तीर्थंकर
महावीर: अनुभूति
और
अभिव्यक्ति—(प्रवचन—आठवां)
प्रश्न:
महावीर
के पहले जो
तेईस
तीर्थंकर रहे
तो महावीर के
फेमिली वाले
या तो किसी के
अनुयायी रहे होंगे--महावीर
तो किसी के
अनुयायी थे
नहीं--तो वे
पार्श्वनाथ
के अनुयायी थे
या किसी के थे, तो यह कैसे
हुआ कि महावीर
ने जो अपना पथ
स्वतः
निर्माण किया,
जो किसी के
अनुयायी नहीं
रहे, उनका
पथ
पार्श्वनाथ
के पथ से या उस
परंपरा के पथ
से मेल खा गया?
क्योंकि
उनका पथ तो
पहले से ही था!
और जैन नाम जो
है संप्रदाय
का, वह
महावीर के साथ
ही साथ जुड़ा
है, उसके
पहले वे जो
लोग थे, वे
क्या कहलाते
थे?
इसमें
दोत्तीन
बातें समझने
जैसी हैं।
पहली बात तो
यह कि महावीर
के साथ ही
पहली बार
विचार की एक
धारा
संप्रदाय
बनी। महावीर
के पहले विचार
की एक धारा
थी। उस विचार
की धारा का
आर्य परंपरा
से कोई पृथक
अस्तित्व न
था। वह आर्य
परंपरा के
भीतर पैदा हुई
एक धारा थी।
उसका नाम
श्रमण था। जैन
वह नहीं कहला
रही थी तब तक।
और श्रमण
कहलाने का
कारण था। वह
कारण यह था, जैसा मैंने
पीछे कहा
आपको।
मैंने
पीछे आपको कहा
कि
ब्राह्मण-धारा
इस बात पर
श्रद्धा नहीं
रखती है कि
श्रम के
माध्यम से, साधना के
माध्यम से, तप के
माध्यम से
परमात्मा को
पाया जा सकता
है। परमात्मा
को पाया ही जा
सकता है अति
विनम्र-भाव
में, प्रार्थना
में, ह्यूमिलिटी
में, अत्यंत
दीन-भाव में, जहां हम
बिलकुल असहाय
हैं, हेल्पलेस
हैं, जहां
हम कुछ भी
नहीं कर सकते
हैं, करने
वाला वही है, जहां इस
परिपूर्ण
दीनता में...जिसको
जीसस ने
पावर्टी ऑफ दि
स्प्रिट कहा
है, जो
आत्मा में
इतना दीन और
दरिद्र है, जो यह कहता
है कि मैं कर
ही क्या सकता
हूं--बस मैं
मांग सकता हूं,
मैं अपने को
हाथ जोड़ कर
समर्पण कर
सकता हूं।
ऐसी एक
धारा थी, जो
परमात्मा को
या सत्य को
अत्यंत दीन, अत्यंत
विनम्र-भाव से
मांगती थी।
उससे ठीक
भिन्न और
विपरीत एक धारा
चलनी शुरू हुई,
जिसका आधार
श्रम था, प्रार्थना
नहीं। जिसका
आधार यह नहीं
था कि हम प्रार्थना
करेंगे, पूजा
करेंगे और मिल
जाएगा। जिसका
आधार यह था कि
श्रम करेंगे,
संकल्प
करेंगे, साधना
करेंगे। श्रम
और संकल्प से
जीता जाएगा।
तो
आर्य
जीवन-दर्शन
बड़ी बात है।
उस आर्य जीवन-दर्शन
में श्रमण
सम्मिलित है, ब्राह्मण
सम्मिलित है।
आर्य पूरी
जीवन-दृष्टि
की ये दो
धाराएं हैं।
महावीर पर आकर
उस धारा ने
अपना पृथक
अस्तित्व
घोषित किया।
महावीर के
पहले तक वह
धारा पृथक
नहीं है।
इसीलिए
आदिनाथ का नाम
तो वेद में
मिल जाएगा, लेकिन फिर
महावीर का नाम
किसी हिंदू
ग्रंथ में
नहीं मिलेगा।
पहले
तीर्थंकर का
नाम तो वेद में
उपलब्ध होगा
पूरे समादर के
साथ, लेकिन
फिर महावीर का
नाम उपलब्ध
नहीं होगा। महावीर
पर आकर विचार
की धारा
संप्रदाय बन
गई और उसने
आर्य जीवन-पथ
से अलग पगडंडी
तोड़ ली। तब तक
वह उसी पथ पर
थी। अलग चलती
थी, अलग
धारा थी
चिंतना की, लेकिन थी
उसी पथ पर। उस
पथ से भेद
नहीं खड़ा हो गया
था।
और
एकदम से भेद
खड़ा होता भी
नहीं है, वक्त
लग जाता है।
जैसे जीसस
पैदा हुए, तो
जीसस के वक्त
ही ईसाई धारा
अलग नहीं हो गई।
जीसस के मर
जाने के भी
दोत्तीन सौ
वर्ष तक यहूदी
फोल्ड के भीतर
ही जीसस के
विचारक चलते
रहे। लेकिन
जैसे-जैसे भेद
साफ होते गए
और दृष्टि में
विरोध पड़ता
गया, कोई
जीसस के तीन
सौ, चार सौ,
पांच सौ साल
बाद
क्रिश्चियन
धारा अलग खड़ी
हो पाई। जीसस
तो यहूदी ही
पैदा हुए और
यहूदी ही मरे।
जीसस ईसाई कभी
नहीं थे।
जैनों
के पहले तेईस
तीर्थंकर
आर्य ही थे, और आर्य ही
पैदा हुए, और
आर्य ही मरे।
वे जैन नहीं
थे। लेकिन
महावीर पर आकर
धारा बिलकुल
ही पृथक हो गई,
बलशाली हो
गई, अपनी
ठीक सुचिंतित
उसकी दृष्टि
हो गई। और इसलिए
फिर वह श्रमण
न कहला कर जैन
कहलाने लगी।
जैन
कहलाने का और
भी एक कारण हो
गया, क्योंकि
श्रमण भी बड़ी
धारा थी। सभी
श्रमण जैन नहीं
हो गए फिर।
श्रम और
संकल्प पर
आस्था रखने
वाले आजीवक भी
थे, बुद्ध
भी हैं, और
भी दूसरे
विचारक थे। तो
जब महावीर ने
अलग पूरी
दृष्टि को दे
दिया, पूरा
दर्शन दे दिया,
तो फिर यह
श्रमण-धारा की
भी एक धारा रह
गई। फिर बुद्ध
की धारा भी
श्रमण-धारा है,
पर वह अलग
हो गई। इसलिए
फिर इसको एक
नया नाम देना
जरूरी हो गया
और वह महावीर
के साथ जुड़
गया। क्योंकि
महावीर--जैसे
बुद्ध को हम
कहते हैं, बुद्धा
दि एनलाइटेंड,
गौतम बुद्ध
जाग्रत पुरुष,
वैसे
महावीर जिन, महावीर दि
कांकरर।
कांकरर!
महावीर, विजेता,
जिसने जीता
और पाया।
तो
महावीर के साथ
पहली दफा...जिन
तो बहुत पुराना
शब्द है। वह
बुद्ध के लिए
भी उपयुक्त
हुआ है। जिन
का तो मतलब
जीतना ही है।
लेकिन फिर
भेदक-रेखा
खींचने के लिए
जरूरी हो गया
कि जब गौतम
बुद्ध के
अनुयायी
बौद्ध कहलाने
लगे तो महावीर
के अनुयायी
जिन के कारण
जैन कहलाने
लगे। जिन शब्द
और जैन शब्द
महावीर के साथ
प्रकट हुआ। और
दो स्थितियां
हुईं। एक तो
आर्य मूल-धारा
से श्रमण-धारा
अलग टूट गई और
श्रमण-धारा
में भी कई पंथ
हो गए, जिनमें
जैन एक पंथ
बना।
इसलिए
महावीर के
पहले के
तीर्थंकर
हिंदू फोल्ड
के भीतर हैं, वे बाहर
नहीं हैं।
महावीर पहले
तीर्थंकर हैं जो
हिंदू फोल्ड
के बाहर खड़े
होते हैं। समय
लगता है किसी
विचार को
पूर्ण
स्वतंत्रता
उपलब्ध करने
में। वह समय
लगा।
दूसरी
बात यह कि
महावीर
निश्चित ही किसी
के अनुयायी
नहीं हैं, न उनका कोई
गुरु है। पर
उन्होंने जो
कहा, उनसे
जो प्रकट हुआ,
उन्होंने
जो संवादित
किया, वे
जो तेईस
तीर्थंकरों
के अनुयायी
चले आते थे, उनसे बहुत
दूर तक मेल खा
गया। महावीर
को चिंता भी
नहीं है कि वह
मेल खाए; वह
मेल खा गया, यह संयोग की
बात है। नहीं
मेल खाता तो
कोई चिंता की
बात न थी। वह
मेल खा गया और
वे अनुयायी
धीरे-धीरे
महावीर के पास
आ गए। जैसे
आचार्य केशी
और दूसरे लोग,
जो पार्श्व
की परंपरा से
जीवित थे, वे
महावीर के
करीब आ गए।
बहुत बार ऐसा
होता है।
ऐसा भी
नहीं है कि
महावीर सब वही
कह रहे हैं, जो पिछले
तेईस
तीर्थंकरों
ने कहा हो।
बहुत कुछ नया
भी कह रहे
हैं। जैसे
किसी पिछले
तीर्थंकर ने
ब्रह्मचर्य
की कोई बात
नहीं की है।
और पार्श्वनाथ
का जो धर्म है
वह चातुर्याम
है; उसमें
ब्रह्मचर्य
की कोई बात
नहीं है।
महावीर पहली
बार
ब्रह्मचर्य
की बात कर रहे
हैं। और बहुत
सी बातें हैं
जो महावीर
पहली बार कर रहे
हैं। लेकिन वे
बातें पिछले
तेईस
तीर्थंकरों
के विरोध में
नहीं हैं।
चाहे और उनको
आगे बढ़ाती हों,
कुछ जोड़ती
हों, लेकिन
उनके विरोध
में नहीं हैं।
उनसे भिन्न हो
सकती हैं, लेकिन
विरोध में
नहीं हैं।
उनसे ज्यादा
हो सकती हैं, लेकिन उनके
विरोध में
नहीं हैं।
इसलिए स्वभावतः
उस धारा से
संबद्ध लोग
महावीर के
निकट इकट्ठे
हो गए हैं। और
महावीर जैसा
बलशाली
व्यक्ति किसी
धारा को मिल
जाए तो वह
धारा
अनुगृहीत ही
होगी।
और सच
तो यह है कि
महावीर के
पहले के तेईस
तीर्थंकर बड़े
साधक थे, सिद्ध
थे, लेकिन
जिसको सिस्टम
मेकर कहें, जो एक दर्शन
निर्मित करता
है, ऐसा
उनमें कोई भी
न था। वह
महावीर ही
व्यक्ति है, जो उनको
उपलब्ध हुआ।
इसलिए
चौबीसवां
होते हुए भी
वह करीब-करीब
प्रथम हो गया।
यानी सबसे अंतिम
होते हुए भी
उसकी स्थिति
प्रथम हो गई।
अगर आज उस
विचारधारा का
कुछ भी जीवंत
अंश शेष है, तो सारा
श्रेय महावीर
को उपलब्ध
होता है।
सिस्टम-मेकर
एक बिलकुल अलग
बात है, व्यवस्था
और दर्शन
बनाने वाला।
बहुत तरह के विचारक
होते हैं। कुछ
विचारक तो
हमेशा फ्रैगमेंटरी
होते हैं, जो
खंड-खंड में
सोचते हैं, एक-एक टुकड़े
में सोचते हैं,
और कभी भी
सारे टुकड़ों
को इकट्ठा जोड़
कर एक समग्र
दर्शन
स्थापित नहीं
कर पाते हैं।
महावीर ने जो
इन तेईस
तीर्थंकरों
की हजारों
वर्षों की
यात्रा में जो
सारे खंड थे, उन सारे
खंडों को एक
सुसंबद्ध रूप
देकर एक दर्शन
का रूप दिया, इसलिए
जैन-दर्शन
पैदा हो सका।
निश्चित
ही, जैसा आप
पूछते हैं, महावीर के
घर-परिवार के
लोग किसी पंथ
को, किसी
विचार को
मानते रहे
होंगे। लेकिन
कोई भी पंथ और
कोई भी विचार
था, वे सब
आर्य-जीवन पथ
के ही हिस्से
थे। उसमें कोई
भेद, कोई
भिन्नता नहीं
थी। इसलिए यह
हो सकता था कि कृष्ण
का एक चचेरा
भाई तीर्थंकर
हो सके और
कृष्ण
हिंदुओं के
परम अवतार हो
सके। इसमें
कुछ बाधा न
थी।
विचार-पद्धतियां
थीं ये। अभी
ये संप्रदाय न
थे।
जैसे
कि समझें आज, आज कोई
कम्युनिस्ट
है या कोई
सोशलिस्ट है
या कोई
फैसिस्ट है तो
ये
विचार-पद्धतियां
हैं। एक ही घर
में पैदा हुआ
एक आदमी
कम्युनिस्ट
हो सकता है, एक आदमी
सोशलिस्ट हो
सकता है, एक
आदमी फैसिस्ट
हो सकता है।
लेकिन कभी ऐसा
हो सकता है कि
जब ये
संप्रदाय बन
जाएं, तो
कम्युनिस्ट
का बेटा
कम्युनिस्ट
हो और सोशलिस्ट
का बेटा
सोशलिस्ट हो।
तब
विचार-पद्धतियां
न रहीं, तब
जन्म से बंधे
हुए संप्रदाय
हो गए।
महावीर
के पहले भारत
में
विचार-पद्धतियां
थीं और आर्य
जीवन-दृष्टि
सबको घेरती
थी। उसमें वेद
के
क्रियाकांडी
लोग थे और ठीक
उनके विरोध में
उपनिषद के
विचारक थे, लेकिन इससे
वह कोई अलग
बात नहीं हो
जाती थी। अब
मजा है, यह
वेदांत शब्द
जो है, वह
उसका मतलब ही
यह है कि जो
मानते यह हैं
कि जहां वेद
का अंत हो
जाता है, वहीं
सत्य का
प्रारंभ होता
है। यानी वेद
तक तो सत्य है
ही नहीं, जहां
वेद समाप्त
हुआ, वहां
से सत्य शुरू
होता है। अब
ये वेदांत की
दृष्टि वाले
लोग भी आर्य
जीवन-दृष्टि
के हिस्से थे।
इससे कोई झगड़ा
नहीं था।
उपनिषद
इतना ही
विरोधी है वेद
का, जितना कि
बौद्ध विचारक
या जैन
विचारक--महावीर
या बुद्ध।
उपनिषद के ऋषि
वेद के इतने
ही विरोध में
हैं। और इतनी
सख्त बातें
कही हैं कि
हैरानी होती
है। ऐसी सख्त
बातें कही हैं
वेद के क्रियाकांडी
ब्राह्मणों
के लिए उपनिषद
तक ने कि
आश्चर्य होता है।
लेकिन तब तक
कोई संप्रदाय
नहीं हैं। तब
तक सभी एक
परिवार के सभी
तरह के विचारक
हैं। वे सभी
एक परिवार की
शाखाएं हैं, जो लड़ते भी
हैं, झगड़ते
भी हैं, विरोध
भी करते हैं, लेकिन अभी
कोई
जन्मना--ऐसा
भेद नहीं पड़
गया है कि
आदमी जन्म से
किसी
संप्रदाय का
हिस्सा हो गया।
महावीर
के साथ पहली
दफा आर्य
जीवन-पद्धति
में एक अलग
रास्ता टूट
गया। फिर
श्रमण
जीवन-पद्धति
में भी बुद्ध
के साथ अलग
रास्ता टूट
गया। ऐसे ही
जैसे एक वृक्ष
होता है। नीचे
पीड़ होती है, वह तो एक ही
होती है। फिर
पीड़ एक जगह से
दो शाखाओं में
टूट जाती है।
फिर एक-एक
शाखा भी बहुत
सी शाखाओं में
टूट जाती है।
अब हम जो
शाखाओं पर
बैठे हों, तो
हम पूछ सकते
हैं कि पीड़ के
समय में हमारी
शाखा कहां थी?
थी जरूर, पर पीड़ में
इकट्ठी एक ही
जगह थी।
तो
भारत में भी
जो विचार का
विकास हुआ है, वह वृक्ष की
भांति है।
उसमें पीड़ तो
आर्य जीवन-पद्धति
है। फिर उसमें
दो शाखाएं
टूटीं--एक
हिंदू, एक
श्रमण। फिर
श्रमण में भी
दो शाखाएं टूट
गईं--बौद्ध और
जैन। और फिर
हिंदुओं में
भी जीवन-दर्शन
की अनेक
शाखाएं टूटी
हैं: सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा,
वेदांत--ये
सब टूटी हैं।
प्रश्न:
अब
यह संप्रदाय
जो आपने कहा, संप्रदाय तो
महावीर के बाद
में मालूम
होता है।
हां-हां, वही मैं कह
रहा हूं न!
प्रश्न:
महावीर
के टाइम पर तो
नहीं?
नहीं-नहीं, महावीर के
साथ ही टूट
गया। अनुभव
बहुत बाद में
होता है हमें।
महावीर के साथ
ही टूट गया।
महावीर पहले
सुसंबद्ध
चिंतक हैं
जैनों के इस
तीर्थंकरों
की धारा में।
और
महावीर के समय
में यह भी
भारी विवाद था
कि चौबीसवां
तीर्थंकर
कौन। इसके लिए
गोशाला भी दावेदार
था। दावेदार
था वह कि
चौबीसवां मैं
हूं। क्योंकि
तेईस
तीर्थंकर हो
गए थे और
चौबीसवें की
तलाश थी कि
चौबीसवां कौन!
और जो भी
व्यक्ति
चौबीसवां
सिद्ध हो सकता
था, वह
निर्णायक
होने वाला था,
क्योंकि वह
अंतिम होने
वाला था--एक।
दूसरा--उसके
वचन सदा के
लिए आप्त हो
जाने वाले थे,
क्योंकि
पच्चीसवें
तीर्थंकर की
बात नहीं थी।
तो भारी विवाद
था महावीर के
समय में।
उसमें ये
जितने--अजित
केशकंबल और
संजय और
मक्खली
गोशाल--ये सब
के सब दावेदार
थे चौबीसवें
तीर्थंकर
होने के।
परंपरा अपना अंतिम
व्यक्ति खोज
रही थी कि
उसको अंतिम
सुसंगति देने
वाला व्यक्ति
उपलब्ध हो
जाए।
तो
बुद्ध के और
महावीर के समय
में कोई आठ
तीर्थंकर के
दावेदार थे।
इन आठ में
महावीर
विजेता हो गए।
परंपरा ने
उनमें सब पा
लिया जो उसे
पाने जैसा
लगता था। और
वह सील-मोहर
बन गए।
संप्रदाय
तो फिर
धीरे-धीरे
बनता है।
महावीर के मन
में संप्रदाय
का सवाल भी
नहीं है। कि
महावीर
संप्रदाय बना
रहे हैं, ऐसा
सवाल भी नहीं
है। नहीं, लेकिन
बनाने वाले
महावीर ही
हैं। महावीर
के मन में है
या नहीं, यह
सवाल नहीं है।
महावीर ने
जितनी
सुसंबद्ध रूप-रेखा
दे दी श्रमण
जीवन-दृष्टि
को, उतनी
ही धारा बंध
गई।
फिर तो
पीछे से घोषणा
करने वाले
आएंगे अलग होने
की। महावीर को
अलग होने की
घोषणा भी नहीं
है। लेकिन अलग
होने की घोषणा
और न घोषणा का
सवाल नहीं है, सवाल यह है
कि उन्होंने
जितना
सुसंबद्ध रूप
दे दिया, उससे
वह संप्रदाय
बना।
संप्रदाय
शब्द बहुत
पीछे जाकर
बदनाम हुआ। शब्द
तो बहुत बढ़िया
है, संप्रदाय
शब्द बहुत
बढ़िया है।
अंग्रेजी के सेक्ट
से उसका मतलब
नहीं है। यह
तो बहुत पीछे
जाकर गंदा
हुआ। बहुत
पीछे जाकर
गंदा हुआ, नहीं
तो गंदगी की
कोई बात न थी।
संप्रदाय का कुल
मतलब इतना था
कि जहां से
मुझे
जीवन-दृष्टि मिलती
है, जहां
से मुझे मार्ग
मिलता है, जहां
से मुझे
प्रकाश मिलता
है, तो
मुझे हक है उस
प्रकाश की
धारा में बहने
का और चलने
का। जो मुझे
सत्य दिखाई
पड़ता है, उसे
मुझे मानने का
हक है।
फिर
महावीर की बात
तो बहुत अदभुत
है। यानी महावीर
से ज्यादा
गैर-सांप्रदायिक
चित्त खोजना कठिन
है। लेकिन
संप्रदाय के
जन्मदाता वे
ही हैं।
गैर-सांप्रदायिक
चित्त का मतलब
यह होता है, गैर-सांप्रदायिक
चित्त और ही
बात है, नॉन-सेक्टेरियन
माइंड।
महावीर के पास
सांप्रदायिक
चित्त नहीं
है। क्योंकि
शायद सारी
पृथ्वी पर ऐसा
दूसरा आदमी ही
नहीं हुआ, जिसके
पास इतना
गैर-सांप्रदायिक
चित्त हो। क्योंकि
जो किसी भी
बात को
सापेक्ष
दृष्टि से सोचता
हो, उसके
चित्त में
सांप्रदायिकता
नहीं हो सकती।
बहुत बाद में आइंस्टीन
ने
रिलेटिविटी
की बात कही
है। विज्ञान
के जगत में
सापेक्ष की
बात आइंस्टीन
ने अब कही, धर्म
के जगत में
महावीर ने
पच्चीस सौ साल
पहले कही।
बहुत कठिन था
उस वक्त यह
कहना, क्योंकि
उस वक्त
आर्य-धारा
बहुत टुकड़ों
में टूट रही
थी। और
प्रत्येक
टुकड़ा पूर्ण
सत्य का दावा
कर रहा था।
असल
में
सांप्रदायिक
चित्त का मतलब
यह है कि जो यह
कहता हो कि
सत्य यहीं है
और कहीं नहीं।
सांप्रदायिक
चित्त का मतलब
यह होता है कि
सत्य का ठेका
मेरे पास है
और किसी के
पास नहीं। और
सब असत्य है, सत्य मैं ही
हूं--ऐसा जहां
आग्रह हो, वहां
सांप्रदायिक
चित्त है।
लेकिन जहां
इतना विनम्र
निवेदन हो कि
मैं जो कह रहा
हूं, वह भी
सत्य हो सकता
है, उससे
भी सत्य तक
पहुंचा जा
सकता है, तो
संप्रदाय
निर्मित होगा
लेकिन
सांप्रदायिक
चित्त नहीं
होगा वहां।
संप्रदाय तो
निर्मित
होगा।
निर्मित होगा
इन अर्थों में
कि कुछ लोग
जाएंगे उस
दिशा में, खोज
करेंगे, पाएंगे,
चलेंगे, अनुगृहीत
होंगे उस पंथ
की तरफ, उस
विचार की तरफ।
महावीर
एकदम ही
गैर-सांप्रदायिक
चित्त हैं। बहुत
ही अदभुत है
उनकी दृष्टि
तो। वे तो
जहां बिलकुल
ही कुछ न
दिखाई पड़ता हो
वहां भी कहते
हैं कि कुछ न
कुछ होगा। चाहे
दिखाई न पड़ता
हो तो भी कुछ न
कुछ सत्य होगा।
क्योंकि वे
कहते यह हैं
कि पूर्ण सत्य
भी नहीं होता, पूर्ण असत्य
भी नहीं होता।
असत्य से
असत्य में भी
सत्य का अंश
होता है। सत्य
से सत्य में
भी असत्य का
अंश होता है।
वे कहते यह
हैं कि इस जगत
पर, इस
पृथ्वी पर
पूर्ण जैसी
चीज नहीं
होती। यहां तो
सब चीजें
अपूर्ण होती
हैं।
तो अगर
उनसे कोई पूछे
कि ऐसा है? तो वे
कहेंगे हां है,
और साथ ही
यह भी कहेंगे
कि नहीं भी हो
सकता है! और यह
भी कहेंगे, हो भी सकता
है, नहीं
भी हो सकता है!
