अनेकांत:
महावीर का
दर्शन-आकाश—(प्रवचन—इक्कीसवां)
प्रश्न:
आपने
पिछले दिनों
भगवान महावीर
के संबंध में एकांत
वाली बात कही
थी। वह क्या
रियलाइजेशन जो
भगवान महावीर
का था--वह भी
एकांत ही था? क्या वह
संपूर्ण नहीं
था? यह
मेरा प्रश्न
है।
इस
संबंध में दो बातें
समझनी चाहिए, दो शब्द
समझने चाहिए।
एक शब्द है
दृष्टि और दूसरा
शब्द है
दर्शन।
दृष्टि
होगी एकांगी, सदा ही
एकांत होगी, अधूरी होगी,
खंड होगी।
दृष्टि का
मतलब है, एक
जगह मैं खड़ा
हूं, वहां
से जैसा दिखाई
पड़ता है। जो
दिखाई पड़ता है,
वह भी उतना
ही
महत्वपूर्ण है।
और जिस जगह
मैं खड़ा हूं, वह भी कम
महत्वपूर्ण
नहीं है--कहां
से मैं देख रहा
हूं! जहां से
खड़े होकर मैं
देख रहा हूं, वैसा मुझे
दिखाई पड़ेगा,
वह दृष्टि
होगी।
और इसी
के संदर्भ में
दर्शन शब्द को
समझना बड़ा
कीमती है।
दर्शन का मतलब
है, जहां सब
दृष्टियां
मिट गईं, जहां
मेरे खड़े होने
की कोई जगह न
रही। सच में
जहां मैं ही न
रहा, वहां
जो होगा, उसका
नाम है दर्शन।
दर्शन सदा ही
समग्र होगा और
दृष्टि सदा ही
खंड होगी।
तो
जिसे हम
आत्मानुभूति
या
रियलाइजेशन
कहें, वह वह
क्षण है, जब
दृष्टियां सब
मिट गईं। असल
में देखने
वाला भी मिट गया।
असल में वह
जगह भी मिट गई,
जहां हम खड़े
थे, वह भी
मिट गया जो
खड़ा हो सकता
था, सब मिट
गया। मेरी तरफ
से कुछ भी न
बचा। तो अब जो मुझे
प्रतीति होगी,
अब जो अनुभव
घटित होगा, वह घटित
समग्र होगा।
तो महावीर का
जो दर्शन है--या
बुद्ध का या
कृष्ण का या
क्राइस्ट का
या मोहम्मद
का--दर्शन सदा
ही समग्र
होगा। दर्शन कभी
भी अधूरा नहीं
हो सकता।
क्योंकि
अधूरा बनाने
वाली जो भी
बातें थीं, वे सब
समाप्त हो
गईं।
और एक
तरह से समझें।
जब तक मेरे
चित्त में विचार
है, तब तक
मेरे पास
दृष्टि होगी,
दर्शन नहीं
होगा।
क्योंकि मैं
अपने विचार के
चश्मे से
देखूंगा।
मेरे विचार का
जो रंग होगा, वही उस चीज
पर भी पड़
जाएगा, जिसे
मैं देखूंगा।
और दर्शन होगा
तब, जब मैं
निर्विचार हो
जाऊंगा। जब
कोई विचार मेरे
पास न होगा, जब विचार
मात्र नहीं
होगा, खाली
जगह से मैं
देखूंगा--जहां
मेरा कोई पक्ष
नहीं, कोई
वाद नहीं, कोई
विचार नहीं, कोई शास्त्र
नहीं, कोई
सिद्धांत
नहीं, मैं
हिंदू नहीं, मुसलमान
नहीं, ईसाई
नहीं, जैन
नहीं--जब मैं
कोई भी नहीं
हूं, सिर्फ
निपट खाली मन
रह गया है, वहां
से जब देखूंगा
तो जो होगा, वह दर्शन
होगा।
विचार
दृष्टि तक ले
जाता है, निर्विचार
दर्शन तक।
एक बात
और समझनी
उपयोगी है।
दर्शन कितना
ही समग्र
हो--समग्र
होगा
ही--लेकिन जब
दर्शन को कोई
प्रकट करने
जाएगा, तब
फिर दृष्टि
शुरू हो
जाएगी।
क्योंकि
दर्शन को फिर
प्रकट करने के
लिए विचारों
का उपयोग करना
पड़ेगा। और
जैसे ही विचार
का उपयोग किया
कि समग्र नहीं
हो सकता। असल
में विचार की
एक व्यवस्था
है, वह कभी
भी टोटल और
पूरी नहीं हो
सकती। विचार चीजों
को तोड़ कर
देखता है और
वस्तु सत्य
में चीजें सब
जुड़ी हुई हैं।
अगर हम
विचार से
देखने जाएंगे
तो जन्म अलग
है, मृत्यु
अलग है। और
जन्म और
मृत्यु को
विचार में
जोड़ना अत्यंत
कठिन है। क्योंकि
जन्म बिलकुल
उलटी चीज है, मृत्यु
बिलकुल उलटी
चीज है। लेकिन
वस्तुतः जीवन
में जन्म और
मृत्यु एक ही
चीज के दो छोर
हैं। वहां
जन्म अलग नहीं
है, मृत्यु
अलग नहीं है।
जो जन्म पर
शुरू होता है,
वही मृत्यु
पर विदा होता
है। वे एक ही
यात्रा के दो
बिंदु हैं:
पहला बिंदु
जन्म है, अंतिम
बिंदु मृत्यु
है।
अगर हम
जीवन को
देखेंगे तो ये
इकट्ठे हैं और
अगर विचार में
सोचने जाएंगे
तो जन्म और
मृत्यु अलग-अलग
हो जाएंगे।
अगर हम विचार
में सोचेंगे तो
काला और सफेद
बिलकुल
अलग-अलग हैं, ठंडा और गरम
बिलकुल
अलग-अलग हैं, लेकिन अगर
अनुभव में
सोचने जाएंगे
तो ठंडा और
गरम एक ही चीज
के दो रूप हैं,
और काला और
सफेद भी एक ही
छोर के, एक
ही
स्पैक्ट्रम
के दो छोर
हैं। लेकिन जब
भी हम प्रकट
करने चलेंगे
तो हमें फिर
विचार का उपयोग
करना पड़ेगा।
तो
मोहम्मद को, महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को
जो अनुभूति
होती है, वह
तो समग्र है; लेकिन जब वे
उसे
अभिव्यक्त
करते हैं, तब
वह समग्र नहीं
रह जाती, तब
वह एक दृष्टि
रह जाती है।
और इसीलिए जो
प्रकट
दृष्टियां
हैं, उनमें
विरोध पड़ जाता
है। दर्शन में
कोई विरोध नहीं
है, लेकिन
प्रकट दृष्टि
में विरोध है।
मैं और
आप श्रीनगर
आएं, तो
श्रीनगर तो एक
ही है जिसमें
मैं आऊंगा और
आप आएंगे। फिर
हम दोनों
श्रीनगर से गए,
फिर कोई
हमसे पूछता है
कि क्या देखा?
तो जो मैं
कहूंगा, वह
भिन्न होगा, जो आप
कहेंगे उससे!
श्रीनगर
तो एक था, हम
आए एक ही नगर
में थे, लेकिन
हो सकता है
मुझे झील पसंद
हो और मैं झील
की बात करूं, और आपको
पहाड़ पसंद हो
और आप पहाड़ की
बात करें। और
हो सकता है
मुझे दिन पसंद
हो, मैं
सूरज की बात
करूं, और
आपको रात पसंद
हो और आप चांद
की बात करें।
और हमारी
दोनों बातें
ऐसी मालूम
पड़ने लगें कि
हम दो नगरों
में गए होंगे।
क्योंकि एक
चांद की बात
करता है, एक
सूरज की; एक
अंधेरे की बात
करता है, एक
उजाले की; एक
सुबह की बात
करता है, एक
सांझ की; एक
पहाड़ की बात
करता है, एक
झील की। शायद
सुनने वाले को
मुश्किल हो
जाए यह बात कि
ये पहाड़ और
झील और ये
चांद और सूरज
और ये रात और
दिन, ये
किसी एक ही
नगर के हिस्से
हैं। वे इतने
विरोधी भी
मालूम पड़ सकते
हैं कि तालमेल
बिठालना मुश्किल
हो जाए।
वे जो
खबरें हम ले
जाएंगे, वे
दृष्टियां
होंगी, वे
विचार होंगे।
लेकिन जो हमने
जाना और जीया
था, वह
दर्शन था। उस
दर्शन में
श्रीनगर एक
था। वहां
रात-दिन जुड़े थे,
पहाड़-झील
जुड़ी थी, वहां
अच्छा-बुरा
जुड़ा था। वहां
सब इकट्ठा था।
लेकिन जब हम
बात करने गए, चुनाव हमने
किया, छांटा,
तो हम खड़े
हो गए और हमने
एक दृष्टि से
चुनाव किया।
तो
जैसे ही कोई
बात बोली
जाएगी, वैसे
ही दृष्टि बन
जाएगी। और यही
बड़ा खतरा रहा
है कि
दृष्टियों को
दर्शन समझने
की भूल होती
रही है। और
इसलिए जैनों
की एक दृष्टि
है, दर्शन
नहीं; हिंदुओं
की एक दृष्टि
है, दर्शन
नहीं; मुसलमानों
की एक दृष्टि
है, दर्शन
नहीं। अगर
दर्शन की हम
बात करते हैं
तो हिंदू, मुसलमान,
जैन सब खो
जाएंगे। वहां
तो एक ही रह
जाएगा, वहां
कोई दृष्टि
नहीं है, कोई
विचार नहीं
है।
महावीर
का जो अनुभव
है, वह तो
समग्र है, लेकिन
अभिव्यक्ति
समग्र हो ही
नहीं सकती। जब
भी हम कहने
जाते हैं, तभी
समग्र को हम
कह नहीं सकते।
परमात्मा का
अनुभव तो बहुत
बड़ी बात है, छोटे से, सरल
से अनुभव भी
समग्ररूपेण
प्रकट नहीं
होते।
आपने
एक फूल को
देखा, बहुत
सुंदर है ऐसा
अनुभव किया, फिर आप कहने
गए। तो जब आप
कहते हैं, तब
आपको ही लगता
है कि कुछ बात
अधूरी रह गई।
यानी
बहुत-बहुत
सुंदर है, ऐसा
कहने पर भी
कुछ भी पता
नहीं चलता, फूल जैसा था
उसका। वह जो
आपको अनुभव
हुआ था जीवंत,
वह जो आपका
संपर्क हुआ था
फूल से, वह
जो सौंदर्य आप
पर प्रकट हुआ
था, वह जो
सुगंध आई थी, वह जो हवाओं
में फूल का
नृत्य देखा था,
वह जो सूरज
की किरणों में
फूल की खुशी
देखी थी, वह
कितने ही बार
कहिए
बहुत-बहुत
सुंदर है; तब
भी लगता है कि
बात कुछ अधूरी
रह गई, कुछ
बेस्वाद, बिना
सुगंध की, मृत,
मुर्दा रह
गई। कुछ पता
नहीं चलता। वह
जो देखा था, उसका कोई
पता नहीं
चलता।
तो जब
हम साधारण सी
बात भी कहने
जाते हैं, तो जो अनुभव
किया था, उस
अनुभव में
बहुत कमी पड़
जाती है। और
जब असाधारण
अनुभव को कहने
कोई जाता है, तब तो इतनी
कमी पड़ जाती
है, जिसका
कोई हिसाब
लगाना कठिन
है। और इसीलिए
दुनिया में जो
संप्रदाय हैं,
वे कही हुई
बात पर निर्भर
हैं, जानी
हुई बात पर
नहीं। अगर
जानी हुई बात
पर कभी
संप्रदाय
निर्मित हो
जाए, यह
असंभव है, क्योंकि
जो जाना गया
है, वह
भिन्न है ही
नहीं।
एक बार
ऐसा हुआ कि
फरीद यात्रा
कर रहा था।
कुछ मित्र साथ
थे। और कबीर
का आश्रम निकट
आया तो फरीद
के मित्रों ने
कहा, कितना
अच्छा न हो कि
हम कबीर के
पास दो दिन
रुक जाएं! आप
दोनों की
बातें होंगी,
तो हम तो
धन्य हो
जाएंगे। शायद
ऐसा जन्मों
में ऐसा अवसर
मिले कि कबीर
और फरीद का
मिलना हो और लोग
सुन लें। फरीद
ने कहा, तुम
कहते हो तो
जरूर रुक
जाएंगे, लेकिन
बात शायद ही
हो। तो
उन्होंने कहा,
लेकिन बात
क्यों नहीं
होगी? उन्होंने
कहा, वह तो
चल कर ठहरेंगे
तो ही पता चल
सकता है।
कबीर
के मित्रों को
भी खबर लग गई
है, उन्होंने
कहा कि फरीद
निकलता है
यहां से, रोक
लें, प्रार्थना
करें, हमारे
आश्रम में रुक
जाए दो दिन।
आप दोनों की बातें
होंगी, कितना
आनंद होगा!
कबीर ने कहा, रोको जरूर, आनंद भी
बहुत होगा, लेकिन बातें
शायद ही हों।
पर उन्होंने
कहा, बातें
क्यों न होंगी?
तो कबीर ने
कहा, वह तो
फरीद आ जाए तो
पता चले।
फरीद
को रोक लिया
गया है। वे
दोनों गले
मिले हैं, वे दोनों
हंसे हैं, वे
दोनों पास
बैठे हैं--दो
दिन बीत गए
हैं, लेकिन
कोई बात नहीं
होती। सुनने
वाले तो बहुत ऊब
गए हैं, बहुत
घबड़ा गए। फिर
विदाई भी हो
गई, फिर
कबीर गांव के
बाहर जाकर छोड़
भी आए। वे मिले
गले, रोए
भी, लेकिन
फिर भी नहीं
बोले!
छूटते
ही कबीर के
शिष्यों ने
पूछा, यह
क्या पागलपन
है? दो दिन
आप बोले नहीं?
फरीद के
शिष्यों ने
पूछा, यह
क्या हुआ? हम
तो घबड़ा गए।
दो दिन यह
कैसी चुप्पी!
तो कबीर ने
कहा, जो
मैं जानता हूं,
वही फरीद
जानते हैं, अब बोलने का
उपाय क्या है?
