दुख, सुख और महावीर-आनंद—(प्रवचन—चौबीसवां)
दुख, सुख और आनंद,
इन तीन
शब्दों को
समझना बहुत
उपयोगी है।
दुख और
सुख भिन्न
चीजें नहीं
हैं, बल्कि उन
दोनों के बीच
जो भेद है, वह
ज्यादा से
ज्यादा
मात्रा का, परिमाण का, डिग्री का
है। और इसलिए
सुख दुख बन
सकता है और दुख
सुख बन सकता
है। जिसे हम
सुख कहते हैं,
वह भी दुख
बन सकता है; और जिसे दुख
कहते हैं, वह
भी सुख बन
सकता है। इन
दोनों के बीच
जो फासला है, जो भेद है, वह विरोधी
का नहीं है।
भेद मात्रा का
है।
एक
आदमी को हम
गरीब कहते हैं
और एक आदमी को
हम अमीर कहते
हैं। गरीब और अमीर
में भेद किस
बात का है? विरोध है
दोनों में?
आमतौर
से ऐसा दिखता
है कि गरीब और
अमीर विरोधी
अवस्थाएं हैं, लेकिन सचाई
यह है कि
गरीबी और
अमीरी एक ही
चीज की
मात्राएं
हैं। एक आदमी
के पास एक
रुपया है तो
गरीब है और एक करोड़
रुपया है तो
अमीर है।
अगर एक रुपए में गरीब है, तो एक करोड़ में अमीर कैसे हो सकता है? इतना ही हम कह सकते हैं कि एक करोड़ गुना कम गरीब है। और अगर एक करोड़ वाला अमीर है तो एक रुपए वाला गरीब कैसे है? फिर इतना ही हम कह सकते हैं कि वह एक करोड़ गुना कम अमीर है।
अगर एक रुपए में गरीब है, तो एक करोड़ में अमीर कैसे हो सकता है? इतना ही हम कह सकते हैं कि एक करोड़ गुना कम गरीब है। और अगर एक करोड़ वाला अमीर है तो एक रुपए वाला गरीब कैसे है? फिर इतना ही हम कह सकते हैं कि वह एक करोड़ गुना कम अमीर है।
इन
दोनों में जो
भेद है, वह
भेद ऐसा नहीं
है, जैसा
दो विरोधियों
में होता है।
वह भेद ऐसा है,
जैसा एक ही
चीज की
मात्राओं में
होता है। लेकिन
गरीबी दुख हो
सकती है और
अमीरी सुख हो
सकती है। और
गरीब दुखी है
और अमीर होना
चाहता है।
तो दुख
और सुख में भी
जो भेद है, वह भेद भी
मात्रा का ही
है इसी भांति।
हमारी सारी
सुख की
अनुभूतियां
दुख से जुड़ी
हुई हैं और हमारी
सारी दुख की
अनुभूतियां
भी सुख से
जुड़ी हुई हैं।
इन दोनों के
बीच जो डोल
रहा है, वह
संसार में है।
संसार में
होने का मतलब
इतना ही नहीं
है कि सिर्फ दुखानुभूति।
अगर संसार में
सिर्फ दुख की
अनुभूति हो तो
कोई भटके ही
नहीं, फिर
तो भटकने का
उपाय ही न
रहा। भटकता
सिर्फ इसलिए
है कि सुख की
आशा होती है, अनुभूति दुख
की होती है।
और सुख मिल
जाता है तो
मिलते ही दुख
में बदल जाता
है।
संसार
की अनुभूति को
दोत्तीन
तरह से देखना
चाहिए। एक तो
यह कि सुख सदा
भविष्य में
होता है--कल
मिलेगा। और कल
मिलने वाले
सुख के लिए आज
हम दुख झेलने को
तैयार होते
हैं! आज के दुख
को हम इस आशा
में झेल लेते
हैं कि कल सुख
मिलेगा। अगर
कल सुख की कोई
आशा न हो तो आज
के दुख को एक
क्षण भी झेलना
कठिन है।
उमर खय्याम ने
एक गीत लिखा
है और उस गीत
में वह कहता
है कि मैं बहुत
जन्मों से भटक
रहा हूं और
सबसे पूछ चुका
हूं कि आदमी
भटकता क्यों
है? लेकिन
कोई उत्तर
नहीं मिलता।
और तब मैंने
थक कर एक दिन
आकाश से ही
पूछा कि तूने
तो सब भटकते लोगों
को देखा है, और उन सबको
भी देखा जो
भटकन के बाहर
हो गए हैं, और
उन सबको भी
देखता रहेगा
जो भटकन में
आएंगे, और
उनको भी देखता
रहेगा जो भटकन
के बाहर होंगे।
तू ही मुझे
बता दे कि
आदमी भटकता
क्यों है? तो
चारों तरफ
आकाश से--वह उस
अपने गीत में
कहता है--मुझे
आवाज सुनाई
पड़ी: आशा के
कारण! बिकाज
ऑफ होप!
आदमी
भटकता क्यों
है? आशा के
कारण! और आशा
क्या है? इस
बात की
संभावना कि कल
सुख मिलेगा।
इस बात की, इस
बात का
आश्वासन कि कल
सुख मिलेगा।
आज दुख झेल लो,
कल सुख
मिलेगा!
आज का
दुख हम झेलते
हैं कल के सुख
की आशा में! फिर
कल जब सुख
मिलता है तो
बड़ी
आश्चर्यजनक
घटना घटती है।
सुख मिलते ही
फिर दुख हो
जाता है। जो चीज
उपलब्ध हो जाती
है, कितनी
कल्पना की थी
कि उसके मिलने
पर यह होगा, यह होगा, यह
होगा।
और
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
अनुभव को थोड़ा
जांचेगा
तो हैरान होगा
कि मैंने
कितने-कितने
सपने संजोए--यह
होगा, यह
होगा, यह
होगा। फिर वह
चीज मिल गई, और पाया कि
कुछ भी न हुआ।
वे सब के सब
सपने कहां खो
गए, कुछ
पता न चला। वे
सब की सब
कल्पनाएं
कैसे विलीन हो
गईं, कुछ
पता न चला।
चीज हाथ में
आई कि जो-जो
उसके मिलने की
संभावना में
छिपा हुआ सुख
था, वह
एकदम तिरोहित
हो जाता है।
जब तक
नहीं मिलता, तब तक
प्रतीक्षा
में सुख मालूम
होता है; जब
मिल जाता है, सब सुख समाप्त
हो जाता है!
फिर नई दौड़
शुरू हो जाती
है। क्योंकि
जहां दुख है, वहां से हम भागेंगे।
यह भी समझ
लेना चाहिए।
जहां दुख है, वहां हम रुक
नहीं सकते।
वहां से हम भागेंगे।
क्योंकि जहां
दुख है, वहां
कैसे रुका जा
सकता है? दुख
भगाता है। दुख
से हम हट जाना
चाहते हैं। और
दुख से हटने
का उपाय क्या
है? एक ही
उपाय दिखाई
पड़ता है
साधारणतः, और
वह यह है कि
सुख की किसी
आशा में हम आज
के दुख को
भुला दें, विस्मरण
कर दें।
तो फिर
जैसे ही दुख
शुरू होता है, हम नई आशा
सुख की बनाते
हैं। उस आशा
में हम वह सब
डाल देते हैं,
जो हमारे
दुख से विपरीत
है। वह सब
समाविष्ट कर
देते हैं, जो
हम चाहते हैं
कि हो। और इस
तरह आदमी जीता
दुख में है!
जीता दुख में
है, होता
दुख में है; लेकिन आंखें
उसकी सुख में
लगी रहती हैं!
जैसे आदमी
चलता पृथ्वी
पर है और
देखता सदा
आकाश को रहे।
आकाश पर देखने
में एक सुविधा
हो सकती है कि
पृथ्वी पर
होना भूल जाए,
फिर भी होगा
पृथ्वी पर।
हम खड़े
हैं दुख में, लेकिन आंखें
सदा सुख में
अटकी रहती
हैं! इससे सुविधा
यह हो जाती है
कि दुख को हम
भूल जाते हैं
और दुख को
झेलने की
क्षमता
उपलब्ध कर
लेते हैं।
अब अगर
बहुत गहरे में
देखा जाए तो
सुख जो है, वह सिर्फ
संभावना है, सत्य कभी भी
नहीं। दुख सदा
सत्य है, तथ्य
है, वास्तविक
है। लेकिन दुख
कैसे झेला जाए?
तो हम उसे
सुख की आशा
में झेल लेते
हैं। कल का सुख
आज के दुख को
सहने योग्य, सहनीय बना
देता है!
