महावीर
ने न तो
नियंता को
स्वीकार किया, न
किसी समर्पण
को, न किसी
गुरु को, न
शास्त्र को, न परंपरा को,
तो यह
प्रश्न
बिलकुल ही
स्वाभाविक उठ
सकता है कि
क्या यह
महावीर का घोर
अहंकार नहीं
था? क्या
महावीर अहंवादी
नहीं थे? यह
प्रश्न
स्वाभाविक
है। और जो
व्यक्ति परमात्मा
को स्वीकार
करता है, नियंता
को, नियंता
के प्रति
समर्पण करता
है, गुरु
को स्वीकार
करता है, गुरु
के प्रति
समर्पण करता
है, शास्त्र-परंपरा
के प्रति
झुकता है, साधारणतः
हमें विनम्र,
विनीत, निरहंकारी
मालूम पड़ेगा।
इन दोनों
बातों को ठीक
से समझ लेना
उपयोगी है।
पहली
तो बात यह कि
परमात्मा के
प्रति झुकने
वाला भी
अहंकारी हो
सकता है। और
यह अहंकार की
चरम घोषणा हो
सकती है उसकी
कि मैं
परमात्मा से एक
हो गया हूं।
अहं
ब्रह्मास्मि
की घोषणा अहंकार
की चरम घोषणा
भी हो सकती
है। यानी ऐसा
हो सकता है कि
मैं साधारण
मनुष्य होने
को राजी नहीं
हूं। मेरा
अहंकार इस बात
के लिए राजी
नहीं है कि
मैं साधारण
मनुष्य हूं, मैं
परमात्मा
होने की घोषणा
के बिना राजी
ही नहीं हो
सकता हूं।
नीत्शे
ने कहा है कि
यदि ईश्वर है
तो फिर एक ही उपाय
है कि मैं
ईश्वर हूं, और
यदि ईश्वर
नहीं है तो
बात चल सकती
है। अगर ईश्वर
है तो फिर
मेरे अहंकार
को इससे नीचे
उपाय नहीं है
कोई कि मैं
ईश्वर हो
जाऊं।
ईश्वर
के प्रति
समर्पण भी
ईश्वर होने की
अहंता से पैदा
हो सकता है, एक
बात।
दूसरी
बात यह खयाल
रखनी चाहिए कि
समर्पण में अहंकार
सदा मौजूद ही
है,
समर्पण
करने वाला सदा
मौजूद ही है।
समर्पण कृत्य
है अहंकार का
ही।
एक
आदमी कहता है
कि मैंने
परमात्मा के
प्रति स्वयं
को समर्पित कर
दिया है--यहां
हमें लगता है
कि परमात्मा
ऊपर हो गया और
यह नीचे, यह
हमारी गलती
है। समर्पण
करने वाला कभी
भी नीचा नहीं
हो सकता, क्योंकि
कल चाहे तो
समर्पण वापस
लौटा सकता है,
कल कह सकता
है कि अब मैं
समर्पण नहीं
करता हूं।
असल
में कर्ता
कैसे नीचे हो
सकता है? समर्पण
में भी कर्ता
सदा ऊपर है, वह कहता है, मैंने
समर्पण किया
है परमात्मा
के प्रति। और अगर
मैं नहीं है
तो समर्पण कोई
कैसे करेगा? किसके प्रति
करेगा? इसे
समझ लें तो
महावीर की
स्थिति समझ
में आ सकती
है।
महावीर
नितांत ही
निरहंकार
हैं। यानी
उतना अहंकार
भी नहीं है कि
मैं समर्पण
करूं। वह मैं तो
चाहिए न
समर्पण करने
को! वह समर्पण
करने का कर्तृत्व
भाव चाहिए। और
जैसा मैंने
कहा कि जो
व्यक्ति
समर्पण करता
है,
वह समर्पण
मांगता है। वह
मांग एक ही
सिक्के का
हिस्सा है
दूसरा।
महावीर अगर
समर्पण
मांगते, करते
न, तब तो
अहंकारी होते,
लेकिन
महावीर ने
समर्पण किया
भी नहीं, मांगा
भी नहीं। यह
परम
निरहंकारिता,
अल्टीमेट
ईगोलेसनेस हो
सकती है। और
मेरी दृष्टि
में है। यानी
समर्पण करने
योग्य भी तो
अहंकार
चाहिए। आखिर
मैं ही
समर्पित होऊंगा
न! नियंता को
भी मैं ही
स्वीकृत
करूंगा न!
महावीर
के अस्वीकार
में ऐसा नहीं
है कि नियंता
नहीं है, ऐसा
अस्वीकार है।
अस्वीकार का
कुल मतलब इतना
ही है कि
स्वीकार नहीं
है। इसे ठीक
से समझ लेना
जरूरी है।
अस्वीकार
का मतलब यह
नहीं है कि
अस्वीकार पर जोर
है,
कि महावीर
सिद्ध करते
घूम रहे हैं
कि कोई परमात्मा
नहीं है, कोई
ईश्वर नहीं
है। न, यह
वे सिद्ध करते
नहीं घूम रहे
हैं। उनके
अस्वीकार का
कुल इतना ही
मतलब है कि वे
सिद्ध करते नहीं
घूम रहे हैं
कि ईश्वर है, नियंता है।
अस्वीकार जो
है, वह
फलित है।
अस्वीकार
घोषणा नहीं है,
अस्वीकार
पर जोर भी
नहीं है। वे
सिर्फ स्वीकृति
की बातें नहीं
कर रहे हैं, न समर्पण की
बात कर रहे
हैं। न वे यह
कह रहे हैं कि
कोई गुरु नहीं
है, कोई
शास्त्र नहीं
है, कोई
परंपरा नहीं
है। यह भी वे
नहीं कह रहे
हैं। बस वे गुरु
के प्रति
समर्पित नहीं
हैं, शास्त्र
के प्रति
समर्पित नहीं
हैं, परंपरा
के प्रति
समर्पित नहीं
हैं। यह फलित
है। यह हमें
दिखाई पड़ता है
कि वे समर्पित
नहीं हैं।
लेकिन
समर्पण के लिए
भी अहंकार
चाहिए। अगर कोई
व्यक्ति
नितांत
अहंकारशून्य
हो जाए तो
कैसा समर्पण? कौन
करेगा समर्पण?
समर्पण
कृत्य है, एक्शन
है। और कृत्य
के लिए कर्ता
चाहिए। और अगर
कर्ता नहीं है
तो समर्पण
जैसा कृत्य भी
असंभव है।
फिर जब
कोई कहता है
मैंने समर्पण
किया, तो
समर्पण से भी
मैं को ही
भरता है।
समर्पण भी उसके
मैं का ही
पोषण है, मैं
कोई साधारण
नहीं हूं, मैं
ईश्वर के
प्रति
समर्पित हूं।
एक संत
के
पास--तथाकथित
संत कहना
चाहिए-- सम्राट
अकबर ने खबर
भेजी कि बड़ा
उत्सुक हूं
दर्शन को, मिलने
को, तुम्हें
सुनने को।
तथाकथित संत
ने खबर भिजवाई
वापस कि हम तो
सिर्फ राम के
दरबार में
झुकते हैं। हम
ऐसे आदमियों
के दरबारों
में नहीं झुका
करते।
यह
व्यक्ति क्या
कह रहा है यह? यह
कह रहा है कि
हम तो सिर्फ
राम के सामने
झुकते हैं, ऐसे आदमियों
के सामने नहीं
झुका करते। और
अब हम राम के
दरबार के
दरबारी हो गए,
हम कोई आदमी
के दरबार के
दरबारी होंगे?
ऊपर से
दिखता है कि
यह आदमी कितनी
बढ़िया बात कह
रहा है! लेकिन
बड़े गहरे
अहंकार से
निकली हुई बात
मालूम पड़ती
है। अभी इसे
आदमी और राम
में फर्क है।
और यह निरंतर
यह भी कहे चला
जा रहा है कि
सब में राम
हैं--अकबर भर
को छोड़ देता
है,
अकबर भर में
राम नहीं हैं!
सबमें
राम-सीता को
देखे चला जा
रहा है, लेकिन
अकबर में अटक
जाता है! और
वहां उसका अहंकार
घोषणा कर देता
है कि मैं कोई
ऐसा आदमी थोड़े
ही हूं कि
आदमियों के
दरबारों में
बैठूं। मैं तो
राम के दरबार
में! राम के
दरबार में
होने की यह
घोषणा भी बड़े
गहरे अहंकार
की सूचना है।
इससे
यह मत समझ
लेना कि
जिन्होंने
भगवान को स्वीकार
किया है, वे
अहंकारशून्य
होंगे। हो
सकता है यह
अहंकार की
अंतिम चेष्टा
हो। अहंकार
भगवान को भी
मुट्ठी में ले
लेना चाहता
है। उसकी
तृप्ति नहीं
होती संसार को
मुट्ठी में
लेने से, तो
आखिर में
भगवान को भी
ले लेना चाहता
है।
महावीर
के पास एक
सम्राट गया।
और उस सम्राट
ने कहा कि सब
है आपकी कृपा
से। राज्य है, संपदा
है, अंतहीन
विस्तार है, सैनिक हैं, सुख है, सुविधा
है, शक्ति
है, सब है।
लेकिन इधर
मैंने सुना है
कि मोक्ष जैसी
भी कोई चीज है,
तो मैं उसको
भी विजय करना
चाहता हूं! क्या
उपाय है? कितना
खर्च पड़ेगा? सम्राट ने
कहा, उपाय
क्या है? खर्च
इत्यादि क्या
पड़ेगा? सब
लगा सकता हूं।
हंसे
होंगे
महावीर।
क्योंकि एक
आदमी ने--वह सम्राट
है,
उसने सब
जीता है, उसने
बहुत इंतजाम
कर लिया है, अब इधर खबर
मिली है कि
मोक्ष जैसी भी
एक चीज है और
ध्यान जैसी भी
एक अनुभूति है
तो उसके लिए
भी खर्च करने
को तैयार है!
यानी ऐसा न रह
जाए कि कोई
कहे कि इस
आदमी को मोक्ष
भी नहीं मिला,
ध्यान भी
नहीं मिला।
तो
महावीर ने
उससे कहा, खरीदने
को ही निकले
हो तो
तुम्हारे ही
गांव में एक
श्रावक है, उसके पास
चले जाना।
उससे पूछ लेना
कि एक सामायिक
कितने में
बेचेगा? एक
ध्यान कितने
में बेचता है?
खरीद लेना।
उसको उपलब्ध
हो गया है।
नासमझ
सम्राट उस
आदमी के घर
पहुंच गया और
बड़ा हैरान हुआ
देख कर कि वह
तो अत्यंत
दरिद्र आदमी
है। तो उसने
सोचा इसको तो
पूरा ही खरीद
लेंगे, सामायिक
का क्या सवाल
है! यानी
इसमें कोई
झंझट ही नहीं
है। इस पूरे
आदमी को ही
चुकता खरीदा
जा सकता है।
यह तो कोई बात
ही नहीं है, यह तो बड़ी
सरल बात है।
तो
उससे उसने
पूछा है कि एक
सामायिक, महावीर
ने कहा है कि
खरीद लो उस
आदमी से जाकर!
तो वह आदमी
हंसने लगा।
उसने कहा कि
चाहो तो मुझे
खरीद लो, लेकिन
सामायिक
खरीदने का कोई
उपाय नहीं है।
सामायिक तो
पानी होती है,
उसे खरीदा
नहीं जा सकता।
लेकिन
अहंकार उसको
भी खरीदने
निकलता है, भगवान
को भी खरीदने
निकलता है।
अहंकार भगवान को
भी छोड़ नहीं
देना चाहता
मुट्ठी के
बाहर। ऐसा कोई
न कहे कि बस
तुम्हारे पास
धन ही धन है और
कुछ भी नहीं, धर्म बिलकुल
नहीं है।
अहंकार धर्म
को भी खरीदने
जाता है!
लेकिन हमें यह
दिखाई पड़ना
बहुत मुश्किल
होता है! असल
में कठिनाई
क्या है, हमारे
मन में दो
चीजें हैं, या तो
अहंकार है या
विनम्रता है।
विनम्रता अहंकार
का ही रूप है, यह हमारे
खयाल में नहीं
है। निरहंकार
का हमें पता
ही नहीं है।
अहंकार
अहंकार की
विधायक घोषणा
है। विनम्रता
अहंकार की
निषेधात्मक, निगेटिव
घोषणा है। और
निरहंकार की
कोई घोषणा नहीं
है, विनम्रता
की भी नहीं।
इसलिए
कोई महावीर को
विनम्र नहीं
कह सकता। यह बड़ा
मुश्किल होगा
कहना। महावीर
को विनम्र
नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि
विनम्र होता
ही वही है, जिसके
भीतर अहंकार
होता है। हां,
अहंकार को
दबाता है, झुकाता
है, मिटाता
है, गलाता
है। वह कहता
है, मैं तो
धूल से भी
पैरों में
हूं। लेकिन
होता है। इससे
फर्क नहीं
पड़ता। उसके
होने में
रत्ती भर फर्क
नहीं है। वह
कहेगा, मैं
धूल से
भी--तेरे
चरणों की धूल
भी नहीं हूं--धूल
से भी नीचे
हूं, लेकिन
हूं। होने की
घोषणा जारी
रहती है!
इसलिए
हम अहंकारी को
समझ सकते हैं, जो
कहे कि सब कुछ
मैं हूं। हम
विनम्र को समझ
सकते हैं, जो
कहे कि मैं
कुछ भी नहीं, आपके चरणों
की धूल हूं।
लेकिन
निरहंकारी को
हम नहीं समझ
सकते। क्योंकि
न तो वह यह
घोषणा करने
आएगा कि मैं
सब कुछ हूं, और न वह यह
घोषणा करने
आएगा कि मैं
आपके पैरों की
धूल हूं। वह
घोषणा ही नहीं
करेगा, क्योंकि
निरहंकार की
कोई घोषणा ही
नहीं है, वह
अघोषणा है।
तो
महावीर जो
नियंता, परमात्मा,
गुरु, कोई
चरण झुकने के
लिए, इन
सबके प्रति जो
कोई, कोई
संबंध नहीं
रखते हैं, उसका
कारण यह नहीं
है कि अहंकारी
हैं, उसका
कारण कुल इतना
है कि न वे
अहंकारी हैं,
न विनम्र
हैं। और
विनम्र न होने
से हमको कठिनाई
होती है, क्योंकि
हम दो ही तल पर
सोच सकते हैं,
या तो
विनम्र या
अहंकारी। और
हम भूल जाते
हैं कि वे
दोनों एक ही
चीज की
मात्राएं
हैं।
निरहंकारी
को तौलना एकदम
मुश्किल हो
जाएगा। मुश्किल
इसलिए हो
जाएगा कि
हमारे पास तौल
ही नहीं है, हमारे
पास तराजू ही
दो का है, हमारे
पास तराजू ही
अहंकार का है।
यानी हमें ऐसा
लगता है कि
जिस आदमी में
कम अहंकार है,
वह विनम्र
है, जिसमें
ज्यादा
अहंकार है, वह अहंकारी
है। लेकिन
निरहंकार का
मतलब ही और होता
है। वह विनम्र
भी नहीं होता,
अविनम्र भी
नहीं होता, असल में इस
भाषा में वह
होता ही नहीं
है। और तब उसकी
घोषणाएं इन
तलों पर प्रकट
नहीं होतीं।
फिर फलित अर्थ
हम लेते हैं।
महावीर
नियंता के
प्रति, गुरु
के प्रति, परंपरा
के प्रति न तो
विनम्र हैं, न अविनम्र
हैं। ठीक से
समझा जाए तो
ये बातें असंगत
हैं महावीर के
लिए, इससे
कुछ लेना-देना
नहीं है।
मैं इस
बड़े वृक्ष के
पास से निकलूं
और नमस्कार न
करूं तो आप
कोई भी मुझे
अविनम्र नहीं
कहेंगे। लेकिन
एक महात्मा के
पास से निकलूं
और नमस्कार न
करूं तो आप
कहेंगे
अविनम्र है!
लेकिन यह भी
हो सकता है कि
मेरे लिए
दरख्त और
महात्मा
बिलकुल बराबर
हों। यानी
मेरे लिए
असंगत हो, यह
बात असंगत हो,
इस बात से
ही मुझे कुछ
लेना-देना न
हो। लेकिन
आपकी तौल में
एक स्थिति में
मैं विनम्र हो
जाऊंगा, एक
स्थिति में
अविनम्र हो
जाऊंगा, और
जब कि मुझे
इसका कुछ पता
ही न था।
एक
फकीर एक गांव
से निकल रहा
है और एक आदमी
एक लकड़ी उठा
कर उसको मारा
है पीछे से।
चोट लगने से लकड़ी
उसके हाथ से
छूट गई है और
एक तरफ गिर गई
है। उस फकीर
ने पीछे लौट
कर देखा, लकड़ी
उठा कर उस
आदमी के हाथ
में दे दी और
अपने रास्ते
चला गया।
एक
दुकानदार यह
सब देख रहा है, उसने
फकीर को
बुलाया कि
कैसे पागल हो!
तुम्हें उसने
लकड़ी मारी, उसकी लकड़ी
छूट कर गिर गई
तो तुमने
सिर्फ इतना ही
कृत्य किया कि
उसकी लकड़ी
उसको उठा कर
वापस देकर
अपने रास्ते
पर चले गए?
तो उस
फकीर ने कहा, एक
दिन मैं एक
झाड़ के नीचे
से गुजरा था, उसकी एक
शाखा गिर पड़ी
मेरे ऊपर तो
मैंने कुछ न किया।
मैंने कहा, संयोग की
बात कि जब
शाखा गिरनी थी,
हम उसके
नीचे आ गए। तो
शाखा सरका कर,
रास्ते के
किनारे करके
मैं चला गया
था। संयोग की
बात कि इस
आदमी को लकड़ी
मारनी होगी, हम पड़ गए। तो
अब इसकी लकड़ी
छूट गई थी तो
उसको उठा कर
देकर--और हम
क्या कर सकते
हैं--हम अपने
रास्ते चल
पड़े। जो मैंने
वृक्ष के साथ
व्यवहार किया
था, वही
मैंने इस आदमी
के साथ भी
किया है।
एक
स्थिति ऐसी हो
सकती है, जहां
हमारे प्रश्न
असंगत हो जाते
हैं, इर्रिलेवेंट
हो जाते हैं।
क्योंकि हम जब
सोचते हैं तो
हम दो ही में
सोच सकते हैं,
द्वंद्व
में सोच सकते
हैं। और जो
लोग भी द्वंद्व
के बाहर होते
हैं, वे
हमेशा
मिसअंडरस्टुड
होते हैं। यह
उनका भाग्य है,
यह उनकी
नियति है कि
उनको कभी नहीं
समझा जा सकेगा।
क्योंकि जिस
तल पर हम समझ
सकते थे, उस
तल पर उनका
कोई भी रूप
नहीं बनता है
कि वे कैसे
आदमी हैं।
महावीर
अविनम्र हैं, ईगोइस्ट
हैं, विनम्र
हैं, हंबल
हैं, कुछ
तय करना
मुश्किल है।
क्योंकि ऐसा
कोई प्रसंग ही
नहीं, जिसमें
वे कोई भी
घोषणा करते
हों। तब हमारे
ऊपर ही निर्भर
रह जाता है कि
हम निर्णय कर
लें। और हमारे
निर्णय वे ही
होने वाले हैं,
जो हमारी
तौल है, हमारा
मापदंड है।
महावीर उस तौल
के बाहर हैं।
इसलिए
मैं कहना
चाहूंगा कि
महावीर से
ज्यादा निरहंकारी
थोड़े ही लोग
हुए हैं। हां, महावीर
से ज्यादा
विनम्र लोग
हुए हैं, महावीर
से ज्यादा
अहंकारी लोग
हुए हैं, लेकिन
महावीर से
ज्यादा
निरहंकारी
लोग मुश्किल
से हुए हैं।
महावीर से
ज्यादा
विनम्र आदमी
मिल जाएगा जो
झुक-झुक कर, जमीन पर
झुक-झुक कर
नमस्कार
करेगा।
महावीर झुकेंगे
ही नहीं, क्योंकि
कौन झुके? किसके
लिए झुके? वह
बात ही व्यर्थ
है। वह बात ही
व्यर्थ है।
फिर जब
कोई आदमी
झुकता है तो
हम कहते हैं, विनम्र।
लेकिन किसलिए
झुकता है? किसी
अहंकार की
पूजा में? किसी
अहंकार की
पूजा में ही
झुकता है न!
किसी अहंकार
के पोषण में
ही झुकता है न!
और महावीर तो
कहते हैं कि
मेरा अहंकार
तो बुरा है ही,
किसी का भी
अहंकार बुरा
है। मैं झुकूं
और आपकी
बीमारी बढ़ाऊं,
यह भी
बेमानी है।
यानी अगर इसे
हम ठीक से
समझें तो मैं
झुकूं आपके
चरणों में और
आपके दिमाग को
फिराऊं, यह
भी पाप है।
मैं तो
झुकूंगा, आपको
बड़ा रस भी
आएगा कि यह
आदमी बड़ा
विनम्र है।
लेकिन रस ही
इसलिए आएगा कि
आपके अहंकार
को तृप्ति
मिलती चली
जाएगी।
तो
महावीर से तो
कोई पूछे तो
वे कहेंगे कि
देवताओं का
दिमाग भी
आदमियों ने
खराब कर दिया
है। अगर कहीं
भगवान भी है
तो अब तक पागल
हो गया होगा।
यह जो झुकना
चल रहा है, यह
दूसरे के
अहंकार को
पोषण चल रहा
है...।
निरहंकारी
न तो अहंकार
में जीता, न
अहंकार को
पोषण देता, इसलिए उसके
जीवन का तल, उसकी
अभिव्यक्ति
बिलकुल बदल
जाती है। उसे
पकड़ पाना
मुश्किल हो
जाता है कि हम
उसे कहां पकड़ें
और कहां
तौलें। इसलिए
महावीर के साथ
भी कठिनाई
मालूम हो सकती
है।
दूसरा
कपिल पूछते
हैं--क्या
पूछा तुमने?
प्रश्न:
आप
बेशर्त प्रेम
कहते हैं। तो
फिर महावीर
शर्त क्यों
लगाते हैं?
