'मैं कहता
आखन देखी' :
अंतरंग
भेट वार्ता
बुडलैण्ड
बम्बई
दिनांक 7
मार्च 1971
आपने कहा
कि यदि शरीर
की बात करोगे
तो मैं कहूंगा
मरणधर्मा है
और आत्मा की
बात करोगे तो
मैं कहूंगा
तुम कभी जन्मे
ही नहीं। फिर
जब बुद्ध कहते
हैं कि बस एक
बबूला था,
जो मिट गया— 'मैं था ही
नहीं तो
जाऊंगा कहां?
'तो फिर
चिन्मय कौन? और अजन्मा
क्या?
एक
तो सागर है, लहरें
आती हैं और
चली जाती हैं।
और सागर बना
रहता है।
लहरें सागर से
जरा भी अलग
नहीं हैं, फिर
भी लहरें सागर
नहीं हैं।
लहरें सिर्फ
सागर में उठे
रूप हैं, आकार
हैं, जो
बनेंगे, मिटेंगे।
जो लहर बनी ही
रहे, उसे
लहर कहना
बेकार है। लहर
का मतलब यह है
कि आयी भी
नहीं और गयी।
लहर शब्द का
भी मतलब यही
है, उठी भी
नहीं कि जा
चुकी। जिसमें
उठती है, वह
सदा है; जो
उठती है वह
सदा नहीं है।
यह सदा की
छाती पर
परिवर्तनशील
का नृत्य है।
सागर तो
अजन्मा है, लहर का जन्म
होता है। सागर
की कोई मृत्यु
नहीं है, लहर
की मृत्यु
होती है।
लेकिन लहर भी
जिस दिन यह
जान ले कि मैं
सागर हूं तो
जन्मने और
मरने के बाहर
हो गयी। जब तक
लहर समझती है,
मैं लहर हूं
तभी तक जन्मने
और मरने के
भीतर
जो
भी है, वह
अजन्मा है, उसकी कोई
मृत्यु नहीं।
क्योंकि जन्म
होगा कहां से?
शून्य से
कुछ पैदा नहीं
होता। मृत्यु
होगी कहां? शून्य में
कुछ खोता नहीं।
जो भी है—यानी
अस्तित्व, वह
तो सदा है।
समय कुछ भी
अंतर नहीं कर
पाता उसमें।
काल से कोई
रेखा नहीं
पड़ती। लेकिन
ये जो
अस्तित्व है,
यही
अस्तित्व
हमारी पकड़
में नहीं आता।
क्योंकि
हमारी
इंद्रियों की पकड़
में सिर्फ रूप
आता है, आकार
आता है। नाम—रूप
के अतिरिक्त
हमारी
इंद्रियां
कुछ भी पकड़
नहीं पातीं।
यह बहुत मजे
की बात है कि
सागर के किनारे
आप सैकड़ों बार
खड़े हुए होंगे
और अनेक बार
कहा होगा कि
मैं सागर
देखकर लौटा
हूं। लेकिन
देखी आपने
सिर्फ लहरें
हैं, सागर
आपने कभी देखा
नहीं। सागर
कभी दिखायी पड़
सकता नहीं।
आप
जो भी देखेंगे
वह लहर है।
इंद्रियां, सिर्फ
ऊपर जो हैं, उसे पकड़
पाती हैं, भीतर
जो है वह छूट
जाता है। ऊपर
भी आकार भर को पकड़
पाती हैं, आकार
के भीतर जो
निराकार है, वह छूट जाता
खै तो नाम—रूप
का जो जगत है
वह इंद्रियों
के देखने की
वजह से पैदा
हुआ है। वह
कहीं है नहीं।
जो भी नाम—रूप
में है वह सब
जन्मा है और
मरेगा। जो
उसके पार है
वह सदा है—न वह
जन्मा है, न
वह मरेगा।
तो
जब बुद्ध कहते
हैं कि बबूले
की भांति मै
उठा तो वे दो
बातें कह रहे
हैं। सच पूछा
जाए तो बबूले
में होता क्या
है?
अगर बबूले
में हम प्रवेश
करें तो हवा
का थोड़ा—सा
आयतन बबूले के
भीतर होता है,
उसी हवा का,
जो बबूले के
बाहर है, जो
अनंत होकर फैली
है। इस विराट
हवा के, और
बबूले के भीतर
की हवा के बीच
पानी की एक
पतली—सी दीवार
होती है, एक
फिल्म की
दीवार। जरा—सी
पानी की पतली
दीवार। जिसको
दीवार कहना भी
ठीक नहीं है, सिर्फ पानी
की पतली फिल्म
है। वह पानी
की जरा—सी
पतली फिल्म, हवा के एक
छोटे से
हिस्से को कैद
कर लेती है।
और वही हवा का
छोटा—सा
हिस्सा कैद
होकर बबूला बन
जाता है।
स्वभावत:
सब चीजें बडी
होती हैं, बबूला
भी बड़ा होता
है; और बड़ा
होने पर टूटता
है और फूट
जाता है।
बबूले की हवा
बाहर की हवा
से मिल जाती
है, फिर
पानी पानी में
मिल जाता है।
बीच में जो
निर्मित हुआ
था वह
इंद्रधनुषी
अस्तित्व था—
रेनबो एक्जिस्टेंस'। कहीं कुछ
अंतर नहीं पड़ा
था शाश्वत
प्राणों में,
सब वैसे का
वैसा था।
लेकिन एक रूप
निर्मित हुआ,
वह रूप
जन्मा और मरा।
हम
भी अपने को
बबूले की तरह
देखें, तो
रूप का बनना
और मिटना है।
भीतर जो है, वह सदा से है।
लेकिन हमारी
आइडेंटिटी, हमारा
तादात्म्य
होता है बबूले
से। इसलिए मैं
कहता हूं कि
अगर आपके शरीर
को देखकर कहूं
तो कहूंगा कि
आप मरणधर्मा
है, मर ही
रहे है। जन्मे
उसी दिन से मर
रहे हैं। मरने
के सिवाय आपने
कोई काम ही
नहीं किया है।
बबूले को
फूटने में सात
क्षण लगते होंगे,
आपको फूटने
में सत्तर
वर्ष लगेंगे।
समय की अनंत
धारा में सात
क्षण और सत्तर
वर्ष में कोई
भी फर्क नहीं
है।
सब
फर्क हमारी
छोटी आंखों के
फर्क हैं। अगर
समय अनंत है, न
उसका कोई
प्रारंभ है, न अंत है, तो
सत्तर साल और
सात क्षण में
कौन—सा फर्क
होगा? हां,
समय अगर
सीमित हो, सौ
ही साल का हो, तो फिर
सत्तर साल में
और सात क्षण
में फर्क होगा।
सात क्षण बहुत
छोटे होंगे, सत्तर साल
बहुत बड़े
होंगे। लेकिन
अगर दोनों तरफ
कोई सीमा नहीं
है, न इस
तरफ कोई
प्रारंभ है, न उस तरफ कोई
अंत है, तो सात
क्षण में और सत्तर
साल में क्या
फर्क है? हमें
फिर भी भ्रम
हो सकता है कि
सात साल में
और सत्तर साल
में फर्क है।
लेकिन अगर हम
समय की पूरी
धारा को देखें
तो क्या फर्क
है? अनंत
की तुलना में
सात क्षण भी
उतने ही है, सत्तर वर्ष
भी उतने ही
हैं। कितनी
देर में फूट
जाता है बबूला,
यह बड़ा सवाल
नहीं है। बनता
है तभी से
फूटना शुरू हो
जाता है।
इसलिए
मैंने शरीर को
मरणधर्मा कहा।
शरीर से मेरा
मतलब है, नाम—रूप
से निर्मित जो
दिखायी पड़ रहा
है। और आत्मा
से मेरा मतलब
है, नाम—रूप
के गिर जाने पर
भी जो होगा, नाम—रूप नहीं
थे तब भी जो था।
आत्मा से मेरा
मतलब है सागर
और शरीर से
मेरा मतलब है
लहर। और ये दोनो
ही बातें एक
साथ समझनी
जरूरी हैं। इन
दोनों के बीच
अगर भ्रम पैदा
हो तो जगत की
सारी
कठिनाइयां
खड़ी हो जाती
हैं।
भीतर
हमारे वह है जो
कभी मर नहीं सकता
इसलिए गहरे में
हमें सदा ही ऐसा
लगता है, मैं कभी
न मरूंगा।
लाखों लोगों
को हम मरते
हुए देखते हैं,
फिर भी भीतर
प्रतीति नहीं
होती कि मैं
मरूंगा। इसकी
गहरे में कहीं
कोई ध्वनि
पैदा नहीं
होती कि मैं
मरूंगा।
सामने ही लोग
मरते रहे हैं
और फिर भी
हमारे भीतर 'न मरने का' भाव कहीं
सजग होता है।
किसी गहरे पल
में, 'मैं
नहीं मरूंगा'
यह बात हमें
जाहिर ही होती
है। माना कि
बाहर के तथ्य
झुठलाते है, और बाहर की
घटनाए कहती
हैं कि ऐसा
कैसे हो सकता
है, कि मैं
न मरूंगा? तर्क
कहते हैं कि
जब सब मरेगा
तो तुम भी
मरोगे। लेकिन सारे
तर्कों को
काटकर भी भीतर
कोई स्वर कहे ही
चला जाता है
कि मैं नहीं
मरूंगा।
इसीलिए
जगत में आदमी
कभी भरोसा
नहीं करता कि
वह मरेगा।
इसीलिए तो हम
इतनी मृत्यु के
बीच जी पाते
हैं,
नहीं तो
इतनी मृत्यु
के बीच तत्काल
मर जाएं। जहां
सब मर रहा है, जहां
प्रतिपल हर
चीज मर रही है
वहां हम किस
भरोसे जीते
हैं? आस्था
क्या है जीने
की? ट्रस्ट
कहां है जीने
का? किसी
परमात्मा में
नहीं है।
आस्था इस आधार
पर खडी है
भीतर, कि हम
कितनी ही कहें
मृत्यु,
कितना ही कहे कि
मरते है, भीतर
कोई कहे ही
चला जाता है
कि मर कैसे सकते
है। कोई आदमी
अपनी मृत्यु को
कंसीव नहीं करता।
इसकी धारणा नही
बना सकता कि
मैं मरूंगा।
कैसी ही धारणा
बनाए, वह पाएगा
कि वह तो बचा
हुआ है। अगर
वह अपने को
मरा हुआ भी
कल्पना करे और
देखे, तो
भी पाएगा कि 'मैं देखता
हूं।’ मैं
बाहर खड़ा हूं।
मृत्यु
के भीतर हम
अपने को कभी
नहीं रख पाते, सदा
ही बाहर खड़े
हो जाते है।
मृत्यु के
भीतर कल्पना
में भी रखना
असंभव है।
सत्य में रखना
तो बहुत मुश्किल
है, हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते हैं
ऐसी जिसमें कि
मैं मर गया।
क्योंकि उस
कल्पना में भी
मैं बाहर खड़ा
देखता रहूंगा।
कल्पना
करनेवाला
बाहर ही रह
जाएगा, वह
मर नहीं पाएगा।
यह जो भीतर का
स्वर है वह
सागर का स्वर
है, जो कह
रहा है मौत कहां?