दो अज्ञानी
बोल सकते हैं,
एक ज्ञानी
एक अज्ञानी
बोल सकता है, दो
ज्ञानियों के
बोलने का उपाय
क्या है? और
जो बोलता, वह
नाहक अज्ञानी
बन जाता।
क्योंकि जो वह
बोल कर कहता, वह दूसरे ने
जो जाना है, उससे इतना
छोटा होता--वह
दूसरे के पास
तो जाना हुआ
है और एक बोल
कर कहता, तो
जाने हुए के
सामने बोल कर
कहना बहुत
कठिन बात है।
क्योंकि उसको
लगता है कि
अरे! उसका
जाना हुआ तो
अपार है और
बोला हुआ छोटा
सा! तो जो
बोलता, वह
नासमझ होता।
फरीद
से कहा, तो
फरीद ने कहा
कि बोलते? कबीर
के सामने
बोलते? तो
तुम मुझे पागल
बना देते। बोल
कर मैं फंसता! क्योंकि
जो बोलता, वह
बोलते से ही
गलत हो जाता।
जो
जाना गया है, उसके सामने
बोला हुआ सब
गलत है--सब। न
जाना गया हो
तो सभी बोला
हुआ सच मालूम
पड़ता है।
लेकिन जिसने
जाना हो, उसके
सामने बोला
गया इतना फीका
है, इतना
फीका...।
जैसे
मैंने आपको
देखा हो, आपको
देखा हो निकट
से, जाना हो,
पहचाना हो।
और फिर कोई
मुझे सिर्फ
आपका नाम बता
दे और नाम को
ही परिचय बता
दे, तो नाम
क्या परिचय
बनेगा! जिस
व्यक्ति को
मैं जानता हूं,
उसका नाम
क्या परिचय
बनेगा! हां, जिसको हम
नहीं जानते, उसके लिए
नाम भी परिचय
बन जाता है।
लेकिन जिसको
हम जानते हैं,
उसके नाम से
क्या फर्क
पड़ता है! कोई
परिचय नहीं
बनता। नाम कोई
परिचय है? तो
परिचय नहीं
है।
तो
फरीद ने कहा
कि जरूरी था
कि मैं चुप रह
जाऊं, क्योंकि
बोल कर मैं जो
कहता, वह
सिर्फ नाम
होता। और उस
आदमी ने उसे
जाना है, और
उसका सिर्फ
नाम लेना एकदम
बचकाना था।
जहां
ज्ञान है, वहां भेद
नहीं है। और
जहां शब्द है,
वहां अभेद
होना असंभव
है। जैसे ही
शब्द का प्रयोग
किया, भेद
पड़ने शुरू हो
गए। यह ऐसे ही
है, जैसे
हम सूरज की
किरण को देखें,
वहां कोई
भेद नहीं है।
सूरज की किरण
सीधी और साफ
है। लेकिन एक
प्रिज्म ले
लें, और
फिर सूरज की
किरण को देखें,
तो प्रिज्म
सात टुकड़ों
में तोड़ देता
है। प्रिज्म
के इस पार
सूरज की इकहरी
किरण देखनी
मुश्किल है।
प्रिज्म के उस
पार सूरज की
सात खंडों में
विभाजित किरण
देखनी
मुश्किल है।
शब्द प्रिज्म
का काम कर रहा
है। जो जाना
गया है, वह
शब्द के उस
पार है; और
जो कहा गया है,
वह शब्द के
इस पार है।
शब्द के इस
पार सब टूट जाता
है खंड-खंड, शब्द के उस
पार सब अखंड
है।
इसलिए
महावीर ने जो
जाना है, वह
तो समग्र है।
लेकिन जो कहा
है, वह
चाहे महावीर
कहें, चाहे
कोई भी कहे, वह समग्र
नहीं हो सकता।
वह एकांत ही
होगा, वह
खंड ही होगा।
और इसीलिए जैन
खंडित होगा, वह एकांती
होगा।
क्योंकि उसने
तो जो कहा है, वह पकड?गा।
महावीर का
समग्र उसकी
पकड़ में नहीं
आने वाला।
इसलिए वह जैन
होकर बैठ
जाएगा। वह
अनेकांत को भी
वाद बना लेगा।
वह महावीर के
दर्शन को भी दृष्टि
बना लेगा और
उसको पकड़ कर
बैठ जाएगा।
इसलिए
सभी अनुयायी
खंड सत्य को
पकड़ने वाले
होते हैं। और
यह भी समझ
लेना जरूरी है
कि जिसने खंड
सत्य को पकड़ा
है, वह
जाने-अनजाने
अखंड सत्य का
दुश्मन हो
जाता है।
क्योंकि उसका
आग्रह यह होता
है कि मेरा
खंड ही समग्र
है। और सभी
खंड वालों का
यही आग्रह होता
है, मेरा
खंड समग्र है।
सभी खंड मिल
कर समग्र हो
सकते हैं, लेकिन
प्रत्येक खंड
का यह दावा कि
मैं समग्र हूं,
दूसरे खंड
का भी यही
दावा कि मैं
समग्र हूं, ये दावे मिल
कर समग्र नहीं
हो सकते।
ये
दावे सारी
मनुष्य-जाति
को खंड-खंड
बांट देते
हैं। मनुष्य
इसी तरह--जो कि
अखंड
है--टुकड़ों में, संप्रदायों
में, सेक्ट्स
में बंट कर
टूट गया है।
दृष्टि
पर हमारा जोर
होगा तो
संप्रदाय
होंगे। अगर
दर्शन पर
हमारा जोर
होगा तो
संप्रदायों का
कोई उपाय
नहीं।
मेरा
सारा जोर
दर्शन पर है, दृष्टि पर
जरा भी नहीं।
महावीर का भी
जोर दर्शन पर
है। और यह बड़े
मजे की बात है
कि जितनी
दृष्टियों से
हम मुक्त होते
चले जाएंगे, उतना हम
दर्शन के निकट
पहुंचते हैं।
आमतौर से शब्द
से ऐसा भ्रम
होता है कि
दृष्टि ही
दर्शन देगी, लेकिन
दृष्टि ही
सबसे बड़ी बाधा
है दर्शन में।
अगर
मेरी कोई भी
दृष्टि है तो
मैं पूरे सत्य
को कभी भी
नहीं जान सकता
हूं। अगर मेरी
कोई दृष्टि
नहीं है, मैं
दृष्टि-मुक्त,
दृष्टि-शून्य
होकर खड़ा हो
गया हूं, तो
ही मैं पूर्ण
को जान सकता
हूं। क्योंकि
तब पूर्ण को
मेरे तक आने
में कोई भी
बाधा नहीं।
प्रश्न:
दर्शन
और अनुभूति एक
ही बात है?
हां, बिलकुल ही
एक बात है।
प्रश्न:
महावीर
ने घर में ही
रह कर साधना
क्यों नहीं की? बाहर जाने
की क्या
आवश्यकता थी?
ये
सवाल भी हमें
उठते हैं, ये प्रश्न
भी हमें
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ते हैं,
क्योंकि घर
और बाहर हमें
दो विरोधी
चीजें मालूम
पड़ती हैं।
हमें ऐसा लगता
है कि घर एक
अलग दुनिया है
और बाहर एक
अलग दुनिया
है। हमें कभी
भी खयाल नहीं
आता कि घर और बाहर,
बाहर और
भीतर एक ही
विराट के दो
हिस्से हैं।
एक
श्वास मेरे
भीतर गई तो
मैं कहता हूं
भीतर, और एक
क्षण भीतर
नहीं है कि
बाहर हो गई, और मैं कहता
हूं बाहर। जो
एक क्षण पहले
बाहर थी, वह
एक क्षण बाद
भीतर हो जाती
है; जो एक
क्षण भीतर थी,
वह एक क्षण
बाद बाहर हो
जाती है। क्या
बाहर है और
क्या भीतर है?
कौन सा घर
है और कौन सा
घर से
अतिरिक्त
अन्यथा है?
हमारी
जो दृष्टि है, वह हमने बड़ी
सीमित बना रखी
है। घर से
हमारा मतलब है,
जो अपना है।
और बाहर से
हमारा मतलब है,
जो अपना
नहीं है।
लेकिन क्या
ऐसा नहीं हो
सकता कि किसी
के लिए कुछ भी
ऐसा न हो जो
अपना नहीं है?
और अगर किसी
व्यक्ति के
लिए ऐसा हो
जाए कि कुछ भी
ऐसा नहीं है
जो अपना नहीं
है, तो घर
और बाहर का
सवाल समाप्त
हो गया। तब घर
ही रह गया, बाहर
कुछ भी न रहा; या उलटा भी
कह सकते हैं
कि बाहर ही रह
गया, घर
कुछ भी न रहा।
एक बात तय है
कि जिस
व्यक्ति को
दिखाई पड़ना
शुरू होगा, उसे बाहर और
भीतर की जो
भेद-रेखा है, वह मिट
जाएगी। वही
बाहर है, वही
भीतर है।
ये
हवाएं हमारे
घर के भीतर भर
गई हैं तो हम
कह रहे हैं घर
के भीतर, और
हमें खयाल
नहीं है कि
प्रतिपल ये
हवाएं बाहर
हुई चली जाती
हैं, और
प्रतिपल जो
बाहर थीं, वे
भीतर चली आती
हैं। घर के
भीतर हवाएं
कुछ अलग हैं
घर के बाहर से?
यह जो
प्रकाश घर में
आ गया है, यह
कुछ अलग है उस
प्रकाश से जो
बाहर है?
हां, इतना ही
फर्क है कि
दीवालों ने
इसे थोड़ा
मद्धिम किया
है, दीवालों
ने इसकी
प्रखरता छीन
ली है, दीवालों
ने इसे थोड़ा
अंधेरा किया
है, दीवालों
ने उसे उतना
ही ताजा और
जीवंत नहीं रहने
दिया है, जितना
वह बाहर है।
हवाएं भी जो
घर के भीतर आ
गई हैं, थोड़ी
गंदी हो गई
हैं। दीवालों
ने, सीमाओं
ने उनकी
स्वच्छता छीन
ली है, ताजगी
छीन ली है।
और अगर
कोई व्यक्ति
घर के भीतर
बैठे-बैठे
पाता है कि
अस्वच्छ हो
गया है सब, और द्वार के
बाहर जाकर
खुले आकाश के
नीचे खड़ा हो
जाता है, तो
हम नहीं कहते
कि उसने घर
छोड़ दिया है, हम इतना ही
कहते हैं कि
घर के बाहर और
बड़ा घर है, जहां
और स्वच्छ
हवाएं हैं, और स्वच्छ सूरज
है, और
साफ-सुंदर जगत
है। आदमी की
बनाई हुई
दीवालें हैं।
और गौर से हम
देखें तो
हमारे मोह की
दीवालें हैं,
जो हमारा घर
बनाती हैं।
मैंने
सुना है, एक
मकान में आग
लग गई है।
उसका घर का
मालिक छाती
पीट-पीट कर रो
रहा है। भीड़
इकट्ठी है। और
तभी एक आदमी
आकर उससे कहता
है कि आप
व्यर्थ रो रहे
हैं, आप
नाहक रो रहे
हैं। मकान तो
बेच दिया गया
है। आपके लड़के
ने उसे बेच
दिया है और
उसके रुपए भी मिल
गए हैं। जैसे
ही वह आदमी
सुनता है कि
मकान बेच दिया
गया है और
रुपए मिल गए
हैं, वह
आदमी हंसने
लगता है, उसके
आंसू सूख जाते
हैं! वह हंस
रहा है! अब भी
मकान में आग
लगी है, मकान
अब भी जल रहा
है, लेकिन
अपना नहीं है
अब, अब कोई
फिकर न रही!
वही मकान जल
रहा है, वही
आदमी है, लेकिन
सब बदल गया!
बीच से मेरे
का एक संबंध
टूट गया।
और तभी
लड़का भागा हुआ
आया और उसने
कहा, किसने आप
से कह दिया कि
रुपए मिल गए
हैं? रुपए
मिलने का
वायदा था, रुपए
मिले नहीं
हैं। और वह
आदमी नट गया
है। वह कहता
है, जले
हुए मकान के
अब क्या रुपए
देंगे! और उस
आदमी की आंख
में फिर आंसू
आ गए हैं, वह
फिर छाती
पीटने लगा है
कि मर गए, लुट
गए।
अभी भी
मकान जल रहा
है। और हो
क्या रहा है
इस बीच? मकान
को पता भी
नहीं होगा कि
उससे संबंधित
आदमी रो भी
लिया, हंस
भी लिया, फिर
रोने लगा है।
मकान सिर्फ जल
रहा है। लेकिन
उस आदमी के
बीच का एक
संबंध बदलता
जा रहा है। वह
मेरा जुड़ जाता
है तो दुख
शुरू हो जाता
है, मेरा
छूट जाता है
तो वह आदमी
हंसने लगता
है।
तो
मकान बांधे
हुए है या
हमारा मेरा
बांधे हुए है? इसे अगर हम
ठीक से समझ
लें तो हमें
दिखाई पड़ेगा,
मेरा हमारा
घेरा है। बहुत
गहरे में मेरे
का भाव, ममत्व
हमारा मकान
है। और ध्यान
रहे, जो
कहता है मेरा,
वह
अनिवार्य रूप
से शेष को
तेरे में बदल
देता है। जो
कहता है मेरा,
वह शेष को
शत्रु बना
लेता है। जो
कहता है अपना,
वह दूसरे को
पराया बना
देता है।
गांधी
जी के आश्रम
में एक भजन
गाया जाता था:
वैष्णव जन तो
तेने कहिए जे
पीर पराई जाने
रे। कोई मुझे
पढ़ कर सुना
रहा था तो
मैंने कहा कि
इसमें थोड़ा
सुधार कर लेना
चाहिए। असल
में वैष्णव जन
तो वह है, जो
पराए को ही
नहीं जानता, पराए की पीर
बहुत दूसरी
बात है। पराए
की पीर भी
जाननी हो तो
पराए को मानना
जरूरी है और
अपने को भी
मानना जरूरी
है। वैष्णव जन
तो वह है, जो
जानता ही नहीं
कि कोई पराया
है। और तभी यह
संभव भी है कि
पराए की पीर
उसे अपनी
मालूम होने लगे--तभी
जब कि पराया न
रह जाए।
तो एक
हमारे मैं का
घेरा है, मैं
का घेरा है।
वही हमारा घर
है। मेरा घर, मेरी पत्नी,
मेरे पिता,
मेरा बेटा,
मेरा
मित्र--एक
मेरे की हमने
दुनिया बनाई
हुई है। उस
मेरे की
दुनिया में
हमने कई तरह
की दीवालें
उठाई हुई हैं।
पत्थर की भी
उठाई हैं, प्रेम
की भी उठाई
हैं, घृणा
की भी उठाई
हैं, द्वेष
की भी, राग
की भी, और
एक घर बनाया
है।
जब कोई
पूछता है, महावीर ने
घर क्यों छोड़
दिया? क्या
घर में ही
संभव नहीं था?
नहीं, घर में संभव
नहीं था। घर
ही असंभावना
थी। अगर हम
बहुत गौर से
देखेंगे, वह
जो मेरे का
भाव था, वही
तो असंभावना
थी। वही रोकता
था, वही
समस्त से नहीं
जुड़ने देता
था। लेकिन अगर
किसी को दिखाई
पड़ गया हो कि
सब ही मेरा है,
या कुछ भी
ऐसा नहीं जो
मेरा है और
तेरा है, तो
फिर कौन सा घर
है जो अपना है
और कौन सा है
जो अपना नहीं
है?
हमें
एक ही बात
दिखाई पड़ती है
कि महावीर ने
घर क्यों छोड़ा? वह क्यों
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि हम
घर को पकड़े
हुए लोग हैं।
हमारे लिए जो
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है वह यह कि इस
आदमी ने घर
क्यों छोड़ा? क्योंकि हम
घर को पकड़े
हुए लोग हैं।
घर को छोड़ने
की बात ही
असह्य है।
कल्पना भी
असह्य है कि घर
छुड़ा लिया
जाए। इस आदमी
ने घर क्यों
छोड़ा? लेकिन
हम समझ नहीं
पा रहे कि घर
की धारणा क्या
है, कंसेप्ट
क्या है!
महावीर
ने घर छोड़ा, या कि घर मिट
गया? जैसे
ही जाना तो घर
मिट गया। जैसे
ही समझा, तो
मेरा और अपना
कुछ भी न रहा, सब का सब हो
गया। यह अगर
हमें दिखाई पड़
जाए तो बड़ा
फर्क पड़ेगा।
हम
यहां बैठे हुए
हैं, दस करोड़
मील दूर पर
सूरज है। वह
अगर ठंडा हो
जाए अभी, अभी
ठंडा हो जाए
तो हमें पता
भी नहीं चलेगा
कि वह ठंडा हो
गया, क्योंकि
उसी के साथ हम
सब ठंडे हो
जाएंगे। दस करोड़
मील दूर जो
सूरज है, वह
भी हमारे
प्राण के
स्पंदन को
बांधे हुए है।
वह भी हमारे
घर का हिस्सा
है। उसके बिना
हम हो ही नहीं
सकते। वह
हमारे होने को
भी संभाले हुए
है। लेकिन कब
हमने सूरज को
अपने घर का
साथी समझा है?
कब हमने
माना है कि
सूरज भी अपना
मित्र परिवार
का है?
लेकिन
जिसे हमने कभी
परिवार का
नहीं समझा है, उसके बिना
हम कोई भी
नहीं होंगे। न
परिवार होगा,
न हम होंगे।
वह दस करोड़
मील दूर बैठा
हुआ सूरज भी
हमारे हृदय की
धड़कन का
हिस्सा है। वह
घर के भीतर है
या बाहर है, अगर यह सवाल
पूछा जाए तो
क्या उत्तर
होगा? सूरज
घर के भीतर है
या घर के बाहर?
अगर
सूरज को घर के
बाहर करते हैं
हम, तो हम
जीवित नहीं रह
सकते एक क्षण।
सूरज भी हमारे
घर के भीतर हो
तो ही हम
जीवित हैं।
हवाएं जो सारी
पृथ्वी को
घेरे हुए हैं,
ये हवाएं
हमारे घर के
भीतर हैं या
बाहर? अगर
यह हवा एक
क्षण को न हो
जाए, तो हम
उसी क्षण न हो
जाएंगे। तो
हमारा घर क्या
है? और
सूरज तो पास
है, दूर के
चांदत्तारे
भी, दूर के
और
ग्रह-उपग्रह
भी, दूर के
और बड़े
सूरज-महासूरज
भी हैं, वे
सब भी किसी न
किसी अर्थों
में हमारे
जीवन का
हिस्सा हैं।
पत्नी
ने आपका खाना
बना दिया है
तो वह आपके घर के
भीतर है, लेकिन
एक गाय ने घास
चरी है और
आपके लिए दूध
बना दिया है, वह आपके घर
के भीतर नहीं
है? और घास
को सीधा आप चर
कर दूध नहीं
बना सकते हैं,
बीच में एक
गाय चाहिए, जो घास को उस
स्थिति में
ट्रांसफार्म
करे, जहां
से वह आपके
योग्य हो जाए।
लेकिन घास ने
भी कुछ किया
है। उसने
मिट्टी को
ट्रांसफार्म
किया है और
घास बन गया
है। घास आपके
घर के भीतर है
या बाहर? क्योंकि
अगर घास न हो
तो आपके होने
की कोई संभावना
नहीं है। और
घास अगर न हो
तो मिट्टी को
खाकर गाय भी
दूध नहीं बना
सकती है। और
घास मिट्टी ही
है, लेकिन
उस फार्म में,
उस रूप में,
जहां से गाय
उसका दूध बना
सकती है, और
जहां से दूध आपका
भोजन बन सकता
है। क्या
हमारा घर है
और क्या हमारे
घर के बाहर है?
