'अमृत
वाणी'
से
संकलित सुधा—बिन्दु
1970—71
एक आकाश, एक स्पेस
बाहर है, जिसमें
हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं—जहां
भवन निर्मित
होते हैं और
खंडहर हो जाते
हैं। जहां
पक्षी उड़ते, शून्य
जन्मते और पृथ्वीयां
विलुप्त होती
है—यह आकाश
हमारे बाहर है।
किंतु यह आकाश
जो बाहर फैला
है, यही
अकेला आकाश
नहीं है— 'दिस
स्पेस इज
नाट द ओनली
स्पेस' —एक
और भी आकाश है,
वह हमारे
भीतर है। जो
आकाश हमारे
बाहर है वह
असीम है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, उसकी
सीमा का कोई
पता नहीं लगता।
लेकिन जो आकाश
हमारे भीतर
फैला है, बाहर
का आकाश उसके
सामने कुछ भी
नहीं है। कहें
कि वह असीम से
भी ज्यादा
असीम है। अनंत
आयामी उसकी
असीमता है— 'मल्टी डायमेंशनल
इनफिनिटी'
है।
बाहर के
आकाश में चलना,
उठना होता
है, भीतर
के आकाश में
जीवन है। बाहर
के आकाश में
क्रियाएं
होती है, भीतर
के आकाश में
चैतन्य है।
जो
बाहर के ही
आकाश में
खोजता रहेगा
वह कभी भी जीवन
से मुलाकात न
कर पाएगा।
उसकी चेतना से
कभी भेंट न
होगी। उसका
परमात्मा से
कभी मिलन न
होगा। ज्यादा
से ज्यादा
पदार्थ मिल
सकता है बाहर, परमात्मा
का स्थान तो
भीतर का आकाश
है, अंतराकाश
है, इनर
स्पेस है।
जीवन
के सत्य को
पाना हो तो
अंतर आकाश में
उसकी खोज करनी
पड़ती है।
लेकिन हमें
अंतर आकाश का
कोई भी अनुभव
नहीं है। हमने
कभी भीतर के
आकाश में कोई
उड़ान नहीं
भरी है। हमने
भीतर के आकाश
में एक चरण भी
नहीं रखा है, हम भीतर
की तरफ गए ही
नहीं। हमारा
सब जाना बाहर
की तरफ है। हम
जब भी जाते है
बाहर ही जाते
है।
मित्र
का प्रश्न
इससे संबंधित
है।
उन्होने
पूछा है कि जब
भीतर की
स्वरूप की
स्थिति परम
आनंद है तो यह
मन कहां से आ
जाता है? जब भीतर
नित्य आनंद का
वास है तो ये
मन के विचार
कैसे जन्म
जाते है? ये
कहां से अंकुरित
हो जाते है?
इस
अंतर आकाश के
संबंध में उसे
भी समझ लेना
उपयोगी है। यह
प्रश्न सदा
ही साधक के मन
में उठता है
कि जब मेरा
स्वभाव ही शुद्ध
है तो यह
अशुद्धि कहां
से आ जाती है? और जब मैं
स्वभाव से
अमृत हूं तो
यह मृत्यु कैसे
घटित होती है?
और जब भीतर
कोई विकार ही
नहीं है, निर्विकार,
निराकार का
आवास है सदा
से, सदैव
से, तो ये
विकार के बादल
कैसे घिर जाते
हैं, कहां
से इनका जन्म
होता है, कहां
इनका उदगम है?
इसे समझने
के लिए थोड़ी—सी
गहराई में
जाना पड़ेगा।
पहली
बात तो यह
समझनी पड़ेगी
कि जहां भी
चेतना है वहां
चेतना की
स्वतंत्रताओं
में एक स्वतंत्रता
यह भी है कि वह
अचेतन हो
सकेगी। ध्यान
रखें, अचेतन
का अर्थ जड़
नहीं होता।
अचेतन का अर्थ
होता है : चेतन,
जो कि सो
गया—चेतन, कि
छिप गया! यह
चेतना की ही
क्षमता है कि
वह अचेतन हो
सकती है। जड़
की यह क्षमता
नहीं है। आप
पत्थर से यह
नहीं कह सकते
कि तू अचेतन
है। जो चेतन
नहीं हो सकता
वह अचेतन भी
नहीं हो सकता।
जो जाग नहीं
सकता, वह
सो भी नहीं
सकता।
और
ध्यान रखें, जो सो
नहीं सकता वह जागेगा
कैसे? चेतना
की ही क्षमता
है अचेतन हो
जाना। अचेतन
का अर्थ चेतना
का नाश नहीं
है। अचेतन का
अर्थ है :
चेतना का
प्रसुप्त हो
जाना, छिप
जाना, अप्रगट हो जाना।
चेतना की
मालकियत है यह,
कि चाहे तो
प्रगट हो, चाहे
तो अप्रगट
हो जाए। यही
चेतना का
स्वामित्व है—या
कहें, यही
चेतना की
स्वतंत्रता
है। अगर चेतना
अचेतन होने को
स्वतंत्र न हो
तो चेतना
परतंत्र हो
जाएगी। फिर
आत्मा की कोई
स्वतंत्रता न
होगी।
इसे
ऐसे समझें कि
अगर आपको बुरे
होने की स्वतंत्रता
ही न हो तो
आपके भले होने
का अर्थ क्या
होगा? अगर
आपको बेईमान
होने की
स्वतंत्रता
ही न हो तो
आपके ईमानदार
होने का कोई
अर्थ होता है?
