'मैं
कहता आंखन
देखी'.
(अंतरंग भेट
वार्ता)
बुडलैंड
बम्बई
दिनांक 10
मार्च 1971
भगवान
श्री जिस
इक्कीस दिन के
अनुष्ठान की
ओर आपने संकेत
किया है क्या
वह साधना या
तत्वानुभूति
किसी
परम्परागत थी? क्योंकि
आपके
अभिव्यक्तिकरण
से निरन्तर ऐसा
भास होता है
कि आप भी
निशित ही किसी
टीचर एवं तीर्थंकर
की पद्धति का
प्रतिनिधित्व
करते हैं। इसी
के अलर्गत यह
जानने का साहस
भी करना चाहता
हूं कि आप
किसी परम्परा
की अध्यात्म—शृंखला
की क्ती को
जोड़ना चाहते
हैं या बुद्ध
की भांति किसी
पहाड़ में नया
मार्ग काटने
का प्रयास कर
रहे है?
परम्परा
से चली
आनेवाली धारा
तो परम्परागत
है ही। बुद्ध
का मार्ग भी
अब नया नहीं
है। जो
परम्परा से
चलते रहे वह
तो मार्ग
पुराना हो ही
गया। लेकिन जो
परम्परा को तोड़कर
नयी परम्परा
निर्मित करते
रहे वह मार्ग
भी अब नया
नहीं है। उस
भांति भी बहुत
लोग चल चुके।
जैसे बुद्ध ने
एक नयी पद्धति
तोड़ी। महावीर
पुरानी
परम्परा को
मानकर चल पड़े।
लेकिन महावीर
की शृंखला में
भी पहले आदमी
ने पद्धति
तोडी थी।
वह
मार्ग भी सदा
से पुराना
नहीं था।
महावीर की
शृंखला के
पहले
तीर्थंकर ने
वही काम किया
था जो बुद्ध
ने किया।
परम्परा
मानकर चलना भी
पुराना है।
नयी
परम्पराएं
तोड़ना भी नयी
घटना नहीं है।
नहीं तो
परम्पराएं
कैसे निर्मित
होंगी। आज तो
दोनों ही
बातें पुरानी
हैं। और इसलिए
इस बात को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि आज की
स्थिति में
दोनों ही
बातों से भिन्न
किसी चीज की
जरूरत है।
क्योंकि
दोनों तरह के
लोग आज मौजूद
हैं। अगर
जार्ज
गुरजिएफ को हम
देखें तो वे
किसी पुरानी
परम्परा के
सूत्र को
स्थापित
करेंगे; महावीर
की तरह उसका
काम है। अगर
जे.
कृष्णमूर्ति को
देखें तो कोई
नयी परम्परा
का सूत्रपात
करेंगे; बुद्ध
के जैसा उनका
काम है। पर
दोनों बातें
पुरानी हैं।
बहुत
परम्पराएं
तोड़ी जा चुकी
हैं और बहुत
नयी
परम्पराएं, बनायी जा
चुकी हैं। जो
आज नयी
परम्परा होती
है वही कल
पुरानी हो जाती
है। जो आज
पुरानी
दिखायी पड़ती
है वह कल नयी
है। आज की
स्थिति न तो
ठीक वैसी है
जहां महावीर
शाश्वत हो सके,
और न ठीक
वैसी है जहां
बुद्ध शाश्वत
हो सके।
क्योंकि लोग
पुराने से तो
बुरी तरह ऊब
गए हैं।
एक
और नयी घटना
घटी है; लोग
नये से भी
बुरी तरह ऊब
रहे हैं।
क्योंकि सदा
से ऐसा खयाल
था कि नया जो
है, वह पुराने
के विपरीत है।
अब मनुष्य उस
जगह है जहां
उसे साफ
दिखायी पड़ता
है कि नया
केवल पुराने
का प्रारम्भ
है। नये का
मतलब है जो
पुराना होगा।
हमने नया कहा
नहीं कि
पुराना होना
शुरू हो गया।
अब नये का भी
आकर्षण नहीं
है। पुराने के
प्रति
विकर्षण था!
एक
जमाना था, पुराने
के प्रति
आकर्षण था, बड़ा आकर्षण
था। कोई चीज
जितनी पुरानी
थी उतनी कीमती
थी क्योंकि
उतनी परखी हुई
थी, उतनी
जानी पहचानी
थी। उतनी
प्रायोगिक थी,
उतने अनुभव
से गुजरी थी।
परीक्षित थी
भली—भांति। भय
न था, निरापद
थी। चलने में
किसी तरह के
संदेह की
जरूरत न थी।
श्रद्धावान
हुआ जा सकता
था। इतने लोग
चल चुके थे, इतने
पैर पड़ चुके
थे, इतने
लोग पहुंच
चुके थे कि
नये चलनेवाले
को आंख बन्द
करके भी चलना
हो तो चल सकता
था। अंधे के
लिए भी मार्ग
था। जरूरत न
थी कि वह बहुत
संदेह करे, बहुत विचार
करे, बहुत
खोजे, बहुत
निर्णय करे।
और फिर अज्ञात
में बहुत
निर्णय हो
नहीं सकता। और
कितना ही
संदेह कोई करे,
अज्ञात की
छलांग अन्तत:
श्रद्धा तक ही
लगती है।
सन्देह
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कर सकता है कि
किसी श्रद्धा
तक पहुंचा दे।
ताकि अन्ततः
छलांग
श्रद्धा से ही
लगे। पर वैसे
पुराने का
आकर्षण भी खो
गया। उस पुराने
के आकर्षण के
खो जाने के
कारण थे।
पहला
कारण तो यही
बना कि पुराने
की परम्परा, जब
तक एक व्यक्ति
के लिए एक ही
परम्परा का
परिचय था तब
तक तो असुविधा
न थी, लेकिन
जब पुरानी
परम्पराएं एक
साथ एक
व्यक्ति को
परिचित हुईं
तब अशुविधा
पैदा हुई। जो
आदमी हिन्दू
घर में पैदा
हुआ था, हिन्दू
वातावरण में
जिया था, हिन्दू
मन्दिर के पास
बड़ा हुआ था, हिन्दू
मन्दिर की
घण्टे की
ध्वनि दूध के
साथ खून में
चली गयी थी, हिन्दू
मन्दिर का
देवता वैसा ही
हिस्सा था हड्डी,
खून, मांस
का, जैसे
हवा, पहाड़,
पानी सब था।
और कोई
प्रतियोगी न
था। कोई मस्जिद
न थी, कोई
चर्च न था।
कभी दूसरा कोई
स्वर किसी
दूसरी
परम्परा का मन
के भीतर पडा न
था।
तो
पुराना इतना
वास्तविक था
कि उसमें प्रश्न
नहीं लगाया जा
सकता था। वह
हम से भी इतने
पहले था कि हम
उसमें ही बड़े
होते और खड़े
होते थे। उससे
अन्यथा हम सोच
ही नहीं सकते
थे। फिर
मन्दिर के पास
मस्जिद आ गयी, चर्च
आ गया, गुरुद्वारे
आए। सारी
परम्पराएं एक
साथ एक—एक
व्यक्ति पर
टूट पड़ी। जैसे
जैसे गति हुई,
स्थान छोटे
होते चले गए
और सारी
परम्पराएं एक साथ
टूट पड़ी। कन्फ्यूजन
स्वाभाविक था।
तब कोई भी चीज
असंदिग्ध रूप
से नहीं ली जा
सकती थी, क्योंकि
सन्देह करने
के लिए दूसरा
सूत्र भी सामने
खड़ा था। अगर
मन्दिर घण्टे
देकर पुकार कर
रहा है कि आओ, भरोसा करो, तो पास ही
मस्जिद अजान
दे रही है कि
गलत है, वहां
भूलकर भी मत
जाना! ये
दोनों बातें
एक साथ प्रवेश
कर गयीं।
यह
जो सारी
दुनिया में
इतना सन्देह
है,
उस सन्देह
का मौलिक कारण
मनुष्य की बुद्धिमानी
का बढ़ जाना
नहीं है।
मनुष्य उतना
ही बुद्धिमान
है, जितना
सदा था।
मनुष्य की
बुद्धि पर
बहुत से
संस्कारों का
एक साथ पड़
जाना है—स्वविरोधी
संस्कारों का।
और हर रास्ता
दूसरे रास्ते
को गलत कहेगा
ही। यह मजबूरी
है। इसलिए नहीं
कि दूसरा
रास्ता गलत है,
दूसरा
रास्ता गलत है
इसलिये नहीं,
बल्कि
दूसरे रास्ते
को गलत कहना
ही होगा।
दूसरे रास्ते
को गलत न कहा
जाए तो स्वयं
को सही कहने
की जो शक्ति
है, जो बल
है, वह टूट
जाता है और
बिखर जाता है।
असल में स्वयं
को सही कहना
हो, तो
दूसरे को गलत
कहना
अनिवार्य
हिस्सा है।
उसी की
पृष्ठभूमि
में स्वयं को
सही कहा जा
सकता है।
तो
जब तक एक—एक
परम्परा का
अपना मार्ग था, और
विजातीय
मार्ग कहीं
मिलते नही थे,
कहीं कोई चौरस्ते
नहीं थे, कहीं
कोई चौराहे
नहीं थे जहां
विजातीय
मार्ग भी
मिलते हों—जब
सब धाराएं
अपने में बंटकर
अलग—अलग बहती
थीं, तब
पुराने का गहन
आकर्षण था।
ऐसे युग में, ऐसे समय में,
महावीर
जैसा
व्यक्तित्व
बड़ा उपयोगी था,
सहयोगी था।
लेकिन जैसे—जैसे
धाराएं अनेक
हुईं, प्रतियोगी
हुईं, बहुत
हुई, पुराना
संदिग्ध हो
गया और नये का
मूल्य बढ़ा।
नये मूल्य के
लिए भी
प्रतियोगी थे।
लेकिन पुरानी
धारा के खिलाफ
जब भी नया
प्रतियोगी
खड़ा हो जाए और
जब सब पुरानी
धाराएं मन को
सिर्फ विभ्रम
में डालती हों
और कुछ तय न हो
पाता हो, तो
पुरानी में से
चुनने की बजाय
नये को चुनना मनुष्य
के लिए सरल
पड़ता है।
कई
कारण हैं।
पहला कारण तो
यह कि पुरानी
धाराओं का
तीर्थंकर, पैगम्बर
लाखों साल
पहले हुआ।
उसकी आवाज
धुंधली हो
जाती है बहुत।
नये का
पैगम्बर अभी
मौजूद होता है,
सामने।
उसकी आवाज घनी
हो जाती है।
पुरानी जो
परम्परा है, वह फिर भी
पुरानी भाषा
बोलती है, क्योंकि
जब वह निर्मित
हुई थी तब की
भाषा बोलती है।
नया तीर्थंकर,
नया बुद्ध,
नयी भाषा
बोलता है। अभी
निर्मित हो
रही है।
पुराने
शब्दों के साथ
जो संदेह जुड़
गया उन शब्दों
को वह हटा
देता है। वह
नये शब्दों को
लाता है जो एक
तरह से कुंआरे
हैं, जिन
पर भरोसा
ज्यादा आसान
है।
तो
नये का आकर्षण
क्रमश: बढा, जैसे—जैसे
परम्पराएं
साथ हुईं, इकट्ठी
हुईं; और
करीब—करीब हम
चौराहे पर
जीने लगे जहां
सभी रास्ते मिलते
हैं, और हर
घर के पास सभी
रास्ते टूटते
हैं। तो नये
का आकर्षण बढ़ा
लेकिन अब नये
का आकर्षण भी
नहीं है।
क्योंकि अब
हमें यह भी
पता चला कि सब
नये, अन्तत:
पुराने हो
जाते हैं। और
जो भी पुराने
हैं वे कभी
नये थे। और
अभी हमें यह
भी पता चला कि
नये और पुराने
में शायद
शब्दों का ही
फासला है। नये
की बड़ी गति थी।
इधर
कोई तीन सौ
वर्षों से नये
ने वही
प्रतिष्ठा ले
ली थी जो कभी
पुराने की थी।
जैसे कभी
पुराना होना
सही होने का
प्रमाण था वैसे
ही नया होना
सही होने का
प्रमाण हो गया।
इतना ही काफी
है बताना कि
नयी है बात, और
लोग भरोसा
करेंगे। जैसे
पहले काफी था
कि पुरानी है
बात और लोग भरोसा
करने लगते थे।
अब किसी चीज
को पुराना
कहना अपने हाथ
से उसको निंदित
करना था।
इसलिए
प्रत्येक
धारा नये होने
की चेष्टा में
लग गयी। और
प्रत्येक
धारा ने नये
व्यक्ति पैदा
किए जिन्होंने
नये की बातें
कीं। पुराना
समाप्त नहीं
हुआ, पुराने
रास्ते चलते
ही रहे, नये
रास्ते भी चल
पड़े। उन्हें
भी नये
चलनेवाले मिल
गए। और जब नये
की तीव्रता पकड़ती
है तो एक
अनूठी घटना
घटी।
जैसे
पुराना सदा तय
करता था कि
कितना पुराना
है,
तो सारे
धर्म चेष्टा
करते थे कि
उनकी परम्परा से
ज्यादा
पुरानी कोई
परम्परा नहीं
है। अगर जैनों
से पूछें तो
वे कहेंगे कि
उनकी परम्परा
से ज्यादा
पुरानी कोई
परम्परा नहीं
है। वेद भी
बाद के हैं।
अगर वेद से
पूछें तो वे
कहेंगे कि वेद
काफी पुराना
है। उससे तो
पुराने का कोई
सवाल ही नहीं
है। वे तो
प्राचीनतम है।
उसको पीछे
खींचने की
कोशिश की
जाएगी, क्योंकि
पुराने की
प्रतिष्ठा थी।
फिर ऐसे ही
नये की
प्रतिष्ठा जब
बननी शुरू हुई
तो प्रश्न
उठा, कितना
नया?
