दिनांक 10 मई 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
प्रश्न—सार:
1—प्रत्येक
मनुष्य
समस्याओं से
भरा हुआ और
अप्रसन्न
क्यों है?
2—मैं
स्वप्न देखा
करती हूं कि
मैं उड रही
हूं क्या हो
रहा है?
3—आपके
प्रवचनोपरांत
उमंग, लेकिन
दर्शन के बाद
हताशा ऐसा
क्यों?
4—पूरब
में एक से
प्रेम संबंध, पश्चिम
में अनेक से, प्रेम पर
आपकी दृष्टि
क्या है?
पहला
प्रश्न:
प्रत्येक
मनुष्य समस्याओं
से भरा हुआ और
अप्रसन्न क्यों
है?
पहली
बात,
क्योंकि
मनुष्य
आत्यंतिक रूप
से प्रसन्न हो
सकता है, इसकी
संभावना है, इसीलिए उसकी
अप्रसन्नता
है। और अन्य
कोई भी—कोई
पशु, कोई
पक्षी, कोई
वृक्ष, कोई
चट्टान, इतनी
प्रसन्न नहीं
हो सकती जितना
प्रसन्न मनुष्य
हो सकता है।
यह संभावना, यह आत्यंतिक
संभावना कि
तुम प्रसन्न,
शाश्वत रूप
से प्रसन्न हो
सकते हो, कि
तुम आनंद के
पर्वत के शिखर
पर हो सकते हो,
अप्रसन्नता
निर्मित करती
है। और जब तुम
अपने चारों ओर
देखते हो कि
तुम बस एक घाटी
में हो, एक
अंधेरी घाटी
और तुम शिखर
के ऊपर हो
सकते हो : यह
तुलना, यह
संभावना, और
तुम्हारी
वर्तमान की
वास्तविकता, अप्रसन्नता
का कारण है।
यदि
तुम बुद्ध
होने के लिए
नहीं जन्मे
होते, तो जरा
सी भी
अप्रसन्नता
नहीं होती।
इसीलिए जो
व्यक्ति
जितना
ग्रहणशील
होता है वह
उतना ही
अप्रसन्न है।
व्यक्ति
जितना
संवेदनशील है
उतना ही
अप्रसन्न
होता है।
व्यक्ति
जितना अधिक
सजग है उतनी
अधिक उदासी उसको
अनुभव होती है,
उतना ही वह
इस संभावना को
और इस विरोधाभास
को कि कुछ हो
नहीं रहा है
और वह अटक गया
है, अधिक
अनुभव करता है।
मनुष्य
अप्रसन्न है, क्योंकि
मनुष्य
आत्यंतिक रूप
से प्रसन्न हो
सकता है। और
अप्रसन्नता
बुरी बात नहीं
है। यही वह
प्रेरक तत्व
है जो तुमको
शिखर पर लेकर जाएगा।
यदि तुम
अप्रसन्न
नहीं हो, तो
तुम चलोगे ही
नहीं। यदि तुम
अपनी अंधेरी
घाटी में
अप्रसन्न
नहीं हो, तो
तुम ऊपर पर्वत
पर आरोहण का
कोई प्रयास
क्यों करोगे?
जब तक कि
शिखर पर चमकता
हुआ सूर्य एक
चुनौती न बन
जाए, जब तक
कि शिखर का
होना ही वहां
पहुंचने की
दीवानगी भरी अभीप्सा
ही न बन जाए, जब तक. कि वह
चरम संभावना
तुमको खोज
लेने और पा लेने
के लिए न उकसा
दें—जटिल होने
जा रहा है यह
मामला। वे लोग
जो बहुत सजग, संवेदनशील
नहीं हैं, बहुत
अप्रसन्न
नहीं हैं।
क्या तुमने
कभी किसी मूढ़
को अप्रसन्न
देखा है? असंभव।
एक मूढ़
अप्रसन्न
नहीं हो सकता,
क्योंकि वह
उस संभावना के
प्रति, जिसको
वह अपने भीतर
लिए हुए है, सजग नहीं है।
तुम
इस बात के
प्रति सजग हो
कि तुम एक बीज
हो और वृक्ष
हो सकते हो।
बस यहीं पर है
यह। लक्ष्य
बहुत दूर नहीं
है,
यही तुमको
अप्रसन्न कर
देता है। शुभ
है यह संकेत।
गहनता से
अप्रसन्नता
को अनुभव करना
पहला कदम है।
निश्चित है कि
बुद्ध इस बात
को तुमसे अधिक
अनुभव करते
हैं। इसीलिए
उन्होंने
घाटी का त्याग
कर दिया और उन्होंने
ऊपर की ओर
चढूना आरंभ कर
दिया। छोटी—छोटी
बातें जो
प्रतिदिन
तुम्हारे
सामने आ जाती
हैं, उनके
लिए बड़ी
प्रेरणा बन
गईं। एक
व्यक्ति को
रुग्ण देखना,
एक वृद्ध
व्यक्ति को
उसकी लाठी टेक
कर चलता हुआ
देखना, एक
शव को देख
लेना उनके लिए
पर्याप्त था,
उसी रात
उन्होंने
अपना राजमहल
त्याग दिया।
वे उस अवस्था
के प्रति सजग
हो गए जहां वे
थे 'यही
मेरे साथ होने
जा रहा है। आज
नहीं तो कल
मैं भी रुग्ण,
वृद्ध और
मृत हो जाऊंगा,
अत: यहां
रहने में क्या
सार है? इससे
पूर्व कि यह
अवसर मुझसे
छीन लिया जाए
मुझे कुछ ऐसा
उपलब्ध कर
लेना चाहिए जो
शाश्वत है।’ उनके भीतर
शिखर पर
पहुंचने की तीव्र
अभिलाषा
जाग्रत हो गई।
उस शिखर को हम
परमात्मा
कहते हैं, उस
शिखर को हम
कैवल्य कहते
हैं, उस
शिखर' को
हम मोक्ष, निर्वाण
कहते हैं; किंतु
वह शिखर
तुम्हारे
भीतर एक बीज
की भांति है।
उसको प्रस्फुटित
होना पड़ेगा।
इसलिए अधिक
संवेदनशील
आत्मा वाले
व्यक्तियों
को अधिक दुख
होता है। मुढ़
को कोई दुख
नहीं होता, मूर्खों को
कोई पीड़ा नहीं
होती। थोड़ा धन
कमा कर, एक
छोटा सा मकान
बना कर वे
अपने सामान्य
जीवन में पहले
से ही प्रसन्न
हैं— पर्याप्त
हैं उनकी
उपलब्धियां।
केवल वही उनकी
कुल संभावना
है।
यदि
तुम सजग हो तो
लक्ष्य यह
नहीं हो सकता, यह
नियति नहीं हो
सकता, तब
तुम्हारे
अस्तित्व में
तीक्ष्ण
तलवार की
भांति एक
तीव्र संताप
का प्रवेश हो जाएगा।
यह तुम्हारे
अस्तित्व को
परम गहराई तक
भेद डालेगा।
तुम्हारे
हृदय से एक
दारुण
आर्तनाद
उठेगा और यह
एक नये जीवन
का, जीवन
की एक नई शैली
का) जीवन के एक
नये आधार का प्रारंभ
होगा।
इसलिए
जो पहली बात
मैं कहना
चाहता हूं वह
यह है, अप्रसन्न
अनुभव करना आनंदपूर्ण
है; अप्रसन्न
अनुभव करना एक
वरदान है। ऐसा
अनुभव न करना
मंदमति होना
है।
दूसरी
बात,
मनुष्य
पीड़ा में रहते
हैं; क्योंकि
वे अपने लिए
पीड़ा निर्मित
किए चले जाते
हैं।
इसलिए
पहली बात : इसे
समझ लो।
अप्रसन्न
होना शुभ है, किंतुमैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुमको अपनी
अप्रसन्नता
को और—और
निर्मित करते
चले जाना
चाहिए। मैं कह
रहा हूं यह
शुभ है, क्योंकि
यह तुमको इसके
पार जाने के
लिए उकसाती है।
लेकिन इसके
पार चले जाओ, वरना यह शुभ
नहीं है।
लोग
अपनी पीड़ा की
रूप—रेखा
निर्मित किए
चले जाते हैं।
इसका एक कारण
है,
मन
परिवर्तन का
विरोध करता है।
मन बहुत
रूढ़िवादी है।
यह पुराने
रास्ते पर
चलते रहना
चाहता है, क्योंकि
पुराना पथ
जाना—पहचाना
है। यदि तुम
हिंदू जन्मे
हो, तुम
हिंदू ही
मरोगे। यदि
तुम ईसाई
जन्मे हो, तुम
ईसाई ही मरोगे।
बदलते नहीं
हैं लोग। एक
विशिष्ट
विचारधारा
तुम्हारे
भीतर इस भांति
अंकित .है कि
तुम इसके
परिवर्तित
करने से भयभीत
हो जाते हो।
तुम इसकी पकड़
का अनुभव करते
हो, क्योंकि
इसके साथ
तुम्हारी जान—पहचान
है। कौन जाने
नया शायद उतना
अच्छा न हो
जितना पुराना
है। और पुराना
जाना हुआ है; तुम इससे
भलीभांति
परिचित हो। हो
सकता है कि यह
पीड़ापूर्ण हो,
लेकिन कम से
कम उससे परिचय
तो है।
प्रत्येक कदम
पर, जीवन
के प्रत्येक
क्षण में तुम
कुछ न कुछ
निर्णय लेते
रहते हो, भले
ही तुम इसे
जान पाओ या
नहीं। निर्णय
से तुम्हारा
हर क्षण आमना—सामना
होता रहता है—पुराने
रास्ते का, जिस पर तुम
अभी तक चलते
रहे हो, अनुगमन
करना है, या
नये का चुनाव
करना है।
प्रत्येक कदम
पर सड़क दो
भागों में बंट
जाती है। और
लोग दो प्रकार
के होते हैं।
वे जो
भलीभांति चला
हुआ रास्ता
चुन लेते हैं,
निःसंदेह
वे एक वर्तुल
में घूमते
रहते हैं। वे
जाने हुए को
चुन लेते हैं,
और जाना हुआ
एक वर्तुल है।
वे इसको पहले
से ही जान
चुके हैं। वे
अपना भविष्य
ठीक वैसा चुन
लेते हैं जैसा
उनका अतीत रहा
था। वे एक
वर्तुल में
चलते हैं। वे
अपने अतीत को
अपना भविष्य
बनाए चले जाते
हैं। कोई
विकास नहीं
होता है। वे
बस पुनरुक्ति
कर रहे हैं, वे रोबोट
जैसे, स्वचालित
यंत्र हैं।
फिर
दूसरे प्रकार
का व्यक्ति है, सजग
प्रकार का, जो कि सदैव
नये को चुनने
के प्रति
सतर्क रहता है।
हो सकता है कि
नया और पीड़ा
पैदा कर दे, हो सकता है
कि नया भटका
दे, लेकिन
कम से कम यह
नया तो है। यह
अतीत की एक
पुनरुक्ति
मात्र नहीं
होगी। नये में
सीखने की, विकास
की, तुम्हारी
संभावना को
साकार हो पाने
की, संभावना
होती है।
इसलिए
स्मरण रखो, जब
कभी भी चुनाव
करना हो, अनजाने
पथ को चुन लो।
लेकिन तुमको
ठीक इसका उलटा
सिखाया गया है।
तुमको सदैव
जाने हुए का
चुनाव करना
सिखाया गया है।
तुम्हें बहुत
चालाक और
होशियार होना
सिखाया गया है।
निःसंदेह
जाने हुए के
साथ सुविधाएं
हैं। पहली
सुविधा यह है
कि जाने हुए
के साथ तुम
अचेतन बने रह
सकते हो। वहां
पर चेतन होने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है। यदि
तुम उसी
रास्ते पर चल
रहे हो, तब
तुम करीब—करीब
सोए हुए, निद्रागामी
की भांति चल
सकते हो। यदि
तुम अपने
स्वयं के घर
वापस आ रहे हो
और प्रतिदिन
तुम उसी
रास्ते से आया
करते हो, तब
तुमको सजग
होने की
आवश्यकता
नहीं है; तुम
मात्र अचेतन
होकर आ सकते
हो। जब दाएं
मुड़ने का समय आता
है तुम मुड़
जाते हो; किसी
प्रकार की
सजगता रखने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
इसीलिए लोग
पुराने
रास्तों का
अनुगमन करना पसंद
करते हैं,' सजग
होने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। और
