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मंगलवार, 24 मार्च 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--161

साधना और समझ—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

अध्‍याय—13
सूत्र—

अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमब्यय:।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करौति न लिप्‍यते।। 31।।
यथा सर्वगतं सौक्ष्‍म्यादास्काशं नोयलिप्‍यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्‍यते।। 32।।  

है अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ थी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है।
जिस कार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातींत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है।

 पहले कुछ प्रश्न।

एक मित्र ने पूछा है, आप ध्यान या साधना पर इतना जोर क्यों देते हैं? आध्यात्मिक, दार्शनिक ग्रंथों का पठन—पाठन या कृष्णमूर्ति या आप जैसे ज्ञानियों का श्रवण और स्वयं चिंतन—मनन, इनसे जो समझ आती है, क्या वह परिवर्तन के लिए पर्याप्त नहीं है? क्या यही साधना नहीं है? ध्यान को बैठने का फिर क्या प्रयोजन है? ध्यान का अर्थ अगर साक्षी— भाव है, तो दिनभर सब जगह हर काम करते वक्त भी पूरा अवसर है। फिर ध्यान करने की, अलग से बैठने की क्या जरूरत है?

 मझ काफी है, लेकिन समझ केवल सुन लेने या पढ़ लेने से उपलब्ध नहीं होती। समझ को भी भूमि देनी पड़ती है। उसके बीज को भी भूमि देनी पड़ती है। बीज में पूरी संभावना है कि वह वृक्ष हो जाए लेकिन बीज को भी जमीन में न डालें, तो वह वृक्ष नहीं होगा।
ध्यान समझ के लिए भूमि है। समझ काफी है, उससे जीवन में क्रांति हो जाएगी। लेकिन समझ का बीज ध्यान के बिना टूटेगा ही नहीं।
और अगर समझ आप में पैदा होती हो बिना ध्यान के, तो कृष्णमूर्ति को या मुझे सुनने का भी क्या प्रयोजन है! और मुझे वर्षों से बहुत लोग सुनते हैं, कृष्णमूर्ति को चालीस वर्षों से बहुत लोग सुनते हैं। अब भी सुनने जाते हैं। समझ अभी भी पैदा नहीं हुई।
चालीस वर्ष से जो आदमी कृष्णमूर्ति को सुन रहा है, अब उसको कृष्णमूर्ति को सुनने जाने की क्या जरूरत है अगर समझ पैदा हो गई हो? अब भी सुनने जाता है। और कृष्णमूर्ति चालीस साल से एक ही बात कह रहे हैं कि समझ पैदा करो। वह अभी चालीस वर्ष तक सुनकर भी पैदा नहीं हुई है। वह चार हजार वर्ष सुनकर भी पैदा नहीं होगी।
न तो सुनने से समझ पैदा हो सकती है, न पढ़ने से समझ पैदा हो सकती है। ध्यान की भूमि में ही समझ पैदा हो सकती है। हा, सुनने से ध्यान की तरफ जाना हो सकता है। पढ़ने से ध्यान की तरफ जाना हो सकता है। और अगर समग्र मन से सुनें, तो सुनना भी ध्यान बन सकता है। और अगर समग्र मन से पढ़ें, तो पढ़ना भी ध्यान बन सकता है। लेकिन ध्यान जरूरी है।
ध्यान का अर्थ समझ लें। ध्यान का अर्थ है, मन की ऐसी अवस्था जहां कोई तरंग नहीं है। निस्तरंग चैतन्य में ही समझ का जन्म होता है।
यह निस्तरंग चैतन्य कई तरह से पैदा हो सकता है। किसी को प्रार्थना से पैदा हो सकता है। किसी को पूजा से पैदा हो सकता है। किसी को नृत्य से, कीर्तन से पैदा हो सकता है। किसी को सुनने से पैदा हो सकता है। किसी को देखने से पैदा हो सकता है। किसी को मात्र बैठने से पैदा हो सकता है। किसी को योग की क्रियाओं से पैदा हो सकता है। किसी को तंत्र की क्रियाओं से पैदा हो सकता है।
निस्तरंग चित्त बहुत तरह से पैदा हो सकता है। और जिस तरह से आपको पैदा होता है, जरूरी नहीं है कि दूसरे को भी उसी तरह से पैदा हो। तो आपको खोजना पड़ेगा कि कैसे निस्तरंग चित्त पैदा हो! निस्तरंग चित्त का नाम ही ध्यान है। तरंगायित चित्त का नाम मन है। वह जो उथल—पुथल से भरा हुआ मन है, उसमें कोई भी समझ पैदा नहीं हो सकती। क्योंकि वहां इतना भूकंप चल रहा है कि कोई बीज थिर नहीं हो सकता। अंकुरित होने के लिए अवसर ही नहीं है। इसलिए ध्यान पर इतना जोर है।
और अगर आप सोचते हों कि कृष्णमूर्ति का ध्यान पर जोर नहीं है, तो आप समझे ही नहीं। ध्यान शब्द का वे उपयोग नहीं करते हैं, क्योंकि उनको ऐसा खयाल है कि ध्यान शब्द बहुत विकृत हो गया है। लेकिन कोई शब्द विकृत नहीं होते। और केवल नए शब्द चुन लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे सुनते समय सिर्फ सुनो!
वह ध्यान हो गया। कोई भी किया करते वक्त अगर सिर्फ क्रिया की जाए और उसके संबंध में सोचा न जाए, तो ध्यान हो जाएगा। चलते वक्त अगर केवल चला जाए और कुछ भी मन में न करने दिया जाए तो ध्यान हो जाएगा। भोजन करते वक्त अगर भोजन किया जाए और मन में उसके संबंध में कोई चिंतन न किया जाए, तो भोजन करना ध्यान हो जाएगा। अगर आप अपने चौबीस घंटे को ध्यान में बदल लेते हैं, तो बहुत अच्छा है।
लेकिन लोग बहुत बेईमान हैं। एक घंटा न बैठने के लिए वे कहेंगे, चौबीस घंटे ध्यान क्यों नहीं किया जा सकता! और चौबीस घंटे वे ध्यान करने वाले नहीं हैं। और एक घंटा बैठना न पड़े, इसलिए चौबीस घंटे पर टालेंगे।
अगर आप चौबीस घंटे ही ध्यान कर सकते हों, तो कौन आपको कहेगा कि घंटेभर करिए! आप मजे से चौबीस घंटे करिए। लेकिन चौबीस घंटे आप कर नहीं रहे हैं। और कर रहे होते, तो यहां मेरे पास पूछने को नहीं आना पड़ता।
क्या जरूरत है मेरे पास आने की? ध्यान नहीं है, इसलिए कहीं जाना पड़ता है, सुनना पड़ता है, समझना पड़ता है। ध्यान हो तो आपके भीतर ही पौधा खिल जाएगा। आपके पास दूसरे लोग आने लगेंगे। आपको जाने की जरूरत नहीं होगी। अपनी समझ आ जाए, तो फिर किसी से क्या समझना है!
लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि अगर कहो कि घंटेभर बैठो, तो वह कहेगा, घंटेभर बैठने की क्या जरूरत है? चौबीस घंटे ध्यान नहीं किया जा सकता!
मजे से करिए, लेकिन कम से कम घंटे से शुरू तो करिए। एक घंटा भी ध्यान करना मुश्किल है। चौबीस घंटा तो बहुत मुश्किल है। जब ध्यान करने बैठेंगे, तब पता चलेगा कि एक क्षण को भी ध्यान हो जाए तो बहुत बड़ी घटना है। क्योंकि मन चलता ही रहता है। तो उचित है कि एक घंटा निकाल लें चौबीस घंटे में से अलग ध्यान के लिए ही, और अनुभव करें। जिस दिन एक घंटे में आपको लगे कि सधने लगी बात, घटने लगी बात, चौबीस घंटे पर फैला दें। फैलाना तो चौबीस घंटे पर ही है। क्योंकि जब तक जीवन पूरा ध्यानमय न हो जाए तब तक कोई क्रांति न होगी। लेकिन शुरुआत कहीं से करनी पड़ेगी।
और फिर एक घंटे ध्यान का परिणाम चौबीस घंटे पर होता है। ठीक वैसे ही जैसे एक घंटा कोई सुबह व्यायाम कर लेता है, तो चौबीस घंटे का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। और आप यह नहीं
कहते कि चौबीस ही घंटे व्यायाम क्यों न किया जाए! करें, तो ठीक है। जो आदमी चौबीस घंटे व्यायाम कर रहा है, उसको एक घंटे व्यायाम करने की कोई जरूरत भी नहीं है। जो चौबीस घंटे श्रम में लगा हुआ है, उसे और व्यायाम की क्या जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जो व्यायाम नहीं कर रहा है, उसे घंटेभर भी कर लेने से चौबीस घंटे पर परिणाम होगा।
ध्यान के लिए एक घंटा निकाल लेना इसलिए उपयोगी है कि आप उस समय को पूरा का पूरा ही ध्यान में नियोजित कर सकते हैं। एक दफा कला आ जाए तो उस कला का उपयोग आप चौबीस घंटे कर सकते हैं। ध्यान एक कला है। फिर आप जो भी आप करें, वह ध्यानपूर्वक कर सकते हैं। और तब अलग से ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
लेकिन जब तक वैसी घटना न घटी हो, तब तक कृष्णमूर्ति को सुनकर या किसी को भी सुनकर तरकीबें मत निकालें। हम इतने होशियार हैं तरकीबें निकालने में, कि जिससे हमारा मतलब सधता हो, वह बात हम तत्काल निकाल लेते हैं।
कृष्णमूर्ति लोगों को कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। उनके पास उसी तरह के लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जो किसी भी गुरु के सामने झुकने में अहंकार की तकलीफ पाते हैं। वे इकट्ठे हो जाते हैं। वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, जब कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, तो ठीक ही कह रहे हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर गुरु की कोई जरूरत नहीं है आपको, तो कृष्णमूर्ति के पास किसलिए जाते हैं? क्या प्रयोजन है? सिर्फ कह देने से कि गुरु की जरूरत नहीं है, कोई फर्क पड़ता है? जब तक आप किसी से सीखने जाते हैं, तब तक आपको गुरु की जरूरत है। और बड़े मजे की बात यह है कि यह बात भी आपकी बुद्धि से पैदा नहीं हुई है कि गुरु की जरूरत नहीं है। यह भी किसी दूसरे ने आपको सिखाई है! यह भी आपने गुरु से ही सीखी है!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, कृष्णमूर्ति ऐसा कहते हैं, कृष्णमूर्ति ऐसा कहते हैं। वे कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। यह भी तुम्हारी बुद्धि का मामला नहीं है, यह भी तुम किसी गुरु से सीख आए हो! इसको भी सीखने तुम्हें किसी के पास जाना पड़ा है। इस साधारण—सी बात को सीखने भी किसी के पास जाना पड़ा है कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा को सीखने तुम किसी गुरु के पास नहीं जाना चाहते हो!
अड़चन कहीं और है। गुरु की जरूरत नहीं है, इससे तुम्हारा मन प्रसन्न होता है। प्रसन्न इसलिए होता है कि चलो, अब झुकने की कोई जरूरत नहीं है, अब कहीं झुकने की कोई जरूरत नहीं है। तुमने बड़ी गलत बात निकाली। तुमने अपने मतलब की बात निकाल ली।
मेरे पास लोग आते हैं। मैं जो कहता हूं उसमें से वे वे बातें निकाल लेते हैं, जो उनके मतलब की हैं और जिनसे उनको बदलना नहीं पड़ेगा। वे मेरे पास आते हैं कि आपने बिलकुल ठीक कहा। जंगल में जाने की, पहाड़ पर जाने की क्या जरूरत है! ज्ञान तो यहीं हो सकता है। बिलकुल ठीक कहा है।
तो मैं उनको पूछता हूं यहीं हो सकता है, कब तक होगा, यह मुझे कहो। और यहीं हो सकता है, तो तुम यहीं करने के लिए क्या कर रहे हो?