तो
आज से अगर
पचास साल पहले
अमरीका में, जहां
कि नये की
बहुत पकड़ थी,
सबसे
ज्यादा नया
समाज था—तो दो
पीढ़ियां थीं,
क्योंकि
बूढ़ों की पीढ़ी
थी, जवानों
की पीढ़ी थी, आज से पचास
साल पहले।
लेकिन आज
अमरीका में दो
पीढ़ियां नहीं
हैं। आज हालत
बहुत अजीब है।
आज चालीस
सालवाले की
अलग पीढ़ी है, तीस सालवाले
की अलग पीढ़ी
है। बीस सालवाले
की अलग पीढ़ी
है। पन्द्रह
सालवाले की
अलग पीढ़ी है।
तीस सालवाले
कहते है, तीस
साल के उपर
भरोसा करना ही
मत किसी पर।
पच्चीस
सालवाले तीस
सालवाले पर भी
उतने ही संदेह
से भरे है, कि
बूढ़े हो गए।
लेकिन उनके
पीछे जो बीस
सालवाला जवान
है वह कह रहा
है कि यह भी जा
चुके है।
हाईस्कूल के
बच्चे भी अब
जवानों को का
समझ रहे हैं
जो आज पच्चीस
साल के हैं।
क्योंकि वे
समझते हैं, कि तुम गए' गुजरे हो, जा चुकी
पीढ़ी। यह कभी
सोचा भी न गया
था कि इतनी
पीढ़ियां होंगी।
दो पीढ़ी का
खयाल था, एक
जवान पीढ़ी है,
एक बूढ़े की
पीढ़ी। लेकिन
जवान की पीढ़ी में
भी परतें हो
जाएंगी और बीस
साल का आदमी
पच्चीस साल के
आदमी को
समझेगा कि वह
गया—गुजरा है,
आउट आफ डेट
है।
जब
इतने जोर से
नये की पल्लू
होनी शुरू
होगी तो नये
का आकर्षण भी
खो जायेगा।
क्योंकि
आकर्षण बन भी
नहीं पाएगा और
नया पुराना हो
जायेगा।
आकर्षण बनने
में भी समय
लगता है। और
धर्म कोई
कपड़ों की फैशन
की भांति नहीं
है कि आप छह
महीने में बदल
लें। वह कोई
मौसमी फूल के
बीज नहीं हैं
कि चार महीने
पहले लगाया और
चार महीने बाद
समाप्त कर
दिया। धर्म तो
ऐसे वटवृक्ष
हैं जो हजारों—लाखों
साल में तो
पूरे हो पाते
है। और जब ऐसा
खयाल हो कि हर
दो चार दस साल
में बदल डालना
है तो वटवृक्ष
लगेंगे ही
नहीं। तब फिर
मौसमी फूल ही
लग सकते है।
नये का आकर्षण
भी खोने लगा।
यह
मैने इसलिए
कहा कि मैं
साफ कर सकूं
कि मेरी मनोदशा
बिलकुल तीसरी
है। न तो मैं
मानता हूं कि
महावीर की
भाषा कारगर हो
सकती है, परम्परा
की। न मैं
मानता हूं कि
नये का ही
आग्रह कारगर
हो सकता है।
दोनों ही गए।
अब तो मैं
मानता हूं कि
शाश्वत का
आग्रह अर्थपूर्ण
है—पुराने का
भी नहीं, नये
का भी नही—जो
सदा है।
सदा
का मतलब है कि
जो न पुराना
होता है, न नया
हो सकता है।
पुराना नया
दोनों ही
सामयिक घटनाएं
है और धर्म
दोनों में
काफी परेशान
हो लिया।
पुराने के साथ
बंधकर भी
परेशान हो
लिया और अब नये
के साथ बंधकर
भी उसने देख
लिया।
कृष्णमूर्ति
अभी भी नये का
आग्रह लिए चले
जाते हैं।
उसका कारण है
कि उनके पास
जो पकड़ है वह 1915 और 1920 के
बीच की है, जब
कि नये का आकर्षण
जमीन पर था।
जो पकड़ है वह 1915 और 1920 के
बीच की है, जब
कि नया
प्रभावी था।
वह अभी भी वही
कहे चले जाते
हैं। लेकिन अब
नये को कहने
का भी कोई
मतलब नहीं है।
अब
तो इस पृथ्वी
पर एक ही
सम्भावना है।
सब परम्पराएं
इतनी निकट आ
गयीं हैं कि
अब कोई परम्परा
एक्सस्मृसिवली
कहे कि मैं
ठीक हूं तो अब
उस पर सन्देह
पैदा होगा।
कभी इस बात के
कहने से
विश्वास आता
था कि कोई परम्परा
कहती थी कि
मैं ठीक हूं
और निरपेक्ष, एब्सल्यूट
अर्थों में
ठीक हूं—कभी
इससे श्रद्धा
बनती थी। अब
इसी से
अश्रद्धा बन
जायेगी कि कोई
कहे कि मैं
बिलकुल निरपेक्ष
अर्थों में
ठीक हूं यह
उसके पागलपन
का सबूत होगा।
यह
सबूत होगा कि
वह आदमी बहुत
बुद्धिमान
नहीं है। यह
सबूत होगा कि
बहुत सोच
विचार वाला
नहीं है। यह
सबूत होगा कि
बहुत मतान्ध
है,
अन्धा है, डॉगमेटिक है।
बट्रेंब्द
रसेल ने कहीं
लिखा है कि
मैंने किसी बुद्धिमान
आदमी को कभी
बेझिझक बोलते
नहीं देखा।
बुद्धिमान
में तो झिझक
होगी ही, हैजीटेशन
होगा ही।
सिर्फ बुद्ध
बेझिझक बोल
सकते हैं।
रसेल
यह कह रहा है
कि सिर्फ
अज्ञानी कह
सकते हैं कि, बस
पूर्ण सत्य यह
रहा। ज्ञान के
बढ़ने के साथ
ऐसी निरपेक्ष
घोषणाएं नहीं
हो सकतीं। इस
युग में अब
कोई एक
परम्परा को
ठीक कहने का
आग्रह करे तो
इसीलिये वह
परम्परा को
नुकसान
पहुंचाने वाला
हो जाएगा। ठीक
दूसरी बात भी,
कब्र कोई
कहे कि जो मैं
कह रहा हूं वह
बिलकुल नया है,
बेमानी हो
गयी। क्योंकि
इतने नये की
उदघोषणा होती
है और आखिर
में बहुत गहरे
में पाया जाता
है कि वही है।
कितने
रूपों में
बातें कही
जाती हैं, रूप
जरा हटाकर
देखें तो कपड़े
हट जाते हैं
और पीछे पाया
जाता है, वही
है। इसलिए नये
की घोषणा भी
बहुत अर्थ
नहीं रखती।
पुराने की
घोषणा भी बहुत
अर्थ नहीं
रखती।
मेरी
दृष्टि में
भविष्य का जो
धर्म है, कल
जिस बात का
प्रभाव
होनेवाला है,
जिससे लोग
मार्ग लेंगे,
और जिससे
लोग चलेंगे, वह है—सनातन
का, इटरनल
का आग्रह। हम
जो कह रहे हैं
वह न नया है, न पुराना है।
न वह कभी
पुराना होगा
और न उसे कभी
कोई नया कर सकता
है। हां, जिन्होंने
पुराना कहकर
उसे कहा था
उनके पास पुराने
शब्द थे, जिन्होंने
नया कहकर उसे
कहा उनके पास
नये शब्द हैं।
और हम शब्द का
आग्रह छोड़ते
हैं।
इसलिए
मैं सभी
परम्पराओं के
शब्दों का
उपयोग करता
हूं जो शब्द
समझ में आ जाए।
कभी पुराने की
भी बात करता
हूं कि शायद
पुराने से
किसी को समझ
में आ जाए, कभी
नये की भी बात
करता हूं कि
शायद नये से
किसी को समझ
में आ जाए। और
साथ ही यह भी
निरंत्तर
स्मरण दिलाते
रहना चाहता
हूं कि सत्य
नया और पुराना
सत्य नहीं
होता।
सत्य
आकाश की तरह
शाश्वत है।
जैसे वृक्ष
लगते हैं आकाश
में,
खिलते है, फूल आते हैं,
वृक्ष गिर
जाते है।
वृक्ष पुराने,
बूढ़े हो
जाते है।
वृक्ष बच्चे
और जवान होते
हैं—आकाश नहीं
होता। एक बीज
हमने बोया और
अंकुर फूटा, अंकुर
बिलकुल नया है,
लेकिन जिस
आकाश में फूटा,
वह आकाश!
फिर बड़ा हो
गया वृक्ष।
फिर जराजीर्ण
होने लगा।
मृत्यु के
करीब आ गया
वृक्ष। वृक्ष
बूढ़ा है, लेकिन
आकाश जिसमें
वह हुआ है, वह
आकाश बूढ़ा है?
ऐसे कितने
वृक्ष आए और
गए, और
आकाश अपनी जगह
है—अछूता, निर्लेप।
सत्य तो आकाश
जैसा है।
शब्द
वृक्षों जैसे
हैं। वे लगते
हैं,
अंकुरित
होते हैं, पल्लवित
होते हैं, खिल
जाते हैं, मुरझाते
हैं, गिरते
हैं, मरते
हैं, जमीन
में खो जाते
हैं। आकाश
अपनी जगह ही खड़ा
रहता है!
पुरानों का
जोर भी शब्दों
पर था और नयों
का जोर भी
शब्दों पर है।
मैं शब्द पर
जोर ही नहीं
देना चाहता
हूं। मैं तो
उस आकाश पर
जोर देना
चाहता हूं कि
जिसमें
शब्दों के फूल
खिलते हैं, मरते हैं, खोते हैं और
आकाश बिलकुल
ही अछूता रह
जाता है। कहीं
कोई रेखा भी
नहीं छूट जाती।
मेरी
दृष्टि में
सत्य शाश्वत
है—नए पुराने
से अतीत, ट्रांसेडेंटल
है। हम कुछ भी
कहें और कुछ
भी करें, हम
उसे न नया
करते हैं, न
हम उसे पुराना
करते हैं। जो
भी हम कहेंगे,
जो भी हम
सोचेंगे, जो
भी हम विचार
निर्मित
करेंगे, वह
आएंगे और गिर
जाएंगे। सत्य
अपनी जगह खड़ा
रहेगा।
इसलिए
वह भी नासमझ
है जो कहता है, मेरे
पास बहुत
पुराना सत्य
है। क्योंकि
सत्य पुराना
नहीं होता।
क्योंकि आकाश
पुराना नहीं
होता। वह भी
उतना ही नासमझ
है जो कहता है
कि मेरे पास नया
सत्य है, मौलिक
है। आकाश
पुराना भी
नहीं होता, आकाश मौलिक और
नया भी नहीं
होता।
इस
तीसरे तत्व की
घोषणा को मैं
भविष्य के लिए
मार्ग मानता
हूं। क्यों
मानता हूं? क्योंकि
इस तत्व की
घोषणा, बहुत
सी परम्पराओं
के जाल से जो
उपद्रव पैदा हो
गया है, उसे
काटने वाली
होगी। तब हम
कहेंगे ठीक है,
वे वृक्ष भी
खिले थे आकाश
में और ये वृक्ष
भी खिल रहे
हैं आकाश में!
अनन्त वृक्ष खिलते
हैं आकाश में,
इससे आकाश
को कोई फर्क
नहीं पड़ता।
आकाश में बहुत
अवकाश है, बहुत
स्पेस है।
हमारे वृक्ष
उसको रिक्त
नहीं कर पाते
और न भर पाते
हैं। हम इस
श्रम में न
रहें कि हमारा
कोई भी वृक्ष
पूरे आकाश को
भर देगा।
हमारे
कोई भी शब्द, हमारी
कोई भी
धारणाएं कोई
भी सिद्धान्त
सत्य के आकाश
को भर नहीं
पाते। सदा
गुंजाइश है।
हजार महावीर
पैदा हों तो
भी कोई अत्तर
नहीं पड़ता, करोड़ महावीर
पैदा हों तो
भी कोई अन्तर
नहीं पड़ता।
करोड़ बुद्ध
पैदा हो जाएं
तो भी कोई
अन्तर नहीं
पड़ता। कितने ही
बड़े वे
वटवृक्ष हों,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
वटवृक्ष?एं
के बड़े होने
से आकाश के
बड़ेपन को नहीं
नापा जाता है।
हालांकि
स्वाभाविक
वटवृक्षों के
नीचे जो घास
के तिनके हैं
उन्हें आकाश
का कोई पता
नहीं होता, वटवृक्ष का
ही पता होता
है। और उनके
लिए वटवृक्ष
भी इतना बड़ा
होता है कि
इससे भी बड़ा
कुछ हो सकता
है, इसकी
कल्पना भी
सम्भव नहीं
तो
अब इस दुर्गम
स्थिति में
जहां कि सारी
परम्पराएं एक
साथ खड़ी हो
गयी हैं और
आदमी के मन को
एक साथ
आकर्षित कर
रही हैं चारों
तरफ से, सब
परम्पराएं सब
तरह का आकर्षण
पैदा कर रही
हैं—पुराने
हैं, नये
है, रोज
नये पैदा
होनेवाले
विचार हैं, वे सब
मनुष्य को खीच
रहे हैं। और
उन सब के
खींचने की वजह
से मनुष्य ऐसी
स्थिति में है
कि वह 'कि
कर्त्तव्य
विमूढ़' है।
वह करीब—करीब
खड़ा हो गया है।
वह कहीं जाने
की हिम्मत
नहीं जुटा
पाता।
क्योंकि वह
कहीं भी कदम
बढ़ाए तो सन्देह
पैदा होता है।
श्रद्धा कहीं
भी नहीं आती।
सब श्रद्धा
पैदा
करवानेवाले
ही उसको
अश्रद्धा की
हालत में खडा
कर दिए हैं।
श्रद्धा
तो जिस ढंग से
पैदा की जाती
थी उसी ढंग से
अब भी पैदा की
जा रही है।
कुरान कहे जा
रहे कि वह ठीक
है,
धम्मपद कहे
जा रहे हैं कि
वह ठीक है। स्वभावत:
जो भी कहेगा
कि मैं ठीक
हूं उसे यह भी कहना
पड़ता है कि
दूसरा गलत है।
दूसरे को भी
यही कहना पड़ता
है कि मैं ठीक
हूं यही कहना
पड़ता है कि
दूसरा गलत है।
और स्थिति ऐसी
है कि खड़े हुए
आदमी को ऐसा
लगता है कि
सभी गलत हैं।
क्यों? क्योंकि
खुद को ठीक
कहने वाला तो
एक है, लेकिन
उस को गलत
कहने वाले
पचास हैं।
ठीक
का दावा एक—एक
अपने लिए कर
रहा है, और
उसके गलत होने
का दावा बाकी
पचास लोग कर
रहे हैं कि वह
गलत है। गलत
कहे जाने का
इतना बड़ा
इम्पैक्ट
होगा कि जो एक
चिल्ला रहा है
कि मैं ठीक
हूं उसकी आवाज
खो जाएगी उन
पचास में जो
कह रहे हैं कि
वह गलत है।
यद्यपि कि उन
पचास के साथ
भी यही हालत
है। क्योंकि
वह सब अपने को
ही अकेला ठीक
कहेंगे, बाकी
पचास फिर उनको
भी गलत कहेंगे।
एक आदमी के
सामने पचास
लोग कहते हैं,
गलत है, और
एक आदमी कहता
है, ठीक है।
स्वभावत: वह
चलनेवाला
नहीं है। वह
खड़ा हो जायेगा।
यह
जो मनुष्य की
आज की स्थिति
है खड़े हो
जाने की, उसके
पीछे सबकी
श्रद्धाएं और
सब श्रद्धाओं
की मांग, कि
आ जाओ मेरे
पास, दिक्कत
डाल रही है।
उन की पुरानी
आदत है, वह
कहे चले जा
रहे हैं। यह
स्थिति मिट
सकती है एक ही
तरह से : वह यह
कि एक ऐसा
आन्दोलन
चाहिए जगत में,
जो यह ठीक
है या वह ठीक
है, इसका
बहुत आग्रह
नहीं करता।
खड़ा होना गलत
है और चलना
ठीक है, इसका
आग्रह करता है।
इसके लिए इतनी
व्यापक
दृष्टि की
जरूरत है कि जो
आदमी जहां
जाना चाहे, वहां कैसे
वह ठीक जा सके,
यह बताने की
सामर्थ्य हो।
दुरूह है यह
मामला।
मुसलमान
होना आसान है, ईसाई
होना आसान है,
जैन होना
आसान है। बंधी
हुई लीक है, बंधी हुई
परम्परा है।
एक परम्परा से
परिचित होना
आसान है। एक
युवक मेरे पास
आया कोई आठ
दिन पहले। वह
मुसलमान है, वह संन्यासी
होना चाहता है।
मैंने सलाह दी,
तू
संन्यासी हो
जा। उसने कहा,
मेरी गर्दन
दबा देंगे वे
सारे लोग।
मैंने कहा, तू संन्यासी
जरूर हो जा, लेकिन 'मुसलमान
न रह' यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। तू
मुसलमान रहते
हुए संन्यासी
हो जा।
उसने
कहा,
क्या फिर
मैं गेरुआ वस्त्र
पहनकर मस्जिद
में नमाज पढ़
सकता हूं? मैंने
कहा, पढ़नी
ही पड़ेगी।
उसने कहा, मैं
तो नमाज पढ़ना
छोड़ चुका आपको
सुनकर। मैं तो
ध्यान कर रहा
हूं। मैं तो
जाता नहीं
मस्जिद आज
सालभर से, और
मुझे अपूर्व
आनन्द हुआ है।
जाना भी नहीं
चाहता।
मैंने
कहा,
जब तक ध्यान
तेरा उस जगह न
आ जाये कि
नमाज और ध्यान
में कोई फर्क
न रहे, तब
तक समझना कि
ध्यान अभी
पूरा नहीं हुआ।
इसे वापस नमाज
पढ़ने भेजना ही
पड़ेगा मस्जिद
में। इसे
मस्जिद से
तोड़ना खतरनाक
है। क्योंकि
इसे मस्जिद से
तोड़कर किसी
मन्दिर से नहीं
जोड़ा जा सकता
है। क्योंकि
जिस विधि से
हम तोड़ते हैं
वही विधि इसको
इस भांति
विकृत कर जाती
है कि फिर यह
किसी मन्दिर
से नहीं जुड़
सकता। तो न तो
पुराने
मन्दिरों के
बीच
प्रतियोगिता खड़ी
करनी है, और
न नया मन्दिर
खड़ा करना है।
जो जहां जाना
चाहे, खडा
न रहे, जाए।
मेरे
सामने जो
पसपैक्टिवहै, जो
परिप्रेक्ष्य
है, वह यही है—कि
जो भी व्यक्ति,
उसकी
क्षमता हो, जो उसकी
पात्रता हो, जो उसका
संस्कार हो, जो उसके खून
में प्रवेश कर
गया हो, जो
सुगमतम हो
उसके लिए, उस
पर ही मै उसे
गतिमान करता
हूं। तो मेरा
कोई धर्म नहीं
है और मेरा
कोई रास्ता नहीं
है। क्योंकि
अब कोई भी
रास्तेवाला
धर्म, सम्प्रदायवाला
धर्म, भविष्य
के लिए नहीं
है।
सम्प्रदाय का
अर्थ है
रास्ता। अब
कोई भी
रास्तेवाला
धर्म भविष्य
के लिए काम का
नहीं है।
अब
ऐसा धर्म
चाहिए जो एक
रास्ते का
आग्रह न करता
हो,
जो पूएर
चौरस्ते को
घेर ले। जो
कहे सब रास्ते
हमारे हैं।
तुम चलो भर!
