प्रतिक्रमण:
महावीर-सूत्र—(प्रवचन—नौवां)
महावीर
ने जो जाना, उसे
जीवन के
भिन्न-भिन्न
तलों तक
पहुंचाने की अथक
चेष्टा की है।
कल हम सोचते
थे कि मनुष्य
से नीचे जो
मूक जगत है, उस तक
महावीर ने
कैसे संवाद
किया, कैसे
वह
प्रतिध्वनित
किया जो
उन्हें अनुभव
हुआ है। दो बातें
छूट गई थीं, वे विचार कर
लेनी चाहिए।
एक तो
मनुष्य से ऊपर
के लोक भी हैं, उन
लोकों तक
महावीर ने
कैसे बात पहुंचाई
और मनुष्य तक
उन्होंने
पहुंचाने के
क्या-क्या
उपाय खोजे?
देवलोक
तक बात पहुंचानी
सर्वाधिक सरल
है,
जो हमें
सर्वाधिक
कठिन मालूम
होगी।
क्योंकि देव
जैसी कोई चीज
की स्वीकृति
हमें बहुत
कठिन मालूम
पड़ती है। जो
हमें दिखाई
पड़ता है वही
सत्य है; जो
नहीं दिखाई
पड़ता वह हमारे
लिए असत्य हो
जाता है। और
देव उस
अस्तित्व का
नाम है, जो
हमें
साधारणतः
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
थोड़ा सा भी
श्रम किया जाए
तो उस लोक के
अस्तित्व को
भी देखा जा
सकता है, उससे
संबंधित भी
हुआ जा सकता
है।
और
साधारणतः यह
खयाल है--जैसा
अभी पूछा
भी--साधारणतः
यह खयाल है कि
देव कहीं और, प्रेत
कहीं और रहते
हैं, हम
कहीं और। यह
बात एकदम ही
गलत है। जहां
हम रह रहे हैं,
ठीक वहीं
देव भी हैं, प्रेत भी
हैं। प्रेत वे
आत्माएं हैं,
जो इतनी
निकृष्ट हैं
कि मनुष्य
होने की सामर्थ्य
उन्होंने खो
दी है और नीचे
उतरने का कोई
उपाय नहीं है।
मनुष्य से
नीचे की
योनियों में जाने
का कोई उपाय
नहीं है। और
मनुष्य होने
की सामर्थ्य
भी उन्होंने
खो दी है। तो
वे एक कठिनाई
में हैं, वे
नीचे की
योनियों में
जा नहीं सकतीं,
मनुष्य की
देह उन्हें
उपलब्ध नहीं
होती। ऐसी आत्माएं
प्रतीक्षा
करेंगी तब तक,
जब तक या तो
उनके योग्य
गर्भ उन्हें
उपलब्ध हो जाए,
या उनके
जीवन में
परिवर्तन हो,
रूपांतरण
हो और वे जन्म
ग्रहण कर
सकें।
देव वे
आत्माएं हैं, जो
मनुष्य से ऊपर
उठ गई हैं, लेकिन
मोक्ष को
उपलब्ध करने
की सामर्थ्य
उनकी नहीं है।
यह अब
प्रतीक्षा
में जीवन है।
यह कहीं दूर
दूसरी जगह
नहीं, किसी
चांद पर नहीं,
ठीक हमारे
साथ है। और
हमें कठिनाई
यह होती है कि
अगर हमारे साथ
है तो हमें
स्पर्श करना
चाहिए, हमें
दिखाई पड़ना
चाहिए। कभी-कभी
हमें स्पर्श
भी करता है वह
अस्तित्व और
कभी-कभी
किन्हीं
क्षणों में
दिखाई भी पड़ता
है। साधारणतः
नहीं, क्योंकि
हमारे होने का
ढंग और उसके
होने के ढंग
में बुनियादी
भेद है। इसलिए
दोनों एक ही
जगह मौजूद
होकर भी
एक-दूसरे को
काटने, एक-दूसरे
की जगह घेरने
का काम नहीं
करते।
जैसे
इस कमरे में
दीए जल रहे
हैं और दीयों
के प्रकाश से
सारा कमरा भरा
हुआ है। और
मैं आऊं और एक
सुगंधित इत्र
यहां छिड़क
दूं,
तो कोई
मुझसे कहे कि
कमरा तो
प्रकाश से
बिलकुल भरा
हुआ है, इत्र
के लिए जगह
नहीं है। इत्र
पूरे कमरे में
फैल कर इत्र
भी सुगंध भर
दे अपनी।
प्रकाश भी भरा
था कमरे में, सुगंध भी भर
गई कमरे में।
न सुगंध
प्रकाश को छूती
है, न
प्रकाश सुगंध
को छूता है, न एक-दूसरे
को बाधा पड़ती
है इससे कि
कमरा पहले से
भरा है। उन
दोनों का अलग
अस्तित्व है।
प्रकाश का
अपना
अस्तित्व है,
सुगंध का
अपना
अस्तित्व है,
दोनों
एक-दूसरे को न
काटते, न
छूते; दोनों
पैरेलल, समानांतर
चलते हैं।
फिर
कोई तीसरा
व्यक्ति आए और
एक वीणा बजा
कर गीत गाने
लगे और हम
उससे कहें कि
कमरा बिलकुल भरा
है,
वीणा बज
नहीं सकेगी, प्रकाश पूरा
घेरे हुए है, सुगंध ने
एक-एक कोने को
घेर दिया है, अब तुम्हारी
ध्वनि को जगह
कहां है? लेकिन
वह वीणा बजाने
लगे और ध्वनि
भी इस कमरे को
भर ले।
तो
ध्वनि को जरा
भी बाधा नहीं
पड़ेगी इससे कि
प्रकाश है
कमरे में, कि
गंध है कमरे
में, क्योंकि
ध्वनि का अपना
अस्तित्व है।
ध्वनि अपनी
स्पेस पैदा
करती है अलग, उसका अपना
आकाश है। गंध
का अपना आकाश
है, प्रकाश
का अपना आकाश
है। प्रत्येक
वस्तु और प्रत्येक
अस्तित्व का
अपना आकाश है
और दूसरे को
काटता नहीं।
इसलिए
जब हमें ये सब
सवाल उठते हैं
कि कहां रहते
हैं देवता, कहां
जीते हैं
प्रेत, तो
हम सदा ऐसा
सोचते हैं कि
हमसे कहीं
दूर! वैसी बात
ही गलत है। वे
ठीक समानांतर
हमारे जी रहे
हैं हमारे
साथ। और यह
बड़ा उचित ही
है कि
साधारणतः वे
हमें दिखाई
नहीं पड़ जाते
हैं, नहीं
तो हमारा जीना
बड़ा कठिन हो
जाए। और साधारणतः
हम उनके
स्पर्श में
नहीं आते हैं,
नहीं तो
जीवन बड़ा कठिन
हो जाए।
लेकिन
किन्हीं घड़ियों
में,
किन्हीं क्षणों
में वे दिखाई
भी पड़ सकते
हैं, उनका
स्पर्श भी हो
सकता है, उनसे
संबंध भी हो
सकता है। और
महावीर या उस
तरह के
व्यक्तियों
के जीवन में
निरंतर उनका
संबंध और
संपर्क है, जिसे
परंपराएं
समझाने में
एकदम असमर्थ
हैं। यह
बातचीत ऐसे ही
हो रही है
जैसे दो
व्यक्तियों के
बीच हो रही
हो--महावीर की
या इंद्र की
या और देवताओं
की। उस बातचीत
में कहीं भी
ऐसा नहीं है कि
कोई
कल्पना-लोक
में बात हो
रही हो। यह
अत्यंत
सामने-आमने
बात हो रही
है।
और
किसी एक के
साथ ऐसा नहीं
हो रहा है, बुद्ध
के साथ भी
वैसा हो रहा
है, जीसस
के साथ भी
वैसा हो रहा
है। जगत के इन
सारे
व्यक्तियों
के साथ, मोहम्मद
के साथ वैसा
हो रहा है।
ऐसा प्रतीत होता
है कि हमारे
भीतर भी कुछ
उनसे संबंधित
होने का मार्ग
है, लेकिन
प्रसुप्त है।
मनुष्य
के मस्तिष्क
का शायद एक
तिहाई भाग काम
कर रहा है, दो
तिहाई भाग
बिलकुल ही काम
नहीं कर रहा
है। इससे
वैज्ञानिक भी
चिंतित हैं।
अगर हम एक
आदमी की खोपड़ी
को काटें तो
एक तिहाई
हिस्सा केवल
सक्रिय है, बाकी दो
तिहाई हिस्सा
बिलकुल
निष्क्रिय
पड़ा हुआ है।
शरीर में और
कोई चीज
निष्क्रिय
नहीं है, सब
चीजें सक्रिय
हैं, सिर्फ
मस्तिष्क का
दो तिहाई
हिस्सा
बिलकुल निष्क्रिय
पड़ा हुआ है, जिसका कोई
उपयोग नहीं हो
रहा है।
वैज्ञानिकों
को भी यह खयाल
आना शुरू हुआ
है कि यह दो
तिहाई हिस्सा
जीवन के
किन्हीं तलों
को स्पर्श
करता होगा, अगर
सक्रिय हो
जाए। अब जैसे
उदाहरण के लिए
कुछ बातें हम
समझें। आपकी
आंख देखती है,
क्योंकि
आंख से जुड़ा
हुआ मस्तिष्क
का हिस्सा
सक्रिय है।
अगर वह हिस्सा
निष्क्रिय हो
जाए, आपकी
आंख देखना बंद
कर देती है।
यह भी हो सकता है
अंधे आदमी की
आंख बिलकुल
ठीक हो, लेकिन
मस्तिष्क का
वह हिस्सा, जिससे आंख
सक्रिय होती
है, निष्क्रिय
पड़ा है, तो
बिलकुल ठीक
आंख भी नहीं
देख सकेगी।
एक
लड़की मेरे पास
आती थी। उस
लड़की का किसी
से प्रेम था
और घर के
लोगों ने उस
विवाह को
इनकार कर दिया
और उस लड़की को
उस युवक को
देखने की भी
मनाही कर दी, सख्त
पाबंदी लगा दी,
उसे बिलकुल
घर के भीतर
कैद कर दिया।
वह लड़की दूसरे
दिन अंधी हो
गई। उसको सब
चिकित्सकों को
दिखाया।
उन्होंने कहा
कि आंख तो
बिलकुल ठीक है।
जांच-पड़ताल की,
लेकिन यह भी
पक्का है कि
उसे दिखाई
नहीं पड़ता।
उसे दिखाई भी
नहीं पड़ रहा
है और आंख
बिलकुल ठीक
है।
वह
मित्र मुझे
कहे कि बड़ी
मुश्किल में
हम पड़ गए हैं।
पहले तो हमने
समझा कि वह
सिर्फ धोखा दे
रही है, क्योंकि
हमने उस पर
रुकावट लगाई,
इसलिए धोखा
दे रही है।
लेकिन अब तो
डाक्टर भी कहते
हैं कि आंख तो
ठीक है, लेकिन
उसे दिखाई
नहीं पड़ रहा।
मानसिक
अंधापन है
उसे--मेंटल ब्लाइंडनेस
है। मानसिक
अंधापन का
मतलब यह है कि
मस्तिष्क का
वह हिस्सा जो
आंख से जुड़ कर
आंख को दिखाने
का काम करता
है,
बंद हो गया।
जैसे ही उस
लड़की को कहा
कि जिसे वह प्रेम
करती है, उसे
अब नहीं देख
सकेगी, हो
सकता है उसके
मस्तिष्क को
यह खयाल आया
कि अब देखने
का कोई अर्थ
ही नहीं है।
जिसे हम प्रेम
करते हैं उसे
ही न देख सकें
तो अब देखने
की भी क्या
जरूरत है? और
मस्तिष्क का
वह हिस्सा बंद
हो गया और आंख
ने देखना बंद
कर दिया।
बहुत
से प्राणी हैं, बहुत
सी योनियां
हैं, जिनके
पास मस्तिष्क
का वह हिस्सा
है जो देख सकता
है, लेकिन
निष्क्रिय है,
तो उन
प्राणियों
में आंखें
पैदा नहीं हो
पाई हैं। ऐसे
प्राणी हैं
जिनके पास कान
नहीं हैं, वह
हिस्सा है जो
सुन सकता है, लेकिन
निष्क्रिय है;
इसलिए कान
पैदा नहीं हो
पाए। मनुष्य
की पांच इंद्रियां
हैं अभी, क्योंकि
मस्तिष्क के
पांच हिस्से
सक्रिय हैं, शेष बहुत
बड़ा हिस्सा
निष्क्रिय
पड़ा हुआ है। अब
तो वैज्ञानिक
को भी यह खयाल
में आता है कि
वह जो शेष
हिस्सा
निष्क्रिय
पड़ा है, अगर
उसमें से कुछ
भी सक्रिय हो
जाए तो नई
इंद्रियां
शुरू होंगी।
अब जिस
आदमी ने कभी
प्रकाश नहीं
देखा है, वह
कल्पना ही
नहीं कर सकता
कि प्रकाश
कैसा है; और
जिसने ध्वनि
नहीं सुनी है,
वह कल्पना
भी नहीं कर
सकता है कि
ध्वनि कैसी है।
और हम समझ लें
कि एक गांव हो
जिसमें कि सब
बहरे हों, तो
उस गांव में
कभी ध्वनि की
चर्चा भी नहीं
होगी। चर्चा
भी नहीं हो
सकती, क्योंकि
सवाल ही नहीं
है, ध्वनि
कभी सुनी नहीं
गई। और अगर उन
बहरों को कोई
किताब मिल जाए,
जिसमें
लिखा हो कि
ध्वनि होती थी
या कहीं ध्वनि
होती है, तो
वे सब हंसेंगे
और कहेंगे, यह कैसी बात
है! ध्वनि
यानी क्या? ध्वनि कहां
है? किस
जगह है? हम
कहां ध्वनि को
पकड़ें? कहां ध्वनि
हमें मिलेगी?