सजगता उपलब्ध
किए जाने वाली
कठिनतम चीजों में
से एक है। जब
भी तुम एक नई
दिशा में जा
रहे हो, तो
तुम को
प्रत्येक कदम
पर सजग होना
पड़ेगा।
नये
का चुनाव करो।
यह तुमको
सजगता प्रदान
करेगा, सुविधापूर्ण
नहीं होने जा
रहा है यह।
विकास कभी
सुविधापूर्ण
नहीं होता, विकास
कष्टप्रद
होता है। पीड़ा
के माध्यम से
विकास होता है।
तुम अग्नि से
होकर गुजरते
हो, किंतु
केवल तभी तुम
खरा सोना बनते
हो। फिर वह
सभी कुछ जो
स्वर्ण नहीं
है जल जाता है,
भस्मीभूत
हो जाता है।
केवल शुद्धतम
तुम्हारे
भीतर बचा रहता
है। तुमको
पुराने का
अनुगमन करना
सिखाया गया है,
क्योंकि
पुराने
रास्ते पर तुम
कम गलतियां कर
रहे होगे।
लेकिन तुम
आधारभूत गलती
कर लोगे, और
आधारभूत गलती
यह होगी कि
विकास केवल
तभी होता है
जब तुम नये के
लिए, नई
गलतियां करने
की संभावना के
साथ, उपलब्ध
रहते हो।
निःसंदेह
पुरानी
गलतियों को
बार—बार
दोहराने की
काई आवश्कता
नहीं है, बल्कि
नई गलतियों को
करने का साहस
और क्षमता जुटाओ—क्योंकि
प्रत्येक नई
गलती एक सीख
बन जाती है, सीखने की एक
परिस्थिति बन
जाती है।
प्रत्येक बार
जब तुम भटकते
हो तुमको वापस
घर लौटने का
रास्ता खोजना
पड़ता है। और
यह जाना और
आना, यह
लगातार भूल
जाना और याद
करना, तुम्हारे
अस्तित्व के
भीतर एक
समग्रता निर्मित
कर देता है।
सदैव
नये का चुनाव
करो,
भले ही यह
पुराने से
बुरा प्रतीत
होता हो। मैं
कहता हूं सदैव
नये का चुनाव
करो। यह
असुविधाजनक
लगता है—नये
का चुनाव करो।
यह असहज है, असुरक्षित
है—नये का
चुनाव करो। यह
कोई नये का
प्रश्न नहीं
है, यह
तुमको अधिक
सजग होने को
अवसर दैने के
लिए है। तुमको
लक्ष्य के रूप
में दक्षता
सिखाई गई है।
यह लक्ष्य नहीं
है। सजगता है
लक्ष्य।
दक्षता तुमसे
बार—बार
पुराने
रास्ते का
अनुगमन
करवाती है, क्योंकि
पुराने
रास्ते पर तुम
अधिक दक्ष होगे।
तुम सभी मोड़
और घुमाव जान
लोगे। तुमने
इस पर इतने
वर्षों से या
शायद इतने जन्मों
से यात्रा की
हुई है कि तुम
और—और दक्ष हो
जाओगे। लेकिन
दक्षता नहीं
है लक्ष्य।
दक्षता
यांत्रिकता
के लिए लक्ष्य
है। यत्र को
दक्ष होना
चाहिए, लेकिन
मनुष्य को? —मनुष्य
कोई यंत्र
नहीं है।
मनुष्य को
अधिक सजग होना
चाहिए, और
यदि इस सजगता
से दक्षता आ
जाती है, शुभ
है, सुंदर
है यह। यदि यह
दक्षता सजगता
की कीमत पर
आती है, तो
तुम जीवन के
विरोध में बड़ा
पाप कर रहे हो,
और तब तुम
अप्रसन्न बने
रहोगे। और यह
अप्रसन्नता
जीवन की एक
शैली बन जाएगी।
तुम बस एक दुष्चक्र
में घूमते
रहोगे। एक
अप्रसन्नता
तुमको दूसरी
अप्रसन्नता
में ले जाएगी
और इसी भांति
यह सिलसिला
चलता चला जाएगा।
सजगता
की विषयवस्तु
के रूप में
अप्रसन्नता
एक वरदान है, लेकिन
जीवन की एक
शैली के रूप
में अप्रसन्नता
अभिसाप है।
इसको अपने
जीवन का रंग—ढंग
मत बना लो।
मैं देखता हूं
कि अनेक लोगों
ने इसे अपने
जीवन का ढंग
बना रखा है।
वे जीवन का
कोई दूसरा ढंग
जानते ही नहीं
हैं। यदि तुम
उनसे कहो तो
भी वे नहीं
सुनेंगे। वे
पूछते चले
जाएंगे कि वे
अप्रसन्न
क्यों हैं, लेकिन वे यह
नहीं सुनेंगे
कि वे स्वयं
ही प्रतिक्षण
अपनी
अप्रसन्नता
निर्मित कर
रहे हैं। कर्म
के सिद्धात का
यही अर्थ है।
कर्म
का सिद्धांत
कहता है कि तुम्हारे
साथ जो कुछ भी
घटित हो रहा
है वह तुम्हारा
किया— धरा है।
कहीं किसी
अचेतन तल पर
तुम इसको
निर्मित कर रहे
हो—क्योंकि
तुम्हारे साथ
बाहर से कुछ
भी नहीं घटता।
प्रत्येक चीज
भीतर से उभर
कर आती है।
यदि तुम उदास
हो,
तो अपने
अंतर्तम
अस्तित्व में
कहीं न कहीं
तुम ही इसको
निर्मित कर
रहे होगे।
वहीं से आती
है यह। अपनी
आत्मा के भीतर
कहीं न कहीं
तुम ' ही
इसको निर्मित
कर रहे होगे।
यदि तुम पीड़ा
में हो, तो
निरीक्षण करो,
अपनी पीड़ा
पर ध्यान दो, तुम इसे किस
भांति
निर्मित कर
लेते हो, ध्यान
लगाओ। तुम
सदैव पूछा
करते हो, 'पीड़ा
के लिए कौन
उत्तरदायी है?'
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई
उत्तरदायी
नहीं है। यदि
तुम पति हो तो
तुम्हारा मन
कहे चला जाता
है कि
तुम्हारी
पत्नी
तुम्हारी
पीड़ा निर्मित कर
रही है। यदि
तुम पत्नी हो
तो तुम्हारा
पति तुम्हारी
पीड़ा निर्मित
कर रहा है।
यदि तुम
निर्धन हो तो
धनवान
तुम्हारी
पीड़ा निर्मित
कर रहा है। यह
मन सदा किसी
और पर
उत्तरदायित्व
थोपे चला जाता
है।
इसे
बहुत आधारभूत
समझ बन जाना
चाहिए कि? तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
अन्य
उत्तरदायी
नहीं है। एक
बार तुम इसको
समझ लो, चीजें
बदलना आरंभ हो
जाती हैं। यदि
तुम अपनी पीड़ा
निर्मित कर रहे
हो और तुम
इसको प्रेम
करते हो तब
इसे निर्मित
करते रहो। फिर
इससे कोई
समस्या मत खड़ी
करो।
तुम्हारे
मामले में
हस्तक्षेप
करना किसी का काम
नहीं है। यदि
तुम उदास होना
चाहते हो, तुमको
उदास होने से
प्रेम है, तो
पूरी तरह से
उदास हो जाओ।
लेकिन यदि तुम
उदास होना नहीं
चाहते हो, तब
कोई आवश्यकता
नहीं है—इसको
निर्मित मत
करो।
निरीक्षण करो
कि तुम किस
भांति अपनी
पीड़ा निर्मित
करते हो, उसका
ढांचा किस तरह
का है? —तुमने
अपने भीतर किस
प्रकार से इसे
तैयार कर लिया
है? लोग
लगातार अपनी
भाव—दशाएं
निर्मित कर
रहे हैं। तुम
दूसरों पर उत्तरदायित्व
थोपते चले
जाते हो, फिर
तुम कभी नहीं
बदलोगे। फिर
तुम पीड़ा में
बने रहोगे, क्योंकि तुम
कर ही क्या
सकते हो? यदि
दूसरे पीड़ा
निर्मित कर
रहे हैं, तो
तुम क्या कर
सकते हो? जब
तक कि दूसरे न
बदल जाएं
तुम्हारे हाथ
में कुछ नहीं
है। दूसरों पर
उत्तरदायित्व
थोप कर तुम एक
गुलाम बन जाते
हो।
उत्तरदायित्व
को अपने स्वयं
के हाथों में
ले लो।
कुछ
दिन पूर्व एक
संन्यासिनी
ने मुझको
बताया कि उसका
पति सदैव उसके
लिए समस्याएं
उत्पन्न करता
रहा है। और जब
उसने अपनी
कहानी सुनाई, तो
ऊपर से ऐसा ही
प्रतीत होता
कि निःसंदेह
उसका पति उत्तरदायी
है। अपने पति
से उसके आठ
बच्चे हैं, और फिर एक
अन्य स्त्री
से उसके पति
के तीन और बच्चे
हैं, और
अपनी सचिव से
एक बच्चा है।
अपने संपर्क
में आने वाली
हर स्त्री से
वह सदैव चाहत
का खेल खेला
करता था।
निःसंदेह इस
बेचारी
स्त्री से हर
किसी को
सहानुभूति हो
जाएगी, उसने
कितनी अधिक
पीड़ा भोगी है,
और यह सब चल
रहा है। पति
कोई बहुत अधिक
कमा भी नहीं
रहा है। यह
स्त्री उसकी
पैली कमाती है
और उसको इन
बच्चों का भी,
जिनको उसने
अन्य महिला
द्वारा
जन्माया है, व्यय वहन
करना पड़ता है।
निःसंदेह वह
बहुत पीड़ा में
है, लेकिन
कौन
उत्तरदायी है?
मैंने उससे
कहा : यदि तुम
वास्तव में
पीड़ा में हो
तो तुम्हें इस
आदमी के साथ
रहना क्यों
जारी रखना
चाहिए? छोड़
दो। तुम्हें
बहुत पहले ही
छोड़ देना
चाहिए था।
संबंध जारी
रखने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। और
वह समझ गई, जो
एक दुर्लभ घटना
है—बहुत बाद
में, बहुत
देर से समझी, लेकिन फिर
भी अधिक देर
नहीं हुई। अब
भी उसका जीवन
शेष है। अब
यदि वह जोर
देती है कि वह
इस आदमी के
साथ रहना पसंद
करेगी तो वह
अपनी स्वयं की
पीड़ा पर जोर
दे रही है। तब
वह पीड़ा में
जाने का मजा
ले रही है। तब
वह पति की
निंदा करने का
मजा ले रही है,
तब वह हर
किसी से
सहानुभूति
प्राप्त करने
का मजा ले रही
है। और
निःसंदेह वह
जिस किसी के
भी संपर्क में
आएगी वे उस
बेचारी महिला
के प्रति
सहानुभूति व्यक्त
करेंगे।
कभी
सहानुभूति मत
मांगो। समझ की
मांग करो, लेकिन
सहानुभूति
कभी मत मांगो।
वरना सहानुभूति
इतनी अच्छी लग
सकती है कि
तुम पीड़ा में
बने रहना पसंद
करोगे। तब
पीड़ा में
तुम्हारा
निवेश हो जाता
है। यदि तुम
पीडा में नहीं
रहे तो लोग
तुमसे सहानुभूति
नहीं रखेंगे।
क्या तुमने
कभी निरीक्षण
किया है? — प्रसन्न
व्यक्ति के
साथ कोई
सहानुभूति
नहीं रखता। यह
कुछ नितांत
असंगत बात है।
लोगों को
प्रसन्न
व्यक्ति के
साथ
सहानुभूति रखना
चाहिए, लेकिन
उससे कोई
सहानुभूति
नहीं रखता।
वास्तव में तो
लोग प्रसन्न
व्यक्ति के
प्रति शत्रुता
अनुभव करते
हैं। वस्तुत:
प्रसन्न हो
जाना बहुत
खतरनाक है।
प्रसन्न होकर
और अपनी
प्रसन्नता को
अभिव्यक्त
करके तुम अपने
आपको एक बहुत
बड़े खतरे में
डाल रहे हों—प्रत्येक
व्यक्ति
तुम्हारा
शत्रु हो
जाएगा, क्योंकि
प्रत्येक को
अनुभव होगा, 'तुम प्रसन्न
कैसे हो गए
मैं अप्रसन्न
क्यों हो गया?