तुम जहां से
भी चलोगे वहीं
पहुंचोगे। सब
रास्ते वहीं
ले जाते हैं।
आग्रह यह है
कि तुम चलो, खड़े मत रहो।
तो
कोई नयी धारणा
या कोई पर्वत
पर नया मार्ग
तोड्ने की मेरी
उत्सुकता
नहीं, मार्ग
बहुत हैं।
चलनेवाला
नहीं है।
मार्ग की कमी
नहीं है कि
मार्ग कम हैं इसलिए
हम एक नया
मार्ग तोडे।
मार्ग बहुत हैं।
मार्ग ज्यादा
और चलने वाले कम
हैं। करीब—करीब
मार्ग सूने पड़
ए हैं जिन पर कोई
चलने वाला वर्षों
से नहीं गुजरा
है। सैकड़ो
वर्षों से, हजारों
वर्षो से कई
मार्ग सूने
पड़े हैं। कोई
राहगीर नहीं
आया उन पर।
क्योंकि
पर्वत पर चढ़ने
की जो
सम्भावना थी,
वही टूट गयी।
पर्वत के नीचे
इतना विवाद है,
इतनी कलह है
कि सारी कलह
का पूरा का
पूरा परिणाम
वह प्रत्येक
व्यक्ति को
थका देनेवाला,
घबरा
देनेवाला, खड़ा
कर देनेवाला
है। इतनी
विवंचना में
कोई चल नहीं
सकता।
यहां
एक बात खयाल
में ले लेनी
जरूरी है, फिर
भी मेरी दृष्टि
इलेक्टिक नहीं
है। मेरी दृष्टि
गांधी जैसी नही
है कि मैं चार
कुरान के वचन
चुन लूं और
चार गीता के वचन
चुन लूं और
कहूं कि दोनों
में एक ही बात
है। दोनों में
एक बात है
नहीं। मैं कहता
हूं कि सब
रास्तों से चलकर
आदमी वहीं
पहुंच जाएगा,
लेकिन सब
रास्ते एक
नहीं हैं।
रास्ते
बिलकुल अलग—अलग
हैं। अगरगीता
और कुरान को
एक बताने की
कोशिश की जाती
है तो तरकीब
है।
यह
बड़ी मजेदार
बात है कि
गांधी गीता को
पढ लेंगे, फिर
कुरान को पढ़
लेंगे। कुरान
में जो बातें
गीता से मेल
खाती हैं वह चुन
लेंगे, बाकी
बातें छोड़
देंगे। फिर
बाकी बातें
क्या हुईं? जो मेल नहीं
खाती और जो
विपरीत पड़ती
हैं वे छोड़
देंगे। पूरे
कुरान को गांधी
कभी नहीं राजी
हो सकते। पूरी
गीता को राजी
हैं।
इसलिए
मैं कहता हूं..
इलेक्टिक।
पूरे गीता को
राज़ी है, फिर
गीता के समानान्तर
कुछ मिलता हो कहीं
कुरान में तो
उसके लिए राजी
हैं। इसमें
राजी होने में
कोई कठिनाई
नहीं है। इसको
तो कोई भी
राजी हो जाएगा।
मैं कहता हूं कि
मैं आपसे बिलकुल
राज़ी हूं
उतनी दूर तक, जहां तक कुरान
गीता का अरबी रूपांन्तर
है, बस।
उससे इंच भर
ज्यादा नहीं।
वह तो कुरान
वाला भी राजी
हो जाता है।
लेकिन
यह बहुत
मजेदार
प्रयोग होगा
कि कुरानवाले
से आप गीता
में चुनवाएं कि
कौन—कौन—सीबात
का मेल है तो
आप बिलकुल
हैरान हो
जाएंगे। जो
चीजें वह
चुनेगा वह गांधी
ने कभी नहीं चुनीं।
वह बहुत भिन्न
चीजें चुनेगा।
इसको
इलेक्टिसिज्य
कहता हूं। यह चुनना
है,
यह पूरे की
स्वीकृति
नहीं है।
स्वीकृति तो हमारी
ही है। उससे
आप भी मेल
खाते हो कहीं,
तो आप भी
ठीक हो। ठीक
तो हम ही हैं अन्तत:।
लेकिन आप भी
उतनी दूर तक ठीक
हो, इतनी कहने
की हम सहिष्णुता
दिखलाते है कि
जितनी दूर तक
आप हम से मेल खाते
हैं। यह कोई
बहुत
सहिष्णुता
नहीं है।
और
यह प्रश्न
कोई
सहिष्णुता का
नहीं है। यह
तो आकाश जैसी
उदारता की बात
है,
सहिष्णुता
की नहीं है।
टालरेंस का
नहीं है। यह
नहीं है कि
हिन्दू एक
मुसलमान को सह
जाए, यह
नहीं है कि
ईसाई एक जैन
को सहे। सहने
में ही हिंसा
भरी हुई है।
मैं यह नहीं
कहता कि कुरान
और गीता एक ही
बात कहती हैं।
कुरान तो
बिलकुल अलग
बात कहता है।
उसका अपना
इडीवीजुअल
स्वर है। वहीं
उसकी महत्ता
है। अगर वह भी
वही कहता है
जो गीता कहती
है, तो
कुरान दो कौड़ी
का हो गया।
बाइबिल तो कुछ
और ही कहती है,
जो न गीता
कहती है, न
कुरान कहता है।
उनके सबके
अपने स्वर हैं।
महावीर
वही नहीं कहते
जो बुद्ध कहते
हैं,
बड़ी भिन्न
बातें कहते
हैं। लेकिन इन
भिन्न बातों
से भी अन्तत:
जहां पहुंचा
जाता है, वह
एक जगह है।
इसलिए मेरा
जोर मंजिल की
एकता पर है, मार्ग की
एकता पर नहीं
है। मेरा जोर
है, वह यह
है, कि
अन्ततः ये
सारे मार्ग
वहां पहुंच
जाते हैं जहां
कोई भेद नहीं
०.
ये
मार्ग बड़े
भिन्न हैं। और
किसी भी आदमी
को भूलकर दो
मार्गों को एक
समझने की चेष्टा
में नहीं पड़ना
चाहिए।
अन्यथा वह
किसी पर भी न
चल पाएगा।
माना कि ये सब
नावें उस पार
पहुंच जाती
हैं,
लेकिन फिर
भी दो नावों
पर सवार होने
की गलती किसी
को भी नहीं
करनी चाहिए।
अन्यथा नावें
पहुंच जाएंगी,
दो नावों पर
चढ़नेवाला
नहीं
पहुंचेगा। वह
मरेगा, वह
डूबेगा कहीं।
माना कि सब
नावें नावें
हैं, फिर
भी एक ही नाव
पर चढना होता
है, पहुंचना
हो तो।
हां, किनारे
पर खड़े होकर
बात करनी हो
कि सब नावें नावें
हैं, तो
कोई हर्जा
नहीं है। सब
नावें एक ही
हैं, तो भी
कोई हर्जा
नहीं। लेकिन
यात्रा करने
वाले को तो
नाव पर कदम
रखते ही चुनाव
करना पड़ेगा।
इस चुनाव के
लिए मेरी परम
स्वीकृति है
सबकी। बहुत
कठिन होगा, क्योंकि बड़ी
विपरीत
घोषणाएं हैं।
एक
तरफ महावीर
हैं जो चींटी
को भी मारने
को राजी न
होंगे। पैर
फूंककर
रखेंगे।
दूसरी तरफ
तलवार लिए
मुहम्मद हैं।
तो जो भी कहता
है कि दोनों
एक ही बातें
करते है, वह
गलत कहता है।
यह दोनों एक
बात कह नहीं
सकते। ये
बातें तो बड़ी
भिन्न कहते
हैं और अगर एक
बात बताने की
कोशिश की गयी
तो किसी—न—किसी
के साथ अन्याय
हो जाएगा। या
तो मुहम्मद की
तलवार छिपानी
पड़ेगी और या महावीर
का चींटी पर
पैर फूंककर
रखना भुलाना
पड़ेगा।
अगर
मुहम्मद का
माननेवाला
चुनेगा तो
महावीर से वह
हिस्से काट
डालेगा जो
तलवार के
विपरीत जाते
होंगे। और
महावीर का
माननेवाला
चुनेगा तो
तलवार को अलग
कर देगा
मुहम्मद से, और
सिर्फ वे ही
बातें चुन
लेगा जो
अहिंसा के ताल—मेल
में पड़ती हों।
बाकी यह
अन्याय है।
इसलिए
मैं गांधी
जैसा
समन्वयवादी
नहीं हूं। मैं
सारे धर्मों
के बीच किसी
सिंथीसिस और
किसी समन्वय
की बात नहीं
कर रहा हूं।
मैं तो यह कह
रहा हूं कि
सारे धर्म
अपने निजी व्यक्तिगत
रूप में जैसे
हैं वैसे मुझे
स्वीकृत हैं, मैं
उनमें कोई
चुनाव नहीं
करता। और मैं
यह भी कहता
हूं कि उनके
वैसे होने से
भी पहुंचने का
उपाय है।
सारे
धर्मों ने जो
अलग—अलग अपने
रास्ते बनाए
हैं,
उन रास्तों
के जो भेद हैं,
वह रास्तों
के भेद हैं।
जैसे,— मेरे
रास्ते पर
वृक्ष पड़ते
हैं और आपके
रास्ते पर
पत्थर ही
पत्थर हैं। आप
जिस कोने से
चढ़ते हैं पहाड़
के, वहां पत्थर
ही पत्थर हैं
और मैं जिस
रास्ते से
चढ़ता हूं वहां
वृक्ष ही
वृक्ष हैं।
कोई है कि
सीधा पहाड़ पर
चढ़ता है बड़ी
चढ़ाई है और पसीने
से तर बतर हो
जाता है; कोई
है कि बहुत
मद्धिम और
घूमते हुए
रास्ते से
चढ़ता है।
रास्ता
लम्बा जरूर है
लेकिन थकता
कभी नहीं, पसीना
कभी नहीं आता।
निशित ही ये
लोग अपने—अपने
रास्तों की
अलग—अलग बात
करेंगे। इनके
वर्णन बिलकुल
अलग होगे। फिर
प्रत्येक के
रास्ते पर
मिलनेवाली
कठिनाईयों का
हिसाब भी अलग
होगा। और
प्रत्येक
कठिनाई से
जूझने की
साधना भी अलग
होगी। यह सब
अलग होगा।
अगर
हम इन रास्तों
की चर्चा को
देखें तो हम
इनमें शायद ही
कोई समानता
खोज पाएं। और
जो समानता कभी
दिखायी पड़ती
है वह रास्तों
की नहीं है।
वह समानता उन
वचनों की है
जो पहुंचे हुए
लोगों ने कहे।
वह रास्तों की
जरा भी नहीं
है। केवल उन
वचनों की है, जो
शिखर पर
पहुंचे लोगों
ने कहे हैं।
फिर
भाषा ही का
फर्क रह जाता
है,
चाहे अरबी
का, कि
पाली का, कि
प्राकृत का, कि संस्कृत
का, उन
शब्दों में जो
मंजिल की
घोषणा के लिए
कहे गए हैं।
बाकी मंजिल के
पहले सारे
फर्क बहुत
वास्तविक हैं।
और मैं नहीं
कहता कि उनको
भुलाने की
जरूरत है।
तो
मैं कोई नया
रास्ता नहीं
तोड़ना चाहता।
न ही किसी
पुराने
रास्ते को, बाकी
रास्तों के
खिलाफ, सही
कहना चाहता
हूं। मैं कहना
चाहता हूं कि
सभी रास्ते
सही हैं, भले
ही भिन्न हों
क्योंकि
हमारे मन में
सही होने का
एक ही मतलब
होता है कि वह
एक से हैं।
हमारे मन में
एक भाव होता
है कि दो
चीजें तभी सही
हो सकती हैं
जब एक—सी हों।
एक—सी होना
कोई
अनिवार्यता
नहीं है। सच
तो यह है कि दो
एक सी चीजों
में अकसर नकल
होगी, सही
नहीं होंगी।
चाहे एक नकल
हो, या
दोनों ही नकल
हों, एक तो
पकी ही नकल
होगी। दो
बिलकुल ही
वास्तविक
चीजें बिलकुल
अलग होती हैं।
उनका
व्यक्तित्व
भिन्न होता ही
है।
इसमें
मैं आत्मर्य
नहीं मानता कि
मुहम्मद और
महावीर के
मार्ग में भेद
हैं। न होता
भेद तो एक
चमत्कार था।
जो कि बिलकुल
अस्वाभाविक
है। महावीर की
सारी
परिस्थितियां
भिन्न हैं, मुहम्मद
की सारी
परिस्थितियां
भिन्न हैं।
मुहम्मद को
जिन लोगों के
साथ काम करना
पड़ रहा है, बिलकुल
भिन्न हैं।
महावीर को
जिनके साथ काम
करना पड़ रहा
है, वह
बिलकुल भिन्न
हैं। सारी
संस्कारगत
धारा है
मुहम्मद के
लोगों की, बिलकुल
और और महावीर
के पास जो
धारा है वह
बिलकुल और है।
यह सब इतना
भिन्न है कि
इसमें महावीर
और मुहम्मद का
मार्ग नहीं हो
सकता। और आज
भी सबकी
स्थितियां
भिन्न हैं। उन
भिन्न
स्थितियों को
ही ध्यान में
रखकर जाना
पड़ता है। तो
मैं, न तो
कोई नया मार्ग
तोड्ने को
उत्सुक हूं न
किसी पुराने
मार्ग को, शेष
पुराने
मार्गों के
खिलाफ सही
कहने को उत्सुक
हूं।
दो
बातें हैं—सभी
सही है जो
टूटे मार्ग वे, जो
आज टूट रहे
हैं वे, और
जो कल टूटेंगे
वे भी, जो
अभी नहीं टूटे
हैं वे भी सही
हैं। आदमी खड़ा
न रहे—चले।
गलत से गलत
मार्ग से
चलनेवाला भी
आज नहीं कल पहुंच
जाएगा। और सही
से सही मार्ग
पर खड़ा
रहनेवाला कभी
नहीं पहुंच
सकता। असली
सवाल चलने का
है। और जब कोई
चलता है तो
गलत मार्ग से
मुक्त हो जाना
अड़चन नहीं है।
लेकिन जब कोई
खड़ा रह जाता
है तो पता ही
नहीं चलता कि
जहां खड़ा है
वह सही है कि
गलत। चलने से
पता चलता है
कि सही है या
गलत है।
अगर
आप किसी भी
सिद्धान्त को
मानकर बैठ
जाएं तो कभी
पता नहीं चलता
है कि वह सही
है या गलत। आप
उसका प्रयोग
करें और चलें
और आपको फौरन
पता चलता है
कि वह सही है
या गलत। कोई
भी विचार, कर्म
बनकर ही सही
या गलत होने
की कसौटी पर
कसा जाता है, अन्यथा कोई
कसने का उपाय
नहीं है। तो
मेरी
उत्सुकता है,
चलें। और
मैं प्रत्येक