और यह
भी एक कारण
बना, महावीर
की जो
सापेक्षता है,
वह भी कारण
बना कि महावीर
के
अनुयायियों
और प्रेमियों
की संख्या
बहुत नहीं बढ़
सकी। क्योंकि
संख्या बढ़ने
में
फैनेटिसिज्म
जरूरी हिस्सा
है। संख्या तब
बढ़ती है, जब
दावा पक्का और
मजबूत हो कि
जो हम कह रहे
हैं, वही
सही है; और
जो दूसरे लोग
कह रहे हैं, सब गलत है।
तब पागल
इकट्ठे होते
हैं, क्योंकि
इस दावे में
उनको रस मालूम
होता है। लेकिन
एक आदमी कहे:
यह भी सही, वह
भी सही, तुम
जो कहते हो वह
भी ठीक, हम
जो कहते हैं
वह भी ठीक; तीसरा
जो कहता है वह
भी ठीक; तो
ऐसे आदमी के
पास पागल
इकट्ठे नहीं
हो सकते; क्योंकि
वे कहेंगे इस
आदमी की बातों
में क्या मतलब
है! यानी यह तो
सभी को ठीक कहता
है। यह कहता
है नास्तिक भी
ठीक है, आस्तिक
भी ठीक है; क्योंकि
दोनों में ठीक
का कोई अंश
है। तो इसके
पास पागल समूह
इकट्ठा नहीं
हो सकता।
अगर
फैनेटिक्स
इकट्ठे करने
हों तो दावा
पक्का मजबूत
होना चाहिए।
और दावा इतना
पक्का मजबूत
होना चाहिए कि
उसमें संशय की
जरा भी रेखा न
हो। क्योंकि
महावीर की
बातों में
संशय की रेखा
मालूम पड़ती है; वह संशय
नहीं है, प्रोबेबिलिटी
है, डाउट
नहीं है।
लेकिन साधारण
आदमी को समझना
मुश्किल होता
है कि संभावना
और संशय में
क्या फर्क है।
महावीर
से कोई कहे, ईश्वर है? तो महावीर
कहेंगे, हो
भी सकता है, नहीं भी हो
सकता है। किसी
अर्थ में हो
सकता है, किस
अर्थ में नहीं
हो सकता है।
यह
महावीर सिर्फ
सब सत्यों की
संभावनाओं की
बात कर रहे
हैं। वे यह
नहीं कह रहे
हैं कि मुझे संशय
है कि ईश्वर
है या नहीं।
वे यह नहीं कह
रहे कि आई
डाउट, कि
मैं संशय करता
हूं कि ईश्वर
है या नहीं।
वे यह कह रहे
हैं कि
प्रोबेबिलिटी
है, संभावना
है ईश्वर के
होने की भी, न होने की
भी। संभावना
इस कारण है, संभावना इस
कारण नहीं है।
अगर कोई ऐसा
मानता हो कि
आत्मा परम
शुद्ध होकर
परमात्मा हो
जाती है, तो
ठीक ही कहता
है, ऐसा
है। और अगर
कोई ऐसा मानता
हो कि
परमात्मा कहीं
दूर बैठा हुआ
हम सबको
खिलौनों की
तरह नचा रहा
है, तो ऐसा
नहीं है। जब
वे कहते हैं
कि ईश्वर है
और ईश्वर नहीं
है--दोनों एक
साथ--तो ईश्वर
के अर्थों में
वे भेद करते
हैं।
लेकिन
महावीर की
इतनी सूक्ष्म
दृष्टि फैनेटिक
नहीं बनाई जा
सकती, क्योंकि
दूसरे को गलत
एकदम से नहीं
कहा जा सकता।
और जहां दूसरे
को एकदम से
गलत न कहा जा
सकता हो, वहां
अनुयायी
इकट्ठे करना
बहुत मुश्किल
है, एकदम
असंभव है।
क्योंकि
अनुयायी
पक्का मान कर
आना चाहता है।
अनुयायी
सिक्योरिटी
पूरी चाहता
है। वह यह
चाहता है कि
यह आदमी खुद
ही संदिग्ध
दिखता है। यह
आदमी कहता है,
कभी ऐसा है,
कभी वैसा है;
इस आदमी को
खुद ही पक्का
अभी पता है या
नहीं? यह
गुरु होने के
योग्य भी है
या नहीं? इसकी
बात का भरोसा
क्या? सुबह
कुछ कहता, दोपहर
कुछ कहता, सांझ
कुछ कहता है!
तो अभी इसका
खुद का ही कुछ
ठिकाना नहीं
हो पाया है तो
हम इसके पीछे
कैसे जाएं?
जब एक
आदमी जोर से
टेबल पर घूंसा
मार कर कहता है
कि जो मैं
कहता हूं, वह परम सत्य
है और बाकी सब
गलत है, तो
जितने हमारे
भीतर कमजोर
बुद्धि के लोग
हैं, वे
उससे एकदम
प्रभावित हो
जाते हैं।
कमजोर
बुद्धि के लिए
दावा चाहिए, मजबूत
सर्टेन्टी
चाहिए। बहुत
बुद्धिमान आदमी
सर्टेन्टी से
चौंक जाता है।
बहुत बुद्धिमान
आदमी, अगर
कोई आदमी दावे
से कहे कि यही
ठीक है, तो
बहुत
बुद्धिमान
आदमी जरा चौंक
जाएगा कि यह आदमी
कुछ गलत होना
चाहिए, क्योंकि
ठीक का इतना
दावा
बुद्धिमान
आदमी नहीं
करता।
बुद्धिमान
आदमी हेजीटेट
करता है, झिझक
लाता है, क्योंकि
जिंदगी बड़ी
जटिल है। वह
इतनी सरल नहीं
है कि हमने कह
दिया कि बस
ऐसा है।
जिंदगी इतनी
जटिल है कि
उसमें विरोधी
के भी सच होने
की सदा
संभावना है।
इसलिए
जो आदमी जितना
बुद्धिमान
होता चला जाता
है, उतने
उसके वक्तव्य
स्यात होते
चले जाते हैं।
वह कहता है, स्यात ऐसा
हो। फिर वह
एकदम से ऐसा
नहीं कह देता,
ऐसा है ही।
लेकिन
बुद्धिमान की
यह जो बात है, इसे समझने
को भी
बुद्धिमान ही
चाहिए।
बुद्धिहीनों
को यह बात
नहीं जंचेगी।
तो
दुनिया में
जिन्होंने
जितने ज्यादा
बुद्धिहीन
दावे किए, उनकी संख्या
उतनी ज्यादा
हो गई।
बुद्धिहीन दावा
चाहिए, एकदम
फैनेटिक
असर्शन चाहिए
आम आदमी के
लिए कि एक ही
अल्लाह है और
उसके सिवाय
दूसरा कोई अल्लाह
नहीं। तो फिर
आदमी को समझ
में आता है कि
यह पक्का
जानने वाला
आदमी है, जो
साफ दावा कर
रहा है, और
जिसके हाथ में
तलवार भी है
कि अगर तुमने
गलत कहा तो हम
सिद्ध कर
देंगे तलवार
से कि तुम गलत
हो। कमजोर
बुद्धि के
लोगों को
तलवार भी
सिद्ध करती
है।
बुद्धिमान
आदमी तो जिसके
हाथ में तलवार
देखेगा उसको
गलत मान ही
लेगा कि तलवार
से कहीं सिद्ध
होना है कि
क्या सही है
और क्या गलत
है!
तो
दुनिया में
जितने
दावेदार पैदा
हुए, उतनी
ज्यादा
उन्होंने
संख्या
इकट्ठी कर ली।
महावीर
संख्या
इकट्ठी नहीं
कर सके।
संख्या
इकट्ठी करना
बहुत मुश्किल
था, एकदम
असंभव ही था।
क्योंकि
महावीर किसको
प्रभावित
करेंगे?
जो
आदमी आता
है...गुरु के
पास आदमी आता
इसलिए है कि
आश्वासन मिल
जाए पक्का। तो
जो गुरु उससे
कहता है कि
लिख कर चिट्ठी
देते हैं हम
तुम्हें कि
स्वर्ग में तुम्हारी
जगह निश्चित
रहेगी, वह
गुरु समझ में
आता है। जो
गुरु कहता है
कि पक्का रहा,
मैं तुझे
बचाने वाला
रहूंगा, जब
सब नरक में जा
रहे होंगे, तब मुझे जो
मानता है, वह
बचा लिया
जाएगा, तब
वह मानता है
कि यह आदमी
ठीक है, इसके
साथ चलने में
कोई अर्थ है।
महावीर
का कोई भी
दावा नहीं है।
इतना
गैर-दावेदार
आदमी ही नहीं
हुआ है। कोई
दावा ही नहीं
है। आप जो भी
कहें...और उसने
तो सत्य को
इतने कोणों से
देखा है, जितना
किसी ने कभी
नहीं देखा।
त्रिभंगी
दुनिया में
महावीर से
पहले थी। चीजों
में तीन
संभावनाओं की
स्वीकृति
महावीर से पूर्व
से चली आती
थी। जैसे कि
कोई कहे यह
घड़ा है, तो
त्रिभंगी का
मतलब यह था कि
घड़ा है, घड़ा
नहीं भी है।
क्योंकि
मिट्टी ही तो
है, घड़ा
कहां है? घड़ा
है भी, नहीं
भी है। घड़े के
अर्थ में घड़ा
है भी और मिट्टी
के अर्थ में
नहीं भी है।
मिट्टी के
अर्थ में
मिट्टी ही है,
घड़ा नहीं
है। तो हम
क्या अर्थ
लेते हैं...एक
आदमी कह सकता है
कि यह तो
मिट्टी है, घड़ा कहां? तो उसको गलत
कैसे कहोगे? मिट्टी ही
तो है। जैसे
एक आदमी कहे
कि नहीं मिट्टी
है ही नहीं, यह तो घड़ा
है। क्योंकि
मिट्टी तो वह
पड़ी बाहर, उसमें
इसमें भेद है।
तो उसे भी सही
मानना पड़ेगा।
तो सत्य के
तीन कोण हो
सकते हैं: है, नहीं है, दोनों
है--नहीं भी और
है भी। यह तो
महावीर के पहले
थी।
महावीर
ने त्रिभंगी
को सप्तभंगी
किया। कहा कि
तीन से काम
नहीं चलेगा, सत्य और भी
जटिल है।
इसमें चार
स्यात और
जोड़ने
पड़ेंगे। तो
बहुत ही अदभुत
बात बनी।
लेकिन बात कठिन
होती चली गई
और उलझ गई और
साधारण आदमी
के पकड़ के
बाहर हो गई।
ये तीन बातें
ही पकड़ के बाहर
हैं, लेकिन
फिर भी समझ
में आती हैं।
घड़ा
सामने रखा है।
कोई कहता है, घड़ा है। हम
कहते हैं, हां,
घड़ा है।
लेकिन हम एकदम
ऐसा नहीं कहते
कि हां, घड़ा
है। हम कहते
हैं, स्यात
घड़ा है, क्योंकि
दूसरी
संभावना बाकी
है कि कोई कहे
कि मिट्टी ही
है, घड़ा
कहां। तो हम
सिद्ध न कर
पाएंगे कि घड़ा
कहां है। तो
हम कहते हैं, स्यात घड़ा
है। स्यात घड़ा
नहीं भी है।
स्यात घड़ा है
भी और नहीं भी
है।
महावीर
ने इसमें
चौथा--चौथी
भंग जोड़ी और
कहा, स्यात
अनिर्वचनीय
है। स्यात कुछ
ऐसा भी है, जो
नहीं कहा जा
सकता। यानी
इतने से ही
काम नहीं चलता
है। मिट्टी है,
घड़ा है, यह
भी ठीक है, लेकिन
कुछ बात ऐसी
भी है जो नहीं
कही जा सकती, जिसे कहना
ही मुश्किल
है। क्योंकि
घड़ा अणु भी है,
परमाणु भी
है, इलेक्ट्रान
भी है, प्रोटान
भी है, विद्युत
भी है--सब है।
और इस सबको
इकट्ठा कहना मुश्किल
है। घड़ा जैसी
छोटी चीज भी
इतनी ज्यादा
है कि इसको
अनिर्वचनीय
कहना पड़ेगा।
और एक
बात तो पक्की
है कि घड़े में
जो है-पन है, जो
एक्झिस्टेंस
है, जो
होना है, वह
तो
अनिर्वचनीय
है ही।
क्योंकि है की
क्या परिभाषा?
एक्झिस्टेंस
का क्या अर्थ?
अस्तित्व
का क्या अर्थ?
घड़े का भी
अस्तित्व है।
और अस्तित्व
अनिर्वचनीय
है। अस्तित्व
तो ब्रह्म है।
तो
महावीर ने
चौथा जोड़ा:
स्यात घड़ा
अनिर्वचनीय
है। पांचवां
जोड़ा कि स्यात
है और
अनिर्वचनीय
है। छठवां
जोड़ा कि स्यात
नहीं है और
अनिर्वचनीय है।
और सातवां
जोड़ा कि स्यात
है भी और नहीं
भी है और
अनिर्वचनीय
है। अब यह बात
इतनी जटिल होती
चली गई, इसलिए
अनुयायी
खोजना
मुश्किल है।
प्रश्न:
इसे
दुबारा
स्पष्ट कर
दीजिए!
यह
सत्य को सात
कोणों से देखा
जा सकता है, यह महावीर
का कहना है।
और बड़ी अदभुत
बात है, आठवें
कोण से नहीं
देखा जा सकता।
सात अंतिम कोण
हैं। इसलिए
सप्तभंग, सात
दृष्टियों से
सत्य को देखा
जा सकता है।
और जो एक ही
दृष्टि का
दावा करता है,
वह छह
अर्थों में
असत्य दावा
करता है।
क्योंकि छह
दृष्टियां वह
नहीं कह रहा
है। और जो एक
ही दृष्टि को
कहता है यही
पूर्ण सत्य है,
वह जरा
अतिशय कर रहा
है, वह
सीमा के बाहर
जा रहा है। वह
इतना ही कहे
कि एक दृष्टि
से यह सत्य है,
तो महावीर
को किसी से
झगड़ा ही नहीं
है--किसी से भी।
यानी ऐसा कोई
विचार ही नहीं
है, जिससे
महावीर का
झगड़ा हो। अगर
वह विचार इतना
कहे कि इस
दृष्टि से मैं
यह कहता हूं, तो महावीर
कहेंगे, इस
दृष्टि से यह
सत्य है।
लेकिन इससे
उलटा आदमी आए
और वह कहे कि
इस दृष्टि से
यह मैं कहता
हूं असत्य है,
तो महावीर
उससे कहेंगे,
तुम भी ठीक
कहते हो। इस
दृष्टि से यह
असत्य है।
लेकिन
तीन की दृष्टि
बहुत पुरानी
थी। साफ था कि
तीन तरह से
सोचा जा सकता
है: है, नहीं
है, दोनों
है--है भी, नहीं
भी। महावीर ने
इसमें चार और
दृष्टियां जोड़ी
हैं। चौथी
दृष्टि ही
कीमती है, फिर
बाकी तो उसी
के ही
रूपांतरण हैं,
वह
अनिर्वचनीय
की दृष्टि। कि
कुछ है, जो
नहीं कहा जा
सकता। कुछ है,
जिसे
समझाया नहीं
जा सकता। कुछ है,
जो
अव्याख्य है।
कुछ है, जिसकी
कोई व्याख्या
नहीं हो सकती।
वह छोटे से घड़े
में भी है। वह
कुछ यानी
अस्तित्व। वह
अस्तित्व
बिलकुल ही
व्याख्या के
बाहर है। उसकी
हम क्या
व्याख्या
करें?
अब यह
बड़े मजे की
बात है।
उपनिषद कहते
हैं, ब्रह्म
की व्याख्या
नहीं हो सकती।
बाइबिल कहती
है, ईश्वर
की व्याख्या
कैसे हो सकती
है! लेकिन महावीर
कहते हैं
ईश्वर, ब्रह्म
तो बड़ी बातें
हैं, घड़े
की भी
व्याख्या
नहीं हो सकती।
यानी ईश्वर और
ब्रह्म को छोड़
दो, क्योंकि
घड़े में भी एक
तत्व है ऐसा, अस्तित्व, जो उतना ही
अव्याख्य है
जितना
ब्रह्म। छोटी से
छोटी चीज में
वह मौजूद है
जो
अनिर्वचनीय
है। इसलिए वह
चौथी भंग
जोड़ते हैं कि
स्यात अनिर्वचनीय
है। लेकिन
उसमें भी
स्यात लगाते
हैं। जो खूबी
है महावीर की
वह बहुत ही
अदभुत है। वे
ऐसा भी नहीं
कह देते कि
अनिर्वचनीय
है। क्योंकि
वे कहते हैं, यह भी दावा
ज्यादा हो जाएगा।
इसलिए ऐसा कहो,
मे बी, स्यात।
स्यात
से कभी भी
महावीर कोई
वचन नीचे नहीं
उतारते, वे
जो भी कहते
हैं, स्यात
पहले लगा ही
देते हैं।
लेकिन स्यात
का मतलब शायद
नहीं है।
स्यात का मतलब
शायद नहीं है,
शायद में
संदेह है।
नहीं, महावीर
जब कहते हैं
कि स्यात, तो
उसका मतलब है,
ऐसा भी हो
सकता है, इससे
अन्यथा भी हो
सकता है।
स्यात शब्द
में दो बातें
जुड़ी हैं--ऐसा
है, इससे
अन्यथा भी है।
इसलिए कोई
दावा नहीं है।
इसलिए कोई
दावा नहीं है।
और तब
वह
अनिर्वचनीय
पर फिर तीन
भंगियों को वापस
दोहरा देते
हैं। वे कहते
हैं, है और
अनिर्वचनीय है।
कोई चीज है और
अनिर्वचनीय
है। लेकिन ऐसा
भी हो सकता है,
कोई चीज
नहीं है और
अनिर्वचनीय
है, जैसे
शून्य। शून्य
है तो नहीं।
शून्य का मतलब
ही है, जो
नहीं है।
लेकिन शून्य
अनिर्वचनीय
है। सिर्फ
इसलिए कि नहीं
है, तुम
ऐसा मत समझ
लेना कि उसकी
व्याख्या हो
सकती है। न
होते हुए भी
वह अव्याख्य
है। और सातवां
वे जोड़ते
हैं--है भी, नहीं
भी है और
अनिर्वचनीय
भी है।
तो इन
सात कोणों से
सत्य को देखा
जाने पर, इन
सातों ही
कोणों से जो
व्यक्ति बिना
किसी दृष्टि
से बंधे देखने
में समर्थ है,
वह पूरे
सत्य को जानने
में समर्थ हो
जाएगा। लेकिन
बोलने में
समर्थ नहीं
होगा। पूरा
सत्य तो जब भी
बोला जाएगा, तब इन्हीं
भंगियों में
बोलना पड़ेगा।
इसलिए
महावीर से आप
पूछने जाएं, ईश्वर है? तो वे सात
उत्तर देते
हैं! तो आप
चुपचाप घर चले
आते हैं कि इस
आदमी से क्या
लेना-देना। हम
साफ उत्तर
चाहते हैं। हम
पूछने गए हैं,
ईश्वर है? तो हम चाहते
हैं कि कोई
कहे है, कोई
कहे नहीं
है--बात खतम
करे।
आप
महावीर से
पूछने जाते
हैं, वे कहते
हैं, स्यात
है भी, स्यात
नहीं भी है।
स्यात है भी, नहीं भी, स्यात
अनिर्वचनीय
है। स्यात है,
अनिर्वचनीय
है; स्यात
नहीं है, अनिर्वचनीय
है। स्यात है
भी, नहीं
भी है, अनिर्वचनीय
है।
आप घर
लौट आते हैं
कि इस आदमी से
कुछ लेना-देना
नहीं है।
क्योंकि इस
आदमी से हम
उतने ही उलझे लौटे, जितने हम गए
थे। क्योंकि
इस आदमी से हम
उत्तर लेने गए
थे, इस
आदमी ने उत्तर
दिया है, लेकिन
इतना पूरा
उत्तर देने की
कोशिश की है
कि कम बुद्धि
को वह उत्तर
पकड़ में नहीं
आ सकता।
इसलिए
महावीर का
अनुगमन नहीं
बढ़ सका।
महावीर के
अनुयायी बढ़े
ही नहीं।
महावीर के
जीवन में जो
लोग महावीर से
प्रभावित हुए
थे, फिर उनकी
संतति भर ही
महावीर के
पीछे चलती रही
अंधे की तरह।
नए लोग नहीं आ
सके, क्योंकि
महावीर जैसा
व्यक्ति ही
पैदा नहीं कर
सकी वह परंपरा
फिर। क्योंकि
उसके लिए बड़ा
अदभुत
व्यक्ति चाहिए
जो इतने भिन्न
कोणों से
लोगों को
आकर्षित कर
सके।
सीधी-सीधी बात
से आकर्षित
करना बहुत सरल
है। इतनी जटिल
बात में
आकर्षित करना
बहुत कठिन है।
इसलिए
महावीर के
सीधे संपर्क
में जो लोग आए
थे, फिर उनके
बच्चे ही पीछे
खड़े होते चले
गए। और जन्म
से कोई धर्म
का संबंध नहीं
है। इसलिए जैन
जैसी कोई चीज
है नहीं
दुनिया में।
वे महावीर के
साथ ही खतम हो
गए। जन्म से
कोई संबंध ही
नहीं है।
इसलिए इस समय
पृथ्वी पर जैन
जैसी कोई जाति
नहीं है। ये
सब जन्म से
जैन लोग हैं।
इनको कुछ पता
ही नहीं है।
और बड़े
मजे की बात तो
यह है कि ये जो
जन्म से जैन हैं, ये ऐसे दावे
करते हैं, जो
महावीर सुन
लें तो बहुत
हंसें। इनके
दावे सब ऐसे
हैं, जो
महावीर के
उलटे हैं।
क्योंकि ये
कहेंगे कि महावीर
तीर्थंकर
हैं। खुद
महावीर
कहेंगे, स्यात
हो भी सकता है,
स्यात नहीं
भी हो सकता
है।
प्रश्न:
ऐसा
हर धर्म में
होगा?
