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मंगलवार, 17 मार्च 2015

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--16)

महावीर: अनादि, अनीश्वर और स्वयंभू अस्तित्व—(प्रवचन—सोलहवां)
प्रश्‍न :

कपिल ने पूछा है कि इस जगत का, इस जीवन का प्रारंभ कब हुआ? कैसे हुआ?
ह महावीर के प्रसंग में भी बात बड़ी महत्वपूर्ण है। इसलिए महत्वपूर्ण है कि महावीर उन थोड़े से चिंतकों में से एक हैं, जिन्होंने प्रारंभ की बात को ही अस्वीकार कर दिया है। महावीर यह कहते हैं कि प्रारंभ संभव ही नहीं है। अस्तित्व का कोई प्रारंभ नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा से है और कभी ऐसा नहीं हो सकता कि अस्तित्व नहीं हो जाएगा, ऐसा कभी नहीं हो सकता। प्रारंभ की और अंत की बात ही वे इनकार करते हैं। और मैं भी उनसे सहमत हूं।
प्रारंभ की धारणा ही हमारी नासमझी से पैदा होती है। क्योंकि हमारा प्रारंभ होता है और अंत होता है, इसलिए हमें लगता है कि सब चीजों का प्रारंभ होगा और अंत होगा! लेकिन अगर हम हमारे भीतर भी गहरे में प्रवेश कर जाएं तो हमें पता चलेगा, हमारा भी कोई प्रारंभ नहीं है और कोई अंत नहीं है। एक चीज बनती है और मिटती है,
तो हमें यह खयाल हो जाता है कि जो भी बनता है वह मिटता है। यह ठीक है, लेकिन बनना और मिटना, प्रारंभ और अंत नहीं हैं। क्योंकि जो चीज बनती है, वह बनने के पहले किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है; और जो चीज मिटती है, वह मिटने के बाद फिर किसी दूसरे रूप में मौजूद हो जाती है।
तो महावीर कहते हैं, जीवन में सिर्फ रूपांतरण होता है, न तो प्रारंभ है और न कोई अंत है।
प्रारंभ असंभव है, क्योंकि अगर हम यह मानें कि कभी प्रारंभ हुआ तो यह भी मानना पड़ेगा, उसके पहले कुछ भी न था। फिर प्रारंभ कैसे होगा? अगर कुछ भी न था उसके पहले तो प्रारंभ होने का उपाय भी नहीं है। अगर हम यह मान लें कि कुछ भी नहीं था तो समय भी नहीं था, टाइम भी नहीं था; स्पेस भी नहीं थी, स्थान भी नहीं था; प्रारंभ कैसे होगा? प्रारंभ होने के लिए कम से कम समय तो पहले चाहिए ही, ताकि प्रारंभ हो सके। और अगर समय पहले है, स्थान पहले है, तो सब पहले हो गया। क्योंकि इस जगत में मौलिक रूप से दो ही तत्व गहराई में हैं, टाइम और स्पेस।
तो महावीर कहते हैं, प्रारंभ की बात ही हमारी नासमझी से उठी है। अस्तित्व का कभी कोई प्रारंभ नहीं हुआ। और जिसका कभी कोई प्रारंभ न हुआ हो, उन्हीं कारणों से उसका कभी अंत भी नहीं हो सकता। क्योंकि अंत होने का मतलब होगा, एक दिन सब न हो जाए, कुछ भी न बचे। यह कैसे होगा?
इसलिए अस्तित्व अनादि है और अनंत है--न तो कभी शुरू हुआ है, न कभी अंत होगा; सदा है, सनातन है।
लेकिन रूपांतरण रोज है। कल जो रेत था, वह आज पहाड़ है; आज जो पहाड़ है, वह कल रेत हो जाएगा। लेकिन होना नहीं मिट जाएगा। रेत में भी वही था, पहाड़ में भी वही होगा। आज जो बच्चा है, कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा, बाद विदा हो जाएगा। लेकिन जो बच्चे में था, वही जवान में होगा, वही बुढ़ापे में होगा, वही मृत्यु के क्षण में विदा भी ले रहा होगा। वह जो था, वह निरंतर होगा। अस्तित्व का अनस्तित्व होना असंभव है। और अनस्तित्व से भी अस्तित्व नहीं आता है।
इसलिए महावीर ने स्रष्टा की धारणा ही इनकार कर दी। इसलिए महावीर ने कहा, जब सृष्टि प्रारंभ ही नहीं होती, जब कभी शुरुआत ही नहीं होती, तो शुरुआत करने वाले की फिजूल धारणा को क्यों बीच में लाना? जब शुरुआत ही नहीं होती तो स्रष्टा की कोई जरूरत नहीं है।
यह बड़े साहस की बात थी उन दिनों। महावीर ने कहा, सृष्टि है और स्रष्टा नहीं है। क्योंकि अगर स्रष्टा होगा तो प्रारंभ मानना पड़ेगा। और महावीर कहते हैं, स्रष्टा भी हो तो भी शून्य से प्रारंभ नहीं हो सकता।
और फिर मजे की बात यह है कि अगर स्रष्टा था तो फिर शून्य कहना व्यर्थ है। तब था ही कुछ, और फिर उस होने से ही कुछ होता रहेगा। जिसे, साधारणतः जिसको हम आस्तिक कहते हैं--वस्तुतः वह आस्तिक नहीं होता--साधारणतः आस्तिक की दलील यही है कि सब चीजों का बनाने वाला है तो परमात्मा भी होना चाहिए जगत को बनाने के लिए।
लेकिन नास्तिकों ने और गहरा सवाल पूछा और उसका जवाब आस्तिक नहीं दे पाए। वे यह पूछते हैं कि अगर सब चीजों का बनाने वाला है तो फिर परमात्मा को बनाने वाला भी होना चाहिए। और तब बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है। अगर हम परमात्मा का बनाने वाला भी मानें तो इनफिनिट रिग्रेस हो जाएगी। फिर तो अंतहीन विवाद हो जाएगा, क्योंकि फिर उसका बनाने वाला चाहिए, फिर उसका, फिर उसका, फिर उसका...। इसका अंत कहां हो? किसी भी कड़ी पर यही सवाल उठेगा: इसका बनाने वाला?
तो महावीर कहते हैं कि आस्तिक भूल में है और इसलिए नास्तिक का उत्तर नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि आस्तिक बुनियादी भूल कर रहा है। महावीर परम आस्तिक हैं खुद भी, लेकिन वे कह रहे हैं, बनाने वाले को बीच में लाने की जरूरत नहीं है, अस्तित्व पर्याप्त है। न कोई बनाने वाला है, इसलिए यह भी सवाल नहीं कि उसका बनाने वाला कहां है।
महावीर के परमात्मा की धारणा अस्तित्व की गहराइयों से निकलती है; अस्तित्व के बाहर से नहीं आती, सुपर इंपोज्ड नहीं है। अस्तित्व अलग और परमात्मा अलग बैठ कर उसको जैसे कि कुम्हार घड़ा बना रहा हो, ऐसा नहीं है कोई परमात्मा। इसी अस्तित्व में जो सारभूत विकसित होतेऱ्होते अंतिम क्षणों तक विकास को उपलब्ध हो जाता है, वही परमात्मा है।
तो परमात्मा की धारणा में महावीर के लिए विकास है। यानी परमात्मा की धारणा अस्तित्व का सारभूत अंश है, जो विकसित हो रहा है।
साधारण आस्तिक की धारणा--परमात्मा अलग बैठा है और जगत को बना रहा है, तब प्रारंभ की बात है। उसी आस्तिक की नासमझी को वैज्ञानिक भी पकड़े हुए चला जाता है। हालांकि वह ईश्वर को इनकार कर देता है, लेकिन फिर भी वह सोचता है कि बिगनिंग कब हुई? प्रारंभ कब हुआ?
हां, यह हो सकता है, इस पृथ्वी का प्रारंभ कब हुआ, इसका पता चल जाएगा। यह पृथ्वी कब अंत होगी, यह भी पता चल जाएगा। लेकिन पृथ्वी जीवन नहीं है, जीवन का एक रूप है। जैसे मैं कब पैदा हुआ, पता चल जाएगा। मैं कब मर जाऊंगा, यह भी पता चल जाएगा। लेकिन मैं जीवन नहीं हूं, जीवन का सिर्फ एक रूप हूं। जैसे हम एक सागर में जाएं, एक लहर कब पैदा हुई, पता चल जाएगा; एक लहर कब गिरी, यह भी पता चल जाएगा; लेकिन लहर सिर्फ एक रूप है सागर का। सागर कब शुरू हुआ? सागर कब अंत होगा? और अगर सागर का भी पता चल जाए तो फिर सागर भी एक लहर है और बड़े विस्तार की।
अंततः जो है गहराई में, वह सदा से है; उसकी ऊपर की लहरें आई हैं, गई हैं, बदली हैं; आएंगी, जाएंगी, बदलेंगी; पर जो गहराई में है, जो केंद्र में है, वह सदा से है।
और यह हमारे खयाल में आ जाए तो प्रारंभ का प्रश्न समाप्त हो जाता है, अंत का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। सूरज ठंडा होगा, क्योंकि सूरज गरम हुआ है। जो गरम होगा, वह ठंडा होगा--वक्त कितना लगता है, यह दूसरी बात है। एक दिन सूरज ठंडा था, एक दिन सूरज फिर ठंडा हो जाएगा। एक दिन पृथ्वी ठंडी होगी। इनके भी जीवन हैं। असल में हमें खयाल में नहीं है। पृथ्वी भी...।
इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। हम कहते हैं कि मैं जीवित हूं, लेकिन हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारे शरीर में करोड़ों कीटाणु भी जीवित हैं। उन कीटाणुओं का अपना जीवन है। और उन सारे कीटाणुओं से मिले हुए शरीर में एक और जीवन है, जो हमारा है।
पृथ्वी का अपना एक जीवन है। इसलिए महावीर कहते हैं उसकी अपनी, यह पृथ्वी काया है उस जीव की, उसका अपना जीवन है। उस पृथ्वी पर पौधे, पक्षियों, मनुष्यों, इन सबका अपना जीवन है; लेकिन पृथ्वी का अपना जीवन है, पृथ्वी की खुद अपनी जीवन-धारा है। उसका जन्म हुआ है, वह मरेगी। सूरज का अपना जीवन है, चांद का अपना जीवन है, वह भी शुरू हुआ है, उसका भी अंत होगा। लेकिन जीवन का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का कोई अंत नहीं है। ऐसा ही समझ लें कि अस्तित्व का एक सागर है, उस पर लहरें उठती हैं, आती हैं, जाती हैं; लेकिन पूरे अस्तित्व का कभी प्रारंभ हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता।
इसे ऐसा समझना चाहिए, हमारे सारे तर्क एक सीमा पर जाकर व्यर्थ हो जाते हैं। हम यहां लकड़ी के तख्तों पर बैठे हुए हैं। कोई हमसे पूछ सकता है, आपको कौन संभाले हुए है? तो हम कहेंगे, लकड़ी के तख्ते। फिर कोई पूछ सकता है, लकड़ी के तख्तों को कौन संभाले हुए है? तो हम कहेंगे, जमीन। और कोई पूछ सकता है, जमीन को कौन संभाले हुए है। तो शायद हम कहें कि ग्रहों-उपग्रहों का ग्रेविटेशन है, वह जमीन को संभाले हुए है। फिर कोई पूछे कि ग्रह-उपग्रह को कौन संभाले हुए है? तो शायद हम और खोजते चले जाएं। लेकिन अंततः कोई पूछे कि इस टोटल को, इस समग्र को, इस पूरे को--जिसमें सब आ गया है; ग्रह, उपग्रह, तारे, पृथ्वी, सब--इस सबको कौन संभाले हुए है? तो हम उससे कहेंगे, अब बात जरा ज्यादा हो गई। इस सबको कौन संभाले हुए है, यह प्रश्न असंगत है। क्योंकि हमने कहा, सबको कौन संभाले हुए है? अगर संभालने वाले को हम बाहर रखते हैं तो सब अभी हुआ नहीं, और अगर उसे भीतर कर लेते हैं तो बाहर कोई बचता नहीं जो उसे संभाले। सबको कोई भी नहीं संभाले हुए है, सब स्वयं संभला हुआ है। एक-एक चीज को एक-एक दूसरा संभाले हुए है, लेकिन दि टोटल, उसे कोई भी नहीं संभाले हुए है, वह स्वयं संभला हुआ है, वह स्वयंभू है।