उनके सब
प्रश्न संगत
होते हुए भी
व्यर्थ होंगे।
हमारे
मस्तिष्क के
बहुत से
हिस्से हैं, जो
निष्क्रिय
हैं और अगर वे
सक्रिय हो
जाएं तो जीवन
और अस्तित्व
की अनंत
संभावनाओं से
हमारे संबंध जुड़ने
शुरू होते
हैं। जैसे कि
थर्ड आई की, तीसरी आंख
की बात निरंतर
हम सुनते हैं।
वह अगर सक्रिय
हो जाए, वह
हिस्सा जो
हमारी दोनों
आंखों के बीच
का निष्क्रिय
हिस्सा है अभी,
अगर वह
सक्रिय हो जाए
तो हम कुछ ऐसी
बातें देखना
शुरू कर देते
हैं, जिनकी
हमें कल्पना
ही नहीं है।
हवाई
जहाज में अगर
आप बैठ कर
इंजन के पास
गए हों तो
आपने राडार
देखा होगा, जो
सौ मील या डेढ़
सौ मील आगे तक
के चित्र देता
रहता है।
इसलिए अब
पायलट को हवाई
जहाज के भीतर
बैठ कर बाहर
देखने की कोई
जरूरत नहीं है
और बाहर देखने
का कोई
प्रयोजन भी नहीं
है, क्योंकि
हवाई जहाज
इतनी गति से
जा रहा है कि अगर
चालक देख भी
ले कि सामने
हवाई जहाज है
तो भी उसे
बचाया नहीं जा
सकता टकराने
से, क्योंकि
जब तक वह बचाएगा
तब तक टकरा ही
जाएगा। गति
इतनी तीव्र
है।
तो अब
तो उसे डेढ़
सौ,
दो सौ मील
दूरी की चीजें
दिखाई पड़नी
चाहिए। दो सौ
मील पर उसे
दिखाई पड़े कि
बादल है तो
अभी वह बचा
सकता है। और
बचाते-बचाते
वह दो सौ मील
पार कर जाएगा,
यानी बचा
पाएगा तब तक
बादल के आगे
या नीचे या ऊपर
हो जाएगा। तो
राडार है जो
दो सौ मील देख
रहा है और
राडार पर दो
सौ मील आगे
वर्षा हो रही
है कि बादल जा
रहे हैं कि
हवाई जहाज है
कि दुश्मन है
कि क्या है, वह सब राडार
पर चित्र आ
रहा है।
मनुष्य
की जो तीसरी
आंख है वह
राडार से भी
अदभुत है, उसमें
कोई स्थान और
काल का सवाल
ही नहीं है, दो सौ मील का
सवाल नहीं है।
वह एक बार सक्रिय
हो जाए तो
कहीं भी क्या
हो रहा है, उसके
प्रति
ध्यानस्थ
होकर, उस
होने को
तत्काल पकड़ा
जा सकता है।
उस तीसरी आंख
की संभावना यह
भी है कि आगे
क्या होगा, उसकी बहुत
सी संभावनाएं पकड़ी जा
सकती हैं।
पीछे क्या हुआ
है, ये
संभावनाएं भी पकड़ी जा
सकती हैं।
मस्तिष्क
का एक और
हिस्सा है जो
अगर सक्रिय हो
जाए,
तो हम दूसरे
के मन में
क्या विचार चल
रहे हैं, उनकी
झलक पा सकते
हैं। और हमारे
मन में क्या विचार
चल रहे हैं, अगर हम बिना
वाणी के
उन्हें दूसरे
में डालना चाहें
तो दूसरे में
डाला भी जा
सकता है। सवाल
है कि
मस्तिष्क के
हमारे और
हिस्से कैसे
सक्रिय हो
जाएं?
मस्तिष्क
का एक हिस्सा
है,
जो सक्रिय
होने से
देवलोक से जोड़
देता है। उस जुड़
जाने के बाद
जो हमारा
दर्शन है, हम
खुद मुश्किल
में पड़ जाएंगे,
क्योंकि हम
दूसरों को बता
नहीं सकते कि
यह हो रहा है।
स्विडनबोर्ग एक
अदभुत
व्यक्ति हुआ।
आठ सौ मील दूर
एक मकान में
आग लग गई है
बारह बजे और वह
किसी मित्र के
घर ठहरा है और
वह एकदम से
चिल्लाया है
कि पानी लाओ, आग
लग गई और भागा
और बालटी भर
कर पानी लेकर
आ गया खुद।
तो उन
मित्रों ने
कहा,
कहां आग लगी
है?
तब
उसने कहा, अरे-अरे,
बड़ी भूल हो
गई! बालटी
नीचे रख दी।
उसने कहा, बड़ी
भूल हो गई, वह
आग तो बहुत
दूर लगी है।
लेकिन जब मुझे
दिखी तो मुझे
ऐसा लगा कि
यहीं लगी है।
वह तो आठ सौ मील
दूर लगी है।
वह तो वियना
में लगी है, फलां-फलां
घर बिलकुल जला
जा रहा है।
मित्रों ने
कहा कि आठ सौ
मील दूर का
फासला है यहां
से, कैसे
तुम्हें दिख
सकता है? उसने
कहा, मुझे
दिख रहा है, बिलकुल जैसे
कि यहां आग
लगी हो और
मुझे दिख रहा
है।
तीन
दिन लग गए खबर
लाने में, लेकिन
ठीक जिस जगह
उसने बताई थी
आग लगी थी और जिस
जगह उसने बताई
थी कि उसके
बाद मकान पर
चोट नहीं
पहुंची, उस
मकान तक आग
लगी और बुझ गई
है, वहीं
तक चोट पहुंची
थी और आग नहीं
लगी थी।
उसने
देवताओं के
संबंध में
बहुत अदभुत
बातें कही
हैं। संभवतः
यूरोप में
देवलोक के
संबंध में
जानकारी रखने
वाला वह पहला
आदमी है। उसने
एक किताब लिखी
है--हैवन एंड
हेल,
स्वर्ग और
नर्क। और बड़ी
अदभुत किताब
है, जिसमें
उसने आंखों
देखे वर्णन
दिए हैं।
लेकिन उन पर
तो भरोसा करने
की बात नहीं
उठती एकदम से,
क्योंकि
हमारे लिए तो
वह कुछ भी सब
बेमानी है कि
ऐसा कहीं हो
रहा है। लेकिन
स्विडनबोर्ग
की जिंदगी में
और ऐसी घटनाएं
थीं जिनकी वजह
से लोगों को
मजबूर होना
पड़ा कि जो वह
कहता होगा, वह ठीक कहता
होगा।
एक
सम्राट ने
यूरोप के उसे
अपने घर
बुलाया और उससे
कहा,
मेरी पत्नी
मर गई है। तुम
उससे संबंध
स्थापित करके
मुझे कहो कि
वह क्या कहती
है। उसने
दूसरे दिन आकर
खबर की कि
तुम्हारी
पत्नी कहती है
कि फलां-फलां
अलमारी में
ताला पड़ा है, चाबी उसकी
खो गई है। वह तुम्हारी
पत्नी के वक्त
में ही खो गई
थी। तो उसका
ताला तोड़ना
पड़ेगा और
उसमें उसने
तुम्हारे नाम
एक पत्र लिख
कर रखा है और
उस पत्र में
उसने यहऱ्यह
लिखा है।
पत्नी
को मरे पंद्रह
साल हो गए
हैं। वह
अलमारी कभी
खोली नहीं गई
थी। बड़ा
सम्राट है, बड़ा
महल है। चाबी
खोजी गई, चाबी
नहीं मिल सकी
है उसकी, वह
पत्नी के पास
ही हुआ करती
थी। फिर ताला
तोड़ा गया है।
निश्चित, उसमें
एक बंद लिफाफे
में पत्र रखा
हुआ है, जो
पंद्रह साल
पहले उसकी
पत्नी ने उसे
लिखा था। और
उसे खोला गया
है और जो
इबारत स्विडनबोर्ग
ने उसे बताई
है, वह
इबारत उस पत्र
में है।
ये जो
संभावनाएं
हैं मस्तिष्क
के और-और तलों
के मुक्त हो
जाने की, महावीर
इन पर अथक
श्रम किए हैं,
अभिव्यक्ति
के लिए। अगर
देवलोक के साथ
अभिव्यक्ति
करनी है तो
हमारे
मस्तिष्क का
एक विशेष हिस्सा
टूट जाना
चाहिए, एक
द्वार खुल
जाना चाहिए।
वह द्वार न
खुल जाए तो उस
लोक तक हम कोई
खबर नहीं
पहुंचा सकते।
जैसे मनुष्य
तक खबर पहुंचानी
हो तो शब्द का
द्वार होना
चाहिए, नहीं
तो पहुंचाना
बहुत मुश्किल
हो जाएगा--वैसे
ही उस लोक से
भी मस्तिष्क
के कुछ द्वार
खुलने चाहिए।
और हमें
कठिनाई क्या
होती है कि जो
हमारी सीमा है
इंद्रियों की,
उससे
अन्यथा को
स्वीकार करना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
एक
आदमी पिछले
महायुद्ध में, दूसरे
महायुद्ध में
ट्रेन से गिर
पड़ा। और ट्रेन
से गिरने के
बाद एक अदभुत
घटना घटी, जो
कभी नहीं घटी
थी जमीन पर।
ऐसे बहुत
लोगों ने कहा
था, लेकिन
उसका
वैज्ञानिक
विश्लेषण
नहीं हो सका
था। गिर जाने
से उसे दिन
में आकाश में
तारे दिखाई
पड़ने लगे।
उसके
मस्तिष्क का
एक हिस्सा, जो
निष्क्रिय
भाग है, वह
सक्रिय हो गया
चोट लगने से
और उसे दिन
में आकाश में
तारे दिखाई
पड़ने लगे।
तारे खोते
नहीं हैं, वे
रहते तो हैं, लेकिन सूरज
