''मैं कहता
आंखन देखी'’ :
अंतरंग
भेंट वार्ता
बुडलैड़,
बम्बई
दिनांक 12
मार्च 1971
मंदिर
तीर्थ तिलक—टीके
मूर्ति—पूजा
माला मंत्र—तंत्र
शाख—पुराण हवन—यज्ञ
अनुष्ठान
श्राद्ध ग्रह—
नक्षत्र
ज्योतिष—गणना
शकुन—अपशकुन
इनका कभी अर्थ
थर पर अब
व्यर्थ हो गए
हैं। इन्हें
समझाने की
कृपा करें और
बताएं कि क्या
ये साधना के
बाह्य उपकरण
थे?
रिमेम्बरिग
या स्मरण की मात्र
बाह्य व्यवस्था
थी जो समय की तीव्र
गति के साथ
पूरी की पूरी
उखड़ गयी? अथवा
भीतर से भी
इसके कुछ
अत्तर संबंध
थे? क्या समय
इन्हें पुन:
लेने को राजी
होगा?
जैसे
हाथ में चाबी
हो और उस चाबी
को हम कैसे भी
सीधा जानने का
उपाय करें, या
चाबी से ही
समझना चाहें,
तो कोई कल्पना
भी नहीं कर
सकता उस चाबी
की खोज—बीन से,
कि कोई बड़ा
खजाना उसके
हाथ लग सकता
है। चाबी में
ऐसी कोई भी
सूचना नहीं है
जिससे छिपे
हुए खजाने का
पता लगे। चाबी
अपने में
बिलकुल बन्द
है। चाबी को
हम तोड़े—फोड़े,
या काटें, तो भले ही
लोहा हाथ लगे,
या और
धातुएं हाथ लग
जाएं पर उस
खजाने की कोई
खबर हाथ न
लगेगी, जो
चाबी से मिल
सकता है। और
जब भी कोई
चाबी ऐसी हो
जाती है जीवन
में, कि
जिससे खजानों
का हमें पता
नहीं लगता है,
तब सिवाय
बोझ ढोने के
हम और कुछ भी
नहीं ढोते।
और
जिन्दगी में
ऐसी बहुत सी
चाबियां हैं
जो किन्हीं
खजानों का
द्वार खोलती
हैं— आज भी खोल
सकती है। पर न
हमें खजानों
का कोई पता है, न
उन तालों का
हमें कोई पता
है जो हमसे
खुलेंगे। जब
तालों का भी
पता नहीं होता
और खजानों का
भी पता नहीं
होता, तो
स्वभावत:
हमारे हाथ में
जो रह जाता है
उसको हम चाबी
भी नहीं कह
सकते! वह चाबी
तभी है जब
किसी ताले को
खोलती हो। उस
चाबी से कभी
खजानें खुले
थे, आज
उससे कुछ भी
नहीं खुलता है,
इसलिए वह
बोझिल हो गई
है; तो भी
मन उसे फेंक
देने का नहीं
होता। कहीं
मनुष्य जाति
के अचेतन में
वह धीमी—सी
गन्ध बनी ही
रह जाती है।
चाहे
हजारों साल
पहले वह चाबी
कोई ताला खोलती
रही हो, लेकिन
मनुष्य की
अचेतना में, उससे कभी
ताले खुले हैं,
कभी कोई
खजाने उससे
उपलब्ध हुए
हैं—इस स्मृति
के कारण ही उस
चाबी के बोझ
को हम ढोए चले
जाते है। न
कोई खजाना
खुलता है अब, न कोई ताला
खुलता है! फिर
भी कोई कितना
ही समझाए कि
चाबी बेकार है,
उसे फेंक देने
का साहस नहीं
जुटता है।
कहीं किसी
कोने में मन
के, कोई
आशा पलती ही
रहती है कि
शायद कभी कोई
ताला खुल जाए!
मंदिर
को ही लें।
पृथ्वी पर ऐसी
एक भी जाति
नहीं है जिसने
मंदिर जैसी
कोई चीज
निर्मित न की
हो। उसे
मस्जिद कहती
हो,
चर्च कहती
हो, गुरुद्वारा
कहती हो—इससे बहुत
प्रयोजन नहीं
है। आज तो यह
सम्भव है कि
हम एक दूसरी
जातियों से भी
कुछ सीख लें।
एक वक्त था, जब दूसरी
जातियां हैं
भी, इसका
भी हमें पता
नहीं था। तो
मंदिर कोई ऐसी
चीज नहीं है, जो बाहर से
किन्हीं
कल्पना
करनेवाले
लोगों ने खड़ी
कर ली हो। वह
मनुष्य की
चेतना से ही
निकली हुई कोई
चीज है।
मनुष्य कितनी
दूर, कितने
ही स्याल में—पर्वत
में, पहाड़
में, झील
पर, कहीं
भी बसा हुआ हो,
उसने मंदिर
जैसा कुछ
निर्मित किया
है। मनुष्य की
चेतना से ही
कुछ निकल रहा
है। यह अनुकरण
नहीं है; एक
दूसरे को
देखकर कुछ
निर्मित नहीं
हो गया है।
इसलिए
विभिन्न तरह
के मन्दिर बने,
लेकिन
मंदिर बने
अवश्य।
बहुत
फर्क है, एक
मंदिर में और
मस्जिद में।
उनकी
व्यवस्था में
बहुत फर्क है।
उनकी योजना
में बहुत फर्क
है। लेकिन
आकांक्षा में
फर्क नहीं है,
अभीप्सा
में फर्क नहीं
है। मनुष्य
कहीं भी हो, कितना ही
दूसरों से
अपरिचित हो, वह अपनी
चेतना में कोई
बीज छिपाए है,
यह एक बात
खयाल में ले
लेने जैसी है।
दूसरी बात यह
भी खयाल में
लेनी जरूरी है
कि हजारों साल
हो जाते हैं, न तालों का
पता रह जाता
है, न
खजानों का।
लेकिन फिर भी
जिस किसी चीज
को हम, किसी
बिलकुल
अनजाने मोह से
ग्रसित 'लिए
चलते है; उस
पर हजार आघात
होते हैं, बुद्धि
उसको सब तरफ
से तोड्ने
चलती है। युग
का, आज का
बुद्धिमान
जिसे सब तरह
से इनकार करता
है, फिर भी
मनुष्य का मन
उसे संभाले
चलता है, इस
सबके बावजूद।
तो
यह बात स्मरण
रख लेनी जरूरी
है कि मनुष्य
की अचेतना में, आज
उसे शात नहीं
है तो भी, कहीं
कोई गूंजती—सी
धुन जरूर है
जो कहती है कि
अभी कोई ताला
खुलता था।
अचेतना में
इसलिए, कि
हम में से कोई
भी नया पैदा
हो गया हो, ऐसा
नहीं है। हम
में सभी अनेक
बार पैदा हो
चुके हैं। ऐसा
कोई युग न था
जब हम न हों।
ऐसी कोई घड़ी न
थी जब हम न हों।
उस दिन जो
हमारी चेतना
थी, उसी
दिन जो हमने
चेतना जाना था,
वह आज
हजारों
पर्तों के
भीतर दबा हुआ '
अचेतन' बन
गया है। उस
दिन अगर हमने
मंदिर का रहस्य
जाना था, और
उससे हमने
किसी द्वार को
खुलते देखा था,
तो आज भी
हमारे अचेतन
के किसी कोने
में वह स्मृति
दबी पड़ी है। बुद्धि
लाख इनकार कर
दे, लेकिन
बुद्धि उतनी
गहरी नहीं हो
पाती जितनी गहरी
स्मृति है।
इसलिए
अबू आघातों के
बावजूद, और सब
तरह से व्यर्थ
दिखायी पड़ने
के बावजूद भी
कुछ चीजें हैं,
कि 'परसिस्ट'
करती हैं, हटती नहीं।
नए रूप लेती
हैं, लेकिन
जारी रहती हैं।
यह तभी सम्भव
होता है जब कि
हमारे अनंत
जन्मों की
यात्रा में, अनंत— अनंत
बार, किसी
चीज को हमने
जाना है
यद्यपि आज
भूले हुए हैं।
और इनमें से
प्रत्येक का
बाह्य उपकरण
की तरह तो
उपयोग हुआ ही
है, उनका आंतरिक
अर्थ भी है, अभिप्राय भी
है। पहले तो
मंदिर को
बनाने की जो
जागतिक
कल्पना है, वह यह कि
सिर्फ मनुष्य
है, जो
मंदिर बनाता
है। घर तो पशु
भी बनाते हैं,
घोंसले तो
पक्षी भी
बनाते हैं, किन्तु वे
मन्दिर नहीं
बनाते।
मनुष्य की, जो भेद रेखा
खींची जाए
पशुओं से, उसमें
यह भी लिखना
ही पडेगा कि
वह मंदिर
बनानेवाला
प्राणी है।
कोई दूसरा
मंदिर नहीं
बनाता। अपने
लिए आवास तो
बिलकुल ही
स्वाभाविक है।
अपने रहने की
जगह तो कोई भी
बनाता है।
छोटे—छोटे
कीड़े भी बनाते
हैं, पक्षी
भी बनाते हैं;
लेकिन
परमात्मा के
लिए आवास
मनुष्य का
जागतिक लक्षण
है।
परमात्मा
के लिए भी
आवास, उसके
लिए भी कोई
जगह बनाना!
परमात्मा के
गहन बोध के
अतिरिक्त
मंदिर नहीं
बनाया जा सकता।
फिर परमात्मा
का गहन बोध भी
खो जाए तो
मंदिर बचा
रहेगा, लेकिन
बनाया नहीं जा
सकता बिना बोध
के। जैसे आपने
एक अतिथि गृह
बनाया घर में,
वह इसलिए कि
अतिथि आते रहे
हों घर में
कभी। अतिथि न
आते हों तो आप
अतिथि गृह
नहीं बनानेवाले
हैं। हालांकि
यह हो सकता है
कि अब अतिथि न
आते हों और
अतिथि गृह खड़ा
रह गया हो।
तो
परमात्मा के
लिए भी आवास
की धारणा उन
क्षणों में
पैदा हुई जब
परमात्मा
सिर्फ कल्पना
की बात नहीं
थी,
अनेक लोगों
के अनुभव की
बात थी और
परमात्मा के
अवतरण की जो
प्रक्रिया थी,
उसके उतरने
की, उसके
लिए एक विशेष
आवास, एक
विशेष स्थान,
जहां
परमात्मा
अवतरित हो सके,
पृथ्वी के
हर कोने पर
आवश्यक अनुभव
हुआ।
प्रत्येक
चीज के अवतरण
में,
आग्रह में,
'रिसेटिव' होने में एक
संयोजन है।
यों समझें कि अभी
जो हमारे पास
से रेडियो
वेव्ज गुजर
रही हैं हम
उन्हें पकड़
नहीं पाएंगे।
रेडियो के
उपकरण के बिना
उन्हें पकड़ना
कठिन होगा। कल
अगर एक ऐसा
वक्त आ जाए, आ सकता है कि
एक महायुद्ध
हो जाए, हमारी
सारी टेक्नालाजी
अस्त—व्यस्त
हो जाए, और
आपके घर में
एक रेडियो रह
जाए तो आप उसे
फेंकना न
चाहेंगे। मान
लीजिए अब कोई
रेडियो
स्टेशन नहीं
बचा, अब
रेडियो से कुछ
पकड़ा नहीं
जाता, अब
रेडियो
सुधारनेवाला
भी मिलना
मुश्किल है।
हो सकता है दस—पांच
पीढियों के
बाद भी आपके
घर में वह
रेडियो रखा
रहे और तब कोई
पूछे कि इसका
क्या उपयोग है?
