अप्रमाद:
महावीर-धर्म—(प्रवचन—दसवां)
प्रश्न:
वह
कल जो आपने
बताया कि
तिब्बत में
कुछ ऐसी धारणा
मौजूद है जो
कि तीसरा
नेत्र खुलने
वाली और उसके
द्वारा
भविष्य का
ज्ञान हो जाने
वाली बात, और वह भी कई
सौ वर्ष पूर्व
आगे की घटना
को जानने वाली
उनकी
शक्ति--अगर
ऐसी बात थी तो
आज जो तिब्बत
पर संकट आया, इसका ज्ञान
तो उन्हें
बहुत पहले हो
गया होगा, तब
आज के संकट के
लिए उन्होंने
पहले से
तैयारी क्यों
नहीं की? क्या
हम यह मान लें
कि आसुरी
शक्तियां
आध्यात्मिक
शक्ति पर भी
हावी हो जाया
करती हैं और
यहां तक कि
आध्यात्मिक
शक्ति का भी
कुछ बस नहीं
चलता?
पहली
बात तो यह कि
जितनी
श्रेष्ठ
शक्ति हो, उतना ही
निकृष्ट
शक्ति से लड़ना
कठिन है। जैसे
कितना ही
बुद्धिमान
व्यक्ति हो, उसके सिर पर
एक लट्ठ मार
देने से भी
सारी बुद्धिमत्ता
बिखर जा सकती
है। गांधी
जैसे कीमती आदमी
को भी एक गोली
मार देने से
सब अंत हो
सकता है।
असल
में जितनी
श्रेष्ठ
शक्ति है, उतनी ही
बारीक, उतनी
ही सूक्ष्म
है। जितनी
निकृष्ट
शक्ति है, उतनी
ही स्थूल और
प्रकट है।
स्थूल के
द्वारा सूक्ष्म
को नष्ट कर
देना बहुत
आसान है।
और
इसलिए अक्सर
ऐसा हुआ है कि
श्रेष्ठ
सभ्यताएं
निकृष्ट
सभ्यताओं से
हार गई हैं, क्योंकि
श्रेष्ठ
सभ्यताओं ने
उतनी सूक्ष्म बातें
विकसित की हैं
कि वे यह भूल
ही गई हैं कि और
निकृष्ट
बातें भी हैं,
जिनकी कि
व्यवस्था
करनी जरूरी
है। तो जब भी
निकृष्ट
शक्तियों ने
या राष्ट्रों
ने या सभ्यताओं
ने हमला किया
है तो श्रेष्ठ
सभ्यता हार गई
है, निकृष्ट
जीत गई है।
अभी भी
बुद्धिमान से
मूढ़ के, बुद्धिहीन
के जीत जाने
की संभावना
ज्यादा है।
बुद्ध जैसे
व्यक्ति को भी
एक भैंसा सींग
पर उठा कर खतम
कर सकता है।
तो
इसमें दो
बातें ध्यान
में रखनी
जरूरी हैं। एक
तो यह कि
जितनी
श्रेष्ठ
शक्ति है, उतनी शिखर
पर होती है; जितनी
निकृष्ट
शक्ति है, उतनी
बुनियाद में
होती है। अगर
नीचे की बुनियाद
कमजोर हो जाए
तो ऊपर का
शिखर गिर
जाएगा, वह
कितना ही भव्य
हो, स्वर्ण
का बना हो। और
नीचे की जो
बुनियाद है, वह ठोस
पत्थरों से
बनती है और
शिखर सोने का
बनता है।
तिब्बत
के पास एक बड़ी
ही आंतरिक
सभ्यता थी, लेकिन उस
आंतरिक
सभ्यता के पास
स्थूल साधन बिलकुल
नहीं थे। और
अक्सर ऐसा
होता है, जिनके
पास आंतरिक
शांति और आनंद
उपलब्ध हो जाता
है, वे
चिंता भी छोड़
देते हैं
बाह्य साधनों
की। न वे बड़ी
तोप बनाते हैं,
न वे बड़ा
एटम बनाते
हैं। वे उस
आंतरिक आनंद और
शांति की खोज
में ऐसे लीन
हो जाते हैं
कि बाहर का यह
जो सारा
समायोजन है, वे कभी भी
नहीं कर पाते।
तिब्बत
एक अर्थ में
सबसे श्रेष्ठ
सभ्यताओं में
से था और एक
अर्थ में सबसे
कमजोर
सभ्यताओं में
से--कि अगर एटम
उसके ऊपर
गिराया जाएगा
तो तिब्बत की
बुद्धिमत्ता
का कोई अर्थ
नहीं हो सकता।
जैसे भारत कभी
पिछले समयों
में बार-बार
बर्बरों से
हारा, उसका
भी कारण यही
था कि हम एक
भीतर की
दुनिया बनाने
में लगे थे।
अब एक
चित्रकार है, वह अपने घर
में
श्रेष्ठतम
चित्र बना रहा
है--पिकासो है
या मोनेट है, या कोई भी
है। और एक
आदमी जाकर छुरे
को छाती में
भोंक दे तो
कोई भी यह
नहीं कहेगा कि
इतना बड़ा
चित्रकार, इतनी
बड़ी चित्र की
कला और एक
छुरी से जीत
नहीं सका! कोई
यह नहीं कहेगा,
क्योंकि हम
कहेंगे यह कि
वह बेचारा
चित्र बनाने
में इतना लीन
था कि कभी
लट्ठ की और
व्यायाम की और
तलवार की उसने
कोई व्यवस्था
नहीं की थी और
कभी सोचा भी
नहीं था कि यह
होगा।
तो
श्रेष्ठ की
तलाश में
अक्सर
निकृष्ट भूल
जाता है। और
तिब्बत था
आइसोलेटेड, सारे जगत से
दूर, अपने
में जी रहा
था। अपने में
जीने की इस
सीमा के भीतर
उसने कुछ
खूबियों की
बातें विकसित
की थीं। लेकिन
कोई भी
शारीरिक सभ्यता,
तामसिक
सभ्यता, जिसको
आप आसुरी कह
रहे हैं, वैसी
कोई भी सभ्यता
उस पर हमला
करे तो तिब्बत
उससे जीत नहीं
सकता था, हार
सुनिश्चित
थी। एक बात।
दूसरी
बात, यह बात सच
है कि तिब्बत
के पास ऐसे
लोग थे, हैं,
जो भविष्य
के संबंध में
सूचनाएं दे
सकें। लेकिन
भविष्य बड़ी अदभुत
बात है।
भविष्य के
संबंध में जो
भी सूचनाएं
हैं, वे
सदा पत्थर की
लकीर की तरह
सही नहीं
होतीं, वे
सिर्फ
संभावनाएं
होती हैं।
संभावना का मतलब
है कि ऐसा हो
सकता है अगर
ये स्थितियां
रहें, ऐसा
नहीं भी हो
सकता अगर ये
स्थितियां
रहें।
एक
उदाहरण से मैं
समझाऊं। एक
ज्योतिषी
काशी से बारह
वर्ष ज्योतिष
का अध्ययन
करके वापस
लौटता है अपने
गांव। जब वह
अपने गांव लौट
रहा है तो बड़ी
पोथियां लाया
है ज्योतिष की, बड़ा अध्ययन
करके लौटा है
और बड़ा
निष्णात हो गया
है
भविष्यवाणी
करने में। जब
वह अपने गांव
के करीब आ रहा
है तो नदी की
रेत पर उसने
देखे हैं कि
किसी व्यक्ति
के पैरों के चिह्न
बने हैं और
पैरों में तो
वे चिह्न हैं
जो चक्रवर्ती
को होना
चाहिए! भरी
दोपहरी है, साधारण सा
गांव है, छोटी
सी नदी है, गंदी
रेत है, उस
पर चक्रवर्ती
खुले पैर चला
हो इसकी कोई
आशा नहीं है!
वह तो
बहुत घबड़ा
गया। उसने कहा
अगर
चक्रवर्ती एक
साधारण गांव
में खुली रेत
पर नंगे पांव
घूमता हो इस
भरी दोपहरी में, तो हो गया हल!
फिर मेरे पोथे
का क्या होगा?
मेरे
शास्त्र का
क्या होगा? उसे तो ऐसा
लगा कि अगर यह
चक्रवर्ती का
पैर ही है--और
चिह्न साफ
है--तो इन
पोथियों को
इसी नदी में
डुबा देना
चाहिए और घर
पहुंच जाना
चाहिए कि मैं गलत
शास्त्र पढ़
गया हूं। पर
उसने कहा, इसके
पहले मैं पता
तो लगा लूं, यह आदमी
कहां है?
तो वह
पैरों के
चिह्नों के
पीछे चल कर
जाता है तो एक
वृक्ष के नीचे
बुद्ध को बैठे
पाता है। तो
वह बुद्ध को
देखता है तो
बड़ा मुश्किल में
पड़ जाता है, चेहरा तो
चक्रवर्ती का
है, आंख
चक्रवर्ती की
है; शरीर
तो भिखारी का
है, भिक्षा-पात्र
बगल में रखा
हुआ है, नंगे
पैर है आदमी!
तो वह जाकर
कहता है कि
महाराज, मुझे
बहुत मुश्किल
में डाल दिया,
बारह वर्ष
की सारी साधना
व्यर्थ हुई जा
रही है। यह
आपके पैर में
चक्रवर्ती का
चिह्न है और
आप हैं
भिखारी। तो
मैं अपने
शास्त्रों को
नदी में डुबा
दूं?
तो
बुद्ध उसे
कहते हैं, शास्त्र को
नदी में
डुबाने की
जरूरत नहीं
है। मैं
चक्रवर्ती हो
सकता था, वह
मेरी संभावना
थी, वह
मैंने त्याग
कर दी। और जब
मैं पैदा हुआ
था तो
ज्योतिषी ने
यह कहा था कि
यह लड़का या तो
चक्रवर्ती
होगा या
संन्यासी। तो
मेरे पिता ने
पूछा कि या
क्यों लगाते
हैं? ज्योतिष
में या क्यों
लगा रहे हैं
आप? तो
कहिए कि
चक्रवर्ती
होगा या
संन्यासी।
लेकिन आप कहते
हैं कि
चक्रवर्ती
होगा या
संन्यासी। तो
उस ज्योतिषी
ने कहा कि
ज्योतिष सदा
भविष्य की
संभावनाओं की
सूचना है। ज्योतिष
कभी भी दो और
दो चार जैसा
सुनिश्चित
नहीं है कि कल
ऐसा होगा ही।
ज्योतिष
सिर्फ इतना कह
रहा है कि ऐसा
भी हो सकता है,
अन्यथा भी
हो सकता है।
तो
भविष्य की जो
दृष्टि है, क्योंकि
भविष्य में
हजार
संभावनाएं
हैं। जो हो चुका
है, वह तो
सुनिश्चित हो
गया। अतीत
सुनिश्चित हो
गया, क्योंकि
वह हो चुका।
हजार
संभावनाओं
में से एक
संभावना
वास्तविक हो
गई। अतीत
इसीलिए मर गया।
भविष्य में
बहुत द्वार
खुलते हैं और
अनंत कारण हैं,
जिनका
संबंध है
भविष्य से। इस
बात की खबर भी
दी जा सकती है,
निरंतर
खबरें दी जाती
रही हैं कि
ऐसा हो सकता
है। लेकिन यह
खबर भी तभी
सुनिश्चित हो
पाती है, जब
हो जाता है।
फिर
जिन लोगों को
ऐसी
अंतर्दृष्टि
है भविष्य के
संबंध में, कोई मुल्क
का मुल्क ऐसी
अंतर्दृष्टि
वाला नहीं है,
सिर्फ
दो-चार-दस लोग
हैं, वे
कहते हैं कि
ऐसा हो सकेगा,
लेकिन पूरा
मुल्क जिसको
कि सब अंधकार
दिखता है, कुछ
सुनता नहीं है,
कोई सुनता
नहीं। यह तो
बहुत कठिन बात
है कि अंतर्दृष्टि
वाले व्यक्ति
की बात हम
सुनें और समझें।
हां, जब हो
जाएगी तो हम
कहेंगे कि
फलां आदमी ने
ठीक कहा था।
लेकिन जब तक
नहीं हो जाएगी,
तब तक वह
आदमी भी हमारे
लिए एक नासमझ
आदमी है, जो
व्यर्थ की
बातें कर रहा
है, जिनसे
क्या होने
वाला है!
निरंतर
यह हुआ है।
हिटलर के
संबंध में, स्टैलिन के
संबंध में, नेहरू के, गांधी के, हजार
संबंधों में
ज्योतिषियों
ने बातें कही हैं।
लेकिन तब तक
उनका आपको कभी
पता नहीं चलता,
जब तक कि वह
घटना नहीं घट
जाती। फिर और
भी कठिनाई है
कि एक
ज्योतिषी
हजार बातें
कहता है। हजार
ही नहीं
घटतीं। जो घट
जाती है, वह
आप कहते हैं
कि घट गई; जो
नहीं घट जाती,
वह भूल जाती
है।
पर
ज्योतिष और
बात है। जिसको
तीसरी आंख
कहें, तीसरा
नेत्र कहें, उससे ज्योतिष
से भी ज्यादा
गहराई से
भविष्य का
दर्शन हो सकता
है। लेकिन वह
दर्शन भी
प्रतीकात्मक
होता है। यानी
वह दर्शन भी
ऐसा नहीं होता
कि आपको सीधा
तथ्य दिख जाता
है। प्रतीक
दिखते हैं और
प्रतीक की
आपको
व्याख्या
करनी पड़ती है।
व्याख्या में
अक्सर भूल हो
जाती है। फिर
भी भूल न भी हो
तो कोई सुनने
को कभी राजी
नहीं होता, कोई सुनने
को कभी राजी
नहीं होता।
नहीं राजी होने
का कारण यह है
कि हमें तो
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। और
न दिखाई पड़ने
वालों की, अंधों
की संख्या बड़ी
है, उसमें
एक आंख वाले
की बात जिस
तरह खो जाती
है, ये
बातें भी खो
जाती हैं। फिर
भी व्यवस्था
करने के उपाय
किए गए। आकस्मिक
रूप से
व्यवस्था
करना बहुत
मुश्किल हुआ
होता।
तिब्बत
के पास
ग्रंथों की
बड़ी ही अदभुत
संपदा है, लेकिन दलाई
करीब-करीब सभी
कीमती
ग्रंथों को ले
आया है।
तिब्बत के पास
कीमती लोगों
की भी एक संख्या
थी, करीब-करीब
उन लोगों को
भी बचा कर
लाया जा सका
है। और
व्यवस्था चल
रही थी, कुछ
पिछले
तीस-पैंतीस
वर्षों से
व्यवस्था चल रही
थी। खतरा
आसन्न था।
व्यवस्था भी
चल रही थी। और
उस व्यवस्था
का ही फल है कि
यह संभव हो
सका कि दलाई
भी निकल सका, नहीं तो
दलाई के भी
निकलने की
उम्मीद नहीं
थी।
यह तो
आप ठीक कहते
हैं, लेकिन
सुनता कौन है!
बुद्ध ने कहा
है कि मेरा धर्म
पांच सौ वर्ष
से ज्यादा
नहीं चलेगा, लेकिन किसी
ने नहीं सुना।
बुद्ध का नहीं
सुना किसी ने।
कहा है साफ कि
मेरा धर्म
पांच सौ वर्ष
से ज्यादा
नहीं चलेगा।
तो इंतजाम कर
लेने चाहिए
थे! लेकिन कोई
इंतजाम नहीं
किए गए। और जब
मुसीबत आ गई, तभी
बौद्ध-ग्रंथों
को बचा कर
भागना पड़ा इस
मुल्क के
बाहर। लेकिन
पहले से कोई
इंतजाम नहीं
किया गया।
हमारी
लिथार्जी, हमारा
तमस इतना
ज्यादा है कि
भविष्य अगर
बता भी दिया
जाए तो कोई
बहुत फर्क
पड़ने वाला
नहीं है। हम
सोचते हैं कि
बता दिया
जाएगा तो फर्क
पड़ेगा। कोई
फर्क पड़ने
वाला नहीं है।
अभी एक
अमेरिकन
अर्थशास्त्री
ने भविष्यवाणी
की है--जो कि
बिलकुल गणित
पर खड़ी है, इसलिए बहुत
सही होने की
उम्मीद है--कि
उन्नीस सौ
अठहत्तर के
करीब भारत में
एक महा अकाल
पड़ेगा, जिसमें
दस करोड़ लोगों
से बीस करोड़
लोगों तक के
मरने की
उम्मीद हो
सकती है।
लेकिन भारत
में किसी को
फिक्र नहीं
है।
मैंने
दिल्ली में एक
बड़े नेता से
कहा, तो
उन्होंने कहा
कि उन्नीस सौ
अठहत्तर अभी
बड़े दूर है।
क्या करिएगा?
और उसका
दावा एकदम
गणित पर खड़ा
हुआ है, एकदम
गणित पर खड़ा
हुआ है।
दुनिया की
भोजन की
व्यवस्था, संख्या
की व्यवस्था,
इन सब पर
खड़ा हुआ है।
और उसका कहना
है कि ऐसा अकाल
न कभी दुनिया
में पड़ा था
पहले और न कभी
पीछे पड़ने की
उम्मीद है, जितना बड़ा
अकाल भारत को
झेलना पड़ सकता
है।
लेकिन
क्या फर्क पड़
रहा है? पूरी
किताब लिखी है,
छोटा-मोटा
नहीं है
वक्तव्य, पूरी
किताब है, पूरे
गणित के सब
ब्यौरे के साथ
है। लेकिन
भारत में कोई
परिणाम नहीं
है, न किसी
पत्र में कोई
रिव्यू है, न नेताओं
में कोई चर्चा
है, न
विचारशील
लोगों में कोई
बात है! हां, जब पड़ जाएगा
अकाल उन्नीस
सौ अठहत्तर
में, तब हम
पीछे कहेंगे
कि इस आदमी ने
बिलकुल
ठीक-ठीक
भविष्यवाणी
की थी।
हमारा
तमस इतना गहरा
है। अब तमस की
गहराई हम इस
तरह नाप सकते
हैं, हम सबको
पता है कि हम
मरेंगे, इसमें
किसी को
भविष्यवाणी
करने की जरूरत
नहीं है। हम
सब जानते हैं
कि एक बात तो
निश्चित है कि
हम मरेंगे, लेकिन जीते
हम इस ढंग से
हैं, जैसे
कभी नहीं
मरेंगे! अब
क्या करिएगा?
हमें
बिलकुल--इसमें
तो कोई
शक-शुबहा ही
नहीं है, किसी
ज्योतिषी को,
किसी तीसरी
आंख वाले आदमी
को आकर आपको
बताने की
जरूरत नहीं है
कि आप मरोगे।
यह तो बिलकुल
ही पक्का है।
लेकिन इस
पक्के में भी
जीते हम ऐसे हैं
जैसे हम कभी
नहीं मरेंगे।
जो आदमी कल
सुबह मरने
वाला है, वह
भी आज सांझ
इसी तरह जी
रहा है, जैसे
कभी नहीं
मरेगा। तमस
हमारा गहरा
है। और भविष्य
के प्रति
अंधापन गहरा
है।
महाभारत
में घटना है।
वह यक्ष ने जो
प्रश्न पूछे
हैं। तालाब पर
पानी लेने गए
हैं नकुल, सहदेव और
यक्ष प्रश्न
पूछता है, वे
उत्तर नहीं दे
पाते हैं और
बेहोश होकर
गिर जाते हैं।
पीछे
युधिष्ठिर
गया है। तो
उसमें जो एक
प्रश्न है, वह यह है कि
मनुष्य के जगत
में सबसे
ज्यादा चमत्कारपूर्ण
बात क्या है? युधिष्ठिर
कहता है, यही
कि मृत्यु है
और कोई मानने
को राजी नहीं
है।
इससे
बड़ी
चमत्कारपूर्ण
बात ही नहीं
है कोई। यानी
सबसे ज्यादा
सुनिश्चित जो
है, उसको
सबसे ज्यादा
अनिश्चित कर
रखा है! बाकी
सब अनिश्चित
है। बाकी एक
बात तो
निश्चित ही
है--मृत्यु।
उसमें तो
अनिश्चय का
कोई उपाय नहीं
है। इसमें तो
कोई अपवाद ही
नहीं हुआ आज
तक। अरबों-खरबों
लोग पैदा हुए
और मरे हैं।
फिर भी
प्रत्येक व्यक्ति
ऐसे तमस में
जीता है कि वह
मानने को राजी
नहीं है कि वह
मरेगा! वह तो
जिंदा रहेगा
ही, ऐसे
भाव से ही
जीता है। तो
क्या करिएगा?