इसलिए महावीर कहते हैं, जीवन स्वयंभू है--न इसका कोई बनाने वाला, न कोई इसका मिटाने वाला; यह स्वयं है। क्योंकि वे यह कहते हैं कि इससे क्या फायदा कि तुम एक आदमी को और लाओ बीच में, फिर कल यही सवाल उठे कि उसको कौन बनाने वाला है? फिर तुम किसी और को लाओ, फिर वही सवाल उठे। फिर परमात्मा का प्रारंभ कब हुआ, यह सवाल उठे। और फिर परमात्मा की मृत्यु कब होगी, यह सवाल उठे। इन सवालों में जाने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए महावीर उस हाइपोथीसिस को, उस परिकल्पना को एकदम इनकार कर देते हैं।
और मेरी अपनी समझ है कि जो लोग भी अस्तित्व की गहराई में गए हैं, वे स्रष्टा की धारणा को इनकार ही कर देंगे। उनकी परमात्मा की धारणा स्रष्टा की, क्रिएटर की धारणा नहीं होगी, उनकी परमात्मा की धारणा जीवन के विकास की चरम-बिंदु की धारणा होगी।
यानी सामान्यतया जिसको हम आस्तिक कहते हैं, उसका परमात्मा पहले है। महावीर की जो आस्तिकता, जो महावीर की है, उसमें परमात्मा चरम विकास है। और इसलिए रोज होता रहेगा ऐसा। एक लहर गिर जाएगी और सागर हो जाएगी, लेकिन दूसरी लहरें उठती रहेंगी। तो इसलिए कोई कभी अंत नहीं हो जाएगा। लहरें उठती रहेंगी, गिरती रहेंगी, सागर सदा होगा।
इसलिए आस्तिक वह है, जो लहरों पर ध्यान नहीं देता; उस सागर पर ध्यान देता है, जो सदा है। आस्तिक वह है, जो बदलाहट पर ध्यान नहीं देता; उस पर ध्यान देता है, जो कभी भी नहीं बदला है। आस्तिक वह है, जो अपरिवर्तनीय पर जिसकी दृष्टि चली जाती है, फिर परिवर्तन सब सपना हो जाता है। क्योंकि क्या मतलब है? फिर जीवन का यथार्थ विलीन हो जाता है और जीवन के यथार्थ की जगह स्वप्न की सत्ता खड़ी हो जाती है। क्या मतलब है?
मरते वक्त, एक आदमी मर रहा है, उससे हम पूछें कि सच में ही तूने जिस स्त्री को प्रेम किया था, वह तूने किया ही था या कि कोई सपना देखा था? तो मरते आदमी को तय करना बहुत मुश्किल है कि जिंदगी में उसने जो लाखों कमाए थे, वे कमाए ही थे या कि कोई सपना देखा था?
बर्ट्रेंड रसेल ने एक बहुत मजाक की है। बर्ट्रेंड रसेल ने यह मजाक की है कि मरते वक्त मैं तय नहीं कर पाऊंगा कि जो हुआ, वह सच में हुआ था या कि मैंने एक सपना देखा है! और कैसे तय करूंगा? दोनों में फर्क क्या करूंगा कि वह सच में हुआ था?
आप ही पीछे लौट कर देखिए जो बचपन गुजर गया, वह आपका एक सपना था या कि सच में था? आज तो आपके पास सिवाय एक स्मृति के कुछ भी नहीं रह गया है। और मजे की बात यह है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, उसकी स्मृति भी वैसी ही बनती है, जैसा हम सपना कहते हैं, उसकी स्मृति बनती है।
इसलिए छोटे बच्चे तय भी नहीं कर पाते। छोटा बच्चा रात में अगर सपना देख लेता है कि उसकी गुड्डी किसी ने तोड़ दी तो सुबह रोता हुआ उठता है और पूछता है, मेरी गुड्डी तोड़ डाली गई है। उसे अभी साफ नहीं है कि उसने जो सपना देखा उसमें और जाग कर जो गुड्डी देख रहा है उसमें फर्क है। उसके लिए एक कंटिन्युटी है। दिन में वह देखता है, वह एक सपना है; रात जो देखता है, वह एक सपना है! या रात जो देखता है, वह एक सत्य है; सुबह जो देखता है, वह एक सत्य है! अभी उसे फासला, फर्क नहीं है। इसलिए हो सकता है सपने में डरा हो और जाग कर रोता रहे। और समझाना मुश्किल हो जाए, क्योंकि हमें पता ही नहीं है उसके कारण का कि वह डरा किस वजह से है। हो सकता है सपने में किसी ने उसे मार दिया हो और वह रोए चला जा रहा है जाग कर। उसके लिए फासला नहीं है अभी। जो लोग थोड़े जीवन की गहराई में उतरेंगे, वे अंत में फिर इस जगह पर पहुंच जाते हैं कि फासले फिर खो जाते हैं।
च्वांगत्से चीन में एक अदभुत विचारक हुआ। एक रात सपना देखा, सुबह उठा और बहुत परेशान था! मित्रों ने पूछा, आप इतने परेशान? हमारी परेशानी होती है, हम आप से सलाह लेते हैं। आज आप परेशान हैं! क्या हो गया आपको? उसने कहा कि आज मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं और फूल-फूल पर भटक रहा हूं।
तो मित्रों ने कहा, इसमें क्या परेशान होने की बात है! सपने सभी देखते हैं। उसने कहा, नहीं, इससे परेशान होने की बात नहीं। अब मैं इस चिंता में पड़ गया हूं कि अगर रात च्वांगत्से नाम का आदमी सोया और तितली हो गया सपने में, तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह सपने की तितली अब सो गई है और सपना देख रही है च्वांगत्से हो जाने का? क्योंकि जब आदमी सपने में तितली हो सकता है तो तितली सपने में आदमी हो सकती है। अब मैं सच में हूं या कि तितली सपना देख रही है--अब यह मैं कैसे तय करूं? कैसे तय करूं? उसने खूब मजाक में डाल दिया है।
और वह जिंदगी भर लोगों से पूछता रहा कि मैं कैसे तय करूं? कैसे तय हो इस बात का?
जैसे ही कोई आदमी गहरे जीवन में उतरेगा--वहीं से सपने आते हैं, वहीं से जीवन भी आता है। सब लहरें वहीं से आती हैं। इसलिए सब लहरें एक अर्थ में समानार्थी हो जाती हैं। और तब सुख और दुख बेमानी है; तब प्रारंभ और अंत बेमानी है; तब ऐसा होना और वैसा होना बेमानी है; तब एक स्थिति है कि सब स्थितियों में आदमी राजी है।
लेकिन चूंकि हम लहरों का हिसाब रखते हैं, इसलिए हम परम सत्य के बाबत भी पूछना चाहते हैं: वह कब शुरू हुआ? कब अंत होगा?
सूरज बनेगा, मिटेगा--वह भी लहर है। जरा देर चलने वाली है, अरब, दो अरब, दस अरब वर्ष चलेगी। पृथ्वी भी मिटेगी, बनेगी; वह भी एक लहर है। हजारों पृथ्वियां बनी हैं और मिट गई हैं। हजारों सूरज बने हैं और मिट गए हैं। और प्रतिदिन कहीं किसी कोने पर कोई सूरज ठंडा हो रहा है, और किसी कोने पर कोई सूरज जन्म ले रहा है। अभी भी, इस वक्त भी, अभी जब हम यहां बैठे हैं तो कुछ सूरज बूढ़े हो रहे हैं, कोई सूरज मर रहा होगा कहीं; कोई सूरज अभी मरा होगा, कहीं सूरज नया जन्म ले रहा होगा; कई सूरज बच्चे हैं अभी, कई जवान हो रहे हैं। हमारा सूरज भी बूढ़ा होने के करीब पहुंचा जा रहा है, उसकी उम्र ज्यादा नहीं है। वह चार-पांच हजार वर्ष लेगा कि वह ठंडा हो जाएगा। हमारी पृथ्वी भी बूढ़ी होती चली जाएगी, वह भी बूढ़ी होती चली जा रही है। जगत में कोई ऐसी चीज नहीं है...।
पर होता क्या है, एक छोटी सी इल्ली है, वह समझो कि वर्षा में ही पैदा होती है, वह वृक्ष पर चढ़ रही है। वृक्ष उसको बिलकुल सनातन मालूम पड़ता है। उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे, उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे, उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे। यह वृक्ष बिलकुल सनातन मालूम होता है। यह बिलकुल शाश्वत मालूम होता है। यह कभी मिटता हुआ नहीं मालूम होता। इल्ली की हजारों पीढ़ियां गुजर जाती हैं और यह वृक्ष है कि ऐसे ही खड़ा रह जाता है।
तो इल्लियां सोचती होंगी, वृक्ष सनातन हैं, ये कभी नहीं मिटते। वृक्ष न कभी पैदा होते, न कभी मरते; इल्लियां पैदा होती हैं और मर जाती हैं, वृक्ष सदा होते हैं। क्योंकि वृक्ष की उम्र है दो सौ वर्ष और इल्ली एक मौसम में जीती और मर जाती है। उसकी दो सौ पीढ़ियां एक वृक्ष पर गुजर जाती हैं। दो सौ पीढ़ियों में इतना लंबा फासला है।
हमारी दो सौ पीढ़ियों में कितना लंबा फासला है, आपको हिसाब है? महावीर से हमारा फासला कितना है? पच्चीस सौ वर्ष ही न? अगर हम पचास वर्ष की भी एक पीढ़ी मान लें तो कितना सा फासला है! कितनी सी पीढ़ियां गुजरीं! कोई बहुत ज्यादा नहीं।
न तो कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है।
जो है--उसका न कोई प्रारंभ है, न अंत है।
और जिसका प्रारंभ और अंत है, वह केवल एक रूप है, एक आकार है। आकार बनेंगे और बिगड़ेंगे, आकृति उठेगी और गिरेगी, सपने पैदा होंगे और खोएंगे
लेकिन जो है सत्य, वह सदा है, और सदा है, और सदा है। उसे हम कभी ऐसा भी नहीं कह सकते कि था। सत्य के लिए ऐसा नहीं कह सकते कि था, सत्य के लिए ऐसा नहीं कह सकते कि होगा, सत्य के लिए तो एक ही बात कह सकते हैं कि है, और है, और है। और अगर बहुत गहरे जब कोई जाता है तो वह पाता है कि यह कहना भी गलत है कि सत्य है, क्योंकि जो है, वही सत्य है।
तो सत्य के साथ है को भी जोड़ना बेमानी है; क्योंकि है उसके साथ जोड़ा जा सकता है, जो नहीं है हो सकता हो। हम कह सकते हैं यह मकान है, क्योंकि मकान नहीं है भी हो सकता है। लेकिन सत्य है--इस कहने में कठिनाई है थोड़ी; क्योंकि सत्य नहीं है कभी नहीं हो सकता।
इसलिए सत्य और है पर्यायवाची हैं, सिनानिम्स हैं; इनको दोहरा उपयोग करना एक साथ पुनरुक्ति है। सत्य है, इसका मतलब है कि जो है वह है। इसका और कोई मतलब नहीं है। है यानी है, इसका इतना मतलब है। एक्झिस्टेंस इज़, ऐसा कहना गलत है; इज़नेस इज़ एक्झिस्टेंस। वह जो होना है, जो इज़नेस है, जो है, वही सत्य है। इसलिए सत्य है, इस कहने में भी पुनरुक्ति हो गई, दो शब्द आ गए हैं। है अलग से आ गया है। और है उन चीजों के लिए काम में आता है जो नहीं है भी हो जाती हैं।
इस दृष्टि का थोड़ा सा खयाल आ जाए तो सब बदल जाता है--सब बदल जाता है। तब पूजा और प्रार्थना नहीं उठती, तब मंदिर और मस्जिद नहीं खड़ी होती, लेकिन सब बदल जाता है। आदमी मंदिर बन जाता है। आदमी का उठना, चलना, बैठना, सब पूजा और प्रार्थना हो जाती है। क्योंकि जब इतना विस्तार का बोध आता है तो अपनी क्षुद्रता एकदम खो जाने का अर्थ रखने लगती है। फिर उसका कोई मतलब नहीं रह जाता, उसका कोई अर्थ नहीं है।
मैं हूं इसका अर्थ नहीं है; मैं था इसका अर्थ नहीं है; मैं होऊंगा इसका अर्थ नहीं है। लेकिन मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है। और वह सबके भीतर है, और वह एक ही है। तो व्यक्ति खो जाता है, अहंकार खो जाता है। तब जिसका जन्म होता है, उसी को हम कहें बदला हुआ चित्त, बदली हुई चेतना, ट्रांसफार्म्ड माइंड--जो भी नाम देना चाहें उसे हम दे सकते हैं।