जब भी हम
किसी व्यक्ति
को कहते है कि
वह ईमानदार है
तो इसमें
निहित है, 'इम्प्लाइड'
है—कि वह
चाहता तो
बेईमान हो
सकता था, पर
नहीं हुआ। अगर
हो ही न सकता
हो बेईमान, तो ईमानदारी
दो कौडी
की हो जाती
है। ईमानदारी
का मूल्य
बेईमान होने
की क्षमता और
संभावना में
छिपा है।
जीवन
के शिखर छूने का
मूल्य जीवन की
अंधेरी घाटियों
में उतरने की
क्षमता में छिपा
है। स्वर्ग पहुंच
जाना इसीलिए
संभव है कि
नर्क की सीडी
भी हम पार कर
सकते है।
प्रकाश
इसीलिए पाने
की क्षमता है
कि हम अंधेरे
में भी हो
सकते हैं।
ध्यान रहे, अगर
आत्मा के लिए बुरा
होने का उपाय ही
न हो तो आत्मा
के भले होने
में बिलकुल ही
नपुंसकता इम्पोटेंसी
हो जायेगी।
विपरीत की शुविधा
होनी चाहिए।
और अगर चेतना को
भी विपरीत की
सुविधा नहीं
है तो चेतना
गुलाम है। और
गुलाम चेतना
का क्या अर्थ
होता है? उससे
तो अचेतन होना,
जड़ होना
बेहतर है।
यह
जो हमारे भीतर
छिपा हुआ परमात्मा
है,
यह परम
स्वतंत्र है,
'एब्सत्थूटफ्रीडम'
है। इसलिए शैतान
होने का उपाय
है, और
परमात्मा
होने की भी
सुविधा है। एक
छोर से दूसरे
छोर तक हम
कहीं भी हो
सकते है। और जहां
भी हम हैं
वहां होना
हमारी मजबूरी
नहीं, हमारा
निर्णय है—'अवर ओन डिसीजन'!
अगर मजबूरी
है तो बात खल
हो गयी।
अगर
मैं पापी हूं
और पापी होना
मेरी मजबूरी
है—पापी मुझे
परमात्मा ने
बनाया है, या
मैं
पुण्यात्मा
हूं और पुण्या
आ मुझे परमात्मा
ने बनाया है तो
मैं पत्थर की तरह
हो गया, मुझमें
चेतना न रही।
मैं एक बनायी हुई
चीज हो गया, फिर मेरे
कृत्य का कोई
दायित्व मेरे
ऊपर नहीं है।
एक
मुसलमान मित्र
मुझे मिलने
आये थे, कुछ दिन
हुए। बहुत समझदार
व्यक्ति है।
वह मुझसे कहने
लगे कि मै
बहुत लोगों से
मिला हूं बहुत
साधु संन्यासियों
के पास गया
हूं लेकिन कोई
हिंदू मुझे यह
नहीं समझा सका
कि आदमी पाप
में क्यों
गिरा?—हिंदू
जैन या बौद्ध,
इस भूमि पर
पैदा हुए तीनों
धर्म, यह
मानते हैं कि
अपने कर्मों के
कारण! उस
मुसलमान
मित्र का
पूछना बिलकुल
ठीक था। वह
कहने लगे, अगर
अपने कर्मों
के कारण गिरा
तो पहले जन्म
में जब उसकी
शुरुआत ही हुई
होगी तब तो
उसके पहले कोई
कर्म नहीं थे।
ठीक है, जब
पहला ही जन्म
हुआ होगा
चेतना का तब
तो वह निष्कपट,
शुद्ध हुई
होगी। उसके
पहले तो कोई
कर्म नहीं थे।
इस जन्म में
हम कहते हैं
कि फलां आदमी
बुरा है
क्योंकि
पिछले जन्म में
बुरे कर्म
किए। पिछले
जन्म में बुरे
कर्म किए
क्योंकि और
पिछले जन्म
में बुरे कर्म
किए। लेकिन
कोई प्रथम
जन्म तो मानना
ही पड़ेगा। उस
प्रथम जन्म के
पहले तो कोई
बुरे कर्म
नहीं हुए, तो
बुरे कर्म आ
कैसे गए?