अगर हम
आंख खोल कर
देखना शुरू
करें तो हमें
पता चलेगा कि
सारा जीवन एक
परिवार है, जिसमें एक
कड़ी न हो तो
कुछ भी नहीं
होगा। जीवन मात्र
एक परिवार है,
जिसमें एक
छोटी सी कड़ी न
हो, एक
सामने पड़ा हुआ
पत्थर भी किसी
न किसी अर्थों
में हमारे
जीवन का
हिस्सा है, अगर वह भी न
हो तो हम नहीं
कह सकते कि
क्या होगा। सब
बदल सकता है।
तो
जिसको जीवन की
इतनी विराटता
का दर्शन हो
जाएगा, वह
कहेगा, यह
मेरा और वह
मेरा नहीं? नहीं, वह
कहेगा कि सभी
सब हैं, सभी
मेरे हैं, सभी
अपने हैं, या
कोई भी अपना
नहीं है। ये
दो भाषाएं रह
जाएंगी उसके
पास। अगर वह
पाजिटिव ढंग
से बोलेगा, विधायक ढंग
से बोलेगा तो
वह कहेगा, मेरा
ही परिवार है
सब। और अगर वह
निषेधात्मक ढंग
से बोलेगा तो
वह कहेगा, मैं
ही नहीं हूं, परिवार
कैसा! ये दो
उपाय रह
जाएंगे। और ये
दोनों उपाय एक
ही अर्थ रखते
हैं, एक ही
अर्थ रखते
हैं।
तो
महावीर ने कुछ
छोड़ा--घर, परिवार--गलत
है। बड़े
परिवार के
दर्शन हुए, छोटा परिवार
खो गया। और
जिसको सागर
मिल जाए, वह
बूंद को पकड़े
बैठा रहे? कैसे
पकड़े बैठा
रहेगा? बूंद
को तभी तक कोई
पकड़ सकता है, जब तक सागर न
मिला हो। और
सागर मिल जाए
तो हम कहेंगे
बूंद को आपने
छोड़ा? असल
में हमें सागर
दिखाई नहीं
पड़ता, सिर्फ
बूंद ही दिखाई
पड़ती है। बूंद
को पकड़े हुए
लोग, बूंद
को छोड़ते हुए
लोग, ऐसे
हमें दिखाई
पड़ते हैं।
हमें सागर
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
जिसे सागर
दिखाई पड़ गया,
वह कैसे
बूंद को पकड़े
रहे? अब तो
बूंद को पकड़ना
निपट अज्ञान
हो जाएगा।
ज्ञान
विराट में ले
जाता है, अज्ञान
क्षुद्र को
बांध कर पकड़ा
देता है। अज्ञान
क्षुद्र में
ही रुक जाता
है। ज्ञान
निरंतर विराट
से विराट में
चलता जाता है।
महावीर
ने घर नहीं
छोड़ा, घर को
पकड़ना असंभव हो
गया। और इन
दोनों बातों
में फर्क है।
जब हम कहते
हैं, घर
छोड़ा, तो
ऐसा लगता है
कि घर से कोई
दुश्मनी है।
और जब मैं
कहता हूं कि
घर को पकड़ना
असंभव हो गया,
तो ऐसा लगता
है कि और बड़ा
घर मिल गया, और विराटतर
घर। उसमें
पहला घर छूट
नहीं गया, सिर्फ
बड़े घर का
हिस्सा हो गया
है।
यह
हमारे खयाल
में आ जाए तो
रिननसिएशन का, त्याग का एक
नया अर्थ खयाल
में आ जाएगा।
त्याग का अर्थ
कुछ छोड़ना
नहीं है, त्याग
का बहुत गहरा
अर्थ विराट को
पाना है। लेकिन
त्याग शब्द
में खतरा है, उसमें छोड़ना
छिपा हुआ है।
उसमें लगता है,
कुछ छोड़ा।
मेरी
दृष्टि में
महावीर या
बुद्ध या
कृष्ण जैसे
लोगों को त्यागी
कहने में
बुनियादी भूल
है। इनसे बड़े
भोगी खोजना
असंभव है--अगर
हम अर्थ समझ
लें तो। त्याग
का अर्थ है
कुछ छोड़ना, भोग का अर्थ
है कुछ पाना।
महावीर से बड़ा
भोगी असंभव है,
क्योंकि
जगत में जो भी
है, सब
उसका ही हो
गया है। उसका
भोग भी अनंत
हो गया, उसका
घर भी अनंत हो
गया, उसकी
श्वास भी अनंत
हो गई, उसके
प्राण भी अनंत
हो गए, उसका
जीवन भी अनंत
हो गया है।
इतने
विराट को
भोगने की
सामर्थ्य
क्षुद्र चित्त
में नहीं
होती।
क्षुद्र
क्षुद्र को ही
भोग सकता है, इसलिए
क्षुद्र को
पकड़ लेता है।
लेकिन जब
विराट होने
लगे द्वार...।
एक नदी
है, वह चली है
हिमालय से, सागर में
गिर गई है। दो
तरह से देखी
जा सकती है यह
बात। कोई नदी
से पूछ सकता
है, तूने
किनारे क्यों
छोड़ दिए? तूने
किनारों का
त्याग क्यों
किया? ऐसे
भी पूछा जा
सकता है नदी
से--किनारे
क्यों छोड़े
तूने? और
नदी ऐसा भी कह
सकती है, किनारे
मैंने छोड़े
नहीं, किनारे
अनंत हो गए।
किनारे अब भी
हैं, लेकिन
अब उनकी कोई
सीमा न रही, अब वे असीम
हो गए। अब तक
छोटे-छोटे
किनारे थे। एक
छोटी सी धार
थी, बहती
थी। और नदी
रोज छोटे
किनारे छोड़ती
चली आई इसलिए
बड़ी होती चली
गई थी।
गंगोत्री
पर बड़ा छोटा
किनारा था
गंगा का, फिर
आकर सागर के
पास बड़े-बड़े
किनारे हो गए।
लेकिन फिर भी
किनारे थे।
फिर सागर में
उसने अपने को
छोड़ दिया।
सागर के बड़े
किनारे हैं, लेकिन फिर
भी किनारे
हैं। कल वह
भाप बनेगी और आकाश
में उड़ जाएगी,
और भी
किनारे छोड़
देगी। और कोई
किनारा नहीं
रह जाएगा।
जीवन
की खोज मूलतः
किनारों को
छोड़ने की या
बड़े किनारों
को पाने की
खोज है। लेकिन
जिसको असीम और
अनंत मिल जाता
हो, उससे जब
हम पूछने जाते
हैं कि तुमने
किनारे क्यों
छोड़े, तो
क्या उत्तर
होगा उसके पास?
सिर्फ
हंसेगा और
कहेगा कि तुम
भी आओ और छोड़
कर देखो।
क्योंकि जो
मैंने पाया है,
वह इतना
ज्यादा है, और उसमें वह
पुराना मौजूद
ही है, जो
तुम कहते हो
छोड़ दिया। वह
कहीं छोड़ा
नहीं है।
घर
छूटा नहीं है
महावीर का, सिर्फ बड़ा
हो गया। इतना
बड़ा हो गया कि
हमें दिखाई भी
नहीं पड़ता, क्योंकि
हमें छोटे घर
ही दिखाई पड़
सकते हैं। अगर
घर बहुत बड़ा
हो जाए तो फिर
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
त्याग
से हटा देनी
चाहिए बात और
विराट भोग पर ज्यादा
एंफेसिस और
जोर दिया जाना
चाहिए। और मेरी
अपनी समझ है
कि चूंकि
त्याग से हमने
बांध लिया इन
सब
महापुरुषों
को, इसलिए हम
इनके निकट
नहीं पहुंच
पाए। क्योंकि
त्याग बहुत
गहरे में किसी
व्यक्ति को भी
अपील नहीं कर
सकता है। बहुत
गहरे में
त्याग की बात
ही निषेध की
बात है--छोड़ो, छोड़ो, छोड़ो!
यह छोड़ो, यह
छोड़ो, यह
छोड़ो! छोड़ने
की भाषा ही
मरने की भाषा
है। छोड़ना
सुसाइडल हैं,
आत्मघाती
है।
इसलिए
अगर धर्म इस
बात पर जोर
देता हो कि
छोड़ो, छोड़ो,
छोड़ो, तो
बहुत थोड़े से
लोग हैं, जो
उसमें उत्सुक
हो सकते हैं।
और अक्सर ऐसा
होगा कि रुग्ण
लोग उत्सुक हो
जाएंगे और
स्वस्थ लोग
उत्सुक नहीं
रह जाएंगे।
क्योंकि
स्वस्थ भोगना
चाहता है, रुग्ण
छोड़ना चाहता
है, क्योंकि
भोग नहीं
सकता। बीमार,
आत्मघाती
चित्त के लोग
इकट्ठे हो
जाएंगे धर्म
के नाम पर।
स्वस्थ, जीवंत,
जीवन को
जीने वाले लोग
अलग चले
जाएंगे।
कहेंगे, धर्म
हमारा नहीं
है।
इसलिए
तो लोग कहते
हैं कि
युवावस्था
में धर्म की
क्या जरूरत? वह तो
वृद्धावस्था
के लिए है। जब
कि चीजें अपने
से छूटने लगती
हैं तो छोड़ ही
दो। जब कि
चीजें अपने से
ही छूटने लगती
हैं, तो
फिर अब क्या
दिक्कत है? छोड़ दो! छूट
ही रहा है, छीना
ही जा रहा है, तो छोड़ ही
दो। लेकिन जब
जीवन भोग रहा
है, पा रहा
है, उपलब्ध
कर रहा है, तब
छोड़ने की भाषा
समझ में नहीं
आती।
इसलिए
मंदिरों में, मस्जिदों
में, गिरजों
में बूढ़े लोग
दिखाई पड़ते
हैं, जवान
आदमी दिखाई
नहीं पड़ता। वह
छोड़ने पर जो
जोर था, उसने
दिक्कत डाल दी
है।
मैं इस
जोर को एकदम
बदल डालना
चाहता हूं।
मैं कहता हूं, भोगो! और बड़ा
भोगो, और
बड़ा! परमात्मा
को भोगो। और
उसका भोग बहुत
अनंत है, और
तुम क्षुद्र
पर मत रुक
जाना।
क्षुद्र को छोड़ना
तो इसलिए कि
विराट को
भोगना है।
प्रश्न:
वहां
अपना
अस्तित्व मिट
जाता है?
जितने
हम विराट होते
चले जाएंगे, उतना ही
अस्तित्व
मिटता चला
जाएगा। लेकिन
असल में
अस्तित्व मिट
जाता है, ऐसा
कहना गलत है। मेरा
अस्तित्व मिट
जाता है, इतना
ही कहना सही
है। ईगो चली
जाती है, अस्तित्व
तो रहेगा।
प्रश्न:
अभी
नदी सागर में
गिर गई तो नदी
का कैसे पता
लगेगा?
पता
न लगेगा, लेकिन
नदी है, अस्तित्व
तो है। नदी
में जो कण-कण
था, एक कण
भी नहीं खोया,
सब है। हां,
नदी की तरह
नहीं है, सागर
की तरह है। और
नदी की तरह अब
नहीं खोजा जा सकता।
नदी मर गई, लेकिन
नदी का जो
अस्तित्व था,
एक्झिस्टेंस
था, वह
पूरा का पूरा
शेष है। नदी
की
इंडिविजुअलिटी
मर गई।
प्रश्न:
और
फिर आप कहते
हैं, छोड़ना
तो सुसाइडल
है!
बिलकुल
सुसाइडल है।
छोड़ने की भाषा
ही सुसाइडल है।
तो मैं यह कह
रहा हूं कि
भोगने की...।
नदी से
यह मत कहो कि
नदी होना
छोड़ो। नदी से
कहो, सागर
होना सीखो।
मैं जो, जो
फर्क कर रहा
हूं, नदी
से यह मत कहो
कि छोड़ो, छोड़ो,
छोड़ो। नदी
से यह कहो, भोगो,
विराट सागर
सामने है। रुको
मत, दौड़ो, कूद जाओ
सागर में।
भोगो! सागर को
भोगो।
तो
मुझे लगता है
कि जगत को
ज्यादा
धार्मिक जीवन
दिया जा सकता
है। क्योंकि
सामान्य
चित्त जो हमारा
है, सामान्य
चित्त का जो
भाव है, वह
भोगने का है, त्यागने का
नहीं है। और
सामान्य
चित्त को अगर धर्म
की तरफ उठाना
है तो उसे
विराट भोग का
आमंत्रण
बनाना चाहिए।
अभी
उलटा हो गया
है। जो
छोटा-मोटा भोग
चल रहा है, उसका भी
निषेध करने का
आमंत्रण बना
हुआ है। उसे
भी निगेट करो,
उसे भी
इनकार करो। और
यह मैं मानता
हूं कि अगर हम
विराट को
भोगने जाएंगे
तो क्षुद्र का
निगेशन हो
जाने वाला है,
वह हमें
करना नहीं
पड़ेगा। वह तो
नदी को सागर बनना
है तो वह नदी
नहीं रह
जाएगी। यह कोई
कहने की बात
नहीं है। नदी
को सागर बनना
है तो उसे नदी होना
छोड़ना ही
पड़ेगा, लेकिन
इस पर जोर मत
दो।
ये दो
घटनाएं घट रही
हैं। नदी मिट
रही है, एक
घटना है; नदी
सागर हो रही
है, यह
दूसरी घटना
है। किस पर
जोर देते हैं
आप? अगर
सागर होने पर
जोर देते हैं
तो मैं मानता
हूं कि ज्यादा
नदियों को आप
आकर्षित कर
सकते हैं कि
वे सागर बन
जाएं। और अगर
आप कहते हैं
कि नहीं, नदी
मिट जाओ और
सागर की बात
मत करो! तो
शायद ही कोई
एकाध बीमार
नदी को आप राजी
कर लें, जो
मिटने को राजी
हो जाए, जो
कि होने से
घबड़ा गई हो।
बाकी नदियां
तो रुक जाएंगी।
वे कहेंगी, हम बहुत
आनंदित हैं, हमें नहीं
मिटना है। हां,
मिटना तभी
सार्थक हो
सकता है, जब
विराट का
मिलना सार्थक
हो रहा हो, अर्थ
ले रहा हो।
तो
मेरा जोर जो
है, वह इस बात
पर है कि धर्म
को त्याग मत
बनाओ, धर्म
को और विराट
भोग बनाओ।
त्याग आएगा, वह आटोमैटिक
होगा, वह
सीधा अपने आप
होगा। अगर
आपको आगे की
सीढ़ी पर पैर
रखना है तो
पीछे की सीढ़ी
छूटेगी, लेकिन
इस पर जोर मत
दो कि पीछे की
सीढ़ी छोड़नी है।
जोर इस पर दो
कि आगे की
सीढ़ी पानी है।
प्रश्न:
जैसे
त्याग शब्द ने
गलती की अभी
तक, वैसे ही
आपका भोग शब्द
भी गलती कर दे,
इसलिए आपको
अलग शब्द देना
पड़े।
बिलकुल
कर सकता है।
बिलकुल कर
सकता है। सब
शब्द गलती कर
सकते हैं।
क्योंकि शब्द
गलती नहीं करते...।
प्रश्न:
इसलिए
वह जो विचार
है, वह दूसरे
शब्द में आना
चाहिए। भोग का
शब्द है, उसके
लिए दूसरा
शब्द ही देना
पड़े?
इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
प्रश्न:
नहीं, लोगों की
समझ में तो
वही आएगा न
फिर?
इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। कोई भी
शब्द हम दे दें, सब शब्द
गलती कर सकते
हैं। क्योंकि
अंततः शब्द
गलती नहीं
करते, अंततः
लोग गलती करते
हैं। लेकिन
त्याग शब्द
व्यर्थ हो गया
है। वह गया! और
त्याग के
विपरीत और कोई
शब्द नहीं है
अभी सिवाय भोग
के, जो
सार्थकता ले
सकता है।
लेकिन जो मैं
कह रहा हूं, अगर उसे ठीक
से समझा जाए
तो मेरा भोग
त्याग के विपरीत
नहीं है, मेरा
भोग त्याग में
से ही है।
क्योंकि मैं
कह रहा हूं कि
दूसरी सीढ़ी पर
पैर रखना है
तो पहली सीढ़ी
छोड़नी ही
पड़ेगी। लेकिन
जोर मेरा
दूसरी सीढ़ी पर
पैर रखने पर
है। जोर
मेरा...।
प्रश्न:
आगे
बढ़ने पर है?
