अध्याय—13
सूत्र—
पुरूष
प्रकृतिस्थो
हि भुङ्क्ते
प्रकृतिजानुाणान्।
कारणं
गुणसङ्गोऽस्य
सदसद्योनिजन्यसु।।
21।।
उपदृष्टानुमन्ता
च भर्ता
भोक्ता
म्हेश्वर:।
परमात्मेति
चाप्युक्तो
देहेउस्मिन्पुरूष:
यर:।। 22।।
य
एवं वेत्ति
पुरूष
प्रकृति च
गुणै सह।
सर्वथा
वर्तमानोऽपि
न स
भूयोऽभिजायते।।
23।।
परंतु
प्रकृति में
स्थित हुआ ही
पुरूष
प्रकृति मे
उत्पन्न हुए
त्रिगुणत्मक
सब पदाथों की
भोगता है। और
इन गुणों का
संग ही ड़सके
अच्छी— बुरी
योनियों में
जन्म लेने में
कारण है।
वास्तव में तो
यह पुरूष इस
देह में स्थित
हुआ भी पर ही
है,
केवल
साक्षी होने
से उपदृष्टा
और यथार्थ
सम्मति देने
वाला होने मे
अनुमंता एवं सबको
धारण करने
वाला होने से
भर्ता? जीवरूय
से भोक्ता
तथा बह्मादिकों
का भी स्वामी
होने से
महेश्वर और
शुद्ध सच्चिदानंदघन
होने से
परमत्मा,
ऐसा कहा गया
है।
इस प्रकार
पुरुष को और
गुणों के सहित
कृति को जो
मनुष्य तत्व से
जानता है,
वह सब प्रकार
से बर्तता हुआ
भी फिर नही
जन्मता है
अर्थात
पुनर्जन्म को
नहीं प्राप्त
होता है।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है कि पूरी
गीता अर्जुन
को उसका
स्वधर्म और
मार्ग समझाने
के लिए कही गई
मालूम होती है।
क्या कृष्ण और
अर्जुन के बीच
गुरु—शिष्य का
संबंध है? यदि
ही, तो
श्रीकृष्ण
अर्जुन से उन
अनेक मार्गों
की अनावश्यक
बातें क्यों
करते हैं, जिन
पर अर्जुन को
चलना ही नहीं
है
इस
संबंध में
पहली तो यह
बात जान लेनी
जरूरी है कि
जिन मार्गों
पर आपको नहीं
चलना है, उन पर
भी चलने का
झुकाव आपके
भीतर हो सकता
है। और वह
झुकाव खतरनाक
है। और वह
झुकाव आपके
जीवन, आपकी
शक्ति को, अवसर
को खराब कर
सकता है।
तो
कृष्ण उन सभी
मार्गों की
बात कर रहे
हैं अर्जुन से, जिन
पर चलने के
लिए किसी भी
मनुष्य के मन
में झुकाव हो
सकता है।
मनुष्य मात्र
जिन मार्गों
पर चलने के
लिए उत्सुक हो
सकता है, उन
सभी की बात कर
रहे हैं।
इस
बात के करने
का फायदा है।
इन सारे
मार्गों को
अर्जुन समझ ले, तो
उसे खयाल में
आना कठिन न रह
जाएगा कि कौन—सा
मार्ग उसके
सर्वाधिक
अनुकूल है। और
जिसे आप नहीं
जानते, उससे
खतरा है; और
जिसे आप जान
लेते हैं, उससे
खतरा समाप्त
हो जाता है।
सभी
रास्तों के
संबंध में जान
लेने के बाद
जो निर्णय
होगा, वह
ज्यादा सम्यक
होगा। इसलिए
कृष्ण सभी
रास्तों की
बात कर रहे
हैं। इस अर्थ
में, कृष्ण
का वक्तव्य, उनका उपदेश
बुद्ध, महावीर,
मोहम्मद और
जीसस के
वक्तव्य से
बहुत भिन्न है।
जीसस
एक ही मार्ग की
बात कर रहे
हैं। महावीर
एक ही मार्ग
की बात कर रहे
हैं। बुद्ध एक
ही मार्ग की
बात कर रहे
हैं। कृष्ण
सभी मार्गों
की बात कर रहे
हैं। और यह
सभी मार्गों
की बात जान
लेने के बाद
जब कोई चुनाव
करता है, तो
चुनाव ज्यादा
सार्थक, ज्यादा
अभिप्रायपूर्ण
होगा। और उस
मार्ग पर
सफलता भी
ज्यादा आसान
होगी।
बहुत
बार तो कोई
मार्ग शुरू
में आकर्षक
मालूम होता है, लेकिन
पूरे मार्ग के
संबंध में जान
लेने पर उसका
आकर्षण खो
जाता है। बहुत
बार कोई मार्ग
शुरू में बहुत
कंटकाकीर्ण
और कठिन मालूम
पड़ता है, लेकिन
मार्ग के
संबंध में
पूरी बात समझ
लेने पर सुगम
हो जाता है।
इसलिए
कृष्ण सारी
बात खोलकर रखे
दे रहे हैं।
अर्जुन के
माध्यम से
जैसे वे पूरी
मनुष्यता से
ही बात कह रहे
हैं।
मनुष्य
जिस—जिस मार्ग
से परमात्मा
तक पहुंच सकता
है,
वे सभी
मार्ग अर्जुन
के सामने
कृष्ण खोलकर
रख रहे हैं।
इन सभी
मार्गों पर
अर्जुन चलेगा
नहीं। चलने की
कोई जरूरत भी
नहीं है।
लेकिन सभी को
जानकर जो
मार्ग वह
चुनेगा, वह
मार्ग उसके
लिए सर्वाधिक
अनुकूल होगा।
दूसरी
बात,
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
जो संबंध है, वह गुरु और
शिष्य का नहीं,
दो मित्रों
का है। दो
मित्रों का
संबंध और गुरु—शिष्य
के संबंध में
बड़े फर्क हैं।
और इसीलिए
कृष्ण गुरु की
भाषा में नहीं
बोल रहे हैं, एक मित्र की
भाषा में बोल
रहे हैं। वे
सभी बातें
अर्जुन को कह
रहे हैं, जैसे
वे अर्जुन को
परसुएड कर रहे
हैं, फुसला
रहे हैं, राजी
कर रहे हैं।
उसमें आदेश
नहीं है, उसमें
आज्ञा नहीं है।
एक मित्र एक
दूसरे मित्र
को राजी कर
रहा है, समझा
रहा है। उसमें
कृष्ण ऊपर खड़े
होकर अर्जुन
को आज्ञा नहीं
दे रहे हैं; साथ खड़े
होकर अर्जुन
से चर्चा कर
रहे हैं। यह
दो गहरे
मित्रों के
बीच संवाद है।
निश्चित
ही,
कृष्ण गुरु
हैं और अर्जुन
शिष्य है, लेकिन
उनके बीच
संबंध दो मित्रों
का है। इस
मित्रता के
संबंध के कारण
गीता में जो
वार्तालाप है,
जो डायलाग
है, वह न
कुरान में है,
न बाइबिल
में है, वह
न धम्मपद में
है, न
जेन्दअवेस्ता
में है।
डायलाग, वार्तालाप,
दो मित्र
निकट से बातें
कर रहे हैं। न
अर्जुन को
भयभीत होने की
जरूरत है कि
वह गुरु से
बोल रहा है, न गुरु को
जल्दी है कि
वह मार्ग पर
लगा दे अर्जुन
को। दो
मित्रों की
चर्चा है। इस
मित्रता की
चर्चा से जो
नवनीत
निकलेगा, उसका
बड़ा मूल्य है।
गहरे
में तो अर्जुन
शिष्य है, उसे
इसका कोई पता
नहीं। वह पूछ
रहा है, प्रश्न
कर रहा है, जिज्ञासा
कर रहा है, वे
शिष्य के
लक्षण हैं।
लेकिन वे
लक्षण अचेतन
हैं।
अर्जुन
ऐसे ही पूछ
रहा है, जैसे
एक मित्र से
मुसीबत में
सलाह ले रहा
है। उसे पता
नहीं है कि वह
शिष्य होने के
रास्ते पर चल
पड़ा। सच तो यह
है कि जो उसने
पूछा था, उसने
कभी सोचा भी न
होगा कि उसके
परिणाम में जो
कृष्ण ने कहा,
वह कहा
जाएगा।
अर्जुन ने तो
इतना ही पूछा
था कि मेरे
प्रियजन हैं,
संबंधी हैं,
मित्र हैं,
नाते —रिश्तेदार
हैं, सभी
मेरे परिवार
के लोग हैं, इस तरफ भी, उस तरफ भी।
हम सब बंटकर
खड़े हैं, एक
बड़ा कुटुंब।
उस तरफ मेरे
गुरु हैं, पूज्य
भीष्म हैं। यह
सब संघर्ष
पारिवारिक है;
यह हत्या
अकारण मालूम
पड़ती है। ऐसे
राज्य को पाकर
भी मैं क्या
करूंगा, जिसमें
मेरे सभी
संबंधी और
मित्र नष्ट हो
जाएं? तो
ऐसा राज्य तो
त्याग देने
योग्य लगता है।
अर्जुन
के मन में एक
वैराग्य का
उदय हुआ है।
वह उदय भी मोह
के कारण ही
हुआ है। अगर वह
वैराग्य मोह
के कारण न
होता, तो
कृष्ण को गीता
कहने की कोई
जरूरत न होती,
अर्जुन
विरागी हो गया
होता। जो
वैराग्य मोह
के कारण पैदा
होता है, वह
वैराग्य है
ही नहीं। वह
केवल वैराग्य
की भाषा बोल
रहा है। इस
दुविधा के
कारण गीता का
जन्म हुआ।
अर्जुन
कहता तो यह है कि
मेरे मन में
वैराग्य आ रहा
है,
यह सब छोड़
दूं; यह सब
असार है।
लेकिन कारण जो
बता रहा है, कारण यह कि
मेरे प्रियजन,
मेरे मित्र,
मेरे
संबंधी, मेरे
गुरु, ये
सब मरेंगे, कटेंगे।
वैराग्य का जो
कारण है, वह
मोह है।
यह
असंभव है। कोई
भी वैराग्य
मोह से पैदा
नहीं हो सकता।
वैराग्य तो
पैदा होता है
मोह की मुक्ति
से। अर्जुन की
यह जो कठिनाई
है,
इस दुविधा
के कारण पूरी
गीता का जन्म
हुआ।
अर्जुन
को यह पता भी
नहीं है कि
उसका जो वैराग्य
है,
वह झूठा है।
उसकी जड़ में
मोह है। और जहां
मोह की जड़ हो, वहा वैराग्य
के फूल नहीं
लग सकते। मोह की
जड़ में कैसे
वैराग्य के
फूल लग सकते
हैं? अर्जुन
परेशान तो मोह
से है।
समझें, अगर
उसके
रिश्तेदार न
कटते होते, कोई और कट
रहा होता, तो
अर्जुन
बिलकुल फिक्र
न करता। वह
घास—पत्तियों
की तरह तलवार
से काट देता।
इसके पहले भी
उसने बहुत बार
लोगों को काटा
है, लड़ा है,
झगड़ा है, लेकिन कभी
उसके मन में
वैराग्य नहीं
उठा। क्योंकि
जिनको काट रहा
था, उनसे
कोई संबंध न
था। वह पुराना
धनुर्धर है, शिकार उसे
सहज है, युद्ध
उसके लिए खेल
है।
आज
जो तकलीफ खड़ी
हो रही है, वह
तकलीफ लोग कट
जाएंगे, इससे
नहीं हो रही
है। अपने लोग
कट जाएंगे! वह
अपनत्व, ममत्व
के कारण तकलीफ
हो रही है।
देखता है अपने
ही परिवार को
दोनों तरफ
बंटा हुआ, जिनके
साथ बडा हुआ, मित्र की तरह
खेला, जो
अपने ही भाई
है, अपने
ही गुरु है, जिन्होंने
सिखाया! उस
तरफ द्रोण खड़े
हैं, जिनसे
सारी कला सीखी।
आज उन्हीं की
हत्या करने को
उन्हीं की कला
का उपयोग करना
पड़ेगा। आज
उनको ही काटना
होगा, जिनके
चरणों पर कल
सिर रखा था।
इससे अड़चन आ
रही है। अगर
इनकी जगह कोई
भी होते अ ब स, अर्जुन ऐसे
काट देता, जैसे
घास काट रहा
है।
उसे
कोई अहिंसा का
भाव पैदा नहीं
हो रहा है, वह
किसी वैराग्य
को उपलब्ध
नहीं हो रहा है,
सिर्फ मोह
दुख दे रहा है।
अपनों को ही
काटना कष्ट दे
रहा है। इसलिए
गीता का जन्म
हुआ। अर्जुन
का वैराग्य
वास्तविक
नहीं है। अगर
अर्जुन का
वैराग्य
वास्तविक हो,
तो वह कृष्ण
से पूछेगा भी
नहीं।
यह
भी थोड़ा समझ
लेना चाहिए।
जब हमारे भीतर
झूठी चीजें
होती हैं, तो
हम किसी से
पूछते हैं।
एक
युवक मेरे पास
आया और वह
कहने लगा कि
मैं आपसे
पूछने आया हूं
क्या मैं
संन्यास ले
लूं?
मैंने उस
युवक से कहा
कि अगर मैं
कहूं कि मत लो,
तो तुम क्या
करोगे? वह
बोला कि मैं
नहीं लूंगा।
तो मैंने कहा
कि जो संन्यास
किसी के पूछने
पर निर्भर
करता हो—कि
कोई कह दे कि
ले लो, कोई
कह दे कि न ले
लो, और तुम
उसकी मान लोगे—वह
संन्यास
तुम्हारे
भीतर कहीं
गहरे में उठ नहीं
रहा है।
बुद्ध
किसी से पूछने
नहीं जाते हैं।
महावीर किसी
से पूछने नहीं
जाते हैं।
जीसस किसी से
पूछने नहीं
जाते हैं कि
मैं ऐसा कर
लूं?
यह वैराग्य
का उदय हो रहा
है, तो अब
मैं क्या करूं?
अर्जुन
पूछता है।
अर्जुन के
भीतर कोई
वैराग्य नहीं
है,
सिर्फ मोह—ममता
है। उसका
वैराग्य झूठा
है। नहीं तो
वह कृष्ण से
कहता कि मैं
जाता हूं बात खतम
हो गई। मुझे
दिखाई पड गया
कि यह सब
व्यर्थ है और
असार है। फिर
कृष्ण भी न समझाने
की कोशिश करते,
न समझाने का
कोई अर्थ था।
अर्जुन
दुविधा में है, कहें
कि
सीजोफ्रेनिक
है, बंटा
हुआ है। आधा
मन तो लड़ने के
लिए आतुर है, धन के लिए
आतुर है; राज्य
के लिए आतुर
है। वह भी मोह
है। और आधा मन
इस हत्या से
भी भयभीत हो
रहा है अपनों
को ही मारने
की। वह भी मोह
है। और इन
दोनों से
मिलकर
वैराग्य की वह
बातें कर रहा
है, जो कि
बिलकुल झूठी
हैं, क्योंकि
इन दोनों से
वैराग्य का
कोई भी संबंध नहीं
है।
इसे
थोड़ा आप ठीक
से समझ लेना।
बहुत बार आप
भी वैराग्य की
बातें करते
हैं। लेकिन
ध्यान रखना कि
आपका वैराग्य
मोह से तो पैदा
नहीं हो रहा
है।
किसी
आदमी की पत्नी
मर जाती है और
वह विरागी हो
जाता है। और
कल तक उसको
वैराग्य का
कोई खयाल नहीं
था। किसी आदमी
का दिवाला
निकल जाता है
और वह संन्यास
के लिए उत्सुक
हो जाता है।
कल तक उसे
संन्यास का
क्षणभर भी
खयाल नहीं था।
अब दिवाले से
निकलने वाले
संन्यास की
कितनी कीमत हो
सकती है, थोड़ा
समझ लेना। और
पत्नी के मरने
से जो वैराग्य
निकलता है, वह किस
मूल्य का होगा?
