प्रश्न:
आपने
कहा कि आप
महावीर के
संबंध में
अंतर्दृष्टि
से कुछ बतलाएंगे।
और यदि यह
जानना हो कि
वह जो कुछ
आपने जाना, तो
हम प्रयोग
करके देख लें।
मुझे लगता है,
एक दूसरा भी
साधन है, जिससे
आपकी बात की
प्रामाणिकता जांची जा
सकती है। और
वह साधन यह है
कि हममें से
किसी के जीवन
की कोई ऐसी
घटना, जो
आप, जानना
जिसका संभव
नहीं है आपके
लिए साक्षात,
आप यदि बतला
दें तो यह
प्रामाणिक हो
सकता है। क्योंकि
आप मेरे जीवन
की कोई ऐसी
घटना जान गए जो
आपने कभी
देखी-सुनी
नहीं, इसलिए
आप महावीर के
भी पिछले जीवन
को
अंतर्दृष्टि
से जान सके
होंगे। क्या
आप इस प्रकार
करना पसंद
करेंगे?
दोत्तीन
बातें समझनी
चाहिए।
एक तो
महावीर के
जीवन की घटना
जानना और बात
है और महावीर
के अंतर्जीवन
में क्या घटा, इसे
जानना और बात
है। महावीर के
बाहर के जीवन से
प्रयोजन ही नहीं।
मुझे प्रयोजन
नहीं है, न
जानने की
उत्सुकता है।
लेकिन
अंतर्जीवन में
क्या घटा, उससे
प्रयोजन है, उत्सुकता भी
है, उस तरफ
दिशा भी, दृष्टि
भी है।
तुम्हारे
अंतर्जीवन
में भी देखा
जा सकता है, तुम्हारे
बहिर्जीवन
से मुझे कोई
प्रयोजन
नहीं। सच बात
तो यह है कि जिसे
हम बाहर का
जीवन कहते हैं,
वह एक
स्वप्न से
ज्यादा मूल्य
नहीं रखता।
हमें वह बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ता है,
क्योंकि हम
उस स्वप्न में
ही जीते हैं।
जैसे रात कोई
सपना देखे, तो सपने में
उसे पता भी
नहीं चलता कि
जो वह देख रहा
है, सपना
है। लगता है, वह बिलकुल
सत्य है। जब
तक जाग न जाए, तब तक सपना
सत्य ही मालूम
पड़ता है।
जागते ही सपना
एकदम व्यर्थ
हो जाता है।
तो
मुझे तो बाहर
के जीवन से
कोई अर्थ ही
नहीं है कि
महावीर कब
पैदा हुए? कब
मरे? शादी
की या नहीं की?
बेटी पैदा
हुई कि नहीं
हुई? इन
सबसे मुझे
प्रयोजन ही
नहीं, कोई
अर्थ ही नहीं
है। हुआ हो तो
ठीक, न हुआ
हो तो ठीक।
मैं तो वहां
तक कहना चाहता
हूं कि महावीर
भी हुए हों तो
ठीक, न हुए
हों तो ठीक।
यह
महत्वपूर्ण
ही नहीं है। जो
महत्वपूर्ण
है, वह तो
अंतर, जो
चेतना में गति
हुई, जो
चेतना में
विकास हुआ, जो रूपांतरण
हुआ, वह
महत्वपूर्ण
है।
तो
वैसे तो किसी
के भी
अंतर्जीवन
में उतरा जा सकता
है। लेकिन तब
भी तुम जांच न
कर पाओगे, क्योंकि
तुम खुद ही
अपने
अंतर्जीवन से
परिचित नहीं
हो। अगर फिर
भी मेरी बात
की जांच करनी
हो, तब भी
तुम्हें अपने
अंतर्जीवन
में उतरना पड़े।
दूसरी
बात यह है कि
तुम्हारे बहिर्जीवन
में कोई अगर
कुछ घटनाएं
बता दे, तो
इससे पक्का
नहीं होता कि
वह महावीर के
संबंध में जो
बताएगा, वह
ठीक होगा।
क्योंकि तुम
मौजूद हो और
तुम्हारे बहिर्जीवन
की घटनाओं में
उतरना बड़ी
साधारण सी कला
और ट्रिक
की बात है। जो
कि एक साधारण
सा टेलीपैथिस्ट
भी बता सकेगा,
एक साधारण
सा ज्योतिषी
भी बता सकेगा।
वह चार आने
लेकर भी बता
सकेगा। तो बहिर्जीवन
का तो कोई
मूल्य नहीं।
अगर कोई बता
भी दे तुम्हारे
बहिर्जीवन
का तो उससे
कुछ
प्रामाणिकता
नहीं होती कि
वह महावीर के
अंतस-जीवन के
संबंध में जो
कहेगा, वह
अर्थ रखता है।
असल
में बहिर्जीवन
का कोई ऐसा
संबंध ही नहीं
है अंतस-जीवन
से। और इसीलिए
यह,
यह समझने
जैसा है कि
क्राइस्ट का
बाहर का जीवन
एक है, और
महावीर का
बाहर का जीवन
दूसरा है, बुद्ध
का तीसरा है, फिर भी
अंतस-जीवन एक
है। और बहिर्जीवन
को
देखने-विचारने
वाले लोग
इसीलिए
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
जिसने
महावीर के बहिर्जीवन
को पकड़ लिया
है,
वह बुद्ध को
समझना उसके
लिए असमर्थ हो
जाएगा। क्योंकि
जो महावीर के बहिर्जीवन
में है, वह
सोचता है कि
वह अंतस-जीवन
से अनिवार्य
रूप से बंधा
हुआ है। जैसे
वह देखता है
कि महावीर
नग्न खड़े हैं,
तो वह सोचता
है, जो परम
ज्ञान को
उपलब्ध होगा,
वह नग्न खड़ा
होगा। और अगर
बुद्ध वस्त्र
पहने हुए हैं,
तो बुद्ध
कैसे परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकते हैं? बहिर्जीवन की पकड़ के
कारण ही
अंतस-जीवन के
संबंध में इतनी
खाइयां खड़ी हो
गई हैं। मुझे
तो उससे
प्रयोजन ही
नहीं है।
दूसरी
बात,
मैं ठीक कह
रहा हूं
महावीर के
संबंध में या
नहीं, इस
बात की जांच
का भी कोई
अर्थ नहीं है।
अर्थ सिर्फ एक
ही है कि वैसे
अंतस-जीवन में
उतरा जा सकता
है या नहीं? यानी मेरी
इस बात की
जांच-पड़ताल
करने का भी कोई
अर्थ नहीं है,
निरर्थक है,
क्योंकि
मैं इसलिए कह
ही नहीं रहा
हूं कि मैं सही
हूं या गलत
हूं, यह
कोई सिद्ध
किया जाए; कह
ही इसलिए रहा
हूं कि तुम
जहां हो, वहां
से सरक सको और
किसी और दिशा
में गति कर सको।
इसलिए
अगर वह सारी
बातचीत
तुम्हें
अंतस-दिशा में
गति देने वाली
बन जाती है, तो
मैं मान लूंगा
कि काफी
प्रमाण हो
गया। और अगर नहीं
बनती है, और
सब तरह से
प्रमाणित हो
जाता है कि जो
मैंने कहा वह
ठीक था, तो
भी मैं मानूंगा
कि बात
अप्रामाणिक
हो गई। यानी
मेरे लिए अर्थवत्ता
इसमें है कि
महावीर के
जीवन के संबंध
में जो मैं
कहूं, वह
किसी न किसी
रूप में
तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित
करने वाला बनता
हो। न बनता हो,
तो वह कितना
ही सही हो तो
गलत हो गया, और बनता हो
तो सारी
दुनिया सिद्ध
कर दे कि वह गलत
है, तो भी
मेरे लिए गलत
न रहा।
यानी
इसका मतलब यह
है,
और यही वजह
है--इसको
समझना बहुत
उपयोगी
होगा--यही वजह
है कि जो लोग
जानते रहे हैं,
उन्होंने
इतिहास लिखने
पर जोर नहीं
दिया, इतिहास
की जगह
उन्होंने
पुराण पर जोर
दिया--मिथ पर।
एक
दुनिया है, लोग
हैं, जो
इतिहास पर जोर
दे रहे हैं।
एक दूसरी
दुनिया है, एक दूसरा
जगत है, कुछ
थोड़े से लोगों
का, जो
इतिहास पर कोई
जोर नहीं देते,
जो मिथ पर
जोर देते हैं,
पुराण पर
जोर देते हैं।
और दोनों के
भेद को समझना
भी उपयोगी
होगा।
इतिहास
का आग्रह यह
होता है कि
बाहर घटी हुई
घटनाएं तथ्य, फैक्ट्स की तरह
संगृहीत की
जाएं। पुराण
या मिथ इस बात पर
जोर देती है
कि बाहर की
घटनाएं तथ्य
की तरह इकट्ठी
हों या न हों, निष्प्रयोजन
है, वे इस
भांति इकट्ठी
हों कि जब कोई
उनसे गुजरे, तो उसके
भीतर कुछ घटित
हो जाए। इन
दोनों बातों
में दृष्टि
अलग है।
तथ्य
और इतिहास को
सोचने वाला
महावीर पर जोर
देगा, क्राइस्ट
पर जोर
देगा--कैसा
जीवन? मिथ
की दृष्टि
वाला व्यक्ति
तुम पर जोर
देगा कि
महावीर का
कैसा जीवन कि
तुम बदल जाओ।
इसमें
बुनियादी
फर्क हुए।
अब यह
हो सकता है कि
मिथ किसी
दृष्टि से
अप्रामाणिक
मालूम पड़े।
जैसे जीसस का
सूली पर चढ़ना
और फिर तीन
दिन बाद
पुनरुज्जीवित
हो जाना। ऐतिहासिक
तथ्य की तरह
शायद इसे
प्रमाणित
नहीं किया जा
सकता कि ऐसा
हुआ हो। जैसे
जीसस का
कुंआरी मां से
पैदा होना।
ऐतिहासिक
तथ्य की तरह
प्रमाणित
नहीं किया जा
सकता कि
कुंआरी लड़की
से कोई पैदा
हो सकता है, जिसका
पुरुष से कोई
संपर्क न हुआ
हो।
बाहर
की दुनिया की
यह घटना ही
नहीं है। बाहर
की दुनिया में
तो कुंआरी
लड़की से कोई
लड़का कैसे
पैदा होगा? लेकिन
जिन्होंने इस
पर जोर दिया
है उनकी दृष्टि
बहुत गहरी है।
यह भीतर की
घटना को ही वे
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं
कि जीसस जैसा
बेटा अत्यंत
कुंआरी आत्मा
से ही जन्म ले
सकता है।
अत्यंत इनोसेंट।
कुंआरा शरीर
नहीं, कुंआरी
आत्मा, कुंआरे चित्त से।
और यह
भी हो सकता है
कि शरीर
बिलकुल
कुंआरा हो और
चित्त बिलकुल
कुंआरा न हो।
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
शरीर कुंआरा न
हो और चित्त
बिलकुल कुंआरा
हो।
जीसस
जैसे व्यक्ति
का जन्म
वर्जिन गर्ल
से ही हो सकता
है,
कुंआरी
लड़की से ही हो
सकता है।
यह
इतिहास तो
नहीं है, लेकिन
इतिहास अगर
सिद्ध भी कर
दे, तो
नुकसान ही पहुंचाएगा।
यानी मैं मानूंगा
कि यह बात
प्रमाणित ही
रहनी चाहिए कि
जीसस जैसे
व्यक्ति का
जन्म एक कुंआरे
मन से होता
है। और अगर
किसी मां को
जीसस जैसे बेटे
को जन्म देना
हो, तो
उसके चित्त का
अत्यंत
कुंआरा होना
जरूरी है। और कुंआरेपन
का कोई संबंध
शरीर से है ही
नहीं। वर्जिनिटी
का कोई संबंध
शरीर से नहीं
है। शरीर तो
यंत्र है, कुंआरापन
तो आंतरिक
मनोदशा है।
अब
जैसे महावीर
के पैर को
सर्प काट लेता
है और दूध
बहता है। इसे
किसी भी
ऐतिहासिक तरह
से,
वैज्ञानिक
तरह से सिद्ध
नहीं किया जा
सकता। करने
वाले करते हों
तो गलत करते
हैं। वे महावीर
को व्यर्थ हरवा
देंगे। और जो
बात है, जो
मिथ है, वह
खो जाएगी। वह
बात बहुत और
है। उस बात
में फिर किसी
चित्त पर, चित्त
के भाव पर ही
खयाल है।
सर्प
भी काटे, जहर
भी महावीर को
कोई दे, मारने
को भी कोई आ
जाए, तो भी
महावीर का मन
मां से भिन्न
नहीं हो पाता है।
दूध निकलने का
कुल मतलब इतना
है कि महावीर
का मन मदरली
है, वह
मातृत्व से
भरा हुआ है।
मां से अन्यथा
वे नहीं हो
सकते हैं।
उनका होना ही
मातृत्व में
है। यानी उनके
भीतर से कुछ
और नहीं निकल
सकता है, सिवाय
दूध के।
लेकिन
न तो शारीरिक
अर्थों में और
न तथ्य और इतिहास
के अर्थों में
इस बात का कोई
मूल्य है। अब
जैसे हम जो भी
हिसाब करने
जाएंगे--और हम
दोनों तरफ एक
जैसे लोग होते
हैं--कोई
कहेगा कि यह
बिलकुल गलत है, महावीर
के पैर से दूध
कैसे निकल
सकता है? बात
ही झूठी है।
और दूसरा
व्यक्ति
सिद्ध करने की
कोशिश करे
किसी तरकीब से
कि पैर से दूध
निकल सकता है!
एक
मुनि को मैं
सुनने गया। वह
मुझसे पहले
बोले तो
उन्होंने कहा, मैंने
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
कर दिया है कि
महावीर के पैर
से दूध निकला।
कैसे सिद्ध कर
दिया है? तो
उन्होंने कहा,
ऐसे सिद्ध
कर दिया है कि
जब मां के
स्तन से दूध
निकल सकता है,
यानी शरीर
के किसी अंग
से दूध निकल
सकता है, तो
पैर से क्यों
नहीं निकल
सकता है?
तो
मैंने उनको
पूछा कि इसके
दो अर्थ हुए।
इसका एक अर्थ
तो यह हुआ कि
महावीर को
पुरुष न माना
जाए,
क्योंकि
पुरुष के तो
स्तन से भी दूध
निकलना
मुश्किल है, पैर का तो
मामला बहुत
दूर है। और अब
तक किसी स्त्री
के पैर से भी
दूध नहीं
निकला है। तो
दूसरी बात यह
मानी जाए कि
स्तन का जो
यंत्र है, वह
महावीर के पैर
में लगा हुआ
है। जो स्त्री
के स्तन में
होता है, वह
महावीर के पैर
में है वैसी
यांत्रिक व्यवस्था,
जिससे खून
दूध में
रूपांतरित
होता है।
लेकिन
मैंने उनसे
कहा कि ये
बातें अगर
प्रमाणित भी
हो जाएं कि
ऐसा था कि
महावीर के पैर
स्तन का काम
कर रहे थे, तो
भी जो मतलब था,
वह खो गया।
तो महावीर का
जो मूल्य था, वह गया। अगर
किसी के भी
पैर स्तन का
काम कर रहे हों
तो उससे दूध
निकल जाएगा, इसमें फिर
महावीर का कुछ
होना न रहा।
और अगर मां के
स्तन से दूध
निकलता है तो
यह कोई बड़ी
खूबी की बात
नहीं है, यांत्रिक
बात है। अगर
सिद्ध भी कर
दोगे तो तुम
महावीर को
पोंछ डालोगे,
क्योंकि जो
बात थी, वह
खो जाएगी।
वह बात
कुल इतनी है कि
महावीर का
प्रत्युत्तर
मां का उत्तर
होने वाला
है--चाहे तुम
कुछ भी करो।
चाहे तुम जहर डालो, शत्रुता
करो, चोट
पहुंचाओ, वहां
से प्रेम और
करुणा ही बह
सकता है। वहां
से...।
अब दूध
का मतलब क्या
होता है? दूध
का मतलब है, जो तुम्हें
पोषण दे सके।
और कुछ मतलब
नहीं होता। तो
महावीर को
चाहे तुम गाली
दो, महावीर
जो भी करेंगे,
वह
तुम्हारा
पोषक ही सिद्ध
होगा। वह
तुम्हें पोषण
ही देगा।
अब
हमें कोई गाली
दे तो हम जो
करेंगे, वह
घातक सिद्ध
होगा उसके
लिए। और हम जो
करेंगे दो ही
बात कर सकता
है, या तो
वह घातक सिद्ध
हो या पोषक
सिद्ध हो। तो
महावीर से जो
भी
प्रत्युत्तर
निकलेगा, जो
रिएक्शन होगा
महावीर का, वह पोषक
सिद्ध होने
वाला है, इतनी
भर बात है
उसमें। लेकिन
तथ्य में
खोजने जाने
पर...।
और यह
भी जरूरी नहीं
है कि किसी
दिन सर्प ने
काटा ही हो।
यह भी जरूरी
नहीं है। न यह
जरूरी है कि
पैर से दूध निकला
हो,
न यह जरूरी
है कि सर्प ने
काटा हो।
जरूरी कुल इतना
है कि महावीर
के पूरे जीवन
को जिन्होंने
भी अनुभव किया
है, उन्हें
ऐसा लगा है कि
इसे अगर हम
कविता में कहें
तो ऐसा ही कह
सकते हैं कि
सर्प भी काटे
महावीर को, तो दूध ही
निकल सकता है।
लेकिन...इसलिए
मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है। यानी मैं
सिद्ध करने जाऊंगा भी
नहीं। सिद्ध
कर भी सकता
होऊं, तो भी
सिद्ध करने
नहीं जाऊंगा।
क्योंकि मेरी
दृष्टि ही यह
है कि महावीर
को प्रसंग बना
कर तुम कैसे
गति कर सकते
हो! और तब हो
सकता है, बहुत
कुछ जो कहा
जाता है, वह
छोड़ देना पड़े;
बहुत कुछ जो
नहीं कहा जाता
है, उसे
खोज लेना पड़े।
और हम जब एक
दृष्टि लेकर
प्रवेश करते
हैं, और
अंतस की खोज
में चलते
हैं...।
अब
क्या है, कठिनाई
क्या है? अगर
समझो कि मैं
एक बहुत
बहादुर आदमी
के संबंध में
कहूं कि यह
बहुत डरपोक है,
तो शायद वह
भी मुझसे पहली
बार राजी न हो कि
आप मेरे संबंध
में यह क्या
कह रहे हैं!
