'मैं कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966 — 67
यह क्या देख
रहा हूं? यह कैसी
निराशा
तुम्हारी आंखों
में है? और
क्या तुम्हें
शात नहीं है
कि जब आंखें
निराश होती
हैं, तब
हृदय की वह
अग्रि बुझ
जाती है और वे
सारी अभीप्साएं
सो जाती हैं, जिनके कारण मनुष्य
मनुष्य है।
निराशा
पाप है, क्योंकि
जीवन उसकी
धारा में निश्चय
ही ऊर्ध्वगमन
खो देता है।
निराशा
पाप ही नहीं, आत्मघात
भी है क्योंकि
जो श्रेष्ठतर
जीवन को पाने
में संलग्न
नहीं है, उसके
चरण अनायास ही
मृत्यु की ओर
बढ़ जाते हैं।
यह
शाश्वत नियम
है कि जो ऊपर
नहीं उठता, वह नीचे
गिर जाता है, और जो आगे
नहीं बढ़ता, वह पीछे
धकेल दिया
जाता है।
मैं जब
किसी को पतन
में जाते
देखता हूं तो
जानता हूं कि
उसने पर्वत शिखरों
की ओर उठना बंद
कर दिया होगा।
पतन की
प्रक्रिया
विधेयात्मक
नहीं है।
घाटियों में
जाना, पर्वतों
पर न जाने का
ही दूसरा पहलू
है। वह उसकी
ही निषेध छाया
है।
और जब
तुम्हारी आंखों
में मैं
निराशा देखता
हूं तो
स्वाभाविक ही
है कि मेरा
हृदय प्रेम, पीड़ा और
करुणा से भर
जाए, क्योंकि
निराशा
मृत्यु की
घाटियों में
उतरने का
प्रारंभ है।
आशा
सूर्यमुखी के
फूलों की
भांति सूर्य
की ओर देखती
है, और
निराशा? —वह
अंधकार से एक
हो जाती है।
जो निराश हो
जाता है, वह
अपनी
अंतर्निहित
विराट शक्ति
के प्रति सो जाता
है, और उसे
विस्मृत कर
देता है जो वह
है, और जो
वह हो सकता है।
बीज
जैसे भूल जाए
कि उसे क्या
होना है और
मिट्टी के साथ
ही एक होकर
पड़ा रह जाए, ऐसा ही वह
मनुष्य है जो
निराशा में
डूब जाता है।
और आज
तो सभी निराशा
में डूबे हुए
हैं!
नीत्से
ने कहा है— 'परमात्मा
मर गया है।’ यह समाचार
उतना दुखद
नहीं है जितना
कि आशा का मर
जाना, क्योंकि
आशा हो तो
परमात्मा को
पा लेना कठिन
नहीं है और यदि
आशा न हो तो
परमात्मा के
होने से कोई
भेद नहीं पड़ता।
आशा का आकर्षण
ही मनुष्य को
अज्ञात की
यात्रा पर ले
जाता है। आशा
ही प्रेरणा है
जो उसकी सोई
शक्तियों को जगाती
है और उसकी
निष्क्रिय
चेतना को
सक्रिय करती
है।
क्या
मैं कहूं कि
आशा की भावदशा
ही आस्तिकता है?
और यह
भी—कि आशा ही
समस्त जीवन—आरोहण
का मूल उत्स
और प्राण है?
पर आशा
कहां है? मैं
तुम्हारे
प्राणों में
खोजता हूं तो
वहां निराशा
की राख के
सिवाय और कुछ
भी नहीं मिलता।
आशा के अंगारे
न हों तो तुम
जीओगे कैसे? निश्चय ही
तुम्हारा यह
जीवन इतना
बुझा हुआ है
कि मैं इसे
जीवन भी कहने
में असमर्थ
हूं!
मुझे
आज्ञा दो कि
मैं कहूं कि
तुम मर गए हो!
असल में तुम
कभी जिए ही
नहीं, तुम्हारा
जन्म तो जरूर
हुआ था लेकिन
वह जीवन तक
नहीं पहुंच
सका! जन्म ही
जीवन नहीं है।
जन्म मिलता है,
जीवन पाना
होता है।
इसलिए जन्म
मृत्यु में ही
छीन भी लिया
जाता है।
लेकिन जीवन को
कोई भी मृत्यु
नहीं छीन पाती
है। जीवन जन्म
नहीं है और
इसलिए जीवन
मृत्यु भी नहीं
है।
जीवन
जन्म के भी
पूर्व है और
मृत्यु के भी
अतीत है। जो
उसे जानता है
वही केवल भयों
और दुखों के
ऊपर उठ पाता
है।
किंतु
जो निराशा से
घिरे हैं, वे उसे
कैसे जानेंगे?
वे तो जन्म
और मृत्यु के
तनाव में ही
समाप्त हो
जाते हैं!