उन्होंने मतलब की बात निकाल ली कि कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जहां तुम हो, वहां तो तुम पचास वर्ष से हो ही। अगर वहीं ज्ञान होता होता, तो कभी का हो गया होता। लेकिन तुमने अपने हिसाब की बात निकाल ली।
ध्यान कठिन है। न तो चिंतन, न मनन, न सुनना—श्रवण। इनमें कोई कठिनाई नहीं है। ध्यान बहुत कठिन है। ध्यान का अर्थ है कि कुछ घड़ी के लिए बिलकुल शून्य हो जाना। सारी व्यस्तता समाप्त हो जाए। मन कुछ भी न करता हो।
यह न करना बहुत कठिन है। क्योंकि मन कुछ न कुछ करना ही चाहता है। करना मन का स्वभाव है। और अगर आप न—करने पर जोर दें, तो मन सो जाएगा।
मन दो चीजें जानता है, या तो क्रिया और या निद्रा। आप या तो उसे काम करने दो और या फिर वह नींद में चला जाएगा। ध्यान तीसरी दशा है। क्रिया न हो और निद्रा भी न हो, तब ध्यान फलित होगा।
कठिन से कठिन जो घटना मनुष्य के जीवन में घट सकती है, वह ध्यान है। और आप कहते हैं, हम चौबीस घंटे क्यों न करें! आप मजे से करें। लेकिन घडीभर करना मुश्किल है, तो चौबीस घंटे पर आप फैलाइएगा कैसे?
एक उपाय है कि आप साक्षी— भाव रखें, तो चौबीस घंटे पर फैल सकता है। लेकिन साक्षी— भाव आसान नहीं है। और जो आदमी घडीभर ध्यान कर रहा हो, उसके लिए साक्षी— भाव भी आसान हो जाएगा। लेकिन जो आदमी घडीभर ध्यान भी न कर रहा हो, उसके लिए साक्षी— भाव भी बहुत कठिन होगा।
अति कठिन है यह खयाल करना कि मैं देखने वाला हूं। कोशिश करें! घड़ी अपने सामने रख लें। और घड़ी में जो सेकेंड का काटा है, जो चक्कर लगा रहा है, उस सेकेंड के काटे पर ध्यान करें। और इतना खयाल रखें कि मैं देखने वाला हूं सिर्फ देख रहा हूं।
आप हैरान होंगे कि पूरा एक सेकेंड भी आप यह ध्यान नहीं रख सकते। एक सेकेंड में भी कई दफा आप भूल जाएंगे और दूसरी बातें आ जाएंगी। चौबीस घंटा तो बहुत दूर है, एक सेकेंड भी पूरा का पूरा आप यह ध्यान नहीं रख सकते कि मैं सिर्फ द्रष्टा हूं। इसी बीच आप घड़ी का नाम पढ़ लेंगे। इसी बीच घड़ी में कितना बजा है, यह भी देख लेंगे। घड़ी में कितनी तारीख है, वह भी दिखाई पड़ जाएगी। इसी बीच बाहर कोई आवाज देगा, वह भी सुनाई पड़ जाएगी। टेलिफोन की घंटी बजेगी, वह भी खयाल में आ जाएगी, किसका फोन आ रहा है! अगर कुछ भी बाहर न हो, तो भीतर कुछ स्मरण आ जाएगा, कोई शब्द आ जाएगा। बहुत कुछ हो जाएगा।
एक सेकेंड भी आप सिर्फ साक्षी नहीं रह सकते। तो अपने को धोखा मत दें। घडीभर तो निकाल ही लें चौबीस घंटे में, और उसको सिर्फ ध्यान में नियोजित कर दें। ही, जब घड़ी में सध जाए वह सुगंध, तो उसे चौबीस घंटे पर फैला दें। जब घड़ी में जल जाए वह दीया, तो फिर चौबीस घंटे उसको साथ लेकर चलने लगें। फिर अलग से बैठने की जरूरत न रह जाएगी।
अलग से बैठने की जिस दिन जरूरत समाप्त हो जाती है, उसी दिन जानना कि ध्यान उपलब्ध हुआ। अलग से बैठना तो अभ्यास—काल है। वह तो प्राथमिक चरण है। वह तो सीखने का वक्त है। इसलिए ध्यान के जानकारों ने कहा है कि जब ध्यान करना व्यर्थ हो जाए, तभी समझना कि ध्यान पूरा हुआ।
लेकिन इसको पहले ही मत समझ लेना, कि जब ज्ञानी कहते हैं कि ध्यान करना व्यर्थ हो जाए, तब ध्यान पूरा हुआ, तो हम करें ही क्यों! तो आपके लिए फिर कभी भी कोई यात्रा संभव नहीं हो पाएगी।
अच्छा है अगर चौबीस घंटे पर फैलाएं। लेकिन मैं जानता हूं, वह आप कर नहीं सकते। जो आप कर सकते हैं, वह यह है कि आप थोड़ी घड़ी निकाल लें। एक कोना अलग निकाल लें जीवन का। और उसे ध्यान पर ही समर्पित कर दें। और जब आपको आ जाए कला, और आपको पकड़ आ जाए सूत्र, और आप समझ जाएं कि किस क्वालिटी, किस गुण को ध्यान कहते हैं। और फिर उस गुण को आप चौबीस घंटे याद रखने लगें, स्मरण रखने लगें, उठते—बैठते उसको सम्हालते रहें।
जैसे किसी को कोई कीमती हीरा मिल जाए। वह दिनभर सब काम करे, बार—बार खीसे में हाथ डालकर टटोल ले कि हीरा वहां है? खो तो नहीं गया! कुछ भी करे, बात करे, चीत करे, रास्ते पर चले, लेकिन ध्यान उसका हीरे में लगा रहे।
कबीर ने कहा है कि जैसे स्त्रियां नदी से पानी भरकर घड़े को सिर पर रखकर लौटती हैं, तो गाव की स्त्रियां हाथ भी नहीं लगाती, सिर पर घड़े को सम्हाल लेती हैं। गपशप करती, बात करती, गीत गाती लौट आती हैं। तो कबीर ने कहा है कि यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से वे कोई भी ध्यान घड़े को नहीं देतीं, लेकिन भीतर ध्यान घड़े पर ही लगा रहता है। गीत भी चलता है। बात भी चलती है। चर्चा भी चलती है। हंसती भी हैं। रास्ता भी पार करती हैं। लेकिन भीतर सूक्ष्म ध्यान घड़े पर लगा रहता है और घड़े को वे सम्हाले रखती हैं।
जिस दिन ऐसी कला का खयाल आ जाए, तो फिर आप कुछ भी करें, ध्यान पर आपका काम भीतर चलता रहेगा। लेकिन यह आपसे आज नहीं हो सकेगा।
कृष्णमूर्ति की बुनियादी भूल यही है कि वे आप पर बहुत भरोसा कर लेते हैं। वे सोचते हैं, आप यह आज ही कर सकेंगे। उनसे भी यह आज ही नहीं हो गया है। यह भी बहुत जन्मों की यात्रा है। और उनसे भी यह बिना गुरु के नहीं हो गया है। सच तो यह है कि इस सदी में जितने बड़े गुरु कृष्णमूर्ति को उपलब्ध हुए, किसी दूसरे व्यक्ति को उपलब्ध नहीं हुए। और गुरुओं ने जितनी मेहनत कृष्णमूर्ति के ऊपर की है, उतसई किसी शिष्य के ऊपर कभी मेहनत नहीं की गई है।
जीवन के उनके पच्चीस साल बहुत अदभुत गुरुओं के साथ, उनके सत्संग में, उनके चरणों में बैठकर बीते हैं। उनसे सब सीखा है। लेकिन यह बड़ी जटिलता की बात है कि जो व्यक्ति गुरुओं से ही सब सीखा है, वह व्यक्ति गुरुओं के इतने खिलाफ कैसे हो गया? और वह क्यों यह कहने लगा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है? और जिस व्यक्ति ने ध्यान की बहुत—सी प्रक्रियाएं करके ही समझ पाई है, वह क्यों कहने लगा कि ध्यान की कोई जरूरत नहीं है?
इसके पीछे बड़ी मनोवैज्ञानिक उलझन है। और वह उलझन यह है कि अगर गुरु को आपने ही चुना हो, तब तो ठीक है। लेकिन अगर गुरुओं ने आपको चुनकर आपके साथ मेहनत की हो, तो एक अंतर्विरोध पैदा हो जाता है।
कृष्णमूर्ति ने खुद नहीं चुना है। कृष्णमूर्ति को चुना गया है। और कुछ गुरुओं ने अथक मेहनत की है उनके साथ, ताकि वे ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं।
यह बड़े मजे की बात है कि अगर आपको जबरदस्ती स्वर्ग में भी ले जाया जाए, तो आप स्वर्ग के भी खिलाफ हो जाएंगे। और अपने मन से आप नरक भी चले जाए, तो गीत गाते, सीटी बजाते जाएंगे। अपने मन से आदमी नरक भी गीत गाता जा सकता है। और जबरदस्ती स्वर्ग में भी ले जाया जाए तो वह स्वर्ग के भी खिलाफ हो जाएगा। और उन लोगों को कभी माफ न कर सकेगा, जिन्होंने जबरदस्ती स्वर्ग में धक्का दिया है।
कृष्णमूर्ति पर यह ज्ञान एक तरह की जबरदस्ती थी। यह किन्हीं और लोगों का निर्णय था। और अगर कृष्णमूर्ति अपने ही ढंग से चलते, तो उन्हें कोई तीन—चार जन्म लगते। लेकिन यह बहुत चेष्टा करके, बहुत त्वरा और तीव्रता से कुछ लोगों ने अथक मेहनत लेकर उन्हें जगाने की कोशिश की।
ठीक जैसे आप गहरी नींद में सोए हों और कोई जबरदस्ती आपको जगाने की कोशिश करे, तो आपके मन में बड़ा क्रोध आता है। और अगर कोई जबरदस्ती जगा ही दे, भला जगाने वाले की बड़ी शुभ आकांक्षा हो, भला यह हो कि मकान में आग लगी हो और आपको जगाना जरूरी हो, लेकिन फिर भी जब आप गहरी नींद में पड़े हों और कोई सुखद सपना देख रहे हों, तो जगाने वाला दुश्मन मालूम पड़ता है।
कृष्णमूर्ति को अधूरी नींद से जगा दिया गया है। और जिन लोगों ने जगाया है, उन्होंने बड़ी मेहनत की हैं। लेकिन कृष्णमूर्ति उनको अभी भी माफ नहीं कर पाए हैं। वह बात अटकी रह गई है। इसलिए चालीस साल हो गए, उनके सब गुरु मर चुके हैं, लेकिन गुरुओं की खिलाफत जारी है।
उनका अपना अनुभव यही है कि गुरुओं से बचना। इसलिए वे कहते हैं कि गुरुओं से बचना। क्योंकि उन पर जो हुआ है, वह जबरदस्ती हुआ है। ध्यान से बचना। क्योंकि कोई भी विधि कहीं कंडीशनिंग, संस्कार न बन जाए। क्योंकि उन पर तो सारी विधियों का प्रयोग किया गया है। इसलिए अब वे कहते हैं, सिर्फ समझो। लेकिन समझना भी एक विधि है। और वे कहते हैं, केवल होश को गहराओ। लेकिन होश को गहराना भी एक विधि है।
अध्यात्म के जगत में आप कुछ भी करो, विधि होगी ही। और गुरु को इनकार करो, तो भी गुरु होगा। क्योंकि अगर आप अपने ही तईं बिना गुरु और बिना विधि के उपलब्ध हो सकते हैं, तो आप हो ही गए होते।
कृष्णमूर्ति की अपनी अड़चन और तकलीफ है। और वह अड़चन और तकलीफ एक अंधेरी छाया की तरह उनको घेरे रही है। वह उनके वक्तव्य में छूटती नहीं है।
कोई पूछेगा कि अगर वे ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, तो यह बात छूटती क्यों नहीं? यह भी थोड़ी—सी जटिल है बात।
अगर कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह यह क्यों नहीं देख सकता कि मेरा यह विरोध गुरुओं का, मेरी प्रतिक्रिया है! मेरे साथ गुरुओं ने जो किया है, उनको मैं अब तक माफ नहीं कर पा रहा हूं! ध्यान का और योग का मेरा विरोध मेरे ऊपर ध्यान और योग की जो प्रक्रियाएं लादी गई हैं, उनकी प्रतिक्रिया है! जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया, वह यह क्यों नहीं देख पाता?