असंभव, इसकी
अनुमति नहीं
दी जा सकती है।
बस बहुत हो
चुका।’
ऐसे
समाज में जो
अप्रसन्न और
पीड़ित
व्यक्तियों
से मिल कर बना है, प्रसन्न
व्यक्ति एक
अजनबी है।
इसीलिए हमने
सुकरात को विष
दे दिया, हमने
जीसस को मार
डाला, हमने
मंसूर को सूली
दे दी। हम कभी
भी प्रसन्न
व्यक्तियों
के साथ सहजता
से नहीं रह
पाए। किसी
भांति
उन्होंने
हमारे
अहंकारों को
अत्यधिक ठेस
लगा दी। लोगों
ने जीसस को
सूली पर चढ़ा
दिया, जब
वे जीवित थे, तब उन्होंने
उनको मार डाला।
वे बहुत कम
उम्र के थे, केवल तैंतीस
वर्ष की आयु
थी। अभी तक
उन्होंने
पूरा जीवन
देखा भी नहीं
था। वे अपना
जीवन बस आरंभ
ही कर रहे थे, बस एक कली
खिल ही रही थी
और लोगों ने
उनको मार डाला,
क्योंकि वे
असहनीय हो गए
थे। इतने
प्रसन्न ?—प्रत्येक
व्यक्ति आहत
था। उन्होंने
इस आदमी की
हत्या कर दी।
और फिर
उन्होंने
उनकी पूजा
करना आरंभ कर
दिया। जरा
देखो—अब वे दो
हजार वर्षों
से उनकी पूजा
करते आ रहे
हैं, सूली
पर चढ़ा कर
जीसस की पूजा
हो रही है।
लेकिन सूली पर
चढ़े हुए जीसस
के साथ तुम
सहानुभुति कर
सकते हो, प्रसन्न
जीसस के साथ
तुम शत्रुता
अनुभव करते हो।
वही
यहां पर हो
रहा है। मैं
एक प्रसन्न
व्यक्ति हूं।
यदि तुम चाहते
हो कि मैं
पूजा जाऊं, तो
तुमको मुझे सूली
पर चढ़ाने की
व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
दूसरा कोई
उपाय है ही
नहीं। फिर वे
लोग जो मेरे
विरोध में हैं,
मेरे
अनुयायी बन
जाएंगे।
लेकिन पहले
उन्हें मुझको
सूली पर चढ़ा
हुआ देखना
पड़ेगा, इसके
पहले वे
अनुयायी नहीं
बन सकेंगे।
किसी प्रसन्न
व्यक्ति की
कभी किसी ने
पूजा नहीं की
है। पहले
प्रसन्न
व्यक्ति को
नष्ट करना
पड़ता है।
निःसंदेह तब
उसकी
व्यवस्था की
जा सकती है।
अब तुम जीसस
के साथ
सहानुभूति कर
सकते हो। जब
कभी भी तुम
जीसस की ओर
देखते हो
तुम्हारी आंखों
से आंसू
निकलना आरंभ
हो जाते हैं, बेचारे जीसस,
उन्होंने
कितने दुख
उठाए। नृत्य
करते हुए
क्राइस्ट
उपद्रव
उत्पन्न करते
हैं।
स्वीडन
में एक
व्यक्ति जीसस
पर एक फिल्म 'जीसस
दि मैन' बनाने
का प्रयास कर
रहा है। दस
वर्षो से वह
कोशिश कर रहा
है। लेकिन
हजारों
बाधाएं हैं।
सरकार अनुमति
नहीं देगी। जीसस
दि मैन? नहीं।
क्योंकि जीसस
दि मैन का
अर्थ होगा कि
यह व्यक्ति
मेरी
मेग्दलीन के
साथ प्रेम में
पड़ गया होगा, और यह आदमी
फिल्म के
माध्यम से इस
बात को सार्वजनिक
प्रदर्शन कर
देगा। जीसस ने
स्त्रियों से
प्रेम किया था।
स्वाभाविक है
यह, कुछ भी
गलत नहीं है
इसमें। वे एक
प्रसन्न
व्यक्ति थे, कभी—कभी वे
शराब से प्रेम
करते थे। वे
उस प्रकार के
व्यक्ति थे जो
उत्सव मना सकता
है। अब जीसस
एक व्यक्ति की
भांति खतरनाक
हैं। और यह
आदमी जीसस दि
मैन, परमेश्वर
का बेटा नहीं,
बल्कि आदमी
का बेटा, पर
एक फिल्म
बनाना चाहता
है। यह उपद्रव
पैदा करने
वाला कार्य बन
जाएगा। और यदि
वह किसी कहानी
पर काम करना
आरंभ कर देता
है तो उसको
मेरी के किसी
अनैतिक प्रेम
संबंध को भी
प्रस्तुत करना
पड़ेगा, क्योंकि
कोई कुंआरी
स्त्री जन्म
नहीं दे सकती।
जीसस जोसफ के
पुत्र नहीं थे,
यह बात तो
निश्चित है।
लेकिन उनको
किसी का पुत्र
तो होना पड़ेगा।
सरकार विरोध
में है, चर्च
विरोध में है।
तुम यह सिद्ध
करने का
प्रयास कर रहे
हो कि जीसस
अवैध संतान
हैं! असंभव!
फिल्म की
अनुमति नहीं
दी जा सकती है।
और जीसस एक
वेश्या मेरी
मेग्दलीन के
साथ प्रेम
करते हुए? —और निश्चित
है कि वे
प्रेम करते थे।
वे एक प्रसन्न
व्यक्ति थे।
प्रसन्न
व्यक्ति के
चारों ओर बस
प्रेम घटित हो
जाता है।
उन्होंने
जीवन का मजा
लिया। यह जीवन
परमात्मा का
दिया हुआ
प्रसाद है, व्यक्ति को
इसका मजा लेना
चाहिए।
प्रत्येक
धार्मिक
व्यक्ति
उत्सव मनाने
वाला व्यक्ति
होता है।
फिर
उन्होंने इस
व्यक्ति जीसस
को मार डाला, उनको
सूली पर चढ़ा
दिया, और
उसके बाद से
वे उनकी पूजा
करते चले आ
रहे हैं। अब
उनको
व्यवस्थित
किया जा सकता
है; वे
तुम्हारे
भीतर काफी कुछ
सहानुभूति
उत्पन्न करते
हैं। सूली पर
लटके हुए जीसस
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे
बुद्ध से कहीं
अधिक आकर्षक
हैं। सूली पर
चढ़े हुए जीसस
अपनी बांसुरी
बजाते हुए
कृष्ण से अधिक
आकर्षक हैं।
जीसस
विश्वव्यापी
धर्म बन गए।
कृष्ण? —उनकी
चिंता कौन
करता है? हिंदू
तक उनके चारों
ओर नृत्य करती
हुई सोलह हजार
नारियों के
बारे में
अपराध—बोध
अनुभव करते
हैं—असंभव, यह बस एक
पौराणिक
आख्यान है।
हिंदू कहते
हैं, यह एक
सुंदर काव्य
है; और वे
इसकी
व्याख्याएं
किए चले जाते
हैं। वे कहते
हैं, ये
सोलह हजार
नारियां
वास्तविक
स्त्रियां नहीं
थीं, ये
सोलह हजार
नाडिया, तंत्रिकाओं
का जाल, मनुष्य
के शरीर क
भीतर की सोलह
हजार
तंत्रिकाएं
हैं। यह मानव
शरीर की
प्रतीकात्मक
व्याख्या है।
कृष्ण आत्मा
हैं और सोलह
हजार
तंत्रिकाएं
आत्मा के
चारों ओर
नाचती हुई
गोपियां हैं।
फिर सभी कुछ
ठीक है। लेकिन
यदि वे असली
स्त्रियां
हैं, तब
कठिन है यह
मामला, इसे
स्वीकार करना
बहुत कठिन है।
भारत
के एक और धर्म
जैनियों ने
कृष्ण को इन
सोलह हजार
स्त्रियों के
कारण नरक में
डाल रखा है।
जैन—पुराणों
में वे कहते
हैं,
कृष्ण
सातवें अंतिम
नरक में हैं...
और वे शीघ्र बाहर
भी नहीं आने
वाले हैं। वे
उस समय तक
वहां रहेंगे
जब तक कि यह
सारी सृष्टि
नष्ट नहीं हो
जाती है। वे
उसी समय बाहर
आएंगे जब अगली
सृष्टि का आरंभ
हो जाएगा; अभी
लाखों वर्ष
प्रतीक्षा
करना होगी।
उन्होंने
बहुत बड़ा पाप
किया है, और
बहुत बड़ा पाप
हैं—क्योंकि
वे उत्सव मना
रहे थे। पाप
बड़ा है—क्योंकि
वे नृत्य कर
रहे थे।
महावीर
अधिक स्वीकार
योग्य हैं; बुद्ध
अभी भी अधिक
स्वीकार
योग्य हैं।
कृष्ण अपने
धर्म को छोड़
देने वाले एक
ऐसे व्यक्ति
प्रतीत होते
हैं
जिन्होंने गंभीर
लोगों का
भरोसा तोड़
दिया है। वे
गैर—गंभीर, प्रसन्न थे—न
उदास, न
लंबा चेहरा—हंसते
हुए, नृत्य
करते हुए। और
सच्चा रास्ता
यही है। मैं
तुमसे कहना
चाहूंगा, परमात्मा
की ओर जाते
हुए अपने
रास्ते पर
नृत्य करते
हुए जाओ, परमात्मा
की ओर जाने
वाले अपने
रास्ते पर हंसते
हुए जाओ।
गंभीर चेहरों
के साथ मत जाओ।
उस 'प्रकार
के लोगों से
परमात्मा
पहले से ही
काफी ऊब चुका
है।
सहानुभूति
एक बड़ा निवेश
है और उसको
केवल तभी जारी
रखा जा सकता
है जब कि तुम
सहानुभूति
प्राप्त करते
चले जाओ, केवल
तभी जब तुम
परेशानी में
बने रहो।
इसलिए यदि एक
परेशानी
समाप्त हो
जाती है तो तुम
दूसरी बना
लेते हो, यदि
एक बीमारी
तुमको छोड़
देती है तुम
दूसरी निर्मित
कर लेते हो।
निरीक्षण करो
इसका—तुम अपने
साथ बहुत
खतरनाक खेल
खेल रहे हो।
यही कारण है
कि लोग
परेशानी में
हैं और अप्रसन्न
हैं। वरना कोई
आवश्यकता
नहीं है।
अपनी
सारी ऊर्जा को
प्रसन्न होने
में अर्पित कर
दो,
और दूसरों
के बारे में
चिंता मत करो।
तुम्हारी
प्रसन्नता
तुम्हारी
नियति है; इसमें
हस्तक्षेप
करने का हक
किसी को नहीं
है। लेकिन
समाज हस्तक्षेप
किए चला जाता
है : यह एक दुष्चक्र
है। तुम्हारा
जन्म हुआ, और
निःसंदेह
तुम्हारा
जन्म एक ऐसे
समाज में हुआ
जो पहले से ही
वहां था, यह
विक्षिप्त
लोगों का, ऐसे
लोगों का समाज
है जो सभी
परेशान और
अप्रसन्न हैं।
तुम्हारे
माता—पिता, तुम्हारा
परिवार, तुम्हारा
समाज, तुम्हारा
देश सभी
तुम्हारी
प्रतीक्षा
में हैं। एक
छोटे बच्चे का
जन्म हुआ है, सारा समाज
उस पुर कूद
पड़ता है, उसको
सभ्य बनाने
लगता है, सुसंस्कृत
बनाने लगता है।
यह इस प्रकार
से है जैसे कि
किसी बच्चे का
जन्म
पागलखाने में
हुआ हो और
सारे पागल उसे
सिखाने लगें।
निःसंदेह
उनको सहायता
करनी पड़ती है—बच्चा
इतना छोटा है
और संसार के
बारे में कुछ भी
नहीं जानता है।
जो कुछ भी वे
जानते हैं वे
सिखा देंगे।
उनके माता—पिता
ने और दूसरे
विक्षिप्त
लोगों ने उन
पर जो कुछ थोप
दिया था, वे
उसी को बच्चे
पर थोप देंगे।
क्या तुमने
देखा है कि जब
कभी कोई बच्चा
खिलखिलाने और
हंसने लगता है
तो तुम्हारे
भीतर कुछ असहज
हो जाता है? तुरंत ही
तुम उसको बता
देना चाहते हो,
इस हंसी
इत्यादि को
बंद करो और
अपना लालीपॉप
चूसो! अचानक
तुम्हारे
भीतर से कोई
कहता है, बंद
करो! जब कोई
बच्चा
खिलखिलाना
आरंभ करता है,
तो तुम्हें
ईष्या का
अनुभव होता है
या किसी और
भाव का? तुम
एक बच्चे को, बस उसके भर
पूर मजे के
लिए यहां और
वहां दौड़ लगाने
और उछल—कूद की
अनुमति नहीं
दे सकते।
मैंने
दो अमरीकन
स्त्रियों, दो
ईसाई
साध्वियों के
बारे में सुना
है। वे एक
पुराने चर्च
को देखने के
लिए इटली गई थीं।
अमरीकन
यात्री! चर्च
में उन्होंने
एक इतालवी महिला
को प्रार्थना
करते हुए और
उसके चार या पांच
बच्चों को
चर्च के भीतर
दौड़ते हुए और
खूब शोरगुल
करते हुए और
पूरी तरह भूल
कर कि यह चर्च
है, प्रसन्न
होते हुए देखा।
उन दोनों
अमरीकी
महिलाओं को यह
सहन नहीं हो सका
बस बहुत हो
चुका। यह चर्च
की पवित्रता
को भंग करना
है। वे उस
स्त्री, उनकी
मां, के
पास चली गईं
और उससे कहा, ये बच्चें
तुम्हारे हैं?
यह चर्च है
और यहां पर
कुछ अनुशासन
बना कर रखना
पड़ता है! इनको
नियंत्रण में
रखा जाना
चाहिए। उस
महिला ने
प्रार्थनापूर्ण
आंखों से अत्यधिक
प्रसन्नतापूर्वक
आनंद के आंसू
बहाते हुए
उनको देखा और
बोली, यह
उनके पिता का
घर है, क्या
वे यहां खेल
नहीं सकते? किंतु ऐसा
दृष्टिकोण
दुर्लभ है, बहुत दुर्लभ
है।
मनुष्य—जाति
पर विक्षिप्त
लोगों का
वर्चस्व रहा
है—राजनेता, पुरोहित,
वे
विक्षिप्त
हैं, क्योंकि
महत्वाकांक्षा
एक तरह का
पागलपन है—और
वे अपना ढंग
थोपते चले
जाते हैं। जब
किसी बच्चे का
जन्म. होता है
तो वह ऊर्जा
का एक उद्वेलन—आनंद,
प्रसन्नता,
हर्ष, प्रमुदिता
का अंतहीन
स्रोत—और कुछ
नहीं बल्कि
उल्लास और
प्रफुल्लता
से भरा हुआ
होता है। तुम
उस पर
नियंत्रण
करना आरंभ कर
देते हो, तुम
उसके पर कतरना
आरंभ कर देते
हो, तुम
उसकी काट—छांट
करने लगते हो।
तुम कहते हो, 'हंसने के
कुछ उचित समय
हुआ करते हैं।’
हंसने के
लिए उचित समय?
—इसका
अभिप्राय हुआ:
जीवित रहने के
लिए उचित समय?
