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गुरुवार, 26 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--25)

महावीर: मेरी दृष्टि में—(प्रवचन—पच्‍चीसवां)

हावीर पर इतने दिनों तक बात करनी अत्यंत आनंदपूर्ण थी। यह ऐसे ही था, जैसे मैं अपने संबंध में ही बात कर रहा हूं। पराए के संबंध में बात की भी नहीं जा सकती। दूसरे के संबंध में कुछ कहा भी कैसे जा सकता है? अपने संबंध में ही सत्य हुआ जा सकता है।
और महावीर पर इस भांति मैंने बात नहीं की, जैसे वे कोई दूसरे और पराए हैं। जैसे हम अपने आंतरिक जीवन के संबंध में ही बात कर रहे हों, ऐसी ही उन पर बात की है। उन्हें केवल निमित्त माना है, और उनके चारों ओर उन सारे प्रश्नों पर चर्चा की है, जो प्रत्येक साधक के मार्ग पर अनिवार्य रूप से खड़े हो जाते हैं। महत्वपूर्ण भी यही है।
महावीर एक दार्शनिक की भांति नहीं हैं, एक सिद्ध, एक महायोगी हैं। दार्शनिक तो बैठ कर विचार करता है जीवन के संबंध में, योगी जीता है जीवन को। दार्शनिक पहुंचता है सिद्धांतों पर, योगी पहुंच जाता है सिद्धावस्था पर। सिद्धांत बातचीत हैं, सिद्धावस्था उपलब्धि है। महावीर पर ऐसे ही बात की है, जैसे वे कोई मात्र कोरे विचारक नहीं हैं। और इसलिए भी बात की है कि जो इस बात को सुनेंगे, समझेंगे, वे भी जीवन में कोरे विचारक न रह जाएं। विचार अदभुत है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। विचार कीमती है लेकिन कहीं पहुंचाता नहीं। विचार से ऊपर उठे बिना कोई व्यक्ति आत्म-उपलब्धि तक नहीं पहुंचता है।
महावीर कैसे विचार से ऊपर उठे, कैसे ध्यान से, कैसी समाधि से--ये सब बातें हमने कीं। कैसे महावीर को परम जीवन उपलब्ध हुआ और कैसे परम जीवन की उपलब्धि के बाद भी वे अपनी उपलब्धि की खबर देने वापस लौट आए, उस करुणा की भी हमने बात की। जैसे कोई नदी सागर में गिरने के पहले पीछे लौट कर देखे एक क्षण को, ऐसे ही महावीर ने अपने अनंत जीवन की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पीछे लौट कर देखा है।
लेकिन उनके पीछे लौट कर देखने को केवल वे ही लोग समझ सकते हैं, जो अपने जीवन की अंतिम यात्रा की तरफ आगे देख रहे हों। महावीर पीछे लौट कर देखें, लेकिन हम उन्हें तभी समझ सकते हैं, जब हम भी अपने जीवन के आगे के पड़ाव की तरफ देख रहे हों। अन्यथा महावीर को नहीं समझा जा सकता है।
साधारणतः महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। वे अतीत की घटना हैं। इतिहास यही कहेगा। मैं यह नहीं कहूंगा। साधक के लिए महावीर भविष्य की घटना हैं। उसकी अपनी दृष्टि से वह महावीर के होने तक आगे कभी पहुंचेगा। इतिहास की दृष्टि से अतीत की घटना हैं, पीछे बीते हुए समय की। साधक की दृष्टि से आगे की घटना हैं। उसके जीवन में आने वाले किसी क्षण में वह वहां पहुंचेगा, जहां महावीर पहुंचे हैं। और जब तक हम उस जगह न पहुंच जाएं, तब तक महावीर को समझा नहीं जा सकता है। क्योंकि हम उस अनुभूति को कैसे समझेंगे जो अनुभूति हमें नहीं हुई है? अंधा कैसे समझेगा प्रकाश के संबंध में? और जिसने कभी प्रेम नहीं किया और प्रेम नहीं दिया, वह कैसे समझेगा प्रेम के संबंध में? हम उतना ही समझ सकते हैं, जितने हम हैं, जहां हम हैं। हमारे होने की स्थिति से हमारी समझ ज्यादा नहीं होती।
इसलिए महापुरुष के प्रति अनिवार्य होता है कि हम नासमझी में हों। महापुरुष को समझना अत्यंत कठिन है, बिना स्वयं महापुरुष हो जाए। जब तक कि कोई व्यक्ति उस स्थिति में खड़ा न हो जाए, जहां कृष्ण हैं, जहां क्राइस्ट हैं, जहां मोहम्मद हैं, जहां महावीर हैं, तब तक हम समझ नहीं पाते। और जो हम समझते हैं, वह अनिवार्यरूपेण भूल भरा होता है।
इसलिए एक बात ध्यान में रखनी चाहिए, महावीर को समझना हो तो सीधे ही महावीर को समझ लेना संभव नहीं है, महावीर को समझना हो तो बहुत गहरे में स्वयं को समझना और रूपांतरित करना ज्यादा जरूरी है। लेकिन हम तो शास्त्र से समझने जाते हैं, और तब भूल हो जाती है! शब्द से, सिद्धांत से, परंपरा से समझने जाते हैं, तभी भूल हो जाती है! हम तो स्वयं के भीतर उतरेंगे, तो उस जगह पहुंचेंगे, जहां महावीर कभी पहुंचे हों, तभी हम समझ पाएंगे।
मैंने जो बातें कीं इन दिनों में, उन बातों का शास्त्रों से कोई संबंध नहीं है। इसलिए हो सकता है बहुतों को वे बातें कठिन भी मालूम पड़ें, स्वीकार योग्य भी न मालूम पड़ें, जिनकी शास्त्रीय बुद्धि है, उन्हें अत्यंत अजनबी मालूम पड़ें। वे शायद पूछें भी कि शास्त्रों में यह सब कहां है?
तो उनसे मैं पूर्व ही कह देना चाहता हूं कि शास्त्रों में हो या न हो, जो स्वयं में खोजेगा, वह सब इसको पा लेता है। और स्वयं से बड़ा न कोई शास्त्र है और न कोई दूसरी आप्तता, कोई और अथारिटी है।
वे मुझसे यह भी पूछ सकते हैं कि मैं किस अधिकार से कह रहा हूं यह? तो उनसे पूर्व से यह भी कह देना उचित है कि मेरा कोई शास्त्रीय अधिकार नहीं है, न मैं शास्त्रों का विश्वासी हूं। बल्कि जो शास्त्र में लिखा है, वह मुझे इसीलिए संदिग्ध हो जाता है कि शास्त्र में लिखा है। क्योंकि वह लिखने वाले के चित्त की खबर देता है, जिसके संबंध में लिखा गया है उसके चित्त की नहीं। फिर हजारों वर्ष की गर्द उस पर जम जाती है। और शास्त्रों पर जितनी धूल जम गई है, उतनी किसी और चीज पर नहीं जमी है।
एक मुझे स्मरण आता है कि एक आदमी एक घर में शब्दकोश बेचने के लिए गया है, डिक्शनरी बेच रहा है। घर की गृहिणी ने उसे टालने को कहा है कि शब्दकोश हमारे घर में है, वह सामने टेबल पर रखा है। हमें कोई और जरूरत नहीं है। लेकिन उस आदमी ने कहा कि देवी जी, क्षमा करें! वह शब्दकोश नहीं है, वह कोई धर्मग्रंथ मालूम होता है।
स्त्री तो बहुत परेशान हुई। वह धर्मग्रंथ था! पर दूर से टेबल पर रखी किताब को कैसे वह व्यक्ति पहचान गया? तो उस गृहिणी ने पूछा, कैसे आप जाने कि वह धर्मग्रंथ है? उसने कहा, उस पर जमी हुई धूल बता रही है। शब्दकोश पर धूल नहीं जमती। रोज उसे कोई खोलता है, देखता है, पढ़ता है। उसका उपयोग होता है। उस पर इतनी धूल जमी है कि निश्चित कहा जा सकता है कि वह धर्मग्रंथ है!
