महावीर
के मौलिक
योगदान—(प्रवचन—सत्रहवां)
प्रश्न:
महावीर
के सामने
लाखों विरोधी
थे, क्या
उनके विरोध की
चिंता महावीर
को नहीं थी? अहिंसक
व्यक्ति के भी
विरोधी पैदा
होना अहिंसा
के विषय में
संदेह पैदा
करता है।
ऐसी
धारणा रही है
कि जो अहिंसक
है, पूर्ण अहिंसक
है, उसका
कोई विरोधी
पैदा नहीं
होना चाहिए।
क्योंकि
जिसके मन में
कोई द्वेष, कोई विरोध, कोई घृणा, कोई हिंसा
नहीं है उसके
प्रति किसी की
घृणा, हिंसा,
और द्वेष
क्यों पैदा हो?
ऊपर से
देखे जाने पर
यह बात बहुत
सीधी और साफ मालूम
पड़ती है।
लेकिन जीवन
ज्यादा जटिल
है और जितने
सरल सिद्धांत
होते हैं, जीवन उतना
सरल नहीं है।
सच तो यह है कि
पूर्ण अहिंसक
व्यक्ति के
जितने विरोधी
पैदा होने की संभावना
है, उतने
हिंसक के
विरोधी पैदा
होने की भी
संभावना नहीं
है। उसके कारण
हैं।
पहला
कारण तो यह है
कि हम सब
हिंसक हैं, तो हिंसक से
तो हमारा
तालमेल बैठ
जाता है। हम
सब चूंकि हिंसक
हैं, हिंसक
व्यक्ति से
हमारा तालमेल
बैठ जाता है। अहिंसक
व्यक्ति
हमारे बीच
एकदम अजनबी है,
इतना
ज्यादा अजनबी
है कि उसे
बरदाश्त करना
भी मुश्किल
है। बरदाश्त न
करने के भी
बहुत कारण हैं।
पहली
बात तो अहिंसक
व्यक्ति की
मौजूदगी में
हम इतने
ज्यादा
निंदित प्रतीत
होने लगते हैं, इतने ज्यादा
दीन-हीन, इतने
ज्यादा
क्षुद्र, निम्न
प्रतीत होने
लगते हैं कि
हम इस निंदित
होने का बदला
लिए बिना उस
व्यक्ति से
नहीं रह सकते।
हम यह बदला
लेंगे ही।
तो
पूर्ण अहिंसक
व्यक्ति
हिंसक
व्यक्तियों
के मनों में
अनजाने ही
तीव्र बदले की
भावना पैदा कर
देता है। यह
वह पैदा करता
नहीं है, यह
हमारी हिंसा
के कारण पैदा
हो जाती है।
महावीर जैसे
व्यक्ति को
अनिवार्य है
कि लाखों विरोधी
मिल जाएं।
लेकिन इससे
उनकी अहिंसा
पर संदेह नहीं
होता। इससे
उनकी अहिंसा
पर संदेह कम
होता है, इससे
खबर मिलती है
कि आदमी इतना
अजनबी था, इतना
स्ट्रेंजर था,
कि हम सब
उसे स्वीकार
नहीं कर सकते
थे। अस्वीकृति
पहली बात होने
ही वाली थी।
और जब
हम उसे
स्वीकार भी
करेंगे तो हम
उसे आदमी न
रहने देंगे, हम उसे
भगवान बना
देंगे, तब
स्वीकार
करेंगे! वह भी
अस्वीकार की
एक तरकीब है।
किसी आदमी को
भगवान बना
देना
अस्वीकार
करने की
सूक्ष्म
तरकीब है। फिर
हमने भगवान
बना कर यह कह
दिया कि हम तो
आदमी हैं, हम
आदमी जैसे
रहेंगे और
चलेंगे; वह
आदमी भगवान था,
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है! पूजा
कर सकते हैं उसकी,
लेकिन
चूंकि वह आदमी
ही नहीं था, इसलिए
आदमियों को अब
उससे क्या
लेना-देना रह
जाता है!
पहले
हम अस्वीकार
करते हैं, निंदा करते
हैं, विरोध
करते हैं; फिर
जब कोई उपाय
नहीं पाते, और उपाय
इसलिए नहीं
पाते हैं कि
अगर अहिंसक व्यक्ति
भी हिंसा पर
उतर आए तो
हमारी उसकी
भाषा एक हो
जाती है, फिर
उपाय मिल जाता
है। और अगर वह
अपनी अहिंसा पर
खड़ा ही रहे और
हमारी हिंसा
उसमें कोई भी
फर्क न कर पाए,
तो फिर हमें
कोई उपाय नहीं
मिलता। हारे,
थके, पराजित,
फिर हम उसे
भगवान बना
देते हैं! यह
दूसरी तरकीब
है, आखिरी,
जिससे हम
उसे
मनुष्य-जाति
के बाहर निकाल
देते हैं। फिर
हमें उसकी
चिंता करने की
जरूरत नहीं रह
जाती है, फिर
हम निश्चिंत
हो जाते हैं।
दूसरी
बात यह भी
समझनी जरूरी
है कि मैं
कितने ही जोर
से बोलूं और
मेरे बोलने
में कितना ही
प्रेम हो और
मेरे बोलने
में कितनी ही
बड़ी आवाज और
कितनी ही बड़ी
ताकत हो; लेकिन
जो बहरा है, उस तक मेरी
आवाज नहीं
पहुंचेगी।
यानी जब मैं बोलता
हूं तो दो
बातें हैं, मेरा बोलना
और आपका
सुनना।
अगर
बहरे तक आवाज
न पहुंचे तो
यह नहीं कहा
जा सकता कि
मैं गूंगा था।
मेरे बोलने पर
इसलिए शक नहीं
किया जा सकता
कि बहरे तक
आवाज नहीं
पहुंची, इसलिए
मैं गूंगा था।
मैं बोला ही न
होऊंगा, नहीं
तो बहरे तक
आवाज पहुंचनी
चाहिए थी।
महावीर
के अहिंसक
होने में
इसलिए शक नहीं
हो सकता कि
हिंसक
चित्तों तक
उनकी आवाज
नहीं पहुंच
पाती। बहरे
लोग हैं, बहुत-बहुत
गहरे में हम
बहरे हैं। न
हम सुनते हैं,
न हम संवेदन
करते हैं, न
हम देखते हैं।
इसी
संबंध में एक
प्रश्न और
किसी ने पूछा
है कि महावीर
के प्रेम में
क्या कुछ कमी
थी कि वे गोशालक
को समझा न पाए?
निश्चित
ही समझाने में
प्रेम काम आता
है और पूर्ण
प्रेम समझाने
की पूरी
व्यवस्था
करता है। लेकिन
इससे ही यह
सिद्ध नहीं
होता कि पूर्ण
प्रेमी समझा
ही पाएगा, क्योंकि
दूसरी तरफ
पूर्ण घृणा भी
हो सकती है, जो समझने को
राजी ही न हो।
दूसरी तरफ
पूरा बहरापन
हो सकता है, जो सुनने को
राजी ही न हो।
महावीर के
प्रेम या अहिंसा
पर इसलिए शक
नहीं हो सकता
कि वे दूसरे को
नहीं समझा पा
रहे हैं, या
दूसरे को नहीं
बदल पा रहे
हैं, या
दूसरे की
हिंसा नहीं
मिटा पा रहे
हैं। इसके तो
हजार कारण हो
सकते हैं।
महावीर
की अहिंसा की
जांच करनी हो
तो दूसरे की
तरफ से जांच
करना गलत है, सीधे महावीर
को ही देखना
उचित है। सूरज
की जांच करनी
हो तो किसी
अंधे आदमी से
माध्यम बना कर
जांच करनी गलत
है। हम अंधे
आदमी से जाकर
पूछें कि सूरज
है? और वह
कहे, नहीं
है। तो हम कह
सकते हैं, ऐसा
कैसा सूरज है,
जो एक अंधे
आदमी को भी
दिखाई नहीं पड़
पा रहा है?
अगर
कोई अंधे से
सूरज की जांच
करने जाएगा तो
सूरज के साथ
बहुत अन्याय
हो जाएगा।
सूरज की जांच
करनी हो तो
सीधा! कोई
मध्यस्थ बीच
में लेना
खतरनाक है।
क्योंकि तब
जांच अधूरी हो
जाएगी और
मध्यस्थ
महत्वपूर्ण
हो जाएगा। और
मध्यस्थ के
पास आंखें
होंगी तो सूरज
हो जाएगा; धीमी, मद्धिम
आंखें होंगी
तो सूरज का
प्रकाश धीमा हो
जाएगा; अंधा
होगा तो सूरज
दिखाई नहीं
पड़ेगा! सीधे
ही देखना
जरूरी है।
महावीर
को सीधे देखना
जरूरी है तो
हम पहचान सकते
हैं कि उनकी
अहिंसा, उनका
प्रेम पूरा है
या नहीं।
लेकिन कई बार
ऐसा होता है
कि हमारी खुद
की आंखें इतनी
कमजोर होती
हैं कि सूरज
को सीधा देखना
मुश्किल हो
जाता है, तब
हम अक्सर
परोक्ष देखते
हैं, किसी
और से पूछते
हैं। खुद की
आंख की इतनी
ताकत भी नहीं
होती कि सूरज
के सामने सीधा
देख लें। तो
हम दूसरों से
खबर जुटाने
जाते हैं।
और यही
कारण है कि
महावीर, कृष्ण
या क्राइस्ट
जैसे लोगों के
संबंध में हम
सीधे देखने से
बचते हैं।
वहां भी
प्रकाश बहुत
गरिमा में
प्रकट होता है,
वहां भी
आंखें, साधारण
कमजोर आंखें
बंद हो जाती
हैं; देख
नहीं पातीं।
इसलिए हम बीच
के गुरुओं को
खोजते हैं, आचार्यों को
खोजते हैं, टीकाकारों
को खोजते हैं,
व्याख्याकारों
को खोजते हैं,
उनके
माध्यम से हम
देखना चाहते
हैं! गीता हम सीधी
नहीं देखना
चाहते हैं; टीकाकार से
देखना चाहेंगे,
कमेंटेटर्स
से देखना
चाहेंगे। ऐसे
हम अपनी आंख
सीधी उठाने से
बचने की कोशिश
करते हैं।
लेकिन
इस जगत में
किसी दूसरे की
आंख से कुछ भी नहीं
देखा जा सकता।
किसी दूसरे की
आंख से देखने
की बजाय तो
बेहतर है कि
देखना ही मत।
यही समझना कि
हमने देखा
नहीं, हम
दर्शन से
वंचित रह गए
हैं। वह भी
उचित होगा, सत्य होगा।
और शायद वह
पीड़ा मन को
पकड़ जाए कि हम
नहीं देख पाए,
तो शायद
देखने की खोज
भी शुरू हो
जाए। लेकिन दूसरे
की आंख से
देखना ही मत।
लेकिन
सदा हमने
दूसरे की आंख
से देखा है और
उससे कठिनाई
हो जाती है।
महावीर को
सीधे देखें तो
वे प्रेम के
पूरे अवतार
हैं। सीधे
देखें तो उन
जैसा अहिंसक
व्यक्ति शायद
कभी भी नहीं हुआ
है।
प्रश्न:
महावीर
ने जिन
सिद्धांतों
की चर्चा की, जैसे अहिंसा,
सत्य, ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह, अनेकांत, उनका
प्रयोगात्मक
रूप क्या हो
सकता है?
इस
संबंध में भी
बड़ी भूल हुई
है। पहली तो
बात यह है
सत्य, अहिंसा,
ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह, अचौर्य--ये
सिद्धांत
नहीं हैं। और
इसलिए इनके सीधे
प्रयोग की बात
ही गलत है।
इनका सीधा
प्रयोग हो ही
नहीं सकता।
जैसे एक आदमी
भूसा इकट्ठा
करना चाहता हो
तो उसे गेहूं
बोना पड़ता है
खेत में--भूसा
नहीं। और अगर
वह पागल आदमी
भूसा पैदा
करने के लिए
भूसा ही बो दे,
तो जो पास
का भूसा था, वह भी खेत
में सड़ जाएगा,
कुछ पैदा
नहीं होगा।
क्योंकि भूसा
है बाइ-प्रॉडक्ट,
वह गेहूं के
साथ पैदा होता
है। गेहूं
पैदा होता है
तो उसके पीछे
वह भी पैदा
होता है, गेहूं
पैदा न हो तो
अकेला भूसा
पैदा करने का
कोई उपाय ही
नहीं है। हां,
गेहूं पैदा
होता है तो
भूसा पैदा
होता ही है, उसको अलग से
ध्यान देने की
भी कोई जरूरत
नहीं पड़ती है।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अस्तेय--ये
सब के सब
सिद्धांत
नहीं हैं, ये
बाइ-प्रॉडक्ट
हैं, उप-उत्पत्तियां
हैं। जहां समाधि
पैदा होती है,
वहां ये सब
भूसे की तरह
अपने आप पैदा
हो जाते हैं।
और जो व्यक्ति
इनको सीधा
पैदा करने
जाएगा, वह
भूसे की
पैदावार करने
में लगा हुआ
है भूसे से! जो
भूसा हमने
डाला खेत में
वह भी सड़
जाएगा। भूसा
तो पैदा होने
वाला नहीं है,
गेहूं भी
पैदा होने
वाला नहीं है।
कई बार
ऐसी भूल हो
जाती है कि
चूंकि गेहूं
और भूसा
साथ-साथ पैदा
होते हैं तो
हम सोच सकते
हैं कि गेहूं
को बोओ तो
भूसा हो जाता
है, भूसा को
बोओ तो गेहूं
हो जाएगा। ऐसा
नहीं है। साथ-साथ
वे जरूर हैं, दिखाई पड़ते
हैं, लेकिन
भूसा पीछे है,
गेहूं आगे
है। गेहूं
आएगा तो भूसा
आएगा, वह
उसकी छाया की
तरह आता है।
अहिंसा, सत्य, सब
छाया की तरह
आते हैं समाधि
के अनुभव में।
समाधि पहले है,
ध्यान पहले
है। ध्यान आया
कि उसके पीछे
छाया की तरह
ये सब आते
हैं। लेकिन
हमें ध्यान
दिखाई नहीं
पड़ता!
गेहूं
भी दिखाई नहीं
पड़ता, दिखाई
तो भूसा ही
पड़ता है पहले।
अगर खेत में
भी गए तो गेहूं
छिपा है भूसे
में। दिखाई तो
पड़ता है भूसा
पहले। आता है
भूसा पीछे, दिखाई पड़ता
है पहले। भूसे
को उघाड़ें तो
गेहूं दिखाई
पड़ेगा। और
पहले कभी भूसा
आता नहीं, आगमन
गेहूं का है।
गेहूं से आगमन
है गेहूं का, भूसा सिर्फ
बीच की
प्रॉडक्ट है,
वह उसकी
चारों तरफ से
रक्षा है।
समाधि
आती है पहले, लेकिन दिखाई
नहीं पड़ती
पहले। महावीर
के पास जाएंगे
तो दिखाई
पड़ेगा सत्य, दिखाई पड़ेगी
अहिंसा, दिखाई
पड़ेगा अचौर्य;
समाधि
दिखाई नहीं
पड़ेगी! वह
भूसा है, वह
चारों तरफ से
समाधि को घेरे
हुए है। लेकिन
समाधि आई है
पहले, उसके
पीछे छाया की
तरह सब आया
है। हमको
दिखाई पड़ेगा
पहले। तो
हमारे साथ एक
मुश्किल हो
जाएगी, हमारी
पूरी की पूरी
गड़बड़ हो
जाएगी। हमें
अहिंसा पहले
दिखाई पड़ेगी
तो हम सोचेंगे
अहिंसा साधो,
सत्य साधो,
अस्तेय
साधो; चोरी
मत करो; ब्रह्मचर्य
साधो, काम छोड़ो;
हमें यह
दिखाई पड़ेगा।
और हम इस दौड़
में लग जाएंगे।
हम भूसा बोने
की दौड़ में लग
गए। यह दिखता है,
लेकिन जो
नहीं दिखता, वह पहले है।
वह जो अदृश्य
भीतर घटना घटी
है, वही
पहले है।
महावीर
न तो अहिंसा
साध रहे हैं, क्योंकि जो
अहिंसा
साधेगा, वह
करेगा क्या? वह सिर्फ
हिंसा को
दबाएगा, और
क्या कर सकता
है? और दबी
हुई हिंसा से
कोई अहिंसक
नहीं होता। दबी
हुई हिंसा से
अगर कोई आदमी
अहिंसा भी
करेगा तो भी
उसकी अहिंसा
में हिंसा के
परिलक्षण होंगे।
हिंसा उसके
पीछे खड़ी होगी,
उसकी
अहिंसा में भी
हिंसा का स्वर
होगा, दबाव
होगा।
अगर किसी
व्यक्ति ने
काम को रोका
और
ब्रह्मचर्य
साधा तो उसके
ब्रह्मचर्य
के भीतर
अब्रह्मचर्य
और व्यभिचार
बैठा ही
रहेगा।
ब्रह्मचर्य
की खोल ऊपर
होगी, भीतर
व्यभिचारी
खड़ा रहेगा। अब
यह बड़ी उलटी
बात है।
महावीर
के पीछे है, भीतर है
समाधि और बाहर
है
ब्रह्मचर्य।
और अगर हमने ब्रह्मचर्य
साधा तो
ब्रह्मचर्य
होगा बाहर, और भीतर
होगा सेक्स, समाधि भीतर
होगी नहीं। तब
हम चूक जाएंगे,
बिलकुल ही
चूक जाएंगे।
वह जो होने
वाला था, वह
हमें कभी भी
नहीं हो पाएगा,
बल्कि हम
उलटी स्थिति
में पहुंच
जाएंगे।
इसलिए
मेरा जोर इस
बात पर है कि
महावीर जैसे व्यक्ति
को अगर समझना
हो, तो बाहर
से भीतर की
तरफ समझना ही
मत, भीतर
से बाहर की
तरफ समझना, तो ही समझ
में आ सकता है,
नहीं तो भूल
हो जाएगी।
तो
इनको मैं
सिद्धांत
नहीं कहता।
इनका दो कौड़ी
भी मूल्य नहीं
है समाधि के
मुकाबले।
उतना ही मूल्य
है, जितना
भूसे का होता
है। भूसे का
भी मूल्य होता
है, उतना
ही मूल्य है।
समाधि के
मुकाबले इनका
कोई भी मूल्य
नहीं है।
महावीर
की जो उपलब्धि
है, वह है
समाधि।
उपलब्धि की जो
उप-उत्पत्तियां
हैं, बाइ-प्रॉडक्ट्स
हैं, वे
हैं--सत्य, अहिंसा,
अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य।
ये सिद्धांत
नहीं हैं, और
न इनको सीधा
प्रयोग करने
की कोई जरूरत
है, न कोई
इनका सीधा
प्रयोग कभी कर
सकता है, न
कभी किसी ने
किया है। हां,
करने की
कोशिश की है
बहुत लोगों ने
और सिर्फ कोशिश
में वे असफल
हुए हैं, विकृत
हुए हैं, परवर्ट
हुए हैं और
कभी भी सत्य
तक नहीं
पहुंचे हैं।
इसलिए
यह तो पूछें
ही मत कि इनका
प्रयोगात्मक
रूप क्या है!