और वह
सुख जो कल का
है, वह कभी
मिलता नहीं।
और जिस दिन
मिल जाता है, भूल-चूक से, उसी दिन हम
पाते हैं कि
भ्रांति टूट
गई, इल्यूजन
टूट गया। वह
जो आशा हमने
बांधी थी, गलत
सिद्ध हुई।
लेकिन इससे
सिर्फ इतना ही
हम समझ पाते
हैं कि यह सुख
गलत था! दूसरे
सुख गलत नहीं
हैं, उनकी
आशा में आगे
दौड़ते रहो। यह
भूल थी, लेकिन
अब यह भूल भ्रांत
सिद्ध हो गई, टूट गई, दुख
आ गया, तो
अब फिर चित्त
भागेगा।
यानी
हम एक आशा से उखड़ते हैं, लेकिन आशा
मात्र से नहीं
उखड़ जाते। एक
सुख की व्यर्थता
को जान लेते
हैं, लेकिन
सुख मात्र की
व्यर्थता को
नहीं जान पाते
हैं। इसलिए
दौड़ जारी रहती
है। अगर दुख
ही हो जीवन में
और सुख की कोई
संभावना का
भाव भी न हो, तब तो एक
व्यक्ति एक
क्षण संसार
में नहीं रह सकता।
एक क्षण भी
रहना मुश्किल
है। एक क्षण
में ही मुक्त
हो जाए। लेकिन
आशा उसे आगे
गतिमान रखती
है।
और वह
जो मैंने कहा
कि मुक्त
व्यक्ति को जो
मिलता है, उसे सुख
नहीं कहना
चाहिए--शब्द
तो हम कोई भी
उपयोग कर सकते
हैं--उसे सुख नहीं
कहना चाहिए, क्योंकि उसे
जो मिलता है, वह सुख और
दुख दोनों से
भिन्न है।
इसलिए उसे आनंद
कहना चाहिए।
उसे नया शब्द
देना चाहिए।
अब यह बड़े मजे
की बात है कि
आनंद से
विपरीत शब्द तुमने
न सुना होगा।
सुख-दुख
एक-दूसरे के
विपरीत हैं, लेकिन आनंद
के विपरीत कौन
सा शब्द है?
आनंद
के विपरीत कोई
शब्द नहीं है।
आनंद के विपरीत
कोई अवस्था ही
नहीं है। और
आनंद सुख नहीं
है, अगर उसे
सुख बनाया तो
वह बात और
होगी। वह फिर
दुख की दुनिया
शुरू हो गई।
तो
साधारणतः हम
कहते हैं, वह व्यक्ति
आनंद को
उपलब्ध होता
है, जो दुख
से मुक्त हो
जाता है।
लेकिन इस कहने
में थोड़ी
भ्रांति है।
कहना ऐसा
चाहिए, आनंद
को वह व्यक्ति
उपलब्ध होता
है, जो
सुख-दुख से
मुक्त हो जाता
है। क्योंकि
वे जो सुख-दुख
हैं, वे
कोई दो चीजें
नहीं हैं। और
इसलिए
साधारणजन को
निरंतर यह
गलती हो जाती
है समझने में
कि वह आनंद को
सुख ही समझ लेता
है। वह समझता
है, दुख से
मुक्त हो जाना
सुख है। इसलिए
बहुत से लोग
सत्य की खोज
में या मोक्ष
की खोज में भी
वस्तुतः सुख
की ही खोज में
होते हैं।
इसलिए
महावीर ने एक
बहुत बढ़िया
काम किया। सुख
के खोजी को
उन्होंने कहा, वह स्वर्ग
का खोजी है।
आनंद के खोजी
को उन्होंने
कहा, वह
मोक्ष का खोजी
है। मोक्ष और
स्वर्ग में जो
फर्क है, वह
खोज का है।
दुख का खोजी
नरक का खोजी
है, सुख का
खोजी स्वर्ग
का खोजी है, लेकिन दोनों
से जो मुक्ति
का खोजी है, वह मोक्ष का
खोजी है।
स्वर्ग मोक्ष
नहीं है।
महावीर
के पहले बहुत
व्यापक धारणा
यही थी कि स्वर्ग
परम उपलब्धि
है! उसके आगे
क्या उपलब्धि!
सब सुख जहां
मिल गया, वह
परम उपलब्धि
है। लेकिन इस
बड़े
मनोवैज्ञानिक
सत्य को समझना
चाहिए कि जहां
सुख होगा, वहां
दुख अनिवार्य
है। जैसे जहां
उष्णता होगी,
वहां शीत
अनिवार्य है।
जैसे जहां
प्रकाश होगा,
वहां
अंधकार
अनिवार्य है।
असल में ये एक
ही सत्य के दो
पहलू हैं और
एक साथ ही
जीते हैं। और
इनमें से एक
को बचाना और
दूसरे को फेंक
देना असंभव
है। ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही किया जा
सकता है कि हम
एक को ऊपर कर
लें और दूसरा
नीचे हो जाए।
जब हम सुख के
भ्रम में होते
हैं, तब
दुख नीचे छिपा
होता है और
प्रतीक्षा
करता है कि कब
प्रकट हो
जाऊं। और जब
हम दुख में
होते हैं, तब
सुख नीचे छिपा
होता है और
प्रतिपल आशा
दिए जाता है
कि अभी प्रकट
होता हूं, अभी
प्रकट होता
हूं। लेकिन
दोनों चीजें
एक ही हैं।
और यह
अगर समझ में आ
जाए तो सुख का
भ्रम टूटता
है। सुख का
भ्रम टूटे तो
दुख का
साक्षात होता
है। सुख का
भ्रम बना रहे
तो दुख का
साक्षात नहीं
होता।
क्योंकि उस
भ्रम के कारण
हम दुख को
सहनीय बना
लेते हैं। हम
उसे सह जाते
हैं, झेल जाते
हैं।
सुख का
भ्रम दुख का
पूर्ण साक्षात
नहीं होने
देता। जैसा
दुख है, उसे
पूरा प्रकट
नहीं होने
देता। उसकी
पूरी पैनी धार
हमें छेद नहीं
पाती। सुख दुख
की धार को बोथला
कर देता है।
असल में हम
दुख की तरफ
देखते ही नहीं,
हम सुख की
तरफ ही देखे
चले जाते हैं!
दुख इधर पैरों
के नीचे से
निकलता है, लेकिन हम
कभी आंख गड़ा
कर दुख को
नहीं देखते!
हम सदा एस्केप
कर जाते हैं।
दुख से सुख की
आशा में हम
सदा भागे चले
जाते हैं। जो
व्यक्ति सुख
के भ्रम से
मुक्त होगा, जिसे यह
दिखाई पड़ेगा
कि सुख जैसा
कुछ भी तो नहीं
है...।
लौट कर
पीछे देखो तो
खयाल में आ
सके। हम सदा
देखते हैं आगे, इसलिए खयाल
में नहीं आता
है। लौट कर
पीछे देखो, कब था जब सुख
पाया? ऐसा
कौन सा क्षण
था जब सुख
पाया? पीछे
लौट कर देखो, क्योंकि
वहां घटनाएं
घट चुकी हैं।
ऐसा कौन सा क्षण
था जब सुख
पाया?
तो बड़ी
हैरानी होगी
पीछे लौट कर
देखने पर। एकदम
मरुस्थल
मालूम पड़ता है, जहां सुख का
कोई फूल कभी
नहीं खिला।
हालांकि बहुत
बार, जब यह
जो अब अतीत हो
गया, पास्ट
हो गया, जब
अतीत नहीं था,
भविष्य था,
तो इसमें भी
हमने सोचा था
कि सुख मिलेगा,
मिलेगा, मिलेगा।
फिर वह अतीत
हो गया और
हमारी आशा और
भविष्य में
चली गई। कल जो
भविष्य था, आज अतीत हो
गया है। आज जो
भविष्य है, कल अतीत हो
जाएगा। और
अतीत को लौट
कर देखो कि सुख
कभी मिला? हालांकि
ठीक इतनी ही
आशा तब भी थी।
मिलने की, पाने
की, उपलब्धि
की इतनी ही
धारणा तब भी
थी। वह नहीं मिला
लेकिन। और
उतनी ही धारणा
अब भी है। और
आगे भी हम वही
कर रहे हैं, जो हमने
पीछे किया था।
आज को झेल रहे
हैं कल की आशा
में। इसलिए आज
को देख नहीं
पाते।
इस
सूत्र को समझ
लेना चाहिए:
जो सुख के
भ्रम में है, वह दुख का
साक्षात्कार
नहीं कर सकता
है।
सुख का
भ्रम, साक्षात्कार
दुख का होने
ही नहीं देता।
बल्कि असलियत
तो यही है कि
हम सुख का भ्रम
ही इसलिए पैदा
करते हैं, ताकि
दुख का
साक्षात्कार
न हो सके।
एक
आदमी भूखा पड़ा
है। भूख का
साक्षात्कार
नहीं कर पाता, क्योंकि वह
उस वक्त कल
भोजन जो बनेगा,
मिलेगा, मिल
सकता है, उसके
सपने देख रहा
है। एक आदमी
बीमार पड़ा है।
वह बीमारी का
साक्षात्कार
नहीं कर पाता,
क्योंकि वह
उन सपनों में
खोया है, कल
जब वह स्वस्थ
हो जाएगा।
हम
पूरे समय चूक
गए हैं उस जगह
से, जहां हम
हैं। और जहां
हम हैं, वहां
निरंतर दुख
है। शायद उस
दुख को झेलना
इतना कठिन है
कि हमें चूकना
पड़ता है, भागना
पड़ता है; एस्केप
कर जाते हैं, पलायन कर
जाते हैं।
सुख का
भ्रम टूट जाए
तो भागोगे
कहां, यह
कभी सोचा? अगर
सुख का भ्रम
टूट जाए तो हम भागेंगे
कहां? हम
जाएंगे कहां?
हमें दुख
में जीना
पड़ेगा, दुख
भोगना पड़ेगा,
दुख जानना
पड़ेगा। दुख के
साथ आंखें गड़ानी
पड़ेंगी, क्योंकि
कोई उपाय नहीं
कहीं और जाने
का। हम हैं और
दुख है।
जो
व्यक्ति दुख
का
साक्षात्कार
करे, वह उस
तीव्रता पर
पहुंच जाता है,
जहां से
वापसी शुरू
होती है, जहां
से वह लौटता
है। जो मैंने
सुबह कहा, दुख
की पूरी पीड़ा,
पूरी सफरिंग,
जब सब तरफ
से कांटे दुख
के उसे छेद
लेते हैं, और
भविष्य में
कोई आशा नहीं
रह जाती, और
आगे कुछ भी
उपाय नहीं रह
जाता, तब
वह जाएगा कहां?