जुए में हार
जाने से कोई
संन्यासी हो
जाएगा, तो
उस संन्यास
में गंध तो
जुए की ही
होगी। वह
संन्यास जुए
का ही रूप
होगा, क्योंकि
बीज में तो
जुआ था। अगर
यही आदमी जुए
में जीत गया
होता, तो? यह पत्नी न
मरी होती, तो?
यह दिवाला न
निकला होता, तो? तो इस
आदमी का
वैराग्य से
कोई लेना—देना
न था।
तो
जब आपके मन
में ऐसा कोई
वैराग्य उठता
हो,
जिसकी जड़
में मोह हो, तो आप समझना
कि यह वैराग्य
झूठा है और इस
वैराग्य के आधार
पर आप
परमात्मा तक
नहीं पहुंच
सकेंगे।
पर
अर्जुन को पता
नहीं है कि वह
क्या पूछ रहा
है।
ध्यान
रहे,
जब आप किसी
गुरु से पूछते
हैं कुछ, तो
जरूरी नहीं है
कि जो आप
पूछते हैं, वही आपकी
मौलिक
जिज्ञासा हो।
आपका प्रश्न
तो बहुत ऊपरी
होता है।
क्योंकि
भीतरी प्रश्न
भी खोजना अति कठिन
है। लेकिन
गुरु आपके
ऊपरी प्रश्न
से आपके भीतरी
प्रश्नों को
उठाना शुरू
करता है। वह
तो सिर्फ उसको
एक खूंटी बना
लेता है; और
फिर आपके भीतर
प्रवेश करने
लगता है; और
जो छिपा है, उसे बाहर
लाने लगता है।
अर्जुन
ने कुछ पूछा
है,
कृष्ण कुछ
कह रहे हैं।
और अर्जुन
धीरे— धीरे
उत्सुक हो गया
उनकी बात
सुनने में। वह
भूल ही गया
युद्ध, अपने—जन,
वैराग्य, वह बात भूल
गया। वह कुछ
और ही बातें
पूछने लगा।
कृष्ण ने उस
मौके का बहाना,
लाभ उठाकर,
अर्जुन के
मन को खोल
दिया उसकी
भीतर की सारी
संभावनाओं के
प्रति।
अर्जुन
अनजाना शिष्य
है। जान में
तो वह मित्र
है। कृष्ण
जानकर गुरु
हैं। और
अर्जुन के
प्रति
मित्रता का जो
भाव है, वह
केवल अर्जुन
की मित्रता के
उत्तर में है।
अर्जुन
अनजाना शिष्य
है और कृष्ण
जानकर गुरु हैं।
लेकिन वे यह
भी जानते हैं
कि अगर वे
गुरु की भाषा
में बोलें, तो
अर्जुन को
पीड़ा होगी, उसके अहंकार
को चोट लगेगी।
वह तो मित्र
ही मानकर जीया
है। अगर मित्र
न माना होता, तो उनको
सारथी बनने के
लिए राजी भी
नहीं करता।
बात ही बेहूदी
है कि उनसे
कहता कि तुम
मेरे घोड़ों को
सम्हाली और
मेरे रथ के
सारथी हो जाओ!
वे बचपन के
साथी हैं, दोस्त
हैं। गहरी
उनकी मित्रता
है।
अर्जुन
के मन को चोट न
पहुंचे, इसलिए
कृष्ण बात
करते हैं
मित्र की भाषा
में ही। और
धीरे— धीरे उस
मित्र की भाषा
में ही गुरु
का। संदेश भी
डालते जाते
हैं। और जैसे—जैसे
अर्जुन राजी
होता जाता है,
वैसे—वैसे
वे गुरु होते
जाते हैं।
जैसे ही अर्जुन
बंद होता है
और डरता है, वैसे ही वे
मित्र हो जाते
हैं। जैसे ही
अर्जुन राजी
होता है, खुलता
है, ग्राहक
होता है, वे
बहुत ऊंचाई पर
उठ जाते हैं।
उस ऊंचाई पर जहां
कि वे
परमात्मा हैं;
वहां से
बोलने लगते
हैं।
इसलिए
कृष्ण के इन
वचनों में कई
तलों के वचन हैं।
कभी वे ठीक
मित्र की तरह
बोल रहे हैं।
कभी वे गुरु
की तरह बोल
रहे हैं। कभी
वे ठीक
परमात्मा की
तरह बोल रहे
हैं। आखिरी
ऊंचाई से लेकर
साधारण जीवन
के तल तक कृष्ण
बोल रहे हैं।
इसलिए गीता
बहुत तलों पर
है। और अर्जुन
पर निर्भर है; अर्जुन
जब जिस ऊंचाई
पर उठ सकता है,
उस ऊंचाई की
वे बात करते
हैं।
सभी
मार्गों की
उन्होंने
अर्जुन के
सामने बात रख
दी है, ताकि
अर्जुन सहज ही
चुनाव कर ले।
और अर्जुन यह
नहीं पूछ रहा
है कि आप मुझे
मार्ग दे दो।
तो कृष्ण एक
ही मार्ग दे
सकते थे।
अर्जुन तलाश
में है। अभी
उसे यह भी
पक्का पता
नहीं है कि वह
क्या खोज रहा
है। अभी उसे
यह भी मालूम
नहीं है कि वह
क्या चाहता है।
तो कृष्ण सारे
मार्ग खोलकर
रखे दे रहे
हैं। शायद इन
मार्गों के
संबंध में बात
करते—करते ही
कोई मार्ग
अर्जुन के लिए
आकृष्ट कर ले,
चुंबक बन
जाए और अर्जुन
खिंच जाए।
और
फिर इस बहाने, अर्जुन
के बहाने, पूरी
मनुष्यता के
लिए यह संदेश
हो जाता है।
क्योंकि ऐसा
कोई भी मार्ग
नहीं है, जिस
पर कृष्ण ने
गीता में मूल
बात न कर ली हो।
तो सभी
मार्गों के
लोग अपने
योग्य बात
गीता में पा
सकते हैं।
इसका
फायदा भी है, इसका
नुकसान भी है।
इसका फायदा कम
हुआ, नुकसान
ज्यादा हुआ। क्योंकि
आदमी कुछ ऐसा
है कि फायदा
लेना जानता ही
नहीं, सिर्फ
नुकसान लेना
ही जानता है।
कृष्ण
ने सारे मार्ग
गीता में कह
दिए हैं। और
जब वे एक
मार्ग के
संबंध में
बोलते हैं, तो
बाकी के संबंध
में भूल जाते
हैं। और उस
मार्ग को उसकी
पूरी ऊंचाई पर
उठा देते हैं।
इसलिए उन्होंने
सभी मार्गों
की प्रशंसा की
है। कभी
उन्होंने
भक्ति को कहा
श्रेष्ठ, कभी
उन्होंने ज्ञान
को कहा
श्रेष्ठ, कभी
उन्होंने
कर्म को कहा
श्रेष्ठ।
अब
यह बड़ी उलझन
वाली बात है।
क्योंकि अगर
भक्ति
श्रेष्ठ है, तो
साधारण
बुद्धि का
आदमी कहेगा, फिर कर्म को
श्रेष्ठ नहीं
कहना चाहिए; फिर ज्ञान
को श्रेष्ठ
नहीं कहना
चाहिए। और अगर
ज्ञान
श्रेष्ठ है, तो फिर
भक्ति को
श्रेष्ठ नहीं
कहना चाहिए।
और कृष्ण इसकी
फिक्र ही नहीं
करते। वे जिस
मार्ग की बात
करते हैं, उसको
उसकी
श्रेष्ठता तक
पहुंचा देते
हैं। उसकी
ऊंचाई, उसकी
आखिरी गरिमा,
उसका आखिरी
गौरीशंकर का
शिखर खोल देते
हैं। और जब
दूसरे मार्ग
की बात करते
हैं, तो
उसका
गौरीशंकर
खोलते हैं। तब
वे भूल ही
जाते हैं कि
एक क्षण पहले
उन्होंने ज्ञान
को श्रेष्ठ
कहा था, अब
वे भक्ति को
श्रेष्ठ कह
रहे हैं।
यह
इस कारण, यह
किया तो कृष्ण
ने इसलिए ताकि
अर्जुन को
प्रत्येक
मार्ग का जो
श्रेष्ठतम है,
प्रत्येक
मार्ग में जो
गहनतम गहराई
है, उसका
उसे खयाल दिला
दें, फिर
चुनाव उसके
हाथ में है।
यह
वक्तव्य कि ज्ञान
श्रेष्ठ है, यह
वक्तव्य कि
भक्ति
श्रेष्ठ है, तुलनात्मक
नहीं है। यह
ऐसा ही है, जैसे
आपने गुलाब का
फूल देखा और
आपने कहा किं
अदभुत! इससे
सुंदर मैंने
कुछ भी नहीं
देखा। फिर
आपने रात आकाश
में तारे देखे
और आपने कहा, अदभुत! इससे
सुंदर मैंने
कुछ भी नहीं
देखा। और फिर
एक दिन सुबह
आपने सप्तार
का गर्जन सुना
और सागर की
लहरें
चट्टानों से
टकराती देखीं और
आपने कहा, इससे
सुंदर मैंने
कभी कुछ नहीं
देखा।
ये
कोई
तुलनात्मक
वक्तव्य नहीं
हैं। यह उस
क्षण में आपकी
भाव—दशा को
पूरा पकड़ लिया
फूल ने और फूल
इस जगत का सर्वाधिक
श्रेष्ठतम
सौंदर्य हो
गया। और दूसरे
क्षण में इसी
भांति चांद ने
पकड़ लिया। और
तीसरे क्षण
में सागर ने
पकड़ लिया। ये
तीनों बातों
में कोई विरोध
नहीं है और
कोई तुलना
नहीं है। ये
सिर्फ इस बात
की खबर देते
हैं कि एक ऐसी
भी भाव—दशा है, जब
फूल से जीवन
का श्रेष्ठतम
अनुभव होता है।
उसी भाव—दशा
में कभी चांद—तारों
से भी जीवन के
श्रेष्ठतम
सौंदर्य की प्रतीति
हो जाती है।
और कभी उसी
भाव—दशा का रस,
संगीत, सागर
की लहरों से
भी बंध जाता
है।
कबीर
एक ढंग से उसी
शिखर पर पहुंच
जाते हैं।
बुद्ध दूसरे
ढंग से उसी
शिखर पर पहुंच
जाते हैं।
महावीर तीसरे
ढंग से उसी
शिखर पर पहुंच
जाते हैं। वह
शिखर एक है।
वह भाव—दशा एक
है। कृष्ण इस
तरह बात कर
रहे हैं कि
उसमें कोई तुलना
नहीं है। एक—दूसरे
को नीचा
दिखाने का भाव
नहीं है।
एक
मित्र ने
मुझसे प्रश्न
पूछा है कि जब
आप कृष्ण पर
बोलते हैं, तो
ऐसा लगता है
कि जैसे कृष्ण
श्रेष्ठतम
हैं। और जब आप
लाओत्से पर
बोलते हैं, तो ऐसा लगता
है, लाओत्से
का कोई
मुकाबला नहीं।
जब आप महावीर
पर बोलते हैं,
तो ऐसा लगता
है कि बाकी सब
फीके हैं, महावीर
ही सब कुछ हैं।
वह
बिलकुल आपको
ठीक लगता है।
लेकिन उस लगने
का आप साफ
मतलब समझ लेना, नहीं
तो नुकसान
होगा; आप
कनफ्यूजन में
पड़ेंगे।
जब
मैं लाओत्से
पर बोल रहा
हूं तो
लाओत्से के अतिरिक्त
मेरे लिए कोई
भी नहीं है।
तो जब मैं
कहता हूं कि
लाओत्से
अद्वितीय है, तो
उसका यह मतलब
नहीं है कि वह
महावीर से
श्रेष्ठ है या
बुद्ध से
श्रेष्ठ है।
उसका कुल मतलब
यह है कि वह
अपने आप में
एक गौरीशंकर
है। उसकी कोई
तुलना नहीं।
और न ही
महावीर की कोई
तुलना है, और
न बुद्ध की, और न कृष्ण
की। लेकिन आम
आदमी तुलना
करता है, कंपेरिजन
करता है, और
उससे तकलीफ
में पडता है।
गीता
के साथ बड़ा
अन्याय हुआ है।
शंकर एक
व्याख्या
लिखते हैं। वह
व्याख्या भी
अन्यायपूर्ण
है,
क्योंकि
शंकर ज्ञान को
श्रेष्ठतम
मानते हैं। वह
उनकी मान्यता
है। उस
मान्यता में
कोई भूल नहीं
है। ज्ञान
श्रेष्ठ है।
किसी और से
श्रेष्ठ नहीं
है तुलनात्मक
अर्थों में, अपने आप में
श्रेष्ठ है।
दूसरे से कोई
संबंध नहीं है।
शंकर की
मान्यता है कि
ज्ञान
श्रेष्ठ है।
यह मान्यता
बिलकुल ठीक है
और सही है।
फिर वे इसी
मान्यता को
पूरी गीता पर
थोप देते हैं।
तो
कुछ तो वचन
ठीक हैं, जिन
में कृष्ण
ज्ञान को
श्रेष्ठ कहते
हैं। वहां तो
शंकर को कोई
तकलीफ नहीं है।
लेकिन जहां
कृष्ण भक्ति
को श्रेष्ठ
कहते हैं और
कर्म को
श्रेष्ठ कहते
हैं, वहां
शंकर को अडूचन
आती है। पर
शंकर बहुत
कुशल तार्किक
हैं। वे
रास्ता निकाल
लेते हैं। वे
शब्दों में से
भूलभुलैया
खड़ी कर लेते
हैं। वे
शब्दों के नए
अर्थ कर लेते
हैं। वे
शब्दों की ऐसी
व्याख्या जमा
देते हैं कि पूरी
गीता शंकर की
व्याख्या में
ज्ञान की गीता
हो जाती है।
वह अन्याय है।
रामानुज
भक्ति को
श्रेष्ठ
मानते हैं।
बिलकुल ठीक है।
कुछ गलती नहीं
है। लेकिन वे
भक्ति के
सूत्रों के
आधार पर सारी
गीता पर भक्ति
को आरोपित कर
देते हैं। वह
अन्याय है।
तिलक
कर्म को
श्रेष्ठ
मानते हैं, तो
पूरी गीता पर
कर्म को
आरोपित कर
देते हैं। वह
अन्याय है।
अपने आप में
बात बिलकुल
ठीक है।
कर्म
श्रेष्ठ है, किसी
और से नहीं, श्रेष्ठ है
इसलिए कि उससे
भी परमात्मा
तक पहुंचा जा
सकता है।
भक्ति
श्रेष्ठ है, किसी और से
नहीं, श्रेष्ठ
है इसलिए कि
वह भी
परमात्मा का
द्वार है।
ज्ञान
श्रेष्ठ है, किसी और से
नहीं; वह
भी वहीं
पहुंचा देता
है, जहां
भक्ति और कर्म
पहुंचाते हैं।
और
जो व्यक्ति
जिस मार्ग से
चलता है, स्वभावत:
उसे वह
श्रेष्ठ
लगेगा।
क्योंकि उससे
वह चलता है, उससे वह
पाता है, उससे
उसे अनुभव
होता है। और
दूसरे मार्ग
से जो चलता है,
उसका उसे
कोई भी पता
नहीं है।
कृष्ण
ने सभी
मार्गों की
बात कही है।
एक
मित्र ने
मुझसे यह भी
पूछा है कि
शंकर ने एक व्याख्या
की,
रामानुज ने
दूसरी
व्याख्या की,
वल्लभ ने
तीसरी
व्याख्या की,
निम्बार्क
ने चौथी
व्याख्या की,
तिलक ने
पांचवीं की, गांधी
ने की, विनोबा
ने की; कोई
एक हजार
व्याख्याकार
गीता के हुए
जाने—माने, गैर जाने—माने
तो और भी बहुत
हैं। मुझसे
पूछा है कि आप
जो व्याख्या
कर रहे हैं, इसमें और
उनकी
व्याख्या में
क्या फर्क है?
