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मंगलवार, 10 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--04)

धर्म की गति और तेज हो!—(प्रवचन—चौथा)

'मैं कहता आंखन देखी' :
(अंतरंग भेट वार्ता)
बुडलैण्‍ड बम्बई
दिनांक 12 मार्च 1971

भगवान श्री उस समयातीत अंतराल में आत्मा पर क्या घटित होता है वह तो दर्शाया आपने किंतु एक बात रह गयी कि आत्मा का अशरीरी रूप क्या होता है? वह स्थिर है या विचरण करती है और अपनी परिचित दूसरी आत्माओं को पहचानती कैसे है? और उस अवस्था में आपस में कोई डायलाग की संभावना होती है?

स संबंध में दो—तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। एक तो स्थिरता और गति ये दोनों ही वहां नहीं होते। और इसलिए समझना बहुत कठिन होगा। हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्थिरता होगी। स्थिरता न हो, तो गति होगी। क्योंकि हमारे खयाल में गति और स्थिरता दो ही संभावनाएं हैं। और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि वे दोनों एक—दूसरे के विरोधी है।

पहली तो बात, गति और स्थिरता विरोधी नहीं हैं। गति और स्थिरता एक ही चीज की तारतम्यता है। जिसको हम स्थिरता कहते हैं वह ऐसी गति है जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते हैं वह भी ऐसी स्थिरता है जो हमारे खयाल में नहीं आती। यदि बहुत तीव्र गति हो तो भी स्थिर मालूम होगी।
यह ऊपर पंखा है, यह तेज गति से चलता हो तब इसकी तीन पंखुड़ियां दिखायी नहीं पड़ती हैं। बहुत तेज चले तो संभावना ही नहीं है अनुमान करने की कि कितनी पंखुड़ियां हैं! क्योंकि बीच की जो खाली जगह होती है तीन पंखुडियों के इसके पहले कि वह हमें दिखायी पड़े पंखुड़ी उस जगह को भर देती है। यह पंखा इतनी तेज गति से भी चलाया जा सकता है कि हम इसके आर—पार किसी चीज को भी न निकाल पाएं। यह इतना भी तेज चल सकता है कि हम इसको हाथ से छुए और इसकी गति न मालूम पड़े। जब हम किसी चीज को हाथ से छूते हैं, अगर बीच का जो खाली हिस्सा है, वह हमारे हाथ के स्पर्श के पकडने से पहले दूसरी पंखुड़ी फिर नीचे आ जाए तो हमें पता नहीं चलता।
इसलिए विज्ञान कहता है कि हर चीज जो हमें स्थिर मालूम पड रही है वह सब गतिमान है। परगति बहुत तीव्र है। हमारी पकड़ के बाहर है। तो गति और स्थिर होना दो चीजें नहीं हैं। और एक ही चीज की डिग्रियां है। उस जगत में जहां शरीर नही है ये दोनों नहीं होगी। क्योंकि जहां शरीर नही है वहा स्पेस भी नहीं है, टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते हैं; समय और स्थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्थान के बाहर हो।
तो वहां क्या होगा? अगर दोनों न हो तो हमारे पास कोई शब्द नहीं हैं जो कहे कि वहां क्या होगा। जब पहली दफा धर्म के अनुभव में उस स्थिति की खबरें आनी शुरू हुईं तब भी यह कठिनाई खडी हुई। कहें क्या? ऐसा ठीक समांनातर उदाहरण विज्ञान के पास भी है। जहां कठिनाई खडी हो गयी कि, कहें क्या? जबकि हमारी धारणाओं से भिन्न कोई स्थिति का अनुभव होता है तो बड़ी कठिनाई शुरू हो जाती है।
जैसे कि चालीस साल पहले जब पहली दफा इलेक्ट्रान का अनुभव विज्ञान को हुआ तो सवाल उठा. कि इलेक्ट्रान कण है या तरंग? और बडी कठिनाई खडी हो गयी। न तो उसे कण कह सकते, क्योंकि कण तो ठहरा हुआ होता है, न तरंग, क्योंकि तरंग गतिमान होती है। वह दोनों एक साथ हैं। तब फिर भूल हो जाती है, क्योंकि हमारी समझ में वह दोनों में से एक ही हो सकता है। और इलेक्ट्रान दोनों एक साथ है—क्या भी और तरंग भी। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह कण है और कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह तरंग है। और अब शब्द ही नहीं है कोई दुनिया की किसी भाषा में—कण—तरंग इकट्ठा कि जिससे हम प्रकट कर सकें।
और जब वैज्ञानिको ने यह देखा तो वैज्ञानिक खुद कहने तो लगे, कि कण—तरंग दोनों है। लेकिन उनके लिए भी कंसीवेबल नहीं रहा है। रहस्य हो गयी बात। और जब आइन्‍स्टीन से लोगों ने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ कहते है जो कि तर्क में नहीं आती है, यह थोड़ी रहस्य की बातें हो गयीं हैं। तो आइन्‍स्टीन ने कहा, हम तर्क को मानें कि तथ्य को मानें। तथ्य यही है कि वह दोनों है एक साथ और तर्क यही कहता है कि दोनों में से एक ही हो सकता है।
एक आदमी खड़ा हुआ है या चल रहा है। तर्क कहेगा, दों में से एक ही हो सकता है। आप कहें कि वह खडा भी है और चल भी रहा है—एक साथ। तर्क नहीं मानेगा, तर्क के पास कोई धारणा नहीं है। लेकिन इलेक्ट्रान के अनुभव ने वैज्ञानिकों को कहा कि तर्क की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी, अन्यथा यह होता कि तथ्य को झुठलाओ। सारे प्रयोग कहते हैं कि वह दोनों हैं। यह मैंने उदाहरण के लिए आपसे कहा।
सारे धार्मिक लोगों के अनुभव कहते हैं कि वह स्थिति, दोनों नहीं है। न ठहरी हुई है, न गतिमान है। लेकिन जो भी यह कहेगा कि दोनों नहीं है वह अंतराल का क्षण, यानी एक शरीर के छूटने और दूसरे के मिलने के बीच के क्षण में दोनों बातें नहीं हैं। तो वह समझ के बाहर हो जाएगी। इसलिए कुछ धर्मों ने तय किया है कि वह कहेंगे कि वह स्थिर है; कुछ धर्मों ने तय किया कि वह कहेंगे कि वह गतिमान है। लेकिन यह सिर्फ समझाने की कठिनाई का परिणाम है। अन्यथा कोई इस बात के लिए राजी नहीं है कि वहां स्थिति को, स्थिति कहें कि गति कहें। दोनों नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जिस परिवेश में स्थिति और गति घटित होती हैं, वह परिवेश ही वहां नहीं है।
स्थिति और गति दोनों के लिए शरीर अनिवार्य है। शरीर के बिना गति नहीं हो सकती। और शरीर के बिना स्थिति भी नहीं हो सकती। क्योंकि जिसके माध्यम से स्थिति हो सकती है, उसी के माध्यम से गति हो सकती है। अब जैसे यह हाथ है मेरा, मैं इसे हिला रहा हूं या इसे ठहराए हुए हूं? कोई मुझसे पूछ सकता है कि इस हाथ के भीतर जो मेरी आत्मा है, जब हाथ नहीं रहेगा तो वह आत्मा ठहरी हुई रहेगी या गति में रहेगी। दोनों बातें व्यर्थ हैं। क्यों? इस हाथ के बिना न वह गति कर सकती है, न ठहरी हुई हो सकती है। ठहरना और गति दोनों ही शरीर के गुण हैं। शरीर के बाहर ठहरने और गति का कोई भी अर्थ नहीं है। ठीक यही बात समस्त द्वंद्वों पर लागू होती है।
जैसे बोलना .या मौन होना लीजिए। शरीर के बिना न तो बोला जा सकता है और न मौन हुआ जा सकता है। आमतौर से हमारी समझ में आ जाएगी बात की शरीर के बिना बोला नहीं जा सकता; लेकिन मौन नहीं हुआ जा सकता, यह समझ में आना कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम सोचते हैं शरीर के लिए मौन—लेकिन असली बात यह है कि जिस माध्यम से बोला जा सकता है उसी माध्यम से मौन हुआ जा सकता है। क्योंकि मौन होना भी बोलने का एक ढंग है। मौन होना—बोलने की ही एक अवस्था है—'न बोलने की', लेकिन है बोलने की।
जैसे उदाहरण के लिए एक आदमी है, अंधा है। तो हमें खयाल होता है कि शायद उसको अंधेरा ही दिखायी देता होगा। यह हमारी भ्रांति है। अंधेरा देखने के लिए भी आंख जरूरी है। आंख के बिना अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। हम आंख बंद करके सोचते हों तो हम गलती में पड़ते हैं। क्योंकि आंख बंद करके भी आंख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक दफा आपके पास आंख रही हो और फिर अंधी हो जाए तो भी आपको अंधेरे का खयाल रहेगा, जो कि झूठ है, जो कि जन्म से अंधे आदमी को नहीं है। क्योंकि अंधेरा जो है, वह आंख का ही अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है, उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। जो जन्मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं। अंधेरा भी जानेगा कैसे?
