'मै कौन हूं?’
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966 — 67
मैं प्रकाश की
बात नहीं करता
है वह कोई प्रश्न
ही नहीं है। प्रश्न
वस्तुत: आंख
का है। वह है, तो
प्रकाश है। वह
नहीं है, तो
प्रकाश नहीं
है। क्या है
वह, हम
नहीं जानते
हैं। जो हम
जान सकते है, वही हम
जानते हैं।
इसलिए विचारणीय
सत्ता नहीं, विचारणीय
ज्ञान की
क्षमता है।
सत्ता उतनी ही
ज्ञात होती है,
जितना ज्ञान
जागृत होता है।
कोई
पूछता था—
आत्मा है या
नहीं है? मैने कहा—आपके
पास उसे देखने
की आंख है, तो
है, अन्यथा
नहीं ही है।
साधारणत: हम
केवल पदार्थ
को ही देखते
है।
इन्द्रियों
से केवल वही ग्रहण
होता है। देह
के माध्यम से
जो भी जाना
जाता है वह
देह से अन्य
हो भी कैसे
सकता है। देह,
देह को ही
देखती है और
देख सकती है।
अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण—सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है। इसलिए उसे जानने का मार्ग भी पदार्थ से अन्य ही हो सकता है।
अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण—सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है। इसलिए उसे जानने का मार्ग भी पदार्थ से अन्य ही हो सकता है।
आत्मा
को जानने का
मार्ग धर्म है।
धर्म उपदेश
नहीं, वह
उपचार है। वह
उस आन्तरिक
चक्षु की
चिकित्सा है
जिससे जो
पदार्थ के
अतिरेक है और
पदार्थ का
अतिक्रमण
करता है, उसे
जाना जाता है।
वह कोई
विचारणा नहीं, साधना है।
विचारणा ऐन्द्रिक
है। क्योंकि
सब विचार
इन्द्रियों
से ही ग्रहण
होते हैं और
इसलिए
विचारणा कभी
ऐन्द्रिक का
अतिक्रमण
नहीं कर पाती
है। विचार अलस
में जागते
नहीं, बाहर
से आते हैं।
वे अन्तस नहीं,
अतिथि है।
वे स्वयं नहीं,
पर है।
इसलिए
विचार अपनी
चरम परिणति
में विज्ञान
बनकर
अनिवार्यत:
पदार्थ—केन्द्रित
हो जाता है और
जो विचार का
उसके तार्किक
अन्त तक
अनुगमन करेगा
वह पाएगा कि
पदार्थ के
अतिरिक्त जगत
में और कुछ भी
नहीं है।
विचार स्वरूपत:
आत्मा के
निषेध के लिए
आबद्ध है, क्योंकि
उसका जन्म और ग्रहण
इन्द्रियों
से होता है और
जो
इन्द्रियों
के अतीत है, वह उसकी
सीमा नहीं।
इसलिए आत्मा
को प्रकट
करनेवाले सब
विचार असंगत
और तर्कशून्य
मालूम होते
हैं। यह
स्वाभाविक ही
है।
धर्म
अतर्क्य है, क्योंकि
धर्म कोई
विचार नहीं है।
वह असंगत भी
है। क्योंकि
इन्द्रिय—ज्ञान
से उसकी कोई
संगति सम्भव
नहीं है, और
वह
इन्द्रियों
से नहीं वरन
किसी बहुत ही
अन्य और भिन्न
मार्ग से
उपलब्ध होता
है।
धर्म
विचार की
अनुभूति नहीं, निर्विचार
चैतन्य में
हुआ बोध है।
विचार
इन्द्रियजन्य
है।
निर्विचार
चैतन्य
अतीन्द्रिय
है। विचार की
चरम
निष्पत्ति
पदार्थ है।
निर्विचार
चैतन्य का चरम
साक्षात
आत्मा है।
इसलिए जो
विचारणा
आत्मा के
संबंध में है, वह
व्यर्थ है। वह
साधना सार्थक
है जो
निर्विचारणा
की ओर है।
विचार
के पीछे भी
कोई है, वही बोध है, विवेक है, बुद्धि है।
विचार में
मस्त और
व्यस्त उसे
नहीं जान पाता
है। विचार
धुएं की भांति
उस अग्रि को
डांके रहते हैं।
उनमें होकर
सारा जीवन ही
धुआ हो जाता
है और व्यक्ति
उस
ज्ञानाग्नि
से अपरिचित ही
रह जाता है जो
उसका
वास्तविक होना
है।
विचार
पराए हैं। वह
अग्रि ही अपनी