मौत कभी
जानी नहीं।
लेकिन फिर भी
हम मौत से
डरते हैं—यह
हमारे शरीर का
स्वर है। और इस
दोनों के बीच कन्फ्यूजन
है।
भीतर
स्वर को हम
शरीर का स्वर
जिस दिन समझ
लेते हैं, उसी
दिन प्राण
कंपने लगते
हैं, क्योंकि
शरीर तो मरेगा।
इसे हम कितना
ही झुठलाएं
कितना ही
विज्ञान खड़ा करें,
कितने ही चिकित्सा
के शाख बनाए
कितनी ही
दवाइयों को
घेरकर बैठ
जाएं और कितने
ही चिकित्सकों
को चारों तरफ
खड़ा कर लें, फिर भी शरीर
एक क्षण को
नहीं कहता कि
मैं बचूंगा।
शरीर के पास
कोई स्वर नहीं
है अमृत का।
वह जानता है
कि मैं मरूंगा।
शरीर
जानता है, वह
बबूला है; और
हम जानते हैं
कि हम बबूले
नहीं हैं। जिस
दिन हम समझते
हैं कि हम
बबूले हैं, हमारे जीवन
का सारा
उपद्रव शुरू
हो जाता है।
वह जो शाश्वत
है हमारे भीतर,
जैसे ही लहर
के साथ तादात्म्य
कर लेता है
वैसे ही
कठिनाई में पड़
जाता है। इस
तादात्म्य
का नाम अज्ञान
है। इस तादात्म्य
के टूट जाने
का नाम ज्ञान
है। कुछ फर्क
नहीं होता, सब चीजें
फिर भी वैसी
ही होती हैं।
शरीर अपनी जगह
होता है, आत्मा
अपनी जगह होती
है। एक
भ्रांति टूट
गयी होती है।
तब हम जानते
हैं, शरीर
मरेगा, इससे
हम भयभीत नहीं
होते।
क्योंकि इससे
भयभीत होने का
उपाय नहीं है।
शरीर मरेगा ही।
भयभीत होने का
वहां उपाय है
जहां बचने की
संभावना है।
आप ऐसी स्थिति
में कभी भयभीत
नहीं होते, जहां बचने
की संभावना ही
नहीं होती।
बचने की
संभावना से ही
भय है।
युद्ध
के मैदान पर
सैनिक जाता है
तो घर से जाता
है तब तक डरा
रहता है।
युद्ध के
मैदान पर भी
कंपा रहता है, लेकिन
जब बचाव का सब
उपाय समाप्त
हो जाता है और
बम उसके ऊपर
ही गिरने लगते
हैं तब वह
निर्भय हो
जाता है। तब
वह आदमी, जो
कि जरा—सी
गोली चल जाती
तो घबरा जाता,
वह बमों के
बीच, गोलियों
के बीच बैठकर
ताश भी खेलता
है। वह बिलकुल
साधारण आदमी
है, कुछ
विशेष आदमी
नहीं है।
स्थिति विशेष
है। स्थिति
ऐसी है जिसमें
अब मौत से
डरने का कोई अर्थ
नहीं है—मीनिंगलेस
है। मौत इतनी
प्रकट है कि
अब बचने का
कोई सवाल नहीं
है।
फिर
भी युद्ध के
मैदान पर भी
कभी बचने की
संभावना है
क्योंकि कोई
मरता है, कोई
बचता है तो
इसमें थोड़ा भय
सरकता है।
लेकिन मृत्यु
के मैदान पर
तो बचने की
कोई संभावना
नहीं, कोई
भी नहीं बचता।
इसलिए अगर यह
भ्रांति मेरी
टूट जाए, कि
मैं शरीर हूं
तो उसी के साथ
मृत्यु का भय
चला जाता है।
क्योंकि शरीर
मरेगा, यह
एक
सुनिश्रितता
हो जाती है।
यह नियति, डेस्टिनी
हो जाती है।
इसका उपाय
नहीं—यह भाग्य
है शरीर का, इसमें
रत्तीभर हेर—फेर
नहीं।
एक
तरफ यह स्पष्ट
हो जाए कि
शरीर मरेगा ही, मृत्यु
शरीर का
स्वभाव है।
मरेगा, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं। वह मरा
हुआ ही है। और
जैसे एक तरफ
यह स्पष्ट हो
वैसे दूसरी
तरफ यह स्पष्ट
भी हो जाता है
कि वह जो शरीर
के पार है, वह
कभी जन्मा ही
नहीं, इसलिए
मरने का कोई
सवाल नहीं।
वहां से भी भय
तिरोहित हो
जाता है।
क्योंकि जो
नहीं मरेगा, उसके लिए भी
भय कोई कारण
नहीं। लेकिन
मरेगा ही, इसके
लिये भी भय का
कोई कारण नहीं।
भय इन दोनों
के मेल से
पैदा होता है।
भय इससे पैदा
होता है कि
भीतर कोई कहता
है कि बचूँगा
और बाहर कोई
कहता है कि
कैसे बचोगे? और ये दोनों
चीजें
मिश्रित हो
जाती हैं। ये
दो स्वर अलग—अलग
वीणाओं से उठ
रहे हैं, यह
पता नहीं चलता।
ये स्वर एक
दूसरे में खो
जाते हैं और
हम इसे एक ही
संगीत समझ
लेते हैं। वही
भूल हो जाती
है।
अज्ञान
में निरंतर भय
है मृत्यु का, फिर
भी ऐसे जिए
जाने की
चेष्टा है
जैसे मौत नहीं।
अज्ञानी जीता
ऐसे ही है
जैसे मौत नहीं
है, यद्यपि
प्रतिपल डरा
हुआ जीता है
कि मौत है।
ज्ञानी ऐसे
जीता है जैसे
मौत नहीं है।
पर प्रतिपल
जानकर जीता है
कि किसी भी
क्षण मौत हो
सकती है, पर
मौत नहीं है।
ये तल का
फासला हो गया है—दो
तलों पर
अस्तित्व टूट
गया। परिधि
अलग हो गयी, केन्द्र अलग
हो गया। लहर
अलग हो गयी, सागर अलग हो
गया। रूप अलग
हो गया अरूप
अलग हो गया।
फिर ऐसा नहीं
कि वह मौत से
भाग जाता है।
यह भी एक बहुत
अदभुत बात है
कि जीवन की जो
भ्रांतियां
हैं वह हमारे
जानने से
मिटनेवाली
भ्रांतियां
नहीं हैं।
जानने से
सिर्फ हमारी
पीड़ा मिटती है।
जैसे
शंकर ने
निरंतर
उदाहरण दिया
है कि राह में
पड़ी है रस्सी
और अंधेरे में
दिखायी पड़
जाता है कि
सांप है।
लेकिन वह
उदाहरण बहुत
ठीक नहीं है
क्योंकि पास आ
जाने से पता
चल जाता है कि
यह रस्सी है।
जब एक दफा पता
चल जाए फिर आप
कितनी ही दूर
चले जाएं आपको
सांप दिखायी
नहीं पड़ सकता।
लेकिन जीवन का
धम इस तरह का
नहीं है।
जीवन
का भ्रम ऐसे
है,
जैसे आप
सीधी लक्खी को
पानी में डाल
दें, वह
तिरछी दिखायी
पड़ने लगती है।
बाहर निकालकर देख
लें उसे कि
सीधी है, फिर
पानी में डाल
दें, वह
फिर तिरछी
दिखायी पडने
लगती है। हाथ
डालकर पानी
में टटोलें, पाएंगे कि
सीधी है, लेकिन
फिर भी तिरछी
दिखायी पड़ती
है। आपके
ज्ञान से उसके
तिरछे होने का
रूप नहीं मिटता।
हां, लेकिन
तिरछी है, इसका
भ्रम मिट जाता
है।
तो
जीवन का जो
हमारा भ्रम है
यह सांप और
रस्सीवाला
भ्रम नहीं है, वह
पानी में डाली
गयी सीधी लकड़ी
का तिरछी दिखायी
देने का भ्रम
है। हम भली—
भांति जानते
हैं कि लक्खी
तिरछी नहीं है,
फिर भी
तिरछी दिखायी
पड़ रही है।
बड़े—से—बड़े
वैज्ञानिक सब
तरह की जांच—परख
कर चुका है कि
पानी में जाने
से लकड़ी तिरछी
नहीं होती है,
पर उसको भी
तिरछी दिखायी
पड़ती है। वह
तिरछी दिखायी
पड़ना
इंद्रियगत है,
आपके शान से
उसका कोई लेना—देना
नहीं है।
फर्क
यह होगा कि आप
तिरछा मानकर
व्यवहार नहीं करेंगे, अब
आप मानकर
चलेंगे कि
लकड़ी सीधी है,
पर दिखायी
यूं पड़ती है
कि लकड़ी तिरछी
है। यह दो तल
पर बंट जाएंगी
बातें—जानने
के तल पर लकड़ी
सीधी होगी, देखने के तल
पर लक्खी
तिरछी होगी।
इन दोनों में
कोई भ्रांति
नहीं रह जाएगी।
जीने
के तल पर शरीर
होगा, बाहर के
तल पर शरीर
होगा, अस्तित्व
के तल पर
आत्मा होगी।
खो नहीं जाएगा
कुछ। ऐसा नहीं
कि ज्ञानी को
संसार खो जाता
है, ज्ञानी
को संसार नहीं
खो जाता।
ज्ञानी को
संसार ठीक
वैसा ही होता
है जैसा आपको
होता है। शायद
और भी प्रगाढ़,
साफ और
स्पष्ट होता
है। रोया—रोया
अस्तित्व का
साफ उसकी
दृष्टि में
होता है। खो
नहीं जाता, लेकिन अब वह
भ्रम में नहीं
पड़ता। अब वह
जानता है कि
रूप उसकी
इंद्रियों से
पैदा हुए हैं,
जैसे लक्खी
पानी के भीतर
तिरछी दिखायी
पड़ती है।
क्योंकि
किरणों का
रूपांतरण हो
जाता है
पानी
में किरणों की
यात्रा बदल
जाती है।
किरणें थोड़ी
झुक जाती हैं, उनकी
झुकाव की वजह
से लकड़ी तिरछी
दिखायी पड़ती है।
हवा में
किरणें एक तरह
से चलती हैं, झुकती नहीं
है, इसलिए
लकड़ी तिरछी
नहीं दिखायी
पड़ती। लकड़ी
तिरछी नहीं
होती, लकड़ियां
जिस किरण के
आधार पर
दिखायी पड़ती
हैं, वह
तिरछी हो जाती
हैं, लेकिन
वह तो दिखाई
नहीं पड़ती।
किरण तिरछी हो
जाती है इसलिए
लक्खी तिरछी
दिखायी पड़ती
अस्तित्व
तो जैसा है
वैसा है, लेकिन
इंद्रियों से
गुजरकर, जो
ज्ञान की किरण
है वह थोड़ी
तिरछी हो जाती
है। जानने का
जो ढंग है, वह
बदल जाता है, माध्यम की
वजह से। जैसे
कि मैंने एक
नीला चश्मा
लगा लिया, अब
चीजें नीली
दिखायी पड़ने
लगेंगी। मैं
चश्मा उतारकर
देखता हूं
चीजें सफेद
हैं। फिर
चश्मा लगाता
हूं वह फिर
नीली दिखायी
पड़ती हैं, पर
अब मैं जानता
हूं कि चीजें
सफेद हैं।
सिर्फ चश्मे
से नीली
दिखायी पड़ती
है। अब मैं
भ्रम में
पड़नेवाला
नहीं हूं। अब
मैं चश्मा
नीला लगाए
रहूं चीजें
नीली दिखायी
पड़ती रहेंगी,
और मैं
जानूंगा भली—भांति
कि चीजें सफेद
हैं।
ठीक
ऐसे ही आत्मा
अमृत है, ऐसा
जानकर भी शरीर
का मरणधर्मा
होना चलता रहता
है। अस्तित्व
सनातन है, ऐसा
जानकर भी
लहरों का खेल
चलता रहता है।
लेकिन अब मैं
जानता हूं कि
वह चश्मे से
दिखायी पड़ता
है। वह आख है
इंद्रिय की, पर ऐसा है
नहीं।
इसलिए
बुद्ध, महावीर
या क्राइस्ट
जैसे लोगों के
वक्तव्य दो
तलों पर है।
हमारी कठिनाई
यह है कि हम चूंकि
दोनों तलों को
अपने भीतर भी
सम्मिश्रित
कर लेते हैं, हम उनके
वक्तव्यों को
भी
सम्मिश्रित
कर लेते हैं—स्वभावत:।
कभी बुद्ध इस
तरह बोल रहे
है कि जैसे वह
शरीर हैं।
जैसे बुद्ध
कहते हैं, आनंद,
मुझे प्यास
लगी है, तू
पानी ले आ। अब
आत्मा को कोई
प्यास नहीं
लगती है।
प्यास शरीर को
लगती है।
अब
आनंद सोच सकता
है कि बुद्ध
कहते है कि
शरीर तो है ही
नहीं—नाम—रूप
है,
बबूला है, फिर भी उनको
कैसे प्यास
लगी? जब
जान लिया आपने
कि शरीर है
नहीं, तो
अब कैसी
प्यास! फिर
बुद्ध दूसरे
दिन जब कहते
है कि मैं तो
कभी पैदा हुआ
नहीं, मैं
कभी मरूंगा
नहीं!' तब
सुननेवाले की
कठिनाई शुरू
होती है।
सुननेवाले की
कठिनाई यह है
कि वह सोचता
है कि ज्ञान
में अस्तित्व
बदल जाएगा।
ज्ञान में
अस्तित्व
नहीं बदलता, सिर्फ
दृष्टि बदलती
है।
और
जब बुद्ध कह
रहे है कि
आनंद मुझे
प्यास लगी है, तब
भी वह यह कह
रहे है कि
आनंद, इस
शरीर को प्यास
लगी है। तब भी
वह यही कह रहे
हैं कि यह जो
नाम—रूप का
बबूला है, इसे
प्यास लगी है,
अगर नहीं
पानी डालेगा
तो यह जल्दी
फूट जाएगा। वह
इतना ही कह
रहे हैं। लेकिन
सुननेवाले की
कठिनाई यह है
कि जिस तरह वह अपने
अस्तित्व को
मिला—जुलाकर
जी रहा है
दोनों बातों
से, और कभी
नहीं समझ पाता
कि कौन स्वर
कहां है, वैसे
ही वह अर्थ
वहां से भी
वैसे ही
निकालना शुरू
करता है।
इसलिए मैने
ऐसा कहा।
सीमानवेल
ने एक किताब
लिखी है, 'येस्स
ऑफ
सिगनीफिकेस' —
'महत्ता के
तल'। जितना
महान व्यक्ति
होता है उतना
ही अनेक महत्ताओं
के तलों पर वह
एक साथ जीता
है। जीना ही
पड़ता है।
क्योंकि जब
जिस तल का
व्यक्ति उसके
सामने आता है,
उसी तल पर
उसे बात करनी
पड़ती है। नहीं
तो बात बेमानी
हो जाती है।
बुद्ध, अगर
बुद्ध की तरह
आपसे बातें
करें, तो
बेकार होगा।
आप समझेंगे
पागल है।
ऐसा
अकसर हुआ है
कि इस तरह के
लोगों को हमने
पागल समझा है।
पागल समझने का
कारण था।
क्योंकि जो
बात उन्होंने
की,
वह बिलकुल
पागल की मालूम
पड़ी। या तो वह
पागल ठहराए
जाएंगे अगर
अपने तल पर बोलें,
और यदि आपके
तल पर बोलें
तो उनको ग्रेड
नीचे लाना
पड़ेगा। उस तल
पर आना पड़ेगा
उन्हें, जहां
आप समझ पाएं।
वहां वह पागल
नहीं मालूम
पड़ेंगे। फिर
जितने तलों के
लोग उनके पास
आते है उतने तलों
की बात उनको
कहनी पड़ेगी।
करीब—करीब
बात ऐसी है कि
बुद्ध जैसे
व्यक्ति ने
जितने लोगों
से बात कही, ऐसा
समझ लेना
चाहिए कि उतने
दर्पण बुद्ध
के सामने आए।
और सब दर्पणों
ने अपनी—अपनी
तस्वीर बना ली।
कोई दर्पण
तिरछा था तो
तिरछी तस्वीर
बनी। क्योंकि
दर्पणों से
मेल खानी
चाहिए तस्वीर।
कोई दर्पण
लंबा करके
दिखाता था तो
लंबी तस्वीर
बनी, कोई
छोटा करके
दिखाता तो
छोटी तस्वीर
बनी। अन्यथा
दर्पण नाराज
होते या फिर
दर्पणों को तोड़ना
पड़ता और ठीक
करना पड़ता।
इसलिए
बहुत तलों पर
वक्तव्य
मिलेंगे। कई
बार तो एक ही
वक्तव्य में
बहुत तल हो
जाते हैं।
क्योंकि ऐसा
व्यक्ति
बोलना शुरू
करता है तब वह
अकसर वहीं से
शुरू करता है
जहां वह होता
है। और जब वह
बोलना बंद
करता है तो
अकसर वहीं
होता है जहां
आप होते हैं।
कई दफा तो एक
ही वाक्य में
लंबी यात्रा
हो जाती है।
क्योंकि जब वह
बोलना शुरू
करता है तो
वहीं से शुरू
करता है जहां
वह स्वयं होता
है। आपसे बडी
अपेक्षाएं
रखकर शुरू
कुरता है। फिर
धीरे— धीरे
अपेक्षा उसे
नीचे उतारनी
पड़ती है।
आखिरी
वक्तव्य पर वह
वहां होता है
जहां आप होते
हैं।
और
ये दो गहरे
विभाजन हैं।
इसका यह मतलब
नहीं कि दोनों
बहुत अलग हैं, कि
भिन्न है, कि
पृथक है। जैसा
मैंने कहा, सागर और लहर
जैसा है। यह
और बड़े मजे की
बात है कि
सागर तो बिना
लहर के कभी हो
सकता है, लेकिन
लहर कभी बिना
सागर के नहीं
हो सकती।
निराकार तो
आकार के बिना
हो सकता है, लेकिन आकार
कभी निराकार
के बिना नहीं
हो सकता।
लेकिन हम अपनी
भाषा में
देखें तो
उल्टा मजा है।
भाषा में
निराकार शब्द
में आकार है, आकार शब्द
में निराकार
नहीं है। भाषा
में निराकार
में आकार को
होना ही पड़ेगा,
आकार में
निराकार न हो
तो चल जाएगा।
भाषा हमने
बनायी है। पर
अस्तित्व की
हालत उल्टी है।
वहां निराकार
हो सकता है
बिना आकार के।
आकार कभी बिना
निराकार के
नहीं हो सकता
है।
पूरे
शब्द हमारे
ऐसे है —
अहिंसा हो कि
हिंसा हो।
अहिंसा शब्द
में हिंसा
जरूरी है।
हिंसा शब्द
में अहिंसा
आवश्यक नहीं
है। लेकिन यह
बड़े मजे की
बात है कि
हिंसा, बिना
अहिसा के नहीं
हो सकती।
हिंसा के होने
के लिए अहिंसा
बिलकुल ही
अनिवार्य
तत्व है। नहीं
तो हिंसा का
अस्तित्व
नहीं हो सकता।
हालांकि
अहिंसा, बिना
हिंसा के हो
सकती है। भाषा
हम बनाते हैं
और हम अपने
हिसाब से
बनाते है।
हमारे लिए
संसार हो सकता
है बिना
परमात्मा के,
परमात्मा
कैसे बिना
संसार के हो
सकता है?