और मैं मानता हूं कि कृष्णमूर्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। इसलिए और जटिल हो जाती है बात। अगर कोई कह दे कि वे ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हैं, तो कोई अड़चन नहीं है। मैं मानता हूं वे ज्ञान को उपलब्ध हैं। फिर यह प्रतिक्रिया, यह जीवनभर का विरोध छूटता क्यों नहीं है? इसका .कारण आपसे कहूं। वह समझने जैसा है।
जब भी कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो ज्ञान के उपलब्ध होने का क्षण वही होता है, जहां मन समाप्त होता है, जहां मन छूट जाता है और आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद अगर उसे अपनी बात लोगों से कहनी हो, तो उसे उसी छूटे हुए मन का उपयोग करना पड़ता है। क्योंकि मन के बिना कोई संवाद, कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
आपसे मैं बोल रहा हूं तो मन का मुझे उपयोग करना पड़ेगा। जब मैं चुप बैठा हूं अपने में हूं, तब मुझे मन की कोई जरूरत नहीं है। अपने स्वभाव में मुझे मन की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जब आपसे मुझे बात करनी है, तो मुझे मन का उपयोग करना पड़ेगा।
तो कृष्णमूर्ति का जिस दिन मन छूटा, उस मन की जो आखिरी विरोध की दशा थी, उस मन का जो आखिरी भाव था—गुरुओं के, विधियों के खिलाफ—वह मन के साथ पड़ा है। और जब भी कृष्णमूर्ति मन का उपयोग करके आपसे बोलते हैं, तब वही मन जो चालीस साल पहले काम के बाहर हो गया, वही काम में लाना पड़ता है। और कोई मन उनके पास है नहीं। इसलिए स्वभावत: उसी मन का वे उपयोग करते हैं। इसलिए जो वे नहीं कहना चाहें, जो उन्हें नहीं कहना चाहिए वह भी कहा जाता है। वह उस मन के साथ है।
ऐसा समझिए कि आपके पास एक पुरानी मोटर है, जिसको आपने रख दिया है। अब आप उपयोग नहीं करते हैं। आप पैदल ही चलते हैं। लेकिन चालीस साल से मोटर आपके घर में रखी है। लेकिन कभी आपको तेज चलना पड़ता है और पैदल चलने से काम नहीं आता, आप अपनी पुरानी मोटर निकाल लेते हैं। और खटर—पटर करते मुहल्ले भर के लोगों की नींद हराम करते आप अपनी गाड़ी को लेकर चल पड़ते हैं।
करीब—करीब मन जिस दिन छूटता है, उसकी जो स्थिति रहती है, जब भी उसका उपयोग करना हो, उसी स्थिति में करना पड़ेगा। उसमें फिर कोई ग्रोथ नहीं होती। वह एक पुराने यंत्र की तरफ पड़ा रह जाता है भीतर। व्यक्ति की चेतना उससे अलग हो जाती है, यंत्र की तरह मन पड़ा रह जाता है। उसी मन का उपयोग करना पडता है। वह मन वही भाषा बोलता है, जिस भाषा में समाप्त हुआ था। वह वहीं रुका हुआ है।
कृष्णमूर्ति चालीस साल से दूसरी दुनिया में हैं। लेकिन मन वहीं पड़ा हुआ है, जहां उसे छोड़ा था। वह पुरानी गाड़ी, वह फोर्ड की पुरानी कार वहीं खड़ी है। जब भी उसका उपयोग करते हैं, वह फिर ताजा हो जाता है। उसके लिए वह घटना उतनी ही ताजी है।
गुरुओं ने जबरदस्ती उन्हें धक्के देकर जगा दिया है। वह मन अब भी प्रतिरोध से भरा हुआ है। वे ध्यान के विरोध में हैं, गुरुओं के विरोध में हैं। लेकिन अगर उनकी बात को ठीक से समझें, तो वह विरोध मन का ही है, ऊपरी ही है।
अगर सच में ही कोई व्यक्ति गुरुओं के विरोध में है, तो वह किसी को शिक्षा नहीं देगा। क्योंकि शिक्षा देने का मतलब ही क्या है!
तो कृष्णमूर्ति कितना ही कहें कि मैं कोई शिक्षा नहीं दे रहा हूं लेकिन शिक्षा नहीं दे रहे हैं, तो क्या कर रहे हैं! वे कितना ही कहें कि तुम्हें कोई बात देने की मेरी इच्छा नहीं है, लेकिन चेष्टा बड़ी कर रहे हैं कि कोई बात दे दी जाए। और अगर श्रोता नहीं समझ पाते, तो बड़े नाराज हो जाते हैं। समझाने की बड़ी अथक चेष्टा है। बड़े आग्रहपूर्ण हैं, कि समझो! और कहे चले जाते हैं कि मुझे कुछ समझाना नहीं है; मुझे कुछ बताना नहीं है, मुझे कोई मार्ग नहीं देना है। लेकिन क्या? क्या कर रहे हैं फिर?
हो सकता है कि आप सोचते हों कि यही मार्ग है, कोई मार्ग न देना; यही शिक्षा है, कोई विधि न देना, यही गुरुत्व है, गुरुओं से छुड़ा देना। लेकिन यह भी सब वही का वही है। कोई फर्क नहीं है।
तो कृष्णमूर्ति की एक जटिलता है, मन उनका कुछ विरोधों से भरा पड़ा है। वह पड़ा हुआ है। और जब भी वे उसका उपयोग करते हैं, वे सारे के सारे विरोध सजग हो जाते हैं।
लेकिन आप सावधान रहना। आप अपनी फिक्र करना। आप चौबीस घंटे ध्यान कर सकते हों, तो जरूर करना। और न कर सकते हों, तो कृष्णमूर्ति कहते हैं कि घंटेभर ध्यान करने से कोई फायदा नहीं है, इसलिए घंटेभर करना रोक मत देना।
सागर मिल जाए, तो अच्छा है, ध्यान का। न मिले, तो जो छोटा सरोवर है, उसका भी उपयोग तो करना ही। जब तक सागर न मिल जाए, तब तक सरोवर का ही उपयोग करना, तब तक एक बूंद भी पानी की हाथ में हो, तो वह भी जरूरी है। वह बूंद आपको जिलाए रखेगी और सागर का स्वाद देती रहेगी, और सागर की तरफ बढ़ने में साथ, सहयोग, शक्ति देती रहेगी।

 एक दूसरे मित्र ने पूछा है, आत्म—विश्वास और लगन से मनुष्य को किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो सकती है। क्या अध्यात्म के संबंध में भी यही सच है?

 ध्यात्म के संबंध में इससे ज्यादा गलत और कोई बात नहीं है। न तो आत्म—विश्वास वहां काम देगा, न लगन वहां काम देगी। इसे हम थोड़ा समझ लें।
आत्म—विश्वास का क्या अर्थ होता है? अपने पर भरोसा। अपने पर भरोसा अहंकार की ही छाया है। अध्यात्म में तो आसानी होगी, अगर आप सारा भरोसा ईश्वर पर छोड़ दें बजाय अपने पर रखने के। अध्यात्म में तो अच्छा होगा कि आप अपने को बिलकुल असहाय, हेल्पलेस समझें। वहां अकड़ काम न देगी कि मुझे अपने पर भरोसा है। वहा तैरने से आप नहीं पहुंच सकेंगे। वहा तो आप नदी की धार में अपने को छोड़ दें और कह दें कि तू ही जान।
जितनी आपके मन में यह अकड़ होगी कि मैं कर लूंगा, मैं कर के दिखा दूंगा, उतनी ही बाधा पड़ेगी अध्यात्म में। और जगह की बात मैं नहीं कहता। अगर धन पाना हो, तो आत्म—विश्वास बिलकुल जरूरी है। वहां अगर आप कहें कि परमात्मा पर छोड़ता हूं तो आप लुट जाएंगे।
संसार में कुछ भी पाना हो, तो अहंकार जरूरी है। ध्यान रखना, संसार अहंकार की यात्रा है। वहा आप भरोसा दूसरे पर मत करना; वहां तो अपने पर करना। वहा तो सभी तरह से अपने को केंद्र मानना, तो ही संसार में आप चल पाएंगे। वह उपद्रव की दुनिया है; वहां अहंकार बिलकुल जरूरी है।
ठीक संसार से विपरीत यात्रा है अध्यात्म की। जो संसार में सहयोगी है, वही अध्यात्म में विरोधी हो जाता है। और जो संसार में सीढ़ी है, वही अध्यात्म में मार्ग का पत्थर, अवरोध हो जाता है। ठीक उलटा हो जाता है। इसलिए संसार में जो लोग सफल होते हैं, वे अहंकारी लोग हैं। जो बिलकुल पागल हैं, जिनको पक्का भरोसा है कि दुनिया की कोई ताकत उनको रोक ही नहीं सकती। वे पागल की तरह लगे रहते हैं और सफल हो जाते हैं।
सफल होने में अड़चन क्या है? अड़चन यही है कि उनसे बड़े पागल उनकी प्रतिस्पर्धा में न हों। और कोई अड़चन नहीं है। अगर उनसे भी बड़े पागल और उनसे भी अहंकारी उनकी प्रतिस्पर्धा में हों, तो वे उनको मात कर देंगे। लेकिन मात करने का और जीतने का एक ही उपाय है वहां, आप कितने अहंकार के पागलपन से जुटते हैं!
