दिनांक
5 अक्टूबर, 1970;
प्रात:,
मनाली (कुल्लू)
"भगवान
श्री, महावीर
की वीतरागता,
क्राइस्ट
की "होली इनडिफरेंस',
बुद्ध की
उपेक्षा, कृष्ण
की अनासक्ति,
इनमें क्या
सूक्ष्म
समानता व
भिन्नता है? इस
पर प्रकाश
डालें।'
क्राइस्ट
की तटस्थता, बुद्ध
की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता
और कृष्ण की
अनासक्ति, इनमें
बहुत-सी
समानताएं हैं,
लेकिन
बुनियादी भेद
भी हैं।
समानता अंत पर
है, उपलब्धि
पर है, भेद
मार्ग में
हैं। अंतिम
क्षण में ये
चारों बातें
एक ही जगह
पहुंचा देती
हैं। लेकिन
चारों के
रास्ते बड़े
अलग-अलग हैं।
जीसस
जिसे तटस्थता
कहते हैं, बुद्ध
जिसे उपेक्षा
कहते हैं, इनमें
बड़ी गहरी
समानता है। यह
जगत जैसा है, इस जगत की
धाराएं जैसी
हैं, इस
जगत के
अंतर्द्वंद्व
जैसे हैं, इस
जगत के भेद और
विरोध जैसे
हैं, उनके
प्रति कोई
तटस्थ हो सकता
है। लेकिन
तटस्थता कभी
भी प्रसन्नता
नहीं हो सकती।
तटस्थता बहुत
गहरे में
उदासी बन जाएगी।
इसलिए जीसस
उदास हैं। और
अगर वे किसी
आनंद को भी
पाते हैं, तो
वह इस उदासी
के रास्ते से
ही उन्हें
उपलब्ध होता
है। लेकिन
उनका पूरा
रास्ता उदास
है। वे इस
जीवन के पथ पर
गीत गाते हुए
नहीं निकलते।
तटस्थता
उदासी बन ही जाएगी।
और जीसस की
तटस्थता बहुत
उदासी बन गई
है।
अगर न
मैं यह चुनूं, न
वह चुनूं,
अगर कोई
चुनाव न हो, तो मेरे
भीतर की बहने
वाली सारी
धाराएं रुक जाएंगी।
नदी न पूरब
बहे, न
पश्चिम बहे, न दक्षिण
बहे, न
उत्तर बहे, तटस्थ हो
जाए, तो एक
उदास तालाब बन
जाएगी। तालाब
भी सागर तक पहुंच
जाता है, लेकिन
नदी के रास्ते
से नहीं, सूर्य
की किरणों के
रास्तों से
पहुंचता है। लेकिन
नदी जो बीच का
नाचता हुआ, गीत गाते
हुए रास्ता तय
करती है, वह
भाग्य तालाब
का नहीं है।
तालाब सूखता
है धूप में, गर्मी में, उत्तप्त
होता है, उमड़ता
है, भाप
बनता है, बादल
बनता है, सागर
तक पहुंच जाता
है। लेकिन नदी
की मुदिता, उसकी
प्रफुल्लता, उसकी "इक्सटेसी'
तालाब को
नहीं मिलती।
वह उदासी
स्वाभाविक है।
सूरज की
किरणों में
तपना और भाप
बनना उदास ही
हो सकता है।
तालाब नाचता
हुआ बादलों पर
नहीं चढ़ता,
नदी नाचती
हुई सागर में
उतर जाती है।
और तालाब सीधा
भी सागर तक
नहीं पहुंचता,
बीच में भाप
बनता है, फिर
पहुंचता है।
तो जीसस एक
उदास बादल की
तरह हैं, जो
आकाश में मंडराता
है और सागर की
यात्रा करता
है। नाचती हुई
नदी की भांति
नहीं हैं।
तो
बुद्ध और जीसस
की
जीवन-व्यवस्था
में थोड़ी
निकटता है, लेकिन
एकदम निकटता
नहीं, क्योंकि
बुद्ध और तरह
के व्यक्ति
हैं। जहां जीसस
की तटस्थता
जीसस को उदास
कर जाती है, वहां बुद्ध
की उपेक्षा
बुद्ध को
सिर्फ शांत कर
जाती है, उदास
नहीं। उतना
फर्क है।
बुद्ध की
उपेक्षा सिर्फ
शांत कर जाती
है। न वहां
उदासी है जीसस
जैसी, न
वहां कृष्ण
जैसा नाचता
हुआ गीत है, न महावीर
जैसा झरता हुआ
अप्रगट
सुख और आनंद
है। बुद्ध
शांत हैं।
तटस्थ हैं वे।
तटस्थता तो
उदासी ले ही
आएगी। वे
सिर्फ तटस्थ
नहीं हैं। वे
उपेक्षा को
उपलब्ध हैं।
पाया है कि यह
भी व्यर्थ है,
पाया है कि
वह भी व्यर्थ
है। इसलिए
उत्तेजित होने
का उन्हें कोई
उपाय नहीं रहा
है। उन्हें कोई
भी "आल्टरनेटिव',
कोई भी
विकल्प
उत्तेजित
नहीं कर पाता।
सब विकल्प
समान हो गए
हैं। जीसस के
लिए तटस्थता
है, सब
विकल्प समान
नहीं हो गए
हैं। जीसस अभी
भी कहेंगे, यह ठीक है और
वह गलत है; यह
करो और वह मत
करो। यद्यपि
वे दोनों
तटस्थ हैं, लेकिन बहुत
गहरे में उनका
चुनाव जारी
है। बुद्ध अचुनाव
को, "च्वॉइसलेसनेस'
को उपलब्ध
होते हैं।
बुद्ध को अगर
हम ठीक से समझें
तो बुद्ध के
लिए न कुछ सही
है, न कुछ
गलत है। सिर्फ
चुनाव ही गलत
है और अचुनाव
सही होना है। "च्वॉइस' गलत है, "च्वॉइसलेसनेस'
सही है।
इसलिए
जीसस अपनी
तटस्थता, "होली
इनडिफरेंस'
में भी
मंदिर में
जाकर कोड़ा
उठा लेते हैं
और सूदखोरों
को कोड़े
से पीट देते
हैं। उनके
तख्ते उलट
देते हैं। यहूदियों
के मंदिर में,
"सिनागॉग'
में
पुरोहित
ब्याज का काम
भी करते थे।
हर वर्ष लोग
इकट्ठे होते थे
मेले पर और तब
वे उन्हें
उधार दे देते
थे और सूद
लेते थे। और
सूद की दरें
इतनी बढ़ गई
थीं कि लोग
अपना मूल तो
कभी चुका नहीं
पाते थे, ब्याज
भी नहीं चुका
पाते थे और
जिंदगी भर
मेहनत करके बस
इतना ही काम
करते थे कि वे
हर वर्ष आकर
और पुरोहितों
को उनके ब्याज
का पैसा चुका
जाएं। पूरे
मुल्क का धन "सिनागॉगों'
में इकट्ठा
होने लगा था।
तो जीसस कोड़ा
उठा लेते हैं,
तख्ते उलट
देते हैं सूदखोरों
के।
जीसस "इनडिफरेंट' हैं,
तटस्थ हैं,
लेकिन
चुनाव जारी
है। वे कहते
हैं कि इस जगत
के प्रति एक तटस्थता
चाहिए। लेकिन
इस जगत में
अगर गलत हो रहा
है, तो
जीसस चुनाव
करते हैं।
लेकिन बुद्ध
को हाथ में हम कोड़ा उठाए
हुए नहीं सोच
सकते। उनका
कोई चुनाव
नहीं है। उनका
कोई चुनाव ही
नहीं है। अचुनाव
के कारण वे
गहरी "साइलेंस'
को, एक
गहरी शांति को
उपलब्ध हुए
हैं। इसलिए
बुद्ध को
समझते वक्त
शांति सबसे
महत्वपूर्ण शब्द
है। तो बुद्ध
की प्रतिमा से
जो भाव प्रगट
होता है और
झरता है चारों
तरफ, वह
शांति का है।
तालाब भी
कम-से-कम धूप
की किरणों में
भाप बनता है
और आकाश की
तरफ उड़ता
है। बुद्ध
इतने शांत हैं
कि वे कहते
हैं मैं सागर
की तरफ जाने
की भी
उत्तेजना
नहीं लेता हूं,
सागर को आना
हो तो आ जाए।
वे उतनी भी
यात्रा करने
की तैयारी में
नहीं हैं।
उतनी यात्रा
भी तनाव है।
इसलिए
बुद्ध ने सागरवाची
जितने भी
प्रश्न हैं, सबको
इनकार कर
दिया। कोई
पूछे, ईश्वर
है? कोई
पूछे, ब्रह्म
है? कोई
पूछे, मोक्ष
है? कोई
पूछे, आत्मा
का मरने के
बाद क्या होता
है? इस तरह
के जितने भी
प्रश्न हैं वह,
बुद्ध उनको
हंसकर टाल
देते हैं; वह
कहते हैं, यह
पूछो ही मत।
क्योंकि अगर
कुछ भी है, तो
उस तक की
यात्रा पैदा
होती है और
यात्रा अशांति
बन जाती है।
वह कहते हैं, मैं जहां
हूं, वहीं हूं।
मुझे कोई
यात्रा नहीं
करनी, मुझे
कोई चुनाव
नहीं करना है।
इसलिए बुद्ध
की उपेक्षा
अगर बहुत गहरे
में देखें, तो सिर्फ
संसार की
उपेक्षा नहीं
है--जीसस की उपेक्षा
सिर्फ संसार
की उपेक्षा है,
लेकिन
परमात्मा का
चुनाव जारी
है--बुद्ध की
उपेक्षा
परमात्मा की
भी उपेक्षा
है। वह कहते
हैं, परमात्मा
को भी पाना है
तो यह भी तो मन
की "डिज़ायर',
तृष्णा औरर्
ईष्या है।
आखिर नदी
क्यों सागर को
पाना चाहे? और नदी सागर
को पाकर पा भी
क्या लेगी? अगर सागर
में ज्यादा जल
है, तो
मात्रा का ही
फर्क पड़ता है।
नदी में भी जल
है और सागर के
जल में और नदी
के जल में
फर्क क्या है?
बुद्ध कहते
हैं, हम जो
हैं, हैं।
और वहीं शांत
हैं। इसलिए
बुद्ध की
उपेक्षा
यात्रा-विहीन
है। बुद्ध के
गहरे चेहरे पर,
बुद्ध की
आंखों में
यात्रा नहीं
देखी जा सकती है।
वे स्थिर हैं,
ठहर गई हैं,
वहीं हैं।
जैसे कोई झील
बिलकुल शांत हो।
न नदी की तरफ
भागती हो, न
आकाश की तरफ
उड़ती हो, बिलकुल
शांत हो, एक
लहर भी न उठती
हो, एक "रिपिल'
भी पैदा न
होती हो, ऐसे
बुद्ध का होना
है।
स्वभावतः
बुद्ध की
शांति
"निगेटिव' होगी,
नकारात्मक
होगी। उसमें
कृष्ण का
प्रगट आनंद नहीं
हो सकता, उसमें
महावीर का अप्रगट
आनंद भी नहीं
हो सकता।
लेकिन जो इतना
शांत होगा, इतना शांत
होगा कि जिसे
सागर तक
पहुंचने की इच्छा
भी नहीं है, क्या वह
अंततः आनंद को
उपलब्ध नहीं
हो जाएगा? हो
जाएगा, लेकिन
वह बुद्ध की
भीतरी दशा
होगी। उनके
अंतरतम में वह
आनंद का दीया
जलेगा। लेकिन
बाहर उनकी
सारी-की-सारी
आभा, उनका
जो प्रभामंडल
है, वह
शांति का
होगा। दीये की
गहरी ज्योति
तो जहां होगी
वहां तो आनंद
होगा, लेकिन
उसका
प्रभामंडल
सिर्फ शांति
का होगा। बुद्ध
को
हिलते-डुलते
सोचना भी कठिन
मालूम पड़ता
है। बुद्ध की
कोई चिंतना
करे, सोचे,
तो ऐसा भी
नहीं लगता कि
यह आदमी उठकर
चला भी होगा।
उनकी प्रतिमा
देखें तो वह
ऐसी गलती है
जैसे यह आदमी
सदा बैठा ही
रहा होगा। यह
उठा भी होगा, हिला भी
होगा, डुला
भी होगा, इसने
पैर भी उठाया
होगा, इसने
ओंठ भी खोला
होगा, यह
बोला भी होगा,
ऐसा भी
मालूम नहीं
पड़ता। बुद्ध
की प्रतिमा "जस्ट स्टिलनेस'
की प्रतिमा
है। जहां सब
चीजें ठहर गई
हैं, जहां
कोई "मूवमेंट'
नहीं है।
किसी तरह की
कोई गति नहीं
है। तो बुद्ध
की आभा जो है, वह शांति की
है।
बुद्ध
की उपेक्षा
समस्त तनावों
की उपेक्षा है, चाहे
वे तनाव मोक्ष
के ही क्यों न
हों! कोई आदमी
मोक्ष ही
क्यों न पाना
चाहे, बुद्ध
कहेंगे कि
पागल हो! कहीं
मोक्ष है! कोई
कहे, आत्मा
पानी है, तो
बुद्ध कहेंगे,
पागल हो, कहीं आत्मा
है? असल
में जब तक
पाना है तब तक,
बुद्ध
कहेंगे, तुम
न पा सकोगे।
तुम उस जगह
खड़े हो जाओ
जहां पाना ही
नहीं है। तब
तुम पा लोगे, लेकिन यह
बात वह कभी
साफ कहते नहीं
हैं। क्योंकि
अगर वह इतना
भी कहें कि तब तुम
पा लोगे, तो
हम तत्काल
पाने को दौड़
पड़ेंगे। तो
बुद्ध सिर्फ
निषेध करते
जाते हैं। वह
कहते हैं, न
परमात्मा है,
न आत्मा है,
न मोक्ष है,
कोई भी नहीं
है, है ही
नहीं कुछ।
क्योंकि जब तक
कुछ है, तब
तक तुम पाना
चाहोगे और जब
तक तुम पाना
चाहोगे तब तक
तुम न पा
सकोगे। क्योंकि
जो भी पाना है
वह ठहरकर, रुककर,
मौन में, थिरता में, शून्य में
पाना है। और
तुम्हारी चाह, तुम्हारी
तृष्णा
तुम्हें दौड़ाती
रहेगी।
तृष्णा मूल है
बुद्ध के लिए
और उपेक्षा
सूत्र है
तृष्णा से
मुक्ति का।
चुनो ही मत, पूछो ही मत
कि कहीं जाना
है। मंजिल
बनाओ ही मत।
मंजिल नहीं है
कोई।
जीसस
के लिए मंजिल
है। इसलिए जगत
के प्रति वे एक
"होली इनडिफरेंस', पवित्र
तटस्थता की
बात करते हैं,
लेकिन
परमात्मा के
प्रति उनकी "इनडिफरेंस'
नहीं हो
सकती। अगर
वैसा कोई "इनडिफरेंट'
आदमी है, तो वह
"अनहोनी इनडिफरेंस'
होगी, वह
अपवित्र
तटस्थता
होगी। पवित्र
तटस्थता संसार
के प्रति है।
अगर हम जीसस
से पूछें कि
बुद्ध तो कहते
हैं, कोई
परमात्मा
नहीं, कैसा
परमात्मा? कोई
आत्मा नहीं है;
कैसी आत्मा?