को उसको मार्ग
पर ही सहारा देने
को उत्सुक हूं।
स्वभावत:
महावीर के लिए
यह आसान नहीं
था।
आज
यह आसान है, और
रोज आसान होता
चला जाएगा, क्योंकि आज
करीब—करीब ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
अपने दो चार
छह जन्मो में,
दो चार छह
धर्मों में
पैदा न हो
चुका हो। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है।
एक—एक आदमी
चार—चार, छह—छह
धर्मों में
पैदा हो चुका
है। इधर पिछले
पांच सात सौ
वर्षों में
जैसी बाहरी
निकटता बढ़ी है
वैसी ही भीतरी
आत्मा के
आवागमन की
निकटता भी बढी
है। जोकि
स्वाभाविक है,
बढ़ेगी ही।
जैसे, उदाहरण
के लिए, आज
से दो हजार
साल पहले कोई
ब्राह्मण
मरता तो शूद्र
के घर में
पैदा होता, सौ मैं निन्यानबे
मौके पर सम्भव
नहीं था।
शूद्र के घर
में पैदा नहीं
हो सकता था।
आत्मा का
आवागमन इतना
ही कठिन था।
क्योंकि
आवागमन ही
नहीं था।
चित्त तो सारे
संस्कार लेता
है। जिस शूद्र
को कभी छुआ
नहीं, जिसकी
छाया से बचे, जिसकी छाया
पड़ गयी तो सान
किया, अलंध्य
खाई रही जिसके
और हमारे बीच।
मरने
के बाद आत्मा
यात्रा नहीं
कर सकती।
क्योंकि
यात्रा जो
चित्त कराएगा
वह चित्त बिलकुल
ही खिलाफ है।
कोई यात्रा
नहीं हो सकती।
इसलिए महावीर
के समय तक
बहुत कभी ऐसा
मौका होता था
कि कोई आदमी
कोई धर्म
परिवर्तन में
पैदा हो जाए।
यह सम्भव नहीं
था। धाराएं
इतनी बंधी थीं, लीकें
इतनी साफ थीं
कि आप इस जन्म
में ही अपने धर्म
के भीतर घुमते
थे। ऐसा नहीं
है, आप
अगले जन्म में
भी उसी धर्मों
के भीतर घूमते
थे। अब यह
सम्भव नहीं
रहा। अब चीजें
जैसे बाहर
उदार हो गयी
हैं वैसे भीतर
भी उदार हो
गयी हैं। वह
चित्त की बात
है।
आज
मुसलमान के
साथ बैठकर
खाना खाने में
किसी ब्राह्मण
को कोई तकलीफ
कम हुई है और
भी कम होती चली
जाएगी। और
जिसको कम नहीं
हुई है वह आज
का आदमी नहीं
है। उसके पास
चित्त पांच सौ
साल पुराना है।
आज के आदमी को
तो बिलकुल कम
हो गयी है। आज
तो सोचना भी
उसे बेहूदा मालूम
पड़ता है कि इस
तरह की बात
सोचे। इससे
भीतरी आवागमन
का भी द्वार
खुल गया है, यह
खयाल में ले
लेना जरूरी है।
इधर
पांच सौ वर्ष
में रोज द्वार
खुलता चला गया
है। वह जो
भीतर का द्वार
खुल गया है
उसके कारण, आज
कुछ बातें कही
जा सकती हैं।
अगर मैंने
अपने पिछले
जन्मों में
अनेक मार्गों
पर घूमकर देखा
हो तो मेरे लिए
बहुत आसान हो
जाता है कि
मैं कुछ कह
सकूं। अगर आज
एक तिब्बती
साधक मुझसे
पूछता हो तो
उससे मैं कह
सकता हूं।
लेकिन तभी कह
सकता हूं जब
कि किसी न किसी
यात्रा में
तिब्बतन जो
मिल्यू है, तिब्बती जो
वातावरण है, उसमें मैं
जिया हूं
अन्यथा मैं
नहीं कह सकता
हूं। और अगर
मैं कहूंगा तो
ऊपरी होगा, बहुत गहरा
नहीं हो सकता।
जब तक कि मैं
किसी जगह से
नहीं गुजरा
होऊं तब तक
मैं बहुत कुछ
नहीं कह सकता।
अगर
मैंने कभी
नमाज नहीं पढ़ी
है तो मैं
नमाज के लिए
कोई सहायता
नहीं दे सकता
हूं। और दूंगा
तो बहुत ऊपरी
होगी। किसी
मूल्य की नहीं
होगी। लेकिन
अगर मैं किसी
भी मार्ग से
नमाज से गुजरा
हूं तो मैं
सहायता दे
सकता हूं। और
अगर मैं एक
दफा भी गुजरा
हूं तो मैं
जानता हूं कि
नमाज से भी
वहीं पहुंचा
जाता है, जहां
किसी
प्रार्थना से
पहुंचा जाता
होगा। और तब
मैं इलेक्टिक
नहीं हूं।
इसलिए नहीं कह
रहा हूं कि
हिन्दू
मुसलमान को एक
होना ही चाहिए,
इसलिए
दोनों ठीक हैं।
तब मेरे कहने
का कारण बहुत
और है। तब मैं
जानता हूं कि
वे दोनों की
पद्धतियां भिन्न
है, लेकिन
जो प्रतीति है
भीतर, वह
एक है। और यह
स्थिति आगे भी
जो मैं कह रहा हूं
उसके अनुकूल
होती चली
जाएगी।
भविष्य के लिए
आनेवाले सौ
वर्षों में
इतना आवागमन
तीव्र हो
जाएगा
आत्माओं का, क्योंकि
जितने बन्धन
बाहर टूटेंगे,
उतने भीतर
टूट जाएंगे।
यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि जिन्होंने
बाहर बन्धन
बहुत सख्ती से
तय किए थे, उनका
आग्रह भी बाहर
के बन्धन के
लिए नहीं था।
भीतर का
इन्तजाम था।
इसलिए कभी भी
इस मुल्क की
वर्ण
व्यवस्था को बहुत
वैज्ञानिक
रूप से समझा
नहीं जा सका।
जैसा आज हमें
लगता है कि
कितना अन्याय
किया होगा उन
लोगों ने कि
एक तरफ वही
ब्राह्मण
उपनिषद लिख
रहा है और
दूसरी तरफ वही
ब्राह्मण
शूद्रों के
साथ ऐसा
दुर्व्यवहार
करने की
व्यवस्था कर
रहा है। यह
संगत नहीं है
बातें। या तो
सब उपनिषद
झूठे हैं, जो
लिखे नहीं गये
कभी, क्योंकि
उसी ब्राह्मण
से नहीं निकल
सकते जिस ब्राह्मण
से शूद्र की
व्यवस्था
निकल रही है।
और अगर उससे
ही शूद्र की
व्यवस्था
निकली हो, तो
हम जो
व्याख्या कर
रहे हैं उसमें
कहीं भूल हो
गयी है। निकली
उसी से है।
वही मनु एक
तरफ इतनी ऊंची
बात कह रहा है
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
नीत्से
कहा करता था
कि मनु से
ज्यादा बुद्धिमान
आदमी पृथ्वी
पर नहीं हुआ।
लेकिन अगर मनु
के वचन हम
देखें तो
शूद्रों और वर्णों
के बीच जितनी
अलंध्य
खाइयां उसने
निर्मित कीं, उतनी
किसी और आदमी
ने नहीं कीं।
वह अकेला आदमी
जो तय कर गया
उसको आज भी
नहीं हिला पा
रहे है आप।
पांच हजार साल
की धारा पर वह
छाया है। आज
भी सारा कानून,
सारी
व्यवस्था, सारी
समझ, सारी
बुद्धिमानी, सारी
राजनीति उसके
खिलाफ लगी हुई
है, उस
पांच हजार साल
पहले मरे हुए
आदमी के।
लेकिन वह जो
व्यवस्था दे
गया है उसको
हटाना बहुत
मुश्किल पड़
रहा है।
राजा
राममोहन राय
से लेकर गांधी
तक सारे हिन्दुस्तान
के डेढ़ सौ
वर्षों के
समझदार, सारे
समझदार आदमी
मनु के खिलाफ
लड़ रहे हैं।
और वह एक आदमी,
और वह भी
पांच हजार साल
पहले हो गया!
वह कोई छोटी समझ
का आदमी नहीं
है। ये सब
बचकाने हैं
उसके सामने—बिलकुल
जुविनायत्स
हैं। गांधी या
राजा राममोहन
राय बिलकुल
बचकाने हैं।
आज सारी
स्थिति
विपरीत हो गयी
है, फिर भी
मनु एकदम हिल
नहीं पा रहा
है। उसको
हिलाना कठिन
है। क्योंकि
कारण भीतर है।
सारी
व्यवस्था ऐसी
थी कि एक आदमी
इस जन्म में अगर
नमाज पड़ता रहा
है तो मनु
चाहता है कि
वह अगले जन्म
में भी नमाज
वाले घर में
ही पैदा हो।
नहीं तो जो
काम तीन जन्म
में हो सकता
है,
एक ही
परम्परा में
पैदा होकर, वह तीस
जन्मों में भी
नहीं हो सकता।
हर बार शृंखला
टूट जाएगी और
जब भी वह आदमी
रास्ता
बदलेगा तब फिर
अ ब स से शुरू
करेगा।
पुराने से आगे
नहीं जोड़ा जा
सकेगा।
एक
आदमी पिछले
जन्म में
मुसलमान के घर
में था और इस
जन्म में
हिन्दू के घर
में पैदा हो
गया,
अब वह फिर क
ख ग से शुरू कर
रहा है। पिछली
यात्रा बेकार
हो गयी, पुंछ
गयी। उसका कोई
अर्थ न रहा।
वह
ऐसा हुआ कि
जैसे एक बच्चा
एक स्कूल में
पढ़ा था छह
महीने, फिर
निकल आया, फिर
दूसरे स्कूल
में भर्ती हुआ
फिर पहली क्लास
में भर्ती हुआ,
फिर छह
महीने बाद
तीसरे स्कूल
में भर्ती हो
गया, उन्होंने
फिर उसे पहली
क्लास में भर्ती
कर लिया। वह
स्कूल बदलता
चला गया। यह
शिक्षित कब
होगा?
मनु
का खयाल था यह
और बड़ा कीमती
है,
कि उस
व्यक्ति को
उसी विचार—तरंगों
के जगत में
वापस पहुंचा
दें जहां से
वह छोड़ रहा है।
फिर से शुरू न
करना पड़े।
जहां से छोड़ा
वहां से शुरू
कर सके। और यह
तभी हो सकता
था जब बहुत
सख्ती से
व्यवस्था की
जाए। इसमें
थोड़ी भी ढील—पोल
से नहीं चलता।
अगर इसमें
इतना भी होगा
कि कोई हर्जा
नहीं है शूद्र
से विवाह कर
लो। लेकिन मनु
ज्यादा
बुद्धिमान है,
वह जानता है
कि जब शूद्र
से विवाह कर
सकते हो तो तब
कल शूद्र के
घर में गर्भ
लेने में कौन
सी कठिनाई
पड़ेगी? जब
शूद्र की लड़की
को गर्भ दे
सकते हो तो
शूद्र की लड़की
में गर्भ लेने
में कौन—सी
अड़चन रह जाएगी?
कोई तर्क
संगत अड़चन
नहीं रह जाती।
अगर गर्भ लेने
से रोकना है
तो गर्भ देने
से रोकना
पड़ेगा।
इसलिए
विवाह पर सख्त
पाबन्दी लगा
दी। उसने
इंचभर हिलने
नहीं दिया।
क्योंकि यहां
इंचभर हिल गए
तो पीछे की
सारी
व्यवस्था, वह
सारी की सारी
अस्त—व्यस्त
हो जाएगी।
लेकिन वह अस्त—व्यस्त
हो गयी। अब
शायद उसे
व्यवस्थित
करना कठिन
पड़ेगा। कठिन
क्या, मैं
समझता हूं
असम्भव है। अब
हो नहीं सकता।
सारी स्थिति
ऐसी है, कि
अब नहीं हो
सकता। अब
उन्हें और
सूक्ष्म
रास्ते खोजने
पड़ेंगे, मनु
से भी ज्यादा
सूक्ष्म। मनु
बहुत
बुद्धिमान था,
लेकिन
व्यवस्था
बहुत स्कूल थी।
इसलिए स्कूल
व्यवस्था
आदमी के लिए
अन्यायपूर्ण
हो जाएगी।
बहुत बाह्य, बाहर से
रोकी थी, भीतर
को सम्हालने
के लिए—जो आज
नहीं कल कठिन
हो ही जाएगी—स्टिफ
जैकिट बैठ गयी
ऊपर, वह
लोहे की हो
गयी।
आज
हमें और
सूक्ष्म तल पर
प्रयोग करने
पड़ेंगे।
सूक्ष्म तल पर
प्रयोग करने
का मतलब यह है
कि आज हमें
प्रार्थना और
नमाज को इतना
तरल बनाना पड़ेगा
कि जिसने
पिछले जन्म
में नमाज छोड़ी
हो वह इस जन्म
में अगर
प्रार्थना भी
शुरू करे तो
वहां से शुरू
कर सके जहां
नमाज छोड़ी।
इसका मतलब यह
हुआ कि
प्रार्थना और
नमाज इतनी तरल, लिक्विड
होनी चाहिए कि
प्रार्थना से
नमाज शुरू की
जा सके। नमाज
से प्रार्थना
शुरू की जा
सके। मन्दिर
के घण्टे
सुनते—सुनते
कान ऐसे न हो
जाएं कि किसी
दिन सुबह अजान
की आवाज अजनबी
मालूम पड़े।
मन्दिर के
घण्टों और
अजान की आवाज
में कहीं कोई
आतरिक तालमेल
बनाना पड़ेगा।
और इस बनाने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। यह बिलकुल
बनाया जा सकता
है।
और
इसलिए भविष्य
के लिए एक
बिलकुल नये
धर्म की, नयी
धार्मिकता की,
न्यू
रिलीजियसनेस—नया
धर्म नहीं
कहना चाहिए—नयी
धार्मिकता की
जरूरत पडेगी।
मनु का सारा
इन्तजाम टूट
गया। बुद्ध, महावीर की
सारी
परम्पराएं
विशृखल हो
गयीं। उन्हीं
आधारों पर कोई
नये प्रयोग
करना चाहेगा
तो वे मजबूरी
में टूट
जाएंगी।
गुरजिएफ ने
बहुत कोशिश की,
वह टूट गया।
कृष्णमूर्ति
चालीस साल से
मेहनत करते
हैं, कुछ
बनता नहीं।
सारी स्थिति
अन्यथा हो गयी।
इस अन्यथा
स्थिति में
बिलकुल ही एक
नयी धारणा.?.
