शिक्षा का लक्ष्य—(प्रवचन—सतरहवां)
'मैं
कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
मैं
आपकी
आंखों में
देखता हूं और
उनमें घिरे
विषाद और
निराशा को
देखकर मेरा
हृदय रोने
लगता है।
मनुष्य ने
स्वयं अपने
साथ यह क्या
कर लिया है? वह
क्या होने की
क्षमता लेकर
पैदा होता है
और क्या होकर
समाप्त हो
जाता है!
जिसकी
अन्तरात्मा
दिव्यता की
ऊंचाइयां
छूती, उसे
पशुता की
घाटियों में
भटकते देखकर
ऐसा लगता है
जैसे किसी
फूलों के पौधे
में फूल न
लगकर पत्थर लग
गए हों और
जैसे किसी
दीये से प्रकाश
की जगह अंधकार
निकलता हो।
ऐसा
ही हुआ है
मनुष्य के साथ।
इसके कारण ही
हम उस सात्विक
प्रफुल्लता
का अनुभव नहीं
करते हैं जो
हमारा जन्म
सिद्ध अधिकार
है,
और हमारे
प्राण तमस के
भार से भारी
हो गए हैं।
शिक्षा
मानवात्मा
में जो
अन्तर्निहित
है उसे
अभिव्यक्त
करने का
माध्यम और
उपाय है। कभी
सुकरात ने कहा
था— 'मैं एक दाई
की भांति हूं।
जो तुममें
अप्रकट है, मैं उसे
प्रकट कर
दूंगा।’ यह
वचन शिक्षा की
भी परिभाषा है।
लेकिन
मनुष्य में
शुभ और अशुभ
दोनों ही छिपे
हैं। विष और
अमृत दोनों ही
उसके भीतर हैं।
पशु और परमात्मा
दोनों का ही
उसके अंदर वास
है। यही उसकी
स्वतंत्रता
और मौलिक
गरिमा भी है।
वह अपने होने
को चुनने में
स्वतंत्र है।
इसलिए
.सम्यक शिक्षा
वह है जो उसे
प्रभु होने की
ओर मार्ग—दर्शन
दे सके।
यह
भी स्मरणीय है
कि मनुष्य यदि
अपने साथ कुछ भी
न करे तो वह
सहज ही पशु से
भी पतित हो
जाता है। पशु
को चुनना हो
तो स्वयं को
जैसा जन्म से
पाया है, वैसा
ही छोड़ देना
पर्याप्त है।
उसके लिए कुछ
और विशेष करने
की आवश्यकता
नहीं है। वह
उपलब्ध सहज और
सुगम है।
नीचे
उतरना हमेशा
ही सुगम होता
है। किन्तु
ऊपर उठना श्रम
और साधना है।
वह अध्यवसाय
और पुरुषार्थ
है। वह
सम्भावना, संकल्प
और सतत चेष्टा
से ही फलीभूत
है। ऊपर उठना
एक कला है।
जीवन की सबसे
बडी कला वही
है।
प्रभु
होने की इस
कला को सिखाना
शिक्षा का
लक्ष्य है।
जीवन
शिक्षा का
लक्ष्य है, मात्र
आजीविका नहीं।
जीवन के ही
लिए आजीविका
का मूल्य है।
आजीविका अपने
आप में तो कोई
अर्थ नहीं
रखती है। पर
साधन ही
अज्ञानवश
अनेक बार
साध्य बन जाते
हैं। ऐसा ही
शिक्षा में भी
हुआ है।
आजीविका
लक्ष्य बन गई
है। जैसे मनुष्य
जीने के लिए न
खाता हो, वरन
खाने के लिए
ही जीता हो।
आज की शिक्षा
पर यदि कोई
विचार करेगा
तो यह निष्कर्ष
अपरिहार्य है।
क्या
मैं कहूं कि
आज की शिक्षा
की इस भूल के
अतिरिक्त और
कोई भूल नहीं
है?
लेकिन यह
भूल बहुत बड़ी
है। यह भूल
वैसी ही है, जैसे कोई
किसी मृत व्यक्ति
के संबंध में
कहे कि इस देह
में और तो सब ठीक
है, केवल
प्राण नहीं
हैं।
हमारी
शिक्षा अभी
ऐसा ही शरीर
है,
जिसमें
प्राण नहीं है,
क्योंकि
आजीविका जीवन
की देह मात्र
ही है।
शिक्षा
तब सप्रमाण
होगी, जब वह
आजीविका ही
नहीं, जीवन
को भी सिखाएगी।
जीवन सिखाने
का अर्थ है, आत्मा को
सिखाना।
मैं
सब कुछ जान
लूं लेकिन यदि
स्वयं की ही
सत्ता से
अपरिचित हूं
तो वह जानना
वस्तुत: जानना
नहीं है। ऐसे ज्ञान
का क्या मूल्य
जिसके
केन्द्र पर
स्व—ज्ञान न
हो?
स्वयं में
अंधेरा हो, सारे जगत
में भरे
प्रकाश का भी
हम क्या
करेंगे?
ज्ञान
का पहला चरण
स्व—ज्ञान की
ही दिशा में
उठना चाहिए
क्योंकि
ज्ञान का अन्तिम
लक्ष्य वही है।
और, व्यक्ति
जिस मात्रा
में स्व—ज्ञान
को जानने लगता
है, उसी
मात्रा में
उसका पशु
विसर्जित
होता है, और
प्रभु की ओर
उसके प्राण
प्रभावित
होते हैं।
आत्मज्ञान की
पूर्णता ही
उसे परमात्मा
में प्रतिष्ठा
देती है।
और, वही
प्रतिष्ठा
आनन्द और अमृत
है। उसे पाकर
ही सार्थकता
और कृतार्थता
है। मनुष्य उस
परम विकास और
पूर्णता के
बीज ही अपने
में लिए हुए
है।
जब
तक वे बीज
विकास को न पा
लें,
तब तक एक
बेचैनी और
प्यास उसे
पीड़ित करेगी
ही। जैसे हम
भूमि में कोई
बीज बोते हैं,
तो जब तक वे
अंकुरित होकर
सूर्य के
प्रकाश को नहीं
पा लेते हैं, तब तक उनके
प्रण गहन
प्रसव—पीड़ा से
गुजरते हैं; वैसे ही
मनुष्य भी
भूमि के
अंधकार में
दबा हुआ एक बीज
है, और जब
तक वह भी
प्रकाश को
उपलब्ध न हो
पावे, तब
तक उसे भी
शांति नहीं है।
और यह अशांति
शुभ ही है, क्योंकि
इससे गुजरकर
ही वह शांति
के लोक में प्रवेश
पाएगा।
शिक्षा
को यह अशांति
तीव्र करनी
चाहिए, और
शांति का
मार्ग और
विज्ञान देना
चाहिए तभी वह
पूर्ण होगी और
एक नये मनुष्य
का और नई मानवता
का जन्म होगा।
हमारा सारा
भविष्य इसी
बात पर निर्भर
है। शिक्षा के
हाथ मे ही
मनुष्य का
भाग्य है।
मनुष्य को यदि
मनुष्य के ही
हाथों बचाना
है तो मनुष्य
का
पुननिर्माण
अत्यन्त —अवश्यक
है। अन्यथा
मनुष्य का पशु
तो मनुष्य को
ही विनष्ट कर
देगा। मनुष्य
की प्रभु में
प्रतिष्ठा ही
एक मात्र बचाव।
'मैं
कौन हूं?'
‘से संकलित क्रांतिसूत्र'
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