अध्यात्म में आपका अहंकार जरा भी सहयोगी नहीं है, बाधा है। वहां तो वही सफल होगा, जो कितनी मात्रा में अहंकार को छोड्कर चलता है।
जीसस ने कहा है, धन्य हैं वे लोग, जो इस संसार में अंतिम खड़े हैं। क्योंकि प्रभु के राज्य में उनके प्रथम होने की संभावना है।
जो यहां अंतिम है, वह प्रभु के राज्य में प्रथम हो सकता है। अंतिम का क्या अर्थ है? अंतिम का अर्थ है, जिसे अहंकार का कोई भी रस नहीं है। प्रथम होने की कोई इच्छा नहीं है।
इसलिए हमारी सारी शिक्षा गैर—आध्यात्मिक है। क्योंकि वह प्रथम होना सिखाती है। हमारे सारे संस्कार अहंकार को जन्माने वाले हैं। हमारी सारी दौड़, प्रत्येक को मजबूत अहंकार चाहिए, इस पर खड़ी है। इसलिए फिर हम अध्यात्म की तरफ जाने में बड़ी अड़चन पाते हैं। क्योंकि वहां यही अवरोध है। वहां तो एक ही चीज सहयोगी है कि आप बिलकुल मिट जाएं।
आत्म—विश्वास का तो सवाल ही नहीं है। वहां आपको यह खयाल भी न रहे कि मैं हूं। मेरा होना भी न रहे। मैं एक खाली शून्य हो जाऊं। वहां मैं ऐसे प्रवेश करूं, जैसे मैं ना—कुछ हूं—असहाय, निरालंब, निराधार। न कुछ कर सकता हूं, न कुछ हो सकता है।
जिस घड़ी कोई व्यक्ति इतना निराधार हो जाता है, इतना निरालंब हो जाता है, इतना असहाय हो जाता है कि लगता है, मैं शून्य जैसा हूं उसी क्षण परमात्मा उसके भीतर घटित हो जाता है। क्योंकि वह खाली हो गई जगह। अहंकार से भरा था भवन, अब खाली हो गया। अब वह बड़ा मेहमान उतर सकता है।
अभी तो आप अपने से इतने भरे हैं कि आपके भीतर परमात्मा को प्रवेश की कोई रंध्र मात्र भी जगह नहीं है। तो वहा कोई आत्म—विश्वास काम नहीं देगा।
इसका मतलब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्म—अविश्वास काम देगा। आप ध्यान रखना, आत्म—विश्वास काम नहीं देगा, इसका यह मतलब नहीं है कि आप अपने पर अविश्वास कर लें, तो काम देगा। नहीं, अविश्वास भी अहंकार है! आप तो .केंद्र रहते ही हैं।
कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास है। कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास नहीं है। लेकिन अपना तो दोनों में मौजूद रहता है। एक कहता है कि मैं कमजोर हूं एक कहता है कि मैं ताकतवर हूं। लेकिन दोनों कहते हैं, मैं हूं। जो कमजोर है, वह ताकतवर हो सकता है कल। जो ताकतवर है, वह कल कमजोर हो सकता है। उनमें कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। वे एक ही चीज के दो रूप हैं। असहाय का अर्थ है कि मैं हूं ही नहीं। कमजोर भी नहीं हूं। ताकतवर होने का तो सवाल ही नहीं है। मैं कमजोर भी नहीं। क्योंकि कमजोरी भी ताकत का एक रूप है। मैं हूं ही नहीं। इस भांति जो अपने को मिटा लेता है, वह अध्यात्म में गति करता है।
और वहा लगन का सवाल नहीं है। यहां संसार में लगन का सवाल है। यहां तो बिलकुल पागल लगन चाहिए। यहां तो बिलकुल विक्षिप्त की तरह दौड़ने की जिद्द चाहिए। यहां तो ऐसा दाव लगाने की बात चाहिए कि चाहे जिंदगी रहे कि जाए, मगर यह चीज मैं पाकर रहूंगा। जब कोई संसार में इस भांति दौड़ता है, तभी कुछ थोड़ी छीना—झपटी कर पाता है।
अध्यात्म में लगन का कोई सवाल नहीं है। अध्यात्म में तो गति की जरूरत नहीं है, इसलिए लगन की जरूरत नहीं है।
इसे हम ऐसा समझें कि संसार में कुछ पाना हो, तो दौड़ना पड़ता है। और अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो खड़े हो जाना पड़ता है। संसार में कुछ पाना हो, तो छीनना—झपटना पड़ता है। अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो मुट्ठी खोल देनी पड़ती है, कुछ झपटना नहीं, कुछ पकड़ना नहीं। संसार में कुछ पाना हो, तो दूसरों से झगड़ना पड़ता है। अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो वहां कोई दूसरा है ही नहीं, जिससे झगड़ने का सवाल है।
संसार में कुछ पाना हो, तो यहां लगन चाहिए। लगन का मतलब यह है कि बहुत तरफ ध्यान न जाए। जैसे हम तागे में घोड़े को जोत देते हैं, तो उसकी आंखों पर दोनों तरफ चमड़े की पट्टिया बाध देते हैं, ताकि उसको चारों तरफ दिखाई न पड़े, सिर्फ सामने दिखाई पड़े। क्योंकि चारों तरफ दिखाई पड़ेगा, तो घोड़े को चलने में बाधा आएगी। इधर घास दिख जाएगा, तो इधर जाना चाहेगा। उधर पास में कोई जवान घोड़ी दिख जाएगी, तो उस पर आकर्षित हो जाएगा। कहीं कोई सामने ताकतवर घोड़ा हिनहिना देगा, तो लड़ने को तैयार हो जाएगा। पच्चीस चीजें खड़ी हो जाएंगी। ध्यान बंटेगा।
इसलिए घोड़े को हम करीब—करीब अंधा कर देते हैं। निन्यानबे प्रतिशत अंधा कर देते हैं। सिर्फ एक तरफ उसकी आंख खुली रहती है, सामने की तरफ। बस, उसको उतना ही रास्ता दिखाई पड़ता है। लगन का इतना ही मतलब होता है, घोड़े की तरह हो जाना। तांगे में जुते हैं! कुछ दिखाई नहीं पडता। बस, एक ही चीज दिखाई पड़ती है। उसको हम लगन कहते हैं। लगन का मतलब है कि अब कहीं चित्त नहीं जाता, बस एक चीज पर जाता है। इसलिए सब ताकत वहीं लग जाती है।
राजनीतिज्ञ है, वह लगन का आदमी होता है। उसे सिर्फ दिल्ली दिखाई पड़ती है, कुछ नहीं दिखाई पड़ता। उसे पार्लियामेंट का भवन भर दिखाई पड़ता है और उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। बस, उसे दिल्ली...। दिल्ली उसके मन में रहती है। वह तांगे में जुते घोड़े की तरह है। उसको संसार में कुछ दिखाई नहीं पड़ता। बस, दिल्ली! और वह जैसे—जैसे करीब दिल्ली के पहुंचने लगता है, वैसे—वैसे उसकी आंखें और संकीर्ण होने लगती हैं। फिर कैबिनेट दिखाई पड़ता है उसको, मंत्रिमंडल दिखाई पड़ता है। मंत्रिमंडल में पहुंच जाए, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी भर दिखाई पड़ती है, फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
यह क्रमश: अंधे हो जाने की तरकीब है। ऐसे वह क्रमश: अंधा होता जाता है। लेकिन जितना वह अंधा होता जाता है, उतनी ही शक्ति संकीर्ण दिशा में प्रवाहित होने लगती है। वह उतना ही सफल हो जाता है। दिल्ली की तरफ जाने के लिए आंख पर अंधापन होना जरूरी है, तो ही सफलता मिल सकती है।
एक आदमी धन की खोज में है। वह सब छोड़ देता है फिक्र। न उसे प्रेम से मतलब, न पत्नी से, न बच्चे से, न धर्म से। उसे किसी चीज से मतलब नहीं है, उसे धन से मतलब है। उसे हर चीज में धन दिखाई पड़ता है। उठते, सोते, जागते उसके सारे सपने धन से भरे होते हैं, तब वह सफल हो पाता है। वह लगन का आदमी है।
पागल आदमियों को हम लगन के आदमी कहते हैं। एक चीज की तरफ जो पागल हैं, वे कुछ उपलब्ध कर लेते हैं। जो बहुत तरफ भागेंगे, निश्चित ही वे कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाएंगे। संसार में जो बहुत तरफ देखता है, वह कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाता है। इसके पहले कि वह तय करे कि क्या मैं पाऊं, जिंदगी हाथ से निकल गई होती है।
लेकिन यही बात अध्यात्म के संबंध में नहीं है। अध्यात्म कोई लगन नहीं है। अध्यात्म तो सब तरह की लगन से छुटकारा है।
इसे हम ऐसा समझें, तीन तरह के आदमी हैं। एक आदमी, जो सब तरफ देखता है। इधर भी चाहता है दौडूं? उधर भी चाहता है दौडूं। सोचता है, डाक्टर भी हो जाऊं, वकील भी हो जाऊं, लेखक भी हो जाऊं, राजनीतिज्ञ भी हो जाऊं। जो भी कुछ हो सकता हूं सब हो जाऊं। इस सब होने की दौड़ में वह कुछ भी नहीं हो पाता। या जो भी होता है, वह सब कचरा हो जाता है। वह एक खिचड़ी हो जाता है। उसके पास कोई व्यक्तित्व नहीं निखरता। वह एक कबाड़खाना हो जाता है, जिसमें सब तरह की चीजें हैं।
दूसरा आदमी है, जो कहता है, बस मुझे एक चीज होना है। सब दाव पर लगाकर एक तरफ चल पड़ता है। एकाग्रता से लग जाता है। वह लगन का आदमी है। वह पागल आदमी है। वह एक चीज को पा लेगा।
एक तीसरी तरह का आदमी है, जो न एक को पाना चाहता है, न सब को पाना चाहता है, जो पाना ही नहीं चाहता। यह तीसरा आदमी आध्यात्मिक है, जो कहता है, सब पाना फिजूल है। एक का पाना भी फिजूल है, सबका पाना भी फिजूल है। बहुत—बहुत जिंदगियों में बहुत चीजें खोजकर देख लीं, कुछ भी न पाया। अब खोजेंगे नहीं। अब बिना खोजे देखेंगे। अब बिना खोज में रुक जाएंगे। अब नहीं खोजेंगे। अब दौडेंगे नहीं। अब कहीं भी न जाएंगे। अब न तो सब तरफ देखेंगे, न एक तरफ देखेंगे। अब आंख को बंद कर लेंगे और वहा देखेंगे, जो भीतर है, जो मैं हूं। अब किसी तरफ न देखेंगे। अब सब दिशाएं व्यर्थ हो गईं।
इस घड़ी में, जब कोई चाह नहीं रहती, कोई लगन नहीं रहती, कुछ पाने का लक्ष्य नहीं रहता, कुछ विषय नहीं रह जाता पाने के लिए, कोई अंत नहीं दिखता बाहर, बाहर कोई मंजिल नहीं रह जाती, जब व्यक्ति की चेतना सब भांति खडी हो जाती है, उसकी सब प्रवाह—यात्रा बंद हो जाती है, तब एक नया द्वार खुलता है, जो भीतर है। जब बाहर जाना बंद हो जाता है चैतन्य का, तो चैतन्य भीतर जाता है। और जब सब तरफ दौड़ बंद हो जाती है, तो अपनी तरफ आता है, अपने में उतरता है, अपने में घिर होता है।
इसलिए अध्यात्म कोई लगन नहीं है। अध्यात्म कोई सफलता, कोई अहंकार की यात्रा, कोई ईगो ट्रिप नहीं है। इसलिए संसार में जो सूत्र काम देते हैं, उनका उपयोग आप अध्यात्म में मत कर लेना। बहुत लोग उनका उपयोग कर रहे हैं। करते हैं, इसलिए अध्यात्म में असफल होते हैं।
जो संसार में सफलता का सूत्र है, वही अध्यात्म में असफलता का सूत्र है। और जो अध्यात्म में सफलता का सूत्र है, वही संसार में असफलता का सूत्र है। दोनों तरह की भूल करने वाले लोग हैं। और ऐसा नहीं कि थोड़े—बहुत लोग हैं। बहुत बड़ी संख्या में लोग हैं, जो दोनों तरह की भूल करते हैं।
जैसे, इस मुल्क में हमने अध्यात्म में सफलता पाने के कुछ सूत्र खोज निकाले थे। हमने उनका ही उपयोग संसार में करना चाहा। इसलिए पूरब संसार की दुनिया में असफल हो गया। गरीब, दीन, दरिद्र, भुखमरा, भीख मांगता हो गया। हमने, जो सूत्र अध्यात्म में सफल हुए थे, उनका उपयोग संसार में करने की कोशिश की। वह मूढ़ता हो गई। इसलिए हम आज जमीन पर भिखमंगे की तरह खड़े हैं।
पश्चिम में संसार में जिन चीजों से सफलता मिल जाती है, उन्हीं की कोशिश अध्यात्म में भी करनी शुरू की है। उनसे कोई सफलता नहीं मिल सकती। पश्चिम अध्यात्म में असफल हो गया है।
इसलिए एक बड़ी मजेदार घटना घट रही है।
पूरब का मन पश्चिम की तरफ हाथ फैलाए खड़ा है—धन दो, दवा दो, भोजन दो, कपडा दो। और पश्चिम के लोग पूरब की तरफ हाथ फैलाए खड़े हैं—आत्मा दो, ध्यान दो, मंत्र दो, तंत्र दो। यह बड़े मजे की बात है कि दोनों भिखमंगे की हालत में हैं। और इसलिए हमें बड़ी कठिनाई होती है।
अगर पश्चिम से युवक—युवतियां भारत की तरफ आते हैं, खोजते हैं, तो हमें बड़ी हैरानी होती है कि तुम यहां किस लिए आ रहे हो! हम तो यहां भूखे मर रहे हैं। हम तो तुम्हारी तरफ आशा लगाए बैठे हैं। तुम यहां किस लिए आ रहे हो? तुम्हारा दिमाग खराब है?
और जब हमारे मुल्क के युवक—युवतियां पश्चिम की तरफ जाते हैं, टेक्नालाजी सीखने, उनका विज्ञान सीखने, और अभिभूत होते हैं, और समर्पित होते हैं उन दिशाओं में, तो पश्चिम में भी चिंता
होती है कि हम तो तुम्हारी तरफ खोजने आ रहे हैं कि कुछ तुम्हारे पास होगा। तुम यहां चले आ रहे हो! क्या, मामला क्या है?
