अध्याय—13
सूत्र—
ध्यानेनात्मनि
पश्यान्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये
सांख्येन
योगेन कर्मयोगेन
चापरे।। 24।।
अन्ये
त्वेवमजानन्त:
श्रुत्वान्येभ्य
उपासते।
तउपि
चातितरन्त्येव
मृत्यु
श्रुतिपरायणा:।।
25।।
यावत्संजायते
किंचित्सत्वं
स्थावरजड्गमम्।
क्षेत्रक्षत्रज्ञसंयोत्तद्विद्धि
भरतर्षभ।।
26।।
और है
अर्जुन उस परम
पुरुष को
कितने ही
मनुष्य तो
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि से
ध्यान के
द्वारा हदय
में देखते हैं
तथा अन्य कितने
ही ज्ञान— योग
के द्वारा
देखते हैं तथा
अन्य कितने ही
निष्काम कर्म—
योग के द्वारा
देखते हैं।
परंतु
इनसे दूसरे
अर्थात जो मंद
बुद्धि वाले
पुरूष है,
वे स्वयं इस
प्रकार न
जानते न
दूसरों से
अर्थात तत्व के
जानने वाले
पुरूषों से
सुनकर ही
उपासना करते
हैं और वे
सुनने के
यरायण हुए पुरुष
भी मृत्युरूय
संसार— सागर
को निस्संदेह
तर जाते हैं।
हे अर्जुन
यावन्मात्र
जो कुछ भी
स्थावर— जंगम
वस्तु उत्पन्न
होती है,
उस संपूर्ण को
तू क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के संयोग से ही
उत्पन्न हुई
जान।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि भगवान
बुद्ध ने सत्य, अहिंसा,
झूठ न बोलना,
चोरी न करना,
बुरा न करना,
यह सिखाया
है। परंतु
कृष्ण की गीता
में हिंसा का
मार्ग बतलाया
गया है। कृष्ण
चोरी करना, झठ बोलना, संभोग से
समाधि की ओर
जाना सिखाते
है। तो आप यह
कहिए कि जो
हिंसा का
मार्ग बताता
है, क्या
वह भगवान माना
जा सकता है?
बुद्ध, महावीर
की शिक्षाएं
नैतिक हैं और
बहुत साधारण
आदमी को ध्यान
में रखकर दी
गई हैं। कृष्ण
की शिक्षाएं
धार्मिक हैं
और बहुत असाधारण
आदमी को ध्यान
में रखकर दी
गई हैं।
बुद्ध, महावीर
की शिक्षाएं
अत्यंत
साधारण
बुद्धि के
आदमी की भी
समझ में आ
जाएंगी; उनमें
जरा भी अड़चन
नहीं है।
उसमें थर्ड
रेट, जो
आखिरी बुद्धि
का आदमी है, उसको ध्यान
में रखा गया
है।
कृष्ण
की शिक्षाएं
प्रथम कोटि के
मनुष्य की ही
समझ में आ
सकती हैं। वे
अति जटिल हैं।
और महावीर और
बुद्ध की
शिक्षाओं से
बहुत ऊंची हैं।
थोड़ा कठिन
होगा समझना।
हम
सबको समझ में
आ जाता है कि
चोरी करना पाप
है। चोर को भी
समझ में आता
है। आपको ही
समझ में आता
है,
ऐसा नहीं; चोर को भी
समझ में आता
है कि चोरी करना
बुरा है।
लेकिन चोरी
करना बुरा
क्यों है?
चोरी
करना बुरा तभी
हो सकता है, जब
संपत्ति सत्य
हो; पहली
बात। धन बहुत
मूल्यवान हो
और धन पर किसी
का कब्जा माना
जाए
व्यक्तिगत
अधिकार माना
जाए तब चोरी करना
बुरा हो सकता
है।
धन
किसका है? एक
तो यह माना
जाए कि
व्यक्ति का
अधिकार है धन
पर, इसलिए
उससे जो धन
छीनता है, वह
नुकसान करता
है। दूसरा यह
माना जाए कि
धन बहुत
मूल्यवान है।
अगर धन में
कोई मूल्य ही
न हो, तो
चोरी में
कितना मूल्य
रह जाएगा? इसे
थोड़ा समझें।
जितना
मूल्य धन में
होगा, उतना ही
मूल्य चोरी
में हो सकता
है। अगर धन का बहुत
मूल्य है, तो
चोरी का मूल्य
है। लेकिन
कृष्ण जिस तल
से बोल रहे
हैं, वहां
धन मिट्टी है।
यह
बड़े मजे की
बात है कि
महावीर को
मानने वाले जैन
साधु भी कहते
हैं,
धन मिट्टी
है। और फिर भी
कहते हैं, चोरी
पाप है।
मिट्टी को
चुराना क्या
पाप होगा? धन
कचरा है। और
फिर भी कहते
हैं, चोरी
पाप है! अगर धन
कचरा है, तो
चोरी पाप कैसे
हो सकती है? कचरे को
चुराने को कोई
पाप नहीं कहता।
वह धन लगता तो
मूल्यवान ही
है।
असल
में जो समझाते
हैं कि कचरा
है,
वे भी
इसीलिए अपने
को समझा रहे
हैं, बाकी
लगता तो उनको
भी धन
मूल्यवान है।
इसलिए धन की चोरी
भी मूल्यवान
मालूम पड़ती है।
मैं
एक जैन मुनि
के पास था, उन्होंने
अपनी एक कविता
मुझे सुनाई।
उस कविता में
उन्होंने बड़े
अच्छे शब्द
संजोए थे। और
जो भी उनके आस—पास
लोग बैठे थे, वे सब सिर
हिलाने लगे।
गीत अच्छा था;
लय थी।
लेकिन अर्थ? अर्थ बिलकुल
ही व्यर्थ था।
अर्थ यह था उस
गीत का कि हे
सम्राटो, तुम
अपने स्वर्ण—सिंहासनों
पर बैठे रहो; मैं अपनी
धूल में ही
पड़ा हुआ मस्त
हूं। मुझे
तुम्हारे
स्वर्ण—सिंहासन
की कोई भी चाह
नहीं। मेरे
लिए तुम्हारा
स्वर्ण—सिंहासन
मिट्टी जैसा
है। मैं
तुम्हारे
स्वर्ण—सिंहासन
को लात मारता
हूं। मैं अपनी
धूल में पड़ा
हुआ फकीर मस्त
हूं। मुझे
तुम्हारे
स्वर्ण—सिंहासनों
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
बार—बार यही
ध्वनि थी।
गीत
पूरा हो जाने
पर मैंने उनसे
पूछा कि अगर स्वर्ण—सिंहासनों
की सच में ही
तुम्हें कोई
फिक्र नहीं, तो
यह गीत किसलिए
लिखा है? मैंने
किसी सम्राट
को इससे उलटा
गीत लिखते आज
तक नहीं देखा,
कि फकीरो, पड़े रहो
अपनी मिट्टी
में, हमें
तुमसे कोई भी
ईर्ष्या नहीं।
हम तुम्हारी
फकीरी को लात
मारते हैं। हम
तुम्हारी
फकीरी को दो
कौड़ी का समझते
हैं। हम अपने
स्वर्ण—सिंहासन
पर मजे में
हैं। हमें
तुमसे कोई
ईर्ष्या नहीं है।
मनुष्य
जाति के
हजारों साल के
इतिहास में एक
भी सम्राट ने
ऐसा नहीं लिखा
है। लेकिन
फकीरों ने इस
गीत जैसे बहुत
गीत लिखे हैं।
इसका क्या
मतलब है? इसका
मतलब है, फकीरों
को ईर्ष्या है।
यह ईर्ष्या
नहीं है, यह
कहना भी
ईर्ष्या से ही
जन्म रहा है।
और फकीर कितना
ही कह रहा हो, अपनी धूल
में मस्त हैं,
वह अपने को
समझा रहा है
कि हम धूल में
मस्त हैं। जान
तो वह भी रहा
है कि सम्राट
सिंहासन पर
मजा ले रहा है।
नहीं तो
सम्राट को बीच
में लाने का
प्रयोजन क्या
है? और
स्वर्ण—सिंहासन
अगर मिट्टी ही
है, तो बार—बार
दोहराने की
जरूरत क्या है?
कोई
भी तो नहीं
कहता कि
मिट्टी
मिट्टी है।
लोग स्वर्ण
मिट्टी है, ऐसा
क्यों कहते
हैं? स्वर्ण
तो स्वर्ण ही
दिखाई पड़ता है,
लेकिन
वासना को
दबाने के लिए
आदमी अपने को
समझाता है कि
मिट्टी है, क्या चाहना
उसको! लेकिन
चाह भीतर खड़ी
है, उस चाह
को काटता है।
मिट्टी है, क्या चाहना
उसको!
यह
स्त्री की देह
है,
इसमें कोई
भी सौंदर्य
नहीं है; हड्डी,
मांस—मज्जा
भरा है, ऐसा
अपने को
समझाता है।
सौंदर्य उसको
दिखाई पड़ता है।
उसकी वासना
मांग करती है।
उसकी वासना
दौड़ती है। वह
वासना को
काटने के उपाय
कर रहा है। वह
यह समझा रहा
है कि नहीं, इसमें हड्डी,
मांस—मज्जा
है; कुछ भी
नहीं है। सब
गंदी चीजें
भीतर भरी हैं;
यह मल का
ढेर है।
लेकिन
यह समझाने की
जरूरत क्या है? मल
के ढेर को
देखकर कोई भी
नहीं कहता कि
यह मल का ढेर
है, इसकी
चाह नहीं करनी
चाहिए। अगर
स्त्री में मल
ही दिखाई पड़ता
है, तो बात
ही खतम हो गई; चाह का सवाल
क्या है! और
चाह नहीं करनी
चाहिए, ऐसी
धारणा का क्या
सवाल है!
कृष्ण
बहुत ऊंची जगह
से बोल रहे
हैं। महावीर
और बुद्ध भी उसी
ऊंची जगह पर
खड़े हैं, लेकिन
वे बोल बहुत
नीची जगह से
रहे हैं, वहां
जहां आप खड़े
हैं।
सदगुरु
अपने हिसाब से
चुनते हैं। वे
किसको कहना
चाहते हैं, इस
पर निर्भर
करता है।
महावीर
आपको समझते
हैं। वे जानते
हैं कि आप चोर
हो। और आपको
यह कहना कि
चोरी और गैर—चोरी
में कोई फर्क
नहीं है, आप
चोरी में ही
लगे रहोगे। तो
आपको समझा
रहें हैं कि
चोरी पाप है।
हालांकि
महावीर भी
जानते हैं कि
चोरी तभी पाप
हो सकती है, जब धन में
मूल्य हो। और
जब धन में कोई
मूल्य नहीं है,
चोरी में
कोई मूल्य
नहीं रह गया।
इसे
हम ऐसा समझें।
महावीर और
बुद्ध समझा
रहे हैं कि
हिंसा पाप है; और
साथ ही यह भी
समझा रहे हैं
कि आत्मा अमर
है, उसे
काटा नहीं जा
सकता। इन
दोनों बातों
में विरोध है।
अगर मैं किसी
को काट ही
नहीं सकता, तो हिंसा हो
कैसे सकती है?
इसे थोड़ा
समझें।
महावीर
और बुद्ध कह
रहे हैं कि
हिंसा पाप है; किसी
को मारो मत।
और पूरी
जिंदगी समझा
रहे हैं कि
मारा तो जा ही नहीं
सकता, क्योंकि
आत्मा अमर है;
और शरीर मरा
ही हुआ है, उसको
मारने का कोई
उपाय नहीं है।
आपके
भीतर दो चीजें
हैं,
शरीर है और
आत्मा है।
महावीर और
बुद्ध भी कहते
हैं कि आत्मा
अमर है, उसको
मारा नहीं जा
सकता, और
शरीर मरा ही
हुआ है, उसको
मारने का कोई
उपाय नहीं है।
तो फिर हिंसा
का क्या मतलब
है? फिर
हिंसा में पाप
कहां है? आत्मा
मर नहीं सकती,
शरीर मरा ही
हुआ है, तो
हिंसा में पाप
कैसे हो सकता
है? और जब
आप किसी को
मार ही नहीं
सकते, तो
बचा कैसे, सकते
हैं? यह भी
थोड़ा समझ लें।
अहिंसा
की कितनी कीमत
रह जाएगी! अगर
हिंसा में कोई
मूल्य नहीं है, तो
अहिंसा का
सारा मूल्य
चला गया। अगर
आत्मा काटी ही
नहीं जा सकती,
तो अहिंसा
का क्या मतलब
है? आप
हिंसा कर ही
नहीं सकते, अहिंसा कैसे
करिएगा! इसे
थोड़ा ठीक से
समझें। हिंसा
कर सकते हों, तो अहिंसा
भी हो सकती है।
जब हिंसा हो
ही नहीं सकती,
तो अहिंसा
कैसे करिएगा?