है। विचार ज्ञान
नहीं है। वही
चक्षु है, जिससे
सत्य जाना
जाता है। वह
नहीं है, तो
हम अंधे हैं, और अंधेपन
में प्रकाश तो
क्या, अंधेरा
भी नहीं जाना
जा सकता।
एक बार
एक साधु के
पास कुछ लोग
अपने अंधे
मित्र को लाए
थे। उन्होंने
उसे बहुत
समझाया था कि
प्रकाश है, पर वह मानने
को राजी नहीं
हुआ था। उसका
न मानना ठीक
भी था। मानना
ही गलत हुआ
होता, यही
विचार—संगत था।
जो
नहीं दीख रहा
था, वह
नहीं था।
हममें से अधिक
का तर्क भी
यही है। वह
अंधा भी
विचारक था और
विचार के
नियमों के अनुकूल
ही उसका वह
व्यवहार था।
उसके मित्र ही
गलत थे। साधु ने
यही कहा था।
उसने कहा था—मेरे
पास क्यों लाए
हो? किसी
वैद्य के पास
ले जाओ। तुम्हारे
मित्र को
प्रकाश
समझाने की नहीं,
चिकित्सा
की आवश्यकता
है। मैं भी
यही कहता हूं आंख
है तो प्रकाश
है और जो
प्रकाश के लिए
सच है वही आत्मा
के लिए भी सच
है।
सत्य
वही है जो प्रत्यक्ष
हो। यद्यपि जो
प्रत्यक्ष है, केवल वही
सत्य नहीं है।
सत्य अनंत है।
अनंत
प्रत्यक्ष भी
हो सकता है।
विचार हमारी
सीमा है, इन्द्रियां
हमारी सीमा है।
इसलिए उनसे जो
जाना जाता है,
वह वही है
जिसकी सीमा है।
असीम
को, अनन्त
को, उनसे
ऊपर उठकर जाना
होता है। इंद्रियों
के पीछे विचार—शून्य
चित्त की
स्थिति में
जिसका
साक्षात होता
है, वही
अनन्त, असीम,
अनादि
आत्मा है।
आत्मा
को जानने की आंख
शून्य है। उसे
ही समाधि कहा
है। यह योग है।
चित्त की
वृत्तियों के
विसर्जन से
बन्द आंखें
खुलती हैं और
सारा जीवन
अमृत—प्रकाश
से आलोकित और
रूपांतरित हो
जाता है। वहां
पुन: पूछना
नहीं होता कि
आत्मा है या
नहीं है। वहां
जाना जाता है।
वहां दर्शन है।
विचार, वृत्तियां,
चित्त जहां
नहीं हैं—वहां
दर्शन है।
शून्य
से पूर्ण का
दर्शन होता है
और शून्य आता
है विचार—प्रक्रिया
के तटस्थ
चुनाव रहित
साक्षीभाव से।
विचार में
शुभाशुभ का
निर्णय नहीं
करना है। वह
निर्णय रण या
विराग लाता है।
किसी
को रोक रखना
और किसी को
परित्याग
करने का भाव
उससे पैदा
होता है। वह
भाव ही विचार—बन्धन
है। वह भाव ही
चित्त का जीवन
और प्राण है।
उस भाव के
आधार पर ही
विचार की
शृंखला अनवरत
चलती चली जाती
है। विचार के
प्रति कोई भी
भाव हमें
विचार से बांध
देता है।
उसके
तटस्थ साक्षी
का अर्थ है
निर्भाव।
विचार को
निर्भाव के
बिन्दु से
देखना ध्यान है।
बस देखना है, और चुनाव
नहीं करना है,
और निर्णय
नहीं लेना है।
यह देखना बहुत
श्रमसाध्य है।
यद्यपि
कुछ करना नहीं
है, पर
कुछ न कुछ
करते रहने की
हमारी इतनी
आदत बनी है कि
कुछ न करने
जैसा सरल और
सहज कार्य भी
बहुत कठिन हो
गया है।
बस, देखने
मात्र के
बिन्दु पर थिर
होने से
क्रमश: विचार
विलीन होने
लगते हैं, वैसे
ही जैसे
प्रभात में
सूर्य के
उत्ताप में दूब
पर जमे ओसकण
वाष्पीभूत हो
जाते हैं। बस,
देखने का
उत्ताप
विचारों के
वाष्पीभूत हो
जाने के लिए
पर्याप्त है।
वह राह है
जहां से शून्य
उदघाटित होता
है और मनुष्य
को आंख मिलती
है और आत्मा
मिलती है।
मैं एक
अंधेरी रात
में अकेला
बैठा था। बाहर
भी अकेला था, भीतर भी
अकेला था।
बाहर किसी की
उपस्थिति
नहीं थी और
भीतर किसी का
विचार नहीं था।
कोई क्रिया भी
नहीं थी। वह
देखता था—कुछ
देखता था, ऐसा
नहीं, बस
देखता ही था!
