दिनांक 9 मई 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
योग—सूत्र—
(कैवल्यपाद)
विशेषदर्शिन
आत्मभावभाबनाविनिवृत्तिः।।25।।
जब
व्यक्ति
विशेष को देख
लेता है, तो
उसकी आत्मभाव
की भावना मिट
जाती है।
तदा
विवेकनिम्नं
कैबल्यप्राग्भारं
चित्तम्।।28।।
तब
विवेक उन्मुख
चित्त कैबल्य
की ओर आकर्षित
हो जाता है।
तच्छिद्रेषु
प्रत्ययान्तरणि
संस्कारेंभ्य:।।
27।।
पूर्व
के संस्कारों के
बल के माध्यम
से विवेक
ज्ञान के
अंतराल में
अन्य
प्रत्ययों, अवधारणाओं
का उदय होता
है। इनका
निराकरण भी
अन्य
मनस्तापों की
भांति किया
जाना चाहिए।
हानमेषां
क्लेशवदुक्तम्।।28।।
उन
प्रत्ययों, अवधारणाओं
से निवृत्त हो
जाना क्लेशों
से निवृत्ति
के समान कहा
गया है।
प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य
सर्वथा
विवेकख्यातेर्धर्ममेघ:
समाधि:।। 129।।
वह
जिसमें समाधि
की सर्वोच्च
अवस्थाओं के
प्रति भी
इच्छारहितता
का सातत्य बना
हुआ है और जो
विवेक के चरम
का प्रवर्तन
करने में
समर्थ है, उस
अवस्था में
प्रविष्ट हो
जाता है जिसे धर्ममेध
समाधि कहा जाता
है।
तत: क्लेशकर्मनिवृत्ति:।।
130।।
तब
क्लेशों एवं
कर्मों से
मुक्ति हो
जाती हैं।
तदा
सर्वावरणमलापेतस्य
ज्ञानस्यानन्त्याज्वेयमल्पम्
।। 131।।
जब
सभी मल रूप आवरण, विकृतियां
और
अशुद्धियां
हट जाती हैं, तब वह सभी
कुछ जो मन से
जाना जा सकता
है, समाधि
से प्राप्त
असीम ज्ञान की
तुलना मे
अत्यल्प हो आता
है।
तत: कृतार्थानां
परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्
।। 132।।
अपने
उद्देश्य को परिपूर्ण
कर लिए जाने के
कारण तीनों गुणों
में परिवर्तन की
प्रक्रिया समाप्त
हो जाती है।
क्षणप्रतियोगीपरिणामापरान्तनिर्ग्राह्म:
क्रम:।। 133।।
कैवल्य
समाधि की अवस्था
है,
जो
पुरुषार्थ से
शून्य हुए
गुणों के अपने
कारण में लीन
होने पर
उपलब्ध होती
है। इस अवस्था
में पुरुष
अपने यथार्थ
स्वरूप में, जो शुद्ध चेतना
है, प्रतिष्ठित
हो जाता है।
समाप्त।
पहला
सूत्र:
विशेषदर्शिन
आत्मभावभावनाविनिवृत्ति:।
'जब व्यक्ति
विशेष को देख
लेता है, तो
उसकी आत्मभाव
की भावना मिट
जाती है।’
बुद्ध
ने चेतना की
परम अवस्था को
अनत्ता—स्व का
न होना, अन—अस्तित्व
कहा है। इसको
समझाना बहुत
कठिन है।
बुद्ध ने कहा :
छोड़ देने के
लिए अंतिम
इच्छा है—होने
की इच्छा'।
लाखों
इच्छाएं होती
हैं। यह सारा
संसार और कुछ
नहीं बल्कि
चाही गई चीजें
हैं, लेकिन
बुनियादी
इच्छा है—होने
की इच्छा।
आधारभूत
इच्छा है अपने
अस्तित्व का
सातत्य बने
रहना, कायम
रहना, बना
रहना। मृत्यु
सबसे बड़ा भय
है; अंत
में छोड़ने
वाली इच्छा है—होने
की इच्छा।
इस
सूत्र में
पतंजलि कहते
हैं : जब
तुम्हारी सजगता
पूर्ण हो गई
है,
जब विवेक, भेद करने की
क्षमता
उपलब्ध कर ली
गई है, जब
तुम साक्षी हो
चुके हो, चाहे
कुछ भी घटित
होता हो
तुम्हारे भीतर
या तुम्हारे
बाहर तुम इसके
शुद्ध साक्षी
हो गए हो।... अब
तुम कर्ता न
रहे, तुम
बस देख रहे हो;
बाहर पक्षी
गीत गा रहे
हैं.. .तुम
देखते हो, भीतर
रक्त
परिसंचरित हो
रहा है.. .तुम
देखते हो; भीतर
विचार चल रहे
हैं.. .तुम
देखते हो—तुम
कहीं भी
तादात्म्य
नहीं करते। तुम
नहीं कहते, मैं शरीर
हूं तुम नहीं
कहते, मैं
मन हूं तुम
कुछ भी नहीं
कहते। तुम
किसी वस्तु से
तादात्म्य
किए बिना बस
देखते चले
जाते हो। तुम—एक
शुद्ध कर्ता
बने रहते हो; तुमको बस एक
ही बात स्मरण
रहती है कि
तुम द्रष्टा
हो, साक्षी
हो—जब यह
साक्षित्व
स्थापित हो
जाता है, तब
होने की इच्छा
मिट जाती है।
और
जिस पल होने
की इच्छा मिट
जाती है, मृत्यु
भी मिट जाती
है। मृत्यु का
अस्तित्व है,
क्योंकि
तुम बने रहना
चाहते हो।
मृत्यु का
अस्तित्व है,
क्योंकि
तुम मरने को
तैयार नहीं हो।
मृत्यु का अस्तित्व
है, क्योंकि
तुम समग्र के
विरोध में
संघर्ष कर रहे
हो। जिस क्षण
तुम मरने को
तैयार हो, मृत्यु
अर्थहीन हो
जाती है, अब
यह संभव नहीं
हो सकती है।
जब तुम मरने
को राजी हो, तो तुम मर
कैसे सकते हो?
मर जाने की,
मिट जाने की
उस तैयारी में
ही मृत्यु की
सारी संभावना
का अतिक्रमण
हो जाता है।
धर्म का
विरोधाभास
यही है।
जीसस
कहते हैं. 'यदि
तुम अपने आप
से आसक्त होने
जा रहे हो, तो
तुम अपने आप
को खो दोगे।
यदि तुम अपने
आप को पाना
चाहते हो, तो
आसक्त मत होओ।’
वे लोग जो
होने का
प्रयास करते
हैं, विनष्ट
हो जाते हैं।
ऐसा नहीं है
कि कोई तुमको
नष्ट करने के
लिए वहां है; होने का
तुम्हारा
प्रयास ही
विनाशक है, क्योंकि जिस
क्षण यह विचार
उठता है, मुझको
बने रहना
चाहिए, तुम
समग्र के
विरोध में जा
रहे हो। यह
ऐसा है जैसे
कि एक लहर
सागर के विरोध
में होने का
प्रयास कर रही
हो। अब यह
प्रयास ही
चिंता और पीडा
निर्मित करने
जा रहा है, और
एक क्षण आएगा
जब लहर को खो
जाना पड़ेगा।
लेकिन अभी, क्योंकि लहर
सागर के
विरुद्ध
संघर्षरत थी,
तो यह खो
जाना मृत्यु
जैसा प्रतीत
होगा। यदि लहर
तैयार थी, और
लहर सजग थी, मैं सागर
हूं और कुछ
नहीं, तो
बने रहने में
क्या सार है? मैं
सदा से थी और
मैं सदा
रहूंगी, क्योंकि
सागर तो सदा
वहां था और
सदैव रहेगा।
मैं लहर की
भांति न रहूं—लहर
वह रूप है जो
मैंने इस समय
लिया हुआ है; रूप मिट
जाएगा, लेकिन
मेरा तत्व
नहीं मिटेगा।
मैं इस लहर की
भांति
अस्तित्व में
न रहूं; मेरा
अस्तित्व
किसी दूसरी
लहर के रूप
में बना रह
सकता है, या
हो सकता है कि
मेरा
अस्तित्व लहर
के रूप में
रहे ही न। मैं
सागर की उन
अतल गहराइयों
में समा सकती
हूं जहां कोई
लहर ही नहीं
उठती है..
.लेकिन अंतर्तम
वास्तविकता
बनी रहेगी, क्योंकि
समग्र तुममें
उतर आया है।
तुम और कुछ
नहीं बल्कि
समग्र हो, समग्र
की एक
अभिव्यक्ति
हो।
एक
बार सजगता
स्थायी हो जाए, पतंजलि
कहते हैं, जब
व्यक्ति ने इस
विभेद को देख
लिया है कि
मैं न यह हूं न
वह, जब
व्यक्ति सजग
हो गया है, और
चाहे जो कुछ
भी हो उसके
साथ उसने
तादात्म्य
नहीं किया है,
तब उसकी
आत्मभाव की, स्व की
भावना मिट
जाती है। तब
अंतिम इच्छा
भी खो जाती है,
और यह अंतिम
इच्छा
तुम्हारी
आधारभूत है।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं, 'तुम
धन, संपदा,
शक्ति, प्रतिष्ठा,
सभी कुछ की
चाहत छोड़ सकते
हो—यह कुछ भी
नहीं है। तुम
संसार की चाहत
छोड़ सकते हो—यह
कुछ भी नहीं
है—क्योंकि ये
सभी द्वितीयक
इच्छाएं हैं।
मूलभूत इच्छा
है, होना।
इसलिए वे लोग
जो संसार छोड़
देते हैं
मुक्ति की
अभिलाषा करना
आरंभ कर देते
हैं, लेकिन
यह मुक्ति भी
उनकी मुक्ति
है। मोक्ष में
वे मुक्त
अवस्था में
रहेंगे। उनकी
इच्छा है कि
वहां पीड़ा को
नहीं होना चाहिए।
वे परम आनंद
में होंगे
लेकिन वे
होंगे। जोर इस
बात पर है कि
उनको वहां
होना चाहिए।
इसी
कारण से बुद्ध
इस देश में
जड़ें नहीं जमा
सके,
जो अपने आप
को बहुत
धार्मिक
समझता है। इस
पृथ्वी पर
जन्मा सबसे
धार्मिक
व्यक्ति इस धार्मिक
देश में जड़ें
नहीं जमा सका।
क्या हो गया? उन्होंने कहा,
उन्होंने
होने की
मूलभूत इच्छा
को छोडने पर जोर
दिया।
उन्होंने कहा
: अन—अस्तित्व
हो जाओ।
उन्होंने कहा।
होओ मत।
उन्होंने कहा.
मुक्ति की
मांग मत करो, क्योंकि यह
स्वतंत्रता
तुम्हारे लिए
नहीं है। यह
स्वतंत्रता
तुमसे मुक्ति
होने जा रही
है, तुम्हारे
लिए नहीं वरन
तुमसे
स्वतंत्रता।
मुक्ति
है तुमसे
मुक्ति।
विभेद को देख
लो. यह
तुम्हारे लिए
नहीं है; मुक्ति
तुम्हारे लिए
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि
मुक्त होकर
तुम रहोगे।
मुक्त होकर
तुम मिट जाओगे।
बुद्ध ने कहा
केवल बंधन का
आस्तित्व है।
यह बात मैं
तुमको समझाता
हूं।
क्या
तुम —कभी
स्वास्थ्य के
संपर्क में आए
हो?