लेकिन
महावीर और
बुद्ध आपकी
तरफ देखकर बोल
रहे हैं। वे जानते
हैं कि आपको न
तो आत्मा का
पता है, जो
अमर है; न
आपको इस बात
का पता है कि
शरीर जो कि
मरणधर्मा है।
आप तो शरीर को
ही अपना होना
मान रहे हैं, जो मरणधर्मा
है। इसलिए जरा
ही क्रोध आता
है, तो
लगता है, दूसरे
आदमी को तलवार
से काटकर दो
टुकड़े कर दो।
आप जब दूसरे
आदमी को काटने
की सोचते हैं,
तो आप दूसरे
आदमी को भी
शरीर मानकर चल
रहे हैं।
इसलिए हिंसा
का भाव पैदा
होता है।
इस
हिंसा के भाव
के पैदा होने
में आपकी भूल
है,
आपका
अज्ञान है। यह
अज्ञान टूटे,
इसकी
महावीर और
बुद्ध चेष्टा
कर रहे हैं।
लेकिन कृष्ण
का संदेश
अंतिम है, आत्यंतिक
है; वह
अल्टिमेट है।
वह पहली क्लास
के बच्चों के
लिए दिया गया
नहीं है। वह
आखिरी कक्षा
में बैठे हुए
लोगों के लिए
दिया गया है।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन
से कहते हैं
कि तू पागलपन की
बात मत कर कि
तू लोगों को
काट सकता है।
आज तक दुनिया
में कोई भी
नहीं काट सका।
काटना असंभव
है। क्योंकि
वह जो भीतर है, शरीर
को काटे जाने
से कटता नहीं।
वह जो भीतर है,
शरीर को
जलाने से जलता
नहीं। वह जो
भीतर है, शरीर
को छेद सकते
हैं शस्त्र, वह छिदता
नहीं। तो
इसलिए तू पहली
तो भांति छोड
दे कि तू काट
सकता है।
इसलिए तू
हिंसक हो सकता
है, यह बात ही
भूल। और जब तू
हिंसक ही नहीं
हो सकता, तो
अहिंसक होने
का कोई सवाल
नहीं है।
यह
परम उपदेश है।
और इसलिए
जिनके पास
छोटी बुद्धि
है,
सांसारिक
बुद्धि है, उनकी समझ
में नहीं आ
सकेगा। पर कुछ
हर्जा नहीं, वे महावीर
और बुद्ध को
समझकर चलें।
जैसे—जैसे
उनकी समझ
बढ़ेगी, वैसे—वैसे
उनको दिखाई
पड़ने लगेगा कि
महावीर और बुद्ध
भी कहते तो
यही हैं।
समझ
बढ़ेगी, तब
उनके खयाल में
आएगा कि वे भी
कहते हैं, आत्मा
अमर है। वे भी
कहते हैं कि
आत्मा को
मारने का कोई
उपाय नहीं है।
और वे भी कहते
हैं कि धन
केवल मान्यता
है, उसमें
कोई मूल्य है
नहीं; मान्यता
का मूल्य है।
लेकिन जो माने
हुए बैठे हैं,
उनको छीनकर
अकारण दुख
देने की कोई
जरूरत नहीं है।
हालांकि दुख
वे आपके
द्वारा धन
छीनने के कारण
नहीं पाते हैं।
वे धन में
मूल्य मानते
हैं, इसलिए
पाते हैं।
थोड़ा
समझ लें। अगर
मेरा कोई धन
चुरा ले जाता
है,
तो मैं जो दुख
पाता हूं वह
उसकी चोरी के
कारण नहीं
पाता हूं; वह
दुख मैं इसलिए
पाता हूं कि
मैंने अपने धन
में बड़ा मूल्य
माना हुआ था।
वह मेरे ही
अज्ञान के
कारण मैं पाता
हूं, चोर
के कारण नहीं
पाता। मैं तो
पाता हूं
इसलिए कि मैं
सोचता था, धन
बड़ा मूल्यवान
है और कोई
मुझसे छीन ले
गया।
कृष्ण
कह रहे हैं, धन
का कोई मूल्य
ही नहीं है।
इसलिए न चोरी
का कोई मूल्य
है और न दान का
कोई मूल्य है।
ध्यान
रखें, धन में
मूल्य हो, तो
चोरी और दान
दोनों में
मूल्य है। फिर
चोरी पाप है
और दान पुण्य
है। लेकिन अगर
धन ही
निर्मूल्य है,
तो चोरी और
दान, सब
निर्मूल्य हो
गए। यह आखिरी
संदेश है।
इसका मतलब यह
नहीं है कि आप
चोरी करने चले
जाएं।
इसका
यह भी मतलब
नहीं है कि आप
दान न करें।
इसका कुल मतलब
इतना है कि आप
जान लें कि धन
में कोई भी
मूल्य नहीं है।
कृष्ण
यह नहीं कह
रहे हैं कि तू
हिंसा करने में
लग जा।
क्योंकि कृष्ण
तो मानते ही
नहीं कि हिंसा
हो सकती है।
इसलिए कैसे
कहेंगे कि
हिंसा करने
में लग जा! कृष्ण
तो यह कह रहे
हैं कि हिंसा—अहिंसा
भ्रांतियां
हैं। तू कर
नहीं सकता।
लेकिन करने की
अगर तू चेष्टा
करे,
तो तू अकारण
दुख में पड़ेगा।
इसे
हम और तरह से
भी समझें।
क्योंकि यह बहुत
गहरा है, और
जैनों, बौद्धों
और हिंदुओं के
बीच जो
बुनियादी
फासला है, वह
यह है।
इसलिए
गीता को जैन
और बौद्ध
स्वीकार नहीं
करते। कृष्ण
को उन्होंने
नरक में डाला
हुआ है। अपने
शास्त्रों
में उन्होंने
लिखा है कि
कृष्ण नरक में
पड़े हैं। और
नरक से उनका
छुटकारा आसान
नहीं है, क्योंकि
इतनी खतरनाक
बात समझाने
वाला आदमी नरक
में होना ही
चाहिए। जो यह
समझा रहा है
कि अर्जुन, तू बेफिक्री
से काट, क्योंकि
कोई कटता ही
नहीं है। इससे
ज्यादा
खतरनाक और
क्या संदेश
होगा!
और
जो कह रहा है, किसी
भी तरह का
वर्तन करो, वर्तन का
कोई मूल्य नहीं
है; सिर्फ
पुरुष के भाव
में
प्रतिष्ठा
चाहिए।
तुम्हारे
आचरण की कोई
भी कीमत नहीं
है। तुम्हारा
अंतस कहां है,
यही सवाल है।
तुम्हारा
आचरण कुछ भी
हो, उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है, न
निषेधात्मक, न विधायक।
तुम्हारे
आचरण की कोई
संगति ही नहीं
है। तुम्हारी
आत्मा बस, काफी
है। ऐसी समाज
विरोधी, आचरण
विरोधी, नीति
विरोधी, अहिंसा
विरोधी बात!
तो
जैनों ने
उन्हें नरक
में डाल दिया
है। और तब तक
वे न छूटेंगे, जब
तक इस सृष्टि
का अंत न हो
जाए। दूसरी
सृष्टि जब
जन्मेगी, तब
वे छूटेंगे।
ठीक
है। जैनों की
मान्यता के
हिसाब से
कृष्ण खतरनाक
हैं,
नरक में
डालना चाहिए।
लेकिन कृष्ण
को समझने की
कोशिश करें, तो कृष्ण ने
इस जगत में जो
भी श्रेष्ठतम
बात कही जा
सकती है, वह
कही है। लेकिन
कहने का ढंग
भी उनका उतना
ही श्रेष्ठ है,
जितनी बात
श्रेष्ठ है।
उन्होंने उसे
छोटे लोगों के
लिए साधारण
बुद्धि के
लोगों के लिए
मिश्रित नहीं
किया, समझौता
नहीं किया है।
उन्होंने
आपसे कोई
समझौता नहीं
किया है। सत्य
जैसा है, उसे
वैसा ही कह
दिया है। उसके
क्या परिणाम
होंगे, इसकी
भी फिक्र नहीं
की। और
निश्चित ही
कुछ लोग तो
चाहिए जो सत्य
को वैसा ही कह
दें जैसा है, बिना
परिणामों की
फिक्र किए।
अन्यथा कोई भी
सत्य कहा नहीं
जा सकता।
महावीर, बुद्ध
समझाते हैं, दूसरे को
दुख मत दो। और
महावीर, बुद्ध
यह भी समझाते
हैं कि
तुम्हें जब
दुख होता है, तो तुम्हारे
अपने कारण
होता है, दूसरा
तुम्हें दुख
नहीं देता। इन
दोनों बातों
का मतलब क्या
हुआ?
एक
तरफ कहते हैं, दूसरे
को दुख मत दो; दुख देना
पाप है। दूसरी
तरफ कहते हैं
कि तुम्हें जब
कोई दुख देता
है, तो तुम
अपने ही कारण
दुख पाते हो, दूसरा
तुम्हें दुख
नहीं दे रहा
है। दूसरा तुम
को दुख दे
नहीं सकता।
ये
दोनों बातें
तो विरोधी हो
गईं। इसमें पहली
बात साधारण
बुद्धि के
लोगों के लिए
कही गई है; दूसरी
बात परम सत्य
है। और अगर
दूसरी सत्य है,
तो पहली झूठ
हो गई।
जब
मैं दुख पाता
हूं तो महावीर
कहते हैं कि
तुम अपने कारण
दुख पा रहे हो, कोई
तुम्हें दुख
नहीं देता। एक
आदमी मुझे' पत्थर मार
देता है।
महावीर कहते
हैं, तुम
अपने कारण दुख
पा रहे हो।
क्योंकि
तुमने शरीर को
मान लिया है
अपना होना, इसलिए पत्थर
लगने से शरीर
की पीड़ा को
तुम अपनी पीड़ा
मान रहे हो।
ठीक! मैं किसी
के सिर में
पत्थर मार
देता हूं तो
महावीर कहते
हैं, दूसरे
को दुख मत
पहुंचाओ।
यह
बात
कंट्राडिक्टरी
हो गई। जब
मुझे कोई
पत्थर मारता
है,
तो दुख का
कारण मैं हूं!
और जब मैं
किसी को पत्थर
मारता हूं तब
भी दुख का
कारण मैं हूं!
यह
दो तल पर है
बात। दूसरे को
दुख मत
पहुंचाओ, यह
क्षुद्र आदमी
के लिए कहा
गया है।
क्योंकि
क्षुद्र आदमी
दूसरे को दुख
पहुंचाने में
बड़ा उत्सुक है;
उसके
जीवनभर का एक
ही सुख है कि
दूसरे को कैसे
दुख पहुंचाएं।
वह मरते दम तक
एक ही बस काम
करता रहता है
कि दूसरों को
कैसे दुख
पहुंचाएं। जब
वह सोचता भी
है कि मेरा
सुख क्या हो, तब भी दूसरे
के दुख पर ही
उसका सुख
निर्भर होता
है।
आप
अपने सुखों को
खोजें, तो आप
पता लगा लेंगे
कि जब तक आपका
सुख दूसरे को
दुख न देता हो,
तब तक सुख
नहीं मालूम
पड़ता। आप एक
बड़ा मकान बना
लें, लेकिन
जब तक दूसरों
के मकान छोटे
न पड़ जाएं, तब
तक सुख नहीं
मालूम पड़ता।
आप जो भी कर
रहे हैं, आपके
सुख में दूसरे
के सुख को
मिटाने की
चेष्टा है।
इस
तरह के आदमी
के लिए महावीर
' और बुद्ध कह
रहे हैं कि
दूसरे को दुख
पहुंचाओ मत।
लेकिन यह बात
ऐसे झूठ है, क्योंकि
दूसरे को कोई
दुख पहुंचा
नहीं सकता, जब तक कि
दूसरा दुख
पाने को राजी
न हो। यह
दूसरे की
सहमति पर
निर्भर है। आप
पहुंचा नहीं
सकते।
फिर
ऐसा क्यों कहा
जा रहा है? ऐसा
इसलिए कहा जा
रहा है कि
दूसरे को दुख
पहुंचाने की
चेष्टा में
दूसरे को तो
दुख नहीं पहुंचाया
जा सकता, तुम
अपने को ही
दुख
पहुंचाओगे।
वह तो हो ही
नहीं सकता
दूसरे को दुख
पहुंचाना, लेकिन
तुम अपने को
दुख पहुचाओगे।
क्योंकि तुम
दुख के बीज बो
रहे हो। और जो
तुम दूसरे के
लिए करते हो, वह तुम्हारे
लिए होता जाता
है।
और
जब तुम्हारे
लिए कोई दुख
पहुंचाए तब
तुम समझना कि
कोई दूसरा
तुम्हें दुख
नहीं पहुंचा
रहा है। यह हो
सकता है कि
तुम्हारे
अपने ही
दूसरों को पहुंचाए
गए दुखों के
बीज दूसरे की
सहायता से, संयोग
से, निमित्त
से अब
तुम्हारे लिए
फल बन रहे हों।
लेकिन दुख का
मूल कारण तुम
स्वयं ही हो।
यह
दूसरी बात
ऊंचे तल से
कही गई है। और
पहली बात को
जो पूरा कर
लेगा, उसको
दूसरी बात समझ
में आ सकेगी।
जो दूसरे को
दुख पहुंचाना
बंद कर देगा, उसे यह भी
खयाल में आ
जाएगा कि कोई
दूसरा मुझे दुख
नहीं पहुंचा
सकता। यह दो
तल की, दो
कक्षाओं की
बात है।
कृष्ण
एक तल की सीधी
बात कह रहे
हैं,
वे आखिरी
बात कह रहे
हैं। उनके
सामने जो
व्यक्ति खड़ा
था, वह
साधारण नहीं
है। जिस
अर्जुन से वे
बात कर रहे थे,
उसकी
प्रतिभा
कृष्ण से जरा
भी कम नहीं है।
संभावना उतनी
ही है, जितनी
कृष्ण की है।
वह कोई मंद
बुद्धि
व्यक्ति नहीं
है। वह धनी है
प्रतिभा का।
उसके पास वैसा
ही निखरा हुआ
चैतन्य है, वैसी ही
बुद्धि है, वैसा ही
प्रगाढ़ तर्क
है। वे जिससे
बात कर रहे
हैं; वह
शिखर की बात
है।
और
इसीलिए गीता
लोग कंठस्थ तो
कर लेते हैं, लेकिन
गीता को समझ
नहीं पाते। और
बहुत—से लोग
जो गीता को
मानते हैं, वे भी गीता
में अड़चन पाते
हैं। मान लेते
हैं, तो भी
गीता उनको
दिक्कत देती
है। कठिनाई
मालूम पड़ती है।
महात्मा
गांधी जैसे
व्यक्ति को भी, जो
गीता को माता
कहते हैं, उनको
भी गीता में तकलीफ
है। क्योंकि
यह हिंसा—अहिंसा
उनको भी सताती
है। वे भी
रास्ता
निकालते हैं
कोई। क्योंकि
उनका मन भी यह
मानने की
हिम्मत नहीं कर
पाता कि कृष्ण
जो कहते हैं, वह ठीक ही
कहते हैं कि
काटो, कोई
कटता नहीं।
मारो, कोई
मरता नहीं।
भयभीत मत होओ,
डरो मत, तुम
दूसरे को दुख
पहुंचा नहीं
सकते। इसलिए
दूसरे को दुख
न पहुंचाऊं, ऐसी चेष्टा
भी व्यर्थ है।
और मैंने
दूसरे को दुख
नहीं
पहुंचाया, ऐसा
अहंकार
पागलपन है।
गांधी
तक को तकलीफ
होती है कि
क्या करें। एक
तरफ अहिंसा है।
गांधी बुद्धि
से जैन हैं, नब्बे
प्रतिशत।
जन्म से हिंदू
हैं, दस प्रतिशत।
तो गीता के
साथ मोह भी है,
लगाव भी है;
कृष्ण को
छोड़ भी नहीं
सकते। और वह
जो नब्बे
प्रतिशत जैन
होना है, क्योंकि
गुजरात की हवा
जैनियों की
हवा है। वहां
हिंदू भी जैन
ही हैं। उसके
सोचने के
तरीके के ढंग,
वह सब जैन
की आधारशिला
पर निर्मित हो
गए हैं।
तो
गांधी गीता को
भ्रष्ट कर
देते हैं। वे
फिर तरकीबें
निकाल लेते
हैं समझाने की।
वे कहते हैं, यह
युद्ध
वास्तविक
नहीं है। यह
युद्ध तो
मनुष्य के
भीतर जो बुराई
और अच्छाई है,
उसका युद्ध
है। यह कोई
युद्ध
वास्तविक
नहीं है। और
कृष्ण जो समझा
रहे हैं काटने—पीटने
को, यह
बुराई को
काटने—पीटने
को समझा रहे
हैं, मनुष्यों
को नहीं। ये
कौरव बुराई के
प्रतीक हैं; और ये पांडव
भलाई के
प्रतीक हैं।
यह मनुष्य की
अंतरात्मा
में चलता शुभ
और अशुभ का
द्वंद्व है।
बस, इस
प्रतीक को
पकड़कर फिर
गीता में
दिक्कत नहीं रह
जाती, फिर
अड़चन नहीं रह
जाती।
मगर
यह बात सरासर
गलत है। यह
प्रतीक अच्छा
है,
लेकिन यह
बात गलत है।
कृष्ण तो वही
कह रहे हैं, जो वे कह रहे
हैं। वे तो यह
कह रहे हैं कि
मारने की घटना
घटती ही नहीं,
इसलिए मार
सकते नहीं हो,
तो मारने की
सोचो भी मत।
पहली बात। और
बचाने का तो
कोई सवाल ही
नहीं है।
बचाओगे कैसे?