इनका कोई
प्रयोगात्मक
रूप नहीं है।
प्रयोगात्मक
रूप तो ध्यान
का है, प्रयोग
तो करना है
ध्यान का, ये
आएंगे छाया की
तरह। आप आए
हैं, तो
मैं आपसे नहीं
कहता कि अपनी
छाया को भी
अपने साथ ले
आना। आज आपकी
छाया को भी
निमंत्रण दिया
है, वह भी
आए। तो आप
कहेंगे, आप
कैसी बातें
करते हैं? मैं
आऊंगा तो मेरी
छाया आ ही
जाएगी। उसे
अलग से
निमंत्रण
देने की भी
कोई जरूरत
नहीं है, वह
आती ही है
आपके आने से।
लेकिन
इससे उलटा
नहीं हो सकता
कि आपकी छाया
को मैं ले आऊं
और उसके साथ
आप आ जाएं।
पहली तो बात आपकी
छाया को ला ही
नहीं सकता। और
कोई धोखा खड़ा
कर लूं, तो
आप उससे नहीं
आ जाएंगे।
इसलिए
अहिंसा नहीं
साधनी है, साधना है
ध्यान।
अहिंसा फलित
होती है, उसका
परिणाम है, उसकी परिणति
है सहज। जब
ध्यान आता है
तो आदमी हिंसक
नहीं रह जाता
है। इसमें
बुनियादी
फर्क पड़ रहा
है। जब ध्यान
आता है तो
अहिंसा साधनी
नहीं पड़ती है,
हिंसा
तिरोहित हो
जाती है। तो
भीतर कुछ बचता
नहीं।
यह भी
समझ लेने की
जरूरत है कि
अहिंसा हिंसा
का उलटा नहीं
है, अहिंसा
हिंसा का अभाव
है, एब्सेंस
है। लेकिन
हमें उलटा
दिखाई पड़ता है,
क्योंकि
हमारे भीतर
होती है हिंसा,
अहिंसा हम
साधते हैं, तो वह उलटी
मालूम पड़ती
है। जो हिंसक
करता है, वह
हम न करें।
ब्रह्मचर्य
साधना है, तो
जो कामुक करता
है, वह हम न
करें, बस
उससे उलटा
करें! तो
हमारे लिए
सेक्स से उलटा
होता है
ब्रह्मचर्य; अहिंसा
हिंसा से उलटी
होती है; अचौर्य
चोरी से उलटा
होता है; सत्य
असत्य से उलटा
होता है! जब कि
ये बातें बिलकुल
गलत हैं। ये
कोई उलटे नहीं
होते, ये
अभाव हैं।
अहिंसा
उस दिन आती है, जिस दिन
हिंसा होती
नहीं। हिंसा
के न होने पर जो
स्थिति रह
जाती है, उसका
नाम अहिंसा
है। वह विदाई
है हिंसा की, उसके पीछे
जो बच जाता
है। सेक्स
जहां विदा हो
जाता है, काम
जहां विदा हो
जाता है, वहां
जो शेष रह
जाता है, उसका
नाम
ब्रह्मचर्य
है। इसलिए
ब्रह्मचर्य सेक्स
का उलटा नहीं
है, उलटे
में तो सेक्स
की मौजूदगी
रहेगी ही।
यह
ध्यान में रहे
कि हर उलटी
चीज में अपने
से विरोधी की
मौजूदगी
उपस्थित रहती है, वह कभी
मिटती नहीं।
अगर क्षमा
क्रोध से उलटी
है तो क्षमा
के भीतर क्रोध
मौजूद रहेगा।
अगर ब्रह्मचर्य
सेक्स से उलटा
है तो ऊपर
ब्रह्मचर्य
होगा, भीतर
सेक्स मौजूद
रहेगा।
क्योंकि जो
उलटा है, विपरीत
है, वह
अपने दुश्मन
के बिना जी ही
नहीं सकता, वह उसके साथ
ही जी सकता है,
वे
अनिवार्य रूप
से जुड़े हुए
हैं।
इस बात
को ठीक से समझ
लेना चाहिए कि
जीवन के जो परम
सत्य हैं, जो परम
अनुभूतियां
हैं, वे
अभाव की, निगेशन
की
अनुभूतियां
हैं; अपोजीशन
की, विरोध
की नहीं।
जैसे
ही समाधि फलित
होती है, वैसे
ही कुछ चीजें
विदा हो जाती
हैं। हिंसा
विदा हो जाती
है, क्योंकि
समाधिस्थ
चित्त के साथ
हिंसा का कोई संबंध
नहीं जुड़ता।
तो
मेरे देखे ये
लक्षण हैं।
अगर एक आदमी
हिंसक है तो
वह इस बात का
लक्षण है कि
भीतर ध्यान को
उपलब्ध नहीं
हुआ। अगर एक
आदमी
अब्रह्मचारी
है तो लक्षण
है कि भीतर
ध्यान को
उपलब्ध नहीं
हुआ। इसलिए
अब्रह्मचर्य
को, काम को, सेक्स को, हिंसा को, चोरी को मैं
लक्षण मानता
हूं भीतर की
स्थिति के।
और जो
लक्षण को
बदलने में
लगेगा, वह
वैसा ही पागल
है, जैसे
किसी को बुखार
आ गया, शरीर
गरम हुआ और हम
उसका शरीर
ठंडा करने में
लग गए, कि
हमने कहा कि
बुखार, गर्म
है शरीर।
गर्म
होना सिर्फ
लक्षण है।
भीतर कहीं कोई
बीमारी है, जिस बीमारी
में शरीर के
तत्व संघर्ष
में पड़ गए हैं,
संघर्ष के
कारण शरीर
उत्तप्त हो
गया है। भीतर शरीर
के एलीमेंट्स
लड़ रहे हैं
आपस में, इसलिए
उत्पात में
शरीर गर्म हो
गया। शरीर की
गर्मी, फीवर
जो है, बुखार
जो है, ताप
जो है, वह
सिर्फ सूचक है
कि भीतर
बीमारी है। और
अगर वैद्य इसे
ठंडक, इस
गर्मी को ही
ठंडक देने में
लग गया, ठंडे
पानी से
नहलाने में लग
गया, तो
बीमारी के
मिटने की
संभावना कम, बीमार के
मिट जाने की
संभावना
ज्यादा है।
तो
चिकित्सक
गर्मी देख कर
सिर्फ
पहचानता है कि
भीतर बीमारी
है। बीमारी को
मिटाने लग
जाता है, गर्मी
विदा हो जाती
है। गर्मी
सिर्फ सूचक
थी।
हिंसक
चित्तवृत्ति, कामुक
चित्तवृत्ति
भीतर
मर्ूच्छा की
सूचक है--निद्रा
की, अ-ध्यान
की, सोए
हुए होने की, तंद्रा की, नशे की हालत
की। उस नशे की
हालत को भीतर
तोड़ दें तो
बाहर से हिंसा
विदा हो जाएगी
और अहिंसा
फलित होने
लगेगी।
इसलिए
इन
सिद्धांतों
के सीधे
प्रयोग की बात
जरा भी उचित
नहीं है। और
जिन लोगों ने
भी इन सिद्धांतों
के सीधे
प्रयोग का
विचार किया है, वे केवल
सप्रेशन, दमन,
आत्म-उत्पीड़न
और एक तरह की
सेल्फ टार्चर,
अपने को
सताने की लंबी
प्रक्रिया
में उतर गए हैं;
जिसके
परिणाम में
कभी भी
विमुक्ति तो
उपलब्ध नहीं
हुई, विक्षिप्तता,
पागलपन
जरूर उपलब्ध
हो सकता है।
प्रश्न:
आत्मा-परमात्मा
कहीं बाहर
नहीं, भटकने
से कहीं कुछ
मिलता नहीं, न
वेश-परिवर्तन
में कुछ है, तो महावीर
क्यों साधु
बने और दूसरों
को साधु बनने
का उपदेश
क्यों देते
रहे?
यह
बात भी बहुत
मजेदार है।
अक्सर हमें
ऐसा लगता है
कि महावीर
साधु बने हैं
और दूसरों को
भी साधु बनने
के लिए कहते
रहे। यह हमें
लगता है, क्योंकि
हम असाधु हैं,
और अगर हमें
साधु होना हो
तो साधु बनना
पड़ेगा। जब कि
सचाई यह है कि
साधुता आती है,
बनना नहीं
पड़ता, और
जो बनेगा उसकी
साधुता थोथी,
झूठी, मिथ्या,
आडंबर
होगी।
एक
युवक एक फकीर
के पास गया था
और उस फकीर से
उसने पूछा कि
मैं कैसे
साधुता
उपलब्ध करूं, मुझे बताएं।
तो उस फकीर ने
कहा, दो
तरह की साधुताएं
हैं, साधु
बनना हो तो
बहुत सरल है
बात, साधु
होना हो तो
बहुत कठिन है
बात।
साधु
बनना हो तो एक
अभिनय की बात
है। तुम जो हो, रहे आओ।
कपड़े बदलो, वेश बदलो, भाषा बदलो, ऊपर से सब
बदल डालो, साधु
तुम बन जाओगे।
साधु
होना हो तो
मामला बहुत
कठिन है, क्योंकि
तब वेश बदलने
से, वस्त्र
बदलने से, आवरण
बदलने से कुछ
भी न होगा, तब
तो तुम ही
बदलोगे तो कुछ
हो सकता है।
महावीर
साधु बने, यह अत्यंत
गलत शब्दों का
प्रयोग है।
महावीर साधु
हुए। बनना तो
हो जाता है
चेष्टा से, होना होता
है
आत्म-परिवर्तन
से।
और
महावीर ने
किसी को कहा
कि तुम साधु
बनो, तो भी बात
गलत है।
महावीर ने
किसी को साधु
बनने को नहीं
कहा। महावीर
ने कहा कि
जागो असाधुता
के प्रति और
तुम पाओगे कि
साधुता आनी
शुरू हो गई
है।
बनने
की भाषा
प्रयास की
भाषा है।
प्रयास करके हम
कुछ बन सकते
हैं, लेकिन
साधु नहीं बन
सकते। साधुता
तो ट्रांसफार्मेशन
है, भीतर
से
आत्म-परिवर्तन
है पूरा का
पूरा।
तो
साधुता कोई
ऐसी चीज नहीं
है कि कल एक
आदमी असाधु था
और आज साधु हो
गया। साधुता
कोई ऐसी चीज
नहीं है कि कल
तक एक आदमी
असाधु था, आज दीक्षा
ले ली, वस्त्र
बदले, मुंह-पट्टी
बांधी और साधु
हो गया! कल तक
असाधु था, आज
साधु हो गया!
और कल फिर
मुंह-पट्टी
फेंक दे, वस्त्र
बदल ले, फिर
असाधु हो जाए!
तो यह
मुंह-पट्टी और
वस्त्र और
गेरुए और ये
सब का जो
बाह्य आडंबर
है, अगर यही
किसी को साधु
बनाता है, तब
तो बड़ी आसान
बात है। कोई
साधु बन सकता
है, फिर
असाधु बन सकता
है।
लेकिन
कभी सुना है
ऐसा कि कोई
साधु हो गया
हो और फिर
असाधु हो जाए? क्योंकि
जिसने साधुता
का आनंद जाना
हो, वह
कैसे असाधु
होने के दुख
में उतर सकता
है? जिसने
साधुता का
आनंद चखा हो, वह फिर
असाधु हो सकता
है? नहीं, लेकिन साधु
वह हुआ ही
नहीं था, सिर्फ
वस्त्र ही
बदले थे, सिर्फ
वेश बदला था, सिर्फ ढोंग
बदला था, सिर्फ
अभिनय बदला
था। अभिनय कल
फिर बदला जा
सकता है। जो
हमारे ऊपर ही
बदलाहट है, वह हमारे
भीतर की
बदलाहट नहीं
है।
महावीर
साधु नहीं
बने। क्योंकि
जो साधु बना है, वह कल असाधु
बन सकता है।
शायद महावीर
को पता ही
नहीं चला होगा
कि वे साधु हो
गए हैं। होने
की जो
प्रक्रिया है,
अत्यंत
धीमी, शांत
और मौन है।
बनने की
प्रक्रिया
अत्यंत घोषणापूर्ण
है, बैंड-बाजे
के साथ बनना
होता है। बनने
की जो प्रक्रिया
है, भीड़-भाड़
के साथ है; जुलूस,
प्रोसेशन
के साथ है।
बनने की जो
प्रक्रिया है,
वह और है; होने की प्रक्रिया
और है।
जैसे
रात कब कली
खिल जाती है, फूल बन जाती
है, शायद
पौधे को भी
पता न चलता
होगा। कब एक
छोटा सा अंकुर
बड़ा पत्ता बन
जाता है, शायद
पत्ते को भी
पता नहीं चलता
होगा। आप कब बच्चे
थे और कब जवान
हो गए, आपको
पता चला था? और कब आप
जवान थे और कब
बूढ़े हो गए, आपको पता
चला? कब आप
जन्मे, आपको
पता चला था? और कब आप
चुपचाप मर
जाएंगे, पता
चलेगा? यह
सब चुपचाप, मौन हो रहा
है। जीवन बड़े
चुपचाप काम कर
रहा है।
ठीक
ऐसे ही, अगर
कोई अपनी
असाधुता को
समझता चला जाए,
समझता चला
जाए, समझता
चला जाए, तो
एक दिन अचानक
हैरान होता है
कि कब वह साधु
हो गया! उसे भी
पता नहीं चलता
कि किस क्षण
पर यह
रूपांतरण हो
गया है। वेश
वही होता है, वस्त्र वही
होते हैं, सब
वही होता है; लेकिन यह
चुपचाप घटना
घट जाती है।
महावीर
कभी साधु नहीं
बने और न
महावीर ने कभी
किसी को कहा
कि साधु बनो।
हां, महावीर को देखने
वाले लोग साधु
बने और
उन्होंने
दूसरों को भी
समझाया कि
साधु बनो! बस
देखने में भूल
हो जाती है।
देखने में
एकदम भूल हो
जाती है। क्योंकि
देखने में
हमें कभी वह
जो भीतरी
क्रमिक विकास
है, वह
दिखाई नहीं
पड़ता, सिर्फ
बाहर की
घटनाएं दिखाई
पड़ती हैं।
भीतर का
क्रमिक विकास
दिखाई नहीं
पड़ता। बाहर कल
एक आदमी ऐसा था,
आज ऐसा हो
गया, यह
हमें दिखाई पड़
जाता है। भीतर
का, बीच का
सेतु छूट जाता
है। वही सेतु
मूल्यवान है।
कोई आदमी कैसे
साधु बनता है?
कुछ
वर्ष हुए, एक मुसलमान
एडवोकेट मुझे
मिलने आए। और
उन्होंने
मुझे कहा कि
मैं कई महीनों
से मिलने आना
चाहता था, लेकिन
नहीं आता था।
नहीं आता था
इस खयाल से, चित्त अशांत
है मेरा, पूछना
चाहता था आपसे
कि कैसे शांत
हो जाऊं? लेकिन
यह डर लगता था
कि आप कहेंगे
मांस खाना छोड़ो,
चोरी करना
छोड़ो, बेईमानी
छोड़ो, शराब
मत पीओ, जुआ
मत खेलो; और
ये सब मेरे
पीछे लगे हैं।
तो जब भी किसी
साधु के पास
गया, उसने
यही कहा कि ये
पहले छोड़ो, तब शांत हो
सकते हो। ये
मुझसे छूटते
नहीं। फिर
मैंने साधु के
पास जाना ही
बंद कर दिया।
क्या मतलब!
वही कहेगा कि
ये पहले छोड़ो।
ये छूटते नहीं,
शराब छूटती
नहीं, जुआ
छूटता नहीं, कुछ छूटता
नहीं। तो
इसलिए मैं
आपके पास नहीं
आया।
फिर
मैंने कहा, आज आप कैसे आ
गए? उन्होंने
कहा, आज
किसी मित्र के
घर खाना खाने
गया था, उन्होंने
मुझसे कहा कि
आप कहते हैं
कि कुछ छोड़ो
ही मत। तो
मुझे लगा कि
इस आदमी के
पास जाना चाहिए।
आप कुछ भी
छोड़ने को नहीं
कहते? शराब
पी सकता हूं, जुआ खेल
सकता हूं?
मैंने
कहा, मुझे
तुम्हारे
शराब और जुए
से क्या मतलब!
यह तुम्हारा
काम है, तुम
जानो। तो
उन्होंने कहा,
फिर आपसे
मेरा मेल पड़
सकता है। फिर
बोलिए मैं क्या
करूं? छोड़ना
कुछ भी नहीं, फिर मैं
क्या करूं? अशांत बहुत
हूं, दुखी
बहुत हूं। तो
मैंने उन्हें
कहा कि आप
ध्यान का छोटा
सा प्रयोग
शुरू करें, आत्म-स्मरण
का प्रयोग
शुरू करें, स्वयं को
स्मरण करने का
प्रयोग शुरू
करें, सेल्फ
रिमेंबरिंग
का थोड़ा
प्रयोग शुरू
करें। उन्हें
मैंने कहा कि
आधा घंटे रोज
बैठ कर बस अकेले
स्वयं ही रह
जाएं, सब
भूल जाएं।
उतनी देर मन में
जुआ न खेलें, बाहर के जुए
से मुझे कोई
मतलब नहीं।
उतनी देर मन
में शराब न
पीएं, बाहर
की शराब से
मुझे कोई मतलब
नहीं। उतनी
देर मांस न
खाएं, बस
इतना बहुत है।
उतनी देर
रिश्वत न लें।
उन्होंने
कहा, यह हो
सकता है, आधा
घंटे बच सकता
हूं। साढ़े
तेईस घंटे तो
कोई बात ही
नहीं है!
मैंने कहा, उससे कोई
संबंध ही नहीं
है! वह आपका
काम है, आप
जानें! आधा
घंटा मुझे दे
दें।
उन्होंने मुझे
वचन दिया कि
आधा घंटा मैं
आपको देता
हूं। और आपको
दे सकता हूं, किसी को
मैंने कभी
नहीं वायदा
किया कुछ।
क्योंकि आप
आदमी अजीब हैं,
आप कहते हैं
कि साढ़े तेईस
घंटे कुछ भी
करो! मैंने
कहा, साढ़े
तेईस घंटे के
संबंध में
मुझसे आप
दुबारा बात ही
मत करना। बस, मेरा आधा
घंटा। उसका आप
खयाल रखें।
छह
महीने तक वह
आदमी नहीं
आया। और सच
में अदभुत
आदमी था, हिम्मतवर
आदमी था। मुझे
जो वचन दिया
था उसने आधा
घंटे का, पूरा
किया था। छह
महीने बाद वह
आदमी वापस
आया। उसकी चाल
बदल गई थी, वह
आदमी बदल गया
था। उसने मुझे
आकर कहा कि
आपने मुझे
धोखा दिया।
मैं
क्यों आपको
धोखा दूंगा?
वह आधा
घंटा तो ठीक
था, लेकिन
मेरे साढ़े
तेईस घंटे
दिक्कत में
पड़े जाते हैं।
मेरे साढ़े
तेईस घंटे
मुश्किल में
पड़ गए हैं। कल
मैंने शराब पी
और वोमिट हो
गई मुझे उसी
वक्त! क्योंकि
मेरा पूरा मन
इनकार कर रहा
था। वह आधा
घंटा वजनी पड़
रहा है। वे
साढ़े तेईस घंटे
मुश्किल में
पड़ गए हैं।
रिश्वत लेने
में एकदम हाथ
खिंच आते हैं
पीछे, जैसे
कोई जोर से
कहता है कि
क्या कर रहे
हो? क्योंकि
उस आधे घंटे
में जो शांति
और आनंद मुझे
मिल रहा है, अब मैं
चाहता हूं कि
चौबीस घंटे पर
फैल जाए।
मैंने
कहा, वह
तुम्हारा काम!
साढ़े तेईस
घंटे--इससे
मेरा कोई
संबंध नहीं
है। उसकी तुम
मुझसे कभी बात
ही मत करना।
उसकी तुम
मुझसे बात ही
मत करना।
छह
महीने बाद वह
आदमी दुबारा
आया और उसने
कहा कि या तो
आपको जो आधा घंटा
दिया है, वह
मैं वापस ले
लूं; लेकिन
अब नहीं ले
सकता वापस भी,
क्योंकि जो
आनंद मैंने उस
आधा घंटे में
पाया है, पूरे
जीवन में नहीं
पाया। और या
फिर साढ़े तेईस
घंटे भी आपको
दे जाता हूं, क्योंकि अब
इसका कोई मतलब
नहीं रहा। अब
मैं मांस खा
नहीं सकता। अब
मुझे यह खयाल
मुश्किल में
डाल देता है
कि मैं इतने
दिन तक कैसे
खाता रहा? अब
मुझे जो तकलीफ
होती है, वह
यह कि मैं
इतने दिन, कोई
पैंतालीस
वर्ष, कितना
संवेदनहीन था
कि खाता रहा!
आज तो भीतर ले
जाना मुश्किल
हो गया है। आज
मैं सोच भी
नहीं पाता कि
मैं इतने
वर्षों तक
शराब कैसे पीता
रहा?
मैंने
कहा, अब क्या
दिक्कत है
शराब पीने में?
