
है, इसलिए
तर्क साफ—सुथरा
है। तर्क साफ—सुथरा
है—क्योंकि
जन्म है तो
जन्म है, मृत्यु
है तो मृत्यु
है। ये दोनों
एक साथ नहीं
हो सकते।
हम
तर्क में कहते
हैं अ, अ है; अ,
ब नहीं है।
हम कहते हैं
जन्म जन्म है,
जन्म
मृत्यु नहीं
है। फिर
मृत्यु
मृत्यु है, मृत्यु जन्म
नहीं है। हम
साफ—सुथरा तो
कर लेते हैं, गणित तो
बिठा लेते हैं,
लेकिन
जिंदगी का जो
राज था वह चूक
गए। इसलिए
तर्क से कभी
सत्य नहीं
पकड़ा जा सकता,
क्योंकि
तर्क, संगत
होने की
चेष्टा है और
सत्य, असंगत
होना ही है।
असंगति के
बिना सत्य का
कोई अस्तित्व
नहीं है।
इसलिए जो तर्क
से चलेंगे वह
संगति को
पहुंच जाएंगे,
सत्य को
नहीं।’कंसिस्टेट'
होगे, बिलकुल
संगत होंगे।
उन्हें
पराजित नहीं
किया जा सकता।
लेकिन चूक गये,
उससे चूक गए,
जो था।
मैं
तार्किक नहीं
हूं यद्यपि
निरंतर तर्क
का उपयोग करता
हूं लेकिन
तर्क का उपयोग
ही इसलिए करता
हूं कि किसी
सीमा पर ले
जाकर तर्क के
बाहर धक्का
दिया जा सके।
तर्क को न
थकाया जाए तो
उसके पार होने
का उपाय भी
नहीं है। सीढ़ी
से चढ़ता हूं
लेकिन सीडी से
प्रयोजन नहीं
है;
एक क्षण, सीडी को छोड
देने से
प्रयोजन है।
तर्क का उपयोग
करता हूं कि
तर्कातीत का
खयाल आ जाए।
तर्क से कुछ
सिद्ध नहीं
करना चाहता, तर्क से
सिर्फ तर्क को
ही असिद्ध
करना चाहता हूँ।
इसलिए
मेरे वक्तव्य
अतार्किक होंगे, इल—लाजिकल
होंगे। और मै
यह कहना
चाहूंगा कि
जहां तक मेरे
वक्तव्य में
तर्क दिखायी
पड़े वहां तक
समझना कि मैं सिर्फ
विधि का उपयोग
कर रहा हूं।
जहां तक तर्क
दिखायी पड़े
वहां तक मैं
सिर्फ इंतजाम
बिठा रहा हूं
साज जमा रहा
हूं। गीत शुरू
नहीं हुआ है।
जहां से तर्क
की रेखा छूटती
है वहीं से
मेरा असली गीत
शुरू होता है।
वहीं से साज
बैठ गया और अब
संगीत शुरू
होगा।
लेकिन
जो साज के
बिठाने को
संगीत समझ
लेंगे उनको
बड़ी कठिनाई
होगी। वे
मुझसे कहेंगे
कि यह क्या
मामला है? पहले
तो हथौड़ी से
लेकर तबला
ठोंकते थे, अब हथौड़ी
क्यों रख देते
हैं? हथौड़ी
से तबला ठोंक
रहा था, वह
कोई तबले का
बजाना नहीं था।
वह सिर्फ
इसलिए था कि
तबला बजने की
स्थिति में आ
जाए, फिर
तो हथौडी
बेकार है।
हथौड़ी से कहीं
तबले बजते हैं?
तो तर्क
मेरे लिए
सिर्फ तैयारी
है अतर्क के
लिए। और यही
मेरी कठिनाई
हो जाती है कि
जो मेरे तर्क
से राजी होकर
चलेगा वह थोड़ी
ही देर में पाएगा
कि मैं कहीं
उसे अंधेरे
में ले जा रहा
हूं। क्योंकि
जहां तक तर्क
दिखायी पड़ेगा
वहां तक प्रकाश
है, साफ—सुथरी
हैं चीजें; लेकिन उसे
लगेगा कि
मैंने सिर्फ
प्रकाश का प्रलोभन
दिया था और अब
तो मैं अंधेरे
में सरकने की बात
करने लगा।
इसलिए वह
मुझसे नाराज
होगा और वह
कहेगा, यहां
तक तो ठीक है
अब इसके आगे
हम कदम नहीं
रख सकते। अब
आप अतर्क की
बात कर रहे
हैं, और हम
तो भरोसा किए
थे तर्क का।
और जो आदमी
अतर्क से
मोहित है वह
मेरे साथ चलेगा
ही नहीं, क्योंकि
वह कहेगा, आप
अतर्क की बातें
करें तो ही हम
आपके साथ चलते
हैं।
मेरे
साथ दोनों ही
कठिनाई में
पड़ेंगे। तर्क
वाला थोड़ी दूर
चल सकेगा, फिर
इनकार करेगा।
अतर्क वाला चलेगा
ही नहीं। उसे
पता ही नहीं
है कि थोड़ी
दूर चल ले तो
मैं अतर्क में
ले जाऊंगा।
लेकिन मेरी
समझ ऐसी है कि
जिंदगी ऐसी है।
तर्क साधन बन
सकता है, साध्य
नहीं। इसलिए
मैं निरतंर
तर्क संगत
बातों के आगे—पीछे,
कहीं न कहीं
अतर्क
वक्तव्य भी
दूंगा। वे
असंगत मालूम
पड़ेंगे, वे
बिलकुल असंगत
मालूम पड़ेंगे,
लेकिन वे
बहुत सोच—विचार
कर दिए गए हैं,
वे अकारण
नहीं हैं; असंगत
हो सकते है, अकारण नहीं
हैं। मेरी तरफ
कारण साफ है।
एक
दफा मैं
कहूंगा, महावीर,
बुद्ध, कृष्ण
और क्राइस्ट,
उनसे मैं
जरा भी
प्रभावित
नहीं हूं हूं
भी नहीं। उनसे
प्रभावित
होकर मैंने
कुछ भी नहीं
कहा है। जो भी
मैंने कहा है
वह मैंने
जानकर कहा है
लेकिन जब
मैंने जाना है
तब यह भी जाना
कि जो उन्होंने
कहा है वह यही
है। इसलिए जब
मैं उनका
वक्तव्य देने
की बात करूंगा,
या उनके
संबंध में कुछ
कहूंगा, तो
मैं यह भूल ही
जाऊंगा कि मैं
उनके संबंध में
कह रहा हूं।
मैं पूरा का
पूरा खड़ा ही
हो जाऊंगा।
मैं खुद ही
खड़ा हो जाऊंगा
उनके वक्तव्य
में। क्योंकि
तब मुझे कुछ
फासला ही
दिखायी नहीं
पड़ता। इसलिए
जब भी मैं
उनके संबंध
में कुछ कहने
जाऊंगा तो
बहुत गहरे में
मैं अपने
संबंध में ही
कह रहा हूं।
इसलिए फिर मैं
कोई शर्त नहीं
रखूंगा, मै
फिर पूरे भाव
से डूब जाऊंगा
उनको कहने में।
तो
जिस व्यक्ति
ने यह सुना कि
मैं उनसे
प्रभावित
नहीं हूं और
फिर एक दफा
मुझे पूरा भाव
में डूबा हुआ
उनके संबंध
में बात करते
देखा, तो उसकी
कठिनाई
स्वाभाविक है।
उसकी कठिनाई
बिलकुल
स्वाभाविक है!
वह कहेगा कि
प्रभावित
नहीं हैं तो
उनकी बात करते
वक्त इतना
क्यों डूब
जाते हैं? इतना
तो, जो
प्रभावित है
वह भी नहीं
डूबता! जो
प्रभावित है
वह भी फासला
रखता है।
मेरे
देखे तो जो
प्रभावित है
उसको फासला
रखना ही पड़ेगा।
क्योंकि जो
प्रभावित है
वह अज्ञानी है।
प्रभावित हम
सिर्फ अज्ञान
में होते हैं, शान
में प्रभाव का,
'इनल्यूएंस'
का कोई अर्थ
नहीं रह जाता
है। जान में
हम जानते हैं।
ज्ञान में हम
प्रभावित
नहीं होते हैं,
लेकिन
समध्वनियां
सुनते हैं, रिजोनेन्सेज
सुनते हैं। जो
हम गा रहे है
वही गीत किसी
और से भी
सुनते हैं। और
वह गीत, और
वह गानेवाला,
वह सब इतना
एक हो जाता है
कि वहां
प्रभावित होने
की भी दुई और
फासला नहीं है।
प्रभावित
होने के लिए
भी दूसरा होना
जरूरी है, अनुयायी
होने के लिए
भी दूसरा होना
जरूरी है।
उतना फासला भी
नहीं है।
इसलिए
जब मैं महावीर
के किसी
वक्तव्य की
व्याख्या
करने लग या
कृष्ण की गीता
पर बोलने लग
तब मैं करीब—करीब
अपने ही
वक्तव्य की
व्याख्या कर
रहा हूं।
कृष्ण केवल
बहाना रह जाते
हैं। मैं बहुत
जल्दी भूल
जाता हूं कि
कब शुरू किया था
उन पर। ये बात
खतम हो जाती
है। मैं उनसे
शुरू ही करता
हूं अंत तो
मैं अपने ही पर
कर पाता हूं।
कब वे छूट गए
यह भी मुझे
पता नहीं!
अब
यह बहुत मजे
की बात है कि
मैंने गीता
कभी पूरी नहीं
पढ़ी। कभी नहीं
पड़ी है पूरी।
कई दफा शुरू
की है। दो चार
दस पंक्तियां
पढ़ी और मैंने
कहा ठीक है, और
मैंने वहीं
बंद कर दी। अब
जब गीता पर
बोल रहा हूं
तब पहली दफा
ही सुन रहा
हूं इसलिए गीता
की व्याख्या
करने का कोई
उपाय नहीं है
मेरे पास।
व्याख्या तो
वह करे जिसने
गीता का
अध्ययन किया
हो, विचार
किया हो, और
सोचा समझा हो।
अब
यह बहुत बड़े
मजे की बात है
कि कृष्ण की
गीता पढ़ते
वक्त मैं उसे
उठाकर रख देता
हूं लेकिन साधारण—सी
कोई किताब
पढ़ता हूं तो
आद्योपांत पढ
जाता हूं
क्योंकि वह
मेरा अनुभव
नहीं है। यह
बड़ी कठिन बात
है। एक बिलकुल
साधारण—सी
किताब मैं
पूरी पढ़ता हूं
शुरू से आखिर
तक। उस पर मैं
रुक नहीं सकता
क्योंकि वह
मेरा अनुभव
नहीं है।
लेकिन कृष्ण
की किताब
उठाता हूं तो
दो—चार
पंक्तियां
पढ़कर रख देता
हूं कि बात
ठीक है। उसमें
आगे मेरे लिए
कुछ खुलेगा, ऐसा
मुझे नहीं
मालूम पड़ता।
यदि
मुझे कोई
जासूसी
उपन्यास
पक्का जाए तो
मैं पूरा पढ़ता
हूं;
क्योंकि
मुझे सदा
उसमें आगे
खुलने के लिए
बचता है।
लेकिन कृष्ण
की गीता मुझे
ऐसी लगती है
जैसे मैंने ही
लिखी हो।
इसलिए ठीक है,
जो लिखा
होगा वह मुझे
पता है। वह
बिना पढ़े पता
है। इसलिए जब
गीता पर बोल
रहा हूं तो
मैं गीता पर नहीं
बोल रहा हूं।
गीता सिर्फ
बहाना है।
शुरुआत गीता
से होती है, बोल तो मैं
वही रहा हूं
जो मुझे बोलना
है, जो मैं
बोलता हूं बोल
सकता हूं वही
बोल रहा हूं।
और अगर आपको
लगता है कि
इतनी गहरी
व्याख्या हो
गयी, तो
इसलिए नहीं कि
मै कृष्ण से
प्रभावित हूं
बल्कि इसलिए
कि कृष्ण ने
वही कहा है जो
मैं कहता हूं।
उनमें
रिजोनेन्स है।
मै जो कह रहा
हूं वह
व्याख्या
नहीं है गीता
की। तिलक ने
जो कहा है वह
व्याख्या है,
गांधी ने जो
कहा है वह
व्याख्या है।
वे प्रभावित
लोग हैं।
मैं
जो गीता में
कह रहा हूं वह
गीता से कुछ
कह ही नहीं
रहा हूं। गीता
जिस स्वर को के
देती है वह
मेरे भीतर भी
एक स्वर के
जाता है। फिर
तो मै अपने
सुर को पकड़
लेता हूं। मैं
अपनी ही
व्याख्या कर
रहा हूं बहाना