जब आगे बाहर
भविष्य में
कोई आशा नहीं,
तब वह अपने
में लौटता है।
जिस दिन दुख
का पूरा साक्षात्कार
होता है, उसी
दिन वापसी
शुरू हो जाती
है, उसी
दिन व्यक्ति
लौटने लगता
है।
इसे
समझ लेना। दुख
से भागोगे तो
सुख में पहुंच
जाओगे। दुख
में जागोगे तो
आनंद में
पहुंच जाओगे।
दुख से भागे
कि सुख। वह
भागने की
तरकीब है। दुख
से नहीं भागे, दुख में खड़े
ही हो गए, दुख
को पूरा देखा
ही, दुख का
साक्षात
किया--और
रूपांतरण
शुरू हुआ। क्योंकि
जैसे ही दुख
का पूरा
साक्षात्कार
होगा, हम
वही फिर कैसे
कर सकेंगे, जो दुख लाता
है? हम फिर
उन्हीं ढंगों
से कैसे जी
सकेंगे, जिससे
दुख आता है? हम फिर
उन्हीं
वासनाओं, उन्हीं
तृष्णाओं में
कैसे घिरेंगे,
जिनका फल
दुख है? हम
फिर वे ही बीज
कैसे बोएंगे,
जिनके फलों
में दुख आता
है?
लेकिन
यह दुख के
पूरे
साक्षात्कार
से--एनकाउंटर
विद सारो। वह
है वहां पीड़ा, सफरिंग है, लेकिन
उसको हमने कभी
आंख मिला कर
देखा नहीं। दुख
का साक्षात अनिवार्यरूपेण
आनंद की
यात्रा बन
जाता है।
तुम्हें जाना
नहीं पड़ता, बस तुम जाना
शुरू हो जाते
हो। क्योंकि
तुम पहचानते
हो कि यहऱ्यह
मैंने किया।
बुद्ध
कहते हैं, यह किया, उससे
यह हुआ, तो
यह मत करो, उससे
यह नहीं
होगा--ऐसा
नियम है।
हमने
यह
किया--मैंने
गाली दी, गाली
लौटी। मैंने
गाली दी, मैंने
दुख दिया, दुख
आया। अब अगर
इस दुख का
पूरा-पूरा बोध
मुझे हो जाए, इसका छुरा
मेरी छाती में
पूरा घुस जाए
और मैं कोई
सपने देख कर
इसे भुला न
दूं, तो
क्या होगा? तो यही होगा
न कि कल मैं
गाली नहीं
दूंगा! कल मैं
किसी को दुख
नहीं पहुंचाऊंगा!
क्योंकि
पहुंचाया गया
दुख वापस लौट
आता है। और तब
दुख की
संभावना
क्षीण होती
चली जाएगी। उदाहरण
के लिए मैंने
कहा।
इसी
तरह जीवन के
प्रत्येक
विकल्प पर
कैसे-कैसे दुख
पैदा होता है, वह मुझे
दिखाई पड़ना
शुरू हो
जाएगा। जो चीज
दिखाई पड़नी
शुरू हो
जाएगी...।
कोई
आदमी दुख में
कभी नहीं
उतरता। सब
आदमी सुख की
नाव पर सवार
होते हैं। दुख
की नाव पर कोई
सवार नहीं
होता। कौन दुख
की नाव पर
सवार होने को राजी
होगा? अगर
पक्का पता है
कि यह नाव दुख
की है और दुख
के घाट पर
उतार देगी, तो कौन सवार
होगा? हम
नाव में सवार
होते हैं दुख
की, लेकिन
घाट सदा सुख
का होता है, इसलिए सवार
हो जाते हैं।
इसलिए आशा यह
रहती है कि
कोई फिक्र
नहीं, अभी
थोड़ा, राह
में नाव अगर
थोड़ा कष्ट भी
देती है, डूबने
का डर भी देती
है, तो भी
कोई फिक्र
नहीं, घाट
उस पार सुख
है।
लेकिन
दुख की नाव
सुख के घाट पर
कैसे पहुंच सकती
है? असल में
दुख देने वाला
साधन सुख का
साध्य कैसे बन
सकता है? असल
में प्रथम कदम
पर जो हो रहा
है, वही
अंतिम पर भी
होगा। बहुत
गहरे में दि
फर्स्ट इज़
दि लास्ट। क्योंकि
वहीं से
शुरुआत हो गई।
अगर
मैंने एक ऐसा
कदम उठाया जो
अभी दुख दे
रहा है, तो
यह कैसे संभव
है कि यही कदम
कल और आगे बढ़
कर सुख दे
देगा?
इतना
ही संभव है कि
कल और आगे बढ़
कर यह और
ज्यादा दुख दे
देगा।
क्योंकि आज तो
छोटा है, कल
और बड़ा हो
जाएगा। मैं दस
कदम और उठा
लूंगा, परसों
और दस कदम उठा
लूंगा, और
यह रोज बढ़ता
चला जाएगा। यह
दुख का छोटा
सा बीज रोज
वृक्ष होता
चला जाएगा।
इसमें और
शाखाएं
निकलेंगी, इसमें
और फल लगेंगे,
इसमें और
फूल लगेंगे।
और न केवल फूल,
बल्कि एक
बीज बहुत
जल्दी वृक्ष
से हजार, करोड़
बीज हो जाएगा।
वे बीज गिरेंगे
और वृक्ष
उठेंगे। और यह
फैलता चला
जाएगा।
और यह
अंतहीन फैलाव
है। यानी एक
बीज कितने वृक्ष
पैदा कर सकता
है, कोई
हिसाब लगाया
है किसी ने भी
कभी? शायद
पृथ्वी पर
जितने वृक्ष
हैं, एक ही
बीज पैदा कर
सकता है।
पृथ्वी पर
थोड़े ही वृक्ष
हैं, शायद
सारे
ब्रह्मांड
में जितने
वृक्ष हैं, एक ही बीज
पैदा कर सकता
है। एक बीज की
कितनी फैलने
की अनंत
संभावना है, इसे अगर
सोचने जाओगे
तो एकदम घबड़ा
ही जाओगे। अनंत
संभावना है
इसलिए कि एक
बीज करोड़
बीज हो सकता
है। फिर
प्रत्येक बीज करोड़ बीज
होता चला जाता
है, होता
ही चला जाता
है। इसका कोई
फैलाव का
रुकाव नहीं
है।
तो हम
जो पहला कदम
उठाते हैं, वह बीज बन
जाता है और
अंतिम फल उसकी
सहज परिणति
है। लेकिन हम
उठा लेते हैं
इस आशा में, कि बीज तो
जहर का बो
देते हैं, इस
आशा में कि फल
अमृत के
होंगे।
वे कभी
अमृत के नहीं
होते हैं।
बार-बार हमने
अनुभव किया
है।
निरंतर-निरंतर, प्रतिपल
हमने यह जाना
है कि बीज बोए
थे, वही फल
आ गए।
लेकिन
हम अपने को
धोखा देने में
कुशल हैं। और जब
फल आते हैं तो
हम कहते हैं, जरूर कहीं
कोई भूल हो
गई। जरूर कहीं
कोई भूल हो गई,
जरूर कहीं
कोई गलती हो
गई, जरूर
परिस्थितियां
अनुकूल न थीं।
हवाएं
ठीक न बहीं, सूरज वक्त
पर न निकला, वर्षा ठीक
समय पर न हुई, ठीक वक्त
खाद न डाला
गया, इसलिए
फल कड़वे आ
गए। सब चीज पर
दोष देते हैं,
एक चीज को
छोड़ जाते हैं,
कि बीज
जहरीला था!
और मजे
की बात यह है
कि अगर वर्षा
समय पर न हुई हो, अनुकूल
परिस्थिति न
मिली हो, माली
ने ठीक वक्त
खाद न दिया हो,
सूरज न
निकला हो, इस
कारण सिर्फ
इतना ही हो
सकता है कि फल
जितना बड़ा हो
सकता था, उतना
बड़ा न हुआ हो।
यानी इस कारण
इतना ही हो सकता
है कि जितना
जहरीला फल
मिला, वह
छोटा ही रहा
हो। और बड़ा
जहरीला फल मिल
सकता था, अगर
सब अनुकूल
होता।
इसे
थोड़ा समझना
चाहिए। जितना
दुख हमें
मिलता है, आमतौर से हम
कह देते हैं
कि यह
परिस्थितियों
के ऊपर निर्भर
है। यह
परिस्थितियां
हमें दुख दे
रही हैं। मैं
तो ठीक हूं।
मित्र गलत है,
पत्नी गलत
है, पिता
गलत है, पति
गलत है--संसार
ही गलत है, परिस्थितियां
गलत हैं--मैं
तो ठीक हूं।
ऐसे हम बीज को
बचा रहे हैं।
मैंने जो किया,
वह ठीक है।
लेकिन अनुकूल
न मिला साथ, हवाएं उलटी बह गईं,
सूरज न
निकला, सब
गड़बड़ हो गया।
लेकिन
ध्यान रहे, अगर
प्रतिकूल
परिस्थितियों
में इतना कड़वा
फल आया तो
अनुकूल
परिस्थितियों
में कैसा कड़वा
फल आता, इसका
कोई हिसाब है?