न कुछ पाने
को है, न
कोई पाने वाला
है। बुद्ध तो
कहते हैं, जब
यह भाव ही
तुम्हारा
पूरा बैठ
जाएगा--इसलिए
बुद्ध जो
बातें करते
हैं वे बहुत
अदभुत हैं।
अगर उनसे पूछो
कि कोई भी
नहीं है? तो
वह कहते हैं
यह जो हमें
दिखाई पड़ रहा
है, सिर्फ
संघट है, सिर्फ
संघात है, सिर्फ
एक "कंपोजीशन'
है। जैसे एक
रथ है, उसका
चाक अलग कर
लें, घोड़े
अलग कर लें, बल्ली अलग
कर लें, तो
फिर रथ पीछे
नहीं बचता। रथ
सिर्फ एक जोड़
है। ऐसे ही
तुम भी एक जोड़
हो। यह सारा
जगत एक जोड़ है।
चीजें टूट
जाती हैं, पीछे
कुछ भी नहीं
बचता--न कोई
आत्मा, न
कोई
परमात्मा। और
यही पाने
योग्य है।
लेकिन, यह
सदा बुद्ध
भीतर कहते
हैं। यह कभी
बाहर नहीं
कहते। इसलिए
जो बहुत गहरे
समझ सकते हैं
वही समझ पाते
हैं, अन्यथा
बुद्ध के पास
से तृष्णालु
व्यक्ति सभी
लौट जाते हैं।
जिनको कुछ भी
पाना है वे
कहते हैं, यह
आदमी व्यर्थ
है। इसके पास
पाने को कुछ
भी नहीं है, सिर्फ शांत
होने को हम
नहीं आए, हम
कुछ पाने को
आए हैं। और
बुद्ध उन पर
हंसते हैं, क्योंकि वे
कहते हैं, शांत
होकर ही पाया
जा सकता है।
वह जो
परमात्मा है,
शांत होकर
ही पाया जा
सकता है। वह
जो आत्मा है, शांत होकर
ही पाया जा
सकता है। वह
जो मोक्ष है...लेकिन
तुम इनको
लक्ष्य मत
बनाओ। तुम अगर
मुझसे पूछोगे,
मोक्ष है? और मैं कहूं,
है, तो
तुम तत्काल
लक्ष्य बना
लोगे। और
लक्ष्य की तरफ
दौड़ता
आदमी कभी शांत
नहीं होता है।
इसलिए बुद्ध
की अपनी तकलीफ
है। उनकी
उपेक्षा
शांति में ले
जाती है--इतनी
गहरी शांति
में, जहां
कोई यात्रा ही
नहीं है।
महावीर
की वीतरागता
बुद्ध की
शांति से मेल
खाती है, थोड़ी
दूर तक, क्योंकि
इस जगत में वे
भी उपेक्षा के
पक्ष में हैं।
और थोड़ी दूर
तक महावीर की वीतरागता
जीसस से मेल
खाती है, क्योंकि
उस जगत में
मोक्ष के
प्रति उनका
चुनाव है।
महावीर मोक्ष
के प्रति अचुनाव
में नहीं हैं।
क्योंकि
महावीर
कहेंगे कि अगर
मोक्ष भी नहीं
है, तो फिर
शांत होने का
भी प्रयोजन
क्या है? फिर
अशांत होने
में हर्ज भी
क्या है! अगर
कुछ पाने को
ही नहीं है, तो फिर चुप
और मौन बैठने
का प्रयोजन भी
क्या है!
महावीर
कहेंगे कि सब
छोड़ा जाए, तो
कुछ पाने को
है। और जो
पाने को है, उसी के लिए
सब छोड़ा जा सकता
है। इसलिए
मोक्ष के
प्रति महावीर
की उपेक्षा
नहीं है। वीतरागता
उनकी इस जगत
का जो द्वंद्व
है उसके पार
ले जाने वाली
है।
निर्द्वंद्व
की उपलब्धि का
मार्ग है।
लेकिन महावीर
की वीतरागता
किसी उपलब्धि
का मार्ग है।
बुद्ध की
उपेक्षा अनुपलब्धि
का द्वार है, जहां सब शून्य
हो जाएगा और
सब खो जाएगा।
बुद्ध
का संन्यास एक
अर्थ में
पूर्ण है।
उसमें
परमात्मा की
भी मांग नहीं
है। महावीर के
संन्यास में
मोक्ष की जगह
है। और महावीर
यह कहते हैं
कि संन्यास
संभव ही नहीं
है अगर मोक्ष
नहीं है, तो किसलिए? क्योंकि
महावीर का
चिंतन बड़ा
वैज्ञानिक है
और "कॉज़ल'
है। महावीर
कहते हैं कि
बिना "कॉज़लिटी'
के, बिना
कार्य-कारण के
कुछ होता ही
नहीं। इसलिए वह
बुद्ध से राजी
न होंगे कि हम
सिर्फ शांत हो
जाएं बिना
किसी वजह के।
महावीर कहते
हैं, अशांत
होने की भी
वजह होती है
और शांत होने
की भी वजह
होती है। वे
कृष्ण से भी
राजी न होंगे
इस बात के लिए
कि हम सब कुछ स्वीकार
कर लें।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि अगर हम
सब कुछ
स्वीकार कर
लेते हैं, तो
हम आत्मवान ही
नहीं रह जाते,
हम पत्थर की
तरह हो जाते
हैं। आत्मा के
होने का अर्थ
ही है, "डिसक्रिमिनेशन'। महावीर
कहते हैं, आत्मवान
होने का अर्थ
है, विवेक।
यह ठीक है और
यह गलत है, इस
बात का विवेक
ही आत्मवान
होने का अर्थ
है। और जो गलत
है उसे छोड़ते
जाना है, और
राग भी गलत है
और विराग भी
गलत है, इसलिए
दोनों को छोड़
देना है, और
वीतरागता
को पकड़ लेना
है। महावीर के
लिए वीतरागता
उपलब्धि है और
वीतरागता
से मोक्ष है।
तो
महावीर सिर्फ
शांत नहीं हैं, शांत
तो हैं ही
लेकिन आनंदित
भी हैं। मोक्ष
की उपलब्धि की
किरणें उनके
भीतर ही नहीं फैलतीं, उनके शरीर
से चारों तरफ
नाचने लगती
हैं। इसलिए, अगर हम
महावीर और
बुद्ध को
साथ-साथ खड़ा
करें, तो
बुद्ध बिलकुल
"पैसिव साइलेंस' में हैं, जैसे
हों ही न।
महावीर "एक्टिव
साइलेंस'
में हैं, बहुत होकर
हैं, बहुत
मजबूती से
हैं। हां, उनके
होने में
चारों तरफ
आनंद की
प्रखरता है। लेकिन
अगर कृष्ण के
पास महावीर को
खड़ा करें, तो
महावीर का
आनंद भी "साइलेंट'
मालूम
पड़ेगा, शांत
मालूम पड़ेगा,
और कृष्ण का
आनंद भी
आंदोलित
मालूम पड़ेगा।
कृष्ण नाच
सकते हैं, महावीर
नाच नहीं
सकते। अगर
महावीर के नाच
को देखना है, तो उनकी
शांति, मौन,
उनकी
स्थिरता में
ही देखना
होगा। वह
दिखाई पड़ सकता
है, उनके
रोएं-रोएं से,
उनकी
श्वास-श्वास
से, उनकी
आंख के
हिलने-डुलने
से, उनके चलने
से। सब तरफ से
उनका आनंद
दिखाई पड़ेगा,
लेकिन वे
नाच नहीं
सकते। यह नाच
देखना पड़ेगा,
यह "इनडाइरेक्ट'
है, यह
परोक्ष है।
तो
महावीर की वीतरागता
प्रगट रूप से
आनंद को घोषित
करती है।
इसलिए महावीर
की प्रतिमा और
बुद्ध की
प्रतिमा में
वही फर्क है।
महावीर की
प्रतिमा में
आनंद प्रगट
होता मालूम
पड़ेगा, महावीर
के बाहर कुछ
जाता हुआ
मालूम पड़ेगा,
बुद्ध एकदम
भीतर चले गए
हैं, उनके
बाहर कुछ जाता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता। वह
बिलकुल ऐसे हो
गए हैं जैसे न
हों। महावीर
ऐसे हो गए हैं
जैसे पूरी तरह
हैं। उनके
अस्तित्व की
घोषणा समग्र
है, इसलिए
महावीर ईश्वर
को इनकार कर
देते हैं, लेकिन
आत्मा को
इनकार नहीं कर
पाते। महावीर
कह देते हैं, कोई
परमात्मा
नहीं है। हो
भी कैसे सकता
है! मैं ही
परमात्मा
हूं। इसलिए
महावीर कहते
हैं, आत्मा
ही परमात्मा
है। तुम सब
परमात्मा हो,
कोई और अलग
परमात्मा
नहीं है। यह
घोषणा उनके प्रगाढ़
आनंद, "एक्सटेसी'
से निकलती
है।
हर्षोन्माद
में वे यह
घोषणा करते
हैं कि मैं ही
परमात्मा
हूं। कोई और
ऊपर परमात्मा
नहीं है।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, अगर
मुझसे ऊपर कोई
भी परमात्मा
है, तो फिर
मैं कभी पूरी
तरह स्वतंत्र
न हो पाऊंगा।
स्वतंत्रता
की फिर कोई
संभावना न
रही। कोई एक
परमात्मा ऊपर
बैठा ही है।
अगर मेरे ऊपर
कोई एक नियंता
है, जिसके
कानून से जगत
चलता है, तो
मेरी मुक्ति
का क्या अर्थ
है! कल अगर वह
सोच ले कि
वापिस भेज दो
इस मुक्त आदमी
को संसार में,
तो मैं क्या
कर सकूंगा? इसलिए
महावीर कहते
हैं स्वतंत्रता
की "गारंटी' सिर्फ इसमें
है कि
परमात्मा न
हो। परमात्मा
और
स्वतंत्रता
दोनों साथ-साथ
नहीं चल सकते
हैं। इसलिए
परमात्मा को
इनकार कर देते
हैं, लेकिन
आत्मा को बड़ी प्रगाढ़ता
से घोषित करते
हैं कि आत्मा
ही परमात्मा
है। इसलिए
महावीर में
प्रगट आनंद
दिखाई पड़ता
है। वह उनकी वीतरागता।
वीतरागता
में वे बुद्ध
से सहमत हैं अचुनाव के
लिए। राग और
विराग में
चुनाव नहीं
करना है।
लेकिन संसार
और मोक्ष में
चुनाव नहीं
करना है, इस
बात मग वे
बुद्ध से राजी
नहीं हैं। वे
कहते हैं, संसार
और मोक्ष में
तो चुनाव करना
ही है। इस मामले
में वे जीसस
से राजी हैं।
इस मामले में
जीसस की
तटस्थता उनके
करीब आती है।
लेकिन जीसस का
परमात्मा परलोक
में है। और
मरने के बाद
ही जीसस
प्रसन्न हो
सकते हैं, जब
परमात्मा से
मिल जाएं।
महावीर का कोई
परमात्मा
परलोक में
नहीं है।
महावीर का
परमात्मा भीतर
है और वह यहीं
पाकर प्रसन्न
हैं। इसलिए
जीसस उदास हैं,
और महावीर
उदास नहीं
हैं।
कृष्ण
की अनासक्ति
का भी तीनों
से कुछ तालमेल
है और कुछ
बुनियादी भेद
हैं। कृष्ण को
अगर हम इन
तीनों का
इकट्ठा जोड़, और
कुछ ज्यादा
कहें, तो
कठिनाई नहीं
है। कृष्ण की
अनासक्ति
उपेक्षा नहीं
है। कृष्ण
कहते हैं, जिसके
प्रति
उपेक्षा हो गई,
उसके प्रति
हम अनासक्त
नहीं हो सकते
क्योंकि उपेक्षा
भी विपरीत
आसक्ति है।
रास्ते से मैं
गुजरा और
मैंने आपकी
तरफ देखा ही
नहीं। देखने में
भी एक आसक्ति
है, न
देखने में भी
एक आसक्ति है।
सिर्फ विपरीत
आसक्ति है कि
नहीं
देखूंगा। और
फिर कृष्ण
कहते हैं, उपेक्षा
किसके प्रति,
क्योंकि
परमात्मा के
अतिरिक्त कुछ
है ही नहीं।
जिसके प्रति
भी उपेक्षा
हुई, वह
परमात्मा ही
है। यह जगत
पूरा-का-पूरा
ही अगर
परमात्मा है,
तो उपेक्षा
किसके प्रति?
और उपेक्षा
करेगा कौन? और जो
उपेक्षा
करेगा वह
अहंकार से
मुक्त कैसे
होगा? उपेक्षा
करेगा कौन? मैं करूंगा
उपेक्षा? बुरे
की उपेक्षा
करूंगा अच्छे
के लिए, संसार
की उपेक्षा
करूंगा मोक्ष
के लिए। करेगा
कौन? और
करेगा किसकी?
इसलिए
उपेक्षा जैसे
नकारात्मक और
"कंडेनमेटरी',
निंदात्मक शब्द का
उपयोग कृष्ण
नहीं कर सकते।
तटस्थता
का भी उपयोग
वह नहीं कर
सकते हैं।
क्योंकि
कृष्ण कहेंगे
कि परमात्मा
खुद भी तटस्थ
नहीं है, तो हम
कैसे तटस्थ हो
सकते हैं? तटस्थ
हुआ नहीं जा
सकता। कृष्ण
कहते हैं हम
सदा धारा में
हैं, तट पर
हो नहीं सकते।
जीवन एक धारा
है, जीवन
का तट कोई है
ही नहीं जिस
पर हम खड़े हो
जाएं और तटस्थ
हो जाएं और हम
कह दें, हम
धारा के बाहर
हैं। हम जहां
भी हैं धारा
के भीतर हैं, हम जहां भी
हैं जीवन में
हैं, हम
जहां भी हैं
अस्तित्व में
हैं, तट पर
हम खड़े हो
नहीं सकते।
होना ही, अस्तित्व
ही धारा है।
इसलिए तटस्थ
हम होंगे कैसे?
हां, नदी
के किनारे हम
तट पर खड़े हो
जाते हैं। नदी
बहती जाती है,
हम तट पर
खड़े रहते हैं।
लेकिन जीवन की
ऐसी कोई नदी
नहीं है जिसके
किनारे हम खड़े
हो जाएं। जीवन
की नदी का कोई
किनारा ही
नहीं है। तो
तटस्थता शब्द
का प्रयोग वे
नहीं कर सकते,
उपेक्षा
शब्द का वे
प्रयोग नहीं
कर सकते।
वीतराग
शब्द का वे
इसलिए प्रयोग
नहीं कर सकते
कि वे यह कहते
हैं कि अगर
राग बुरा है, अगर
विराग बुरा है,
तो है ही
क्यों? बुरे
का अस्तित्व
भी कैसे हो
सकता है! या तो
हम ऐसा मानें
कि जगत में दो
शक्तियां
हैं--एक शुभ की,
परमात्मा
की शक्ति है; एक अशुभ की, शैतान की
शक्ति है। जैसा
कि जरथुस्त्र
मानते हैं, जैसा कि
ईसाई मानते
हैं, जैसा
कि मुसलमान
मानते हैं। उन
सबकी तकलीफ यही
है कि अगर जगत
में अशुभ है, तो फिर अशुभ
की शक्ति हमें
अलग करनी
पड़ेगी परमात्मा
से। क्योंकि
परमात्मा
अशुभ का
स्रोत! वह
जरथुस्त्र
नहीं सोच पाए,
मुहम्मद
नहीं सोच पाए,
जीसस भी
राजी नहीं
हैं। इसलिए
शैतान, "डेविल', अशुभ
की हमें कोई
जगह बनानी
पड़ती है।
कृष्ण यह कहते
हैं कि अगर
अशुभ भी है, अलग भी है, तो भी क्या, वह परमात्मा
की आज्ञा से
है, या
परमात्मा की
आज्ञा के बिना
है? उसके
होने में भी
परमात्मा के
सहारे की
जरूरत है या
वह स्वतंत्र
रूप से है? अगर
वह स्वतंत्र
रूप से है, तब
वह ठीक
परमात्मा के
समतुल शक्ति
हो गई। फिर इस
जगत में शुभ
कभी भी फलित
नहीं हो सकता।
फिर वह हारेगा
भी क्यों? हारने
की जरूरत भी
क्या है? फिर
इस जगत में दो
परमात्मा हो
गए। और इस जगत
में दो
परमात्मा की
कल्पना असंभव
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि शक्ति
तो एक है, और
उसी शक्ति से
सब उठता है।
जिस शक्ति से
स्वस्थ फल
लगता है वृक्ष
में, उसी
शक्ति से सड़ा
हुआ फल भी
लगता है। उसके
लिए किसी अलग
शक्ति के होने
की जरूरत
नहीं। और जिस
चित्त से
बुराई पैदा
होती है, उसी
चित्त से भलाई
पैदा होती है,
उसके लिए
अलग शक्ति की
जरूरत नहीं
है। शुभ और अशुभ
एक ही शक्ति
के रूपांतरण
हैं। अंधकार
और प्रकाश एक
ही शक्ति के
रूपांतरण
हैं। इसलिए कृष्ण
यह कहते हैं
कि मैं दोनों
को छोड़ने को
नहीं कहता, दोनों को
उसकी समग्रता
में जीने को
कहता हूं।
अनासक्ति
का अर्थ, एक के
पक्ष में
दूसरे के
प्रति आसक्ति
नहीं, शुभ
के पक्ष में
अशुभ की
आसक्ति नहीं,
अशुभ के
पक्ष में या
विपक्ष में
शुभ की आसक्ति
नहीं--आसक्ति
ही नहीं।
चुनाव ही
नहीं। और जीवन
जैसा है, इस
समग्र जीवन की
पूर्ण
स्वीकृति और
इस समग्र जीवन
के प्रति
स्वयं का
पूर्ण समापन,
पूर्ण
समर्पण।
अनासक्ति का
अर्थ यह है कि
मैं अलग हूं
ही नहीं, एक
ही हूं इस जगत
से। कौन चुने,
किसको चुने?