हां, हर धर्म में
है। लेकिन
जैनों में
बहुत ज्यादा है।
उसका कारण है
कि जो बात थी, वह इतनी
जटिल है कि
उसे सिर्फ
जन्म से नहीं
पकड़ा जा सकता
किसी भी हालत
में। जैसे मैं
मानता हूं, एक आदमी
जन्म से
मुसलमान हो
सकता है, क्योंकि
बात बहुत सरल
है, बात
में कुछ
ज्यादा गहराई
नहीं है, बहुत
गहराई नहीं
है। इसलिए एक
आदमी जन्म से
भी मुसलमान हो
सकता है। बात
ही बहुत गहरी
नहीं है। जन्म
से कोई सूफी
नहीं हो सकता,
क्योंकि
बात बहुत गहरी
है। सूफी
मुसलमानों का
ही फकीरों का
एक हिस्सा है,
लेकिन जन्म
से कोई सूफी
नहीं हो सकता।
सूफी होने के
लिए तो होना
ही पड़ेगा। कोई
यह कहे कि मेरे
बाप सूफी थे, इसलिए मैं
सूफी हूं, तो
कोई नहीं
मानेगा।
मुसलमान हो
सकता है, कोई
दम नहीं है
उसमें।
जन्म
से जैन होना
बिलकुल ही
मुश्किल है
मामला, असंभव
ही है। उसका
कारण यह है कि
वह मामला ही सूफियों
जैसा है। वह
बिलकुल ही
साधना से
उपलब्ध हो, जिन बन जाओ, तो ही जैन बन
सकते हो। यानी
वह जीत न लो जब
तक, बनने
का उपाय नहीं
है कुछ। और
बात इतनी जटिल
है, इतनी
जटिल है जिसका
कोई हिसाब
नहीं, जटिलतम
है। क्योंकि
जीवन ही जटिल
है। महावीर
कहते हैं कि
जीवन ही इतना
जटिल है, हम
उसको सरल करें,
झूठ हो जाता
है।
जैसे
कि अरस्तू का
तर्क है।
दुनिया में दो
ही तर्क हैं, एक अरस्तू
का तर्क है और
एक महावीर का
तर्क है।
दुनिया में
कोई तीसरा
तर्क नहीं है।
दो ही लाजिक
हैं दुनिया में,
एक अरस्तू
का और एक
महावीर का।
सारी दुनिया
अरस्तू के
तर्क को मानती
है, महावीर
के तर्क को
कोई मानता
नहीं।
क्योंकि अरस्तू
का तर्क सीधा
है, यद्यपि
झूठ है।
अरस्तू
का तर्क यह है
कि अ अ है और अ
कभी ब नहीं हो
सकता। ए इज़ ए
एंड ए कैन नाट
बी बी। बी इज़
बी एंड बी कैन
नाट बी ए।
तर्क यह है कि
अ अ है--साफ। और
अ कभी ब नहीं
हो सकता। ब ब
है, ब कभी अ
नहीं हो सकता।
यह अरस्तू का
तर्क है। सारी
दुनिया
अरस्तू के
तर्क को मानती
है। वह मानती
यह है कि
पुरुष पुरुष
है, स्त्री
स्त्री है; पुरुष
स्त्री नहीं
हो सकता, स्त्री
पुरुष नहीं हो
सकती। तर्क यह
है, काला
काला है, सफेद
सफेद है; सफेद
काला नहीं, काला सफेद
नहीं। अंधेरा
अंधेरा है, उजाला उजाला
है, ऐसा
साफ
डिस्टिंक्शन
है अरस्तू का।
वह चीजों को
तोड़ कर
अलग-अलग कर
देता है। वह
कहता है, तर्क
का मतलब ही यह
है कि सफाई
पैदा हो।
महावीर
कहते हैं, अ अ भी हो
सकता है, अ
ब भी हो सकता
है। अ यह भी हो
सकता है कि अ
भी न हो, ब
भी न हो, और
अ अनिर्वचनीय
है। महावीर
कहते ही यह
हैं। महावीर
का...दो ही तर्क
हैं जगत में।
महावीर कहते
हैं कि स्त्री
स्त्री भी है,
पुरुष भी
है। पुरुष
पुरुष भी है, स्त्री भी
है। पुरुष
स्त्री भी हो
सकती है, स्त्री
पुरुष भी हो
सकता है। और
अनिर्वचनीय भी
है, हो भी
सकते हैं, नहीं
भी हो सकते
हैं। इस तर्क
को समझना बहुत
मुश्किल
मामला है।
लेकिन सच
महावीर ही
हैं।
जिंदगी
इतनी सरल नहीं
है, जैसा
अरस्तू समझता
है। जिंदगी
में कोई चीज न
काली है, न
सफेद है; जिंदगी
में सब चीज
ग्रे हैं।
काले और सफेद
का भेद बिलकुल
काल्पनिक है।
कोई स्थान ऐसा
नहीं है, जो
बिलकुल
अंधेरा है; और कोई
स्थान ऐसा
नहीं है, जो
बिलकुल
प्रकाशित है।
असल में गहरे
से गहरे प्रकाश
में भी अंधकार
की मौजूदगी है
और अंधकार से
अंधकार जगह
में भी प्रकाश
की मौजूदगी
है। ठीक तौला
नहीं जा सकता।
जिंदगी
बिलकुल
घुली-मिली है।
कौन सी चीज ऐसी
है जो बिलकुल
ठंडी है और
गरम नहीं है? और कौन सी
ऐसी चीज है जो
बिलकुल गरम है
और ठंडी नहीं
है? बिलकुल
सापेक्ष
बातें हैं।
ऐसा कुछ भी
नहीं है साफ
टूटा हुआ।
तो
महावीर कहते
हैं, जिंदगी
बिलकुल जुड़ी
है, एकदम
जुड़ी है। एक
पैर जिंदगी है,
दूसरा पैर
मौत है और
दोनों पैर साथ
चल रहे हैं।
ऐसा नहीं है
कि एक आदमी
जिंदा है और
एक आदमी मरा
है। मरना और
जीना बिलकुल
साथ-साथ चल
रहा है।
अंधेरा और
प्रकाश
बिलकुल एक ही
चीज के हिस्से
हैं।
अरस्तू
के तर्क से
गणित निकलता
है, क्योंकि
गणित सफाई
चाहता है कि
दो और दो चार होने
चाहिए। और
महावीर के
गणित से तो दो
और दो चार
नहीं होते, कभी पांच भी
हो सकते हैं, कभी तीन भी
हो सकते हैं।
ऐसा पक्का
नहीं है कि दो
और दो चार ही
होंगे।
जिंदगी इतनी
तरल है, इतनी
ठोस नहीं है, ऐसी मुर्दा
भी नहीं है।
तो वहां दो और
दो कभी पांच
भी हो जाते
हैं, कभी
दो और दो तीन
भी रह जाते
हैं।
तो
महावीर के
तर्क से
मिस्टिसिज्म
निकलता है, और अरस्तू
के तर्क से
निकलती है
मैथेमेटिक्स।
अरस्तू के
तर्क से आता
है गणित और
महावीर के तर्क
से आता है
रहस्य। क्योंकि
रहस्य का मतलब
ही यह है कि
जहां हम साफ-साफ
न बांट सकें
कि ऐसा है।
तो
महावीर की इस
इतनी गहरी
दृष्टि में
उतरने के लिए
केवल किसी के
घर में जन्म
लेना बिलकुल ही
व्यर्थ है।
इससे कोई मतलब
ही नहीं
जुड़ता। इतनी
गहरी दृष्टि
के लिए तो इस
गहरी दृष्टि
में उतरने की
ही जरूरत है।
कोई उतरे तो
ही उसे खयाल
में आ सके।
तो
महावीर के
पीछे जो वर्ग
खड़ा हुआ, महावीर
के इमीजिएट
सीधे संपर्क
में जो लोग आए थे,
वे लोग
महावीर से
प्रभावित हुए
होंगे। अब उनके
बच्चों और
उनके बच्चों
के बच्चों का
कोई संबंध
नहीं है इस
बात से। कोई
संबंध ही नहीं
है। और इसलिए
वे यह भी भूल
जाते हैं कि
वे कह क्या
रहे हैं। जैसे
कि अगर कोई
जैन मुनि कहता
है कि
जैन-दर्शन ही
सत्य है तो वह
भूल रहा है, उसको पता ही
नहीं है कि यह
तो महावीर कभी
नहीं कह सकते।
यानी अगर कोई
जैन अनुयायी
यह कहता है कि
महावीर जो
कहते हैं, वह
ठीक है, तो
उसे पता नहीं
कि खुद महावीर
इसको इनकार कर
देंगे।
महावीर खुद
इसको इनकार कर
देंगे।
यानी
इतना अदभुत
मामला है कि
कोई अगर
महावीर से यह
भी पूछे कि
जिस स्यातवाद
की, जिस
थिअरी ऑफ
रिलेटिविटी
की आप बात कर
रहे हैं, क्या
वह पूर्ण सत्य
है? तो वे
कहेंगे, स्यात।
इसमें भी वे
स्यात का ही
उपयोग
करेंगे। वे यह
नहीं कह देंगे
कि जो
स्यातवाद
मैंने कहा, यह जो थिअरी
ऑफ
प्रोबेबिलिटी
समझाई कि हर
चीजों के सात
कोण हैं और
सात तरह से
देखा जा सकता
है--कोई अगर
पूछे कि यह तो
परम सत्य है? तो महावीर
कहेंगे, स्यात।
हो भी सकता है,
नहीं भी हो
सकता है, अनिर्वचनीय
है। इसके लिए
भी वे यही
कहेंगे।
तो यह
जो जटिलता है, उसकी वजह से
अनुयायी का
आना बहुत कठिन
हो गया, एकदम
कठिन हो गया।
फिर
महावीर की और
भी बातें हैं, जो अनुयायी
को आने में
एकदम बाधा
हैं। जैसे महावीर
नहीं कहते कि
मैं तुम्हारा
कल्याण कर सकूंगा।
वे कहते हैं, तुम ही अपना
कर लो तो
काफी। मैं
कैसे कर सकूंगा?
कोई किसी का
नहीं कर सकता।
अपना ही करना
होगा।
अनुयायी आता
है इसलिए कि
कोई कर दे। तो
जब कोई कहता
है कि मेरी
शरण आ जाओ, मैं
तुम्हें
मोक्ष पहुंचा
दूंगा, तो
अनुयायी आता
है। अब यह
आदमी कहता है
कि मेरी शरण
से तुम मोक्ष
नहीं पहुंच
सकोगे। कोई
किसी की शरण
से कभी मोक्ष
पहुंचा नहीं।
तो कौन इसके
पास आए? प्रयोजन
क्या? स्वार्थ
क्या? लाभ
क्या? हम
तो पूछते हैं,
लाभ क्या है,
प्रयोजन
क्या है, हित
कैसे सिद्ध
होगा? यह
आदमी कहता है
कि अपने सिवाय
और कोई किसी
का हित सिद्ध
कर नहीं सकता।
महावीर
ने गुरु नहीं
बनाया, यह
बड़ी मूल्यवान
बात है। सच
बात यह है कि
महावीर खुद भी
किसी के गुरु
बनना नहीं
चाहते। गुरु
का कोई
प्रयोजन नहीं
है। कोई
प्रयोजन नहीं
है। महावीर की
दृष्टि
ज्यादा से
ज्यादा
कल्याण मित्र
बनने की है, कि मैं
तुम्हारे
कल्याण में
मित्र बन सकता
हूं, बस
इससे ज्यादा
नहीं। गुरु
कोई किसी का
नहीं बन सकता।
क्योंकि गुरु
चलता है आगे, शिष्य चलता
है पीछे, मित्र
चलता है साथ।
यानी ज्यादा
से ज्यादा तुम
मेरे साथ चल
सकते हो। मैं
तुम्हारे आगे
नहीं चल सकता,
तुम मेरे
पीछे नहीं चल
सकते। और यह
अपमान भी कोई
किसी का कैसे
करे कि किसी को
पीछे चलाए!
मुल्ला
नसरुद्दीन के
जीवन में एक
बहुत अदभुत कहानी
है। मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके गांव के कुछ
लड़कों ने, मदरसे के
लड़कों ने आकर
कहा कि हमारे
स्कूल में
आपका प्रवचन
करवाना है, आप चलें।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, हम
बिलकुल तैयार
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गधे पर
सवार होकर चलने
को हुए। तो
लड़के बड़े
हैरान हुए कि
मुल्ला गधे पर
उलटा बैठ गया।
गधे का मुंह
इस तरफ और
मुल्ला का
मुंह उस तरफ, और पीछे
लड़कों को कर
लिया। रास्ते
में सब दुकानों
के लोग
झांक-झांक कर
देखने लगे कि
मुल्ला का
दिमाग खराब हो
गया! क्योंकि
गधे पर उलटा
बैठा हुआ है!
और लड़के भी
बड़े पेशोपस में
पड़ने लगे, क्योंकि
उसके साथ वे
भी बुद्धू बन
रहे हैं।
तो एक
लड़के ने कहा
कि मुल्ला, अगर सीधे
बैठ जाओ तो
बड़ा अच्छा हो,
क्योंकि
बाजार और आगे
बड़ा बाजार आता
है, सब लोग देखेंगे
और हम भी आपके
साथ मुश्किल
में पड़ गए हैं।
तो मुल्ला ने
कहा, तुम
समझते नहीं हो,
कारण है
इसका। अगर मैं
तुम्हारी तरफ
पीठ करके बैठूं
तो तुम्हारा
अपमान हो जाए।
और अगर तुम मेरे
आगे चलो तो भी
तुम्हें
संकोच लगे कि
वृद्ध के आगे
कैसे चलें! तो
फिर मैंने
सोचा, यही
तरकीब उचित है
कि मैं गधे पर
उलटा बैठ जाऊं,
आमने-सामने
होना अच्छा
है। कोई किसी
का अपमान नहीं
करेगा।
यह जो
मुल्ला है, यह बहुत
अदभुत आदमी
है। इसकी छोटी
से छोटी मजाक
में भी बड़े
गहरे से गहरे
सत्य हैं। ऐसे
वह बिलकुल
सीधा मजाक कर
रहा है, लेकिन
वह कह यह रहा
है कि जो
तुम्हारे आगे
चलता है, वह
भी अपमान करता
है, और तुम
अगर आगे चलते
हो तो तुम
उसका अपमान कर
देते हो।
महावीर
को बिलकुल
पसंद नहीं है।
न तो उनके आगे
किसी को रखना
पसंद है, इसलिए
कोई गुरु नहीं
बनाया, न
अपने पीछे
किसी को रखना
पसंद है, इसलिए
किसी को
अनुयायी नहीं बनाया।
वे कहते हैं, कोई किसी का
कल्याण नहीं
कर सकता, कोई
किसी को
स्वर्ग नहीं ले जा
सकता, कोई
किसी का
मुक्तिदाता
नहीं है।
प्रत्येक को
स्वयं होना
पड़ेगा। इसलिए
अनुयायी होने
के सारे
रास्ते तोड़े
डाल रहे हैं।
साथ हो सकते
हैं। अनुगमन
नहीं हो सकता,
सहगमन हो सकता
है।
इसलिए
जो महावीर का
अनुयायी है, वह तो समझ ही
नहीं पाएगा।
क्योंकि
अनुयायी होकर
ही उसने सब
गलती कर दी
है। और महावीर
के साथ होना
बड़ी हिम्मत की
बात है। पीछे
होना बड़ी सरल
बात है। साथ
होना बड़ी
हिम्मत की बात
है। साथ होने
का मतलब है, उन सबसे
गुजरना पड़ेगा
जिससे महावीर
गुजरते हैं।
तो हम पीछे ही
होना चाहते
हैं। इसमें
कुछ नहीं करना
पड़ता। महावीर को
चलना पड़ता है,
हम पीछे
होते हैं। और
पीछे होने की
वजह से कभी हम
पर कोई इल्जाम
भी नहीं हो
सकता, क्योंकि
हम तो सिर्फ
अनुयायी हैं।
तो
महावीर के
आस-पास बड़ी
संख्या नहीं
उपस्थित हो
सकी। छोटी
संख्या
उपस्थित हुई, बहुत छोटी
संख्या
उपस्थित हुई
और वह निरंतर
छोटी होती चली
गई। और अब
करीब-करीब
शाखा सूख गई बिलकुल।
अब उसमें कोई
प्राण नहीं रह
गए। अब वह
बिलकुल सूखी
शाखा की तरह
चल रहा है।
जैसे बहुत दिन
तक पत्ते गिर
जाते हैं, शाखा
सूख जाती है, फिर भी
वृक्ष खड़ा
रहता है, ऐसा
हो गया है।
यह
तोड़ा जा सकता
है, अगर
महावीर को ठीक
से समझा जा
सके तो यह फिर
से तोड़ा जा
सकता है। फिर
इसमें नए
अंकुर आ सकते
हैं। और मैं
मानता हूं, नए अंकुर
आने चाहिए, क्योंकि
महावीर...मैं
किसी का
अनुयायी नहीं,
फिर भी
चाहता हूं कि
इस शाखा में
नए अंकुर आने
चाहिए। जैसे
मैं चाहता हूं
कि लाओत्से की
शाखा में नए
अंकुर आएं, जीसस की
शाखा में आएं,
क्योंकि ये
सब वृक्ष बड़े
अदभुत थे। और
इन सब वृक्षों
के नीचे न
मालूम कितने
लोगों को छाया
मिल सकती है।
ये सूख जाते
हैं तो वह
छाया मिलनी बंद
हो जाती है।
लेकिन
मजा यह है कि
जो इन वृक्षों
के नीचे ठहर गए
हैं, वे ही
इनको सुखाने
के कारण हैं।
क्योंकि वे पानी
नहीं देते
वृक्ष को, पूजा
करते हैं। अब
पूजा से कहीं
वृक्ष बढ़ते हैं?
पूजा से
वृक्ष सूखते
हैं। पानी
देने से वृक्ष
बढ़ते हैं।
पानी वे देते
नहीं, वे
सिर्फ पूजा
करते हैं।
तो सब
वृक्ष सूख गए
हैं। चूंकि इस
प्रसंग में महावीर
की बात चलती
है, इसलिए
मैं कहता हूं
कि कोई जैन
नहीं है। एक
सूखा हुआ
वृक्ष है, एक
स्मृति में, उसके नीचे
खड़े हुए लोग
हैं, जो
पूजा कर रहे
हैं।
और वे
जो भी कर रहे
हैं, उसका
महावीर से कोई
तालमेल नहीं
है। क्योंकि
महावीर जैसे
अदभुत व्यक्ति
से तालमेल
बिठाना भी
बहुत मुश्किल
बात है। और
अगर महावीर की
जो मैंने
समझाई स्यात
की दृष्टि, हम समझ लें।
और अगर यह
स्यात की
दृष्टि को ठीक
से प्रकट किया
जा सके तो आने
वाले भविष्य
में महावीर के
वृक्ष के नीचे
बहुत लोगों को
छाया मिल सकती
है। क्योंकि
स्यात की भाषा
रोज-रोज
महत्वपूर्ण
होती चली
जाएगी।
क्योंकि
विज्ञान ने तो
उसे एकदम ही
स्वीकार कर
लिया है।
आइंस्टीन
की स्वीकृति
बहुत अदभुत
है। और इतने
अदभुत मामलों
में स्वीकार
किया है कि
हमारी कल्पना
के बाहर है।
जैसे अब तक
समझा जाता था
कि जो अणु है, जो अंतिम
अणु है, परमाणु
है--वह अणु है, एटम है। एटम
का मतलब एक
बिंदु है, जिसमें
लंबाई-चौड़ाई
नहीं है।
लेकिन फिर
प्रयोगों से
पता चला कि
कभी तो वह
बिंदु की तरह
व्यवहार करता
है, एटम की
तरह, और
कभी वह लहर की
तरह व्यवहार
करता है, वेव
की तरह। तो
बड़ी मुश्किल
हो गई। उसको
क्या कहें हम?