गीता का होगा।
तो कृष्ण पर
बोलते—बोलते
कब मैं अपने
पर बोलने लगता
हूं इसका आपको
ठीक—ठीक पता
उसी क्षण
चलेगा जब आपको
लगे कि मैं कृष्ण
पर,
बहुत गहरा
बोल रहा हूं।
तब मैं अपने
पर ही बोल रहा
हूं।
महावीर
के साथ भी वही
है,
क्राइस्ट
के साथ भी वही
है, बुद्ध
और लाओत्सु के
साथ और
मुहम्मद के
साथ भी वही है।
क्योंकि मेरे
लिए ये सिर्फ
नाम के फर्क
हैं। मेरे लिए
जो मिट्टी के
दीये में फर्क
होता है वह
फर्क है, लेकिन
जो ज्योति
जलती है, वह
एक है। वह
मुहम्मद के
दीये में जल
रही है, कि
महावीर के
दीये में, कि
बुद्ध के दीये
में, उससे
मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है। कई बार
मैं मुहम्मद,
महावीर और
बुद्ध के
खिलाफ भी
बोलता हूं तब
और जटिलता हो
जाती है कि
पक्ष में इतना
गहरा बोलता
हूं फिर खिलाफ
बोल देता हूं।
जब
भी खिलाफ
बोलता हूं तब
मेरा खिलाफ
बोलने का कारण
यही होता है
कि अगर कोई भी
व्यक्ति दीये पर
बहुत जोर देता
है तो मैं
खिलाफ बोलता
हूं। जब भी
मैं पक्ष में
बोलता हूं तब
ज्योति पर मेरा
जोर होता है; और
जब भी मैं
खिलाफ बोलता
हूं तब दीये
पर मेरा जोर
होता है। जब
कोई आदमी मुझे
दीये से मोहित
मालूम पड़ता है,
मिट्टी से
मोहित मालूम
पड़ता है, तब
मैं एकदम
खिलाफ बोलता
हूं। उसकी
कठिनाई
स्वाभाविक है,
क्योंकि
उसके लिए
महावीर के
मिट्टी के
दीये और
महावीर की
चिन्मय
ज्योति में
कोई फर्क नहीं
है, वह एक
ही चीज समझ
रहा है।
इसलिए
जब भी मुझे
ऐसा लगता है
कि कोई दीये
पर बहुत जोर
दे रहा है तो
मैं बहुत
खिलाफ बोलता
हूं। जब भी
मुझे ऐसा लगता
है कि ज्योति
की बात कि गयी
तब मैं एकदम
एक होकर बोलने
लगता हूं। और
यह फासला है।
महावीर
के दीये और
मुहम्मद के
दीये में बहुत
फर्क है। उसी
फर्क को लेकर
तो जैन और
मुसलमान का
फर्क है—दीये
की बनावट बहुत
अलग ढंग की है।
क्राइस्ट के
दीये और बुद्ध
के दीये में
बहुत फर्क है—होगा
ही। पर वे
फर्क शरीर के
फर्क हैं, आवरण
के फर्क है, आकार के
फर्क है। और
जिनको भी आवरण
और आकार का
बहुत मोह है, मेरा मानना
है कि उनको
ज्योति
दिखायी नहीं
पड़ेगी।
क्योंकि
जिसको भी
ज्योति
दिखायी पड़
जाएगी वह दीये
को भूल जाएगा।
ज्योति
दिखायी पड़ जाए
और दीया याद
रह जाए, यह
असंभव है।
दीये की
याददाश्त तभी
तक है जब तक
ज्योति न दिखायी
पड़ी हो।
अनुयायियों
की हालत ऐसी
है जैसा कि वे
दीये के नीचे
खड़े हों जहां
अंधेरा होता
है, और
वहां से देख
रहे हों। वहां
से ज्योति तो नहीं
दिखायी पड़ती,
दीये की
पेंदी दिखायी
पड़ती है। सबकी
पेंदियां अलग
है, और
पेंदी के नीचे
घना अंधेरा है।
अनुयायी वहीं
खड़ा रहता है, और पेंदियो
के संबंध में
झगड़े और विवाद
चलते है।
तो
जब भी मैं
किसी को पेंदी
के नीचे खड़ा
देखता हूं तो
मैं सख्ती से
और खिलाफत में
बोलता हूं।
इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं कि
अनुयायी कभी
भी नहीं समझ
पाता है।
क्योंकि
अनुयायी के
लिए,
अनुयायी
होने के लिए
छाया में खड़ा
होना पड़ता है,
उसे अंधेरे
में खड़ा होना
पड़ता है। दीये
के नीचे खड़ा
होना पड़ता है।
इसलिए जितना
बड़ा अनुयायी
अर्थात उतना
ही सेंटर में।
परिधि के
अनुयायी थोड़ा
बहुत दूसरे के
बारे में भी
समझ लेते हैं।
लेकिन ठीक बीच
में खड़े हुए
अनुयायी कभी
नहीं सोच पाते।
लेकिन जिसे भी
दीये को देखना
है उसे परिधि
के बिलकुल
बाहर आ जाना चाहिए।
उस अंधेरे की
छाया के
बिलकुल बाहर आ
जाना चाहिए।
और एक बार
ज्योति दिख
जाए तो दीयो
के फर्कों का
फासला और
विवाद क्या
अर्थ रखता है?
इसलिए मेरे
लिए कोई अंतर
नहीं है।
क्राइस्ट
पर बोलता हूं
कि कृष्ण पर, कि
महावीर पर, कि बुद्ध पर,
इससे मुझे
कोई अंतर नहीं
पड़ता है। मैं
एक ही ज्योति
की बात कर रहा
हूं जो बहुत
दीयों में जली
है, लेकिन
उनसे मै
प्रभावित
होकर नहीं बोल
रहा हूं। बोल
तो मैं वही
रहा हूं जो मै
जानता हूं।
लेकिन जब भी 'रिजोनेन्स'
मुझे मिल
जाती है, जब
भी मुझे ऐसा
लग जाता है कि
दूसरी तरफ से
भी वही ध्वनि
आ रही है, तो
इसे मै इनकार
भी नहीं कर
सकता हूं।
क्योंकि यह
इनकार करना भी
उतना ही गलत
होगा। यह फिर
ज्योति की तरफ
पीठ करके खड़ा
हो जाना हो जाएगा।
एक तो अनुयायी
ने यह गलती की
है कि वह
पेंदी के नीचे
खड़ा हुआ है।
फिर यह पीठ
करके खड़ा हो
जाता है। यह
दोनों को मैं
एक—सी गल्तियां
मानता हूं।
अब
अगर
कृष्णमूर्ति
से आप पूछेंगे
तो वह 'रिजोनेंस'
भी स्वीकार
नहीं करेंगे।
वह यह भी
स्वीकार नहीं
करेंगे कि
मुझे जो हो रहा
है वह कृष्ण
को हुआ होगा।
वह यह भी
स्वीकार नहीं
करेंगे कि
मुझमें जो हो
रहा है वह
किसी और को
हुआ होगा। वह
इसकी चर्चा ही
नहीं
चलायेंगे।
इसे भी मै गलत
मानता हूं।
क्योंकि सत्य
इतना
निवैंयक्तिक
है; और
इससे कोई सत्य
की गरिमा में
कमी नहीं पड़ती
कि वह और को भी
हुआ है। गरिमा
बढ़ती है, गरिमा
कम नहीं होती।
सत्य इतना
कमजोर नहीं है
कि बासा हो
जाए, किसी
और को हो गया
हो तो बासा हो
जाएगा! लेकिन
इसके इनकार
करने का मोह
भी गलत है।
तो
मेरी कठिनाई
यही है कि
जहां—जहां
मुझे सत्य
दिखायी पड़ता
है,
मैं
स्वीकार
करूंगा।
प्रभावित जरा
भी नहीं हूं।
और जहां—जहां
सत्य के नाम
पर कुछ और
पकड़े हुए लोग
मुझे दिखायी
पड़ेंगे वहां
मैं इनकार भी
करूंगा और
विरोध भी
करूंगा। और जब
भी जो करूंगा
उसे पूरे मन
से करूंगा, इसलिए और
मुश्किल हो
जाऊंगा। जब भी
जो करूंगा, पूरे मन से
करूंगा; समझौते
की मेरी
वृत्ति नहीं
है।
और
मैं मानता हूं
कि समझौते से
कभी भी कोई
सत्य पर नहीं
पहुंचता।
मेरी वृत्ति
ऐसी है कि जब
भी मैं जो
कहूंगा, तब
मैं पूरे
प्राण से कह
रहा हूं। तो
अगर किसी ने
ज्योति की बात
की तो मैं
कहूंगा कि
महावीर भगवान
है, कृष्ण
अवतार हैं और
जीसस ईश्वर के
बेटे हैं; और
किसी ने अगर
केवल दीये की
बात की तो मैं
कहूंगा कि वह
अपराधी हैं, क्रिमिनल
हैं। दोनों ही
स्थिति में
जिस वक्तव्य
को मैं दे रहा
हूं मैं पूरा
उसके साथ खड़ा
हूं।
और
जब मैं उस
वक्तव्य को दे
रहा हूं तब
दूसरे वक्तव्य
का मुझे स्मरण
भी नहीं है।
क्योंकि मेरी
समझ यह है कि
दोनों
वक्तव्य अपने
में पूरे हैं
और एक—दूसरे
को काटते नहीं
हैं। अगर मुझे
ऐसा खयाल हो
कि एक—दूसरे
को काटते हैं, अगर
मैं आपके शरीर
से कहता हूं
मरणधर्मा है
और आपसे कहता
हूं कि आप
अमृत हो, तो
मै इन दोनों
को विपरीत
वक्तव्य नहीं
मानता। और न
मैं यह मानता
हूं वे कि एक—दूसरे
को काटते हैं।
न मैं यह
मानता हूं कि
इन दोनों में
समझौते की कोई
जरूरत है।
आपका
शरीर तो मरेगा
ही,
इसलिए
मरणधर्मा है,
और अगर आप
समझते है कि
आप शरीर ही
हैं तो मैं कहता
हूं आप मरोगे
और इसको मैं
पूरे ही बल से
कहूंगा।
इसमें मैं
रत्तीभर
गुंजाइश नहीं
रखूँगा आपके
बचने की।
लेकिन आपकी
आत्मा की
चर्चा है तो
मैं कहूंगा, आप कभी पैदा
ही नहीं हुए—अजन्मा
हो, मरने
का कोई सवाल
ही नहीं अमर
हो, अमृत
हो। ये दोनों
वक्तव्य अपने
में पूरे हैं,
एक—दूसरे को
कहीं काटते
नहीं। इनका
आयाम अलग है, इनका
डायमेंशन अलग
है।
इसलिए
निरंतर
कठिनाई हो
जाती है। और
फिर... और
कठिनाई इससे
जटिल हो जाती
है कि मेरे
सारे वक्तव्य
चूंकि लिखे
हुए नहीं हैं, बोले
हुए हैं, इसलिए
जटिलता और बढ़
जाती है। लिखे
हुए वक्तव्य
में एक तरह की
निरपेक्षता होती
है। वह किसी
से कहा नहीं
गया होता है, लिखा गया
होता है।
सुननेवाला, पड़ने वाला
सामने नहीं
होता इसलिए
उसमें वह
सम्मिलित
नहीं हो पाता।
वह बाहर होता
है। लेकिन जब
बोला जाता है
कुछ, तो जो सुन
रहा है वह
इनक्लूडेड
होता है।
जब
भी मैं कुछ
बोल रहा हूं
तो उस दिये गए
वक्तव्य के
लिए मैं अकेला
जिम्मेदार
नहीं हूं वह
आदमी भी
जिम्मेदार है
जिससे मैं बोल
रहा हूं। इससे
जटिलता भारी
हो जाती है।
जब भी मैं बोल
रहा हूं तो
मेरे वक्तव्य
की जिम्मेदारी
दोहरी है। मैं
तो जिम्मेदार
हूं ही, लेकिन
उस वक्तव्य को
उस भांति से
निर्मित करवाने
में वह आदमी
भी जिम्मेदार
है जिससे मैं
बोल रहा हूं।
अगर वह न होता,
उसकी जगह
कोई दूसरा
होता तो मेरा
वक्तव्य भिन्न
होता। अगर
तीसरा होता तो
और भिन्न होता,
और अगर
मैंने शून्य
में वक्तव्य
दिया होता तो
बिलकुल ही
भिन्न होता।
तो
चूंकि मेरे