तो कठिन हो
जाएगा बताना।
लेकिन
इतना जरूर
बताया जा
सकेगा कि पिता
आग्रहशील थे
इसको बचाने के
लिए,
उनके पिता
भी आग्रहशील
थे। इतना
उन्हें याद है
कि हमारे घर
में उसको बचानेवाले
आग्रहशील लोग
थे, वे
बचाए चले गए।
हमें पता नहीं,
इसका क्या
उपयोग है? आज
इसका कोई भी
उपयोग नहीं है।
और रेडियो
तोड़कर अगर हम सब
उपाय भी कर
लें, तो भी
इसकी खबर
मिलना बहुत
मुश्किल है कि
इससे कभी
संगीत बजा
करता था, कि
कभी इससे आवाज
निकला करती थी।
सीधे रेडियो
को तोड़कर
देखने से कुछ
पता चलनेवाला
नहीं है [ वह तो
सिर्फ एक
आग्राहक था, जहां कुछ
चीज घटती थी।
घटती कहीं और
थी, लेकिन
पक्की जाती थी।
ठीक ऐसे ही
मंदिर
आग्राहक थे, 'रिसेप्रिव
इंस्ट्रूमेंट'
थे।
परमात्मा
तो सब तरफ है।
आप भी सब जगह
मौजूद है, परमात्मा
भी सब जगह
मौजूद है।
लेकिन किसी
विशेष संयोजन
में आप 'एट्यून्ड'
हो जाते है।
आपकी 'एट्यून्ड'
मेल खाती है,
ताल—मेल हो
जाता है। तो
मंदिर
आग्राहक की
तरह उपयोग में
आए। वहां सारा
इन्तजाम ऐसा
था कि जहां
दिव्य भाव को,
दिव्य
अस्तित्व को,
भगवत्ता को
हम ग्रहण कर
पाएं। जहां हम
खुल जाएं और
उसे ग्रहण कर
पाएं। सारा
इन्तजाम
मंदिर का वैसा
ही था। अलग—अलग
लोगों ने अलग—अलग
तरह से
इन्तजाम 'किया
था। इससे कोंई
फर्क नहीं
पड़ता है कि
अलग—अलग तरह
से इन्तजाम
किया था। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि अलग—अलग
रेडियो
बनानेवाले
लोग( अलग—अलग
शक्ल का
रेडियो बनाएं।
बाकी, बहुत
गहरे में
प्रयोजन एक है।
इस
मुल्क में
मंदिर बने। और
कोई तीन—चार
तरह के ही खास
ढंग के मंदिर
हैं जिनके रूप
से बाकी सारे
मंदिर बने है।
इस मुल्क में
जो मंदिर बने
वह आकाश की
आकृति के है।
यानी जो
गुम्बज़ है
मंदिर का, वह
आकाश की आकृति
में है। और
प्रयोजन यह है
कि अगर आकाश
के नीचे बैठकर
मैं ओम का
उच्चार करूं
तो मेरा
उच्चार खो
जाएगा।
क्योंकि मेरी
शक्ति बहुत कम
है, विराट
आकाश है चारों
तरफ। मेरा
उच्चार लौटकर
मुझ पर नहीं
बरस सकेगा।
मैं जो पुकार
करूंगा, वह
पुकार मुझ पर
लौटकर नहीं
आएगी, वह
अनंत में खो
जाएगी।
मेरी
पुकार मुझ पर
लौटकर आ जाए, इसलिए
मंदिर का
गुम्बज
निर्मित किया
गया। वह आकाश
की छोटी
प्रतिकृति है,
ठीक अर्ध—गोलाकार,
जैसा आकाश
चारों तरफ
पृथ्वी को
छूता है—ऐसा
एक छोटा आकाश
निर्मित किया
है गुम्बज़
में। उसके
नीचे मैं जो
पुकार करूंगा,
मंत्रोच्चार
करूंगा, ध्वनि
करूंगा, वह
सीधी आकाश में
खो नहीं जाएगी।
गोल गुम्बज़
उसे वापस लौटा
देगा। जितना
गोल होगा
गुम्बज़, उतनी
सरलता से
ध्वनि वापस
लौट आएगी, और
उतनी ही
ज्यादा
प्रतिध्वनिया
उसकी पैदा होंगी।
फिर तो ऐसे
पत्थर भी खोज
लिए गए जो
ध्वनियों को
वापस लौटाने
में बड़े सक्षम
हैं।
अजन्ता
का एक बौद्ध
चैत्य है, उसमें
लगे पत्थर ठीक
उतनी ही ध्वनि
को तीव्रता से
लौटा सकते है,
उतनी ही चोट
को
प्रतिध्वनित
करते है, जैसे
तबला। आप तबले
पर चोट करें, वैसी ही
पत्थर पर चोट
करें तो उतनी
ही आवाज होगी।
कुछ विशेष
मंत्रों (
ध्वनियों) को,
जो बहुत
सूक्ष्म है, साधारण
गुम्बज़ नहीं
लौटा पाता है,
उसके लिए उन
पत्थरों का
उपयोग किया
गया।
क्या
प्रयोजन है इन
सबका? प्रयोजन
यह है कि जब आप
ओम् का उच्चार
करते है, जब
बहुत सघनता से,
बहुत
तीव्रता से आप
ओम् का उच्चार
करते है; और
मंदिर का
गुम्बज़ सारे
उच्चार को
वापस आप पर
फेंक देता है,
तो एक
वर्तुल
निर्मित होता
है, एक 'सर्किल'
निर्मित
होता है, उच्चार
का, ध्वनि
का, लौटती
ध्वनि का।
मंदिर का
गुम्बज़ आपकी
गंजी हुई
ध्वनि को आप
तक लौटाकर एक
वर्तुल निर्मित
करवा देता है।
उस वर्तुल का आनन्द
ही अदभुत है।
अगर
आप खुले आकाश
के नीचे ओम्
का उच्चार
करेंगे तो
वर्तुल
निर्मित नहीं
होगा और आपको
भी आनन्द का
पता नहीं
चलेगा। जब
वर्तुल निर्मित
होता है तब आप
सिर्फ
पुकारनेवाले
नहीं हैं, पानेवाले
भी हो जाते है।
और उस लौटती
हुई ध्वनि के
साथ दिव्यता
की प्रतीति
प्रवेश करने
लगती है। आपकी
की हुई ध्वनि
तो मनुष्य की
है, लेकिन
जैसे ही वह
लौटती है, वह
नये वेग और
नयी शक्तियों
को समाहित
करके वापस लौट
आती है। इस
मंदिर को, इस
मंदिर के
गुम्बज को, मंत्र के
द्वारा ध्वनि
वर्तुल
निर्मित करने के
लिए प्रयोग
किया गया था।
अगर
बिलकुल शांत, एकान्त
स्थिति में आप
बैठकर उच्चार
करते हों, तो
जैसे ही
वर्तुल
निर्मित होगा,
विचार बन्द
हो जाएंगे।
वर्तुल इधर
निर्मित हुआ,
इधर विचार
बन्द हुए।
जैसा
कि मैंने कई
बार कहा है, स्री—पुरुष
के संभोग में
वर्तुल
निर्मित हो
जाता है शक्ति
का, और जब
वर्तुल
निर्मित होता
है तभी संभोग
का क्षण समाधि
का इशारा करता
है। अगर
पद्मासन या
सिद्धासन में
बैठे बुद्ध और
महावीर की
मूर्तियां
देखें तो वह
भी वर्तुल ही
निर्मित करने
के अलग ढंग
हैं। जब दोनों
पैर जोड़ लिए
जाते हैं और
दोनों हाथ पैरों
के ऊपर रख दिए
जाते हैं तो
पूरा शरीर वर्तुल
का काम करने
लगता है। खुद
के शरीर की
विद्युत फिर
कहीं से बाहर
नहीं निकलती।
पूरी
वर्तुलाकार
बनने लगती है।
एक सर्किट
निर्मित होता
है, और
जैसे ही
सर्किट
निर्मित होता
है वैसे ही विचार
शून्य हो जाते
हैं।
अगर
इसे विद्युत
की भाषा में
कहें तो आपके
विचारों का जो
कोलाहल है वह
आपकी ऊर्जा के
वर्तुल न बनने
की वजह से है।
वर्तुल बना कि
ऊर्जा शान्त
और समाहित
होने लगती है।
तो मंदिर के
गुम्बज से
वर्तुल बनाने
की बड़ी अदभुत
प्रक्रिया है
और यही अंतरंग
अर्थ भी है
उसका।
मंदिर
के द्वार पर
हमने बाटा
लटका रखा है, वह
भी सिर्फ
इसीलिए आप जब
ओम् का उच्चार
करें, हो
सकता है बहुत
धीमे करें कि
खयाल में भी न'
आए—पर जोर
से घण्टे की
आवाज उस
वर्तुल का
आपको स्मरण दिला
जाएगी तत्काल—उस
गूंजती हुई
ध्वनि का—वर्तुल
पर वर्तुल, जैसे पानी
में फेंका गया
पत्थर हो और
लहर पर लहर, रिपल पर
रिपल उठाता
चला गया हो।
तिब्बती
मंदिर में तो
घण्टा नहीं
रखते, सर्व
धातुओं का बना
हुआ एक बर्तन
रखते हैं घड़े
की भांति और
उसमें लकड़ी का
डण्डा रखते
हैं घुमाने के
लिए। उसको सात
बार अन्दर
घुमाकर जोर से
चोट करते है।
सात बार
घुमाने पर, और चोट करने
पर 'मणि
पद्ये हुं', इसकी पूरी
आवाज निकलती
है—पूरा
मंत्र! पूरा
घड़ा चिल्लाकर
कहता है, 'मीणू
पद्ये हुं'! और एक दफा
नहीं, सात
बार। आप सात
राउच्छ लेकर
चोट मारकर उस
पर और हाथ बाहर
कर लें, फिर
सात बार सुनें—ओम्
मणि पद्ये हुं
ओम् मणि पद्मे
हुं—आवाज धीमी
होती जाएगी और
सात वर्तुल
उसके बन जाएंगे।
ठीक
आप भी मंदिर
के भीतर एक
घड़े की तरह
जोर से अपने
भीतर चोट
करेंगे—ओम्
मणि पद्ये हुं।
मंदिर भी
दोहराएगा।
आपका रोया—रोया
उसे यद्वा
करके वापस
फेंकेगा।
थोड़ी ही देर
में न आप रह
जाएंगे, न
मंदिर रह
जाएगा, सिर्फ
विद्युत के
वर्तुल रह
जाएंगे।
ध्यान
रहे,
ध्वनि जो है
विद्युत का
सूक्ष्मतम
रूप है, यह
भी थोड़ा खयाल
में ले लेना
जरूरी है।
क्योंकि अब विज्ञान
भी कहता है कि
ध्वनि
विद्युत का एक
रूप है—सभी
कुछ विद्युत
का रूप है।
लेकिन भारतीय
मनीषि की पकड़
थोड़ी सी भिन्न
है। वह कहता
है, विद्युत
भी ध्वनि का
रूप है। साउण्ड
इज दि बेस, इलेक्ट्रिसिटी
बेस नहीं है—इसलिए
कहा शब्द—ब्रह्म।
विद्युत
सिर्फ ध्वनि
का ही एक रूप
है। इसमें
बहुत दूर तक
समानता खड़ी हो
गई। अभी विज्ञान
कहने लगा है
कि ध्वनि जो
है, वह
विद्युत का एक
रूप है। अब ये
थोड़ा—सा फर्क
रह गया है कि
प्राथमिक कौन
है? विज्ञान
कहता है कि
विद्युत
प्राथमिक है।
लेकिन भारत की
मनीषा तो कहती
है कि ध्वनि
प्राथमिक है।
और ध्वनि की
ही सघनता
विद्युत है।
विज्ञान
कहता है कि
विद्युत का एक
प्रकार, ध्वनि
है। इस बात की
बहुत
सम्भावना है
कि 'शब्द—ब्रह्म'
की खोज बहुत
निकट में
विज्ञान को
करनी पड़ेगी।
ये मंदिर के
गुम्बज के
नीचे पैदा की
गयी ध्वनियों
का ही अनुभव
है। क्योंकि
जब ओम् की सघन
ध्वनि की गयी
तो साधक ने
मंदिर के भीतर
थोड़ी देर में
जाना कि मंदिर
भी मिट गया और
मैं भी मिट
गया, सिर्फ
विद्युत रह
गयी। यह किसी
प्रयोगशाला
में लिया गया
निष्कर्ष नहीं
है।
जिन्होंने ये
कहा है, उनके
पास कोई
प्रयोगशाला
नहीं। उनके
पास तो एक ही
प्रयोगशाला
थी, जो
उनका मंदिर था।
उस मंदिर में
उन्होंने
जाना है, और
यह जाना है कि
हम तो ध्वनि
से शुरू करते
हैं लेकिन
अंततः
विद्युत ही रह
जाती है। इस
ध्वनि के
अनुभव के लिए
मन्दिर का
गुम्बज निर्मित
किया गया था।
जब
पहली दफा पश्चिम
के लोगों को
भारतीय मंदिर
देखने को मिले, तो
वे उन्हें ' अनहाईजिनिक'
मालूम पड़े।
स्वभावत:
खिड़की—दरवाजे
ज्यादा नहीं
हो सकते, एक
ही रखा जा
सकता था, वह
भी बहुत छोटा।
इसका कारण था
कि यह किसी भी
तरह, ध्वनि
जो पैदा हो
रही है भीतर, उसके वर्तुल
को तोड़नेवाला
न बन जाए। उन
विदेशियों को
लगा कि ये
मंदिर बिलकुल
ही अंधेरे, गन्दे और
बन्द हैं, जिनमें
हवा भी नहीं
जाती। उनका
चर्च साफ—सुथरा
है, खिड़कियां
है, दरवाजे
हैं, बड़ी
खिड़कियां हैं,
बड़े दरवाजे
हैं। रोशनी भी
जाती है, हवा
भी जाती है, पूरे 'हाईजीनिक'
हैं।
मैंने
कहा कि जब
चाबी भूल जाती
है तो
कठिनाइयां
खड़ी होती है।
आज कोई नहीं
कह सकता
हिन्दुस्तान
में,
एक आदमी भी,
कि हमारे
मंदिर में
खिड़की क्यों
नहीं है, दरवाजा
क्यों नहीं है?