जीवन
एक संभावना है
और उसे सत्य
में परिणित करने
के लिए साधना
चाहिए।
निराशा में
साधना का जन्म
नहीं होता
क्योंकि
निराशा तो
बांझ है और
उसमें कभी भी
किसी का जन्म
नहीं होता है।
इसीलिए मैंने
कहा कि निराशा
आत्मघाती है
क्योंकि उससे
किसी भी भांति
की सृजनात्मक
शक्ति का
आविर्भाव
नहीं होता है।
मैं
कहता हूं—उठो
और निराशा को
फेंक दो! उसे
तुम अपने ही
हाथों से ओढ़े
बैठे हो। उसे
फेंकने के लिए
और कुछ भी
नहीं करना है
सिवाय इसके कि
तुम उसे
फेंकने को
राजी हो जाओ।
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई उसके लिए
जिम्मेदार
नहीं है।
मनुष्य
जैसा भाव करता
है, वैसा
ही हो जाता है।
उसके ही भाव
उसका सृजन
करते हैं। वही
अपना भाग्य—विधाता
है।
विचार—विचार—विचार.
और उनका सतत
आवर्त्तन ही
अंततः वस्तुओं
और स्थितियों में
घनीभूत हो
जाता है।
स्मरण
रहे कि तुम जो
भी हो तुमने
ही अनंत बार चाहा
है, विचारा
है और उसकी
भावना की है।
देखो, स्मृति
में खोजो तो निश्चय
ही जो मैं कह
रहा हूं उस
सत्य के
तुम्हें दर्शन
होंगे। और जब
यह सत्य
तुम्हें
दिखेगा तो तुम
स्वयं के आत्म—परिवर्तन
की कुंजी को
पा जाओगे।
अपने ही
द्वारा ओढ़े
भावों और
विचारों को
उतारकर अलग कर
देना कठिन
नहीं होता है।
वस्त्रों को
उतारने में भी
जितनी कठिनता
होती है उतनी भी
उन्हें
उतारने में
नहीं होती है,
क्योंकि वे
तो हैं भी
नहीं—सिवाय
तुम्हारे
खयाल के उनकी
कहीं भी कोई
सत्ता नहीं है।
हम
अपने ही भावों
में, अपने
ही हाथों से
कैद हो जाते
हैं, अन्यथा
वह जो हमारे
भीतर है, सदा,
सदैव ही
स्वतंत्र है।
क्या
निराशा से बड़ी
और कोई कैद है? —नहीं!
क्योंकि
पत्थरों की
दीवारें जो
नहीं कर सकतीं,
वह निराशा
करती है।
दीवारों को
तोड़ना संभव है,
लेकिन
निराशा तो
मुक्त होने की
आकांक्षा को
ही खो देती है।
निराशा
से मजबूत
जंजीरें भी
नहीं हैं, क्योंकि
लोहे की
जंजीरें तो
मात्र शरीर को
ही बांधती हैं,
निराशा तो
आत्मा को भी
बांध लेती है।
निराशा की इन
जंजीरों को
तोड़ दो!
उन्हें तोड़ा जा
सकता है, इसीलिए
ही मैं तोड्ने
को कह रहा हूं।
उनकी सत्ता
स्वप्न—सत्ता
मात्र है।
उन्हें
तोड्ने के
संकल्प—मात्र
से ही वे टूट
जाएंगी। जैसे
दीये के जलते
ही अंधकार टूट
जाता है, वैसे
ही संकल्प के
जागते ही
स्वप्न टूट
जाते हैं।
और, फिर
निराशा के
खंडित होते ही
जो आलोक चेतना
को घेर लेता
है, उसका
ही नाम आशा है।
निराशा
स्वयं आरोपित
दशा है। आशा
स्वभाव है, स्वरूप
है।
निराशा
मानसिक आवरण
है—आशा आत्मिक
आविर्भाव।
मैं कह रहा
हूं कि आशा
स्वभाव है—क्यों? क्योंकि
यदि ऐसा न हो
तो जीवन—विकास
की ओर सतत गति
और आरोहण की
कोई संभावना न
रह जाए। बीज
अंकुर बनने को
तड़पता है, क्योंकि
कहीं उसके
प्राणों के
किसी अंतरस्थ केंद्र
पर आशा का
आवास है। सभी
प्राण
अंकुरित होना
चाहते हैं और
जो भी है वह
विकसित और
पूर्ण होना
चाहता है।
अपूर्ण को
पूर्ण के लिए
अभीप्सा आशा
के अभाव में
कैसे हो सकती
है? और
पदार्थ की
परमात्मा की
ओर यात्रा
क्या आशा के
बिना संभव है?
