प्रश्न:
महावीर
के पूर्व-जन्म
की स्थिति
मोक्ष की स्थिति
थी और आपका
कहना है कि
मोक्ष से
लौटना नहीं
होता, तो
फिर उनका
लौटना कृपया
स्पष्ट करें।
महायान
में एक बहुत
मीठी कथा का
उल्लेख है।
बुद्ध का निर्वाण
हुआ, वे मोक्ष
के द्वार पर
पहुंच गए, द्वारपाल
ने द्वार खोल
दिया, बुद्ध
को कहा:
स्वागत है, आप भीतर
आएं। लेकिन
बुद्ध पीठ
करके उस द्वार
की तरफ खड़े हो
गए और
उन्होंने
द्वारपाल से
कहा, जब तक
पृथ्वी पर एक
व्यक्ति भी
अमुक्त है, तब तक मैं
भीतर कैसे आ
जाऊं? अशोभन
है यह, उचित
नहीं मालूम
पड़ता। मेरे
योग्य नहीं।
लोग क्या
कहेंगे कि अभी
पृथ्वी पर
बहुत लोग बंधे
थे, बद्ध
थे, दुखी
थे और बुद्ध
आनंद में
प्रवेश कर गए!
तो मैं रुकूंगा।
मैं इस द्वार
से अंतिम ही
प्रवेश कर
सकता हूं।
ऐसी
कहानी महायान
बौद्धों में
है। कहानी ही
है, लेकिन
अर्थ रखती है।
अर्थ यह रखती
है कि एक व्यक्ति
मुक्त भी हो
सकता है; लेकिन
मुक्त हो जाना
ही मोक्ष में
प्रवेश नहीं
है। यह बात
समझ लेनी
चाहिए।
मुक्त
होना मोक्ष का
प्रवेश-द्वार
है। मुक्त होकर
ही कोई
व्यक्ति
मोक्ष में
प्रवेश पा सकता
है। मुक्त हुए
बिना प्रवेश
नहीं पा सकता, लेकिन मुक्त
हो जाना ही
प्रवेश नहीं
है। ठेठ द्वार
पर भी खड़े
होकर कोई वापस
लौट सकता है।
और जैसा मैंने
पीछे कहा, एक
बार वापस
लौटने का उपाय
है। वह मैंने
पीछे समझाया
कि क्यों वैसा
उपाय है।
जो
उपलब्ध हुआ है, वह अगर
अभिव्यक्त न
हो पाया हो; जो पाया है, अगर वह
बांटा न जा
सका हो; जो
मिला है, अगर
वह दिया न जा
सका हो, तो
एक जीवन की
वापस उपलब्धि
की संभावना
है। यह
संभावना वैसी
ही है, जैसा
मैंने कहा कि
कोई आदमी सायकिल
चलाता हो, पैडिल
चलाता हो, फिर
पैडिल
बंद कर दे
चलाना तो भी सायकिल
उसी क्षण नहीं
रुक जाती है।
एक मोमेंटम
है गति का, प्रवाह
है गति का कि पैडिल रुक
जाने पर भी सायकिल
थोड़ी दूर बिना
पैडिल
चलाई जा सकती
है लेकिन
अंतहीन नहीं
जा सकती, बस
थोड़ी दूर जा
सकती है।
यह जो
थोड़ी देर का
वक्त है, जब पैडिल
चलाना बंद हो
गया तब भी सायकिल
चल जाती है, ठीक ऐसे ही
वासना से
मुक्ति हो जाए
तो भी थोड़े
दूर जीवन चल
जाता है। वह
अनंत जीवन का मोमेंटम
है। यह पैडिल
चलाना बंद कर
देने के बाद
कोई चाहे तो
थोड़ी देर सायकिल
पर सवार रह
सकता है, और
कोई चाहे तो
ब्रेक लगा कर
नीचे उतर जा
सकता है। सवार
रहना ही पड़ेगा,
ऐसी भी कोई
अनिवार्यता
नहीं है। पैडिल
चलाना बंद हो
गया है तो
व्यक्ति उतर
जा सकता है, लेकिन न
उतरना चाहे तो
थोड़ी देर चल
सकता है, बहुत
देर नहीं चल
सकता।
जैसा
मैंने कहा कि
जीवन की
व्यवस्था में
एक जीवन समस्त
वासना के
क्षीण हो जाने
पर भी चल सकता
है। जरूरी
नहीं है, कोई
व्यक्ति सीधा
मोक्ष में
प्रवेश करना
चाहे तो कर
जाए, लेकिन
मुक्त
व्यक्ति चाहे
तो एक जीवन के
लिए वापस लौट
आता है। ऐसे
जो व्यक्ति
लौटते हैं, इन्हीं को
मैं तीर्थंकर,
अवतार, पैगंबर,
ईश्वर-पुत्र,
ऐसे
व्यक्ति कह
रहा हूं। ऐसा
व्यक्ति जो
स्वयं मुक्त
हो गया है और
अब सिर्फ खबर
देने, वह
जो उसे फलित
हुआ है, घटित
हुआ है, उसे
बांटने, उसे
बताने चला आया
है। हम भोगने
आते हैं, वह
बांटने आता है,
उतना ही
फर्क है। और
जो स्वयं न पा
गया हो, वह
न तो बांट
सकता है, न
इशारा कर सकता
है।
तो एक
जीवन के लिए
कोई भी मुक्त
व्यक्ति रुक सकता
है। जरूरी
नहीं है, सभी
मुक्त
व्यक्ति
रुकते हैं, ऐसा भी नहीं
है; लेकिन
जो व्यक्ति
रुक जाते हैं
इस भांति, वे
हमें बिलकुल
ऐसे लगते हैं,
जैसे ईश्वर
के भेजे गए
दूत हों।
क्योंकि वे पृथ्वी
पर हमारे बीच
से नहीं आते, वे उस दशा से
लौटते हैं, जहां से
साधारणतः कोई
भी नहीं लौटता
है।
और इसीलिए
अलग-अलग
धर्मों में
अलग-अलग धारणा
शुरू हो गई।
हिंदू मानते
हैं कि वह
अवतरण है
परमात्मा का, ईश्वर स्वयं
उतर रहा है।
क्योंकि यह जो
व्यक्ति है, इसे अब
मनुष्य कहना
किसी अर्थ में
सार्थक नहीं
मालूम पड़ता।
क्योंकि न तो
इसकी कोई
वासना है, न
इसकी कोई
तृष्णा है, न इसकी कोई
दौड़ है, न
कोई
महत्वाकांक्षा
है, कोई एंबीशन
नहीं है। यह
अपने लिए जीता
ही नहीं मालूम
पड़ता, श्वास
भी अपने लिए
नहीं लेता है।
तो सिवाय ईश्वर
के यह कौन हो
सकता है!
और
मुक्त
व्यक्ति
करीब-करीब
ईश्वर है। तो
हिंदुओं ने
उसे अवतरण कहा
है--उतरना, ऊपर से उतरना।
अवतरण का मतलब
है, ऊपर से
उतरना। वहां
से उतरना, जहां
हम जाना चाहते
हैं। अवतरण का
मतलब ही यह होता
है: जहां हम सब
जाना चाहते
हैं, वहां
से कोई
व्यक्ति उतर
कर नीचे आ गया
है।
स्वभावतः, शायद
जिन्होंने भी
अवतरण की यह
धारणा बनाई, उन्हें वह
खयाल नहीं है
कि यह व्यक्ति
भी यात्रा
करके ऊपर गया
होगा। ऊपर गया
होगा तो ही
वापस लौट सकता
है। उस आधे
हिस्से पर उनकी
दृष्टि नहीं
है, इसलिए
हिंदुओं ने
अवतरण कहा है।
जैनों
ने अवतरण नहीं
कहा। जैनों ने
अवतरण की बात
ही नहीं कही, उन्होंने
तीर्थंकर कहा
है। तीर्थंकर
का मतलब होता
है: शिक्षक, दि टीचर, गुरु।
तीर्थंकर का
अर्थ होता है:
जिसके मार्ग पर
चल कर कोई पार
जा सकता है, जिसके इशारे
को समझ कर कोई
पार उतर सकता
है।
लेकिन
पार उतरने का
इशारा वही दे
सकता है, जो
पार तक हो आया
हो, नहीं
तो इशारा कैसे
दे सकता है? अगर मैं इस
किनारे खड़े
होकर बता सकूं
कि वह रहा
दूसरा किनारा,
तो अगर इसी
किनारे से वह
किनारा दिखता
हो तो आपको भी
दिखता होगा, तब मुझे
बताने की कोई
जरूरत नहीं
है। किनारा कुछ
ऐसा है कि
दिखता नहीं है
और जब भी कोई
इशारा कर सकता
है कि वह रहा
किनारा, तो
एक ही अर्थ है
उसका कि उस
किनारे से
होकर लौटा हुआ
व्यक्ति है, अन्यथा उसकी
तरफ इशारा
कैसे कर सकता
है? अगर
दिखाई पड़ता
होता तो हमको
भी दिखाई पड़
जाता।
हम
सबको दिखाई
नहीं पड़ता।
उसका इशारा
दिखाई पड़ता है, उस व्यक्ति
की आंखों की
शांति दिखाई
पड़ती है, उसके
प्राणों के
चारों तरफ
झरता हुआ आनंद
दिखाई पड़ता है,
उसकी
ज्योति दिखाई
पड़ती है, किनारा
नहीं दिखाई
पड़ता वह जो
बताता है।
लेकिन उसका
इशारा दिखाई
पड़ता है और वह
आदमी आश्वासन
देता हुआ
दिखाई पड़ता है,
उसका सारा
व्यक्तित्व
आश्वासन देता
हुआ मालूम
पड़ता है कि
किसी दूसरे
किनारे का
अजनबी है।
कहीं और, किसी
और तल को छूकर
लौटा है, कुछ
उसने देखा है,
जो हमें
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
यह व्यक्ति भी
उस किनारे की
तरफ इशारा
कैसे कर सकता
है, जहां
यह हो न आया हो?
यह असंभव
है। तीर्थंकर
का मतलब ही यह
हुआ कि जो उस
पार को छूकर
लौट आया है इस
पार खबर देने।
और मैं
मानता हूं कि
उचित ही है कि
जीवन में ऐसी
व्यवस्था हो
कि जो उस पार
जा सके, वह
कम से कम एक
बार तो लौट कर
खबर दे सके।
अगर यह व्यवस्था
न हो, अगर
जीवन के
अंतर्नियम का
यह हिस्सा न
हो, तो
शायद हमें कभी
भी खबर न मिले,
तो शायद
हमें कभी भी
पता न चले।
आज कोई
व्यक्ति चांद
पर होकर लौट
आया है तो चांद
के संबंध में
हमें बहुत सी
खबर मिली है।
चांद यहां से
दिखाई भी पड़ता
था, फिर भी
खबर नहीं
मिलती थी उसके
बाबत। और
परमात्मा तो
यहां से दिखाई
ही नहीं पड़ता
है, उसकी
खबर मिलने का
तो कोई सवाल
नहीं है यहां
से। लेकिन कोई
कभी उसे छूकर
लौट आए तो ही
खबर दे सकता
है।
तो तीर्थंकर
का अर्थ है:
ऐसा व्यक्ति
जो छूकर उस किनारे
को लौट
आया--शायद खबर
देने ही, जो
उसे मिला उसे
बांटने, जो
उसने पाया उसे
बताने।
जैनों
ने अवतरण की
बात नहीं की, न करने का
कारण है, क्योंकि
ईश्वर की कोई
धारणा
उन्होंने
स्वीकार न की।
इसलिए एक ही
रास्ता था कि
जो व्यक्ति
गया हो उस
किनारे तक, वह वापस लौट
कर खबर देने आ
गया हो।
इसलिए
मैं कहता हूं, जैसे कि
जीसस--ईसाई
हैं, वे न
तीर्थंकर की
बात की कोई
धारणा करते, न अवतार की; वे तो सीधा
ईश्वर-पुत्र
की, ईश्वर
के बेटे की!