हमको भी लगा
कि सच तो है कि
मंदिर 'अनहाईजीनिक'
हैं।
परन्तु कोई यह
तर्क न दे सका
कि इन मंदिरों
के भीतर
बीमारी नहीं
जाने दी गई।
इन मंदिरों
में बैठा हुआ
पूजा और
प्रार्थना करनेवाला
आदमी, स्वस्थतम
लोगों में से
है।
तब
यह भी धीरे—धीरे
अनुभव में आना
शुरू हुआ कि
ओम् की ध्वनि का
जो आघात है वह
अपूर्व रूप से
'प्यौरीफाई'
करता है।
विशेष
ध्वनियां हैं
जिनके आघात
शुद्धता लाते
हैं। विशेष
ध्वनियां है
जिनके आघात
अशुद्धता लाते
हैं। विशेष
ध्वनियां हैं
जो वहां बीमारियों
को प्रवेश ही
नहीं करने
देंगी, विशेष
ध्वनियां हैं
जो वहां
बीमारियों को
निमंत्रित
करती हैं। पर
ध्वनि का पूरा
शास्त्र खो
गया।
जिन्होंने
कहा था—शब्द
ही ब्रह्म है,
उन्होंने
शब्द के लिए
बड़ी से बड़ी
बात जो कही जा
सकती थी, वह
कही। ब्रह्म
से बड़ा कोई
अनुभव नहीं था,
और शब्द से
गहरी
उन्होंने कोई
चीज नहीं जानी
थी, जिसका
प्रयोग किया
जा सके।
सारे
राग,
सारी
रागनियां, सारा
संगीत पूरब का
है। वह शब्द—ब्रह्म
की ही
प्रतीतियों
का फैलाव हैँ।
समस्त
रागनियां
मंदिरों में
पैदा हुईं।
समस्त नृत्य
पहली दफा
मंदिरों में
पैदा हुए, फिर
हर जगह विकसित
हुए। क्योंकि
मंदिर में ही
ध्वनि का
अनुभव करनेवाला
साधक था। उसने
ध्वनियों में
भेद देखे।
उसने इतने भेद
देखे जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
अभी
सिर्फ चालीस
साल पहले काशी
में एक साधु
हुए हैं
विशुद्धानन्द।
सिर्फ
ध्वनियों के
विशेष आघात से
किसी की भी
मृत्यु हो
सकती थी, ऐसे
सैक्कों
प्रयोग
विशुद्धानन्द
ने करके दिखाए।
वह साधु अपने
बन्द मन्दिर
के गुम्बज में
बैठा था जो
बिलकुल 'अनहाईजीनिक'
था।
पहली
दफा तीन
अंग्रेज
डाक्टरों के
सामने प्रयोग
किया गया। वे
तीनों
अंग्रेज
डाक्टर एक
चिड़िया को
लेकर अन्दर गए।
विशुद्धानन्द
ने कुछ
ध्वनियां कीं, वह
चिड़िया
तड़फडायी और मर
गयी। उन तीनों
ने जांच कर ली
कि वह मर गयी।
तब
विशुद्धानन्द
ने दूसरी
ध्वनियां कीं,
वह चिड़िया
तड़फड़ायी और
जिन्दा हो
गयी! तब पहली दफा
शक पैदा हुआ
कि ध्वनि के
आघात का
परिणाम हो
सकता है! अभी
हम दूसरे
आघातों के
परिणामों को
मान लेते हैं
क्योंकि उनको
विज्ञान कहता
है।
हम
कहते है कि
विशेष किरण
आपके शरीर पर
पड़े तो विशेष
परिणाम होंगे।
विशेष औषधि
आपके शरीर में
डाली जाए तो
विशेष परिणाम
होंगे। विशेष
रंग विशेष
परिणाम लाते
हैं। लेकिन
विशेष ध्वनि
क्यों नहीं? अभी
तो कुछ
प्रयोगशालाएं
पश्चिम में,
ध्वनियों
का जीवन से
क्या संबंध हो
सकता है, इस
पर बड़े काम
में रत है।
दो
तीन
प्रयोगशालाओं
में बड़े गहरे
परिणाम हुए
हैं। इतना तो
बिलकुल साफ हो
गया है कि
विशेष ध्वनि का
परिणाम, जिस
मां की छाती
से दूध नहीं
निकल रहा है, उसकी छाती
से दूध लाया
जा सकता है।
विशेष ध्वनि
करने पर जो
पौधा छह महीने
में फूल देता
है वह दो
महीने में फूल
दे सकता है।
जो गाय जितना
दूध देती है
उससे दुगुना
दे सकती है—विशेष
ध्वनि पैदा की
जाए तो।
आज
रूस की डेअरीज
में बिना
ध्वनि के कोई
गाय से दूध
नहीं दुहा जा
रहा है। और
बहुत जल्दी
कोई फल, कोई
सब्जी बिना
ध्वनि के पैदा
नहीं होगी।
क्योंकि
प्रयोगशाला
में तो यह
सिद्ध हो गया
है, अब
व्यापक फैलाव
की बात है।
अगर फल, सब्जी,
दूध और गाय
ध्वनि से
प्रभावित
होते हैं, तो
कोई कारण नहीं
है कि आदमी
प्रभावित न हो।
स्वास्थ्य
और अस्वास्थ्य
ध्वनि की
विशेष तरंगों
पर निर्भर है।
इसलिए तब बहुत
गहरी 'हाईजीनिक'
व्यवस्था
थी जो हवा से
बंधी हुई नहीं
थी। सिर्फ हवा
मिल जाने से
ही कोई
स्वास्थ्य आ
जाने वाला है,
ऐसी धारणा
नहीं थी। नहीं
तो यह असम्भव
है, कि
पांच हजार साल
के लम्बे
अनुभव में यह
खयाल में न आ
गया होता!
हिन्दुस्तान
का साधु बन्द
गुफाओं में
बैठा है जहां
रोशनी नहीं
जाती, हवा
नहीं जाती।
बन्द मंदिरों
में बैठा है।
छोटे दरवाजे
हैं, जिनमें
से झुककर
अन्दर प्रवेश
करना पड़ता है।
कुछ मंदिरों
में तो रेंगकर
ही अन्दर
प्रवेश करना
पड़ता है। फिर
भी स्वास्थ्य
पर इसका कोई
बुरा परिणाम
कभी नहीं हुआ
था।
हजारों
साल के अनुभव
में कभी नहीं
आया कि इनका
स्वास्थ्य पर
बुरा परिणाम
हुआ है। पर जब
पहली दफा
संदेह उठा तो
हमने अपने
मंदिरों के
दरवाजे बड़े कर
लिए।
खिड़कियां लगा
दीं। हमने
उनको 'माडर्नाइज'
किया, बिना
यह जाने हुए
कि वह 'माडर्नाइज'
होकर
साधारण मकान
हो जाते हैं।
उनकी वह 'रिसेटिविटी'
खो जाती है
जिसके लिए वह
कुंजी है।
ध्वनि
से गहरा संबंध
है मंदिर की
वास्तु—कला का, आर्किकेर
का। वह सारा
ध्वनि—शाख ही
है। किस कोण
से ध्वनि की
चोट की जाए, उसका हिसाब
है। कौन—सी
ध्वनि खड़े
होकर की जाए
और कौन—सी
बैठकर की जाए,
उसका भी
हिसाब है। कौन—सी
लेट कर की जाए
उसका भी हिसाब
है। क्योंकि
खड़े होकर उसके
आघात बदल
जाएंगे, बैठकर
उसके आघात बदल
जाएंगे। कौन—सी
ध्वनियां साथ
में की जाएं
तो परिणाम अलग
होंगे। कौन सी
ध्वनियां अलग—अलग
की जाएं तो
परिणाम अलग
होंगे।
इसलिए
बड़े मजे की
बात है कि
वैदिक
साहित्य का पश्चिम
की भाषा में
अनुवाद शुरू
हुआ तो
स्वभावत: पश्चिम
में भाषा का
जो जोर है वह
भाषागत है, ध्वनिगत
नहीं है, फोनेटिक
नहीं है। कोई
शब्द लिखा जाए
तो वैदिक
दृष्टि में उस
शब्द के लिखने
और बोलने का
उतना मूल्य
नहीं है जितना
उसके भीतर वह
विशेष ध्वनि
और विशेष
ध्वनि की
मात्राओं का
समाहित होना
जरूरी है।
संस्कृत का
जोर फोनेटिक
है, लिंग्विस्टिक
नहीं। शब्दगत
नहीं है, ध्वनिगत
है।
इसलिए
हजारों साल तक
कीमती
शास्त्रों को
न लिखने की
जिद की गयी।
क्योंकि
लिखते ही जोर
बदल जाएगा— 'एस्फेसिस'
बदल जाएगा।
बोलकर ही दिया
जाए दूसरे को,
लिखकर न
दिया जाए, क्योंकि
लिखे जाने पर
शब्द बन जाएगा,
और ध्वनि की
जो बारीक
संवेदनाएं
थीं वह मर जाएंगी।
उनका कोई अर्थ
नहीं रह जाएगा।
अगर
राम को लिख
दें हम, तो
पढ़नेवाले
पचास तरह से
पढ़ सकते हैं।
कोई 'र' पर
थोड़ा कम जोर
दे, कोई 'अ' पर
थोड़ा ज्यादा
जोर दे, कोई
'म' पर
थोड़ा कम जोर
दे। वह कैसा
जोर देगा, वह
पढनेवाले पर
निर्भर करेगा।
लिखने के बाद
ध्वनिगत जोर
समाप्त हो
जाता है। अब
उसको फिर
डिकोड करना
पड़ेगा। इसलिए
हजारों सालों
तक जिद थी कि कोई
शास्त्र लिखा
न जाए। कारण? सिर्फ
एकमात्र ही था
कि उसकी जो
ध्वनिगत व्यवस्था
है वह न खो जाए।
सीधा व्यक्ति
के द्वारा ही
वह दूसरे को
सुनाया जाए।
इसलिए
शास्त्र को 'श्रुति'
कहते हैं, जो सुनकर
मिले वही शाख
था। जो पढ़कर
मिले उसको
हमने शास्त्र
नहीं कहा कभी।
क्योंकि उसकी
सारी की सारी
वैज्ञानिक
प्रक्रिया थी,
कि उसमें
ध्वनि के आघात
होंगे—कहां
क्षीण होगी
ध्वनि, कहां
तीव्र होगी।
परन्तु उसको
लिपिबद्ध
करने पर
कठिनाई खड़ी हो
जाएगी। और
कठिनाई खड़ी
हुई। जिस दिन
लिपिबद्ध हुए
ये शास्त्र
उसी दिन इनकी
जो मौलिक आंतरिक
व्यवस्था थी
वह खण्डित हो
गयी। फिर कोई
जरूरत न रही।
आप किसी से
सुनकर ग्रहण
करें... आप
किताब पढ़ सकते
हैं, वह
बाजार में
उपलब्ध है।
फिर उसके साथ
ध्वनि का कोई
सवाल नहीं रहा।
यह
भी मजे की बात
है कि इन
शास्त्रों का
कभी जोर न था
अर्थ पर। जोर
ही नहीं था
अर्थ पर। अर्थ
पर जोर तो
पीछे हमारी पकड़
में आना शुरू
हुआ जब हमने
उनको
लिपिबद्ध
किया।
क्योंकि
लिपिबद्ध कोई
भी चीज अगर
अर्थहीन हो तो
हम पागल मालूम
पड़ेंगे। उनको
उसमें अर्थ
देना ही पड़ेगा।
अभी भी वैदिक
वचनों में ऐसे
वचन हैं जिनके
अर्थ नहीं
लगाए जा सके।
और जिनके अर्थ
नहीं लगाए जा
सके वही वचन असली
है,
क्योंकि वे
बिलकुल ही
ध्वनिगत हैं,
उनमें अर्थ
था ही नहीं।
जैसे
'ओम् मणि
पद्ये हुं'।
यह एक तिब्बती
मंत्र है।
इसमें सवाल
अर्थ का नहीं
है।’ ओम्' में भी सवाल
अर्थ का नहीं
है। उसमें कोई
अर्थ नहीं है।
ध्वनिगत चोट
है। और उसके
परिणाम हैं।
जब कोई साधक ' ओम् मणि
पद्ये हुं' का आवर्तन
करता है बार—बार,
तो उसके
शरीर के
विभिन्न
चक्रों पर चोट
पड़नी शुरू
होती है और वे
चक्र सक्रिय
होने शुरू
होते हैं।
इसमें क्या
अर्थ है, यह
सवाल नहीं है,
इसकी क्या 'युटीलिटी', उपयोगिता
है, यह
सवाल है। इसको
खयाल में ले
लेना जरूरी है
कि पुराने
शास्त्र अर्थ
पर जोर नहीं
देते, उपादेयता
पर जोर देते
हैं—उपयोगिता
क्या है, उपयोग
क्या है, इस
पर जोर देते
हैं।
बुद्ध
ने किसी से
पूछा है कि
सत्य क्या है? तो
बुद्ध ने कहा,
जो उपयोग
में आए। सत्य
की परिभाषा—जो
उपयोग में आ सके।
विज्ञान भी
यही कहेगा, करेगा सत्य
की परिभाषा।
विज्ञान भी
यही करता है।
वह
प्रेगमेटिक
परिभाषा
करेगा। वह यह
नहीं कहेगा कि
सत्य क्या है,
जिसको आप
सिद्ध कर
देंगे, यह
सवाल नहीं है।
सत्य क्या है,
जो उपयोग
में आ सके। आप
उपयोग करके
दिखा दें। आप
कहते है कि
हाइड्रोजन—आक्सीजन
मिलकर पानी
बनते हैं।
हमें फिक्र
नहीं है कि यह
सत्य है या
असत्य। आप
पानी बनाकर
दिखा दें तो
सत्य हो जाएगा,
न बन सके
पानी तो असत्य
है।
हाइड्रोजन
और आक्सीजन
मिलकर पानी
बनते हैं कि
नहीं, यह कोई
लाजिकल, कोई
तर्कगत इसकी
वैलिडिटी
नहीं है। बनते
हों तो बनाकर
दिखा दें। बन
जाए तो सत्य
है, न बनते
हों तो सिद्ध
हो जाएगा कि
असत्य हैं।
विज्ञान ने अब
जाकर वही
व्याख्या
पक्की है सत्य
की, जो
पांच हजार साल
पहले धर्म की
जो व्यख्या थी।
धर्म कहता था,
जो उपयोग
में आ जाए।
जिसका आप
उपयोग कर सकें।
वैसे ओम् का
कोई अर्थ नहीं
है, उपयोग
है; कोई
मीनिंग नहीं
है, यूटिलिटी
है। मंदिर का
कोई अर्थ नहीं
है, उपयोग
है। और उपयोग
में लाना एक
कला है और सभी
कलाओं के साथ
एक खराबी है, कि उनका
जीवंत
हस्तांतरण
नहीं हो सकता।
इधर
मैं पढ़ता था, चीन
में कोई
पन्द्रह सौ
साल पहले एक
सम्राट था। वह
मांस का बहुत
शौकीन है, और
इतना शौकीन है
कि वह अपने
सामने ही गाय—बैल
को कटवाता है।
जो उसका कसाई
है, वह
पन्द्रह साल
से नियमित
सुबह आकर उसके
सामने जानवर
काटता है। एक
दिन वह सम्राट
पूछता है कि
यह तू जो फरसा
लाता है काटने
को, इसे
मैंने तुझे
कभी बदलते
नहीं देखा।
पन्द्रह साल
हो गए, इसकी
धार मरती नहीं?