भविष्य
पूरा का पूरा
बताया जा सके
तो भी आप ऐसे
ही जीएंगे, जैसे जी रहे
हैं, कोई
बहुत फर्क
पड़ने वाला
नहीं है।
क्योंकि वह
भविष्य आपको
दिखाई नहीं पड़
रहा है।
प्रश्न:
तमस
क्या है--तमस
जो कह रहे हैं
आप?
तमस
का मतलब
लिथार्जी है, इतना प्रमाद
है।
प्रश्न:
अहं
नहीं?
नहीं, अहं नहीं।
तमस का मतलब
लिथार्जी।
इतना आलस्य है
कि कल क्या
होगा, उसकी
कहां...क्या
करें? जो
होगा, होगा।
अभी तो चुपचाप
चलते चलो।
इतना आलस्य है
कि जैसे इस
कमरे में आकर
खबर कर दी जाए
कि कल इस मकान
में आग लगेगी
तो भी हम ऐसे
ही जीते चले
जाएं जैसे कल
आग नहीं लगनी
है, क्योंकि
अगर इसको हम
मान लें कि कल
आग लगेगी तो
अभी हमें कुछ
करना पड़ेगा।
वह करना पड़ेगा,
वह इतना
भारी पड़ता है
कि न करने में
जैसा चल रहा
है, ठीक चल
रहा है।
अगर हम
यह मान लें कि
मृत्यु
निश्चित है तो
चाहे दस साल
बाद, चाहे बीस
साल बाद, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, कि
पचास साल बाद।
अगर यह पक्का
हमारे चित्त
पर साफ हो जाए
कि मृत्यु निश्चित
है तो हमें
कुछ करना
पड़ेगा। हम
जैसे जी रहे
हैं फिर हम
वैसे नहीं जी
सकते, हमें
फर्क करना
पड़ेगा। और
फर्क करने में
इतना आलस्य है
कि ठीक है, कल
देखेंगे, जो
होगा, होगा।
और
इसको मैं तमस
कह रहा हूं।
तमस का मतलब
है कि एक घना
अंधकार का बोझ
है हमारे मन
पर, जो हमें
कुछ भी करने
नहीं देता।
यानी बता भी
दिया जाए तो
भी नहीं करने
देता, खबर
भी कर दी जाए
तो भी नहीं
करने देता। और
नहीं करने का
हमारा ऐसा भाव
है कि जैसा चल
रहा है वैसे
रट में हम
चुपचाप चलते
चले जाते हैं।
इसलिए
ऐसा नहीं है
कि नहीं बोध
है चीजों का।
बोध है, लेकिन
मुल्क बोध को
पकड़ नहीं
पाता। बोध कुछ
व्यक्तियों
को है।
उन्होंने
चेष्टा की भी
है अपनी तरफ
से, सारा
जो श्रेष्ठ है,
वह बचा कर
ले आए हैं। और
वहां भी सब
उपाय छोड़ आए हैं
कि श्रेष्ठ
वहां भी किसी
तरह से बच सके,
उसका भी
सारा उपाय कर
आए हैं।
लेकिन
ऐसा ही मामला
है जैसे कि एक
गांव डूबने
वाला हो दस
दिन बाद और दस
हजार लोग रहते
हों और दस
आदमियों को
अंदाज लग जाए
कि गांव
डूबेगा और वे
गांव भर में
चिल्लाते
फिरें, कोई
उनकी सुने न, लोग उन पर
हंसें, तो
दस आदमी कितनी
बड़ी डोंगी बना
सकते हैं बचाने
के लिए? यानी
आखिर वे बनाने
में भी लग
जाएं तो एकाध
नाव बना लेंगे
दस आदमी दस दिन
के भीतर, जिसमें
कि वे कुछ बचा
कर ले जा
सकेंगे, लेकिन
पूरा गांव तो
नहीं बचेगा।
यह तो तभी बच सकता
था, जब दस
हजार लोग
उत्सुक हो
जाते।
और यह
भी हो सकता है
कि जिन्हें
आगे का दिखाई
पड़ रहा है, उन्हें यह
भी दिखाई पड़ता
हो कि कितना
बचाया जा सकता
है और कितना
खोएगा ही। यह
भी कठिन नहीं
है। कितना
खोएगा ही, यह
तय ही है। तो
वह भी साफ दिख
रहा है तो
उसके लिए श्रम
का कोई अर्थ
भी नहीं।
जितना बचाया
जा सकता है, उतना बचा
लिया गया है; और जो खोने
वाला है, उसको
स्वीकार कर
लिया गया है।
प्रश्न:
आप
जो कुछ
जैन-दृष्टि के
बारे में कह
रहे हैं, उसमें मुझे
ऐसा लगा कि
दो-तिहाई
बातों से सभी लोग
सहमत हो
जाएंगे, किंतु
एक तिहाई अंश
ऐसा है, जिससे
सहमति कठिन
है।
पहली
बात जो आप
कहते हैं
सम्यक-दर्शन
की, जिसने
थोड़ा भी
शास्त्र पढ़ा
हो, वह यह
जानता है कि
सम्यक-दर्शन
के बिना
चारित्र्य का
कोई अर्थ नहीं।
सम्यक-दर्शन
के बिना जो
कुछ होता है, वह
चारित्र्य
कहलाता ही
नहीं। यह
दृष्टि बहुत
स्पष्ट है। और
यह भी स्पष्ट
है कि
चारित्र्य का
और कोई अर्थ
नहीं है
अतिरिक्त
आत्मस्थिति के।
आत्मा में
स्थित हो जाना,
यही
चारित्र्य का
अर्थ है। इन
दो अंशों में
आपसे सहमति
लगती है। पर
सम्यक-दर्शन
होने के बाद
और आत्मस्थिति
में पूर्ण
स्थिति होने
के पहले जो
बीच का अंतराल
है, उसमें
आपकी दृष्टि
कुछ मुझे जो
परंपरागत दृष्टि
है, उससे
भिन्न नजर आती
है। उसमें ऐसा
मानते हैं लोग
कि एक चरित्र
का क्रमिक
विकास है, उस
चरित्र का एक
बाह्य स्वरूप
भी है, जिसे
त्रिगुप्ति
और पंच समिति
इस नाम से
अष्टप्रवचनमातृका
करके वे कहते
हैं--मन, वचन,
कार्य का
संयम और
आहार-व्यवहार
में विवेक। यही
चारित्र्य का
स्वरूप मानते
हैं। और यह
अष्टप्रवचन
समिति जो है, यही पंच
व्रतों की
रक्षा करने के
लिए है। तो
पंचव्रत और यह
अष्टप्रवचनमातृका,
इसका भी एक
सुनिश्चित
स्थान जैन
आचार-मीमांसा
में है। आप इस
संबंध में
क्या कहेंगे?
यदि यहां
आपकी सम्मति
कुछ बने
निश्चित और
परंपरा से मिल
सके तो
शत-प्रतिशत
सहमति हो जाए,
पर यहां न
मिल सके तो
मुझे लगता है
कि दो-तिहाई
तो सहमति हो
पाएगी, एक
तिहाई अंश में
नहीं।
नहीं, हो पाएगी तो
पूरी हो जाएगी,
नहीं हो
पाएगी तो
बिलकुल ही
नहीं हो
पाएगी। क्योंकि
चरित्र की
जैसी धारणा
रही है, वैसी
धारणा से मैं
बिलकुल ही
असहमत हूं। और
वैसी धारणा
महावीर की भी
नहीं थी, ऐसा
भी मैं कहता
हूं।
एक
दृष्टि है
बाह्य आचरण को
व्यवस्थित
करने की। असल
में बाह्य
आचरण को
व्यवस्थित
वही करता है, जिसके पास
अंतर्विवेक
नहीं है।
अंतर्विवेक हो
तो बाह्य आचरण
व्यवस्थित
होता है, करना
नहीं पड़ता है।
जिसे करना
पड़ता है, वह
इस बात की खबर
देता है कि
उसके पास अंतस-विवेक
नहीं है।
अंतस-विवेक की
अनुपस्थिति
में बाह्य
आचरण कैसा भी
हो, जिसे
हम अच्छा कहें
या बुरा कहें,
दोनों ही
स्थिति
में--नैतिक
कहें, अनैतिक
कहें--अंतस-विवेक
नहीं है, तो
सब आचरण अंधा
है, अंधकारपूर्ण
है।
निश्चित
ही समाज के
लिए फर्क
पड़ेगा। एक को
समाज अच्छा
आचरण कहता है, एक को बुरा
कहता है। समाज
अच्छा आचरण
उसे कहता है, जिससे समाज
के जीवन में
सुविधा बनती
है; बुरा
आचरण उसे कहता
है, जिससे
असुविधा बनती
है।
समाज
को व्यक्ति की
आत्मा से कोई
मतलब नहीं है।
समाज को
व्यक्ति के
व्यवहार से
मतलब है। क्योंकि
समाज व्यवहार
से बनता है, आत्माओं से
नहीं। तो समाज
की चिंता यह
है कि आप सच
बोलें, यह
चिंता नहीं है
कि आप सत्य
हों। आप झूठ
हों, कोई
चिंता नहीं, पर बोलें
सच। आप मन में
झूठ को गढ़ें, कोई चिंता
नहीं, लेकिन
प्रकट करें सच
को।
समाज
को मतलब, आपका
जो चेहरा
प्रकट होता है,
उससे है; आपकी जो
आत्मा अप्रकट
रह जाती है, उससे नहीं
है। इसलिए
समाज इसकी
चिंता ही नहीं
करता कि भीतर
आप कैसे हैं।
समाज कहता है,
बाहर आप
कैसे हैं, बस
हमारी बात
पूरी हो जाती
है। बाहर आप
ऐसा व्यवहार
करें जो समाज
के लिए अनुकूल
है, समाज
के जीवन के
लिए
सुविधापूर्ण
है, सबके
साथ रहने में
व्यवस्था
लाता है, अव्यवस्था
नहीं लाता।
समाज की चिंता
आपके आचरण से
है। धर्म की
चिंता आपकी
आत्मा से है।
इसलिए
समाज इतना
फिक्र भर कर
लेता है कि
आदमी का बाह्य
रूप ठीक हो
जाए, बस इसके
बाद फिक्र छोड़
देता है।
बाह्य रूप ठीक
करने के लिए
वह जो उपाय लाता
है, वे
उपाय भय के
हैं। या तो
पुलिस है, अदालत
है, कानून
है, या
पाप-पुण्य का
डर है, स्वर्ग
है, नरक
है। ये सारे
भय के रूप
उपयोग में
लाता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
समाज के
द्वारा आचरण
की जो
व्यवस्था है, वह
भय-आधारित है
और बाहर तक
समाप्त हो
जाती है। परिणाम
में समाज केवल
व्यक्ति को
पाखंडी बना पाता
है या अनैतिक,
नैतिक कभी
नहीं। पाखंडी
या अनैतिक।
पाखंडी इस
अर्थों में कि
भीतर व्यक्ति
कुछ होता है, बाहर कुछ हो
जाता है।
और जो
व्यक्ति
पाखंडी हो गया, उसके
धार्मिक होने
की संभावना
अनैतिक व्यक्ति
से भी कम हो
जाती है। इसे
समझ लेना
जरूरी है।
समाज की
दृष्टि में वह
आदृत होगा, साधु होगा, संन्यासी
होगा; लेकिन
पाखंडी हो
जाने के कारण
वह अनैतिक
व्यक्ति से भी
बुरी दशा में
पड़ गया है।
क्योंकि अनैतिक
व्यक्ति कम से
कम सीधा है, सरल है, साफ
है। उसके भीतर
गाली उठती है
तो गाली देता है
और क्रोध आता
है तो क्रोध
करता है। वह
आदमी स्पष्ट
है, स्पांटेनियस
है एक अर्थों
में। सहज है, जैसा है, वैसा
है। बाहर और
भीतर में उसके
फर्क नहीं है।
परम
ज्ञानी के भी
बाहर और भीतर
में फर्क नहीं
होता। परम
ज्ञानी जैसा
भीतर होता है, वैसा ही
बाहर होता है।
अज्ञानी जैसा
बाहर होता है,
वैसा ही
भीतर होता है।
बीच में एक
पाखंडी व्यक्ति
है, जो
भीतर कुछ होता
है, बाहर
कुछ होता है।
पाखंडी
व्यक्ति का
मतलब है कि
बाहर वह
ज्ञानी जैसा
होता है और
भीतर अज्ञानी
जैसा होता है।
पाखंडी का
मतलब है कि
भीतरी अज्ञानी
जैसा--उसके
भीतर भी गाली
उठती है, क्रोध
उठता है, हिंसा
उठती है--और
बाहर वह
ज्ञानी जैसा
होता है, अहिंसक
होता है, अहिंसा
परमो धर्मः की
तख्ती लगा कर
बैठता है, सच्चरित्रवान
दिखाई पड़ता है,
सब नियम
पालन करता है,
अनुशासनबद्ध
होता है। बाहर
का उसका
व्यक्तित्व
लेता है वह
ज्ञानी से
उधार और भीतर
का
व्यक्तित्व
वही होता है
जो अज्ञानी का
है।
यह जो
पाखंडी
व्यक्ति है, जिसको समाज
नैतिक कहता है,
यह व्यक्ति
कभी भी, कभी
भी उस दिशा को
उपलब्ध नहीं
होगा, जहां
धर्म है।
अनैतिक
व्यक्ति
उपलब्ध हो भी
सकता है।
इसलिए अक्सर
ऐसा होता है
कि पापी पहुंच
जाते हैं और
पुण्यात्मा
भटक जाते हैं,
क्योंकि
पापी के दोहरे
कारण हैं
पहुंच जाने के।
एक तो पाप
दुखदायी है।
प्रकट पाप
बहुत दुखदायी
है। उसकी पीड़ा
है। वह पीड़ा
ही रूपांतरण
लाती है।
दूसरी बात यह
है कि पाप
करने के लिए
साहस चाहिए।
समाज के
विपरीत जाने
के लिए भी
साहस चाहिए।
जो
पाखंडी लोग
हैं, वे
मीडियाकर हैं,
उनमें साहस
बिलकुल नहीं
है। साहस न
होने की वजह
से चेहरा वे
वैसा बना लेते
हैं, जैसा
समाज कहता
है--समाज के डर
के कारण--और
भीतर वैसे रहे
आते हैं, जैसे
वे हैं।
अनैतिक
व्यक्ति के
पास एक करेज है,
एक साहस है।
साहस
बड़ा
आध्यात्मिक गुण
है। पाप की एक
पीड़ा है और
साहस है, ये
दो बातें हैं
उसके पास। पाप
उसे पीड़ा में
ले जाएगा। पाप
का अनुभव पीड़ा
में ले जाएगा।
पाप उसे
निरंतर, निरंतर
पीड़ा और
सफरिंग में
डालेगा, दुख
और पीड़ा में
डालेगा। और
दुख और पीड़ा
में कोई भी
नहीं रहना
चाहता। और
साहस है उसके पास
कि जिस दिन भी
वह साहस कर ले,
वह उस दिन
बाहर हो जाए।
मैं एक
छोटी कहानी से
तुम्हें
समझाऊं। एक
ईसाई पादरी एक
स्कूल में
बच्चों को
समझा रहा है, मॉरल करेज
क्या है, नैतिक
साहस क्या है।
तो एक बच्चा
उससे पूछता है
कि कुछ उदाहरण
से समझाएं!
तो वह
कहता है कि
समझ लो कि तुम
तीस बच्चे हो, तुम तीसों
पिकनिक पर
पहाड़ पर गए
हो। दिन भर के थक
गए हो, नींद
आ रही है, सर्द
रात है। उनतीस
बच्चे जल्दी
से बिस्तर में
कंबल ओढ़ कर सो
जाते हैं, लेकिन
एक बच्चा कोने
में घुटने टेक
कर परमात्मा
की रात्रि की प्रार्थना
पूरी करता है।
तो वह कहता है
कि उस लड़के
में मॉरल करेज
है, उसमें
नैतिक साहस है
कि जब उनतीस
बिस्तर में सो
गए हैं, सर्द
रात है, दिन
भर की थकान है,
जब कि
टेंपटेशन
पूरा है कि
मैं भी सो
जाऊं, तब
भी वह हिम्मत
जुटाता है और
एक कोने में
खड़े होकर
भगवान की प्रार्थना
करता है सर्द
रात में, तब
सोता है जब
प्रार्थना
पूरी कर लेता
है।
महीने
भर बाद वह
पादरी वापस
आया, उसने फिर
नैतिक साहस पर
कुछ बातें कीं
और उसने कहा
कि अब मैं
तुमसे समझना
चाहूंगा कि
तुम कुछ
उदाहरण देकर
समझाओ कि
नैतिक साहस
क्या है।
तो एक
लड़के ने कहा
कि जैसा आपने
उदाहरण दिया
था, वैसा ही
उदाहरण मैं
देता हूं। तीस
पादरी एक पहाड़
पर पिकनिक को
गए हुए हैं।
दिन भर के
थके-मांदे
लौटते हैं।
सर्द रात है।
उनतीस पादरी
प्रार्थना
करने बैठ जाते
हैं और एक
पादरी कंबल ओढ़
कर सो जाता
है। तो वह जो
एक पादरी कंबल
के भीतर सो
जाता है, उसे
मैं मॉरल करेज
का उदाहरण, नैतिक साहस
का उदाहरण
कहता हूं। और
जो आपने उदाहरण
दिया था, उससे
यह उदाहरण
ज्यादा नैतिक
साहस का है।
जब उनतीस
पादरी
प्रार्थना कर
रहे हों और
कंडेम कर रहे
हों कि नरक
जाओगे अगर तुम
बिस्तर में
सोए, तब एक
आदमी चुपचाप
बिस्तर में सो
जाता है।
नैतिक
साहस होता ही
नहीं जिन
लोगों को हम
नैतिक
व्यक्ति कहते
हैं उनमें। और
उनकी नैतिकता
वस्तुतः साहस
की कमी के
कारण होती है, साहस के
कारण नहीं।
एक
आदमी चोरी
नहीं करता। तो
आमतौर से हम
सोचते हैं कि
यह आदमी अचोर
है। यह बात
झूठ है। चोरी
न करना ही
अचोर होने का
लक्षण नहीं
है। चोरी न
करने का कुल
कारण इतना हो
सकता है कि
आदमी तो चोर
है, लेकिन
चोरी करने का
साहस भी नहीं
जुटा पाता। सौ
में
निन्यानबे
मौके पर ऐसा
होता है कि
चोरी सब करना
चाहते हैं, लेकिन साहस
नहीं जुटा
पाते। चोरी
करना साधारण
साहस की बात
नहीं है। अंधेरी
रात में और
दूसरे के घर
में अपने घर
जैसा व्यवहार
करना बहुत
मुश्किल बात
है।
तो
जिनको हम
नैतिक कहते
हैं, अक्सर
साहसहीन लोग
होते हैं। और
धर्म तो परम साहस
की यात्रा है।
तो ये साहसहीन
लोग, जो कि
इसलिए नैतिक
होते हैं कि
साहस नहीं है,
कभी धर्म की
यात्रा पर भी
नहीं निकलते
हैं। लेकिन
जिनको हम बुरे
लोग कहते हैं,
उन बुरे
लोगों में एक
गुण तो बहुत
स्पष्ट है कि
वे साहसी हैं,
पूरे समाज
के विरोध में
साहसी हैं। जब
उनतीस लोग
प्रार्थना कर
रहे हैं, तब
वे सोने चले
गए हैं। जब
पूरा समाज
प्रार्थना कर
रहा है, तब
वे सोने चले
गए हैं। साहस
उनमें अदभुत
है।
अब
सवाल यह है कि
यह साहस उनका
पाप की तरफ से
हट कर और
पुण्य की तरफ
कैसे जाए। तो
आपको ले जाने की
जरूरत नहीं है, पाप की पीड़ा
ही अपने आप
में इतनी सघन
है कि वह आदमी
को उससे उठने
के लिए मजबूर
कर देती है।
आज नहीं कल, वह आदमी
उठता है।
तो
मेरी तो अपनी
दृष्टि यह है
कि पापी की
संभावनाएं
धर्म के निकट
पहुंचने की
ज्यादा
हैं--जिसको हम
नैतिक
व्यक्ति कहते
हैं उसके
पहुंचने से।
और जिस दिन
पापी धर्म की
दुनिया में
पहुंचता है तो
वह उतनी ही
तीव्रता से
पहुंचता है, जितनी
तीव्रता से वह
पाप में गया
था।
नीत्शे
ने एक बहुत
अदभुत वचन
लिखा है।
नीत्शे की अंतर्दृष्टि
बहुत गहरी है, कम लोगों की
ऐसी दृष्टि
होती है।
नीत्शे ने लिखा
है कि जब
मैंने
वृक्षों को
आकाश छूते
देखा तो मैंने
खोज-बीन की, तो मुझे पता
चला कि जिस
वृक्ष को आकाश
छूना हो उस
वृक्ष की जड़ों
को पाताल छूना
पड़ता है। उसने
लिखा है कि तब
मुझे खयाल आया
कि जिस
व्यक्ति को
पुण्य की
ऊंचाइयां
छूनी हों, उस
व्यक्ति के
भीतर उसकी
जड़ों को पाप
की गहराइयां
छूने की
क्षमता
चाहिए। अगर
कोई पाप का
पाताल छूने
में असमर्थ है
तो पुण्य का
आकाश भी नहीं
छू सकेगा, क्योंकि
ऊपर शिखर उतना
ही जाता है, जितनी नीचे
जड़ें जा सकती
हैं। यह हमेशा
अनुपात में
जाता है। तो
जिस घास की
जड़ें भीतर
बहुत गहरी
नहीं जातीं, वह घास उतना
ही ऊपर आता है,
जितनी जड़ें
जाती हैं।
तो
पापी की गति
तो है--बुरे की
तरफ है--लेकिन
जिस दिन अच्छे
की तरफ हो जाए, गति उसके
पास है, वह अच्छे
की तरफ भी जा
सकता है।
तो
मेरी अपनी
दृष्टि यह है
कि झूठी
नैतिकता--बाहर
से थोपी
गई--सिखाने का
परिणाम यह हुआ
कि दुनिया में
धर्म कम होता
चला गया।
अच्छा तो यही हो
कि आदमी सीधा
हो, चाहे
पापी हो, साफ
हो, बजाय
झूठे, व्यर्थ
के आडंबर
थोपने के, वैसा
ही हो जैसा है।
तो इस आदमी की
बदलाहट की बड़ी
संभावना है कि
जैसा वह है, अगर वह दुखद
है तो बदलेगा,
करेगा क्या!