क्योंकि
ईश्वर के
संबंध में जो
खबर देता हो, वह ईश्वर के
इतना ही निकट
होना चाहिए
जितना कि बाप
के बेटा हो।
बेटे का और
कोई मतलब नहीं
है, उसका
मतलब इतना है
कि जो उसके
प्राणों के
प्राण का
हिस्सा हो, उसका ही खून
बहता हो
जिसमें, वही
तो खबर दे
सकेगा।
या और
जगत में इस
तरह की
धारणाएं हैं।
लेकिन उन
सबमें एक बात
सुनिश्चित है
और वह यह कि जो
जानता है, वही जना भी
सकता है।
जिसने जाना है,
पहचाना है,
देखा है, जीया है; वही
खबर भी दे
सकता है। उसकी
खबर कुछ अर्थ
भी रखती है।
मुक्त
व्यक्ति एक
बार लौट सकता
है। महावीर के
अब लौटने का
कोई सवाल नहीं
है, महावीर
लौट चुके।
लेकिन बुद्ध
के लौटने का
सवाल अभी बाकी
है। बुद्ध के
एक अवतरण की
बात है।
मैत्रेय नाम
से कभी भविष्य
में उनका एक
अवतरण हो।
क्योंकि
बुद्ध को जो
सत्य की उपलब्धि
हुई है, वह
इसी जीवन में
हुई है, इसके
पहले जीवन में
नहीं। बुद्ध
ने जो पाया है,
वह इसी जीवन
में पाया है।
एक जीवन का उन्हें
उपाय और मौका
है अभी--वापस
लौटने का। और
बहुत सदियों
से, जब से
बुद्ध गए, तब
से उनको प्रेम
करने वाले, उन्हें
जानने वाले
प्रतीक्षा
करते हैं उस
अवसर की, जब
कि बुद्ध
अवतरित हो
सकें, फिर
आ सकें एक
बार। बुद्ध के
आने की एक बार
उम्मीद है।
जीसस
के भी एक बार
आने की उम्मीद
है। जीसस को
भी जो उपलब्धि
हुई है, वह
इसी जन्म में
हुई है, एक
जन्म लिया जा
सकता है।
लेकिन एक ही
लिया जा सकता
है। और तब
प्रतीक्षा भी
की जा सकती
है।
फिर
हमें ऐसा कठिन
मालूम पड़ता है
कि बुद्ध को मरे
पच्चीस सौ
वर्ष होते हैं, या जीसस को
मरे भी दो
हजार वर्ष हो
जाते हैं, तो
दो हजार वर्ष
तक वह जन्म
नहीं हुआ
दुबारा? हमारी
समय की जो
धारणा है, उसकी
वजह से हमें
ऐसी कठिनाई
होती है। तो
थोड़ी सी समय
की धारणा भी
समझ लेनी
जरूरी है।
आप रात
सोए और आपने
एक सपना देखा, सपने में
आपने देखा कि सैकड़ों
वर्ष बीत जाते
हैं। नींद
टूटती है और
आप पाते हैं, झपकी लग गई
थी और घड़ी में
अभी मुश्किल
से एक मिनट
हुआ है। और
सपने में
वर्षों बीत गए
हैं। ऐसा सपना
देखा, जिसमें
सैकड़ों
वर्ष बीत गए।
और अभी आंख
खुली है तो
देखते हैं कि
घड़ी में एक ही
मिनट सरका है।
झपकी लग गई थी
कुर्सी पर और
आप एक लंबा सपना
देख गए थे। तब
एक सवाल उठता
है कि जागने का
एक मिनट था, सपने में
वर्षों कैसे
बीत गए? इतना
लंबा सपना, वर्षों
बीतने वाला, एक मिनट में
कैसे देखा जा
सका? देखा
जा सका इसलिए
कि जागते की
समय की धारणा
अलग है, समय
की गति अलग है;
सोते की समय
की गति अलग
है।
मुक्त व्यक्ति
के लिए समय की
गति का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता, समय
की गति है ही
नहीं। हमारे
तल पर समय की
गति है।
हम ऐसा
सोच सकते हैं
कि हम एक
वृत्त खींचें, और एक वृत्त
की परिधि पर
तीन बिंदु बनाएं,
वे तीनों
काफी दूरी पर
हैं, फिर
इन तीनों
बिंदुओं से
वृत्त के
केंद्र की तरफ
रेखाएं खींचें,
जैसे-जैसे
केंद्र के पास
रेखाएं
पहुंचती जाती
हैं, वैसे-वैसे
करीब होती
जाती हैं।
परिधि पर इतना
फासला था, केंद्र
के पास
आते-आते फासला
कम होता जाता
है। केंद्र पर
आकर दोनों
रेखाएं मिल
जाती हैं। परिधि
पर दूर थीं, केंद्र पर
एक ही बिंदु
पर आकर मिल गई
हैं। केंद्र
पर परिधि से
खींची गई सभी
रेखाएं मिल
जाती हैं। और
जैसे-जैसे पास
आती जाती हैं,
वैसे पास
होती चली जाती
हैं।
समय का
जितना बड़ा
विस्तार है, जितना हम
जीवन-केंद्र
से दूर हैं, समय उतना
बड़ा है; और
जितना हम
जीवन-केंद्र
के करीब आते
जाते हैं, समय
छोटा होता चला
जाता है।
इसलिए कभी
शायद खयाल
नहीं किया
होगा कि दुख
में समय बहुत
लंबा होता है,
सुख में
बहुत छोटा
होता है। किसी
को अपना प्रियजन
मिल गया है, रात बीत गई
है और सुबह
प्रियजन विदा
हो गया है और
वह कहता है, कितनी जल्दी
रात बीत गई! इस
घड़ी को क्या
हो गया है कि
आज जल्दी चली
जाती है! घड़ी
अपनी चाल से
चलती है, घड़ी
को कुछ मतलब
नहीं है कि
किसका
प्रियजन मिला
है, किसका
नहीं मिला है।
घर में
कोई बीमार है, उसकी खाट के
किनारे बैठ कर
आप प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
चिकित्सक
कहते हैं, बचेगा
नहीं। रात बड़ी
लंबी हो जाती
है--ऐसा कि घड़ी
के कांटे चलते
हुए ही मालूम
नहीं पड़ते! ऐसा
लगने लगता है
कि घड़ी आज
चलती नहीं!
रात बड़ी लंबी
हो गई है!
दुख
समय को बहुत
लंबा देता है, सुख समय को
एकदम सिकोड़
देता है। उसका
कारण है, क्योंकि
सुख भीतर के
कुछ निकट है, दुख परिधि
के और दूर
परिधि पर कहीं
है। आनंद समय
को बिलकुल
मिटा देता है,
इसलिए आनंद टाइमलेस
है, आनंद
कालातीत है; वहां समय है
ही नहीं।
साधारण से सुख
में समय छोटा
हो जाता है, साधारण से
दुख में समय
बड़ा हो जाता
है!
आइंस्टीन
से कोई पूछ
रहा था कि
आपकी
सापेक्षता का
सिद्धांत, आपकी जो
थ्योरी ऑफ
रिलेटिविटी
है, उसे
हमें समझाएं।
तो आइंस्टीन
ने कहा, बहुत
मुश्किल है
समझाना, क्योंकि
जमीन पर थोड़े
से लोग हैं, जो सापेक्ष
की बात समझ
सकें।
क्योंकि
सापेक्ष के
लिए समझना बड़ा
कठिन है।
सापेक्ष
का मतलब है कि
जो प्रत्येक
परिस्थिति
में छोटा-बड़ा
हो सकता है, लंबा-नीचा
हो सकता है, जिसका कोई
थिर होना नहीं
है!
फिर भी
उसने कहा कि
उदाहरण के लिए
मैं कहता हूं
कि तुम अपनी
प्रेयसी के
पास बैठे हो, आधा घंटा
बीत जाता है, कितना लगता
है? तो उस
आदमी ने कहा, क्षण भर।
उसने
कहा कि छोड़ो
प्रेयसी को, तुम एक जलते
हुए स्टोव पर
बिठा दिए गए
हो और आधा
घंटा बैठे रखे
गए हो।
उसने
कहा, आधा घंटा!
क्या आप कह
रहे हैं? तब
तक तो मर ही चुकूंगा।
आधा घंटा जलते
हुए स्टोव पर!
अनंत हो जाएगा,
समय का
एक-एक क्षण
गुजारना
मुश्किल हो
जाएगा, बहुत
लंबा हो जाएगा;
आधा घंटा
बहुत ज्यादा
हो जाएगा।
तो
आइंस्टीन ने
कहा, सापेक्ष
से मेरा यही
प्रयोजन है।
समय वही है, लेकिन
तुम्हारे
चित्त की
अवस्था के
अनुसार बड़ा-छोटा
हो जाता है।
स्वप्न
में एकदम छोटे
समय में कितनी
लंबी यात्रा
हो जाती है!
जागने में
नहीं हो पाती।
जागने में समय
की परिधि पर
हम ज्यादा हैं, सोने में हम
अपने भीतर आए
हैं! स्वप्न
भीतर की तरफ
है, जागरण
बाहर की तरफ
है। स्वप्न
में हम अपने
भीतर बंद हैं,
केंद्र के
ज्यादा निकट
हैं; जागने
में ज्यादा
दूर हैं। जब
कोई व्यक्ति
बिलकुल
केंद्र पर
पहुंच जाता है,
उसका नाम
समाधि है। तब
समय एकदम मिट
जाता है, एकदम
विलीन हो जाता
है, समय
होता ही नहीं।
सब ठहर गया
होता है। टाइमलेस
मोमेंट हो
जाता है, थिर
क्षण हो जाता
है।
यह जो समयरहित, कालातीत
क्षण है, इस
क्षण में ठहरे
हुए को पच्चीस
सौ साल बीत गए कि
पच्चीस हजार
साल बीज गए, कोई फर्क
नहीं होता। इस
जगह ठहरे हुए
व्यक्ति को
कोई फर्क नहीं
होता।
सब
फर्क परिधि पर
हैं, केंद्र
पर कोई फर्क
नहीं है। वहां
सब परिधि से
खींची गई
रेखाएं
संयुक्त हो गई
हैं।
तो ऐसा
व्यक्ति
प्रतीक्षा कर
सकता है उस
क्षण की, जब
वह सर्वाधिक
उपयोगी हो
सके। और ऐसा
भी हो सकता है
कि कुछ शिक्षक
प्रतीक्षा
करते-करते ही मोक्ष
में विदा ले
लेते हों।
शायद उनके योग्य
पृथ्वी पर समय
न बन पाता हो।
बहुत बार ऐसा भी
हुआ है कि कुछ
शिक्षक
प्रतीक्षा
करते हुए विदा
हो गए हैं, क्योंकि
वह बन नहीं
पाई बात। और
इसलिए इस तरह की
भी चेष्टाएं
चलती हैं कि
शिक्षक के
जन्म लेने के
पहले कुछ और
व्यक्ति जन्म
लेते हैं जो
हवा और
वातावरण तैयार
करते हैं!