तो वह कसाई
कहता है कि
इसकी धार नहीं
मरती। धार तभी
मरती है जब
कसाई कुशल न
हो। धार तभी
मरती है जब
कसाई को पता न
हो कि कहां ठीक
जगह है, जहां
कि फरसा आर—पार
हो जाता है और
दो हड्डियों
के बीच में
नहीं आता।
यानी 'ज्वाइंटस'
कहां हैं? यह मेरी
पुश्तैनी कला
है। इस फरसे
की धार सिर्फ
मरती ही नहीं
बल्कि रोज जानवर
काटकर इसकी
धार और तेज हो
जाती है।
उस
सम्राट ने कहा, क्या
तू यह कला
मुझे भी सिखा
सकता है? कसाई
ने कहा कि यह
बहुत कठिन है।
यह तो मै अपने
बाप के पास, जबसे मुझे
होश है, तब
से मैं खड़ा
रहा और इसको
मैंने 'इम्बाइब'
किया है, इसको मैंने
सीखा नहीं।
इसको मैं पी
गया हूं। मैं
बाप के पास
खड़ा रहता था।
रोज—रोज यही
हो रहा था, दिन
में जानवर कट
रहे थे, मै
पास खड़ा रहता
था। कभी उसका
फरसा उठाकर
लाता था, कभी
जानवर के कटे
हुए अंगों को
उठाकर रखता था।
बस मैं पी गया।
अगर तुम कभी
भी राजी हो तो
मेरे पास खड़े
रहो, कभी
फरसा उठाकर
लाओ, कभी
रखो, कभी
बैठो, कभी
देखते रहो। इस
हुनर को पी
जाओ। मैं वह
हुनर सिखा
नहीं सकता।
साइंस
सिखायी जा
सकती है, आर्ट्स
सिखाया नहीं
जा सकता।
विज्ञान हम
सिखा सकते हैं,
पढ़ा सकते
हैं। कला हम
सिखा नहीं
सकते, कला
को तो 'इम्बाइब'
करना पड़ता.
है। ये सारे
मंत्र अर्थ
नहीं रखते, किन्तु इनका
कलात्मक
उपयोग है।
छोटे—छोटे
.बच्चों को हम 'इम्बाइब' करवा देते
थे। वे मंदिर
की कला सीख
जाते थे।
उन्हें कभी
पता भी नहीं
चलता था कि वे
क्या सीख गए!
वे मंदिर में
जाने की कला
सीख जाते थे।
वे मंदिर में
बैठने की कला सीख
जाते थे, वे
मंदिर का
उपयोग सीख जाते
थे। जब भी मुसीबते
होती थीं, वे
भागे मंदिर चले
जाते थे। मंदिर
से वे शांत होकर
लौट आते थे।
रोज सबेरे वे मंदिर
चले आते थे, क्योंकि जो मंदिर
में मिलता था
वह कहीं भी मिलना
मुश्किल था।
पर उन्होंने
इतने बचपन से
पकड़ी थी बात
कि उन्हें सभी
सिखाया, ऐसा
नहीं—इम्बाइब्ड
कर गए थे वे, पी गए थे।
बहुत सी चीजें
हैं जो सिखायी
नहीं जा सकतीं।
जहां भी कला
है वहां
सिखाना
मुश्किल है।
इस
मंदिर की, इन
मंदिरों के
बीच ध्वनि की
जो सारी की
सारी संयोजना
थी, उसकी
एक प्रायोगिक व्यवस्था
है। और जब तक
शब्द का ठीक
ध्वनिगत रूप
खयाल में न हो,
उसका कोई
मतलब नहीं
होता। जैसे
मंत्र है—हमारे
यहां गुरु के
द्वारा ही
दिया जाए, इस
पर जोर था। वह
मंत्र आप
जानते रहे हैं
सदा। हो सकता
है गुरु आपके
कान में कहे—'राम राम का जाप
करो'। और
आप हैरान
होंगे और
कहेंगे कि यह
क्या? क्या
यह मंत्र गुरु
के बिना नहीं
मिलता? यह
तो दुनिया
जानती है कि
राम राम कहो, और इस आदमी
ने कान में
कहा कि राम राम
कहो। यह तो पागलपन
की बात है।
नहीं, गुरु
के दिए मंत्र
में राम के
ध्वनिगत रूप
पर जोर होगा, जिसे दुनिया
नहीं जानती।
वैसे राम के
भी पचासों
प्रयोग हैं।
वाल्मीकि
की सारी कथा
हमने सुनी है, लेकिन
अब वह कथा
बचकानी हो गयी।
ऐसी कथा हो
गयी कि हम
समझने लगे कि
वाल्मीकि नासमझ
था, गैर
पढ़ा लिखा था, गंवार था।
वह भूल गया कि
गुरु ने कहा
था कि 'राम
राम' का
पाठ करना, तो
वह 'मरा मरा'
पाठ करते
हुए ज्ञान को
उपलब्ध हो गया।
ये चाबियां जब
खो जाती हैं
तो ऐसी गड़बड़
खड़ी हो जाती
है। सच बात यह
है कि राम के
मंत्र के एक
रूप का यही हिस्सा
है, कि 'राम
राम' कहते
कहते जब आपके
भीतर से 'मरा
मरा' निकलने
लगे तभी
वर्तुल बना।
राम राम गति
से कहते हुए, जब बिलकुल
स्थिति उल्टी
हो जाए और मरा
मरा निकलने लगे,
तब ठीक
ध्वनिगत हो
गया। और जब
मरा मरा
निकलेगा तब एक
अदभुत घटना
घटती है। और
वह घटना यह है
कि आप नहीं
रहे, आप मर
गए। और जब आप
मर गएहोते हैं,
वही क्षण
आपके जप पूरे होने
का है। वही
क्षण अनुभव
काहै, जब
आप नहीं हैं, मिट गए।
और
यह बड़े मजे की
बात है कि अगर
यह प्रक्रिया
ठीक से की जाए, तो
राम का पाठ आप
शुरू करेंगे
बहुत शीघ्र वह
घड़ी आ जाएगी
जब राम की जगह 'मरा मरा' निकलने
लगेगा और आप चाहेंगे
भी कहना राम
तो न कह पाएंगे।
सारा
व्यक्तित्व मरा
मरा कहेगा। उस
वक्त आपकी मृत्यु
घटित होगी, जोकि ध्यान का
पहला चरण है।
और जब आपकी मृत्यु
पूरी घटित हो जाए
गीतो आप अचानक
पाएगे कि मरामरा,
राम में रूपांतरित
होने लगा। फिर
आपके भीतर से
राम की ध्वनि
निकलनी शुरू होगी।
और जो राम की
ध्वनि अब
निकलेगी आपके
भीतर से, तब
आपको राम का
साक्षातकार
होगा, इसके
पहले नहीं
होगा। बीच में
मरा की ध्वनि
में रूपांतरण
अनिवार्य है।
इसके
तीन हिस्से
हुए। राम से
आप शुरू
करेंगे, मरा
में आप
मिटेंगे, और
राम पर फिर
पूरा होगा। और
जब तक बीच में
मरा—मरा की
प्रक्रिया
पकड़ न ले आपको,
तब तक असली
राम की
प्रक्रिया, जो तीसरे
चरण में पूरी होने
वाली है, वह
नहीं होगी।
अगर आप राम राम
कहते ही गए, और मरा मरा नही
आप बीच में तो पता
ही नहीं है—उसके
फोनेटिक 'एमफेसिस'
कांपता नहीं
है। उसका
ध्वनिगत जो जोर
है उस जोर को
अगर ठीक .से
आपने दिया—जैसे
अगर आपने 'र'
जोर से कहा,
'म' धीमे
कहा तो ही 'मरा'
बनेगा नहीं
तो नहीं बनेगा।
’र' पर
सारी ताकत लग
जाएगी और 'म'
को ढीला छोड़
दिया तोम' गड्डे
की तरह हो
जाएगा, 'र' शिखर की तरह
हो जाएगा।’र'
एक उतुंग
चोटी हो जाएगा
और 'म' एक
खाई हो जाएगा।
और इस स्थिति
में राम में 'म' छोटा
करते आप चले
जाएं तो बहुत शीघ्र
आप पाएंगे कि
रूपांतरण हुआ।’म' शिखर
बन जाएगा और 'र' खाई बन
जाएगा। और 'मरा' शुरू
हो जाएगा।
जैसे
लहरें हैं, हर
शिखर के बाद
खाई और हर खाई
के बाद शिखर!
और अभी जो
शिखर था वह
कुछ देर में
खाई हो जाएगा,
जो खाई थी
फिर शिखर बन
जाएगी—ठीक लहर
की तरह। ध्वनि
की भी लहरें हैं।
ठीक ध्वनि के
भी उतार—चढ़ाव
हैं, आरोह—अवरोह
हैं। तो ठीक
ध्वनि की
व्यवस्था अगर
जात न हो तो आप
राम राम कहते
रहें, कोई
परिणाम नहीं
होगा। अब
जिन्होंने
वाल्मीकि के संबंध
में यह कहानी
प्रचलित की थी
कि वह नासमझ
था, वह पढ़ा
लिखा न था, वह
गंवार था, ये
सब बातें सत्य
हैं कि वह
नासमझ था, बे
पढ़ा—लिखा था, गंवार था, लेकिन यह
बात सच नहीं
है कि इसलिए
यह 'मरा
मरा' कहने
लगा।
जहां
तक इस सूत्र
का संबंध है, इस
मामले में तो
वह पूरा
होशियार था।
उसे ठीक, पूरे
गणित का पता
था। इतने
मामले का तो
उसे पूरा पता
था कि राम' कैसे
कहना है कि 'मरा' बन
जाए। जब मरा
बन जाए तभी आप
संक्रमण से
गुजरेंगे और
फिर राम पैदा
होगा। वह राम
आपके द्वारा
कहा हुआ राम
नहीं होगा।
फिर आप तो मर
गए। वह राम
जन्मेगा आपके
भीतर, वह
अजपा होगा। आप
उसका जाप नहीं
कर रहे, वह
हो रहा है जाप।
ध्वनिगत
जोर की वजह से श्रुति
है। और उसे
कोई
जाननेवाला, जो
ध्वनियों को
जानता हो, वही
व्यक्ति उसे
किसी को दो, तो ही
उपयोगी होगा।
वही शब्द
होंगे, जो
किताब में लिखे
होगे, सबको
मालूम होंगे,
फिर भी उनका
गणित अलग हो जाएगा।
और गणित में ही
सारा खेल है।
ध्वनि का जो गणित
है, आरोह—अवरोह
के जो अन्तर
हैं, उनका
ही सारा खेल
है।
तो
एक पूरा मंत्र
शास्र था, और
मंदिर उनकी एक
प्रयोगशाला
थी। यह उसका आंतरिक
मूल्य था, साधक
का। और मंदिर
में जितने
लोगों को
परमात्मा का
अनुभव हुआ, मंदिर के
बाहर नहीं हो
सका—यह जानते
हुए कि
परमात्मा
मंदिर के बाहर
भी है। वह
अनुभव आज
मंदिर में भी
नहीं हो रहा
है। लेकिन
मंदिर के भीतर
जितने लोगों
को अनुभव हुआ
उतने लोगों को
कभी मंदिर के बाहर
नही हुआ। या जिन
लोगों को मंदिर
के बाहर
प्रयोग करना
पडे—जैसे
महावीर, तो
फिर उनको, जो
मंदिर में हो
रहा था, उसके
अलावा दूसरा
उपकरण खोजना
पड़ा जो ज्यादा
जटिल है।
महावीर
को उन आसनों
को साधना पड़ा
वर्षों तक, जिससे
कि वर्तुल
भीतर बन जाए।
वह जो मंदिर
का सहारा था
वह न लिया जाए।
लेकिन वह
वर्षों की
प्रक्रिया है,
और महावीर
जैसे संकल्पी
के लिए ही
संभव है। बाकी
अति कठिन हो
जाएगी। बुद्ध
ने भी मंदिर
का सहारा नहीं
लिया। लेकिन
महावीर के
मरने के थोड़े दिन
बाद ही मंदिर बनाना
शुरू करना पड़ा,
और बुद्ध के
मरने के बाद
भी बनाना शुरू
करना पड़ा।
क्योंकि जो मंदिर
दे सकता है बिलकुल
सामान्य जन को,
वह बुद्ध और
महावीर नहीं दे
सकते। बुद्ध
और महावीर जो कह
रहे हैं करने
को, वह
सामान्य जन
नहीं कर पाएगा।
आज
तो अगर हम इस
विज्ञान को
पूरा समझ लें
तो मंदिर से
भी श्रेष्ठतर
उपकरण खोजे जा
सकते हैं। अभी
इस पर थोड़ा
काम भी चलता
है। मंदिर से
भी श्रेष्ठतर
उपकरण इसलिए
खोजे जा सकते
हैं क्योंकि
अब हम विद्युत
के संबंध में
ज्यादा जानते
हैं। परन्तु
इस तरह के
बहुत से
प्रयोग, खतरे
में भी ले जा
सकते है, भयानक
भी है। लेकिन
ठीक उपयोग
किया जाए तो
जो मंदिर करता
था, उसकी
हम साइंटिफिक
व्यवस्था कर
सकते हैं।
क्योंकि
मंदिर में जो
वर्तुल पैदा
होता था वह
वर्तुल अब और
तरह से भी
पैदा किया जा
सकता है। आप
जेब में छोटा—सा
यंत्र भी रख
सकते हैं जो
आपके भीतर
विद्युत का
वर्तुल बना
सके। आप उस
विद्युत के
यंत्र में
ध्वनियों को
भी रिकाडेंड
रख सकते हैं, जो आपके
भीतर
ध्वनियों का
वर्तुल बना
दें। अभी इस
पर कुछ काम
चलता है। बहुत
हैरानी का काम
है।
अमरीका
में कोई सात
आठ वैज्ञानिक
बहुत अदभुत काम
में लगे हुए
है। वह काम यह
है कि हमारे
जितने सुख—दुख
के अनुभव है, सभी
हमारे शरीर के
किन्हीं
केन्द्रों पर
विद्युत के
प्रवाह के
अनुभव है, और
कुछ भी नहीं।
जैसे, आपके
अगर शरीर में
सुई चुभाई जाए,
पूरे शरीर
में, तो सब
जगह आपको सुई
की चुभन पता