तुम
दूसरे के साथ
कुछ कर ही
नहीं सकते हो, तुम
जो भी कर सकते
हो, अपने
ही साथ कर
सकते हो! और जब
तुम दूसरे को.
भी मारते हो, तो तुम अपने
को ही मार रहे
हो। जब तुम
दूसरे को
बचाते हो, तो
तुम अपने को
ही बचा रहे हो।
कृष्ण यह कह
रहे हैं कि
तुम अपने से
बाहर जा ही
नहीं सकते।
तुम अपने
पुरुष में ही ठहरे
हुए हो। तुम
सिर्फ
भावनाओं में
जा सकते हो।
एक
आदमी सोच रहा
है कि दूसरे
को मार डालूं
चोट पहुंचाऊं।
वह सब भावनाएं
कर रहा है। वह
जाकर शरीर को
तोड़ भी सकता
है। शरीर तक
उसकी पहुंच हो
जाएगी, क्योंकि
शरीर टूटा ही
हुआ है। लेकिन
वह जो भीतर
चैतन्य था, उसको छू भी
नहीं पाएगा।
और अगर आपको
लगता है कि आप
छू पाए तो
अपने कारण नहीं,
वह जो
चैतन्य था
भीतर, उसके
भाव के कारण।
अगर उसने मान
लिया कि तुम
मुझे मारने आए
हो, तुम
मुझे मार रहे
हो, तुम
मुझे दुख दे
रहे हो, तो
यह उसका अपना
भाव है। इस
कारण तुम्हें
लगता है कि
तुम उसको दुख
दे पाए।
इसे
हम ऐसा समझें।
अगर आप महावीर
को मारने जाएं, तो
आप महावीर को
दुख नहीं
पहुंचा
पाएंगे। बहुत
लोगों ने मारा
है और दुख
नहीं पहुंचा
पाए। महावीर
के कानों में
किसी ने खीले
छेद दिए, लेकिन
दुख नहीं
पहुंचा पाए।
क्यों? क्योंकि
महावीर अब
भावना नहीं
करते। तुम
उन्हें दुख
पहुंचाने की
कोशिश करते हो,
लेकिन वे
दुख को लेते
नहीं हैं। और
जब तक वे न लें,
दुख घटित
नहीं हो सकता।
तुम पहुंचाने
की कामना कर
सकते हो; लेने
का काम उन्हीं
का है कि वे
लें भी। जब तक
वे न लें, तुम
नहीं पहुंचा
सकते। इसलिए
महावीर को हम
दुख नहीं
पहुंचा सकते,
क्योंकि
महावीर दुख
लेने को अपने
भीतर राजी नहीं
हैं।
आप
उस व्यक्ति को
दुख पहुंचा
सकते हैं, जो
दुख लेने को
राजी है। इसका
अर्थ यह हुआ
कि वह आपके
कारण दुख नहीं
लेता; वह
दुख लेने को
राजी है, इसलिए
लेता है। और
अगर आप न
पहुंचाते, तो
कोई और
पहुंचाता। और
अगर कोई भी
पहुंचाने
वाला न मिलता,
तो भी वह
आदमी कल्पित
करके दुख पाता।
वह दुख लेने
को राजी था।
वह कोई भी
उपाय खोज लेता
और दुखी होता।
आप
थोड़े दिन, सात
दिन के लिए एक
कमरे में बंद
हो जाएं, जहां
कोई दुख
पहुंचाने
नहीं आता, कोई
गाली नहीं
देता, कोई
क्रोध नहीं
करवाता। आप
चकित हो
जाएंगे कि सात
दिन में अचानक
आप किसी क्षण
में दुखी हो
जाते हैं, जब
कि कोई दुख
पहुंचाने
वाला नहीं है।
और किसी क्षण
में अचानक
क्रोध से भर
जाते हैं, जब
कि किसी ने
कोई गाली नहीं
दी, किसी
ने कोई अपमान
नहीं किया। और
किसी समय आप
बड़े आनंदित हो
जाते हैं, जब
कि कोई प्रेम
करने वाला
नहीं है।
अगर
सात दिन आप
मौन में, स्वात
में बैठें, तो आप चकित
हो जाएंगे कि
आपके भीतर
भावों का वर्तन
चलता ही रहता
है। और बिना
किसी के आप
सुखी—दुखी भी
होते रहते हैं।
एक
दफा यह आपको
दिखाई पड़ जाए
कि मैं बिना
किसी के सुखी—दुखी
हो रहा हूं तो
आपको खयाल आ
जाएगा कि दूसरे
ज्यादा से
ज्यादा आपको
अपनी भावनाएं
टांगने के लिए
खूंटी का काम
करते हैं, इससे
ज्यादा नहीं।
वे निमित्त से
ज्यादा नहीं
हैं।
यही
कृष्ण अर्जुन
को समझा रहे
हैं कि तू निमित्त
से ज्यादा
नहीं है। तू
यह खयाल ही
छोड़ दे कि तू
कर्ता है। उस
कर्ता में ही
कृष्ण के लिए
एकमात्र
अज्ञान है।
हमें
समझ में आता
है कि हिंसा
करना बुरा है।
हमें यह समझ
में नहीं आता
कि अहिंसा
करना भी बुरा
है। हिंसा
करना बुरा है, क्योंकि
दूसरे को दुख
पहुंचता है, हमारा खयाल
है। लेकिन
कृष्ण के
हिसाब से
हिंसा करना
इसलिए बुरा है
कि कर्ता का
भाव बुरा है, कि मैं कर
रहा हूं। इससे
अहंकार घना
होता है।
अगर
हिंसा करना
बुरा है कर्ता
के कारण, तो
अहिंसा करना
भी उतना ही
बुरा है कर्ता
के कारण। और
कृष्ण कहते
हैं, जड़ को
ही काट दो; तुम
कर्ता मत बनो।
न तो तुम
हिंसा कर सकते
हो, न तुम
अहिंसा कर
सकते हो। तुम
कुछ कर नहीं
सकते। तुम
केवल हो सकते
हो। तुम अपने
इस होने में
राजी हो जाओ।
फिर जो कुछ हो
रहा हो, उसे
होने दो।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि
अगर यह बात सच
है कि मैं कुछ
न करने में ठहर
जाऊं, पुरुष
में ठहर जाऊं,
अपने
चैतन्य में
साक्षी— भाव
से स्फ जाऊं, तो कृष्ण
कहते हैं, फिर
जो भी बर्तन
हो, उस
बर्तन से कुछ
भी हानि—लाभ
नहीं है, कोई
पाप—पुण्य
नहीं है। उन
मित्र ने पूछा
है कि जब मेरी
सब चाह मिट गई,
वासना मिट
गई, और जब
मैंने अपने
पुरुष को जान
लिया, तो
बर्तन होगा ही
कैसे? जब
मैं अपने
आत्मा में ठहर
गया, तो
बर्तन होगा ही
कैसे?
यह बात सोचने
जैसी है यह
सवाल उठेगा, क्योंकि
हम जितना भी वर्तन
जानते? हैं,
वह चाह के
कारण है। आप
चलते हैं, क्योंकि
कहीं पहुंचना
है। कोई कहे
कि कहीं
पहुंचने की
जरूरत नहीं है,
फिर चलना हो
जितना, चलो।
तो आप कहेंगे,
हम चलेंगे
किसलिए? चलने
का कोई अर्थ
ही न रहा, कोई
प्रयोजन न रहा,
कोई कारण न
रहा, तो
चलेंगे
किसलिए? कोई
पागल तो नहीं
हैं कि अकारण
चलते रहें, जब कि कहीं
पहुंचने को
नहीं है, कोई
वासना नहीं है,
कोई चाह
नहीं है, कोई
मंजिल नहीं है।
हम
कर्म करते हैं
किसी वासना से।
तो उन मित्र
का पूछना
बिलकुल ठीक है
कि जब वासना
ही मिट गई और
कर्म अभिनय
है. यह समझ में
आ गया : और कुछ
पाने योग्य
नहीं है, कुछ
पहुंचने
योग्य नहीं है,
यह दृष्टि
स्पष्ट हो गई;
तो कृष्ण का
यह कहना कि
फिर जो भी
वर्तन हो, होने
दें, फिर न
कोई जन्म होगा,
न वर्तन का
कोई कर्म
परिणाम होगा—इसका
क्या अर्थ है?
फिर वर्तन
होगा ही क्यों?