मैं
कहता हूं कि
प्रेम सदा
बेशर्त है।
प्रेम सदा बेशर्त
है,
क्योंकि
जहां शर्त है,
वहां सौदा
है। जहां हम
कहते हैं कि
मैं तब प्रेम
करूंगा, जब
ऐसा हो। जब
मैं कहता हूं
कि मैं प्रेम
करूंगा, जब
तुम ऐसा करो
या ऐसे हो जाओ,
या ऐसे बनो,
तब मैं
तुम्हें
प्रेम करूंगा,
ऐसा आदमी
प्रेम को शर्त
से बांध रहा
है और ऐसा आदमी
प्रेम को खो
रहा है।
महावीर
की जिन शर्तों
की बात की है, वे
प्रेम के
संबंध में
नहीं हैं।
महावीर यह
नहीं कहते कि
जगत ऐसा करे
तो मैं प्रेम
करूंगा, जगत
मुझे भोजन दे
तो मैं प्रेम
करूंगा। नहीं,
यह बात ही
नहीं है, प्रेम
का मामला ही
नहीं है।
महावीर तो यह
कहते हैं कि
अगर जगत को
मेरे प्रति
प्रेम हो, अगर
अस्तित्व को
मेरे प्रति प्रेम
हो तो मुझे
कैसे पता चले?
मैं कैसे
जानूं कि यह
सारा
अस्तित्व
मुझे बचाना
चाह रहा है और
उपयोगी मान
रहा है और समझ
रहा है कि मैं
जीऊं एक क्षण
और तो इसके
लिए फायदा हो
जाए? यह
मुझे कैसे पता
चले? इसे
मैं कैसे
जानूं? तो
महावीर कहते
हैं कि मैं
कुछ शर्त लगाए
देता हूं, जिनकी
पूर्ति मुझे
खबर दे देगी
कि अभी जीना
है, अभी
काम का हूं।
मेरा मतलब
समझे न?
महावीर
यह नहीं कह
रहे हैं कि ये
शर्तें जगत पूरी
करेगा तो मैं
प्रेम
करूंगा। जगत
के प्रति प्रेम
तो है ही, यह
सवाल ही नहीं
है शर्त का
कोई। शर्त
प्रेम पाने के
लिए नहीं बांधी
जा रही है, सिर्फ
इस बात की
जानकारी के
लिए बांधी जा
रही है कि अगर
मुझे जिलाना
हो तो जगत
मुझे जिलाए, मैं नहीं
जीऊंगा।
महावीर यह कह
रहे हैं कि
मैं अपनी तरफ
से जीने का
उपक्रम नहीं
करूंगा, यह
मेरी चेष्टा
नहीं होगी कि
मैं जीऊं। असल
में हो भी यही
सकता है। क्योंकि
जिसका मैं ही
मिट गया हो, अब उसे जीने
की लालसा, जिजीविषा
क्या हो सकती
है! अब तो यही
हो सकता है कि
अगर जरूरत
हो...।
जैसे
समझो, मैं बोल
रहा हूं।
बोलने के दो
कारण हो सकते
हैं। या तो
बोलना मेरी
भीतरी वासना
हो कि मैं बिना
बोले न रह
सकूं, यानी
मुझे बोलना ही
पड़े। अगर इस
कमरे में कोई
भी न हो तो
दीवाल से बोलना
पड़े, तब
बोलना मेरी
विक्षिप्तता
होगी।
क्योंकि तब
बोलने से
मैं--बोलने
वाले से मेरा
कोई संबंध ही
नहीं है। मैं
भीतर बेचैन
हूं और मुझे
कुछ बोलना है,
निकालना
है। जैसे पागल
बोलता है, रास्ते
पर अकेले में
भी बोलता है, दीवाल से भी
बोलता है।
इससे फर्क
नहीं पड़ता कि
सुनने वाले
बैठे हों तो
जरूरी नहीं है
कि बोलने वाला
आदमी पागल न
हो, यह कोई
जरूरी नहीं
है। यह तो पता
तब चलेगा, जब
हम उसे अकेली
दीवाल के पास
छोड़ दें और वह
न बोले।
अगर
बोलना भीतरी
पागलपन है तो
सुनने वाला
सिर्फ बहाना
है,
निमित्त है,
उस पर
जबरदस्ती
थोपा जा रहा
है। लेकिन अगर
बोलना भीतरी
पागलपन नहीं
है और मेरी
अपनी कोई जरूरत
नहीं है, और
मुझे लगता है
कि तुम्हारी
जरूरत है, तुम्हारे
काम आ जाऊं, तब मैं
शर्तें लगा
दूंगा। ताकि
मुझे पता तो
चल जाए कि मैं
तुम्हारे लिए
बोल रहा हूं
कि अपने लिए
बोले जा रहा
हूं?
तो मैं
कहूंगा, चुप
बैठना तो ही
मैं बोलूंगा।
यानी मुझे यह
तो पता चल जाए
कि तुम सुनने
को तैयार हो, तुम सुनने
को आए हो। अगर
तुम सुनने को
ही नहीं हो, तब भी मैं
बोले चला जा
रहा हूं, तब
वह मेरा भीतरी
पागलपन हो
गया। तो मैं
एक शर्त लगा
दूंगा कि तुम
चुप होकर
सुनना, तुम
बैठ कर सुनना,
तो मैं
बोलूंगा। और
जिस क्षण तुम
उठ कर खड़े हो जाओ
या बोलने लगो,
मैं बोलना
बंद कर दूंगा,
विदा हो
जाऊंगा। मेरा
मतलब समझ रहे
हैं न?
महावीर
यह कह रहे हैं
इस पूरे
अस्तित्व से
कि अगर जरूरत
हो दरख्तों को, अगर
हवाओं को, सूरज
को, चांदत्तारों
को, परमात्मा
को, टोटल
को--परमात्मा
महावीर के लिए
व्यक्ति नहीं
है--समग्र को
अगर जरूरत हो
मेरी, तो
बताए जाना कि
मेरी जरूरत है,
तो मैं चलता
चला जाऊंगा।
जिस दिन तुम
कह दोगे कि
जरूरत नहीं है,
तो अब मेरी
कोई जरूरत
नहीं है एक
इंच भी आगे
जाने की।
तो
महावीर की जो
शर्त है, वह
प्रेम के लिए
लगाई गई शर्त
नहीं है; वह
शर्त अपने
होने के लिए
लगाई गई शर्त
है कि मैं अभी
बिखर जाऊंगा
इसी क्षण। एक
क्षण भी मैं नहीं
कहूंगा कि और
मुझे रुक जाने
दो। अभी मुझे
कुछ कहना था, अभी मुझे
कुछ करना था, यह सवाल नहीं
है। तुम्हारी
खबर आ जाए, तो
मैं अभी बिखर
जाऊंगा।
प्रश्न:
दुबारा
उनका आना भी
जगत की जरूरत
है?
बिलकुल
ही जगत की
जरूरत है। जगत
की ही जरूरत
है। लेकिन
जैसे ही किसी
व्यक्ति को
आनंद उपलब्ध होता
है,
जैसे ही
किसी व्यक्ति
को आनंद
उपलब्ध होता
है, वैसे
ही सारे जगत
के प्राण उससे
पुकार करने
लगते हैं कि
बांटो।
क्योंकि जगत
इतना दुख में
है, इतनी
पीड़ा में है, इतने कष्ट
में है कि जब
भी कभी कोई एक
व्यक्ति भी
आनंद को
उपलब्ध हो
जाता है तो
सारे जगत के प्राणों
से यह पुकार
घूम-घूम कर
उसके पास
पहुंचने लगती
है कि बांटो।
वह बांटना ही
लौटाता है। वह
बांटने की जो,
जो चारों
तरफ से उठा
हुआ दबाव है, वही लौटाता
है। यह एकदम
से हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
मुझे
लोग पूछते हैं, आप
किसलिए बोलते
हैं? तो
उनका सवाल ठीक
ही है, क्योंकि
बोलता मैं हूं
तो सवाल मुझसे
ही पूछा जाएगा।
यह
खयाल में आना
कठिन है कि
कोई सुनने को
आतुर हो गया
है,
इसलिए
बोलता हूं।
जगत की स्थिति
में तो घटनाएं
उलटी ही
घटेंगी। मैं
बोलूंगा, तब
सुनने वाला
आएगा। लेकिन
अंतस जगत में
घटना इससे
बिलकुल भिन्न
है। कोई सुनने
वाला पुकारेगा,
तभी मैं
बोलूंगा।
जैसे कि हम
नदी के किनारे
खड़े हो जाएं
तो नदी में
दिखाई पड़ता है
कि सिर नीचे
है और पैर ऊपर
हैं, लेकिन
वस्तुतः जो
किनारे पर खड़ा
है, उसका
सिर ऊपर है और
पैर नीचे हैं।
लेकिन नदी में
जो प्रतिबिंब
बनता है, वह
उलटा बनता है।
जीवन
में जो
प्रतिबिंब
बनते हैं, वे
उलटे बनते हैं,
अंतस तल पर
जो प्रतिबिंब
हैं, वे
बिलकुल उलटे
हैं। अंतस तल
में सुनने
वाला पहले
मौजूद हो जाता
है, तब
बोलने वाला
आता है। बाहर
के जगत में
बोलने वाला
पहले दिखाई
पड़ता है, तब
सुनने वाला
इकट्ठा होता
है। यह हमें
खयाल में न आए
तो मुश्किल हो
जाती है।
महावीर
को नहीं कह
सकोगे जाकर कि
आप क्यों बोल
रहे हो? क्योंकि
महावीर
कहेंगे कि तुम
क्यों सुन रहे
हो? तुम
सुनने पहले आ
गए हो, तब
मैं बोलने आया
हूं।
मगर
हमें यह दिखाई
नहीं पड़ेगा, क्योंकि
जिस जगत में
हम जीते हैं
वह छाया का, प्रतिफलन का,
रिफ्लेक्शन
का जगत है।
वहां चीजें
सीधी नहीं हैं,
वहां चीजें
उलटी हैं। वहां
बिलकुल चीजें
उलटी हैं।
वहां हमें सब
चीजें उलटी
दिखाई पड़ती
हैं, जैसी
वे नहीं हैं।
और तब हम उसी
हिसाब से सब
सोचते हुए
चलते हैं।
अगर
महावीर
तुम्हारे
गांव में भी
आएंगे तो तुम
कहोगे कि
क्यों आए हैं
आप यहां? और
मजा यह है कि
तुम्हीं ने
बुलाया था।
लेकिन तुम्हारे
बुलाने के
प्रति भी तो
तुम चेतन नहीं
हो, उतने
भी तो तुम
कांशस नहीं
हो! और महावीर
को यह पीड़ा भी
झेलनी पड़ेगी
कि तुम्हीं ने
बुलाया था और
तुम्हीं
पूछोगे कि
कैसे आप आए
हैं यहां?
बुद्ध
एक गांव में
जा रहे हैं, सुबह-सुबह
का वक्त है, वे उस गांव
में प्रवेश
करने को हैं
और एक लड़की, एक ग्रामीण
लड़की, एक
किसान लड़की
अपने पति के
लिए भोजन लेकर
खेत की तरफ
जाती है। तो
रास्ते में
बुद्ध को कहती
है कि मैं जब
तक न लौट आऊं, बोलना शुरू
मत कर देना।
तो बुद्ध उससे
कहते हैं, तेरे
लिए ही तो मैं
आ रहा हूं
भागा हुआ, अगर
तू न होगी तो
बोलना शुरू
करके भी क्या
करूंगा! आनंद
बहुत मुश्किल
में पड़ जाता
है, वह
पूछता है, आप
यह क्या कहते
हैं? इस
लड़की के लिए
भागे चले आ
रहे हैं दूसरे
गांव से!
उन्होंने कहा,
इसी लड़की के
लिए। और देखो,
वही लड़की
मुझसे कहती है
कि बोलना शुरू
मत कर देना, जब तक मैं न आ
जाऊं। और मैं
उसी के लिए आ
रहा हूं।
फिर वह
लड़की चली गई
है। गांव में
बुद्ध पहुंच गए
हैं,
भीड़ इकट्ठी
हो गई है। लोग
कहते हैं, अब
आप बोलें, अब
आप शुरू करें।
और बुद्ध
चारों तरफ
देखते हैं, वह लड़की अभी
तक नहीं लौटी।
और आनंद कहते
हैं कि लोग
क्या कहेंगे
कि आप उस लड़की
के लिए रुके
हैं। आप
बोलिए! तो
बुद्ध ने कहा,
मैं जिसके
लिए आया हूं, और जो
रास्ते में
मुझे कह भी गई
कि रुकना, यह
कैसे हो सकता
है कि मैं बोल
दूं! सांझ
घिरने लगी, लोग विदा
होने लगे, तब
वह लड़की भागी
हुई आई और वह
कहती है कि
बड़ी मुश्किल
में पड़ गई।
पति बीमार हो
गया। उसको कोई
कीड़ा काट गया,
कुछ हो गया।
मैं वहां उलझ
गई और मैं बड़ी
परेशान थी कि
कहीं आप बोलना
शुरू न कर
दें।
बुद्ध
कहते हैं, लेकिन
तेरे बिना बोल
कर करता भी
क्या? तेरे
लिए भागा हुआ
आया हूं। तुझे
पता नहीं, तूने
मुझे पहले
बुलाया है, मैं पीछे
चला हूं।
लेकिन
हमारी दुनिया
में जहां हम
जीते हैं, वहां
चीजें बिलकुल
उलटी हैं।
वहां बुद्ध
पहले आए हैं, पीछे लड़की
सुनती है। और
तब हमारे सब
सवाल उलटे
हैं। क्योंकि
हमारे सब सवाल
जहां से उठते
हैं, वहां
चीजें बिलकुल
उलटी हैं।
और
महावीर के
प्रेम में कोई
शर्त नहीं है।
शायद उतना
बेशर्त प्रेम
ही कभी नहीं
हुआ,
बिलकुल
बेशर्त है
प्रेम। लेकिन
महावीर अपने अस्तित्व
के लिए शर्तें
बांध रहे हैं।
वे जो शर्तें
हैं, वे
अपने
अस्तित्व के
लिए हैं; वे
तुम्हारे
प्रेम के लिए
नहीं हैं। वे
यह हैं कि
कहीं ऐसा न हो
जाए कि
तुम्हारा
प्रेम भी विदा
हो चुका है, अस्तित्व को
जरूरत नहीं है
और मैं जीए
चला जाऊं, तब
बेमानी हो
जाएगी बात। एक
क्षण भी नहीं,
एक क्षण भी
मुझे खबर कर
देना।
और कोई
परमात्मा को
महावीर मानते
नहीं हैं जो कि
खबर कर दे।
कोई भगवान
नहीं है जो कह
दे कि अब बस
लौट आओ। यह तो
पूरा
अस्तित्व, समग्र
ही खबर करे तो
ही पता चलने
वाला है, और
कोई उपाय नहीं
है। महावीर
अगर किसी
भगवान को
मानने वाले
हों तो यह कह
देंगे कि मुझे
कह देना कि
मैं विदा हो
जाऊं।
लेकिन
यह समग्र
अस्तित्व
कैसे कहेगा? हवाएं
कैसे कहेंगी?
फूल कैसे
कहेंगे? वृक्ष
कैसे कहेंगे?
चांदत्तारे
कैसे कहेंगे?
एक्झिस्टेंस
कैसे कहेगा? तो महावीर
कहते हैं कि
मैं शर्त लगा
लेता हूं, ताकि
मुझे पता चलता
जाए कि बस अब
इसके आगे नहीं
जाना, अब
बात खतम हो गई,
मेरी जरूरत
विदा हो गई, मैं चुकता
हो गया।
इस
करुणा को हम
नहीं समझ सकते
कि एक क्षण भी
वे हम पर बोझ
की तरह नहीं
जीना चाहते हैं।
वे एक क्षण को
भी बोझ नहीं
बनना चाहते हैं, क्योंकि
जो मुक्ति
बनने की कामना
लेकर खड़ा हो, वह बोझ नहीं
बन सकता है।
शर्त जो है, वह अपने
अस्तित्व के
लिए है, वह
प्रेम के लिए
नहीं है।
प्रेम तो सदा
बेशर्त है, लेकिन अपना
अस्तित्व सदा
सशर्त होना
चाहिए। अपना
अस्तित्व
बेशर्त हो जाए
तो बहुत
मुश्किल की
बात है। वह
प्रेम के ऊपर
भारी पड़ेगा, बहुत भारी
पड़ जाएगा।
प्रश्न:
एक
और बात है।
मेहरबाबा की
बता रहे थे आप, कि
दो बार
एक्सीडेंट जब
होने लगा तो
वह बच गए। क्योंकि
उनको पहले पता
चल गया था।
लेकिन आप पत्ते
की भांति अपने
आपको खुला
छोड़ना चाहते
हैं। और तीसरा,
जब दलाई
लामा तिब्बत
से आए तो आपने
उसको ठीक बोला।
तो यह कैसे
एक-दूसरे से...?
हां, हां,
हां। असल
में मेहरबाबा
को मैं कहूंगा
गलत, क्योंकि
बचना चाहते
हैं वे खुद।
प्रश्न:
मेहरबाबा
के अंदर जो
प्रेरणा उठी
वह परमात्मा
की उठी थी?