हां, आगे बढ़ने पर
है। जोर मेरा
पिछली सीढ़ी
छोड़ने पर नहीं
है। एंफेसिस
जो है, वह
इस बात पर है
कि अगली सीढ़ी
पाओ, इसे
मैं भोग कह
रहा हूं।
पिछली जो
एंफेसिस थी, वह इस पर थी
कि जिस सीढ़ी
पर खड़े हो, उसे
छोड़ो। वह
एंफेसिस
छोड़ने पर थी।
पिछली
सीढ़ी छोड़ो, इसके लिए
बहुत कम लोगों
को राजी किया
जा सकता है।
क्योंकि जिस
पर हम खड़े हैं,
उसे भी छोड़
दें? हां, जो उस सीढ़ी
पर अत्यंत दुख
में हैं, शायद
वे छोड़ने को
राजी हो जाएं।
वे कहें कि इससे
बुरा तो कुछ
भी नहीं हो
सकता। इसे तो
छोड़ ही देते
हैं, फिर
जो होगा, होगा।
रुग्ण चित्त
त्याग की भाषा
को समझ लेगा, स्वस्थ
चित्त त्याग
की भाषा को
नहीं समझ सकेगा।
वृद्ध चित्त
त्याग की भाषा
को समझ लेगा, युवा चित्त
त्याग की भाषा
को नहीं समझ
सकेगा।
इसलिए
मैं कह रहा
हूं कि पिछले
पांच हजार
वर्षों में
धर्म ने जो भी
रूप-रेखा ली
है, वह रुग्ण,
न्यूरोटिक,
विक्षिप्त,
वृद्ध, बीमार--इस
तरह के लोगों
को आकर्षित
करने का कारण
बना। वह त्याग
शब्द ने, उस
पर जोर देने
का यह परिणाम
हुआ है।
स्वस्थ, जीवंत,
जीने के लिए
लालायित, वह
उस तरफ नहीं
गया। उसने कहा,
जब जीवन की
लालसा चली
जाएगी, तब
देखेंगे, अभी
तो हमें जीना
है।
मैं यह
कह रहा हूं कि
यह जो जीवंत
धारा है, इसे
आकर्षित करो।
और यह तभी
आकर्षित होगा,
जब इसे
विराट जीवन का
खयाल सामने
हो। छोड़ना
नहीं है, पाना
है। और छोड़ना
होगा ही इसमें,
क्योंकि
बिना छोड़े कुछ
भी पाया नहीं
जा सकता है।
असंभव ही है
कि हम बिना
छोड़े कुछ भी
पा लें। कुछ
भी हम पाने
चलेंगे तो कुछ
छोड़ना पड़ेगा।
और इसलिए सवाल
छोड़ने के
विरोध का नहीं
है, सवाल
एंफेसिस का है,
जोर का है।
हम किस चीज पर
जोर देते हैं।
भोग
शब्द में बहुत
निंदा छिप गई
है। वह त्यागियों
ने पैदा की
है। और इसलिए
मैं भोग का ही
उपयोग करना
चाहता
हूं--जान कर
ही। क्योंकि
वह जो भोग की
निंदा है, वह इन
त्यागियों ने
ही पैदा की
है। वे कहते
हैं, भोग
की बात ही मत
करो, रस की
बात ही मत करो,
सुख की बात
ही मत करो, क्योंकि
त्याग करना
है।
मेरा
कहना यह है कि
यह पूरी की
पूरी भाषा गलत
हो गई है।
इसने गलत तरह
के आदमियों को
आकर्षित किया
है, स्वस्थ
आदमी को
आकर्षित नहीं
किया।
जीवन
को भोगना है
उसकी
गहराइयों
में। जीवन को जीना
है उसकी
आत्यंतिक
उपलब्धियों
में, उसके
पूर्ण रस में,
उसके पूर्ण
सौंदर्य में।
परमात्मा इस
अर्थों में
प्रकट होना
चाहिए कि जो
व्यक्ति
जितना परमात्मा
में जा रहा है,
उतने जीवन
की गहराइयों
में जा रहा
है।
अभी तक
का जो
त्यागवादी
रुख था, वह
ऐसा था कि जो
व्यक्ति परमात्मा
की तरफ जा रहा
है, वह
जीवन की तरफ
पीठ कर रहा है,
वह जीवन को
छोड़ कर भाग
रहा है। वह
जीवन की गहराइयों
में नहीं जा
रहा, वह
जीवन का इनकार
ही कर रहा है।
वह कहता है, जीवन हमें
नहीं चाहिए, हमें मृत्यु
चाहिए। इसलिए
वह मोक्ष की
बातें करता
है। मृत्यु
चाहिए, हमें
जीवन नहीं
चाहिए। हमें
ऐसी मृत्यु
चाहिए, जो
फिर जीवन हो
ही नहीं।
यह
सारी की सारी
जो जोर है, यह मैं
जानता हूं कि
अगर कोई
परमात्मा को
जीवन की तरह
मान कर चलेगा
तो भी यह सब
छूट जाएगा, जो त्यागी
कह रहा है, वह
सब छूटेगा, वह बचने
वाला नहीं है,
लेकिन तब उस
छूटने पर जोर
नहीं होगा।
यानी मेरा जोर
यह है कि आपके
हाथ में पत्थर
हैं तो मैं
आपसे नहीं
कहता कि आप
पत्थर फेंक
दो। मैं आपसे
कहता हूं कि
सामने हीरों
की खदानें
हैं। मैं नहीं
कहता आप पत्थर
फेंको, मैं
यह कहता हूं
कि हीरे बड़े
पाने योग्य
हैं और सामने
चमक रहे हैं।
मैं यह जानता
हूं कि हाथ
खाली करने
पड़ेंगे, क्योंकि
बिना हाथ खाली
किए हीरों पर
हाथ भरेंगे
कैसे आप? पत्थर
छूट जाएंगे, लेकिन यह
छूटना बड़ा सहज
होगा। आपको
शायद पता भी
नहीं चलेगा कि
कब आपने हाथ
से पत्थर गिरा
दिए हैं और
हीरे हाथ में
भर लिए हैं!
शायद आपको खयाल
भी नहीं आएगा
कि मैंने
पत्थर छोड़े
हैं, क्योंकि
जिसे हीरे मिल
गए हों, वह
पत्थर छोड़ने
की बात ही
नहीं कर सकता।
लेकिन
पुराना जोर इस
बात पर था कि
पत्थर छोड़ो।
और इसलिए ऐसे
लोग हैं कि जो
पत्थर छोड़ने
के आधार पर ही
जिंदगी भर जी
रहे हैं, कि
हमने पत्थर
छोड़े हैं!
उन्हें कुछ मिला
कि नहीं, इसका
कोई पता नहीं
है। उन्हें
आगे की सीढ़ी
मिली कि नहीं
मिली है!
क्योंकि मैं
यह कहता हूं, मैं यह कहता
हूं कि यह हो
सकता है पत्थर
छोड़ दिए जाएं
और हीरे न
मिलें, लेकिन
यह कभी नहीं
हो सकता कि
हीरे मिल जाएं
और पत्थर न
छोड़े जाएं। यह
जो मेरा फर्क
है, यह कभी
नहीं हो सकता
कि हीरे मिल
जाएं और पत्थर
न छोड़े जाएं।
लेकिन यह हो
सकता है कि
पत्थर छोड़ दिए
जाएं और हीरे
न मिलें। हाथ
खाली भी रह जा
सकते हैं।
त्याग
की भाषा ने
बहुत से लोगों
के हाथ खाली करवा
दिए हैं।
अच्छा जिसके
हाथ खाली हैं, वह उन लोगों
पर क्रोध से
भर जाता है, जिनके हाथ
भरे हैं।
इसलिए हमारा
साधु-संन्यासी
बहुत गहरे
कंडेमनेशन
में जीता है।
वह चौबीस घंटे
उनकी निंदा कर
रहा है, जिनके
हाथ भरे हैं, जो भोग रहे
हैं, जो
जीवन में सुख
पा रहे हैं! वह
उन सबके लिए
गालियां दे
रहा है, उनको
नरक भेजने का
इंतजाम कर रहा
है! उनको सड़वा
डालेगा, आग
में जलवा
डालेगा, वह
सब इंतजाम कर
रहा है!
ये
उसकी मानसिक
तृप्तियां
हैं, जो खाली
हाथ का आदमी
ले रहा है उन
लोगों से बदला,
जिनके हाथ
भरे हुए हैं
और जो राजी
नहीं हैं खाली
हाथ करने को।
और जो लोग
उनके आस-पास
इकट्ठे हुए
हैं, उनको
भी उनके हाथ खाली
दिखाई पड़ते
हैं, भरा
हुआ कुछ दिखाई
पड़ता नहीं!
क्योंकि मेरा
मानना यह है
कि अगर भरा
हुआ कुछ दिखाई
पड़े तो स्वाभाविक
होगा कि हम भी
उस यात्रा पर
निकल जाएं, जहां आदमी
और फुलफिल्ड
हुआ है, और
भी भर गया है।
आप एक
संन्यासी के
पास जाते हैं, एक त्यागी
के पास जाते हैं,
तो आप भला
कितनी ही
प्रशंसा करें
उसके त्याग की,
आप कितना ही
कहें, बड़ी
हिम्मत का
आदमी है, इसने
यह छोड़ा, यह
छोड़ा, यह
छोड़ा; लेकिन
न तो उसकी
आंखों में, न उसके
व्यक्तित्व
में, न
उसके जीवन में,
वह सुगंध
नहीं दिखाई
पड़ती जो आने
की है--कुछ आया,
कुछ उतरा!
और
मेरा मानना है
कि अगर उसके
जीवन में कुछ
आ जाए तो वह भी
त्याग की
बातें बंद कर
देगा।
क्योंकि वह भूल
जाएगा उन
पत्थरों को, जो छोड़े।
क्योंकि अब
हीरों की
चर्चा होगी, जो पाए।
लेकिन
जो भी त्याग
की बातें किए
चला जा रहा है, अभी भी
पत्थर छोड़ने
की बातें किए
चला जा रहा है,
निश्चित है
कि उसके हाथ
में कुछ और
नहीं आया। पत्थर
छूट गए हैं, और एक ही रस
रह गया है
उसका कि मैंने
इतने पत्थर
छोड़े, मैंने
यहऱ्यह छोड़ा,
यही उसका रस
रह गया है। और
हम जो चारों
तरफ इकट्ठे
लोग हैं, हमें
भी और कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता है उसमें,
सिर्फ
छोड़ना दिखाई
पड़ता है!
छोड़ना कभी भी
चित्त के लिए
आकर्षण नहीं
बन सकता। असहज
है, सहज
नहीं है। पाना
ही चित्त के
लिए सहज
आकर्षण है।
तो वह
अगर हमारे
खयाल में हो
जाए, वह अगर
साफ हो जाए तो
महावीर ने घर
छोड़ा, इस
भाषा को हम
नहीं
बोलेंगे। यह
महावीर ने घर छोड़ा,
यह तथ्य है।
तथ्य इतना है
कि महावीर घर
में नहीं रहे।
लेकिन इसको हम
किस तरह से
देखें, यह
हम पर निर्भर
है; यह
महावीर पर
निर्भर नहीं
है अब। और
मेरी अपनी
दृष्टि यह है
कि महावीर घर
छोड़ कर जितने
आनंदित दिखाई
पड़ते हैं, जितने
प्रसन्न
दिखाई पड़ते
हैं, उनके
जीवन में जैसी
सुगंध मालूम
पड़ती है, वह
खबर देती है
कि घर छोड़ा
नहीं, बड़ा
घर मिल गया।
यानी वह अगर
घर ही छूटता
और आंगन में
खड़े रह गए
होते बाहर सड़क
पर, तो यह
हालत नहीं
होने वाली थी।
बड़ा घर मिल
गया, महल
मिल गया, झोपड़ा
ही छूटा है।
इसलिए जो छूटा
है उसकी बात ही
नहीं है। जो
मिल गया है, वह चारों
तरफ से उनको
आनंद से भरे
दे रहा है।
लेकिन
महावीर के
पीछे चलने
वाले साधु को
देखें! तो
उसको कुछ भी
नहीं मालूम
पड़ता। ऐसा
लगता है, वह
सड़क पर खड़ा हो
गया है। जो था,
वह खो दिया;
और जो मिलने
की बात थी, वह
मिला नहीं है।
तो वह अधूरे
में अटक गया
है। वह एक
कष्ट में जी
रहा है, वह
एक परेशानी
में जी रहा
है। लेकिन हम,
इसे भी थोड़ा
सोच लेना
चाहिए, कि
हम किसी को
परेशानी में
जीते देख कर
आदर क्यों
देते हैं? असल
में यह भी बड़ी
गहरी हिंसा का
भाव है। एक आदमी
जब परेशानी
में होता है
तो हम उसको
आदर देते हैं।
और परेशानी
अगर वालंटरी
है, खुद ही
स्वेच्छा से
ली है, तब
हम और भी आदर
देते हैं।
क्यों लेकिन?
यह
हमारा आदर भी
रुग्ण है। असल
में हम दूसरे
को दुख देना
चाहते हैं--सब!
हम सब दूसरे
को दुख देना
चाहते हैं। हम
सब सैडिस्ट
हैं। भीतर से
हमारे चित्त
में यही होता
है कि किसको
कितना दुख दे
दें। और जब कोई
ऐसा आदमी मिल
जाता है जो
दुख खुद ही
वरण करता है, तो हम बड़े
आदर से भर
जाते हैं, कि
यह आदमी
बिलकुल ठीक
है। यह हमारी
भीतर की किसी
बहुत गहरी
आकांक्षा को
तृप्त करता
है। यह हमारे
भीतर कहीं इस
बात को तृप्त
करता है कि ठीक!
आप
देखें, एक
आदमी सुखी हो
जाए तो आप सुखी
नहीं होते। एक
आदमी ज्यादा
से ज्यादा सुख
में जाने लगे
तो आप दुख में
जाने लगते
हैं। किसी का
सुख में जाना
आपका दुख में
जाना बन जाता
है। लेकिन
किसी का दुख
में जाना आपका
दुख में जाना
नहीं बनता।
हालांकि हो
सकता है, कभी
कोई आदमी दुख
में पड़ा हो तो
आप बड़ी सहानुभूति
प्रकट करते
हों। लेकिन
अगर थोड़ा भीतर
झांकेंगे तो
आप पाएंगे, सहानुभूति
में भी रस आ
रहा है। हो
सकता है कोई आदमी
बहुत सुखी हो
गया, बड़े
मकान में जीने
लगा है, तो
हो सकता है आप
प्रशंसा भी
करते हों, और
कहते हों कि
बहुत अच्छा है,
भगवान की
बड़ी कृपा है।
लेकिन इसमें
भीर् ईष्या
छुपी होगी, इसमें भी
भीतरर् ईष्या
घाव कर रही
होगी मन को।
लेकिन
जब कोई आदमी
वालंटरली, स्वेच्छा से
दुख में जाता
है, तब हम
उसको बड़ा आदर
देते हैं, क्योंकि
वह वही काम कर
रहा है, जो
हम चाहते थे
कि करे। इसलिए
त्यागियों, तपस्वियों,
तथाकथित
छोड़ने वाले
लोगों को जो
इतना सम्मान मिला
है, उसका
कारण है। आप
किसी सुखी
आदमी को कभी
सम्मान नहीं
दे सकते।
दुखी! और दुख
खुद ओढ़ा गया
हो, तब तो
हम उसके पैरों
में सिर रख
देते हैं कि
आदमी अदभुत
है!
यह भी
मेरा मानना है
कि
मनुष्य-जाति
भीतर से रुग्ण
है इसकी वजह
से त्यागियों
को सम्मान है।
अगर
मनुष्य-जाति
स्वस्थ होगी
तो सुखी लोगों
को सम्मान
होगा। जो
स्वेच्छा से
ज्यादा से
ज्यादा सुखी
हो गए हैं, उनका सम्मान
होगा। और यह
भी ध्यान रहे,
हम जिसको
सम्मान देते
हैं, धीरे-धीरे
हम भी वैसे
होते चले जाते
हैं। दुख को
सम्मान दिया
जाएगा तो हम
दुखी होते चले
जाएंगे। सुख
को सम्मान
दिया जाएगा तो
हम सुख की यात्रा
पर कदम
बढ़ाएंगे।
लेकिन अब तक
सुखी आदमी को
सम्मान नहीं
दिया गया। अब
तक सिर्फ दुखी
आदमी को
सम्मान दिया
गया है। यह
मनुष्य-जाति के
भीतर दूसरे को
दुख देने की
प्रबल आकांक्षा
का ही हिस्सा
है।
प्रश्न:
तो
इसका मतलब यह
है, त्यागी
आपस में
एक-दूसरे को
सम्मान नहीं
देंगे, जो
त्यागी ही
होंगे? मान
लीजिए त्याग
में ही हमारा
सारा संसार बन
जाता है, तो
आपस में
एक-दूसरे को
सम्मान नहीं
मिलेगा?