मैंने
उन मुसलमान
मित्र से कहा—कि
यह बात बिलकुल
तर्कयुक्त
है। लेकिन क्या
इस्लाम और ईसाइयत
जो उत्तर देते
हैं उन पर
आपने विचार किया? उन्होंने
कहा, वह
ज्यादा ठीक
मालूम पड़ता है
कि ईश्वर ने
आदमी को बनाया,
जैसा चाहा
वैसा बनाया।
तो मैंने कहा—यही
थोड़ी—सी बात
समझनी है। इस
देश में पैदा
हुआ कोई भी
धर्म
जिम्मेदारी
ईश्वर पर नहीं
डालना चाहता,
मनुष्य पर
डालना चाहता
है। यह मनुष्य
की गरिमा की
स्वीकृति है। 'रिस्पासिबिलिटी इज ऑन
मैन, नाट
ऑन गॉड।'
ध्यान
रहे,
गरिमा तभी है
जब दायित्व हो।
अगर दायित्व
भी नहीं है—अगर
मैं बुरा हूं तो
परमात्मा ने बनाया,
भला हूं तो परमात्मा
ने बनाया—जैसा
हूं परमात्मा ने
बनाया तो सारी
जिम्मेवारी परमात्मा
की हो जाती है।
और तब और भी
उलझन खड़ी होगी
कि परमात्मा
को बुरा आदमी
बनाने में
क्या रस हो
सकता है? और
परमात्मा ही अगर
बुरा बनाता है
तो हमारी
अच्छे बनने की
कोशिश
परमात्मा के
खिलाफ पड़ती है।
इसका अर्थ
यह हुआ कि
परमात्मा तो
आदमी बुरा
बनाता है, और
तथाकथित साधु
संन्यासी
आदमी को अच्छा
बनाते हैं—यह
तो बड़ी
मुश्किल है!
गुरजिएफ कहा
करता था कि दुनियां
के सब महात्मा
परमात्मा के
खिलाफ मालूम
पड़ते है, दुश्मन
मालूम पड़ते
हैं। वह आदमी
को बुरा बनाता
है या जैसा भी
बनाता है, फिर
आप कौन है
सुधारने वाले?
कर्म का
सिद्धात कहता
है, व्यक्ति
पर
जिम्मेदारी
है लेकिन
व्यक्ति पर जिम्मेवारी
तभी हो सकती
है जब व्यक्ति
स्वतंत्र हो।
स्वतंत्रता
के साथ
दायित्व है—'फ्रीडम इम्प्लाइज
द रिस्पासिबिलिटी।’
अगर
स्वतंत्रता
नहीं है तो
दायित्व
बिलकुल नहीं
है। अगर
स्वतंत्रता
है तो दायित्व
है। लेकिन
स्वतंत्रता
सब द्वयमुखी
है। दोनों तरफ
की
स्वतंत्रता
ही
स्वतंत्रता
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने बेटे
से कहा है—जब
बेटा बड़ा हो
गया, कि
तिजोरी तेरी
है, चाभी
भर मेरे पास
रहेगी। ऐसे तू
जितना भी खर्च
करना चाहे, खर्च कर
सकता है लेकिन
ताला भर मत
खोलना! स्वतंत्रता
पूरी दी जा
रही मालूम
पड़ती है, और
जरा भी नहीं
दी जाती।
मैने
एक मजाक सुना
है कि जब पहली
दफा फोर्ड ने
कारें बनायी अमरीका
में तो एक ही
रंग की बनायी, काले रंग
की। और फोर्ड
ने, अपनी फैक्ट्री
के दरवाजे पर
एक वचन लिख
छोड़ा था—'यू
कैन द्य ऐनी कलर प्रोवाइडेड
इट इज ब्रैक'—आप कोई भी
रंग चुन सकते
है, अगर वह
काला है तो!
काले रंग की
कुल गाड़ियां
ही थीं, कोई
दूसरे रंग की
तो गाड़ियां
थीं नहीं।
लेकिन
स्वतंत्रता
पूरी थी, आप
कोई भी रंग
चुन लें, बस
काला होरा![
चाहिए—इतनी
शर्त थी पीछे।
''अगर आदमी से
परमात्मा यह
कहे कि 'यू
आर फ्री प्रोवाइडेड
यू आर गुड'—आप
स्वतंत्र हैं,
अगर आप
अच्छे होना
चाहते है—तो
ही, तो
स्वतंत्रता
दो कोड़ी
की हो गयी!
स्वतंत्रता
का अर्थ ही
यही होता है
कि हम बुरे
होने के लिए
भी स्वतंत्र
है। और जब
स्वतंत्रता
हो तभी
दायित्व है।
तब फिर जिम्मा
मेरा है, अगर मैं
बुरा हूं तो
मैं जिम्मेवार
हूं। और अगर
भला हूं तो
मैं
जिम्मेवार हो
जाता हूं।
जिम्मेवारी
मुझ पर पड़
जाती है।
फिर
भारत यह भी
कहता है कि
परमात्मा
हमसे बाहर
नहीं है। वह
हमारे भीतर
छिपा है।
इसलिए हमारी
स्वतंत्रता
अंततः उसकी ही
स्वतंत्रता!
इसे और समझ
लेना चाहिए।
क्योंकि
परमात्मा अगर
बाहर बैठा हो
हमसे, और
हमसे कहे कि 'आई गिव
यू फ्रीडम',
मैं
तुम्हें
स्वतंत्रता
देता हूं तो
भी वह परतंत्रता
हो जायेगी।
क्योंकि वह
किसी भी दिन 'कैंसिल'
कर सकता है।
वह किसी भी दिन
कह देगा, अच्छा,
बस—अब बंद!