इसमें
बहुत फर्क है।
मेरा कोई
संप्रदाय
नहीं है। मुझे
गीता पर कुछ
भी आरोपित
नहीं करना है।
न मुझे आरोपित
करना है ज्ञान, न
मुझे आरोपित
करनी है भक्ति,
न मुझे
आरोपित करना
है कर्म। मुझे
पूरी गीता पर
कोई चीज
आरोपित नहीं
करनी है। पूरी
गीता पर जो भी
कुछ आरोपित
करने की कोशिश
करेगा, वह
कृष्ण के साथ
अन्याय कर रहा
है।
मुझे
तो इंच—इंच
गीता जो कहती
है,
उसको ही
प्रकट कर देना
है, इसकी
बिना फिक्र
किए कि आगे—पीछे
उसके विपरीत,
उसके विरोध
में भी कुछ
कहा गया है।
मुझे कोई
सिस्टम, कोई
व्यवस्था
नहीं बिठानी
है। लेकिन
कनफ्जूजिंग
होगी, मेरी
बात में बड़ा
भ्रम पैदा
होगा। वह वैसा
ही भ्रम होगा,
जैसा कृष्ण
की बात में है।
क्योंकि कभी
मैं कहूंगा, ज्ञान
श्रेष्ठ है।
जब गीता ज्ञान
को श्रेष्ठ
कहेगी, तो
मैं भी कहूंगा।
और जब गीता
भक्ति को
श्रेष्ठ
कहेगी, तो
मैं भी कहूंगा।
मैं गीता के
साथ बहा।। मैं
अपने साथ गीता
को नहीं
बहाऊंगा।
मेरी
कोई धारणा
नहीं है, जो
मुझे गीता पर
आरोपित करनी
है। अगर मेरी
कोई धारणा हो,
जो गीता पर
मुझे आरोपित
करनी है, तो
इसको मैं
व्यभिचार
मानता हूं। यह
उचित नहीं है।
और
इसीलिए मुझे
सुविधा है कि
मैं गीता पर
बोलूं तो मुझे
तकलीफ नहीं है।
मैं कुरान पर
बोलूं तो मुझे
तकलीफ नहीं है।
मैं बाइबिल पर
बोलूं तो मुझे
तकलीफ नहीं है।
क्योंकि मुझे
किसी चीज पर
कुछ आरोपित
नहीं करना है।
मैं
मानता हूं
बाइबिल अपने
में इतना
अदभुत फूल है
कि मैं उसको
आपके सामने खोल
सकूं तो काफी, उसकी
सुगंध आपको
मिल जाए, बहुत
है। उस पर कुछ
थोपने की
जरूरत नहीं है।
इसलिए
जो लोग मेरे
बहुत—से
वक्तव्य पढ़ते
हैं,
उनको लगता
है, उनमें
मैं बड़ा
कंट्राडिक्यान
है। लगेगा, विरोध लगेगा।
कभी मैं यह
कहा हूं और
कभी मैं यह
कहा हूं और कभी
मैं यह कहा हूं।
निश्चित ही, कभी मैं
गुलाब की
तारीफ कर रहा
था। और कभी
मैं चांद—तारों
की तारीफ कर
रहा था। और
कभी मैं सागर
की लहरों की
तारीफ कर रहा
था। उन
तारीफों में
फर्क होगा।
क्योंकि
गुलाब गुलाब
है। चांद—तारे
चांद—तारे हैं।
लहरें लहरें
हैं। और जगत
विराट है।
जो
व्यक्ति इन सब
के बीच तालमेल
बिठालने की
कोशिश करेगा, वह
मुश्किल में
पड़ जाएगा, अड़चन
में पड़ जाएगा।
तालमेल
बिठालने की
जरूरत ही नहीं
है। आपको इस
सब में जो ठीक
लग जाए, उस
पर चलने की
जरूरत है। फिर
बाकी बातों को
आप छोड़ दें।
गीता ज्ञान को
भी कहेगी, कर्म
को भी कहेगी, भक्ति को भी
कहेगी। आप
फिक्र छोड़े कि
तीनों में कौन
श्रेष्ठ है।
जो आपको
श्रेष्ठ लग
जाए, आप उस
पर चल पड़े।
लेकिन
कुछ लोग हैं, जो
चलते नहीं हैं,
जो बैठकर इस
चर्चा में
जीवन व्यतीत
करते हैं कि
क्या श्रेष्ठ
है। ज्ञान
श्रेष्ठ है? भक्ति
श्रेष्ठ है? कर्म
श्रेष्ठ है? पूरी जिंदगी
लगा देते हैं।
इनके
मस्तिष्क
विक्षिप्त
हैं। ये होश
में नहीं हैं
कि ये क्या कर
रहे हैं।
अर्जुन
के सामने
कृष्ण ने सब
मार्ग खोलकर
रख दिए हैं।
और हर मार्ग
को उन्होंने
इस तरह से
प्रस्तावित
किया है, जैसा
उस मार्ग को
मानने वाला
प्रस्तावित
करेगा, पूरी
उसकी शुद्धता
में। उस मार्ग
को
प्रस्तावित
करते समय वे
उसी मार्ग के
साथ एक हो गए
हैं।
कृष्ण
तो जानकर गुरु
हैं। और बहुत
बार ऐसा होता
है कि आप
जानकर शिष्य
नहीं होते। हो
भी नहीं सकते।
क्योंकि
शिष्य को इतना
भी होश कहां
है कि वह क्या
है,
इसका पता
लगा ले।
इजिप्त
के पुराने
शास्त्रों
में कहा गया
है कि शिष्य
कभी गुरु को
नहीं खोज सकता।
शिष्य खोजेगा
कैसे? उसके
पास मापदंड
कहां है? वह
कैसे परखेगा
कि यही है
गुरु? और
कैसे परखेगा
कि यही गुरु
मेरे लिए है? कैसे जानेगा
कि यह आदमी
ठीक है या गलत
है? क्या
है उसके पास
मार्ग, दिशासूचक
यंत्र जिससे
पहचानेगा कि
इस आदमी के
पीछे चलकर मैं
पहुंच जाऊंगा?
शिष्य कैसे
गुरु को
खोजेगा?
इजिप्त
की पुरानी
किताबें कहती
हैं कि शिष्य कभी
गुरु को नहीं
खोजता। इसका
यह मतलब नहीं
है कि शिष्य
को खोज छोड्कर
घर बैठ जाना
चाहिए। खोजना
तो उसे चाहिए, हालांकि
वह खोज न सकेगा।
लेकिन खोजने
के उपक्रम में
गुरुओं के लिए
उपलब्ध हो
जाएगा। कोई
गुरु उसको खोज
लेगा।
हमेशा
गुरु ही शिष्य
को खोजता है।
और गुरु खोजने
नहीं निकलता, शिष्य
खोजने निकलता
है। लेकिन
अनेक गुरुओं
के पास से
गुजरते—गुजरते
कोई गुरु उसे
पकड़ लेता है।
लेकिन तब भी
गुरु को ऐसी
ही व्यवस्था
करनी पड़ती है
कि शिष्य को
लगे कि उसने
ही चुना है।
ये जरा
जटिलताएं हैं।
गुरु
को ऐसा इंतजाम
करना पड़ता है
कि जैसे शिष्य
ने ही उसे
चुना है।
क्योंकि
शिष्य के
अहंकार को यह
बात बरदाश्त के
बाहर होगी कि
गुरु ने उसे
चुन लिया। वह
भाग खड़ा होगा।
यह पता चलते
ही कि गुरु ने
उसे चुना है, वह
भाग जाएगा। तो
गुरु उसे इस
ढंग से
व्यवस्था
देगा कि उसे लगे
कि उसने ही
गुरु को चुना
है। और अगर
कभी किसी दिन
गुरु को उसे
अलग भी करना होगा,
तो गुरु ऐसी
ही व्यवस्था
देगा कि शिष्य
समझेगा, मैंने
ही गुरु को
छोड़ दिया है।
गुरु
का काम जटिल
है,
और गहन है, और गुह्य है।
लेकिन हमेशा
गुरु ही आपको
चुनता है, क्योंकि
उसके पास
दृष्टि है। वह
जानता है। वह
आपके भीतर
झांक सकता है।
वह आपका आगा—पीछा
देख सकता है।
आप क्या कर
सकते हैं, क्या
हो सकते हैं, इसकी उसके
पास देखने की
दूरी, क्षमता,
निरीक्षण है।
शिष्य कैसे खोजेगा?
मेरे
पास लोग आते
हैं। पश्चिम
में बहुत दौड़
है;
और पश्चिम
से युवक
निकलते हैं
गुरु की तलाश
में; सारी
जमीन को खोज
डालते हैं।
कभी इस मुल्क
में ऐसी दौड़
थी। वह खो गई।
यह मुल्क बहुत
दिन पहले
अध्यात्म की
दिशा में मर
चुका है। जब
बुद्ध जिंदा
थे, तब इस
मुल्क में भी
ऐसी दौड़ थी।
लोग एक कोने
से दूसरे कोने
तक घूमते थे
गुरु की तलाश
में, कि
कोई चुंबक मिल
जाए, जो
खींच ले। सारी
दुनिया से
हिंदुस्तान
उस समय भी लोग
आते थे।
अब
फिर पश्चिम
में एक दौड़
शुरू हुई है।
पश्चिम के
युवक और
युवतियां
खोजते निकल
रहे हैं, गुरु
कहां है!
मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं। मैं
उनसे कहता हूं
कि तुम खोज न
पाओगे गुरु को, लेकिन
खोज मत बंद
करो। खोज जारी
रखो, ताकि
तुम अवेलेबल,
उपलब्ध रहो।
घूमते रहो।
कोई गुरु
तुम्हें चुन
लेगा। और
तुम्हारी अगर
इतनी ही
तैयारी हुई कि
तुम किसी गुरु
से चुने जाने
के लिए राजी
हो गए, और
किसी गुरु की
धारा में बहने
को राजी हो गए,
इतनी
तुम्हारी
तैयारी रही, तो तुम्हारे
जीवन में
रूपांतरण
आसान है।
अर्जुन
के सामने
कृष्ण सारे
मार्ग रखे दे
रहे हैं। यह
सिर्फ मार्ग
रखना ही नहीं
है;
मार्ग समझा
रहे हैं और
यहां ऊपर से
कृष्ण की चेतना
अर्जुन में
झांककर भी
देखती जा रही
है। कौन—सा
मार्ग उसे
जमता है! कौन—से
मार्ग में वह
ज्यादा रस
लेता है! कौन—से
मार्ग
में
ज्यादा सवाल
उठाता है! कौन—से
मार्ग में
उसके भीतर
तरंगें उठने
लगती हैं! कौन—से
मार्ग में वह
समाधिस्थ
होकर सुनने
लगता है! कौन—से
मार्ग में ऊब
जाता है, जम्हाई
लेता है! कौन—से
मार्ग से उसका
तालमेल बैठता
है; कौन—से
मार्ग से कोई
तालमेल नहीं बैठता!
यह सब वे
देखते जा रहे
हैं। इस सारी
चर्चा के साथ—साथ
अर्जुन का
निरीक्षण चल
रहा है। एक
अर्थ में यह
अर्जुन का
मनोविश्लेषण
है।
फ्रायड
ने इस सदी में
मनोविश्लेषण
की कला खोजी।
यह
थोड़ा खयाल में
ले लेना जरूरी
होगा। और जो
लोग
मनसशास्त्र
में उत्सुक
हैं और जो लोग
साधना के लिए
जरा भी
जिज्ञासा
रखते हैं, उनके
बहुत काम का
होगा।
फ्रायड
ने एक मार्ग
खोजा। वह
मार्ग बिलकुल
उलटा है। जैसा
मार्ग गुरु
हमेशा उपयोग
करते रहे थे, उससे
उलटा है।
फ्रायड अपने
मरीज को लिटा
देता है कोच
पर, पीछे
बैठ जाता है
परदे की ओट
में। और मरीज
से कहता है, जो भी तुझे
कहना हो, कह।
तू बिलकुल
फिक्र मत कर
कि क्या कह
रहा है। जो भी
तेरे भीतर आता
हो, उसको
तू कहता जा।
सहज एसोसिएशन
से, जो भी
तेरे भीतर आ
जाए साहचर्य
से, तू
कहता जा।
मरीज
कहना शुरू कर
देता है।
अनर्गल बातें
भी कहता है।
कभी सार्थक
बातें भी कहता
है। कभी अचानक
कुछ भी आ जाता
है असंगत, वह
भी कहता है।
पर उसको इसी
का सहारा देता
है फ्रायड कि
तू सिर्फ कहता
जा, जो भी
तेरे भीतर है।
और फ्रायड
परदे के पीछे
बैठकर सुनता
है।
वह
इस मनुष्य के
मन में प्रवेश
कर रहा है।
इसके भीतर जो
चलती रहती हैं
बातें, जो
विचार, जो
शब्द, वह
उनकी जांच कर
रहा है। इन
शब्दों के
माध्यम से वह
उसके भीतर खोज
रहा है, कितनी
असंगति है, कितना
उपद्रव है, कितनी
विक्षिप्तता
है। इन शब्दों
के बीच—बीच में
से कहीं—कहीं
उसे संध मिल
जाती है जिससे
कोई कुंजी मिल
जाती है; जिससे
पता चलता है।
जैसे
किसी आदमी को
लिटाया और वह
एकदम गंदी गालियां
बकने लगा, अश्लील
बातें बोलने
लगा, तो
खयाल में आता
है कि उसके
भीतर क्या चल
रहा है। और
ऐसे वह भला
आदमी था।
अच्छा आदमी था।
चर्च जाता था।
सभी तरह नैतिक
था। और भीतर
उसके यह चल
रहा है!
तो
फ्रायड
वर्षों मेहनत
करता है एक
मरीज के साथ।
ताकि धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे, वह
कितना छिपाए,
छिपा न पाए,
और भीतर जो
निकल रहा है
कचरा—कूड़ा, उसमें से वह
पकड़ ले कि
इसकी आत्मा की
तरफ स्वास्थ्य
का क्या मार्ग
होगा।
लेकिन
यह बड़ी लंबी
बात है। इसमें
कभी तीन साल
लग जाते हैं
और कभी तीस
साल भी लग
जाते हैं, पूरा
मनोविश्लेषण
होते हुए। अगर
इस तरह
मनोविश्लेषण
किया जाए, तो
कितने लोगों
का
मनोविश्लेषण
होगा? और
तीस साल के
बाद भी फ्रायड
यह नहीं कह
सकता कि
मनोविश्लेषण
सच में ही
पूरा हो गया।
क्योंकि यह
निकलता ही
जाता है। यह
कचरा अंतहीन
है।
यह
आपकी खोपड़ी
इतनी
विस्तीर्ण है!
इतनी छोटी नहीं
है,
जितनी
दिखाई पड़ती है।
इसमें लाखों
शब्द भरे हुए
हैं; और
लाखों तथ्य
भरे हुए हैं।
अगर इनको
खोलते ही चले
जाएं, तो
वे खुलते ही
चले जाते हैं।
तो यह तो बहुत
लंबा हो गया
मार्ग।
और
अब पश्चिम में
भी
मनोवैज्ञानिक
कहने लगे हैं
कि
साइकोएनालिसिस
से कुछ हल
नहीं हो सकता।
अगर एक पागल
को ठीक करने
में तीस साल
लग जाएं या दस
साल लगें, तो
कितने पागल
तुम ठीक कर
पाओगे? और
यह पूरी जमीन
पागल मालूम
होती है। यहां
कौन किसका
मनोविश्लेषण
करेगा!