सारे वक्तव्य
बोले गए
वक्तव्य हैं, और
मै मानता हूं
कि बोले गए
वक्तव्य ही
जीवित होते
हैं। क्योंकि
वक्तव्य को
जीवन दोनों से
आता है, बोलनेवाले
से और
सुननेवाले से।
जब बोलनेवाला
अकेला बोलता
है और
सुननेवाला कोई
भी नहीं होता
तो वह इस तरह
का सेतु बना
रहा है जिसमें
दूसरा किनारा
नहीं है। वह
सेतु बन नहीं
सकता। वह
सिर्फ एक
किनारे पर खड़ा
हुआ सेतु है।
वह गिरेगा ही।
वह अधर में है।
इसलिए जगत के
सब श्रेष्ठतम
सत्य बोले गए
सत्य है, लिखे
गए नहीं।
अगर
मैं लिखता भी
हूं तो पत्र
लिखता हूं
क्योंकि पत्र
करीब—करीब
बोला गया है।
उसमें दूसरा
सेतु है उसमें
दूसरा तथ्य है, जिससे
मै सेतु बना
रहा हूं। पत्र
के अलावा
मैंने कुछ
नहीं लिखा।
क्योंकि पत्र
मुझे बोलने का
ही एक ढंग
मालूम हुआ।
उसमें दूसरा
मेरे सामने है
कि मैं किससे
बोल रहा हूं।
इसलिए हजारों लोगों
से जब बोलता
हूं तो हजार
वक्तव्य हो
जाते हैं।
इसमें हर
बोलनेवाला
सम्मिलित हो
जाता है तब जटिलता
भारी हो जाएगी।
लेकिन ऐसा है,
और इस
जटिलता को जान
बूझकर कम करने
को मैं उत्सुक
नहीं हूं।
मेरी
उत्सुकता यह
है कि इस
जटिलता को
समझकर ही आप
इस उदघाटित
सत्य की सरलता
को समझ पाएं
तो आपका विकास
है। इस जटिलता
को कम करने को
मैं उत्सुक
नहीं हूं।
क्योंकि कम यह
की जाए तो कट
जाएगी। इसको
सरल किया जा
सकता है।
लेकिन तब इसके
बहुत से अंग
कट जाएंगे। तब
यह मुर्दा
होगी कटकर।
इसकी जटिलता
को मैं
रत्तीभर कम
करने को उत्सुक
नहीं हूं। उत्सुक
इसमें हूं कि
आप जटिलता के
भीतर भी सरलता
को खोज पाएं
तो आपका विकास
है। मेरी
कठिनाई कम
इसमें हो जाए
कि मैं इसको
सरल कर हूं।
वक्तव्य सीधे
और गणित के कर
दूं। मेरी
कठिनाई
बिलकुल ही
खत्म हो जाएगी।
लेकिन
मेरी कठिनाई
की मुझे कोई
चिंता नहीं।
वह कोई कठिनाई
है नहीं। आप
इतनी जटिलता
में भी सरलता
को देख पाएं
इतने विरोध में
भी निर्विरोध
सत्य को देख
पायें। इतने
उल्टे
वक्तव्य में
भी एक ही
तारतम्य देख
पाएं तो आपका
विकास होता है, आपकी
दृष्टि ऊंची
उठती है। यह
तभी देख
पाएंगे जितने
आप ऊपर उठेंगे।
तभी यह जटिलता
आपको सरल हो पाएगी।
ये
पहाड़ पर चढ़ते
हुए हजार
रास्ते एक—दूसरे
को काटते हुए
बड़े जटिल हैं, लेकिन
शिखर पर खड़े
होकर एकदम सरल
हो जाते हैं।
जब सब दिखायी
पड़ता है, इकट्ठे,
एक 'पैटर्न'
में, तब
मालूम पड़ता है
कि सभी पर्वत
शिखर की तरफ
भाग रहे हैं।
न तो वे किसी
को काट रहे
हैं, और न किसी
के विरोध में
हैं। लेकिन जब
कोई आदमी पहाड़
पर चढ़ता है
अपने रास्ते
से, तब
बाकी सब
रास्ते गलत
जाते हुए
मालूम पड़ते
हैं। और ऐसा
आदमी जो पहाड़
की चोटी सै कह
रहा हो कि सब ठीक
है, या कभी
किसी से कह
रहा हो, कि
यह ठीक है और
दूसरा गलत है,
और कभी उस
दूसरे से कह
रहा हो कि
तेरा ठीक है
और पहले वाला
गलत है, तो
बहुत जटिलता
बढ़ जाती है।
लेकिन सब
वक्तव्य
एड्रेस्ट हैं।
मेरा
प्रत्येक
वक्तव्य पता—ठिकाना
लिए हुए है।
वह किसी से
कहा गया है।
और उसी से ही
कहा गया है और
उस विशेष
स्थिति में ही
कहा गया है।
अगर
एक आदमी को
मैं डांवाडोल
देखता हूं
उसके रास्ते
पर तो मैं
कहता हूं सब गलत
है यही ठीक है।
लेकिन इसको
कहना चाहिए यह
जो वक्तव्य है, यह
सिर्फ उसकी सुविधा
के लिए है।
ऊपर आकर तो वह
भी जान लेगा
और हंसेगा कि
दूसरे रास्ते
भी ले आते हैं।
लेकिन अपने
रास्ते पर, जब वह अधूरे
में खड़ा था, और उसको यह
खयाल आ जाए कि
बगल वाला
रास्ता भी ले
आता है तब वह
डांवाड़ोल हो
और उस रास्ते
पर जाने लगे, और यह उसके
चित्त की दशा
हो जाए तो कल
और तीसरा रास्ता
दिखायी पड़े, और वह उस पर
भी जाने लगे
तो वह कभी
पर्वत पर नहीं
आ पाएगा। उससे
तो मुझे कहना
ही पड़ेगा कि
तू बिलकुल ठीक
चल रहा है। सब
गलत है, तू
आ। लेकिन उसके
पड़ोस में कोई
दूसरे रास्ते
पर भी चल रहा
हो और जब मैं
उससे भी बात
कर रहा हूं तो
उसके साथ भी
मेरी वही 'सिचुएशन'
है। और जब
ये दोनों
वक्तव्य
दोनों को मिल
जाते हैं तो
कठिनाई हो
जाती है।
अभी
मैं आपसे कहूं
महावीर और
बुद्ध को इस
कठिनाई का
सामना नहीं
करना पड़ा।
क्योंकि उनके
वक्तव्य उनके
सामने लिखे
नहीं गए। पांच
सौ साल बाद
दूसरों को
दिक्कत हुई।
जो सवाल आप
मुझसे पूछ रहे
हैं,
यह बुद्ध से
नहीं पूछा जा
सकता। पांच सौ
साल बाद
दिक्कत हुई, इसलिए पांच
सौ साल बाद
पंथ बने।
पच्चीस पंथ
बने। वक्तव्य
दिए गए थे, लिखे
गए नहीं थे।
इसलिए कभी
कम्पेयर नहीं
किए जा सके।
आपको
मैंने एक बात
कही थी। आपको
दूसरी कही थी।
उनको तीसरी
कही थी। आप
तीनों छो कभी
मौका नहीं
मिला लिखित
वक्तव्य का, कि
आप तीनों
कम्पेयर कर
लें, तुलना
कर लें कि
मुझसे यह कहा,
तुमसे यह
कहा, उनसे
यह कहा। ये
वक्तव्य निजी
थे और आपके
भीतर डूब गए
थे। जब लिखे
गए तब उपद्रव
शुरू हुआ।
इसलिए पुराने
धर्मों ने
बहुत दिनों तक
अपने शास्त्रों
को न लिखे
जाने की जिद
की, कि वह
लिखे न जाएं।
क्योंकि लिखे
जाते ही
कंट्राडिआन
साफ हो जाएंगे।
जैसे ही लिखा
जाएगा, पता
चलेगा यह
मामला क्या है?
जब तक नहीं
लिखा गया है
तब तक
व्यक्तिगत है।
जैसे ही लिखा
गया कि
व्यक्तिगत
नहीं रह जाता।
तो
जो कठिनाई
मेरे सामने है
वह बुद्ध, महावीर
के सामने नहीं
थी। लेकिन अब
आगे कोई उपाय
नहीं है। अब
तो जो भी कहा
जाएगा वह लिखा
जाएगा और लिखे
जाने से... कहा
तो गया था
व्यक्ति से, लिखे जाने
से समाज की
संपत्ति हो
जाएगी। फिर सब
इकट्ठा हो
जाएगा, और
उस सब इकट्ठे
में फिर सूत्र
खोजना
मुश्किल हो
जाएगा। मगर अब
ऐसा होगा।
इसके सिवाय
कोई उपाय नहीं
है। और मैं
मानता हूं
अच्छा है।
क्योंकि
बुद्ध के
सामने लिखा
गया होता तो
बुद्ध इसका
उत्तर भी दे
सकते थे। पांच
सौ साल बाद जब
लिखा गया और
जब सवाल पूछे
गए तो उत्तर
देनेवाला कोई
भी नहीं था।
इसलिए
किसी ने एक
वक्तव्य को
ठीक माना, उसने
एक पंथ बना
लिया। उससे
विपरीत
वक्तव्य को
जिसने ठीक
माना, उसने
दूसरा पंथ बना
लिया। जिसके
पास जो वक्तव्य
था उसने उसके
हिसाब से पंथ
बना लिया।
सारे पंथ: ऐसे
जन्मे हैं।
मेरे साथ पंथ
नहीं जन्म
सकेंगे।
क्योंकि मेरा
सारा उलझाव
सीधा—साफ है।
कल साफ होगा
ऐसा नहीं है, आज ही साफ है।
और मुझसे सीधी
बात पूछी जा
सकती है।
साथ
में आपने पूछा
है कि शब्दों
से ही बोलता हूं
और फिर भी
निरंतर कहता
हूं कि शब्द
से कुछ कहा नहीं
जा सकता है।
बोलनेवाले के
लिए शब्द के
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
साधारणत: शब्द
से ही बोला
जाएगा और फिर
भी यह सत्य है
कि शब्द से
बोला नहीं जा
सकता। ये
दोनों बातें
ही सत्य हैं।
शब्द
से ही बोला
जाएगा, यह
हमारी परिस्थिति
है। यानी जिस
सिचुएशन में
आदमी है उसमें
शब्द के अतिरिक्त
और संवाद का
कोई उपाय नहीं
है। या तो हम
आदमी की
परिस्थिति
बदलें, तो
सिर्फ गहरे
साधकों से
बिना शब्दों
के बोला जा
सकता है;. लेकिन
गहरी साधना
में उनको ले
जाने के पहले
भी शब्दों का
उपयोग करना
पड़ेगा। एक घडी
आ सकती है, बहुत
बाद में, कि
बिना शब्दों
के बोला जा
सके लेकिन वह
घड़ी आएगी बहुत
बाद में, वह
है नहीं। जब
तक वह घड़ी
नहीं है तब तक
शब्द से ही
बोलना पड़ेगा।
निःशब्द में
ले जाने के
लिए भी शब्द
से बोलना पड़ेगा।
यह परिस्थिति
है, सिचुएशन
है, लेकिन
सिचुएशन खतरनाक
है।
शब्द
से ही बोलना
पड़ेगा और यह
जानते हुए
बोलना पड़ेगा
कि शब्द अगर
पकड़ लिए गए तो
जो हम प्रयास कर
रहे थे वह
व्यर्थ हो गया।
हम प्रयास कर
रहे थे कि
निःशब्द में
ले जाएं बोलें
शब्द से। यह
मजबूरी थी कोई
उपाय न था।
अगर शब्द पकड़
लिए गए तो
प्रयोजन
व्यर्थ हो गया, क्योंकि
ले जाना था
निःशब्द में।
इसलिए शब्द से
बोलकर, शब्द
के खिलाफ
निरंतर बोलना
पडेगा, वह
भी शब्द में
ही बोलना
पड़ेगा। उसका
भी कोई उपाय
नहीं है। चुप
हुआ जा सकता
है, उसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। वैसे
लोग भी हुए
हैं जो
परिस्थितिगत
कठिनाई से चुप
हो गए। उनके
चुप होने से
वे तो झंझट के
बाहर हो गए, लेकिन जो
उनके पास था
वह दूसरे तक
नहीं पहुंच पाया।
मेरे
चुप हो जाने
में मुझे कोई
अड़चन नहीं है।
मैं चुप हो जा
सकता हूं और
कोई आत्मर्य
नहीं कि कभी
हो जाऊं!
क्योंकि जो कर
रहा हूं वह
करीब—करीब..