यह
थोड़ा जटिल और
टेक्निकल है
सवाल। इसे
समझने की
कोशिश करें।
करीब—करीब
बात ऐसी है कि
आप एक साइकिल
पर चल रहे हैं, पैडल
चला रहे हैं।
फिर आपने पैडल
रोक दिए। पैडल
रुकते से ही
साइकिल नहीं
रुक जाएगी।
हालांकि रुक
जाना चाहिए, क्योंकि
पैडल से चलती
थी। पैडल
चलाने से चलती
थी, बिना
पैडल चलाए
साइकिल नहीं
चल सकती थी।
पैडल से चलती
थी।
लेकिन
आपने पैडल रोक
दिए,
तो भी
साइकिल थोड़ी
दूर जाएगी। और
थोड़ी दूर जाना
बहुत चीजों पर
निर्भर होगा।
थोड़ी दूर बहुत
दूर भी हो
सकती है, अगर
साइकिल उतार
पर हो। अगर
चढ़ाव पर हो, तो थोड़ी दूर
बहुत कम दूर
होगी। अगर
समतल पर हो, तो भी काफी
दूर होगी। अगर
बिलकुल उतार
हो, तो
मीलों भी जा
सकती है।
साइकिल का
पैडल बंद करते
से साइकिल
नहीं रुकेगी,
क्योंकि
पैडल जो पीछे
आपने चलाए थे
अतीत में, उनसे
मोमेंटम पैदा
होता है, उनसे
गति पैदा होती
है और चाको
में गति भर
जाती है। वह
गति काम करेगी।
जिस
दिन कोई
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है और पुरुष
में ठहर जाता
है,
तब भी शरीर
में मोमेंटम
रहता है। शरीर
चाक की तरह
गति इकट्ठी कर
लेता है अनेक
जन्मों में।
अगर उतार पर
यात्रा हो, तो शरीर
बहुत लंबा चल
जाएगा।
इसलिए
जिन लोगों को
पैंतीस साल के
पहले ज्ञान उपलब्ध
हो जाता है, उनको
शरीर को लंबा
चलाना बहुत
कठिन है।
क्योंकि
पैंतीस साल
पीक है, पैंतीस
साल के बाद
शरीर में उतार
शुरू होता है।
इसलिए
विवेकानंद, शंकर या
क्राइस्ट, जो
बहुत जल्दी
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए,
पैंतीस साल
के पहले मर
जाते हैं।
शरीर में मोमेंटम
है, लेकिन
अब यह यात्रा
शरीर की ऊपर
की तरफ थी।
पैंतीस
साल तक शरीर
ऊपर की तरफ
जाता है।
सत्तर साल में
मौत होने वाली
है,
तो पैंतीस
साल में पीक
होती है।
अस्सी साल में
मौत होने वाली
है, तो
चालीस साल में
पीक होती है।
सौ साल में
मौत होने वाली
है, तो
पचास साल में
पीक होती है।
पैंतीस मैं
औसत ले रहा
हूं।
लेकिन
जो लोग पैंतीस
साल के बाद
ज्ञान को उपलब्ध
होते हैं, उनका
शरीर काफी
लंबा चल जाता
है, क्योंकि
शरीर तब उतार
पर होता है और
पुराना मोमेंटम
काफी गति देता
है। इसलिए
बहुत—से
ज्ञानी जो
पैंतीस साल के
पहले निर्वाण
को उपलब्ध
होते हैं, जिंदा
नहीं रह पाते,
ज्यादा देर
जिंदा नहीं रह
पाते। कठिन है
जिंदा रहना।
या फिर जिंदा
रहने के लिए
उन्हें उपाय
करने पड़ते हैं;
कोई
व्यवस्था
जुटानी पड़ती
है।
अगर
उनके पास कोई
संदेश हो जिसे
उन्हें हस्तांतरित
करना है, और वह
व्यक्ति
मौजूद न हो
जिसको संदेश
हस्तांतरित
करना है, या
उन
व्यक्तियों
के बनने में, निर्मित
होने में समय
हो, तो फिर
उन
व्यक्तियों
को इंतजाम करना
पड़ता है।
लेकिन भीतर जो
चाह का पैडल
था, वह बंद
होते से ही
कठिनाई शुरू
हो जाती है।
इसलिए
अगर आपको बहुत
ज्ञानी बहुत
खतरनाक बीमारियों
से मरते मालूम
पड़ते हैं, तो
उसका कारण है।
उसका कारण है
कि शरीर को जो
गति होनी
चाहिए, वह
देने वाली चाह
तो समाप्त हो
गई। अब तो
शरीर पुरानी
अर्जित शक्ति
से ही चलता है,
वह शक्ति बहुत
कम होती है।
कोई भी बीमारी
तीव्रता से
पकड़ ले सकती
है। क्योंकि
रेसिस्टेंस
कम हो जाता है।
ऐसा
समझिए कि आप
पैडल चला रहे
थे साइकिल पर।
और कोई अगर
आपको धक्का
मार देता है, तो
हो सकता था, आप न भी
गिरते। अगर गति
तेज होती, तो
आप धक्के को
सम्हाल जाते।
और आप बिना
पैडल चलाए
साइकिल पर
थिरे हुए थे, जैसे चील
आकाश में बिना
पंख चलाए थिरी
हो। बस, धीमे—
धीमे साइकिल
चल रही थी मंद
गति से; और
कोई जरा—सा
धक्का दे दे, आप फौरन गिर
पड़ेंगे।
रेसिस्टेंस
कम होगा।
जितनी तेज गति
होगी, रेसिस्टेंस
ज्यादा होगा,
जितनी कम
गति होगी, उतनी
प्रतिरोधक
शक्ति कम हो
जाती है।
तो
रामकृष्ण और
रमण अगर कैंसर
से मरते हैं, तो
उसका कारण है।
बहुत लोगों को
चिंता होती है
कि इतने परम
ज्ञानी और
इन्हें तो कम
से कम कैंसर
नहीं होना चाहिए!
क्योंकि हम
सोचते हैं, पापियों को
कैंसर होता है।
तो इतने परम
ज्ञानी को
कैंसर हो जाए!
बहुत
कारणों में एक
कारण यह भी है
कि जिनका भी भीतर
शरीर के साथ
गति का संबंध
टूट गया। वह
संबंध ही
वासना का है, चाह
का है। कहीं
पहुंचना है, इसलिए पैडल
चलाते थे। अब
कहीं भी नहीं
पहुंचना है; पैडल चलना
बंद हो गया।
लेकिन पुरानी
शक्ति और
अर्जित ऊर्जा
के कारण शरीर
चलेगा।
कृष्ण
का यह जो कहना
है कि जब कोई
पुरुष में थिर
हो जाता है, फिर
जो भी वर्तन
होता है, उससे
कोई कर्म—बंध
नहीं होता।
क्योंकि कर्म—बंध
वर्तन के कारण
नहीं होता; कर्म—बंध
चाह के कारण
होता है।
और
वर्तन थोड़ी
देर जारी
रहेगा। वर्तन
पुराने लीक पर
जारी रहेगा।
थोड़े दिन तक
जीवन की धारा
और बहेगी।
लेकिन यह एक
ही शरीर तक हो
सकती है।
इसलिए
ज्ञानी का
दूसरा जन्म
नहीं होगा।
क्योंकि बिना
मोमेंटम के, बिना
पैडल चलाए नई
साइकिल नहीं
चलेगी। अगर आप
अभी सवार हों
सीधा साइकिल
पर, और
बिलकुल बिना
पैडल चलाए उस
पर सवार हो
जाएं, तो न
तो सवार हो
सकते हैं, सवार
हो भी जाएं तो
फौरन गिर
जाएंगे। नया
शरीर नहीं
चलेगा; पुराना
शरीर थोड़े दिन
चल सकता है।
उस थोड़े दिन
में जो भी
होगा, उसका
कोई कर्म—बंध
नहीं होगा। और
यह बात उचित
है, क्योंकि
कुछ वर्तन तो
होगा ही।
महावीर
को चालीस साल
में ज्ञान हुआ, फिर
वे अस्सी साल
तक जिंदा रहे।
तो चालीस साल
जो जिंदा रहे
ज्ञान के बाद,
उन्होंने
कुछ तो किया
ही। दुकान
नहीं चलाई, राज्य नहीं
किया। किसी की
हत्या नहीं की,
लेकिन फिर
भी कुछ तो
किया ही।
श्वास तो ली; श्वास में
भी कीटाणु मरे।
पानी तो पीया,
पानी में भी
कीटाणु मरे।
रास्ते पर चले,
पैदल चलने
से भी कीटाणु
मरे। रात सोए
जमीन पर लेटे,
उससे भी
कीटाणु मरे।
भोजन किया, उसमें भी
हिंसा हुई।
बोले, उसमें
भी हिंसा हुई।
आंख की पलकें
झपकी, उसमें
भी हिंसा हुई।
जीवित होना ही
हिंसा है।
बिना हिंसा के
तो क्षणभर
जीवित भी नहीं
रहा जा सकता।
एक श्वास आप
लेते हैं, कम
से कम एक लाख
कीटाणु मर
जाते हैं। तो
कैसे बचिएगा?
महावीर भी
नहीं बच सकते।
श्वास तो
लेंगे। भोजन
कम कर देंगे, लेकिन भोजन
लेंगे तो।
हिंसा कम हो
जाएगी, लेकिन
होगी तो।
तो
अगर चालीस साल, ज्ञान
के बाद, हिंसा
जारी रही, तो
मुक्ति कैसे
होगी? फिर
कर्म—बंध हो
जाएगा। इतनी
हिंसा के लिए
फिर से जन्म
लेना पड़ेगा।
अब यह बड़ा
जटिल विशियस
सर्किल है।
अगर इस हिंसा
के लिए फिर से
जन्म लेना पड़े,
तो जन्म
लेते से ही नई
हिंसा शुरू हो
जाएगी। तो फिर
छुटकारे का
कोई उपाय नहीं
है। मुक्ति
होगी कैसे? जन्म—मरण से
छुटकारा कैसे
होगा?
महावीर
भी मानते हैं
कि जैसे ही
परम ज्ञान हो जाता
है,
फिर जो भी
हो रहा है, उस
होने से कोई
बंध नहीं होता,
उस होने से
फिर कोई बंधन
पैदा नहीं
होता। तो ही
मुक्ति संभव
है, नहीं
तो मुक्ति
असंभव है।
क्योंकि कुछ
भी बाकी रहा, तो मुक्ति
असंभव है।
ज्ञान
के बाद जो भी
हो,
उसका बंधन
नहीं होगा।
नहीं होगा
इसलिए कि हम
उसे कर नहीं
रहे हैं। वह
पुरानी
क्रियाओं की
इकट्ठी शक्ति
के द्वारा हो
रहा है। सच
पूछें तो वह
वर्तमान में
हो ही नहीं
रहा है। वह
अतीत का ही
हिस्सा है, जो आगे
लुढ़का जा रहा
है। जिस दिन
आपका शरीर और
आपका कर्म
बिना पैडल चलाए
साइकिल की तरह
लुढ़कने लगते
हैं और आप
सिर्फ
द्रष्टा रह
जाते हैं, उस
दिन आपके लिए
फिर कोई
भविष्य, कोई
जन्म, कोई
जीवन नहीं है।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि आपने
कहा कि
व्यक्ति जैसा
भाव करता र्ह, वैसा
ही बन जाता है।
तो क्या मुक्त
होने के भाव
को गहन करने
से वह मुक्त
भी हो सकता है?
कभी भी
नहीं।
क्योंकि
मुक्त होने का
अर्थ ही है, भाव
से मुक्त हो
जाना। इसलिए
संसार में सब
कुछ हो सकता
है भाव से, मुक्ति
नहीं हो सकती।
मुक्ति संसार
का हिस्सा
नहीं है।
भाव
है संसार का
विस्तार या
संसार है भाव
का विस्तार।
तो आप जो भी
भाव से चाहें, वही
हो जाएंगे।
स्त्री होना
चाहें, स्त्री;
पुरुष होना
चाहें, पुरुष;
पशु होना
चाहें, पशु;
पक्षी होना
चाहें, पक्षी;
स्वर्ग में
देवता होना
चाहें तो, नरक
में भूत—प्रेत
होना चाहें तो,
जो भी आप
होना चाहे—प्ल
मुक्ति को
छोड़कर—आप अपने
भाव से होते
हैं और हो
सकते हैं।
मुक्ति
का अर्थ ही
उलटा है।
मुक्ति का
अर्थ है कि अब
हम कुछ भी
नहीं होना चाहते।
अब जो हम हैं, हम
उससे ही राजी
हैं। अब हम
कुछ होना नहीं
चाहते हैं।
जब
तक आप कुछ
होना चाहते
हैं,
तब तक आप जो
हैं, उससे
आप राजी नहीं
हैं। कुछ होना
चाहते हैं।
गरीब अमीर
होना चाहता है;
स्त्री
पुरुष होना
चाहती है; दीन
धनी होना
चाहता है। कुछ
होना चाहते
हैं। पशु
पुरुष होना
चाहता है, पुरुष
स्वर्ग में
देवता होना
चाहता है।
लेकिन कुछ होना
चाहते हैं, कुछ होना
चाहते हैं।
होना
चाहने का अर्थ
है कि जो मैं
हूं उससे मैं राजी
नहीं हूं; मैं
कुछ और होना
चाहता हूं। और
जो आप हैं, वही
आपका सत्य है।
और जो भी आप
होना चाहते
हैं, वह
झूठ है।
भाव
से झूठ पैदा
हो सकते हैं, सत्य
पैदा नहीं
होता। सत्य तो
है ही। इसलिए
सभी भाव असत्य
को जन्माते
हैं। सारा
संसार इसीलिए
माया है, क्योंकि
वह भाव से
निर्मित है।
आप
जो होना चाहते
हैं,
वह हो जाते
हैं। जो आप
हैं, वह तो
आप हैं ही। वह
इस होने के
पीछे दबा पड़ा
रहता है। जैसे
राख में
अंगारा दबा हो,
ऐसे आपके
होने में, बिकमिंग
में आपका
बीइंग,
आपका
अस्तित्व दबा
रहता है।
जिस
दिन आप थक
जाते हैं होने
से,
और आप कहते
हैं, अब
कुछ भी मुझे
होना नहीं है,
अब तो जो
मैं हूं राजी
हूं। अब मुझे
कुछ भी नहीं
होना है। अब
तो जो मेरा
होना है, वही
ठीक है। मेरा
अस्तित्व ही
अब मेरे लिए
काफी है। अब
मेरी कोई
वासना, कोई
दौड़ नहीं है।
जिस दिन आपकी
भाव की यात्रा
बंद हो जाती
है, आप
मुक्त हो जाते
हैं।
इसलिए
भावना से आप
मुक्त न हो
सकेंगे।
भावना संसार
का स्रोत है।
भावना रुक
जाएगी, तो आप
मुक्त हो
जाएंगे। यह
कहना भी ठीक
नहीं कि मुक्त
हो जाएंगे; क्योंकि
मुक्त आप हैं।
भावना के कारण
आप बंधे हैं।
आपकी मुक्ति
भावना के जाल
में बंधी है।
जिस दिन भावना
का जाल गिर
जाएगा, आप
मुक्त हैं।
आप
सदा मुक्त थे।
मोक्ष कोई
भविष्य नहीं
है। और मोक्ष
कोई स्थान
नहीं है।
ध्यान रहे, मोक्ष
आपका स्वभाव
है। आप जो हैं
अभी, इसी
वक्त, इसी
क्षण, वही
आपका मोक्ष है।
लेकिन
वह आप होना
नहीं चाहते।
आप कुछ और
होना चाहते
हैं। कोई भी
स्वयं होने से
राजी नहीं है।
कोई कुछ और
होना चाहता है, कोई
कुछ और होना
चाहता है।