इरादा बदल
दिया, अब
स्वतंत्रता
नहीं देते!
तो हम
क्या करेंगे?—नहीं, स्वतंत्रता
आत्यंतिक है,
अल्टीमेट
है, क्योंकि
देनेवाला और
लेनेवाला दो
नहीं है।
हमारे ही भीतर
बैठी हुई
चेतना परम
स्वतंत्र है
क्योंकि वही
परमात्मा है।
वह जो अंतरस्थ
आकाश है वही
परमात्मा है।
और परमात्मा
को भी अगर
बुरे होने की शुविधा न
हो तो वह
परमात्मा की
परतंत्रता के
अतिरिक्त और
क्या घोषणा
होगी? इसलिए
मन पैदा हो
सकता है। वह
हमारा पैदा
किया हुआ है।
वह परमात्मा
का पैदा किया
हुआ है।
एक और
बात खयाल में
ले लेनी जरूरी
है कि जीवन के प्रगाढ़
अनुभव के लिये
विपरीत में
उतर जाना अनिवार्य
हो जाता है। प्रौढ़ता
के लिए, मेच्योरिटी के लिए
विपरीत में
उतर जाना
अनिवार्य हो
जाता है।
जिसने दुख
नहीं जाना वह
सुख कभी जान
नहीं पाता।
जिसने अशांति
नहीं जानी वह
शांति भी कभी
नहीं जान पाता,
और जिसने
संसार नहीं
जाना वह स्वयं
परमात्मा होते
हुए भी
परमात्मा को
नहीं जान पाता।
परमात्मा
की पहचान के
लिए संसार की
यात्रा पर
जाना
अनिवार्य है।
उससे कोई बचाव
नहीं है। और
जो जितना गहरा
संसार में उतर
जाता है उतना ही
गहन परमात्मा
के स्वरूप को
अनुभव कर पाता
है। उस उतरने
का भी प्रयोजन
है। कोई चीज
जो हमारे पास
सदा से हो, उसका
हमें तब तक
पता नहीं चलता,
जब रुक वह
खो न जाए।
खोने पर ही
पता चलता है
कि मेरे पास
कुछ था, इसका
अनुभव भी खोने
पर होता है।
खोना भी पाने
की प्रक्रिया
का हिस्सा है।
खोना भी, ठीक
से पाने का
उपाय है। खोना
भी पाने की
क्रिया का
अनिवार्य अंग
है।
हमारे
बीच छिपा है, उसे अगर
हमें ठीक—ठीक अनुभव
करना हो तो
हमें उसे खोने
की ही यात्रा पर
जाना पड़ता है।
कहते हैं लोग
कि जब तक कोई
परदेस नहीं
जाता तब तक
अपने देश को
नहीं पहचान
पाता। वे ठीक
कहते है। और
कहते हैं लोग
कि जब तक कोई
दूसरों से
परिचित नहीं
होता तब तक
अपने से
परिचित नहीं
हो पाता।
'ईवन
द वे टु वनसेल्फ
पासेस थ्रू द अदर।’
सार्त्र का
बहुत
प्रसिद्ध वचन
है कि दूसरे
को जाने बिना
स्वयं को
जानने का कोई
उपाय नहीं।
दूसरे से
गुजरना पड़ता
है स्वयं की
पहचान के लिए—क्यों? क्योंकि
जब तक विपरीत
का अनुभव न हो
तब तक अनुभव
ही नहीं है।
जैसे
शिक्षक काले
ब्लैक बोर्ड
पर सफेद खड़िया
से लिखता है, वैसे वह
दीवार पर भी
लिख सकता है, लिखने में
कोई अड़चन नहीं
है। लेकिन तब
दिखायी नहीं
पड़ेगा। लिखा
भी जाएगा और
दिखायी भी
नहीं पड़ेगा।
लिखा तो जाएगा,
पढ़ा नहीं जा
सकेगा। और ऐसे
लिखने का क्या
प्रयोजन, जो
पढ़ा न जा सके?
सुना
है मैंने, एक आदमी
सुबह—सुबह
मुल्ला नसरुद्दीन
के द्वार पर
आया। गांव में
अकेला ही पढ़ा—लिखा
आदमी था नसरुद्दीन,
और जहां एक
ही आदमी पढ़ा—लिखा
हो तो समझ
लेना चाहिए, पढा—लिखा
कितना होगा!
उस आदमी ने
कहा, जरा
एक चिट्ठी लिख
दो, मुल्ला!
