अध्याय—13
गीता
सूत्र:
ऋषिभिर्बहुधा
गीतं
छन्दौभिर्विविधै:
पृथक।
ब्रह्मसूत्रदैश्चैव
हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:।।
4।।
महाभूतान्हंकारो
बुद्धिरव्यक्तमेव
च।
हन्द्रियाणि
दशैकं च पंज्च
चेन्दियगोचरा:।।
5।।
इच्छा द्वेष:
सुखं दुख
संघलश्चेतना
धृति:।
एतत्
क्षेत्रं
समासैन
सधिकारमुदहतम्।।
6।।
यह
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
का तत्व
ऋषियों
द्वारा बहुत
प्रकार से कहा
गया है और नाना
कार के छंदों
से विभागपूर्वक
कहा गया है
तथा अच्छी
प्रकार
निश्चय किए हुए
युक्ति—युक्त
बह्मसूत्रों
के पदों
द्वारा भी
वैसे ही कहा
गया है।
और हे
अर्जुनु वही
मैं तेरे लिए कहता
हूं कि पांच महाभूत? अहंकार, बुद्धि और
मूल कृति प्रकृति
अर्थात
त्रिगुणमयी
माया भी तथा
दस इंद्रियां,
एक मन और
पांच इंद्रियां
के विषय अर्थत
शब्द, स्पर्श, रूप, रस
और गंध।
तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख
और स्थूल देह
का पिंड एवं चेतना
और धृति, हम
कार यह
क्षेत्र
विकारों के
सहित संक्षेप
से कहा गया है।
सूत्र के पहले
थोड़े—से
प्रश्न। एक
मित्र ने पूछा
है, क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ, शरीर या आत्मा,
प्रकृति और
पुरुष, ऐसे
दो भेदों की
चर्चा की गई; फिर भी
कृष्ण ने कहा
है कि सभी कुछ
वे ही हैं। तो
समझाएं कि सभी
कुछ अगर एक ही
है, तो यह
भेद, विकार
और बिलगाव
क्यों है?
हमें भेद दिखााइ पडता है ।
यह भेद प्रतीत
होता है, है
नहीं। जो भी
प्रतीत होता
है, जरूरी
नहीं है कि हो।
और जो भी है, जरूरी नहीं
है कि प्रतीत
हो। बहुत कुछ
दिखाई पड़ता है।
उस दिखाई पड़ने
में सत्य कम
होता है, देखने
वाले की
दृष्टि
ज्यादा होती
है।
जो आप
देखते हैं, उस देखने
में आप
समाविष्ट हो
जाते हैं। और
जिस भांति आप
देखते हैं, जिस ढंग से
आप देखते हैं,
वह आपके
दर्शन का
हिस्सा बन
जाता है। एक
दुखी आदमी
अपने चारों
तरफ दुख देखता
है। अगर आकाश
में चांद भी
निकला हो, तो
वह भी सुंदर
प्रतीत नहीं
होता। एक
आनंदित
व्यक्ति सब ओर
आनंद देखता है
और उसे कीटों
में भी फूल
जैसा सौंदर्य
दिखाई पड़ सकता
है। देखने
वाले पर
निर्भर करता
है कि क्या
दिखाई पड़ेगा।
जो हम
देखते हैं, वह हमारी
व्याख्या है।
इसे थोड़ा ठीक
से समझ लें, क्योंकि
धर्म की सारी
खोज इस
बुनियादी बात
को ठीक से
समझे बिना
नहीं हो सकती।
आमतौर से जो
हम देखते हैं,
हम सोचते
हैं, वैसा
तथ्य है जो हम
देख रहे हैं।
लेकिन
समझेंगे, खोजेंगे,
विचारेंगे,
तो पाएंगे,
तथ्य कोई भी
नहीं हम देख
पाते, सभी
हमारी
व्याख्या है।
जो हम देखते
हैं, वह
हमारा
इंटरप्रिटेशन
है। दो—चार
तरफ से सोचें।
कोई
चेहरा आपको
सुंदर मालूम
पड़ता है। और
आपके मित्र को, हो सकता
है, वही
चेहरा कुरूप
मालूम पड़े। तो
सौंदर्य
चेहरे में है
या आपके देखने
के ढंग में? सौंदर्य
आपकी
व्याख्या है
या चेहरे का
तथ्य? अगर
सौंदर्य
चेहरे का तथ्य
है, तो उसी
चेहरे में सभी
को सौंदर्य
दिखाई पड़ना चाहिए।
पर किसी को
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है,
किसी को
नहीं दिखाई
पड़ता है। और
किसी को कुरूपता
भी दिखाई पड़
सकती है उसी
चेहरे में।
तो
चेहरे को जब
आप कुछ भी
कहते हैं, उसमें
आपकी
व्याख्या
सम्मिलित हो
जाती है। तथ्य
खो जाता है और
आप आरोपित कर
लेते हैं कुछ।
कोई
चीज आपको
स्वादिष्ट
मालूम पड़ सकती
है, और
किसी दूसरे को
बेस्वाद
मालूम पड़ सकती
है। तो स्वाद
किसी वस्तु
में होता है
या आपकी
व्याख्या में?
स्वाद
वस्तु में
होता है या आप
में होता है? ऐसा हमें
पूछना चाहिए।
अगर वस्तु में
स्वाद होता हो,
तो फिर सभी
को स्वादिष्ट
मालूम पड़नी
चाहिए।
स्वाद
आप में होता
है, वस्तु
को स्वाद आप
देते हैं। वह
आपका दान है।
और जो आप अनुभव
करते हैं, वह
आपका ही खयाल
है। तो ऐसा भी
हो सकता है कि
जो व्यक्ति आज
सुंदर मालूम
पड़ता है, कल
असुंदर मालूम
पड़ने लगे। और
जो व्यक्ति आज
मित्र जैसा
मालूम पड़ता है,
कल शत्रु
जैसा मालूम
पड़ने लगे। और
जो बात आज बड़ी
सुखद लगती थी,
कल दुखद हो
जाए। क्योंकि
कल तक आप बदल
जाएंगे, आपकी
व्याख्या बदल
जाएगी।
जो हम
अनुभव करते
हैं, वह
सत्य नहीं है,
वह हमारी
व्याख्या है।
और सत्य का
अनुभव तो तभी
होता है, जब
हम सारी
व्याख्या छोड़
देते हैं; 'उसके
पहले अनुभव
नहीं होता।
इसलिए सत्य के
करीब शून्य—चित्त
हुए बिना कोई
भी नहीं पहुंच
सकता है।
क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ
का, आत्मा
और शरीर का, संसार का और
मोक्ष का, पदार्थ
का और
परमात्मा का
भेद भी हमारी
ही व्याख्या
है। और अंतिम
क्षण में जब
सभी
व्याख्याएं
गिर जाती हैं,
तो कोई भेद
नहीं रह जाता।
लेकिन सारी
व्याख्याएं
गिर जाएं, तब
अभेद का अनुभव
होता है।
यह जो
अभेद की
प्रतीति है और
भेद का हमारा
अनुभव है, इसे इस
भांति खोज
करेंगे तो
आसानी होगी, जहां—जहां
आपको भेद
दिखाई पड़ता है,
वस्तुत:
वहां भेद है?
अंधेरे
में और प्रकाश
में हमें भेद
दिखाई पड़ता है।
लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है।
अंधेरे को अगर
विज्ञान की
भाषा में कहें, तो उसका
अर्थ होगा, थोड़ा कम
प्रकाश। इससे
उलटा भी कह
सकते हैं। अगर
अंधेरा
प्रकाश का एक
रूप है, तो
हम यह भी कह
सकते हैं कि
प्रकाश भी
अंधेरे का एक
रूप है। और
प्रकाश की
व्याख्या में
हम कह सकते
हैं, थोड़ा
कम अंधेरा।
आइंस्टीन
ने
रिलेटिविटी
को जन्म दिया, सापेक्षता
को जन्म दिया।
और आइंस्टीन
ने कहा कि
हमारा यह कहना
कि यह अंधेरा
है और यह
प्रकाश है, नासमझी है।
क्योंकि
प्रकाश और
अंधेरा
सापेक्ष हैं,
रिलेटिव
हैं। अंधेरा
थोड़ा कम
प्रकाश है, प्रकाश थोड़ा
कम अंधेरा है।
हमसे बेहतर आंखें
हों, तो
अंधेरे में भी
देख लेंगी और
वहा भी प्रकाश
पता चलेगा। और
हमसे कमजोर आंखें
हों, तो
प्रकाश में भी
नहीं देख
पातीं, वहां
भी अंधेरा
दिखाई पड़ता है।
आइंस्टीन
कहता है, अगर
आंख की ताकत
बढ़ती जाए, तो
अंधेरा
प्रकाश होता
चला जाएगा। और
आंख की ताकत
कम होती जाए
तो प्रकाश
अंधेरा होता
चला जाएगा।
फिर दोनों में
कोई फासला
नहीं है, दोनों
में कोई भेद
नहीं है।
और इसे
ऐसा समझें, अगर आंख
हो ही न, तो
प्रकाश और
अंधेरे में
क्या फर्क
होगा? एक
अंधे आदमी को
प्रकाश और
अंधेरे में
क्या फर्क है?
शायद आप
सोचते होंगे,
अंधे को तो
सदा अंधेरे में
रहना पड़ता
होगा, तो
आप गलती में
हैं। अंधेरे
को देखने के
लिए भी आंख
चाहिए। अंधे
को अंधेरा
दिखाई नहीं पड़
सकता। अंधा भी
अंधेरा नहीं
देख सकता, क्योंकि
देखने के लिए
तो आंख चाहिए।
कुछ भी देखना
हो, अंधेरा
देखना हो तो
भी।
इसलिए
आप सोचते हों
कि अंधा जो है, अंधेरे में
रहता है, तो
आप बिलकुल
गलती में हैं।
अंधे को
अंधेरे का कोई
पता ही नहीं
है। ध्यान रहे,
जो अंधेरे
को देख सकता
है, वह तो
फिर प्रकाश को
भी देख लेगा, क्योंकि
अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है।
अंधे
को न अंधेरे
का पता है और न
प्रकाश का। आप
आंख बंद करते
हैं, तो
आपको अंधेरा
दिखाई पड़ता है,
इससे आप यह
मत सोचना कि
अंधे को
अंधेरा दिखाई पड़ता
है। बंद आंख
भी आंख है, इसलिए
अंधेरा दिखाई
पड़ता है। अंधे
के लिए अंधेरे
और प्रकाश में
क्या फर्क है?
कोई भी फर्क
नहीं है। अंधे
के लिए न तो
अंधेरा है और
न प्रकाश है।
इसे हम
दूसरी तरह से
भी सोचें। अगर
परमात्मा के
पास आंख हो, तो उसका
अर्थ होगा, जैसे अंधा
बिलकुल नहीं
देख सकता है, हम थोड़ा देख
सकते हैं, परमात्मा
पूरा देख सकता
हो।
अगर
परमात्मा के
पास एब्सोल्युट
आइज हों, परिपूर्ण आंखें
हों, तो
उसे भी अंधेरे
और प्रकाश में
कोई अंतर नहीं
दिखाई पड़ेगा।
क्योंकि
अंधेरे में भी
वह उतना ही
देखेगा, जितना
प्रकाश में
देखेगा। उसकी आंख
सापेक्ष नहीं
है। इसलिए अगर
परमात्मा
देखता होगा, तो उसको भी
अंधेरे और
प्रकाश का कोई
पता नहीं हो
सकता। उसकी
हालत अंधे
जैसी होगी, दूसरे छोर
पर।
अगर
पूरी आंख हो, तो भी
फर्क पता नहीं
चलेगा। फर्क
पता तो तभी चल
सकता है, जब
थोड़ा हम देखते
हों और थोड़ा
हम न देखते
हों।
इसे
ऐसा समझें कि
आप कहते हैं
कि गरम है
पानी, या
आप कहते हैं
कि बर्फ बहुत
ठंडी है। तो
ठंडक और गरमी,
लगता है बड़ी
विपरीत चीजें
हैं। और हमारे
अनुभव में हैं।
जब गरमी तप रही
हो चारों ओर, तब ठंडे
पानी का एक
गिलास तृप्ति
देता है।
कितना ही
कृष्ण कहें कि
सब अद्वैत है,
हम यह मानने
को राजी न
होंगे कि गरम
पानी का गिलास
भी इतनी ही
तृप्ति देगा।
और कितना ही
आइंस्टीन कहे
कि गरमी भी
ठंडक का एक
रूप है, और
ठंडक भी गरमी
का एक रूप है, फिर भी हम
जानते हैं, ठंडक ठंडक
है, गरमी
गरमी है। और
आइंस्टीन भी
जब गरमी पड़ेगी,
तो छाया में
सरकेगा। और जब
ठंड लगेगी, तो कमरे में
हीटर लगाएगा।
हालाकि वह भी
कहता है कि
दोनों एक ही
चीज के रूप
हैं।
परम
सत्य तो यही
है कि दोनों
एक चीज के रूप
हैं। लेकिन
परम सत्य को
जानने के लिए
परम प्रज्ञा
चाहिए। हमारे
पास जो बुद्धि
है, वह
तो सापेक्ष है।
उस सापेक्ष
बुद्धि में
गरमी गरमी है
ठंड ठंड है।
और दोनों में
बड़ा भेद है; विपरीतता है।
लेकिन हमें
विपरीतता
प्रतीत होती
है, वह
हमारी
सापेक्ष
बुद्धि के
कारण।
एक
छोटा—सा
प्रयोग करें।
पानी रख लें
एक बालटी में।
एक हाथ को
बर्फ पर रखकर
ठंडा कर लें।
और एक हाथ को
लालटेन के पास
रखकर गरम कर
लें और फिर
दोनों हाथों
को उस पानी की
बालटी में
डुबा दें। आप
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
क्योंकि एक
हाथ कहेगा
पानी ठंडा है, और एक हाथ
कहेगा पानी
गरम है। और
पानी तो बालटी
में एक ही
जैसा है।
लेकिन एक हाथ
खबर देगा गरम
की, एक हाथ
खबर देगा ठंडक
की, क्योंकि
दोनों हाथों
का सापेक्ष
अनुभव है। जो
हाथ गरम है, उसे पानी
ठंडा मालूम
पड़ेगा। जो हाथ
ठंडा है, उसे
पानी गरम
मालूम पड़ेगा।
तो इस
बालटी के भीतर
जो पानी है, उसको आप
क्या कहिएगा
ठंडा या गरम? अगर बाएं
हाथ की मानिए,
तो वह कहता
है ठंडा; दाएं
हाथ की मानिए,
तो वह कहता
है गरम। और
दोनों हाथ
आपके हैं। आप
क्या करिएगा?