लेकिन
पाखंडी आदमी
ने व्यवस्था
कर ली है, जैसा
है, वह तो
छिपा लिया है
और जैसा नहीं
है, वह
व्यवस्था कर
ली है उसने।
तो समाज से
आदर भी पाता
है, सुख भी
पाता है, सम्मान
भी पाता है; और जैसा है, वैसा वह है।
इसलिए जो गलत
होने की पीड़ा
है, वह भी
नहीं भोग
पाता। वही
पीड़ा
मुक्तिदायी
है।
तो
मेरी दृष्टि
में पाखंडी
समाज से तो
सीधा एेंद्रिक
समाज ज्यादा
अच्छा है। और
इसलिए मैं कहता
हूं कि पश्चिम
में धर्म के
उदय की
संभावना है, पूरब में अब
नहीं है। इसको
मैं जैसे
भविष्यवाणी
कह सकता हूं
कि आने वाले
सौ वर्षों में
पश्चिम में
धर्म का उदय
होगा और पूरब
में धर्म
प्रतिदिन
क्षीण होता
चला जाएगा, क्योंकि
पूरब पाखंडी
है और पश्चिम
स्पष्ट है।
पूरब एकदम
पाखंडी हो गया
है। पश्चिम
साफ है। बुरा
है तो साफ है।
यह साफ
बुरा होना
उसको पीड़ा बन
जाने वाला है।
वह पीड़ा बन गई
है और उस पीड़ा
से उसको बाहर
भी निकलना
पड़ेगा। यह
हमारा झूठा
अच्छा होना
पीड़ा भी नहीं
बनता है। हम
कहीं बाहर भी
नहीं निकलते।
असल
में पाखंडी
आदमी कुनकुनी
हालत में होता
है, ल्यूकवार्म,
कभी भाप
नहीं बनता, कभी बर्फ भी
नहीं बनता।
पापी आदमी
बर्फ भी बन सकता
है और पापी
आदमी भाप भी
बन सकता है, क्योंकि
ल्यूकवार्म
वह होता ही
नहीं, कुनकुनी
हालत में कभी
होता ही नहीं।
छोरों पर जीता
है। छोरों पर
जाने की
हिम्मत रखता
है।
तो
मेरा मानना है
कि समाज ने
नैतिक शिक्षा
देकर समाज को
तो किसी तरह
सुव्यवस्थित
कर लिया है, लेकिन
व्यक्ति की
आत्मा को भारी
नुकसान पहुंचाया
है। और यह भी
मेरा मानना है
कि समाज व्यवस्थित
है, यह
सिर्फ दिखाई
पड़ता है। अगर
व्यक्ति झूठे
हैं तो
व्यवस्था
सच्ची कैसे हो
सकती है? क्योंकि
जो व्यक्ति
झूठा है, वह
पीछे के
रास्ते से तो
वह कर ही रहा
होगा जो सामने
के रास्ते से
नहीं कर रहा
है। तो समाज
इतना ही कर
सकता है
ज्यादा से
ज्यादा कि हर
मकान के दो दरवाजे
कर देता है।
एक सामने का
दरवाजा है, जिस पर
प्रार्थनाएं,
भजन-कीर्तन
चलते हैं; एक
पीछे का
दरवाजा है, जिस पर
गाली-गलौज
चलती है।
वह
पीछे का
दरवाजा भी तो
समाज का ही
हिस्सा है, वह जाएगा
कहां? वह
उबल-उबल कर
बाहर आता रहता
है। वे पीछे
की गालियां भी
बाहर के
रास्ते पर
गूंजती ही
रहती हैं, क्योंकि
वे जाएंगी
कहां?
झूठे
चेहरे कैसे
जीए जा सकते
हैं? और जब सब
आदमी झूठे
चेहरे बनाते
हों और सबको
यह पता हो कि
सब चेहरे झूठे
हैं, तो
समाज एक
मिथ्यात्व हो
जाता है, और
कुछ भी नहीं।
इसलिए अक्सर
ऐसा हुआ है कि
धार्मिक
व्यक्ति को
असामाजिक
होना पड़ा है, क्योंकि इस
झूठे समाज में
वह राजी नहीं
हो सका है।
तो
बुद्ध अपने
भिक्षुओं को
जो नाम देते
हैं, वह है, अनागरिक।
उसको
नागरिकता छोड़
देनी पड़ी। उसे
मिथ्या समाज
की व्यवस्था
छोड़ देनी पड़ी।
तो भिक्षु का
एक नाम है, अनागरिक।
वह नागरिक
नहीं रहा है
अब।
असल
में भिक्षु या
संन्यासी या
साधु का मतलब
ही यह है कि वह
किसी अर्थों
में असामाजिक
हो गया है, समाज से
उसने नाता तोड़
लिया है, क्योंकि
समाज पाखंड का
गढ़ है।
और यह
जो झूठी
नैतिकता है, इसके भी समय
होते हैं। जब
झूठी नैतिकता
बहुत जोर
पकड़ती है तो
उसकी
प्रतिक्रिया
जोर पकड़ती है।
और झूठी
नैतिकता को
तोड़ने वाले
तत्व सक्रिय
हो जाते हैं।
जब झूठी
नैतिकता को
तोड़ने वाले
तत्व सक्रिय
होते हैं तो
अराजकता आती
है, स्वच्छंदता
आती है। जब
स्वच्छंदता
तेजी से पकड़
जाती है तो
फिर झूठी
नैतिकता को
समर्थन देने
वाले लोग खड़े
हो जाते हैं।
वे कहते हैं, यह
स्वच्छंदता
बुरी है, नैतिकता
लाओ।
यानी
मेरा मानना यह
है कि समाज का
अब तक का इतिहास
झूठी नैतिकता
यानी झूठी व्यवस्था
और अराजकता, इसके बीच
डोलता रहा है।
झूठी नैतिकता
उतनी ही खतरनाक
है, जितनी
स्वच्छंदता।
और सच तो यह है
कि झूठी नैतिकता
ही
स्वच्छंदता
पैदा करने का
कारण है। तो अब
ये बहुत दिन
हो गए इसके
बीच
डोलते-डोलते।
अब इस बात की
फिक्र हमें
करनी चाहिए कि
या तो सच्ची
नैतिकता या हम
स्वीकार कर
लें कि आदमी
अनैतिक है, तो अनैतिक
होकर कैसे
जीएं, उसका
इंतजाम कर
लें। बजाय
आदमी को झूठा
बनाने के, सच्चे
होने की पहली
आधारशिला तो
रख दें। और जो
नीति कहती है
कि सत्य कीमती
है, वह भी
अगर आदमी को
झूठा बनाने का
उपाय करती है,
तो कैसी नीति
है?
तो
मेरा कहना है
कि अगर आदमी
अनैतिक ही है
तो इसे हम
स्वीकार कर
लें और अनैतिक
आदमी कैसे जीए
इसका इंतजाम
कर लें। यह
ज्यादा अच्छा
होगा। और यह
सरलता से धर्म
की तरफ ले
जाने वाला
होगा, क्योंकि
अनैतिकता दुख
देगी ही। पाप
सुख दे ही नहीं
सकता।
प्रश्न:
मेरे
मन में आचार्य
जी एक सीधा
प्रश्न उठा
है। आप स्वयं
ब्रह्मचारी
हैं। एक
व्यक्ति
ब्रह्मचर्य
का पालन कर
रहा है--झूठा, पाखंड-रूप
ब्रह्मचर्य
का। आप में
सत्य ब्रह्मचर्य
है। आप उस
व्यक्ति को यह
मार्ग नहीं
दिखलाते कि वह
उस पाखंड
ब्रह्मचर्य
से सत्य ब्रह्मचर्य
को प्राप्त
कैसे हो, जैसे
आप स्वयं हैं।
आप उसको यह
मार्ग दिखला
रहे हैं कि वह
पाखंड
ब्रह्मचर्य
से
ब्रह्मचर्य को
छोड़ ही दे।
उलटी तरफ ले
जा रहे हैं! आप
अपनी तरफ उसको
ले जाइए।
अपनी
ही तरफ ले जा
रहा हूं। अपनी
ही तरफ ले जा
रहा हूं, क्योंकि
कामवासना
उतनी खतरनाक
नहीं है, जितना
पाखंड खतरनाक
है। क्योंकि
पाखंड मनुष्य
की ईजाद है और
कामवासना
परमात्मा की।
तो जो आदमी
पाखंडी
ब्रह्मचारी
है, आप
सोचते हैं कि
मैं उसको
ब्रह्मचर्य
से भिन्न ले
जा रहा हूं।
पाखंडी
ब्रह्मचर्य
जैसा ब्रह्मचर्य
होता ही नहीं।
पाखंड ही होता
है, भीतर
तो गहरी कामुकता
होती है।
प्रश्न:
उसे
कामवासना के
माध्यम से ही
आप तक पहुंचना
होगा, सीधा
नहीं पहुंच
सकता?
सीधा
पाखंड से कैसे
सत्य तक पहुंच
सकता है? सत्य
से ही सत्य तक
पहुंच सकता
है। कामवासना
सत्य है तो
कामवासना से
ब्रह्मचर्य
तक पहुंचा जा
सकता है, क्योंकि
ब्रह्मचर्य परम
सत्य है। वह
कामवासना की
समझ से ही
उत्पन्न
अंतिम
अनुभूति है।
लेकिन पाखंडी
ब्रह्मचर्य
जिसने पहले ही
थोप लिया है, तो पाखंड से
सत्य तक
पहुंचने का
कोई रास्ता कभी
नहीं रहा।
पाखंड छोड़ो तो
ही सत्य तक
पहुंच सकते
हो।
अब ये
दो बातें
समझने जैसी
हैं।
कामवासना व्यक्ति
के जीवन का
सत्य है, असत्य
नहीं है। इस
सत्य को समझने
से हम और बड़े सत्य
को उपलब्ध हो
सकते हैं।
यानी
ब्रह्मचर्य
जो है, वह
वासना की ही
अंतिम समझ से
हुई
निष्पत्ति है,
वह वासना के
विरुद्ध लड़ी
गई बात नहीं
है। वासना को
ही जिसने ठीक
से समझा है, जीया है, पहचाना
है, वह
धीरे-धीरे
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाता है।
लेकिन
जिस आदमी ने
वासना को जीने
से इनकार कर दिया, जानने से
इनकार कर दिया,
पहचानने से
इनकार कर दिया,
और एक झूठा
ब्रह्मचर्य
ऊपर से थोप
लिया है, पहले
तो इसके झूठे
ब्रह्मचर्य
को छुड़ाना पड़े
और इसको सच-सच
बताना पड़े कि
तुम कहां हो।
क्योंकि कोई
भी यात्रा तभी
हो सकती है, जब हम पहले
यह जान लें कि
हम कहां खड़े
हैं। अगर मैं
इस भ्रम में
हूं कि मैं
हूं तो
श्रीनगर में
और मैं भ्रम
में हूं कि
मैं बैठा हूं
हिमालय पर। तो
यात्रा शुरू
ही नहीं होती,
क्योंकि उस
हिमालय से
यात्रा शुरू
नहीं हो सकती,
जहां मैं
नहीं हूं।
यात्रा वहां
से शुरू होगी,
जहां मैं
हूं।
तो इस
व्यक्ति को
जिसका पाखंडी
ब्रह्मचर्य है, पहले तो
समझाना पड़े कि
पाखंडी
ब्रह्मचर्य
के भ्रम को तू
तोड़, सच
में तू कहां
है, उसे तू
पहचान ले। उस
बिंदु से यात्रा
शुरू हो सकती
है। लेकिन अगर
तूने कल्पना में
ऐसा मान रखा
है कि तू
ब्रह्मचर्य
को पहुंच चुका,
तो अब और
ब्रह्मचर्य
को पहुंचने का
उपाय क्या है!
पाखंड का मतलब
यह है कि आदमी
जहां नहीं पहुंचा
है, जान
रहा है, मान
रहा है कि
वहां पहुंच
गया है। और
जहां है, वहां
से इनकार कर
रहा है कि
वहां मैं नहीं
हूं।
अब मैं
साधु-संन्यासियों
को मिलता हूं
तो हैरान हो
जाता हूं।
सबके सामने तो
वे
आत्मा-परमात्मा
की बातें करते
हैं और
ब्रह्मचर्य
के गुणगान
गाते हैं, एकांत में
वे पूछते हैं
कि सेक्स से
कैसे छुटकारा
हो! अभी तक मैं
एक साधु-साध्वी
को नहीं मिला
हूं, जिसने
एकांत में
सेक्स के लिए
न पूछा हो कि
इससे कैसे
छुटकारा हो, हम जले जा
रहे हैं इस आग
में! लेकिन
व्याख्यान वे
ब्रह्मचर्य
का कर रहे हैं!
और लोगों को
समझा रहे हैं
ब्रह्मचर्य
की बातें! और
जिस ब्रह्मचर्य
की वे समझा
रहे हैं, उसे
कहीं भी--कहीं
से भी वे नहीं
छू पा रहे हैं
कि वह ब्रह्मचर्य
कहां है।
और
उसका कारण है।
उसका कारण यह
है कि पहले तो
हमारे
व्यक्तित्व
का जो सत्य है, उसे हम
पकड़ें, उसे
समझें, उससे
कोई यात्रा हो
सकती है।
जो
आदमी सेक्स को
ठीक से समझ ले, वह आदमी
ब्रह्मचारी
हुए बिना बच नहीं
सकता, उसे
ब्रह्मचर्य
की तरफ जाना
ही होगा। यानी
ऐसे कोई ले
जाएगा नहीं
उसे, उसकी
समझ, उसकी
अंडरस्टैंडिंग
यात्रा बन
जाती है।
तो जब
तुम यह कहते
हो कि मैं उसे
उलटे रास्ते, उलटे नहीं
ले जा रहा हूं
मैं, उलटे
वह जा रहा है।
और जो भी उसको
ब्रह्मचर्य समझा
रहा है, उलटा
ले जा रहा है।
वह उसको कभी
भी
ब्रह्मचर्य
की तरफ नहीं
आने देगा। अगर
ब्रह्मचर्य
की तरफ लाना
हो तो उसे
कामवासना की
पूरी समझ देनी
पड़ेगी। और
कामवासना के
जितने निहित
और गहरे छुपे
हुए तथ्य हैं,
वे सब उसे
उघाड़ने
पड़ेंगे। उसे
उस सम्मोहन को
तोड़ना पड़ेगा,
जो कामवासना
उसे दे रही
है। वह
सम्मोहन नहीं
टूटता तो कोई
फर्क नहीं
पड़ने वाला।
इतना होगा, वह बाहर से
ब्रह्मचारी
हो जाएगा और
भीतर से कामुकता
हजार गुनी
ज्यादा सघन हो
जाएगी।
यह जान
कर हैरानी
होगी तुम्हें
कि साधारण रूप
से कामुक
व्यक्ति इतना
कामुक नहीं
होता, उसकी
कामवासना कभी
होती है, कभी
नहीं होती; उसके क्षण
होते हैं।
लेकिन जो
व्यक्ति ऊपर
से ब्रह्मचर्य
थोप लेता है, वह चौबीस
घंटे कामुक
होता है। वह
एक क्षण को भी
काम से
छुटकारा नहीं
पा सकता, क्योंकि
जो उसने दबाया
है, वह
भीतर से
निकलने के
हजार उपाय
खोजता रहता है,
वह उसके सारे
चित्त को घेर
लेता है, उसके
पूरे चित्त के
रग-रेशे में
प्रविष्ट हो जाता
है।
अब यह
ध्यान देने की
बात है कि
सेक्स का अपना
एक सुनिश्चित
सेंटर है। अगर
कोई व्यक्ति
सामान्य रूप
से सेक्स जीवन
से गुजर रहा
है तो उसके मस्तिष्क
में सेक्स कभी
नहीं घुसता।
वह उस सेंटर
पर केंद्रित
होता है, सेक्स
के सेंटर के
आस-पास ही
घूमता है।
लेकिन जो
व्यक्ति
पाखंडी
ब्रह्मचर्य
को धारण कर लेता
है, वह
सेक्स के
सेंटर पर इतना
दमन डालता है
कि सेक्स की
जो प्रवृत्ति
है, वह
दूसरे
सेंटर्स में
प्रविष्ट हो
जाती है, यानी
वह उसके मन और
चेतना तक में
प्रविष्ट हो
जाती है।
वह ऐसा
ही मामला है, जैसे आपके
घर में एक
किचन है, और
किचन में धुआं
उठता है तो
आपने किचन में
धुआं के
निकलने की
व्यवस्था की
हुई है। और एक
आदमी धुआं
निकलने का
विरोधी हो जाए
और किचन से धुआं
निकलने की सब
चिमनी बंद कर
दे। तो होना
क्या है? धुआं
उठना बंद हो
जाएगा? किचन
है तो धुआं
होगा। तो अब
यह धुआं
बैठकखाने में
भी घूमेगा, अब यह घर के
दूसरे कमरों
में भी प्रवेश
करेगा, क्योंकि
किचन से तो
निकलने का
रास्ता उसने
बंद कर दिया।
तो परिणाम यह
होने वाला है,
वह पूरा घर
किचन जैसा हो
जाएगा। सब
दीवालें काली और
सब कमरों में
धुआं। और
जितना यह धुआं
बढ़ेगा, उतना
वह घबड़ाएगा, उतना जाकर
वह चिमनी को
और बंद करेगा,
क्योंकि वह
यह कहेगा कि
इसको दबाना
जरूरी है, नहीं
तो यह धुआं और
बढ़ता चला जा
रहा है। उसे
पता नहीं कि
दबाने से ही
बढ़ता चला जा
रहा है।
पशु
इतने कामुक
नहीं हैं आदमी
के मुकाबले।
और मजे की बात
है कि पशु की
कामुकता एकदम
पीरियाडिकल
है। एक वक्त
पर वह कामुक
होता है, शेष
वक्त पर
बिलकुल ही भूल
जाता है, उसमें
कोई काम होता
ही नहीं। और
उसका कुल कारण
इतना है--उसका
कुल कारण इतना
है कि पशु के
चित्त में काम
का कोई दमन
नहीं है। इसलिए
जब वह उसे
भोगता है तो
पूरा भोग लेता
है, फिर
शिथिल हो जाता
है, शांत
हो जाता है।
आदमी
जो भोग भी रहे
हैं काम को, जिनके बच्चे
भी पैदा हो
रहे हैं, उनके
मन में भी
ब्रह्मचर्य
की थोथी
धारणाएं पकड़ी
हुई हैं तो वे
भोग भी नहीं
पाते पूरा। और
जो अभोगा छूट
जाता है, वह
भोग की मांग
करता रहता है।
तो पुरुष, सिर्फ
मनुष्य चौबीस
घंटे और साल
भर कामुक है, कोई जानवर
चौबीस घंटे और
साल भर कामुक
नहीं है! फिर
भी जो लोग काम
को भोग रहे
हैं, वे
कुछ क्षण के
लिए शिथिल भी
होते हैं। एक
दफा काम का
भोग उन्होंने
किया तो कम से
कम चौबीस घंटे,
अड़तालीस
घंटे के लिए
वे विस्मृत हो
जाते हैं। लेकिन
साधु-संन्यासी
उन घंटों में
भी विस्मृत
नहीं हो पाते,
वे चौबीस
घंटे उसी रस
में डूबे हुए
हैं।
तो जो
मैं कह रहा
हूं, वह मैं यह
कह रहा हूं कि
मैं उन्हें
ब्रह्मचर्य
की तरफ ले
जाने की ही
बात कर रहा
हूं। मैं यह कह
रहा हूं कि इस
सत्य को समझो,
इससे भागो
मत, डरो मत,
भयभीत मत
होओ। इसे
पहचानो, जागो।
इसे जागोगे, पहचानोगे, समझोगे तो
यह क्षीण
होगा। और एक
घड़ी ऐसी आती है
कि पूर्ण समझ
की स्थिति में
सेक्स
रूपांतरित
होता है, उसकी
सारी शक्ति नए
मार्गों से
उठनी शुरू हो
जाती है। और
जब वह नए
मार्गों से
उठती है तो
वही शक्ति व्यक्ति
को परम
अनुभवों तक ले
जाने का कारण
बनती है।
सेक्स शक्ति
के विसर्जन का
सबसे नीचे का केंद्र
है। उसके ऊपर
और केंद्र हैं,
जिन पर अगर
शक्ति उठती
चली जाए, उठती
चली जाए, तो
जिसे हम
ब्रह्म-रंध्र
कहते हैं, वह
सेक्स की ही
ऊर्जा के
विसर्जित
होने का अंतिम
केंद्र
है--श्रेष्ठतम।
नीचे
से सेक्स
विसर्जित
होता है तो
प्रकृति में
ले जाता है और
जब
ब्रह्म-रंध्र
से सेक्स की शक्ति
विसर्जित
होती है तो
परमात्मा में
ले जाती है।
और इन दोनों
के बीच की जो
यात्रा है, वह यात्रा
वही व्यक्ति
कर सकता है, जो अत्यंत
समझपूर्वक
सेक्स की
ऊर्जा को ऊपर
उठाने के
प्रयोग में लग
जाए। यानी
मेरा कहना यह
है कि
ब्रह्मचर्य
की साधना में
सेक्स की समझ पहला
कदम है, विरोध
नहीं। जिस
ऊर्जा को हमें
ऊपर उठाना हो,
उससे लड़ कर
हम नहीं उठा
सकते। उसे समझ
कर और बड़े
प्रेमपूर्ण
आमंत्रण से ही
ऊपर उठा सकते
हैं। क्योंकि
लड़ कर तो हम दो
हिस्सों में
टूट जाते हैं।
और दो हिस्सों
में टूटे कि
हम गए।
पाखंडी
व्यक्ति
खंड-खंड हो
जाता है, कई
खंड उसमें हो
जाते हैं। और
मैं चाहता हूं
व्यक्ति हो
इंटीग्रेटेड,
अखंड, क्योंकि
अखंड व्यक्ति
ही कुछ रूपांतरण
ला सकता है।
ब्रह्मचर्य
सरल है, अगर
थोपा न जाए।
ब्रह्मचर्य
अति कठिन है, अगर थोप
लिया जाए।
तो मैं
जो कहता हूं, मैं कहता
हूं, समाज
को सिखाओ
वासना ठीक से,
समाज को
सम्यक वासना
सिखाओ, सम्यक
काम सिखाओ।
प्रश्न:
महावीर
भी यही कहना
चाहते हैं?