मैं
नदियों को
सागर की ओर
दौड़ते देखता
हूं तो मुझे
उनके प्राणों
में आशा का
संचार दिखाई
पड़ता है। और, जब मैं
अग्रि को
सूर्य की ओर
उठते देखता
हूं तब भी उन
लपटों में
छिपी आशा के
मुझे दर्शन
होते हैं।
और
क्या यह ज्ञात
नहीं है कि
छोटे—छोटे
बच्चों की आंखों
में आशा के
दीप जलते हैं? — और
पशुओं की आंखों
में भी और
पक्षियों के
गीतों में भी?
जो भी
जीवित है, वह आशा से
जीवित है और
जो भी मृत है, वह निराशा
से मृत है।
यदि हम
छोटे बच्चों
को देखें
जिन्हें अभी
समाज, शिक्षा
और सभ्यता ने
विकृत नहीं
किया है, तो
बहुत से जीवन—सूत्र
हमें दिखाई
पड़ेंगे। सबसे
पहली बात
दिखाई पड़ेगी—
आशा, दूसरी
बात—जिज्ञासा,
और तीसरी
बात—श्रद्धा। निश्चय
ही ये गुण
स्वाभाविक
हैं।
उन्हें
अर्जित नहीं
करना होता है।
हां, हम
चाहें तो
उन्हें खो
अवश्य सकते
हैं। फिर भी
हम उन्हें
बिलकुल ही
नहीं खो सकते
है क्योंकि जो
स्वभाव है वह
नष्ट नहीं
होता। स्वभाव
केवल
आच्छादित ही
हो सकता है, विनष्ट नहीं।
और जो
स्वभाव नहीं
है, वह
भी केवल
वस्त्र ही बन
सकता है, अंतस
कभी नहीं।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
वस्त्रों को
अलग करो और
उसे देखो जो
तुम स्वयं हो।
सब वस्त्र
बंधन हैं और
निक्ष्चय ही
परमात्मा
निर्वस्त्र
है।
क्या
अच्छा न हो कि
तुम भी
निर्वस्त्र
हो जाओ? मैं उन
वस्रों की बात
नहीं कर रहा
हूं जो कपास के
धागों से बनते
हैं। उन्हें
छोड्कर तो
बहुत से
व्यक्ति
निर्वस्त्र
हो जाते हैं
और फिर भी वही
बने रहते हैं
जो वे वस्त्रों
में थे—कपास
में थे। कपास
के कमजोर धागे
नहीं, निषेधात्मक
भावनाओं की
लौह
श्रृंखलाएं
तुम्हारे
बंधन हैं।
उन्हें जो
छोड़ता है वही
उस निर्दोष
नग्नता को
उपलब्ध होता
है जिसकी ओर
महावीर ने
इशारा किया है।
सत्य
को पाने को, स्वयं को
जानने को, स्वरूप
में प्रतिष्ठित
होने को—सब
वस्रों को छोड़
नग्न हो जाना
आवश्यक है।
और
निराशा के
वस्त्र सबसे
पहले छोड़ने
होंगे क्योंकि
उसके बाद ही
दूसरे वस्त्र
छोडे जा सकते
है।
परमात्मा
की उपलब्धि के
पूर्व यदि
तुम्हारे चरण
कहीं भी रुके
तो जानना कि
निराशा का विष
कहीं न' कहीं
तुम्हारे भीतर
बना ही हुआ है।
उससे ही
प्रमाद और
आलस्य उत्पन्न
होता है।
संसार
में विश्राम
के स्थलों को
ही प्रभाववश गंतव्य
समझने की भूल
हो जाती है।
परमात्मा के
पूर्व और
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कोई गंतव्य
नहीं है। इसे
अपनी समग्र
आत्मा को कहने
दो। कहने दो
कि परमात्मा
के अतिरिक्त
और कोई चरम
विश्राम नहीं, क्योंकि
परमात्मा में
ही पूर्णता है।
परमात्मा
के पूर्व जो
रुकता है, वह स्वयं
का अपमान करता
है क्योंकि वह
जो हो सकता था,
उसके पूर्व
ही ठहर गया
होता है।
संकल्प
और साध्य
जितना ऊंचा हो, उतनी ही
गहराई तक
स्वयं की सोई
शक्तियां
जागती हैं।
साध्य की
ऊंचाई ही
तुम्हारी
शक्ति का
परिणाम है।
आकाश को छूते
वृक्षों को
देखो! उनकी
जड़ें अवश्य ही
पाताल को छूती
होंगी। तुम भी
यदि आकाश छूने
की आशा और
आकांक्षा से आंदोलित
हो जाओगे तो निश्चय
ही जानो कि
तुम्हारे
गहरे से गहरे
प्राणों में
सोई हुई
शक्तियां जाग
जाएंगी।
जितनी
तुम्हारी
अभीप्सा की
ऊंचाई होती है,
उतनी ही
तुम्हारी
शक्ति की
गहराई भी होती
है।
क् की
आकांक्षा, चेतना को
क्षुद्र
बनाती है, तब
यदि मांगना ही
है तो
परमात्मा को
मांगों। वह जो
अन्ततः तुम
होना चाहोगे,
प्रारम्भ
से ही उसकी ही
तुम्हारी
मांग होनी चाहिए।
क्योंकि, प्रथम
ही अंतत:
अन्तिम
उपलब्धि बनता
है।
मैं
जानता हूं कि
तुम ऐसी
परिस्थितियों
में निरंतर ही
घिरे हो, जो प्रतिकूल
हैं और
परमात्मा की
ओर उठने से रोकती
हैं। लेकिन
ध्यान में
रखना कि जो
परमात्मा की
ओर उठे, वे
भी कभी ऐसी ही परिस्थितियों
से घिरे थे।
परिस्थितियों
का बहाना मत
लेना।
परिस्थितियां
नहीं, वह
बहाना ही असली
अवरोध बन जाता
है।
परिस्थितियां
कितनी ही
प्रतिकूल हों,
वे इतनी
प्रतिकूल कभी
भी नहीं हो
सकती हैं कि परमात्मा
के मार्ग में
बाधा बन
जावें!