तो उसने
मुझे कहा कि
दिक्कत बहुत
साफ हो गई है।
पहले मैं
अशांत था, शराब
पीता था, अशांति
मिट जाती थी।
अब मैं शांत
हूं, शराब
पीता हूं, शांति
मिट जाती है।
और शांति मैं
मिटाना नहीं
चाहता, अशांति
मैं मिटाना
चाहता था।
फिर
मैंने कहा कि
तुम्हारी
मर्जी, अब
तुम जो ठीक
समझो करना। वह
अभी भी मुझे
मिलते हैं तो
मुझे कहते हैं,
आपने मुझे
बहुत धोखा
दिया। आप मुझे
पहले नहीं कहे,
नहीं तो मैं
वह आधा घंटा
भी शायद आपको
न दे सकता।
मैंने कहा, मुझे आपके
साढ़े तेईस
घंटे से कोई
प्रयोजन नहीं
है। लेकिन
कठिनाई क्या
होती है, उलटा
सब हो जाता
है। उलटा सब
हो जाता है।
महावीर
का ध्यान ऐसा
है कि जो उस
ध्यान से गुजरेगा, वह मांसाहार
नहीं कर सकता
है। महावीर
कहते नहीं
किसी को कि
मांसाहार मत
करो। वह ध्यान
ऐसा है कि
उससे
गुजरेंगे तो
मांसाहार
नहीं कर सकते।
इतने
संवेदनशील हो
जाएंगे कि यह
बात इतनी मूर्खतापूर्ण
मालूम पड़ेगी,
जड़तापूर्ण
मालूम पड़ेगी
कि भोजन के
लिए और किसी
का प्राण लिया
जाए! यह असंभव
मालूम पड़ने
लगेगी।
महावीर के जो
ध्यान से
गुजरेगा, वह
शराब नहीं पी
सकता है, क्योंकि
वह ध्यान इतने
जागरण में ले
जाता है, इतने
आनंद में, कि
शराब पीना
मतलब उस सबको
नष्ट करना
होगा।
लेकिन
हमारी हालत
उलटी है। हम
पकड़े हुए हैं
कि मांस मत
खाओ, शराब मत
पीयो; यह
मत करो, वह
मत करो; इनको
हम जोर से
पकड़े हुए हैं!
इनको मत करो, बस फिर जो
महावीर को हुआ,
वह आपको हो
जाएगा!
कभी
नहीं होने
वाला।
क्योंकि आप
गलत ही दिशा से
चल पड़े हैं।
आप भूसा बो
रहे हैं, गेहूं
का आपको पता
ही नहीं है।
प्रश्न:
इसी
संबंध में
इन्होंने
पूछा है कि
महावीर समानता
के समर्थक थे, फिर भी उनके
संघ में
साध्वी संघ
उपेक्षित क्यों
रहा?
यह
भी बहुत
विचारणीय बात
है, बहुत
विचारणीय बात
है। इसमें
दोत्तीन
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। महावीर
के मन में
स्त्री और
पुरुष के बीच
असमानता का
कोई भाव नहीं
है। समानता की
तो उनकी पकड़
इतनी गहरी है
कि मनुष्य में
और पशु में भी,
मनुष्य में
और पौधे में
भी वे असमानता
का भाव नहीं
रखते हैं।
लेकिन फिर भी
स्त्री और
पुरुष के बीच
साधु संघ में
उन्होंने कुछ
भेद किया है, और उसके कुछ
कारण हैं। और
वे कारण अब तक
नहीं समझे जा
सके हैं। न
समझे जाने का
रहस्य खयाल में
आपको आ सकता
है।
महावीर
स्त्री के
विरोध में
नहीं हैं, स्त्रैणता
के विरोध में
हैं। और इसको
नहीं समझा जा
सका। महावीर
पुरुष के पक्ष
में नहीं हैं;
लेकिन
पुरुष होने का
एक गुण है, उसके
पक्ष में हैं।
इन दोनों
बातों को हम
समझेंगे तो
खयाल में आ
जाएगा। कई
पुरुष हैं, जो स्त्रैण
हैं; और कई
स्त्रियां
हैं, जो
पुरुष हैं।
स्त्रैणता
का क्या अर्थ
है? स्त्रैणता
का अर्थ है:
पैसिविटी।
उसका अर्थ है:
निष्क्रियता।
पुरुष का अर्थ
है: एक्टिविटी।
उसका अर्थ है:
सक्रियता।
ऐसे भी
स्त्री और
पुरुष में
आमतौर से
स्त्री पैसिव
है, पुरुष
एक्टिव है।
स्त्री सिर्फ
प्रतीक्षारत
है, पुरुष
आक्रामक है।
स्त्री अगर
प्रेम भी करे
तो भी आक्रमण
नहीं करती, जाकर किसी
को पकड़ नहीं
लेती कि मुझे
तुमसे प्रेम
है। इतना भी
नहीं करती।
प्रेम भी करे
तो चुपचाप बैठ
कर प्रतीक्षा
करती है कि
तुम आओ और उससे
कहो कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं। स्त्री
आक्रामक नहीं
है। स्त्रैण
चित्त
आक्रामक नहीं
है। इससे स्त्री
का ही संबंध
नहीं हैं, बहुत
पुरुष ऐसे हैं,
जो इसी
भांति
प्रतीक्षा
करेंगे।
महावीर
का कहना यह
है--जैसा
मैंने पीछे
समझाया कि
महावीर की
पूरी साधना
संकल्प की, श्रम की, श्रमण
की साधना
है--वे कहते यह
हैं कि जिसे
सत्य पाना है,
उसे यात्रा
पर निकलना
होगा, उसे
जाना पड़ेगा, उसे जूझना
पड़ेगा, उसे
चुनौती, साहस,
संघर्ष में
उतरना पड़ेगा।
ऐसा बैठ कर
सत्य नहीं मिल
जाएगा।
तो
महावीर कहते
हैं कि स्त्री
को भी अगर
सत्य पाना है
तो पुरुष होना
पड़ेगा! इस बात
को बहुत गलत
समझा गया। और
ऐसा समझा गया
कि स्त्री
योनि से मोक्ष
असंभव है। स्त्री
को भी एक जन्म
लेना पड़ेगा, पुरुष का, फिर पुरुष
योनि से मोक्ष
हो सकेगा। बात
बिलकुल और थी।
पुरुष योनि से
ही मोक्ष हो
सकता है महावीर
के मार्ग पर, लेकिन पुरुष
योनि का मतलब
पुरुष हो जाना
नहीं है शरीर
से, पुरुष योनि
का मतलब ही
केवल इतना है,
वह
पैसिविटी छोड़
देना, निष्क्रियता
छोड़ देना।
जैसे
एक स्त्री है, उसके मन को
सहज यही लगता
है कि वह
कृष्ण का गीत गाए
और कहे कि
तुम्हीं ले
चलो जहां ले
चलना हो, तुम्हीं
हो मार्ग, तुम्हीं
हो सहारे। मैं
तो कुछ भी
नहीं हूं, तुम्हीं
हो सब, अब
जहां मुझे ले
जाओ। जितना
भक्ति मार्ग
है, वह सब
स्त्रैण
चित्त की
उत्पत्ति
है--स्त्री की
नहीं; इसको
खयाल में ले
लेना, नहीं
तो भूल हो
जाएगी।
स्त्रैण
चित्त की
उत्पत्ति
है--जितना
भक्ति मार्ग
है। क्योंकि
भक्त यह कह
रहा है कि मैं
क्या कर सकता
हूं? जैसे
प्रेयसी अपने
प्रेमी के
कंधे पर हाथ
रख ले, जैसे
प्रेयसी अपने
प्रेमी के हाथ
में हाथ दे दे
और अब प्रेमी
जहां ले जाए, वह चली जाए।
स्त्रैण
चित्त यह कह
रहा है कि कोई
ले जाएगा तो
मैं जाऊं। कोई
पहुंचाए तो
मैं पहुंच
जाऊं। मैं
समर्पण कर
सकता हूं, मैं
सब चरणों में
रख दूं, लेकिन
कोई मुझे ले
जाए, मुझसे
जाना होने
वाला नहीं है।
जैसे
एक लता है, वह सीधी खड़ी
नहीं हो पाती,
कोई वृक्ष
का सहारा मिल
जाए तो ही खड़ी
हो सकती है।
लता को वृक्ष
का सहारा
चाहिए। वह लता
होने की उसके
बीइंग में, उसके
अस्तित्व में
छिपी हुई बात
है, उसे
सहारा चाहिए।
स्त्री
सहारा मांगती
है। और महावीर
सहारे के एकदम
खिलाफ हैं। वे
कहते हैं, सहारा मांगा
कि तुम
परतंत्र हुए।
सहारा मांगो
ही मत, बिलकुल
बेसहारा हो
जाओ, टोटल
हेल्पलेस।
सहारा मांगना
ही मत। जिस
दिन तुम
बिलकुल
बेसहारे खड़े
हो, तुम्हीं
सहारे बन
जाओगे। लेकिन
तुमने सहारा
मांगा कि तुम
पंगु हुए, तुम
दीन हुए, तुम
हीन हुए, तुम
किसी के
परतंत्र हुए।
तो सहारा
भगवान का भी
मत मांगना!
सवाल यह नहीं
है कि किसका।
सहारा ही
मांगना दीन हो
जाना है।
तो
महावीर कहते
हैं, सहारा
मांगना ही मत।
यह
अत्यंत परुष
मार्ग है, यह बहुत
पुरुष मार्ग
है। इस पुरुष
मार्ग पर
स्त्री की कोई
गति नहीं है--स्त्रैण
चित्त की।
शरीर से कोई
स्त्री हो, गति हो सकती
है।
एक
तीर्थंकर हैं
जैनों की, मल्लीबाई!
वह स्त्री है,
वह
तीर्थंकर हो
गई है। और
दिगंबरों ने
उसे मल्लीनाथ
ही कहा, उसको
मल्लीबाई भी
नहीं कहा!
इसमें
भी अर्थ है।
इसमें भी
सिर्फ इतना
अर्थ है कि
उसे स्त्री
कहना बेमानी
है। मल्लीबाई
को स्त्री
कहना बेमानी
है, क्योंकि
वह ठीक पुरुष
जैसा बेसहारा
खड़े होने की
हिम्मत कर
सकी। उसने कोई
सहारा नहीं
मांगा।
स्त्री कैसी
है! इसलिए
मल्लीबाई कहा
ही नहीं
दिगंबरों ने,
उन्होंने
कहा, मल्लीनाथ।
और पीछे झगड़ा
खड़ा हो गया कि
मल्लीबाई
स्त्री थी कि
पुरुष? दिगंबर
कहते हैं
पुरुष, श्वेतांबर
कहते हैं
स्त्री।
दोनों ठीक
कहते हैं।
मल्लीबाई
स्त्री थी, लेकिन उसे
स्त्री कहना
बेमानी है।
उसको स्त्री
कहने का कोई
मतलब ही नहीं
है, उसे
पुरुष ही कहना
चाहिए। वह जो
पुरुष कहने का
अर्थ है, वह
और है। वह यह
अर्थ है कि
उसके चित्त की
पूरी दशा
स्त्रैण नहीं
है।
यहां
काश्मीर में
एक स्त्री हुई
लल्ला। तो काश्मीर
के लोग कहते
हैं कि हम दो
ही नाम पहचानते
हैं: अल्ला और
लल्ला। मगर
लल्ला को
स्त्री कहना
मुश्किल है। लल्ला
को स्त्री
नहीं कहा जा
सकता। अकेली
स्त्री है जो
नग्न रही।
महावीर नग्न
रहे सो ठीक है; पुरुष नग्न
रह सकता है।
पुरुष चित्त
की वह व्यवस्था
है।
पुरुष
क्यों नग्न रह
सकता है? क्योंकि
पुरुष चित्त
का एक
अनिवार्य
लक्षण यह है
कि वह इसकी
फिक्र नहीं
करता कि दूसरा
उसके संबंध
में क्या सोच
रहा है। वह
दूसरे की फिक्र
ही नहीं करता।
स्त्री चौबीस
घंटे दूसरे की
फिक्र में है।
वह जो कपड़े
पहन रही है
इसलिए कि
दूसरे को कैसा
लगता है। वह
सज-संवर कर जा
रही है तो
पूरे वक्त
इसलिए कि
दूसरे को कैसा
लगता है।
दूसरा एकदम
महत्वपूर्ण
है। चाहे वह
पति हो, चाहे
प्रेमी हो, चाहे समाज
हो। स्त्री
स्वयं में कभी
खड़ी नहीं है, हमेशा दूसरे
की नजर देख
रही है: दूसरे
को कैसा लगता
है।
महावीर
नग्न खड़े हो
गए, यह कोई
बड़ी बात न थी।
लेकिन लल्ला
नग्न खड़ी हो गई,
यह बड़ी भारी
बात है। कोई
भी पुरुष नग्न
खड़ा हो सकता
है, इसमें
बड़ी घटना नहीं
है। लेकिन
पूरी पृथ्वी पर
एक ही औरत
नग्न
रही--लल्ला!
पूरे जीवन
नग्न रही!
इसके पास एक
पुरुष चित्त
है।
वह जो
स्त्रैण भाव
है कि दूसरा
क्या कहता है, वह इतना
महत्वपूर्ण
है स्त्री के
लिए कि दूसरा
क्या कहता है!
दूसरे को मैं
कैसी लगती हूं,
यह ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। मैं कैसी
हूं, यह
इतना
महत्वपूर्ण
नहीं
है--दूसरे को
कैसी लगती
हूं।
गांधी
जी ठहरे हुए
थे
रवींद्रनाथ
के पास शांति-निकेतन
में। सांझ
दोनों घूमने
निकलने को हैं, तो
रवींद्रनाथ
ने गांधी जी
को कहा कि
रुकें दो मिनट,
मैं जरा बाल
संवार आऊं! वे
भीतर गए हैं।
एक तो गांधी
जी को यह सुन
कर ही बहुत बेमानी
लगा कि बुढ़ापे
में और बाल
संवारने की इतनी
चिंता! पर
रवींद्रनाथ
थे, कोई और
होता तो शायद
गांधी उसको
वहीं कुछ कहते
भी। एकदम से
कुछ कहा भी
नहीं जा सका।
रवींद्रनाथ
भीतर चले गए
हैं। दो मिनट
क्या, दस
मिनट बीत गए
हैं! गांधी
खिड़की से
झांके हैं, वह आदमकद
आईने के सामने
खड़े हैं और
बाल संवारे
चले जा रहे
हैं। वह खो ही
गए हैं आईने
में। पंद्रह
मिनट बीत गए
हैं, तब
बरदाश्त के
बाहर हो गया।
भीतर गए और
कहा कि यह
क्या कर रहे
हैं आप? रवींद्रनाथ
ने चौंक कर
देखा। अरे!
कहा, मैं
भूल गया। चलता
हूं।
चलने
लगे हैं तो
रास्ते में
गांधी जी ने
उनसे कहा कि
मुझे बड़ी
हैरानी होती
है। इस उम्र
में और आप ऐसा
बाल संवारते
हैं! तो
रवींद्रनाथ
ने कहा, जब
जवान था, तब
बिना संवारे
भी चल जाता
था। जब से
बूढ़ा हो गया
हूं, तब से
बहुत संवारना
पड़ता है। बड़ी
चिंता मन में
लगती है कि
किसी को देख
कर कैसा
लगूंगा। और
मुझे तो ऐसा
भी लगता है कि
अगर मैं कुरूप
हूं तो वह भी
हिंसा है, क्योंकि
दूसरे की आंख
को दुख होता
है। तो मुझे
सुंदर होना
चाहिए। दूसरे
की आंख को दुख
पहुंचाना भी
हिंसा ही है।
तो उसको थोड़ा
सा सुख मिल जाए
मुझे देख कर, तो अहिंसा
है। तो मैं तो
जितना बन सके,
सुंदर होने
की कोशिश करता
हूं।
रवींद्रनाथ
के पास
स्त्रैण
चित्त है।
पुरुष हैं
वे--अगर
हिम्मत कोई
करे तो जैसा
मल्लीबाई को
मल्लीनाथ कहा, ऐसा
रवींद्रनाथ
को
रवींद्रबाई
कहने में कोई हर्जा
नहीं है। वह
जो चित्त है न,
वह जो चित्त
है भीतर गहरे
में, वह
एकदम स्त्री
का है। शायद
सभी कवियों के
पास वह होता
है। असल में
शायद काव्य का
जन्म ही नहीं
हो सकता पुरुष
से। वह जो
काव्य का जगत
है, वह ही
शायद स्त्री
के चित्त का
जन्म है।
इसलिए
दुनिया में
जितना
विज्ञान बढ़ता
जा रहा है, काव्य पीछे हटता
जा रहा है।
उसका कारण है
कि विज्ञान
पुरुष चित्त
का जन्म है।
और पुरुष
चित्त जीतता
चला जाएगा तो
काव्य पीछे
हटता चला
जाएगा।
स्त्री
का पूरा चित्त
काव्य का
है--सपने का, कल्पना का।
वह पैसिव है, कुछ कर तो
नहीं सकता, सिर्फ
कल्पना ही कर
सकता है। उसके
भी कारण हैं।
असल में कवि
का मतलब है, पैसिव
माइंड। ऐसा
बैठ कर कल्पना
कर सकता है, कर कुछ भी
नहीं सकता।
महल बहुत बना
सकता है, लेकिन
कल्पना में
ही! बैठे-बैठे
जो बन सकते हैं,
वे ही महल
बना सकता है।
खड़े होकर और
गिट्टी तोड़ कर
और पत्थर जमा
कर जो महल
बनाने पड़ते
हैं, वह
उसके बस की
बात नहीं है।
शब्दों के महल
बना सकता है, क्योंकि वह
बैठ कर ही हो
जाता है।
बल्कि
और भी मजे की
बात है।
विज्ञान में
करना पड़ता है
आविष्कार, तो वह पुरुष
चित्त
डिस्कवर करता
है, खोलता
है; जो
ढंका है, उसे
उघाड़ता है।
कवि डिस्कवर
नहीं करता, वह तो ऐसा
बैठा रह जाता
चुपचाप।
बल्कि सच यह
है कि जब बड़ी
कविता उसमें
उतरती है, तब
वह बिलकुल
पैसिव होता है,
बिलकुल
वूमेन होता है,
स्त्री
होता है।
उसमें उतरती
है कोई चीज।
रवींद्रनाथ
कहते हैं कि
मैंने क्या
गाया! जब मैं
नहीं था, तब
हे परमात्मा!
तू मुझसे गाता
है। जब मैं
नहीं होता हूं,
तब तू ही
उतर आता है और
मुझसे गाता
है।
अब यह
जो माइंड है न, यह बिलकुल
पैसिव माइंड
है। इसमें कुछ
उतरता है, इससे
बहता है। यह
प्रतीक्षारत,
राह देखता,
अवसर
खोजता--लेकिन
अपनी जगह चुप
और मौन। तो सभी
कवि चित्त
स्त्री चित्त
होंगे।
महावीर
का यह जो जोर
है, इसके पीछे
कारण है। यह
स्त्री और
पुरुष के बीच
नीचे-ऊंचे की
बात नहीं है।
यह स्त्रैण
चित्त और पुरुष
चित्त क्या कर
सकते हैं, इस
बात की--इस बात
के संबंध में
विचार है।
इसलिए महावीर
कहते हैं, स्त्री
का मोक्ष
नहीं।
इसको
समझना चाहिए।
इसका मतलब है
स्त्रैण चित्त
को मोक्ष
नहीं। स्त्री
मोक्ष जा सकती
है, लेकिन
चित्त पुरुष
का होना
चाहिए--महावीर
के मार्ग से।
अगर
मीरा के मार्ग
से कोई जाना
चाहे तो मीरा
कहेगी, पुरुष
को कोई मोक्ष
नहीं। मीरा के
मार्ग से जाना
हो तो स्त्री
चित्त ही
चाहिए। उस
मार्ग से पुरुष
के लिए कोई
कोई मुक्ति हो
नहीं सकती।
क्योंकि
पुरुष, पुरुष
इस तरह की बात
ही नहीं सोच
सकता, जैसा
मीरा सोच सकती
है। और अगर
कभी पुरुष
सोचता है तो
फौरन स्त्रैण
हो जाता है।
जैसे
देखें, अगर
कबीर भी, या
सूर अगर कृष्ण
के प्रेम में
पागल हो जाएं
तो सोचते क्या
हैं? तो
फौरन स्त्रैण
चित्त की बातें
शुरू हो जाती
हैं! तो कबीर
कहते हैं, मैं
राम की
दुल्हनिया!
