गीता—दर्शन—(भाग सात)--ओशो
(ओशो
द्वारा
श्रीमद्भगवद्गीता
के अध्याय चौदह
'गुणत्रय—विभाग—योग',
अध्याय
पंद्रह 'पुरुषोत्तम—योग'
एवं अध्याय
सोलह 'दैव—
असुर—संपद—विभाग—योग'
पर दिए गए
पच्चीस अमृत
प्रवचनों का
अपूर्व संकलन।)
भूमिका:
(मणि—कांचन
संयोग)
मणि—काचन
संयोग शायद
इसे ही कहते
होंगे।
ग्रंथों में
ग्रंथ गीता और
व्याख्याताओं
में
व्याख्याता
ओशो।
व्याख्या भी
सिर्फ एक
विद्वान की
नहीं, सिद्ध
की! इसलिए
गीता—दर्शन के
इन अध्यायों
को. पढ़ना जैसे
समुद्र और
उसके भीतर
बहती गंगा की
धारा में एक
साथ दोहरा
अवगाहन करना
है। इस अवगाहन
में सिर्फ
गीता के उपदेश—रत्न
नहीं मिलते, न सिर्फ ओशो
का प्रसिद्ध
उक्ति—सौंदर्य,
गीता के
माध्यम से ओशो
की उद्भट
प्रतिभा और प्रज्ञा
संसार के लगभग
हर प्रमुख
धर्म और उसकी
विभूतियों को
जोड्ने वाले
सूत्र को आपके
हाथ में थमा
देती है। वह
सूत्र
आध्यात्मिक
अनुभूति का है,
साधना का है,
साक्षित्व
का है, वहां
आप चाहे जिस
राह से
पहुंचें।
इन
अध्यायों के
श्लोकों —सूत्रों
की एक—एक किरण
ओशो की प्रज्ञा
के प्रिज्म
से गुजर कर
विचार, अनुभूति
और कर्म के
ऐसे
इंद्रधनुष
बनाती है कि
कोई न कोई रंग
आपको बांध ही
लेता है। एक
ही सार को वे
इतने विभिन्न
सुगम और सरस
तरीकों से कहते
हैं कि कोई न
कोई रंग—रश्मि
आपके भीतर उतर
ही जाती है।
एक और
विलक्षणता है
इस प्रिव्यू
से निकली सप्तरंगी
रश्मियों की।
गीता में भले
ही तर्क और
शान की
सीढ़ियां हैं,
विचार का
क्रमिक विकास
है, ओशो की
व्याख्या ऐसी
सीधी, रेखीय
नहीं, वर्तुलाकार
है। आप कहीं
से पढ़ना शुरू
कर दें, ऐसा
नहीं लगेगा कि
पिछला पढ़े
बिना यह समझ
में नहीं आएगा।
गीता में
विचार की
सुतर्कित
धाराएं—उपधाराएं
ओशो की
व्याख्या की
विराटता में
असीम, और
इसीलिए
तार्किक
विकास से
मुक्त, तर्कातीत,
सुगम और सहज
हो जाती हैं।
ओशो
चाहे एक ग्रंथ, एक
दर्शन की बात
कर रहे हों या
एक अध्याय, एक श्लोक या
केवल एक शब्द
की, उनकी
व्याख्या में
हर समय अंशी
और अंश एक साथ वर्तमान
रहते हैं।
इसलिए ओशो को
पढ़ने—समझने के
लिए संदर्भ —प्रसंग
की जरूरत नहीं,
पूर्व—तैयारी
की जरूरत नहीं।
उनकी व्याख्या
ने क्षेत्र—
क्षेत्रज्ञ—विभाग—योग
के पहले और
दैव—असुर—संपद—विभाग—योग
के अंतिम
श्लोकों को
अर्थ की ऐसी
व्यापक तात्कालिकता
प्रदान कर दी
है कि बीच का
आप कुछ न पढ़ें
तो भी न कुछ
खोएंगे, न
कहीं सूत्र
छूटेगा। यह
बात हर श्लोक
पर लागू है, चाहे आप उसे
अलग लें या किसी
भी दूसरे
श्लोक के साथ।
यह
तो शैली की
विलक्षणता थी।
और कथ्य? कथ्य ''विंटेज '' ओशो
है। विचार, भावना और
कर्म—तीनों को
एक अखंड और
रसमय संगति
में साधे हर समय।
पांडित्य जो
आतंकित नहीं
करता, अर्थ
के करीब ले
जाता है अपने पन
के साथ।
प्रज्ञा जो हर
छोटी—से—छोटी चीज
में बड़े अर्थ
खोज लेती है, जो
विरोधाभासों
के पीछे की
समानता और
अंतर्संबंधों
को उदघाटित
करती है। जो
गीता के
शास्त्रीय
अर्थ को घटाए
बिना उसे हमारे
लिए बोधगम्य
बना देती है।
गीता
के एक श्लोक, एक
विचार की
जितनी
अर्थछटाएं
ओशो हमें
दिखाते हैं, शायद कोई
अन्य नहीं। और
सिद्धात के
साथ—साथ
अभ्यास योग्य
जितने क्रिया—सूत्र
ओशो हमें देते
हैं, शायद
कोई अन्य नहीं।
लगभग हर पन्ने
पर घूम—फिर कर
वह लौट आते
हैं मूल मंत्र
पर—करो। भक्ति,
ज्ञान, कर्म,
योग—जो रुचे
उस विधि से, लेकिन कुछ—न—कुछ
करो। तुम
साक्षित्व को
प्राप्त हो
सकते हो। आज!
अभी! बशर्ते
सुनना भी
ध्यान बन जाए।
पढ़ना भी ध्यान
बन जाए।
इन
अध्यायों को
पढ़ते, गुनते
समय बूंद—बूंद
ही सही लेकिन
साक्षित्व
उभरे, या
झरे, इस
कामना के साथ।
राहुल देव
संपादक
जनसत्ता,
संझा
जनसत्ता, बंबई
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