उसको कहना
चाहिये 'इम्पासिबल
एफर्ट' है,
वह असंभव को
संभव बनाने की
चेष्टा है।
लेकिन मेरे
चुप हो जाने
से कुछ हल
नहीं होगा। आप
तक कोई संवाद
नहीं
पहुंचेगा।
खतरा फिर वही
का वही है।
पहले शब्द
पकड़े जा सकते
थे। उनसे डर
था कि शब्द
पकड़ जाएं तो
जो मैं पहुंचाना
चाहता था वह
नहीं होगा। अब
चुप्पी रह जायेगी।
अब पहुंचाने
की बात ही
खत्म हो गयी।
लेकिन पहले
में एक
संभावना थी कि
कुछ लोगों तक
पहुंच जाएगा।
सौ से बात
करूंगा तो एक
तो शब्द को
बिना पकड़े जा
सकेगा, निन्यानबे
प्रयास
व्यर्थ होंगे।
एक तो सार्थक
हो जाएगा! चुप
रहकर वह एक भी
संभव नहीं रह
जाता! उसका भी
उपाय नहीं रह
जाता, इसलिए
व्यर्थ
चेष्टा करनी
पड़ती है।
और
मजे की बात यह
है कि जिसको
भरोसा है कि
शब्द से कहा
जा सकता है वह
बहुत ज्यादा
नहीं बोलेगा।
उसने थोड़ा बोल
दिया, बात
खत्म हो गयी।
लेकिन जिसे
भरोसा नहीं है
कि शब्द से
कहा जा सकता
है, वह
बहुत बोलेगा।
क्योंकि कितना
ही बोले उसे
पका पता है कि
अभी भी पहुंचा
नहीं। वह और
बोलेगा, और
बोलेगा, और
बोलेगा। यह जो
बुद्ध का
चालीस साल
निरंतर बोलना
है सुबह से
सांझ तक, यह
इसलिए नहीं है
कि शब्द से
कहा जा सकता
है, इसलिए
इतना बोल रहे
हैं। यह इसलिए
है कि हर बार
बोलकर पता
लगता है, अभी
भी तो नहीं
पहुंचा, फ्ति
बोलो, और
ढंग से बोलो, किसी और
रुस्ते से
बोलो, कोई
और शब्द का
उपयोग करो।’
इसलिए
चालीस साल
निरंतर बोलने
में बीत गए।
फिर डर भी
लगता है, जब
चालीस साल
निरंतर, बोलूंगा
तो कहीं ऐसा न
हो कि लोगों
को शब्द पकड़
जाए? क्योंकि
चालीस साल से
शब्द ही तो दे
रहा हूं इसलिए
फिर निरंतर यह
भी चिल्लाते
रहे कि शब्द
पकड़ मत लेना।
पर यह स्थिति
है, और इस
स्थिति के
बाहर जाने के
लिए सिवाय
इसके कोई
मार्ग नहीं है।
शब्द से बाहर
जाने के लिए
शब्द का ही
उपयोग करना
पड़ेगा। यह
करीब—करीब
स्थिति ऐसी है,
जैसे यह
कमरा है। इस
कमरे से बाहर
जाने के लिए
भी इस कमरे
में दस—पांच
कदम चलने
पड़ेंगे, बाहर
जाने के लिए
भी। क्योंकि
जहां हम बैठे
हैं, वहां
से दस कदम
उठाने ही
पड़ेंगे बाहर
जाने के लिए।
हालांकि कोई
कह सकता है कि
कमरे में ही
चलने से कमरे
के बाहर कैसे
पहुंचोगे? लेकिन
कमरे में चलने
के ढंग पर
निर्भर करता
है।
एक
आदमी
वर्तुलाकार
चल सकता है, कमरे
में गोल चक्कर
काट सकता है।
वह मीलों चले
तो भी बाहर
नहीं
पहुंचेगा।
लेकिन एक
द्वार की तरफ
चल सकता है, वर्तुलाकार
नहीं, लीनियर
होगा उसका
चलना, रेखाबद्ध
होगा। अगर
रेखा कहीं जरा
भी मुड़ गयी तो
चक्कर खा
जाएगा कमरे के
भीतर। अगर
रेखा बिलकुल
सीधी रही तो
दरवाजे से
निकल भी सकता
है। लेकिन
दोनों को चलना
तो पड़ेगा कमरे
में ही। अगर
मै उस आदमी से
कहूं जो कमरे
में कई चक्कर
लगा चुका है, उससे मैं
कहूं कि दस
कदम चलो, बाहर
निकल जाओगे।
तो वह कहेगा, पागल हो, दस
कदम कह रहे हो,
मैं मीलों
चल चुका और
कमरे के बाहर
नहीं निकला।
उसका कहना भी
गलत नहीं है।
वह गोल चल रहा
है।
और
एक बड़े मजे की
बात है कि इस
जगत में, अगर
बहुत प्रयास न
किया जाए तो
सब चीजें गोल
चलती हैं—सब
चीजें! गति
गोल है, सर्कुलर
है। सब गतियां
सर्कुलर हैं।
अगर आप चेष्टा
न करें तो सब
चीजें गोल
चलेंगी। सीधा
चलाना बहुत
एफर्ट की बात
है।
इस
जगत में गति
सर्कुलर है—चाहे
एटम्स चलें, चाहे
चांद चले चाहे
आदमी की
जिंदगी चले, चाहे विचार
चले, इस
जगत में जो भी
चलता है वह
गोल चलता है।
इसलिए बड़ी—से—बड़ी
साधना सीधा
चलना है और वह
बड़ा कठिन
मामला है।
आपको पता ही
नहीं चलता कि
आप कब गोल हो
गए। इसलिए
ज्योमेट्री
तो कहेगी, सीधी
रेखा ही नहीं
खींची जा सकती।
सब सीधी
रेखाएं भी
किसी बडे
वर्तुल के
हिस्से हैं, धोखा देती
हैं कि सीधी
हैं। कोई सीधी
रेखा नहीं है
जगत में।
स्ट्रेट लाइन
खींची नहीं जा
सकती, स्ट्रेट
लाइन सिर्फ
डैफिनेशन में
युक्लिड
कहता है कि
स्ट्रेट लाइन
सिर्फ
व्याख्या है, कल्पना
है, खींची
नहीं जा सकती।
कितनी ही बड़ी
सीधी रेखा
खींचें हम, पहले तो हम
उसे पृथ्वी पर
खीचेंगे और
पृथ्वी चूंकि
गोल है, इसलिए
वह गोल हो
जाएगी। इस
कमरे में हम
सीधी रेखा
खींच सकते हैं,
लेकिन वह
पृथ्वी के बड़े
गोल का एक
टुकड़ा है।
एक
कर्व है?
हां, एक
कर्व है।
लेकिन कर्व
इतनी छोटी है
कि हमें
दिखायी नहीं
पड़ती। उसको हम
दोनों तरफ
बढ़ाए चले जाएं
तो हमको पता चल
जाएगा कि पूरी
पृथ्वी का
सर्किल लगाकर
वह गोल घेरा
बन गयी है।
वस्तुत: तो खींचना
शइश्कल ही है।
साधना में
सबसे बड़ा जो
प्रश्र है, गहरे अंतर
में, वह
यही है कि
विचार भी
वर्तुल चलते
हैं, चेतना
भी वर्तुल
घूमती है। और
जो आरडुअसनेस
है, जो
तपश्रर्या है
वह इस वर्तुल
के बाहर छलांग
लगाने में है।
लेकिन कोई
उपाय नहीं है।
सब शब्द
वर्तुलाकार
हैं। कभी हम
खयाल नहीं
करते कि सब
शब्द
वर्तुलाकार
कैसे हैं? आप
जब एक शब्द की
व्याख्या
करते हैं तो
दूसरा शब्द
उपयोग करते
हैं।
अगर
आप डिआनरी
उठाकर उसमें
देखें मनुष्य, तो
लिखा है आदमी।
और आदमी का
शब्द उठाकर
देखें, तो
लिखा है
मनुष्य। यह
बड़ा पागलपन है।
यानी हमें इन
दोनों का ही
पता नहीं है, इसका मतलब
यह हुआ! लेकिन
डिक्शनरी
पढनेवालों को
कभी खयाल में
नहीं आता कि
डिक्शनरी
बिलकुल
सर्कुलर है।
उसमें एक जगह
जो व्याख्या
दी गई है वही
व्याख्या उस
शब्द के लिए
फिर वहां दे
दी गयी है।
इसका फल क्या
हुआ? इससे
मतलब क्या हुआ?
मनुष्य आदमी
है और आदमी
मनुष्य है, तो हम वहीं
के वहीं खड़े
हैं। इससे
व्याख्या हुई
कहां? तो
सारी
व्याख्याएं
वर्तुलाकार
है, सारे
सिद्धांत
वर्तुलाकार
हैं। एक
सिद्धांत को
समझाने के लिए
दूसरे को
उपयोग करना, दूसरे के
लिए फिर उसी
का उपयोग करना
पड़ता है। पूरी
चेतना
वर्तुलाकार
है। इसलिए
बूढ़े आखिरी
अवस्था में
करीब—करीब
बच्चों जैसे
हो जाते हैं।
वर्तुल पूरा
हो गया।
शब्द
कितने ही बोले
जाएं वर्तुल
में ही घूमते हैं।
शब्दों की
बनावट
वर्तुलाकार
है। सीधी रेखा
में वे चल
नहीं सकते।
अगर आप सीधी
रेखा में चलें
तो शब्द के
बाहर पहुंच
जाएंगे, पर
शब्दों में हम
जीते हैं
इसलिए अगर
मुझे शब्दों
के खिलाफ भी
कुछ कहना है
तो शब्दों में
ही कहना पडेगा।
यह बड़ा पागलपन
है, लेकिन
इसमें मेरा
कसूर नहीं है।
ऐसी ही स्थिति
है। शब्द
बोलता रहूंगा,
शब्द के
खिलाफ बोलता
रहूंगा। इस
आशा में शब्द
बोलूंगा, कि
शब्द के बिना आप
समझ नहीं सकते
हैं। इस आशा
में शब्द के खिलाफ
बोलूंगा कि
शायद शब्द की
पकड़ से बच
जाएं। अगर ये
दोनों घटनाएं
घट सकें तो ही
मैं आपको जो
कहना चाहता
हूं वह पहुंचा
पाऊंगा। अगर
आप सिर्फ मेरे
शब्द समझ गए तो
भी चूक गए।
अगर आप शब्द
ही न समझे, तो
भी चूक गए।
शब्द तो मेरे समझने
ही पड़ेंगे
लेकिन शब्द के
साथ—साथ जो
निःशब्द का
इंगित है वह
भी समझना पडेगा।
इसलिए शास्रों
के खिलाफ बोलता
रहूंगा और इसलिए
आज नहीं कल मेरे
वचन सब शास्र
बन जाएंगे। सब
शास्र इसी तरह
बने है। ऐसा एक
भी कीमती शास्त्र
नहीं है जिसमे
शब्द के खिलाफ
वक्तव्य न हो।
इसका मतलब यह
हुआ कि एक भी
ऐसा शाख नहीं
है जिसमें
शास्त्र के
खिलाफ
वक्तव्य न हो।
चाहे उपनिषद हो,
चाहे गीता हो,
चाहे कुरान हो,
चाहे बाइबिल
हो, चाहे महावीर
हों, चाहे बुद्ध
हों। तो ऐसा
मानने का कोई
कारण नहीं है
कि मेरे साथ
कुछ भिन्न हो
जाएगा। वही
असंभव कोशिश
चलती है, वही
चलेगी। शब्द
के खिलाफ बोल—बोलकर
शब्द बहुत बोल
चुका होऊंगा।
कोई न कोई
उन्हें पकड़
लेगा और
शास्त्र बन ही
जाएगे, लेकिन
इस डर से बोलना
बंद नहीं किया
जा सकता। क्योंकि
सौ के साथ एक के
निकलने की
संभावना है। न
बोलने के साथ
एक की भी
संभावना खो
जाती है। फिर
डर इसलिये भी
नहीं है कि
मेरे शब्दों
और शास्त्रों
के खिलाफ
बोलने वाला
कोई न कोई फिर
मिल जाएगा, इसलिए डर
नहीं है।
अब
यहां एक दूसरी
उलझन खड़ी हो
जाती है। वह
यह है कि इस
जगत में मेरा
काम कभी भी
कोई वही आदमी
करेगा जो मेरे
खिलाफ बोलेगा।
यह जो कठिनाई
है वह ऐसी है
कि आज अगर
बुद्ध के पक्ष
में काम करना
है तो बुद्ध
के खिलाफ
बोलना पड़ेगा।
क्योंकि उनके शब्द
किन्हीं के
पत्थर की तरह पकड
गए और उन
पत्थरों को तब
तक हटाया नहीं
जा सकता, जब तक बुद्ध
न हटाया जाए।
क्योंकि
बुद्ध की प्रतिष्ठा
के साथ वह
पत्थर उनकी
छाती पर जमे हुए
हैं। पत्थर को
हटाना है तो
बुद्ध को
गिराना पड़ेगा।
तो ही वह
पत्थर हटें।
अगर बुद्ध को
न गिराओ तो वह
पत्थर न हटें।
अब
मेरे जैसे
आदमी की
मजबूरी खयाल
में आ सकती है
कि मुझे बुद्ध
के खिलाफ
बोलना पड़े, और
यह जानते हुए कि
उनका काम कर रहा
हूं। मगर जिनको
बुद्ध के नाम के
साथ आग्रह पकड़
गया है, शब्द
के साथ आग्रह
पकड़ गया है, उन्हें
हिलाने का
क्या उपाय है?
जब तक बुद्ध
न हिले तब तक
वह नहीं हिल
सकते। तो
अकारण बुद्ध के
साथ झंझट करनी
पड़ती है इस
आदमी को हिलाने
के लिए। जब तक वेद
न हिलाया जाए
तब तक यह आदमी
नहीं हिल सकता।
यह वेद को
पकड़े बैठा हुआ
है। जब इसको
पका हो जाए कि
वेद बेकार, तभी यह छोड
सकता है। एक
दफे खाली हो
तो कुछ आगे बढ़
सकता है।
हालांकि जो
वेद ने कहा है
वही मैं इससे
कहूंगा, खाली
होने के बाद।
तब जटिलता और बढ़
जाती है। तब
अकारण गलत
मित्र पैदा हो
जाते है और गलत
शत्रु पैदा हो
जाते है। वैसे
सौ में निन्यान्नबे
मौके गलत मित्रों
और गलत शत्रुओ
के ही है। गलत
मित्र वह है
जो मेरी बात
को शाख की तरह
पकड़ लेंगे और
गलत शत्रु वह
है जो कि मेरी
बात को शास्त्र
की शत्रुता
मानकर पकड़
लेंगे, कि
मैं दुश्मन
हूं शाखों का।
मगर ऐसा है, और ऐसा होगा,
और इसमें
कुछ बेचैनी का
कारण नहीं है।
क्योंकि सारी
स्थिति ऐसी है।
तो आप
लिखना नहीं
चाहेंगे?
नहीं
लिखना
चाहूंगा।
नहीं लिखना
चाहूंगा कई
कारणों से। एक
तो इसलिए कि
लिखना मेरी
दृष्टि में
एब्सर्ड है, बिलकुल
व्यर्थ है।
व्यर्थ इसलिए
कि किसके लिए?
यह लिखना
मेरे लिए ऐसा
है कि पत्र
लिखा है, लेकिन
पता नहीं
मालूम, कि
लिफाफे में
बंद करके उसको
भेजना कहां है?