मुल्ला ने कहा,
मेरे पैर
में बहुत दर्द
है, मैं न
लिख सकूंगा।
उस आदमी ने
कहा, हद हो
गई! कभी हमने
सुना नहीं कि
लोग पैर से
चिट्ठी लिखते
है। हाथ से
लिखो चिट्ठी,
पैर में
दर्द है तो
पैर से क्या
वास्ता? हाथ
में क्या अड़चन
है? नसरुद्दीन ने कहा, यह
जरा रहस्य की
बात है, यह
न पूछो तो
अच्छा! चिट्ठी
हम न लिखेंगे,
पैर में
बहुत तकलीफ है।
उस
आदमी ने कहा, जरा
रहस्य ही बता
दें। बात क्या
है, मेरी
समझ में नहीं
आती? नसरुद्दीन ने कहा, बात
यह है कि
हमारी लिखी
चिट्ठी हमारे
सिवाय और कोई
नहीं पढ़ पाता।
फिर दूसरे
गांव की
यात्रा करने
की अभी हमारी हैसियत
नहीं, पैर
में तकलीफ
बहुत है, नसरुद्दीन ने कहा! जो
पढ़ा ही न जा
सके उसके
लिखने का क्या
फायदा?
इसलिए
काले ब्लैक
बोर्ड पर
लिखना पड़ता है।
उस पर दिखायी
पड़ता है। आकाश
पर जब काले
बादल होते हैं
तो दिखायी पड़ती
है बिजली
कौंधती हुई।
भीतर जो छिपा
है परमात्मा
उसके अनुभव के
लिए पदार्थ की
गहनता में
उतरना
अनिवार्य है।
संन्यास को भी
जानने के लिए
गृहस्थ हुए
बिना कोई
मार्ग नहीं।
सत्य
को भी जानने
के लिए असत्य
के रास्तों से
गुजरना पड़ता
है। और इसकी
जब कोई
अनिवार्यता
समझता है और
इस रहस्य को
समझ जाता है
तो फिर जिस
असत्य से
गुजरा, उसके प्रति
भी धन्यवाद मन
में उठता है।
क्योंकि उसके
बिना सत्य तक
नहीं पहुंचा
जा सकता था।
जिस
पाप से गुजरकर
पुण्य तक
पहुंचे उस पाप
की भी अनुकंपा
ही मालूम होती
है, क्योंकि
उसके बिना
पुण्य तक नहीं
पहुंचा जा सकता
था।
बोधिधर्म
ने कहा है, और
बोधिधर्म इस
पृथ्वी पर दस
पांच लोगों
में एक है जिसने
गहनतम
सत्य के अनुभव
को जाना।
बोधिधर्म ने
कहा है मरने
के क्षण में, कि संसार, तेरा
धन्यवाद!
क्योंकि तेरे
बिना निर्वाण
को जानने का
कोई उपाय नहीं।
शरीर, तुझे
धन्यवाद!
क्योंकि तेरे
बिना आत्मा को
पहचानने की शुविधा भी
नहीं। सब पापो,
तुम्हारी
अनुकंपा मुझ
पर! क्योंकि
तुमसे गुजरकर
मैं पुण्य के
शिखर तक पहुंचा,
तुम सीढ़ियां
थे।
तब
जीवन विपरीत
रहकर भी
विपरीत नहीं
रह जाता। तब
जीवन विपरीत
होकर भी एक रस
हो जाता है।
और विपरीत में
भी एक हार्मनी
और एक संगीत उत्पन्न
हो जाता है।
संगीत पैदा
होता है
विभिन्न
स्वरों से। और
अगर संगीत के
किसी स्वर को
बहुत उभारना
हो तो उसके
पहले भी बहुत
धीमे स्वर
पैदा करने
पड़ते हैं—तब
उभरता है
संगीत!
सब
अभिव्यक्ति
विपरीत के साथ
है। इसलिए
चेतना मन को
पैदा करती है।
यह चेतना का
ही काम है।
चेतना ही बाहर
जाती है। और
बाहर ही भटक—भटककर उसे
पता चलता है
कि बाहर कुछ
नहीं है। तब
चेतना भीतर
वापस आती है।
ध्यान रहे, जो चेतना
कभी बाहर नहीं
गयी उस चेतना
में, और जो
चेतना बाहर भटककर
भीतर आती है
उस चेतना में,
रिचनेस का, समृद्धि
का बहुत फर्क
है।
इसलिए
जब पापी कभी
पुण्यात्मा
होता है तो
उसके पुण्य की
जो गहराई होती
है वह साधारण
आदमी के पुण्य
की गहराई नहीं
होती, जो
कभी पापी नहीं
हुआ। क्योंकि
पापी बहुत
जानकर पुण्य
तक पहुंचता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते है, अच्छे
आदमी की कोई
जिंदगी नहीं
होती। अगर आप
नाटककारों से
पूछें
उपन्यासकारों
से पूछें, फिल्म
कथा लिखने—वालों
से पूछें तो
वे कहेंगे कि
अच्छे आदमी पर
तो कोई कथा ही
नहीं लिखी जा
सकती। अगर
आदमी बिलकुल
अच्छा हो तो
कोरा सपाट
होता है।
रामायण
में से राम को