सब धर्मग्रंथों पर बड़ी धूल जम जाती है। क्योंकि न तो हम उसे जीते हैं, न उसे जानते हैं। फिर धूल इकट्ठी होती चली जाती है। सदियों की धूल इकट्ठी हो जाती है। उस धूल में से पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या क्या है।
इसलिए मैंने महावीर और अपने बीच शास्त्र को नहीं लिया है, उसे अलग ही रखा है। महावीर को सीधे ही देखने की कोशिश की है। और सीधे हम सिर्फ उसे ही देख सकते हैं, जिससे हमारा प्रेम हो। जिससे हमारा प्रेम न हो, उसे हम कभी भी सीधा नहीं देख सकते। और वही हमारे सामने पूरी तरह प्रकट होता है, जिससे हमारा प्रेम हो।
जैसे सूरज के निकलने पर कली खिल जाती है और फूल बन जाती है, ऐसा ही जिससे भी हम आत्यंतिक रूप से प्रेम कर सकें, उसका जीवन बंद कली से खुले फूल का जीवन हो जाता है। जरूरत है कि हम प्रेम कर पाएं। जरूरत ज्ञान की कम है। ज्ञान तो दूर ही कर देता है। और ज्ञान से शायद ही कोई कभी किसी को जान पाता हो। इनफर्मेशन, सूचनाएं बाधा डाल देती हैं। सूचनाओं से शायद ही कोई कभी किसी से परिचित हो पाता हो। वे बीच में खड़ी हो जाती हैं, वे पूर्वाग्रह बन जाती हैं, पक्षपात बन जाती हैं। हम पहले से ही जानते हुए होते हैं। जो हम जानते हुए होते हैं, वही हम देख भी लेते हैं।
जो महावीर को भगवान मान कर जाएगा, उसे महावीर में भगवान भी मिल जाएंगे, लेकिन वे उसके अपने आरोपित भगवान होंगे। जो महावीर को नास्तिक, महा नास्तिक मान कर जाएगा, उसे नास्तिक, महा नास्तिक भी मिल जाएगा। वह नास्तिकता उसकी अपनी रोपी हुई होगी। जो महावीर को जो मान कर जाएगा, वही पा लेगा। क्योंकि गहरे में अंततः हम अपनी ही मान्यता को निर्मित कर लेते और खोज लेते हैं। और व्यक्ति इतनी बड़ी घटना है कि उसमें सब मिल सकता है। फिर हम चुनाव कर लेते हैं। जो हम मानते जाते हैं, वह हम चुन लेते हैं। और तब जो हम जानते हुए लौटते हैं, वह जानता हुआ लौटना नहीं है, वह हमारी ही मान्यता की प्रतिध्वनि है।
प्रेम के जानने का रास्ता दूसरा है, ज्ञान के जानने का रास्ता दूसरा है। ज्ञान पहले जान लेता है, फिर खोज पर निकलता है। प्रेम जानता नहीं, खोज पर निकल जाता है--अज्ञात में, अननोन में, अपरिचित में। प्रेम सिर्फ अपने हृदय को खोल लेता है। प्रेम सिर्फ दर्पण बन जाता है, कि जो भी उसके सामने आएगा--जो भी; जो है, वही उस में प्रतिफलित हो जाएगा। इसलिए प्रेम के अतिरिक्त कोई कभी किसी को नहीं जान सका है। और हम सब ज्ञान के मार्ग से ही जानने जाते हैं, इसलिए नहीं जान पाते हैं।
महावीर को प्रेम करेंगे तो पहचान पाएंगे। कृष्ण को प्रेम करेंगे तो पहचान पाएंगे। और भी एक मजे की बात है कि जो महावीर को प्रेम करेगा, वह कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को प्रेम करने से बच नहीं सकता। अगर महावीर को प्रेम करने वाला ऐसा कहता हो कि महावीर से मेरा प्रेम है, इसलिए मैं मोहम्मद को कैसे प्रेम करूं? तो जानना चाहिए कि प्रेम उसके पास नहीं है। क्योंकि अगर महावीर से प्रेम होगा तो जो महावीर में उसे दिखाई पड़ेगा, वही बहुत गहरे में मोहम्मद में, कृष्ण में, क्राइस्ट में, कन्फ्यूशियस में भी दिखाई पड़ जाएगा, जरथुस्त्र में भी दिखाई पड़ जाएगा।
प्रेम प्रत्येक कली को खोल लेता है। जैसे सूरज प्रत्येक कली को खोल लेता है, पंखुड़ियां खुल जाती हैं। और तब अंत में तो सिर्फ फ्लावरिंग रह जाती है। पंखुड़ियां गैर अर्थ की हो जाती हैं, सुगंध बेमानी हो जाती है, रंग भूल जाते हैं। अंततः तो प्रत्येक फूल में जो घटना गहरी रह जाती है, वह है फ्लावरिंग, वह है उसका खिल जाना।
महावीर खिलते हैं एक ढंग से, कृष्ण खिलते हैं दूसरे ढंग से। लेकिन जिसने फूल के खिलने को पहचान लिया, वह इस खिलने को सारे जगत में सब जगह पहचान लेगा। इन व्यक्तियों में से एक से भी कोई प्रेम कर सके तो वह सबके प्रेम में उतर जाएगा।
लेकिन दिखाई उलटा पड़ता है। मोहम्मद को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करना तो दूर, घृणा करता है! बुद्ध को प्रेम करने वाला क्राइस्ट को प्रेम नहीं कर सकता है! तब हमारा प्रेम संदिग्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि यह प्रेम प्रेम ही नहीं है, शायद यह भी गहरे में कोई स्वार्थ है, कोई सौदा है। शायद हम अपने प्रेम के द्वारा भी महावीर से कुछ पाना चाहते हैं! शायद हमारा प्रेम भी एक गहरे सौदे का निर्णय है, हम कुछ बार्गेनिंग कर रहे हैं। हम यह कह रहे हैं कि हम इतना प्रेम तुम्हें देंगे, तुम हमें क्या दोगे?
और तब हम अपने प्रेम में संकीर्ण होते चले जाते हैं। और प्रेम धीरे-धीरे इतना सीमित हो जाता है कि घृणा में और प्रेम में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्योंकि जो प्रेम एक पर प्रेम बनता हो और शेष पर घृणा बन जाता हो, वह एक पर भी कितने दिन तक प्रेम रहेगा? क्योंकि घृणा हो जाएगी बहुत। महावीर को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करेगा और शेष सबको अप्रेम करेगा। अप्रेम इतना ज्यादा हो जाएगा कि यह प्रेम का बिंदु कब विलीन हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।
मैंने सुना है, एक महिला थी बर्मा में, वह बुद्ध की प्रेमी थी। और उसने बुद्ध की एक स्फटिक प्रतिमा बना ली थी--छोटी, अति सुंदर। वह निरंतर उसे अपने साथ रखती। हो सकता है किसी दिन सुबह पूजा में, गांव में मंदिर न हो बुद्ध का, तो वह मूर्ति को साथ ही रखती--वह निरंतर साथ रखती।
फिर वह एक गांव में आई, जहां हजार बुद्धों का मंदिर था, जहां एक ही मंदिर में बुद्ध की हजार प्रतिमाएं थीं। वह उस मंदिर में ठहरी। सुबह जब वह पूजा के लिए अपनी मूर्ति रखी और जब उसने धूप जलाई, तो उसे खयाल आया कि यह धूप मेरे बुद्ध को तो मिलेगी ही मिलेगी, लेकिन दूसरे बुद्धों की जो प्रतिमाएं बैठी हैं, उनको भी यह धूप मिल जाएगी! क्योंकि धूप को कोई बांधा तो नहीं जा सकता। और ऐसा भी हो सकता है कि मेरे बुद्ध को धूप मिले ही न, क्योंकि हवाओं का क्या भरोसा! और धूप उड़ कर दूसरे बुद्धों को मिल जाए! यह तो उसके प्रेम के लिए संभव न था। संकीर्ण था प्रेम।
तो संकीर्ण प्रेम बुद्ध को प्रेम करे, महावीर को घृणा करे, ऐसा ही नहीं, बुद्ध की भी प्रतिमा को, एक प्रतिमा को प्रेम करने लगता है--वह भी खास प्रतिमा को!