अनेक बार
तुम स्वस्थ
रहे होओगे, किंतु क्या
तुम कह सकते
हो कि
स्वास्थ्य
क्या है? केवल
बीमारी का
अस्तित्व
होता है।
स्वास्थ्य का
अस्तित्व
नहीं है; तुम
नहीं बता सकते
कि स्वास्थ्य
कहां है। यदि
तुमको
सिरदर्द है तब
तुम जान लेते
हो कि यह वहां
है, लेकिन
क्या तुमने
सिरदर्द की
अनुपस्थिति
को कभी जाना
है? वस्तुत:
यदि सिरदर्द न
हो तो सिर खो
जाता है।
तुमको इसकी
अनुभुति नहीं
होती। यदि
तुमको अपने
सिर की
अनुभूति सतत
होती रहती है,
इसका सीधा
अर्थ है कि
भीतर किसी
विशेष प्रकार का
तनाव, एक विशेष
तनावग्रस्तता,
एक दवाब
होना चाहिए।
वहां लगातार
एक विशेष
प्रकार का
सिरदर्द बना रहना
चाहिए। यदि
तुम्हारा
सारा शरीर
स्वस्थ है, तो शरीर का
अनुभव खो जाता
है। तुम भूल
जाते हो कि
शरीर है। झेन
में, जब
ध्यान करने
वाले कई
वर्षों तक
बैठा करते हैं,
बस बैठे
रहते हैं और
कुछ नहीं करते,
फिर एक ऐसा
क्षण आता है
जब वे भूल
जाते हैं कि उनके
पास शरीर भी
है। यह उनकी
पहली सतोरी है।
ऐसा नहीं कि
शरीर नहीं है;
शरीर वहां
है, लेकिन
उसमें कोई
तनाव नहीं है,
तो उसका अनुभव
कैसे हो? यदि
मैं कुछ कहूं
तो तुम मुझको
सुन सकते हो, लेकिन यदि मैं
चुप हूं तब
तुम मुझे कैसे
सुन सकते हो? मौन है—तुमसे
कहने के लिए
बहुत कुछ है—लेकिन
मौन को सुना
नहीं जा सकता।
कभी—कभी जब
तुम कहते हो, हां, मैं
मौन को सुन
सकता हूं तब
तुम किसी शोर
को सुन रहे हो।
हो सकता है कि
यह अंधेरी रात
का शोर हो, लेकिन
फिर भी यह शोर
है। यदि यह
परिपूर्ण मौन
हो तो तुम
इसको सुन न
पाओगे। जब
तुम्हारा
शरीर पूर्णत:
स्वस्थ होता
है, तुम्हें
इसका अनुभव
नहीं होता।
यदि शरीर में
कोई तनाव, कोई
बीमारी, कोई
रोग उठ खड़ा
होता है, तब
तुम शरीर को
सुनना आरंभ कर
देते हो। यदि
सभी कुछ
लयबद्धता में
है और कोई
दर्द, कोई
पीड़ा नहीं है,
तब अचानक
तुम रिक्त हो।
एक ना—कुछपन
तुमको
आच्छादित कर
लेता है।
कैवल्य
परम
स्वास्थ्य है, समग्रता
है, सारे
घाव ठीक हो
जाना है। जब
सभी घाव ठीक
हो गए हैं तो
तुम कैसे बने
रहोगे? तुम्हारा
स्व और कुछ
नहीं बल्कि
तनावों का संचय
है। यह स्व और
कुछ नहीं
बल्कि
बीमारियों, रोगों को
सारी विविधता
है। यह स्व और
कुछ नहीं है, अतृप्त
इच्छाएं, हताश
आशाएं, अपेक्षाएं,
सपने—सभी
टूट हुए, छिन्न—भिन्न।
यह जिसको तुम
स्व कहते हो
और कुछ नहीं
बल्कि संचित
रुग्णता है।
या इसको दूसरे
ढंग सै समझ लो :
जब समस्वरता
के क्षण होते
हैं तब तुम
भूल जाते हो
कि तुम हो।
शायद बाद में
तुम याद कर
पाओ कि यह
कितना सुंदर
क्षण था।
कितना
आह्लादकारी
था यह कितना
आनंददायक था यह
क्षण। लेकिन
वास्तविक
आह्लाद के
क्षणों में, तुम वहां
नहीं होते हो।
तुमसे बड़ी किसी
सत्ता ने तुम
पर आधिपत्य कर
लिया होता है,
तुमसे
श्रेष्ठ किसी
शक्ति ने तुम
पर स्वामित्व
कर लिया होता
है, तुमसे
गहरी कोई चीज
उभर आई है।
तुम खो चुके
हो। प्रेम के
गहरे क्षणों
में, प्रेम
करने वाले
विलीन हो जाते
हैं। मौन के
गहरे क्षणों
में ध्यान
करने वाले मिट
जाते हैं।
गायन, नृत्य,
उत्सव के
गहन क्षणों
में उत्सव
मनाने वाले खो
जाते हैं। और
यह तो अंतिम
उत्सव है, परम
उच्चतम शिखर—कैवल्य
है।
पतंजलि
कहते हैं. 'बने
रहने की इच्छा
वी खो जाती है।
आत्मभाव की
भावना भी मिट
जाती है।’ व्यक्ति
इतना
परितृप्त
होता है, इतना
आत्यंतिक रूप
से परितृप्त
हो जाता है कि
वह होने के बारे
में कभी सोचता
तक नहीं है।
किसलिए
सोचेगा वह?—तुम कल भी
बने रहना
चाहते हो
क्योंकि आज
अतृप्त हो।
आने वाले कल
की आवश्यकता
है; अन्यथा
तुम अतृप्त मर
जाओगे। बीता
हुआ कल एक गहन
हताशा था; आज
भी पुन: एक
हताशा है; आने
वाले कल की
आवश्यकता है।
एक हताश हो
चुका मन
भविष्य
निर्मित करता
है। हताश मन
भविष्य से
चिपक जाता है।
हताश मन बना
रहना चाहता है,
क्योंकि
यदि मृत्यु आ
जाए तो कोई
फूल नहीं खिला
है। अभी तक
कुछ भी नहीं
हो पाया है, वहां केवल
एक व्यर्थ की
प्रतीक्षा
रही है : 'मैं
अभी कैसे मर
सकता हूं? मैं
तो अभी जीया
तक नहीं हूं।
यह अनजिया
जीवन बने रहने
की चाह
उत्पन्न करता
है।
लोग
मृत्यु से
इतना अधिक
भयभीत हैं, ये
वे ही लोग हैं
जो जीए नहीं
हैं। ये वे
लोग हैं जो एक
अर्थ में मरे
ही हुए हैं।
एक व्यक्ति जो
जीया है और
पूरी तरह से
जीया है, मृत्यु
के बारे में
सोच—विचार
नहीं करता।
यदि यह आती है,
अच्छा है, वह स्वागत
करेगा। उसको
भी जीएगा वह, वह उसका भी
उत्सव मना
लेगा। जीवन
ऐसा आशीष, ऐसा
वरदान रहा है
कि वह मृत्यु
को स्वीकार
करने के लिए
तैयार है।
जीवन एक ऐसा
अतिशय अनुभव
रहा है कि
व्यक्ति मृत्यु
के अनुभव के
लिए भी तैयार
है। वह भयभीत
नहीं है, क्योंकि
आने वाले कल
की आवश्यकता न
रही, आज ही
इतना अधिक
तृप्तिदायी
रहा है। वह
खिल गया है, पुष्पित हो
गया है, उसमें
फल आ चुके हैं।
अब आने वाले
कल की इच्छा
खो जाती है।
कल की अभिलाषा
सदैव भय के
कारण होती है,
भय है
क्योंकि
प्रेम अभी तक
घटित ही नहीं
हो पाया है।
सदैव बने रहने
की अभिलाषा बस
यही
प्रदर्शित करती
है कि कहीं
गहरे में तुम
अपने आप को
पूरी तरह से
अर्थहीन
अनुभव कर रहे
हो। तुम किसी
अर्थ की
प्रतीक्षा
में हो। एक
बार वह अर्थ
घटित हो जाए
तुम मरने के
लिए तैयार हो—शांतिपूर्ण
ढंग से, सुंदरता
के साथ, आशीषमय
होकर।
'कैवल्य'
पतंजलि
कहते हैं : 'घटता
है, जब बने
रहने की अंतिम
इच्छा भी खो
जाती है।’ सारी
समस्या यही है
कि बना रहूं
या नहीं। सारे
जीवन भर हम यह
और वह करने का
प्रयास करते रहते
हैं, और वह
परम केवल तभी
घट सकता है जब
तुम नहीं होते
हो।
'जब व्यक्ति
विशेष को देख
लेता है, तो
उसकी आत्मभाव
की भावना मिट
जाती है।’
यह
आत्म— भाव और
कुछ नहीं
बल्कि अहंकार
का सर्वाधिक
परिशुद्ध रूप
है। यह तनाव, दवाब,
खिंचाव का
अंतिम शेषांश
है। अभी भी
तुम पूर्णत:
खुले हुए नहीं
हो, अभी भी
कुछ बंद है।
जब तुम पूरी
तरह से खुले
हुए हो, बस
शिखर पर खड़े
द्रष्टा, साक्षी
हो, तब
अंतिम इच्छा
भी खो जाती है।
इस इच्छा के
खोने से जीवन
में कुछ
नितांत नया घटित
हो जाता है।
एक नया नियम
कार्य करना
आरंभ कर देता
है।
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
बारे में
तुमने सुना होगा; तुमने
प्रसाद के
नियम के बारे
मे नहीं सुना
होगा।
गुरुत्वाकर्षण
का नियम यह है
कि प्रत्येक
वस्तु नीचे की
ओर गिरती है।
प्रसाद का
नियम यह है कि
वस्तुएं ऊपर
की ओर गिरना
आरंभ कर देती
हैं। और यह
नियम होना ही
चाहिए
क्योंकि जीवन
में प्रत्येक
बात को. उसके
विपरीत
द्वारा
संतुलित कर
दिया जाता है।
विज्ञान ने
गुरुत्वाकर्षण
का नियम खोज
लिया : बाग में
बेंच पर बैठे
न्यूटन ने एक
सेब गिरते हुए
देखा—यह हुआ
हो या नहीं; यह बात नहीं
हैं—लेकिन यह
देख कर कि सेब
नीचे गिर रहा
था, उसके
भीतर एक विचार
उठा : वस्तुएं
सदा नीचे की ओर
ही क्यों गिरा
करती हैं? और
कुछ क्यों
नहीं होता? पका हुआ फल
ऊपर की ओर
क्यों नहीं
उछल जाता और आकाश
में क्यों
नहीं खो जाता
है? इधर—उधर
क्यों नहीं
चला जाता? सदैव
नीचे की ओर ही
क्यों? उसने
मनन और चिंतन
आरंभ कर दिया,
और तब उसने
एक नियम की
खोज की। वह एक
बहुत आधारभूत
नियम पर पहुंच
गया : यह कि
पृथ्वी
वस्तुओं को अपनी
ओर खींच रही
है। इसका एक
गुरुत्वाकर्षण
क्षेत्र है।
चुंबक की
भांति यह
प्रत्येक
वस्तु को नीचे
की ओर खींचती
है।
पतंजलि, बुद्ध,
कृष्ण, क्राइस्ट—वे
भी एक भिन्न
आधारभूत नियम,
गुरुत्वाकर्षण
से उच्चतर
नियम के प्रति
सजग हो गए।
उनको ज्ञात
हुआ कि चेतना
के भीतरी जीवन
में एक ऐसा
क्षण आता है
जब चेतना ऊपर
की ओर उठना
आरंभ कर देती
है—ठीक
गुरुत्वाकर्षण
की भांति। यदि
सेब वृक्ष पर
लटक रहा हो तो
यह गिरता नहीं
है। इसके नीचे
न गिरने में
वृक्ष इसकी
सहायता करता
है। जब फल
वृक्ष को छोड़
देता है, तो
यह नीचे गिर
पड़ता है।
बिलकुल
यही बात है :
यदि तुम अपने
शरीर से आसक्त
हो रहे हो तब
तुम ऊपर की ओर
नहीं गिरोगे; यदि
तुम अपने मन
से आसक्त हो
रहे हो तब तुम
ऊपर की ओर
नहीं गिरोगे।
यदि तुम
आत्मभाव की
भावना से
आसक्त हो तो
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव में
रहोगे—क्योंकि
शरीर
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव क्षेत्र
में है, और
मन भी। मन
सूक्ष्म शरीर
है; शरीर
स्थूल मन है।
ये दोनों
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव में
हैं। और
क्योंकि तुम
उनसे आसक्त हो
तो तुम
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव में
नहीं हो, बल्कि
तुम किसी ऐसी
वस्तु से
आसक्त हो जो
गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव
क्षेत्र में है।
यह इस प्रकार
से है जैसे कि
तुम एक बड़ी
चट्टान उठाए
हुए हो और नदी
में तैरने का
प्रयास कर रहे
हो, वह
चट्टान तुमको
नीचे खींच
लेगी, यह
तुमको तैरने
नहीं देगी।
यदि तुम
चट्टान को छोड़
दो तब तुम
सरलता से तैर पाओगे।
हम
किसी ऐसी चीज
से आसक्त हो
रहे हैं : शरीर, मन,
जो
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
आधीन कार्य कर
रहा है।
पतंजलि कहते
हैं एक बार
तुम जान गए कि
तुम न देह हो
और न ही मन, अचानक
तुम ऊपर की ओर
उठने लगते हो।
आकाश में कहीं
ऊंचाई पर
स्थित कोई
तुमको ऊपर
खींच लेता है,
इस नियम को 'प्रसाद' कहते
हैं। तब
परमात्मा
तुमको ऊपर की
ओर खींच लेता
है। और इस
प्रकार का
नियम होना ही
चाहिए, अन्यथा
'गुरुत्वाकर्षण'
का
अस्तित्व
नहीं हो सकता।
प्रकृति में
यदि धनात्मक
विद्युत का
अस्तित्व है,
तब ऋणात्मक
विद्युत का भी
अस्तित्व
होना चाहिए।
पुरुष का
अस्तित्व है,
तब स्त्री
का अस्तित्व
भी होना चाहिए।
तर्क का
अस्तित्व है,
तब भाव का
भी अस्तित्व
होना चाहिए।
रात्रि का
अस्तित्व है,
तब दिन का
अस्तित्व भी
होना चाहिए।
जीवन का