स्यात अणु
है, स्यात
लहर है। तो एक
नया शब्द
बनाना पड़ा
क्वांटा।
क्वांटा का
मतलब है, जो
दोनों
है--बिंदु भी
और लहर भी।
यह हो
नहीं सकता।
अगर हम कहें
कि एक चीज
बिंदु भी है
और लकीर भी तो
यूक्लिड आ
जाएगा, उसकी
आत्मा कहेगी,
यह तुम क्या
कर रहे हो? बिंदु
बिंदु होता है,
लकीर लकीर
होती है, बिंदु
लकीर कैसे हो
सकता है? लकीर
बिंदु कैसे हो
सकती है? लेकिन
क्वांटा का
मतलब है कि जो
परम अणु है, वह बिंदु भी
है और लकीर
भी। वह कण भी
है और लहर भी।
ये दोनों
बातें कैसे हो
सकती हैं? कण
लहर कैसे हो
सकता है? और
लहर तो कण
नहीं हो सकती।
लेकिन
आइंस्टीन ने
कहा कि दोनों
संभावनाएं एक
साथ हैं, इसलिए
रिलेटिविटी।
इसलिए ऐसा मत
कहो कि बिंदु
ही है, कण
ही है। ऐसा
कहो, स्यात
बिंदु है, स्यात
लहर है।
आइंस्टीन ने
वहां
रिलेटिविटी को
इतने जोर से
सिद्ध कर दिया
है कि सब
चीजें डगमगा
गई हैं। जो कल
तक
एब्सोल्यूट
ट्रस्ट पर खड़ी
थीं, जो
निरपेक्ष
सत्य का दावा
करती थीं, वे
सब डगमगा गई
हैं। विज्ञान
तो सापेक्ष के
भवन पर खड़ा हो
गया।
और
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
महावीर की
स्यात की भाषा
को अगर प्रकट
किया जा सके
तो आने वाले
भविष्य में
महावीर ने जो
कहा है, वह
परम सार्थकता
ले लेगा, जो
उसने कभी नहीं
ली थी। यानी
आने वाले पांच
सौ, हजार
वर्षों में
महावीर की
विचार-दृष्टि
बहुत ही
प्रभावी हो
सकती है।
लेकिन उसके
स्यात को
प्रकट करना
पड़े। वह जो
उसमें
प्रोबेबिलिटी
की बात है, उसको
प्रकट करना
पड़े।
उससे
जैनी खुद
डरेगा।
क्योंकि
अनुयायी हमेशा
स्यात से डरता
है, क्योंकि
स्यात सब
डगमगा देता
है। यानी उसका
मतलब यह हुआ
कि मधुशाला के
लिए अगर कोई
पूछे कि मधुशाला
बुरी है? तो
कहना पड़ेगा, स्यात बुरी
है, स्यात
अच्छी है; जाने
वाले पर
निर्भर है कि
वह क्या करता
है। कोई पूछे,
मंदिर
अच्छा है? तो
कहना पड़े, स्यात
अच्छा है, स्यात
बुरा है; जाने
वाले पर
निर्भर करता
है कि वह
मंदिर में क्या
करता है।
महावीर
तो ऐसा
बोलेंगे, लेकिन
अनुयायी ऐसे
कैसे बोले? तब तो वह
कहेगा कि
मधुशाला और
मंदिर में
फर्क करना
मुश्किल हो
जाएगा।
तो उसे
तो पक्का कहना
पड़ेगा, मधुशाला
बुरी है और
मंदिर अच्छा
है। लेकिन तभी
वह स्यात से
मुक्त हो गया
और निश्चय पर
आ गया, सर्टेन्टी
पर आ गया और
बात खतम हो
गई। महावीर के
साथ चलना
मुश्किल है, एकदम
मुश्किल है।
और इसलिए
अनुयायी खड़े
हो जाते हैं।
और अनुयायी
कभी भी किसी
अर्थ के नहीं
होते।
प्रश्न:
मैं
मानता ऐसा हूं
कि जो कुछ
आपने आज तक
कहा, वह सब
एक ही प्रश्न
को विशेष रूप
से जन्म देता है।
और वह प्रश्न
यह है कि आप जो
कुछ कह रहे
हैं, वह
जैन परिभाषा
में सम्यक
दर्शन के नाम
से कहा गया
है। और आप इसी
पर पूर्ण बल
दे रहे
हैं--आंतरिक विवेक,
जागरूकता।
पर एक सम्यक
चारित्र्य भी
उसका अंग है
और वह
चारित्र्य
बाह्य रूप में
भी प्रकट होता
है। चाहे वह
आता दर्शन में
से ही है, पर
उसका स्वयं का
स्वरूप कुछ
बाह्य में भी
होता है। जैसे
आप अगर
अपरिग्रह को
लें तो एक
असंपृक्ति का
अभाव यह तो
उसका मूल है, र्मूच्छा
का अभाव यह तो
उसका मूल है, पर बाह्य
में वह बाह्य
पदार्थों की
सीमा बंधती
चली जाए, इस
रूप में प्रकट
भी होना चाहिए,
ऐसा
जैन-दर्शन की
मुझे मान्यता
लगती है। इसी
आधार पर तो
अणुव्रत और
महाव्रत का
भेद हुआ। आज मेरी
र्मूच्छा
टूट गई, पर
सब पदार्थ
मुझसे आज छूट
नहीं जाते
अचानक, क्योंकि
मेरी
आवश्यकताएं
जो हैं, वे
धीरे-धीरे ही
छूटने वाली
हैं: कर्म या
संस्कार, उनका
बंधन, वह
धीरे-धीरे ही
टूटने वाला
है। और वही
आचरण के रूप
में आज
अणुव्रत से
प्रारंभ होगा,
कल महाव्रत
के रूप में
समाप्त होगा।
तो आप अगर यह
भेद ही न मानें,
केवल र्मूच्छा
टूटना ही
अपरिग्रह कर
लें तो फिर
अणुव्रत, महाव्रत
का कोई भेद
नहीं! और कोई
क्रम नहीं और चारित्र्य
नहीं, केवल
दर्शन ही है!
इसमें
भी दोत्तीन
बातें समझनी
चाहिए। एक तो, अणुव्रत से
कोई कभी
महाव्रत तक
नहीं जाता, महाव्रत की
उपलब्धि से
अनेक अणुव्रत
पैदा होते
हैं।
प्रश्न:
दोनों
शब्दों का
अर्थ?
हां, मैं बताता
हूं। महाव्रत
का अर्थ है, जैसे पूर्ण
अहिंसा। पूरे
अहिंसक ढंग से
जीने का अर्थ
हुआ
महाव्रत--पूर्ण
अपरिग्रह, पूर्ण
अनासक्ति।
अणुव्रत का
मतलब है, जितनी
सामर्थ्य हो।
एक आदमी कहता
है कि मैं पांच
रुपए का
परिग्रह
रखूंगा, यह
अणुव्रत है।
एक आदमी कहता
है, मैं
नग्न रहूंगा,
मैं कोई
परिग्रह नहीं
रखूंगा, यह
महाव्रत है।
साधारणतः
ऐसा समझा जाता
है कि अणुव्रत
से महाव्रत की
यात्रा होती
है कि पहले
पांच रुपए का रखो, फिर चार का
रखो, फिर
तीन का रखो, फिर दो का, फिर एक का, फिर बिलकुल
मत रखना।
साधारणतः ऐसा
समझा जाता है
कि हम छोटे से
छोटे का
अभ्यास
करते-करते बड़े
की तरफ
जाएंगे।
यह बात
ही गलत है। यह
हो सकता है कि
एक आदमी दस रुपए
की जगह पांच
रुपए का रखने
का अभ्यास कर
ले। यह अभ्यास
होगा, र्मूच्छा
नहीं टूट
जाएगी।
क्योंकि अगर र्मूच्छा
टूट गई होती
तो महाव्रत
उपलब्ध होता
है। र्मूच्छा
के टूटते ही
महाव्रत
उपलब्ध होता
है।
महाव्रत
का
जीवन-व्यवहार
में अणुव्रत
दिखाई पड़ सकता
है। लेकिन र्मूच्छा
टूटते ही अणु
उपलब्ध नहीं
होता, महा
उपलब्ध होता
है। और अगर एक
आदमी के पास
दस रुपए थे और उसने
अभ्यास करके
पांच का
अणुव्रत साध
लिया, कल
अभ्यास करके
चार का साध
लिया, परसों
तीन का साध
लिया, फिर
दो का, फिर
एक का, और
आखिर में उसने
अपरिग्रह भी
साध लिया, तो
भी र्मूच्छा
नहीं टूटी है।
क्योंकि
साधना हमें
उसे पड़ता है, जिसकी हमारी
र्मूच्छा
नहीं टूटती।
जिसकी र्मूच्छा
टूट जाती है, उसे हमें
साधना नहीं
पड़ता, वह
सहज आता है।
र्मूच्छा
टूटी या नहीं
इसका एक ही
सबूत है कि जो
आपसे हो रहा
है, वह आपको
साधना पड़ा है
या कि आया है? अगर आया है
तो र्मूच्छा
टूटी और अगर
साधना पड़ा है
तो र्मूच्छा
नहीं टूटी। क्योंकि
साधना किसके
खिलाफ करनी
पड़ती है? अपनी
ही र्मूच्छा
के खिलाफ।
मेरा मन तो
कहता है दस
रुपया रखो और मेरा
व्रत कहता है
कि पांच रखने
चाहिए। तो मैं
लड़ता किससे
हूं? अपने
मन से लड़ता
हूं, जो
कहता है दस
रखो। मन तो दस
का है और व्रत
पांच का है, तो लड़ता
अपने से हूं।
र्मूच्छा
टूट जाए तो मन
ही टूट जाता
है। दस का
नहीं, पांच
का नहीं, दो
का नहीं, एक
का नहीं--मन
परिग्रह का ही
टूट जाता है।
उस हालत में
भी एक आदमी
पांच रुपए रख
सकता है, लेकिन
तब वह सिर्फ
जरूरत होगी
उसकी, र्मूच्छा
नहीं। उस हालत
में भी पांच
रुपए रख सकता
है। क्योंकि
जीवन-व्यवहार
में, जीवन
में जहां हम
जी रहे हैं, र्मूच्छा
टूट जाने पर
भी एक आदमी
मकान में सो
सकता है, लेकिन
मकान उसका
परिग्रह नहीं
है।
र्मूच्छा
टूटने का मतलब
यह नहीं कि
चीजें छूट
जाएंगी। र्मूच्छा
टूटने का मतलब
यह है कि
चीजों से
हमारा जो लगाव
है, वह छूट
जाएगा। एक
आदमी मकान में
सो रहा है। यह मकान
मेरा है, र्मूच्छा
इस मेरे में
है। र्मूच्छा
मकान में सोने
में नहीं है।
तुम्हारे
खीसे में पांच
रुपए हैं, इसमें
र्मूच्छा
नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
नदी के किनारे
दो फकीर हैं, उनमें विवाद
हो रहा है। एक
फकीर है जो
कहता है, कुछ
भी रखना ठीक
नहीं पास। वह
एक पैसा पास
नहीं रखता है।
दूसरा फकीर है,
जो कहता है
कि कुछ न कुछ
पास होना
जरूरी है, नहीं
तो बड़ी
मुश्किल पड़ती
है। फिर वे
नदी के तट पर
आए, सांझ
हो गई, सूरज
ढल रहा है।
नाव वाला है, और नाव वाला
उनसे कहता है
कि एक रुपया
लेंगे तो हम
पार कर देते
हैं, नहीं
तो अब मैं
जाता नहीं।
मेरा गांव इसी
तरफ है। मैं
तो नाव बांध
कर अब घर जा
रहा हूं। अब
रात हो गई।
दिन भर का काम,
थक गया हूं।
उन
फकीरों को उस
तरफ जाना है, जरूरी है।
रात वहां
पहुंच जाना
जरूरी है। उस
तरफ लोग
प्रतीक्षा
करते होंगे।
वे परेशान
होंगे, हैरान
होंगे। इस तरफ
घना जंगल है, कहां पड़े
रहेंगे! तो वह
फकीर एक रुपया
निकालता है जो
कहता था, कुछ
रखना जरूरी
है। एक रुपया
देता है, वे
नाव में दोनों
सवार होकर उस
तरफ पहुंच
जाते हैं। वह
फकीर कहता है
कि देखो, मैंने
कहा था, कुछ
रखना जरूरी है,
नहीं तो हम
उसी पार रह गए
होते। वह जो
फकीर कहता था,
कुछ भी रखना
जरूरी नहीं है,
छोड़ना
जरूरी है, वह
कहता है कि
तुम रखने की
वजह से इस पार
नहीं पहुंचे,
तुम एक
रुपया छोड़ सके,
इसलिए हम इस
पार पहुंचे।
सिर्फ रखने से
नहीं इस पार
पहुंचे, छोड़ने
से ही इस पार
पहुंचे।
फिर
विवाद शुरू हो
जाता है।
क्योंकि बड़ी
मुश्किल हो
गयी। जिसने एक
रुपया दिया था, उसने सोचा
था कि विवाद
जीत गए। उस
पार नदी के फिर
विवाद चलने
लगा है। और अब
इस विवाद का
कोई अंत नहीं
हो सकता।
क्योंकि वह
दूसरा फकीर यह
कहता है कि हम
इस पार आए ही
इसलिए कि तुम
एक रुपया छोड़
सके। छोड़ने से
हम इस पार आए।
और वह फकीर
कहता है, हम
आते ही नहीं
अगर एक रुपया
हमारे पास न
होता।
अब
मेरा मानना यह
है कि कोई
तीसरे फकीर की
वहां जरूरत है
जो कहे कि हो, तभी छोड़ा जा
सकता है, न
हो तो छोड़ा भी
नहीं जा सकता।
इसलिए मैं जो
कहता हूं, वह
यह कहता हूं
कि चीजें हों
और तुममें
छोड़ने की सतत
सामर्थ्य हो
बस इतनी ही
बात है। चीजें
न हों, यह
सवाल नहीं है।
चीजें न हों, यह सवाल
नहीं है; सवाल
यह है कि
तुममें सतत
छोड़ने की
सामर्थ्य हो।
एक और
तुम्हें
कहानी कहूं, उससे शायद
समझ में आ
जाए। एक
सम्राट एक
संन्यासी से
बहुत
प्रभावित था।
वह नग्न पड़ा
रहता संन्यासी
एक नीम के
वृक्ष के
नीचे। उस
सम्राट का आदर
बढ़ता गया और
एक दिन उसने
कहा कि यहां
नहीं, मेरे
पास इतने बड़े
महल हैं, आप
यहां क्यों
नीचे पड़े हैं?
आप महल में
चलें। सोचा था
उसने, संन्यासी
इनकार करेगा
कि मैं महल
में नहीं जा
सकता, मैं
अपरिग्रही!
संन्यासी ने
कहा, जैसी
मर्जी! वह उठा
कर डंडा खड़ा
हो गया। सम्राट
के मन में बड़ी
मुश्किल हुई,
सोचा था कि
अपरिग्रही है,
इनकार
करेगा। वह
एकदम डंडा उठा
कर खड़ा हो गया! कहा,
जैसी मर्जी!
चलो, महल
चले चलते हैं!
तब तो सम्राट
को बड़ी शंका
आने लगी मन
में, संदेह
आने लगा कि
कुछ भूल हो गई
मुझसे। आदमी दिखता
है महल की
प्रतीक्षा ही
कर रहा था।
सिर्फ नीम के
नीचे शायद
इसीलिए पड़ा हो
कि कोई महल में
ले जाने वाला
मिल जाए। इसने
एक दफा इनकार
भी न किया! ऐसा
कैसा
अपरिग्रही है!
अपरिग्रही को तो
कहना था, कभी
नहीं जा सकता
महल में। महल
पाप है। वहां
मैं कैसे जा सकता
हूं?
वह चला
आया महल में!
फिर भी सम्राट
ने कहा, देखें,
कोशिश करें,
जांच-पड़ताल
करें। तो अपना
ही, जो
उसका कमरा था,
जिसमें
बहुमूल्य से
बहुमूल्य
सामान थे, श्रेष्ठ
से श्रेष्ठ
गद्दियां थीं,
मखमलें थीं,
कीमती कालीन
थे। उसने ही
कहा कि आपको
यहां...ठहर
सकेंगे न? उसने
कहा, बिलकुल
मजे से! वह
जैसा नीम के
नीचे सोया था,
वैसे ही वह
उस मखमली
गद्दे पर सो
गया। सम्राट ने
अपना सिर
ठोंका। उसने
कहा, कुछ
गलती एकदम हो
गई। हम एकदम
गलत आदमी को
ले आए।
क्योंकि
परिग्रही को
अपरिग्रही तब
समझ में आता
है, जब वह
परिग्रह की
दुश्मनी में
हो। परिग्रही
को, जिसको
चीजों से पकड़
है, उसे
सिर्फ वही समझ
में आता है जो
चीजों को पकड़ने
से ऐसा डर कर
हाथ फैला दे
कि नहीं, मैं
छू नहीं सकता,
ये चीजें
पाप हैं।
जिसको रुपए से
मोह है, वह
रुपए को लात
मारने वाले को
ही आदर देता
है। परिग्रही
सिर्फ उसको ही
समझ सकता है, जो उलटा,
ठीक उससे उलटा
करे।
सम्राट
बहुत मुश्किल
में पड़ गया, छह महीने
बीत गए हैं।
वह फकीर ऐसे
रहने लगा जैसे
सम्राट रहता
है। छह महीने
बीत गए हैं, एक सुबह वे
अपने बगीचे
में टहलते
हैं। और सम्राट
ने उस फकीर से
पूछा कि अब तो
मुझमें और
आपमें कोई भेद
नहीं मालूम
पड़ता, बल्कि
शायद आप ही
ज्यादा
सम्राट हैं।
यानी मुझे
चिंता, फिक्र
और सब इंतजाम
भी करना पड़ता
है। आप तो बिलकुल
मजे में हैं!
तब तो एक फर्क
था जब आप नीम
के नीचे पड़े
थे, आप
संन्यासी थे,
मैं सम्राट
था। अब तो कोई
फर्क नहीं
मालूम पड़ता, बल्कि आप ही
ज्यादा
सम्राट हैं।
तो क्या मैं पूछ
सकता हूं कि
कोई फर्क बाकी
है?
तो उस
संन्यासी ने
कहा, फर्क
पूछते हो? चलो,
थोड़ा आगे
चले चलें, थोड़ा
आगे बताएंगे।
बगीचा पार हो
गया, गांव
निकल गया।
सम्राट ने कहा,
बता दें।
उसने कहा, थोड़ा
और आगे चलें।
गांव की नदी आ
गई, वे नदी
के पार हो गए।
सम्राट ने कहा,
कब बताएंगे?
धूप चढ़ी
जाती है! उसने
कहा, चले
चलो। अभी अपने
आप पता चल
जाएगा।
सम्राट ने कहा,
क्या मतलब?
उस फकीर ने
कहा कि अब मैं
लौटूंगा
नहीं। अब मैं
लौटूंगा नहीं!
अब तुम चले ही
चलो मेरे साथ।
सम्राट ने कहा,
मैं कैसे चल
सकता हूं? मेरा
मकान, मेरा
महल, मेरा
राज्य।
उस
फकीर ने कहा, तो तुम लौट
जाओ, लेकिन
अब हम जाते
हैं। अगर फर्क
दिख जाए तो दिख
जाए। उस फकीर
ने कहा कि अगर
फर्क दिख जाए
तो दिख जाए, क्योंकि अब
हम लौटने वाले
नहीं। मगर यह
मत समझना कि
हम कोई
तुम्हारे महल
से डर गए हैं।
तुम अगर कहो
कि लौट चलो तो
हम लौट जाएं, लेकिन
तुम्हारी
शंका फिर पैदा
हो जाएगी। इसलिए
अब हम जाते
हैं। अब तुम
अपना महल
सम्हालो। उस
सम्राट से
उसने कहा कि
इसमें फर्क
तुम्हें दिखता
है कि हम जा
सकते हैं किसी
भी क्षण!
अपरिग्रह
का मतलब यह
नहीं है कि
चीजें न हों।
क्योंकि
चीजें न होने
पर जोर जो है, वह चीजें
होने पर जो
जोर था, उसका
ही प्रतिरूप
है। चीजें हों
या न हों, यह
सवाल नहीं है
अपरिग्रह का।
अपरिग्रह का
सवाल यह है कि
व्यक्ति
चीजों के सदा
बाहर है। उसके
भीतर कोई चीज
नहीं है।
उस
फकीर ने कहा
कि हम तुम्हारे
महल में थे, लेकिन
तुम्हारा महल
हममें नहीं
है। बस, इतना
ही फर्क है।
तुम महल में
कम हो, महल
तुममें
ज्यादा है। तो
हम छोड़ कर
कहीं भी जा
सकते हैं।
हमारे भीतर
नहीं है
मामला। हम उसके
भीतर थे, निकल
सकते हैं। कोई
महल हमको पकड़
सकता है? और
जैसे हम नीम
के नीचे सोते
थे, वैसे
ही तुम्हारे
महल में भी
सोए। वही आदमी,
वैसे ही
सोया।
तो
महाव्रत से
अणुव्रत फलित
हो सकते हैं, लेकिन
अणुव्रतों के
जोड़ से कभी
महाव्रत नहीं निकलता।
क्योंकि
अणुव्रत की
कोशिश ही
मर्ूच्छित
चित्त की
कोशिश है। और
महाव्रत की
तुम कोशिश ही
नहीं कर सकते।
वह तो अर्मूच्छा
लाओ तो
महाव्रत
उपलब्ध होगा।
मेरा मतलब समझ
लेना! महाव्रत
प्रयास से
नहीं आ सकता, तुम्हारी र्मूच्छा
टूट जाए तो
महाव्रत फलित
होता है, तुम्हारा
चित्त
महाव्रती हो
जाता है।
लेकिन जीवन
में हजार तरह
से अणुओं में
प्रकट होगा वह
महाव्रत, हजार-हजार
अणुओं में।
लेकिन
साधक जिसको हम
कहते हैं
आमतौर से, वह अणुव्रत
से चलता है
महाव्रत पर
पहुंचने की कोशिश
में। वह कभी
नहीं
पहुंचता। वह
अणुओं के जोड़
पर पहुंच
जाएगा, महाव्रत
पर नहीं।
महाव्रत
अणुओं का जोड़
नहीं है, महाव्रत
विस्फोट है, एक्सप्लोजन
है। और जब
चेतना पूरी की
पूरी विस्फोट
होती है, तब
उपलब्ध होता
है।
महावीर
महाव्रती
हैं। जीवन तो
अणुव्रती होगा।
क्योंकि कहीं
जाकर भिक्षा
मांगेंगे, दो रोटी खा
लेंगे। किसी
विश्राम के
लिए किसी छाया
के तले
रुकेंगे; चलेंगे,
फिरेंगे, बात करेंगे।
इस सब में अणु
होंगे। लेकिन
भीतर जो विस्फोट
हो गया, वहां
महा होगा।
फिर जो
दूसरी बात
पूछी है, वह
भी इससे
संबंधित समझ
लेनी चाहिए।
तीन
शब्द हैं
महावीर
के--सम्यक
दर्शन, सम्यक
ज्ञान, सम्यक
चारित्र्य।
लेकिन
अनुयायियों
ने बिलकुल
उलटा किया हुआ
है। वे कहते
हैं, सम्यक
चारित्र्य, सम्यक ज्ञान,
सम्यक दर्शन।
वे कहते हैं, पहले चरित्र
साधो, तब
ज्ञान थिर
होगा। जब
ज्ञान थिर
होगा तो दर्शन
होगा। पहले
चरित्र को
बनाओ, जब
चरित्र शुद्ध
हो जाएगा तो
मन थिर होगा, फिर मन में
ज्ञान होगा।
जानोगे तुम, जानने से
दर्शन उपलब्ध
होगा, तो
मुक्त हो
जाओगे।
स्थिति
बिलकुल उलटी
है। सम्यक
दर्शन पहले है, विज़न पहले
मिलना चाहिए,
दर्शन पहले
होना चाहिए।
जिसका हमें
दर्शन होता है,
उसका हमें
ज्ञान होता
है। दर्शन है
शुद्ध दृष्टि,
देखना।
जैसे तुम एक
फूल के पास से
निकले और तुम
खड़े हो गए और
तुम्हें
दर्शन हुआ फूल
का। अभी ज्ञान
नहीं हुआ। जब
दर्शन को तुम
समझने की
कोशिश करोगे,
तुम कहोगे,
गुलाब का
फूल है, बड़ा
सुंदर है, यह
ज्ञान हुआ। जब
दर्शन को तुम
बांधते हो, तब वह ज्ञान
बन जाता है।
और फिर तुमने
फूल तोड़ा और
उसकी सुगंध ली,
यह चरित्र
हुआ। दर्शन जब
बंधता है तो
ज्ञान बन जाता
है, ज्ञान
जब प्रकट होता
है तो चरित्र
हो जाता है।
चरित्र अंतिम
है, प्रथम
नहीं। दर्शन
प्रथम है।
तो
पहले तो जीवन
का सत्य क्या
है, इसका
दर्शन चाहिए।
वह ध्यान से
होगा, समाधि
से होगा।
इसलिए साधना
ध्यान और
समाधि की है।
दर्शन उसका फल
होगा। जब
दर्शन हो
जाएगा और तुम
सचेत होओगे
दर्शन के
प्रति तो ज्ञान
निर्मित
होगा। और जब
ज्ञान
निर्मित होगा तो
तुम उससे
अन्यथा आचरण
नहीं कर सकते
हो। तुम्हारा
आचरण सम्यक हो
जाएगा।
प्रश्न:
वह
आचरण किस रूप
में होगा, यही मेरी
जिज्ञासा है!