नहीं चलेगी।
कुछ डेड
स्पाट्स हैं
आपके शरीर में,
जहां आपकी
पीठ में हम
सुई चुभाते
रहेंगे और आपसे
पूछेंगे, सुई
चुभ रही है? आप कहेंगे, नहीं। किसी
की भी पीठ में
चुभाकर आप दस—बीस
जगह देखें तो
आपको दो—चार
डेड स्पाट मिल
जाएंगे, जहां
आप चुभाएंगे
और वह कहेगा
चुभ नहीं रही
है। ठीक वैसे
ही दस—पांच
ऐसी जगहें है
जहां आप जरा
ही चुभाएंगे,
वह कहेगा
बहुत चुभ रही
है। ठीक ऐसा
ही मस्तिष्क
के 'सेंस' की बहुत—सी
पैथियां हैं,
लाखों की
संख्या में।
और प्रत्येक
ग्रंथि का
अनुभव है। जब
आप कहते है, मुझे सुख हो
रहा है तब
आपके
मस्तिष्क की
किसी खास
ग्रंथि में से
विद्युत बहती
है।
समझें
कि आप अपनी
प्रेयसी के
पास बैठे है।
उसका हाथ, हाथ
में लिए है और
कहते है, मुझे
सुख हो रहा है।
जहां तक
वैज्ञानिक का
संबंध है वह
आपकी खोपड़ी
में बताएगा कि
फलां जगह से
विद्युत बह
रही है। और इस
सी के साथ
सिर्फ दिमाग
का एसोसिएशन
है आपका, कि
इसके पास
बैठने से सुख
मिलता है। तो
उस सहयोग, साहचर्य
की धारणा की
वजह से खास
बिन्दु से आपकी
धार बहनी शुरू
हो जाती है।
लेकिन दो—चार
महीने बाद
नहीं मिलेगा
सुख। क्योंकि
किसी बिन्दु
से अगर आपने
बहुत ज्यादा
विद्युत की
धारा बहायी तो
वह 'इनसेंसिटिव'
हो जाता है।
उसकी
संवेदनशीलता
मर जाती है।
जैसे एक जगह
हम कांटा
चुभाए जाएं
बार—बार, तो
आज जितना दर्द
आपको होगा, कल नहीं
होगा, परसों
नहीं होगा। हम
चुभाए चले
जाएं तो वह
जगह ग्रंथि
बना लेगी, कांटे
को झेल जाएगी,
और दर्द
बिलकुल नहीं
होगा।
जो
लोग सितार
बजाते है तो
उनकी उंगली कट
जाती है। पहले
बहुत तकलीफ
होती है, फिर
बजाते ही चले
जाते हैं तो
उंगली
संवेदनहीन हो
जाती है। फिर
कितने ही तार—वार
खींचे जाएं
उंगली को पता
नहीं चलता। तो
आपको जो प्रेम
क्षीण हो जाता
है कि तीन महीने
बाद प्रेम
क्षीण हो गया,
बड़ा कच्चा
प्रेम था—उसका
कोई कारण नहीं
है। जिस
बिन्दु से
आपका सुख का
प्रवाह हो रहा
था वह आदी हो
गया। यही सी
दो—चार—दस साल
आपसे छूट जाए
तो फिर सुख दे
सकती है।
यह
जो
वैज्ञानिकों
का काम है
इसमें अभी तो
उनके
प्राथमिक
प्रयोग थे, वह
पशुओं पर थे।
चूहों पर अभी उनका
एक प्रयोग
चलता था।
जिसने उनको भी
घबरा दिया।
चूहा जब संभोग
में रत होता
है तो उसके
मस्तिष्क को
उन्होंने
खोलकर रखा। खिड़की
खुली थी उसके
मस्तिष्क की,
ताकि उस पूरे
मस्तिष्क की
जांच हो सके
कि जब वह
संभोग में जाता
है, क्या
उसका वीर्य
क्षरण होता है,
तो उसके
मस्तिष्क में
कहां से
विद्युत बहती
है। जब उसके
मस्तिष्क की
विद्युत की एक
किरण पकड़ ली
उन्होंने कि
यहां से बहती
है, तब
वहां उन्होंने
'इलेक्ट्रोड'
लगा लिया।
मस्तिष्क
बन्द कर दिया
और 'इलैक्ट्रोड'
से जुड़े हुए
तार की एक
मशीन लगा दी।
उस मशीन से
उसी मात्रा की,
उसी अनुपात
की विद्युत
बहेगी, जितने
अनुपात की
विद्युत उसके
वीर्य क्षरण में
बहती थी। और
सामने उसके
बटन लगा हुआ
है। उस चूहे
को बटन दबाना
एक दफा बता
दिया, कि
जैसे बटन
दबाया उसे वही
आनन्द आया, जो उसको
संभोग में आया
था।
आप
हैरान होंगे
कि चूहे ने
फिर कोई काम
ही नहीं किया
चौबीस घण्टे
तक। एक घण्टे
मे छह—छह हजार
बार बटन दबाता
रहा। खाना
पीना बन्द
उसका, और जब तक 'इलेक्ट्रोड'
काट नहीं
दिया उसका, तब तक न खाया,
न पिया, न
सोया, न
इधर—उधर देखा,
उसका बस एक
ही काम—पूरे
चौबीस घंटे, सतत! थककर
गिर पड़ा वह
बिलकुल, लेकिन
वह थकते वक्त
तक उसको दबाए
चला गया।
वह
वैज्ञानिक जो
उस पर प्रयोग
कर रहा था, उसका
कहना है कि उस
चूहे ने जितना
संभोग का रस जाना,
आज तक पृथ्वी
पर किसी चूहे
ने नहीं जाना।
हालांकि
संभोग वह कर
नहीं रहा था, सिर्फ उस
जगह से
विद्युत —
प्रवाहित थी।
उस वैज्ञानिक
का दावा है कि
बहुत जल्दी ही
सेक्स बहुत
साधारण सुख रह
जाएगा। जिस
दिन आदमी को 'इलेक्ट्रोड'
दे देंगे, तब ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल होगा
जो 'सेक्स'
के लिए राजी
हो जाए।
क्योंकि बहू_त शक्ति
गंवाकर कुछ
खास पाता नहीं।
हम
उसके खीसे में
एक बैटरी लगा
छोटा सा यंत्र
दे सकते हैं, वह
अपने खीसे में
जब भी चाहे
दबा ले बटन—सरसराहट
फैलेगी, जैसी
सेक्स में
फैलती है। पर
यह खतरनाक भी
है। क्योंकि
एक बार मनुष्य
के मस्तिष्क की
सारी
व्यवस्था का
पता चल जाए तो
उसमें कौन—सा
हिस्सा संदेह
करता है वह
काटकर फेंका
जा सकता है, कौन—सा
हिस्सा क्रोध
करता है वह
अलग किया जा
सकता है—या
उसके सारे
शरीर का कौन—सा
हिस्सा
बगावती है, उसके सारे
संबंध, उसके
सारे तार, डिस्कनेक्ट
किए जा सकते
हैं। सरकार
उसके खतरनाक
उपयोग कर सकती
है।
लेकिन
मनुष्य को सुख
देने की दिशा
में भी उनसे
बहुत उपयोग
नहीं हो सकते
हैं। उनको तो
पता नहीं है; लेकिन
मैं मानता है
हम मनुष्य को
मंदिर भी दे सकते
हैं उस
व्यवस्था से।
वह और भी सरल
होगा, इस
मंदिर से भी
सरल होगा। इस
मंदिर में आपके
लिए घण्टों, महीनों, वर्षों
ध्वनि का आघात
पैदा करके जो
स्थितिया बनतीं,
वे
स्थितियां और
भी सरलता से
पैदा की जा
सकती हैं। तो
मंदिर मेरे
हिसाब से एक
बहुत
वैज्ञानिक
प्रक्रिया थी
जो ध्वनि के
माध्यम से
आपके भीतर
सुखद, शांतिदायी,
आनंददायी
और प्रीतिकर
भाव को जगाने
का अदभुत काम
करती रही। और
उस भाव की
उपस्थिति में
आपका जीवन के
प्रति पूरा
दृष्टिकोण
बदलता जाता।
हां, वैज्ञानिक
जो कर रहे हैं
उसमें खतरे
हैं। खतरा एक
ही है कि
विज्ञान जो भी
करता है वह 'टेक्नालाजीकल'
हो जाता है—तकनीकी
हो जाता है।
चेतना की
उसमें बहुत
जरूरत नहीं रह
जाती। हो
सकता
है कि ठीक
मंदिर जैसी
स्थिति भी
विद्युत के
प्रभाव से
पैदा कर दी
जाए,
लेकिन
चेतना के जो
चारित्रिक
परिवर्तन
होते थे वह न
हो सकेंगे। जो
चेतना को
ऊंचाइयां
मिलती थीं, जो रूपांतरण,
'ट्रांसफारमेशन
' होता था, वह न हो।
आदमी को बटन
दबाने से जो
मिल जाएगा
उससे कोई मूल
रूपांतरण
नहीं हो सकते।
वह उपकरण
होंगे इसलिए
मंदिर की
जरूरत समाप्त होगी,
ऐसा मैं
नहीं मानता
हूं।
और
आप पूछते हैं
कि क्या आज भी
वापस इस
परिवर्तित
समय में उपयोग
में लाए जा
सकते हैं? वे
लाए जा सकते
हैं। लेकिन
पुराना
पुरोहित
मंदिर में जो
बैठा है वह
इसको उपयोग
में लाने के
लिए लोगों को
नहीं समझा पाएगा।
उसके पास चाबी
है, लेकिन
उसके पास चाबी
के पीछे कोई
व्यवस्था नहीं
है। मंदिर की
पूरी दृष्टि
और पूरे दर्शन
को
पुनस्थापित
करना आज काम
में आ सकता है।
और पुराने से
भी बेहतर
मंदिर हम आज
बना सकते हैं,
क्योंकि आज
सब साधन हमारे
पास ज्यादा
बेहतर हैं।
ज्यादा बेहतर
सामान का
उपयोग किया जा
सकता है जो
ध्वनि को
हजारगुना कर
दे, मैग्रीफाई
कर दे। इतनी
संवेदनशील
दीवारें
बनायी जा सकती
हैं कि आप एक
बार ओम् कहें
और दीवारें
लाख बार ओम् दोहरा
दें।
आज
हमारे पास
सारे उपकरण
ज्यादा बेहतर
हैं,
यदि कुंजी
खयाल में हो।
पहले तो हमें
एक दरवाजा
रखना भी पड़ता
था, अब हम
बिलकुल बिना
दरवाजे का
मंदिर रख सकते
हैं। उसको हम
बिलकुल ही
बन्द कर सकते
हैं। आज हमारे
पास ज्यादा
बेहतर उपकरण
हैं, ज्यादा
बेहतर मंदिर
बनाया जा सकता
है। तब जिन
लोगों ने
मंदिर बनाए थे
वे बिलकुल झोपड़े
में रह रहे थे,
उनके पास
कोई उपकरण
नहीं थे।
मिट्टी—गारे
से जो वे कर
सकते थे, जो
सम्भव था उस
सीमा के भीतर,
उन्होंने
वह किया। फिर
भी अदभुत
किया! हमारे
पास आज बहुत
अदभुत उपकरण
हैं, लेकिन
हम कुछ भी
नहीं कर पा
रहे हैं। यह
तो उसकी
अंतर्वस्तु
है, मंदिर
की।
उसकी
बहिर्वस्तु
भी है। उसका
बाह्य उपयोग
भी है। यह तो
साधक की बात
हुई जो मंदिर
जाएगा, साधेगा
व्यवस्था में
गहरा उतरेगा
और साधना में
डूबेगा। जो
डुबकी लेगा, उसकी बात
हुई। लेकिन जो
मंदिर के पास
से गुजरता था
उसको भी फर्क
पड़ता था; यद्यपि
अब नहीं पडता
है। अब तो
भीतर
जानेवाले पर
भी नहीं पड़ता।
फर्क पड़ता था
उसी दिन, जब
भीतर
जानेवाला सच
में भीतर कुछ
कर रहा था। जब
एक मंदिर में
निरंतर दिन
में पच्चीसों,
सैकड़ों
साधक आकर एक
विशेष ध्वनि—व्यवस्था
का संचरण करते
हैं तो मंदिर
चार्ज्ड हो
जाते हैं।
मंदिर फिर
भीतर ही ध्वनि
नहीं फेंकता,
बाहर भी
बहुत सूक्ष्म
ध्वनियां
फेंकना शुरू कर
देता है।
जीवित हो जाता
है। जीवित
मंदिर का अर्थ
यही था। जीवित
प्रतिमा का भी
अर्थ यही था
कि उस प्रतिमा
से ऐसे
व्यक्ति को भी
संस्पर्श हो
जाए, जो
उससे
संस्पर्श करने
आया नहीं था।
जो उत्तर दे
सके, जो
कुछ कर सके।
मंदिर
जीवित वही
कहता था, जिस
मंदिर के पास
से आप अनजाने
गुजर रहें हों
और एकदम आपको
लगे कि हवा
बदल गयी, एकदम
आपको लगे कि
कुछ वातावरण
और हो गया।
आपको पता भी न
हो कि मंदिर
है पड़ोस में।
आप अंधेरी रात
में गुजर रहे
हों और मंदिर
के पास आकर
आपको भीतर लगे
कि जैसे कोई
चीज बदल गयी
हो। आप जो सोच
रहे थे वह
धारा टूट गयी,
आप कुछ और
सोचने लगे।
हत्या की सोच
रहे थे और
एकदम दया से
भर गए। लेकिन
यह तभी हो
सकता है जब मंदिर
चार्ज्ड हो।
वहां हर जर्रा—जर्रा,
मंदिर की
ईंट—ईंट का
टुकड़ा—टुकड़ा,
द्वार—दरवाजे
सब आविष्ठ हो
गए हों। मंदिर
अब जीवित
ध्वनियों का
हो।
हर
मंदिर के
सामने लटका
हुआ जो घण्टा
है उसे भी
चार्ज करने के
लिए बड़े अदभुत
ढंग से प्रयोग
होता है। जो
आदमी मंदिर
में प्रवेश
करे वह घण्टा
बजाएगा। यानी
वह मंदिर में
आने की अपनी
सूचना दे रहा
है। कभी मंदिर
में जाकर
घण्टा बजाए
सोये मन से नहीं, पूरे
होशपूर्वक
घण्टा बजाए!