मामला एक बुनियादी भूल का है। जो अध्यात्म में सफलता की कुंजी है, वही कुंजी संसार के ताले को नहीं खोलती। जो संसार के ताले को खोल देती है, वही कुंजी अध्यात्म के ताले को नहीं खोलती है। और अब तक कोई मास्टर—की नहीं खोजी जा सकी है—और खोजी भी नहीं जा सकती—जो दोनों तालों को एक साथ खोल देती हो।
अगर दोनों ताले खोलने हों एक साथ, तो दो कुंजियों की जरूरत पड़ेगी। उनकी प्रक्रिया अलग है। संसार में अहंकार आधार है, महत्वाकांक्षा, संघर्ष। अध्यात्म में निरअहंकारिता, महत्वाकांक्षा से शून्य हो जाना, एक गहरी विनम्रता, कोई दौड़ नहीं, कोई पागलपन नहीं, कोई यात्रा नहीं। इसे खयाल रखेंगे।
तो जब आप संसार से घबड़ाकर अध्यात्म की तरफ मुड़ने लगें, तो संसार के ढंग अध्यात्म में मत ले जाना। उनको भी संसार के साथ ही छोड़ देना। वे ढंग वहा काम नहीं आएंगे। उस यात्रा में उनकी कोई भी जरूरत नहीं है। उन्हें आप छोड देना। वे बोझ बन जाएंगे।
अध्यात्म की शिक्षा में आपको संसार में सीखा हुआ कुछ भी काम नहीं आएगा। सिर्फ एक बात भर कि संसार व्यर्थ है, अगर इतना आपने सीख लिया हो, तो आप पीछे की तरफ मुड़ सकते हैं। लेकिन इस व्यर्थता में संसार के सारे अनुभव, सारे साधन, सारा ज्ञान, सब व्यर्थ हो जाता है।
संसार का एक ही उपयोग है अध्यात्म के लिए कि यह अनुभव में आ जाए कि वह पूर्णतया व्यर्थ है, तो आप भीतर की दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं।

 एक आखिरी सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि यदि प्रकृति में घटनाएं होती हैं और पुरुष में भाव, तो क्या जब कोई सिद्धि को प्राप्त हो जाता है और अनुभव कर लेता है अपनी पृथकता को, तो उसके शरीर में दुख और मन में पीड़ा बंद हो जाती है?

 से थोड़ा समझना पड़े।
पहली तो बात यह समझनी पड़े कि दुःख और कष्ट का फर्क। अगर आपके पैर में कोई कांटा चुभाए, तो दो घटनाएं घटती हैं। एक घटना है, कष्ट। कष्ट का अर्थ है कि आप अनुभव करते हैं कि पैर में पीड़ा हो रही है। मैं जान रहा हूं कि पैर में पीड़ा हो रही है। आप जानने वाले होते हैं। पीड़ा पैर में घटित होती है, आप देखने वाले होते हैं। आप साक्षी होते हैं।
इसका यह मतलब नहीं कि आप साक्षी होंगे, तो कोई आपके पैर में काटा चुभाए तो आपको पीड़ा नहीं होगी। इस भांति में आप मत पड़ना। पीड़ा होगी। कष्ट होगा। क्योंकि काटे का चुभना एक घटना है। लेकिन दुख नहीं होगा। इस फर्क को खयाल में ले लें। दुख तब होता है, जब मैं कष्ट के साथ अपने को एक कर लेता हूं। जब मैं कहता हूं कि मुझे कोई कांटा चुभा रहा है, तब दुख होता है। पैर को कोई कांटा चुभा रहा है, मैं देख रहा हूं, तब कष्ट होता है।
इसलिए जीसस को भी जब सूली लगी, तो उनको कष्ट हुआ है। दुख नहीं हुआ।
कष्ट तो होगा। कष्ट तो घटना है। कष्ट का तो मतलब ही इतना है कि.। इसका तो मतलब हुआ, कोई मेरा पैर काटे, तो मुझे पता नहीं चलेगा कि मेरा पैर किसी ने काटा?
कोई मेरा पैर काटेगा, तो मुझे पता चलेगा कि पैर किसी ने मेरा काटा। वह एक घटना है। और पैर के काटने में जो पैर के तंतुओं में तनाव और परेज्ञानी होगी, वह मुझे अनुभव में आएगी कि परेज्ञानी हो रही है। अगर मैं ऐसा समझ लूं कि मैं कट रहा हूं पैर के कटने में, तो दुख होगा। दुख है कष्ट के साथ तादात्म्य, कष्ट के साथ एक हो जाना।
इसलिए ज्ञानी को दुख नहीं होगा, कष्ट तो होगा। और एक बात मजे की है कि ज्ञानी को आपसे ज्यादा कष्ट होगा। आप तो दुख में इतने लीन हो जाते हैं कि कष्ट का आपको पूरा पता ही नहीं चलता। ज्ञानी को तो कोई दुख होगा नहीं, इसलिए कोई लीनता भी नहीं होगी। वह तो सजग होकर देखता रहेगा। उसकी संवेदनशीलता बहुत गहन होगी, आपसे ज्यादा होगी। क्योंकि उसका तो मन बिलकुल दर्पण है! सब साफ—साफ दिखाई पड़ेगा।
आपको तो कष्ट दिखाई ही नहीं पड़ पाता, उसके पहले ही आप दुख में डूब जाते हैं। तो आपका तो पूरा चैतन्य धुएं से भर जाता है दुख के। इसलिए आपको कष्ट का ठीक—ठीक बोध नहीं हो पाता। आप तो रोना— धोना—चिल्लाना शुरू कर देते हैं। उसमें आप अपने को भुला लेते हैं लेकिन ज्ञानी न तो रो रहा है, न धो रहा है, न चिल्ला रहा है, न कोई धुआ है उसके भीतर। उसका मन तो पूरा, जो हो रहा है, उसे जान रहा है। वह कष्ट को उसकी पूर्णता में जानेगा।
आप कष्ट को पूर्णता में नहीं जान पाते हैं, क्योंकि दुख की छाया कष्ट को ढांक लेती है। शायद हमने इसीलिए दुख में डूब जाना आसान समझा है। वह कष्ट से बचने का एक उपाय है।
समझें, आपके घर में कोई मर गया; पत्नी मर गई। आप रोएं मत, साक्षी— भाव से बैठे रहें, तो आपको कष्ट का पूरा अनुभव होगा। वह आपके रोएं—रोएं में अनुभव होगा। आपके रग—रग में अनुभव होगा। आपके एक—एक कोष्ठ में वह पीड़ा अनुभव होगी। क्योंकि पत्नी का मरना सिर्फ पत्नी का मरना नहीं है, आपका कुछ अनिवार्य हिस्सा भी साथ में मर गया।
पत्नी और आप अगर चालीस साल साथ रहे थे, तो बहुत दूर तक एक हो गए थे। आपके दोनों के शरीर ने बहुत तरह की एकता जानी थी। वह एकता एक—दूसरे के शरीर में व्याप्त हो गई थी। जब पत्नी मर रही है, तो सिर्फ पत्नी का शरीर नहीं मर रहा है, आपके शरीर में भी पत्नी के शरीर का जो अनुदान था, वह बिखरेगा, और विनष्ट होगा। वह जाएगा। बड़ा कष्ट होगा। रोएं—रोएं, रग—रग में पीड़ा होगी।
लेकिन आप छाती पीटकर रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, और कह रहे हैं कि मेरी पत्नी मर गई। और लोग आपको समझा रहे हैं और आपको समझ में नहीं आ रहा है, इस सब में आप कष्ट से बच रहे हैं। यह तरकीब है। इस रोने— धोने में, आपको जो कष्ट अनुभव होता, जो उसकी तीव्रता छिद जाती छाती में भाले की तरह, वह नहीं छिदेगी। आप रो— धोकर वक्त गुजार देंगे, तब तक कष्ट विसर्जित हो जाएगा।
इसलिए बड़े होशियार लोग हैं। जब किसी के घर कोई मर जाता है, तो बाकी लोग आ—आकर उनको बार—बार रुलाते हैं। वह बड़ा कारगर है। वह करना चाहिए। फिर कोई बैठने आ गया। फिर आप रोने लगे। और दो—तीन दिन के बाद तो हालत ऐसी हो जाती है कि आपको अब रोना भी नहीं आ रहा है और कोई बैठने आ गया, तो आप रो रहे हैं!
महीने, पंद्रह दिन में लोग आपको इतना थका देते हैं रुला—रुलाकर, कि अब आपका मन होने लगता है कि अब मरने से इतना कष्ट नहीं हो रहा है किसी के, जितना तुम्हारे आने से हो रहा है। अब तुम बंद करो। जब ऐसी घड़ी आ जाती है, तभी लोग आना बंद करते हैं।
इस बीच महीनेभर में जो कष्ट की महान घटना घटी थी, वह आपको दिखाई नहीं पड़ती। आप इस रोने की मूर्च्छा में सब विसर्जित कर जाते हैं।
अगर आप साक्षी— भाव से बैठें, तो आपको लगेगा, पत्नी ही नहीं मर रही है, आप भी मर रहे हैं। जब भी कोई प्रिय मरता है, तो आप भी मरते हैं। क्योंकि आपका शरीर उससे न मालूम कितने—कितने रूपों में जुड़ गया था। आप एक हो गए थे। आपका कुछ टूट रहा है अंग, हाथ—पैर कट रहे हैं आपके। वह पूरा कष्ट आपको अनुभव होगा।
तब आपको बड़ी चीजें साफ होंगी। तब आपको यह भी पता चलेगा कि पत्नी के मरने से कष्ट नहीं हो रहा है। पत्नी के साथ जो मोह था, उस मोह के टूटने से कष्ट हो रहा है। यह सवाल पत्नी के मरने का नहीं है। चूंकि मैं भी मर रहा हूं! उसके साथ जुड़ा था, अब मेरा एक हिस्सा टूट जाएगा सदा के लिए और खाली हो जाएगा, जिसको शायद भरना संभव नहीं होगा। उससे दुख, उससे कष्ट हो रहा है।
लेकिन कष्ट से बचने के लिए हमने बेहोश होने की बहुत—सी तरकीबें निकाली हैं। उसमें सब से गहरी तरकीब यह है कि हम आच्छादित हो जाते हैं कष्ट से, तादात्म्य कर लेते हैं और विचलित होने लगते हैं भीतर। उस विचलित अवस्था में बाहर का कष्ट गुजर जाता है और हम उसे सह लेते हैं।
ज्ञानी को कष्ट बिलकुल साफ होगा। क्योंकि वह किसी तरह के दुख में नहीं पड़ेगा। उसके मन पर कोई भी कष्ट का बादल घेरकर उसे डुबाका नहीं। उसे कष्ट बिलकुल साफ होगा।
इसे हम ऐसा समझें कि आप बहुत विचारों से भरे बैठे हैं। रास्ते पर किसी के मकान में आग लग जाए और शोरगुल मच जाए, तो भी आपको पता नहीं चलता। लेकिन आप ध्यान में बैठे हैं बिलकुल शांत। एक सुई भी गिर जाए, तो आपको सुनाई पड़ेगी। एक सुई भी गिर जाए, तो आपको सुनाई पड़ेगी।
जैसे ही कोई व्यक्ति गहरे ध्यान को उपलब्ध होता है, तो जरा—सी चीज भी शरीर में हो जाए, तो उसे पता चलेगी। कष्ट उसे होगा। लेकिन दुख नहीं होगा। दुख के होने का अर्थ है कि वह कष्ट से अपने को जोड़े तभी होता है। जब आप कष्ट से अपने को न जोडे, तो दुख नहीं होता।
इसलिए ध्यान रखें, अध्यात्म की यात्रा पर चलने वाले कुछ
लोग इससे उलटा काम करने लगते हैं। वे कोशिश करते हैं कि उनको कष्ट भी न हो। कष्ट न हो, तो उसकी तरकीब दूसरी है। उसकी तरकीब है, शरीर को धीरे— धीरे जड़ बनाना। चैतन्य को सजग नहीं करना, साक्षी को नहीं जगाना, शरीर को जड़ बनाना।
अगर आप काशी जाते हैं, तो वहां आपको कीटों पर सोए हुए लोग मिल जाएंगे। आप बड़े चकित होंगे। आपको लगेगा, बेचारे कितने ज्ञान को उपलब्ध लोग! कैसा परम ज्ञान उपलब्ध हो गया कि कीटों पर पड़े हैं और कोई दुख नहीं हो रहा है!