अब जैनों में दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं। महावीर की एक ही प्रतिमा को दिगंबर नंगा करके पूजा करेंगे, श्वेतांबर आंखें लगाएंगे, शृंगार करेंगे, फिर पूजा करेंगे! इस पर भी झगड़ा हो जाएगा। दिगंबर वाली प्रतिमा की श्वेतांबर पूजा नहीं कर सकते, श्वेतांबर वाली प्रतिमा की दिगंबर पूजा नहीं कर सकते! और प्रतिमा एक है! लेकिन अपना आरोपण कर लेंगे, तब वह अपनी होगी! महावीर की प्रतिमा का उतना सवाल नहीं है।
तो उस स्त्री को भी बड़ी बेचैनी हुई कि यह कैसे हो? तो उसने धूप नहीं जलाई, उसने पहले टीन की एक पोंगरी बनाई और उस पोंगरी को धूप के ऊपर रखा, और फिर धुएं को पोंगरी से अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया! लेकिन तब उसके बुद्ध का मुंह काला हो गया! और तब वह बहुत पछताई, बहुत रोई; क्योंकि बुद्ध का मुंह काला हो गया। और वह उस मंदिर के बड़े पुजारी से मिलने गई और उसने कहा कि मेरे बुद्ध का मुंह खराब हो गया! तो उस पुजारी ने कहा, संकीर्ण प्रेम सदा ही उसका मुंह खराब कर देता है, जिससे प्रेम करता है। इतना संकीर्ण प्रेम होगा तो जिससे तुम प्रेम करती हो, उसका चेहरा भी काला हो जाएगा।
संकीर्ण लोगों ने महावीर की प्रतिमा भी काली कर दी है, मोहम्मद की भी, बुद्ध की भी, कृष्ण की भी--सबकी प्रतिमाएं काली कर दी हैं! क्योंकि संकीर्ण प्रेम घृणा का ही एक रूप है। जितना प्रेम संकीर्ण होगा, उतना ही घृणा से भर जाता है। और जब चारों तरफ घृणा होगी तो यह असंभव है, घृणा के बड़े सागर में प्रेम की छोटी सी बूंद को कैसे बचाया जा सकता है? वह तो प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है।
यह हमें ध्यान होना चाहिए कि प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है। घृणा के बड़े सागर में प्रेम की बूंद नहीं बचाई जा सकती है। लेकिन हम चाहते यह हैं कि हमारी प्रेम की बूंद बच जाए और शेष घृणा का सागर हो!
एक मुसलमान फकीर औरत हुई राबिया। कुरान में एक जगह वचन आता है कि शैतान को घृणा करो, तो उसने वह वचन काट दिया, उस पर स्याही फेर दी! लेकिन कुरान में कोई सुधार करे, यह तो उचित नहीं है। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह उसने कुरान पढ़ने को उठाई तो देखा कि उसमें सुधार किया गया है। तो उसने कहा, यह कौन नासमझ है जिसने कुरान में सुधार किया? कुरान में तो सुधार नहीं किया जा सकता। राबिया ने कहा, मुझको ही सुधार करना पड़ा है। तो हसन ने कहा, तू तो नास्तिक मालूम होती है! कुरान में और सुधार करने की तेरी हिम्मत? यह तो बड़ा पाप है।
राबिया ने कहा कि पाप हो या पुण्य, मुझे पता नहीं। उसमें एक वाक्य था, लिखा है कि शैतान को घृणा करो! लेकिन मेरे मन से तो घृणा चली गई, अब तो शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए तो मैं घृणा करने में असमर्थ हूं। अब तो मैं शैतान को भी प्रेम ही कर सकती हूं। यह अब अनिवार्यता हो गई, क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त मेरे हृदय में कुछ है ही नहीं। शैतान के लिए भी घृणा कहां से लाऊंगी?
और राबिया ने कहा, और एक नई बात तुम्हें बताऊं कि जब तक मेरे मन में घृणा थी, तब तक परमात्मा के लिए भी प्रेम को लाने का उपाय न था। क्योंकि हृदय में घृणा हो तो परमात्मा के लिए प्रेम कैसे लाओगे? प्रेम आएगा कहां से? आसमान से तो नहीं, हृदय से आएगा।
और एक ही हृदय में दोनों का अस्तित्व साथ-साथ नहीं होता। जिस हृदय में घृणा है, वहां प्रेम का निवास नहीं; और जिस हृदय में प्रेम है, वहां घृणा का निवास नहीं। यह ऐसे ही है कि जिस कमरे में उजाला है, वहां अंधकार नहीं; जिस कमरे में अंधेरा है, वहां उजाला नहीं।
तो राबिया ने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। अगर शैतान को घृणा करनी है तो मैं चाहे मानूं या न मानूं, परमात्मा को भी घृणा करती रहूंगी। नाम प्रेम के दूंगी, लेकिन वे झूठे होंगे, क्योंकि घृणा करने वाले चित्त में प्रेम कहां? और अगर मुझे परमात्मा को प्रेम करना है तो मुझे शैतान को भी प्रेम ही करना पड़ेगा, क्योंकि प्रेम करने वाले हृदय में घृणा की संभावना कहां? इसलिए मुझे यह लकीर काट देनी पड़ी। भले ही इसके लिए कितना ही पाप लगे, लेकिन अब कोई उपाय नहीं है।
यह राबिया ने ठीक कहा, या तो हमारा हृदय प्रेमपूर्ण होगा या घृणापूर्ण होगा।
यह असंभव है कि एक व्यक्ति महावीर को प्रेम करता हो और बुद्ध को प्रेम न करे। बुद्ध और महावीर की तो बात दूसरी, सच तो यह है कि एक व्यक्ति प्रेम करता हो तो वह प्रेम ही कर सकता है। बुद्ध-महावीर का भी सवाल नहीं, साधारणजनों को भी प्रेम ही कर सकता है। यह प्रेम करना अब कोई सौदा नहीं है, अब यह उसका स्वभाव है। अब कोई उपाय ही नहीं है, वह प्रेम ही करेगा।
जैसे कि रास्ते के किनारे एक फूल खिला हो, फूल से सुगंध गिरती हो। रास्ते से कौन निकलता है, यह फूल थोड़े ही पूछता है! अच्छा कि बुरा, अपना कि पराया, मित्र कि शत्रु, फूल यह नहीं पूछता। फूल की सुगंध रास्ते पर फैलती रहती है; और जो भी रास्ते से गुजरता है, उसे सुगंध मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि फूल जब चाहे तब सुगंध को रोक ले, कि जब चाहे तब छोड़ दे। ऐसा भी नहीं है कि रास्ता खाली हो जाए तो फूल अपनी सुगंध को रोक ले। खाली रास्ते पर भी फूल की सुगंध गिरती रहती है, क्योंकि सुगंध फूल का स्वभाव है।
जिस दिन प्रेम स्वभाव हो जाता है, उस दिन हम प्रेम ही कर सकते हैं।