ये
दो चीजें अलग
नहीं है।
इसलिए इसमें
जो विराट है
वह क्षुद्र के
बिना हो सकता
है। लहर के
बिना सागर के
होने में कोई
भी बाधा नहीं, लेकिन
लहर कैसे होगी
सागर के बिना?
लहर इतनी
छोटी है—और
अपने होने के
लिए चारों तरफ
सागर से बंधी
है। सब तरफ
सागर उसको
पकड़े हुए है, तो ही वह है।
सब तरफ सागर
ने उसको उठाया,
तो वही वह
है। सब तरफ
सागर उसको
सम्हाले है, तो ही वह है।
सागर छोड़ दे
तो वह गयी।
तो
ये दो अलग
नहीं है, लेकिन
फिर भी मैं
कहता हूं—अलग
हैं। अलग
इसलिए कहता
हूं कि लहर को
भ्रम न हो जाए,
वह अपने को
अमृत, निराकार
और शाश्वत न
समझ ले। अलग
है, तो
श्रम हो सकता
है, श्रम
की कठिनाई
पैदा हो सकती
है। अगर एक ही
है तो भ्रम
नहीं होगा। और
अगर एक का ऐसा
अनुभव हो जाए
तब तो वह
कहेगी कि मैं हूं
ही नहीं, सागर
ही है।
जैसे
जीसस बार—बार
कहते हैं कि
मैं कहां हूं
वही है पिता
जो ऊपर है।
मैं नहीं हूं—वही
है। हमें
दिक्कत होती
है। हमें बहुत
कठिनाई होती
है। क्योंकि
या तो हम ऊपर
पिता को खोजना
चाहते हैं कि
वह कौन है ऊपर
कहां है? और या
फिर इस आदमी
को हम पागल
समझते हैं कि
आदमी क्या कह
रहा है।
तुम्हीं तो हो,
और कौन है? पर जीसस यही
कह रहे है कि
लहर मैं नहीं
हूं सागर ही
हूं। पर हमें
लहरों के
सिवाय किसी
चीज का कभी
कोई दर्शन
नहीं हुआ।
इसलिए सागर
हमारे लिए
सिर्फ शब्द है।
जो है वस्तुत:,
वह हमारे
लिए केवल शब्द
है और जो
मात्र दिखायी
पड़ता है, वह
हमारे लिए
सत्य है।
इसलिए
मैंने कहा कि
शरीर
मरणधर्मा है, मृत्यु
है। चैतन्य, चिन्मय
मरणधर्मा
नहीं है, वरन
अमृत्त्व है।
और उस
अमृत्त्व के
ऊपर ही सारी
मृत्यु का खेल
है।
सागर
और लहर को तो
हमें समझने
में कठिनाई
नहीं होती, क्योंकि
हमने कभी सागर
और लहर में
इतनी दुश्मनी
नहीं मानी।
लेकिन मृत्यु
में और अमृत
में हमें बडी
मुश्किल होती
है, क्योंकि
हमने बड़ी
दुश्मनी मान
रखी है।
दुश्मनी
हमारी मानी
हुई है। सागर
और लहर जब मैं
कहता हूं तो
आपको कठिनाई नहीं
होती, आप
कहते है बड़े
निकट के
अस्तित्व हैं,
ठीक कहते
हैं।
लेकिन
मृत्यु और
अमृत तो बड़े
विपरीत है।
पदार्थ और
परमात्मा तो
बड़े विपरीत
हैं। जन्म और
मृत्यु तो बड़े
विपरीत है। ये
तो एक नहीं हो
सकते। ये भी
एक ही हैं।
मृत्यु को
जितना गहरे
जाकर जानेंगे, पाएंगे
परिवर्तन से
ज्यादा नहीं
है। लहर भी
परिवर्तन से
ज्यादा नहीं
है। अमृत को
भी जितना
खोजेंगे—पाएंगे,
वह शाश्वत,
इटरनिटी है
और कुछ भी
नहीं है।
इस
जगत में जो जो
हमें विपरीत
दिखायी पड़ता
है वह अपने
विपरीत पर ही
निर्भर होता
है। हमारे
दिखायी पड़ने
में विपरीत के
कारण बड़ी अड़चन
है। हम मृत्यु
को और अमृत को
बिलकुल अलग
रखते हैं।
लेकिन मृत्यु
जी नहीं सकती
अमृत के बिना।
उसको भी होने
के लिए अमृत
से ही थोड़ा
सहारा उधार
लेना पड़ता है, जितनी
देर होती है
उतनी देर अमृत
के ही कंधे पर
हाथ रखना पड़ता
है। झूठ को भी
थोड़ी देर चलना
हो तो सत्य के
कंधे पर थोड़ा
हाथ रखना पड़ता
है। झूठ को भी
थोड़े कदम रखने
हों तो उसको
कहना पड़ता है,
मैं सत्य
हूं।
सत्य
शायद दावा
नहीं करता कि
मैं सत्य हूं
लेकिन झूठ सदा
दावा करता है
कि मैं सत्य
हूं। बिना
दावा के वह चल
नहीं सकता
इंचभर, चला
कि गिरा! उसको
चिल्लाकर
घोषणा करनी पड़ती
है कि सम्हल
जाओ मै आ रहा
हूं मैं सत्य
हूं। वह सब
प्रमाण लेकर
साथ चलता है
कि मैं सत्य
क्यों हूं।
सत्य, कोई
प्रमाण लेकर
नहीं चलता।
उसके लिए झूठ
के सहारे की
कोई भी जरूरत
नहीं है। वह
सहारा लेगा तो
दिक्कत में
पड़ेगा झूठ
सहारा न लेगा
तो दिक्कत में
पड़ जाएगा।
अमृत
के लिए मृत्यु
के सहारे की
कोई जरूरत नहीं
है,
लेकिन
मृत्यु की
घटना तो अमृत
के सहारे ही
घटती है।
शाश्वत के लिए
परिवर्तन की
कोई जरूरत
नहीं, लेकिन
परिवर्तन की
घटना शाश्वत
के बिना नहीं घट
सकती। इतना
जरूर तय है कि
जो
परिवर्तनशील
है वही हमारी
स्थिति है, हम सिर्फ
परिवर्तनशील
को ही जानते
हैं। इसलिये
जब भी शाश्वत
के संबंध में
सोचते हैं तो
हम
परिवर्तनशील
से ही कुछ
अनुमान लगाते
हैं। और कोई
उपाय नहीं है।
हमारी
हालत ऐसी है
जैसा कि
अंधेरे में
खड़ा आदमी
अंधेरे से ही
प्रकाश का
अनुमान लगाए।
उसके पास और
कोई उपाय नहीं
है। यद्यपि
अंधकार भी
प्रकाश का ही
धीमा रूप है, अंधकार
भी प्रकाश के
बहुत कम होने
की स्थिति है।
कोई अंधकार
ऐसा नहीं है
जहां प्रकाश न
हो। क्षीण
होगा, क्षीण
भी कहना ठीक
नहीं है, सिर्फ
हमारी
इंद्रियों की पकड़
के लिए क्षीण
है। हमारी
इंद्रियां
नहीं पकड़
पातीं उसे। अन्यथा
हमारे पास से
इतने बड़े
प्रकाश के
बवण्डर निकल
रहे हैं जिसका
कोई हिसाब
नहीं कि हम
देख लें तो हम
अंधे हो जाएं।
जब
तक एक्सञ्जे
नहीं थी, हम
सोच भी नहीं
सकते थे कि
आदमी के भीतर
भी किरणें आर—पार
हो रही है। हम
सोच भी नहीं
सकते थे कि
आदमी के भीतर
की हड्डी की
तस्वीर भी
किसी दिन बाहर
आ जाएगी। आज
नहीं कल और
गहरी किरण खोज
ली जाएगी और
हम एक बच्चे
की मां के पेट
में, जो
पहला अणु है
उसके आर—पार
किरण को डाल
सकेंगे तो हम
उसकी पूरी
जिंदगी देख
लेंगे कि वह
क्या क्या हो
जाएगा। इसकी
सारी
संभावनाएं
हैं।
हमारे
पास से बहुत
तरह का प्रकाश
गुजर रहा है, पर
हमारी आख नहीं
पकड़ रही है।
नहीं पकड़ती
है इसलिए
हमारे लिए
अंधेरा है।
जिसे हम
अंधेरा कहते
हैं, उसका
कुल मतलब इतना
ही है कि ऐसा
प्रकाश जिसे हम
नहीं पकड़ रहे
हैं, इससे
ज्यादा नहीं।
लेकिन फिर भी
अंधेरे में
खड़े होकर कोई
आदमी प्रकाश
के बाबत जो भी
अनुमान
लगाएगा वह गलत
होंगे। माना
कि अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है, फिर
भी अंधेरे से
प्रकाश की
बाबत जो भी
अनुमान लगाये
जायेंगे वे
गलत होंगे।
माना कि
मृत्यु भी
अमृत का एक
रूप है, फिर
भी मृत्यु से
अमृत के बाबत
जो भी अनुमान
लगाए जाएंगे
वे गलत होंगे।
हम अमृत को
जान लें तो ही
कुछ होता है, अन्यथा कुछ
भी नहीं होता।
मृत्यु
से घिरे हुए
व्यक्ति अमृत
से जो मतलब लेते
हैं उनका मतलब
इतना ही होता
है केवल, कि हम
नहीं मरेंगे,
जो कि
बिलकुल गलत है।
अमृत का मलतब
है अमर।
मृत्यु से
घिरे आदमी के
अर्थ की पहुंच
इतनी है कि
मैं मरूंगा
नहीं। पर जो
जानता है अमृत
को, उसका
मतलब है कि 'मैं कभी था
ही नहीं।’
जो
नहीं जानता है
वह कहता है, 'मैं
कभी मरूंगा
नहीं ' —सदा
रहूंगा, कभी
भी मरूंगा
नहीं। इन
दोनों का फर्क
दुनियादी है,
गहरा है।
मरने को
जाननेवाला
आदमी कहता है
कि ठीक पका हो
गया न, कि आत्मा
अमर है? फिर
मैं कभी नहीं
मरूंगा। वह
हमेशा फ्यूचर
ओरिऐंटेड
होगा। उसका जो
मतलब होगा, वह भविष्य
में होगा। फिर
मैं कभी नहीं
मरूंगा। जो
आदमी जान लेगा
अमृत को वह
कहेगा, मैं
कभी था ही
नहीं, मैं
कभी हुआ ही
नहीं। वह
हमेशा पास्ट
ओरिऐंटेड
होगा। चूंकि
सारा वितान हमारा
मृत्यु के हाथ
में घिरा हुआ
है, इसलिए
सारा विज्ञान
भविष्य की बात
करता है। और
सारा धर्म चूंकि
अमृत के आस—पास
घिरा था इसलिए
वह अतीत की
बात करता है—ओरिजिन
की, एण्ड
की नहीं।
स्रोत, मूल
स्रोत क्या है?
धर्म कहता
है, जगत
कहां से पैदा
हुआ, कहां
से हम आए? धर्म
कहता है कि
अगर इस बात को
ठीक से जान
लें कि जहां
से हम आए हैं, वह स्रोत
क्या है तो हम
निश्रित हो
जाएंगे कि कहां
हम जाएंगे।
क्योंकि जहां
से हम आए हैं
उससे अन्यथा
हम जा नहीं
सकते। जो
हमारा मूल है
वही हमारी
डेस्टिनी है,
वही हमारी
नियति है, वही
हमारा अन्त है।
जो हमारा आदि
है, वही
हमारा अंत है।
इसलिए
सारे धर्म की
चितना ' आदि ' की खोज में
है। व्हाट इज
दि ओरिजिन, जगत आया
कहां से है? अस्तित्व
कहां से पैदा
हुआ, आत्मा
कहां से आयी, सृष्टि कहां
हुई! सारी
चितना धर्म की
पीछे की खोज
है, आखिर की।
और सारा
विज्ञान आगे
की खोज है। हम
जा कहां रहे
हैं, हम
पहुंचेंगे
कहां? हम
हो क्या
जाएंगे? कल
क्या होगा? अंत क्या है?