जैसा जीसस के
पहले हुआ।
जीसस
के पहले एक
व्यक्ति पैदा
हुआ जॉन, संत
जॉन। उसने
सारे यहूदी
मुल्कों में--जेरुसलम
में, इजरायल
में, सब
तरफ खबर पहुंचाई
कि कोई आ रहा
है, तैयार
हो जाओ। उसने
हजारों लोगों
को दीक्षित किया
कि कोई आ रहा
है, तैयार
हो जाओ। लोग
पूछते, कौन
आ रहा है? तो
वह कहता, प्रतीक्षा
करो, क्योंकि
तुम उसे देख
कर ही समझ
सकोगे, मैं
कुछ बता नहीं
सकता हूं!
लेकिन कोई आ
रहा है! उसकी
उसने तैयारी
की। उसने पूरी
अपनी जिंदगी गांव-गांव
घूम कर जीसस
के लिए हवा
तैयार की।
और जब
जीसस आ गए तो
जॉन ने जीसस
को आशीर्वाद
दिया, और
इसके बाद वह
चुपचाप
रिटायर हो गया,
वह चुपचाप
विदा हो गया।
फिर उसका कोई
पता नहीं चला
कि फिर जॉन
कहां गया।
जीसस ने, वह
जो हवा उसने
बनाई थी, उसका
पूरा उपयोग कर
लिया। बहुत
बार ऐसा भी
हुआ है जब कि
कोई शिक्षक
वापस लौटे तो
वह कुछ और प्राथमिक
शिक्षकों को
भेजे, जो
हवा पैदा कर
दें।
थियोसाफी
ने अभी एक
बहुत बड़ी
मेहनत की थी, लेकिन वह
शायद असफल हो
गई। मैत्रेय
की, जैसा
मैंने कहा कि
बुद्ध के एक
जन्म की
संभावना है, तो
ब्लावट्स्की
और दूसरे एनी बीसेंट, और दूसरे थियोसाफिस्टों
ने मैत्रेय को
लाने के लिए
भारी प्रयास
किया। यह
प्रयास अपने
किस्म का
अनूठा था। इस
प्रयास में
बड़ी साधना
चली। इसमें
कुछ लोगों ने
बड़े प्राणों
को संकट में
डाल कर
आमंत्रण भेजा
और
कृष्णमूर्ति
को तैयार किया
इस बात के लिए,
कि वह जो
मैत्रेय की
आत्मा है, वह
कृष्णमूर्ति
में प्रविष्ट
हो जाए। और
कोई बीस वर्ष,
पच्चीस
वर्ष
कृष्णमूर्ति
की तैयारी में
लगाए गए।
कृष्णमूर्ति
की जैसी
तैयारी हुई
वैसी दुनिया
में किसी आदमी
की शायद ही
कभी हुई हो। अत्यंत
गुह्य साधनाओं
से
कृष्णमूर्ति
को गुजारा
गया। ठीक वक्त
पर सारी तैयारियां
पूरी हो गईं, सारी दुनिया
से कोई छह
हजार लोग एक स्थान
पर इकट्ठे हो
गए, जहां
कृष्णमूर्ति
में मैत्रेय
की आत्मा को प्रविष्ट
होने की घटना
घटने वाली थी।
लेकिन शायद
कुछ भूल-चूक
हो गई, वह
घटना नहीं
घटी!
और
कृष्णमूर्ति
अत्यंत
ईमानदार आदमी
हैं। अगर कोई
बेईमान आदमी
उनकी जगह होता
तो शायद वह अभिनय
करने लगता कि
घटना घट गई
है।
कृष्णमूर्ति
ने इनकार कर
दिया गुरु
होने से!
कृष्णमूर्ति
का सवाल भी न
था, सवाल तो
किसी और आत्मा
का, आत्मा
के लिए तैयारी
थी उनके शरीर
की! क्योंकि
ऐसा अनुभव
किया गया है
कि मैत्रेय के
उतरने में बड़ी
बाधा पड़ रही
है। कोई शरीर
इस योग्य नहीं
मिल पा रहा है
कि मैत्रेय
उतर जाएं। और
कोई गर्भ ऐसा
निर्मित नहीं
हो रहा है कि
मैत्रेय के
लिए अवसर बन
जाए। तो हो
सकता है और
दो-चार सौ
वर्ष
प्रतीक्षा करनी
पड़े, या हो
सकता है कि
प्रतीक्षा
समाप्त ही हो
जाए, वह
चेतना विदा हो
जाए। लेकिन
आशा कम है, वह
प्रतीक्षा
जारी रहेगी।
कृष्णमूर्ति
के लिए किया
गया प्रयोग
असफल हो गया, वह सफल नहीं
हो सका। और अब
ऐसा कोई
प्रयोग पृथ्वी
पर फिलहाल
नहीं किया जा
रहा है।
आकस्मिक, अब
तक सदा
आकस्मिक
शिक्षक ही
उतरे थे, कभी-कभी
तैयारियां
भी हुई थीं।
तो वह
जो मैंने कहा, एक बार
लौटने का उपाय
है मुक्त
आत्मा को। और
यह हक है उसका,
अधिकार है,
क्योंकि
जिसने जीवन
में इतना पाया,
उसे अगर
बांटने का और
खबर देने का
अधिकार भी न मिलता
हो तो यह जीवन
बड़ा असंगत और
बड़ा तर्कहीन
है। उपलब्धि
के बाद
अभिव्यक्ति
का मौका अत्यंत
जरूरी है।
इसलिए मैंने
कहा कि महावीर
पिछले जन्म
में उपलब्ध
किए हैं, इस
जन्म में बांट
गए हैं। उनकी
चेतना के
लौटने का कोई
सवाल नहीं है।
दूसरी
एक बात पूछी
है कि हम
प्रकृति में
तो चक्रीय गति
देखते हैं। सब
चीजें दोहरती
हैं, घूमती
हैं, हर
चीज लौट कर
फिर घूम जाती
है। तो ऐसा मन
में संभावना
उठती है, कल्पना
उठती है कि कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि निगोद
से आत्माएं
मोक्ष तक जाती
हों, फिर
वापस निगोद
में पड़ जाती
हों! क्योंकि
जहां सभी कुछ
चक्र में
घूमता हो, वहां
सिर्फ एक
आत्मा की गति
को चक्रीय न
माना जाए, यह
कुछ नियम का
खंडन होता हुआ
मालूम पड़ता
है!
सब
चीजें लौट आती
हैं: बीज
वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष
से बीज आ जाते
हैं, फिर
बीज वृक्ष
बनते हैं, फिर
वृक्षों में
बीज आ जाते
हैं। सब लौटता
चला जाता है।
किसी
वैज्ञानिक को
कोई पूछ रहा
था कि मुर्गी
और अंडे में
कौन पहले है? बहुत जमानों
से आदमी ने यह
बात पूछी है
कि कौन पहले
है। उस वैज्ञानिक
ने कहा, पहले
का तो सवाल ही
नहीं है, क्योंकि
मुर्गी और
अंडा दो चीजें
नहीं हैं। तो
उस आदमी ने
पूछा, अगर
दो चीजें नहीं
हैं तो मुर्गी
क्या है? मुर्गी
क्या है फिर? तो उस
वैज्ञानिक ने
बहुत बढ़िया
बात कही। उसने
कहा कि
मुर्गी--एग्स
वे टू प्रोडयूस
मोर एग्स।
अंडे का
रास्ता और
अंडे पैदा
करने के लिए।
मुर्गी क्या
है? तो
उसने कहा कि
अंडे का
रास्ता और
अंडे पैदा करने
के लिए, और
कुछ भी नहीं।
यानी मुर्गी
जो है, वह
सिर्फ एक बीच
का रास्ता है,
जिससे अंडा
और अंडे पैदा
करने का
रास्ता खोजता
है, और कुछ
भी नहीं। या
इससे उलटा कह
सकते हैं कि
अंडा जो है, वह मुर्गी
का रास्ता है
और मुर्गी
पैदा करने के
लिए।
सब
चीजें घूम रही
हैं। घड़ी के
कांटे की तरह
सब घूम रहा
है। सब फिर
कांटे बारह पर
आ जाते हैं। फिर
कांटे बारह पर
आ जाते हैं।
सिर्फ आत्मा
के लिए ही इस
नियम को तोड़ना
उचित भी तो
नहीं मालूम
पड़ता। क्योंकि
विज्ञान बनता
है निरपवाद
नियमों से।
अगर जीवन के
सब पहलुओं पर
यह सच है--कि
बच्चा जवान
होता है, जवान
बूढ़ा होता है,
बूढ़ा मरता
है; बच्चे
पैदा होते हैं,
फिर जवान
होते हैं, फिर
बूढ़े होते हैं,
फिर मरते
हैं--अगर यह
चक्रीय गति
ऐसी चल रही है और
आत्मा का
पुनर्जन्म
मानने वाले भी
इस चक्रीय गति
को स्वीकार करते
हैं कि जो अभी
मरा वह फिर
बच्चा होगा, वह फिर जवान
होगा, फिर
बूढ़ा होगा, फिर मरेगा, फिर बच्चा
होगा, फिर
वह चक्र घूमता
रहेगा। तो
सिर्फ आत्मा
को यह चक्र
क्यों लागू
नहीं होगा?
साधारणतः
लागू नहीं
होता। नियम
यही है और ऐसे
ही सब घूमना
चलता है।
मुक्त आत्मा
एक अनूठी घटना
है, सामान्य
घटना नहीं है।
सामान्य नियम
लागू भी नहीं
होता।
असल
में चक्र के
बाहर जो कूद
जाता है, उसी
को मुक्त
आत्मा कहते
हैं।
सब तरह
के चक्रीय गति
के बाहर जो
कूद गया है, उसको ही
मुक्त कहते
हैं। इसलिए उसको
चक्रीय गति
में नहीं डाला
जा सकता, नहीं
तो मुक्त कहने
का कोई मतलब
नहीं है। मोक्ष
का मतलब ही
इतना है कि
नियमों का जो
चक्कर चल रहा
है जगत का...।
संसार
का मतलब कभी
आपने सुना?
संसार
का मतलब होता
है: दि व्हील।
संसार
का मतलब ही
होता है सिर्फ
इतना, संसार
शब्द का मतलब
होता है: चक्र,
जो घूम रहा
है। संसार का
मतलब है, जो
घूम रहा है, जो घूमता ही
रहता है।
मुक्त
का मतलब है, जो इस घूमने
के बाहर छलांग
लगा जाता है।
तो
मुक्त को अगर
हम फिर चक्रीय
गति में रख
लेते हैं तो
मुक्ति
व्यर्थ हो गई।
कोई मतलब न
रहा, मुक्त
होने का कोई
अर्थ ही न
रहा। अगर
मोक्ष से फिर निगोद में
आत्मा को आना
है तो पागल
हैं, जो
मुक्त होने की
कोशिश कर रहे
हैं। फिर
इसमें कोई
मतलब ही नहीं,
यह बेमानी
बात है। अगर
कांटे को बारह
पर लौट ही आना
है, वह कुछ
भी करे--चाहे
मुक्त हो और
चाहे न हो, तो
अर्थ क्या है
मोक्ष का? फिर
तो मोक्ष
अर्थहीन हो
गया।
मोक्ष
का अर्थ ही
यही है, यानी
मुक्ति का
प्रयोजन ही
यही है कि इस
चक्र में
जिसमें कि हम
घूमते ही रहे
हैं, घूमते
ही रहे हैं, घूमते ही
रहेंगे, क्या
इसमें घूमते
ही रहना है या
छलांग लगा जाना
है? अगर
घूमते ही रहना
है तो हम जैसे
हैं ठीक हैं, घूमते
रहेंगे। अगर
छलांग लगानी
है तो हमें सजग
होना पड़ेगा, जागना पड़ेगा
इस चक्र के
प्रति। चक्र
के प्रति ही
जागना है। और
क्या है!