तुम इसी बात
को कह रहे हो, जीवित रहने
के लिए उचित समय—तुमको
चौबीसों घंटे जीवित
नहीं रहना
चाहिए। रोने
के लिए भी
उचित समय हुआ
करते हैं।
किंतु जब किसी
बच्चे को
हंसने जैसा
लगता हो तो
उसको क्या
करना चाहिए? उसको
नियंत्रण
करना पड़ेगा, और जब तुम
अपनी हंसी पर
काबू पा लेते
हो तो यह
तुम्हारे
भीतर कसैली और
खट्टी हो जाती
है। वह ऊर्जा
जो बाहर जा
रही थी भीतर
रोक ली जाती है।
ऊर्जा को वापस
रोक कर तुम
अपने भीतर
कहीं अवरुद्ध
हो जाते हो।
बच्चा बाहर
जाना, चारों
और दौड़ लगाना,
उछलना—कूदना
और नृत्य करना
चाहता है
लेकिन अब उसको
रोक दिया गया
है। उसकी
ऊर्जा अतिरेक
में प्रवाहित
होने के लिए तैयार
है, लेकिन
धीरे— धीरे वह
केवल एक बात
सीख लेता है—अपनी
ऊर्जा के
प्रवाह को रोक
देना। इसी
कारण से संसार
में इतने अधिक
अवरुद्ध व्यक्तित्व
वाले, इतने
तनावग्रस्त, सतत
नियंत्रण
करने वाले लोग
हैं। वे रो
नहीं सकते, पुरुष पर आंसू
अच्छे नहीं
लगते। वे हंस
नहीं सकते, हंसी बहुत
असभ्यतापूर्ण
प्रतीत होती
है। जीवन का
इनकार कर दिया
गया है, मृत्यु
की पूजा की
जाती है। तुम
चाहोगे कि
बच्चा के आदमी
की भांति
व्यवहार करे,
और बूढ़े लोग
अपने मुर्दा
दृष्टिकोणों
को नई पीढ़ी पर
थोपना आरंभ कर
देते हैं।
मैंने
नब्बे वर्ष की
एक की महिला, एक
जागीरदारिन, के बारे में
सुना है, जिसके
पास कई एकड़ के
बगीचे के बीच
में बना बहुत
बड़ा मकान था।
एक दिन वह
अपनी संपत्ति
की देखभाल
हेतु बाहर निकली,
बहुत विशाल
क्षेत्रफल
में विस्तृत
थी यह। तालाब
के ठीक उस ओर, जंगल के
पीछे उसने एक
युवा जोड़े को
प्रेमालाप
में संलग्न
देखा। उसने
ड्राइवर से
पूछा, ये
लोग यहां पर
क्या कर रहे
हैं?—नब्बे
वर्ष की उम्र
थी उसकी, शायद
वह भूल गई हो...ये
लोग यहां पर
क्या कर रहे
हैं? ड्राइवर
को सच बताना
पड़ गया। बहुत
नम्रतापूर्वक
उसने कहा, वे
युवा लोग हैं।
वे सहवास कर
रहे हैं। वह
की स्त्री
अत्यधिक
क्रोधित हो
उठी और उसने
कहा, इस
तरह का काम
क्या संसार
में अभी भी चल
रहा है?
जब
तुम बूढ़े हो
जाते हो, तो क्या
तुम सोचते हो
कि सारा संसार
बूढ़ा हो गया है?
जब तुम मर
रहे हो, क्या
तुम सोचते हो
कि सारा संसार
मर रहा है? संसार
अपने आप को
फिर से नया, अपने आप को
पुन: नवीनीकृत
करता चला जाता
है। इसीलिए यह
बूढ़े लोगों को
दूर ले जाता
है और छोटे
बच्चे संसार
को वापस कर
देता है। यह
बूढ़े लोगों को
छोटे बच्चों
में बदल देता
है।
अस्तित्व
पृथ्वी की
जनसंख्या में
नये लोगों को
सम्मिलित किए
चला जाता है—जब
कभी यह देखता
है कि एक
व्यक्ति पूरी
तरह से अवरुद्ध
हो चुका है—अब
वहां न कोई
प्रवाह है, न
कोई रस है, और
यह व्यक्ति बस
सिकुड़ रहा है
और अनावश्यक
रूप से पृथ्वी
पर एक बोझ हुआ
जा रहा है—तब
जीवन उससे
वापस ले लिया
जाता है। वह
व्यक्ति नष्ट
हो जाता है, अस्तित्व
में वापस चला
जाता है।
मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाती है, आकाश आकाश
में समा जाता
है, वायु
वायु से मिल
जाती है, अग्नि
अग्नि में, जल जल में
मिल जाता है।
फिर उस मिट्टी
में से, उस
जल और अग्नि
में से एक नये
बच्चे का जन्म
हो जाता है—प्रवाहमान,
युवा, ताजगी
भरा, पुन:
जीने और नृत्य
करने को तैयार।
ठीक उसी भांति
जैसे वृक्ष पर
पुष्प आते हैं,
ठीक उसी
प्रकार से
जैसे कि वृक्ष
पुष्पित होता
है, यह
पृथ्वी बच्चे
निर्मित करती
है, नये
बच्चों का
सृजन करती चली
जाती है।
यदि
तुम वास्तव
में प्रसन्न
रहना चाहते हो
तो तुमको युवा, जीवंत,
रोने, हंसने,
सभी आयामों
के लिए उपलब्ध,
प्रत्येक
दिशा में
प्रवाहित, प्रवाहमान
रहना पड़ेगा।
तभी तुम
प्रसन्न बने
रहोगे। लेकिन
याद रखो, तुमको
कोई सहानुभुति
नहीं मिलेगी।
लोग तुमको
पत्थर मार
सकते हैं, लेकिन
यह मूल्य है।
लोग सोच सकते
हैं कि तुम
अधार्मिक हो,
वे
तुम्हारी
निंदा कर सकते
हैं, वे
तुमको
गालियां दे
सकते हैं, किंतु
इसके बारे में
चिंता मत करो।
इसका जरा भी
महत्व नहीं है।
वह एक मात्र
चीज जिसका
महत्व है—वह
है तुम्हारी
प्रसन्नता।
और
तुमको अनेक
चीजों को
अनकिया भी
करना पड़ेगा, केवल
तभी तुम
प्रसन्न हो
सकते हो। समाज
के द्वारा जो
कुछ भी किया
जा चुका है
उसको अनकिया
करना पड़ता है।
जहां कहीं पर
तुम अटके हो—तुम
हंसने जा रहे
हो और
तुम्हारे
पिता ने तुमको
क्रोध से देखा
और कहा, रुक
जाओ—तुमको
पुन: वहीं से
आरंभ करना
पड़ेगा। अपने
पिता से कह दो,
कृपया शांत
रहिए, अब
मैं पुन:
हंसने जा रहा
हूं।
तुम्हारे सिर
के भीतर कहीं
पर अब भी
तुम्हारे
पिता तुमको
पकड़े हुए हैं.
रुक जाओ! क्या
तुमने कभी
देखा है? यदि
तुम गहराई से
ध्यान करते हो
तो तुम अपने भीतर
अपने माता—पिता
की आवाज सुन
लोगे। तुम
रोने वाले थे
और मां ने
तुमको रोक
दिया, और
निःसंदेह तुम
असहाय थे और
जीवित रह पाने
के लिए तुमको
समझौते करने
पड़ते थे। और
कोई दूसरा
उपाय था भी
नहीं। तुमको
इन लोगों पर
निर्भर रहना
पड़ता था, और
उनकी अपनी
शर्तें थीं, वरना तुमको
उन्होंने दूध
नहीं दिया
होता, उन्होंने
तुमको भोजन नहीं
दिया होता, उन्होंने
तुमको कोई
सहारा नहीं
दिया होता। और
एक छोटा बच्चा
बिना किसी
सहारे के कैसे
जी सकता है? उसको समझौता
करना पड़ता है।
वह कहता है, ठीक है। बस
जीवित रहने के
लिए जो कुछ भी
आप कहते हैं
मैं वही
करूंगा।
इसलिए धीरे—
धीरे वह नकली
बन जाता है।
धीरे— धीरे वह
अपने स्वयं के
विरोध में चला
जाता है। वह
हंसना चाहता
था लेकिन पिता
अनुमति नहीं
दे रहे थे, इसलिए
उसने मुह बंद
रखा। धीरे—
धीरे वह ढोंगी,
पाखंडी हो
जाता है।
और
पाखंडी कभी
प्रसन्न नहीं
हो सकता, अपनी
जीवन—ऊर्जा के
प्रति सच्चा
होना
प्रसन्नता है।
सच्चे होने के
कृत्य का
परिणाम है—प्रसन्नता।
प्रसन्नता
कहीं और नहीं
है कि तुम जाओ
और इसको खरीद
लो।
प्रसन्नता
कहीं और
तुम्हारी
प्रतीक्षा
नहीं कर रही
है कि तुमको
रास्ता खोजना
पड़ेगा और उस
तक पहुंचना
पड़ेगा। नहीं,
प्रसन्नता
सच्चे, प्रमाणिक
होने के कृत्य
का फल है। तब
कभी तुम सच्चे
हो, तुम
प्रसन्न हो।
जब कभी तुम
सच्चे नहीं हो,
तुम
अप्रसन्न हो।
और
मैं तुमसे नहीं
कहूंगा कि यदि
तुम सच्चे नहीं
हो तुम अपने आगामी
जीवन में
अप्रसन्न
होओगे। नहीं, यह
सब बकवास है।
यदि तुम सच्चे
नहीं हो, तो
ठीक इसी समय
तुम अप्रसन्न
हो। निरीक्षण
करो—जब कभी भी
तुम सच्चे
नहीं होते हो,
तुमको
असहजता, अप्रसन्नता
अनुभव होती है,
क्योंकि
ऊर्जा
प्रवाहित
नहीं हो रही
है। ऊर्जा नदी
जैसी नहीं है;
यह अवरुद्ध,
मृत, जमी
हुई है। और
तुम प्रवाहित
होना पसंद
करोगे। जीवन
एक प्रवाह है;
मृत्यु है
जमी हुई अवस्था।
अप्रसन्नता
आती है
क्योंकि
तुम्हारे
अनेक भाग जमे
हुए हैं। उनको
कभी कार्यरत
नहीं होने
दिया गया है
और धीरे— धीरे
तुमने उनको
नियंत्रित
करने की तरकीब
सीख ली है। अब
तुम यह भी भूल
चुके हो कि
तुम किसी चीज
को नियंत्रित
कर रहे हो।
तुम शरीर में
अपनी जड़ों को
खो चुके हो।
अपने शरीर के
सत्य में
स्थित अपनी
जड़ों को खो चुके
हो।
लोग
भूतों की
भांति जी रहे
हैं,
यही कारण है
कि वे पीड़ा
में हैं। जब
मैं तुम्हारे
भीतर झांकता
हूं तो
मुश्किल से ही
मेरा किसी
जीवित
व्यक्ति से
मिलना हो पाता
है। लोग भूतों
की, प्रेतात्माओं
की भांति हो
गए हैं। तुम
अपने शरीर में
नहीं हो; तुम
अपने सिर के
चारों ओर एक
भूत की तरह
मंडरा रहे हो,
जैसे सिर के
चारों ओर कोई
गुब्बारा
बंधा हुआ हो।
एक छोटा सा
धागा तुमको
शरीर से जोड़े
हुए है। यह
धागा तुमको
जीवित रखता है,
कुल इतना है
मामला, लेकिन
यह जीवन आनंदपूर्ण
नहीं है।
तुमको चेतन
होना पड़ेगा, तुमको ध्यान
करना पड़ेगा, और तुमको
सभी नियंत्रण
छोड़ देने
पड़ेंगे, तुम्हें
सीखे को
अनसीखा, किए
हुए को अनकिया
करना पड़ेगा और
फिर पहली बार
तुम पुन:
प्रवाहमान हो
जाओगे।
निःसंदेह, अनुशासन
की आवश्यकता
है, लेकिन
नियंत्रण की
भांति नहीं, बल्कि सजगता
की भांति।
नियंत्रित
अनुशासन
मुर्दा करने
वाली घटना है।
जब तुम सजग, बोधपूर्ण
होते हो, तो
उस सजगता से
एक अनुशासन
सरलता से आ
जाता है—ऐसा
नहीं है कि
तुमने उसको
थोप दिया है, ऐसा नहीं है
कि तुमने इसकी
योजना बनाई है।
नहीं, पल—पल
तुम्हारी
सजगता यह
निर्णय करती
है कि किस
भांति
प्रतिसंवेदन
किया जाए। और
एक सजग
व्यक्ति इस
प्रकार से
प्रतिसंवेदन करता
है कि वह
प्रसन्न बना
रहता है, और
वह दूसरों के
लिए
अप्रसन्नता
निर्मित नहीं
करता है।
यही
सब कुछ तो
धर्म है
प्रसन्न बने
रहो,
और किसी
व्यक्ति के
लिए अप्रसन्न
हो जाने के लिए
कोई
परिस्थिति मत
निर्मित करो।
यदि तुम
सहायता कर सकी,
तो दूसरों
को प्रसन्न
करो। यदि तुम
ऐसा नहीं कर
सकते, तो
कम से कम अपने
आप को प्रसन्न
कर लो।
प्रश्न:
मैं
स्वप्न देखा
करती हूं, कि
मैं उड़ रही हूं, क्या हो रहा
है?
जी .के.