उसका कारण
यह है कि
विज्ञान की
सारी खोज
मरणधर्मा कर
रहा है।
धर्म
की सारी खोज
उनकी है जिनके
मृत्यु की बात
समाप्त हो गयी
है। और मजे की
बात यह है कि
मृत्यु सदा
भविष्य में है।
मृत्यु का
अतीत से कोई
लेना—देना
नहीं है। जब
भी आप मृत्यु
के संबंध में
सोचेंगे, अतीत
का कोई सवाल
ही नहीं, बात
ही खत्म हो
गयी।
मृत्यु
सदा आनेवाले
कल में है। और
जीवन जहां से
आया है वह सदा 'कल
था'। जहां
से जीवन आ रहा
है, जहां
से गंगा आ रही
है वह तो
गंगोत्री से आ
रही है। जहां
गिरेगी, वह
सागर है। जहां
मिटेगी वह 'कल है'।
जहां बनी है
वह 'कल था'।
मृत्यु
से घिरा आदमी
जो भी अर्थ
निकालेगा वह मृत्यु
के ही अनुमान
होंगे। इसलिए
दूसरे तल की
बात पहले तल
का अनुमान नहीं
है। दूसरे तल
की बात दूसरे
तल का अनुभव
है। यह भी बहुत
मजे की बात है
कि जो दूसरे
तल को जान
लेता है वह
पहले को तो
जानता ही है, लेकिन
जो पहले को
जानता है वह
जरूरी रूप से
दूसरे को नहीं
जानता है।
इसलिए
अगर हमने
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण और
क्राइस्ट को
प्रज्ञावान
कहा, बुद्धिमान
कहा, तो
हमारा उन्हें
बुद्धिमान
कहने का कारण
दूसरा है। वे
दो तलों को
जानते हैं, हम एक तल को
जानते हैं।
इसलिए उनकी
बात हमसे
ज्यादा
अर्थपूर्ण है।
क्योंकि
जितना हम
जानते हैं
उतना तो वे
जानते ही हैं।
इसमें तो अड़चन
नहीं है, उन्होंने
भी मृत्यु को
जाना है।
उन्होंने भी
दुःख जाना है,
उन्होंने
भी क्रोध जाना
है, उन्होंने
भी हिंसा जानी
है। उतना तो
वे जानते हैं
जितना हम
जानते है।
लेकिन वे कुछ
और भी जानते
हैं जो हम
नहीं जानते।
उतना तल
परिवर्तन है।
पश्चिम
के मुल्कों में
ज्ञान जो है
वह उसी तल पर
एक्यूमुलेशन
है,
उसी तल पर।
आइन्स्टिन
जितना ही
जानता हो, हम
जो जानते है, हममें और
उसमें केवल
कांटिटेटिव
अंतर होगा।
जैसे, हम
इस टेबल को ही
नाप पाते हैं,
उसने सारे
विश्व को नाप
लिया। यह अंतर
परिमाण का है,
मात्रा का
है। कोई
गुणात्मक
अंतर नहीं है।
यानी कुछ ऐसा
वह नहीं जानता
है जो कि
मुझसे भिन्न
है। हां, मेरे
का ही विस्तार
है। मैं कम
जानता हूं वह
ज्यादा जानता
है। मेरे पास
एक रुपया है, उनके पास
करोड़ रुपए हैं।
लेकिन जो मेरे
पास है, उससे
भिन्न उसके
पास नहीं है।
बुद्ध
और महावीर को
जब हम कहते
हैं ज्ञानी, तो
हमारा मतलब
दूसरा है। यह
हो सकता है कि
हमारे तल पर
हम ही उनसे
ज्यादा जानते हों।
लेकिन हमारा
उन्हें शानी
कहने का मतलब
है कि वे
दूसरे तल पर
कुछ जानते हैं,
जिसका हम
कुछ भी नहीं
जानते। एक नयी
यात्रा
उन्होंने
शुरू की है, कालिटेटिव
अंतर है।
इसलिए ऐसा हो
सकता है कि
महावीर को
आइन्स्टिन
के सामने खड़ा
करें तो
आइस्टीन जो
जानता है उस
मामले में
महावीर बहुत
ज्यादा
ज्ञानी सिद्ध
न हों; उतना
एक्यूमुलेशन
उनके पास न हो।
वे कहेंगे, मैं तो टेबल
ही नाप सकता
हूं तुम सारे
संसार को नाप
लेते हो। तुम
दूर चांद—तारों
की भी लंबाई
बता देते हो, मैं नहीं
बता सकता। मैं
तो इस कमरे को
ही नाप लूं तो
बहुत है।
लेकिन
फिर भी मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
मुझसे ज्यादा
ज्ञानी नहीं
हो। क्योंकि
तुम जो जानते
हो,
वह कन्सीवेबल
है। अगर कमरा
नापा जा सकता
है तो तारे भी
नापे जा सकते
हैं। इसमें
कहीं कोई
क्रांति घटित
नहीं हो गयी
है। आइंस्टीन
के भीतर कोई
मुटेशन नहीं
हो गया है। यह
कोई दूसरा
आदमी नहीं। यह
आदमी वही है।
हां, उसमें
ही ज्यादा
कुशल है
जिसमें हम
अकुशल हैं।
उसमें ही
ज्यादा
गतिमान है
जिसमें हम मंद—गति
हैं। उसमें ही
दूर तक गया
जिसमें हम
थोड़ी दूर गए
हैं। उसमें ही
गहरा गया
जिसमें हम
बाहर से ही
लौट आए। लेकिन
कहीं और नहीं
है उसका
प्रवेश।
बुद्ध
या महावीर या
इस तरह के लोग
जिनको हमने बुद्धिमान
कहा,
उनसे हमारा
प्रयोजन है कि
जो तल है
जानने का, मृत्यु
का, उसके
पार वे वहां
गए जहां अमृत
है, और
उनकी बात का
मूल्य है। इसे
यों समझें कि
एक आदमी जिसने
कभी शराब नहीं
पी, उसकी
बात का बहुत
मूल्य नहीं है।
लेकिन एक आदमी
जिसने शराब पी,.
और शराब के
पार भी गया, उसकी बात का
बहुत मूल्य है।
जिसने शराब पी
नहीं, वह
बचपन है, उसने
कोई प्रौढ़ता
नहीं पायी।
उसका वक्तव्य
चाइल्डिश है।
इसलिए शराब
नहीं
पीनेवाले कभी
भी शराब पीनेवालों
को समझा नहीं
पाते।
क्योंकि नहीं
पीनेवाले
चाइल्डिश
मालूम होते है,
बचकाने।
शराब पीना...
पीनेवाला
उसकी बात का
मूल्य करता है।
यूरोप
और अमरीका में
एक संगठन है, शराब
पीनेवालों का—
'अल्कोहल्स—अनानिमस',
एक बहुत
व्यापक आंदोलन
है। इसमें
सिर्फ वे ही
लोग सम्मिलित
हो सकते हैं जो
शराब में गहरे
हुए हैं। और
यह शराब पीने
वालों का आंदोलन
है लेकिन
इसमें सिर्फ
शराब
पीनेवाले ही सम्मिलित
हो सकते हैं।
और यह हैरानी
की बात है कि
शराब
पीनेवालों की मंडलियां
किसी भी नए शराब
पीने वाले की
फौरन शराब छुडवा
देती हैं।
क्योंकि वह
मेन्नोर्ड है।
शराब
पीनेवाला
उसकी बात समझ
पाता है।
क्योंकि जो कह
रहा है वह
अनुभवी है।
गैर अनुभव से
नहीं कह रहा
है
उसने भी पिया
है वह
भी इसी तरह
गिरा है, वह
भी इन्हीं
कठिनाइयों से
गुजरा है और
पार हुआ है।
उसकी बात का
कोई मूल्य है।
पर
फिर भी यह
मैंने उदाहरण
के लिए कहा है—शराब
पियो, कि न
पियो, कि
पीने के बाद
छोड़ दो, बहुत
तल का फर्क
नहीं है। हां
एक तल के भीतर
ही सीढ़ियों का
फर्क है।
लेकिन एक बार
अमृत का अनुभव
हो जाए तो
सारा तल परिवर्तित
हो जाए। अगर
बुद्ध, महावीर
और क्राइस्ट
जैसे लोगों की
बात का इतना
गहरा परिणाम
हुआ तो उसका
कारण यह था।
हम जो जानते
थे, वे
जानते ही हैं।
हम जो नहीं
जानते, वह
भी वे जानते
हैं। और जो
उन्होंने नया
जाना है उस नए
जानने से वे कह
रहे हैं कि
हमारे जानने
में दुनियादी
भूलें हैं।
भगवान
श्री महावीर
पर हुई चर्चा
में आपने
बताया था कि
महावीर पूर्व
जन्म में ही
परम उपलब्धि
को प्राप्त हो
चुके थे। केवल
अभिव्यक्ति
के लिए
करुणावश
उन्होने पुन:
जन्म धारण
किया था। इसी
प्रकार कृष्ण
के बारे में
भी आपका कहना
था कि वे तो
जन्म से ही
सिद्ध थे। अब
जब जबलपुर में
आपकी और मेरी
जो वार्ता हुई
थी उससे मुझे
ऐसा आभास हुआ
था कि जो बात
महावीर और
कृष्ण के बारे
में आपने बतायी
थी वही बात आप
पर भी घटित
होती है। अतएव
प्रश्न उठता
है यदि ऐसी
बात है तो
आपको किस
करुणावश जन्म
लेना पड़ा। इस
संबंध में
अपने पूर्व
जन्मों और
पूर्व जन्मों
की
उपलब्धियों
पर भी प्रकाश
डालने की कृपा
करें ताकि वे
साधक के लिए
उपयोगी हो
सकें 1 और यह भी
कि पिछले जन्म
और इस जन्म
में समय का
कितना अंतराल
रहा?
इसमें
बहुत—सी बातें
खयाल में लेनी
पड़ेगी। पहली तो
यह कि ऐसे व्यक्तियों
के जन्म के संबंध
में यह जान
लें कि जब
उनकी एक जन्म
में ज्ञान की
यात्रा पूरी
हो गयी हो तो
अब व्यक्ति पर
निर्भर करता
है कि वह चाहे
तो एक जन्म और
ले और चाहे तो
न ले। बिलकुल स्वतंत्रता
की स्थिति है।
सच तो यह है कि वही
एक जन्म स्वतंत्रता
से लिया गया होता
है। अन्यथा कोई
जन्म स्वतंत्रता
का नहीं है।
चुनाव नहीं है
बाकी जन्मों मे।
बाकी जन्म तो
हमारी वासना
की बहुत मजबूरियां
हैं। लेने पड़े
हैं। जैसे
धकाए गए हैं या
खींचे गए हैं, या
दोनों ही
बातें एक साथ
हुई है। धकाए गए
हैं पिछले
कर्मों से, खींचे गए
हैं आगे की
आकांक्षाओं
से। और यो हमारा
जन्म साधारणत:
बिलकुल ही
परतंत्र घटना है।
उसमें चुनाव
का मौका नहीं
है।
सचेतन
रूप से हम
चुनते हैं कि हम
जन्म लें।
सचेतन रूप से सिर्फ
एक ही मौका
आता है चुनने का, और
वह तब आता है
जब पूरी तरह
व्यक्ति ने
स्वयं को जान
लिया होता है।
वह घटना घट
गयी होती है
कि अब जिसके
आगे पाने को
कुछ भी नहीं
होता। ऐसा
क्षण आ जाता
है जब वह
व्यक्ति कह
सकता है कि अब
मेरे लिए कोई
भविष्य नहीं
है। क्योंकि
मेरे लिए कोई
वासना नहीं है।
ऐसा कुछ भी
नहीं है जो
मैं न पाऊं तो
मेरी कोई पीड़ा
है। यह बहुत ही
शिखर का क्षण है,
पी कहै। इस शिखर
पर ही पहली दफा
स्वतंत्रता मिलती
है।
ये
बडे मजे की बात
है जीवन के रहस्यों
में कि जो चाहेगे
कि स्वतंत्र हों
वे स्वतंत्र नहीं
हो पाते। और
जिनकी कोई चाह
नहीं रही वे
स्वतंत्र हो
जाते हैं। जो
चाहते हैं कि
यहां जन्म ले
लें,
वहां जन्म
ले लें उनके
लिए कोई उपाय
नहीं है। और
जो अब इस
स्थिति में है
कि उनके लिए
कहीं जन्म
लेने का कोई
सवाल नहीं रहा,
अब वह इस सुविधा
में हैं कि वह
चाहें तो कहीं
भी जन्म ले
लें। लेकिन यह
भी एक ही जन्म
के लिए संभव
हो सकता है।
इसलिए नही कि
एक जन्म के
बाद उसे
स्वतंत्रता
नहीं रह जाएगी
जन्म लेने की।
स्वतंत्रता तो
सदा होगी।
लेकिन एक जन्म
के बाद स्वतंत्रता
के उपयोग करने
का भाव ही
अकसर खो जाता है।
वह अभी रहेगा।
इस जन्म में
यदि आपको घटना
घट गयी परम
अनुभव की, तो
स्वतंत्रता
तो मिल गयी
आपको। लेकिन
जैसा कि सदा
होता है, स्वतंत्रता
मिलने के साथ
ही
स्वतंत्रता
का उपयोग करने
की जो भाव—दशा है
वह एकदम नहीं
खो जाएगी।
उसका भी उपयोग
किया जा सकता
है। पर जो
बहुत गहरे
जानते हैं वह
कहेंगे कि यह
भी एक बंधन है।
इसलिए
जैनों में, जिन्होंने
इस दिशा में
सर्वाधिक गहन
खोज की, उनकी
खोज की कोई भी
तुलना नहीं है
सारे जगत में।
उन्होंने
सिर्फ
तीर्थंकर—गोत्रबंध
उसको नाम दिया।
यह आखिरी बंधन
है—स्वतंत्रता
का बंधन।
आखिरी, कि
इसका उपयोग कर
लेने का एक मन
है। वह मन ही
है। इसलिए
सिद्ध तो बहुत
होते है, तीर्थंकर
सभी नहीं होते।
परमज्ञान को
कई लोग उपलब्ध
होते हैं, लेकिन
तीर्थंकर सभी
नहीं होते।
तीर्थंकर
होने के लिए, यानी इस
स्वतंत्रता
का उपयोग करने
के लिए एक विशेष
तरह के कर्मों
का जाल इनमें
होना चाहिए।
शिक्षक होने
का, टीचरहुड
का एक लंबा
जाल होना
चाहिए। अगर वह
पीछे है, वह
तो... वह आखिरी
धक्का देगा।
और जो जाना
गया है, वह
कहा जाएगा। जो
पाया गया है, वह बताया
जाएगा। जो
मिला है, वह
बांटा जाएगा।
इस
स्थिति के बाद
सारे लोग
दूसरा जन्म
यानी एक जन्म
और लेते हैं, ऐसा
नहीं है। कभी
करोड़ों में
एकाध लेता है।
इसलिए जैनों
ने तो करीब—करीब
औसत तय कर रखी
है कि एक
सृष्टि—कल्प
में सिर्फ
चौबीस जन्म
धारण करते हैं।
वह बिलकुल औसत
है—जैसे हम कह
सकते हैं, आज
बंबई की
सड्कों पर
कितने
एक्सीडेंट
हुए। पिछले
तीस साल का
सारा औसत