कल भी
आपने क्रोध
किया, कल भी
आपने
पश्चात्ताप
किया; आज
फिर आप क्रोध
कर रहे हैं, फिर
पश्चात्ताप
कर रहे हैं।
फिर क्रोध है,
फिर
पश्चात्ताप
है; फिर
क्रोध है और
चक्र है! हर
क्रोध के पीछे
पश्चात्ताप, हर
पश्चात्ताप
के आगे फिर
क्रोध, एक
चक्र में आप
घूम रहे हैं!
और आप
कह सकते हैं
कि जब हर
क्रोध के बाद
पश्चात्ताप
आया तो हर
पश्चात्ताप
के बाद क्रोध
आएगा। और यह
तो घूमना होता
ही रहेगा। और
अगर इस चक्र
में ही खड़े
रहते हैं तो
घूमना जारी
रहेगा।
लेकिन
यह भी तो हो
सकता है कि आप
चक्र के बाहर
छलांग लगा
जाएं। छलांग
लगाने का मतलब
न तो क्रोध
होगा, न
पश्चात्ताप
होगा, क्योंकि
जिसने
पश्चात्ताप
किया, वह
क्रोध करेगा
और जिसने
क्रोध किया, वह
पश्चात्ताप करेगा।
वे तो एक ही
चक्र के
हिस्से हैं।
छलांग
लगाने का मतलब
है कि एक आदमी
न क्रोध करता, न
पश्चात्ताप
करता--बाहर हो
जाता है। तब
उसे कोई गाली
देता है तो न
वह क्षमा करता
है, न वह
क्रोध करता है,
न वह
पश्चात्ताप
करता है। वह
कुछ करता ही
नहीं, वह
एकदम बाहर हो
जाता है।
यह जो
बाहर हो जाना
है, यह जो
छिटक जाना है,
फिंक जाना है
चक्र के बाहर,
तो फिर इसे
चक्र में नहीं
गिना जा सकता।
अगर इसे भी
चक्र में गिना
जा सकता है तो
महावीर नासमझ
हैं, बड़ी
भूल में पड़े
हैं; बुद्ध
भी नासमझ हैं,
नासमझी में
पड़ गए हैं; क्राइस्ट
भी गलती कर रहे
हैं। असल में
तब मोक्ष की
बात करने वाले
सब पागल हैं।
क्योंकि अगर
सबको घूम ही
जाना पड़ता है
वापस, तो
सब बात व्यर्थ
हो गई, कोई
अर्थ न रहा।
तो अगर
हम मोक्ष की
धारणा को, वह जो
कंसेप्ट है, वह समझ लें, तो उसका
मतलब ही कुल
इतना है कि
चक्र के बाहर
कूदा जा सकता
है। और जो
व्यक्ति चक्र
के प्रति सचेत
हो जाएगा, वह
बिना कूदे
नहीं रह सकता
है। क्योंकि
चक्र बिलकुल
कोल्हू के बैल
की तरह घूम
रहा है। और
कोल्हू के बैल
में कौन जुता
रहना चाहेगा?
एक दफा पता
चल जाए, खयाल
आ जाए कि इस
ट्रैक से नीचे
उतरा जा सकता
है, इस
ट्रैक के बाहर
हुआ जा सकता
है।
जीवन
का जो साधारण
ट्रैक है, जो उसकी
लोह-पटरी है, उससे अगर
कोई छलांग लगा
जाता है, तो
उस छलांग का
नाम ही मुक्त
होना है। और
उसको वापस
चक्र में रखने
का कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
उसे वापस चक्र
में बिठाने का
कोई उपाय नहीं
है।
हां, जैसा मैंने
कहा कि एक बार
भर वह स्वयं
अपनी
स्वेच्छा से
चाहे तो उस
चक्र में लौट
सकता है, जिनमें
वह अपने
प्रियजनों को,
अपने
मित्रों को, अपने
प्यारों को, उन सबको
जिनके लिए भी
वह खुशी, आनंद
लाना चाहता है,
एक बार फिर
वापस आकर बैठ
सकता है उस
चक्र पर।
लेकिन
चक्र पर बैठा
हुआ भी वह
घूमेगा नहीं।
घूमेगा इसलिए
नहीं कि अब
घूमने का उसे
कोई मतलब न
रहा। और इसलिए
हम उसे पहचान
भी पाएंगे कि
कुछ अलग तरह
का आदमी है, कुछ भिन्न
तरह की बात
है। यह कुछ और
अनुभव करके
लौटा है। अब
वह खड़ा भी
होगा हमारे
बाजार में, लेकिन बाजार
का हिस्सा
नहीं होगा। अब
वह हमारे बीच
भी खड़ा होगा, लेकिन ठीक
हमारे बीच
नहीं होगा; कहीं हमसे
दूर और फासले
पर होगा। उस
व्यक्ति में
दोहरी घटना घट
रही होंगी, वह होगा
हमारे बीच और
हमसे बिलकुल बियांड
होगा, हमसे
बिलकुल अलग
होगा! यह हम
प्रतिपल
अनुभव कर
पाएंगे कि
कहीं हमारा
उससे मेल होता
भी है और कहीं
मेल होता भी
नहीं; कहीं
बात बिलकुल
अलग हो जाती
है, वह कुछ
और ही तरह का
आदमी है!
यह जो
वैज्ञानिक है, भौतिकवादी
है, मैटीरियलिस्ट है, वह
यही कह रहा
है--वह यही कह
रहा है कि
यहां तो सब नियम
वहीं पहुंच
जाते हैं, जहां
से हम आते हैं,
अन्यथा
जाने का कोई उपाय
नहीं है। सागर
का पानी सागर
में पहुंच जाता
है। पत्तों
में आई मिट्टी
वापस मिट्टी
में पहुंच
जाती है, पत्ते
फिर गिर कर
मिट्टी हो
जाते हैं। वही
वैज्ञानिक
कहता है, वही
भौतिकवादी
कहता है--मैटीरियलिस्ट!
उसमें और स्प्रिचुअलिस्ट
में फर्क क्या
है?
फर्क
इतना ही है कि
वह यह कहता है
कि सब चीजें
जहां से
उठीं--डस्ट अनटू
डस्ट, मिट्टी
मिट्टी में
लौट जाती है
और सब खतम हो जाता
है--बात क्या
है! सब चीजें
जहां से आती
हैं, वहीं
वापस चली जाती
हैं।
लेकिन
धार्मिक खोजी
यह कह रहा है
कि एक ऐसी भी जगह
है, जहां से
हम नहीं आए
हैं और जा
सकते हैं। एक
ऐसी भी जगह है,
जहां से हम
नहीं आए हैं
और जा सकते
हैं। और जहां
हम चले जाएं
तो फिर इस
चक्कर में गिर
जाने का कोई
उपाय नहीं है,
फिर इसमें
सम्मिलित हो
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
अगर
नहीं यह संभव
है तो धर्म की
सारी संभावना खतम
हो गई, साधना
का सब अर्थ
व्यर्थ हो
गया। फिर कुछ
बात ही नहीं
है। फिर तो एक
जड़ चक्र है, उसमें हम
घूमते रहेंगे,
घूमते
रहेंगे, घूमते
रहेंगे।
आवागमन से
छूटने की जो
कामना है, यह
उन लोगों को
उठी है, जिन्हें
यह घूमते हुए
चक्र की
व्यर्थता
दिखाई पड़ गई
है कि
जन्मों-जन्मों
से, अनंत
जन्मों से एक
सा घूमना हो
रहा है! और हम
हैं कि घूमते
चले जा रहे
हैं और इससे
कभी छलांग
लगाने का खयाल
नहीं आता।
छलांग
लग सकती है, लगी है; किसी
की भी लग सकती
है। और छलांग
बिलकुल और घटना
है, जिसके
लिए फिर वे
नियम लागू
नहीं होते।
जैसे आप छत पर
खड़े हुए हैं, दस आदमी छत पर
खड़े हुए हैं।
कोई भी छत से
नहीं गिर रहा
है, दसों
आदमी एक ही
नियम के
अंतर्गत हैं।
एक आदमी छत पर
से छलांग
लगाता है, यह
आदमी नियम के
बाहर हो गया, छत पर जो
नियम काम कर
रहा था, उसके
बाहर हो गया।
छत इसे बचा
रही थी ग्रेविटेशन
से, जमीन
की कशिश से
बचा रही थी।
यह उसके बाहर
हो गया, छत
के बचाव के
बाहर हो गया।
अब जमीन इसे खींचेगी
अपनी तरफ, जो
कि छत पर खड़े
हुए किन्हीं
लोगों को नहीं
खींच सकती थी;
क्योंकि उन
पर नियम लागू
नहीं होता था।
एक पर्त के
ऊपर वे खड़े थे,
जो जमीन की
कशिश को रोकने
का काम करती
थी। यह आदमी
बाहर हो गया।
अभी जो
हमने चांद पर
आदमी भेजा, इसके लिए
सारी, सबसे
बड़ी कठिनाई
क्या थी? सबसे
बड़ी कठिनाई एक
ही थी, और
वह कठिनाई यह
थी कि जमीन की
कशिश से कैसे
छूटना? जमीन
का ग्रेविटेशन
असली सवाल है।
दो सौ मील तक
जमीन के ऊपर
चारों तरफ
जमीन की कशिश
का प्रभाव है।
असली सवाल यह था
कि इस दो सौ
मील के बाहर
कोई चीज कैसे
छलांग लगा जाए?
क्योंकि
जमीन यहां तक
खींचती है; इसके बाहर, एक इंच बाहर
हो गए कि जमीन
का खींचना खतम
हो जाता है।
तो जो सैकड़ों
वर्षों से
चिंतना चलती
थी कि चांद पर
कैसे पहुंचें
या कहीं भी
कैसे पहुंचें, उसमें सबसे
बड़ी कठिनाई यह
थी कि जमीन से
कैसे छूटें?
सवाल चांद
पर पहुंचने का
कठिन नहीं था।
आमतौर से
लोगों ने यही
समझा है कि
चांद पर
पहुंचना असली
सवाल था। यह
सवाल गौण है, असली सवाल
था जमीन के
घेरे से कैसे छूटें? वह
जमीन का जो ग्रेविटेशन
है, वह
इतने जोर से
खींचता
है--उसके बाहर कैसे
हो जाएं?
उसके
बाहर हो जाना
ही सबसे बड़ा
सवाल था। और
उसके बाहर
नहीं होते हैं
तो कहीं जा
नहीं सकते।
और यह
संभव नहीं हो
सकता था--अभी
संभव हो सका, क्योंकि हम
इतना बड़ा
विस्फोट पैदा
कर सके राकेट
के पीछे कि उस
विस्फोट के
धक्के में वह
राकेट ग्रेविटेशन
के घेरे के
बाहर हो गया।
एक दफा बाहर
हो गया, पृथ्वी
की पकड़ के, जकड़
के बाहर हो
गया। अब वह
कहीं भी जा
सकता है। अब
कोई सवाल नहीं
है कहीं जाने
का। जो दूसरा
डर था वह चांद
पर उतारने का
डर था कि पता
नहीं कितनी
दूर से चांद
का ग्रेविटेशन
शुरू होगा! और
कितने जोर से
चांद खींचेगा
या नहीं
खींचेगा, या
क्या करेगा!