मिलेगा
अगर बड़ा
त्यागी मिल
जाए तो। यानी अपने
को और ज्यादा
दुख देने वाला
मिल जाए तो मिलेगा।
कारण वही
होगा। छोटा
त्यागी बड़े
त्यागी को
सम्मान देगा।
क्योंकि छोटा
त्यागी एक दफे
खाता है, बड़ा
त्यागी एक दफे
भी नहीं खा
रहा है! छोटा
त्यागी
पंद्रह दिन
खाता है, बड़ा
त्यागी महीने
भर भूखा बैठा
हुआ है! तो छोटे
त्यागी को बड़े
त्यागी को
सम्मान देना
पड़ेगा, लेकिन
बात वही है।
बात वही है।
दूसरे
को दुख में
देख कर हमारे
मन में सम्मान
पैदा होना बात
ही गलत है।
दूसरे को किसी
भी तरह के दुख
में देख कर, कष्ट में
देख कर...।
एक
आदमी कांटे पर
लेटा हुआ है
तो लोग उसके
पैर छुएंगे। लेकिन
किसी को कांटे
पर लेटा हुआ
देख कर पैर छूना
बड़ी खतरनाक
बात है।
क्योंकि यह इस
बात की खबर है
कि जो भी
कांटे पर सोने
की तैयारी
करेगा, हम
उसको आदर देने
की तैयारी
दिखला रहे
हैं! यानी हम
यह कह रहे हैं
कि लोग दुखी
होने की तैयारी
करें तो हम
उनको आदर
देंगे। कांटे
पर सोओ तो हम
ज्यादा आदर
देंगे; और
लोहे की कीलें
भोंक ले शरीर
में, तो और
ज्यादा आदर
देंगे।
यूरोप
में ईसाइयों
का एक पंथ था, जो जूतों
में नीचे लोहे
की कीलें लगा
लेता था--अंदर
पैर के, कीलें!
और उनके पैरों
में घाव होते।
उनमें जो गुरु
होते, वे
सिर्फ जूते
में ही न
लगाते, वे
एक पट्टा भी
बांधते कमर
में, और उस
पट्टे में भी
गहरे कीले गड़े
रहते जो पूरे
वक्त छिदते
रहते! उठें, बैठें, हिलें,
करवट लें, और खून बहता
रहता, मवाद
बहती रहती। तो
जिस व्यक्ति
से जितनी ज्यादा
मवाद बहती, वह उतना
परम-गुरु हो
जाता! यानी इस
बात का नाप-जोख
रखना पड़ता कि
किसके कितने
घाव हैं! तुम
दस कीलें गड़ाए
हुए हो कि
पंद्रह? तो
दस वाला
पंद्रह वाले
को आदर देता!
एक
दूसरा
संप्रदाय था, जो कोड़े
मारने वालों
का संप्रदाय
था कि सुबह उठ
कर साधु अपने
शरीर को नंगा
करके कोड़े
मारता--फ्लैजलेटिस्ट
कहलाते वे।
अपने को कोड़ा
मारता। जो
जितने ज्यादा
कोड़े मारता, इसकी चर्चा
होती गांव में
कि फलां आदमी
एक सौ एक कोड़े
मारता है
सुबह! हमको यह
बात अजीब लगती
है। फलां आदमी
दो सौ एक
मारता है, चमड़ा
बिलकुल उधेड़
डालता है, लहूलुहान
हो जाता है, उसका उतना
आदर होता!
लेकिन
हम भी कहते
हैं कि फलां
साधु ने
पंद्रह दिन का
उपवास किया है, फलां साधु
ने इक्कीस दिन
का उपवास किया
है, फलां
आदमी महीने भर
से उपवास पर
है। इसके हम अखबार
में फोटो भी
निकालते हैं,
जुलूस भी
निकालते हैं,
कि यह आदमी
दो महीने
उपवास किया
है! यह बड़ा अदभुत
आदमी है। दो
महीने भूखा
मरा है। यह भी
फ्लैजलेटिज्म
है। यह भी
कोड़े ही मारना
है, यह भी
खीलें ही
ठोंकना है।
लेकिन
हमें खयाल में
नहीं है कि आज
तक मनुष्य-जाति
क्यों दुख
देने वाले
लोगों को--खुद
को दुख देने
वाले लोगों को
इतना आदर
क्यों देती
रही? जरूर
कहीं कोई
रुग्ण भाव काम
कर रहा है!
कहीं जरूर कोई
हमारे मन में
दूसरे लोगों
को दुख दिया
जाए...।
प्रश्न:
तो
त्याग के लिए
जैसे
ग्रेडेशंस
बताए आपने कि ज्यादा
से ज्यादा दुख
देना, वैसे
भोग के लिए आप
ग्रेडेशंस
कैसे बताएंगे?
भोग तो
अदृश्य होगा?
भोग
भी दिखता है।
भोग भी दिखता
है। चूंकि
हमने त्याग के
बाबत चिंतन
किया, इसलिए
ग्रेडेशंस बन
गए, अगर हम
भोग के लिए
चिंतन करेंगे
तो ग्रेडेशंस बन
जाएंगे। भोग
भी दिखता है।
वह भी दिखता
है कि कौन
आदमी कितना
आनंदित है, कौन आदमी
कितना शांत
है। कौन आदमी
प्रत्येक चीज
से कितना सुख
लेता है।
यानी
समझ लें कि एक
आदमी फूल के
पास खड़ा हुआ
है, फूल के
पौधे के पास
खड़ा हुआ है, गुलाब के
पास खड़ा हुआ
है, तो वह
आदमी भी हमें
दिखता है, जो
अपना हाथ
कांटे में
चुभा रहा है; तो वह आदमी
हमको नहीं
दिखेगा जो फूल
की सुगंध ले
रहा है? वह
भी दिख जाएगा।
लेकिन हमने
देखा नहीं! वह
हमें यही थोड़े
ही दिखेगा कि
यह आदमी कांटे
में हाथ
चुभाता है, तभी दिखाई
पड़ता है। फूल
की सुगंध लेते
हुए नहीं
दिखाई पड़ता!
लेकिन अब तक
हमने उस आदमी
को आदर दिया
है, जिसने
गुलाब के
कांटे को हाथ
में चुभा लिया
है और खून बहा
दिया है! हमने
कहा, यह
आदमी अदभुत
है। हमने उस
आदमी को आदर
नहीं दिया, जिसने फूल
की सुगंध ली
है! हमने कहा, यह तो आदमी
साधारण है।
फूल की सुगंध
तो कोई भी लेता
है, असली
सवाल तो कांटा
चुभाने का है।
अब बड़ा
मजा यह है कि
असली सवाल फूल
की सुगंध लेने
का ही है, कांटा
चुभाने का
नहीं है।
कांटा चुभाने
वाला भी बीमार
है, रुग्ण
है, साइकिएट्रिक
है वह, उसकी
मनोवैज्ञानिक
स्थिति गड़बड़
है। और कांटा
चुभाने वाले
को आदर देने
वाला भी
खतरनाक है, वह भी रुग्ण
है। फूल
सूंघने वाला
भी स्वस्थ है
और फूल सूंघने
वाले को
सम्मान देने
वाला भी स्वस्थ
है।
एक ऐसा
समाज चाहिए, जहां सुख का
समादर हो, दुख
का अनादर हो।
लेकिन हुआ
उलटा है। और
इस समाज ने इस
तरह का धर्म
पैदा कर लिया
और इस जगत में
जो सबसे ज्यादा
सुखी लोग थे, उनको सबसे
ज्यादा दुखी
लोगों की
श्रेणी में रख
दिया!
महावीर
जैसे व्यक्ति
को सर्वाधिक
सुखी लोगों
में से गिना
जाना चाहिए।
यानी इसके
आनंद की कोई
सीमा लगानी
मुश्किल है।
यह आदमी चौबीस
घंटे आनंद में
है। लेकिन
हमारी वह
त्याग की
दृष्टि ने वह
सारा आनंद
क्षीण कर
दिया। बल्कि
हमने क्या
कहना शुरू
किया, हमने
कहना यह शुरू
किया कि यह
आदमी इतने
आनंद में
इसीलिए है कि
इसने
इतना-इतना
त्याग किया! जो
इतना-इतना
त्याग करेगा,
वह इतने
आनंद में हो
सकता है।
त्याग
कर रहा है
आदमी, लेकिन
उतने आनंद में
नहीं हो जाता
है। बात उलटी
है। यह आदमी
इतने आनंद में
है, इसलिए
इससे इतने
त्याग हो गए।
ये त्याग हो
जाना, इतने
आनंद में होने
का परिणाम था।
और कोई आदमी
इतने आनंद में
होगा तो उससे
इतने त्याग हो
जाएंगे।
लेकिन
हमने उलटा
पकड़ा। हमने
पकड़ा कि
इतने-इतने
त्याग करो, तो देखो, महावीर
इतने आनंद में
हुआ! तुम भी
इतने त्याग करोगे
तो तुम भी
इतने आनंद में
हो जाओगे। बस,
बात एकदम
गलत हो गई। वह
त्याग करने से
कोई आनंद में
नहीं हो
जाएगा। हाथ के
पत्थर छोड़
देने से हीरे
नहीं आ जाते, लेकिन हीरे
आ जाएं तो
पत्थर छूट
जाते हैं। त्याग
पीछे है, प्रथम
नहीं है। यह
मैं कह रहा
हूं।
और अगर
महावीर को हम
इस भाषा में
देखें--और मुझे
लगता है कि
यही सही भाषा
है उनको देखने
की--तो हमारा
धर्म के प्रति, जीवन के
प्रति पूरा
दृष्टिकोण
अलग होगा।
महावीर ने घर
नहीं छोड़ा, बड़ा घर
पाया--छोड़ने
की भाषा के ही
मैं विरोध में
हूं--बड़ा घर
पाया। और बड़ा
घर पाया, छोटा
घर छूट गया।
छूट गया इसका
मतलब यह नहीं
कि वे उसके
दुश्मन हो गए।
छूट गया उसका
मतलब यह है कि
अब छोटे घर
में रहना
असंभव हो गया।
जब बड़ा घर मिल
गया, छोटा
घर उसका
हिस्सा हो गया,
उससे
ज्यादा नहीं
रह गया।
प्रश्न:
जैसे
कि त्याग शब्द
मिसलीडिंग है, वैसा ही भोग
शब्द भी
मिसलीडिंग हो
सकता है न?
वह
तो वही माणिक
बाबू कहते हैं, प्रत्येक
चीज
मिसलीडिंग हो
सकती है। यह
सवाल नहीं है,
प्रत्येक
चीज हो सकती
है। लेकिन अगर
इसमें भी चुनाव
करना हो तो
मैं कहता हूं
कि भोग की
मिसलीडिंग
होना ठीक है, उसका भी मैं
कहता हूं। अगर
यह भी चुनाव
करना हो कि
भोग या त्याग
दोनों ही अगर
मिसलीडिंग--मिसलीडिंग
हो सकते
हैं--तो भी मैं
कहता हूं कि
फिर भोग का ही
मिसलीड करना
ठीक है। इसलिए
कहता हूं कि
वह जीवन के स्वस्थ,
जीवन के सरल
और सहज होने
का प्रतीक है।
और यह
भी बड़े मजे की
बात है कि जो
आदमी भोगने चलेगा, उससे त्याग
धीरे-धीरे
अनिवार्य हो
जाएंगे, वह
कितना ही
मिसलीडिंग
हो। यानी मेरा
कहना यह है कि
जो आदमी भोगने
चलेगा, वह
जैसे-जैसे भोग
में उतरेगा, वैसे-वैसे
बड़े भोग की
संभावनाएं
प्रकट होंगी,
और त्याग
उससे
अनिवार्य हो
जाएंगे।
लेकिन जो आदमी
त्याग करने
चलेगा, उससे
पुराने भोग की
संभावनाएं
छिन जाएंगी और
नए भोग की
संभावनाएं
प्रकट नहीं
होंगी। वह आदमी
सूखता चला
जाएगा।
यानी
यह बात सच है
कि ज्यादा
खाना भी
खतरनाक है, न खाना भी
खतरनाक है, फिर भी अगर
दोनों में से
चुनना हो तो
मैं कहूंगा
ज्यादा खाना
ही चुन लेना।
क्योंकि न
खाने वाला तो
मर ही जाएगा।
ज्यादा खाने
वाला बीमार ही
पड़ सकता है।
और ज्यादा
खाने वाला आज
नहीं कल इस
अनुभव पर
पहुंच जाएगा कि
कम खाना सुखद
है। लेकिन न
खाने वाला कभी
इस अनुभव पर
नहीं
पहुंचेगा, क्योंकि
वह मर ही
जाएगा।
यानी
जो मैं कह रहा
हूं, यानी
मेरा कहना यह
है कि अगर भूल
भी चुननी हो--भूल
तो सब जगह
संभव है, भूल
सब जगह संभव
है, क्योंकि
आदमी, आदमी
अज्ञान में है,
इसलिए कुछ
भी पकड़ता है
तो भ्रांति ला
सकता है।
लेकिन फिर भी
भ्रांति ऐसी
चुननी चाहिए,
जिससे
लौटने का उपाय
हो। जैसे न
खाने से लौटने
का कोई उपाय
नहीं है।
लेकिन ज्यादा
खाने से लौटने
का उपाय है।
मेरा मतलब आप
समझ रहे हैं न?
ज्यादा
खाने से लौटने
का उपाय है और
ज्यादा खाना
खुद दुख देगा।
लौटना पड़ेगा।
लेकिन न खाना
दुख नहीं देता,
समाप्त ही
करता है, मिटा
ही डालता है।
उससे लौटने की
संभावना कम हो
जाती है।
फिर यह
बात तो ठीक ही
है कि सभी
शब्द हमें
भरमा सकते हैं, भटका सकते
हैं। क्योंकि
हम शब्दों से
वही अर्थ
निकाल लेना
चाहते हैं, जो हम चाहते
हैं कि निकले।
हम वह नहीं
देखना चाहते,
जो कि कहा
गया है। यह तो
हमेशा रहेगा।
यह हमेशा
होगा। इसलिए
जो आदमी जिन
शब्दों का
प्रयोग करता
है, उन
शब्दों के लिए
बहुत साफ
दृष्टि साथ
देनी चाहिए।
तो जो
मैं कह रहा
हूं, मैं यह कह
रहा हूं कि
भोग अंततः
त्याग बन जाता
है, लेकिन
त्याग अंततः
भोग नहीं
बनता। जो मैं
कह रहा हूं, भोग अंततः
त्याग बन जाता
है।
यानी
मैं यह कह रहा
हूं कि एक
वेश्या भी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकती है, लेकिन
जिसने
जबरदस्ती
ब्रह्मचर्य
थोप कर साध्वी
बन गई है, उसके
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होना बहुत
मुश्किल है।
एक वेश्या का
अनुभव भी
निरंतर उसे
ब्रह्मचर्य
की दिशा में
गतिमान करता
है, लेकिन
थोपा हुआ
ब्रह्मचर्य
निरंतर सेक्स
की दिशा में
गतिमान करता
है। और कहीं
नहीं ले जा सकता।
अगर ले भी
जाएगा तो और
वासना, और
वासना की तरफ
चित्त को
झुकाएगा। फिर
जीवन की सहजता
में ही भोग हो,
असहजता में
न हो, यह
अच्छा है।
इसलिए मेरा
ऐसा कहना है।
प्रश्न:
एक
अंतर हम जानना
चाहते हैं कि
किन्से
रिपोर्ट जो
सेक्स पर
प्रकाशित हुई, उसमें लिखा
है कि वे लोग
जो कि खुद को
कोड़े मारते
हैं अथवा
दूसरे को कोड़े
मारते हैं, वे लोग जो कि
स्वयं को दुख
देते हैं और
दूसरे को दुख
देना पसंद
करते हैं, ऐसे
सारे लोग जो
हैं, वे
सेक्स
परवर्ट्स
होते हैं!
यह
बिलकुल ही ठीक
है।
प्रश्न:
इसी
ढंग से इधर
जिसे हम
त्यागी कहते
हैं...।
सेक्स
परवर्ट है!
प्रश्न:
जो
धूनी रमाता है
साल भर। अच्छा
दोनों के सेक्स
परवर्शन में
क्या दोनों को
हम एक ही स्तर
पर रख सकते हैं? या इनमें
दोनों में इस
परवर्शन में
कोई फर्क है?