तब आपको पता
चलेगा कि गरमी
और ठंडक
सापेक्ष हैं।
गरमी और ठंडक
दो तथ्य नहीं
हैं, हमारी
व्याख्याएं
हैं। हम अपनी
तुलना में
किसी चीज को
गरम कहते हैं,
और अपनी
तुलना में
किसी चीज को
ठंडी कहते हैं।
इसका
यह अर्थ हुआ
कि जब तक
हमारे पास
तुलना करने
वाली बुद्धि
है और जब तक
हमारे पास
तौलने का
तराजू विचार
है, तब
तक हमें भेद
दिखाई पड़ते
रहेंगे।
संसार
में भेद हैं, क्योंकि
संसार है
हमारी
व्याख्याओं
का नाम। और
परमात्मा में
कोई भेद नहीं
है, क्योंकि
परमात्मा का
अर्थ है, उस
जगह प्रवेश, जहां हम
अपनी
व्याख्याएं
छोड्कर ही
पहुंचते हैं।
इसे हम ऐसा
समझें, एक
नदी बहती है, तो उसके पास
किनारे होते
हैं। बाएं तरफ
किनारा होता
है, दाएं
तरफ किनारा
होता है। और
फिर नदी सागर
में गिर जाती
है। सागर में
गिरते ही
किनारे खो
जाते हैं। जो
नदी सागर में
गिर गई है, अगर
वह दूसरी
नदियों से मिल
सके, तो उन
नदियों से
कहेगी कि
किनारे हमारे
अस्तित्व का
हिस्सा नहीं
हैं। किनारे
संयोगवश हैं।
किनारा होना
जरूरी नहीं है
नदी होने के
लिए, क्योंकि
सागर में
पहुंचकर कोई
किनारा नहीं रह
जाता, नदी
रह जाती है।
लेकिन
किनारे से
बंधी नदियां
कहेंगी कि यह
बात समझ में
नहीं आती।
बिना किनारे
के नदी हो
कैसे सकती है? किनारे
तो हमारे
अस्तित्व के
हिस्से हैं।
कृष्ण
जब हमसे बोलते
हैं, तो
वही तकलीफ है।
कृष्ण उस जगह
से बोलते हैं,
जहां नदी
सागर में गिर
गई। हम उस जगह
से सुनते हैं,
जहां नदी
किनारों से
बंधी है।
तो
कृष्ण जब अभेद
की बात करते
हैं, तो
हमारी पकड़ के
बाहर हो जाती
है। भेद की जब
बात करते हैं,
तो हमारी
समझ में आती
है। क्योंकि
भेद हम भी कर
सकते हैं। भेद
तो हम करते ही
हैं। भेद करना
तो हमें पता
है, वह कला
हमें ज्ञात है।
लेकिन अभेद की
कला हमें
ज्ञात नहीं है।
अभेद की कला
कठिन भी है, क्योंकि
अभेद की कला
का अर्थ हुआ
कि हमें मिटना
पड़ेगा। वह जो
भेद करने वाला
हमारे भीतर है,
उसके
समाप्त हुए बिना
अभेद का कोई
पता नहीं
चलेगा। चारों
तरफ हम देखते
हैं; सब
चीजों की
परिभाषा
मालूम पडती है,
सभी चीजों
की सीमा मालूम
पड़ती है।
लेकिन
अस्तित्व
असीम है, और
कहीं भी
समाप्त नहीं
होता। कहीं
कोई सीमा आती
नहीं है
अस्तित्व की।
आपको
लगता है, एक वृक्ष
खड़ा है, तो
दिखाई पड़ता है,
वृक्ष की
सीमा है। आप
नाप सकते हैं,
कितना ऊंचा
है, कितना
चौड़ा है।
पत्ती भी नाप
सकते हैं। वजन
भी नाप सकते
हैं। लेकिन
क्या सच में
वृक्ष की कोई
सीमा है? क्या
वृक्ष पृथ्वी
के बिना हो
सकता है? अगर
पृथ्वी के
बिना वृक्ष
नहीं हो सकता,
तो पृथ्वी
वृक्ष का हिस्सा।
जिसके
बिना हम नहीं
हो सकते, उससे हमें
अलग करना उचित
नहीं है।
पृथ्वी के
बिना वृक्ष
नहीं हो सकता।
उसकी जड़ें
पृथ्वी की
छाती में फैली
हुई हैं, उन्हीं
से वह रस पाता है,
उन्हीं से
जीवन पाता है;
उसके बिना
नहीं हो सकता।
तो पृथ्वी
वृक्ष का
हिस्सा है।
पृथ्वी बहुत
बड़ी है। वृक्ष
नहीं था, तब
भी थी। वृक्ष
नहीं हो जाएगा,
तब भी होगी।
और अभी भी जब
वृक्ष है, तो
वृक्ष के भीतर
पृथ्वी दौड़
रही है, वृक्ष
के भीतर
पृथ्वी बह रही
है।
लेकिन
क्या पृथ्वी
ही वृक्ष का
हिस्सा है? हवा के
बिना वृक्ष न
हो सकेगा।
वृक्ष भी
श्वास ले रहा
है। वह भी आंदोलित
है, उसका
प्राण भी वायु
से चल रहा है।
वायु के बिना
अगर वृक्ष न
हो सके, तो
फिर वायु से
वृक्ष को अलग
करना उचित
नहीं है; नासमझी
है। तो
वायुमंडल
वृक्ष का
हिस्सा है।
लेकिन
क्या सूरज के
उगे बिना
वृक्ष हो
सकेगा? अगर कल सुबह
सूरज न उगेगा,
तो वृक्ष मर
जाएगा। दस
करोड़ मील दूर
सूरज है, लेकिन
उसकी किरणों
से वृक्ष
जीवित है। तो
वृक्ष का जीवन
कहां समाप्त
होता है?
यह तो
मैंने स्पेस
में, आकाश
में उसका
फैलाव बताया।
समय में भी
वृक्ष इसी तरह
फैला हुआ है।
यह वृक्ष कल
नहीं था। एक
बीज था इस वृक्ष
की जगह, किसी
और वृक्ष पर
लगा था। उस
वृक्ष के बिना
यह वृक्ष न हो
सकेगा। वह बीज
अगर पैदा न
होता, तो यह
वृक्ष कभी भी
न होता। वह
बीज आज भी इस
वृक्ष में
प्रकट हो रहा
है।
और अगर
हम इसके पीछे
की तरफ यात्रा
करें, तो
न मालूम कितने
वृक्ष इसके
पीछे हुए
इसलिए यह
वृक्ष हो सका
है। अनंत तक
पीछे फैला हुआ
है; अनंत
तक आगे फैला
हुआ है। अनंत
तक चारों तरफ
फैला हुआ है।
समय और
क्षेत्र
दोनों में
वृक्ष का
फैलाव है। अगर
एक वृक्ष को
हम ठीक से, ईमानदारी
से सीमा तय
करने चलें, तो पूरे
विश्व की सीमा
में हमें वृक्ष
मिलेगा। एक
छोटे—से
व्यक्ति को
अगर हम खोजने
चलें, तो
हमें उसके
भीतर पूरा
विराट
ब्रह्मांड
मिल जाएगा।
तो
कहां आप
समाप्त होते
हैं? कहां
शुरू होते हैं?
न कोई
शुरुआत है और
न कोई अंत है।
इसीलिए हम
कहते हैं कि
परमात्मा
अनादि और अनंत
है। आप भी
अनादि और अनंत
हैं। वृक्ष भी
अनादि और अनंत
है। पत्थर का
एक टुकड़ा भी
अनादि और अनंत
है। अस्तित्व
में जो भी है, वह अनादि और
अनंत है।
लेकिन
हम सीमाएं
बनाना जानते
हैं। और
सीमाएं बनाना
जरूरी भी है, हमारे
काम के लिए
उपयोगी भी है।
अगर मैं आपका
पता न फन आपका
घर खोजता हुआ
आऊं और कहूं
कि वे कहां
रहते हैं, जो
अनादि और अनंत
हैं! जिनका न
कोई अंत है, न कोई
प्रारंभ है!
जो न कभी
जन्मे और न
कभी मरेंगे; जो निर्गुण,
निराकार
हैं—वे कहां
रहते हैं? तो
मुझे लोग पागल
समझेंगे। वे
कहेंगे, आप
नाम बोलिए। आप
सीमा बताइए।
आप परिभाषा
करिए। आप ठीक—ठीक
पता बताइए।
क्या नाम है? क्या धाम है?
यह अनंत और
निराकार, इससे
कुछ पता न
चलेगा।
आपका
मुझे पता
लगाना हो, तो एक
सीमा चाहिए।
एक छोटे—से
कार्ड पर आपका
नाम, आपका
टेलीफोन नंबर,
आपका पता—ठिकाना,
उससे मैं
आपको खोज
पाऊंगा। और वह
सब झूठ है, जिससे
मैं आपको
खोजूंगा। और
जो सत्य है, अगर उससे
खोजने चलूं तो
आपको मैं कभी
न खोज पाऊंगा।
जिंदगी
सापेक्ष है, वहां सभी
चीजें
कामचलाऊ हैं,
उपयोगी हैं।
लेकिन जो
उपयोगी है, उसे सत्य मत
मान लेना। जो
उपयोगी है, अक्सर ही
झूठ होता है।
असल
में झूठ की
बड़ी उपयोगिता
है। सत्य बड़ा
खतरनाक है। और
जो सत्य में
उतरने जाता है, उसे
उपयोगिता
छोड़नी पड़ती है।
संन्यास का
यही अर्थ है, वह व्यक्ति
जिसने
उपयोगिता के
जगत की फिक्र
छोड़ दी। और जो
कहता है, चाहे
नुकसान उठा
लूं? चाहे
सब मिट
जाए, लेकिन
मैं वही जानना
चाहूंगा जो है।
और इस खोज में
अपने को भी
खोना पड़ता है।
निश्चित
ही, कृष्ण
की बात समझ
में नहीं आती;
कि अगर सभी
एक है, तो
फिर भेद कैसा?