वह
बहुत रूप में
हो सकता है।
क्योंकि आचरण
बहुत सी चीजों
पर निर्भर है, वह सिर्फ
तुम पर निर्भर
नहीं है। वह
आचरण बहुत रूप
में हो सकता
है। जीसस में
एक तरह का
होगा, कृष्ण
में एक तरह
होगा, महावीर
में एक तरह
होगा। दर्शन
बिलकुल एक होगा,
ज्ञान में
फर्क पड़ जाएगा
फौरन।
क्योंकि उस दर्शन
को ज्ञान
बनाने वाला
प्रत्येक
व्यक्ति अलग-अलग
है। ज्ञान में
भेद पड़ जाएगा,
दर्शन
बिलकुल एक
होगा। जगत के
जितने भी
अनुभूति
उपलब्ध
व्यक्ति हैं,
सबका दर्शन
एक है, लेकिन
ज्ञान सबका
अलग होगा।
ज्ञान अलग का
मतलब यह कि
उनकी भाषा, उनके सोचने
का ढंग, उनकी
शब्दावली, वह
सब की सब
ज्ञान बनेगी।
फिर ज्ञान
आचरण बनेगा और
आचरण भी भिन्न
होगा।
जैसे, जैसे समझ
लें कि अगर आज
महावीर
न्यूयार्क
में पैदा हों
तो वे नंगे
खड़े नहीं
होंगे।
क्योंकि न्यूयार्क
में नंगे खड़े
होने का एक ही
परिणाम होगा
कि वह
पागलखाने में
बंद करके उनका
इलाज किया
जाएगा।
न्यूयार्क
में वे नंगे
खड़े नहीं होंगे।
क्योंकि
न्यूयार्क की परिस्थिति
नंगे होने को
पागलपन से
समानार्थक
मानती है। तो
इस परिस्थिति
में महावीर का
आचरण नग्न
होने का नहीं
होगा, नहीं
हो सकता। जिस
परिस्थिति
में भारत में
वे थे, उस
दिन नग्नता
पागलपन का
पर्यायवाची
नहीं थी, परम
संन्यास का
पर्यायवाची
थी।
प्रश्न:
उत्तरी
ध्रुव में वे
मांस भी खा
सकते हैं, अगर आज पैदा
हों?
संभव
है। मैं जो
बात कर रहा
हूं, उसे समझ
लें। संभव है,
लेकिन
मैंने कल रात
जो बात की अगर
वह तुमने सुनी
है, तो वे
उत्तरी ध्रुव
में भी मांस
नहीं खाएंगे। अगर
उन्हें मूक
जगत से संबंध
स्थापित करना
हो तो मांस
नहीं खा सकते
हैं और अगर न
संबंध
स्थापित करना
हो तो मांस खा
सकते हैं।
प्रश्न:
और
मोक्ष हो सकता
है?
और
मोक्ष हो सकता
है। मांस खाने
से मोक्ष का
कोई विरोध
नहीं है, कोई
विरोध नहीं
है। लेकिन तब
वे मनुष्य से
ही संबंध
स्थापित कर
सकेंगे
ज्यादा से
ज्यादा, और
वह संबंध भी
बहुत शुद्ध
संबंध नहीं
होगा। उस
संबंध में भी
थोड़ी बाधाएं
होंगी। अगर
पूर्ण शुद्ध
संबंध स्थापित
करना है तो इस
जगत के प्रति
किसी तरह की
भी चोट
जाने-अनजाने
नहीं होनी
चाहिए, तब
संबंध पूर्ण
संवाद का
स्थापित हो
सकेगा। मुझे
अगर तुमसे
पूरे संबंध
स्थापित करने
हैं तो मुझे
तुम्हारे
प्रति पूर्ण
अवैर को साधना
ही होगा। नहीं
तो जितना मेरा
वैर होगा, जितना
मैं तुम्हें
चोट पहुंचा
सकता हूं, जितना
तुम्हारा
शोषण कर सकता
हूं, जितनी
तुम्हारी
हिंसा कर सकता
हूं, उसी
मात्रा में
मैं तुम्हें
जो पहुंचाना
चाहता हूं, वह नहीं
पहुंचा सकूंगा।
प्रेम के
अतिरिक्त
सत्य को
पहुंचाने का
और कोई द्वार
नहीं है।
इसलिए
महावीर अगर
उत्तरी ध्रुव
में पैदा हों और
उनको अगर नीचे
के मूक पशु
जगत और पदार्थ
जगत से संबंध
स्थापित करना
हो तो वहां भी
मांसाहार
नहीं कर
सकेंगे। नहीं
कर सकेंगे।
लेकिन अगर न
करना हो तो
यहां भी कर
सकते हैं।
आखिर इस देश
में भी कर
सकते हैं, कोई कठिनाई
नहीं है अगर
वे संबंध...।
इसलिए
मैंने
जो--अहिंसा की
जो मेरी
दृष्टि है, वह बात ही और
है। यानी
अहिंसा को मैं
कोई अनिवार्य
तत्व नहीं मान
रहा हूं मोक्ष
जाने का, अहिंसा
को अनिवार्य
तत्व मान रहा
हूं मनुष्य से
नीचे की
योनियों से
संबंध
स्थापित करने का।
तो भेद
होंगे। भेद
होंगे; दर्शन
एक होगा, ज्ञान
भेद हो जाएगा।
और फिर चरित्र
तो और भी भेद
हो जाएगा।
क्यों? क्योंकि
दर्शन है
शुद्ध
स्थिति। न
वहां मैं हूं,
न वहां कोई
और है, सिर्फ
विज़न है, सिर्फ
दर्शन है, कोई
विकार नहीं है
वहां। फिर
ज्ञान में
भाषा आ गई, शब्द
आ गए। तो जो
भाषा मैं
जानता हूं वही
आएगी, जो
तुम जानते हो
वही आएगी।
अब
जीसस को
पाली-प्राकृत
नहीं आ सकती।
जब ज्ञान
बनेगा तो
पाली-प्राकृत
या संस्कृत
में नहीं बन
सकता जीसस का।
वह आरमैक में
बनेगा। जब
कन्फ्यूशियस
को भी दर्शन
होगा तो दर्शन
तो भाषा-मुक्त
है, इसलिए
वही होगा जो
बुद्ध को या
महावीर को
होगा, लेकिन
जब ज्ञान
बनेगा तो वह
चीनी में
बनेगा। इस तल
पर ही नहीं, भाषा जो जिस
शब्दावली में
वह जीया है और
पला है!
जैसे
महावीर को जब
मुक्ति अनुभव
होगी तो वे उसे
मोक्ष कहेंगे, वे उसे
निर्वाण नहीं
कह सकते हैं।
निर्वाण शब्द
में वे पले
नहीं हैं। वे
उस शब्द में
पले नहीं हैं,
वह उनका
शब्द नहीं है।
शंकर को जब
अनुभूति होगी
उसी मुक्ति की,
तो वे
कहेंगे
ब्रह्म-उपलब्धि।
वह ब्रह्म-उपलब्धि
शब्द है सिर्फ,
बात वही है
जो महावीर को
मोक्ष में
होती है, बुद्ध
को निर्वाण
में होती है, शंकर को
ब्रह्म-उपलब्धि
में होती है।
लेकिन शब्द
अलग है, यह
तो
टर्मिनोलाजी
है। ज्ञान तो
बिना टर्मिनोलाजी
के नहीं होगा।
तो ज्ञान में
शब्द आ जाएगा।
तो विशुद्धि
गई, अशुद्धि
आनी शुरू हुई।
परम अनुभव जो
था, अब वह
शाखाओं में
बंटना शुरू
हुआ।
फिर भी
ज्ञान सिर्फ
शब्दों की वजह
से अशुद्ध है।
चरित्र तो और
भी नीचे उतरना
है। चरित्र तो
समाज, लोक-व्यवहार,
स्थिति, युग,
नीति, व्यवस्था,
राज्य, इस
सब पर निर्भर
होगा।
क्योंकि जब
मैं शुद्ध दर्शन
में हूं, तब
न मैं हूं, न
कोई और है, सिर्फ
दर्शन है। जब
मैं ज्ञान में
आया तो दर्शन
और मैं भी आया
वापस। और जब
मैं चरित्र
में आया तो
समाज भी आया।
चरित्र जो है,
वह
इंटर-रिलेशनशिप
है समाज के
साथ। समाज की
एक नीति है
अगर, तो
चरित्र में वह
प्रकट होनी
शुरू होगी।
अगर दूसरी
नीति है तो
दूसरी तरह से
प्रकट होनी
शुरू होगी।
प्रश्न:
उनमें
कोई भी मिथ्या
नहीं?
नहीं, कोई भी
मिथ्या नहीं
है। मिथ्या
कोई है ही
नहीं। कोई भी
मिथ्या नहीं
है। क्योंकि
लोक, परिस्थिति
सारी जगह
अलग-अलग है, एकदम
अलग-अलग है।
और उस
परिस्थिति से
संबंधित होंगे
न आप! तो
चरित्र
बनेगा।
चरित्र मुझसे
और दूसरे का
संबंध है।
चरित्र में
मैं अकेला नहीं
हूं, आप भी
हैं।
तो
इसलिए चरित्र
तो प्राथमिक
नहीं है, सबसे
आखिरी
प्रतिध्वनि
है दर्शन की।
लेकिन हां, चरित्र में
कुछ बातें
प्रकट होंगी।
जिसका दर्शन
होगा, उसकी
कुछ बातें
प्रकट होंगी।
वे कुछ बातें
हमारे खयाल
में ले सकते
हैं। लेकिन
उनको बहुत
बांध कर मत ले
लेना, नहीं
तो मुश्किल हो
जाती है। उनको
बांध लेने से
मुश्किल हो
जाती है।
क्योंकि वे
किसी न किसी
रूप में
परिस्थिति
में ही प्रकट
होंगी न!
जैसे
समझ लें कि
सूरज की
किरणें आ रही
हैं और यह जो
खिड़की लगी है
नीले कांच की
है, और यह जो
खिड़की लगी है
पीले कांच की
है, तो
पीले कांच की
खिड़की जो
किरणें भीतर
भेजेगी, वे
पीली दिखाई
पड़ेंगी, नीले
कांच की
किरणें नीली
दिखाई
पड़ेंगी।
अगर
तुमने यह मान
लिया कि सूरज
जब निकलता है
तो नीले रंग
का होता है तो
तुम गलती में
पड़ जाओगे, या तुमने
मान लिया कि
पीले रंग का
होता है तो
तुम गलती में
पड़ जाओगे। तुम
इतना ही मानना
जो ज्यादा
एसेंशियल है कि
सूरज जब
निकलता है तो
अनेक रंगों
में प्रकट होता
है, लेकिन
प्रकाश होता
है। तो तुम
पीले और नीले
में भी तालमेल
बिठा पाओगे।
महावीर
में वह एक तरह
से निकलता है, क्योंकि महावीर
का
व्यक्तित्व
एक तरह का है, बुद्ध में
दूसरी तरह से
निकलता है, क्राइस्ट
में तीसरी तरह
से निकलता है,
कृष्ण में
चौथी तरह से
निकलता है।
हजार तरह से
वह निकलता है।
ये सब कांच
हैं
व्यक्तित्व, प्रकाश तो
एक है। फिर
इनसे निकलता
है। फिर तुम
देखने वालों
के बीच, जिस
समाज में वह
आदमी जी रहा
है, वे
देखने वाले भी
संबंधित हो
जाते हैं। और
संबंध तो
तुमसे करना है
उसे।
प्रत्येक
युग में नीति
बदल जाती है, व्यवस्था
बदल जाती है, राज्य बदल
जाता है।
प्रश्न:
बेसिक
मॉरेलिटी
जैसी कोई चीज
नहीं है?
बिलकुल
ही नहीं है।
बिलकुल ही नहीं
है।
प्रश्न:
सत्य
भी बेसिक
मॉरेलिटी
नहीं है?
न, न, न! सत्य
मॉरेलिटी का
हिस्सा ही
नहीं है। सत्य
तो अनुभूति का,
दर्शन का
हिस्सा है, चरित्र का
नहीं।
प्रश्न:
ब्रह्मचर्य?
नहीं, वह भी बेसिक
नहीं है। वह
भी बेसिक नहीं
है। अब वही
मैं कहता हूं।
जैसे कि मोहम्मद
हैं, मोहम्मद
नौ पत्नियों
को रखे हुए
हैं। और मैं मानता
हूं बड़ा
दयापूर्ण है।
बड़ा दयापूर्ण
है। जिस जगह
मोहम्मद पैदा
हुए, वहां
औरतें
चार-पांच गुनी
ज्यादा हैं
पुरुषों से।
स्त्रियों की
संख्या पांच
गुनी ज्यादा है।
पुरुष एक है
तो स्त्रियां
छह हैं, पांच
हैं। क्योंकि
जो कबीला है, वह लड़ाकू
कबीला है, दिन-रात
लड़ता है, पुरुष
तो कट जाते
हैं, स्त्रियां
बच जाती हैं।
सारा समाज
अनैतिक हुआ जा
रहा है, क्योंकि
जहां
स्त्रियां
पांच हों, पुरुष
एक हो...और वहां
अगर मोहम्मद
ब्रह्मचर्य
का उपदेश दें,
तो वह मुल्क
सड़ जाएगा
बिलकुल ही। उस
मुल्क को
मारने वाले
सिद्ध होंगे
वे। बिलकुल ही
सड़ जाएगा
मुल्क, मर
ही जाएगा
मुल्क।
क्योंकि ऐसे
ही कठिनाई खड़ी
हो गई है, क्योंकि
चार
स्त्रियों को
पति नहीं मिल
रहे हैं। तो
चार
स्त्रियां
मजबूरी में
व्यभिचार में
उतर रही हैं।
इन चार
स्त्रियों के
व्यभिचार में
उतरने से जो
पुरुष हैं, वे भी सब
व्यभिचारी
हुए जा रहे
हैं। इन चार
स्त्रियों के
लिए कोई
व्यवस्था
करनी जरूरी है,
नहीं तो
समाज बिलकुल
ही अनैतिक हो
जाएगा।
तो अगर
महावीर भी
वहां हों
मोहम्मद की
जगह तो मैं
मानता हूं कि
नौ विवाह
करेंगे।
क्योंकि उस
स्थिति में
इसके सिवाय
कोई नैतिक
तत्व नहीं हो
सकता। तो मोहम्मद
कहते हैं कि
चार विवाह तो
प्रत्येक के
लिए धर्म है, नीति है।
चार तो
प्रत्येक करे
ही, ताकि
कोई स्त्री
बिना पति के न
रह जाए। और
कोई स्त्री
बिना पति की
पीड़ा न उठाए।
और बिना पति की
स्त्री
व्यभिचार को
मजबूर न हो
जाए और सारे
समाज को
गर्हित और
कुत्सित
रोगों में न
घेर दे।
तो
मोहम्मद इसके
लिए उदाहरण
बनते हैं, वे नौ विवाह
कर लेते हैं।
मेरा मतलब समझ
रहे हैं न? यानी
मेरी दृष्टि
में मोहम्मद
जो घटना है...।
प्रश्न:
इसका
मतलब चरित्र
समाज से आया
या सम्यक
दर्शन से
चरित्र आया?
चरित्र
तो आएगा सम्यक
दर्शन से, लेकिन प्रकट
होगा समाज
में। ये दो
बातें हैं उसमें
न!
प्रश्न:
सम्यक
दर्शन
प्राप्त होने
वाले का जो
चरित्र होगा
वह समाज को
प्राप्त होगा
या समाज का
उसको प्राप्त
होगा?
सम्यक
दर्शन जिसको
प्राप्त हुआ
है, उसे एक
दृष्टि
प्राप्त हुई
है करुणा की, कंपैशन की, प्रेम की, दया की। वह
दृष्टि
प्राप्त हुई
है। अब समाज
कैसा है? उस
दृष्टि को
प्रकट होने के
लिए जो उपकरण
खोजेगा--जैसे
मोहम्मद के
लिए यही
कंपैशन है कि
वे चार विवाह
का इंतजाम कर
दें। और जो
चार विवाह का
इंतजाम करता
हो, अगर वह
नौ विवाह खुद
करके न बता
सके तो चार का
इंतजाम करेगा
कैसे? आप
मेरा मतलब समझ
रहे हैं न? मोहम्मद
के लिए जो
करुणापूर्ण
है, वह यही
है।
महावीर
के लिए यह
करुणा की बात
नहीं है।
महावीर के लिए
यह सवाल नहीं
है। जिस युग
में वे हैं, जहां वे हैं,
वहां की यह
परिस्थिति
नहीं है, इससे
कोई संबंध
नहीं है। यह
कल्पना में भी
आना मुश्किल
है महावीर के।
मोहम्मद के
लिए ब्रह्मचर्य
कल्पना में
आना बहुत
मुश्किल है और
एकदम बेमानी
है। क्योंकि
मोहम्मद अगर
ब्रह्मचर्य
की बात करें
तो आप यह समझ
लीजिए कि अरब
मुल्क सदा के
लिए नष्ट हो
जाएं, बुरी
तरह नष्ट हो
जाएं।
तो मैं
जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा
हूं...।
प्रश्न:
लेकिन
उत्तर तो एक
ही होगा!
सम्यक
दर्शन से
करुणा आ
जाएगी। करुणा
क्या उत्तर
लेगी, यह
बिलकुल अलग
बात है। अब यह
हो सकता है कि
करुणा यह
उत्तर ले कि
एक आदमी की
टांग सड़ रही
है तो उसको
काट दे। आप समझ
रहे हैं न
मेरा मतलब? और दूसरा
आदमी कहे कि
तुमने टांग
काट दी एक आदमी
की, तुम्हारी
कैसी करुणा
है!
गांधीजी
के आश्रम में
एक बछड़ा बीमार
है। और वह
इतना तड़फ रहा
है, इतना
परेशान है। और
डाक्टर कहते
हैं कि बचेगा नहीं,
दोत्तीन
दिन में मरेगा,
उसको कैंसर
हो गया है। तो
गांधीजी कहते
हैं, उसे
जहर का
इंजेक्शन दे
दें। वह
इंजेक्शन दे दिया
गया तो सारे
आश्रम के ही
लोग संदिग्ध
हो गए।
उन्होंने कहा
कि यह आप क्या
करते हैं? बड़े-बड़े
पंडित
गांधीजी के
पास इकट्ठे हो
गए। उन्होंने
कहा, यह तो
हद हो गई।
गौ-हत्या हो
गई। गांधीजी
ने कहा, वह गौ-हत्या
का पाप मैं
झेल लूंगा, लेकिन इतना
कष्ट मैं नहीं
देख सकता। इस
कष्ट को मैं
बरदाश्त नहीं
करता।
अब
गौ-हत्या नहीं
होनी चाहिए, ऐसा जो
जड़-बुद्धि का
आदमी है, वह
तो कभी नहीं
बरदाश्त कर
सकता यह।
क्योंकि उसके
पास अपना कोई
विज़न नहीं, अपनी कोई
दृष्टि नहीं
है, सिर्फ
बंधा हुआ नियम
है। लेकिन
जिसके पास अपना
विज़न है, अपनी
दृष्टि है, वह अपनी
दृष्टि का
उपयोग करेगा,
चाहे वह
नियम के
प्रतिकूल
जाती हो, इससे
भी कोई सवाल
नहीं। लेकिन
विशेष
परिस्थिति ही
निर्भर
करेगी।
गांधीजी किसी
अच्छे बछड़े को
नहीं जहर पिला
दे सकते हैं।
तो मेरा
कहना यह है कि
विज़न तो आपका
होगा, लेकिन
परिस्थिति तो
बाहर होगी।
बछड़ा बीमार पड़ा
है, कैंसर
से पड़ा है, तो
आपको जहर
पिलाना पड़ रहा
है। करुणा
आपसे आ रही
है। करुणा
क्या रूप लेगी,
कहना कठिन
है। कभी तलवार
उठा सकती है
करुणा और कभी
तलवार का
निषेध कर सकती
है करुणा।
मोहम्मद
की तलवार पर
मोहम्मद ने
लिखा हुआ है, कि मैं
शांति के लिए
लड़ रहा हूं।
इस्लाम का मतलब
है शांति, शब्द
का मतलब भी
शांति है।
लेकिन
मोहम्मद की परिस्थिति
में और जिन
लोगों से वे
घिरे हैं, वे
तलवार के
सिवाय दूसरी
भाषा ही नहीं
समझते, यानी
दूसरी भाषा
बिलकुल बेमानी
है।
प्रश्न:
क्राइस्ट
ने कोड़े मारे, वह करुणा है?