समझा, आपकी बात
बहुत ठीक है।
सारे पिछले सौ
वर्षों के
मनोविज्ञान
की खोज यह है
कि दूसरे को
दुख देना या
अपने को दुख
देना या
दुखियों को
आदर देना या
दुख की
संभावनाओं को
सहारा देना, किसी न किसी
प्रकार की
काम-शक्ति का
विकृत रूप है,
सेक्स
परवर्शन है।
यह बिलकुल ही
सत्य की बात है।
असल
में इसे समझना
जरूरी है। असल
में काम या सेक्स
सुख की
निम्नतम
संभावना
है--सुख की।
समझना चाहिए
कि काम जो है, प्रकृति के
द्वारा दिया
गया सहज सुख
है। इससे कोई
ऊपर उठे और
बड़े सुख खोज
ले, तो फिर
काम के सुख की
जरूरत नहीं रह
जाती। इससे
कोई ऊपर उठे, और बड़े सुख
खोज ले, तो
काम के सुख की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
धीरे-धीरे काम
रूपांतरित
होता है, ट्रांसफार्म
होता है और
अंततः
ब्रह्मचर्य बन
सकता है।
लेकिन इससे
बड़े सुख कोई न
खोजे और इस
सुख को भी
इनकार कर दे, तो फिर दुख
की संभावनाएं
शुरू होती
हैं। क्योंकि
नीचे दुख की
संभावना है।
यह सीमा रेखा
है। सेक्स के
नीचे दुख की
संभावनाएं
हैं, सेक्स
के ऊपर सुख की
संभावनाएं
हैं। अगर कोई
बड़े सुख खोज
ले तो सेक्स
से मुक्त हो
जाता है। अगर
कोई बड़े सुख न
खोजे और सेक्स
को इनकार कर
दे, तो
नीचे के दुखों
में उतर आता
है।
प्रश्न:
तो
सेक्स क्या
है--बीच की
सीढ़ी?
बीच
की रेखा है।
प्रश्न:
क्या
है वह?
जहां
से हमारे सुख
दुखों में
रूपांतरित
होते हैं। वह
सीमा रेखा है, जहां नीचे
दुख हैं, ऊपर
सुख हैं।
इसलिए दुखी
आदमी
सेक्सुअल हो
जाता है। बहुत
सुखी आदमी
नॉन-सेक्सुअल
हो जाता है। क्योंकि
उसके लिए एक
ही सुख है। एक
ही सुख है। जैसे
दरिद्र समाज
है, दीन
समाज है, दुखी
समाज है, तो
वह एकदम बच्चे
पैदा करेगा।
गरीब आदमी
जितने बच्चे
पैदा करता है,
अमीर आदमी नहीं
करता। अमीर
आदमी को अक्सर
तो गोद लेने
पड़ते हैं!
उसका
कारण है। गरीब
आदमी एकदम
बच्चे पैदा
करता है। उसके
पास एक ही सुख
है, बाकी सब
दुख ही दुख
हैं। इस दुख
से बचने के
लिए एक ही
मौका है उसके
पास कि वह
सेक्स में चला
जाए। वह ही
उसके लिए
एकमात्र सुख
का अनुभव है, जो उसे हो
सकता है। वह
वही है।
अमीर
आदमी को और भी
बहुत सुख हैं।
सुख छितर जाता
है तो सेक्स
इंटेंस नहीं
रह जाता। उसकी
इंटेंसिटी कम
हो जाती है, उसकी
तीव्रता कम हो
जाती है। सुख
और जगहों में
फैल जाता है।
बहुत तरह के
सुख वह लेता
है। संगीत का
भी लेता है, साहित्य का
भी लेता है, नृत्य का भी
लेता है, विश्राम
का भी लेता
है। उसका सुख
और तलों पर भी
फैलता है।
फैलने की वजह
से सेक्स
इंटेंसिटी कम
हो जाती है।
गरीब और किसी
तरह के सुख
नहीं लेता, बस एक ही सुख
रह जाता है कि
सेक्स भर उसको
सुख देता है।
बाकी सब दुख
ही दुख हैं
दिन भर। श्रम,
मेहनत, गिट्टी
फोड़ना, तोड़ना,
वही सब है।
सेक्स
जो है, वह
प्रकृति के
द्वारा दिया
गया सुख भाव
है। अगर कोई
आदमी इसमें ही
जीता चला जाए
तो सामान्यतः
जीवन दुख होगा,
सेक्स सुख
होगा। और आदमी
सारे दुख
सहेगा सिर्फ
सेक्स के सुख
के लिए। लेकिन
अगर इससे ऊपर
उठना शुरू हो
जाए, यानी
और खोजें हैं,
वही धर्म का
सारा का सारा
जो जगत है, वह
सेक्स के ऊपर
सुख खोजने का
जगत है।
जैसे-जैसे ऊपर,
सेक्स के
ऊपर सुख मिलना
शुरू होता है,
वह जो शक्ति
सेक्स से
प्रकट होकर
सुख पाती थी, वह नए
द्वारों से
झांक कर सुख
पाने लगती है।
और धीरे-धीरे
सेक्स के
द्वार से विदा
लेने लगती है,
ऊपर उठने
लगती है।
इसको
कोई कुंडलिनी
कहे, कोई और
नाम दे, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। कुल
मामला इतना है
कि सेक्स
सेंटर के पास
सारी शक्ति
इकट्ठी है, वह
रिजर्वायर
है। अगर आप
शक्ति को ऊपर
ले जा सकते
हैं तो वह
रिजर्वायर
नीचे की तरफ
शक्ति को
फेंकना बंद कर
देगा। और अगर
आप ऊपर नहीं
ले जा सकते
हैं तो वह
रिजर्वायर
रिलीज करेगा।
और बड़े मजे की
बात है कि सेक्स
का जो सुख है
साधारणतः, वह
रिलीज का ही
सुख है। इतनी
शक्ति इकट्ठी
हो जाती है कि
वह भारी, टेंस
हो जाती है, उसको रिलीज
कर दिया।
अब समझ
लो कि एक आदमी
ऊपर भी नहीं
गया और सेक्स के
रिजर्वायर को
भी उसने रिलीज
करना बंद कर
दिया, तो अब
उसकी
शक्तियां
नीचे उतरनी
शुरू होंगी--सेक्स
से भी नीचे।
और ये
शक्तियां
क्या करेंगी?
क्योंकि
सेक्स सुख की
सीमा है, उसके
नीचे दुख की
सीमाएं हैं।
अब ये शक्तियां
क्या करेंगी?
ये सैडिस्ट
या मैसोचिस्ट
हो जाएंगी। या
तो ये खुद को
सताएंगी या
दूसरे को
सताएंगी।
और मजे
की बात यह है
कि जो मजा
आएगा, वह
सेक्सुअल
जैसा ही है।
यानी जो आदमी
अपने को कोड़े
मार रहा है, वह आदमी
कोड़े मार कर
उतनी शक्ति
रिलीज कर देगा,
जितनी
सेक्स से होती
तो सुख देती।
उतनी शक्ति
रिलीज होकर वह
थक कर विश्राम
करेगा। उसको
बड़ा आराम
मिलेगा। हमको
लगेगा कि इस
आदमी ने बड़ा
कष्ट दिया अपने
को, उसके
लिए एक तरह का
आराम है वह, क्योंकि
शक्ति रिलीज
हो गई।
और ऐसा
जो आदमी, जो
खुद को दुख
देने में सुख
पाने
लगेगा--यह एक
तरह का खुद को
दुख देने में
सुख पाना
है--जो आदमी
खुद को दुख
देने में सुख
पाने लगेगा, वह दूसरों
को दुख देने
में भी सुख
पाने लगेगा।
वह दूसरों को
भी सताएगा, दूसरों को
भी परेशान
करेगा, दूसरों
को भी परेशान
करने के कई
उपाय खोजेगा।
अब
टंडन जी पूछते
हैं कि क्या ये
धार्मिक
परवर्ट और
साधारण
परवर्ट में
कोई फर्क है?
थोड़ा
फर्क है।
साधारण जो
विकृत
व्यक्ति है, वह धार्मिक
विकृत
व्यक्ति से
अच्छी हालत
में है। अच्छी
हालत में है!
अच्छी हालत
में इसलिए है
कि उसको भी यह
बोध निरंतर
होगा कि कुछ
पागलपन हो रहा
है, कुछ
गलती हो रही है,
कुछ भूल हो
रही है। मैं
कुछ बीमार
हूं।
धार्मिक
परवर्ट को यह
भी नहीं होता।
उससे गलती हो
ही नहीं रही, वह साधना कर
रहा है! कर वह
वही रहा है, लेकिन जो वह
कर रहा है, उसके
लिए उसने बड़े
जस्टीफिकेशंस
खोज रखे हैं, उसने बड़े
न्याययुक्त
कारण खोज रखे
हैं। इसलिए वह
कभी अपने को
पागल, विक्षिप्त
या रुग्ण भी
नहीं
समझेगा--एक।
और
दूसरी बात यह
है कि साधारण
जो इस तरह का
विक्षिप्त
आदमी है, वह
अपनी
विक्षिप्तता
को छिपाएगा, प्रकट नहीं
करेगा। हो
सकता है वह
रात में अपनी
पत्नी की
गर्दन दबाए, कांटे
चुभाए...।
जान कर
आप हैरान
होंगे, सैडिज्म
शब्द ही उस
आदमी से चला, डी सादे एक
बहुत बड़ा लेखक
हुआ। उसके
प्रेम करने का
ढंग ही यह
था--इसी से
सैडिज्म, दुखवादी
शब्द बना--कि
वह जब भी किसी
स्त्री को प्रेम
करे तो उसके
लिए कोड़ा, चाकू,
कांटे अपने
साथ रखे! एक
बैग ही था
उसके पास। कि जब
स्त्री को
प्रेम करे तो
दरवाजे बंद
करके पहला काम
कि उसको कोड़े मारेगा!
उसको नग्न कर
देगा और उसको
कोड़े मारना
शुरू करेगा!
और वह भागेगी,
चीखेगी, चिल्लाएगी;
जितनी
चीखेगी, चिल्लाएगी,
उतना ही
उसको आनंद आने
लगेगा! कांटे
चुभाएगा, उसने
सब
इंस्ट्रूमेंट
बना कर रखे थे
इस तरह के, कि
कैसे स्त्री
को सताना!
आमतौर
से हमको खयाल
में नहीं आता।
आमतौर से हमको
खयाल में नहीं
आता कि अगर
प्रेम में कोई
व्यक्ति किसी
स्त्री को
चिंउटी ले रहा
है तो वह बहुत
छोटे अंशों
में सैडिज्म
है। वह टार्चर
करने की बहुत
छोटी सी बात
है। प्रेम में
एक-दूसरे को
लोग नाखून भी खपा
देंगे, नोंच
भी डालेंगे।
मगर वह प्रेम
में हमको खयाल
में नहीं आएगा
कि यह नाखून
गपाना या यह
नोंचना, या
एक-दूसरे को
जोर से दबाना,
यह कोई
सैडिज्म है।
यह सैडिज्म ही
है। बहुत सूक्ष्म
है। और बड़ा
सबके लिए
सामान्य, नार्मल
सैडिज्म है, इसलिए खयाल
में नहीं आता।
अब एक आदमी
जरा इसमें आगे
चला गया, उसको
नाखून काफी
नहीं मालूम
पड़ते तो उसने
कांटे बना रखे
हैं! वह कांटे
से चुभाता है,
तो फिर
मालूम पड़ता
है।
लेकिन
मजे की बात यह
है कि डी सादे
से सैकड़ों स्त्रियों
का संबंध रहा।
वह आदमी बहुत
अदभुत था।
उसको न मालूम
कितनी
स्त्रियां प्रेम
करने लगें, ऐसा आदमी था!
और बड़ा
प्रतिभाशाली
भी था। जिन स्त्रियों
ने उसको प्रेम
किया है, उनका
भी कहना यह है
कि जो आनंद
उसके साथ आया,
वह कभी किसी
के साथ नहीं
आया।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
उसका कोड़ा
मारना भी स्त्रियां
पसंद करती
थीं! उसका
कारण यह है कि वह
कोड़े मार कर
इतनी ऑरजि
पैदा कर देता
था--औरत दौड़
रही है, वह
कोड़े मार रहा
है, वह
कांटे चुभा
रहा है, वह
बाल खींच रहा
है, वह
नाखून चुभा
रहा है, वह
काट रहा है! तो
स्त्री के
पूरे शरीर को
वह इतना कंपन
से भर देता कि
जब वह सेक्स
में जाता उसके
साथ, तो
स्त्री जिसको
क्लाइमेक्स
कहें, वह
छू पाती, जो
कि साधारणतः
स्त्रियां
नहीं छू
पातीं। संभोग
में सौ में से
अट्ठानबे
स्त्रियां
क्लाइमेक्स
को कभी नहीं
पहुंच पातीं।
क्योंकि उनका
पूरा शरीर ही
नहीं जग पाता।
तो इतना सताने
के बाद भी
स्त्रियां
उसको पसंद
करतीं कि वह आदमी
अदभुत है। और
उसका कहना यह
था कि जब तक
मैं सता न लूं,
तब तक मुझे
कुछ रस आता ही
नहीं, मुझे
कुछ आनंद नहीं
आता।
ठीक डी
सादे जैसा एक
दूसरा आदमी था
मैसोच, जिसके
नाम पर
मैसोचिज्म
चला। वह उलटा
काम था उसका।
वह अपने को ही
सताएगा। डी
सादे दूसरे को
सताएगा, वह
अपने को ही
सताएगा! वह सब
तरह से अपने
को सताएगा और
सता कर बड़ा
सुखी होगा।
असल
में हमारे पास
जो शक्ति बच
जाती है, या
तो हम उसे सुख
की दिशा में
गतिमान कर
सकते हैं या
दुख की दिशा
में--दो ही
दिशाएं हैं, तीसरी कोई
दिशा नहीं है।
आप ठहर नहीं
सकते बीच में।
तो या तो आप सुख
की दिशा में
अपनी
शक्तियों को
ले जाएं, और
नहीं तो फिर
शक्तियां दुख
की दिशा में
जाना शुरू हो
जाएंगी।
प्रश्न:
नार्मल
दिशा भी हो
सकती है?
नार्मल
का कुल मतलब
इतना
है--नार्मल का
कुल मतलब इतना
है कि थोड़ा
सुख, थोड़ा दुख;
और कुछ मतलब
नहीं होता
नार्मल का।
यानी वह आदमी
दोनों ही काम
कर रहा है:
मैसोचिस्ट भी
है, सैडिस्ट
भी है। यानी
वह आदमी थोड़ा
अपने को भी सताता
है, थोड़ा
दूसरे को भी
सताता है।
सताने के कई
ढंग हो सकते
हैं, हमको
खयाल में नहीं
होते। यानी
असल में होता
क्या है, नार्मल
आदमी
कैसे-कैसे
सताता है, वह
हमें पता ही
नहीं चलता।
जरा ही सीमा
के बाहर जाता
है, तब पता
चलना शुरू
होता है कि यह
तो मामला गड़बड़
हो गया, यह
आदमी कुछ गड़बड़
हो गया। कह
मैं यह रहा
हूं कि दो ही
दिशाएं हैं।
या अगर बीच
में ठहरते हैं
आप, तो
दोनों दिशाओं
का घोलमेल
आपके
व्यक्तित्व में
होगा। कभी आप
सताएंगे भी...।
इसलिए
यह होता है कि
पति कभी पत्नी
को सताएगा भी, कभी प्रेम
भी करेगा; सताएगा,
फिर प्रेम
करेगा; प्रेम
करेगा, फिर
सताएगा।
पत्नी भी
सताएगी, एक
दिन प्रेम
करती दिखाई
पड़ेगी, दूसरे
दिन सताती दिखाई
पड़ेगी। सुबह
से उपद्रव
मचाएगी, सांझ
पैर दाबेगी!
यह कुछ समझ
में आना
मुश्किल होता
है कि यह हो
क्या रहा है!
यानी ये दोनों
बातें एक साथ
क्यों चलती
हैं?