राजनीतिज्ञ
मेरे पास आते
हैं,
वे साधु
होना चाहते
हैं। साधु
मेरे पास आते
हैं, उनकी
बातें सुनकर
लगता है कि वे
राजनीतिज्ञ
होना चाहते
हैं। गरीब
अमीर होना
चाहता है।
अमीर मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं कि
बुरे उलझ गए
हैं, बड़ी
मुसीबत में
हैं। इससे तो गरीबी
बेहतर।
हमने
जाना भी है, बुद्ध
और महावीर
अमीर घरों में
पैदा हुए और
गरीब हो गए।
छोड्कर सड़क पर
खड़े हो गए।
अमीर
गरीब होना
चाहता है। आज
अमेरिका में
गरीब होने की
दौड़ खड़ी हो
रही है, क्योंकि
अमेरिका खूब
अमीर हो गया
है। तो नए
बच्चे, लड़के,
लड़कियां
हिप्पी हो रहे
हैं; वे
छोड़ रहे हैं।
वे कहते हैं, भाड़ में जाए
तुम्हारा धन,
तुम्हारे
महल, तुम्हारी
कारें कुछ भी
नहीं चाहिए।
हमें जिंदगी
चाहिए सीधी, सरल।
अमीर
गरीब होना
चाहते हैं; गरीब
अमीर होना
चाहते हैं।
कोई कुछ होना
चाहता है, कोई
कुछ होना
चाहता है। एक
बात पक्की है
कि कोई भी
स्वयं नहीं
होना चाहता।
आप
भी अपने भीतर
न मालूम क्या—क्या
सोचते रहते
हैं। कोई को
गांधी बनना है, किसी
को विवेकानंद
बनना है, किसी
को क्राइस्ट
बनना है। बस, एक बात भर
नहीं, जो
आप हैं, वह
भर नहीं बनना
है; बाकी
सब बनना है।
संसार
का अर्थ है, कुछ
और होने की
दौड़। मोक्ष का
अर्थ है, स्वयं
होने के लिए
राजी हो जाना।
उसके लिए किसी
भावना की
जरूरत नहीं है।
इसलिए अगर आप
भावना करके
मुक्त होंगे,
तो वह
मुक्ति झूठी
होगी। वह भी
चेष्टित और मन
का ही फैलाव
होगी। कई लोग
भावना करके
मुक्त होने की
चेष्टा करते
रहते हैं। ऐसा
समझाते रहते
हैं कि हम तो
आत्मा हैं, मुक्त हैं।
यह शरीर मैं
नहीं हूं यह
संसार मैं
नहीं हूं। ऐसा
समझा—समझाकर,
कोशिश कर—करके,
चेष्टा से
अपने को मुक्त
मान लेते हैं।
उनकी मुक्ति
भी चेष्टित है।
चेष्टित
कोई मुक्ति हो
सकती है? जिसके
लिए चेष्टा
करना पड़े, वह
मुक्ति नहीं
हो सकती।
क्योंकि
चेष्टा तो
बंधन बन जाती
है। और जिसको
सम्हालना पड़े
रोज—रोज, वह
मुक्ति नहीं
हो सकती।
क्योंकि
मुक्ति तो वही
है जिसे
सम्हालना न
पड़े, जो है
ही।
नदी
को नदी होने
के लिए कोई
चेष्टा नहीं
करनी पड़ती है।
बादलों को
आकाश में बादल
होने के लिए
कोई चेष्टा
नहीं करनी
पड़ती। आपके
भीतर भी जो
स्वभाव है, वह
नदी और बादलों
की तरह है।
उसे होने के
लिए कोई
चेष्टा नहीं
करनी है। और
आप चेष्टा में
लगे हैं।
इसलिए
एक बहुत कीमती
बात समझ लें।
जो
दुनिया में
परम ज्ञान के
संदेशवाहक
हुए हैं, उन्होंने
कहा है कि वह
जो परम ज्ञान
है, चेष्टारहित
है, एफर्टलेस
है। उसमें कोई
प्रयत्न नहीं
है। उसमें कुछ
भी किया कि
गलती हो जाएगी।
उसमें कुछ
करना भर मत।
करना बंद कर
देना और कुछ
मत करना। यह
जो करने का
जाल है, इसे
छोड़ देना, और
तुम न—करने
में ठहर जाना।
यह
कृष्ण यही कह
रहे हैं कि वह
जो पुरुष है, वह
न तो कुछ करता
है, न कुछ
भोगता है। वह
सिर्फ है।
शुद्ध स्वभाव
है।
उस
पुरुष को ऐसे
शुद्ध स्वभाव
में जान लेना
और समझना कि
सब कुछ
प्रकृति करती
है और सब कुछ प्रकृति
में होता है
और मुझमें कुछ
भी नहीं होता।
मैं हूं
निष्क्रिय, प्रकृति
है सक्रिय।
कर्म मात्र
प्रकृति में
हैं और मैं
अकर्म हूं—ऐसी
प्रतीति, ऐसा
बोध, ऐसा
इलहाम, ऐसा
एहसास—फिर कोई
बंधन नहीं है,
फिर कोई
संसार नहीं है।
अब
हम सूत्र को
लें।
हे
अर्जुन, उस
परम पुरुष को
कितने ही
मनुष्य तो
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि से
ध्यान के
द्वारा हृदय
में देखते हैं
तथा अन्य
कितने ही
ज्ञान—योग के
द्वारा देखते
हैं। और अन्य
कितने ही
निष्काम कर्म—योग
के द्वारा
देखते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, वह
जो परम पुरुष
की स्थिति है,
उस स्थिति
को देखने के
बहुत द्वार
हैं। कुछ लोग
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि से
ध्यान के
द्वारा उसे
हृदय में
देखते हैं।
शुद्ध हुई
सूक्ष्म
बुद्धि से
ध्यान के
द्वारा......।
बुद्धि
को सूक्ष्म और
शुद्ध करने की
प्रक्रियाएं
हैं। बुद्धि
साधारणतया
स्थूल है। और
स्थूल होने का
कारण यह है कि
स्थूल विषयों से
बंधी है।
आप
क्या सोचते
हैं बुद्धि से? अगर
आप अपने मन का
विश्लेषण
करें, तो
आप पाएंगे कि
आपके सोचने—विचारने
में कोई पचास
प्रतिशत से
लेकर नब्बे प्रतिशत
तो कामवासना
का प्रभाव
होता है। उसका
अर्थ है, आप
शरीरों के
संबंध में
सोचते हैं।
पुरुष
स्त्रियों के
शरीर के संबंध
में सोचता रहता
है।
तो
जब आप शरीर के
संबंध में
सोचते हैं, तो
बुद्धि भी
शरीर जैसी ही
स्थूल हो जाती
है। बुद्धि जो
भी सोचती है, उसके साथ
तत्सम हो जाती
है।
अगर
आप शरीरों के
संबंध में कम
सोचते हैं, कामवासना
से कम ग्रसित
हैं, तो धन
के संबंध में
सोचते हैं।
मकानों, कारों
के संबंध में
सोचते हैं, जमीन—जायदाद
के संबंध में
सोचते हैं। वह
भी सब स्थूल
है। और उसमें
भी बुद्धि
वैसी ही हो
जाती है, जो
आप सोचते हैं।
जो आप सोचते
हैं _ बुद्धि
उसी का रूप
ग्रहण कर लेती
है। सोचते—सोचते,
सोचते—सोचते
बुद्धि वैसी
ही हो जाती है।
खयाल
करें आप, आप जो
भी सोचते हैं,
क्या आपकी
बुद्धि उसी
तरह की नहीं
हो गई है? एक
चोर की बुद्धि
चोर हो जाती
है। एक कंजूस
की बुद्धि
कंजूस हो जाती
है। एक
हत्यारे की
बुद्धि हत्या
से भर जाती है।
जो भी वह कर
रहा है, सोच
रहा है, चिंतन
कर रहा है, मनन
कर रहा है, वह
धीरे— धीरे
उसकी बुद्धि
का रूप हो
जाता है।
बुद्धि
को सूक्ष्म
करने का अर्थ
है कि धीरे—
धीरे स्थूल
पदार्थों से
बुद्धि को
मुक्त करना है
और उसे
सूक्ष्म
आब्जेक्ट, सूक्ष्म
विषय देना है।
जैसे कि आप
सूरज को देखें,
तो यह स्थूल
है। फिर आप आंख
बंद कर लें और
सूरज का जो
बिंब भीतर आंख
में रह गया, निगेटिव, उस बिंब पर
ध्यान करें।
वह बिंब
ज्यादा
सूक्ष्म है।
फिर आप बिंब
पर ध्यान करते
जाएं, ध्यान
करते जाएं। आप
पाएंगे कि
बिंब थोड़ी देर
में खो जाता है।
लेकिन
अगर आप रोज
ध्यान करेंगे, तो
बिंब ज्यादा
देर टिकने
लगेगा। बिंब
ज्यादा देर
नहीं टिकता, आपकी बुद्धि
सूक्ष्म हो
जाती है, इसलिए
आप ज्यादा देर
तक उसे देख
पाते हैं। रोज—रोज
आप करेंगे, तो आप
पाएंगे कि
सूरज को देखने
की जरूरत ही न
रही, आप आंख
बंद करते हैं
और सूक्ष्म
बिंब उपस्थित
हो जाता है।
अब आप इस बिंब
को देखते रहते
हैं, देखते
रहते हैं।
पहले
तो जब बुद्धि
स्थूल रहेगी, तो
बिंब फीका
पड़ता जाएगा।
और जब बुद्धि
सूक्ष्म होने
लगेगी, तो
आप चकित होंगे।
जैसे—जैसे आप
भीतर देखेंगे,
बिंब उतना
ही तेजस्वी
होने लगेगा।
जब
बिंब पहले
देखने में तो
फीका लगे और
फिर उसकी तेजस्विता
बढ़ती जाए, तो
समझना कि आपकी
बुद्धि
सूक्ष्म हो
रही है। जब
बिंब पहले तो
तेजस्वी लगे
और फिर धीरे—
धीरे उसमें
फीकापन आता
जाए, तो
समझना कि आपकी
बुद्धि स्थूल
है, सूक्ष्म
को नहीं पकड़
पाती, इसलिए
बिंब फीका
होता जा रहा
है।
कान
से आवाज सुनते
हैं आप। जितने
जोर की आवाज
हो,
उतनी आसानी
से सुनाई पड़ती
है; जितनी
धीमी आवाज हो,
उतनी
मुश्किल से
सुनाई पड़ती है।
जोर की आवाजें
सुनते—सुनते
आपकी सुनने की
जो बुद्धि है,
वह स्थूल हो
गई है। कान
कभी बंद कर
लें और कभी
भीतर की
सूक्ष्म आवाजें
सुनें। धीरे—
धीरे भीतर
आवाजों का एक
नया जगत प्रकट
होगा। एक
ध्वनियों का
जाल प्रकट हो
जाएगा। और—और
सुनते जाएं, और एक ही
ध्यान रहे कि
मैं सूक्ष्म से
सूक्ष्म को
सुनूं।
ऐसा
करें कि बाजार
में आप खड़े
हैं। आंख बंद
कर लें। जो
तेज आवाज है, वह
तो अपने आप
सुनाई पड़ती है।
बीच बाजार में
सड़क पर खड़े
होकर आंख बंद
करके इन सारी
आवाजों में जो
सबसे सूक्ष्म
आवाज है, उसे
पकड़ने की
कोशिश करें।
आप
बहुत चकित
होंगे कि जैसे
ही आप सूक्ष्म
को पकड़ने की
कोशिश करेंगे, जो
बड़ी आवाजें
हैं, वे
आपके ध्यान से
अलग हो जाएंगी,
फौरन हट
जाएंगी; और
सूक्ष्म
आवाजें प्रकट
होने लगेंगी।
और आप कभी
चकित भी हो
सकते हैं कि
एक पक्षी वृक्ष
पर बोल रहा था,
वह सड़क के
ट्रैफिक और
उपद्रव में
अचानक आपको सुनाई
पड़ने लगा।
सारा ट्रैफिक
जैसे दूर हो
गया और पक्षी
की धीमी आवाज
प्रकट हो गई।
स्थूल
आवाजों को
छोड्कर
सूक्ष्म को सुनने
की कोशिश करें।
उस मात्रा में
आपकी बुद्धि
सूक्ष्म होगी।
फिर धीरे से
कान को बंद
करके भीतर की
आवाजें सुनें।
जब ऐसे—ऐसे
कोई उतरता
जाता है, तो
आखिरी जो
सूक्ष्मतम
आवाज है, नाद
है भीतर, ओंकार
की ध्वनि, वह
सुनाई पड़नी
शुरू होती है।
जिस दिन वह
सुनाई पड़ने
लगे, समझना
आपके पास
शुद्ध
सूक्ष्म
बुद्धि पैदा हो
गई। नाद सुनाई
पड़ने लगे, तो
वह पहचान है
कि आपके भीतर
शुद्ध बुद्धि
पैदा हो गई।
इसलिए
हम अपने
विद्यालयों
में इस मुल्क
में पहला काम
यह करते थे.....।
अभी हम उलटे
काम में लगे
हैं। अभी हम
सारी दुनिया
में शिक्षा
देते हैं, वे
सभी स्थूल हैं।
इस देश में हम
इस बात की
फिक्र किए थे
कि विद्यार्थी
जब गुरुकुल
में मौजूद हो,
तो पहला काम
उसकी बुद्धि
को सूक्ष्म
करने का। जब
तक उसके पास
सूक्ष्म
बुद्धि नहीं
है, तब तक
क्या होगा? उसके पास
स्थूल बुद्धि
है, हम
स्थूल शिक्षा
उसे दे सकते
हैं। वह शिक्षित
भी हो जाएगा, पंडित भी हो
जाएगा, लेकिन
ज्ञानी कभी भी
नहीं हो पाएगा।
पहले उसकी इस
बुद्धि को
स्थूल से
सूक्ष्म करना
है; पहले
उसके उपकरण को
निखार लेना है।
अभी
हम
विद्यार्थियों
को भेज देते
हैं विद्यालय
में। और
विद्यालय में
शिक्षक उन पर
हमला बोल देते
हैं,
सिखाना
शुरू कर देते
हैं, बिना
इसकी फिक्र
किए कि सीखने
का जो उपकरण
है, वह अभी
सूक्ष्म भी
हुआ था या
नहीं; अभी
उसमें धार भी
आई थी या नहीं।
अभी वह स्थूल
ही है; उस
स्थूल पर हम
फेंकना शुरू
कर देते हैं
चीजें, और
भी स्थूल हो
जाता है।
इसलिए
विश्वविद्यालय
से निकलते—निकलते
बुद्धि करीब—करीब
कुंठित हो
जाती है।
बुद्धि लेकर
नहीं लौटते
हैं
विद्यार्थी
विश्वविद्यालय
से,
खोकर लौटते
हैं। ही, कुछ
तथ्य याद करके,
स्मृति
भरकर लौट आते
हैं। परीक्षा
दे सकते हैं।
लेकिन
बुद्धिमत्ता
नाम—मात्र को
भी नहीं दिखाई
पड़ती।
तो
आज अगर सारे
विश्वविद्यालयों
में उपद्रव हैं
सारी दुनिया
में,
तो उसका
कारण, बुनियादी
कारण यह है कि
आप उनसे
बुद्धिमत्ता तो
छीन लिए हैं
और केवल
स्मृति उनको
दे दिए हैं।
स्मृति का
उपद्रव है।
बुद्धिमत्ता
बिलकुल, विजडम
बिलकुल भी
नहीं है।
और
बुद्धिमत्ता
पैदा होती है
बुद्धि की
सूक्ष्मता से।
कितना आप
जानते हैं, इससे
नहीं। क्या आप
जानते हैं, इससे भी
नहीं। कितनी
परीक्षाएं
उत्तीर्ण कीं,
इससे भी
नहीं। कितनी
पीएच डी. और डी.