हमें खयाल
में नहीं है।
हम जो इच्छाएं
करते हैं, अगर
वे पूरी की
पूरी पूरी हो
जाएं तो हम
इतने बड़े दुख
में गिरें,
जितने दुख
में हम कभी भी
नहीं गिरे।
इसे थोड़ा समझना
चाहिए।
आमतौर
से हम सोचते
हैं कि हम
इसलिए दुखी
हैं कि हमारी
इच्छाएं पूरी
नहीं होतीं।
हमारा तर्क यह
है, हमारे
दुख का कारण
यह है कि हम जो
इच्छा करते हैं,
वह पूरी
नहीं होती। जब
कि सचाई यह है
कि हमारे दुख
का कारण यह है
कि हम जो
इच्छा करते
हैं, वह
दुख का बीज
है। और वह
बिना पूरे हुए
इतना दुख दे
जाती है, अगर
पूरी हो जाए
तो कितना दुख
दे जाएगी, बहुत
मुश्किल है
कहना। सोचें,
कोई भी एक
इच्छा को
सोचें, अगर
वह बिलकुल
पूरी हो जाए।
एक
प्रेमी है, वह एक
प्रेयसी को
चाहता है।
जितनी देर
नहीं मिलती है
प्रेयसी उतनी
देर आशा का
सुख वह भोगता है,
प्रतीक्षा
का सुख भोगता
है। अभी इच्छा
पूरी नहीं
हुई। हालांकि
उस वक्त वह
बहुत दुखी
रहता है। उस
वक्त उससे
पूछो तो वह कहेगा,
मैं इतना
दुखी हूं, जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
क्योंकि जिसे
पाना है, वह
नहीं मिल रहा
है। हजार
बाधाएं आ रही
हैं।
एक
प्रेमी को जब
वह अपनी
प्रेयसी को
पाने की खोज
में लगा है, या एक
प्रेयसी अपने
प्रेमी को
पाने की खोज
में लगी है, जब तक वह
नहीं मिल गया
है, जो
जानते हैं वे
कहेंगे, जितना
सुख उस वक्त
भोग लिया, वही
काफी है।
हालांकि वह
कोई भी नहीं
कहेगा कि
मैंने सुख
भोगा उस वक्त।
इतनी पीड़ा
झेली, जिसका
कोई हिसाब
नहीं है।
लेकिन
प्रेयसी मिल
जाए, एक इच्छा
पूरी हुई
मिलने की। और
मिलते ही जो
आशाएं थीं, वे सब
तत्काल क्षीण
हो जाएंगी।
क्योंकि पाने का
जो, आक्रमण
का, विजय
का, जीतने
का, सफल
होने का जो भी
सुख था, वह
सब गया। सफल
हो गए। पा
लिया। वह जो
इतने दिन तक
आशा थी कि
पाने पर यह
होगा, यह
होगा, यह
होगा; वह
आशा भी गई।
क्योंकि वह सब
आशा पाने से
संबंधित न थी,
वह सब आशा
हमारे ही सपने
और काव्य थे, हमारी ही
कल्पनाएं थीं,
जो हमने
आरोपित की
थीं। और एक
प्रेयसी दूर
से जैसी लगती
है, वैसी
पास से नहीं।
दूर के
ढोल ही
सुहावने नहीं
होते, दूर
की सभी चीजें
सुहावनी होती
हैं। असल में
दूरी एक
सुहावनापन
पैदा करती है।
फासला जो है, वह बहुत चाघमग
है। जितनी
दूरी, उतना
सुखद।
क्योंकि दूर
से हम चीजों
को पूरा-पूरा
नहीं देख पाते
हैं। असल में
दूर से हम ठीक से
देख ही नहीं
पाते हैं।
थोड़ा सा देख
पाते हैं, बहुत
नहीं देख पाते
हैं। जो नहीं
देख पाते हैं,
वह हम अपना
सपना ही उसकी
जगह रख देते
हैं।
दूर से
एक व्यक्ति को
हम देखते हैं, दिखती है
रूप-रेखा, लेकिन
बहुत कुछ हम
अपने सपने से
उसमें जोड़ देते
हैं। जो हमने
ही जोड़ा है, जिसमें
दूसरे
व्यक्ति का
कोई कसूर नहीं
है। जो हमने
ही जोड़ा है।
लेकिन निकट
आने पर जो
हमने जोड़ा था,
वह पिघल कर बहने
लगेगा। निकट
आने पर जो
हमने सपना जोड़
दिया था, काव्य
जोड़ दिया था, वह मिटने
लगेगा। जैसा
व्यक्ति था, वैसा प्रकट
होगा। ऐसा
हमने कभी भी
नहीं सोचा था।
असल
में हम सोच भी
कैसे सकते हैं
कि दूसरा व्यक्ति
कैसा होगा? हम सिर्फ
कामना कर सकते
हैं कि ऐसा
हो। लेकिन हमारी
कामनाओं के
अनुकूल न किसी
व्यक्ति का
जन्म हुआ है।
उस व्यक्ति का
जन्म उसकी
अपनी कामनाओं
के अनुकूल हुआ
है। कोई किसी
दूसरे
व्यक्ति की
इच्छाओं के
अनुकूल पैदा
नहीं हुआ है
इस जगत में।
प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
इच्छाओं के
अनुकूल पैदा
हुआ है। लेकिन
हमने अपनी
इच्छाएं
आरोपित की थीं,
वे मिलते ही
खंडित हो
जाएंगी। और वह
व्यक्ति प्रकट
होगा, जैसा
हमने उसे कभी
भी नहीं जाना
था। और जितने हमने
सपने जोड़े थे,
वास्तविकता
उन सबको तोड़
देती है, एक-एक
चीज को तोड़
देती है।
फिर
हमने चाहा था
कि व्यक्ति
पूरा मिल जाए।
यानी मैं कहूं
रात, तो वह कहे
रात। मैं कहूं
दिन, तो वह
कहे दिन। यह
इच्छा पूरी
नहीं होती।
क्योंकि ऐसा
व्यक्ति ही
खोजना कठिन है
कि आप जो कहें,
वैसा ही हो
जाए। और मजे
की बात यह है
कि उसने भी यही
कामनाएं की
थीं! उसने भी
यही कामनाएं
की थीं कि मैं
कहूं रात तो
रात, और
मैं कहूं दिन
तो दिन। दोनों
के प्रेम की
कसौटी यही थी।
उसकी भी कसौटी
यही है। और तब
बड़ी मुश्किल
हो गई बात। क्योंकि
आप भी उससे
कहलवाना
चाहते हैं, वह भी आपसे
कहलवाना
चाहता है। और
सोचा था शांति,
और होगा
संघर्ष। सोचा
था सुख, और
होगा विषाद।
लेकिन
मजे की बात यह
है कि हम यह
कहेंगे, यह
तो इसलिए हो
रहा है--यही
मैं समझाना
चाह रहा हूं--हम
कहेंगे, यह
तो इसलिए हो
रहा है कि
मैंने जो चाहा
था, वह
नहीं हो सका।
मैंने चाहा था
कि मैं कहूं
रात, तो वह
भी कहे रात।
यह नहीं हो
सका, इसलिए
मैं दुखी हूं।
इच्छा के कारण
दुखी नहीं हूं,
गलत
व्यक्ति मिल
गया। गलत
व्यक्ति मिल
गया, इच्छा
पूरी नहीं
होती, इसलिए
दुखी हूं।
इच्छा का तर्क
यही है। उसका
तर्क यही है
कि मैं पूरी
नहीं हो रही
इसलिए तुम दुखी
हो। काश, मैं
पूरी हो जाऊं
तो सुख हो जाए!
काश दूसरा व्यक्ति
मिल जाता इसकी
जगह!
लेकिन
समझो एक क्षण
को कि इच्छा
पूरी हो गई, कि तुमने
कहा रात, तो
उस दूसरे
व्यक्ति ने
कहा रात, हालांकि
दिन था। तुमने
उसके पैर में
जंजीरें बांधीं,
तो भी तुमने
कहा आभूषण, तो उसने कहा
आभूषण! तुमने
उस व्यक्ति को
पाया कि वह
तुम्हारे
बिलकुल
ही--तुम जैसे
हो, वैसा
ही
है--तुम्हारी
छाया। और मजे
की बात यह है
कि ऐसे
व्यक्ति को
पाकर जितना
दुख होगा, उसका
हम अनुमान
नहीं लगा
सकते।
क्योंकि वह व्यक्ति
ही नहीं होगा,
वह एक मशीन
होगा। वह एक
यंत्र होगा।
उसमें कोई
व्यक्तित्व
नहीं होगा।
उसमें कोई
आत्मा नहीं
होगी। और जिस
व्यक्ति में
कोई आत्मा
नहीं, जिसमें
कोई
व्यक्तित्व नहीं,
उसे तुम
प्रेम कर
पाओगे? उसे
तुम एक क्षण
प्रेम नहीं कर
सकते हो।
यदि
इच्छा पूरी हो
जाए तो जितना
दुख होगा, उतना इच्छा
के न पूरे
होने से कभी
भी नहीं हुआ है।
कोई भी छाया
नहीं खरीदना
चाहता, हम
व्यक्ति
चाहते हैं।
मगर हमारी
इच्छा बड़ी अनूठी
है। हम ऐसा
व्यक्ति
चाहते हैं जो
हमारी माने।
ये दोनों
बातों में कोई
मेल ही नहीं
है। अगर वह
व्यक्ति होगा
तो अपने ढंग
से जीएगा।
और अगर हमारी
मानेगा तो
व्यक्ति नहीं
होगा। उसमें
कोई आत्मा
नहीं होगी, वह मरी हुई
चीज होगी। वह
फर्नीचर की
तरह होगा, जिसे
कहीं भी उठा
कर रख दिया, वह वहीं रखा
रह गया है। यह
मैंने उदाहरण
के लिए कहा।
हमारी
कोई भी इच्छा
यदि पूरी हो
जाए--समझ लें, इसको छोड़
दें, एक
दूसरा उदाहरण
ले लें--एक
आदमी गरीब है
और वह कहता है
कि मैं इसलिए
दुखी हूं कि
जितना धन मैं
चाहता हूं, वह मुझे
नहीं मिलता।
अगर मुझे उतना
धन मिल जाए तो
मैं दुखी न
रहूं।
ठीक है, उसे उतना धन
दे दिया जाए।
पहली तो बात
यह कि उतना धन
मिलने पर उसकी
इच्छा आगे चली
जाएगी। वह कहेगी,
इतने से
क्या होता है?