प्रश्न:

जड़ और चेतन दो पृथक चीजें हैं या एक ही वस्तु के दो रूप हैं?

हीं, बिलकुल पृथक चीजें नहीं हैं। पृथक दिखाई पड़ती हैं। पृथक दिखाई पड़ती हैं। जड़ का मतलब है इतना कम चेतन कि हम अभी उसे चेतन नहीं कह पाते। चेतन का मतलब है इतना कम जड़ कि हम उसे अब जड़ नहीं कह पाते। वे एक ही चीज के दो छोर हैं।
जड़ता ही निरंतर चेतन होती चली जा रही है। और जड़ता चेतन होती चली जा रही है इसीलिए कि जड़ता में भीतर कहीं चेतन छिपा है। फर्क सिर्फ प्रकट और अप्रकट का है, मैनिफेस्टेड और अनमैनिफेस्टेड का है। जिसको हम जड़ कहते हैं, वह अप्रकट चेतन है, जिसकी अभी चेतना प्रकट नहीं हुई है। जिसको हम चेतन कहते हैं, वह प्रकट हो गया जड़ है, जिसका पूरा सब प्रकट है।
एक बीज रखा है और एक वृक्ष खड़ा है, कौन कहेगा कि बीज और वृक्ष एक ही हैं? क्योंकि कहां वृक्ष, कहां बीज! लेकिन बीज में वृक्ष अप्रकट है बस, इतना ही फर्क है। ऐसे दो दिखाई पड़ते हैं, दो हैं नहीं। और जहां-जहां हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां-वहां दो नहीं हैं। है तो एक ही, लेकिन हमारी देखने की क्षमता इतनी सीमित है कि हम दो में ही देख सकते हैं। वह सीमित क्षमता के कारण, क्योंकि जड़ में हमें चेतन दिखाई नहीं पड़ता, और चेतन को हम कैसे जड़ कहें?
और इसीलिए जो झगड़ा चलता आ रहा है निरंतर से, वह एकदम बेमानी था। जिन लोगों ने कहा कि पदार्थ ही है, वे भी ठीक कहते हैं। वे ठीक कहते हैं इसी अर्थों में कि वे कहते हैं चेतन यानी क्या? सब पदार्थ से ही तो आ रहा है। तो कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है, इसमें झगड़ा कहां है? कोई कहता है कि नहीं, पदार्थ है ही नहीं, बस चेतन ही है। वे भी ठीक ही कहते हैं।
वे ऐसे ही लोग हैं, जैसे एक कमरे में आधा गिलास भरा पानी रखा हो और एक आदमी बाहर आए और कहे कि गिलास आधा खाली है, और दूसरा आदमी बाहर आए और वह कहता है, गलत बोलते हो बिलकुल, गिलास आधा भरा है। और दोनों विवाद करें। और तब दो संप्रदाय बन जाएं। और ऐसे लोगों के संप्रदाय बनते हैं, जो भीतर कभी जाते नहीं देखने कि गिलास कैसा है! मकान के बाहर ही जो निर्णय करते हैं, वे संप्रदाय बनाते हैं। दो आदमी खबर लाए हैं कि मकान के भीतर जो गिलास है, वह आधा खाली है एक कहे; और एक कहे बिलकुल ही गलत है यह बात, मैंने अपनी आंख से देखा, गिलास आधा भरा है।
वे दोनों ही ठीक कहते हैं। और दोनों एक साथ ही ठीक हैं। नहीं तो एक भी ठीक नहीं हो सकता उनमें से। सिर्फ उनकी एंफेसिस, उनका जोर भिन्न है। एक खाली पर जोर देकर चला आया है, एक भरे पर।
जो लोग पदार्थ पर जोर दे रहे हैं, वे भी ठीक हैं। उनके जोर में गलती नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है, सब पदार्थ है। यह भी कहा जा सकता है, सब चेतन है। क्योंकि पदार्थ और चेतन दो चीजें नहीं हैं, पदार्थ चेतन की अप्रकट स्थिति है और चेतन पदार्थ की प्रकट स्थिति है।
तो मेरी दृष्टि में जिस दिन दुनिया और ज्यादा संप्रदायों से उठ कर, मतों से उठ कर देखना शुरू करेगी; उस दिन मैटीरियलिस्ट और स्प्रिचुएलिस्ट में कोई झगड़ा नहीं रह जाना चाहिए; उस दिन भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में कोई झगड़ा नहीं रह जाना चाहिए। वह आधे गिलास का झगड़ा है।
हां, लेकिन फिर भी मैं पसंद करूंगा कि जोर, सब चेतन है, इस पर दिया जाए। यह मैं क्यों पसंद करूंगा, जब कि वह बात भी ठीक है? पसंद इसलिए करूंगा कि जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब पदार्थ है, तो हमारी चेतना के प्रकट होने में बाधा पड़ती है--इस जोर से। जब हम यह कहते हैं, सब पदार्थ है, इस बात में कोई भूल नहीं है। यह बात बिलकुल ठीक हो सकती है, है ही ठीक। लेकिन जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब पदार्थ है तो हमारी चेतना के विकास में बाधा पड़ती है, क्योंकि हम सोचते हैं, सब पदार्थ है, ठीक है। लेकिन जब हम इस बात पर जोर देते हैं कि सब चेतन है तो हमारी चेतना पर बल पड़ता है और विकास की संभावना उदभूत होती है।
इसलिए अध्यात्मवाद में और पदार्थवाद में बुनियादी भेद नहीं है। भेद सिर्फ इस बात का है कि पदार्थवाद आदमी को रोक सकता है विकास से, क्योंकि जब सब पदार्थ ही है तो बात खतम हो गई। और अध्यात्मवाद विकासशील बना सकता है आदमी को। लेकिन जब कोई पहुंचता है सत्य पर जीवन के, तो वह पाता है, दोनों बातें ठीक थीं, बातों में कोई झगड़ा न था, लेकिन एंफेसिस में फिर भी फर्क पड़ता था। और फर्क उपयोगी था, बहुत उपयोगी था।
एक, भोज के जीवन में एक उल्लेख है कि एक ज्योतिषी आया। भोज का हाथ देखा और ज्योतिषी ने कहा, तुम बड़े अभागे हो। तुम अपनी पत्नी को भी मरघट पहुंचाओगे, अपने बेटों को भी मरघट पहुंचाओगे। तुम्हें घर के एक-एक सदस्य को मरघट पहुंचाना पड़ेगा, सबके बाद में तुम मरोगे। भोज तो बहुत नाराज हो गया और उसने ज्योतिषी को हथकड़ियां डलवा दीं और कहा कि इसे बंद कर दो। आदमी कैसा है, कैसी अपशकुन की बातें बोलता है!
कालीदास चुपचाप बैठा था, वह खूब हंसने लगा। उसने कहा कि ज्योतिषी कुछ अपशकुन नहीं बोलता, सिर्फ बोलने की समझ नहीं है, जोर गलत चीज पर देता है।
कालीदास ने जब यह कहा तो भोज ने कहा, क्या मतलब? तो कालीदास ने कहा कि मैं आपका हाथ देखूं? हाथ देख कर कालीदास ने कहा, बहुत धन्यभागी हैं आप! आपकी उम्र बहुत ज्यादा है। और धन्यभागी इस अर्थों में हैं कि न तो आपकी मृत्यु से आपकी पत्नी दुखी होगी, न आपकी मृत्यु से आपके बेटे कभी दुखी होंगे, कोई दुखी नहीं होगा। आप बड़े धन्यभागी हैं। और भोज ने कहा कि जितना इनाम चाहिए लो, ऐसी शकुन की बात करनी चाहिए, अपशकुन की नहीं।
अब यह जो--यह एंफेसिस का फर्क है, लेकिन चित्त पर इसके परिणाम भिन्न होने वाले हैं। पहली बात बड़ा उदास कर गई होगी, दूसरी बात बड़ा प्रसन्न कर गई। और बात बिलकुल एक थी। पहले आदमी ने कुछ भी गलत न कहा था, दूसरे आदमी ने कुछ ज्यादा सही न कह दिया था, लेकिन उनके कहने के ढंग, उनका जोर बदल गया था।
पदार्थवाद मनुष्य को एकदम उदास कर जाता है, बात वही है। अध्यात्मवाद उसे एक पुलक देता है, एक गति देता है, विकास के द्वार खोलता है, कुछ होने की संभावना प्रकट करता
है। इसलिए मैं फिर भी जारी रखूंगा यह बात कहना कि अध्यात्मवाद ही ठीक कहता है, यद्यपि भौतिकवाद गलत नहीं कहता है।

प्रश्न:

कब से प्रकृति पैदा हुई, यह तो हाइपोथीसिस है, यह मान कर चलते हैं। और महावीर स्वामी ने जो कहा, इज़ इट नाट दि लिमिटेशंस ऑफ दि नालेज ऑफ वन मैन, दैट वी कैन नाट रियलाइज दि थिंग्स?

