'गहरे पानी
पैठ :
(अंतरंग
चर्चा,
बुडलैण्ड)
बम्बई
दिनांक 26
अप्रैल 1971
प्रशांत
महासागर में
एक छोटे—से
द्वीप पर, ईस्टर
आईलैंड में एक
हजार विशाल
मूर्तियां है
जिनमें कोई भी
मूर्ति बीस
फीट से छोटी
नहीं है। और
निवासियों की
कुल संख्या दो
सौ है। एक
हजार, बीस
फीट से बड़ी
विशाल
मूर्तियां
हैं! जब पहली दफा
इस छोटे—से द्वीप
का पता लगा तो
बड़ी कठिनाई
हुई। कठिनाई यह
हुई कि इतने
थोड़े से लोगों
के लिए....... और
ऐसा भी नहीं है
कि कभी उस द्वीप
की आबादी इससे
ज्यादा हो सकी
हो। क्योंकि
उस द्वीप की
सामर्थ्य ही
नहीं है इससे
ज्यादा लोगों
के लिये जो भी
पैदावार हो
सकती है वह
इससे ज्यादा
लोगों को पाल
भी नहीं सकती।
जहां दो सौ
लोग रह सकते
हों, वहां
एक हजार
मूर्तियां
विशाल पत्थर
की खोदने का
प्रयोजन नहीं
मालूम पड़ता।
एक आदमी के
पीछे पांच
मूर्तियां हो
गयीं। और इतनी
बड़ी
मूर्तियां ये
दो सौ लोग
खोदना भी चाहें,
तो नहीं खोद
सकते। इतना महंगा
काम ये गरीब
आदिवासी करना
भी चाहें तो भी
नहीं कर सकते।
इनकी जिंदगी
तो सुबह से
सांझ तक रोटी
कमाने में ही
व्यतीत हो
जाती है। और
इन मूर्तियों
को बनाने में
हजारों वर्ष
लगे होंगे!
क्या
होगा प्रयोजन
इतनी मूर्तियों
का?
किसने इन
मूर्तियों को
बनाया होगा? क्यों बनाया
होगा? इतिहासविद
के सामने बहुत
से सवाल थे।
ऐसी
ही एक जगह
मध्य एशिया
में है। और जब
तक हवाई जहाज
नहीं उपलब्ध
था,
तब तक उस
जगह को समझना
बहुत मुश्किल
पड़ा। हवाई जहाज
के बन जाने के
बाद ही यह
खयाल में आया,
कि वह जगह
कभी जमीन से
हवाई जहाज
उड़ने के लिए
एयरपोर्ट का
काम करती रही
होगी। उस तरह
की जगह के
बनाने का और
कोई प्रयोजन
नहीं हो सकता,
सिवाय इसके
कि वह हवाई जहाज
के उड़ने और
उतरने के काम
में आती रही
हो। फिर वह
जगह नयी नहीं
है। उसको बने
हुए अंदाजन
बीस हजार और
पंद्रह हजार
वर्ष के बीच
का वक्त हुआ
होगा। लेकिन
जब तक हवाई जहाज
नहीं बने थे
तब तक तो
हमारी समझ के
बाहर थी। हवाई
जहाज बने, और
हमने
एयरपोर्ट
बनाए, तब
हमारी समझ में
आया कि कभी
एयरपोर्ट के
काम की होगी
जगह। जब तक यह
नहीं था, तब
तक तो सवाल ही
नहीं उठता था।
यह मैं इसलिए
कह रहा हूं कि
तीर्थ को हम न
समझ पाएंगे, जब तक कि
तीर्थ पुन:
आविष्कृत न हो
जाए।
अब
जाकर, उन
ईस्टर आईलैंड
की मूर्तियां
हैं, उनके
जो एयरव्यु,
आकाश से
हवाई जहाज के
द्वारा जो
चित्र लिए गए
उनसे अंदाज
लगता है कि वह
इस ढंग से
बनायी गयी हैं,
और इस विशेष
व्यवस्था में
बनायी गयी हैं
कि किन्हीं
खास रातों में
चांद पर से
देखी जा सकें।
वह जिस
ज्यामिट्री
के जिन कोणों
में खड़ी की गयी
हैं वह कोण
बनाती हैं
पूरा का पूरा।
और अब जो लोग
उस संबंध में
खोज करते हैं,
उनका खयाल
यह है कि यह
पहला मौका
नहीं है कि हमने
दूसरे पहों पर
जो जीवन है, उससे संबंध
स्थापित करने
की कामना की
है। इसके पहले
भी जमीन पर
बहुत से
प्रयोग किए गए,
जिनसे हम
दूसरे ग्रहों
पर अगर कोई
जीवन, कोई
प्राणी हो, तो उनसे
हमारा संबंध
स्थापित हो
सके। और दूसरे
प्राणी—लोकों
से भी पृथ्वी
तक संबंध
स्थापित हो
सकें इसके
बहुत से
सांकेतिक
इंतजाम किए गए।
यह
जो बीस—तीस
फीट ऊंची मूर्तियां
हैं,
ये अपने आप
में
अर्थपूर्ण
नहीं हैं; लेकिन
जब ऊपर से
उड़कर उनके
पूरे पैटर्न
को देखा जाए, तब इनका
पैटर्न किसी
संकेत की
सूचना देता है।
वह संकेत चांद
से पढ़ा जा
सकता है। पर
जिन लोगों ने
वह बनाया होगा—जब
तक हम हवाई जहाज
में उड़कर न
देख सके, तब
तक हम कल्पना
भी नहीं कर
सकेंगे. तब तक
वह हमारे लिए
मूर्तियां
थीं। ऐसी इस
पृथ्वी पर
बहुत सी चीजें
है, जिनके
संबंध में तब
तक हम कुछ भी
नहीं जान पाते,
जब तक कि
किसी रूप में
हमारी सभ्यता,
उस घटना का
पुनर्आविष्कार
न कर ले।
अभी
मैं दो—तीन
दिन पहले बात
कर रहा था।
तेहरान में एक
छोटा—सा लोहे
का डिब्बा
मिला था। फिर वह
ब्रिटिश
मुजियम में
पड़ा रहा। ये
कोई वर्षों
उसने
प्रतीक्षा की
उस डिब्बे ने।
वह तो अभी—अभी
जाकर पता लगा
है कि वह
बैट्री है, जो
दो हजार साल
पहले तेहरान
में उपयोग में
आती रही। मगर
उसकी बनावट का
ढंग ऐसा था कि
खयाल में नहीं
आ सका। लेकिन
अब तो उसकी
पूरी खोज—बीन
हो गयी।
तेहरान में दो
हजार साल पहले
बैट्री हो
सकती है, इसकी
हम कल्पना
नहीं कर सकते!
इसलिए कभी
सोचा नहीं इस
तरह, लेकिन
अब तो उसमें
पूरा साफ हो
गया है कि वह
बैट्री ही है।
पर अगर हमारे
पास बैट्री न
होती तो हम
किसी भी तरह
से, इस
डिब्बे को
बैट्री खोज
नहीं पाते।
खयाल भी नहीं
आता, धारणा
भी नहीं बनती।
तीर्थ
पुरानी
सभ्यता के
खोजे हुए बहुत
बहुत गहरे, सांकेतिक,
और बहुत
अनूठे
आविष्कार हैं।
लेकिन हमारी
सभ्यता के पास
उनको समझने के
सब रूप खो गए
हैं। सिर्फ एक
मुर्दा
व्यवस्था रह
गयी है। हम
उसको ढोए चले
जाते हैं बिना
यह जाने कि वह
क्यों
निर्मित हुए,
क्या उनका
उपयोग किया
जाता रहा, किन
लोगों ने
उन्हें बनाया,
क्या
प्रयोजन था? और जो ऊपर से
दिखायी पड़ता
है वही सब कुछ
नहीं है, भीतर
कुछ और भी है
जो ऊपर से कभी
भी दिखायी
नहीं पड़ता।
पहली
बात तो यह समझ
लेनी चाहिए कि
हमारी सभ्यता
ने तीर्थ का
अर्थ खो दिया
है। इसलिए जो
आज तीर्थ को
जाते हैं वह
भी करीब—करीब
व्यर्थ जाते
हैं। जो उसका
विरोध करते
हैं वह भी
करीब—करीब
व्यर्थ करते
हैं। बल्कि
विरोध
करनेवाला ही
ठीक मालूम
पड़ेगा, यद्यपि
उसे भी कुछ
पता नहीं है।
वह जिस तीर्थ
का विरोध कर
रहा है वह
तीर्थ की धारणा
नहीं है, यद्यपि
वह तीर्थ
जानेवाला जिस
तीर्थ में जा
रहा है वह भी
तीर्थ की
धारणा नहीं है।
तो चार—पांच
चीजें पहले
खयाल में लेनी
चाहिए।
एक
तो जैसे कि
जैनों का
तीर्थ है—सम्मेत
शिखर। जैनों
के चौबीस
तीर्थंकर में
से बाईस
तीर्थंकरों
का समाधि—स्थल
है वह। चौबीस
में से बाईस
तीर्थंकरों
ने सम्मेत शिखर
पर शरीर
विसर्जन किए
हैं— आयोजित
थी यह
व्यवस्था।
अन्यथा एक जगह
पर जाकर इतने
तीर्थंकरों
का,
चौबीस में
से बाईस का, जीवन अत
होना आसान
मामला नहीं है
बिना आयोजन के।
एक ही स्थान
पर, हजारों
साल के लंबे
फासले में अगर
हम जैनों का
हिसाब मानें,
और मैं
मानता हूं कि
हमें जहां तक
बन सके, जिसका
हिसाब हो उसका
मानने की पहले
कोशिश करनी
चाहिए, तब
तो लाखों
वर्षों का
फासला है—उनके
पहले
तीर्थंकर में
और चौबीसवें
तीर्थंकर में।
लाखों वर्षों
के फासले पर
एक ही स्थान
पर बाईस
तीर्थंकरों
का जाकर अपने
शरीर को छोड़ना
विचारणीय है।
मुसलमानों
का तीर्थ है—काबा।
काबा में
मुहम्मद के
वक्त तक तीन
सौ पैंसठ मूर्तियां
थीं। और हर
दिन की एक अलग मूर्ति
थी। वह तीन सौ
पैंसठ
मूर्तियां
हटा दी गयीं, फेंक
दी गयीं।
लेकिन जो
केंद्रीय
पत्थर था
मूर्तियों का,
जो मंदिर का
केंद्र था, वह नहीं
हटाया गया। तो
काबा
मुसलमानों से
बहुत ज्यादा
पुरानी जगह है।
मुसलमानों की
तो उम्र बहुत
लंबी नहीं है.
चौदह सौ वर्ष।
लेकिन
काबा लाखों
वर्ष पुराना
पत्थर है—वह
जो काला पत्थर
है। और भी
दूसरे एक मजे
की बात है कि
वह पत्थर जमीन
का नहीं है, वह
पत्थर जमीन का
पत्थर नहीं है।
अब तक तो
वैज्ञानिक.
क्योंकि इसके
सिवाय कोई उपाय
नहीं था, वह
जमीन का पत्थर
नहीं है—यह तो
तय है। एक ही
उपाय था हमारे
पास कि वह
उल्कापात में
गिरा हुआ
पत्थर है। जो
पत्थर जमीन पर
गिरते हैं, वह थोड़े
पत्थर नहीं
गिरते, रोज
दस हजार पत्थर
जमीन पर गिरते
हैं, चौबीस
घंटे में। जो
आपको रात तारे
गिरते हुए
दिखायी पड़ते
हैं वह तारे
नहीं होते, वह उल्काएं
है, पत्थर
हैं, जो
जमीन पर गिरते
है। लेकिन जोर
से घर्षण खाकर
हवा का, वे
जल उठते है।
अधिकतर तो बीच
में ही राख हो
जाते हैं, कोई—कोई
जमीन तक पहुंच
जाते हैं। कभी—कभी
जमीन पर बहुत
बड़े पत्थर
पहुंच जाते है।
उन पत्थरों की
बनावट और
निर्मिति
सारी भिन्न होती
है।
यह
जो काबा का
पत्थर है, यह
जमीन का पत्थर
नहीं है। तो सीधी
व्याख्या तो
यह है कि वह
उल्कापात में
गिरा होगा।
लेकिन जो और
गहरे जानते है,
उनका मानना
है, वह
उल्कापात में
गिरा हुआ
पत्थर नहीं है।
जैसे हम आज
जाकर चांद पर
जमीन के चिह्न
छोड़ आए हैं—समझ
लें कि एक लाख
साल बाद यह
पृथ्वी नष्ट
हो चुकी हो, इसकी आबादी
खो चुकी हो, कोई आश्चर्य
नहीं है। कल
अगर तीसरा
महायुद्ध हो
जाए तो यह
पृथ्वी सूनी
हो जाए, पर
चांद पर जो हम
चिह्न छोड़ आए
हैं, हमारे
अंतरिक्ष
यात्री चांद
पर जो वस्तुएं
छोड़ आए हैं वे
वहीं बनी
रहेंगी, सुरक्षित
रहेंगी।
उन्हें बनाया
भी इस ढंग से
गया है कि
लाखों वर्षों
तक सुरक्षित
रह सकें।
अगर
कभी कोई भी
जीवन चांद पर
विकसित हुआ, या
किसी और ग्रह
से चांद पर
पहुंचा, और
वे चीजें
मिलेंगी, तो
उनके लिए भी
कठिनाई होगी
कि वे कहां से
आयी है? उनके
लिए भी कठिनाई
होगी! काबा का
जो पत्थर है वह
सिर्फ
उल्कापात में
गिरा हुआ
पत्थर नहीं है,
वह पत्थर
पृथ्वी पर
किन्हीं और
गर्हों के
यात्रियों
द्वारा छोड़ा
गया पत्थर है।
और उस पत्थर
के माध्यम से
उस मह के
यात्रियों से
संबंध
स्थापित किए
जा सकते थे।
लेकिन पीछे
सिर्फ उसकी
पूजा रह गयी।
उसका पूरा
पूरा विज्ञान
खो गया; उससे
कैसे संबंध
स्थापित किया
जा सके, वह
सारी बात खो
गयी। सिर्फ
पूजा रह गयी।
रूस
का एक आंतरिक्ष
यान,
जिसमें कोई
मनुष्य
यात्री नहीं
था, खो गया
और क्योंकि
उसकी जो
रेडियो
व्यवस्था थी,
हमसे वह टूट
गयी—उसका
रेडियो खराब
हो गया। जैसे
उसका रेडियो
खराब हुआ, हम
यह भी पता न
लगा सके कि वह
कहां गया? वह
कहां गया, कहां
है? बचा, जला, समाप्त
हुआ, हम
कुछ भी पता न
लगा सके! इस
अनंत
अंतरिक्ष में अब
हम उसका कभी
भी पता नहीं
लगा सकेंगे; क्योंकि
उससे संबंध के
सब सूत्र खो
गए।
वह
अगर किसी ग्रह
पर गिर जाए तो
उस ग्रह के
यात्री भी
क्या करेंगे? अगर
उनके पास इतनी
वैज्ञानिक
उपलब्धि हो कि
उसके रेडियो
को ठीक कर
सकें, तो
हमसे संबंध
स्थापित हो
सकता है।
अन्यथा उसको
तोड़—फोड़ करके
वह उनके पास
अगर कोई मूजियम
होगा तो उसमें
रख लेंगे और
किसी तरह की
व्याख्या
करेंगे कि वह
क्या है? अगर
रेडियो तक
उनका विकास
हुआ हो तो
उन्हें व्याख्या
करने की जरूरत
न पड़ेगी। तब
वह उसके राज
को खोल लेंगे।
अगर ऐसा न हुआ
हो तो वह
भयभीत हो सकते
है उससे, डर
सकते है, अभिभूत
हो सकते हैं, आत्मर्यचकित
हो सकते है, पूजा कर
सकते हैं।
काबा
का पत्थर उन
छोटे से
उपकरणों में
से एक है जो
कभी दूसरे
अंतरिक्ष के
यात्रियों ने
छोड़ा और जिनसे
कभी संबंध
स्थापित हो
सकते थे। यह
मैं उदाहरण के
लिए कह रहा
हूं आपको, क्योंकि
तीर्थ हमारी
ऐसी
व्यवस्थाएं
है जिससे हम
अंतरिक्ष के
जीवन से संबंध
स्थापित नहीं
करते बल्कि इस
पृथ्वी पर ही
जो चेतनाएं
विकसित होकर
विदा हो गयीं,
उनसे पुन:
पुन: संबंध
स्थापित कर
सकते हैं।
और
इस संभावनाओं
को बढ़ाने के
लिए जैसे कि
सम्मेत शिखर
पर बहुत गहरा
प्रयोग हुआ—बाईस
तीर्थंकरों
का सम्मेत
शिखर पर जाकर
समाधि लेना, गहरा
प्रयोग था। वह
इस चेष्टा में
था कि उस स्थल
पर इतनी सघनता
हो जाए कि
संबंध
स्थापित करने
आसान हो जाएं।
उस स्थान से
इतनी चेतनाएं
यात्रा करें
दूसरे लोक में,
कि उस स्थान
और दूसरे लोक
के बीच सुनिश्रित
मार्ग बन जाए।
वह सुनिश्चित
मार्ग रहा है।
और
जैसे जमीन पर
सब जगह एक—सी
वर्षा नहीं
होती, घनी
वर्षा के स्थल
हैं, विरल
वर्षा के स्थल
हैं, रेगिस्तान
हैं जहां कोई
वर्षा नहीं
होती, और
ऐसे स्थान हैं
जहां पांच सौ
इंच वर्षा
होती है। ऐसी
जगह हैं जहां
ठंडा है सब और
बर्फ के सिवाय
कुछ भी नहीं
बनता, और
ऐसे स्थान हैं
जहां सब गर्म
है, और
बर्फ भर नहीं
बन सकता।
ठीक
वैसे ही
पृथ्वी पर
चेतना की
डेंसिटी और नान—डेंसिटी
के स्थल हैं।
और उनको बनाने
की कोशिश की
गयी है, उनको
निर्मित करने
की कोशिश की
गयी है।
क्योंकि वह
अपने आप
निर्मित नहीं
होगें, वह
मनुष्य की
चेतना से
निर्मित
होंगे। जैसे
सम्मेत शिखर
पर बाईस
तीर्थंकरों
का यात्रा
करके, समाधि
में प्रवेश
करना, और
उसी एक जगह से
शरीर को छोड़ना;
उस जगह पर
इतनी घनी चेतना
का प्रयोग है
कि वह जगह चार्ज्ड
हो जाएगी
विशेष अर्थों
में। और वहां
कोई भी
व्यक्ति बैठे
उस जगह पर और
उन विशेष
मंत्रों का
प्रयोग करे, जिन मंत्रों
को उन बाईस
लोगों ने किया
है, तो
तत्काल उसकी
चेतना शरीर को
छोड्कर
यात्रा करनी
शुरू कर देगी।
वह प्रक्रिया
वैसी ही
विज्ञान की है
जैसी कि और
विज्ञान की
सारी
प्रक्रियाएं
हैं।
तीर्थों
को बनाने का
एक तो प्रयोजन
यह था कि हम इस
तरह के चार्ज्ड, ऊर्जा
से भरे हुए
स्थल पैदा कर
लें जहां से
कोई भी
व्यक्ति
सुगमता से
यात्रा कर सके।
करीब—करीब
वैसे ही है, जैसे—एक तो
होता है कि हम
नाव में पतवार
लगाकर और नाव
को खेवें।
दूसरा यह होता
है कि हम
पतवार को
चलाएं ही न, नाव के पाल
खोल दें और
उचित समय पर, और उचित हवा
की दिशा में
नाव को बहने
दें।
तीर्थ
वैसी जगह थी, जहां
से कि चेतना
की एक धारा
अपने आप
प्रवाहित हो
रही है, जिसको
प्रवाहित
करने के लिए
सदियों ने
मेहनत की है।
आप सिर्फ उस
धारा में खड़े
हो जाएं और
आपकी चेतना का
पाल तन जाए और
आप एक यात्रा
पर निकल जाएं।
जितनी मेहनत
आपको अकेले
में करनी पड़े,
उससे बहुत
अल्प मेहनत
में यात्रा
संभव हो सकती
है।
विपरीत
स्थल पर खड़े
होकर यात्रा
अत्यंत कठिन
भी हो सकती है।
हवाएं जब
उल्टी तरफ बह
रही हों और आप
पाल खोल दें, तो
बजाए इसके कि
आप पहुंचे और
भटक जाएं इसकी
पूरी संभावना
है।
अब
जैसे, अगर आप
किसी ऐसी जगह
में ध्यान कर
रहे हैं जहां
चारों ओर
नकाराअक
भावावेश
प्रवाहित
होते हैं, निगेटिव
इमोशंस प्रवाहित
होते हैं। समझ
लें कि आप एक
जगह बैठ कर
ध्यान कर रहे
हैं और आपके
चारों तरफ
हत्यारे बैठे
हुए हैं। तो
आपको कल्पना
भी नहीं हो
सकती कि ध्यान
करने के क्षण
में आप इतने
रिसेटिव हो
जाते हैं कि आस—पास
जो भी हो रहा
है वह तत्काल
आप में प्रवेश
कर जाता है।
ध्यान एक रिसेटिविटी
है, एक ग्राहकता
है। ध्यान में
आप 'वलनेबल'
हो जाते हैं,
खुल जाते
हैं और कोई भी
चीज आप में
प्रवेश कर सकती
है।
इसलिए
ध्यान के क्षण
में,
आस—पास कैसी
तरंगें हैं
चेतना की, वह
विचार कर लेना
बहुत उपयोगी
है। अगर ऐसी
तरंगे आपके
चारों तरफ हैं,
जो कि आपको
गलत तरफ झुका
सकती हैं, तो
ध्यान महंगा
भी पड सकता है।
और
या फिर ध्यान
एक जद्दोजहद
और एक संघर्ष
बन जाएगा। जब
कभी ध्यान में
आपको अचानक
ऐसे खयाल आने
लगते जो आपको
कभी भी नहीं
आए थे, जब
ध्यान के क्षण
में आपको एक
क्षण भी शांत
होना मुश्किल
होने लगता है
कि इससे
ज्यादा शांत
तो आप बिना
ध्यान कै ही
रहते हैं, औ
कभी अभी ऐसा
लगता है। तब
आपको कभी खयाल
न आया होगा कि
ध्यान के क्षण
में आस—पास जो
भी प्रवाहित
होता है वह आप
में सुगमता से
प्रवेश पा
जाता है।
कारागृह
में भी बैठकर
भी ध्यान किया
जा सकता है, पर
बड़ा सबल
व्यक्तित्व
चाहिए। और
कारागृह में
बैठकर ध्यान
करना हो तो
प्रक्रियाएं
भिन्न चाहिए।
ऐसी
प्रक्रियाएं
चाहिए जो पहले
आपके चारों तरफ
अवरोध की एक
सीमा रेखा
निर्मित कर
दें, जिसके
भीतर कुछ
प्रवेश न कर
सके। पर तीर्थ
में वैसे
अवरोध की कोई
जरूरत नहीं है।
तीर्थ में
तीर्थ में ऐसी
ध्यान की
प्रक्रिया चाहिए
जो आपके आस—पास
का सब अवरोध
सब
रईइसिस्टेंस',
सब द्वार—दरवाजे
खुले छोड़ दें!