उस देखने का
कोई विषय नहीं
था। वह देखना
निर्विषय और
आधार—शून्य था।
वह किसी का
देखना नहीं, बस मात्र
देखना ही था।
किसी ने आकर
पूछा था कि
क्या कर रहे
है—अब मैं
क्या कहता? कुछ कर तो
रहा ही नहीं
था। मैंने कहा—मैं
कुछ नहीं कर
रहा हूं। मैं
बस हूं—यह
मात्र होना ही
शून्य है! यही
वह बिन्दु है
जहां पदार्थ
का अतिक्रमण
और परमात्मा
का आरम्भ होता
है।
मैं
शून्य सिखाता
हूं। मै यह मिटना
ही सिखाता हूं।
मैं यह मृत्यु
ही सिखाता हूं
और यह इसलिए
सिखाता हूं कि
तुम पूर्ण हो
सको, तुम
अमृत हो सको!
कैसा आश्चर्य
है कि मिटकर
जीवन मिलता है
और जो जीवन से
चिपटते
है वे उसे खोदेते
हैं। पूर्ण होने
को जो चिन्ता
में है, वह रिक्त और शून्य
हो जाता है और जो
शून्य होकर
निश्रित है, वह पूर्ण को
पा लेता है।
बूंद, बूंद
रहकर सागर
नहीं हो सकती।
वह अहंकार
निष्फल है। उस
दिशा से बूंद तो
मिट सकती है, पर सागर
नहीं हो सकती है।
बूंद बने रहने
का आग्रह ही तो
सागर होने में
बाधा है। वही तो
आडम्बर और रुकावट
सागर
की ओर से द्वार
कभी भी बन्द
नहीं है, क्योंकि
जिसके द्वार पर
बूंद अपने ही हाथों
अपने में बन्द
होती है—उसकी
दीवारें और सीमाएं
उसकी अपनी ही
हैं। सागर तो वह
होना चाहती है
पर अपने बूंद
होने को नहीं
तोड़ना चाहती
है। यही उसकी
दुविधा है।
यही दुविधा
मनुष्य की है।
यह असम्भव है
कि बूंद, बूंद
भी रहे, और
सागर हो जाए
और व्यक्ति, व्यक्ति भी
रहे और ब्रह्म
को जान ले, ब्रह्म
हो जाए! 'मैं'
की बूंद
मिटती है तो
आत्मा का सागर
उपलब्ध होता
है।
आत्मा
का सागर बहुत
निकट है और हम
व्यर्थ ही
बूंद को पकड़कर
रुके हुए हैं।
आत्मा का अमृत
निकट है और हम
व्यर्थ ही
मृत्यु को ओढ़ कर
बैठे हुए है।
बूंद को
मिटाना पड़ेगा
और हमें अपने
ही हाथों से
ओढ़े हुए वस्त्रों
को दूर करना पड़ेगा
और अपनी सीमाएं
छोड़नी ही होगी।
तभी हम अनन्त
और असीम सत्य के
अंग हो सकते
है।
यह
साहस जिनमें
नहीं है वे
धार्मिक नहीं
हो सकते हैं।
धर्म मनुष्य—जीवन
का चरम साहस
है, क्योंकि
वह स्वयं को शून्य
करने और विसर्जित
करने का मार्ग
है। धर्म
भयभीतों की दिशा
नहीं है।
स्वर्ग के लोभ
से पीडित और
नर्क के भय से
कंम्पितों के
लिए वह
पुरुषार्थ
नहीं है। वे
सारे प्रलोभन
और भय बूंद के
है।
उन
भयों और प्रलोभनों
से ही तो बूंद
ने अपने को
बनाया और बांधा
है। बूंद को
मिटाना है और
व्यक्ति को मृत्यु
देना है।
जिसमे इतना
अभय और साहस है
वही सागर के निमंत्रण
को स्वीकार कर
सकता है। सागर
का निमंत्रण
ही सत्य का
निमंत्रण है!
'मैं कौन
हूं?’
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क्रांतिसूत्र
1966—67
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