यह तो कुछ
भी नहीं है।
और चाहिए, और
चाहिए। समझ
लें कि उसकी
इच्छा है कि
सारे जगत का
धन उसे मिल
जाए। यह पूरी
नहीं होती, इसलिए बड़ा
दुख है। समझ
लें कि एक
आदमी की यह इच्छा
पूरी हो जाए
कि उसे सारी
पृथ्वी का धन
मिल जाए, क्या
आपको पता है
कि वह कितना
दुख झेलेगा?
आपको
कल्पना में
नहीं है।
क्योंकि धनी
होने का मजा
इसमें था--धनी
होने का मजा
ही इसमें था
कि दूसरे
धनियों को
पीछे छोड़ा।
धनी होने का
मजा ही इसमें
था कि
प्रतियोगिता
थी, प्रतिस्पर्धा
थी, कांप्टीशन था, उसमें
हम जीते। अगर
एक व्यक्ति को
सारे पृथ्वी
का धन मिल जाए
उसकी इच्छा के
अनुकूल, वह
व्यक्ति एकदम
उदास हो
जाएगा।
क्योंकि न अब कोई
प्रतिस्पर्धा
है, न कोई
प्रतिस्पर्धा
का उपाय है।
अगर सारी
पृथ्वी का धन
एक व्यक्ति को
मिल जाए तो वह
आत्महत्या कर
लेगा।
क्योंकि वह
कहेगा, अब
क्या? अब
क्या करें? और वह इतना
उदास हो
जाएगा...।
सिकंदर
के संबंध में
कथा है कि
सिकंदर से डायोजनीज
ने कहा कि यदि
तूने सारी
पृथ्वी जीत ली
तो सोचा है कि
फिर क्या होगा? सिकंदर ने
कहा, अभी
तो जीतना ही
मुश्किल है।
लेकिन डायोजनीज
ने कहा, समझ
ले जीत ही ली, फिर क्या
होगा? क्योंकि
दूसरी पृथ्वी
नहीं है जीतने
को।
और
कहानी है कि
सिकंदर एकदम
उदास हो गया
यह बात सुन कर
कि दूसरी
पृथ्वी नहीं
है। सिकंदर
एकदम उदास हो
गया। उसने कहा
कि यह मैंने
कभी खयाल नहीं
किया। लेकिन
सच ही अगर पूरी
पृथ्वी जीत ली, तो फिर? दूसरी
पृथ्वी तो
नहीं है, फिर
क्या करूंगा?
वह डायोजनीज
से पूछने लगा
कि फिर क्या
करूंगा? यह
तो तुम ठीक
कहते हो, लेकिन
ऐसी चिंताएं
मत उठाओ, क्योंकि
इस पृथ्वी को
जीतना बहुत
मुश्किल है।
ऐसी चिंताएं
ही मत उठाओ।
लेकिन डायोजनीज
ने कहा कि यह
चिंता उठाने
जैसी है।
क्योंकि कामना
तेरी यह है कि
सारी पृथ्वी
को जीत कर मैं सुखी
हो जाऊंगा।
मैं यह कहता
हूं कि मान ले
तूने सारी
पृथ्वी जीत ली, अब तू सुखी
होगा कि दुखी
हो जाएगा? और
डायोजनीज
खूब हंसने
लगा।
उसने
कहा कि जब
होगा होगा, लेकिन तू
अभी दुखी हो
गया, यह
बात सोच कर ही
कि सारी
पृथ्वी जीत ली
तो फिर? यह
सवाल है कि
फिर क्या?
हमारी
इच्छाएं पूरी
नहीं होतीं तो
हम दुख पाते
हैं। और हमारी
इच्छाएं पूरी
हो जाएं तो हम
परम सुख
पाएंगे।
लेकिन हम यही
समझते हैं कि
हम दुख पाते
हैं कि हमारी
इच्छाएं पूरी
नहीं होतीं!
टाल्सटाय
ने एक कहानी
लिखी है। एक
बाप की तीन बेटियां
हैं, तीनों की
अलग-अलग जगह
शादी हो गई
है। एक लड़की किसान
के घर है, एक
लड़की एक
कुम्हार के घर
है, एक
लड़की एक
जुलाहे के घर
है, जो
कपड़े बुनता और
रंगता
है। वर्षा आने
के दिन हैं, लेकिन वर्षा
नहीं आई।
कुम्हार
बड़ा खुश है, उसकी पत्नी
भगवान को
धन्यवाद दे
रही है कि भगवान
तेरा धन्यवाद!
क्योंकि
हमारे सब घड़े
बनाए हुए रखे
थे, अगर
वर्षा आ गई तो
हम मर जाएंगे।
एक आठ दिन पानी
रुक जाए, तो
हमारे सब घड़े
पक जाएं और
बाजार चले
जाएं।
लेकिन किसान
की पत्नी बड़ी
परेशान है।
क्योंकि खेत तैयार
है और पानी
नहीं गिर रहा।
और अगर आठ दिन
की देर हो गई
तो फिर फसल
बोने में देरी
हो जाएगी। और
फिर बड़ा
मुश्किल हो
जाएगा। वैसे
ही बहुत देर
हो गई है और सब
मुश्किल है।
वह भगवान से
रोज कह रही है
कि हे भगवान, तू यह कर क्या
रहा है? हमारे
बच्चे भूखे मर
जाएंगे। तू
पानी जल्दी गिरा!
वह
तीसरी लड़की है, वह जुलाहे
के घर है।
उसके कपड़े
तैयार हो गए
हैं, उसने
रंग कर लिया
है। और वह
भगवान से कहती
है, अब
तेरी मर्जी।
चाहे आज गिरा,
चाहे कल
गिरा, अब
हमें कोई फर्क
नहीं पड़ता है!
यानी अब कोई
बात नहीं है।
क्योंकि उसका
काम पूरा हो
गया है, उसकी
तैयारी पूरी
हो गई है।
उसने काम अपने
घर में समेट
लिया है। और
वह हाथ जोड़ कर
भगवान से कहती
है, अब
तेरी मर्जी!
अब आज गिरा या
कल, हमारा
काम पूरा हो
गया। हर हालत
में हम खुश हैं।
अब पानी आज
गिरे कि कल, कोई फर्क नहीं
पड़ता है!
कहानी
में भगवान
अपने देवताओं
से पूछता है
कि बोलो, मैं
क्या करूं? मैं किसकी
इच्छा पूरी कर
दूं? और
भगवान कहता है,
ये तो सिर्फ
तीन लोग हैं, अगर सारी
पृथ्वी के
लोगों की
इच्छाएं पूछी
जाएं और सब
पूरी कर दी
जाएं, तो
इसी वक्त
पृथ्वी
समाप्त हो
जाए--इसी वक्त!
हमारी
इच्छाएं और
हमारी
इच्छाओं की
दौड़ और हम उनसे
क्या पाना चाह
रहे हैं, हमें
कुछ भी पता
नहीं है।
लेकिन
भ्रांति चलती चली
जाती है, क्योंकि
हमारा खयाल यह
होता है कि
दुख मिल रहा
है इसलिए कि
इच्छा पूरी
नहीं हुई; सुख
मिलता, अगर
इच्छा पूरी हो
जाती।
लेकिन
जो गहरे इस
विचार में
उतरेगा, उसे
पता चल जाएगा,
कोई इच्छा
की पूर्ति सुख
नहीं ला सकती
और बड़ा दुख
लाती है।
अपूर्ति इतना
दुख ला रही है
तो पूर्ति
कितना लाती!
गणित ऐसा
समझना चाहिए।
नहीं पूरा हुआ
तो इतना दुख
मिल रहा है, पूरा हो
जाता तो कितना
दुख मिलता!
क्योंकि जब
बीज को कम
सुविधा मिली,
तब वह इतना
जहरीला फल ले
आया, पूरी
सुविधा मिलती
तो कितना जहर
लाता! कितना जहर
लाता!
प्रत्येक
इच्छा दुख में
ले जाती है, लेकिन सुख
में ले जाने
का आश्वासन
देती है! प्रत्येक
नाव दुख की है,
लेकिन सुख
के घाट पर
उतार देने का
वचन है!
और
हजार बार हम
नाव में बैठते
हैं रोज, और
हजार बार दुख
की नाव दुख के
घाट पर उतार
देती है लेकिन
हम कहते हैं, कहीं कोई
भूल हो गई!