हवाएं वहां बह
रही हैं।
सैकडों
लोगों ने उस
जगह से अनंत
में प्रवाहित होकर
एक मार्ग
निर्मित किया
है। ठीक मार्ग
ही कहना चाहिए
जैसे कि हम
रास्ते बनाते
है सड़को पर एक
जंगु में हम एक
रास्ता बना
देते है।
दरख्त गिरा
देते है और एक
पका रास्ता
बना लेते हैं, और
दूसरे पीछे
चलनेवाले
यात्री को बड़ी
सुगमता हो जाए।
ठीक आत्मिक
अर्थों में भी
इस तरह के
रास्ते निर्मित
करने की कोशिश
की गयी। कमजोर
आदमियों को
जिस तरह भी
सहायता
पहुंचाई जा
सके, उस
तरह की सहायता,
जो
शक्तिशाली थे,
उन्होंने
सदा पहुंचाने
की कोशिश की।
तीर्थ उनमें
एक बहुत बड़ा
प्रयोग है।
तो
पहला तो तीर्थ
का प्रयोजन यह
है कि आपको जहां
हवाएं शरीर से
आत्मा की तरफ
बह ही रही हैं, जहां
पूरा
तरंगायित है वायुमंडल,
जहां से लोग
ऊर्ध्वगामी
हुए, जहां
बैठकर लोग
समाधिस्थ हुए,
जहां बैठकर
लोगों ने
परमात्मा का
दर्शन पाया जहां
यह अनूठी घटना
घटती रही हैं
सैकडों वर्षो
तक वह जगह एक
विशेष आविष्ट
जगह हो गयी।
उस आविष्ट जगह
में आप अपने
पाल को भर
खुला छोड़ दें,
कुछ और न
करें, तो
भी आपकी
यात्रा शुरू
होगी। तो
तीर्थ का पहला
प्रयोग तो ये
था।
इसलिए
सभी धर्मों ने
तीर्थ
निर्मित किए।
उन धर्मों ने
भी तीर्थ
निर्मित किए
जो मंदिर के
पक्ष में नहीं
थे। यह बड़े
मजे की बात है
क्योंकि
मंदिर के पक्ष
में कोई तीर्थ
निर्मित करे
धर्म, समझ में
आता है। लेकिन
जो धर्म मंदिर
के पक्ष में न
थे, जो
धर्म मूर्ति
के विरोधी थे,
उनको भी
तीर्थ तो
निर्मित करना
ही पड़ा।
मूर्ति का
विरोध आसान
हुआ, मूर्ति
हटा दी वह भी
कठिन न हुआ, लेकिन तीर्थ
को हटाया नहीं
जा सका।
क्योंकि
तीर्थ का और
भी व्यापक
उपयोग था जिसको
कोई धर्म इनकार
न कर सका।
जैसे
कि जैन भी
मूलतः
मूर्तिपूजक
नहीं हैं, मुसलमान
मूर्तिपूजक
नहीं हैं, सिक्ख
मूर्तिपूजक
नहीं है—बुद्ध
मूर्तिपूजक
नहीं थे
प्रारंभ में—लेकिन
इन सबने भी
तीर्थ
निर्मित किए
हैं। तीर्थ
निर्मित करने
ही पड़े। सच तो
यह है कि बिना
तीर्थ के धर्म
का कोई अर्थ
ही नहीं रह
जाता। ठीक है.
बिना तीर्थ के
धर्म का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता। फिर एक—एक
व्यक्ति जो कर
सकता है, करे।
लेकिन फिर
समूह में खड़े
होने का कोई
प्रयोजन, कोई
अर्थवत्ता
नहीं है।
तीर्थ
शब्द का अर्थ
होता है—घाट।
उसका अर्थ
होता है ऐसी
जगह जहां से
हम उस अनंत सागर
में उतर सकते
हैं। जैनों का
शब्द
तीर्थंकर
तीर्थ से बना
है,
उसका अर्थ
है तीर्थ को
बनानेवाला, और कोई अर्थ
नहीं है उसका।
तीर्थंकर का
अर्थ है तीर्थ
को बनानेवाला।
असल में उसको
ही तीर्थ कहा
जा सकता है, तीर्थंकर
कहा जा सकता
है जिसने ऐसा
तीर्थ
निर्मित किया
हो जहां
साधारण जन खड़े
होते, पाल
खोलते, ऐसे
ही यात्रा पर
संलग्न हो
जाएं। अवतार न
कहकर
तीर्थंकर कहा,
और अवतार से
बड़ी घटना
तीर्थंकर है।
क्योंकि परमात्मा,
आदमी में
अवतरित हो यह
तो एक बात है, लेकिन आदमी
परमात्मा में
प्रवेश का
तीर्थ बना ले,
यह और भी
बड़ी बात है।
जैन, परमात्मा
में भरोसा
करनेवाला
धर्म नहीं है,
आदमी की
सामर्थ्य में
भरोसा
करनेवाला
धर्म है।
इसलिए तीर्थ
और तीर्थंकर
का जितना गहरा
उपयोग जैन कर
पाए उतना कोई
भी नहीं कर
पाया।
क्योंकि यहां
तो कोई ईश्वर
की कृपा पर
उनको खयाल
नहीं है।
ईश्वर कोई
सहारा दे सकता
है, इसका
कोई खयाल नहीं
है। आदमी
अकेला है, और
आदमी को अपनी
ही मेहनत से
यात्रा करनी
है।
लेकिन
दो रास्ते हो
सकते हैं। एक—एक
आदमी अपनी—अपनी
मेहनत करे। पर
तब शायद कभी
करोड़ों में एक
आदमी उपलब्ध
हो पाएगा।
चप्पू से भी
नाव चलाकर
यात्रा तो की
ही जा सकती है, लेकिन
तब कभी कोई
एकाध पार हो
पाएगा। लेकेन
हवाओं का
सहारा लेकर
यात्रा बड़ी
आसान होती है।
तो क्या
आध्यात्मिक
हवाएं संभव
हैं? उस पर
ही तीर्थ का
सब कुछ निर्भर
है। क्या वह
संभव है कि जब
महावीर जैसा
एक व्यक्ति
खड़ा होता है
तो उसके आस—पास
किसी अनजाने
आयाम में कोई
प्रवाह शुरू
होता है? क्या
वह किसी एक
ऐसी दिशा में
बहाव को
निर्मित करता
है कि बहाव
में कोई पड़
जाए, तो बह
जाए? .वही
बहाव तीर्थ है।
इस
पृथ्वी पर तो
उसके जो निशान
हैं वह भौतिक
निशान हैं, लेकिन
वे स्थान न खो
जाएं इसलिए उन
भौतिक निशानों
की बड़ी
सुरक्षा की
गयी है। मंदिर
बनाए गए हैं
उन जगहों पर, या पैरों के
चिन्ह बनाए गए
हैं उन जगहों
पर या मूर्तियां
खड़ी की गई हैं
उन जगहों पर
और उन जगह को
हजारों
वर्षों तक
वैसा का वैसा
रखने की चेष्टा
की गयी है।
इंचभर भी वह
जगह न हिल जाए,
जहां घटना
घटी है कभी!
बड़े—बड़े खजाने
गड़ाए गए हैं, आज भी उनकी
खोज चलती है।
जैसे
कि रूस के
आखिरी जार का
खजाना अमरीका
में कहीं गड़ा
है,
जो कि
पृथ्वी का
सबसे बड़ा
खजाना है और
आज भी खोज
चलती है। वह
खजाना है, यह
पका है, क्योंकि
बहुत दिन नहीं
हुए. अभी
उन्नीस सौ सत्रह
को घटे बहुत
दिन नहीं हुए।
उसका इंच—इंच
हिसाब भी रखा
गया है कि वह
कहां होगा।
लेकिन डिकोड
नहीं हो पा
रहा है, वह
जो हिसाब रखा
गया है उसको
समझा नहीं जा
पा रहा है कि
एक्लैक्ट जगह
कहां है।
जैसे
कि ग्वालियर
में एक बड़ा
खजाना ग्वालियर
फेमिली का है, जिसका
फेमिली के पास
सारा का सारा
हिसाब है, लेकिन
फिर भी जगह
नहीं पकडी जा
रही है कि वह
जगह कहां है, वह डिकोड
नहीं हो रहा
है। नक्शा जो
है—इस तरह के
सब नक्शे
गुप्त भाषा
में ही
निर्मित किए
जाते हैं, अन्यथा
कोई भी डिकोड
कर लेगा।
सामान्य भाषा
में वे नहीं
लिखे जाते।
इन
तीर्थों का भी
पूरा का पूरा
सूचन है। इसलिए
जरूरी नहीं है, जैसा
कि आम लोग समझ
लेते हैं। और
वह आम लोग
गड़बड़ न कर
पाएं इसलिए
बड़े उपाय किए
जाते हैं। वह
मैं आपको कहूं
तो बहुत
हैरानी होगी।
जैसे जहां आप
जाते हैं और
आपसे कहा जाता
है कि यह जगह
है जहां
महावीर
निर्वाण को
उलपब्ध हुए—बहुत
संभावना तो यह
है कि वह जगह
नहीं होगी।
उससे थोड़ी
हटकर वह जगह
होगी जहां
उनका निर्वाण
हुआ। उस जगह
पर तो प्रवेश
उनको ही मिल
सकेगा, जो
सच में ही
पात्र हैं और
उस यात्रा पर
निकल सकते हैं।
एक फाल्स जगह,
एक झूठी जगह
आम आदमी से
बचाने के लिए
खडी की जाएगी,
जिसपर
तीर्थयात्री
जाता रहेगा, नमस्कार
करता रहेगा और
लौटता रहेगा।
वह जगह तो
उनको ही बतायी
जाएगी जो
सचमुच उस जगह
आ गए है, जहां
से वह सहायता
लेने के योग्य
हैं या उनको सहायता
मिलनी चाहिए।
ऐसी बहुत—सी
जगह हैं।
अरब
में एक गांव
है जिसमें आज
तक किसी सभ्य
आदमी को
प्रवेश नहीं
मिल सका— आज तक, अभी
भी! चांद पर आप
प्रवेश कर गए,
लेकिन छोटे
से गांव अल्कुफा
में आज तक
किसी यात्री
को प्रवेश
नहीं मिल सका।
सच तो यह है कि
आज तक यह ठीक
हो सका नहीं
कि वह कहां है!
और वह गांव है,
इसमें कोई
शक—शुबहा नहीं,
क्योंकि
हजारों साल से
इतिहास उसकी
खबर देता है।
किताबें उसकी
खबर देती हैं।
उसके नक्शे
हैं।
वह
गांव कुछ बहुत
प्रयोजन से
छिपाकर रखा
गया है। और
सूफियों में
जब कोई बहुत
गहरी अवस्था
में होता है
तभी उसको उस
गांव में
प्रवेश मिलता
है। उसकी
सीक्रेट 'की'
है। अल्कुफा
के गांव में
उसी सूफी को
प्रवेश मिलता
है जो ध्यान
में उसका
रास्ता खोज
लेता है, अन्यथा
नहीं। उसकी 'की' है
फिर तो उसे
कोई रोक भी
नहीं सकता।
अन्यथा कोई
उपाय नहीं है।
नक्शे हैं, सब तैयार है,
लेकिन फिर
भी उसका पता
नहीं लगता, वह कहां है।
वह सब एक अर्थ
में नक्शे
थोड़े से झूठ
हैं और भटकाने
के लिए हैं।
उन नक्शो को
जो मानकर
चलेगा वह अल्कुफा
कभी नहीं
पहुंच पाएगा।
इसलिए
बहुत यात्री, योरोप
के पिछले तीन
सौ वर्षों में
सैकड़ों यात्री
अल्कुफा को
ढूंढने गए।
उनमें से कुछ
तो कभी लौटे
नहीं, मर
गए! जो लौटे वे
कभी कहीं
पहुंचे नहीं।
वे सिर्फ
चक्कर मारकर
वापस आ गए। सब
तरह से कोशिश
की जा चुकी है।
पर उसकी कुंजी
है। और वह
कुंजी एक
विशेष ध्यान
है; और उस
विशेष ध्यान
में ही अल्कुफा
पूरा का पूरा
प्रगट होता है।
और वह सूफी
उठता है और चल
पड़ता है। और
जब इतनी
योग्यता हो
तभी उस गांव
से गति है। वह
एक सीक्रेट
तीर्थ है जो
इस्लाम से
बहुत पुराना
है। लेकिन
उसको गुप्त
रखा गया है।
इन तीर्थों
में भी जो
जाहिर है, इन
तीर्थों में
भी जो जाहिर
दिखायी पड़ते
हैं, वे
असली तीर्थ
नहीं हैं। आस—पास
असली तीर्थ
हैं।
जैसे
एक मजेदार
घटना घटी।
विश्वनाथ के
मंदिर में, काशी
में, जब
विनोबा
हरिजनों को
लेकर प्रवेश
कर गए, तो
करपात्री ने
कहा कि कोई
हर्ज नहीं, हम दूसरा
मंदिर बना
लेंगे, और
दूसरा मंदिर
बनाना शुरू कर
दिया। वह
मंदिर तो
बेकार हो गया।
तो दूसरा
मंदिर बनाना
शुरू कर दिया।
साधारणत:
देखने में
विनोबा
ज्यादा
समझदार आदमी
मालूम पड़ते
हैं करपात्री
से। असलियत
ऐसी नहीं है।
साधारणत:
देखने में
करपात्री
निपट
पुराणपंथी, नासमझ, आधुनिक
जगत और शान से
वंचित मालूम
पड़ते हैं। यह
थोड़ी दूर तक
सच है बात।
लेकिन फिर भी
जिस गहरी बात
की वह ताईद कर
रहे हैं उसके
मामले में वह
ज्यादा
जानकार हैं।
सच
बात यह है कि
विश्वनाथ का
यह मंदिर भी
असली नहीं है, और
वह जो दूसरा
बनाएंगे वह भी
असली नहीं
होगा। असली
मंदिर तो
तीसरा है।
लेकिन उसकी
जानकारी सीधी
नहीं दी जा
सकती। और असली
मंदिर को
छिपाकर रखना
पडेगा, नहीं
तो कभी भी कोई
भी धर्म
सुधारक और
समाज सुधारक
उसको भ्रष्ट
कर सकता है।
अभी जो विश्वनाथ
का मंदिर है
खड़ा हुआ, इसको
तो नष्ट किया
जा चुका है।
इसमें कोई
उपाय नहीं है,
इसमें कोई
कठिनाई भी
नहीं है, चाहे
नष्ट कर दो।
वह
जो दूसरा
बनाया जा रहा
है वह भी 'फाल्स'
है। लेकिन
एक फाल्स
बनाए ही रखना
पडेगा, ताकि
असली पर नजर न
जाए। और असली
को छिपाकर रखना
पड़ेगा।
विश्वनाथ के
मंदिर में
प्रवेश की
कुंजियां हैं,
जैसे अल्कुफा
में प्रवेश की
कुंजियां हैं।
उसमें कभी कोई
सौभाग्यशाली
संन्यासी
प्रवेश पाता
है। उसमें कोई
ग्रहस्थ कभी
प्रवेश नहीं
पाया और कभी
पा नहीं सकेगा।
सभी संन्यासी
को भी उसमें
प्रवेश नहीं
मिल पाते हैं
कभी कोई
सौभाग्यशाली
संन्यासी
उसमें प्रवेश पाते
हैं। और उसे
सब भांति
छिपाकर रखा
जाएगा। उसके
मंत्र हैं और
जिनके प्रयोग
से उसका द्वार
खुलेगा, नहीं
तो उसका द्वार
नहीं खुलेगा।
उसका बोध ही
नहीं होगा, उसका खयाल
ही नहीं आएगा।
काशी
में जाकर इस
मंदिर की लोग
पूजा, प्रार्थना
करके वापस लौट
आएंगे। मगर इस
मंदिर की भी
अपनी एक
सेंक्टिटी बन
गयी थी। यह
झूठा था, लेकिन
फिर भी लाखों
वर्षों से
उसको सच्चा
मानकर चला जा
रहा था। उसमें
भी एक तरह की
पवित्रता आ
गयी।’
सारे
धर्मों ने
कोशिश की है
कि उनके मंदिर
में या उनके
तीर्थ में
दूसरे धर्म का
व्यक्ति
प्रवेश न करे।
आज हमें
बेहूदी लगती
है यह बात। हम
कहेंगे, इससे
क्या मतलब? लेकिन
जिन्होंने
व्यवस्था की
थी, उनके
कुछ कारण थे।
यह करीब—करीब
मामला ऐसा ही
है जैसे कि
एटामिक
इनर्जी की एक
लेबोरेटरी है
और अगर यह
लिखा हो कि
यहां सिवाय
एटामिक
साइंटिस्ट के
कोई प्रवेश
नहीं करेगा, तो हमें कोई
कठिनाई नहीं
होगी। हम
कहेंगे, बिलकुल
ठीक है, बिलकुल
दुरुस्त है।
खतरे से खाली
नहीं है दूसरे
आदमी का भीतर
प्रवेश करना!