यह
दूसरी बात है, इसको
फिर पीछे पूछ
लेना।
मेहरबाबा
को मैं कहूंगा
गलत,
क्योंकि वे
खुद बचना
चाहते हैं।
प्रेरणा परमात्मा
की होती तो उस
हवाई जहाज में
किसी को भी न
बैठने दिया
होता। वह हवाई
जहाज तो गिरा
ही, मेहरबाबा
ही बच गए न! उस
हवाई जहाज के
लोग मरे ही।
प्रेरणा
परमात्मा की
होती तो वह
कहते, हवाई
जहाज को नहीं
जाने दूंगा।
चाहे मुझे मार
डालो, इसको
आगे नहीं बढ़ने
दूंगा।
प्रेरणा अपने
ही जीवन-अस्तित्व
की है। तो खुद
तो बच गए हैं, हवाई जहाज
तो चला गया
है। उस मकान
में, जिसमें
वे ठहरने गए
थे, खुद तो
नहीं ठहरे, लेकिन किसी
को उन्होंने
नहीं कहा कि
इसमें कोई मत
ठहरे। मकान
रात गिर गया, कोई ठहर भी
सकता था।
मेहरबाबा को
मैं गलत कहूंगा,
क्योंकि
बचने की
आकांक्षा
अपनी है।
और
दलाई को मैं
गलत नहीं
कहूंगा, क्योंकि
अपने बचने की
कोई आकांक्षा
ही नहीं है।
दलाई के लिए
बचना तो यही सरल
हुआ होता कि
वह वहीं रह
जाता और
चीनियों के
साथ हो जाता।
तो दलाई को
बचना ज्यादा
सरल था, वह
ज्यादा
सुविधापूर्ण
था। दलाई तो
मुश्किल में
पड़ा, अपने
लिए तो
मुश्किल में
पड़ गया, बचा
रहा है कुछ जो
सबके काम का
है।
इस
फर्क को समझ
लेना।
मेहरबाबा बच
रहे हैं खुद; दलाई
बचा रहा है
कुछ, जो
सबके काम का
है। और उस
बचाने में
दलाई अपनी जान
को दांव पर
लगा रहा है।
मेरा खयाल ले
रहे हो तुम? दलाई अपनी
जान को दांव
पर लगा रहा
है। दलाई का भागना
दांव पर लगाना
है जान को। और
एक अर्थ में
शायद वह कभी
नहीं लौट
सकेगा अब। वह
रुक जाता, सुलह
कर लेता, वह
राजा भी बना
रह सकता था, वह पद पर भी
हो सकता था।
इसमें कोई
कठिनाई न थी, सारा यश, वैभव,
सब चल सकता
था। बात कुल
इतनी थी कि वह
चीन को स्वीकृति
दे देता कि
तुम हमारे
मालिक हो, हम
तुम्हारे
उपनिवेश हैं,
बात खतम
होती थी।
नहीं, इसने
अपने को नहीं
बचाना चाहा, यह सब खोकर, सब बरबाद
करके, सारी
जिंदगी को
कष्ट में डाल
कर भागा है
कुछ और बचाने
को, जो
इसके अपने
बचने से भी
ज्यादा
मूल्यवान है। जो
यह मरेगा तो
भी कोई हर्ज
नहीं, लेकिन
कुछ बच जाएगा
जो आगे काम पड़
सकता है। इसका
हमें खयाल
नहीं है।
तो मैं
जब कहता हूं
अहंकार के लिए
बचाना, अपने
लिए बचाना, तो दो कौड़ी
की बात है। उस
अर्थ में तो
आदमी को पत्ते
की तरह जीना
चाहिए। सूखे
पत्ते की तरह,
हवाएं जहां
ले जाएं।
लेकिन जहां तक
सबके हित में
आने वाली कोई
बात हो, सबके
कल्याण में
आने वाली कोई
बात हो और कुछ
ऐसी संपदा हो,
जो कि मेरे होने
न होने से
संबंधित नहीं
है, पीछे
भी काम पड़
सकती है, उसके
बचाने के लिए
जरूर कुछ श्रम
किया जा सकता
है। महावीर भी
वह श्रम कर
रहे हैं।
यह जो
मैं फर्क कर
रहा हूं, वह
फर्क सिर्फ
इतना है कि
तुम अपने
स्वार्थ के
लिए उपयोग कर
रहे हो कि
तुम्हारा कोई
भी स्वार्थ नहीं
है? उसी
दृष्टि से एक
को गलत कहूंगा,
एक को सही
कह दूंगा।
निर्णायक बात
यह होगी कि उसका
अपना कोई
स्वार्थ है
निजी या कि
बृहत्तर।
दलाई
को कोई छाती
में छुरा मार
दे तो दिक्कत
नहीं है, कठिनाई
नहीं है, लेकिन
जो उसके पास
है--और
निश्चित ही एक
ऐसी इसोटेरिक
साइंस उसके
पास है, जो
इस समय पृथ्वी
के दो-चार
लोगों की समझ
में आ सकती है,
पास होने की
तो बात दूर
है। क्योंकि
पिछले डेढ़-दो
हजार वर्ष से
सारी दुनिया
से टूट कर अलग
तिब्बत एक
प्रयोग कर रहा
है।
हमें
खयाल में नहीं
होता यह। हमें
खयाल में नहीं
होता। दूसरा
महायुद्ध हुआ, दूसरा
महायुद्ध
जर्मनी जीत
सकता था, सिर्फ
एक आदमी
जर्मनी छोड़ कर
भाग गया और
हारना पड़ा, वह
आइंस्टीन।
जर्मनी जीत
सकता था।
जर्मनी के हारने
का कोई कारण न
था, लेकिन
जो सीक्रेट्स
थे, वे एक
आदमी के हाथ
में
थे--आइंस्टीन
के। और वह था
यहूदी। और
यहूदियों को
सताए जाने के
कारण
आइंस्टीन ने
जर्मनी छोड़
दिया।
जो एटम
बम अमरीका में
बना,
वह बर्लिन
में बना होता।
सीक्रेट एक
आदमी के पास
था, एक ही
आदमी के पास
था बस। वह
सीक्रेट जाकर
अमरीका में
उपयोगी हो
गया। एटम वहां
बना, हिरोशिमा
पर गिरा। वह
हो सकता था
लंदन पर गिरता
कि न्यूयार्क
पर गिरता कि
मास्को पर
गिरता, कुछ
पक्का नहीं
था। एक बात
पक्की थी कि
आइंस्टीन के
बिना वह कहीं
भी नहीं गिर
सकता था। जहां
आइंस्टीन
होता, वह
वहीं, उसके
ही काम में
आने वाला था।
आज तो
तुम हैरान
होओगे कि इतनी
कीमत कभी नहीं
थी लोगों में।
आज दुनिया में
दस-बारह
वैज्ञानिकों
की इतनी कीमत
है कि अरबों
रुपए देकर एक
वैज्ञानिक को
चुरा लेना
काफी बड़ी बात
है। खरबों
खर्च हो जाएं, कोई
फिक्र नहीं है,
एक
वैज्ञानिक को
फुसला लेना
काफी बड़ी बात
है। एक
वैज्ञानिक से
एक सीक्रेट
लेना काफी बड़ी
बात है।
क्योंकि वह
दस-बारह ही
लोगों के आज
हाथ में सारी
बात है दुनिया
की।
जिस
तरह पदार्थ के
विज्ञान के
संबंध में यह
स्थिति हो गई
है,
ठीक वैसी
स्थिति
अध्यात्म
विज्ञान की भी
है। आज
मुश्किल से
दुनिया में
दो-चार लोग
हैं, जो उस
गहराई पर
समझते हैं।
लेकिन उनके
पास भी पूरा
का पूरा
हजारों
वर्षों के
अनुभव का सार
नहीं है।
एक
घटना तुम्हें
बताऊं। एक
आदमी था
गुरजिएफ। गुरजिएफ
ने अपनी
जिंदगी के
पहले वर्ष एक
अदभुत खोज में
लगाए, जैसा कि
इस सदी में
किसी आदमी ने
नहीं किया, पिछली
सदियों में भी
किसी ने नहीं
किया। पंद्रह-बीस
मित्रों ने यह
निर्णय लिया
कि दुनिया के
कोने-कोने में
जो भी
आध्यात्मिक
सत्य छिपे हैं,
वे सब
अलग-अलग कोनों
में चले जाएं
और उन सत्यों
को खोज कर, जब
खोज लें तो
लौट आएं और
बीसों मिल कर
सब अपने अनुभव
बता दें, ताकि
एक सुनिश्चित
विज्ञान बन
सके।
ये बीस
आदमी दुनिया
के
कोनों-कोनों
में चले गए।
इनमें कोई
तिब्बत जाने
वाला था, कोई
भारत, कोई
ईरान, कोई
इजिप्त, कोई
यूनान, कोई
चीन, कोई
जापान; ये
सारे दुनिया
में फैल गए।
इन बीसों
आदमियों ने
बहुत खोज की, पूरी जिंदगी
लगा दी।
क्योंकि एक-एक
आदमी की जिंदगी
बहुत छोटी थी,
जो जानने को
था वह बहुत
ज्यादा था।
अब अगर
एक आदमी
सूफियों के
पास सीखने जाए
तो पूरी
जिंदगी लग
जाती है। क्योंकि
सूफियों की
व्यवस्था यह
है कि एक फकीर
एक सूत्र
सिखाएगा, वर्ष
लगा देगा, दो
वर्ष लगा देगा;
फिर कहेगा
कि अब तुम
फलां आदमी के
पास चले जाओ, इसके आगे वह
तुमसे बात
करेगा। तो
दूसरे फकीर के
पास चले
जाओगे। और
वर्ष, दो
वर्ष तो सेवा
करो उसकी, हाथ-पैर
दाबो उसके, वह जो कहे
मानो।
क्योंकि कुछ
बातें ऐसी हैं,
कुछ बातें
ऐसी हैं कि वे
तुम्हें तभी
दी जा सकती
हैं, जब
तुम इतना
धैर्य दिखलाओ,
नहीं तो तुम
उसके योग्य
नहीं, पात्र
नहीं। तो वह
धैर्य अगर
उतना न हो तो
तुम्हारा
पात्र टूट जाएगा,
वे चीजें
तुम्हें नहीं
दी जा सकतीं।
उन बीस
लोगों ने सारी
दुनिया में
खोज-बीन की और
वे बीस लोग
बूढ़े
होते-होते
करीब लौट कर
मिले। उनमें
से कुछ तो मर
गए। कुछ कभी
नहीं लौटे, कहां
खो गए, पता
नहीं चला।
लेकिन चार-छह
जो मित्र लौटे,
उन्होंने
जो-जो सूचनाएं
दीं, उन
सूचनाओं के
आधार पर
गुरजिएफ ने एक
पूरी साइंस
खड़ी की। उसमें
उन सूत्रों की
पकड़ उसके हाथ में
आ गई, जो
सारी दुनिया
में फैले हुए
हैं।
आध्यात्मिक
विज्ञान के
संबंध में
तिब्बत के पास
सबसे बड़ी
संपदा है। और
दलाई लामा के
लिए उपयोगी है
कि वह सबकी
फिक्र छोड़ दे, तिब्बत
की भी फिक्र
छोड़ दे, तिब्बत
का भी
बनना-मिटना
उतना कीमत का
नहीं है।
तिब्बत के लोग
इस राज्य में
रहते हैं कि
उस राज्य में,
यह भी बड़े
मूल्य की बात
नहीं है। वे
किस तरह की व्यवस्था
बनाते हैं
समाज की, शासन
की, वह भी
मूल्यवान
नहीं है।
मूल्यवान यह
है कि इन डेढ़
हजार वर्षों
में एक
प्रयोगशाला
की तरह तिब्बत
ने जो काम
किया है, वे
सूत्र नष्ट न
हो जाएं; उनको
भाग कर बचाना
जरूरी है।
मेरा
मतलब कुल इतना
है। न
मेहरबाबा से
कोई मतलब है
मुझे, न दलाई
लामा से कोई
मतलब है। मेरा
मतलब कुल इतना
है कि एक तो
दिशा वह है, जहां हम परम
कल्याण के लिए
कुछ बचा रहे
होते हैं और
एक दिशा वह है,
जहां हम
अपने कल्याण
के लिए कुछ
बचा रहे होते हैं।
दोनों में
फर्क करना
जरूरी है।
प्रश्न:
अहिंसा
का विधायक
स्वरूप क्या
है?
और महावीर
ने किसी की
शारीरिक
सहायता क्यों
नहीं की?
अहिंसा
शब्द से ही
निगेटिव का, निषेध
का, नकारात्मक
का बोध होता
है। बोध होता
है, हिंसा
नहीं। तो
अहिंसा शब्द
ही नकारात्मक
है। महावीर ने
क्यों उस शब्द
को चुना? वे
प्रेम भी चुन
सकते थे।
प्रेम विधायक
शब्द है, वह
पाजिटिव है।
अहिंसा
का मतलब होता
है,
किसी को दुख
नहीं देना है।
प्रेम का मतलब
होता है, किसी
को सुख देना
है। अहिंसा का
मतलब है, किसी
को दुख नहीं
देना है।
इसलिए
निषेधात्मक है।
यानी अगर
मैंने आपको
दुख नहीं दिया
तो मैं अहिंसक
हो गया। प्रेम
विधायक शब्द
है। प्रेम का
मतलब है, किसी
को सुख देना
है। तो मैंने
आपको दुख नहीं
दिया, इतने
से ही काफी
बात नहीं हल
होती, मैंने
आपको सुख दिया
कि नहीं? अगर
सुख दिया तो
ही प्रेम पूरा
होता है।
तो
प्रेम तो
विधायक शब्द
है। जीसस ने
प्रेम का
उपयोग किया।
अहिंसा
निषेधात्मक
शब्द है और महावीर
ने अहिंसा का
उपयोग किया।
इसलिए समझना बहुत
जरूरी है।
महावीर क्यों
ऐसा प्रयोग
करते हैं कि
किसी को दुख
नहीं देना है?
इसमें
बड़ी गहराइयां
छुपी हुई हैं।
ऊपर से देखने
पर यही लगेगा
कि प्रेम शब्द
का प्रयोग ही
ज्यादा ठीक
हुआ होता। और
जहां तक समाज
का संबंध है, शायद
ज्यादा ही ठीक
हुआ होता।
क्योंकि जिन
लोगों ने
महावीर का
अनुगमन किया,
उन्होंने
किसी को दुख
नहीं देना, इसको सूत्र
बना लिया। और
एक अर्थ में
किसी को दुख न
देने के कारण
वे सिकुड़ते
चले गए, क्योंकि
किसी को सुख
तो देना नहीं
है, बस दुख
नहीं देना है।
चींटी पैर से
न दबे, इतना
काफी हो गया!
चींटी भूखी मर
जाए, इससे
क्या
लेना-देना है?
यानी चींटी
अपने कर्मों
का फल भोगती
होगी। चींटी
भूखी मर जाए, इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है हमारा।
हमने चींटी को
पैर से दबा कर
नहीं मारा, हमारा काम
पूरा हो गया!
महावीर
का
निषेधात्मक
शब्द समाज के
लिए महंगा
पड़ा। और जो
लोग अनुगमन
किए,
उनके लिए तो
भारी महंगा
पड़ा। इसलिए
हिंदुस्तान में
जैनियों से
ज्यादा
स्वार्थी लोग
खोजने मुश्किल
हैं--सेल्फिश।
क्योंकि वह
अहिंसा का जो
अर्थ पकड़ा गया,
वह यह था कि
किसी को दुख
नहीं देना, बस बात खतम
हो गई। अपने
को इससे
ज्यादा किसी से
कोई प्रयोजन
नहीं है। और
प्रयोजन तो तब
बनता है, जब
हम किसी को
सुख देने जाएं,
तब हमारे
रास्ते बनते
हैं।
तो
रास्ते सब टूट
गए। तो
आइलैंड्स की
तरह,
महावीर के
पीछे जो लोग
गए, वे
एक-एक द्वीप
की तरह हो
गए--अपने में
बंद। हम किसी
को दुख न दें, बात पूरी हो
गई। यह
निषेधात्मक
रूप खतरनाक सिद्ध
हुआ। अच्छा
हुआ होता, अनुयायियों
के लिए तो
अच्छा हुआ
होता कि
महावीर ने
प्रेम का ही
प्रयोग किया
होता। लेकिन
महावीर ने
प्रेम का
प्रयोग नहीं
किया, यह
बहुत कीमती
बात है। और
महावीर की
दृष्टि बहुत
गहरी है।
अहिंसा
शब्द का
प्रयोग करना
बड़ा अदभुत है।
उसके कारण
हैं। पहला तो
कारण यह है कि
किसी को दुख
नहीं देना, यह
कोई साधारण
बात नहीं है।
इसका मतलब
इतना ही नहीं
होता कि हम
किसी को चोट न
पहुंचाएं।
अगर बहुत गहरे
में देखें तो
किसी क्षण में
किसी को सुख न
देना भी उसको
दुख देना हो
सकता है। उतने
दूर तक
अनुयायी की
पकड़ नहीं हो
सकी। मैं आपको
दुख न दूं, यह
तो ठीक है; बहुत
मोटा सूत्र
हुआ कि आपको
चोट न
पहुंचाऊं, आपकी
हिंसा न करूं,
तलवार न
मारूं।
लेकिन
किसी क्षण में
यह भी हो सकता
है कि मैं आपको
सुख न
पहुंचाऊं तो
निश्चित रूप
से आपको दुख
पहुंचे।
लेकिन यह पकड़
में आना
साधारणतः मुश्किल
था।
लेकिन
महावीर इसको
साफ कह सकते
थे। वह भी
उन्होंने साफ
नहीं कहा और
उसके भी कारण
हैं। क्योंकि महावीर
की गहरी समझ
यह है कि
कभी-कभी किसी
को सुख
पहुंचाने से
भी उसको दुख
पहुंच जाता
है। यानी
कभी-कभी
आक्रामक रूप
से किसी को
सुख पहुंचाने
की चेष्टा भी
उसको दुख
पहुंचा सकती
है। यानी यह
जरूरी नहीं कि
आप सुख
पहुंचाना चाहते
हैं,
इससे दूसरे
को सुख पहुंच
जाएगा। इसलिए
सुख पहुंचाने
में भी
आक्रामक
चित्त न हो, यानी सुख
पहुंचाना भी
चेष्टा का
हिस्सा न हो, क्योंकि सुख
पहुंचाने में
भी दुख
पहुंचाया जा
सकता है।
सच तो
यह है कि अगर
कोई अति कोशिश
करे किसी को सुख
पहुंचाने की
तो उसको दुख
पहुंचाता ही
है। अगर बाप
अपने बेटे को
सुख पहुंचाने
की बहुत कोशिश
में रत हो जाए; उसके
सुधार, उसकी
नीति, उसकी
व्यवस्था को
ज्यादा रचने
लगे और सोचे
कि इससे इसे
सुख पहुंचेगा,
तो संभावना
इसी बात की है
कि बेटे को
दुख पहुंचे।
और संभावना
इसी बात की है
कि दुख के कारण
बाप जो भी
चाहता है, बेटा
उसके विपरीत
चला जाए।
इसलिए
अच्छे बाप
अच्छे बेटों
को पैदा नहीं
कर पाते। बुरे
बाप के घर
अच्छा बेटा
पैदा भी हो सकता
है,
अच्छे बाप
के घर पैदा
होना बड़ा
अपवाद है।
अच्छा बाप
बेटे को
अनिवार्यतः
बिगाड़ने का
कारण बनता है।
क्योंकि वह
उसे इतना सुख
पहुंचाना
चाहता है, और
इतना शुभ
बनाना चाहता
है--सुख के लिए
ही--कि बेटे पर
उसका यह सुख
पहुंचाना भी
बोझ हो जाता है।
यह भी भार हो
जाता है, यह
भी वजन हो
जाता है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि हम यदि
किसी से सुख
लेना चाहें तो
ही ले सकते
हैं,
कोई हमको
पहुंचा नहीं
सकता। इसे समझ
ही लेना
चाहिए। अगर
मैं किसी से
सुख लेना
चाहूं तो ही
ले सकता हूं।
सुख इतनी
सूक्ष्म
चित्त-दशा है
कि कोई मुझे
पहुंचाना
चाहे तो नहीं
पहुंचा सकता,
मैं लेना
चाहूं तो ही
ले सकता हूं।
इसलिए महावीर
ने पहुंचाने
पर जोर ही
नहीं दिया, बात ही छोड़
दी। हां, जो
लेना चाहे, उसे दे देना,
क्योंकि
नहीं दोगे तो
उसे दुख
पहुंचेगा।
इसलिए
जोर है इस बात
पर कि तुम
किसी को दुख
भर मत
पहुंचाना। बस
तुम्हारा काम
इतना ही काफी
है कि तुम
किसी को दुख
मत पहुंचाना।
कोई अगर तुमसे
सुख लेना चाहे
तो दे देना, वह
भी सिर्फ
इसीलिए कि अगर
तुम न दोगे तो
उसे दुख
पहुंचेगा।
लेकिन तुम सुख
पहुंचाने भी
मत चले जाना, क्योंकि तुम
अगर कहीं सुख
पहुंचाने गए
तो तुम सिवाय
दुख पहुंचाने
के और कुछ भी
नहीं कर पाओगे।
क्योंकि
एग्रेसिव, आक्रामक
सुख पहुंचाने
वाला आदमी दुख
ही पहुंचाता
है। उसका कारण
है कि असल में
आक्रमण दुख
पहुंचाता है।
अगर जबरदस्ती
हम किसी को
सुखी करना
चाहें तो
जितना दुखी हम
उसे कर देंगे,
इतना दुखी
हम कभी भी उसे
नहीं कर सकते
थे। इसका मतलब
यह हुआ कि
जबरदस्ती
किसी को भी
सुखी नहीं
किया जा सकता
है। और
जबरदस्ती में
हिंसा शुरू हो
जाती है।
तो
महावीर की पकड़
तो बहुत गहरी
है,
बात तो वे
ठीक कह रहे
हैं। और भी एक
गहराई है जो मैं
समझता हूं कि
आज तक महावीर
को समझने वाले
लोगों को समझ
में नहीं आई।
और वह यह है:
अंततः परम
स्थिति में
जहां अहिंसा
पूर्ण रूप से
प्रकट होती है
या प्रेम
प्रकट होता
है--कोई भी नाम
दें, क्योंकि
परम स्थिति
में न विधेय
है, न नकार
है। निगेटिव
और पाजिटिव का
द्वंद्व प्राथमिक
स्थितियों
में है, परम
स्थितियों
में दोनों
नहीं हैं। तो
परम स्थिति, तो महावीर
जैसा व्यक्ति,
महावीर
जैसी स्थिति
का
व्यक्ति--वह
प्रश्न भी पूछा
है कि
उन्होंने कभी
किसी के शरीर
को क्यों
सहायता नहीं
पहुंचाई? उन्होंने
कभी क्यों
किसी गिरे हुए
को नहीं उठाया?
उन्होंने
कभी क्यों
किसी भूखे को
पानी नहीं पिलाया,
रोटी नहीं
खिलाई? उन्होंने
कभी किसी
बीमार के पास
बैठ कर पैर क्यों
नहीं दाबे? महावीर ने
कभी किसी के
शरीर की कोई
सेवा नहीं की।
सवाल तो पूछने
जैसा है।
उसका
भी कारण है।
परम अहिंसा की
स्थिति में व्यक्ति
किसी को दुख
तो पहुंचाना
ही नहीं चाहता, सुख
भी नहीं
पहुंचाना
चाहता। क्यों?
बहुत गहरे
में देखने पर
सुख और दुख एक
ही चीज के दो
रूप हैं। जिसे
हम सुख कहते
हैं, वह
दुख का ही एक
रूप है; और
जिसे हम दुख
कहते हैं, वह
भी सुख का ही
एक रूप है।
बहुत गहरे जो
देखेगा, वह
पाएगा कि जिसे
हम सुख कहते
हैं, अगर
उसकी मात्रा
थोड़ी बढ़ा दी
जाए तो वह दुख
में बदल जाता
है।
आप
भोजन कर रहे
हैं,
बड़ा सुखद
है। और आप
ज्यादा भोजन
करते चले जाते
हैं, और एक
सीमा आती है
कि सुख दुख
में बदलना
शुरू हो गया।
आप
मुझे प्रेम से
आकर मिले, मैंने
आपको गले से
लगा लिया, बड़ा
सुखद है--एक
क्षण, दो
क्षण। लेकिन
मैं हूं कि
छोड़ता ही नहीं
हूं, तब आप
तड़फने लगे हैं
कि अब इन
बांहों से
कैसे छूट
जाएं। और पांच
मिनट, और
सुख दुख में
बदल गया है।
और अगर आधा
घंटा हो गया
तो आप पुलिस
वाले को
चिल्लाते हैं
कि मुझे बचाइए,
क्योंकि यह
आदमी मुझे
छोड़ता नहीं
है।
किस
क्षण पर सुख
दुख में बदल
गया,
बताना बहुत
मुश्किल है।
एक क्षण तक
झलक थी सुख की,
दूसरे क्षण
दुख शुरू हो
गया।
एक
प्रेमी है, एक
प्रेयसी है, दोनों घड़ी
भर को मिलते
हैं, बड़ा
सुखद है। फिर
पति-पत्नी हो
जाते हैं। और
बड़ा दुखद हो
जाता है।
पश्चिम में, सारी दुनिया
में जहां
प्रेम विवाह
आया, वहां
एक अनुभव हुआ
कि प्रेमी
जितना
एक-दूसरे को
सुखी कर सकते
हैं, उतना
ही दुखी कर
देते हैं। बड़ी
अजीब बात है।
असल में सुख
कब दुख में
बदल जाता है, कहना
मुश्किल है।
सब सुख
दुख में बदल
सकते हैं। और
ऐसा कोई दुख नहीं
है,
जो सुख में
न बदल सके। सब
दुख भी सुख
में बदल सकते
हैं। सुख और
दुख एक-दूसरे
में
रूपांतरित हो
सकते हैं।
जैसे आपको कोई
एक दुख है, कैसा
ही दुख है, कितना
ही गहरा दुख
है, उस दुख
में भी आप
संभावनाएं
देख सकते हैं
सुख की।
एक मां
है,
वह नौ महीने
पेट में बच्चे
को रखती है, दुख ही
उठाती है।
प्रसव है, बच्चे
का जन्म है, असह्य दुख
उठाती है।
लेकिन सब दुख
सुख में बदलता
जाता है। आशा
आगे सुख की, दुख को
झेलने में
समर्थ बना
देती है।
बल्कि
प्रसव-पीड़ा भी
एक सुख की तरह
ही आती है।
बच्चे का बोझ
भी सुख की तरह
ही आता है। उस
बच्चे को बड़ा
करना लंबे दुख
की प्रक्रिया
है, लेकिन
मां का मन उसे
सुख बना लेता
है।
दुख को
हम सुख बना ले
सकते हैं। अगर
आशा,
संभावना, आकांक्षा, कामना तीव्र
हो तो दुख सुख
बन जाता है।
सुख को हम दुख
बना ले सकते
हैं, अगर
सुख में सब
आशा, सब
संभावना
क्षीण हो जाए
तो सुख एकदम
दुख बन जाता
है। यानी इसका
मतलब यह हुआ
कि सुख और दुख
में कोई मौलिक
भेद नहीं है, हमारी
दृष्टि का भेद
है। हम कैसे
देखते हैं, इस पर सब कुछ
निर्भर करता
है। हम कैसे
देखते हैं, इस पर सब कुछ
निर्भर करता
है। हमारे
देखने पर ही
सुख दुख का
रूपांतरण हो
जाता है।
एक
आदमी के पैर
में घाव है और
डाक्टर
आपरेशन करता
है,
आपरेशन का
दुख भी सुख बन
जाता है, क्योंकि
एक पीड़ा से
छुटकारे की
आशा काम कर
रही है। आदमी
जहरीली से
जहरीली दवाई,
कड़वी से
कड़वी दवाई पी
जाता है, क्योंकि
बीमारी से दूर
होने की आशा
काम कर रही
है।
आशा भर
हो तो दुख को
सुख बनाया जा
सकता है और आशा
क्षीण हो जाए
तो सब सुख फिर
दुख हो जाते
हैं।
महावीर
कहते यह हैं
कि बहुत गहरे
में,
अंतिम चरम
स्थिति में न
तो तुम किसी
को सुख पहुंचाना,
न तुम किसी
को दुख
पहुंचाना।
लेकिन इसका
क्या मतलब? इसका मतलब
यह कि तुम
सबसे टूट जाना?
सबसे दूर
खड़े हो जाना? मिट जाना
तुम सबके लिए?
तुम्हारे
उनके बीच एक
अंतहीन फासला
पैदा कर लेना?
