'मैं
कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966
— 67
मैं स्मरण
करता हूं
मनुष्य के
इतिहास की
सबसे पहली
घटना को। कहा
जाता है कि जब
आदम और ईव
स्वर्ग के
राज्य से बाहर
निकाले गए तो
आदम ने द्वार
से निकलते हुए
जो सबसे पहले
शब्द ईव से
कहे थे, वे
थे— 'हम एक
बहुत बड़ी
क्रांति से
गुजर रहे हैं।’
पता नहीं
पहले आदमी ने
कभी यह कहा था
या नहीं, लेकिन
न भी कहा हो तो
भी उसके मन
में तो ये भाव रहे
ही होंगे। एक
बिलकुल ही
अज्ञात जगत
में वह प्रवेश
कर रहा था। जो
परिचित था वह
छूट रहा था, और जो
बिलकुल ही
परिचित नहीं
था, उस
अनजाने और
अजनबी जगत में
उसे जाना पड रहा
था। अशांत
सागर में नौका
खोलते समय ऐसा
लगना स्वाभाविक
ही है।
ये भाव
प्रत्येक युग
में आदमी को
अनुभव होते
रहे हैं, क्योंकि
जीवन का विकास
तो निरंतर अज्ञात
से अज्ञात में
ही है।
जो
ज्ञात हो जाता
है उसे छोड़ना
पड़ता है, ताकि
जो अज्ञात है
वह भी ज्ञात
हो सके। जात
की ज्योति, ज्ञात से
अज्ञात में चरण
रखने के साहस से
ही प्रज्वलित
और परिवर्तित होती
है। जो ज्ञात पर
रुक जाता है, वह अज्ञात
पर ही रुक
जाता है।
ज्ञात पर रुक जाना
ज्ञात की दिशा
नहीं है। जब तक
मनुष्य पूर्ण नहीं
हो जाता है तब
तक निरंतर ही
पुराने और
परिचित को
बिदा देनी
होगी और नये
तथा अपरिचित
का स्वागत
करना होगा।
नये सूर्य के उदय
के लिए रोज ही परिचित
पुराने सूर्य को
बिदा दे देनी होती
है। फिर संक्रमण
की बेला में रात्रि
के अधंकार से
भी गुजरना
होता है।
विकास की यह प्रक्रिया
निश्चिय यही बहुत
कष्ट प्रद है।
लेकिन बिना प्रसव—पीड़ा
के कोई जन्म
भी तो नहीं
होता है।
हम
भी इस प्रसव—पीड़ा
से गुजर रहे
हैं। हम भी एक
अभूतपूर्व
क्रांति से
गुजर रहे हैं।
शायद मानवीय
चेतना में
इतनी आमूल
क्रांति का कोई
समय भी नहीं
आया था। थोड़े—बहुत
अर्थों में तो
परिवर्तन
सदैव होता
रहता है, क्योंकि
परिवर्तन के
अभाव में कोई
जीवन ही नहीं
है। लेकिन
परिवर्तन की सतत
प्रक्रिया कभी—कभी
वाष्पीकरण के
उत्ताप—बिंदु
पर भी पहुंच
जाती है और तब
आमूल क्रांति
घटित हो जाती
है। वह बीसवीं
सदी एक ऐसे ही
उत्ताप बिंदु
पर मनुष्य को
ले आई है। इस
क्रांति से
उसकी चेतना एक
बिलकुल ही नए
आयाम में
गतिमय होने को
तैयार हो रही
है।
हमारी
यात्रा अब एक
बहुत ही
अज्ञात मार्ग
पर होनी संभावित
है। जो भी
ज्ञात है, वह
छूट रहा है और
जो भी परिचित
और जाना—माना है,
वह विलीन होता
जाता है। सदा से
चले आते जीवन—मूल्य
खंडित हो रहे है
और परंपरा की
कड़ियां टूट
रही हैं। निश्चित
ही यह किसी
बहुत बड़ी
छलांग की
पूर्व तैयारी
है। अतीत की
भूमि से उखड़
रही हमारी
जड़ें किसी नई भूमि
में
स्थानांतरित
होना चाहती
हैं और
परंपराओं के
गिरते हुए
पुराने भवन
किन्हीं नये
भवनों के लिए
स्थान खाली कर
रहे हैं?