बिलकुल
कहेंगे ही।
इसके सिवाय
उपाय ही नहीं
है। इसके सिवाय
उपाय ही नहीं
है। क्योंकि
महावीर भी जिस
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हुए
हैं, वह
जन्मों-जन्मों
की वासना की
समझ का ही
परिणाम है।
प्रश्न:
यह
समझ जो है, वह भोग से
आएगी या बगैर
भोग के भी आ
सकती है?
बगैर
भोग से नहीं आ
सकती, कभी
नहीं आ सकती।
भोग से ही
आएगी।
प्रश्न:
पिछले
जन्म में हो
सकता है?
कभी
भी हो सकता है
वह भोग, लेकिन
आएगी भोग से
ही। क्योंकि
बिना भोग के
कैसे समझ आ
सकती है? जिस
चीज को मैंने
जाना ही नहीं,
जीया ही
नहीं, उसको
मैं समझूंगा
कैसे? समझने
के लिए मुझे गुजरना
पड़ेगा उस
मार्ग से। वह
कभी भी कोई
गुजरा हो, यह
सवाल नहीं है,
लेकिन बिना
गुजरे कभी भी
समझ नहीं आ
सकती। और बिना
गुजरने की जो
आकांक्षा है
हमारे मन में,
वह भय है, वह समझ नहीं
आने देगा। वह
डर है, वह
कहता है, जाओ
मत उधर। लेकिन
जब जाएंगे
नहीं तो
जानेंगे कैसे?
जीवन
में जो भी हम
जानते हैं, वह हम जाकर
ही जानते हैं,
बिना जाए हम
कभी नहीं
जानते। और अगर
बिना जाए कोई
रुक गया तो वह
किसी दिन जाने
की सिर्फ...।
प्रश्न:
इस
जन्म में
जिसने भोगा है, वह उस समझ को
प्राप्त हो
सकता है क्या?
बिलकुल
ही हो सकता है, कोई सवाल ही
नहीं है। यह
कोई सवाल ही
नहीं है। हम
जब भोग रहे
हैं, तभी
हम समझपूर्वक
भोग सकते हैं,
गैर-समझपूर्वक
भी भोग सकते
हैं। अगर हम
समझपूर्वक
भोगते हैं तो
हम
ब्रह्मचर्य
की तरफ जाते हैं,
अगर हम
गैर-समझपूर्वक
भोगते हैं तो
हम उसी में
परिभ्रमण
करते रहते
हैं। यानी सवाल
भोगने का नहीं
है, सवाल
जागे हुए
भोगने का है।
जो भी हम भोग
रहे हैं, वह
हम जागे हुए
भोग रहे हैं, या सोए हुए
भोग रहे हैं?
अब
सेक्स के साथ
बड़ा मजा है कि
जन्मों-जन्मों
में लोग उसे
भोगते हैं, लेकिन सोए
हुए भोगते
हैं। इसलिए
कभी भी अनुभव हाथ
में नहीं आ
पाता कुछ भी।
सेक्स के क्षण
में आदमी
बिलकुल मूरूच्छित
हो जाता है, होश ही खो
देता है। बाहर
आता है, जब
होश आता है, तब वह क्षण
निकल चुका
होता है, फिर
उस क्षण की
मांग शुरू हो
जाती है। तो
ब्रह्मचर्य
की साधना की
प्रक्रिया का
सूत्र यह है कि
सेक्स के क्षण
में जागे हुए
कैसे रहें! और
अगर आप और
क्षणों में
जागे हुए होने
का अभ्यास कर
रहे हैं तो ही
आप सेक्स के
क्षण में भी
जागे हुए हो
सकते हैं।
ठीक
ऐसा ही मृत्यु
का मामला है।
हम बहुत बार मरे
हैं, लेकिन
हमें कोई पता
नहीं कि हम
पहले कभी मरे
हैं। उसका
कारण है कि हर
बार मरने के
पहले हम मूरूच्छित
हो गए हैं। हर
बार हम मरते
हैं और मरने
के पहले ही हम मूरूच्छित
हो जाते हैं।
मृत्यु का भय
इतना ज्यादा
है कि मृत्यु
को हम जागे
हुए नहीं भोग
पाते। और एक दफा
कोई मृत्यु
में जागे हुए
गुजर जाए, मृत्यु
खतम हो गई।
क्योंकि वह
जानता है कि
यह तो अमृत हो
गया मैं, क्योंकि
मरा तो कुछ भी
नहीं, सिर्फ
शरीर छूटा और
सब खतम हो
गया। लेकिन हम
मरते हैं कई
बार, लेकिन
हर बार बेहोश
हो जाते हैं।
और जब बेहोश हो
जाते हैं, जब
हम होश में
आते हैं, तब
तक नया जन्म
हो चुका है।
तो वह
जो बीच की
अवधि है
मृत्यु से
गुजरने की, उसकी हमारे
मन में कोई
स्मृति नहीं
बनती। स्मृति
तो तब बनेगी, जब हम जागे
हुए होंगे।
जैसे एक आदमी
को बेहोश हम
श्रीनगर घुमा
कर ले जाएं, मूरूच्छित
स्ट्रेचर पर
डाला हुआ है, उसको हमने
क्लोरोफार्म
सुंघाया हुआ
है, श्रीनगर
पूरा घुमा
दें। हवाई
जहाज से
दिल्ली वापस
पहुंचा दें, वह दिल्ली
में फिर जगे।
और हम उससे
कहें कि तू श्रीनगर
होकर आया है।
वह कहे, क्या
पागलपन की बात
है! मैं यहीं
सोया था, यहीं
जागा हूं।
सिर्फ
श्रीनगर से
गुजर जाना काफी
नहीं है, होश
से गुजर जाना
जरूरी है। और
नहीं तो वह
आदमी
क्लोरोफार्म
की हालत में
श्रीनगर घूम
भी गया और फिर
दिल्ली पहुंच
कर कहेगा कि
मुझे श्रीनगर
देखना है।
मेरे मन में
तो लालसा रह
गई श्रीनगर
देखने की, वह
मैं देख नहीं
पाया। वह कैसा
है श्रीनगर!
हम
मृत्यु से मूरूच्छित
गुजरते हैं
इसलिए मृत्यु
से अपरिचित रह
जाते हैं। जो
मृत्यु से
परिचित हो जाए, वह आत्मा के अमर
स्वरूप को जान
लेता है।
हम
सेक्स से मूरूच्छित
गुजरते हैं, इसलिए हम
सेक्स से
अपरिचित रह
जाते हैं। जो
सेक्स से
परिचित हो जाए,
वह
ब्रह्मचर्य
को जान लेता
है।
यानी
यह जो मेरा
कहना है, मेरा
कहना यह है कि
किसी भी
स्थिति से अगर
हम जागे हुए
गुजरे हैं तो
सब बदल जाएगा।
क्योंकि जो हम
जानेंगे, वह
बदलाहट
लाएगा। अगर
आपने एक दफा
किसी का हाथ
पकड़ कर चूमा
है और बहुत
आनंदित हुए
हैं तो दुबारा
फिर उस हाथ को
चूमें और होश
से चूमें, जागे
हुए, कि
आनंद कहां आ
रहा है, कैसा
आनंद आ रहा है,
आ रहा है कि
नहीं आ रहा
है। और फिर
हाथ को होशपूर्वक
चूमें।
एक दिन
बुद्ध एक सड़क
से गुजर रहे
हैं, एक मक्खी
उनके कंधे पर
आकर बैठ गई।
आनंद से बातें
कर रहे हैं, ऐसे ही
मक्खी को उड़ा
दिया, फिर
एकदम रुक गए।
मक्खी तो उड़
गई, आनंद
चौंक कर खड़ा
हो गया कि वे
क्यों रुक गए।
फिर बहुत धीरे
से हाथ को ऐसा
ले गए कंधे पर!
तो
आनंद ने कहा, अब आप यह
क्या कर रहे
हैं! वह मक्खी
तो उड़ चुकी है।
बुद्ध
ने कहा, वह
जरा गलत ढंग
से उड़ा दी
मैंने। मैं
तुम्हारी
बातों में लगा
रहा और ऐसे ही
बेहोशी में
मक्खी उड़ा दी।
अब मैं जागे
हुए ऐसे उड़ा
रहा हूं, जैसे
उड़ाना चाहिए
था। यह तो
मक्खी के साथ
दुरुव्यवहार
हो गया, मूरूच्छित
दुरुव्यवहार
हो गया। अब
मैं जाग कर
उड़ा रहा हूं।
तो
किसी का हाथ
चूमा हो, बहुत
आनंद आया हो, दुबारा हाथ
पकड़ लें और अब
चूमें और पूरे
होशपूर्वक
चूमें और
देखें कि कौन
सा आनंद कहां
आ रहा है? तब
बहुत हैरान हो
जाएंगे। तब
पाएंगे, हाथ
है, ओंठ
हैं, चुंबन
भी है, आनंद
कहां है? और
यह जो अनुभव
जागा हुआ होगा
तो यह जो हाथ
का पागल
आकर्षण है, वह विलीन हो
सकता है, बिलकुल
विलीन हो सकता
है।
एक दफा
किसी भी अनुभव
से होशपूर्वक
गुजर जाएं तो
वह अनुभव की
पकड़ आप पर वही
नहीं हो सकती
फिर, जो आपकी
बेहोशी में
थी। अच्छा और
तरकीब यह है प्रकृति
की कि उसने सब
कीमती अनुभव
आपको बेहोशी
में गुजरवाने
का इंतजाम
किया हुआ है।
क्योंकि नहीं
तो आप फिर
नहीं
गुजरेंगे
उससे। और सेक्स
प्रकृति की
बड़ी गहरी
जरूरत है, वह
उसकी संतति
उत्पादन की व्यवस्था
है। तो वह
नहीं चाहती कि
आप उसको छुएं,
या उसमें आप
कुछ गड़बड़
करें। तो वहां
ले जाकर वह
आपको एकदम
बेहोशी की
हालत में कर
देती है। जिसको
आप आमतौर से
प्रेम
इत्यादि कहते
हैं, वे सब
बेहोश होने की
तरकीबें हैं
और कुछ भी नहीं,
वे
हिप्नोटाइज्ड
होने की
तरकीबें हैं,
वे
सम्मोहित हो
जाने की
तरकीबें हैं।
और जब
आप सम्मोहित
हो जाते हैं
पूरे और
बिलकुल बेहोश
हो जाते हैं
तो...। इसलिए
वेश्या के साथ
संभोग करने
में वह सुख
आपको नहीं
मिलता, जो
आपको अपनी
प्रेयसी से
संभोग करने
में मिलेगा।
और उसका कारण
है कि वेश्या
के पास आपकी मूर्च्छा
उतनी गहरी कभी
नहीं हो पाती।
क्योंकि यह तो
धंधा, सौदे
का काम है। दस
रुपए फेंक कर
संबंध बनाया है,
कोई
सम्मोहित
होने का सवाल
नहीं है बड़ा।
इसलिए वेश्या
उतनी तृप्ति
नहीं दे पाती
है, जितनी
कि प्रेयसी
देती है। उतनी
पत्नी भी नहीं
दे पाती, जितनी
प्रेयसी देती
है। क्योंकि
पत्नी के पास
भी रोज-रोज
गुजरने से मूरूच्छित
होने का उतना
कारण नहीं रह
जाता, रूटीन
काम हो गया है,
संबंध
बिलकुल
यांत्रिक हो
गया है। लेकिन
प्रेयसी के
पास आपको पहले
मूरूच्छित
होना पड़ता है
और उसे मूरूच्छित
करना पड़ता है।
वह
जिसको हम
फोर-प्ले कहते
हैं, सेक्सुअल
एक्ट से
गुजरने के
पहले का जो सब
प्रेम का
गोरखधंधा है,
वह सारा
गोरखधंधा
एक-दूसरे को मूरूच्छित
करने का उपाय
है। चूमना है,
चाटना है, गले मिलना
है, कविताएं
सुनाना है, गीत गाना है,
अच्छी-अच्छी
बातें करना है,
एक-दूसरे की
तारीफ करना, वह एक-दूसरे
को म्युचुअल
हिप्नोसिस
पैदा करने का
उपाय है। जब
वे दोनों
हिप्नोसिस
में आ गए हैं, तब फिर ठीक
है, तब फिर
वे बेहोश गुजर
सकते हैं।
यह जो
मेरा कहना है, वह मेरा
कहना कुल इतना
है कि ऐसी कोई
भी क्रिया
जिससे हम
मुक्त होना
चाहते हों, कभी भी हम मूरूच्छित
हालत में
मुक्त नहीं हो
सकते। और
पाखंड मूरूच्छित
हालत को तो
नहीं तोड़ता, उलटे भ्रम
पैदा करवा
देता है और
ऐसी गलत चीजें
हमें पकड़ा
देता है।
लेकिन हम
पकड़ते ऐसे ढंग
से हैं कि
हमें खयाल में
नहीं आता।
अब
जैसे महावीर
हैं। हम
निरंतर पूछते
हैं, ऐसा
महावीर का...?
महावीर
हैं, अगर
महावीर
स्त्रियों को
छोड़ कर जंगल
चले गए हैं तो
हमें लगता है,
अगर हमको भी
ब्रह्मचर्य
साधना हो तो
स्त्रियों को
छोड़ें और जंगल
चले जाएं। तो
हम महावीर की
बुनियादी बात
समझना भूल गए।
महावीर
इसलिए जंगल
नहीं चले गए
हैं कि स्त्रियों
को छोड़े जा
रहे हैं, महावीर
इसलिए जंगल
चले गए हैं कि
स्त्रियों में
कोई रस नहीं
रहा।
स्त्रियों को
छोड़ कर नहीं
जा रहे हैं वे,
विरस हो गई
हैं, अर्थहीन
हो गई हैं।
यानी जब
महावीर जंगल
जा रहे हैं तो
पीछे
स्त्रियों की
स्मृति नहीं
है उनके मन
में। और आप भी
जंगल जा रहे
हैं स्त्रियों
को छोड़ कर तो
जितनी स्मृति
कभी घर पर
नहीं थी, उतनी
जंगल जाते
वक्त
स्त्रियों की
स्मृति आपको
घेरे हुए है।
और आप समझ रहे
हैं कि आप वही
काम कर रहे
हैं, जो
महावीर कर रहे
हैं!
तो आप
भी जंगल में
जाकर बैठ
जाएंगे, महावीर
भी बैठ
जाएंगे।
महावीर
बैठेंगे तो स्वयं
में खो जाएंगे,
आप आंख बंद
करेंगे तो
स्त्रियों
में खो जाएंगे।
और आप लड़ाई
लड़ेंगे कि यह
तो महावीर ने
भी यही किया, जो हम कर रहे
हैं। सारी
हमारी कठिनाई
जो है न कि ऊपर
का रूप हमें
दिखाई पड़ता
है। महावीर
जंगल जाते
दिखाई पड़ते
हैं, महावीर
के भीतर क्या
घटना घटी, यह
हमें दिखाई ही
नहीं पड़ता। और
वह हमें दिखाई
पड़ जाए तो बिलकुल
बात और होगी, बिलकुल बात
और होगी।
बिना
अनुभव के कोई
मुक्ति नहीं
है। पाप के
अनुभव के बिना
पाप से भी
मुक्ति नहीं
है। इसलिए भयभीत
होकर जो पाप
से रुका हुआ
है, वह पाप से
मुक्त नहीं
होगा। वह
सिर्फ पाप
करने की शक्ति
अर्जित कर रहा
है दबा-दबा कर,
और आज नहीं
कल, वह पाप
कर देगा। और
पाप करके
पछताएगा, पछता
कर वह फिर दमन
करने लगेगा, दमन करके वह
फिर पाप करेगा,
और फिर
पछताएगा। और
एक वीसियस
सर्कल है--पाप,
पश्चात्ताप;
पाप, पश्चात्ताप--घूमता
रहेगा।
मैं
कहता हूं, पश्चात्ताप
भूल कर मत
करना कभी, पश्चात्ताप
की जरूरत ही
नहीं है।
पश्चात्ताप
का मतलब है, पाप पहले हो
गया, पीछे
फिर आप
पश्चात्ताप
कर रहे हैं।
मैं
कहता हूं, जान कर पाप
करना, होश
से पाप करना, पूरे जागे
हुए पाप करना।
जो भी करना हो,
पूरे जागे
हुए करना।
किसी को गाली
भी देना हो तो
पूरे जागे हुए
देना। तो शायद
दुबारा गाली देने
का मौका न आए
और
पश्चात्ताप
की भी कोई जरूरत
न पड़े।
एक
फकीर ने लिखा
है कि उसका
बाप मर रहा
था। बूढ़े बाप
के पास वह
बैठा था--तब
उसकी उम्र कोई
पंद्रह-सोलह
साल की
थी--मरते हुए
बाप ने उसके
कान में कहा
कि तू एक ही
ध्यान रखना, किसी भी बात
का जवाब चौबीस
घंटे के पहले
मत देना। और
जिंदगी भर का
मेरा अनुभव
तुझे एक ही सूत्र
में कहे जाता
हूं--किसी भी
बात का जवाब
चौबीस घंटे के
पहले देना ही
मत। इतना तू
खयाल रखना।
उस
फकीर ने, जब
वह बड़ी शांति
को उपलब्ध हुआ
और लोगों ने
उससे पूछा कि
तुम्हारा राज
क्या है? तो
उसने कहा, राज
बड़ा अदभुत है।
मेरा बाप मर
रहा था और
उसने मुझसे
कहा कि चौबीस
घंटे के पहले
तुम किसी का जवाब
ही मत देना।
अगर किसी
स्त्री ने
मुझसे कहा कि
मैं तुझे बहुत
प्रेम करती
हूं तो मैं
चौबीस घंटे तो
चुप ही रहा।
चौबीस घंटे
बाद गया, तब
तक तो खतम ही
हो चुका था।
क्योंकि वह
स्त्री तो
विदा ही हो
चुकी थी दिमाग
से ही उसके।
उसने
कहा कि यह
क्या बात है!