नहीं, यह
मतलब नहीं है।
बहुत अदभुत
बात है। जिस
दिन कोई
व्यक्ति उस
स्थिति में
पहुंच जाता है,
जहां न वह
किसी को सुख
पहुंचाना
चाहता, न
दुख पहुंचाना
चाहता, वहीं
से वह व्यक्ति
अनिवार्यरूपेण
सबको आनंद
पहुंचाने का
कारण बन जाता
है। इसे समझ
लेना जरूरी
है। आनंद
पहुंचाने का
कारण ही तभी
कोई व्यक्ति
बनता है, जब
वह सुख और दुख
के चक्कर से
मुक्त होता है
खुद, और उस
दृष्टि को
उपलब्ध होता
है जहां सुख
और दुख का कोई
मूल्य नहीं रह
जाता।
पर
आनंद को हम
जानते नहीं।
हमें कोई दुख
पहुंचाए तो हम
पहचान जाते
हैं कि यह
आदमी बुरा, हमें
कोई सुख
पहुंचाए तो हम
पहचान जाते
हैं यह आदमी
अच्छा; लेकिन
हमें कोई आनंद
पहुंचाए तो हम
बिलकुल नहीं
पहचान पाते कि
यह आदमी कैसा?
पहली
तो बात यह कि
हम आनंद ही
नहीं पहचान
पाते। पहली तो
बात यह कि हम
आनंद को ही
नहीं पकड़ पाते
कि कैसा आनंद
पहुंचाया जा
रहा है! और
आनंद उस चेतना
से सहज ही
विकीर्णित
होने लगता है, जो
चेतना अब सुख
और दुख के
द्वंद्व के
पार चली जाती
है--न खुद की
दृष्टि से, न दूसरे की
दृष्टि से अब
किसी को सुख
पहुंचाना है,
न दुख
पहुंचाना है।
ऐसे व्यक्ति
के जीवन से सहज
ही आनंद की
किरणें चारों
तरफ फैलने
लगती हैं।
निश्चित
ही,
जिनके पास
आंखें होती
हैं, वे उस
आनंद को देख
लेते हैं; जिनके
पास आंखें
नहीं होतीं, अंधे होते
हैं, वे
नहीं देख पाते
हैं। लेकिन
चाहे सूरज को
कोई देख पाए, चाहे न देख
पाए; जो
देखता है उसको
भी सूरज गर्मी
पहुंचाता है और
जो नहीं देखता,
उसको भी
गर्मी
पहुंचाता है।
फर्क इतना
पड़ता है कि
नहीं देखने
वाला कहता है,
कैसा सूरज?
कहां का
सूरज? गर्मी
में फर्क नहीं
पड़ता सूरज की।
जो जीवन अंधे
को मिलता है, वही आंख
वाले को मिलता
है, उसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
अंधा कहता है,
कैसा सूरज?
किस सूरज को
धन्यवाद दूं?
कोई सूरज
कभी देखा नहीं,
किसी ने कभी
कोई गर्मी
पहुंचाई
नहीं। गर्मी अगर
पहुंची है तो
वह मेरी अपनी
है। क्योंकि
उसे सूरज का
तो कोई पता
नहीं है। आंख
वाला जानता है
कि गर्मी सूरज
से आई है और
इसीलिए
अनुगृहीत भी
है, धन्यवाद
भी करता है, कृतज्ञ भी
है, एक
ग्रेटीटयूड
का भाव भी है।
लेकिन
बहुत मुश्किल
है। हम तो यही
देख पाते हैं
कि महावीर
किसी के पैर
दाब रहे हों
तो हमें समझ
में आए कि वह
किसी की सेवा
कर रहे हैं।
यह ऐसा
ही है, जैसे घर
में छोटे
बच्चे होते
हैं, और
अगर एक
भिखमंगा आए और
मैं उसे सौ
रुपए का नोट
उठा कर दे दूं
और बच्चा
मुझसे बाद में
पूछे कि आपने
एक भी पैसा
उसको नहीं
दिया।
क्योंकि सौ
रुपए के नोट
का उसे कोई
अर्थ ही नहीं
होता, वह
पहचानता है
पैसों को। वह
कहता है, एक
पैसा उसको
नहीं दिया, आप कैसे
कठोर हैं! आया
था मांगने, कागज पकड़ा
दिया? भूखा
था, कागज
से क्या होगा?
एक पैसा दे
देते कम से
कम। और वह
लड़का जाकर
गांव में कहे
कि बड़ी कठोरता
है मेरे घर
में, एक
भिखमंगा आया
था तो उसको
कागज का टुकड़ा
पकड़ा दिया!
कागज के टुकड़े
से किसी की
भूख मिटी? एक
रोटी भी दे
देते, एक
पैसा दे देते
कम से कम।
लेकिन पैसे का
सिक्का बच्चा
पहचानता है, रुपए के
सिक्के का उसे
कोई मतलब नहीं
है, और सौ
रुपए के नोट
का कोई अर्थ
नहीं है।
महावीर
निकल रहे हैं
एक रास्ते से, एक
आदमी किनारे
पर समझो लंगड़ा
होकर पड़ा है।
हम पैसे के
सिक्के
पहचानने वाले
लोग हैं। अगर
महावीर उतर
जाएं और उसके
पैर दबाएं तो
हम एक फोटो
निकाल लें, अखबार में
छापें कि बड़ा
अदभुत सेवक
है। लेकिन
महावीर
निकलते वक्त
और क्या उसको
चुपचाप दान
करते हुए चले
गए हैं, वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ सकता,
उसको भी
नहीं दिखाई पड़
सकता। वह जो, जो लंगड़ा
पड़ा है किनारे,
वह भी यह
कहेगा, कैसा
दुष्ट आदमी है
कि मैं यहां
लंगड़ा पड़ा हूं
और वह चुपचाप
चला जा रहा
है।
लेकिन
किसी के
चुपचाप चलने
में इतनी
किरणें झर
सकती हैं, इतनी
तरंगें पैदा
हो सकती हैं, इतना दान हो
सकता है कि
हाथ का महावीर
उपयोग भी न
करना चाहें।
हाथ के उपयोग
का कोई मतलब
भी नहीं है।
क्योंकि
महावीर की
गहरी से गहरी
दृष्टि यह है
कि जो शरीर
नहीं है, उसे
शरीर से कोई
सहायता नहीं
पहुंचाई जा
सकती।
वह जो
लंगड़ा पड़ा है, वह
पैर से लंगड़ा
है। लेकिन
हमें खयाल
नहीं है इस
बात का कि दुख
पैर के लंगड़े
होने से नहीं
पहुंचता, दुख
तो लंगड़ा हूं
इस चित्त के
भाव से, इस
आत्म-भाव से
पहुंचता है।
और
जरूरी नहीं है
कि उस लंगड़े का
आप पैर ठीक कर
दें तो कोई
लाभ ही हो जाए, यह
भी जरूरी नहीं
है। महावीर के
तल पर क्या जरूरी
है, वह वे
जानते हैं।
जानने का मतलब
यह है कि कितनी
करुणा वे उस
पर फेंक सकते
हैं, वे
फेंक कर
चुपचाप गुजर
जाएंगे। और यह
भी क्या बात
करनी कि कोई
जाने कि करुणा
किसने फेंकी!
मैंने
सुना है कि एक
सूफी फकीर को
एक रात किसी फरिश्ते
ने दर्शन दिए
और कहा कि
परमात्मा बहुत
खुश है और
चाहता है कि
तुम कुछ मांग
लो,
तो मैं
वरदान दे दूं।
पर उसने कहा
कि जब परमात्मा
खुश है तो
इससे बड़ा और
वरदान क्या हो
सकता है? बात
खतम हो गई।
मिल गया सब, जो मिलना
था। लेकिन उस
फरिश्ते ने
कहा, नहीं,
ऐसे काम
नहीं चलेगा।
कुछ मांगो!
कुछ भी मांगो!
पर
उसने कहा कि
अब कोई कमी ही
न रही। जब
परमात्मा खुश
है,
अब कमी क्या
रही? और जब
परमात्मा ही
खुश हो गया तो
अब खुशी ही खुशी
है, अब दुख
आएगा कहां से?
तो अब मैं
मांगूं क्या?
अब मुझे
भिखारी मत
बनाओ, अब
तो मैं सम्राट
हो गया।
क्योंकि जब
परमात्मा मुझ
पर खुश है तो
अब मुझे
भिखारी मत
बनाओ, अब
मुझे क्षमा कर
दो, अब
मुझे मांगने
को मत कहो।
लेकिन
फरिश्ता है कि
नहीं मानता
है। तो उसने कहा
कि अब तुम
नहीं मानते हो
तो तुम्हीं दे
जाओ,
मैं नहीं मांगूंगा।
तुम्हें जो
देना हो, दे
जाओ। तो उस
फरिश्ते ने
कहा कि मैं
तुम्हें यह
वरदान देता
हूं कि तुम
जिसको छू दो, मरा हो तो
जिंदा हो जाए,
बीमार हो तो
स्वस्थ हो जाए,
वृक्ष सूख
गया हो तो हरे
पल्लव निकल
आएं, हरे
फूल निकल आएं।
उसने कहा, वह
देते हो तो वह
तो ठीक; लेकिन
सीधा मुझे मत
दो। सीधा मुझे
मत दो। कहीं
ऐसा न हो कि
मुझे लगने लगे
कि मेरे हाथ
से यह बीमार
ठीक हुआ। सीधे
मत दो।
क्योंकि
बीमार को तो
फायदा पहुंच
जाएगा, मुझे
नुकसान पहुंच
जाएगा।
तो उस
फरिश्ते ने
कहा,
और क्या
उपाय हो सकता
है?
उस
फकीर ने कहा
कि मेरी छाया को
दे दो, कि मैं
जहां से
निकलूं अगर
छाया पड़ जाए
किसी वृक्ष पर
और वह सूखा हो
तो हरा हो जाए;
लेकिन मुझे
दिखाई भी न
पड़े, क्योंकि
मैं तब तक
निकल ही चुका
था। मैंने सूखा
ही वृक्ष देखा
था। मुझे पता
भी नहीं चलेगा
कि कब हरा हो
गया। अगर किसी
मरीज पर पड़
जाए, वह
स्वस्थ हो जाए,
लेकिन मुझे
पता न चले।
मुझे पता न
चले, मैं
इस झंझट में
नहीं पड़ना
चाहता। मैं
मैं की झंझट
में ही नहीं
पड़ना चाहता।
फिर
कहते हैं, उस
फरिश्ते ने
उसे वरदान दे
दिया। फिर वह
सूखे खेतों के
पास से निकलता
तो वे हरे हो
जाते। और सूखे
वृक्षों पर
उसकी छाया पड़
जाती तो
वर्षों के
सूखे वृक्षों
में पत्ते निकल
आते। और बीमार
ठीक हो जाते
और मुर्दे
जिंदा हो जाते,
अंधों को
आंख मिल जाती,
बहरों को
कान मिल जाते।
यह सब उसके
आस-पास घटित
होने लगा, लेकिन
उसे कभी पता
नहीं चला। उसे
पता चलने का कोई
कारण न था, क्योंकि
उसकी छाया से
ये घटित होते
थे। सीधा उसका
कोई
इनवाल्वमेंट,
सीधा कुछ भी
संबंध न था।
असल
में जो परम
स्थिति को
उपलब्ध होते
हैं,
उनका होना
मात्र करुणा
है, उनकी
मौजूदगी, प्रेजेंस
मात्र। जो भी
होता है, वह
उनकी छाया से
हो जाता है, उन्हें सीधा
कुछ करना नहीं
पड़ता। असल में
जिनके पास
वैसी छाया
नहीं है, उन्हें
सीधा कुछ करना
पड़ता है।
लेकिन वे पैसे
के सिक्के
हैं। हमें
हिसाब मिल
जाता है उनका
कि इस आदमी ने
कितनी सेवा की,
कितने
कोढ़ियों की
मालिश की, कितने
बीमारों का
इलाज किया, कितने
अस्पताल खोल
कर पैर दबाए
बीमारों के। ये
बिलकुल
कौड़ियों की
बातें हैं, इनका कोई भी
मूल्य नहीं है
बहुत गहरे
में।
श्री
अरविंद को
आजादी के शुरू
के दिनों में
आंदोलन में वह
अति आतुर थे, और
शायद उनसे
प्रतिभाशाली
कोई व्यक्ति
हिंदुस्तान
की आजादी के
आंदोलन में
कभी नहीं था।
लेकिन अचानक
एक मुकदमे के
बाद वे सब छोड़
कर चले गए।
मित्र उन्हें
घेरे हुए
पहुंचे कि
जिससे प्रेरणा
मिलती थी, वह
आदमी चला गया।
जाकर अरविंद
से कहा कि तो
आप भाग आए? अरविंद
ने कहा, मैं
भाग नहीं आया।
पैसे-कौड़ी का
काम तुम्हीं कर
लो, वह तुम
कर सकोगे। मैं
कुछ और बड़े
काम में लगता हूं,
जो मैं कर
सकता हूं।
क्या
काम आप बड़ा
करोगे?
उन्होंने
कहा,
वह तुम उसकी
चिंता मत करो।
और यह
जान कर कठिनाई
होती है हमें
कि इस मुल्क में
भारत की
स्वतंत्रता
के लिए जितना
काम अरविंद ने
किया, उतना
किसी ने भी
नहीं किया।
लेकिन भारत की
स्वतंत्रता
के इतिहास में
अरविंद का नाम
शायद ही लिखा
जाए। क्योंकि
कौड़ियों से
हिसाब रखने
वाले लोग, अरविंद
ने जो किया, उसका कोई
हिसाब नहीं रख
सकते। वह आदमी
चौबीस-चौबीस
घंटे जाग कर
सारे प्राणों
से इस मुल्क
को जिस भांति
आंदोलित करने
की चेष्टा कर
रहा है, उसका
हम कोई हिसाब
नहीं रख सकते!
कैसे रखेंगे?
यानी
यह हो सकता है
कि गांधी में
जो बल है, वह बल
अरविंद का है,
लेकिन इसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
इसका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
सुभाष में जो
ताकत है, वह
ताकत अरविंद
की है।
हिंदुस्तान
की पूरे इस बगावत
के और विद्रोह
के और
स्वतंत्रता
के इतिहास में
जो सबसे कीमती
आदमी है वह
कभी हिंदुस्तान
की आजादी के
इतिहास में
उसका नाम उल्लेख
नहीं होगा, यह पक्का
मानो। लेकिन
वह इस तल पर
काम कर रहा है,
जिस तल पर
हमारी कोई पकड़
नहीं है। वह
उन तरंगों को
पैदा करने की
कोशिश कर रहा
है, जो
मुल्क की सोई
तंद्रा को तोड़
दें, जो
विद्रोह के
भाव को जगाएं,
जो क्रांति
की एक हवा
लाएं। लेकिन
हमें खयाल में
नहीं है।
और जिस
दिन कभी हजार, दो
हजार साल बाद
विज्ञान
समर्थ होगा इन
सूक्ष्म
तरंगों को
पकड़ने में, शायद उस दिन
हमें इतिहास
बिलकुल बदल कर
लिखना पड़े। जो
लोग हमें बहुत
बड़े-बड़े दिखाई
पड़ते हैं
इतिहास में, वे दो कौड़ी
के हो सकते
हैं; और
जिन्हें हम
कभी नहीं
गिनते थे, वे
एकदम परम
मूल्य पा सकते
हैं। क्योंकि
वह जब तक
सिक्का, सौ
रुपए का नोट
पहचान में न
आए, तब तक
बड़ी कठिनाई
है।
अब अभी
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर एक फूल
खिल रहा है...तो
समझ लो एक फूल
खिल रहा है, माली
सुबह पानी डाल
जाता है, खाद
डाल देता है
और घर चला
जाता है। और
एक संगीतज्ञ
उसी के पास
बैठ कर वीणा
बजाता है। कल
जब बड़े-बड़े
फूल खिलें तो
संगीतज्ञ को
कौन धन्यवाद देने
जाएगा? संगीतज्ञ
से मतलब क्या
है फूल का? माली
को लोग
पकड़ेंगे कि
तूने इतना बड़ा
फूल खिला
दिया! तेरे
खाद और पानी
और तेरी सेवा
ने!
लेकिन
अब
ध्वनि-शास्त्र
कहता है कि
माली कुछ भी
क्या कर सकता
है। उसके करने
का कोई बड़ा
मूल्य नहीं
है। लेकिन अगर
व्यवस्था से
संगीत पैदा किया
जाए तो फूल
उतना बड़ा हो
जाएगा, जितना
कभी भी नहीं
हुआ था। जितनी
उसकी बीज की संभावना
ही थी पूर्ण, मैक्जिमम; उतनी
संभावना को
प्रकट हो
जाएगा। ऐसा
संगीत भी बजाया
जा सकता है कि
फूल सिकुड़ कर
छोटा रह जाए।
अब वह सिर्फ
ध्वनियों का
खेल है।
जब
ध्वनियां
फूलों को बड़ा
कर सकती हैं, तो
कोई वजह नहीं
कि विशिष्ट
चित्त की
तरंगें देश की
चेतना को ऊपर
उठाती हों; बगावत, स्वतंत्रता
की गति पैदा
करती हों।
लेकिन हम उसे
नहीं पहचान
सकेंगे। हम
कैसे
पहचानेंगे?
अब ये
रूस और अमरीका, दोनों
के वैज्ञानिक
इस चेष्टा में
संलग्न हैं कि
क्या इस तरह
की
ध्वनित्तरंगें
पैदा की जा
सकती हैं कि
पूरे मुल्क
में लिथार्जी
छा जाए? और
इसमें वे काफी
दूर तक सफल
होते चले जा
रहे हैं। कोई
कठिनाई नहीं है
कि आने वाला
युद्ध बमों का
युद्ध ही न हो,
वह सिर्फ
ध्वनित्तरंगों
का युद्ध हो, आलस्य छा
जाए। यानी रूस
के रेडियो
स्टेशंस इस तरह
की
ध्वनि-लहरियां
पूरे भारत पर
फेंक दें कि
पूरे भारत का
आदमी एकदम
आलस्य में पड़
जाए। यानी
उसको कुछ लड़ने
का सवाल ही न
रहे, कोई
भाव ही न रहे।
सैनिक एकदम सो
जाएं। और हमारी
कुछ समझ में न
आए कि यह क्या
हो गया, या
धीरे-धीरे
पहुंचाने पर
हमें पता ही न
चले कि यह कब
हो गया। यह
धीरे-धीरे
होता चला जाए।
और हमारे भीतर
जो सक्रियता
है, वह
सारी की सारी
छीन ली जा
सके।
इस पर
बड़ा काम चलता
है। क्योंकि
आखिर चारों तरफ
ध्वनि की
तरंगें हमें
घेरे हुए हैं, उन
पर निर्भर है
कि हम क्या
करें। लेकिन
उससे भी गहरी
तरंगें हैं, जिनका अभी
विज्ञान को भी
ठीक-ठीक पता
नहीं हो पाता।
उन तरंगों पर
काम करने वाले
लोग हैं।
महावीर
ने कभी किसी
की सेवा नहीं
की और यह एक
उनके ऊपर इल्जाम
रहेगा। लेकिन
तब तक यह
इल्जाम रहेगा, जब
तक हम पैसे के
सिक्के
पहचानते हैं।
जिस दिन हम सौ
रुपए के नोट
पहचानना शुरू
कर देंगे, उस
दिन यह इल्जाम
नहीं रह
जाएगा। बल्कि
हमको पता
चलेगा जो पैर
दबा रहे थे, वे इसीलिए
दबा रहे थे कि
और बड़ा कुछ वे
नहीं कर सकते
थे, इसलिए
पैर दबा कर
तृप्ति पा रहे
थे। लेकिन पैर
दबाने से होना
क्या है?
महावीर
की अहिंसा उस
तल पर है, जिस
तल पर सुख-दुख
पहुंचाने का
भाव भी विदा
हो गया है, जहां
सिर्फ महावीर
जीते हैं--एक
प्रेजेंस।
विज्ञान
में इन्हीं तत्वों
को कैटेलिटिक
एजेंट कहते
हैं। कैटेलिटिक
एजेंट कहते
हैं इन्हीं
तत्वों को।
ऐसे तत्वों को
जिनकी
मौजूदगी कुछ
करती है, जो
खुद कुछ नहीं
करते
हैं--कैटेलिस्ट।
जो खुद कुछ
करते ही नहीं,
यानी जिनका
कोई दान ही
नहीं होता काम
में, लेकिन
जिनकी
मौजूदगी के
बिना भी कुछ नहीं
हो सकता, जिनकी
मौजूदगी से ही
कुछ हो जाता
है।
अब
जैसे कि
हाइड्रोजन और
आक्सीजन, इन
दोनों को आप
पास ले जाएं
तो वे मिलते
नहीं, अलग-अलग
ही रहे आते
हैं, पानी
नहीं बनता।
लेकिन बीच से
बिजली चमक जाए,
वे दोनों
मिल जाते हैं।
और विज्ञान
बहुत खोज करता
है, बिजली
की चमक कोई भी
कांट्रिब्यूशन
नहीं करती, उन दोनों के
मिलाने में
उसका कोई दान
नहीं है, सिर्फ
उसकी
प्रेजेंस, उसकी
मौजूदगी में
बस वे मिल
जाते हैं।
उससे न कुछ
जाता, न
कुछ आता; न
कुछ मिलता, न कुछ छूटता;
बस वह मौजूद
हो जाती है और
वे मिल जाते
हैं।
जिस
भांति भौतिक
तल पर
कैटेलिटिक
एजेंट हैं, कैटेलिस्ट
हैं, हमारे
खयाल में नहीं
है कि
आध्यात्मिक
तल पर भी कुछ
लोगों ने उस
स्थिति को छुआ
है, जहां
उनकी मौजूदगी
सिर्फ काम
करती है, जहां
वे कुछ भी
नहीं करते।
यानी महावीर
की मौजूदगी
इतने काम कर
देगी उस जगत
में, जब वे
मौजूद हैं उस
लोक में, उस
युग में, और
महावीर कुछ भी
नहीं करेंगे,
वे सिर्फ हो
जाएंगे, उनका
होना काफी है।
चेतना के तल
पर उनकी मौजूदगी
हजारों-लाखों
चेतनाओं को
जगा देगी, स्वस्थ
कर देगी; यह
सब हो जाएगा।
लेकिन
अभी इसकी
खोज-बीन होनी
बाकी है
वैज्ञानिक तल
पर।
आध्यात्मिक
तल पर तो खोज-बीन
पुरानी है, पूरी
हो चुकी है, लेकिन
विज्ञान की
भाषा में
समझाया जा सके,
यह कभी हमने
सोचा ही नहीं
है। इस तरफ हम
कभी सोचते
नहीं हैं। यह
कभी आप सोचते
ही नहीं हैं
कि आप हर हालत
में वही नहीं
होते, आप
हर उपस्थिति
में बदल जाते
हैं।
अगर आप
मेरे सामने
हैं तो आप वही
आदमी नहीं हैं, जो
घड़ी भर पहले
थे; और
मेरे सामने
नहीं हैं तो
आप वही आदमी
नहीं होंगे, जो आप मेरे
सामने थे।
आपके भीतर कुछ
ऐसा उठ आएगा, जो आपके
भीतर कभी नहीं
उठा था। और
मैं उसमें कुछ
भी नहीं कर
रहा हूं। वह
उठ सकता है, मौजूदगी में
ही उठ सकता
है।
तो
बहुत गहरे तल
पर काम करने
वाले लोग हैं, बहुत
गहरे तल पर
सेवा है।
लेकिन हम
चूंकि पैसों
के सिक्के
पहचानते हैं,
इसलिए
कठिनाई हो
जाती है।
महावीर पर यह
इल्जाम रहेगा,
इसको अभी
मिटाया नहीं
जा सकता।
लेकिन मैं मानता
हूं कि जिस
दिन यह मिटेगा,
उस दिन
जिनकी वजह से
यह इल्जाम था,
वे एकदम दो
कौड़ी के हो
जाने वाले
हैं। और महावीर
एक नए अर्थ
में प्रकट
होंगे, जिसका
हिसाब लगाना
अभी मुश्किल
है।
अरविंद
ने जरूर एक
चेष्टा की है
इस युग में, भारी
चेष्टा की है,
बड़ा श्रम
उठाया है इस
दिशा में, लेकिन
उनको भी
पहचानना
मुश्किल पड़ता
है और उनको भी साथ
और सहयोग नहीं
मिल पाता। यह
हमारी कल्पना के
ही बाहर है कि
एक गांव में
एक आदमी के हट
जाने से पूरा
गांव बदलता
है। वह कुछ भी
नहीं करता था
आदमी, बस
था, तो भी
गांव बदलता
है।
जबलपुर
में एक फकीर
थे--कल ही मौनू
उनकी बात करती
थी--एक फकीर थे
मग्घा बाबा।
तो वे ऐसे
अदभुत आदमी
हैं कि उनकी
चोरी भी हो
जाती है--उनकी!