और
बड़े मजे की तो
बात यह है कि
मनोविश्लेषक
भी अपना
मनोविश्लेषण
दूसरे से
करवाता है।
करवाना पड़ता
है। क्योंकि
फ्रायड की
शर्त यह है कि
जब तक तुम्हारा
खुद का
मनोविश्लेषण
न हो गया हो, तब
तक तुम दूसरे
का कैसे करोगे?
तो पहले
मनोविश्लेषक
अपना
मनोविश्लेषण
करवाता है
वर्षों तक।
फिर वह दूसरों
का करने लगता
है। मगर कितने
भी
मनोविश्लेषक
हों, तो भी
क्या होगा इस
जमीन पर?
भारत
की परंपरा कुछ
और थी। हमने
भी तरकीब खोजी
थी। इसमें
शिष्य नहीं
बोलता था, इसमें
गुरु बोलता था।
यह जरा फर्क
समझ लेना। यह
कृष्ण और अर्जुन
की बात में
खयाल आ जाएगा।
यहां शिष्य
नहीं बोलता था।
और हम शिष्य
को मरीज नहीं
कहते, वह
शब्द ठीक नहीं
है। हालांकि
सभी शिष्य
मरीज हैं।
लेकिन वह शब्द
ही ठीक नहीं
है, वह
बेहूदा है। और
अब पश्चिम में
भी मनोवैज्ञानिक
कहने लगे कि
मरीज शब्द
उपयोग करना
ठीक नहीं है, क्योंकि
उससे हम दूसरे
को मरीज कहकर
मरीज बनाने
में सहयोगी
होते हैं।
क्योंकि जो भी
शब्द हम देते
हैं, उसका
परिणाम होता
है। किसी आदमी
से कहो कि तुम
बड़े सुंदर हो,
वह फौरन खिल
जाता है। इतना
सुंदर था नहीं
कहने के पहले,
कहते से ही
खिल जाता है।
किसी आदमी को
कह दो कि तुम
जैसी शक्ल!
पता नहीं
परमात्मा
क्या कर रहा
था,
उस वक्त
तुम्हें
बनाया। कहीं
भूल—चूक कर
गया; क्या
हो गया! वह
आदमी तत्क्षण
कुम्हला जाता
है। वह इतना
कुरूप था नहीं,
जितना कहते
से ही हो जाता
है।
एक
आदमी को मरीज
कहना भी
खतरनाक है।
क्योंकि आप एक
वक्तव्य दे रहे
हैं,
जो उसके
भीतर चला
जाएगा। वह
मरीज न भी हो, तो भी मरीज
हो जाएगा।
हम
मरीज नहीं
कहते, हम तो
शिष्य कहते
हैं। हम तो
कहते हैं, सीखने
वाला। और
बीमार भी
इसीलिए बीमार
है कि उसके
सीखने में कमी
रह गई है। और
कोई बीमारी
नहीं है। उसका
ज्ञान क्षीण
है, कम है, उसका अज्ञान
ज्यादा है।
शिष्य
सुनता, गुरु
बोलता था। '
पश्चिम
मेँ अब गुरु
सुन रहा है, जो
चिकित्सक है;
और शिष्य, जो कि मरीज
है, वह बोल
रहा है। शिष्य
बोल रहा है, गुरु सुन
रहा है!
गुरु
बोलता था और
बोलते समय वह
शिष्य को
जांचता चला
जाता था, कहां
कौन—सी बात
में रस आता है!
उससे आपके
बाबत खबर
मिलती थी।
एक
मित्र ने मुझे
सवाल पूछा है
कि यह जो यहां
कीर्तन होता
है,
यह बहुत
खतरनाक चीज है।
और यह तो ऐसा
मालूम पड़ता है
कि कीर्तन
करने वाले
साधु, संन्यासी,
संन्यासिनिया
कामवासना
निकाल रहे हैं
अपनी! और
उन्हीं मित्र
ने आगे पूछा
है कि यह भी
मुझे पूछना है
कि जब मैं
लोगों को
कीर्तन करते
देखता हूं? तो अगर
स्त्रियां
कीर्तन कर रही
हैं, तो
मेरा ध्यान
उनके स्तन पर
ही जाता है!
अब
कीर्तन करते
समय जिसका
ध्यान स्तन पर
जा रहा हो, वह
यह कह रहा है
कि उसे लगता
है कि सब
संन्यासी अपनी
कामवासना
निकाल रहे
हैं! उसे यह
खयाल नहीं आता
कि उसे जो दिखाई
पड रहा है, वह
उसके संबंध
में खबर है, किसी और के सबंध
में खबर नहीं है।
और वह खुद ही
नीचे लिख रहा है
कि मुझे उनके स्तन
पर ध्यान जाता
है।
निश्चित
ही,
इस व्यक्ति
को मां के
स्तन से दूध
पीने का पूरा मौका
नहीं मिला होगा।
इसको स्तन में
अभी भी अटकाव
रह गया है।
इसको एक काम
करना चाहिए।
बच्चों के लिए
जो दूध पीने
की बोतल आती
है, वह
खरीद लेनी
चाहिए। उसमें
दूध भरकर रात
उसको चूसना
चाहिए, दस—पंद्रह
मिनट सोने के
पहले। तीन
महीने के भीतर
इसको स्तन
दिखाई पड़ने
बंद हो जाएंगे।
स्तन
दिखाई पड़ने का
मतलब ही यह है
कि बच्चे का
जो रस था स्तन
में,
वह कायम रह
गया है। स्तन
पूरा नहीं
पीया जा सका।
इसलिए
आदिवासियों
में जाएं, जहां
बच्चे पूरी
तरह अपनी मां
का स्तन पीते
हैं, वहा
किसी की
उत्सुकता
स्तन में नहीं
है। अगर आप
आदिवासी
स्त्री को, हाथ रखकर भी
उसके स्तन पर,
पूछें कि यह
क्या है? तो
वह कहेगी कि
दूध पिलाने का
थन है। आप
अपने इस समाज
की स्त्री के
स्तन की तरफ आंख
भी उठाएं, वह
भी बेचैन, आप
भी बेचैन। आप
भी आंख बचाते
हैं, तब भी
बेचैन, वह
भी स्तन को
छिपा रही है
और बेचैन है।
और छिपाकर भी
प्रकट करने की
पूरी कोशिश कर
रही है, उसमें
भी बेचैन है।
और
सबकी नजर वहीं
लगी हुई है।
चाहे फिल्म
देखने जाएं, चाहे
उपन्यास पढ़ें,
चाहे कविता
करें, चाहे
कहानी लिखें,
स्तन
बिलकुल जरूरी
हैं! अगर कभी
कोई दूसरे ग्रह
की सभ्यता के
लोग इस जमीन
पर आए, तो
वे हमें
कहेंगे कि ये
लोग स्तनों से
बीमार समाज है।
क्योंकि
मूर्ति बनाओ
तो, चित्र
बनाओ तो, स्तन
पहली चीज है; स्त्री गौण
है।
मगर
यह बच्चे का
दृष्टिकोण है।
असल में बच्चा
जब पहली दफा
मां से
संबंधित होता
है—और वह उसका
पहला संबंध है, उसके
पहले उसका कोई
संबंध किसी से
नहीं है, वह
उसका पहला
समाज में पदार्पण
है, वह
उसका पहला
अनुभव है
दूसरे का—तो
वह पूरी मां
से संबंधित
नहीं होता; सिर्फ उसके
स्तन से
संबंधित होता
है। पहला
अनुभव स्तन का
है। और पहले
वह स्तन को ही
पहचानता है; मां पीछे
आती है। स्तन
प्रमुख है, मां गौण है।
और अगर आपको
बाद की उम्र
में भी स्तन
प्रमुख है, स्त्री गौण
लगती है, तो
आप बचकाने हैं
और आपकी
बुद्धि
परिपक्व नहीं
हो पाई। आपको
फिर से स्तन
नकली खरीदकर
बाजार से, पीना
शुरू कर देना
चाहिए। उससे
राहत मिलेगी।
गुरु
बोलता था, शिष्य
सुनता था।
लेकिन शिष्य
के सुनने में
भी गुरु देखता
था, उसका
रस कहां है!
उसकी आंख कहा
चमकने लगती है
और कहा फीकी
हो जाती है!
कहा उसकी आंख
की पुतली खुल
जाती है और
फैल जाती है, और कहा
सिकुड़ जाती
है! कहां उसकी
रीढ़ सीधी हो
जाती है, और
कहां वह शिथिल
होकर बैठ जाता
है! वह देख रहा है।
बाहर और भीतर
उसकी चेतना
में क्या हो
रहा है, वह
देख रहा है।
और इस माध्यम
से वह भी चुन
रहा है कि इस
शिष्य के लिए
क्या जरूरी
होगा, क्या
उपयोगी होगा।
इसलिए
कृष्ण ने सारे
मार्गों की
बात कही है।
उन सारे
मार्गों पर
अर्जुन को
चलना नहीं है।
अर्जुन को
चलना तो होगा
एक ही मार्ग
पर। लेकिन इन
सारो को चलने
के पहले जान
लेना जरूरी है।
एक और
प्रश्न। एक
मित्र ने पूछा
है कि
रामकृष्ण
परमहंस ने अनेक—
अनेक मार्गो
से चलकर एक ही
मंजिल और एक
ही सत्य की
पुष्टि की।
लेकिन एक
साधना से
सिद्ध होने के
बाद भी उन्होंने
वापस दूसरी
साधना को अ ब स
से कैसे शुरू
किया होगा? क्या
वे ज्ञान को
उपलब्ध होकर
फिर से
अज्ञानी हो
जाते थे और
फिर नए मार्ग
से शुरू करते
थे?
थोडा
समझने जैसा है।
परम ज्ञान के
बाद तो कोई
वापस नहीं लौट
सकता। कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि
मंजिल और
यात्री एक हो
जाते हैं। जब
मंजिल और
यात्री एक हो
जाते हों, तो
फिर लौटेगा
कौन और कैसे?
लेकिन
परम ज्ञान के
पहले, ठीक
मंजिल पर
पहुंचने के
पहले एक आखिरी
कदम जब रह
जाता है, उसे
हम ज्ञान कहते
हैं। परम
ज्ञान कहते
हैं, जब
मंजिल और
यात्री एक हो
जाते हैं। नदी
सप्तार में
गिर गई; अब
नहीं लौट
सकेगी। लेकिन
नदी किनारे तक
पहुंची है और
ठहरी है। सागर
में गिर सकती
है, लौट भी
सकती है।
ज्ञान का क्षण
है, जब
साधक सिद्ध
होने के द्वार
पर पहुंच जाता
है। वहां से
सब कुछ दिखाई
पड़ता है, सागर
का पूरा
विस्तार।
लेकिन अभी भी
फासला कायम है।
साधक अभी भी
सिद्ध नहीं हो
गया है। सिद्ध
होने के करीब
आ गया है, बिलकुल
करीब आ गया है।
सिद्ध होने के
बराबर हो गया
है। एक क्षण, और लीन हो
जाएगा।
लेकिन
अभी चाहे तो
लौट सकता है।
जब तक दो का
अनुभव होता है, तब
तक लौटना हो
सकता है। जब
तक मैं देखता
हूं कि वह रहा
परमात्मा और
यह रहा मैं, तब तक लौट
सकता हूं। जब
तक मैं देखता हूं, यह रहा मैं
और यह रहा
आनंद, मैं
जानता हूं आनंद
को, जब तक
ऐसा लगता है, लौट सकता
हूं। द्वैत
कायम है, अभी
वापसी कर सकती
है। लेकिन जब मुझे
पता ही नहीं
चलता कि कौन
परमात्मा और
कौन मैं, दोनों
एक हो गए, तब
लौटना नहीं हो
सकता।
रामकृष्ण
परमहंस ज्ञान
की स्थिति से
लौटे। सागर के
ठीक किनारे
पहुंच गई नदी, तब
उन्होंने कहा
कि अब मैं जरा
दूसरी नदी के
रास्ते पर भी
चलकर देखूं कि
वह नदी भी
सागर तक पहुंचती
है या नहीं! तब
वे दूसरी नदी
के रास्ते पर
चले। फिर
किनारे पर
पहुंचे और
उन्होंने कहा
कि अब मैं
तीसरी नदी के
रास्ते पर
चलकर देखूं? वह भी सागर
तक पहुंचती है
या नहीं! इस
तरह उन्होंने
अनेक मार्गों
की साधना की।
जब
अनेक मार्गों
से चलकर
उन्होंने देख
लिया कि सभी
नदियां सागर
पहुंच जाती
हैं। जो पूर्व
की तरफ बहती
हैं,
वे भी सागर
पहुंच जाती
हैं। जो
पश्चिम की तरफ
बहती हैं, वे
भी सागर पहुंच
जाती हैं। जो
उत्तर की तरफ
बहती हैं, वे
भी सागर पहुंच
जाती हैं। जो
दक्षिण की तरफ
बहती हैं, वे
भी सागर पहुंच
जाती हैं।
जिनका रास्ता
बिलकुल सीधा
है, वे भी
सागर पहुंच
जाती हैं। जो
बहुत इरछी—तिरछी
बहती हैं, वे
भी सागर पहुंच
जाती हैं। जो
बड़ी शात हैं, गंभीर हैं, वे भी सागर
पहुंच जाती
हैं। और जो बिलकुल
तूफानी हैं और
विक्षिप्त
हैं, वे भी
सागर पहुंच
जाती हैं।
जब
रामकृष्ण ने
यह सब देख
लिया, तब वे
सागर में गिर
गए। उसके बाद
नहीं लौटा जा
सकता। परम
ज्ञान.।
तो
बुद्ध ने भी
दो शब्दों का
उपयोग किया है, निर्वाण
और परम
निर्वाण।
निर्वाण का
अर्थ है, आखिरी
क्षण, जहां
से आदमी चाहे,
तो वापस लौट
सकता है। और
जहां से चाहे,
तो गिर सकता
है उस अवस्था
में, जहां
से कोई वापसी
नहीं है। उसको
निर्वाण कहा
है। और जो गिर
गया, उसको
परम निर्वाण
कहा है।
तो
रामकृष्ण
लौटे निर्वाण
की दशा से, ज्ञान
की दशा से।
परम ज्ञान की
दशा से कोई भी
नहीं लौट सकता
है।
अब
हम सूत्र को
लें।
परंतु
प्रकृति में
स्थित हुआ ही
पुरुष प्रकृति
से उत्पन्न
हुए
त्रिगुणात्मक
सब पदार्थों
को भोगता है
और इन गुणों
का संग ही
इसके अच्छी—बुरी
योनियों में
जन्म लेने में
कारण है।
वास्तव में तो
यह पुरुष इस
देह में स्थित
हुआ भी पर ही
है,
केवल
साक्षी होने
से उपद्रष्टा
और यथार्थ सम्मति
देने वाला
होने से अनुमंता
एवं सबको धारण
करने वाला
होने से भर्ता
र जीव रूप से
भोक्ता तथा
ब्रह्मादिकों
का
भी स्वामी
होने से
महेश्वर और
शुद्ध सच्चिदानंदघन
होने से
परमात्मा, ऐसा
कहा गया है।
परंतु
प्रकृति में
स्थित हुआ ही
पुरुष
प्रकृति से
उत्पन्न हुए सब
पदार्थों को
भोगता है.।
वह
जो भीतर
चैतन्य है, वह
जो पुरुष है, उसके बाहर
चारों तरफ जो
प्रकृति का
त्रिगुण विस्तार
है, यह
पुरुष ही सभी
स्थितियों
में प्रकृति
से संबंधित
होता है।
प्रकृति किसी
भी स्थिति में
पुरुष से संबंधित
नहीं होती।
पहली तो बात
यह खयाल में
ले लें।
आप
अपने मकान में
हैं। आप कहते
हैं,
मेरा मकान।
मकान कभी नहीं
कहता कि आप
मेरे हैं। और
आप कल चले
जाएंगे, तो
मकान रोएगा
नहीं। मकान
गिर जाएगा, तो आप
रोएंगे। बहुत
मजे की बात है।
मकान धेला भर
भी आपकी चिंता
नहीं करता, आप बड़ी
चिंता करते
हैं।
आपकी
कार बिगड़ जाए, तो
आंसू निकल आते
हैं। जिस जमीन
पर आप खून—खराबा
कर सकते हैं, जान दे सकते
हैं, वह
जमीन आपकी
रत्तीभर भी
चिंता नहीं
करती। बहुत
पहले आप जैसे
पागल और भी उस
पर जान दे चुके
हैं। जिस जमीन
को आप अपना
कहते हैं, आप
नहीं थे, तब
भी वह थी। कोई
और उसको अपना
कह रहा था। न
मालूम कितने
लोग दावा कर
चुके। और
दावेदार
समाप्त हो
जाते हैं और
जिस पर दावा
किया जाता है,
वह बना है।
प्रकृति
आपसे कोई
संबंध
स्थापित नहीं
करती। आप ही
प्रकृति से
संबंध
स्थापित करते
हैं। आप ही
संबंध बनाते
हैं,
आप ही तोड़ते
हैं। संबंध
बनाकर आप ही
सुख पाते हैं,
आप ही दुख
पाते हैं। यह
निपट आप पर ही
निर्भर है।
कुछ भी
प्रकृति की
उत्सुकता
नहीं है कि
आपको दुख दे
कि सुख दे। आप
अपना सुख—दुख
अपने हाथ से
निर्मित करते
हैं।
और
इसलिए एक मजे
कीं घटना घटती
है। जिस चीज
से आपको सुख
मिलता है, आपकी
दृष्टि बदल
जाए उसी से
दुख मिलने
लगता है। चीज
वही है। जिस
चीज से आपको
दुख मिलता है,
दृष्टि बदल
जाए, उसी
से सुख मिलने
लगता है। चीज
वही है। पर
आपकी दृष्टि
बदली कि सारा
अर्थ बदल जाता
है। आपका खयाल
बदला कि सारा
संसार बदल
जाता है।
आप
वस्तुओं के
संसार में
नहीं रहते, आप
भावों और
विचारों के
संसार में
रहते हैं।
वस्तुएं तो
बहुत दूर हैं,
उनसे आपका
कोई संबंध
नहीं है। आप
अपने भावों को
फैलाकर सेतु
बनाते हैं, वस्तुओं से
संबंधित हो
जाते हैं।
किसी को पत्नी
कहते हैं, किसी
को पति कहते हैं,
किसी को
मित्र कहते
हैं। वे सब
संबंध हैं, जो आपने
निर्मित कर
लिए हैं। वैसे
संबंध कहीं है
नहीं; सिर्फ
भावों में है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
यह जो प्रकृति
है चारों तरफ, उससे
उत्पन्न हुए
ये जो सारे
पदार्थ— हैं, इनको आप
भोगते हैं
अपने ही भाव
से। और इन
भावों के कारण
ही अच्छी—बुरी
योनियों में
जन्म लेते हैं।
आप जैसा भाव
करते हैं, वैसे
ही हो जाते
हैं। भाव
जन्मदाता है।
आप जैसा भाव
करते हैं, वैसे
ही हो जाते
हैं। आप जो
मांगते हैं, बड़े दुख की
बात यही है कि
वही मिल जाता
है। जो कुछ भी
आप हैं, वह
आपकी ही
वासनाओं का
परिणाम है।
थोड़ा
खयाल करें, कितनी
वासनाएं आप
करते हैं! और
जिन वासनाओं
को आप करते हैं,
धीरे— धीरे—
धीरे उन
वासनाओं को
पूरा करने के
योग्य आप हो जाते
हैं।
वैज्ञानिक भी
कहते हैं, डार्विन
ने
प्रस्तावित
किया है कि
मनुष्य के पास
जो—जो
इंद्रियां
हैं, वे
इंद्रियां भी
मनुष्य की
वासनाओं से ही
जन्मी हैं।
आपके
पास आंख है, इसलिए
आप देखते हैं,
यह बात ठीक
नहीं है। आप
देखना चाहते
थे, इसलिए आंख
पैदा हुई।
जिराफ है, उसकी
लंबी गर्दन है।
तो डार्विन
कहता है कि
जिराफ की इतनी
लंबी गर्दन
क्यों है? ऊंट
की इतनी लंबी
गर्दन क्यों
है?