तो ग्रेविटेशनल
फील्ड्स
की बात थी। हर
एक कशिश का
क्षेत्र है
एक। हर नियम
का एक क्षेत्र
है। और उस
नियम के बाहर
उठने का उपाय
है--अपवाद, बाहर तोड़ा
जा सकता है उस
क्षेत्र के।
जीवन
की गहरी परिधि
जो है हमारी, उसके केंद्र
में--जैसे
मैंने कहा, पृथ्वी का ग्रेविटेशन
है--ऐसा जीवन
के चक्र का जो
केंद्र खोज
लिया गया, वह
वासना है। वह
खोज लिया गया
कि अगर जीवन
के बाहर
छिटकना है तो
किसी न किसी
रूप में वासना
के बाहर
निकलना होगा।
वह जो वासना
है, वह ग्रेविटेशनल
फोर्स है।
प्रत्येक के
भीतर वह जो
तृष्णा है, जिसको बुद्ध
तन्हा कहते
हैं; वह जो
वासना है
हमारी, जो
हमें थिर नहीं
होने देती--और
कहती है वह
लाओ, वह
पाओ, वह बन
जाओ--वह हमें
चक्र में दौड़ाती
रहती है।
क्योंकि वह
जहां-जहां
इशारे करती है,
वह चक्र के
भीतर है। वह
कहती है, धन
कमाओ। वह
कहती है, यश
कमाओ। वह
कहती है, स्वास्थ्य
लाओ। वह कहती
है, और जीयो,
ज्यादा जीयो,
ज्यादा
उम्र बनाओ। वह
जो भी हमसे
कहती है, वे
सब उस चक्र के
भीतर के पहलू
हैं। और जब हम
एक आगे का
इशारा तय कर
लेते हैं कि
वहां जाना है,
तब हम चक्र
के भीतर घूमने
लगते हैं।
जो
व्यक्ति एक
क्षण को भी
वासना के बाहर
हो जाए, वह
अंतरिक्ष में
यात्रा कर गया,
उस
अंतरिक्ष में
जो हमारे भीतर
है। वह जीवन
के चक्र के
भीतर छलांग
लगा गया।
क्योंकि उसने
कहा कि नहीं, मुझे न यश
चाहिए, न
धन चाहिए, न
कोई काम चाहिए,
मुझे कुछ
चाहिए ही
नहीं। मैं जो
हूं, हूं।
मैं कुछ होना ही
नहीं चाहता।
उसने बिकमिंग
का खयाल छोड़
दिया। उसने
कहा, बीइंग
ही काफी है।
वासना
का मतलब है कि
मैं जैसा हूं, वैसा नहीं; जो मेरे पास
है, वह
नहीं; जो
भी उपलब्ध है,
वह नहीं; कुछ और
चाहिए! छोटा
क्लर्क बड़ा
क्लर्क होना
चाह रहा है, छोटा मास्टर
बड़ा मास्टर
होना चाह रहा
है, छोटा
मिनिस्टर बड़ा
मिनिस्टर
होना चाह रहा
है! वह सब, वह
वासना का तीर
उन्हें झुकाए
चला जाता है
और वह पूरे
चक्कर में डाल
देता है।
तो
सारे खोजियों
की खोज यह है
कि एक क्षण के
लिए भी
वासनाओं के
बाहर ठहर जाओ, और वह जो
क्षेत्र था, जो चक्कर
लगवाता था, उसके आप
बाहर हो गए।
और एक क्षण को
आप बाहर हो गए
तो आप हैरान
हो जाते हैं
यह बात जान कर
कि जिसे हम अनंत
जन्मों से
पाने की
आकांक्षा कर
रहे थे, वह
हमारे पास ही
था, वह
मिला ही हुआ
था, वह
हमें उपलब्ध
ही था, अपनी
तरफ देखने भर
की जरूरत थी।
लेकिन
अंतर्यात्रा
नहीं हो सकती--जैसे
अंतरिक्षऱ्यात्रा
नहीं हो सकती, जब तक कि
जमीन की कशिश
से न छूट
जाएं--ऐसे ही
अंतर्यात्रा
नहीं हो सकती,
जब तक कि हम
वासना की कशिश
से न छूट
जाएं। और वासना
की कशिश जमीन
के ग्रेविटेशन
से ज्यादा
मजबूत है।
क्योंकि जमीन
की जो कशिश है,
वह एक जड़
शक्ति है
खींचने की; वासना की
बड़ी सजग, चेतन
शक्ति है
खींचने की। और
हमें पता ही
नहीं चलता।
हमें पता नहीं
चलता!
आप
रास्ते पर
चलते हैं, आपको कभी
पता चला कि
जमीन आपको
खींच रही है? आपको कोई
पता नहीं
चलता। हम उसी
में पैदा होते
हैं। हमें कभी
पता ही नहीं
चलता कि जमीन
हमें कितने
जोर से अपनी
तरफ खींच रही
है पूरे वक्त।
यह तो पता चले
तब, जब हम
एक क्षण के
लिए भी ग्रेविटेशन
के बाहर हो
जाएं।
अभी
अंतरिक्ष में
जो यात्री गए
उनको पता चला
कि यह तो बड़ा
मुश्किल
मामला है। एक
सेकेंड भी कुर्सी
पर बिना बेल्ट
बांधे नहीं
बैठा जा सकता!
बेल्ट छूटा कि
आदमी उठा, छप्पर से लग
गया एकदम। और
उनको पहली दफे
जाकर पता चला
कि वेटलेसनेस
क्या बला है!
वेट रहा ही
नहीं, क्योंकि
वेट जैसी कोई
चीज ही नहीं
है, वजन
जैसी कोई चीज
ही नहीं है, वह सिर्फ
जमीन की कशिश
है।
खयाल
हमको है कि
हममें वजन है!
वह वजन नहीं
है, वह सिर्फ जमीन
का खिंचाव है।
चूंकि चांद पर
जमीन की कशिश
बहुत कम है, चांद छोटा
है, इसलिए
कोई भी आदमी
किसी भी मकान
को ऐसे ही छलांग
लगा कर निकल
जा सकता है, उसमें कोई
कठिनाई नहीं
है। चांद पर
ये मकान आपके
काम नहीं
करेंगे, क्योंकि
चोर के लिए
आपका दरवाजा
नहीं खोलना पड़ेगा,
बस सिर्फ
छलांग लगा कर
आपकी छत पर आ
जाएगा। क्योंकि
वह जो चांद की
कशिश है, वह
बहुत कम है, आठ गुनी कम
है। यानी अगर
जो आदमी यहां
जमीन पर आठ
फीट छलांग लगा
सकता है, वह
वहां आठ गुनी
छलांग लगा
सकेगा इससे
ज्यादा, क्योंकि
उसका वजन कम
हो गया।
लेकिन
हमें पता ही
नहीं है कि
पूरे वक्त
जमीन हमको
खींचे हुए है!
क्योंकि हम
उसी में पैदा
होते हैं, उसी में बड़े
होते हैं और
उसी में हम
निर्धारित हो
जाते हैं!
ऐसे ही
हमको यह भी
पता नहीं है
कि वासना हमें
चौबीस घंटे
खींचे हुए है, क्योंकि हम
उसी में पैदा
होते हैं, हमें
पता ही नहीं
चलता! पैदा
हुआ बच्चा और
वासना की दौड़
शुरू हुई और वासना
ने उसे पकड़ना
शुरू किया:
उसे यह चाहिए,
उसे यह
चाहिए; उसे
यह बनना है, उसे वह बनना
है; दौड़
शुरू हो गई और
चक्र जोर से
घूमने लगा!
इस
चक्र के बाहर
जिसे भी छलांग
लगानी हो, उसे वासना
के बाहर उतर
जाना पड़ता है।
और वासना के
बाहर साक्षी
का भाव ले
जाता है। जैसे
ही कोई
व्यक्ति
साक्षी हो गया,
वह वासना के
बाहर चला जाता
है।
और
हमारी तो
कठिनाई यह है
कि जीवन में
साक्षी होना
तो बहुत कठिन, हम
नाटक-फिल्म तक
में साक्षी
नहीं हो सकते!
अगर एक दुखांत
फिल्म से
निकलते हुए
लोगों के रूमाल
जांच लिए जाएं
तो आपको पता
चलेगा एक आदमी
नहीं निकला है,
जो नहीं
रोया हो!
वह तो
अंधेरा रहता
है तो बड़ी
सुविधा रहती
है। आदमी बगल
में देख लेता
है, कोई नहीं
देख रहा, अपने
आंसू पोंछ कर
बैठ जाता है।
फिल्म पर, पर्दे
पर, जहां
कुछ भी नहीं
है; जहां
सिवाय प्रकाश
के कम-ज्यादा
फेंके गए
किरण-जाल के
और कुछ भी नहीं
है; वहां
हम कितने दुखी,
सुखी, आनंदित,
क्या-क्या
नहीं हो जाते!
थ्री
डायमेंशनल
फिल्म बनी
हैं। तो जब
पहली-पहली दफा
उनका
प्रदर्शन हुआ
तो बड़ी हैरानी
की बात हुई, क्योंकि
थ्री
डायमेंशनल
फिल्म में तो
बिलकुल ऐसा
दिखाई पड़ता है
कि आदमी
पूरा--ये तो सब
हमारी जो
फिल्में हैं,
टू
डायमेंशनल
हैं; दो
आयाम में बनी
हैं। लंबाई है,
चौड़ाई है; गहराई
नहीं है।
गहराई फिल्म
में आ जाती है
तो फिर सच्चे
आदमी में और
फिल्म के आदमी
में कोई फर्क
नहीं। पर्दे
पर जो दिखाई
पड़ रहा है, वह
बिलकुल सच्चा
हो गया।
जब
पहली दफा
फिल्म बनी और
लंदन में उसका
प्रदर्शन हुआ
थ्री
डायमेंशनल
फिल्म का--तो
उसमें एक घोड़ा
है, एक घुड़सवार
है, जो
भागा चला आ
रहा है। सारे
हाल के लोग
एकदम झुक गए
कि वह जो घोड़ा
है, एकदम
निकल न जाए
हाल के अंदर
से--क्योंकि
वह तो थ्री
डायमेंशनल है!
एक भाला फेंका
उस घुड़सवार
ने और सब लोग
अपनी खोपड़ी
बचा लिए।
क्योंकि वह भाला
जो है, कहीं
खोपड़ी में न
लग जाए; क्योंकि
वह तो बिलकुल
फिंका। वह
थ्री डायमेंशनल
होने की वजह
से उसका जो
एफेक्ट है, उसका जो
प्रभाव है, वह तो
बिलकुल ऐसे ही
होने वाला है,
जैसे असली
भाले का होगा।
तब पता चला कि
आदमी उस स्थल
में भी कितना
भूल जाता है
कि यह पर्दा
है! और हम सब
रोज ही भूलते
हैं! वहां भी
हम साक्षी नहीं
रह पाते, वहां
भी हमें यह
पता नहीं चल
पाता। बल्कि
कई बार जिंदगी
से ज्यादा हम
वहां खो जाते
हैं।
टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मैं बड़ा हैरान
हुआ। उसकी मां
रोज थिएटर
जाती। और रूस
की सर्दी!