अन्यथा ऐसा
कैसे हो सकता
था कि जो नाव
सुख के घाट की
तरफ चली थी, वह दुख के
घाट पर कैसे
पहुंच जाती? लेकिन हम यह
कभी नहीं
पूछते कि कहीं
नाव ही तो दुख
की नहीं है? सवाल घाट का
है ही नहीं।
सवाल घाट का
है ही नहीं, सवाल यह है
नहीं कि आप
कहां
पहुंचेंगे।
सवाल यह है कि
आप कहां से
चलते हैं? आप
किस पर सवार
हैं? यह
सवाल है ही
नहीं कि फल
कैसा होगा।
सवाल यह है कि
बीज कैसा बोया
है?
जीसस
कहते हैं, जो बोओगे, वही तुम
काटोगे।
लेकिन काटते
वक्त पछताना
मत, पछताना
हो तो बोते
वक्त। काटते
वक्त पछताने का
क्या सवाल है?
फिर तो
काटना ही
पड़ेगा।
लेकिन
हम सब काटना
कुछ और चाहते
हैं, बोते कुछ
और हैं! और यह
जो, यह जो
द्वंद्व है
चित्त का कि
बोते कुछ और
हैं, काटना
कुछ और चाहते हैं,
यह हमें
भटकाता रह
सकता है अनंत
काल तक, अनंत
जन्मों तक।
इस
भ्रम को तोड़
देने की जरूरत
है। इससे जाग
जाने की जरूरत
है। और एक
सूत्र समझ
लेने की जरूरत
है कि जो हम
बोते हैं, वही हम
काटते हैं। हो
सकता है बीज
पहचान में न आता
हो। क्योंकि
बीज जाहिर
नहीं है, अप्रकट
है, अनमैनिफेस्ट,
अभी
अभिव्यक्त
नहीं हुआ है।
यहां एक बीज
रखा है; हो
सकता है, हम
न पहचान सकें
कि इसका वृक्ष
कैसा होगा!
क्योंकि बीज
में वृक्ष है,
लेकिन
दिखाई नहीं
पड़ता।
तो
जीसस कहते हैं, जो तुम बोते
हो, वही
तुम काटते हो।
मैं इससे उलटी
बात भी जोड़ देना
चाहता हूं कि
जो तुम काटो, समझ लेना कि
वही तुमने
बोया था।
क्योंकि हो सकता
है, बोते
वक्त तुम न
पहचान सके
होओ। बोते
वक्त पहचानना
जरा कठिन भी
है, क्योंकि
बीज में कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता साफ-साफ कि
बीज क्या हो
जाएगा? जहर
होगा कि अमृत
होगा? तो
हो सकता है, बोते वक्त
भूल हो गई हो, लेकिन काटते
वक्त तो भूल
हो ही नहीं
सकती। हो सकता
है नाव में
बैठते वक्त
ठीक से न समझ
पाए हों कि
नाव क्या है, लेकिन घाट
पर उतरते वक्त
तो समझ ही
पाएंगे कि घाट
कैसा है! नाव
ने कहां
पहुंचा दिया,
यह तो समझ
में आ जाएगा!
तो
काटते वक्त
देख लेना कि
अगर दुख कटा
हो, तो जान
लेना कि दुख
बोया था। और
तब जरा समझने
की कोशिश करना
कि आगे दुख के
बीज को तुम
पहचान सको कि
वे कौन-कौन से
बीज हैं, जो
दुख ले आते
हैं। कितनी बारर्
ईष्या दुख
लाती है, कितनी
बार घृणा दुख
लाती है, कितनी
बार क्रोध दुख
लाता है, लेकिन
हम हैं कि बीज
फिर उन्हीं का
बोए चले जाते
हैं! और
बार-बार हम पछताते
हैं कि यह दुख
क्यों? दुख
हमें झेलना
नहीं है और
बीज हमें दुख
के ही बोने
हैं! और इस
द्वंद्व में
कितना समय हम
व्यतीत करते
हैं! और कितने
जन्म और कितने
जीवन!
लेकिन
द्वंद्व हमें
दिखाई नहीं
पड़ता! क्योंकि
हमारी खूबी यह
है, हमारा
मजा यह है, हमारा
डिल्यूजन,
वह जो सेल्फ
डिसेप्शन है,
आत्म-वंचना
है, वह यह
है कि हम
सिर्फ जो कटता
है, उस
वक्त नाराज
होते हैं कि
यह गलत चीज
कटी। लेकिन
हमने जो बोया
था, हम
उसका खयाल ही
नहीं करते!
अगर
गलत कटा है, तो गलत बोया
था। और इसके
दोनों के
तारतम्य को
समझ लेना
जरूरी है, ताकि
कल हम गलत न बोएं।
जिस घाट पर हम
उतरे हैं, वह
खबर है हमारी
नाव की कि हम
किस नाव पर
बैठ गए थे।
लेकिन हम कल
फिर उसी नाव
पर बैठते हैं
और दूसरे घाट
पर फिर उतरने
की कल्पना
करते हैं!
और
आश्चर्यजनक
है यह कि आदमी
रोज-रोज वही-वही
भूल करता है!
नई भूलें भी
आदमी नहीं
करते! नई भूल
भी कोई करे तो
भी कहीं पहुंच
जाए। भूल भी पुरानी
ही करते हैं!
लेकिन कुछ ऐसा
है कि पीछे जो
हमने किया, वह हम भूल
जाते हैं, और
फिर-फिर हम
वही सोचने
लगते हैं।
एक
आदमी ने
अमरीका में आठ
विवाह किए।
उसने पहला
विवाह किया और
बड़ी आशाओं
से--जैसा कि
सभी लोग करते
हैं--बड़ी
आशाओं से, लेकिन सब
आशाएं छह
महीने में
मिट्टी में
मिल गईं। तो
उसने समझा कि
औरत गलत मिल
गई, जैसा
कि सभी आदमी
समझते हैं।
उसने भी समझा
कि स्त्री गलत
मिल गई, इसलिए
सब आशाएं
धूमिल हो गईं।
आशाएं गलत थीं,
ऐसा नहीं, स्त्री गलत
मिल गई! तो
उसने तलाक दे
दिया।
दूसरी
स्त्री फिर
साल भर लगा कर
उसने बामुश्किल
खोजी। अब वह
बड़ा खुश था, क्योंकि अब
पहले अनुभव के
बाद उसने
खोज-बीज की
थी। शादी की
फिर उतनी ही
आशाओं के साथ,
लेकिन पाया
कि छह महीने
में सब गड़बड़
हो गया। तब
उसने समझा कि
फिर स्त्री
गलत मिल गई।
इस तरह उस
आदमी ने आठ शादियां
कीं जीवन में,
और हर बार
वही हुआ!
आठवीं शादी के
बाद वह एक मनोवैज्ञानिक
के पास गया और
उसने कहा कि
मैं बड़ी मुश्किल
में पड़ गया
हूं। मैं आठ
विवाह कर चुका
और जिंदगी
गंवा चुका। अब
तो उपाय भी
नहीं है नौवां
करने का।
लेकिन हुआ
क्या? मुझे
हर बार वैसी
की वैसी औरत
मिल गई और
मैंने इतनी
खोज-बीन की!
उस
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, वह
तो ठीक है, लेकिन
तुम्हारे
खोज-बीन के
मापदंड क्या
थे? तुम्हारे
खोज-बीन के
मापदंड क्या
थे? अगर
कसौटी वही थी
तुम्हारी
जिससे तुमने
पहली औरत को
कसा था, तो
कसौटी फिर भी
वही रही होगी
जिससे तुमने
दूसरी को कसा।
और तुम हर बार
उसी टाइप की
स्त्री को खोज
लाए, जिस
टाइप की
स्त्री को तुम
खोज सकते थे।
तुम जिस तरह
के आदमी हो, उस तरह का
आदमी जैसी
स्त्री खोज
सकता था, बार-बार
खोज लाया।
हो
सकता है, बहुत
संभावना है कि
बहुत पुराने
दिनों में इसी
अनुभव के आधार
पर एक ही
विवाह की
व्यवस्था कर
ली गई हो; क्योंकि
एक आदमी एक ही
तरह की
स्त्रियां
खोज सकता है
साधारणतः।
यानी इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता।
वह हर बार
सिर्फ नाम बदल
जाएगा, शक्ल
बदल जाएगी, लेकिन
स्त्री वह
वैसी ही खोज
लाएगा। उसकी जो
खोज का दिमाग
है, उस
दिमाग से वह
वैसी स्त्री
फिर खोज
लाएगा। तो
इसकी बार-बार
फिजूल की
परेशानी में
क्यों पड़ना?
कुछ समझदार
लोगों ने कहा
हो कि एक ही
विवाह काफी है
एक जन्म के
लिए। तुम एक
ही दफे खोज लो
और वही बहुत
है।
और यह
भी हो सकता है
कि इसी अनुभव
के आधार पर कि
व्यक्ति जो भी
खोजेगा, वह
चूंकि उसका
पहला अनुभव
होगा, इसलिए
भूल उसमें
निश्चित हो
जानी है।
इसलिए जिनके
अनुभव हो चुके
हैं--उसके
मां-बाप
खोजते। इस
सबके
पीछे...यानी जो
कि इस अनुभव
से गुजर चुके
हैं और
बेवकूफी भोग
चुके हैं और
नासमझी झेल चुके
हैं, वे
शायद ज्यादा
ठीक से खोज
सकें। और यह
आदमी की पहली
खोज होगी और
यह गलत हो
जाएगा, इसकी
बहुत संभावना
है। इसलिए हो
सकता है कि वह
मां-बाप पर
छोड़ दिया गया
हो।
इधर
निरंतर के
अनुभव के बाद
अमरीका में
कुछ मनोवैज्ञानिक
यह कहने लगे
हैं कि
बाल-विवाह शुरू
कर दो!