अस्तित्व है,
तब मृत्यु
का भी
अस्तित्व
होना चाहिए।
प्रत्येक
वस्तु को इसे
संतुलित करने
के लिए विपरीत
की आवश्यकता
होती है। अब
विज्ञान एक
नियम को जान
चुका है :
गुरुत्वाकर्षण।
वितान को अभी
भी
गुरुत्वाकर्षण
बल का एक और आयाम—ऊपर
की ओर गिरने
का आयाम—देने
के लिए एक
पतंजलि की
आवश्यता है।
तभी जीवन
पूर्ण हो जाता
है।
तुम
'गुरुत्वाकर्षण'
और 'प्रसाद'
का मिलन
स्थल हो।
तुम्हारे
भीतर प्रसाद
और
गुरुत्वाकर्षण
एक— दूसरे को
काट रहे हैं।
तुम अपने भीतर
पृथ्वी का कुछ
लिए हो और कुछ
आकाश का। तुम
वह क्षितिज हो
जहां पृथ्वी
और आकाश मिल रहे
हैं। यदि तुम
पृथ्वी को
बहुत अधिक पकड़
लेते हो, तो
तुम पूरी तरह
से भूल जाओगे
कि तुम आकाश
से, अनंत ' अंतरिक्ष से,
उस पार से
संबंधित हो।
एक बार तुम
अपने पार्थिव
भाग की पकड़
छोड़ दो, अचानक
तुम ऊपर उठने
लगते हो।
'जब व्यक्ति
विशेष को देख
लेता है, तो
उसकी आत्मभाव
की भावना मिट
जाती है।’
तदा
विवेकनिम्न
कैवल्यप्राग्भारं
चित्तम्।
'तब विवेक
उन्मुख चित्त
कैवल्य की ओर
आकर्षित हो
जाता है।’
एक
नया
गुरुत्वाकर्षण
कार्य करना
आरंभ कर देता
है। मुक्ति और
कुछ नहीं
बल्कि प्रसाद
के प्रवाह में
प्रविष्ट हो
जाना है। तुम
अपने आप को
मुक्त नहीं कर
सकते, तुम
केवल अवरोधों
का त्याग कर
सकते हो; मुक्ति
तुमको घटित
होती है। क्या
तुमने चुंबक
को देखा है? लोहे के
छोटे—छोटे
टुकडे इसकी ओर
खिंच जाते हैं।
तुमको दिखाई
पड़ सकता है कि
वे छोटे— छोटे
.लोहे के
टुकड़े चुंबक
की ओर दौड़ रहे
हैं, लेकिन
अपनी आंखों से
धोखा मत खाओ।
वास्तव में वे
दौड़ नहीं रहे
हैं, चुंबक
उनको खींच रहा
है। सतह पर
ऐसा प्रतीत
होता है कि
लोहे के छोट—छोटे
टुकडे चल रहे
है, चुंबक
की ओर जा रहे
हैं। लेकिन
ऐसा केवल सतह
पर है। गहराई
में कुछ ठीक
विपरीत घटित
हो रहा है, वे
चुंबक की ओर
नहीं जा रहे
हैं, चुंबक
उनको अपनी ओर
खींच रहा है।
वास्तव में यह
चुंबक है जो
उन तक पहुंचा
है। चुंबकीय
क्षेत्र के
साथ इसने उनसे
संपर्क किया
है, उनको
स्पर्श किया
है, उनको
खींच लिया है।
यदि लोहे के
ये छोटे—छोटे कण
मुक्त हैं, किसी से
बंधे हुए नही
हैं—चट्टान
में फंसे हुए
नहीं हैं—तभी
चुंबक उनको
खींच सकता है।
यदि वे किसी
चट्टान में
फंसे हुए हों,
तो चुंबक
उनको खींचता
चला जाएगा, लेकिन वे
खिंच न पाएंगे,
क्योंकि वे
फंसे हुए हैं।
ठीक—ठीक
यही घटित होता
है,
एक बार
तुमको विवेक
द्वारा बोध हो
जाए कि तुम शरीर
नहीं हो, तो
तुम चट्टान से
अब नहीं बंधे
रह सकते, अब
तुम पृथ्वी के
साथ बंधन में
नहीं हो।
तुरंत ही
परमात्मा का
चुंबक कार्य
करना आरंभ कर
देता है। ऐसा
नहीं है कि
तुम परमात्मा
तक पहुंचते हो।
वास्तव में
परमात्मा तुम
तक पहले ही
पहुंच चुका है।
तुम उसके
चुंबकीय
क्षेत्र में
हो, किंतु
किसी से आसक्त
हो। इस आसक्ति
को त्याग दो
और तुम धारा
में हो। बुद्ध
एक शब्द
प्रयोग किया
करते थे.
स्रोतापन्न, धारा में
प्रविष्ट हो
जाना। वे कहा
करते थे, एक
बार तुम धारा
में प्रविष्ट
हो जाओ, फिर
वह धारा तुमको
महासागर में
ले जाती है।
तब तुमको कुछ
करने की
आवश्यकता
नहीं है। एक
मात्र बात है,
धारा में
कूद पड़ना। तुम
किनारे पर
बैठे 'हुए
हो। धारा में
प्रविष्ट हो
जाओ और तब
धारा शेष कार्य
कर लेगी। यह
इस प्रकार से
है कि तुम एक
ऊंचे भवन पर
खड़े हो, एक
ऊंचे भवन की
छत पर खड़े हो, पृथ्वी से
तीन सौ फीट या
पांच सौ फीट 'ऊपर। तुम
खड़े रहते हो, गुरुत्वाकर्षण
तुम तक पहुँच
गया है, लेकिन
यह उस समय काम
नहीं करेगा जब
तक तुग्र छलाग
न लगाओ। एक
बार तुम कूद
जाओ, फिर
तुमको कुछ
करने की
आवश्यकता
नहीं है। बस
छत से एक कदम
आगे बढ़ाओ.. .बस
पर्याप्त है;
तुम्हारा
कार्य समाप्त
हो गया। अब
गुरुत्वाकर्षण
सारा कार्य कर
लेगा। तुमको
पूछने की
आवश्यकता
नहीं है, अब
मुझको क्या
करना चाहिए? तुमने पहला
कदम उठा लिया
है। पहला कदम
ही अंतिम कदम
है।
कृष्णमूर्ति
ने एक पुस्तक
लिखी है.
प्रथम और अंतिम
मुक्ति। इसका
अभिप्राय है :
पहला कदम ही
आखिरी कदम है—क्योंकि
एक बार तुम
धारा में आ
जाओ, फिर
शेष सभी कुछ
धारा के
द्वारा कर
लिया जाएगा।
तुम्हारी
आवश्यकता
नहीं है। केवल
पहले कदम के
लिए तुम्हारे
साहस की आवश्यकता
पड़ती है।
'तब विवेक
उन्मुख चित्त
कैवल्य की ओर
आकर्षित हो
जाता है।’
तुम
धीरे— धीरे
ऊपर की ओर
उठने लगते हो।
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा
ऊपर ही ओर, उर्ध्व
दिशा में
गतिमान होना
आरंभ हो जाती
है। और जब ऐसा
घटित होता है
तो यह
अविश्वसनीय
है, क्योंकि
तुमने अभी तक
जितने भी नियम
जाने हैं यह
उन सभी के
विरोध में है।
यह
गुरुत्वाकर्षण
नहीं, ऊर्ध्वाकर्षण
है। तुम्हारे
भीतर कुछ, बस
ऊपर की ओर
जाना आरंभ कर
देता है, और
इसमें कोई
अवरोध नहीं है।
इसके रास्ते
में कोई बाधा
नहीं देता। बस
थोड़ी सी
विश्रांति, थोड़ी सी
अनासक्ति—पहला
कदम और फिर
स्वत:
सहजतापूर्वक
तुम्हारी चेतना
और—और
विवेकपूर्ण
और— और सजग हो
जाती है।
मैं
तुमसे एक और
बात कहना
चाहता हूं
तुमने यह शब्द, यह
कथन : 'दुष्चक्र'
सुना होगा।
हम एक नया
शब्द गढ़ते
हैं : पवित्र चक्र।
दुष्चक्र
में, एक
बुरी बात किसी
और बुरी बात
पर ले जाती है।
उदाहरण के लिए,
यदि तुम
क्रोधित हो
जाते हो, तो
एक क्रोध
तुमको और अधिक
क्रोध में ले
जाता है, और
निःसंदेह
अधिक क्रोध
तुमको और अधिक
क्रोध में ले
जाएगा। अब तुम
एक दुष्चक्र
में हो।
प्रत्येक
क्रोध
तुम्हारी
क्रोध की
प्रवृत्ति को
और सशक्त
बनाएगा तथा और
क्रोध
निर्मित करेगा,
तथा यह और
क्रोध इस आदत
को और भी सबल
बना देगा और
यह जारी रहेगा।
तुम एक दुष्च्रक
में घूमते हो,
यह सबल और
सशक्त और
बलवान होता
चला जाता है।
चलो
हम एक नया शब्द
प्रयोग करते
हैं : पवित्र
चक्र। यदि तुम
सजग हो जाते
हो,
जिसको
पतंजलि विवेक,
बोध कहते
हैं; यदि
तुम सजग हो
जाते हो, तो
वैराग्य।
विवेक से
वैराग्य
निर्मित होता
है। यदि तुम
सजग हो जाते
हो, तो
अचानक तुम
देखते हो कि
अब तुम शरीर न
रहे। ऐसा नहीं
है कि तुमने
देह को त्याग
दिया है, तुम्हारी
सजगता से ही
शरीर से
आसक्ति का
त्याग हो जाता
है। यदि तुम
सजग हो जाते
हो तो तुमको
बोध हो जाता है
कि ये विचार
तुम नहीं हो।
उस सजगता में
ही उन विचारों
का त्याग हो
जाता है।
तुमने उनको
छोड़ना आरंभ कर
दिया है। तुम
उनको और अधिक
ऊर्जा नहीं
देते हो; तुम
उनके साथ
सहयोग नहीं
करते।
तुम्हारा
सहयोग समाप्त
हो चुका है, और वे
तुम्हारी
ऊर्जा के बिना
जी नहीं सकते।
वे तुम्हारी
ऊर्जा पर जीते
हैं, वे
तुम्हारा
शोषण करते हैं।
उनके पास अपनी
स्वयं की
ऊर्जा नहीं है।
प्रत्येक
विचार जो
तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट होता
है तुम्हारी
ऊर्जा में
भागीदारी
करता है। और
क्योंकि तुम
अपनी ऊर्जा
देने को तैयार
हो, यह
वहां रहता है,
यह अपना घर
वहीं बना लेता
है।
निःसंदेह, फिर
उसके बच्चे
आते हैं, और
मित्र, और
संबंधी, और
यह चलता चला
जाता है। एक
बार तुम थोडा
सा सजग हो जाओ,
विवेक
वैराग्य ले
आता है, सजगता
त्याग लेकर
आती है। और त्याग
तुमको और सजग
होने में
समर्थ बना देता
है। और
निःसंदेह, और
सजगता और
वैराग्य और
त्याग लेकर
आती है, और
इसी प्रकार यह
श्रृंखला
चलती चली जाती
है।
यही
है जिसको मैं
पवित्र चक्र
कहता हूं : एक
पवित्रता
दूसरी की ओर
ले जाती है, और
प्रत्येक
पवित्रता पुन:
और अधिक
पवित्रता के
उदय के लिए
आधार प्रदान
करती है।
पतंजलि
कहते हैं : यह
अंतिम क्षण तक
जारी रहता है, जिसे
वे धर्ममेघ
समाधि कहते
हैं। इस पर हम
लोग बाद में
चर्चा करेंगे।
वे इसे 'तुम
पर बरसता हुआ
पवित्रता का
बादल' कहते
हैं। यह
पवित्र चक्र
वैराग्य की ओर
ले जाता हुआ
विवेक, और
अधिक विवेक की
ओर ले जाता
वैसल, पुन:
वैराग्य की और
संभावनाएं
उत्पन्न
कुरता हुआ
विवेक, और
इसी भांति यह
और— और आगे
बढ़ता चला जाता
है—पहुंच जाता
है उस परम
शिखर पर जब
पवित्रता का बादल
तुम पर बरसता
है : धर्ममेघ समाधि।
'पूर्व के
संस्कारों के
बल के माध्यम
से विवेक ज्ञान
के अंतराल में
अन्य
प्रत्ययों, अवधारणाओं
का उदय होता
है।’
फिर
भी,
यद्यपि
वहां अनेक
अंतराल होंगे।
इसलिए
हतोत्साहित
मत हो जाओ।
भले ही तुम
बहुत सजग हो
चुके हो और
किन्ही क्षणों
मे तुम अचानक
एक खिंचाव, प्रसाद का
ऊर्ध्वमुखी
खिंचाव अनुभव
करते हो, और
किन्ही
क्षणों में
तुम धारा में
होते हो; पूरे
सौंदर्य के
साथ, बिना
प्रयास के, प्रयास
शून्यता में
बहते हुए होते
हो, और सभी
कुछ सहजता से
चल रहा है, गतिमान
है, फिर भी
वहां कुछ
अंतराल होते
हैं। अचानक तुम
स्वयं को, बस
पुरानी आदतों
के कारण, किनारे
पर खड़ा हुआ
पाते हो। अनेक
जन्मों से तुम
किनारे पर
जीते रहे हो।
पुरानी आदत के
कारण बार—बार
अतीत तुम पर
हावी ही जाएगा।
इससे
हतोत्साहित
मत हो जाना।
जिस क्षण तुम
देखते हो कि
तुम फिर से
किनारे पर आ
गए हो, पुन:
धारा में उतर
जाओ। इसके
बारे में उदास
मत होओ, क्योंकि
यदि तुम उदास
हो जाते हो तो
तुम पुन: दुष्चक्र
में फंस जाओगे।
इसके बारे में
उदास मत हो
जाओ। अनेक बार
खोजी बहुत
निकट पहुंच
जाता है, आर
अनेक बार वह
पथ से च्युत
हो जाता है।
चिंता करने की
कोई आवश्यकता
नहीं है, पुन:
सजगता को ले
आओ। अनेक बार
यही होने जा
रहा है; स्वाभाविक
है यह। लाखों जन्मों
से हम बेहोशी
में जीते रहे
हैं—यह
स्वाभाविक ही
है कि अनेक
बार पुरानी
आदत कार्य
करना आरंभ कर
देगी। मैं
तुमको कुछ
कहानियां
सुनाता हूं।
एक
बड़े होटल के
स्वागत—कक्ष
में अपनी सचिव
के साथ पहुंचे
हुए बॉस ने
बडे आत्म—विश्वास
से श्रीमती
एवं श्रीमान
का भांति हस्ताक्षर
कर दिए।
डबल
बेड या दो अलग
बेड वाला कमरा? क्लर्क
ने जानना चाहा।
वह अपनी सचिव
की ओर मुड़ा और
यूं ही पूछा, क्या डबल
बेड उचित
रहेगा प्रिये?