और इसलिए यह मैं कहना चाहता हूं कि अगर प्रेम सीमित और संकीर्ण हो तो जानना कि वह प्रेम नहीं है, वह घृणा का ही एक रूप है। और इसलिए अनुयायी कभी भी प्रेमपूर्ण नहीं होता। वह जो फालोअर है, वह कभी प्रेमपूर्ण नहीं होता। क्योंकि जो प्रेमपूर्ण है, वह कैसे अनुयायी बनेगा? या तो वह सबका ही अनुयायी हो जाएगा या किसी का भी अनुयायी नहीं होगा। उसका प्रेम इतना विस्तीर्ण है कि किसके पीछे जाएगा? क्योंकि एक के पीछे जाने में दूसरे को छोड़ना पड़ता है। और एक के पीछे जाने में हजार को छोड़ना पड़ता है। और जिसका प्रेम इतना बड़ा है कि वह किसी को भी नहीं छोड़ सकता, वह किसी के भी पीछे नहीं जाता, वह अनुयायी नहीं रह जाता।
इसलिए मैंने कहा कि मैं महावीर का अनुयायी नहीं हूं, न बुद्ध का, न कृष्ण का। क्योंकि किसी भी एक के पीछे जाने में शेष सबको छोड़े बिना कोई रास्ता नहीं है। इसलिए मैं किसी के भी पीछे नहीं गया हूं, और न कहता हूं कि कोई किसी के पीछे जाए।
और भी एक मजे की बात है कि जो किसी के पीछे जाएगा, वह अपने भीतर नहीं जा सकता। क्योंकि पीछे जाने की दिशा होती है बाहर, और भीतर जाने की दिशा होती है भीतर। तो जो किसी का भी अनुयायी है, वह आत्म-अनुभव को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि उसे जाना पड़ता है किसी के पीछे, और आत्म-अनुभव में सबको छोड़ कर जाना है उसे स्वयं के भीतर।
इसलिए मैं कहता हूं कि जो सबको प्रेम करता है, उसे किसी को पकड़ने का उपाय नहीं रहता। सब छूट जाते हैं और वह अपने भीतर जा सकता है।
यह भी समझ लेने की बात है कि प्रेम अकेला मुक्त करता है, घृणा बांधती है। और जो प्रेम भी बांधता हो, मैं कहता हूं, वह भी घृणा का ही रूप है। क्योंकि प्रेम बांधता ही नहीं, प्रेम एकदम मुक्त कर देता है। प्रेम का कोई बंधन नहीं है। प्रेम न किसी पर ठहरता, न किसी पर रुकता; न किसी को रोकता, न किसी को ठहराता।
प्रेम की न कोई शर्त है, न कोई सौदा है। प्रेम है, तो परम मुक्ति है। एक को भी अगर हम प्रेम कर लें तो हम पाएंगे कि एक जो था, वह द्वार बन गया अनेक का। और कब एक मिट गया और प्रेम अनेक पर पहुंच गया, कहना कठिन है।
पर हम एक को भी प्रेम नहीं कर पाते! असल में हम प्रेम ही नहीं कर पाते हैं। क्योंकि हम प्रेमपूर्ण ही नहीं हैं। हम ज्ञानपूर्ण बहुत हैं, लेकिन प्रेमपूर्ण बहुत कम हैं।
और कारण हैं। ज्ञान संग्रह करना पड़ता है और प्रेम बांटना पड़ता है। तो जो चीज संग्रह करनी पड़ती है, वह तो हम कर लेते हैं; क्योंकि उससे हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। तो धन इकट्ठा कर लेते हैं, ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं, त्याग इकट्ठा कर लेते हैं! जो चीज भी इकट्ठी हम कर सकते हैं, वह कर लेते हैं।
लेकिन प्रेम का मामला उलटा है। प्रेम अकेली घटना है, जिसे हम इकट्ठा नहीं कर सकते, जिसको बांटना पड़ता है। प्रेम को आप इकट्ठा नहीं कर सकते। एक आदमी धन को इकट्ठा करके धनी हो जाएगा, लेकिन ऐसे ही कोई आदमी प्रेम को इकट्ठा करके प्रेमी नहीं हो सकता। प्रेम की धारा ठीक उलटी है। जितना बांटो उतना प्रेम, जितना इकट्ठा करो उतना कम। जिसकी इकट्ठा करने की वृत्ति है, वह प्रेमी नहीं हो सकता।
पंडित की प्रवृत्ति इकट्ठे करने की होती है, वह ज्ञान इकट्ठा कर लेता है। ज्ञान बहुत इकट्ठा किया जा सकता है। और तभी फिर वह महावीर को या बुद्ध को या कृष्ण को जानने में असमर्थ हो जाता है। सच बात यह है कि फिर वह कृष्ण या बुद्ध या महावीर को जानता नहीं, बल्कि अपने ज्ञान के आधार पर पुनः निर्मित करता है, रि-कंस्ट्रक्ट करता है। वह फिर एक नया आदमी खड़ा कर लेता है, जो कि कभी था ही नहीं। वह उसके ज्ञान के अनुकूल व्यक्ति बना लेता है। इसलिए सभी महापुरुषों का चित्र झूठा हो जाता है। उन सबकी जो पीछे स्मृति बनती है, वह झूठी हो जाती है, वह हमारे द्वारा बनाई हुई होती है।
ज्ञान से कोई द्वार नहीं है किसी को समझने का, प्रेम से द्वार है। क्योंकि प्रेम यह नहीं कहता कि तुम ऐसे होओ तो ही मैं मानूंगा। प्रेम यह कहता है, तुम जैसे हो, उसको मैं प्रेम करने के लिए तैयार हूं। प्रेम यह कहता ही नहीं कि तुम ऐसे हो तो!
अगर मैं महावीर को प्रेम करता हूं तो वे मुझे कपड़े पहने मिल जाएं तो भी मैं प्रेम करूंगा और वे नंगे मिल जाएं तो भी प्रेम करूंगा। लेकिन एक अनुयायी है, वह कहता है कि महावीर नग्न हैं, तो ही मैं प्रेम करूंगा! अगर वे नग्न नहीं हैं तो अज्ञानी हैं!
एक घटना घटी, मेरी एक मित्र, एक महिला हालैंड गई थी। वहां कृष्णमूर्ति का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था, कोई छह-सात हजार लोग सारी दुनिया से इकट्ठे थे कृष्णमूर्ति को सुनने। वह मेरी परिचित महिला एक दुकान पर सांझ को गई है, उसके साथ दो और यूरोपियन महिलाएं थीं। वे तीनों एक छोटी सी दुकान पर कुछ खरीदने गई हैं।
वहां देख कर वे हैरान रह गई हैं, क्योंकि कृष्णमूर्ति वहां टाई खरीद रहे हैं! और न केवल टाई--एक तो यही बात बड़ी गलत मालूम पड़ी कि कृष्णमूर्ति जैसा ज्ञानी एक साधारण दुकान पर टाई खरीदता हो! तो ज्ञानी तो खतम ही हो गया उसी क्षण। और फिर न केवल टाई खरीद रहे हैं, बल्कि यह टाई लगा कर देखते हैं, वह टाई लगा कर देखते हैं; यह भी पसंद नहीं पड़ती, वह भी पसंद नहीं पड़ती! सारी दुकान की टाई फैला रखी हैं।
तो वे तीनों महिलाओं के मन में बड़ा संदेह भर गया कि हम किस व्यक्ति को सुनने इतनी दूर से आए हैं! और वह व्यक्ति एक साधारण सी दुकान पर टाई खरीद रहा है! और वह भी टाई में भी रंग मिला रहा है कि कौन सा मेल खाता है, कौन सा नहीं मेल खाता है!