के प्रकाश में
ढंक जाते हैं
और हमारी आंख
समर्थ नहीं है
उनको देखने में।
लेकिन उस आदमी
को दिन में
तारे दिखाई
पड़ने लगे।
पहले
तो लोगों ने
समझा, वह पागल
हो गया, लेकिन
जो-जो उसने
सूचनाएं दीं,
वे बिलकुल
सही थीं! तारे
वहां थे और जब
प्रयोगशालाओं
ने सिद्ध कर
दिया कि जहां
वह जो बताता है,
वहां वह है
इस वक्त, तब
फिर बड़ा
मुश्किल हो
गया। लेकिन वह
आदमी घबड़ा गया
था और उस आदमी
को बड़ी
मुश्किल हो गई
थी। तो उस
आदमी के सिर
का आपरेशन
करना पड़ा, ताकि
उसे दिन में
तारे दिखाई
पड़ने बंद हो
जाएं। नहीं तो
वह तो बहुत
मुश्किल में
पड़ गया, उसका
तो सब
मस्तिष्क
चकरा गया।
एक
आदमी दूसरे
महायुद्ध में
युद्ध में चोट
खाया, अस्पताल
में भर्ती
किया गया और
उसे ऐसा लगा
कि आस-पास कोई
रेडियो चला
रहा है। तो
उसने सब तरफ देखा,
अस्पताल
में तो कोई
रेडियो नहीं
चल रहा है, लेकिन
उसे साफ सुनाई
पड़ रहा है।
चोट लगने से कान
उसका इस भांति
रेडियो-सेंसिटिव
हो गया कि वह
जिस नगर में
था, दस मील
के आस-पास के
किसी भी
स्टेशन को
उसका कान पकड़ने
लगा और बंद
करने का कोई
उपाय नहीं था।
तो उस आदमी के
पागल होने की
नौबत आ गई। और
जब वह पकड़ने
लगा वे
ध्वनियां, तो
पहले तो शक
हुआ। जब उसने
नर्सों को, डाक्टरों को
कहा, तो
उन्होंने कहा,
तुम पागल तो
नहीं हो गए, यहां तो कोई
रेडियो नहीं,
सब सायलेंट
है! यह सायलेंस-ज़ोन
है। यहां कोई
रेडियो नहीं
बजा सकता।
यहां कोई आवाज
हमको भी आनी
चाहिए।
पर
उसने कहा, यह
फलां-फलां गीत
की कड़ी आ रही
है, और
इसके बाद यह
कड़ी आ रही है, इसके बाद यह
कड़ी आ रही है।
वे गए भागे
हुए, सामने
के होटल में
जाकर रेडियो
खोला, वे कड़ियां आ
रही थीं। फिर
तो उन्होंने
तालमेल
बिठाया, वह
तो जो इस नगर
में थी यह
घटना, उस
नगर के स्टेशन
का सब पकड़
लेता था।
मस्तिष्क का
उसका एक
हिस्सा
सक्रिय हो गया
था, जो
हमारा सक्रिय
नहीं है। तब उसका
आपरेशन करना
पड़ा। क्योंकि
वह हिस्सा अगर
सक्रिय रहे तो
उसकी जिंदगी
मुश्किल हो
जाए। क्योंकि
रेडियो को तो
हम बंद कर
सकते हैं, वह
बेचारा बंद
नहीं कर सकता।
वह तो चलता
चला जाए।
हमारे
मस्तिष्क की
संभावनाएं
अनंत हैं, लेकिन
हमें तो
स्वभावतः
जितनी
संभावना हमारी
प्रकट हुई है,
उसके आगे सब
अंधकार मालूम
पड़ता है। वह
मालूम पड़ेगा
ही। वह हमें
मालूम पड़ेगा
ही।
अभी
रूस में एक
वैज्ञानिक है, फयादेव।
उसने एक हजार
मील तक
टेलीपैथिक
संदेश भेज कर
नया चमत्कार
उपस्थित किया
है--और रूस में!
इसलिए बहुत
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
रूस इस तरह की
बातों पर
अनायास
विश्वास करने
के लिए कतई तैयार
नहीं है।
फयादेव ने मास्को
में बैठ कर तिफलिस
नगर के--एक
हजार मील के
फासले पर तिफलिस
नगर में उसके
मित्र एक बगीचे
की झाड़ी में
छिपे हुए हैं
और पूरे वक्त वायरलेस
से संबंध है
उनका। और वे
मित्र उसे
कहते हैं कि
दस नंबर की
बेंच पर एक
आदमी आकर बैठा
है,
तुम उसे मास्को
से सुझाव देकर
सुला दो। फयादेव
कहता है, मैं
पांच मिनट में
उसे सुला
दूंगा। वह
पांच मिनट तक मास्को
में बैठ कर
चित्त को
एकाग्र करके
एक हजार मील दूर
तिफलिस
के फलां बगीचे
में दस नंबर
की बेंच पर जो
आदमी बैठा हुआ
है उसकी तरफ
तीव्र प्रवाह
से विचार
भेजता है। और
वह आदमी पांच
मिनट बाद सो
जाता है वहीं
बेंच पर!
लेकिन
उसके मित्र
कहते हैं कि
हो सकता है, वह
थका-मांदा हो
और अनायास सो
गया हो, तो
तुम उसे तीन
मिनट के भीतर
अगर उठा दो अब
वापस। तो वह
उसे फिर वापस
सुझाव भेजता
है उठने के, वह आदमी तीन
मिनट के भीतर
उठ आता है। वे
मित्र उस आदमी
के पास जाते
हैं और उससे
पूछते हैं। वह
अजनबी आदमी
है। उससे
पूछते हैं, तुम्हें कुछ
लगा तो नहीं?
उसने
कहा,
सच में
हैरानी की बात
है, कुछ
लगा जरूर।
पहले मैंने
खयाल नहीं
किया, जैसे
ही मैं बेंच
पर आकर बैठा
कोई मेरे भीतर
जोर से कहने
लगा, सो
जाओ, सो
जाओ, सो
जाओ! और मैं
बिलकुल
थका-मांदा
नहीं था, मैं
तो सिर्फ किसी
की प्रतीक्षा
करने इस बगीचे
में आकर बैठा
हूं, कोई
आने वाला है, उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा हूं।
लेकिन इतने
जोर से आया यह
सो जाने का
खयाल मुझे कि
मैं सो गया।
और अभी-अभी
किसी ने मुझे
जोर से कहा है
कि उठो, उठो,
तीन मिनट के
भीतर उठ जाना
है। मेरी कुछ
समझ में नहीं
आ रहा है, क्या
बात हो गई है!
फिर तो फयादेव ने
बहुत प्रयोग
करके बताए, जिनमें
उसने यह
स्थापित कर
दिया कि विचार
की तरंगें भी
संप्रेषित
होती
हैं--बिना वाणी
के।
सोहन
यहां बैठी हुई
है। उसके घर
में पहली या दूसरी
दफा मेहमान था
तो वह रात आकर
मेरे बिस्तर
के नीचे
बिस्तर लगा कर
सो गई। और
उसने मुझसे कहा
कि मैं तो
आपसे कभी कुछ
पूछती नहीं, सिर्फ
एक सवाल मुझे
पूछना है, आपकी
मां का नाम
क्या है?
तो
उससे मैंने
कहा,
यह भी कोई
पूछने की बात
है! तू आंख बंद
कर ले, तुझे
जो पहला नाम आ
जाए, बोल
दे।
अगर वह
कहती कि इससे
कैसे होगा, कैसे
पता चलेगा, तो फिर मैं
उसे बता देता।
क्योंकि वैसा
कहने वाला
व्यक्ति फिर
संवेदनशील
नहीं हो सकता
था। उसने बात
मान ली, उसने
कुछ भी नहीं
पूछा। उसने
आंख बंद कर ली
और उसने कहा
कि सरस्वती!
मैंने कहा, वही मेरी
मां का नाम
है। पर उसे
विश्वास न पड़ा।
उसने कहा, लेकिन
मैं यह कैसे
मानूं? पता
नहीं, आप
कोई भी नाम
में हां भर
दें, आप
किसी भी नाम
में हां भर
दें। तो मैंने
कहा, यह तो
इतनी कठिन बात
नहीं है। तू
मेरी मां से भी
मिल लेना और
यह तो पता
लगाया जा सकता
है। यह झूठ
कितनी देर चल
सकती है?
अब
उसमें क्या
हुआ?
कुछ भी नहीं
हुआ। वह जब दो
मिनट शांत
होकर लेट गई, तब मैं मन
में सरस्वती,
सरस्वती
दोहराता रहा।
और वह चूंकि
उत्सुक थी जानने
को, इसलिए
उसके विचार
शांत हो गए
हैं और यह शब्द
टेलीपैथिकली
ट्रांसफर
हो गया। यह
शब्द उसके मन
में
प्रतिध्वनित
हो गया। उसने
कह दिया कि
सरस्वती। यह
उसको पता नहीं
कि कैसे आ
गया।
थोड़े
से इस पर
प्रयोग करके
देखना।
रास्ते पर आप
चले जा रहे
हैं। थोड़े से
प्रयोग इसलिए
कहता हूं, ताकि
आपको कुछ खयाल
हो सके। चीजें
तो और बहुत
बड़ी हैं आगे, लेकिन छोटे
से प्रयोग
आपको खयाल दे
सकते हैं। रास्ते
पर आप चले जा
रहे हैं और
सामने एक आदमी
जा रहा है। आप
दोनों आंखों
की पलकें
झपकना बंद
करके उसकी चैंथी
पर देखते रहना
थोड़ी देर, पीछे
चलते रहना
चुपचाप और
देखते रहना और
फिर जोर से
कहना: पीछे
लौट कर देखो!