कान से आप सुनते हैं। भाषा में ठीक लगता है कि जिसके पास कान नहीं हैं, हम कहेंगे वह नहीं सुन रहा है। लेकिन नहीं सुनने की घटना भी नहीं घटती है बहरे के लिए। नहीं सुनने की भी जो प्रतीति है, वह कान वाले की प्रतीति है। कभी ऐसा होता है कि आप नहीं सुनते हैं। पर कान उसके लिए भी जरूरी है। कान के बिना 'नहीं सुनने' का भी कोई पता नहीं चल सकता। वह अंधेरे की तरह है।
तो जिस इंद्रिय से गति होती है, उसी इंद्रिय से ठहराव होता है। और दो में से यदि एक चीज नहीं है तो दूसरी भी नहीं हो सकती। वैसी अवस्था में आत्मा बोलती है या चुप रहती है, दोनों ही बातें संभव नहीं हैं। उपकरण ही नहीं है, बोलने का या चुप रहने का। ये सब उपकरण—निर्भर घटनाएं हैं। इन दोनों के लिए उपकरण चाहिए। जगत के समस्त अनुभव के लिए उपकरण चाहिए। साधन चाहिए, इंद्रियां चाहिए।
जहां भी शरीर नहीं है, वहां शरीर से संबंधित समस्त अनुभव तिरोहित हो जाते हैं। प्रश्‍न उठता है कि फिर वहां कुछ बचेगा? अगर आपके जीवन में कोई भी शरीर के भीतर रहते हुए, अशरीरी अनुभव हुआ हो तो बचेगा। अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा। अगर आपको जीते जी, शरीर के रहते हुए, कोई भी अनुभव हुआ हो, जिसके लिए शरीर माध्यम नहीं था, वह बचेगा। ध्यान के कोई भी अनुभव हों गहरे, तो वह बचेंगे। साधारण अनुभव नहीं बचेंगे ध्यान के, ध्यान में आपको प्रकाश दिखायी पड़ा, वह नहीं बचेगा। लेकिन ध्यान में अगर कोई ऐसा अनुभव हुआ हो जिसमें शरीर ने कोई माध्यम का काम ही नहीं किया हो, आप कह सकते थे कि शरीर था या नहीं मुझे कोई संबंध नहीं रह गया था, तो बच जाएगा। और ऐसे अनुभव के लिए कोई भाषा नहीं है। शरीर रहते हुए हो, तो भी भाषा नहीं। ये सारी कठिनाइयां हैं।
फिर भी इसका यह मतलब नहीं है कि वैसी आत्मा मोक्ष में पहुंच गयी, क्योंकि ये दोनों विवरण एक जैसे लगेंगे। मोक्ष में, और दो शरीरों के बीच में जो अंतराल है इसमें, क्या भेद रहा? भेद पोटिंशियलिटी के, बीज के रहेंगे। वास्तविकता के नहीं रहेंगे। दो शरीरों के बीच में जो अशरीरी व्यवधान है बीच का उसमें आपके जितने संस्कार हैं समस्त जन्मों के, वह बीज—रूप में सब मौजूद रहेंगे। शरीर के मिलते ही वे फिर सक्रिय हो जाएंगे। जैसे एक आदमी के पैर हमने काट दिए, तो भी उसके दौड़ने के जो अनुभव हैं वह विदा नहीं हो जाएंगे। दौड़ नहीं सकता, रुक भी नहीं सकता, क्योंकि दौड़ नहीं सकता तो रुकेगा कैसे! लेकिन अगर पैर मिल जाएं तो दौड़ने की समस्त संस्कार— धारा पुन: सक्रिय हो जाएगी।
जैसे एक आदमी कार चलाता है, और उसकी कार छीन ली। अब वह कार नहीं चला सकता, एक्सीलरेटर नहीं दबा सकता; ब्रेक भी नहीं लगा सकता और कार रोक भी नहीं सकता, वह दोनों ही कार के अनुभव हैं। अब वह कार के बाहर है, लेकिन कार के चलाने का जो भी अनुभव है, वह सब बीज रूप में मौजूद है। वर्षों बाद, एक्सीलरेटर पर ज्यों ही पैर रखेगा, वह कार चला सकेगा। वही आत्मा मोक्ष में संस्कार रहित हो जाती है। दो शरीरों के बीच में सिर्फ इंद्रिय—रहित होती है।
मोक्ष में समस्त अनुभव, समस्त अनुभवजन्य संस्कार, सब कर्म, सब तिरोहित हो जाते हैं। उनकी निर्जरा हो जाती है। इस बीच, और मोक्ष की अवस्था में एक समानता है, दोनों में शरीर नहीं होता है। एक असमानता है—मोक्ष में शरीर नहीं होता, शरीर से संबंधित अनुभवों का ज्ञान भी नहीं होता। यहां शरीर से संबंधित अनुभवों की सब सूक्ष्म तरंगें बीज रूप से मौजूद होती हैं, जो कभी भी सक्रिय हो सकती हैं। और इस बीच जो—जो अनुभव होंगे, वह शरीर जहां नहीं था, वैसे अनुभव होंगे। जैसा मैंने कहा, ध्यान के अनुभव होंगे।
लेकिन ध्यान के अनुभव तो बहुत कम लोगों के हैं। कभी करोड़ में एक आदमी को ध्यान के अनुभव हैं। शेष का क्या कोई अनुभव नहीं होगा? अनुभव होंगे स्वप्न के, स्वप्न में शरीर की कोई इंद्रिय काम नहीं करती।
इस बात की संभावना है कि अगर हम एक आदमी स्वप्न में हो, और उसे स्वप्न में ही रखें और उसके सारे शरीर को काटकर अलग कर दें तो आवश्यक नहीं है कि उसके रूप में जरा—सा भी भंग पड़े। कठिनाई है कि उसकी नींद टूट जाएगी। काश, हम उसे नींद में रख सकें और उसके एक—एक अंग को अलग करते चले जाएं तो उसके स्वप्न में कोई भंग नहीं होगा। क्योंकि शरीर का कोई हिस्सा उसके स्वप्न में अनिवार्य कारण नहीं है। स्वप्न में शरीर बिलकुल सक्रिय नहीं है, शरीर का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। स्वप्न के अनुभव आपके शेष रहेंगे। बल्कि आपके समस्त अनुभव स्‍वप्‍नों का ही रूप लेकर शेष रहेंगे।
अगर कोई आपसे पूछे कि स्वप्न में आप स्थिर होते हैं कि गतिमान होते हैं, तो कठिनाई होगी। स्वप्न से जागते तो यह अनुभव होता है कि अपनी जगह पर पड़े हुए हैं, फिर स्वप्न के भीतर। लेकिन स्वप्न के बाहर आकर पता लगता है कि स्वप्न में तो बड़ी गति है। लेकिन ध्यान रहे, स्वप्न में गति भी नहीं होती। अगर बहुत ठीक से समझें तो स्वप्न में आप भागीदार भी नहीं होते। बहुत गहरे में सिर्फ साक्षी हो सकते हैं। इसलिए स्वप्न में अपने को मरता हुआ भी देख सकते हैं। रूप में अपनी लाश को पडे हुए भी देख सकते हैं। और स्वप्न में अगर आप अपने को चलता भी देखते हैं, तो जिसे आप चलता देखते हैं वह सिर्फ स्वप्न होता है, आप तो देखनेवाले ही होते हैं। स्वप्न को यदि ठीक से समझें तो आप सिर्फ विटनेस होते हैं।
इसीलिए धर्म ने एक सूत्र खोज निकाला कि जो व्यक्ति जगत को स्वप्न की भांति देखने लगे, वह परम अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए जगत को माया और स्वप्न कहनेवाली चितनाएं पैदा होने लगीं। राज उनका यही है कि अगर जगत को हम सपने की भांति देखने लगें तो हम साक्षी हो जाएं। सपने में कभी भी कोई पार्टिसिपेट नहीं होता, हमेशा विटनेस होता है। कभी भी, किसी भी स्थिति में आप सपने में पात्र नहीं होते। भले ही आपको पात्र दिखायी पड़े, आप; लेकिन आप तो वही हैं, जिसको दिखायी पड़ता है, आप हमेशा ही देखनेवाले होते हैं, दर्शक होते हैं।
जितने अनुभव होंगे, बीज के होंगे, शरीर रहित होंगे, स्वप्न जैसे होंगे। जिनके अनुभवों ने दुख को निर्मित किया है वे नरक के स्वप्न देखेंगे—नाइटमेयर्स देखेंगे। जिनके अनुभवों ने सुख को अर्जित किया है, वे स्वर्ग देखते रहेंगे, सुखद होंगे सपने उनके। लेकिन ये सब सपने जैसे अनुभव होंगे। कभी—कभी इसमें और घटनाएं घटेंगी। उन घटनाओं के अनुभव में भी भेद पड़ेगा।
कभी—कभी ऐसा होगा कि ये आत्माएं जो न गतिमान हैं, न चलित हैं; ये आत्माएं कभी—कभी किन्हीं शरीरों में प्रवेश कर जाएंगी। अब यह भाषा की ही भूल है कहना, कि प्रवेश कर जाएंगी। उचित होगा ऐसा कहना कि कभी—कभी कोई शरीर इनको अपने में प्रवेश दे देगा। इन आत्माओं का लोक कुछ हमसे भिन्न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में हैं। ठीक हम एक ही जगत में अस्तित्ववान हैं। (यहां इंच—इंच जगह भी आत्माओं से भरी हुई है। यहां जो हमें खाली जगह दिखायी पड़ती है वह भी भरी हुई है।)
अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्‍टिव हालत में हो, और दो तरह के शरीर, दूसरे ग्रहों के शरीर, गाहक अवस्था में होते हैं। एक तो बहुत भयभीत अवस्था में—यानी जितना भयभीत व्यक्ति हो उसकी खुद ही आत्मा उसके शरीर में भीतर सिकुड़ जाती है। सिकुड़ जाती है, मतलब—शरीर के बहुत हिस्सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास—पड़ोस की कोई भी आत्मा ऐसे बह सकती है जैसे गड्डे में पानी बहता है। तब इसको जो अनुभव होते हैं ठीक वैसे हो जाते हैं जैसे शरीरधारी आत्मा को हो जाते हैं। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्मा प्रवेश करती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्मा सिकुड़ जाती है।
लेकिन भय की अवस्था में केवल वे ही आत्माएं सरककर भीतर प्रवेश कर सकती हैं जो दुख स्वप्न देखती हैं। जिन्हें हम बुरी आत्माएं कहें, वे प्रवेश कर सकती है। क्योंकि भयभीत व्यक्ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्थिति में है। उसमें कोई श्रेष्ठ आत्मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्यक्ति गड्डे की भांति है जिसमें नीचे उतरनेवाली आत्माएं ही प्रवेश कर सकती हैं।
प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति शिखर की भांति है जिसमें सिर्फ ऊपर चढनेवाली आत्माएं प्रवेश कर सकती हैं। प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भर जाता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्ठ आत्माओं को हो सकता है। वह भी नहीं कहती तो जिसको इनवोकेशन कहते हैं, आह्वान कहते है, प्रार्थना कहते है उससे भी प्रवेश होता है, लेकिन श्रेष्ठतम आत्माओं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि शरीर रहते हुए होते हैं, इन दोनों अवस्थाओं में।
तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता रहा है उसका पूरा विज्ञान है। ये देवता कहीं आकाश से नहीं आते। जिन्हें भूत प्रेत कहा जाता रहा, वे भी किन्हीं नरकों से, किन्हीं प्रेत—लोकों से नहीं आते। वे सब मौजूद है, यहीं है।
असल में एक ही स्थान पर मल्टीडाइमेंशनल एक्लिस्टेंस है। एक ही बिंदु पर बहुआयामी अस्तित्व है। अब जैसे यह कमरा है, यहां हम बैठे है। हवा भी है यहां। यहां कोई धूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी, यहां कोई गीत गाने लगे तो ध्वनि तरंगें भी भर जाएंगी। धूप का कोई भी कण ध्वनि तरंग के किसी भी कण से नहीं टकरायेगा।
इस कमरे में संगीत भी भर सकता है, प्रकाश भी भरा है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग, संगीत की किसी तरंग से टकराएगी नहीं। और न संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बाहर निकलना पड़ेगा या जगह खाली करनी पड़ेगी। असल में इसी स्थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती हैं और प्रकाश की तरंग दूसरे आयाम में भरती हैं। वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती हैं और इस तरह से हजार आयाम इसी कमरे को हजार तरह से भरते है। एक दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक दूसरे को एक दूसरे के लिए कोई स्थान खाली नहीं करना पड़ता। इसलिए स्पेस जो है, मल्टीडायमेंशनल है।
यहां हमने एक टेबल रखी है, अब दूसरी टेबल नहीं रख सकते इस जगह। क्योंकि एक टेबल एक ही आयाम में बैठती है। जब इस टेबल को रख दिया, तो अब इस स्थान पर यानी इसी टेबल के स्थान पर दूसरी टेबल नहीं रख सकते। वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का अस्तित्व उस टेबल की. वजह से कोई बाधा नहीं पाएगा। ये सारी आत्माएं ठीक हमारे निकट है। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनके प्रवेश होंगे तब ही इनके अनुभव होंगे। वह ठीक वैसे ही हो जाएंगे, जैसे शरीर में प्रवेश पर होते हैं।
दूसरी बात, जब ये व्यक्तियों में प्रवेश कर जाएं तब ये वाणी का उपयोग कर सकते हैं। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्यक्ष, या सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुआ। संवाद हुए हैं। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं हैं वह काल्पनिक लोगों के द्वारा नहीं हैं, वह इन लोकों में रहनेवाले लोगों के ही द्वारा हैं। लेकिन किसी के माध्यम से हैं।
इसलिए बहुत पुराने दिनों से जो व्यवस्था थी वह यह थी—जैसे कि वेद है—तो वेद का कोई ऋषि नहीं कहेगा कि हम इनके लेखक हैं। वह है भी नहीं। इसमें कोई विनम्रता कारण नहीं है कि वह विनम्रतावश कहते हैं कि हम लेखक नहीं हैं। इसमें तथ्य है। ये जो कही गयी बातें हैं, यह उन्होंने कही नहीं हैं, किसी और आत्मा ने उनके द्वारा कहलवायी हैं। और यह अनुभव बड़ा साफ होता है।
जब कोई और आत्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करके बोलेगी तब यह अनुभव इतना साफ है कि तुम पूरी तरह जानते हो कि तुम अलग बैठे हो, तुम बोल ही नहीं रहे हो, कोई और ही बोल रहा है। तुम भी सुननेवाले हो, बोलनेवाले नहीं हो। वैसे बाहर से पता चलाना मुश्किल होगा, लेकिन बाहर से भी जो लोग ठीक से कोशिश करें तो बाहर से भी पता चलेगा। क्योंकि आवाज का ढंग बदल जाएगा, टोन बदल जाएगी, शैली बदल जाएगी, भाषा भी बदल जाती है। उस व्यक्ति को तो भीतर बहुत ही साफ मालूम पड़ेगा।
अगर प्रेत आत्मा ने प्रवेश किया है तो शायद वह इतना भयभीत हो जाए कि मूर्च्छित हो जाए, लेकिन अगर देव आत्मा ने प्रवेश किया है तो वह इतना जागरूक होगा जितना कि कभी भी नहीं था; और तब स्थिति बहुत साफ इसे दिखायी पड़ेगी। तो जिनमें प्रेतात्माएं प्रवेश करेंगी वह तो प्रेतात्माओं के जाने के बाद ही कह सकेंगे कि कोई हममें प्रवेश कर गया। वे इतने भयभीत हो जाएंगे कि मूर्च्छित हो जाएंगे। लेकिन जिनमें दिव्य आत्मा प्रवेश करेगी, वे उसी क्षण भी कह सकेंगे कि यह कोई और बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा। यह दो आवाजें एक ही उपकरण का उपयोग करेंगी, जैसे एक ही माइक्रोफोन का दो आदमी एक साथ उपयोग कर रहे हों। एक चुप खड़ा रह जाए और दूसरा बोलना शुरू कर दे। जब शरीर की इंद्रियों का ऐसा उपयोग हो तब संवाद हो पाता है।
इसलिए देवताओं के, प्रेतों के संबंध में जो भी उपलब्ध है जगत में, वह सवांदित है। वह कहा गया है। और कोई जानने का उपाय तो नहीं है, वही उपाय है। और इन सबके पूरे के पूरे विज्ञान निर्मित हो गए हैं। और जब विज्ञान पूरा निर्मित होता है तो बडी आसानी हो जाती है। तब इन चीजों को समझ—बूझ पूर्वक उपयोग कर सकते हैं। लेकिन यह नहीं होता—कि समझ—बूझ पूर्वक उपयोग नहीं करते। तभी घटनाएं घटती हैं। लेकिन फिर विज्ञान तय हो गया था। जैसे कोई दिव्य आत्मा किसी में प्रवेश कर गयी है आकस्मिक रूप से, तो धीरे— धीरे इसका विज्ञान निर्मित कर लिया गया कि किन परिस्थितियों में वह दिव्य आत्मा प्रवेश करती है। वे परिस्थितियां अगर पैदा की जा सकें तो वह फिर प्रवेश कर सकेंगी।
अब जैसे मुसलमान लोबान जलाएंगे। वह किन्हीं विशेष दिव्य आत्माओं के प्रवेश करने के लिए सुगंध के द्वारा वातावरण निर्मित करना है। हिंदू धूप जलाएंगे, या घी के दीये जलाएंगे। ये आज सिर्फ औपचारिक हैं, लेकिन कभी उनके कारण थे। एक विशेष मंत्र बोलेंगे। विशेष मंत्र इनवोकेशन बन जाता है। इसलिए जरूरी नहीं है कि मंत्र में कोई अर्थ हो, अकसर नहीं होता। क्योंकि अर्थवाले मंत्र विकृत हो जाते हैं। अर्थहीन मंत्र विकृत नहीं होते। अर्थ में आप कुछ और भी प्रवेश कर सकते हैं। समय के अनुसार उसका अर्थ बदल सकता है, लेकिन अर्थहीन मंत्र में आप कुछ भी प्रवेश नहीं करवा सकते हैं, समय के अनुसार कोई अर्थ नहीं बदलता।