मेरे पास
प्रमाणपत्र
हैं बहादुरी
के, सर्टिफिकेट
हैं। मैं
सिद्ध कर सकता
हूं कि मुझसे
बड़ा बहादुर
नहीं है, महावीर-चक्र
है मेरे पास।
युद्ध के
मैदान पर कभी
पीछे नहीं
लौटा हूं।
लेकिन
ये
प्रमाणपत्र
कुछ गलत नहीं
करते हैं, फिर
भी यह हो सकता
है कि वह आदमी
भीतर से भयभीत
आदमी है। और
अक्सर ऐसा हुआ
है कि जो
व्यक्ति अंतस-चेतन
में भयभीत
होता है, वह
बाहर के
कृत्यों में
निर्भय सिद्ध
करने की कोशिश
में लगा होता
है। यानी वह
बाहर अपने को निर्भय
सिद्ध करने के
जो उपाय कर
रहा है, वह
उपाय कर ही
इसलिए रहा है
कि भीतर जो
उसका भय है, वह उसे भूल
जाए और मिट
जाए।
अब एक
व्यक्ति मेरे
पास आया कि
जिसको कोई
नहीं कह सकेगा
कि यह आदमी
कभी भयभीत
होगा। शरीर से
बलिष्ठ है, हर
तरह के संघर्ष
से गुजरा है।
जेलें काटी
हैं, दबंग
है। किसी के
सामने खड़ा हो
जाए तो वह
आदमी हिल जाए।
और उस आदमी ने
मुझसे कहा कि
मैं इतना डरता
हूं भीतर कि
जब मैं बोलने
खड़ा होता हूं
तो मेरे पैर
कंपने लगते
हैं। और मुझे
लगता है कि
पता नहीं आज
मेरे मुंह से
शब्द निकलेगा
कि नहीं
निकलेगा! निकल
जाता है, यह
दूसरी बात, लेकिन सदा
भय यही बना
रहता है।
अब इस आदमी
को खुद ही
खयाल आया है
तो ठीक है, नहीं
तो इससे कहा
जाए कि ऐसा है,
तो बहुत
मुश्किल हो
जाए।
अब
अंतस-जीवन के
तथ्य हमें ही
ज्ञात नहीं
हैं और अगर
मैं कहूं भी
कि आपके संबंध
में यह अंतस-जीवन
की बात है, तो
हो सकता है आप
सबसे पहले
इनकार करने
वाले व्यक्ति
सिद्ध हों।
और यह
भी ध्यान रहे, आप
जितने जोर से
इनकार करेंगे,
उतने ही जोर
से मेरे लिए
सही होगा कि
वह तथ्य आपके
भीतर है, क्योंकि
जोर से इनकार
इसीलिए आता
है। अगर वह तथ्य
न हो तो शायद
आप कहें, मैं
सोचूंगा,
मैं खोजूंगा।
लेकिन अगर वह
तथ्य है, जैसे
एक भयभीत आदमी
बाहर से
बहादुर बनने
की कोशिश में
लगा है, तो
उससे यह कहने
पर कि
तुम्हारे
भीतर भीरुता है,
वह इतने जोर
से इनकार
करेगा कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
पर
मुझे बाहर के
तथ्यों से कोई
प्रयोजन ही
नहीं है। कोई
प्रयोजन नहीं
है। इसलिए उस
तरह की प्रामाणिकता
में जाने की
मैं कोई तैयारी
नहीं दिखाऊंगा।
मैं तो एक ही
प्रामाणिकता
मानता हूं, कि
जो मैं कह रहा
हूं, वह
जिन प्रयोगों
से मुझे दिखाई
पड़ता है कि
ऐसा है, उन
प्रयोगों में
से कोई भी
गुजरने को
तैयार हो।
अब
जैसे समझ लें, समझ
लें एक आदमी
है। जैसे पहली
दफा दूरबीन
बनी, जिससे
दूर के तारे
देखे जा सकते
हैं। दूरबीन
बनी और पहले
आदमी ने जिसने
दूरबीन बनाई,
उसने अपने
मित्रों को
आमंत्रित
किया कि तुम आओ
और मैं
तुम्हें ऐसे
तारे दिखला
देता हूं जो तुमने
कभी नहीं देखे
हैं।
तो उन
मित्रों ने
दूरबीन में से
देखने से इनकार
कर दिया।
उन्होंने कहा
कि हो सकता है, तुम्हारी
दूरबीन में
कुछ बात हो, जिससे कुछ
तारे दिखाई
पड़ते हैं, जो
नहीं हैं। तुम
खुली आंख से
कुछ ऐसी बातें
बताओ जो दूर
की हैं। तो
फिर हम मानें
कि तुम्हारी
दूरबीन में भी
कुछ बात हो
सकती है। पहले
हमें खुली आंख
से कुछ बताओ
जो कि दूर का
है, जो कि
हमको नहीं
दिखाई पड़ रहा
और तुमको
दिखाई पड़ता
हो। तो फिर हम
तुम्हारी
दूरबीन से झांकें।
उन्होंने
दूरबीन से झांका
तो भी
उन्होंने कहा
कि इसमें कुछ
पक्का नहीं होता।
इसमें हो सकता
है कि दूरबीन
की ही करतूत
है। मेरी बात
समझे न तुम? लेकिन
वह आदमी क्या
कर सकता है? इसके सिवाय
और क्या उपाय
है? वह यही
कह सकता है कि
तुम भी दूरबीन
बना लो, जिसमें
कि तुम्हें यह
पक्का हो जाए
कि इस दूरबीन
में कोई तरकीब
नहीं है। तुम
अपनी दूरबीन
बना लो और तुम
अपनी दूरबीन
से झांको।
और
मामला इतना
जटिल है कि
जरूरी नहीं है
बहुत कि मैं
तुम्हें
अंतस-प्रयोगों
के लिए कहूं
तो तुम्हें
ठीक वही दिखाई
पड़े,
जो मुझे
दिखाई पड़ता
है। लेकिन एक
बात पक्की है
कि तुम्हें जो
भी दिखाई पड़े,
तुम इतना
अनुभव कर
सकोगे कि जो
मैं कह रहा
हूं, वह
दिखाई पड़ रहा
होगा--एक।
दूसरा, तुम
यह भी अनुभव
कर सकोगे कि
जो मैं कह रहा
हूं, उसके
पीछे जो
दृष्टि है, वह तुम्हें
कुछ भी दिखाई
पड़े तो वह
दृष्टि तुम्हारे
फौरन समझ में
आ जाएगी...कि वह
दृष्टि क्या
है। और यह भी
तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कि महावीर
मेरे लिए
बिलकुल गौण
हैं, न
क्राइस्ट का
कोई मूल्य है,
न बुद्ध का
कोई मूल्य है।
मूल्य है
हमारा, जो
भटक रहे हैं।
और इनको कोई
तरफ से, किसी
कोण से एक चीज
दिखाई पड़ जाए,
जो इनकी
भटकन को मिटा
दे। और एक दिन
ये वहां पहुंच
जाएं जहां कि
कोई भी महावीर
कभी पहुंचता रहा
है।
तो
मेरा प्रयोजन
ही भिन्न है।
और एक ही उपाय
है उस प्रयोजन
को...क्योंकि
मेरा प्रयोजन
तभी सिद्ध
होता है, नहीं
तो सिद्ध नहीं
होता। अगर मैं
यह बता भी दूं
कि तुम कब पैदा
हुए, और
तुम्हारी कब
शादी हुई, और
तुम्हारा कब
लड़का पैदा हुआ,
तो भी मेरा
प्रयोजन
सिद्ध नहीं
होता--असिद्ध
होता है।
क्योंकि फिर
मैं तुम्हारे बहिर्जीवन
पर ही जोर
देता हूं। और
तुम्हारी
दृष्टि को मैं
फिर भी
अंतर्मुखी
नहीं कर पाता।
और तुम
बहिर्मुखी
जीवन-दृष्टि
को ही
पुनः-पुनः
सिद्ध कर लेते
हो। फिर सिद्ध
कर लोगे और
फिर भीतर
उतरने से रह
जाओगे।
यानी
मेरा कहना यह
है कि अगर
मेरी बातचीत
से तुम्हें
बेचैनी पैदा
हो जाए, और
ऐसा लगने लगे
कि पता नहीं, यह बात सही
है या झूठ? तो
तुम मुझसे
प्रमाण मत
पूछो, फिर
तुम प्रमाण की
तलाश में निकल
जाओ खुद। तो अगर
बात झूठ भी
हुई तो भी तुम
वहां पहुंच
जाओगे, जहां
पहुंचना
चाहिए, और
बात सही भी
हुई तो भी तुम
वहां पहुंच
जाओगे। और जिस
दिन तुम वहां
पहुंच जाओगे
तो जरूरी नहीं
है कि तुम लौट
कर मुझसे कहने
आओ।
जैसे
समझ लो कि इस
कमरे में आग
नहीं लगी है।
इस कमरे में
आग नहीं लगी
है और मैं
तुमसे चिल्ला कर
कहता हूं कि
कमरे में आग
लगी हुई है, और
मर जाएंगे अगर
हम भीतर रहते
हैं, चलो
बाहर चलें। और
तुम कहो कि
कोई ताप नहीं
मालूम पड़ता, कहीं कोई
लपट दिखाई
नहीं पड़ती। और
मैं तुमसे
कहूं, त?ुम
तो बस बाहर
चले चलो तो
तुमको पता चल
जाएगा कि मकान
में आग लगी
थी। और जब तक
तुम भीतर हो, दिखाई नहीं
पड़ेगा।
और तुम
बाहर पहुंच
जाओ,
सच में ही
तुम पाओ कि
मकान में आग
नहीं लगी थी। लेकिन
बाहर जाकर तुम
देखोगे:
सूरज निकला है
जो तुमने कभी
नहीं देखा, और ऐसे फूल
खिले हैं जो
तुमने कभी
नहीं देखे, और ऐसा आनंद
है जो तुमने
कभी अनुभव
नहीं किया।
तो तुम
मुझे धन्यवाद
दे दोगे। तुम
मुझे कहोगे, कृपा
की कि कहा कि
मकान में आग
लगी है।
क्योंकि हम
मकान की भाषा
ही समझ सकते
थे, सूरज
और फूलों की
भाषा हम समझ
ही नहीं सकते
थे। क्योंकि
सूरज और फूल
हमने कभी देखा
नहीं था। अगर
तुमने कहा भी
होता कि बाहर
सूरज है और फूल
हैं और आनंद
की वर्षा हो
रही है, तो
हम कहते कि हम
कुछ समझे नहीं,
कैसा बाहर?
कैसा सूरज?
कैसा फूल? हम तो एक ही
भाषा समझ सकते
थे, मकान
की। और हम यही
समझ सकते थे
कि अगर मकान
में आग लगी हो
तो ही बाहर
जाया जा सकता
है, नहीं
तो जाने की
कोई जरूरत
नहीं। जब मकान
सुरक्षित है
तो बाहर जाने
की क्या जरूरत?
तो हो
सकता है बाहर
जाकर तुम पाओ
कि मकान में आग
नहीं लगी थी, लेकिन
फिर भी तुम
मुझे धन्यवाद
दो, कि ठीक
हुआ कि कहा कि
मकान में आग
लगी है, नहीं
तो हम बाहर
कभी न आ पाते।
और अब हम मकान
में भीतर कभी
न जाएंगे, यद्यपि
उसमें आग नहीं
लगी है, लेकिन
मकान में होना
ही आग में
होना है।
मेरा
मतलब समझे न
तुम?
यानी यह
जरूरी नहीं
है। तुम, तुम
बाहर आकर
मुझसे यही
कहोगे कि मकान
में आग तो
नहीं लगी है, लेकिन मकान
में होना ही
आग में होना
है। क्योंकि
हम चूके जा
रहे थे, वह
सब जला जा रहा
था जीवन, चूका
जा रहा था सब
कुछ, जो
मिल सकता था।
इसलिए
बहुत सी बातें
हैं। और जिसको
आमतौर से हम
प्रमाण कहते
हैं,
मेरी उस पर
कोई श्रद्धा
नहीं है--किसी
तरह के प्रमाण
पर। प्रमाण एक
ही है कि तुम
पहुंच जाओ। और
तुम पहुंच जाओ
तो इनकार नहीं
कर सकते हो, इतना मैं
वायदा करता
हूं। यानी तुम
पहुंच जाओ तो
जो मैं कह रहा
हूं, उससे
तुम इनकार
नहीं कर सकते
हो, इतना
मैं वायदा
करता हूं।
अ
प्रश्न:
एक
प्रश्न मेरे
मन में उठता
है। आपने रात
को शास्त्रों
के बारे में
कुछ बात कही।
मुझे ऐसा लगा
कि आप जो भी
कुछ कहते हैं, वह
शास्त्रों
में भी उपलब्ध
हो ही सकता
है। और आप जो
कुछ कह रहे
हैं, वह भी
स्वयं में एक
शास्त्र ही
बनते चले जा
रहे हैं। और
जो बातें आप
शास्त्रों के
संबंध में कह
रहे हैं, वह
आपकी कही हुई
बातों पर भी
ज्यों की
त्यों लागू हो
जाएंगी। जो
देखने वाला है,
उसे इसमें
भी दिखेगा। जो
नहीं देखने
वाला है, उसे
इसमें भी नहीं
दिखेगा। और जो
देखने वाला है,
उसे
प्राचीन
शास्त्रों
में भी दिख ही
जाता है। और न
देखने वाले को
उनमें भी नहीं
दिखता। फिर
उनकी निंदा का
कोई प्रयोजन
शेष नहीं रह
जाता।
उनकी
निंदा मैं
करता ही नहीं
हूं। शास्त्र
की निंदा मैं
नहीं करता हूं, क्योंकि
शास्त्र को
मैं निंदा के
योग्य भी नहीं
मानता हूं।
प्रशंसा के
योग्य मानना
तो दूर, निंदा
के योग्य भी
नहीं मानता
हूं। क्योंकि
निंदा भी हम
उसकी करते हैं,
जिससे कुछ
मिल सकता होता
और नहीं मिला।
निंदा हम उसकी
करते हैं, जिससे
कुछ मिल सकता
होता, अन्यथा
मिल सकता होता,
और नहीं
मिला।
शास्त्र
से मिल ही
नहीं सकता है।
उसकी निंदा का
कोई अर्थ
नहीं। उसकी
निंदा का कोई
अर्थ नहीं है, क्योंकि
शास्त्र से न
मिलना
शास्त्र का
स्वभाव है।
यानी यह
शास्त्र का
स्वभाव ही है
कि उससे सत्य
नहीं मिल सकता,
इसलिए
शास्त्र की
निंदा क्या
करना? मिल
जाए तो
आश्चर्य हो
जाएगा, असंभव
घटना हो
जाएगी।
तो मैं
तो निंदा नहीं
करता हूं
शास्त्र की, इतना
ही कहता हूं
कि शास्त्र से
नहीं मिलता
है। जैसे
समझें कि एक
आदमी एक
रास्ते से जा
रहा है, और
किसी जगह
पहुंचना
चाहता है, और
हम उससे कहते
हैं यह रास्ता
वहां नहीं
जाता। इसका
मतलब यह नहीं
कि हम उस
रास्ते की
निंदा करते
हैं। इसका कुल
मतलब इतना है
कि हम यह कहते
हैं कि वह
जहां जाना चाहता
है, वहां
यह रास्ता
नहीं जाता है।
हम यह
भी नहीं कहते
कि यह रास्ता
कहीं नहीं जाता
है। यह रास्ता
भी कहीं जाता
है। लेकिन
जहां वह जाना
चाहता है, वहां
नहीं जाता, बल्कि उससे
उलटा जाता है।
जैसे प्रज्ञा
की खोज में
निकले हुए
व्यक्ति को
शास्त्र
व्यर्थ है, क्योंकि
शास्त्र का
रास्ता
प्रज्ञा को
नहीं जाता, पांडित्य को
जाता है। और
पांडित्य
प्रज्ञा से
बिलकुल उलटी
चीज है।
पांडित्य है
उधार और प्रज्ञा
है स्वयं की।
और ऐसा असंभव
है कि उधार संपदा
को कोई कितना
ही इकट्ठा कर
ले तो वह स्वयं
की संपदा बन
जाए।
तो जब
मैं यह कहता
हूं कि
शास्त्र से
नहीं जाया जा
सकता, तो यह
भूल कर भी मत
सोचना कि मैं
निंदा करता हूं,
मैं तो
सिर्फ
शास्त्र का
स्वभाव बता
रहा हूं। और
अगर शास्त्र
का स्वभाव ऐसा
है, तो
मेरे शब्दों
को मान कर जो
शास्त्र
निर्मित हो
जाएंगे, उनका
स्वभाव भी ऐसा
ही होगा। यानी
उनसे कोई कभी
प्रज्ञा को
नहीं जा
सकेगा।
अगर
मैं ऐसा कहूं
कि दूसरों के
शास्त्र से
कोई प्रज्ञा
को नहीं जा
सकता लेकिन
मेरे शब्द पर अगर
कोई शास्त्र
बन गया, उससे
कोई प्रज्ञा
को जाएगा, तब
तो गलती बात
हो गई। तब तो
मैं किसी के
शास्त्र की
निंदा कर रहा
हूं और किसी
के शास्त्र की
प्रशंसा कर
रहा हूं।
नहीं, मैं
तो शास्त्र
मात्र का
स्वभाव बता
रहा हूं--वह
चाहे महावीर
का हो, चाहे
बुद्ध का हो, चाहे कृष्ण
का हो, चाहे
मेरा हो, चाहे
तुम्हारा हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। किसी का
भी शब्द सत्य
में ले जाने
वाला नहीं है।
हां, लेकिन
दूसरी बात सच
है कि अगर
दिखाई पड़ जाए
किसी को तो
शास्त्र में
दिखाई पड़ सकता
है। लेकिन
दिखाई पहले पड़
जाए। उसका
मतलब यह हुआ
कि शास्त्र
किसी को दिखला
तो नहीं सकता
है, लेकिन
जिसको दिखाई
पड़ता है, उसे
शास्त्र में
भी दिख सकता
है। लेकिन
दिखाई पड़ना
पहले घट जाए।
तो फिर
शास्त्र की तो
क्या बात, उसे
तो पत्थर, कंकड़, दीवाल,
पहाड़, सबमें
दिखाई पड़ता
है। यानी यह
सवाल फिर
शास्त्र का
नहीं रह जाता,
जिसे दिखाई
पड़ गया, उसे
सबमें दिखाई
पड़ता है। तो
उसे शास्त्र
में भी दिखाई
पड़ेगा। अब
शास्त्र में
उसे वही दिखाई
पड़ेगा, जो
उसे दिखाई पड़
रहा है। और कल
तक चूंकि उसे
नहीं दिखाई पड़
रहा था, इसलिए
शास्त्र अंधे
थे। क्योंकि
उसका अंधकार
था भीतर, अंधकार
ही दिखाई पड़
रहा था।
यानी
मेरा मतलब यह
है कि शास्त्र
में हमें वही
दिखाई पड़ सकता
है,
जो हमें
दिखाई पड़ रहा
है। शास्त्र
उससे ज्यादा
नहीं दिखला
सकते हैं।
शास्त्र उससे
ज्यादा नहीं
दिखला सकते
हैं। इसलिए
शास्त्र में
हम वह नहीं
पढ़ते हैं, जो
कहने वाले या
लिखने वाले का
इरादा रहा
होगा।
शास्त्र में
हम वह पढ़ते
हैं, जो हम
पढ़ सकते हैं।
यानी शास्त्र
किसी भी अर्थ
में हमारे
ज्ञान को
वृद्धि नहीं
देता, शास्त्र
उतना ही बता
देता है।
जैसे
समझ लें, आईना
है। आईने में
हमें वही
दिखाई पड़ जाता
है, जो हम
हैं। वही
दिखाई पड़ जाता
है, जो हम
हैं। आईना
हममें कोई
वृद्धि नहीं
देता। और कोई
यह सोचता हो
कि कुरूप आदमी
आईने के सामने
खड़े होकर
सुंदर हो
जाएगा, तो
वह गलती में
है। वह एकदम
गलती में है।
कोई यह सोचता
हो कि अज्ञानी
आदमी शास्त्र
के सामने खड़े
होकर ज्ञानी
हो जाएगा, तो
वह गलती में
है।
हां, ज्ञानी
को शास्त्र
में ज्ञान दिख
जाएगा, अज्ञानी
को अज्ञान ही
दिखता रहेगा।
और मजा यह है
कि ज्ञानी
शास्त्र में
देखने नहीं
जाता, क्योंकि
जब खुद ही दिख
गया है, तो
उसे और किसी
दूसरे से क्या
देखना है? और
अज्ञानी
शास्त्र में
देखने जाता
है।
अक्सर
ऐसा होता है
कि सुंदर आदमी
दर्पण से मुक्त
हो जाता है, और
कुरूप आदमी
दर्पण के
आस-पास घूमता
रहता है। वह
जो कुरूपता का
बोध है, वह
किसी भांति
दर्पण से
पक्का कर लेना
चाहता है कि
मिट जाए, नहीं
है अब। सुंदर
दर्पण से
मुक्त हो जाता
है। असल में
जितनी बार हम
दर्पण को
देखते हैं, उतना ही
हमारा
कुरूपता का
बोध है। और
किसी भांति
पक्का कर लेना
चाहते हैं कि
दर्पण कह दे
कि अब हम
कुरूप नहीं
हैं। विश्वास
हमें आ जाए कि अब
हम कुरूप नहीं
हैं। लेकिन
घड़ी भर बाद
फिर दर्पण
देखना पड़ता
है। क्योंकि
वह जो कुरूपता
का बोध है, वही
दर्पण में
दिखाई पड़ता है
बार-बार।
शास्त्र
में वही दिखाई
पड़ता है, जो हम
हैं।
लेकिन
यह बात ठीक है
कि आज नहीं कल, मेरे
शब्द इकट्ठे
हो जाएंगे और
शास्त्र बन जाएंगे।
और जिस दिन
मेरे शब्द
शास्त्र बन
जाएं, उसी
दिन उनकी
हत्या हो गई।
फिर भी
ध्यान रहे कि
मैं किताब का
विरोधी नहीं
हूं,
शास्त्र का
विरोधी हूं, और इन दोनों
में फर्क करता
हूं।
किताब
का दावा नहीं
है सत्य देने
का,
किताब का
दावा सिर्फ
संग्राहक
होने का है।
किसी ने कुछ
कहा था, वह
संग्रह किया
गया। शास्त्र का
दावा सिर्फ
संग्राहक
होने का नहीं
है, शास्त्र
का दावा सत्य
को देने का
है। शास्त्र का
दावा यह है कि
मैं सत्य हूं।
जो
किताब यह दावा
करती है कि
मैं सत्य हूं, वह
शास्त्र बन
जाती है। जो
किताब सिर्फ
विनम्र
संग्रह है, और दावा
नहीं करती, जैसा कि
मैंने कल
लाओत्से का
कहा कि किताब
के पहले उसने
लिखा कि जो
कहा जाएगा वह
सत्य नहीं
होगा, इसे
समझ कर किताब
को पढ़ना।
यह शास्त्र
नहीं बन रही
है यह किताब।
यह विनम्र
किताब है, यह
सिर्फ संग्रह
है। और इस
किताब को अगर
कोई शास्त्र
बनाता है तो
वह खुद ही
जिम्मेवार
है। यह किताब
उस पर बोझ
बनने की
तैयारी में
नहीं थी। यह
किताब उसको मुक्त
करने की
तैयारी में
थी। पूरा इसका
भाव यही था।
तो
मेरी सारी
बातें ऐसी हैं
कि अगर उनको
काट-पीट न
किया जाए तो
शास्त्र
बनाना
मुश्किल है, ज्यादा
से ज्यादा
किताब बन सकती
है। लेकिन शास्त्र
बनाए जा सकते
हैं। शास्त्र
बनाए जाना
कठिन नहीं है।
क्योंकि
शास्त्र कोई
बोलता है कुछ,
इससे नहीं
बनते; कोई पकड़ता है, इससे बनते
हैं। यानी
शास्त्र
महावीर के
बोलने से नहीं
बनता, गणधरों के पकड़ने
से बनता है।
और पकड़ने
वाले हैं।
तो पकड़ने
वाला पकड़ ही न
पाए,
इसका सारा
उपाय हमारी
वाणी में होना
चाहिए। यानी
वह वाणी ऐसी
कांटों वाली
हो और ऐसे
अंगारे से भरी
हो कि पकड़ना
मुश्किल हो
जाए। लेकिन
फिर भी अंगारे
भी बुझ जाते
हैं और एक न एक
दिन राख हो
जाते हैं और पकड़ने
वाले उनको
मुट्ठी में
पकड़ लेंगे।
इसका मतलब सिर्फ
यह हुआ कि
बार-बार
ज्ञानी को
पुराने ज्ञानियों
की दुश्मनी
में खड़ा होना
पड़ता है।
अब यह
बड़ा उलटा काम
है। निरंतर
ज्ञानी को
पुराने
ज्ञानियों की
दुश्मनी में
खड़ा होना पड़ता
है। और यह
दुश्मनी नहीं
है। इससे बड़ी
कोई मित्रता
नहीं हो सकती।
क्योंकि इस
भांति जो राख
पकड़ ली गई है, उसको
छुड़ाने
का कोई और
रास्ता नहीं होता।
तो अगर
जो महावीर को
प्रेम करता है, उसे
जैनियों के
खिलाफ खड़ा
होना ही
पड़ेगा। अगर महावीर
भी लौट आएं तो
उनको भी खड़ा
होना पड़ेगा।
क्योंकि जो
उन्होंने
दिया था, वह
जीवित अंगारा
था। वह पकड़ा
नहीं जा सकता
था, सिर्फ
जीया जा सकता
था, समझा
जा सकता था।
फिर अब राख रह
गई है, उसको
लोगों ने पकड़
लिया है। और
उसको पकड़ कर
वे बैठ गए हैं!