घण्टा बजाने
से आपके विचार
में
डिसकंटीन्तुटी
पैदा होती है।
आप जो सोचते आ
रहे थे उसमें
ब्रेक लगता है।
घण्टे की आवाज
विचारों को
अस्त—व्यस्त
कर जाती है।
ये आपके नया
होने का एक
क्षण है। और
घण्टे की आवाज
है, उस
आवाज में तथा 'ओम्' की
आवाज में आंतरिक
संबंध है।
घण्टे की आवाज
मंदिरों को
चार्ज करती
जाती है दिन
भर।
इसी
प्रकार ओम् की
आवाज भी चार्ज
करती जाती है।
ऐसे अन्तर—संबंधों
की मंदिर में
कितनी चीजें
उपयोग की जाती
थीं,
चाहे घी से
जलनेवाला
दीया हो, चाहे
जलती हुई
सुगन्ध हो, चन्दन हो, फूल हो। और
हर देवता के
लिए विशेष फूल
प्रिय थ्रे।
ये कोई देवता
के प्रिय होने
का सवाल न था, लेकिन हर
मंदिर की अपनी
ध्वनिसंचरण
व्यवस्था थी।
उसमें कौन—सी
ध्वनि
हामोनियस है
कौन—सी सुगन्ध
के साथ, इस
पर पूरा—पूरा
ध्यान था।
सिर्फ वही फूल
लाना है अन्दर
मंदिर के, जिससे
मंदिर में
पैदा
होनेवाली
ध्वनि के साथ हार्मोनी
रहती है और
वही सुगंध भी।
फिर दूसरे फूल
अन्दर नहीं
लाए जा सकते।
मस्जिद में
लोबान जलाया
जाएगा, मंदिर
में अगरबत्ती
जलेगी, धूप
जलेगी, उन
सबका
ध्वनियों से
संबंध था।’ अल्लाह' का
जो उच्चार है,
उसका जो सघन
रूप है, उस
रूप के साथ
लोबान की
सुगन्ध का
तालमेल है। ये
तालमेल बड़ी
भीतरी खोज से
मिले थे। यह
ऐसे नहीं सोच
लिए गए थे।
ऊपर से सोचा
भी नहीं जा
सकता। इनके
खोजने की बात
आपसे कह दूं।
अगर
आप अल्लाह का
उच्चार करते
जाएं अपने
कमरे में
बैठकर—उस कमरे
में जहां कि
पहले कभी
लोबान नहीं
लाया गया है, और
कमरा बन्द कर
लें। अल्लाह
का उच्चारण भी
सिर्फ अल्लाह
नहीं, 'अल्लाहू
उसका ठीक
उच्चारण है—अल्ला.
.हू। हू पर जोर
होना चाहिए।
धीरे— धीरे
अल्लाह छूटता
जाएगा और हू
शेष रह जाएगा,
अपने आप। और
जिस दिन 'हू
का ही उच्चार
रह जाएगा उस
दिन आप अचानक
पाएंगे कि
आपके कमरे में
लोबान की गंध
फैल गई है। यह
आपके भीतर से
आती हुई गन्ध
होगी।
लोबान
तो सिर्फ उसकी
पैरेलल गन्ध
है जो बाद में
बाजार में
खोजी गयी।
खोजी इसलिए गई
कि 'हू, के
उच्चार से
आपके भीतर से
जो गन्ध आनी
शुरू होती है
उससे कोई मेल
खाती गन्ध मिल
जाए, तो हम
मस्जिद में
जला दें।
क्योंकि वहां 'हू के
उच्चार
करनेवाले को
सहयोगी हो
जाएगी। दोहरा
प्रयोग हो
जाएगा। उसके
भीतर से तो
गन्ध जब उठेगी
तब उठेगी, हम
उसके बाहर
पैदा कर देंगे।
ओम् के साथ कभी
भी, भूलकर
भी किसी को
लोबान का
स्मरण नहीं आ
सकता। उसकी
चोट अलग जगह
है, जहां
से वह गन्ध
नहीं निकल
सकती।
हमारे
शरीर में गन्ध
के भी क्षेत्र
है और हमारे
मनोभावों से
गन्ध के संबंध
है। इसलिए जैन
कहते है कि
महावीर के
शरीर से दुर्गन्ध
नहीं निकलती, सुगन्ध
ही निकलती थी—और
एक विशेष
सुगन्ध ही। उस
सुगन्ध के
आधार पर
तीर्थंकर
पहचाना जाता रहा।
महावीर के
वक्त में आठ
लोगों को दावा
था कि वह तीर्थंकर
थे, लेकिन
सुगन्ध ने साथ
नहीं दिया। आठ
लोग दावेदार
थे और महावीर
से कोई कम
नहीं था उन
आठों में। ठीक
उसी हैसियत के
लोग थे। लेकिन
उस मंत्र की
धारा के लोग
नहीं थे जिससे
वह सुगन्ध
निकले। इस वजह
से वे दावे
गलत हो गए।
बुद्ध
के बाबत भी
लोगों का दावा
था कि वह भी तीर्थंकर
हैं। महावीर
से कम उनकी
हैसियत जरा भी
न थी। बिलकुल
उसी हैसियत के
आदमी थे। वही
स्थिति थी उनकी, लेकिन
उस मंत्र
परम्परा के
नहीं थे इसलिए
महावीर का
शरीर जो गन्ध
दे पाता था वह
बुद्ध का शरीर
नहीं दे पाता
था। निर्णय
गन्ध से हुआ
अन्ततः।
महावीर के पास
जाकर एक विशेष
गन्ध आनी शुरू
हो जाती थी।
उस वक्त ऐसे
लोग जिन्दा थे
जिन्होंने
कहा कि ठीक
यही
पार्श्वनाथ
के शरीर से भी
गन्ध आती थी।
अभी ज्यादा
दिन
पार्श्वनाथ
को मरे नहीं
हुए थे। गन्ध
की यह
स्मृतिसूचक
व्यवस्था थी
कि जब भी तीर्थंकर
पैदा होगा, यही गन्ध
होगी। एक
विशेष मंत्र
की जो अंतिम
प्रक्रिया है
उसके बाद ही
तीर्थंकर हो
सकता है। उससे
यह गन्ध
निकलेगी, वह
उसका प्रमाण
होगी, उसका
दावा नहीं
होगा। इसलिए
महावीर ने कोई
दावा नहीं
किया, वह
तीर्थंकर हो
गए। मक्खली
गौशाल ने बहुत
दावा किया
लेकिन वे
तीर्थंकर
नहीं हो सके।
आपको
हैरानी मालूम
होगी कि गन्ध
से तीर्थंकर तय
होते थे। आसान
नहीं था मामला।
उतनी ही गहरी
परीक्षा
चाहिए थी, शब्द
कुछ कह नहीं
सकते थे। पूरा
व्यक्तित्व
गन्ध देना
चाहिए कि उस
व्यक्ति के
भीतर वह फूल
खिला है! उस
मंत्र की
अंतिम प्रक्रिया
पूरी हो गयी, जहां से
तीर्थंकर
जन्मता है।
नहीं तो उसको
तीर्थंकर
नहीं मानते।
मक्खली गौशाल
का दावा था, अजितकेश
कंबल कह रहा
था, संजय
विलट्टिपुत्त
सब दावेदार थे।
ये सब बड़े लोग
थे, किन्तु
इन सबके नाम
खो गए। उस
वक्त ये सब
महावीर की
हैसियत के लोग
थे। इनमें से
प्रत्येक के
लाखों शिष्य
थे और उनका
दावा था कि
हमारा आदमी
तीर्थंकर है।
उधर महावीर
बिलकुल चुप थे
इस मामले में,
कभी
उन्होंने
दावा नहीं
किया। और
अन्तत: लोगों
ने कहा कि
तीर्थंकर तो
वही आदमी है
जिसके शरीर से
वही गन्ध
प्रवाहित हो
रही है!
प्रत्येक
मंत्र से
होनेवाली
अपनी गन्ध है।
ओम् का
जिन्होंने
पाठ किया है
उन्होंने
गन्ध जानी है।
प्रत्येक
मंत्र से, भीतर
पैदा
होनेवाले
प्रकाश का भी
अनुभव है। उस
प्रकाश के
आधार पर मंदिर
में कितना
प्रकाश हो, उसका
इन्तजाम किया
गया। उससे
ज्यादा नहीं।
आज जो बिजली
के बल्व मंदिर
में लगाकर
बैठे हैं उनके
पागलपन का कोई
अन्त नहीं।
इससे कोई लेना—देना
नहीं है।
क्योंकि वहां,
ठीक अंतर
आकाश में
जितना प्रकाश
होता था, उतनी
ही प्रकाश की
व्यवस्था
मंदिर में
करनी थी। बहुत
मद्धिम, अनाक्रमक
प्रकाश! इसलिए
घी को चुना।
बहुत
अनाक्रमक, आंख
को चोट करता
हुआ नहीं। यह
एकदम से खयाल
नहीं आएगा कि
हमने कभी
प्रकाश पर आंख
के टिकाने का
कोई अभ्यास
नहीं किया था।
मिट्टी
के तेल का
दीया जला लें, उस
पर घण्टेभर आंख
को रोककर
देखें।
मिट्टी के तेल
के दीये पर
घण्टेभर के
बाद आंख जलेगी,
दुख पाएगी
और थक जाएगी।
और घी के दीये
पर घण्टेभर
में आपके आंख
की ज्योति
बढ़ेगी और आंखें
ज्यादा शांत
और सिग्ध हो
जाएंगी। यह
हजारों लोगों
के अन्तर—अनुभव
थे, जिनको
बाहर
व्यवस्था दी
गयी—पैरेलल थे
बाहर के। निश्चित
ही कोई बाहर
ठीक वह दीया
नहीं खोज सकते
जो भीतर हो
सकता, लेकिन
निकटतम, एप्रोक्सिमेट,
जो हो सकता
था उस वक्त वह
उन्होंने खोज
लिया। बाहर हम
ठीक वह सुगन्ध
नहीं खोज सकते
जो भीतर पैदा
होगी मंत्र के
उच्चार से, लेकिन फिर
भी निकटतम हम
खोज लेते हैं।
चन्दन
सारे मंदिरों
में प्रीतिकर
हो गया। चंदन
का टीका हम
जहां लगाते
हैं वह
आज्ञाचक्र है।
मंत्र हैं, जिनके
अनुभव से भीतर
चंदन की
सुगन्ध पैदा
होनी शुरू
होती है, लेकिन
उस सुगन्ध का
स्रोत सदा ही
आज्ञाचक्र होता
है। जब भी वह
अनुभव आता है
तो ऐसा ही
लगता है कि आज्ञाचक्र
से सुगन्ध
निकल रही है
और चारों तरफ
फैल
रही है। वही
पैरेलल
प्रतीक! हमने
चंदन घिसकर
आज्ञाचक्र पर
लगाया। जब
भीतर
आज्ञाचक्र पर
सुगन्ध पैदा
होती है तो
इतनी शीतलता
का अनुभव होता
है जैसे बर्फ
का टुकड़ा रख
दिया है।
ध्यान
रहे,
शीतल और ठण्डी
चीज में फर्क
है। ठीक वैसा
ही फर्क, जैसे
कि मिट्टी के
तेल के दीये
में और घी के
तेल के दीये
में है। बर्फ
ठण्डा जरुर
है, शीतल
नहीं है। बर्फ
का, थोड़ी
देर के बाद का
अनुभव गर्मी
का होगा, उत्ताप
का होगा। ठंडक
जरूर है, शीतल
नहीं। जो
अंतिम
फलश्रुति
निकलेगी वह तो
उत्ताप ही
निकलनेवाली
है। आप और
गर्म हो गए
होते है।
लेकिन चंदन
शीतल है, अच्छा
नहीं है—सिर्फ
शीतल है। यह
बहुत आर्द्र
स्थिति है, और जिसमें
डेप्थ है।
आपके सिर को
हम बर्फ से
क्या दें तो
वह सिर्फ सतह
को छूता है।
अब चंदन को
लगाकर देखें।
आज्ञाचक्र पर
बर्फ को लगाकर
देखें थोड़ी
देर, और
बर्फ को अलग
रख दें, तो
आप पायेंगे कि
एक सतह पर
उसने छूआ, चमड़ी
के पार वह
नहीं गया, वहां
उत्ताप पैदा
कर गया। फिर
चंदन को लगा
लें। थोड़ी देर
के बाद आपको
लगेगा कि चमड़ी
के पार उसकी
शीतलता उतरती
जा रही है।
चमड़ी के पार!