मन में ही। सौ
में
निन्यानबे
मौके पर आदमी
लौट कर पीछे
देखेगा कि
क्या बात है और
उसे पता भी
नहीं चलेगा कि
उसने लौट कर
पीछे क्यों
देखा।
ठीक
गर्दन पर अगर
आपकी दोनों
आंखें
केंद्रित हों
तो कोई भी
विचार एकदम से
संप्रेषित हो
जाता है।
लेकिन होना
चाहिए आपके
पास तीव्रता
से संप्रेषण
करना। यानी आप
अगर साथ में
ऐसा कहें कि
पता नहीं लौट
कर देखेगा कि
नहीं देखेगा, तो
गड़बड़ हो गया।
क्योंकि वह भी
संप्रेषित हो
गया।
संप्रेषित
होने की जो
बात है, अगर
आपने कहा कि
लौट कर पीछे
देखो और साथ
में यह कहा कि
पता नहीं लौट
कर देखता है
कि नहीं, तो
यह भी
संप्रेषित हो
गया। वह भी
आदमी को पहुंच
गया। ये दोनों
कट गए। वह
आदमी सीधा चला
जाएगा। वह लौट
कर पीछे नहीं
देखेगा।
हमारे
मस्तिष्क की
और-और
संभावनाओं का
हमें ठीक-ठीक
बोध नहीं है।
देवलोक से
संबंधित होने
के लिए
मस्तिष्क का
एक विशेष
हिस्सा है, जो
सक्रिय होना
जरूरी है।
सक्रिय होते
ही से जैसे कि
हम दूसरी
दुनिया में
प्रवेश कर गए।
जैसे रात सोते
में हम सपने
में प्रवेश कर
जाते हैं--एक
नई दुनिया।
सुबह जाग कर
फिर एक दूसरी
नई दुनिया
शुरू हो जाती
है। ठीक वैसे
ही एक नई दुनिया
में हम प्रवेश
कर जाते हैं।
यह प्रवेश
उतना ही उसी
भांति का है, जैसे कि
रेडियो आपने
ऑन किया और जो
ध्वनियां यहां
चल रही थीं, वह पकड़ाई
जानी शुरू हो
गईं। कोई ऐसा
नहीं है कि
रेडियो ऑन
करते वक्त
ध्वनियां आनी
शुरू हो जाती
हैं। ध्वनियां
तो इस कमरे
में दौड़ ही
रही हैं, सिर्फ
ऑन करते वक्त पकड़ी जाती
हैं।
देवता
तो प्रतिक्षण
उपस्थित हैं
ही,
सिर्फ आपके
मस्तिष्क की
एक व्यवस्था
खुल जाने पर
वे पकड़े
जाते हैं, वे
देखे जाते
हैं। इसके लिए
विशेष योग है
कि वह
मस्तिष्क का
हिस्सा कैसे
टूट जाए। उस
पर दोत्तीन
बातें खयाल
में लेनी
चाहिए। एक बात
तो कि अगर कोई
व्यक्ति
समग्र चेतना
से सारे शरीर
को छोड़ कर
सिर्फ दोनों
आंखों के बीच
में
आज्ञा-चक्र पर
ध्यान को
स्थिर करता
रहे, तो
जहां हमारा
ध्यान स्थिर
होता है, वहीं
सोए हुए
केंद्र
तत्काल
सक्रिय हो
जाते हैं।
ध्यान
सक्रियता का
सूत्र है।
शरीर में किन्हीं
भी केंद्रों
पर ध्यान जाने
से सक्रिय हो
जाते हैं।
जैसे
एक ही खयाल
हमें है।
सेक्स के
सेंटर का अधिक
लोगों को
अनुभव है। कभी
आपने खयाल
किया कि जैसे
ही आपका ध्यान
सेक्स की तरफ
जाएगा, विचार
जाएगा, सेक्स-सेंटर
तत्काल
सक्रिय हो
जाएगा। जागते में
ही नहीं, सोते
में भी अगर
स्वप्न में भी
सेक्स की तरफ
खयाल गया तो
सेक्स-सेंटर
फौरन सक्रिय
हो जाएगा।
सिर्फ ध्यान
जाते से ही!
सिर्फ जरा सी
कल्पना उठते
से भी वासना
की, सेक्स
का सेंटर फौरन
सक्रिय हो
जाएगा। एक सेंटर
का हमें
सामान्य खयाल
है, इसलिए
मैं उदाहरण के
लिए कहता हूं।
दूसरे सेंटर्स
का हमें
सामान्यतः
बोध नहीं है।
फिर भी एक-दो
सेंटर का
थोड़ा-थोड़ा
हमें बोध है।
जैसे
कोई आदमी नहीं
मिलेगा जो कहे
कि मुझे किसी
के प्रति
प्रेम हो गया
और प्रेम की
बात करते वक्त
सिर पर हाथ
रखे। कोई आदमी
नहीं मिलेगा।
प्रेम की बात
करते वक्त
हृदय पर हाथ
रखने वाला आदमी
मिलेगा। स्त्रियां
तो आमतौर से
जब प्रेम की
बात करेंगी तो
उनका हाथ हृदय
पर चला जाएगा।
वह बिलकुल ही
चला जाएगा, वहां
सेंटर है, जो
प्रेम का
ध्यान आते ही
सक्रिय होता
है।
लेकिन
जैसे कोई
चिंतित है और
विचार में
सक्रिय है तो
उसका सिर पर
हाथ जा सकता
है,
माथा खुजा
सकता है।
चिंतित
व्यक्ति को
ऐसा नहीं होगा
कि कहीं और
चला जाए, क्योंकि
चिंतित
व्यक्ति जहां
विचार सक्रिय होता
है, उसी
सेंटर के
आस-पास उसकी
स्मृति का बोध
जाएगा।
आज्ञा-चक्र
वह जगह है, जिसे
लोपसांग रेम्पा या
दूसरे लोग
जिसे थर्ड आई
कहते हैं, वह
जो तीसरी आंख
की जगह है, अगर
सारा ध्यान
वहां
केंद्रित हो
जाए तो
करीब-करीब भीतर
एक आंख के
बराबर का
टुकड़ा बिलकुल
ओपन हो जाता
है, खुल
जाता है, टूट
जाता है। ऐसा
कोई ऊपर से
खोजने जाएगा
तो पता नहीं
चलेगा, लेकिन
भीतर अगर वहां
ध्यान
केंद्रित हो
तो ध्यानी
व्यक्ति को
निरंतर पता
चलेगा कि कोई
चीज वहां टूट
रही है, कोई
छेद वहां हुआ
जा रहा है, कोई
हैमरिंग
वहां चल रही
है।
और जिस
दिन वह उसे
लगता है कि
छेद हो गया, उसी
दिन उसे वे
चीजें, जिन्हें
हम देव कहें, प्रेत कहें,
उनसे उसके
सीधे संबंध
स्थापित हो
जाते हैं, जो
हमारे संबंध
नहीं हैं।
तो
महावीर की, जिसको
हम साधना-काल
कह रहे हैं
अभिव्यक्ति
का माध्यम खोजने
के लिए, बहुत
समय इस तरह के
केंद्रों को
सक्रिय और तोड़ने
के लिए गया और
व्यतीत हुआ।
इस तरह के
केंद्रों को
तोड़ने में
जितना ज्यादा
ध्यान बिना बाधा
के दिया जा
सके, उतना
उपयोगी है, क्योंकि हैमरिंग
का मामला है
वह। वह ऐसा है
कि अगर आपने
पांच चोटें
करके आप छोड़ कर
चले गए तो
दुबारा जब आप
आएंगे तो पांच
चोटें तब तक
विलीन हो
चुकीं। यानी
आपको फिर अ ब स
से शुरू करना
पड़ेगा।
यह वजह
है कि महावीर
को बहुत दिन
तक के लिए खाना-पीना, सारे
काम, निद्रा
सब त्याग कर
देनी पड़ी। हैमरिंग
सतत होनी
चाहिए, इंटेंस
होनी चाहिए, सीधी होनी
चाहिए, दूसरी
कोई भी बाधा
बीच में नहीं
होनी चाहिए। क्योंकि
जैसे ही कोई
दूसरी बात
आएगी, ध्यान
वहां जाएगा।
और ध्यान वहां
गया कि वहां से
जो काम हुआ था,
वह अधूरा
छूट जाएगा। इस
अधूरे काम को
न छूट जाए, इसलिए
जीवन के सारे काम
जो बाधाएं डाल
सकते हैं, उन
सारे कामों से
ध्यान हटा
लेना है। सारे
ही कामों से
ध्यान हटा
लेना है, तभी
एक केंद्र को
पूरी तरह से
सक्रिय किया
जा सकता है।
तो
महावीर जो
निरंतर एकांत
में खड़े
हैं...और यह ध्यान
रहे कि महावीर
की साधना का
अधिकतम हिस्सा
खड़े-खड़े व्यतीत
हुआ है। दूसरे
साधक बैठ कर
साधना किए हैं, महावीर
का अधिकतम
साधना-काल
खड़े-खड़े है।
महावीर का जो
ध्यान का
प्रयोग है, वह भी
खड़े-खड़े ही
करने के लिए
है। कुछ कारण
हैं उसमें।
बैठा हुआ आदमी
सो सकता है, लेटा हुआ
आदमी सो सकता
है। और एक
क्षण को भी वहां
से ध्यान हट जाए
तो पहला काम
एकदम से विलीन
हो जाता है उस
चक्र पर। उस
पर सतत काम
चाहिए। तो खड़े
होकर ही वह
काम किया जा
सकता है, क्योंकि
खड़े हुए आदमी
के सोने की
संभावना एकदम
न्यून हो जाती
है, क्षीण
हो जाती है।
निद्रा
से बचने के
लिए बड़े उपाय
किए हैं उन्होंने।
और कोई कारण नहीं
है,
सिर्फ कारण
इतना है कि
उतने देर के
लिए ध्यान अलग
हो जाएगा और
तब हो सकता है
कि उतना काम
व्यर्थ हो
जाए। निद्रा
से बचने के
लिए भोजन का
छोड़ देना बड़ा
उपयोगी
हिस्सा
है--निद्रा से
जिसे बचना हो।
क्योंकि नींद
का पचहत्तर
प्रतिशत भोजन
से संबंधित
है। जैसे ही
भोजन पेट में
गया तो सारी
मस्तिष्क की
शक्ति पेट की
तरफ आनी शुरू
हो जाती है
भोजन को पचाने
के लिए।
इसलिए
भोजन करने के
बाद नींद का
हमला शुरू हो जाता
है। ज्यादा
भोजन करने के
बाद ज्यादा
नींद का हमला
शुरू हो जाता
है। उसका कुल
कारण इतना है
कि मस्तिष्क
में जो शक्ति काम
कर रही है, वह
इमरजेंसी की
हालत है पेट
में भोजन का
जाना। उसे
पचाना पहले
जरूरी है, क्योंकि
ज्यादा देर वह
बिना पचा रह
जाए तो वह पायज़न
हो जाएगा, जहर
होगा। ज्यादा
देर बिना पचा
रह जाए तो
ठंडा हो जाएगा,
पचाना
मुश्किल हो
जाएगा। इसलिए
सारे शरीर से पेट
एकदम सारी
शक्ति को वापस
बुला लेता है।
और सबसे पहले
मस्तिष्क की
शक्ति उतर
जाती है नीचे,
इसलिए
आंखें झपकने
लगती हैं, नींद
आने लगती है।
तो अगर
नींद को
बिलकुल ही तोड़
डालना हो तो
पेट में कुछ
भी नहीं होना
चाहिए। इसलिए
उपवास के दिन
आपको रात में
नींद आना
मुश्किल बात
है। कुछ न
खाया हो तो
रात नींद आना
बहुत मुश्किल
बात है, क्योंकि
वह शक्ति नीचे
आने का उपाय
ही नहीं रह
जाता। और जो
लोग
आज्ञा-चक्र पर
काम कर रहे
हैं, वहां
ध्यान देना
चाहते हैं, उनकी शक्ति
नीचे नहीं आनी
चाहिए, वह
ऊपर ही लगी
रहनी चाहिए, तो ही वह
चक्र खुल सकता
है। सत्य की
अनुभूति से वह
चक्र नहीं खुल
जाता है, उसकी
अनुभूति से ही
चक्र नहीं खुल
जाता है। हां,
उस अनुभूति
को उस चक्र के
माध्यम से
प्रकट करना हो
तो ही उसे
खोलने की
जरूरत पड़ती
है।
तिब्बत
ने इस दिशा
में सर्वाधिक
मेहनत की है--उस
तीसरी आंख के
संबंध में।
तोड़ने के लिए
अथक श्रम
तिब्बत ने
किया। और
तिब्बत के पास
निरंतर ऐसे
लोग पैदा होते
रहे,
जिन्होंने
उसका पूरी तरह
उपयोग किया
है।
आज्ञा-चक्र
के टूट जाने
के माध्यम से
ही देवताओं से
जुड़ा जा सकता
है,
फिर वाणी की
कोई जरूरत
नहीं है। यहां
भीतर भाव पैदा
हो और वह
आज्ञा-चक्र से
प्रतिध्वनित
हो जाता है और
वह देव-चेतना
तक प्रवेश कर
जाता है।
ये
मैंने दो
बातें कहीं।
जड़ से संबंधित
होना हो तो
इतनी शिथिल
चेतना चाहिए
कि जड़ के साथ
तादात्म्य
स्थापित हो
जाए। और
मनुष्य से ऊपर
की योनियों से
संबंधित होना
हो तो इतनी
एकाग्र चेतना
चाहिए कि
आज्ञा-चक्र
टूट जाए।
सर्वाधिक
कठिन मनुष्य के
साथ है
कठिनाई।
मनुष्य से
संबंधित होने
के लिए महावीर
ने कोई तीन
प्रयोग किए
हैं।
सबसे
पहला प्रयोग
तो यह है कि
किसी भी
मनुष्य को
हिप्नोसिस की
हालत में, सम्मोहन
की हालत में, बेहोश हालत
में कोई भी
संदेश दिया जा
सकता है। और
उस वक्त संदेश
उसके प्राणों
के आखिरी कोर
तक सुना जाता
है। और उस
वक्त चूंकि
तर्क बिलकुल
काम नहीं करता
उसका, विचार
काम नहीं करता,
चेतना काम
नहीं करती, इसलिए न वह
विरोध करता है,
न विचार
करता है। जो
कहा जाता है, उसे चुपचाप
परिपूर्ण रूप
से स्वीकार कर
लेता है।
यहां
तक कि अगर एक
व्यक्ति को
बेहोश करके
कहा जाए कि
तुम घोड़े हो
गए हो, तो
बराबर चारों
हाथ-पैर से
खड़ा हो जाएगा!