वैसा
होना असम्भव
है। वह तो वैसा
ही होगा जैसे
कि कोई कहे कि
अंधेरा इतना
घना है कि
प्रकाश के
जलाने में
बाधा बन गया
है। अंधेरा
कभी इतना घना
नहीं होता और
न ही परिस्थितियां
इतनी
प्रतिकूल
होती हैं कि
वे प्रकाश के
आगमन में बाधा
बन सकें।
तुम्हारी
निराशा के
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। वस्तुत:
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
उसे
बहुत मूल्य
कभी मत दो, जो आज है
और कल नहीं
होगा। जिसमें
पल—पल
परिवर्तन है,
उसका मूल्य
ही क्या? परिस्थितियों
का प्रवाह तो
नदी की भांति
है। उसको देखो,
उस पर ध्यान
दो जो नदी की
धार में भी
अडिग चट्टान
की तरह स्थिर
है—वह कौन है? —वह तुम्हारी
चेतना है, वह
तुम्हारी
आत्मा है, वह
तुम अपने
वास्तविक
स्वरूप में
स्वयं हो!
सब बदल
जाता है—बस
वही
अपरिवर्तित
है। उस ध्रुव
बिन्दु को
पकड़ो और उस पर
ठहरो। लेकिन
तुम तो आंधियों
के साथ कांप
रहे हो और
लहरों के साथ
थरथरा रहे हो।
क्या वह शांत
और अडिग
चट्टान
तुम्हें नहीं
दिखायी पड़ती
है, जिस
पर तुम खड़े हो
और जो तुम हो? उसकी स्मृति
को लाओ। उसकी
ओर आंखें उठते
ही निराशा आशा
में परिणत हो
जाती है और अंधकार
अलोक बन जाता
है।
स्मरण
रखना कि जो
समग्र हृदय से, आशा और
आश्वासन से, शक्ति और
संकल्प से, प्रेम और
प्रार्थना से,
स्वयं की
सत्ता का
द्वार
खटखटाता है, वह कभी भी
असफल नहीं
लौटता है, क्योंकि
प्रभु के
मार्ग पर
असफलता है ही
नहीं। पाप के
मार्ग पर
सफलता असम्भव
और प्रभु के मार्ग
पर असफलता
असम्भव! पाप
के मार्ग पर
सफलता हो तो
समझना कि भ्रम
है और प्रभु
के मार्ग पर
असफलता हो तो
समझना कि
परीक्षा है।
वस्तुत:
प्रभु की
उपलब्धि का
द्वार कभी
बन्द ही नहीं
है। हम अपनी
ही निराशा में
अपनी ही आख
बन्द कर लेते
हैं, यह
बात दूसरी है।
निराशा को
हटाओ और देखो,
वह कौन
सामने खडा है?
क्या यही वह
सूर्य नहीं है
जिसकी खोज थी,
क्या यही वह
प्रिय नहीं है,
जिसकी
प्यास थी?
क्राइस्ट
ने कहा है, 'मांगो और
मिलेगा।
खटखटाओ और
द्वार खुल
जाएंगे।’ वही
मैं पुन: कहता
हूं। वही
क्राइस्ट के
पहले कहा गया
था, वही
मेरे बाद भी
कहा जाएगा।
धन्य हैं वे लोग
जो द्वार
खटखटाते हैं
और आश्चर्य है
उन लोगों पर
जो प्रभु के द्वार
पर ही खड़े हैं
और आख बन्द
किए हैं और रो
रहे हैं!
'मैं कौन
हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966—67
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