उन्हें कोई
अगर उठा कर ले
जाए तो वे चले
जाते हैं!
उनकी कई दफे
चोरी हो चुकी
है,
वर्षों के
लिए खो जाते
हैं! क्योंकि
कोई गांव उनको
चुरा कर ले
जाता है।
क्योंकि उनकी
मौजूदगी के भी
परिणाम हैं।
अभी वे दो साल
से चोरी चले
गए हैं। इधर
दो साल से बड़ी
मुश्किल हो गई
है, उनका
कोई पता नहीं
चलता, कौन
ले गया उनको
उठा कर!
ऐसा कई
दफा हो चुका
है कि उनको
किसी ने उठा
कर गाड़ी में
रख लिया तो वे
यह भी नहीं
कहते कि क्या कर
रहा है? वे यह
भी नहीं कहते,
वे बैठ जाते
हैं। वे यह भी
नहीं पूछते, कहां ले जा
रहा है? काहे
के लिए ले जा
रहा है? यह
सब बात ही
नहीं करते वे।
मगर
उनकी मौजूदगी
के परिणाम
हैं। और ये
लोगों को पता
चल गए हैं, तो
उनको लोग चुरा
कर ले जाते
हैं। और जिस
गांव में वे
होते हैं, जिस
घर में वे
होते हैं, वहां
की सब हवा बदल
जाती है। और
वे कुछ भी
नहीं करते, वे पड़े रहते
हैं, सोए
रहते हैं
ज्यादातर! न
वे कुछ कभी
बोलते, न
कुछ चालते; लोग आकर
उनकी सेवा
करते रहते
हैं। ऐसा
अक्सर हो जाता
कि उनको चौबीस
घंटे ही नहीं
सोने देते।
क्योंकि उनके
कोई पांव दबा
ही रहे हैं
दो-चार लोग।
एक दफे
मैं रात उनके
पास से गुजरा, कोई
दो बजे रात थी,
मैंने उनको
कहा तो
उन्होंने
मुझसे कहा कि
मुझ पर कुछ
कृपा करो, लोगों
को समझाओ।
चौबीस घंटे
दबाते रहते
हैं। और
दो-चार आदमी
इकट्ठे दबा
रहे हैं! और वह
बेचारा बूढ़ा
आदमी लेटा है,
कोई पैर दबा
रहा है, कोई
सिर दबा रहा
है। क्योंकि
उनकी सेवा का
आनंद भी है और
उनके पास होने
का ही आनंद
है। कोई जरूरत
नहीं कि वे
कुछ कहें। वे
कभी आमतौर से
बोलते नहीं।
यह हमें खयाल
में ही नहीं
है।
और
इसलिए दूसरी
बात भी जो
किसी प्रश्न
में पूछी है, वह
मैं ले लूं, इससे
संबंधित है, वह यह पूछी
है कि जैसे
जैनों के
चौबीस तीर्थंकर--बहुत
बड़ी तो विशाल
पृथ्वी है, इस विशाल
पृथ्वी पर इस
छोटे से भारत
में और इस छोटे
से भारत में
भी दोत्तीन
प्रदेशों में
ही ये चौबीस
तीर्थंकर
क्यों हुए? ये हर कहीं
क्यों नहीं हो
गए?
ये हर
कहीं नहीं हो
सकते।
क्योंकि
प्रत्येक की
मौजूदगी
दूसरे के होने
की हवा पैदा
करती है। यह
चेन है। इसमें
ऐसा नहीं है मामला, यानी
इसमें वह जो
एक मौजूद था, उसने उस
क्षेत्र की, उस प्रदेश
की, उस
व्यवस्था की
चेतना को एकदम
ऊंचा उठा
दिया। इस ऊंची
उठी चेतना में
ही दूसरा
तीर्थंकर पैदा
हो सकता है, एक शृंखला
है उसमें।
और यह
भी जान कर आप हैरान
होंगे कि जब
दुनिया में
महापुरुष
पैदा होते हैं, तो
करीब-करीब एक
शृंखला की तरह
सारी पृथ्वी
को घेरते हैं,
और उसका
कारण होता है
चेन। जैसे कि
समझें जरथुस्त्र,
लाओत्से, मेंशियस, च्वांगत्से
चीन में
हुए--पांच सौ
साल के घेरे में!
महावीर, बुद्ध,
गोशालक, अजित,
संजय, ये
सब हुए; पूर्ण,
ये सब हुए; उसी पांच सौ
वर्ष के बीच
में बिहार
में! सिर्फ बिहार
में, छोटे
से प्रदेश
में! उन्हीं
पांच सौ
वर्षों में
एथेंस में
सुकरात, अरस्तू,
प्लेटो--उन्हीं
पांच सौ
वर्षों में!
इन पांच सौ
वर्षों में
सारी पृथ्वी
पर एक चेन घूम
गई।
क्योंकि
जब एक...जैसे कि
अब विज्ञान
समझता है चेन
एक्सप्लोजन:
कि अगर हम एक
हाइड्रोजन बम
के एटम को फोड़
दें तो उसकी
गर्मी से पड़ोस
का दूसरा
हाइड्रोजन
एटम फूट जाएगा; उसकी
गर्मी से
तीसरा; उसकी
गर्मी से
चौथा। और एक
हाइड्रोजन बम
के फूटने पर
पृथ्वी नहीं
बचेगी, क्योंकि
चेन-एक्शन में
सारे पृथ्वी
के हाइड्रोजन
एटम्स टूटने
लगेंगे।
सूरज
इसी तरह गर्मी
दे रहा है।
सिर्फ पहली
दफा एक
हाइड्रोजन
एटम
एक्सप्लोड
हुआ होगा कभी, अरबों-खरबों
वर्ष पहले। वह
कैसे हुआ होगा,
यह दूसरी
बात है। वह भी
हुआ होगा किसी
बड़े तारे की
मौजूदगी से, जो करीब से
गुजर गया
होगा। इतना
गर्म रहा होगा
वह तारा कि
उसके करीब से
गुजरने से एक
एटम टूट गया
होगा; उसके
टूटने से उसके
पड़ोस का एटम
टूटा, उसके
टूटने से उसके
पड़ोस का। और
तब से सूरज के आस-पास
जो हीलियम गैस
इकट्ठी है, उसके एटम्स
टूटते चले जा
रहे हैं।
उन्हीं से हमको
रोज गर्मी मिल
रही है। और
इसीलिए
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
चार हजार साल
बाद सूरज ठंडा
हो जाएगा।
क्योंकि अब
जितने एटम्स
बचे हैं, वे
चार हजार साल
में खतम हो
जाएंगे। वह
चेन एक्सप्लोजन
चल रहा है।
जैसा
पदार्थ के तल
पर
शृंखलाबद्ध
एक्सप्लोजन
होता है कि इस
मकान में आग
लग गई तो पड़ोस
के मकान में
आग लग जाए; पड़ोस
के मकान में
लग गई तो उसके
पड़ोस में आग
लग जाए। और हो
सकता है यहां
किसी ने एक
दीया जलाया था
और उस दीए से
आग पकड़ गई और
पूरा गांव जल
जाए--चेन पकड़
जाए।
तो जब
कभी
एक्सप्लोजन
होता है चेतना
का तो चेन पकड़
जाती है एकदम।
यानी एक आदमी
महावीर की
कीमत का पैदा
होता है तो वह
संभावना पैदा
कर देता है उस
कीमत के सैकड़ों
लोगों के पैदा
होने की।
ऊपर से
दिखता है कि
बुद्ध और
महावीर
दुश्मन हैं, लेकिन
महावीर के
एक्सप्लोजन
का फल हैं
बुद्ध। फल इस
अर्थों में कि
अगर महावीर न
हों तो बुद्ध
का होना
मुश्किल है।
ऊपर से लगता
है कि अजित, पूर्ण
काश्यप, गोशालक,
सब विरोधी
हैं; लेकिन
किसी को खयाल
नहीं है इस
बात का कि वे
सब एक ही चेन
के हिस्से
हैं। वह एक का
एक्सप्लोजन
जो हुआ है, तो
हवा बन गई है, उसकी
प्रेजेंस ने
सारी चेतनाओं
को इकट्ठा कर दिया
है और आग पकड़
गई है। अब इस
आग पकड़ने में
जिनकी
संभावना ज्यादा
होगी, वे
उतनी तीव्रता
से फूट
जाएंगे।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि एक
युग में एक
तरह के लोग
सारी पृथ्वी
पर पैदा हो
जाते हैं। एक
वक्त में, एक
प्रदेश में
एकदम से
प्रतिभा
प्रकट होती है।
यह प्रतिभा के
भी आंतरिक नियम
और कारण हैं।
तो चौबीस
तीर्थंकरों
का पैदा होना
सीमित
क्षेत्र में,
वहीं-वहीं,
एक ही देश
में, उसका
कारण है। उस
तरह की
प्रतिभा के
एक्सप्लोजन
के लिए, विस्फोट
के लिए हवा
चाहिए, इसलिए
चेन।
प्रश्न:
चेन
में चौबीस ही
क्यों होते
हैं? पच्चीस
नहीं होते, तीस नहीं
होते?
हां, उसका
भी कारण है।
उसका
कारण--संख्या
से कुछ भी संबंध
नहीं है। असल
में पच्चीस
होते हैं, छब्बीस
होते हैं, सत्ताईस
होते हैं, कितने
ही हो सकते
हैं, उसका
कोई संबंध
नहीं है।
लेकिन
जब किसी चेन
में एक बहुत
प्रतिभाशाली
व्यक्ति पैदा
हो जाता है--एक
चेन में; यानी
चौबीस
तीर्थंकरों
की चेन में
महावीर सबसे
ज्यादा
प्रतिभाशाली
व्यक्ति है।
वह इतना प्रतिभाशाली
है कि उसके
आस-पास के
लोगों को लगा
कि अब किसी की
कोई जरूरत
नहीं है इस
चेन में। परम
बात हमें
उपलब्ध हो गई
है। जो जानना
था, वह जान
लिया गया है; जो पहचानना
था, वह
पहचान लिया
गया है; जो
कहना था, वह
कह दिया गया
है।
और
अनुयायी तो
हमेशा डरा
होता है। वह
डरा होता है
कि अगर
प्रतिभा के
लिए आगे द्वार
रखो खुले, तो
प्रतिभा
हमेशा
विद्रोही है
और प्रतिभा हमेशा
अस्तव्यस्त
कर देती है, अराजक है।
तो अनुयायी
भयभीत होता है,
वह अपनी
सिक्योरिटी
के लिए
व्यवस्था कर
लेता है। वह
कहता है, अब
बस ठीक।
प्रश्न:
बीस
तलक क्या कम
है?
हां, कम
ही हैं।
महावीर के
मुकाबले कोई
आदमी नहीं है।
महावीर के
मुकाबले कोई
आदमी ही नहीं
है उन चौबीस
में ही। यह
अकारण नहीं है
कि महावीर केंद्र
बन गए। यह
अकारण नहीं
है। उन चौबीस
में महावीर के
मुकाबले कोई आदमी
नहीं है।
ज्ञान तो वही
उपलब्ध होता
है सबको, लेकिन
महावीर के
बराबर टीचर
नहीं है कोई, अभिव्यक्त
नहीं कर पाता
है कोई।
प्रश्न:
समझा
नहीं पाता?
समझा
नहीं पाता है, खबर
नहीं पहुंचा
पाता है।
प्रश्न:
आज
की दुनिया में
महावीर की
प्रतिभा का
कोई हो सकता
है?
होता
ही रहता है।
वह तो अगर जैन
मना कर देते
हैं तो
पच्चीसवां जो
है,
वह नंबर एक
बन जाता है
किसी दूसरी
शृंखला का। उसका
कोई कारण नहीं
है। अगर
पच्चीसवां
होता तो बुद्ध
को अलग शृंखला
की जरूरत न
पड़ती, बुद्ध
पच्चीसवें हो
जाते।
कठिनाई
जो है--कठिनाई
जो है कि जब भी
कोई परंपरा
अपने अंतिम
पुरुष को पा
लेती है, ऊंचाई
से ऊंचाई, तो
फिर वह उसके
बाद दूसरों के
लिए द्वार बंद
कर देती
है--स्वाभाविक
रूप से, क्योंकि
फिर उपद्रव वह
नहीं लेना
चाहती। क्योंकि
नई प्रतिभा
नया उपद्रव
लाती है। इसलिए
वह सुनिश्चित
हो जाती है।
वह कहती है, हमारी बात
पूरी हो गई, हमारा
शास्त्र पूरा
हो गया, अब
हम
शृंखलाबद्ध
हो जाते हैं, अब हम दूसरे
को मौका नहीं
देंगे।
इसीलिए फिर वह
जो
पच्चीसवां--व्यक्ति
तो निरंतर
पैदा हो रहे
हैं--उस
पच्चीसवें को
नई शृंखला का
पहला होना पड़ता
है। बुद्ध
पच्चीसवें हो
गए होते, कोई
कारण न था, कोई
बाधा न थी, अगर
इन्होंने
द्वार खुले
रखे होते।
लेकिन
एक और कारण हो
गया कि बुद्ध
मौजूद थे उसी
वक्त और द्वार
बंद कर देने
एकदम जरूरी हो
गया--अनुयायी
को जरूरी हो
गया। क्योंकि
अगर बुद्ध आते
हैं तो सब
अस्तव्यस्त
हो जाएगा।
अस्तव्यस्त
यह हो जाएगा
कि बहुत कुछ
जो महावीर कह
रहे हैं, उसको
अस्तव्यस्त
कर देंगे, नई
व्यवस्था
देंगे। वह नई
व्यवस्था
मुश्किल में
डाल देगी।
इसलिए एकदम
बुद्ध की
मौजूदगी की
वजह से एकदम
दरवाजा बंद कर
दिया कि चौबीस
से ज्यादा हो
ही नहीं सकते,
और चौबीसवां
हमारा हो चुका
है।
प्रश्न:
यह
अनुयायियों
ने किया?
अनुयायियों
की व्यवस्था
है सारी।
अनुयायी बहुत
भयभीत है, एकदम
भयभीत है। समझ
लें कि आप
मुझे प्रेम
करने लगे और
मेरी बात आपको
ठीक लगने लगे,
तो आप एकदम
दरवाजा बंद कर
देंगे, क्योंकि
आपको यह लगेगा
कि दूसरा आदमी
अगर आता है और
फिर वह ये सब
इनकी बातें गड़बड़
कर दे तो आपको
पीड़ा होगी
उससे। तो आप
दरवाजा ही बंद
कर देंगे कि
बस, अब कोई
जरूरत नहीं।
इसलिए
मोहम्मद के
बाद
मुसलमानों ने
दरवाजा बंद कर
दिया! उनकी
शृंखला में
मोहम्मद
अद्वितीय
आदमी आ गया।
जीसस के बाद
ईसाइयों ने
दरवाजा बंद कर
दिया। जीसस के
पहले बहुत
पैगंबर हुए, लेकिन
जीसस के बाद
उन्होंने
एकदम बंद कर
दिया! यह जो
बंद करना है...।
बुद्ध के बाद
बौद्धों ने बंद
कर दिया, अब
कोई बुद्ध
पुरुष नहीं
पैदा होगा। एक
मैत्रेय की
कल्पना चलती
है कि कभी
बुद्ध एक और
अवतार लेंगे
मैत्रेय का, लेकिन वह भी
बुद्ध ही
लेंगे, वह
कोई दूसरा
आदमी नहीं
होने वाला है।
प्रश्न:
हिंदुस्तान
में अभी कोई
आध्यात्मिक
तल पर ऐसी कोई
श्रृंखला
रामकृष्ण, विवेकानंद
या अरविंद, इनके जैसे
व्यक्तियों
की कोई
श्रृंखला चल
रही है? इन
दो सौ, तीन
सौ साल में
ऐसा कोई हुआ है?
हां, यहां
सबसे ज्यादा
प्रभावशाली
आदमी इन दोत्तीन
सौ वर्षों में
रमण और
कृष्णमूर्ति
हैं पीछे।
लेकिन न तो
रमण के पीछे
शृंखला बन सकी,
और
कृष्णमूर्ति
के पीछे भी
नहीं बनेगी।
कृष्णमूर्ति
बनाने के
विरोध में
हैं। और रमण
के पीछे बन
नहीं सकी। उस
कीमत का आदमी
नहीं मिला जो
बढ़ा सके आगे
बात को या कुछ
जोड़ दे सके।
रामकृष्ण को
विवेकानंद
मिले।
विवेकानंद बहुत
शक्तिशाली
व्यक्ति हैं,
अनुभवी
नहीं हैं। तो
शक्तिशाली
होने की वजह से
उन्होंने
चक्र तो चला
दिया, लेकिन
चक्र में
ज्यादा जान
नहीं है, इसलिए
वह जाने वाला
नहीं है।
रामकृष्ण
बहुत अनुभवी
हैं, लेकिन
टीचर होने की,
तीर्थंकर
होने की कोई
स्थिति उनकी
नहीं है। शिक्षक
वे नहीं हो
सकते।
इसलिए
पहली दफा...ऐसा
कई दफा होता
है कि जब कोई व्यक्ति
शिक्षक नहीं
हो सकता तो वह
दूसरे व्यक्ति
के कंधे पर रख
कर शिक्षण का
काम करता है।
तो रामकृष्ण
ने विवेकानंद
के कंधे पर रख
कर हाथ शिक्षण
का काम
विवेकानंद से
ले लिया है।
लेकिन
गड़बड़ हो गई।
गड़बड़ यह हो गई
कि रामकृष्ण अपने
आप शिक्षक हो
नहीं सकते, वह
संभावना ही
नहीं है। और
विवेकानंद
अनुभवी नहीं
हैं, इसलिए
विवेकानंद
माऊथपीस हो गए
रामकृष्ण के।
और विवेकानंद
ने जो कहा, उससे
रामकृष्ण का
कौड़ी भर संबंध
नहीं है। बहुत
गड़बड़ हो गई।
इतना
अस्तव्यस्त
हो गया सब
मामला।
और फिर
रामकृष्ण की
मृत्यु हो गई, फिर
विवेकानंद रह
गए। और
विवेकानंद ने
जो शक्ल दे दी
उस पूरी
व्यवस्था को,
वह
विवेकानंद की
है।
विवेकानंद एक
बहुत बड़े आर्गनाइजर
हैं, बड़े
व्यवस्थापक
हैं। अगर
विवेकानंद का
ही अनुभव होता
खुद, तो एक
चेन शुरू हो
जाती, लेकिन
वह नहीं हो
सकी। क्योंकि
विवेकानंद का खुद
का कोई अनुभव
नहीं है और
जिसका अनुभव
है, वह
व्यवस्थापक
नहीं है! वह
टूट गई।
रमण के
साथ हो सकती
थी घटना, क्योंकि
उसी कीमत के
आदमी हैं, जिसके
बुद्ध या
महावीर; लेकिन
वह नहीं हो
सका, क्योंकि
कोई आदमी नहीं
उपलब्ध हो
सका। कृष्णमूर्ति
उसके विरोध
में हैं, इसलिए
कोई सवाल उठता
नहीं।
प्रश्न:
पश्चिम
में है कि
नहीं चेन?
पश्चिम
में भी चेन है, पश्चिम
में भी फकीरों
की चेन है।
जैसे जीसस की
चेन चली थोड़े
दिन तक, फिर
उस चेन का
द्वार बंद हो
गया। उसके बाद
दूसरी चेन
चली।
प्रश्न:
आज
इन सौ, दो सौ
वर्षों में
कोई नाम है
पश्चिम में।
हां, हां,
अभी है न!
जैसे एकहार्ट
जर्मनी में
हुआ, तो
अदभुत कीमत का
आदमी हुआ, लेकिन
शिक्षक नहीं
है। हजार
संभावनाएं
इकट्ठी हों, तब कहीं एक
चेन गति पकड़ती
है; नहीं
तो नहीं
पकड़ती।
एकहार्ट बहुत
कीमत का आदमी
है, जीसस
की कीमत का
आदमी है; लेकिन
चेन नहीं पकड़
सकी, क्योंकि
वह कोई शिक्षक
नहीं है। वह
बातें कहता है,
वे बेबूझ हो
जाती हैं, वह
समझा नहीं
पाता।
और बातें
बेबूझ हैं।
समझाने की
बहुत समझ न हो
तो उनको
समझाया ही
नहीं जा सकता।
एकदम
कंट्राडिक्टरी
बातें हैं, बहुत
समझ हो तो ही
उनके
कंट्राडिक्शंस
को मिटाया जा
सकता है और
समझ के करीब
लाया जा सकता
है।
बोहमे
हुआ जर्मनी
में,
वह भी चेन
बन सकता था, लेकिन नहीं
बन सका।
कैथलिक
चेन कुछ
अर्थों में
जिंदा
धीरे-धीरे चल
रही है; लेकिन
कोई बहुत
प्रतिभाशाली
व्यक्ति नहीं
है जो कि उसको
गति दे सके।
सब चेन
धीरे-धीरे मर
जाती हैं।
जैसे जापान
में झेन की
चेन चलती है, उसमें
अभी भी एक
प्रतिभाशाली
आदमी था
सुजुकी, लेकिन
वह मर गया।
उसने बड़ी कोशिश
की कि वह गति
दे दे, लेकिन
वह गति नहीं
हो पाई।
और फिर
होता क्या है, कठिनाई
क्या होती है?