सभी तो
एक है, भेद
इसलिए है कि
हमारे पास जो
बुद्धि है
छोटी—सी, वह
भेद बिना किए
काम नहीं कर
सकती।
इसे
ऐसा समझें कि
एक आदमी अपने
मकान के भीतर
बंद है। वह जब
भी आकाश को
देखता है, तो अपनी
खिड़की से
देखता है। तो
खिड़की का जो
चौखटा है, वह
आकाश पर
आरोपित हो
जाता है। उसने
कभी बाहर आकर
नहीं देखा।
उसने सदा अपने
मकान के भीतर
से देखा है।
तो खिड़की का
चौखटा आकाश पर
कस जाता है।
और जिस आदमी
ने खुला आकाश
नहीं देखा, वह यही
समझेगा कि यह
जो खिड़की का
आकार है, यही
आकाश का आकार
है। खिड़की का
आकार आकाश का
आकार मालूम
पड़ेगा। आकाश
निराकार है।
लेकिन कहा से
आप देख रहे
हैं? आपकी
खिड़की कितनी
बड़ी है? हो
सकता है, आप
एक दीवाल के
छेद से देख
रहे हों, तो
आकाश उतना ही
बड़ा दिखाई
पड़ेगा जितना
दीवाल का छेद
है।
जब कोई
व्यक्ति अपने मकान
के बाहर आकर
आकाश को देखता
है, तब
उसे पता चलता
है कि यह तो
निराकार है।
जो आकार दिखाई
पड़े थे, वे
मेरे देखने की
जगह से पैदा
हुए थे।
इंद्रिया
खिड़कियां हैं।
और हम
अस्तित्व को
इंद्रियों के
द्वारा देखते
हैं, इसलिए
अस्तित्व
बंटा हुआ
दिखाई पड़ता है,
टूटा हुआ दिखाई
पड़ता है।
आंख
निराकार को
नहीं देख सकती, क्योंकि आंख
जिस चीज को भी
देखेगी उसी पर
आंख का आकार
आरोपित हो
जाएगा। कान
निराकार को
नहीं सुन सकते,
निःशब्द को
नहीं सुन सकते।
कान तो जिसको
भी सुनेंगे, उसको शब्द
बना लेंगे और
सीमा बांध
देंगे। हाथ
निराकार को
नहीं छू सकते,
क्योंकि
हाथ आकार वाले
हैं, जिसको
भी छुएंगे, वहीं आकार
का अनुभव होगा।
आप
उपकरण से
देखते हैं, इसलिए
सभी चीजें
विभिन्न हो
जाती हैं। जब
कोई व्यक्ति
इंद्रियों को
छोड्कर, द्वार—दरवाजे
खिड़कियों से
पार आकर खुले
आकाश को देखता
है, तब उसे
पता चलता है
कि जो भी मैंने
अब तक देखा था,
वे मेरे
खयाल थे। अब
जो मैं देख
रहा हूं? वह
सत्य है।
मकान
के बाहर आकर
देखने का नाम
ही ध्यान है।
इंद्रियों से हटकर, अलग होकर
देखने का नाम
ही ध्यान है। आंख
से मत देखें। आंख
बंद करके
देखने का नाम
ध्यान है। कान
से मत सुनें।
कान बंद करके
सुनने का नाम
ध्यान है।
शरीर से मत
स्पर्श करें।
शरीर के
स्पर्श से ऊपर
उठकर स्पर्श
करने का नाम
ध्यान है।
और जब
सारी
इंद्रियों को
छोड्कर कोई
जरा—सा भी
अनुभव कर लेता
है, तो
उसे कृष्ण की
बात की सचाई
का पता चल
जाएगा। तब उसे
कहीं भी सीमा
न दिखाई पड़ेगी।
तब उसे जन्म और
मृत्यु एक
मालूम होंगे,
तब उसे
सृष्टि और
स्रष्टा एक
मालूम होंगे।
एक कहना भी
ठीक नहीं है, क्योंकि एक
में यह बात
छिपी ही हुई
है कि शायद पहले
दो थे, अब
एक मालूम होते
हैं।
इसलिए
हमने अपने
मुल्क में एक
शब्द का
प्रयोग नहीं
किया। हमने जो
शब्द प्रयोग
किया है, वह है
अद्वैत।
ज्ञानी को ऐसा
पता नहीं
चलेगा कि सब
एक है। ज्ञानी
को ऐसा पता
चलेगा कि दो
नहीं हैं। इन
दोनों में
फर्क है। शब्द
तो एक ही हैं।
अद्वैत
का मतलब ही
होता है एक, एक का
मतलब भी होता
है अद्वैत।
लेकिन सोचकर
हमने कहा
अद्वैत, एक
नहीं।
क्योंकि एक से
विधायक रूप से
मालूम पड़ता है,
एक। एक की
सीमा बन जाती
है। और जहां
एक हो सकता है,
वहा दो भी
हो सकते हैं।
क्योंकि एक
संख्या है।
अकेली संख्या
का कोई मूल्य
नहीं होता। दो
होना चाहिए, तीन होना
चाहिए, चार
होना चाहिए, तो एक का कोई
मूल्य है। और
अगर कोई दो
नहीं, कोई
तीन नहीं, कोई
चार नहीं, तो
एक निर्मूल्य
हो गया। गणित
का अंक व्यर्थ
हो गया। उसमें
फिर कोई अर्थ
नहीं है।
इसलिए
भारतीय
रहस्यवादियों
ने एक शब्द का
उपयोग न करके
कहा, अद्वैत—नान
डुअल। इतना ही
कहा कि हम
इतना कह सकते
हैं कि वहा दो
नहीं हैं।
निषेध विराट
होता है, विधेय
में सीमा आ
जाती है।
इनकार करने
में कोई सीमा
नहीं आती। दो
नहीं हैं। कुछ
कहा नहीं, सिर्फ
इतना ही कहा
कि भेद नहीं
है वहा। दो
किए जा सकें, इतना भी भेद
नहीं है।
यह जो
निषेध है, दो नहीं,
यह कोई गीता
समझने से, ब्रह्मसूत्र
समझने से खयाल
में नहीं आ
जाएगा। यह दो
नहीं तभी खयाल
में आएगा, जब
इंद्रियों से
हटकर देखने की
थोड़ी—सी
क्षमता आ
जाएगी। यह
सारा अध्याय
इंद्रियों से
हटने की कला
पर ही निर्भर
है। सारी
कोशिश यही है
कि आप शरीर से
हटकर देखने में
सफल हो जाएं।
इसलिए
प्राथमिक रूप
से फासला करना
पड़ रहा है। यह
बड़ी उलझी हुई
जटिल बात है।
कृष्ण
पहले सिखा रहे
हैं कि तुम
जानो कि तुम शरीर
नहीं हो। भेद
सिखा रहे हैं।
पैराडाक्सिकल
है, विरोधाभासी
है। कृष्ण कह
रहे हैं, तुम
जानो कि तुम
क्षेत्र नहीं
हो, शरीर
नहीं हो, इंद्रियां
नहीं हो। यह
तो भेद सिखाना
हो गया। लेकिन
कृष्ण यह भेद
इसीलिए सिखा
रहे हैं, क्योंकि
इसी भेद के
द्वारा
तुम्हें अभेद
का दर्शन हो
सकेगा। शरीर
से तुम हटोगे,
तो तुम्हें
दिखाई पड़ेगा,
शरीर भी खो
गया, आत्मा
भी खो गई; और
वही रह गया, जो दोनों के
बीच है, जो
दोनों में
छिपा है।
इसे
ऐसा समझें कि
आप अपने मकान
को जोर से
पकड़े हुए हैं।
और मैं आपसे
कहता हूं कि
यह खिड़की छोड़ो, तो
तुम्हें खुला
आकाश दिखाई पड़
सके। इस खिड़की
से थोड़ा दूर
हटो। तुम
खिड़की नहीं हो।
तुम मकान नहीं
हो। तुम चाहो
तो मकान के
बाहर आ सकते
हो। तो मैं
भेद लिखा रहा
हूं। मैं कह
रहा हूं तुम
मकान नहीं हो।
बाहर हटो।
लेकिन बाहर
आकर तुम्हें यह
भी पता चल
जाएगा कि मकान
के भीतर जो था,
वह भी यही
आकाश था, जो
मकान के बाहर
है।
लेकिन
मकान के बाहर
आकर दोनों
बातें पता
चलेंगी, कि जो आकाश
मैं भीतर से
देखता था, वह
सीमित था।
सीमा मेरी दी
हुई थी। आकार
मैंने दिया था;
निराकार को
मैंने आकार की
तरह देखा था।
वह मेरी भूल
थी, मेरी
भांति थी।
लेकिन बाहर
आकर. इसका यह
अर्थ नहीं है
कि मकान के
भीतर जो आकाश
था, वह
आकाश नहीं है।
बाहर आकर तो
आपको यह भी
दिखाई पड़
जाएगा कि मकान
के भीतर जो था,
वह भी आकाश
था। मकान की
खिड़की से जो
दिखाई पड़ता था,
वह भी आकाश
था। खिड़की भी
आकाश का हिस्सा
थी। खिड़की भी
आज नहीं कल खो
जाएगी और आकाश
में लीन हो
जाएगी।
जिस
दिन आकाश के
तत्व की पूरी
प्रतीति हो
जाएगी, उस दिन मकान,
खिड़की सभी
आकाश हो
जाएंगे।
लेकिन एक बार
मकान के बाहर
आना जरूरी है।
भेद
निर्मित किया
जा रहा है, ताकि आप
अभेद को जान
सकें। यह बात
उलटी मालूम
पड़ती है और
जटिल मालूम
पड़ती है। हम
चाहेंगे कि
भेद की बात ही
न की जाए। अगर
अभेद ही है, तो भेद की
बात ही न की
जाए।
लेकिन
बात की जाए या
न की जाए, हमें अभेद
दिखाई नहीं
पड़ता। हमें
भेद ही दिखाई
पड़ता है। हम
चाहें तो भेद
के भीतर भी
अपने मन को
समझा— बुझाकर
अभेद की
मान्यता
स्थापित कर सकते
हैं। लेकिन वह
काम न आएगी।
गहरे में तो
हमें भेद
मालूम पड़ता ही
रहेगा।
कोई
कितना कहे कि
मित्र और
शत्रु दोनों
एक हैं। हम
अपने को समझा
भी लें कि
दोनों एक हैं।
तब भी हमें
मित्र मित्र
दिखाई पड़ता
रहेगा और शत्रु
शत्रु दिखाई
पड़ता रहेगा।
और मित्र को
हम चाहते
रहेंगे और
शत्रु को न चाहते
रहेंगे।
हम जहां
खड़े हैं, वहां से भेद
अनिवार्य है।
और हम जब तक न
बदल जाएं, तब
तक अभेद का
कोई अनुभव
नहीं हो सकता।
हमारी बदलाहट
का पहला चरण
है कि क्षेत्र
और क्षेत्रज्ञ
का भेद हमारे
स्मरण में आ
जाए।
अब हम
सूत्र को लें।
यह
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
का तत्व
ऋषियों द्वारा
बहुत प्रकार
से कहा गया है।
और नाना
प्रकार के
छंदों से
विभागपूर्वक
कहा गया है।
तथा अच्छी
प्रकार
निश्चय किए
हुए युक्ति—युक्त
ब्रह्मसूत्र
के पदों
द्वारा भी
वैसा ही कहा
गया है।
सच तो
यह है कि धर्म
के समस्त
सूत्र
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
की ही बात कहते
हैं। उनके
कहने में, ढंग में,
शब्दों में
भेद है। पर वे
जिस तरफ इशारा
करते हैं, वह
एक ही बात है।
कृष्ण
कहते हैं, वेद या
उपनिषद या
ब्रह्मसूत्र
या जो परम
ज्ञानी ऋषि
हुए हैं, उन
सब ने भी अनेक—अनेक
रूपों में, अनेक—अनेक
प्रकार से यही
बात कही है।
यह
छोटी—सी बात
है, लेकिन
बहुत बड़ी है।
सुनने में
बहुत छोटी, और अनुभव
में आ जाए तो
इससे बड़ा कुछ
भी नहीं है।
अभी
वैज्ञानिकों
ने अणु का
विस्फोट किया,
अणु को तोड़
डाला। तो उसके
जो संघटक थे
अणु के. अणु
क्षुद्रतम चीज
है। उससे छोटी
और कोई चीज
नहीं। और जब
अणु को भी
विभाजित किया,
उसके जो
संघटक थे, जो
सदस्य थे अणु
को बनाने वाले,
जब उनको
तोड़कर अलग कर
दिया, तो
विराट ऊर्जा
का जन्म हुआ।
आज से
पचास साल पहले
कोई बड़े से
बड़ा
वैज्ञानिक भी
यह नहीं सोच
सकता था कि
अणु जैसी
क्षुद्र चीज
में इतनी
विराट शक्ति
छिपी होगी। और
जब लार्ड
रदरफोर्ड ने
पहली दफा अणु
के विस्फोट की
कल्पना की, तो
रदरफोर्ड ने
स्वयं कहा है
कि मुझे खुद
ही विश्वास
नहीं आता था
कि इतनी
क्षुद्रतम
वस्तु में
इतनी विराट
ऊर्जा छिपी है।
लेकिन
हमने
हिरोशिमा और
नागासाकी में
देखा कि अणु
के एक छोटे—से
विस्फोट में
लाखों लोग
क्षणभर में
जलकर राख हो गए।
और अब
हम जानते हैं
कि इस पृथ्वी
को हम किसी भी क्षण
नष्ट कर सकते
हैं।
पर अणु आंख
से दिखाई नहीं
पड़ता। आंख की
तो बात दूर है, अब तक
हमारे पास कोई
भी यंत्र नहीं
है, जिनके
द्वारा अणु
दिखाई पड़ता हो।
अब तक किसी ने
अणु देखा नहीं
है।
वैज्ञानिक भी
अणु का अनुमान
करते हैं।
सोचते हैं कि
अणु है। सोचना
उनका सही भी
है, क्योंकि
अणु को
उन्होंने तोड़
भी लिया है।
बिना देखे यह
घटना घटी है।
और इस अदृश्य
अणु में, जो
इतना छोटा है
कि दिखाई नहीं
पड़ता, इससे
इतनी विराट
ऊर्जा का जन्म
हुआ। विज्ञान
शिखर पर पहुंच
गया, परमाणु
के विभाजन से।
धर्म
ने भी एक तरह
का विभाजन
किया था। यह
क्षेत्र—
क्षेत्रज्ञ
उसी विभाजन की
कीमिया है।
धर्म ने
मनुष्य की
चेतना का
विभाजन किया
था। विज्ञान
ने पदार्थ के
अणु का विभाजन
किया है; धर्म ने
चेतना के
परमाणु का
विभाजन किया