चमड़ी के पार न
पहुंचे तो
बेकार है, क्योंकि
जो चक्र है वह
तो चमड़ी के
पार है। जिन
लोगों को
आज्ञाचक्र की
गति का अनुभव
हुआ और
उन्होंने
वहां शीतलता
जानी, उन्होंने
चंदन को खोज
लिया। उसकी
सुगन्ध भी ठीक
वैसी है जैसी
भीतर अनुभव हुई।
ये
सारे के सारे
उपकरण
समानान्तर है।
और जब मंदिर इन
सबसे भरा होता
है तो आविष्ट
होता है।
इसलिए मंदिर
में कोई बगैर
खान किए न जाए।
हम उसके
व्यक्तित्व
के,
क्षणभर को
ही सही, पुराने
तारतम्य को
तोड़ना चाहते
है। बिना
घण्टा बजाये न
जाए, बासे
कपड़े पहनकर न
जाए। सच तो यह
है कि मंदिर
में ठीक कपड़े
पहनने के लिए
जो व्यवस्था
थी, वह
रेशम की थी।
क्योंकि रेशम
शरीर की
विद्युत को
पैदा करने में
बड़ा अदभुत था
और उसको
संरक्षित
करने में भी।
और कितना ही
पहनें, बासेपन
का खयाल नहीं पकड़ता।
किसी गहरे
अर्थ में ताजा
बना रहता है।
इस सारी
व्यवस्था से
अगर कोई मंदिर
चलता हो तो वह
मंदिर
चार्ब्द, आविष्ठ
हो जाता है।
उसके पास से
भी कोई
गुजरेगा तो उस
मंदिर का फील्ड
पैदा हो जाता
है।
महावीर
के बाबत कहा
जाता है कि
महावीर जहां
चलते उससे
इतनी—इतनी
सीमा के भीतर
हिंसा नहीं हो
सकती थी। वह
उनका चाज्र्ड
फील्ड था।
इतनी—इतनी
सीमा के भीतर
हिंसा नहीं हो
सकती थी। वह
जहां से
गुजरेंगे
उनका फील्ड
उनके साथ चलेगा।
वह चलते हुए
मंदिर है।
उतनी सीमा के
भीतर कुछ भी
हो रहा हो, वह
तत्काल बदल
जाएगा। पूरा 'नोअ—स्फियर'
हो जाएगा।
तिलार
जार्जिन ने
नया एक शब्द
गढ़ा है—नोअ—स्फियर', एटमास्फियर
की जगह।
एटमास्फियर
का तो मतलब
होता है, वातावरण।
’नोअ—स्फियर'
को हिन्दी
में हम कह
सकते है— 'विचारआवरण',
'मनस आवरण'। एक मन का भी
आवरण है। उस
फील्ड में ऐसी
घटनाएं नहीं
घटतीं।
इसलिए
पुराने गुरु
के आश्रम में
अगर कोई गलत
काम हो जाए तो
शिष्यों को सजा
नहीं दी जाती
थी,
गुरु अपने
को सजा देता
था। उसका मतलब
है कि फील्ड
नहीं रहा।
उसका कोई कारण
नहीं था कि
शिष्य को कुछ
कहा जाए।
व्यर्थ है
कहना उसको।
उसका मतलब यह
है कि गुरु की
क्षमता नहीं
रही। नहीं तो
एक विशेष सीमा
के भीतर तो वह
नहीं हो सकता
था जो हुआ है।
दोष देने का
किसी को कोई
कारण नहीं है।
गुरु स्वयं
पश्रात्ताप
करेगा, तपश्चर्या
करेगा, उपवास
करेगा, आत्मशुद्धि
करेगा।
मगर
गांधीजी ने
उसको बहुत गलत
पकडा। वह
आत्मशुद्धि
दूसरे के लिए
प्रताड़ना
नहीं है। वह
इसलिए नहीं है
कि इस तरह हम
अपने को सताये, तो
उससे दूसरे पर
दबाव डाल
देंगे, और
उसका
अन्तःकरण बदल
देंगे। वह समझ
नहीं पाये।
उनको उसका पता
भी नहीं था।
गुरु ऐसा करता
था, वह
उसको बदलने के
लिए नहीं करता
था, वह
सिर्फ जो
फील्ड है उसके
आस—पास, उसको
बदलने के लिए
करता था। और
अगर वह फील्ड
बदलता है, वह
विचार—आवरण
बदलता है, तो
वह आदमी
बदलेगा। वह उसको
दबाने के लिए,
उसको सताने
के लिए नहीं
था कि मैं
अपने को सता रहा
हूं तो तू अब
बदल। ऐसा उसके
अन्तःकरण—शुद्धि
का सवाल नहीं
था। अंतःकरण
का सवाल नहीं,
चारों तरफ
की हवा बदल
जाने की बात
है। वह एक
मैगनेटिक
फील्ड है, जो
हर ऐसा
व्यक्ति लेकर
चलता है।
ये
व्यक्ति गतिमान
मंदिर थे।
महावीर जैसे
व्यक्तियों
को हम एक जगह
नहीं बिठा
सकते हैं। सदा
के लिए नहीं
बिठा सकते हैं।
हमें कुछ
ज्यादा स्थिर
चाहिए जो गांव
की जिन्दगी का
केन्द्र बन
जाए,
जिसके आस—पास
गांव बदलता
रहे। जहां निरंत्तर
हम कुछ डालते
रहें मंदिर
में जाकर, और
मंदिर से हम
लेते रहें।
जिसका हमें
पता भी न चले, यह सब अनजान
चुपचाप हो जाए।
मंदिर के पास
से निकलें तो
कुछ हो जाए।
कोई भी निकले
मंदिर के पास
से तो कुछ हो
जाए। एक बहुत
बड़ा मैगनेटिक
फील्ड है
मंदिर, बाहर
के लिए—स्व
बाहरी प्रयोग
के लिए। एक
बाहरी प्रयोग
के लिए उसको
खड़ा किया था।
जैसे कि
चुम्बक के पास
लोहा भी आए तो
चुम्बकीय
मालूम पड़ने
लगे, वैसे
ही मंदिर के
पास कोई आए तो
मंदिर उसे घेर
ले और छा ले।
तो ऐसा मंदिर
का क्षेत्र था।
मूसा
के जीवन में
उल्लेख है कि
जब मूसा पहाड़
पर गये, उन्होंने
पहाड़ पर दिव्य
अग्रि जलते
देखी। एक झाड़ी
में आग लगी है।
पूरी झाड़ी
जलती है, चारों
तरफ आग है, फिर
भी बीच में
झाड़ी में फूल
खिले हैं और
झाड़ी में हरे
पत्ते हैं।
मूसा
परमात्मा की
खोज में है, वह एकदम अणे
बढ़ा, तो
झाड़ी से जोर
से आवाज आयी
कि 'नासमझ,
जूते सीमा
के बाहर छोड़
दे '। सीमा
वहां कोई न थी,
खुला जंगल
था। तो मूसा
ने चलकर देखा
कि सीमा कहां
है? और जब
उसको अनुभव हो
गया कि सीमा
यहां है, यानी
जहां तक आ
मूसा रहा, और
जहां से एकदम
आगे बढ़ा और
उसे लगा कि
कुछ बदला, वहां
उसने जूते
बाहर रख दिए।
यह है
मैगनेटिक
फील्ड! उसने
जूते बाहर रख
दिये और माफी
मांगी कि मुझे
क्षमा कर देना,
पवित्र भुमि
में जूता ले
आया।
मंदिर
का एक वर्तुल
है,
उसके अपने
आविष्ट
क्षेत्र का—जो
जीवन्त है, उस जीवत्त
वर्तुल का
पूरे गांव के
लिए उपयोग था।
और उससे
परिणाम आये थे।
हजारों
हजारों साल तक
भारत के गांव
की जो निर्दोषता
और पवित्रता
थी, उसमें
गांव कम जिम्मेवार
था, उस
गांव का मंदिर
आविष्ठ था, वही ज्यादा
जिम्मेवार था।
तो जिस गांव
में मंदिर
नहीं था, उससे
दीन गांव नहीं
था। कितना ही
गरीब गांव हो,
मंदिर तो
उसका होना ही
था। मंदिर के
बिना सब अस्त—व्यस्त
था। हजारों
वर्ष तक गांव
ने एक तरह की
पवित्रता कायम
रखी। उस पवित्रता
के बड़े अदृश्य
स्रोत हैं।
पूरब की
संस्कृति को
तोड्ने के लिए
जो सबसे बड़ा
काम हो सकता
था वह मंदिर
के आविष्ट रूप
को तोड़ देना
था। मंदिर का
आविष्ट रूप
टूट जाए तो
पूरब की पूरी संस्कृति
का जो आत्मस्रोत
है वह बिखर
जाता है।
इसलिए
आज मंदिर पर
भारी संदेह है।
और जो भी थोड़ा
पढ़ा—लिखा हुआ, जिसे
मंदिर के
जीवन्त रूप का
'कोई अनुभव
नहीं रहा, उसने
केवल शब्द और
तर्क सीखे
स्कूल और
कालेज में।
जिसके पास
सिर्फ बुद्धि
रही और हृदयगत
कोई द्वार न
रहा, उसे
मंदिर के पास
जाकर कुछ
दिखाई नहीं
पड़ा। उसने कहा,
कुछ भी नहीं
है मंदिर में।
धीरे— धीरे
मंदिर का अर्थ
टूटता चला गया।
भारत
पुन: कभी भारत
नहीं हो सकता
जब तक उसका मंदिर
जीवन्त न हो
जाए। उसकी
सारी कीमिया, सारी
अल्केमी ही
मंदिर में थी,
जहां से
उसने सब कुछ
लिया था। चाहे
बीमार हुआ हो
तो मंदिर
भागकर गया था,
चाहे दुखी
हुआ तो मंदिर
भागकर गया, चाहे सुखी
हुआ तो मंदिर
धन्यवाद देने
गया था। घर
में खुशी आई
हो तो मंदिर
में प्रसाद
चढ़ा आया। घर
में तकलीफ आयी
हो तो मंदिर
में निवेदन कर
आया। सब कुछ
उसका मंदिर था।
सारी आशाएं
सारी
आकांक्षाऐं
सारी
अभीप्साएं
उसकी मंदिर के
आस—पास थीं।
खुद कितना ही
दीन रहा हो, मंदिर को
उसने सोने और
हीरे—जवाहरातों
से सजा रखा था।
आज
जब हम सोचने
बैठते हैं तो
यह बिलकुल
पागलपन मालूम
पड़ता है कि
आदमी भूखों मर
रहा है और मंदिर
की प्रतिष्ठा
हो रही है।
मंदिर को हटाओ, एक
अस्पताल बना
लो। एक स्कूल
खोल दो। इसमें
शरणार्थी ही
ठहरा दो। इस
मंदिर का कुछ
उपयोग कर लो।
क्योंकि
मंदिर का
वास्तविक
उपयोग हमें
पता नहीं है, इसलिए वह
बिलकुल
निरुपयोगी
मालूम हो रहा
है। लगता है
उसमें कुछ भी
तो नहीं है।
फिर मंदिर में
क्या जरूरत है
सोने की, क्या
जरूरत है
चांदी की, और
मंदिर में
क्या जरूरत है
हीरों की, जब
कि लोग भूखों
मर रहे हैं!
लेकिन ध्यान
रहे भूखों
मरनेवाले
लोगों ने ही
हीरा और सोना
बहुत दिन से
लगा रखा है।
उसके कुछ कारण
थे। जो भी उन
लोगों के पास
श्रेष्ठ था वह
मंदिर में रख
आए थे।
क्योंकि जो भी
उन्होंने
श्रेष्ठ जाना
था वह मंदिर
से ही जाना था।
इसके उत्तर
में उनके पास
कुछ देने को
नहीं था। न
सोना कोई
उत्तर था, न
हीरे कोई
उत्तर थे।
लेकिन जो मिला
था मंदिर से, उसके प्रति
कृतज्ञता से
भरकर हम सब
कुछ वहां दे
सकते थे। जो
भी था हम वहां
रख आए थे।
अकारण नहीं था
वह। क्योंकि
लाखों साल तक
अकारण कुछ
नहीं चलता। ये
मंदिर के
बाहरी उसके
आविष्ट रूप के
अदृश्य
परिणाम थे, जो चौबीस
घण्टे
तरंगायित
होते रहते थे।
उसके चेतन
परिणाम भी थे।
उसके चेतन
परिणाम बहुत
सीधे साफ थे।
आदमी
को निरत्तर
विस्मरण है।
जो महान है, विस्मृत
हो जाता है; और जो
क्षुद्र है, चौबीस घण्टे
याद रहता है।
परमात्मा को
याद रखना पड़ता
है, वासना
को याद रखना
नहीं पड़ता, वह याद रहती
है। गड्डे में
उतर आने में
कोई कठिनाई
नहीं होती, पहाड़ चढ़ने
में कठिनाई
होती है। तो
मंदिर गांव के
बीच में
निर्मित करते
थे ताकि दिन
में दस बार
आते—जाते रहें।
वह हमारी
आकांक्षा को
भी निरत्तर
जगाए रखे। और
ध्यान रहे, हममें से
बहुत कम ऐसे
हैं जिनकी
आकांक्षा सहज आंतरिक
रूप से जगती
है। हममें से
बहुत
आकांक्षाएं
सिर्फ चीजों
को देखकर ही
जगती हैं।
अगर
हवाई जहाज
नहीं था दुनिया
में तो आपको
हवाई जहाज में
उड़ने की कोई
आकांक्षा
नहीं जगती थी।
हां,
किसी राइट
ब्रदर्स को
जगती। जो एकाध
आदमी है जो
हवाई जहाज
बनाता है उसको
जगती है
क्योंकि वह तो
हवाई जहाज
निर्माण करता
है, लेकिन
आप को कभी
नहीं जगती। आप
हवाई जहाज
देखेंगे तो
अवश्य जागेगी।
हमें चीजें
दिखाई पड़ती
हैं तो हमारे
भीतर उन्हें
पाने की
आकांक्षा
जगती है।
तो
मंदिर के रूप
में परमात्मा
का कहीं न
कहीं कोई रूप, साकार
रूप हमें
दिखाई पड़ता
था, जो हम
अन्धों के मन
में कहीं
प्रवेश करता
था। खास तौर
से उन लोगों
के मन में जो
कि निराकार के
लिए आतुर नहीं
हो सकते थे।
जो हो सकते थे
निराकार के
लिए राजी, उनके
लिए तो कोई
सवाल नहीं था
मंदिर का।
उन्होंने तो
इस लिहाज से
मंदिर को
नुकसान पहुंचा
दिया। उसमें
भूल हुई। जो
हो सकते थे
निराकार से
आविष्ट, उन्होंने
कहा बेकार हैं
मंदिर, उन्हें
हटा दो।
मैं
खुद ही निरंत्तर
कहता रहता हूं
कि बेकार हैं, हटा
दो। लेकिन धीरे—
धीरे मुझे
खयाल में आया
कि यह मैं कह
रहा हूं और
मंदिर हट गया
तो जिनको आकार
से कुछ स्मरण
नहीं आया उनको
निराकार से
कैसे आ सकेगा?