हीं, यह सवाल ही नहीं है। यह मनुष्य के ज्ञान की सीमा का सवाल नहीं है, मनुष्य का ज्ञान कितना ही असीम हो जाए तो भी प्रारंभ की संभावना नहीं है।

प्रश्न:

जानने की?

हीं, नहीं। जानने की नहीं, प्रारंभ के होने की, जानने का तो सवाल ही नहीं है। अगर प्रारंभ है तो जाना जा सकता है। जो है, वह जाना जा सकता है। अब जो नहीं है, उसके लिए क्या करिएगा? प्रारंभ असंभव है। ज्ञान की सीमा का सवाल ही नहीं है। यानी ऐसा नहीं है कि महावीर यह कहते हैं कि मुझे पता नहीं है कि प्रारंभ है कि नहीं। मैं भी ऐसा नहीं कह रहा हूं कि यह हमारे ज्ञान की सीमा है कि हमें पता नहीं चल सकता कि प्रारंभ कब हुआ।
नहीं, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि प्रारंभ की अवधारणा, वह जो हाइपोथीसिस है प्रारंभ की, वह इंपासिबल है, वह पासिबल नहीं है। वह इसलिए असंभव है कि प्रारंभ के लिए भी पहले कुछ सदा से होना चाहिए, नहीं तो प्रारंभ भी नहीं हो सकता। यानी प्रारंभ के संभव होने के लिए भी प्रारंभ के पहले अस्तित्व चाहिए, नहीं तो प्रारंभ भी संभव नहीं हो सकता। और जब पहले अस्तित्व चाहिए तो वह प्रारंभ नहीं रह गया। और फिर इसको आप पीछे खींचते चले जाएं।
जैसे समझ लें कि कोई आदमी कहे कि दुनिया की, जगत की एक सीमा है। और हम कहें, भई, हमें तो सीमा का कोई पता नहीं कि एक जगह जगत समाप्त हो जाता है, अस्तित्व एक जगह जाकर समाप्त हो जाता है जिसके आगे कुछ भी नहीं है। तो हम कहें, हमें पता नहीं है। हो सकता है एक दिन आदमी उस जगह पहुंच जाए, जहां जगत समाप्त हो जाता है। क्योंकि हमारा ज्ञान अभी सीमित है, हम बहुत थोड़ा सा ही तो जानते हैं। अभी चांद पर ही तो पहुंच पाए मुश्किल से और जगत तो, अस्तित्व तो बड़ा विस्तीर्ण है। कभी हम पहुंच पाएंगे, नहीं कह सकते। इसलिए अंत के संबंध में हम कैसे कहें?
नहीं, लेकिन मैं कहता हूं कि अंत नहीं हो सकता। अंत असंभव है। अंत इसलिए असंभव है कि किसी भी चीज का अंत सदा दूसरे का प्रारंभ होता है। यानी अगर हम किसी दिन एक ऐसी जगह पहुंच जाएं, जहां एक रेखा आ जाती हो; हम कह सकें जगत अंत हुआ, तो रेखा बनेगी कैसे?
रेखा बनती है दो के अस्तित्व से, एक शुरू होता हो और एक अंत होता हो। जहां आपका मकान खतम होता है, वहां पड़ोसी का शुरू हो जाता है। इसीलिए खतम होता है, नहीं तो खतम होता ही नहीं। जहां कुछ अंत होता है, वहीं प्रारंभ हो जाता है। यानी प्रत्येक अंत प्रारंभ को जन्म देता है और प्रत्येक प्रारंभ अंत को जन्म देता है।
जहां ऐसी स्थिति हो, वहां हम बिना किसी दिक्कत के यह कह सकते हैं कि चाहे कितना ही मनुष्य कहीं पहुंच जाए, ऐसा कभी नहीं होगा कि मनुष्य कह दे कि आ गई जगत की सीमा, अब इसके आगे कुछ भी नहीं है। लेकिन आगे तो होगा। बात खतम हो गई। इतना भी अगर रहा कि उसने कहा कि अब इसके आगे कुछ भी नहीं है; पर आगे तो होगा, स्पेस तो होगी। और तब फिर आगे तो अभी जारी रहा, खतम कहां हो गया?
यानी आप कंसीव नहीं कर सकते ऐसा कि एक जगह ऐसी आ गई, जिसके आगे आगे भी नहीं है। ऐसी जगह कैसे आएगी? और इसलिए इनकंसीवेबल है, इंपासिबल है। न तो अवधारणा हो सकती है और न संभावना है।
महावीर का दावा इसलिए जारी रहेगा। वह दावा किसी भी दिन खंडित नहीं हो सकता। यानी अगर किसी दिन हमने पता भी लगा लिया कि इस दिन पृथ्वी का प्रारंभ हुआ, तो हम पाएंगे कि उसके पहले कुछ है, जिससे प्रारंभ हुआ। फिर उसका पता लगा लिया, तो पता चलेगा उसके पहले कुछ है, जिससे प्रारंभ हुआ। यानी प्रारंभ चूंकि शून्य से नहीं हो सकता है, और अगर शून्य से प्रारंभ हो सके तो फिर शून्य को शून्य कहना गलत होगा। उसका मतलब होगा कि शून्य में भी बीज की तरह कुछ छिपा है, जो प्रकट हो सकता है, फिर वह शून्य नहीं रहा। शून्य का मतलब है जिसमें कुछ भी नहीं छिपा है, जो है ही नहीं।
तो इसका जो कारण है, वह यह नहीं है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित है, इसका कारण यह है कि ज्ञान कितना ही बढ़ जाए, प्रारंभ की धारणा असंभव है, प्रारंभ कभी हो ही नहीं सकता। यानी उस प्रारंभ होने की धारणा में ही उसका विरोध छिपा हुआ है। वह कैसे होगा? और जहां से भी होगा, पूर्व-स्थितियों की जरूरत पड़ेगी। और वे पूर्व-स्थितियां प्रारंभ को खंडित कर देती हैं।

प्रश्न:

जीवन की भिन्न-भिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर की मानसिक स्थिति का विश्लेषण उपलब्ध नहीं होता। आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसके आधार पर उनकी अंतरंग स्थिति का स्पष्टीकरण क्या हो सकेगा?