हम
तो ऊपर से यही
देखते हैं कि
ऊंट की इतनी
लंबी गर्दन है, इसलिए
झाडू पर कितने
ही ऊंचे पत्ते
हों, उनको
तोड़कर खा लेता
है। लेकिन
विकासवादी
कहते हैं कि
झाडू के ऊंचे
पत्ते पाने के
लिए ही जो
वासना है उसकी,
वही उसकी
गर्दन को लंबा
कर देती है; नहीं तो
उसकी गर्दन
लंबी नहीं हो
जाएगी। और
जंगल में बड़ा
संघर्ष है।
क्योंकि नीचे
के पत्ते तो
कोई भी जानवर
खा जाते।
जिसकी गर्दन
जितनी ऊंची
होगी, वह
उतनी देर तक
सरवाइव कर
सकता है; उसका
बचाव उतनी देर
तक हो सकता है।
तो
डार्विन और
उनके अनुयायी
कहते हैं कि
यह ऊंट है, जिराफ
है, यह
सरवाइवल आफ दि
फिटेस्ट, वह
जो बचाव करने
में सक्षम है
अपने को, वह
वही इंद्रिया
पैदा कर लेता
है, जिनकी
उसकी वासना है।
लंबी गर्दन के
कारण ऊंट बड़े
वृक्षों के
पत्ते नहीं
खाता है, बड़े
वृक्षों के
पत्ते खाना
चाहता है, इसलिए
उसके पास लंबी
गर्दन है। आप
जो देखते हैं,
वह आंख के
कारण नहीं
देखते हैं; देखने की
वासना है भीतर,
इसलिए आंख
है। और इसकी
बड़ी अदभुत कभी—कभी
घटनाएं घटी
हैं।
रूस
में एक महिला
अंधी हो गई।
उसे देखने का
रस तो लग गया
था। देखा था
उसने बहुत
दिनों तक, फिर
अंधी हो गई।
और देखने की
वासना उसमें
प्रगाढ़ थी। और
देखना है, क्योंकि
देखे बिना
जिंदगी एकदम
बे—रौनक हो गई।
आप
सोच नहीं सकते
कि जिसके पास आंख
रही हों और आंखें
चली जाएं, उसकी
जिंदगी एकदम
अस्सी
प्रतिशत
समाप्त हो गई।
क्योंकि सब
रंग खो गए; जिंदगी
से सारी
रंगीनी खो गई;
सब चेहरे
खो गए; सब
रूप खो गए।
ध्वनियों का
एक उबाने वाला
मोनोटोनस जगत
रह गया, जहां
कोई रंग नहीं,
जहां कोई
रूप नहीं। तो
उसकी देखने की
प्रगाढ़
आकांक्षा
उसमें पैदा
हुई। और उसने
हाथ से चीजों
को टटोलना
शुरू किया। और
धीरे— धीरे
उसकी
अंगुलियां आंखों
जैसा काम करने
लगीं। अब तो
उस पर बड़े
वैज्ञानिक
प्रयोग हुए
हैं। वह आपके
चेहरे के पास
अंगुलियों को
लाकर, बिना
छुए, हाथ
घुमाकर कह
सकती है कि
चेहरा सुंदर
है या कुरूप
है—बिना छुए!
तो
वैतानिक कहते
हैं कि उसके
हाथ आपके
चेहरे से
निकलती
किरणों के
स्पर्श को
अनुभव करने
लगे। और सच तो
बात यही है कि आंख
भी चमडी ही है।
हाथ भी चमड़ी
है। आंख की
चमड़ी ने एक
स्पेशिएलिटी, एक
विशेष गुण पैदा
कर लिया है
देखने का। तो
कोई वजह नहीं
है कि हाथ की
चमड़ी वैसा गुण
क्यों पैदा न
कर ले! कुछ पशु
हैं, जो
पूरे शरीर से
सुनते हैं।
उनके पास कोई
कान नहीं है।
पूरा शरीर ही
कान का काम
करता है। आप
रात को चमगादड़
देखते हैं।
चमगादड़ कभी
दिन में भी घर
में घुस आता
है। उसे दिन
में दिखाई
नहीं पडता।
उसकी आंखें
खुल नहीं
सकतीं। लेकिन
आपने कभी खयाल
किया हो, न
किया हो, ठीक
चमगादड़ दीवाल
के बिलकुल
किनारे आकर
चार—छ: अंगुल
की दूरी से
लौट जाता है, टकराता नहीं।
टकराने को
होता है और
लौट जाता है।
और आंख उसकी
देखती नहीं।
तो
वैज्ञानिक उस पर
बहुत काम करते
हैं। तो उसका
पूरा शरीर
दीवाल की
मौजूदगी को छ:
इंच की दूरी
से अनुभव करता
है। इसलिए वह
करीब आ जाता
है टकराने के, लेकिन
टकराता नहीं।
ही, आप
उसको घबड़ा दें
और परेशान कर
दें, तो
टकरा जाएगा।
लेकिन अपने आप
वह टकराता
नहीं। बिलकुल
पास आकर हट
जाता है।
राडार है उसके
पास, जो छ:
इंच की दूरी
से उसको
स्पर्श का बोध
दे देता है।
दिन में उसके
पास आंख नहीं
है, लेकिन
बचाव की
सुविधा तो
जरूरी है।
उसका पूरा
शरीर अनुभव
करने लगा है।
उसका पूरा
शरीर
संवेदनशील हो
गया है।
हमारे
भीतर वह जो
छिपा हुआ
पुरुष है, वह
जो भी चाहता
है, उसके
योग्य
इंद्रिय पैदा
हो जाती है।
उसकी चाह की
छाया है। यह
जरा कठिन होगा।
क्योंकि
अक्सर हम कहते
हैं कि
इंद्रियों के
कारण वासना है।
गलत है बात।
वासनाओं के
कारण
इंद्रियां
हैं। इसीलिए
तो ज्ञानी
कहते हैं कि
जब वासनाएं
समाप्त हो
जाएंगी, तो
तुम जन्म न ले
सकोगे। जन्म न
ले सकने का
मतलब यह है कि
तुम फिर इंद्रियां
और शरीर को
ग्रहण न कर
सकोगे।
क्योंकि
इंद्रियां और
शरीर मूल नहीं
हैं, मूल
वासना है। तुम
जिस घर में
पैदा हुए हो, वह भी
तुम्हारी
वासना है। तुम
जिस योनि में
पैदा हुए हो, वह भी
तुम्हारी
वासना है।
इधर
मैं एक बहुत
अनूठे अनुभव
पर आया। कुछ
लोगों के
पिछले जन्मों
के संबंध में
मैं काम करता
रहा हूं, कि
उनके पिछले
जीवन की
स्मृतियों
में उन्हें उतारने
का प्रयोग
करता रहा हूं।
एक चकित करने
वाला अनुभव
हुआ। वह अनुभव
यह हुआ कि
पुरुष तो
अक्सर पिछले
जन्मों में भी
पुरुष होते हैं,
लेकिन
अक्सर
स्त्रियां
जन्म में
बदलती हैं।
जैसे अगर कोई
पिछले जन्म
में स्त्री थी,
तो इस जन्म
में पुरुष हो
जाती है।
शायद
स्त्रियों के
मन में गहरी
वासना पुरुष होने
की होगी।
स्त्रियों की
परतंत्रता, शोषण
के कारण
स्त्रियों के
मन में वासना
होती है कि
पुरुष होतीं
तो अच्छा था।
प्रगाढ़। और
जीवनभर का
अनुभव उनको
कहता है कि
पुरुष होतीं
तो अच्छा था।
लेकिन
पश्चिम में
स्त्रियों की
स्वतंत्रता बढ
रही है। पचास—सौ
वर्ष के बाद
यह बात मिट
जाएगी।
स्त्रियां
स्त्री योनि
में जन्म ले
सकेगी, वह
वासना क्षीण
हो जाएगी।
अक्सर
ऐसा होता है
कि जो
ब्राह्मण घर
में है, वह
दूसरे जन्म
में भी
ब्राह्मण घर
में है, उसके
पीछे भी
ब्राह्मण घर
में है।
क्योंकि
ब्राह्मण घर
का बेटा एक
दफा ब्राह्मण
घर का अहंकार
और दर्प अनुभव
किया हो, तो
किसी और घर
में पैदा नहीं
होना चाहेगा।
वह उसकी वासना
नहीं है।
लेकिन शूद्र
अक्सर बदल
लेंगे। एक
जन्म में
शूद्र है, तो
दूसरे जन्म
में वह दूसरे
वर्ण में
प्रवेश कर
जाएगा। उसकी
गहरी वासना उस
शूद्र के वर्ण
से हट जाने की
है। वह भारी
है, कष्टपूर्ण
है, वह बोझ
है, उसमें
होना सुखद
नहीं है।
तो
हम जो वासना
करते हैं, उस
तरफ हम सरकने
लगते हैं।
हमारी वासना
हमारे आगे—
आगे चलती है
और हमारे जीवन
को पीछे—पीछे
खींचती है।
कृष्ण
कहते हैं, यह
जो प्रकृति से
फैला हुआ
संसार हैं, हमारे भीतर
छिपा हुआ
पुरुष ही इसे
भोगता है और
गुणों का संग
ही इसकी अच्छी—बुरी
योनियों में
जन्म लेने के
कारण होते हैं।
और फिर जिन
चीजों से यह
रस का संबंध
बना लेता है, संग बना
लेता है, जिनसे
यह रस से जुड़
जाता है, उन्हीं
योनियों में
प्रवेश करने
लगता है।
अगर
कोई इस तरह की
वासनाएं करता
है कि कुत्ता होकर
उनको ज्यादा
अच्छी तरह से
पूरी कर सकेगा, तो
प्रकृति उसके
लिए कुत्ते का
शरीर दे देगी।
प्रकृति
सिर्फ खुला
निमंत्रण है।
कोई आग्रह
नहीं है
प्रकृति का।
आप जो होना
चाहते हैं, वे हो जाते
हैं। आप अपने
गर्भ को चुनते
हैं, जाने
या अनजाने। आप
अपनी योनि भी
चुनते हैं, जाने या
अनजाने।
आप
जो मांगते हैं, वह
घटित हो जाता
है। जैसे पानी
नीचे बहता है
और गड्डे में
भर जाता है, ऐसे ही आप भी
बहते हैं और
अपनी योनि में
भर जाते हैं।
आपकी जो
वासनाएं हैं,
वे आपको ले
जाती हैं एक
विशेष दिशा की
तरफ। अच्छी और
बुरी योनियों
में जन्म
हमारी ही आकांक्षाओं
का फल है।
लेकिन
हमारी तकलीफ
यह है कि हम
भूल ही जाते
हैं कि हमारी
आकांक्षाए
क्या हैं। हम
भूल ही जाते
हैं कि हमने
क्या मांगा था।
जब तक हमें
उपलब्धि होती
है,
तब तक हम
अपनी मांग ही
भूल जाते हैं।
अगर हम अपनी
माग याद रख
सकें, तो
हमें पता चल
जाएगा कि
फासला चाहे
कितना ही हो
माग और
प्राप्ति का,
जो हमने मांगा
था, वह
हमें मिल गया
है।
इधर
मैं देखता हूं,
लोग अपनी ही
मांगों से
दुखी हैं।
एक
युवती मेरे
पास आई और
उसने मुझे कहा
कि मुझे एक
ऐसा पति चाहिए
जो सुंदर हो, स्वस्थ
हो, शक्तिशाली
हो, किसी
से दबे नहीं, दबंग हो।
ठीक है, खोज
कर, मिल
जाएगा। पर
उसने कहा, एक
बात और। वह
सदा मेरी बात
माने।
तो
मैंने उसको
कहा कि तू
दोनों में तय
कर ले। जो
दबंग होगा, वह
तुझसे नहीं
दबेगा। और अगर
तू उसको दबाना
चाहती है, तो
जो तुझसे
दबेगा, वह
किसी से भी
दबेगा। तो तू
पक्का कर ले, दो में से
चुन ले।
क्योंकि दबंग
तो उपद्रव