चेस्टरटन ने
कहा है
फरिश्ते उड़ते
हैं,
क्योंकि वे
अपने आप को
हलके ढग से
लिया करते हैं।
तुम्हें यही
हो रहा होगा, अवश्य ही
तुम फरिश्ता
बनने जा रही
हो। होने दो
इसको।
तुम्हें
जितना हलकापन
अनुभव होता है,
जितनी
प्रसन्नता
तुमको अनुभव
होती है, गुरुत्वाकर्षण
बल का खिंचाव
उतना ही कम हो
जाता है।
गुरुत्वाकर्षण
बल तुम्हें कब
बना देता है।
भारीपन पाप है।
भारी होने का
अभिप्राय
केवल इतना ही
है कि तुम
अनजीए
अनुभवों, अधूरे
अनुभवों से
भरे हुए हो; कि —तुम बहुत
अनकिए
कृत्यों, कचरे
से भरे हुए हो।
तुम किसी
स्त्री से
प्रेम करना
चाहते थे, लेकिन
यह कठिन था, क्योंकि
महात्मा
गांधी इसके
विरोध में हैं।
यह मुश्किल है,
क्योंकि
विवेकानंद
इसके विरोध मे
हैं। यह कठिन
है, क्योंकि
सारे महान ऋषि
और महात्मा
ब्रह्मचर्य, काम दमन की
शिक्षा दिए
चले जाते हैं।
तुम प्रेम
करना चाहते थे,
लेकिन सभी
साधु—संत इसके
विरोध में थे,
अत: तुमने
किसी भी
प्रकार से
स्वयं को
नियंत्रण में
कर लिया। अब
यह तुम पर एक
कबाड़ की
भांति लदा हुआ
है। यदि तुम
मुझसे पूछो तो
मैं कहूंगा कि
तुमको प्रेम
कर लेना चाहिए
था। अब भी कुछ
खो नहीं गया
है, तुमको
प्रेम करना
चाहिए, इसे
पूरा कर लो।
मैं जानता हूं
कि मुनि और
महात्मा सही
हैं, लेकिन
मैं यह नहीं
कहता कि तुम
गलत हो।
और
इस विरोधाभास
को मैं
तुम्हें
समझाता हूं।
मुनि और
महात्मागण
सही हैं, किंतु
यह समझ उनको
तब उपलब्ध हुई
जब उन्होंने खूब
प्रेम कर लिया,
उसके बाद
उपलब्ध हुई जब
वे जी लिए, जब
उन्होंने वह.
सभी कुछ समझ
लिया जो प्रेम
में निहित है।
तब वे इस समझ
पर पहुंचे हैं
और
ब्रह्मचर्य
फलित हुआ है।
यह प्रेम के
विरोध में
नहीं है, यह
माध्यम प्रेम
ही है जिससे
ब्रह्मचर्य
फलित होता है।
अब तुम
पुस्तकों को,
शास्त्रों
को पढ़ रहे हो, और
शास्त्रों के
द्वारा तुमको
इस प्रकार के
खयाल मिलते
रहते हैं। ये
खयाल तुमको
पंगु कर देते
हैं। अपने आप
में वे खयाल
गलत नहीं हैं,
किंतु तुम
पुस्तकों से
उनको ग्रहण कर
लेते हो, और
वे ऋषिगण उन
पर अपने स्वयं
के जीवन के
माध्यम से
पहुंचे हैं।
जरा इतिहास
में, प्राचीन
पुराणों में
वापस लौटो और
अपने ऋषियों
को देखो, उन्होंने
पर्याप्त
प्रेम किया है,
वे जी भर कर
जीए हैं, उन्होंने
सबलता और
सघनता के साथ
मानवीय जीवन को
आत्यंतिक रूप
से जीया है।
और फिर धीरे—धीरे
वे इस समझ पर
पहुंचे हैं।
यह
केवल जीवन ही
है जो समझ
लेकर आता है।
तुम क्रोधित
होना चाहते थे, किंतु
सभी शास्त्र
इसके विरोध
में हैं, इसलिए
तुमने क्रोध
कभी न होने
दिया। अब वह
क्रोध इकट्ठा
होता चला जाता
हैं—परत दर
परत—और तुम उस
बोझ को ढोते
फिर रहे हो, इसके नीचे
करीब—करीब दबे
जा रहे हो।
यही कारण है
कि तुम इतना
भारीपन महसूस
करते हो। इसे
बाहर फेंको, छोड़ दो इसे!
किसी खाली
कमरे में चले
जाओ और
क्रोधित हो
जाओ, और
वास्तव में
क्रोधित हो
जाओ—तकिए को
पीटो, और
दीवालों पर
क्रोधित हो
जाओ, और
दीवालों से
बातें करो और
उन बातों को
कहो जिनको तुम
सदैव कहना
चाहते थे
किंतु तुम कह
नहीं पाए थे।
उत्तेजना में
आ जाओ, क्रोधाविष्ट
हो जाओ और तुम
एक सुंदर
अनुभव पर
पहुंचोगे। इस
विस्फोट के
बाद, इस
तूफान के बाद,
एक मौन तुम
पर आएगा, एक
मौन तुम पर
व्याप्त हो
जाएगा, एक
ऐसा मौन जिसको
तुमने पहले
कभी नहीं जाना
था, जो
तुम्हें
निर्भार कर
देता है।
अचानक तुम
हलका अनुभव
करते हो।
यह
प्रश्न
विद्या ने
पूछा है। मैं
देख सकता हूं
कि वह हलकापन
अनुभव कर रही
है। इसमें और
गहरी जाओ, जिससे
न केवल
स्वप्नों में
बल्कि तुम
वास्तव में उड़
सको।
यदि
तुम अपने अतीत
को नहीं ढो
रहे हो, तो
तुम्हारे पास
ऐसा हलकापन
होगा—पंख की
भांति हलकापन।
तुम जीओगे, लेकिन तुम
पृथ्वी को
स्पर्श नहीं
करोगे। तुम
जीते हो, लेकिन
तुम पृथ्वी पर
कदमों के कोई
निशान नहीं छोड़ते
हो। तुम जीते
हो, किंतु
तुमसे किसी को
एक खरोंच तक
नहीं लगती, और तुम्हारा
जीवन एक
प्रसाद से
घिरा हुआ होता
है, तुम्हारा
अस्तित्व एक
आभा, एक
दीप्ति होता
है। केवल ऐसा
नहीं हे कि
तुम हलके हो
जाओगे, बल्कि
जो भी तुम्हारे
संपर्क में
आएगा वह अचानक
किसी बहुत सुंदर,
बहुत
प्रसादपूर्ण
अनुभूति से भर
जाएगा।
तुम्हारे
चारों ओर
पुष्पों की
वर्षा होगी, और तुममें
एक ऐसी सुगंध
होगी जो इस
पृथ्वी की नहीं
होगी। लेकिन
यह केवल तब
अनुभव होता है
जब तुम निर्भार
हो जाते हो।
इस
निर्भार होने
को महावीर ने
निर्जरा कहा
है—सभी कुछ
छोड़ देना।
लेकिन छोड़ा
कैसे जाए? तुम्हें
सिखाया गया है—क्रोधित
मत होओ। मैं
भी तुम्हें
क्रोधित न
होना सिखाता
हूं लेकिन मैं
तुमसे क्रोध न
करने को नहीं
कहता हूं। मैं
कहता हूं
क्रोधित होओ।
किसी के प्रति,
किसी पर
क्रोध करने की
कोई आवश्यकता
नहीं है, उससे
जटिलता
उत्पन्न होती
है। बस
शून्यता में
क्रोधित हो
जाओ। नदी के
किनारे पर चले
जाओ, जहां
पर कोई नहीं
हो, और बस
क्रोधित हो
जाओ, और
तुम जो कुछ भी
करना चाहो कर
लो। क्रोध का
जम कर रेचन
करने के बाद
तुम रेत पर गिर
पड़ोगे, और
तुम देखोगे कि
तुम उड़ रहे हो।
एक पल के लिए
अतीत खो गया
है।
और
प्रत्येक
भावना के साथ
यही किया जाना
चाहिए। धीरे—
धीरे तुम यह
अनुभव करोगे
कि यदि तुम
क्रोधित होने
का प्रयास करो
तो तुम
भावनाओं की एक
श्रृंखला से
होकर गुजरोगे।
पहले तुम
क्रोधित
होओगे, फिर
अचानक तुम
चीखना—चिल्लाना
आरंभ कर दोगे,
शून्यता
में से आएगा
यह सब। क्रोध
निकल गया, शांत
हो गया—तुम्हारे
अस्तित्व की
एक और परत, उदासी
का एक और बोझ
छू लिया गया
है। प्रत्येक
क्रोध के पीछे
उदासी होती है,
क्योंकि जब
कभी भी तुम
अपने क्रोध को
रोकते हो तुम
उदास
हो जाते
हो। इसलिए
क्रोध की
प्रत्येक परत
के बाद उदासी
की एक परत
होती है। जब
क्रोध निकल
जाता है, तो
तुम उदासी
अनुभव करोगे,
इस उदासी को
निकाल फेंको—तुम
रोना, सुबकना
आरंभ कर दोगे।
रोओ, सुबको,
आंसुओ को
बहने दो।
उनमें कुछ गलत
नहीं है।
संसार की
सर्वाधिक सुंदर
चीजों में से
एक हैं आंसू
इतने विश्रांतिदायक,
इतने
शांतिदायी।
और जब आंसू जा
चुके हैं, अचानक
तुम एक और
भावना को
देखोगे, तुम्हारे
भीतर कहीं
गहराई में
फैलती हुई एक
मुस्कुराहट, क्योंकि जब
उदासी निकल
जाती है, व्यक्ति
एक बहुत
स्निग्ध, कोमल,
नाजुक, प्रसन्नता
का अनुभव करने
लगता है। यह
आएगी, यह
उभरेगी और यह
तुम्हारे
सारे
अस्तित्व पर परिव्याप्त
हो जाएगी। और
तब तुम देखोगे
कि पहली बार
तुम हंस रहे
हो—पेट की
हंसी—स्वामी
सरदार
गुरदयाल सिंह
की भांति एक
पेट की हंसी।
उनसे सीख लो।
वे इस आश्रम
में हमारे
जोरबा दि
ग्रीक हैं। उनसे
सीखो कि हंसा
कैसे जाए।
जब
तक तुम्हारे
पेट से तरंगें
न उठे तुम हंस
नहीं रहे हो।
लोग सिर से
हंसते है; उनको
पेट से हंसना
चाहिए। उदासी
की निर्जरा हो
जाने के बाद
तुम हंसी को, करीब—करीब
पगला देने
वाली हंसी, एक
विक्षिप्त सी
हंसी को उठता
हुआ देखोगे।
तुम ऐसे हो
जाते हो जैसे
कि तुम आविष्ट
हो गए हो और
तुम जोर से
हंसते हो। और
जब यह हंसी
विदा हो चुकी
है तुम हलका, निर्भार, उड़ता हुआ
अनुभव करोगे।
पहले यह
तुम्हारे स्वप्नों
में प्रकट
होगा। और धीरे—
धीरे
तुम्हारी
जागी हुई
अवस्था में भी
तुम अनुभव
करोगे कि तुम
अब चल नहीं
रहे हों—तुम
उड़ रहे हो।
हो, चेस्टरटन
सही कहता है :
फरिश्ते उड़ते
हैं, क्योंकि
वे अपने आप को
हलके ढंग से
लेते हैं।
स्वयं को हलके
ढंग से लो।
अहंकार
स्वयं को बहुत
गंभीरता से
लेता है। अब
एक समस्या है; धर्म
में अहंकारी
लोग अत्यधिक
उत्सुक हो जाते
हैं। और
वास्तव में वे
धार्मिक हो
पाने के लिए
करीब—करीब
असमर्थ हैं।
केवल वे लोग
जो गैर—गंभीर
हैं धार्मिक
हो सकते हैं, लेकिन वे
धर्म में कोई
बहुत अधिक
उत्सुक नहीं होते।
इसलिए एक
विरोधाभास, एक समस्या
संसार में बनी
रहती है।
गंभीर लोग, गा लोग, उदास
लोग—अपने
सिरों में
अटके हुए आशंकित
लोग, वे
धर्म में बहुत
उत्सुक हो
जाते हैं, क्योंकि
धर्म उनके
अहंकार के लिए
सबसे बड़ा लक्ष्य
दे देता है।
वे दूसरे
संसार का कुछ
कर रहे हैं, और सारा
संसार बस इसी
संसार का
कार्य कर रहा
है—वे
भौतिकवादी
हैं, निंदनीय
हैं।
प्रत्येक
व्यक्ति नरक
जा रहा है; केवल
ये धार्मिक
लोग स्वर्ग जा
रहे हैं। अपने
अंहकारों में
वे लोग बहुत—बहुत
ताकतवर अनुभव
करते हैं।
किंतु ये वे
ही लोग हैं जो
धार्मिक नहीं
हो सकते हैं।
ये वे ही लोग
हैं जिन्होने
विश्व के सभी
धर्मों को
नष्ट कर डाला
है।
जब
भी किसी बुद्ध
का उदय होता
है,
ये लोग
एकत्रित होना
आरंभ कर देते
हैं। जब वह
जीवित होता है
वह उनको
शक्तिशाली
होने की
अनुमति नहीं