घोड़े की तरह
आवाज करने
लगेगा! वह यह
मान लेगा।
उसके बिलकुल
अचेतन, अनकांशस
तक यह बात
प्रविष्ट अगर
हो जाए तो जो उसे
हम कहेंगे, वह वही हो
जाएगा। उसे
कहा जाए कि
तुम्हें लकवा
लग गया है तो
उसके शरीर को
एकदम लकवा लग
जाएगा! फिर वह
हाथ-पैर हिला
नहीं सकेगा!
सौ में
से तीस
व्यक्ति
सम्मोहित हो
सकते हैं। और
सौ में से तीस
पुरुष और सौ
में से पचास
स्त्रियां
सम्मोहित हो
सकती हैं। और
सौ में से पचहत्तर
प्रतिशत बच्चे
सम्मोहित हो
सकते हैं।
जितना सरल
चित्त हो, उतनी
शीघ्रता से
सम्मोहन
प्रवेश कर
जाता है।
तो
महावीर
वर्षों तक उस
पर भी काम कर
रहे हैं कि
सम्मोहन के
द्वारा संदेश
कैसे
पहुंचाया जाए।
लेकिन अंततः
उन्होंने उस
प्रक्रिया का
उपयोग नहीं
किया है, क्योंकि
सम्मोहन के द्वारा
संदेश तो
पहुंच जाता है,
लेकिन कुछ
सूक्ष्म
नुकसान दूसरे
व्यक्ति को पहुंच
जाते हैं।
जैसे उसकी
तर्क-शक्ति
क्षीण हो जाती
है। जैसे वह
परवश हो जाता
है। वह धीरे-धीरे
दूसरे के ही
हाथ में जीने
लगता है।
मैं भी
इधर सम्मोहन
पर बहुत
प्रयोग किया
और इसी दृष्टि
से प्रयोग
किया, क्योंकि
घंटों मेहनत
करनी पड़े, तब
एक बात नहीं
समझाई जा सकती
और दो मिनट
बेहोश किसी को
किया जाए, वह
बात उसमें
प्रवेश कराई
जा सकती है।
लेकिन मैं भी
इसी नतीजे पर
पहुंचा कि वह
उस व्यक्ति में
कुछ बुनियादी
नुकसान पहुंच
जाते हैं। संदेश
पहुंच जाएगा,
लेकिन वह
व्यक्ति ऐसे
जीने लगेगा, जैसे उसकी
कोई
स्वतंत्रता
नहीं रह गई।
परवश। कोई और
उसे चला रहा
है, ऐसे
चलने लगेगा।
रामकृष्ण
ने विवेकानंद
को जो पहला
संदेश दिया है, वह
सम्मोहन की
विधि से दिया
गया
है--जिसमें उनके
स्पर्श से
विवेकानंद को
समाधि हो गई।
वह हिप्नोसिस
के द्वारा
दिया गया
संदेश है। और
इसीलिए विवेकानंद
सदा के लिए
रामकृष्ण का
अनुगत हो गया।
और भी मजे की
बात है कि
रामकृष्ण से
जिस दिन यह स्पर्श
के द्वारा
विवेकानंद को
एक संदेश
पहुंच गया तो
विवेकानंद के
भीतर एक शक्ति
का उदय हुआ, जो उसकी
अपनी तो नहीं
है, किसी
दूसरे के दबाव
में उसके भीतर
आ गई है।
तो वह
एक कमरे में
बैठे हुए हैं
विवेकानंद और उस
आश्रम में
दक्षिणेश्वर
में एक भक्त
भी रहता था, गोपाल
बाबू उसका नाम
था। उस भक्त
का काम यह था कि
वह सब तरह के
भगवानों की
मूर्तियां
रखे हुए था
अपने कमरे में
और दिन भर
पूजा ही चलती
थी, क्योंकि
इतने भगवान थे
और एक-एक की
दो-दो तीनत्तीन
घंटे पूजा
करनी पड़ती थी।
तो कभी सांझ
को भोजन कर
पाता, कभी
रात भोजन कर
पाता। तो ऐसा
इतने भगवान और
भक्त एक, तो
बड़ी मुश्किल
तो थी।
विवेकानंद
ने कई दफे
उससे कहा था
कि तू क्या ये
पत्थर-वत्थर
इकट्ठे करके
और सब खराब कर
रहा है! जिस
दिन
विवेकानंद को
पहली दफे
रामकृष्ण के
सम्मोहन-संदेश
की उपलब्धि
हुई,
उस दिन वे
कमरे में जाकर
बैठे, और
उन्हें एकदम
से खयाल आया
कि इस वक्त तो
अगर मैं गोपाल
बाबू को कहूं
कि जा, सारी
मूर्तियों को
बांध कर और
गंगा में फेंक
आ, तो
बराबर हो जाएगा।
उस वक्त बड़ी
तीव्र उनके
पास शक्ति है,
जिसको कि वह
विस्तीर्ण कर
सकते हैं।
उन्होंने यह
कहा--वह सिर्फ
मजाक में--कि
गोपाल बाबू, सब भगवानों
को बांधो
और गंगा में
फेंक आओ।
गोपाल बाबू ने
सब--वह दूसरे
कमरे में
था--सब भगवान
एक चादर में
बांधे और गंगा
में फेंकने
चले।
रामकृष्ण
घाट में मिले
और कहा कि रुक!
गोपाल बाबू को
कहा कि वापस
चलो। जाकर
विवेकानंद का
दरवाजा खोला
और कहा कि
तेरी चाबी मैं
अपने हाथ में
रख लेता हूं, क्योंकि
तू तो कुछ भी
उपद्रव कर
सकता है। और जो
तुझे अनुभव आज
हुआ है, अब
वह तेरे मरने
के तीन दिन
पहले ही तुझे
फिर हो सकेगा,
उसके पहले
नहीं।
और
विवेकानंद को
एक समाधि का
अनुभव
रामकृष्ण के
स्पर्श से हुआ
और इसके बाद
जिंदगी भर तड़फ
रही,
फिर कभी
नहीं हो सका, क्योंकि वह
विवेकानंद के
बस की बात
नहीं है। वह
संदेश
हिप्नोटिक
है। लेकिन
मरने के तीन
दिन पहले फिर
समाधि का अनुभव
हुआ। लेकिन वह
भी
पोस्ट-हिप्नोटिक
है, वह भी
विवेकानंद का
अपना नहीं है।
पोस्ट-हिप्नोटिक
का मतलब यह है
कि वह भी
सम्मोहित
अवस्था में
कहा गया है कि
फलां दिन तुझे
फिर हो सकेगा,
लेकिन चाबी
मेरे पास है।
तो फलां दिन
हो जाएगा।
मैं एक
बच्चे पर
सम्मोहन के
बहुत से प्रयोग
करता था, तो
उसे मैंने कहा
कि एक किताब
सामने रखी हुई
है, इस
किताब के बारहवें
पन्ने पर तू
पेंसिल उठा कर
अपने दस्तखत
कर देना, लेकिन
आज नहीं, पंद्रह
दिन बाद, ठीक
ग्यारह बजे
दिन दोपहर। और
कर ही देना, भूल मत
जाना।
और बात
खतम हो गई है।
वह तो होश में
आ गया, अपने
स्कूल जाना था,
स्कूल चला
गया। पंद्रह
दिन बीत गए
हैं, वह
किताब वहीं टेबिल पर
पड़ी रही है।
लेकिन उसने
कभी उस किताब
पर दस्तखत
नहीं किए। पंद्रहवें
दिन--उसका दस
बजे स्कूल
लगता है--उसने
मुझसे कहा कि
आज मेरा सिर
कुछ भारी है, मैं स्कूल
नहीं जाना
चाहता। मैंने
कहा, तुम
सुबह तक
बिलकुल ठीक
थे! तो उसने
कहा, बिलकुल
ठीक है, लेकिन
अभी-अभी एकदम
सिर भारी हुआ,
स्कूल जाने
का मेरा मन
नहीं। मैंने
कहा, तुम्हारी
मर्जी।
मैं
उसी कमरे में
बैठा हूं और टेबिल पर
किताब रखी है।
वह लड़का भी
वहीं लेटा हुआ
है। ठीक
ग्यारह बजे वह
उठा है, पेंसिल
उठाई है, जाकर
जो पेज मैंने
कहा था, उसने
खोला है और
अपने दस्तखत
कर दिए। मैं
उसको दस्तखत
करते वक्त
पकड़ा हूं जाकर
कि यह तू क्या
कर रहा है? बोला
कि मैं समझ
में नहीं आता
क्या कर रहा
हूं, न तो
मेरा सिर दुख
रहा है और न
कुछ है, लेकिन
बस सुबह से ही
ऐसा लग रहा है
कि आज स्कूल
मत जाना, कोई
जरूरी काम
करना है; आज
स्कूल मत जाना,
कोई जरूरी
काम करना है।
बस भीतर यही
चल रहा है। और
जब मैंने
दस्तखत कर दिए
हैं तो मेरे
भीतर से ऐसा
बोझ उतर गया
है, जैसे
पहाड़ उतर गया,
सिर मेरा
बिलकुल ठीक हो
गया है। बस यह
दस्तखत करके
मैं बिलकुल हलका
हो गया हूं।
पता नहीं यह
क्यों दस्तखत
मुझे करने थे!