लेकिन
यही बात हम
मंदिर और
तीर्थ के
संबंध में
मानने को राजी
नहीं हैं, क्योंकि
हमें यह खयाल
ही नहीं है कि
मंदिर और
तीर्थ की अपनी
साइंस है। और
वह विशेष
लोगों के
प्रवेश के लिए
है। आज भी एक
मरीज बीमार
पड़ा है और
उसके चारों
तरफ डाक्टर
खड़े होकर बात
करते रहते हैं।
मरीज सुनता है,
समझ तो कुछ
नहीं पाता
क्योंकि
डाक्टर एक कोड
लेंग्वेज में
बात कर रहे
हैं। वह लैटिन
या ग्रीक
शब्दों का
उपयोग कर रहे
हैं। वे जो
बोल रहे हैं, मरीज सुन
रहा है, लेकिन
समझ नहीं सकता।
मरीज के हित
में नहीं है
कि वह समझे।
इसलिए सारे
धर्मों ने
अपनी कोड
लेंग्वेज विकसित
की थी। उसके
गुप्त तीर्थ
थे, उसकी
गुप्त भाषाएं
थीं, उसके
गुप्त शाख थे।
और आज भी
जिनको हम
तीर्थ समझ रहे
हैं उनमें
बहुत कम
संभावना है सही
होने की।
जिनको हम शाख
समझ रहे हैं
उनमें भी बहुत
कम संभावना है
सही होने की।
वह
जो सीक्रेट
ट्रेडीशन है, उसे
तो छिपाने की
निरंतर कोशिश
की जाती है।
क्योंकि जैसे
ही वह आम आदमी
के हाथ में
पड़ती है, उसके
विकृत हो जाने
का डर है। और
आम आदमी उससे
परेशान ही
होगा, लाभ
नहीं उठा सकता।
जैसे अगर
सूफियों के
गांव अल्कुफा
में अचानक
आपको प्रवेश
करवा दिया जाए,
तो पागल हो
जाएंगे। अल्कुफा
की यह परंपरा
है कि वहां
अगर कोई आदमी
आकस्मिक
प्रवेश कर जाए
तो पागल होकर
लौटेगा—वह
लौटेगा ही!
इसमें किसी का
कोई कसूर नहीं
है।
क्योंकि
अल्कुफा इस
तरह की पूरे
के पूरे
मनस्तरंगों
से निर्मित है
कि आपका मन
उसको झेल नहीं
पाएगा। आप
विक्षिप्त हो
जाएंगे। उतनी
सामर्थ्य और
पात्रता के
बिना उचित
नहीं है कि
वहां प्रवेश
हो। जैसे अल्कुफा
के
बाबत कुछ
बातें खयाल
में ले लें तो
और तीर्थों का
खयाल में आ
जाएगा।
जैसे
अल्कुफा में
नींद असंभव है, कोई
आदमी सो नहीं
सकता। तो आप
पागल हो ही
जाएंगे जब तक
कि आपने जागरण
का गहन प्रयोग
न किया हो।
इसलिए सूफी
फकीर की सबसे
बडी जो साधना
है वह रात्रि
जागरण है, रातभर
जागते रहेंगे!
और एक सीमा के
बाद. एक बहुत
सोचने जैसी बात
है—एक आदमी
नब्बे दिन तक
खाना न खाए तो
भी सिर्फ दुर्बल
होगा, मर
नहीं जाएगा!
पागल नहीं हो
जाएगा!
साधारण
स्वस्थ आदमी
आसानी से
नब्बे दिन, बिना
खाना खाए रह
सकता है।
लेकिन साधारण
स्वस्थ आदमी
इक्कीस दिन भी
बिना सोए नहीं
रह सकता। तीन
महीने बिना
खाए रह सकता
है, तीन
सप्ताह बिना
सोए नहीं रह
सकता। तीन
सप्ताह तो
बहुत ज्यादा
कह रहा हूं एक
सप्ताह भी
बिना सोए रहना
कठिन मामला है।
पर अल्कुफा
में नींद
असंभव है।
एक
बौद्ध भिक्षु
को सीलोन से
किसी ने मेरे
पास भेजा।
उसकी तीन साल
से नींद खो
गयी थी, तो
उसकी जो हालत
हो सकती थी वह
हो गयी। पूरे
वक्त हाथ—पैर
कंपते रहेंगे,
पसीना
छूटता रहेगा
और घबराहट
होती रहेगी।
एक कदम भी
उठायेगा तो
डरेगा, भरोसा
अपने ऊपर का
सब खो गया, नींद
आती नहीं है।
बिलकुल
विक्षिप्त और
अजीब सी हालत
है। उसने बहुत
इलाज करवाया
क्योंकि वह..
वह यहां सब
तरह के इलाज
उसने करवा लिए,
कुछ फायदा
हुआ नहीं; कोई
ट्रैकोलाइजर
उसको सुला
नहीं सकता था।
उसे गहरे से
गहरे
ट्रैकोलाइजर
दिए गए तो भी उसने
कहा कि मैं
बाहर से सुस्त
होकर पड जाता
हूं लेकिन
भीतर तो मुझे
पता चलता ही
रहता है कि मैं
जगा हुआ हूं।
उसे
किसी ने मेरे
पास भेजा।
मैंने उसको
कहा कि
तुम्हें कभी
नींद आएगी नहीं, ट्रैकोलाइजर
से या और किसी
उपाय से। तुम
बुद्ध का
अनापान सती
योग तो नहीं
कर रहे हो? क्योंकि
बौद्ध भिक्षु
के लिए वह
अनिवार्य है।
उसने कहा, वह
तो मैं कर ही
रहा हूं। उसके
बिना तो.. मैं
फिर मैंने कहा,
तुम नींद का
खयाल छोड़ दो।
अनापान
सती योग का
प्रयोग ऐसा है
कि नींद खो जाएगी।
मगर वह
प्राथमिक
प्रयोग है। और
जब नींद खो
जाए तब दूसरा
प्रयोग
तत्काल जोड़ा
जाना चाहिए।
अगर उसको ही
करते रहे तो पागल
हो जाओगे, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
वह सिर्फ
प्राथमिक प्रयोग
है, वह
सिर्फ नींद
हटाने का
प्रयोग है। एक
दफा भीतर से
नींद हट जाए
तो आपके भीतर
इतना फर्क
पड़ता है चेतना
में कि उस
क्षण का उपयोग
करके आगे गति
की जा सकती है।
तो
मैंने कहा—कोई
दूसरी
प्रक्रिया
तुझे मालूम है? उसने
कहा, मुझे
दूसरी किसी ने
तो अनापान सती
बतायी नहीं।
बस अनापान सती
किताब में
लिखी हुई है, और सबको
मालूम है। और
खतरनाक है
उसका किताब
में लिखना!
क्योंकि उसको
करके कोई भी
आदमी नींद से
वंचित हो सकता
है। और जब
नींद से वंचित
हो जाएगा, तो
दूसरी
प्रक्रिया का
कोई पता नहीं!
इसलिए
सदा बहुत—सी
चीजें गुप्त
रखी गयीं।
गुप्त रखने का
और कोई कारण
नहीं था, किसी
से छिपाने का
कोई और कारण
नहीं था।
जिनको हम लाभ
पहुंचाना
चाहते हैं
उनको नुकसान
पहुंच जाए तो
कोई अर्थ नहीं।
तो वास्तविक
तीर्थ छिपे
हुए और गुप्त
हैं। तीर्थ
जरूर हैं, पर
वास्तविक
तीर्थ छिपे
हुए, गुप्त
हैं। करीब—करीब
निकट हैं
उन्हीं
तीर्थों के, जहां आपके 'फाल्स' तीर्थ
खड़े हुए हैं।
और वह जो फाल्स
तीर्थ हैं, वह जो झूठे
तीर्थ हैं, धोखा देने
के लिए खड़े
किए गए हैं।
वह इसलिए खड़े
किए गए हैं कि
ठीक पर कहीं
गलत आदमी न
पहुंच जाए।
ठीक आदमी तो
ठीक पहुंच ही
जाता है। और
हरेक तीर्थ की
अपनी
कुंजियां हैं।
इसलिए अगर
सूफियों का
तीर्थ खोजना
हो तो जैनियों
के तीर्थ की
कुंजी से नहीं
खोजा जा सकता।
अगर जैनियों
का तीर्थ
खोजना है तो
सूफियों की
कुंजी से नहीं
खोजा जा सकता।
सबकी अपनी
कुंजियां हैं,
और उन
कुंजियों का
उपयोग करके
तत्काल खोजा
जा सकता है।
तत्काल...! नाम
नहीं लेता, किंतु किसी
के तीर्थ की
एक कुंजी आपको
बताता हूं।
एक
विशेष यंत्र
जैसे कि
तिब्बतियों
के होते हैं, जिसमें
खास तरह की
आकृतियां बनी
होती हैं—वे
यंत्र
कुंजियां हैं।
जैसे हिंदुओं
के पास भी
यंत्र हैं, और हजार यंत्र
हैं। आप घरों
में भी 'लाभ
शुभ' बनाकर
कभी—कभी आंकडे
लिखकर और
यंत्र बना
लेते हैं, बिना
जाने कि
किसलिए बना
रहे हैं।
क्यों लिख रहे
हैं यह? आपको
खयाल भी नहीं
हो सकता है कि
आप अपने मकान में
एक ऐसा यंत्र
बनाए हुए हैं
जो किसी तीर्थ
की कुंजी हो
सकती है। मगर
बाप—दादे आपके
बनाते रहते
हैं और आप
बनाए चले जा रहे
हैं।
एक
विशेष आकृति
पर ध्यान करने
से आपकी चेतना
विशेष आकृति
लेती है। हर
आकृति आपके
भीतर चेतना को
आकृति देती है।
जैसे कि अगर
आप बहुत देर
तक खिड़की पर आंख
लगाकर देखते
रहें, फिर आंख
बंद करें तो
खिड़की का
निगेटिव चौखटा
आपकी आंख के
भीतर बन जाता
है—वह निगेटिव
है। अगर किसी
यंत्र पर आप
ध्यान करें तो
उससे ठीक उल्टा
निगेटिव
चौखटा और
निगेटिव आकड़े
आपके भीतर
निर्मित होते
हैं। वह, विशेष
ध्यान के बाद
आपको भीतर
दिखायी पड़ना
शुरू हो जाता
है। और जब वह
दिखायी पड़ना
शुरू हौ जाए, तब विशेष
आह्वान करने
से तत्काल
आपकी यात्रा
शुरू हो जाती
है।
नसरुद्दीन
के जीवन में
एक कहानी है।
नसरुद्दीन का
गधा खो गया है।
वह उसकी
संपत्ति है, सब
कुछ। सारा
गांव खोज डाला,
सारे गांव
के लोग खोज—खोजकर
परेशान हो गए,
कहीं कोई
पता नहीं चला।
फिर लोगों ने
कहा, ऐसा
मालूम होता है
कि किसी तीर्थ
यात्रियों के
साथ यात्री
निकल रहे हैं,
तीर्थ का
महीना है। और
गधा दिखता है
कि कहीं तीर्थ
यात्रियों के साथ
निकल गया!
गांव में तो
नहीं है, गांव
के आस—पास भी
नहीं है, सब
जगह खोज डाला
गया।
नसरुद्दीन से
लोगों ने कहा,
अब तुम माफ
करो, समझो
कि खो गया, अब
वह मिलेगा
नहीं।
नसरुद्दीन
ने कहा कि मैं
आखिरी उपाय और
कर लूं। वह
खड़ा हो गया, आंख
उसने बंद कर
ली। थोड़ी देर
में वह झुक
गया चारों हाथ—पैर
से, और
उसने चलना
शुरू कर दिया।
और वह उस मकान
का चक्कर
लगाकर, और
उस बगीचे का
चक्कर लगाकर
उस जगह पहुंच
गया जहां एक
खड्डे में
उसका गधा गिर
पड़ा था। लोगों
ने कहा, नसरुद्दीन
हद्द कर दी
तुम्हारी खोज
ने! यह तरकीब
क्या है? उसने
कहा, मैंने
सोचा कि जब
आदमी नहीं खोज
सका, तो
मतलब यह है कि
गधे की कुंजी
आदमी के पास
नहीं है।
मैंने
सोचा कि मैं
गधा बन जाऊं।
तो मैंने अपने
मन में सिर्फ
यही भावना की
कि 'मैं गधा हो
गया '। अगर
मैं गधा होता
तो कहां जाता
खोजने? गधे
को खोजने कहां
जाता! फिर कब
मेरे हाथ झुककर
जमीन पर लग गए,
और कब मैं
गधे की तरह
चलने लगा, मुझे
पता नहीं।
कैसे मैं चलकर
वहां पहुंच
गया, वह
मुझे पता नहीं।
जब मैंने आंख
खोली तो मैंने
देखा, मेरा
गधा खड्डे में
पड़ा हुआ है।
नसरुद्दीन
तो एक सूफी
फकीर है। यह
कहानी तो कोई
भी पढ़ लेगा और
मजाक समझकर
छोड़ देगा।
लेकिन इसमें
एक 'की' है—इस
छोटी—सी कहानी
में। इसमें 'की' है
खोज की। खोजने
का एक ढंग वह
भी है। और आत्मिक
अर्थों में तो
ढंग वही है।
तो प्रत्येक
तीर्थ की
कुंजियां हैं,
यंत्र हैं।
और तीर्थों का
पहला प्रयोजन
तो यह है कि
आपको उस
आविष्ट धारा
में खड़ा कर
दें जहां धारा
बह रही हो और
आप उसमें बह
जाए—स्व।
दूसरी
बात—मनुष्य के
जीवन में जो
भी है वह सब
पदार्थ से निर्मित
है,
सिर्फ
पदार्थ पर
निर्मित है—
मनुष्य के
जीवन में जो
है, सिर्फ
उसकी आंतरिक
चेतना को
छोड्कर।
लेकिन आंतरिक
चेतना का तो
आपको कोई पता
नहीं है। पता
तो आपको सिर्फ
शरीर का है, और शरीर के
सारे संबंध
पदार्थ से हैं।
थोड़ी—सी
अल्केमी समझ
लें तो दूसरा
तीर्थ का अर्थ
खयाल में आ
जाए।
अल्केमिस्ट
की
प्रक्रियाएं
हैं,
वह सब गहरी
धर्म की
प्रक्रियाएं
है। अब
अल्केमिस्ट
कहते हैं कि
अगर पानी को
एक बार भाप
बनाया जाए और
फिर पानी
बनाया जाए, फिर भाप
बनाया जाए
उसको, फिर
पानी बनाया
जाए—ऐसा एक
हजार बार किया
जाए तो उस
पानी में विशेष
गुण आ जाते
हैं जो साधारण
पानी में नहीं
हैं। इस बात
को पहले मजाक
समझा जाता था।
क्योंकि इससे
क्या फर्क
पड़ेगा? आप
एक दफा पानी
को डिस्टिल्ड
कर लें फिर
दोबारा उस
पानी को भाप
बनाकर
डिस्टिल्ड
करले। फिर
तीसरी बार, फिर चौथी
बार, क्या
फर्क पडेगा।
लेकिन पानी
डिस्टिल्ड ही
रहेगा, लेकिन
अब विज्ञान ने
स्वीकार किया
है कि इसमें
कालिटी बदलती
है। अब
विज्ञान ने
स्वीकार किया
कि वह एक हजार
बार प्रयोग
करने पर उस
पानी में
विशिष्टता आ
जाती है। अब
वह कहां से
आती है अब तक
साफ नहीं हैं,
लेकिन वह
पानी विशेष हो
जाता है। लाख
बार भी उसको
करने के
प्रयोग हैं और
तब वह और
विशेष हो जाता
है। अब आदमी
के शरीर में
हैरान होंगे
जानकर आप कि पचहत्तर
प्रतिशत पानी
है। थोडा बहुत
नहीं, पहचत्तर
प्रतिशत! और
जो पानी है उस
पानी का केमिकल
ढंग वही है, जों समुद्र
के पानी का है।
इसलिए नमक के
बिना आप
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
आपके
शरीर के भीतर
जो पानी है
उसमें नमक की
मात्रा उतनी
ही होनी चाहिए
जितनी समुद्र
के पानी में
है। अगर इस
पानी की
व्यवस्था को
भीतर बदला जा
सके तो आपकी
चेतना की
व्यवस्था को
बदलने में
सुविधा होती
है। तो लाख
बार
डिस्टिल्ड
किया हुआ पानी
अगर पिलाया जा
सके,
तो आपके
भीतर बहुत—सी
वृत्तियों
में एकदम
परिवर्तन
होगा। अब यह
अल्केमिस्ट
हजारों
प्रयोग ऐसे कर
रहे थे। अब एक
लाख दफा पानी
को डिस्टिल्ड
करने में सालों
लग जाते हैं
और एक आदमी
चौबीस घंटे
यही काम कर
रहा था।
इसके
दोहरे परिणाम
होते हैं। एक
तो उस आदमी का
चंचल मन ठहर
जाता था
क्योंकि यह
ऐसा काम था, जिसमें
चंचल होने का
उपाय नहीं था।
रोज सुबह से
सांझ तक वह
यही कर रहा था।
थककर मर जाता
था, और
दिनभर उसने किया
क्या? हाथ
में कुल इतना
है कि पानी को
उसने पच्चीस दफा
डिस्टिल्ड कर
लिया। वर्षों
बीत जाते, वह
आदमी पानी ही
डिस्टिल्ड
करता रहता।
हमें सोचने
में कठिनाई
होगी, पहले
थोड़े दिन में
हम ऊब जाएंगे,
ऊबेंगे तो
हम बंद कर
देंगे। यह मजे
की बात है, जब
जहां भी ऊब आ
जाए वहीं
टर्निंग प्वाइंट
होता है। अगर
आपने बंद कर
दिया तो आप
अपनी पुरानी
स्थिति में
लौट जाते हैं,
और अगर जारी
रखा तो आप नयी
चेतना को जन्म
दे लेते हैं।
जैसे
रात को आपको
नींद आती है।
रोज आप दस बजे
सोते हैं, दस
बजे नींद आने
लगेगी। अगर आप
टिक जाएं दस
बजे और सोने
से मना कर दें,
तो आप आधा
घंटे में..