हम जब कहे तब
तो तुम कुछ
उत्तर नहीं
दिए! अब आए हो
जब कि सब उसका
तो नशा ही जा
चुका था। किसी
ने गाली दी तो
वह चौबीस घंटे
बाद जवाब देने
गया कि भई वह
तुमने जो गाली
दी थी, उसका
हम जवाब देने
आए। उस आदमी
ने कहा कि
लेकिन अब तो
सब बात ही खतम
हो गई। अब
क्या बात! अब
तुम क्या जवाब
दे रहे हो?
तो उस
आदमी ने लिखा
है कि मैं जब
भी चौबीस घंटे
बाद गया, मैंने
पाया कि मैं
हमेशा लेट
पहुंचता हूं।
ट्रेन छूट
चुकी है। वह
तो टे्रन जा
चुकी थी, वह
तो उसी वक्त
हो सकता था।
और उसी वक्त
अगर होता तो मूरूच्छित
होता और चौबीस
घंटे
सोच-विचार के
बाद जब हुआ तो
बड़ा जाग्रत
था। तो उसने
कहा कि कई दफे
तो मैं यह
कहने गया कि
भई तुमने गाली
बिलकुल ठीक दी
थी। चौबीस
घंटे सोचा तो
पाया कि तुमने
जो कहा था, वह
बिलकुल ही ठीक
कहा था कि तू
बेईमान है।
मैं बेईमान
हूं।
प्रश्न:
यह
पाखंड नहीं
हुआ?
न।
प्रश्न:
यह
पाखंड नहीं
हुआ?
ये
चौबीस घंटे...।
प्रश्न:
दबाया
उसने उसको?
न, दबाने की
बात नहीं है।
अगर दबाए
चौबीस घंटे, तब तो गाली
और मजबूत होकर
आएगी। चौबीस
घंटे समझने की
कोशिश की कि
क्या उत्तर देना
है उस आदमी को?
उसके बाप ने
कहा यह है कि
कोई तुम्हें
गाली दे तो
मना नहीं करता
कि तू गाली मत
देना। अगर बाप
यह कहता कि तू
गाली देना ही
मत, चौबीस
घंटे बाद
क्षमा मांगना,
तब तो बात
उलटी हो जाती,
तब तो वह
गाली को दबाता।
उसके बाप ने
कहा, गाली
जरूर देना, चौबीस घंटे
बाद देना।
लेकिन चौबीस
घंटे समझ लेना
कि कौन सी
गाली देनी है,
कौन सी, कितने
वजन की देनी
है, देनी
है कि नहीं
देनी है, उसकी
गाली का मतलब
क्या है। बाप
ने यह नहीं कहा
कि सप्रेस
करना। अगर बाप
यह कहता कि
चौबीस घंटे बाद
क्षमा मांगने
जाना तो शायद
वह दमन करता।
उससे कहा था, तू गाली
देना मजे से, लेकिन चौबीस
घंटे बाद!
इतना अंतराल
छोड़ देना।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि कोई
भी बुरा काम
अंतराल पर
नहीं किया जा
सकता, तत्काल
ही किया जा
सकता है।
क्योंकि
अंतराल में
समझ आ जाती है,
होश आ जाता
है, खयाल आ
जाता है।
डेल
कार्नेगी ने
एक अनुभव लिखा
है। उसने लिखा
है कि लिंकन
पर उसने एक
भाषण दिया
रेडियो से और
जन्मतिथि गलत
बोल गया। तो
उसके पास कई
पत्र पहुंचे
गुस्से के कि
तुमको
जन्मतिथि तक
मालूम नहीं है
तो तुम भाषण
काहे के लिए
दिए? और एक
स्त्री ने
उसको, किसी
गांव से
अमरीका के, बहुत ही
सख्त पत्र
लिखा, जिसमें
जितनी
गालियां वह दे
सकती थी, उसने
दीं। उसको बड़ा
क्रोध आया
कार्नेगी को।
उसने उसी वक्त
रात को उठ कर
जवाब लिखा
उसका--पत्र।
तो जैसी
गालियां उसने
दी थीं, उससे
दुगुनी वजन की
गालियां उसने
दीं। लेकिन रात
हो गई थी देर
और नौकर चला
गया था तो डाक
डाली नहीं जा
सकती थी। उसने
चिट्ठी दबा कर
रख दी।
सुबह
उठा, लिफाफे
में रखता था, सोचा एक दफा
पढ़ लूं। लेकिन
अब बारह घंटे
का फर्क पड़
गया था।
चिट्ठी पढ़ी तो
उसे लगा जरा
ज्यादती हो
रही है चिट्ठी
में। उसकी
चिट्ठी दुबारा
पढ़ी तो उतनी
सख्त नहीं
मालूम पड़ी, जितनी बारह
घंटे पहले
मालूम पड़ी थी,
क्योंकि अब
दुबारा पढ़ी
थी। और अपनी
चिट्ठी पढ़ी तो
लगा कि जरा
ज्यादा सख्त
उत्तर हो गया
है, दूसरा
लिखूं।
दूसरा
उत्तर लिखा, वह पहले से
ज्यादा
विनम्र था।
लिखते वक्त
उसे खयाल आया
कि बारह घंटे
और रुक कर
देखूं कि कोई
फर्क पड़ता है
क्या। क्योंकि
बारह घंटे में
इतना फर्क पड़
गया। तो उसने
पहली चिट्ठी
तो फाड़ कर
फेंक दी, दूसरी
चिट्ठी दबा कर
रख दी।
सांझ
को जब दफ्तर
से लौटा, उस
पत्र को पढ़ा, उसने कहा
अभी भी उसमें
कुछ बाकी रह
गई है चोट। फिर
पत्र तीसरा
लिखा। पर उसने
कहा, इतनी
जल्दी भी
क्या। उस औरत
ने कोई मांग
तो की नहीं।
कल सुबह तक और
प्रतीक्षा कर
लें। वह सात
दिन तक निरंतर
यह करता रहा।
सातवें
दिन उसने जो
पत्र लिखा, वह पहले
पत्र से
बिलकुल ही
उलटा था। पहला
पत्र सख्त
दुश्मनी का था,
सातवें दिन
पत्र बिलकुल
मित्रता का था।
वह पत्र उसने
लिखा। लौटती
डाक से उसका
उत्तर आया। उस
स्त्री ने बड़ी
क्षमा मांगी
कि मुझसे बड़ी
भूल हो गई, क्योंकि
उसको भी वक्त
गुजर गया था।
अगर यह गालियां
देता तो उसको
क्षमा का मौका
भी नहीं मिलने
वाला था। वह
फिर गाली
देती।
और तब
डेल कार्नेगी
ने लिखा है कि तब
से मैंने नियम
बना लिया कि
किसी भी पत्र
का उत्तर सात
दिन से पहले
देना ही नहीं
है।
मेरा
मतलब समझ रहे
हैं न? इससे
होता क्या है,
उतना जो
वक्त है, उसकी
इंटेंसिटी, आपके दिमाग
का पागलपन, वह सब क्षीण
हो जाता है, और क्षण
सोचने के
ज्यादा मौके
मिल जाते हैं।
बर्नार्ड शा
कहता था कि
मैं पंद्रह
दिन के पहले
किसी पत्र का
उत्तर देता
नहीं।
प्रश्न:
यह
निगेटिवली
बराबर है, पाजिटिवली
नहीं। वह भी
रिजिडिटी हो
गई न?
नहीं, नहीं, यह
सवाल नहीं है
कि सात ही दिन
आप करेंगे। यह
सवाल नहीं है,
एक अंतराल
चाहिए बीच
में।
प्रश्न:
विचार
चाहिए?
हां, एक विचार का
मौका चाहिए।
नहीं तो होता
क्या है, हम
बिना विचार के
उत्तर दे रहे
हैं। ऐसा नहीं
है कि आप भी
सात दिन का
नियम बना लें।
प्रश्न:
उसने
किया सात दिन?
उसके
लिए लगा कि
सात दिन में
उसका माइंड
रिलैक्स हो
जाता है।
प्रश्न:
कोई
ऐसा भी होता
है, चौबीस
घंटे में भी
हो सकता है?
हो
सकता है, आदमी-आदमी
का अलग-अलग
होगा, आदमी-आदमी
का अलग-अलग
होगा।
प्रश्न:
और
उसका वह
प्रसंग भी ऐसा
हो, वह
प्रसंग में
सात दिन और
कोई प्रसंग
में बारह घंटा
भी हो सकता है?
हो
सकता है, बिलकुल
हो सकता है।
प्रश्न:
तो
इसमें वह
रिजिडिटी का...?
न-न!
रिजिडिटी
का...सात दिन
में नुकसान तो
हो ही नहीं
रहा है कुछ।
नुकसान तो कुछ
होना नहीं है।
प्रश्न:
आप
उतनी शांति से
अभी दे सकते
हैं, यह भी
हो सकता है?
हां, हां। बिलकुल
हो सकता है, बिलकुल हो
सकता है। कोई
नुकसान तो हो
ही नहीं रहा
है उसमें।
खयाल उसका जो
है, वह कुल
जमा इतना है
कि अंतराल का
एक तय कर लिया कि
तत्काल उत्तर
नहीं देना है,
क्योंकि
तत्काल उत्तर मूर्च्छा
से आ सकता है।
ऐसा जरूरी
नहीं है। अगर
आदमी जाग्रत
हो तो तत्काल
उत्तर भी मूर्च्छा
से नहीं आता
है, यह
सवाल ही नहीं
है। लेकिन हम
चूंकि जाग्रत
नहीं हैं, इसलिए
सवाल है।
तो मैं
बर्नार्ड शा
का कह रहा था, वह निरंतर
पंद्रह दिन के
पहले उत्तर ही
नहीं देता था।
और तब उसने
कहा कि पंद्रह
दिन तक उत्तर
न देने पर कुछ
पत्र तो ऐसे
हैं, जो
खुद ही अपना
उत्तर दे देते
हैं, देने
की जरूरत ही नहीं
पड़ती। यानी
उनको अगर पहले
दिन देना है
तो देना पड़ा
होता, पंद्रह
दिन में वे
अपना जवाब खुद
ही दे देते हैं,
कि जवाब
नहीं आ रहा।
यानी कुछ से
तो छुटकारा हो
जाता है; कुछ
जो बचते हैं, बहुत कम
बचते हैं, जिनका
उत्तर फिर
देने की जरूरत
पड़ती है।
मेरा
मतलब केवल
इतना है कि
हमारा कोई भी
अनुभव जितना
जागरूक हो सके, विचारपूर्ण
हो सके, समझपूर्वक
हो सके, उतना
अच्छा है; दमन
का सवाल नहीं
है। और इसलिए
मेरी निरंतर
यह चेष्टा है
कि अनैतिक
व्यक्ति को
जितना बुरा कहा
गया है, वह
कहना गलत है।
और नैतिक
व्यक्ति को
जितना भला कहा
गया है वह
कहना भी गलत
है। मेरी समझ
यह है कि जीवन
की व्यवस्था
ऐसी होनी
चाहिए कि
व्यक्ति को
सरल और सहज
होने का उपाय
और मौका हो।
उसकी न तो
निंदा हो, न
उसका दमन हो, न उसको
जबरदस्ती
ढालने-बदलने
की चेष्टा हो।
लेकिन समझने
का विज्ञान और
व्यवस्था
समाज उसे देता
हो। शिक्षा
उसे समझने का
मौका देती हो।
एक
बच्चा स्कूल
में गया, हम
उससे कहते हैं,
क्रोध मत
करो, क्रोध
बुरा है। हम
दमन सिखा रहे
हैं। सच्चा और
अच्छा स्कूल
उसे सिखाएगा
कि क्रोध करो,
लेकिन जागे
हुए कैसे करो,
इसकी हम विधि
बताते हैं।
क्रोध जरूर
करो, लेकिन
जागे हुए करो,
जानते हुए
करो, क्रोध
को पहचानते
हुए करो। हम
क्रोध के
दुश्मन
तुम्हें नहीं
बनाते, केवल
तुम्हें हम
समझदार क्रोध
करना सिखाते हैं।
ऐसी अगर
व्यवस्था हो
तो यह व्यक्ति
धीरे-धीरे
क्रोध के बाहर
हो जाएगा, क्योंकि
समझपूर्वक
कोई कभी क्रोध
नहीं कर सकता
है।
तो
मेरी बात कई
दफा उलटी
दिखती है। कई
दफा ऐसा लगता
है इससे
स्वच्छंदता
फैल जाएगी, अराजकता फैल
जाएगी। लेकिन
अराजकता फैली
हुई है, स्वच्छंदता
फैली हुई है।
मैं जो कह रहा
हूं उसके
द्वारा ही
स्वच्छंदता
मिटेगी, अराजकता
मिटेगी।
और
जैसा तुमने कल
कहा कि मेरी
बातों से कई
दफे ऐसा हो
सकता है कि
साधारण आदमी
भ्रमित हो जाए, गलत रास्ते
पर चला जाए।
इस सबमें एक
बात तुमने मान
ही ली है कि
साधारण आदमी
ठीक रास्ते पर
है। अगर यह
मान कर चलोगे
तब तो हो सकता
है। यानी मैं
तो कहता ही
हूं कि साधारण
आदमी साधारण
ही इसलिए बना
हुआ है कि वह
गलत रास्ते पर
है, नहीं
तो कोई आदमी
ऐसा नहीं है
जो असाधारण
क्यों न हो
जाए। वह
साधारण बना ही
रहेगा। जिन
रास्तों पर वह
चल रहा है, वे
रास्ते ही उसे
साधारण बना
रहे हैं। यानी
आमतौर से लोग
समझते हैं कि
साधारण आदमी
एक रास्ते पर चल
रहा है। मैं
मानता हूं कि
रास्ते
साधारण या
असाधारण
बनाते हैं।
जिस रास्ते पर
हम चल रहे हैं
वे साधारण
बनाने वाले
हैं, वे
हमें साधारण
बना देते हैं।
और वे रास्ते
भी हैं, जो
असाधारण बना
सकते हैं, पर
उन पर हम
चलेंगे तभी न!
समाज
चाहता ही नहीं
कि असाधारण
व्यक्ति हों।
समाज साधारण
व्यक्ति
चाहता है।
क्योंकि
साधारण
व्यक्ति
खतरनाक नहीं
होते, साधारण
व्यक्ति
विद्रोही
नहीं होते, साधारण
व्यक्ति
अद्वितीय
नहीं होते।
साधारण
व्यक्ति
व्यक्ति ही
नहीं होते, साधारण
व्यक्ति
सिर्फ भीड़
होते हैं।
समाज चाहता है
भीड़, उसमें
कोई स्वर नहीं
होना चाहिए
किसी के पास।
नेता चाहते
हैं भीड़, गुरु
चाहते हैं भीड़,
शोषक चाहते
हैं भीड़। वे
कहते हैं
क्राउड चाहिए,
जिसमें कोई
व्यक्तित्व न
हो। तो उस भीड़
का उतना ही
शोषण किया जा
सकता है।
और मैं
कहता हूं कि
चाहिए
व्यक्ति, क्योंकि
भीड़ की कभी
आत्मा पैदा
नहीं होती। और
एक ऐसी दुनिया
बनाने की
जरूरत है, एक
ऐसा समाज, जहां
व्यक्ति हों।
और व्यक्ति
अलग-अलग होंगे,
अलग-अलग
रास्तों पर
चलेंगे।
लेकिन यही तो
व्यवस्था
होनी चाहिए कि
अलग-अलग
रास्तों पर
चलने वाले लोग,
अलग-अलग
व्यक्तित्व
वाले लोग भी
एक-दूसरे के प्रति
कैसे
प्रेमपूर्ण
हो सकें!
वोल्तेयर
के खिलाफ एक
आदमी था और
उसने वोल्तेयर
को इतनी
गालियां दीं
और इतनी
किताबें उसके खिलाफ
लिखीं कि
वोल्तेयर को
नाराज हो ही
जाना चाहिए।
एक दिन रास्ते
पर वोल्तेयर
को मिल गया तो
वोल्तेयर से
उसने कहा कि
महाशय, आप
तो चाहते
होंगे कि मेरी
गर्दन कटवा
दें, क्योंकि
मैं तो आपके
खिलाफ ऐसी
बातें कह रहा
हूं।
वोल्तेयर ने
कहा, क्या
तुम कहते हो, तुम्हारी
गर्दन कटवा
दूं! नहीं, अगर
तुम मुझसे
पूछोगे तो तुम
जो कह रहे हो
उसे कहने का
तुम्हारा हक
है और अगर इस
हक के लिए मुझे
अपनी जान
गंवानी पड़े तो
मैं अपनी जान
गंवा दूंगा।
तुम जो कह रहे
हो, उसे
कहने का
तुम्हें हक है
और इस हक को
बचाने के लिए
अगर जरूरत पड़े
मुझे जान
गंवाने की तो
मैं जान गंवा
दूंगा।
हालांकि तुम
जो कह रहे हो, वह गलत है, और उसे गलत
कहने का हक
मैं बचाऊंगा
और चाहूंगा कि
तुम मेरे हक को
बचाने के लिए
जान देने के
लिए तैयार
रहना।
आप
मेरा मतलब
समझे न? यानी
हमारा
भिन्न-भिन्न
होने का सवाल
नहीं है, सवाल
हमारी
भिन्नता की
स्वीकृति का
है। अभी जो
समाज हमने
पैदा किया है,
वह भिन्नता
को स्वीकार
नहीं करता। वह
या तो भिन्नता
का अनादर
करेगा, अपमान
करेगा; या
पूजा करेगा, सम्मान
करेगा; स्वीकार
नहीं करेगा।
यानी या तो वह
भिन्नता को
कहेगा कि यह
बिलकुल गलत
है। और जो
भिन्नता नहीं
मानेगा कोई
व्यक्ति, भिन्न
रहता ही चला
जाएगा, तो
फिर कहेगा, भगवान है।
मगर कभी
स्वीकार नहीं
करेगा कि हमारे
बीच में है।
अच्छी
दुनिया वह होगी, जहां
भिन्नता
स्वीकृत होगी;
एक-एक
व्यक्ति का
अद्वितीय
होना, यूनीक
होना स्वीकृत
होगा। और हम
एक-दूसरे की भिन्नता
को आदर देना
सीखेंगे। अभी
हम क्या करते
हैं?