इसलिए जितने गहरे मंत्र हैं वह अर्थहीन हैं, मीनिंगलेस हैं। उसमें कोई अर्थ नहीं है जिससे कि युग के अनुसार कोई फर्क पड़ेगा। सिर्फ ध्वनियां हैं। और ध्वनि उच्चारण की एक विशेष व्यवस्था है, उसी ढंग से उसका उच्चारण होना चाहिए। उतनी ही चोट, उतनी ही तीव्रता, उतना उतार—चढ़ाव, उतनी चोट होने पर वह आत्मा तत्काल प्रवेश हो सकेगी। अथवा वह आत्मा खो गयी होगी तो उस जैसी कोई अन्य आत्मा प्रवेश हो सकेगी।
दुनियां के सारे धर्मों के जो मंत्र हैं, जैसे कि जैनों का नमोकार है—उसके पांच हिस्से हैं और प्रत्येक हिस्से पर जो इनवोकेशन है, जो आह्वान है, वह गहरा होता जाता है। प्रत्येक पद पर आह्वान गहरा होता जाता है। और गहरी आत्माओं के लिए होता चला जाता है। साधारणत: जैसा लोग समझते हैं, जैसा आज चलता है कि पूरे नमोकार को पढेंगे—यह ठीक स्थिति नहीं है। जिसको पहले पद से संबंध जोड़ना है उसको पहले पद को ही दोहराना चाहिए। बाकी चार को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। उस एक पर ही जोर देना चाहिए। क्योंकि उस पद से संबंधित आत्माएं बिलकुल अलग हैं।
जैसे, नमो अरिहताणम्। उसमें अरिहंत के लिए नमस्कार है। अब 'अरिहंत' विशेष रूप से जैनों का शब्द है। जिसने अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया, अरिहंतहार। अरि' का अर्थ है शत्रु 'हत' जिसने मार डाले। तो वह ऐसी आत्मा के लिए पुकार है जो अपनी इंद्रियों को बिलकुल ही समाप्त करके बिदा हुई। यह उस आत्मा के लिए पुकार है जिसका सिर्फ एक ही जन्म हो सकता है। इस एक ही पद को दोहराना है विशेष ध्वनि और चोट के साथ।
यह बहुत स्पेसिफिक पुकार है, विशेष पुकार है। इस पुकार के द्वारा इतर जैन दिव्य आत्मा से संबंध नहीं होता। यह एक पारिभाषिक शब्द है, जो शुद्ध जैन दिव्य आत्मा से संबंध जुड़ा पायेगा। इसमें क्राइस्ट से संबंध नहीं हो सकता। इसमें आकांक्षा नहीं है। इसमें बुद्ध से संबंध नहीं हो सकता। यह पारिभाषिक शब्द है, यह पारिभाषिक आत्मा के लिए पुकार है। ठीक ऐसे, अलग—अलग पूरे पांच हिस्सों में पांच अलग तरह की आत्माओं के लिए पुकार है। अंतिम जो पुकार है, 'नमो लोए सब्ब साहूणं' वह समस्त साधुओं को नमस्कार है। उसमें विशेष पुकार नहीं है। उसमें साधु आत्मा मात्र के लिए आह्वान है। उसमें जैन और इतर जैन का प्रश्‍न नहीं है। वह किसी भी साधु आत्मा से संबंध जोड्ने की आकांक्षा है। वह बडी जनरलाइज्‍ड पुकार है। कोई विशेष निमंत्रण नहीं है उस पर।
सारी दुनिया के धर्मों के पास ऐसे मंत्र हैं जिनसे संबंध जोड़ा जाता रहा। और तब वह शक्ति—मंत्र बन गए। और जन—जन के बीच महत्ता हो गयी। वह नाम की तरह है। जैसे आपका नाम रख दिया 'राम'। फिर राम की आवाज दी तो आप चौकन्ने हो गए। ऐसे ही सारे मंत्र हैं। प्रेतात्माओं के लिए भी वैसे ही मंत्र हैं। दोनों का अपना शास्त्र है। व्यक्ति तो खोते चले जाएंगे, आत्माएं बदलती चली जाएंगी। लेकिन ताल—मेल खाती आत्माएं सदा उपलब्ध रहेंगी, जिनसे संबंध जोड़ा जा सके। इस स्थिति में संवाद हो सकता है।
अब मुहम्मद को लीजिए। मुहम्मद ने सदा यही कहा कि मैं सिर्फ पैगंबर हूं सिर्फ पैगाम दे रहा हूं—मैसेंजर। क्योंकि मुहम्मद को कभी ऐसा नहीं लगा कि जो वह दे रहे हैं वह उनका है। इतनी साफ आवाज ऊपर से आयी, जिसे मुसलमान इलहाम कहते हैं, रिवील हुआ—कि कोई अन्य भीतर प्रवेश कर गया, और बोलना शुरू कर दिया। खुद मुहम्मद को भरोसा नहीं आया—कि यह मैं बोल रहा हूं कोई मेरी मानेगा? क्योंकि कभी मैंने बोला नहीं, मेरा कोई परिचय नहीं है लोगों से ऐसा। लोग जानते नहीं हैं कि मैं इस तरह की बात बोल सकता हूं इसलिए कोई मेरा माननेवाला नहीं है।
इसलिए मुहम्मद डरे हुए घर लौटे। और रास्ते में बचे हुए घर आये कि कहीं किसी से बोल न लें, अन्यथा अविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पीछे कोई भी तो आधार नहीं है, पृष्ठभूमि नहीं है। तो आकर पहले सिर्फ अपनी पत्नी से कहा, और उससे भी कहा कि तुझे भरोसा हो तो करना, नहीं भरोसा हो तो मत करना। और तुझे भरोसा आ जाए तो फिर मैं किसी और से कहूं अन्यथा नहीं कह सकता। क्योंकि जो हुआ है, जो आया है, ऊपर से आया है; वह कोई बोल गया है। वह मेरी नहीं है आवाज! सिर्फ शब्द मेरे हैं, बोल कोई और रहा है। जब पत्नी को भरोसा आया, तो फिर और निकट के किसी से कहा।
मूसा के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। वाणी उतरी। यह जो वाणियों का उतरना है, वह किसी और बड़ी दिव्य आत्मा के द्वारा किसी का प्रयोग करना है। हर किसी का प्रयोग नहीं हो सकता, उसी का प्रयोग हो सकता है—ऐसा ह्वीकल, वाहन बनने की पवित्रता चाहिए। तब संवाद हुआ। संवाद तो हो सकता है, लेकिन तब दूसरे के शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। अभी इस तरह की कोशिश कृष्णमूर्ति के साथ चली, जो असफल हुई।
बुद्ध का एक अवतार होने की बात है—मैत्रेय। बुद्ध ने कहा है कि मैं मैत्रेय के नाम से एक बार और लौटूंगा। बहुत वक्त हो गया, ढाई हजार साल हो गए हैं। और ऐसी प्रतीति है कि कोई योग्य गर्भ नहीं उपलब्ध हो रहा है और मैत्रेय जन्म लेना चाहता है। लेकिन कोई योग्य गर्भ उपलब्ध नहीं है। तब एक दूसरी कोशिश करने की व्यवस्था की गयी कि गर्भ अगर नहीं मिल सकता है तो कोई एक व्यक्ति को विकसित किया जाए और उस व्यक्ति के माध्यम से वह बोल डाले। इसके लिए बड़ा आयोजन चला। सारी थियोसाफी का, पूरा का पूरा आंदोलन सिर्फ एक काम के लिए निर्मित हुआ है कि वह उतना काम कर दे, कि एक ऐसे व्यक्ति को खोज कर तैयार कर दे सब तरह से, जो एक ह्वीकल बन जाए।
मुहम्मद से जो आत्मा संदेश देना चाहती थी उसको यह तकलीफ नहीं हुई, ह्वीकल बनाना नहीं पड़ा, तैयार ही मिला। मूसा से जिस आत्मा ने संदेश दिया उसको भी वाहन बनाने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ी। वाहन मिल गया। बहुत सरल युग थे। वाहन मिलना कठिन नहीं था। अहंकार इतना कम था, इतनी विनम्रता से समर्पण हो सकता था कि कोई दूसरा उपयोग कर ले शरीर का और कोई हट जाए बिलकुल ऐसे ही जैसे उसका शरीर है ही नहीं। अब यह असंभव हो गया। इडीवीजुअलिटी प्रगाढ़ है। व्यक्ति—अहंकार भारी है। कोई इंचभर नहीं हट सकता। कठिन है मामला। तो व्यक्ति तैयार कर लिया गया।
थियोसाफिस्टों ने तीन—चार छोटे बच्चों को चुना, क्योंकि पका भरोसा नहीं कि किस बच्चे का भविष्य क्या हो जाए। उन्होंने कृष्‍णमूर्ति को चुना, उनके एक भाई नित्यानंद को चुना। कृष्ण मैनन को भी पीछे चुना। एक और व्यक्ति जार्ज अरंडेल को भी चुना। नित्यानंद की तो मृत्यु हुई अति चेष्टा करने से, दुर्घटना हुई। नित्यानंद पर इतनी चेष्टा की गयी, कृष्णमूर्ति के भाई पर कि वह ठीक माध्यम बन जाए, मैत्रेय का संदेश देने का। उस चेष्टा में ही उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु से भी कृष्णमुति्र को इतना धक्का पहुंचा कि उनके लिए माध्यम बनने में भी बाधा पड़ी। उसकी मृत्यु उनके लिए तुलना हो गई। कृष्णमूर्ति को नौ साल की उम्र में एनीबीसेन्ट और लीड बीटर ने ले लिया। लेकिन यह एक मजे का खेल है, जगत एक बड़ा ड्रामा है। छोटी शक्तियों का खेल नहीं, बड़ी शक्तियों का खेल है।