क्योंकि
इसमें कोई
मतलब नहीं
मालूम पड़ता।
यह
दुखद है यह
बात। यह दुखद
है, यह बात
दुखद है कि
बाल-विवाह हों,
यह बात भी
दुखद है कि
मां-बाप बच्चे
का विवाह तय
करें, लेकिन
जैसी स्थिति
है, उसमें
यही सुखद
मालूम पड़ता
रहा है। इससे
भिन्न होना
अभी कठिन है।
और वह तब हो
सकता है, जब
हम दुख के
बीजों को समझ
लें। तो हम जो
खोज करें, वह
बहुत और तरह
की हो। हम जिस
नाव पर सवार
हों, वह और
तरह की
हो--जीवन के सब
मामलों में।
तो सुख
को, दुख को
अलग मत समझना,
सुख और दुख
को एक समझना।
हां, जरा
देरी लगती है
दोनों के फल
पकने में।
फासला है, फासले
की वजह से दो
समझ लिए जाते
हैं--फासले की
वजह से।
दृष्टि छोटी
है हमारी और
फासला बड़ा है।
हमको इस कमरे
की दोनों
दीवालें
दिखाई पड़ती
हैं, तो हम
जानते हैं कि
दोनों
दीवालें इसी
कमरे की हैं।
और हम ऐसी भूल
न करेंगे कि
इस दीवाल को
बचा लें और
उसको मिटा
दें। क्योंकि
ऐसी भूल हम करेंगे
तो वह दीवाल
भी गिरेगी, यह पूरा
मकान गिरेगा।
अगर दीवालें
गिरानी हों, दोनों गिरा
दो, न
गिरानी हों तो
दोनों को बचने
दो। इसके
सिवाय कोई
रास्ता नहीं।
क्योंकि हमें
दोनों दीवालें
दिखाई पड़ती
हैं। लेकिन
कमरा इतना बड़ा
हो सकता है कि
जब भी हमें
दिखाई पड़ती हो,
एक ही दीवाल
दिखाई पड़ती
हो। दूसरी
दीवाल इतने
फासले पर हो
कि हम कभी जोड़
ही न पाते हों
कि यह कमरा और
यह दीवाल उसी
दीवाल से जुड़े
हैं, यह
वही कमरा है।
और
जिंदगी बड़ी है, उसमें फासले
बड़े हैं और
आदमी की
दृष्टि बड़ी छोटी
है। ज्यादा
दूर तक वह देख
नहीं पाता।
उसे खबर नहीं हो
पाती कि कब
मैंने क्या
बोया था, कब
मैं क्या काट
रहा हूं! कब
मैंने एक मकान
बनाया था, उसकी
यह दूसरी
दीवाल है। और
ये दोनों एक
हैं।
इसको
ठीक से पर्सपेक्टिव
मिल जाए, दृष्टि
मिल जाए दूर
तक देखने की, तो हम अपने
सब दुखों को
अपनी सुखों की
आकांक्षा में
छिपा हुआ पाएंगे।
अपने सब दुखों
को हम अपने
सुखों के सपनों
में छिपा हुआ
पाएंगे।
हमारे सब दुख
हमारे सुख की
आशाओं में ही
पैदा किए गए
हैं। हमारे सब
दुख हमने ही
सुख की
संभावनाओं
में बोए थे, काटते वक्त
दुख निकले।
संभावनाएं
सुख की थीं और
बीज हमने दुख
के ही बोए थे।
इसे हम
देखें, अपनी
जिंदगी में
खोजें। अपने
दुख को देखें।
और अपने पीछे
लौट कर देखें
कि हम कैसे
उनको बोते चले
आए। और कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि आज भी हम
वही कर रहे
हैं! अगर यह
दिखाई पड़ जाए
तो तुम सुख की आशा
छोड़ दोगे। सुख
की आशा एकदम
ही दुराशा है,
असंभावना
है। सुख की
संभावना ही
नहीं है। अगर
ऐसा दिखाई पड़
जाए कि जीवन में
सुख की
संभावना ही
नहीं है, दुख
ही होगा; चाहे
तुम उसे कितना
ही सुख कहो, आज नहीं, कल
वह दुख हो
जाएगा। अगर
जिंदगी में
दुख की ही संभावना
है तो सुख की
आशा छूट जाती
है। और जिस व्यक्ति
की सुख की आशा
छूट जाती है, वह दुख के
साथ सीधा खड़ा
हो जाता है।
भागने का उपाय
न रहा। यहां
दुख है और
यहां मैं हूं,
और हम
आमने-सामने
हैं।
और मजे
की बात यह है
कि जो आदमी
दुख के सामने
सीधा खड़ा हो
जाता है, उसका
दुख ऐसे
तिरोहित हो
जाता है कि
जैसे कभी था
ही नहीं! तब
दुख नहीं जीत
पाता, क्योंकि
तब दुख के
जीतने की
तरकीब ही गई।
तरकीब थी सुख की
संभावना में।
दुख के जीत की
जो तरकीब थी, जो टेक्नीक
था, वह था
सुख की
संभावना में।
वह सुख की
संभावना ही
गई। दुख यह
सामने खड़ा है
और मैं यहां
खड़ा हूं। और
अब कोई उपाय
नहीं है, न
मेरे भागने का,
न दुख के
भागने का। और
दुख और हम
आमने-सामने
हैं। यह एनकाउंटर
है, यह
साक्षात्कार
है।
इस
साक्षात्कार
में जो
रहस्यपूर्ण
घटना घटती है
वह यह, कि
दुख तिरोहित
हो जाता है।
मैं अपने पर
वापस लौट आता
हूं, क्योंकि
सुख पर जाने
की चेष्टा छोड़
देता हूं। सुख
पर जाने का एक
रास्ता था, वह रास्ता मैंने
छोड़ दिया। अब
दुख के सामने
सीधा खड़ा हो गया।
अब एक ही
रास्ता है कि
मैं अपने पर
लौट आऊं। और
यह जो अपने पर
लौट आना
है...क्योंकि
दुख में तो
कोई रह ही
नहीं सकता। या
तो सुख की आशा
में भागेगा, या अपने पर
लौट आएगा; या
तो आनंद में
चला जाएगा या
सुख में चला
जाएगा। सुख
में हम जाते
रहे हैं और
आनंद में नहीं
पहुंच पाए
हैं!
अगर हम
दुख में सीधे
खड़े हो जाएं
तो हम आनंद में
पहुंच जाते
हैं। आनंद सुख
नहीं है। आनंद
सुख-दुख का
अभाव है। आनंद
में न सुख है, न दुख है।
इसीलिए बुद्ध
ने आनंद शब्द
का प्रयोग
नहीं किया।
बुद्ध ने बड़ा
ही समझ कर
शब्दों का
प्रयोग किया।
इतनी समझ किसी
आदमी ने कभी
नहीं दिखाई।
क्योंकि आनंद
में, कितना
ही समझाओ, सुख
का भाव छिपा
हुआ है। यानी
कितना ही मैं
समझाऊं कि
आनंद सुख नहीं
है, आप फिर
भी कहेंगे, आनंद कैसे
मिले? और
जब आप कहेंगे,
तब आपके मन
में यही होगा
कि सुख कैसे
मिले? शब्द
बदल लेंगे, लेकिन भाव
सुख का ही
रहेगा। तो आप
कहेंगे, ठीक
है, फिर
तरकीब बताइए
कि आनंद कैसे
पाया जाए? दुख
है, दुख से
कैसे बचा जाए?
कोई
टेक्नीक, कोई
विधि बताइए कि
हम आनंद कैसे
पा लें? आनंद
तो पाना जरूरी
है।
और अगर
आप भीतर गौर
से देखेंगे तो
आनंद गलत शब्द
आप प्रयोग कर
रहे हैं। आप
यह कह रहे हैं, सुख पाना
जरूरी है, सुख
कैसे पाया जाए?
दुख से कैसे
बचा जाए? बहुत
कठिन है आदमी
को समझाना कि
आनंद सुख नहीं
है। और आमतौर
से हम दोनों
का
पर्यायवाची
प्रयोग करते
हैं! एक आदमी
सुखी है तो
कहता है, बड़े
आनंद में हैं!
बड़े आनंद में
हैं, कहता
है!