उन दो यूरोपियन महिलाओं ने मेरी उस मित्र को कहा कि हम तो अब सुनने नहीं आएंगे। बात खतम हो गई है। एक साधारण आदमी को सुनने हम इतने दूर से व्यर्थ परेशान हुए। जिसको अभी कपड़ों का भी खयाल है इतना ज्यादा, उसको क्या ज्ञान मिला होगा! वे दोनों महिलाएं सम्मेलन में सम्मिलित हुए बिना वापस लौट गईं।
उस मेरी मित्र ने कृष्णमूर्ति को जाकर कहा कि आपको पता नहीं है कि आपके टाई खरीदने से कितना नुकसान हुआ! दो महिलाएं सम्मेलन छोड़ कर चली गई हैं, क्योंकि वे यह नहीं मान सकतीं कि एक ज्ञानी व्यक्ति और टाई खरीदता हो। तो कृष्णमूर्ति ने कहा कि चलो, दो का मुझसे छुटकारा हुआ, यह भी क्या कम है! दो मुझसे मुक्त हो गईं, यह भी क्या कम है! दो का भ्रम टूटा, यह भी क्या कम है! कृष्णमूर्ति ने कहा, क्या मैं टाई न खरीदूं तो ज्ञानी हो जाऊंगा? अगर ज्ञानी होने की इतनी सस्ती शर्त है तो कोई भी नासमझ इसे पूरी कर सकता है। अगर इतनी सस्ती शर्त से कोई ज्ञानी हो जाता है तो कोई भी नासमझ इसे पूरी कर सकता है। लेकिन इतनी सस्ती शर्त पर मैं ज्ञानी नहीं होना चाहता। और इतनी सस्ती शर्त पर जो मुझे ज्ञानी मानने को तैयार हैं, वे न मानें, यही अच्छा है, यही शुभ है।
लेकिन हम सबकी ऐसी शर्तें होती हैं। और शर्तें इसीलिए होती हैं कि हमारा कोई प्रेम नहीं है। हमारी अपनी धारणाएं हैं, उन धारणाओं पर हम कसने की कोशिश करते हैं एक आदमी को! और ध्यान रहे, जितना अदभुत व्यक्ति होगा, उतनी ही सारी धारणाओं को तोड़ देता है; किसी धारणा पर कसा नहीं जा सकता। असल में अदभुत व्यक्ति का अर्थ ही यह है कि पुरानी कसौटियां उस पर काम नहीं करतीं। अदभुत व्यक्ति, प्रतिभाशाली व्यक्ति न केवल खुद को निर्मित करता है बल्कि खुद को मापे जाने की कसौटियां भी फिर से निर्मित करता है।
और इसीलिए ऐसा हो जाता है कि महावीर जब पैदा होते हैं तो पुराने महापुरुषों के अनुयायी महावीर को नहीं पहचान पाते। क्योंकि उनकी कसौटियां जो रहती हैं, वे महावीर पर लागू नहीं पड़तीं। पुराना जो अनुयायी है, पुराने महापुरुषों का; वह पुरानी उन महापुरुषों के हिसाब से उसने धारणाएं बना कर रखी हैं, वह महावीर पर कसने की कोशिश करता है! महावीर उस पर नहीं उतर पाते, इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन महावीर का अनुयायी वही बातें बुद्ध पर कसने की कोशिश करता है, और तब फिर मुश्किल हो जाती है।
हमारा चित्त अगर पूर्वाग्रह से भरा है तो महापुरुष तो दूर, एक छोटे से व्यक्ति को भी हम प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते। एक पत्नी पति को प्रेम नहीं कर पाती, क्योंकि पति कैसा होना चाहिए, इसकी धारणा पक्की मजबूत है! एक पति पत्नी को प्रेम नहीं कर पाता, क्योंकि पत्नी कैसी होनी चाहिए, शास्त्रों से सब उसने सीख कर तैयार कर लिया है, वही अपेक्षा कर रहा है! वह इस व्यक्ति को जो सामने पत्नी या पति की तरह मौजूद है, देख ही नहीं रहा है। और ऐसा व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं है। यह बिलकुल नया व्यक्ति है।
मैंने जो बातें महावीर के संबंध में कहीं, उन पर मेरा कोई पूर्व आग्रह नहीं है। कोई सूचनाओं के, किन्हीं धारणाओं के, किन्हीं मापदंडों के आधार पर मैंने उन्हें नहीं कसा है। मेरे प्रेम में वे जैसे दिखाई पड़ते हैं, वैसी मैंने बात की है। और जरूरी नहीं है कि मेरे प्रेम में वे जैसे दिखाई पड़ते हैं वैसे आपके प्रेम में भी दिखाई पड़ने चाहिए। अगर वैसा भी मैं आग्रह करूं, तो फिर मैं आपसे धारणाओं की अपेक्षा कर रहा हूं। मैंने अपनी बात कही, जैसा वे मुझे दिखाई पड़ते हैं, जैसा मैं उन्हें देख पाता हूं।
और इसलिए एक बात निरंतर ध्यान में रखनी जरूरी होगी--यह बात निरंतर ध्यान में रखनी जरूरी होगी कि महावीर के संबंध में जो भी मैंने कहा है, वह मैंने कहा है और मैं उसमें अनिवार्यरूप से उतना ही मौजूद हूं, जितने महावीर मौजूद हैं। वह मेरे और महावीर के बीच हुआ लेन-देन है। उसमें अकेले महावीर नहीं हैं, उसमें अकेला मैं भी नहीं हूं, उसमें हम दोनों हैं। और इसलिए यह बिलकुल ही असंभव है कि जो मैंने कहा है, ठीक बिलकुल वैसा ही किसी दूसरे को भी दिखाई पड़े। यह बिलकुल असंभव है। मैं किसी आब्जेक्टिव महावीर की, किसी दूर वस्तु की तरह खड़े हुए व्यक्ति की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो उस महावीर की बात कर रहा हूं, जिसमें मैं भी सम्मिलित हो गया हूं, जो मेरे लिए एक सब्जेक्टिव अनुभव है, एक आत्मगत अनुभूति बन गया है। इसलिए बहुत सी कठिनाइयां होंगी।
जो भी मेरी बात को पढ़ेंगे, उन्हें समझने में बहुत कठिनाई और मुश्किल हो सकती है। सबसे बड़ी मुश्किल तो यह होगी कि वे उस जगह खड़े नहीं हो सकते, जहां खड़े होकर मैं देख रहा हूं। लेकिन इतनी ही उनकी कृपा काफी होगी कि वे इसकी चिंता ही न करें। एक व्यक्ति ने एक जगह खड़े होकर कैसे महावीर को देखा है, इसको समझ भर लें। और फिर अपनी जगह से खड़े होकर देखने की कोशिश करें। जरूरी नहीं है कि उनका जो खयाल होगा, वह मुझसे मेल खाए। मेल खाने की कोई जरूरत भी नहीं है।
लेकिन अगर इतने निष्पक्ष भाव से मेरी बातों को समझा गया तो जो भी व्यक्ति उतने निष्पक्ष भाव से समझेगा, उसे महावीर को समझने की बड़ी अदभुत कुशलता उपलब्ध हो जाएगी। और न केवल महावीर को, अगर उसने बहुत गौर से समझा तो वह महावीर को ही नहीं, बुद्ध को भी, मोहम्मद को भी, कृष्ण को भी समझने में इतना ही समर्थ हो जाएगा।
इतिहास तो जो बाहर से दिखाई पड़ता है, उसे लिख जाता है। और जो बाहर से दिखाई पड़ता है, वह एक अत्यंत छोटा पहलू होता है। और इसलिए इतिहास बड़ी सच्ची बातें लिखते हुए भी बहुत बार असत्य हो जाता है।
बर्क नाम का एक बहुत बड़ा इतिहासज्ञ विश्व-इतिहास लिख रहा था। और कोई पंद्रह वर्षों से लिख रहा था निरंतर। पंद्रह वर्षों का सारा जीवन उसने विश्व-इतिहास के लिखने में लगाया हुआ था। एक दिन दोपहर की बात है, वह इतिहास लिखने में लगा हुआ है और पीछे शोरगुल हुआ है। दरवाजा खोल कर वह पीछे गया।
उसके मकान के बगल से गुजरने वाली सड़क पर झगड़ा हो गया है। एक आदमी की हत्या कर दी गई है। बड़ी भीड़ है। सैकड़ों लोग इकट्ठे हैं, आंखों देखे गवाह मौजूद हैं। और वह एक-एक आदमी से पूछता है कि क्या हुआ? तो एक आदमी कुछ कहता है! दूसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! तीसरे से पूछता है, वह कुछ कहता है! आंखों देखे गवाह मौजूद हैं, लाश सामने पड़ी है, खून सड़क पर पड़ा हुआ है, अभी पुलिस के आने में देर है, हत्यारा पकड़ लिया गया है, लेकिन हर आदमी अलग-अलग बात कहता है! किन्हीं दो आदमियों की बातों में कोई तालमेल नहीं कि हुआ क्या! झगड़ा कैसे शुरू हुआ? कोई हत्यारे को जिम्मेवार ठहरा रहा है, कोई जिसकी हत्या की गई, उसको जिम्मेवार ठहरा रहा है! कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ कह रहा है! वे सब आंखों देखे गवाह हैं!