जब कोई
महापुरुष एक
शृंखला को
जन्म दे जाता
है तो अगर
उसके पास बहुत
छोटे-मोटे लोग
इकट्ठे हो
जाएं और वे
उसके दावेदार
हो जाएं तो
दोहरा नुकसान
पहुंचता है।
वे तो खुद चला नहीं
सकते कुछ, सिर्फ
मार सकते हैं।
दूसरा नुकसान
यह पहुंचता है
कि कोई अगर
प्रतिभाशाली
व्यक्ति उस
चेन में पैदा
भी हो जाए तो
उसे चेन के
बाहर कर देते
हैं वे फौरन!
वह जो नासमझों
की भीड़ है, वह
उसे एकदम बाहर
कर देती है!
असल
में जीसस
यहूदी चेन का
हिस्सा हो
सकता था। तो
यहूदियों के
तीर्थंकर हुए
हैं बहुत अदभुत।
खुद जॉन था, जिसने
जीसस को
बपतिस्मा
दिया। वह बड़ा
कीमती व्यक्ति
था, जीसस
की कीमत का
आदमी था। और
उसने जीसस को
निकट लेकर
सत्संग दिया।
लेकिन यहूदी
भीड़ जीसस को बरदाश्त
नहीं कर सकी, इतने कीमती
आदमी को। तो
उसने, भीड़
ने बाहर कर
दिया उनको।
इसलिए
यहूदियों का
बेटा यहूदियों
के बाहर हो
गया और ईसाइयत
शुरू हो गई!
ईसाइयत--अब
ईसाइयत के बीच
जो भी कीमती
आदमी पैदा
होता है, ईसाइयत
उसको बाहर कर
देती है फौरन!
होता क्या है
कि वह जो भीड़
नासमझों की
इकट्ठी हो
जाती है, वह
फिर किसी
प्रतिभा को
बरदाश्त नहीं
करती। और जो
प्रतिभा चेन
को जिंदा रख
सकती है, उसको
वह बाहर कर
देती है, तब
नई चेनें शुरू
हो जाती हैं।
ऐसे दुनिया
में कोई पचास
चेन चली हैं, मरी हैं।
थोड़ा-बहुत
चलती हैं, टूटती
हैं, मिट
जाती हैं।
और
इसलिए मेरा
कहना है कि
दुनिया को
जितना आध्यात्मिक
लाभ पहुंच
सकता था इन
सबसे, वह नहीं
पहुंच पाया।
और अब हमें
चाहिए कि हम सारी
व्यवस्था तोड़
दें संप्रदाय
की, ताकि
प्रतिभा को
बाहर निकालने
का उपाय भी न
रह जाए कहीं
से भी। वह
निकालने की
बात ही नहीं
रह जाती।
अब
जैसे मैं
मानता हूं कि
किसी भी, किसी
भी--जैसे
थियोसाफी की
चेन थी; बड़ी
कीमती चेन थी,
उसे
ब्लावट्स्की
ने शुरू किया
और कृष्णमूर्ति
तक वह आई।
लेकिन
कृष्णमूर्ति
इतने ज्यादा बोल्ड
साबित हुए, इतने साहसी,
कि
थियोसाफिस्ट
ही बरदाश्त
नहीं कर सके!
तो थियोसाफिस्टों
ने तो बाहर
कृष्णमूर्ति
को कर दिया!
थियोसाफिस्ट
चेन मर गई। वह
मर गई इसलिए
कि जो कीमती
आदमी उसको आगे
गति दे सकता
था, उसको
तो बाहर निकाल
दिया।
अगर
दुनिया से
संप्रदाय मिट
जाएं, सीमाएं
मिट जाएं, तो
विस्फोट
ज्यादा
व्यापक हो
सकता है।
विस्फोट छू
नहीं पाता।
जैसे समझो, इस मकान में
आग लगी है तो
पड़ोस के मकान
में इसीलिए आग
लग सकती है कि
वह इससे जुड़ा
हुआ है, और
अगर बीच में
एक गली है तो
नहीं लग
सकती--गैप है
बीच में। अब
अगर रमण पैदा
भी हो जाएं तो
ईसाई से उनका
कोई संबंध
नहीं जुड़ता, क्योंकि एक
गैप है, मकान
अलग-अलग ही
हैं।
तो चेन
बहुत दफे पैदा
होती है, शृंखला
आग की, लेकिन
अलग-अलग टुकड़े
बना कर रखे
हुए हैं, वह
उसी में भटक
कर मर जाती है,
बाहर जाने
का उपाय नहीं।
और दुबारा अगर
कोई प्रतिभाशाली
व्यक्ति हो तो
वह खुद ही भीड़
जो है घरों की,
वह उसे
निकाल बाहर कर
देती है कि
हमारे घरों में
इसे रहने नहीं
देना, यह
आग लगवा देगा।
और उसको फिर
नया घर बनाना
पड़ता है। और
नया घर
मुश्किल पड़ता
है। मुश्किल
पड़ने का मतलब
यह होता है कि
वह मुश्किल से
जिंदगी भर में
थोड़े-बहुत लोग
इकट्ठे कर
पाता है, और
फिर उसके साथ
यही होता है।
तो अब
तक
आध्यात्मिक
जगत में जो
नुकसान पहुंचता
रहा है मनुष्य
को,
वह इसलिए
पहुंचता रहा
है कि
संप्रदाय हैं,
सीमाएं
हैं--वे बहुत
सख्त और मजबूत
हो जाती हैं।
पच्चीसवां
तीर्थंकर
पैदा हो सकता
है निरंतर, इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है।
छब्बीसवां
होगा, इसमें
कोई सवाल ही
नहीं है। कोई
सीमा नहीं है,
कोई संख्या
नहीं है।
प्रश्न:
महावीर
का कुछ काम
बाकी रहे, तब
पच्चीसवां
होगा?
काम
तो खतम होता
ही नहीं यहां।
महावीर का
थोड़े ही कोई
काम है!
महावीर का कोई
काम नहीं है।
काम तो यहां
अज्ञान और
ज्ञान की लड़ाई
का है। काम तो यहां
मर्ूच्छा और
अमर्ूच्छा का
है। महावीर का
थोड़े ही कोई
काम है।
प्रश्न:
मोहमडंस
में भी हुए हैं
मोहम्मद के
बाद?
हां न!
मोहम्मद के
बाद बहुत लोग
हुए,
लेकिन उनको
निकाल दिया
मुसलमानों ने
बाहर। जैसे
बायजीद हुआ, बाहर निकाल
दिया फौरन!
जैसे कि मंसूर
हुआ, तो
गर्दन उड़ा दी
उसकी! तो
मोहम्मद के
बाद जो भी कीमती
आदमी हुए, वह
अलग हिस्सा हो
गया सूफियों
का। वह एक अलग
ही टुकड़ा हो
गया, वह
उसको, उसको
मुसलमान
फिक्र नहीं
करता उसके
मानने की! वह
उसको फौरन अलग
कर देंगे। वह
कीमती जो आदमी
हुआ, वह
अलग हो जाएगा।
और फिर
सूफियों में
भी सिलसिले
बढ़ते चले जाएंगे!
जैसे कि मंसूर
हुआ तो मंसूर
को जो मानने
वाला है, वह
अगर उसके बीच
में कोई आदमी
पैदा हुआ जो
मंसूर...।
प्रश्न:
सूफी
किसे कहते हैं?
सूफी
मुसलमानों के
बीच में
क्रांतिकारी
रहस्यवादियों
का वर्ग है।
जैसे कि
बौद्धों में
झेन फकीरों का
वर्ग है, ऐसा
वह वर्ग है।
जैसे
यहूदियों में
हसीद फकीरों
का वर्ग है।
ये सब बगावती
लोग हैं, जो
परंपरा में
पैदा होते हैं,
लेकिन इतने
कीमती हैं कि
उनको बगावत
करनी पड़ती है।
अब
जैसे कि
मोहम्मद के
पीछे नियम बना
कि एक ही अल्लाह
है और उस
अल्लाह का एक
ही पैगंबर है
मोहम्मद।
सूफियों ने
कहा कि एक ही
अल्लाह है, यह
तो बिलकुल सच
है; लेकिन
एक ही पैगंबर
नहीं है
मोहम्मद, पैगंबर
हजार हैं।
बस
झगड़ा शुरू हो
गया। सूफियों
ने कहा, पैगंबर
हजार हैं, पैगंबरों
की क्या गिनती
है! यानी
ईश्वर एक है, यह तो ठीक
है। तो
मुसलमान जब
मस्जिद में
नमाज पढ़ता है
तो वह कहता है,
एक ही
परमात्मा है
और एक ही उसका
पैगंबर, मोहम्मद।
सूफी भी
मस्जिद में नमाज
पढ़ता है, लेकिन
वह कहता है, एक ही
परमात्मा है,
लेकिन
पैगंबर तो
हजार हैं।
यानी पैगंबर
का क्या हिसाब
है? संदेश
लाने वाले तो
हजार हैं।
लेकिन
यह मुसलमान
इसको बरदाश्त
नहीं कर सकता।
क्योंकि यह
कहता है, महावीर
भी ठीक, बुद्ध
भी ठीक, जीसस
भी ठीक, ये
सभी पैगंबर हैं!
इसमें कोई
बाधा नहीं है।
एक की ही खबर
लाने वाले ये
अनेक लोग हैं।
मगर यह
मुसलमान की बरदाश्त
के बाहर है।
अभी
मैंने एक
किताब, कोई
एक मेरा
वक्तव्य था, वह छपा। तो
उसमें मैं
महावीर के साथ
मोहम्मद और
ईसा का नाम
लिया। तो एक
बड़े जैन मुनि
हैं, जिनके
बहुत भक्त हैं,
उनको वह
किताब किसी ने
दी तो
उन्होंने उसे
उठा कर फेंक
दिया और कहा
कि मोहम्मद का
नाम और महावीर
के साथ? कहां
मोहम्मद और
कहां महावीर!
महावीर
सर्वज्ञ, तीर्थंकर
और मोहम्मद
साधारण
अज्ञानी! कहां
इसका मेल
बिठालते हैं!
दोनों का नाम
साथ ले दिया, यही पाप हो
गया! फिर
उन्होंने कहा,
इसको मैं पढ़
ही नहीं सकता
आगे।
तो वही
मोहम्मद का
मानने वाला भी
कहेगा न कि महावीर
का नाम
मोहम्मद के
साथ ले दिया? कहां
मोहम्मद
पैगंबर और
कहां महावीर!
क्या रखा है
महावीर में?
तो वह
जो सूफी कहेगा
कि सब पैगंबर
उसी के, वह
बरदाश्त के
बाहर हो जाएगा।
अज्ञानियों
की भीड़ में
ज्ञान सदा
बरदाश्त के बाहर
है,
इसलिए
कठिनाई हो
जाती है।
और
शृंखलाएं
चलती हैं और
मर जाती हैं।
अब तक कोई
शृंखला ऐसी
नहीं बन पाई...।
प्रश्न:
आप
जो कहते हैं
कि जीसस
क्राइस्ट, कृष्ण,
मोहम्मद, इन सबका नाम
साथ में ले
रहे हैं तो
आपका मानना यह
है कि सबकी
चेतना सरीखी
है, या सब
कौमों को साथ
में करना है
इसलिए आप कहते
हैं?
नहीं, नहीं,
सबको साथ
करना ही नहीं
है, सबकी
सरीखी है, वे
साथ हैं ही।
प्रश्न:
चेतनाएं
सबकी सरीखी
हैं?
बिलकुल
सरीखी हैं, साथ
करने का सवाल
ही नहीं है।
साथ करके भी
क्या फर्क...?
प्रश्न:
सबको
साथ करने के
लिए आप नाम
नहीं लेते?
जरा
भी नहीं, जरा
भी नहीं। उनकी
चेतना बिलकुल
सरीखी है।
प्रश्न:
अभिव्यक्ति
सबकी अलग-अलग
है?
अभिव्यक्ति
बिलकुल
अलग-अलग है, होने
ही वाली है।
मोहम्मद
मोहम्मद हैं,
महावीर
महावीर हैं, अभिव्यक्ति
अलग-अलग होगी।
मोहम्मद जो
बोलेंगे, वह
मोहम्मद का
बोलना है, अपनी
भाषा होगी, अपनी परंपरा
के शब्द
होंगे।
महावीर की
अपनी भाषा
होगी, अपनी
परंपरा के
शब्द होंगे।
अभिव्यक्ति
अलग-अलग होगी,
अनुभूति
बिलकुल एक है।
प्रश्न:
सबकी
एक-एक
अभिव्यक्ति
है,
तो उनके
सुनने वाले
वही साधना में
लग जाते हैं।
आपकी तो सब
अभिव्यक्तियां
अलग-अलग हैं, तो आपके
सुनने वालों
का क्या होगा?
हूं!
सुनने वालों
को बड़ी कठिनाई
है मेरे। मेरे
सुनने वालों
को बड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
अगर मैं कोई
एक ही बात
कहता, तब तो
बहुत आसान था
मेरे पीछे
चलना।
एक तो
पहली बात, मैं
पीछे नहीं
चलाना चाहता,
तो जरूरत ही
नहीं पीछे
चलने की मेरे।
दूसरी
बात यह है कि
मैं चीजों को
इतना आसान भी नहीं
बना देना
चाहता, जितनी
कि आसान बना
कर नुकसान हुआ
है। संप्रदाय
इसीलिए बने
हैं।
तो मैं
तो उन सारी
धाराओं की बात
करूंगा और उन सारे
नियमों की बात
करूंगा, उन
सारी
पद्धतियों की,
उन सारे
रास्तों की जो
मनुष्य ने कभी
भी अख्तियार
किए हैं। शायद
इस तरह की
कोशिश कभी भी
नहीं की गई।
रामकृष्ण
ने थोड़ी सी
कोशिश की थी, लेकिन
रामकृष्ण
समझाने में
बिलकुल
असमर्थ थे। तो
रामकृष्ण ने
सभी
साधना-पद्धतियों
का प्रयोग किया
और इस नतीजे
पर पहुंचे कि
सब रास्ते अलग
हैं, पहाड़
की चोटी पर सब
एक हो जाते
हैं। लेकिन
उनके पास कोई
नहीं था उपाय
कि वे इसको कह
सकते। फिर
उन्होंने जो
साधना-पद्धतियां
भी अख्तियार की
थीं, वे भी
बंगाल में जो
उन्हें
उपलब्ध थीं; सारे जगत के
बाबत उनका
विचार भी उतना
विस्तीर्ण
नहीं था।
मैं तो
एक प्रयोग
करना ही चाहता
हूं कि सारी दुनिया
में अब तक जो
भी किया गया
है परम जीवन
के पाने की
दिशा में, उस
सबकी
सार्थकता को
एक साथ इकट्ठा
ले आऊं। निश्चित
ही मैं कोई
संप्रदाय
नहीं बना
सकता। लेकिन
मैं चाहता ही
हूं कि
संप्रदाय मिट जाएं।
मैं अनुयायी
भी नहीं बना
सकता, क्योंकि
मैं चाहता ही
हूं कि
अनुयायी हो ही
न।
चाह
मेरी यह है कि
मनुष्य ने जो
अब तक खोजा है
और जो इस तरह
बिखर गया है
और ऐसा मालूम
होता है कि
उलटा बिखर गया
है,
वह एकदम
निकट आ जाए।
इसलिए मेरी
बातों में बहुत
बार
विरोधाभास
मिलेंगे, क्योंकि
मैं कभी किसी
मार्ग की बात
जब कर रहा होता
हूं तो उस
मार्ग की बात
कर रहा होता
हूं; जब
दूसरे मार्ग
की बात कर रहा
होता हूं तो
उस मार्ग की
बात कर रहा
होता हूं।
और इन
दोनों
मार्गों पर
अलग-अलग वृक्ष
मिलते हैं, अलग-अलग
चौराहे मिलते
हैं, इन
दोनों मार्गों
पर अलग-अलग
मंदिर का आवास
है, इन
दोनों
मार्गों पर
अलग-अलग
रास्ते की
अनुभूतियां
हैं। अलग-अलग
रास्ते की
अनुभूतियां
अलग-अलग हैं, परम अनुभूति
समान है।
तो वह
तो मैं जिंदगी
भर जब बोलता
रहूंगा, धीरे-धीरे
जब तुम्हें सब
साफ हो जाएगा
कि मैं हजार
रास्तों की
बातें कर रहा
हूं, तब
तुम्हें खयाल
में आएगा। और
फिर तुम्हें
जो ठीक लगे
रास्ता, उससे
तुम चले जाना।
लेकिन एक फर्क
पड़ेगा--मेरी
बात सोच कर, समझ कर जो
गति करेगा उसे
एक फर्क
पड़ेगा--कि वह किसी
भी रास्ते पर
जाए, जो
उसे अनुकूल हो;
लेकिन वह
दूसरे की
दुश्मनी की
बात नहीं करेगा।
क्योंकि वह
इतना ही कहेगा
कि यह मेरे लिए
अनुकूल है।
यही रास्ता
सत्य है, ऐसा
नहीं--यह
रास्ता मेरे
लिए अनुकूल है,
इतना ही
सत्य है।
पड़ोसी के लिए
दूसरा रास्ता
अनुकूल हो
सकता है।
तब यह
हो सकता है कि
पति फकीर, मुसलमान,
सूफियों को
मानता हो; पत्नी
मीरा के रास्ते
पर जाती हो; बेटा हिंदू
हो कि जैन हो
कि बौद्ध हो।
तब एक परम
स्वतंत्रता
हो रास्तों
की। और हर घर
में रास्तों
के बाबत थोड़ा
सा परिचय हो, ताकि
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
लिए रास्ता
चुन सके कि
उसके लिए क्या
उचित हो सकता
है, उसके
अनुकूल क्या
हो सकता है।
अभी
क्या कठिनाई
है--एक आदमी
जैन घर में
पैदा हो जाता
है और हो सकता
है महावीर का
रास्ता उसके
लिए अनुकूल ही
नहीं है; बिलकुल
ही अनुकूल
नहीं है और वह
कभी कृष्ण के रास्ते
पर नहीं जाएगा,
जो कि उसके
लिए अनुकूल हो
सकता था! एक
आदमी कृष्ण के
मानने वाले घर
में पैदा हो
गया तो वह महावीर
के बाबत कभी
सोचेगा ही
नहीं! और हो
सकता है, उसे
कृष्ण का
रास्ता
बिलकुल
अनुकूल न हो
और वह महावीर
के रास्ते से
जा सकता था।
तो
मेरा काम ही
यह है, इतना भी
काम अगर पूरी
जिंदगी में हो
जाए कि मैं
सारे रास्तों
को निकट खड़ा
कर सकूं, एक
पर्सपेक्टिव
में, एक
दृष्टि में वे
दिखाई पड़ने
लगें, एक
झलक में आदमी
उन्हें देख
सके, पहचान
सके और
निष्पक्ष
होकर सोच सके
और फिर अपनी
स्थिति के साथ
तौल कर सके कि
कौन सा रास्ता
मेरे लिए है!
लेकिन तब वह
दूसरे की
दुश्मनी नहीं
है।
तुमने
जो कपड़े पहने
हुए हैं, वह
तुम्हारी मौज
है...।
प्रश्न:
रास्तों
का भी
विश्लेषण
किसी वक्त
करें!
करना
है,
जरूर करना
है, जरूर
करना है। ऐसे
तो होते ही
चला जाता है।
अब जैसे
महावीर की
मैंने बात की
तो इसमें
महावीर के
रास्ते का
पूरा
विश्लेषण हो
जाएगा। कल मोहम्मद
की बात करूंगा
तो उनका हो
जाएगा। परसों
क्राइस्ट की
बात करूंगा तो
उनका हो
जाएगा। कृष्ण
की करूंगा तो
उनका हो
जाएगा। वह
होता चला
जाएगा। व्यक्तियों
को चुन कर भी
मैं बात कर
लेना चाहता हूं
और फिर
शास्त्र को
चुन कर भी बात
कर लेना चाहता
हूं। जैसे
गीता को, कुरान
को, बाइबिल
को--उनको भी
चुन कर बात कर
लेना चाहता हूं।
अगर एक
पूरी जिंदगी
में इतना भी
काम हो सके तो बड़ा
तृप्तिदायी
है।
प्रश्न:
तब
तो एक निवेदन
है!