था। और उस
परमाणु को दो
हिस्सों में
तोड़ दिया था।
दो उसके संघटक
हैं, शरीर
और आत्मा, क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ।
दोनों को
तोड्ने से
वहां भी बड़ी
विराट ऊर्जा का
अनुभव हुआ था।
और जो
परमाणु में
जितनी अनुभव
हो रही है
ऊर्जा, वह उस ऊर्जा
के सम्मुख कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि
परमाणु जड़ है।
चैतन्य का कण
जब टूटा, जब
कोई ऋषि सफल
हो गया अपने
भीतर के
चैतन्य के अणु
को तोड्ने में,
शरीर से
पृथक करने में,
तो इन दोनों
के पृथक होते
ही जो विराट
ऊर्जा जन्मी,
वह ऊर्जा का
अनुभव ही
परमात्मा का
अनुभव है।
और
फर्क है दोनों
में। अणु
टूटता है, तो उससे
जो ऊर्जा पैदा
होती है, उससे
मृत्यु घटित
होगी। और जब
चेतना का अणु
टूटता है, तो
उससे जो ऊर्जा
प्रकट होती है,
उससे अमृत
घटित होता है।
क्योंकि जीवन
की ऊर्जा में
जब प्रवेश
होता है, तो
परम जीवन का
अनुभव होता है।
यह
सूत्र
आइंस्टीन के
सूत्र जैसा है।
इस सूत्र का
इतना ही अर्थ
है कि
तुम्हारे
भीतर तुम्हारे
व्यक्तित्व
को संगठित
करने वाले दो
तत्व हैं, एक तो
पदार्थ से आ
रहा है और एक
चेतना से आ
रहा है। चेतना
और पदार्थ
दोनों के मिलन
पर तुम निर्मित
हुए हो।
तुम्हारा जो
अणु है, वह
आधा चैतन्य से
और आधा पदार्थ
से संयुक्त है।
तुम्हारे दो
किनारे हैं।
तुम्हारी नदी
चेतना और
पदार्थ, दो
के बीच बह रही
है। और यह जो
पदार्थ है, इसने
तुम्हें बाहर
से घेरा हुआ
है, चारों
तरफ तुम्हारी
दीवाल बनाई
हुई है। कहना
चाहिए, तुम्हारी
चेतना के अणु
की जो दीवाल
है, जो
घेरा है, वह
पदार्थ का है।
और जो सेंटर
है, जो
केंद्र है, वह चेतना का
है।
काश, यह संभव
हो जाए कि तुम
इन दोनों को
अलग कर लो, तो
जीवन का जो
श्रेष्ठतम
अनुभव है, वह
घटित हो जाए।
सारे
धर्मों ने.....कृष्ण
ने तो बात की
है वेद की, ब्रह्मसूत्र
की। लेकिन
इसका कारण यह
नहीं है कि
कृष्ण कोई बाइबिल
या कुरान के
खिलाफ हैं।
कृष्ण के वक्त
में अगर
बाइबिल और
कुरान होते, तो उन्होंने
उनकी भी बात
की होती। वे
नहीं थे। नहीं
थे, इसलिए
बात नहीं की
है। आप यह मत
सोचना कि
इसलिए बात
नहीं की है कि
कुरान और
बाइबिल में वह
बात नहीं है।
बात तो वही है।
चाहे
जरथुस्त्र के
वचन हों, चाहे
लाओत्से के, चाहे
क्राइस्ट के
या मोहम्मद के,
धर्म का
सूत्र तो एक
ही है कि भीतर
चेतना और पदार्थ
को हम कैसे
अलग कर लें।
इसके उपाय
भिन्न—भिन्न
हैं। हजारों
उपाय हैं।
लेकिन उपायों
का मूल्य नहीं
है। निष्कर्ष
एक है।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
का तत्व
ऋषियों द्वारा
बहुत प्रकार
से कहा गया है।
दुनिया
में इतने
धर्मों के खड़े
हौंने का कारण
सत्यों का
विरोध नहीं है, प्रकारों
का भेद है। और
नासमझ है आदमी
कि प्रकार के
भेद को परम
अनुभव का भेद
समझ लेता है।
जैसे
किसी एक पहाड़
पर जाने के
लिए बहुत
रास्ते हों और
हर रास्ते
वाला दावा
करता हो कि
मेरे रास्ते
के अतिरिक्त
कोई पहाड पर
नहीं पहुंच
सकता। न केवल
दावा करता हो, बल्कि दो
रास्ते वाले
लड़ते भी हों।
न केवल लड़ते
हों, बल्कि
लड़ाई इतनी
मूल्यवान हो
जाती हो कि
पहाड़ पर चढ़ना
भूल ही जाते
हों और लड़ाई
में ही जीवन व्यतीत
करते हों। ऐसी
करीब—करीब
हमारी हालत है।
कोई
पहाड़ पर चढ़ता
नहीं। न
मुसलमान को
फिक्र है पहाड़
पर चढ़ने की, न हिंदू
को फिक्र है।
न जैन को
फिक्र है, न
बौद्ध को
फिक्र है।
सबको फिक्र यह
है कि रास्ता
हमारा ठीक है,
तुम्हारा
रास्ता गलत है।
और तुम्हारा
रास्ता गलत है,
इसको सिद्ध
करने में लोग
अपना जीवन
समाप्त कर
देते हैं। और
हमारा रास्ता
सही है, इसको
सिद्ध करने
में अपनी सारी
जीवन ऊर्जा लगा
देते हैं।
लेकिन एक
इंचभर भी उस
रास्ते पर
नहीं चलते, जो सही है।
काश, दूसरे के
रास्ते को गलत
करने की चिंता
कम हो जाए। और
जैसे ही दूसरे
के रास्ते को
गलत करने की
चिंता कम हो, वैसे ही
अपने रास्ते
को सही सिद्ध
करने की भी कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। वह तो
उसी पहली
चिंता का ही
हिस्सा है।
दूसरे
को गलत करना, खुद को
सही सिद्ध
करना, दोनों
साथ ही जुड़े
हैं। और जो
आदमी इस
उपद्रव में पड़
जाता है, वह
रास्ते पर
चलना ही भूल
जाता है; वह
रास्ते के
संबंध में
विवाद करता
रहता है।
पंडित—हिंदुओं
के, मुसलमानों
के, जैनों
के—इसी काम
में लगे हैं।
पंडितों से
भटके हुए आदमी
खोजना कठिन है।
उनका सारा
जीवन इसमें
लगा हुआ है कि
कौन गलत है, कौन सही है।
और वे यह भूल
ही गए कि जो
सही है, वह
चलने के लिए है।
लेकिन चलने की
सुविधा कहां!
फुरसत कहा!
समय कहां!
और अगर
कोई भी चले, तो पहाड़
पर पहुंचकर यह
दिखाई पड़ जाता
है कि बहुत—से
रास्ते इसी
चोटी की तरफ
आते हैं।
लेकिन यह चोटी
पर से ही
दिखाई पड़ सकता
है; नीचे
से नहीं दिखाई
पड़ सकता। नीचे
से तो अपना ही
रास्ता दिखाई
पड़ता है। चोटी
से सभी रास्ते
दिखाई पड़ सकते
हैं।
यह जो
कृष्ण कह रहे
हैं, चोटी
पर खड़े हुए
व्यक्ति की
वाणी है। वे
कह रहे हैं कि
सभी वेद, सभी
ऋषि, सभी
ज्ञानी इस. एक
ही तत्व की
बात कर रहे
हैं।
बहुत
प्रकार से
उन्होंने कहा
है। उनके कहने
के प्रकार में
मत उलझ जाना।
कभी—कभी तो
उनके कहने के
प्रकार इतने
विपरीत होते हैं
कि बड़ी कठिनाई
हो जाती है।
अगर
महावीर और
बुद्ध दोनों
को आप सुन लें, तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। और
दोनों एक साथ
हुए हैं। और
दोनों एक ही
समय में थे और
एक ही छोटे—से
इलाके, बिहार
में थे। लेकिन
महावीर और
बुद्ध के कहने
के ढंग इतने
विपरीत हैं कि
अगर आप दोनों
को सुन लें, तो आप बहुत
मुश्किल में
पड़ जाएंगे। और
तब आपको यह
मानना ही
पड़ेगा कि
दोनों में से एक
ही ठीक हो
सकता है, दोनों
ठीक नहीं हो
सकते। यह तो
हो भी सकता है
कि दोनों गलत
हों, लेकिन
दोनों ठीक
नहीं हो सकते,
क्योंकि
दोनों इतनी
विपरीत बातें
कहते हैं।
महावीर
कहते हैं, आत्मा को
जानना परम ज्ञान
है। और बुद्ध
कहते हैं, आत्मा
को मानने से
बड़ा अज्ञान
नहीं। अगर ये
दोनों बातें
आपके कान में
पड़ जाएं, तो
आप समझेंगे, या तो दोनों
गलत हैं या कम
से कम एक तो
गलत होना ही
चाहिए। दोनों
कैसे सही
होंगे? बुद्ध
कहते हैं, आत्मा
को मानना
अज्ञान है। और
महावीर कहते
हैं, आत्मा
को जानना परम
ज्ञान है।
मगर जो
शिखर पर खड़े
होकर देख सकता
है, वह
हंसेगा और वह
कहेगा कि
दोनों एक ही
बात कह रहे
हैं। उनके
कहने का ढंग
अलग है। ढंग
अलग होगा ही।
महावीर
महावीर हैं, बुद्ध बुद्ध
हैं। उनके पास
व्यक्तित्व
अलग है। उनके
सोचने की
प्रक्रिया
अलग है। उनके
चोट करने का
उपाय अलग है।
आपसे बात करने
की विधि अलग
है। आपको कैसे
बदलें, उसका
विधान अलग है।
महावीर
कहते हैं, आत्मा को
जानना हो तो
अहंकार को
छोड़ना पड़ेगा,
तो परम
ज्ञान होगा।
और बुद्ध कहते
हैं, आत्मा
यानी अहंकार।
तुमने आत्मा
को माना कि
तुम किसी न
किसी रूप में
अपने अहंकार
को बचा लोगे।
इसलिए आत्मा
को मानना ही
मत, ताकि
अहंकार को
बचने की कोई
जगह न रह जाए।
बुद्ध
जहां भी आत्मा
शब्द का उपयोग
करते हैं, उनका
अर्थ अहंकार
होता है। मगर
यह तो पहाड़ पर
खड़े हों, तो
आपको दिखाई
पड़े। और तब आप
कह सकते हैं
कि बुद्ध भी
वहीं लाते हैं,
जहां
महावीर लाते
हैं।
लेकिन
नीचे रास्तों
पर खड़ा हुआ
आदमी बड़ी मुश्किल
में पड़ जाता
है। और काफी
विवाद चलता है।
बौद्ध और जैन
अभी तक विवाद
कर रहे हैं।
बुद्ध और
महावीर को गए
पच्चीस सौ साल
हो गए, पर
उनके भीतर कलह
अब भी जारी है।
वे एक—दूसरे
के खंडन में
लगे रहते हैं।
यह तो
जैन मान ही
नहीं सकता कि
बुद्ध को
ज्ञान हुआ
होगा।
क्योंकि अगर
ज्ञान हुआ
होता, तो
ऐसी अज्ञान की
बात कहते?।।
बौद्ध भी नहीं
मान सकता कि
महावीर को ज्ञान
हुआ होगा। अगर
ज्ञान हुआ
होता, तो
ऐसी अज्ञान की
बात कहते कि
आत्मा परम
ज्ञान है!
नीचे बड़ी कलह
है।
कृष्ण
जैसे
व्यक्तियों
की सारी
चेष्टा होती है
कि आपकी शक्ति
कलह में व्यय
न हो। आप लड़ने
में समय और
अवसर को न
गंवाएं। आप
कुछ करें।
इसलिए
उचित है, एक बार मन में
यह बात साफ
समझ लेनी उचित
है कि
ज्ञानियों के
शब्द में चाहे
कितना ही
फासला हो, ज्ञानियों
के अनुभव में
फासला नहीं हो
सकता।
ज्ञानियों के
कहने के ढंग
कितने ही
भिन्न हों, लेकिन
उन्होंने जो
जाना है, वह
एक ही चीज हो
सकती है।
अज्ञानी बहुत—सी
बातें जान
सकते हैं।
इतनी तो एक को
ही जानते हैं।
तो
चाहे हमारी
समझ में आता
हो या न आता हो, मगर
व्यर्थ। कलह
और विवाद में
मत पड़ना। और
जिसकी बात
आपको ठीक।
लगती हो, उस
रास्ते पर
चलना शुरू कर
देना।
अगर आप
महावीर के
रास्ते से चले, तो भी आप
उसी शिखर पर
पहुंच जाएंगे,
जहां कृष्ण,
और बुद्ध, और मोहम्मद
का रास्ता
पहुंचता है।
अगर आप
मोहम्मद के
रास्ते से चले,
तो भी वहीं
पहुंच जाएंगे,
जहां कृष्ण
और राम का
रास्ता
पहुंचता है।
चलने से पहुंच
जाएंगे, किसी
भी रास्ते से
चलें। सभी
रास्ते उस तरफ
ले जाते हैं।
मेरी तो अपनी
समझ यह है कि
ठीक रास्ते पर
खड़े होकर
विवाद करने की
बजाय तो गलत
रास्ते पर
चलना भी बेहतर
है। क्योंकि
गलत रास्ते पर
चलने वाला भी
कम से कम एक
अनुभव को तो
उपलब्ध हो
जाता है कि यह
रास्ता गलत है,
चलने योग्य
नहीं है। वह
ठीक रास्ते पर
खड़ा आदमी यह
भी अनुभव नहीं
कर पाता। गलत
को भी गलत की
तरह पहचान
लेना, सत्य
की तरफ बड़ी
सफलता है।
सुना
है मैंने कि
एडीसन बूढ़ा हो
गया था। और एक
प्रयोग वह कर
रहा था, जिसको सात
सौ बार .करके
असफल हो गया
था। उसके सब
सहयोगी घबड़ा
चुके थे। तीन
साल! सब ऊब गए
थे। उसके नीचे
शोध करने वाले
विद्यार्थी
पक्का मान लिए
थे कि अब उनकी
रिसर्च कभी
पूरी होने
वाली नहीं है।
और यह का है कि
बदलता भी नहीं
कि दूसरा कुछ
काम हाथ में
ले। उर्स। काम
को किए जाता
है!