ह बहुत बढ़िया सवाल है। बढ़िया इसलिए है कि हम सबके मन में उठ सकता है कि भिन्न-भिन्न अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर जैसे व्यक्ति की चित्त-दशा क्या होती है? कोई उल्लेख नहीं है। तो कोई सोच सकता है कि उल्लेख इसलिए नहीं है कि महावीर ने कभी कहा न हो।
यह कारण नहीं है। उल्लेख न होने का कारण बहुत दूसरा है और बहुत गहरा, बुनियादी है। महावीर जैसी चेतना के व्यक्ति में परिस्थितियों से कोई भेद नहीं पड़ता। इसलिए भिन्न-भिन्न परिस्थिति कहने का कोई अर्थ नहीं है। भिन्न-भिन्न परिस्थिति में, प्रतिकूल-अनुकूल में चित्त सदा समान है।
जैसे कि किसी ने गाली दी, तो हम क्रोधित होते हैं; और किसी ने स्वागत किया तो हम आनंदित होते हैं। प्रत्येक स्थिति में हमारा चित्त रूपांतरित होता है। जैसी स्थिति होती है, वैसा चित्त हो जाता है।
इसी को महावीर कहते हैं कि यह बंधन की अवस्था है। स्थिति जैसी होती है, वैसा चित्त को होना पड़ता है तो फिर हम बंधे हुए हैं। स्थिति दुख की होती है तो हमें दुखी होना पड़ता है, स्थिति सुख की होती है तो हमें सुखी होना पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि चित्त की अपनी कोई दशा नहीं है। चित्त सिर्फ बाहर की स्थिति जो मौका दे देती है, वैसा हो जाता है। इसका अर्थ हुआ कि अभी चित्त उपलब्ध ही नहीं हुआ है, चेतना अभी उपलब्ध ही नहीं हुई है। अभी हम उस जगह नहीं पहुंचे, जहां कि क्रिस्टलाइजेशन हो जाता है, जहां कि हम कुछ हैं और स्थितियां कोई फर्क नहीं लातीं। सुख आए तो, दुख आए तो, प्रतिकूल और अनुकूल जैसी चीज ही नहीं होती एक चित्त-दशा में। जो होता है, वह होता है। और चित्त जैसा है वैसा होता है।
महावीर के इसलिए अंतरंग चित्त में क्या हो रहा है? किसी दिन बहुत शिष्य इकट्ठे हुए होंगे तो महावीर का मन कैसा है? किसी दिन कोई नहीं आया होगा गांव में सुनने तो महावीर का मन कैसा है? किसी दिन सम्राट आए होंगे सुनने और चरणों में लाखों रुपए रखे होंगे और किसी दिन कोई भिखारी भी नहीं आया, तो महावीर का मन कैसा है? किसी गांव में स्वागत-समारंभ हुए होंगे, फूलमालाएं पड़ी होंगी, और किसी गांव में पत्थर फेंके गए और गालियां दी गईं और गांव के बाहर खदेड़ दिया गया, तो महावीर का मन कैसा है? उस प्रश्न में यह पूछा है कि इन-इन स्थितियों में महावीर के भीतर क्या होता है?
असल में महावीर होने का मतलब ही यह है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता। जो होता है, वह सब बाहर ही होता है। भीतर अब कुछ भी नहीं होता है, यही महावीर होने का अर्थ है। यही क्राइस्ट होने का अर्थ है, यही बुद्ध होने का अर्थ है, यही कृष्ण होने का अर्थ है कि अब भीतर कुछ भी नहीं होता। जो भी होता है सब बाहर ही होता है। भीतर बिलकुल अस्पर्शित, अछूता छूट जाता है।
जैसे एक दर्पण है और दर्पण के सामने से कोई निकलता है--कोई सुंदर व्यक्ति, तो दर्पण में सुंदर तस्वीर बनती है। व्यक्ति निकल गया, तस्वीर मिट जाती है, दर्पण दर्पण रह जाता है। फिर एक कुरूप व्यक्ति निकलता है, तस्वीर बनती है कुरूप की, फिर कुरूप व्यक्ति निकल जाता है, दर्पण फिर दर्पण रह जाता है। दर्पण कुछ पकड़ता नहीं। और दर्पण सुंदर को भी वैसे ही झलकाता है जैसे कुरूप को; इसमें भी फर्क नहीं करता।
इसमें भी फर्क नहीं करता कि सुंदर को कुछ ज्यादा रस से झलका दे, कुरूप को जरा कम रस से झलकाए, या कहे कि हटो भी! ऐसा कुछ भी नहीं करता। सुंदर है कि कुरूप है, कौन गुजरता है सामने से इससे मतलब नहीं है। दर्पण का काम है, झलका देता है। गुजर जाता है, मिट जाता है।
लेकिन फोटो-प्लेट है, वह भी दर्पण का काम करती है, लेकिन बस एक ही बार, क्योंकि जो भी उस पर अंकित हो जाता है, उसे पकड़ लेती है, फिर उसे छोड़ नहीं पाती। इसका मतलब यह हुआ कि दर्पण की घटनाएं सब बाहर ही घटती हैं, भीतर कुछ घटता नहीं। भीतर कुछ घट जाए तो जकड़ जाए। फोटो-प्लेट में भीतर घटना घट जाती है, बाहर से कोई निकलता है और भीतर घट जाता है। बाहर से तो निकल ही जाता है, वह आदमी जा भी चुका, लेकिन फोटो-प्लेट फंस गई, वह तो पकड़ गई भीतर से। हम भीतर से पकड़े जाते हैं।
और दो तरह के चित्त हैं जगत में: फोटो-प्लेट की तरह काम करने वाले या दर्पण की तरह काम करने वाले। फोटो-प्लेट की तरह जो काम कर रहे हैं, उन्हीं को महावीर राग-द्वेष से ग्रस्त कहते हैं। असल में फोटो-प्लेट बड़ा राग-द्वेष रखती है। राग-द्वेष का मतलब यह कि जकड़ती है जल्दी से, पकड़ती है जल्दी से, फिर छोड़ती नहीं।
राग भी पकड़ता है, द्वेष भी पकड़ता है, दोनों पकड़ते हैं। एक मित्र की तरह पकड़ता है, एक शत्रु की तरह पकड़ता है और दोनों पकड़ लेते हैं। और चित्त की जो दर्पण की निर्मलता है, वह खो जाती है। हम सब फोटो-प्लेट की तरह काम करते हैं, इसलिए बड़ी मुसीबत में पड़े होते हैं। एकदम चित्त भरता जाता है, भरता जाता है, खाली कभी होता नहीं। और फिर हर स्थिति पकड़ी जाती है। और कोई स्थिति ऐसी नहीं है जो हमारे पास से अस्पर्शित निकल जाए।
महावीर जैसे व्यक्ति दर्पण की तरह जीते हैं। असल में समाधिस्थ व्यक्ति दर्पण की तरह हो जाता है। कोई गाली देता है तो वह सुनता है, जैसे कोई सम्मान करता है तो सुनता है, लेकिन जैसे सम्मान विदा हो जाता है सुनते ही, ऐसे ही गाली भी विदा हो जाती है; भीतर कुछ पकड़ा नहीं जाता।
इसलिए महावीर के अंतरंग चित्त की अलग-अलग स्थितियां नहीं हैं, जिनका वर्णन किया जाए। इसलिए वर्णन नहीं किया गया है। कोई स्थिति ही नहीं है। अब क्या दर्पण को वर्णन करो बार-बार? इतना ही कहना काफी है कि दर्पण है। जो भी आता है सो झलकता है, जो भी चला जाता है, झलक बंद हो जाती है।
अब इसको रोज-रोज क्या लिखो! इसको रोज-रोज क्या कहो! इसे कहने का कोई भी अर्थ नहीं है। न महावीर की, न क्राइस्ट की, न बुद्ध की, न कृष्ण की--किन्हीं की अंतस-परिस्थिति का कोई उल्लेख कभी नहीं किया गया। नहीं किए जाने का कारण है, उल्लेख योग्य कुछ है ही नहीं। एक समता आ गई है चित्त की, वह वैसा ही रहता है।
जैसे मैं निरंतर कहता रहता हूं कि महावीर को कुछ लोग पत्थर मार रहे हैं, या कान में कीले ठोंक रहे हैं, या गांव के बाहर खदेड़ रहे हैं, तो महावीर को मानने वाले कहते हैं कि बड़े क्षमावान थे वे। उन्होंने लौट कर गाली न दी, क्षमा कर दिया और आगे बढ़ गए! लेकिन वे भूल जाते हैं कि क्षमा तभी की जा सकती है, जब मन में क्रोध आ गया हो। क्षमा अकेली बेमानी है। वह क्रोध के साथ ही सार्थक है, नहीं तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। हम क्षमा कैसे करेंगे, जब हम क्रुद्ध न हुए हों? और वे कहते हैं कि उन्होंने लौट कर गाली न दी, लौट कर क्षमा दी और आगे बढ़ गए, लेकिन लौट कर कुछ दिया! और लौट कर तभी कुछ दिया जा सकता है, जब भीतर कुछ हो गया हो, नहीं तो लौट कर कुछ भी नहीं दिया जा सकता।
तो मैं आपसे कहता हूं, महावीर क्षमावान नहीं थे, क्योंकि महावीर क्रोधी नहीं थे। और महावीर ने लौट कर क्षमा भी नहीं किया। चाहे देखने वालों को लगा हो कि हमने गाली दी और इस आदमी ने गाली नहीं दी, बड़ा क्षमावान है। बस इतना ही कहना चाहिए कि इस आदमी ने गाली नहीं दी। बड़ा क्षमावान है--गलती हो जाती है। उस आदमी ने गाली सुनी, जैसे एक शून्य भवन में आवाज गूंजे और फिर निकल जाए--चाहे गाली की, चाहे भजन की। आवाज गूंजे और निकल जाए, भवन फिर शून्य हो जाए।
इस तल पर, इस चेतना में जीने वाले व्यक्ति सूने भवन की तरह हैं, जिनमें जो भी आता है, वह गूंजा; गूंजता जरूर है, हमसे ज्यादा गूंजता है स्पष्ट; क्योंकि हमारी संवेदनशीलता इतनी तीव्र नहीं होती। क्योंकि हमने इतनी चीजें पहले से भर रखी होती हैं।
जैसे खाली कमरा देखा न? खाली कमरे में आवाज गूंजती है और बहुत फर्नीचर भरा हो तो फिर नहीं गूंजती। हम फर्नीचर भरे हुए लोग हैं, जिसमें बहुत भरा हुआ है। फोटो-प्लेट ने बहुत इकट्ठा कर लिया है। आवाज गूंजती ही नहीं, कई दफा तो सुनाई ही नहीं पड़ती कि क्या सुना, क्या देखा, वह कुछ पता नहीं चलता। सेंसिटिविटी भी कम है।
लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति की संवेदनशीलता तो बड़ी प्रगाढ़ है, सब गूंजता है। जरा सी आवाज होती है, सुई भी गिरती है तो गूंज जाती है। लेकिन बस गूंजती है। और जितनी देर गूंज सकती है, गूंजती है, और विदा हो जाती है। महावीर उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करते, न क्षमा की, न क्रोध की। असल में महावीर कहते ही यह हैं कि महावीर का सारा का सारा योग अप्रतिक्रिया योग है, प्रतिक्रिया मत करो। देखो, जानो, सुनो; लेकिन प्रतिक्रिया मत करो। देखो, जानो, सुनो; खूब देखो, खूब जानो, खूब सुनो; लेकिन प्रतिक्रिया मत करो।

प्रश्न:

एक ईडियट भी प्रतिक्रिया नहीं करता!

ह इसलिए नहीं करता, क्योंकि न वह सुनता है, न वह जानता है, न वह देखता है।

प्रश्न:

ईडियट एक आदमी है...।

हां, हां, वह भी इसीलिए प्रतिक्रिया नहीं करता, क्योंकि देख भी नहीं पाता, सुन भी नहीं पाता, समझ भी नहीं पाता। और इसीलिए--यह बात इसने ठीक पूछी है--ईडियट, मंदबुद्धि, बुद्धिहीन, जड़ नहीं प्रतिक्रिया करता। इसीलिए परम स्थिति में अक्सर जड़ जैसी अवस्था मालूम होने लगती है।
     
प्रश्न:

तो मालूम कैसे पड़े? खयाल में कैसे आए?

तुम्हें मालूम करने की जरूरत नहीं है।

प्रश्न:

अपने भीतर देखें...।

हां, तुम अपनी फिक्र करो कि हम कहां हैं। यानी बहुत कठिन है फर्क करना। परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति हमें जड़ जैसा मालूम पड़ेगा, क्योंकि हमने जड़ को ही जाना है। अगर आप एक जड़ को गाली दे दें तो हो सकता है, बैठा हुआ सुनता रहे। इसलिए नहीं कि उसने गाली सुनी, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वह सुना ही नहीं उसने कि क्या हुआ।
महावीर को गाली दो तो हो सकता है, वे भी वैसे ही बैठे सुनते रहें। इसलिए नहीं कि उन्होंने गाली नहीं सुनी, गाली पूरी तरह सुनी, जैसी किसी आदमी ने कभी न सुनी होगी, सुनी; लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं की। क्योंकि गाली की प्रतिक्रिया क्या करनी है! प्रतिक्रिया करने का फल क्या है? प्रतिक्रिया से लाभ क्या है? प्रयोजन क्या है?
तो अक्सर ऐसा होता है कि परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति ठीक जड़ जैसा मालूम पड़ने लगता है--हमें, क्योंकि हमारी भाषा में हम जड़ को ही पहचानते हैं। लेकिन फर्क तो बहुत होंगे, फर्क तो बहुत गहरे होंगे। वक्त लगेगा पहचानने में। और शायद हम ठीक से कभी पहचान भी न सकें। जब तक हमारे भीतर फर्क होने शुरू न हो जाएं, तब तक शायद ठीक से पहचानना भी मुश्किल है कि क्या हो गया है उस व्यक्ति को।
यह जो कुछ अदभुत सी बात है, लेकिन दो विरोधी अतियां कभी-कभी बिलकुल समान ही मालूम होती हैं। जैसे एक बच्चा सरल मालूम होता है, निर्दोष मालूम होता है; लेकिन अज्ञानी है, ज्ञान बिलकुल नहीं है। परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चे जैसा मालूम होने लगेगा; इतना ही सरल, इतना ही निर्दोष। शायद बच्चे जैसा व्यवहार भी करने लगेगा। शायद हमें तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इस आदमी ने बुद्धि खो दी! यह कैसा बच्चों जैसा व्यवहार कर रहा है! कैसी बाल-बुद्धि का हो गया है!
घूम कर वृत्त वापस लौट आया है। लेकिन दोनों में बुनियादी फर्क हैं। बच्चा अभी निर्दोष दिखता है, लेकिन कल निर्दोषता खोएगा। अभी सरल दिखता है, लेकिन कल जटिल होगा। यह आदमी जटिल हो चुका, निर्दोषता खो चुका; यह पुनः उपलब्धि है, सरलता वापस लौट आई है, निर्दोष फिर हो गया है। अब खोने का सवाल नहीं है। यह जान कर, जीकर वापस लौट आया है। यह उन अनुभवों से गुजर गया है, जिनसे बच्चे को गुजरना पड़ेगा।
बच्चे की सरलता अज्ञान की है, एक संत की सरलता ज्ञान की है। लेकिन दोनों सरलताएं अक्सर एक सी मालूम पड़ेंगी! एक सी मालूम पड़ेंगी--एक संत भी उतना ही सरल हो सकता है, ऐसे ही बच्चों जैसा सरल हो सकता है। और अगर संत बच्चों जैसा सरल न हो सके तो अभी वृत्त पूरा नहीं हुआ, अभी बात वापस नहीं लौटी--अभी बात वापस नहीं लौटी, जटिलता शेष रह गई है, कठिनाई शेष रह गई है। कहीं कोई चालाकी, कहीं कोई कनिंगनेस, कोई कैलकुलेशन शेष रह गया है।
जड़ और परम प्रज्ञावान में भी इसी तरह का वृत्त दिखाई पड़ेगा, जड़ जैसा ही मालूम पड़ेगा। और इसलिए कभी-कभी बहुत भूलें हो जाती हैं। जैसे मैं फकीर नसरुद्दीन की निरंतर बात करता हूं। वह ऐसा ही आदमी था। जो देखने में परम जड़ मालूम पड़े, जिसका व्यवहार परम जड़ का हो, जिसकी कोई भी चीज ऐसे मालूम पड़े कि ईडियट की है, मूढ़ की है, लेकिन जिसमें जो देख सके तो परम ज्ञान भी दिख जाए। एकाध बात मैं बताना चाहूं।
फकीर नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है। एक तोते को बेचने वाला बाजार में तोता बेच रहा है और जोर से चिल्ला कर कह रहा है कि बहुत कीमती तोता है, बड़े सम्राट के घर का तोता है, इस-इस तरह की वाणियां जानता है, इस-इस भाषा को पहचानता है, इस-इस भाषा को बोलता है। और सैकड़ों लोग इकट्ठे हैं।
नसरुद्दीन भी उस भीड़ में खड़ा हो गया है। कई सौ रुपए में वह तोता नीलाम हुआ और बिक गया! नसरुद्दीन ने कहा कि लोगो, ठहरो! मैं इससे भी बढ़िया तोता लेकर अभी आता हूं। भागा हुआ घर आया, अपने तोते के पिंजड़े को ले जाकर उसने बाजार में खड़ा कर दिया और उसने कहा कि वह क्या तोता था! अब दाम इसके बोलो। और जहां से उसकी बोली खतम हुई, वहां से शुरू करो। लोगों ने समझा कि उससे भी बढ़िया कोई तोता आ गया है। तो उन्होंने बोली शुरू की, लेकिन तब धीरे-धीरे किसी ने कहा...क्योंकि वह तोता जो था, पहला तोता जो था, बार-बार बोलता था, जवाब देता था। कई दफे बोली भी बढ़ाता था, खुद भी बोली बढ़ाता था, अनेक भाषाएं बोलता था, लेकिन यह बिलकुल चुप ही था, यह कुछ बोलता-वोलता नहीं था।
थोड़ी देर में लोगों ने कहा कि लेकिन यह तोता कुछ बोलता है कि नहीं? नसरुद्दीन ने कहा कि बोलने वाले तोतों का क्या मूल्य! यह मौन तोता है, बिलकुल सायलेंट है। यह परम स्थिति को उपलब्ध हो गया है। उन्होंने कहा, हटाओ इसको, एक पैसे में इसे कोई नहीं खरीदेगा। उसने कहा कि बड़े पागल लोग हो तुम! लोगों ने कहा, अरे, यह मूढ़ है नसरुद्दीन! इसकी बातों में क्यों पड़ते हो? यह पागल है, इसको कुछ अक्ल नहीं। इसको निकाल बाहर करो अपने तोते सहित। इसको बाहर निकालो, यह नसरुद्दीन है, वही पागल!
लोगों ने नसरुद्दीन को तोते सहित बाहर निकाल दिया। रास्ते पर लोगों ने पूछा, कहो नसरुद्दीन, तोता बिका कि नहीं? उसने कहा कि क्या बिकता! क्योंकि वहां खरीददार बस वाणी को ही समझ सकते थे, मौन को कोई नहीं समझ सकता; इसलिए हम पीटे भी गए और बाहर निकाले गए। इसलिए हम पीटे गए और बाहर निकाले गए, क्योंकि वहां कोई मौन को समझने वाला न था। मैंने तो सोचा कि जब वाणी के इतने दाम लग रहे हैं तो मौन का तो मजा आ जाएगा!
लेकिन...लेकिन वह आदमी ईडियट, ईडियट लगेगा न बिलकुल! ईडियट है कि कैसा पागल आदमी है! जो तोता बोलता ही नहीं, उसको कौन खरीदेगा?
यह आदमी...नसरुद्दीन निरंतर अपने गधे पर यात्राएं करता है, गधे पर शक्कर भर कर जा रहा है। नदी बड़ी है, गधा नदी में बैठ गया, सारी शक्कर बह गई। नसरुद्दीन ने गधे से कहा कि तू हमसे भी ज्यादा बुद्धिमानी हमको दिखला रहा है? ठहर बेटे! तुझे आगे बतलाएंगे। क्योंकि हम कोई साधारण आदमी नहीं हैं, हम भी तर्क जानते हैं। गधे से कहा, हम भी तर्क जानते हैं! तू हमको तर्क सिखला रहा है!
गधे को वापस लौटा कर लाया, उस पर रुई लादी, उसे नदी के पास ले गया। गधा फिर बैठा। रुई भारी हो गई, गधे का उठना मुश्किल हो गया। उसने आस-पास के लोगों को बुला कर कहा, देखो नसरुद्दीन जीत गया, गधा हार गया! लोगों ने कहा कि तुम बिलकुल जड़बुद्धि हो। तुम गधे से विवाद कर रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, विवाद गधे के सिवाय और किससे करना पड़ता है? इस आदमी ने कहा, और किससे विवाद करना पड़ता है? सब गधों से ही तो झगड़ा है, गधों से ही तो बकवास है। मगर लोगों ने कहा कि छोड़ो उसके गधे को और उसको, वे दोनों एक से हैं, उनकी बातों का कोई मतलब नहीं!
इस आदमी की जिंदगी में ऐसे बहुत मौके हैं, जब कि एकदम समझना मुश्किल हो जाता है कि यह आदमी क्या पागलपन कर रहा है! क्या कर रहा है यह? लेकिन पीछे कहीं कोई बात है!
निकल रहा है रास्ते से, जोर की वर्षा हो रही है, एक मकान के पास बैठ गया है। गांव का जो मौलवी है, वह भी भाग रहा है वर्षा से। नसरुद्दीन दालान में बैठा हुआ चिल्लाता है कि अरे मौलवी! भागते हो? सारे गांव को बता दूंगा। तो मौलवी ने कहा कि मैंने कोई अपराध किया? क्योंकि मौलवी, पंडित, साधु सदा डरे रहते हैं कि गांव को कोई न बता दे। उसने कहा, मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है?
उसने कहा, पाप तुम कर रहे हो। भगवान पानी गिरा रहा है और तुम भाग रहे हो, यह भगवान का अपमान है।
तो मौलवी धीरे-धीरे गया। लेकिन सर्दी पकड़ गई, जुकाम-बुखार हो गया। तीसरे दिन मौलवी अपने घर के बाहर दुलाई वगैरह ओढ़े हुए सर्दी से परेशान बैठा है और पानी गिरा, नसरुद्दीन भागा जा रहा है। तो मौलवी ने कहा कि ठहर नसरुद्दीन, मुझे तो तूने धीरे चलने को कहा था, तू क्यों भाग रहा है?
उसने कहा, भगवान के पानी पर कहीं मेरा पैर न पड़ जाए। और वह भागा।
समझे न? दूसरे दिन जब मौलवी मिला तो उसने कहा कि तू तो बड़ा बेईमान है। तो उसने कहा कि सब समझदार बेईमान पाए जाते हैं। सब समझदार बेईमान हैं। उसने कहा कि अगर ईमानदारी करो तो नासमझ हो जाते हैं। अगर समझदारी हो तो आदमी बेईमान कहते हैं। और फिर व्याख्या हमेशा अपने अनुकूल करनी पड़ती है।
नसरुद्दीन ने कहा, और व्याख्या हमेशा अपने अनुकूल करनी पड़ती है। शास्त्रों का क्या भरोसा! अपने पर भरोसा रखना पड़ता है। व्याख्या सदा अपने अनुकूल करनी पड़ती है। सब बुद्धिमान यही करते रहे हैं, मुझ पर क्यों नाराज होते हो? अपने मतलब से व्याख्या करते हैं। तुम जब पानी में थे तब हमने यह व्याख्या की, जब हम पानी में थे तब हमने दूसरी व्याख्या की। सभी बुद्धिमान यही करते रहे हैं।
यह जो आदमी है, यह जाहिर ईडियट था। लेकिन परम प्रज्ञा को जो लोग उपलब्ध होते हैं, उनमें से एक है वह आदमी। मगर उसे पकड़ना मुश्किल हो जाए। और कई बार उसकी बातें बड़ी बेहूदी हो जाएं, बिलकुल समझ के बाहर हो जाएं।
घर लौट रहा है, एक मित्र ने कुछ मांस दिया है भेंट, और साथ में एक किताब दी है जिस किताब में मांस बनाने की तरकीब लिखी है। किताब बगल में दबा कर मांस हाथ में लेकर बड़ी खुशी से भागा चला आ रहा है। चील ने झपट्टा मारा, मांस ले गई। नसरुद्दीन ने कहा, अरे मूर्ख, जा! क्योंकि बनाने की तरकीब तो किताब में लिखी है।
घर पहुंचा, घर जाकर अपनी पत्नी से कहा, सुनती हो? आज एक चील बड़ी बेवकूफ निकल गई। क्या हुआ? उसने कहा, मैं मांस लेकर आ रहा था, वह मांस तो ले गई, लेकिन तरकीब तो किताब में लिखी है। उसकी औरत ने कहा, तुम बड़े बुद्धू हो। चील इतनी बुद्धू नहीं।
उसने कहा, सभी बुद्धिमानों को मैंने किताब पर भरोसा करते पाया, इसलिए मैं भी किताब पर भरोसा करता हूं।
यह जो आदमी है न, यह बिलकुल एकदम से तो दिखेगा कि कैसा पागल है, एकदम जड़बुद्धि! लेकिन कहीं कोई बात है, कहीं कोई गहरे में उसकी भी अपनी समझ है। और वह इतने बड़े व्यंग्य भी कर रहा है और इतनी सरलता से, और इतने इनोसेंट, कि किसी के खयाल में आएं तो प्राणों में घुस जाएं। खयाल में न आएं तो वह आदमी बुद्धू है। बहुत बार ऐसा हो सकता है कि हमें पकड़ में ही न आ पाए कि क्या बात है। लेकिन उससे कोई--हमें पकड़ में भी तभी आएगा, जब हमारी समझ उतनी गहराई पर खड़ी हो, तभी पकड़ में आ सकता है।
एक प्रश्न और ले लें।