नयी
धारणा—नयी इस
अर्थ में, जैसा
कि हमने कभी
प्रयोग ही
नहीं की। एक
तरल धर्म की
धारणा है। सब
धर्मों के, वे जैसे है
वैसे ही, सही
होने की धारणा।
दृष्टि मंजिल
पर, आग्रह
चलने का! कहीं
भी कोई चले, और हर दो
रास्तों के
बीच इतनी
निकटता कि
किसी भी
रास्ते से
दूसरा रास्ता
शुरू हो सके।
इन रास्तों के
बीच इतना
फासला नहीं कि
एक रास्ते पर
चलनेवाला जब दूसरे
पर शुरू करे
तो उसे दरवाजे
पर आना पडे वापस—नहीं,
वह जहां से
दूसरे रास्ते
से हटे, वहीं
से दूसरे
रास्ते से मिल
जाए।
तो
जिनको कहना
चाहिए—लिंक
रोड्स, रास्तों
को जोड़ने वाली
शृंखला, कड़ियां!
मंजिल से
जोड़नेवाले
रास्ते सदा से
है। दो
रास्तों को
जोड़नेवाली
कड़ियां सदा से
नहीं हैं।
मंजिल तक जाने
की तो कोई
कठिनाई नहीं
है। कोई भी एक
रास्ते को पकड़े,
मंजिल तक
पहुंच जाएगा।
लेकिन अब ऐसा
है कि एक
रास्ते पर
शायद ही कोई पूरा
चल पाए।
जिन्दगी रोज
अस्त—व्यस्त
होती रहेगी।
भौतिक अर्थों
में भी और
मानसिक
अर्थों में भी
अस्त—व्यस्त
होती रहेगी।
एक
आदमी हिन्दू
घर में पैदा
होगा, हिन्दू
गांव में बड़ा
होगा और फिर
जिन्दगी हो
सकती है, वह
यूरोप में
बिताए। एक
आदमी अमेरिका
में पैदा होगा
और हिन्दुस्तान
के जंगल में
जिन्दगी
बिताए। लन्दन
में बड़ा होगा,
वियतनाम के
गांव में
जिएगा। यह रोज
होता जाएगा।
भौतिक अर्थों
में भी रोज
वातावरण
बदलेगा और आन्तरिक
अर्थों में भी
इतना ही
वातावरण बदलेगा।
यह बदलाहट
इतनी ज्यादा
होती जाएगी कि
अब हमें
लिंक्स बनानी
पड़ेगी, सब
रास्तों के
बीच।
कुरान
और गीता एक
नहीं है।
कुरान और गीता
के बीच एक कड़ी
बांधी जा सकती
है। तो मैं एक
ऐसे
संन्यासियों
का जाल भी
फैलाना चाहता
हूं जो कड़ियां
बन जाएं।
मस्जिद में
नमाज भी पढ़ें, चर्च
में भी
प्रार्थना
करें, और
मन्दिर में भी
गीत गाएं।
महावीर के
रास्ते पर भी
चलें, बुद्ध
की साधना में
भी उतरें, सिक्खों
के पन्थ पर भी
प्रयोग करें
और लिंक
निर्मित करें।
और ऐसे
व्यक्तियों
का जीवित जाल,
जो लिंक बन
जाए! और ऐसी एक
धार्मिक
अवधारणा कि सब
धर्म भिन्न
होते हुए एक
हैं! अभिन्न
होकर एक नहीं
है, भिन्न
होते हुए, बिलकुल
भिन्न होते
हुए, अपनी—अपनी
निजता में
भिन्न होते
हुए एक हैं।
एक, क्योंकि
एक जगह
पहुंचाते हैं।
एक, क्योंकि
परमात्मा की
तरफ चलाते है।
तो
मेरा काम कुछ
तीसरे तरह का
है। और वैसा
काम ठीक से
हुआ नहीं, कभी
हुआ नहीं। कुछ
छोटे—छोटे कभी
प्रयोग किए गए,
बहुत छोटे।
लेकिन सदा
असफल हुए।
रामकृष्ण ने
थोड़ी—सी मेहनत
की। पर वह
प्रयोग भी
बहुत पुराने
नहीं हैं, इधर
बस दो सौ वर्ष
के बीच
प्राथमिक कदम
उठाए गए।
रामकृष्ण ने
मेहनत की, लेकिन
खो गयी।
विवेकानन्द
ने उसे फिर
वापस हिन्दू
रंग दे दिया
पूरा का पूरा।
वह बात खो गयी।
नानक
ने कोशिश की
थी पांच सौ
साल पहले, और
थोड़ी पीछे भी
कोशिश हुई, लेकिन वह भी
खो गयी। नानक
ने गुरु गन्ध
में सारे
हिन्दू र
मुसलमान
संतों की वाणी
इकट्ठी की।
नानक गीत गाते,
तो मर्दाना—स्व
मुसलमान
तंबूरा बजाता।
कभी किसी
दूसरे को
तंबूरा बजाने
नहीं दिया उन्होंने।
उन्होंने कहा
कि गीत हिन्दू
गाता हो तो
मुसलमान
तंबूरा तो
बजाए। गीत और
तंबूरा कहीं
तो एक हो जाए।
मक्का और
मदीना की
यात्रा की, मस्जिदों
में नमाज पढ़ी
नानक ने, पर
खो गयीं।
तत्काल सारी
चीज को इकट्ठी
करके नया पंथ
खड़ा हो गया।
और
भी सूफी
फकीरों ने कुछ
मेहनत की। और
कहीं—कहीं कुछ
और मेहनत हुई
लेकिन सारी
मेहनत प्राथमिक
ही रही, वह
अभी तक बन
नहीं पायी।
उसके दो कारण
थे। युग भी
पूरा नहीं
निर्मित हुआ
था। लेकिन अब
युग पूरा
निर्मित हुआ
जा रहा है। अब
एक बड़े पैमाने
पर श्रम किया
जा सकता है।
मेरी
दिशा बिलकुल
तीसरी है। न
पुराने को
दोहराना है, न
नये की कोई
बात है।
पुराने और नये
में, सब में
जो है, उस
पर चलने का
आग्रह है।
कैसे भी चलें
उसकी
स्वतंत्रता
है।
भगवान
श्री जिस
शाश्वत की बात
जिस सनातन की
बात आपने की
है— क्या उसका
बोध सात सौ
वर्ष पूर्व
आपको हो चुका
था— और उसी
सांकेतिक में
भी आज आप सारी
बात कर रहे हैं—अथवा
आज की
परिस्थितियों
में उस
शाश्वतता वाली
बात का बोध
होता है?
शाश्वत
का बोध सभी को
हुआ है। बोध
में कहीं कोई
अड़चन नहीं है।
बोध की
अभिव्यक्ति
में अड़चन पड़ती
है। शाश्वत का
बोध महावीर को
भी है, बुद्ध
को भी है, लेकिन
महावीर
पुराने की
भाषा में उस
शाश्वत के बोध
को अभिव्यक्त
करते हैं; बुद्ध
नये की भाषा
में उस शाश्वत
को अभिव्यक्त
करते हैं।
मैं
उसे शाश्वत की
ही भाषा में
अभिव्यक्त
करना चाहता
हूं। और जो आप
पूछते हैं कि
क्या सात सौ
वर्ष पहले
मुझे हो गया
था?
करीब—करीब
हो गया था, परन्तु
अभिव्यक्ति
तो आज ही
दूंगा।
क्योंकि सात
सौ साल पहले
भी जो जाना हो,
वह भी जब आज
कहा जाएगा, तो जानने
में अन्तर
नहीं पड़ेगा, कहने में
बहुत अन्तर
पड़ेगा। सात सौ
साल पहले यही
नहीं कहा जा
सकता था, कोई
कारण ही नहीं था
कहने का।
स्थिति करीब—करीब
ऐसी है जैसे
कभी वर्षा में
इन्द्रधनुष बन
जाता है।
यह
बहुत मजेदार
घटना है। आप
जहां खड़े होते
हैं वहां से
इन्द्रधनुष
दिखायी पड़ता
है।
इन्द्रधनुष
तीन चीजों पर
निर्भर होता
है। वर्षा के
कण,
पानी के कण
होने चाहिए
हवा में, भाप
होनी चाहिए
हवा में। उन
कणों को या
भाप को
काटनेवाली
सूरज की किरणें
एक विशेष कोण
पर होनी चाहिए।
और आप एक खास
जगह में खड़े
होने चाहिए।
अगर आप उस जगह
से हट जाएं तो
इन्द्रधनुष
खो जाएगा।
इन्द्रधनुष
के बनाने में
सिर्फ सूरज की
किरणें और
पानी की
बूंदें ही काम
नहीं करती हैं,
आपका खास
जगह खड़ा होना
भी काम करता
है। सिर्फ
सूरज की
किरणें और
पानी नहीं
बनाते इन्द्रधनुष
को, आपकी आंख
खास जगह से
देखकर भी उतना
ही हिस्सा
बंटाती है
उसके निर्माण
में। यानी
सूरज के
कांस्टीटबुएस्स
एलीमेंट्स जो हैं,
उनमें आप भी
एक हैं। तीन
में से कोई भी
हट जाए तो
इंद्रधनुष खो
जाएगा।
तो
जब भी सत्य
अभिव्यक्त
होता है तब भी
तीन चीजें
होती हैं।
सत्य की अनुभूति
होती है। वह न
हो तब तो सत्य
की
अभिव्यक्ति
नहीं होती।
सूरज न निकला
हो तो कोई
इन्द्रधनुष
बनने वाला
नहीं है, आप
कहीं भी खड़े
हो जाएं और
वर्षा के कण
कुछ भी करें।
तो सूर्य की
तरह तो सत्य
की अनुभूति
अनिवार्य है।
लेकिन सत्य की
अनुभूति हो, सत्य को
सुननेवाला भी
मौजूद हो लेकिन
बोलनेवाला
ठीक कोण पर न
हो तो नहीं
बोला जा सकता।
जैसा
कि मेहर बाबा
को मैं मानता
हूं। वह कभी
उस ठीक कोण पर
नहीं खड़े हो
पाए जहां से उनकी
अनुभूति और
सुननेवाले के
बीच
इन्द्रधनुष
बन जाता। वह
कभी उस कोण पर
न खड़े हो पाए।
बहुत—से फकीर
मौन रह गए।
मौन रहने का
कारण है। वे
भी कोण पर
नहीं खड़े हो
पाए ठीक, जहां
से कि
अभिव्यक्ति
का कोण बन सके।
वह भी
अनिवार्य है।
नहीं तो सत्य
की अनुभूति एक
तरफ रह जाएगी,
सुननेवाला
एक तरफ रह
जाएगा, यदि
बोलनेवाला
मौजूद नहीं हो
ठीक जगह पर।
लेकिन
बोलनेवाला भी
ठीक जगह पर हो,
ठीक बोलने
में समर्थ हो,
लेकिन
सुननेवाला—वह
भी तो
कांस्टीस्तुएंट
है! वह भी सात
सौ साल पहले
जिससे मैं
बोलता वह भी
मेरे बोलने
में हिस्सा
होता।
इसलिए
मैं यही नहीं
बोल सकता जो
मैं आपसे
बोलता हूं। और
आप यहां न
बैठे हों तो
भी मैं यही
नहीं बोल सकूंगा।
क्योंकि आप भी, जो
मैं बोल रहा
है उसमें उतने
ही अनिवार्य
हिस्से हैं।
आपके बिना भी
नहीं बोला जा
सकता। यह
तीनों चीजें
जब एक निश्चित
ट्यूनिंग पर
आती हैं, एक
निशित ध्वनि—तरंग
पर मेल खाती
हैं, तब
अभिव्यक्ति
हो पाती है।
इसमें जरा—सी
भी चूक हुई कि
सब खो जाता है।
इन्द्रधनुष
एकदम बिखर
जाता है। सूरज
फिर कुछ नहीं
कर सकता। पानी
की बूंदें कुछ
नहीं कर सकतीं।
एक भी चीज
कहीं से हिल
गयी कि
इन्द्रधनुष
तत्काल खो
जाता है।
सत्य
की अभिव्यक्ति
तो वह ‘रेनबो एक्वस्टेंस'
है। वह
बिलकुल ही
इन्द्रधनुष
की भांति है।
पल—पल खोने को
तत्पर है।
जरा—सा इधर—उधर
चूके कि वह खो
जाएगी।
सुननेवाला
जरा—सा चूका, इन्द्रधनुष
खो जाएगा।
बोलनेवाला
जरा—सा चूका
कि बोलना
व्यर्थ हो
जाएगा। इसलिए
सात सौ साल की
बात तो दूर है,
सात दिन
पहले भी आपसे
मैं यही नहीं
कह सकता था, और सात दिन
बाद भी यही
नहीं कह
सकूंगा।
क्योंकि सब
बदल जाएगा।
सूरज नहीं
बदलेगा, वह
जलता रहेगा।
लेकिन सूरज के
अलावा, सत्य
की अनुभूति के
अलावा, वह
जो दो और
अनिवार्य
तत्व हैं—सुननेवाला
और बोलनेवाला—वह
दोनों बदल
जाएंगे।
इसलिए
बोध तो सात सौ
साल पहले का
है,
लेकिन
अभिव्यक्ति
तो आज की है—
अभी की है। आज
की भी नहीं, कहनी चाहिए—
अभी की! कल भी
जरूरी नहीं है
कि ऐसी ही हो।
कठिन है कि
ऐसी ही हो, उसमें
बदलाहट होती
ही जाएगी।
आत्मा
जब शरीर छोड़
देती है और
दूसरा शरीर
धारण नहीं
करती है उस
बीच के समयातीत
अंत्तराल में
जो घटित होता
है—उसका तथा
जहां वह विचरण
करती है उस
वातावरण के
वर्णन की कोई
सम्भावना हो
सकती है? और
इसके साथ जिस
प्रसंग में
आपने आत्मा का
अपनी मर्जी से
जन्म लेने की
स्वतंत्रता का
जिक्र किया है
तो क्या उसे
जब चाहे शरीर
छोडने अथवा न
छोडने की भी
स्वतंत्रता
है?