बर्फ पड़ती, बाहर थिएटर
के कोच खड़ा
रहता, बग्घी
खड़ी रहती; बग्घी
पर दरबान खड़ा
रहता, क्योंकि
उसकी मां कब
बाहर आ जाए
पता नहीं। तो दरबान
को छोड़ा नहीं
जा सकता, कोच
विदा की नहीं
जा सकती। शाही
परिवार के लोग
हैं। टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मैं यह देख कर
हैरान हुआ कि
मेरी मां
थिएटर में
इतना रोती कि
उसके रूमाल
भीग जाते।
बाहर हम आते
और अक्सर ऐसा
होता कि
कोचवान जो
बैठा रहता, वह बर्फ की
वजह से मर
जाता, तो
उसे धक्के
देकर बाहर फिंकवा
दिया जाता, और मां आंसू
पोंछती रहती
फिल्म के! और
उसके सामने वह
मर गए आदमी को
धक्के देकर
हटा दिया जाता,
दूसरा आदमी
सड़क से पकड़ कर बिठाल
लिया जाता और
कोच घर चली
जाती!
तो टाल्सटाय
ने लिखा है कि
मैं दंग हुआ, हैरान हुआ
यह देख कर कि
एक जिंदा आदमी
मर गया हमारी
कोच पर बैठा
हुआ सिर्फ
इसलिए कि हम
उसको छुट्टी
नहीं कर सकते;
न हटा सकते
हैं उसको, कोच
रखनी पड़ेगी!
मां किसी भी
वक्त बाहर आ
सकती है, तो
उसी वक्त कोच
तैयार चाहिए!
तो वह बर्फ की
ठंड में मर
गया है, उसकी
मां के सामने
उसकी लाश फिंकवा
दी गई है और
दूसरा आदमी
पकड़ कर कोच घर
की तरफ चली गई!
और मां पूरे
रास्ते रोती
रही उस फिल्म
के लिए, या
उस नाटक के
लिए, जहां
कोई मर गया था;
या जहां कोई
प्रेमी बिछुड़
गया था; या
जहां कुछ और
दुर्घटना घट
गई थी।
तो कई
बार ऐसा हो
जाता है कि
बाहर की
जिंदगी भी हमें
उतना ज्यादा
नहीं पकड़ती, जितनी चित्र
की कहानी पकड़
ले! क्योंकि
बाहर की जिंदगी
बहुत
अस्तव्यस्त
है और चित्र
की कहानी बहुत
व्यवस्थित है
और आपके मन को
कितना डुबा
सके, उसकी
सारी
व्यवस्था की
गई है। बाहर
की जिंदगी में
यह सब
व्यवस्था
नहीं है। वहां
सारी व्यवस्था
की गई है। आप
कहां-कहां, आपके
रग-रेशे को
छुआ जा सके, कैसे आपको डुबाया जा
सके, भुलाया
जा सके, उसका
सारा इंतजाम
किया गया है, वह पूरा
वैज्ञानिक
है। बाहर की
जिंदगी बड़ी अवैज्ञानिक
है, वह चल
रही है एक ढंग
से, उसमें
अभी कोई उतनी
व्यवस्था
नहीं है।
नाटक
तक में हम
साक्षी नहीं
रह पाते!
फिल्म तक में
साक्षी नहीं
रह पाते! और
वासना से
छूटना हो तो
पूरा जीवन
फिल्म की तरह, नाटक की तरह
हो जाना जरूरी
है--पूरा
जीवन। और बहुत
गहरे में हम
खोज करेंगे तो
फर्क ज्यादा
नहीं है। बहुत
गहरे में हम
खोज करेंगे तो
मेरा यह शरीर
उसी तरह
विद्युत-कणों
से बना है, जिस
तरह फिल्म के
पर्दे पर बना
हुआ शरीर
विद्युत-कणों
से बना है।
बहुत गहरे हम
खोज करेंगे तो
फिल्म की कहानी
या नाटक की
कहानी जितना
अर्थ रखती है,
उससे
ज्यादा हमारी
जिंदगी की
कहानी भी कौन
सा अर्थ रखती
है?
हां, फर्क इतना
ही है कि वह
तीन घंटे की
मंच है, यह
शायद सत्तर
साल की मंच है,
सौ साल की
मंच है। यह
नाटक सौ साल
चलता है। और
यह नाटक कंटिन्यूअस
है। इसमें
अभिनेता
बदलते चले
जाते हैं, पात्र
बदलते चले
जाते हैं; दूसरे
आते चले जाते
हैं और यह
नाटक चलता ही
रहता है! इस
नाटक में
दर्शक और
अभिनेता
अलग-अलग नहीं
हैं; वे ही
दर्शक हैं, वे ही अभिनय
करने वाले
हैं! और यह
चलता ही चला जाता
है! एक विदा
होता है, दूसरा
उसकी जगह ले
लेता है--कभी
मंच खाली नहीं
होती। देखने
वाले भी रहते
हैं, करने
वाले भी रहते
हैं, क्योंकि
वे दोनों एक
ही हैं! और
इसलिए इस लंबे
मंच का हमें
खयाल नहीं आता
कि यहां भी एक
लंबा नाटक
खेला जा रहा
है।
यह जो
हमें स्मरण आ
सके कि एक
लंबा नाटक
खेला जा रहा
है, तो शायद
हम भी साक्षी
हो सकें। और
फिर शायद नाटक
के इन पात्रों
में क्या मैं
हो जाऊं, यह
खयाल छूट जाए।
जो हम हैं, शायद
हम उसी को
चुपचाप निभा
कर और विदा हो
जाएं।
ऐसी
चित्त की दशा
में, जहां बिकमिंग
छूट जाती है, वासना छूट
जाती है, तृष्णा
छूट जाती है, जहां हम दौड़
से बाहर खड़े
हो जाते हैं, और दौड़
सिर्फ नाटक रह
जाती है, व्यक्ति
वह छलांग लगा
लेता है, जहां
ग्रेविटेशनल
फोर्स डिजायर
का, तृष्णा
का टूट जाता
है; और हम
वहां खड़े हो
जाते हैं, जहां
मुक्त, बंधन
के बाहर, कारागृह
के बाहर कोई
खड़ा होता है।
उस
शांति को, उस आनंद को
कहना मुश्किल
है, इशारे
किए जा सकते
हैं, फिर
भी कुछ ठोस
खबर नहीं दी
जा सकती।
क्योंकि नाटक
में जो खोए
हैं, नाटक
में जो भटके
हैं, अभिनय
ही जिन्हें
जीवन हो गया
है, उन्हें
वास्तविक
जीवन की कोई
खबर समझ में
नहीं आ सकती।
सच में
जैसा है, वह
बिलकुल वैसा
ही है, जैसा
कि नाटक के
मंच के पीछे
ग्रीन रूम है।
यहां जो राम
बना था, रावण
बना था, लड़
रहे थे, झगड़ रहे थे, पीछे
ग्रीन रूम में
जाकर एक-दूसरे
को चाय पिला
रहे हैं और
गपशप कर रहे
हैं! जिस दिन
कोई देख पाता
है जिंदगी को,
तब हैरान
होता है कि
असली जिंदगी
के नाटक में
भी राम और
रावण जब पर्दे
के पीछे चले
जाते हैं तो
चाय पीते हैं
और गपशप करते
हैं। वहां भी
झगड़े खतम हो
जाते हैं और
टूट जाते हैं।
लेकिन वह
ग्रीन रूम जरा
गहरे में छिपा
है और पर्दा
बहुत लंबा है।
और पर्दे के
बाहर ही हम
पूरे वक्त
रहते हैं, इसलिए
हमें पता ही
नहीं कि पीछे
ग्रीन रूम भी
है!
इस बात
का पता चल
जाना ही, कि
हम एक बड़े
नाटक के
हिस्से
हैं...कभी आपने
सोचा, अपने
को एक नाटक के
पात्र की तरह
कभी देखा? कभी
सुबह उठ कर
आपने खयाल
किया कि एक
नाटक शुरू
होता है रोज
सुबह? रात
थक जाते हैं, सो जाते हैं,
एक नाटक का
अंत होता है
रात; फिर
रोज सुबह शुरू
हो जाता है! और
कभी आपने सोचा
कि कई बार
आपको ध्यान
रखना पड़ता है
कि नाटक में
भूल-चूक न हो
जाए! कई बार
आपको ध्यान
रखना पड़ता है।
एक फ्रेंच
चित्रकार
अमरीका जा रहा
था। उसके
भुलक्कड़ होने
की बड़ी
कहानियां
थीं। उसकी
पत्नी और उसकी
नौकरानी, उसको
दोनों विदा
देने
एयरपोर्ट आई
हैं। उसने जल्दी
में नौकरानी
को चूम लिया
है और पत्नी
को कहा, खुश
रहना, बच्चों
का खयाल रखना!
और वह जाकर...वे
दोनों घबड़ा गई
हैं, क्योंकि
वह, उसकी
पत्नी ने कहा,
यह क्या
करते हैं? आप
खयाल नहीं
करते, वह
नौकरानी है!
उसको आप चूमते
हैं और मुझे
नौकरानी
बनाते हैं? मैं आपकी
पत्नी!
उसने
कहा, चलो बदले
देता हूं!
उसने कहा कि
चलो, बदले
देता हूं!
पत्नी को चूम
लिया है, नौकरानी
को कहा, बच्चों
का खयाल रखना।
उसने कहा, कभी-कभी
चूक जाता हूं,
खयाल नहीं
रख पाता।
कभी-कभी चूक
जाता हूं, खयाल
नहीं रख पाता।
हम
खयाल रख पाते
हैं, कुछ लोग
चूक जाते हैं।
खयाल क्या रख
रहे हैं हम
चौबीस घंटे? यह मेरा
पिता है, यह
मेरी पत्नी है,
यह मेरा
बेटा है, इसका
हमें खयाल
रखना पड़ता है
चौबीस घंटे!
और न खयाल
रखें तो दूसरे
हमें खयाल
दिलाते हैं कि
वे तुम्हारे
पिता हैं, या
खुद आदमी खयाल
दिलाता है कि
मैं तुम्हारा
पिता हूं! वह
नाटक हमें
पूरे वक्त याद
रखना पड़ता
है--कहीं भूल न
जाएं, कहीं
चूक न हो जाए।
और जो इस नाटक
को जितना अच्छी
तरह से निभा
लेता है, उतना
कर्तव्यनिष्ठ
है!
नहीं
कहता हूं कि
नाटक न निभाएं, नाटक निभाने
के लिए ही है
और बड़ा मजेदार
भी है, उसमें
कुछ ऐसी तकलीफ
भी नहीं है।
बस एक ही खयाल
न भूल जाए, और
सब चाहे भूल
जाएं, एक
बात न भूल जाए
कि सिर्फ नाटक
है, और
कहीं भीतर
हमारे एक
बिंदु है, जहां
हम सदा बाहर
हैं।
स्वामी
राम अमरीका गए, उनकी बड़ी
अजीब सी आदत
थी। अमरीका
में लोगों को
बड़ी मुश्किल
हुई, क्योंकि
वे हमेशा थर्ड
परसन में
ही बोलते थे!