यस
सर,
उसने उत्तर
दिया।
यस
सर,
पत्नी पति से
कह रही है।—लेकिन
बस सचिव होने
की पुरानी, लगातार यस
सर, यस सर, यस सर कहने
की आदत। आदतें
बहुत गहराई तक
पहुंच जाती
हैं, और वे
तुम पर इस
भांति कब्जा
कर लेती हैं
कि जब तक तुम
बहुत, बहुत
ही होशपूर्ण न
हो तुम इस बात
को पकड़ भी न पाओगे।
ऐसा
हुआ,
एक
अध्यापिका ने क्रोधित
होकर स्थानीय
पुलिस चौकी
में यह शिकायत
करने के लिए
फोन किया कि कुछ
शरारती
युवाओं ने
उसके दरवाजे
पर चाक से अंग्रेजी
में गालिया
लिख दी हैं।
और मेरे लिए
दुख की बात तो
यह है कि उसने
बात समाप्त
करते हुए कहा,
उन्होंने
उनकी
स्पेलिंग भी
गलत लिखी है।
अध्यापिका
बस एक
अध्यापिका है।
वह गालियों की
शिकायत कर रही
है,
लेकिन
मूलभूत
शिकायत यह है
कि उन लोगों
ने उनकी
स्पेलिंग तक
गलत लिख रखी
है। लगातार
बच्चों की
कापियों में
स्पेलिंग ठीक करते
रहना उसकी आदत
है...
'पूर्व
संस्कारों के
बल के माध्यम
से विवेक ज्ञान
के अंतराल में,
अन्य
प्रत्ययों
अवधारणाओं का
उदय होता है।’
अनेक
बार तुम वापस
खींच लिए
जाओगे, बार—बार,
बार—बार ऐसा
होगा। संघर्ष
कठिन है, लेकिन
असंभव नहीं है।
यह कठिन है, यह बहुत
मुश्किल है, लेकिन उदास
मत हो जाओ, और
हतोत्साहित
मत हो जाओ। जब कभी
भी तुम पुन:
स्मरण करो, तो जो हो
चुका है उसके
बारे में
चिंता मत करो।
अपनी सजगता को
पुन: स्थापित
हो जाने दो, यही है सब
कुछ। अपनी
सजगता को बार—बार
और बार—बार
स्थापित करते
रहना
तुम्हारे
अस्तित्व पर
एक नया प्रभाव,
पवित्रता
की एक नई छाप
निर्मित कर
देगा। एक दिन
यह उतनी ही
स्वाभाविक हो
जाएगी जितनी
तुम्हारी
दूसरी आदतें
हैं।
'वह
जिसमें समाधि
की सर्वोच्च
अवस्थाओं के
प्रति भी
इच्छारहितता
का सातत्य बना
हुआ है और जो
विवेक के चरम
का प्रवर्तन
करने में
समर्थ है, उस
अवस्था में
प्रविष्ट हो
जाता है जिसे
धर्ममेघ
समाधि कहा जाता
है।’
'वह
जिसमें समाधि
की सर्वोच्च
अवस्थाओं के
प्रति भी इच्छारहितता
का सातत्य बना
हुआ है...... पतंजलि
इसको
परावैराग्य.
परम त्याग
कहते हैं।
तुमने संसार
का त्याग कर
दिया है, तुमने
लोभ का त्यपा
कर दिया है, तुमने धन का
त्याग कर दिया
है, तुमने
शक्ति का
त्याग कर दिया
है, तुमने
अपने मन का भी
त्याग कर दिया
है, लेकिन
अंतिम त्याग
स्वयं मोक्ष
का है, स्वयं
कैवल्य का है,
स्वयं
निर्वाण का है।
अब 'यम
मुक्ति के
खयाल तक को
छोड़ देते हो, क्योंकि वह
भी एक इच्छा
है। और इच्छा,
चाहे उसकी
विषय— वस्तु
कुछ भी हो, एक
जैसी होती है।
तुम धन की
इच्छा करते हो,
मैं मोक्ष
की इच्छा करता
हूं।
निःसंदेह
मेरा
उद्देश्य
तुम्हारे
उद्देश्य से
श्रेष्ठ है, लेकिन फिर
भी मेरी इच्छा
वैसी ही है
जैसी कि तुम्हारी
इच्छा है।
इच्छा कहती है,
जैसा मैं
हूं वैसा ही
मैं परितृप्त
नहीं हूं। और
धन की
आवश्यकता है;
फिर मैं
परितृप्त हो
जाऊंगा।
इच्छा का गुण
वही है, इच्छा
की समस्या वही
है। समस्या यह
है कि भविष्य
की आवश्यकता
होती है: जैसा
मैं हूं यह
पर्याप्त
नहीं है; किसी
और की
आवश्यकता है।
जो कुछ भी हो
चुका है मुझे
पर्याप्त
नहीं है। अभी
मुझे कुछ और
भी घटित होना
चाहिए, केवल
तभी मैं
प्रसन्न हो
सकता हूं।
इच्छा की
प्रकृति यही
है तुमको और
धन की आवश्यकता
है, किसी
को बडे मकान
की आवश्यकता
है, कोई और
अधिक शक्ति, राजसत्ता के
बारे में
सोचता है, कोई
उत्तम पत्नी
या उत्तम पति
के बारे में सोचता
है, कोई
अधिक शिक्षा,
अधिक ज्ञान—
के बारे में सोचता
है, कोई और
अधिक
चमत्कारी
शक्तियों के
बारे में सोचता
है, किंतु
इससे कोई —अंतर
नहीं पड़ता है।
इच्छा तो
इच्छा है, और
आवश्यकता
इच्छारहितता
की है।
अब
विरोधाभास को
देखो, यदि तुम
पूरी तरह से
इच्छा—शून्य
हो और परम
इच्छारहितता
में हो, इसमें
मोक्ष की
इच्छा सम्मिलित
है—तब एक क्षण
आता है जब तुम
मोक्ष की भी
इच्छा नहीं
करते, तुम
परमात्मा की
भी इच्छा नहीं
करते। तुम बस
इच्छा ही नहीं
करते, तुम
हो और कोई
इच्छा नहीं है।
यह
इच्छारहितता
की अवस्था है।
मोक्ष इस
अवस्था में
घटित होता है।
मोक्ष की, जैसी
कि इसकी
प्रकृति है, इच्छा नहीं
की जा सकती, क्योंकि यह
केवल इच्छा—शून्यता
में आता है।
मोक्ष को चाहा
नहीं जा सकता।
यह कोई लक्ष्य
नहीं बन सकता,
क्योंकि यह
केवल तभी घटित
होता है जब
सारे लक्ष्य
खो चुके होते
हैं। तुम
परमात्मा को
अपनी इच्छा का
विषय नहीं बना
सकते हो, क्योंकि
इच्छा करता
हुआ मन
परमात्मा—विहीन
रहता है।
इच्छा करता
हुआ मन
अपवित्र रहता
है, इच्छा
करता हुआ मन
सांसारिक बना
रहता है। जब
कोई भी इच्छा
नहीं होती, परमात्मा तक
की इच्छा नहीं
होती, अचानक
तुम पाते हो
क़ि वह सदा से
वहां है।
तुम्हारी आंखें
खुलती हैं और
तुम उसको
पहचान लेते हो।
इच्छाएं
अवरोधों की
भांति कार्य
करती हैं। और
अंतिम इच्छा, सर्वाधिक
सूक्ष्म
इच्छा है
मुक्त हो जाने
की इच्छा, इच्छारहित
हो जाने की
इच्छा अंतिम
सूक्ष्म इच्छा
होती है।
'वह
जिसमें समाधि
की सर्वोच्च
अवस्थाओं के.
प्रति भी
इच्छारहितता
का सातत्य बना
हुआ है, और जो
विवेक के चरम
का प्रवर्तन
करने में समर्थ
है.......'