जगत जैसा
करवा रहा है
वैसा मैं लहर
की तरह सागर
में बहा जा
रहा हूं। मैं
अलग हूं ही
नहीं।
इसमें
कुछ समानताएं
मिलेंगी।
कृष्ण
बुद्ध जैसी
शांति को उपलब्ध
हो जाएंगे, क्योंकि
कुछ उन्हें
पाना नहीं है।
जो भी है, वह
पाया हुआ है।
वे महावीर
जैसे वीतराग
दिखाई पड़ेंगे
किन्हीं
क्षणों में, क्योंकि
उनके आनंद का
कोई पारावार
नहीं है। वे
जीसस जैसे
परमात्मा की
घोषणा करते
दिखाई पड़ेंगे।
इसलिए नहीं कि
इस लोक और
परलोक में परमात्मा
कहीं बैठा है,
बल्कि सब
कुछ परमात्मा
ही है। कृष्ण
की अनासक्ति
समग्र समर्पण
है, "मैं' का न हो जाना
है। "मैं' है
ही नहीं, यह
जानना है।
इसके जान लेने
के बाद जो हो
रहा है, वह
हो रहा है।
इसमें कोई
उपाय ही नहीं
है। इसमें हम
कुछ कर सकते
हैं, ऐसा
है ही नहीं।
इसमें हमारे
द्वारा कुछ हो
सकता है, इसकी
कोई संभावना
ही नहीं है।
कृष्ण अपने को
एक लहर की तरह
सागर में
देखते हैं।
कोई चुनाव नहीं
करना है, इसलिए
कोई आसक्ति
नहीं है।
अनासक्ति की
यह स्थिति अगर
ठीक से हम
समझें तो
स्थिति नहीं
है, "स्टेट
आफ माइंड' नहीं
है, यह समस्त
"स्टेट आफ
माइंड' को
छोड़ देना है, समस्त
स्थितियों को
छोड़ देना है
और अस्तित्व के
साथ एक हो
जाना है।
इस
एकता में
कृष्ण वहीं
पहुंच जाते
हैं जहां अपनी-अपनी
संकरी गलियों
से महावीर
पहुंचते हैं, जीसस
पहुंचते हैं,
बुद्ध
पहुंचते हैं।
लेकिन उनके
चुनाव पगडंडियों
के हैं। कृष्ण
का चुनाव
राजपथ का है।
पगडंडियों वाले
भी पहुंच जाते
हैं, राजपथ
वाला भी पहुंच
जाता है।
पगडंडियों की
सुविधाएं भी
हैं, असुविधाएं भी हैं।
राजपथ की
सुविधाएं हैं,
असुविधाएं भी हैं।
व्यक्तिगत
चुनाव है। कुछ
लोग हैं जो
पगडंडियों पर
ही चलना पसंद
करेंगे। उन्हें
चलने का मजा
ही तब आएगा जब
पगडंडी होगी, जब
वे अकेले
होंगे, जब
न कोई आगे
होगा न पीछे
होगा, जब
भीड़ के धक्के
न होंगे और जब
प्रतिपल
उन्हें
रास्ता खोजना
पड़ेगा घने
जंगल में, तभी
उनकी चेतना को
चुनौती होगी।
वे पगडंडियों
को खोजकर ही
पहुंचेंगे।
कुछ लोग हैं, जो पगडंडियों
पर चलना
बिलकुल
आनंदपूर्ण न
पाएंगे।
अकेला होना
उन्हें भारी
पड़ जाएगा।
सबके साथ होना
ही उनका होना
है, सबके
साथ ही उनका
आनंद है। आनंद
उनके लिए सहजीवन,
सहयोग, साथ
में है, संग
में है। वे
राजपथ पर
चलेंगे।
निश्चित ही पगडंडियों
पर चलने वाले
उदासी से चल
सकते हैं।
राजपथ पर जहां
लाखों लोग
चलेंगे, वहां
नाचते हुए ही
चला जा सकता
है, वहां
गीत गाते हुए
ही चला जा
सकता है।
पगडंडियों पर
चलने वाले
शांति से चल
सकते हैं।
राजपथ पर चलने
वालों पर अशांतियों
के बादल भी
आते रहेंगे।
उनको उनके लिए
भी राजी होना
पड़ेगा, यही
उनकी शांति
होगी।
पगडंडियों पर
चलने वाले
अपनी निपट
निजता के आनंद
में तल्लीन हो
सकते हैं, राजपथ
पर चलनेवालों
को दूसरों के
सुख-दुख में
भागीदार भी
होना पड़ेगा।
यह सब भेद
होंगे। लेकिन
कृष्ण, जैसा
मैंने कहा, "मल्टी-डायमेंशनल'
हैं, उनका
चुनाव राजपथ
का है।
और ठीक
से अगर हम
समझें, तो
परमात्मा तक
पहुंचने का
कोई एक मार्ग
नहीं है। जो
जहां है, वहीं
से एक हर एक के
लिए मार्ग बन
सकता है कि वह परमात्मा
तक पहुंच जाए।
परमात्मा तक
पहुंचने के
लिए कोई बना
हुआ मार्ग
नहीं है। सब
अपने तरफ से, अपने ढंग से
पहुंच सकते
हैं। पहुंचने
पर यात्रा एक
ही मंजिल पर
पूरी हो जाती
है। उनकी भी
जो वीतरागता
से जाते हैं, उनकी भी जो
तटस्थता से
जाते हैं, उनकी
भी जो उपेक्षा
से जाते हैं, उनकी भी जो
आनंद से जाते
हैं।
मंजिल
एक है, रास्ते
अनेक हैं। और
प्रत्येक
व्यक्ति को उसके
क्या अनुकूल
है, उसे
चुन लेना
चाहिए। उसे इसकी
बहुत चिंता
में नहीं पड़ना
चाहिए कि कौन
गलत है, कौन
सही है? उसे
इसकी फिक्र
में पड़ जाना
चाहिए कि मेरे
अनुकूल, मेरे
स्वभाव के
अनुकूल क्या
है?
"भगवान
श्री, अभी
आपने कृष्ण के
अचुनाव
के संबंध में
कहा। परंतु
गीता में
उल्लेख है कि
उत्तरायण का
सूर्य हो तब
जिसका अंत हो
तो मोक्ष होता
है। यदि दक्षिणायण
का सूर्य हो
तो क्या कोई
तकलीफ पड़ती है? और
स्थितप्रज्ञ
और भक्त के
विषय में गीता
में जो बात
कही है, इन
दोनों में
क्या समानता
या भिन्नता है?
स्थितप्रज्ञ
मनुष्य सुख
में
अनुद्विग्न
रहेगा और दुख
में भी
अनुद्विग्न
रहेगा, तो
ऐसी मुसीबत
खड़ी होने की
शक्यता नहीं
कि सुख-दुख
दोनों में
उसकी
संवेदनशीलता,
"सेंसिटिविटी'
"ब्लंट'
हो जाए? अगर
सुख को सुख की
भांति और कष्ट
को कष्ट की भांति
न ले, तो
उसकी संवेदना
को "हयूमन'
कैसे
कहेंगे हम?'
यह
सूत्र बहुत
बहुमूल्य है।
कृष्ण का यह
कहना कि सुख
और दुख में
अनुद्विग्न
रहे,
वही
स्थितप्रज्ञ
है। यह प्रश्न
बहुत अच्छा है,
अर्थपूर्ण
है कि यदि सुख
में कोई सुखी
न हो और दुख
में कोई दुखी
न हो, तो
क्या उसकी
संवेदनशीलता,
उसकी
"सेंसिटिविटी'
मर नहीं
जाएगी?
दो
उपाय हैं सुख
और दुख में
अनुद्विग्न
होने के। एक
उपाय यही है
जो प्रश्न में
उठाया गया है।
एक उपाय यही
है कि अगर
संवेदनशीलता
मार डाली जाए, तो
सुख सुख जैसा
मालूम न होगा,
दुख दुख
जैसा मालूम न
होगा। जैसे कि
जीभ जला दी
जाए तो न
प्रीतिकर
स्वाद का पता
चलेगा, न
अप्रीतिकर
स्वाद का पता
चलेगा। जैसे
आंखें फोड़
डाली जाएं तो
न अंधेरे का
पता चलेगा, न उजाले का
पता चलेगा।
जैसे कि कान
नष्ट कर दिए
जाएं, तो न
संगीत का पता
चलेगा, न विसंगीत
का पता चलेगा।
सीधा रास्ता
यही मालूम
पड़ता है कि संवेदशीलता
नष्ट कर दी
जाए, "सेंसिटिविटी'
मार डाली
जाए, तो
व्यक्ति
दुख-सुख में
अनुद्विग्न
हो जाएगा। और
साधारणतः
कृष्ण को न
समझने वाले
लोगों ने ऐसा
ही समझा है।
और ऐसा ही
करने की कोशिश
की है। जिसको
हम संन्यासी
कहते हैं, त्यागी
कहते हैं, विरक्त
कहते हैं, वह
यही करता रहा
है, वह
संवेदनशीलता
को मारता रहा
है।
संवेदनशीलता
मर जाए, तो
स्वभावतः
सुख-दुख का
पता नहीं
चलता।
लेकिन, कृष्ण
का सूत्र बहुत
और है। कृष्ण
कहते हैं, सुख-दुख
में
अनुद्विग्न।
वह यह नहीं
कहते हैं कि
सुख-दुख में
असंवेदनशील, वह कहते हैं
सुख-दुख में
अनुद्विग्न।
सुख-दुख के
पार, उनके
विगत, उनके
आगे, उनके
ऊपर। साफ है
यह बात कि
सुख-दुख अगर
पता ही न चलें,
तो सुख-दुख
में
अनुद्विग्नता
का क्या अर्थ
होगा? कोई
अर्थ नहीं
होगा। मरा हुआ
आदमी सुख-दुख
के बाहर होता
है, अनुद्विग्न
नहीं होता।
नहीं, इसलिए
मैं दूसरा ही
अर्थ करता
हूं।
एक और
मार्ग है जो
कृष्ण का
मार्ग है। अगर
कोई व्यक्ति
सुख को पूरा
अनुभव
करे--पूरा--इतना
पूरा अनुभव
करे कि बाहर
रह ही न जाए, सुख
में पूरा हो
जाए, सुख
के प्रति पूरा
संवेदनशील हो,
तो
अनुद्विग्न
हो जाएगा; क्योंकि
उद्विग्न
होने को बाहर
कोई बचेगा नहीं।
अगर कोई
व्यक्ति दुख
में डूब जाए,
"टोटल' दुख
में डूब जाए, तो दुख के
बाहर दुखी
होने को कौन
बचेगा? कृष्ण
जो कह रहे हैं
वह
संवेदनशीलता
का अंत नहीं है,
संवेदनशीलता
की पूर्णता की
बात है। अगर
हम पूरे
संवेदनशील हो
जाएं--समझें
कि मुझ पर दुख
आया। यह मुझे
पता चलता है
कि दुख आया, क्योंकि दुख
से अलग खड़ा
होकर मैं
सोचता हूं। मैं
ऐसा कहता हूं
कि मुझ पर दुख
आया, मैं
ऐसा नहीं कहता
हूं कि मैं
दुखी हो गया
हूं। और जब हम
यह भी कहते
हैं कि मैं
दुखी हो गया
हूं, तब भी
फासला बनाए
रखते हैं। हम
ऐसा नहीं कहते
कि मैं दुखी
हूं।
इसे
थोड़ा समझना
उपयोगी होगा।
हम
जिंदगी में सब
चीजों को तोड़कर
रख देते हैं, जब
कि वे सत्य
नहीं हैं। जब
मैं किसी से
कहता हूं कि
मुझे तुमसे
प्रेम है, तब
भाषागत ठीक
बात कही जाने
पर भी
अस्तित्वगत रूप
से गलत है। जब
मुझे किसी से
प्रेम होता है
तो ऐसा नहीं
होता है कि
मुझे किसी से
प्रेम है, बल्कि
ऐसा होता है
कि मैं किसी
के प्रति
प्रेम हूं।
मैं पूरा ही
प्रेम होता
हूं। मेरे पार
कुछ बच ही
नहीं रहता जो
कि प्रेम न
हो। और अगर मेरे
पार इतना भी
कोई बच रहता
है जो कहने को
भी हो कि मुझे
उससे प्रेम हो
गया है, तो
मैं पूरा
प्रेम में
नहीं चला गया
हूं। और जो
पूरा प्रेम
में नहीं चला
गया है, वह
प्रेम में गया
ही नहीं है, वह जा ही
नहीं सकता। जब
हम पर सुख आते
हैं, दुख
आते हैं, तब
हम पूरे उनमें
नहीं हो जाते
हैं। अगर हम
पूरे हो जाएं
और उसके बाहर
हमारे भीतर
कुछ भी न बचे, तो कौन
कहेगा, कौन
उद्विग्न
होगा, कौन
पीड़ित होगा? मैं दुख ही
हो जाऊं। तो
संवेदनशीलता
तो पूर्ण होगी,
अपनी पूरी
त्वरा में, अपनी पूरी चरमता में
होगी।
क्योंकि मेरी
पुलक-पुलक दुख
से भर जाएगी, मेरा
रोआं-रोआं दुख
से भर जाएगा; मेरी आंख, मेरी श्वास,
मेरा
अस्तित्व दुख
हो जाएगा।
लेकिन तब
उद्विग्न
होने को कोई
नहीं बचेगा।
मैं दुखी हूं,
उद्विग्न
कौन होगा?
ऐसे ही
जब सुख आए तो
मैं पूरा सुख
हो जाऊं, तो
उद्विग्न कौन
होगा? मैं
सुखी हो जाऊंगा।
और अगर सुख और
दुख में मैं
इस तरह पूरा
होता चला जाऊं,
तो कभी भी
सुख और दुख की
"कंपेरीज़न',
तुलना करने
का मौका कैसे
आएगा, कौन तौलेगा? कि जब मैं
दुखी था तो
बहुत बुरा था,
अब जब मैं
सुखी हूं तो
बहुत अच्छा
हूं। और अब आगे
भी सुख ही
होना चाहिए, दुख नहीं
होना चाहिए।
प्रतिपल
हमारे पूरे अस्तित्व
को घेर ले, तो
संवेदनशीलता
समग्र होती है,
पूर्ण होती
है, लेकिन
उद्विग्नता
खो जाती है।
उद्विग्नता का
कोई कारण नहीं
हो जाता। कोई
कारण नहीं रह
जाता।
एक
मित्र मेरे
पास आए, अभी
दो दिन पहले, और उन्होंने
कहा कि मैं
सिगरेट पीता
हूं और इससे बड़ा
परेशान हूं।
मैंने कहा कि
मालूम होता है
तुमने अपने को
दो हिस्सों
में तोड़ा
होगा--एक सिगरेट
पीने वाला, एक परेशान
होने वाला।
नहीं तो यह
कैसे संभव है?