यह
पंद्रह दिन
पहले दिया गया
पोस्ट-हिप्नोटिक
सजेशन है, पंद्रह
दिन बाद काम
करेगा।
रामकृष्ण ने एक्जेक्टली
यह कहा है कि
मरने के तीन
दिन पहले तुझे
फिर समाधि
उपलब्ध होगी,
तब तक चाबी
मैं रख लेता
हूं।
तो रामकृष्ण
ने जिस विधि
का उपयोग किया, उस
विधि को
महावीर ने
बहुत दूर तक
विकसित किया;
लेकिन छोड़
दिया, उसका
प्रयोग नहीं
किया। और मैं
भी यह मानता
हूं कि
विवेकानंद को
नुकसान
पहुंचा। यानी
विवेकानंद
कुछ भी अपना
कमा कर नहीं
जा सके हैं, अपनी कमाई
अभी बाकी रह
गई। यह हुआ है
दूसरे के
द्वारा।
इसमें
विवेकानंद की
अपनी कोई
उपलब्धि नहीं
हो पाई।
इसलिए
विवेकानंद
बहुत चिंतित
और बहुत दुखी
थे और बहुत
परेशान भी थे।
और एक अर्थ
में परेशान भी
थे,
दुखी भी थे,
मुश्किल
में भी थे और
रामकृष्ण से
बंधे भी थे।
आखिरी समय में
भी जो पत्र
लिखे हैं उन्होंने,
वे बड़े दुख
के हैं और बड़ी
पीड़ा के हैं
और बहुत संताप
है उनमें, जैसे
जिंदगी एकदम
व्यर्थ हो गई
और कुछ नहीं
पा सके।
रामकृष्ण
ने ऐसा क्यों
किया? अगर
महावीर ने
इसका प्रयोग
नहीं किया तो
रामकृष्ण ने
क्यों किया?
कुछ
कारण हैं।
महावीर खुद
वाणी में बहुत
समर्थ थे।
रामकृष्ण
वाणी में
बिलकुल
असमर्थ थे। और
वाणी के लिए
विवेकानंद का
साधन की तरह
उपयोग करना
जरूरी हो गया
था। नहीं तो
रामकृष्ण ने जो
जाना था, वह खो
जाता।
रामकृष्ण ने
जो जाना था, वह जगत तक
पहुंचाने के
लिए रामकृष्ण
के पास, खुद
के पास वाणी
नहीं थी। उस
वाणी के लिए
विवेकानंद का
उपयोग करना
जरूरी हो गया।
तो विवेकानंद
सिर्फ
रामकृष्ण के
ध्वनि-विस्तारक
यंत्र हैं, इससे ज्यादा
नहीं। और वह
बिलकुल
सम्मोहित अवस्था
में सारे जगत
में घूम रहे
हैं, बिलकुल
सोई अवस्था
में। और
रामकृष्ण जो
बुलवाना चाह
रहे हैं, बोल
रहे हैं।
विवेकानंद
का उपयोग किया
गया है एक
साधन की
भांति। जो जरूरी
था रामकृष्ण
के लिए, नहीं
तो रामकृष्ण
को, जो
जाना था
उन्होंने, वह
उसे किसी को
भी नहीं दे
पाते। इसलिए
विवेकानंद
का...विवेकानंद
से कहा है
रामकृष्ण ने
कि तुझे मैं
समाधि में
नहीं जाने
दूंगा, क्योंकि
तुझे तो अभी
एक बहुत बड़ा
काम करना है।
और जब भी
विवेकानंद ने
फिर दुबारा
उनसे कहा कि परमहंसदेव,
वह दिन जो
खुशी मिली थी,
जो आनंद
मिला था, जो
प्रकाश मिला
था, वह फिर
कब मिलेगा, तो उन्होंने
बहुत जोर से
उसे डांटा है,
डपटा है और
कहा कि तू बड़ा
लोभी है और
बड़ा स्वार्थी
है! तू अपने ही
आनंद के पीछे
पड़ा हुआ है? तुझे तो मैं
एक बड़ा वृक्ष
बनाना चाहता
हूं, जिसके
नीचे बहुत लोग
छाया में
विश्राम
करें। और तुझे
तो एक बड़ा काम
करना है, वह
कौन करेगा? तू समाधि
में जाएगा तो
वह काम कौन
करेगा?
महावीर
को यह कठिनाई
नहीं है। यानी
महावीर के पास
रामकृष्ण का
अनुभव भी है
और विवेकानंद
की सामर्थ्य भी
है। इसलिए दो
व्यक्तियों
की जरूरत नहीं
पड़ती है, एक ही
व्यक्ति काफी
है।
अक्सर
ऐसा हुआ है, अक्सर
ऐसा हुआ है।
जैसे गुरजिएफ
की मैं बात करता
हूं निरंतर।
गुरजिएफ ने आस्पेंस्की
का इसी तरह
उपयोग किया, जैसा कि
विवेकानंद का
उपयोग
रामकृष्ण ने
किया।
गुरजिएफ के
पास वाणी नहीं
है, बिलकुल
नहीं है। आस्पेंस्की
के पास वाणी
है, बुद्धि
है, तर्क
है। आस्पेंस्की
का पूरा उपयोग
किया। तो
गुरजिएफ की
किताब आप पढ़ें
तो समझ ही
नहीं सकते हैं
कुछ भी, क्योंकि
उसके पास वह
अभिव्यक्ति
है ही नहीं बिलकुल।
लेकिन आस्पेंस्की
से उसने सब
लिखवा लिया है
जो उसे लिखना
था। और आस्पेंस्की
की किताबें
इतनी अदभुत
हैं, जिनका
कोई हिसाब
नहीं। और वह
गुरजिएफ को जो
कहना था, वह
सब आस्पेंस्की
से कहलवा लिया
है। तो आस्पेंस्की
का उपयोग यहां
फिर उसी तरह
किया गया। और
यह भी बिना सम्मोहन
के प्रयोग के
नहीं हो सकता
है।
महावीर
के पास भी वह
साधन
उन्होंने
खोजा, लेकिन
पाया कि वह
साधन व्यक्ति
को नुकसान पहुंचा
जाता है। और
उन्हें किसी
को अपने साधन
की तरह उपयोग
करने का सवाल
नहीं है, वह
तो उसके भीतर
संदेश भर
पहुंचाने का
सवाल है।
इसलिए उसका
प्रयोग तो
उन्होंने
बहुत किया, समझा, लेकिन
उसका उपयोग
कभी भी नहीं
किया।
दूसरा
रास्ता है कि
दूसरा
व्यक्ति
ध्यान को उपलब्ध
हो जाए तो फिर
मौन में ही
बात हो सकती
है,
फिर कोई
जरूरत नहीं है
उससे शब्दों
का उपयोग करने
की, क्योंकि
शब्द सबसे
असमर्थ चीज
है। उससे जो
कहा जाए, अक्सर
वह पहुंच जाता
है जो कहा ही
नहीं गया। जो
न कहा गया हो, वह उससे
पहुंच जाता
है। जो समझा
जा सकता हो, वह पहुंच
जाता है। जो
कहा गया हो, वह नहीं
पहुंचता है।
तो
शब्द के उपयोग
से बचा जा सके
तो फिर ध्यान
का--इसलिए
महावीर...।
अब कभी
यह खयाल में
तुम्हें नहीं
आया होगा कि
महावीर का जो
भक्त है, उसको
कहते हैं, श्रावक।
श्रावक का
मतलब है, ठीक
से सुनने
वाला। और कोई
मतलब नहीं है।
दि राइट लिसनर।
लेकिन सुनते
तो हम सब हैं।
सुनते हम सभी
हैं, तो
सभी श्रावक
हैं?
नहीं, सभी
श्रावक नहीं
हैं। श्रावक
वह है, जो
ध्यान की
स्थिति में
बैठ कर सुन
सके; उस
स्थिति में
बैठ कर सुन
सके, जहां
उसके मन में
कोई विचार
नहीं है, शब्द
नहीं है, कुछ
भी नहीं
है--मौन है।
मौन में जो
बैठ कर सुन सके,
वह श्रावक
है।
यह
शब्द आकस्मिक
उपयोग नहीं
हुआ है। यानी
भक्त को
श्रावक कहना।
श्रोता कहने
से काम नहीं
चला,
क्योंकि
श्रोता से
मतलब है सिर्फ
सुनना। श्रावक
का मतलब है, सम्यक
श्रवण। लेकिन
हम सब सुनते
हैं, लेकिन
हम श्रावक
नहीं हैं।
श्रावक हम तब
होते हैं, जब
हम सिर्फ
सुनते हैं और
हमारे भीतर
कुछ भी नहीं
होता। जस्ट
लिसनिंग।
गुरजिएफ
की मैं अभी
बात किया।
गुरजिएफ आस्पेंस्की
को इसके पहले
कि संदेश दे, उसे
श्रावक बनाना
जरूरी है। वह
सुन तो ले, तो
वह संदेश को
ले जाए। तो आस्पेंस्की
को एक जंगल
में ले जाकर
तीन महीने
रहा। उस मकान
में तीस
व्यक्तियों
को वह लाया था,
जिनको वह
श्रावक बना
रहा था, राइट
लिसनर्स
बना रहा था।
तीन महीने उन
तीस लोगों को
वहां रखा था
और उनसे कहा
था...एक ही बंगले
में जो सब तरफ
से बंद कर
दिया गया है, जिसमें बाहर
जाने का उपाय
नहीं है, जिसकी
चाबी बाहर से
गुरजिएफ खोल
कर कभी भीतर आता
है, चाबी
बंद करके बाहर
जाता है। मकान
सब तरफ से बंद
है। भोजन का
इंतजाम है, सारी
व्यवस्था है।
शर्त यह है कि
तीन महीने न
तो कोई कुछ पढ़ेगा,
न कोई कुछ
लिखेगा, न
कोई किसी से
बात करेगा, न कोई दूसरे
को रिकग्नीशन
देगा।
तीस
आदमी एक मकान
के भीतर हैं।
और गुरजिएफ ने
कहा है कि तुम
ऐसे सब समझना
कि एक-एक ही
यहां हो, तीस
यहां नहीं
हैं। उनतीस
यहां हैं ही
नहीं
तुम्हारे
अलावा। आंख से,
गेस्चर से
भी मत बताना
कि दूसरा है।
उसको रिकग्नाइज
ही मत करना, प्रत्यभिज्ञा
भी न होनी
चाहिए। सुबह
तुम बैठोगे, कोई निकल
रहा है, तो
निकलने देना,
तुम यह भी
मत सोचना कि
कोई निकल रहा
है। जैसे हवा
गुजरती है
ऐसे। अगर कोई
नमस्कार भी
करे तो
नमस्कार मत
करना, क्योंकि
कोई है ही
नहीं यहां
जिसको तुम
नमस्कार कर
रहे हो। आंख
से भी मत
पहचानना कि
तुम हो, मुस्कुराना भी मत, भाव
भी मत प्रकट
करना। और जो
आदमी इस तरह
के भाव प्रकट
करेगा, उसे
मैं बाहर
निकाल दूंगा,
पंद्रह दिन
मैं छंटाई
करूंगा।
पंद्रह
दिन में सत्ताइस
आदमी उसने
बाहर कर दिए।
तीन आदमी भीतर
रह गए, उनमें
एक रूस का
गणितज्ञ आस्पेंस्की
भी था। आस्पेंस्की
ने लिखा है कि
पंद्रह दिन
इतनी कठिनाई
के थे, दूसरे
को न मानना
इतना कठिन था,
कभी सोचा ही
नहीं था यह कि
इतनी कठिनाई
हो सकती है और
दूसरे की
उपस्थिति को
स्वीकार करने
का इतना मन
में भाव हो
सकता है। इतना
कठिन गुजरा, इतना कठिन
गुजरा, लेकिन
संघर्ष से, संकल्प से, पंद्रह दिन
में वह सीमा
पार हो गई, दूसरे
का खयाल बंद
हो गया।
आस्पेंस्की ने
लिखा है, जिस
दिन दूसरे का
खयाल बंद हुआ,
उसी दिन से
पहली दफा अपना
खयाल शुरू
हुआ।
अब हम
सब अपना खयाल
करना चाहते
हैं और दूसरे
का खयाल मिटता
नहीं है, अपना
खयाल कभी हो
नहीं सकता।
जगह खाली नहीं
है। कहते हैं
आत्म-स्मरण।
आत्म-स्मरण
कैसे होगा? अनात्म-स्मरण
चौबीस घंटे चल
रहा है और उसी
के बीच
आत्म-स्मरण
करना चाहते
हैं!