देता। लेकिन
जब वह विदा हो
जाता है, धीरे—
धीरे ये गंभीर
लोग गैर—गंभीर
लोगों के साथ
चालाकी करना
आरंभ कर देते हैं।
इसी प्रकार से
सारे धर्म
संगठित हो
जाते हैं और
सारे धर्म मृत
हो जाते हैं।
जब बुयरुष
यहां होता है
वह अपनी
मुस्कुराहट बिखेरता
रहता है और वह
लोगों की
सहायता करता
रहता है।
इसलिए
अनेक बार
मैंने यह
कहानी कही है, कि
बुद्ध एक दिन
अपने हाथ में
एक फूल लेकर
आते हैं और
चुपचाप बैठ
जाते हैं। कई
मिनट बीत गए, फिर कोई
घंटा भर हो
गया और
प्रत्येक
व्यक्ति असहज,
चिंतित, परेशान
है; वे बोल
क्यों नहीं
रहे हैं? पहले
कभी उन्होंने
ऐसा नहीं किया
था? और वे
लगातार फूल को
ही देखते रहे
जैसे कि वे उन
हजारों लोगों
को भूल चुके
हों जो उनको
सुनने के लिए
एकत्रित हुए
थे। और फिर एक
शिष्य
महाकश्यप ने
हंसना आरंभ कर
दिया, पेट
की हंसी। उस
शांत मौन में
उसकी हंसी फैल
जाती है।
बुद्ध उसकी ओर
देखते हैं। उस
शांत मौन में
उसकी हंसी फैल
जाती है।
बुद्ध उसकी ओर
देखते हैं और
उसको निकट
बुलाते हैं, फूल उसको दे
देते हैं और
कहते हैं जो
कुछ मैं शब्दों
से कह सकता
हूं मैंने
तुमसे कह दिया
है, और जो
कुछ मैं
शब्दों से
नहीं कह सकता
हूं उसको मैं
महाकश्यप को
प्रदान करता
हूं—हंसते हुए
महाकश्यप को।
अपनी विरासत
बुद्ध ने हंसी
को प्रदान कर
दी है? लेकिन
महाकश्यप खो
जाता है। वे
गंभीर लोग जो
समझ नहीं पाते
चालाकी कर लेते
हैं। जब बुद्ध
विदा हो जाते
हैं, महाकश्यप
के बारे में
कोई कुछ भी
नहीं सुनता है।
लेकिन
महाकश्यप को
क्या हुआ
जिसको बुद्ध
ने सबसे गुप्त
संदेश दिया।
वह संदेश
जिसको शब्दों
द्वारा नहीं
दिया जा सकता,
वह जिसको
केवल मौन और
हंसी में लिया
और दिया जा
सकता है, वह
संदेश जिसको
केवल
आत्यंतिक मौन
द्वारा आत्यंतिक
हंसी को ही
दिया जा सकता
है? महाकश्यप
को क्या हो
गया? बौद्ध
शास्त्रों
में कुछ भी
उल्लेख नहीं
है—केवल यही
एक मात्र कथा
है, बस बात
खत्म। जब
बुद्ध विदा हो
गए महाकश्यप
को भुला दिया
गया, फिर
गंभीर लंबे
चेहरे वालों
ने संगठन
बनाना आरंभ कर
दिया। हंसी को
कौन सुनेगा? और महाकश्यप
वापस लौट कर
आएगा, क्यों
चिंता करना? —ये गंभीर
लोग इतना अधिक
लडू—झगडू रहे
थे कि वह
व्यक्ति जो
हंसी को प्रेम
करता है
प्रतियोगियों
की इस पागल
भीड़ से बाहर निकल
आएगा। बुद्ध
संघ बुद्ध के
समुदाय का
अधिष्ठाता
कौन होने जा
रहा है? —और राजनीति
और संघर्ष, और मतदान और
सभी कुछ का
प्रवेश हो
जाता है।
महाकश्यप बस
खो जाता है।
उसकी मृत्यु
कहां हुई—कोई
नहीं जानता।
बुद्ध के
वास्तविक
उत्तराधिकारी
को कोई नहीं
जानता। कई
शताब्दिया, लगभग छह
शताब्दिया
व्यतीत हो गईं,
फिर एक अन्य
व्यक्ति
बोधिधर्म चीन
पहुंचता है।
पुन: महाकश्यप
का नाम सुना
जाता है, क्योंकि
बोधिधर्म
कहता है, मैं
संगठित
बौद्धधर्म का
अनुयायी नहीं
हूं। मैंने
अपना संदेश
सदगुरुओं की
सीधी श्रृंखला
से लिया है।
यह श्रृंखला
बुद्ध के
द्वारा
महाकश्यप को
फूल देने से
आरंभ हुई थी
और मैं छठवां
हूं। बीच के
अन्य चार कौन
थे? —लेकिन
यह एक गुप्त
बात हो गई है।
जब विक्षिप्त
लोग अत्यधिक
महत्वाकांक्षी
हो जाते हैं
और राजनीति
ताकतवर हो
जाती है तो
हंसी छिप जाती
है। यह एक
व्यक्तिगत, अंतरंग
संबंध बन जाती
है। महाकश्यप
ने चुपचाप
अपना संदेश
किसी को दे दिया
होगा और फिर
उसने किसी और
को दे दिया
होगा और इसी
प्रकार से
किसी ने
बोधिधर्म को
दिया होगा।
बोधिधर्म
चीन किसलिए
गया था? झेन
बौद्ध लोग
शताब्दियों
से पूछते रहे
हैं, क्यों?
यह
बोधिधर्म चीन
क्यों गया था?
मैं जानता हूं
उसका कारण है।
चीनी लोग
भारतीयों से
अधिक प्रसन्न,
जीवन और
छोटी—छोटी
चीजों से अधिक
आनंदित, अधिक
बहुरंगी
अभिरुचियों
वाले हैं। यही
कारण होना
चाहिए कि
क्यों
बोधिधर्म ने
इतनी लंबी
यात्रा की, उन लोगों को
खोजने और पाने
के लिए जो
उसके साथ हंस
सकें, और
जो लोग गंभीर
नहीं थे, न
ही महान
विद्वान और
दर्शनशास्त्री
और यह और वह थे,
उसने सारा
हिमालय पार
किया। नहीं, चीन ने वैसे
महान
दर्शनशास्त्री
उत्पन्न नहीं
किए जैसे भारत
ने। उसने
लाओत्सु और
च्चांगत्सु
जैसे कुछ महान
रहस्यदर्शी
निर्मित किए,
लेकिन वे
सभी हंसते हुए
बुद्ध थे। बोधिधर्म
की चीन की ओर
जाने की खोज
को उन लोगों
की खोज होना
चाहिए जो गैर—गंभीर,
हलके थे।
यहां
पर मेरा पूरा
प्रयास तुमको
गैर—गंभीर, हंसता
हुआ, हलका
बना देने का
है। मेरे पास
लोग, खास
तौर से भारतीय,
शिकायत
करने आते हैं
कि आप किस
प्रकार के
संन्यासी
निर्मित कर
रहे हैं? वे
संन्यासी
जैसे नहीं
दिखाई पड़ते।
संन्यासी को
गंभीर
व्यक्ति, लगभग
मुर्दा, एक
लाश की भांति
होना चाहिए।
ये लोग हंसते
हैं और नृत्य
करते हैं और
एक—दूसरे का
आलिंगन करते
हैं।
अविश्वसनीय
है यह!
संन्यासी यह
कर रहे हैं? और मैं उनसे
कहता हूं और
कौन? और
कौन यह यह कर
सकता है?—केवल
संन्यासी लोग
ही हंस सकते
हैं।
इसलिए
विद्या, बहुत
अच्छा—हंसो, आनंदित होओ,
और—और हलकी
हो जाओ।
तीसरा प्रश्न:
आपका
प्रत्येक प्रवचन
जीवन में एक नया
गुण लेकर आता
है। कभी—कभी मैं
आपकी उपस्थिति
से ओत—प्रोत होकर
बाहर निकलती हूं, तो
कभी—कभी दिग्भ्रमित
और इसके साथ ही
समृद्ध, नई
होकर बाहर आती
हूं। मैं जीवन
के द्वारा प्रेम
कियाजाना और प्रेमपूर्ण
अनुभव करती हूं।
कभी सबसे मधुर
दर्शन के बाद भी
मैं गहराई से हताश
अनुभव करती हूं।
क्या आप इसके
बारे में कुछ कहेंगे?
यह
प्रश्न
प्रपत्ति ने
पूछा है।
हां, मैं
जानता हूं कि
यह घटित होता
है। इसको घटित
होना ही है।
यह गहन रूप से
विचारणीय है;
मैं चाहता
हूं कि यह इसी
प्रकार से
घटित हो। जब
तुम सुबह के
प्रवचन में
मुझको सुन रही
होती हो तो
मैं तुमसे
व्यक्तिगत
रूप से बात
नहीं कर रहा
होता हूं। मैं
किसी व्यक्ति
से व्यक्तिगत
रूप से बात नहीं
कर रहा हूं।
मैं किसी
विशेष
व्यक्ति से
बात नहीं कर
रहा हूं मैं
बस बोल रहा
हूं।
निःसंदेह
इसमें तुम
सम्मिलित
नहीं हो, तुम
मात्र एक
श्रोता हो।
यदि मैं
तुम्हारे
सिरों पर
प्रहार करता
हूं तो भी
सदैव तुम यही
सोच लेती हो
कि यह दूसरों
के लिए है, तुम
सदैव बहाने
खोज सकती हो :
ओशो इसको
दूसरों के लिए
कर रहे हैं, और अच्छे
ढंग से कर रहे
हैं। तुम सदैव
अपने आप को
बाहर रख सकती
हो। लेकिन
प्रपत्ति, संध्या
के समय जब तुम
दर्शन में आती
हो तो मैं विशेष
रूप से तुमसे
ही बात कर रहा
होता हूं। तब
मैं तुम पर
चोट करता हू
और तुम इससे
बच नहीं सकती।
और मुझे पता
है कि तुमको
कई चोटों की
आवश्यकता है,
क्योंकि
तुमको जगाने
का कोई और
उपाय नहीं है।
जगाने वाले
अलार्म को
झकझोरने वाला
और कठोर होना
पड़ता है, और
जिस समय तुम
सोए रहना पसंद
करोगी, अलार्म
तुमको बाधा
पहुंचाता है।
वास्तव में, ठीक उन्हीं
पलों में जब
तुम असल में
सोना चाहते थे,
अचानक
अलार्म बज
उठता है।
जब
कभी मैं
तुम्हारे मन
में निद्रा का
कोई अंश देखता
हूं मुझको
तुम्हारे ऊपर जोर
से प्रहार
करना पड़ता है।
और निःसंदेह, दर्शन
में तुम मेरा
सामना कर रही
होती हो, यह
एक मुठभेड़ है,
और तुम हताश
अनुभव करती हो।
यदि तुम समझ
जाओ तो तुम
परितृप्त
अनुभव करोगी
हताश नहीं, यदि तुम समझ
जाओ तो तुम
देख लोगी कि
मैं क्यों तुम
पर इतनी
कठोरता से
प्रहार करता
हूं। मैं
तुम्हारा
शत्रु नहीं
हूं। यह करुणा
के कारण होना
चाहिए कि मैं
तुम पर इतना
जोर से प्रहार
करता हूं। यदि
तुम मुझको समझ
सको तो तुम
आभारी होगी कि
मैंने
तुम्हारे ऊपर
चोट करने की
चिंता की।
मैं
तुमको कुछ
कहानियां
सुनाता हूं :
एक
व्यक्ति एक
बड़े स्टोर में
गया और दैनिक
उपयोग की कुछ
वस्तुएं
खरीदीं। जब वह
भुगतान
काउंटर खड़ा था
तो उसने स्टोर
सहायक के पैर
पर लात मार दी।
फिर उसने
क्षमायाचना
की,
महोदय, मुझको
अपनी इस हरकत
पर बेहद शर्म
और खेद है। यह
मेरी एक गलत
आदत है।
तो
आप इसके बारे
में किसी
चिकित्सक से
संपर्क क्यों
नहीं करते? स्टोर
सहायक ने पूछा।
अगली
बार वह जल्दी
ही स्टोर में
सामान खरीदने आया।
इस बार ऐसा
कुछ नहीं हुआ।
मुझको
लगता है कि आप
ठीक हो गए हैं, सहायक
ने कहा, क्या
आप
मनोचिकित्सक
के पास गए मैं
गया था, उस
व्यक्ति ने
कहा।
उन्होंने
आपको किस
भांति ठीक
किया? सहायक
ने पूछा।
हुआ
यह,
उस व्यक्ति
ने कहा, जब
मैंने उसके
पैर पर लात
मारी तो उसने
वापस मुझे लात
मार दी— और
बहुत जोर से
मारी।
इसलिए
याद रखो, जब
तुम मेरे पास
आती हो, यदि
तुम मुझको चोट
पहुंचाओ, तो
मैं तुम पर
बहुत जोर से
प्रहार करने
वाला हूं। और
कभी—कभी तो
यदि तुम
प्रहार न करो
तो भी मैं
प्रहार कर
देता हूं।
तुम्हारे
अहंकार को
खंडित करना
पड़ता है, इसी
कारण हताशा.