जब मैत्रेय की आत्मा की संभावना बढ़ने लगी कि हो सकता है कृष्णमूर्ति में उतर जाए, तो जिस आत्मा ने, देवदत्त नाम का व्यक्ति, जिसने बुद्ध का जीवनभर विरोध किया, बुद्ध के जीवन में बुद्ध की हत्या की अनेक कोशिशें कीं जो बुद्ध का चचेरा भाई था, उसकी आत्मा कृष्णशूइrत के पिता पर हावी हो गयी। और एक मुकदमा चला जो प्रिवीकौसिल तक गया।
यह बात कभी नहीं कही गयी है, यह मैं पहली दफा कह रहा हूं। कृष्णमूर्ति के पिता के द्वारा यह दावा करवाया गया कि उसके बच्चे पर जबर्दस्ती इन लोगों ने कब्जा कर लिया है और उसे वह वापस चाहते हैं। नाबालिग बच्चा है। एनीबीसेन्ट ने जी—जान लगाकर वह संघर्ष किया। फिर भी नियमानुसार वह जीत नहीं सकती थी। क्योंकि नाबालिग बच्चे पर बाप का हक था। अगर बच्चा भी कहे तो भी कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि वह नाबालिग था, उसकी बात का कोई मतलब नहीं हो सकता था।
इसलिए कृष्णमूर्ति को लेकर हिंदुस्तान के बाहर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चलाया गया, उधर उसे लेकर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चला, उधर एनीबीसेन्ट.. लेकिन तब तक कृष्णमूर्ति को बाहर निकाल लिया गया। मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चला। वहां से भी एनीबीसेन्ट हारी, क्योंकि वह तो कानूनी मामला था। देवदत्त के हाथ में ज्यादा ताकत थी।
अकसर ऐसा होता है कि बुरे आदमियों के हाथ में कानून अधिक सहयोगी हो जाता है। क्योंकि अच्छा आदमी कानून की फिक्र नहीं करता। बुरे आदमी कानून का पहले इंतजाम कर लेते हैं। फिर वह प्रिवीकौसिल में गया। और प्रिवीकौसिल ने, सब कानून को तोड़कर निर्णय दिया कि वह एनीबीसेन्ट के पास जाए। इसके लिए कोई प्रेसीडेंट नहीं था। यह बिलकुल न्यायोचित नहीं थी घटना। इसके लिए कोई नियम नहीं था, यह बिलकुल ही गैरकानूनी था फैसला। लेकिन प्रिवीकौसिल के ऊपर तो कोई उपाय नहीं था। यह निर्णय भी मैत्रेय की आत्मा के द्वारा ही संभव हुआ, नहीं तो संभव नहीं हो सकता था। इसलिए छोटी कोर्टs में इसकी कोशिश नहीं की गयी, क्योंकि उनके ऊपर बड़ी कोर्ट थी, आखिरी कोर्ट में ही उपयोग किया गया और आखिरी अदालत के लिए रोक कर रखा गया।
यह नीचे के तल पर तो एक खेल था, जो इधर दिखायी पड़ रहा था, अखबारों में चल रहा था, अदालतों में मुकदमा लड़ा जा रहा था। यह ऊपर के तल पर भी शक्तियों का एक संघर्ष था। फिर कृष्णमूर्ति पर जितनी मेहनत की गयी, उतनी शायद ही कभी किसी व्यक्ति पर की गयी। व्यक्तियों ने खुद की है अपने ऊपर, इससे भी ज्यादा मेहनत की है, लेकिन दूसरे लोगों ने किसी पर इतनी मेहनत की हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पर सारी मेहनत के बावजूद भी बात बिगड़ गयी ऐन वक्त पर।
थियोसाफिस्ट्स ने सारी दुनिया से छह हजार लोगों को हालैण्ड में इकट्ठा कर रखा था और घोषणा होनेवाली था कि कृष्णमूर्ति उस दिन अपने व्यक्तित्व को छोड़ देंगे और मैत्रेय के व्यक्तित्व को स्वीकार कर लेंगे। सारी तैयारियां हो गयी थीं। आखिरी इंच की घोषणा थी, एक बिंदु की बात थी कि मंच पर खड़े होकर वह कहेंगे कि अब मैं कृष्णमूर्ति नहीं हूं बस इतनी ही घोषणा बाकी थी। सारी भीतरी तैयारी पूरी थी कि वे इतना कह देंगे कि अब मैं कृष्‍णमूर्ति के व्यक्तित्व को इनकार करता हूं और खाली बैठ जाएंगे, ताकि मैत्रेय की आत्मा प्रवेश हो जाए और बोलना शुरू कर दें।
सारी दुनिया के छह हजार लोग जो समझते थे और उत्सुक थे, प्यासे थे, वह इकट्ठे हुए थे दूर—दूर से आकर, इस घटना को देखने के लिए और मैत्रेय की आवाज को सुनने के लिए। एक अनूठी घटना होनेवाली थी। लेकिन कुछ नहीं हुआ— और ऐन वक्त पर कृष्णमुर्ति ने इनकार कर दिया। देवदत्त ने फिर धक्का दिया। वह जो प्रिवीकौसिल में नहीं हो सका था, वह अंततः आखिरी अदालत में हार गया। देवदत्त ने धक्का देकर ऐन वक्त पर कृष्णमूर्ति से इनकार करवा दिया कि मैं कोई शिक्षक नहीं हूं मैं कोई जगतगुरु नहीं हूं किसी की आत्मा से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। मैं, मैं हूं और जो मुझे कहना था—वह कह दिया।
. बहुत बड़ा प्रयोग असफल हुआ है, पर एक अर्थ में पहला प्रयोग था उस तरह का, और असफल होने की ज्यादा संभावना थी। उस तल पर आत्माएं संवाद नहीं कर सकती हैं, जब तक वह किसी के शरीर को न ग्रहण कर लें। और उस बीच में उनकी कोई प्रगति नहीं होती। इसीलिए मनुष्य—जन्म फिर अनिवार्य है। जैसे आज कोई मरा और सौ साल तक वह अशरीरी हालत में रहे तो इन सौ साल में किसी तरह का विकास ही नहीं होता। वह जहां मरा था पिछले जन्म में, ठीक वहीं से नए जन्म में प्रवेश करेगा, चाहे कितने ही समय बाद प्रवेश करे। यह विकास का काल नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे रात जहां आप सोते हैं, सुबह आप वही उठते हैं। नींद कोई विकास का काल नहीं है।
इसलिए अगर बहुत—से धर्म नींद के खिलाफ हो गए तो उसका कारण था, वे उसको कम करने में लग गए। क्योंकि उसमें कोई विकास नहीं होता। जहां आप थे, सुबह आप वहीं उठते हैं। ऐसे दो शरीरों के बीच, जहां से आप मरे थे, वहीं आप जन्मते हैं। आपकी स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता। बिलकुल ऐसे, जैसे हमने एक घड़ी बंद कर दी अभी और अब जब हम दुबारा शुरू करेंगे तो वह वहीं से शुरू हो जाएगी जहां हमने बंद की थी। बीच में सब विकास अवरुद्ध है। इसीलिए कोई भी देव—योनि से मोक्ष नहीं जा सकता। देव—योनि से मोक्ष न जाने का कुल कारण इतना ही है कि देव—योनि में कोई कर्मयोनि नहीं है। आप कुछ कर नहीं सकते हैं। कुछ हो नहीं सकता। सपने देख सकते हैं, अंतहीन सपने देख सकते हैं। मनुष्य होने के लिए लौटना ही पड़ेगा।
परिचय की जहां तक बात है, दो प्रेताआएं भी अगर परिचित होना चाहें तो भी दो व्यक्तियों में प्रवेश करके ही परिचित हो सकती हैं। सीधे परिचित नहीं हो सकतीं। करीब—करीब ऐसी हालत है, जैसे हम बीस आदमी इस कमरे में सो जाएं। हम बीस रातभर यहीं होंगे लेकिन नींद से हम परिचित नहीं हो सकते। हमारा जो परिचय है वह जागने पर ही होगा। जब हम जागेंगे तो फिर कन्टीन्यू हो जाएंगे, लेकिन नींद में हम परिचित नहीं हो सकते। तब हमारा कोई संबंध नहीं होता। हां, यह हो सकता है कि एक आदमी जाग जाए, वह सबको देख
इसका मतलब यह है कि अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए, तो वह आत्मा इन सारी आत्माओं को देख सकती है। फिर भी वे आत्माएं उसे नहीं देखेंगी। और अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए तो वह दूसरी आत्माओं को, जो कि अशरीरी हैं, उनके बाबत कुछ जान सकती है। लेकिन वे आत्माएं उसके बाबत कुछ भी नहीं जान सकतीं।