होना तो यह
चाहिए था कि
नींद और जोर
से आए, लेकिन
आधा घंटे में
यह होगा कि
अचानक आप
पाएंगे कि
सुबह से भी
ज्यादा फ्रेश
हो गए हैं। और
अब नींद आना
मुश्किल हो
जाएगा। वह जो
प्याइंट था, जहां से आप
अपनी स्थिति
में वापस गिर
सकते थे, अगर
सो गए होते तो..।
तब आप कंटीन्यु
रखे होते...।
आपने भीतर की
व्यवस्था तोड़
दी!
तो
शरीर से नयी
शक्ति वापस आ
गयी। शरीर ने
देख लिया कि
आप सोने की
तैयारी नहीं दिखा
रहे हैं, जागना
ही पड़ेगा। तो
शरीर के पास
जो रिजर्वायर
है, जहां
वह शक्ति
संरक्षित
रखता है, जरूरत
के वक्त के
लिए, वह
उसने छोड़ दी
और आप ताजे हो
गए। इतने ताजे
जितने आप सुबह
भी ताजे नहीं
होते।
अब
एक आदमी ऊब
गया है, एक
हजार दफे पानी
को बदल चुका
है। कहते हैं,
उसका गुरु
कह रहा है, लाख
दफे बदलना है
दस साल लगें, पंद्रह साल
लगें, कि
कितने साल
लगें। वह ऊब
गया है, लेकिन
बदले चला जा
रहा है, बदले
चला जा रहा है।
एक घड़ी आएगी
जब कि उसे ऐसा
लगेगा कि अब
अगर मैंने एक
दफा और बदला
तो मैं गिरकर
मर ही जाऊंगा।
अब बहुत हो
गया। इसको अब
मैं न सह
सकूंगा, लेकिन
उसका गुरु कह
रहा है कि बदले
जाओ। और वह
बदलता ही चला
जाता है, और
लौटता नहीं है।
उसका
ये पानी तो
इधर
परिवर्तित हो
ही रहा है, उसकी
चेतना भीतर
परिवर्तित
होती है। और
फिर इस
विशिष्ट पानी
के प्रयोग से
चेतना में
परिणाम होते
हैं। जैसे
गंगा का जो
पानी है, अभी
तक साफ नहीं
हो सका है वैज्ञानिक
को, कि
कैसे उसमें
बहुत—सी
विशेषताएं
हैं, जो दुनिया
की किसी नदी
के पानी में
नहीं हैं।
माना कि
दुनिया की
नदियों के
पानी में न
हों, लेकिन
ठीक गंगा की
बगल से भी जो
नदियां
निकलती हैं
उनके पानी में
भी नहीं है।
ठीक उसी पहाड़
से जो नदी
निकलती है
उसके पानी में
भी नहीं। एक
ही बादल दोनों
नदियों में
पानी गिराता
है और एक ही
पहाड़ का बर्फ
पिघलकर दोनों
नदियों में
जाता है, फिर
भी उस पानी
में वह क्वालिटी
नहीं है जो
गंगा के पानी
.में है।
अब
इस बात को
सिद्ध करना
मुश्किल होगा।
कुछ बातें हैं
जिनको सिद्ध
करना एकदम
मुश्किल है।
लेकिन पूरी की
पूरी गंगा
अल्केमिस्ट
का प्रयोग है, पूरी
की पूरी गंगा!
इसको सिद्ध
करना मुश्किल
होगा, मैं
आपसे कहता हूं
और बहुत सी बातें
जो मैं कह रहा
हूं उसमें से
बहुत—सी बातें
सिद्ध करना
मुश्किल होगा।
पूरी गंगा
साधारण नदी
नहीं है। पूरी
की पूरी गंगा
को
अल्केमिकली
शुद्ध करने की
चेष्टा की गयी
है। और इसलिए
हिंदुओं ने
सारे तीर्थ
अपने, गंगा
के किनारे
निर्मित किए।
एक
महान प्रयोग
था गंगा को एक
विशिष्टता
देने का, जो कि
दुनिया की
किसी नदी में
नहीं है। अब
तो केमिस्ट भी
राजी हैं कि
गंगा का पानी
विशेष है।
किसी नदी का
पानी रख लें, सड जायेगा, गंगा का
पानी वर्षों
नहीं सको।
सडेगा ही नहीं,
सड़ता ही
नहीं। इसलिए
गंगा—जल आप
मजे से रख
सकते हैं।
उसके पास आप दूसरी
किसी बोतल में
पानी भरकर रख
दें, वह
पंद्रह दिन
में सड़ जायेगा।
पर गंगा जल
अपनी
पवित्रता और
शुद्धता को
पूरा कायम
रखेगा। किसी
जल में भी आप
लाशें डाल दें,
वह नदी गंदी
हो जायेगी।
गंगा कितनी ही
लाशों को हजम
कर जाएगी और
कभी गंदी नहीं
होगी।
एक
और हैरानी की
बात है, कि
हड्डी
साधारणत: नहीं
गलती, पर
गंगा में गल
जाती है। गंगा
पूरा पचा डालती
है, कुछ भी
नहीं बचता
उसमें। सभी
लीन हो जाता
है पंच तत्व
में। इसलिए
गंगा में
फेंकने का लाश
को, आग्रह
बना। क्योंकि
बाकी सब जगह
से पूरे पंच
तत्वों में
लीन होने में
सैकड़ों, हजारों
और कभी लाखों
वर्ष लग जाते
हैं। गंगा का
समस्त तत्वों
में वापस
लौटा. देने के लिए
बिलकुल
केमिकल काम है।
वह निर्मित
इसलिए की गयी,
वह पूरी की
पूरी नदी
साधारण पहाड़
से बही हुई नदी
नहीं है। बहाई
गयी नदी है।
पर वह हमारे
खयाल में नहीं
आ सकता। और
गंगोत्री
बहुत छोटी—सी
जगह है, जहां
से गंगा बहती
है।
बड़े
मजे की बात यह
है कि जहां
गंगोत्री को
यात्री
नमस्कार करके
लौट आते हैं, वह
फाल्स
गंगोत्री है।
वह सही
गंगोत्री
नहीं है, सही
को सदा बचाना
पड़ता है। वह
सिर्फ शो है, वह सिर्फ
दिखावा है
जहां से यात्री
को लौटा दिया
जाता है, और
यात्री
नमस्कार करके
लौट आता है।
सही गंगोत्री
को तो हजारों
साल से बचाया
गया है। और इस
तरह निर्मित
किया गया है
कि वहां साधारणत:
पहुंचना संभव
नहीं है।
सिर्फ
एस्ट्रल
ट्रेवलिंग हो
सकती है सही
गंगोत्री पर,
सशरीर
पहुंचना संभव
नहीं है।
जैसा
मैंने कहा कि
सूफियों का अल्कुफा
है। इसमें
सशरीर पहुंचा
जा सकता है।
इसलिए कभी कोई
भूल—चूक से भी
पहुंच सकता है।
यानी चाहे कोई
खोजनेवाला न
पहुंच सके, क्योंकि
खोजनेवाले को
आप धोखा दे
सकते हैं, गलत
नक्शे पकड़ा
सकते हैं।
लेकिन जो
खोजने नहीं
निकला है, अकारण
पहुंच जाए तो
उसको आप धोखा
नहीं दे सकते।
वह पहुंच सकता
है। लेकिन
गंगोत्री पर
पहुंचने के
लिए, सिर्फ
सूक्ष्म शरीर
में ही पहुंचा
जा सकता है, इस शरीर में
से नहीं पहुचा
जा सकता। इस
तरह का सारा
इंतजाम है।
गंगोत्री का
दर्शन सशरीर
कभी नहीं हो
सकता, वह
एस्ट्रल
ट्रेवलिंग है।
ध्यान
में इस शरीर
को यहीं
छोड्कर
यात्रा की जा
सकती है। और
जब कोई
गंगोत्री को
देख ले, एस्ट्रल
ट्रेवलिंग
में, तब
उसको पता चले
कि इस गंगा का
पूरा राज क्या
है? इसलिए
मैंने कहा कि
सिद्ध नहीं
किया जा सकता,
क्योंकि
सिद्ध करने का
कोई उपाय नहीं
है। जिस जगह
से वह गंगा बह
रही है वह जगह
बहुत ही
विशिष्ट रूप
से निर्मित है।
और वहां से जो
पानी
प्रवाहित हो
रहा है वह अल्केमिकल
है। उस
अल्केमिकल
धारा के दोनों
तरफ हिंदुओं
ने अपने तीर्थ
खड़े किए।
आप
यह जानकर
हैरान होगे कि
हिंदुओं के सब
तीर्थ नदी के
किनारे हैं और
जैनों के सब
तीर्थ पहाड़ों
पर हैं। जैन
उस पहाड़ पर ही
तीर्थ
बनाएंगे जो कि
बिलकुल रूखा
हो,
जिस पर
हरियाली भी न
हो, हरियालीवाले
पहाड़ पर वह न
चढ़ेंगे।
हिमालय जैसा
बढ़िया पहाड़
जैनों ने
बिलकुल छोड़ दिया।
अगर पहाड़ ही
चुनना था तो
हिमालय से
बेहतर कुछ भी
न था, पर
हिमालय को
बिलकुल छोड़
दिया। उन्हें
सूखा पहाड़
चाहिए, खुला
पहाड चाहिए, कम से कम
हरियाली हो, कम से कम
पानी हो, क्योंकि
जैन जिस
अल्केमी का
प्रयोग कर रहे
थे वह अल्केमी
शरीर के भीतर
जो ' अग्नि
तत्व' है, उससे
संबंधित है।
और हिंदू जो
प्रयोग कर रहे
थे वह अल्केमी
शरीर के भीतर
जो 'पानी
तत्व' है, उससे
संबंधित है।
दोनों की अपनी
कुंजियां हैं,
और अलग हैं।
हिंदू
तो सोच ही
नहीं सकता कि
नदी के बिना
कैसे तीर्थ हो
सकता है? नदी
के बिना तीर्थ
होने का कोई
अर्थ हिंदुओं
की समझ में
नहीं आ सकता।
हरियाली और
सौदर्य, और
इन सबके बिना
तीर्थ हो सकना,
उसकी समझ के
बाहर की बात
है। वह जिस
तत्व पर काम
कर रहा था, वह
जल है। इसलिए
उसके सब तीर्थ
जल आधारित हैं,
जल से
निर्मित हैं।
जैन
जो मेहनत कर
रहा था उसका
मूल तत्व
अग्रि है, इसलिए
तप पर बहुत
जोर है। इधर
हिंदू शास्त्र
और हिंदू साधु
का जोर बहुत
भिन्न है।
हिंदू साधना
का सूत्र यह
है कि
संन्यासी को,
योगी को दूध,
घी, दही,
इनक़ी
पर्याप्त
मात्रा का
उपयोग करना
चाहिए। ताकि
भीतर
आर्द्रता रहे—सूखापन
न आ जाए। भीतर
सूखापन आ
जायेगा तो
उनकी 'की' काम नहीं कर
सकेगी—वह
आर्द्र रहे।
जैन
की सारी की
सारी चेष्टा
यह है कि भीतर
सब सूख जाए, आर्द्रता
रहे ही नहीं।
इसलिए अगर जैन
मुनि ने सान
भी बंद कर
दिया, तो
उसके कारण हैं।
उतना भी पानी
का उपयोग नहीं
करना है। अब
आज वह सिवाय
गंदगी के कुछ
नहीं दिखायी
पडेगा। यह जैन
मुनि भी नहीं
(बता सकता कि
वह किसलिए नहीं
नहा रहा है? काहे के लिए
परेशान है वह
बिना नहाये, या क्यों
चोरी से स्पंज
कर रहा है? लेकिन
जल में उनकी 'की' नहीं
है, उनकी
कुंजी नहीं है।
पंच
महाभूतों में
उनकी कुंजी है, वह
है—तप, वह
है— अग्रि। तो
सब तरफ से
भीतर अग्रि को
जगाना है। ऊपर
से पानी डाला
तो उस अपि को
जगाने में
बाधा पड़ेगी।
इसलिए सूखे
पहाड़ पर जहां
हरियाली नहीं,
पानी नहीं,
जहां सब
तप्त है, वहां.
जैन साधक खड़ा
है। वह धीरे—
धीरे पत्थरों
में खडा रहेगा।
जहां सब बाहर
भी सूखा हुआ
है।
दुनिया
में सब जगह
उपवास हैं, लेकिन
सिर्फ जैनों
को छोड्कर
उपवास में
पानी लेने की
मनाही कोई
नहीं करेगा।
सब दुनियां के
उपवास में, सब चीजें
बंद कर दो, बनी
जारी रखो।
सिर्फ जैन हैं,
जो उपवास
में पानी का
भी निषेध
करेंगे, कि
पानी भी नही!
साधारण
गृहस्थ के लिए
भी कहेंगे कि
और नहीं हो
सकता तो कम से
कम रात का
पानी त्याग कर
दो। साधारण
गृहस्थ यही
समझता है कि
रात्रि का
पानी इसलिए
त्याग करवाया
जा रहा है कि
कहीं पानी में
कोई कीड़ा—मकोड़ा
न मिल जाए, कोई
फलां न हो जाए।
पर उससे कोई
लेना—देना
नहीं। असल में
अग्रितत्व की
कुंजी के लिए
तैयारी करवायी
जा रही है।
और
बड़े मजे की
बात है, कि
अगर पानी कम
लिया जाए, अगर
कम से कम, न्यूनतम,
जितना
महावीर की
चेष्टा है
उतना पानी
लिया जाए, तो
ब्रह्मचर्य
के लिए अनूठी
सहायता मिलती
है। क्योंकि
वीर्य सूखना
शुरू हो जाता
है, और
अंतर—अग्रि के
जलाने के, जो
इसके संयुक्त
प्रयोग हैं वह
बिलकुल सुखा डालते
हैं। जरा—सी
भी आर्द्रता
वीर्य को
प्रवाहित
करती है, यह
उनकी कुंजी है।
जैनों ने सारे
के सारे अपने
तीर्थों का
निर्माण
नदियों से दूर
किया। फिर नकल
में कुछ पीछे
के तीर्थ खडे
कर लिए, उनका
कोई प्रयोजन
नहीं है, वह
आथेंटिक नहीं
जैन
आथेटिक तीर्थ
पहाड़ पर होगा।
हिंदू
आथेंटिक
तीर्थ नदी के
किनारे होगा, हरियाली
में होगा, सुंदर
जगह होगा। जैन
जो भी पहाड़
चुनेंगे वह कई
हिसाब से
कुरूप होगा, क्योंकि
पहाड़ का
सौदर्य उसकी
हरियाली के
साथ खो जाता
है। वे सान
नहीं करेंगे,
दातुन नहीं
करेंगे। इतना
कम पानी का
उपयोग करना है
कि दातुन भी
नहीं करेंगे।
अगर वह पूरी
बात समझ ली
जाए उनकी, तो
फिर उनके जो
सूत्र हैं वह
कारगर होंगे,
नहीं तो
नहीं कारगर
होंगे। उन
सूत्रों की
साधना से भीतर
की अग्रि
भड़कती है, और
भीतर की अग्रि
के भड़काने का
यह निगेटिव
उपाय है कि
पानी का
संतुलन तोड
दिया जाए।
इन
सारे तत्वों
का,
भीतर एक
बैलेंस है। इस
मात्रा में
भीतर पानी, इस मात्रा
में अग्रि, इन सबका
बैलेंस है।
अगर
आपको एक तत्व
से यात्रा
करनी है तो
बैलेंस तोड़
देना पड़ेगा और
विपरीत से
तोड़ना पड़ेगा।
तो जो भी
अग्रि पर
मेहनत करेगा
वह पानी का
दुश्मन हो
जाएगा।
क्योंकि पानी
जितना कम हो
जाए उसके भीतर, उतना
उस अग्रि का
संचार हो जाए।
गंगा
एक अल्केमिक
प्रयोग है, एक
बहुत गहरा
रासायनिक
प्रयोग है।
इसमें खान
करके व्यक्ति
तीर्थ में
प्रवेश करेगा।
इसमें खान के
साथ ही उसके
शरीर के भीतर
के पानी का जो
तत्व है वह
रूपांतरित
होता है। वह
रूपांतरण
थोडी देर ही
टिकेगा, लेकिन
उस थोड़ी देर
में, अगर
ठीक प्रयोग
किए जाएं तो
गति शुरू हो
जाएगी।
रूपांतरण तो
थोड़ी देर में
विदा हो जाएगा
लेकिन गति
शुरू हो जाएगी।
और
ध्यान रहे, जिसने
एक बार गंगा
के पानी को
पानी पीकर
जीना शुरू कर
दिया, वह
फिर दूसरा
पानी नहीं पी
सकेगा। फिर
बहुत कठिनाई
हो जाएगी, क्योंकि
दूसरा पानी
फिर उसके लिए
हजार तरह की अड़चनें
पैदा करेगा।
और भी बहुत
जगह इस तरह
गंगा जैसी
गंगा पैदा करने
की कोशिशें की
गयीं लेकिन
कोई भी सफल
नहीं हुई।
बहुत नदियों
में प्रयोग
किए हैं, वह
सफल नहीं हो
सके, क्योंकि
पूरी
कुंजियां खो
गयी हैं।
लोगों को थोड़ा
खयाल भले ही
होगा कि क्या
किया गया होगा,
पर मैं नहीं
जानता, कितने
लोगों को खयाल
है। शायद ही
दो—चार आदमी
हों, जिनको
खयाल हो कि
अल्केमी का
इतना बड़ा
प्रयोग हो
सकता है।
गंगा
में सान, तत्काल
प्रार्थना या
पूजा, या
मंदिर में
प्रवेश, या
तीर्थ में
प्रवेश, यह
पदार्थ का
उपयोग है अंतर—यात्रा
के लिए। तीर्थ
में और सब तरह
के पदार्थों
का भी उपयोग है।
सब तीर्थ बहुत
खयाल से बनाए
गए हैं। अब
जैसे कि मिस्र
में पिरामिड
हैं। वे मिस्र
में पुरानी खो
गई सभ्यता के
तीर्थ हैं। और
एक बड़ी मजे की
बात है कि इन
पिरामिड्स के
अंदर.।
क्योंकि पिरामिड
जब बने तब, वैतानिकों
का खयाल है, उस काल में
इलेक्ट्रिसिटी
हो नहीं सकती।
०
आदमी
के पास बिजली
नहीं हो सकती।
बिजली का
आविष्कार उस
वक्त कहां? कोई
दस हजार वर्ष
पुराना
पिरामिड है, कोई बीस
हजार वर्ष
पुराना
पिरामिड है।
तब बिजली का
तो कोई उपाय
नहीं था। और इनके
अंदर इतना
अंधेरा है कि
उस अंधेरे में
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
अनुमान यह
लगाया जा सकता
है कि लोग
मशाल ले जाते
हों, या
दीये ले जाते
हों। लेकिन
धुएं का एक भी
निशान नहीं है
इतने पिरामिड्स
में कहीं।
इसलिए बड़ी
मुश्किल है।
एक छोटा—सा
दीया घर में
जलाइए तो पता
चल जाता है।
अगर लोग
मशालें भीतर
ले गए हों तो
इन पत्थरों पर
कहीं न कहीं
धुएं के निशान
तो होने
चाहिए!