लिट. आपके पास
हैं, इससे
भी नहीं।
बुद्धिमत्ता
उपलब्ध होती
है, कितनी
सूक्ष्म
बुद्धि आपके
पास है, उससे।
इसलिए
यह भी हो सकता
है कि कभी कोई
बिलकुल अपढ़ आदमी
भी बुद्धि की
सूक्ष्मता को
उपलब्ध हो जाए।
और यह तो
अक्सर होता है
कि बहुत पढ़े—लिखे
आदमी बुद्धि
की सूक्ष्मता
को उपलब्ध होते
दिखाई नहीं
पड़ते हैं।
पंडित में और
बुद्धि की
सूक्ष्मता
पानी जरा मुश्किल
है। बहुत कठिन
है। जरा
मुश्किल
संयोग है। कभी—कभी
गांव के
ग्रामीण में, चरवाहे
में भी कभी—कभी
बुद्धिमत्ता
की झलक दिखाई
पड़ती है। उसके
पास बुद्धि का
संग्रह नहीं
है। लेकिन एक
सूक्ष्म
बुद्धि हो
सकती है।
इसलिए
कबीर जैसा गैर
पढ़ा—लिखा आदमी
भी परम ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाता है।
परम
ज्ञान का
संबंध, आपके
पास कितनी
संपदा है
स्मृति की, इससे नहीं
है। परम ज्ञान
का संबंध इससे
है, आपके
पास कितने
सूक्ष्मतम को
पकड़ने की
क्षमता है। आप
कितने ग्राहक,
कितने
रिसेप्टिव
हैं। कितनी
बारीक ध्वनि
आप पकड़ सकते
हैं, और
कितना बारीक
स्पर्श, कितना
बारीक स्वाद,
कितनी
बारीक गंध..।
क्योंकि भीतर
सब बारीक है।
बाहर सब स्थूल
है, भीतर
सब सूक्ष्म है।
जब भीतर के
जगत को अनुभव
करना हो, तो
सूक्ष्मता और
शुद्धि की
जरूरत है।
कृष्ण
कहते हैं, शुद्ध
हुई सूक्ष्म
बुद्धि से
ध्यान के
द्वारा हृदय
में देखते
हैं..।
जब
किसी के पास भीतर
सूक्ष्म
बुद्धि होती
है,
तो हृदय की
तरफ उसे मोड़
दिया जाता है।
वह बहुत कठिन
नहीं है। पर
सूक्ष्म
बुद्धि का
होना पहले
जरूरी है।
करीब—करीब
जैसे आपके पास
एक दूरवीक्षण
यंत्र हो, आप
उसे लगाकर आंख
में और किसी
भी तारे की
तरफ मोड़ दे
सकते हैं। फिर
जिस तरफ आप
मोड़ेंगे, वही
तारा प्रगाढ़
होकर प्रकट हो
जाएगा। ठीक
वैसे ही जब
सूक्ष्म
बुद्धि भीतर
होती है, तो
एक रास्ता है
उसे हृदय की
तरफ मोड़ देना,
उस सूक्ष्म
बुद्धि को
हृदय पर लगा
देना ध्यानपूर्वक,
तो उस हृदय
के मंदिर में
परमात्मा का
आविष्कार कर
लेते हैं।
कितने
ही अन्य उसे ज्ञान—योग
के द्वारा
देखते हैं..।
यह
हृदय की तरफ
लगा देना
भक्ति—योग है।
हृदय भक्ति का
केंद्र है, प्रेम
का। तो जब
सूक्ष्म हुई
बुद्धि को कोई
प्रेम के केंद्र
हृदय की तरफ
लगा देता है, तो मीरा का, चैतन्य का
जन्म हो जाता
है। कृष्ण
कहते हैं, कितने
ही उसे ज्ञान—योग
के द्वारा.....।
वही
सूक्ष्म
बुद्धि है, लेकिन
उसे हृदय की
तरफ न लगाकर
मस्तिष्क का
जो आखिरी
केंद्र है, सहस्रार, उसकी तरफ
मोड़ देना। तो
सहस्रार में
जो परमात्मा
का दर्शन करते
हैं, वह ज्ञान—योग
है। और कितने
ही निष्काम
कर्म—योग के
द्वारा देखते
हैं...।
कितने
ही अपनी उस
सूक्ष्म हुई
बुद्धि को
अपने कर्म—
धारा की तरफ
लगा देते हैं।
वे जो करते
हैं,
उस करने में
उस सूक्ष्म
बुद्धि को
समाविष्ट कर
देते हैं। तो
करने से मुक्त
हो जाते हैं, कर्ता नहीं
रह जाते।
ये
तीन मार्ग हैं, भक्ति,
ज्ञान, कर्म।
भक्ति
उत्पन्न होती
है हृदय से।
जो बुद्धि है,
वह तो एक ही
है; जो
उपकरण है, वह
तो एक ही है।
उसी एक उपकरण
को हृदय की
तरफ बहा देने
से भक्त जन्म
जाता है। उसी
उपकरण को
सहस्रार की
तरफ बहा देने
से ज्ञानी का
जन्म हो जाता
है, बुद्ध
पैदा होते हैं,
महावीर
पैदा होते हैं।
और उसी को
कर्म की तरफ
लगा देने से
क्राइस्ट
पैदा होते हैं,
मोहम्मद
पैदा होते हैं।
मोहम्मद
और क्राइस्ट न
तो भक्त हैं
और न ज्ञानी हैं, शुद्ध
कर्म—योगी हैं।
इसलिए हम सोच
भी नहीं सकते,
जो लोग
ज्ञान—योग की
धारा में बहते
हैं, वे
सोच ही नहीं
सकते कि
मोहम्मद को
तलवार लेकर और
युद्धों में
जाने की क्या
जरूरत! हम सोच
भी नहीं सकते
कि क्राइस्ट
को सूली पर
लटकने की क्या
जरूरत! उपद्रव
में पड़ने की
क्या जरूरत!
क्रांति
इत्यादि तो सब
उपद्रव हैं।
ये तो
उपद्रवियों
के लिए हैं।
हम सोच भी
नहीं सकते कि
बुद्ध कोई
बगावत कर रहे
हैं और सूली
पर लटकाए जा
रहे हैं।
क्योंकि
बुद्ध ज्ञान—योगी
हैं। वे अपने
सहस्रार की
तरफ शुद्ध
सूक्ष्म
बुद्धि को मोड़
रहे हैं।
क्राइस्ट
अपने कर्म की
धारा की तरफ।
इसलिए
ईसाइयत की
सारी धारा
कर्म की तरफ
हो गई है।
इसलिए सेवा
धर्म बन गया।
इसलिए ईसाई
मिशनरी जैसी
सेवा कर सकता
है,
दुनिया के
किसी धर्म का
कोई मिशनरी
वैसी सेवा
नहीं कर सकता।
उसके कारण
बहुत गहरे हैं।
उसमें कोई
कितनी ही नकल
करे।
यहां
हिंदुओं के
बहुत—से समूह
हैं,
जो नकल करने
की कोशिश करते
हैं। पर वह
नकल ही साबित
होती है।
क्योंकि वह
उनकी मूल धारा
नहीं है।
क्राइस्ट की
पूरी साधना
सूक्ष्म हुई
बुद्धि को
कर्म की तरफ
लगाने की है।
फिर कर्म ही
सब कुछ है।
फिर वही पूजा
है, वही
प्रार्थना है।
इसलिए
एक ईसाई फकीर
कोढ़ी के पास
जिस प्रेम से बैठकर
सेवा कर सकता
है,
कोई हिंदू
संन्यासी
नहीं कर सकता।
कोई जैन
संन्यासी तो
पास ही नहीं आ
सकता, करने
की तो बात
बहुत दूर।
कोढ़ी के पास!
वह सोच ही
नहीं सकता। वह
अपने मन में
सोचेगा, ऐसे
हमने कोई पाप
कर्म ही नहीं
किए, जो
कोढ़ी की सेवा
करें। कोढ़ी की
सेवा तो वह
करे, जिसने
कोई पाप कर्म
किए हों। हमने
ऐसे कोई पाप
कर्म नहीं किए
हैं।
हिंदू
संन्यासी सोच
ही नहीं सकता
सेवा की बात, क्योंकि
हिंदू
संन्यासी को
खयाल ही यह है
कि संन्यासी
की सेवा दूसरे
लोग करते हैं।
संन्यासी
किसी की सेवा
करता है! यह
क्या पागलपन
की बात है कि
संन्यासी
किसी के पैर
दबाए।
संन्यासी के
सब लोग पैर
दबाते हैं।
उसकी
भी गलती नहीं
है,
क्योंकि वह
जिस धारा से
निष्पन्न हुआ
है, वह
ज्ञान—योग की
धारा है। उसका
कर्म से कोई
लेना नहीं है;
उसका
सहस्रार से
संबंध है। वह
अपनी सारी
चेतना को
सहस्रार की
तरफ मोड़ लेता
है। और जब कोई
अपनी सारी
चेतना को
सहस्रार की
तरफ मोड़ लेता
है, तो
स्वभावत:
दूसरों को
उसकी सेवा
करनी पड़ती है,
क्योंकि वह
बिलकुल ही
बेहाल हो जाता
है। न उसे
भोजन की फिक्र
है, न उसे
शरीर की फिक्र
है। दूसरे
उसकी सेवा
करते हैं।
इसलिए हमने
संन्यासियों
की सेवा की, क्योंकि वे
समाधि में जा
रहे थे।
रामकृष्ण
मूर्च्छित
पड़े रहते थे छ:—छ:
दिन तक। दूसरे
उनकी सेवा
करते थे। छ:
दिन तक उनको
दूध पिलाना
पड़ता, पानी पिलाना
पड़ता। वे
मूर्च्छित ही
पड़े हैं। वे
डूब गए हैं
अपने केंद्र
में, वहा
से लौटने के
लिए शरीर को
सम्हालना
पड़ेगा। नहीं
तो वे खतम ही
हो जाएंगे, शरीर सड़
जाएगा।
तो
संन्यासी की
हमने सेवा की, क्योंकि
संन्यासी या
तो ज्ञान या
भक्ति की तरफ
मुड़ा हुआ था।
क्राइस्ट ने
धारा मोड़ दी
कर्म की तरफ।
कृष्ण
कहते हैं, कोई
कर्म की तरफ, निष्काम
कर्म—योग के
द्वारा
परमात्मा को
देख लेते हैं।
निष्काम
कर्म—योग के
द्वारा
परमात्मा
दूसरों में
दिखाई पड़ेगा।
निष्काम कर्म—योग
के द्वारा
परमात्मा
चारों तरफ
दिखाई पड़ने
लगेगा। जिसकी
भी आप सेवा
करेंगे, वहीं
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगेगा।
क्योंकि वह
सूक्ष्म
यंत्र जो
बुद्धि का है,
अब उस पर लग
गया।
एक
बात सार की है
कि शुद्ध हुई
बुद्धि को जहां
भी लगा दें, वहा
परमात्मा
दिखाई पड़ेगा।
और अशुद्ध
बुद्धि को जहां
भी लगा दें, वहा सिवाय
पदार्थ के और
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ सकता
है। परंतु
इससे दूसरे
अर्थात जो मंद
बुद्धि वाले पुरुष
हैं, वे
स्वयं इस
प्रकार न
जानते हुए
दूसरों से अर्थात
तत्व को जानने
वाले पुरुषों
से सुनकर ही उपासना
करते हैं और
वे सुनने के
परायण हुए भी
मृत्युरूप
संसार—सागर को
निस्संदेह तर
जाते हैं।
लेकिन
ये तीन बड़ी
प्रखर
यात्राएं हैं; ज्ञान
की, भक्ति
की, कर्म
की, ये बड़ी
प्रखर
यात्राएं हैं।
और कोई बहुत
ही जीवट के
पुरुष इन पर
चल पाते हैं।
सभी लोग इतनी
प्रगाढ़ता से,
इतनी
प्रखरता से, इतनी त्वरा
और तीव्रता से,
इतनी
बेचैनी, इतनी
अभीप्सा से
नहीं चल पाते
हैं। उनके लिए
क्या मार्ग है?