रहेगा तेरे
लिए भी। तू भी
उसे दबा नहीं
पाएगी। और अगर
तेरी वासना यह
है कि तू उसे
दबा पाए तो
फिर वह दबंग
नहीं रहेगा।
वह तेरे पीछे
डरकर चलेगा।
जो तुझसे
डरेगा, वह
फिर किसी से
भी डरेगा। तो
दो में से तू
तय कर ले। कुछ
दिन बाद आकर
उसने मुझसे
कहा कि तो ठीक
है, वह
मुझसे दबना
चाहिए, चाहे
फिर कुछ और भी
हो।
अब
इसको पता नहीं
है इस वासना
का। यह पूरी
हो जाएगी। क्योंकि
जो यह वासना
करेगी, उसको
पूरा कर लेगी,
खोज लेगी।
अपने योग्य सब
मिल जाता है।
अयोग्य तो
मिलता ही नहीं,
बस अपने
योग्य ही
मिलता है।
चाहें आप
पहचान पाएं या
न पहचान पाएं।
जब
इससे दबने
वाला व्यक्ति
इसको मिल
जाएगा, उससे
इसे तृप्ति
नहीं होगी।
किसी स्त्री
को दबने वाले
व्यक्ति से
तृप्ति नहीं
हो सकती, क्योंकि
दबने वाला
व्यक्ति
स्त्रैण हो
जाता है।
स्त्री तो उसी
पुरुष से
प्रसन्न हो
सकती है, जो
दबाता हो।
क्योंकि जो
दबाता हो, उसी
के प्रति
समर्पण हो
सकता है।
स्त्री
चाहती है, कोई
दबाए।
हालांकि
दबाने का ढंग
बहुत
संस्कारित
होना चाहिए।
कोई सिर पर
लट्ठ मारे, ऐसा नहीं।
लेकिन
व्यक्तित्व
ऐसा हो कि दबा
दे, अभिभूत
कर दे, और
स्त्री
समर्पित हो
जाए। स्त्री
सिर्फ उसी में
रस ले पाती है,
जो उसे दबा
दे, बिना
दबाए; दबाने
का कोई आयोजन
न करे, उसका
होना, उसका
व्यक्तित्व
ही दबा दे और
स्त्री
समर्पित हो
जाए। उससे तो
तृप्ति मिल
सकती है।
लेकिन
अब यह स्त्री
कहती है कि वह
मुझसे दबे। तो
यह स्त्री को
खोज रही है, पुरुष
को नहीं खोज
रही है। वह
इसे मिल जाएगा,
क्योंकि
बहुत पुरुष
स्त्रियों
जैसे हैं। वे
इसे मिल
जाएंगे, और
उनसे यह
परेशान होगी।
और परेशान
होकर यह भाग्य
को और भगवान
को, न
मालूम किस—किस
को दोष देगी।
और कभी फिक्र
न करेगी कि जो
इसने मांगा था,
वह इसे मिल
गया।
आप
थोड़े अपने
दुखों की
छानबीन करना।
जो आपने मांगा
था,
वह आपको मिल
गया है।
कुछ
लोग कहते हैं
कि हमारा दुख
इसलिए है कि
हमने जो मांगा
था,
वह नहीं
मिला। वे गलत
कहते हैं।
उनको ठीक पता
नहीं है कि
उन्होंने
क्या मांगा था।
असलियत में जो
आप मांगते हैं,
वह मिल जाता
है। मांग पूरी
हो जाती है।
और तब आप दुख
पाते हैं। दुख
पाकर आप समझते
हैं कि मेरी
माग पूरी नहीं
हुई, इसलिए
दुख पा रहा
हूं। नहीं; आप थोड़ा
समझना, खोजना।
आप फौरन पा
जाएंगे कि
मेरी मांगें
पूरी हो गईं, तो मैं दुख
पा रहा हूं।
हमें
पता नहीं है
कि हम क्या
मांगते हैं, हमारी
क्या वासना है;
क्या
परिणाम होगा।
हम कभी हिसाब
भी नहीं रखते।
अंधे की तरह
चले जाते हैं।
लेकिन समस्त
धर्मों का सार
है कि आप जिन
वासनाओं से
डूबते हैं, भरते हैं, उन योनियों
में, उन
व्यक्तित्व
में, उन
ढांचों में, उन जीवन में
आपका प्रवेश
हो जाता है।
वास्तव
में तो यह
पुरुष इस देह
में स्थित हुआ
भी पर ही है...।
अब इस पुरुष
की बहुत—सी
स्थितियां
हैं। क्योंकि
पुरुष तो शरीर
से भिन्न है, लेकिन
जब भिन्न
समझता है, तभी
भिन्न है। और
चाहे तो समझ
ले कि मैं
शरीर हूं,
तो भांति में
पड़ जाएगा।
पुरुष
शरीर में रहते
हुए भी भिन्न
है। यह उसका
स्वभाव है।
लेकिन इस
स्वभाव में एक
क्षमता है, तादात्म्य
की। यह अगर
समझ ले कि मैं
शरीर हूं तो
शरीर ही हो
जाएगा। आप अगर
समझ लें कि
आपके हाथ की
लकड़ी आप हैं, तो आप लकड़ी
ही हो जाएंगे।
आप जो भी मान
लें, वह
घटित हो जाता
है। मानना
सत्य बन जाता
है। पुरुष की
यह भीतरी
क्षमता है। वह
जो मान लेता
है, वह
सत्य हो जाता
है।
वास्तव
में तो यह
पुरुष इस देह
में स्थित हुआ
पर ही है।
लेकिन साक्षी
होने से
उपद्रष्टा...।
फिर
इसकी अलग—अलग
स्थितियां
हैं। अगर यह
साक्षी होकर
देखे अपने को
भीतर, तो यह
उपद्रष्टा या
द्रष्टा हो
जाता है।
यथार्थ
सम्मति देने
वाला होने से
अनुमत। हो जाता
है..।
अगर
इसकी आप
सम्मति
मांगें, तो यह
आपके लिए
अनुसंता हो
जाएगा। लेकिन
आप इससे कभी
सम्मति भी
नहीं मांगते।
कभी आप शात और
मौन होकर अपने
भीतर के पुरुष
का सुझाव भी
नहीं मांगते।
आप वासनाओं का
सुझाव मानकर
ही चलते हैं।
इंद्रियों का
सुझाव मानकर
चलते हैं। या
परिस्थिति
में, कोई
भी घड़ी
उपस्थित हो
जाए, तो
उसकी
प्रतिक्रिया
से चलते हैं।
एक
आदमी गाली दे
दें,
तो वह आपको
चला देता है।
फिर आप उसकी
गाली के आधार
पर कुछ करने
में लग जाते
हैं। बिना
इसकी फिक्र
किए कि यह
आदमी कौन है, जो मुझे
गुलाम बना रहा
है! मैं इसकी
गाली को मानकर
क्यों चलूं? यह तो मुझे
चला रहा है!
आप
यह मत सोचना
कि आप गाली न
दें,
तो बात खतम
हो गई। तो आप
भीतर इसकी
गाली से कुछ
सोचेंगे।
शायद यह
सोचेंगे कि
क्षमा कर दो, नासमझ है।
लेकिन यह भी
आप चल पड़े।
वही चला रहा
है आपको। आप
सोचें कि यह
नासमझ है, पागल
है, शराब
पीए हुए है।
इसलिए क्यों
गाली का जवाब
देना! तो भी
इसने आपको चला
दिया। आप
मालिक न रहे, यह बटन
दबाने वाला हो
गया। इसने
गाली दी और
आपके भीतर कुछ
चलने लगा। आप
गुलाम हो गए।
अगर
आप रुककर
क्षणभर
साक्षी हो
जाएं और भीतर
की सलाह लें—परिस्थिति
की सलाह न लें, प्रतिक्रिया
न करें, इंद्रियों
की मानकर न
पागल बनें—
भीतर के
साक्षी की सलाह
लें, तो वह
साक्षी अनुमंता
हो जाता है।
सबको
धारण करने
वाला होने से
भर्ता, जीव
रूप से भोक्ता,
ब्रह्मादिकों
का भी स्वामी
होने से
महेश्वर और
शुद्ध सच्चिदानंदघन
होने से
परमात्मा, ऐसा
कहा गया है।
यह
जो भीतर पुरुष
है,
यह बहुत
रूपों में
प्रकट होता है।
अगर आप इस
पुरुष को शरीर
के साथ जोड़
लें, तो
लगने लगता है,
मैं शरीर
हूं। और आप
संसार हो जाते
हैं। इसको आप
तोड़ लें ध्यान
से और साक्षी
हो जाएं, तो
आप समाधि बन
जाते हैं।
इसकी आप सलाह
मांगने लगें,
तो आप स्वयं
गुरु हो जाते
हैं। इसके और
भीतर प्रवेश
करें, तो
यह समस्त
सृष्टि का
स्रष्टा है, तो आप
परमात्मा हो
जाते हैं। और
इसके अंतिम
गहनतम बिंदु
पर आप प्रवेश
कर जाएं, जिसके
आगे कुछ भी
नहीं है, तो
आप
सच्चिदानंदघन
परम ब्रह्म हो
जाते हैं।
यह
पुरुष ही आपका
सब कुछ है।
आपका दुख, आपका
सुख; आपकी अशांति,
आपका संसार,
आपका
स्वर्ग, आपका
नरक; आपका
ब्रह्म, आपका
मोक्ष, आपका
निर्वाण, यह
पुरुष ही सब
कुछ है।
ध्यान
रहे,
घटनाएं
बाहर हैं और
भावनाएं भीतर
हैं। भावना का
जो अंतिम
स्रोत है, वह
है परम ब्रह्म
सच्चिदानंदघन
रूप। वह भी आप
हैं।
इसलिए
इस मुल्क ने
जरा भी कठिनाई
अनुभव नहीं की
यह कहने में
कि प्रत्येक
व्यक्ति
परमेश्वर है।
आपको पता नहीं
है,
यह बात
दूसरी है।
लेकिन
परमेश्वर
आपके भीतर
मौजूद है। और
आपको पता नहीं
है, इसमें
भी आपकी ही
तरकीब और
कुशलता है। आप
पता लगाना
चाहें, तो
अभी पता लगा
लें। शायद आप
पता लगाना ही
नहीं चाहते
हैं।
मुझसे
सवाल लोग
पूछते हैं। आज
ही कुछ सवाल
पूछे हैं कि
अगर हम ध्यान
में गहरे चले
गए,
तो हमारी
गृहस्थी और
संसार का क्या
होगा? शायद
इसीलिए ध्यान
में जाने से
डर रहे हैं कि गृहस्थी
और संसार का
क्या होगा। और
फिर भी पूछते
हैं। पूछा है
उन्होंने भी
कि फिर. भी
ध्यान का कोई
रास्ता बताइए!
क्या
करिएगा ध्यान
का रास्ता
जानकर? डर
लगा हुआ है।
क्योंकि हम जो
वासनाओं का
खेल बनाए हुए
हैं, उसके
टूट जाने का
डर है। तो
भूलकर रहना
ठीक है।
शायद
हम ध्यान में
जाना नहीं
चाहते, इसीलिए
हम ध्यान में
नहीं गए हैं।
और जिस दिन हम
जाना चाहें, दुनिया की
कोई ताकत हमें
रोक नहीं सकती।
लोग
मुझसे आकर
कहते हैं कि
हम बड़ी कोशिश
करते हैं, ध्यान
में जा नहीं
पाते! उनसे
मैं कहता हूं
तुम कोशिश
वगैरह नहीं
करते हो; और
न तुम जाना
चाहते हो।
तुम्हारा रस
ध्यान में
नहीं है।
तुम्हारा रस
कहीं और होगा।
तुम मुझे बताओ,
क्या चाहते
हो ध्यान से? एक आदमी ने
कहा कि मैं
लाटरी का नंबर
चाहता हूं।
आपके पास
इसीलिए आया
हूं कि ध्यान,
ध्यान, ध्यान
सुनते—सुनते
मुझे लगा कि
ध्यान करके एक
दफा सिर्फ नंबर
मिल जाए बात
खतम हो गई।
अब
यह ध्यान से
लाटरी का नंबर
चाहता है!