और एक
दिन सुबह
एडीसन हंसता
हुआ आया, तो उसके
साथी, सहयोगियों
व
विद्यार्थियों
ने समझा कि
मालूम होता है
कि उसको कोई
कुंजी हाथ लग
गई। तो वे सब
घेरकर खड़े हो
गए और
उन्होंने कहा
कि आप इतने
प्रसन्न हैं,
मालूम होता
है, आपका
प्रयोग। सफल
हो गया, कुंजी
हाथ लग गई।
तो
उसने कहा कि
नहीं, एक
बार और मैं
असफल हो गया।
लेकिन एक
असफलता और कम
हो गई। सफलता
करीब आती जा
रही है। आखिर
असफलता की
सीमा है।
मैंने सात सौ
दरवाजे टटोल
लिए, तो
सात सौ दरवाजे
पर भटकने की
अब कोई जरूरत
न रही। जिस
दिन मैंने
पहली दफा शुरू
किया था, अगर
सात सौ एक
दरवाजे हों, तो उस दिन
सात सौ एक
दरवाजे थे, अब केवल एक
बचा। सात सौ
कम हो गए।
इसलिए मैं खुश
हूं। रोज एक
दरवाजा कम
होता जा रहा
है। असली दरवाजा
ज्यादा दूर
नहीं है अब।
जवान
साथी उदास
होकर बैठ गए।
उनकी समझ में
यह बात न आई।
लेकिन जो इतने
उत्साह से भरा
हुआ आदमी है, उसके
उत्साह का
कारण केवल
इतना है कि
असफलता भी
सफलता की सीढी
है।
गलत
रास्ते पर भी
अगर कोई चल
रहा है, तो सही पर
पहुंच जाएगा।
और मैं आपसे
कहता हूं सही
रास्ते पर भी
खड़ा होकर कोई
विवाद कर रहा
है, तो गलत
पर पहुंच
जाएगा।
खड़े
होने से
रास्ता चूक
जाता है। चलने
से रास्ता
मिलता है। असल
में चलना ही
रास्ता है। जो
खड़ा है, वह रास्ते
पर है ही नहीं,
क्योंकि
खड़े होने का
रास्ते से कोई
संबंध नहीं है।
चलने से
रास्ता
निर्मित होता
है।
गलत पर
भी कोई चले, लेकिन
चले। और
हठपूर्वक, जिदपूर्वक,
संकल्पपूर्वक
लगा रहे, तो
गलत रास्ता भी
ज्यादा देर तक
उसे पकड़े नहीं
रख सकता। जो
चलता ही चला
जाता है, वह
ठीक पर पहुंच
ही जाएगा। और
जो खड़ा है, वह
कहीं भी खड़ा
हो, वह गलत
पर गिर जाएगा।
लेकिन
हम खड़े होकर
मजे से विवाद
कर रहे हैं, क्या ठीक
है, क्या
गलत है।
कृष्ण, अर्जुन
के मन में यह
सवाल न उठे कि
और ऋषियों ने
क्या कहा है, इसलिए कहते
हैं, सभी
तत्व के जानने
वालों ने बहुत
प्रकार से इसी
को कहा है।
नाना प्रकार
के छंदों में,
नाना
प्रकार की
व्याख्याओं
में, अच्छी
तरह निश्चित
किए हुए
युक्ति—युक्त
ब्रह्मसूत्र
के पदों में
भी वैसा ही कहा
गया है।
इधर एक
बात और समझ
लेनी जरूरी है
कि धर्मशास्त्र
भी युक्ति का
और तर्क का
उपयोग करते
हैं, लेकिन
वे तार्किक
नहीं हैं।
तर्कशास्त्री
भी तर्क का
उपयोग करते हैं,
धर्म के
रहस्य—अनुभवी
भी तर्क का
उपयोग करते
हैं, लेकिन
दोनों के तर्क
में बुनियादी
फर्क है।
तर्कशास्त्री
तर्क के
द्वारा सोचता
है कि सत्य को
पा ले। धर्म
की यात्रा में
चलने वाला
व्यक्ति पहले
सत्य को पा
लेता है और
फिर तर्क के
द्वारा प्रस्तावित
करता है। इन
दोनों में
फर्क है।
धर्म
मानता है कि
सत्य को तर्क
से पाया नहीं
जा सकता, लेकिन तर्क
से कहा जा
सकता है। धर्म
की प्रतीति
तर्क से मिलती
नहीं, लेकिन
तर्क के
द्वारा
संवादित की जा
सकती है।
इसलिए
पश्चिम में जब
पहली दफे
ब्रह्मसूत्रों
का अनुवाद हुआ, तो डयूसन
को और दूसरे
विचारकों को
एक पीड़ा मालूम
होने लगी। और
वह यह कि
भारतीय मनीषी
निरंतर कहते
हैं कि तर्क
से सत्य को
पाया नहीं जा
सकता, लेकिन
भारतीय मनीषी
जब भी कुछ
लिखते हैं, तो बड़ा
तर्कपूर्ण
लिखते हैं।
अगर तर्क से
पाया नहीं जा
सकता, तो
इतना
तर्कपूर्ण
होने की क्या
जरूरत है? जब
तर्क —से सत्य
का कोई संबंध
नहीं है, तो
ब्रह्मसूत्र
जैसे ग्रंथ
इतने
तर्कबद्ध क्यों
हैं?
यह
संदेह उठना
स्वाभाविक है।
क्योंकि ऐसी
परंपराएं भी
रही हैं, जो तर्कहीन
हैं। जैसे
जापान में झेन
है। वह कोई
तर्कयुक्त
वक्तव्य नहीं
देता। उनका
ऋषि तर्कहीन
वक्तव्य देता
है। आप क्या
पूछते हैं, उसके उत्तर
का उससे कोई
संबंध भी नहीं
होता है।
क्योंकि वह
कहता है, तर्क
को तोड़ना है।
अगर आप
जाकर एक झेन
फकीर से पूछें
कि सत्य का स्वरूप
क्या है? तो हो सकता
है, वह
आपसे कहे कि
बैठो, एक
कप चाय पी लो।
इसका कोई लेना—देना
नहीं है सत्य
से। आप पूछें
कि परमात्मा
है या नहीं? तो हो सकता
है, वह
आपसे कहे कि
जाओ, और
जरा हाथ—मुंह
धोकर वापस आओ।
आप
कहेंगे कि
किसी पागल से
बात कर रहे
हैं। मैं पूछ
रहा हूं कि
परमात्मा है
या नहीं; हाथ—मुंह
धोने से क्या
संबंध है!
लेकिन झेन
फकीर का कहना
यह है कि
परमात्मा से
तर्क का कोई
संबंध नहीं है,
इसलिए मैं
तर्क को
तोड्ने की
कोशिश कर रहा
हूं। और अगर
तुम अतर्क्य
में उतरने को
राजी नहीं हो,
तो लौट जाओ।
यह दरवाजा
तुम्हारे लिए
नहीं है।
पश्चिम
के विचारकों
को यह समझ में
आता है कि अगर
तर्क से मिल
सकता हो, तो तर्क की बात
करनी चाहिए।
अगर तर्क से
मिल न सकता हो,
तो तर्क की
बात ही नहीं
करनी चाहिए।
ये दोनों
बातें समझ में
आती हैं।
लेकिन
भारतीय
शास्त्र
दोनों से
भिन्न हैं।
भारतीय
शास्त्र कहते
हैं, तर्क
से वह मिल
नहीं सकता।
लेकिन शंकर या
नागार्जुन
जैसे तार्किक
खोजने
मुश्किल हैं।
बहुत तर्क की
बात करते हैं।
क्या कारण है?
भारतीय
अनुभूति ऐसी
है कि तर्क
सत्य को जन्म
नहीं देता, लेकिन
सत्य को
अभिव्यक्त कर
सकता है; सत्य
की तरफ ले जा
नहीं सकता, लेकिन असत्य
से हटा सकता
है। सत्य आपको
दे नहीं सकता,
लेकिन आपके
समझने में
सुगमता पैदा
कर सकता है।
और अगर समझ
सुगम हो जाए, तो आप उस
यात्रा पर
निकल सकते हैं।
इसलिए भारतीय
शास्त्र
अत्यंत
तर्कयुक्त हैं;
गहन रूप से
तर्कयुक्त
हैं। और इसलिए
कई बार बड़ी
कठिनाई होती
है।
शंकर
जैसा तार्किक
जमीन पर कभी—कभी
पैदा होता है।
एक—एक शब्द
तर्क है। और
वही शंकर, मंदिर
में गीत भी गा
रहा है, नाच
भी रहा है। तो
सोचेगा जो
आदमी, उसको
कठिन लगेगा कि
क्या बात है!
एक तरफ तर्क की
इतनी प्रगाढ़
योजना, इतनी
तर्क की धार, और दूसरी
तरफ यह आदमी
काली के सामने
या मां के सामने
गीत गाकर, भजन
गाकर नाच रहा
है!
हमारी
समझ में नहीं
पड़ती बात। भजन
गाकर, गीत
गाकर, नाचकर
यह आदमी अनुभव
में उतर रहा
है। वह अनुभव
तर्क से
संबंधित नहीं
है। वह अनुभव
रस से संबंधित
है, आनंद
से संबंधित है,
हृदय से
संबंधित है, बुद्धि का
उससे कोई लेना—देना
नहीं है।
लेकिन जब वह
अनुभव इसे
उपलब्ध हो जाएगा
और यह किसी
व्यक्ति को
कहने जाएगा, तो कहना
बुद्धि से
संबंधित है।
हृदय और हृदय
की क्या बात
होगी? बात
तो बुद्धि की
होती है। और
जब वह आपसे
बात कर रहा है,
तो बुद्धि
का उपयोग
करेगा। और
आपकी बुद्धि
को अगर राजी
कर ले, तो
शायद आपकी
बुद्धि से
आपको हृदय तक
उतारने के लिए
भी राजी कर
लेगा।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि
ब्रह्मसूत्र
ने अत्यंत
युक्ति—युक्त
रूप से यही
बात कही है।
कृष्ण
जिसे बड़े
गीतबद्ध रूप
में कह रहे
हैं, वही
ब्रह्मसूत्र
ने युक्ति और
तर्क के माध्यम
से कही है।
और हे
अर्जुन, वही मैं
तेरे लिए कहता
हूं कि पांच
महाभूत, अहंकार,
बुद्धि और
मूल प्रकृति
अर्थात
त्रिगुणमयी माया
भी तथा दस
इंद्रियां, एक मन और
पांच
इंद्रियों के
विषय—शब्द, स्पर्श, रूप,
रस और गंध
तथा इच्छा, द्वेष, सुख,
दुख और
स्थूल देह का
पिंड एवं
चेतनता और
धृति, इस
प्रकार यह
क्षेत्र
विकारों के
सहित संक्षेप
में कहा गया
है।
इसमें
बड़ी कठिनाई
मालूम पड़ेगी।
इसमें कुछ बड़ी
ही क्रांतिकारी
बातें कही गई
हैं। इस बात
को मानने को
हम राजी हो
सकते हैं कि
पदार्थ पंच
महाभूत
क्षेत्र है, जो जाना
जाता है वह।
यह थोड़ा
सूक्ष्म है और
थोड़ा
ध्यानपूर्वक
समझने की
कोशिश करना।
यह हम
मान सकते हैं
कि पंच महाभूत
पदार्थ है, क्षेत्र
है, ज्ञेय
है। उसे हम
जान सकते हैं।
हम उससे भिन्न
हैं।
इंद्रिया, निश्चित
ही हम उन्हें
जान सकते हैं।
आंख में आपके
दर्द होता है,
तो आप जानते
हैं कि दर्द
हो रहा है।
कान नहीं
सुनता, तो
आपको समझ में
आ जाता है
भीतर, कि
कान सुन नहीं
रहा है, मैं
बहरा हो गया
हूं। निश्चित
ही आप, जो
भीतर बैठे हैं,
जो जानता है
कि कान बहरा
हो गया है, मैं
सुन नहीं पा
रहा हूं या आंख
अंधी हो गई, मुझे दिखाई
नहीं पड़ता, भिन्न है।
इंद्रियों
से हम अपने को
भिन्न जानते
हैं। चाहे हम
वैसा व्यवहार न
करते हों, चाहे हम
वैसा आचरण न
करते हों, लेकिन
हम भी
भलीभांति
जानते हैं कि
हम इंद्रियों
से भिन्न हैं।
अगर
आपका हाथ कट
जाए तो आप ऐसा
नहीं कहेंगे
कि मैं कट गया।
अगर आपका हाथ
कट जाए, तो भी आप जरा
भी नहीं
कटेंगे। और
आपके
व्यक्तित्व
का जो आभास था,
वह पूरा का
पूरा बना
रहेगा। ऐसा
नहीं कि आपको
लगे कि आपके
व्यक्तित्व
का एक हिस्सा
भी भीतर कट
गया और आपकी
आत्मा भी कुछ छोटी
हो गई। आप
उतने ही
रहेंगे; लंगड़े
होकर भी उतने
ही रहेंगे; अंधे होकर
भी आप उतने ही
रहेंगे; बीमार
होकर भी, बूढ़े
होकर भी आप उतने
ही रहेंगे।
आपके होने के
बोध में कोई अंतर
नहीं पड़ता।
तो हम
भी अनुभव करते
हैं कि
इंद्रियों से