तो इस लिहाज
से कई बार
कठिनाई हुई है।
महावीर अगर
अपनी हैसियत
से बोलेंगे तो
कहेंगे, हटा
दो। क्योंकि
महावीर को कोई
जरूरत नहीं
पड़ी। लेकिन
कभी आपका खयाल
आ जाए तो इसे
रोक लेना पड़ेगा।
यह आपके लिए
चौबीस घण्टे
आकांक्षा का
एक नया स्रोत
बना रहा है।
एक
और द्वार भी
है जीवन में—दुकान
और घर ही नहीं, धन
और स्त्री ही
नहीं—एक और
द्वार भी है
जीवन में जो न
बाजार का
हिस्सा है, न वासना का
हिस्सा है। न
धन मिलता है
वहां, न यश
मिलता है वहां,
न काम
तृप्ति होती
है वहां। एक
जगह और भी है, यह गांव में
ही नहीं है, जीवन में एक
जगह और है।
इसके लिए धीरे
— धीरे यह
मंदिर रोज
आपको याद
दिलाता है। और
ऐसे क्षण हैं,
जब बाजार से
भी आप ऊब जाते
हैं। तब मंदिर
का द्वार खुला
है। ऐसे क्षण
में तत्काल आप
मंदिर में ठहर
पाते हैं।
मंदिर सदा
तैयार है।
जहां मंदिर
गिर गया वहां
फिर बड़ी
कठिनाई है, कोई विकल्प
नहीं है। घर
से ऊब जाएं तो
होटल हो सकता
है, रेस्तरां
हो सकता है।
बाजार से ऊब
जाएं पर जाएं
कहां? कोई
अलग डायमेंशन,
कोई अलग
आयाम नहीं है—बस
वही है—वही के
वहीं घूमते
रहते हैं।
मंदिर
एक बिलकुल अलग
डायमेंशन है
जहां लेने—देने
की दुनिया
नहीं है।
इसलिए
जिन्होंने
मंदिर को लेन—देन
की दुनिया
बनाया
उन्होंने
मंदिर को गिराया।
जिन्होंने
मंदिर को
बाजार बनाया, उन्होंने
मंदिर को नष्ट
किया।
जिन्होंने
मंदिर को भी
दुकान बना
लिया, उन्होंने
मंदिर को नष्ट
कर दिया।
मंदिर लेन—देन
की दुनिया
नहीं है।
सिर्फ एक
विश्राम है।
एक विराम है, जहां आप सब
तरफ के थके—मांदे
चुपचाप सिर
छिपाते हैं।
वहां की कोई
शर्त नहीं है
कि आप इस शर्त
से आओ। इतना
धन हो तो आओ, इतना शान हो
तो आओ, कि इतनी
प्रतिष्ठा हो
तो आओ, कि
ऐसे कपड़े
पहनकर आओ, कि
मत आओ। वहां
की कोई शर्त
नहीं है। आप
जैसे हो, मंदिर
आपको स्वीकार
कर लेगा। कहीं
कोई जगह है
जहां जैसे आप
हो वैसे ही आप
स्वीकृत हो
जाओगे, ऐसा
भी सरल स्थल
है।
आपकी
जिन्दगी में
हर वक्त ऐसे
मौके आये
होंगे जब कि
जो जिन्दगी है
तथाकथित, उससे
आप ऊबे होंगे,
उस क्षण
प्रार्थना का
दरवाजा खुला होगा!
और एक दफा भी
वह दरवाजा
आपके भीतर भी
खुल जाए तो
फिर दुकान में
भी खुला रहेगा,
मकान में भी
खुला रहेगा।
वह द्वार निरंत्तर
पास होना
चाहिए, जब
आप चाहो वहां
पहुंच सको।
क्योंकि आपके
बीच जिसको हम
विराट का क्षण
कहें वह बहुत
अल्प है। कभी
क्षणभर को
होता है।
जरूरी नहीं कि
आप तीर्थ जा
सको, जरूरी
नहीं कि
महावीर को खोज
सको, कि
बुद्ध को खोज
सको। वह क्षण
अल्प है, उस
क्षण बिलकुल
निकटतम आपके
कोई जगह होनी
चाहिए जहां आप
प्रवेश कर
सकें। इस
स्मृति के
अदभुत परिणाम
हैं। जैसे
छोटे बच्चे
हैं—हम सभी
छोटे बच्चे थे,
और जो भी
होगा वह छोटा बच्चा
ही होगा पहले
तो।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
सात साल में
बच्चा करीब—करीब
जो भी आधारभूत
हैं,
वह सीख लेता
है। फिर इसी
आधारभूत पर
फैलाव हो सकता
है। लेकिन नया
बहुत कम जोड़ा
जाता है।
जुड़ता है, उसी
दायरे में।
कुछ नया नहीं
जोड़ा जाता।
अगर हमने सात
साल के बच्चे
तक की जिन्दगी
में मंदिर
नहीं जोड़ा, तो आप
दोबारा नहीं
जोड़ पाएंगे।
बहुत कठिन हो
जाएगा फिर
जोड़ना। और यदि
जोड्ने की
मेहनत की भी
गई तो वह कभी
गहरा नहीं हो
पायेगा, ऊपर
ऊपर से रह
जाएगा।
तो
बच्चा पहले
दिन पैदा हुआ
और उसकी पहली
स्मृति हम
मंदिर की
बनाना चाहते
थे। वह मंदिर
के पास ही बड़ा
हो,
वह मंदिर को
जानता हुआ बड़ा
हो, वह
मंदिर को
पहचानता हुआ
बड़ा हो। मंदिर
उसके अंतरंग
का हिस्सा बन
जाए। जब वह
जिन्दगी में
प्रवेश करे तो
उसके भीतर
मंदिर की एक
जगह बन जाए।
क्योंकि
अंततः वही जगह
उसका
विश्रामस्थल
बनेगी जीवन के
अंत में! सारी
दौड़— धूप के
बाद वही कोना
उसका आखिरी घर
और निवास होनेवाला
है। वह हमें
पहले ही बना
देना है। एक
दफा वह नहीं
बना तो फिर
बहुत कठिनाई
हो जाती है।
व्यर्थ की
कठिनाई हो
जाती है। अभी
तो इतनी सरलता
से बन सकता है,
फिर वह जगह
निर्मित नहीं
हो सकती। वह
फिर कठिनता से
भी नहीं बन
पाता।
बाहर
जो भी लोग जी
रहे हैं मंदिर
के प्रतिबिम्ब
उनके चित्त
में उतरने
चाहिए। वह
उनके अचेतन
में इतने गहरे
उतर जाएं कि
सोच—विचार का
भी हिस्सा न
रह जाए, वह
उनके हिस्से
ही हो जाएं।
इसलिए सारी
पृथ्वी पर, चाहे रूप
कोई भी हो— अलग
अलग रूप रहे, लेकिन मंदिर
अनिवार्य था।
मनुष्य जिस
सभ्यता और
संस्कृति में
जिया, उसका
वह अनिवार्य
अंग था।
अब
हम जो दुनिया
बनाने जा रहे
हैं उसमें
मंदिर
अनिवार्य
नहीं रह गया।
कुछ और चीजें
अनिवार्य हो
गयीं। स्कूल
हैं,
अस्पताल
हैं, पर ये
सब अति लौकिक
हैं, इनसे
कुछ पार का, 'बियाष्ठ' का, कोई
संबंध नहीं
जुड़ता है। सदा
ही, वह जो
अतिक्रमण कर
जाता है जीवन
का, उसकी
तरफ इशारा बना
रहे। सुबह
हमारी आंखें
खुलें तो
मंदिर की
घण्टी बजती
सुनाई पड़े।
रात में सोने
जाते हों तो
मंदिर का भजन
हमें सुनायी
पड़े। हम न भी
करें, तो
भी मंदिर का
भजन हमारे कान
में पड़े।
महावीर
के जीवन में
एक कथा है, कि
एक आदमी है
चोर। मर रहा
है, अपने
बेटे को उसने
कहा, जब
बेटे ने पूछा
है कि कोई
आखिरी शिक्षा
है मेरे लिए? तो उसने कहा,
एक ही
शिक्षा है कि
यह जो महावीर
नाम का आदमी
है उसके पास
मत खड़े होना।
यह अगर
तुम्हारे
गांव में
बोलता हो तो
दूसरे गांव
में भाग जाना।
यह अगर रास्ते
से गुजरता हो
तो फौरन गली—कूचे
में कहीं भी
निकल कर छिप
जाना। अगर पता
न चले और तुम
ऐसी जगह पहुंच
जाओ जहां उसकी
आवाज सुनायी
पड़ गयी तो
फौरन कान बंद
करके, आंख
बन्द करके दौड़
आना। इस आदमी
से बचना।
चोर
के लड़के ने
कहा,
लेकिन इतना
डरने की इस
आदमी से क्या
जरूरत है? उसने
कहा, में
तुमसे कहता
हूं, वह
मानो। ऐसे
आदमियों के
पास गए तो
अपना धन्धा
सदा खतरे में
होगा, फिर
हम नहीं जी
सकते। इनसे
बचना। फिर बड़ी
मजेदार कथा है।
वह बचाता है
जिन्दगीभर।
सदा भागता रहा।
जहां महावीर
आते, वह
वहां से भाग
जाता। लेकिन
एक दिन भूल हो
गयी। वह एक
रास्ते से
गुजरता था और
आसवन में
महावीर बैठे थे,
उसे कुछ पता
न था। बोल
नहीं रहे थे, जब वह आया था
पास, तब
बोल नहीं रहे
थे। अचानक
उन्होंने
बोलना शुरू किया
तो आधा वाक्य उसको
सुनायी पड गया।
उसने कान बन्द
किए और भागा।
लेकिन आधा
वाक्य सुनायी पड
ही गया। अब वह बडी
मुश्किल में पड
गया। आधा
वाक्य! पुलिस उसके
पीछे थी, राज्य
उसके पीछे था—कोई
दस—पन्द्रह
दिन बाद वह
पक्का गया। वह
कुशल चोर था, पीढ़ी दर
पीढ़ी का उसका
धन्धा था।
इतना कुशल चोर
था कि राज्य के
पास कोई भी
प्रमाण न था।
जाहिर था चोर
वही है, जाहिर
था बड़ी चोरी या
उसी ने की है।
सबको पता था।
इसमें छिपा भी
कुछ न था, जाहिर
रहस्य था।
लेकिन फिर भी
प्रमाण कुछ न
था। कुशल इतना
था कि लोगों के
घरों में खबर
करके चोरी कर
लेता था, पर
प्रमाण नहीं
मिलते। तो
सिवाय इसके
कोई रास्ता
नहीं था कि
कोई प्रमाण
उससे ही
निकलवाया जाए।
उसे
गहरा नशा करके
बेहोश किया गया, इतना
बेहोश रखा कि उसे
दो—तीन दिन बिलकुल
होश में नही
आने दिया। दो तीन
दिन के बाद वह होश
मे आया। उसने आँख
खोली, तो तीन
दिन की बेहोशी
थी, खुमारी
थी। देखा
चारों तरफ कि
अप्सराएं खड़ी
है। उसने पूछा,
मैं कहां
हूं? तुम
मर गए हो और
तुम्हें
स्वर्ग या
नर्क ले जाने
की तैयारी की
जा रही है।
हम
सिर्फ ले
जानेवाले है।
तुम होश में आ
जाओ,
इसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, ताकि
हम तुमसे पूछ
लें। अगर
तुमने जो जो
पाप किए हैं
वह तुम कह दो
तो तुम स्वर्ग
जा सकते हो, और न कहो तो
नर्क। सत्य
बोल दो, बस
इतना काफी है।
उसका मन हुआ
कि बोल दे
सत्य, स्वर्ग
जाने का मौका
न चूके। जब मर
ही गया तो अब क्या
डर है? लेकिन
तभी महावीर का
आधा वचन याद
आया। जब वह गुजर
रहा था उस वक्त
महावीर कुछ
देवताओं और
प्रेतों के
संबंध में बोल
रहे थे।
मृत्यु के पार
जो यम ले जाते है
उनके संबंध
में कुछ इशारे
थे। आधा वाक्य
उसने सुना था।
महावीर कह रहे
थे कि वह जो ले जाते
है मृत्यु के बाद,
उनके पैर उल्टे
होते है। उसने
उनके पैर देख
लिए, वे सब
तो सीधे थे।
वह सजग हो गया।
उसने सोचा इस झंझट
में पड़ने की
कोई जरूरत
नहीं है। समझ
गया कि कुछ गड़बड
मामला है। होश
आ गया। उसने
कुछ कहा नहीं।
उसने कहा, पाप
तो कुछ किए नहीं,
तो वक्तव्य
क्या दूं।
नर्क ही ले
चलो। पर जब
पाप मैंने कुछ
किए नहीं तो
नर्क तुम ले
जाओगे कैसे? उसे छोड़
दिया गया।
वह
भागा हुआ
महावीर के पास
पहुंचा, जाकर
उनका पैर पकड़
लिया और कहा
कि पूरा वाक्य
करो, आधे
वाक्य ने बचा
लिया। अब
तुम्हारा
पूरा वाक्य
सुन लूं। मै
तो भाग रहा था।
आधा ऐसे ही
सुन लिया था
भागते—भागते।
उसने बचा ली
जिन्दगी, नहीं
तो फांसी लग
गयी होती! अब
तुम पूरा कह
दो प्रभु! कि
क्या कहना है,
नहीं तो फांसी
कभी न कभी
लगेगी। अब मै
आ गया तुम्हारी
शरण! तो महावीर
अकसर कहा करते
थे कि आधा
वाक्य भागते
हुए
जबर्दस्ती सुना
गया भी कभी
काम का हो
जाता है। तो
मंदिर के पास
से कभी भागता हुआ
आदमी, ऐसे
अकारण गुजरता हुआ
आदमी, कभी उसके
भीतर से उठती हुई
ध्वनि को, कभी
उसके भीतर से
आती सुगन्ध को
ऐसे ही सुन ले,
तो भी काम आ
सकती है।
'मैं
कहता आंखन
देखी' :
(अंतरंग
भेट वार्ता
बुडलैण्ड)
बम्बई
दिनांक 26
अप्रैल 1971
मंदिर बनाने के पीछे जो कारण था वह तो आज संस्कारलोप ही गया और मंदिर और उसकी मूर्ति दोनो किस तरीके से जीवंत,सजीव,और चेतनवंती हों जाए उसकी गुप्त चाबी का ओशो ने जो रहस्योद्घाटन किया हैं यह सच में दूसरे लोक में रख देते हैं 🌹❤️😂 प्यारे ओशो !सप्रेम नमस्कार 🌹❤️😂
जवाब देंहटाएंओशो की अनुकंपा अपार है।उनके कहे पर टिप्पणी करने की औकात नहीं है...मन अभिभूत हैं...मेरे प्रणाम!!!💐🙏😊
जवाब देंहटाएं