प्रश्न:

क्या महावीर की अहिंसा पूर्ण विकसित है? क्या महावीर के आगे अहिंसा का उत्तरोत्तर विकास नहीं हुआ है? गीता और बाइबिल में महावीर से भी अधिक सूक्ष्म रूप हैं।

हली बात तो यह कि कुछ चीजें हैं, जो कभी विकसित नहीं होतीं, विकसित हो ही नहीं सकती हैं। ये वे चीजें हैं, जहां हमारा विचार, हमारा मस्तिष्क, हमारी बुद्धि सब शांत हो जाती है और तब हमारे अनुभव में आती हैं। जैसे कोई कहे कि बुद्ध को जो ध्यान उपलब्ध हुआ था, पच्चीस सौ साल हो गए, अब जिन लोगों को ध्यान उपलब्ध होता है, वह आगे विकसित है या नहीं? क्योंकि पच्चीस सौ साल हो गए, पच्चीस सौ साल में लोग और आगे विकसित हो गए हैं, तो ध्यान और आगे विकसित होगा।
नहीं, ध्यान है स्वयं में उतर जाना। स्वयं में कोई चाहे लाख साल पहले उतरा हो और चाहे आज उतर जाए, स्वयं में उतरने का अनुभव एक है, स्वयं में उतरने की स्थिति एक है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
महावीर को जो अहिंसा प्रकट हुई है, वह उनकी स्वानुभूति का ही बाह्य परिणाम है। भीतर उन्होंने जाना है जीवन की एकता को और बाहर उनके व्यवहार में जीवन की एकता अहिंसा के रूप में प्रतिफलित हुई है। अहिंसा का मतलब है जीवन की एकता का सिद्धांत। इस बात का सिद्धांत कि जो जीवन मेरे भीतर है, वही तुम्हारे भीतर है। तो मैं अपने को ही कैसे चोट पहुंचा सकता हूं! अगर मेरे भीतर वही जीवन है, जो तुम्हारे भीतर है तो मैं अपने को ही कैसे चोट पहुंचा सकता हूं! मैं ही हूं तुममें भी फैला हुआ।
जिसे यह अनुभव हुआ हो कि मैं ही सब में फैला हुआ हूं या सब मुझसे ही जुड़े हुए जीवन हैं, जीवन एक है, जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो, उसके व्यवहार में अहिंसा फलित होती है। ऐसा अनुभव कभी हो तो ऐसा ही होगा, इसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसमें क्राइस्ट को हो कि किसी और को हो। यह अनुभव जीवन की एकता का कम-ज्यादा कैसे हो सकता है? यह थोड़ा समझने जैसा है।
अक्सर हम सोचते हैं कि सब चीजें कम-ज्यादा हो सकती हैं। समझ लें कि आपने एक वृत्त खींचा, एक सर्किल खींचा। कभी आपने सोचा कि कोई सर्किल कम और कोई सर्किल ज्यादा हो सकता है? ऐसा हो सकता है कि जो वृत्त आपने खींचा है एक वृत्त कुछ कम वृत्त हो, दूसरा वृत्त कुछ ज्यादा वृत्त हो?
यह नहीं हो सकता। क्योंकि वृत्त का अर्थ ही यह है कि या तो वृत्त होगा या नहीं होगा, कम-ज्यादा नहीं हो सकता। जो वृत्त कम है, वह वृत्त ही नहीं है। वृत्त ही होता है--या तो होता है या नहीं होता है, इसमें कम-ज्यादा नहीं होता।
जैसे प्रेम है, कोई आदमी कहे कि मुझे थोड़ा कम प्रेम है या थोड़ा ज्यादा प्रेम है, तो शायद उस आदमी को प्रेम का कोई पता नहीं है। प्रेम या तो होता है या नहीं होता है, उसका कोई खंड नहीं होता और उसके कोई टुकड़े नहीं होते। और ऐसा भी नहीं होता कि प्रेम विकसित होता हो। क्योंकि विकसित तो तभी हो सकता है, जब थोड़ा-थोड़ा हो सकता हो। थोड़ा-थोड़ा हो सकता हो, ऐसा भी नहीं होता।
अक्सर हम...लाइकिंग, पसंद विकसित हो जाती है। इसलिए हम सोचते हैं कि प्रेम विकसित हो रहा है। प्रेम कभी विकसित नहीं होता। पसंद और प्रेम में बहुत फर्क है।
प्रेम तो होता है या नहीं होता है।
फिर पसंद विकसित हो सकती है, और बहुत विकसित हो सकती है या कम हो सकती है, बहुत कम हो सकती है। लेकिन प्रेम न कम होता है, न ज्यादा होता है; या तो होता है या नहीं होता। तो ऐसा कोई नहीं कह सकता कि ऐसा वक्त आ जाएगा जब लोग ज्यादा प्रेम कर लेंगे। ऐसा नहीं हो सकता। जीवन के जो गहरे अनुभव हैं, वे होते हैं, या नहीं होते हैं।
महावीर को जो जीवन की एकता का अनुभव हुआ, वही जीसस को हो सकता है, बुद्ध को हो सकता है, मुझे हो सकता है, आपको हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि उसमें किसी को ज्यादा हो जाए और किसी को कम हो जाए। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा।
तो दुनिया में कुछ चीजें हैं, आंतरिक, जो कभी विकसित नहीं होतीं। असल में विकास का कोई मतलब ही नहीं, क्योंकि जब वे उपलब्ध होती हैं तो पूर्ण ही उपलब्ध होती हैं, या नहीं ही उपलब्ध होती हैं।
समझ लें उदाहरण के लिए, पानी भाप बन रहा है, निन्यानबे डिग्री पर गर्मी हो गई है, अभी भाप नहीं बन गया; अट्ठानबे डिग्री पर था, भाप नहीं बना; नब्बे डिग्री पर था, भाप नहीं बना था; सौ डिग्री पर आया कि भाप बन गया! गर्मी कम-ज्यादा हो सकती है--अस्सी डिग्री, नब्बे डिग्री, पंचानबे डिग्री, निन्यानबे डिग्री। दस बर्तन रखे हैं, सब में अलग-अलग डिग्री का पानी है, उनमें पानी अभी भाप नहीं बन रहा है। गर्मी कम-ज्यादा हो सकती है। कम होगी तो भाप नहीं बनेगा, पूरी हो जाएगी तो भाप बनेगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं हो सकता, जब एक बूंद भी भाप बनती है तो या तो भाप बनती है या नहीं बनती। ऐसा नहीं होता, इससे बीच में इसमें कोई डिग्री नहीं होती। भाप बनने और न बनने में कोई डिग्री नहीं होती। हां, भाप बनने की स्थिति आने तक पानी की डिग्रियां हो सकती हैं।
अज्ञान की डिग्रियां होती हैं, ज्ञान की कोई डिग्री नहीं होती। हालांकि हम सब ज्ञान की डिग्रियां देते हैं! सिर्फ अज्ञान की डिग्रियां होती हैं। एक आदमी कम अज्ञानी, एक आदमी ज्यादा अज्ञानी, यह सार्थक है। लेकिन एक आदमी कम ज्ञानी, एक आदमी ज्यादा ज्ञानी, यह बिलकुल ही असंगत निरर्थक बात है। कम-ज्यादा ज्ञान होता ही नहीं।
हां, अज्ञान कम-ज्यादा हो सकता है। और कम-ज्यादा होने का मतलब इतना ही है कि कम अज्ञानी हम उसको कहते हैं, जिसके पास इनफर्मेशन ज्यादा होती है, ज्यादा अज्ञानी उसको कहते हैं, जिसके पास इनफर्मेशन कम होती है। क्योंकि ज्ञान तो कम-ज्यादा हो ही नहीं सकता। इसलिए अज्ञानियों में भी दो अज्ञानियों में ज्ञान का फर्क नहीं होता, सिर्फ सूचना का फर्क होता है।
एक आदमी युनिवर्सिटी से लौटता है, सूचनाएं इकट्ठी कर लाता है, उसका ही एक भाई गांव में, देहात में रह गया था, वह सूचनाएं इकट्ठी नहीं कर पाया। वे दोनों मिलते हैं तो एक अज्ञानी मालूम पड़ता है, एक ज्ञानी मालूम पड़ता है। दोनों अज्ञानी हैं। एक के पास सूचनाओं का ढेर है, एक के पास सूचनाओं का ढेर नहीं है। तो इसको हम कह सकते हैं कि यह ज्यादा अज्ञानी, यह कम अज्ञानी। मगर यह भी ज्ञान के हिसाब से नहीं है तौल। जब ज्ञान आता है तो बस आता है। जैसे आंख खुल जाएं और प्रकाश दिख जाए, जैसे दीया जल जाए और अंधेरा हट जाए।
तो ज्ञानी कभी छोटे-बड़े नहीं होते। लेकिन हम चूंकि अज्ञानी हैं सब, और छोटे-बड़े की भाषा में जीते हैं, तो हम ज्ञानियों के भी छोटे-बड़े होने का हिसाब लगाते रहते हैं! कोई कहता है कबीर बड़ा कि नानक, कि महावीर बड़े कि बुद्ध, कि राम बड़े कि कृष्ण, कि कृष्ण बड़े कि मोहम्मद; बड़े-छोटे का हिसाब लगाते रहते हैं अपने हिसाब से! कोई बड़ा-छोटा नहीं है वहां। वहां कोई बड़ा-छोटा होता ही नहीं।
उदाहरण के लिए आपको खयाल दूं। आज से तीन सौ, चार सौ साल पहले तक सारी दुनिया में यह खयाल था, अगर हम छत पर खड़े होकर एक बड़ा पत्थर गिराएं और एक छोटा पत्थर साथ-साथ, तो बड़ा पत्थर पहले पहुंचेगा जमीन पर, छोटा पत्थर पीछे! बिलकुल ठीक गणित था, किसी ने गिरा कर देखा नहीं। गणित बिलकुल साफ ही दिखता था, क्योंकि बड़ा पत्थर है, पहले गिरना चाहिए, छोटा पत्थर बाद में गिरना चाहिए!
जिस पहले आदमी ने पिसा के टावर पर खड़े होकर पहली दफा पत्थर गिरा कर देखे, उसको खुद भी शक था कि यह बात तो गलत है, गिराना बेकार ही है, इसलिए किसी को खबर नहीं की उसने पहली दफा, अकेला गया चुपचाप एकांत में। और जब उसने देखा कि बड़ी हैरानी हुई, दोनों पत्थर साथ गिरे! तो उसने दो-चार दफे गिरा कर देखा, कि कहीं कुछ भूल-चूक जरूर हो रही है! क्योंकि बड़ा पत्थर, छोटा पत्थर साथ कैसे गिरेंगे?