रास्ते
इतने लंबे, इतने
मोडवाले हैं,
और गहन
अंधकार है! तो
दो ही उपाय
हैं, या तो
हम मानें कि
बिजली रही
होगी, लेकिन
बिजली की किसी
तरह की फिटिंग
का कहीं कोई
निशान नहीं है।
बिजली
पहुंचाने का
कुछ तो इंतजाम
होना चाहिए।
दूसरा, आदमी
सोच सकता है—तेल,
घी के दीयों
या मशालों का।
पर उन सबसे
किसी न किसी
तरह के धुएं
के निशान पड़ते
हैं, जो
कहीं भी नहीं
हैं। फिर, उनके
भीतर आदमी
कैसे जाता रहा
है? कोई
कहे—नहीं जाता
रहा होगा, तो
इतने रास्ते
बनाने की कोई
जरूरत नहीं है।
पर सीढ़ियां
हैं, रास्ते
हैं, द्वार
हैं, दरवाजे
हैं, अंदर
चलने—फिरने का
बड़ा इंतजाम है।
एक—एक पिरामिड
में बहुत से
लोग प्रवेश कर
सकते हैं, बैठने
के स्थान हैं
अंदर। यह सब
किसलिए होंगे?
यह पहेली
बनी रह गई है, और साफ नहीं
हो पाएगी कभी
भी। क्योंकि
पिरामिड की
समझ नहीं है
साफ, कि ये
किसलिए बनाए
गए हैं? लोग
समझते हैं, किसी सम्राट
का फितूर होगा,
कुछ और
होगा!
लेकिन
ये तीर्थ हैं।
और इन
पिरामिड्स
में प्रवेश का
सूत्र ही यही है, कि
जब कोई अंतर—अग्रि
पर ठीक से
प्रयोग करता
है तो उसका
शरीर आभा
फेंकने लगता
है, और तब
वह अंधेरे में
प्रवेश कर
सकता है। तो, न तो यहां
बिजली उपयोग
की गई है, न
यहां कभी दीये
उपयोग किए गए
हैं, न कभी
मशाल उपयोग की
गई है, सिर्फ
शरीर की
दीप्ति उपयोग
की गई है।
लेकिन वह शरीर
की दीप्ति
अग्रि के
विशेष प्रयोग
से ही होती है।
इनमें प्रवेश
ही वही करेगा,
जो इस
अंधकार में
मजे से चल सके।
वह उसकी कसौटी
भी है, परीक्षा
भी है, और
उसको प्रवेश
का हक भी है, वह हकदार भी
है।
जब
पहली दफा 19०5 या
1० में एक—एक
पिरामिड खोजा
जा रहा था, तो
जो वैज्ञानिक
उस पर काम कर रहा
था उसका
सहयोगी अचानक
खो गया। बहुत
तलाश की गई, कुछ पता न
चला। यही डर
हुआ कि वह
किसी गलियारे
में, अंदर
है। बहुत
प्रकाश और
सर्चलाइट ले
जाकर खोजा, वह कोई
चौबीस घंटे
खोया रहा।
चौबीस घंटे
बाद, कोई
रात दो बजे वह
भाबा हुआ आया,
करीब करीब
पागल हालत
में! उसने कहा,
मैं टटोलकर
अंदर जा रहा
था, कहीं
मुझे दरवाजा
मालूम पड़ा, मैं अंदर
गया और फिर
ऐसा लगा कि
पीछे कोई चीज
बंद हो गई।
मैंने लौटकर
देखा तो
दरवाजा तो बंद
हो चुका था! जब
मैं आया तब
खुला था, पर
दरवाजा भी
नहीं था कोई, सिर्फ खुला
था। जब मैं
अंदर गया तो
जैसे कोई
चट्टान सरककर
बंद हो गई।
फिर मैं बहुत
चिल्लाया, लेकिन
कोई उपाय नहीं
था। फिर इसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं था
कि मैं और आगे
चला जाऊं, और
मैं ऐसी अदभुत
चीजें देखकर
लौटा हूं
जिसका कोई
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
वह
इतनी देर गुम
रहा,
यह पका है, वह इतना
परेशान लौटा
है, यह पका है;
लेकिन जो
बातें वह कह
रहा है वह
भरोसे की नहीं
हैं, कि
ऐसी चीजें
होगी। बहुत
खोजबीन की गई
उस दरवाजे की,
लेकिन
दरवाजा
दुबारा नहीं
मिल सका। न तो
वह यह बता
पाया कि कहां
से प्रवेश
किया, न वह
यह बता पाया
कि वह कहां से
निकला। तो
समझा गया कि
या तो वह
बेहोश हो गया,
या उसने
कहीं सपना
देखा, या
वह कहीं सो
गया। और कुछ
समझने का चारा
नहीं था।
लेकिन
जो चीजें उसने
कहीं थी वह सब
नोट कर ली गयीं—उस
साइकिक
अवस्था में, स्वप्नवत
अवस्था में जो—जो
उसने वहां
देखीं। फिर
खुदाई में कुछ
पुस्तकें
मिलीं जिनमें
उन चीजों का
वर्णन भी मिला,
तब बहुत
मुसीबत हो गई।
उस वर्णन से
लगा कि वह
चीजें किसी
कमरे में वहां
बंद हैं, लेकिन
उस कमरे का
द्वार किसी
विशेष मनोदशा
में खुलता है।
अब इस बात की
संभावना है कि
वह एक
सांयोगिक घटना
थी कि इसकी
मनोदशा वैसी
रही हो।
क्योंकि इसे
तो कुछ पता
नहीं था, लेकिन
द्वार खुला
अवश्य।
तो
जिन गुप्त
तीर्थों की
मैं बात कर
रहा हूं उनके
द्वार हैं, उन
तक पहुंचने की
व्यवस्थाएं
हैं, लेकिन
उस सबके आंतरिक
सूत्र हैं। इन
तीर्थों में
ऐसा सारा
इंतजाम है कि
जिनका उपयोग
करके चेतना
गतिमान हो सके।
जैसे कि
पिरामिड्स के
सारे कमरे, उनका आयतन
एक हिसाब में
है। कभी आपने
खयाल किया, कहीं छप्पर
बहुत नीचा हो,
यद्यपि
आपके सिर को
नहीं छू रहा
हो, और यही
छप्पर थोडा
सरककर नीचे
आने लगे। हमको
दबाएगा नहीं,
हम से अभी
दो फीट ऊंचा
है, लेकिन
हमें भास होगा
कि हमारे भीतर
कोई चीज दबने
लगी।
जब
नीचे छप्पर
में आप प्रवेश
करते हैं, तो
आपके भीतर कोई
चीज सिकुड़ती
है। और आप जब
एक बड़े छप्पर
के नीचे
प्रवेश करते
हैं तो आपके
भीतर कोई चीज
फैलती है।
कमरे का आयतन
इस ढंग से
निर्मित किया
जा सकता है, ठीक उतना
किया जा सकता
है जितने में
आपको ध्यान
आसान हो जाए।
सरलतम हो जाए
ध्यान आपको, उतना आयतन
निर्मित किया
जा सकता है, उतना आयतन
खोज लिया गया
था। उस आयतन
का उपयोग किया
जा सकता है
आपके भीतर सिकुड़ने
और फैलने के
लिए। उस कमरे
के भीतर रंग, उस कमरे के
भीतर गंध, उस
कमरे के भीतर
ध्वनि—इन सबका
इंतजाम किया
जा सकता है, जो आपके
ध्यान के लिए
सहयोगी हो जाए।
सब
तीर्थों का
अपना संगीत था।
सच तो यह है कि
सब संगीत, तीर्थों
में पैदा हुए।
और सब संगीत
साधकों ने
पैदा किए। सब
संगीत किसी
दिन मंदिर में
पैदा हुए, सब
नृत्य किसी
दिन मंदिर में
पैदा हुए। सब
सुगंध पहली
दफा मंदिर में
उपयोग की गई।
एक दफा जब यह
बात पता चल गई
कि संगीत के
माध्यम से कोई
व्यक्ति
परमात्मा की
तरफ जा सकता
है, तो
संगीत के
माध्यम से
परमात्मा के
विपरीत भी जा
सकता है, यह
भी खयाल में आ
गया। और तब
बाद में दूसरे
संगीत खोजे गए।
किसी गंध से
जब कि
परमात्मा की
तरफ जाया जा
सकता है, तो
विपरीत किसी
गंध से
कामुकता की
तरफ जाया जा
सकता है, वे
गधे भी खोज ली
गईं। किसी
विशेष आयतन
में ध्यानस्थ
हो सकता है तो किसी
विशेष आयतन
में ध्यान से
रोका जा सकता
है, वह भी
खोज लिया गया।
जैसे
अभी चीन में
ब्रेन वाश के
लिए जहां
कैदियों को
खड़ा करते हैं, उस
कोठरी का एक
विशेष आयतन है।
उस विशेष आयतन
में ही खड़ा
करते हैं। और
उन्होंने
अनुभव किया कि
उस आयतन में
कमी—बेशी करने
से ब्रेन वाश
करने में
मुसीबत पड़ती है।
एक निश्चित
आयतन, हजारों
प्रयोग करके
तय हो गया कि
इतनी ऊंची, इतनी चौड़ी, इतने आयतन
की कोठरी में
कैदी को खड़ा
कर दो तो
कितनी देर में
डिटीरीओरेशन
हो जाएगा, कितनी
देर में खो
देगा वह अपने
दिमाग को। फिर
उसमें एक
विशेष ध्वनि
भी पैदा करो
तो और जल्दी
खो देगा। खास
जगह उसके
मस्तिष्क पर
हेमरिंग करो
तो और जल्दी
खो देगा।
वे
कुछ नहीं करते, एक
मटका ऊपर रख
देते हैं और
एक एक बूंद
पानी उसकी
खोपड़ी पर
टपकता रहता है।
उसकी अपनी लय
है, रिदिम
है. बस, टिप—टिप
टिप—टिप, वह
पानी सिर पर
टपकता रहता है।
चौबीस घंटे वह
आदमी खड़ा है, बैठ भी नहीं
सकता, हिल
भी नहीं सकता,
आयतन इतना
है कोठरी का, लेट भी नहीं
सकता। वह खड़ा
रहेगा और
मस्तिष्क में
वह टिप—टिप
पानी गिरता
रहेगा। आधा
घंटा पूरे
होते होते, तीस मिनट
पूरे होते
होते सिवाय
टिप—टिप की
आवाज के कुछ
नहीं बचेगा और
तब आवाज इतनी
जोर से मालूम
होने लगेगी, जैसे पहाड़
गिर रहा हो।
अकेली आवाज रह
जाएगी उस आयतन
में और चौबीस
घंटे में वह
आपके दिमाग को
अस्त—व्यस्त
कर देगी।
चौबीस घंटे के
बाद जब आपको
बाहर
निकालेंगे तो
आप वही आदमी
नहीं होंगे!
उन्होंने
आपको सब तरह
से तोड़ दिया
होगा।
ये
सारे के सारे
प्रयोग पहली
दफा तीर्थों
में खोजे गए, मंदिरों
में खोजे गए, जहां से
आदमी को
सहायता
पहुंचाई जा
सके। मंदिर के
घंटे हैं, मंदिर
की ध्वनियां
हैं, धूप
है, गंध है,
फूल है, सब
नियोजित था।
और एक सातत्य
रखने की कोशिश
की गई। उसकी
कंटीनुटी न
टूटे, बीच
में कहीं कोई
व्यवधान न पड़े,
अहर्निश
धारा उसकी
जारी रखी जाती
रही। जैसे
सुबह इतने
वक्त आरती
होगी, इतनी
देर चलेगी, इस मंत्र के
साथ होगी; दोपहर
आरती होगी, इतनी देर
चलेगी, इस
मंत्र के साथ
होगी। सांझ
आरती होगी; दोपहर आरती
होगी, इतनी
देर चलेगी, इस मंत्र के
साथ चलेगी। यह
कम ध्वनियों
का उस कोठरी
में गूंजता
रहेगा। पहला
क्रम टूटे, उसके पहले
दूसरा
रिप्लेस हो
जाए। ये
हजारों साल तक
चलेगा।
जैसा
मैने कहा—पानी
को अगर लाख
दफा पुन: पुन:
पानी बनाया
जाए भाप बनाकर, तो
जैसे उसकी
क्वालिटी
बदलती है
अल्केमी के हिसाब
से, उसी
प्रकार एक
ध्वनि को
लाखों दफा
पैदा किया जाए
एक कमरे में, तो उस कमरे
की पूरी तरंग,
पूरी
गुणवत्ता बदल
जाती है। उसकी
पूरी क्वालिटी
बदल जाती है।
उसके बीच
व्यक्ति को
खड़ा कर देना, उसके पास
खड़ा कर देना, उसके
रूपांतरित
होने के लिए
आसानी जुटा
देगा; और
चूंकि हमारा
सारा का सारा
व्यक्तित्व
पदार्थ से
निर्मित है—पदार्थ
में जो भी
फर्क होते हैं
वह हमारे व्यक्तित्व
को बदलने लगते
हैं! और आदमी
इतना बाहर है
कि पहले बाहर
से ही फर्क
उसको आसान पड़ते
हैं, भीतर
के फर्क तो
पहले बहुत
कठिन पड़ते हैं।
दूसरा उपाय था
पदार्थ के
द्वारा सारी
ऐसी व्यवस्था
दे देना कि
आपके शरीर को
जो—जो सहयोगी
हो, वह हो
जाए।
तीसरी
बात एक और थी।
यह हमारा भ्रम
ही है आमतौर
से कि हम अलग—अलग
व्यक्ति हैं—यह
बड़ा थोथा श्रम
है। यहां हम
इत— लोग बैठे
हैं,
अगर हम शांत
होकर बैठें तो
यहां इतने लोग
नहीं रह जाते,
एक ही
व्यक्तित्व
रह जाता है।
एक शांति का
व्यक्तित्व
रह जाता है।
और हम सब की
चेतनाएं एक
दूसरे में
तरंगित और प्रवाहित
होने लगती हैं।
तीर्थ
'मास
एक्सपेरीमेंट'
है। एक वर्ष
में विशेष दिन,
करोड़ों लोग
एक तीर्थ पर
इकट्ठे हो
जाएंगे; एक
ही आकांक्षा,
एक ही
अभीप्सा से
सैकड़ों मील की
यात्रा करके आ
जाएंगे। वे सब
एक विशेष घड़ी
में, एक
विशेष तारे के
साथ, एक
विशेष
नक्षत्र में
एक जगह इकट्ठे
हो जाते हैं।
इसमें पहली
बात समझ लेने
की यह है, कि
यह करोड़ों लोग
इकट्ठा होकर
एक अभीप्सा, एक आकांक्षा,
एक
प्रार्थना से,
एक धुन करते
हुए आ गए हैं, यह एक 'पूल'
बन गया है
चेतना का। अब
यहां व्यक्ति
नहीं है।
अगर
कुंभ में
देखें तो
व्यक्ति
दिखाई नहीं पड़ता।
वहां भीड़ है, निपट
भीड़, जहां
कोई चेहरा
नहीं है।
चेहरा बचेगा
कहा इतनी भीड़
में? फेसलेस
एक करोड़ आदमी
इकट्ठा हैं।
कौन, कौन
है? अब कोई
अर्थ नहीं रह
गया जानने का।
कौन राजा है, कौन रंक है? अब कोई मतलब
नहीं रह गया।
कौन अमीर है, कौन गरीब है?
कोई मतलब
नहीं रहा, यानी
सब फेसलेस हो
गया। अब यहां
इन सबकी
चेतनाएं एक
दूसरे के भीतर
प्रवाहित होनी
शुरू होंगी।
अगर एक करोड़
लोगों की
चेतना का 'पूल'
बन सके, एक
इकट्ठा रूप बन
जाए, तो इस
चेतना के भीतर
परमात्मा का
प्रवेश जितना
आसान है उतना
आसान एक—एक
व्यक्ति के
भीतर नहीं है।
यह बड़ा
कान्टेक्ट
फील्ड है।
नीत्से
ने कहीं लिखा
है—वह सुबह एक
बगीचे में
गुजर रहा है।
एक छोटे—से
कीडे पर उसका
पैर लग जाता
है,
तो वह कीडा
जल्दी से
सिकुड़कर गोल
घुंडी बनाकर बैठ
जाता है।
नीत्से बड़ा
हैरान हुआ!