या सिगरेट पिओ, या
परेशान होओ।
ये दो बातें
एकसाथ तभी
संभव हैं, जब
तुमने अपने को
दो हिस्सों
में तोड़ लिया,
तुमने अपने
दो "सेल्फ' बनाए,
दो आत्माएं
कर लीं--एक
सिगरेट पिए
चली जाती है और
एक जो
पश्चाताप किए
चली जाती है।
अब वह जो पश्चाताप
करती है वह
पश्चाताप
करती रहेगी
जिंदगी भर, और जो
सिगरेट पीती
है वह जिंदगी
भर सिगरेट पीती
रहेगी। जो
पश्चाताप
करती है वह
कभी-कभी
नियम-व्रत भी
लेगी और जो
पश्चाताप
नहीं करती है,
सिगरेट
पीती है, वह
नियम-व्रत तोड़ेगी।
मैंने उनसे
कहा, या तो
तुम सिगरेट ही
पिओ, या
पश्चाताप ही
करो। दो-दो
काम एक-साथ
करोगे तो कष्ट
पैदा होता है।
सिगरेट पिओ
तो सिगरेट
पीने वाले हो
जाओ। फिर पीछे
बचाओ मत अपने
को। वह जो दूर
खड़ा होकर कहे
कि बुरा कर
रहे हो, भला
कर रहे हो, उसे
पार मत बचाओ।
और मैंने उनसे
कहा, अगर
किसी दिन
सिगरेट पिओ
और पूरे हो
जाओ, तो
पूरा आदमी
सिगरेट छोड़ भी
सकता है।
क्योंकि तब वह
पूरी तरह कर
सकता है, छोड़ना
भी। जब पीना
पूरा कर सकता
है, तो
छोड़ना भी पूरा
कर सकता है।
और तब इस तरह
की दुविधा में
नहीं जीता है।
या तो वह पूरी
तरह पीता है, तब भी
आनंदित होता
है। या पूरी
तरह छोड़ देता
है और तब भी
आनंदित होता
है।
यह जो
अधूरा-अधूरा
बंटा हुआ आदमी
है यह पीते वक्त
कष्ट पाता
है--पश्चाताप
वाले हिस्से
से कि बुरा कर
रहे हो। नहीं
पीते वक्त
कष्ट पाता
है--पीने वाले
हिस्से से कि मौका
चूक रहे हो।
इसके कष्ट का
कोई अंत नहीं, यह
कष्ट झेले ही
चला जाता है।
यह हर हालत
में उद्विग्न
होगा।
उद्विग्नता
इसका भाग्य बन
जाएगी, नियति
बन जाएगी। यह
अनुद्विग्न
हो ही नहीं
सकता।
अनुद्विग्न
वही हो सकता
है जो "टोटल' है, जो
पूरा है।
क्योंकि तब
उद्विग्न
होने को कोई बचता
नहीं। जो पूरा
है, जो
समग्र है किसी
स्थिति में, जो भी
स्थिति आती है
उसके साथ
समग्र रूप से
एक होता है, कुछ बचता
नहीं पीछे, ऐसा व्यक्ति
साक्षी के पर
जा चुका।
साक्षी सिर्फ
साधन है, सिद्धि
नहीं है।
कृष्ण साक्षी
नहीं हैं, अर्जुन
को कह रहे हैं
कि तू साक्षी
हो जा। कृष्ण
सिद्ध हैं।
सिद्ध का मतलब
यह है कि अब
इतना भी फासला
नहीं तोड़ा
जाता कि कौन
देख रहा है और कौन
देखनेवाला
है। अब तो
सिर्फ देखने
की क्रिया रह
गई है, जिसके
दो छोर हैं।
एक छोर पर लोग
कहते हैं
दिखाई पड़नेवाला
है, एक छोर
पर लोग कहते
हैं देखने
वाला है। अब
देखना पूरा हो
गया, वह
इकट्ठा है।
साक्षी
जगत को दो में तोड़ता है--"आब्जेक्ट' और
"सब्जेक्ट'
में; देखने
वाले में, दिखाई
पड़ने वाले
में। साक्षी
कभी भी अद्वैत
नहीं है।
साक्षी द्वैत
की अंतिम
सीमारेखा है।
वह जगह है
जहां तख्ती
लगी है कि अब
अद्वैत शुरू
होता है।
लेकिन साक्षी
हुए बिना कोई
अद्वैत में मुश्किल
से जा पाता
है। साक्षी
होने का मतलब
है, हमने
बहुत में
तोड़ना बंद
किया, दो
में तोड़ना
शुरू किया।
अनेक में
तोड़ना बंद किया,
द्वैत में
तोड़ा। दो में
तोड़ने के बाद
बहुत कठिन
नहीं है, क्योंकि
जो आदमी
साक्षी होगा
उसे साक्षी
होने में भी
कभी-कभी वे
क्षण बीच-बीच
में आएंगे जब वह
पाएगा कि न
साक्षी रह गया
था, न
जिसका साक्षी
था वह रह गया
था, सिर्फ
साक्षी होना
रह गया था। ये
जो क्षण उसे दिखाई
पड़ने शुरू
होंगे--जैसे
कि मैं किसी
को प्रेम करता
हूं; तो
प्रेम करने
वाला है, प्रेम
किया जा रहा
है, वह है; लेकिन प्रेम
में ऐसे क्षण
आते हैं जब
करने वाला भी
नहीं बचता, जिसे किया
जा रहा है वह
भी नहीं बचता,
सिर्फ
प्रेम की एक
लहर बचती है
जो दोनों को
छूती है। एक
लहर रह जाती
है जिसके एक
छोर पर करने
वाला होता है,
एक छोर पर
किया जाने
वाला होता है।
एक प्रेम की
लहर रह जाती
है। और प्रेम
के जो गहरे
क्षण हैं, उसमें
प्रेमी और
प्रेमिका, प्रेमी
और
प्रेमपात्र
नहीं बचते, प्रेम ही
बचता है। वे
अद्वैत के
क्षण हैं। साक्षी
में भी ऐसे
क्षण आते हैं
जब अद्वैत के
क्षण होते हैं।
"सब्जेक्ट'--"आब्जेक्ट'
मिट जाते
हैं, सिर्फ
"कांशसनेस' रह जाती है, जिसके दो
छोर रह जाते
हैं--एक दूर
वाला छोर, एक
पास वाला छोर।
पास वाला छोर,
जिसे हम
"मैं' कहते
रहे हैं, दूर
वाला छोर, जिसे
हम "तू' कहते
रहे हैं। लेकिन
अब ये एक ही
लहर के दो छोर
हो जाते हैं।
जिस दिन
स्थिति
पूर्णता को
उपलब्ध हो
जाती है और
कभी नहीं खोती,
उस दिन
साक्षी मिट
जाता है। उस
दिन सिद्ध रह
जाता है।
कृष्ण
साक्षी नहीं
हैं। हां, कृष्ण
अर्जुन से
साक्षी होने
की बात कह रहे
हैं। लेकिन
कृष्ण पूरे
समय साक्षी
होने की बात
भी कह रहे हैं
और उस क्षण की
भी चर्चा चलाए
जा रहे हैं
जबकि साक्षी
भी मिट जाएगा।
वे साधन की भी
बात कर रहे
हैं, वे
साध्य की भी
बात कर रहे
हैं। वे
रास्ते की भी
बात कर रहे
हैं, वे
मंजिल की भी
बात कर रहे
हैं। जब वे कह
रहे हैं कि
सुख-दुख में
अनुद्विग्न, तब वे
साक्षी की बात
नहीं कर रहे
हैं। हालांकि
गीता समझने
वाले बहुत
लोगों ने ऐसा
ही समझा कि वे
साक्षी की बात
कर रहे हैं।
यही समझा है
कि सुख के तुम
साक्षी हो जाओ,
देखते रहो,
भागो मत, तो
अनुद्विग्न
हो जाओगे। दुख
को देखते रहो,
भागो मत, तो
अनुद्विग्न
हो जाओगे।
लेकिन अगर दुख
और सुख को कोई
देखे ही, तो
देखना भी एक
तनाव और
उद्विग्नता
होगी। और पूरे
वक्त "डिफेंस'
की हालत
होगी। और पूरे
वक्त अपने को
बचाता रहेगा
आदमी। और अगर
यह पता ही न
चलता हो कि
कौन सुख है, कौन दुख है, क्योंकि
अनुद्विग्न
होने में पता
नहीं चलना चाहिए
फिर। अगर पता
चलता है कि यह
सुख रहा, यह
दुख रहा, तो
उद्विग्नता
हो रही है
किसी तरह की, और दोनों
में भेद हो
रहा है। अगर
यह पता चल रहा है
साक्षी को कि
यह सुख है और
यह दुख है, तो
उद्विग्नता
है; लेकिन
सूक्ष्म है, दिखाई नहीं
पड़ रही है।
उद्विग्नता
जारी है। सुख
और दुख का
फर्क जारी है।
और जब तक फर्क
है, तब तक
उद्विग्नता
है।
मैं जो
कह रहा हूं, बहुत
और बात कह रहा
हूं। मैं यह
कह रहा हूं कि
"टोटल इनवॉल्वमेंट',
साक्षी की
तरह दूर खड़े
होना नहीं, अभिनेता की
तरह पूरी तरह
कूद जाना।
पूरी तरह कूद
जाना! एक ही हो
जाना! नदी आपको
डुबाती है, क्योंकि आप
अलग हैं। आप
नदी ही हो गए, ऐसी बात कह
रहा हूं। अब
कैसे डुबायेगी!
किसको डुबायेगी,
कौन डूबेगा,
कौन
चिल्लायेगा--बचाओ?
जो स्थिति
है जिस पल में,
उस पल में
पूरी तरह एक
हो जाना। और
जब वह पल बीत गया,
दूसरा पल
आएगा, आपको
पल के साथ
पूरे एक होने
की कला आ गई, तो आप पल के
साथ एक होते
चले जाएंगे।
और तब बड़े मजे
की बात है, दुख
भी आएगा और
आपको निखार
जाएगा। सुख भी
आएगा और आपको
निखार जाएगा।
दुख भी आपको
कुछ दे जाएगा
और सुख भी
आपको कुछ दे
जाएगा। तब दुख
भी मित्र
मालूम होगा और
सुख भी मित्र
मालूम होगा।
तब अंत के, जीवन
के अंतिम क्षण
में विदा होते
वक्त आप अपने
सुखों को भी
धन्यवाद दे
सकेंगे, अपने
दुखों को भी
धन्यवाद दे
सकेंगे, क्योंकि
दोनों ने
मिलकर आपको
बनाया। यह दिन
ही नहीं है जो
आपको बनाता है,
इसमें रात
भी सम्मिलित
है। यह उजाला
ही नहीं है जो
आपकी जिंदगी
में, अंधेरा
भी आपकी
जिंदगी है। और
यह जन्म ही
नहीं है जो
खुशी का अवसर
है, मृत्यु
भी उत्सव का
क्षण है।
लेकिन, यह
तभी होगा जब
हम प्रतिपल को
पूरा जी लें।
तब हम यह न कह
पाएंगे कि दुख
विपरीत था और
सुख साथी था, दुख शत्रु
था। नहीं, तब
हम ऐसा ही कह
पाएंगे कि दुख
दायां हाथ था,
सुख बायां
हाथ था। दोनों
के साथ हम चल
पाए। दुख
बायां पैर था,
सुख दायां
पैर था, दोनों
हमारे पैर थे।
लेकिन जो पूरा
हुआ है। अब यह
बड़े मजे की
बात है, जब
आप अपना बायां
पैर उठाते हैं
तब आप आधे नहीं
उठाते, आप
पूरे ही अपने
बाएं पैर के
साथ होते हैं।
जब आप दायां
पैर उठाते हैं,
तब पूरे ही
आप अपने दाएं
पैर के साथ
होते हैं। जब
आप चुप होते
हैं तब भी
आपको अपनी
चुप्पी में
पूरा होना
चाहिए, जब
आप बोलते हैं
तब अपने बोलने
में पूरा हो
जाना चाहिए।
विकल्प
जब हम चुनते
हैं तभी
उद्विग्नता
शुरू होती है।
और जब तक
चुनने वाला
अलग खड़ा है, तब
तक चुनाव जारी
रहता है।
इसलिए साक्षी
बहुत ऊंची
अवस्था नहीं
है, मध्य
अवस्था है।
कर्ता के बजाय
अच्छी है, इसी
अर्थ में कि
कर्ता सीधा
छलांग नहीं
लगा सकता
अद्वैत में।
साक्षी "जंपिंग
बोर्ड' के
करीब पहुंच
जाता है, जहां
से छलांग हो
सकती है।
लेकिन साक्षी
भी तट पर खड़ा
है और कर्ता
भी तट पर खड़ा
है। कर्ता जरा
तट से दूर खड़ा
है, जहां
से सीधी छलांग
नहीं हो सकती।
साक्षी तट के
बिलकुल
किनारे खड़ा है,
जहां से
छलांग हो सकती
है। लेकिन
दोनों ने जब तक
छलांग नहीं ली,
तब तक दोनों
एक ही भूमि के
टुकड़े पर खड़े
हैं। छलांग के
बाद अद्वैत बच
रहता है।
तो
यहां जो
अनुद्विग्नता
की बात कृष्ण
कहते हैं, वह
अद्वैत की बात
है। उद्विग्न
होने वाला ही
न बचे, वह
पूरा ही डूब
जाए। इसलिए
मैं मानता हूं
कि कृष्ण की
यह जो दृष्टि
है, यह
"एंटी
सेंसिटिविटी'
की नहीं है,
यह
संवेदनशीलता
के विपरीत
नहीं है, बल्कि
पूर्ण
संवेदनशीलता
की उपलब्धि की
है।
असल
में दक्षिणायण
और उत्तरायण
की जो बात
कृष्ण ने गीता
में कही है, वह
हमारे सूर्य
और हमारे दक्षिणायण
और उत्तरायण
की नहीं है।
इस पृथ्वी पर
जो सूर्य
उत्तर और दक्षिणायण
होता रहता है,
उसकी कोई
बात नहीं है।
कि दक्षिणायण
के सूर्य के
समय मुक्ति हो
जाएगी, मोक्ष
हो जाएगा।
उत्तरायण के
सूर्य के समय
मुक्ति नहीं
होगी, मोक्ष
नहीं होगा। यह
हमारे सूर्य,
हमारी
पृथ्वी की बात
नहीं है। यह
बहुत "सिंबॉलिक'
है।
यह
हमारे भीतर
चित्त के
प्रकाश-सूर्य
की बात है। और
जैसे हमने इस
पृथ्वी को दो
हिस्सों में
बांटा हुआ है, ऐसा
ठीक हमने
मनुष्य के
व्यक्तित्व
को दो हिस्सों
में बांटा हुआ
है। उस मनुष्य
के व्यक्तित्व
के भीतर सूर्य
की, प्रकाश
की, या
सत्य की--जो भी
हम नाम देना
पसंद करें--एक
गति है। और
मनुष्य के
भीतर चक्रों
की एक
व्यवस्था है।
अगर उस
व्यवस्था में
एक विशेष जगह
तक प्रकाश का
अनुभव शुरू
नहीं हुआ है, तो व्यक्ति
मुक्त नहीं
होता है। एक
विशेष जगह तक
भीतरी
अंतर्जीवन
में सूर्य का
प्रवेश हुआ है,
तो व्यक्ति
मुक्त होता
है। वह लंबी
चर्चा होगी, उसे फिर कभी
उठाना ठीक
होगा, अभी
इतना ही समझ
लेना उचित है
कि बाहर के उत्तरायण
और दक्षिणायण
की बात वह
नहीं है। भीतर
भी हमारे
सूर्य की गति
की व्यवस्था
है। भीतर भी
हमारा एक
अस्तित्व है,
जहां
प्रकाश की
गतियां हैं।
उन प्रकाश की
गतियों की वह
चर्चा है। और
उसमें यह कहा
है कि उत्तरायण
के चक्रों पर
जब प्रकाश
होगा, ऐसी
स्थिति में
जीवन से छूटा
हुआ व्यक्ति
जन्म-मरणरूपी
बंधन से मुक्त
हो जाता है।
वह फिर अपने
को सदा मुक्त
पाता है। ऐसे
ही जैसे हम
कहते हैं कि
सौ डिग्री पर
पानी गर्म
होता है तो
भाप बन जाता है।
सौ डिग्री के
नीचे होता है
तो भाप नहीं
बनता। ऐसी एक
विशेष भीतरी
सूर्य की
व्यवस्था की बात
की है। वह जब
हम चक्रों की
और अंतर्शरीरों
की पूरी बात
समझें तभी
खयाल में आ
सकती है, इसलिए
उसे फिलहाल न
उठाएं, अभी
इतना भर समझ
लेना उचित है।
"भगवान
श्री, स्थितप्रज्ञ
और भक्त में
क्या समानता
है और क्या
भिन्नता है, यह भी
प्रश्न के
पिछले अंश में
था।'
स्थितप्रज्ञ
और भक्त में
क्या भेद या
समानता है? स्थितप्रज्ञ
का अर्थ है, जो अब भक्त
नहीं रहा, भगवान
हो गया। भक्त
का अर्थ है, जो भगवान
होने की
यात्रा पर है।
भक्त रास्ते में
है, स्थितप्रज्ञ
पहुंच गया है।
रास्ता वही है,
पहुंचना
वहीं है।
लेकिन यह
मुकाम पर
पहुंचे हुए
आदमी का नाम
है, स्थितप्रज्ञ।
और भक्त
यात्री का नाम
है जो चल रहा
है।
समानता
होगी ही, क्योंकि
रास्ता और
मंजिल जुड़े
होते
हैं--अन्यथा
रास्ता मंजिल
तक कैसे
पहुंचेगा।
समानता होगी
ही, क्योंकि
मंजिल सिर्फ
रास्ते की पूर्णता
है। जहां
रास्ता पूरा
हो जाता है, वहां मंजिल
आ जाती है।
समानता होगी
ही, क्योंकि
जो रास्ते पर
है वह एक अर्थ
में मंजिल पर
ही है, थोड़ा
फासला है, बस।
"डिस्टेंस' का फासला
है। अंतर जो
है, वह
पहुंचने का और
पहुंचते होने
का है। भक्त
चल रहा है, स्थितप्रज्ञ
बैठ गया, पहुंच
गया। इसलिए
भक्त के लिए
वे सारी
अपेक्षाएं
हैं, जो
स्थितप्रज्ञ
की उपलब्धि
बनेंगी।
क्योंकि तभी
वह वहां तक
पहुंच सकेगा।
भक्त
की आखिरी
मंजिल उसका
भक्त होना मिट
जाने की है।
जब तक वह
भगवान न हो
जाए,
तब तक
तृप्ति नहीं
हो सकती। भक्त
कितना ही चिल्लाए
और रोए
परमात्मा के
मिलन को और
मिलन हो भी
जाए और दोनों
आलिंगनबद्ध
खड़े भी हो
जाएं, तो
भी भक्त का
चिल्लाना बंद
नहीं होगा।
क्योंकि
आलिंगन कितने
ही निकट हो
फिर भी दूर
है। और हम
किसी को कितने
ही छाती से
लगा लें, फिर
भी दोनों के
बीच फासला है।
अंतर तो पूर्ण
तभी मिट सकता
है जब एक ही हो
जाएं। इंच भर
का अंतर भी
उतना ही है
जितना लाख मील
का अंतर है।
अंतर में कोई
फर्क नहीं
पड़ता। इंच के हजारवें
हिस्से का
अंतर भी उतना
ही अंतर है
जितना कि लाख
मील का अंतर
है। तो भक्त
की तृप्ति तब
भी नहीं हो
सकती जब भगवान
की छाती से लगकर
वह बैठ जाए, तब भी नहीं
हो सकती। तब
भी फासला है।
यह
तकलीफ तो
प्रेमी की है।
प्रेमी का
कष्ट यही है
कि वह कितने
ही पास आ जाए, तो
भी दुखी
रहेगा।
प्रेमी को
कितना ही पा
ले तो भी दुखी
रहेगा। अगर यह
बात समझ में आ
जाए तो उसका
दुख असल में
यह है कि जब तक
वह प्रेमी ही
न हो जाए तब तक
दुखी रहेगा, और यह होना
बड़ा मुश्किल
है। प्रेम के
तल पर तो होना
मुश्किल है।
बहुत मुश्किल
है। कैसे यह होगा!