तो
दुनिया में जो
एक करिश्मे की
बात दिखाई पड़ती
है,
आश्चर्यजनक
मालूम पड़ती है
कि क्यों कभी
ऐसा होता है
कि कृष्ण के
खिलाफ महावीर
खड़े हैं? कि
महावीर के
खिलाफ बुद्ध
खड़े हैं? कि
बुद्ध के
खिलाफ कोई और
खड़ा है? यह
कैसा अजीब है!
होना
तो यह चाहिए
कि महावीर
बुद्ध का
समर्थन करते
हों,
क्राइस्ट
बुद्ध का
समर्थन करते
हों, मोहम्मद
महावीर का
समर्थन करते
हों; महावीर,
कृष्ण, राम
का समर्थन
करते हों।
होना तो यह
चाहिए, लेकिन
हुआ इससे उलटा
ही।
होने
का कारण है।
इसके पहले कि
किसी के जीवन
में नए ज्ञान
की किरण आए, जैसे
ही वह किरण
आती है, उसे
दिखाई पड़ता है,
लोगों के
हाथ में राख
है। कभी वह भी
किरण थी, लेकिन
अब राख है। और
समझाया न जाए
कि यह राख है, तो छुटकारा
होने वाला
नहीं है।
फिर भी
न बुद्ध
महावीर के
खिलाफ हैं, न
महावीर कृष्ण
के खिलाफ हैं।
खिलाफ हैं
शास्त्र बन
जाने के। और
जो भी शास्त्र
बन जाता है, वह सत्य मर
जाता है।
तो
इसको स्मरण
रखें, तो
शास्त्र बनने
की उम्मीद
मिटती है, आशा
मिटती है।
लेकिन फिर भी
बन सकता है, इसलिए लड़ाई
जारी रहेगी।
इसलिए किसी
ज्ञानी पर
लड़ाई खतम नहीं
हो जाएगी।
ज्ञानी होंगे
और आने वाले
ज्ञानियों को
उनका खंडन
करना पड़ेगा।
यह बड़ा
कठोर कृत्य
है। लेकिन
प्रेम इतना
कठोर भी होता
है। यह बड़ा
कठोर कृत्य
है। यह बड़ा
कठोर कृत्य है
कि...झेन फकीर
हुए हैं, अब
झेन फकीर
बुद्ध के
अनुयायी हैं।
लेकिन झेन फकीर
अपने
अनुयायियों
से कहते हैं
कि अगर बुद्ध
बीच में आए तो
एक चांटा मार
कर अलग कर
देना। और आएगा
बुद्ध बीच में
तुम्हारे।
परम ज्ञान के
उपलब्ध होने
के पहले बुद्ध
तुम्हारे बीच
में मार्ग
रोकेगा। तो एक
चांटा मार कर
अलग कर देना।
एक झेन
फकीर तो यह भी
कहता था कि
बुद्ध का मुंह
में नाम आए तो
कुल्ला करके
पहले मुंह साफ
कर लेना, फिर
दूसरा काम
करना।
तो
उसके शिष्य
पूछते, यह
तुम क्या कहते
हो? और
बुद्ध की
मूर्ति रखे
हुए हो अपने
मंदिर में!
वह
कहता, ये
दोनों ही सही
हैं। बुद्ध से
हमारा प्रेम
है, लेकिन
बुद्ध किसी के
आड़े आ जाए,
तो उससे
हमारी लड़ाई
है। और इसके
लिए बुद्ध का
आशीर्वाद
हमको मिला हुआ
है। यानी हमने
बुद्ध से यह
पूछ लिया है
कि हम लोगों
से यह कहें तो
कुछ बुरा तो
नहीं कि तुम्हारा
नाम मुंह में
आ जाए तो
कुल्ला करके
साफ कर लेना?
अब
इसको समझना
हमें मुश्किल
हो जाएगा इस
आदमी को, लेकिन
यह आदमी है।
और यह ठीक कह
रहा है। एक
तरफ यह कह रहा
है कि हम...एक
मूर्ति रखी
हुई है और रोज
सुबह उसके
सामने फूल भी रख
आता है! और
लोगों को
समझाता है कि
बुद्ध से बचना,
इससे
खतरनाक आदमी
ही नहीं हुआ!
और इसका नाम
भी आए मुंह
में तो बस
कुल्ला करके
साफ कर लेना!
इतना अपवित्र
है यह नाम, अपवित्र!
और कहता है
बुद्ध से पूछ
लिया है और आशीर्वाद
ले लिया है, कि हां यह
करो!
अब
इसके मतलब
क्या हैं? इसके
मतलब ये हैं
कि हर चीज
बाधा बन जाती
है। असल में
जो भी सीढ़ी है,
वह मार्ग का
पत्थर भी बन
सकती है। और
जो भी पत्थर
है, वह
मार्ग की सीढ़ी
भी बन सकता
है। सब कुछ
बनाने वाले पर
निर्भर है। और
जब पुरानी सीढ़ी
पत्थर बन जाती
है तो उसे
हटाने की बात
करनी पड़ती है,
उसे मिटाने
की बात करनी
पड़ती है। यह
लड़ाई जारी
रहेगी। यह
लड़ाई निरंतर
जारी रहेगी।
इस लड़ाई को
रोकना
मुश्किल है।
यानी
मैं जो कह कर जाऊंगा, कल
किसी को
हिम्मत जुटा
कर उसे गलत
कहना ही
पड़ेगा। मैं जो
कह कर जाऊंगा,
मुझे प्रेम
करने वाले
किसी व्यक्ति
को मेरे खिलाफ
लड़ना ही
पड़ेगा। इसके
सिवाय कोई
उपाय ही नहीं।
क्योंकि वे
सुनने वाले
उसको पकड़ेंगे
और शास्त्र बनाएंगे
और कल उससे
छुटकारा
दिलाना होगा।
यानी जो व्यक्ति
भी हमारे लिए मुक्तिदायी
सिद्ध हो सकते
हैं, हम
उन्हें बंधन
बना लेते हैं।
और जब उन्हें
बंधन बना लेते
हैं तो उनसे
भी मुक्ति दिलानी
पड़ती है। और
जो हमें फिर
मुक्ति
दिलाता है, हम उसे फिर
बंधन बना लेते
हैं। लंबी कथा
है यह कि मुक्तिदायी
विचार भी कैसे
बंधन बन जाते
हैं, मुक्तिदायी व्यक्ति भी
कैसे बंधन बन
जाते हैं, फिर
कैसे उनसे छुड़ाना
पड़ता है।
और
इसलिए कोई भी
विचार सदा
रहने वाला
नहीं हो सकता।
और इसलिए कोई
भी विचार की
एक सीमा है प्रभाव
की,
जीवंत। उस
प्रभाव
क्षेत्र में
जितने लोग आ
जाते हैं, और
जो जीवंत
प्रयोग में लग
जाते हैं, वे
तो निकल जाते
हैं। पीछे फिर
राख रह जाती
है।
और
इसलिए सब तीर्थंकरों, सब
अवतारों, सब
उन द्रष्टावान
लोगों के
आस-पास राख का
संग्रह हो
जाता है। और वह
जो राख का
संग्रह है, वह संप्रदाय
बन जाता है।
और फिर वे राख
के संग्रह
एक-दूसरे से
लड़ते हैं, झगड़ते
हैं, उपद्रव
करते हैं। और
तब जरूरत होती
है कि कोई फिर
खड़ा हो और सारी
राख को मिटा
दे।
लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं होता कि
वह राख नहीं बन
जाएगा, वह
बनेगा। जो भी
अंगारा जलेगा,
वह बुझेगा।
जो विचार एक
दिन जीवंत
होगा, वह
एक दिन मृत हो
जाएगा। जब
महावीर ही मिट
जाते हैं, जब
बुद्ध ही मिट जाते
हैं, तो जो
कहा हुआ है, वह भी मिट
जाएगा। इस जगत
में जिसमें हम
जी रहे हैं, इस जगत में
कुछ भी शाश्वत
नहीं है। न
कोई वाणी, न
कोई विचार, न कोई
व्यक्ति--कुछ
भी शाश्वत
नहीं है। यहां
सभी मिट
जाएगा। मिट
जाने के बाद
भी पकड़ने
वाला आग्रह
उसको पकड़े
रखेगा।
और तब किसी
को चेताना
पड़ेगा कि लहर
चली गई है, हाथ
तुम्हारा
खाली है, तुम
कुछ भी नहीं पकड़े हुए
हो। अब दूसरी
लहर आ गई है, तुम पुरानी
लहर के चक्कर
में पड़े हो।
उसे पकड़े
रहे, तो यह
नई लहर से भी
चूक जाओगे और
पुरानी लहर जा
चुकी है।
यह जो
हमें खयाल में
आ जाए, तो मैं
शास्त्र की
निंदा नहीं कर
रहा हूं, शास्त्र
की
वस्तुस्थिति
क्या है, वह
कह रहा हूं।
और वह जो तुम
कहते हो, वह
ठीक है। मेरी
बहुत सी बातें
शास्त्र में
मिल
जाएंगी--इसलिए
नहीं कि वे
शास्त्र में
हैं, इसलिए
कि तुम मेरी
बातों को समझ
लोगे। अगर मेरी
बातें
तुम्हें समझ
में पड़ गईं, तो तुम्हें
शास्त्र में
मिल जाएंगी।
क्योंकि
शास्त्र में
तुम्हें वही
मिल जाएगा, जो तुम्हारी
समझ है। जो
तुम्हारी समझ
है, वही
मिल जाएगा।
क्योंकि हम
शास्त्र में
अपनी समझ
डालते हैं।
आमतौर
से हम सोचते
हैं कि
शास्त्र से
समझ निकलती
है। निकलती
नहीं, हम
शास्त्र में
अपनी समझ
डालते हैं।
इसीलिए तो
गीता की हजार
टीकाएं हो
सकती हैं। अगर
गीता से समझ
निकलती हो तो
हजार टीकाएं
कैसे हो सकती
हैं? और
कृष्ण के अगर
हजार मतलब रहे
हों तो कृष्ण
का दिमाग खराब
रहा होगा।
कृष्ण का मतलब
तो एक ही रहा
होगा। हजार
टीकाएं हो
सकती हैं, लाख
टीकाएं हो
सकती हैं, क्योंकि
हर एक व्यक्ति
अपनी समझ
उसमें खोज लेगा।
और शब्द इतना
बेजान है कि
तुम उसे
मार-ठोंक कर
जहां लाना
चाहो, वहां
आ जाता है। वह
कुछ कर ही
नहीं सकता।
तुमने उसकी
गर्दन में
डाली फांस और
खींचा, तो
तुम जहां लाना
चाहते हो, वहां
ले आते हो।
तो उसी
गीता से शंकर
निकाल लेंगे
कि जगत सब
माया है, और कर्ममुक्त
हो जाना ही
संदेश है। और
उसी गीता से
तिलक निकाल
लेंगे कि कर्म
ही जीवन है, और जीवन
सत्य है। उसी
गीता से दोनों
निकल आएंगे।
उसी गीता से
अर्जुन
निकालता है कि
युद्ध में जूझ
जाओ।
अर्जुन
सुनने वाला है, श्रोता
है पहला वह।
पहली टीका उसी
की है समझो। पहला
कमेंटेटर
वही है। सुना
है उसने। तो
सुन ही तो
नहीं लिया, जो सुना है
उसको समझा है,
गुना है, अपना मतलब
निकाला है।
अर्जुन मतलब
निकाल लेता है,
युद्ध में
जूझ जाओ, और
महाभारत का
युद्ध हो जाता
है। और उसी
गीता को गांधी
अपनी माता
समझते हैं, और अहिंसा
का संदेश
निकालते हैं।
यानी
अब यह बहुत
मजेदार मामला
है कि अर्जुन
हिंसा में उतर
जाता है और
गांधी उसको
जिंदगी भर हाथ
में रख कर
अहिंसा में
चले जाते हैं।
तो गीता
बेचारी कुछ है
कि गीता में
कुछ हम डालते
हैं?
शास्त्र
अपनी बुद्धि
को बाहर निकाल
कर पढ़ने का
उपाय है। भीतर
पढ़ना जरा
मुश्किल है, इसलिए
प्रोजेक्ट कर
लेते हैं
पर्दे पर।
शास्त्र
पर्दा बन जाता
है। उस पर
अपने भीतर को
बाहर लिख लेते
हैं। फिर हमें
दोहरी तृप्ति
मिल जाती है।
एक तो हमें
अपने पर
विश्वास नहीं
है, तो जब
हम गीता में
पढ़ लेते हैं
अपने को, तो
हम मजबूत, पक्के
हो जाते हैं
कि ठीक है, क्योंकि
कृष्ण भी यही
कहते हैं।
यानी हम, हमें
कोई भटक जाने
का डर नहीं है,
महावीर भी
यही कहते हैं,
बुद्ध भी
यही कहते हैं।
इस भूल
में पड़ना
ही मत कि
अनुयायी ने
कभी भी बुद्ध
का या महावीर
का साथ दिया
है,
अनुयायी ने
बुद्ध और
महावीर का साथ
लिया है। दिखता
हमें ऐसा है
कि महावीर के
पीछे चल रहा
है महावीर का
अनुयायी।
सच्चाई उलटी
है, महावीर
का अनुयायी
महावीर को
अपने पीछे चला
रहा है। और
चला कर
आश्वस्त है कि
हम कोई गलती
में तो हो
नहीं सकते, क्योंकि
महावीर साथ
हैं। तो वह हर
चीज का निकाल
लेता है, हर
चीज के उपाय
निकाल लेता
है।
शब्द
में कोई अर्थ
नहीं है। शब्द
तो कोरी ध्वनि
है,
अर्थ हम
डालते हैं।
इसलिए ऐसा भी
हो जाता है कि
शब्द
चलते-चलते
अपने विरोधी
अर्थों के
व्यंजक तक भी
हो जाते हैं।
यानी वही शब्द
हजार साल पहले
कुछ था, हजार
साल बाद ठीक
उलटा हो गया।
अब
अंग्रेज
हिंदुस्तान
में आए, तो
पहला संपर्क
उनका
बंगालियों से
पड़ा। बंगालियों
की मछली की
बदबू और उनके
शरीर का
गंदापन उनको
बास देता था।
बास की वजह से
वे कहते थे बाबू।
बाबू का मतलब,
बू-सहित--जिसमें
बदबू आ रही
हो। और अब
बाबूजी से ज्यादा
कीमती शब्द
नहीं है इस
वक्त--कि आइए, बाबूजी! वह
बदबू की वजह
से, सिर्फ
गंदगी की वजह
से कि बंगाली
से बास आती है
मछली की, खाने-पीने
की।
अभी भी, दूसरा
उतना बाबू
नहीं हो पाया
है; बंगाली
बाबू अब भी
बाबू है।
लेकिन अब आदर
का शब्द हो
गया है। आदर
का इसलिए हो गया
है कि अंग्रेज
सत्तावान
थे। जिसको
उन्होंने
बाबू कहा, वह
आदृत हो गया।
और जब अंग्रेज
ने बाबू कह
दिया और
गवर्नर ने
किसी को बाबू
कहा तो वह
बाहर अकड़ कर
निकला कि हम
कोई साधारण
थोड़े हैं, हम
बाबू! और
दूसरे लोग भी
उसको बाबू
कहने लगे। अब
बाबू बड़ा
कीमती शब्द
है!
शब्दों
की यात्रा है, हम
उनमें क्या
डालते हैं, यह हम पर
निर्भर है।
कैसे हम...शब्द
में कुछ भी नहीं
है, हम
उसमें डालते
हैं। अर्थ
हमारा है, शब्द
कोरा, खाली
है। शब्द
कंटेनर है, डब्बा है
खाली। कंटेंट
हम डालते हैं।
और कंटेंट
हमारे हाथ में
है बिलकुल कि
हम क्या डालेंगे।
इसलिए
हर पीढ़ी, हर
युग, हर
आदमी अपना कंटेंट
डाल देता है।
जो बहुत कुशल
हैं डालने में,
वे किसी भी
चीज से कोई भी
अर्थ निकाल
सकते हैं, उन
पर कोई शब्द
का बंधन ही
नहीं है। कोई
बंधन ही नहीं
है।
तो
इसलिए मैं
कहता हूं
कि...अब मेरी
बात समझ में आ
जाए तो
शास्त्र में
मिल जाएगी।
शास्त्र की बात
तुम्हारी पकड़
में हो तो
मेरी बात में
मिल जाएगा।
लेकिन इसमें पड़ना ही
मत। इसमें पड़ना
ही मत, क्योंकि
यह पड़ना
ही गलत दिशा
में ले जाता
है। जब मैं
तुम्हारे सामने
मौजूद हूं, तो सीधा ही
मुझे लेना, शास्त्र को
बीच में लाना
ही मत। सीधा
ही मुझे समझने
की कोशिश करना,
कंपेयर ही मत करना, तुलना ही मत
करना कि यह
कहां है और
कहां नहीं है।
होगा तो ठीक, नहीं होगा
तो ठीक। सीधे
ही समझने की
कोशिश उपयोगी
है, क्योंकि
तभी हम ज्यादा
से ज्यादा समझ
सकते हैं। और
जो हमारी समझ
में आ जाए, वह
हमें सब जगह
दिखाई पड़ने
लगेगा।
अ
प्रश्न:
पढ़ने
और सुनने से
ज्ञान नहीं
होता है तो
फिर पढ़ने और
सुनने की
जरूरत क्या है? और
उसके बाद, आप
स्वयं इतने
समय तक अभी
पढ़ा और सुना
ही तो रहे हैं!
उसमें भेद
क्या है?