निकाल लेंगे
तो आज हम कह
सकते हैं कि
बंबई में इतने
एक्सीडेंट
हुए। वह करीब—करीब
सही होनेवाले
हैं। ठीक ऐसे
ही चौबीस का
जो औसत है, वह
औसत है। वह
अनेक कल्पों
के स्मरण का
औसत है, अनेक
कल्पों के।
अनेक बार
सृष्टि के
बनने का और
मिटने का जो
सारा का सारा
स्मरण है, उस
स्मरण में
अंदाजन सबका
हम भाग दें, वह चौबीस है।
यानी एक पूरी
सृष्टि के
बनने और मिटने
के बीच चौबीस
व्यक्ति ऐसा
बंध कर पाते
हैं, कि वह
एक जन्म का और
उपयोग करें।
इसमें
दूसरी बात भी
खयाल रख लेनी
चाहिए कि जब हम
कहते हैं बंबई
में इतने
एक्सीडेंट
होंगे आज, तो
हम लंदन के
एक्सीडेंट की
बात नहीं कर
रहे हैं। या हम
कहते हैं मरीन
ड्राइव के
रास्ते पर
इतने एक्सीडेंट
होंगे, फिर
हम बंबई के और
रास्तों की भी
बात नहीं कर रहे
हैं।
जैनों
का जो हिसाब
है वह उनके
अपने रास्ते
का है, उसमें
जीसस की गणना
नहीं होगी।
कृष्ण और
बुद्ध की भी
गणना नहीं
होगी। लेकिन
एक बहुत मजे
की बात है कि
जब हिंदुओं ने
भी गणना की तब
वह चौबीस अनुपात
पड़ा, उनके
रास्ते पर और
जब बुद्धों ने
गणना की तब चौबीस
अनुपात पड़ा, उनके रास्ते
पर। इसलिए
चौबीस
अवतारों का
खयाल उन्हें आ
गया। चौबीस
तीर्थंकरों
का जैनों में
था ही और चौबीस
बुद्धों का
खयाल बौद्धों
को आ गया।
इसका
कभी बहुत गहरा
हिसाब ईसाइयत
ने और इस्लाम
ने लगाया नहीं।
लेकिन इस्लाम
ने यह जरूर
कहा कि
मुहम्मद पहले
आदमी नहीं पहले
और लोग हो गए
और जिन चार
लोगों के भी
मुहम्मद ने
इशारे किये कि
मुझसे पहले
चार लोग हुये, वे
इशारे दो
कारणों से
अधूरे और
भिन्नमय हैं।
वे इसलिये अधूरे
और भिन्नमय
हैं कि
मुहम्मद के
पीछे मुहम्मद
का रास्ता
नहीं है।
मुहम्मद का
रास्ता
मुहम्मद से
शुरू होता है।
महावीर जितनी
स्पष्टता से
गिना सके अपने
पीछे के चौबीस
आदमी, उतना
दूसरा नहीं
गिना सका
दुनिया में।
क्योंकि
महावीर पर वह
रास्ता करीब—करीब
पूरा होता है।
तो अतीत के
बाबत बहुत साफ
हुआ जा सकता
था। मुहम्मद
के आगे मामला
था, उसके
बाबत साफ होना
बहुत कठिन था।
जीसस
ने भी पीछे के
लोगों की गणना
करवायी थी।
लेकिन वह भी
धुंधली है, क्योंकि
जीसस का भी
रास्ता नया
शुरू होता है।
बुद्ध ने पीछे
के लोगों की
कोई साफ गणना
नहीं करवायी,
सिर्फ कभी—कभी
बात की। इसलिए
चौबीस
बुद्धों की
बात है, पीछे
के नाम एक भी
नहीं हैं। इस
मामले में
जैनों की खोज
बड़ी गहरी है और
बहुत
प्रामाणिक
रूप से है।
बहुत मेहनत की
है उस मामले
में। एक—एक
व्यक्ति का
पूरा ठिकाना,
हिसाब सारा
रखा है।
प्रत्येक
रास्ते पर
अंदाजन चौबीस
लोग हैं। ऐसे
लोग ही एक
जन्म और लेते
हैं शान के
बाद। वह जन्म,
मैंने कहा,
करुणा से
होगा।
इस
जगत में बिना
कारण कुछ भी
नहीं हो सकता।
और कारण केवल
दो ही हो सकते
हैं—या तो
कामना हो, या
करुणा हो।
तीसरा कोई
कारण नहीं हो
सकता। या तो
मैं कुछ लेने
आपके घर जाऊं,
या कुछ देने
आऊं। तीसरा
कोई उपाय क्या
हो सकता है? आपके घर में
लेने जाऊं तो
कामना हो, या
कुछ देने आऊं
तो करुणा हो।
तीसरा आपके घर
आने का कोई
अर्थ नहीं, कोई कारण
नहीं, कोई
प्रयोजन नहीं
है।
कामना
से जितने जन्म
होंगे वह सब
परतंत्र होंगे।
क्योंकि आप
मांगने के
संबंध में
स्वतंत्र कभी
भी नहीं हो
सकते।
भिखमंगा कैसे
स्वतंत्र हो
सकता है? भिखमंगे
के स्वतंत्र
होने का कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि सारी
स्वतंत्रता
देनेवाले पर
निर्भर है, लेनेवाले पर
क्या निर्भर
हो सकता है।
लेकिन
देनेवाला
स्वतंत्र हो
सकता है। तुम
न भी लो, तो भी
दे सकता है? लेकिन तुम न
दो, तो ले
नहीं सकता।
महावीर
और बुद्ध का
जो सारा का
सारा दान है
वह हमने लिया, यह
जरूरी नहीं है।
वह दिया
उन्होंने, इतना
निश्रित है।
लेना, अनिवार्य
रूप से नहीं
निकलता, लेकिन
दिया
उन्होंने
अवश्य। जो
मिला, उसे
बांटने की
इच्छा
स्वाभाविक है,
पर वह भी
अंतिम इच्छा
है। इसलिए
उसको भी बंध
कहा है, जो
जानते हैं
उन्होंने
उसको भी कर्म—बंध
ही कहा है। वह
भी बंधन है, आखिरी।
लेकिन
आना तो मुझे
आपके घर तक
पडेगा हीं—चाहे
मैं मांगने
आऊं,
चाहे देने
आऊं। आपके घर
से बंधा तो
रहूंगा ही।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है
कि आपके घर से
न भी बंधा
रहूं पर आना
तो पड़ेगा ही
आपके घर तक।
और बडी जो
कठिनाई है वह
यह है कि
चूंकि आपके घर
सदा
मांगनेवाले
ही आते हैं और
आप भी सदा
कहीं मांगने
ही गए हैं, इसलिए
जो देने आएगा
उसके समझने की
कठिनाई स्वाभाविक
है। और यह भी
मैं आपसे कहूं
कि इसलिए एक
बहुत जटिल चीज
पैदा हुई है।
चूंकि आप देने
को समझ ही
नहीं सकते, इसलिए बहुत
बार ऐसे आदमी
को आपसे लेने
का भी ढोंग
करना पड़ा।
आपके लिए यह
बात बिलकुल ही
समझ के परे है
कि कोई आदमी
आपके घर देने
आया हो, तो
वह आपके घर
रोटी मांगने आ
गया
इसलिए
महावीर के
सारे उपदेश जो
हैं,
वह किसी घर
में भोजन
मांगने के बाद
दिए गए उपदेश
है—वह सिर्फ
धन्यवाद है।
आपने जो भोजन
दिया उसके लिए
धन्यवाद है।
अगर महावीर
भोजन मांगने
आए तो आपकी
समझ में आ जाता
है। वह पीछे
धन्यवाद देने
में दो शब्द
कहकर चले जाते
हैं। आप इसी
प्रसन्नता
में होते हैं
कि रोटी हमने
दी है, बड़ा
काम किया।
करुणा में आप
इसको भी न समझ
पाएंगे, क्योंकि
करुणा की
दृष्टि को यह
भी देखना पड़ता
है कि आप ले भी
सकेंगे? और
अगर आपको देने
का कोई भी
उपाय न किया
जाए तो आपका
अहंकार इतनी
कठिनाई पाएगा
कि बिलकुल न ले
सकेगा।
इसलिए
यह अकारण नहीं
है कि महावीर
और बुद्ध
भिक्षा
मांगते हैं।
यह अकारण नहीं
है। क्योंकि
आप उस आदमी को
बरदाश्त ही
नहीं कर सकते
जो सिर्फ दिए
चला जाए। आप
उसके दुश्मन
हो जाएंगे। आप
उसके बिलकुल
दुश्मन हो
जाएंगे। यह
बहुत उल्टा
लगेगा देखने
में कि जो
आदमी आपको दिए
ही चला जाए, आप
उसके दुश्मन हो
जाएंगे, क्योंकि
वह आपको देने का
कोई मौका ही
नहीं दे रहा है।
आपसे वह कुछ मांगता
ही नहीं है।
तो कठिनाई हो
जाती है।
इसलिए
वे छोटी—मोटी
चीजें आपसे
मांग लेते हैं।
कभी भोजन मांग
गया,
कभी उसने
कहा कि चीवर नही
है, कभी
उसने कहा कि
ठहरने की जगह नही
है। उसने आपसे
कुछ मांग लिया,
आप देकर
निश्रित हो गए।
आप बराबर हो गए।
लेवल हेन्डेड।
बराबर हाथ आ
गया। आपने कुछ
दिया। बल्कि सदा
आपने यही जाना
कि आपने तो कुछ
ज्यादा दिया,
उसने तो कुछ
भी नहीं दिया,
बस दो शब्द कहे।
हमने तो एक मकान
दे दिया, हमने
एक दुकान दे
दी या हमने एक
थैली भेंट कर
दी—हमने कुछ
दिया! उसने क्या
दिया, उसने
दो बातें कह
दीं। बुद्ध ने
तो अपने—अपने
संन्यासी को
भिक्षु ही नाम
दे दिया कि तू भिक्षु
के साथ ही चल, तू भिखारी होकर
ही दे सकेगा, तुझे देना
है। ढंग तू
रखना मांगने
का, और
देने का
इंतजाम करना।
करुणा
की अपनी कठिनाइयां
हैं और उस तल
पर जीने वाले
आदमी की बड़ी
मुसीबतें हैं।
उसकी
मुसीबतें हम
समझ ही नहीं
सकते। वह ऐसे
लोगों के बीच
जी रहा है जो न
उसकी भाषा समझ
सकते हैं, जो
सदा ही उसे
मिसअंडरस्टैड
करेंगे, जो
उसे कभी समझ
ही नहीं सकते।
यह
अनिवार्यता
है। इसमें
उसको कोई
हैरानी नहीं
होती। जब आप
उसे गलत समझते
हैं तब कोई
हैरानी नहीं होती
है, क्योंकि
स्वाभाविक है यह,
यह होगा ही।
आप अपनी जगह
सेही तो
अनुमान
लगाएंगे। तो
जिन लोगों के
जीवन में, पिछले
जन्मों में
अगर बहुत
ज्यादा
बांटने की
क्षमता का
विकास न हुआ
हो, तो वह
ज्ञान होते ही
तत्काल तिरोहित
हो जाता है।
दूसरा जन्म
उसका नहीं
बनता।
इस
संबंध में यह
भी समझ लेने
जैसा है कि
बुद्ध और
महावीर और इन
सबका
सम्राटों के
घर में पैदा
होना एक और
गहरे अर्थ से
जुड़ा हुआ है।
जैनों ने तो
स्पष्ट धारणा
बना रखी थी कि
तीर्थंकर का
जो जन्म हो, वह
सम्राट के घर
में ही हो। और
मैंने पीछे
बात भी की है
कि महावीर का
गर्भ तो हुआ
था एक
ब्राह्मणी के
गर्भ में, लेकिन
कथा है कि
देवताओं ने उस
गर्भ को
निकालकर
क्षत्रिय के
गर्भ में
पहुंचाया।
उसे बदला।
क्योंकि
तीर्थंकर को
सम्राट के घर
में ही पैदा
होना है। कारण?
यह सिर्फ
इसलिए है कि
सम्राट के
द्वार पर पैदा
होकर अगर वह
भिखारी हो जाए
तो लोगों पर
अधिक
प्रभावशाली
होगा। लोग
ज्यादा समझ
सकेंगे उसे, क्योंकि
सम्राट से
उनकी सदा ही
लेने की आदत
रही है। शायद
उस आदत की वजह
से थोडा—सा जो
यह देने आया
है, वह भी
इसे ले सकेंगे।
सम्राट
की तरफ सदा ही
ऊपर देखने की
आदत रही है।
वह सड़क पर भीख
मांगने भी खड़ा
हो जाएगा तो
बिलकुल ही उसे
नीचे नहीं देखेंगे, वह
पुरानी आदत
थोड़ा सहारा देगी।
इसलिए यह टेक्रिकल
है, तकनीकी
खयाल था वह।
क्योंकि उसे
उस घर से ही
पैदा करके
लाना चाहिए।
और चूंकि
चुनाव उसके
हाथ में था
इसलिए इसमें
कठिनाई न थी।
चुना जा सकता
था।
इन
सारे लोगों का, महावीर
या बुद्ध का, सारा जान
पिछले जन्म का
है। वह सारा
का सारा इस
जन्म में
बंटता है।
पूछा जा सकता है
कि यह ज्ञान
अगर पिछले जन्म
का है तो महावीर
और बुद्ध इस जन्म
में भी साधना
करते हुए दिखायी
पड़ते है। इससे
ही सारी भांति
पैदा हुई है। क्योंकि
महावीर फिर साधना
क्यों करते है,
बुद्ध
साधना क्यों
करते हैं? कृष्ण
ने ऐसी कोई
साधना नहीं की;
महावीर और
बुद्ध ने साधना
की। यह साधना
सत्य को पाने
के लिए नहीं
है। सत्य तो
पा लिया गया
है, लेकिन
उस सत्य को
बांटना, पाने
से कोई कम
कठिन बात नहीं
है। थोड़ा
ज्यादा ही
कठिन है। और
अगर एक
विशिष्ट तरह
के सत्य देने
हों तो बात और
कठिन होती है।
जैसे कि कृष्ण
का सत्य जो है,
वह विशेष
तरह का नहीं
है। कृष्ण का
सत्य बिलकुल
निर्विशेष है।
इसलिए कृष्ण
जैसी जिंदगी
में हैं, वहीं
से उसको देने
की कोशिश में
सफल हो सके।
महावीर
और बुद्ध के
सत्य बहुत ही
स्पेशलाइज्ड
हैं। वह जिस
मार्ग की बात
कर रहे. हैं, वह
मार्ग बहुत ही
विशिष्ट है।
और वह मार्ग
इस भांति
विशिष्ट है कि
अगर महावीर
किसी से कहें
कि तू तीस दिन
उपवास कर ले
और उसे पता हो
कि महावीर ने
कभी उपवास
नहीं किया, वह सुनने के
लिए राजी नहीं
हो सकता। वह
यह सुनने के
लिए राजी ही
नहीं हो सकता।
महावीर को
बारह साल लंबे
उपवास, सिर्फ
जिनको उन्हें
कहना है, उनके
लिए करने पड़े
हैं। अन्यथा
इनको उपवास की
बात ही नहीं
कही जा सकती।
महावीर को
बारह वर्ष मौन
उनके लिए रहना
पड़ा है जिनको
बारह दिन मौन
रखवाना हो।
नहीं तो
महावीर की बात
ये सुननेवाले
नहीं ??