कितने ही पास
आते हैं, इसलिए
प्रेमी जितने
पास जाएंगे
उतना ही कष्ट शुरू
होने लगेगा।
क्योंकि
जितने पास
आएंगे उतना "डिसइलूज़नमेंट'
होगा। दूर
थे तो यह खयाल
था कि पास आने
से सुख मिल
जाएगा। फिर जब
पास ही आ गए, अब कैसे सुख
मिलेगा! अब और
पास आने का
कोई उपाय ही न
रहा। और तब
प्रेमी
एक-दूसरे पर
क्रोधित होना
शुरू हो जाते
हैं। शायद
सोचते हैं कि
दूसरा कुछ
बाधा डाल रहा
है; दूसरा
कोई नुकसान
पहुंचा रहा है,
दूसरा शायद
ठीक से प्रेम
नहीं कर रहा
है; दूसरा
शायद धोखा दे
गया, दूसरा
शायद किसी और
के प्रेम में
पड़ गया है, यह
प्रेमी की
चिंता शुरू हो
जाती है पास
आने पर। असली
कारण यह है कि
प्रेमी तब तक
तृप्त नहीं हो
सकता जब तक कि
वह इतने निकट
न आ जाए कि
दूरी ही न
बचे। यह तो
तभी हो सकता
है जब वह एक हो
जाए।
इसलिए
जो भी प्रेमी
हैं,
वे आज नहीं
कल भक्त बनने
शुरू हो
जाएंगे, क्योंकि
तब फिर शरीरधारी
व्यक्ति के
इतने निकट आना
असंभव है। तब
अशरीरी
परमात्मा के
निकट ही इतना
आया जा सकता
है, जहां
कि कोई फासला
ही न बचे। तो
सब प्रेमी आज
नहीं कल भक्त बनेंगे
और सब
प्रेम-निवेदन
आज नहीं कल
प्रार्थना बन
जाते हैं।
अंततः बनने ही
चाहिए। अन्यथा
दुख देते
रहेंगे। जो
प्रेमी भक्त
नहीं बन पाता,
वह सदा दुखी
रहेगा।
क्योंकि
आकांक्षा
उसकी भक्त की
है और मांग वह
प्रेम से पूरी
करना चाह रहा
है। चाहता कुछ
और है, कर
कुछ और रहा
है। चाहता वह
यह है कि
बिलकुल एक हो
जाऊं, इतना
फासला भी न
रहे कि मैं और
तू का फासला
भी बचे, चाहता
वह यह है।
लेकिन जिससे
वह यह करना
चाह रहा है
उससे यह नहीं
हो सकता है।
उससे मैं और
तू का फासला
बना ही रहेगा।
दो व्यक्ति
कभी इतने निकट
नहीं आ सकते
जहां कि मैं और
तू का फासला
गिर जाए, सिर्फ
दो अव्यक्ति
इतने निकट आ
सकते हैं जहां
मैं और तू का
फासला मिट
जाए।
परमात्मा
अव्यक्ति है।
जिस दिन भक्त
भी अव्यक्ति
हो जाएगा, उस
दिन उपलब्धि
हो जाएगी। जब
तक भक्त बचा
है--परमात्मा
तो है ही नहीं
इस अर्थ में, जिस अर्थ
में भक्त है।
परमात्मा का
तो होना
न-होने जैसा
है। उसकी उपस्थिति
अनुपस्थिति
जैसी है।
यह बड़े
मजे की बात
है। यह थोड़ा
खयाल में लेना
जरूरी है।
अगर हम
निरंतर पूछते
हैं--दुनिया
में सारे भक्तों
ने पूछा है--कि
परमात्मा
प्रगट क्यों
नहीं होता? क्योंकि
अगर परमात्मा
प्रगट हो जाए
तो उससे मिलन
असंभव है।
सिर्फ अप्रगट
से ही पूर्ण
मिलन हो सकता
है। भक्तों ने
निरंतर पूछा
है कि तुम
छिपे क्यों हो?
सामने
क्यों नहीं
आते हो? अगर
वह सामने आ
जाए तो इतना
बड़ा पर्दा गिर
जाएगा कि फिर
मिलन हो ही
नहीं सकता है।
वह छिपा है, इसलिए मिलने
की संभावना
है। वह अदृश्य
है, इसलिए
उसमें डूबा जा
सकता है। वह
दृश्य बन जाए
तो दीवाल बन
जाएगी और मिलन
असंभव है।
एक
बहुत अदभुत
फकीर इकहार्ट
ने कहा है, परमात्मा
को धन्यवाद
दिया है कि
तेरी अनुकंपा
अपार है कि तू
दिखाई नहीं
पड़ता। तेरी
अनुकंपा अपार
है कि तू पकड़
में नहीं आता।
तेरी अनुकंपा
अपार है कि तू खोजे से
कहीं भी नहीं
मिलता, कहीं
भी नहीं पाते
हैं तुझे।
क्यों है तेरी
अनुकंपा अपार?
क्योंकि इस
भांति तू हमें
भी यह निरंतर
सिखाए जाता है
कि जब तक तुम
भी ऐसे न हो
जाओ कि खोजे
से न मिलो, कि
जब तक तुम भी
ऐसे न हो जाओ
कि दिखाई न पड़ो,
जब तक तुम
भी ऐसे न हो
जाओ कि न-होने
जैसे हो जाओ, तब तक मिलन
असंभव है।
भगवान तो अरूप
है, जिस
दिन भक्त भी
अरूप हो जाता
है उस दिन
मिलन हो जाता
है। इसलिए
बाधा सिर्फ
भक्त की तरफ
से है, भगवान
की तरफ से कोई
बाधा नहीं है।
स्थितप्रज्ञ
का अर्थ है, भक्त
जो अरूप हो
गया। अब वह
भगवान को भी
नहीं
चिल्लाता, क्योंकि
कौन चिल्लाए?
अब वह
प्रार्थना भी
नहीं करता, क्योंकि कौन
करे? किसकी
करे? या अब
हम ऐसा कह
सकते हैं कि
वह जो भी करता
है वही
प्रार्थना
है। या अब वह
जो भी
चिल्लाता है या
नहीं
चिल्लाता है,
वही भगवान
के लिए निवेदन
है। अब हम
दोनों तरह से
कह सकते हैं।
स्थितप्रज्ञ
का अर्थ है कि
मनुष्य भी
वैसा हो गया
जैसा
परमात्मा है। भक्त
का अर्थ है कि
उसने यात्रा
तो शुरू की परमात्मा
की तरफ, लेकिन
अभी वह मनुष्य
है। और उसकी
सब आकांक्षाएं,
अपेक्षाएं
मनुष्य की
हैं। मीरा
कितनी चिल्ला
रही है। उसके
गीत बड़े अदभुत
हैं। इस अर्थ
में अदभुत हैं
कि वे बड़े मानवीय
हैं। उसकी
सारी
चिल्लाहट एक
प्रेमी की
चिल्लाहट है।
एक भक्त की।
वह कहती है कि
सेज सजा दी और
तुम आ जाओ। अब
मैं तुम्हारे
लिए द्वार खोल
कर प्रतीक्षा
कर रही हूं।
ये सब मानवीय प्रतीक्षाएं
हैं।
भक्त
का मतलब है, मनुष्य
जो परमात्मा
की तरफ चल पड़ा,
लेकिन अभी
मनुष्य है।
स्थितप्रज्ञ
का अर्थ है, मनुष्य अब
मनुष्य नहीं
रहा, अब वह
किसी की तरफ
नहीं जा रहा
है, अब
जाने का कोई
सवाल नहीं रहा,
अब वह जहां
है वहीं है और
वहीं
परमात्मा तो
सदा था, सिर्फ
हम अरूप हो
जाते, हम
अदृश्य हो जाते,
हम न हो
जाते। जीसस का
वचन है, जो
अपने को बचाएगा,
वह खो देगा।
और जो अपने को
खो देता है, वह पा लेता
है।
स्थितप्रज्ञ
ने अपने को खो
दिया, इसलिए
पा लेता है।
भक्त अभी पाने
चला है, और
खुद है। अनुभव
उसे धीरे-धीरे
मिटाएगा।
कबीर का वचन
है कि
खोजते-खोजते
फिर मैं ही खो
गया। और कोई
उपाय न था।
खोजने निकले
थे किसी को।
आखिर में पाया
कि खोज ने खुद
को ही छीन लिया।
"हेरत हेरत हे
सखी, गया
कबीर हेराय'। खोजने
निकले थे सखी,
लेकिन आखिर
ऐसा हुआ कि वह
तो मिला नहीं,
खुद ही खो
गए। लेकिन जिस
दिन खो गए, उस
दिन खोज पूरी
हो जाती है। उस
दिन वह मिला
ही हुआ है।
लाओत्से
का बहुत अदभुत
वचन है।
लाओत्से कहता है, "सीक
एंड यू विल
नाट फाइंड' खोजो और तुम
न पा सकोगे।
"डू नाट सीक
एंड फाइंड'।
मत खोजो और
पाओ। "बिकाज़
ही इज़
हियर एंड नाव'। वह अभी और
यहीं है। खोज
की वजह से तुम
दूर निकल जाते
हो। क्योंकि कोई
भी यहीं और
अभी नहीं
खोजेगा। खोज
का मतलब ही
कहीं और है।
तो खोजने कोई
मक्का जाएगा,
कोई मदीना
जाएगा, कोई
काशी जाएगा, कोई
मानसरोवर
जाएगा, कैलास
जाएगा। खोजने
कहीं जाएगा, ...हां-हां, कोई
मनाली
जाएगा।...और वह
वहीं है, यहीं
है, अभी
है। इसलिए
खोजने वाला
उसे जब तक
खोजता है तब
तक खोता चला
जाता है। जिस
दिन खोजने
वाला खोज-खोज
कर थक जाता है
और मिट जाता
है और गिर
जाता है, तब
वह मनाली में
गिरे, कि
मक्का में, कि मदीना
में, काशी
में, कि
कैलाश पर, वह
कहीं भी गिर
जाए, कहीं
भी, वह
जहां भी गिर
जाए वहीं पाता
है कि वह
मौजूद है। वह
सदा मौजूद है,
हमारी
मौजूदगी बाधा
है। हम
गैर-मौजूद हो
जाएं।
भक्त
अभी मौजूद है, स्थितप्रज्ञ
गैर-मौजूद हो
गया। भक्त की
अभी "प्रेजेंस'
है, स्थितप्रज्ञ
की कोई
"प्रेजेंस' नहीं है। वह
"एब्सेंट'
हो गया। वह
अब है नहीं।
यह भी समझ
लेना जरूरी है
कि जब तक भक्त
"प्रेजेंट'
है तब तक
ईश्वर "एब्सेंट'
रहेगा। जब
तक भक्त मौजूद
है, तब तक
ईश्वर
गैर-मौजूद है।
और इसलिए भक्त
ईश्वर को "प्रॉक्सी'
की तरकीब से
मौजूद करता
रहता है। कभी
मूर्ति बनाकर
रख लेता है, कभी मंदिर
बना लेता है, यह "प्रॉक्सी'
है। इससे
कोई हल नहीं
है। यह भक्त
का ही बनाया
हुआ खेल है।
यह भी थोड़े
दिन में ऊब
जाएगा। अपने
ही बनाए हुए
भगवान से बहुत
तृप्ति नहीं
मिल सकती।
कैसे मिलेगी,
कब तक
मिलेगी? "प्रॉक्सी'
पकड़ में आ
ही जाएगी। तब
वह फेंक देगा
मूर्तियों-वूर्तियों
को। वह कहेगा
मैं उसी को
चाहता हूं, जो है।
लेकिन वह तभी
मिलता है जब
मैं नहीं हूं,
एक ही शर्त
है उसकी। मेरा
होना ही दीवाल
है, मेरा
न-होना द्वार
बन जाता है।
बस भक्त और
स्थितप्रज्ञ
में उतना ही
फर्क है।
स्थितप्रज्ञ
द्वार है, भक्त
अभी दीवाल है।
दीवाल हम भी
हैं, लेकिन
भक्त ऐसी
दीवाल है
जिसके भीतर
चीख-पुकार
शुरू हो गई, भक्त ऐसी
दीवाल है
जिसने दरवाजे
होने की तरफ
श्रम शुरू कर
दिया। हम ऐसी
दीवाल हैं जो
आराम से विश्राम
कर रहे हैं।
जिनकी कोई
यात्रा शुरू
नहीं हुई है।
"सेक्स'
के संबंध
में
श्रीकृष्ण के
विद्रोही और
क्रांतिकारी
अनुदान पर
सविस्तार
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
दो
पूरक प्रश्न
भी हैं।'
* बोलो-बोलो,
पहले बोलो।
"श्रीकृष्ण
के प्रति
स्त्रियों के
अति आकर्षित
होने में क्या
कारण थे? हजारों-लाखों
गोपियां
उनके पीछे
दीवानी थीं, और उनके
सहवास से ही
उन्हें
तृप्ति मिलती
थी, ऐसा
क्यों होता था?
यदि प्रेमपूर्णता
से कामशून्यता
आती है, तो कामशून्यता
की उपलब्धि के
बाद कैसे
बच्चे पैदा
होंगे? अर्थात
कामशून्यता
में संभोग
कैसे घटित
होगा? क्या
आत्म-समाधि, ब्रह्म-समाधि
और
निर्वाण-समाधि
के बाद संभोग संभव
है? क्योंकि
संभोग के लिए
प्राणों की
चंचलता आवश्यक
है न?'