तो
कृष्ण कहते
हैं,
अर्थात वे
दूसरे भी इस
प्रकार न
जानते हुए, दूसरों से, जिन्होंने
जाना है, उनसे
सुनकर भी
उपासना करते
हैं और सुनने
में परायण हुए
मृत्युरूप
संसार—सागर को
निस्संदेह तर
जाते हैं।
इसे
थोड़ा समझ लेना
चाहिए।
क्योंकि हममें
से अधिक लोग
उन तीन
कोटियों में
नहीं आएंगे।
हममें से अधिक
लोग इस चौथी
कोटि में
आएंगे, जो
तीनों में से
किसी पर भी जा
नहीं सकते, जो तीनों
में से किसी
पर जाने की
अभी अभीप्सा भी
अनुभव नहीं
करते हैं।
लेकिन वे भी, जिन्होंने
जाना है, अगर
उनकी बात सुन
लें—वह भी
आसान नहीं है—जिन्होंने
जाना है, उनकी
बात सुन लें; और उनकी बात
सुनकर उसमें
परायण हुए, उसमें डूब
जाएं, लीन
हो जाएं, उससे
उनकी उपासना
का जन्म हो
जाए तो वे भी
मृत्यु के
सागर को तर
जाते हैं, अमृत
को उपलब्ध हो
जाते हैं।
मगर
कई शर्तें हैं।
पहली शर्त, जिन्होंने
जाना है, उनसे
सुनें, फर्स्ट
हैंड।
जिन्होंने
जाना है! अगर
आप खुद जान
लें मौलिक रूप
से स्वयं, तब
तो ठीक है, वे
तीन रास्ते
हैं। अगर यह
संभव न हो, तो
जिन्होंने
जाना है, उनसे
सीधा सुनें।
शास्त्र काम न
देंगे, कोई
गुरु उपयोगी
होगा। जिसने
जाना हो, उससे
सीधा सुनें।
क्योंकि अभी
उससे जो शब्द
निकलेंगे, उसका
जो स्पर्श
होगा, उसकी
जो वाणी होगी,
उसमें ताजी
हवा होगी उसके
अपने अनुभव की।
इसलिए
शास्त्र पर कम
जोर और गुरु
पर ज्यादा जोर
है।
अधिक
लोगों के लिए, चौथा
मार्ग जिनका
होगा, उनके
लिए गुरु
रास्ता है। और
शास्त्र का
अर्थ भी गुरु
के द्वारा ही
खुलेगा।
क्योंकि
शास्त्र तो
कोई हजार साल,
दस हजार साल
पहले लिखा गया
है। दस हजार
साल पहले जो
कहा गया है, उसमें बहुत
कुछ जोड़ा गया,
घटाया गया;
दस हजार साल
की यात्रा में
बहुत कचरा भी
इकट्ठा हो गया,
धूल भी जम
गई। वह जो
अनुभव था दस
हजार साल पहले
का शुद्ध, वह
अब शुद्ध नहीं
है, वह
बहुत बासा हो
गया है।
फिर
किसी व्यक्ति
के पास जाएं, जिसमें
अभी आग जल रही
हो, जो अभी
जिंदा हो, अपने
अनुभव से
दीप्त हो, जिसके
रोएं—रोएं में
अभी खबर हो; जिसने अभी—अभी
जाना और जीया
हो सत्य को, जो अभी—अभी
परमात्मा से
मिला हो; जिसके
भीतर पुरुष
ठहर गया हो और
जिसका शरीर और
जिसका संसार
अब केवल एक
अभिनय रह गया
हो; अब
उसके पास
बैठकर सुनें।
उपासना का
अर्थ है, पास
बैठना।
उपासना
शब्द का अर्थ
है,
पास बैठना।
उपनिषद शब्द
का अर्थ है, पास बैठकर
सुनना। ये
शब्द बड़े कीमती
हैं, उपासना,
उपदेश, उपनिषद।
पास बैठकर।
किसके पास? कोई जीवंत
अनुभव जहां हो—सुनना।
सुनना भी बहुत
कठिन है, क्योंकि
पास बैठने में
पात्रता
बनानी पड़ेगी।
अगर जरा—सा भी
अहंकार है, तो आप पास
बैठकर भी बहुत
दूर हो जाएंगे।
गुरु
के पास बैठना
हो तो अहंकार
बिलकुल नहीं
चाहिए, क्योंकि
वही फासला है।
स्थान का कोई
फासला नहीं है
गुरु के और
तुम्हारे बीच,
फासला
तुम्हारे
अहंकार का है।
लोग सीखने भी
आते हैं, तो
बड़ी अकड़ से
आते हैं। लोग
सीखने भी आते
हैं, तो भी
आते नहीं हैं।
उनको खयाल
होता है कि
आते हैं।
यहां
ऐसा हुआ। एक
बहुत बड़े
करोड़पति
परिवार में, भारत
के सबसे बड़े
करोड़पति
परिवार में
किसी की मृत्यु
हुई। तो मुझे
उन्होंने खबर
भेजी कि आप
हमारे यहां
आएं; हमारे
घर में मृत्यु
घटित हो गई है,
तो आप कुछ
अमृत के संबंध
में हमें
समझाएं। तो
मैंने उन्हें
कहा, समझना
तुम्हें हो, तो तुम्हें
मेरे पास आना
होगा।
उन्होंने
मुझे खबर भेजी,
लेकिन आप
ऐसा क्यों
कहते हैं!
क्योंकि और सब
गुरु तो आ रहे
हैं। और हम
हजार रुपया
प्रत्येक को
भेंट भी करते
हैं।
तो
वे अमृत को
हजार रुपए में
खरीदने का
इरादा रखते
हैं। या अमृत
के संबंध में
हजार रुपए में
उनको कोई बता
देगा, ऐसा
खयाल रखते हैं।
और जो उन्हें
वहां बताने जा
रहा है, उसे
भी अमृत से
कोई मतलब नहीं
है; उसे भी
हजार रुपए से
ही मतलब होगा।
असल में गुरु
आपके पास नहीं
आ सकता। इसलिए
नहीं कि इसमें
कोई अड़चन है, बल्कि इसलिए
कि आने में
बात ही व्यर्थ
हो गई। कोई
अर्थ ही न रहा।
आपको ही उसके
पास जाना
पड़ेगा।
क्योंकि जाना
केवल कोई
भौतिक
प्रक्रिया
नहीं है; जाना
भीतर के
अहंकार का
सवाल है।
वे
हैं करोड़पति, अरबपति,
तो कैसे वे
किसी के पास
जा सकते हैं!
अगर कैसे किसी
के पास जा
सकते हैं और
सभी उनके पास
आते हैं, तो
एक बात पक्की
है कि वे गुरु
के पास कभी
नहीं पहुंच
सकते हैं। और
जो तथाकथित
गुरु उनके पास
पहुंचते हैं,
वे गुरु
नहीं हो सकते।
क्योंकि
पहुंचने का जो
संबंध है, वह
शिष्य को ही
शुरू करना
पड़ेगा; उसे
ही निकटता
लानी पड़ेगी, उसे ही
पात्र बनना
पड़ेगा।
नदी
घड़े के पास
नहीं आती, घड़े
को ही नदी के
पास जाना
पड़ेगा। और घड़े
को ही झुकना
पड़ेगा नदी में,
तो ही नदी
घड़े को भर
सकेगी। नदी
तैयार है भरने
को। लेकिन घड़ा
कहे कि मैं
अकड़कर अपनी
जगह बैठा हूं
मैं झुकूंगा
नहीं; नदी
आए और मुझे भर
दे और मैं
हजार रुपए
भेंट करूंगा!
तो नदी नहीं आ
सकती। ही, कोई
नल की टोंटी आ
सकती है। पर
नल की
टोंटियों में
और नदियों में
बड़ा फर्क है।
कोई पंडित आ
सकता है, कोई
गुरु नहीं आ
सकता।
तो
पास पहुंचना
एक कला है।
विनम्रता, निरअहंकार
भाव, सीखने
की तैयारी, सीखने की
उत्सुकता, सीखने
में बाधा न
डालना। फिर
सुने।
क्योंकि
सुनना भी बहुत
कठिन है।
क्योंकि जब आप
सुनते भी हैं,
तब भी सुनते
कम हैं, सोचते
ज्यादा हैं।
सोचेंगे
आप क्या? जब आप
सुन रहे हैं, तब भी आप सोच
रहे हैं कि
अच्छा, यह
अपने मतलब की
बात है? यह
अपने
संप्रदाय की
है? अपने
शास्त्र में
ऐसा लिखा है
कि नहीं?
अब
जिन मित्र ने
यह सवाल पूछा
है कि महावीर
और बुद्ध ने
अहिंसा की बात
की और कृष्ण
तो हिंसा की
बात कर रहे
हैं,
इनको कैसे
भगवान मानें,
वे यहां
बैठे हैं। वे
बिलकुल नहीं
सुन पा रहे
होंगे। उनके
प्राण बड़े
बेचैन होंगे
कि बड़ी मुसीबत
हो गई। वे सुन
ही नहीं सकते।
क्योंकि
सुनते समय
उनके भीतर तौल
चल रही है, कौन
भगवान है? कृष्ण
भगवान हैं कि
नहीं? क्योंकि
वे हिंसा की
बात कह रहे
हैं। कैसे
भगवान हो सकते
हैं!
तुमसे
पूछ कौन रहा
है?
तुम्हारा
मत मांगा भी
नहीं गया है।
और कृष्ण कोई
तुम्हारे वोट
के कारण भगवान
होने को नहीं
हैं। तुम
चिंता क्यों
कर रहे हो? तुम
वोट नहीं दोगे,
तो वे भगवान
नहीं रह
जाएंगे, ऐसा
कुछ नहीं है।
दुनिया में सब
लोग इनकार कर
दें, तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और सब
लोग स्वीकार
कर लें, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता।
कृष्ण के होने
में कोई अंतर
नहीं आता इसके
कि कौन क्या
मानता है। वह
तुम्हारी
अपनी झंझट है।
उससे उनका कोई
लेना—देना
नहीं है।
लेकिन तुम
परेशान हो।
अब
उन्होंने
अहिंसा की बात
नहीं कही, हिंसा
की बात कही, तुम अपने
अहिंसा के सिद्धांत
को पकड़े बैठे
हो। वह सिद्धांत
तुम्हें
सुनने न देगा।
वह सिद्धांत
बीच में दीवाल
बन जाएगा। उस सिद्धांत
की वजह से, जो
कहा जा रहा है,
उसके तुम
कुछ और मतलब
निकालोगे, जो
कहे ही नहीं
गए हैं। तुम
सब विकृत कर
लोगे। तुम
अपनी बुद्धि
को बीच में
डाल दोगे और
गुरु ने जो
कहा है, उस
सब को नष्ट कर
दोगे।
पास
बैठना चुप
होकर, मौन
होकर! इसलिए
बहुत बार
पुरानी
परंपरा तो यही
थी कि शिष्य
गुरु के पास
जाए, तो
साल दो साल
कुछ पूछे न, सिर्फ चुप
बैठे, सिर्फ
बैठना सीखे।
बैठना सीखे।
सूफियों
में कहा जाता
है कि पहले
बैठना सीखो।
गुरु के पास
आओ,
बैठना सीखो,
आना सीखो।
अभी जल्दी कुछ
ज्ञान की नहीं
है। ज्ञान कोई
इतनी आसान बात
भी नहीं है कि लिया—दिया
और घर की तरफ
भागे। कोई
इंसटैंट
एनलाइटेनमेंट
नहीं है। काफी
हो सकती है, बनाई एक
क्षण में और
पी ली! कोई
समाधि, कोई
ज्ञान क्षण
में नहीं होता।
सीखना होगा।
सूफी
अक्सर सालों
बिता देते हैं, सिर्फ
गुरु के पास
झुककर बैठे
रहते हैं।
प्रतीक्षा
करते हैं कि
गुरु पहले
पूछे कि कैसे
आए? क्या
चाहते हो? कभी—कभी
वर्षों बीत
जाते हैं।
वर्षों कोई
साधक रोज आता
है नियम से, अपनी जगह आंख
बंद करके शात
बैठ जाता है।
गुरु को कभी
लगता है, तो
कुछ कहता है।
नहीं लगता, तो नहीं कहता।
दूसरे आने—जाने
वाले लोगों से
बात करता रहता
है, शिष्य
बैठा रहता है।
वर्षों
सिर्फ बैठना
होता है। जिस
दिन गुरु
देखता है कि
बैठक जम गई।
सच में शिष्य
आ गया और बैठ
गया। अब उसके
भीतर कुछ भी
नहीं है।
उपासना हो गई।
अब
वह बैठा है।
सिर्फ पास है, जस्ट
नियर। अब कुछ
दूरी नहीं है,
न अहंकार की,
न विचारों
की, न मत—मतांतर
की, न वाद—विवाद
की, न कोई
शास्त्र की।
अब कुछ नहीं
है। बस, सिर्फ
बैठा है। जैसे
एक मूर्ति रह
गई, जिसके
भीतर अब कुछ
नहीं है, बाहर
कुछ नहीं है।
अब खाली घड़े
की तरह बैठा
है। उस दिन
गुरु डाल देता
है जो उसे
डालना है, जो
कहना है। उस
दिन उंडेल
देता है अपने
को। उस दिन
नदी उतर जाती
है घड़े में।
चौथे
मार्ग पर
बैठना सीखना
होगा, मौन
होना सीखना
होगा, प्रतीक्षा
सीखनी होगी, धैर्य सीखना
होगा; और
किसी जीवित
गुरु की तलाश
करनी होगी।
ऐसे
सुनने के
परायण हुए भी
मृत्युरूप
संसार—सागर को
निस्संदेह तर
जाते हैं। हे
अर्जुन, यावन्मात्र
जो कुछ भी
स्थावर— जंगम
वस्तु
उत्पन्न होती
है, उस
संपूर्ण को तू
क्षेत्र—
क्षेत्रज्ञ
के संयोग से
ही उत्पन्न
जान।
सभी
विचार के पीछे
क्या बार—बार
दोहरा देते
हैं,
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ।
वह जानने वाला
और जो जाना
जाता है वह।
इन दो को वे
बार—बार दोहरा
देते हैं। कि
जो भी पैदा
होता है, वह
सब क्षेत्र है।
बनता है, मिटता
है, वह सब
क्षेत्र है।
और वह जो न
बनता है, न
मिटता है, न
पैदा होता है,
जो सिर्फ
देखता है, जो
सिर्फ दर्शन
मात्र की
शुद्ध क्षमता
है, जो
केवल ज्ञान है,
जो मात्र
बोध है, जो
प्योर कांशसनेस
है, जो
शुद्ध चित्त
है—वही पुरुष
है, वही
परम मुक्ति है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि कृष्ण
बहुत बार
पुनरुक्ति
करते मालूम
होते हैं गीता
में। फिर वही
बात,
फिर वही बात,
फिर वही बात।
ऐसा क्यों है?