हम भिन्न हैं।
शब्द, स्पर्श,
रूप, रस,
गंध, उनसे
भी हम भिन्न
हैं, क्योंकि
वे अनुभव
इंद्रियों के
हैं। और जब हम
इंद्रियों से
भिन्न हैं, तो
इंद्रियों के
अनुभव से भी
भिन्न हैं।
स्थूल
देह, पिंड,
इन सबसे हम
भिन्न हैं।
लेकिन बड़ी क्रांति
की बात है और
वह है, चेतनता
और धृति, यह
भी कृष्ण ने
कहा, ये भी
क्षेत्र हैं
और इनसे भी हम
भिन्न हैं।
काशसनेस और
कनसनट्रेशन—चेतनता
और धृति।
यह
थोड़ा—सा गहन
और सूक्ष्म है।
और इसे अगर
समझ लें, तो कुछ और
समझने को बाकी
नहीं रह जाता।
पश्चिम
के मनसविद
मानते हैं कि
आप चेतन हो ही
तब तक सकते
हैं, जब
तक चेतन होने
को कुछ हो, कांशसनेस
मीन्स टु बी
कांशस आफ
समथिंग। जब भी
आप चेतन होते
हैं, तो हो
ही तब तक सकते
हैं, जब तक
किसी चीज के
प्रति चेतन
हों। अगर कोई
विषय न हो, तो
चेतना भी नहीं
हो सकती, ऐसा
पश्चिम का
मनोविज्ञान
प्रस्तावित
करता है। और
उनकी बात में
बड़ा बल है।
उनकी बात में
बड़ा बल है।
इसलिए
वे कहते हैं
कि अगर सभी
विषय हट जाएं, तो आप
बेहोश हो
जाएंगे, आप
होश खो देंगे।
क्योंकि होश
तो किसी चीज
का ही होता है,
होश बिना
चीज के हो
नहीं सकता।
आपको
मैं देख रहा
हूं तो मुझे
होश होता है
कि मैं आपको
देख रहा हूं।
लेकिन आप नहीं
हैं, मुझे
कुछ दिखाई
नहीं पड़ रहा, तो मुझे यह
भी नहीं होश
हो सकता कि
मैं देख रहा हूं।
ही, अगर
मुझे कुछ भी
नहीं दिखाई पड़
रहा, तो
फिर यह एक
आब्जेक्ट, विषय
बन जाएगा मेरा
कि मुझे कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ रहा है।
इसलिए मुझे
पता चलेगा कि
मैं हूं
क्योंकि मुझे
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ रहा
है।
लेकिन
मेरे होने के
लिए मुझे किसी
चीज का अनुभव
होना चाहिए, नहीं तो
मुझे अपने
होने का अनुभव
नहीं होगा।
आप ऐसा
समझें कि अगर
आपको ऐसी जगह
में रख दिया
जाए, जहां
कोई शब्द, ध्वनि
पैदा न होती
हो, तो
क्या आपको
अपने कान का
पता चलेगा? कैसे पता
चलेगा? अगर
कोई ध्वनि न
होती हो, कोई
शब्द न होता
हो। तो आपको
अपने कान का
पता नहीं
चलेगा। आपके
पास कान हो तो
भी आपको कभी
पता नहीं चलेगा
कि कान है।
अगर
कोई चीज छूने
को न हो, कोई चीज
स्पर्श करने
को न हो, तो
आपको कभी पता
नहीं चलेगा कि
आपके पास
स्पर्श की
इंद्रिय है।
अगर कोई चीज
स्वाद लेने को
न हो, तो
आपको कभी पता
न चलेगा कि
आपके पास
स्वाद के अनुभव
की क्षमता है।
मनसविद
कहते हैं, इसी
भांति अगर कोई
भी चीज चेतन
होने को न हो, तो आपको
अपनी चेतना का
भी पता नहीं
चलेगा। चेतना
भी इसलिए पता
चलती है कि
संसार है, चारों
तरफ चेतन होने
के लिए
वस्तुएं हैं।
इस
विचार को
मानने वाली जो
धारा है, वह कहती है
कि ध्यान अगर
सच में—जैसा
कि पूरब के
मनीषी कहते
हैं—घट जाए, तो आप बेहोश
हो जाएंगे।
क्योंकि जब
जानने को कुछ
भी शेष न रह
जाएगा, तो
जानने वाला
नहीं बचेगा, सो जाएगा, खो जाएगा।
जानने वाला
तभी तक बच
सकता है, जब
तक जानने को
कोई चीज हो।
नहीं तो आप
जानने वाले
कैसे बचेंगे!
तो
पश्चिम के
मनसविद कहते
हैं कि अगर
ध्यान ठीक है, जैसा कि
कृष्ण ने, पतंजलि
ने, बुद्ध
ने
प्रस्तावित
किया है, तो
ध्यान में
आदमी
मूर्च्छित हो
जाएगा, होश
नहीं रह जाएगा।
जब कोई
आब्जेक्ट न होगा,
जानने को
कोई चीज न
होगी, तो
जानने वाला सो
जाएगा।
इसे हम
थोड़ा—बहुत
अपने अनुभव से
भी समझ सकते
हैं। अगर रात
आपको नींद न
आती हो, तो उसका
कारण आपको पता
है क्या होता
है? आपके
मन में कुछ
विषय होते हैं,
जिनकी वजह
से नींद नहीं
आती, कोई
विचार होता है,
जिसकी वजह
से नींद नहीं
आती। आप अपने
मन को
निर्विचार कर
लें, विषय
से खाली कर
लें, तत्क्षण
नींद में खो
जाएंगे।
नींद आ
जाएगी उसी
वक्त, जब
कोई चीज जगाने
को न रहेगी।
और जब तक कोई
चीज जगाने को
होती है, कोई
एक्साइटमेंट
होता है, कोई
उत्तेजना
होती है, तब
तक नींद नहीं
आती। अगर कोई
भी विषय मौजूद
न हो, सभी
उत्तेजना
समाप्त हो जाए,
तो आपके
भीतर—मनसविद
कहते हैं—जो
चेतना है, वह
खो जाएगी।
कृष्ण
भी उसी चेतना
के लिए कह रहे
हैं कि वह भी
क्षेत्र है।
कृष्ण भी राजी
हैं इस मनोविज्ञान
से। वे कहते
हैं, यह
जो चेतना है, ' जो पदार्थों
के संबंध में
आपके भीतर
पैदा होती है,
यह जो चेतना
है, जो
विषयों के
संदर्भ में
पैदा होती है,
यह जो चेतना
है, जो
विषयों से
जुडी है और
विषयों के साथ
ही खो जाती है,
यह भी
क्षेत्र है।
तुम इस चेतना
को भी अपनी
आत्मा मत
मानना। यह बड़ी
गहन और आखिरी
अंतखोंज की
बात है।
इस
चेतना को भी
तुम अपनी
चेतना मत
समझना। यह
चेतना। भी
बाह्य—निर्भर
है। यह चेतना
भी
पदार्थजन्य
है। और जब इस
चेतना के भी
तुम ऊपर उठ
जाओगे, तो ही
तुम्हें पता
चलेगा उस
वास्तविक
ब्रह्मतत्व
का, जो
किसी पर
निर्भर नहीं
है, तभी
तुम्हें पता
चलेगा
क्षेत्रज्ञ
का।
तो अब
इसका अर्थ यह
हुआ कि हम तीन
हिस्से कर लें।
कल हमने दो
हिस्से किए थे।
अब हम और गहरे
जा सकते हैं।
हमने दो
हिस्से किए थे, ज्ञेय—आब्जेक्ट,
जाने जाने
वाली चीज।
ज्ञाता—जानने
वाला, नोअर,
सब्जेक्ट।
ये दो हमने
विभाजन किए थे।
अब कृष्ण कहते
हैं, यह जो
सब्जेक्ट है,
यह जो नोअर
है, जानने
वाला है, यह
भी तो जो जानी
जाने वाली
चीजें हैं, उनसे जुड़ा
है। इन दोनों
के ऊपर भी
दोनों को
जानने वाला एक
तीसरा तत्व है,
जो पदार्थ
को भी जानता
है और पदार्थ
को जानने वाले
को भी जानता
है। यह ! तीसरा
तत्व, यह
तीसरी ऊर्जा
तुम हो। और इस
तीसरी ऊर्जा
को नहीं जाना
जा सकता।
इसे
थोड़ा समझ लें।
क्योंकि जिस
चीज को भी तुम
जान लोगे, वही
तुमसे अलग हो
जाएगी। इसे
ऐसा समझें।
मेरे पास लोग
आते हैं। कोई
व्यक्ति आता
है, वह
कहता है, मैं
बहुत अशांत
हूं मुझे कोई
रास्ता बताएं।
कोई ध्यान, कोई विधि, जिससे मैं शांत
हो जाऊं। फिर
वह प्रयोग
करता है। अगर
प्रयोग करता
है, सच में
निष्ठा से, तो शांत भी
होने लगता है।
तब वह आकर
मुझे कहता है
कि अब मैं शांत
हो गया हूं।
तो
उससे मैं कहता
हूं अशांति से
छूट गया, अब तू शांति
से भी छूटने
की कोशिश कर।
क्योंकि यह
तेरी शांति
अशांति से ही
जुड़ी है; यह
उसका ही एक
हिस्सा है। तू
अशांति से छूट
गया; बड़ी
बात तूने कर
ली। अब तू इस शांति
से भी छूट, जो
कि अशांति के
विपरीत तूने
पैदा की है, और तभी तू
परम शांत हो
सकेगा। लेकिन
उस परम
शांति
में तुझे यह
भी पता नहीं
चलेगा कि मैं शांत
हूं।
जब तक
आपको पता चलता
है कि मैं शांत
हूं तब तक अशांत
होने की
क्षमता कायम
है। जब तक
आपको पता चलता
है कि बड़े
आनंद में हूं
तब तक आप किसी
भी क्षण दुख
में गिर सकते
हैं। जब तक
आपको पता चलता
है, मैंने
ईश्वर को जान
लिया, ईश्वर
से आप छूट
सकते हैं। जिस
चीज का भी बोध
है, उसका
अबोध हो सकता
है।
आखिरी शांति
तो उस क्षण
घटित होती है, जब आपको
यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं शांत हूं।
यह तो पता
चलता ही नहीं
कि मैं अशांत
हूं यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं शांत हूं।
असली
ज्ञान तो उस
समय घटित होता
है, जब
आपको यह तो
खयाल क्टि ही
जाता है कि
मैं अज्ञान
हूं यह भी
खयाल मिट जाता
है कि मैं
ज्ञान हूं।
सुना
है मैंने, ईसाइयत
में एक बहुत
बड़ा फकीर हुआ,
संत फ्रांसिस।
बड़ी मीठी कथा
है कि संत फ्रांसिस
जब ज्ञान को
उपलब्ध हुआ, जब उसे परम
बोध हुआ, तो
पक्षी इतने
निर्भय हो गए
कि पक्षी उसके
कंधों पर आकर
बैठने लगे, उसके सिर पर
आकर बैठने लगे।
नदी के किनारे
से निकलता, तो मछलियां छलांग
लगाकर उसका
दर्शन करने
लगती।
वृक्षों के
पास बैठ जाता,
तो जंगली
जानवर आकर उसके
निकट खड़े हो
जाते, उसको
चूमने लगते।
यह बात
बड़ी मीठी है।
और निश्चित ही, जब कोई
बहुत शांत हो
जाए और बहुत
आनंद से भर जाए,
तो उसके
प्रति दूसरे
का जो भय है, वह कम हो
जाएगा। यह घट
सकता है।
लेकिन
इधर मैं पढ़
रहा था, एक जापान
में फकीर
महिला हुई, उसका जीवन।
उसके जीवन. की
कथा के अंत
में एक बात
कही गई है, जो
बड़ी हैरान
करने वाली है,
पर बड़ी
मूल्यवान है
और कृष्ण की
बात को समझने में
सहयोगी होगी।
उस
फकीर महिला के
संबंध में कहा
गया है कि जब वह
अज्ञानी थी, तब कोई
पक्षी उसके
पास नहीं आते
थे। जब वह
ज्ञानी हो गई,
तो पक्षी उसके
कंधों पर आकर
बैठने लगे।
सांप भी उसके
पास गोदी में
आ जाता। जंगली
जानवर उसके आस—पास
उसे घेर लेते।
लेकिन जब वह
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो गई,
तो फिर
पक्षियों ने
आना बंद कर
दिया। सांप
उसके पास न
आते, जानवर
उसके पास न
आते। जब वह
अज्ञानी थी, तब भी नहीं
आते थे, जब
ज्ञानी हो गई,
तब आने लगे;
और जब परम
ज्ञानी हो गई,
तब फिर बंद
हो गए।
तो
लोगों ने उससे
पूछा कि क्या
हुआ? क्या
तेरा पतन हो
गया?