मैं तो राम की
दुल्हन हूं!
वह जो भाव है न,
वह फौरन
स्त्री का आना
शुरू हो
जाएगा। तो
कहेंगे कि मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं सेज
पर तुम्हारी,
तुम कब
आओगे! वह जो
भाव है, वह
स्त्री का
शुरू हो
जाएगा। सेज
तैयार हो गई
है, फूल
छिड़क दिए गए, सुगंध फैल
गई, धूप जल
गई, अभी तक
तुम आए नहीं!
वह प्रतीक्षा
चलनी शुरू हो
गई। वह स्त्री
चित्त
प्रतीक्षा
करने लगा।
और जगत
में दो ही तरह
के चित्त
हैं--स्त्री
चित्त और
पुरुष चित्त।
इसलिए बहुत
गहरे में मुक्ति
के दो ही
मार्ग हैं: स्त्री
का और पुरुष
का।
महावीर
का मार्ग
पुरुष का
मार्ग है, इसलिए
महावीर के
मार्ग पर
स्त्री के लिए
कोई गुंजाइश
नहीं है।
प्रश्न:
ज्यादातर
लोग तो
मिक्सचर होते
हैं।
हां, तो इसलिए
उनके लिए बीच
का कोई मार्ग
होता है। इसलिए
मार्ग बहुत
हैं, लेकिन
मौलिक रूप से
दो ही मूल
मार्ग होंगे।
क्योंकि
पुरुष और स्त्री--मनुष्य
जीवन में दो
अति छोर हैं, जहां दो
एक्सट्रीम्स
पर दो तरह का
अस्तित्व है।
अधिक लोग बीच
में होते हैं।
अधिक लोग बीच
में होते हैं,
इसलिए अधिक
लोग बीच का
रास्ता पकड़ते
हैं, जिसमें
वे ध्यान भी
करते हैं और
पूजा भी करते
हैं।
अब यह
मजा है कि
ध्यान पुरुष
मार्ग का
हिस्सा है और
पूजा स्त्री
मार्ग का
हिस्सा है।
जिसमें वे
पूजा और ध्यान
का तालमेल कर
लेते हैं--और पूजा
भी करते रहते
हैं और ध्यान
भी करते रहते
हैं! वह
घोलमेल है। और
मेरा खयाल
अपना यह है कि
घोलमेल से तो
मुक्ति बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि वहां
कुछ, कभी हम इस
रास्ते पर
थोड़ा जाते, कभी उस
रास्ते पर
थोड़ा जाते।
इसलिए
बहुत ठीक
चित्त का
विश्लेषण
जरूरी है कि
किस व्यक्ति
के लिए कौन सा
मार्ग?
तो
महावीर के
मार्ग पर
स्त्रियां--जैसा
प्रश्न में
पूछा
है--उपेक्षित
हैं, ऐसा नहीं,
स्त्री
चित्त
उपेक्षित है।
स्त्री चित्त
उपेक्षित
होगा ही। जैसा
कि मीरा के
मार्ग पर पुरुष
चित्त
उपेक्षित
होगा।
मीरा
गई वृंदावन और
एक बड़ा साधु
है, पुजारी
है, संत है,
वह उसके
दर्शन के लिए
जाकर उसके
द्वार पर खड़ी हो
गई। उसने खबर
भेजी कि मैं
तो स्त्रियों
को देखता नहीं,
तो
स्त्रियों से
मिलता नहीं
हूं! मीरा ने
उत्तर
भिजवाया कि
मैं तो सोचती
थी कि एक ही
पुरुष है जगत
में, दूसरा
पुरुष भी है
इसका मुझे पता
न था! तुम दूसरे
पुरुष भी हो? वह भी कृष्ण
का भक्त है।
तो मीरा ने
खबर भिजवाई कि
मैं तो सोचती
थी कृष्ण एक
ही पुरुष हैं
और तुम कृष्ण
के भक्त होकर
तुम भी एक
पुरुष हो! वह
पुजारी भागा
हुआ आया और
उसने कहा कि
माफ करना, भूल
हो गई। भीतर
चलो।
इसमें
बड़ा अर्थ है।
इसमें बड़ा
अर्थ यह है कि
एक तो पुजारी
गलत बात कह
गया। पुजारी
को खुद स्त्रैण
होना चाहिए, अगर वह
कृष्ण का भक्त
है तो।
क्योंकि कृष्ण
के साथ सखियों
के सिवाय और
किसी का निबाह
नहीं। और किसी
का कोई मार्ग
नहीं वहां।
वहां राधा
जैसा चित्त ही
चाहिए--पूर्ण
समर्पित, पूरा
सहारा लिए हुए;
प्रतीक्षा
करता हुआ; दूसरे
के हाथ में
हाथ डाले
हुए--दूसरा ले
जाए।
वह भी
मार्ग है। अगर
कोई पूर्णरूप
से उस तरफ जाए
तो उधर से भी
उपलब्धि है।
लेकिन महावीर
का वह मार्ग
नहीं है।
इसलिए महावीर
के मार्ग पर
स्त्री चित्त
उपेक्षित
होगा ही, मगर
वह स्त्री की
उपेक्षा नहीं
है। तो भूल हो जाएगी।
एक
प्रश्न और
उसने आगे पूछा
है--और वे एक
साध्वी के ही
पूछे हुए
प्रश्न
हैं--तो उसने यह
पूछा है कि
महावीर के
मार्ग पर यह
बड़ी बेबूझ बात
है कि एक दिन
का दीक्षित
साधु हो, सत्तर
वर्ष की
दीक्षित
वृद्धा
साध्वी हो, तो भी
साध्वी को
साधु को
प्रणाम करना
पड़ेगा! एक दिन
के दीक्षित
साधु को सत्तर
वर्ष की दीक्षित
वृद्धा
साध्वी को, लेकिन
प्रणाम
साध्वी को ही
साधु को करना
पड़ेगा! तो
उसने पूछा है,
पुरुष के
लिए इतना
सम्मान और
स्त्री के लिए
इतना अपमान!
जब कि महावीर
समानता का
खयाल रखते हैं?
एक तो
जो मैंने पूरी
बात कही, वह
खयाल में रहे,
महावीर के
मन में स्त्री
चित्त के लिए
कोई जगह नहीं
है, स्त्रैणता
के लिए कोई
जगह नहीं
है--एक। और
दूसरा भी एक
मनोवैज्ञानिक
कारण है, जो
खयाल में रहे।
और वह बड़े मजे
का है, वह
कभी खयाल में
नहीं आ सका।
यह बड़ी
अदभुत बात है
कि वृद्धा
साध्वी एक दिन
के दीक्षित
जवान साधु को
भी नमस्कार
करे! कोई साधु
किसी साध्वी
को कभी
नमस्कार न
करे! स्वभावतः, लगेगा कि
पुरुष को बहुत
सम्मान दे
दिया गया, स्त्री
को बहुत
अपमानित कर
दिया गया!
बात
उलटी है, लेकिन
बड़ी
मनोवैज्ञानिक
है, इसलिए
एकदम से खयाल
में नहीं आती।
बात यह है कि
स्त्रियों से
संयम की
संभावना
ज्यादा है पुरुषों
की बजाय, सदा।
पुरुष के
असंयमी होने
की संभावना बहुत
ज्यादा है, स्त्री के
संयमी होने की
संभावना बहुत
ज्यादा है।
उसके
कारण हैं कि
पुरुष
आक्रामक है, उसका चित्त
आक्रामक है।
स्त्री को जब
तक कोई असंयम
में न ले जाए, वह अपने से
जाने वाली
नहीं है, यह
ध्यान रहे।
उसको कोई लीड
करे--चाहे
मोक्ष की तरफ
और चाहे नरक
की तरफ, कोई
उसका हाथ पकड़े
और ले जाए तो
ही वह जाती है;
अपनी तरफ से
वह कहीं जाती
नहीं।
पुरुष
इनीशिएटिव
लेता है हर
चीज में--चाहे
पाप हो चाहे
पुण्य, चाहे
मोक्ष हो और
चाहे नरक, चाहे
अंधकार हो
चाहे प्रकाश,
पुरुष पहल
करने वाला है।
अगर पाप में
भी कभी कोई ले
जाता है तो
पुरुष ही
स्त्री को ले
जाता है। ऐसा
बहुत कम मौका
है कि कभी कोई
स्त्री किसी
पुरुष को पाप
में ले गई हो।
कभी ले जाए तो
उसका कारण यही
होगा कि उसके
पास पुरुष
चित्त है, और
कोई कारण
नहीं।
लेकिन
यह बहुत, बहुत
मुश्किल घटना
है कि स्त्री
किसी को पाप में
ले जाती हो, या पुण्य
में, या
धर्म में, यह
सवाल ही नहीं
है। इसलिए
स्त्री नेता
मुश्किल से हो
पाती है।
नेतृत्व, पहल
करने की उसमें
संभावना कम
होती है। या
हो, तो
उसमें पुरुष
चित्त की कोई
न कोई
बुनियादी आधारशिला
होती है।
महावीर
यहां बहुत
अदभुत
मनोवैज्ञानिक
सूझ का परिचय
दे रहे हैं, जो कि
फ्रायड के
पहले किसी
आदमी ने कभी
दिया ही नहीं
था। लेकिन सूझ
इतनी गहरी है,
एकदम से
दिखाई नहीं
पड़ती। चूंकि
पुरुष ही पाप में
ले जा सकता है,
स्त्री कभी
नहीं--और एक
बात ध्यान
रखें, इसके
लिए महावीर ने
बड़ा सुगम उपाय
किया, स्त्री
पुरुष को आदर
दे। और जब
स्त्री जिस
पुरुष को आदर
देती है, उसके
अहंकार को
कठिनाई हो
जाती है उस
स्त्री को पाप
में ले जाने
की। एक स्त्री
अगर आपको आदर दे,
पूज्य माने,
सिर रख दे
पैरों में, तो आपके
अहंकार को
कठिनाई हो
जाती है अब
इसको नीचे, क्योंकि अब
इतना जिसने
आदर दिया है, इस आदर को आप
अपनी तरफ से
उतार कर खंडित
करें और आप
इसे पाप की
तरफ ले जाएं, यह आपके
अहंकार को
मुश्किल हो
गई। आपका
अहंकार अब
संभल कर बैठा
रहेगा--क्योंकि
जिसने इतना आदर
दिया है, अब
मैं नीचे
उतरूं और उसके
आदर-भाव को
खंडित करूं, यह मुश्किल
होगा।
महावीर
ने एक बहुत
साइकोलाजिकल
डिवाइस, एक
बड़ा
मनोवैज्ञानिक
उपाय किया।
पुरुष ले जा सकता
है स्त्री को
पाप में और
इसलिए स्त्री
को कहा कि
कितनी ही
वृद्धा
स्त्री हो, पुरुष को
आदर दे, उसका
पैर छू ले, सिर
लगा दे उसके
पैर से, ताकि
उसके अहंकार
को कठिनाई हो
जाए कि वह
किसी स्त्री
को पाप में ले
जाने की
कल्पना भी न
कर सके, वह
असंभव हो जाए।
यहां
अगर ध्यान से
देखा जाए तो
झुकती तो
स्त्री है
पुरुष के
चरणों में, लेकिन
वस्तुतः यहां
पुरुष का पूरा
अनादर हो गया
है इस घटना
में और स्त्री
का पूरा आदर
हो गया है।
लेकिन वह
देखना जरा
मुश्किल
मामला है। यहां
स्त्री का
पूरा सम्मान
है इस मामले
में। क्योंकि मामला
यह है कि
स्त्री पाप
में किसी को
अपनी तरफ से
ले जाती ही
नहीं।
इसलिए
आप ध्यान रखें, महावीर के
तेरह हजार
साधु थे और
चालीस हजार साध्वियां
थीं। और यह
अनुपात हमेशा
ऐसा ही रहा है।
और साध्वियां
जितनी
साध्वियां
होती हैं, साधु
उतने साधु
नहीं
होते--पैसिविटी
के कारण। यानी
वे चूंकि पहल
नहीं करतीं
किसी भी काम
में, इसलिए
वे जहां हैं, वहीं रुक
जाती हैं।
यह भी
बड़े मजे की
बात है कि अगर
स्त्री को
कामवासना में
न ले जाया गया
हो और उसे
दीक्षित न किया
जाए कामवासना
में, तो
स्त्री पूरे
जीवन
ब्रह्मचर्य
से रह सकती है,
उसमें कोई
बाधा नहीं है,
कठिनाई
नहीं है।
स्त्री को अगर
कामवासना में दीक्षित
न किया जाए तो
वह पूरे जीवन
ब्रह्मचर्य
से रह सकती
है। लेकिन
पुरुष नहीं रह
सकता। पुरुष
की बड़ी कठिनाई
है।
स्त्री
की सारी शरीर
की और मन की जो
व्यवस्था है, वह बहुत
अदभुत है, वह
बहुत और तरह
की है। पुरुष
के
व्यक्तित्व
और शरीर की
व्यवस्था
बहुत और तरह
की है। स्त्री
को कामवासना
में भी
दीक्षित करना
पड़ता है, धर्म-साधना
में भी
दीक्षित करना
पड़ता है। वह पहल
लेती ही नहीं।
पहल उसके
व्यक्तित्व
का हिस्सा
नहीं है। शुरुआत
वह नहीं करती।
शुरुआत कोई
करता है, वह
पीछे चलती है।
अगर शुरुआत न
की जाए तो
पूरे जीवन भी
स्त्री
बिलकुल
निर्दोष रखी
जा सकती है।
इसलिए
निर्दोष
लड़कियां तो
मिल जाती हैं, निर्दोष
लड़के मिलना
बहुत मुश्किल
है। क्वांरी
लड़कियां मिल
जाती हैं, कुंवारे
लड़के मुश्किल
से होते हैं।
उसका
क्वांरापन
तोड़ना पड़ता
है। लड़की का
क्वांरापन
तोड़ना पड़ता है,
तभी टूटता
है। और लड़के
का क्वांरापन
बहुत बचाना
पड़े तो ही बच
सकता है। यानी
इन दोनों
बातों में
बुनियादी
फर्क है।
और
इसलिए, इसलिए
लड़कियों पर जो
हमें इतने
नियंत्रण और बंधन
मालूम पड़ते
हैं, वे
असल में
लड़कियों पर
नहीं हैं, लेकिन
समझ बहुत कम
है हमारी।
लड़कियों को घर
में रोका गया
है, लड़कों
से नहीं मिलने
दिया गया है, नहीं
दौड़ने-धूपने
दिया गया है, उसका कारण
यह नहीं है कि
लड़कियों पर
अविश्वास है,
उसका कारण
यह है कि उनको
कभी भी
इनीशिएट कहीं भी
किया जा सकता
है। लड़कों पर
विश्वास नहीं
है। वे जो लड़के
बाहर हैं उन
पर विश्वास
नहीं है, वे
विश्वास
योग्य नहीं
हैं। वे
लड़कियों को पहल
दे सकते हैं
पाप की। और
लड़कियां
चूंकि कोई पहल
दे नहीं सकतीं
कभी भी...।
महावीर
ने यह जो
व्यवस्था की
कि हर स्थिति
में साध्वी
साधु को आदर
दे, इसमें
पुरुष के
अहंकार की भी
बड़ी तृप्ति
हुई और साधुओं
ने समझा होगा,
हमारा बड़ा
सम्मान भी हुआ,
और आज भी वे
यही समझ रहे
हैं...!
प्रश्न:
इसमें
नमस्कार करने
वाले का
अहंकार टूटता
है या जिसको
नमस्कार किया
जाता है, उसका अहंकार
टूटता है?
नहीं, नहीं, अहंकार
तोड़ना नहीं है,
यहां पुरुष
का महावीर
अहंकार पूरी
तरह सुरक्षित
कर रहे हैं।
पुरुष का
अहंकार ही
सुरक्षित कर
रहे हैं।
साध्वी पुरुष
को नमस्कार
करे...।
प्रश्न:
तो
उसका अहंकार
टूटता है?
किसका? साध्वी का
टूटेगा
अहंकार, पुरुष
का मजबूत
होगा। और
मजबूत इसलिए
कर रहे हैं वे
कि पुरुष को
अगर एक दफे
पता चल जाए कि
एक स्त्री ने
मुझे आदर दिया,
तो वह पुरुष
उस स्त्री को
पाप में
इनीशिएट करने
की व्यवस्था
नहीं कर
पाएगा। तो
उसकी जो रुकावट
खड़ी करे, मेरी
बात आप समझ गए
न?
अगर एक
स्त्री आपका
पैर छू ले और
आपके पैर में सिर
रख दे, तो आप
इस स्त्री को
सेक्स की दिशा
में ले जाने में
एकदम असमर्थ
हो जाएंगे--आप
असमर्थ हो
जाएंगे।
इसलिए असमर्थ
हो जाएंगे कि
आपके अहंकार को
अब बड़ी बाधा
हो गई।
यानी
जिसने इतना
आदर दिया है, अब उसके
सामने मैं
इतना ओछा हो
जाऊं, यह
आपके लिए
असंभव हो गया।
आप अकड़ कर बैठ
जाएंगे। आप अब
आदर की रक्षा
करेंगे। जो
आदर आपको मिला
है, उसकी
आपको रक्षा
करनी पड़ेगी।
आप उस रक्षा
को नहीं तोड़
सकते।
लेकिन
स्त्री के
मामले में
उलटी बात है।
अगर यह कहा
जाए कि स्त्री
को पुरुष आदर
दे, उसका पैर
छुए, तो
इसमें भी
समझने जैसा
मामला है।
स्त्री का
चाहे तुम पैर
छुओ, चाहे
कोई शरीर का
अंग छुओ, स्त्री
का सेक्स उसके
पूरे शरीर पर
व्याप्त है।
पुरुष का
सेक्स सिर्फ
उसके सेक्स
सेंटर के आस-पास
है, इससे
ज्यादा नहीं।
उसकी पूरी
बॉडी
सेक्सलेस है,
सिर्फ
सेक्स सेंटर
को छोड़कर।
लेकिन स्त्री
का पूरा शरीर
सेक्सुअल है।
वह पूरे शरीर
से कामुक है।
इसलिए
पुरुष को
सिर्फ संभोग
से आनंद आ
जाता है, स्त्री
को सिर्फ
संभोग से आनंद
कभी नहीं आता,
जब तक कि
उसके पूरे
शरीर के साथ
पुरुष न खेले,
वह उसके
पूरे शरीर को
न जगाए, तब
तक उसे कभी
आनंद नहीं
आता। और वह
फ्रिजिड ही रह
जाती है। वह
कभी--जब तक
उसका पूरा
शरीर न जगाया
जाए, उसका
रोआं-रोआं न
जग जाए, जब
तक उसका पूरा
शरीर न कंपने
लगे और उसका
पूरा शरीर
ज्वरग्रस्त न
हो जाए काम
में, तब तक
उसे रस नहीं
आता। पुरुष को
इस सबमें कोई मतलब
नहीं है, उसके
पूरे शरीर का
कोई संबंध
नहीं है! उसका
सेक्स सेंटर
रिलीज कर देता
है, मामला
खतम हो जाता
है।
तो अगर
पुरुष को
स्त्री का पैर
भी छुआया जाए
तो भी स्त्री
में सेक्स की
संभावना के
जगने की शुरुआत
हो सकती है।
उसका पूरा
शरीर
सेक्सुअल है।
उसका पूरा
शरीर सेक्सुअल
है और अगर
पुरुष को उसका
पैर छूने का मौका
दिया जाए तो
यह शुरुआत है, और यह
शुरुआत आगे बढ़
सकती है।
और
पुरुष अगर
पहले ही झुका
दिया गया तो
अब उसको और
झुकने में डर
नहीं है, इसका
भी खयाल रख
लिया जाए। अगर
उसको पहले ही
पैर में झुका
दिया गया तो
अब और नीचे जाने
की क्या बात
है? पैर
में तो वह है
ही। यानी अब
उसको कोई भय
भी नहीं है।
अब वह स्त्री
को किसी भी
पाप के मार्ग
में दीक्षित
कर सकता है।
इसलिए
महावीर की बात
तो बहुत अदभुत
है, लेकिन
मैं नहीं
समझता कि
पच्चीस सौ
वर्ष में कभी
कही भी गई है!
और आमतौर से
यही समझा गया
है कि वह
स्त्री को
अपमानित कर
रहे हैं, पुरुष
को सम्मानित
कर रहे हैं!