बुद्ध
की तो और भी एक
मजेदार घटना
है। बुद्ध एक
बिलकुल नयी
साधना—परंपरा
को शुरू कर
रहे थे, महावीर
कोई नयी साधना—परंपरा
को शुरू नहीं
कर रहे थे।
महावीर के पास
तो पूर्ण
विकसित
विज्ञान था एक,
जिसमें वे
अंतिम थे, प्रथम
नहीं।
शिक्षकों की
एक लंबी
परंपरा थी, बड़ी शानदार
परंपरा थी। यह
बहुत
सुशृखलित
परंपरा थी, जिसमें
शृंखला इतनी
साफ थी जो कभी
नहीं खोई।
जिसमें
परंपरा से जो
मिली हुई
धरोहर थी वह
कभी भी खोई
नहीं। महावीर
तक तो वह इतनी
ही
सातत्यपूर्ण
थी कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं। इसलिए
महावीर को कोई
नया सत्य नहीं
देना था। एक
सत्य देना था
जो चिरपोषित
था, और चिर
परंपरा से
जिसके लिए बल
था। परंतु
महावीर को
अपना
व्यक्तित्व
तो खड़ा करना
ही था कि जिस
व्यक्तित्व
से लोग उन्हें
सुन सकें।
नहीं तो लोग
सुन नहीं
सकेंगे। यह मजे
की बात है कि
जैनों ने
महावीर को सर्वाधिक
याद रखा और
बाकी तेईस को सर्वाधिक
भूल गए। यह भी
बहुत आत्मर्यजनक
है, क्योंकि
महावीर आखिरी
है। न तो
पायोनियर है,
न तो प्रथम
हैं। न ही कोई
नया अनुदान है
महावीर का। जो
जाना हुआ था, बिलकुल परखा
हुआ था, उसको
ही प्रकट किया
है। फिर भी
महावीर सर्वाधिक
याद रहे और
बाकी तेईस
बिलकुल ही
पौराणिक जैसे
हो गए, माइथोलाजिकल
हो गए। और अगर
महावीर न होते
तो तेईस का
आपको नाम भी पता
न होता। उसका
गहरा कारण, महावीर ने
जो बारह साल
अपने
व्यक्तित्व
को निर्मित
करने का
प्रयास किया,
वह है। अन्य
तीर्थंकरों
ने
व्यक्तित्व
निर्माण नहीं
किया था। ये
अपनी साधना
संभाल रहे थे।
महावीर
का बहुत
व्यवस्थित
उपक्रम था।
साधना में कभी
व्यवस्थित
उपक्रम नहीं
होता। महावीर
के लिए साधना
का एक अभिनय
था,
जिसको
उन्होंने
बहुत सुचारु
रूप से पूरा
किया। इसलिए
महावीर की
प्रतिभा
जितनी निखरकर
प्रकट हुई
उतनी बाकी
तेईस की नहीं
निखरी। वे सब
फीके हो गए।
महावीर ने
बिलकुल
कलाकार की तरह
व्यक्तित्व को
खड़ा किया। शुनियोजित
था मामला।
क्या उन्हें
करना है इस
व्यक्तित्व
से, उसकी
पूरी तैयारी
थी। उस पूरी
तैयारी के साथ
वह प्रकट हुए।
बुद्ध
पहले थे इस
अर्थ में, कि
वह एक नया
सूत्र साधना
का लेकर आए।
इसलिए बुद्ध
को एक दूसरे
ढंग से गुजरना
पड़ा। यह बहुत
मजे की बात है,
और उससे
भ्रांति पैदा
हुई कि बुद्ध
साधना कर रहे
हैं। बुद्ध को
भी पहले ही
जन्म में
अनुभव हो चुका
है। इस जन्म
में उन्हें
अनुभव बांटना
है। लेकिन
बुद्ध के पास
कोई सुनियोजित
परंपरा नहीं
है। बुद्ध की
खोज एकदम निजी,
वैयक्तिक
खोज है।
उन्होंने एक
नया मार्ग
तोड़ा है। उसी
पहाड़ पर एक
नयी पगडंडी
तोड़ी है, जिस
पर राजपथ भी
है।
महावीर
के पास बिलकुल
राजपथ है।
जिसकी चाहे
उदघोषणा करनी
हो,
जिसे चाहे
लोग भूल गए
हों, लेकिन
जो बिलकुल
तैयार है।
परंतु बुद्ध
को एक रास्ता
तोड़ना है
इसलिए बुद्ध
ने एक दूसरी
तरह की
व्यवस्था की,
इस जन्म में।
पहले सब तरह
की साधनाओं
में वे गए। और
प्रत्येक
साधना से
गुजरकर
उन्होंने कहा,
बेकार है।
यह मजे की
घटना है। हर
तरह की साधना
में गये और
कहा कि बेकार
है इससे कोई
कहीं नहीं
पहुंचता। और
अंत में अपनी
साधना की
घोषणा की कि
इससे मैं
पहुंचा हूं और
इससे पहुंचा
जा सकता है।
यह
बहुत ही, जिसको
कहना चाहिए
मैनेल्ड थी
बात, बहुत
व्यवस्थित थी।
जिसको भी नयी
साधना की
घोषणा करनी हो
उसे पुरानी
साधनाओं को
गलत कहना ही पड़ेगा।
और अगर बुद्ध
बिना गुजरे
कहते गलत, जैसा
कि कृष्णमूर्ति
कहते हैं, तो
इतना ही
परिणाम होता
जितना
कृष्णमूर्ति
का हो रहा है।
क्योंकि जिस
बात से आप
गुजरे नहीं है,
उसको आप गलत
कहने के भी
हकदार नहीं रह
जाते।
अभी
कोई यहां से
गया होगा
कृष्णमूर्ति
के पास, उसने
कुंडलिनी के
लिए पूछा होगा,
उन्होंने
कहा, सब
बेकार है। तो
मैंने उससे
कहा कि
तुम्हें उनसे
पूछना था कि
आप अनुभव से
कह रहे हैं या
बिना अनुभव से?
कुंडलिनी
के प्रयोग से
आप गुजरे हैं,
या बिना
गुजरे कह रहे
हैं? अगर
बिना गुजरे कह
रहे हैं तो
बिलकुल बेकार
बात कह रहे
हैं। अगर
गुजरकर कह रहे
हैं तब तो दो
सवाल पूछने चाहिए,
कि गुजरने
में आप सफल
हुए हैं कि
असफल होकर कह रहे
हैं? अगर
सफल हुए हैं, तो नानसेंस
कहना गलत है।
अगर असफल हुए
हैं तो ऐसा
मान लेना
जरूरी नहीं है
कि आप असफल
हुए हैं इसलिए
और लोग भी
असफल हो जाएंगे।
तो बुद्ध को
सारी साधनाओं
से गुजरकर
लोगों को दिखा
देना पड़ा कि
यह भी गलत है, यह भी गलत है,
यह भी गलत
है। इससे कोई
कहीं नहीं
पहुंचता। अब
जिससे मैं
पहुंचा हूं वह
मैं तुमसे
कहता हूं।
महावीर ने
उन्हीं
साधनाओं से
गुजरकर घोषणा
की है कि यह
सही है, परंपरा
से तैयार है।
बुद्ध ने
घोषणा की कि
वह सब गलत है, और एक नयी
दिशा खोजी।
मगर ये दोनों
ही व्यक्ति
पिछले जन्मों
से उपलब्ध हैं।
कृष्ण
भी पिछले जन्म
से उपलब्ध हैं।
लेकिन कृष्ण
कोई विशेष
मार्ग साधना
का नहीं दे
रहे हैं।
कृष्ण जीवन को
ही साधना
बनाने का
मार्ग दे रहे
है। इसलिए
किसी तपश्चर्या
में जाने की
उन्हें कोई
जरूरत नहीं
रही बल्कि वह
बाधा बनेगी।
अगर महावीर यह
कहें कि दुकान
पर बैठकर भी
मोक्ष मिल
सकता तो
महावीर का खुद
का
व्यक्तित्व बाधा
बन जाएगा।
महावीर से लोग
पूछेंगे कि
फिर तुमने
क्यों छोड़
दिया? कृष्ण
अगर जंगल
तपश्चर्या
करने जाएं और
फिर युद्ध के
मैदान पर खड़े
होकर कहें कि
युद्ध में भी
मिल सकता है, तो फिर बात
नहीं सुनी जा
सकती। फिर तो
अर्जुन भी
कहता कि क्यों
धोखा देते है मुझे।
आप खुद जंगल
में जाते हो
और मुझे जंगल
जाने नहीं
देते।
तो
यह प्रत्येक
शिक्षक के ऊपर
निर्भर करता
है कि वह क्या
देनेवाला है? इसके
अनुकूल उसको
सारी जिंदगी
खड़ी करनी पड़ेगी।
बहुत बार उसे
ऐसी
व्यवस्थाएं
जिंदगी में
करनी पड़ेगी जो
कि बिलकुल ही
आर्टिफीशियल
हैं। मगर जो
उसे देना है
उसे देने के
लिए उनके बिना
मुश्किल है।
वह नहीं दिया
जा सकता।
अब
इसमें मेरे
बाबत पूछते है, जो
थोड़ा कठिन है।
मुझे सरल पड़ता
है बुद्ध या
कृष्ण या
महावीर की बात
पूछने में। दो
तीन बातें
खयाल में
लेकिन ली जा
सकती हैं। एक
तो पिछला जन्म
कोई सात सौ
साल के फासले
पर है। इसलिए
बहुत कठिनाई
भी है। महावीर
का पिछला जन्म
केवल ढाई सौ
साल के फासले
पर है। बुद्ध
का पिछला जन्म
केवल अठहत्तर
साल के फासले
पर है। बुद्ध
के तो इस जन्म
में वे लोग भी
मौजूद थे जो पिछले
जन्म की गवाही
दे सके।
महावीर के
जन्म में भी
इस तरह के लोग
मौजूद थे जो
अपने पिछले
जन्मों में
महावीर के
जन्म का स्मरण
कर सके।
कृष्ण
का जन्म कोई
दो हजार साल
बाद हुआ इसलिए
कृष्ण ने
जितने नाम लिए
है वह सब नाम
अति प्राचीन हैं।
और उनका कोई
स्मरण नहीं
जुटाया जा
सकता। सात सौ
साल लंबा
फासला है। जो
व्यक्ति सात
सौ साल बाद
पैदा होता है, उसके
लिए लंबा
फासला नहीं है।
क्योंकि जब हम
शरीर के बाहर
हैं तब एक
क्षण और सात
सौ साल में
कोई फर्क नहीं
है। क्योंकि
टाइम स्केल
हमारा शरीर के
साथ शुरू होता
है। शरीर के
बाहर कोई अंतर
नहीं पड़ता कि
आप सात सौ साल
रहे हैं या
सात हजार साल
रहे हैं।
लेकिन शरीर
में आते ही
अंतर पड़ता है।
और
यह भी बड़े मजे
की बात है कि
यह जो पता
लगाने का उपाय
है कि एक
व्यक्ति का, जैसे
अपना ही मैं
कहता हूं कि
मै सात सौ साल
नहीं था, तो
इस सात सौ साल
का मुझे कैसे
पता लगेगा? यह भी सीधा
पता लगाना
बहुत कठिन है।
यह भी मैं उन
लोगों की तरफ
देखकर पता लगा
सकता हूं जो
इस बीच में कई
दफा जन्मे।
समझिए कि एक
व्यक्ति मुझ
से सात सौ साल
पहले परिचित
था मेरे पिछले
जन्म में। बीच
में मेरा तो
गैप है, लेकिन
वह दस दफा
जन्म ले चुका।
और उसके दस
जन्मों की
स्मृतियों का
संग्रह है।
उसी संग्रह से
मैं हिसाब लगा
सकता हूं कि
मैं बीच में
कितनी देर
तिरोहित था।
नहीं तो नहीं
हिसाब लगा
सकता। हिसाब
लगाना कठिन हो
जाता है।
क्योंकि
हमारा जो टाइम
स्केल है, जो
नाप का हमारा
पैमाना है, वह शरीर के
पार का जो
टाइम है उसका
नहीं है; शरीर
के इस तरफ जो
टाइम है उसका
है।
करीब—करीब
ऐसा है, जैसे
मेरी एक क्षण
को झपकी लग
जाए, मैं
सो जाऊं और एक
सपना देखूं।
और सपने में
देखूं कि
वर्षों बीत
गये—ऐसा सपना
देखूं और क्षण
बाद आप मुझे
उठा दें और
कहें कि आपको
झपकी लग गयी।
तब मैं आपसे
पूछूं कि
कितना समय
गुजरा और आप कहें
कि क्षणभर
नहीं बीता
होगा। मैं
कहूं कि यह
कैसे हो सकता
है? क्योंकि
मैंने तो
वर्षों लंबा
सपना देखा है।
सपने में, एक
क्षण में
वर्षों लंबा
सपना देखा जा
सकता है। टाइम
स्केल अलग है।
और सपने से
लौटकर अगर उस
आदमी को इस
जगत में कोई
भी उपाय न
मिले जानने का
कि मैं कब
सोया था, तो
पता लगाना
मुश्किल है, वह कितनी
देर सोया। वह
तो यहां जो
घड़ी रखी है वह
बताती है कि
जब मैं जाग
रहा था तब
बारह बजे थे
और अभी सोकर
उठा हूं तो
बारह बजकर एक
ही मिनट हुआ।
वह आपकी तरफ
देखता है। आप
अभी यहीं बैठे
हैं तो ही पता
लगता है, अन्यथा
पता नहीं लगता।
यों सात सौ
साल का पार
होना जाना गया
है।
और
दूसरी बात
आपने पूछी कि
क्या मैं पूरे
ज्ञान को लेकर
पैदा हुआ? तो
इसमें दो
बातें समझनी
पड़ेगी जो थोड़ी
भिन्न हैं।
कहना
चाहिए करीब—करीब
पूरे शान को
लेकर पैदा हुआ।
करीब—करीब
इसलिए कहता
हूं कि जानकर
कुछ चीजें बचा
ली हैं। जानकर
भी बचायी जा
सकती है। इस
संबंध में भी
जैनों का
हिसाब बहुत वैज्ञानिक
है। जैनों ने
ज्ञान के चौदह
हिस्से तोड़
दिए है। तेरह
इस जगत में, और
चौदहवां अंदर
चला जाएगा।
तेरह गुण—स्थान
कहते हैं उनको।
तेरह लेयर्स
हैं—इनमें कुछ
ऐसे गुण—स्थान
हैं जिनकी
छलांग लगायी
जा सकती है, जिनसे बचकर
निकला जा सकता
है। जिन्हें
छोड़ा जा सकता
है, जो
आप्शनल हैं।
जरूरी
नहीं है कि
उनसे गुजरा
जाए। उनको पार
किया जा सकता
है। लेकिन
उनको पार
करनेवाला
व्यक्ति
तीर्थंकरबंध
को कभी उपलब्ध
नहीं हो सकता।
वह जो आपानल
है,
शिक्षक को
तो वह भी
जानना चाहिये
जो अनिवार्य है
वह साधक के
लिए तो
पर्याप्त है,
लेकिन
शिक्षक के लिए
पर्याप्त
नहीं है।
वैकल्पिक भी
जानना पड़ता है।
इन तेरह में
कुछ गुण—स्थान
वैकल्पिक हैं।
ऐसी कुछ जान
की दिशाएं है
जो कि सिद्ध
के लिए आवश्यक
नहीं हैं, वह
सीधा मोक्ष जा
सकता है।
लेकिन शिक्षक
के लिए जरूरी
हैं।
दूसरी
बात,
इसमें एक
सीमा के बाद, जैसे
बारहवें
गुणस्थान के
बाद, वह जो
दो शेष
अवस्थाएं रह
जाती हैं उनको
लंबाया जा
सकता है। उनको
एक जन्म में
पूरा किया जा