बीच
में तो तेरे
पास इतने
पक्षी आते थे।
अब नहीं आते? वह हंसने
लगी। उसने तो
कोई उत्तर न
दिया। लेकिन
उसके निकट
उसको जानने
वाले जो लोग
थे, उन्होंने
कहा कि जब तक
उसे ज्ञान का
बोध था, तब
तक पक्षियों
को भी पता
चलता था कि वह
ज्ञानी है। अब
उसका वह भी
बोध खो गया।
अब उसे खुद ही
पता. नहीं है
कि वह है भी या
नहीं। तो
पक्षियों को
क्या पता
चलेगा! जब उसे
खुद ही पता
नहीं चल रहा
है।
तो झेन
में कहावत है
कि जब आदमी
अज्ञानी होता
है और जब आदमी
परम ज्ञानी हो
जाता है, तब बहुत—सी
बातें एक—सी
हो जाती हैं, बहुत—सी
बातें एक—सी
हो जाती हैं।
क्योंकि
अज्ञान में
ज्ञान नहीं था।
और परम ज्ञान
में ज्ञान है,
इसका पता
नहीं होता।
बीच में ज्ञान
की एक घड़ी आती
है।
वह
ज्ञान की घड़ी
यही है। तीन
अवस्थाएं—स्व
तो हम पदार्थ
के साथ अपना
तादात्म्य
किए हैं, शरीर के साथ
जुड़े हैं कि
मैं शरीर हूं
मैं इंद्रियां
हूं। यह एक
जगत अज्ञान का।
फिर एक बोध का
जगत, कि
मैं शरीर नहीं
हूं, मैं
इंद्रियां
नहीं हूं। मगर
यह भी शरीर से
ही बंधा है।
यह मैं
शरीर नहीं हूं
यह भी शरीर से
ही जुड़ा है।
यह मैं
इंद्रिया
नहीं हूं _ यह भी तो
इंद्रियों के
साथ ही जुड़ा
हुआ संबंध है।
कल जानते थे
कि मैं
इंद्रियां
हूं अब जानते
हैं कि मैं
इंद्रियां
नहीं हूं
लेकिन दोनों
के केंद्र में
इंद्रियां
हैं। कल तक
समझते थे कि
मैं शरीर हूं
अब समझते हैं
कि शरीर नहीं
हूं। लेकिन
दोनों के बीच
में शरीर है।
ये दोनों ही
बोध शरीर से
बंधे हैं।
फिर एक
तीसरी घटना
घटती है, जब यह भी पता
नहीं रह जाता
कि मैं शरीर
हूं या शरीर
नहीं हूं। जब
कुछ भी पता
नहीं रह जाता।
शरीर की
मूर्च्छा तो
छूट ही जाती
है, वह जो
मध्य में आई
हुई चेतना का
ज्वार था, वह
भी खो जाता है।
शरीर से पैदा
होने वाले दुख
से तो छुटकारा
हो जाता है, लेकिन फिर
शरीर से छूटकर
जो सुख मिलते
थे, उनसे
भी छुटकारा हो
जाता है। और
एक परम शांत, परम मौन, न
जहां ज्ञान है,
न जहां ज्ञाता
है, न जहां
ज्ञेय है, ऐसी
जो शून्य
अवस्था आ जाती
है। इस शून्य
अवस्था में ही
क्षेत्रज्ञ, वह जो अंतिम
छिपा है, वह
प्रकट होता है।
न तो
मैं चेतनता, न धृति।
ध्यान भी नहीं।
धृति का अर्थ
है, ध्यान,
धारणा।
यह
थोड़ा खयाल में
ले लेना जरूरी
है, क्योंकि
बहुत बार हम
सीढ़ियों से
जकड़ जाते हैं।
बहुत बार ऐसा
हो जाता है कि
जो हमें ले
जाता है मंजिल
तक, उसको
हम पकड़ लेते
हैं। लेकिन तब
वही मंजिल में
बाधा बन जाता
है।
तो परम
ध्यानियों ने
कहा है कि
तुम्हारा
ध्यान उस दिन
पूरा होगा, जिस दिन
ध्यान भी छूट
जाएगा। जब तक
ध्यान को पकड़े
हो, तब तक
समझना कि अभी
पहुंचे नहीं।
प्रार्थना
तो उसी दिन
पूरी होगी, जिस दिन
प्रार्थना
करना भी
व्यर्थ हो
जाएगा। जब तक
प्रार्थना
करना जरूरी है,
तब तक फासला
मौजूद है। जब
कोई नाव में बैठता
है और नदी पार
कर लेता है।
तो फिर नाव को
भी छोड्कर आगे
बढ़ जाता है।
धर्म भी जब
छूट जाता है, तभी परम
धर्म में
प्रवेश होता
है।
तो अगर
कोई आखिरी समय
तक भी हिंदू
बना है, तो अभी
समझना कि अभी
पहुंचा नहीं।
अगर आखिरी समय
तक भी जैन बना
है, तो
समझना कि अभी
पहुंचा नहीं।
क्योंकि जैन,
हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
नावें हैं।
नदी से पार ले
जाने वाली हैं।
लेकिन परमात्मा
में प्रवेश के
पहले नावें
छोड़ देनी पड़ती
हैं। मंजिल जब
आ गई, तो
साधनों की
क्या जरूरत
रही?
लेकिन
अगर हम आखिर
तक भी नाव को
पकड़े रहें—और
हो सकता है
हमारा मन हमसे
कहे, और
बात ठीक भी
लगे, कि
जिस नाव ने
इतने कठिन
भवसागर को पार
करवाया, उसको
कैसे छोड़ें—तो
फिर हम नाव
में ही बैठे
रह जाएंगे, तो नाव की भी
मेहनत व्यर्थ
गई। हमें इस
पार तो ले आई, लेकिन हम
किनारे उतर
नहीं सकते, नाव को पकड़े
हुए हैं।
बुद्ध
कहते थे कि एक
बार कुछ नासमझ, या समझें
बड़े समझदार, नदी पार किए।
तो जिस नाव
में उन्होंने
नदी पार की, उतरकर
किनारे पर उन
सब ने सोचा कि
इस नाव की बड़ी
कृपा है और इस
नाव को हम
कैसे छोड़ सकते
हैं! तो दो ही
उपाय हैं, या
तो हम नाव में
ही बैठे रहें,
और या फिर
नाव को हम
अपने कंधों पर
ले लें, अपने
सिर पर रख लें
और यात्रा आगे
चले। तो
उन्होंने नाव
को अपने सिर
पर उठा लिया।
फिर जब
वे गांव से
निकलते थे, गांव के
लोग बहुत
हैरान हुए।
उन्होंने
पूछा कि यह
तुम क्या कर
रहे हो? हमने
कभी नाव को
लोगों के सिर
पर नहीं देखा!
तो उन्होंने
कहा कि तुम
अकृतश लोग हो।
तुम्हें पता
नहीं, इस
नाव की कितनी
अनुकंपा है।
इसने ही हमें
नदी पार करवाई।
अब कुछ भी हो
जाए, हम इस
नाव को नहीं
छोड़ सकते। अब
हम इसको सिर
पर लेकर
चलेंगे।
जिस
नाव ने नदी
पार करवाई, वह नाव
अगर सिर पर
सवार हो जाए, तो बड़ा
खतरनाक हो गया
काम। रुग्ण हो
गई बात। अब ये
और कहीं पहुंच
ही नहीं सकते,
सिर्फ नाव
को ही ढोते
रहेंगे। अब यह
उस तरफ जाना भी
बेकार हो गया।
उससे तो अच्छा
था कि पहले ही
किनारे पर
रहते। कम से
कम मुक्त तो
थे। यह सिर पर
बंधी हुई नाव
तो न थी। अब ये
सदा के लिए
गुलाम हो गए।
अधार्मिक
आदमी उस तरफ
है किनारे पर।
और तथाकथित
धार्मिक, जो पकड़ लेते
हैं धर्मों की
नावों को
पागलपन से, वे भी कहीं नहीं
पहुंचते।
आखिरी पड़ाव पर
तो सभी कुछ
छोड़ देना पड़ता
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, चेतनता
भी क्षेत्र, और धृति, ध्यान,
धारणा भी।
तुम उसे भी
छोड़ देना।
जब हम
ध्यान करते
हैं, तो
उसका अर्थ ही
होता है कि हम
किसी चीज का
ध्यान कर रहे
हैं। जब हम
ध्यान करते
हैं, तो
उसका अर्थ ही
होता है कि हम
कुछ कर रहे
हैं। जब हम
ध्यान करते
हैं, तो
उसका अर्थ ही
होता है कि हम
अभी उस भीतर
के मंदिर में
नहीं पहुंचे;
अभी हम बाहर
संघर्ष कर रहे
हैं, सीढ़ियां
चढ़ रहे हैं।
जिस
दिन कोई भीतर
के मंदिर में
पहुंचता है, ध्यान
करने की भी
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
क्या
आवश्यकता है
ध्यान की? जब
बीमारी छूट गई,
तो औषधि को
रखकर कौन चलता
है? और अगर
कोई औषधि को
रखकर चलता हो,
तो समझना कि
बीमारी भला
छूट गई, अब
औषधि बीमारी
हो गई। अब ये
औषधि को ढो
रहे हैं। पहले
ये बीमारी से
परेशान थे, अब ये औषधि
से परेशान हैं।
मैं एक संत के
आश्रम में
मेहमान था।
उनके भक्त
कहते थे कि वे
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं। जब भक्त
कहते थे, तो
मैंने कहा कि
जरूर हो गए
होंगे। अच्छा
ही है। कोई
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो जाए,
इससे अच्छा
कुछ भी नहीं
है।
लेकिन
सुबह मैंने
देखा, पूजा—पाठ
में वे लगे
हैं। तो दोपहर
मैंने उनसे
पूछा कि अगर
आप पूजा—पाठ
छोड़ दें, तो
कुछ हर्ज है? तो उन्होंने
कहा, आप भी
कैसी
नास्तिकता की
बात कर रहे
हैं! पूजा—पाठ,
और मैं छोड़
दूं! अगर पूजा—पाठ
छोड़ दूं तो सब
नष्ट ही हो
जाएगा।
तो
पूजा—पाठ
छोड़ने से अगर
सब नष्ट हो
जाएगा, तो फिर कुछ
मिला नहीं है।
तब तो यह पूजा—पाठ
पर ही निर्भर
है सब कुछ। तब
कोई ऐसी संपदा
नहीं मिली, जो छीनी न जा
सके। पूजा—पाठ
बंद होने से
छिन जाएगी, अगर यह भय है,
तो अभी कुछ
मिला नहीं है।
अगर नाव छिनने
से डर लगता हो,
तो आप अभी
उस किनारे पर
नहीं पहुंचे।
अगर उस किनारे
पर पहुंच गए
हों, तो आप
कहेंगे कि ठीक
है। अब नाव की
क्या जरूरत
है! कोई भी ले
जाए।
अगर आप
दवा की बोतल
जोर से पकड़ते
हों और कहते हों, मैं
स्वस्थ तो हो
गया, लेकिन
अगर दवा मुझसे
छीनी गई, तो
मैं फिर बीमार
हो जाऊंगा, तो समझना
चाहिए कि अभी
आप बीमार ही
हैं। और
बीमारी ने
सिर्फ एक नया
रूप ले लिया।
अब बीमारी का
नाम औषधि है।
कई लोग
बीमारी से छूट
जाते हैं, डाक्टरों
से जकड़ जाते
हैं। कई लोग
संसार छोड़ते
हैं, संन्यास
से जकड़ जाते
हैं। कई लोग
पत्नी को
छोड़ते हैं, पति को
छोड़ते हैं, फिर गुरु से
पकड़ जाते हैं।
लेकिन पकड़
नहीं जाती।
कहीं न कहीं
पकड़ जारी रहती
है।
जब सभी
पकड़ चली जाती
है, तभी
परमात्मा
उपलब्ध होता
है। जब तक हम
कुछ भी पकड़ते
हैं, तब तक
हम अपने और
उसके बीच
फासला पैदा
किए हुए हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं, न तो
चेतनता, न
धृति।
तुम्हारी
धृति भी
क्षेत्र है।
तुम्हारा
ध्यान, तुम्हारी
धारणा, तुम्हारा
योग, सभी
क्षेत्र है।
बड़ी क्रांतिकारी
बात है। लेकिन
हम गीता पढ़ते
रहते हैं, हमें कभी
खयाल नहीं आता
कि कोई क्रांति
छिपी होगी यहां।
हम पढ़ जाते
हैं मुर्दे की
तरह। हमें
खयाल में भी
नहीं आता कि
कृष्ण क्या कह
रहे हैं।
अगर
पश्चिम का
मनोविज्ञान
भारतीय पढ़ते
हैं, तो
उनको लगता है
कि वे गलत बात
कह रहे हैं।
चेतना कैसे
वस्तुओं से
बंध सकती है? अगर चेतना
वस्तुओं से
बंधी है, तो
फिर ध्यान
कैसे होगा? लेकिन कृष्ण
खुद कह रहे
हैं कि चेतनता
भी शरीर का ही
हिस्सा है।
इसके पार एक और
ही तरह का
चैतन्य है, जो किसी पर
निर्भर नहीं
है, अनकंडीशनल,
बेशर्त, अकारण।