असल में जानना जो है, परिचय जो है, वह भी जिस मस्तिष्क से संभव होता है वह भी शरीर के साथ बिदा हो जाता है। हां, कुछ संभावनाएं फिर भी शेष रह जाती हैं जो कि हो सकती हैं। जैसे अगर किसी व्यक्ति ने जीते—जी मस्तिष्क मुक्त टेलीपैथी या क्लेअरवायंस के संबंध निर्मित किए हों, किसी व्यक्ति ने जीते—जी मस्तिष्क के बिना जानने के मार्ग निर्मित कर लिए हों, तो वह प्रेत या देव—योनि में भी जा सकेगा। पर ऐसे बहुत कम लोग हैं।
इसलिए जिन आत्माओं ने कुछ खबरें दी हैं उस लोक की आत्माओं के बाबत, वे उस तरह की आआएं हैं। यह स्थिति ऐसी है कि जैसे बीस आदमी शराब पी लें, सब बेहोश हो जाएं लेकिन एक आदमी ने शराब पीने का इतना अभ्यास किया हो कि कितनी ही शराब पी ले और बेहोश न हो, तो वह शराब पीकर भी होश में बना रहेगा। जो व्यक्ति शराब पीकर भी होश में बना रह सकता है, वह शराब के अनुभव के संबंध में ऐसा कुछ कह सकता है जो बेहोश रहनेवाले नहीं कह सकते। क्योंकि वह जानने के पहले ही बेहोश हो गए होते हैं।
इस तरह के भी छोटे—छोटे संगठन काम करते रहे हैं दुनिया में जो कुछ लोगों को तैयार करते हैं कि वह मरने के बाद जो लोक होगा, उस लोक के संबंध में कुछ जानकारी दे सकें। जैसे लंदन में एक छोटी—सी संस्था थी। जैसे कुछ बड़े—बड़े लोग— ओलिवर लाज जैसे लोग उसके सदस्य थे। उन्होंने पूरी कोशिश की। जब ओलिवर लाज मरा, उन्होंने पूरी चेष्टा की कि मरने के बाद वह खबर भेज सके। लेकिन बीस साल तक मेहनत करने पर भी कोई खबर न मिल सकी। ऐसी संभावना मालूम होती है कि ओलिवर लाज ने भी बहुत कोशिश की, क्योंकि कुछ और आत्माओं ने खबर दी कि ओलिवर लाज पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन कोई टूयूनिग नहीं बैठ पायी।
बीस साल निरंतर, बहुत दफा ओलिवर लाज ने खटखटाया उन लोगों को, जिनसे उसने वायदा किया था कि मैं खबर भेजूंगा। मैं मरते से ही पहला काम यह करूंगा कि कुछ खबर दे दूं। उसकी सारी तैयारी करवायी गयी थी कि वह खबर दे सकेगा। ऐसा होता था जैसे नींद में सोए आदमी को वह हड़बड़ा दे, घबड़ाकर उसका साथी बैठ जाएगा। ऐसा लगेगा कि ओलिवर लाज कहीं पास में है। लेकिन टूयूनिग नहीं बैठ पायी। ओलिवर लाज तैयार गया, लेकिन कोई दूसरा आदमी तैयार नहीं था—इस योग्य, जो ओलिवर लाज कुछ कहे तो उसे पकड़ ले। बीस साल निरंतर चेष्टा करता रहा।
न मालूम कितनी दफा ऐसा होता कि रास्ते में अकेले कोई जाए, एकदम कोई कंधे पर कोई हाथ रख दे। मित्र जो कि ओलिवर लाज के हाथ के स्पर्श को जानते थे वह एकदम चौंककर कहेंगे कि लाज, लेकिन फिर बात खो जाती है। इसकी बहुत कोशिश चली, बीस साल—उसके साथी तो सब घबरा गए और परेशान हो गए कि यह क्या हो रहा है! लेकिन कोई संदेश, एक भी संदेश नहीं दिया जा सका, हालांकि उसने द्वार बहुत खटखटाए।
दोहरी तैयारी चाहिए। अगर टेलीपैथी का ठीक अनुभव हुआ हो जीते—जी, बिना शब्द के बोलने की क्षमता आयी हो, बिना आंख के देखने की क्षमता आयी हो, तब उस योनि में उस तरह का व्यक्ति बहुत चीजें जान सकेगा। जानना भी सिर्फ हमारे होने पर निर्भर नहीं होता है।
जैसे एक बगीचे में जाएं एक वनस्पतिशाखी भी उस बगीचे में जाए, एक कवि भी उस बगीचे में जाए, और एक दुकानदार भी उस बगीचे में जाए, एक छोटा बच्चा भी उस बगीचे में जाए। वे सभी एक ही बगीचे में नहीं जाते हैं। बच्चा तितलियों के पीछे भागने लगता है, दुकानदार बैठकर अपनी दुकान की बात सोचने लगता है। उसे न फूल दिखायी पड़ते हैं, न कविता दिखायी पड़ती है। कवि फूलों में अटक जाता है, और कविताओं में खो जाता है।
वनस्पति—शास्री कुछ जानता है। उसकी ट्रेनिंग है भारी—पचास साल या बीस साल या तीस साल उसने वनस्पति की जो जानकारी ली है, वही वहां से बोलना शुरू कर देता है। एक—एक जड़, एक—एक पत्ता और एक—एक फूल में उसे दिखायी पड़ने लगता है, जो उनमें से किसी को दिखायी नहीं पड सकता।
ठीक इसी प्रकार उस लोक में भी, जो ऐसे ही मर जाते हैं इस जीवन में शरीर के अतिरिक्त बिना कुछ जाने, उनका तो कोई परिचय, कोई संबंध कुछ नहीं हो पाता। वह तो एक कोमा में, एक गहरी तंद्रा में पड़े रहकर नए जन्म की प्रतीक्षा करते' हैं। लेकिन जो कुछ तैयारी करके जाते हैं वे कुछ कर सकते हैं। इसकी तैयारी के भी शास्त्र हैं। और मरने से पहले अगर कोई वैज्ञानिक ढंग से मरे, विज्ञानपूर्वक मरे, और मरने की पूरी तैयारी करके मरे, पूरा पाथेय लेकर, मरने के बाद के पूरे सूत्र लेकर कि क्या—क्या करेगा, तो बहुत काम कर सकता है। विराट अनुभव की संभावनाएं वहां हैं—लेकिन साधारणत: नहीं। साधारणत: आदमी मरा, अभी जन्म जाए कि वर्षों बाद जन्मे, वह इस बीच से कुछ भी लेकर, कुछ भी करके नहीं जाता। और इसलिए भी सीधे संवाद की कोई संभावना नहीं है।

 इधर कुछ समय से मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं कि आप किसी जल्दी में हैं। वह जल्दी क्या है यह जानने में अमसर्थ हूं। लेकिन जल्दी है जरूर और इसकी पुष्टि होती है इधर जनवरी और फरवरी महीनों में अपने कुछ प्रेमियों को लिखे गए आपके पत्रों से। प्रश्‍न उठता है कि जिस करुणा वश आपको जन्म धारण करना पड़ा क्या वह कार्य आप पूरा कर चुके हैं? यदि पूरा कर चुके हैं तो आपके उस कथन का क्या होगा जिसमें आपने कहा था कि मै गांव—गांव चुनौती देते हुए घूमूंगा और मुझे कोई आंख मिल जाएगी जो दीया बन सकती है तो उस पर मैं अपना पूरा श्रम करूंगा। मरते वक्त मैं कहीं यह न कहूं कि सौ आदमियों को खोजता था वे मुझे नहीं मिले?


ल्दी है। जल्दी दो—तीन कारणों से है। एक तो कितना भी समय हो तो भी सदा कम है। कितना भी समय हो और कितनी भी शक्ति हो तो भी सदा कम है। क्योंकि काम सदा सागर—जैसा है। शक्ति, समय, अवसर सब चुल्‍लुओं जैसा है। फिर बुद्ध हों कि महावीर, कृष्ण हों कि क्राइस्ट, चुल्लू से ज्यादा मेहनत नहीं हो पाती और काम सदा सागर—जैसा फैला रहता है। इसलिए जल्दी तो सदा ही है। यह तो सामान्य जल्दी है—जो होगी ही। दूसरे भी एक कारण से जल्दी है। कुछ समय तो बहुत स्थिर होते हैं जहां चीजें मंद गति से चलती हैं। जितने हम पीछे जाएंगे, उतना ही हम पाएंगे, कि मंद गति से चलनेवाला समय था। कुछ युग अति तीव्र होते हैं, जहां चीजें बहुत तीव्रता से जाती हैं।
आज हम ऐसे ही समय में हैं जहां सब चीजें तीव्रता में हैं, जहां कोई भी चीज स्थिर नहीं है। धर्म अगर पुराने ढंग और पुरानी चालों से चले तो पिछड़ जाएगा और मिट जाएगा। तब विज्ञान भी बहुत धीमी गति से चलता था, दस हजार साल हो जाते थे और बैलगाड़ी में कोई फर्क नहीं पड़ता था। बैलगाड़ी, बैलगाड़ी ही होती। लोहार के औजार में कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह वही औजार होता था। सब चीजें ऐसे चलती थीं जैसे कि नदी बहुत आहिस्ता सरकती है कि कहीं पता ही नहीं चलता है कि नदी सरकती भी है। किनारे करीब—करीब वहीं के वहीं होते थे। तब धर्म भी इतनी ही गति से चलता था, ताल—मेल था। धर्म अभी भी उसी गति से चलता है। और अन्य सब चीजें बहुत तीव्रता में हैं। तब धर्म अगर पिछड़ जाए, और लोगों के पैर से उसका कोई ताल—मेल न रह जाए, तो आत्‍मर्य नहीं है। इसलिए भी जल्दी है।