कोई ज्ञान को उपलब्ध होकर काटो पर पड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन कीटों पर पड़ने का अभ्यास कर लिया जाता है। अभ्यास कर लेने के बाद कोई कष्ट नहीं होता है, क्योंकि शरीर जड़ हो जाता है। मार आप एक ही जगह रोज सुई चुभाते रहें, तो आज जितनी तकलीफ होगी, कल कम होगी, परसों और कम होगी। आप रोज अभ्यास करते रहें। एक दो महीने बाद आप सुई चुभाके और बिलकुल पता नहीं चलेगी। तो आप कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो गए, सिर्फ दो महीने में आपने शरीर को जड़ कर लिया। उस जड़ता के कारण अब आपको कष्ट भी नहीं होता।
ध्यान रहे, दुख न होना तो एक क्रांतिकारी घटना है। कष्ट न होना, शरीर को मुर्दा बना लेने का प्रयोग है।
तो आप चाहें तो शरीर को मुर्दा बना ले सकते हैं। बहुत से उपाय हैं, जिनसे शरीर जड़ हो जाता है। उसकी सेसिटिविटी, संवेदना कम हो जाती है। संवेदना कम हो जाती है, तो कष्ट नहीं होता। कष्ट नहीं होता, तो दुख आपको होने का कोई कारण नहीं रहा। क्योंकि दुख होने के लिए कष्ट का होना जरूरी था। लेकिन आपने कष्ट का दरवाजा बंद कर दिया, तो अब दुख होने का कोई कारण नहीं रहा। लेकिन आप जरा भी नहीं बदले हैं। आप वही के वही हैं। आपकी चेतना नहीं बदली है। अगर आपको कष्ट पहुंचाया जाए नए ढंग से, तो आपको दुख होगा। क्योंकि भीतर कोई साक्षी पैदा नहीं हो गया है।
यह धोखा है अध्यात्म का। शरीर को जड़ बना लेना, धोखा है अध्यात्म का। चैतन्य को और चैतन्य कर लेना असली अध्यात्म है। लेकिन जितना आप चैतन्य को और चैतन्य करेंगे, और साक्षी बनेंगे, उससे आपका कष्ट से छुटकारा नहीं हो जाएगा। सच तो यह है, आपको बहुत—से नए कष्ट पता चलने लगेंगे, जो आपको पहले कभी पता नहीं चले थे। क्योंकि पहले आप जड़ थे। अब आप और संवेदनशील हो रहे हैं। आपको और कष्टों का पता चलेगा।

 लेकिन कष्ट आपसे दूर होंगे। आप कष्टों से दूर होंगे। दोनों के बीच एक फासला, एक डिस्टेंस होगा। और आप देखने वाले होंगे। आप भोक्ता नहीं होंगे। बस, साक्षी जग जाए और भोक्ता खो जाए।
तो आप यह मत सोचना कि जब कृष्ण के पैर में किसी ने तीर मार दिया, तो उन्हें कोई कष्ट न हुआ होगा। आपसे बहुत ज्यादा हुआ होगा। क्योंकि कृष्ण जैसा संवेदनशील आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। कृष्ण कोई जड़ व्यक्ति नहीं थे, नहीं तो उनके होंठों से ऐसी बांसुरी और ऐसे गीत पैदा नहीं हो सकते थे। बहुत कोमल, बहुत संवेदनशील, बहुत रसपूर्ण थे।
तो जिसके होंठों से बांसुरी पर ऐसे गीत पैदा हुए और जिसके शरीर की कोमलता और सौंदर्य ने न मालूम कितने लोगों को आकर्षित किया और प्रेम में गिरा लिया, आप यह मत सोचना कि जब उसके पैर में तीर चुभा होगा, तो उसे कष्ट नहीं हुआ होगा। कष्ट तो पूरा होगा। आपसे बहुत ज्यादा होगा। लेकिन दुख बिलकुल नहीं होगा। वह देखता रहेगा, जैसे किसी और के पैर में तीर चुभा हो, ऐसा ही वह इसे भी देखता रहेगा। भीतर कुछ भी हलचल न होगी। भीतर जो थिर था, वह घिर ही रहेगा। भीतर जो चेतना जैसी थी, वैसी ही रहेगी। इस तीर से शरीर में फर्क पड़ेगा। शरीर खबर देगा, मन के तंतु कंपेंगे। मन तक खबर पहुंचेगी। लेकिन चेतना अलिप्त, असंग, निर्दोष, कुंवारी ही बनी रहेगी।
यह हमारे खयाल में न होने से बड़ा उपद्रव हुआ है। इसलिए हम जड़ हो गए लोगों को आध्यात्मिक समझते हैं। और जड़ता पैदा कर लेने में न तो कोई कुशलता है, न कोई बड़े गुण की बात है। इसलिए अक्सर बहुत बुद्धिहीन लोग भी आध्यात्मिक होने की तरह पूजे जाते हैं। वे कोई भी जड़ता का काम कर लें।
एक गांव से मैं गुजरा। एक आदमी दस वर्षों से खड़े हुए हैं। और कोई गुण नहीं है, बस खड़े हैं। वे खडेश्री बाबा हो गए हैं! बस लोग उनके चरणों पर सिर रख रहे हैं। यह बड़ी भारी बात हो गई कि वे दस साल से खड़े हैं। रात भी वे दोनों हाथों का लकड़ियों से सहारा लेकर सो जाते हैं। उनके पैर हाथीपांव हो गए हैं। सारा खून शरीर का पैरों में उतर गया है। लोग समझ रहे हैं कि कोई अध्यात्म घट गया है।
मैंने उनसे कहा कि खडेश्री बाबा को एक दफा बैठेश्री बाबा बनाकर भी तो देखो! अब वे बैठ भी नहीं सकते। सारा पैर जड़ हो गया है। अब तुम बिठाना भी चाहो, तो बिठाने का कोई उपाय नहीं है। यह शरीर की विकृति और कुरूपता है। इसको अध्यात्म से क्या लेना—देना है! और इस आदमी में और कुछ भी नहीं है।
मैंने उनसे पूछा, और कुछ? खड़े होने की बात मान ली। और कुछ क्या है? बोले कि यही क्या कम है! यह बड़ी भारी घटना है। दस साल से कोई आदमी खड़ा है!
तो पैरों की जड़ता का नाम अध्यात्म नहीं है। पैर जड़ हो सकते हैं, किए जा सकते हैं। इसमें क्या अड़चन है! न तो यह कोई गुण है, और न कोई सम्मान के योग्य। लेकिन हम इस तरह की बातों को सम्मान देते हैं, तो जड़ता बढ़ती है। और जड़ता को हम पूजते हैं। संवेदनशीलता पूजनीय है। लेकिन अकेली संवेदनशीलता पूजनीय नहीं है। अगर संवेदनशीलता के साथ साक्षी— भाव भी जुड़ जाए, तो वही क्रांतिकारी घटना है, जिससे व्यक्ति जीवन के परम तत्व को जानने में समर्थ हो पाता है।
अब हम सूत्र को लें।

हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है।
जो मैं कह रहा था, यह सूत्र उसी की तरफ इशारा है।
हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होता हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है।
यही अत्यधिक कठिन बात समझने की है।
हम देखते हैं आकाश, सबको घेरे हुए है। सब कुछ आकाश में होता है, लेकिन फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं होता। एक गंदगी का ढेर लगा है। गंदगी के ढेर को भी आकाश घेरे हुए है। गंदगी का ढेर भी आकाश में ही लगा हुआ है, ठहरा हुआ है, लेकिन आकाश गंदगी के ढेर से गंदा नहीं होता। गंदगी का ढेर हट जाता है, आकाश जैसा था, वैसा ही बना रहता है।
फिर एक फूल खिलता है। चारों तरफ सुगंध फैल जाती है। फूल के इस सौंदर्य को भी आकाश घेरे हुए है। लेकिन आकाश इस फूल के सौंदर्य से भी अप्रभावित रहता है। वह इसके कारण सुंदर नहीं हो जाता। फूल आज है। कल नहीं होगा। आकाश जैसा था, वैसा ही होगा।
आकाश के इस गुण को बहुत गहरे में समझ लेना जरूरी है, क्योंकि यही आत्मा का गुण भी है।
आकाश सदा ही कुंवारा है। उसे कोई भी चीज छू नहीं पाती। ऐसा समझें, हम एक पत्थर पर लकीर खींचते हैं। पत्थर पर खींची लकीर हजारों साल तक बनी रहेगी। पत्थर पकड़ लेता है लकीर को। पत्थर लकीर के साथ तत्सम हो जाता है, तादात्म्य कर लेता है। पत्थर लकीर बन जाता है।
फिर हम लकीर खींचें पानी पर। खिंचती जरूर है, लेकिन खिंच नहीं पाती। हम खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है। हम खींचकर पूरा कर पाते हैं, लौटकर देखते हैं, लकीर नदारद है। पानी पर लकीर खिंचती तो है, लेकिन पानी लकीर को पकड़ता नहीं। खिंचते ही मिट जाती है। खींचते हैं, इसलिए खिंच जाती है। लेकिन टिक नहीं पाती, क्योंकि पानी उसे पकड़ता नहीं। पत्थर पकड़ लेता है, हजारों साल तक टिक जाती है। पानी में क्षणभर नहीं टिकती, बनती जरूर है।
आकाश में लकीर खींचें, वहां बनती भी नहीं। पानी पकड़ता नहीं, लेकिन बनने देता है। पत्थर बनने भी देता है, पकड़ भी लेता है। आकाश न बनने देता है और न पकड़ता है। आकाश में लकीर खींचें, कुछ भी खिंचता नहीं। इतने पक्षी उड़ते हैं, लेकिन आकाश में कोई पद—चिह्न नहीं छूट जाते। इतना सृजन, इतना परिवर्तन, इतना विनाश चलता है और आकाश अछूता बना रहता है, अस्पर्शित, सदा कुंवारा।
आकाश का यह जो गुण है, यही परमात्मा का भी गुण है। या ऐसा कहें कि जो हमें बाहर आकाश की तरह दिखता है, वही भीतरी आकाश परमात्मा है; इनर स्पेस, भीतर का आकाश परमात्मा है। कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर छिपा हुआ चैतन्य है, इसे कुछ भी छूता नहीं। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम क्या करते हो, क्या होता है, इससे तुम्हारे भीतर के आकाश पर कोई लकीर नहीं खिंचती। तुम भीतर शुद्ध ही बने रहते हो। यह शुद्धि तुम्हारा स्वभाव है।
यह बड़ा खतरनाक संदेश है। इसका मतलब हुआ कि पाप करते हो, तो भी कोई रेखा नहीं खिंचती। पुण्य करते हो, तो भी कोई लाभ की रेखा नहीं खिंचती। न पाप न पुण्य, न अच्छा न बुरा—भीतर कुछ भी छूता नहीं। भीतर तुम अछूते ही बने रहते हो। खतरनाक इसलिए है कि सारी नैतिकता, सारी अनैतिकता व्यर्थ हो जाती है।
भीतर की शुद्धि शाश्वत है। तुम्हारे करने से कुछ बनता—बिगड़ता नहीं। लेकिन तुम्हारे करने से तुम अकारण दुःख पाते हुए मालूम होते हो। अगर तुम बुरा करते हो, तो तुम ऊ छ साथ तादात्म्य बना लेते हो और दुख पाते हो। अगर तुम शुभ करते हो, तो शुभ के साथ तादात्म्य बना लेते हो और सुख पाते हो।
लेकिन सुख—दुख दोनों तुम्हारी भ्रांतियां हैं। वह जो भीतर छिपा है, वह न सुख पाता है, न दुख पाता है। वह जो भीतर छिपा है, वह सदा एकरस अपने में ही है। न तो वह दुख की तरफ डोलता है, न सुख की तरफ डोलता है।
वह भीतर कौन है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ, उसकी खोज ही अध्यात्म है। एक ऐसे बिंदु को स्वयं के भीतर पा लेना, जो सभी चीजों से अस्पर्शित है।
एक गाड़ी चलती है। गाड़ी का चाक चलता है, हजारों मील की यात्रा करता है। लेकिन गाडी के चाक के बीच में एक कील है, जो बिलकुल नहीं चलती, जो खड़ी ही रहती है। चाक चलता चला जाता है। चाक अच्छे रास्तों पर चलता है, बुरे रास्तों पर चलता है। चाक सुंदर और असुंदर रास्तों पर चलता है। चाक सपाट राजपथों पर चलता है, गंदगी—कीचड़ से भरे हुए जंगली रास्तों पर चलता है। वह जो कील है चाक के बीच में खड़ी, वह चलती ही नहीं; वह खडी ही रहती है।