मामला बिलकुल
ही उलटा है।
पुरुष पूरी
तरह अपमानित
हुआ है इस घटना
में और स्त्री
पूरी तरह
सम्मानित हुई
है।
प्रश्न:
इसका
इंटरप्रिटेशन
और किसी ने
दिया है क्या, जैसा आपने
दिया?
नहीं, अब तक तो
मुझे खयाल
नहीं है कि
किसी ने दिया
है। अब तक तो
मुझे खयाल
नहीं कि किसी
ने दिया है।
प्रश्न:
तो
अभी तक
जिन्होंने
दिया
इंटरप्रिटेशन
वह यही दिया
है!
वह
तो यही है। वह
तो यही है कि
स्त्री जो है, वह नीची
योनि है; पुरुष
जो है, वह
ऊंची योनि है;
इसलिए
पुरुष योनि को
वह नमस्कार
करे। लेकिन
मैं उस
व्याख्या को
बिलकुल ही गलत
मानता हूं।
उससे कोई
संबंध ही नहीं
है इस बात का।
प्रश्न:
महावीर
के जमाने में...
हां, पूछिए।
प्रश्न:
बहुत
से साधु और
साध्वियां बन
गए थे, लेकिन
ध्यान में तो
पीछे पड़ते
होंगे वे, लेकिन
पहले घर-बार
छोड़ कर उनके
साथ क्यों हो
गए? आप तो
ऐसी सलाह देते
नहीं हैं!
पहली
बात तो यह कि
महावीर की जो
व्यवस्था है, उन्होंने
मनुष्य के चार
वर्गीकरण किए
हैं: श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी।
महावीर की जो
साधना-पद्धति
है, वह
श्रावक से
शुरू होती है
या श्राविका
से। एकदम से
कोई साधु नहीं
हो सकता। एकदम
से साधु होने
का कोई सवाल
ही नहीं उठता।
महावीर की
साधना का पूरा
व्यवस्था
क्रम है। पहले
उसे श्रावक
होना पड़े। और
श्रावक की
साधना--ध्यान,
सामायिक
श्रावक की है।
जब वह उससे
गुजर जाए, जब
उसकी उतनी
उपलब्धि हो
जाए, फिर
वह साधु के
जीवन में
प्रवेश कर
सकता है।
सीधे
महावीर
उत्सुक नहीं
हैं किसी को
भी साधु की
दीक्षा में
लाने को। यानी
जब साधु का
जन्म हो जाए
भीतर। श्रावक
भूमिका है, जहां साधु
का जन्म हो
जाए, तो
फिर वह जा
सकता है। और
तब भी उनका
आग्रह नहीं है
कि वह जाए ही, वह श्रावक
रह कर भी
मोक्ष पा सकता
है।
यह बड़े
मजे की बात है, सिर्फ
महावीर यह
कहने की
हिम्मत किए
हैं कि श्रावक
रहते हुए भी
सीधा मोक्ष जा
सकता है, साधु
होना
अनिवार्य भी
नहीं है बीच
में। यानी श्रावक
होते-होते भी
वह साधु हो
सकता है, इसमें
भी कोई बाधा
नहीं है। कोई
मोक्ष में
इससे बाधा
नहीं है।
लेकिन महावीर
कहते यह हैं
कि फिर उसको
जैसा
आनंदपूर्ण
मालूम पड़े।
अगर
मान लीजिए आप
ध्यान में
गहरे गए और
आपको वस्त्र
पहने रखना ही
ठीक मालूम
पड़ता है तो आप
जारी रखें। और
कहीं आपको ऐसा
भीतर लगने
लगता है कि
छोड़ दें, कोई
अर्थ नहीं
इनमें, तो
इसको भी क्यों
रोकें? तो
छोड़ दें। यानी
महावीर मानते
हैं सहज-भाव
को कि अगर एक
व्यक्ति को
लगता है कि वह
शांत हुआ, ध्यानस्थ
हुआ, घर
में रह कर ही
अगर यह चल
सकता है तो
ठीक है। नहीं
चलता, उसे
लगता है कि यह
व्यर्थ हो गया
है, छोड़
देना है, तो
महावीर इसको
भी नहीं
रोकते। वह छोड़
दे, जाए।
लेकिन रुकावट
नहीं है उनकी
कोई।
प्रश्न:
और
आग्रह भी नहीं
है?
और
आग्रह भी नहीं
है, कोई
आग्रह नहीं
है।
प्रश्न:
श्रावक
से पहले साधु
बनने को नहीं
बोले?
नहीं, नहीं, वह
बन ही नहीं
सकता कोई।
बनने का उपाय
ही नहीं है।
बनने का उपाय
ही नहीं है।
वह तो श्रावक
की व्यवस्था
से उसे गुजरना
पड़े। फिर या
तो वह श्रावक
होने में ही
साधु हो जाए
और या वह
जिसको हम साधु
कहते हैं, वैसा
हो जाए, इसमें
कोई बाधा नहीं
है। इसमें कोई
बाधा नहीं है।
प्रश्न:
परंपरा
से प्रमाणित
एवं निर्णीत
महावीर के जीवन
का बौद्धिक एवं
तथ्य-पूर्ण
आपका
विश्लेषण
क्या समाज को
स्वीकृत होगा?
एक
तो, कुछ समाज
को स्वीकृत हो,
ऐसी
आवश्यकता भी
नहीं है। समाज
को स्वीकृत हो,
इसका ध्यान
भी नहीं है।
समाज को
स्वीकृत होने से
ही वह ठीक है, ऐसा कोई
कारण भी नहीं
है। समाज को
जो स्वीकृत है,
वह वही है
कि जैसा समाज
है, उसको
वह वैसा ही
बनाए रखे।
निश्चित
ही समाज को जब
भी बदलने का
खयाल आता है
या सवाल उठता
है कि समाज
बदले, दृष्टि
बदले, विचार
बदले, तो
अस्वीकृति
आती है।
प्राथमिक रूप
से तो जो मैं
कह रहा हूं, उसकी
अस्वीकृति की
ही संभावना
है--समाज से, बुद्धिमान
से नहीं।
लेकिन अगर जो
मैं कह रहा
हूं, वह
बुद्धिमत्तापूर्ण
है, वैज्ञानिक
है, तथ्यगत
है, तात्विक
है, तो
अस्वीकृति को
टूटना पड़ेगा।
अस्वीकृति जीत
नहीं सकती, उसको हारना
पड़ेगा। और अगर
वह तथ्यपूर्ण
नहीं है, अवैज्ञानिक
है, तात्विक
नहीं है, तो
अस्वीकृति
जीत जाएगी और
जीतना चाहिए।
तो
पहली तो बात
यह, मेरे मन
में यह सवाल
ही नहीं उठता
कि कौन उसे स्वीकार
करे, कौन
अस्वीकार
करे। यह सवाल
नहीं है। मुझे
जो सत्य मालूम
पड़ता है, वह
मुझे कह देना
है। अगर वह
सत्य होगा तो
आज नहीं कल
स्वीकार करना
ही पड़ेगा।
सत्य
को अस्वीकार
करना असंभव
है। लेकिन
सत्य भी
प्राथमिक रूप
से अस्वीकार
किया जाता है।
बल्कि सत्य ही
किया जाता है, क्योंकि हम
जिस असत्य में
जीते हैं, वह
उससे विपरीत
पड़ता है, तो
वह अस्वीकृत
होता है। सत्य
पहले
अस्वीकृत होता
है। लेकिन अगर
वह सत्य है तो
टिक जाता है और
स्वीकृति
पाता है, और
अगर असत्य है
तो मर जाता है,
गिर जाता
है।
एक
अदभुत
व्यक्ति थे
महात्मा
भगवानदीन। वे
जब किसी सभा
में बोलते और
लोग ताली
बजाते तो बहुत
उदास हो जाते।
मुझसे वह कहते
थे, जब कोई
ताली बजाता है
तो मुझे शक
होता है कि मैंने
कोई असत्य तो
नहीं बोल दिया?
क्योंकि
इतनी भीड़ सत्य
के लिए ताली
बजाएगी एकदम
से, इसकी
संभावना नहीं
है। वे मुझसे
कहते कि मैं तो
उस दिन की
प्रतीक्षा
करता हूं कि
जब भीड़ एकदम
से पत्थर मारे
तो मैं
समझूंगा, जरूर
कोई सत्य बोला
गया। क्योंकि
भीड़ असत्य में
जीती है, समाज
असत्य में
जीता है। और
सत्य पर पहले
तो पत्थर ही
पड़ते हैं। मगर
वह सत्य की
पहली
स्वीकृति
है--पत्थर भी।
और पत्थर पड़
गया और सत्य
अगर सत्य है और
बच गया, तो
अस्वीकृति को
आज नहीं कल मर
जाना होता है।
यह निरंतर की
कथा यही है।
सदा यही होगा।
अंधकार
घना है, अज्ञान
गहरा है।
ज्ञान की पहली
किरण उतरे, प्रकाश उतरे,
तो पहला तो
काम हमारा यह
होता है कि
हमारी आंखें
एकदम बंद हो
जाती हैं।
क्योंकि
अंधेरे में जीने
वाला व्यक्ति
प्रकाश को
देखने की
क्षमता भी
नहीं जुटा
पाता। पहला
काम तो आंख
बंद हो जाती
है।
लेकिन
आंख कितनी देर
बंद रहेगी? आंख तो
खोलनी ही
पड़ेगी। और अगर
प्रकाश सच में
प्रकाश था तो
पहचाना भी जा
सकेगा। कभी
हजार वर्ष भी
लगते हैं, कभी
दो हजार वर्ष
भी लगते हैं।
मेरी अपनी समझ
यही है कि
महावीर या
बुद्ध को या
क्राइस्ट को,
कृष्ण को जो
दिखाई पड़ा, वह आज भी
कहां स्वीकृत
हो सका है? अभी
भी प्रतीक्षा
है। अभी भी वह
खड़ा प्रतीक्षा
कर रहा है कि
वक्त आएगा, वक्त आएगा, वक्त आएगा!
सत्य
को अनंत
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है, क्योंकि
हमारा असत्य
बड़ा गहरा है, हमारा
अज्ञान बड़ा
गहरा है।
लेकिन उसकी
चिंता सत्य को
नहीं होती है।
स्वीकृति की
चिंता सिर्फ
असत्य को होती
है, यह
ध्यान में
रहे। क्योंकि
असत्य स्वीकृति
पर ही जी सकता
है। सत्य तो
बिना स्वीकृति
के भी जीता है,
उसका अपना
जीवन है।
एक
पुरानी कहानी
है कि असत्य
के पास अपने
कोई पैर नहीं
होते हैं। अगर
उसे चलना भी
हो तो उसे सत्य
के पैर ही
उधार लेने
पड़ते हैं।
अपने पैर उसके
पास हैं ही
नहीं।
यानी
असत्य अपने
पैर पर खड़ा ही
नहीं हो सकता।
असत्य खड़ा हो
सकता है, आप
सब की
स्वीकृति मिल
जाए, तो वह
सत्य जैसा
भासने लगता
है। असत्य को
स्वीकृति
मिले तो सत्य
जैसा भासने
लगता है। और
सत्य को
अस्वीकृति भी
मिल जाए तो भी
वह असत्य नहीं
हो जाता, असत्य
जैसा भासने
लगता है।
लेकिन सत्य
सत्य है, असत्य
असत्य है। और
असत्य करोड़ों
वर्ष तक चले तो
भी असत्य है
और सत्य
बिलकुल न चल
पाए तो भी सत्य
है। इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
गैलीलियो
ने जब पहली
दफा यह कहा कि
सूरज पृथ्वी
का चक्कर नहीं
लगाता है, पृथ्वी ही
सूरज का चक्कर
लगाती है तो
ईसाइयों में
भारी क्रोध
पैदा हो गया!
क्योंकि
बाइबिल तो
कहती है कि पृथ्वी
थिर है, सूरज
चक्कर लगाता
है। तो क्या
जीसस को पता
नहीं था? क्या
हमारे
पैगंबरों को
पता नहीं था?
सत्तर
साल के बूढ़े
गैलीलियो को
हाथ में जंजीरें
डाल कर पोप की
अदालत में
लाया गया! उस
बूढ़े आदमी से
कहा गया कि
तुम यह कहो कि
तुमने जो कहा
है, यह असत्य
है, और कहो
कि पृथ्वी थिर
है और सूरज
चक्कर लगाता है,
पृथ्वी
चक्कर नहीं
लगाती सूरज
का!
गैलीलियो
बढ़िया आदमी
था। उसने कहा, जैसी आपकी
मर्जी। उसने
कागज पर लिख
दिया कि आप
कहते हैं तो
मैं लिखे देता
हूं कि सूरज
ही चक्कर
लगाता है
पृथ्वी का, पृथ्वी
चक्कर नहीं
लगाती। लेकिन
मैं कुछ भी लिखूं,
इससे फर्क
नहीं पड़ता, चक्कर तो
पृथ्वी ही
लगाती है। मैं
क्या कर सकता
हूं? यानी
अब ऐसा है, मैं
चक्कर लगाना
थोड़े ही रोक
सकता हूं। मैं
इतना ही कह
सकता हूं कि
भई, मैं
कहे देता हूं,
लेकिन इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। इससे
क्या फर्क
पड़ता है? चक्कर
तो पृथ्वी ही
लगाती है। वह
जिस पर उसने दस्तखत
किए हैं, उसमें
उसने यह लिखा
है।
गैलीलियो
भी इनकार कर
दे, उसने
लिखा है उसमें,
तो भी क्या
फर्क पड़ता है?
कोई
गैलीलियो
थोड़े ही चक्कर
लगवा रहा है!
और ठीक है, आज
इनकार हो जाएगा,
लेकिन
कितने दिन
इनकार करोगे?
गैलीलियो
बड़ा साधारण
आदमी है, लेकिन
बाइबिल हार गई,
गैलीलियो
जीत गया।
क्योंकि सत्य
जीतता है--न बाइबिल
जीतती है, न
गैलीलियो
जीतता है; न
क्राइस्ट
जीतते, न
कृष्ण; न
महावीर, न
मोहम्मद--जीतता
सत्य है, हारता
असत्य है।
लेकिन वक्त लग
सकता है।
असत्य
अपने बचाने की
सारी कोशिश
करता है, अपनी
सुरक्षा करता
है। और उसकी
सबसे बड़ी सुरक्षा
है स्वीकृति,
लोगों में
स्वीकृति
पैदा कर लेना।
इसलिए असत्य
स्वीकृति पर
जीता है। उसके
पास और जीने
के लिए कुछ भी
नहीं है, पैर
उसके पास
स्वीकृति के
हैं। सत्य स्वीकृति
की चिंता भी
नहीं करता, वह
अस्वीकृति
में भी जी
लेता है।
क्योंकि अपने
पैर हैं, अपनी
श्वास है, अपने
प्राण हैं। और
वह प्रतीक्षा
करता है, और
अनंत काल तक
प्रतीक्षा कर
सकता है। कभी
तो आंख खुलती
है और चीजें
दिखाई पड़ती
हैं।
मुझे
चिंता नहीं है
जरा भी। मुझे
कभी भी इस बात
की चिंता नहीं
हुई कि जो मैं
कह रहा हूं, उसे कौन
मानेगा, कौन
नहीं मानेगा।
जिस व्यक्ति
को यह चिंता
होती है, वह
सत्य कभी बोल
ही नहीं सकता
है। क्योंकि
तब वह पहले
आपकी तरफ देख
लेता है कि आप
क्या मानोगे,
वही बोलना
चाहिए। उसको
मान्यता
ज्यादा मूल्यवान
है। और
मान्यता जिन
लोगों से पानी
है, अगर वे
सत्य को ही
उपलब्ध होते,
तो बात करने
की कोई जरूरत
न थी।
अंधेरे
में खड़े लोगों
से सूरज के
लिए मान्यता लेनी
है, तो वे
अंधेरे में
खड़े लोग कहते
हैं कि सूरज
से अंधेरा
निकलता है, प्रकाश
निकलता ही
नहीं है। तो
या तो उनकी स्वीकृति
लेनी हो तो
कहो कि बहुत
गहरा अंधेरा सूरज
से निकला
है--वे ताली
पीट देंगे! या
उनसे कहो कि
सूरज और
अंधेरा--सूरज
का अंधेरे से
कोई संबंध ही
नहीं है! सूरज
से अंधेरा कभी
निकला ही नहीं।
सूरज तो
अंधेरे को
तोड़ता है। तो
वे अंधे लोग
कहेंगे, तो
इसका मतलब है,
तुम अकेले
आंख वाले पैदा
हुए हो? हम
सब अंधे हैं?
और यह
बात बड़ी
अपमानजनक है
कि कोई आदमी
कहे कि मेरे
पास आंख है और
सब अंधे हैं, इससे बड़ा
दुख होता है।
तो फिर सब मिल
कर अगर वह आंख
वाले की आंख
फोड़ने की
कोशिश करें, तो उसमें
कुछ हर्जा भी
नहीं है, वे
ठीक ही
प्रतिकार ले
रहे हैं। वह
उनको चोट
पहुंची, उनके
मन को अपमान
हुआ, उनके
अहंकार को
धक्का
पहुंचा।
लेकिन सत्य प्रतीक्षा
करता है और
प्रतीक्षा
करने का धैर्य
रखता है।
प्रश्न:
आप
कहते हैं, समाज असत्य
पर जीता है।
तो क्या असत्य
समाज के लिए
अनिवार्य है
जीने के लिए?
जैसा
समाज है हमारा, उस समाज के
जीने के लिए
असत्य
अनिवार्य है।
जैसा समाज है
हमारा, दुख
से...।
प्रश्न:
समाज
तो सैकड़ों
सालों से, लाखों सालों
से चलता आ रहा
है!
जैसा
है अब तक का, जैसा हमारा
समाज है--दुख
से भरा हुआ, पीड़ा से भरा
हुआ, शोषण
से भरा हुआ, अहंकार से
भरा हुआ,र्
ईष्या से भरा
हुआ, द्वेष
से भरा
हुआ--जैसा
हमारा यह समाज
है, इस
समाज को अगर
जिलाना हो तो
यह असत्य पर
ही जी सकता
है।
अगर इस
समाज को बदलना
हो और नया
समाज बनाना
हो--आनंद से, प्रकाश से
भरा हुआ, प्रेम
से भरा हुआ;र् ईष्या न
हो, महत्वाकांक्षा
न हो; घृणा
न हो, द्वेष
न हो, क्रोध
न हो--तो फिर
सत्य लाना
पड़ेगा।
प्रश्न:
यह
तो सबकी इच्छा
रही है!
यह
सबकी इच्छा है, यह सबकी
इच्छा है कि
आनंद मिले, लेकिन मैं
जैसा हूं, वैसा
ही मिल जाए, मैं न
बदलूं। सबकी
इच्छा है आनंद
मिले, लेकिन
मुझे न बदलना
पड़े, मैं
जैसा हूं, वैसी
हालत में आनंद
मिले! और आनंद
वैसी हालत में
नहीं मिलता और
मैं अपने को
बदलने की
तैयारी नहीं
दिखलाता।
बदलने की
तैयारी
दिखलाऊं तो ही
आनंद मिल सकता
है। यानी मैं
यह कहता हूं
कि प्रकाश तो
मिले, लेकिन
मुझे आंख न
खोलनी पड़े। तो
फिर मुश्किल है।
सबकी
इच्छा है आनंद
मिले, हर
आदमी आनंद की
ही कोशिश कर
रहा है; और
जो कोशिश कर
रहा है, उससे
सिर्फ दुख पा
रहा है। यह
बड़े मजे की
बात है! यह ठीक
ही आप पूछते
हैं। हर आदमी
आनंद पाना चाहता
है, शांति
पाना चाहता है,
लेकिन जो कर
रहा है शांति
पाने के लिए, आनंद पाने
के लिए, उस
सबसे दुख पाता
है, अशांति
पाता है!