बर्क खूब हंसने लगा। लोगों ने पूछा, आप किसलिए हंस रहे हैं? आदमी की हत्या हो गई!
उसने कहा, मैं किसी और कारण से हंस रहा हूं। अंदर आया और वह पंद्रह वर्षों की जो मेहनत थी, उसमें आग लगा दी--वह जो विश्व-इतिहास लिख रहा था। और अपनी डायरी में लिखा कि मैं हजारों साल पहले की घटनाओं पर इतिहास लिख रहा हूं, मेरे घर के पीछे एक घटना घटती है, जिसमें चश्मदीद गवाह मौजूद हैं, फिर भी किसी का वक्तव्य मेल नहीं खाता, तो हजार-हजार साल पहले जो घटनाएं घटी हैं, उनके लिए किस हिसाब से हम मानें कि क्या हुआ, क्या नहीं हुआ? किसको मानें? कौन गवाही है? कौन ठीक है, कौन गलत है, कहना मुश्किल है। बर्क ने लिखा कि इतिहास भी एक कल्पना मालूम पड़ती है, तथ्य नहीं।
इतिहास भी एक कल्पना हो सकती है, अगर हमने बहुत ऊपर से पकड़ने की कोशिश की, और कल्पना भी सत्य हो सकती है, अगर हमने बहुत भीतर से पकड़ने की कोशिश की। सवाल आब्जेक्टिव, वस्तुगत नहीं है, सवाल सदा सब्जेक्टिव है।
तो महत्वपूर्ण महावीर उतने ही हैं, जितना महावीर को देखने वाला है। और वह वही देख पाएगा, जो वह देख सकता है। क्या हम महावीर को अपने भीतर लेकर जी सकते हैं? जैसे एक मां अपने पेट में एक बच्चे को लेकर जीती है। क्या हम--और जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे हम अपने भीतर लेकर जीने लगते हैं। उस जीने से जो निखार आता है, उसमें हमारा भी हाथ होता है। उसमें महावीर भी होते हैं, और हम भी होते हैं। यह एक गहरा इन्वाल्वमेंट है।
यह उतना ही गहरा है, जैसे कि जब आप रास्ते के किनारे लगे हुए फूल को देख कर कहते हैं, बहुत सुंदर! तो आप सिर्फ फूल के बाबत ही नहीं कह रहे हैं, आप अपने बाबत भी कह रहे हैं! क्योंकि पड़ोस से, हो सकता है, एक आदमी निकले और कहे, क्या सुंदर है इसमें? इसमें कुछ भी तो सुंदर नहीं है। साधारण सा फूल है, घास का फूल है। वह आदमी भी जो कह रहा है, वह भी उसी फूल के संबंध में कह रहा है। रात एक भूखा आदमी है, आकाश की तरफ देखता है, चांद उसे रोटी की तरह मालूम पड़ता है, जैसे रोटी तैर रही हो आकाश में!
हेनरिक हेन एक जर्मन कवि था, वह तीन दिन तक भूखा भटक गया है जंगल में। पूर्णिमा का चांद निकला तो उसने कहा, आश्चर्य! अब तक मुझे सदा चांद में स्त्रियों के चेहरे दिखाई पड़े थे, और पहली दफे मुझे रोटी दिखाई पड़ी। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि चांद भी रोटी जैसा दिखाई पड़ सकता है। लेकिन भूखे आदमी को दिखाई पड़ सकता है। तीन दिन के भूखे आदमी को चांद ऐसा लगा, जैसे रोटी आकाश में तैर रही है!
आकाश में रोटी तैर रही है, इसमें चांद तो है ही, इसमें एक भूखे आदमी की नजर भी है। एक फूल सुंदर है, इसमें फूल तो है ही, एक एस्थेटिक, एक सौंदर्य-बोध वाले व्यक्ति की नजर भी सम्मिलित है। कोई फूल इतना सुंदर नहीं है अकेले में, जितना आंख उसे सुंदर बना देती है और प्रेम करने वाला उसे सुंदर बना देता है; और ऐसी चीजें खोल देता है उसमें, जो शायद साधारण किनारे से गुजरने वाले को कभी भी दिखाई न पड़ी हों।
तो मैंने जो भी कहा है, वह महावीर के संबंध में ही है, लेकिन मैं उसमें मौजूद हूं। और जो हम दोनों को समझने की कोशिश करेगा, वही मेरी बात को समझ पा सकता है। जो सिर्फ मुझे समझता है, वह भी नहीं समझ पाएगा; जो सिर्फ महावीर को शास्त्र से समझता है, वह भी नहीं समझ पाएगा। यहां दो व्यक्ति, जैसे दो नदियां संगम पर आकर घुल-मिल जाएं और तय करना मुश्किल हो जाए कि कौन सा पानी किसका है, ऐसा ही मिलना हुआ है। और मैं मानता हूं कि ऐसा मिलना हो, तो ही एक नदी दूसरी नदी को पहचान पाती है, नहीं तो पहचान भी नहीं पाती।
और इसलिए इस निवेदन के साथ कि महावीर की जड़ प्रतिमा को, मृत प्रतिमा को, शब्दों से निर्मित रूप-रेखा को मैंने बिलकुल ही अलग छोड़ दिया है। मैंने तो एक जीवित महावीर को पकड़ने की कोशिश की है। और यह कोशिश तभी संभव है, जब हम इतने गहरे में प्रेम दे सकें कि हमारा प्राण और उनके प्राण से एक हो जाए तो ही वे पुनरुज्जीवित हो सकते हैं। और प्रत्येक बार जब भी कोई व्यक्ति कृष्ण, बुद्ध, महावीर के निकट पहुंचेगा, तब उसे ऐसे ही पहुंचना पड़ेगा। उसे फिर से प्राण डाल देने पड़ेंगे। अपने ही प्राण उंडेल देगा तो ही उसे दिखाई पड़ सकेगा कि क्या है।
लेकिन फिर भी इस बात को निरंतर ध्यान में रखने की जरूरत है कि यह एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए महावीर की बात है। एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए महावीर की बात है, दूसरे व्यक्ति को इतनी ही परम स्वतंत्रता है कि और तरह से देख सके। और इन दोनों में न कोई विरोध की बात है, न कोई संघर्ष की बात है, न किसी विवाद की कोई जरूरत है।
आप पूछते हैं कि जो मैंने कहा, उसके लिए शास्त्रों के सिवाय आधार भी क्या हो सकता है? और मैं शास्त्रों के आधार को पूर्णतया निषेध करता हूं।
फकीर था एक बोकोजू। बुद्ध के संबंध में बहुत सी बातें उसने कही हैं, जो शास्त्रों में नहीं हैं! और बहुत से ऐसे वक्तव्य भी दिए हैं, जिनका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है! पंडित उसके पास आए शास्त्र लेकर और कहा कि कहां हैं बुद्ध की ये बातें? शास्त्रों में नहीं हैं। तो बोकोजू ने कहा, जोड़ लेना! पर उन्होंने कहा, बुद्ध ने यह कहा ही नहीं है। तो बोकोजू ने कहा, बुद्ध मिलें तो उनसे कह देना कि बोकोजू ऐसा कहता था कि कहा है! और न कहा हो तो कह देंगे!
यह बोकोजू अदभुत आदमी रहा होगा। और बुद्ध से कहलवाने की हिम्मत किसी बड़े गहरे प्रेम से ही आ सकती है। यह कोई साधारण हिम्मत नहीं है! यह उतने गहरे प्रेम से आ सकती है कि बुद्ध को ही सुधार करना पड़े।
एक और घटना मुझे स्मरण आती है। एक संत रामकथा लिखते थे। और वे इतनी अदभुत रामकथा लिख रहे थे--और रोज सांझ रामकथा पढ़ कर सुनाते थे--कि कहानी यह है कि हनुमान तक उत्सुक हो गए उस कथा को सुनने आने के लिए! अब हनुमान का तो सब देखा हुआ था, लेकिन कथा इतनी रसपूर्ण हो रही थी कि हनुमान भी छुप कर उस सभा में सुनते थे!