जितनी तीव्रता से जगत का पौद्गलिक शान बढ़ता है और जितनी तीव्रता से विज्ञान कदम भरता है, उतनी ही तीव्रता से, बल्कि थोड़ा उससे भी ज्यादा धर्म को गति करना चाहिए। क्योंकि धर्म जब भी आदमी से पीछे पड़ जाए तभी आदमी का नुकसान होता है। धर्म को आदमी से सदा थोड़ा आगे होना चाहिए। क्योंकि आदर्श सदा ही थोड़ा आगे होना चाहिए। नहीं तो आदर्श का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वास्तविकता से आदर्श सदा ही थोड़ा आगे, पार जानेवाला होना चाहिए। यह बहुत बुनियादी फर्क है।
अगर हम राम के जमाने में जाएं तो धर्म सदा आदमी से आगे है और अगर हम आज अपने जमाने में आएं तो आदमी सदा धर्म से आगे है। आज तो सिर्फ वही आदमी धार्मिक हो पाता है, जो बहुत पिछड़ा हुआ आदमी है। उसका कारण है। क्योंकि धर्म से सिर्फ उसके ही पैर मिल पाते हैं। जितना विकासमान हुआ है आज आदमी, उसका धर्म से संबंध छूट गया है—या औपचारिक संबंध रह गया है जो वह दिखाने के लिए रखता है। धर्म होना चाहिए आगे।
अब यह कितनी हैरानी की बात है कि अगर हम बुद्ध और महावीर के जमाने को देखें तो उस युग के जो श्रेष्ठतम लोग हैं वे धार्मिक हैं और अगर हम आज के धार्मिक आदमी को देखें तो हमारे बीच का जो निकृष्टतम आदमी है, वही धार्मिक है। उस जमाने में जो अग्रणी है, चोटी पर है, वह धार्मिक था और आज जो बिलकुल ग्रामीण है, पिछडा हुआ है, वही धार्मिक है। बाकी कोई धार्मिक नहीं है। इसका कारण है। धर्म आदमी 'से आगे कदम नहीं बढ़ा पा रहा है। इसलिए भी जल्दी है।
फिर इसलिए भी जल्दी है कि कुछ समय इमरजेंसी के होते हैं, आपातकालीन होते हैं। जैसे, आप कभी अस्पताल की तरफ जा रहे होते हैं तब आपकी चाल वही नहीं होती जो आपकी दुकान की तरफ जाने की होती है। वह चाल आपातकालीन, इमरजेंसी की होती है। आज करीब—करीब हालत ऐसी है कि अगर धर्म कोई बहुत प्राणवान आंदोलन जगत में पैदा नहीं कर पाया तो पूरी मनुष्यता भी नष्ट हो सकती है। समय बिलकुल इमरजेंसी का है, अस्पताल की तरफ जाने जैसा है। जहां कि हो सकता है कि हमारे पहुंचने के पहले मरीज मर जाए, हमारे औषधि लाने के पहले मरीज मर जाए। हमारा निदान हो और मरीज मर जाए।
इसका कोई व्यापक परिणाम धार्मिक चिंतकों पर नहीं है। यद्यपि धार्मिक चिंतकों की बजाय सारी दुनिया की नयी पीढ़ी पर और विशेषकर विकसित मुल्कों की नयी पीढ़ी पर इसका बहुत सीधा परिणाम हुआ है। और वह परिणाम यह हुआ है कि आज अगर अमरीका के युवक को मां—बाप यह कहें कि तू यूनिवर्सिटी में पढ़ ले, दस साल पढ़ लेगा तो अच्छी नौकरी मिल जाएगी। तो युवक यह कहता है कि क्या इस बात की गारंटी है कि दस साल बाद मैं बचूंगा या यह आदमी बचेगा? और मां—बाप कै पास जवाब नहीं है। कल का भरोसा सर्वाधिक कम आज अमरीका में है। सर्वाधिक कम! कल बिलकुल गैर— भरोसे का है। कल होगा भी कि नहीं, इसका पका नहीं। इसलिए इतनी जोर से आज को ही भोग लेने की आकांक्षा है। यह आकस्मिक नहीं है। यह बहुत तीव्र... चारों तरफ साफ स्थिति है कि चीजें कल बिखर सकती हैं, बिलकुल! करीब—करीब ऐसी हालत है जैसे कि मरीज खाट पर पड़ा हो और किसी भी क्षण मर सकता हो। ऐसी पूरी आदमियत है।
इसलिए भी जल्दी है कि अगर आपके निदान बहुत धीमे और मद्धिम रहें तो कोई परिणाम होनेवाला नहीं है। इसलिए बहुत तीव्रता में मैं हूं कि जो भी हो सकता है वह शीघ्रता से होना चाहिए। और यह जो मैंने कहा कि गांव—गांव घूमूंगा—वह मैं एक अर्थ में अपने हिसाब में घूम लिया हूं। जिन आदमियों का मुझे खयाल है, वह मेरे ध्यान में हैं। अब उन पर काम करने की बात है। बड़ी कठिनाई तो इसलिए होती है कि मेरे खयाल में कोई आदमी आ जाए इससे उस आदमी के खयाल में मैं आ जाऊं, यह जरूरी थोड़े ही है। और जब तक उसके खयाल में मैं न आ जाऊं, तब तक कुछ काम नहीं हो सकता।
काम शुरू भी किया है। और कब आऊंगा, जाऊंगा —उसका भी प्रयोजन यही है कि काम कर सकूं। क्योंकि मैं आता ही जाता रहूंगा तो काम नहीं हो पाएगा। लोगों को तैयार करके बहुत जल्दी, दो वर्ष में गांव—गांव भेज दूंगा। वह बिलकुल जा सकेंगे। और वैसी स्थिति नहीं आएगी। सौ नहीं, दस हजार आदमी तैयार किए जा सकेंगे। जो बहुत संकट के काल होते हैं, खतरे के भी होते हैं, संभावना के भी होते हैं। उपयोग नहीं किया जाए तो दुर्घटना हो जाती है। उपयोग कर लिया जाए तो बहुत संभावना के हो जाते हैं। बहुत लोगों को तैयार भी किया जा सकता है। बहुत साहस का भी योग है, बहुत—से लोगों को बहुत अशात में छलांग के लिए भी तैयार करवाया जा सकता है—वह होगा!
यह तो जो बाहर की स्थिति है, वह मैंने कही, लेकिन जब भी कोई युग जैसे—जैसे ध्वंस के करीब आता है, तब भीतरी तल पर बहुत—सी आत्माएं विकास के आखिरी किनारे पर पहुंच गयी होती हैं। उनको जरा—से धक्के की जरूरत होती है। जरा—से इशारे से उनकी छलांग लग सकती है। जैसे आमतौर से हम जानते हैं कि मौत करीब देखकर आदमी मौत के पार का चिंतन करने लगता है—एक—एक व्यक्ति जैसे—जैसे मौत निकट आती है, वैसे धार्मिक होने लगता है। मौत करीब आती है तो सवाल उठने शुरू होते हैं मौत के पार के, अन्यथा जिंदगी इतनी उलझाए रखती है कि सवाल ही नहीं उठते। जब कोई पूरा युग मरने के करीब आता है, तब करोड़ों आत्माओं में भी वह खयाल भीतर से आना शुरू होता है। वह भी संभावना है, उसका उपयोग किया जा सकता
इसलिए मैं धीरे—धीरे अपने को बिलकुल कमरे में ही सिकोड़ लूंगा। मैं आने—जाने को समाप्त ही कर दूंगा। अब तो जो लोग मेरे खयाल में हैं, उन पर मैं काम शुरू करूंगा। उनको तैयार करके भेजूंगा और जो मैं अकेला घूमकर नहीं कर सकता हूं वह मैं दस हजार लोगों को घुमाकर करवा सकूंगा।
मेरे लिए धर्म बिलकुल वैज्ञानिक प्रक्रिया है। तो ठीक वैज्ञानिक टेकनीक के ढंग से सारी चीजें मेरे खयाल में हैं। जैसे—जैसे लोग तैयार होते जाएंगे, उनको वैज्ञानिक टेकनीक दे देनी है। वह उस टेकनीक से जाकर काम कर सकेंगे हजारों लोगों पर। मेरी जरूरत नहीं रहेगी उसमें। मेरी जरूरत इन लोगों को खोजने के लिए थी। इनसे अब मैं काम ले सकूंगा। मेरी जरूरत कुछ सूत्र निर्मित करने की थी, वह निर्मित हो गए। एक वैज्ञानिक का काम पूरा हो गया। अब टेक्रीशियंस का काम होगा। एक वैज्ञानिक काम पूरा कर लेता है। उसने बिजली खोज कर रख दी। एक एडिसन ने बिजली का बल्व बना दिया। अब तो गांव का मिस्री भी बिजली के बल्व को ठीक कर लेता है और लगा देता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। इसके लिए किसी एडीसन की जरूरत नहीं है।
अब मेरे पास करीब—करीब पूरा खयाल है। अब जैसे—जैसे लोग तैयार होते जाएंगे, उनको खयाल देकर, प्रयोग करवाकर भेज सकूंगा, वे जा सकेंगे। सब मेरी नजर में हैं। क्योंकि सभी को संभावनाएं दिखायी नहीं पड़ती, अधिक लोगों को तो वास्तविकताएं ही दिखायी पड़ती हैं। संभावनाएं देखना बहुत कठिन बात है। संभावनाएं मेरी नजर में हैं। बहुत सरलता से.. बुद्ध और महावीर के समय में जैसे बिहार के छोटे—से इलाके की स्थिति थी, वैसी दस वर्ष में सारी दुनियां की स्थिति हो सकती है—उतने ही बड़े व्यापक पैमाने पर, लेकिन बिलकुल नए तरह का धार्मिक आदमी निर्मित करना पड़ेगा। नए तरह का संन्यासी निर्मित करना पड़ेगा। नए तरह के ध्यान और योग के प्रयोग की क्रियाएं निर्मित करनी पड़ेगी। वह सब निर्मित हैं, मेरे खयाल में।