निःसंदेह
विवेक के चरम
की आवश्यकता
पड़ेगी। तुमको
जागरूक होना
पडेगा—इतना
अधिक जागरूक
कि सारे संताप
से मुक्त हो जाने
की,
सारे बंधन
से मुक्त हो
जाने की जो
बहुत, बहुत
गहरी इच्छा है—यह
इच्छा तक नहीं
उठती है।
तुम्हारी
सजगता इतनी
पूर्ण है कि
तुम्हारे अस्तित्व
का कोई छोटा
सा कोना तक
अंधकार में नहीं
रहता। तुम
प्रकाश से भरे
हुए हो, सजगता
से प्रदीप्त
हो। यही कारण
है कि जब भी
बुद्ध से बार—बार
पूछा गया, जो
व्यक्ति संबुद्ध
हो जाता है
उसे क्या हो
जाता है? वे
चुप रहते हैं।
वे कभी उत्तर
नहीं देते हैं।
बार—बार उनसे
पूछा जाता है,
आप उत्तर
क्यों नहीं
देते गुम वे
कहते हैं, यदि
मैं उत्तर
देता हूं तो
तुम उसके लिए
इच्छा
निर्मित कर
लोगे और वह
इच्छा एक
अवरोध बन जाएगी।
मुझको चुप
रहने दो।
मुझको मौन ही
रहने दो, जिससे
मैं तुमको इच्छा
करने के लिए
नया विषय न दे
दूं। यदि मैं
कहूं यह
सच्चिदानंद
है, यह
सत्य है, यह
चैतन्य है, यह आनंद है, तो अचानक
तुम्हारे
भीतर एक इच्छा
उठ खड़ी होगी।
यदि मैं
परमात्मा में
लीन होने की
आह्लादकारी
अवस्था के
बारे में बात
करूं, अचानक
तुम्हारा लोभ
इसको पकड़ लेता
है। अचानक
तुम्हारे
भीतर एक इच्छा
उठने लगती है।
तुम्हारा मन
कहने लगता है,
हां, तुमको
इसकी खोज करना
चाहिए, तुमको
इसे पाना
पड़ेगा, इसका
अन्वेषण किया
जाना चाहिए।
चाहे कुछ भी
मूल्य चुकाना
पड़े तुमको
आनंदित हो ही
जाना है।
बुद्ध कहते
हैं, मैं
इसके बारे में
कुछ न कहूंगा,
क्योंकि
मैं जो कुछ भी
कहता हूं
तुम्हारा मन इस
पर कूद पड़ेगा
और इसमें से
एक इच्छा बना
लेगा, और
यह कारण बन
जाएगी, और
तुम कभी इसे
उपलब्ध नहीं
कर पाओगे।
बुद्ध
ने इस पर जोर
दिया कि कोई
मोक्ष नहीं है।
उन्होंने बल
देकर कहा कि
जब व्यक्ति
जाग जाता है
तो वह बस मिट
जाता है। वह
इसी प्रकार से
मिट जाता है
जैसे कि तुम
एक दीये पर
फूंक मारते हो
और प्रकाश मिट
जाता है। इस
शब्द 'निर्वाण'
का बस यही
अर्थ है : दीये
को फूंक मार
कर बुझा देना।
फिर तुम नहीं
पूछते कि
ज्योति कहां
चली गई, ज्योति
को क्या हो
गया है—यह बस
खो जाती है, तिरोहित हो
जाती है।
बुद्ध ने जोर
दिया कि कुछ
भी शेष नहीं
रहता; जब
तुम संबुद्ध
हो जाते हो तो
सभी कुछ खो
जाता है जैसे
कि दीये की लौ
बुझा दी गई हो।
क्यों? —यह
कथन बहुत
नकारात्मक
प्रतीत होता
है, लेकिन
वे तुम्हें
इच्छा के लिए
कोई विषय
वस्तु देना
नहीं चाहते।
फिर लोगों ने
पूछना आरंभ कर
दिया, फिर
हम ऐसी अवस्था
के लिए प्रयास
ही क्यों करें?
तब तो संसार
में रहना ही
बेहतर है। कम
से कम हम हैं
तो; पीड़ा
में हैं—लेकिन
कम से कम हैं
तो; संताप
में हैं—लेकिन
हम हैं। और
आपकी ना—कुछपन
की अवस्था हमारे
लिए कोई
आकर्षण नहीं
रखती है।
भारत
में बौद्ध
धर्म मिट गया; चीन
में, बर्मा
में, श्री
लंका में, जापान
में यह पुन:
प्रकट हुआ।
लेकिन यह अपनी
शुद्धता मे
पुन: कभी
प्रकट नहीं
हुआ, क्योंकि
बौद्धों ने एक
पाठ सीख लिया
कि व्यक्ति
इच्छा के
माध्यम से
जीता है। यदि
वे जोर दें कि
संबोधि के परे
कुछ भी नहीं
है और सभी कुछ
मिट जाता है, तो लोग उनका
अनुगमन नहीं
करने वाले हैं।
फिर प्रत्येक
चीज वैसी ही
रहेगी जैसी थी,
केवल उनका
धर्म खो जाएगा।
अत: उन्होंने
एक चालाकी सीख
ली। और जापान
में, चीन
में, श्री
लंका में
उन्होंने भी
संबोधि के बाद
की मोहक
अवस्थायों के
बारे में बात
करना आरंभ कर
दिया।
उन्होंने
बुद्ध के साथ
छल किया।
शुद्धता खो दी
गई तभी धर्म
प्रसारित हो
गया। बौद्ध
धर्म संसार के
महान धर्मों
में से एक बन
गया।
उन्होंने
मानव मन की
राजनीति को
सीख लिया।
उन्होंने
तुम्हारी
इच्छा को पूरा
कर दिया।
उन्होंने कहा,
हां, वहां
आत्यंतिक
सौंदर्य के
देश हैं, बुद्ध—देश
हैं, स्वर्ग—तुल्य
देश हैं जहां
शाश्वत आनंद
की वर्षा होती
है। उन्होंने
विधायक भाषा
में बोलना
आरंभ कर दिया।
फिर लोगों का
लोभ जाग गया, इच्छा उठ
खड़ी हुई।
लोगों ने
बौद्ध धर्म का
अनुगमन करना
आरंभ कर दिया,
लेकिन
बौद्ध धर्म ने
अपना सौंदर्य
खो दिया। इसका
सौंदर्य इसका
इसी बात पर बल
देने से था कि
यह तुम्हें
इच्छा करने के
लिए कोई विषय—वस्तु
नहीं देता था।
पतंजलि
ने परम सत्य
के बारे में
जो भी श्रेष्ठतम
कहा जाना संभव
था वह लिख
दिया है, लेकिन
उनके चारों ओर
कोई धर्म नहीं
खड़ा हुआ, उनके
चारों ओर कोई
स्थापित चर्च
नहीं बना है।
इतना महान
शिक्षक, इतना
महान सदगुरु,
वास्तव में
अनुयायियों
के बिना रहा
है। एक मंदिर
तक उनको
समर्पित नहीं
किया गया है।
क्या हो गया? उनके योग—सूत्र
पढ़े जाते हैं,
उन पर
टीकाएं लिखी
जाती हैं, लेकिन
ईसाइयत, बौद्ध
धर्म, जैन
धर्म, हिंदू
धर्म, इस्लाम
जैसा कुछ भी
पतंजलि के साथ
अस्तित्व नहीं
रखता है।
क्यों? क्योंकि
वे तुमको कोई
आशा नहीं देते
हैं। वे
तुम्हारी
इच्छा के लिए
कोई सहायता
नहीं देंगे।
'वह
जिसमें समाधि
की सर्वोच्च
अवस्थाओं के
प्रति भी इच्छारहितता
का सातत्य बना
हुआ है, और
जो विवेक के
चरम का
प्रवर्तन
करने में समर्थ
है, उस
अवस्था में
प्रविष्ट हो
जाता है जिसे
धर्ममेघ
समाधि कहा
जाता है।’
धर्ममेघ
समाधि, इस
शब्द का समझ
लेना चाहिए।
बहुत जटिल है
यह। और पतंजलि
पर बहुत अधिक
टीकाएं लिखी
जा चुकी हैं, लेकिन ऐसा
प्रतीत होता
है कि वे असली
बात से चूकते
रहे हैं।
धर्ममेघ
समाधि
का अर्थ है : एक
ऐसा क्षण आता
है जब प्रत्येक
इच्छा मिट
चुकी है। जब
स्व तक की चाह
नहीं बचती, जब
मृत्यु का भय
नहीं रहता, तब तुम्हारे
ऊपर पवित्रता
की बरसात होती
है—जैसे कि एक
बादल
तुम्हारे सिर
के चारों ओर
उमड़ आया है, और पवित्रता
की, आशीष
की एक महान
वरदान की
मनोहारी
वर्षा
तुम्हारे ऊपर
होती है.......लेकिन
पतंजलि इसको 'बादल' क्यों
कहते हैं? व्यक्ति
को इसके भी
पार जाना पड़ता
है; अभी भी
यह एक बादल है।
पहले
तुम्हारी आंखें
पाप से भरी हुई
थीं, अब
तुम्हारी आखे
पुण्य से भर
जाती हैं, किंतु
तुम अब भी
अंधे हो। पहले
और कुछ नहीं
बल्कि तुम पर
पीड़ा बरस रही
थी, बस एक
नरक की बरसात
तुम पर हो रही
थी; अब तुम
स्वर्ग में
प्रविष्ट हो
चुके हो और
सभी कुछ
पूर्णत: सुंदर
है, शिकायत
करने लायक कुछ
है ही नहीं, लेकिन फिर
भी यह एक बादल
है। हो सकता
है कि यह सफेद
बादल हो, काला
बादल न हो, लेकिन
फिर भी यह
बादल ही है—और
व्यक्ति को
इसके भी पार
जाना पड़ता है।
इसीलिए वे
इसको बादल
कहते हैं।
अंतिम
अवरोध यही है, और
निःसंदेह यह
बहुत मनोहारी
है, क्योंकि
यह पुण्य का
है। यह हीरों से
जड़ी हुई सोने
की जंजीर जैसा
है। वे
सामान्य
जंजीरों की
भांति नहीं
हैं, वे
बिलकुल आभूषण
जैसी दिखाई
पड़ती हैं। वे
जंजीरों के
स्थान पर
आभूषणों जैसी
अधिक हैं।
व्यक्ति उनसे
बंधना चाहेगा।
स्वयं पर
बरसती हुई परम
आनंद की वर्षा,
कभी न
समाप्त होने
वाला आह्लाद,
कौन इसको
पाना नहीं
चाहेगा? इस
परमानंद की
अवस्था में
कौन सदा के
लिए रहना नहीं
चाहेगा? लेकिन
यह भी एक बादल
है—श्वेत, मनोहर,
लेकिन फिर
भी असली आकाश
इसके पीछे छिपा
हुआ है।
उत्कर्ष
के इस बिंदु
से अब भी वापस
गिर पड़ने की
संभावना है।
यदि तुम
धर्ममेघ
समाधि से बहुत
आसक्त हो जाते
हो,
यदि तुम
बहुत अधिक बंध
जाते हो?ऐ
तुम इसका बहुत
अधिक मजा लेना
आरंभ कर देते
हो और तुम यह
विभेद नहीं कर
पाते कि 'मैं
यह भी नहीं
हूं तो इस बात
की संभावना है
कि तुम वापस
गिर पडोगे।
ईसाइयत
यहूदी धर्म, इस्लाम
में केवल दो
अवस्थाओं का
अस्तित्व है :
स्वर्ग और नरक।
जिसको ईसाई
लोग स्वर्ग
कहते हैं उसी
को पतंजलि
धर्ममेघ
समाधि कहते
हैं। पश्चिम
में कोई धर्म
इससे परे नहीं
गया है। भारत
में हमारे पास
तीन शब्द हैं :
नरक, स्वर्ग
और मोक्ष। नरक
है परम पीड़ा, स्वर्ग है
परम आनंद, मोक्ष
दोनों के पार है
: न नरक, न
स्वर्ग। पश्चिम
की भाषा में
मोक्ष के
समकक्ष एक भी
शब्द नहीं है।
ईसाइयत
स्वर्ग, धर्ममेघ
समाधि, पर
रुक जाती है।
इससे पार जाने
की और चिंता
अब कौन करता
है? इतना
मनोहर है यह।
और तुम इतने
लंबे समय से
इतनी अधिक
पीड़ा में रहे
हो कि तुम वहां
सदा और हमेशा
के लिए रहना
पसंद करोगे।
किंतु पतंजलि
कहते हैं : यदि
तुम इससे
आसक्त हो जाते
हो, तो तुम
सीढ़ी के आखिरी
पायदान से
फिसल जाते हो।
तुम घर के
बहुत निकट थे।
बस एक कदम और, और तुमको वह
अवस्था
उपलब्ध हो गई
होती जहां से
लौटना संभव
नहीं है, लेकिन
तुम फिसल गए।
तुम बस घर
पहुंच ही रहे
थे और रास्ते
से चूक गए।
तुम बस द्वार
पर ही थे—एक
दस्तक और
द्वार खुल गए
होते— लेकिन
तुमने पोर्च
को ही महल समझ
लिया और तुमने
वहीं रहना
आरंभ कर दिया,
आज नहीं तो
कल उस पोर्च