अभी हम
यह करते हैं
कि जो हमसे
राजी है, वह
ठीक; जो
हमसे राजी
नहीं है, वह
गलत। यह बड़ी
अजीब बात है! यह
बहुत हिंसक
भाव है कि जो
मुझसे राजी है
वह ठीक, जो
मुझसे राजी है,
मतलब जिसका
कोई
व्यक्तित्व
नहीं है, मैं
जिसे पी गया
पूरी तरह, वह
ठीक, और जो
मुझसे राजी
नहीं है वह
गलत। यह बहुत
ही शोषक, पजेसिव
वृत्ति है।
इसको मैं
हिंसा ही
मानता हूं।
और
इसलिए मैं
मानता हूं कि
जो गुरु
अनुयायी
इकट्ठे करते
फिरते हैं, ये हिंसक
वृत्ति के लोग
हैं। ये कहते
हैं हमारे साथ
एक हजार लोग
राजी हैं, एक
हजार लोग मुझे
मानते हैं।
यानी एक हजार
लोगों को
इन्होंने
मिटा दिया है।
एक हजार लोगों
के ऊपर यही
बैठे रह गए
हैं। दस हजार
हैं तो इनको और
मजा आता है, करोड़ हैं तो
और मजा आता
है। क्योंकि
इतने लोगों को
इन्होंने
बिलकुल पोंछ
कर मिटा दिया।
ये खतरनाक लोग
हैं।
अच्छा
आदमी यह नहीं
चाहता कि आप
उससे राजी हो जाएं, अच्छा आदमी
यह चाहता है
कि आप भी
सोचना शुरू करें।
हो सकता है
सोचना आपको
मुझसे बिलकुल
भिन्न ले जाए।
और
मेरा तो
निरंतर जोर यह
है, मैं यह
नहीं कहता कि
जो मैं कहता
हूं, वह
मान लें। मेरा
जोर यह है कि
आप भी इस
भांति सोचना
शुरू करें। हो
सकता है, सोच
कर आप उस जगह
पहुंचें, जहां
मैं कभी भी
आपसे राजी न
होऊं, या
आप मुझसे राजी
न हों, लेकिन
आप सोचना शुरू
कर दें।
जीवन
में सोचना
शुरू हो, जागना
शुरू हो, दमन
बंद हो, अनुगमन
बंद हो, तो
प्रत्येक
व्यक्ति को
आत्मा मिलनी
शुरू होती है।
और आत्मा
प्रत्येक को
असाधारण बना
देती है। अभी
हमारे पास कोई
आत्मा ही नहीं
होती, तब
हम साधारण
होते हैं।
और फिर
मुझे इससे
चिंता नहीं
पकड़ती कि साधारण
आदमी भटक
जाएगा, क्योंकि
मैं मानता हूं
साधारण आदमी
भटका ही हुआ
है, अब और
उसके भटकने का
कोई उपाय नहीं
है। क्या भटकेगा
और? साधारण
आदमी है कहां?
तो उसे तो
अगर हम भटका
दें अब, तो
वह ठीक रास्ते
पर पहुंच जाए।
क्योंकि भटका हुआ
आदमी अगर भटक
जाए अपने
रास्ते से तो
शायद ठीक
रास्ते पर आ
जाए। डबल
निगेशन हो जाता
है न!
प्रश्न:
अनुगमन
का क्या अर्थ
है?
फालोइंग, पीछे चलने
वाला।
प्रश्न:
मुझे
एक बहुत मोटा
सा प्रश्न
पूछना है।
हां, हां, आप
प्रश्न कर
डालें।
प्रश्न:
और
वह यह कि जो
कुछ आपने कहा, क्या इसका
यह अर्थ होगा
कि जो लोग
आपके विचार
सुनें या पढ़ें,
और उनमें जो
जैन श्रावक के
व्रतों का या
जैन साधु के
व्रतों का
पालन कर रहे
हैं, उन्हें
सत्य की
प्राप्ति के
लिए पहले वह
अपने व्रत तो
छोड़ ही देने
होंगे, तब
ही कुछ हो
पाएगा। यानी
सारा जैन समाज,
जो श्रावक
वर्ग और साधु
वर्ग का है, वह अपने
व्रतों को
पहले छोड़े, तब सत्य को
पाए? एक तो
यह और दूसरा
उसके साथ ही
जुड़ा हुआ यह
भी प्रश्न, कि क्या इन
पच्चीस सौ
वर्षों में
जिन्होंने इन
व्रतों का
पालन किया
श्रावक या
साधु के, सबके
सब पाखंडी ही
थे, कोई
उनमें सत्य
होने की
संभावना नहीं
है?
नहीं, कभी संभावना
नहीं है। असल
में व्रत
पालने वाला
कभी भी पाखंडी
होने से नहीं
बच सकता है।
व्रती पाखंडी
होगा ही। उसका
कारण है। उसका
कारण यह नहीं
है कि पच्चीस
सौ वर्ष कि
पच्चीस हजार वर्ष,
यह सवाल
नहीं है। सवाल,
व्रत को
पकड़ता ही वही
है, जो
भीतर सोया हुआ
है। जो भीतर
जग गया है, वह
व्रत को नहीं
पकड़ता, व्रत
आते हैं उसके
जीवन में।
प्रश्न:
उनमें
कोई व्यक्ति
ऐसा रहा हो, यह संभव
नहीं है क्या?
असंभव
ही है न! यह तो
ऐसा है जैसे
कि कोई आदमी
कहे कि कोई
आदमी आंख फोड़
ले तो फिर उसे
दिखाई पड़ सकता
है कि नहीं? मेरी बात
समझ लें। तो
मैं यह कहूंगा
कि चाहे
पच्चीस सौ साल
तक फोड़े कोई
आंख, चाहे
पच्चीस हजार
साल तक फोड़े, आंख फोड़ कर
फिर दिखाई
नहीं पड़ेगा।
और आंख फोड़ता
ही वही है, जिसे
दिखाई पड़ने से
डर पैदा हो
गया है, देखना
नहीं चाहता।
व्रत
का मतलब क्या
है? व्रत का
मतलब है, आपकी
चित्त-दशा एक
है, जिसके
विपरीत आप
व्रत ले रहे
हैं। व्रत
यानी दमन का
नियम। मैं
कामवासना से
भरा हूं, ब्रह्मचर्य
का व्रत लेता
हूं; हिंसा
से भरा हूं, अहिंसा का
व्रत लेता हूं;
परिग्रह से
भरा हूं, अपरिग्रह
का व्रत लेता
हूं।
व्रत
परिग्रह का तो
नहीं लेना
पड़ता किसी को, न हिंसा का
लेना पड़ता है,
न कामवासना
का लेना पड़ता
है। क्योंकि
जो हम हैं, उसका
व्रत नहीं
लेना पड़ता; जो हम नहीं
हैं, उसका
व्रत लेना
पड़ता है। तो
व्रत का मतलब
यह हुआ कि जो
मैं हूं, वह
उलटा हूं; और
उससे ठीक
भिन्न, उलटा
व्रत ले रहा
हूं। उस व्रत
को बांध कर
मैं अपने को
बदलने की
कोशिश
करूंगा।
निश्चित
ही व्रत दमन
लाएगा, सप्रेशन
लाएगा। मेरा
मन तो है लोभ
का कि मैं करोड़
रुपए कमा लूं
और व्रत लेता
हूं कि मैं एक
लाख रुपए की
ही सीमा
बांधता हूं।
और मेरा मन है करोड़
वाला। तो मेरे
करोड़ वाले मन
को मैं लाख
वाली सीमा में
बांधने की, दबाने की
चेष्टा
करूंगा। इस
चेष्टा का एक
ही परिणाम हो
सकता है कि
मेरा लोभ
दूसरी जगह से
प्रकट होना
शुरू हो। जैसे
मेरा मन कहे
कि अगर लाख पर
तुम रुक गए तो
स्वर्ग में
तुम्हें जगह
मिलेगी।
यह लोभ
का नया रूप
हुआ। लोभ करोड़
का था, लाख
पर बांधने की
कोशिश की तो
उसकी धाराएं
टूट गईं। अब
वह स्वर्ग में
मांग करने लगा
कि वहां अप्सराएं
कैसी मिलेंगी,
कल्पवृक्ष
कैसा मिलेगा,
मकान कैसा
होगा, भगवान
के पास होगा
कि दूर होगा!
प्रश्न:
पर
व्रती को
निःशल्य तो
होना ही है, यह उसकी
कंडीशन है।
नहीं-नहीं।
असल में व्रती
निःशल्य हो ही
नहीं सकता, क्योंकि
व्रत खुद ही
एक शल्य है।
व्रत से बड़ी शल्य
नहीं है कोई
और। अव्रती
निःशल्य हो
सकता है, व्रती
कभी निःशल्य
नहीं हो सकता।
शल्य तो लगी है
न पीछे! कांटा
चुभा है छाती
में। अब एक
स्त्री निकल
रही है, वह
अपनी पत्नी
नहीं तो उसको
देखना नहीं, वह चाहे
कैसी ही हो।
तो अब यह...और जो
चुपचाप देख लेता
है, वह
शायद कम शल्य
से भरा हुआ है,
कांटा कम है
उसके चित्त
में। लेकिन जो
आंख बंद करके
डर कर बैठ
जाता है कि
हमने तो व्रत
लिया है कि
अपनी पत्नी के
सिवा किसी का
चेहरा नहीं
देखना है।
उसको तो एक
कांटा चुभा ही
हुआ है चौबीस
घंटे।
तो
व्रती तो
निःशल्य हो ही
नहीं सकता, अव्रती
निःशल्य हो
सकता है।
लेकिन मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि अव्रती
होने से ही
निःशल्य कोई
हो जाएगा।
अव्रती होना
हमारी जीवन की
स्थिति है।
अव्रती दशा
में जागना
हमारी साधना
है। अव्रती
हालत में दो
उपाय हैं, अव्रती
स्थिति में दो
मार्ग हैं--या
तो अव्रती
स्थिति को
व्रत लेकर
तोड़ो, लेकिन
तब भीतर जागने
की कोई जरूरत
नहीं पड़ती। दूसरा
रास्ता यह है
कि अव्रती
स्थिति के
प्रति जागो, ताकि अव्रती
स्थिति विदा
हो जाए। तब जो
व्रत से तुम
मांग करते थे,
वह आएगा, वह तुम्हें
लाना नहीं
पड़ेगा।
जैसे, जैसे मैंने
उदाहरण के लिए
अभी कहा कि
सेक्स हमारी
स्थिति है, ब्रह्मचर्य
हमारा व्रत
है। सेक्स के
प्रति जागना
साधना है। जो
व्यक्ति
सेक्स की
स्थिति को
अस्वीकार
करेगा
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेकर,
उसका सेक्स कभी
मिटने वाला
नहीं है। व्रत
बाहर खड़ा
रहेगा, सेक्स
भीतर खड़ा हो
जाएगा। दमन हो
जाएगा। और जो
व्यक्ति
ब्रह्मचर्य
का कोई व्रत
नहीं लेता, सिर्फ सेक्स
की
वस्तुस्थिति
को समझने की
साधना, प्रयोग
करता है, ध्यान
करता है सेक्स
को ही समझने
का, धीरे-धीरे
सेक्स विदा
होता है और
ब्रह्मचर्य
आता है। यानी
ब्रह्मचर्य तुम्हारे
व्रत की तरह
कभी नहीं आता,
ब्रह्मचर्य
तुम्हारी समझ
की छाया की
तरह आता है।
और जब आता है
तो तुम्हें
कसम नहीं खानी
पड़ती किसी
मंदिर में
जाकर कि मैं
ब्रह्मचर्य
धारण रखूंगा।
क्योंकि कोई
सवाल ही नहीं
है, आ गया
है। इसके लिए
कोई कसम की
जरूरत नहीं
है। और जिसकी तुम
कसम खाते हो, उससे तुम
सदा उलटे होते
हो। और जो तुम
होते हो, उसकी
तुम्हें कभी
कसम नहीं खानी
पड़ती है।
प्रश्न:
नहीं, पर इतने
लंबे काल में
जो साधक हुए
उनमें कोई ऐसा
साधक न हुआ हो,
जिसका सहज
फलित
ब्रह्मचर्य
हो?
हां, वह बिलकुल
अलग बात है, उसको मैं
व्रती कह नहीं
रहा। जैसे
कुंदकुंद...।
प्रश्न:
हां, यही मेरा
प्रश्न है।
न, न। यह तो
प्रश्न
बिलकुल दूसरा
हो गया। तुम
जब कह रहे हो
कि पच्चीस सौ
साल में व्रती,
व्रती तो
कभी नहीं, चाहे
पच्चीस सौ
नहीं पच्चीस
हजार साल में हो,
उससे कोई
सवाल नहीं
उठता। व्रती
तो कभी नहीं पहुंचता।
जो पहुंचता है
वह सदा अव्रती,
प्रज्ञावान
व्यक्ति होता
है।
प्रश्न:
पर
इनमें कुछ लोग
ऐसे हैं!
हैं
न। जैसे
कुंदकुंद।
प्रश्न:
यही
मेरा मतलब है।
कुंदकुंद
ऐसा व्यक्ति
है, जैसा
महावीर।
कुंदकुंद
वैसा ही
व्यक्ति है, जैसा
महावीर।
कुंदकुंद कोई
व्रत पाल कर
नहीं जा रहा
है। कुंदकुंद
तो समझ को जगा
रहा है। जो समझ
रहा है, वह
छूटता जा रहा
है। जो व्यर्थ
है, वह
फिंकता चला जा
रहा है। लेकिन
है अव्रती--अव्रती
सम्यकत्वी।
और वह जो
व्रती
सम्यकत्वी है,
वह
सम्यकत्वी है
ही नहीं कभी, वह सदा झूठ
है, निपट
पाखंड है।
और
व्रत पालना ही
सरल है, समझ
बढ़ाना कठिन
है। व्रत
पालना बिलकुल
सरल है। इसमें
क्या कठिनाई
है? क्योंकि
सिर्फ दबाना
है। लेकिन
व्रत पालने से
कोई कभी कहीं
नहीं पहुंचा।
महावीर
को भी मैं
अव्रती कहता
हूं। तो
कुंदकुंद को
अव्रती, ऐसे
उमास्वाति या
कुछ और लोगे।
ऐसे कुछ लोग
हैं। लेकिन जब
तुम कहते हो
जैन श्रावक, जैन साधु, तो न तो
कुंदकुंद जैन
हैं, न
उमास्वाति
जैन हैं।
जैन का
मेरा मतलब यह
कि इनको
पागलपन ही
नहीं है जैन
होने का, इनको
जैन होने का
कोई पागलपन
नहीं है। जैन
होने का
पागलपन जिनको
है, वे तो
कभी नहीं
पहुंचते।
क्योंकि उनको
जैन होने का
जो भ्रम है, वह भी व्रत
इत्यादि से
पैदा होता है,
कि मैं रात
को खाना नहीं
खाता इसलिए
मैं जैन हूं; कि मैं पानी
छान कर पीता
हूं इसलिए मैं
जैन हूं; कि
मैंने
अणुव्रत लिए
हुए हैं इसलिए
मैं जैन हूं; कि मैं
सामायिक करता
हूं इसलिए मैं
जैन हूं। यानी
उसका जैन होना
भी व्रतों पर
ही निर्भर है।
वह चाहे
श्रावक है तो
श्रावक के
व्रत हैं, साधु
है तो साधु के
व्रत हैं।
लेकिन
अव्रती--अव्रती
बात ही अलग
है। सब अव्रती
हैं, लेकिन
अव्रती
स्थिति में जो
प्रज्ञा को
जगाता है, तो
अव्रती
सम्यकत्वी हो
जाता है।
प्रश्न:
मैं
समझता हूं कि
ऐसा शास्त्र
कह ही रहे हैं
कि वह व्यक्ति
व्रत-अव्रत
दोनों से ऊपर
हो जाता है।
वह
तो पीछे होगा, पीछे होगा; लेकिन व्रत
बांधने वाला
कभी नहीं हो
पाएगा, व्रत
बांधने वाला
कभी नहीं हो
पाएगा। समझ
आएगी तो चीजें
मिट जाती हैं।
जैसे उदाहरण
के लिए, अगर
समझ आएगी तो
हिंसा मिट
जाती है, जो
शेष रह जाती
है, वह
अहिंसा है।
शेष रह क्या
जाएगा? अहिंसा
ही शेष रह
जाएगी, जब
हिंसा मिट
जाएगी।
लेकिन
व्रती की
हिंसा भीतर
होती है और
अहिंसा वह थोपता
है। तो व्रती
की अहिंसा
हिंसा के
विरोध में
तैयार करनी
पड़ती है।
प्रज्ञावान
की हिंसा विदा
हो जाती है तो
जो शेष रह
जाता है, वह
अहिंसा है।
प्रज्ञावान
की अहिंसा
हिंसा का
विरोध नहीं है,
हिंसा का
अभाव है।
व्रती की
अहिंसा हिंसा
का विरोध है, अभाव नहीं।
और जिसका विरोध
है, वह सदा
मौजूद रहता है,
वह कभी नहीं
जाता।
प्रश्न:
व्रत
निरर्थक है, यह व्रत
पालने से ही
मालूम पड़ेगा न?
हां, बिलकुल
पड़ेगा मालूम
और काफी...।
प्रश्न:
जैसा
आपने भोग के
बारे में कहा
कि...।
हां, हां। बिलकुल
ही, बिलकुल
ही मालूम
पड़ेगा। और
जितने व्रती
हैं, उनको
जितने जोर से
मालूम पड़ता है,
उतना आपको
नहीं मालूम
पड़ता।
प्रश्न:
मालूम
पड़ने का मतलब
छूटना हुआ न?
कठिनाई
यह है कि अगर
वे इस मालूम
पड़ने के प्रति
जागने की
चेष्टा कर रहे
हों! अगर वे भी
सेक्स की तरह
इसमें मूरूच्छित
ही लगे हों कि
रोज सुबह मंदिर
चले जाते हैं मूरूच्छित
और कभी जाग कर
नहीं देखा कि
चालीस साल से
मंदिर गया, क्या मिला? यह प्रश्न
ही अगर न पूछा
हो तो
जन्मों-जन्मों
तक व्रत मानते
रहेंगे। यह
प्रश्न पूछ
लिया हो तो
अभी टूट जाएगा
इसी वक्त। अगर
व्रती समझ ले मेरी
बात को तो
उसको जल्दी
समझ में आएगी
बजाय आपके।
क्योंकि उसको
व्रत की
व्यर्थता का
अनुभव भी है।
लेकिन
वह अनुभव को
देखना नहीं
चाहता, मूर्च्छा
की तरह चला
जाता है। वह
कहता है कि
नहीं, अभी
नहीं हुआ तो
कल होगा, कल
नहीं हुआ तो
परसों होगा, और कुछ तो हो
ही रहा है।
यानी
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं कि
मैं इतने दिन
से नमोकार का
पाठ कर रहा
हूं। तो मैं
पूछता हूं, क्या हो रहा
है? कहता
है, बड़ा
अच्छा लग रहा
है, शांति
लग रही है।
फिर थोड़ी देर
में मुझसे
पूछता है, शांति
का कोई उपाय
बताइए! मैंने
कहा, अब
मैं कैसे
बताऊं? तुम्हें
जब मिल ही रही
है शांति। तो
वह कहता है कि
नहीं, अभी
कुछ खास नहीं
मिल रही है, ऐसा
थोड़ा-थोड़ा
लगता है।
मैंने
कहा, तुम मुझे
बिलकुल
साफ-साफ कहो, अगर
थोड़ा-थोड़ा
लगता है तो
करते चले जाओ,
धीरे-धीरे
ज्यादा लगने
लगेगा, फिर
मुझसे मत
पूछो। तुम
बिलकुल
ईमानदारी से कहो,
सच में कुछ
हुआ? वह
कहता है, कुछ
हुआ तो नहीं
है! यानी वह जो
वह कह रहा था, उसका भी उसे
होश नहीं था, वह क्या कह
रहा है!
वह
कहता है कि
मंदिर जाता
हूं रोज और वह
फिर भी पूछता
है, शांति
चाहिए! और उसे
पूछो तो वह
कहता है, मंदिर
जाने से बड़ी
शांति मिलती
है। तो मिलती
है तो फिर अब
और क्या शांति
चाहिए? ठीक
है, जाओ।
वह कभी जागा
हुआ भी नहीं
है कि वह क्या
कह रहा है, क्या
कर रहा है। वह
भी सुनी-सुनाई
बातें दोहरा
रहा है। यानी
मंदिर जाने से
शांति मिलती
है, यह
उसने सुना है
और मंदिर जाता
है। तो अब वह
भी कह रहा है
कि बड़ी शांति
मिल रही है!
तो अगर
जागे कोई
व्रती तब तो
व्रत से एकदम
मुक्त हो जाए।
अव्रती भी समझ
ले तो भी समझ
में आ सकता
है। क्योंकि
ऐसे हम अव्रती
भला हों, चाहे
हमने कभी कसम
खाकर व्रत न
लिए हों, लेकिन
वैसे किसी न
किसी रूप में
हम सब व्रती हैं।
हमको खयाल में
नहीं है। हमको
खयाल में नहीं
है, जैसे
कि आपने शादी
की, तो
पत्नी-व्रत या
पति-व्रत आपने
ले लिया, आपको
खयाल में नहीं
है। मंदिर में
जाकर ही नहीं
लिया जाता, वह तो हम
चौबीस घंटे जो
भी हम कर रहे
हैं, उसमें
व्रत पकड़ रहे
हैं हमें। और
अगर हम उसके प्रति
भी जाग जाएं
तो हमको पता
चले कि कुछ
हुआ नहीं है
उस व्रत से।
चीजें कहीं
बदली नहीं
हैं। और चित्त
वैसा ही रह
गया है जैसा
था, चित्त
की वही दौड़ है,
वही भाग है।
तो वह
तो सभी चीजें
अनुभव से आती
हैं, लेकिन
जिंदगी में
व्रत चल ही
रहे हैं चौबीस
घंटे। जैसे एक
व्यक्ति है, जो कहता है
कि मेरे पिता
हैं, इसलिए
मैं उनकी सेवा
कर रहा हूं।
यह व्रत ले
रहा है सेवा
का। इसको पिता
की सेवा करने
में कोई आनंद
नहीं है। यह
कह रहा है, कर्तव्य
है। यह व्रती
आदमी है। तो
यह पिता की सेवा
भी कर रहा है
और पूरे वक्त
क्रोध से भरा
हुआ है कि कब
छुटकारा हो
जाए! यह पैर
दाबने से कब मौका
अलग मिले!