फिर जब जाकर उसने युनिवर्सिटी में अपने प्रोफेसर्स को कहा कि दोनों पत्थर साथ गिरते हैं, तो उन्होंने कहा, तुम पागल हो गए हो! ऐसा कभी हुआ है? हालांकि ऐसा कभी किसी ने देखा नहीं था जाकर। फिर भी उसने कहा कि ऐसा हुआ है, दस बार मैंने गिरा कर देख लिया।
प्रोफेसर्स बामुश्किल तो देखने गए। क्योंकि पंडितों से ज्यादा जड़ कोई भी नहीं होता। वे जो पकड़े रखते हैं, उसको ऐसी जड़ता से पकड़ते हैं कि उसको इंच भर हिलने-डुलने नहीं देना चाहते। गए, बामुश्किल, सख्त, कि ऐसा हो नहीं सकता। जब पत्थर गिरे तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कोई शरारत है। इसमें जरूर कोई ट्रिक और तरकीब की बात है; क्योंकि यह हो कैसे सकता है कि बड़ा पत्थर, छोटा पत्थर साथ-साथ गिर जाएं? या तो कोई तरकीब है और या शैतान का इसमें हाथ है। और तुम इस झंझट में मत पड़ो। तुम इस झंझट में पड़ो ही मत। इसमें शैतान कुछ पीछे शरारत कर रहा है, भगवान के नियम गड़बड़ कर रहा है।
असल में बड़े और छोटे पत्थर बड़े और छोटे के कारण गिरते ही नहीं हैं, गिरते हैं जमीन की कशिश के कारण, और कशिश दोनों के लिए बराबर है। छत पर से गिर भर जाएं, फिर बड़ा और छोटा पत्थर का मूल्य नहीं है, मूल्य कशिश का है, वह सबके लिए बराबर है।
एक सीमा है मनुष्य की, उस सीमा के बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाए बस, फिर परमात्मा की कशिश उसे खींचती है, फिर उसे कुछ नहीं करना पड़ता। बस उस सीमा के बाद फिर कोई छोटा-बड़ा नहीं रह जाता, फिर सब पर बराबर कशिश काम करती है। एक सीमा है भर, उसी सीमा को मैं कहता हूं विचार। जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार में कूद जाता है, उसके बाद फिर कोई छोटा नहीं है, कोई बड़ा नहीं है; कोई कमजोर नहीं है, कोई ताकतवर नहीं है; कोई फर्क ही नहीं है। बस, एक बार विचार से कोई कूद जाए निर्विचार में, फिर जो जीवन की, अस्तित्व की परम शक्ति है, वह खींच लेती है--एक सा।
तो हमारे सब फर्क कूदने के पहले के फर्क हैं। जब तक हम नहीं कूदे हैं, तब तक के हमारे फर्क हैं। जिस दिन हम कूद गए, उस दिन कोई फर्क नहीं है। महावीर ने जो छलांग लगाई है, वही कृष्ण की है, वही क्राइस्ट की है। जो अनुभव है अहिंसा का, वही अनुभव है, उसमें कोई फर्क नहीं है।
इसलिए कोई विकास अहिंसा में कभी नहीं होगा। महावीर ने भी कोई विकास किया, इस भूल में भी नहीं पड़ना चाहिए। महावीर के भी पहले जिन्होंने छलांग लगाई है, वह अनुभव वही है। उस अनुभव की अभिव्यक्तियों में भेद है, लेकिन न तो महावीर...।
ऐसा कुछ नहीं है कि महावीर ने पहली दफा अहिंसा को अनुभव कर लिया है। लाखों लोगों ने पहले किया है, लाखों लोग पीछे करेंगे। वह अनुभव किसी की बपौती नहीं है।
जैसे हम आंख खोलेंगे तो प्रकाश का अनुभव होगा, यह किसी की बपौती नहीं है। मेरे पहले लाखों, करोड़ों, अरबों लोगों ने आंख खोली है और प्रकाश देखा है; और मैं भी आंख खोलूंगा, तो प्रकाश देखूंगा। और मेरी भी कोई इस पर बपौती नहीं है कि मेरे पीछे आने वाले आंख खोलेंगे तो मुझसे कम देखेंगे कि ज्यादा देखेंगे। आंख खुलती है तो प्रकाश दिखता है।
कोई विकास नहीं हुआ है। कोई विकास हो नहीं सकता है। कुछ चीजें हैं, जिनमें विकास होता है। परिवर्तनशील जगत का जो भी है, वह सब विकासमान है। या पतित होता है, या विकसित होता है।
शाश्वत, सनातन, अंतरात्मा के जगत की जो भी व्यवस्था है, वहां कोई विकास नहीं होता। वहां जो जाता है, वह परम, अंतिम, अल्टीमेट में पहुंच जाता है। वहां कोई विकास नहीं, कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। वहां सब समान और पूर्ण के निकट होने से, पूर्ण में होने से कोई विकास नहीं। कोई कहे कि परमात्मा में कितना विकास हुआ है? परमात्मा से मतलब समग्र जीवन के अस्तित्व में क्या विकास हुआ है? वहां विकास का अर्थ ही नहीं है।
लेकिन इसे उदाहरण से समझें। एक बैलगाड़ी जा रही है, चाक चल रहे हैं। बैलगाड़ी में बैठा हुआ मालिक भी चल रहा है, बैल भी चल रहे हैं। चाक जोर से घूमते चले जा रहे हैं, बैलगाड़ी प्रतिपल आगे बढ़ रही है, विकास हो रहा है। बैल भी बढ़ रहे हैं, मालिक भी आगे जा रहा है।
लेकिन कभी आपने खयाल किया कि बढ़ते हुए चाकों के बीच में एक कील है, जो हिल भी नहीं रही, वह वहीं की वहीं खड़ी है! कील वहीं की वहीं है! चाक उसके ऊपर घूम रहा है, चाक आगे बढ़ता हुआ मालूम पड़ रहा है, गाड़ी आगे जा रही है, बिलकुल जा रही है; बैल आगे जा रहे हैं, मालिक आगे जा रहा है; मंजिल करीब आती चली जा रही है। लेकिन कील? कील ठहरी हुई है! कील ठहरी है, चाक घूम रहा है। तो कोई कहे कि चाक ने कितनी यात्रा की, तो सार्थक है। लेकिन कोई पूछे कि कील ने कितनी यात्रा की, तो क्या कहिएगा? कहना होगा, कील तो यात्रा एक अर्थ में करती ही नहीं। कील तो वहीं है, वह सिर्फ चाक उसके ऊपर घूमता रहता है; कील थिर है।
और मजे की बात यह है कि थिर जो कील है, उसी पर घूमते हुए चाक का अस्तित्व है। अगर कील भी चल जाए तो चाक गिर जाए। कील नहीं चलती, इसीलिए चाक चल पाता है। कील के न चलने में ही चाक के चलने का प्राण है। कील भी चली कि अभी गाड़ी गई। फिर कोई विकास नहीं होगा।
जो विकास हो रहा है, वह किसी एक चीज के केंद्र पर हो रहा है, जिसमें कोई विकास नहीं हो रहा है। पूर्ण के चारों तरफ विकास का चक्र घूम रहा है और पूर्ण अपनी जगह खड़ा हुआ है। हो सकता है आपने कील पर खयाल ही न किया हो, इसलिए चाक के घूमने को ही देखा हो। लेकिन जिसने कील पर खयाल कर लिया, उसके लिए चाक का घूमना बेमानी हो जाता है।
कबीर ने एक पंक्ति लिखी है कि चलती हुई चक्की को देख कर कबीर रोने लगा और उसने लौट कर अपने मित्रों को कहा कि बड़ा दुख मुझे हुआ, क्योंकि दो पाटों के बीच में मैंने जितने दाने पड़े देखे, सब चूर हो गए, सब मर गए। और दो पाटों के बीच में जो पड़ जाता है, वह चूर-चूर हो जाता है।
उसका लड़का कमाल बैठा था, वह हंसने लगा। उसने कहा कि ऐसा मत कहो। क्योंकि एक कील भी है दो चाकों के बीच में; जो उसका सहारा पकड़ लेता है, वह कभी भी चूर होता ही नहीं। कबीर के बेटे ने कहा, ऐसा मत कहो। एक कील भी है दो चाकों के बीच में--चक्की जिस कील पर चलती है--जो उस कील का सहारा पकड़ लेता है, वह कभी नष्ट होता ही नहीं!
इस पूरे अस्तित्व के विकास के चक्र के बीच में एक कील भी है। उस कील को कोई परमात्मा कहे, धर्म कहे, आत्मा कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक कील है, जो उसके निकट पहुंच जाता है, उतना ही गतिमान चाकों के बाहर हो जाता है। और उस कील के तल पर कोई गति नहीं है। वह कील निरंतर सतत अगति में ठहरी हुई है, हालांकि सब गति उसी के ऊपर घूम रही है।
तो इतना अगर खयाल में आ जाए तो महावीर जैसे व्यक्ति कील के निकट पहुंच जाते हैं, वहां जहां सब थिर है, जहां कोई लहर भी नहीं उठती, कोई तरंग भी नहीं उठती। वहां जो भी उनका अनुभव है, उसमें कभी विकास नहीं होता। चाहे कोई दूसरा कभी भी वहां पहुंचे, अनुभव वही होगा। कोई तीसरा कभी वहां पहुंचे, अनुभव वही होगा।
कील के पास होने का एक अनुभव है और कील से दूर होने का एक अनुभव है। कील से दूर होने का जो अनुभव है, वह दो पाटों के बीच का अनुभव है, जहां निरंतर गति है। और कील के पास होने का जो अनुभव है, वह दो पाटों के बाहर हो जाने का अनुभव है, जहां कोई गति नहीं है।
जहां गति नहीं, वहां विकास कैसा? जहां गति नहीं, वहां प्रगति कैसी?
तो महावीर की अहिंसा में कोई प्रगति नहीं होगी, न महावीर ने कोई प्रगति की है। अहिंसा का अनुभव है एक, वह जब भी कोई उतरता है तो वह वही है, वह बिलकुल वही है।
आज इतना ही।


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