छोड़ने में
बहुत अशुविधा
नहीं, रावण
को छोडने में
सब कथा गड़बड़
हो जाती है।
क्योंकि राम
के बिना चल
सकता है, रावण
के बिना नहीं
चल सकता। कोई
कितना ही कहे
कि राम नायक
है—जो कथा
लिखना जानते
हैं वे कहेंगे,
रावण नायक
है, क्योंकि
सारी कथा उसके
इर्द—गिर्द
घूमती है। और
अगर राम भी
प्रखर होकर
प्रगट होते
हैं तो रावण
के सहारे, रावण
के कंधे पर।
रावण के बिना
राम भी सफेद
दीवार पर
खींची गयी सफेद
रेखा हो
जायेंगे, काला
लैक बोर्ड तो
रावण है।
स्कूल
में शिक्षक जब
काले बोर्ड पर
लिखता है तो
बच्चे ब्रैक
बोर्ड का
विरोध नहीं
करते। वे
जानते हैं कि
सफेद रेखा उसी
पर उभरती है।
लेकिन जब रावण
के ब्रैक
बोर्ड पर राम
उभरते हैं तो
हम नासमझ
विरोध करते
हैं कि रावण
नहीं होना
चाहिए। रावण
दुनियां से
मिटा दो। जिस
दिन आप रावण
को दुनियां से
मिटा देंगे उस
दिन राम भी
तिरोहित हो
जाएंगे—वह
कहीं खोजे
से नहीं
मिलेंगे।
जीवन
विपरीत
स्वरों के बीच
एक सामंजस्य
है। चेतना ही
पैदा करती है
मन को। चेतना
ही विचार को पैदा
करती है, ताकि
निर्विचार को
जान सके।
परमात्मा ही
संसार को
बनाता है, ताकि
स्वयं को
अनुभव कर सके।
यह आत्म—अन्वेषण
की यात्रा है,
इसमें
भटकना जरूरी
है।
एक
कहानी मैं
निरंतर कहता
रहा हूं। एक
गांव के बाहर
उतरा, एक
आदमी अपने घोडे
से। झाडू के
पास बैठे नसरुद्दीन
के सामने उसने
झोली पटकी और
कहा कि करोड़ों
के हीरे
जवाहरात इस
झोली में है।
इसे मैं लेकर
घूम रहा हूं
गांव—गांव।
मुझे कोई
रत्तीभर भी
सुख दे दे
तो मैं यह सब
हीरे उसे सौंप
दूं लेकिन अब
तक मुझे कोई
रत्तीभर सुख
नहीं दे पाया।
नसरुद्दीन ने पूछा, तुम बहुत
दुखी हो? उसने
कहा, मुझसे
ज्यादा दुखी
कोई नहीं हो सकता।
तभी तो मैं
रत्तीभर सुख
के लिए करोड़ों
के हीरे देने
को तैयार हूं।
नसरुद्दीन
ने कहा, तुम
ठीक जगह आ गए
हो—बैठो! वह जब
तक बैठा तब तक नसरुद्दीन
उसकी थैली
लेकर भाग खड़ा
हुआ। वह आदमी
स्वभावत: नसरुद्दीन
के पीछे भागा
कि मैं मर गया,
मैं मर गया!
यह आदमी डाकू
है, यह
लुटेरा है!
गांव के गली
कूचे नसरुद्दीन
के परिचित थे।
उसने काफी
चक्कर खिलाए।
पूरा गांव जग
गया। सारा
गांव दौड़ने
लगा।
करोड़ों
का मामला था। नसरुद्दीन
आगे और वह
धनपति पीछे
छाती पीटता
हुआ जोर—जोर
से चिल्ला रहा
है कि मेरी जिंदगीभर
की कमाई वही
है। मैं सुख
खोजने निकला
हूं और यह
दुष्ट मुझे और
दुख दिए दे
रहा है। भागकर
नसरुद्दीन
उसी झाडू के
पास पहुंच गया
जहां उसका
घोड़ा खड़ा था।
उसने झोला
घोड़े के पास
रख दिया और
झाड़ के पीछे खड़ा
हो गया। दो
क्षण बाद अमीर
भी भागा हुआ
पहुंचा, अमीर ने
झोला पड़ा हुआ
देखा, उठाकर
छाती से लगा
लिया और कहा, हे
परमात्मा!
तेरा बड़ा
धन्यवाद!
नसरुद्दीन ने झाडू
के पीछे से
पूछा, कुछ
सुख मिला? —पाने
के लिए खोना
जरूरी है! उस
आदमी ने कहा, कुछ? कुछ
नहीं, बहुत
मिला! इतना
सुख मैंने
जीवन में जाना
ही नहीं। नसरुद्दीन
ने कहा, अब
तू जा, नहीं
तो इससे
ज्यादा अगर
मैं सुख दूंगा
तो तू मुसीबत
में पड सकता
है।
बहुत
बार खोना बहुत
जरूरी है।
सवाल यह नहीं
है कि हमने
क्यों अपने को
खोया? असली
सवाल यह है कि
या तो हमने
पूरा अपने को
नहीं खोया, या हम खोने
के इतने
अभ्यासी हो गए
कि लौटने के सब
रास्ते टूट गए
मालूम पड़ते
हैं। खोना
अनिवार्य है।
पर सवाल यह है
कि कब तक हम
खोये रहेंगे?