हां।
प्रश्न:
क्योंकि
जिंदगी सीमित
है,
आप इस
जिंदगी के
बारे में
जानते हैं कि
कितने दिन
आपको रहना है।
कहीं ऐसा न हो
कि जो कुछ आप सोच
रहे हैं, वह
अधूरा रह जाए।
तो इसे किसी
दूसरे को देने
वाली बात भी आपके
ध्यान में
रहनी चाहिए।
यह
तो आप ठीक
कहते हैं। यह
तो आप ठीक
कहते हैं। यह
भी बात ठीक है
कि जिंदगी का
कोई भरोसा
नहीं। और यह
भी बात ठीक है
कि इतना बड़ा
काम है, उसे
एक आदमी
जिंदगी में कर
पाए, न कर
पाए। भरोसा एक
ही है कि काम
में मेरा कोई
स्वार्थ नहीं
है, अगर
जिंदगी की
मर्जी होगी तो
पूरा काम ले
लेगी, मर्जी
नहीं होगी तो
नहीं लेगी।
यानी उसकी मुझे
कोई जिद्द भी
नहीं कि वह
पूरा होना ही
चाहिए। इसमें
जिद्द की भी
क्या बात है? वह पूरा
होना ही चाहिए,
यह भी कोई
बात नहीं है।
और आप
जो कहते हैं, वह
ठीक ही कहते
हैं; पर वह
भी इन्हीं
लोगों में से
धीरे-धीरे जो
मेरे करीब आते
हैं, वे
लोग खड़े हो
सकेंगे जो
थोड़ी साधना
में गति करें,
तो निश्चित
ही उनसे काम
लिया जा सकता
है--उनसे काम
लिया जा सकता
है। और वह भी
जिंदगी को
लेना होगा तो
ही।
उसको
भी,
उसको भी
मेरे मन में
कल के लिए भी
हिसाब नहीं है।
यानी जब आप
मुझसे बात
करते हैं तो
मैं कहता हूं,
लेकिन मेरे
मन में कल का
भी हिसाब नहीं
है। कल आएगा
तो जो काम
जिंदगी को
लेना होगा, वह ले लेगी।
और नहीं लेना
होगा तो ठीक
है, कल
नहीं आएगा।
इसमें मेरा
कोई आग्रह जरा
भी नहीं है।
इसलिए अत्यंत
निश्चिंत
हूं। कोई तनाव
भी नहीं है
उसका।
अब
जैसे महावीर
के संबंध में
यह कह रहा हूं, यह
मैं कभी बैठ
कर सोचा नहीं
हूं। आप से
बात हो रही है
तो सोचता चलता
हूं। कल
क्राइस्ट के
बाबत क्या
कहूंगा, मुझे
खुद पता नहीं
है, सोचता
चलूंगा। इधर
मेरी अपनी
भीतरी जो
स्थिति है, वह यह है कि
बिलकुल छोड़ा
हुआ हूं, और
जहां
परमात्मा ले
जाए, जहां
बहा दे और जो
करवा ले। और न
करवाना हो तो
उसकी मर्जी है,
उसमें भी
मेरी तरफ से
कोई, कोई
आग्रह नहीं
किसी तरह का।
और उसे काम
लेना होता है
तो वह हजार
तरह से काम ले
लेता है। उसके
उपयोग का है
तो हजार तरह
से वह पूरा
करवा लेता है।
और आप
जो कहते हैं, वह
भी ठीक कहते
हैं, कुछ
लोग तैयार भी
करवा ले सकता
है। वह भी
उसके ही हाथ
की बात है।
एकाध
प्रश्न और कर
लें।
प्रश्न:
आपने
कहा कि इसलिए
कि श्रृंखला
नहीं चले तथा
संप्रदाय ही न
रहे, तो आपका
जो कहना है कि
मैं हर धर्म
को आपके सामने
पेश करूंगा।
तो इससे
संप्रदाय तो
खड़ा रहेगा--जो
हर धर्म का
आदमी नए ढंग
से पकड़ेगा और
उसमें हर धर्म
वाले आदमी
होंगे। आप ऐसा
क्यों नहीं
सोचते कि सब
धर्म का कोई
एक नया स्वरूप
आ जाए?
अपने
आप आ जाएगा।
प्रश्न:
इस पर
आप जोर क्यों
नहीं देते?
अपने
आप आ जाएगा।
अगर हम, सब
धर्मों को
समझने की
सदबुद्धि
हममें आ जाए तो
अपने आप आ
जाएगा, उस
पर जोर देने
की जरूरत नहीं
है। यानी अभी
तक जो झगड़ा है,
वह इसी बात
का है कि
प्रत्येक
धर्म वाला
समझता है कि
सत्य का मेरा
ठेका है और
बाकी सब असत्य
हैं। अगर मैं
सबके भीतर
सत्य को
तुम्हें बता
सकूं तो यह
बात टूट जाती
है, इसको
जोर देने की
जरूरत नहीं
है। यह तो तुम,
सुनते-सुनते
टूट जाएगी।
सुनते-सुनते
तुम उस जगह
पहुंच जाओगे
कि तुम्हें
कहना मुश्किल
हो जाएगा कि
मैं हिंदू हूं,
कि मैं
मुसलमान हूं,
कि ईसाई
हूं।
अगर
तुम
सुनते-सुनते न
पहुंच जाओ और
मुझे जोर देना
पड़े तो वह जोर
तो जबरदस्ती
हो जाएगी। यानी
मेरा कहना यह
है कि अगर
मेरी बात
सुनते-सुनते
ही तुम कहीं
पहुंच गए तो
ठीक,
अब पीछे से
जोर भी देना
पड़े, तो
फिर तो ठीक
नहीं है।
प्रश्न:
आपके
तरीके से तो
ठीक है यह, मगर
भविष्य में
आदमी इस बाजू
कनवर्ट हो
जाए...।
किस
बाजू?
प्रश्न:
ये
बाजू--संप्रदाय
के बाजू। नए
ढंग से पकड़े
तो आपका कहना
ठीक है, आप उस
स्टेज तक सोच
सकते हैं...।
नए
ढंग से पकड़ा
ही अगर, तो
नया ढंग क्या
है मेरा, कि
पकड़े न। समझे
न मेरी बात? यानी मेरा
कहना यह है कि
जब तक पकड़ता
है, तब तक
पुराना ढंग है,
नहीं पकड़ता
तो ही नया ढंग
है। और मेरी
बात सुनते-सुनते
उसकी पकड़ छूट
जाए, क्लिंगिंग
छूट जाए, तो
बात खतम हो
गई।
भय तो
सदा है। जो
तुम कहते हो, भय
तो सदा है। भय
इसलिए सदा है
कि लोग भयभीत
हैं, और
कोई कारण नहीं
है। तो उनको
सब जगह भय दिख
जाता है। भय
चित्त में है
तो सब जगह भय
दिखता है, भय
चित्त में न
हो तो फिर
कहीं भय नहीं
दिखता।
प्रश्न:
क्या
मनुष्य-उपयोगी
दृष्टि से
पशु-हिंसा न्यायसंगत
है?
हूं, यह
प्रश्न बहुत
बढ़िया है।
क्या
मनुष्य-उपयोगी
दृष्टि से पशु-हिंसा
न्यायसंगत है?
सिर्फ
मनुष्य-उपयोगी
दृष्टि से ही
न्यायसंगत
नहीं है, और सब
दृष्टि से
न्यायसंगत हो
सकती है।
पशु-हिंसा जो
है वह सिर्फ
मनुष्य-उपयोगी
दृष्टि से ही
न्यायसंगत
नहीं है, बाकी
सब दृष्टि से
न्यायसंगत
है।
इसलिए
मनुष्य से
नीचे के तलों
पर हम पशु-हिंसा
को अन्याय
नहीं कहते और
न कह सकते
हैं। उस तल पर
जीवन ही सब
कुछ है और
जीवन के लिए
जो भी किया जा
रहा है, वह सब
ठीक है।
पशु और
मनुष्य में
फर्क ही क्या
है?
पशु और
मनुष्य में
फर्क एक ही है
कि मनुष्य सचेत
हुआ है, जाग्रत
हुआ है, स्वचेतन
हुआ है, सेल्फ-कांशस
हुआ है। उसने
चीजों में
देखना शुरू
किया है। उसके
लिए भोजन इतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना
भोजन का साधन
महत्वपूर्ण
है। एक बार वह भोजन
से चूक सकता
है, लेकिन
मनुष्यता से
नहीं चूक
सकता। मनुष्य
होने का मतलब
यह है कि
मनुष्यता कुछ
इतनी कीमती चीज
हो गई है...।
मैंने एक
कहानी पढ़ी है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान
का बंटवारा
हुआ। एक गांव
में उपद्रव हो
गया, दंगा
हो गया। एक
परिवार भागा।
पति है, उसकी
पत्नी है, एक
बच्चा साथ है।
दो बच्चे कहीं
खो गए। गाएं थीं,
भैंसें थीं,
वे सब खो
गईं, सिर्फ
एक गाय साथ
में बचा पाए।
लेकिन उस गाय
का छोटा बछड़ा
था, वह भी
खो गया। वे सब
जंगल में छिपे
हैं। दुश्मन
हैं आस-पास, मशालें
दिखाई पड़ रही
हैं। कहीं पता
न चल जाए! वह
बच्चा रोना
शुरू करता है।
वह मां घबड़ा
जाती है। वह
पहले उसका
मुंह बंद करती
है, उसे
दबाती है, रोकती
है। लेकिन वह
जितना दबाती
है, उतना
रोता है। फिर
वह मां और बाप
उसकी गर्दन
दबा देते हैं,
क्योंकि
जान बचाने के
लिए अब कोई
उपाय नहीं है।
वह अगर
चिल्लाता है
तो अभी दुश्मन
आवाज सुन लेगा
और मौत हो
जाएगी। उसकी
गर्दन दबा
देते हैं।
लेकिन
तभी उस गाय के
बछड़े की आवाज
कहीं दूसरे दरख्तों
के पास से
सुनाई पड़ती है
और वह गाय
जोर-जोर से
चिल्लाने
लगती है। और
उस गाय को
चिल्लाते सुन
कर दुश्मन पास
आने लगता है।
बच्चे की
गर्दन दबानी
आसान थी, गाय
की गर्दन भी
नहीं दबती।
गाय को मारो
कैसे? कोई
उपाय भी नहीं
मारने का।
तो वह
औरत अपने पति
से कहती है कि
तुमसे कितना कहा
कि इस हैवान
को साथ मत ले
चलो! वह औरत
अपने पति से
कहती है, तुमसे
कितना कहा कि
इस पशु को साथ
मत ले चलो! अब मुश्किल
में डाल दिया
है।
और वह
पति कहता है
कि मैं यह
विचार कर रहा
हूं कि पशु
कौन है--हम या
यह गाय! पशु
कौन है? हमने
अपने बच्चे को
मार डाला है
अपने को बचाने
के लिए! तो
हैवान कौन है?
मैं इस
चिंता में पड़
गया हूं।
वे
दुश्मनों की
मशालें करीब
आती चली जाती
हैं,
वह गाय
भागती है, क्योंकि
उसी तरफ उसके
बछड़े की आवाज
आ रही है। वह
दुश्मनों के
बीच घुस जाती
है, लोग
उसे आग लगा
देते हैं। वह
जल जाती है, लेकिन बछड़े
के लिए
चिल्लाती
रहती है! तो वह
पति कहता है
कि मैं पूछता
हूं कि पशु कौन
है? आज
मेरी तरफ पहली
दफा जिंदगी
में खयाल उठा
कि किसको हम
मनुष्य कहें,
किसको हम
पशु कहें?
यह
सवाल बड़ा
बढ़िया है। यह
पूछता है, मनुष्य-उपयोगी
दृष्टि
से...शायद उसका
खयाल यह है कि
मनुष्य के लिए
जरूरी है कि
वह पशुओं को
मारे, नहीं
तो मनुष्य बच
नहीं सकेगा।
एक
अर्थ में यह
बात बिलकुल
ठीक है। यह इस
अर्थ में ठीक
है कि मनुष्य
अगर शरीर के
तल पर ही बचना
चाहता हो तो
शायद पशुओं को
मार ही रहा है, मारता
ही रहे। लेकिन
मनुष्य अगर
मनुष्यता के आत्मिक
तल पर बचना
चाहता हो तो
पशुओं को मार
कर तो कभी
नहीं बच सकता
है, वह तो
असंभव है।
एक बार
हमें यह खयाल
में आ जाए कि
देहधारी मनुष्य
को बचाना है, सिर्फ
उसके शरीर को
बचा लेना है
या मनुष्यता को
बचाना है, अदेहधारी
मनुष्यता को?
तो
सवाल बिलकुल
अलग-अलग हो
जाएंगे।
देहधारी मनुष्य
को बचाते हैं
तो हम हैवान
से ऊपर नहीं
हैं,
पशु से ऊपर
नहीं हैं। और
अगर हम उसके
भीतर की मनुष्यता
को बचाने के
लिए कुछ सोचते
हैं तो शायद
पशु-हिंसा
किसी भी तरह
समर्थन नहीं
की जा सकती।
लेकिन
कहा जाएगा, फिर
आदमी बचेगा
कैसे? आदमी
बचने के उपाय
खोज लेता है, जैसे ही
उसका बचना
मुश्किल में
पड़ जाए।
सिंथेटिक
फूड्स बनाए जा
सकते हैं।
समुद्र के
पानी से जितना
पृथ्वी भोजन
देती है, इससे
करोड़ गुना
भोजन निकाला
जा सकता है।
हवाओं से सीधे
भोजन पाया जा
सकता है।
एक बार
यह तय हो जाए
कि मनुष्यता
मर रही है तो फिर
हम मनुष्य को
बचाने के हजार
उपाय खोज सकते
हैं। यह तय न
हो तो फिर ठीक
है। फिर हम
मनुष्य को बचा
लेते हैं
देहधारी
दिखाई पड़ने
वाले, लेकिन
भीतर कुछ गहरा
तत्व खो जाता
है। वह गहरा
तत्व तभी खो
जाता है, जब
हम, जब हम
किसी को दुख
देने को तत्पर
और उत्सुक हो जाते
हैं। किसी को
दुख देने का
जो भाव है, वही
हमें नीचे
गिरा देता है।
तो किसी को हम
दुख दें और
मनुष्य बने
रहें, इन
दोनों बातों
में कठिनाई
है।
यह बात
सच है कि आज तक
ऐसी स्थिति
नहीं बन सकी कि
एकदम से
मांसाहार बंद
कर दिया जाए, एकदम
से पशु-हिंसा
बंद कर दी जाए
तो आदमी बच जाए।
लेकिन नहीं बन
सकी तो इसीलिए
नहीं बन सकी
कि हमने उस
बात को खयाल
में नहीं लिया
है, अन्यथा
बन सकती है, कोई कठिनाई
नहीं है। और
आने वाले
दो-चार सौ वर्षों
में बन सकती
है, क्योंकि
अब हमारे पास
वे वैज्ञानिक
साधन उपलब्ध
हो गए हैं, जिनसे
अब पशुओं को
मारने की कोई
जरूरत नहीं है,
उसके बिना
काम चल सकता
है।
अब तो
जिसको हम कहें, कृत्रिम
मांस भी बनाया
जा सकता है।
आखिर गाय घास
खाकर करती
क्या है? घास
खाकर मांस
बनाती है।
मशीन क्यों
नहीं हो सकती
जो घास खाए और
मांस बनाए? इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है।
दूध
कृत्रिम बन
सकता है, मांस
कृत्रिम बन सकता
है, सब
कृत्रिम बन
सकता है। जब
सब बन सकता है
तो अब मैं
कहता हूं
कि--अतीत की
बात मैं छोड़
देता हूं, जब
कि सब नहीं बन
सकता
था--लेकिन अब
जब कि सब बन सकता
है तो मनुष्य
के सामने एक
नया चुनाव फिर
खड़ा हो गया है
और वह चुनाव
यह है कि अब जब
सब बन सकता है,
तब पशु-हिंसा
का क्या मतलब?
पीछे
कठिनाइयां
थीं। आदमी को
बचाना भी
मुश्किल था, यह
भी मैं समझता
हूं। शायद
अतीत में आदमी
नहीं बचाया जा
सकता था। शरीर
ही नहीं बचाया
जा सकता था, जब शरीर ही न
बचता तो आत्मा
क्या बचाते आप?
शरीर
बिलकुल
सारभूत था, जिसे बचाएं
तो पीछे आत्मा
भी बच सकती है,
मनुष्यता
भी बच सकती
है। शरीर नहीं
बचाया जा सकता
था।
इसलिए
बुद्ध ने थोड़ा
सा समझौता
किया। समझौता यह
किया कि मरे
हुए पशु का
मांस खाया जा
सकता है। यह
समझौता सिर्फ
उस स्थिति का
समझौता था। समझौता
विचारपूर्ण
था,
लेकिन इस
कारण बुद्ध
पशु-जगत से
संबंध स्थापित
करने में
असमर्थ हो
गए--जैसा
मैंने पीछे
कहा।
महावीर
समझौते के लिए
राजी नहीं हुए, उसका
कारण यह नहीं
था, उसका
कारण कुल इतना
था कि अगर
पशु-जगत तक
संदेश
पहुंचाना था
तो यह समझौता
नहीं माना जा
सकता। बुद्ध
ने समझौता
माना कि मरे
हुए जानवर को
खाया जा सकता
है।
लेकिन
बड़ी मुश्किल
हो गई, क्योंकि
आदमी को
समझौते देना
बहुत महंगा
है। आज चीन
में, जापान
में सब
दुकानों पर
लगा रहता है
कि यहां मरे
हुए जानवर का
ही मांस मिलता
है। जैसा हमारे
यहां लिखा
रहता है, यहां
सब शुद्ध घी
मिलता है।
प्रश्न:
गहरे
में
प्लांट-लाइफ
और पशु-लाइफ
में क्या अंतर
है?