हां, असल
में जिंदगी
बड़ी विरोधी
चीजों से बनी
है। और यह बात
सच है कि
पढ़ने-समझने से,
सुनने से, ज्ञान नहीं
आ जाता है।
अगर यह बोध
बना रहे कि पढ़ने
और सुनने से
ही ज्ञान नहीं
आ जाता है, तो
पढ़ना-सुनना
भी तुम्हारे
भीतर ज्ञान को
लाने के लिए
निमित्त बन
सकता है--अगर
यह बोध बना रहे
कि इससे ही
ज्ञान नहीं आ
जाता है। और
अगर यह खयाल
हो जाए कि पढ़ना-सुनना
ही ज्ञान दे
देता है, तो
तुम्हारे
भीतर कभी
ज्ञान नहीं
आएगा। यह निमित्त
नहीं बनेगा, यह बाधा बन
जाएगी।
अब ये
बातें उलटी
दिखती हैं ऊपर
से। अगर तुम्हें
पक्का स्पष्ट
है यह कि क्या
पढ़ने से मिलेगा, तो
तुम्हें पढ़ने
से भी कुछ मिल
सकता है।
क्योंकि तब
तुम पढ़ने को
नहीं पकड़ लोगे,
क्योंकि वह
तो तुम्हें
स्पष्ट ही है
कि पढ़ने से
कुछ नहीं
मिलता। तब तुम
सुनने को नहीं
पकड़ लोगे; तब
तुम सोचोगे, समझोगे, खोजोगे; वह तुम्हारी
जारी रहेगी
खोज। और तब पढ़ना
भी एक निमित्त
बन सकता है
तुम्हारी खोज
का।
तो
शास्त्रों से
वे लोग फायदा
भी उठा सकते
हैं,
जो
शास्त्रों से
नहीं बंधे
हैं। जो
बिलकुल मुक्त
हैं
शास्त्रों
से। जिन्हें
खयाल ही नहीं है
कि शास्त्र से
ज्ञान मिल
सकता है, वे
शास्त्रों से
भी फायदा उठा
सकते हैं। और
जिन्हें यह खयाल
है कि शास्त्र
में सब लिखा
है, सब मिल
जाएगा, वे
शास्त्रों को
अपनी छाती पर
रख कर सिर्फ
डूब जाते हैं
और कुछ भी
नहीं कर पाते।
अब
मेरी बहुत
बातें उलटी
तुम्हें
दिखाई पड़ सकती
हैं,
क्योंकि
जिंदगी ही
उलटी है। और
यहां बड़े अजीब
मामले हैं।
यहां ऐसा
मामला है कि
यहां अगर
हमने...समझ लो
कि एक आदमी
ऐसा पक्का समझ
ले कि शास्त्र
पढ़ लिया तो सब
मिल गया। तो
वह पढ़ता रहे
शास्त्र, इकट्ठा
करता रहे।
बहुत इकट्ठा
कर ले, और
उसको कभी कुछ
न मिले, क्योंकि
उसने मिलने की
सारी बात
शास्त्र पर छोड़
दी है तो उसकी अंतर्खोज
तो सब खतम हो
गई है। जब
शास्त्र से
मिल जाता है तो
अंतर्खोज
की जरूरत क्या
है? तो
इकट्ठा कर
लेगा शास्त्र
और अंतर्खोज
क्षीण होती
जाएगी, मर
जाएगी। जितना
शास्त्र
ज्यादा हो
जाएगा, उतना
अंतर्खोज
मर जाएगी।
लेकिन
एक आदमी है जो
सचेत है पूरा, कि
शास्त्र से
क्या मिलने
वाला है, शब्द
ही है वहां। अंतर्खोज
जारी रखी है
उसने। अंतर्खोज
जारी है। तो
जितनी अंतर्खोज
होती चली जाती
है, उतना
ही उसे
शास्त्र में
मिलने लगता
है। क्योंकि
जितना उसे
दिखाई पड़ने
लगता
है...क्योंकि शास्त्र
आखिर
जिन्होंने
कहा है, उन्होंने
जान कर ही कहा
है। कहा नहीं
जा सकता, मुश्किल
है कहना, तो
भी जान कर ही
कहा है। तो भी
जाना है
उन्होंने, तो
ही कहा है।
कोड है वह तो।
इसमें कुछ
जानने वालों
ने कुछ प्रतीक
छोड़े हैं।
अब
जैसे समझ लें, एक
मंदिर है, वहां
एक मूर्ति रखी
है। यह भी एक
कोड है, यह
भी एक शास्त्र
है। इधर
अक्षरों में
लिखा है, यहां
हमने पत्थर
में खोदा है।
सब मंदिर कोड लैंग्वेज
में हैं। अब
नए मंदिर नहीं
हैं, क्योंकि
नए मंदिर का
उससे कोई
संबंध नहीं रह
गया। जितने नए
मंदिर बन रहे
हैं, उनका
कोई संबंध
नहीं है अब।
क्योंकि अब
हमें पता ही
नहीं है, अब
हम कुछ और ही
हिसाब से बना
रहे हैं। नया
आर्किटेक्ट
जा रहा है
उसमें, नई
बिल्डिंग की
डिजाइन जा रही
है, वह सब
जा रहा है।
लेकिन पुराना,
जितना
पुराना मंदिर
है, उतना
कोड लैंग्वेज
में है।
मंदिर
की एक भाषा है, क्योंकि
असल में आदमी
की कितनी, कितनी
करुणा भी है, कितनी
कठिनाई भी है।
जिनको एक बार
कुछ पता चल
गया है, वे
चाहते हैं कि
वह किसी तरह
सुरक्षित रह
जाए। शब्द में
भी लिखते हैं,
पत्थर में
भी खोदते हैं,
क्योंकि
किताब गल
जाएगी, जल
जाएगी, तो
पत्थर में
खुदा रहेगा।
तो
मंदिर के
पत्थर में एक
कोड खोदा हुआ
है। और सारी
व्यवस्था ऐसी
की गई है कि जो अंतर्खोज
में जाएगा, उसके
लिए मंदिर
एकदम सार्थक
हो जाएगा।
एकदम सार्थक
हो जाएगा।
क्योंकि तब
उसे अर्थ ही
दूसरे दिखाई
पड़ने शुरू हो
जाएंगे। उसे
अर्थ दूसरे दिखाई
पड़ने शुरू हो
जाएंगे।
अब तुम
अगर मंदिर की
बनावट देखो, तो
चौकोन मंदिर
बनेगा। मंदिर
चौकोन होगा, लेकिन उसके
ऊपर का जो
गुंबद है, वह
गोल होगा।
यानी दो
हिस्सों में
मंदिर बंटा हुआ
है, नीचे
का चौकोन
हिस्सा है, ऊपर का गोल
हिस्सा है।
भीतर तुम
जाओगे, तो
जहां मूर्ति
स्थापित की गई
है, उसे
कहते हैं
गर्भगृह। अब
उसे क्यों
गर्भगृह कहते
हैं? वहां
मूर्ति रखी
है। उस मूर्ति
की तुम्हें
परिक्रमा
करनी होती है।
वह भी नियमित,
कितनी करनी,
वह भी सब
नियमित है।
उतनी तुम
परिक्रमा
करते हो।
मंदिर चौकोन
है, परिक्रमा
गोल है। उस
गोल परिक्रमा
के बीच में ठीक
केंद्र पर एक
मूर्ति है।
ऊपर भी मंदिर
गोल है। अब यह
एक कोड लैंग्वेज
है।
इंद्रियां
हमारे कोने
हैं। और एक
इंद्रिय में
हम चले जाएं
तो हम एक दिशा
में चले
जाएंगे। सब
इंद्रियों के
ऊपर कहीं न
जाने वाली एक
गोल स्थिति है, जिससे
कोई दिशा नहीं
जाती, जिसमें
अंदर घूमना
पड़ता है। कोना
तो एक दिशा की
तरफ इंगित
करता है, पूरब
तो पूरब की
तरफ बढ़ते चले
गए तो तुम पूरब
चले जाओगे
अंतहीन।
लेकिन गोल
घेरे में किसी
दिशा की तरफ
कोई इंगित
नहीं है, वहां
तुम्हें अंदर
गोल घूमना
पड़ता है।
तो एक
तो हमारा शरीर
है,
जिसमें
दिशाएं हैं, जिसमें से
तुमने कोई भी
दिशा पकड़ ली
तो तुम अंतहीन
जा सकते हो।
और शरीर के
भीतर हमारा एक
गोल परिभ्रमण
है--चित्त का, जहां कि तुम
कहीं जा नहीं
सकते, सिर्फ
गोल घूम सकते
हो। अगर कभी
तुमने विचार पर
खयाल किया
होगा, तो
तुम हैरान
होओगे कि
विचार सदा गोल
घूमता रहता है,
उसकी कभी
कोई दिशा नहीं
होती। तुम एक
विचार सोचोगे,
दूसरा
सोचोगे, फिर
तुम पहले पर आ
जाओगे। तुमने
कल जो सोचा था,
फिर आज
सोचने लगोगे,
फिर कल
सोचने लगोगे।
विचार
का जो घेरा है, वह
वर्तुल है, वह गोल घेरे
में घूम रहा
है। और तुम
विचार में कभी
भी सीधे नहीं
जा सकते। और
उसका वर्तुल
सुनिश्चित
है। अगर कोई
व्यक्ति अपने
भीतर चित्त का
थोड़ा
विश्लेषण
करेगा तो
हैरान हो जाएगा,
कि वह हमेशा
गोल-गोल घूमता
रहा--पूरी
जिंदगी। वह
परिक्रमा है।
विचार
परिक्रमा है।
और अगर तुम
विचार की
परिक्रमा में
ही घूमते रहे
तो तुम भगवान
तक कभी नहीं
पहुंचोगे, क्योंकि
वह उस
परिक्रमा के
ठीक भीतर है।
इस परिक्रमा
से उतरो तो
तुम पहुंच
पाओगे। इसके
तुम लगाते रहो
चक्कर हजार...।
अब दो
बातें खयाल
में हुईं। एक
तो चौकोन
दिशाओं वाला, जहां
से डायमेन्शंस
जाते हैं शरीर
के--कि कोई
आदमी भोजन के
रस में चला
गया, कोई
आदमी सेक्स के
रस में चला
गया, कोई
आदमी संगीत के
रस में चला
गया, कोई
आदमी सौंदर्य
के रस में चला
गया--तो ये दिशाएं
अंतहीन हैं, ये चली
जाएंगी। और
जितना तुम
इनमें जाओगे,
उतना ही तुम
स्वयं से दूर
निकलते चले
जाओगे।
तो
इसलिए बाहर के
मंदिर के
परकोटे को गोल
नहीं बनाया
है। परकोटा
हमारा गोल
नहीं है शरीर
का,
उसमें कोने
हैं जिनसे
यात्रा हो
सकती है। और एक
कोने पर तुम
यात्रा करोगे
तो तुम दूसरे
कोनों से
विरोध में हो
जाओगे, एकदम।
और एक ही कोना
बढ़ता चला
जाएगा। और
अपने से
निरंतर दूर
होते चले
जाओगे।
फिर
हमारे
भीतर...शरीर का
परकोटा है, उसके
भीतर चित्त का
गोल परिभ्रमण
है। अगर तुम इसमें
घूमते रहे तो
अनेक जन्मों
तक घूमते रहो इस
परिभ्रमण में
तो भी
परमात्मा तक
नहीं
पहुंचोगे, सत्य
तक नहीं
पहुंचोगे।
कभी न कभी इस
परिभ्रमण से
उतर जाना
पड़ेगा, अंदर
चले जाना
पड़ेगा। और
मूर्ति जो है,
वह बिलकुल
थिर है। इसलिए
सारी
मूर्तियां
थिरता की सूचक
हैं।
इसलिए
कई दफे हैरानी
होती है। अब
जैसे अभी जो बात
चल रही थी न, उस
पर इससे भी
खयाल तुम्हें
आ जाएगा।
जैनों की
चौबीस तीर्थंकरों
की मूर्तियां
हैं, तुम
कोई फर्क नहीं
बता सकते
उनमें, सिवाय
उनके चिह्नों
के। अगर चिह्न
अलग कर दिए जाएं
तो मूर्तियां
बिलकुल एक
जैसी हैं।
उनमें कोई भी
फर्क नहीं है।
महावीर की
मूर्ति पार्श्व
की हो सकती है,
पार्श्व की
नेमी की हो
सकती है।
सिर्फ नीचे का
एक चिह्न भर
है, उसको
तुम अलग कर दो,
तो किसी
मूर्ति में
कोई फर्क नहीं
है।
क्या
चौबीस ये आदमी
एक जैसे रहे
होंगे? क्या
यह ऐतिहासिक
हो सकता है
मामला कि इन
चौबीस
आदमियों की एक
जैसी आंख, एक
जैसी नाक, एक
जैसे चेहरे, एक जैसे बाल
रहे हों? यह
तो असंभव है।
दो आदमियों का
एक जैसा खोजना
मुश्किल है।
और ये चौबीस
बिलकुल एक
जैसे रहे हों,
जिनमें भेद
ही नहीं है
कोई!
नहीं, यह
ऐतिहासिक
तथ्य नहीं है,
यह तथ्य
ज्यादा
आंतरिक है।
क्योंकि जैसे
ही व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध होता है,
सब भेद
विलीन हो जाते
हैं और अभेद
शुरू हो जाता
है। वहां सब
एक सा चेहरा
है और एक सी
नाक है और एक
सी आंख है।
मतलब केवल
इतना है कि एक
हमारे भीतर
ऐसी जगह है, जहां
नाक-चेहरे
इत्यादि मिट
जाते हैं और
बिलकुल एक ही,
एक ही रह
जाता है, एक
सा ही रह जाता
है।
तो जो
लोग एक जैसे
हो गए हों, उनको
हम कैसे बताएं?
तो हमने
मूर्तियां एक
जैसी बना दी
हैं--बिलकुल
एक जैसी, उसमें
कोई फर्क ही
नहीं किया है।
मूर्तियां
कभी एक जैसी
नहीं रहीं। हो
ही नहीं सकतीं।
इसलिए
मूर्तियों की
चिंता ही नहीं
करनी पड़ी।
महावीर का
चेहरा कैसे
रहा हो, यह
सवाल ही नहीं
रहा है। उस
चेहरे की हमने
बात ही छोड़ दी
है। अगर
फोटोग्राफ
लिया होता तो
महावीर की मूर्ति
से कोई मेल
नहीं खा सकता
था कभी भी। क्योंकि
फोटोग्राफ
सिर्फ बाहर को
पकड़ता है,
मूर्ति में
हमने भीतर को पकड़ने की
कोशिश की है।
भीतर आदमी एक
जैसे हो गए
हैं। इसलिए अब
इनकी बाहर की
मूर्तियों को
अलग-अलग रखना
गलत सूचना हो
जाएगी।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
भीतर को हमने
बाहर पर जिता
दिया है।
फोटोग्राफ
में बाहर भीतर
पर जीत जाता
है।
फोटोग्राफ
अलग-अलग होता
है। लेकिन ये
चौबीस तीर्थंकरों
की मूर्तियां
अलग नहीं हैं, ये
बिलकुल एक सी
हैं।
अ
प्रश्न:
इनका
लेवल एक हो
गया है?
हां, जैसे
ही चेतना एक
तल पर पहुंच
गई है, सब
एक हो गया है।
यानी अगर इसे
हम ठीक से
कहें तो उनके
चेहरे एक से
हो गए, चेहरों
में फर्क नहीं
रहा। आंखें
अलग-अलग रही होंगी,
लेकिन जो
उनसे झांकने
लगा, देखने
वाला, वह
एक हो गया।
ओंठ अलग-अलग
रहे होंगे, लेकिन जो
वाणी निकलने
लगी, वह एक
हो गई। भीतर
सब एक हो गया।
तो एक
गोल परिक्रमा
है,
जिसके हम
चक्कर अनंत
जीवन तक लगाते
रहें तो भी
गर्भगृह में
हम प्रवेश
नहीं कर
पाएंगे। परिक्रमा
से उतरना
पड़ेगा, तो
हम वहां
जाएंगे, जहां
भगवान को
प्रतिष्ठित
किया है। और
भगवान को अगर
हम वहां गौर से
देखेंगे तो सब
थिर है, सब
शांत है। उस
मूर्ति में सब
शांत है, सब
थिर है, जैसे
वहां कोई गति
ही नहीं है।
कोई गति नहीं
मालूम पड़ती।
कोई कंपन नहीं
है।
इसलिए
पत्थर की
मूर्तियां
चुनी गईं, क्योंकि
पत्थर हमारे
पास सबसे ज्यादा
ठहरा हुआ, सबसे
ज्यादा ठहरा
हुआ तत्व है, जिससे हम
खबर दे सकें।
सबसे ज्यादा
ठहरा हुआ। और
उस ठहराव में
भी जो हमने
रूप-रेखा चुनी
है, वह
बिलकुल ठहरी
हुई है।
मूवमेंट की
बात ही नहीं
है। इसलिए हाथ
जुड़े हुए हैं,
पैर जुड़े
हुए हैं, पैर
क्रास्ड
हैं, हाथ
जुड़े हुए हैं,
आंखें आधी
बंद हैं।
ध्यान
रहे,
आंख अगर
पूरी बंद हो
तो खोलनी
पड़ेगी, आंख
अगर पूरी खुली
हो तो बंद
करनी पड़ेगी, क्योंकि अति
से लौटना पड़ता
है। अति पर
कोई ठहर नहीं
सकता। अगर आप
श्रम करें, तो आपको
विश्राम करना
पड़ेगा; अगर
विश्राम करें
बहुत, तो
फिर आपको श्रम
करना पड़ेगा।
अति पर
कोई कभी ठहर
नहीं सकता, इसलिए
आंख को आधा
खुला, आधा
बंद रख दिया
है--मध्य में, जहां से न
यहां जाना है,
न वहां जाना
है। ठहरने का
प्रतीक है वह
सिर्फ। सब ठहर
गया है, अब
कहीं कुछ
जाता-आता
नहीं। अब कोई
गति नहीं है--न
पीछे लौटना है,
न आगे जाना
है, अब
कहीं कुछ जाना
नहीं है। यह
सब ठहरा हुआ, वह बिलकुल
केंद्र में
है।
तो
मंदिर
प्रत्येक
व्यक्ति का
प्रतीक है कि
तुम अपने साथ
क्या कर सकते
हो। या तो तुम
बाहर के कोनों
से जा सकते हो
यात्रा पर, वह
इंद्रियों की
यात्रा होगी;
या तुम भीतर
मस्तिष्क के
विचार में
चक्कर लगा
सकते हो, वह
परिभ्रमण
होगा; और
या तुम सबके
बीच में जाकर
थिर हो जा
सकते हो, वह
उपलब्धि
होगी।
हजार
तरह की कोशिश
की है--नृत्य
में,
संगीत में,
चित्र में,
मूर्ति में,
शब्द
में--हजार तरह
की कोशिश की
है। पिरामिड हैं
इजिप्त के, बड़े अदभुत सीक्रेट्स
हैं उनमें। वह
सब खोद डाला
उन्होंने कि
कभी भी कोई
जानने वाले
लोग आएंगे, तो ये पत्थर
न मिटेंगे।
बड़ी मेहनत की,
सब खोद डाला
है कि कैसे, अंतरात्मा
तक पहुंचने का
क्या रास्ता
है! तो पिरामिड
के पूरे
पत्थरों में
सब इशारे खुदे
हुए हैं। पूरे
इशारे खुदे
हुए हैं।
तो जिन
लोगों ने जाना
है,
उन्होंने
बहुत तरह की
कोशिश की है
कि जो जाना है,
वह ठहर, किसी
तरह छूट जाए
और बाद में जब
भी कोई जानने
वाला होगा तो
फौरन खोल लेगा
कि वहां क्या
है। वे कीज़
हैं, कुंजियां
हैं, जिनसे
बहुत ताले
खुलते हैं।
लेकिन
न आपको ताले
का पता है, न
आपको कुंजी का
पता है। तो आप
कुंजी भी लिए
बैठे रहते हैं,
ताला भी
लटका रहता है,
कुछ नहीं
खुलता। और
पहली बात यह
है कि अगर जोर से
किसी चीज को
अंधे की तरह
पकड़ लिया तो
फिर तुम कभी
नहीं कुछ खोल
पाओगे।
तो
इसलिए पकड़ना
मत। जो मैं
निरंतर कह रहा
हूं,
उसका कुल
मतलब इतना है
कि शास्त्र को
पकड़ना मत--पढ़ना, पकड़ना
मत। सुनना
किसी को, लेकिन
बहरे मत हो
जाना। पढ़ो,
अंधे मत हो
जाना। सुनना
और पूरी तरह
जानते हुए
सुनना कि
सुनने से क्या
हो सकता है।
और मैं कहता
हूं कि अगर इस
तरह सुना तो
सुनने से भी
हो सकता है।
पढ़ने से क्या
हो सकता है, अगर ऐसा
जानते हुए पढ़ा,
तो पढ़ने से
भी हो सकता
है। हो सकने
का मतलब यह कि
वह भी निमित्त
बन सकता है
तुम्हारी
भीतर की यात्रा
का।
कोई भी
चीज निमित्त
बन सकती है, लेकिन
अंधे होकर पकड़
लेने से सब
बाधा हो जाती है।
पढ़ो, सुनो,
लेकिन
प्रत्येक
क्षण यह जानते
रहो कि खोज
मेरी है, और
मुझे करनी
होगी, इसमें
मैं बासा और
उधार सत्य
नहीं ले सकता
हूं। यह अगर
स्मरण रहे तो,
तो मैं जो
कह रहा हूं, वह तुम्हारे
लिए बाधा नहीं
बनेगा। नहीं
तो वह भी बाधा
बन जाएगा। वह
भी बाधा बन
जाएगा।
अब
तुमने देखा, खजुराहो
के मंदिर हैं।
तो जिनकी समझ
में कुछ बात
आई, उन्होंने
कितनी मेहनत
से खोदने की
कोशिश की है!