इन
सब में मैं
मनुष्य को जीवन
के बिलकुल ही
अज्ञात रहस्य—द्वारों
पर चोट करते देख
रहा हूं।
परिचित और
चक्रीय गति से
बहुत चले हुए मार्ग
उजाड़ हो गए हैं
और भविष्य के
अत्यंत
अपरिचित और
अंधकारपूर्ण
मार्गों को
प्रकाशित
करने की
चेष्टा चल रही
है। यह बहुत
शुभ है, और
मैं बहुत आशा
से भरा हुआ
हूं। क्योंकि
यह सब चेष्टा
इस बात का सुसमाचार
है कि मनुष्य की
चेतना कोई नया
आरोहण करना चाहती
है। हम विकास
के किसी सोपान
के निकट है।
मनुष्य अब वही
नहीं रहेगा जो
वह था। कुछ होने
को है, कुछ नया
होने को है।’ जिनके पास
दूर देखने वाली
आंखें हैं वे
देख सकते हैं,
और जिनके
पास दूर को
सुननेवाले
कान हैं वे
सुन सकते हैं।
बीज जब टूटता
है और अपने
अंकुर को
सूर्य की तलाश
में भूमि के
ऊपर भेजता है
तो जैसी उथल—पुथल
उसके भीतर
होती है, वैसे
ही उथल—पुथल
का सामना हम
भी कर रहे हैं।
इसमें घबराने
और चिंतित
होने का कोई
भी कारण नहीं
है। यह
अराजकता
संक्रमणकालीन
है।
इसके
भय से पीछे लौटने
की वृत्ति
आत्मघाती है।
फिर पीछे लौटना
तो कभी संभव नही
है। जीवन आगे की
ओर ही जाता है।
जैसे सुबह
होने के पूर्व
अंधकार और भी
घना हो जाता
है,
ऐसे ही नये
के जन्म के
पूर्व
अराजकता की
पीड़ा भी बहुत
सघन हो जाती
है।
हमारी
चेतना में हो
रही इस सारी
उथल—पुथल, अराजकता,
क्रांति और
नये के जन्म
की संभावना का
केंद्र और
आधार विज्ञान
है। विज्ञान
के आलोक ने
हमारी आंखें
खोल दी हैं और
हमारी नींद
तोड़ दी है।
उसने ही हमसे
हमारे बहुत से
दीर्घ पोषित स्वप्न
छीन लिए हैं
और बहुत से
वस्त्र भी और
हमारे स्वयं
के समक्ष ही नग्न
खड़ा कर दिया
है, जैसे
किसी ने हमें
झंकझोर कर
अर्धरात्रि
में जगा दिया
हो। ऐसा ही
विज्ञान ने
हमें जगा दिया
विज्ञान
ने मनुष्य का
बचपन छीन लिया
है और उसे
प्रौढ़ता दे दी
है। उसकी ही
खोजों और
निष्पत्तियों
ने हमें हमारी
परम्परागत और
रूढ़िबद्ध चिन्तना
से मुक्त कर
दिया है, जो
वस्तुत:
चिन्तना नहीं,
मात्र
चिन्तन का
मिथ्या आभास
ही थी; क्योंकि
जो विचार
स्वतंत्र न हो
वह विचार ही नहीं
होता है।
सदियों—सदियों
से जो
अन्धविश्वास
मकड़ी के जालों
की भांति हमें
घेरे हुए थे, उसने उन्हें
तोड़ दिया है, और यह सम्भव
हो सका है कि
मनुष्य का मन
विश्वास की
कारा से मुक्त
होकर विवेक की
ओर अग्रसर हो
सके
कल
तक के इतिहास
को हम विश्वास—काल
कह सकते हैं।
आनेवाला समय
विवेक का होगा।
विश्वास से
विवेक में
आरोहण ही विज्ञान
की सबसे बड़ी
देन है। यह
विश्वास का
परिवर्तन
मात्र ही नहीं
है,
वरन
विश्वास से
मुक्ति है।
श्रद्धाएं तो