अंतर
बहुत है। अंतर
बहुत है। पशु
विकसित है, बहुत
विकसित है
पौधे से। बहुत
विकसित है।
विकास के दो
हिस्से उसने
पूरे कर लिए
हैं। एक तो पौधे
में गति नहीं
है, मूवमेंट
नहीं है। थोड़े
से पौधों को
छोड़ कर जो पशुओं
और पौधों के
बीच में हैं यात्रा
के। कुछ पौधे
हैं, जो
जमीन में चलते
हैं, जो
जगह बदल लेते
हैं, जो आज
यहां हैं तो
कल सरक जाएंगे
थोड़ा। साल भर बाद
आप उनको उस
जगह न पाएंगे,
जहां साल भर
पहले पाया था।
साल भर में वे
यात्रा कर
लेंगे थोड़ी
सी। पर वे
पौधे सिर्फ
बहुत दलदली
जमीन में होते
हैं। जैसे
अफ्रीका के
कुछ दलदलों
में पौधे होते
हैं, जो
रास्ता बनाते
हैं अपना, चलते
हैं, जो
अपने भोजन की
तलाश में
इधर-उधर जाते
हैं।
नहीं
तो पौधा ठहरा
हुआ है। ठहरे
हुए होने के कारण
बड़े गहरे बंधन
उस पर लग गए
हैं। ठहरे हुए
होने के कारण
वह कोई खोज
नहीं कर सकता
किसी चीज की।
जो आ जाए, बस
वही ठीक है, उससे अन्यथा
कोई उपाय नहीं
है उसके पास।
पानी नीचे हो
तो ठीक है, हवा
ऊपर हो तो ठीक,
सूरज निकले
तो ठीक, नहीं
तो गया वह।
तो यह
जो उसकी जड़
स्थिति है, ठहरी
हुई, उसमें
प्राण तो
प्रकट हुआ है,
जैसा पत्थर
में उतना
प्रकट नहीं
हुआ है। वैसे
पत्थर भी बढ़ता
है, बड़ा
होता है। और
दुख की भी
संवेदना
पत्थर को किसी
तल पर होती
है। लेकिन
पौधे को दुख
की संवेदना
बहुत बढ़ गई
है। चोट भी
खाता है तो
दुखी होता है।
शायद प्रेम भी
करता है, शायद
करुणा भी करता
है। लेकिन
बंधा है जमीन
से तो
परतंत्रता
बहुत गहरी है।
तो उस
परतंत्रता के
कारण चेतना
जितनी विकसित हो
सकती है...।
अब यह
हमें खयाल में
नहीं है कि
मूवमेंट से चेतना
विकसित होती
है। जितनी हम
गति कर सकते
हैं,
जितनी
स्वतंत्रता
से, उतनी
चेतना को नई
चुनौतियां
मिलती हैं; नए अवसर, नए
मौके; नए
दुख, नए
सुख; उतनी
चेतना जगती
है। नए का
साक्षात्कार
करना पड़ता है।
वृक्ष
के पास उतनी
चेतना नहीं
है। तो वृक्ष
करीब उस हालत
में हैं, जिस
हालत में आप
भी
क्लोरोफार्म
में हो जाते हैं।
उस हालत में
है वृक्ष की
चेतना। जैसे
कि एक जानवर
को
क्लोरोफार्म
दे दें, या
एक आदमी को
क्लोरोफार्म
दे दें, तो
जिस वक्त
क्लोरोफार्म
में दस मिनट
आप बेहोश हों,
उस वक्त आप
वृक्ष की
स्थिति में
हैं। आप मूव नहीं
कर सकते, हाथ
नहीं उठा सकते,
चल-फिर नहीं
सकते, कोई
गर्दन काट जाए
तो कुछ नहीं
कर सकते।
तो
प्रकृति उतनी
ही चेतना देती
है,
जितना आप कर
सकते हों। अगर
पौधे को इतनी
चेतना दे दी
जाए कि उसकी
कोई गर्दन
काटे, वह
उतना ही दुखी
हो जितना आदमी
होता है, तो
पौधा बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाएगा।
क्योंकि गर्दन
तो कोई रोज
काटेगा उसकी।
इसलिए इतनी
मर्ूच्छा
चाहिए
क्लोरोफार्म
वाली कि कोई
गर्दन भी काटे
तो भी चले।
पशु
पौधे के आगे
का रूप है, जहां
पशु ने गति ले
ली है। अब
उसकी गर्दन
काटो तो वह उस
हालत में नहीं
है, जिसमें
कि पौधा है।
अब उसकी पीड़ा
बढ़ गई है, संवेदना
बढ़ गई है, उसका
सुख भी बढ़ गया
है। और गति ने
उसको विकसित किया
है।
लेकिन
पशु भी एक तरह
की निद्रा में
चल रहा है, सोम्नाबुलिज्म
में है।
क्लोरोफार्म
की हालत नहीं
है, लेकिन
एक निद्रा की
हालत है। उसे
अपना कोई पता
ही नहीं है।
यानी वह जीता
है हमेशा
चैलेंज और स्टिमुलस
और रिस्पांस
में।
जैसे
एक कुत्ता है, उसको
आपने झिड़का तो
वह भागता है।
आपका झिड़कना ही
महत्वपूर्ण
है, उसका
भागना सिर्फ
रिस्पांस है।
आपने रोटी डाल
दी तो खा लेता
है। आपने
प्रेम किया तो
पूंछ हिलाता
है। उसका, जो
भी वह कर रहा
है, कर्म
वह कोई भी
नहीं करता, सिर्फ
रिएक्ट करता
है, सिर्फ
प्रतिकर्म
करता है, कर्म
नहीं करता।
अपनी तरफ से
कुत्ता कुछ
नहीं करता, कोई जानवर
नहीं करता
अपनी तरफ से, बस जो होता
रहता है, उसमें
वह भागीदार
होता रहता है।
भूख लगती है तो
घूमने लगता है,
प्यास लगती
है तो घूमने
लगता है। कोई
कुत्ता फास्ट
नहीं कर सकता।
भूख न लगे तो
बात दूसरी है,
तो फिर वह
खा नहीं सकता।
जैसे अगर
कुत्ता बीमार
है तो फास्ट
कर जाएगा फौरन,
फिर उस दिन
वह दिन भर
नहीं खाएगा और
घास खाकर
वोमिट भी कर
देगा।
कुत्ते
को अगर खाने
की स्थिति
नहीं है तो
कुत्ता खा
नहीं सकता।
आदमी खाने की
स्थिति में
नहीं है तो भी
खा सकता है।
कुत्ते को अगर
खाने की स्थिति
है तो उपवास
नहीं कर सकता, करना
पड़े वह बात
दूसरी है।
आदमी पूरा
भूखा है तो भी
उपवास कर सकता
है। यानी इसका
मतलब यह है कि
आदमी एक्ट कर
सकता है, कुत्ता
सिर्फ रिएक्ट
करता है।
कुत्ता सिर्फ प्रतिक्रिया
करता है और
आदमी कर्म
करता है।
लेकिन
सभी आदमी कर्म
भी नहीं करते।
इसलिए बहुत कम
आदमी आदमी की
हैसियत में
हैं। अधिकतम
आदमी
प्रतिकर्म ही
करते हैं।
यानी किसी ने
आपको प्रेम
किया तो आप
प्रेम करते
हैं। और किसी
ने गाली दी, फिर
आप प्रेम करें
तो कर्म हुआ।
किसी ने आपको प्रेम
किया और आपने
प्रेम किया तो
यह प्रतिकर्म
हुआ। यह वैसे
ही है, जैसे
कुत्ता पूंछ
हिलाता है
उसको रोटी
डालो तो; इसमें
उसमें कोई
बुनियादी फर्क
नहीं है। हां,
कोई आदमी
आपको गाली
देता, और
आप प्रेम कर
सकें, तो
कर्म हुआ।
तो मैं
यह कह रहा हूं
कि कुछ पौधे
सरकने लगे हैं, वे
जानवर की दिशा
में प्रवेश कर
रहे हैं। कुछ जानवर
भी थोड़ा-बहुत
रिएक्ट करते
हैं--बहुत थोड़ा,
कुछ जानवर--
वे आदमी की
दिशा में सरक
रहे हैं। कुछ
आदमी भी कर्म
करते हैं, वे
और ऊपर के
चेतना लोकों
की तरफ सरक
रहे हैं। फर्क
है
स्वतंत्रता
का। जितने हम
नीचे जाते हैं,
पत्थर सबसे
ज्यादा
परतंत्र है, पौधा उससे
कम, पशु
उससे कम, तथाकथित
मनुष्य उससे
कम, महावीर-बुद्ध
जैसे लोग
बिलकुल कम।
अगर हम ठीक से
समझें तो सारे
विकास को हम
स्वतंत्रता
के हिसाब से
नाप सकते हैं।
और
इसलिए मेरा
निरंतर जोर
स्वतंत्रता
पर है।
कौन
व्यक्ति
कितनी
स्वतंत्रता
अर्जित करे जीवन
में,
उतनी चेतना
की तरफ जाता
है। और
स्वतंत्रता
बहुत प्रकार
की है। बहुत
प्रकार की
है--गति की
स्वतंत्रता, विचार की
स्वतंत्रता, कर्म की
स्वतंत्रता, चेतना की
स्वतंत्रता; यह सब होनी
चाहिए। जितनी
ये पूर्ण होती
चली जाती हैं,
उतना मोक्ष
की तरफ बढ़ा जा
रहा है। धर्म
की भाषा में
कहें तो जीवन
मुक्त होने की
तरफ जा रहा है।
तो जितना हम
नीचे जाते हैं,
उतना
अमुक्त है।
पत्थर
कितना अमुक्त
है! एक ठोकर
आपने मार दी तो
कुछ भी नहीं
कर सकता, रिएक्ट
भी नहीं कर
सकता। यानी आप
एक ठोकर मार देते
हैं तो
प्रतिकर्म
करने में भी
असमर्थ है, कि उसको दिल
आ जाए कि इसकी
खोपड़ी खोल दें
तो भी नहीं कर
सकता कुछ। लात
सह लेता है, पड़ा रह जाता
है। जहां पड़
गया, वहीं
पड़ गया। कोई
उपाय नहीं है
उसके पास। तो
सबसे ज्यादा
बद्ध अवस्था
है।
पत्थर
जो है, वह बद्ध
आत्मा है।
महावीर जो हैं,
वह
प्रबुद्ध
आत्मा हैं, मुक्त आत्मा
हैं। बद्ध
होने से और
मुक्त होने तक,
बंधन से और
मुक्ति तक की
यात्रा है, उसी में तल
हैं। और मोटी
सीढ़ियां हमने
बांट ली हैं, लेकिन सब
सीढ़ियों पर
अपवाद हैं।
जैसे
समझ लें कि
पचास सीढ़ियां
हैं और आदमी
चढ़ रहे हैं उस
पर। कोई आदमी
पहली सीढ़ी पर
खड़ा है, कोई
आदमी दूसरी
सीढ़ी पर खड़ा
है, कोई
आदमी पहली
सीढ़ी से उठ
गया है, लेकिन
अभी दूसरी
सीढ़ी पर पैर
रखा नहीं है, तो वह बीच
में है। कोई
आदमी दूसरी
सीढ़ी पर खड़ा है,
कोई आदमी
तीसरी सीढ़ी पर
खड़ा है, और
कोई आदमी
दूसरी और
तीसरी के बीच
में है अभी।
अभी पार कर
रहा है, दूसरी
से पैर उठा
लिया है, तीसरी
पर अभी रखा
नहीं है।
तो इस
तरह मोटे में देखें
तब तो हमको
ऐसा लगता है, पत्थर
है, पौधा
है, लेकिन
कुछ पत्थर
पौधे की हालत
में पहुंच रहे
हैं। इसलिए
कुछ पत्थर जो
हैं, वे
बिलकुल पौधे
जैसे हैं।
उनकी डिजाइन,
उनके पत्ते,
उनकी
शाखाएं, वे
बिलकुल पौधे
जैसे हैं। वे
पौधे की तरफ
बढ़ रहे हैं।
कुछ
पौधे बिलकुल पशुओं
जैसे हैं। कुछ
पौधे अपना
शिकार भी खोजते
हैं। पक्षी उड़
रहा है आकाश
में तो वे
चारों तरफ से
पंखे बंद कर
लेते हैं, उसको
फांस लेते हैं
अंदर। कुछ
पौधे प्रलोभन
भी डालते हैं।
उनके ऊपर की
थालियों पर
बहुत मीठा, बहुत
सुगंधित रस भर
लेते हैं वे, ताकि पक्षी
आकर्षित हो
जाएं। और वे
जैसे ही उस पर
बैठते हैं कि
चारों तरफ के
पत्ते बंद हो
जाते हैं। कुछ
पौधे अपने
पत्तों को
पक्षियों के
शरीर में
प्रवेश कर देते
हैं और वहां
से खून खींच
लेते हैं। वे
पौधे अब पौधे
की हालत में
नहीं हैं, वे
पशु की तरफ
गति कर रहे
हैं।
कुछ
पशु मनुष्य की
तरफ गति कर
रहे हैं। इन
पशुओं में
मनुष्य जैसी
बहुत सी बातें
दिखाई पड़
जाएंगी। जैसे
बहुत से
कुत्तों में, बहुत
से घोड़ों में,
बहुत से
हाथियों में,
बहुत सी
गायों में
बहुत मनुष्य
जैसी बातें दिखाई
पड़ जाएंगी।
जिन-जिन
जानवरों से
मनुष्य संबंध
बनाता है, उन-उन
जानवरों से
संबंध बनाने
का कारण ही
यही है। सभी
जानवरों से
मनुष्य संबंध
नहीं बनाता।
जिनको हम पैट
एनीमल्स कहते
हैं, उनसे
संबंध बनाने
का कारण यही
है कि वे कहीं
किसी तल पर
हमसे मेल खाते
हैं, कहीं
किन्हीं
भावनाओं में
हमसे उनका मेल
है। लेकिन फिर
भी सभी, उसी
जाति के सभी
पशु भी एक तल
पर नहीं होते
हैं, कुछ
आगे बढ़े होते
हैं, कुछ
पीछे हटे होते
हैं।
प्रश्न:
देखने
में ऐसा आता
है कि जो लोग
आमतौर पर
नॉन-वेजिटेरियन
हैं, उनमें
यह करुणा की
भावना और यह
मनुष्यता की
भावना देखने
में ज्यादा
आती है। जैसे
वेस्टर्न कंट्रीज
में, वे ही लोग
मनुष्य की
सेवा ज्यादा
करते हैं। हम
इधर हिंदुस्तान
में
वेजिटेरियन
होते हुए भी
हमारे में कोई
करुणा की
भावना, कोई
मनुष्यता की
भावना--देखने
में ऐसा लगता
है रह ही नहीं
गई!
हां, उसके
कारण हैं।
उसके कारण
हैं। क्योंकि
अगर आप करुणा
के कारण
वेजिटेरियन
हुए हैं, शाकाहारी
हुए हैं, तब
तो बात अलग
है। और जन्म
के कारण
शाकाहारी हैं
तो इससे कोई
संबंध ही नहीं
है। इससे कोई
संबंध ही नहीं
है करुणा का।
यानी आप क्या
खाते हैं, इससे
करुणा का
संबंध नहीं
है। आपकी
करुणा क्या है,
इससे आपके
खाने का संबंध
हो सकता है।
तो इस
मुल्क में जो
शाकाहारी है, वह
जबरदस्ती
शाकाहारी है।
उसके चित्त
में शाकाहार
नहीं है, उसके
चित्त में कोई
करुणा ही नहीं
है।
फिर
मांसाहारी जो
है,
उसके मन की
कठोरता बहुत
कुछ उसके भोजन,
उसकी
जीवन-व्यवस्था
में निकल जाती
है और वह मनुष्य
के प्रति
ज्यादा सदय हो
सकता है। और
आपको वह भी
मौका नहीं है,
आपकी
कठोरता
निकलने को कोई
मौका ही नहीं
है, वह
मौका सिर्फ
मनुष्य की तरफ
है।
यानी
मेरा कहना यह
है कि एक
शाकाहारी
आदमी है, उसमें
आधा पाव
कठोरता है, समझ लें; और
एक मांसाहारी
आदमी है, उसमें
भी आधा पाव
कठोरता है। तो
मांसाहारी आदमी
ज्यादा करुणावान
सिद्ध होगा
जीवन में बजाय
शाकाहारी के।
क्योंकि वह जो
आधा पाव
कठोरता है
उसकी, और
दिशाओं में बह
जाती है; और
आपकी आधा पाव
कठोरता है, वह कहीं
बहने का उपाय
नहीं है, वह
सिर्फ आदमी की
तरफ ही बहती
है, वह फिर
आदमी को ही
चूसती है।
इसलिए
पूरब के
मुल्कों में
जहां शाकाहार
बहुत है, बड़ा
शोषण है, बड़ी
कठोरता है और
आदमी-आदमी के
बीच के संबंध
बहुत
तनावपूर्ण
हैं। और आदमी
आदमी के प्रति
ऐसा दुष्ट
मालूम पड़ता है,
जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
और बाकी मामलों
में बड़ा हिसाब
लगाता है वह
कि चींटी पर
पैर न पड़ जाए, पानी छान कर
पीता है! वह जो
कठोरता के
बहने के और
इतर उपाय थे, वे सब बंद हो
जाते हैं, फिर
एक ही रह जाता
है कि वह आदमी
से आदमी का
उसका संबंध
बिगड़ जाता है।
तो
मेरा कहना है, शाकाहार
का मैं
पक्षपाती हूं
इसलिए नहीं कि
आप शाकाहारी
हों, बल्कि
इसलिए कि आप
करुणावान हों,
बल्कि
इसलिए कि आप
उस चित्त-दिशा
में पहुंचें,
जहां से
जीवन के प्रति
कठोरता क्षीण
होती है। जब
कठोरता क्षीण
हो जाएगी आपकी
तो वह पशु के प्रति
भी क्षीण होगी,
मनुष्य के
प्रति भी
क्षीण होगी।
कठोरता
तो क्षीण नहीं
होती, जन्म के
साथ शाकाहारी
हो जाता है
आदमी, तो
मुश्किल पड़
जाती है।
इसलिए एकदम
हमें दिखाई
नहीं पड़ती, क्योंकि
जीवन एक तरह
की बहुत सी
शक्तियों का तालमेल
है। उसमें अगर
कोई भी
शक्तियां
भीतर पड़ी रह
जाती हैं तो
मुश्किल पड़
जाती है।
जैसे
उदाहरण के लिए, इंग्लैंड
भर में
विद्यार्थियों
का कोई विद्रोह
नहीं है! सारी
जमीन पर आज
इंग्लैंड
अकेला मुल्क
है, जहां
विद्यार्थियों
की कोई बगावत,
कोई उपद्रव
नहीं है! और
उसका कुल कारण
यह है कि इंग्लैंड
के बच्चों को
तीन घंटे से
कम खेल नहीं
खेलना पड़ता।
तीन घंटे हाकी,
फुटबाल; इस
तरह थका डालते
हैं कि जब तीन
घंटे में उसकी
सारी की सारी
जितनी उपद्रव
की प्रवृत्ति
है, वह सब
निकास पा जाती
है, वह घर
शांत लौट आता
है। इंग्लैंड
के लड़कों को उपद्रव
करने को कहो
तो उपद्रव की
हालत में वे नहीं
हैं। जिन
मुल्कों में
खेल बिलकुल
नहीं है, जैसे
हमारा मुल्क
है, जैसे
फ्रांस है, खेल
करीब-करीब न
के बराबर है, तो उपद्रव
बहुत ज्यादा
है।
अब वह
खयाल में नहीं
आता है कि
उसका एक
बैलेंस है, उसकी
एक नियत
व्यवस्था है
कि एक लड़के को
कितना उपद्रव
करना जरूरी
है। चाहे
उपद्रव आप
व्यवस्था से
करवा लें--खेल
का मतलब है
व्यवस्थित उपद्रव।
उसका और कोई
मतलब नहीं है।
एक लट्ठ मार रहा
है एक गेंद
में एक आदमी, वह उतना ही
है जैसा किसी
खोपड़ी में
मारे, उतना
ही रस उसमें आ
जाता है।
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
तो व्यवस्थित
उपद्रव अगर
करवाते हैं तो
उपद्रव कम हो
जाएगा। और अगर
व्यवस्थित
उपद्रव नहीं
करवाते तो फिर
अव्यवस्थित
उपद्रव बढ़ेगा।
और इन सबकी
भीतर हमारे एक
निश्चित
मात्रा है, जो निकलनी
चाहिए एक उम्र
में। एक उम्र
में उसका
निकलना बहुत
जरूरी है।
अब
जैसे हमारा
सारा काम है।
एक आदमी जंगल
में लकड़ी
काटता है; यह
आदमी एक दुकान
पर बैठे आदमी
से ज्यादा
करुणावान हो
सकता है। उसका
कारण है कि
काटने-पीटने
का इतना काम
करता है वह, कि
काटने-पीटने
की जो वृत्ति
है, वह
रिलीज हो जाती
है। वह ज्यादा
दयालु मालूम पड़ेगा।
और एक दुकान
पर बैठा आदमी
है, काटना-पीटना
कुछ नहीं हो
पाता, तो
वह आदमी को
जितना काट-पीट
सकता है, उसका
उपाय खोजता
है। वह जंगल
में भी कर
सकता था।
एक
चरवाहा है, वह
आप देखें, भेड़ों
को चरा रहा
है। उसके
चेहरे पर एक
शांति मालूम
पड़ेगी। उसका
कारण है कि वह
जानवरों के साथ
जो व्यवहार कर
रहा है--डंडा
मार रहा है, गाली दे रहा
है, कुछ भी
कर रहा है; जानवर
कुछ नहीं कर
रहे हैं। वह
व्यवहार आप भी
करना चाहते
हैं, लेकिन
कोई नहीं
मिलता। किससे
करें? पत्नी
से करते हैं, बेटे से
करते हैं, नए-नए
बहाने खोजते
हैं कि बेटे
का सुधार कर
रहे हैं, कि
यह कर रहे हैं,
वह कर रहे
हैं, लेकिन
भीतरी कारण
बहुत दूसरे
हैं!
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि एक
किसान है गांव
का,
वह ज्यादा
आपको शांत
मालूम पड़ता
है। उसका और कोई
कारण नहीं है,
उसका कारण
है कि काट-पीट
के इतने काम
उसको मिल जाते
हैं दिन भर
में--वृक्षों
को काट रहा है,
पौधों को
काट रहा है, जानवरों को
मार रहा है--कि
वह हलका हो
जाता है। इतना
ही आपको भी
मिल जाए तो आप
भी हलके हो
जाएं। यह मिल
नहीं पाता, तो ये आपको
नए रास्ते
निकालने पड़ते
हैं इसके लिए।
कोड़ा आप भी किसी
को मारना
चाहते हैं।
कैसे मारें? तो हमारे मन
की जो ये सारी
वृत्तियां
हैं, फिर
ये नए रास्ते
खोजती हैं, ये नए उपाय
खोजती हैं। और
वे नए उपाय और
खतरनाक सिद्ध
हो जाते हैं।
इसलिए
मेरा कहना है
कि वृत्तियां
जानी चाहिए।
आचरण बदलने का
जोर गलत है।
इसलिए मैं
किसी को नहीं
कहता कोई
शाकाहारी हो।
मैं कहता हूं, अगर
मांसाहार
करना है तो
मांसाहार
करो। इतना कहता
हूं कि यह कोई
बहुत ऊंची
चित्त की
अवस्था न हुई,
कुछ और ऊंची
चित्त की
अवस्थाएं हैं,
जो तुम
खोजो। उनको
खोजने से
मांसाहार हो सकता
है चला जाए, वह ठीक
होगा। लेकिन
मांसाहार चला
जाए और आपकी स्थिति
वही रहे, तो
आप दूसरी तरह
के मांसाहार
शुरू करेंगे,
जो ज्यादा
महंगे साबित
होने वाले
हैं।
तो
हिंदुस्तान
कठोर हो गया
है। और
हिंदुस्तान
में जो लोग
गैर-मांसाहारी
हैं,
बहुत दुष्ट
हैं। हम कहते
हैं एक आदमी
को कि एक
मुसलमान बहुत
दुष्ट होता
है। वह
कभी-कभी दुष्ट
होता है, मगर
कभी-कभी दुष्ट
होकर ऐसा हलका
और शांत होता
है। ऐसे एक
साधारण
मुसलमान को
लगता है कि
दुष्ट होता है,
लेकिन
कभी-कभी। जब
मौका आता है
तो ठीक से
दुष्टता कर
लेता है, लेकिन
फिर रिलीज हो
जाता है।
और एक
जैनी है, मौका
ही नहीं आता
कभी दुष्टता
करने का, चौबीस
घंटे दुष्टता
करता रहता है।
फैली हुई दुष्टता
है, इंटेंस
नहीं है।
इंटेंस नहीं
निकल पाती तो
फैल जाती है।
और फैली हुई
दुष्टता
ज्यादा खतरनाक
है। एक आदमी
कभी दो-चार
साल में एक
दफा दुष्ट हो
जाए, ठीक
है। एक आदमी
चौबीस घंटे
दुष्ट रहे और
चौबीस घंटे
शरारत करता
रहे कुछ न कुछ,
और शरारतें
ऐसी खोजे कि
जिसमें आप
उसको कुछ कह
भी न सकें, तो
वह ज्यादा, ज्यादा
महंगा पड़
जाएगा।
इसलिए
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
बारबेरियंस हैं, जो
कच्चे आदमी को
खा जाएं, लेकिन
बड़े सरल हैं, बहुत सरल
हैं। एकदम सरल
हैं और खा
जाएं कच्चे आदमी
को पकड़ कर! मगर
बड़े सरल हैं
और सरलता बड़े
इनोसेंट हैं।
आप
जाकर कारागृह
में देखें
कैदियों को।
मैं जब भी
कारागृह में
गया तो बहुत
हैरान हुआ
हूं। कैदी
एकदम सरल
मालूम पड?ता
है, उन
लोगों की बजाय
जो
मजिस्ट्रेट
बने बैठे हैं।
बड़ी हैरानी की
बात है!
एक
मजिस्ट्रेट
की शक्ल देखें
और उसके सामने
कारागृह में
जिसको उसने दस
साल की सजा दे
दी उस आदमी की
शक्ल देखें, तो
आप दस साल
वाले को
ज्यादा
इनोसेंट
पाएंगे! और यह
जो
मजिस्ट्रेट
है, जिसने
कभी चोरी नहीं
की, कभी
हत्या नहीं की,
बड़ा कठोर
मालूम पड़ेगा।
अब हो
सकता है कि दस
साल सजा देने
में इस आदमी के
भीतरी रस
हों--कानून तो
ठीक ही है, कानून
सिर्फ बहाना
हो, तरकीब
हो, खूंटी
हो--इस आदमी के
भीतर रस हैं
और आदमियों को
सताने का यह
उपाय खोज रहा
है।
मनोवैज्ञानिक
तो यह कहते
हैं कि हर
आदमी मजिस्ट्रेट
क्यों नहीं
होता? कुछ
आदमी
मजिस्ट्रेट
होने के लिए
आतुर रहते हैं।
हर आदमी
शिक्षक क्यों
नहीं होता? कुछ आदमी
शिक्षक होने
के लिए आतुर
रहते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
शिक्षक वे लोग
होना चाहते
हैं,
जो बच्चों
को सताना
चाहते हैं, उनके भीतर
टार्चर करने
की वृत्ति है।
और उनको
इकट्ठे बच्चे
कहां मिलेंगे?
बहुत
मुश्किल है।
किसी के बच्चे
को सताओ तो दिक्कत
है, अपनों
को सताओ तो भी
दिक्कत है।
तीस बच्चे मुफ्त
मिल जाते हैं,
तनख्वाह भी
मिलती है ऊपर
से, और
उनको ढंग से
टार्चर करते
हैं! और वे कुछ
कर भी नहीं
सकते, बिलकुल
निहत्थे हैं।
अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
इसकी...मैं तो यह
मानता ही हूं
कि दुनिया
अच्छी होगी तो
पहले, आदमी के
शिक्षक होने
के पहले पूरी
साइको-एनालिसिस
होनी चाहिए कि
यह आदमी कहीं
सताने वाला तो
नहीं है! और सौ
में सत्तर
शिक्षक सताने
वाले मिलेंगे!
यानी जिनको
अगर आप शिक्षक
न होने देते
तो वे और कहीं
सताते, वे
इधर सताएंगे।
अच्छा, दिन
भर सता कर
शिक्षक बड़ा
सीधा-सादा हो
जाएगा। जब वह
लौटता है घर, तब वह बड़ा
अच्छा आदमी
मालूम पड़ता
है। तो बच्चों
के मां-बाप को
वह बहुत भला
आदमी मालूम
पड़ता है कि
कितना भला
आदमी है! वह
भला आदमी है, क्योंकि
उसका सब
बुरापन तो वह
निकाल लेता है
पांच घंटे
में। तो
मां-बाप कहते
हैं कि तेरा
शिक्षक बहुत
भला आदमी है।
उसका बेटा
कहता है, कैसे
मानें? क्योंकि
चौबीस घंटे
सता रहा है।
और उसके कारण हैं,
उसके कारण
हैं, वे
दिखाई नहीं
पड़ते हैं।
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