और
ध्यान रहे कि
जिसको हमने
थोड़ी देर
प्रेम किया, थोड़ी देर
बाद हम उसको
सताएंगे।
क्योंकि वह एक
नारमैलिटी खतम
हुई, अब
दूसरी शुरू
हुई। अब थोड़ी
देर में हम
सताने का उपाय
खोजेंगे।
अक्सर यह होगा
कि पति-पत्नी लड़ते,
लड़ते, लड़ते,
लड़ते बड़े
प्रेम में आ
जाएंगे और
प्रेम में आते,
आते, आते,
आते फिर
लड़ना शुरू कर
देंगे। यह इस
तरह उनका सर्कल
चलता रहेगा।
वह जिसको भी
हम सताएंगे, थोड़ी देर
में सताने का
काम पूरा हो
जाएगा, फिर
प्रेम करेंगे,
फिर प्रेम
करेंगे, फिर
सताएंगे।
नार्मल का
इतना ही मतलब
होता है।
एबनार्मल
का मतलब यह
होता है कि या
तो वह सुख की
दिशा में चला
जाता है, तो
भी एबनार्मल
है। और या दुख
की दिशा में
चला जाता है, तो भी
एबनार्मल है।
असाधारण है वह
व्यक्ति।
लेकिन सुख की
दिशा में जाने
से शायद अंततः
वह परमात्मा
तक पहुंच जाता
है, क्योंकि
परमात्मा परम
सुख है। और
दुख की दिशा में
जाने से शायद
वह शैतान तक
पहुंच जाता है,
क्योंकि
शैतान होना
अंतिम दुख है।
यह जो
मैं कह रहा
हूं, और वह जो
प्रश्न पूछा
गया है वह यह, कि इसमें
धार्मिक और
साधारण
में--तो
धार्मिक आदमी
इन्हीं कामों
को प्रकट में
करेगा, अधार्मिक
आदमी इनको
अप्रकट में
करेगा। और धार्मिक
आदमी प्रकट
में करेगा, इसलिए
धार्मिक आदमी
ज्यादा
खतरनाक भी है।
क्योंकि वह
प्रकट में
करके इनको
फैलाता भी है,
इनका
विस्तार भी
करता है। और
मजा यह है कि
वह धार्मिक
आदमी लोगों
में यह भाव
पैदा करता है
कि ये जो वह
काम कर रहा है,
ये कोई
विक्षिप्तता
के नहीं हैं।
ये काम बड़ी साधना
के हैं, बड़ी
ऊंची बात कर
रहा है वह। और
पागल आदमी को
यह खयाल आ जाए
कि वह ऊंची
बात कर रहा है तो
फिर पागलपन के
ठीक होने की
संभावना ही
खतम होती है।
हिंदुस्तान
में पागलों की
संख्या कम है, यूरोप में
पागलों की
संख्या
ज्यादा है।
लेकिन अगर
संन्यासी, साधुओं
और सताने
वालों की
संख्या
हिंदुस्तान
के पागलों से
जोड़ दी जाए, तो संख्या
बराबर हो जाती
है। उसका कुल कारण
है, यहां
डायवर्शन है,
वहां
डायवर्शन भी
नहीं है। वहां
जो आदमी पागल है,
वह पागल है।
जो आदमी पागल
नहीं है, वह
पागल नहीं है।
यहां पागल और
गैर-पागल के
बीच एक रास्ता
और है कि वह
आदमी इस तरह...।
मैं एक
आदमी को जानता
हूं जबलपुर
में, जो एक सौ
आठ बार बर्तन
साफ करेंगे, तब पानी भर
कर लाएंगे। यह
आदमी यूरोप
में हो तो
पागल हो
जाएगा। यह
आदमी
हिंदुस्तान
में हो तो
धार्मिक हो
जाएगा। उसको
लोग कहते हैं
कि परम
धार्मिक आदमी
है! शुद्धि का
कैसा खयाल! वह
आदमी एक सौ आठ
दफा बर्तन
घिसेगा! और
इसमें भी अगर
कोई स्त्री
निकल गई बीच
में, तो वह
खतम हो गई
पहली शृंखला!
फिर एक से
शुरू करेगा!
यह जो
आदमी है, यहां
धार्मिक है!
इसको कई लोग
पैर छुएंगे और
कहेंगे कि परम
धार्मिक आदमी
है! कभी-कभी
दिन-दिन बीत
जाएगा उसका
इसी में!
क्योंकि नल पर
धो रहा है वह, स्त्री फिर
निकल गई। तो
वह खतम हो गया
पहला वाला, फिर अशुद्ध
हो गया बर्तन,
अब वह फिर
शुद्ध कर रहा
है! अब यह आदमी
यूरोप में
पागल होगा, फौरन
पागलखाने
भेजा जाएगा।
यहां यह आदमी
मंदिर में बैठ
जाएगा, पुजारी
हो जाएगा, साधु
हो जाएगा।
इसको आदर
मिलने लगेगा।
तो
धार्मिक
परवर्शन
ज्यादा
खतरनाक है, वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता।
अब
जैसे मेरा
अपना मानना है, महावीर के
जीवन में घटना
है, जिससे
समझ में आए।
महावीर ने सब
तरह के उपकरण बंद
कर दिए। साथ
में कोई साधन
नहीं रखेंगे।
क्योंकि
महावीर को लगा
होगा और लगेगा,
कि साधन भी
एक बोझ हो
जाते हैं। और
जिस व्यक्ति
ने सारे जीवन
को अपना ही
मान लिया, अब
ठीक है, कल
सुबह जो होगा,
होगा। तो
महावीर कुछ
साथ न रखेंगे।
कौन बोझ को
ढोता फिरे! जब
सभी अपने हैं
तो बात खतम हो
गई है। अब
परमात्मा ही
फिक्र करेगा।
तो वे कोई
उपकरण नहीं
रखते। वे बाल
बनाने के लिए
उस्तरा भी नहीं
रखते। जब बाल
बहुत बढ़ जाते
हैं तो उखाड़
देते हैं। जब
बाल बहुत बढ़
जाते हैं उसको
उखाड़ डालते
हैं।
महावीर
के लिए यह बाल
का उखाड़ना जरा
भी विक्षिप्तता
का कारण नहीं
था! यह अत्यंत
सहज बात थी। कुछ
नहीं रखना है
साथ, सरलतम
यही है कि कभी
बाल उखाड़ दिए।
साल, दो
साल में बढ़ गए,
फिर उखाड़
दिए। यात्रा
चलती रही।
इतना सा भी
सामान साथ
क्यों रख कर
बांधना? क्यों
बोझ लेना? क्योंकि
सामान का बोझ
नहीं है गहरे
में, गहरे
में सामान को
पकड़ कर रखने
में सुरक्षित
होने की कामना
है। तो वे
असुरक्षित
पूरा जीते हैं।
कोई सुरक्षा
का भाव नहीं, कुछ रखने का
भाव नहीं।
जहां जो मिल
गया!
तो हाथ
में ही खाना
लेकर ले लेते
हैं। कौन बर्तन
का उपद्रव साथ
में करे! तो
हाथ में ही
खाना ले लेते
हैं। हाथ से
ही खाना खा
लेते हैं।
लेकिन
महावीर का यह
बाल उखाड़ना
कुछ पागलों के
लिए बहुत
अपीलिंग
मालूम पड़ा
होगा। पागलों
का एक वर्ग है, जो बाल
उखाड़ता है, जो बाल
उखाड़ने में रस
लेता है। वह
भी एक तरह का
सताना है अपने
को।
तो
इसमें बहुत
कठिनाई नहीं
है कि महावीर
का बाल उखाड़ना
देख कर कुछ
पागल, जो
बाल उखाड़ने
में रस लेते
हों, महावीर
के पीछे साधु
हो गए हों।
इसलिए साधु हो
गए हों कि अब
बाल उखाड़ना
साधारण, कोई
उनको पागल
नहीं कह सकता
अब। अब तो वे
बाल उखाड़ सकते
हैं।
महावीर
नग्न हो गए
हैं। क्योंकि
अगर कोई व्यक्ति
इतना सरल हो
जाए, इतना
निर्दोष हो
जाए कि उसे
नग्नता का बोध
भी न रहे...।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि खुद
की नग्नता का
बोध हमें तभी
तक होता है, जब तक हम
दूसरे के शरीर
को नग्न देखना
चाहते हैं, यह
इंटररिलेटेड
है। जब तक हम
दूसरे के शरीर
को नग्न देखना
चाहते हैं, तब तक हम
हमारा शरीर
कोई नग्न न
देख ले, इससे
भयभीत होते
हैं। ये दोनों
बातें एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जब
तक हम दूसरे
के कपड़े उघाड़ना
चाहते हैं, तब तक हम खुद
पर कपड़े ढांकना
चाहते हैं।
लेकिन जिस
आदमी का दूसरे
के शरीर को
नग्न देखने का
भाव चला गया
हो, वह
नग्न खड़ा हो
सकता है।
महावीर नग्न
खड़े हो गए।
लेकिन
कुछ लोग हैं, जिनको
एग्जिबीशनिस्ट
कहते हैं, जो
दूसरों को
अपने को नंगा
दिखाना चाहते
हैं, यह
पागलों का
वर्ग है। तो
महावीर के
आस-पास ऐसे
एग्जिबीशनिस्ट
आकर अगर
संन्यासी हो
गए हों, जो
कि चाहते थे
कि कोई उन्हें
नंगा देखे, तब तो
उपद्रव हो
गया। यानी
उनकी चाह
बिलकुल दूसरी
है, लेकिन
घटना एक सी
मालूम होती
है।
अभी
यूरोप में या
कई मुल्कों
में
एग्जिबीशनिस्ट
पर रोक है।
कुछ लोग हैं, कुछ परसेंटेज
है उनका, जो
कि रास्ते के
किनारे खड़े
रहेंगे, कोई
अगर अकेला
निकल रहा है
तो पैंट खोल
कर नंगा होकर
एकदम भाग
जाएंगे उसको
दिखा कर। इन
पर रोक है, कि
यह आदमी
खतरनाक है।
अब
इनको यह क्या
हो रहा है? इनको क्या
रस आ रहा है? दूसरा इनको
नंगा देख ले, यह इनका रस
है। और ये
पागल हैं, ये
निपट पागल
हैं। लेकिन
हिंदुस्तान
में ये नंगे
साधु हो सकते
हैं! और तब
इनका पागलपन
हमें पता ही
नहीं चलेगा।
ये पूजा का
कारण बन
जाएंगे।
अब
कठिनाई जो है
जीवन को समझने
में वह यह है
कि जीवन में
दोनों घटनाएं
घट सकती हैं, इसलिए बड़ी
कठिनाई है। एक
आदमी इसलिए
नग्न हो सकता
है कि अब उसके
मन में कुछ
नग्नता को
छिपाने, ढांकने,
देखने का
कोई भाव ही
नहीं रहा। वह
परम सरल हो गया
है, तो
बच्चे की तरह
नग्न हो सकता
है। और एक
आदमी पागल की
तरह नग्न हो
सकता है कि
नग्न होने में
उसे रस है कि
दूसरे उसको
नंगा देखें।
और ये दोनों
घटनाएं एक साथ
घट सकती हैं।
और इसलिए बड़ी
कठिनाई है
जीवन में
साफ-साफ समझने
में।
लेकिन
कठिनाई
पहचानी जा
सकती है, नियम
बनाए जा सकते
हैं। जो आदमी
सरलता की वजह से
नग्न हुआ है, वह जीवन के
और हिस्सों
में भी सरल
होगा।
प्रश्न:
यह
भी भोग हुआ
फिर? नग्नता
और बाल उखाड़ना
भी भोग हुआ?
हां, बिलकुल भोग
हुआ। उनके लिए
भोग ही है।
उनके लिए भोग
ही है। और
नग्नता का
आनंद है उनके
लिए पूरा।
उनके लिए पूरा
आनंद है, उनके
लिए भोग का ही
हिस्सा है।
उनके लिए कपड़े
छोड़े गए हैं
ऐसा नहीं, नग्नता
आई--ऐसा। यानी
जोर इस पर
नहीं है कि
कपड़े छोड़े, नग्नता आई।
एक सरलता आई
और जीवन इतना
सरल हो गया कि
जैसे एक बच्चे
का, एक
पशु-पक्षी का
जीवन जैसा सरल,
निर्दोष है,
वैसा वे खड़े
हो गए।
लेकिन
यह आदमी जीवन
के और हिस्सों
में एकदम सरल
होगा, सब
हिस्सों में
सरल होगा; सब
तरह से सरल
होगा, निष्कपट
होगा, निर्दोष
होगा। और इसके
जीवन के और
हिस्सों में
कहीं पागलपन
के लक्षण नहीं
होंगे। लेकिन
जो आदमी
एग्जिबीशनिस्ट
है, जो
सिर्फ इसलिए
नंगा हुआ है
कि दूसरे लोग
उसे नंगा
देखें, यह
उसकी बीमारी
है। यह आदमी
दूसरे
हिस्सों में
सरल नहीं
होगा। यह
दूसरे
हिस्सों में
जटिल होगा।
दूसरे
हिस्सों में
भी इसकी
विक्षिप्तता
प्रकट होगी, इसका पागलपन
प्रकट होगा।
और इस
देश में इस पर
निर्णायक
निर्णय लेने
की जरूरत पड़
गई है अब।
क्योंकि यह
कोई पांच हजार
साल से उपद्रव
चल रहा है। उस
उपद्रव में तय
करना मुश्किल
हो गया है कि
कौन आदमी
आथेंटिक, प्रामाणिक
रूप से है, कौन
आदमी पागलपन
का सिर्फ
झुकाव है उसका,
वह पूरा कर
रहा है। ये
दोनों ही हो
सकते हैं। इसलिए
बहुत साफ रेखा
खींचनी जरूरी
है। इसलिए जो
आदमी कपड़े
छोड़ने पर जोर
देगा, वह
आदमी
एग्जिबीशनिस्ट
है। और जो
आदमी, कपड़े
छूट जाएंगे
जिससे, वह
आदमी एक
नग्नता को
उपलब्ध हो रहा
है जो निर्दोष
है, इनोसेंट
है।
धार्मिक
पागलपन
ज्यादा
खतरनाक चीज है, क्योंकि
उसमें धर्म भी
जुड़ा हुआ है।
अब हमें दिखाई
नहीं पड़ता कि
पागलपन सीधा
हो तो एक अर्थ में
सरल होता है।
एक अर्थ में, क्योंकि
पागल आदमी
बेचारा निरीह
हो जाता है। धार्मिक
पागल निरीह
नहीं होता, दूसरे को
निरीह करता
है। खुद तो
उनके ऊपर खड़ा हो
जाता है।
अब
जैसे कि सेंट
जोन ऑफ आर्क
को एक पोप ने
आग में जलाए
जाने की सजा
दी। आग में
जला दी गई वह
औरत। जलाई
इसलिए गई कि
वह धर्म के
विपरीत बातें
कर रही है। तो
पोप को पूरा
मजा है इस बात
का कि वह
धार्मिक आदमी
है और एक औरत
को जला रहा है, क्योंकि वह
अधार्मिक
बातें कर रही
है। वह भगवान
का काम कर रहा
है।
अब एक
स्त्री को
जलाना, और
जोन जैसी सरल
स्त्री को
जलाना, एकदम
अधार्मिक
कृत्य था।
लेकिन पोप को
एक तृप्ति है!
अगर दूसरा
आदमी यह काम
करता तो वह
आदमी पागल
सिद्ध होता, क्रिमिनल
होता, अपराधी
होता। पोप
अपराधी नहीं
हुआ, पोप
धार्मिक
कार्य कर रहा
है! एक औरत को
उसने सामने
जलवा दिया खड़े
करवा कर, आग
लगवा कर!
सात
साल बाद दूसरे
पोप जब सत्ता
में आए, तो
उन्होंने
विचार किया, उन्होंने
पाया कि नहीं,
यह तो
ज्यादती हो गई।
जोन तो बड़ी
सरल औरत थी और
उसे तो संत की
पदवी दिया
जाना चाहिए।
तो वह सेंट
जोन बनी। सात
साल बाद दूसरे
पोप ने उसको
सेंट बना
दिया! लेकिन
जिस पोप ने आग
लगवाई थी, वह
पोप अपराधी हो
गया। लेकिन वह
मर चुका था, अब क्या
किया जाए?
तो इस
पोप ने उसको
सजा दी कि
उसकी हड्डियों
को निकाल कर
जूते मारे
जाएं और सड़क
पर घसीटा जाए!
उस मरे हुए
पोप की
हड्डियां
निकाली गईं, उसकी कब्र
खोदी गई, उसको
जूते मारे गए,
उसके ऊपर
थूका गया और
उसकी
हड्डियों को
सड़क पर घसीट
कर अपमानित
किया गया!
अब यह
आदमी धार्मिक
है फिर! यानी
अब यह मजा, ये जो दिमाग
हैं, इनको
कहना चाहिए ये
पागल हैं।
यानी उससे भी
ज्यादा पागल
है यह; यह
पहले पोप से
भी ज्यादा
पागल है। उससे
कम पागल नहीं
है। लेकिन
इसका पागलपन
दिखाई नहीं पड़ेगा।
इसका पागलपन
एक धार्मिक
परिभाषा ले
रहा है। यह
धार्मिक एक
गारबेज पैदा
करेगा शब्दों की
और यह बिलकुल
ठीक मालूम
पड़ेगा! और यह
जो कर रहा है, उचित मालूम
पड़ेगा। धर्म
इसको औचित्य
दे रहा है--इसकी
विक्षिप्तता
को!
धर्म
ने बहुत तरह
की
विक्षिप्तताओं
को औचित्य
दिया है। और
इस औचित्य को
तोड़ देने की
जरूरत है। और
यह साफ समझ
में आ जाना
चाहिए, यह
तभी टूटेगा, जब हम दुखवाद
को धर्म से
अलग करें; नहीं
तो नहीं
टूटेगा।
क्योंकि वह जो
दुखवाद है, उसी के भीतर
सारा औचित्य
छिप जाता है।
दूसरे को दुख
देना भी, अपने
को दुख देना
भी, सब
उसमें छिप
जाता है।
इसलिए
मेरी दृष्टि
में धर्म सुख
की खोज है--परम
सुख की, उसे
हम आनंद कहें।
और धार्मिक
व्यक्ति वह है,
जो स्वयं भी
आनंद की तरफ
निरंतर गति
करता है और
चारों तरफ भी
निरंतर आनंद
बढ़े, इसके
लिए चेष्टारत
होता है। न वह
स्वयं को दुख
देता, न वह
दूसरे को दुख
देने की
आकांक्षा
करता है; न
उसके मन में
दुख का कोई
आदर है, न
कोई सम्मान
है। ऐसे
व्यक्ति को अगर
धार्मिक हम
कहें तो परम
आनंद की दिशा
धर्म बनता है।
नहीं तो अब तक
तो वह परम दुख
की दिशा बना
हुआ है!