लेकिन उसे
पाने के लिए
इस चेतनता को
भी छोड़ देना
पड़ता है।
परम
गुरु के पास
पहुंचना हो, तो गुरु
को भी छोड़
देना पड़ता है।
जहां सब साधन
छूट जाते हैं,
वहीं साध्य
है।
ये सभी
पंच महाभूत, यह शरीर,
अहंकार, मन,
इंद्रियां,
इंद्रियों
के विषय, रस,
रूप, चेतनता,
धृति, ये
सभी विकार
सहित।
इन सब
में विकार है।
ये सभी दूषित
हैं। इनमें
कुछ भी
कुंवारा नहीं
है। क्यों? विकार का
एक ही अर्थ है
गहन अध्यात्म
में, जो
अपने विपरीत
के बिना नहीं
हो सकता, वह
विकारग्रस्त
है। इस
परिभाषा को
ठीक से खयाल
में ले लें।
क्योंकि बहुत
बार आगे काम
पडेगी।
जो अपने
विपरीत के
बिना नहीं हो
सकता, वह
विकारग्रस्त
है। क्योंकि
जो .विपरीत के
बिना नहीं हो
सकता, उसमें
विपरीत मौजूद
है।
समझिए, आप किसी
को प्रेम करते
हैं। आपके
प्रेम में, जिसको आप
प्रेम करते
हैं, उसके
प्रति घृणा भी
है या नहीं, इसकी जरा
खोज करें। अगर
घृणा है, तो
यह प्रेम
विकारग्रस्त
है। और अगर
घृणा नहीं है,
तो यह प्रेम
विकार के बाहर
हो जाएगा।
लेकिन
फ्रायड कहता
है, हमारे
सभी प्रेम में
घृणा है।
जिसको हम
प्रेम करते
हैं, उसी
को घृणा भी
करते हैं।
इसलिए ऐसा
प्रेमी खोजना
कठिन है जो
कभी अपनी प्रेयसी
के मरने की
बात न सोचता
हो। ऐसी
प्रेयसी
खोजनी कठिन है
जो कभी सपना न
देखती हो कि
उसका प्रेमी
मर गया, मार
डाला गया।
हालांकि सपना
देखकर सुबह
बहुत रोती है
कि बहुत बुरा
सपना देखा।
लेकिन सपना
आपका ही है, किसी और का
नहीं है। देखा,
तो उसका
मतलब है कि
भीतर चाह है।
आप
जिसको प्रेम
करते हैं, अगर थोडी
समझ का उपयोग
करेंगे, तो
पाएंगे, आपके
मन में उसी के
प्रति घृणा भी
है। इसीलिए तो
सुबह प्रेम
करते हैं, दोपहर
लड़ते हैं।
सांझ प्रेम
करते हैं, सुबह
फिर कलह करते
हैं।
ऐसे
प्रेमी खोजना
कठिन हैं जो
कलह न करते
हों। ऐसे पति—पत्नी
खोजने कठिन
हैं जिनमें
झगड़ा न होता
हो। और अगर
पति—पत्नी में
झगड़ा न होता
हो, तो
पति—पत्नी
दोनों को शक
हो जाएगा कि
लगता है, प्रेम
विदा हो गया।
भारत
के गांव में
तो स्त्रियां
यह मानती ही
हैं कि जिस
दिन पति मार—पीट
बंद कर देता
है, वे
समझ लेती हैं,
वह किसी और
स्त्री में
उत्सुक हो गया
है। साफ ही है,
जाहिर ही यह
बात है कि अब
उसका कोई रस
नहीं रहा।
इतना भी रस
नहीं रहा कि
झगड़ा करे।
इतनी
उदासीनता हो
गई है।
पति—पत्नी
जब तक झगड़ते
रहते हैं, तभी तक आप
समझना कि
प्रेम है। जिस
दिन झगड़ा बंद,
तो आप यह मत
समझना कि
प्रेम इतनी
ऊंचाई पर पहुंच
गया है। इतनी
ऊंचाई पर नहीं
पहुंचता। बात
ही खतम हो गई।
अब झगड़ा करने
में भी कोई रस
नहीं है। अब
ठीक है, एक—दूसरे
को सह लेते
हैं। अब ठीक
है, एक—दूसरे
से बचकर निकल
जाते हैं। अब
इतना भी मूल्य
नहीं है एक—दूसरे
का कि लड़े। जब
तक झगड़ा जारी
रहता है, तब
तक वह दूसरा
पहलू भी जारी
रहता है। लड़
लेते हैं, फिर
प्रेम कर लेते
हैं।
सच तो
यह है कि अगर
हम ठीक से
समझें, तो हमारा
प्रेम वैसा ही
है, जैसे
श्वास है। आप
श्वास लेते ही
चले जाएं और
छोड़े न, तो
मर जाएंगे।
छोड़नी भी
पड़ेगी श्वास,
तभी आप ले
सकेंगे।
खाना
और भूख! भूख
लगेगी, तो भोजन
करेंगे। भूख
नहीं लगेगी, तो भोजन
कैसे करेंगे?
तो भूख
जरूरी है भोजन
के लिए। फिर
भोजन जरूरी है
कि अगले दिन
की भूख लग सके,
इसके लायक
आप बच सकें।
नहीं तो
बचेंगे कैसे?
बड़े
मजे की बात है, भोजन
करना हो तो
भूख जरूरी है।
और भूख लगानी
हो तो भोजन
जरूरी है। ठीक
वैसे ही अगर
प्रेम करना हो
तो बीच—बीच
में घृणा का
वक्त चाहिए, तब भूख लगती
है। फिर प्रेम
कर लेते हैं।
श्वास बाहर
निकल गई, फिर
भीतर ले लेते
हैं।
हमारी
सब चीजें
विपरीत से
जुड़ी हैं।
हमारे प्राण में
भी मौत छिपी
है। हमारे
भोजन में भी
भूख छिपी है।
हमारे प्रेम
में घृणा है।
हमारे जन्म
में मृत्यु
जुड़ी है।
जहां
विपरीत के
बिना कोई
अस्तित्व
नहीं होता, वहा
विकार है। और
उस अस्तित्व
को हम
विकाररहित
कहते हैं, जहां
विपरीत की कोई
भी जरूरत नहीं
है; जहां
कोई चीज अपने
में ही हो
सकती है, विपरीत
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। बिना
विपरीत के जहां
कुछ होता है, वहां
कुंवारापन, वहां
पवित्रता, वहा
निर्दोष घटना
घटती है।
इसलिए हम
क्राइस्ट के
प्रेम को, कृष्ण
के प्रेम को
पवित्र कह
सकते हैं।
क्योंकि
उसमें घृणा
नहीं है; उसमें
घृणा का कोई
तत्व नहीं है।
लेकिन
अगर आपको
कृष्ण प्रेम
करने को मिल
जाएं, तो
आपको उनके
प्रेम में मजा
नहीं आएगा।
क्योंकि आपको
लगेगा ही नहीं,
पक्का पता
ही नहीं चलेगा
कि यह आदमी
प्रेम करता भी
है कि नहीं।
क्योंकि वह
घृणा वाला
हिस्सा मौजूद
नहीं है। वह
विपरीत मौजूद
नहीं है। तो
आपको पता भी
नहीं चलेगा।
अगर
बुद्ध आपको
प्रेम करें, तो आपको
कोई रस नहीं
आएगा ज्यादा।
क्योंकि
बुद्ध का
प्रेम बहुत
ठंडा मालूम
पड़ेगा; उसमें
कोई गरमी नहीं
दिखाई पड़ेगी।
वह गरमी तो
घृणा से आती
है। गरमी
विपरीत से आती
है। गरमी कलह
से आती है।
गरमी संघर्षण
से आती है। वह
संघर्षण वहा
नहीं है।
इस बात
को खयाल में
ले लेंगे कि
विपरीत की मौजूदगी
जिसके लिए
जरूरी है, वह विकार
है। इसलिए
कृष्ण चेतनता
को भी विकार
कहते हैं।
क्योंकि उसके
लिए कोई चाहिए
दूसरा, उसके
बिना चेतना
नहीं हो सकती।
इसलिए, आपको
खयाल में है, अगर आप एक दस
दिन के लिए
काश्मीर चले
जाते हैं, तो
आपको अच्छा
लगता है।
क्यों? क्योंकि
काश्मीर में
सब नया है और
आपको ज्यादा
चेतन होना
पड़ता है। बंबई
में जिस
रास्ते से आप
रोज निकलते
हैं, वहां
जिंदगीभर से
निकल रहे हैं,
वहां आपको
चेतन होने की
जरूरत ही नहीं
है। वहां से
आप मूर्च्छित,
सोए हुए
निकल जाते हैं।
वृक्ष होगा, होगा। वह आप
देखते नहीं।
पास से लोग
निकल रहे हैं,
वह आप देखते
नहीं।
लेकिन
आप दस दिन के
लिए छुट्टी पर
काश्मीर जाते
हैं। सब नया
है। नए पदार्थ, नए
आब्जेक्ट, नए
विषय, आपको
चेतन होना
पड़ता है; जरा
रीढ़ सीधी करके,
आंख खोलकर
गौर से देखना
पड़ता है।
लेकिन एक—दो
दिन बाद फिर
आप वैसे ही
ढीले पड़
जाएंगे।
क्योंकि वे ही
चीजें फिर बार—बार
क्या देखनी!
तो
काश्मीर में
जो आदमी रह
रहा है, डल झील में
जो आपकी नाव
को चलाएगा, वह उतना ही
ऊबा हुआ है डल
झील से, जितना
आप बंबई से
ऊबे हुए हैं।
वह भी बड़ी
योजनाएं बना
रहा है कि कब
मौका हाथ लगे
और बंबई जाकर
छुट्टियों
में घूम आए।
उसको भी बंबई
में इतना ही
मजा आएगा, जितना
आपको डल झील
पर आ रहा है।
और दस दिन आप
भी डल झील पर
रह गए, तो
आप वैसे ही डल
हो जाएंगे
जैसे बंबई में
थे। कोई फर्क
नहीं रहेगा।
चेतनता खो
जाएगी।
इसलिए
चेतना के लिए
हमें रोज नई
चीजों की जरूरत
पड़ती है; नई चीजों की
रोज जरूरत
पड़ती है। वही
भोजन रोज करने
पर चेतना खो
जाती है, बेहोशी
आ जाती है, मूर्च्छा
हो जाती है।
वही
पत्नी रोज—रोज
देखकर
मूर्च्छा आने
लगती है; तो फिल्म
जाकर एक फिल्म
स्टार को देख
आते हैं।
रास्ते पर
स्त्रियों को
झांककर देख
लेते हैं। लोग
नंगी
तस्वीरें
देखते रहते
हैं बैठकर स्वात
में। उन पर
ध्यान करते
रहते हैं।
उससे थोड़ी
चेतनता आ जाती
है, थोड़ा
एक्साइटमेंट
आता है। लौटकर
घर की पत्नी
भी थोड़ी—सी नई
मालूम पड़ती है,
थोड़ी आंख की
धूल गिर गई
होती है।
नया
विषय चाहिए।
अगर आपको सभी
विषय पुराने
मिल जाएं, और वहा
कुछ भी नया न
घटित होता हो,
तो आप बेहोश
हो जाएंगे, आप
मूर्च्छित हो
जाएंगे।
इस पर
पश्चिम में
बहुत प्रयोग
होते हैं। इस
प्रयोग को वे
सेंस
डिप्राइवेशन
कहते हैं। एक
आदमी को एक
ऐसी जगह बंद
कर देते हैं, जहां कोई
भी घटना न
घटती हो। स्वर—शून्य,
साउंड—प्रूफ, गहन अंधकार,
आंखों पर
पट्टियां, हाथ
पर सब इस तरह
के कपड़े कि वह
अपने को भी न
छू सके। सब
हाथ—पैर बंधे
हुए। भोजन भी
इंजेक्शन से
पहुंच जाएगा।
उसको भोजन भी
नहीं करना है।
छत्तीस घंटे
में ही आदमी
बेहोश हो जाता
है, वह भी
बहुत सजग आदमी।
नहीं तो छ:
घंटे में आदमी
बेहोश हो जाता
है। छ: घंटे
कोई संवेदना
नहीं, कोई
सेंसेशन नहीं,
तो आदमी
बेहोश होने
लगता है। क्या
करेगा? होश
खोने लगता है।
बहुत
होश रखने वाला
आदमी, छत्तीस
घंटे में वह
भी बेहोश हो
जाता है।
क्योंकि करोगे
क्या! होश
रखने को कुछ
भी तो नहीं है।
न कोई आवाज
होती, न
कोई ट्रैफिक
का शोरगुल
होता, न
कोई रेडियो
बजता, न
कोई घटना घटती।
कुछ भी नहीं
हो रहा है। तो
आप धीरे— धीरे,
धीरे— धीरे
इस न होने की
अवस्था में
बेहोश हो
जाएंगे।
कृष्ण कहते
हैं, ऐसी
चेतना भी, जो
किसी चीज पर
निर्भर है, वह भी
विकारग्रस्त
है। ऐसा ध्यान
भी, जो
किसी पर
निर्भर है, वैसा ध्यान
भी
विकारग्रस्त
है। और जब इस
सारे क्षेत्र
के पार कोई हो
जाता है, तो
क्षेत्रज्ञ
का अनुभव होता
है।
पांच
मिनट रुकेंगे।
कोई भी उठे
नहीं। कोई भी
एक व्यक्ति
बीच से उठता
है, तो
अड़चन होती है।
पांच मिनट
कीर्तन में
भाग लें।
कीर्तन के
पूरे होने पर
जाएं।
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