सकता है, दो
जन्म में पूरा
किया जा सकता
है, तीन
जन्म में पूरा
किया जा सकता
है। और उनको
लंबाने का
उपयोग किया जा
सकता है।
जैसा
मैंने कहा, पूरा
ज्ञान हो जाने
के बाद... तो एक
जन्म के बाद कोई
उपाय नहीं है।
एक जन्म से
ज्यादा
सहयोगी नहीं
हो सकता
व्यक्ति।
लेकिन
बारहवें गुण—स्थान
के बाद अगर दो
गुण—स्थानों
को रोक लिया
जाए तो वह
बहुत जन्मों
तक सहयोगी हो
सकता है। और
उसे रोकने की
संभावना है।
बारहवें गुण—स्थान
पर करीब—करीब
बात पूरी हो
जाती है, लेकिन
मैं कहता हूं
करीब—करीब।
जैसे कि सब
दीवारें गिर
जाती हैं और
सिर्फ एक
पर्दा रह जाता
है, जिसके
आर—पार भी
दिखायी पड़ता
है। लेकिन फिर
भी पर्दा होता
है। जिसको
हटाकर उस तरफ
जाने की कोई
कठिनाई नहीं है।
उस तरफ जाकर
जो देखने को
मिलेगा, वह
यहां से भी
देखने को मिल
रहा है। यानी
अंतर भी नहीं
पड़ता।
इसीलिए
मैं कहता हूं
करीब—करीब। एक
कदम हटाकर उस
तरफ चला जाना
हो जाए तो एक
जन्म और लिया
जा सकता है।
लेकिन उस
पर्दे के इस
पार खड़ा रहा
जाए तो कितने
ही जन्म लिए
जा सकते हैं, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
पार जाने के
बाद एक बार से
ज्यादा इस तरफ
आने का कोई
उपाय नहीं है।
पूछा
जा सकता है कि
महावीर और
बुद्ध को भी
यह खयाल था? यह
सबको साफ रहा
है। फिर इसका
तो और उपयोग
किया जा सकता
था। लेकिन
बहुत
स्थितियों
में बुनियादी
फर्क है। यह
बड़े मजे की
बात है कि परम
जान को उपलब्ध
होने के बाद
केवल बहुत ही
एडवांस्ट
साधकों पर उपयोग
किया जा सकता
है उसके शान
का, और कोई
उपयोग किया
नहीं जा सकता।
जिन लोगों पर
बुद्ध और
महावीर काम कर
रहे थे जन्मों
से, जो
उनके साथ चल
रहे थे बहुत
रूपों में, उनके लिए एक
जन्म काफी था।
कई
बार तो ऐसा
हुआ कि एक
जन्म भी जरूरी
नहीं रहा। इस
जन्म में अगर
शान हो गया
बीस साल की
उम्र में एक
आदमी को, और
साठ साल उसको
जिंदा रहना है
तो बचे चालीस
साल में ही
यदि काम हो
सका तो बात
समाप्त हो गयी।
कोई लौटने की
जरूरत न रही।
लेकिन अब
हालतें
बिलकुल अजीब
हैं। अब जिसको
हम कह सकें
बहुत विकसित
साधक, वह न
के बराबर है।
अगर उन पर भी
काम करना हो
तो भविष्य के
शिक्षकों को
अनेक जन्मों
के लिए तैयारी
रखनी पड़ेगी।
तभी उन पर काम
किया जा सकता
है, नहीं
तो काम नहीं
किया जा सकता।
तब बात और थी
कि महावीर या
बुद्ध को, जब
भी वे छोड़ते
थे अपना आखिरी
जीवन, तब
सदा उनके पास
कुछ लोग थे
जिनको आगे का
काम सौंपा जा
सके, आज वह
हालत बिलकुल
नहीं
आज, आदमी
का पूरा का
पूरा ध्यान
बाह्यमुखी है।
और इसलिए आज
शिक्षक के लिए
ज्यादा
कठिनाई है जो
कभी भी नहीं
थी। क्योंकि
एक तो उसे
ज्यादा मेहनत
करनी पड़े, ज्यादा
अविकसित
लोगों के साथ
मेहनत करनी
पडे और हर बार
मेहनत के खो
जाने का डर है।
फिर ऐसे आदमी
मिलने मुश्किल
होते हैं
जिनको काम
सौंपा जा सके।
जैसे कि नानक
के मामले में
हुआ।
गोविंद
सिंह तक, दस
गुरुओं तक काम
सौंपनेवाला
आदमी मिलता
गया। गोविंद
सिंह को
सिलसिला तोड़
देना पड़ा।
बहुत कोशिश की।
यानी गोविंद
सिंह ने इतनी
कोशिश की इस
जमीन पर जैसी
कभी किसी को
नहीं करनी पड़ी
कि एक आदमी
मिल जाए
ग्यारहवां
सिलसिला जारी
रखने के लिए।
लेकिन एक आदमी
नहीं मिल सका।
क्लोज कर देना
पड़ा, फिर
बात खत्म हो
गयी।
ग्यारहवां
आदमी अब नहीं
होगा। क्योंकि
यह जो होना है
यह इस
कंटीन्यूटी
में ही हो
सकता है, जरा—सा
भी ब्रेक हो
तो यह नहीं हो
सकता। इसमें
जरा—सी भी
अंतराल हो जाए
तो कठिनाई है।
फिर यह नहीं
हो सकता। वह
जो दिया जाना
है वह कठिन हो
जाएगा।
बौद्ध
धर्म को
हिंदुस्तान
से चीन जाना
पड़ा,
क्योंकि
चीन में आदमी
उपलब्ध था
जिसको दिया जा
सकता था। लोग
समझते हैं कि
हिंदुस्तान
से कोई बौद्ध
धर्म का
प्रचार करने
बौद्ध भिक्षु
चीन गए, गलत
है खयाल। यह
ऊपर से जो
इतिहास को
देखते हैं
उनकी समझ है।
हुईनेन नाम का
आदमी चीन में
उपलब्ध था
जिसको कि दिया
जा सकता था।
और बड़े मजे की
बात है कि
हुईनेन आने के
लिए राजी नहीं
था। जो कठिनाई
है इस जगत की
वह बहुत अदभुत
है। हुईनेन
आने को राजी
नहीं था।
क्योंकि उसे
भी अपनी
संभावनाओं का
कोई पता नहीं
था। बौद्ध
धर्म को यहां
से यात्रा
करनी पड़ी। और
एक वक्त आया
कि चीन से भी
हटा देना पडा
और जापान में
जाकर देना पड़ा।
यह
जो सात सौ साल
का फासला रहा
कई लिहाज से
कठिनाई का है।
दो लिहाज से
कठिनाई का है—एक
तो जन्म लेने
की कठिनाई रोज
बढ़ती जाएगी।
जो भी व्यक्ति
किसी स्थिति
को उपलब्ध हो
जाएगा, उसे
जन्म खोजना
कठिन होता
जाएगा। बुद्ध
और महावीर के
वक्त कोई
कठिनाई नहीं
थी। रोज ऐसे
गर्भ उपलब्ध
थे। जहां ऐसे
व्यक्ति पैदा
होते थे।
खुद
महावीर के
वक्त में आठ
परम ज्ञानी
हुए थे बिहार
में,
ठीक महावीर
की स्थिति के।
अलग—अलग आठ
मार्गों से वे
काम कर रहे थे।
निकटतम
स्थिति के तो
हजारों लोग थे।
थोड़े बहुत
नहीं थे, हजारों
लोग थे जिनको
काम कभी भी
सौंपा जा सकता
था। जो
संभालेंगे, आगे बढ़ा
देंगे।
आज
तो किसी को
जन्म लेना हो, तो
आगे और हजारों
साल प्रतीक्षा
करनी पड़े तब
वह दूसरा जन्म
ले सके। इस
बीच उसने जो
काम किया था
वह सब खो जाता
है। इस बीच
जिन आदमियों
पर काम किया
था उनके दस जन्म
हो जाएंगे, दस जन्मों
की पते उनके
ऊपर हो जाएंगी,
जिनको
काटना कठिन हो
जाएगा।
अब
तो किसी भी
शिक्षक को
पर्दे के पार
होने में काफी
समय लेना
पड़ेगा। उसे
अपने को रोकना
पड़ेगा। और अगर
कोई पर्दे के
पार हो गया तो
वह दूसरा जन्म
लेने को, आगे
एक भी जन्म
चुनने को राजी
नहीं होगा क्योंकि
वह बेकार है।
उसका कारण है।
एकजन्म भी लेना
बेकार है। क्योंकि
किसके लिए लेना
है? उस एक
में अब काम
नहीं हो सकता।
यानी
मुझे पता हो
कि इस कमरे
में आकर
घंटेभर में
काम हो जाएगा
तो आने का
मतलब है। और
अगर काम हो ही नहीं
सकता तो उचित
नहीं है। उचित
एक कारण से और नहीं
है। करुणा इस संबंध
में दोहरे
अर्थ रखती है।
एक तो आपको जो देना
है,
वह भी करुणा
चाहती है।
लेकिन वह यह
भी जानती है कि
अगर सिर्फ
आपसे कुछ छीन लिया
जाए और दिया न जा
सके तो आपको
और खतरे में डाल
दे। आपका खतरा
कम नही होता, बढ़ जाता है।
अगर मै आपको
कुछ दिखा सकता
हूं तो दिखा दूं
यदि न दिखा
सकूं, और
आपको जो
दिखायी पड़ता
था उसमें भी
आप अंधे हो
जाएं तो और
कठिनाई हो
जाती है।
इस
सात सौ साल
में दो तीन
बातें और खयाल
में लेनी
चाहिए। पहली
तो यह कि कभी
मेरे खयाल में
नहीं था कि उसकी
बात उठेगी, लेकिन
अभी अचानक
पूना में बात
उठ गयी। मेरी
मां आयी होगी,
उसको
रामलाल
पुंगलिया ने
पूछा होगा कि
मेरे बारे में
पहले से पहला
उनको कोई
अनुभव ध्यान में
हो तो मुझे
बता दें। मैं
तो सोचता था
कि उसकी बात
कभी उठने—उठाने
की संभावना ही
नहीं होगी। और
मुझे पता ही
नहीं था कि कब
उनकी बात हुई।
अभी उन्होंने
मीटिंग में
इसको जाहिर
किया। मेरी
मां ने उनको
कहा कि मैं
तीन दिन तक
रोया नही। और
तीन दिन तक मैंने
दूध नहीं पिया।
यह उनको, मेरा
पहला स्मरण है।
और यह ठीक
सात
सौ वर्ष पहले, पिछला
जो मेरा जन्म
था, उसमें मरने
के पहले
इक्कीस दिन के
एक अनुष्ठान की
व्यवस्था थी।
इक्कीस दिन
पूर्ण उपवास
करके मैं वह
शरीर छोड़
दूंगा। उससे कुछ
प्रयोजन थे।
लेकिन वह इकीस
दिन पूरे नहीं
हो सके। तीन दिन
बाकी रह गए।
वे तीन दिन इस
बार, इस
जन्म में पूरे
करने पड़े। वह
कंटीन्युटी
है वहां से।
वहां बीच का
समय नहीं अर्थ
रखता कोई भी।
तीन दिन पहले हत्या
ही कर दी गयी पिछले
जन्म में।
इक्कीस दिन पूरे
नहीं हो सके, तीन दिन पहले
हत्या कर दी गयी
और वह तीन दिन छूट
गए। वह तीन दिन
इस जन्म में पूरे
हुए। वह
इक्कीस दिन
अगर पूरे हो
जाते उस जन्म
में, तो
शायद आगे एक जन्म
से दूसरा जन्म
लेना कठिन हो
जाता। अब
इसमें बहुत—सी
बातें खयाल
में ले लेने
जैसी हैं।
उस
पर्दे के पास
खड़े होना और
पार न होना
बड़ा कठिन है।
उस पर्दे से देखना
और पर्दे को न
उठा लेना बहुत
कठिन है। यह
कब उठ जाता है
इसका ठीक होश
रखना भी कठिन
है। उस पर्दे
के पास खड़े
रहना और पर्दे
को न उठाना करीब—करीब
असंभव मामला है।
वह संभव हो सका, क्योंकि
तीन दिन पहले हत्या
कर दी गयी।
इसलिएनिरंतरइधरमैंनेबहुतबारकईसिलसिलोंमेंकहाहैकिजैसेजीससकीहत्याकेलिएजुदास
की कोशिश रही।
जीसस से
दुश्मनी नहीं
है कास की।
तो
जिस आदमी ने मेरी
हत्या कर दी उस
में भी दुश्मनी
नहीं है। हालांकि
वह दुश्मन की तरह
ही लिया गया।
दुश्मन की तरह
ही लिया जाएगा।
वह हत्या
कीमती हो गयी।
वह तीन दिन
चूक गए मृत्यु
के क्षण में।
उस जीवन की
पूरी साधना के
बाद वह तीन
दिन जो कर
सकते थे, इस
जन्म में इकीस
वर्षो में हो पाया।
एक—एक दिन के
लिए सात—सात
वर्ष चुकाने
पड़े।
इसलिए
मैं कहता हू कि
उस जन्म से पूरा
ज्ञान लेकर मैं
नही आया, कहता हूं
करीब—करीब!
पर्दा उठ सकता
था, लेकिन
तब एक जन्म
होता, अभी
एक जन्म और ले
सकता हूं। अभी
एक जन्म की
संभावना और है।
लेकिन वह इस
पर निर्भर
करेगा कि मुझे
लगे, कि
कुछ उपयोग हो
सकेगा कि नहीं।
इस जन्मभर
पूरी मेहनत
करके देख लेने
से पता लगेगा
कि कुछ उपयोग
हो सकता है तो
ठीक है, अन्यथा
वह बात समाप्त
हो जाती है।
उसका कोई
प्रयोजन नहीं।
हत्या उपयोगी
हो गयी। 1
जैसा
मैने कहा कि
समय का स्केल
बदलता है, वैसा
चित्त की
दशाओं में भी
समय का स्केल
भिन्न होता है।
जन्म के वक्त,
समय बहुत
मंद गति होता
है। मृत्यु के
वक्त बहुत
तीव्र गति
होता है। समय
की गति का
हमें कभी कोई
खयाल नहीं, क्योंकि हम
तो समझते हैं
कि समय की कोई
गति नहीं होती।
हम तो समझते
हैं कि समय
में सब गति
होती है। अभी
तक बड़े—से—बड़े
वैज्ञानिक को
भी समय में भी
गति होती है, टाइम
वैलोसिटी भी
है। इसका कोई
खयाल नहीं है।
और इसलिए खयाल
नहीं है कि
टाइम
वैलोसिटी अगर
हम बना लें, समय की गति
बना लें, तो
बाकी गति को
नापना
मुश्किल हो
जाएगा।
समय
को हमने स्थिर
रखा है। हम
कहते हैं कि
एक घंटे में
तीन मील चला, लेकिन
अगर घंटा भी
तीन मील में
कुछ चला हो तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
हमने घंटे को
स्थिर किया है।
उसको हमने
स्टेटिक मान
लिया। उसको
हमने स्थिर कर
लिया है कि यह
तय है। नहीं
तो सब अस्त—व्यस्त
हो जाएगा। तो
समय को हमने
स्टेटिक बनाया
हुआ है। यह बडे
मजे की बात है कि
समय ही सबसे
ज्यादा नान—स्टेटिक
है, समय सबसे
ज्यादा तरल है
और गतिमान है।
समय
यानी
परिवर्तन!