लेकिन वह करने
को नहीं बदलना
चाहता।
अब
जैसे एक आदमी
महत्वाकांक्षी
है, एंबीशस
है, और वह
कहता है कि
मुझे आनंद
चाहिए! लेकिन
महत्वाकांक्षी
चित्त कभी भी
आनंदित नहीं
हो सकता।
क्योंकि जो भी
मिल जाएगा, उससे वह
असंतुष्ट हो
जाएगा; और
जो नहीं
मिलेगा, उसके
लिए पीड़ित हो
जाएगा। यह
कितना ही कुछ
मिल जाए उसको,
हमेशा उसका
महत्वाकांक्षी
चित्त आगे के
लिए पीड़ा से
भर जाएगा।
अब वह
कहता है, मैं
आनंदित होना
चाहता हूं; और वह यह भी
कहता है कि
मैं
महत्वाकांक्षी
भी तो सिर्फ
इसीलिए हूं कि
मुझे आनंद
चाहिए! अब महत्वाकांक्षा
और आनंद में
विरोध है, यह
देखने को वह
राजी नहीं है!
सिर्फ
गैर-महत्वाकांक्षी, नॉन-एंबीशियस
माइंड आनंद को
उपलब्ध हो
सकता है। उसका
कोई दुनिया
में आनंद नहीं
छीन सकता। और
महत्वाकांक्षी
चित्त को कोई
आनंद दे नहीं
सकता। लेकिन
महत्वाकांक्षा
चलाए रखना
चाहते हैं हम
और आनंदित
होना चाहते
हैं!
अब एक
आदमी है और वह
कहता है कि
मैं प्रेम
चाहता हूं--और
प्रेम कभी
देता नहीं! वह
आप बिलकुल ठीक
कहते हैं कि
वह प्रेम
चाहता है।
कहां कहता है
कि हम प्रेम
नहीं चाहते? लेकिन प्रेम
देता कभी भी
नहीं, सिर्फ
मांगता है--और
सभी प्रेम
मांगते हैं!
ऐसी
हालत हो गई है, जैसे एक
गांव में सभी
भिखमंगे हों
और सभी एक-दूसरे
के सामने हाथ
जोड़े खड़े हों
और सभी एक-दूसरे
से भीख मांग
रहे हों! और
सभी भिखमंगे
हों, और सब
मांगना चाहते
हों, देना
कोई भी न
चाहता हो, तो
उस गांव की जो
हालत हो जाए, वैसी हम सब
की हालत हो गई
है! प्रेम
देना कोई भी
नहीं चाहता, प्रेम
मांगना चाहता
है!
और यह
भी ध्यान रहे, जो आदमी
प्रेम देने की
कला सीख जाता
है, वह कभी
मांगता ही
नहीं।
क्योंकि वह तो
मिलना शुरू हो
जाता है, उसके
मांगने का
सवाल नहीं रह
जाता। मांगता
सिर्फ वही है,
जो दे नहीं
पाता है।
तो अब
बुनियाद यह है
कि हम सब
प्रेम चाहते
हैं, ठीक है, इसमें कुछ
बुरा भी नहीं
है। लेकिन
प्रेम सिर्फ
उन्हें ही
मिलता है, जो
चाहते नहीं और
देते हैं, वह
सूत्र है पाने
का। और वह
सूत्र हमारी
समझ में नहीं
आता, इसलिए
भूल हो जाती
है, इसलिए
भटकन हो जाती
है!
हां, क्या कहते
हैं, कहिए?
प्रश्न:
उसको
अपने आपको
बदलना पड़ता है, उस माहौल के
हिसाब से, जो
वह मांगता है?
समझा
नहीं मैं, क्या कह रहे
हैं?
प्रश्न:
मतलब, अगर वह
प्यार-मोहब्बत
चाहता है, अगर
वह सच्चाई
चाहता
है--उसको अपने
आपको बदलना
चाहिए माहौल
के पहले?
पहले
अपने को ही
बदलना पड़ेगा।
प्रश्न:
जब
वह बदल जाएगा, फिर उसको
मिल जाएगा वह?
मिल
जाएगा, बिलकुल
ही मिल जाएगा।
वही मैं कह
रहा हूं--चाहते
हम सब हैं, लेकिन
जैसे हम हैं, वैसे ही में
चाहते हैं! यह
असंभव है। यह
असंभव है।
हम सब
जाना चाहते
हैं कि पहुंच
जाएं आकाश में, लेकिन
पृथ्वी से
पांव नहीं
छोड़ना चाहते!
बड़ी मुश्किल
बात है। गड़े
रहना चाहते
हैं जमीन में,
पहुंचना
चाहते हैं
आकाश में! और
अगर कोई यह कहे
कि आकाश में
जाना है तो
तुम आकाश की
फिक्र छोड़ो, पहले जमीन
छोड़ो; तुम
आकाश में
पहुंचना शुरू
हो जाओगे।
क्योंकि जमीन
छोड़ोगे तो
जाओगे कहां? सिवाय आकाश
के कहीं नहीं
जा सकते हो।
लेकिन वह आदमी
कहता है, जमीन
हम पीछे
छोड़ेंगे, पहले
हम आकाश में
पहुंच जाएं।
क्योंकि आप
हमसे जमीन भी
छीन लो और
आकाश भी न
मिले! हम
मुश्किल में
पड़ जाएं।
लेकिन बात यह
है कि जमीन
छोड़ने से आकाश
मिल ही जाता
है, क्योंकि
जाओगे कहां?
यह जो, हमारी जो
कठिनाई है, हमेशा से हम
यही चाहते रहे
हैं कि आनंद
हो, शांति
हो, प्रेम
हो--लेकिन जो
हम करते रहे
हैं, वह
बिलकुल उलटा
है, एकदम
उलटा है! उससे
न शांति हो
सकती है, न
प्रेम हो सकता
है, न आनंद
हो सकता है।
और प्रत्येक
व्यक्ति के साथ
यही कठिनाई
है।
और
प्रत्येक
व्यक्ति
द्वेष में जी
रहा है,र्
ईष्या में जी
रहा है, घनी
जेलेसी में जी
रहा है और
चाहता है कि
आनंद हो जाए!
अबर् ईष्यालु
चित्त कैसे
आनंद पा ले?र् ईष्यालु
चित्त सदा
दुखी है, सड़क
पर बड़ा मकान
दिखता है तो
दुखी है, बगिया
लगी दिखती है
तो दुखी है, कार दिखती
है तो दुखी है,
किसी की
स्त्री दिखती
है तो दुखी है,
किसी के
कपड़े दिखते
हैं तो दुखी
है! अब यह सब दिखेगा,
यह जाएगा
कहां? यह
चारों तरफ है।
हर चीज उसे
दुख दे जाती
है; जो भी
दिखता है, वही
दुख दे जाता
है!
और ऐसा
भी नहीं है कि
बड़ा ही मकान
दुख देता है। कभी-कभी
यह भी दुख
देता है कि एक
आदमी झोपड़े में
रह रहा है और
खुश है, यह
भी दुख दे
देता है! हद हो
गई! यह झोपड़े
में रह रहा है
और खुश है! कभी
एक भिखारी भी
आनंदित दिख जाता
है, तो वह
भी दुख ही
देता है, कि
मेरे पास सब
है और मैं
सुखी नहीं! और
यह भिखारी और
आनंदित है, और सब आनंद
ले रहा है!
तो
वहर् ईष्यालु
चित्त दुख
पैदा करने की
कीमिया
है--केमिस्ट्री
है उसके
पास।र्
ईष्यालु चित्त
दुख पैदा करता
है औरर्
ईष्यालु
चित्त चाहता
सुख है! अब बड़ी
मुश्किल हो
गई। इस
कंट्राडिक्शंस
को अगर न देखा
जाए, तो हम तो
फंस गए, हम
फिर जी नहीं सकते।
चाहते रहेंगे
सुख और पैदा
करते रहेंगे दुख!
और जितना दुख
पैदा होगा
उतना ज्यादा
सुख चाहेंगे;
और जितना
ज्यादा दुख
पैदा होगा, सुख की मांग
बढ़ेगी, उतना
ही जोर सेर्
ईष्यालु होते
चले जाएंगे और
दुख पैदा होता
चला जाएगा।
ऐसा
एक-एक व्यक्ति
इनर-कंट्राडिक्शन
में, भीतरी
विरोध में
फंसा हुआ है।
इस विरोध के
प्रति सजग हो
जाना ही साधना
की शुरुआत है।
इस विरोध के
प्रति कि मैं
जो चाह रहा
हूं, मैं
जो कर रहा हूं,
वह वही है? मैं चाह तो
रहा हूं कि
मकान के ऊपर
चढ़ जाऊं और सीढ़ियां
नीचे की तरफ
उतर रहा हूं।
इस कंट्राडिक्शन
को देखना जरूरी
है कि यह तो
मैं उलटा काम
कर रहा हूं।
अगर
मुझे सुखी
होना है तोर्
ईष्या तो नीचे
की तरफ ले जा
रही है,र्
ईष्या तो दुख
दे रही है इसी
वक्त। अगर
मुझे सुखी
होना है तोर्
ईष्या से तो
मुक्त हो जाना
चाहिए, ताकि
दुख मुझे कोई
दे न सके, बड़ा
मकान भी न दे
सके, आनंदित
आदमी भी न दे
सके, कार
भी न दे सके, स्त्री भी न
दे सके, कोई
दुख न दे सके।
क्योंकि मेरे
पास दुख की, वह जो तरकीब
थी दुख पैदा
करने की, वह
विदा हो गई।
अब मैंर्
ईष्यालु नहीं
हूं। और जब
मैंर्
ईष्यालु नहीं
हूं तो हर चीज
सुख दे सकती
है। क्योंकि
अब दुख का कोई
कारण ही नहीं
रहा, वह
केमिस्ट्री
ही टूट गई, वह
सीक्रेट ही
टूट गया; वह
व्यवस्था, यंत्र
टूट गया, जो
दुख पैदा कर
देता था।
जीवन
के विरोध के
प्रति जाग
जाना कि हम जो
चाहते हैं, उससे उलटा
कर रहे हैं, साधना की
शुरुआत है। और
जब हमें यह
दिखाई पड़ जाए
तो उलटा हम कर
न सकेंगे। हम
कैसे उलटा
करेंगे?
जैसे
उदाहरण के लिए, एक आदमी रात
सोना चाहता है,
नींद लेना
चाहता है।
नींद उसे आती
नहीं तो वह नींद
लाने की
तरकीबें करता
है। पैर धोता
है, आंख
धोता है, पानी
पीता है, राम-राम
जपता है, माला
फेरता है, करवट
बदलता है, टहलता
है, भेड़-बकरियां
गिनता है, हजार
तरकीबें करता
है कि किसी
तरह नींद आ
जाए। लेकिन
उसे पता नहीं
कि जितनी
तरकीबें वह कर
रहा है, वे
सब नींद को न
आने देंगी।
क्योंकि कोई
भी प्रयास
नींद को तोड़ने
वाला है। वह
कुछ भी न करे तो
शायद नींद आ
जाए। उसने कुछ
भी किया, फिर
नींद नहीं आ
सकती। क्योंकि
करना नींद के
बिलकुल उलटा
है। नींद आती
है न-करने
में।
इसलिए
एक दफे एक
आदमी की नींद
गड़बड़ हो गई, फिर एक
वीशियस चक्कर
में पड़ा वह।
क्योंकि अब वह
नींद लाने के
उपाय करेगा!
उपाय नींद को
तोड़ेंगे!
जितना नींद
टूटेगी, उतने
ज्यादा उपाय
करेगा! जितने
ज्यादा उपाय करेगा,
उतनी
ज्यादा नींद
टूटेगी! अब वह
एक चक्कर में पड़
गया है, जिसके
बाहर खींचना
मुश्किल है।
उसको यह विरोध
दिखाई पड़ जाए
किसी दिन कि
प्रयास से
नींद कैसे आ
सकती है? प्रयत्न
से नींद कैसे
आ सकती है? एफर्ट
तो उलटा है
नींद के, प्रयास
तो उलटा है।
तो
प्रयास न करे, पड़ा रह जाए; कह दे: आ तो आ, न आ तो न आ; मैं
कुछ नहीं
करता। और वह
थोड़ी देर में
पाए कि नींद आ
गई। क्योंकि
जब कोई कुछ
नहीं करता तो
नींद आ ही
जाती है, और
जब कोई कुछ
करता है तो
नींद नहीं
आती। चाहे वह
मंत्र पढ़े, चाहे माला
फेरे, चाहे
कुछ भी करे, करना मात्र
नींद का उलटा
है। लेकिन हम
पूरी जिंदगी
कंट्राडिक्शंस
में जीते हैं,
पूरी
जिंदगी! और तब
मुश्किल होती
चली जाती है।
इस बोध
को जैसे ही
कोई उपलब्ध हो
जाता है और अपने
भीतर अपने
विरोध देखने
लगता है, वैसे
ही क्रांति
शुरू हो जाती
है। क्योंकि
विरोध दिख
जाएं तो फिर
उनमें जीना
मुश्किल है, फिर आप जी
नहीं सकते।
कैसे संभव है
यह कि एक आदमी
को जाना छत पर
है और सीढ़ी
नीचे उतर रहा
है! और उसे दिख
जाए कि उतर
रहा हूं नीचे
की तरफ, जाना
है ऊपर, तो
क्या फिर नीचे
उतर सकता है? बात खतम हो
गई। ऊपर जाएगा
ही।
और जब
विरोध मिटता
है तो योग
पैदा होता है
जीवन में, हार्मनी
पैदा होती है।
हम जो करना
चाहते हैं, वही करते
हैं; जो
होना चाहते
हैं, वही
होते हैं। तब
एक सरलता, सहजता
आ जाती है; क्योंकि
विरोध गए, चिंता
गई। अपने ही
भीतर खंड-खंड,
उलटे-उलटे
जा रहे थे, वह
विदा हो गया।
हमारी
हालत ऐसी है, जैसे किसी
ने बैलगाड़ी
में दोनों तरफ
बैल जोत दिए
हों, और
दोनों तरफ से
बैलगाड़ी चलने
की कोशिश कर
रही है!
अब
इसमें सिर्फ
अस्थिपंजर
बैलगाड़ी के
ढीले हुए चले
जा रहे हैं।
बैलगाड़ी कहीं
जाती नहीं। कभी
बैल इस तरफ के
मजबूत पड़ जाते
हैं तो दस कदम
खींच लेते हैं, जब तक वे दस
कदम खींचते
हैं, तब तक
थक जाते हैं; तब तक उलटे
बैल मजबूत हो
जाते हैं, वे
दस कदम फिर
खींच लेते
हैं। और यही
चल रहा है। एक
चौगड्डे पर
बैलगाड़ी, दोनों
तरफ बैल जुते,
यहीं-वहीं
होती रहती है।
करीब-करीब
हम उसी जगह
मरते हैं, जहां हम
पैदा होते हैं,
कोई फर्क
नहीं पड़ता!
क्योंकि वह
हमें विरोध ही
नहीं दिखाई
पड़ता कि बैल
चार पास में हैं
तो एक ही तरफ
जोत दो, दो
तरफ क्यों
जोते हुए हो? यह विरोध
दिख जाए तो, तो एक नया
जीवन शुरू
होता है जो, जिसे हम
पहचानते भी
नहीं, जिसे
हम जानते भी
नहीं। तब आदमी
वही करता है--वही,
जो करना
चाहिए। और वह
उसी तरफ जाता
है, जहां
जाना है। तब
स्वभावतः
शांति आ जाती
है, क्योंकि
अशांति का कोई
कारण नहीं रह
जाता।
प्रश्न:
आसक्ति
अथवा राग जैसे
कर्मबंध का
कारण है, वैसे ही
द्वेष और घृणा
भी। महावीर ने
संसार, शरीर,
इन सबके
प्रति घृणा का
भाव पैदा करके
संसार-त्याग
का उपदेश
क्यों दिया?
जो
आप पूछते हैं
न, जैसा
राग-द्वेष
दोनों एक ही
तरह उपद्रव के
कारण हैं। राग
और द्वेष ऐसे
ही हैं, जैसे
एक आदमी सीधा
खड़ा हो और एक
आदमी
शीर्षासन
करता हुआ खड़ा
हो; इन
दोनों में कोई
फर्क नहीं है।
एक सिर नीचे करके
खड़ा है, एक
सिर ऊंचा करके
खड़ा है। राग
के ही उलटा जो
है, वह
द्वेष है। राग
शीर्षासन
करता हुआ
द्वेष है।
दोनों फांसते
हैं, दोनों
बांध लेते
हैं। क्योंकि
जिससे हम राग
करते हैं, उससे
भी हम बंध
जाते हैं; जिससे
हम द्वेष करते
हैं, उससे
भी हम बंध
जाते हैं।
मित्र भी
बांधता है और
शत्रु भी बांध
लेता है।
शत्रु से भी हम,
शत्रु को भी
भूल नहीं पाते,
मित्र को भी
नहीं भूल पाते,
वे दोनों
हमें बांध
लेते हैं!
अगर
हमारा एक
मित्र मरता है
तो भी हममें
कमी हो जाती
है; ध्यान
रहे, हमारा
एक शत्रु मरता
है तो भी
हममें एक कमी
हो जाती है! एक
खाली जगह वह
भी छोड़ जाता
है। शत्रु मर
जाता है तो एक
खाली जगह छोड़
जाता है भीतर।
और कई दफे तो
ऐसा हो सकता
है कि आपकी
सारी जान ही
निकल जाए आपके
शत्रु के मरने
से। आपका बल
ही खो जाए, क्योंकि
बल ही उससे
आता था, उसी
के विरोध में
बंध कर आता
था।
दोनों
बांधते हैं, दोनों
जिंदगी को
भरते हैं। और
जिसको बंधन से
ही उठना हो--और
ऐसा भी नहीं
है कि शत्रु
ही दुख देते
हैं, मित्र
भी दुख देते
हैं और शत्रु
भी सुख देते हैं।
फर्क थोड़ा सा
पड़ जाता है।
फर्क थोड़ा सा
पड़ जाता है।
मित्र भी दुख
देते हैं, शत्रु
भी कभी सुख
देते हैं।
अलग-अलग ढंग
से देते हैं, लेकिन
बांधते दोनों
हैं।
और जिसे
बंधन ही दुख
हो गया हो--वह न
शत्रु बनाता
है, न मित्र
बनाता है; वह
न राग बांधता
है, न
द्वेष बांधता
है; वह न
किसी के पक्ष
में होता है, न किसी के
विपक्ष में
होता है। वह
प्रत्येक चीज
के प्रति एक
साक्षी का भाव
ले लेता है, वह एक
विटनेस हो
जाता है, दूर
से खड़े होकर
देखने लगता
है। अपनी ही
जिंदगी को दूर
से खड़े होकर
देखने लगता
है। अपनी ही
जिंदगी को भी एक
दृश्य बना
लेता है, खुद
द्रष्टा हो
जाता है।
और
जैसे ही कोई
द्रष्टा हो
गया, राग-द्वेष
के बाहर हो
जाता है। जब
तक कोई द्रष्टा
नहीं है, तब
तक राग-द्वेष
के बाहर नहीं
होता। जो
कर्ता है, वह
कभी राग-द्वेष
के बाहर नहीं
हो सकता।
क्योंकि
करेगा कुछ, तो मित्र
बनेंगे, शत्रु
बनेंगे।
करेगा कुछ, तो कुछ अपना
लगेगा, कुछ
पराया लगेगा।
करेगा कुछ, तो किसी को
बचाना चाहेगा,
किसी को
मिटाना
चाहेगा।
कर्ता हमेशा
राग-द्वेष से
घिर जाएगा।
अकर्ता, साक्षी,
जो कर नहीं
रहा, सिर्फ
देख रहा है।
देखने की
स्थिति में जो
खड़ा हो जाता
है, वह
राग-द्वेष के
बाहर हो जाता
है।
यह जो
प्रश्न पूछा
है कि महावीर
ऐसे तो कहते हैं
कि राग-द्वेष
बांध लेते हैं, लेकिन शरीर
और संसार के
प्रति वे घृणा
सिखाते हैं, विराग
सिखाते हैं।
शरीर, संसार
असार है, ऐसा
सिखाते हैं।
तो फिर यह तो
फिर द्वेष
शुरू हो गया
शरीर-संसार के
प्रति!