सदा बदलती
रहती हैं।
पुराने
विश्वासों की
जगह नये
विश्वास जन्म
लेते रहे हैं।
लेकिन आज जो विज्ञान
के द्वारा
संभव हुआ है, वह बहुत
अभिनव है।
पुराने
विश्वास चले
गए हैं और
नयों का आगमन
नहीं हुआ है।
पुरानी
श्रद्धाएं मर
गई हैं, और
नई श्रद्धाओं
का आविर्भाव
नहीं हुआ है।
यह रिक्तता
अभूतपूर्व
श्रद्धा
बदली नहीं, शून्य
हो गई है।
श्रद्धा—शून्य
तथा विश्वास—शून्य
चेतना का जन्म
हुआ है।
विश्वास बदल
जाएं तो कोई
मौलिक भेद
नहीं पड़ता है।
एक की जगह दूसरे
आ जाते हैं।
अर्थी को ले
जाते समय जैसे
लोग कंधा बदल
लेते हैं, वैसा
ही यह
परिवर्तन है।
विश्वास की
वृत्ति तो बनी
ही रहती है।
जबकि विश्वास
की विषय—वस्तु
नहीं, विश्वास
की वृत्ति ही
असली बात है। विज्ञान
ने विश्वास को
नहीं बदला है,
उसने तो
उसकी वृत्ति
को ही तोड़
डाला है।
विश्वास—वृत्ति
ही अंधानुगमन
में ले जाती
है और वही पक्षपातों
के चित्त को
बांधती है। जो
चित्त
पक्षपातों से
बंधा हो, वह
सत्य को नहीं
जान सकता है।
जानने के लिए
निष्पक्ष
होना आवश्यक
है।
जो
कुछ भी मान
लेता है, वह
सत्य को जानने
से वंचित हो
जाता है। वह
मानना ही उसका
बंधन बन जाता
है, जबकि
सत्य के
साक्षात के
लिए चेतना का
मुक्त होना
आवश्यक है।
विश्वास नहीं,
विवेक ही
सत्य के द्वार
तक ले जाने
में समर्थ है
और विवेक के
जागरण में
विश्वास से
बड़ी और कोई
बाधा नहीं है।
यह
स्मरणीय है कि
जो व्यक्ति
विश्वास कर
लेता है, वह
कभी खोजता
नहीं। खोज तो
संदेह से होती
है, श्रद्धा
से नहीं।
समस्त ज्ञान
का जन्म संदेह
से होता है।
संदेह का अर्थ
अविश्वास
नहीं है।
अविश्वास तो
विश्वास का ही
निषेधात्मक
रूप है। खोज न
तो विश्वास से
होती है, न
अंधविश्वास
से। उसके लिए
तो संदेह की
स्वतंत्र चित्त—दशा
चाहिए। संदेह
केवल सत्य की
खोज का पथ
प्रशस्त करता
है।
विज्ञान
ने जो तथाकथित
ज्ञान
प्रचलित और
स्वीकृत था, उस
पर संदेह किया
और संदेह ने
अनुसंधान के
द्वार खोल दिए।
संदेह जैसे—जैसे
विश्वासों या
अंधविश्वासों
से मुक्त हुआ,
वैसे—वैसे
विज्ञान के
चरण सत्य की
ओर बढ़े। विज्ञान
का न तो किसी
पर विश्वास है
न अविश्वास, वह तो
पक्षपातशून्य
अनुसंधान है।
प्रयोग—जन्य
ज्ञान के
अतिरिक्त कुछ
भी मानने की
वहां तैयारी
नहीं। वह न तो
आस्तिक है, न
नास्तिक।
उसकी कोई
पूर्व
मान्यता नहीं
है। वह कुछ भी
सिद्ध नहीं
करना चाहता है।
सिद्ध करने के
लिए उसकी अपनी
कोई धारणा
नहीं है। वह
तो जो सत्य है,
उसे ही
जानना चाहता
है। यही कारण
है कि विज्ञान
के पंथ और
संप्रदाय नहीं
बने और उसकी
निथत्तियां
सार्वलौकिक