* इस
संबंध में
बहुत-सी बात
तो हो गई है, इसलिए कुछ
थोड़ी-सी बातें
और खयाल में
ले लेनी चाहिए।
कृष्ण
के प्रति
आकर्षण लाखों
स्त्रियों का
ठीक ऐसा ही है
जैसे पहाड़ से
पानी भागता है
नीचे की तरफ
और झील में
इकट्ठा हो
जाता है? अगर
हम पूछेंगे तो
उत्तर यही
होगा कि
क्योंकि झील
झील है। गङ्ढा
है, पानी गङ्ढे में
भर जाता है।
गिरता है
पर्वत के शिखर
पर, भरता
है झील में।
पर्वत के शिखर
पानी को नहीं रोक
पाते हैं।
पानी का
स्वभाव है कि
वह गङ्ढे
को खोजे, क्योंकि
वहीं वह निवास
कर सकता है।
अगर हम
इसको ठीक से
समझें तो
स्त्री का
स्वभाव है कि
वह पुरुष को खोजे। वह
पुरुष में ही
निवास कर सकती
है। पुरुष का
स्वभाव है कि
वह स्त्री को खोजे, वह
स्त्री में
निवास कर सकता
है। यह स्वभाव
है। यह
वैसे ही
स्वभाव है
जैसे और जीवन
की सारी चीजों
का स्वभाव है।
जैसे आग का
कुछ स्वभाव है,
जैसे पानी
का कुछ स्वभाव
है, ऐसे ही
पुरुष होने का
स्वभाव है कि
वह स्त्री में
अपने को खोजे।
अगर ठीक से हम
समझें तो
पुरुष का मतलब
है, वह
स्त्री में
अपने को खोजता
है। स्त्री का
मतलब है, वह
जो पुरुष में
अपने को खोजती
है। स्त्रैण
होने का मतलब
ही यही है कि
जो पुरुष के
बिना अधूरी
है। पुरुष
होने का मतलब
यही है, जो
स्त्री के बिन
अधूरा है।
अधूरा होना
स्त्री-पुरुष
का होना है।
इसलिए उनकी
निरंतर खोज
है। और जब यह
खोज पूरी नहीं
हो पाती तो "फ्रस्ट्रेशन'
है। जब यह
खोज पूरी नहीं
हो पाती तो
दुख है, पीड़ा
है, परेशानी
है। जब यह खोज
पूरी नहीं हो
पाती तो स्वभाव
के प्रतिकूल
होने के कारण
कष्ट है, संताप
है, चिंता
है।
कृष्ण
के प्रति इतने
आकर्षण का एक
ही कारण है कि
कृष्ण पूरे
पुरुष हैं।
जितना पूर्ण
पुरुष होगा
उतना आकर्षक
हो जाएगा
स्त्रियों
को। जितनी
स्त्री पूर्ण
होगी उतनी
आकर्षक हो
जाएगी पुरुषों
को। पुरुष की
पूर्णता
कृष्ण में पूरी
तरह प्रगट हो
सकी है।
महावीर कम
पुरुष नहीं
हैं। ठीक
कृष्ण जैसे ही
पूरे पुरुष
हैं। लेकिन
महावीर की
पूरी साधना, अपने
पुरुष होने को
छोड़ देने की
साधना है। महावीर
की पूरी साधना
वह जो
स्त्री-पुरुष
के नियम का
जगत है, उसके
पार हो जाने
की साधना है।
फिर भी इस
सारी साधना के
बावजूद भी
महावीर की भिक्षुणियां
चालीस हजार
हैं और भिक्षु
दस हजार हैं।
फिर भी
स्त्रियां ही
ज्यादा
आकर्षित हुई
हैं। जहां चार
साधु महावीर
के पीछे थे
वहां तीन
स्त्रियां
हैं और एक
पुरुष है। तो
अगर महावीर के
पास भी चालीस
हजार
संन्यासिनियां
इकट्ठी हो जाती
हैं, ऐसे
व्यक्ति के
पास जिसकी
सारी साधना
पुरुष और
स्त्री होने
के "ट्रांसेंडेंस'
की है, पार
जाने की है, जो अपने
पुरुष होने को
इनकार करता है,
किसी के
स्त्री होने
को इनकार करता
है, जो
कहता है कि यह
संसार की
बातें हैं, इनसे पार सब
है। लेकिन वह
भी स्त्रियों
के लिए आकर्षक
है। महावीर को
छू भी नहीं
सकतीं वे
स्त्रियां।
महावीर के
निकट भी नहीं
बैठ सकतीं
आकर। लेकिन फिर
भी स्त्रियां
महावीर के लिए
कम दीवानी
नहीं हैं।
हालांकि इस
बात को हम इस
तरह कभी देखा
नहीं गया। और
जो दस हजार
पुरुष महावीर
के पास आए हैं,
इनकी भी अगर
हम कभी बहुत
खोजबीन करें
तो पता चलेगा
कि इनके चित्त
में कहीं-न-कहीं
स्त्रैणता
है। होगी।
जरूरी नहीं है
कि एक आदमी
शरीर से पुरुष
हो तो मन से भी
पुरुष हो। ऐसा
भी जरूरी नहीं
है कि एक
स्त्री शरीर
से स्त्री हो
तो मन से भी
स्त्री हो। मन
जरूरी रूप से शरीर
के साथ सदा
तालमेल नहीं
रखता। या बहुत
कम तालमेल भी
रखता है। कई
बार ऐसा हो जाता
है कि शरीर
पुरुष का होता
है, लेकिन
चित्त स्त्री
की तरफ झुका
हुआ होता है। तो
जो पुरुष
महावीर के पास
इकट्ठे होते
हैं, अगर न
दस हजार का भी
ठीक कभी कोई
मानसिक-परीक्षण
हो सके, तो
हम पाएंगे कि
इसमें भी
स्त्री-चित्त
की बहुतायत
है। होगी ही।
महावीर
आकर्षक तभी हो
पाते हैं जब
भीतर है।
महावीर का
आकर्षण आधी
बात है। हमारा
चित्त भी तो
उस तरफ बहना
चाहिए।
तो
कृष्ण के साथ
तो और भी
अदभुत स्थिति
है। कृष्ण तो
कुछ छोड़कर
भागे हुए नहीं
हैं। स्त्रियां
उनके पास
सिर्फ साध्वी
होकर खड़ी रह
सकती हैं, ऐसा
नहीं है।
सिर्फ उनको
देख सकती हैं,
ऐसा नहीं
है। कृष्ण के
साथ नाच भी
सकती हैं। तो
अगर कृष्ण के
पास लाखों
स्त्रियां
इकट्ठी हो गईं
हों, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है। सहज
है। बिलकुल
सरलता से है।
बुद्ध
वैसे ही पूर्ण
पुरुष हैं।
इसलिए बहुत मजेदार
घटना घटी है।
बुद्ध ने
स्त्रियों को
दीक्षा देने
से इनकार कर
दिया। बुद्ध
ने इनकार कर
दिया कि स्त्रियों
को दीक्षा
नहीं देंगे।
क्योंकि बुद्ध
के सामने खतरा
बिलकुल साफ
है। वह खतरा
यह है कि
स्त्रियां
दौड़ पड़ेंगी और
भारी भीड़
स्त्रियों की
इकट्ठी हो
जाएगी। और
जरूरी नहीं है
कि ये
स्त्रियां
साधना के लिए
ही आतुर होकर
आई हों, बुद्ध
का आकर्षण
बहुत कीमती हो
सकता है। कोई
कृष्ण के पास
जो गोपियां
पहुंच गईं हैं,
वे कोई
परमात्म-उपलब्धि
के लिए ही
पहुंच गईं, ऐसा नहीं
है। कृष्ण भी
काफी
परमात्मा
हैं। इन कृष्ण
के पास होना
भी बड़ा सुखद
है। तो कृष्ण
को तो इसकी
चिंता नहीं
होती कि कौन किसलिए
आया है, क्योंकि
कृष्ण का कोई
चुनाव नहीं है,
लेकिन
बुद्ध को
चुनाव है। और
बुद्ध सख्ती
से इनकार करते
हैं कि
स्त्रियों को
दीक्षा नहीं देंगे।
और बड़े दिनों
तक यह संघर्ष
चलता है और स्त्रियों
का बड़ा आंदोलन
चलता है। और
स्त्रियां
सख्ती से
बुद्ध की इस
बात की खिलाफत
करती हैं कि
हमारा क्या
कसूर है कि
हमें दीक्षा
नहीं मिलेगी!
और बड़ी मजबूरी
में और बड़े दबाव
में और बड़े
आग्रह में
बुद्ध राजी
होते हैं। अब
यह थोड़ा सोचने
जैसा मामला है,
कि बुद्ध का
इतनी देर तक
यह कहे चले
जाना कि नहीं
दूंगा दीक्षा,
क्योंकि
बुद्ध को
इसमें साफ एक
बात दिखाई पड़ती
है कि जो सौ
स्त्रियां
आती हैं उसमें
निन्यानबे के
आने की
संभावना का
कारण बुद्ध
हैं, बुद्धत्व
नहीं। यह साफ
दिखाई पड़ रहा
है। यह इतना
साफ दिखाई पड़
रहा है कि
बुद्ध "रेज़िस्ट'
करते हैं।
लेकिन
तब कृशा गौतमी
नाम की एक
स्त्री बुद्ध
को कहती है कि
क्या हम
स्त्रियों को
बुद्धत्व
नहीं मिलेगा? फिर
आप कब दुबारा
आएंगे हमारे
लिए? और
अगर हम चूके
तो
जिम्मेदारी
तुम्हारी
होगी। हमारा
कसूर क्या है?
हमारा
स्त्री होना
कसूर है? यह
सौवीं
स्त्री है, निन्यानबे
वाली स्त्री
नहीं है। इस कृशा
गौतमी के लिए
बुद्ध को
झुकना पड़ता
है। यह बुद्ध
के लिए नहीं
आई है, बुद्धत्व
के लिए आई है।
वह कहती है
हमें तुमसे
प्रयोजन नहीं
है, लेकिन
तुम्हारे
होने का लाभ
पुरुष ही उठा
पाएंगे? हम
सिर्फ स्त्री
होने से वंचित
रह जाएंगे? स्त्री होने
का ऐसा दंड
हमें मिल रहा
है! और आप भी
इतने चुनाव
करते हैं? तो
कृशा
गौतमी को
आज्ञा दी जाती
है। फिर द्वार
खुल जाता है।
और फिर वही
होता है जो
महावीर के पास
हुआ। पुरुष कम
पड़ जाते हैं, स्त्रियां
रोज ज्यादा
होती चली जाती
हैं।
आज भी
मंदिरों में
स्त्रियां
ज्यादा हैं, पुरुष
कम हैं। तब तक
पुरुष
मंदिरों में
कम होंगे, जब
तक स्त्री
तीर्थंकर और
स्त्री
अवतारों की मूर्तियां
मंदिर में न
हों। तब तक कम
होंगे। क्योंकि
सौ जाते हैं, उसमें से
निन्यानबे
बहुत सहज
कारणों से
जाते हैं, एक
ही असहज कारण
से जाता है।
कृष्ण
के पास तो
बहुत ही सरल
बात है। कृष्ण
के लिए तो कोई
बाधा ही नहीं
है। कृष्ण तो जीवन
की समग्रता को
अंगीकार कर
लेते हैं। और
कृष्ण अपने
पुरुष होने को
स्वीकार करते
हैं,
किसी के
स्त्री होने
को स्वीकार
करते हैं। सच तो
यह है कि
कृष्ण ने शायद
भूलकर भी
जरा-सा भी अपमान
किसी स्त्री
का नहीं किया।
जीसस के वचनों
में भी
संभावना है, महावीर के
वचनों में भी,
बुद्ध के
वचनों में
भी--स्त्री के
अपमान की संभावना
है। और कारण
सिर्फ इतना ही
है कि वे अपने
पुरुष होने को
मिटाना चाह
रहे हैं, और
कोई कारण नहीं
है। स्त्री से
कोई वास्ता नहीं
है। महावीर, या बुद्ध, या जीसस अपने
"सेक्सुअल
बीइंग' को,
अपने "बायोलाजिकल
बीइंग' को,
अपने जैविक
अस्तित्व को
पोंछ डालना
चाह रहे हैं।
स्वभावतः, स्त्री
उनको न पोंछने
देगी। स्त्री
पास पहुंचेगी
तो उनका पुरुष
होना प्रगट हो
सकता है। उनके
पुरुष होने को
भोजन मिलता
है। लेकिन
जीसस जैसे उदास
आदमी के पास
भी, जीसस
जैसे जिसके
ओंठ पर
बांसुरी नहीं
है, उसके
पास भी
स्त्रियां
इकट्ठी हो
गईं। और जीसस
की सूली पर से
लाश
जिन्होंने
उतारी,
वे पुरुष न
थे, वे
स्त्रियां
थीं। उस युग
की सर्वाधिक
सुंदरी
स्त्री मेरी मेग्दलीन,
उसने उस लाश
को उतारा।
पुरुष तो भाग
गए थे, स्त्रियां
रुकी थीं।
पुरुष तो जा
चुके थे। पर
स्त्रियां
रुकी थीं। और
जीसस ने
स्त्रियों के
लिए सम्मान का
कभी एक वचन
नहीं कहा।
महावीर
कहते हैं कि
स्त्रियां
स्त्री-पर्याय
से मोक्ष न जा
सकेंगी।
उन्हें एक बार
पुरुष का जन्म
लेना होगा, फिर
वे मोक्ष जा
सकती हैं।
बुद्ध तो उनको
दीक्षा ही
देने से इनकार
करते हैं कि हम
दीक्षा ही न
देंगे। और जब
दीक्षा भी दे
दी तब भी
उन्होंने जो
वचन कहे, वह
बहुत ही
हैरानी के
हैं। बुद्ध ने
कहा कि मेरा
जो धर्म
हजारों साल
चलता, अब
वह पांच सौ
साल से ज्यादा
नहीं चल पाएगा;
क्योंकि
स्त्रियां
दीक्षित हो
गईं हैं।
"इस
कथन में
सच्चाई तो थी!'
* सवाल
यह नहीं है।
सवाल यह नहीं
है! बुद्ध
की तरफ से कथन
में सच्चाई
थी। बुद्ध की तरफ
से कथन में
सच्चाई थी, क्योंकि
बुद्ध का जो
मार्ग है, उस
मार्ग में, या महावीर
का जो मार्ग
है उस मार्ग
में स्त्री के
लिए उपाय नहीं
है बहुत।
लेकिन महावीर
और बुद्ध बड़े
आकर्षक हैं और
स्त्री आ जाती
है। सचाई उनके
मार्ग के
संदर्भ में है,
सचाई "एब्सोलूट'
नहीं है।
स्त्री के लिए
कोई बाधा नहीं
है मोक्ष जाने
से--कोई बाधा
नहीं है।
लेकिन मार्ग
अन्यथा होगा।
महावीर वाले
मार्ग से नहीं
हो सकता। ऐसे
ही जैसे कि दो
रास्ते हों
पहाड़ पर, एक
सीधी चढ़ाई
का गोल रास्ता
हो और वहां एक
तख्ती लगी हो
कि स्त्रियां
यहां से। बस
इतना ही फर्क
है। यह रास्ते
के संदर्भ में
सच है, महावीर
के रास्ते के
संदर्भ में यह
बिलकुल सच है
कि स्त्री जा
नहीं सकती
मोक्ष। अगर
महावीर के
मार्ग से ही
जाने की किसी
स्त्री की जिद्द
हो तो उसे एक
बार पुरुष के
रूप में लौटना
जरूरी है।
क्योंकि सीधी चढ़ाई का
रास्ता है। चढ़ाई के कई
कारण हैं।
बड़ा
कारण तो यह है
कि न कोई
परमात्मा है
महावीर के
रास्ते पर, न
कोई
संगी-साथी। न
ही कोई है
जिसके कंधे पर
हाथ रखा जा
सके। स्त्री
का
व्यक्तित्व
अपने-आप में
ऐसा है कि कोई झूठा
कंधा भी मिल
जाए तो भी ठीक
है। उसको कंधे
पर हाथ चाहिए।
वह किसी के
कंधे पर हाथ
रखकर आश्वस्त
हो जाती है।
यह उसके
व्यक्तित्व
का ढंग है।
इसमें कोई, और कोई कारण
नहीं है।
पुरुष किसी के
कंधे पर हाथ
रखे तो दीन
अनुभव करता है
अपने को।
स्त्री किसी
के कंधे पर
हाथ रखे तो
उसकी गरिमा बढ़
जाती है।
स्त्री जब
किसी के कंधे
पर हाथ रख कर
चलती है तब
उसकी शान अलग
है। जब वह
अकेली चलती है
तब दीन होती
है। और पुरुष
किसी के कंधे
पर हाथ रखकर
चलता है तो
उसकी दीनता
प्रगट होती
है।
"गांधी
जी भी तो दो
स्त्रियों के
कंधे पर हाथ
रखकर चलते थे।'
* इसकी
पीछे बात करनी
पड़ेगी। यह जो
गांधी जी की बात
उठाई है, वह
भी एक क्षण
में ले लेनी
चाहिए। गांधी
जी स्त्रियों
के कंधे पर
हाथ रखकर चले
हैं, शायद
इस भांति के
वे पहले पुरुष
हैं। कोई कभी किसी
स्त्री के
कंधे पर हाथ
रखकर नहीं चला
है।
"बूढ़े
थे, इसलिए?'