वक्तव्य
सदा ही
एड्रेस्ड है।
लिखते वे लोग
हैं जो मास के
लिए एड्रेस कर
रहे हैं। वह
भी एड्रेस कर
रहे है अनजान
भीड़ के लिए।
लेकिन जितनी
अनजान भीड़ हो
उतनी ही ओछी
बातें कही जा
सकती है।
जितना जाना—माना
व्यक्ति हो
उतनी ही गहरी
बातें कही जा
सकती हैं।
गहरे
सत्य व्यक्ति
से कहे जा
सकते हैं। भीड़
से काम चलाऊ
बातें कही जा
सकता हैं। भीड़
से कभी गहरे
सत्य नहीं कहे
जा सकते।
क्योंकि
जितनी बड़ी भीड़
हो उतनी ही
समझ कम हो जाती
है,
और अगर भीड़
बिलकुल
अज्ञात हो तो
समझ को शून्य
मानकर चलना
पड़ता है।
इसलिए जितना
मास लिट्रेचर
होगा, बहुत
जमीन पर आ
जाएगा। आसमान
की उडान नहीं
रह जाएगी।
अगर
कालिदास के
काव्य में कोई
खूबी है और आज
के काव्य में
कोई खूबी नहीं
है तो उसका
कोई फर्क
कालिदास और आज
के कवि में
नहीं है।
कालिदास का
वक्तव्य
एड्रेस्ड है, किसी
सम्राट के
सामने कहा गया
है। किन्हीं
दस—पांच चुने
हुए लोगों के
बीच कही गयी
कविता है। आज
का कवि अखबार
ही छाप रहा है।
कोई जिसे चाय
की दुकान में
पडेगा, कोई
मूंगफली खाते
हुए पढ़ेगा, कोई हुक्का
पीते हुए देख
लेगा एक नजर—कौन,
वह भी पता
नहीं। वह जो
अनजान आदमी है
उसको तो हमें
आखिरी मानकर
चलना पड़ रहा
है। अगर लिखना
हो तो उसको
ध्यान में
रखकर लिखना पड़ा
है।
और
मेरी तो तकलीफ
यह है कि
हमारे बीच जो
श्रेष्ठतम
हैं उनसे भी
कहने में
मुश्किल है
सत्य। तो
हमारे बीच जो
निकृष्टतम
हैं उनसे तो
कहने का कोई
उपाय ही नहीं
है। हमारे बीच
जो श्रेष्ठतम
है,
जिनको हम
कहें चूज़न
फ्यू, जो
गहरे से गहरा
समझ सकते हैं।
उनमें से भी
सौ से कहूंगा
तो एक समझेगा,
निन्यान्नबे
चूक जाएंगे।
तो भीड़ को तो
कहने का कोई
अर्थ ही नहीं
है। और लिखा
तो भीड़ के लिए
जा सकता है, व्यक्ति के
लिए कहा जा
सकता है।
दूसरे
भी कारण है।
मेरा मानना है
कि हर मीडियम
के साथ कंटेंट
बदल जाता है।
हर माध्यम के
साथ विषय—वस्तु
बदल जाती है।
आप जैसे ही
माध्यम बदलते
हैं,
विषय—वस्तु
वही नहीं रह
जाती। माध्यम
भी विषय—वस्तु
को बदलने के
लिए चेष्टा
करता है। यह
एकदम से
दिखायी नहीं
पड़ता। जब मैं
बोल रहा हूं
तब माध्यम और
है। एक तो
जीवंत है, सुननेवाला
भी जीवित
मौजूद है, मैं
भी जीवित
मौजूद हूं।
जब
मैं बोल रहा
हूं तब यह
मुझे सुन ही
नहीं रहा है, मुझे
देख भी रहा है।
मेरे चेहरे की
हरकत में फर्क,
मेरी आंखों
पर जरा—सी
बदलती हुई लहर,
मेरी उंगली
का उठना या
गिरना, वह
सब उसे दिखाई
भी पड़ रहा है।
वह सुन भी रहा
है, देख भी
रहा है। मेरे
शब्द ही नहीं
सुन रहा है, मेरे ओंठ भी
देख रहा है।
शब्द ही नहीं
कहते, ओंठ
भी कहते हैं।
मेरी आंखें भी
कुछ कह रही है।
यह सब इकट्ठा
पी रहा है वह।
सुन भी रहा है,
देख भी रहा
है, यह सब
इकट्ठा जा रहा
है। उसके भीतर
कंटेंट अलग
होगा इसका। जब
वह एक किताब
पढ़ रहा है। तब
मेरी जगह
सिर्फ काले
अक्षर हैं, काली स्याही
है और कुछ भी
नहीं है। तो
मैं और काली
स्याही, ये
इकीवेलेन्ट
नहीं है, इनका
कोई लेन—देन
नहीं है, इनका
कहीं कोई संबंध
नहीं है।
काली
स्याही में न
कोई भाव उठते, न
कोई दृश्य
उठते, न
कोई जीवन है।
मुर्दा टिका
हुआ संदेश है।
बहुत बड़ा
हिस्सा खो गया
जो बोलने के
साथ जीवंत है।
एक मुर्दा
वक्तव्य उसके
हाथ में है।
बड़े
मजे की बात है
कि किताब पढ़ने
के लिए इतना अटेंटिव
होना जरूरी
नहीं है।
सुननेवालों
में भी फर्क
होते हैं।
सुननेवाला जब
सुनता है तब, और
जब पड़ता है तब,
दोनों में
बुनियादी
ध्यान के फर्क
हो जाते हैं।
सुनते समय
आपको पूरा—पूरा
एकाग्र होना
पड़ता है, क्योंकि
जो बोला गया
है वह दोहराया
नहीं जाएगा।
उसको वापस
लौटकर नहीं
देख सकते। वह
खो गया।
प्रतिपल
जब मैं बोल
रहा हूं तो जो
भी बोला जा रहा
है वह अनंत
खाई में खोता
चला जा रहा है।
अगर आपने पकड़
लिया तो पकड़
लिया, अन्यथा
वह गया। वह
फिर नहीं
लौटेगा।
किताब पढ़ते
वक्त कोई डर
नहीं है, आप
दस दफे लौटकर
किताब पढ़ सकते
है। इसलिए
बहुत अटेंटिव
होने की जरूरत
नहीं है।
इसलिए दुनिया
में जब से
किताब आयी तब
से ध्यान कम
हुआ, अटेंशन
कम हो गयी।
होगी ही वह, कंटेंट बदल
गया। किताब के
साथ तो ऐसा है
न, कि आप भी
एक पूरा पन्ना
पढ़ जाते है और
फिर खयाल में
आता है कि अरे,
कुछ खयाल
में नहीं आया।
फिर उल्टा के
पढ़ लेते है, लेकिन मुझे
उलटाया नहीं
जा सकता। मैं
गया।
यह
बोध,
कि जो सुना
जा रहा है वह
खो जाएगा, एक
दफे चूका कि
सदा के लिए
चूका, वह
कभी पुनरुक्त
नहीं हो सकेगा,
आपकी चेतना
को, उसको
कहना चाहिये
पीक—पिच में
रखता है, आपकी
चेतना को वह
ऊंचे—से ऊंचे
शिखर पर रखता
है ध्यान के।
.फिर जब आप
बैठे है आराम
से... पढ़ रहे हैं,
खो गया, कोई
हर्जा नहीं, पन्ने पलटाए,
फिर पढ़ गए!
समझ कम होती
है किताब के
साथ, पाठ
बढ़ता है।
समझ
ध्यान के साथ
कम हो जाती है।
इसलिए अकारण
नहीं है कि
बुद्ध या
महावीर या जीसस
बोलने के
माध्यम को
चुनते है।
लिखा जा सकता
था। पर वे बोलने
के माध्यम को
चुनते है।
उसके दोहरे
कारण है। एक
तो बोलने का
माध्यम बड़ा
माध्यम है।
उसके साथ बहुत
चीजें और जुड़ी
हैं जो लिखने
में खो जाएंगी।
इसलिए आप
ध्यान रखें, जैसे
ही फिल्म आयी,
उपन्यास खो
गए। क्योंकि
फिल्म ने वापस
जीवंत कर दी
चीज को।
उपन्यास को
कौन पढ़ेगा? वह मृत है, मृतवत हो
गया। उपन्यास
ज्यादा दिन
जिंदा नहीं रह
सकता। इसकी
जान चली गयी।
वह विधा खो
जाएगी, क्योंकि
अब हमारे पास
ज्यादा जीवंत
माध्यम हैं।
मैकलोहान
इसको हाट
मीडियम कहता
है। यह हाट
मीडियम है।
तो
टेलीविजन है
या फिल्म है, यह
जीवंत है, इसके
खून में गर्मी
है। किताब
कोल्ड मीडियम
है, बिलकुल
डेड कोल्ड है,
ठण्डी है।
इसमें कोई जान
नहीं है। खून
बहता नहीं है
इसमें। आपका
टेलिफोन खो
जाएगा, जिस
दिन भी हम
विजन जोड़
देंगे उसमें;
जैसे
रेडियो खो गया
टेलिविजन? के
सामने।
रेडियो अब
कोल्ड मीडियम
हो गया।
टेलीविजन हाट
मीडियम होगा।
तो बोलना, मेरे
हिसाब से हाट
मीडियम है।
उसमें खून है,
गर्मी है।
अभी
तक हम भाषा का
कोई उपाय नहीं
कर सके है, जैसे
कि अब मुझे
किसी चीज पर
जोर देना होता
है तो जरा जोर
से बोलता हूं।
उसका बोलने का
त्युएंस बदल
जाता है, उसके
बोलने की तर्ज
बदल जाती है, उसका जोर
बदल जाता है।
लेकिन शब्द
में कोई उपाय
नहीं है। शब्द
बिलकुल डेड है।
प्रेम, चाहे
प्रेम
करनेवाले ने
लिखा हो, चाहे
प्रेम न
करनेवाले ने
लिखा हो, चाहे
प्रेम में
जलनेवाले ने
लिखा हो, चाहे
प्रेम को
बिलकुल न
जाननेवाले ने
लिखा हो..
प्रेम प्रेम
है। उसमें कोई
न्यूएंस नहीं
है, उसमें
कोई ध्वनि—तरंग
नहीं है। वह मुर्दा
है।
तो
जब जीसस
कहेंगे 'प्रार्थना',
तो उसका
मतलब वह नहीं
होता जो किताब
में कोई भी
लिख देता है।
जीसस की पूरी
जिंदगी
प्रार्थना है,
वह सिर से
अंगूठे तक
प्रार्थना है,
रोया—रोया
प्रार्थना है।
जब वह कहते
हैं प्रार्थना
तो इसका कुछ
अर्थ ही और है,
जो कि भाषा
कोश में नहीं
हो सकता। साथ
ही जब भी किसी
से बोला जा
रहा है तब
बहुत जल्दी एक
ट्यूनिंग
निर्मित हो
जाती है।’ बहुत
जल्दी आपका
हृदय, सुननेवाले
के हृदय के
निकट आ जाता
है। द्वार खुल
जाते हैं।
आपके डिफेंस
गिर जाते हैं।
सुनते वक्त
अगर आप ध्यान
से सुन रहे
हैं तो आपका
सोचना बंद हो
ही जाता है—जितने
ध्यान से सुन
रहे हो उतना
सोचना बंद हो जाता
है, द्वार
खुल जाते हैं।
रिसेटीविटी
साफ .हो जाती
है, ग्राहकता
बढ़ जाती है, चीजें सीधे
चली जाती हैं
और एक दूसरे
से हम परिचित
हो जाते हैं।
एक
बहुत गहरे
अर्थ में भीतर
से सुर संबंध
बन जाते हैं।
बोलना ऊपर
चलता है, भीतर
के सुर संबंध
भी यात्रा
शुरू कर देते
है। पढ़ते वक्त
ऐसा कोई सुर
संबंध नहीं
बनता, क्योंकि
बनेगा किससे?