बिलकुल
ही करुणा है।
यह भी संभव
है। क्राइस्ट
जब पहली दफा
यहूदियों के
बड़े त्यौहार
पर, वर्ष के
बड़े त्यौहार
पर गए तो वह जो
बड़ा मंदिर था
यहूदियों का,
जहां सारा
देश इकट्ठा
होता, वहां
सारे देश के
बड़े ब्याजखोर
इकट्ठे होते।
जो कि
प्रतिवर्ष जो
लोग आते
यात्री, उनको
ब्याज पर पैसा
देते और उनसे
ब्याज लेते। और
वह बड़ा
खर्चीला
त्यौहार था, उसमें लोग
हजारों
रुपए--गरीब
आदमी भी उधार
लेकर खर्च
करता, और
फिर जन्मों तक
भी न चुका
पाता उन
ब्याजों को।
तो वे ब्याज
की दुकानें, मंदिर के
सामने हजारों
दुकानें
ब्याज की लगी रहतीं।
तख्तों पर लोग
बैठे रहते
उधार देने वाले
यात्रियों
को। और वह
मंदिर के
सामने दिया गया
उधार साधारण
उधार नहीं था।
वह चुकाना ही
पड़ेगा, नहीं
तो नरक जाओगे।
तो जब
जीसस वहां गए
और उन्होंने
जब यह सब देखा कि
करोड़ों लोगों
का यह शोषण चल
रहा है। और
मंदिर के पुजारी
ही के एजेंट
उन तख्तों पर
बैठे हुए हैं, जो ब्याज पर
पैसा दे रहे
हैं और वह
पैसे सब मंदिर
में चढ़ाए जा
रहे हैं। और
वह सब पैसे
फिर ब्याज से
दिए जा रहे
हैं। यह जब
उन्होंने
चक्कर देखा तो
उन्होंने
उठाया कोड़ा और
तख्ते उलट दिए
और मारे कोड़े
लोगों को। और
कहा, भाग
जाओ, इस
मंदिर को खाली
करो!
अब
तुमको लगेगा
कि यह आदमी
कैसा है; जो
कहता है, एक
गाल पर चांटा
मारे तो दूसरा
गाल कर देना!
यह कोड़ा उठा
सकता है?
उठा
सकता है। यही
आदमी उठाने का
हकदार भी है। क्योंकि
इसको कोई निजी
क्रोध का कोई
कारण नहीं है।
लेकिन महावीर
को कोई ऐसा मौका
नहीं है, इसलिए
कोड़ा नहीं
उठाते हैं, यह दूसरी
बात है।
यानी
मैं जो कह रहा
हूं, वह मैं यह
कह रहा हूं कि
विज़न तो एक ही
होगा, दर्शन
तो एक ही होगा,
ज्ञान
भिन्न होगा
क्योंकि शब्द
आ जाएगा। और चरित्र
और भिन्न होगा,
क्योंकि
समाज आ जाएगा,
परिस्थिति
आ जाएगी। उसकी
अभिव्यक्ति
बदलती चली
जाएगी, एकदम
बदलती चली
जाएगी।
प्रश्न:
लेकिन
उसमें भी काम
तो वही करेगा
न?
बिलकुल
ही वही काम
करेगा। दर्शन
ही काम करेगा।
असल में जिनके
पास दर्शन
नहीं है, उनका
चरित्र
बिलकुल जड़
होता है। वह नियमबद्ध
होता है।
परिस्थिति भी
बदल जाती है तो
भी वह
नियमबद्ध
चलता रहता है!
क्योंकि उसे कोई
मतलब ही नहीं
है, उसकी
कोई अपनी
दृष्टि तो
नहीं है। वह
तो नियम पक्का
है उसका। तो
नियम अपना
मानता चला
जाता है।
चरित्र लेकिन
तीसरे वर्तुल
पर आता है।
इसलिए मैं
चरित्र को केंद्र
नहीं मानता, परिधि मानता
हूं, दर्शन
को केंद्र
मानता हूं।
प्रश्न:
कहा
तो महावीर ने
दर्शन, ज्ञान,
चारित्र्य
ही है।
हां, हां। मगर बन
गया बिलकुल
चरित्र प्रथम
है। आपका साधु
कर क्या रहा
है? न तो
दर्शन कर रहा
है, न
ज्ञान कर रहा
है; चरित्र
साध रहा है।
और यह सोच रहा
है कि जब
चरित्र पूरा
हो जाएगा, जब
फिर ज्ञान
होगा। ज्ञान
पूरा होगा, तब दर्शन
होगा। वह उलटा
चल पड़ा। उससे
कभी नहीं होगा,
कुछ भी नहीं
होगा। वह
सिर्फ...।
प्रश्न:
यह
बहुत उपयोगी
रहेगा कि
महावीर के जो
अनुयायी आज
अपने आपको
कहते
हैं...महावीर
का जो दर्शन
है, वह दर्शन
तो आज भी
उपयोगी है।
दर्शन तो
बदलता नहीं
देश-काल के
साथ--सम्यक
दर्शन। पर
महावीर का जो
चरित्र है, वह आज किस
रूप में प्रकट
हो सकता है? क्या
अभिव्यक्ति
ले सकता है आज
की देश-काल
परिस्थिति
में? यदि
आप इसको थोड़ा
सा बताएं तो
बहुत उपयोगी
रहेगा।
असल
में, पहली तो
बात यह है कि
ऐसा सोचना ही
नहीं चाहिए कि
महावीर आज
होते तो उनका
क्या आचरण
होता। यह
इसलिए नहीं
सोचना चाहिए
कि महावीर से
कोई किसी का
बंधन थोड़े ही
है कि उनका
जैसा आचरण
होता, वैसा
हमारा हो।
जैसा महावीर
का आचरण होता,
वैसा हमारा
हो ही नहीं
सकता। जैसा
हमारा हो सकता
है, महावीर
लाख उपाय करें
तो वैसा नहीं
हो सकता।
इसके
कई कारण हैं।
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा है। यही
तो अर्थ है
प्रत्येक
व्यक्ति के
आत्मवान होने
का। आत्मवान
होने का अर्थ
यह है कि
प्रत्येक
व्यक्ति
अनूठा है।
इसलिए किसी के
आचरण का हिसाब
ही मत रखो।
वही तो दृष्टि
गलत है। आचरण
से कोई प्रयोजन
नहीं है।
दर्शन
कैसे उपलब्ध
हो, इसकी
फिक्र करो।
आचरण तो पीछे
से आएगा। जैसे
कि तुम यहां
आए, तो तुम
यह फिक्र नहीं
करते कि
तुम्हारे
पीछे तुम्हारी
लंबी छाया आ
रही कि छोटी
छाया आ रही, दोपहर में
आते तो कैसी छाया
आती, सांझ
आते तो कैसी
छाया आती, सुबह
आते तो कैसी
छाया आती। तुम
यह फिक्र नहीं
करते। तुम आते
हो, छाया
तुम्हारे
पीछे आती है।
दोपहर होता तो
लंबी हो जाती,
छोटी हो
जाती, चौड़ी
हो जाती; जैसी
होती रहती, तुम्हें
फिक्र नहीं
उसकी।
सवाल
असल में गहरे
दर्शन का है, चरित्र तो
उसकी छाया है।
जैसी धूप होगी,
वैसी होती
रहेगी। उससे
कोई संबंध
नहीं है, कोई
प्रयोजन ही
नहीं है उससे,
यानी उसको
सोचना ही नहीं
है। मेरा कहना
यह है कि
चरित्र
बिलकुल ही
अविचारणीय
है। उसके विचार
की भी जरूरत
इसीलिए पड़ती
है कि दर्शन
का हमें खयाल
नहीं रह गया
है। इसलिए
उसका हम विचार
करते हैं।
विचारणीय
है दर्शन। और
दर्शन, काल-परिस्थिति
आबद्ध नहीं
है। दर्शन
कालातीत, क्षेत्रातीत
है। दर्शन तो
तुम्हें जब भी
होगा तो वही
होगा जो किसी
को हुआ हो, महावीर
से भी कुछ
लेना-देना
नहीं है। किसी
को भी हुआ हो, वह वही
होगा। क्योंकि
दर्शन ही तब
होगा, जब न
तुम होओगे, न कुछ और
होगा, सब
मिट गया होगा,
तब तुम्हें
होगा। और वह
जब दर्शन होगा
तो वह अपने आप
अपने को
रूपांतरित
करता है ज्ञान
में, ज्ञान
अपने आप
रूपांतरित
होता है
चरित्र में।
तो उसकी चिंता
ही नहीं करनी
है, यानी
उसका विचार ही
नहीं करना है।
नहीं तो फिर
दूसरा बंधन
शुरू होता है।
जैसे कि अगर
मैं कहूं
तुम्हें कि
महावीर ऐसा
करते, ऐसा
करते, ऐसा
करते। तो तुम
शायद सोचोगे,
ऐसा हमें
करना चाहिए।
नहीं, तुम्हें
करने का सवाल
ही नहीं है, क्योंकि
तुम्हें वह
दर्शन नहीं
है। तुम्हें वह
दर्शन नहीं है।
वही तो जैन
साधु और जैन
मुनि कर रहा
है बेचारा। वह
कहता है कि वे
ऐसा करते थे
तो ऐसा हम
करते हैं।
मैं एक
गांव में गया, ब्यावर।
ब्यावर का
कलेक्टर आया,
उसने मुझसे
कहा कि एकांत
में बात करना
चाहता हूं।
मैंने कहा, एकांत सही।
उसने दरवाजा
बंद कर दिया
बिलकुल, सांकल
लगा दी। अंदर
बैठ कर मुझसे
पूछा कि मुझे
दो-चार बातें
पूछनी हैं।
पहली तो यह कि
आप जैसा चादर
लपेटते हैं, ऐसा लपेटने
से मुझे कुछ
लाभ होगा?
वह
बेचारा
बिलकुल ठीक
पूछता है। हम
उस पर हंसते
हैं, लेकिन
हमारा सब साधु
क्या कर रहा
है? वह
महावीर कैसे
खड़े, कैसे
बैठे, कैसी
पिच्छी लिए, कैसा कमंडल
लिए, मुंह-पट्टी
बांधे कि नहीं
बांधे--वह
कैसे--इसका
पक्का कर लेता
है, फिर
वैसा करना
शुरू कर देता
है! चूक गया वह
बुनियादी बात
से।
मैंने
उससे कहा कि
चादर-वादर से
क्या संबंध है!
मुझे मौज आ
जाए तो
कोट-टाई पहन
लूं। उसमें
क्या दिक्कत
है! उससे मैं
मैं ही
रहूंगा। क्या
फर्क पड़ने वाला
है? हां, मैंने
कहा, तुम्हें
फर्क पड़ सकता
है मुझे देख
कर फिर। तुम
समझोगे, अरे,
इस आदमी के
पास क्या होगा,
क्योंकि
कोट-टाई बांधे
हुए है। यह हो
सकता है।
लेकिन मुझे
क्या फर्क
पड़ने वाला है?
मैं जैसा
हूं, वैसा
का वैसा
रहूंगा। और
तुम जैसे हो, वैसे ही
रहोगे, चाहे
चादर लपेटो, चाहे नंगे
हो जाओ, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ने वाला।
तुम्हें बदलना
है।
लेकिन
वह बुनियादी
भूल है, जो
हमें बाहर
से--हम सोचते
हैं सदा कि
बाहर से भीतर
की तरफ जाता
है जीवन। जीवन
सदा भीतर से
बाहर की तरफ
आता है। और
अगर बाहर से
किसी ने भीतर
को बदलने की
कोशिश की तो
भीतर तो वही
रह जाएगा, बाहर
बदल जाएगा। और
उस आदमी के
भीतर द्वंद्व
पैदा हो
जाएगा। दोहरा
आदमी
हिपोक्रेट, पाखंडी हो
जाएगा। जो
आदमी आचरण से
शुरू करेगा, वह पाखंडी
हो जाएगा।
प्रश्न:
ज्ञान
भी बदलेगा? चरित्र अलग
होगा मतलब
ज्ञान भी अलग
होगा, महावीर
का आज का
ज्ञान भी अलग
होगा?
हां
ज्ञान भी अलग
होगा, दर्शन
भर अलग नहीं
होगा। दर्शन
भर अलग नहीं
होगा, वह
शुद्धतम है।
ज्ञान अलग
होगा, क्योंकि
आज की सब भाषा
बदल गई है, सोचने
के ढंग बदल गए
हैं। तो आज
जब--और इसीलिए
तो मुश्किल हो
जाती है
पहचानने में।
पुराने को पकड़
लेने वाले को
नए को पहचानने
में मुश्किल
हो जाती है।
अगर मुझे
दर्शन है, तो
भी मेरी भाषा
वह नहीं होने
वाली जो
महावीर की
होगी। तो
महावीर को
मानने वाला
कहेगा कि इस
आदमी से अपना
कोई तालमेल
नहीं है, क्योंकि
यह आदमी तो न मालूम
क्या कह रहा
है। यह तो न
मालूम क्या
कहता है। यह
तो हमारे
महावीर कहते
नहीं।
महावीर
कह नहीं सकते, क्योंकि
पच्चीस सौ साल
का फासला हो
गया। पच्चीस
सौ साल में सब
चीजों ने
स्थिति बदल ली,
सब कहीं और
पहुंच गईं।
सारी बात बदल
गई है, दृष्टि
बदल गई है, सोचने
के ढंग बदल गए
हैं, भाषा
बदल गई है, सारी
अभिव्यक्ति
बदल गई, सब
बदल गया है।
इस सबके बदल
जाने पर ज्ञान
भिन्न होगा।
दर्शन भर
भिन्न कभी
नहीं होगा, क्योंकि
दर्शन होता ही
तब है, जब
हम यह सब छोड़
कर अंदर जाते
हैं। भाषा छोड़
देते हैं, समाज
छोड़ देते हैं;
धर्म, शास्त्र
सब छोड़ देते
हैं; शब्द,
विचार सब
छोड़ देते हैं।
जहां सब छूट
जाता है, वहां
दर्शन होता
है। इसलिए
दर्शन तो
हमेशा वही
रहेगा।
क्योंकि तुम,
कुछ भी छोड़े
कोई सब छोड़ना
पड़ेगा। मुझे
कुछ और छोड़ना
पड़ेगा, महावीर
को कुछ और
छोड़ना पड़ेगा।
महावीर
ने डार्विन को
नहीं पढ़ा था
तो डार्विन को
नहीं छोड़ना
पड़ा होगा।
महावीर ने वेद
छोड़े होंगे, उपनिषद छोड़े
होंगे। मैंने
डार्विन को
पढ़ा तो मुझे
डार्विन को, माक्र्स को
छोड़ना पड़ेगा।
यह फर्क
पड़ेगा। लेकिन
जो भी मेरे
पास है, वह
छोड़ना पड़ेगा।
छोड़ कर दर्शन
उपलब्ध होगा
कभी भी, इसलिए
दर्शन हर काल
में एक ही
होगा।
क्योंकि उसका
जोर इस पर है
कि तुम जो भी
जानते हो, जो
भी सीखा है, जो भी पकड़ा
है, उस
सबको अनलर्न
कर दो। लेकिन
जब दर्शन हो
जाएगा और जब
आप ज्ञान
बनाएंगे उससे,
तब आपकी सब
लघनग आ जाएगी।
इसलिए
अरविंद जब
बोलेंगे तो
उसमें
डार्विन मौजूद
रहेगा। इसलिए
अरविंद की
सारी भाषा
इवोल्यूशनरी
हो जाएगी, जो महावीर
की नहीं हो
सकती।
क्योंकि
महावीर को
डार्विन का
कोई पता नहीं।
भाषा में
डार्विन ने एक
जोड़ नहीं दिया
है अभी। इसलिए
महावीर डार्विन
की भाषा नहीं
बोल सकते।
अरविंद
बोलेगा तो
डार्विन की
भाषा में
बोलेगा। तो वह
इवोल्यूशन के
सारे तत्व ले
आएगा पूरे के
पूरे।
अब
जैसे महावीर
माक्र्स की
भाषा में नहीं
बोल सकते, लेकिन अगर
मैं बोलूंगा
तो माक्र्स की
भाषा बीच में
आएगी। तो मैं
कहूंगा शोषण
पाप है, महावीर
नहीं कह सकते।
क्योंकि
महावीर के युग
में शोषण के
पाप होने की
धारणा ही किसी
तरफ से पैदा
नहीं हुई थी।
उस वक्त तो
जिसके पास धन
था, वह
पुण्य था। धन
शोषण है और
चोरी है, यह
धारणा इधर तीन
सौ वर्षों में
पैदा हुई। यह धारणा
जब इतनी
स्पष्ट हो गई
तो आज अगर कोई
कहेगा कि धन
पुण्य है तो
आज इस जगत में
इसका कोई अर्थ
नहीं है, कोई
अर्थ ही नहीं
है। यानी वह अज्ञानी
ही सिद्ध होने
वाला है। इससे
उसके ज्ञान का
कोई मतलब ही
होने वाला
नहीं।
और
इसीलिए अक्सर
दिक्कत हो
जाती है। न तो
हमें पीछे की
तरफ लौट कर
सोचना चाहिए, नई शब्दावली
को पुरानों पर
भी नहीं थोपना
चाहिए। यानी
महावीर को हम
इसलिए कमजोर
नहीं कह सकते
कि उन्हें विकास
की भाषा का
कोई पता नहीं
है। वह भाषा
थी ही नहीं, भाषा नई
विकसित हुई
है।
और जब
जितनी नई
चीजें विकसित
हो जाएं--आज से
हजार साल बाद
जो लोग दर्शन
को उपलब्ध
होंगे, वे
जो भाषा
बोलेंगे, उसकी
हम कल्पना भी
नहीं कर सकते,
क्योंकि इस
हजार साल में
सब कुछ बदल
जाएगा। इस
बदली हुई भाषा
में फिर ज्ञान
पकड़ेगा, फिर
ज्ञान प्रकट
होगा।
अभिव्यक्ति
के माध्यम बदल
जाएंगे।
जैसे
समझ लें कि आज
से दो हजार, तीन हजार या
पांच हजार साल
पहले भाषा भी
नहीं थी, शब्द
भी नहीं था, तो जो भी कहा
जाता था, उसे
सिवाय स्मृति
में रखने के
कोई उपाय नहीं
था। तो सारा
ज्ञान स्मृति
में ही
संरक्षित होता
था। तो ज्ञान
को इस ढंग से
बताना पड़ता था
कि वह स्मृति
में संरक्षित
हो जाए। इसलिए
पुराने से
पुराने जो
ग्रंथ हैं, वे सब
काव्यमय
होंगे।
क्योंकि
काव्य को स्मरण
रखा जा सकता
है, गद्य
को स्मरण रखना
मुश्किल है।
कविता स्मरण
रखी जा सकती
है सुविधा से,
गद्य को
नहीं रखा जा
सकता।
इसलिए
जब कि स्मृति
के सिवाय और
कोई उपकरण न था
संरक्षित
करने का, तो
सारे ज्ञान को
पद्य में ही
बोलना पड़ता था,
उसको गद्य
में बोलना
बेकार था, क्योंकि
गद्य में बोला
तो उसको याद
रखना बहुत मुश्किल
हो जाएगा। तो
उसको पद्य में
बोलने से वह
स्मरण रखने
में सुविधा हो
जाती थी। आप
एक कविता
स्मरण रख सकते
हैं सरलता से
बजाय एक निबंध
के, क्योंकि
उसमें
तुकबंदी है।
और वह तुकबंदी
आपको गाने की
सुविधा दे
देती है, गुनगुनाने
की सुविधा दे
देती है, वह
स्मृति में
जल्दी बैठ
जाती है।
तो
इसलिए पुराने
से पुराना
ग्रंथ हमेशा
पद्य में
होगा। गद्य
बिलकुल नई खोज
है। जब लिखा
जाने लगा, तब पद्य की
कोई जरूरत न
रही, फिर
यह बेमानी हो
गया। नाहक की
तुकबंदी
जोड़ना और जो न
कहना हो वह भी
उसमें
मिलाना-जुलाना,
घटाना; फिजूल
की बात हो गई।
सीधा गद्य में
लिखा जा सकता
है। तो फिर नए
शब्द आए।
इसलिए
नई जो भाषाएं
हैं, वे
काव्यात्मक
नहीं हैं, पुरानी
भाषाएं
काव्यात्मक
हैं। जैसे
संस्कृत है।
संस्कृत एकदम
पोएटिक है।
साधारण गद्य भी
बोलो तो कविता
मालूम पड़े। नई
जो भाषाएं हैं,
वे पोएटिक
नहीं हैं, वे
साइंटिफिक
हैं, कि आप
कविता भी बोलो
तो गणित का
सवाल मालूम
पड़े। तो सारा
फर्क पड़ता चला
जाता है न!
तो जो
उपकरण उपलब्ध
होंगे, उनमें
ज्ञान प्रकट
होगा। इसलिए
नई कविता बिलकुल
गद्य है। नई
कविता पद्य
नहीं है। नई
कविता को पद्य
होने की जरूरत
नहीं है।
पुराना गद्य भी
पद्य है, नया
पद्य भी गद्य
है। और यह सब
बदलते चले
जाते हैं
रोज-रोज।
तो जो
ज्ञान बनेगा, वह दर्शन से
उतरेगा नीचे,
दूसरी सीढ़ी
पर खड़ा होगा
और जो उस युग
की ज्ञान-व्यवस्था
है, उसका
अंग होगा। तो
ही सार्थक हो
पाएगा, नहीं
तो सार्थक
नहीं होगा।
फिर और नीचे
उतरेगा तो
चरित्र
बनेगा। तो
हमारे समाज का
जो
अंतर्संबंध
है, वह उस
पर निर्भर
होगा। आएगा
दर्शन से, उतरेगा
चरित्र तक।
चरित्र सब से
ज्यादा अशुद्ध
रूप होगा, क्योंकि
उसमें दूसरे
सब आ गए।
ज्ञान और कम
अशुद्ध होगा।
दर्शन पूर्ण
शुद्ध होगा।
और दर्शन की
उपलब्धि के
रास्ते अलग
होंगे।
चरित्र उसकी
उपलब्धि का
रास्ता नहीं
है।
प्रश्न:
महावीर
की नग्नता
चरित्र का अंग
था या दर्शन का
अंग?