कैसे अलग हट
जाऊं! लेकिन
यह
व्रतपूर्वक
कर रहा है।
नियमपूर्वक
कर रहा है।
पिता हैं
इसलिए कर रहा
है।
अब सच
बात तो यह
होनी चाहिए कि
इसको कभी आनंद
नहीं मिलेगा।
यानी पिता हैं
इसलिए पैर
दबाऊं, अगर
यह
कर्तव्य-भाव
है तो आनंद
कभी उदय नहीं
होगा। और अगर
इसे आनंद आ
रहा है पैर दबाने
में तो फिर
व्रत नहीं रह
गया, फिर
इसकी एक समझ
है, एक
प्रेम है, एक
दूसरी बात है।
एक
नर्स है, वह
एक बच्चे को
पाल रही है तो
वह
व्रतपूर्वक पाल
रही है और मां
का व्यवहार कर
रही है व्रतपूर्वक।
एक मां है, वह
अपने बच्चे को
पाल रही है।
वहां कोई व्रत
नहीं है, वहां
मां का आनंद
ही उस बच्चे
को पाल रहा
है। और अगर
बड़े होकर कोई
उस मां से
पूछेगा कि
तूने अपने बेटे
के लिए बहुत
किया, तो
वह कहेगी, मैं
कुछ भी नहीं
कर पाई। कुछ
भी नहीं कर
पाई। जो कपड़े
मुझे बेटे को
देने थे, नहीं
दे पाई। जो
खाना देना था,
वह नहीं दे
पाई। मैं कुछ
भी नहीं कर
पाई।
लेकिन
नर्स से कोई
पूछे, तूने
फलां लड़के के
लिए बहुत
किया! वह
कहेगी, बहुत
किया। पांच
बजे सुबह से
डयूटी पर जाती
थी, शाम
पांच बजे
लौटती थी।
बहुत किया।
कर्तव्य
व्रत की भाषा
की बात है, प्रेम अव्रत
की बात है।
लेकिन अव्रत
अकेला काफी
नहीं है।
अव्रत और
जागरण--तो
अव्रती
सम्यकत्व
पैदा होता है।
और वही
क्रांतिकारी
सूत्र है। वह
कोई भी करे, उससे कोई
जैन का
लेना-देना
नहीं है। कोई
मुसलमान करे,
कोई ईसाई
करे, कोई
जरथुस्त्री
करे, इससे
कोई संबंध
नहीं है। घटना
उस करने से
घटती है।
लेकिन
होता क्या है
कि परंपराएं
धीरे-धीरे सब
जड़ नियम हो
जाती हैं। और
जड़ नियम थोपने
की प्रवृत्ति
शुरू हो जाती
है। और जब जड़ नियम
थोप दिए जाते
हैं और लोग
उन्हें
स्वीकार कर
लेते हैं तो
वे जड़ नियम
लोगों को भी
जड़ करते हैं, चेतन नहीं
करते। इसलिए
व्रती
व्यक्ति जड़
होता चला जाता
है धीरे-धीरे।
प्रश्न:
व्रती
का जागरण
जल्दी फलीभूत
होगा या
अव्रती का
जागरण जल्दी
फलीभूत होगा?
जागरण
फलीभूत होता
है।
प्रश्न:
अव्रती
का होगा या
व्रती का होगा?
जागरण
फलीभूत होता
है। आप जिस
स्थिति में
हैं, वहीं जाग
जाएं। फलीभूत
जागरण होता है,
जिस स्थिति
में हैं।
हम
किसी न किसी
स्थिति में
हैं ही, और
किन्हीं न
किन्हीं
सीमाओं में
बंधे हैं, और
कुछ न कुछ कर
रहे हैं--कोई
दुकान चला रहा
है, कोई
मंदिर में
पूजा कर रहा
है, कोई
मकान बना रहा
है, कोई
मंदिर बनवा
रहा है--हम कुछ
न कुछ कर रहे
हैं। कोई
उपवास कर रहा
है, कोई
खाना खा रहा
है।
हम जो
भी कर रहे हैं, उसके प्रति
जागरण फलीभूत
होता है। जो
भी कर रहे
हैं--इससे कोई
संबंध नहीं
है। एक आदमी
चोरी कर रहा
है और एक आदमी
पूजा कर रहा
है--करने के
प्रति जागने
से फल आना
शुरू होता है।
चोरी करने वाला
चोरी के प्रति
जाग जाए तो
वही फल आएगा।
प्रश्न:
पीछे
फोर्स होगा?
हां।
प्रश्न:
जागरण
के पीछे फोर्स
होगा न! व्रती
का ज्यादा होगा
या अव्रती का
ज्यादा होगा?
नहीं, नहीं। असल
सवाल यह है कि
अब...यह बड़ी बात
है। बड़ी इसलिए
है कि कौन सा
व्रत? कौन
सा व्रत? एक
आदमी व्रत लिए
है कि पांच
दफे माला फेर
लेना है, क्या
फोर्स होगा
इसमें? एक
आदमी चोरी
करने जा रहा
है, इसमें
बहुत फोर्स
होगा। यह घटना
घटना पर निर्भर
करेगा कि क्या
व्रत, या
क्या अव्रत!
लेकिन
कुल कीमत की
बात इतनी है
कि आदमी जो भी
कर रहा है, उसके प्रति
उसे जाग कर
करना है। वह
मंदिर जा रहा
हो तो भी
जागना है और
वेश्यालय जा
रहा हो तो भी
जागना है। जो
भी करे, उसे
होशपूर्वक
करना है।
होशपूर्वक
करने से जो
शेष रह जाएगा,
वही धर्म है;
जो मिट
जाएगा, वही
अधर्म है।
प्रश्न:
महावीर
इस जागरूकता
को ही पौरुष
और क्षात्र धर्म
मान रहे हैं
या कोई और भी
पौरुष है?
इसको
ही। इससे बड़ा
कोई पौरुष
नहीं है। नींद
तोड़ने से बड़ा
और कोई पौरुष
नहीं है।
प्रश्न:
नहीं, पर जो आपने
यह भेद किया
कि एक का
मार्ग आत्म-समर्पण
का है, दूसरा
पौरुष का है, तो नींद
तोड़ना तो
दोनों में
बराबर रहेगा।
फिर इसे आप
पौरुष का
विशेष क्यों
कह रहे हैं?
नहीं, नहीं, नहीं।
बिलकुल ही
अलग-अलग
रास्ते से
नींद टूटेगी।
समर्पण करने
वाले की नींद
में अगर थोड़ा
भी पौरुष होगा
तो नहीं टूट
सकेगी।
क्योंकि समर्पण
में एकदम
स्त्री-भाव
चाहिए, एकदम
पैसिविटी
चाहिए। यानी
समर्पण करने
में यही पौरुष
होगा कि पौरुष
बिलकुल न हो
और पौरुष करने
वाले में यही
पौरुष होगा कि
उसमें समर्पण
का भाव ही न हो
जरा भी।
महावीर
के हाथ तुम
किसी के प्रति
नहीं जुड़वा सकते
हो। महावीर का
हाथ जोड़े हुए
कल्पना ही नहीं
कर सकते हो कि
यह आदमी हाथ
जोड़े हुए खड़ा
हो कहीं।
प्रश्न:
वह
अपने आंतरिक
शत्रुओं से
लड़ाई, यह
पौरुष नहीं है।
नहीं, नहीं। कोई
आंतरिक शत्रु
नहीं है सिवाय
निद्रा के।
कोई आंतरिक
शत्रु ही नहीं
है सिवाय निद्रा
के, मूर्च्छा
के, प्रमाद
के। और कोई
आंतरिक शत्रु
नहीं है।
इसलिए
महावीर से कोई
पूछे, धर्म
क्या है? तो
वे कहेंगे, अप्रमाद। और
अधर्म क्या है?
तो वे
कहेंगे, प्रमाद।
कोई उनसे पूछे
कि साधुता
क्या है? तो
वे कहते हैं, अमूर्च्छा।
असाधुता क्या
है? तो वे
कहते हैं, मूर्च्छा।
और सारी साधना
का सूत्र है
विवेक, अवेयरनेस--कैसे
कोई जागे, कैसे
कोई होश से
भरा हुआ हो।
तो
महावीर का
पौरुष कोई काम, क्रोध, लोभ
से लड़ने में
नहीं है।
क्योंकि ये तो
लक्षण हैं
सिर्फ। इनसे
तो पागल लड़ेगा,
इनसे
महावीर नहीं
लड़ सकता।
मूर्च्छा
है मूल चीज।
काम, क्रोध, लोभ, सब
उससे पैदा
होने वाली
चीजें हैं।
जैसे कि तुम्हें
बुखार चढ़ा।
अगर कोई
बुद्धिहीन
वैद्य तुम्हें
मिल गया तो वह
तुम्हारे
शरीर की गर्मी
से लड़ेगा।
ठंडा पानी
डालेगा
तुम्हारे ऊपर
कि इसके शरीर
की गर्मी कम
करो, क्योंकि
शरीर की गर्मी
ही बुखार है।
लेकिन बुद्धिमान
वैद्य कहेगा,
गर्मी
बुखार नहीं है,
गर्मी तो
केवल खबर देती
है कि भीतर
कोई बीमारी
है। यह तो
केवल सूचना है,
यह लक्षण
है। इससे लड़े
तो मरीज
मरेगा। बीमारी
से लड़ो, ताकि
यह लक्षण विदा
हो जाए।
अगर
भीतर से
बीमारी विदा
हुई तो शरीर
से ताप विदा
हो जाएगा, लेकिन शरीर
से ताप विदा
अगर करने की
कोशिश की तो
बीमारी का
विदा होना
जरूरी नहीं
है। आदमी मर
भी सकता है।
तो काम, क्रोध, लोभ,
लक्षण हैं
कि भीतर आदमी मूरूच्छित
है, सिर्फ
खबरें हैं। मूर्च्छा
टूटेगी तो ये
विदा हो
जाएंगे। और
अगर मूर्च्छा
को बचाते हुए
व्रत लेकर
इनको खतम करने
की कोशिश की
तो ये कभी खतम
नहीं होने
वाले।
क्योंकि मूर्च्छा
भीतर जारी है,
वह नए-नए
रूपों में
इनको पैदा
करती रहेगी।
सिर्फ रूप बदल
जाएंगे
ज्यादा से
ज्यादा। एक
कोने से न
निकल कर दूसरे
दरवाजे से
झरना
निकलेगा।
तो
महावीर तो
बहुत स्पष्ट
हैं कि साधना
यानी अमूर्च्छा, संघर्ष यानी
अमूर्च्छा, संकल्प यानी
जागरण। इसके
अतिरिक्त कोई
सवाल ही नहीं
है उनके लिए।
प्रश्न:
आचारांग
का एक वाक्य
है, उसका
अर्थ यह है कि
तू बाह्य
शत्रुओं से
क्यों लड़ता है?
अपनी आत्मा
के शत्रुओं से
ही लड़। यह
वाक्य आपके
विचार में
किसी ढंग से
व्याख्येय है
या अशुद्ध ही
है?
मैं
तो फिकर नहीं
करता सूत्रों, आचारांग
वगैरह की। मैं
कोई फिकर नहीं
करता।
क्योंकि जो
लोग उन्हें संगृहीत
करते हैं, वे
कोई बहुत
समझदार लोग
नहीं हैं।
इनकी मैं फिकर
नहीं करता।
इनसे कोई
तालमेल
बिठाने का सवाल
नहीं है। बैठ
जाए, वह
आकस्मिक बात
है; न बैठे,
उसकी कोई
जरूरत नहीं
है।
आंतरिक
शत्रुओं से लड़, यह कहीं न
कहीं बुनियादी
भूल हो गई है।
क्योंकि
शत्रुओं शब्द
बहुवचन में
है। आंतरिक
शत्रु से लड़, यह ठीक बात
रही होगी, क्योंकि
शत्रु एक वचन
में है।
आंतरिक शत्रु
सिर्फ मूर्च्छा
है। महावीर
हजार बार
दोहरा कर यह
कह रहे हैं। इसलिए
बहुत शत्रु
नहीं हैं भीतर,
शत्रु एक ही
है। और मित्र
भी एक ही है, बहुत मित्र
भी नहीं हैं
भीतर--जागरण
मित्र है और मूर्च्छा
शत्रु है।
इसलिए
सुनने वाले ने
कहीं न कहीं
भूल कर दी है।
आंतरिक
शत्रुओं से
लड़ने में वह
फिर काम, क्रोध,
लोभ वाली
दुनिया में
उतर आया है।
वह इन्हीं की
बात कर रहा है
फिर। क्योंकि
शत्रुओं का प्रयोग
उसने बहुवचन
में किया है।
एकवचन में होता
तो मैं राजी
हो जाता कि
बिलकुल ठीक
है। भूल हो गई
बुनियादी।
फिर वह इन्हीं
को शत्रु समझ
रहा है।
ये
शत्रु हैं ही
नहीं, शत्रु
तो कोई और है।
ये उसकी फौजें
हो सकती हैं।
यानी इनसे
लड़ने का कोई
मतलब नहीं है।
मालिक कोई और
है, वह
मालिक नई
फौजें भेजता
रहेगा। अगर
पुरानी तुमने
हटा भी दीं तो
नई फौजें आती
रहेंगी। आंतरिक
शत्रु से लड़ना
है, शत्रुओं
से नहीं।
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
हमारी जो समझ
होती है वह
शत्रुओं से
लड़ने में लग जाती
है। हमारी जो
समझ होती है, हमको यह
खयाल में नहीं
आता कि शत्रु
एक है। हमारा
खयाल
यह है कि
शत्रु बहुत
हैं। शत्रु एक
ही है।
और
इसलिए जो बहुत
शत्रुओं से लड़
रहा है, वह
बुनियादी भूल
कर रहा है; क्योंकि
मजा यह है कि
अगर काम चला
जाए तो लोभ चला
जाता है। कभी
यह खयाल किया
आपने? अगर
काम चला जाए, क्रोध चला
जाता है। अगर
काम चला जाए, मोह चला
जाता है।
इनमें से एक
को विदा कर दो,
बाकी तीन को
बचा लो तो मैं
समझूं कि ये
अलग हैं। आज
तक असंभव है
यह बात। इनमें
से कोई एक को
विदा कर दे, कहे कि
मैंने क्रोध
विदा कर दिया,
सेक्स विदा
नहीं हुआ, असंभव
है यह बात। यह
हो ही नहीं
सकता। यानी
कोई अगर यह
कहता हो, मैंने
लोभ विदा कर
दिया, लेकिन
अभी काम बचा
हुआ है, यह
हो ही नहीं
सकता।
क्योंकि काम
के साथ लोभ अनिवार्य
है। यानी वे
चार जो
तुम्हें
दिखाई पड़ रहे
हैं--काम, क्रोध,
लोभ, मोह--वे
कोई चार चीजें
नहीं हैं, वे
सब संयुक्त
हैं। और सबका
संयुक्त जो तना
है नीचे, वह
मूर्च्छा है।
वह वहां से
शाखाएं
निकलती रहती
हैं।
अब सब
लोग इस उलटे
काम में लग
जाते हैं। कोई
लड़ रहा है
क्रोध से कि
मुझे क्रोध
जीतना है।
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, हमें क्रोध
बहुत ज्यादा
है, क्रोध
से बचने का
उपाय बताइए।
अब वे
समझ रहे हैं
कि क्रोध उनका
शत्रु है।
क्रोध शत्रु
नहीं है, क्योंकि
बाकी अगर तीन
की वे फिक्र
नहीं कर रहे
हैं तो इस
क्रोध से कुछ
हल होने वाला
नहीं है। और
चारों की एक
साथ फिक्र अगर
करनी है तो
ऐसा ही जैसे
कि एक वृक्ष
लगा हुआ है, उसमें कई
शाखाएं हैं, एक आदमी एक
शाखा काट रहा
है, दूसरा
आदमी दूसरी
शाखा काट रहा
है और नीचे के तने
पर वे सब आदमी
पानी सींचते
हैं सुबह
उठकर। नीचे के
तने पर पानी
सींचते हैं
रोज और रोज वृक्ष
पर चढ़ कर
शाखाएं काटते
हैं। एक शाखा
कटती है तो दो
पैदा हो जाती
हैं, दो
कटती हैं तो
चार पैदा हो
जाती हैं। और
नीचे के तने
पर पानी दिए
चले जाते हैं।
मजा यह है कि क्रोध,
लोभ, मोह
से हम लड़ते
हैं और मूर्च्छा
पर पानी दिए
चले जाते हैं।
और मूर्च्छा
से वे सब पैदा
होते हैं।
तो जो
थोड़ा भी
मनुष्य की
गहराई में
उतरेगा, महावीर
जैसा व्यक्ति
यह नहीं कह
सकता कि तुम काम,
क्रोध, लोभ
से लड़ो। जो भी
भीतर उतरेगा,
वह तो कहेगा,
मूर्च्छा
से लड़ना है।
और लड़ना क्या
है? जागना
है। और लड़ना
यानी जागना
होगा। हां, कभी जागा
हुआ आदमी लोभी
नहीं पाया गया,
कामी नहीं
पाया गया। और
सोया हुआ आदमी
कभी अलोभी
नहीं हुआ, अकामी
नहीं हुआ।
इसलिए
मेरे हिसाब
में काम, क्रोध,
लोभ सोए हुए
आदमी के लक्षण
हैं। जब ये
बाहर दिखाई
पड़ते हों तो
उसका मतलब है,
भीतर आदमी
सोया हुआ है, जब ये बाहर न
दिखाई पड़ने
लगें तो जानना
कि आदमी जागा
हुआ है। लेकिन
इससे उलटी
तरकीब में अगर
कोई लग जाए कि
इनको दिखाई न
पड़ने दो, तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
यानी
वह व्रती यही
कर रहा है।
व्रती यह कर
रहा है कि क्रोध
को दिखाई न
पड़ने देंगे।
तो न दिखाई
पड़े। हो सकता
है दबा ले
तरकीबों से।
लेकिन फिर भी
पहचाना जा
सकता है। और
भीतर तो उसके
रहेगा ही। तो
कोई ढंग से
उसको अगर
उकसाए तो
क्रोध निकाला जा
सकता है। यानी
उसके क्रोध
नए-नए रूप
लेंगे। और हो
सकता है कई
दफे हम उसको
उकसा भी न
पाएं, क्योंकि
उसको उकसाने
की तरकीब हमें
पता न हो। और
वह अगर तरकीब
पकड़ लें तो
फौरन उसको
उकसाया जा
सकता है, मिट
नहीं सकता।
व्रत
से कभी कुछ
नहीं मिटता है, क्योंकि
व्रत शाखाओं
से लड़ाई है।
प्रश्न:
यानी
जो फ्रायड ने
और आज के
मनोवैज्ञानिकों
ने निकाला कि
दमन से संभव
नहीं है, वह महावीर
को भी ज्ञात
था?
बिलकुल
ही। इसके सिवा
कोई उपाय ही
नहीं है। यानी
कभी भी कोई
व्यक्ति
मुक्त हुआ हो
तो दमन से मुक्त
नहीं हो सकता
है। वह जब भी
मुक्त हुआ
होगा, तब
जागरण से ही
मुक्त होगा।
यह दूसरी बात
है कि उस दिन
भाषा साफ नहीं
है, अभिव्यक्ति
साफ नहीं है।
निरंतर
अभिव्यक्ति
ज्यादा साफ
होती चली जाती
है।
जैसे
समझ लें, न्यूटन
ने खबर बताई
हमें कि चीजें
गिरती हैं, क्योंकि
जमीन में
गुरुत्वाकर्षण
है। कोई हमसे
पूछे, तो
न्यूटन के
पहले चीजें जो
गिरती रहीं, वे भी
गुरुत्वाकर्षण
से ही गिरती
थीं?