महावीर
नहीं सिखाते
हैं द्वेष
संसार के प्रति
या शरीर के
प्रति, लेकिन
महावीर को
जिन्होंने
नहीं समझा है,
वे जरूर ऐसा
ही सिखा रहे
हैं। महावीर
के शरीर को
देख कर कोई कह
सकता है कि
ऐसा शरीर को
प्रेम करने
वाला आदमी मुश्किल
से पैदा हुआ
होगा। महावीर
के शरीर को ही देख
कर कोई कह
सकता है। ऐसा
प्रेम करने
वाला शरीर को
मुश्किल से
कभी कोई हुआ
होगा। न वे
संसार के
प्रति द्वेष
सिखाते हैं, क्योंकि वे
तो कहते ही यह
हैं कि द्वेष
बांध लेता है,
घृणा बांध
लेती है, तो
वे कैसे सिखा
सकते हैं? यह
तो दूसरों को
दिखाई पड़ता
है। और दूसरों
को क्यों
दिखाई पड़ता है,
उसका कारण
है।
हम अगर
राग से भरे
हैं तो हम राग
से ऊब जाते
हैं। हर चीज
उबा देती है।
जब राग ऊब
जाता है तो
घड़ी का
पेंडुलम
दूसरी तरफ
जाना शुरू हो
जाता है, वह
द्वेष की तरफ
चलना शुरू हो
जाता है। जिस
चीज से हम ऊब
जाते हैं, उसको
हम द्वेष करने
लगते हैं, राग
खतम हो जाता
है। फिर उससे
आप मुक्त होना
चाहते हैं। कल
तक आप उसको
पकड़ना चाहते
थे, आज आप
हटना चाहते
हैं।
लेकिन
कल तक जब आपने
उसको पकड़ा था
तो पकड़ने का
अभ्यास हो गया, अब ऊब गए
पकड़ने से, अब
हटना चाहते
हैं! अभ्यास
बाधा डाल रहा
है, पकड़ने
की आदत बन गई
है। अब भागना
चाहते हैं! द्वंद्व
खड़ा हो गया।
महावीर
द्वेष नहीं
सिखाते--न
शरीर के प्रति, न संसार के
प्रति।
क्योंकि
महावीर द्वेष
सिखा ही नहीं
सकते हैं, यह
सवाल ही नहीं
है कि किसके
प्रति। द्वेष
द्वेष है, घृणा
घृणा है, किसके
प्रति यह सवाल
नहीं है।
महावीर
तो यह सिखाते
हैं कि अपने
द्वेष, अपने
राग, अपनी
घृणा, अपने
प्रेम, सबके
प्रति जाग जाओ,
विवेकपूर्ण
हो जाओ। सबको
जाग कर देख लो
कि क्या-क्या
है--यह द्वेष
है, यह
घृणा है, यह
राग है, यह
विराग है, इस
सबको देख लो।
और इसको तुम
जिस दिन पूरी
तरह देख लोगे,
उस दिन तुम
पाओगे कि राग
और विराग एक
ही चीज के दो
छोर हैं, मित्रता-शत्रुता
एक ही चीज के
दो छोर हैं।
और तब
तुम समझ लोगे
कि जैसे एक
सिक्का किसी
के पास हो रुपए
का और वह
चाहता हो कि
एक पहलू बचा
ले और दूसरे को
फेंक दे, तो
वह पागल है।
चूंकि वे
दोनों पहलू एक
ही सिक्के के
हैं--या तो
दोनों फेंक
सकता है या
दोनों बच
जाएंगे। हां,
इतना फर्क
हो सकता है कि
कौन सा पहलू
आप ऊपर रखें।
यह हो सकता है
कि सिक्के का
सिर वाला पहलू
आप ऊपर रखें, तो पीठ वाला
नीचे रहेगा; लेकिन मौजूद
रहेगा, हाथ
में ही रहेगा।
तो जो
आदमी प्रेम
करता है, उसके
ठीक नीचे ही
घृणा छिपी
बैठी रहती है,
मौके की
तलाश में रहती
है कि कब
सिक्का उलटे। जब
इससे ऊब जाते
हैं आप, सिक्का
पलट लेते हैं,
पीछे की तरफ
देखने लगते
हैं।
इसलिए
मित्र के
शत्रु हो जाने
में देर नहीं
है। असल तो
बात यह है कि
मित्र अगर कोई
न हो तो उसको
शत्रु बनाना
ही मुश्किल
है। यानी पहले
उसका मित्र
होना जरूरी है, तभी वह
शत्रु बनाया
जा सकता है।
और शत्रु का मित्र
बन जाने में
भी कोई कठिनाई
नहीं है। ये दोनों
बातें घट सकती
हैं, क्योंकि
एक ही चीज के
दो पहलू हैं।
राग है
किसी को, वह
विराग बन जाता
है, अपने
आप बन जाता है,
कोई बनाना
नहीं पड़ता। और
जिस चीज से
विराग है, अगर
आप विराग ही
करते चले जाएं,
आप थोड़े दिन
में पाएंगे कि
विराग शिथिल
होने लगा, राग
पकड़ने लगा।
असल
में जैसे घड़ी
का पेंडुलम
बाईं तरफ गया, तो जब वह
बाईं तरफ जा
रहा है, तब
आपको खयाल में
भी नहीं है कि
वह दाईं तरफ
जाने की शक्ति
अर्जित कर रहा
है। जब वह
बाईं तरफ जा
रहा है, तब
उसी वक्त, उसी
जाने में वह
दाईं तरफ जाने
की शक्ति
अर्जित कर रहा
है, यह
हमारे खयाल में
नहीं आता। और
जितने दूर
बाईं तरफ
जाएगा, उतनी
ही शक्ति
अर्जित करके
फिर दाईं तरफ
जाएगा। और जब
वह दाईं तरफ
गया तो आंख
देख रही है
दाईं तरफ गया;
लेकिन जो
गहरे में देख
रहे हैं, वे
कह रहे हैं, अब वह बाईं
तरफ जाने की
तैयारी कर रहा
है। अब वह फिर
बाईं तरफ
जाएगा। ऐसे
चित्त
द्वंद्व के
बीच घड़ी के
पेंडुलम की तरह
घूमता रहता
है।
जिससे
हम प्रेम करने
जाते हैं, हमें खयाल
नहीं है कि हम
उसे घृणा करने
की शक्ति
अर्जित कर रहे
हैं। यह हमारे
खयाल में नहीं
आता। इसलिए
प्रेमी कितने
जल्दी घृणा
करने वाले बन
जाते हैं, इसका
बहुत मुश्किल
है। कल तक जो
प्रेयसी थी, परसों
वही...कल तक हम
कहते थे कि वह
अगर न मिली तो जीवन
व्यर्थ हो
जाएगा, मर
जाएंगे, आत्महत्या
कर लेंगे। कल
तक जिसके न
मिलने से आत्महत्या
कर लेते, हो
सकता है कल
उसके मिलने से
ही आत्महत्या
करनी पड़े।
मैंने
सुना है, एक
पागलखाने में
एक मनोवैज्ञानिक
देखने गया था।
तो वह
पागलखाने का
जो प्रमुख
डाक्टर है, वह उसे एक
कटघरे में एक
आदमी को
दिखलाता है कि
बिलकुल पागल
है, बाल
नोंच रहा है, सिर फोड़ रहा
है, रो रहा
है। वह
मनोवैज्ञानिक
पूछता है, इसको
क्या हो गया?
तो
डाक्टर अपने
रजिस्टर में
उसकी
हिस्ट्री निकालता
है, केस-हिस्ट्री,
और उसको
कहता है, यह
आदमी एक लड़की
को प्रेम करता
था, वह
लड़की इसको
नहीं मिल सकी,
इसलिए यह
पागल हो गया!
आगे
बढ़ते हैं, दूसरी कोठरी
में एक दूसरा
जवान आदमी बंद
है। वह भी सिर
के बाल उखाड़
रहा है, सिर
तोड़ रहा है।
ठीक वैसा ही
काम कर रहा है,
जैसा पहला
कर रहा था! वह
मनोवैज्ञानिक
पूछता है, इसको
क्या हो गया?
वह
केस-हिस्ट्री
उलट कर देखता
है, वह कहता
है कि इसको वह
लड़की मिल गई, जो उसको
नहीं मिली थी!
और उसके मिलने
से इसकी यह
हालत हो गई! वह
एक न मिलने से
पागल हो गए
हैं, एक यह
मिलने से पागल
हो गए हैं।
तो
महावीर तो यह
सिखा ही नहीं
सकते। बाएं
जाना वह नहीं
सिखा सकते; क्योंकि वे
जानते हैं जो
बाएं जाएगा, उसे दाएं
जाना पड़ेगा।
वे दाएं जाना
नहीं सिखा सकते;
क्योंकि वे
जानते हैं, जो दाएं
जाएगा, उसे
बाएं जाना
पड़ेगा। तो वे
तो एक ही बात
सिखा सकते हैं
कि न तुम बाएं जाओ,
न तुम दाएं
जाओ, तुम
ठहर जाओ, तुम
बीच में खड़े
हो जाओ।
वीतराग
का यही अर्थ
है: न द्वेष, न घृणा; न
राग, न
विराग। विराग
भी नहीं। तो
महावीर
विरागी नहीं
हैं। और जो
विरागी उनके
पीछे पड़े हैं,
वे बिलकुल
गलती में पड़े
हुए हैं।
महावीर से कुछ
लेना-देना
नहीं है उन विरागियों
का। क्योंकि
विरागी हुए कि
उन्होंने राग
अर्जित करना
शुरू कर दिया।
विरोध विरोध
नहीं हैं, इस
सत्य का दिखाई
पड़ना बाहर ले
आता है।
तो
महावीर कहते
हैं: खड़े हो
जाओ, ठहर जाओ;
दोनों को
देख लो; जाओ
कहीं मत; दोनों
को पहचान लो।
फिर तुम कहीं
भी नहीं जाओगे;
फिर तुम
अपने में आ
जाओगे।
तीन
दिशाएं हैं, एक
ट्राइएंगल
है। एक प्रेम
की तरफ जाता, एक घृणा की
तरफ; एक
राग की तरफ, एक विराग की
तरफ; सारे
द्वंद्व हैं।
और जो
द्वंद्वों से
बच जाता है, वह
ट्राइएंगल के,
त्रिकोण के
तीसरे बिंदु
पर आ जाता है, जहां स्वयं
का होना है।
वहां जाना
नहीं है, आना
नहीं है, वहां
ठहर जाना है।
वहां प्रज्ञा
थिर हो जाती है।
वहां ठहर कर
हम देख पाते
हैं, या जो
देखने लगता है,
वह ठहर जाता
है। क्योंकि
देखने के लिए
ठहरना अनिवार्य
शर्त है। अगर
राग और द्वेष
को देखना है
तो जाओ मत
किसी की तरफ, ठहर कर देख
लो कि राग
क्या, द्वेष
क्या, क्षमा
क्या, क्रोध
क्या!
प्रश्न:
वह
केवल-ज्ञान की
भूमिका है?
बिलकुल
ही। वही
केवल-ज्ञान की
भूमिका है।
जैसे ही कोई
स्वयं में खड़ा
हो जाता है, वह उस द्वार
पर पहुंच जाता
है, जहां
से ज्ञान की
शुरुआत है।
लेकिन स्वयं
में खड़ा होना
पहला बिंदु है,
वहीं से
यात्रा फिर
भीतर की तरफ
हो सकती है।
और हम
या तो राग में
होते हैं या
द्वेष में होते
हैं--स्वयं के
बाहर होते
हैं।
राग-द्वेष में
होने का अर्थ
है: स्वयं के
बाहर होना, कहीं और
होना। मित्र
पर हों चाहे
शत्रु पर हों,
लेकिन
हमारी चेतना,
अटेंशन
कहीं और होगी--राग
में भी, द्वेष
में भी। जो
आदमी धन
इकट्ठा करने
में पागल है, उसका ध्यान
धन पर होगा।
जो आदमी धन
त्याग करने
में पागल है, उसका ध्यान
भी धन पर ही
होगा। वे
दोनों, धन
पर ही
दृष्टि-बिंदु
होगी उनकी।
और सब
द्वंद्वों से
जिसकी
दृष्टि-बिंदु
लौट आती है, अपने पर खड़ी
हो जाती है, चुपचाप
देखने लगता है
कि यह रहा
त्याग, यह
रहा भोग; न
मैं भोग करता,
न मैं त्याग
करता; मैं
खड़े होकर
देखता हूं।
ऐसी स्थिति
में स्वयं का
द्वार खुलता
है, जहां
से ज्ञान की
परम भूमिका
में जाया जा
सकता है।
एक और
ले लें तो
पूरी बात हो
जाए। हां, निगोद का
कुछ था न कोई
प्रश्न? क्या,
निगोद के
लिए ही पूछते
थे न?
प्रश्न:
हां, निगोद का
मतलब क्या है?
निगोद
की धारणा
महावीर की
बिलकुल अपनी
धारणा है, बड़ी मौलिक, जटिल भी है
बहुत। हां, निगोद का
अर्थ
है...संसार है, मोक्ष है, ये दो शब्द
हमारी समझ में
हैं। मोक्ष का
मतलब है: वे
आत्माएं जो सब
बंधनों के पार
चली गईं।
संसार का अर्थ
है: वे
आत्माएं जो
अभी बंधनों
में हैं, पार
जा सकती हैं।
निगोद का अर्थ
है: वे आत्माएं
जो बंधन में
प्रसुप्त
हैं--मोक्ष के
उलटा।
संसार
मध्य में है, निगोद प्रथम
है, मोक्ष
अंतिम है।
निगोद से
आत्मा उठती है,
संसार में
आती है; संसार
से उठती है, मोक्ष में
जाती है।
मोक्ष है
मुक्ति, निगोद
है पूर्ण
अमुक्ति।
जहां सब
बिलकुल अंधकार
है, जकड़
गहरी है, यानी
जहां इसका भी
होश नहीं है
कि बंधन है, जहां बंधन
ही सब कुछ है।
बंधन का होश
भी स्वतंत्रता
की शुरुआत हो
गई। इस बात का
पता चलना कि
हाथ में
जंजीरें हैं,
संघर्ष
शुरू हो गया।
अब जंजीरें
बरदाश्त नहीं
की जाएंगी, तोड़नी
पड़ेंगी।
निगोद में
इसका भी पता
नहीं है।
निगोद
का अर्थ है: र्मूच्छित
आत्माओं का
लोक।
उसी र्मूच्छित
आत्माओं के
लोक से
धीरे-धीरे
आत्माएं
उठतीं और इस
मध्य लोक में
आतीं; जहां
अर्ध मूर्च्छा,
अर्ध अमूरूच्छा
चलती है; कभी
चित्त जागता,
कभी सो जाता;
कभी हम जगे
लगते, कभी
सोए; कभी
होश आता, कभी
बेहोशी; कभी
विवेकपूर्ण
होते, कभी
अविवेकपूर्ण।
यहां निद्रा
और जागृति के बीच
में हम डोलते
रहते हैं।
जैसे रात
निद्रा है और
दिन जागरण है,
और दोनों के
बीच में एक
स्वप्न की
अवस्था है, जहां न तो हम
पूरी तरह सोए
होते, न
पूरी तरह जागे
होते।
स्वप्न
का मतलब है:
आधा जागना, आधा सोना।
इतने जागे भी
होते कि सुबह
याद रह जाता
है कि सपना
देखा, इतने
सोए भी होते
कि सपना चलता
है और पता
नहीं चलता कि
सपना चल रहा
है, लगता
है कि सच चल
रहा है--अर्ध
अवस्था।
संसार
है स्वप्न, निगोद है
निद्रा, मोक्ष
है जागृति--ये
तीन अवस्थाएं
हैं।
जो
सवाल उठा, वह इसलिए
उठा कि सारी
आत्माएं आती
कहां से हैं? महावीर यह
तो मानते नहीं
कि इनका सृजन
होता है, सृष्टि
होती है।
सृष्टि नहीं होती,
आत्माएं
सदा से हैं।
तो आती कहां
से हैं? संसार
में आत्माएं
आती कहां से
हैं?
तो
महावीर कहते
हैं कि अमूरूच्छा
का एक लोक है, जहां अर्मूच्छित
आत्मा असंख्य,
अनंत
आत्माएं
मौजूद हैं।
अनंत--ध्यान
में रहे।
क्योंकि अगर
अनंत न हो तो
एक दिन वह चुक
जाएगा। और इस जगत
में ऐसा कुछ
भी नहीं, जो
अनंत न हो। इस
जगत में बिना
अनंत हुए कोई
चीज हो ही
नहीं सकती। यह
भी समझ लेना
जरूरी है। इसमें
इनफिनिट होना,
अनंत होना
अनिवार्य है।
कोई भी चीज
संख्या में हो
ही नहीं सकती।
क्योंकि
संख्या में
अगर चीजें हों
तो फिर जगत की
सीमा बन जाएगी,
फिर जगत
असीम नहीं हो
सकेगा। और जगत
सीमित हो नहीं
सकता।
निगोद
का अर्थ है:
अनंत आत्माएं
जहां प्रसुप्त
हैं अनंत काल
से। वहां से
आत्माएं एक-एक, एक-एक उठती
हैं। उठने
वाली आत्माओं
की संख्या है,
संसार उनसे
बनता है। फिर
संसार से
आत्माएं मुक्त
होती चली जाती
हैं दूसरे लोक
में, जहां
वे परम चैतन्य
को उपलब्ध हो
जाती हैं।
सवाल
यह है कि क्या
कभी ऐसा होगा
कि सब आत्माएं
मुक्त हो जाएं? ऐसा कभी
नहीं होगा, क्योंकि
आत्माएं अनंत
हैं।
अब
अनंत शब्द
हमारे खयाल
में नहीं आता, क्योंकि
हमारा
मस्तिष्क जो
है, वह
अनंत को कंसीव
नहीं कर पाता।
हम बड़ी से बड़ी
संख्या सोच
सकते हैं, लेकिन
अनंत नहीं।
क्योंकि अनंत
का मतलब है, जहां संख्या
होती ही नहीं।
हम यह भी सोच
सकते हैं, असंख्य,
लेकिन
असंख्य का
मतलब अनंत
नहीं होता।
असंख्य का
मतलब होता है
जिसकी संख्या
गिनी न जा सके।
असंख्य का
मतलब होता है
कि संख्या हम
गिनें तो थक
जाएं।
जैसे
कोई आपसे पूछे, आपकी खोपड़ी
पर बाल कितने
हैं? तो आप
कहें, असंख्य,
कोई गिनती
नहीं है।
लेकिन ऐसा
नहीं हो सकता,
बालों की
गिनती है।
गिनना कठिन हो
सकता है थोड़ा-बहुत,
लेकिन गिना
जा सकता है।
इसमें कोई ऐसी
अड़चन नहीं है।
सब गिना जा
सकता है।
असंख्य जिसको
हम कहते हैं, वह कभी
संख्य हो
जाएगा।
अनंत
का मतलब है कि
जहां संख्या
अर्थहीन है, जहां हम
कितना ही
गिनें तो भी
गिनने को शेष
रह जाएगा।
कितना ही
गिनें तो भी
गिनने को शेष
रह जाएगा!
जहां शेष रहना
अनिवार्य है,
जहां अशेष
कभी कोई चीज
होती ही नहीं।
तो
निगोद है र्मूच्छित
आत्माओं का
लोक, संसार है
अर्ध र्मूच्छित
आत्माओं का
लोक, मोक्ष
है परम अर्मूच्छित,
पूर्ण
जाग्रत
आत्माओं का
लोक। और हमारा
मन चूंकि
संख्याओं में
ही सोचता है, इसलिए सवाल
निरंतर उठते
हैं कि कितनी
अर्मूच्छित
आत्माएं हैं?