इसलिए
बुद्ध से अगर
कोई पूछता था
कि यह आदमी अंधकार
में क्यों
गिरा? तो
बुद्ध कहते, व्यर्थ की
बातें मत करो।
अगर पूछना हो
तो यह पूछो कि
अंधकार के
बाहर कैसे
जाया जा सकता
है? यह
सवाल संगत है,
दूसरा
असंगत है।
बेकार की बातचीत
में मुझे मत
खींचो कि यह
आदमी अंधकार
में क्यों
गिरा? वह
तुम बाद में
खोज लेना। अभी
तुम मुझसे यह
पूछ लो कि
प्रकाश कैसे
मिल सकता है।
बुद्ध
कहते कि तुम
उस आदमी जैसे
हो जिसकी छाती
में जहरीला
तीर घुसा हो।
मैं उसकी छाती
से तीर खींचने
लग तो वह आदमी
कहे कि रुको, पहले यह
बताओ कि यह
तीर किसने
मारा? पहले
यह बताओ कि यह
तीर पूरब से
आया कि पश्चिम
से? पहले
यह बताओ कि यह
तीर जहर बुझा
है या साधारण है?
बुद्ध
कहते, मैं
उस आदमी से
कहता कि यह सब
तुम पीछे पता
लगा लेना, अभी
मै तीर को
खींचकर बाहर
निकाल दे रहा
हूं। लेकिन वह
आदमी कहता है
कि जब तक
जानकारी पूरी
न हो, तब तक
कुछ भी करना
क्या उचित है?
यह
फिक्र मत करें
कि मन कैसे
पैदा हुआ? यह फिक्र
करें कि मन
कैसे
विसर्जित हो
सकता है। और
ध्यान रहे, बिना
विसर्जन किए
आपको कभी पता
न चलेगा कि
कैसे इसका
सर्जन किया।
उसके कारण हैं।
क्योंकि सर्जन
किए अनंत काल
बीत गया। इस
स्मृति को
खोजना आज आपके
लिए आसान नहीं
होगा। उसका भी
रास्ता है।
अगर आप
लौटें अपने
पिछले जन्मों
में—लौटते
जाएं—लौटते
जाएं... आदमी के
जन्म चुक
जाएंगे।
पशुओं के जन्म
होंगे, पशुओं के
जन्म चुक
जाएंगे। कीड़े—मकोड़ों के
जन्म होंगे, कीड़े—मकोड़ों
के जन्म चुक
जाएंगे।
पौधों के जन्म
होंगे, पौधों
के जन्म चुक
जाएंगे।
पत्थरों के
जन्म होंगे—लौटते
जाएं उस जगह, जहां पहले
दिन आपकी
चेतना सक्रिय
हुई और मन का
निर्माण शुरू
हुआ!
लेकिन
वह बड़ी लंबी
यात्रा है।
उसमें मत पड़े
कि यह मन कैसे
बना? हां,
लेकिन एक
सरल उपाय है
कि इस मन को
विसर्जित
करें। और
विसर्जन को आप
अभी देख सकते
है। जब आप
विसर्जन को
देख लेंगे तो
आप जान जायेंगे
कि विसर्जन की
जो प्रक्रिया
है उसमें
उल्टी प्रक्रिया
सर्जन की है।
बुद्ध
एक दिन अपने
भिक्षुओं के
बीच सुबह जब
बोलने गए तो
उनके हाथ में
एक रेशम का रूमाल
था। बैठकर
उन्होंने उस
पर पांच गांठें
लगायीं!
भिक्षु बड़े
चिंतित हुए
क्योंकि
बुद्ध कभी कुछ
लेकर हाथ में
आते न थे।
रेशम का रूमाल
क्यों ले आए
और फिर बोलने
की जगह बैठकर
उस पर गांठें
लगाने लगे।
बड़ी उत्सुकता, बड़ी
आतुरता हो गई!
क्या कोई जादू
दिखाने का खयाल
है? क्योंकि
जादूगर रूमाल
वगैरह लेकर
आते है। लेकिन
बुद्ध ने
शांति से, सन्नाटे
में रूमाल में
पांच गांठें
लगा लीं!
और फिर
बोले—भिक्षुओ, इस रूमाल
में गांठें
लग गयीं। मै
तुमसे दो सवाल
पूछना चाहता
हूं। एक तो यह
कि जब रूमाल
में गांठें
नहीं लगी थीं
तब के रूमाल
में, और जब
रूमाल में गांठें
लग गई हैं, अब
के रूमाल में
क्या कोई फर्क
है, स्वरूपगत?