यहां तो उनके
मित्र उनको
पहचानने लगे
थे, लेकिन
वहां बड़ी
कठिनाई हुई।
और हम
अजीब-अजीब तरह
के लोगों के
थोड़े आदी भी
हैं, सारी
दुनिया इतनी
आदी नहीं है।
क्योंकि यहां महावीर,
बुद्ध जैसे
अजीब-अजीब लोग
हुए हैं, उन्होंने
हमें बहुत सी
बातों की आदत
डलवा दी है जो
कि दुनिया में
बहुत लोगों को
नहीं भी है।
राम जब
वहां पहुंचे
तो वे लोग बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए, क्योंकि
वे कहते कि
राम को इस
वक्त बहुत भूख
लगी हुई है।
तो अब जो आदमी
सामने बैठा है,
वह चारों
तरफ देखता कि
कौन राम? क्योंकि
अगर मुझे भूख
लगी है तो मैं
कहूंगा, मुझे
भूख लगी है।
और राम यह
कहते कि राम
को बड़ी भूख
लगी है! देखते
क्या हो, कुछ
इंतजाम करो।
राम बड़ा
परेशान हो रहा
है। तो उन
लोगों ने कहा
कि कौन राम?
तो
उन्होंने कहा, यह राम! तो
उन्होंने कहा,
आप ऐसा क्यों
नहीं कहते कि
मैं? उन्होंने
कहा, वैसा
मैं कैसे कह
सकता हूं? क्योंकि
मैं तो खुद ही
देख रहा हूं
कि राम को तकलीफ
हो रही है, तो
मैं तो अलग ही
कर सकता हूं।
इकट्ठा कैसे
हो सकता हूं? देख रहा हूं,
राम को भूख
लगी है, राम
को मुश्किल हो
रही है! राम को
ठंड लगी, मैं
देख रहा हूं।
कई दफे ऐसा
होता है, कई
लोग राम को
खूब गाली देते
हैं। हम बहुत
हंसते हैं, कहते हैं, देखो राम
कैसी पड़ी!
कैसी मुश्किल
में फंसे! आ गया
न मजा!
अब यह
जो यह जो खयाल
कि कहीं मैं
अलग हूं, सारे
खेल से कहीं
दूर हूं, साक्षी
बना देता है।
वासना की दौड़
टूट जाती है।
खेल फिर भी
चलता है, क्योंकि
आप अकेले खिलाड़ी
नहीं हैं। खेल
फिर भी चलता
है, क्योंकि
खिलाड़ी
बहुत हैं। और
फिर खेल भी
क्या बिगाड़ना
है! बड़े-बूढ़े
छोटे बच्चों
के साथ गुड़िया
का खेल भी खेल
लेते हैं।
एक
मेरे मित्र एक
घर में जापान
में मेहमान
थे। उन्हें
कुछ पता न था।
सुबह ही घर
में बड़ी सज-धज
शुरू हो गई और
घर के
बड़े-बूढ़े भी
बड़े उत्तेजित
मालूम पड़े! तो
उन्होंने
पूछा कि बात
क्या है? तो
उन्होंने कहा
कि आज विवाह
है एक, आप
भी सम्मिलित
हों।
उन्होंने कहा,
जरूर
सम्मिलित हो जाऊंगा।
सांझ आ गई, घर
में बड़ी
तैयारी चलती
रही। बच्चों
से लेकर बूढ़ों
तक सब तैयारी
में लगे हैं! वे
भी बेचारे
बहुत तैयार-वैयार हो
गए, फिर गए
और जब देखा
जाकर तो बड़े
हैरान हुए। जो
विवाह हो रहा
था, वह एक गुड़िया और
एक गुड्डे का
विवाह हो रहा
था! पड़ोस के घर
की एक लड़की ने गुड़िया की
शादी रचाई थी
और पड़ोस के
दूसरे घर के
एक लड़के ने
अपने गुड्डे
का विवाह
रचाया था। उन
दोनों का
विवाह हो रहा
था, लेकिन
गांव के
बड़े-बूढ़े, प्रतिष्ठित
और मेयर भी
मौजूद थे! तो
मेरे मित्र ने
कहा, यह
क्या पागलपन
है! और इतना
साज-संवार चल
रही थी और
इतने
बैंड-बाजे बज
रहे थे और ठीक
जैसे शादी हो
रही थी!
तो
मेरे मित्र ने
उस घर के बूढ़े
को कहा कि यह
क्या पागलपन
है? आप लोग इन
गुड़ियों
के विवाह में
सम्मिलित हुए?
तो
उन्होंने कहा
कि इस उम्र
में पता चल
जाना चाहिए कि
सभी विवाह गुड़ियों
के हैं। उस
बूढ़े ने कहा, इसलिए इसमें
भी क्या फर्क
है? यानी
उसमें और
इसमें कोई
बहुत फर्क
नहीं है।
इसमें क्या
फर्क है? अब
ये बच्चे खेल
खेल रहे हैं, हम उनमें
सम्मिलित
होते हैं। और
हम उसी गंभीरता
से सम्मिलित
होते हैं, जितनी
गंभीरता से हम
असली विवाह
में सम्मिलित
होते हैं, ताकि
बच्चे समझ लें
कि असली विवाह
भी गुड़ियों
के खेल से
ज्यादा नहीं
हैं। बूढ़े
दोनों में एक
ही गंभीरता से
सम्मिलित होते
हैं।
उस
बूढ़े का खयाल
देखते हैं? वह यह कह रहा
है कि बच्चों
को अभी से पता
चल जाए कि
हमारी
गंभीरता में
कोई फर्क नहीं
है--गुड़िया
के विवाह में
भी हम उसी
गंभीरता से
आते हैं, जैसे
हम असली विवाह
में आते हैं!
दोनों में भी
कोई फर्क नहीं
है। हम दोनों
का कोई भेद भी
नहीं करते
हैं। ठीक है, वह एक तल की गुड़ियों
का विवाह है, यह दूसरी तल
की गुड़ियों
का विवाह है।
लेकिन विवाह
हो रहा है और
लोग मजा ले
रहे हैं और हम
भागीदार हो
जाते हैं। हम
क्यों नाहक
लोगों के इस
रस में, इस
राग-रंग में
बाधा बन जाएं?
ठीक है!
बुद्धिमान
आदमी जिसको हम
वाइज़ मैन
कहें, विज़डम जहां आती है,
बुद्धिमत्ता
जहां आती है, वहां ऐसा
नहीं होता कि
जगत माया हो
जाता है, वहां
ऐसा नहीं होता
कि जगत नाटक
हो जाता है, वहां नाटक
और जगत एक ही
हो जाता है।
ऐसा नहीं होता
कि इसकी कोई
निंदा आ जाती
है कि यह नाटक
है, तो गलत
है, ऐसा भी
कुछ नहीं हो
जाता, वहां
सब बराबर हो
जाता है। वहां
सब बराबर हो जाता
है, जगत और
नाटक एक हो
जाते हैं।
सिर्फ एक घटना
घट जाती है कि
साक्षी अलग
खड़ा हो जाता
है।
जिस
दिन साक्षी
अलग खड़ा हो
जाए जीवन से, उसी दिन दौड़
के बाहर हो
जाता है।
तो
महावीर की
साधना मौलिक
रूप से साक्षी
की साधना है।
सभी साधनाएं
मौलिक रूप से
साक्षी की साधनाएं
हैं। किस
भांति हम
देखने वाले हो
जाएं, भोगने
वाले न रह
जाएं, करने
वाले न रह
जाएं--दर्शक, द्रष्टा, साक्षी हो
जाएं। किस
भांति सिर्फ
साक्षी रह जाएं,
जरा भी खयाल
न रहे।
एपीटेक्टस
हुआ, एक अदभुत
व्यक्ति हुआ।
बीमारी भी आती,
दुख भी आता,
चिंता आती,
तो भी लोग
उसे वैसा ही
पाते; जैसे
जब वह स्वस्थ
था, निश्चिंत
था, शांत
था, सुख
था। लोगों ने
हर हालत में
उसे देखा, लेकिन
वैसा ही पाया,
जैसा वह था;
उसमें कुछ
फर्क नहीं
देखा कभी भी।
कुछ लोग उसके
पास गए और कहा
कि एपीटेक्टस,
अब तो मौत
करीब आती है, तुम बूढ़े हो
गए।
तो
उसने कहा, जरूर आए, देखेंगे!
उसने कहा, जरूर
आए, देखेंगे!
मौत को देखोगे?
उसने कहा, जब सब चीजें
देखने की ताकत
आ गई तो मौत को
देखने की ताकत
भी आ गई। वह तो
जिंदगी को ही
जो नहीं देख
पाते, वही
मौत को नहीं
देख पाते। जो
जिंदगी को देख
लेता है, वह
मौत को भी देख
लेता है। एपीटेक्टस
ने कहा, देखेंगे!
बड़ा मजा आएगा।
क्योंकि बड़े
दिन हो गए, तब
से मौत को
नहीं देखा!
बहुत समय हो
गया, तब से
मौत को नहीं
देखा!
मौत आई
है तो कई लोग
इकट्ठे हो गए
हैं। एपीटेक्टस
मर रहा है
लेकिन घर में
संगीत बजाया
जा रहा है, क्योंकि
उसने अपने
शिष्यों को, अपने
मित्रों को
कहा है कि
मरते क्षण में
मुझे रोकर
विदा मत देना!
क्योंकि रोकर
हम उसको विदा
देते हैं, जो
जानता नहीं
था। मुझे तुम
हंस कर विदा
देना, क्योंकि
मैं जानता
हूं। क्योंकि
मैं मर ही नहीं
रहा हूं।
मैंने देखना
सीख लिया है, हर स्थिति
को देखना सीख
लिया है। और
जिस स्थिति को
मैंने देखना
सीखा, मैं
उसी के बाहर
हो गया उसी
वक्त। अगर
मैंने दुख को
देखा, मैं
दुख के बाहर
हो गया। अगर
मैंने सुख को
देखा, मैं
सुख के बाहर
हो गया। अगर
मैंने जीवन को
देखा तो मैं
जीवन के बाहर
हो गया। तो
तुमसे मैं कहता
हूं कि मैं
देखने की कला
जानता हूं, मैं मौत को
देख लूंगा और
मौत के बाहर
हो जाऊंगा।
तुम इसकी फिकर
ही मत करो।
मैं जिस चीज
को देखा, उसी
के बाहर हो
गया। तो मेरे
जीवन भर का
अनुभव यह है
कि देखो और
बाहर हो जाओ।
मगर हम
देख ही नहीं
पाते!