पहली तो
बात,
शरीर छोड़ने
के बाद और नया
शरीर ग्रहण
करने के पहले
जो अन्तराल का
क्षण है, अन्तराल
का काल है, उसके
संबंध में दो—तीन
बातें समझें
तो ही प्रश्न
समझ में आ सके।
एक तो यह कि उस
क्षण जो भी
अनुभव होते
हैं वे स्वप्नवत
हैं, ड्रीम
लाइक हैं।
इसलिए जब होते
हैं तब तो
बिलकुल
वास्तविक होते
हैं, लेकिन
जब आप याद
करते हैं तब
सपने जैसे हो
जाते है। स्वप्नवत
इसलिए हैं वे
अनुभव, कि
इन्द्रियों
का
उपयोग
नहीं होता।
आपके यथार्थ
का जो बोध है, यथार्थ की
जो आपकी
प्रतीति है, वह
इन्द्रियों
के माध्यम से
है, शरीर
के माध्यम से
है।
अगर
मैं देखता हूं
कि आप दिखायी
पड़ते हैं, और
छूता हूं तो
छूने में नहीं
आते तो मैं
कहता हूं कि
फेंटम .हैं।
हैं नहीं आप
यहां। यह टेबल
मैं छूता हूं
और छूने में
नहीं आती और हाथ
मेरा आर—पार
चला जाता है
तो मैं कहता
हूं झूठ है।
मैं किसी श्रम
में पड़ा हुआ
हूं। कोई
हेलुसिनेशन
है। आपके
यथार्थ की
कसौटी आपकी
इन्द्रियों
के प्रमाण हैं।
तो एक शरीर
छोड़ने के बाद
दूसरा शरीर
लेने के बीच
इन्द्रियां
तो आपके पास
नहीं होतीं, शरीर आपके
पास नहीं होता।
तब जो भी आप को
प्रतीतिया
होती हैं, वह
बिलकुल स्वप्नवत
हैं—जैसे आप स्वप्न
देख रहे हैं
जब
आप स्वप्न
देखते हैं तो स्वप्न
बिलकुल ही
यथार्थ मालूम
देता है, रूप
में कभी
सन्देह नहीं
आता। यह बहुत
मजे की बात है।
यथार्थ में
कभी—कभी
सन्देह आ जाता
है। रूप में
कभी सन्देह
नहीं आता। स्वप्न
बहुत
श्रद्धावान
हैं। यथार्थ
में कभी—कभी ऐसा
होता है कि जो
दिखायी पड़ रहा
है वह सच में है
या नहीं? लेकिन
स्वप्न में
ऐसा कभी नहीं
होता कि जो
दिखायी पड़ रहा
है वह सच में
है या नहीं।
क्यों? क्योंकि
रूप इतने से
सन्देह को सह
नहीं पाएगा, टूट जाएगा, बिखर जाएगा।
यह
स्वप्न इतनी
नाजुक घटना है
कि इतना—सा
सन्देह ही मौत
के लिए काफी
है। इतना खयाल
आ जाए कि कहीं
ये स्वप्न तो
नहीं हैं, कि
स्वप्न टूट
गया। या आप
समझिए कि आप
जाग गए। तो स्वप्न
के होने के
लिए अनिवार्य
है कि सन्देह
तो कणभर भी न
हो। कणभर
सन्देह भी, बड़े से बड़े, प्रगाढ़ से
प्रगाढ़ स्वप्न
को छिन्न—भिन्न
कर जाएगा—तिरोहित
कर देगा।
स्वप्न
में कभी पता
नहीं चलता जो
हो रहा है, क्या
वह सचमुच हो
रहा है? यही
लगता है कि
बिलकुल हो रहा
है। इसका यह
भी मतलब हुआ
कि स्वप्न जब
होता है तब
यथार्थ से
ज्यादा
यथार्थ मालूम
पड़ता है।
यथार्थ कभी
इतना यथार्थ
मालूम नहीं
पड़ता।
क्योंकि
यथार्थ में
सन्देह
सुविधा है। स्वप्न
तो अति यथार्थ
होता है। इतना
अति यथार्थ
होता है कि
रूप के दो
यथार्थ में
विरोध भी हो, तो विरोध
दिखायी नहीं
पड़ता।
जैसे
एक आदमी चला आ
रहा है। वह
अचानक कुत्ता
हो जाता है।
और आपके मन
में यह खयाल
भी नहीं आता
कि यह कैसे हो
सकता है। अभी
आदमी था, अभी
कुत्ता हो
गया! नहीं, यह
भी खयाल में
नहीं आता कि
यह कैसे हो
सकता है—बस हो
गया! और हो
सकता है।
इसमें कहीं
सन्देह नहीं
है। जागने पर
आप सोच सकते
हैं कि यह
क्या गड़बड़ हुई,
लेकिन स्वप्न
में कभी नहीं
सोच सकते। स्वप्न
में यह बिलकुल
ही रीजनेबल है,
इसमें कहीं
कोई असंगति
नहीं है।
बिलकुल ठीक है।
एक आदमी अभी
मित्र था और
एकदम बन्दूक
तानकर खड़ा हो
गया। तो आपके
मन में कहीं
ऐसा सपने में
नहीं आता कि अरे,
मित्र होकर
बन्दूक तानते
हो? इसमें
कोई असंगति
नहीं है। रूप
में असंगति
होती ही नहीं।
स्वप्न
में सब असंगत
भी संगत है।
क्योंकि जरा
सा शक, कि स्वप्न
बिखर जाएगा।
लेकिन जागने
के बाद? जागने
के बाद सब खो
जाता है। कभी
खयाल न किया
होगा कि जागकर
ज्यादा से ज्यादा
घण्टेभर के
बीच ही सपना
याद किया जा
सकता है, इससे
ज्यादा नहीं।
आमतौर से तो
पांच सात मिनट
में खोने लगता
है, लेकिन
ज्यादा से
ज्यादा, बहुत
जो कल्पनाशील
है वह भी एक
घण्टे से
ज्यादा स्वप्न
की स्मृति को
नहीं रख सकता—नहीं
तो आपके पास
सपने की
स्मृति ही
इतनी हो जाएं
कि आप जी न
सकें।
घण्टेभर के
बाद जागने के
भीतर स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं।
आपका मन स्वप्न
के धुएं से
बिलकुल मुक्त
हो जाता है।
ठीक
ऐसे ही दो
शरीरों के बीच
का जो अन्तराल
का क्षण होता
है,
उसमें जो भी
होता है, वह
बिलकुल ही
यथार्थ लगता
है—इतना
यथार्थ, जितना
हमारी आंखों
और
इन्द्रियों
से कभी हम
नहीं जानते।
इसलिए
देवताओं के
सुख का कोई अल
नहीं! क्योंकि
अप्सराएं
जैसी यथार्थ
उन्हें होती
हैं, इन्द्रियों
से स्रियां
वैसी यथार्थ
कभी नहीं होती
हैं। इसलिए
प्रेतों के
दुख का अन्त
नहीं! क्योंकि
जैसे ही दुख
उन पर टूटते
हैं, ऐसे
ही यथार्थ दुख
आप पर कभी
नहीं टूट सकते।
तो जिन्हें हम
नरक और स्वर्ग
कहते हैं, वह
बहुत प्रगाढ़ स्वप्न
अवस्थाएं हैं—बहुत
प्रगाढ़! जैसी
आग नरक में
जलती है वैसी
आग आप यहां
नहीं जला सकते।
उतनी यथार्थ
आग नहीं जला
सकते।
हालांकि बड़ी
इनकसिस्टेंट
आग है।
कभी
आपने देखा है
कि नरक की आग
का जो—जो
वर्णन है, उसमें
यह बात है कि
आग में जलाए
जाते हैं, जलते
नहीं। मगर यह
इनकसिस्टेंसी
खयाल में नहीं
आती कि आग में
जलाया जा रहा
हूं आग भयंकर
है, तपन
सही नहीं जाती
और जल बिलकुल
नहीं रहा हूं।
मगर यह
इनकसिस्टेंसी
बाद में खयाल
आती है। उस
वक्त खयाल में
नहीं आती।
दो
शरीरों के बीच
का जो अन्तराल
है उसमें दो तरह
की आत्माएं
हैं—एक तो
बहुत बुरी आत्माएं
हैं,
जिनके लिए
गर्भ मिलने
में वक्त
लगेगा। उनको
मैं प्रेत
कहता हूं।
दूसरी भली
आत्माएं
जिन्हें गर्भ
मिलने में देर
लगेगी, उनके
लिए योग्य
गर्भ चाहिए, उन्हें मैं
देव कहता हूं।
इन दोनों में
बुनियादी कोई
भेद नहीं है—व्यक्तित्व
भेद है, चरित्रगत
भेद है, चित्तगत
भेद है।
योनि
में कोई भेद
नहीं है।
अनुभव दोनों
के भिन्न
होंगे। बुरी
आत्माएं बीच
के उस अन्तराल
से इतने दुखद
अनुभव लेकर
लौटती हैं, उनकी
ही स्मृति का
फल नरक है। जो—जो
उस स्मृति को
दे सके हैं
लौटकर, उन्होंने
ही नरक की
स्थिति साफ
करवायी है।
बिलकुल ड्रीम
लैंड है, कहीं
है नहीं।
लेकिन जो उससे
आया है वह मान
नहीं सकता
क्योंकि आप जो
दिखा रहे हैं,
यह उसके
सामने कुछ भी
नहीं है। वह
कहता है, यह
जो आग है बहुत
ठंडी है। उसके
मुकाबले कुछ
भी नहीं है जो
मैंने देखी।
यहां जो घृणा
और हिंसा है
वह कुछ भी
नहीं है जो मैं
देखकर चला आया
हूं। वह जो
स्वर्ग का
अनुभव है, वह
भी ऐसा ही
अनुभव है।
सुखद सपनों का
और दुखद सपनों
का भेद है। वह
पूरा का पूरा
ड्रीम पीरिएड
है।
यह
बहुत तात्विक
है,
और समझने की
बात है कि वह
बिलकुल ही रूप
है। यह हम समझ
सकते हैं, क्योंकि
हम भी रोज
सपना देख रहे
हैं। सपना आप
तभी देखते हैं
जब आपके शरीर
की
इन्द्रियां
शिथिल हो जाती
हैं। एक गहरे
अर्थ में आपका
संबंध टूट
जाता है तो आप
सपने में चले
जाते हैं।
सपने भी रोज
ही दो तरह के
देखते हैं—स्वर्ग
और नरक के—या
तो मिश्रित
होते हैं—कभी
स्वर्ग, कभी
नरक; या
कुछ लोग नरक
के ही देखते
हैं, कुछ
लोग स्वर्ग के
ही देखते हैं।
कभी
सोचे कि आपने
सपना रात आठ
घण्टा देखा।
अगर इसको आठ
साल लम्बा कर
दिया जाए तो
आपको कभी पता
नहीं चलेगा।
क्योंकि टाइम
का बोध नहीं
रह जाता, समय
का कोई बोध
नहीं रह जाता।
वह जो घड़ी
बीतती है, उस
घड़ी का कोई
स्पष्ट बोध
नहीं रह जाता।
लेकिन उस घडी
का बोध पिछले
जन्म के शरीर
और इस जन्म के
शरीर के बीच
पड़े हुए परिवर्तनों
से नापा जा
सकता है। पर
वह अनुमान है।
खुद उसके भीतर
समय का कोई
बोध नहीं है।
और
इसलिए, जैसे
क्रिश्रिएनिटी
ने कहा कि नरक
सदा के लिए है।
वह भी ऐसे
लोगों की
स्मृति के
आधार पर है
जिन्होंने
बड़ा लम्बा
सपना देखा।
इतना लम्बा
सपना कि जब वे
लौटे हैं तो
उन्हें पिछले
अपने शरीर के
और इस शरीर के
और इस शरीर के
बीच कोई संबंध
स्मरण न रहा।
इतना लम्बा हो
गया। बतलाया
कि वह नरक तो
अनन्त है, उसमें
से निकलना
मुश्किल है।
अच्छी
आत्माएं सुखद
सपने देखती
हैं, बुरी
आत्माएं दुखद
सपने देखती
हैं। सपनों से
ही पीड़ित और
दुखी होती हैं।
तिब्बत
में जब आदमी
मरता है, तो
उसको मरते
वक्त जो सूत्र
देते हैं वह
इसी के लिए है।
ड्रीम सीक्रेंस
पैदा करने के
लिए है। आदमी
मर रहा है तो
वह उसको कहते
हैं कि अब तू
यह—यह देखना
शुरू कर। सारा
का सारा
वातावरण
तैयार करते
हैं। अब यह
मजे की बात है,
लेकिन
वैज्ञानिक है—कि
सपने बाहर से
पैदा करवाए जा
सकते हैं।
जैसे रात आप
सो रहे हैं, आपके पैर के
पास अगर गीला
पानी या भीगा
हुआ कपड़ा आपके
पैर के पास
घुमाया जाए तो
आप में एक तरह
का सपना पैदा
होगा। हीटर से
पैर में थोड़ी
गर्मी दी जाए
तो दूसरे तरह
का सपना पैदा
होगा। अगर
ठष्ठक दी गयी
पैर में, शायद
आप सपना देखें
कि वर्षा हो
रही है, शायद
सपना देखें कि
बर्फ पर चल
रहे हैं। गर्म
पैर किए, तो
शायद सपना
देखें—रेगिस्तान
में चले जा
रहे हैं। तपती
हुई रेत है, सूरज जल रहा
है, पसीने
से लथपथ हैं।
आपके बाहर से
सपने पैदा किए
जा सकते हैं।
और बहुत—से
सपने आपके
बाहर ही से
पैदा होते हैं।
रात छाती पर
हाथ रख गया
जोर से तो
सपना 'आता
है कि कोई
छाती पर चढ़ा
हुआ बैठा है—
आपका ही हाथ
रखा हुआ है।
ठीक
एक शरीर छोड़ते
वक्त, वह जो
सपने का लम्बा
काल आ रहा है
जिसमें
आत्माएं शरीर
में शायद जाएं
न जाएं जो
वक्त बीतेगा
बीच में, उसका
सीक्रेंस
पैदा करवाने
की सिर्फ
तिब्बत में
साधना विकसित
की गयी है।
उसको वह
बार्डो कहते
हैं। पूरा
इत्तजाम
करेंगे, उसका
सपना पैदा
करेंगे।
उसमें जो—जो
शुभ
वृत्तियां
रही हैं उसकी
जिन्दगी में,
उन सबको
उभार देंगे।
जिन्दगीभर भी
उनकी
व्यवस्था
करने की कोशिश
करेंगे कि
मरते वक्त वह
उभारी जा सकें।
जैसा
मैंने कहा कि
सुबह उठकर
घण्टेभर तक
आपको सपना याद
रहता है। ऐसा
ही नए जन्म पर
कोई छह महीने
तक,
छह महीने की
उम्र तक करीब—करीब
सब याद रहता
है। फिर धीरे—
धीरे खोता चला
जाता है। जो
बहुत
कल्पनाशील
हैं, या
बहुत
संवेदनशील
हैं, वह
थोड़ा कुछ
ज्यादा याद
रखते हैं।
जिन्होंने
अगर किसी तरह
की जागरूकता
के प्रयोग किए
हैं पिछले
जन्म में, तो
वह बहुत देर
तक याद रख ले
सकते हैं।
जैसा
सुबह एक घण्टे
तक सपना
याददाश्त में
घूमता रहता है, धुएं
की तरह आपके
आस—पास
मंडराता रहता
है, ऐसे ही
रात सोने के
घंटेभर पहले
ही आपके ऊपर स्वप्न
की छाया पड़नी
शुरू हो जाती
है। ऐसे ही
मरने के भी छह
महीने पहले
आपके ऊपर मौत की
छाया पड़नी
शुरू हो जाती
है। इसलिए छह
महीने के भीतर
मौत
प्रिडिक्टेबल
है। एक्सीडेंट
भी बिलकुल
एक्सीडेंट
नहीं है। कोई
एक्सीडेंट
बिलकुल
एक्सीडेंट
नहीं है। हमें
लगता है, क्योंकि
हमारी
व्यवस्था के
कुछ भीतर नहीं
घटित हो रहा।
लेकिन कोई
दुर्घटना
सिर्फ
दुर्घटना
नहीं है।
दुर्घटना भी
सकारण है। छह
महीने पहले
मौत की छाया
पड़नी शुरू हो
जाती है, तैयारी
शुरू हो जाती
है।
जैसे
रात में नींद
के एक घण्टे
पहले तैयारी
शुरू हो जाती
है। इसलिए
सोने के पहले
घण्टे भर का
वक्त है, वह
बहुत
सजेस्टिबल है।
उससे ज्यादा
सजेस्टिबल
कोई वक्त नहीं
है। क्योंकि
उस वक्त आपको
शक होता है कि
आप जागे हुए हैं,
लेकिन आप पर
नींद की छाया
पड़नी शुरू हो
गयी होती है।
इसलिए दुनियां
के सारे
धर्मों ने
सोने के वक्त
घण्टे भर, और
सुबह जाय ने
के बाद घण्टे भर
प्रार्थना का समय
तय किया है—संध्या
काल!