एक
भिक्षु ने कहा, स्वरूपगत तो फर्क
बिलकुल नहीं
है, रूमाल
वही है। जरा
भी, इंचभर भी रूमाल के
स्वरूप में
फर्क नहीं है
लेकिन आप हमें
फंसाने की
कोशिश कर रहे
हैं। फर्क हो
गया, क्योंकि
तब रूमाल में गांठें न
थीं और अब गांठें
हैं। लेकिन यह
फर्क बहुत
ऊपरी है, क्योंकि
गांठें
रूमाल के
स्वभाव पर नहीं
लगती, केवल
शरीर पर लगती
हैं।
संसार
और निर्वाण
में इतना ही
फर्क है।
निर्वाण में
भी वही स्वरूप
होता है जो
संसार में है।
सिर्फ संसार
में रूमाल पर
पांच गांठें
हैं। बुद्ध ने
कहा कि
भिक्षुओं, यह जो
रूमाल है गांठ
लगा हुआ, ऐसे
ही तुम हो।
तुममें और
मुझमें बहुत
फर्क नहीं—स्वरूप
एक जैसा है, सिर्फ तुम
पर कुछ गांठें
लगी है।
बुद्ध
ने कहा, इन गांठों
को मै खोलना
चाहता हूं। और
उस रूमाल को पक्क्कर
बुद्ध ने
खींचा। स्वभावत:
खींचने से गांठें
और मजबूत हो
गयीं। एक
भिक्षु ने कहा,
आप जो कर
रहे है, इससे
गांठें खुलेंगी
नहीं, खुलना
मुश्किल हो
जाएगा।
बुद्ध
ने कहा, तो इसका यह
अर्थ हुआ कि
जब तक गांठों
को ठीक से न
समझ लिया जाए
तब तक खींचना
खतरनाक है। हम
सब गांठों
को खींच रहे
हैं बिना समझे,
कि गांठ
कैसे लगी है? एक भिक्षु
से बुद्ध ने
पूछा, तो
मै क्या करूं?
उस भिक्षु
ने कहा, जानना
जरूरी है कि
गांठ कैसे लगी?
गांठ खोली
जा सकती है, क्योंकि
लगने का जो
ढंग है उससे
विपरीत खुलने का
ढंग होगा।
बुद्ध
ने कहा, गांठें अभी लगी हैं
इसलिए
तुम्हारे खयाल
में है कि
कैसे लगीं, लेकिन गांठें
अगर बहुत काल
पहले लगी
होतीं तो तुम
कैसे पता लगाते
कि गांठें
कैसे लगीं? उस भिक्षु
ने कहा, तब
तो हम खोलकर
ही पता लगाते।
खोलने से पता
लग जाएगा।
क्योंकि
खोलने का जो
ढंग है उसका
उल्टा ढंग लगने
का होगा। तो
आप इस फिक्र
में न पड़े कि
यह मन कैसे
पैदा हुआ? आप
इस फिक्र में
पड़े कि यह मन
कैसे चला जाए?
और जिस क्षण
चला जाएगा उस
दिन आप
जानेंगे, उसी
क्षण कि कैसे
पैदा हुआ था? जो विसर्जन
करता है वही
सर्जन
करनेवाला है
और जो विसर्जन
कर सकता है वह
सर्जन भी कर
सकता था।
विसर्जन की जो
प्रक्रिया है,
उससे उल्टी
प्रक्रिया
सर्जन की है।
भीतर
का जो आकाश है
वह बादल रहित, मेघ रहित,
विचार रहित,
मन रहित है।
बाहर के आकाश
का तभी पता
चलता है जब
आकाश में बादल
घिर जाते हैं,
पर तब
बादलों का पता
चलता है, आकाश
का पता नहीं
चलता—हालांकि
आकाश मिट नहीं
गया होता, सदा
बादलों के
पीछे खड़ा रहता
है। और बादल
भी आकाश में
ही होते हैं, आकाश के
बिना नहीं हो
सकते। इसी
भांति
विचारों से, मन से घिरे
हुए भीतर के
आकाश का भी
पता नहीं चलता।
ह्यूम ने कहा
है, ये
बातें सुनकर
कि भीतर भी
कोई है, मैं
बहुत बार
खोजने गया; लेकिन जब भी
भीतर गया तो
मुझे कोई आला
न मिली, कोई
परमात्मा न
मिला। या तो
कभी कोई विचार
मिला, कोई
वासना मिली, कोई वृत्ति
मिली, या
कोई राग मिला;
लेकिन
आत्मा कभी भी
न मिली। वह
ठीक कहता है।
अगर आप
अपने हवाई
जहाज को उड़ाए
या अपने को फैलाएं
आकाश की तरफ—बदलियां
आपको मिलें और
बदलियों को ही
खोज करके आप
वापस लौट आएं
बदलियों को
पार न करें, तो लौटकर
आप भी कहेंगे—कोई
आकाश भी न
मिला! बदलियां
ही बदलियां
थीं, धुआं
ही धुआं था, बादल ही
बादल थे, कहीं
कोई आकाश न था!
अपने भीतर भी
हम सिर्फ बदलियों
तक जाकर लौट
आते हैं। उनके
पार प्रवेश
नहीं हो पाता।
पार जाने की
उडान ऐसी ही
है—जैसे आप
कभी हवाई जहाज
पर उड़े
हों, बादलों
के पार और ऊपर,
और जब बादल
नीचे छूट जाते
हैं!
वैसे
ही ध्यान में
भी एक उड़ान
होती है जब
विचार नीचे
छूट जाते हैं
और आप ऊपर हो
जाते हैं। तब
खुला आकाश
मिलता है! तब
अंतर—आकाश से
परिचय होता
है!! तब सर्जन—विसर्जन
के सारे भेद
को आप जान
पाते है!!!
'अमृत
वाणी' से
संकलित सुधा—बिंदु
1970—71
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