मंदिर के बाहर
की दीवाल पर
सारी सेक्स, सारी काम और
योनि और यौन, सब खोद डाला
है। बड़ी अदभुत
बात खोदी है
पत्थर पर।
लेकिन भीतर
मंदिर में
नहीं है सेक्स
का कोई चित्र,
सब बाहर की
परिधि पर खोदा
गया है। और
मतलब यह है
सिर्फ कि जीवन
की बाहर की
परिधि सेक्स
से बनी है, काम
से बनी है। और
अगर मंदिर के
भीतर जाना हो
तो इस परिधि
को छोड़ना
पड़ेगा। मंदिर
के बाहर ही रहना
हो, तो ठीक
है, यही
चलेगा।
काम, जीवन
की बाहर की
दीवाल है। और
राम, भीतर
मंदिर में
प्रतिष्ठित
है। जब तक काम
में उलझे हो, तब तक भीतर
नहीं जा
सकोगे। लेकिन
अगर उन सारे
मैथुन चित्रों
को कोई घूमता
हुआ देखता रहे,
देखता रहे,
तो कितनी
देर देखता है!
फिर थक जाता
है, फिर ऊब
जाता है, फिर
वह कहता है अब
मंदिर--अंदर
चलो। और अंदर
जाकर बड़ा
विश्राम पाता
है, क्योंकि
वहां तो एक
दूसरी दुनिया
शुरू हुई।
तो जब
जीवन की
अनंत-अनंत
यात्राओं में
थक जाएंगे हम
सेक्स के जीवन
से,
बाहर-बाहर
घूम-घूम कर, तब एक दिन मन
कहेगा कि अब
बहुत हुआ, अब
बहुत देखा, अब बहुत
भोगा, अब
भीतर चलो।
इस
तथ्य को पत्थर
में खोद कर
छोड़ दिया
किन्हीं ने।
जिन्होंने
जाना
उन्होंने छोड़
दिया। तंत्र
के अनुभव से
यह बात उनको
दिखाई पड़ी कि
दो ही तरह का
जीवन है, या तो
काम का या राम
का। और काम
राम के मंदिर
की बाहर की
दीवाल है।
तो ऐसा
नहीं है कि
काम राम का
दुश्मन है, सिर्फ
बाहर की दीवाल
है। राम को
वही सुरक्षित किए
हुए है चारों
तरफ से। राम
के रहने का घर
उसी से बना
है। राम को
निवास न
मिलेगा, अगर
काम न रह जाए।
तो काम दुश्मन
भी नहीं है, फिर भी काम
रोकने वाला
है। अगर बाहर
ही घूमते रहे,
घूमते रहे,
तो भूल ही
जाओगे कि
मंदिर में एक
जगह और थी, जहां
काम न था।
जहां कुछ और
शुरू होता था,
एक दूसरी ही
यात्रा शुरू
होती थी।
लेकिन
जब ऊब जाओ तभी
तो भीतर
जाओगे। अभी भी
मैं देखता हूं, कभी
जाकर खजुराहो
बैठ जाता हूं
तो जो देखने
वाले आते हैं,
वे पहले तो
बाहर ही घूमते
हैं, भीतर
मंदिर में कोई
सीधा नहीं
जाता। कभी कोई
गया ही नहीं।
भीतर मंदिर
में कोई सीधा
जा भी कैसे
सकता है? उधर
बैठ कर देखता हूं
तो जो भी
यात्री आता है
वह पहले बाहर।
और
इतने अदभुत
चित्र हैं कि
कहां भीतर
जाना है? कैसा
भीतर? और
वे इतने उलझाने
वाले हैं, और
इतने अदभुत
हैं कि इतनी
तो मैथुन
प्रतिमाएं इस
अदभुत ढंग से
दुनिया में
कहीं नहीं
खोदी गईं।
असल
में दुनिया
में कहीं इस
गहरे अनुभव को
बहुत कम लोग
उपलब्ध हुए।
इसीलिए इसको
खोदने का उपाय
न था। खोद ही
नहीं पाए वे।
अब पश्चिम करीब
पहुंच रहा है, जहां
हमने हजार, दो हजार साल
पहले खोदे, वहां अब
पहुंच रहा है,
अब वहां
सेक्स की
परिधि अपनी
पूरी तरह
प्रकट हो रही
है। तो हो
सकता है कि सौ,
दो सौ वर्षों
में वह भीतर
के मंदिर को
भी निर्मित करे।
जोर से
परिभ्रमण हो
रहा है सेक्स
का अब, तो
भीतर का मंदिर
निर्मित
होगा।
तो मैं
देखता हूं
वहां तो बाहर
यात्री घूम
रहा है, धूप
तेज होती जाती
है और यात्री
है कि एक-एक, एक-एक, मैथुन
चित्र को
देखता चला
जाता है। थक
गया है, पसीना-पसीना
हो गया है, सब
देख डाला
बाहर। फिर वह
कहता है चलो, अब भीतर भी
देख लें।
बाहर
से थक जाएगा, थक
जाएगा, थक
जाएगा, तो
कोई भीतर
जाएगा। अब
इसको पत्थर
में भी खोदा
है, कितनी
मेहनत की है!
इसे किताबों
में भी लिखा है।
लेकिन किताब
में इतना ही
लिखना पड़ेगा
कि बाहर से जब
थक जाओगे, काम
से जब थक
जाओगे, तब
राम की
उपलब्धि हो
सकती है।
लेकिन हो सकता
है इतना सा
वाक्य किसी के
खयाल में ही न
आए, हो
सकता है इसे
पढ़ कर तुम कुछ
भी न समझो, तो
इसका एक मंदिर
भी बनाया है।
इसके
और हजार रूप
भी खोजे
थे--संगीत से
भी,
नृत्य से
भी--सब तरफ से।
सब माध्यम से
जिसको भी
ज्ञात हो गया
है, वह
कोशिश करेगा
तुम्हें खबर
देने की।
लेकिन फिर भी
जरूरी
नहीं...अगर
तुमने खबर को
ही पकड़ लिया, जैसे किसी
ने कहा कि ठीक
है, अगर
यही सत्य है
कि खजुराहो के
मंदिर में
बाहर काम है, अंदर राम है,
तो हम इसी
मंदिर में
ठहरे जाते हैं,
झंझट
छोड़ें। जब यही
सत्य है, और
सब सत्य इसमें
खोदा हुआ है, तो हम इसी
मंदिर के
पुजारी हुए
जाते हैं।
तो हो
जाओ तुम
पुजारी, चूक
गए तुम बात।
अगर तुम समझ
जाते तो इस
मंदिर से कुछ
लेना-देना ही
न था, बात
खतम हो गई थी।
अगर इशारा समझ
में आ गया था तो
इस मंदिर में
अब न भीतर था, न बाहर था
कुछ, अब
बात खतम हो गई
थी। अब तुम
कहते कि ठीक
है! और तुम
लोगों से कहते
कि देखना, मंदिर
में मत उलझ
जाना, मंदिर
से कुछ न
मिलेगा। और
अगर ध्यान रहा
कि मंदिर से
कुछ न मिलेगा
तो शायद खोजो
और मंदिर से
भी कुछ मिल
जाए।
तो
मेरी कोई
शत्रुता नहीं
है। शत्रुता
होने का सवाल
ही नहीं है। न
कोई निंदा है।
क्योंकि
निंदा करने का
क्या अर्थ हो
सकता है? जो
मैं कह रहा
हूं, फिर
कह रहा हूं।
तो कहे हुए की
निंदा करने का
क्या अर्थ हो
सकता है? जो
मैं कह रहा
हूं, वह
फिर लिखा
जाएगा। तो
लिखे हुए की
निंदा का क्या
अर्थ हो सकता
है? लेकिन
इतनी चेतावनी
जरूरी है कि न
निंदा करना, न प्रशंसा
करना--समझना।
समझा तो वह
मुक्ति की तरफ
ले जाता है।
कुछ और
इस संबंध में
हो तो बात कर
लो,
फिर रात अपन
अलग बात
करेंगे।
अ प्रश्न:
तीर्थंकरों
की सारी
मूर्तियों की
समानता की बात
जो है, तो
सिर्फ तीर्थंकरों
की क्यों, बुद्ध
और महावीर में
भी वही
मूर्तियों की
समानता और वही
रूप की समानता
है। वही
क्राइस्ट और
राम और कृष्ण,
सब में वही
समानता है।
लेकिन ये
अलग-अलग व्यक्ति
हुए। इनकी बात
छोड़ें, हम
केवल बुद्ध और
महावीर की बात
लें। दोनों
समकालीन थे।
दोनों में से
दोनों ने
क्यों नहीं
कहा कि जो मैं
हूं, वही
बुद्ध हैं, जो मेरा रूप
है, वही
बुद्ध का रूप
है? और
बुद्ध ने
क्यों नहीं
कहा कि जो मैं
हूं, वही
महावीर का रूप
है?
यह
बहुत
विचारणीय बात
है। चौबीस तीर्थंकरों
की मूर्तियां
एक जैसी हैं, तो
क्यों
क्राइस्ट की,
क्यों
बुद्ध की वैसी
नहीं? और न
हों--ठीक कहते
हैं आप--कम से
कम बुद्ध तो
महावीर के साथ
ही थे, एक
ही समय में थे,
इन दोनों की
मूर्तियां एक
जैसी हो सकती
थीं!
लेकिन
नहीं हैं, और
नहीं हो सकती
थीं। और कारण
हैं। और कारण ये
हैं कि यह जो
चौबीस तीर्थंकरों
की एक धारा है,
इस धारा ने
एक सोचने का
ढंग निर्मित
किया है, अभिव्यक्ति
की एक कोड लैंग्वेज
निर्मित की है
इस धारा ने।
और यह धारा
कोई तीर्थंकर
नहीं बनाते
हैं, यह
धारा तीर्थंकरों
के आस-पास
निर्मित होती
है। यह सहज
निर्मित होती
है। एक भाषा, एक ढंग, एक
प्रतीक की
व्यवस्था
निर्मित हुई
है। शब्दों की
परिभाषा और एक
ढंग निर्मित
हुआ है। और यह
ढंग कोई
तीर्थंकर
निर्मित नहीं
करते, उनके
होने से
निर्मित होता
है, उनकी
मौजूदगी से
निर्मित होता
है।
जैसे
कि सूरज
निकला। अब
सूरज कोई आपकी
बगिया के फूल निर्मित
नहीं करता है, लेकिन
सूरज की
मौजूदगी से
फूल खिलते हैं,
निर्मित
होते हैं।
सूरज न निकले,
तो आपकी
बगिया में फूल
नहीं
खिलेंगे। फिर
भी सूरज सीधा
जिम्मेवार
नहीं है आपके
फूल खिलाने को।
फिर
आपने अपनी
बगिया में एक
तरह के फूल
लगा रखे हैं
और मैंने अपनी
बगिया में
दूसरी तरह के, तो
मेरी बगिया
में दूसरी तरह
के फूल खिलते
हैं, आपकी
बगिया में
दूसरी तरह के।
और दोनों सूरज
से खिलते हैं,
और फिर भी
दोनों में भेद
होगा। और आपने
अपनी बगिया
में दस तरह के
फूल लगा रखे
हैं तो उनमें
भी भेद होगा।
तो
प्रत्येक
धारा में, जैसे
कि चौबीस तीर्थंकरों
की एक धारा है,
वह एक
प्रतीक
व्यवस्था में
वह धारा खड़ी
हुई है। तो
उसके अपने
प्रतीक हैं, अपने शब्द
हैं, अपनी
कोड लैंग्वेज
है। और वह
उसके आस-पास
जो एक वर्तुल
खड़ा हो गया है--उन
शब्दों, उन
प्रतीकों के
आस-पास--वह न
दूसरे प्रतीक
समझ सकता है, न पहचान सकता
है।
बुद्ध
की एक बिलकुल
नई परंपरा
शुरू हो रही
है,
जिसके सब
प्रतीक नए
हैं। और मैं
मानता हूं कि उसका
भी कारण है।
असल में
पुराने
प्रतीक एक सीमा
पर जाकर जड़ हो
जाते हैं और
हमेशा नए
प्रतीकों की
जरूरत पड़ती
है। और अगर
बुद्ध यह कह
दें कि जो मैं
कह रहा हूं, वही महावीर
कहते हैं, तो
जो फायदा
बुद्ध पहुंचा
सकते हैं, वह
कभी नहीं
पहुंचा
सकेंगे।
महावीर पर एक
धारा खतम हो
रही है और जड़प्राय
होकर नष्ट हो
रही है।
महावीर अंतिम
हैं--एक भाषा
के। और वह
भाषा जड़ हो गई
है और उखड़ गई
है, अब
उसकी गति चली
गई है, टूटने
के करीब हो गई
है। बुद्ध
बिलकुल एक नई
धारा के फिर
प्रारंभ हैं।
इस नई धारा को
पूरी चेष्टा
करनी पड़ेगी कि
वह कहे कि यह
महावीर वाली
तो है ही
नहीं। यानी
मजा यह है कि
पूरी तरह
जानते हुए कि
जो महावीर हैं,
वही बुद्ध
हैं, बुद्ध
को पूरे समय
जोर देना
पड़ेगा और
ज्यादा जोर
देना पड़ेगा कि
कहीं भूल-चूक
से भी यह उस
धारा से न जुड़
जाए। क्योंकि
वह जो मरती
हुई धारा हो
गई है, जिसका
वक्त पूरा हो
गया है, विदा
हो रही है, अगर
उससे यह भी
जुड़ गई तो यह
जन्म ही नहीं
ले पाएगी।
मेरा
आप मतलब समझ
रहे हैं न? मेरा
मतलब यह है, तो बुद्ध को
बहुत सचेत
होना पड़ेगा। इसलिए--खयाल
में आपको आ
जाए--महावीर
ने बुद्ध के खिलाफ
एक शब्द नहीं
कहा है। और
महावीर ने कभी
बुद्ध का कोई
खंडन नहीं
किया। लेकिन
बुद्ध ने बहुत
बार महावीर का
खंडन किया, और बहुत
शब्द कहे, और
बहुत कठोर
शब्द कहे।
और इसी
वजह से मैं
कहता हूं कि
महावीर बूढ़े
थे और बुद्ध
जवान थे, महावीर
विदा हो रहे
थे और बुद्ध आ
रहे थे। और बुद्ध
को एकदम जरूरी
था यह डिस्टिंक्शन
बनाना बिलकुल
साफ कि उस
व्यवस्था से
हमें कुछ
लेना-देना
नहीं, वह
बिलकुल गलत
है। क्योंकि लोकमानस
में वह विदा
होती
व्यवस्था हुई
जा रही है, और
अगर उससे कोई
भी संबंध जोड़ा
तो नई
व्यवस्था के जन्मने
में बाधा बनने
वाली है और
कुछ नहीं होने
वाला।
फिर और
भी बातें हैं।
चाहे कोई
व्यवस्था
विचार की, चिंतना
की, दर्शना की, कितनी
ही गहरी क्यों
न हो, वह
सिर्फ एक पर्टिकुलर
टाइप को, एक
विशेष तरह के
व्यक्तियों
को ही
प्रभावित करती
है। कोई ऐसी
व्यवस्था
नहीं है, जो
सब तरह के
व्यक्तियों
के काम आ सके।
अब तक नहीं है,
न हो सकती
है। यानी अब
तो यह पक्का
माना जा सकता
है, वह
नहीं हो सकती।
तो
महावीर के
व्यक्तित्व
को जो
प्रभावित करती
है बात--वह
पार्श्व वाली
बात उन्हें
प्रभावित
करती है, नेमी
वाली, आदिनाथ
वाली उनको
प्रभावित
करती है--वे
उसी टाइप के
व्यक्ति हैं।
और इस टाइप के
बनने में भी
अनंत जन्म
लगते हैं, एक
खास तरह के
व्यक्ति बनने
में, उनको
वह खास तरह की
धारा ही
प्रभावित कर
सकती है।
बुद्ध
बिलकुल भिन्न
तरह के
व्यक्ति हैं।
उनके
व्यक्तित्व
की अपनी
यात्रा है।
उन्हें उसमें
कुछ रस नहीं
मालूम होता।
लेकिन मैं
मानता हूं कि
बुद्ध की
चिंतना ने
बहुत से लोगों
को,
जो महावीर
से कभी कोई
लाभ नहीं ले
सकते थे, लाभ
दिया। और वे
बुद्ध से लाभ
ले सके।
लेकिन
बुद्ध और
महावीर की एक
है,
मीरा की
अपनी चिंतना
और अपनी धारा
है। अब महावीर
और मीरा का
व्यक्तित्व
बिलकुल उलटा
है। अगर
महावीर की
अकेली चिंतना
दुनिया में हो,
तो बहुत
थोड़े से लोग
ही सत्य के
अंतिम मार्ग तक
पहुंच
पाएंगे।
क्योंकि मीरा
के टाइप के
लोग वंचित रह
जाएंगे, उससे
उनका मेल ही
नहीं हो पाता।
उससे मेल ही नहीं
जुड़ता न
कहीं!
तो अनंत
धाराएं चलती
हैं इसलिए कि
अनंत प्रकार
के व्यक्ति
हैं। और
चेष्टा यह है
कि ऐसा एक भी
व्यक्ति न रह
जाए जिसके
योग्य और
जिसके अनुकूल
पड़ने वाली
धारा न मिल
सके। इसलिए
अनंत धाराएं
हैं और
रहेंगी। और
दुनिया जितनी
विकसित होती
जाएगी, उतनी
धाराएं
ज्यादा होती
जाएंगी।
धाराएं
ज्यादा होनी
चाहिए, क्योंकि
ऐसा कभी न
हो...जैसे समझ
लें कि महावीर
हैं, अब
महावीर की जो
जीवन-धारा है,
वह एकदम ही
जिसको हम कहें
पुरुष की है।
उसमें स्त्री
का उपाय ही
नहीं है, एकदम
पुरुष की है।
और पुरुष और
स्त्री के मनस
में बुनियादी
भेद है। जैसे,
स्त्री पैसिव
माइंड है।
स्त्री के पास
जो मन है, वह
निष्क्रिय मन
है। पुरुष के
पास जो मन है, वह एग्रेसिव
माइंड है, आक्रामक
मन है उसके
पास।
इसलिए
स्त्री अगर
किसी को प्रेम
भी करे तो आक्रमण
नहीं करेगी।
प्रेम भी करे, उसका
मन किसी के
पास जाने का
हो, तब भी
वह बैठ कर
उसकी प्रतीक्षा
करेगी कि वह
आए। यानी वह
किसी को प्रेम
भी करती है तो
जा नहीं सकती
उठ कर उसके
पास, वह
प्रतीक्षा
करेगी कि वह
आए। उसका पूरा
का पूरा माइंड
पैसिव
है। आप आएंगे
तो वह खुश
होगी, आप
नहीं आएंगे तो
दुखी होगी, लेकिन इनीशिएटिव
नहीं ले सकती
कि वह खुद आप
तक जाए।
अगर एक
स्त्री किसी
को प्रेम करती
है तो वह कभी
प्रस्ताव
नहीं करेगी कि
मुझे विवाह
करना है। वह
प्रतीक्षा
करेगी कि कब
तुम प्रस्ताव
करो। किसी
स्त्री ने कभी
प्रस्ताव
नहीं किया विवाह
का। हां, वह
प्रस्ताव के
लिए सारी
योजना करेगी,
प्रस्ताव
लेकिन
तुम्हीं करो,
प्रस्ताव
कभी वह नहीं
करने वाली है।
और प्रस्ताव किए
जाने पर भी
कोई स्त्री
कभी सीधा हां
नहीं भर सकती,
क्योंकि
हां भी
आक्रामक है।
और एकदम से
हां भरने से
पता चलता है
कि उसकी
तैयारी थी। तो
कभी एकदम हां
नहीं भरेगी।
वह न करेगी। न
को धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे
धीमा करेगी। न
को धीरे-धीरे
हां के करीब
ला पाएगी।
निगेटिव है
उसका माइंड जो
है। फिजियोलाजी
भी उसकी
निगेटिव है, पाजिटिव नहीं है।
इसलिए
स्त्रियां
कभी किसी
पुरुष पर
सेक्सुअल
हमला नहीं कर
सकतीं। कभी
हमला नहीं कर
सकतीं वे किसी
पुरुष पर।
क्योंकि
पुरुष अगर
राजी नहीं है, तो
स्त्री किसी
तरह का
काम-संबंध
उससे स्थापित
नहीं कर सकती।
लेकिन स्त्री
अगर राजी भी
नहीं है तो भी
पुरुष उसके
साथ संभोग कर
सकता है, व्यभिचार
कर सकता है।
क्योंकि वह है
निगेटिव, पुरुष
है पाजिटिव।
महावीर
की जो
जीवन-चिंतना
है,
वह एकदम
पुरुष की
जीवन-चिंतना
है। इसलिए महावीर
के मार्ग में
स्त्री को
मोक्ष जाने का
उपाय भी नहीं
है। अकारण
नहीं है वह
बात। इसका मतलब
यह नहीं है कि
स्त्री का
मोक्ष नहीं हो
सकता, इसका
मतलब सिर्फ
इतना है कि
महावीर के
मार्ग से नहीं
हो सकता।
महावीर के
मार्ग में
उपाय नहीं है।
इसलिए
महावीर के
मार्ग में तो
स्त्री को एक
बार और पुरुष
योनि लेनी पड़े, और
तब वह, तब
वह मोक्ष की
तरफ जा सकती
है। क्योंकि
महावीर की जो
व्यवस्था है,
वह संकल्प
की, विल की,
आक्रमण की,
बहुत गहरे
आक्रमण की
व्यवस्था है।
उस व्यवस्था
में कहीं
हारना, टूटना,
पराजित
होना, उसका
उपाय नहीं है।
महावीर
कहते हैं, जीतना
है तो जीतो।
और समग्र
शक्ति लगा कर जीतो। एक
इंच शक्ति
पीछे न रह
जाए।
और
लाओत्से कहता
है अपने एक
शिष्य
को...उसका शिष्य
एक पूछता है
कि आप कभी
हारे? लाओत्से
कहता है, मैं
कभी नहीं
हारा। तो उसका
शिष्य कहता है,
कभी तो हारे
होंगे जिंदगी
में किसी मौके
पर? लाओत्से
कहता है, बिलकुल
नहीं, कभी
मैं हारा ही
नहीं। तो उसका
सीक्रेट क्या
था? उसका
राज क्या था?