को भी खो दोगे,
क्योंकि
पोर्च उनके
लिए है जो महल
में रहने जा
रहे हैं। इसको
आवास नहीं
बनाया जा सकता
है। यदि तुम
इसको आवास बना
लेते हो तो आज
नहीं तो कल
तुमको निकाल
कर बाहर फेंक दया
जाएगा. तुम
इसके पात्र
नहीं हो। तुम
उस भिखारी के
समान हो जिसने
किसी और के पोर्च
में इन! आरंभ
कर दिया है।
तुमको
महल में
प्रवेश करना
ही पड़ेगा, तभी
वह पोर्च
तुम्हारे लिए
उपलब्ध रहेगा।
लेकिन यदि तुम
पोर्च पर ही
रुक जाते हो
तब तुमसे
पोर्च भी ले
लिया जाएगा।
और पोर्च बहुत
सुंदर है और
हमने उस जैसी
कोई चीज कभी
नहीं जानी है,
इसलिए
निश्चित रूप
से हमें
गलतफहमी हो
जाती है—हम
सोचते हैं कि
महल आ गया है।
हम सदैव पीड़ा,
संताप, तनाव
में जीते रहे
हैं, और
पोर्च भी, उस
परम महल के
निकट होना भी,
परम सत्य के
इतने निकट
होना भी इतना
मौन पूर्ण, इतना
शांतिमय, इतना
आनंददायी, इतना
महान वरदान है
कि तुम कल्पना
भी नहीं कर सकते
कि इससे
श्रेष्ठ भी
संभव है। तुम
वहा रुक जाना
पसंद करोगे।
पतंजलि
कहते हैं. 'बोधपूर्ण
बने रहो।’ इसीलिए
वे इसको बादल
कहते हैं। यह
तुमको अंधा कर
आवकता है, इसमें
खो सकते हो
तुम। यदि तुम
इस बादल का
अतिक्रमण कर
सको—ततः
कलेशकर्मनिवृत्ति—
तब कलेशों एवं
कर्मों से
मुक्ति हो
जाती है।
यदि
तुम धर्ममेघ
समाधि का
अतिक्रमण कर
सको,
यदि तुम इस
स्वर्ग सी
अवस्था का, जन्नत का
अतिक्रमण कर
सको, केवल
तभी.. .क्लेशों
एवं कर्मों से
मुक्ति हो जाती
है। अन्यथा
तुम पुन:
संसार में
वापस गिर
जाओगे। छोटे
बच्चे सांप और
सीढ़ी का खेल
खेलते हैं, क्या तुमने
इसे देखा है? सीढ़ियों से
वे ऊपर उठते
चले जाते हैं
और सांपों के
द्वारा वे
वापस लौटते
रहते हैं। यदि
वे निन्यानबे
के बाद सौ की
गिनती पर पहुंच
जाएं तो वे
विजयी हो जाते
हैं, उन्होंने
खेल जीत लिया
है। लेकिन
निन्यानबे के
खाने पर एक
सांप है। यदि
तुम
निन्यानबे पर
पहुंच जाते हो
तभी अचानक तुम
वापस संसार
में वापस लौट
आते हो।
धर्ममेघ
समाधि
निन्यानबेवां
खाना है, लेकिन
वहीं पर सांप
है। इससे पहले
कि सांप तुमको
पकड़ ले तुमको
सौवें खाने पर
छलांग लगानी
पड़ती है। केवल
तभी वहां घर
वापसी हो पाती
है। तुम घर
वापस आ गए हो, वर्तुल
पूर्ण हो गया
है।
'तब क्लेशों
एवं कर्मों से
मुक्ति हो
जाती है।’
'जब सभी आवरण,
विकृतियां
और
अशुद्धियां
हट जाती हैं, तब वह सभी
कुछ जो मन से
जाना जा सकता
है, समाधि
से प्राप्त
असीम ज्ञान की
तुलना में
अत्यल्प हो
जाता है।’
अभी
कुछ सूत्र
पहले ही
पतंजलि ने कहा
था,
कि मन अनंत
ज्ञानवान है,
मन अनंत ज्ञान
अर्जित कर
सकता है। अब
वे कहते हैं
कि वह जो मन से
जाना जा सकता
है, उस
असीम शन की
तुलना में
अत्यल्प है जो
समाधि से
प्राप्त होता
है।
जैसे—जैसे
तुम उच्चतर की
ओर बढ़ते हो
प्रत्येक
अवस्था उस
पहली अवस्था
से विराटतर
होतीहै जिसका
तुमने
अतिक्रमण कर
लिया है। जब
व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियो
में खोया हुआ
होता है तो
उसका मन पंगु
ढंग से कार्य
करता है। जब
व्यक्ति अपनी
ज्ञानेंद्रियों
में नहीं उलझा
होता है और
शरीर से आसक्त
नहीं रहता तो
उसका मन
पूर्णत:
स्वस्थ ढंग से
कार्य करना
आरंभ कर देता
है। मन के लिए
एक असीम समझ
घटित हो जाती
है,
यह अनंतताओं
को जानने में
समर्थ हो जाता
है। लेकिन यह
भी उसकी तुलना
में कुछ भी
नहीं है जब मन
को पूरी तरह
छोड़ दिया जाता
है और तुम मन
के बिना कार्य
करना आरंभ कर
देते हो। अब
किसी माध्यम
की आवश्यकता
नहीं रहती।
सारे अवरोध खो
जाते हैं, और
तुम
वास्तविकता के
समक्ष होते हो।
वहां पर मन भी
एक मध्यस्थ की
भांति, एक
प्रतिनिधि की
भांति नहीं
होता। मध्य
में कुछ भी
नहीं है। तुम
और यथार्थ एक
हो। वह जान जो
मन के माध्यम
से आता है इस
जान की तुलना
में कुछ भी
नहीं है जो
समाधि के
माध्यम से घटता
है
'अपने
उद्देश्य को
परिपूर्ण कर
लिए जाने के
कारण तीनों
गुणों में
परिवर्तन की
प्रक्रिया
समाप्त हो
जाती है।’
समाधिस्थ
व्यक्ति के
लिए सारा
संसार रुक जाता
है,
क्योंकि अब
संसार के जारी
रहने कीं कोई
आवश्यकता न
रही। परम को
उपलब्ध कर
लिया गया है।
संसार का
अस्तित्व एक
परिस्थिति की
भांति होता है।
संसार का
अस्तित्व
तुम्हारे
विकास के लिए
है। विद्यालय
का अस्तित्व
सीखने के लिए
है। जब तुमने
पाठ सीख लिया
है तो
विद्यालय
तुम्हारे लिए
किसी उपयोग का
नहीं है, तुमने
परीक्षा पास
कर ली है। जब
व्यक्ति संबुद्ध
हो जाता है तो
उसने संसार की
परीक्षा को
उत्तीर्ण कर
लिया है। अब
विद्यालय का
उसके लिए कोई
कार्य नहीं रह
गया। अब वह
विद्यालय को
विस्मृतकर
सकता है और
विद्यालय
उसको भुला
सकता है। वह
विद्यालय के
पार चला गया
है, वह
विकसित हो गया
है। उस अवस्था
की अब और
आवश्यकता
नहीं रही।
यह
संसार एक
परिस्थिति है
: तुम्हारे
लिए यह भटक
जाने और वापस
घर लौट आने की
परिस्थिति है।
यह खो जाने की
और फिर वापस
लौट आने की एक
परिस्थिति है।
यह परमात्मा
को भूल जाने
और उसको पुन:
स्मरण कूर
लेने की एक
परिस्थिति है।
लेकिन
ऐसी
परिस्थिति
क्यों? —क्योंकि
एक सूक्ष्म नियम
है: यदि तुम
परमात्मा को
भूल न सको, तो
तुम उसको याद
नहीं कर सकते।
यदि उसको भुला
देने की कोई
संभावना न हो,
तो तुम कैसे
याद रखोगे,
तुम याद क्यों
करोगे? उसे
जो सदैव
उपलब्ध है
सरलता से
भुलाया जा सकता
है। सागर में
रहती हुई मछली
कभी सागर को
नहीं जान पाती,
कभी सागर से
उसका आमना—सामना
नहीं होता। वह
इसी में जीती
है, उसका
जन्म इसी में
हुआ है, वह
इसी में मर
जाती है, लेकिन
सागर को कभी
जान नहीं पाती
है। यदि वह
सागर को जान
पाती है तो यह
केवल एक स्थिति
में होता है :
जब उसे सागर
से बाहर निकाल
लिया जाता है।
तब अचानक वह
सजग होती है
कि यह सागर
उसका जीवन था।
जब मछली को तट
पर रेत में
फेंक दिया
जाता है, तभी
वह जान पाती
है कि सागर
क्या है।
हमें
परमात्मा के
सागर से बाहर
फेंक दिए जाने
की आवश्यकता
थी;
उसको जानने
का कोई दूसरा
उपाय था भी
नहीं। सजग
होने के लिए
यह संसार एक
महत
परिस्थिति है।
संताप है वहां,
पीड़ा है
वहां लेकिन यह
सभी
अर्थपूर्ण है।
संसार में कुछ
भी अर्थहीन
नहीं है। दुख
अर्थपूर्ण है;
दुख इस
प्रकार से है
जैसे कि मछली
तट पर, रेत
में दुखी है, और सागर में
जाने के सारे
प्रयास कर रही
है। अब यदि
मछली सागर में
वापस लौट जाती
है तो यह जान लेगी।
कुछ भी बदला
नहीं है—सागर
वही है, मछली
भी वही है—लेकिन
उनका संबंध
आत्यंतिक रूप
से बदल गया है।
अब वह जान
जाएगी, यह
है सागर। अब
वह जान लेगी
कि सागर की वह
कितनी आभारी
है। उस दुख ने
एक समझ
निर्मित कर दी
है। इसके पहले
वह इसी सागर
में थी, किंतु
अब वही सागर वैसा
ही न रहा, क्योंकि
एक नई समझ, एक
नई सजगता, एक
नई
प्रत्यभिज्ञा
उत्पन्न हो गई
है।
मनुष्य
को परमात्मा
से बाहर फेंके
जाने की आवश्यकता
है। संसार में
फेंका जाना और
कुछ नहीं वरन
परमात्मा से
बाहर फेंका
जाना है। और
यह करुणावश
किया जाता है, समग्र
की करुणा के
कारण ही
तुम्हें बाहर
फेंका गया है,
जिससे तुम
वापस लौटने का
रास्ता खोजने
का प्रयास
करों। प्रयास
से, 'कठिन
प्रयास से तुम
पहुंच पाने
में समर्थ हो
पाओगे और तभी
तुम समझोगे।
तुमको अपने
प्रयासों से
इसका मूल्य
चुकाना पड़ता
है, वरना
परमात्मा
बहुत सस्ता हो
जाएगा। और जब
कोई चीज बहुत
सस्ती होती है
तो तुम उसका 'मजा नहीं ले
सकते। वरना
परमात्मा
अत्यधिक
सुस्पष्ट हो
जाएगा। जब कोई
वस्तु बहुत
सरलता से
उपलब्ध होती
है तुम में
उसको भूल जाने
की प्रवृत्ति
हो जाती है।
अन्यथा
परमात्मा
तुमसे
अत्यधिक निकट
होता और उसको
जान पाने के
लिए कोई अंतराल
भी नहीं होता।
वह असली पीड़ा
होगी, उसको
न जान पाना।
इस संसार की
पीड़ा कोई पीड़ा
नहीं हैं; यह
एक छिपा हुआ
वरदान है, क्योंकि
इस पीड़ा के
माध्यम से ही
तुम.......दिव्य
सत्य के आमने—सामने
देखने के, उसे
पहचानने के
परम आह्लाद को
जान पाआगे।
’अपने
उद्देश्य को
परिपूर्ण कर
लिए जाने के
कारण तीनों
गुणों में
परिवर्तन की
प्रक्रिया
समाप्त हो
जाती है।’
तीन
गुणों सत्व, रजस,
तमस का यह
सारा संसार
मिट जाता है।
जब कोई संबुद्ध
हो जाता है तो
उसके लिए यह
संसार समाप्त
हो जाता है।
अन्य सभी
निःसंदेह
स्वप्नलोक
में विचरते रहते
हैं। यदि तट पर
गर्म रेत में
तपती धूप में
अनेक मछलियां
पीड़ा में हैं,
और एक मछली
प्रयास करती
है, और फिर
प्रयास करती
है और सागर
में छलांग लगा
देती है, पुन:
घर वापस लौट
आती है, उसके
लिए तपती धूप
और जलती हुई
रेत और सारी
पीड़ा मिट गई
है। यह अतीत
का एक बुरा स्वप्न
बन गया है, लेकिन