तो आस्पेंस्की
ने लिखा है कि
तब तक मैं
समझा ही नहीं
था कि
सेल्फ-रिमेंबरिंग
का मतलब क्या
होगा। और बहुत
दफे कोशिश की
थी अपने को
याद करने की, कुछ
नहीं होता था।
किसको याद
करना! तब खयाल
में आया।
पंद्रह दिन, वह जो दूसरा,
दि अदर है, जब वह विदा
हो गया तो जगह
खाली रह गई और
सिवाय अपने
स्मरण के कोई
मौका ही नहीं
रह गया।
क्योंकि अब
पहली दफे मैं
अपने प्रति
जागा।
सोलहवें दिन
सुबह मैं उठा
तो मैं ऐसा
उठा, जैसा
मैं जिंदगी
में कभी नहीं
उठा था। पहली
दफे मुझे मेरा
बोध था। और तब
मुझे खयाल आया,
अब तक मैं
दूसरे के बोध
में ही उठता
था। सुबह उठते
ही से दूसरे का
बोध शुरू हो
जाता था। अपना
बोध! और तब वह
चौबीस घंटे
घेरे रहने लगा,
क्योंकि अब
कोई उपाय न
रहा, दूसरे
से भरने की
जगह न रही।
एक
महीना पूरा होतेऱ्होते
उसने लिखा है
कि मैं तो
हैरानी में पड़
गया,
दिन बीत
जाते और मुझे
पता न चलता कि
जगत भी है, वहां
बाहर एक संसार
भी है, बाजार
भी है, लोग
भी हैं। ऐसे
दिन बीत जाते
और पता न
चलता। सपने
विलीन हो गए।
जिस दिन दूसरा
भूला, उसी
दिन सपने
विलीन हो गए, क्योंकि सब
सपने बहुत
गहरे में
दूसरे से संबंधित
हैं।
जिस
दिन सपने
विलीन हुए, उसने
लिखा, उसी
दिन से मुझे
रात में भी
स्मरण रहने
लगा अपना। रात
में भी ऐसा
नहीं है कि
मैं सोया ही हुआ
हूं। रात में
भी सब सोया है
और मैं जागा
हुआ हूं, ऐसा
होने लगा।
तीन
महीने पूरे
होने के तीन
दिन पहले
गुरजिएफ आया, दरवाजा
खोला। आस्पेंस्की
ने लिखा है, उस दिन
मैंने
गुरजिएफ को
पहली दफे देखा
कि यह आदमी
कैसा अदभुत है,
क्योंकि
इतना खाली हो
गया था मैं कि
अब मैं देख
सकता था। भरी
हुई आंख क्या
देखेगी! उस
दिन गुरजिएफ
को मैंने पहली
दफा देखा कि ओफ यह आदमी
और इसके साथ
होने का
सौभाग्य! कभी
नहीं देखा था।
जैसे और लोग
थे, वैसा
गुरजिएफ था।
खाली मन में
पहली दफा
गुरजिएफ को
देखा। और उसने
लिखा है कि उस
दिन मैंने
जाना कि वह
कौन है।
गुरजिएफ
सामने आकर बैठ
गया और मुझे
एकदम से सुनाई
पड़ा,
आस्पेंस्की! पहचाने? तो
मैंने चारों
तरफ चौंक कर
देखा, गुरजिएफ
चुप बैठा है।
आवाज गुरजिएफ
की है, शक-शुबहा
नहीं है। फिर
भी--उसने लिखा
है--कि फिर भी
मैं चुप रहा।
फिर आवाज आई, आस्पेंस्की,
पहचाने
नहीं? सुना
नहीं? तब
उसने चौंक कर
गुरजिएफ की
तरफ देखा, वह
बिलकुल चुप
बैठा है। उसके
मुंह से एक
शब्द नहीं
निकल रहा है।
तब वह
गुरजिएफ खूब
मुस्कुराने
लगा और फिर
बोला कि अब
शब्द की कोई
जरूरत नहीं, अब
बिना शब्द के
बात हो सकती
है। अब तू
इतना चुप हो
गया है कि अब
मैं बोलूं तभी
सुनेगा? अब
तो मैं भीतर
सोचूं और सुन
लेगा! क्योंकि
जितनी शांति
है, उतनी
सूक्ष्म
तरंगें पकड़ी
जा सकती हैं।
तुम
रास्ते से
भागे चले जा
रहे हो।
तुम्हें किसी
ने कहा कि
तुम्हारे
मकान में आग
लग गई है। और
रास्ते में मैं
तुम्हें
मिलता हूं, कहता
हूं, नमस्कार।
तुमने सुना? तुमने नहीं
सुना। तुमने
देखा? तुमने
नहीं देखा।
तुम भागे चले
जा रहे हो, तुम्हारे
घर में आग लग
गई है। दूसरे
दिन तुम मुझे
मिलते हो, मैं
कहता हूं, रास्ते
पर मिला था, नमस्कार की,
तुमने कोई
जवाब नहीं
दिया। तुम
कहते हो, मैंने
तो देखा ही
नहीं। मेरे घर
में आग लग गई थी।
मैं भागा जा
रहा था। मुझे
न तुम दिखाई
पड़े, न
मैंने देखा कि
तुमने हाथ
जोड़े, न
मैं इस हालत
में था कि हाथ
जोड़ सकता था।
अगर
मकान में आग
लग गई तो
तुम्हारा
चित्त इतने
जोर से चल रहा
है कि जोड़े गए
हाथ दिखेंगे
नहीं, की गई
नमस्कार
सुनाई नहीं
पड़ेगी। अगर
चित्त का चक्र
धीमा हो गया, धीमा हो गया,
धीमा हो गया,
ठहर गया, तो जरूरी
नहीं है कि
मैं बोलूं ही।
इतना ही काफी
है कि मैं कुछ
चाहूं कि तुम
तक चला जाए, वह एकदम चला
जाता है।
विद्यासागर ने
एक संस्मरण
लिखा है कि विद्यासागर
को बंगाल का
गवर्नर एक
पुरस्कार
देना चाहता था।
और विद्यासागर
गरीब आदमी थे, पुराने
ढंग से रहने
के आदी थे।
वही पुराना
बंगाली
कुर्ता है, धोती है, डंडा
है। मित्रों
ने कहा, इस
वेश में
गवर्नर के
दरबार में
जाना ठीक नहीं
है। हम
तुम्हें नए
कपड़े बनाए
देते हैं।
विद्यासागर ने
बहुत कहा कि
मैं जैसा हूं, ठीक
हूं। मित्र
नहीं माने तो
उन्होंने खूब
कीमती नए कपड़े
बनवाए। कल
सुबह जाना है विद्यासागर
को गवर्नर के
सामने और वह
पुरस्कार
लेना है। दरबार
भरेगा। सांझ
को वे घूमने
निकले हैं। समुद्र
के तट पर से
घूम कर लौट
रहे हैं।
सामने ही एक
आदमी, एक
मुसलमान
मौलवी अपनी
छड़ी लिए बड़ी
शान से चुपचाप
चला जा रहा
है। एक आदमी
भागा हुआ आया
है और मौलवी
से कहा, मीर
साहब, तेजी
से चलिए, मकान
में आग लग गई
है!
मीर ने
कहा,
ठीक है! और
फिर वह उसी
चाल से चल रहा
है। विद्यासागर
हैरान हो गए, क्योंकि
सुना है उन्होंने
कि आदमी ने
अभी आकर कहा
है कि आग लग गई
है मकान में, वह उसी चाल
से चल रहा है!
फिर उस आदमी
ने घबड़ा कर कहा
कि शायद आप
समझे नहीं, मकान में आग
लग गई! उसने
कहा, मैं
समझ गया। फिर
वह चाल वैसी
रखी!
तब तो विद्यासागर
कदम बढ़ा कर
आगे गए और कहा, सुनिए,
हद हो गई! मकान
में आग लग गई, आप उसी चाल
से चल रहे हैं!
उसने
कहा,
मेरी चाल से
मकान का क्या
संबंध? उस
आदमी ने कहा, मेरी चाल से
मकान का क्या
संबंध? और
मकान के पीछे
चाल बदल दूं
जिंदगी भर की!
लग गई है, ठीक
है, लग गई
है। अब मैं
क्या करूंगा?
तो विद्यासागर
ने घर आकर कहा
कि मुझे वे
कपड़े नहीं
पहनने हैं।
गवर्नर के
यहां जाकर जो
पहनने थे, वे
मुझे पहनने ही
नहीं। जिंदगी
भर की चाल छोड़ दूं
गवर्नर के लिए?
यहां एक
आदमी के मकान
में आग लग गई
है, वह उसी
चाल से जा रहा
है, वह एक
कदम नहीं बढ़ा
रहा है!