पहले उसने
मुझे यह नहीं
बताया। सोचा
कि पता नहीं, मैं
उसे ध्यान
समझाऊं कि न
समझाऊं! लाटरी
में मेरी
उत्सुकता हो
या न हो! तो
उसने कहा कि
ध्यान की बड़ी
इच्छा है। बड़ी
अशांति रहती
है। अशांति है
लाटरी न मिलने
की; ध्यान
की नहीं है।
मगर वह कह भी
नहीं रहा है।
वह भीतर सोच
रहा है कि
ध्यान लग जाए;
चित्त शांत
हो जाए; नंबर
दिखाई पड़ जाए;
बात खतम हो
गई।
आप
ध्यान से भी
कुछ और चाहते
हैं। और जब तक
कोई ध्यान को
ही नहीं चाहता
ध्यान के लिए
तब तक ध्यान
नहीं हो सकता।
आप परमात्मा
से भी कुछ और
चाहते हैं। वह
भी साधन है, साध्य
नहीं है।
सोचें, अगर
आपको
परमात्मा मिल
जाए; यहां
से आप घर
पहुंचें और
पाएं कि
परमात्मा
बैठा हुआ है
आपके बैठकखाने
में। आप क्या
मांगिएगा
उससे? जरा
सोचें। फौरन
मन फेहरिस्त
बनाने लगेगा।
नंबर एक, नंबर
दो.। और जो
चीजें आप
मांगेंगे, सभी
क्षुद्र
होंगी।
परमात्मा से
मांगने योग्य
एक भी न होगी।
तो
परमात्मा भी
मिल जाए, तो आप
संसार ही
मांगेंगे। आप
संसार मांगते
हैं, इसलिए
परमात्मा
नहीं मिलता है।
आप जो मांगते
हैं, वह
मिलता है। और
अभी आप संसार
से इतने दुखी
नहीं हो गए
हैं कि
परमात्मा को
सीधा मांगने
लगें। इसलिए
रुकावट है।
अन्यथा वह
आपके भीतर
छिपा है।
रत्तीभर का भी
फासला नहीं है।
आप ही वह हैं।
इस
प्रकार पुरुष
को और उसके
गुणों को, गुणों
के सहित
प्रकृति को जो
मनुष्य तत्व
से जानता है, वह सब
प्रकार से
बर्तता हुआ भी
फिर नहीं
जन्मता है
अर्थात
पुनर्जन्म को
नहीं प्राप्त
होता है।
यह
सूत्र खयाल
में ले लेने
जैसा है।
इस
प्रकार पुरुष
को और गुणों
के सहित
प्रकृति को जो
मनुष्य तत्व
से जानता है, वह
सब प्रकार से
बर्तता हुआ भी
फिर नहीं
जन्मता है
अर्थात
पुनर्जन्म को
नहीं प्राप्त
होता है।
जिस
व्यक्ति को यह
खयाल में आ
जाता है कि
प्रकृति अलग
है और मैं अलग
हूं और जो इस
अलगपन को सदा
ही बिना किसी
चेष्टा के
स्मरण रख पाता
है,
फिर वह सब
तरह से बर्तता
हुआ भी..। वह
वेश्यागृह
में भी ठहर
जाए, तो भी
उसके भीतर की
पवित्रता
नष्ट नहीं
होती। और आप
मंदिर में भी
बैठ जाएं, तो
सिर्फ मंदिर
को अपवित्र
करके घर वापस
लौट आते हैं।
आप कहा हैं, इससे संबंध
नहीं है। आप
क्या हैं, इससे
संबंध है।
अगर
यह खयाल में आ
जाए कि मैं
अलग हूं, पृथक
हूं तो फिर
जीवन नाटक से
ज्यादा नहीं
है। फिर उस
नाटक में कोई
बंधन नहीं है,
फिर उस नाटक
में कोई वासना
नहीं है, फिर
खेल है और
अभिनय है। और
जो अभिनय की
तरह देख पाता
है, कृष्ण
कहते हैं, वह
फिर नहीं
जन्मता।
क्योंकि कोई वासना
उसकी नहीं है।
फिर जैसे एक
काम पूरा कर
रहा है। जैसे
काम पूरा करने
में कोई रस
नहीं है। जैसे
एक
जिम्मेवारी
है, वह
निभाई जा रही
है।
ऐसे
जैसे कि एक
आदमी रामलीला
में राम बन
गया है। जब
उसकी सीता खो
जाती है, तब वह
भी रोता है, और वह भी
वृक्षों से
पूछता है कि हे
वृक्ष, बताओ
मेरी सीता कहां
है! लेकिन
उसके आंसू
अभिनय हैं।
उसके भीतर कुछ
भी नहीं हो
रहा है। न
सीता खो गई है,
न वृक्षों
से वह पूछ रहा
है, न उसे
कुछ प्रयोजन
है। वह अभिनय
कर रहा है। वह
वृक्षों से
पूछेगा; आंसू
बहाएगा; जार—जार
रोका, सीता
को खोजेगा। और
परदे के पीछे
जाकर बैठकर
चाय पीएगा।
उसको कोई लेना—देना
नहीं है। गपशप
करेगा। बात ही
खतम हो गई।
उससे कुछ लेना—देना
नहीं है।
अगर
असली राम भी
परदे के पीछे
ऐसे ही हटकर
चाय पी लेते
हों,
तो वे
परमात्मा हो
गए। अगर आप भी
अपनी जिंदगी
के सारे
उपद्रव को एक
नाटक की तरह
जी लेते हों, और परदे के
पीछे हटने की
कला जानते
हों..। जिसको
मैं कहता हूं, ध्यान, प्रार्थना,
पूजा, वह
परदे के पीछे
हटने की कला
है। दुकान से
आप घर लौट आए।
परदे के पीछे
हट गए, ध्यान
में चले गए।
ध्यान में
जाने का मतलब
है कि आपने
कहा कि ठीक, वह नाटक बंद।
अगर
आप सच में ही
भीतर के पुरुष
को याद रख
सकें, तो बंद
कर सकेंगे।
लेकिन अभी आप
नहीं कर सकते।
आप कितने ही
परदे लटकाएं,
दरवाजा बंद
करें; वह
दुकान आपके
साथ चली आएगी
भीतर।
वह नाटक नहीं
है। उसको आप
बहुत जोर से
पकड़े हुए हैं।
तो
आप बैठकर राम—राम
कर रहे हैं और
भीतर नोट गिन
रहे हैं। इधर
राम—राम कर
रहे हैं, वहा
भीतर कुछ और
चला रहे हैं।
वहा कोई हिसाब
लगा रहे हैं
कि वह नंबर दो
के खाते में
लिखना भूल गए
हैं। या कल
कैसे इनकम
टैक्स वालों
को धोखा देना
है। वह भीतर
चल रहा है।
यहां राम—राम
चल रहा है।
आप
ध्यान रखिए कि
राम—राम झूठा
है,
जो ऊपर चल
रहा है। और
असली भीतर चल
रहा है। उससे
आपका काफी
तादात्म्य है।
आप दुकानदार
ही हो गए हैं।
आपके पास कोई
भीतर पृथक
नहीं बचा है, जो दुकानदार
न हो।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति
प्रकृति और
पुरुष के फासले
को थोड़ा—सा
स्मरण करने
लगता है कि यह
मैं नहीं हूं.।
इतना ही स्मरण
कि यह मैं
नहीं हूं।
दुकान पर बैठे
हुए,
कि दुकान कर
रहा हूं; जरूरी
है, दायित्व
है, काम है,
उसे निपटा
रहा हूं।
लेकिन घर
पहुंचकर, स्नान
करके अपने
मंदिर के कमरे
में आदमी प्रविष्ट
हो गया। वह
परदे के पीछे
चला गया, नाटक
के मंच से हट
आया, सब
छोड़ आया बाहर।
और घंटेभर शांति
से बैठ गया
बाहर दुनिया
के।
इसका
अभ्यास जितना
गहन होता चला
जाए,
उतना ही
योग्य है, उतना
ही उचित है।
तो धीरे—धीरे—
धीरे कोई भी
चीज आपको
बांधेगी नहीं।
कोई भी चीज
बांधेगी नहीं।
हो सकता है, जंजीरें भी
आपको बांध दी
जाएं और
कारागृह में आपको
डाल दिया जाए,
तो भी आप
स्वतंत्र ही
होंगे।
क्योंकि वह
कारागृह में
जो जंजीरें
बांधेंगे
जिसको, वह
प्रकृति होगी।
और आप बाहर ही
होंगे।
अपने
भीतर एक ऐसे
तत्व की तलाश
ही अध्यात्म
है,
जिसको
बांधा न जा
सके, जो
परतंत्र न
किया जा सके, जो सदा
स्वतंत्र है,
जो
स्वतंत्रता
है। यह पुरुष
ऐसी
स्वतंत्रता
का ही नाम है।
और सारे
आध्यात्मिक
यात्रा का एक
ही लक्ष्य है
कि आपके भीतर
उस तत्व की
तलाश हो जाए
जिसको दुनिया
में कोई सीमा
न दे सके, कोई
जंजीर न दे
सके, कोई
कारागृह में न
डाल सके।
जिसका मुक्त
होना स्वभाव
है।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि आप
कृष्ण को
जंजीरें नहीं
डाल सकते।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
बुद्ध को
कारागृह में
नहीं डाला जा
सकता। जीसस को
हमने सूली दी
ही है। लेकिन
फिर भी आप
जीसस को सूली
नहीं दे सकते।
जिसको आप सूली
दे रहे हैं, वह
प्रकृति ही है।
और जब आप जीसस
के हाथ में
खीलें ठोक रहे
हैं, तो आप
प्रकृति के
हाथ में खीलें
ठोक रहे हैं, जीसस के हाथों
में नहीं।
जीसस
के हाथों में
खीलें ठोकने
का कोई उपाय
नहीं है। जीसस
को सूली देने
का कोई उपाय
नहीं है। जीसस
जिंदा ही हैं।
आप शरीर को ही
काट रहे हैं
और मार रहे
हैं। अगर जीसस
भी शरीर से
जुड़े हों, तो
उनको भी पीड़ा
होगी। तो वे
भी रोके, चिल्लाएंगे।
वे भी छाती
पीटेंगे कि
बचाओ; कोई
मुझे बचा लो।
यह क्या कर
रहे हो! क्षमा
करो, मुझसे
भूल हो गई। वे
कुछ उपाय
करेंगे।
लेकिन वे कोई
उपाय नहीं कर
रहे हैं। उलटे
वे प्रार्थना
करते हैं
परमात्मा से
कि इन सब को
माफ कर देना, क्योंकि इनको
पता नहीं है
कि ये क्या कर
रहे हैं।
किस
चीज के लिए
जीसस ने कहा
है कि इनको
पता नहीं है, ये
क्या कर रहे
हैं? इस
चीज के लिए
जीसस ने कहा
है कि जिसको
ये सूली पर
लटका रहे हैं,
वह तो
लटकाया नहीं
जा सकता; और
जिसको ये लटका
रहे हैं, वह
मैं नहीं हूं।
इनको कुछ पता
नहीं है कि ये
क्या कर रहे
हैं। ये मेरी
भांति में
किसी और को
सूली पर लटका
रहे हैं! यह
मतलब है। इनको
खयाल तो यही
है कि मुझे
मार रहे हैं, लेकिन मुझे
ये कैसे
मारेंगे? जिसको
ये मार रहे
हैं, वह
मैं नहीं हूं।
और वह तो इनके
बिना मारे भी
मर जाता, उसके
लिए इतना
आयोजन करने की
कोई जरूरत न
थी। और मैं
इनके आयोजन से
भी न मरूंगा।
इस
भीतर के पुरुष
का बोध जैसे—जैसे
साफ होने
लगेगा, वैसे—वैसे
कृष्ण कहते
हैं, फिर
सब प्रकार से
बर्तता हुआ.।
इसलिए
कृष्ण का जीवन
जटिल है।
कृष्ण का जीवन
बहुत जटिल है।
और जो
तर्कशास्त्री
हैं,
नीतिशास्त्री
हैं, और जो
नियम से जीते
और चलते और
सोचते हैं, उन्हें
कृष्ण का जीवन
बहुत असंगत
मालूम पड़ता है।
एक
मित्र ने सवाल
पूछा है कि
कृष्ण अगर
भगवान हैं, तो
वे छल—कपट
कैसे कर सके?
स्वभावत:, छल—कपट
हम सोच ही
नहीं सकते, नैतिक आदमी
कैसे छल—कपट
कर सकता है! और
छल—कपट करके
वह कैसे भगवान
हो सकता है! और
वचन दिया था
कि शस्त्र हाथ
में नहीं
लूंगा और अपना
ही वचन झुठला
दिया। ऐसे
आदमी का क्या
भरोसा जो अपना
ही आश्वासन पूरा
न कर सका और
खुद ही अपने
आश्वासन को
झूठा कर दिया!
हमें
तकलीफ होती है।
हमें बड़ी अड़चन
होती है।
कृष्ण बेबूझ
मालूम पड़ते
हैं। कृष्ण को
समझना कठिन
मालूम पड़ता
है। महावीर को
समझना सरल है।
एक संगति है।
बुद्ध को
समझना सरल है।
जिंदगी एक
गणित की तरह
है। उसमें आप
भूल—चूक नहीं
निकाल सकते।
अगर
महावीर कहते
हैं अहिंसा, तो
फिर वैसा ही
जीते हैं। फिर
पांव भी
फूंककर रखते
हैं। फिर पानी
भी छानकर पीते
हैं। फिर
श्वास भी
भयभीत होकर
लेते हैं कि
कोई कीटाणु न
मर जाए। फिर
महावीर का
पूरा जीवन एक
संगत गणित है।
उस गणित में
भूल—चूक नहीं
निकाली जा
सकती।
लेकिन
कृष्ण का
जीवन बड़ा
बेबूझ है।
जितनी भूल—चूक
चाहिए वे सब
मिल जाएंगी।
ऐसी भूल—चूक
आप नहीं खोज सकते, जो
उसके जीवन में
न मिले। सब
तरह की बातें
भुल जाएंगी।
उसका
कारण है।
क्योंकि
कृष्ण की
दृष्टि जो है, उनका
जो मौलिक आधार
है सोचने का, वह यह है कि
जैसे ही यह
पता चल जाए कि
प्रकृति अलग
और मैं अलग, फिर किसी भी
भांति बर्तता
हुआ कोई बंधन
नहीं है। फिर
कोई जन्म नहीं
है।
इसलिए
कृष्ण छल—कपट
करते हैं, ऐसा
हमें लगता है।
ऐसा हमें लगता
है कि वे
आश्वासन देते
हैं और फिर
मुकर जाते हैं।
लेकिन कृष्ण
क्षण— क्षण
जीते हैं। जब
आश्वासन दिया
था, तब
पूरी तरह
आश्वासन दिया
था। उस क्षण
का सत्य था वह,
थ आफ दि
मोमेंट, उस
क्षण का सत्य था।
उस वक्त कोई न
थी मन में, कहीं
सोच भी न था कि
इस आश्वासन को
तोड़ेंगे। ऐसा
कोई सवाल नहीं
था। आश्वासन
पूरी तरह दिया
था। लेकिन
दूसरे क्षण
में सारी
परिस्थिति
बदल गई। और
कृष्ण के लिए
यह सब अभिनय
से ज्यादा
नहीं है। अगर
यह अभिनय न हो,
तो कृष्ण भी
सोचेंगे कि जो
आश्वासन दिया
था, उसको
पूरा करो।
अगर
जिंदगी बहुत
असली हो, तो
आश्वासन को
पूरा करने का
खयाल आएगा।
लेकिन कृष्ण
के लिए जिंदगी
एक सपने की
तरह है, जिसमें
आश्वासन का भी
कोई मूल्य
नहीं है। वह
भी क्षण—सत्य
था। उस क्षण
में वैसा
बर्तने का सहज
भाव था। आज
सारी स्थिति
बदल गई।
बर्तने का
दूसरा भाव है।
तो इस दूसरे
भाव में कृष्ण
दूसरा काम
करते हैं। इन
दोनों के बीच
कोई विरोध
नहीं है। हमें
विरोध दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
हम जिंदगी को
असली मानते
हैं। आप इसे
ऐसा समझें, आपको सपने
का खयाल है।
सपने का एक
गुण है। सपने
में आप कुछ से
कुछ हो जाते
हैं, लेकिन
आपके भीतर कोई
चिंता पैदा
नहीं होती। आप
जा रहे हैं।
आप देखते हैं
कि एक मित्र
चला आ रहा है।
और मित्र जब
सामने आकर खड़ा
हो जाता है, तो अचानक
घोड़ा हो जाता
है, मित्र
नहीं है। पर
आपके भीतर यह
संदेह नहीं
उठता कि यह
क्या गडबड़ हो
रही है! मित्र
था, अब
घोड़ा कैसे हो
गया? कोई
संदेह नहीं
उठता। असल में
भीतर कोई
प्रश्न ही
नहीं उठता कि
यह क्या गड़बड़
है! जागकर भला
आपको थोड़ी—सी
चिंता हो, लेकिन
तब आप कहते
हैं, सपना
है, सपने
का क्या!
सपने
में मित्र
घोड़ा हो जाए, तो
कोई चिंता
पैदा नहीं
होती। असलियत
में आप चले जा रहे
हों सड़क पर और
उधर से मित्र
आ रहा हो और
अचानक घोड़ा हो
जाए, फिर
आपकी बेचैनी
का अंत नहीं
है। आपको
पागलखाने
जाना पड़ेगा कि
यह क्या हो
गया। क्यों? क्योंकि
इसको आप
असलियत मानते
हैं। कृष्ण
इसको भी
स्वप्न से
ज्यादा नहीं
मानते। इसलिए
जिंदगी में
कृष्ण के लिए
कोई संगति
नहीं है। सब
खेल है। और सब
संगतिया
क्षणिक हैं और
क्षण के पार
उनका कोई
मूल्य नहीं है।
कृष्ण
की कोई
प्रतिबद्धता, कोई
कमिटमेंट
नहीं है। किसी
क्षण के लिए
उनका कोई बंधन
नहीं है। उस
क्षण में जो
है, जो सहज
हो रहा है, वे
कर रहे हैं।
दूसरे क्षण
में जो सहज
होगा, वह
करेंगे। वे
नदी की धार की
तरह हैं।
उसमें कोई
बंधन, कोई
रेखा, कोई
रेल की
पटरियों की
तरह वे नहीं
हैं कि रेलगाड़ी
एक ही पटरी पर
चली जा रही है।
वे नदी की तरह
हैं। जैसा
होता है!
पत्थर आ जाता
है, तो
बचकर निकल
जाते हैं। रेत
आ जाती है, तो
बिना बचे निकल
जाते हैं।
आप
यह नहीं कह
सकते कि वहा
पिछली दफा
बचकर निकले थे
और अब? अब रेत आ
गई, तो
सीधे निकले जा
रहे हो बिना
बचे, असंगति
है!