अन्य मछलियों
के लिए इस
पीड़ा का
अस्तित्व है।
जब
कोई बुद्ध, पतंजलि
जैसी मछली
सागर में
छलांग लगा
देती है तो
उसके लिए
संसार खो जाता
है। वे पुन:
सागर के शीतल
गर्भ में होते
हैं। वे पुन:
वापस लौट आए
हैं, अनंत
जीवन से
संबंधित हो गए
हैं वे। वे अब
असंबद्ध न रहे;
अब वे अजनबी
नहीं रहे हैं :
सजग हो गए हैं
वे। वे एक नई
समझ के साथ
वापस लौट आए
हैं. सजग, संबुद्ध
होकर—लेकिन
दूसरों के लिए
संसार जारी
रहता है।
पतंजलि
के ये सूत्र
और कुछ नहीं
बल्कि उस मछली
के संदेश हैं
जो घर पहुंच
चुकी है, और उन
लोगों से, जो
अभी भी किनारे
पर हैं और
पीडित हैं, कुछ कहने का
और उन सभी के
कूद आने को
प्रेरित करने
का प्रयास है।
हो सकता है कि
वे लोग सागर
से अति निकट
हैं, बस
सीमा रेखा पर
हैं, लेकिन
वे नहीं जानते
कि इस में किस
भांति प्रविष्ट
हुआ जाए। वे
पर्याप्त
प्रयास कर रहे
हैं, या अपने
प्रयास गलत
दिशा में कर
रहे हैं या बस
पीड़ा में खो
गए हैं और
स्वीकार कर
लिया है कि बस
यही जीवन है, या इतने
हताश हो चुके
हैं, साहस
खो चुके हैं
कि कोई कोशिश
ही नहीं कर
रहे हैं। योग
उस
वास्तविकता
तक पहुचने का
प्रयास है
जिससे हमारा
संबंध टूट
चुका है। पुन:
जुड़ जाना ही
योगी होना है।
योग का अर्थ
है : पुन: संबंध,
पुन: एकीकरण,
पुन: लीन हो
जाना।
'प्रतिक्षण
घटने वाले
परिवर्तनों
के सातत्य की
प्रक्रिया
तीन गुणों के
रूपांतरण के
परम अंत पर
घटित होती है—यही
क्रम है।’
इस
छोटे से सूत्र
में पतंजलि ने
वह सभी कुछ कह दिया
है जिसे
आधुनिक भौतिक
विज्ञान ने अब
खोज लिया है।
अभी तीस या
चालीस वर्ष
पूर्व तक इस
सूत्र को समझा
जाना असंभव
रहा होता, क्योंकि
इस छोटे से
सूत्र में
सारी क्वांटम
फिजिक्स बीज
रूप में
उपस्थित है।
और यह शुभ है, क्योंकि यह
अंत से ठीक
पहला सूत्र है।
इसलिए पतंजलि
भौतिक
विज्ञान का
सारा संसार इस
अंत से ठीक
पहले के सूत्र
में समेट देते
हैं, फिर
परा भौतिक
विज्ञान। यह
आधारभूत
भौतिक
विज्ञान है।
इस बीसवीं
शताब्दी में
भौतिक
विज्ञान में
जो श्रेष्ठतम
अंतर्दृष्टि
आई है—वह है
क्वांटम का
सिद्धांत।
मैक्स
प्लैंक ने एक
बहुत
अविश्वसनीय बात
की खोज की।
उन्होंने
खोजा कि जीवन
एक सातत्य
नहीं है; हर
चीज असातत्य
में है। समय
का एक क्षण
समय के दूसरे
क्षण से अलग
है, और समय
के दो क्षणों
के मध्य में
एक अंतराल है।
वे दोनों क्षण
संबंधित नहीं
हैं; वे
असंबद्ध हैं।
एक परमाणु
दूसरे परमाणु
से अलग है, और
दो परमाणुओं
के मध्य एक
बड़ा अंतराल है।
वे परस्पर
जुड़े हुए नहीं
हैं। यही है
जिसको वह
क्वांटा कहता
है, अलग, भिन्न
परमाणु जो एक—दूसरे
के साथ
संयुक्त नहीं
हैं, वे
अनंत आकाश में
तैर रहे हैं, लेकिन अलग—अलग—जैसे
कि तुम एक
पात्र से
दूसरे पात्र
में मटर के
दाने पलटते हो
और मटर के सभी दाने
उसमें गिर
जाते हैं अलग—अलग,
भिन्न
प्रकार से, या तुम एक
पात्र से
दूसरे पात्र
में तेल उड़ेलते
हो, तेल एक
सतत धारा के
रूप में गिरता
है।
अस्तित्व
मटर के दाने
की भांति है
अलग—अलग। इसका
उल्लेख
पतंजलि क्यों
करते हैं—क्योंकि
वे कहते हैं, एक
परमाणु, एक
और परमाणु : ये
दो भिन्न
वस्तुएं हैं
जिनसे संसार
बना है। ठीक
उनके मध्य में
अंतराल है।
यही है जिससे
सारा संसार
निर्मित है, परमात्मा।
इसको
अंतरिक्ष कहो,
इसको
ब्रह्म कहो, इसे पुरुष
कहो या जो कुछ
तुमको पसंद हो
वह कह लो, संसार
विभिन्न
परमाणुओं से
निर्मित है और
समग्र अस्तित्व
उनके मध्य के
अंतराल से बना
है।
अब
भौतिकविद
कहते हैं कि
यदि हम सारे
संसार को दबा
दें और कणों
के बीच के
रिक्त स्थान
को हटा दें, तो
सभी नक्षत्र
मंडल और सभी
सूर्य बस छोटी
सी गेंद में
दब कर समा
सकते हैं।
केवल इतना ही
पदार्थ है।
शेष विश्व
वास्तव में
रिक्त स्थान
है। पदार्थ तो
बस यहां और
वहां है, अत्यल्प
है। यदि हम
पृथ्वी को
बहुत अधिक दबा
दें, तो हम
इसको माचिस की
एक डिब्बी में
रख सकते हैं।
यदि सारा खाली
स्थान बाहर कर
दिया जाए तो
अविश्वसनीय
है यह बात! और
यह भी, यदि हम
इसे और दबाते
जाएं तो और भी
छोटी हो जाएगी।
पतंजलि कहते
हैं. फिर वह
छोटी सी
मात्रा भी खो जाएगी।
अब भौतिकविद
कहते हैं कि
जब पदार्थ
मिटता है तो
यह ब्लैक होल,
कृष्ण—विवर
छोड़ जाता है।
प्रत्येक
वस्तु ना—कुछपन
से आती है, चारों
ओर खेलती है, और फिर ना—कुछपन
में समा जाती
है। जैसे कि
पदार्थ के
पिंड हैं :
पृथ्वी, सूर्य,
सितारे, ठीक
उनके समान ही
खाली छेद हैं,
कृष्ण—विवर
हैं। ये कृष्ण—विवर
ना—कुछपन का
संघनित रूप
हैं। यह केवल
ना—कुछपन नहीं
है; यह
बहुत गतिशील
है—ना— कुछपन
का भंवर है।
यदि कोई
सितारा किसी
कृष्ण—विवर, ब्लैक होल
के निकट आ
जाता है तो
कृष्य विवर
इनको सोख लेगा।
इसलिए यह बहुत
गतिशील है, किंतु यह
कुछ नहीं है—इसमें
कोई पदार्थ
नहीं है, बस
पदार्थ की
अनुपस्थिति
है, मात्र
शुद्ध
रिक्तस्थान
है, लेकिन
अत्यधिक
शक्तिशाली है।
यह अपने भीतर
किसी सितारे
तक को सोख
सकता है, और
वह सितारा ना—कुछपन
में खो जाएगा;
यह ना—कुछपन
में बदल दिया
जाएगा। इसलिए
यदि हम कोशिश
करें तो
अंततोगत्वा
सारा पदार्थ
खो जाएगा। यह
परम शून्य से
आता है, और
पुन: यह परम
शून्यता में
लीन हो जाता
है; शून्य
से निकलता है
और शून्यता
में लौट जाता
है।
'प्रतिक्षण
घटने वाले
परिवर्तनों
के सातत्य की
प्रक्रिया.. .महा
छलांग की
प्रक्रिया.
.तीन गुणों के
रूपांतरण के
परम अंत पर
घटित होती है—यही
क्रम है।’
अंतिम
अवस्था पर
योगी यही देखत
है,
जब सभी
तीनों गुण
कृष्ण—विवर
में लीन हो
रहे हैं, शून्यता
में विलीन हो
रहे हैं। इसी
कारण से
योगियों ने इस
संसार को माया,
एक जादू का
खेल कहा है।
क्या
तुमने कभी
किसी जादूगर
को सेकंडों
में एक आम का
वृक्ष
उत्पन्न करते
हुए देखा है, और
फिर यह बढ़ता
चला जाता है; और न केवल
यही—कुछ ही
क्षणों में
इसमें आम भी
निकल आते हैं.....कुछ
नहीं में से? बस भ्रामक
है यह, वह
भ्रम उत्पन्न
कर देता है।
हो सकता है कि
वह तुम्हारे
अवचेतन को गहन
संदेश भेजता
हो। बस गहन
सम्मोहन की
भांति है यह।
एक खयाल
निर्मित करता
है वह, लेकिन
वह अपने खयाल
को अति गहनता
से अपने मन में
देखता है और
वह इसको
तुम्हारे
अवचेतन पर इतनी
गहराई से
अंकित कर देता
है कि तुम वही
सब देखना आरंभ
कर देते हो जो
वह चाहता है
कि तुम देखो।
हो कुछ भी
नहीं रहा है।
वृक्ष वहां पर
नहीं है, आम
भी वहां नहीं
है। और यह
संभव है, बस
महत कल्पना के
द्वारा आम का
वृक्ष
निर्मित कर
देना और आम का
आ जाना। न
केवल यह बल्कि
वह एक आम तोड़
सकता है और
इसको तुम्हें
दे सकता है और तुम
कहोगे, 'बहुत
मीठा है।’
हिंदू
संसार को माया, जादू
का खेल कहते
हैं।
परमात्मा की
कल्पना है यह।
समग्र
अस्तित्व
स्वप्न देख
रहा है, समग्र
अस्तित्व
प्रक्षेपण कर
रहा है।
तुम
एक चल—चित्र
देखने जाते हो
: एक बड़े पर्दे
पर तुम एक
महान कहानी को
अभिनीत किया
जाना देखते हो, और
तुम देखते हो
कि प्रत्येक
घटना एक
सातत्य में
प्रतीत होती
है। लेकिन ऐसा
नहीं है, यदि
फिल्म की रील
को कुछ धीमा
चला दिया जाए
तो तुम देख
लोगे कि
प्रत्येक
दृश्य
असातत्य में हैं—कवांटा।
एक चित्र चला
जाता है दूसरा
आता है, दूसरा
चला जाता है
एक और आ जाता
है, लेकिन
दो चित्रों के
मध्य में एक
अंतराल है। उस
अंतराल में
तुम असली
पर्दे को देख
सकते हो। जब
चित्र—श्रृंखला
बहुत तीव्र
गति में हो तो
उसमें गति का
भ्रम उत्पन्न
हो जाता है।
निसंदेह चल—चित्र
कोई चलता हुआ
चित्र नहीं है,
यह उतना ही
स्थिर
फोटोग्राफ है
जितना कोई और
फोटो होता है।
गतिशीलता
भ्रामक है, क्योंकि वे
स्थिर
फोटोग्राफ एक—दूसरे
के पीछे बहुत
तेजी से दौड़
रहे हैं, उनके
मध्य का
अंतराल बहुत
छोटा है, जिससे
कि तुम अंतराल
नहीं देख सकते
हो। इसलिए सभी
कुछ ऐसा दिखाई
पड़ता है जैसे
कि यह सातत्य
में है।
मैं
अपना हाथ
हिलाता हूं :
इस हाथ को चल—चित्र
में चलता हुआ
दिखाने के लिए, हाथ
की गति शीलता
की प्रत्येक
अवस्था के
हजारों चित्र
उतारने
पड़ेंगे—इस
बिंदु से इस
बिंदु तक, इस
बिंदु से इस
बिंदु तक, इस
बिंदु से इस
बिंदु तक। हाथ
की एक साधारण
सी गति हजारों
छोटे—छोटे
स्थिर
चित्रों में
बंट जाएगी।
फिर वे सभी
चित्र तेजी से
गति करेंगे— :
हाथ हिलता हुआ
प्रतीत होगा।
यह एक भ्रम है।
गहरे में दो
चित्रों के
मध्य में
पर्दा सफेद, रिक्त है।
पतंजलि
कहते हैं : यह
विश्व और कुछ
नहीं वरन एक चल—चित्र
है,
एक प्रक्षेपण
है। लेकिन यह
समझ केवल तब
उठती है जब
व्यक्ति समझ के
अंतिम सोपान
को उपलब्ध कर
लेता है। जब
वह देखता है
कि सभी गुण
ठहर गए हैं, कुछ भी चल