एक और
आखिरी ले लें।
प्रश्न:
महावीर
नासाग्र
दृष्टि से
ध्यानावस्थित
हुए। क्या यह
ध्यान की ही
मुद्रा है?
यह
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात
है--नासाग्र
दृष्टि। नासाग्र
दृष्टि का
मतलब है: आंख
आधी बंद, आधी
खुली। अगर नाक
के अग्र भाग
को आप आंख से
देखेंगे, तो
आधी आंख बंद
हो जाएगी, आधी
खुली रहेगी। न
तो आंख बंद, न आंख खुली।
साधारणतः
हम दो ही काम
करते हैं: या
तो आंख बंद होती
है नींद में
या आंख खुली
होती है जागरण
में। नासाग्र
दृष्टि होती
ही नहीं। कोई
कारण नहीं है
उसका। आंख
पूरी खुली
होती है या
आंख पूरी बंद
होती है। दोनों
के बीच में एक
बिंदु है, जहां आंख
आधी खुली, आधी
बंद है।
अगर हम
खड़े होंगे और
नासाग्र
दृष्टि होगी, तो करीब चार
फीट तक जमीन
हमें दिखाई
पड़ेगी। करीब
चार फीट तक
हमें जमीन
दिखाई पड़ेगी।
तो साधारणतः
कोई भी नासाग्र
नहीं होता।
इसमें
दोत्तीन
बातें
महत्वपूर्ण
हैं। एक तो यह
कि पूरी बंद
आंख, आंखों के
जो स्नायु हैं
भीतर, उनको
निद्रा में ले
जाती है। पूरी
बंद आंख निद्रा
में ले जाती
है। आंख जैसे
ही बंद होती
है पूरी, तो
मस्तिष्क के जो
स्नायु आंख से
जुड़े हैं, वे
एकदम शिथिल हो
जाते हैं और
निद्रा हो
जाती है। पूरी
खुली आंख
जागरण में
लाती है।
ध्यान
दोनों से अलग
अवस्था है, न तो वह
निद्रा है, न वह जागरण
है। वह निद्रा
जैसा शिथिल है
और जागरण जैसा
चेतन है।
ध्यान तीसरी
अवस्था है। नींद
नहीं है वह, और जागरण भी
नहीं है वह; और नींद भी
है और जागरण
भी है। उसमें
दोनों के तत्व
हैं। नींद में
जितनी
शिथिलता होती
है, रिलैक्स्ड,
उतना ध्यान
में होना
चाहिए। और
जागरण में जितना
चैतन्य होता
है, होश
होता है, अवेयरनेस,
उतनी ध्यान
में होनी
चाहिए।
तो
ध्यान जो है, वह मध्य
अवस्था है। और
नासाग्र
दृष्टि आंख के
पीछे के
स्नायुओं को
मध्य अवस्था
में छोड़ देती
है। वह बड़ी
वैज्ञानिक
बात है। उस
हालत में न तो स्नायु
इतने तने होते,
जितने कि
जागरण में तने
होते हैं; न
इतने शिथिल
होते, जितने
कि निद्रा में
शिथिल हो जाते
हैं और सो जाते
हैं। मध्य में
होते हैं। एक
मध्य बिंदु, सम बिंदु
होता है।
तो
नासाग्र
दृष्टि का
यौगिक तो बहुत
मूल्य है, फिजियोलाजिकल
बहुत मूल्य है,
और ध्यान के
लिए वह कीमती
प्रभाव पैदा
करती है।
दूसरी
बात यह समझने
की है कि पूरी
आंख बंद कर ले
व्यक्ति, तो
एनक्लोज्ड हो
जाता है, सब
तरफ से बंद हो
जाता है, जगत
से टूट जाता
है। पूरी बंद
आंख जो है, एक
व्यक्ति को
आयलैंड बना
देती है। उसका
जगत से सब
संबंध टूट
गया। वह बंद
हो गया अपने
में। पूरी
खुली आंख
व्यक्ति को
बाहर के जगत
से जोड़ देती
है और अपने को
वह विस्मरण कर
जाता है। उसे अपना
कोई पता ही
नहीं रह जाता।
और सब हो जाता
है, वही भर
मिट जाता है।
बंद आंख में
सब मिट जाता है,
वही रह जाता
है। खुली आंख
में सब सत्य
हो जाता है और
खुद ही भर मिट
जाता है।
आधी
बंद, आधी खुली
आंख में यह भी
अर्थ है कि न
तो हम टूटे हुए
हैं सबसे, वह
बात भी गलत है;
सबसे हम जुड़े
हैं; और न
ही यह बात सच
है कि सभी सच
है और हम झूठे
हैं। हम भी
हैं और सब भी
है।
महावीर
का सारा जोर
सम पर है
निरंतर।
सम्यक शब्द
उनका
सर्वाधिक
प्रयोग में
आने वाला शब्द
है। प्रत्येक
चीज में सम, प्रत्येक
बात में मध्य,
प्रत्येक
बात में वहां
खड़े हो जाना
है, जहां
अतियां न
हों--अन-अति।
आंख के मामले
में भी उनकी
अन-अति है। वे
कहते, न तो
पूरी खुली आंख,
न पूरी
बंद--आधी।
संसार भी सत्य
है आधा, जितना
हमें दिखाई
पड़ता है, उतना
सत्य नहीं है।
हम भी सत्य
हैं, लेकिन
आधे; जितना
बंद आंख से
मालूम पड़ते
हैं, उतने
नहीं।
शंकर
कहते हैं, सब जगत
असत्य है, सत्य
है ही नहीं
जगत में। आंख
बंद हो तो जगत
एकदम असत्य हो
जाता है। क्या
सत्य है?
तो जो
व्यक्ति आंख
बंद करके
ध्यानावस्थित
होने की
चेष्टा करेगा, वह माया के
किसी न किसी
सिद्धांत के
करीब पहुंच
जाएगा।
क्योंकि जब
आंख बंद में
उसे आत्म-अनुभव
होगा तो जगत
एकदम असत्य
मालूम पड़ेगा,
है ही नहीं।
तो जिन
लोगों ने, शंकर ने, अद्वैत
ने, जिन्होंने
कहा है कि जगत
इल्यूजरी है,
उसका कारण
है। वह बंद
आंख का अनुभव
है। अगर बंद
आंख से ध्यान
किया गया तो
जगत इल्यूजरी
हो ही जाएगा।
क्योंकि कुछ
बचता ही नहीं
वहां, सिर्फ
स्वयं बच जाता
है। बंद आंख
में बाहर के
जगत का कोई
अनुभव नहीं रह
जाता, स्वयं
की अनुभूति रह
जाती है। वह
इतनी प्रखर होती
है कि कोई भी
कह देगा कि
बाहर जो था, वह सब असत्य
था। वह सत्य
नहीं था।
अगर
कोई बाहर के
जगत में पूरी
आंख खुली करके
जी रहा है, जैसे
चार्वाक। तो
वह कहता है, भीतर-वीतर
कुछ भी नहीं
है, आत्मा-वात्मा
सब झूठी बातें
हैं। खाओ, पीयो,
मौज करो। यह
बाहर पूरी
खुली आंख का
अनुभव है कि
बाहर ही सब
कुछ है: खाओ, पीयो, मौज
करो। भीतर कुछ
भी नहीं है।
भीतर गए कि
मरे। भीतर है
ही नहीं कुछ।
आत्मा जैसी
कोई चीज नहीं
है। अगर कोई
पूरी खुली आंख
के अनुभव से
जीए तो इंद्रियों
के रस ही शेष
रह जाते हैं, आत्मा विलीन
हो जाती है।
तब जगत सत्य
होता है, आत्मा
असत्य हो जाती
है।
और
महावीर कहते
हैं: जगत भी
सत्य है और
आत्मा भी सत्य
है। जगत असत्य
नहीं है और
आत्मा भी असत्य
नहीं है। और
महावीर कहते
हैं कि यह एक
दृष्टि है।
आंख बंद करके
अगर कोई अनुभव
करेगा तो
स्वयं सत्य
मालूम पड़ेगा, जगत असत्य
मालूम पड़ेगा।
यह दूसरी
दृष्टि है कि
कोई आदमी कभी
ध्यान में
बैठेगा ही
नहीं आंख बंद
करके और बाहर
के जगत में ही
जीएगा तो वह
कहेगा, आत्मा-वात्मा
सब असत्य है, जगत ही सत्य
है। ये दो
दृष्टियां
हैं। यह दर्शन
नहीं है।
महावीर
कहते हैं: जगत
भी सत्य है, आत्मा भी
सत्य है; पदार्थ
भी सत्य है, परमात्मा भी
सत्य है।
दोनों एक बड़े
सत्य के हिस्से
हैं। दोनों
सत्य हैं।
और वह
प्रतीक है, वह नासाग्र
दृष्टि। यानी
महावीर कभी
पूरी आंख बंद
करके ध्यान
नहीं करेंगे,
पूरी खुली
आंख रख कर भी
ध्यान नहीं
करेंगे; आधी
आंख खुली, आधी
बंद। और बाहर
और भीतर एक
संबंध बना
रहे--जागे भी, न जागे भी।
बाहर और भीतर
एक प्रवाह
होता रहे चेतना
का। ऐसी
स्थिति में जो
ध्यान को
उपलब्ध होगा,
उस ध्यान
में उसे ऐसा
नहीं लगेगा, मैं ही सत्य
हूं; ऐसा
भी नहीं लगेगा
कि बाहर असत्य
है, या
बाहर ही सत्य
है--ऐसा लगेगा
कि सत्य दोनों
में है और
दोनों को जोड़
रहा है।
वह आधी
खुली आंख
प्रतीकात्मक
रूप से भी
अर्थ रखती है
और ध्यान के
लिए
सर्वोत्तम
है। लेकिन थोड़ी
कठिन है।
क्योंकि दो
अनुभव हमें
बहुत सरल हैं:
खुली आंख, बंद आंख।
थोड़ी कठिन है,
लेकिन
सर्वोत्तम
है।
प्रश्न:
आप
चार्वाक को भी
उसी श्रेणी
में लेते हैं, जिस श्रेणी
में शंकर हैं?
नहीं, उससे बिलकुल
उलटी श्रेणी
है वह।
प्रश्न:
पर
स्तर दोनों का
एक ही है?
नहीं, नहीं, स्तर
भी एक नहीं
है। स्तर भी
एक नहीं है।
लेकिन दोनों
अधूरे सत्यों
को कह रहे
हैं--इस मामले में
भर एक हैं।
स्तर भी एक
नहीं है...।
प्रश्न:
शंकर
ने बंद आंख
में ध्यान
किया और उनको
दुनिया असत्य
मालूम...।
उनको
दुनिया असत्य
मालूम पड़ेगी।
प्रश्न:
चार्वाक
ने खुली आंख
से ध्यान
किया...।
ध्यान
किया ही नहीं, बस खुली आंख
रखी। खुली आंख
में ध्यान
करने का उपाय
नहीं है। खुली
आंख में तो
बाहर का जगत
ही सब कुछ है।
और उसी में
जीया; खाया,
पीया, मौज
किया; और
कभी भीतर गया
नहीं।
क्योंकि भीतर
जाना पड़ता तो
आंख बंद करनी
पड़ती। भीतर
गया नहीं।
जोड था
अभी पश्चिम
में एक
विचारक। उसने
लिखा है कि
उससे कई दफा
लोगों ने कहा
कि कभी ध्यान
भी करो।
गुरजिएफ से वह
मिलने गया
होगा, तो
गुरजिएफ ने
कहा कि कभी
आंख भी बंद
करो।
तो उसने
कहा, फुरसत
कहां लेकिन? सुबह उठता
हूं तो
भाग-दौड़ शुरू
होती है। सांझ
जब सोता हूं, तब तक भागता
रहता हूं।
कहां फुरसत? ध्यान के
लिए अलग वक्त
कहां? या
तो जागता हूं
या सोता हूं।
फुरसत कहां है?
और तीसरी
बात के लिए
उपाय कहां है?
और तीसरी
बात होती कहां
है? या तो जागो
या सोओ। सोओ
तो तुम्हीं रह
जाते हो; जागो
तो सब रह जाते
हैं, तुम
नहीं रह जाते
हो।
जोड ने
जो कहा, वह
ठीक कहा है।
ऐसे ही अगर
चार्वाक से
कोई कहता, तो
वह कहता, कैसा
ध्यान! जागते
हैं; जब थक
जाते हैं, सो
जाते हैं। जब
थकान मिट जाती,
फिर जग जाते
हैं। जीते हैं
इंद्रियों
में, इसलिए
जितनी देर जाग
सको, जीयो।
जितना जाग कर
जी सको, जीयो।
जितना भोग सको,
भोगो।
प्रत्येक चीज
का रस लो। और
भीतर-वीतर क्या
है? भीतर
कुछ भी नहीं
है, भीतर
एक झूठ है।
क्योंकि भीतर
जो कभी गया
नहीं है, भीतर
झूठ हो ही
जाएगा। तो
चार्वाक बाहर
ही जी रहा है!
वह जो दि आउटर
है, वही
उसके लिए सत्य
है।
शंकर
जैसे व्यक्ति
भीतर ही जी
रहे हैं! तो जो
दि इनर है, वही सत्य है;
और बाहर का
सब असत्य हो
गया! एक अर्थ
में ये दोनों
समान हैं। इस
अर्थ में कि
ये आधे सत्य
को पूरा सत्य
कह रहे हैं, इस अर्थ में
समान हैं। फिर
भी चुनाव करना
हो तो शंकर
चुनने योग्य
हैं, चार्वाक
चुनने योग्य
नहीं है।
क्योंकि चार्वाक
यह कह रहा है
कि बस इतना ही
जीवन है--यह
खाओ-पीयो, बस
इतना ही जीवन
है। और महावीर
जो कह रहे हैं,
वे यह कह
रहे हैं, ये
दोनों बातें
सत्य हैं।
प्रश्न:
यह
तो दोनों
बातों को आप
उलटा कर रहे
हैं! आप कह रहे
हैं कि चुनना
ही हो तो शंकर
को चुनो।
हां, हां, बिलकुल
ही।
प्रश्न:
तो
वह त्याग की
तरफ गया!
नहीं, मैं कह रहा
हूं कि वह
ज्यादा गहरे
भोग की तरफ गया।
क्योंकि अंतस
में जितना भोग
है, उतना
बाहर नहीं है।
नहीं, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। ऐसी
भूल हो जाती
है मेरी
निरंतर बातों
से। शंकर...।
प्रश्न:
चार्वाक
भोगी है
साधारणतः...।
साधारणतः
हम चार्वाक को
भोगी कहेंगे; साधारणतः
चार्वाक को
मैं त्यागी
कहूंगा। मैं
कहूंगा कि वह
जो अंतर्भोग
है, बड़ा
भोग है, उसको
छोड़ रहा है!
चार्वाक
यह कह रहा है
कि घी भी ऋण
लेकर पीना पड़े
तो पीयो।
ऋण-विण की
फिकर मत करो, बस घी मिलना
चाहिए। तो वह
घी पर ही जी
रहा है। लेकिन
बहुत बाहर जी
रहा है।
खाने-पीने तक
उसका भोग है।
लेकिन एक
अंतर्भोग भी
है, उस तरफ
उसकी कोई
दृष्टि नहीं
है, कोई
ध्यान नहीं
है! शंकर ही
बड़े भोगी हैं,
क्योंकि
शंकर ज्यादा
गहरे भोग में
जा रहे हैं।
और
महावीर चूंकि
प्रत्येक चीज
में एक संतुलन
और समता का
ध्यान रखते
हैं, वे यह कह
रहे हैं कि वे
न चार्वाक को
गलत कहेंगे; चार्वाक
उनके पास आए, वे कहेंगे
कि बिलकुल ठीक
कहते हो तुम, बाहर सत्य
है। गलत इतनी
ही बात है कि
तुम भीतर नहीं
गए, वहां
भी सत्य है।
शंकर को भी वे
यही कहेंगे कि
बिलकुल ही ठीक
कहते हो, एकदम
ठीक ही बात है
कि भीतर सत्य
है। लेकिन बाहर
जिससे तुमने
आंखें बंद की
हैं, तुम्हारे
आंख बंद करने
से वह असत्य
नहीं हो जाता,
सिर्फ इतना
ही कि तुम्हें
पता पड़ना बंद
हो जाता है।
वह बाहर है।
और
पूरा जीवन
बाहर और भीतर
से मिल कर बना
है। एक को तोड़
देना दूसरे के
हित में
अधूरापन है, एकांगी
दृष्टि है। इस
अर्थ में वे
अनेकांती हैं।
वे प्रत्येक
पहलू पर, प्रत्येक
पहलू पर
क्या-क्या
विरोध है, वे
दोनों में से
सत्य को निचोड़
लेना चाहते
हैं।
आज
इतना ही।
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