नहीं, आप
नदी से कुछ भी
नहीं कहते। जब
पहाड़ होता है,
नदी बचकर
निकल जाती है।
तो आप यह नहीं
कहते कि पहाड़
को काटकर
क्यों नहीं
निकलती! और जब
रेत होती है, नदी बीच में
से काटकर निकल
जाती है। तब
आप यह नहीं
कहते कि बड़ी
बेईमान है!
पहाड़ के साथ
कोई व्यवहार,
रेत के साथ
कोई व्यवहार!
कृष्ण
नदी की तरह
हैं। जैसी
परिस्थिति
होती है, उसमें
जो उनके लिए
सहज आविर्भूत
होता है अभिनय,
वह कर लेते
हैं। और
जिंदगी
असलियत नहीं
है। जिंदगी एक
कहानी है, एक
नाटक है, एक
साइको ड्रामा।
इसलिए उसमें
उनको कोई
चिंता नहीं है,
कोई अड़चन
नहीं है।
इस
बात को जब तक
आप ठीक से न
समझ लेंगे, तब
तक कृष्ण के
जीवन को समझना
बहुत कठिन है।
क्योंकि
कृष्ण बहुत
रूप में हैं।
और उस सब के
पीछे कारण यही
है कि कृष्ण
का मौलिक खयाल
है कि जैसे ही
पुरुष का भेद
स्पष्ट हो गया,
फिर सभी
भांति बर्तता
हुआ भी
व्यक्ति बंधन
को उपलब्ध
नहीं होता; जन्मों को
उपलब्ध नहीं
होता। वह सभी
भांति बर्तता
हुआ भी मुक्त
होता है। उसके
वर्तन में
आचरण और
अनाचरण का भी
कोई सवाल नहीं
है। आचरण और
अनाचरण का
सवाल भी तभी
तक है, जब
तक जिंदगी
सत्य मालूम
होती है। और
जब जिंदगी एक
स्वप्न हो
जाती है, तो
आचरण और
अनाचरण दोनों
समान हो जाते
हैं।
लेकिन
एक सवाल उठेगा।
तो क्या बुद्ध
को और महावीर
को यह पता
नहीं चला? क्या
उनको यह पता
नहीं चला कि
हम अलग हैं? और जब उन्हें
पता चल गया कि
हम अलग हैं, तो फिर
उन्होंने
क्यों चिंता
ली? फिर
क्यों वे
पंक्तिबद्ध, रेखाबद्ध, एक
व्यवस्थित और
संगत, गणित
की तरह जीवन
को उन्होंने
चलाया?
कुछ
कारण हैं। वह
भी
व्यक्तियों
की अपनी—अपनी
भिन्नता, अद्वितीयता
का कारण है।
सुना
है मैंने कि
एक बहुत बड़ा
संत नारोपा
अपने शिष्य को
समझा रहा था कि
जीवन तो अभिनय
है। और जीवन
में न कुछ गलत
है और न कुछ
सही है।
नारोपा ने कहा
है कि सही और
गलत का खयाल
ही संसार है।
कोई कहता है, यह
सही है और यह
गलत है; इतना
ही भेद
अज्ञानी बना
देता है। न
कुछ सही है, न कुछ गलत है।
यह ज्ञान है।
तो
उसके शिष्य ने
कहा,
आप तो बड़ी
खतरनाक बात कह
रहे हैं! इसका
मतलब हुआ कि
हम जैसा चाहें
वैसा आचरण
करें? तो
नारोपा ने कहा,
तू समझा
नहीं। जब तक
तू कहता है, जैसा चाहें
वैसा आचरण
करें, जब
तक चाह है, तब
तक तो तुझे यह
पता ही नहीं
चल सकता जो
मैं कह रहा
हूं। मैं यह
कह रहा हूं कि
जब अनुभव होता
है स्वयं का, तो पता चलता
है, न कुछ
गलत है, न
कुछ सही है।
क्योंकि यह सब
खेल है।
लेकिन
उसके शिष्य ने
फिर कहा कि
इसका तो मतलब यह
हुआ कि जो हम
चाहें वह करें।
नारोपा ने फिर
कहा कि तू
गलती कर रहा
है। जब तक तू
चाहता है, तब
तक मेरी बात
तो तेरी समझ
में ही नहीं आ
सकती। जब सब
चाह छोड़ देगा,
तब तुझे यह
खयाल आएगा। और
तूने अगर मेरी
बात का यह
मतलब लिया कि
जैसा चाहें हम
करें, तो
उसका तो अर्थ
हुआ कि तू
मेरी बात समझा
ही नहीं। चाह
जिसके भीतर है,
वासना
जिसके भीतर है,
वह तो कितना
ही धोखा देना
चाहे, सही
और गलत कायम
रहेगा। वासना
के साथ जुड़ा
है सही और गलत
का बोध।
समझें
इसे। आपको
मैंने कह दिया
कि न कुछ गलत
है,
न कुछ सही
है। जैसा चाहो,
वैसा बरतो।
आप फौरन गए और
चोरी कर लाए।
न कुछ गलत, न
कुछ सही।
लेकिन आपको
चोरी का ही
खयाल क्यों
आया सबसे पहले?
फिर भी ठीक
है। कुछ भी
वर्तन करें।
आप ज्ञानी हो
गए हैं, तो
अब कोई आपको
बाधा नहीं है।
लेकिन कोई
आपकी चोरी कर
ले गया, तब
आप पुलिस में
रिपोर्ट करने
चले। और रो
रहे हैं और कह
रहे हैं, यह
बहुत बुरा हुआ।
मैंने तो सुना
है, एक
आदमी पर अदालत
में मुकदमा
चला। नौवीं
बार मुकदमा
चला। जज ने
उससे पूछा कि
तू आठ बार सजा
भुगत चुका। तू
बार—बार पकड़
जाता है। कारण
क्या है तेरे
पकड़े जाने का?
उसने कहा, कारण साफ है
कि मुझे अकेले
ही चोरी करनी
पड़ती है। मेरा
कोई साझीदार
नहीं है।
अकेले ही सब
काम करना पड़ता
है। तोड़ो
दीवार, दरवाजे
तोड़ो, तिजोरी
तोड़ो, सामान
निकालो, बांधो,
ले जाओ। कोई
सहयोगी, पार्टनर
न होने से सब
तकलीफ है।
तो
उस जज ने पूछा
कि तो तू
सहयोगी क्यों
नहीं खोज लेता, जब
आठ बार पकड़ा
चुका! तो उसने
कहा कि अब आप
देखिए जमाना
इतना खराब है
कि किसी
पार्टनर का
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
चोर भी भरोसा
रखने वाला
पार्टनर
खोजता है। और
दुकानदारी
में तो चल भी
जाए थोड़ी
धोखाधड़ी, चोरी
में नहीं चल
सकती। चोरी
में बिलकुल
ईमानदार आदमी
चाहिए। इसलिए
चोरों में
जैसे ईमानदार
आपको मिलेंगे,
वैसे
दुकानदारों
में नहीं मिल
सकते। डाकुओं
में, हत्यारों
में जिस तरह
की निष्ठा, भ्रातृत्व,
भाईचारा
मिलेगा, वैसा
अच्छे
आदमियों में
मिलना
मुश्किल है।
क्योंकि वहां
इतनी बुराई है
कि उस बुराई
को टिकने के
लिए इतना
भाईचारा न हो,
तो बुराई चल
नहीं सकती।
नारोपा
ने कहा कि अगर
तेरे भीतर चाह
है,
तो तू रुक।
पहले चाह को
छोड़। और जब
तेरे भीतर कोई
चाह न रहे, तब
के लिए मैं कह
रहा हूं कि
फिर तू जैसा
भी चाहे, वैसा
बर्त। फिर कोई
पाप नहीं है, फिर कोई
पुण्य नहीं है।
इस
तरह का विचार
पश्चिम के
नीति
शास्त्रियों को
बहुत अजीब
लगता है। और
वे सोचते हैं
कि भारत में
जो नीति पैदा
हुई,
वह इम्मारल
है; .वह
नैतिक नहीं है।
हमारे
पास टेन
कमांडमेंट्स
जैसी चीजें
नहीं हैं।
पूरी गीता में
बाइबिल जैसी
टेन
कमांडमेंट्स
नहीं हैं, कि
चोरी मत करो, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो।
बल्कि उलटा यह
कहा है कृष्ण
ने कि अगर
तुमको पता चल
जाए कि यह
पुरुष और
प्रकृति अलग
है, तो तुम
जो हो, होने
दो। फिर कोई
बर्ताव हो, तुम्हारे
लिए कोई बंधन
नहीं है, कोई
पाप नहीं है।
ईसाई
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाता
है यह सोचकर, मुसलमान
बड़ी दिक्कत
में पड़ जाता
है यह सोचकर, कि गीता
कैसा धर्म—ग्रंथ
है! यह तो
खतरनाक है।
अभी
टर्की ने गीता
पर नियंत्रण
लगा दिया है, बंध
लगा दिया है कि
टर्की में
गीता प्रवेश
नहीं कर सकती।
मेरे पास कुछ
मित्रों ने
पत्र लिखे हैं
कि इसका आप भी
विरोध करिए।
गीता जैसी
महान किताब पर
टर्की ने
क्यों प्रतिबंध
लगाया?
मैंने
कहा,
तुम्हें
खुश होना
चाहिए। कृष्ण
को मरे पाच
हजार साल हो
गए होंगे और
अभी भी गीता
इतनी जिंदा है
कि कोई मुल्क
डरता है। खुश
होना चाहिए।
इसका मतलब है,
गीता में
अभी भी जान है,
अभी भी खतरा
और आग है। पर
आग क्या है?
इधर
मुल्क में सब
जगह विरोध हो
गए।
आर्यसमाजी
हैं,
फलां हैं, ढिका हैं, जिनको विरोध
करने का ही रस
है, उन्होंने
सबने विरोध कर
दिया, प्रस्ताव
कर दिए। और
हमारे मुल्क
में तो
प्रस्ताव
करने वालों की
तो कोई कमी
नहीं है। कि
ऐसा नहीं होना
चाहिए; बहुत
बुरा हो गया, बड़ा अन्याय
हो गया। लेकिन
किसी ने खयाल
न किया कि
टर्की ने यह
नियम लगाया
क्यों है!
इस
नियम के पीछे
इस तरह के
सूत्र हैं।
क्योंकि यह भय
मालूम पड़ता है
कि अगर इस तरह
की बात
प्रचारित हो
जाए,
तो लोग
अनैतिक हो
जाएंगे। यह भय
थोड़ी दूर तक
सच है।
क्योंकि
सामान्य आदमी
अपने मतलब की
बात निकाल
लेता है।
गीता
कहती है, जब
पुरुष और
प्रकृति का
भेद स्पष्ट हो
जाए, तो
फिर कुछ भी
बरतो, कोई
पाप नहीं, कोई
पुण्य नहीं, कोई बंधन
नहीं; फिर
कोई जन्म नहीं
है। लेकिन
पहली शर्त
खयाल में रहे।
अगर शर्त हटा
दें हम, तो
निश्चित ही एक
अराजकता और
अनैतिकता फैल
सकती है। और
तब टर्की अगर
नियंत्रण
लगाता हो कि
गीता को मुल्क
में नहीं आने
देंगे, तो
सामान्य आदमी
को जो खतरा हो
सकता है, उस
खतरे की दृष्टि
से ठीक ही है।
पर
मैं तो खुश
हुआ। मैं खुश
हुआ,
क्योंकि
इतनी पुरानी
किताबों पर
कभी भी नियंत्रण
नहीं लगते।
क्योंकि
जिंदा
किताबें मर
जाती हैं दो —चार—दस
साल में। फिर
उनसे कोई क्रांति—व्रांति
नहीं होती।
पांच हजार
साल! उसके बाद
भी कोई मुल्क
चिंतित हो
सकता है। तो
उसका अर्थ है
कि कोई
चिंगारी, कोई
बहुत
विस्फोटक
तत्व गीता में
है।
वह
यही तत्व है, अनैतिक
मालूम होता है।
अतिनैतिक
है गीता का
संदेश। सुपर
इथिकल है।
इथिकल तो
बिलकुल नहीं
है;
नैतिक नहीं
है। अतिनैतिक
है। और उस
अतिनैतिकता
को समझने में
खतरा है। और
जितनी ऊंचाई
पर कोई चले, उतना ही डर
है, गिर
जाए, तो
गड्डे हैं
बहुत बड़े।
इस
सूत्र को ठीक
से समझ लेना।
आपके
मन में अगर
कोई चाह बसी
हो;
मैं आपसे
कहूं कि जो भी
करना हो करो, कोई पाप
नहीं है; और
फौरन आपको
खयाल आ जाए कि
क्या करना है,
तो आप समझ
लेना कि आपके
लिए अभी यह
नियम नहीं है।
यह सूत्र
सुनकर, कि
कुछ भी करो, कोई हर्ज
नहीं है, आपके
भीतर करने का
कोई भी खयाल न
उठे। यह सुनकर,
कि कोई भी
बरताव हो, कोई
जन्म नहीं
होगा; कोई
दुख, कोई
नरक नहीं होगा,
और आपके
भीतर कोई
बरताव करने का
खयाल न आए, तो
यह सूत्र आपकी
समझ में सकता
है।
और
तत्क्षण
आपको लगे, कि
ऐसा? कुछ
भी करो! ले
भागों पड़ोसी
की पत्नी को!
क्योंकि
मैंने सुना है, एक
दफ्तर में ऐसा
हो गया। दफ्तर
के नौकर—चाकर
ठीक से काम
नहीं कर रहे
थे, तो एक
मनोवैज्ञानिक
से सलाह ली
मालिक ने। तो
उसने कहा कि
आप ऐसा करें, वहां एक
तख्ती लगा दें।
तख्ती में लिख
दें कि जो भी
कल करना है, वह आज करो, जो आज करना
है, वह अभी
करो। क्योंकि
क्षणभर में
प्रलय हो
जाएगी, फिर
कब करोगे! काल
करै सो आजकर, आज करै सो अब;
पल में परलै
होएगी, बहुरि
करोगे कब।
तख्ती लगा दी
बड़ी।
दूसरे
दिन
मनोवैज्ञानिक
पूछने आया कि
क्या परिणाम
हुआ। मालिक के
सिर पर पट्टी
बंधी थी।
बिस्तर पर पड़े
थे। उसने कहा, परिणाम?
बरबाद हो
गए! क्योंकि
टाइपिस्ट
लड़की को लेकर
भाग गया मुनीम।
चिट्ठी लिख
गया कि बहुत
दिन से सोच
रहा था कि कब
भाग। देखा कि
काल करै सो आज
कर, आज करै
सो अब; पल
में परलै
होएगी, बहुरि
करेगा कब। तो
मैंने सोचा कि
अब भागो। पल
में परलै हो
जाए, फिर
कब करोगे!
और
वह जो आफिस
बॉय था, उसने
आकर जूते मार
दिए सिर पर।
क्योंकि वह
कहता है, कई
दिन से सोच
रहे थे कि
मारो। आफिस
बॉय सोचता ही
रहता है, कैसे
मारें। उसको
तो मालिक रोज
ही मार रहा है।
वह भी सोचता
रहता है। उसने
कहा कि जब
लिखा ही है कि
आज ही कर लो जो
करना है, कल
का कुछ भरोसा
नहीं। तो उसने
लगा दिए जूते।
जो
कैशियर था, वह
सब लेकर भाग
गया। दफ्तर
बंद पड़ा है।
खूब कृपा की, उस मालिक ने
कहा
मनोवैज्ञानिक
को, अच्छी
तरकीब बताई।
बरबाद कर डाला।
यह
सूत्र आपके
लिए नहीं है।
यह सूत्र तभी
है,
जब पुरुष और
प्रकृति का
स्पष्ट बोध, भेद हो जाए
तो नीति का
कोई बंधन नहीं
है। पांच मिनट
रुके। कीर्तन
में सम्मिलित
हों, और
फिर जाएं।
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