जैसे—जैसे लोग मिलते जाएंगे उनको दे दिया जाएगा, वे उनको आगे पहुंचा देंगे। खतरा भी बहुत है, क्योंकि अवसर चूके तो बहुत नुकसान भी होगा। अवसर का उपयोग हो सके तो इतना कीमती अवसर मुश्किल से कभी आता है, जैसे आज है। सभी अर्थों में युग अपने शिखर पर है, अब आगे उतार ही होगा। अब अमरीका इससे आगे नहीं जा सकेगा, बिखराव होगा। यानी छू चुका अपने शिखर को और बिखर गया। अब कोई संभावना नहीं है। इस युग की सभ्यता बिखराव पर है। आखिरी क्षण है।
यह हमको खयाल में नहीं है कि बुद्ध और महावीर के बाद हिंदुस्तान बिखरा। बुद्ध और महावीर के बाद फिर वह स्वर्ण—शिखर नहीं छुआ जा सका। लोग आमतौर से सोचते हैं कि बुद्ध और महावीर की वजह से ऐसा हो गया होगा। बात उल्टी है। असल में बिखराव के पहले ही बुद्ध और महावीर की हैसियत के लोग काम कर पाते हैं, नहीं तो काम नहीं कर पाते। क्योंकि बिखराव के पहले जब सब चीजें अस्त—व्यस्त होती हैं, सब चीजें गिरने के करीब होती हैं।
जैसे व्यक्ति के सामने मौत खड़ी हो जाती है, वैसे ही पूरी सामूहिक चेतना के सामने मौत खड़ी हो जाती है। और समूहगत चेतना धर्म के और अज्ञात के चिंतन में उतरने के लिए तैयार हो जाती है। इसलिए यह संभव हो पाया कि बिहार जैसी छोटी—सी जगह में पचास—पचास हजार संन्यासी महावीर के साथ घूम सके। यह फिर संभव हो सकता है। इसकी पूरी संभावना है। उसकी पूरी कल्पना और योजना मेरे खयाल में है। मेरा जो काम था वह एक अर्थ में पूरा हो गया है। इस अर्थ में पूरा हो गया है कि मैं जिन लोगों को भेजना चाहता था, उन्हें मैंने खोज लिया है। उन्हें भी पता नहीं, मैंने उन्हें खोज लिया है। अब उनको काम करना है और उनको तैयार करके भेज देना है।
इसलिए भी जल्दी है कि जब तक मेरा काम था, तब तक मैं बहुत आश्वस्त था, बहुत जल्दी की बात नहीं थी। मै जानता था, क्या मुझे करना है, वह मैं कर रहा था। अब मुझे दूसरों से काम लेना है। अब उतना आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। जब तक मैं कर रहा था तब मुझे खयाल था कि क्या करना है, बात ठीक थी। जब दूसरों से काम लेना होता है तो कठिनाई और जटिलता पैदा होती है। फिर मैं मित्रों को साफ कह ही देना चाहता हूं कि मैं जल्दी में हूं उन्हें भी जल्दी में होना चाहिए। क्योंकि जिस गति से लोग चलते हुए दिखायी पड़ते हैं, उस गति से वे कहीं नहीं पहुंचने वाले हैं। मुझे तीव्रता में देखकर शायद उनमें भी तीव्रता आ सकती है, अन्यथा आ नहीं सकती।
कई बार जैसे कि जीसस को करना पड़ा। जीसस ने तो कहा कि बहुत जल्दी सब समाप्त होनेवाला है। मगर लोग कितने नासमझ हैं, हिसाब लगाना मुश्किल है। जीसस ने कहा, बहुत जल्दी सब समाप्त हो जाएगा। तुम अपनी आंखों के सामने देखोंगे कि सब नष्ट हो जाएगा। चुनाव का वक्त करीब है। और जो आज नहीं बदलेंगे, उनको बदलने का फिर कोई मौका नहीं बचेगा। जिन्होंने सुना, समझा, उन्होंने अपने को बदला लेकिन अधिक लोग तो पूछने लगे कि कब आएगा वह समय? अभी भी दो हजार साल बाद, ईसाई, पंडित, पुरोहित और थियोलाजिस्ट्स बैठकर विचार कर रहे हैं कि जीसस से कुछ गलती हो गयी मालूम होती है। क्योंकि अभी तक तो वह 'डे आफ जजमेंट' आया नहीं। निर्णय का दिन अभी तक नहीं आया, दो हजार साल हो गए। जीसस ने कहा था, अभी, तुम्हारे सामने, अभी यह घटना घटजाएगी। अभी मेरे देखते—देखते चुनाव का वक्त आ जाएगा और जो चूक जाएंगे वह सदा के लिए चूक जाएंगे। वह अभी तक नहीं आया।
यह जीसस से कोई भूल हो गयी या फिर हमने कुछ समझने में भूल कर दी? कुछ हैं कि जीसस को कुछ पता नहीं था, इसलिए बडी गलती की, इसलिए और भी कुछ पता नहीं होगा। कुछ हैं जो कहते हैं कि शास्त्र की व्याख्या में भूल हो गयी। लेकिन उनमें से किसी को पता नहीं कि जीसस जैसे लोग जो कहते हैं, उसके प्रयोजन होते हैं। इतनी तीव्रता जीसस ने पैदा की, उस तीव्रता में जो लोग समझ सके वह लोग रूपांतरित हो गए। और आदमी तीव्रता में ही रूपांतरित होता है। नहीं तो रूपांतरित नहीं होता। उसको अगर पता है कि कल हो जाएगा, तो वह आज तो करेगा ही नही। वह कहेगा, कल करेंगे। उसे अगर पता है, परसों हो जाएगा, तो वह कहेगा, परसों कर लेंगे। उसे अगर पता चलजाए कि कल है ही नही, तो ही रूपांतरण की क्षमता आती
एक लिहाज से बिखराव की जो सभ्यताएं होती हैं, यानी जब सभ्यता बिखरती है तब कल बहुत संदिग्ध हो जाता है। कल का कोई पका नहीं रहता। तब आज ही सिकोड़ना पड़ता है हमें। भोगना हो तो भी आज सिकोड़ना पड़ता है और त्यागना हो तो भी आज सिकोड़ना पड़ता है। नष्ट करना हो स्वयं को तो भी आज ही करना पड़ता है, रूपांतरित करना हो तो भी आज ही करना पड़ता है। तो एक घटना तो घट गयी है कि यूरोप और अमेरिका भोगने के लिए आज तैयार हो गए हैं कि जो करना है, आज कर लो। कल की फिक्र छोड़ दो। पीना है पी ले, भोगना है भोग लो, चोरी करना है चोरी कर लो, खाना है खा लो। जो करना है, आज कर लो। यह एक घटना घट गयी भौतिक तल पर।
मैं चाहता हूं कि आध्यात्मिक तल पर भी यह घटना घट जानी चाहिए कि जो रूपांतरण करना है वह आज कर लो, अभी कर लो। वह ठीक इसके समानांतर घट सकती है। उसकी तीव्रता में मैं हूं कि वह खयाल में आना शुरू हो जाए। निश्रय ही, पूरब से ही वह खयाल आ सकेगा। उसकी हवा पूरब से ही जा सकेगी। पश्चिम इस हवा में जोर से बह सकता है। लेकिन हवा उसकी पूरब से ही जाएगी।
चीजों के पैदा होने का भी स्थान होता है। जैसे सभी वृक्ष सब मुल्कों में नहीं हो जाते हैं। अलग—अलग जड़ें होती हैं, जमीन होती है, हवा होती है, पानी होता है। ऐसे ही सभी विचार भी सभी भूमियों में नहीं हो जाते हैं। भिन्न प्रकार की जड़ें होती हैं, हवा होती है, पानी होता है। विज्ञान पूरब में पैदा नहीं हो सका। उस वृक्ष के लिए पूरब में जड़ें नहीं हैं।
धर्म पूरब में ही पैदा होता रहा, उसके लिए बड़ी गहरी जड़ें हैं, उसकी हवा बिलकुल तैयार है, पानी बिलकुल तैयार है, भुमि बिलकुल तैयार है। अगर विज्ञान पूरब में आया है, तो पश्‍चिम से ही आया है। अगर धर्म पश्‍चिम में जाएगा, तो पूरब से ही जाएगा। कई बार मुकाबला पैदा हो सकता है। जैसे जापान है—मुल्क पूरब का है, लेकिन विज्ञान में पश्‍चिम के किसी भी मुल्क से मुकाबला ले सकता है। फिर भी मजे की बात है, सिर्फ इमीटेट करता है, कभी भी मौलिक नहीं हो पाता। ऐसा भी कर लेता है कि इमीटेशन के आगे मूल भी फीका दिखायी पड़ने लगता है। लेकिन फिर भी होता इमीटेशन है। फिर भी जापान एक चीज इनवेंट नहीं कर पाता—यानी एक आविष्कार नहीं कर पाता। हा, रेडियो बनाएगा तो वह अमेरिका से आगे बनाने लगेगा, लेकिन फिर भी होगी वह नकल। वह नकल में कुशल हो जाएगा। लेकिन होंगे वृक्ष पराए। उनको लगा लेगा, संभाल लेगा। लेकिन नये अंकुर उसके पास अपने नहीं आनेवाले हैं।
ठीक धर्म के साथ, पश्‍चिम में आगे जा सकता है अमेरिका भी। अगर पूरब से हवा पहुंच जाए तो वह एक मामले में पूरब को फीका कर सकेगा। लेकिन फिर भी वह नकल होगी। जो इनीशिएटिव है, जो पहला कदम है वह पूरब के हाथ में है। इसलिए जल्दी, मैं इस फिक्र में हूं कि पूरब से लोग तैयार किए जाएं और पश्‍चिम में भेजे जा सकें। जोर से वहां आग पकड़ लेगी, लेकिन चिंगारी पूरब से ही जानी है।

''मैं कहता आंखन देखी'’ :
अंतरंग भेंट वार्ता बुडलैड़,
बम्बई दिनांक 12 मार्च 1971

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