होती है। यह
हताशा अहंकार
की है, यह
हताशा
तुम्हारी
नहीं है। मैं
तुम्हारे अहंकार
को अनुमति
नहीं देता, मैं इसे
किसी भी तरह
का दृश्य या
अदृश्य सहारा
नहीं देता।
लेकिन सुबह के
प्रवचन में यह
बहुत सरल है।
जो भी प्रहार
मैं करता हूं
वह दूसरों के
लिए 'होता
है, और जो
कुछ भी तुमको
अच्छा लगता है
तुम्हारे लिए
होता है, तुम
चुनाव कर सकती
हो। लेकिन
संध्या दर्शन
में नहीं।
तुमको
मैं एक कहानी
और सुनाता हू।
स्त्री
क्या तुम
मुझको अपने
पूरे हृदय और
आत्मा से
प्रेम करते हो?
पुरुष.
ओह,
हां।
स्त्री
: क्या तुम
सोचते हो कि
मैं संसार में
सबसे सुंदर
स्त्री हूं?
पुरुष
ही।
स्त्री
क्या तुम
सोचते हो कि
मेरे होंठ गुलाब
की पंखुड़ियों
जैसे हैं, मेरी
आंखें झील
जैसी हैं, मेरे
बाल रेशम जैसे
हैं।
पुरुष
ही।
स्त्री.
ओह,
तुम कितनी
प्यारी बातें
करते हो।
सुबह
के प्रवचन में, यह
बहुत सरल है, तुम जिस पर
विश्वास करना
चाहो कि मैं
तुमसे कह रहा
हू विश्वास कर
सकती हो।
लेकिन संध्या
के दर्शन में
यह असंभव है।
लेकिन, स्मरण
रखो कि
तुम्हारी
सहायता करने
के लिए मैं
तुम पर कठोर
प्रहार करता
हूं। यह प्रेम
और करुणा के
कारण है। जब
कोई अजनबी
मेरे पास आता
है, मैं उस
पर दर्शन तक
में कोई
प्रहार नहीं
करता हूं।
वास्तव में
मैं कोई संबंध
निर्मित नहीं
करता हूं
क्योंकि मेरी
ओर से किया
गया संबंध
बिजली के झटके
जैसा होने जा
रहा है। केवल
संन्यासियों
के साथ मैं और
कठोर हूं और जब
मैं देखता हूं
कि तुम्हारी
क्षमता
महत्तर है तो
मैं कठोर हो
जाता हूं।
प्रपत्ति में
महत क्षमता है।
वह
सुंदरतापूर्ण
ढंग से विकसित
और पुष्पित हो
सकती है, और
बहुत कम समय
में यह हो
सकता है, लेकिन
उसको बहुत:
अधिक काट—छांट
की आवश्यकता
है। इससे पीड़ा
होती है। याद
रखो, जब
कभी पीड़ा हो, सदैव
निरीक्षण
करो... और तुम
देखोगी कि यह
अहंकार है
जिसको पीड़ा
होती है, तुम
नहीं हो।
अहंकार को
गिरा कर, अहंकार
को काट—छांट कर,
एक दिन तुम,
तुम उससे, बादल से
बाहर निकल
आओगी। और तब
तुम मेरे
प्रेम को और
मेरी करुणा को
समझोगी, इससे
पहले नहीं।
मुझसे
लोग पूछते हैं, 'यदि
हम संन्यासी
नहीं हैं, तो
क्या आप हमारी
सहायता नही
करेंगे?' मैं
सहायता
करने के लिए
तैयार हूं
किंतु
तुम्हारे लिए
यह सहायता ले
पाना कठिन
होगा। एक बार
तुम संन्यासी
हो जाओ, तुम
मेरा भाग बन
जाते हो। फिर
जो कुछ भी मैं
करना चाहूं कर
सकता हूं और तब
मैं तुम्हारी
अनुमति लेने
की फिकर भी
नहीं करता, अब उसकी
आवश्यकता न
रही। एक बार
तुम संन्यासी
बन गए, तो
तुमने मुझको
सारी अनुमति
दे दी है, तुमने
मुझको पूरा
अधिकार दे
दिया है। जब
तुम संन्यास
लेते हो तो
तुम मुझको
अपना हृदय
दिखा कर सहमति
दे रहे हो।
तुम कह रहे हो : 'अब मैं यहां
हूं जो कुछ आप
करना चाहें कर
लें।’ और
निःसंदेह
मुझको अनेक
ऐसे भाग काटने
पड़ते हैं जो
गलती से
तुम्हारे साथ
जुड़ गए हैं।
यह करीब—करीब
एक शल्य—क्रिया
होने जा रही
है। अनेक
चीजों को
हटाना, निष्क्रिय
करना पड़ता है।
अनेक चीजों को
तुम्हारे साथ
जोड़ना पड़ता है।
तुम्हारी
ऊर्जा को नये
रास्तों पर
जाने के लिए
व्यवस्थित
करना पड़ता है;
यह गलत
दिशाओं में गति
कर रही है।
इसलिए यह लगभग
विध्वंस करने
और फिर पुन:
निर्माण करने
जैसा है। यह
करीब—करीब एक
उपद्रव होने
जा रहा है।
किंतु स्मरण
रखो, कि
नृत्य करते
हुए सितारों
का जन्म
उपद्रव में से
ही होता है, दूसरा कोई
रास्ता नहीं
है।
अंतिम
प्रश्न:
पूरब
में इस बात पर
बल दिया जाता
है कि व्यक्ति
को प्रेम—संबंध
में एक व्यक्ति
एक ही व्यक्ति
के साथ बने रहना
चाहिए। पश्चिम
में अब लोग एक संबंध
से दूसरे संबंध
में चले जाते है।
आप किसके पक्ष
में है?
मैं
प्रेम के पक्ष
में हूं।
मुझको
तुम्हारे लिए
यह बात स्पष्ट
करने दो : प्रेम
के प्रति
ईमानदार रहो
और साथियों की
चिंता मत करो।
भले ही साथी
एक हो या अनेक
साथी हों, प्रश्न
यह नहीं है।
प्रश्न यह है
कि क्या तुम
प्रेम के
प्रति
ईमानदार हो? यदि तुम
किसी स्त्री
या पुरुष के
साथ रहते हो और
उसको प्रेम
नहीं करते हो,
तो तुम पाप
में जीते हो।
यदि तुम्हारा
किसी से विवाह
हुआ है और तुम
उस व्यक्ति को
प्रेम नहीं
करते हो, और
फिर भी तुम
उसके साथ जीए
चले जाते हो., उस स्त्री
या पुरुष के
साथ प्रेम
करते रहते हो,
तो तुम
प्रेम के
विरोध में एक
पाप कर रहे हो...
और प्रेम
परमात्मा है।
तुम
सामाजिक
औपचारिकताओं, सुविधाओं,
सहूइलयतों
के लिए प्रेम
के विपरीत
निर्णय ले रहे
हो। यह उतना
ही अनुचित है
जितना कि तुम
जाकर किसी स्त्री
के साथ
बलात्कार कर
लो जिससे तुम्हारा
कोई प्रेम
नहीं है। तुम
किसी स्त्री
के साथ
बलात्कार
करते हो, तो
यह एक अपराध
है—क्योंकि
तुम उस स्त्री
से प्रेम नहीं
करते और वह
स्त्री तुमको
प्रेम नहीं
करती। लेकिन,
यदि तुम
किसी स्त्री
के साथ रहते
हो और तुम उसको
प्रेम नहीं
करते, तब
भी ऐसा ही
होता है। तब
एक बलात्कार
है यह, निःसंदेह
यह सामाजिक
रूप से
स्वीकृत है
किंतु यह
बलात्कार है—और
तुम प्रेम के
देवता के
विपरीत जा रहे
हो।
इसलिए
जैसे कि पूरब
में लोगों ने
अपने संपूर्ण
जीवन के लिए
एक साथी के
साथ रहने का
निर्णय ले
लिया है, इसमें
कुछ भी गलत
नहीं है। यदि
तुम प्रेम के
प्रति सच्चे
बने रहते हो
तो एक व्यक्ति
के साथ रहते
रहना सुंदरतम
बात है, क्योंकि
घनिष्ठता
विकसित होती
है। लेकिन
निन्यानबे
प्रतिशत
संभावनाएं तो
यही हैं कि
वहां कोई
प्रेम नहीं
होता, केवल
तुम साथ—साथ
रहते हो। और
साथ—साथ रहने
से एक प्रकार
का संबंध
विकसित हो
जाता है, जो
कि केवल साथ—साथ
रहने से बन
गया है, प्रेम
के कारण नहीं
बना है। और
इसे प्रेम
समझने की गलती
मत करना। किंतु
यदि ऐसा संभव
हो जाए, यदि
तुम एक
व्यक्ति को
प्रेम करो और
उसके साथ पूरा
जीवन रहते हो,
तो एक गहरी
घनिष्ठता
विकसित होगी,
और प्रेम
तुम्हारे लिए
गहनतर और
गहनतर रहस्योदघाटन
करेगा। यदि
तुम अक्सर
अपने जीवन—साथी
को बदलते रहो
तो यह संभव
नहीं है। यह
इस प्रकार से
है जैसे कि
तुम किसी
वृक्ष को उखाड़
कर उसका स्थान
बदल दो; कुछ
समय बाद पुन:
बदल दो, तब
यह कभी अपनी
जड़ों को कहीं
जमा नहीं सकता।
जड़ें जमाने के
लिए वृक्ष को
एक स्थान पर
बने रहने की
आवश्यकता है,
तब यह गहराई
में जाता है, तब यह और
शक्तिशाली हो
जाता है।
घनिष्ठता
अच्छी बात है,
और एक
प्रतिबद्धता
में बने रहना
सुंदर है, किंतु
आधारभूत
आवश्यकता हैं—प्रेम।
यदि वृक्ष को
ऐसे स्थान पर
लगा दिया जाए
जहां पर केवल
चट्टानें हैं और
वे वृक्ष को
मारे डाल रही
हैं, तब
वृक्ष को हटा
देना ही बेहतर
है। तब यह
आग्रह मत करो
कि उसको एक ही
स्थान पर बने रहना
चाहिए। जीवन
के प्रति
सच्चे बने रहो,
वृक्ष को
हटा दो, क्योंकि
अब यह मामला
जीवन के
विपरीत जा रहा
है।
पश्चिम
में लोग बदल
रहे हैं—बहुत
से संबंध।
प्रेम की
दोनों उपायों
से हत्या होती
है। पूरब में
इसको मार डाला
गया है, क्योंकि
लोग परिवर्तन
से भयभीत हैं,
पश्चिम में
इसकी हत्या की
गई, क्योंकि
लोग एक साथी
के साथ लंबे
समय तक रहने से
भयभीत हैं, भयग्रस्त
हैं, क्योंकि
यह एक
प्रतिबद्धता
बन जाता है।
इसलिए इससे
पहले कि यह एक
प्रतिबद्धता
बन जाए, बदल
डालों। इस प्रकार
तुम मुक्त और
स्वतंत्र बने
रहते हो और एक
खास प्रकार की
आवारगी बढ़ने
लगती है। ओर
स्वतंत्रता
के नाम पर
प्रेम को करीब—करीब
कुचल दिया गया
है, मौत के
मुहाने पर खड़ा
है प्रेम।
प्रेम को
दोनों उपायों
से क्षति
पहुंची है पूरब
में लोग
सुरक्षा, सुविधा
तथा
औपचारिकता से
आसक्त हैं; पश्चिम में
वे अपने
अहंकार की
स्वतंत्रता, अप्रतिबद्धता
से आसक्त हैं—लेकिन
प्रेम को
दोनों उपायों
के कारण क्षति
पहुच रही है।
मैं
प्रेम के पक्ष
में हूं। न
मैं पूर्वीय
हूं और न
पाश्चात्य, और
मैं इस बात की
जरा भी चिंता
नहीं करता कि
तुम किस समाज
के हो। मैं
किसी समाज का
नहीं हूं। मैं
प्रेम के पक्ष
में हूं। सदैव
स्मरण रखो, यदि यह
प्रेम का
संबंध है, तो
शुभ है।
जब
तक प्रेम जारी
है,
उसमें बने
रहो, और
जितना संभव हो
सके उतनी
गहराई से प्रतिबद्ध
रहो।
जितनी
समग्रता से
संभव हो सके
इसमें रहो, संबंध
में डूब जाओ।
तब प्रेम
तुमको
रूपांतरित कर
पाने में
समर्थ हो
जाएगा। किंतु
यदि प्रेम
नहीं है, तो
परिवर्तन कर
देना बेहतर है।
किंतु तब
बदलाहट को
अपनी लत मत बन
जाने दो, इसको
एक आदत मत
बनाओ। इसको एक
यात्रिक आदत
मत बनने दो कि
प्रत्येक दो
या तीन वर्ष
बाद परिवर्तन
करना ही है, जैसे कि
व्यक्ति को
प्रत्येक दो
या तीन वर्ष के
बाद या
प्रत्येक
वर्ष के बाद
अपनी कार को
बदलना पडता है।
एक नया मॉडल
बाजार में आ
गया है, अब
क्या किया जाए?