नहीं रहा है, तभी अचानक
वह इस बात के
प्रति सजग हो
जाता है कि यह
सारी कहानी
भ्रामक गति, तीव्र गति
के द्वारा
निर्मित की गई
थी। यही है जो
आधुनिक भौतिक
वितान के साथ
घटित हो रहा
है।
जब
वे परमाणु पर
पहुंचे, तो
पहले
उन्होंने कहा,
अब यह परम
है; इसको
और अधिक
विभाजित नहीं
किया जा सकता
है। फिर
उन्होंने
परमाणु को भी
विभाजित कर
दिया। फिर वे
इलेक्ट्रॉनों
पर पहुंचे, अब इसे और
अधिक विभाजित
नहीं किया जा
सकता। अब
उन्होंने
उसको भी
विभाजित कर
दिया है। अब
वे ना— कुछपन, शून्यता पर
पहुंच गए हैं;
अब वे नहीं
जानते कि क्या
मिल गया है।
विभाजन, विभाजन,
विभाजन और
आधुनिक भौतिक
विज्ञान में
एक ऐसा बिंदु
आ गया है जहां
पदार्थ पूरी
तरह से मिट
गया है।
आधुनिक भौतिक
विज्ञान
पदार्थ के
माध्यम से पहुंच
गया है, और
पतंजलि तथा
योगी लोग उसी
बिंदु पर
चेतना के
माध्यम से
पहुंच गए हैं।
भौतिक विज्ञान
इस अंतिम से
पहले सूत्र तक
पहुंच चुकी है।
अंतिम से पहले
के इस सूत्र
तक वैज्ञानिक
की समझ, पहुंच
और गति संभव
हो सकती है।
अंतिम सूत्र वैज्ञानिक
के लिए संभव
नहीं है, क्योंकि
अंतिम सूत्र
तभी उपलब्ध
किया जा सकता
है जब तुम
चेतना के
माध्यम से जाओ,
पदार्थ के
माध्यम से
नहीं, विषयों
के माध्यम से
नहीं, विषयी
के माध्यम से
सीधे ही जाओ।
पुरुषार्थशून्याना
गुणानां प्रतिप्रसव:
कैवल्य
स्वरूपप्रतिष्ठा
वा चितिशक्तिरिति।
'कैवल्य
समाधि की
अवस्था है, जो
पुरुषार्थ से
शून्य हुए
गुणों के अपने
कारण में लीन—
होने पर
उपलब्ध होती
है।’
'इस अवस्था
में पुरुष
अपने यथार्थ
स्वरूप में, जो शुद्ध
चेतना है, प्रतिष्ठित
हो जाता है।
समाप्त।’
कैवल्य
समाधि की
अवस्था है, जो
तीनों गुणों
के अपने कारण
में लीन होने
पर उपलब्ध
होती है.....जब
संसार ठहर
जाता है, जब
प्रक्रिया, संसार का
क्रम रुक जाता
है, जब तुम
समय के दो
क्षणों के, पदार्थ के
दो परमाणुओं
के मध्य के
आकाश को देख
पाने में
समर्थ हो जाते
हो, और तुम
आकाश में जा
सकते हो और
तुम देख सकते
हो कि प्रत्येक
वस्तु उसी
आकाश से निकल
कर आई है और आकाश
में वापस लौट
कर जा रही है; जब तुम इतने
सजग हो गए हो
कि अचानक
भ्रामक संसार
एक स्वप्न की
भांति
तिरोहित हो
जाता है, तब
कैवल्य। जब
तुम एक शुद्ध
चैतन्य—बिना
किसी पहचान के,
बिना किसी
नाम के, रूप
के छोड़ दिए
जाते हो। तब
शुद्ध का
शुद्धतम हो
तुम। तब तुम
सर्वाधिक
आधारभूत, परम
अनिवार्य, परम
अस्तित्व हो,
और तुम इस
शुद्धता, एकांत
में स्थापित
हो जाते हो।
पतंजलि
कहते हैं : 'कैवल्य
समाधि की
अवस्था है, जो
पुरुषार्थ से
शून्य हुए
गुणों के अपने
कारण में लीन
होने पर
उपलब्ध होती
है। इस अवस्था
में पुरुष
यथार्थ
स्वरूप में
प्रतिष्ठित
हो जाता है।’ तुम घर वापस
आ गए हो।
यात्रा लंबी,
थका देने
वाली, जटिल
रही थी, लेकिन
तुम घर वापस आ
गए हो।
मछली
सागर में, जो
शुद्ध चेतना
है, कूद गई
है। पतंजलि इसके
बारे में और
कुछ नहीं कहते,
क्योंकि और
अधिक कहा भी
नहीं जा सकता।
और जब वे कहते
हैं, 'इति, समाप्त।’ उनका केवल
यही अभिप्राय
नहीं है कि
यहां पर योग—सूत्रों
का 'अंत हो
गया है। वे
कहते हैं, 'अभिव्यक्ति
की सारी
संभावना यहां
पर समाप्त हो
जाती है। परम
सत्य के बारे
में कुछ भी
कहने की
संभावना यहां
पर समाप्त हो
जाती है। इससे
परे केवल
अनुभव है।
अभिव्यक्ति
यहां पर
समाप्त हो
जाती है।’ और
इसके पार जा
पाने में कोई
भी सफल नहीं
हो पाया है—कोई
भी नहीं।
मानवीय चेतना
के सारे
इतिहास में
इसका एक भी अपवाद
नहीं है।
लोगों ने
प्रयास किए
हैं। बहुत
थोड़े लोग ही
वहां तक पहुंच
पाए हैं जहां
पतंजलि पहुंच
गए हैं, लेकिन
पतंजलि से
परेकोई नहीं
पहुंच सका है।
इसीलिए
मैं कहता हूं
कि वे आदि और
अंत है। वे
बहुत
प्राथमिक से
आरंभ करते हैं; किसी
को भी उनसे
बेहतर आरंभ
नहीं मिल पाया
है। वे बहुत
प्राथमिक से
आरंभ करते हैं
और वे परम अंत
पर पहुंच जाते
हैं। जब वे
कहते हैं, 'समाप्त।’
वे बस यही
कह रहे हैं कि
अभिव्यक्ति
समाप्त हो गई
है, परिभाषा
समाप्त हो गई;
वर्णन
समाप्त हो गया
है। यदि तुम
अभी तक वास्तव
में उनके साथ
चलते आए हो तो
इसके बाद केवल
अनुभव है। अब
अस्तित्वगत
का आरंभ होता
है। व्यक्ति
यह हो सकता है
किंतु इसे कह
नहीं सकता है।
व्यक्ति
इसमें जी सकता
है, लेकिन
व्यक्ति इसको
परिभाषित
नहीं कर सकता।
शब्दों से
सहायता न
मिलेगी। इस
बिंदु के पार
सारी भाषा
नपुंसक है। बस
इतना ही कह कर
कि व्यक्ति
अपने सच्चे
स्वभाव को
उपलब्ध कर
लेता है—पतंजलि
रुक जाते हैं।
लक्ष्य यही
है. अपने
स्वभाव को
जानना और इसमें
रहना—क्योंकि
जब तक हम अपने
स्वभावों तक
नहीं पहुंचते,
हम पीड़ा में
रहेंगे। सारी
पीड़ा संकेत
देती है कि हम
किसी न किसी
प्रकार से
अस्वाभाविकता
पूर्वक जी रहे
हैं। सारी
पीडा बस इसी
बात का लक्षण
है कि किसी न किसी
प्रकार से
हमास स्वभाव
परितृप्त
नहीं हो रहा
है, कि
किसी न किसी
भांति हम अपनी
वास्तविकता
के सन लय में
नहीं हैं। यह
पीड़ा
तुम्हारी
शत्रु नहीं है,
यह बस एक
लक्षण है। यह
संकेत करती है।
यह एक तापमापी,
थर्मामीटर
जैसी है; यह
बस यह
प्रदर्शित
करती है कि
तुम कहीं पर
गलत हो। इसको
ठीक कर लो, अपने
आपको सही कर
लो; स्वयं
को लयबद्धता
में ले आओ, वापस
लौटो, स्वयं
को लय में लाओ।
जब प्रत्येक
पीड़ा खो जाती
है तो व्यक्ति
अपने स्वभाव
के साथ लय में
होता है। इस
स्वभाव को
लाओत्सु ताओ
कहता है, पतंजलि
कैवल्य कहते
हैं, महावीर
मोक्ष कहते
हैं, बुद्ध
निर्वाण कहते
हैं। लेकिन
तुम इसको चाहे
कुछ भी नाम दो—इसका
न कोई नाम है
और न कोई रूप—
यह तुम्हारे
भीतर है
वर्तमान, ठीक
इसी क्षण में।
तुमने सागर को
खो दिया था
क्योंकि तुम
अपने स्व से
बाहर आ गए थे।
तुम बाहर के
संसार में
बहुत अधिक दूर
चले गए थे।
भीतर की ओर
चलो। इसको
अपनी
तीर्थयात्रा
बन जाने दो—भीतर
चलो।
ऐसा
हुआ,
एक सूफी
रहस्यदर्शी
बायजीद मक्का
की तीर्थयात्रा
पर जा रहा था।
यह कठिन कार्य
था। वह निर्धन
था और वर्षों
भीख मांग कर
किसी तरह उसने
यात्रा के
खर्चों का
इंतजाम किया
था। अब वह
बहुत खुश था।
उसके पास
मक्का जाने के
लिए करीब—करीब
पूरे रुपये हो
गए थे, और
तब उसने
यात्रा की।
जिस समय वह
मक्का के बाहर
पहुंचा, तो
बस नगर के
बाहर ही उसे
एक फकीर, उसका
सदगुरु मिल
गया। वह वहां
एक वृक्ष के
नीचे बैठा हुआ
था और उसने
कहा : अरे
मूर्ख, तुम
कहां जा रहे
हो? बायजीद
ने उसकी तरफ
देखा, उसने
ऐसा तेजस्वी
व्यक्तित्व
कभी नहीं देखा
था। वह उस
व्यक्ति के
निकट आया और
उस फकीर ने
कहा? तुम्हारे
पास जो कुछ भी
हो मुझको दे
दो! तुम कहां
जा रहे हो? वह
बोला, मैं
तीर्थयात्रा
के लिए मक्का
जा रहा हूं।
उसने कहा.
समाप्त। कोई
आवश्यकता
नहीं है, तुम
बस मेरी
उपासना कर लो।
मेरे चारों ओर
तुम जितनी बार
चाहो उतनी बार
गोल—गोल घूम
सकते हो। तुम
अपनी
परिक्रमा, अपना
चक्कर मेरे
चारों ओर पूरा
कर सकते हो।
मैं मक्का हूं?
और बायजीद
उस व्यक्ति के
चुंबकत्व से
इतना ओत—प्रोत
हो गया कि
उसने अपना
सारा धन दे
दिया, उसने
उसकी उपासना
की 1 फिर उस
बूढ़े आदमी ने
कहा अब घर लौट
जाओ; और वह
वापस घर लौट
गया।
जब
वह अपने नगर
में गया, तो
लोग एकत्रित
हो गए और बोले,
लगता है कि
तुमको कुछ हो
गया है। क्या
वास्तव में
इससे कुछ होता
है, मक्का
जाने से कुछ
हो जाता है? तुम तेजस्वी,
प्रकाश से
इतने भरे हुए
लग रहे हो।
उसने कहा : यह
मूर्खता भरी
बातें मत करो!
मुझको एक का
आदमी मिल गया—उसने
मेरी सारी
तीर्थयात्रा
की दिशा बदल
दी। वह कहता
है, घर जाओ,
और तब से
मैं घर जा रहा
हूं भीतर की
ओर। मैं पहुंच
गया हूं। मैं
पहुंच गया हूं
मैं अपनी
मक्का पहुंच
चुका हूं।
बाहर
की मक्का
वास्तविक
मक्का नहीं है।
असली मक्का 'तुम्हारे
भीतर है। तुम
परमात्मा का
मंदिर हो। तुम
परम का आश्रय
हो। इसलिए
प्रश्न यह
नहीं है कि
सत्य को कहां
पाया जाए, प्रश्न
है, तुमने
इसे खो कैसे
दिया? प्रश्न
यह नहीं है कि
कहां जाना है;
तुम पहले से
ही वहां हों—जाना
बंद करो।
सारे
रास्ते छोड़ दो।
सभी रास्ते
आकांक्षाओं
के,
वासनाओं के
विस्तार के, अभिलाषाओं
के प्रक्षेपण
के हैं—कहीं
और जाना है, कहीं और
जाना है, सदैव
कहीं और, यहां
कभी नहीं।
खोजी, सारे
रास्ते छोड़ दो,
क्योंकि
सभी रास्ते
वहां ले जाते
हैं और वह यहां
है।
पुरुषार्थशून्यानां
गुणानां
प्रतिप्रसव:
कैवल्य
स्वरूपप्रतिष्ठा
वा चितिशक्तिरिति।
आज
इतना ही।
अद्भुत शब्द कम है तारीफ में या शब्दों मे ब्यान नहीं होता फिर भी कहना पड़ रहा है
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