लेकिन
ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है और
ऐसा आदमी मिल
जाए तो ऐसा
आदमी श्रावक
हो सकता है। समझ
रहे हैं न! यह
आदमी श्रावक
हो सकता है।
तो
महावीर की सतत
चेष्टा इसमें
लगी फिर कि
कैसे मनुष्य
श्रावक बने, कैसे
सुनने वाला
बने, कैसे
सुन सके। और
सुन वह तभी
सकता है, जब
उसके चित्त की
सारी
परिक्रमा जो
चल रही है विचार
की, वह ठहर
जाए। तो फिर
बोलने की
जरूरत नहीं, वह सुन
लेगा। ऐसी जो
न बोली और
सुनी गई वाणी
है, उसका
नाम
दिव्य-ध्वनि
है। ऐसी जो न
बोली, लेकिन
सुनी गई वाणी
है, उसका
नाम
दिव्य-ध्वनि
है।
दिव्य-ध्वनि
का और कोई
मतलब नहीं है।
बोली नहीं गई
है, लेकिन
सुनी गई है।
दी नहीं गई है,
लेकिन
पहुंच गई है।
सिर्फ भीतर
उठी है और
संप्रेषित हो
गई है।
इस
दिशा में बड़ा
श्रम करना
पड़ा। श्रावक
बनाने की कला
खोजने के लिए
बड़ा श्रम करना
पड़ा। अब तो हम
किसी को भी
श्रावक कहते
हैं,
जो महावीर
को मानता है, वह श्रावक
है। श्रावक
महावीर के
मरने के बाद
होना ही
मुश्किल हो
गया। वह तो जो
महावीर के सामने
बैठा था, वह
श्रावक था।
उसमें भी सभी
श्रावक नहीं
थे, बहुत
से श्रोता थे।
श्रोता कान से
सुनता है, श्रावक
प्राण से
सुनता है।
श्रोता को
शब्द बोले
जाएं तो भी
सुन ले, जरूरी
नहीं है; श्रावक
को शब्द बोलने
की जरूरत नहीं
है और सुनता
है।
तो यह
श्रावक की, राइट
लिसनिंग
की कला को
विकसित किया,
जो बड़ी से
बड़ी कला है
जगत की।
क्योंकि जीसस
लोगों को नहीं
समझा पाए, वह
जो कह रहे थे।
क्योंकि
उन्होंने
सिर्फ इसकी
फिक्र की कि
मैं ठीक-ठीक
कहूं, इसकी
फिक्र ही नहीं
की कि वह
ठीक-ठीक सुन सकता
है या नहीं
सुन सकता है।
मोहम्मद इसकी
फिक्र नहीं कर
रहे हैं कि वह
सुन सकेगा कि
नहीं, वे
इसकी ही फिक्र
कर रहे हैं कि
जो मैं कह रहा
हूं, वह
ठीक होना
चाहिए।
वह
बिलकुल ठीक
है। लेकिन
कहना ही ठीक
होने से कुछ
भी नहीं होता, सुनने
वाला ठीक होना
चाहिए, नहीं
तो कहना सब
व्यर्थ हो
जाएगा। तुम
कहोगे कुछ, सुना कुछ
जाएगा, समझा
कुछ जाएगा।
इसलिए
महावीर के
दूसरे बड़े
दानों में से
मैं श्रावक
बनने की कला
को मानता हूं, जो
बड़े से बड़े कांट्रिब्यूशंस
में से एक है
कि आदमी
श्रावक कैसे
बने। तो परिपूर्ण
मौन और अभी
इन्होंने
शब्द उठा दिया--प्रतिक्रमण।
प्रतिक्रमण
शब्द श्रावक बनने
की कला का
हिस्सा है।
हमें खयाल में
नहीं है कि
प्रतिक्रमण
का मतलब क्या
होता है।
आक्रमण
का मतलब हम
समझते हैं
क्या होता है।
आक्रमण से
उलटा मतलब
होता है
प्रतिक्रमण
का। आक्रमण का
मतलब होता है
दूसरे पर हमला
और प्रतिक्रमण
का मतलब होता
है सब हमला
लौटा लेना, वापस
लौट जाना।
हमारी
चेतना हमलावर
है साधारणतः, एग्रेसन में लगी है।
प्रतिक्रमण
का मतलब है
वापस लौट आना,
सारी चेतना
को समेट लेना
वापस। जैसे
सूर्य सांझ को
अपनी सारी
किरणों का जाल
समेट ले, ऐसा
अपनी फैली हुई
चेतना को मित्र
के पास से
वापस बुला
लेना है, शत्रु
के पास से
वापस बुला
लेना है, पत्नी
के पास से
वापस बुला
लेना है, बेटे
के पास से
वापस बुला
लेना है, मकान
से वापस बुला
लेना है, धन
से वापस बुला
लेना है।
जहां-जहां
हमारी चेतना
ने खूंटियां गाड़ दी हैं
और जहां-जहां
वह फैल गई है, उस सारे
फैलाव को वापस
बुला लेना है।
प्रतिक्रमण
का मतलब है, दि
कमिंग बैक।
वापस लौट आना
है। आक्रमण का
मतलब है, दि
गोइंग।
और
प्रतिक्रमण
का मतलब है, दि कमिंग।
जाना है
आक्रमण, आ
जाना है, लौट
आना है
प्रतिक्रमण।
तो जहां-जहां
चेतना गई है, वहां-वहां
से उसे वापस
पुकार लेना है
कि आ जाओ।
बुद्ध
ने एक कहानी
कही है। सांझ
कुछ बच्चे नदी
के तट पर रेत
के घर बना रहे
हैं। बहुत से
बच्चे हैं, कोई
घर बनाता है, कोई पैर के
ऊपर घर बनाता
है, कोई
कुछ गङ्ढा
खोद रहा है।
फिर किसी
बच्चे का किसी
के घर में पैर
लग जाता है।
रेत के घर हैं
और जहां इतने
बच्चे हों, वहां पैर लग
जाना भी संभव
है; किसी
का घर गिर
जाता है, मार-पीट
भी होती है, गाली-गलौज
भी होती है, बच्चे
चिल्लाते हैं
कि मेरा घर
मिटा दिया!
कोई बच्चा
चिल्लाता है,
मेरा घर
बरबाद हुआ जा
रहा है, क्यों
यहां पैर रख
रहे हो? यह
सब चिल्लाना
चलता है, यह
सब पुकारना
चलता है। झगड़ते
हैं, गालियां
देते हैं, मारते
हैं, पीटते
हैं।
फिर
सांझ हो जाती
है। और नदी के
तट से दूर से, घर-घर
से बच्चों की
मां की पुकार
आने लगती है कि
लौट आओ, लौट
आओ, अब
बहुत खेल हो
चुका। और
बच्चे जो लड़ते
थे इस पर कि
मेरे घर को
लात मत मार
देना, अपने
ही घर को लात
मार कर, तोड़
कर घर की तरफ
भागते हुए
वापस लौट गए
हैं! घर पड़े रह
गए हैं
टूटे-फूटे; नदीत्तट निर्जन हो
गया है; बच्चे
घर चले गए
हैं। अपने ही
घर को लात मार
कर, जिस पर
लड़े थे कि
मेरा घर तोड़
मत देना!
तो
बुद्ध कहते
हैं,
ऐसा एक क्षण
आता है जीवन
में, जब
तुम सब तरफ
रेत के घरों
को खुद ही लात
मार कर घर
वापस लौट आते
हो।
इसका
अर्थ है
प्रतिक्रमण।
और इसका अगर
अभ्यास जारी
रहे कि तुम
रोज कम से कम
घड़ी भर को
प्रतिक्रमण
कर जाओ, सब
तरफ से चेतना
को वापस बुला
लो, सब रेत
के घरों से आ
जाओ वापस अपने
भीतर, कहीं
से संबंध न
रखो, असंग
हो जाओ, तो
प्रतिक्रमण
हुआ।
प्रतिक्रमण
ध्यान का पहला
चरण है, क्योंकि
जब तुम लौटोगे
ही नहीं, चेतना
को वापस न
लाओगे, तो
ध्यान कौन
लगाएगा? अभी
तो चेतना ही
नहीं है मौजूद,
वह तो घर के
बाहर गई है, वह तो किसी
दूसरे पर भटक
रही है, वह
तो कहीं और
है। उस चेतना
को न लौटाओगे
तो ध्यान कैसे
करोगे? तो
प्रतिक्रमण
है पहला चरण।
सामायिक है
दूसरा चरण।
सामायिक यानी
ध्यान।
सामायिक
ध्यान से भी
अदभुत शब्द
है। असल में
सामायिक जैसा
शब्द ही नहीं
है। ध्यान
उतना कीमती
शब्द नहीं है।
महावीर ने जो
शब्द उपयोग
किया है, वह
ध्यान से बहुत
ज्यादा कीमती
है।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी होगा।
ध्यान में कहीं
न कहीं यह बात
छिपी हुई
है--जब हम कहते
हैं ध्यान करो
तो आदमी पूछता
है,
किसका? ध्यान
शब्द में ही
कहीं दूसरा
छिपा हुआ है।
जब हम कहते
हैं, ध्यान
में जाओ, तो
आदमी कहता है,
किसके ध्यान
में? किस
पर ध्यान करें?
कहां ध्यान
लगाएं? ध्यान
कुछ न कुछ रूप
में
पर-केंद्रित
है--शब्द--दि
अदर-सेंटर्ड
है। उसमें जो
सवाल उठता है,
किसका
ध्यान?
सामायिक
को महावीर ने
बिलकुल मुक्त
कर दिया इस "पर' से।
समय का मतलब
होता है आत्मा
और सामायिक का
मतलब होता है
आत्मा में
होना, टु
बी इन वनसेल्फ।
प्रतिक्रमण
है पहला
हिस्सा कि
दूसरे से लौट
आओ,
सामायिक है
दूसरा कि अपने
में हो जाओ।
और जब तक
दूसरे से न
लौटोगे, तब
तक अपने में
होओगे कैसे? इसलिए पहली
सीढ़ी
प्रतिक्रमण, दूसरी सीढ़ी
सामायिक।
लेकिन
वह जो बकवास
प्रतिक्रमण
के नाम से
चलती है, वह
कोई
प्रतिक्रमण
नहीं है। उससे
कोई मतलब नहीं
है। उससे कोई
मतलब ही नहीं
है। कि कितने
देवी-देवता
हैं और कहां
कौन बैठा है, उससे
प्रतिक्रमण
का कोई मतलब
नहीं। सबसे
लौटा लेना है।
कि कितनी योजन
क्या दूर है, इससे क्या
मतलब है! यह तो
दूसरे पर ही
भटकना है।
सबसे लौटा
लेना है।
और
प्रतिक्रमण
बड़ी अदभुत बात
है। चेतना को
सब तरफ से
असंबंधित कर
देना, कि मन
में कह देना:
पत्नी अब
पत्नी नहीं है,
बेटा अब
बेटा नहीं है,
अब मकान
अपना नहीं है,
अब यह शरीर
अपना नहीं है।
सब तरफ से
लौटा लेना, सब तरफ से
काटते चले
जाना कि लौट
आए अपने पर।
लौट आए
तो फिर दूसरी
बात शुरू होती
है कि अब अपने
में कैसे रम
जाए,
क्योंकि न
रम पाई तो फिर
दूसरे पर चली
जाएगी। अगर
लौटा भी ली, अगर बच्चे
सांझ घर भी
लौट आए और अगर
मां न रमा पाई
तो बच्चे फिर
लौट जाएंगे
नदी के तट पर, वे फिर घर बनाएंगे,
वे फिर खेलेंगे
और फिर
लड़ेंगे। लौट
आना सिर्फ
सूत्र है, लेकिन
लौट आते ही रमे
कैसे, ठहर
कैसे जाए, उसकी
चिंता करनी
है। अगर नहीं
चिंता की तो
लौट भी नहीं
पाएगी और वापस
लौट जाएगी।
तो
प्रतिक्रमण
सिर्फ
प्रोसेस है, ठहराव
नहीं है।
प्रतिक्रमण
सिर्फ
प्रक्रिया है,
स्वभाव
नहीं है। इसलिए
कोई
प्रतिक्रमण
में ही रुकना
चाहे तो नासमझी
में है। चेतना
इतनी शीघ्रता
से आती है और
इतनी शीघ्रता
से लौट जाती
है कि पता
नहीं चलता। एक
दफे सोचती है
कि हां
मकान--क्या है
मेरा; लौटती
है एक क्षण को,
लेकिन यहां
ठहरने को जगह
नहीं पाती, फिर पुनः
वहीं लौट जाती
है।
तो
दूसरा सूत्र
है सामायिक।
वह हम कल बात
करेंगे कि
सामायिक यानी
क्या, कैसे
स्वयं में ठहर
जाएं। और वह
खयाल में आ जाए
तो सब खयाल
में आ गया।
महावीर का जो
केंद्र है, वह सामायिक
है।
सामायिक
शब्द बड़ा
अदभुत है।
दुनिया में
बहुत शब्द
लोगों ने
उपयोग किए हैं, लेकिन
इससे अदभुत
शब्द उपयोग
नहीं हो सका
कोई भी, क्योंकि
उसको दूसरे से
बिलकुल ही उखाड़
दिया। समय
यानी आत्मा और
सामायिक यानी
अपने में हो
जाना। इसमें
दूसरे का...कोई
यह नहीं पूछ सकता,
सामायिक
किसकी? पूछोगे
तो गलत ही बात
पूछ रहे हो, भाषा से ही
गलत पूछ रहे
हो। कोई यह
नहीं पूछ सकता
कि सामायिक
किसकी? यह
सवाल ही नहीं
है। ध्यान हो
सकता है किसी
का, सामायिक
किसकी होगी? किसी की भी
नहीं होगी।
प्रश्न:
आत्मा
को समय किस
दृष्टि से कहा?
बात
करेंगे! बात
करेंगे! कल
सुबह बात
करेंगे।
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