* नहीं,
बूढ़े नहीं
थे। बूढ़े नहीं
थे तब भी वे
रखते थे। गांधीजी
का स्त्री के
कंधे पर हाथ
रखकर चलना
किसी विशेष
घोषणा के लिए
है। इस मुल्क
में, जहां
सदा ही स्त्री
ने पुरुष के
कंधे पर हाथ रखा
हो, जहां
सदा ही स्त्री
अद्र्धांगिनी
रही हो--और
नंबर दो की अद्र्धांगिनी,
नंबर एक की
कभी
नहीं--जहां
स्त्री सदा ही
पीछे रही हो, आगे कभी
नहीं; जहां
स्त्री का
होना ही
"सेकेंड्री' हो गया हो, द्वितीय
कोटि का हो
गया हो, वहां
गांधी को लगता
है कि किसी
पुरुष को यह
घोषणा करनी
चाहिए कि
स्त्री के कंधे
भी इतने कमजोर
नहीं, उस
पर भी हाथ रखा
जा सकता है।
यह एक लंबी
परंपरा के
खिलाफ एक
प्रयोग है, और कुछ भी
नहीं, और
कोई कारण नहीं
है। हालांकि,
गांधीजी स्त्रियों
के कंधे पर
हाथ रखे हुए
बहुत सुंदर
नहीं मालूम
पड़ते हैं, और
गांधीजी
के हाथ के
नीचे दबी हुई
स्त्रियां
भारी बोझ से
ग्रसित होती
मालूम होती
हैं। असल में
यह बिलकुल
स्वभाव के
प्रतिकूल
किया जा रहा
है। यह है
नहीं ठीक। यह
है नहीं ठीक।
यह स्त्री और
पुरुष के
"बीइंग' के
संबंध में
गांधी की समझ
बहुत नहीं है।
सिर्फ एक
परंपरा का
विरोध है, वह
बात अलग है।
एक व्यवस्था
का विरोध है, वह बात अलग
है। लेकिन
स्त्री और
पुरुष के व्यक्तित्व
के संबंध में
गांधी की समझ
बहुत गहरी नहीं
है।
इसलिए
गांधी ने
बहुत-सी
स्त्रियों को
करीब-करीब
पुरुष बनाकर
छोड़ दिया। और
स्त्री जाति
को फायदा हुआ
है ऐसा मैं
नहीं कहूंगा।
स्त्री जाति
को गहरा
नुकसान हुआ
है। क्योंकि
स्त्री को
पुरुष नहीं
बनाया जा सकता।
उसके स्त्री
होने का अपना
ढंग है। और
उसके ढंग की
खूबी ही यह
है। और यह बड़े
मजे की बात है कि
न केवल स्त्री
जब किसी के
कंधे पर हाथ
रखती है तो
खुद
गौरवान्वित
होती है, उस
पुरुष को भी
गरिमा से भर
देती है। ऐसा
नहीं है, यह
कुछ सिर्फ
लेना ही नहीं
है, उसमें
देना भी है।
यह सिर्फ कंधे
का सहारा लेकर
ऐसा नहीं है
कि स्त्री को
ही कुछ मिल
जाता है, पुरुष
को भी बहुत
कुछ मिलता है।
ऐसा पुरुष जिसके
कंधे पर किसी
स्त्री ने हाथ
नहीं रखा, वह
भी बहुत दीनता
का अनुभव करता
है।
यह जो
महावीर, बुद्ध,
जीसस, इन
सारे लोगों के
व्यक्ति में,
जैविक
व्यक्तित्व
का निषेध इनकी
साधना का हिस्सा
है। कृष्ण के
जीवन में
समस्त की
स्वीकृति
साधना है।
उसमें जैविक
भी स्वीकार है,
उसमें वह जो
"सेक्सुअल
बीइंग' है
वह भी स्वीकार
है, वह जो
काम-शरीर है, निषेध कुछ
भी नहीं है।
कृष्ण के
हिसाब से तो
जो निषेध करता
है, वह
किसी-न-किसी
अर्थ में
थोड़ा-न बहुत
नास्तिक है।
असल में निषेध
करना ही
नास्तिकता
है। कितनी
मात्रा में
कोई करता
है--कोई कहता
है कि हम शरीर
को स्वीकार
नहीं करते हैं
तो शरीर के
प्रति
नास्तिक हैं।
कोई कहता है
हम यौन को
स्वीकार नहीं
करते, तो
यौन के प्रति
नास्तिक हैं।
कोई कहता है
हम ईश्वर को
स्वीकार नहीं
करते, तो
वह ईश्वर के
प्रति
नास्तिक है।
लेकिन अस्वीकृति
नास्तिकता का
ढंग है।
स्वीकृति
आस्तिकता है।
इसलिए न मैं
महावीर को, न बुद्ध को, न जीसस को
इतना आस्तिक
कह सकता हूं
जितना आस्तिक
मैं कृष्ण को
कहता हूं।
समस्त स्वीकृति।
निषेध है ही
नहीं, निंदा
है ही नहीं।
जो भी है, उसकी
अपनी जगह है
अस्तित्व
में।
इस वजह
से कृष्ण के
पास अगर लाखों
स्त्रियां इकट्ठी
हो सकीं, तो
आकस्मिक नहीं
है। और पास
इकट्ठे होने
का कारण न था।
महावीर के पास
इकट्ठे हों, तो भी एक
"डिस्टेंस', एक "फार्मल
डिस्टेंस' जरूरी
है। महावीर के
पास भी खड़े
हों, तो एक
शिष्टाचार का
जितना फासला
है उतना रखना पड़ेगा।
महावीर के गले
को स्त्री
जाकर मिल जाए तो
एकदम
अशिष्टता हो
जाएगी। न तो
महावीर इसे बर्दाश्त
करेंगे, न
उस स्त्री को
इससे कोई सुख
और शांति
मिलेगी, अपमान
ही मिलेगा।
"महावीर
किसलिए
बर्दाश्त
नहीं करेंगे?'
* महावीर
इसलिए
बर्दाश्त
नहीं करेंगे
कि महावीर उसे
बिलकुल
स्वीकार नहीं
करेंगे, वह
पत्थर की तरह
खड़े रह
जाएंगे। उनका
पूरा अस्तित्व
उसे इनकार
करेगा। वह
कहेंगे नहीं
कि मत छुओ।
मगर ऐसा लगेगा,
कोई
शिलाखंड ही
हाथों में ले
लिया। और
स्त्री का
अपमान इससे
नहीं होता कि
कोई कह दे कि
मत छुओ, अपमान
इससे होता
है--वह किसी को
छुए और दूसरी
तरफ से कोई "रिस्पांस'
न हो, कोई
उत्तर न हो।
यह सवाल नहीं
है। महावीर
ऐसे हैं, इसमें
कोई उपाय नहीं
है। वह कोई स्त्री
का अपमान करने
जा रहे हैं, ऐसा नहीं
है। यह उनका
अपना होने का
ढंग है। इसलिए
स्त्रियां
महावीर के
आसपास, जिसको
हम कहें एक
औपचारिक
फासला सदा
कायम रखती
हैं। उनके पास
नहीं जाया जा
सकता। उनके
अस्तित्व का
एक घेरा है
जिसमें
प्रवेश नहीं
किया जा सकता।
लेकिन
कृष्ण के साथ
स्थिति
बिलकुल और है।
कृष्ण के साथ
अगर कोई
स्त्री कोई
फासला रखना
चाहेगी तो
मुश्किल में
पड़ जाएगी। वह
अगर दूर खड़ी
होगी तो पाएगी
कि गिरती है
पास। अगर
कृष्ण के पास
जाएगी तो पास
आना ही पड़ेगा, जहां
तक कि पास
जाया जा सकता
है। जहां कि
आगे जाने का
उपाय ही न हो, वह बात
दूसरी है।
लेकिन जहां तक
पास जाया जा सकता
है, कृष्ण
के पास जाना
ही पड़ेगा।
जैसे कि कृष्ण
पुकारते हुए
हैं, एक
निमंत्रण
हैं। जैसे
मैंने कहा कि
महावीर एक
शिलाखंड की
तरह खड़े रह
जाएंगे, कोई
छुएगा भी तो
पता चलेगा कि
पत्थर है।
हेनरी थारो के
संबंध में इमर्सन
ने कहीं कहा
है कि अगर
हेनरी थारो
से हाथ कोई
मिलाए, तो
ऐसा लगता है
वृक्ष की सूखी
शाखा को हाथ
में ले लिया
है। क्योंकि
हेनरी थारो
उत्तर नहीं
देता, सिर्फ
हाथ दे देता
है। और हाथ
बिलकुल
मुर्दा होता
है। उसमें कुछ
नहीं होता, उसमें कोई
गर्मी नहीं
होती, उसमें
कोई धारा नहीं
होती। उसमें
कुछ होता ही
नहीं, सिर्फ
हाथ होता है।
हेनरी थारो
की महावीर से
दोस्ती बन
सकती है।
कृष्ण
के अगर कोई
दूर भी खड़ा हो
जाएगा तो ऐसा
लगेगा, वह छू
रहे हैं; वह
स्पर्श कर रहे
हैं, वह
बुला रहे हैं।
उनका पूरा
अस्तित्व
निमंत्रण है,
आमंत्रण
है। इस आमंत्रण
को अगर हजारों
स्त्रियों ने
स्वीकार किया
हो, तो
आश्चर्य नहीं
है। कोई
आश्चर्य नहीं
है। यह सहज
हुआ।
रह गई
बात यह कि हम
पूछते हैं कि
क्या कृष्ण के
लिए संभोग
जैसी बात संभव
है?
कृष्ण के
लिए कुछ भी
असंभव नहीं
है। हमारे लिए
संभोग प्रश्न
है, कृष्ण
के लिए प्रश्न
नहीं है। हम
नहीं पूछते कि
फूलों के लिए संभोग
संभव है? हम
नहीं पूछते, पक्षियों के
लिए संभोग
संभव है? हम
नहीं पूछते कि
सारा जगत
संभोग की एक
लीला में लीन
है? यह
सारा
अस्तित्व संभोगरत
है! आदमी
पूछना शुरू
करता है कि
क्या कृष्ण के
लिए संभोग
संभव है? क्योंकि
आदमी जैसा है,
तनाव से भरा
हुआ, जीवन
के प्रति
निंदा से भरा
हुआ, उसके
लिए संभोग
जैसी गहन चीज
भी संभव नहीं
रह गई है।
उसके लिए
संभोग जैसा
अस्तित्व का
क्षण भी जटिल
जाल बन गया
है। वह भी
सिद्धांतों
की, दीवालों
की ओट में खड़ा
हो गया है।
संभोग
का अर्थ ही
क्या है? संभोग
का अर्थ इतना
ही है कि दो
शरीर इतने
निकट आ जाएं, जितने कि
प्रकृति
उन्हें निकट
ला सकती है।
और कोई अर्थ
नहीं है। दो
शरीर अपनी
जैविक-निकटता में,
"बायोलाजिकल इंटीमेसी'
में आ जाएं।
उसके आगे
प्रकृति का
उपाय नहीं है।
प्रकृति की
आखिरी जो
निकटता है, वह संभोग है।
प्रकृति के तल
पर जो निकटतम
नाता है, वह
संभोग है।
उसके आगे
प्रकृति का
उपाय नहीं। उसके
आगे फिर
परमात्मा का
ही क्षेत्र
शुरू होता है।
लेकिन कृष्ण
प्रकृति की
निकटता को स्वीकार
करते हैं; वह
कहते हैं, प्रकृति
भी परमात्मा
की है।
कृष्ण
के लिए संभोग
विचारणीय
नहीं है, प्रश्न
नहीं है, समस्या
नहीं है, जीवन
का एक तथ्य
है। हमें बहुत
कठिनाई होगी।
हमने संभोग को
एक समस्या बना
दिया है, जीवन
का तथ्य नहीं
रखा। अभी हमने
और चीजों को नहीं
बनाया, हम
और चीजों को
भी कल बना
सकते हैं। हम
कह सकते हैं
कल कि कृष्ण
आंख खोलते हैं
कि नहीं? अगर
हम कभी एक
सवाल उठा लें
और सिद्धांत
बना लें कि
आंख खोलना पाप
है, तो फिर
यह भी हो
जाएगा। फिर हम
पूछेंगे कि
उन्होंने आंख
खोली है कि
नहीं? अभी
हम नहीं बनाएंगे
यह सवाल। अभी
हम सवाल
उन्हीं चीजों
को, जिनको
हम सवाल बना
लेते हैं, उनको
हम पूछते हैं
कि ऐसा करेंगे
या नहीं?
मेरी
अपनी समझ यह
है,
कृष्ण के
जीवन में कोई
मर्यादा नहीं
है। यही उनका
व्यक्तित्व
है, यही
उनकी विशेषता
है। मर्यादा
वे मानते ही
नहीं।
मर्यादा ही
उनके
लिए बंधन है
और अमर्यादा
ही उनके लिए
मुक्ति है।
लेकिन जो अर्थ
हम लेते हैं
अमर्यादा का,
वह उनके लिए
नहीं है।
हमारे लिए
अमर्यादा का
अर्थ मर्यादा
का उल्लंघन
है। कृष्ण के
लिए अमर्यादा
का अर्थ
मर्यादा की
अनुपस्थिति
है। इसको खयाल
में ले लें, नहीं तो
कठिनाई होती
है। कृष्ण के
लिए संभोग विचारणीय
नहीं है, फलित
होना है तो हो
जाता है, हो
सकता है। नहीं
फलित होता है
तो नहीं होना
है, नहीं
होता है। इसकी
चिंतना से वह
नहीं चलते हैं।
इसको सोचकर
नहीं चलते।
हमारी बड़ी
अजीब हालत है।
हमने संभोग को
मानसिक, "साइकोलाजिकल'
बना लिया
है। हम संभोग
को भी सोचते
हैं। करते हैं
तो सोचते हैं,
नहीं करते
हैं तो सोचते
हैं। संभोग भी
हमारा निर्णय
बनकर चलता है।
कृष्ण के लिए
निर्णय नहीं
है अगर किसी
का प्रेम-क्षण
इतने निकट आ
जाए कि संभोग
घटित हो जाए,
"हैपनिंग'
हो जाए, तो
कृष्ण "अवेलेबल'
हैं, कृष्ण
उपलब्ध हैं। न
घटित हो, तो
कृष्ण आतुर
नहीं हैं। न
कृष्ण के मन
में कोई विरोध
है, न कोई
प्रशंसा है।
जो हो जाता है,
उसमें सहज
जीने की सिर्फ
राजी, स्वीकृति,
स्वीकार
है।
मैं
फिर दोहराऊं
कि हमारे
अर्थों में
स्वीकार
नहीं।
क्योंकि हम
स्वीकार भी
अगर करते हैं
तो अस्वीकार
के खिलाफ करते
हैं। कृष्ण के
स्वीकार का
मतलब है सिर्फ, कि
अस्वीकार
नहीं। इसलिए
कृष्ण को
समझना हमें
सबसे ज्यादा
जटिल है।
महावीर को
समझना आसान, बुद्ध को
समझना आसान, जीसस को
समझना आसान, मुहम्मद को
समझना आसान, सारी पृथ्वी
पर कृष्ण को
समझना
सर्वाधिक कठिन
है। इसलिए
सर्वाधिक
अन्याय उनके
साथ हो जाना
सहज ही हो
जाता है।
हमारी सारी
धारणाएं महावीर,
बुद्ध, जीसस
और मुहम्मद ने
निर्मित की
हैं। हमारी
सारी धारणाओं
का जगत, हमारे
विचार, हमारे
सिद्धांत, हमारे
शुभ-अशुभ की
व्याख्या
महावीर, बुद्ध,
जीसस, मुहम्मद,
कन्फ्यूसियस,
इनने तय की है।
इसलिए इनको
समझना हमें
सदा आसान है, क्योंकि हम
इनसे निर्मित
हुए हैं।
कृष्ण ने हमें
निर्मित नहीं
किया। असल में
कृष्ण किसी को
निर्मित ही
नहीं करते, वह कहते हैं,
जो है वह
ठीक है।
निर्माण का
सवाल क्या है!