ठीक वैसे ही तुम्हारा मन सुख में चलता है, दुख में चलता है, तुम्हारा शरीर कष्ट में चलता है, सुविधा में चलता है, लेकिन भीतर एक कील है चैतन्य की, वह खड़ी ही रहती है, वह चलती ही नहीं। अगर तुम शरीर से अपने को एक समझ लेते हो, तो बहुत तरह के कष्ट तुम्हारे दुख का कारण बन जाते हैं। अगर तुम मन से अपने को एक समझ लेते हो, तो बहुत तरह की मानसिक व्यथाएं, चिंताएं तुम्हें घेर लेती हैं, तुम उनसे घिर जाते हो। शरीर से अलग कर लो, शरीर में कष्ट होते रहेंगे, लेकिन तुम दुखी नहीं। मन से अलग कर लो, भावों के तूफान चलते रहेंगे, लेकिन तुम दूर खड़े उनको देखते रहोगे।
शरीर और मन दोनों से पार खड़ा हो जाता है जो, उसे पता चलता है कि यहां तो कभी भी कुछ नहीं हुआ। यहां तो सदा ही सब वैसा का वैसा है। जैसा अगर सृष्टि का कोई पहला क्षण रहा होगा, तो उस दिन जितनी शुद्ध थी चेतना, उतनी ही शुद्ध आज भी है।
इसे हम ऐसा समझें कि आप एक नाटक में काम करते हैं। रावण बन गए हैं। बड़े बुरे काम करने पड़ते हैं। सीता चुरानी पड़ती है। हत्याएं करनी पड़ती हैं। युद्ध करना पडता है। या राम बन गए हैं। बडे अच्छे काम करते हैं। बडे आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लोग आदर देते हैं, सम्मान करते हैं। लेकिन जब आप नाटक छोड्कर घर आते हैं, तो न आप राम होते हैं, न रावण होते हैं। न तो रावण का होना आपको छूता है, न राम का होना आपको छूता है।
लेकिन कभी—कभी खतरा हो सकता है। कभी—कभी अभिनय भी छू सकता है। अगर आप अपने को एक समझ लें। अगर आप यह समझ लें कि मैंने इतने दिन तक राम का पार्ट किया, तो अब गांव के लोगों को मुझे राम समझना चाहिए। तो फिर झंझट हो सकती है।
ऐसा हुआ, अमेरिका में लिंकन का एक आदमी ने पार्ट किया एक साल तक। क्योंकि लिंकन की कोई शताब्दी मनाई जाती थी और उसकी शक्ल लिंकन से मिलती—जुलती थी, तो अमेरिका के सभी बड़े नगरों में उसे लिंकन का पार्ट करने के लिए जाना पड़ा। एक सालभर तक वह लिंकन की तरह चलता, लिंकन की छड़ी हाथ में रखता, लिंकन के कपड़े पहनता, लिंकन की तरह हकलाता, लिंकन की तरह बोलता, सब लिंकन की तरह करता।
सालभर लंबा वक्त था। वह आदमी भूल गया। सालभर के बाद जब वह घर आया, तो वह सीधा न चल सके, जैसा वह पहले चलता रहा था। कोशिश करे, तो थोड़ी देर सीधा चले, नहीं तो फिर वह लिंकन की तरह चलने लगे। बोले भी, तो लिंकन की तरह बोले। जहां लिंकन अटकता था, वहीं वह भी अटके।
घर के लोगों ने कहा कि अब छोड़ो भी, अब बात खतम हो गई! लेकिन एक साल का नशा उस पर ऐसा छा गया—जगह—जगह सम्मान, स्वागत, सत्कार—कि उस आदमी ने कहा, क्या छोड़ो! मैं अब्राहम लिंकन हूं। तुम किस भ्रांति में पड़े हो? लोगों ने समझा, वह मजाक कर रहा है थोड़े दिन। लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा था। वह अब्राहम लिंकन हो ही गया था।
उसे बहुत समझाया—बुझाया। मित्रों ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो गए हो? लेकिन उसे पक्का भरोसा आ गया था। सालभर लंबा वक्त था। उसे जितना लोगों ने समझाया, उसकी मजबूती बढ़ती चली गई। वह लोगों से कहने लगा, तुम पागल तो नहीं हो गए हो? मैं लिंकन हूं। जितना ही लोगों ने कहा कि तुम नहीं हो, उतनी ही उसकी जिद्द बढ़ती चली गई। फिर तो यहां तक हालत पहुंच गई कि मनोवैज्ञानिकों के पास ले जाकर इलाज करवाना पड़ा। तो मनोवैज्ञानिक ने कहा कि यह आदमी कितना ही बोल रहा हो, लेकिन भीतर तो यह गहरे में तो जानता ही होगा कि मैं लिंकन नहीं हूं। तो अमेरिका में उन्होंने लाइ डिटेक्टर एक छोटी—सी मशीन बनाई है, अदालत में काम लाते हैं झूठ पकड़ने के लिए। उस मशीन पर आदमी को खड़ा कर देते हैं। उससे पूछते हैं। जो बात वह सच बोलता है, तो उसके हृदय की धड़कन अलग होती है। आप भी जब सच बोलते हैं, तो धड़कन अलग होती है। जब आप झूठ बोलते हैं, तो एक धक्का लगता है। हृदय की धड़कन में फर्क हो जाता है।
किसी ने आपसे पूछा, आपकी घड़ी में कितने बजे हैं? आप कहते हैं, आठ। किसी ने पूछा कि सामने जो किताब रखी है, इसका क्या नाम है? आपने पढ़कर बता दिया। आपके हृदय में कहीं कोई झटका नहीं लगता। फिर किसी ने पूछा, आपने चोरी की? तो भीतर से तो आप कहते हैं कि की; और ऊपर से आप कहते हैं, नहीं की। तो रिदम, भीतर की लय टूट जाती है। वह लय का टूटना मशीन पकड़ लेती है कि आपके हृदय की गति में फर्क पड़ गया। ग्राफ टूट जाता है।
तो उस आदमी को, अब्राहम लिंकन को, बने हुए अब्राहम लिंकन को खड़ा किया गया लाइ डिटेक्टर पर। वह भी परेशान हो गया था। जो देखे, वही समझाए कि अरे, क्यों पागल हो रहे हो? होश में आओ। यह नाटक था। वह भी घबड़ा गया। उसने सोचा कि इससे कैसे छुटकारा हो!
तो मनोवैज्ञानिक ने बहुत—से सवाल पूछे। फिर पूछने के बाद उसने पूछा कि क्या तुम अब्राहम लिंकन हो? तो उसने सोचा, यह झंझट खतम ही करो, कह दो कि नहीं हूं। तो उसने कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। मनोवैज्ञानिक बड़ा खुश हुआ। लेकिन नीचे मशीन ने ग्राफ बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। इतना गहरा उसको खयाल चला गया है कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। वह खुद ही मना कर रहा है। लेकिन उसका हृदय जानता है कि मैं हूं।
अब क्या करिएगा! एक साल का नाटक अगर ऐसी स्थिति बना देता हो, तो आपने शरीर के साथ बहुत जन्मों में नाटक किया है। कितनी—कितनी लंबी यात्रा है शरीर के साथ एक होने की। मन के साथ कितने समय से आप अपने को एक बनाए हुए हैं। इसलिए कठिनाई है। इसलिए तोड्ने में अड़चन मालूम पड़ती है। इतना लंबा हो गया है यह सब कि आप जन्मों—जन्मों से लिंकन का पार्ट कर रहे हैं। और अब कोई आपसे पूछता है, तो आप कितना ही कहें, मैं शरीर नहीं हूं लेकिन भीतर।
आपको लाइ डिटेक्टर पर खड़ा करके पूछा जाए कि क्या तुम शरीर हो? आप बड़े आत्म—ज्ञानी हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं, कंठस्थ है। और आप रोज सुबह बैठकर दोहराते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। आप लाइ डिटेक्टर पर खड़े किए जाएं। आप कहेंगे, मैं शरीर नहीं हूं। वह डिटेक्टर कहेगा कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। क्योंकि आपकी मान्यता तो गहरी है कि आप शरीर हैं। आप जानते हैं। आपके गहरे तक यह बात घुस गई है। इसे तोड्ने में इसीलिए कठिनाई है। लेकिन यह तोड़ी जा सकती है, क्योंकि यह झूठ है। यह सत्य नहीं है।
आप पृथक हैं ही। आप कितना ही मान लें कि मैं पृथक नहीं हूं आप पृथक हैं। आपके मानने से सत्य बदलता नहीं। हा, आपके मानने से आपकी जिंदगी असत्य हो जाती है।
कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर बैठा हुआ स्वरूप है, यह सदा मौन, सदा शांत, शुद्ध, सदा आनंद से भरा है।
इसका हमने कभी कोई दर्शन नहीं किया है। और जो भी हम जानते हैं अपने संबंध में, वह या तो शरीर है या मन है। मन के संबंध में भी हम बहुत नहीं जानते हैं। मन की भी थोड़ी— थोड़ी सी परतें हमें पता हैं। बहुत परतें तो अचेतन में छिपी हैं, उनका हमें कोई पता नहीं है।
साक्षी का अर्थ है कि मैं शरीर से भी अपने को तोडू और मन से भी अपने को तोडू। और जब मैं कहता हूं तोडूं? तो मेरा मतलब है, वह जो गलत जोड़ है, वही तोड़ना है। वस्तुत: तो हम जुड़े हुए नहीं हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। न तो यह कुछ करता है और चाहे किसी को लगता हो कि कुछ हो भी रहा है, तो भी लिप्त नहीं होता।
कमल का पत्ता जैसे पानी में भी, पानी की बूंदें पड़ जाएं उसके ऊपर, तो भी छूता भी नहीं बूंदों को। बूंदें अलग बनी रहती हैं, पत्ते पर पड़ी हुई भी। जल छूता नहीं। वैसा यह अछूता रह जाता है। इसने कभी भी कुछ नहीं किया है।
हम इसे कैसे मानें? हम तो सब चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। हम इसे कैसे मानें? हम यह कैसे स्वीकार करें कि यह भीतर जो है, यह सदा शुद्ध है। क्योंकि हम बहुत—से पाप कर रहे हैं, चोरी कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। यह कृष्ण की बात समझ में नहीं आती कि हम और शुद्ध हो सकते हैं! हम, जिन्होंने इतनी बुराइयां की हैं? न भी की हों, तो इतनी बुराइयां सोची हैं, करनी चाही हैं। कितनी बार हत्या करने का मन हुआ है, चोरी करने का मन हुआ है। यह मन हमारा, यह कैसे भीतर सब शुद्ध हो सकता है?
बाहर के आकाश को देखें! सब कुछ घटित हो रहा है और बाहर का आकाश शुद्ध है। भीतर भी एक आकाश है, ठीक बाहर के आकाश जैसा। बीच में सब घटित हो रहा है, वह भी भीतर शुद्ध है।
इस शुद्धता का स्मरण भी आ जाए, तो आपकी जिंदगी में एक नया आयाम खुल जाएगा। आप दूसरे आदमी होने शुरू हो जाएंगे। फिर आप जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने से रस खो जाएगा। फिर जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने में से अकड़ खो जाएगी। फिर करना ऐसे हो जाएगा, जैसे सांप तो निकल गया और केवल सांप का ऊपर का खोल पड़ा रह गया है। जैसी रस्सी तो जल गई, लेकिन सिर्फ राख रस्सी के रूप की रह गई है।
अगर आपको यह खयाल आना शुरू हो जाए कि मैं अकर्ता हूं तो कर्म जारी रहेगा, जली हुई रस्सी की भांति, जिसमें अब रस्सी रही नहीं, सिर्फ राख है। सिर्फ रूप रह गया है पुराना। कर्म चलता रहेगा अपने तल पर, और आप हटते जाएंगे। जैसे—जैसे कर्म से हटेंगे, वैसे—वैसे लगेगा कि मैं अलिप्त भी हूं। कुछ मुझे लिप्त नहीं कर सकता।
एक घटना आपसे कहूं। एक बौद्ध भिक्षु हुआ बहुत अनूठा, नागार्जुन। नागार्जुन के पास एक युवक आया। और उस युवक ने कहा कि मैं भी चाहता हूं कि जान लूं उसको, जो कभी लिप्त नहीं होता। जान लूं उसको, जो अकर्ता है। जान लूं उसको, जो परम आनंदित है, सच्चिदानंदघन है। कोई रास्ता?