पढ़ते वक्त
आप समझते नहीं,
समझना पड़ता
है। सुनते
वक्त आप समझते
हैं, समझना
पड़ता नहीं है।
वे अगर मुझे
पढते हैं और
अगर मैंने
जैसा कहा है
वैसा ही
रिपोर्ट किया
गया है, ठीक
वैसा अक्षरश:,
तो वह भूल
जाते हैं कि
पढ़ रहे है।
थोड़ी देर में
उनको लगता है
कि वह सुन रहे
हैं। पर जरा
भी इधर—उधर या
हेर—फेर किया
गया तो धारा
टूट जाती है।
तो जिसने मुझे
एक दफा सुन
लिया है उसके
लिए मेरा कहा
गया और लिखा हुआ,
जब वह पढ़ेगा,
तो वह करीब—करीब
पढ़ना न होगा, सुनना होगा।
और भी फर्क
हैं। माध्यम
के फर्क बहुत
हैं और
कन्टेंट
बदलता है।
बड़ी
कठिनाई तो यह
हुई है कि जो
हम कहने जा
रहे हैं, वह
जिस माध्यम से
हम कहते हैं, वह उसके साथ बदलता
है। जैसा मैं
अनुभव करता
हूं बदलेगा ही।
अगर उसी बात
को काव्य में
कहना है तो
काव्य अपनी ही
व्यवस्था
थोपेगा, तोड़—फोड़
करेगा, काट—छांट
करेगा। अगर
उसी को गद्य
में कहना है
तो बात और
होगी—कन्टेंट
बदल जाएगा।
इसलिए
प्राथमिक रूप
से सारे के
सारे दुनिया
के पंथ काव्य
में लिखे गए।
उसका कारण है;
जो कहा जा
रहा था वह
इतना
तर्कातीत था
कि उसे गद्य
में कहना कठिन
पड़ा। गद्य
बहुत लाजिकल
है, पद्य
बहुत इल—लाजिकल
है। पद्य में
इल—लाजिक को
क्षमा किया जा
सकता है, गद्य
में क्षमा
नहीं किया जा
सकता। अगर आप
कविता में
थोड़ा सा
बुद्धि के इधर—उधर
सरकें तो माफ
किया जा सकता
है, लेकिन
पोज में माफ
नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि पोज
गहरे में
लाजिक है और
पोइट्री गहरे
में इल—लाजिक
अगर
उपनिषद को आप
गद्य में
लिखें, या
गीता को गद्य
में लिख दें, तो आप
पाएंगे, उसका
प्राण खो गया।
यह मीडियम बदल
गया। वही बात
जो पद्य में
बहुत
प्रीतिकर
लगती थी, गद्य
में आकर खटकने
लगेगी, क्योंकि
वह तर्कहीन हो
जाएगी। गद्य
जो है वह तर्क
की व्यवस्था
है। उपनिषद तो
कहे गए पद्य
में, गीता
कही गयी पद्य
में, लेकिन
बुद्ध और
महावीर पद्य
में नहीं बोले,
गद्य में
बोले हैं।
कारण था—युग
बदल गया था
पूरा। जब
उपनिषद और वेद
रचे गए तब एक
अर्थ में युग
ही पद्यात्मक
था। लोग सीधे—सादे
थे, तर्क
की उनकी मांग
ही नहीं थी।
उनसे किसी ने
कह दिया कि
ईश्वर है, तो
उन्होंने कहा,
है। फिर वह
यह भी पूछने
नहीं आए कि
कैसा है, क्या
है? अगर
बच्चे को
देखें तो आपको
पता चल जाएगा
कि उस युग के
लोग कैसे रहे
होंगे।
एक
बच्चा आपसे
कितना झई कठिन
सवाल पूछे, लेकिन
कितने ही सरल
जवाब से राजी
हो जाता है।
सवाल कितना ही
कठिन पूछे, सरल जवाब हो,
राजी हो
जाता है। वह
पूछेगा, बच्चे
कहां से आते
हैं? आप
कहते हैं कौवा
लाता है, वह
चला गया खेलने।
सवाल उसने
भारी, कठिन
पूछा था, जिसका
अभी बड़े से
बड़ा
बुद्धिमान भी
ठीक से जवाब
नहीं दे पा
सकता है। सवाल
बड़ा कठिन था
उसका, उसने
अल्टीमेट पूछ
लिया था, बच्चे
कहां से आते
हैं? आपने
कहा, कौवे
ले आते हैं।
इतने में गया।
बड़े सरल जवाब
से राजी हो
गया है।
ध्यान
रखें, जवाब
जितना पोइटिक
होगा बच्चा
उतनी जल्दी
राजी हो जाएगा।
अगर इसको आप
पोइट्री में
कह देते कि—कौवा—ले—
आया, तो वह
और भी जल्दी
राजी हो जाता।
इसलिए छोटे
बच्चों की
किताब हमें
पोइट्री में
लिखनी पड़ती है।
क्योंकि उसके
हृदय में
जल्दी से
पहुंच जाती है।
उसमें धुन
होती है, लय
होती है। वह
उसके मन में
जल्दी से उतर
जाती है। अभी
वह धुन और लय
के जगत में
जीता है।
बुद्ध
और महावीर को
गद्य का उपयोग
करना पड़ा।
क्योंकि युग
तार्किक था और
लोग भारी तर्क
कर रहे थे।
लोग सवाल छोटा—सा
पूछते, लेकिन
बड़े—से—बड़े
जवाब से राजी
नहीं थे। हालत
उल्टी हो गयी
थी। बड़े—से—बड़ा
जवाब भी उनको
काफी नहीं था।
क्योंकि
पच्चीस सवाल
वे और पूछेंगे।
इसलिए बुद्धू
और महावीर को
बिलकुल ही
गद्य में
बोलना पड़ा।
और
अब दुनिया में
पद्य में कभी
बोला जा सकेगा
इसकी कठिनाई है।
इसलिए पद्य अब
ज्यादा—से—ज्यादा
मनोरंजक है।
इसमें कोई
गहरी बातें
नहीं कही
जातीं, जबकि दुनिया
की प्राथमिक
सभी बातें
पद्यों में
कही गयी हैं।
लेकिन पद्य अब
मनोरंजन है।
कुछ लोग जिनको
फुर्सत में
कुछ मनोरंजन
करना है, करते
हैं। लेकिन जो
भी कीमती
बातें हैं वे
अब गद्य में कही
जाएंगी।
क्योंकि अब
आदमी बच्चे
जैसा नहीं है,
प्रौढ़ है।
हर चीज पर
तर्क करेगा।
गद्य ही उस तक
पहुंचेगा। हर
माध्यम
कंटेंट को
बदलता है।
पहुंचाने की
सुविधा, संभावना
को घटाता
बढ़ाता है।
और
मेरी अपनी
दृष्टि तो यह
है कि जैसे—जैसे
टेक्नालाजी
विकसित होती
जा रही है
वैसे—वैसे
बोलने का
माध्यम वापस
लौट आएगा। बीच
में खोया था।
क्योंकि किताब
ने पकड़ लिया
था चीजों को। टेक्नालाजी
हमें वापस
लौटाए दे रही
है। टेलिविजन
आ जायेगा। कल
थी डायमेंशनल
टेलिविजन हो
जाएगा। कोई
किताब पढ़ने को
राजी नहीं
होगा। किताब
लिखने की कोई
जरूरत नहीं
होगी।
मैं
सारी दुनिया
से एक साथ बोल
सकता हूं
टेलिविजन पर।
वह मुझे सीधा
ही सुन सकते
हैं। बहुत
जल्दी, किताब
के लिये बहुत
खतरे हैं।
भविष्य किताब
का बहुत अच्छा
नहीं है।
जल्दी ही, किताब...
किताब पढ़ी
नहीं जाएगी अब,
देखी जाएगी
एक अर्थ में।
उसको देखने
में
ट्रांसफार्म
करना पड़ेगा।
माइक्रो
फिल्म्स बन
गयी हैं—
जिनमें कि
किताब को
पर्दे पर आप
देखेंगे।
बहुत जल्दी
इनको हम पिक्चर
में बदल देंगे।
इसमें ज्यादा
देर नहीं
लगेगी।
मेरी
अपनी समझ ऐसी
है कि लिखने
का माध्यम एक
मजबूरी थी।
कोई और उपाय
नहीं था तो
लिखा गया। फिर
भी जिन्हें
कुछ बहुत बड़ी
बात कहनी थी
वे अब तक भी
बोलने के
माध्यम का
उपयोग किए हैं।
तो मेरे मन
में कभी खयाल
नहीं आता कुछ
लिखने का। एक
तो मेरी यह
समझ में नहीं
आता कि किसके
लिए? और दूसरा जब
तक मेरे सामने
किसी का चेहरा
न हो तब तक.. इस
वजह से और भी
मेरे भीतर कुछ
उठता नहीं।
क्योंकि मेरे
पास एक जो
कहने का रस
होता है, वह
मेरे लिए कारण
नहीं है। तो
रस होता है कि
कुछ कहूं। एक
साहित्यकार
में और एक ऋषि
में वही फर्क
है।
साहित्यकार
को कहने में
रस है। कह
पाया तो
आनंदित है।
अभिव्यक्ति
बड़ा आनंद है।
कह दिया तो
जैसे कोई बोझ
हल्का हो गया।
कोई भारी भी
चीज मेरे ऊपर
कोई बोझ नहीं
है
जब
मैं आपसे कुछ
कह रहा हूं तो
मुझे कहने की
वजह से कोई
आनंद नहीं आ
रहा है। कहकर
मेरा कोई बोझ
हल्का नहीं हो
रहा है। मेरा
कहना बहुत
गहरे में, एक्सप्रेशन
कम और
रिस्पांस
ज्यादा है।
मुझे कुछ कहना
ही है आपसे, ऐसा नहीं है।
आपको कुछ
कहलवाना हो तो
ही मेरे भीतर
से कुछ आ सकता
है। यानी करीब—करीब
हालत मेरे मन
के भीतर ऐसी
है कि अगर आप
बाल्टी डाल
दें तो ही
मेरे कुएं से
कुछ आ सकता है।
इसलिए धीरे—
धीरे आप देखते
हैं, मुझे
मुश्किल होता
जा रहा है। जब
तक मुझसे कुछ
पूछा न जाए
मुझे कहना
मुश्किल होता
जा रहा है।
इसलिए बहुत
कठिनाई है आगे
कि मैं सीधा
बोल पाऊं। वह
मुझे भारी
पड़ने लगा है
इसलिए अब मुझे
बहाने खोजने
पड़ेंगे।
अगर
गीता पर बोल
रहा हूं तो
उसका कारण है।
मुझे बहाना
चाहिए। आप कोई
बहाना खड़ा कर
देंगे, तो
मैं बोल दूंगा।
आपने बहाना
नहीं खड़ा किया
तो मेरे लिए
मुश्किल हो
जाता है कि
खूंटी नहीं है
तो क्या
टांगना है और
क्यों टांगना
है, वह भी
पकड़ में नहीं
आता। एकदम
खाली बैठा रह
जाता हूं। अगर
आप नहीं पूछ
रहे हैं तो
मैं खाली हूं।
आप कमरे के
बाहर गए तो
मैं खाली हूं।
परंतु जिसको
अभिव्यक्ति
देनी है, जब
आप कमरे से
बाहर गए, तब
वह तैयारी कर
रहा है। उसके
दिमाग में कुछ
तैयार हो रहा
है। जब वह
भारी हो जाएगा
तब वह उसको
प्रकट करेगा।
मैं बिलकुल
खाली हूं। आप
कुछ बुलवा
लेंगे तो बोल
दूंगा। आप कोई
प्रश्र खड़ा कर
देंगे तो कुछ
बोल दूंगा।
लिखना
मुश्किल है।
क्योंकि
लिखना, जो
है.. वे जो भारी
हैं, उनके
लिए आसान है।
वे निकाल लें,
वे निकाल दे
सकते हैं।
आप
अपनी आत्म—कथा
क्यों नहीं
लिखते?
यह सवाल
ठीक है कि मैं
अपनी आत्म—कथा
क्यों नहीं
लिखता। यह
बहुत मजेदार
है। असल में
आत्मा के
जानने के बाद
कोई आत्म—कथा
नहीं होती। और
सब आत्म—कथाएं
अहंकार—कथाएं
हैं। आत्म—कथाएं
नहीं हैं, इगो—ग्राफीज
हैं। पहला तो
यह कि जिसे हम
कहते हैं आम—कथा,
वह आत्म—कथा
नहीं है।
क्योंकि जब तक
आत्मा का पता
नहीं है तब तक
जो भी हम
लिखते हैं वह
इगो—ग्राफिज
है। वह अहम—कथा
है।
इसलिए
यह बड़े मजे की
बात है कि
जीसस ने आत्म—कथा
नहीं लिखी, कृष्ण
ने नहीं लिखी,
बुद्ध ने
नहीं लिखी, महावीर ने
नहीं लिखी। न
लिखी, न
कही है। आत्म—कथ्य
जो है वह इस
जगत में किसी
भी उस आदमी ने
नहीं लिखा
जिसने आत्मा
जानी है, क्योंकि
आत्मा को
जानने के बाद
वह ऐसे निराकार
में खो जाता
है कि जिन्हें
हम तथ्य कहते
हैं वे सब
उखड़कर बह जाते
हैं। जिनको हम
खूंटियां कहते
हैं—यह जन्म
हुआ, यह यह
हुआ, वह सब
उखड़कर बह जाते
हैं। इतना बड़ा
अंधड़ है आत्मा
का आना, कि
उस आधी के बाद
जब वह देखता है
तो पाता है कि
सब साफ ही हो
गया। वहां कुछ
बचा ही नहीं।
कोरा कागज हो
जाता है। आत्म—कथा
लिखने का जो
रस है वह
आत्मा जानने
के पहले है—जरूर
है!