हो सकीं।
जहां
पूर्वधारणाओं
और
पूर्वपक्षपातों
से प्रारंभ
होगा वहां
अंततः सत्य
नहीं, संप्रदाय
ही हाथ में रह
जाते हैं।
अज्ञान और
अंधेपन में
स्वीकृत कोई
भी धारणा सार्वलौकिक
नहीं हो सकती।
सार्वलौकिक
तो केवल सत्य
हो सकता है।
यही
कारण है कि
जहां विज्ञान
एक है, वहां
तथाकथित धर्म
अनेक और
परस्पर
विरोधी हैं। धर्म
भी जिस दिन
विश्वासों पर
नहीं, शुद्ध
विवेक पर
आधारित होगा,
उस दिन
अपरिहार्य
रूप से एक ही
हो जाएगा।
विश्वास अनेक
हो सकते हैं, पर विवेक एक
ही है। असत्य
अनेक हो सकते
हैं, पर
सत्य एक ही है।
धर्म
का प्राण
श्रद्धा थी।
श्रद्धा का
अर्थ है बिना
जाने मान लेना।
श्रद्धा नहीं
तो धर्म भी
नहीं।
श्रद्धा के
हाथ ही उसकी
छाया की भांति
तथाकथित धर्म
भी चला गया।
धर्म
विरोधी
नास्तिकता का
प्राण
अश्रद्धा थी।
अश्रद्धा का
अर्थ है—बिना
जाने
अस्वीकार कर
देना। वह
श्रद्धा के ही
सिक्के का
दूसरा पहलू है।
श्रद्धा गई तो
वह भी गई।
आस्तिकता—नास्तिकता
दोनों ही मृत
हो गई हैं। उन
दो द्वंद्वों, दो
अतियों के बीच
ही सदा से हम
डोलते रहे हैं।
विज्ञान
ने एक तीसरा
विकल्प दिया
है। यह संभव
हुआ है कि कोई
व्यक्ति
आस्तिक—नास्तिक
दोनों ही न हो
और वह स्वयं
को किन्हीं भी
विश्वासों से
न बांधे। जीवन—सत्य
के संबंध में
वह परंपरा और
प्रचार से
अवचेतन में
डाली गई
धारणाओं से
अपने आप को
मुक्त कर ले।
समाज और
संप्रदाय
प्रत्येक के
चित्त की गहरी
पर्तों में
अत्यंत अबोध
अवस्था में ही
अपनी स्वीकृत
मान्यताओं को
प्रवेश कराने
लगते हैं।
हिंदू
जैन,
बौद्ध, ईसाई
या मुसलमान
अपनी—अपनी
मान्यताओं और
विश्वासों को
बच्चों के मन
में डाल देते
हैं। निरंतर
पुनरुक्ति और
प्रचार से वे
चित्त की अवचेतन
पर्तों में
बद्धमूल हो
जाती हैं और
वैसा व्यक्ति
फिर स्वतंत्र
चिंतन के लिए
करीब—करीब
पंगु—सा हो
जाता है। यही
कमुनिज्य या
नास्तिक धर्म
कर रहा है।
व्यक्तियों
के साथ उनकी
अबोध अवस्था
में किया गया
यह अनाचार
मनुष्य के
विपरीत किए
जानेवाले बड़े
से बड़े पापों
में से एक है।
चित्त इस
भांति
परतंत्र और
विश्वासों के
ढांचे में कैद
हो जाता है।
फिर उसकी गति
पटरियों पर
दौड़ते वाहनों
की भांति हो
जाती है।
पटरियां जहां
से ले जाती
हैं,
वहीं वह
जाता है, और
उसे यही भ्रम
होता है कि
मैं जा रहा
हूं।
दूसरों
से मिले विश्वास
ही उसके
विचारों में
प्रकट या
प्रच्छन्न
होते हैं, लेकिन
धम उसे यही
कहता है कि ये
विचार मेरे हैं।
विश्वास
यांत्रिकता
को जन्म देता
है और चेतना
के विकास के
लिए
यांत्रिकता
से घातक और
क्या हो सकता
है?