इसीलिए
इस देश में
तत्व-विचार को, फिलासफी को जो नाम
दिया है, वह
दर्शन का दिया
है।
दर्शन
का मतलब है:
देखने की
क्षमता।
दर्शन
का मतलब फिलासफी
नहीं है।
फिलासफी
का मतलब है:
विचार का
प्रेम। दर्शन
का मतलब है:
देखने की
क्षमता।
पश्चिम
में फिलासफी
है जो, उसे
हमें दूसरे
नाम देना
चाहिए, मीमांसा
कहना चाहिए, कुछ और कहना
चाहिए, तत्व-विचार
कहना चाहिए।
भारत में जिसे
हम दर्शन कहते
रहे हैं; महावीर,
बुद्ध या
पतंजलि या
कपिल या कणाद
जिसको दर्शन कहे
हैं, वह
बात फिलासफी
नहीं है। वे
यह कह रहे हैं
कि देखने की
कला।
देख लो
और बाहर हो
जाओ। सोचने का
सवाल नहीं है यहां--देखो
और बाहर हो
जाओ। और जिस
चीज को देख लोगे, उसी के बाहर
हो जाओगे।
यह कभी
सोचा आपने, कि जिस चीज
को आप देखने
में समर्थ हो
जाते हैं, आप
तत्काल उसके
बाहर हो जाते
हैं। किसी भी
चीज को देखें,
आप बाहर हो
जाएंगे। हम
यहां इतने लोग
बैठे हुए हैं
और अगर आप गौर
से देखें, आप
फौरन बाहर हो
जाएंगे। आप
इतने लोगों को
गौर से देखें
और आप पाएंगे
भीड़ गई, आप
अकेले रह गए।
कभी
कितने ही लाख
की भीड़ में आप
खड़े हों और
गौर से चारों
तरफ देखें और
जाग जाएं--जस्ट
सी एंड बी
अवेयर--और आप
अचानक पाएंगे, भीड़ गई, आप
अकेले ही रह
गए हैं। भीड़
है पर आप
बिलकुल अकेले
रह गए हैं! जिस
चीज को आप
देखने की
क्षमता जुटा
लेंगे, उसी
के बाहर हो
जाएंगे। वह ट्रांसेंडेंस,
पार हो जाना
है।
तो इस
चक्र से, जिस
चक्र में सब
चीजें एक सी
घूमती चली
जाती हैं, अगर
हम द्रष्टा हो
जाएं तो हम
तत्काल बाहर
हो जाते हैं।
पोम्पेई
के शहर में आग
लगी, क्योंकि पोम्पेई
का
ज्वालामुखी
फूट गया था, सारा गांव
भागा। जिसके
पास जो था
बचाने को, बचा
सकता था, भागा
बचा कर। किसी
ने धन, किसी
ने किताबें, किसी ने
बही-खाते, किसी
के पास
फर्नीचर था, किसी के पास
कपड़े थे, मोती
थे, जवाहर
थे--सब, जो
जिसके पास था,
लेकर भागा।
फिर भी कोई
पूरा नहीं बचा
सका। क्योंकि
जब आग लगती हो
तो पूरा बचाना
मुश्किल है।
और जब भागने
का सवाल हो, जिंदगी
मुश्किल में
पड़ी हो, तो
बहुत ज्यादा बचाने
की चेष्टा में
खुद को अटकाया
भी नहीं जा
सकता।
लोग
भागे, आधी
रात थी। एक
सिपाही चौरस्ते
पर खड़ा है, जिसकी
सुबह छह बजे
डयूटी
बदलेगी। सुबह
छह बजे दूसरा
आदमी आएगा, सुबह छह का
घंटा बजेगा और
उसकी छुट्टी
होगी। और रात
दो बजे नगर जल
उठा है। सारा
नगर भाग रहा है,
वह पुलिस
वाला अपनी जगह
खड़ा है। जो भी
उसके करीब से
निकलता है, उससे कहता
है, भागो! यह कोई वक्त
है खड़े रहने
का? वह
कहता है, लेकिन
अभी छह कहां
बजा? अभी
सुबह छह बजे
का आदमी आएगा,
उसकी राह
देखता हूं।
भीड़
में जो भी
आदमी आए पुलिस
वाले के पास, उसने कहा, क्या खड़े हो?
लोगों ने
धक्का दिया कि
भागो
यहां से, आग
चली आ रही है।
उसने कहा, लेकिन
अभी छह का
घंटा नहीं बजा
और अभी वह
आदमी नहीं
आया! लोगों ने
कहा, अब वह
कभी नहीं
आएगा। वह आदमी
कब का भाग
चुका होगा। और
अब छह का घंटा
भी कौन बजाएगा?
सारा गांव
भाग रहा है।
जो आता है, वही
उससे कहता है,
कैसे खड़े हो?
पागल हो!
तो वह
सिपाही कहता
है, अगर खड़े
होना तुम भी
सीख जाओ तो
भागने की कोई
जरूरत नहीं।
उस
सिपाही ने कहा, अगर खड़े
होना तुम भी
सीख जाओ तो
भागने की कोई
जरूरत नहीं।
और मुझ खड़े को
भगाने की
कोशिश कर रहे
हो! आग लगी है, वह बाहर है।
और कितनी ही
आग लग जाए, अगर
मैं खड़ा ही
रहूं और देखता
ही रहूं तो आग
सदा ही बाहर
रहेगी।
क्योंकि
देखने वाला तो
मैं पीछे अलग
ही छूट जाऊंगा
हर बार। कितनी
ही आग करीब आ
जाए--करीब आ
सकती है, शरीर
में लग सकती
है, कपड़ों
में लग सकती
है--लेकिन अगर
मैं देखता ही गया
तो मैं तो छूट
ही जाऊंगा
बाहर। तुम
व्यर्थ भाग
रहे हो, क्योंकि
जहां तुम भाग
रहे हो, आग
वहां भी लग
सकती है। और
कहीं भी न
भागोगे तो एक
दिन आग लगेगी
ही। मैं खड़ा
हूं और खड़ा
होना तुम सीख
जाओ। लेकिन
तुम भाग रहे
हो तो तुम खड़े
कैसे होओगे?
हम सब
भाग रहे हैं
और खड़े हम
नहीं हो पाते।
और भागने की
जो दौड़ है, वह चक्रीली
है, वह
चक्कर वाली है,
उसमें
चक्कर हम
लगाते चले
जाते हैं। हर
बार लगता है
कि कहीं पहुंच
रहे हैं, कहीं
नहीं पहुंच
पाते, क्योंकि
चक्कर और आगे
दिखाई पड़ने
लगता है। लेकिन
कोई खड़ा भी हो
जाता है कभी, ऐसा पटरी से
नीचे उतर कर खड़ा
हो जाता है और
देखने लगता है
इस चक्कर को। और
तब बहुत हंसी
आती है, क्योंकि
लोग व्यर्थ
पागल की तरह
दौड़े चले जा रहे
हैं। और जिस
जगह को छोड़ कर
वे भाग रहे
हैं, थोड़ी
देर में उसी
जगह पर आ
जाएंगे, क्योंकि
चक्कर गोल है
और उसमें वे
गोल घूम रहे
हैं और कहीं
कोई जा नहीं
सकता। और सब
भाग रहे हैं, एक-दूसरे के
पीछे भागे चले
जा रहे हैं!
जो
व्यक्ति बाहर
खड़ा हो जाता
है, वह ऐसा ही
हो जाता है, जैसे एक बड़ा
नाटक चलता हो
और कोई आदमी
बाहर खड़ा होकर
देखने लगा।
जीवन
की कला जीवन
में खड़े हो
जाने की कला
ही है। धर्म
का विज्ञान
दर्शक बन जाने
का ही विज्ञान
है।
और
सारे
शास्त्रों का
सार और उन
सारे व्यक्तियों
की वाणी का
अर्थ, जो
जागे और जीए, जो पहचाने
और पार हुए, एक ही शब्द
में है--और वह
यह है कि खड़े
हो जाओ। दौड़ो
मत--देखो। डूबो
मत--पार खड़े हो
जाओ, दूर
खड़े हो जाओ।
देखो--और डूबो
मत।
अगर
कोई अनडूबा
खड़ा रह जाए एक
क्षण को भी, तो जो आप कह
रहे हैं कि
क्या फिर
लौटना नहीं हो
जाएगा? नहीं,
एक बार कोई
खड़ा हो गया तो
वह प्वाइंट ऑफ
नो रिटर्न है,
वहां से
लौटने का सवाल
ही नहीं है।
मगर हम
चूंकि दौड़ रहे
हैं, लौटेंगे;
बहुत बार
लौट चुके हैं!
लौटते रहेंगे
और दौड़ते ही
रहेंगे! और कई
बार ऐसा होता
है कि थोड़े
दौड़ कर हम
नहीं उपलब्ध
हो पाते तो हम
सोचते हैं और
तेजी से दौड़ें!
एक
छोटी सी कहानी, और मैं अपनी
बात पूरी
करूं।
एक
आदमी को अपनी
छाया से डर
पैदा हो गया!
वह अपनी छाया
से भयभीत होने
लगा! वह अपनी
छाया से बचने
के लिए भागा।
वह जितनी तेजी
से भागा, छाया
उसके पीछे
भागी। उसने
देखा कि छाया
बड़ी तेज भाग
सकती है! इतनी
तेजी से काम
नहीं चलेगा, और तेजी से
भागना पड़ेगा।
उसने अपनी
सारी जान लगा
दी। जितनी
तेजी से वह
भागा, छाया
उतनी तेजी से
भागी, क्योंकि
छाया उसकी ही
थी जिससे वह
भाग रहा था। वह
स्वयं से ही
भाग रहा था।
पहुंच कहां
सकता था? छाया
से छूट कैसे
सकता था? अपने
से ही छूटने
का उपाय क्या
था?
लेकिन
गांव-गांव में
खबर फैल गई और
गांव-गांव में
लोग उसके
दर्शन करने
लगे और फूल
फेंकने लगे!
उसको तो रुकने
की फुरसत कहां
थी? क्योंकि
रुकता, तो
छाया उतनी देर
और जोर से जकड़
ले। और रुके
और छाया फिर
पकड़ ले। तो
भागते ही चले
जाना था। वह गांव-गांव
में भागता
रहता। उसकी
पूजा होने लगी,
उस पर फूल
बरसने लगे, उसके चरणों
में लाखों लोग
झुकने लगे!
और
जितने लोग
ज्यादा झुकने
लगे, जितने
फूल गिरने लगे,
वह उतनी
तेजी से भागने
लगा! और
गांव-गांव में
खबर हो गई कि
ऐसा तपस्वी
कभी नहीं देखा
गया, जो एक
क्षण नहीं
ठहरता, जो
रुकता ही नहीं,
जो रात
बेहोश होकर
गिर पड़ता था
जब थक कर तो
वही उसकी नींद
थी। और जब
उसकी आंख
खुलती थी, छाया
दिखती थी, वह
फिर भागना
शुरू कर देता
था!
आखिर
ऐसे आदमी का
क्या हल हो
सकता था? वह
आदमी मरा। वह
छाया साथ ही
रही और मरा।
जब मरा, तब
उसकी लाश की
भी छाया बन
रही थी!
फिर
लोगों ने उसको
दफना दिया, एक कब्र बना
दी बड़े दरख्तों
के नीचे। और
एक फकीर के
पास लोग पूछने
गए कि हम उसकी
कब्र पर क्या
लिख दें?
तो वह
फकीर आया, उसने कब्र
देखी, दरख्तों की छाया थी।
छाया में दरख्तों
की कब्र की
कोई छाया न बन
रही थी। तो उस
फकीर ने उसकी
कब्र पर लिखा
कि जो तू जीकर
न पा सका, वह
तेरी कब्र ने
पा लिया है!
तेरी कब्र ने
पा लिया है! और
पा लिया है
इसलिए कि तू भागता
था और कब्र
तेरी खड़ी है।
कब्र तेरी खड़ी
है छाया में, न भागती न
दौड़ती। उसकी
छाया खो गई है!
और पागल, तू
भागता था धूप
में और तेजी
से, और
छाया तेरी
पीछा करती थी।
अपनी कब्र से
तू पाठ सीख ले
तो अच्छा।
नहीं तो ऐसी
तेरी बहुत बार
कब्रें
बनेंगी और पाठ
तू कभी न सीखेगा
और भागता ही
रहेगा।
खड़ा हो
जाना सूत्र
है।
ठहर
जाना सूत्र
है--छाया में
ठहर जाना।
हम सब
धूप में दौड़
रहे हैं!
वासना, तृष्णा
की गहरी धूप
है और हम सबकी
दौड़ है, तो
फिर चक्र के
बाहर नहीं हुआ
जा सकता है।
आज
इतना ही।
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