उसको हमने बिलकुल
फिक्स्ड खड़ा
कर रखा है, खूंटे
की तरह गाड़ दिया
है। उसको गाड़ा
इसलिए है कि
हमारी सारी गतियों
को नापना
मुश्किल हो
जाएगा। यह जो
समय की गति है,
यह भी चित्त—दशा
के अनुसार कम
और ज्यादा
होती है।
बच्चे की समय
की गति बहुत
धीमी होती है,
बूढ़े की समय
की गति बहुत तीव्र
होती है, बहुत
कम्पैक्ट हो जाती
है, सिकुड जाती
है। थोड़े स्थान
में समय ज्यादा
गति करता है
बूढ़े के लिए।
बच्चे के लिए
ज्यादा स्थान
में समय बहुत
धीमी गति करता
है।
प्रत्येक
पशु के लिए भी
गति अलग—अलग
होती है। आदमी
का बच्चा चौदह
साल में जितनी
गति कर पाता
है,
कुत्ते का
बच्चा बहुत
थोड़े महीनों
में ही उतनी
गति कर लेता
है। कई पशुओं
के बच्चे और
भी जल्दी गति
कर लेते हैं।
कुछ पशुओं के
बच्चे करीब—करीब
पूरे पैदा
होते हैं।
जमीन पर
उन्होंने पैर
रखा कि उनमें,
और उनके
एडल्ट में कोई
फर्क नहीं
होता। वे पूरे
होते हैं।
इसीलिए
पशुओं को समय
का बहुत बोध
नहीं है। गति
बहुत तीव्र
होती है। इतनी
तीव्रता से हो
जाती है कि
बच्चा पैदा हुआ
घोड़े का और
चलने लगा। उसे
पता ही नहीं
चलता कि पैदा
होने और चलने
के बीच में
समय का फासला
है। आदमी के बच्चे
को समय का फासला
पता चलता है, इसलिए
आदमी समय से पीडित
प्राणी है।
समय से बहुत
परेशान है, एकदम कंपित
है। समय जा
रहा है। समय
भागा जा रहा
है।
तो
उस जन्म के
आखिरी क्षण में
तीन ही दिन में
काम हो सकता
था,
क्योंकि समय
कम्पैक्ट था।
कोई एक सौ छह
वर्ष की उम्र
थी। और समय
बिलकुल
कम्पैक्ट था।
गति तीव्रता
से हो सकती थी।
तीन दिन की
बात वह इस
जन्म के बचपन
से शुरू हुई।
वहां तो अंत
था, पर
इक्कीस वर्ष
इस जन्म में
उसको पूरा
होने में लगे।
कई बार अवसर
चूका जाए तो
एक—एक दिन के
लिए सात—सात
साल चुकाने पड़
सकते हैं। तो
इस जन्म में
पूरा लेकर
नहीं आया, करीब—करीब
पूरा लेकर आया।
लेकिन अब मेरी
सारी
व्यवस्था
मुझे अलग करनी
पड़ेगी।
मैने
कहा,
महावीर को
एक व्यवस्था
करनी पड़ी। एक
तपश्चर्या, जिसके
माध्यम से वह
दे सके। बुद्ध
को दूसरी
व्यवस्था
करनी पड़ी—स्व—स्व
तपश्चर्या को
गलत करके, एक
तपश्चर्या।
मुझे बिलकुल
व्यर्थ ही, जो महावीर—बुद्ध
को कभी नहीं
करना पड़ा, वह
करना पड़ा।
मुझे व्यर्थ
ही सारे जगत
में जो भी है, वह पढ़ना पड़ा—बिलकुल
व्यर्थ उसका
कोई प्रयोजन
नहीं।
क्योंकि आज के
जगत को अगर
कोई भी मैसेज
दी जा सकती है
तो न तो उपवास
करनेवाले की
आज के जगत को कोई
फिक्र है, न
आंखें बंद
करके बैठे
आदमी की कोई
फिक्र है। आज
के जगत को अगर
कोई भी मैसेज
जा सकती है, अगर कोई भी
तपश्चर्या जा
सकती है तो वह
आज के जगत के पास
जो एक बौद्धिक
ज्ञान का
विराट अंबार
लग गया है, उस
सबको आत्मसात
करके ही दी जा
सकती है।
दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
मैंने पूरी
जिंदगी किताब
के साथ लगायी।
और मैं आपसे
कहता हूं कि
महावीर को
तकलीफ भूखे
रहने में नहीं
हुई। क्योंकि
जिससे मुझे
लेना देना
नहीं है, उस पर
मुझे व्यर्थ
ही श्रम करना
पड़ा है। लेकिन
उस श्रम के
बाद ही आज के
युग के बात
सार्थक हो
सकती थी, अन्यथा
नहीं हो सकती।
और कोई उपाय
नहीं। आज का
युग उस बात को
ही समझ सकेगा,
अन्यथा
नहीं समझ
पाएगा।
यह
अगर खयाल में
आ जाए तो कठिन
नहीं है बहुत, कि
आपको अपने पिछले
जीवन का भी
थोड़ा— थोड़ा
खयाल आने लगे।
और मैं
चाहूंगा कि
जल्दी वह खयाल
आपको लाऊं।
क्योंकि वह
खयाल आने लगे
तो एक बड़ी समय
की और शक्ति
की बचत हो
जाती है। अकसर
यह होता है कि
आप हर बार
वहां से शुरू
करते हैं जहां
से आपने छोड़ा
नहीं था। यानी
करीब—करीब आप
हर बार अ ब स से
शुरू करते है।
अगर आपको
पिछला स्मरण आ
जाए तो आपको अ
ब स से शुरू
करना नहीं
होता है, जहां
आपने छोड़ा था
उसके आगे आप
शुरू करते है
और तब कोई गति
हो पाती है, नहीं तो गति
नहीं हो पाती।
अब
यह समझने जैसा
है। पशुओं की
कोई गति नहीं
हो पायी है।
वैज्ञानिक
बहुत परेशान
हैं कि पशु
वहीं के वहीं
रिपीट करते रहते
हैं। बंदर के
पास करीब—करीब
आदमी से थोड़ा
ही कम विकसित
मस्तिष्क है।
मगर विकास का
अंतर बहुत
भारी है, जितना
मस्तिष्क में
अंतर नहीं है।
बात क्या है? क्या कठिनाई
है? इस
वर्तुल में
बंदर आगे
क्यों नहीं
बढ़ते? वह
ठीक वहीं है
जहां दस लाख
साल पहले थे।
और अभी तक हम
सोचते थे कि
विकास हो रहा
है सब में, लेकिन
यह असंदिग्ध
है बात।
डार्विन
की यह बात
बहुत संदिग्ध
है। क्योंकि
लाखों साल से
बंदर वहीं के
वहीं हैं। वह
विकसित नहीं
हो रहा है।
गिलहरी
गिलहरी है, वह
विकसित नहीं
हो रही है। गाय
गाय है, वह
विकसित नहीं
हो रही है। तो
विकास, सिर्फ
होने से नहीं
हो रहा है, कहीं
कोई और बात
में फर्क पड़
रहा है। हर
बंदर को अपना
प्रारंभ वहीं
से करना पड़ता
है जहां उसके
बाप को करना
पड़ा है। उस
बाप ने जहां
अंत किया वहां
से बंदर
प्रारंभ नहीं
कर पाता। बाप
कम्युनिकेट
नहीं कर पाता
है, यही
सारी कठिनाई
है।
बाप
ने जहां तक
पाया अपनी
जिंदगी में, वह
अपने बेटे को
वहां से शुरू
करवा नहीं
पाता। बेटा
फिर वहीं शुरू
करता है जहां
बाप ने शुरू किया
था। फिर विकास
होगा कैसे? हर बार हर
बेटा फिर वहीं
से शुरू करता है।
एक वर्तुल है
जिसमें घूमकर
फिर वहीं से
आरंभ हो जाता
है। करीब—करीब
ऐसी स्थिति
जीवन के
आत्मिक विकास
की भी है। आप
अगर इस जन्म
को फिर वहीं
से शुरू करते
हैं जहां आपने
पिछला जन्म
शुरू किया था,
तो आप कभी
विकसित नहीं
हो पाएंगे।
आध्यात्मिक
अर्थों में
आपका कभी कोई
इवोल्यूशन
नहीं हो पाएगा।
फिर अगले जन्म
में आप वहीं
से शुरू
करेंगे जहां
से शुरू किया
था। हर बार
अंत करेंगे, हर बार शुरू
करेंगे।
शुरुआत का
बिंदु अगर वही
रहा जो पिछला
था तो कोई
अंतर नहीं
पड़ेगा।
विकास
का मतलब है, पिछला
अंतिम बिंदु
इस जन्म का पहला
बिंदु बन जाए।
नहीं तो विकास
नहीं हो सकता।
मनुष्य ने
विकास कर लिया,
क्योंकि
उसने भाषा खोज
ली कम्युनिकेट
करने को। बाप
जो कुछ जान
पाता है वह
अपने बेटे को
दे जाता है, शिक्षा दे
जाता है।
एजुकेशन का
मतलब ही इतना
कि वह बाप की
पीढी ने जो
जाना, वह
बेटे की पीढ़ी
को सौंप देगी।
बेटे को वहां
से शुरू न
करना पड़ेगा
जहां से बाप
की पीढ़ी को
करना पड़ा।
बेटा वहां से
शुरू करेगा
जहां बाप अंत
कर रहा है, तो
फिर गति हो
जाएगी। तब यह
स्पायरल जो है
सर्कुलर नहीं
होगा, स्पायरल
हो जाएगा। यह
फिर एक ही जगह
नहीं घूमेगा,
ऊपर उठने
लगेगा। यह पहाड़
की तरह ऊपर की
तरफ चढ़ने
लगेगा।
जो
मनुष्य के
विकास में सही
है,
वह एक—एक
व्यक्ति के
आध्यात्मिक
विकास में भी
सही है। आपके
और आपके पिछले
जन्म के बीच
कोई कम्युनिकेशन
नहीं है। आपने
अपने पिछले
जन्म से अभी
तक कोई बातचीत
नहीं की। आपने
कभी पूछा नहीं
कि कहां छूटा
था मैं? —वहां
से शुरू करूं,
नहीं तो
कहीं ऐसा न हो
कि फिर वही
मकान बनाऊं जहां
मैंने पहले भी
ईंटें भरी थीं,
बुनियाद
रखी थी, और
मर गया। और
फिर ईंटें
भरूं, फिर
बुनियाद रखूं
और फिर मर
जाऊं। हमेशा बुनियाद
ही भरता रहूं
तो शिखर कब
उठेगा?
इसलिए
मैंने जो यह
थोड़ी—सी पिछले
जन्म की बात
की वह इसलिए
नहीं कही कि
मेरे बाबत
आपको कुछ पता
हो,
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
वह सिर्फ इस
कारण कह दी कि
शायद उससे
आपको थोड़ा
खयाल आना शुरू
हो, पिछले
जन्म की थोड़ी
तलाश शुरू हो।
क्योंकि उसी
दिन आपके जीवन
में
आध्यात्मिक
क्रांति होगी
उत्क्रांति
होगी, जिस
दिन आप पिछले
जीवन के आगे
इस जीवन में
कदम उठाएंगे!
अन्यथा अनेक
जन्म भटक
जाएंगे और कहीं
भी नहीं
पहुंचेंगे।
वही पुनरुक्त
हो जाएगा।
पिछले
जीवन और इस
जीवन के बीच ' चाहिए।
पिछले जीवन
में जो जो
आपने पाया था
उसकी शिक्षा
अपने भीतर लें,
और अपनी
उसकी आगे कदम उठाने
की क्षमता
चाहिए। इसलिए
महावीर और
बुद्ध ने सबसे
पहले पिछले जन्मों
की विराट
चर्चा की, इसके
पहले
शिक्षकों ने
कभी नहीं की
थी।
उपनिषद
वेद के
शिक्षकों ने
जान की बात
कही थी, परम
ज्ञान की बात
कही। लेकिन
कभी भी पिछले
जन्मों के
वितान से उसको
जोड्ने की
बहुत चेष्टा नहीं
की। महावीर तक
आते आते यह
बात साफ हो
गयी। यह बहुत
साफ हो गयी कि
सिर्फ इतना
कहना काफी नहीं
है कि तुम
क्या हो सकते
हो, यह भी
बताना जरूरी
है कि तुम
क्या थे? क्योंकि
तुम जो थे, उसके
आधार के बिना
तुम वह नहीं
हो सकोगे जो
हो सकते हो।
इसलिये
महावीर और
बुद्ध का पूरा
चालीस साल का
समय लोगों को
उनके पिछले जन्म
स्मरण कराने
में बीता। और
जब तक एक आदमी
पिछला जन्म
स्मरण न कर ले
तब तक वह कहते
थे, आगे की
फिक्र मत कर।
तू पहले पीछे
की पूरी फिक्र
कर ले। साफ—साफ
उस नक्शे को
देख ले, तू
कहां तक चल
चुका है। फिर
आगे कदम रख।
अन्यथा दौड़
होगी, व्यर्थ
होगी। कहीं तू
फिर उसी
रास्ते पर
दौड़ता रहा, जिस पर तू
पहले भी दौड़
चुका है, तो
सार क्या होगा?
इसलिए
पुनर्स्मरण
अत्यंत
अनिवार्य कदम
था।
अब
आज की कठिनाई
यह है, पुनर्स्मरण
कराया जा सकता
है, पिछले
जन्मों का
स्मरण कठिन जरा
भी नहीं है।
लेकिन साहस
नाम की चीज ही
खो गयी है। और
पिछले जन्म का
स्मरण तभी
कराया जा सकता
है जब कि इस
जन्म की कैसी
ही कठिन
स्मृतियों
में भी आप
शांत रह सकते
हों, अन्यथा
नहीं करवाया
जा सकता।
क्योंकि यह तो
कुछ कठिन नहीं
है। पिछले
जन्म की
स्मृतियां
टूटेंगी तो
बहुत कठिन
होगा। और ये
स्मृतियां तो
इंस्टालमेंट
में मिलती हैं,
वह तो
इकट्ठी
मिलेंगी।
इसमें तो आज
की तकलीफ आज
झेल लेते हैं,
कल भूल जाते
हैं। कल की
तकलीफ कल झेल
लेते हैं, परसों
भूल जाते हैं।
पिछले
जन्म की
स्मृति तो
पूरी की पूरी
इकट्ठी टूट
पड़ेगी—इकट्ठी।
फ्रेग्मेन्टस
में नहीं आएगी।
वह तो पूरी की
पूरी आप के
ऊपर आ जाएगी, एक
साथ। उसको झेल
पाएंगे कि
नहीं झेल
पाएंगे? उसके
झेलने की
कसौटी तभी
मिलती है जब
इस जन्म की
सारी स्थिति
में आपको कोई तकलीफ
मालूम न पड़ती
हो। इससे कोई
पीड़ा नहीं, कोई अड़चन
नहीं होती।
कुछ भी हो जाए,
कोई अंतर
नहीं पड़ता। इस
जीवन की कोई
स्मृति आपके
लिए चिंता न
बनती हों, फिर
ही पिछले जन्म
की स्मृति में
उतारा जा सकता
है, नहीं
तो वह महाचिंता
हो जाए। और उस
महाचिंता का
द्वार तभी
खोला जा सकता
है जब झेलने
की क्षमता और
पात्रता हो।
'मैं
कहता आखन देखी'.
(अंतरंग भेट
वार्ता)
बुडलैंड
बम्बई
दिनांक 7
मार्च 1971
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