विश्वासों
से पैदा हुई
मानसिक
गुलामी और जड़ता
के कारण
व्यक्ति की
गति कोलू के
बैल की—सी हो
जाती है। वह
विश्वासों की
परिधि में ही
घूमता रहता है
और विचार कभी
नहीं कर पाता।
विचार
के लिए
स्वतंत्रता
चाहिए। चित्त
की पूर्ण
स्वतंत्रता
में ही
प्रसुप्त विचार—शक्ति
का जागरण होता
है और विचार—शक्ति
का पूर्ण
आविर्भाव ही
सत्य तक ले
जाता है।
विज्ञान
ने मनुष्य की
विश्वास—वृत्ति
पर प्रहार कर
बड़ा ही उपकार
किया है। इस
भांति उसने
मानसिक
स्वतंत्रता
के आधार भर रख
दिए हैं। इससे
धर्म का भी एक
नया जन्म होगा।
धर्म
अब विश्वास पर
नहीं, विवेक
पर आधारित
होगा।
श्रद्धा नहीं,
ज्ञान ही
उसका प्राण
होगा। धर्म भी
अब वस्तुत:
विज्ञान ही
होगा।
विज्ञान
पदार्थों का
विज्ञान है।
धर्म चेतना का
विज्ञान होगा।
वस्तुत: सम्यक
धर्म तो सदा
से ही विज्ञान
रहा है।
महावीर, बुद्ध,
ईसा, पतंजलि
या लाओत्से की
अनुभूतियां
विश्वास पर
नहीं, विवेकपूर्ण
आत्मप्रयोगों
पर ही निर्भर
थीं।
उन्होंने जो
जाना था, उसे
ही माना था।
मानना प्रथम
नहीं, अंतिम
था। श्रद्धा
आधार नहीं, शिखर थी।
आधार तो ज्ञान
था। जिन
सत्यों की
उन्होंने बात
की है, वे
मात्र उनकी
धारणाएं नहीं
हैं, वरन
स्वानुभूति
प्रत्यक्ष
हैं। उनकी
अनुभूतियों
में भेद भी
नहीं है। उनके
शब्द भिन्न
हैं, लेकिन
सत्य भिन्न
नहीं।
सत्य
तो भिन्न—भिन्न
हो भी नहीं
सकते। लेकिन
ऐसा
वैज्ञानिक
धर्म कुछ अति—मानवीय
चेतनाओं तक ही
सीमित रहा है।
वह लोक धर्म
नहीं बना। लोक
धर्म तो
अंधविश्वास
ही बना रहा है।
विज्ञान की
चोटें
अंधविश्वास
पर आधारित
धर्म को निआण किए
दे रही हैं।
यह वास्तविक
धर्म के हित
में ही है।
विवेक की कोई
भी विजय अंतत:
वास्तविक
धर्म के विरोध
में नहीं हो
सकती। विज्ञान
की अग्नि में
अंधविश्वासों
का कूड़ा—कचरा
ही जल जायेगा, धर्म
और भी निखरकर
प्रकट होगा।
धर्म
का स्वर्ण
विज्ञान की अग्नि
में शुद्ध हो
रहा है, और
धर्म जब अपनी
पूरी शुद्धि
में प्रकट
होगा तो
मनुष्य के
चेतना—जगत में
एक अत्यंत
सौभाग्यपूर्ण
सूर्योदय हो
जाएगा। प्रज्ञा
और विवेक पर
आरूढ़ धर्म निश्चय
ही मनुष्य को
अतिमानवीय
चेतना में
प्रवेश दिला
सकता है। उसके
अतिरिक्त
मनुष्य की
चेतना स्वयं
का अतिक्रमण
नहीं कर सकती,
और जब
मनुष्य स्वयं
का अतिक्रमण
करता है तो प्रभु
से एक हो जाता
है।
'मैं
कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966 —
67
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