लाओत्से
कहता है, राज
यह था कि मैं
सदा हारा हुआ
ही था। इसलिए
मेरे हारने का
कोई उपाय न
था। मैं पहले
से ही हारा
हुआ था। अगर
कोई मेरी छाती
पर चढ़ने
आता तो मैं
जल्दी से लेट
जाता, उसको
बिठा लेता। वह
समझता कि मैं
जीत गया और मैं
समझता कि खेल
हुआ, क्योंकि
हम पहले से ही
हारे हुए थे।
जीते क्या
तुम! तो मुझे
कोई हरा ही
नहीं सकता है,
क्योंकि
मैं सदा हारा
हुआ हूं।
अब यह
जो लाओत्से है, यह
स्त्री के
मार्ग का
अग्रणी व्यक्ति
है। यह हराने
नहीं जाएगी।
यह पूरी तरह हार
जाएगी और आपको
मुश्किल में
डाल देगी। स्त्री
किसी को हराने
नहीं जाएगी।
और हराने गई
कि मुश्किल
में पड़ जाएगी।
वह पूरी तरह
हार जाएगी, वह टोटल सरेंडर
कर देगी, वह
कहेगी, मैं
तुम्हारी
दासी हूं, तुम्हारे
चरणों की धूल।
और तुम हैरान
हो जाओगे, कब
वह तुम्हारे
सिर पर बैठ गई,
तुम्हें
पता नहीं
चलेगा।
उसके
जीतने का
रास्ता हार
जाना है--पूरी
तरह हार जाना, संपूर्ण
समर्पण। और जो
स्त्री
संपूर्ण समर्पण
नहीं कर पाती,
वह कभी नहीं
जीत पाएगी। वह
जीत ही नहीं
सकती।
इसलिए
इस युग में स्त्रियां
दुखी होती चली
जाती हैं, क्योंकि
उनका समर्पण
खतम हुआ जा
रहा है। और वे
भूल कर रही
हैं। वे सोच
रही हैं कि
पुरुष के जैसा
हम भी करें।
वे उसमें हार
जाने वाली
हैं। पुरुष का
करना और ढंग
का है। पुरुष
के जीतने का मतलब
है जीतना।
पुरुष के
जीतने का मतलब
है जीतना, स्त्री
के जीतने का
मतलब है
हारना। उनका
पूरा का पूरा
मनस भिन्न है।
इसलिए
जो स्त्री
जीतने की
कोशिश करेगी, वह
हार जाएगी। वह
कभी नहीं जीत
पाएगी, उसका
जीवन नष्ट हो
जाएगा।
क्योंकि वह
पुरुष-कोशिश
में लगी है जो
कि उसके
व्यक्तित्व
की संभावना ही
नहीं है। और
इसलिए पश्चिम
में
स्त्रियां
बुरी तरह हार
रही हैं, क्योंकि
वे पुरुष को
जीतने की
कोशिश में लगी
हैं। वह बात
ही उन्होंने
छोड़ दी है कि
हम समर्पण
करेंगे, हम
जीतेंगे।
पुरुष को
जीतने का एक
ही उपाय था कि
हार जाओ। इस
तरह मिट जाओ
कि पता ही न
रहे कि तुम
हो--और तुम
पुरुष को जीत
लो। पुरुष बच
ही नहीं सकता
फिर, तुमसे
जीत ही नहीं
सकता।
लाओत्से
कहता है, हम
पहले से ही
हारे हुए थे, इसलिए हमें
कभी कोई हरा
नहीं सका। अब
लाओत्से और
महावीर का
मार्ग बिलकुल
उलटा है। एकदम
ही उलटा है, इसमें कोई
मेल ही नहीं
है। तो
लाओत्से का
मार्ग उन
लोगों के लिए
उपयोगी है जो
हारने में
समर्थ हैं, और महावीर
का मार्ग उनके
लिए उपयोगी है
जो जीतने में
समर्थ हैं। जो
सिर्फ जीत ही
सकते हैं।
इसीलिए
महावीर शब्द
उनको मिल गया, महावीर
शब्द मिलने का
और कोई कारण
नहीं है। लड़ने
की, आक्रमण
की जो चरम
क्षमता है, उससे वे
महावीर कहलाए,
और कोई कारण
नहीं है। यानी
वहां गुंजाइश
ही नहीं छोड़ी
उन्होंने
किसी तरह के
भय की, किसी
तरह के समर्पण
की। इसलिए
महावीर
परमात्मा को
इनकार करते
हैं--भगवान
को। उसकी वजह
यह है कि अगर
भगवान है तो
समर्पण करना
पड़ेगा। हमसे
ऊपर कोई है।
यह महावीर
नहीं मान सकते
कि हमसे ऊपर
कोई है। पुरुष
यह मान ही
नहीं सकता। वह
जो पुरुष का
चित्त है पूरा,
कि उससे ऊपर
कोई है, यह
असंभव है।
तो
महावीर भगवान
को इनकार...यह फिलॉसाफिक
नहीं है
मामला। यह कोई
दर्शन-शास्त्र
का मामला नहीं
है कि महावीर
इनकार करते
हैं कि कोई परमात्मा
नहीं है। तुम ही
परमात्मा हो, मैं
ही परमात्मा
हूं, आत्मा
ही शुद्ध होकर
परमात्मा हो
जाती है। यानी
आत्मा ही जब
पूर्ण रूप से
जीत लेती है
तो परमात्मा
हो जाती है।
ऐसा कोई
परमात्मा
कहीं नहीं है
जिसके पैर में
तुम सिर झुकाओ,
जिसकी तुम
प्रार्थना
करो।
परमात्मा को
इनकार कर देते
हैं बिलकुल, क्योंकि
परमात्मा है
तो समर्पण
करना पड़ेगा, परमात्मा है
तो भक्ति करनी
पड़ेगी, इसलिए
परमात्मा का
बिलकुल इनकार
है।
लाओत्से
अपने को इनकार
करता है।
लाओत्से कहता
है: मैं हूं ही
नहीं, वही है।
क्योंकि मैं
अगर थोड़ा सा
भी बचा, तो
हमला जारी
रहेगा, तो
लड़ाई जारी
रहेगी, अगर
मैं जरा इंच
भर भी मैं हूं,
तो वह मैं
लड़ेगा। इसलिए
वह कहता है, लाओत्से
कहता है, मैं
हूं ही नहीं।
मैं एक सूखा
पत्ता हूं। जब
हवाएं
मुझे पूरब ले
जाती हैं तो
मैं पूरब चला
जाता हूं; जब
हवाएं
मुझे पश्चिम
ले जाती हैं, मैं पश्चिम
चला जाता हूं।
मैं एक सूखा
पत्ता हूं। जब
हवाएं
नीचे गिरा
देती हैं, गिर
जाता हूं; जब
हवाएं
ऊपर उठा लेती
हैं, उठ
जाता हूं।
क्योंकि मैं
हूं ही नहीं; हवाओं की जो
मर्जी, वह
मेरी मर्जी
है। इतना सूखे
पत्ते की तरह
मैं नहीं हूं
तो उसके लिए
परमात्मा ही
रह जाता है।
और ये
दोनों रास्ते
एक ही जगह
पहुंचा देते
हैं,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। या तो
मैं पूरी तरह मिट
जाऊं, तो
एक ही बच
गया--परमात्मा;
या
परमात्मा को
पूरी तरह मिटा
दूं, तो एक
ही बच
गया--मैं। बस
एक ही बच जाना
चाहिए आखिर
में। दो रहेगा
तो उपद्रव है,
असत्य है, एक ही बच
जाए।
और एक
के बचाने के
दो उपाय हैं।
पुरुष एक ढंग
से बचता है एक, कि
वह स्त्री को
मिटा देता है,
अपने में
लीन कर लेता
है। स्त्री भी
एक को बचा लेती
है, वह
अपने को मिटा
देती है और
पूरी तरह डूब
जाती है। और
इसमें जो सवाल
है, वह
किसी के
नीचे-ऊंचे
होने का नहीं
है, सवाल
टाइप ऑफ माइंड
का, वह जो
हमारे
मस्तिष्क का
टाइप है, उसका
है।
तो
महावीर का एक
है मार्ग, एक
है ढंग। बुद्ध
का ढंग दूसरा
है। तो बुद्ध
की एक नई भाषा
खड़ी हो रही है
अब, नए
प्रतीक खड़े हो
रहे हैं। और
बुद्ध को
समझना है तो
उन्हीं
प्रतीकों से
समझना होगा।
बुद्ध की एक
नई मूर्ति
निर्मित हो
रही है।
क्राइस्ट
का बिलकुल और
है,
तीसरा है।
क्राइस्ट
जैसा तो कोई
आदमी नहीं है इनमें
फिर।
क्राइस्ट तो
बिना सूली पर
चढ़े हुए सार्थक
ही नहीं हैं।
और अगर महावीर
सूली पर चढ़ें
तो हमारे लिए
व्यर्थ हो
जाएं। जो
महावीर को एक
धारा में
सोचते हैं, उनके लिए
बिलकुल व्यर्थ
हो जाएं।
लेकिन
क्राइस्ट
बिना सूली पर चढ़े
अर्थ ही नहीं
पाता है।
क्राइस्ट का
और तरह का
व्यक्तित्व
है। कृष्ण का
और ही तरह का
व्यक्तित्व
है, जिसका
कोई हिसाब ही
नहीं। हम
कल्पना ही
नहीं कर सकते
कि कृष्ण और
महावीर में
कैसे मेल बिठाओ।
कोई मेल नहीं
हो सकता। और
ये सब सार्थक
हैं। सब
सार्थक इस
अर्थों में हैं
कि पता नहीं
आपके लिए कौन
सा
व्यक्तित्व ज्योति
की अनुभूति
आपको कराए, किस
व्यक्तित्व
में आपको
दिखे। आपको
उसमें ही
दिखेगी, जो
व्यक्तित्व
का आपका टाइप
होगा, नहीं
तो आपको नहीं
दिखेगी।
इसलिए
मैं मानता हूं
कि यह बड़ा
उचित है कि ये
सब
भिन्न-भिन्न
टाइप हैं, ये
भिन्न-भिन्न
तरह के लोग
हैं। इन
भिन्न-भिन्न ज्योतियों
से
भिन्न-भिन्न
तरह के लोगों
को दर्शन हो
सकते हैं। और
हो सकता है, अभी भी बहुत
संभावनाएं
शेष हैं। और
हो सकता है उन
संभावनाओं के
शेष होने की
वजह से बहुत
बड़ी मनुष्य-जाति
अब तक धार्मिक
नहीं हो पाती।
उसका कारण यह
है कि उसकी
टाइप का आदमी
अब तक ज्योति
को उपलब्ध
नहीं हुआ।
मेरा
आप मतलब समझ
रहे हैं न? यानी
जिसको वह समझ
सकता था, वह
आदमी अभी
पहुंचा ही
नहीं उस जगह, जहां से
उसको ज्योति
दिखाई पड़ जाए।
तो
इसलिए भिन्न
होगा। सच एक, जिसको
सारे के
बीच...जैसा कि
मेरी जो
दृष्टि है, मेरा अपना
प्रयोग रहा।
और मैं नहीं
समझता कि किसी
ने वैसा
प्रयोग कभी
किया। मेरा
प्रयोग यह रहा
कि मैं अपने
व्यक्तित्व
का टाइप मिटा
दूं। मेरा
प्रयोग यह रहा
कि मैं सिर्फ
व्यक्ति रह
जाऊं, अत्यंत
इम्पर्सनल,
जिसका कोई
टाइप नहीं है।
जैसे
कि इस मकान
में दो खिड़कियां
हैं। इस तरफ
से हम देखेंगे
तो एक दृश्य
दिखाई पड़ता है; उस
खिड़की से
देखते हैं, दूसरा दृश्य
दिखाई पड़ता
है। और दोनों
दृश्य एक ही
बड़े दृश्य के
हिस्से हैं।
और जिसको मैं
इस खिड़की की
बात कहूं और
वह उस खिड़की
पर खड़ा हो, तो
वह कहे, सब
झूठ है, सरासर
झूठ है--कैसी
झील? कहां
की झील? कुछ
नहीं है, सब
झूठ बात। मैं
भी खिड़की पर
खड़ा हूं। मैं
भी बाहर देख
रहा हूं, झील
नहीं है--पहाड़
है। और मैं
कहूं कि कैसा
पहाड़? झील
के अतिरिक्त
यहां कुछ नहीं
दिखाई पड़ता!
और हम लड़ते
रहें, क्योंकि
दूसरे की
खिड़की पर जाना
बहुत मुश्किल
है। दूसरे की
खिड़की पर जाना
बहुत मुश्किल
है, क्योंकि
दूसरे की
खिड़की पर जाना
मतलब दूसरे हो
जाना, और
कोई उपाय
नहीं। सारा का
सारा
व्यक्तित्व दूसरे
जैसा हो जाए
तो उसकी खिड़की
पर आप खड़े हो सकते
हैं; वह हो
नहीं सकता, वह बहुत
मुश्किल
मामला है।
हजार खिड़कियां
हैं जीवन के
भवन में, जो
खिड़की करीब पड़
रही है जिसके
व्यक्तित्व
के, वह उस
खिड़की पर जाकर
ही दर्शन कर
सकता है।
लेकिन
एक और रास्ता
भी है कि हम
मकान के बाहर
ही क्यों न आ
जाएं! दूसरे
की खिड़की पर
जाना तो बहुत
मुश्किल है, लेकिन
मकान के बाहर
आ जाना
मुश्किल नहीं
है। और मेरा
मानना है, मकान
के बाहर आ
जाना सब तरह
की खिड़की पर
खड़े लोगों के
लिए एक सा ही
आसान है--मकान
के बाहर आ जाना।
अगर खिड़की को
हम पकड़ते
हैं तो दूसरे
की खिड़की के
हम दुश्मन हो
जाते हैं। हो
ही जाएंगे। और
अगर हम मकान
के बाहर आ जाते
हैं तो हमें
पता लगता है
कि उस मकान के
भीतर जितनी खिड़कियां
हैं, वे सब
एक ही दृश्य
को दिखला रही
हैं।
दृश्य
बहुत बड़ा है, खिड़कियां बहुत छोटी
हैं। खिड़कियों
से जो दिखाई
पड़ता है वह
पूरा नहीं है।
अब अगर कभी भी
कोई व्यक्ति
बाहर आ जाए
सारी
दृष्टियों को,
सारे नय को
छोड़ कर, तो
उसे दिखाई
पड़ता है कि
कृष्ण एक
खिड़की हैं, राम एक
खिड़की हैं, बुद्ध एक
खिड़की हैं, महावीर एक
खिड़की
हैं--लेकिन खिड़कियां
ही हैं।
महावीर
उन खिड़कियों
से छलांग लगा
गए हैं बाहर, लेकिन
खिड़की रह गई, और उनके
पीछे आने वाले
खिड़कियों
पर खड़े रह गए
हैं। महावीर
पहुंच गए बाहर,
लेकिन
खिड़की से गए
बाहर। तो
महावीर तो
निकल गए, खिड़की
के पीछे जो
उनके साथ आए
थे, वे
खिड़की पर खड़े
रह गए हैं। और
वे कहते हैं, जिस खिड़की
से महावीर गए
हैं, वही
सत्य है।
एक
बुद्ध वाली
खिड़की है, वहां
भी लोग सत्य
हैं।
और अब
दुनिया में
संभावना इस
बात की हो गई
है पैदा कि अब
हम मनुष्य को
द्वार से बाहर
ले जा सकते हैं--खिड़कियों
के ही बाहर ले
जा सकते हैं।
और वहां से जो
हमें दिखाई
पड़ेगा, उसमें
हमें सब एक से
मालूम पड़ेंगे,
क्योंकि हम
खिड़की के बाहर
खड़े होकर
देखेंगे।
तो
मुझे तो बुद्ध
और महावीर में
कोई फर्क नहीं
दिखाई
पड़ता--रत्ती
भर भी। लेकिन
मकान के बाहर
खड़े हों तो ही, और
नहीं तो फर्क
बड़ा है, क्योंकि
फर्क खिड़की से
निर्मित होता
है जिससे वे कूदे। वह
खिड़की हमारी
नजर में रह गई,
वह बिलकुल
अलग है।
महावीर
का एक ढंग
है--अत्यंत
संकल्प का, इंटेंस
विल का। यानी
महावीर कहते
यह हैं कि अगर
किसी भी चीज
में पूर्ण
संकल्प हो गया
है तो उपलब्धि
हो जाएगी।
बुद्ध की
बिलकुल और ही
बात है। बुद्ध
कहते हैं कि
संकल्प तो
संघर्ष है, संघर्ष से
कैसे सत्य
मिलेगा? संकल्प
छोड़ दो, शांत
हो जाओ।
संकल्प ही मत
करो, तो उस
शांति में ही
मिलेगा। यह भी
ठीक है। यह भी
एक खिड़की है, ऐसे भी मिल
सकता है। और
महावीर भी
कहते हैं, वह
भी ठीक है, वैसे
भी मिल सकता
है।
तो इस
पर हम विचार
करें कि ये
अलग-अलग
मूर्तियां जो
बनीं, अलग
मंदिर बने, मस्जिदें खड़ी हुईं, इनके
अलग-अलग
प्रतीक हुए, अलग भाषा
बनी, अलग
कोड बनी, वह
बिलकुल
स्वाभाविक
थी। और फिर भी
कोई अलग नहीं
है। यानी कभी
न कभी एक
मंदिर दुनिया
में बन सकता
है, जिसमें
हम क्राइस्ट
की, बुद्ध
की, महावीर
की एक सी
मूर्तियां
ढालें। इसमें
कोई कठिनाई
नहीं। लेकिन
बड़ी कठिनाई वह
कि आप अगर महावीर
को प्रेम करते
हैं, तो आप
क्राइस्ट की
मूर्ति के साथ
क्या करेंगे?
आप महावीर
जैसी ढाल
देंगे। तब फिर
बात गड़बड़ हो
गई। अगर
क्राइस्ट को
प्रेम करने
वाला आदमी महावीर
की मूर्ति ढालेगा
तो सूली पर
लटका देगा, क्योंकि अभी
वह कोड और वह लैंग्वेज
पैदा नहीं हो
सकी, जो
सारी
मूर्तियों
में काम आ सके।
लेकिन वह भी
हो सकता है, वह भी हो
सकता है।
बहुत
दिन तक बुद्ध
के मरने के
बाद बुद्ध की
मूर्ति नहीं
बनी,
क्योंकि
बुद्ध इनकार
किए हैं कि
मूर्ति बनाना
मत। और मूर्ति
की जगह सिर्फ
प्रतीक चला
बोधिवृक्ष का,
तो बुद्ध की
मूर्ति बनानी
होती तो
बोधिवृक्ष बना
देते। वह
वृक्ष ही
प्रतीक था।
धीरे-धीरे
वृक्ष के नीचे
बुद्ध का आगमन
हुआ, बहुत
धीरे-धीरे
आगमन हुआ। कोई
मरने के
चार-छह सौ, सात
सौ, आठ सौ
वर्ष बाद।
धीरे-धीरे
अकेला वृक्ष
प्रतीक रखना
मुश्किल हो
गया, और
बुद्ध की
मूर्ति वापस आ
गई।
अगर हम
झांकना चाहें
सबके भीतर, समान
के लिए, तो
हमें मूर्ति
मिटा ही देनी
पड़े। फिर हमें
एक नया कोड
विकसित करना
पड़े। जैसे
मोहम्मद की कोई
मूर्ति नहीं
है। और उस कोड
के विकास करने
में एक प्रयोग
है वह। और
हिम्मत की है।
बुद्ध की मूर्ति
नहीं थी, लेकिन
पांच-छह-सात
सौ साल में
हिम्मत टूट गई
और मूर्ति आ
गई। मुसलमान
ने बड़ी हिम्मत
जाहिर की है, चौदह सौ साल
हो गए, मूर्ति
को प्रवेश
नहीं करने
दिया है। खाली
जगह छोड़ी
है।
बहुत
मुश्किल है, बहुत
आसान नहीं है।
मन मूर्ति के
लिए लालायित होता
है। मन कहता
है कि कोई रूप?