कितनी का
सवाल नहीं है।
कितनी
आत्माएं
मुक्त हो गई
हैं? इसका
भी कोई सवाल
नहीं है।
क्योंकि अनंत
काल से
आत्माएं
मुक्त होती
हैं, अनंत
आत्माएं
मुक्त हो गई
हैं।
अनंत
के साथ एक मजा
है कि उसमें
से कितना ही
निकालो, पीछे
उतना ही शेष
रहता है, जितना
था। इसको थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है। क्योंकि
वह हमारा जो
आम गणित है, वह गणित इस
बात को राजी
नहीं होता।
कहता है इस कमरे
में कितने ही
लोग हों, अनंत
हों समझ लें, लेकिन अगर
दो आदमी बाहर
निकल गए तो
फिर पीछे उतने
ही तो नहीं
रहे, जितने
थे। हमारा
गणित कहता है,
ऐसा कैसे हो
सकता है कि
पीछे उतने ही
रह जाएं, जितने
थे? क्योंकि
दो निकल गए।
और अगर
हम यह मान लें
कि दो के
निकलने से
पीछे कुछ कम
हो गए तो फिर
संख्या हो
सकती है, फिर
कोई सवाल नहीं
है। क्योंकि
कम होते चले
जाएंगे, कम
होते चले
जाएंगे, कम
होते चले
जाएंगे; एक
वक्त आएगा कि
शून्य भी हो
सकता है। तो
यह गणित की
बड़ी पहेलियों
में से एक है
कि अनंत में
से हम कुछ भी
निकालें, अनंत
ही शेष रहता
है, उसमें
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
इसलिए
निगोद उतने का
उतना ही है, जितना था।
और उतना ही
रहेगा, जितना
था। और उतना
ही सदा है, उतना
ही सदा रहेगा।
मुक्त
आत्माएं रोज
होती चली
जाएंगी, मोक्ष
में कोई भीड़
नहीं बढ़
जाएगी। उससे
कुछ भीड़ बढ़ने
का कोई सवाल
नहीं है।
लेकिन
हमारा जो गणित
है संख्या का, उसे समझना
बड़ा मुश्किल
होता है।
नॉन-युक्लिडियन
जो
ज्यामेट्री
है, युक्लिड
के विरोध में
जो नए तरह की
ज्यामेट्री
पैदा हुई है
और गणित के
विरोध में भी
जो नए तरह की
हायर
मैथेमेटिक्स
पैदा हो रही
है, उसकी
समझ में आ
सकती है बात, साधारणतः
समझ में नहीं
आ सकती।
जैसे
उदाहरण के लिए, हम एक सीधी
रेखा खींचते
हैं जमीन पर, युक्लिड
कहता है कि दो
बिंदुओं के
बीच निकटतम जो
दूरी है, वह
सीधी रेखा बन
जाती है।
निकटतम दूरी
सीधी रेखा बन
जाती है। एक
सीधी रेखा हम
खींच सकते
हैं।
लेकिन
नॉन-युक्लिडियन
ज्यामेट्री, नई
ज्यामेट्री
जो युक्लिड के
खिलाफ में
विकसित हुई है,
वह कहती है
सीधी रेखा
होती ही नहीं,
क्योंकि
जमीन गोल है।
इसलिए कितनी
ही सीधी रेखा
खींचो, अगर
उसको तुम
दोनों तरफ
बढ़ाते चले जाओ
तो अंत में वह
वृत्त बन
जाएगी। इसलिए
सब सीधी रेखाएं
किसी बड़े
वृत्त के खंड
हैं। और वृत्त
के खंड कभी
सीधी रेखाएं
नहीं हो सकते।
समझे न
मेरा मतलब? मैं समझा
रहा हूं यह कि
इसका मतलब हुआ
कि सीधी रेखा
होती ही नहीं।
बस इतना ही
होता है कि
हमारी आंख कम
है, इसलिए
हमको सीधी
लगती है। अगर
हम फैलाते चले
जाएं तो अंततः
वह एक बड़ा
सर्किल बन
जाएगी। और जब
वह बड़ा सर्किल
बन सकती है तो
बड़े सर्किल का
हिस्सा है। और
सर्किल का
हिस्सा, वृत्त
का हिस्सा
सीधा नहीं हो
सकता, वह
तिरछा है ही।
इसलिए
कोई रेखा जगत
में सीधी नहीं
है। यह हमारे
खयाल में आना
मुश्किल हो
जाए--कि कोई भी
रेखा जगत में सीधी
नहीं? खींची
ही नहीं जा
सकती, खींचना
ही असंभव है।
क्योंकि
जितना ही तुम
खींचते चले
जाओगे, अंत
में वह मिल ही
जाएगी। उसे
कहां ले जाओगे?
इसलिए कोई
सीधी रेखा
नहीं, सब
वृत्त हैं, सब
वृत्त-खंड
हैं।
अब
युक्लिड कहता
है कि--एक
बिंदु की
व्याख्या में
वह कहता है कि
बिंदु वह है, जिसमें
लंबाई-चौड़ाई
नहीं है।
नॉन-युक्लिडियन
ज्यामेट्री
कहती है कि
लंबाई-चौड़ाई
जिसमें न हो, वह तो हो ही
नहीं सकता।
इसलिए कोई
बिंदु नहीं है,
सब रेखाओं
के खंड हैं, छोटे खंड
हैं।
समझ
रहे हो न? रेखा
है बड़े वृत्त
का खंड और
बिंदु है रेखा
का खंड। और सब
बिंदुओं में
लंबाई-चौड़ाई
है, क्योंकि
बिना
लंबाई-चौड़ाई
के कोई चीज हो
ही नहीं सकती।
सबमें
लंबाई-चौड़ाई
है। लेकिन
युक्लिड की
बात जब तक
मानी जाती रही,
तब तक
बिलकुल ठीक
लगती थी, अब
एकदम गड़बड़ हो
गई, एकदम
मुश्किल में
पड़ गई।
गणित
की जो
व्यवस्थाएं
हैं, जैसे कि
हमारी संख्या
की व्यवस्था
है, हम सब
मानते हैं कि
नौ तक संख्या
होती है, एक
से नौ तक
संख्या होती
है। कोई कभी
नहीं पूछता कि
इससे ज्यादा
क्यों नहीं
होती? और
कोई कभी नहीं
पूछता कि इससे
कम में क्यों
नहीं चल सकता?
बस एक
ट्रेडीशन है।
किसी पहले
आदमी को फितूर
सवार हो गया, उसने नौ का
हिसाब बना
डाला है, वह
चल पड़ा! और
चूंकि गणित एक
जगह पैदा हुआ,
फिर सारी
दुनिया में
फैल गया, इसलिए
कभी किसी ने
नहीं सोचा।
लेकिन
पीछे लोग पैदा
हुए--जैसे
लीबनिस हुआ, लीबनिस ने
तीन के अंक से
काम चला लिया।
उसने कहा, तीन
से ज्यादा की
जरूरत नहीं:
एक, दो, तीन!
फिर तीन के
बाद आता: दस, ग्यारह, बारह,
तेरह! फिर
बीस आ जाता है!
बाकी सब विदा
कर दिया उसने।
और उसने सब
गणित हल कर
लिए उतने ही
से!
आइंस्टीन
ने कहा, तीन
की भी क्या
जरूरत? दो
से ही काम चल
जाता है: एक, दो; दस, ग्यारह, बारह;
बीस, इक्कीस,
बाइस--ऐसा
चलता चला जाता
है। वह कहता
है, गिनती
ही करनी है न? तो यह अगर हम
पुराना गणित
मानते हैं तो
एक, दो, तीन,
चार, पांच
होता है--यह।
अगर आइंस्टीन
का मान लेते हैं
तो एक, दो; दस, ग्यारह,
बारह। ये
बारह हो जाते
हैं। ये पांच हैं
नहीं, ये
पांच सिर्फ
हमारा गणित का
हिसाब है।
गणित का हिसाब
बदल लें तो ये
सब बदल
जाएंगे।
तो
हमारा संख्या
का हिसाब है
इस जगत में और
हम सब चीजों
को संख्या से
तौलते हैं! जब
कि सचाई यह है
कि संख्या
बिलकुल ही
झूठी बात है, आदमी की
ईजाद है, कामचलाऊ
है। क्योंकि यहां
कोई भी चीज
ऐसी नहीं, जिसकी
संख्या हो, प्रत्येक
चीज असंख्य
है। और अगर
असंख्य का हम खयाल
करें तो
मैथेमेटिक्स
बेकार हो जाता
है, क्योंकि
गणित का कोई
मतलब ही नहीं
रहता। जब असंख्य
है, गिना
ही नहीं जा
सकता, गिनने
योग्य ही नहीं
है, और
कितना ही
निकाल लो बाहर,
उतना ही फिर
भी पीछे रह
जाता है, तो
जोड़-घटाने का
क्या मतलब है?
भाग का क्या
मतलब है? गुणा
का क्या मतलब
है? कोई
मतलब नहीं है।
तो अगर
हम जगत की
पूरी असंख्य
व्यवस्था, अनंत
व्यवस्था को
खयाल में लाएं
तो सब गणित एकदम
गिर जाता है, क्योंकि
गणित बना है
कामचलाऊ
हिसाब से, कि
हम उसमें
गिनती करके
काम चला लें।
और उसी कामचलाऊ
गणित से अगर
हम जगत के
सत्य को जानने
जाएं तो हम
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
तो
महावीर की बात
एकदम
नॉन-मैथेमेटिकल
है, गणित से
उलटी है। और
जो भी सत्य के
खोजी हैं उनकी
बातें निरंतर
गणित से उलटी
हो जाएंगी, क्योंकि
गणित सीमा के
भीतर चलता है
और सत्य असीम
है इसलिए सब
गणित गड़बड़ हो
जाता है।
इसलिए
उपनिषद भी
कहते हैं कि
वह पूर्ण ऐसा
है कि उससे
अगर तुम पूर्ण
को भी बाहर
निकाल लो तो भी
पीछे पूर्ण ही
शेष रह जाता
है, उसमें
जरा भी कमी
नहीं पड़ती।
मगर हमारे
दिमाग में
मुश्किल हो
जाती है कि जब
भी हम कुछ
निकालते हैं
तो पीछे तो
कमी पड़ जाती
है। क्योंकि
हमने सीमित से
ही कुछ निकाला
है सदा, अगर
हमने असीमित
से कुछ निकाला
होता तो हमको
पता चलता।
असीमित का
हमें कोई
अनुभव नहीं
है।
इसलिए
निगोद अनंत है, उसमें कभी
कमी नहीं
पड़ती। मोक्ष
अनंत है, वहां
कभी भीड़ नहीं
होती। दोनों
के बीच का
संसार भी एक
अर्थ में अनंत
है, क्योंकि
दो अनंतों को
जोड़ने वाली
चीज अनंत ही हो
सकती है। वह
भी, वह भी
संख्या में
नहीं हो सकती।
क्योंकि दो अनंतों
का जो सेतु
बनता है, ब्रिज
है, वह
कैसे सांत हो
सकता है?
अनंतों
को सांत जोड़
ही नहीं सकता।
अनंतों को
सिर्फ अनंत ही
जोड़ सकता है।
और तब सिर
चकराने वाली
सारी बात हो
जाती है। उस
तल पर जाकर
गिनती का कोई
मतलब नहीं है।
मोक्ष
की धारणा तो
बहुत लोगों को
है खयाल में, निगोद की
धारणा महावीर
की अपनी है।
और मैं मानता
हूं, बिना
निगोद की
धारणा के
मोक्ष की
धारणा बेमानी
है, हो
नहीं सकती।
क्योंकि वहां
आत्माएं चलती
चली जाएंगी।
आएंगी कहां से?
प्रश्न:
निगोद
से आत्मा सीधे
मोक्ष में
नहीं पहुंच सकती?
नहीं, क्योंकि र्मूच्छित
आत्मा कैसे
पहुंच सकती है?
उसे अमूरूच्छा
के रास्तों से
गुजरना पड़ेगा।
आप जब सोने से
जगते हैं तो
एकदम नहीं जग
जाते, बीच
में तंद्रा का
एक काल है, जिससे
आप गुजरते
हैं।
जैसे
सुबह आप उठ गए
हैं, आपको
लगता है उठ गए
हैं, लेकिन
फिर करवट बदल
कर आंख बंद कर
लिए हैं। फिर
घड़ी की आवाज
सुनाई पड़ी, फिर उसने
कहा कि उठिए, किसी ने कहा
है, तो आप
फिर उठे हैं, फिर आंख
खोली, फिर
करवट बदल कर
सो गए हैं।
सोने और जागने
के बीच
में--चाहे
कितना ही छोटा
हो--तंद्रा का
एक काल है, निद्रा
और जागरण के
बीच में, जब
न तो आप ठीक
जाग गए होते
हैं, न ठीक
सोए होते हैं;
सोने की तरफ
भी झुकाव होता
है, जागने
की तरफ भी मन होता
है; इन
दोनों के बीच
तनाव होता है,
एक टेंशन
होता है।
निगोद
से सीधा कोई
मोक्ष नहीं जा
सकता। संसार से
गुजरना ही
पड़ेगा। कितनी
देर गुजरता है, यह दूसरी
बात है। कोई
पंद्रह-बीस
मिनट बिस्तर पर
करवट बदल कर
उठता है, कोई
पांच मिनट, कोई एक मिनट,
कोई एक
सेकेंड। और जो
बिलकुल छलांग
लगा कर उठ आता
है, वह भी
हमको सिर्फ
दिखाई पड़ता है,
बिलकुल काल
का कोई
सूक्ष्म अंश
उसको भी बिस्तर
पर गुजारना
पड़ता है जागने
के बाद। तो
संसार छोटा-बड़ा
हो सकता है, कम-ज्यादा
जीवन में कोई
मुक्त हो सकता
है, लेकिन
संसार से
गुजरना ही पड़े,
वह
अनिवार्य
मार्ग है, जहां
से मोक्ष का
द्वार है।
प्रश्न:
जैसे
समुद्र है, समुद्र से
बादल उठते हैं,
उसका पानी
बरसता है, बरफ
बनती है, लेकिन
फिर वह समुद्र
में चली जाती
है--तो एक चक्र
है। इस तरह
मुक्त
आत्माएं फिर
निगोद में भी
किसी तरीके से
जाती रहती
होंगी?
नहीं, नहीं। ऐसा
चक्र नहीं है,
ऐसा चक्र
नहीं है।
क्योंकि पानी,
भाप, समुद्र,
तीन चीजें
नहीं हैं। तीन
चीजें नहीं
हैं, एक ही
चीज का
यांत्रिक
चक्र है।
यांत्रिक चक्र
है। पानी के
बीच से कोई
बूंद मुक्त
होकर पानी के
बाहर नहीं हो
पाती, चक्र
घूमता रहता
है।
जहां
तक मोक्ष का
संबंध है, वहां से
लौटना
मुश्किल है।
क्योंकि
यांत्रिकता
टूट जाए, चित्त
पूर्ण चेतन हो
जाए, पूरा
कांशस हो जाए,
तो ही मोक्ष
को जा सकता
है। पूर्ण
चेतना से लौटना
असंभव है।
हां, संसार में
कोई चक्कर लगा
सकता है।
कितने ही चक्कर
लगा सकता है
संसार के
भीतर। संसार
के भीतर कोई
कितने ही
चक्कर लगा
सकता है। एक
मनुष्य हजार
बार मनुष्य
होकर चक्कर
लगा सकता है, वही-वही
चक्कर लगा
सकता है, क्योंकि
सोया हुआ है।
अगर जग जाए तो
चक्कर लगाना
बंद कर दे, बाहर
हो जाए चक्कर
के। मोक्ष
चूंकि समस्त
चक्कर के बाहर
हो जाने का
नाम है, इसलिए
वापस चक्कर
नहीं लगाया जा
सकता।
और
पानी की बूंद
तो चूंकि र्मूच्छित
है, कहना
चाहिए उसमें
जो आत्माएं
हैं, वे
निगोद में ही
हैं। पानी की
बूंद में जो
आत्माएं हैं,
वे निगोद
में ही हैं।
पदार्थ का जो
जगत है, कहना
चाहिए, वह
निगोद में ही
है। वहां से
अभी, वहां
तो बिलकुल ही पूरा
चक्कर है, एकदम
पूरा चक्कर
है। इसीलिए
प्रेडिक्टेबल
है।
हम कह
सकते हैं कि
पानी को गरम
करिएगा तो भाप
बनेगा। ऐसा
पानी कभी नहीं
देखा गया जो
इनकार कर दे
कि भाप नहीं
बनता हूं। तो
उसके पास कोई
चेतना नहीं
है। हम
प्रेडिक्ट कर
सकते हैं पानी
के बाबत।
लेकिन
आदमी के बाबत
प्रेडिक्शन
मुश्किल है।
ऐसा जरूरी नहीं
है कि प्रेम
करिएगा तो वह
प्रेम करेगा
ही। ऐसा
बिलकुल जरूरी
नहीं है।
साधारणतः
जरूरी है, लेकिन एकदम
जरूरी नहीं
है। और इसलिए
आदमी प्रेडिक्शन
के थोड़ा बाहर
है, क्योंकि
उसमें थोड़ी
चेतना है।
उसका पक्का नहीं
बताया जा सकता
कि वह क्या
करेगा।
सारे
पदार्थ के
बाबत पक्का
बताया जा सकता
है, इसलिए
पदार्थ का
विज्ञान बन
गया। और आदमी
का विज्ञान
अभी तक नहीं
बन पा रहा है!
वह न बनने का कारण
यह है कि
पदार्थ की
सारी
व्यवस्था
यांत्रिक है।
नियम पक्का
है: इतने पर
गरम करो, पानी
बनेगा भाप; इतने पर
ठंडे करो, बनेगा
बरफ। इसमें
कोई शक-शुबहा
ही नहीं, चाहे
तिब्बत में
करो, चाहे
चीन में करो, चाहे ईरान
में करो, कहीं
भी करो; वह
भाप बनेगा
उतने पर, उतने
पर बर्फ
बनेगा। वह
नियम पक्का है,
क्योंकि
यांत्रिक है
पूरी दौड़।
लेकिन
जैसे-जैसे हम
ऊपर आते हैं, यांत्रिकता
टूटती चली
जाती है। आदमी
में आकर भी
यांत्रिकता
बहुत शिथिल हो
जाती है। और
आदमी के बाबत पक्का
नहीं कहा जा
सकता कि वह
क्या करेगा, आप ऐसा
करोगे तो वह
क्या करेगा।
बिलकुल ही प्रेडिक्शन
के बाहर काम
करने वाला
आदमी मिल सकता
है। तरहत्तरह
के लोग हैं और
उनकी तरहत्तरह
की चेतना है।
लेकिन
मोक्ष में तो
प्रेडिक्शन
बिलकुल ही खतम
हो गया।
क्योंकि वहां
तो चेतना
पूर्ण मुक्त है, पूर्ण
जाग्रत है।
उसके बाबत तुम
कुछ भी नहीं कह
सकते। कुछ भी
नहीं कह सकते
कि ऐसा होगा।
क्योंकि वहां
कोई नियम का
यंत्रवत
व्यवहार नहीं है।
मनुष्य
में इसीलिए
तकलीफ होती है
कि मनुष्य का
विज्ञान नहीं
बन पाता पूरी
तरह से।
मनुष्य का
पूरा विज्ञान
बनाना
मुश्किल है।
किसी को हम
गाली देंगे तो
साधारणतः वह
क्रोध करेगा।
लेकिन कोई
महावीर मिल
सकता है, और
तब आप गाली
दें और वह
चुपचाप खड़ा
रहे, और
क्रोध न करे।
तो
अनप्रेडिक्टेबल
है वह।
क्योंकि वह
आदमी जितना
चेतन हो जाएगा,
उतना ही
उसके बाबत कुछ
नहीं कहा जा
सकता कि गणित
के हिसाब से
ऐसा होगा।
सारी
प्रकृति चक्र
है बिलकुल।
वर्षा आती है, सर्दी आती
है, गर्मी
आती है, एक
चक्र घूम रहा
है। नदियां
हैं, पानी
है, पर्वत
हैं, पहाड़
हैं, बादल
बने हैं, फिर
लौट रहे हैं, फिर चक्कर
चल रहा है।
जितने नीचे
उतरेंगे, चक्कर
उतना
सुनिश्चित
है। जितने ऊपर
उठेंगे, चक्कर
उतना शिथिल
है। जितने ऊपर
उठते जाएंगे,
चक्कर उतना
शिथिल होता
चला जाएगा।
पूर्ण ऊपर उठ
जाने पर चक्कर
नहीं है, सिर्फ
आप हैं। और
कोई दबाव नहीं
है, कोई
दमन नहीं है, कोई
जबरदस्ती
नहीं है, सिर्फ
आपका होना है।
यही मुक्ति, स्वतंत्रता
का अर्थ है।
अमुक्ति, बंधन, परतंत्रता
का यही अर्थ
है कि बंधे
हुए चक्कर लगा
रहे हैं, कुछ
उपाय नहीं है।
बटन दबाते हैं,
बिजली को
जलना पड़ता है।
पंखा चलाते
हैं, बटन
दबाई, पंखे
को चलना पड़ता
है। कोई उपाय
नहीं है, पंखे
की कोई इच्छा
नहीं है, कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
बंधन
से मोक्ष की
तरफ की जो
यात्रा है, वह अचेतना
से चेतना की
यात्रा है, क्योंकि
जितनी अचेतना
होगी, उतना
बंधा हुआ क्रम
होगा; जितनी
चेतना होगी, उतना मुक्त
क्रम हो जाता
है।
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