—तुमको
अपनी कार
बदलना ही
पडेगी। अचानक
तुम्हारी
भेंट किसी नई
स्त्री से हो
जाती है।
उसमें कोई खास
अंतर नहीं है।
स्त्री वैसे
ही एक स्त्री
है जैसे कि
पुरुष एक
पुरुष है।
अंतर तो गौण
हैं, क्योंकि
यह प्रश्न
ऊर्जा का है।
स्त्रैण
ऊर्जा तो
स्त्रैण
ऊर्जा ही है।
प्रत्येक
स्त्री में
सारी
स्त्रियों का
प्रतिनिधित्व
है, और
प्रत्येक
पुरुष में सभी
पुरुषों का
प्रतिनिधित्व
है। अंतर बहुत
सतही हैं : नाक
थोड़ी सी लंबी
है या यह कुछ
लंबी नहीं है;
बाल सुनहरे
हैं या काले—छोटे—छोटे
अंतर, बस
ऊपरी सतह के।
गहराई में
प्रश्न
स्त्रैण
ऊर्जा या
पुरुष ऊर्जा
का है। इसलिए
यदि प्रेम है
तो उससे आबद्ध
रहो। इसको
विकसित होने
का एक अवसर दो।
किंतु यदि यह
नहीं है, तो
इसके पहले कि
तुम
प्रेमविहीन
संबंध के आदी हो
जाओ, परिवर्तन
कर लो।
पश्चात्ताप—कक्ष, कफेशनल
बाक्स में एक
युवा
विवाहिता ने
पादरी से गर्भ—निरोधक
गोलियों के
प्रयोग के
बारे में पूछा।
तुमको उनका
उपयोग नहीं
करना चाहिए, पादरी ने
कहा। वे
परमेश्वर के
नियम के
प्रतिकूल हैं।
एक गिलास पानी
पी लो।
गोली
खाने से पहले
या उसके बाद, विवाहिता
ने पूछा।
उसके
स्थान पर! पादरी
ने उत्तर दिया।
तुम
मुझसे पूछते
हो कि पूर्वीय
ढंग का अनुगमन
किया जाए या
पश्चिमी ढंग
का?
किसी
का भी नहीं; तुम
दिव्य ढंग का
अनुगमन करो।
और दिव्य ढंग
क्या है? —प्रेम के
प्रति
ईमानदार बने
रहो। यदि
प्रेम है, तो
प्रत्येक बात
की अनुमति है।
यदि प्रेम
नहीं है, तो
किसी बात की
अनुमति नहीं
है। यदि तुम
अपनी पत्नी से
प्रेम नहीं
करते, तो
उसको मत छुओ, क्योंकि यह
अनाधिकार
चेष्टा है।
यदि तुम किसी
स्त्री को
प्रेम नहीं
करते, तो
उसके साथ सोओ
मत; यह
प्रेम के
नियमों के
प्रतिकूल
जाना है, और
वही परम निवम
है। केवल तब
जब तुम प्रेम
करते हो, प्रत्येक
बात की अनुमति
है।
किसी
ने हिप्पो के
आस्तीन से
पूछा, 'मैं एक
नितांत अनपढ़
आदमी हूं और
मैं धर्म, वितान
की महान
पुस्तकें और
धर्मशास्त्र
नहीं पढ़ सकता
हूं। आप मुझे
बस एक छोटा सा
संदेश दे
दीजिए। मैं
बहुत मूर्ख
हूं और मेरी
याददाश्त भी
अच्छी नहीं है,
—इसलिए
कृपया मुझे
कोई सार की
बात बता दीजिए
जिससे मैं उसे
याद रख सकूं
और उसका
अनुपालन कर सकूं।’
अगस्तीन एक
बड़े
दर्शनशास्त्री,
महान संत थे, और
उन्होंने बड़े—बड़े
उपदेश दिए थे,
लेकिन किसी
ने उनसे बस
सारांश के लिए
नहीं पूछा था।
उन्होंने
अपनी आंखें
बंद कर लीं और
यह कहा गया है
कि वे घंटों
ध्यानमग्न
रहे। और उस
व्यक्ति ने
कहा, यदि
आपने उत्तर
खोज लिया है, तो कृपया
मुझको बता
दीजिए जिससे
मैं वापस लौट जाऊं,
क्योंकि
मैं घंटों से
प्रतीक्षा कर
रहा हूं।
अगस्तीन ने
कहा : मैं
सिवाय इसके और
कुछ नहीं खोज
सका हूं प्रेम
करो और फिर
तुमको हर बात
की अनुमति दी
जाती है—बस
प्रेम।
जीसस
कहते हैं :
परमात्मा
प्रेम है। मैं
तुमसे कहना
चाहूंगा कि
प्रेम
परमात्मा है।
परमात्मा के
बारे में सब
कुछ भूल जाओ, प्रेम
पर्याप्त है।
प्रेम के साथ
चल पाने का
पर्याप्त साहस
बनाए रहो। और
किसी बात की
चिंता मत लो।
यदि तुम प्रेम
का खयाल कर
लेते हो, तो
तुम्हारे लिए
सभी कुछ संभव
हो जाएगा।
पहली
बात,
किसी
स्त्री या
पुरुष के साथ
जिससे तुमको
प्रेम नहीं है,
मत जाओ।
किसी सनक के
चलते मत जाओ, किसी वासना
के कारण मत
जाओ। खोजो, क्या किसी व्यक्ति
के साथ
प्रतिबद्ध
रहने की
आकांक्षा तुममें
जाग चुकी है।
क्या गहरा
संबंध बनाने
के लिए तुम
पर्याप्त रूप
से परिपक्व हो?
क्योंकि यह
संबंध
तुम्हारे
सारे जीवन को
बदलने जा रहा
है। और जब तुम
संबंध बनाओ तो
इसको पूरी
सच्चाई से बनाओ।
अपनी प्रेयसी
या अपने
प्रेमी से कुछ
भी मत छिपाओ—ईमानदार
बनो। उन सभी
झूठे चेहरों
को गिरा दो, जिनको पहनना
तुम सीख चुके
हो। सभी
मुखौटे हटा दो।
सच्चे हो जाओ।
अपना पूरा
हृदय खोल दो, नग्न हो जाओ।
दो प्रेम करने
वालों के बीच
में कोई रहस्य
नहीं होना
चाहिए, वरना
प्रेम नहीं है।
सारे भेद खोल
दो। यह
राजनीति है; रहस्य रखना
राजनीति है।
प्रेम में ऐसा
नहीं होना
चाहिए। तुमको
कुछ भी छिपाना
नहीं चाहिए।
जो कुछ भी
तुम्हारे
हृदय में उठता
है उसे तुम्हारी
प्रेयसी के
लिए स्पष्ट
रूप से
पारदर्शी
होना चाहिए।
तुमको एक—दूसरे
के प्रति दो
पारदर्शी
अस्तित्व बन
जाना चाहिए।
धीरे— धीरे
तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कि तुम एक
उच्चतर एकत्व
की ओर विकसित
हो रहे हो।
बाहर
की स्त्री से
मिल कर, उससे
सच्चाई से मिल
कर, उसको
प्रेम करते
हुए, उसके
अस्तित्व के
प्रति स्वयं
की प्रतिबद्धता
जारी रखते हुए,
उसमें
विलीन होते
हुए, उसमें
पिघल कर, धीरे—
धीरे तुम उस
स्त्री से
मिलना आरंभ कर
दोगे जो तुम्हारे
भीतर है, तुम
उस पुरुष से
मिलना आरंभ कर
दोगी जो
तुम्हारे
भीतर है। बाहर
की स्त्री
भीतर की
स्त्री की ओर
जाने का एक
मार्ग भर है; और बाहर का
पुरुष भी भीतर
के पुरुष की
ओर जाने का बस
एक रास्ता है।
वास्तविक चरम
सुख तुम्हारे
भीतर घटित
होता है, जब
तुम्हारे
भीतर का पुरुष
और स्त्री मिल
जाते हैं।
हिंदू धर्म के
अर्धनारीश्वर
प्रतीक का यही
अर्थ है। ताने
शिव को अवश्य
देखा होगा :
आधे पुरुष, आधी स्त्री।
प्रत्येक
पुरुष आधा
पुरुष है, आधा
स्त्री है; प्रत्येक
स्त्री आधी
स्त्री है, आधी पुरुष
है। ऐसा होना
ही है, क्योंकि
तुम्हारा आधा
अस्तित्व
तुम्हारे पिता
से आता है और
आधा अस्तित्व
तुम्हारी मां
से आता है।
तुम दोनों हो।
एक भीतरी चरम
आनंद, एक आंतरिक
मिलन, एक आंतरिक
संयोग की
आवश्यकता है।
लेकिन उस
भीतरी संयोग
तक पहुंचने के
लिए तुमको बाहर
की स्त्री
खोजनी पड़ेगी
जो भीतरी
स्त्री को
प्रतिसंवेदित
करती हो, जो
तुम्हारे आंतरिक
अस्तित्व को
स्पंदित करती
हो। और तब
तुम्हारी आंतरिक
स्त्री जो
गहरी नींद में
सो रही है, जाग
जाती है। बाहर
की स्त्री के
माध्यम से
तुम्हारा
भीतर की
स्त्री के साथ
सम्मिलन हो जाएगा;
और यही सब
भीतर के पुरुष
के लिए भी
होता है।
इसलिए
यदि संबंध
लंबे समय के
लिए चलता है, तो
यह बेहतर होगा;
क्योंकि आंतरिक
स्त्री को
जागने के लिए
समय चाहिए।
जैसा कि
पश्चिम में हो
रहा है—छूकर
भाग जाने वाले
संबंध—आंतरिक
स्त्री को समय
ही नहीं मिलता,
आंतरिक
पुरुष को समय
ही नहीं मिलता
कि उठे और जाग
जाए। जब तक
भीतर कुछ करवट
लेता है बाहर
की स्त्री जा
चुकी होती है..
.फिर कोई और
स्त्री दूसरे
प्रकार की
तरंगें लिए
हुए, अन्य
प्रकार का
परिवेश लिए
हुए आ जाती है।
और निःसंदेह
यदि तुम अपनी
स्त्री और
अपने पुरुष को
बदलते चले जाओ,
तो तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे; क्योंकि
तुम्हारे
अस्तित्व में
इतनी प्रकार
की चीजें, इतनी
प्रकार की
ध्वनियां, कंपनों
की इतनी सारी
विविधताएं
प्रविष्ट हो जाएंगी
कि तुम अपनी आंतरिक
स्त्री को खोज
पाने के स्थान
पर उलझ जाओगे।
यह कठिन होगा।
और संभावना यह
है कि तुम्हें
परिवर्तन की
लत पड जाएगी।
तुम बदलाहट का
मजा लेना आरंभ
कर दोगे। तब
तुम खो जाओगे।
बाहर
की स्त्री
भीतर की
स्त्री की ओर
जाने का रास्ता
भर है, और बाहर
का पुरुष भीतर
के पुरुष की
ओर जाने का मार्ग
है। और
तुम्हारे भीतर
परम योग, रहस्यमय—मिलन,
यूनिओ
मिस्टिका
घटित हो जाता
है। और जब यह
घटित हो जाता
है तब तुम
सारी स्त्रियों
और सारे
पुरुषों से
मुक्त हो जाते
हो। तब तुम
पुरुष और
स्त्रीपन से
मुक्त हो। तब
अचानक तुम
दोनों के पार
चले जाते हो; फिर तुम
दोनों में से
कुछ भी नहीं
रहते।
यही
है अतिक्रमण।
यही
ब्रह्मचर्य
है। तब पुन:
तुम अपने
शुद्ध
कुंआरेपन को
उपलब्ध कर
लेते हो, तुम्हारा
मौलिक स्वभाव
तुमको पुन:
मिल जाता है।
पतंजलि की
भाषावली में
यही कैवल्य है।
पतंजलि:
योग—सूत्र समाप्त
(ओशो)
एक परिचय
सत्य की
व्यक्तिगत
खोज से लेकर
ज्वलंत
सामाजिक व
राजनैतिक
प्रश्नों पर
ओशो की दृष्टि
उनको हर
श्रेणी से अलग
अपनी कोटि आप
बना देती है।
वे आंतरिक
रूपांतरण के
विज्ञान में
क्रांतिकारी
देशना के
पर्याय हैं और
ध्यान की ऐसी
विधियों के प्रस्तोता
हैं जो आज के
गतिशील जीवन
को ध्यान में
रख कर बनाई गई
हैं।
अनूठे
ओशो सक्रिय
ध्यान इस तरह
बनाए गए हैं
कि शरीर और मन
में इकट्ठे
तनावों का
रेचन हो सके, जिससे
सहज स्थिरता
आए व ध्यान की
विचार रहित दशा
का अनुभव हो।
ओशो
की देशना एक
नये मनुष्य के
जन्म के लिए
है,
जिसे
उन्होंने 'ज़ोरबा
दि बुद्धा ' कहा है—
जिसके पैर
जमीन पर हों, मगर जिसके
हाथ सितारों
को छू सकें।
ओशो के हर
आयाम में एक
धारा की तरह
बहता हुआ वह जीवन—दर्शन
है जो पूर्व
की समयातीत
प्रज्ञा और
पश्चिम के
विज्ञान और
तकनीक की
उच्चतम
संभावनाओं को
समाहित करता
है। ओशो के
दर्शन को यदि
समझा जाए और
अपने जीवन में
उतारा जाए तो
मनुष्य—जाति
में एक
क्रांति की संभावना
है।
ओशो
की पुस्तकें
लिखी हुई नहीं
है बल्कि पैंतीस
साल से भी
अधिक समय तक
उनके द्वारा
दिए गए तात्कालिक
प्रवचनों की
रिकार्डिंग
से अभिलिखित
हैं।
लंदन
के 'संडे टाइम्स'
ने ओशो को 'बीसवीं सदी
के एक हजार
निर्माताओं' में से एक
बताया है और
भारत के 'संडे
मिड—डे ' ने
उन्हें गांधी,
नेहरू और
बुद्ध के साथ
उन दस लोगों
में रखा है, जिन्होंने
भारत का भाग्य
बदल दिया।
आज
इतना ही।
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