कैसे थे? मन की इच्छा
होती है कोई
रूप बने। बहुत
रूप बना कर
लोगों ने देख
लिए।
कुछ
लोग हैं, जिनके
लिए सब रूपों
में भूल दिखाई
पड़ेगी, तो
उन्होंने रूप
हटा कर भी देख
लिया। रूप
नहीं रखा, मोहम्मद
को विदा ही कर
दिया। मस्जिद
खाली रह गई।
वह भी कुछ
लोगों के
व्यक्तित्व
की दिशा वही
हो सकती है।
बहुत मंदिर, बहुत मस्जिद
बन गए, कुछ
लोगों ने
मंदिर-मस्जिद
को भी विदा
करके देख लिया,
तीर्थों को
भी विदा करके
देख लिया।
सब तरह
के लोग हैं इस
पृथ्वी
पर--अनंत तरह
के लोग हैं, अनंत
तरह की उनकी
इच्छाएं, अनंत
तरह की उनकी
व्यवस्थाएं।
और सबके लिए
समुचित मार्ग
मिल सके, इसलिए
उचित ही है कि
यह भेद रहे।
लेकिन एक वक्त
आएगा, जैसे-जैसे
मनुष्यता
ज्यादा
विकसित होगी,
वैसे-वैसे
हम खिड़की का
आग्रह छोड़
देंगे, व्यक्ति
का आग्रह छोड़
देंगे।
यह
पहले भी
मुश्किल पड़ा
होगा, इतना
आसान नहीं है
यह। इसलिए
हमने प्रतीक
थोड़े से बचा
लिए। चौबीस
तीर्थंकर हैं
जैनों के। अच्छा
तो यह होता कि
प्रतीक भी न
रहते, लेकिन
मन ने थोड़ा सा
इंतजाम किया
होगा कि एकदम
कैसे एक कर
दें, तो
थोड़ा सा तो
चिह्न रखो कि
ये कौन हैं? ये कौन हैं? थोड़ा सा
चिह्न बना लो।
उतने में ही
भेद हो गया, उतने में ही
भेद हो गया।
तो
पार्श्व का
मंदिर अलग
बनता है, महावीर
का मंदिर भी
अलग बनता है।
उतने से चिह्न
ने भी भेद ला
दिया। वह
चिह्न भी विदा
कर देने की
जरूरत है।
लेकिन मन
मनुष्य का
बदले, तभी।
उसके पहले
नहीं हो सकता
है।
तो आप
ठीक पूछते हैं, जो
अनुभव हुआ है,
वह तो एक ही
है। लेकिन उस
अनुभव को कहा
गया अलग-अलग
शब्दों में।
अब जैसे
महावीर हैं।
महावीर कहते
हैं,
आत्मा को
पाना परम
ज्ञान है।
इससे ऊंचा कोई
ज्ञान नहीं।
और बुद्ध वहीं
उसी समय में, उसी क्षेत्र
में मौजूद, कहते हैं, आत्मा को
मानने से बड़ा
अज्ञान नहीं
है। और दोनों
ठीक कहते हैं।
और मैं जानता
हूं कि न
महावीर इसके
लिए राजी हो
सकते हैं
बुद्ध से और न
बुद्ध इसके
लिए महावीर से
राजी हो सकते
हैं। और दोनों
जानते हैं
भलीभांति कि
कोई भेद नहीं
है।
आप
मेरा मतलब समझ
रहे हैं? आप
मेरा मतलब समझ
रहे हैं, और
दोनों राजी
नहीं हो सकते
हैं। और दोनों
जानते हैं
भलीभांति कि
भेद नहीं है।
हम पर करुणा के
कारण राजी
नहीं हो सकते
हैं। राजी हुए
कि हमारे लिए
व्यर्थ हो
जाएंगे।
महावीर
इसीलिए बहुत
बड़े व्यापक
वर्ग को प्रभावित
नहीं कर सके, जितना
बुद्ध ने इतने
बड़े व्यापक
वर्ग को प्रभावित
किया। और उसका
कारण है कि
महावीर के पास
जो प्रतीक थे,
वे अतीत के
थे और बुद्ध
के पास जो
प्रतीक हैं वे
भविष्य के
हैं। यानी
महावीर के पास
जो प्रतीक थे
उसके पीछे
तेईस तीर्थंकरों
की धारा थी।
प्रतीक पिट
चुके थे।
प्रतीक
प्रचलित हो
चुके थे।
प्रतीक परिचित
हो गए थे।
इसलिए
महावीर का
बहुत
क्रांतिकारी
व्यक्तित्व
भी
क्रांतिकारी
नहीं मालूम पड़
सका,
क्योंकि
प्रतीक जो
उन्होंने
प्रयोग किए, वे पीछे से
आते थे। और
बुद्ध का उतना
क्रांतिकारी
व्यक्तित्व
नहीं है जितना
महावीर का, वह ज्यादा
क्रांतिकारी
मालूम हो सका,
प्रतीक
भविष्य के
हैं।
यानी
बहुत फर्क
पड़ता है। लैंग्वेज
जो बुद्ध ने
चुनी है, वह
भविष्य की है।
सच तो यह है कि
अभी बुद्ध का
प्रभाव और
बढ़ेगा। आने
वाले सौ
वर्षों में
बुद्ध के
प्रभाव के
निरंतर बढ़ जाने
की
भविष्यवाणी
की जा सकती
है। क्योंकि बुद्ध
ने जो प्रतीक
चुने थे, वे
आने वाले सौ
वर्षों में
मनुष्य के और
निकट आ जाने
वाले हैं, एकदम
निकट आ जाने
वाले हैं।
यानी
मनुष्यता अभी
भी उन
प्रतीकों से, जिसको
कहना चाहिए
प्रतीक अभी भी
पूरी तरह एग्झास्ट
नहीं हो गए, बल्कि करीब
आ रहे हैं। वे
बहुत करीब आते
जा रहे हैं।
इसलिए पश्चिम
में इस समय
बुद्ध का सर्वाधिक
प्रभाव है, एकदम बढ़ता
जा रहा है।
क्राइस्ट...।
अ प्रश्न:
वे
क्या प्रतीक हैं?
बुद्ध
ने सारे
प्रतीक नए
चुने, सारी
भाषा नई चुनी।
जैसे, जैसे
कि महावीर ने
आत्मा की बात
की, बुद्ध
ने आत्मा को
इनकार कर
दिया। बुद्ध
ने कहा, आत्मा
वगैरह कोई भी
नहीं। महावीर
ने इनकार किया
परमात्मा
को--परमात्मा
नहीं है, मैं
ही हूं। बुद्ध
ने परमात्मा
की बात ही
नहीं की, इनकार
करने योग्य भी
नहीं माना।
समझते हैं न? इनकार करने
योग्य भी नहीं
माना। बात ही
फिजूल है।
चर्चा के
योग्य भी नहीं
है। और मैं
हूं, इसको
भी इनकार कर
दिया। और कहा
कि जो अपने
मैं के पूर्ण
इनकार को
उपलब्ध हो
जाता है, उसका
निर्वाण हो
जाता है।
यह जो आने
वाली सदी है, धीरे-धीरे
उस जगह पहुंच
रही है, जहां
व्यक्ति
अनुभव कर रहा
है कि व्यक्ति
होना भी एक
बोझ है, इसको
भी विदा हो
जाना चाहिए, इसकी भी कोई
आवश्यकता
नहीं है। ईगो,
अहंकार भी
एक बोझ है, इसे
भी विदा हो
जाना चाहिए।
फिर
महावीर ने जो
भी व्यवस्था
दी उसमें मोक्ष
पाने का खयाल
है--कि मोक्ष
मिल जाए। उसमें
एक उद्देश्य
है,
एक लक्ष्य
है--ऐसा मालूम
पड़ता है। जो
प्रतीक उन्होंने
चुने उनकी वजह
से ऐसा मालूम
पड़ता है कि
मोक्ष एक
लक्ष्य है, उसके लिए
साधना करो, तपश्चर्या
करो, तो
मोक्ष
मिलेगा।
बुद्ध ने कहा
कि कोई लक्ष्य
नहीं है, क्योंकि
जब तक लक्ष्य
की भाषा है, तब तक डिजायर
है, वासना
है, तृष्णा
है। तो लक्ष्य
की बात ही मत
करो। लक्ष्य
की बात मत करो,
उसका मतलब
यह हुआ कि अभी जीओ, इसी
क्षण में जीओ,
कल की बात
ही मत करो।
तो
दुनिया, पुरानी
दुनिया गरीब
दुनिया थी, और गरीब
दुनिया कभी भी
क्षण में नहीं
जी सकती है।
गरीब दुनिया
को हमेशा
भविष्य में
जीना पड़ता है।
क्योंकि किसी
गरीब आदमी से
कहो, आज ही जीओ, तो
वह कहेगा, क्या
आप कहते हैं!
कल का क्या
होगा?
लेकिन
दुनिया बदल गई, एफ्लुएंट दुनिया
पैदा हो गई, समृद्ध
दुनिया पैदा
हो गई। अमरीका
में पहली दफा
धन इस बुरी
तरह बरस पड़ा
है कि अब कल का
कोई सवाल
नहीं। तो
बुद्ध की यह
बात कि आज ही जीओ, इसी
क्षण जीओ,
पहली दफे
सार्थक हो
जाएगी। अब
यानी, पहली
दफा कल की
चिंता करने की
जरूरत नहीं
है। कल का कोई
मतलब ही नहीं
है--आएगा आएगा,
नहीं आएगा
नहीं आएगा।
गरीब
दुनिया जो है, वह
स्वर्ग बनाती
है आगे, वे तृप्तियां
हैं। यहां तो
सुख मिलता
नहीं, तो
आदमी सोचता है
मरने के बाद।
समृद्ध
दुनिया जो है,
वह स्वर्ग
आगे क्यों
बनाए? वह
आज ही बना
लेती है, इसी
वक्त बना लेती
है।
हिंदुस्तान
का स्वर्ग भविष्य
में होता है, अमरीका का
स्वर्ग अभी है
और यहीं है।
उसी से हमेंर्
ईष्या होती है
भौतिकवादी
से। वहर्
ईष्या का भी
कारण है कुछ
इसमें। इसलिए
हम गाली देते
हैं,
निंदा करते
हैं, वह भी
कारण है कि
उसका स्वर्ग
अभी बना जा
रहा है, हमारा
स्वर्ग मरने
के बाद है।
पक्का अभी
भरोसा भी नहीं,
मरने के बाद
होगा कि नहीं
होगा।
तो
बुद्ध ने जो
संदेश दिया, वह
बिलकुल
तात्कालिक
जीने का है, इस क्षण
जीने का है।
महावीर का जो
संदेश है, मैंने
कहा कि संकल्प
का है। संकल्प
टेंशन से चलता
है, तनाव
से चलता है।
उसकी हम धीरे
से बात करेंगे
कि तनाव
संकल्प कैसे
ले जाता है।
संकल्प की जो
प्रक्रिया है,
वह तनाव की
प्रक्रिया
है--परम तनाव
की। और मजे की
बात यह है कि
सब चीजें अगर
उनकी पूर्णता
तक ले जाई
जाएं तो अपने
से विपरीत में
बदल जाती हैं,
यह नियम है।
अगर आप तनाव
को उसकी
एक्सट्रीम पर
ले जाएं, तो
विश्राम शुरू
हो जाता है।
जैसे कि मैं
इस मुट्ठी को बांधूं, और पूरी
ताकत लगा दूं
बांधने में, फिर मेरे
पास ताकत ही न
बचे, तो
मुट्ठी खुल
जाएगी।
क्योंकि जब
मेरे पास ताकत
नहीं बचेगी, सारी ताकत
बांधने में लग
जाएगी और आगे
ताकत नहीं
मिलेगी
बांधने को, तो क्या
होगा? मुट्ठी
खुल जाएगी। और
मैं मुट्ठी को
खुलते
देखूंगा और
बांध भी नहीं
सकूंगा, क्योंकि
सारी ताकत तो
मैं लगा चुका
हूं। हां, धीरे
से मुट्ठी को
बांधें तो खुल
नहीं सकती मुट्ठी
अपने आप, क्योंकि
ताकत मेरे पास
सदा शेष है, जिससे मैं
उसको बांधे
रहूंगा।
इसलिए
महावीर कहते
हैं,
संकल्प
पूर्ण--पूर्ण
संकल्प कर दो।
इतना तनाव
पैदा होगा, इतना तनाव
पैदा होगा कि
तनाव की आखिरी
गति आ जाएगी।
और तनाव की
आखिरी गति के
बाद तनाव
शिथिल हो जाता
है। तो ले
जाते हैं वे
भी विश्राम
में, लेकिन
उनका मार्ग है
पूर्ण तनाव
से।
और
बुद्ध कहते
हैं कि तनाव? तो
तनाव तो कष्टपूर्ण
होगा। तो
जितना तनाव है,
वह भी छोड़
दो। अब यह ऐसा
हुआ कि समझ
लीजिए कि बीच
में हम खड़े
हैं, आधे
तनाव में।
महावीर कहते
हैं, पूर्ण
तनाव, ताकि
तनाव से तुम
बाहर निकल
जाओ। बुद्ध
कहते हैं, जितना
है, इससे
भी पीछे लौट
आओ, तनाव
ही छोड़ दो। तो
भी विश्राम आ
जाता है।
तो
महावीर की
भाषा अब इस
सदी में समझ
में आना
मुश्किल पड़ जाएगी, क्योंकि
कोई तनाव पसंद
नहीं करता, तनाव वैसे
ही बहुत
ज्यादा है।
आदमी इतना तना
हुआ है, इसलिए
मैं कह रहा
हूं कि फ्यूचर
की जो लैंग्वेज
है, वह
बुद्ध के पास
है। इसलिए
पश्चिम में
कोई महावीर की
बात नहीं
मानेगा कि और
संकल्प करो, और
तपश्चर्या
करो। वह कहेगा,
हम मरे जा
रहे हैं वैसे
ही। अब हम पर
कृपा करो, हमको
कोई
विश्रांति
चाहिए। तो
बुद्ध कहते हैं,
विश्रांति
का यह रहा
रास्ता कि
जितना तनाव है,
यह भी छोड़
दो, टोटल
रिलैक्स हो
जाओ। यह
जंचेगा, क्योंकि
तनाव से भरा
हुआ आदमी है।
जंचेगा यह।
महावीर
के पहले के
तेईस तीर्थंकरों
के लंबे काल
में प्रकृति
के परम
विश्राम में आदमी
जी रहा था, कोई
तनाव न था, विश्राम
ही था जिंदगी।
उस विश्राम
में महावीर की
भाषा सार्थक
बन गई, क्योंकि
विश्राम की
बात सार्थक
होती ही नहीं उस
दुनिया में।
उस दुनिया में
आदमी से
विश्राम के
लिए कहना
बिलकुल फिजूल था।
जैसे
बंबई के आदमी
को आप कहिए कि
चलो डल झील पर, बड़ी
शांति है, तो
उसको समझ में
आता है। और डल
झील के पास एक
गरीब आदमी
अपनी बकरियां
चरा रहा है, उससे कहो कि
तुम कितनी परम
शांति में हो।
वह कहता है, कभी बंबई के
दर्शन करने का
मन होता है।
उसके मन में
बंबई बसी है, कभी बंबई वह
जाए।
स्वाभाविक, जो जहां है, वहां से
भिन्न जाना
चाहता है।
तो
सारा जगत था
प्रकृति की
बिलकुल गोद
में बसा हुआ--न
कोई तनाव था, न
कोई चिंता थी।
उस स्थिति में
संकल्प को बढ़ा
कर और तनाव को
पूर्ण करने की
बात ही अपील
कर सकती थी, वह लैंग्वेज
उस वक्त काम आ
सकती थी। तो
वह चली। फिर
एक संक्रमण
आया। और
संक्रमण...इसलिए
महावीर उस
अर्थ में बहुत
प्रभावी नहीं
हो सके, बहुत
प्रभावी नहीं
हो सके। और जो
लोग उनके पीछे
भी गए, वे
भी उनको मान
नहीं सके। वह
नाममात्र की
मान्यता रही
और नए लोगों
को वे उस दिशा
में ला नहीं
सके, क्योंकि
नया आदमी उसके
लिए राजी नहीं
हुआ। रोज-रोज
संख्या क्षीण
होती चली गई।
जैसे
दिगंबर जैन
मुनि है।
श्वेतांबर
जैन मुनि
महावीर से
बहुत दूर है, क्योंकि
उसने बहुत
समझौते कर
लिए। इसीलिए
उसकी संख्या
ज्यादा है। वह
अभी भी है, समझौता
करके। दिगंबर
जैन मुनि ने
समझौता नहीं
किया। उसने
महावीर की
जैसी बात थी, ठीक वैसा ही
प्रयोग किया।
तो मुश्किल से
बीस-बाईस मुनि
हैं पूरे
मुल्क में। और
हर साल एक मरता
है तो फिर
पूरा नहीं
होता। अगर
इक्कीस रह जाते
हैं तो फिर
बाईस करना
मुश्किल हो जाता
है। एक पच्चीसत्तीस
वर्षों में वे
बीस-बाईस मुनि
मर जाएंगे।
पचास साल बाद
दिगंबर जैन
मुनि का होना
असंभव है।
लैंग्वेज
चली गई। उसके
लिए कोई राजी
नहीं है। उसके
लिए कोई राजी
ही नहीं है।
तो एक मरता है
तो उसको वे पूरा
नहीं कर पाते, दूसरे
को नहीं ला
पाते।
और जिनको
वे आज रखे भी
हैं,
उनमें से
कोई भी
शिक्षित नहीं
है। यानी एक
अर्थों में वे
पुरानी सदी के
लोग हैं, इसलिए
राजी भी हैं।
एक शिक्षित
आदमी को, ठीक
आधुनिक
शिक्षा पाए
हुए आदमी को
दिगंबर मुनि
नहीं बन सका
अब तक। बन
नहीं सकता।
उसकी भाषा सब
बदल गई। तो
अशिक्षित, बिलकुल
कम समझ के लोग,
गांव के लोग,
दक्षिण के
लोग--उत्तर का
एक जैन मुनि
नहीं है दिगंबरों
के पास--वही भर
बन पाता है।
और वह भी आज
कोई नहीं बनता।
यानी वे भी सब
पचपन वर्ष के
ऊपर की उम्र के
लोग हैं, जो
बीस-पच्चीस
वर्ष में विदा
होते चले
जाएंगे। एक
मरता है, फिर
उसको वे रिप्लेस
नहीं कर पाते।
वह लैंग्वेज
मर गई।
श्वेतांबर
मुनि की
संख्या बची है, बढ़ती
है, क्योंकि
वह वक्त के
साथ लैंग्वेज
को बदलता रहा
है, समझौते
करता रहा है
वह, समझौते
के लिए
तरकीबें
निकालता रहा
है। समझौते
करके ही वह
बचा हुआ है।
अब वह रोज
समझौते करता
जा रहा है।
माइक से बोलना
है तो माइक से
बोलने लगेगा।
यह करना है, वह करना है; वह सब
समझौते कर रहा
है। कल वह
गाड़ी में भी
बैठने लगेगा,
परसों वह
हवाई जहाज में
भी उड़ेगा;
वह सब
समझौते कर
लेगा। वह
समझौते करके
ही बच रहा है।
लेकिन समझौते
करने में वह
महावीर से कोई
संबंध नहीं रह
गया उसका, जो
था।
तो
मेरा
कहना...मैं यह
कह रहा हूं कि
भविष्य के लिए...लेकिन
महावीर की जो
साधना है, वह
भविष्य के लिए
सार्थक हो
सकती है। और
एक ही उपाय है
कि उसे भविष्य
की भाषा में
फिर से पूरा
का पूरा रख
दिया जाए।
तो मैं
कहता हूं, समझौते
जीवन में मत
करो, जीवन
में समझौता
बेईमानी है।
समझौता ही
बेईमानी है
असल में। असल
में प्रत्येक
युग में, और
नई जब भाषा
बनती है, तो
भाषा बदलो।
नए शब्द चुनो,
नई दृष्टि
चुनो, नया
दर्शन चुनो।
और मूल साधना
का सूत्र खयाल
में ले लो।
जैसे
मैं कहता हूं
कि आज अगर
महावीर की
नहीं कोई अपील
है सारे जगत
में,
उसका कारण
यह है कि उनके
पास भाषा
बिलकुल ही पिटी-पिटाई
है, वह गई।
लेकिन अब भी
हो सकती है
अपील, भाषा
इस युग के
अनुकूल हो आज,
तो आज अपील
हो जाए। अपील,
आप क्या
कहते हैं, इसकी
नहीं होती, अपील इस बात
की है कि आप
उसको कैसे
कहते हैं, वह
युग के मन के
अनुकूल है या
नहीं है! नहीं
तो वह खो देती
है अपील।
तो एक
तो इसलिए वे पिछड़ गए कि
उन्होंने
अतीत की भाषा
का उपयोग
किया। महावीर
एक अर्थ में
अतीत के प्रति
अनुगत हैं। बुद्ध
अतीत के प्रति
बिलकुल ही
अनुगत नहीं हैं, भविष्य
के प्रति हैं।
अतीत को इनकार
ही कर दिया।
इसलिए अपने से
पहले किसी
परंपरा से
उन्होंने
नहीं जोड़ा, नई परंपरा
को सूत्रबद्ध
किया। और भी
बहुत कारण हैं,
जिनकी वजह
से परिणाम
नहीं हो सका
जितना हो सकता
था।
फिर से
पुनरुज्जीवित
की जा सकती है, भाषा
में कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन
अनुयायी कभी
उतनी हिम्मत
नहीं जुटा
पाता, क्योंकि
उसे लगता है, सब खो
जाएगा। भाषा
ही उसकी
संपत्ति है।
वह समझता है
कि भाषा ही
संपत्ति है, अगर उसको
बदला तो सब खो
गया। जब कि
भाषा संपत्ति
नहीं है, भाषा
सिर्फ कंटेनर
है, डब्बा
है; कंटेंट की बात है
असल में। मगर
हमें पता नहीं
कितना फर्क
पड़ता है।
अभी
मैंने पढ़ा कि
एक अमरीकी
लेखक ने एक
लाख किताबें छपवाईं, लेकिन
नहीं बिक सकीं,
तीन वर्ष
परेशान हो
गया। तो उसने
जाकर विज्ञापन
सलाहकारों से
सलाह ली। तो
उन्होंने कहा
कि तुम्हारा
जो कवर है, वह
गलत है; तुमने
जो नाम रखा है,
वह पिटा-पिटाया
है। किताब का
नाम जो रखा है,
वह पिटा-पिटाया
है; और
तुम्हारा जो
कवर है, वह
गलत है, आधुनिक
मन के अनुकूल
नहीं है। तो
इसलिए वह किताब
में रखा रहेगा,
कभी उस पर
नजर ही नहीं
पड़ने वाली
किसी खरीदने वाले
की। किताब तो
पीछे देखी
जाती है, किताब
का कवर तो
पहले दिखता
है।
तो
उसने कवर बदल
दिया। नए रंग, नई
डिजाइन, आधुनिक
कला से
संबंधित कर
दिया, नाम
बदल दिया। वह
किताब दस
महीने में बिक
गई। और भारी
प्रशंसा हुई
उस किताब की।
हमेशा ऐसा होता
है, हमेशा
ऐसा होता है।
अब
महावीर के ऊपर
बहुत पुराना
कवर है।
अ प्रश्न:
अब
नया कवर कौन
सा होना चाहिए?