संध्याकाल
का मतलब सूरज
जब डूबता है, उगता
है, तब नहीं।
संध्या काल काम
तलब है सोने
से पहले, जब
आप नींद में
जाते हैं, बीच
का समय। सुबह
जब आप नींद से
टूटकर जागने
में आते हैं, तब, बीच
की संध्या। वह
जो मिडिल पीरियड
है, उसका
नाम है संध्या।
सूरज से कोई लेना—देना
नहीं है। वह तो
बंध गया सूरज
के साथ जब एक
जमाना ऐसा था
कि सूरज का
डूबना हमारा
नींद का वक्त
था और सूरज का
उगना हमारे
जागने का वक्त
था। तो
एसोसिएशन हो
गया था और
खयाल में आ
गया कि सूरज
जब डूब रहा है
तो संध्या और
सूरज जब उग
रहा है तब
संध्या।
लेकिन
अब संध्या का
वह खयाल छोड़
देना चाहिए।
क्योंकि अब
कोई सूरज के डूबने
के साथ सोता
नहीं और सूरज
के उगने के
साथ उठता नहीं।
जब आप सोते
हैं उसके
घण्टेभर पहले
संध्या, और जब
आप उठते हैं
उसके घण्टेभर
बाद संध्या।
संध्या का
मतलब धुंधला
क्षण—दो
स्थितियों के
बीच में।
कबीर
ने अपनी भाषा
को संध्या
भाषा कहा है।
कबीर कहता है
कि न तो हम
सोये हुए बोल रहे
है,
न हम जागे
हुए बोल रहे
हैं। हम बीच
में हैं। हम
ऐसी मुसीबत
में हैं कि हम
तुम्हारे बीच
से भी नहीं
बोल रहे हैं
कि हम तुम्हारे
बाहर से भी नहीं
बोल रहे। हम बीच
में खडे हैं, बार्डर लेण्ड
पर। वहां, जहां
से हमें वह दिखायी
पड़ रहा है जो आंखों
से दिखाई नहीं
पड़ता और जहां
से हमें वह भी
दिखाई पड़ रहा
है जो आंखों
से दिखायी पड़
रहा है। देहरी
पर खड़े हैं।
तो हम जो बोल
रहे हैं उसमें
वह भी है जो
नहीं बोला जा
सकता है, और
वह भी है जो
बोला जा सकता
है। इसलिए
हमारी भाषा
संध्या—भाषा
है। इसके अर्थ
को तुम जरा
सम्हालकर
निकालना।
यह
जो सुबह का एक घण्टे
का वक्त है, और
सांझ सोने के पहले
भी घण्टे भर का
वक्त है, यह
बहुत मूल्यवान
है। ठीक ऐसे ही
छहमहीने जन्म
के बाद का
वक्त और छहमहीने
मरने के पहले
का वक्त है।
लेकिन जो लोग
रात के घण्टे भर
का और सुबह के
घण्टे भर का
समय का उपयोग
नहीं जानते, वे शुरू के
छह महीने का
और बाद के छह
महीने का भी
उपयोग नहीं
जानते। जब
संस्कृतियां
बहुत समझदार
थीं इस मामले
में तो पहले छह
महीने बड़े
महत्वपूर्ण
थे। बच्चे को
पहले छह महीने
में ही सब कुछ
दिया जा सकता
है, जो भी महत्वपूर्ण
है। फिर कभी
नहीं दिया जा
सकता। फिर
बहुत कठिन हो
जाता है।
क्योंकि उस
वक्त वह
संध्याकाल
में है, सजेस्टिबल
है। लेकिन हम बोलकर
कुछ नहीं समझा
सकते उसको, और चूंकि बोलने
के सिवाय हमे
और कुछ रास्ता
मालूम नहीं है
कहने का, इसलिए
अड़चन है।
ऐसे
ही मरने के पहले
छहमहीने का
वक्त बहुत
कीमती है। उधर
बच्चे को हम समझा
नहीं पाते छहमहीने, तो
लगता है कि ये
गए। इधर बूढ़े
के हमें छह
महीने पता
नहीं होते कि
कब छह महीने
रहे। ये दोनों
मौके चूक जाते
हैं। लेकिन जो
आदमी सुबह का
घण्टेभर का
उपयोग करे और
रात के
घण्टेभर का
ठीक उपयोग करे
तो मरने के छह
महीने पहले
उसको पका पता
चल जाएगा कि
अब मरना है।
जो आदमी रात
सोने के पहले
घण्टेभर
प्रार्थना
में व्यतीत कर
दे उसे स्पष्ट
बोध होने
लगेगा कि
संध्या काल
क्या है। वह
इतना बारीक और
सूक्ष्म
अनुभव है, कि
न तो वह जागने
जैसा है, न
सोने जैसा।
इतना बारीक और
अलग है कि अगर
उसकी प्रतीति
होनी शुरू हो
गयी तो मरने
के छह महीने
पहले आपको पता
लगेगा कि अब
वह प्रतीति
रोज दिनभर
रहने लगी है।
वही
प्रतीति, जो
घण्टेभर रात
सोते वक्त
आपके भीतर आती
है, वह
मरने के पहले
छह महीने
स्थिर हो
जाएगी। इसलिए
मरने के पहले
के छह —महीने
तो पूरी साधना
में डुबा देने
हैं, वही
छह महीने 'बारडो'
के लिए
उपयोग किए
जाते हैं
जिसमें ड्रीम
ट्रेनिंग
देते हैं कि अब
अगली यात्रा
में तुम क्या
करोगे। वह कोई
ठीक मरते वक्त
नहीं दी जा
सकती एकदम।
उसके लिए
तैयारी छह
महीने की
चाहिए। और जो
आदमी इस छह
महीने में
तैयार हुआ हो
उसी आदमी को
उसके अगले
जन्म के पहले
छह महीने में
ट्रेनिंग दी
जा सकती है, अन्यथा नहीं
दी जा सकती है।
क्योंकि इस छह
महीने में वे
सारे सूत्र
उसे सिखा दिये
जाते हैं, जिन
सूत्रों के
आधार पर उसके
अगले छह महीने
में उसको
ट्रेनिंग दी
जा सके।
इस
सब की पूरी की
पूरी अपनी
वैज्ञानिकता
है और इस सबके
अपने सूत्र और
राज हैं। और
सारी चीजें तय
की जा सकती
हैं। वे जो
अनुभव हैं उस
बीच के कि जो
आदमी सारी प्रक्रिया
से गुजरा हो
वह छह महीने
के बाद भी याद रख
सकता है।
लेकिन, याददाश्त
सपने की रह
जाती है।
यथार्थ की
नहीं होती।
स्वर्ग—नरक
दोनों ही सपने
की याददाश्त
हो जाती है।
विवरण दिए जा
सकते हैं।
उन्हीं विवरणों
के आसार पर
सारी दुनिया
में स्वर्गो—नरकों
का सब लेखा—जोखा
निर्मित हुआ
है। लेकिन
विवरण अलग—
अलग हैं, क्योंकि
सबके स्वर्ग —नरक
अलग — अलग
होंगे।
क्योंकि
स्वर्ग—नरक
कोई स्थान
नहीं है, मानसिक
दशाएं हैं।
इसलिए जब ईसाई
स्वर्ग का
वर्णन करते
हैं तो वह और तरह
का है। वह और
तरह का इसलिए
है कि
जिन्होंने
वर्णन किया है
उन पर निर्भर
है। भारतीय जब
वर्णन करते
हैं तो और तरह
का होगा, जैन
और तरह का
करेंगे, बौद्ध
और तरह का
करेंगे। असल
में हर आदमी
अलग तरह की
खबर लाएगा।
करीब—करीब
स्थिति ऐसी है
जैसे हम सारे
लोग कमरे में
सो जाएं और कल
उठकर सब अपने—अपने
सपनों की
चर्चा करें।
हम सब एक ही
जगह सोये थे।
हम सब यहीं थे, फिर
भी हमारे सपने
अलग—अलग हैं।
वह हम पर
निर्भर
करेंगे।
इसलिए स्वर्ग
और नरक बिलकुल
वैयक्तिक
घटनाएं हैं।
लेकिन मोटे
हिसाब बांधे
जा सकते है—कि
स्वर्ग में
सुख होगा, कि
नरक में दुख
होगा, कि
दुख के क्या
रूप होंगे, कि सुख के
क्या रूप
होंगे। ये
सारे ब्यौंरे,
जो भी दिए
गए हैं अब तक, वे सभी सही
हैं, चित्त—दशाओं
की भांति।
और
पूछा है कि
जन्म को चुन
सकता है
व्यक्ति तो क्या
अपनी मृत्यु
को भी चुन
सकता है? इसमें
भी दों—तीन
बातें खयाल
में लेनी
पड़ेगी। एक, जन्म को चुन
सकने का मतलब
यह है कि चाहे
तो जन्म ले।
यह तो पहली
स्वतंत्रता
है ज्ञान को
उपलब्ध व्यक्ति
की। चाहे तो
जन्म ले, लेकिन
जैसे ही हमने
कोई चीज चाही
कि चाह के साथ
परतंत्रताएं
आनी शुरू हो
जाती हैं।
मैं
मकान के बाहर
खड़ा था। मुझे
स्वतंत्रता
थी कि चाहूं
तो मकान के
भीतर जाऊं।
मकान के भीतर
मैं आया, लेकिन
मकान के भीतर
आते ही मकान
की सीमा और मकान
की
परतंत्रताएं
तत्काल शुरू
हो जाती हैं।
तो जन्म लेने
की
स्वतंत्रता
जितनी बड़ी है,
मरने की
स्वतंत्रता
उतनी बड़ी नहीं
है। साधारण
आदमी को तो
मरने की कोई
स्वतंत्रता
नहीं, क्योंकि
उसने जन्म को
अभी नहीं चुना।
लेकिन फिर अभी
जन्म की
स्वतंत्रता
बहुत बड़ी है, टोटल है एक
अर्थ में, कि
वह चाहे तो
इनकार भी कर
दे, न चुने।
लेकिन
चुनने के साथ
बहुत—सी
परतंत्रताएं
शुरू हो जाती
हैं। क्योंकि
वह सीमाएं
चुनता है। वह
विराट जगह को
छोड्कर संकरी
जगह में
प्रवेश करता
है। अब संकरी
जगह की अपनी
सीमाएं होंगी।
अब
वह एक गर्भ
चुनता है।
साधारणत: तो
हम गर्भ नहीं
चुनते हैं
इसलिए कोई बात
नहीं है।
लेकिन वैसा
आदमी जब गर्भ
चुनता है, उस
वक्त उसके
सामने लाखों
गर्भ होते हैं।
उनमें से ही
कोई एक गर्भ
चुनता है। हर
गर्भ के चुनाव
के साथ वह
परतंत्रता की
दुनिया में
प्रवेश कर रहा
है। क्योंकि
गर्भ की अपनी
सीमाएं हैं।
उसने एक मां
चुनी, एक
पिता चुना। उन
मां और पिता
के
वीर्याणुओं
की जितनी आयु
हो सकती है वह
उसने चुन ली।
यह चुनाव हो
गया। अब इस
शरीर का उसे
उपयोग करना
पड़ेगा।
आप
बाजार में एक
मशीन खरीदने
गए हैं, एक दस
साल की
गारण्टी की
मशीन आपने चुन
ली। अब सीमा आ
गयी एक। यह वह
जानकर ही चुन
रहा है। इसलिए
परतंत्रता
उसे नहीं
मालूम पड़ेगी।
परतंत्रता हो
जाएगी, लेकिन
यह जानकर चुन
रहा है। आप यह
नहीं कहते कि
मैंने यह मशीन
खरीदी, दस
साल चलेगी, तो अब मैं
गुलाम हो गया।
आपने ही चुनी
है, दस साल
चलेगी यह
जानकर चुनी है,
बस बात खत्म
हो गयी। इसमें
कहीं कोई पीड़ा
नहीं है, इसमें
कही कोई दंश
नहीं है।
यद्यपि यह वह
जानता है कि
यह शरीर कब
समाप्त हो
जाएगा। और
इसलिए इस शरीर
के समाप्त
होने का जो
बोध है, वह
उसे होगा। वह
जानता है, कब
समाप्त होगा।
इसलिए इस तरह
के आदमी में
एक तरह की
व्यग्रता होगी
जो साधारण
आदमी में नहीं
होती है।
अगर
हम जीज़स की
बातें पढ़ें तो
ऐसा लगता है, वह
बहुत व्यग्र
हैं। जैसे अभी
कुछ होनेवाला
है, अभी
कुछ हो
जानेवाला है।
उनकी तकलीफ वह
लोग नहीं समझ
सकते, जो
सुन रहे हैं।
क्योंकि उन के
लिए मृत्यु का
कोई सवाल नहीं
और जीसस के
लिए तो वह
सामने खड़ी है।
जीसस को पता
है कि यह हो
जानेवाला है।
इसलिए अगर
जीसस आपसे यह
कह रहे हैं, यह काम कर लो
और आप कहते
हैं, कल कर
लेंगे। तब
जीसस की
कठिनाई यह है
कि वह जानता
है कि कल वह
कहने को नहीं
होगा।
तो
चाहे महावीर
हों,
चाहे बुद्ध
हों, चाहे
जीसस हों, इतनी
व्यग्रता
बहुत ज्यादा
है। बहुत
तीव्रता से
भाग रहे हैं।
क्योंकि वह
सारे मुर्दों
के बीच में वह
ऐसे व्यक्ति
हैं जिन्हें
सब पता है। सब
लोग तो बिलकुल
निश्चित हैं।
पर ऐसे आदमी
को जल्दी होगी
ही। इससे फर्क
नहीं पड़ता कि
वह सौ साल
जियेगा कि दो
सौ साल जियेगा।
सारा समय छोटा
है। वह तो
हमें सारा समय
छोटा नहीं
मालूम पड़ता क्योंकि
वह कब खत्म
होगा, इसका
हमें कुछ पता
नहीं। खत्म भी
होगा, यह
भी हम भुलाये
रखते हैं।
जन्म
की स्वतंत्रता
तो बहुत
ज्यादा है।
लेकिन जन्म कारागृह
में प्रवेश है, तो
कारागृह की
अपनी
परतंत्रताएं
हैं, वह
स्वीकार कर
लेनी पड़ेगी।
और ऐसा
व्यक्ति
सहजता से
स्वीकार करता
है, क्योंकि
वह चुन रहा है।
अगर वह
कारागृह में
आया है तो
लाया नहीं गया
है, वह आया
है। इसलिए वह
हाथ बढ़ाकर
जंजीरें डलवा
लेता है। इन
जंजीरों में
कोई दंश नहीं
है, इनमें
कोई पीडा नहीं
है। वह अंधेरी
दीवारों के
पास सो जाता
है। इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
क्योंकि किसी
ने उससे कहा
नहीं कि वह
भीतर जाए। वह
खुले आकाश के
नीचे रह सकता
था। अपनी
मर्जी से आया
है, यह
उसका चुनाव है।
जब
परतंत्रता भी
चुनी जाती है
तो
स्वतंत्रता है।
अगर
स्वतंत्रता
भी बिना चुनी
मिलती है तो
परतंत्रता है।
स्वतंत्रता
परतंत्रता
इतनी सीधी
बंटी हुई चीजें
हैं। अगर हमने
परतंत्रता भी
स्वयं चुनी है
तो वह स्वतंत्रता
है और अगर
हमें
स्वतंत्रता
भी जबर्दस्ती
दे दी गयी है
तो वह
परतंत्रता ही
होती है, उसमें
कोई
स्वतंत्रता
नहीं होती।
फिर भी, ऐसे
व्यक्ति के
लिए बहुत—सी
बातें साफ
होती हैं, इसलिए
वह चीजों को
तय कर सकता है।
जैसे
उसे पता है कि
वह सत्तर साल
में चला जाएगा
तो वह चीजों
को तय कर पाता
है। जो उसे
करना है, वह
साफ कर लेता
है। चीजों को
उलझाता नहीं।
जो सत्तर साल
में सुलझ जाए
वैसा ही काम
कर लेगा। जो
कल पूरा हो
सकेगा, वह
निपटा देगा।
वह इतने जाल
नहीं फैलाता
जो कि कल के
बाहर चले जाएं।
इसलिए वह कभी
चिन्ता में
नहीं होता। वह
जैसे जीता है
वैसे ही मरने
की भी सारा_ई तैयारी
करता है। मौत
भी उसके लिए
एक प्रिपरेशन
है, एक
तैयारी है।
एक
अर्थ 'में वह
बहुत जल्दी
में होता है, जहां तक
दूसरों का
संबंध है।
जहां तक खुद
का संबंध है, उसकी कोई
जल्दी नहीं
होती।
क्योंकि कुछ
करने को उसके
लिए बचा नहीं
होता है। फिर
भी इस मृत्यु
को, वह
कैसे घटित हो,
इसका चुनाव
कर सकता है।
कब घटित हो, इसकी
व्यवस्था भी
है, सीमाओं
के भीतर सत्तर
साल उसका शरीर
चलना है तो
सीमाओं के
भीतर वह सत्तर
साल में ठीक
मूमेंट दे
सकता है मरने
का, कि वह
कब मरे; कैसे
मरे, किस
व्यवस्था और
किस ढंग में
मरे!