उसने कई दफा
यह बात देखी
है कि कीडों
को जरा चोट लग
जाए तो वह
तत्काल सिकुडकर
क्यों बैठ
जाते हैं? उसने
अपनी डायरी
में लिखा कि
बहुत सोचकर
मुझे खयाल में
आया कि वह
अपना
कान्टेक्ट
फील्ड कम कर
लेते हैं, बचाव
का ज्यादा
उपाय हो जाता
है। कीड़ा पूरा
लंबा है, तो
उस पर कहीं
पैर पड़ सकता
है, क्योंकि
ज्यादा जगह वह
घेर रहा है।
वह जल्दी से
छोटी जगह में
सिकुड गया, अब उस पर पैर
पड़ने की
संभावना
अनुपात में कम
हो गयी। वह
सुरक्षा कर
रहा है अपनी, वह अपना
कान्टेक्ट
फील्ड छोटा कर
रहा है। और जो
कीड़ा जितनी
जल्दी यह
कान्टेक्ट
फील्ड छोटा कर
लेता है वह
उतना बचाव कर
लेता है।
आदमी
की चेतना जितना
बड़ा
कान्टेक्ट
फील्ड
निर्मित करती
है,
परमात्मा
का अवतरण उतना
आसान हो जाता
है। क्योंकि
वह इतनी बड़ी
घटना है! एक
बड़ी घटना के लिए,
हम जितनी
बड़ी जगह बना
सकें उतनी
उपयोगी है।
इंडीवीजुअल
प्रेयर, व्यक्तिगत
प्रार्थना तो
बहुत बाद में
पैदा हुई, प्रार्थना
का मूलरूप तो
समूहगत है।
वैयक्तिक
प्रार्थना तो
तब पैदा हुई
जब एक—एक आदमी
को भारी
अहंकार पकड़ना
शुरू हो गया।
किसी के साथ 'पूल—अप' होना
मुश्किल हो
गया कि किसी
के साथ हम एक
हो सकें।
इसलिए
जब से
इंडीवीजुअल
प्रेयर दुनिया
में शुरू हुई
तब से प्रेयर
का फायदा खो
गया। असल में
प्रेयर
इंडीवीजुअल
नहीं हो सकती।
हम इतनी बड़ी
शक्ति का
आह्वान कर रहे
हैं,
तो हम जितना
बडा क्षेत्र
दे सकें उसके
अवतरण के लिए,
उतना ही
सुगम होगा।
तीर्थ इस रूप
में एक बड़े
क्षेत्र को
निर्मित करते
हैं, फिर
खास घडी में
करते हैं, खास
नक्षत्र में
करते हैं, खास
दिन पर करते
हैं, खास
वर्ष में करते
हैं। वह सब सुनिश्चित
विधियां थीं।
इसका अर्थ यह
कि उस नक्षत्र
में, उस
घड़ी में पहले
भी कान्टेक्ट
हुआ है। और
जीवन की सारी
व्यवस्था
पीरियोडिकल
है। इसे भी
समझ लेना
चाहिए।
जीवन
की सारी
व्यवस्था
कैसे
पीरियोडिकल
है?
जैसे कि
वर्षा आती है,
एक खास दिन
पर आ जाती है।
और अगर आज
नहीं आती है
खास दिन पर, तो उसका
कारण यह है कि
हमने छेडछाड़ की
है। अन्यथा
दिन बिलकुल तय
है, घड़ी तय
है। गर्मी आती
है खास वक्त, सर्दी आती
है खास वक्त, बसंत आता है
खास वक्त—सब
बंधा है। शरीर
भी बिलकुल
वैसा ही काम
करता है।
स्त्रियों
का मासिक धर्म
है,
ठीक चांद के
साथ चलता रहता
है। ठीक
अट्ठाइस दिन
में उसे लौट
आना चाहिए अगर
बिलकुल ठीक है,
शरीर
स्वस्थ है। वह
चांद के साथ
यात्रा करता
है, वह
अट्ठाइस दिन
में नहीं
लौटता तो क्रम
टूट गया है
व्यक्तित्व
का, भीतर
कहीं कोई गड़बड़
हो गयी है।
सारी
घटनाएं एक
क्रम में
आवर्तित होती
हैं। अगर किसी
एक घड़ी में
परमात्मा का
अवतरण हो गया, तो
उस घड़ी को हम
अगले वर्ष के
लिए फिर नोट
कर सकते हैं।
अब संभावना उस
घड़ी की बढ़ गयी,
वह घड़ी
ज्यादा
पोटेंशियल हो
गयी, उस
घड़ी में
परमात्मा की
धारा
पुनर्प्रवाहित
हो सकती है। इसलिए
पुन: पुन: उस
घड़ी में तीर्थ
पर लोग इकट्ठे
होते रहेंगे,
सैकड़ों
वर्षों तक।
अगर यह कई बार
हो चुका तो यह
घड़ी सुनिश्रित
होती जाएगी, वह बिलकुल
तय हो जाएगी।
जैसे
कि कुंभ के
मेले पर गंगा
में कौन पहले
उतरे, वह भारी
दंगे का कारण
होता है।
क्योंकि इतने
लोग इकट्ठे नहीं
उतर सकते एक
घड़ी में, और
वह घडी तो
बहुत सुनिश्चित
है, बहुत
बारीक है।
उसमें कौन
उतरे, उस
पहली घड़ी में?
जिन्होंने
वह घड़ी खोजी
है या जिनकी
परंपरा और जिनकी
धारा में उस
घड़ी का पहले
अवतरण हुआ है,
वह उसके
मालिक हैं। वह
उस घड़ी में
पहले उतर
जाएंगे। और
कभी—कभी क्षण
का फर्क हो
जाता है।
परमात्मा का
अवतरण करीब—करीब
बिजली की कौंध
जैसा है—कौंधा,
और खो गया।
उस क्षण में
आप खुले रहे, जगे रहे तो
घटना घट जाए।
उस क्षण में आंख
बंद हो गयी, सोये रहे तो
घटना खो जाए।
तीर्थ
का तीसरा
महत्व था—मास
एक्सपेरीमेंट, समूह
प्रयोग—अधिकतम
विराट पैमाने
पर उस अनंत
शक्ति को उतारा
जा सके। और जब
लोग सरल थे तो
यह घटना बड़ी
आसानी से घटती
थी। उन दिनों
तीर्थ बड़े
सार्थक थे।
तीर्थ से कभी
कोई खाली नहीं
लौटता था, इसलिए...
तो आज आदमी
खाली लौट आता
है, खाली
लौट आने पर
आदमी फिर दोबारा
चला जाता है!
उन दिनों तो
ट्रांसफार्म
होकर लौटता ही
था। पर वह
बहुत सरल और
इनोसेंट समाज
की घटनाएं हैं।
क्योंकि
जितना सरल
समाज हो, जहां
व्यक्तित्व
का बोध जितना
कम हो, वहां
तीर्थ का यह
तीसरा प्रयोग
काम करेगा, अन्यथा नहीं
करेगा।
आज
भी अगर
आदिवासियों
में जाएं तो
पाएंगे कि
उनमें
व्यक्तित्व
का बोध नहीं
है।’मैं' का
खयाल कम है, 'हम' का
खयाल ज्यादा
है। कुछ तो
भाषाएं हैं
ऐसी जिनमें 'मैं' नहीं
है, 'हम' ही
है। आदिवासी
कबीलों की ढेर
भाषाएं हैं
जिनमें 'मैं'
शब्द नहीं
है। आदिवासी
बोलता है, तो
बोलता है 'हम'। ऐसा नहीं है
कि भाषा ऐसी
है, वहां
मैं का कन्सेए
ही पैदा नहीं
हुआ। और वह
इतना जुड़ा हुआ
है आपस में कि
कई दफा तो बहुत
अनूठे परिणाम
उसके निकले
हैं।
सिंगापुर
के पास एक
छोटे से द्वीप
पर जब पहली दफा
पश्चिमी
लोगों ने हमला
किया तो वे
बड़े हैरान हुए।
जो चीफ था, जो
प्रमुख था कबीले
का, वह आया
किनारे पर, और जो
हमलावर थे
उनसे उसने कहा
कि हम निहत्थे
लोग जरूर हैं,
पर हम
परतंत्र नहीं
हो सकते। पश्चिमी
लोगों ने कहा
कि वह तो होना
ही पड़ेगा। उन
कबीलेवालों
ने कहा, हमारे
पास लड़ाई का
उपाय तो कुछ
नहीं है, लेकिन
हम मरना जानते
हैं—हम मर
जाएंगे। उन्हें
भरोसा नहीं
आया कि कोई
ऐसे कैसे मरता
है? लेकिन
बड़ी अदभुत
घटना है।
ऐतिहासिक
घटनाओं में एक
घटना घट गयी।
जब वे .राजी
नहीं हुए और
उन्होंने कदम
रख दिए, द्वीप
पर उतर गए, तो
पूरा कबीला
इकट्ठा हुआ।
कोई पांच सौ
लोग तट पर
इकट्ठे हुए और
वह देखकर दंग
रह गए कि उनका
प्रमुख पहले
मरकर गिर गया,
और फिर
दूसरे लोग
मरकर गिरने
लगे। मरकर
गिरने लगे
बिना किसी
हथियार की चोट
के। शत्रु
घबरा गए, वापस
लौट गए, यह
देख कर। पहले
तो उन्होंने
समझा कि लोग
डरकर ऐसे ही
गिर गए होंगे,
लेकिन देखा,
वह तो खत्म
ही हो गए। अभी
तक साफ नहीं
हो सका कि यह
क्या घटना घटी?
असल में 'हम' की
काशेसनेस अगर
बहुत ज्यादा
हो तो मृत्यु
ऐसी संक्रामक
हो सकती है।
एक के मरते ही
फैल सकती है।
कई
जानवर मर जाते
हैं ऐसे।
भेड़ें मर जाती
हैं—एक भेड़
मरी,
कि मरना फैल
जाता है। भेड़
के पास 'मैं'
का बोध बहुत
कम है, 'हम' का बोध है।
भेड़ों को चलते
हुए देखें तो
मालूम पड़ेगा
कि 'हम' चल
रहा है, सब
सटी हुई हैं
एक दूसरे से, एक ही जीवन
जैसे सरकता हो।
एक भेड़ मरी, तो दूसरी
भेड़ को मरने
जैसा हो जाएगा,
मृत्यु फैल
जाएगी भीतर।
तो
जब समाज बहुत 'हम'
के बोध से
भरा था और 'मैं'
का बोध बहुत
कम था, तब
तीर्थ बड़ा
कारगर था।
उसकी
उपयोगिता उसी
मात्रा में कम
हो जाएगी, जिस
मात्रा में 'मैं' का
बोध बढ़ जाएगा।
आखिरी
बात जो तीर्थ
के बाबत खयाल
में लेनी चाहिए, वह
यह कि सिबालिक
ऐक्ट का, प्रतीकात्मक
कृत्य का भारी
मूल्य है।
जैसे जीसस के
पास कोई आता
है और कहता है,
मैंने यह यह
पाप किए। वह
जीसस के सामने
कन्फेस कर
देता है, सब
बता देता है, मैंने यह
पाप किए, मैंने
यह पाप किए।
जीसस उसके सिर
पर हाथ रखकर
कह देते हैं
कि जा तुझे
माफ किया। अब
इस आदमी ने
पाप किए हैं, जीसस के
कहने से माफ
कैसे हो
जाएंगे? जीसस
कौन हैं, और
उनके हाथ रखने
से माफ हो
जाएंगे? जिस
आदमी ने खून
किया, उसका
क्या होगा? या हमने कहा,
आदमी पाप
करे और गंगा
में सान कर ले,
मुक्त हो
जाएगा।
बिलकुल
पागलपन मालूम
हो रहा है।
जिसने हत्या
की है, चोरी
की है, बेईमानी
की है, गंगा
में सान करके
मुक्त कैसे हो
जाएगा?
यहां
दो बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। एक तो यह, कि
पाप असली घटना
नहीं है, स्मृति
असली घटना है— 'मेमोरी'।
पाप नहीं, ऐक्ट
नहीं, असली
घटना जो आप
में चिपकी रह
जाती है, वह
स्मृति है।
आपने हत्या की
है, यह
उतना बडा सवाल
नहीं है आखिर
में। आपने
हत्या की है, यह स्मृति
कांटे की तरह
पीछा करेगी।
जो
जानते हैं..... वे
जो जानते हैं
कि हत्या की
है या नहीं, वह
नाटक का
हिस्सा है, उसका कोई
मूल्य नहीं है।
न कभी मरता है
कोई, न कभी
मार सकता है
कोई। मगर यह
स्मृति आपका
पीछा करेगी कि
मैंने हत्या
की, मैंने
चोरी की। यह
पीछा करेगी, और यह पत्थर
की तरह आपकी
छाती पर पड़ी
रहेगी। वह
कृत्य तो गया,
अनंत में खो
गया, वह
कृत्य तो अनंत
ने संभाल लिया।
सच तो यह है, सब कृत्य
अनंत के हैं; आप नाहक
उसके लिये
परेशान हैं।
अगर चोरी भी
हुई है आपसे
तो अनंत के ही
द्वारा आपसे
हुई है। हत्या
भी हुई है तो
भी अनंत के
द्वारा आपसे
हुई है, आप
नाहक बीच में
अपनी स्मृति
लेकर खड़े हैं
कि मैंने किया।
अब यह 'मैंने
किया', यह
स्मृति आपकी
छाती पर बोझ
है।
क्राइस्ट
कहते हैं, तुम
कन्फेस कर दो,
मैं
तुम्हें माफ
किए देता हूं।
और जो
क्राइस्ट पर
भरोसा करता है
वह पवित्र होकर
लौटेगा। असल में
क्राइस्ट पाप
से तो मुक्त
नहीं कर सकते,
लेकिन
स्मृति से
मुक्त कर सकते
हैं—स्मृति ही
असली सवाल है।
गंगा पाप से
मुक्त नहीं कर
सकती, लेकिन
स्मृति से
मुक्त कर सकती
है। अगर कोई
भरोसा लेकर
गया है कि
गंगा में
डुबकी लगाने
से सारे पाप
से बाहर हो
जाऊंगा, और
ऐसा अगर उसके
चित्त में है,
उसकी
कलेक्टिव
अनकांशेस में
है, उसके
समाज की
करोड़ों वर्ष
की धारणा है
कि गंगा में
डुबकी लगाने
से पाप से
छुटकारा हो
जाएगा तो निश्चित
ही हो जाएगा।
पाप से
छुटकारा नहीं
होगा वैसे, क्योंकि
चोरी को अब
कुछ और नहीं
किया जा सकता,
हत्या जो हो
गयी, हो
गयी लेकिन यह
व्यक्ति पानी
के बाहर जब
निकला तो
सिंबालिक
एक्ट हो गया।
क्राइस्ट
कितने दिन दुनिया
में रहेंगे, कितने
पापियों से
मिलेंगे, कितने
पापी कन्फेस
कर पाएंगे? इसके लिए
हिंदुओं ने
ज्यादा
स्थायी
व्यवस्था
खोजी है।
व्यक्ति से
नहीं बांधा, एक नदी से
बांधा। यह नदी
कन्फेशन
लेती रहेगी, वह नदी माफ
करती रहेगी, यह अनंत तक
रहेगी, और
ये धाराएं
स्थायी हो
जाएंगी।
क्राइस्ट
कितने दिन
रहेंगे? मुश्किल
से क्राइस्ट
तीन साल काम
कर पाए, कुल
तीन साल। तीस
से लेकर
तैंतीस साल की
उम्र तक, तीन
साल में कितने
पापी कन्फेस
करेंगे? कितने
पापी उनके पास
आएंगे? कितने
लोगों के सिर
पर हाथ रखेंगे?