तो जो निर्मित
करते हैं उनसे
हम निर्मित
हुए हैं, कृष्ण
ने तो किसी को
निर्मित किया
नहीं, इसलिए
कृष्ण को
समझना बहुत
मुश्किल हो
जाता है।
जब भी
हम कृष्ण को
समझते हैं, तो
या तो महावीर
का चश्मा
हमारी आंख पर
होगा, या
बुद्ध का
चश्मा होगा, या क्राइस्ट
का होगा, या
कन्फ्यूसियस
का होगा, उससे
हम कृष्ण को
देखेंगे। और
कृष्ण कहते
हैं, तुम्हें
अगर मुझे
देखना है तो
चश्मा उतार
दो। बहुत
मुश्किल है
मामला! वह
चश्मा नहीं उतारोगे
तो कृष्ण में
कुछ-न-कुछ
गड़बड़ दिखाई
पड़ेगी। वह आपके
चश्मे की वजह
से दिखाई
पड़ेगी। लेकिन
आप चश्मा उतारो,
तो कृष्ण
अत्यंत सहज
पुरुष
हैं--अत्यंत
सहज पुरुष
हैं।
पूछा
जा सकता है कि
इतनी सहज
स्त्री क्यों
पृथ्वी पर
नहीं हो सकी? एकाध
स्त्री तो
होनी ही चाहिए
थी न! कृष्ण को
एकाध जवाब
स्त्री को
देना चाहिए था।
कोई इतनी सहज
स्त्री क्यों
न हो सकी कि लाखों
पुरुष उसके
प्रति
आकर्षित हों?
क्या बात है?
क्या कारण
है? कुछ
कारण हैं।
इतना ही कारण
नहीं है कि
स्त्री दबाई
गई। इतना ही
कारण नहीं है
कि पुरुष ने
उसे
स्वतंत्रता
नहीं दी होने
की। क्योंकि
यह बात फिजूल
है। इसका कोई
अर्थ नहीं है।
जितनी
स्वतंत्रता
जिसे चाहिए
उतनी सदा मिल
जाती है, अन्यथा
वह जीने से
इनकार कर देता
है। नहीं, स्त्री
कृष्ण का
उत्तर नहीं दे
पायी, शायद
अभी और हजार
दो हजार वर्ष
लग जायेंगे, तब शायद
स्त्री दे
पाये। अभी
नहीं दे पायी।
अभी देना कठिन
भी है। न देने का
कारण है।
स्त्री का
सारा
व्यक्तित्व, सारा ढंग, उसके होने
की प्राकृतिक
व्यवस्था
"मोनोगेमस' है, वह एक
पर निर्भर
रहना चाहती
है।...
"क्लियोपेत्रा जैसी?'
* नहीं,
बात करता
हूं। ...वह एक पर
निर्भर रहना
चाहती है। उसका
चित्त
"मोनोगेमस' है, अब तक,
कल भी रहेगा
ऐसा जरूरी
नहीं है।
पुरुष "पोलीगेमस'
है। वह एक
उसे कभी भी
सुख नहीं दे
पाता। पुरुष एक
से ऊब जाता
है। स्त्री एक
से बिलकुल
नहीं ऊबती।
स्त्री एक के
साथ जन्म-जन्म
जीने की कामना
करती है। एक
के साथ फिर
दुबारा भी
जन्म मिले तो
उसी के साथ
मिले, वैसी
कामना करती
है।
यह जो
एक-स्त्री-पुरुष
का संबंध है, यह
पुरुष ने कम
तय किया है, यह स्त्री
ने ज्यादा तय
करवा लिया है।
यह पुरुष की
वजह से नहीं
है, एकपत्नीव्रत,
या एक
पतिव्रत, यह
स्त्री की वजह
से है। इसके
अब तक "बायोलाजिकल'
कारण भी थे,
जैविक कारण
भी थे।
क्योंकि
स्त्री को
निर्भर होना
है--बहुतों पर
निर्भर नहीं
हुआ जा सकता है।
इसको खयाल में
लेना जरूरी
है। स्त्री को
कंधे पर हाथ
रखना है। बहुत
कंधों पर हाथ
नहीं रखे जा
सकते। निर्भर
होना जिसका
सुख है, वह
बहुतों पर
निर्भर होगी
तो अनिश्चितमना
हो जाएगी, निर्भरता
उसकी
"इनडिसीसिव' हो जाएगी, उसमें
निर्णय नहीं
रह जाएगा।
जिसे निर्भर
होना है--जैसे
एक बेल है, उसे
एक वृक्ष पर
निर्भर होना
है, वह
बहुत वृक्षों
पर एक-साथ
नहीं चढ़ सकती।
उसे एक वृक्ष
पर ही चढ़ना
होगा। लेकिन
एक वृक्ष
बहुत-सी बेलों
को आमंत्रित
कर सकता है।
और एक वृक्ष
पर जितनी
बेलें चढ़ जाएं
उतनी उसे
तृप्ति होगी,
क्योंकि
उतना ही वह
वृक्ष मालूम
होने लगेगा। एक
पुरुष बहुत-सी
स्त्रियों को,
हाथों को
निमंत्रित कर
सकता है कि
मेरे कंधे पर
रखो, क्योंकि
उतना ही उसके
पुरुष होने की
गहरी रस की
स्थिति उसे
उपलब्ध होगी।
मगर
स्त्री एक पर
निर्भर होना
चाहेगी। इस एक
पर निर्भर
होने का कारण
चित्त में तो
है ही, बहुत
ज्यादा "बायोलाजिकल',
शारीरिक
कारण है, जैविक
कारण है। उसके
बच्चे होंगे।
उन बच्चों के
लिए कोई
निर्धारक, कोई
नियंता, कोई
फिक्र करने
वाला होना
चाहिए। नौ
महीने वह असमर्थ
होगी। उसके
बाद उसके
बच्चे के
सम्हाले में उसे
सारा वक्त
लगाना पड़ेगा।
अगर वह बहुतों
पर निर्भर है,
तो इसमें
अनिश्चय पैदा
होगी और
कठिनाई होगी। इसलिए
मैंने कहा कि
हजार-दो हजार
साल लग जाएंगे,
क्योंकि
बहुत जल्दी
स्त्रियां
इनकार कर देंगी
वैज्ञानिक
विकास के साथ
बच्चों को पेट
में सम्हालने
से। वे तो
प्रयोगशालाओं
में सम्हाले
जाएंगे। जिस
दिन स्त्री बच्चे
को पेट में
रखने से मुक्त
हो जाएगी, उस
दिन स्त्री भी
कृष्ण जैसा
व्यक्ति पैदा
कर सकती है, उसके पहले
नहीं पैदा कर
सकती। उसके
कारण थे।
यह जो
मैंने कृष्ण
के सहज होने
की बात कही, इसे
मनुष्यता
जितने गहरे
में समझ पाए
उतने ही चिंताओं
और तनावों और संतापों
से मुक्त हो
सकती है। आदमी
के अधिक तनाव
आदमी के अपने
ही स्वभाव से
संघर्ष के
परिणाम हैं। आदमी
की अधिक
चिंताएं अपने
से ही लड़ने की
चिंताएं हैं।
और मजा यह है
कि हम अपने से
लड़ सकते हैं, लेकिन जीत
नहीं
पाते--जीत
नहीं सकते।
हार ही होती
है--हार ही
होती है।
कभी-कभी कोई
जीत जाता है।
बड़ी अनूठी वह
घटना है, कभी-कभी
कोई जीत पाता
है। उस
कभी-कभी कोई
जीतने वाले के
अनुसरण में
लाखों लोग
अपने से लड़ते चले
जाते हैं। और
ये लाखों लोग
सिर्फ चिंतित
होते हैं, असफल
होते हैं; हारते
हैं और परेशान
होते हैं।
मेरी
अपनी दृष्टि
ऐसी है कि
महावीर के
मार्ग से कभी
कोई एकाध आदमी
उपलब्ध हो
सकता है।
लेकिन महावीर
के मार्ग पर
सौ में से
निन्यानबे
आदमी चलते
हैं। कृष्ण के
मार्ग से
निन्यानबे
आदमी उपलब्ध
हो सकते हैं, लेकिन
कृष्ण के
मार्ग से एकाध
आदमी भी नहीं
चलता है। महावीर
का मार्ग
पगडंडी का है,
मैंने का।
बुद्ध का भी।
जीसस का भी।
इनके मार्ग
बहुत संकरे
हैं, बहुत
"नैरो' हैं।
और बड़े दुरूह
हैं, क्योंकि
व्यक्ति को
अपने से ही लड़कर
गुजरना है।
कभी-कभी कोई
सफलता उपलब्ध
होती है।
कृष्ण
का मार्ग
राजपथ की तरह
है। उस पर
बहुत लोग जा
सकते हैं।
लेकिन, उस पर
बहुत कम लोग
जाएंगे, बहुत
कम लोग जाते
हैं। क्योंकि
सहज होने की
क्षमता ही
जैसे आदमी
खोता चला गया।
असहज होना ही
सहज हो गया
है। रुग्ण
होना ही हमारा
स्वास्थ्य हो
गया है और
स्वस्थ होने
की धारणा ही भूल
गई है।
पुनर्विचार
की जरूरत है
मनुष्य पर। लेकिन
मैं मानता हूं
कि
पुनर्विचार
पैदा हो रहा
है। फ्रॉयड
के बाद अब
भविष्य में
कृष्ण रोज-रोज
सार्थक होते
चले जाएंगे।
क्योंकि फ्रॉयड
के बाद पहली
बार मनुष्य के
चित्त की
सहजता को स्वीकृति
मिलने की
भूमिका बन रही
है। जैसा
मनुष्य है, उस मनुष्य
को ही विकसित
करना है। अब
तक जैसा मनुष्य
होना चाहिए, उसको हमने
पैदा करने की
कोशिश की थी।
अब तक आदर्श
कीमती था और
मनुष्य को उस
आदर्श तक
पहुंचना ही था
जरूरी। अब फ्रॉयड
के बाद एक
रूपांतरण
पूरी दुनिया
के जिसको हम कहें
बौद्धिक जगत
में एक ऊहापोह
शुरू हुआ है, वह यह कि हम
आदमी को
पहुंचाने की
सारी कोशिश करके
भी पहुंचा
नहीं पाए।
कभी-कभी कोई
एकाध आदमी
पहुंच जाता है,
उससे कोई हल
नहीं होता। वह
नियम नहीं है,
सिर्फ
अपवाद है। और
अपवाद सिर्फ
नियम को सिद्ध
करते हैं और
कुछ नहीं
करते। वह
सिर्फ इतना सिद्ध
करते हैं कि
सब न पहुंच
सकेंगे। फ्रॉयड
के बाद पहली
दफा "आनेस्ट थिंकिंग', ईमानदार
चिंतन शुरू
हुआ है। वह
ईमानदार चिंतन
यह कह रहा है
कि आदमी क्या
है, उसको
हम समझने
चलें।
अब एक
पत्नी है, उसकी
आकांक्षा है
कि उसका पति
कभी किसी
दूसरी स्त्री
को देखकर
प्रसन्न न हो।
यह आकांक्षा
पुरुष के
स्वभाव के
बिलकुल अनुकूल
है। इस
आकांक्षा का
एक ही परिणाम
हो सकता है।
अगर पुरुष की
आकांक्षा से
नीति और नियम
निर्धारित
किए जाएं तो
स्त्री दुखी
और पीड़ित हो जाएगी।
अगर स्त्री की
आकांक्षा से
नीति और नियम
निर्धारित
किए जाएं तो
पुरुष दुखी हो
जाएगा। और मजा
यह है कि दो
में से एक
दुखी हो जाए
तो दूसरा सुखी
नहीं हो सकता।
उसका कोई उपाय
नहीं रह जाता।
लेकिन अब तक
यही हुआ है।
क्या
ऐसा नहीं हो
सकता है कि हम
पुरुष और स्त्री
दोनों के
स्वभाव को
समझने की
दोनों कोशिश करें? और
जब पुरुष किसी
स्त्री को
देखकर प्रसन्न
हो तो पत्नी
इससे पीड़ित न
हो जाए, और
जाने कि यह
पुरुष का
स्वभाव है। और
जब उसकी स्त्री
उदास और
परेशान दिखाई
पड़े तो उसका
पति उस पर टूट
न पड़े, जाने
कि यह स्त्री
का स्वभाव है।
अगर हम एक संतापहीन,
तनावमुक्त जगत पैदा
करना चाहते
हों, तो
हमें
व्यक्तियों
के स्वभाव को
समझने की
कोशिश करनी
चाहिए। और
स्वभाव क्यों
है, उसकी
जड़ों में जाना
चाहिए। और अगर
स्वभाव बदलना
हो तो जड़ें
बदलनी चाहिए,
स्वभाव को
बदलने की ऊपर
से नैतिक
चेष्टा नहीं करनी
चाहिए।
स्त्री तब तकर्
ईष्यालु
रहेगी, जब
तक आर्थिक रूप
से स्वतंत्र
नहीं है। तब तकर् ईष्यालु
रहेगी, जब
तक बच्चे का
बोझ अकेले उस
पर पड़ जाता
है। तब तकर्
ईष्यालु
रहेगी, जब
तक उसका होना
द्वितीय कोटि
की जगह, पुरुष
के बराबर
आर्थिक स्वावलंबन,
पुरुष के
बराबर उसकी
जैविक मजबूरी
से मुक्ति, तो हम
स्त्री कोर्
ईष्या से
तत्काल मुक्त
कर सकेंगे। और
स्त्री उसी
तरह दूसरे
पुरुषों में
भी रस लेने को
आतुर हो जाएगी
जैसा पुरुष
सदा से रहा
है। लेकिन यह
अभी तक नहीं
हो सका। यह अब
हो सकता है।
मनुष्य के
बाबत हमारी
समझ गहरी हुई
है।
पुरानी
हमारी सारी
व्यवस्था
मनुष्य की समझ
पर निर्भर
नहीं थी, बल्कि
मनुष्य की
जरूरतों पर निर्भर
थी। मनुष्य के
समाज में क्या
जरूरी है, वह
हमने नियम
बनाए थे।
मनुष्य के
स्वभाव के लिए
क्या जरूरी है,
वह हमने
नियम नहीं
बनाए थे।
लेकिन फ्रॉयड
के बाद एक
क्रांति घटित
हुई है। और
मैं मानता हूं,
फ्रॉयड द्वार
बनेगा कृष्ण
की वापसी का।
कृष्ण वापस लौटेंगे--वह
फ्रॉयड
के द्वार से
लौटेंगे। फ्रॉयड
ने बड़ा
प्राथमिक काम
किया है। अभी
बहुत काम उस
दिशा में होना
जरूरी है। फ्रॉयड
और कृष्ण के
आने वाले
भविष्य में
निरंतर अधिक
लोगों को
कृष्ण के जीवन
से रोशनी
मिलने की संभावना
बढ़ती जाने
वाली है। उसकी
सहजता धीरे-धीरे
हमारे अनुकूल
और प्रीतिकर
होती जाने
वाली है।
और जिस
दिन यह हो
सकेगा--मेरा
अपना मानना है
कि महावीर, बुद्ध,
जीसस, कन्फ्यूसियस को मानकर हम
एक स्वस्थ
दुनिया पैदा
नहीं कर सके।
एक प्रयोग
जरूर किया
जाने जैसा है
कि कृष्ण की
तरह देखकर हम
दुनिया को एक
व्यवस्था दे पाएं।
और मेरी अपनी
समझ है कि जो
दुनिया हमने
अब तक पैदा की
है, उससे
वह दुनिया
बेहतर हो
सकेगी।
क्योंकि अब तक
जो दुनिया
हमने पैदा की
है वह अपवाद
को नियम मानकर
की है, अब
हम नियम को ही
नियम मानकर
करेंगे।
thank you guruji
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