बहुत
सी बातें हैं।
असल में, महावीर
को--जैसा
मैंने रात
कहा--बहुत सी
बातें महावीर
को करनी पड़
रही हैं, जो
हमारे खयाल
में नहीं हैं।
वे खयाल में आ
जाएं तो हमें
पता चल जाएगा
कि किस बात का
अंग था। वह
महावीर के
ज्ञान का अंग
है--नग्नता जो
है--चरित्र का
नहीं।
ज्ञान
का अंग इसलिए
है कि जैसा
मैंने कहा कि
अगर यह जो
विस्तीर्ण
ब्रह्मांड है, यह जो मूक
जगत है, इससे
संबंधित होना
है तो वस्त्र
तक बाधा है। वस्त्र
इतनी बड़ी बाधा
है, जिसका
हमें कोई खयाल
भी नहीं आता।
और जितने नए
वस्त्र पैदा
होते जा रहे
हैं, उतनी
ज्यादा बाधा
है। नवीनतम जो
वस्त्र हैं, वे चारों
तरफ के
वातावरण से
आपके शरीर को
बिलकुल तोड़
देते हैं।
उनमें से बहुत
कम भीतर जाता है,
बहुत कम
बाहर आता है।
अलग-अलग
वस्त्र
अलग-अलग काम
करता है। सूती
वस्त्र अलग
तरह से तोड़ता
है, रेशमी
वस्त्र अलग
तरह से तोड़ता
है, ऊनी
वस्त्र अलग
तरह से तोड़ता
है। नए जो
वस्त्र हैं, जिनमें किसी
तरह से
प्लास्टिक
मिला हुआ है
या कांच मिला
हुआ है, वे
और तरह से
तोड़ते हैं।
तो जिस
व्यक्ति को
चारों तरफ के
ब्रह्मांड से पूर्ण
संपृक्त होना
हो उसके लिए
किसी तरह के
वस्त्र बाधा
बन जाएंगे।
उसे तो, पूर्ण
नग्नता में ही
वह एक हो
पाएगा। तो
महावीर की
नग्नता उनके
ज्ञान का
हिस्सा है, चरित्र का
हिस्सा नहीं
है। उनको यह
साफ समझ में
पड़ रहा है कि
वह जो
कम्युनिकेशन
करना है उन्हें,
वह इस
ब्रह्मांड से
बिलकुल एक
होकर ही किया
जा सकता है।
जैसे
अब हम जानते
हैं कि कितनी
छोटी-छोटी
चीजों से फर्क
पड़ता है। आप
एक रेडियो
लगाए हुए हैं।
सब
द्वार-दरवाजे
बंद कर दें, हवा बिलकुल
न आती हो, एयरकंडीशन
कमरा हो, तो
आपका रेडियो
बहुत मुश्किल
से पकड़ने
लगेगा, क्योंकि
जो वेव्स आ
रही थीं, उन
पर बाधा पड़ गई
है।
एयरकंडीशन
कमरे में वह काम
करना उसको
मुश्किल हो
जाएगा, क्योंकि
हवा बाहर से आ
नहीं रही है, सब बंद है।
संपर्क बाहर
के तरंगों से
उसका टूट गया
है। जितने
खुले में आप
रख रहे हैं, उतना उसका
संपर्क बन रहा
है। या तो उसे
खुले में रखें
या एक एरियर
बाहर खुले में
लगाएं, ताकि
एरियर पकड़े और
भीतर तक खबर
पहुंचा दे।
समझ लो
कि हमें कोई
ज्ञान न हो
रेडियो-शास्त्र
का तो हम
कहेंगे, यह
क्या बात है? रेडियो को
बाहर रखने की
क्या जरूरत है?
एरियर बाहर
लटकाने की
क्या जरूरत है?
अपने घर में
रखो। अपने घर
में अंदर
एरियर लगा लो।
सब तरफ
द्वार-दरवाजे
बंद कर दो।
मनुष्य
के शरीर से
प्रतिक्षण
कंपन बाहर जा
रहे हैं और
प्रतिक्षण
कंपन भीतर आ
रहे हैं। महावीर
नग्न होकर एक
तरह का
तादात्म्य
साध रहे हैं
उस सारे जगत
से, जहां
वस्त्र भी
बाधा बन सकता
है। वस्त्र
बाधा बनता है।
और प्रत्येक
वस्त्र अलग
तरह की बाधा
और सुविधा देता
है।
जैसे
रेशमी वस्त्र
है। अब यह
आपको जान कर
हैरानी होगी
कि जितना
रेशमी वस्त्र
है, वह आपके
शरीर में
सेक्सुअल
इंपल्स को
जल्दी पहुंचाता
है बजाय सूती
वस्त्र के। तो
रेशमी वस्त्र
पहने हुए
स्त्री
ज्यादा सेक्स
प्रोवोकिंग
है बजाय सूती
वस्त्र के।
उसी स्त्री को
खादी पहना दो
तो वह और भी कम
सेक्स
प्रोवोकिंग है।
रेशमी वस्त्र
जो है, उसके
शरीर में, उसके
शरीर से और
शरीर के चारों
तरफ से जो
सेक्स की सारी
की सारी वेव्स
चल रही हैं, उनको जल्दी
से पकड़ता है।
वह स्त्रियों
को बहुत पहले
समझ में आ गया
कि रेशमी
वस्त्र किस
तरह उपयोगी
है।
ऊनी
वस्त्र जो है, वह बहुत
अदभुत है। आप
देखते हैं कि
सूफी हैं, वह
सब सूफी फकीर
जो हैं, वे
ऊन का वस्त्र
ही पहनते हैं।
सूफ का मतलब
ऊन होता है।
जो ऊन के कपड़े
पहनते हैं, उनको सूफी
कहते हैं।
लपेटे हुए हैं
कंबल, गर्मी
में भी लपेटे
रहेंगे कंबल।
सर्दी में भी लपेटे
रहेंगे, हर
वक्त कंबल ही
लपेटे
रहेंगे।
ऊनी
वस्त्र जो है, वह भीतर सब
तरह की वेव्स
को संरक्षित
कर लेता है और
इसीलिए आपको
ठंड में
उपयोगी होता
है। ऊनी
वस्त्र गर्म
नहीं है, सिर्फ
आपकी शरीर की
गर्मी को बाहर
नहीं जाने
देता। ऊनी
वस्त्र में
गर्मी जैसी
कोई चीज नहीं
है, सिर्फ
आपका शरीर जो
गर्मी रिलीज
करता रहता है प्रतिपल,
वह उसको
बाहर नहीं
निकलने देता,
उसके बाहर
पार नहीं हो
पाती, वह
गर्मी भीतर
रुक जाती है।
बस वह भीतर
रुकी हुई
गर्मी ऊनी
वस्त्र को गरम
बना देती है।
नहीं तो ऊनी
वस्त्र में
गरम होने जैसा
कुछ भी नहीं है,
सिर्फ आपके
ही शरीर की
गर्मी को बाहर
नहीं निकलने
देता, रोक
देता है।
तो
सूफी सैकड़ों
वर्षों से ऊनी
वस्त्र का
उपयोग कर रहे
हैं। अनुभव यह
है कि न केवल
गर्मी को बल्कि
और तरह के
सूक्ष्म
अनुभवों को भी
ऊनी वस्त्र
रोकने में
सहयोगी होता
है, वह शरीर
के भीतर रोक
देता है। तो
जिन लोगों को किसी
सीक्रेसी, एसोटेरिक,
कुछ गुह्य
विज्ञान में
काम करना हो, उनके लिए
ऊनी वस्त्र
उपयोगी हैं।
वे कुछ चीजों
को भीतर
बिलकुल रोक
सकते हैं, जिनको
वे प्रकट न
करना चाहें।
महावीर
की नग्नता
बहुत अर्थपूर्ण
है, वह उनके
ज्ञान का
हिस्सा है, चरित्र का
नहीं। इसलिए
जो लोग चरित्र
का हिस्सा समझ
कर नंगे खड़े
हो जाते हैं, वे बिलकुल
पागल हैं, उनको
पता ही नहीं
कि उससे कोई
वास्ता नहीं
है। वे तो कुछ
वेव्स हैं, जो वे
पहुंचाना
चाहते हैं
सारे लोक में,
वे नग्न
स्थिति में ही
पहुंचाई जा
सकती हैं। और
जब शरीर में
उनकी तरंगें
पैदा होती हैं,
तो वह नग्न
स्थिति में
पूरी की पूरी
हवाएं उन वेव्स
को लेकर
यात्रा कर
जाती हैं।
कपड़े में वे
वेव्स भीतर रह
जाती हैं। ऊनी
कपड़े में
बिलकुल भीतर
रह जाती हैं।
तो सूफी भी
जान कर कर रहे
हैं, महावीर
भी जान कर
नग्न खड़े हुए
हैं।
लेकिन
उस युग की
चरित्र-व्यवस्था
नग्न खड़े होने
की सुविधा
देती है। हर
युग में
महावीर नग्न
नहीं खड़े हो
सकते।
क्योंकि जिस
काम के लिए खड़े
हो रहे हैं, अगर उस काम
में बाधा ही
पड़ जाए नग्न
खड़े होने से
तो बेमानी हो जाएगा।
जैसे आज अगर
न्यूयार्क
में पैदा हों
तो मैं कहता
हूं, नग्न
खड़े नहीं हो
सकते।
अब
बंबई में भी
होना मुश्किल
है, बंबई में
भी तो रुकावट
है। नंगे आदमी
के सड़क से
निकलने में
गवर्नर की
परमीशन
चाहिए। या फिर
उसके भक्त
उसको घेर कर
चलें, वह
बीच में रहे, चारों तरफ
भक्त घेरे
रहें, ताकि
जिनको नंगा
नहीं देखना है
वे नंगा न देख पाएं।
न्यूयार्क
में तो वह
बिलकुल पकड़
लिया जाएगा, उसको बिलकुल
बंद कर दिया
जाएगा। तो वह
काम की तो बात
अलग हुई, काम
में बाधा पड़
जाएगी। तो और
कुछ रास्ते
खोजने
पड़ेंगे।
नई
परिस्थिति
में नए रास्ते
खोजने पड़ेंगे, पुराने
रास्ते काम
नहीं देंगे।
वह उस वक्त बिलकुल
सरल था।
हिंदुस्तान
में नग्नता
बड़ी सरल बात
थी। एक तो ऐसे
ही आम आदमी
अर्ध-नग्न था,
एक लंगोटी
लगाए हुए था।
तो नग्नता में
कुछ बहुत
ज्यादा नहीं
छोड़ना पड़ता था,
जैसा हम
सोचते हैं अब।
वे तो
राजपुत्र थे,
इसलिए सब
कपड़े-वपड़े थे,
बाकी आदमी
के पास कपड़े
वगैरह कहां थे?
एक लंगोटी
बहुत थी। तो
आम आदमी भी
लंगोटी उतार
कर स्नान कर
लेता था।
नग्नता बड़ी
सरल थी, एकदम
सहज बात थी, उसमें कुछ
असहज जैसा
नहीं था कि यह
कोई बात नई हो
रही है।
तो वह
परिस्थिति
मौका देती थी, हिस्सा तो
ज्ञान का था।
परिस्थिति
मौका देती थी।
और ज्ञानवान
आदमी वह है, जो ठीक
परिस्थिति के
मौके का
पूरा-पूरा, ज्यादा से
ज्यादा उपयोग
कर सके; वही
ज्ञानवान है,
नहीं तो
नासमझ है।
यानी सिर्फ
नंगे होने की
जिद कर ले और
इसलिए सब काम
में रुकावट पड़
जाए, कोई
मतलब नहीं है
उसका। काम के
लिए कोई और
रास्ते खोजने
पड़ेंगे।
प्रश्न:
कल
की चर्चा में
आपने कहा कि
महावीर पिछले
जन्म में सिंह
थे। और महावीर
को पिछले जन्म
में अनुभूति
हुई। तो क्या
प्राणी-मात्र
को अवस्था में
अनुभूति हो
सकती है? या उनको
अनुभूति उनके
मनुष्य जन्म
में हुई?
हां, हां। मैंने
पिछले जन्म
में जो कहा, सीधे उसका
मतलब यह नहीं
कि इसके पहले
जन्म में।
प्रश्न:
इमीजिएट
नहीं?
नहीं, इमीजिएट
नहीं।
अनुभूति बहुत
मुश्किल है
दूसरे
प्राणी-जगत
में होना। हो
सकती है, बहुत
ही कठिन है।
कठिन तो
मनुष्य योनि
में भी बहुत
है। यानी यहीं
मुश्किल से हो
पाती है। संभव
तो है ही
दूसरी योनियों
में भी! संभव
है, लेकिन
अत्यधिक कठिन
है, असंभव
के करीब है।
मनुष्य योनि
में ही असंभव
की हालत के
करीब है, कभी
किसी को हो
पाती है।
पिछले जन्म से
मेरा मतलब
अतीत जन्मों
में। महावीर
का जो सत्य का
अनुभव हुआ है,
वह तो मनुष्य
जन्म में ही।
लेकिन
संभावना का
निषेध नहीं
है। आज तक ऐसा
ज्ञात भी नहीं
है कि कोई पशु
योनि से मुक्त
हुआ हो, लेकिन
निषेध फिर भी
नहीं है। यानी
यह कभी हो सकता
है।
और यह
तब हो सकेगा, जब मनुष्य
योनि बहुत
विकसित हो
जाएगी। इतनी ज्यादा
विकसित हो
जाएगी कि मनुष्य
योनि में
मुक्ति
बिलकुल सरल हो
जाएगी तो मैं
मानता हूं कि
जो अभी स्थिति
मनुष्य योनि
की है, वह
पिछली नीची
योनियों की हो
जाएगी। वहां
असंभव होगी, लेकिन
कभी-कभी होने
लगेगी। यानी
मेरा मतलब यह है
कि मनुष्य
योनि में ही
अभी असंभव की
स्थिति है।
कभी करोड़, दो
करोड़, अरब,
दो अरब आदमी
में एक आदमी
उस स्थिति को
उपलब्ध होता
है। कभी ऐसा आ
सकता है वक्त,
आना चाहिए
विकास के दौर
में, जब कि
मनुष्य योनि
में बड़ी सरल
हो जाए यह बात,
तो इससे
नीचे की
योनियों में
भी एकाध-दो
घटनाएं घटने
लगेंगी। अब तक
नहीं घटी हैं।
अब तक मनुष्य
को छोड़ कर
किसी योनि
से...।
प्रश्न:
देवता
योनि में भी
नहीं?
देवता
योनि में कभी
भी नहीं हो
सकती, पशु
योनि में कभी
हो सकती है, असंभव है, निषेध नहीं
है। लेकिन देव
योनि में
बिलकुल निषेध
है। निषेध का
कारण यह है कि
देव योनि
बहुत--एक तो
शरीर नहीं है
वहां किसी भी
तरह का। देव
योनि मनोयोनि
है, साइकिक।
तो देव
योनि में शरीर
न होने की वजह
से, जैसा पशु
योनि में
चेतना का अभाव
है, ऐसा
देव योनि में
शरीर का अभाव
है। और शरीर
भी साधना में
अनिवार्य कड़ी
है, उसके
बिना साधना
करनी भी बहुत
मुश्किल है, असंभव ही
है। जैसे पशु
में बुद्धि न
होने से
मुश्किल हो गई
है, ऐसा
देव में शरीर
न होने से
मुश्किल हो गई
है। लेकिन पशु
में तो कभी
बुद्धि
विकसित हो
सकती है, देव
में कभी शरीर
विकसित नहीं
हो सकता, वह
अशरीरी योनि
ही है। तो देव
को तो जब भी
मुक्ति होती
है, तब
उसको फिर
मनुष्य योनि
पर वापस लौट
आना पड़ता है।
यानी
अब तक मुक्ति
का जो द्वार
रहा है, वह
मनुष्य योनि
के अतिरिक्त
कोई योनि नहीं
है। पशुओं को
मनुष्य तक आना
पड़ता है और
देवताओं को
पुनः वापस
मनुष्य तक लौट
आना पड़ता है।
इसलिए मैंने
कल रात कहा कि
मनुष्य
क्रास-रोड पर
है, चौराहे
पर खड़ा है।
जैसे मैं आपके
घर तक गया चौराहे
से, फिर
मुझे दूसरी
तरफ जाना है, तो चौराहे
पर फिर वापस
आऊं।
तो देव
योनि बड़ी सुखद
है, पशु योनि
बड़ी दुखद है।
सुखद जरूर है
वह, लेकिन
सुख अपने तरह
के बंधन रखता
है; दुख
अपने तरह के
बंधन रखता है।
और सुख से भी
ऊब जाती है
स्थिति, जैसा
दुख से ऊब
जाती है। और
यह बड़े मजे की
बात है कि अगर
बहुत सुख में
कोई आदमी हो
तो वह अपने हाथ
से दुख पैदा
करना शुरू कर
देता है।
अब
जैसे कि
अमरीका से आते
हुए बीटल हैं, हिप्पी हैं,
ये सब सुखी
घरों के लड़के
हैं, अत्यंत
सुखी घरों के
लड़के हैं। अब
इन्होंने दुख
अपनी तरफ से
पैदा करना शुरू
कर दिया, क्योंकि
सुख उबाने
वाला हो गया।
मुझे
बनारस में एक
हिप्पी मिला, वह सड़क पर
अपना भीख मांग
रहा है।
करोड़पति घर का
लड़का है, दस
पैसे मांग रहा
है और प्रसन्न
है, बहुत
प्रसन्न है।
झाड़ के नीचे
सो जाएगा, दस
पैसे मांग कर
कहीं होटल में
खाना खा लेगा,
प्रसन्न
है। क्यों
प्रसन्न है? वह सुख भी
उबाने वाला हो
गया। जहां सब
सुनिश्चित है,
सब सुबह
वक्त पर मिल
जाता है, सांझ
वक्त पर मिल
जाता है, सो
जाता है, सब
सुनिश्चित
है। तो आदमी
को कोई मौका
नहीं रहा
जिंदगी अनुभव
करने का। तो
वह सब तोड़ कर
बाहर आ जाएगा।
तो
देवता बहुत
सुख में हैं, लेकिन सुख
उबाने वाला
है। और इतनी
हैरानी की बात
है कि दुख से
ज्यादा उबाने
वाला है, यह
ध्यान में
रहे।
प्रश्न:
मनुष्य
ही देवता बनते
हैं?
हां, हां। सुख
ज्यादा उबाने
वाला है और
इसीलिए दुखी
आदमी--बोर्डम
में आप कभी न
पाएंगे दुखी
आदमी को। गरीब
आदमी आपको
बोर्डम में
नहीं मिलेगा,
ऊबा हुआ
नहीं मिलेगा।
अमीर आदमी ऊबा
हुआ मिलेगा।
गरीब आदमी
परेशान
मिलेगा, ऊबा
हुआ नहीं, लेकिन
जिंदगी में एक
रस उसको होगा।
अमीर आदमी को
रस भी नहीं
होगा जिंदगी
में, विरस
हो जाएगा।
तो देवताओं
के जगत में
बोर्डम सबसे
ज्यादा
उपद्रव है।
मनुष्यों के
जगत में
एंग्जाइटी, मनुष्यों के
जगत में चिंता
सबसे ज्यादा
उपद्रव है, देवताओं के
जगत में ऊब, बोर्डम। और
यह जान कर आप
हैरान होंगे
कि कोई पशु
कभी बोर्डम
में नहीं
होता। किसी
पशु को आप ऊबा
हुआ नहीं देख
सकते कि आप
किसी कुत्ते
को कह सकें कि
देखो, बेचारा
कितना ऊबा हुआ
बैठा है, ऐसा
कभी नहीं। कोई
पक्षी आपको
ऊबा हुआ नहीं
दिखाई देगा।
अ प्रश्न:
चिंतित भी
नहीं होगा?
चिंतित
भी नहीं होगा।
न चिंतित है, न ऊब है, क्योंकि
चेतना ही नहीं
है। जो बोध
होना चाहिए इन
चीजों का, वह
ही नहीं है।
आदमी आपको
चिंतित
मिलेगा। गरीब
आदमी ज्यादा
चिंतित
मिलेगा। अमीर
आदमी ज्यादा
ऊबा हुआ
मिलेगा, ऊब
ही उसकी चिंता
है।
तो
देवताओं के
जगत में
बोर्डम सबसे
बड़ा सवाल और
समस्या है--ऊब, एकदम ऊब। सब
है और चूंकि
शरीर नहीं है,
मन की इच्छा
करते ही पूरी
हो जाती है।
आपको कल्पना
नहीं है कि
अगर आप मन में इच्छा
करें और
तत्काल पूरी
हो जाए तो आप
दो दिन बाद
इतने ऊब
जाएंगे, जिसका
हिसाब नहीं।
क्योंकि आपने
चाही जो औरत, वह हाजिर हो
गई; आपने
चाहा जो भोजन,
वह हाजिर हो
गया; चाहा
जो मकान, वह
बन गया। और
कुछ भी न करना
पड़ा, चाह
काफी थी। बस, चाही कि हो
गया।
तो आप
दो दिन बाद
इतने घबरा
जाएंगे कि
कहेंगे इतने
जल्दी नहीं, यह तो सब
व्यर्थ हुआ जा
रहा है।
क्योंकि पाने का
जो रस था, वह
तो गया, वह
तो गया।
उपलब्ध करने
का, जीतने
का, प्रतीक्षा
करने का जो रस
था, वह सब
गया। वह वहां
कुछ भी नहीं
है। न
प्रतीक्षा है,
न उपलब्धि
के लिए श्रम
है, न
चेष्टा है, न कुछ है। आप
बैठे हैं, आपने
चाहा और हो
गया।
अमीर
आदमी इसीलिए
ऊब जाता है कि
वह बहुत सी चीजें
चाहता है और
तत्काल हो
जाती हैं।
गरीब आदमी
नहीं ऊबता, क्योंकि
चाहता है अभी
और पचास साल
बाद वे पूरी
हो पाती हैं।
तो पचास साल
तो वह रस में
रहता है: अब पूरी
होंगी, अब
पूरी होंगी, अब पूरी
होंगी।
देव
योनि ऊब की
योनि है, वहां
से--सुख की है, लेकिन ऊब
की--तो वहां से
लौट आना पड़े
मनुष्य पर।
मनुष्य ही अभी
तक चौराहे पर
है, जहां
से किसी को भी
लौटना पड़े।
इसलिए
मनुष्य को मैं
योनि नहीं
कहता, वह
चौराहा है।
पशु उधर आते
हैं, देवता
उधर आते हैं, सब उधर आते
हैं, पौधे
वहां आते हैं,
पत्थर वहां
आते हैं, सब
वहां आते हैं,
वह चौराहा
है। कुछ लोग
ऐसे हैं, जो
चौराहे पर ही
रुकने का तय
कर लेते हैं
तो चौराहे पर
रुके रहते
हैं। कुछ लोग
ऐसे हैं, जो
कोई रास्ता
चुन लेते हैं
तो चुन लेते
हैं। वे देवता
की तरफ भी जा
सकते हैं, वे
मुक्ति की तरफ
भी जा सकते
हैं।
प्रश्न:
वापस
नहीं लौट सकते?
वापस
नहीं लौट
सकते। वापस
नहीं लौट सकते, उसका कारण
है। क्योंकि
जो भी हमने
जान लिया और
जी लिया, उसमें
पीछे लौटने का
उपाय नहीं रह
जाता। जो आपने
जान लिया, उसको
अनजाना नहीं
कर सकते आप।
उसे अनजाना
करने का असंभव
मामला है। और
चेतना जितनी
आपकी विकसित
हो गई, उससे
नीचे उसे नहीं
गिरा सकते।
जैसे कि एक
बच्चा पहली
क्लास में
पढ़ता है तो वह
दूसरी क्लास में
जा सकता है, पहली क्लास
में ही रुक
सकता है, लेकिन
नीचे नहीं उतर
सकता। दूसरी
कक्षा में पढ़ता
है तो फेल हो
जाए तो दूसरी
में रुक सकता
है, पास हो
जाए तो तीसरी
में जा सकता
है, लेकिन
पहली में
उतरने का कोई
उपाय नहीं है।
पहली पास हो
चुका। पहली
में वापस जाने
का कोई उपाय
नहीं।
हम तो
कर भी सकते
हैं उपाय, क्योंकि
स्कूल हमारी
कृत्रिम
व्यवस्था है। लेकिन
जीवन की जो
व्यवस्था
है--जीवन की जो
व्यवस्था है,
उसमें यह
असंभव है।
जहां से हम
पार हो गए, उत्तीर्ण
हो गए, वहां
वापस लौटना
नहीं।
प्रश्न:
शास्त्रों
में ऐसे कैसे
लिखा है कि
इन-इन योनियों
में भटकना पड़ता
है मनुष्यों
को?