इसलिये
राजनीतिज्ञ
आत्म—कथा
लिखेंगे।
साधु आत्म—कथा
लिखेंगे।
लेखक, कवि, साहित्यकार
आत्म—कथा
लिखेंगे। ये
आत्म—कथायें 'मैं ' की
ही सजावटें
हैं।
तेरा
मतलब भी मैं
समझा कि उस
अनुभव की बात
लिखूं जो मुझे
हुआ। तो आत्म—कथ्य
तो बचता नहीं।
इसका कोई
मूल्य ही नहीं
रह जाता।
आत्मा को
जानने के बाद
आत्म—कथा करीब—करीब
ऐसी हो जाती
है जैसे कोई
अपने सपने
देखे। जैसे वह
अपने सपनों का
ब्योरा लिखे
रोज सुबह कि
आज मैंने यह
सपना देखा, काम
मैंने यह सपना
देखा, परसों
मैंने यह देखा।
एक आदमी अगर
अपने सपनों की
कथा लिखे तो
जितनी उसकी
कीमत हो सकती
है उससे
ज्यादा कीमत
उसकी नहीं है,
जिसको हम
यथार्थ कहते
हैं।
और
'जाग गया' आदमी
लिख सकता है —यह
कठिन है मामला।
क्योंकि
जागते से ही
पता चलता है
कि सपना था, लिखने योग्य
भी कुछ नहीं
बनता। अनुभव
की बात रह
जाती है; पर
जो जाना है वह
भी नहीं लिखा
जा सकता। वह
नहीं लिखा जा
सकता, इसलिए
कि लिखते ही
बहुत फीका और
बेमानी हो जाता
है। ये सब उसको
ही कहने की कोशिश
चलती है
निरंतर, बहुत—बहुत
विधियों से।
जिंदगीभर
उसी को कहता
रहूंगा, वह जो
हुआ है। उसके
अलावा और कुछ
कहने को है
नहीं। लेकिन
उसको भी लिखा
नहीं जा सकता।
क्योंकि जैसे
ही लिखते हैं
उसको, वैसे
ही पता चलता
है कि यह तो
कोई बात नहीं
हुई। क्या
लिखेंगे? लिख
सकते हैं कि
आत्मा का
अनुभव हुआ।
बड़ा आनंद मिला,
कि बड़ी
शांति मिली।
सब बेमानी
मालूम होता है।
शब्द मालूम
होते हैं।
बुद्ध या
महावीर या
क्राइस्ट
पूरी जिंदगी,
जो
उन्होंने
जाना है, उसको
ही बहुत रूपों
में कहे चले
जा रहे हैं।
फिर भी थकते
नहीं।
क्योंकि रोज
लगता है कि
बाकी रह गया
है। फिर उसको
और तरह से
कहते हैं। वह
चुकता नहीं।
बुद्ध, महावीर
चुक जाते हैं,
वह नहीं
चुकता। वह कथा
कहने को बाकी
ही रह जाती है।
दोहरी
कठिनाइयां
हैं। जो कहा
जा सकता है वह
सपने जैसा हो
जाता है। जो
नहीं कहा जा
सकता है वह
कहने जैसा
लगता है। फिर
यह भी खयाल
निरंतर होता
है कि उसको
सीधा कहने से
कुछ भी हो तो
प्रयोजन नहीं
है।
तुमसे
मैं कह दूं
मुझे यह हुआ, उससे
कुछ प्रयोजन
नहीं है।
प्रयोजन तो
इससे है कि
तुम्हें उस
रास्ते पर ले
चलूं जहां
तुम्हें हो
जाए, तो
तुम शायद किसी
दिन समझ सको
कि क्या हुआ
होगा। उसके
पहले समझ भी
नहीं सकते।
सीधा यह
वक्तव्य कि
मुझे क्या हुआ,
क्या मतलब
रखता है? तुम
भरोसा करोगे,
यह भी मैं
नहीं मानता।
तुम भरोसा भी
नहीं कर
सकोगे! तो
तुम्हें गैर भरोसे
में डालने से
क्या प्रयोजन?
नुकसान ही
होगा। यही
उचित है कि
तुम्हें उस
रास्ते पर, उस किनारे
पर धक्का दिया
जाए जहां कि
तुम्हें किसी
दिन हो जाए।
उस दिन तुम
भरोसा कर
सकोगे। उस दिन
तुम जान सकोगे
कि ऐसा होता
है। नहीं तो
भरोसे का भी
उपाय नहीं।
जैसे
बुद्ध की
मृत्यु का
वक्त है और
लोग पूछ रहे
हैं कि आप मर
जाएंगे तो
कहां जाएंगे? तब
बुद्ध क्या
कहें? वह
कहते हैं, मैं
कभी कहीं था
नहीं तो मरकर
मैं कहां
जाऊंगा! मैं
कभी कहीं गया.
ही नहीं, मैं
कभी कहीं था
ही नहीं! तब भी
पूछने वाले
पूछ रहे हैं
कि नहीं जरूर
कुछ तो बताइए,
कहां
जाएंगे? वे
बिलकुल तथ्य
कह रहे हैं।
क्योंकि
बुद्ध का मतलब
ही है 'नो—व्हेयर—नेस'
उस स्थिति
में कोई, न
कहीं होता, और न होने का
कोई सवाल होता
है। तुम भी
अगर शांत पड़कर
किसी क्षण रह
जाओ तो सिवाय
श्वांस चलने
के और क्या
बचेगा? सिर्फ
श्वांस ही रह
जाएगी और
बचेगा क्या? तो श्वांस
वैसे ही रह
जाएगी जैसे
बबूले में हवा
रहती है, और
क्या रह जाएगी?
वह तो हम
कभी खयाल नहीं
करते और हमें
खयाल में नहीं
आता। क्योंकि
हम कभी उस
क्षण में नहीं
होते। कभी दो
क्षण को भी
मौन होकर बैठ
जाओ, तो
तुम क्या
पाओगे, कि
तुममें है
क्या सिवाय
श्वांस के? विचार नहीं
है, तो
सिवाय श्वांस
के तुममें
क्या बचेगा? और तुममें
श्वांस का
बाहर—भीतर आना,
एक बबूले
में श्वांस का,
एक बैलून
में हवा के
बाहर—भीतर आने
से ज्यादा और
क्या है!
तो
बुद्ध कहते
हैं,
मैं एक
बबूला था, था
कहां? इसलिए
जाने का क्या
सवाल है? एक
बबूला फूट गया,
हम पूछते
हैं कहां चला
गया? हम
नहीं पूछते
क्योंकि हम
पहले से ही
जानते हैं कि
बबूला था ही
कहां। हम नहीं
पूछते कहां
चला गया? बस
ठीक है, था
ही नहीं तो
जाने की क्या
बात है। अब
बुद्ध जैसा
व्यक्ति अपने
को जान रहा है
कि बबूला है, तो क्या
आत्म—कथा लिखे,
क्या अनुभव
की बात कहे? और जो भी
कहेगा वह
मिसअंडरस्टैण्ड
होनेवाला है।
जापान
में एक फकीर
हुआ है लिंची।
लिंची ने एक
दिन सुबह
घोषणा की कि
हटाओ यह बुद्ध
की मूर्तियां
वगैरह। यह
आदमी कभी हुआ
नहीं। अभी
उसने बुद्ध की
मूर्ति की
पूजा की है, अभी
उसने कहा हटाओ
इस आदमी की
मूर्ति, यह
सरासर झूठ है।
तो किसी ने
खड़े होकर कहा,
आप क्या कह
रहे हैं, आपका
मस्तिष्क तो
दुरुस्त है? लिंची ने
कहा, जब तक
मैं सोचता था
कि मैं हूं तब
तक मैं मान सकता
था कि बुद्ध
हैं। लेकिन जब
मैं ही नहीं
हूं हवा का
बबूला है, तो
यह आदमी कभी
हुआ नहीं।
सांझ
फिर पूजा कर
रहा था वह
बुद्ध की, तो
लोगों ने कहा,
यह क्या कर
रहे हो? तुम
दोपहर तो कह
रहे थे कि यह
नहीं हुआ।
उसने कहा, लेकिन
इसके न होने
से मुझे भी न
होने में सहायता
मिली, तो
धन्यवाद दे
रहा हूं।
लेकिन एक
बबूले का एक
बबूले को
धन्यवाद है, इसमें और
कुछ ज्यादा
बात नहीं है।
लेकिन ये
वक्तव्य समझे
नहीं जा सकते।
लोगों ने समझा
कि यह आदमी
कुछ गड़बड़ हो
गया है। यह तो
बुद्ध के
खिलाफ हो गया।
आत्म—कथ्य
बचता नहीं।
बहुत गहरे में
समझो तो आत्मा
भी बचती नहीं।
आमतौर से यहां
तक तो हम समझ
पाते हैं कि
अहंकार नहीं
बचता, क्योंकि
हमसे हजारों
साल से यह कहा
जा रहा है। और
कोई वजह नहीं
है। हजारों
साल से कहा जा
रहा है कि
अहंकार नहीं बचता
तो हम समझ
लेते हैं—वर्बली
हमको समझ में
आ जाता है कि
शान की स्थिति
में अहंकार
नहीं बचता।
लेकिन अगर ठीक
से समझना
चाहें तो
आत्मा भी नहीं
बचती। पर यह
समझने में
बहुत घबराहट
होती है।
इसलिए
तो बुद्ध को
हम नहीं समझ
पाए।
उन्होंने कहा
कि आत्मा भी
नहीं बचती, अनात्म
हो जाते हैं।
बहुत कठिन पड़
गया। इस पृथ्वी
पर बुद्ध को
समझना अब तक
सर्वाधिक
कठिन पड़ा।
क्योंकि
महावीर
अहंकार तक की
बात करते हैं;
कि अहंकार
नहीं बचता।
वहां तक हम
समझ सकते हैं।
ऐसा नहीं कि
महावीर को पता
नहीं है कि
आत्मा भी नहीं
बचती है।
लेकिन वे
हमारी समझ को
ध्यान में रखे
हुए हैं कि
ठीक है, अहंकार
तो छोड़ो, फिर
आत्मा तो अपने
से छूट जाती
है। कोई अड़चन
नहीं है उसको
कहने की।
लेकिन बुद्ध ने
पहली दफा वह
स्टेटमेंट दे
दिया जो बहुत
दिन तक सीक्रेट
था, जो कहा
नहीं गया था।
उपनिषद
भी जानते हैं
और महावीर भी
जानते हैं कि
आत्मा नहीं
बचती है।
क्योंकि
आत्मा का खयाल
भी अहंकार का
ही सूक्ष्म
रूप है। लेकिन
बुद्ध ने एक
सीक्रेट, जो
सदा से
सीक्रेट था, कह दिया कि
आत्मा नहीं
बचती।
मुश्किल पड
गयी। वही लोग
जो मानते थे कि
अंहकार नहीं बचता,
वही लड़ने खडे
हो गए। आप
बुद्ध की अड़चन
समझते हैं? जो लोग
मानते थे कि
अहंकार नहीं
बचता वे ही लडने
खडे हो गए कि
आप यह क्या कह
रहे हैं? आत्मा
नहीं बचती तो
सब बेकार है।
जब हम ही नहीं
बचते तो फिर
क्या करना है!
बुद्ध
ने ठीक कहा।
फिर कैसी आत्म—कथा
होगी? फिर कोई
आत्म—कथा नहीं
हो सकती। सब सपने
जैसा है, बबूले
का देखा हुआ
सपना है, बबूले
पर बने हुए रंग—बिरंगे
किरण के जाल
हैं। बबूले के
साथ सब खो
जाते हैं। ऐसा
जब दिखायी
पड़ता हो तो बडी
कठिनाई होती है।
ऐसी जब बिलकुल
ही स्पष्ट स्थिति
हो तो बहुत कठिनाई
हो जाती है।
इस
स्थिति के
पहले जिस
प्रक्रिया या
अनुभव से
व्यक्ति
गुजरता है
उसका लिखा
जाना उपयोगी
है या नहीं?
असल में
साधकों के काम
पड़ सकती है, लेकिन
सिद्ध को
लिखना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि जो
सिद्ध की
कठिनाई है वह
साधक की कठिनाई
नहीं है।
सिद्ध की कठिनाई
ऐसी है कि इस
कमरे में भूत
नहीं है—है ही
नहीं।
तुम्हारे लिए है
इस कमरे में एक
भूत है। जो जानता
है उसके लिए
भूत नहीं है, हालांकि कभी
उसको भी भूत
था और उसने एक
मंत्र से उसको
भगाया था, लेकिन
अब वह जानता है
कि भूत भी झूठा
था और मंत्र
भी झूठा था।
अब वह किस
मुंह से कहे
कि मैंने
मंत्र से भूत
को भगाया।
मेरा
मतलब समझे? उसकी
तकलीफ
तुम्हारे लिए कह
रहा हूं। यानी
वह जानता है कि
भूत तो झूठ था ही,
वह कभी था
ही नहीं, मंत्र
ने सिर्फ
अंधेरे में
भरोसा दिलाया।
अब वह जानता
है कि भूत भी झूठा
था, भगाया
जिस मंत्र से
वह मंत्र भी
झूठा था। अब
वह किस मुंह
से तुमसे कहे
कि मैंने
मंत्र से भूत
को भगाया। अब
वह कहना
बेमानी हो गया।
हालांकि
तुम्हारे लिए
भूत है, और
अगर वह कह सके
कि मंत्र से
मैंने भगाया
तो मंत्र
तुम्हारे लिए काम
पड सकता है।
इसलिए वह यह नहीं
कहेगा कि मैंने
मंत्र से भूत को
भगाया। वह तुमसे
यही कहेगा कि
भूत मंत्र से
भगाए जा सकते
है। तुम मंत्र
का उपयोग करो,
भूत भाग
जाता है।
लेकिन यह
तुमसे वह नहीं
कहेगा, क्योंकि
वह फाल्स स्टेटमेंट
है। वह यह कहेगा,
मैंने मंत्र
से भूत को
भगाया, क्योंकि
अब वह जानता
है कि मंत्र
उतना ही झूठा
था जितना भूत
झूठा था।
इसलिए
ऐसे व्यक्ति
के वक्तव्य
बहुत ही कम
सेल्फ
सेंटरिक
होंगे। वह मुश्किल
से ही कभी
अपने बाबत
बोलेगा। वह
सदा तुम्हारे
लिए तुम्हारे
बाबत, और
तुम्हारी
परिस्थिति के
बाबत बोलता
रहेगा। यही
उसकी तकलीफ है
या फिर उसको
फाल्स
स्टेटमेंट
देना पड़े।
तो
साधना के
प्रोसेस सब
भूत हैं?
सब
भूत हैं!