वह जगह आई, जहां हनुमान अशोक-वाटिका में गए सीता से मिलने। तो उस संत ने कहा कि हनुमान गए अशोक-वाटिका में, वहां सफेद ही सफेद फूल खिले थे। हनुमान के बरदाश्त के बाहर हो गया, क्योंकि फूल सब लाल थे। हनुमान ने खुद देखा था। और यह आदमी तो देखा भी नहीं था, हजारों साल बाद कहानी कह रहा है।
तो हनुमान ने खड़े होकर कहा कि माफ करिए, उसमें जरा सुधार कर लें। फूल सफेद नहीं, लाल थे। उस आदमी ने कहा कि फूल सफेद ही थे। तब हनुमान ने कहा कि फिर मुझे स्पष्ट करना पड़ेगा, मैं खुद हनुमान हूं! हनुमान अपने रूप में प्रकट हुए। मैं खुद हनुमान हूं और मैं गया था! अब तो सुधार कर लीजिए। उसने कहा कि नहीं, तुम्हीं सुधार कर लेना, फूल सफेद ही थे। हनुमान ने कहा, यह तो हद हो गई! हजारों साल बाद तुम कथा कह रहे हो और मैं मौजूद था, मैं खुद गया था! मेरी तुम कथा कहते हो और मुझे इनकार करते हो! उस आदमी ने कहा, लेकिन फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना अपनी स्मृति में। 
हनुमान तो बहुत नाराज हुए! कथा कहती है कि उस संत को लेकर वे राम के पास गए। राम से उन्होंने कहा कि हद हो गई! यह आदमी की जिद देखो! यह मुझमें सुधार करवाता है, मेरी स्मृति में! फूल बिलकुल सुर्ख लाल थे, बगिया में जो खिले थे।
राम ने कहा कि वे संत ही ठीक कहते हैं। फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना। तो हनुमान ने कहा, हद हो गई! तो राम ने कहा, तुम इतने क्रोध में थे कि आंखें तुम्हारी खून से भरी थीं। फूल लाल दिखाई पड़े होंगे! लेकिन फूल सफेद थे। वे ठीक कहते हैं।
बहुत बार, देखा हो तो भी जरूरी नहीं कि सच हो। और बहुत बार, न देखा हो तो भी हो सकता है सच हो! सच बड़ी रहस्यपूर्ण बात है।
अभी मैं एक नगरी में था, एक बौद्ध भिक्षु मुझे मिलने आए। कुछ बात चलती थी तो मैंने कहा कि बुद्ध के सामने एक व्यक्ति बैठा हुआ था, वह पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध बोल रहे थे। तो बुद्ध ने उससे कहा कि मित्र, तेरे पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? तो उस आदमी ने पैर का अंगूठा रोक लिया। और उसने कहा कि आप अपनी, अपनी आप बात जारी रखिए, फिजूल की बातों से क्या मतलब? पर बुद्ध ने कहा कि नहीं, मैं पीछे बात शुरू करूंगा। पहले पता चल जाए कि पैर का अंगूठा क्यों हिलता है? तो उस आदमी ने कहा, मुझे पता ही नहीं था, मैं क्या बताऊं? क्यों हिलता था, यह मुझे भी पता नहीं है! तो बुद्ध ने कहा, तू बड़ा पागल आदमी है। तेरा अंगूठा है, हिलता है, और तुझे पता नहीं! अपने अंगूठे का होश रख। और जब शरीर का होश नहीं रखेगा तो आत्मा का होश तो बहुत दूर की बात है।
तो उस बौद्ध भिक्षु ने कहा, लेकिन यह किस ग्रंथ में लिखा हुआ है? मैंने कहा, मुझे पता नहीं। मुझे पता नहीं, कहां लिखा हुआ है। और भी एक फकीर हुआ है चीन में, वह यह बात कहता था।
लेकिन उन्होंने कहा, लेकिन कहीं लिखा हुआ नहीं है किसी ग्रंथ में! मैं तो सारे ग्रंथों का पाठी हूं, उनमें कहीं यह उल्लेख नहीं है।
हो सकता है, न हो। लेकिन जिस फकीर ने कहा है, वह उतना ही अधिकार रखता है जितना बुद्ध। और न भी घटी हो घटना यह, तो घटनी चाहिए थी! मैंने उससे कहा कि न भी घटी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन घटनी चाहिए थी। उस बौद्ध भिक्षु ने कहा, यह बात मैं मान सकता हूं। घटनी चाहिए थी। बात तो ऐसी है कि घटनी चाहिए थी।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि घटी कि नहीं घटी? यह भी बहुत मूल्य का नहीं है कि कौन सी घटना घटती है कि नहीं घटती है। बहुत मूल्य का यह है कि वह घटना क्या कहती है! बुद्ध ने बहुत मौकों पर लोगों को यह बात कही होगी कि जो शरीर के प्रति नहीं जागा हुआ है, वह आत्मा के प्रति कैसे जागेगा? और बहुत बार उन्होंने लोगों को टोका होगा उनकी मूर्च्छा में।
अब यह दूसरी बात है कि घटना कैसी घटी होगी। यह बहुत गौण बात है। महत्वपूर्ण यह है कि बुद्ध जागरण के लिए निरंतर आग्रह करते हैं। और जो शरीर के प्रति सोया हुआ है, वह आत्मा के प्रति कैसे जगेगा, यह भी कहते हैं। और बहुत बार लोगों की मूर्च्छा में उनको पकड़ लेते हैं कि देखो, तुम बिलकुल सोए थे। और सोए हुए आदमी को बताना पड़ता है कि यह रही नींद! तभी टूट सकती है।
तो घटना बिलकुल सच है, ऐतिहासिक न हो तो भी। और ऐतिहासिक होने से भी क्या होता है? इतिहास भी क्या है? इतिहास भी क्या है, जहां घटनाएं पर्दे पर साकार हो जाती हैं, इतिहास बन जाता है। और घटनाएं अगर पर्दे के पीछे ही रह जाएं तो इतिहास नहीं बनता है।
इसलिए इस देश में और सारी दुनिया में जो लोग जानते हैं, वे बड़े अदभुत हैं। कहानी है कि वाल्मीकि ने राम की कथा राम के होने के पहले लिखी। यह बड़ी मधुर बात है, और बड़ी अदभुत। राम हुए नहीं तब वाल्मीकि ने कथा लिखी और फिर राम को कथा के हिसाब से होना पड़ा। वह जो कथा थी, फिर कोई उपाय न था, क्योंकि वाल्मीकि ने लिख दी थी, तो फिर राम को वैसा होना पड़ा! वह सब करना पड़ा, जो वाल्मीकि ने लिख दिया था!
अब यह बड़ी अदभुत बात है। यानी यह इतनी अदभुत बात है कि इसे सोचना भी हैरान करने वाला है। राम हो जाएं, फिर कथा लिखी जाए, यह समझ में आता है। लेकिन वाल्मीकि कथा लिख दें, फिर राम को होना पड़े! और सब वैसा ही करना पड़े, जो वाल्मीकि ने लिख दिया! क्योंकि मुश्किल है, वाल्मीकि ने लिख दिया तो अब वैसा करना ही पड़ेगा!