न्यूटन
ने तो अभी तीन
सौ साल पहले
कहा कि चीजें
ऊपर से नीचे
गिरती हैं, क्योंकि
जमीन खींचती
है, गुरुत्वाकर्षण
है। कोई आदमी
हमसे पूछ सकता
है, क्या
न्यूटन से
पहले चीजें
नीचे नहीं
गिरती थीं? और अगर
गिरती थीं तो
क्या वे भी
गुरुत्वाकर्षण
से ही गिरती
थीं?
तो हम
कहेंगे, वे
भी
गुरुत्वाकर्षण
से गिरती थीं।
जब भी कोई चीज
गिरी है, गुरुत्वाकर्षण
से ही गिरी है,
खबर अभी
न्यूटन ने दी
है। न्यूटन ने
सिर्फ फार्मूलेट
किया है।
चीजें तो गिर
ही रही थीं
सदा से, और
वे हमेशा
ग्रेविटेशन
से ही गिर रही
थीं। लेकिन यह
ग्रेविटेशन
शब्द को
न्यूटन ने
पहली दफा
स्पष्ट किया
है।
महावीर
मुक्त हुए हों
कि कृष्ण
मुक्त हुए हों, दमन से नहीं
हुए, सदा
जागरण से हुए।
यह बात फ्रायड
ने पहली दफा स्पष्ट
की है। इस
नियम को पहली
दफा ठीक-ठीक
वैज्ञानिक
ढंग से फ्रायड
ने कह दिया।
और इसलिए अब
जो लोग महावीर
को समझने के
लिए फ्रायड के
पूर्व की भाषा
का उपयोग कर
रहे हैं, वे
महावीर को कभी
भी आज के युग
के लिए उपयोगी
नहीं बनने
देंगे।
क्योंकि वे
बुनियादी गलत
बातें और गलत
शब्द उपयोग
करते रहेंगे।
यह भूल
निरंतर होती
है, क्योंकि
महावीर के साथ
अनिवार्य रूप
से पच्चीस सौ
साल पुरानी टर्मिनालाजी
जुड़ी हुई है, जब न फ्रायड
हुआ है, न
माक्र्स हुआ
है, न
आइंस्टीन हुआ
है। तो जो
शब्दावली है
वह पच्चीस सौ
साल पुरानी
है। और अगर
उसी को पकड़
कर--और वह
अनुयायी जो है
उसी को पकड़ कर
जोर-शोर मचाना
चाहता है वह।
तो वह कभी भी
नहीं उसको
उपयोगी बना
सकता।
वह तो
जैसे-जैसे
शब्द बदलते
जाते हैं, नए शब्द आते
जाते हैं, उनको
हमें
समझपूर्वक
उपयोग करना
चाहिए। वैसे
घटना जब भी
घटी होगी, दमन
से कभी भी
नहीं घट सकती
है। यानी वह
वैज्ञानिक
असंभावना है,
उसका
महावीर से कोई
लेना-देना
नहीं है।
यानी
दो ही उपाय
हैं, अगर कोई
कहे कि दमन से
ही महावीर
उपलब्ध हुए तो
फिर महावीर
उपलब्ध न हुए
होंगे। या
दूसरा उपाय यह
है कि अगर वे
उपलब्ध हुए तो
उन्होंने दमन
न किया होगा।
यानी इसके
सिवाय कोई मार्ग
ही नहीं है।
तो मैं मानता
हूं कि वे
उपलब्ध हुए।
क्योंकि जैसी
शांति और जैसा
आनंद और जैसी
ज्योति उनके
व्यक्तित्व
में आई, वह
कभी दमित
व्यक्ति में आ
ही नहीं सकती।
दमित व्यक्ति
के चेहरे पर, मन पर, सब
तरफ टेंशन और
तनाव होता है,
क्योंकि जो
दबाया है, वह
दिक्कत देता
रहता है। वह
तो सिर्फ
विमुक्त आदमी
के मन में ऐसी
शांति हो सकती
है, जैसी
महावीर के मन
में है, जिसने
कुछ भी नहीं
दबाया है, सब
मुक्त हो गया
है।
अब
मुक्ति और दमन
उलटे शब्द हैं, यह हमें
खयाल में नहीं
है। दमन का
मतलब है भीतर
दबाया गया, मुक्त का
मतलब है छूट
गया, विसर्जित
हो गया, डिस्पर्स
हो गया, सप्रेस
नहीं। क्रोध
डिस्पर्स हुआ
है, विदा
ही हो गया है, चला ही गया
है, दबाया
नहीं।
यह
पुंगलियाजी
का एक
क्वेश्चन रह
गया रात का, उनकी बात कर
लेनी चाहिए।
प्रश्न:
आप
बोले कि
जागृति आती है
तो मूर्च्छा
के प्रति
जागरूक होना
चाहिए, अलग-अलग
शाखा से लड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है। अव्रत
अकेला ही
जरूरी नहीं है,
साथ में
जागृति भी
जरूरी है। तो
मेरा यह कहना है
कि जागृति आ
जाएगी तो
अव्रत आ ही
जाएगा न?
न, न। अव्रत है
ही हमारा।
यानी व्रती का
मतलब यह है कि
जो नियम बांध
कर जी रहा है।
अव्रती का मतलब
है, जो
नियम बांध कर
नहीं जी रहा
है। अव्रती हम
हैं ही, समझे
न? उसे
लाने का सवाल
नहीं है।
अव्रती हम हैं
ही। कुछ हममें
व्रती
हैं--मंदिर
जाने वाले, मस्जिद जाने
वाले, पूजा-पाठ
करने वाले, नियम-धर्म
से जीने
वाले--वे
व्रती हैं, बाकी लोग
अव्रती हैं।
व्रती को व्रत
के प्रति जाग
जाना चाहिए, अव्रती को
अव्रत के
प्रति। जो हम
कर रहे हैं, उसी के
प्रति जाग
जाना चाहिए।
तो जागने से
वह आ ही जाएगा,
जो व्रती
चेष्टा कर रहा
है व्रत से
लाने की। वह आ
जाएगा, अपने
आप आ जाएगा।
प्रश्न:
जागरण
के साथ विशेषण
विवेक का
लगाना जरूरी
है अथवा नहीं? क्योंकि
अविवेकपूर्ण
भी जागरण हो
सकता है।
नहीं, अविवेकपूर्ण
जागरण नहीं हो
सकता। जागरण
अनिवार्य रूप
से
विवेकपूर्ण
होता है। असल
में जागरण और
विवेक एक ही
अर्थ रखते
हैं। जैसे हम
यह नहीं कह
सकते कि जीवित
मुर्दा, वैसे
ही हम
अविवेकपूर्ण
जागरण नहीं कह
सकते। वे
विपरीत शब्द
हैं। विवेक
यानी जागरण।
विवेक
से जो आम खयाल
पैदा होता है, वह होता है
डिस्क्रिमिनेशन
का। इसलिए आप
कह रहे हैं।
विवेक से आम
खयाल होता है
कि यह गलत है
और यह सही है, ऐसा
डिस्क्रिमिनेशन
करने का।
लेकिन ऐसा डिस्क्रिमिनेशन
आप जब तक करते
हैं, जब तक
आप कहते हैं
कि यह ठीक
मानूं, यह
गलत मानूं, तब तक आपको
विवेक नहीं
है। तब तक
विवेकशील लोगों
ने जिसको ठीक
जीया है और
जिसको
उन्होंने गलत
माना है, वह
आपने पकड़ लिया
है।
जिस
दिन आपका
विवेक होगा, उस दिन यह तय
नहीं करना
पड़ता, यह
गलत है, यह
सही है। जो
सही है, वह
होता है; जो
गलत है, वह
नहीं होता। जो
सही है, वही
होता है जागे
हुए व्यक्ति
से। और जो
सोया हुआ है
उससे जो गलत
है, वही
होता है। जागे
हुए से गलत
नहीं होता, सोए हुए से
सही नहीं
होता।
तो
असंभव ही है
यह बात कि कोई
अविवेकपूर्ण
जागरण हो जाए।
क्योंकि
जागरण होगा तो
अविवेक टिकेगा
कहां? ठहरेगा
कहां? वह मूर्च्छा
में ही टिक
सकता था, अंधेरे
में ठहर सकता
था।
प्रश्न:
स्वतंत्रता
और
स्वच्छंदता
में फर्क क्या
है?
कल
पूछ लेना।
ले ही
लेते हैं। यह
पूछती है, स्वच्छंदता
और
स्वतंत्रता
में फर्क क्या
है?
बहुत
फर्क है। तीन
शब्द लेने
चाहिए:
परतंत्रता, स्वतंत्रता,
स्वच्छंदता।
परतंत्रता का
मतलब है कि जो
हम कर रहे हैं,
वह हम नहीं
कर रहे हैं, करवाया जा
रहा है।
स्वच्छंदता
का मतलब यह है
कि जो हम कर
रहे हैं, वह
भी हम नहीं कर
रहे हैं, जो
हमसे करवाया
जा रहा था, उसके
उलटे हम कर
रहे
हैं--स्वच्छंदता
का मतलब होता
है।
परतंत्रता का
मतलब होता है,
जो हमसे
करवाया जा रहा
है वह कर रहे
हैं। स्वच्छंदता
का मतलब होता
है कि जो हमसे
करवाया जा रहा,
वह भर हम
नहीं कर रहे
हैं, उसके
भर हम विपरीत
कर रहे हैं।
स्वच्छंदता
जो है, वह
परतंत्रता का
दूसरा पहलू है,
यानी बगावत
की गई
परतंत्रता है
वह। है परतंत्रता
ही। विद्रोह
में चली गई
परतंत्रता
है। रिएक्शनरी
स्लेवरी है
वह। है तो
स्लेवरी ही।
जैसे
बाप ने कहा था
कि मंदिर जाना!
तो एक बेटा
मंदिर जा रहा
है, क्योंकि
बाप कहता है
मंदिर जाना।
दूसरा बेटा कह
रहा है, मंदिर
नहीं जा सकते
हैं, क्योंकि
बाप कह रहा है
कि मंदिर
जाना। एक परतंत्र
है, एक
स्वच्छंद है।
लेकिन
स्वच्छंद जो
है, वह
परतंत्रता के
खिलाफ ही है, वह उसी से
जुड़ा हुआ है।
स्वतंत्र
का मतलब यह है
कि वह न तो
इसलिए जाता है
मंदिर कि बाप
कहते हैं, न इसलिए
नहीं जाता है
कि बाप कहते
हैं। सोचता है,
समझता है; ठीक लगता है,
जाता है; ठीक नहीं
लगता, नहीं
जाता है। मगर
न तो वह
परतंत्र है, न वह
स्वच्छंद है।
और मैं
स्वतंत्र
आदमी चाहता
हूं जगत में
बढ़ने चाहिए।
और जगत में
परतंत्रता
बढ़ाई जाती है, इसलिए
स्वच्छंदता
बढ़ जाती है।
गुरु कहता है,
मेरी आज्ञा
पालन करो! तो
फिर आज्ञा
तोड़ने वाले
लड़के पैदा
होते हैं।
परतंत्रता की
प्रतिक्रिया
स्वच्छंदता
बन जाती है।
और जब गुरु
कहता है कि जो
तुम्हें ठीक
लगे उसे तुम
मानना, जो
ठीक न लगे उसे
मत मानना, तब
इनडिसिप्लिन
नहीं पैदा
होती, क्योंकि
कोई उपाय नहीं
है
इनडिसिप्लिन
पैदा करने का।
तुमने
अनुशासन थोपा
कि
अनुशासनहीनता
पैदा हुई। और
तुमने
स्वतंत्र
किया व्यक्ति
को, यानी
अनुशासन उसे
दिया तो फिर
अनुशासनहीनता
का कोई उपाय
नहीं है।
तो जो
लोग
परतंत्रता
थोपेंगे, वे
स्वच्छंदता
लाएंगे। और
जहां
स्वच्छंदता दिखाई
पड़े, समझना
कि परतंत्रता
थोपी गई होगी।
स्वतंत्रता
दोनों से अलग
बात है, वह
विवेकपूर्ण
है।
पुंगलियाजी
ने कल एक बहुत
बढ़िया सवाल
उठाया हुआ है।
मैंने पीछे
कहा कि
देवताओं के
पास या भूत-प्रेतों
के पास अपनी
वाणी नहीं
होती। और कल
मैंने कहा कि
आर्मस्ट्रांग
और उसके साथी
जब लौट रहे
हैं तो नीचे
रिसीव करने
वाले स्टेशंस
पर दस मिनट तक
जैसे हजारों
भूत-प्रेत रो
रहे हों, हंस
रहे हों, चिल्ला
रहे हों, ऐसी
आवाजें पकड़ी
गई हैं, जिनकी
कि कोई
व्याख्या नहीं
हो सकी कि वे
आवाजें कैसे
आईं? तो
पुंगलियाजी
पूछते हैं कि
जब
भूत-प्रेतों की
वाणी ही नहीं
होती तो वे
आवाजें कैसे
पैदा हुई
होंगी?
इसे
थोड़ा समझना
पड़ेगा। पिछले
महायुद्ध में
एक आदमी के
अंगूठे में
चोट लगी बम के
गिरने से। उसे
बेहोश हालत
में करीब-करीब, अस्पताल में
लाया गया। तब
वह बीच-बीच
में जब भी होश
आता था तो यही
चिल्लाता था
कि मेरा
अंगूठा बहुत
जल रहा है, आग
पड़ रही है
मेरे अंगूठे
में। रात उसको
बेहोश करके
उसका पूरा पैर
काट दिया गया।
क्योंकि पूरा
पैर खराब हो
गया था, उसको
बचाने का कोई
उपाय न था। और
इतनी असह्य वेदना
थी कि पूरे
शरीर में
पायज़न फैल
जाने का डर था।
तो उसका घुटने
से लेकर नीचे
का पैर काट
दिया गया।
सुबह
जब होश में
आया तो उसने
फिर चीख-पुकार
मचानी शुरू की
कि मेरे
अंगूठे में
बहुत दर्द हो रहा
है। तो आस-पास
के डाक्टरों
ने उसे गौर से
देखा, क्योंकि
अंगूठा तो अब था
ही नहीं।
अंगूठे में
दर्द कैसे हो
सकता है? जब
अंगूठा ही
नहीं है, यानी
अंगूठा तो
होना जरूरी है
न अंगूठे में
दर्द होने के
लिए! तो लोगों
ने कहा कि
तुम्हारा दिमाग
तो खराब नहीं
है? ठीक से
सोच कर कहो।
अभी उसको
बताया नहीं है
कि उसका पैर
कटा हुआ है।
उसने कहा कि क्या
ठीक से सोच कर!
मेरा अंगूठा
जला जा रहा है,
आग पड़ रही
है। उन्होंने
उसका कंबल
उघाड़ा और कहा
कि तुम्हारा
पैर तो रात
साफ कर दिया
है, अंगूठा
तो है नहीं।
उसने
देखा, उसने
कहा कि मुझे
भी दिखाई पड़
रहा है अंगूठा
नहीं है, लेकिन
दर्द मेरे
अंगूठे में हो
रहा है, इसको
मैं कैसे
इनकार करूं? तब उसकी
जांच-परख की
गई। और
जांच-परख से
एक बहुत नया
सत्य हाथ में
आया, जो
कभी खयाल में
नहीं था।
जांच-परख
से यह सत्य
खयाल में आया, पकड़ में आया
कि अंगूठे में
जो दर्द होता
है, सिर तक
खबर पहुंचाने
वाले जो
स्नायुत्तंतु
हैं, वे
हिलते हैं।
अंगूठा सिर
में तो है
नहीं, अंगूठा
तो दूर है, छह
फीट दूर। दर्द
अंगूठे में
होता है, सिर
में पता चलता
है। तो पता
लाने के लिए
जो तंतु हैं, वे हिलते
हैं बीच
में--स्नायु; उन तंतुओं
के खास ढंग से
हिलने से दर्द
पता चलता है।
अंगूठा
तो कट गया, वे तंतु उसी
खास ढंग से
हिले जा रहे
हैं। वे तंतु
जो आगे के हैं,
वे उसी तरह
से कंप रहे
हैं, जिस
तरह दर्द में
कंपने चाहिए,
तो दर्द का
पता चल रहा
है। और अंगूठे
में पता चल
रहा है, जो
है ही नहीं।
क्योंकि वे
तंतु अंगूठे
के दर्द की
खबर लाने वाले
तंतु हैं।
इससे
मैं क्या समझा
रहा हूं? इससे
मैं यह समझा
रहा हूं...इसके
बाद तो फिर
बहुत बड़ी काम
की चीजें हाथ
लगीं। फिर तो
यह पता चला कि
आपके कान के
पीछे जो तंतु
हैं, उनमें
खास तरह की
चोट करके आपके
भीतर खास तरह की
ध्वनियां
पैदा की जा
सकती हैं।
जैसे मैंने कहा
राम, तो
आपके कान के
भीतर का तंतु
एक खास ढंग से
हिला। कोई राम
बाहर न कहे, सिर्फ उस
तंतु को आपके
कान के पीछे
इस तरह से हिला
दे, जैसे
राम बोलते
वक्त हिलता है,
तो आपके
भीतर राम
सुनाई पड़ेगा।
जैसे आपकी आंख
है, उससे
रोशनी भीतर
जाती है, तंतु
एक तरह से
हिलते हैं।
आपकी आंख को
बंद कर दिया
जाए और सिर के भीतर
इलेक्ट्रोड
डाल कर आंख के
तंतु इस तरह
हिला दिए जाएं
जैसा कि वे
प्रकाश के
वक्त हिलते हैं,
आपको भीतर
प्रकाश दिखाई
पड़ेगा और आप
अंधेरे में
बैठे हैं।
यह मैं
इसलिए कह रहा
हूं कि
भूत-प्रेतों
या देवताओं के
लिए दो उपाय
हैं, जिनसे वे
वाणी पैदा कर
सकें। एक उपाय
तो यह है कि वे
किसी मनुष्य
के शरीर का
उपयोग करें, जैसा कि
आमतौर से वे
करते हैं, तब
वे बोल सकते
हैं। क्योंकि
वे आपके कंठ
का और आपके
बोलने के
यंत्र का
उपयोग कर लेते
हैं।
दूसरा
उपाय यह है कि
आपके
रिसीविंग
सेंटर पर, आपके रेडियो
स्टेशन पर, जहां आप
रिसीव कर रहे
हैं, तो
रिसीव आप क्या
कर रहे हैं? रिसीव तो
सिर्फ आप
तरंगें रिसीव
करते हैं। ये तरंगें
पैदा की जा
सकें तो आपका
रिसीविंग सेंटर
कहेगा कि
आवाजें हो रही
हैं।
इसीलिए
उस दस मिनट
में जो आवाजें
पकड़ी गईं, उसमें कोई
शब्द नहीं
पकड़े गए, सिर्फ
रोने, हंसने
और शोरगुल की आवाजें
हैं वे, कोई
शब्द नहीं हैं
स्पष्ट। शब्द
स्पष्ट पैदा करना
बहुत कठिन है।
लेकिन इस तरह
की तरंगें पैदा
की जा सकती
हैं मंडल में
कि वे तरंगें
रोने-चिल्लाने,
शोरगुल की
आवाजें पैदा
कर दें।
वे
तरंगें ही
पैदा की गई
हैं। वे
तरंगें पैदा करने
के लिए वाणी
की जरूरत नहीं
है। वे तरंगें
पैदा करना अलग
तरह का उपाय
है। वे पैदा
की जा सकती
हैं।
दो ही
उपाय हैं, या तो सीधी
तरंगें पैदा
कर दी जाएं, और दूसरा
उपाय यह है कि
किसी मनुष्य
के यंत्र का
उपयोग किया
जाए। तो आमतौर
से मनुष्य के
यंत्र का
उपयोग किया
जाता है।
लेकिन तरंगें
भी पैदा की जा
सकती हैं।
यानी वहां
बोलने वाले की
जरूरत नहीं है,
बोलने से जो
तरंगें मंडल
में पैदा होती
हैं, वे
पैदा कर दी
जाएं तो वह...।
और
जैसा मैंने
कहा कि देव या
प्रेत योनि
में जो सबसे
बड़ी अदभुत
खूबी की बात
है, वह यह है
कि वे जो भी
मनोकामना
करें, वह
पैदा हो जाता
है। वे अगर
शोरगुल की
मनोकामना
करें तो शोरगुल
पैदा हो
जाएगा। कंठ की
जरूरत नहीं है,
वाणी की
जरूरत नहीं है,
वह सिर्फ
मनोकामना
पर्याप्त है।
आज
इतना ही।
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