यहां के
मनीषियों ने
व्यक्ति से
नहीं बांधा, धारा से
बांध दिया।
तीर्थ
है,
वहां जाएगा
कोई, वह
मुक्त होकर
लौटेगा। तो
स्मृति से
मुक्त होगा, स्मृति ही
तो बंधन है।
वह स्वप्न जो
आपने देखा, आपका पीछा
कर रहा है। असली
सवाल वही है, और निश्चित
ही उससे
छुटकारा हो
सकता है, लेकिन
उस छुटकारे
में दो बातें
जरूरी हैं।
बड़ी बात तो यह
जरूरी है कि
आपकी ऐसी
निष्ठा हो कि
मुक्ति हो
जाएगी। और
आपकी निष्ठा
कैसे होगी? आपकी निष्ठा
तभी होगी जब
आपको ऐसा खयाल
हो कि लाखों
वर्ष से ऐसा
वहां होता रहा
है। और कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
कुछ तीर्थ तो
बिलकुल सनातन
हैं—जैसे काशी, वह
सनातन है। सच
बात यह है, पृथ्वी
पर कोई ऐसा
समय नहीं रहा
जब काशी तीर्थ
नहीं थी। वह
एक अर्थ में
सनातन है, बिलकुल
सनातन है। यह
आदमी का
पुराने से पुराना
तीर्थ है।
उसका मूल्य बढ़
जाता है, क्योंकि
उतनी बड़ी धारा,
सजेशन है।
वहां कितने
लोग मुक्त हुए,
वहां कितने
लोग शांत हुए
हैं, वहां
कितने लोगों
ने पवित्रता
को अनुभव किया
है, वहां
कितने लोगों
के पाप झड गए—वह
एक लंबी धारा
है। वह सुझाव
गहरा होता चला
जाता है, वह
सरल चित्त में
जाकर निष्ठा
बन जाएगी। वह
निष्ठा बन जाए
तो तीर्थ
कारगर हो जाता
है। वह निष्ठा
न बन पाए तो
तीर्थ बेकार
हो जाता है।
तीर्थ आपके
बिना कुछ नहीं
कर सकता, आपका
कोआपरेशन
चाहिए। लेकिन
आप भी
कोआपरेशन तभी
देते हैं कि
जब तीर्थ की
एक धारा हो, एक इतिहास
हो।
हिदू
कहते हैं, काशी
इस जमीन का
हिस्सा नहीं
है, डस
पृथ्वी का
हिस्सा नहीं
है, वह अलग
ही टुक्का है।
वह शिव की
नगरी अलग ही
है, वह
सनातन है। सब
नगर बनेंगे, बिगड़ेंगे, काशी बनी
रहेगी। इसलिए
कई दफा हैरानी
होती है, व्यक्ति
तो खो जाते
हैं—बुद्ध
काशी आए, जैनों
के तीर्थंकर
काशी में पैदा
हुए, खो गए।
काशी ने सब
देखा—शंकराचार्य
आए, खो गए।
कबीर बसे, खो
गए। काशी ने
तीर्थंकर
देखे, अवतार
देखे, संत
देखे, सब
खो गए। उनका
तो कहीं कोई
निशान नहीं रह
जाएगा, लेकिन
काशी बनी
रहेगी। वह उन
सब की
पवित्रता को,
उन सारे
लोगों के
पुण्य को, उन
सारे लोगों की
जीवन धारा को,
उनकी सब
सुगंध को
आत्मसात कर
लेती है और
बनी रहती है।
यह
जो स्थिति है, यह
निश्चित ही
पृथ्वी से अलग
हो जाती है—मेटाफरीकली।
यह इसका अपना
एक शाश्वत रूप
हो गया, इस
नगरी का अपना
व्यक्तित्व
हो गया। इस
नगरी पर से
बुद्ध गुजरे,
इसकी गलियों
में बैठकर
कबीर ने चर्चा
की है। वह सब
कहानी हो गयी,
वह सब स्वप्न
हो गया। पर यह
नगरी उन सबको
आत्मसात किए
है। और अगर
कभी कोई
निष्ठा से इस
नगरी में
प्रवेश करे तो
वह फिर से
बुद्ध को चलता
हुआ देख सकता
है, वह फिर
से
पार्श्वनाथ
को गुजरते हुए
देख सकता है।
वह फिर से
देखेगा
तुलसीदास को,
वह फिर से
देखेगा कबीर
को।
अगर
कोई निष्ठा से
इस काशी के
निकट जाए, तो
यह काशी
साधारण नगरी न
रह जाएगी लंदन
या बम्बई जैसी।
एक असाधारण
चिन्मय रूप ले
लेगी, और
इसकी
चिन्मयता बड़ी
शाश्वत है, बड़ी पुरातन
है। इतिहास खो
जाते हैं, सभ्यताएं
बनती और
बिगड़ती हैं, आती हैं और
चली जाती हैं,
और यह अपनी
एक अंत: धारा
को संजोए हुए
चलती है। इसके
रास्ते पर खड़ा
होना, इसके
घाट पर सान
करना, इसमें
बैठकर ध्यान
करने के
प्रयोजन हैं।
आप भी हिस्सा
हो गए हैं एक
अंत: धारा के।
यह भरोसा कि
मैं ही सब कुछ
कर लूंगा, खतरनाक
है। प्रभु का
सहारा लिया जा
सकता है, अनेक
रूपों में—उसके
तीर्थ में, उसके
मंदिरों में
उसका सहारा
लिया जा सकता
है। सहारे के
लिए वह सारा
आयोजन है।
यह
कुछ बातें जो
ठीक से समझ
में आ सकें, वह
मैंने कहीं।
बुद्धि जिनको
देख पाये, समझ
पाये, पर
यह पर्याप्त
नहीं हैं। बहुत—सी
बातें हैं
तीर्थ के साथ,
जो समझ में
नहीं आ सकेंगी,
पर घटित
होती हैं।
जिनको बुद्धि
साफ—साफ नहीं
दिखा पाएगी, जिनका गणित
नहीं बनाया जा
सकेगा, लेकिन
घटित होती हैं।
दो—तीन
बातें सिर्फ
उल्लेख कर दूं
जो घटित होती
हैं। जैसे कि
आप कहीं भी
जाकर एकांत
में बैठकर
साधना करें तो
बहुत कम
संभावना है कि
आपको अपने आस—पास
किन्हीं
आत्माओं की
उपस्थिति का
अनुभव हो
लेकिन तीर्थ
में करें तो
बहुत जोर से
होगा। कहीं भी
करें वह अनुभव
नहीं होगा, लेकिन
तीर्थ में
आपको
प्रेजेंस
मालूम पड़ेगी—
थोड़ी बहुत
नहीं, बहुत
गहन। कभी इतनी
गहन हो जाती
है कि आप
स्वयं मालूम
पड़ेंगे कि कम
है, और
दूसरे की
प्रेजेंस
ज्यादा है।
जैसे
कि कैलाश—कैलाश
हिंदुओं का भी
तीर्थ रहा है
और तिब्बती बौद्धों
का भी। पर
कैलाश बिलकुल
निर्जन है, वहां
कोई आवास नहीं
है। कोई
पुजारी नहीं
है, कोई
पंडा नहीं है,
कोई प्रगट
आवास नहीं है
कैलाश पर।
लेकिन जो भी
कैलाश पर जाकर
ध्यान का
प्रयोग करेगा
वह कैलाश को
पूरी तरह बसा
हुआ पाएगा।
जैसे ही कैलाश
पर पहुंचेगा,
अगर थोड़ी भी
ध्यान की
क्षमता है तो
कैलाश से कभी
वह खबर लेकर
नहीं लौटेगा
कि वह निर्जन
है। इतना सघन बसा
है, इतने
लोग हैं और
इतने अदभुत
लोग हैं। ऐसै
कोई बिना
ध्यान के
कैलाश जाएगा,
तो कैलाश
खाली है।
चांद
के संबंध में
जो लोग और तरह
से खोज करते हैं, उनका
खयाल नहीं है
कि चांद
निर्जन है। और
जिन्होंने
कैलाश का
अनुभव किया है
वे कभी नहीं
मानेंगे कि
चांद निर्जन
है। लेकिन
आपके यात्री
को चांद पर
कोई नहीं
मिलेगा।
जरूरी नहीं है
इससे कि कोई न
हो, पर
आपके यात्री
को कोई नहीं
मिलेगा।
जैनों के
ग्रंथों में
बहुत वर्णन है
कि चांद में
किस—किस तरह
के देवता हैं,
कि क्या हैं,
पर अब वे
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए हैं
जब पाया गया
कि वहां कोई
नहीं है। उनके
साधु—संन्यासी
बड़ी मुश्किल
में हैं। वे
बेचारे एक ही
उपाय कर सकते
हैं, उन्हें
कुछ और तो पता
नहीं है; वह
यह कह सकते
हैं कि तुम
असली चांद पर
पहुंचे ही
नहीं। वह इसके
सिवाय और क्या
कहेंगे? अभी
गुजरात में
कोई मुझे कह
रहा था कि कोई
जैन मुइन पैसा
इकट्ठा कर रहे
हैं यह सिद्ध
करने के लिए
कि तुम असली
चांद पर नहीं
पहुंचे। ये वे
कभी सिद्ध न
कर पाएंगे।
आदमी
असली चांद पर
पहुंच गया है।
लेकिन उनकी
कठिनाई है कि
उनकी किताब
में लिखा है
कि वहां आवास
है! वहां इस—इस
तरह के देवता
रहते हैं!
उनकी किताब
में लिखा है, उनको
खुद को तो कुछ
पता नहीं।
किताब तो आवास
का कहती है और
अब वैज्ञानिक
की रिपोर्ट है
कि वहां कोई
भी नहीं है।
अब क्या करना
है? तो
साधारण बुद्धि
जो कर सकती, वह यह है, कि
वे लोग चांद
पर नहीं
पहुंचे।
क्योंकि अगर
नहीं सिद्ध कर
पाए तो यह
मानना पड़ेगा
कि हमारा शाख
गलत हुआ। तो
वे जिद बांध
रखेंगे कि
नहीं, तुम
उस जगह नहीं
पहुंचे।
एक
जैन मुनि ने
तो दावे से यह
कहा कि कोई
वहां पहुंचा
ही नहीं। अब
इनकार भी नहीं
कर सकते, पहुंचे
तो जरूर हैं, तो फिर कहां
पहुंच गए हैं?
कभी—कभी तो
हास्थास्पद, रिडीकुलस हो
जाती है बात!
उन्होंने कहा,
कि वहां
देवताओं के जो
विमान ठहरे
रहते हैं चारों
तरफ, आप
किसी विमान पर
उतर गए। वह
बड़े विराट
विमान हैं।
उसी पर उतरकर
आप लौट आए हैं,
आप ठीक चांद
की भुमि पर
नहीं उतर सके।
यह सब पागलपन
है, लेकिन
इस पागलपन के
पीछे कुछ कारण
है। वह कारण
यह है कि एक
धारा है, कोई
अंदाजन बीस
हजार वर्ष से
जैनों की धारा
है कि चांद पर
आवास है। पर
वह उनके खयाल
में नहीं है
कि वह आवास
किस तरह का है?
वह आवास
कैलाश जैसा
आवास है, वह
आवास तीर्थों
जैसा आवास है।
जब
आप तीर्थ पर
जाएंगे तो एक
तीर्थ वह काशी
है जो दिखाई
पड़ती है। जहां
आप ट्रेन पर
से उतर जाएंगे
स्टेशन से, एक
तो काशी वह है।
परंतु काशी के
दो रूप हैं—तीर्थ
के दो रूप हैं।
एक तो मृण्मय
रूप है यह जो
दिखाई पड़ रहा
है, जहां
कोई भी जाएगा
सैलानी और
घूमकर लौट
आएगा। और एक
उसका चिन्मय
रूप है, जहां
वही पहुंच
जाएगा जो
अंतरस्थ होगा,
जो ध्यान
में प्रवेश
करेगा, तो
उसके लिए काशी
बिलकुल और हो
जाएगी। उधर
काशी के
सौंदर्य का
इतना वर्णन है,,
और इस काशी
को देखो तो
फिर लगता है
कि वह कवि की कल्पना
है। इससे
ज्यादा गंदी
कोई बस्ती
नहीं है, यह
काशी जिसको हम
देखकर आ जाते
हैं। पर किस
काशी की बातें
कर रहे हो तुम?
किस काशी की
बात हो रही है,
किस काशी के
सौदर्य की जो
अपूर्व है, जैसा कोई
नगर नहीं आया
है इस जगत में।
यह सब तुम
किसकी बात कर
रहे हो? यही
काशी अगर है, तब फिर यह सब
कवि कल्पना हो
गई! नहीं, पर
वह काशी भी है।
और एक
कान्टेक्ट
फील्ड है यह
काशी, यहां
उस काशी और इस
काशी का मिलन
होता है।
जो
यात्री सिर्फ
ट्रेन में
बैठकर गया है, वह
इस काशी से
वापस लौटकर आ
जाएगा। वह जो
ध्यान में भी
बैठकर गया है
वह उस काशी से भी
संपर्क साध
पाता है। तब
इसी काशी के
निर्जन घाट पर
उनसे भी मिलना
हो जाता है
जिनसे मिलने
की आपको कभी
कोई कल्पना
नहीं होती।
मैंने
अभी बताया, कैलाश
पर अलौकिक
निवास है।
करीब—करीब
नियमित रूप से,
नियम कैलाश
का रहा है कि
कम से कम पांच
सौ बौद्ध—सिद्ध
वहां रहे ही, उससे कम
नहीं। पांच सौ
बुद्धत्व को
प्राप्त
व्यक्ति
कैलाश पर
रहेंगे ही। और
जब भी एक
उनमें से विदा
होगा किसी और
यात्रा पर, तो दूसरा जब
तक न हो तब तक
वह विदा नहीं
हो सकता। पांच
सौ की संख्या
वहां पूरी
रहेगी। उन
पांच सौ की
मौजूदगी
कैलाश को
तीर्थ बनाती है,
लेकिन यह
बुद्धि से
समझने की बात
नहीं है इसलिए
मैंने पीछे
छोड़ रखी। काशी
का भी नियमित
आकड़ा है कि
उतने संत वहां
रहेंगे ही।
उनमें कभी कमी
नहीं होगी।
उनमें से एक
को विदा तभी
मिलेगी जब
दूसरा उस जगह
स्थापित हो
जाएगा।
असली
तीर्थ वही हैं, और
उनसे जब मिलन
होता है तो
तीर्थ में
प्रवेश करते
हैं। पर उनके
मिलन का कोई
भौतिक स्थल भी
चाहिए। आप
उनको कहां
खोजते
फिरेंगे। उस
अशरीरी घटना
को आप न खोज
सकेंगे, इसलिए
भौतिक स्थल
चाहिए। जहां
बैठकर आप
ध्यान कर सकें
और उस
अंतर्जगत में
प्रवेश कर
सकें, जहां
संबंध सुनिश्चित
है।
तीर्थ
बुद्धि से
खयाल में नहीं
आएगा, बुद्धि
से कोई संबंध
नहीं है तीर्थ
का। ठीक तीर्थ
का अर्थ, जो
दिखाई पड़ जाता
है वह नहीं है—छिपा
है, उसी
स्थान पर छिपा
है। दूसरी बात,
इस जमीन पर
जब भी कोई
व्यक्ति परम
जान को उपलब्ध
होकर विदा
होता है तो
उसकी करुणा
उसे कुछ चिह्न
छोड़ देने को
कहती है.।
क्योंकि
जिनको उसने
रास्ता बताया,
जो उसकी बात
मानकर चले, जिन्होंने संघर्ष
किया, जिन्होंने
श्रम उठाया, उनमें से
बहुत से ऐसें
होंगे जो अभी
नहीं पहुंच
पाए। उनके पास
कुछ संकेत तो
चाहिए, जिनसे
कभी भी जरूरत
पड़ने पर वह
संपर्क पुन:
साध सकें।
इस
जगत में कोई
आत्मा कभी
खोती नहीं, पर
शरीर तो खो
जाते हैं। तो
उन आत्माओं के
संपर्क साधने के
लिए सूत्र
चाहिए। उन
सूत्रों के
लिए तीर्थों
ने ठीक वैसे
ही काम किया
जैसे कि आज
हमारे राडार
काम करते हैं।
जहां तक आंखें
नहीं पहुंचती
वहां तक राडार
पहुंच जाते
हैं। जो आंखों
से कभी देखे
नहीं गए तारे,
वह राडार
देख लेते हैं।
तीर्थ बिलकुल
आध्यात्यिक
राडार का
इंतजाम है। जो
हमसे छूट गए, जिनसे हम
छूट गए, उनसे
संबंध
स्थापित किए
जा सकते हैं।
इसलिए
प्रत्येक
तीर्थ
निर्मित किया
गया उन लोगों
के द्वारा, जो
अपने पीछे कुछ
लोग छोड़ गए
हैं, जो
अभी रास्ते पर
हैं, जो
पहुंच नहीं गए,
और जो अभी
भटक सकते हैं।
और जिन्हें
बार—बार जरूरत
पड़ जाएगी कि
वह कुछ पूछ
लें, कुछ
जान लें, कुछ
आवश्यक हो जाए।
थोड़ी जानकारी
उन्हें भटका
दे सकती है।
क्योंकि
भविष्य
उन्हें
बिलकुल जात
नहीं है, आगे
का रास्ता
उन्हें
बिलकुल पता
नहीं है। तो
उन सबने सूत्र
छोड़े हैं, और
सूत्रों को
छोड़ने के लिए
विशेष तरह की
व्यवस्थाएं
की हैं—तीर्थ
खड़े किए, मंदिर
खड़े किए, मंत्र
निर्मित किए,
मूर्तियां
बनायीं, सबका
आयोजन किया।
और सबका आयोजन
एक सुनिश्रित
प्रक्रिया है,
जिसे हम 'रिचुअल' कहते
हैं, वह एक
सुनिश्चित
प्रक्रिया है।
अगर
एक जंगली
आदिवासी को हम
ले आएं और वह
आकर देखे कि
जब भी प्रकाश
करना होता है
तो आप अपनी
कुर्सी से
उठते हैं, दस
कदम चलकर
बायीं दीवार
के पास
पहुंचते हैं,
वहां एक बटन
को दबाते हैं,
और बिजली जल
जाती है। वह
आदिवासी किसी
भी तरह न सोच
पाएगा कि इस
बटन में और इस
दीवार के भीतर
इस बिजली के
बल्व से कोई
तार जुड़ा हुआ
है। उसके
सोचने का कोई
उपाय नहीं है!
उसे
यह एक रिचुअल
मालूम पड़ेगा
कि यह कोई
तरकीब है यहां
से उठना, ठीक
जगह पर दीवार
पर जाना, फिर
नंबर एक का
बटन दबाना।
नंबर दो का
दबाते हैं तो
पंखा घूमने
लगता है, नंबर
तीन का दबाते
हैं तो रेडियो
बोलने लगता है।
वह देखता है
कि उसी खास
दीवार के कोने
में जाकर आप
कुछ तरकीब
करते हैं और
वहां से कुछ
होता है। उसे
यह सब रिचुअल
मालूम पड़ेगा।
एक क्रिया—कांड
लगेगा। और समझ
लें किसी दिन
आप नहीं हैं
घर में और बिजली
चली गई है। वह
आदमी उठा और
उसने जाकर
पूरा रिचुअल
किया, लेकिन
बिजली नहीं
जली, पंखा
नहीं चला, रेडियो
नहीं चला। अब
वह यही समझेगा
कि रिचुअल में
कोई भूल हो है
अपने
क्रिया—कांड
में कोई भूल
हो रही है, शायद
हमने ठीक कदम
न उठाए। कौन
से कदम से
पहले वह आदमी
गया था—पता
नहीं, अंदर—अंदर
कोई मंत्र भी
पढ़ता हो मन
में, और
बटन दबाता हो!
क्योंकि हमने
बटन वही दबाया
है और बिजली
नहीं जल रही
है। उस
आदिवासी को तो
बिजली के पूएर
फैलाव का कोई अंदाजा
नहीं हो सकता।
करीब—करीब
धर्म के संबंध
में ऐसा ही है।
जिनको भी हम
धर्म के
क्रिया—काड
कहते हैं, वह
सब हमारे
द्वारा पकड़
लिए गए ऊपरी
कृत्य हैं। जो
बिलकुल कुछ
नहीं जानते
भीतरी
व्यवस्था को,
उनको हम
पूरा भी कर
लेते हैं, फिर
पाते हैं, कुछ
नहीं हो रहा
है। या कभी हो
जाता है, कभी
नहीं होता, तो हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ते हैं। कभी
हो जाता है, इससे शक
होता है कि
शायद होता
होगा। फिर कभी
नहीं होता तो
फिर यह शक होता
है कि शायद
संयोग से हो
गया हो।
क्योंकि अगर
होना चाहिए तो
हमेशा होना
चाहिए।
हमें
भीतरी
व्यवस्था का
कोई भी पता
नहीं है। जिस
चीज को आप
नहीं जानते
उसको ऊपर से
देखने पर वह
रिचुअल मालूम
पड़ेगी। ऐसा
छोटे—मोटे
आदमियों के
साथ होता हो
ऐसा नहीं, जिनको
हम बहुत बुद्धिमान
कहतै हैं उनके
साथ भी यही
होगा, क्योंकि
बुद्धि ही
बचकानी चीज है।
बड़े से बडा
बुद्धिमान भी
एक अर्थ में
जुवेनाइल है,
बचकाना ही
होता है।
क्योंकि
बुद्धि कोई
बहुत गहरे ले
जानेवाली नहीं
है।
जब
पहली दफा ग्रामोफोन
बना,
और फ्रांस
के साइंस
एकेडेमी में
जिस वैज्ञानिक
ने ग्रामोफोन
बनाया वह लेकर
गया, तो
बड़ी ऐतिहासिक
घटना घटी तीन
सौ साल पहले।
फ्रेंच
एक्कैमी के
सारे बड़े से
बड़े वैज्ञानिक
सदस्य हाजिर
थे, कोई सौ वैज्ञानिक
घटना देखने आए
थे। उस आदमी
ने ग्रामोफोन
का रिकार्ड
चालू किया, तो जो
प्रेसिडेंट
था फ्रेंच
एकेडेमी का, वह थोड़ी देर
तो देखता रहा,
फिर उचककर
उसने उस आदमी
की गर्दन पकड़
ली, जो ग्रामोफोन
लाया था।
क्योंकि उसने
समझा कि यह
कोई ट्रिक कर
रहा है गले की,
यह हो कैसे
सकता है? यह
गले में अंदर
कोई हरकत कर
रहा है, कोई
तरकीब इसने
लगाई है।
यह
ऐतिहासिक घटना
बन गई, क्योंकि
एक वैज्ञानिक
से ऐसी आशा
नहीं हो सकती
थी कि वह जाकर
उसकी गर्दन
पकड़ ले। वह
आदमी तो
घबराया, उसने
कहा कि आप यह
क्या करते हैं?