सिर्फ
भयभीत करने
को।
प्रश्न:
मेरे
मन में एक
प्रश्न है
तादात्म्य के
संबंध में।
मैं अब तक ऐसा
ही समझता रहा
कि जिस व्यक्ति
को ज्ञान होता
है, उसका
तादात्म्य
संपूर्ण जगत
से युगपत होता
है। ऐसा नहीं
कि स्थावर से
कर लिया तो
चेतन से नहीं;
चेतन से कर
लिया तो
स्थावर से
नहीं। और आपके
कहने से ऐसा
लगा जैसे
महावीर का
तादात्म्य जब
जड़ के साथ है, वृक्ष के
साथ है, तो
मनुष्य के साथ
नहीं है।
अन्यथा जब
उनके कानों
में जो
व्यक्ति कील
ठोंक रहा था, वह कील न
ठोंक पाता। तो
मैं यही मानता
रहा अब तक कि
तादात्म्य जब
होता है तब
युगपत सबके
साथ हो जाता
है। एक-एक के
साथ अलग-अलग
होता है...?
बिलकुल
ठीक, तुम्हारा
कहना ठीक ही
है। जब पूर्ण
तादात्म्य
होता है तो
युगपत हो जाता
है, लेकिन
वह मोक्ष में
ही होता है।
और जो मैंने कहा
कि महावीर उन
लोगों में से
हैं, जो
परिपूर्ण रूप
से मोक्ष पाने
के पहले वापस
लौट आए हैं--वह
तादात्म्य तो
होता है, लेकिन
तब महावीर मिट
जाते हैं।
पूर्ण तादात्म्य
में फिर
महावीर नहीं
रह जाते।
इसलिए संदेश
पहुंचाने का
भी उपाय नहीं
रह जाता।
इसलिए
जो मुक्त हो
जाता है, वह
परमात्मा का
हिस्सा हो
जाता है।
परमात्मा कोई
संदेश नहीं
पहुंचाता
आपको। उसका
तादात्म्य आप
से है। संदेश
पहुंचाने के
लिए महावीर लौट
आए हैं वापस, एक सीढ़ी
पहले। ज्ञान
पूरा हो गया
है, लेकिन
अभी डूब नहीं
गए हैं सागर
में। जैसे एक नदी
पहुंच गई है
सागर के
किनारे और
डूबने के पहले
है, कि लौट
कर एक आवाज दे
दे।
जिब्रान
ने इस प्रतीक
का उपयोग किया
है कि मैं उस
नदी की भांति
हूं, जो सागर
में गिरने के
करीब पहुंच गई
है, और
इसके पहले कि
सागर में गिर
जाऊं, उन
सबका स्मरण
आता है, जो
मार्ग में
पीछे छूट गए
हैं। वे पथ, वे पहाड़, वे
झीलें, वे
तट। और क्या
एक बार लौट कर
देखने की भी
आज्ञा न
मिलेगी? कि
एक बार इसके
पहले कि सागर
में गिर जाऊं,
लौट कर देख
लूं--उस सबको
जिसके साथ मैं
थी और अब कभी
नहीं होऊंगी।
तो उस
क्षण पर
महावीर हैं, जहां से आगे
सागर है, जहां
पूर्ण
तादात्म्य हो
जाएगा। पूर्ण
तादात्म्य का
मतलब जहां
महावीर नहीं
रह जाएंगे। जैसे
बूंद सागर में
खो जाएगी। खबर
पहुंचानी है
तो उसके पहले,
फिर खबर
पहुंचाने का
कोई उपाय नहीं
है। किसको खबर
पहुंचानी? कौन
पहुंचाएगा?
इसलिए
मैंने कहा, तीर्थंकर का
मतलब है, ऐसा
व्यक्ति जो
मोक्ष के
द्वार से एक
बार वापस लौट
आया है उनके
लिए, जो
पीछे रह गए
हैं, और
उनको खबर देने
आता है। तो इस
हालत में
तादात्म्य
सबसे नहीं
होगा। इस हालत
में तो वह
जिससे
तादात्म्य
चाहेगा और
व्यवस्था
बनाएगा तादात्म्य
की तो ही हो
पाएगा। तो वह
युगपत नहीं होगा।
वह एक विशिष्ट
दिशा में एक
साथ एक बार
होगा, दूसरी
दिशा में
दूसरी बार
होगा, तीसरी
दिशा में
तीसरी बार
होगा। मोक्ष
में तो युगपत
हो जाएगा। अब
महावीर का
युगपत है।
प्रश्न:
उनकी
कोई सेप्रेट
एंटाइटी इस
समय है मुक्त
अवस्था में?
उनकी
कोई सेप्रेट
एंटाइटी नहीं
रह जाती।
मोक्ष होते ही
किसी व्यक्ति
का कोई
व्यक्तित्व
नहीं रह जाता।
लेकिन हमारा व्यक्तित्व
है, जो हम
अमुक्त हैं, इसलिए अगर
इस तरह के
उपाय हैं, जिनके
हम उपाय करें,
तो हमारे
लिए करीब-करीब
वे व्यक्ति की
तरह उत्तर
उपलब्ध हो
सकते हैं।
उनका कोई
व्यक्तित्व नहीं
रह गया है।
प्रश्न:
अगर
उनका
व्यक्तित्व
नहीं रहा तो
उत्तर उपलब्ध
कैसे होगा?
असल
में हमारी
क्या कठिनाई
है कि हम एक ही
तरह के
व्यक्तित्व
को जानते हैं।
हम एक ही तरह
के व्यक्तित्व
को जानते
हैं--शरीर का
है, मन का है।
एक व्यक्ति खो
गया अनंत में,
है मौजूद, अनंत होकर
मौजूद है। आप
तो सीमित हैं।
अगर आप सागर
के तट पर भी
जाएंगे, तट
पर भी खड़े हो
जाएंगे, तो
भी सीमित
चुल्लू भर
पानी ही उससे
आप भर सकते
हैं। आप
करेंगे क्या?
सागर होगा
अनंत, आप
तो चुल्लू भर
पानी ही भर
सकते हैं।
जो नदी
सागर में खो
गई है, उसका
पता लगाना
मुश्किल है कि
वह नदी कहां
खो गई। गंगा
गिर गई सागर
में। लेकिन
गंगा का कण-कण
मौजूद है पूरे
सागर में। खो
गई है सागर
में, मिट
नहीं गई, जो
था, वह तो
है ही अब भी।
सीमा की जगह
असीम में हो
गया है।
ऐसी
कुछ व्यवस्था
है, ऐसी कुछ
विधि है कि
सागर के तट पर,
जब आप तट पर
खड़े होकर गंगा
को पुकारें--
उसकी विधि है,
वह मैं बात
करूंगा--कि जब
आप सागर के तट
पर खड़े होकर
गंगा को
पुकारें, तो
आपको तो
चुल्लू भर ही
चाहिए, पूरी
गंगा भी नहीं
चाहिए, पूरा
सागर भी नहीं
चाहिए। तो वे
अणु जो अनंत सागर
में खो गए हैं,
उस तट पर
आपकी पुकार से
इकट्ठे हो
जाएं। आप
चुल्लू भर
गंगा ला सकते
हैं सागर से।
यह मैं
उदाहरण के लिए
कह रहा हूं।
यह जो पुकार है
आपकी उन अणुओं
को--क्योंकि
वे अणु कहीं
खो नहीं गए
हैं, वे सब
सागर में
मौजूद हैं।
क्या कठिनाई
है कि पुकार
पर वे अणु चले
न आएं और
चुल्लू भर
पानी गंगा का
आपको सागर से
मिल जाए!
कठिनाई नहीं
है।
चेतना
के महासागर
में महावीर
जैसा व्यक्ति
कोई खो गया है, लेकिन खोने
के पहले ऐसा
प्रत्येक
व्यक्ति ऐसे
कोड वर्ड्स
छोड़ जाता है, जो कभी भी उस
अनंत के
किनारे खड़े
होकर पुकारे जाएं
तो उसके अणु
आपके लिए
उत्तर देने के
लिए सामर्थ्यवान
हो जाएंगे। इस
सबका बड़ा मजा
है। इस सबका
बड़ा मजा है।
इस सबकी पूरी
विधि, इस
सबका पूरा
अपना तकनीक है
कि वह कैसे
काम करेगा।
वह
तकनीक कैसे
काम करेगा।
जैसे कि समझें, आपने कभी
रास्ते पर
देखा हो कि एक
मदारी दिखा रहा
है, एक
लड़के की छाती
पर ताबीज रख
दिया है, ताबीज
रखते ही से
लड़का बेहोश हो
गया है। वह
कहता है कि
आपकी घड़ी में
कितना बजा है,
बताता है, आपके नोट का
नंबर बताता, आपका नाम
बताता, आपके
मन में क्या
है बताता है।
और फिर इसके
बाद वह मदारी
ताबीज बेचना
शुरू कर देता
है कि ये छह-छह
आने के ताबीज
हैं। और ताबीज
की यह शक्ति
है, जो देख
रहे हैं आप
अपनी आंखों के
सामने।
आपको
भी लगता है कि
ताबीज की बड़ी
भारी शक्ति है।
छह आने देकर
आप ताबीज खरीद
लेते हैं। घर
आकर आप कुछ भी
करिए, ताबीज
से कुछ नहीं
होगा।
क्योंकि
ताबीज की शक्ति
ही न थी, मामला
बिलकुल दूसरा
था। उस लड़के
को बेहोश करके,
बहुत गहरी
बेहोशी में यह
कहा गया है कि
जब भी यह ताबीज
तेरी छाती पर
रखेंगे, तब
तू फिर बेहोश
हो जाएगा, जब
भी यह ताबीज
तेरी छाती पर
रखेंगे। इसको
कहते हैं
पोस्ट
हिप्नोटिक
सजेशन। अभी
बेहोश है वह, अभी उसको कह
रहे हैं कि यह
ताबीज पहचान
ले ठीक से।
आंख खोल। वह
बेहोश है, उसे
कहा, आंख
खोल। यह ताबीज
पहचान ठीक से।
इतनी चौड़ाई का
यह लाल रंग का
ताबीज जब भी
तेरी छाती पर
हम रखेंगे, तभी तू
तत्काल बेहोश
हो जाएगा।
ऐसा
महीनों उसको
बेहोश किया
जाता है और वह
ताबीज बता कर
उसके मन में
यह सुझाव
बिठाया जाता है।
फिर उस बच्चे
पर जब भी ताबीज
रख देते हैं, ताबीज उसने
देखा कि वह
बेहोशी में
गया। वह कोड
हो गया। वह
ताबीज जो है, कोड
लैंग्वेज हो
गई। वह सिंबल
हो गया, कि
ताबीज जैसे ही
छाती पर रखा
कि वह बेहोश
हुआ। तो अब
उसको सबके
सामने बेहोश
नहीं करना
पड़ता। नहीं तो
बेहोश करने
में वक्त लगता
है। और फिर कभी
होता है, कभी
नहीं भी होता
है। तो बेहोश
करने की
शिक्षा पहले
दे दी है और
ताबीज से
एसोसिएशन जोड़
दिया है अब।
अब ताबीज जब
भी छाती पर
रखेंगे, वह
बेहोश हो
जाएगा।
बेहोश
होते ही से वह
फैल गया
सबमें। वह
पढ़ने नहीं आ
रहा आपका, अब वह वहीं
से पढ़ सकता है
आपके खीसे के
नोट का नंबर।
क्योंकि
चेतना बहुत
फैली हुई है
नीचे। इधर
छोटे से चेहरे
से दिखाई पड़
रही है, उधर
पीछे फैलती
चली गई है।
अगर यहां से
बेहोश कर दी
जाए तो वह
वहां पूरे से
संबंध जोड़
लेती है।
जैसा
इस बेहोश के
साथ ताबीज का
संबंध जोड़ा
गया है ऐसा
प्रत्येक
शिक्षक, जो
पीछे भी
उपयोगी होना
चाहता है और
जो उसके पीछे
भी उसका सहयोग,
उसका
मार्गदर्शन
चाहेंगे, उनके
लिए
व्यवस्थित
सूत्र छोड़
जाता है कि इन
सूत्रों से
प्रयोग करने
से मैं पुनः
उपस्थित हो
जाऊंगा।
दक्षिण
में एक योगी
था, ब्रह्मयोगी,
अभी कुछ
वर्ष पहले ही।
ब्रंटन उससे
सबसे पहले आकर
मिला। तो उसने
अपना एक फोटो
दे दिया
ब्रंटन को। और
उसने कहा कि
मैं आपको गुरु
बनाए लेता हूं,
लेकिन मैं
तो लंदन चला
जाऊंगा। तो
उसने कहा, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? लंदन
कोई बहुत दूर
तो नहीं। तुम
यह फोटो ले जाओ।
तुम इस भांति,
इस आसन में
बैठकर, इस
तरह इस फोटो
को रख कर एक-दो
मिनट एकाग्र
होकर फोटो को
देखना। और
तुम्हें जो
प्रश्न पूछना हो
तुम पूछ लेना,
उत्तर
तुम्हें आ
जाएगा।
ब्रंटन
तो बहुत हैरान
हुआ कि यह
कैसे होगा! लेकिन
वह सारी
व्यवस्था की
जा सकती है।
और ब्रंटन ने
जब लंदन में
जाकर पहला काम
यह किया कि
फोटो सामने रख
कर दो मिनट
एकाग्र होकर
उसने कुछ
प्रश्न पूछा, उत्तर एकदम
आ गया--ठीक उसी
ध्वनि में, उसी
शब्दावली में,
जिसमें
ब्रह्मयोगी
बोलता है!
उसने वे सब
लिख रखे, जब
भी उसने जो-जो
पूछा। पीछे
आकर उसने
ब्रह्मयोगी
को कहा कि
मैंने एक दफा
यह पूछा था, आपने क्या
कहा था? तो
जो उसने लिखा
था, उसने
बताया कि
मैंने यह कह
दिया था।
अब यह
डिवाइस है, यह उपाय है, जिससे काल
और क्षेत्र
मिट जाते हैं
और संबंध हो
जाता है।
जो लोग
बिलकुल खो गए
हैं अनंत में, वे भी पीछे
डिवाइस और
उपाय छोड़ जाते
हैं। सभी नहीं
छोड़ जाते हैं,
यह उनकी मर्जी
पर निर्भर है
कि वे छोड़ें
या न छोड़ें। कुछ
शिक्षक कुछ भी
नहीं छोड़ जाते
हैं, कुछ
शिक्षक कुछ
छोड़ जाते हैं।
महावीर
निश्चित छोड़
गए हैं, बिलकुल
निश्चित छोड़
गए हैं कि इस
उपाय से संबंध
स्थापित हो
सकेगा।
महावीर का कोई
व्यक्तित्व
नहीं बनता, लेकिन उस
अनंत से उत्तर
आ जाता है।
उसमें कोई
कठिनाई नहीं
है।
तो
इसलिए मैंने
कहा कि महावीर
से अभी भी
संबंध
स्थापित हो
सकता है, अभी
भी। कुछ
शिक्षकों से
संबंध
स्थापित होना एकदम
असंभव होगा।
जैसे
जरथुस्त्र, उससे कोई
संबंध
स्थापित नहीं
हो सकता है, क्योंकि
उसने कोई उपाय
नहीं छोड़ा। वह
उसकी अपनी समझ
है। वह यह
कहता है कि
पुराने शिक्षक
की क्यों
फिक्र करनी? नए शिक्षक
आते रहेंगे, तुम उनसे
संबंध बनाना,
जरथुस्त्र
से क्या
लेना-देना!
अब वह
उसकी अपनी समझ
है। महावीर की
समझ यह है कि
क्या फिक्र
तुम्हें, मैं
ही काम पड़
सकता हूं फिर
भी तो मेरा
उपयोग किया जा
सकता है। यह
अपनी समझ की
बात है, लेकिन
संबंध बिलकुल
ही स्थापित
किए जा सकते हैं।
लेकिन जो
शिक्षक
डिवाइस छोड़
गया हो उसी से!
प्रश्न:
इसका
अर्थ यह हुआ
कि महावीर के
बाद किसी को
भी उन कोड
वर्ड्स का
नहीं पता।
कोड
वर्ड्स का पता
है, लेकिन यह
पता नहीं है
कि ये कोड
वर्ड्स हैं। यानी
यह तो पता है
कि ये शब्द
लिखे हैं, लेकिन
ये काहे के
लिए हैं और
इनकी क्या
विधि है, यह
पता नहीं है।
यानी जैसे कि
आपको मैं एक
लिख कर दे
जाऊं...।
प्रश्न:
सवाल
यह है कि आखिर
जब वे गए
होंगे...।
हां, कुछ दिन तक पता
था, कुछ
दिनों तक उसका
उपयोग होता
रहा। जब तक
उपयोग होता
रहा, तब तक
शास्त्र नहीं
लिखे गए। जब
तक उपयोग होता
रहा तब तक कोई
जरूरत न थी
शास्त्र की, क्योंकि
सीधा
कांटैक्ट था।
जब उपयोग छूट
गया या कुछ
लोग खो गए जो
जानते थे...।
प्रश्न:
सब
झगड़े पीछे
चलते हैं।
झगड़े
तो पीछे चलने
ही वाले हैं, क्योंकि फिर
तय करना
मुश्किल हो
जाता है, पूछना
भी मुश्किल हो
जाता है।
प्रश्न:
आज
मतलब महावीर
से कांटैक्ट
करने वाला कोई
नहीं है?
नहीं, कोई नहीं
है। लेकिन
कांटैक्ट आज
भी हो सकता
है। उनकी
परंपरा में तो
कोई भी नहीं
है। उनकी
परंपरा में
कोई भी नहीं।
उनकी परंपरा
में कोई भी
नहीं, लेकिन
और लोगों ने
कांटैक्ट
स्थापित किए
हैं।
प्रश्न:
महावीर
से?
महावीर
से भी! जैन
परंपरा में
कोई नहीं है।
और लोगों ने
कांटैक्ट
स्थापित किए
हैं। कुछ लोग
तो निरंतर
श्रम कर रहे
हैं। ब्लावट्स्की
ने करीब-करीब
सभी शिक्षकों
से संबंध स्थापित
करने की कोशिश
की है, उसमें
महावीर भी एक
शिक्षक हैं।
प्रश्न:
और
किस-किस ने
किए हैं?
वह
असल में हुआ
क्या है कि
ब्लावट्स्की
के साथ जितने
लोगों ने काम
किया...।
प्रश्न:
कौन
है यह?
यह
एक रूसी महिला
थी, थियोसाफिस्ट
थी, थियोसाफिकल
सोसाइटी की
जन्मदात्री
थी। और उसके
साथ था अल्काट,
उसने भी
संबंध
स्थापित किए,
एनी बीसेंट
ने...।
प्रश्न:
वे
तो मर चुके
हैं।
वे
सब मर चुके
हैं।
प्रश्न:
आज
है कोई ऐसा?
थियोसाफी
में भी आज कोई
नहीं है, वह
स्रोत सूख
गया।
थियोसाफी में
भी कोई नहीं है
आज, लेकिन
थियोसाफिस्टों
ने हजारों साल
बाद बड़ी मेहनत
की। और जो बड़े
से बड़ा काम
किया, वह
यह किया कि
सारे पुराने
शिक्षकों से
संबंध स्थापित
किया, ऐसे
शिक्षकों से
भी जिनकी कोई
किताब भी नहीं
बची थी।
प्रश्न:
उनको
यह मालूम पड़ता
है कि वे
महावीर के साथ
संबंध
स्थापित कर
रहे हैं या
किसी दूसरे के
साथ?
हां, वह तो करने
की अलग-अलग
विधियां हैं
प्रत्येक शिक्षक
से।
प्रश्न:
करने
वाले को मालूम
पड़ता है?
हां, बिलकुल ही
मालूम पड़ेगा।
बिलकुल
अलग-अलग विधियां
हैं। कुछ से
संबंध
स्थापित नहीं
हो सका तो या
तो विधि गलत
है, या
करने वाला
नहीं कर पा
रहा है ठीक से,
या कोई विधि
नहीं छोड़ी गई
है। तो इधर तो
मैं चाहता हूं
कि इधर कुछ
लोग उत्सुक
हों तो बराबर
इस विधि पर
काम करवाया
जाए, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
प्रश्न:
तब
तो महाराज
आपने अवश्य
किए होंगे!
यह
न पूछिए। यह
मत पूछिए।
प्रश्न:
किसी
ने शब्द छोड़े
हैं या नहीं, यह कैसे पता
चलेगा?
इसके
भी उपाय हैं।
इसके भी उपाय
हैं। उपाय तो
सब के हैं।
प्रश्न:
वे
उपाय क्या हैं?
वह
जरा आसान बात
नहीं है। वह
तो तुम कोशिश
करने को तैयार
होओ तो मैं
बताने को
तैयार हूं।
समझे न? वह
तो आसान बात
नहीं।
प्रश्न:
महावीर
के संबंध में
आप जो कुछ कह
रहे हैं, वह बहुत
मिस्टिकल और
रहस्यवादी
बनता चला जा रहा
है। आप
सायंकाल या
किसी और समय
ऐसा जो सामान्य
व्यक्ति की
समझ में भी आ
जाए और करने
लायक हो
महावीर का
संदेश, वह
कहें।
क्योंकि यह जो
आप कह रहे हैं,
यह बहुत ही
थोड़े लोगों के
पल्ले पड़ने
वाली बात लगती
है।
बात
ही ऐसी है, इसमें कोई
उपाय नहीं है।
असल
में जिन्हें
भी करना है, उन्हें
असाधारण होने
की तैयारी
दिखानी पड़ती है।
कोई सत्य
साधारण होने
को कभी तैयार
नहीं है, व्यक्तियों
को ही असाधारण
होकर उसे
झेलना पड़ता
है।
और
सत्य को
साधारण किया
तो असत्य से
भी बदतर हो
जाता है। यानी
सत्य उतर कर
तुम्हारे
मकान के पास
नहीं आएगा, तुम्हें ही
चढ़ कर सत्य की
चोटी तक जाना
पड़ेगा। और
सत्य अगर आ
गया तुम्हारे
मकान के पास
तो बाजार में
बिकने वाला
होगा, उसका
कोई मूल्य
नहीं होगा।
अब
कल बैठेंगे।
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