एक
झेन फकीर औरत
थी,
उसने कोई छह
महीने पहले
अपने मरने की
खबर दी। उसने
अपनी चिता
तैयार करवायी।
वह चिता पर
सवार हो गयी, उसने सबको
नमस्कार कर
लिया, फिर
सारे मित्रों
ने आग लगा दी।
तब एक साधु जो
देख रहा था
खड़ा हुआ, उसने
जोर से पूछा, अब आग की
लपटें लग गयीं
और वह जलने के
करीब होने लगी।
उसने पूछा
उससे, कि
वहां भीतर
गर्मी तो बहुत
मालूम होती
होगी? तो
वह फकीर औरत
हंसी और उसने
कहा कि तुम
जैसे छू हो, अभी भी इसी
तरह के सवाल
उठाये जा रहे
हो? तुम्हें
कोई काम लायक
बात पूछने की
नहीं खयाल में
आयी। यह तो
तुम्हें भी
दिखायी पड़ रहा
है; और आग
में बैठूंगी
तो गर्मी
लगेगी या नहीं
लगेगी, यह
मुझे भी पता
है।
पर
यह उसका चुनाव
था। वह हंसती
हुई जल जाती
है। वह अपनी
मृत्यु के
क्षण को चुनती
है। उसके
हजारों शिष्य
इकट्ठे हो गए
हैं। उनको वह
दिखाकर जाना
चाहती है कि
हंसते हुए मरा
जा सकता है।
जिनके लिए
हंसते हुए
जीना भी
मुश्किल है
उनके लिए यह
संदेश बड़े काम
का है कि
हंसते हुए मरा
जा सकता है!
मृत्यु
को शुनियोजित
किया जा सकता
है,
वह व्यक्ति
पर निर्भर
करेगा कि वह
कैसा चुनाव करता
है। लेकिन, सीमाओं के
भीतर सारी बात
होती है। असीम
नहीं है मामला।
इस कमरे के
भीतर रहना
पड़ेगा मुझे, लेकिन मैं
किस कोने में
बैठूं यह मैं
तय कर सकता
हूं। बायें
सोऊ कि दाएं
सोऊ, यह
मैं तय कर
सकता हूं। ऐसी
स्वतंत्रताएं
होंगी। और ऐसे
व्यक्ति अपनी
मृत्यु का
निशित ही उपयोग
करते हैं। कई
बार प्रकट
दिखायी पड़ता
है उपयोग, कई
बार प्रकट
दिखायी नहीं
पड़ता।
लेकिन
ऐसे व्यक्ति
अपने जीवन की प्रत्येक
चीज का उपयोग
करते हैं, मृत्यु
का भी उपयोग
करते हैं। असल
में वह आते ही
अब किसी उपयोग
के लिए हैं।
उनका अपना कोई
प्रयोजन नहीं रह
गया होता है।
अब उनका आना किसी
के काम पड जाने
के लिए है। तो वह
जीवन के प्रत्येक
चीज का उपयोग करते
है। पर बड़ा कठिन
है कि हम उनके
प्रयोग को समझ
पाएं। जरूरी नहीं
है! अकसर हम समझ
नहीं पाते।
क्योंकि जो भी
वह कर रहे हैं,
हमें तो कुछ
पता नहीं होता
और हमें पता
करवाकर कुछ
किया भी नहीं
जा सकता।
अब
जैसे बुद्ध
जैसा आदमी
नहीं कहेगा कि
मैं कल मर
जानेवाला हूं।
क्योंकि कल
मरना है तो आज कह
देने का मतलब होगा, कि
कल तक जो भी जीवन
का उपयोग हो
सकता था वह मुश्किल
हो जाएगा। ये
लोग आज से ही
रोना—धोना, चिल्लाना
शुरू कर देंगे।
इन चौबीस
घण्टे का जो
उपयोग हो सकता
था वह भी नहीं
हो सकता। तो
कई बार वैसा
व्यक्ति
चुपचाप रह
जाएगा... कई बार
वैसा व्यक्ति
चुपचाप रह
जाएगा, कई
बार घोषणा भी
करेगा——जैसी
तत्काल
परिस्थिति
होगी, पर
इतनी सीमा तक
वह तय करता है।
ज्ञान
के बाद का
जन्म, जन्म से
लेकर मृत्यु
तक पूरा का
पूरा एक शिक्षण
है, पर खुद
के लिए नहीं।
एक अनुशासन है,
खुद के लिए नहीं।
और हर बार
स्ट्रेटेजी
बदलनी पड़ती है,
क्योंकि सब
स्ट्रेटेजी पुरानी
पड जाती हैं, बोझिल हो
जाती हैं, और
लोगों को
समझने में
मुश्किल पड़
जाती है।
अब
गुरजिएफ का
उदाहरण लें।
महावीर कभी
पैसा नहीं
छुएंगे, पर
गुरजिएफ से आप
एक सवाल
पूछेंगे तो वह
कहेगा, सौ रुपये
पहले रख दो।
सौ रुपए बिना रखे
वह सवाल भी स्वीकार
नहीं करेगा।
सौ रुपए रखवा
लेगा, तब एक
सवाल का जवाब देगा।
हो सकता है एक वाक्य
बोले, हो सकता
है दो वाक्य बोले।
फिर दूसरी बार
पूछो, फिर सौ
रुपए रख दें।
अनेक बार
लोगों ने कहा,
आप यह क्या
करते हैं? जो
उसे जानते थे वे
हैरान होते थे,
क्योंकि ये
रुपए यहां आए
और यहां बंट
जानेवाले हैं।
कुछ भी
होनेवाला
नहीं है उनका।
गुरजिएफ
उन्हे रखने वाला
है एक क्षण को
ऐसा भी नहीं है,
वह इधर—उधर बट
जाने वाले हैं।
फिर किसलिए सौ
रुपए मांग लिए?
गुरजिएफ
ने कहा, कि
जिन लोगों के
मन में सिर्फ
रुपए का मूल्य
है उन्हें
परमात्मा के
संबंध में मुफ्त
कहना गलत है—एकदम
गलत है।
क्योंकि उनकी जिन्दगी
में मुफ्त की चीज
का कोई मूल्य नहीं
होता। और गुरजिएफ
कहता है कि हर चीज
के लिए चुकाना
पड़ेगा कुछ। जो
चुकाने की तैयारी
नहीं रखता, कुछ भी चुकाने
की तैयारी
नहीं रखता, उसको पाने का
हक भी नहीं है।
लेकिन लोग समझते
हैं कि गुरजिएफ
को पैसे की बडी
पकड़ है। जो
दूर से ही
देखते हैं
उनको लगता है
कि पैसे की
बड़ी पकड़ है, बिना पैसे को
सवाल का जवाब
भी नहीं देता
पर
मैं मानता हूं
कि जिस जगह था वह
पश्रिम में, जहां
पैसा एकमात्र मूल्य
हो गया, वहां
उसी तरह के शिक्षक
की जरूरत थी।
एके—एक शब्द का
मूल्य ले लेता,
क्योंकि वह जानता
है कि जिस शब्द
के लिए तुमने सौ
रुपए दिए हैं
जिसको, तुमने
सौ रुपए देने
की तैयारी
दिखायी जिस
शब्द के लिए, तुम उसको ही
ले जाओगे, बाकी
तुम कुछ ले
जानेवाले
नहीं हो।
गुरजिएफ
बहुत—से ऐसे
काम करेगा जो
बिलकुल ही
कठिन मालूम
पड़ेंगे। उसके शिष्य
बहुत मुश्किल
में पड जाएंगे, वे
कहेंगे, यह
आप न करते तो
अच्छा था। और वह
जान—बूझकर करेगा।
वह बैठा है, आप उससे
मिलने गए हैं,
वह ऐसी शक्ल
बना लेगा कि
ऐसा लगे जैसे
ठीक गुण्ड़ा,
बदमाश है।
साधु तो
बिलकुल नहीं है।
बहुत दिन तक
सूफी प्रयोग
करने की वजह
से आंखों के
कोण को वह
तत्काल कैसा
भी बदल सकता
था। और आंखों
के कोण के
बदलने से पूरी
शक्ल बदल जाती
है।
एक
गुण्डे में
और एक साधु
में आंख के
अलावा और कोई
फर्क नहीं
होता। बाकी तो
सब एक—सा ही
होता है। आंख
का कोण जरा ही
बदला कि साधु
गुन्डा हो
जाता है, गुन्डा
साधु हो जाता
है। आंखें
उसकी बिलकुल
ढीली थीं
दोनों। आंखों
को वह ऐसे
घुमाता कि
उनकी
पुतलियां
कैसे ही कोण
ले सकती हैं।
यह एक सेकेण्ड
में ही कर
लेता।
बगलवाले को
पता ही नहीं
चलता कि उसने
दूसरे को गुण्डा
दिखा दिया है
और आए हुए
आदमी को घबरा
दिया है।
बगलवाला आदमी
एकदम घबरा
जाता कि यह
आदमी कैसा है,
मैं कहां आ
गया? उसके
मित्रों ने
धीरे— धीरे
पक्का उसे कि
वह इस तरह कई
लोगों को परेशान
करता है और
उससे पूछा कि
आप यह क्या
करते हैं? हमें
पता ही नहीं
चलता है कि वह
बेचारा आया था,
आपने उसे
गड़बड़ा दिया।
तो
गुरजिएफ कहता
है कि वह आदमी, अगर
मैं साधु भी
होता तो मुझ
में गुण्डा
खोज लेता।
थोड़ी देर लगती।
मैने उसका
वक्त जाया
नहीं करवाया।
मैंने कहा, तू देख ले, तू जा।
क्योंकि तू
नाहक दों—चार
दिन चक्कर
लगाएगा, खोजेगा
तू यही। मैं
तुझे खुद ही
सौंपे देता
हूं। अगर वह
इसके बाद भी
रुक जाता तो
मैं उसके साथ
मेहनत करता।
इसलिए बहुत
मुश्किल
मामला है। जो
गुरजिएफ को गुष्ठा
समझकर चला गया,
अब कभी
दोबारा नहीं
आएगा।
लेकिन
गुरजिएफ का
जानना गहरा है।
वह ठीक कह रहा
है। वह कह रहा
है,
यह आदमी यही
खोज लेता।
इसको खुद
मेहनत करनी
पड़ती, वह
काम मैंने हल
कर दिया। इसके
चार दिन खराब
नहीं हुए और
मेरे चार दिन
खराब नहीं हुए।
अगर यह सच में ही
किसी खोज में
आया था, तो
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता था,
यह फिर भी
रुकता। यह
मेरे बावजूद
रुके तो ही
रुका, मेरी
वजह से रुके
तो मैं इसे
रुकना नहीं
कहूंगा। यह
खोजने आया हो
तो रुके, धैर्य
रखे, थोड़ी
जल्दी न करे।
इतने जल्दी
नतीजे लेगा कि
मेरी आंख जरा
ऐसी हो गयी तो
उसने समझा कि
आदमी गड़बड़ है।
इतने जल्दी
नतीजे लेगा तो
मुझमें कुछ—न—कुछ
उसे मिल जाएगा
और वह नतीजे
लेकर चला
जाएगा।
यह
शिक्षक पर
निर्भर करेगा
कि वह क्या
करता है, कैसे
करता है। बहुत
बार तो
जिन्दगीभर
पता नहीं चलता
है कि उसके
करने की
व्यवस्था
क्या है। पर
वह जिन्दगी के
प्रत्येक
क्षण का उपयोग
करता है—जन्म
से लेकर
मृत्यु तक। एक
भी क्षण
व्यर्थ नहीं
गंवाता है।
उसकी कोई गहरी
सार्थकता है,
किसी बड़े
प्रयोजन और
किसी बडी
नियति में
उपयोग है।
'मैं
कहता आंखन
देखी' :
(अंतरंग
भेट वार्ता)
बुडलैण्ड
बम्बई
दिनांक
10 मार्च 1971
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