क्या
लिपिबद्ध
करने वाले
आदमी ने भूल
की है? या
कि कृष्ण
जानकर ही
पुनरुक्ति
करते हैं? या
कि अर्जुन
बहुत मंद
बुद्धि है कि
बार—बार कहो, तभी उसकी
समझ में आता
है? या
कृष्ण भूल
जाते हैं बार —बार,
फिर वही बात
कहने लगते हैं?
विचारणीय
है। ऐसा क्या
के साथ ही
नहीं है।
बुद्ध भी ऐसा
ही बार—बार
दोहराते हैं।
क्राइस्ट भी
ऐसा ही बार—बार
दोहराते हैं।
मोहम्मद भी
ऐसा ही बार—बार
दोहराते हैं।
इस दोहराने
में जरूर कुछ
बात है।
यह
सिर्फ
पुनरुक्ति
नहीं है। यह
एक प्रक्रिया
है। इस
प्रक्रिया को
समझ लेना
चाहिए, नहीं
तो पुनरुक्ति
समझकर आदमी
सोचता है कि
क्या जरूरत!
गीता को
छांटकर एक
पन्ने में छापा
जा सकता है।
मतलब की बातें
उतने में आ
जाएंगी, क्योंकि
उन्हीं—उन्हीं
बातों को वे
बार—बार
दोहराए चले जा
रहे हैं।
मतलब
की बातें तो
उसमें आ
जाएंगी, लेकिन
वे मुर्दा
होंगी और उनका
कोई परिणाम न
होगा। कई
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं।
एक, जब
कृष्ण उन्हीं
बातों को दुबारा
दोहराते हैं,
तब आपको पता
नहीं कि शब्द
भला वह। हों, प्रयोजन
भिन्न हैं। और
प्रयोजन
इसलिए भिन्न
हैं कि इतना
समझ लेने के
बाद अर्जुन
भिन्न हो गया
है। जो बात
उन्होंने
शुरू में कही
थी अर्जुन से,
वही जब वे
बहुत देर
समझाने के बाद
फिर से कहते हैं,
तो अर्जुन
अब वही नहीं
है। इस बीच
उसकी समझ बढ़ी
है, उसकी प्रज्ञा
निखरी है। अब
यही शब्द
दूसरा अर्थ ले
आएंगे।
आप
अगर इसकी
परीक्षा करना
चाहें, तो
ऐसा करें, कोई
एक किताब चुन
लें जो आपको
पसंद हो। उसको
इस वर्ष पढें
और अंडरलाइन
कर दें। जो—जो
आपको अच्छा
लगे उसमें, उसको लाल
स्याही से
निशान लगा दें।
और जो—जो आपको
बुरा लगे, उसको
नीली स्याही
से निशान लगा
दें। और जो—जो
आपको उपेक्षा
योग्य लगे, उसको काली
स्याही से
निशान लगा दें।
सालभर
किताब को बंद
करके रख दें।
सालभर बाद फिर
खोलें, फिर
से पढ़ें। अब
जो पसंद आए
उसको लाल
स्याही से
निशान लगाएं। आप
हैरान हो
जाएंगे। जो
बात पिछले साल
इसी किताब में
आपको पसंद नहीं
पड़ी थीं, वे
अब पसंद पड़ती
हैं। और जो
बात पसंद पड़ी
थी, वह अब
पसंद नहीं
पड़ती। जिसकी
आपने उपेक्षा
की थी पिछले
साल, इस
बार बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम हो रही
है। और जिसको
आपने असाधारण
समझा था, वह
साधारण हो गई
है। जिसको
आपने नापसंद
किया था, उसमें
से भी कुछ
पसंद आया है।
और जिसको आपने
पसंद किया था,
उसमें से
बहुत कुछ
नापसंदगी में
डाल देने योग्य
है। किताब वही
है, आप बदल
गए।
और
अगर सालभर बाद
आपको सब वैसा
ही लगे, जैसा
सालभर पहले
लगा था, तो
समझना कि आपकी
बुद्धि सालभर
पहले ही
कुंठित हो गई
है, बदल
नहीं रही है, मर गई है।
उसमें कोई
बहाव नहीं रहा
है।
सालभर
बाद फिर उसी
किताब को पढ़ना, आप
चकित होंगे, नए शब्द
अर्थपूर्ण हो
जाते हैं; नए
वाक्य उभरकर
सामने, आ
जाते हैं; पुराने
खो जाते हैं।
किताब का पूरा
प्रयोजन बदल
जाता है।
किताब का पूरा
अर्थ बदल जाता
है।
इसलिए
हमने इस मुल्क
में पाठ पर
बहुत जोर दिया, पढ़ने
पर कम। पढ़ने
का मतलब एक
दफा एक किताब
पढ ली, खतम
हो गया। पाठ
का मतलब है, एक किताब को
पढ़ते ही जाना
है जीवनभर।
रोज नियमित
पढ़ते जाना है।
लेकिन
आप अगर मुर्दे
की तरह पढ़ें, तो
कोई सार नहीं
है। पढ़ने में
इतना बोध होना
चाहिए कि आप
में जो फर्क
हुआ है, उस
फर्क के कारण
जो आप पढ़ रहे
हैं, उसमें
फर्क पड़ रहा
है कि नहीं! तो
पाठ है।
गीता
कल भी पढ़ी थी, आज
भी पढ़ी, कल
भी पढ़ेंगे, अगले वर्ष
भी पढ़ेंगे, पढ़ते जाएंगे।
जब बच्चे थे, तब पढ़ी थी, जब बूढ़े होंगे,
तब पड़ेंगे।
लेकिन का अगर
सच में ही
विकसित हुआ हो,
प्रौढ हुआ
हो, सिर्फ
शरीर की उम्र
न बढ़ी हो, भीतर
चेतना ने भी
अनुभव का रस
लिया हो, जागृति
आई हो, पुरुष
स्थापित हुआ
हो, तो
गीता जो
बुढ़ापे में
पढ़ी जाएगी, उसके अर्थ
बड़े और हो
जाएंगे। तो
कृष्ण जब बार—बार
दोहराते हैं,
तो वह
अर्जुन जितना
बदलता है, उस
हिसाब से
दोहराते हैं।
वे उन्हीं
शब्दों को
दोहरा रहे हैं,
जो
उन्होंने
पहले भी कहे
थे। लेकिन
उनका अर्थ
अर्जुन के लिए
अब दूसरा है।
दूसरी
बात। जो भी
महत्वपूर्ण
है,
उसे बार—बार
चोट करना
जरूरी है।
क्योंकि आपका
मन इतना मुश्किल
में पड़ा है, सुनता ही
नहीं; उसमें
कुछ प्रवेश
नहीं करता।
उसमें बार—बार
चोट की जरूरत
है। उसमें
हथौड़ी की तरह
हैमरिंग की
जरूरत है। तो
जो मूल्यवान
है, जैसे
कोई गीत की
कड़ी दोहरती है,
ऐसा जो
मूल्यवान है,
कृष्ण उसको
फिर से
दोहराते हैं।
वे यह कह रहे
हैं कि फिर से
एक चोट करते
हैं। और कोई
नहीं जानता, किस कोमल
क्षण में वह
चोट काम कर
जाएगी और कील भीतर
सरक जाएगी।
इसलिए बहुत
बार दोहराते
हैं, बहुत
बार चोट करते
हैं।
इसलिए
भी बार—बार
दोहराते हैं
कि जीवन का जो
सत्य है, वह तो
एक ही है।
उसको कहने के
ढंग कितने ही
हों, जो
कहना चाहते
हैं, वह तो
एक बहुत छोटी—सी
बात है। उसे
तो एक शब्द
में भी कहा जा
सकता है।
लेकिन एक शब्द
में आप न समझ
सकेंगे।
इसलिए बहुत
शब्दों में
कहते हैं।
बहुत फैलाव
करते हैं।
शायद इस बहाने
समझ जाएं। इस
बहाने न समझें,
तो दूसरे
बहाने समझ
जाएं। दूसरे
बहाने न समझें,
तो तीसरा
सही। बहुत
रास्ते खोजते
हैं, बहुत
मार्ग खोजते
हैं।
घटना
तो एक ही
घटानी है। और
वह घटना सिर्फ
इतनी ही है कि
आप साक्षी हो
जाएं। आप
जागकर देख लें
जगत को।
मूर्च्छा टूट
जाए। आपको यह
खयाल में आ
जाए कि मैं
जानने वाला
हूं। और जो भी
मैं जान रहा
हूं वह मैं
नहीं हूं।
यह
इतनी—सी घटना
घट जाए, इसके
लिए सारा
आयोजन है।
इसके लिए इतने
उपनिषद हैं, इतने वेद
हैं, इतनी
बाइबिल, कुरान,
गीता, और
सब है। बुद्ध
हैं, महावीर,
जरथुस्त्र
और मोहम्मद, और सारे लोग
हैं। लेकिन वे
कह सभी एक बात रहे
हैं, बहुत—बहुत
ढंगों से, बहुत—बहुत
व्यवस्थाओं
से।
वह
एक बात
मूल्यवान है।
लेकिन आपको
अगर वह बात
सीधी कह दी
जाए,
तो आपको
सुनाई ही नहीं
पड़ेगी। और
मूल्य तो
बिलकुल पता
नहीं चलेगा।
आपको
बहुत तरह से
प्रलोभित
करना होता है।
जैसे मां छोटे
बच्चे को
प्रलोभित
करती है, भोजन
के लिए राजी
करती है। राजी
करना है भोजन
के लिए, प्रलोभन
बहुत तरह के
देती है। बहुत
तरह की बातें,
बहुत तरह की
कहानियां
गढ़ती है। और
तब बच्चे को
राजी कर लेती
है। कल वह
दूसरे तरह की
कहानियां
गढेगी, परसों
तीसरे तरह की
कहानियां
गढेगी। लेकिन
प्रयोजन एक है
कि वह बच्चा
राजी हो जाए
भोजन के लिए।
कृष्ण
का प्रयोजन एक
है। वे अर्जुन
को राजी करना
चाहते हैं उस
परम क्रांति
के लिए। इसलिए
सब तरह की
बातें करते
हैं और फिर
मूल स्वर पर
लौट आते हैं।
और फिर वे वही
दोहराते हैं।
इसके अंत में
भी उन्होंने
वही दोहराया
है।
हे
अर्जुन, जो
कुछ भी स्थावर—जंगम
वस्तु
उत्पन्न होती
है, उस
संपूर्ण को तू
क्षेत्र—
क्षेत्रज्ञ
के संयोग से
ही उत्पन्न
हुई जान।
वह
जो भीतर
क्षेत्रज्ञ
बैठा है और
बाहर क्षेत्र
फैला है, उन
दोनों के
संयोग से ही
सारे मन का
जगत है। सारे
सुख, सारे
दुख; प्रीति—
अप्रीति, सौंदर्य—कुरूपता,
अच्छा—बुरा,
सफलता—असफलता,
यश—अपयश, वे सब इन दो
के जोड़ हैं।
और इन दो के
जोड़ में वह
पुरुष ही अपनी
भावना से जुड़ता
है। प्रकृति
के पास कोई
भावना नहीं है।
तू अपनी भावना
खींच ले, जोड़
टूट जाएगा। तू
भावना करना
बंद कर दे, परम
मुक्ति तेरी
है।
पांच
मिनट रुकेंगे।
कोई बीच से
उठे नहीं।
कीर्तन पूरा
हो जाए, तभी
उठें।
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