उसने कहा, देखो, तुम
मुझको धोखा न
दे पाओगे। वह
उसका गला दबाए
रहा, लेकिन
तब भी उसने
देखा कि आवाज
आ रही है। तब
तो वह बहुत
घबराया। उस
आदमी को कहा, तुम बाहर आओ।
उसको बाहर ले
गया, लेकिन
तब भी आवाज आ
रही थी। वह सौ
के सौ
वैज्ञानिक
सकते में आ गए
और उनमें से
एक ने खड़े
होकर कहा कि
यह कोई शैतानी
है। इसे छूना—ऊना
मत, इसमें
कुछ न कुछ
डेवल जरूर है,
शैतान
इसमें हाथ
बंटा रहा है।
यह हो कैसे
सकता है? आज
हमें हंसी आती
है, क्योंकि
अब हो गया...!
इसका हमें
परिचय है। जो
नहीं होता तो
भी हम वैसी
परेशानी में
पड़ जाते।
अगर
किसी दिन एटम
गिरे दुनिया
पर,
यह सभ्यता
हमारी खो जाए,
और किसी
आदिवासी के
पास एक ग्रामोफोन
बच जाए, तो
उसके गांव के
लोग उसको मार
डालें। अगर वह
ग्रामोफोन
बजा दे तो
पूरा गांव
उसकी जान को आ
जाए, क्योंकि
वह एक्सप्लेन
तो कर नहीं
पाएगा, यह
बता तो नहीं
पाएगा कि ये
रेकार्ड कैसे
बोल रहा है? यह तो आप भी
नहीं बता
पाओगे। यह बड़े
मजे की बात है,
सब
सभ्यताएं
बिलीफ से जीती
हैं। केवल दो—चार
आदमियों के
पास कुंजियां
होती हैं, बाकी
तो भरोसा होता
है।
आप
भी न बता
पाओगे कि यह
कैसे बोल रहा
है?
सुन लेते
हैं, मालूम
है कि बोलता
है, भर
लिया जाता हे,
बाकी बता आप
भी न पाओगे कि
कैसे बोल रहा
है! बटन दबा
देते हैं, बिजली
जल जाती है, रोज जला लेते
हैं। पर आप भी
न बता पाओगे कि
कैसे जल गई? कुंजियां तो
दो—चार
आदमियों के
पास होती हैं
सभ्यता की, बाकी सारे
लोग तो काम
चला लेते हैं,
बस। जो काम
चलानेवाले
हैं, जिस
दिन कुंजियां
खो जाए, उसी
दिन मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
उसी दिन उनका
आत्मविश्वास
डगमगा जाएगा।
उसी दिन वह
घबराने
लगेंगे। फिर
अगर kk दारु।
बिजली न जली, तो कठिन हो
जाएगा।
तीर्थ
है,
मंदिर है, उनका सारा
का सारा विज्ञान
है। और उस
पूरे विज्ञान
की अपनी
सूत्रबद्ध
प्रक्रिया है।
एक कदम उठाने
सै दूसरा कदम
उठता है, दूसरा
उठाने से
तीसरा उठता है,
तीसरा उठता
है, पीछे
चौथा उठता है
और परिणाम
होता .है। यदि
एक भी कदम बीच
में खो जाए, एक भी सूत्र
बीच में खो
जाए तो परिणाम
नहीं होता। एक
और बात इस
संबंध में
खयाल में ले
लेनी चाहिए कि
जब भी कोई
सभ्यता बहुत
विकसित हो
जाती है और जब
भी कोई विज्ञान
बहुत विकसित
हो जाता है, तो 'रिचुअल'
सिम्प्लीफाइड
हो जाता है, काफ्लेक्स नहीं
रह जाता। जब
वह काम विकसित
होता है तब
उसकी
प्रक्रिया बहुत
जटिल होती है।
पर जब पूरी
बात पता चल
जाती है तो
उसके क्रियान्वित
करने की जो
व्यवस्था है
वह बिलकुल सिम्प्लीफाइड
और सरल हो
जाती
अब
इससे सरल क्या
होगा कि आप
बटन दबा देते
हैं और बिजली
जल जाती है।
लेकिन आप सोच
सकते हैं कि
जिसने बिजली
बनायी, क्या
उसने बटन
दबाकर बिजली
जला ली होगी? अब इससे सरल
क्या होगा कि
जो मैं बोल
रहा हूं वह
रिकार्ड हो
रहा है। कुछ
भी तो नहीं
करना पड़ रहा
है हमें।
लेकिन आप
सोचते हैं, इतनी आसानी
से वह टेप
रिकार्डर बन
गया? अगर
मुझसे कोई
पूछे कि क्या
करना पड़ता है,
तो मैं
कहूंगा, बोल
दो और रिकार्ड
हो जाता है।
लेकिन इस तरह
वह बन नहीं
गया है।
जितना
विज्ञान
विकसित होता
है उतना ही सिम्प्लीफाइड
प्रोसेस, उतनी
ही सरल
प्रक्रिया हो
जाती है। तभी
तो जनता के हाथ
में पहुंचती
है, नहीं
तो जनता के
हाथ कभी पहुंच
न सकेगी। जनता
के हाथ में तो
सिर्फ आखिरी
नतीजे पहुंचते
हैं जिनसे वह
काम करना शुरू
कर देती है।
धर्म
के मामले में
भी यही होता
है। जब धर्म
की कोई खोज
होती है, जब
महावीर कोई
सूत्र खोजते
हैं तो आप ऐसा
मत सोचना कि
सरलता से मिल
जाता है।
महावीर का तो
पूरा जीवन
दांव पर लगता
है, लेकिन
जब आपको मिलता
है तब बिलकुल
सरलता से मिल
जाता है। तब
तो आपको भी
बटन दबाने
जैसा ही मामला
हो जाता है।
और यही कठिनाई
भी है, क्योंकि
आखिर में
खोजनेवाला तो
खो जाता है, बटन आपके
हाथ में रह
जाता, जिसको
आप एक्सप्लेन
नहीं कर पाते।
फिर आप नहीं
बता पाते कि
कैसे करेंगे,
इससे काम
होगा कैसे?
अभी
रूस और अमरीका
दोनों के वैज्ञानिक
इस बात में
उत्सुक हैं कि
किसी भी तरह
बिना किसी
माध्यम के
विचार
संक्रमण के, टेलीपैथी
के सूत्र खोज
लिए जाएं।
क्योंकि जब
.से लूना खो
गया है उसके
रेडियो के बंद
हो जाने से यह
खतरा खड़ा हो
गया है कि
मशीन पर
अंतरिक्ष में
भरोसा नहीं
किया जा सकता
है। अगर
रेडियो बंद हो
गया तो हमारे
यात्री सदा के
लिए खो जाएंगे,
फिर उनसे हम
कभी संबंध ही
न बना पाएंगे।
हो सकता है, वह कोई ऐसी
चीजें भी जान
लें जो हमें
बताना चाहें
लेकिन हमसे
कोई संबंध न
हो पाएगा। तो
आल्टरनेट
सिस्टम की
जरूरत है कि
जब मशीन बंद
हो जाए तो भी
विचार का
संक्रमण हो
सके।
इसलिए
रूस और अमरीका
दोनों के वैज्ञानिक
टेलीपैथी के
लिए भारी रूप
से उत्सुक हैं।
अमरीका ने एक
छोटा सा कमीशन
बनाया है जो
तीन साल, चार
साल सारी
दुनिया में
घूमा। उस
कमीशन ने जो
रिपोर्ट दी वह
बहुत
घबडानेवाली
है, लेकिन
वह सब रिचुअल
मालूम होता है।
क्योंकि उसने
देखा कि ऐसी
घटना घटती है,
लेकिन कैसे
घटती है यह वह
करनेवाले भी
नहीं बता सकते।
उसने
लिखा है कि
अमरीका में एक
छोटा सा कबीला
बड़ी हैरानी का
काम करता है।
हर गांव में
एक छोटा—सा
वृक्ष होता है
एक खास जाति
का,
जिससे
मैसेज भेजने
का काम लिया
जाता है—वृक्ष
से। पति गांव
गया हुआ है
बाजार में
सामान लेने, पत्नी को
खयाल आ गया कि
वह फलां सामान
तो भूल ही गये,
तो जाकर उस
वृक्ष को कह
देती है कि
देखो, वहां
फलां सामान
जरूर ले आना।
वह मैसेज
डिलीवर हो
जाता है। वह
आदमी सांझ को
लौटता है तो
वह सामान ले
आता है। कमीशन
के लोगों ने
देखा, वह
तो घबरा देने
जैसी बात थी।
हम
फोन देखकर
नहीं घबड़ाते।
हम फोन पर बात
करते नहीं
घबड़ाते? एक
आदिवासी
देखकर घबरा
जाता है कि
क्या मामला है,
आप किससे
बात केर रहे
हैं। हम बात
कर रहे हैं, क्योंकि
हमें पूरी
सिस्टम का
खयाल है इसलिए
हम नहीं
घबड़ाते।
वायरलेस से हम
बात करते हैं,
तो भी हम
नहीं घबड़ाते
क्योंकि
सिस्टम का
हमें पता है
और वह परिचित
है।
पर
यह जानकर
हैरान होते
हैं कि इस
वृक्ष से कैसे
संवाद हो रहा
है?
उस कमीशन के
लोगों ने दो—चार
दिन सब तरह के
प्रयोग करके
देख लिए। उन
स्त्रियों से
पूछा, गांव
के लोगों से
पूछा।
उन्होंने कहा,
यह तो हमें
पता नहीं, लेकिन
ऐसा सदा होता
है। यह वृक्ष
साधारण नहीं
है, यह
वृक्ष बड़ी
पूजा से
स्थापित किया
गया है। यह
वृक्ष को हम
कभी मरने नहीं
देते, इसी
वृक्ष की शाखा
को लगाते चले
जाते हैं, यही
एक सनातन नियम
है। इसको
हमारे बाप—दादों
ने और उनके
बाप—दादों ने,
सबने इसका
उपयोग किया।
यह सदा से ही
काम दे रहा है,
यह क्या
होता होगा?
यह
वैज्ञानिक की
पकड़ के एकदम
बाहर की बात
है। और जो कर
रहा है, उसको
भी पता नहीं
है। इस वृक्ष
की प्राण
ऊर्जा का
टेलीपैथी के
लिए उपयोग
किया जा रहा
है। वह कैसे
किया गया शुरू,
और यह वृक्ष
कैसे राजी हुआ,
कैसे इस
वृक्ष ने काम
करना शुरू कर
दिया, और
हजारों साल से
कर रहा है काम,
यह उस गांव
के लोगों को
कुछ पता ही
नहीं है। वह 'कुंजी' तो
खो गयी है, जिसने
आविष्कार
किया होगा।
उसने किया
होगा, पर
वह काम ले रहे
हैं उस वृक्ष
से, उस
वृक्ष को लगाए
चले जा रहे
हैं।
अब
बुद्ध के बोधि—वृक्ष
को बौद्ध नहीं
मरने देते। यह
इस वृक्ष की
बात समझकर
आपको खयाल में
आ सकेगा कि
उसका कुछ उपयोग
है। जिस बोधि—वृक्ष
के नीचे बुद्ध
को ज्ञान हुआ, उसको
मरने नहीं
दिया गया।
असली सूख गया,
तो उसकी
शाखा अशोक ने
भेज दी थी
लंका में, तो
वहां वह वृक्ष
था। अभी उसकी
शाखा को फिर
लाकर पुन:
आरोपित कर दिया,
लेकिन वही
वृक्ष
कंटीन्यूटी
में रखा गया।
इस बोध गया के
तीर्थ का
उपयोग है, वह
इस बोधि—वृक्ष
पर निर्भर है
सब कुछ।
इस
वृक्ष के नीचे
बैठकर बुद्ध
ने शान पाया।
और जब बुद्ध
जैसे व्यक्ति
के शान की
घटना घटती है
तो जिस वक्ष
के नीचे बुद्ध
बैठे थे वह
वृक्ष बुद्ध
के बुद्धत्व
को पी गया हो
तो बहुत हैरानी
नहीं है! यह
असाधारण घटना
है —युद्ध का
बुद्धत्व को
प्राप्त होना, अलौकिक
हो जाना है इस
व्यक्ति का!
उस वक्त एक कौंध
बिजली पैदा
हुई होगी! —अगर
आकाश से बिजली
चमकती है और
वृक्ष सूख
जाता है, तो
कोई कारण नहीं
है कि बुद्ध
में चेतना की
बिजली चमके, इतना तेज
फैले और वृक्ष
किन्हीं नए
अर्थों में
जीवत न हो जाए।
वैसा कोई दूसरा
वृक्ष नहीं है।
युद्ध
के गुप्त
संदेश थे तभी
इस वृक्ष को
कभी नष्ट नहीं
होने दिया गया।
और बुद्ध ने
कहा था, मेरी
पूजा मत करना,
इस वृक्ष की
पूजा से काम
चल जाएगा।
इसलिए पांच सौ
साल तक बुद्ध
की मूर्ति नहीं
बनायी गयी। इस
बोधि—वृक्ष की
मूर्ति बनाकर
पूजा चलती थी।
पांच सौ साल
बाद तक बुद्ध
के जितने
मंदिर थे वह
बोधि—वृक्ष की
ही पूजा करते
रहे हैं। जो
चित्र हैं, उनमें बुद्ध
नहीं हैं बीच
में, सिर्फ
ऑरा है। बुद्ध
का प्रकाश है,
बोधि—वृक्ष
है। असल में
यह वृक्ष
आत्मसात कर
गया है, यह
पी गया है उस
घटना को, यह
चार्ज्ड हो
गया। इस वृक्ष
का जो उपयोग
जानते हैं, वे आज भी इस
वृक्ष के
द्वारा बुद्ध
से संबंध स्थापित
कर सकते हैं।
तो
बोधगया नहीं
है मूल्यवान, मूल्यवान
वह बोधि—वृक्ष
है। उस बोधि—वृक्ष
के नीचे बरसों
तक बुद्ध
संक्रमण करते
रहे। उनके पैर
के पूरे निशान
बनाकर रखे हैं।
जब वह ध्यान
करते—करते थक
जाते तो उस
वृक्ष के पास
घूमने लगते, वह घंटों उस
वृक्ष के पास
घूमते रहते।
बुद्ध किसी के
साथ इतने
ज्यादा नहीं
रहे जितने उस
वृक्ष के साथ
रहे, उस
वृक्ष से
ज्यादा बुद्ध
के साथ कोई
नहीं रहा। और
इतनी सरलता से
कोई आदमी रह
भी नहीं सकता
जितनी सरलता
से वह वृक्ष
रहा। बुद्ध
उसके नीचे
सोये भी हैं, बुद्ध उसके
नीचे उठे भी
हैं, बैठे
भी हैं, बुद्ध
इसके आस—पास
चले भी हैं।
बुद्ध ने उससे
बातें की
होंगी, बुद्ध
उससे बोले भी
होंगे। उस
वृक्ष की पूरी
जीवन ऊर्जा
बुद्ध से
आविष्ठ है।
जब
अशोक ने भेजा
अपने बेटे
महेन्द्र को
लंका, तो उसके
बेटे ने कहा, मैं भेंट
क्या ले जाऊं?
उन्होंने
कहा, और तो
कोई भेंट हो
भी नहीं सकती
इस जगत में, एक ही भेंट
हमारे पास में
है कि तुम इस
बोधि—वृक्ष की
एक शाखा ले
जाओ। तो उस शाखा
को लगाया, आरोपित
किया और उस
शाखा को भेज
दिया। दुनिया
में कभी किसी
सम्राट ने
किसी वृक्ष की
शाखा किसी को
भेंट नहीं दी
होगी। यह कोई
भेंट है? लेकिन
सारा लंका आंदोलित
हुआ उस शाखा
की वजह से। और
लोग समझते हैं,
महेंद्र ने
लंका को बौद्ध
बनाया, वह
गलत समझते हैं।
उस शाखा ने
बनाया, महेंद्र
की कोई हैसियत
न थी!
महेन्द्र
साधारण हैसियत
का आदमी था।
अशोक
की लड़की भी
साथ में थी
संघमित्रा, उन
दोनों की उतनी
बड़ी हैसियत न
थी। लंका का
कन्वर्शन इस
बोधि—वृक्ष की
शाखा के
द्वारा किया
गया कन्वर्शन
है। ये बुद्ध
के ही सीक्रेट
संदेश थे कि
लंका में इस
वृक्ष की शाखा
पहुंचा दी जाए।
ठीक समय की
प्रतीक्षा की
जाए और ठीक
व्यक्ति की।
और जब ठीक
व्यक्ति आ जाए
तो इसको
पहुंचा दिया गया।
क्योंकि इसी
से वापस किसी
दिन
हिंदुस्तान
में फिर इस
वृक्ष को लाना
पड़ेगा। ये
सारी की सारी
अंतर्कथाएं
हैं, जिसको
कहना चाहिए
गुप्त इतिहास
है, जो
इतिहास के
पीछे चलता है।
इनके लिए ठीक
व्यक्तियों
का उपयोग करना
पड़ता है।
संघमित्रा
और महेन्द्र
दोनों बौद्ध
भिक्षु थे, बुद्ध
के जीवन में
थे। हर किसी
के साथ नहीं
भेजी जा सकती
थी वह शाखा।
जो बुद्ध के
पास जिया हो, जिसने जाना
हो, और जो
इस शाखा को
वृक्ष की शाखा
मानकर न ले
जाए, जीवंत
बुद्ध मानकर
ले जाए, उसके
ही हाथ में दी
जा सकती थी।
फिर लौटने की
भी प्रतीक्षा
करनी जरूरी है।
उस वृक्ष को
ठीक लोगों के
हाथ से वापस
आना चाहिए।
ठीक लोगों के
द्वारा वापस
आना चाहिए।
इस
इतिहास के
पीछे जो
इतिहास है वह
बात करने जैसा
है। असली
इतिहास वही है, जहां
घटनाओं के मूल
स्रोत घटित
होते हैं, जहां
जड़ें होती हैं,
फिर तो
घटनाओं का एक
जाल है, जो
ऊपर चलता है।
वह असली
इतिहास नहीं
है। जो अखबार
में छपता है
और किताब में
लिखा जाता है,
वह असली
इतिहास नहीं
है। कभी असली
इतिहास पर हमारी
दृष्टि हो जाए
तो फिर इन
सारी चीजों का
राज समझ में
आता है।
'गहरे पानी
पैठ'.
(अंतरंग
चर्चा)
बम्बई
दिनांक 6 जून
1971
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