क्योंकि आखिर
में जो तुम
पाओगे वह तुम्हें
सदा से मिला
ही हुआ है।
आखिर में
जिससे तुम
छुटकारा
पाओगे उससे
तुम कभी बंधे
ही नहीं हो।
लेकिन यह भी
कठिनाई है न।
यही मैं कहता
हूं कि सिद्ध
की कठिनाइयां
हैं। अगर वह
तुमसे यह कह
दे कि साधना
के सब उपाय
झूठे हैं तो
तुम्हें दिक्कत
में डाल देगा।
क्योंकि तब
तुम्हारे लिए
भूत तो सच्चा
रहेगा और
साधना के सब
उपाय झूठे हो
जाएंगे। भूत
झूठा हो जाए, तो
साधना के उपाय
झूठे सार्थक
हैं। मेरा
मतलब समझे न? भूत तो झूठा
नहीं होगा।
यह
बड़े मजे की
बात है कि गलत
गलत कहने से
गलत नहीं होता।
लेकिन सही, गलत
कहने से हम
फौरन मान लेते
हैं कि गलत है।
कोई कितना ही
कहे कि क्रोध
गलत है, इससे
क्रोध गलत
नहीं होता।
लेकिन कोई कहे
कि ध्यान गलत
है, तो
फौरन गलत हो
जाता है। एक
सेकेष्ठ नहीं
लगता गलत होने
में।
कोई
आदमी कहे, फलां
आदमी संत है, तुम नहीं
मान लेते हो।
तुमको एक आदमी
कहे, फलां
आदमी चोर है
तो बिलकुल मान
लेते हो। कोई
आदमी कहे संत
है, तो तुम
पचास तरकीब से
पता लगाओगे कि
है कि नहीं!
क्योंकि
तुम्हें भी
बेचैनी रहेगी
उसके संत होने
से। तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगेगी। तुम
कोई न कोई तरकीब
निकालकर कर
लोग पका कि
नहीं है, वह
भी संत नहीं
है। लेकिन कोई
कह दे कि फलां
आदमी चोर है—तुम
बिलकुल पता
लगाने नहीं
जाते, तुम
बिलकुल मान ही
लेते हो कि
चोर है! तुम
कभी पता नहीं
लगाओगे कि
आदमी चोर है!
क्योंकि
तुम्हें सुख
मिलता है इस
बात को मान
लेने में कि हम
अकेले ही चोर
नहीं हैं, वह
भी चोर है।
निंदा
इतनी जल्दी
स्वीकृत होती
है,
प्रशंसा
कभी स्वीकृत
नहीं होती। और
प्रशंसा जब
तुम स्वीकार
भी कर लेते हो,
मजबूरी में,
कोई उपाय
नहीं देखकर, तब भी वह
टेंटेटिव
होती है। तब
भी वह सिर्फ
मजबूरी होती
है कि कभी
मौका मिल
जाएगा तो
सुधार कर
लेंगे। निंदा
एब्सलूट हो
जाती है, फिर
मौका भी
तुम्हें मिल
जाए सुधार
करने का तो
तुम नहीं
करोगे। ठीक
ऐसा ही जीवन
में चलता है
कि गलत अगर
कोई कह दे—गलत
है, तो हम
सुन लेते हैं।
उससे वह गलत
नहीं होता है।
लेकिन ठीक को
अगर कोई कह दे—गलत
है, तो हम
फौरन मान लेते
हैं, क्योंकि
हम झंझट से
बचेंगे।
क्योंकि ठीक
में कुछ करना
पड़ता है।
क्रोध
हो जाता है, ध्यान
करना पड़ता है।
कोई कह दे—क्रोध
गलत है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, वह
होता रहेगा।
लेकिन ध्यान
करना पड़ता है।
कोई कह दे गलत—तो
छूट जाएगा।
ध्यान
को तो अवस्था
बताया आपने
क्रिया नहीं?
यही तो
दिक्कत है।
यही मैं कह
रहा हूं कि
सिद्ध की
दिक्कतें यही हैं
कि वह अगर
पूरी बात
तुमसे कह दे, जैसा
उसको अनुभव है,
तो तुम भटक
जाओगे सदा के
लिए। क्योंकि
वह तुम्हारा
नहीं है मामला।
जैसे कि मैंने
कह दिया कि
ध्यान अवस्था
है। बिलकुल सच
बात है यह, ध्यान
अवस्था है।
लेकिन
तुम्हारे लिए क्रिया
ही होगी, तुम्हारे
लिए अवस्था
नहीं हो सकती।
क्योंकि
ध्यान अवस्था
है, इससे
तुम क्या
करोगे। अब कुछ
करने को नहीं
बचा। बात खतम
हो गई। अगर
क्रिया है तो
तुम कुछ करोगे
और अवस्था है तो
बात खत्म हो
गयी। तुम
निश्रित हो गए
कि ठीक है।
लेकिन
क्रोध जारी
रहेगा इसके
मानने से कि
ध्यान अवस्था
है। क्रोध
खत्म नहीं
होगा। काम
जारी रहेगा
लोभ जारी
रहेगा। तकलीफ
यह है कि अगर
तुम्हें
देखकर कहूं तो
मुझे कुछ न
कुछ झूठ बोलना
ही पड़ता है, और
अगर अपने को
देखकर कहूं तो
जो मैं बोलता
हूं वह बेकार
है। बेकार ही
नहीं, खतरनाक
भी है, क्योंकि
सुननेवाले
तुम हो।
तुम्हें गहरे
में कुछ न कुछ
उससे बाधा
पड़नेवाली है।
इसलिए अगर मैं
ठीक वही कहूं
जो मुझे लगता
है तो मैं
तुम्हारे
किसी फायदे
में नहीं आ
सकता, नुकसान
पहुंचा सकता
हूं।
जैसा
कृष्णमूर्ति
का,
मैं मानता
हूं कि लोगों
को नुकसान
पहुंचता है।
और जितना
ज्यादा मैं
देख रहा हूं
उतना मुझे लगता
है कि नुकसान
पहुंचता है।
क्योंकि वह
वही कह रहे
हैं जो भीतर
है। तुमसे कोई
प्रयोजन नहीं
है।
मौन
में बड़ी शक्ति
है। मौन ही सब—कुछ
है—फिर यह कोई
क्यों कहता है?
मौन
में तो बहुत
शक्ति है, लेकिन
मौन को
सुननेवाला
चाहिए न!
सुनाने
की जरूरत
क्यों पडती है?
जरूरत
इसलिए पड़ती है
कि तुम्हें
मैं देख रहा
हूं कि तुम
गड्डे में जा
रहे हो।
तुम्हें मैं
देख रहा हूं
कि तुम गिरोगे
गड्डे में, तुम
हाथ—पैर
तोड़ोगे। मैं
खड़ा हूं मैं
मौन से कह
सकता हूं
लेकिन मौन से
सुनने का
तुम्हारे पास
कान नहीं है।
तो तुम्हें
चिल्लाकर ही
कहूं कि गड्डे
में गिर जाओगे।
उससे
क्या शक्ति
लुज होती है?
नहीं—नहीं, कुछ
लूज होती नहीं।
जिसको शक्ति
का पता चल गया उसका
कुछ कभी नहीं खोता।
जिसको पता
नहीं चला है
उसी का सब
खोता रहता है।
जो कठिनाई है
वह यह है कि
अगर मैं आत्म—कथा
की तरह कुछ
लिखूं तो वह
या तो झूठ
होगी या सच
होगी। दो ही
उपाय हैं। सच
होगी तो
तुम्हें
नुकसान
पहुंचाएगी, झूठ होगी तो
मैं वैसा वक्तव्य
नही देना चाहूंगा।
वह पकड ही
नहीं पाएगा।
या तो बिलकुल सत्य
होगी तो फिर
तुम्हारे लिए
नुकसान ही
पहुंचाने वाली
है, क्योंकि
तुम जो कर रहे
हो, वह सब
उससे निकलेगा
कि बेकार है।
सब बेकार है।
और तुम बडी
जल्दी राजी हो
जाओगे बेकार
के लिए।
एक
व्यक्ति आए।
उन्होंने कहा
कि कृष्णमूर्ति
ने तो कहा कि मेडीटेशन
बेकार है तो हमने
छोड़ दिया।
बहुत अच्छा किया
तुमने! अब छोड़ कर
तुम्हें क्या मिला? छोड़कर
कुछ नहीं मिला।
उसे पकड़ा तुमने
किस लिए था? पकड़ा इसलिए
था कि क्रोध
चला जाए, अज्ञान
चला जाए।
छोड़ने से चला गया?
वह नहीं गया।
तुमने कैसे
छोड़ दिया? कृष्णमूर्ति
ने कहा इसलिए
छोड़ दिया कि
बेकार है
मेडीटेशन। जब
बेकार है, जब
इतना ज्ञानी
आदमी कहता हो
तो हम काहे के
लिए झंझट में
पड़े। यही बड़ी
मुश्किल की
बात है न!
मैं
भी जानता हूं
कि बेकार है।
किसी क्षण में
किसी से कहता
भी हूं कि
बेकार है; लेकिन
उसी से कहूंगा
जो बहुत कर
चुका है और अब बेकार
होने को समझ
सकता है। जब
उस जगह पहुंच
गया जहां
मेडीटेशन भी छूटनी
चाहिए लेकिन बाजार
में कहने का कि
मेडीटेशन बेकार
है, खतरा है
बहुत। अभी उसने
तो मेडीटेशन
की नहीं। जो
नासमझ सुन रहे
हैं उन्होंने
भी कभी की नहीं।
उनसे तुम कह
रहे हो, बेकार
है! वह कभी करेंगे
ही नहीं अब।
उनको तो बहुत
राहत मिल गयी
है कि बिना ही
किए सब हो गया
मामला खत्म।
तो
चालीस साल से
लोग
कृष्णमूर्ति
को सुन रहे हैं
और नासमझों की
भांति बैठे
हुए हैं, क्योंकि
वह कहते हैं, बेकार है।
जब बेकार ही
है, और
कृष्णमूर्ति
कह रहे हैं तो
ठीक है। कोई
गलत नहीं कह
रहे हैं। सारी
जिंदगी वह वही
कह रहे हैं, वह गलत जरा
भी नहीं कह
रहे हैं। फिर
भी गलत कह रहे है
क्योंकि तुम्हारे
ऊपर कोई
दृष्टि नहीं
है। अपनी कहे
चले जा रहे
हैं।
इसलिए
मैं निरंतर इस
कोशिश में
रहता हूं कि
अपने को बचाऊं, अपनी
कहूं ही नहीं
कुछ। क्योंकि
अगर मैं अपनी
कहूंगा और ठीक—ठीक
कहूंगा, तो
तुम्हारे किसी
भी काम का
नहीं होगा।
लेकिन कितना
मजा है कि, अगर
मैं तुम्हारी
कहूं
तुम्हारी
फिक्र से कहूं
तो भी तुम
मुझसे कहने
आओगे कि आपने
ऐसा कह दिया।
इसमें यह
विरोध आ गया।
मैं बिलकुल अविरोध
की बात कह
सकता हूं
लेकिन तब
तुम्हारे किसी
काम की नहीं
होगी। हां, इतनी काम की होगी
कि तुम जहां हो
वही ठहर जाओगे।
तो सिद्ध की कठिनाई
है कि वह जो जानता
है वह कह नहीं
सकता।
इसलिए
जो पुरानी
व्यवस्था...जो
पुरानी
व्यवस्था थी
एक लिहाज से
उचित थी, गहरी
थी। तुम्हारी
स्थिति के
अनुसार बातें
कही जाती थीं।
तुम कहां तक
हो वहां तक
बात कही जा सकती
थी। सब बातें
टेंटेटिव थीं,
कोई बात
अल्टीमेट
नहीं थी। तुम
जैसे—जैसे
बढ़ते जाओगे
वैसे—वैसे हम
खिसकाते
जाएंगे।
तुम्हारी
जितनी गति
होगी उतना हम पीछे
हटाते जाएंगे।
हम कहेंगे, अब यह बेकार हो
गया, अब इसको
छोड़ दो। जिस दिन
तुम उस स्थिति
में पहुंच
जाओगे जब हम
कह सकेंगे, परमात्मा
बेकार है, आत्मा
बेकार है, ध्यान
बेकार है, उस
दिन कह देंगे।
लेकिन यह उसी वक्त
कहा जा सकता है
जबकि इसके बेकार
होने से कुछ
भी बेकार नहीं
होता। तब तुम
हंसते हो, और
जानते हो।
अगर
मैं कहूं कि
ध्यान बेकार
है और तुम
ध्यान करते
चले जाओ तो
मैं मानता हूं
कि तुम पात्र
थे। तुमसे कहा
तो ठीक कहा।
अगर मैं कहूं
कि संन्यास
बेकार है और
तुम संन्यास
ले लो, तो मैं
जानता हूं कि
तुम पात्र थे
और तुमसे ठीक
कहा। अब यह जो
कठिनाई है, ये
कठिनाइयां
हैं, ये
खयाल में
आएंगी धीरे—धीरे...!
'मैं कहता
आखन देखी' :
अंतरंग
भेट वार्ता
बुडलैण्ड
बम्बई
दिनांक 28
फरवरी 1971
नमस्कार स्वामीजी,यह श्रेणी-सीरीज अद्भभूत हैं ही.....मैंने इसे पहले कुछ प्रवचन सुने थे फिर ओर श्रेणी पर ही चली गई लेकिन दो-तीन दिन से फिर से उसे सुन रही हूँ आहलादक एवं नए जन्म की तैयारी स्वरूप क्या प्रधानता होनी चहिए यह सब रोमांचककारी भी हैं एवं मानों अब जागे नहीं तो हाथ से बाजी जायेगी ऐसा भय भी लगने लगा हैं !!
जवाब देंहटाएंइतनी गहराई से किसीने समजाया नहीं हे
जवाब देंहटाएंआप सभी को ओशो नमन