हां, उसके
लिए भी अपन
बात करेंगे।
नया कवर हो, बिलकुल हो, बिलकुल हो।
और जरूर होना
चाहिए, क्योंकि
महावीर की
धारा का इतना
अदभुत अर्थ है
कि वह खो जाए, तो नुकसान
होगा।
मनुष्य-जाति
को नुकसान
होगा।
जैनियों को तो
नुकसान होगा
कवर बदलने से,
मनुष्य-जाति
को नुकसान
होगा महावीर की
धारा के अर्थ
के खो जाने
से। तो इसलिए
मैं मानता हूं
जैनियों के
नुकसान की
चिंता नहीं
करनी चाहिए।
मनुष्य-जाति
की समृद्धि
में महावीर आगे
भी सार्थक
रहें, यह
विचार होना
चाहिए। तो उस
पर--जैसे ही हम
उनकी
साधना-पद्धति
को पूरा
समझेंगे तो
खयाल में आ
जाएगा कि हम
उसे क्या
दृष्टि दें।
अब
जैसे मैं यह
कह रहा
हूं--जैसे मैं
यह कह रहा हूं
कि
पुराना--उदाहरण
के लिए, महावीर
की साधना को
मैं कहता हूं
पूर्ण संकल्प
की साधना, प्रैक्टिस
ऑफ दि टोटल
विल। और जैन
परंपरा कहती
है, दमन की
साधना।
दमन
शब्द पिट
गया--सार्थक
नहीं है, खतरनाक
है। फ्रायड के
बाद दमन की जो
भी साधना बात
करेगी, उसका
इस जगत में
कोई स्थान
नहीं हो सकता।
हो ही नहीं
सकता अब।
फ्रायड के बाद
दमन का जिस
साधना-पद्धति
ने प्रयोग
किया, वह
पद्धति उस
शब्द के साथ
ही दफना दी
जाएगी, वह
नहीं बच सकती
अब।
और ऐसा
नहीं है कि
महावीर की साधना
दमन की साधना
थी। असल में
दमन का अर्थ
ही और था तब।
तब दमन का
अर्थ ही और
था। फ्रायड ने
पहली बार दमन
को नया अर्थ
दे दिया है, जो
कभी था ही
नहीं।
तो चल
सकता था, काया-क्लेश
शब्द हम उपयोग
कर सकते थे; अब नहीं कर
सकते हैं। अब
किसी ने कहा
काया-क्लेश, वह गया। उसी
शब्द के साथ
वह डूब जाएगा
पूरा का पूरा
उसका सब
विचार।
क्योंकि
काया-क्लेश
शब्द आने वाले
भविष्य के लिए
सार्थक नहीं
है, निरर्थक
है। और
काया-क्लेश का
जो मतलब है, वह अब भी
सार्थक है। और
महावीर की
पद्धति में जिसको
काया-दमन कहा
है, वह अब
भी सार्थक
है--जो कंटेंट
है, वह।
लेकिन
यह शब्द बासा
पड़ गया और
एकदम खतरनाक
हो गया।
क्योंकि इधर
फ्रायड के बाद
काया-क्लेश जो
दे रहा है, वह
आदमी मैसोचिस्ट
है, वह
आदमी खुद को सताने में
मजा ले रहा
है। वह आदमी
रुग्ण है, मानसिक
बीमार है, जो
आदमी अपने को सताने में
मजा ले रहा
है। दो तरह के
लोग हैं। जो
दूसरों को सताने
में मजा लेते
हैं वे सैडिस्ट,
और जो अपने
को सताने
में मजा लेते
हैं वे मैसोचिस्ट।
अब अगर
काया-क्लेश की
बात की तो
महावीर तक मैसोचिस्ट
सिद्ध हो जाने
वाले हैं आने
वाले भविष्य
में। यानी यह
जैनियों की
नासमझी में वह
महावीर फंस
जाने वाले
हैं। और उनको
अब बचाव का
कोई उपाय नहीं, वे
कुछ खड़े होकर
कह नहीं सकते
कि क्या कहा
जा रहा है!
और अगर
महावीर के
शरीर को देखो
तो पता चल
जाएगा कि
तुम्हारी
काया-क्लेश की
बात नितांत
नासमझी की है।
हां,
तुम्हारे
मुनि को देखो
तो पता चलता
है कि काया-क्लेश
सच है। महावीर
की काया को
देख कर लगता
है कि ऐसी
काया को संभालने
वाला आदमी
नहीं हुआ है।
महावीर को देख
कर तो ऐसा ही
लगता है। ऐसी
सुंदर काया
शायद ही कभी
कोई...न बुद्ध
के पास थी, न
क्राइस्ट के
पास थी ऐसी
सुंदर काया।
अ प्रश्न:
कैसी?
जैसी
महावीर के पास
सुंदर काया
है। जितना
सुंदर स्वस्थ
शरीर महावीर
के पास है, ऐसा
किसी के पास
नहीं था। और
मेरा अपना
मानना है कि
इतने सुंदर
होने की वजह
से वे नग्न
खड़े हो सके।
असल में
नग्नता को
छिपाना
कुरूपता को छिपाना
है। हम सिर्फ
उन्हीं अंगों
को छिपाते हैं,
जो कुरूप
हैं। इतने परम
सुंदर हैं वे
कि छिपाने को
कुछ भी नहीं
है, वे
नग्न खड़े हो
सके। नग्न खड़े
होने में भी
वे परम सुंदर
हैं। और उनकी
परंपरा को पकड़ने
वाला जो शब्द पकड़े हुए
है काया-क्लेश
का कि वे शरीर
को सता रहे हैं,
वे बिलकुल
पागल हैं, क्योंकि
सताने
वाला शरीर ऐसा
नहीं होता, जैसा महावीर
का है।
हां, इधर
दिगंबर जैन
मुनि को देखें
तो पता चलता
है कि हां, यह
शरीर को सता
रहा है। एक
दिगंबर मुनि
अब तक महावीर
जैसा शरीर खड़ा
करके नहीं बता
सका।
तो
कहीं कोई भूल
हो गई है।
महावीर
काया-क्लेश किसी
और ही बात को
कहते हैं। एक
आदमी जो सुबह
घंटे भर
व्यायाम करता
है,
वह भी
काया-क्लेश कर
रहा है। आप
समझ रहे हैं न?
काया-क्लेश
वह भी कर रहा
है, जो
घंटे भर
व्यायाम करता
है, पसीना-पसीना
हो जाता है, शरीर को थका
डालता है। और
एक आदमी वह भी
काया-क्लेश कर
रहा है, जो
एक कोने में
बिना खाए-पीए,
बिना नहाए-धोए पड़ा
है। वह भी
काया-क्लेश कर
रहा है। लेकिन
पहला आदमी
काया के लिए
ही काया-क्लेश
कर रहा है, और
दूसरा आदमी
काया की
दुश्मनी में
काया-क्लेश कर
रहा है। दोनों
का अगर दस
वर्ष ऐसा ही
क्रम चला तो
दोनों को खड़ा
करेंगे तो
नंबर एक का तो
एक अदभुत
सुंदर शरीर
वाला व्यक्ति
निकल आएगा और
दूसरा एक दीन-हीन,
मरा हुआ
व्यक्ति हो
जाएगा।
काया-क्लेश
किसलिए? महावीर
कहते हैं कि
काया का श्रम
काया के लिए ही।
काया कभी भी
वैसी नहीं बन
सकती, जैसी
बन सकती है; उसके लिए
श्रम उठाना
पड़ेगा।
तो
क्लेश जो अब
शब्द है, वह अब
घातक और दुश्मनीपूर्ण
मालूम पड़ता
है। वह महावीर
के लिए नहीं
है घातक और दुश्मनीपूर्ण।
उस शब्द को
पकड़ कर हम
महावीर की
पूरी वृत्ति को
ही नष्ट कर
देंगे। उस
शब्द को बदलना
पड़ेगा।
अब
महावीर उपवास
शब्द का
प्रयोग करते
हैं। उपवास का
मतलब होता
है--अपने पास
रहना, टु बी
नियर वनसेल्फ।
और कोई मतलब
ही नहीं होता।
आत्मा के पास
निवास
करना--उपवास।
जैसे
उपनिषद--गुरु
के पास बैठना।
ऐसे
उपवास--अपने
पास होना।
लेकिन उपवास
का फास्टिंग,
अनशन अर्थ
हो गया है।
उपवास का मतलब
हो रहा है, अनशन,
न खाना।
अब यह
उपवास नहीं चल
सकता, न खाने
वाला। और न
खाने पर जोर
दिया, तो
वह दमन और
काया-क्लेश
वाली बात है।
चार-चार महीने
तक कोई आदमी
बिना खाए रह सकता
है? लेकिन
उपवास में रह
सकता है।
उपवास का मतलब
ही और है।
उपवास का मतलब
है कि एक
व्यक्ति अपनी
आत्मा में
इतना लीन हो
गया कि शरीर
का उसे पता ही
नहीं है, तो
भोजन भी नहीं
करता है, क्योंकि
शरीर का पता
हो तो भोजन करे।
अपने भीतर ऐसा
लीन हो गया है
कि शरीर का
पता नहीं
चलता--दिन बीत
जाते हैं, रातें
बीत जाती हैं,
उसे शरीर का
पता नहीं।
एक
संन्यासी
मेरे पास आए
और उन्होंने
मुझसे...मेरे
पास सामने ही
रुके थे तो आए
मुझसे मिलने तो
मैंने कहा, आप
खाना खाकर
जाएं। तो
उन्होंने कहा,
आज तो मेरा
उपवास है। तो
मैंने कहा, कैसा उपवास
करते हैं? उन्होंने
कहा कि इसमें
क्या बात है, आप यह भी
नहीं जानते कि
कैसा उपवास
करते हैं? खाना
नहीं लेते दिन
भर। तो मैंने
कहा, इसको
आप उपवास
समझते हैं? अनशन क्या
है फिर? तो
उन्होंने कहा,
दोनों एक
चीज हैं। नाम
से कोई फर्क
पड़ता है? तो
मैंने कहा, फिर आप अनशन
करते हैं, अभी
उपवास का आपको
पता नहीं।
और जब
आप अनशन
करेंगे तो
ध्यान रहे, पूरा
वास शरीर के
पास होगा, आत्मा
के पास होने
वाला ही नहीं
है। अनशन का मतलब
ही यही है कि
नहीं खाया; खाने का
खयाल है, नहीं
खाया, छोड़ा।
तो दिन भर
शरीर के पास
ही मन घूमेगा।
भूख लगी, प्यास
लगी, कल का
खयाल कि कल
क्या खाएंगे,
परसों क्या
खाएंगे--पूरे
वक्त एक...।
तो
मैंने उनसे
कहा कि यह तो
उपवास से अनशन
बिलकुल उलटा
है। दोनों में
भोजन नहीं
खाया जाता, लेकिन
दोनों उलटी ही
बातें हैं, क्योंकि
अनशन में आदमी
शरीर के पास
रहता
है--चौबीस
घंटे, जितना
कि खाना खाने
वाला भी नहीं
रहता। दो दफे
खा लिया और
बात खतम हो गई
है। और अनशन
वाला दिन भर
खाता रहता है,
मन ही मन
में खाना चलता
है।
उपवास
का मतलब है कि
किसी दिन ऐसे
मौज में आ गए हो
तुम अपने भीतर
कि अब शरीर की
कोई याद ही न
रही। और
महावीर की जो
शरीर की
तैयारी है, वह
इसलिए है कि
जब शरीर की
याद न रहे तो
शरीर इतना
समर्थ हो कि
दस-पांच दिन, महीने दो
महीने झेल
जाए। नहीं तो झेलेगा
कैसे? तो
यह मुनि का तो
झेल ही नहीं
सकता।
अगर यह, अगर
यह भीतर चला
जाए तो यह तो
मर ही जाए।
क्योंकि इसके
पास तो शरीर
में जो
अतिरिक्त
होना चाहिए झेलने
के लिए, वह
है ही नहीं।
इसके पास
स्टोरेज ही
नहीं है कोई।
अगर बहुत
बलिष्ठ शरीर
हो, तो वह
तीन महीने तक
तो बिलकुल
आसानी से बिना
खाए बच सकता
है, नष्ट
नहीं होगा।
तो
महावीर अगर
चार-चार महीने
का उपवास किए
हैं तो इस बात
का सबूत है कि
उस आदमी के
पास भारी
बलिष्ठ शरीर
था--साधारण
नहीं--असाधारण
रूप से, कि
चार-चार महीने
तक उसने नहीं
खाया है तो
शरीर बचा है, शरीर मिट
नहीं गया है
इससे कुछ।
यह
काया-क्लेश
करने वाला तो
कभी चार दिन
नहीं कर सकता, वह
तो चार दिन
में मर जाएगा
अगर उपवास
इसका हो जाए।
उपवास का मतलब
इसकी आत्मा और
चेतना एकदम
भीतर चली जाए
कि बाहर का
इसे खयाल ही न
रहे, तो
इसका शरीर तो
साथ छोड़ देगा
फौरन।
लेकिन
शब्दों ने जान
ले ली है। तो
उस संन्यासी
को मैंने कहा
कि तुम कभी
जिस दिन ध्यान
करो और किसी
दिन ध्यान में
ऐसे डूब जाओ कि
उठने का मन न
हो तो उठना ही
मत तुम। जब
उठने का मन हो
उठ आना, न हो
तो मत उठना।
तो उसे मैं
ध्यान कुछ दोत्तीन
महीने कराता
था। उसके साथ
एक युवक रहता
था। उसने एक
दिन सुबह आकर
मुझे खबर दी
कि आज चार बजे से
वे ध्यान में
गए हैं तो नौ
बज गया अभी तक
उठे नहीं हैं
और उन्होंने
कह दिया है कि
कभी न उठ आऊं
तो उठाना मत।
लेकिन मुझे
बहुत डर लग
रहा है, वे
पड़े हैं।
मैंने कहा, उन्हें पड़ा
रहने दो।
वह
युवक दो बजे
फिर दोपहर में
आया कि...तब तो
जरा घबड़ाहट
होने लगी, क्योंकि
वे पड़े ही
हैं--न करवट
लेते, न
हाथ हिलाते।
कहीं कुछ
नुकसान तो नहीं
हो जाएगा? मैंने
कहा, तुम
मत डरो, आज
उपवास हो गया,
तुम हो जाने
दो। रात नौ
बजे वह फिर
आया और उसने कहा,
अब तो हमारी
हिम्मत के
बाहर हो गया
मामला, आप
चलिए। मैंने
कहा, वहां
कोई जाने की
जरूरत नहीं है,
तुम रहने
दो।
ग्यारह
बजे रात वह
आदमी उठा और
भागा हुआ मेरे
पास आया। और
उसने कहा कि
आज समझा कि
उपवास और अनशन
का क्या अर्थ
है! कितना भेद
है! हो गया
उपवास आज। हद
का हुआ है।
कभी कल्पना ही
न की थी कि ऐसा
भी उपवास का
अर्थ हो सकता
है।
जब आप
भीतर चले जाते
हैं तो बाहर
का स्मरण छूट जाता
है। उस स्मरण
के छूटने में
पानी भी छूट
जाता है। और
शरीर इतना
अदभुत यंत्र
है कि जब आप
भीतर होते हैं
तो शरीर
आटोमैटिक हो
जाता है, अपनी
व्यवस्था
पूरी करने
लगता है, आपको
कोई चिंता के
लेने की जरूरत
नहीं रहती। और
शरीर की साधना
का मतलब यह है
कि शरीर ऐसा
हो कि जब आप
भीतर चले जाएं
तो उसे आपकी
कोई जरूरत न
हो, वह
अपनी
व्यवस्था कर
ले, वह
स्वचालित
यंत्र की तरह
अपना काम करता
रहे, और
आपकी
प्रतीक्षा
करे कि जब आप
बाहर आएंगे, तब वह आपको
खबर देगा कि
मुझे भूख लगी,
कि मुझे
प्यास लगी, नहीं तो वह
चुपचाप झेलेगा
और आपको खबर
भी नहीं देगा।
तो
काया-क्लेश का
मतलब है, काया
की ऐसी साधना
कि काया बाधा
न रह जाए, साधक
हो जाए, सीढ़ी
बन जाए। लेकिन
शब्द बड़े
खतरनाक हैं, इसलिए इसको
काया-क्लेश मत
कहो, इसको
काया-साधना
कहो तो समझ
में आ सकता
है। इसको
क्लेश कहा, तो क्लेश
शब्द ऐसा
बेहूदा है कि
उससे ऐसा लगता
है कि सता रहे
हो, टार्चर कर रहे हो, तब तो
नुकसान होगा।
और
उपवास को फास्टिंग
मत कहो, अनशन
मत कहो; उपवास
को कहो आत्मा
के निकट होना।
निश्चित ही, आत्मा के
निकट होकर
शरीर भूल जाता
है। वह दूसरी
बात है, वह
गौण बात है, अनशन हो
जाएगा, लेकिन
वह दूसरी बात
है। अनशन करने
से उपवास नहीं
होता, उपवास
करने से अनशन
हो जाता है।
और यह
सब खयाल में आ
जाए तो, तो
महावीर की
धारा को खो
जाने का कोई
कारण नहीं, हालांकि वह
खोने के करीब
खड़ी है। और
अगर जैन मुनि
और
साधु-संन्यासियों
के हाथ में
रही, तो वह
खो ही जाने
वाली है, उसका
कोई उपाय
नहीं। और यह
भी ध्यान रहे
कि महावीर जैसा
आदमी दुबारा
पैदा होना
मुश्किल है, एकदम
मुश्किल है।
क्योंकि वैसे
आदमी को पैदा होने
के लिए जो
पूरी हवा और
वातावरण
चाहिए, वह
दुबारा अब
संभव नहीं है।
जैसा काल, जैसा
क्षेत्र
चाहिए, वह
दुबारा संभव
नहीं है।
इसलिए
मेरा मानना है, कोई
आदमी कभी नहीं
खोना चाहिए।
जिसने कोई भी
मूल्यवान
बचाया है, वह
बचा रहना
चाहिए, ताकि
उसके अनुकूल
लोगों के लिए
वह ज्योति का
दर्शन बन सके।
झोरेस्ट
नहीं खोना
चाहिए, कन्फ्यूशियस
नहीं खोना
चाहिए, मिलरेपा नहीं खोना
चाहिए--कोई
नहीं खोना
चाहिए। उन्होंने
अलग-अलग कोणों
से पहुंच कर
ऐसी चीज पाई है,
जो बचनी
ही चाहिए। वह
मनुष्य-जाति
की असली
संपत्ति वह
है। लेकिन वे
जो उसको खो
रहे हैं, वही
उसके बचाने
वाले मालूम
पड़ते हैं कि
वे उसके रक्षक
हैं, वे
उसको खोए चले
जा रहे हैं।
आज
इतना ही।
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