नागार्जुन बहुत अपने किस्म का अनूठा गुरु था। उसने कहा कि पहले मैं तुझसे पूछता हूं कि तुझे किसी चीज से लगाव, कोई प्रेम तो नहीं है? उस युवक ने कहा कि कोई ज्यादा तो नहीं है, सिर्फ एक भैंस है मेरे पास, पर उससे मुझे लगाव है। तो नागार्जुन ने कहा कि बस इतना काफी है। इससे काम हो जाएगा। साधना शुरू हो जाएगी।
उस युवक ने कहा कि भैंस से और साधना का क्या संबंध? और मैं तो डर भी रहा था कि यह अपना लगाव बताऊं भी कि नहीं! कोई स्त्री से हो, किसी मित्र से हो, तो भी कुछ समझ में आता है। यह भैंस वाला लगाव! मैंने सोचा था कि इसकी तो चर्चा ही नहीं उठेगी। लेकिन आपने पूछा.।
नागार्जुन ने कहा, बस, तू एक काम कर। यह सामने मेरी गुफा के जो दूसरी गुफा है, उसमें तू चला जा; और एक ही भाव कर कि मैं भैंस हूं। जो तेरा प्रेम है, उसको तू आरोपित कर। बस, तू अपने को भैंस का रूप बना ले। और तू लौटकर मत आना। जब जरूरत होगी, तो मैं आऊंगा। तू तो बस, इतना ही भाव कर, एक ही भाव कि मैं भैंस हूं।
उस युवक ने साधना करनी शुरू की। एक दिन बीता, दो दिन बीता, तीसरे दिन उसकी गुफा से भैंस की आवाज आनी शुरू हो गई। नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा कि अब चलने का वक्त आ गया। अब चलो, देखो, क्या हालत है।
वे सब वहां अंदर गए। वह युवक दरवाजे के पास ही सिर झुकाए खड़ा था। दरवाजा काफी बड़ा था। बाहर निकल सकता था। लेकिन सिर झुकाए खड़ा था जैसे कोई अड़चन हो। भैंस की आवाज कर रहा था। नागार्जुन ने कहा कि बाहर आ जाओ। उसने कहा कि बाहर कैसे आ जाऊं! मेरे सींग दरवाजे में अड़ रहे हैं। आंखें उसकी बंद हैं।
नागार्जुन के बाकी शिष्य तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि सींग दिखाई तो पड़ते नहीं! नागार्जुन ने कहा कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह भी अड़ सकता है। जो नहीं है, वह भी अड़ सकता है। अडूने के लिए होना जरूरी नहीं है, सिर्फ भाव होना जरूरी है। इसका भाव पूरा है।
नागार्जुन ने उसे हिलाया और कहा, आंख खोल। उसने घबड़ाकर आंख खोली, जैसे किसी गहरी नींद से उठा हो। तीन दिन की लंबी नींद, आत्म—सम्मोहन, सेल्फ हिप्‍नोसिस, तीन दिन तक निरंतर कि मैं भैंस हूं। जैसे बड़ी गहरी नींद से जगा हो। एकदम तो पहचान भी न सका कि क्या मामला है।
नागार्जुन ने कहा कि घबड़ा मत। कहां हैं तेरे सींग? उसने सिर पर हाथ फेरा। उसने कहा कि नहीं, सींग तो नहीं हैं। लेकिन अभी अड़ रहे थे। उसने कहा, वह भी मुझे खयाल है। मैं तीन दिन से निकलने की कोशिश कर रहा हूं। और तुमने कहा था, निकलना मत। मैं तीन दिन से कोशिश करके भी निकल नहीं पा रहा हूं। वे सींग अड़ जाते हैं बीच में। बड़ी तकलीफ भी होती है। टकराता हूं; तकलीफ होती है।
तो नागार्जुन ने कहा, कहां हैं सींग? कहां है तेरा भैंस होना? नागार्जुन ने कहा कि तुझे अब मैं कुछ और सिखाऊं कि बात तू सीख गया? उसने कहा, मैं बात सीख गया। तीन दिन का मुझे मौका और दे दें।
नागार्जुन और उसके शिष्य वापस लौट आए। शिष्यों ने कहा, हम कुछ समझे नहीं। यह क्या वार्तालाप हुआ? नागार्जुन ने कहा, तीन दिन बाद।
तीन दिन तक वह युवक फिर उस कोठरी में बंद था। और जैसे तीन दिन उसने अपने को भैंस होना स्वीकार कर के भैंस बना लिया था, वैसे तीन दिन उसने अस्वीकार किया कि मैं शरीर नहीं हूं मैं मन नहीं हूं। और तीन दिन बाद जब नागार्जुन और उसके शिष्य वहां पहुंचे, तो वह जो व्यक्ति उन्होंने देखा था, वहा सिर्फ रस्सी की राख रह गई थी, जली हुई।
उस व्यक्ति ने आंख खोली और नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा, इसकी आंखों में झांको। उन आंखों में जैसे गहरा शून्य था। और नागार्जुन ने पूछा कि अब तुम कौन हो? तो उस व्यक्ति ने कहा कि सिर्फ आकाश। अब मैं नहीं हूं। सब समाप्त हो गया। और जो मैं चाहता था जानना, वह मैंने जान लिया! और जो मैं चाहता था होना, वह मैं हो गया हूं।
जो भी आप सोच रहे हैं कि आप हैं, यह आपकी मान्यता है। यह आटो—हिप्‍नोसिस है। यह आत्म—सम्मोहन है। और यह सम्मोहन इतना गहरा है, बचपन से डाला जाता है, कि इससे आपको खयाल भी नहीं है कभी कि यह अपनी ही मान्यता है, जो हम अपने चारों तरफ खड़ी कर लिए हैं।
आपका व्यक्तित्व आपकी मान्यता है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं। अगर आप दुनिया की अलग—अलग संस्कृतियों का अध्ययन करें, तो आप चकित हो जाएंगे।
कुछ ऐसी कौमें हैं, जो मानती हैं, पुरुष कमजोर है और स्त्री ताकतवर है। वहा पुरुष कमजोर हो गया है और स्त्री ताकतवर हो गई है। जिन कौमों की ऐसी धारणा है कि पुरुष कमजोर है, वहां पुरुष कमजोर है। और स्त्री ताकतवर है, तो स्त्री ताकतवर है। वहां मर्दाना होने का कोई मतलब नहीं है। वहा जनाना होने की ज्ञान है। और वहां अगर कोई मर्द ताकतवर होता है, तो लोग कहते हैं कि क्या जनाना मर्द है! क्या शानदार मर्द है! ठीक औरत जैसा।
आप यह मत सोचना की औरत कमजोर है। औरत का कमजोर होना एक मान्यता है।
आप चकित होंगे जानकर कि अमेजान में एक छोटी—सी कौम है। जब बच्चा होता है किसी स्त्री को, तो पति को भी प्रसव की पीड़ा होती है। एक खाट पर पड़ती है स्त्री, दूसरी खाट पर लेटता है पति। और दोनों तड़पते हैं। आप कहेंगे, यह पति बनता होगा। क्योंकि आखिर इधर भी तो इतने बच्चे पैदा होते हैं!
नहीं, पति बनता बिलकुल नहीं। और जब पहली दफा ईसाई मिशनरियों ने यह चमत्कार देखा, तो वे बड़े हैरान हुए कि ये पति भी क्या ढोंग कर रहे हैं! पति को कहीं प्रसव पीड़ा होती है! पत्नी को बच्चा हो रहा है, तुम क्यों तकलीफ पा रहे हो? और पत्नी से भी ज्यादा शोरगुल पति मचाता है, क्योंकि पति पति है। पत्नी तो थोड़ा—बहुत मचाती है। पति बहुत उछल—कूद करता है। गिर—गिर पड़ता है, रोता है, पीटता है। जब तक बच्चा नहीं हो जाता, तब तक तकलीफ पाता है। बच्चा होते ही से वह बेहोश होकर गिर जाता है।
तो पादरियों ने समझा कि यह भी एक खेल है। इन्होंने बना रखा है। बाकी इसमें कोई हो तो नहीं सकती सचाई। तो जब चिकित्सकों ने जांच की, तो उन्होंने पाया कि यह बात सच नहीं है। दर्द होता है। तकलीफ होती है। पेट में बहुत उथल—पुथल मच जाती है, जैसे बच्चा होने वाला हो। हजारों साल की उनकी मान्यता है कि जब दोनों का ही बच्चा है, तो दोनों को तकलीफ होगी।
और आप यह भी जानकर हैरान होंगे कि ऐसी भी कौमें हैं, इस मुल्क में भी ऐसी ग्रामीण और आदिवासी कौमें हैं, जहां स्त्री को बच्चा बिना तकलीफ के होता है। जैसे गाय को होता है, ऐसे स्त्री को होता है। वह जंगल में काम कर रही है, खेत में काम कर रही है, बच्चा हो जाता है। बच्चे को उठाकर खुद ही अपनी टोकरी में रखकर वृक्ष के नीचे रख देती है, और फिर काम करना शुरू कर देती है।
हमारी स्त्रियां सोच भी नहीं सकतीं कि खुद को बच्चा हो, न नर्स हो, न अस्पताल हो, न डाक्टर हो, और खुद ही को बच्चा हो, और उठाकर टोकरी में रखकर और काम शुरू! काम में कोई अंतराल ही नहीं पड़ता। वह भी मान्यता है। स्त्रियों को जो इतनी तकलीफ हो रही है, वह भी मान्यता है। स्त्रियों को तकलीफ न हो, वह भी मान्यता है।
लोझेन करके एक फ्रेंच चिकित्सक है, उसने एक लाख स्त्रियों को बिना दर्द के प्रसव करवाया है। और सिर्फ करता इतना ही है कि वह उनको कहता है कि दर्द होता ही नहीं। यह समझाता है पहले, दर्द तुम्हारी भांति है। उनको कान में मंत्र डालता है कि दर्द होता ही नहीं। सम्मोहित करता है; समझा देता है। एक लाख स्त्रियां बिना दर्द के...।
लोझेन का शिष्य है, वह और एक कदम आगे बढ़ गया है। वह कहता है कि दर्द की तो बात ही गलत है, जब बच्चा पैदा होता है, तो स्त्री के जीवन में सबसे बड़ा सुख होता है। और उसने कोई पांच सौ स्त्रियों को सुख करवाकर भी बता दिया। वे स्त्रियां कहती हैं कि जो समाधि का आनंद हमने जाना है बच्चे के होने में, वह तो कभी जाना ही नहीं।
वह भी उनको समझाता है कि यह परम अनुभव का क्षण है। बच्चा जब पैदा होता है, तो स्त्री के जीवन का यह शिखर है आनंद—अनुभव का। अगर इसमें वह चूक गई, तो उसे जीवन में कभी आनंद ही नहीं मिलेगा। उसका शिष्य समझाकर आनंद भी करवा देता है!
आदमी बहुत अदभुत है। आदमी सेल्फ हिप्‍नोसिस करने वाला प्राणी है। वह अपने को जो भी मान लेता है, वैसा कर लेता है। आपकी सारी व्यक्तित्व की परतें आपकी मान्यताओं की परतें हैं। आप जो हैं, वह आपका सम्मोहन है।
अध्यात्म का अर्थ है, इस सारे सम्मोहन को तोड़कर उसके प्रति जग जाना, जिसका कोई भी सम्मोहन नहीं है। यह सारा शरीर, यह मन, ये धारणाएं, यह स्त्री यह पुरुष, यह अच्छा यह बुरा, इस सबसे हटते जाना। और सिर्फ चैतन्य मात्र, शुद्ध चित्त मात्र शेष रह जाए, मैं सिर्फ जानने वाला हूं, इतनी प्रतीति भर बाकी बचे। तो उस प्रतीति के क्षण में पता चलता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ आकाश है, वह सदा कुंवारा है। न उसने कभी कुछ किया और न कुछ उस पर अभी तक लिप्त हुआ है। वह अस्पर्शित, शुद्ध है।

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