तो वह जो उस बोकोजू ने कहा कि कह देना बुद्ध को कि फिर वे यह कह दें, अगर न कहा हो तो कह दें! तो वह उसी अधिकार से कह रहा है, जिस अधिकार से वाल्मीकि कथा लिखते हैं।
इतिहास पीछे लिखा जाता है, सत्य पहले भी लिखा जा सकता है। क्योंकि सत्य का मतलब है, जिससे अन्यथा हो ही नहीं सकता। इतिहास का मतलब है, जैसा हुआ; लेकिन इससे अन्यथा हो सकता था। इन सारी बातों पर खयाल करने की जरूरत है! इतिहास का मतलब है, जैसा हुआ, लेकिन अन्यथा हो सकता था, कोई बाधा नहीं है इसमें। सत्य का मतलब है, जैसा हो सकता है, जैसा हो सकता था, जिससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है।
महावीर, बुद्ध, जीसस, इन जैसे लोगों के प्रति इतिहास की फिक्र नहीं करनी चाहिए। इतिहास इतनी, इतनी मोटी बुद्धि की बात है कि हो सकता है ये बारीक लोग उससे निकल ही जाएं, पकड़ में ही न आएं। उन्हें तो किसी और आंख से देखने की जरूरत है--सत्य की आंख से। और उस आंख से देखने पर बहुत सी बातें उदघाटित होंगी, जो शायद इतिहास नहीं पकड़ पाया है।
और इसलिए मैंने जो कहा है, और आगे भी कृष्ण, बुद्ध, कन्फ्यूशियस, लाओत्से और क्राइस्ट के संबंध में जो कहूंगा, उसका ऐतिहासिक होने से कोई संबंध नहीं है। इसलिए जिनकी ऐतिहासिक बुद्धि हो, उनसे कोई झगड़ा ही नहीं है, उनसे कोई विवाद नहीं है।
जगत को एक कवि की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। और तब जगत इतने रहस्य खोल देता है, जितने इतिहास की दृष्टि से देखने वालों के सामने उसने कभी भी नहीं खोले। काव्य का अपना विजन है, अपना दर्शन है। और चूंकि वह ज्यादा प्रेम से भरा है, इसलिए ज्यादा सत्य के निकट है। शास्त्र उसके मेल में भी पड़ सकते हैं, बेमेल भी हो सकते हैं। और चूंकि हमें यह खयाल में नहीं रहा है, इसलिए जिन लोगों ने अतीत में इन सारे महापुरुषों की गाथाएं लिखी हैं, उनको भी समझना मुश्किल हो गया। क्योंकि उन गाथाओं को लिखते वक्त भी सत्य पर दृष्टि ज्यादा थी, तथ्य पर बहुत कम। तथ्य तो रोज बदल जाते हैं, सत्य कभी नहीं बदलता है। इतिहास तथ्यों का लेखा-जोखा रखता है। सत्य का लेखा-जोखा कौन रखेगा?
इसलिए जिनकी सत्य की बहुत फिक्र थी, उन्होंने इतिहास लिखा तक नहीं। जिनकी सत्य की बहुत फिक्र थी, उन्होंने इतिहास भी नहीं लिखा। यह बात बेमानी थी कि कौन आदमी कब पैदा हुआ, किस तारीख में, किस तिथि में। यह बात बेमानी थी, कौन आदमी कब मरा। यह बात भी अर्थहीन थी कि कौन आदमी कब उठा, कब चला, कब क्या किया। महत्वपूर्ण तो वह अंतर-घटना थी, जिसने उसे सत्य के निकट और सूर्य के निकट पहुंचा दिया। उस घटना को प्रकट कर सके, ऐसी पूरी की पूरी व्यवस्था की। वह व्यवस्था हो सकती है बिलकुल ही काल्पनिक है, तो भी कठिनाई नहीं है। और हो सकता है कि इतिहास बिलकुल ही वास्तविक है, तो भी व्यर्थ हो सकता है।
इतिहास तो यह है कि जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। और सत्य जिन्होंने देखा, उन्होंने कहा कि वे ईश्वर के पुत्र हैं! तथ्य तो यह है कि एक बढ़ई के बेटे हैं। तथ्य यही है। इतिहास खोजने जाएगा तो बढ़ई के बेटे से ज्यादा क्या खोज पाएगा! लेकिन जिन्होंने जीसस को देखा, उन्होंने जाना कि वे परमात्मा के बेटे हैं। यह किसी और आंख से देखी गई बात है। और इन दोनों में तालमेल नहीं भी हो सकता है। क्योंकि बढ़ई का बेटा और ईश्वर के बेटे में कितना फर्क है! इससे ज्यादा फर्क और क्या हो सकता है?
लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि जिन्होंने बढ़ई का बेटा ही देखा, वे पहचान नहीं पाए उस आदमी को, जो बढ़ई के बेटे से आया था, लेकिन बढ़ई का बेटा नहीं था। जिसका आना और बड़े जगत से था।
और वह नहीं पहचान पाया कोई भी! क्योंकि जब जीसस ने कहा कि सारा राज्य मेरा है, और जो मेरे साथ चलते हैं, वे साम्राज्य के मालिक हो जाएंगे, तो जो तथ्यों को जानते थे, वे चिंतित हो गए। उन्होंने कहा, मालूम होता है जीसस कोई क्रांति, कोई बगावत करना चाहता है! और जो सच में राजा है, उस पर हावी होना चाहता है। और जब जीसस को पकड़ा गया और उनको कांटे का ताज पहनाया गया और उनसे पूछा गया कि क्या तुम राजा हो? तो उसने कहा, हां! हम साम्राज्य जीते हैं, इन सबको साम्राज्य जिताने के लिए ले जा रहे हैं--किंगडम ऑफ गॉड, ईश्वर का राज्य! लेकिन फिर भी समझ में नहीं पड़ सका कि वह आदमी क्या कह रहा है! क्या तुम सम्राट होने का दावा करते हो? तो उसने कहा, हां, क्योंकि मैं सम्राट हूं!
लेकिन यह बात बिलकुल सरासर असत्य थी। क्योंकि सम्राट तो जीसस नहीं थे--गरीब आदमी का बेटा था। पागल हो गया था, ऐसा मालूम होता है। उस लाख आदमियों की भीड़ में जो सूली देने इकट्ठे हुए थे, दस-पांच ही थे, जो पहचान पाए कि हां, वह सम्राट है! बाकी ने तो कहा कि खतम करो इस आदमी को, यह कैसी झूठी बातें बोल रहा है!
मरते वक्त पायलट ने--जो गवर्नर था, वाइसराय था वहां का, जिसके सामने सूली की आज्ञा दी गई, जिसकी आज्ञा से सूली लगी--पायलट ने मरते वक्त जीसस के पास खड़े होकर पूछा, व्हाट इज़ ट्रुथ? सत्य क्या है?
जीसस चुप रह गए। कुछ उत्तर नहीं दिया।
सूली हो गई। प्रश्न वहीं खड़ा रह गया पायलट का: सत्य क्या है?
जीसस ने उत्तर क्यों नहीं दिया?
उत्तर इसलिए नहीं दिया कि सत्य दिखाई पड़ता है या नहीं दिखाई पड़ता--पूछा नहीं जा सकता है।
तथ्य पूछे जा सकते हैं। तथ्य क्या है, व्हाट इज़ दि फैक्ट? बताया जा सकता है कि यह तथ्य है।
जब कोई पूछे, सत्य क्या है? तो बताया नहीं जा सकता, देखा जा सकता है।
तो जीसस चुपचाप खड़ा रह गया कि देख लो, अगर दिखाई पड़ जाए तो तुम्हें पता चल जाएगा कि सत्य क्या है--यह आदमी सम्राट है या नहीं! और अगर तथ्य की बात ही पूछते हो तो फिर ठीक है, यह आदमी बढ़ई का लड़का है और सूली पर लटका देने योग्य है; क्योंकि इसका दिमाग खराब हो गया है और अपने को सम्राट घोषित कर रहा है!
इधर मैं निरंतर इस संबंध में चिंतन करता रहा हूं कि तथ्य को पकड़ने वाली बुद्धि सत्य को पकड़ सकती है या नहीं? और मुझे लगता है कि नहीं पकड़ सकती। सत्य को पकड़ने के लिए और गहरी आंख चाहिए, जो तथ्यों के भीतर उतर जाती है। और तब ऐसे सत्य हाथ लगते हैं, जिनकी कि तथ्य कोई खबर नहीं दे पाता।

इसी दृष्टि से यह सारी बात की है।


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