बुद्ध
ने इसलिए
प्रयोग किया:
शांति। वे
कहते हैं, आनंद नहीं।
आनंद शब्द ठीक
नहीं है, खतरनाक
है। शांति में
भाव बिलकुल
दूसरा है। शांति
का अर्थ है: न
सुख, न दुख,
सब शांत है।
कोई तरंग नहीं
है--न दुख की, न सुख की। न
कोई भाव है--न
सुख का, न
दुख का। न
कहीं जाना है,
न कहीं आना
है--ठहर गया
सब। रुक गए।
मौन है, चुप
है, झील पर
एक भी लहर
नहीं है--ऐसी।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं, आनंद
नहीं। मैं
आनंद का
आश्वासन नहीं
देता। क्योंकि
मैं तुम्हें
आनंद का
आश्वासन
दूंगा और तुम
सुख का
आश्वासन ले
लोगे।
यह जो
कठिनाई है, जो कठिनाई
है, बात
आनंद की की
जाएगी, समझी
सुख की जाएगी,
क्योंकि
हमारी
आकांक्षा सुख
की है। अगर हम
दुख के
साक्षात के
लिए भी तैयार
होंगे तो
सिर्फ इसलिए
कि दुख से
कैसे बच जाएं।
और अगर कोई
दुख से बचने
के लिए दुख का
साक्षात
करेगा तो
साक्षात कर ही
नहीं सकता।
क्योंकि
जिससे हम बचना
चाहते हैं, उसको हम
कैसे साक्षात
करेंगे? उसे
हम देखेंगे
कैसे उसकी
परिपूर्णता
में? हम तो
भाग जाएंगे
उसके पहले कि
वह दिखाई पड़े।
मुझे
भी प्रीतिकर
है, शब्द
शांति
महत्वपूर्ण
है। मगर बात
वही है, बात
वही है। जहां
सब शांत हो
गया। सब--दुख ही
नहीं, सुख
भी--जहां सब
शांत हो गया।
हमें खयाल में
नहीं है कि
दुख एक तरह की
अशांति है, जो
अप्रीतिकर
है। और सुख एक
तरह की अशांति
है, जो
शायद
प्रीतिकर
लगती है।
लेकिन सुख की
अशांति भी
तीव्र हो जाए
तो मृत्यु ला
सकती है। और दुख
की अशांति भी
तीव्र हो तो
मृत्यु ले ही
आती है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी को लाटरी
मिल गई। उसे
एक लाख रुपया
मिलने को है।
उसकी पत्नी
बहुत घबड़ा गई।
खबर आई, पति
दफ्तर में था।
वह चपरासी है।
एक लाख की बात
सुनते ही कहीं
उसका खातमा न
हो जाए! वह
बहुत डर गई
है। खबर आ गई
घर में, पति
दफ्तर से
लौटने को है।
वह क्या करे? तो वह भागी
हुई पास के
चर्च में गई।
वह ईसाई है।
उसने जाकर
चर्च के पादरी
को कहा कि
आपसे बुद्धिमान
आदमी कोई भी
नहीं। आपसे
मैं सलाह लेने
आई हूं कि
क्या किया जाए?
खबर आई है
कि मेरे पति
को एक लाख
रुपए मिल गए।
लेकिन हम गरीब
आदमी हैं और
पति एक लाख रुपए
की बात सुन कर
पागल हो जाए, हृदय-गति
बंद हो जाए।
उस
चर्च के
पुरोहित ने
कहा, घबड़ाओ मत, मैं
आता हूं। मैं
संभाल लूंगा।
मैं धीरे-धीरे
बात प्रकट
करूंगा।
दफ्तर
से पति लौट
आया है, वह
चर्च का पादरी
आया है, उस
पादरी ने कहा
कि सुनते हो
भई, पच्चीस
हजार रुपए
मिले हैं
तुम्हें इनाम!
सोचा कि
धीरे-धीरे बढ़ाऊंगा।
धक्का कम होता
जाएगा।
पच्चीस हजार,
फिर पच्चीस
हजार, फिर
पच्चीस हजार।
उस आदमी ने
कहा, क्या
कहते हैं, पच्चीस
हजार--सच! अगर
पच्चीस हजार
मिले हैं तो आधे
मैं आपको दे
दूंगा। पादरी
का उसी वक्त
हार्ट फेल हो
गया! साढ़े
बारह हजार! और
इकट्ठा हमला
पड़ गया उस पर।
उसको कोई, उसको
तो कल्पना भी
नहीं थी। इस
आदमी को तो
थोड़ा खयाल भी
था। इसको थोड़ा
खयाल भी था कि
लाटरी मिल
सकती है।
लेकिन पादरी
को तो खयाल भी
नहीं हो सकता
था कि साढ़े
बारह हजार मिल
सकते हैं।
उसने कहा, साढ़े
बारह हजार दे
दोगे? सच
कह रहे हो? उसने
कहा कि अगर
लाटरी मिल गई
पच्चीस की, तो दिए! उस
आदमी का तो
हार्ट फेल हो
गया!
सुख भी
इतना तीव्र हो
सकता है एक
आघात में, कि प्राण ले
ले। और बड़े
मजे की बात है
यह कि दुख बहुत
कम लोगों के
प्राण लेता है,
सुख बहुत
लोगों के ले
लेता है! सुख
बहुत लोगों के
ले लेता है, दुख बहुत कम
लोगों के लेता
है। क्योंकि
दुख में, कितना
ही बड़ा दुख हो,
हम सदा सुख
की आशा में
भागे हुए रहते
हैं। इसलिए
पूरे दुख का
कभी भी इंपैक्ट,
घाव नहीं पड़
पाता। लेकिन
पूरे सुख में
हम कहीं नहीं
भागे होते हैं,
हम बिलकुल
थक गए होते
हैं और हमला
पूरा हो जाता
है। हम बच ही
नहीं पाते, क्योंकि दुख
की तरफ तो हम
भागते नहीं।
दुख में तो हम
सुख की तरफ
भागते रहते
हैं। मन हमारा
सुख में लगा
रहता है कि
ठीक है, ठीक
है; आज
नहीं कल, आज
नहीं कल सुख
आएगा; आएगा।
हम वहां होते
हैं। यहां दुख
होता है। दुख
की चोट हमें
पूरा कभी नहीं
हमला कर पाती,
लेकिन सुख
की चोट बहुत
बुरा हमला कर
जाती है। क्योंकि
हम कहीं नहीं
होते, वहीं
होते हैं। उसी
वक्त सीधा
मुकाबला हो
जाता है।
सुख भी
एक अशांति
है--प्रीतिकर
हम समझ सकते
हैं उसे। हम
चाहते हैं ऐसी
अशांति। इसे
अगर ठीक से
समझें, तो
हम चाहते हैं
ऐसी अशांति।
और अशांति को
चाहना--कितनी
देर चाहोगे? घड?ी,
आधा घड़ी में
चाह मिट जाएगी,
अशांति रह
जाएगी। समझ
लीजिए कि अभी
आप सब मिल कर
इतना हंस-खुश
हो रहे थे, समझ
लीजिए इसे जरा
चलने दीजिए और
घंटे भर सही, और फिर लोग
उठने लगेंगे,
और दरवाजा
बंद कर दीजिए कि
आज तो पूरी
रात खुशी
मनानी है। तो
फिर आप पाएंगे
कि दो घंटे
बाद लोग कहते
हैं कि हम
गर्दन दबा
देंगे, अगर
किसी ने गड़बड़
की। बिलकुल
हमको हंसना
नहीं है। हमें
बिलकुल बाहर
जाना है, हम
सुनना नहीं
चाहते अब।
क्यों? क्योंकि
थोड़ी देर तक
हम अशांति को
भी चाह सकते
हैं--पर कितनी
देर? थोड़ी
देर में चाह
चली जाएगी और
अशांति रह
जाएगी।
एक
आदती सितार
बजा रहा है, बड़ा
प्रीतिकर है,
लेकिन है तो
शोरगुल। है तो
शोरगुल ही, कितनी देर सहोगे? अशांति
ही है। जो
शांति को
जानता है वह
कहेगा, यह
क्यों शोरगुल
मचा रहे हो? यह है
शोरगुल।
लेकिन समझो कि
अच्छी लग रही
है, प्रीतिकर
अशांति है, थोड़ी देर
चाही जा सकती
है। चाहो, कितनी
देर चाहोगे? घड़ी, दो
घड़ी; घंटे,
दो घंटे; रात, दो
रात; फिर
उस सितार
बजाने वाले की
गर्दन दबाने
का मन होगा, कि अब या तो
बंद करो या हम
तुम्हें बंद
कर देंगे।
तो वह
कहेगा कि तुम
तो इतने खुश
होते थे, तुम
तो इतने
प्रभावित थे
और तुम तो
इतना आनंद प्रकट
करते थे, ताली
बजाते थे, गर्दन
क्यों दबाते
हो? हम तो
उसी खुशी में
और ज्यादा बजाए
चले जा रहे
हैं। लेकिन उस
आदमी को पता
नहीं कि अशांति
की चाह खतम हो
जाती है थोड़ी
देर में, और
फिर अशांति रह
जाती है। और
फिर तबीयत
होती है कि अब
कब बंद हो जाए! अब
यह कब समाप्त
हो!
प्रीतिकर
अशांति को हम
सुख कहते हैं, अप्रीतिकर
अशांति को हम
दुख कहते हैं।
और इसे
ध्यान रखना, अगर
प्रीतिकर
अशांति को
जारी रखा जाए
तो प्रीतिकर
बिंदु नष्ट हो
जाएगा, अशांति
रह जाएगी। और
अगर अप्रीतिकर
अशांति को भी
जारी रखा जाए
तो अप्रीतिकर
बिंदु नष्ट हो
जाएगा और
अशांति भी
सहने योग्य, प्रीतिकर हो
जाएगी।
एक
आदमी रेल के
दफ्तर में काम
करता है तो
सितार नहीं
सुनता, रेलगाड़ी
के इंजन, सीटियां और सब
आवाजें सुनता
है। वहीं सोता
भी है रात, तो
सो लेता है।
सात दिन की
डयूटी के बाद
घर लौटता है
आठवीं रात, तो नींद
नहीं आती।
क्योंकि वह जो
अशांति थी, वह जो
शोरगुल था, वह उसके
माहौल का
हिस्सा था।
उसके बिना सोए
कैसे? एक
बड़े वातावरण
का हिस्सा वह
भी है। उतनी
अशांति चाहिए,
नहीं तो वह
सो नहीं सकता।
वह मुश्किल
में पड़ जाएगा।
वह सब हिस्सा
हो गया। वह भी बहुत
दिन सुने जाने
पर प्रीतिकर
अप्रीतिकर हो
जाता है, अप्रीतिकर
प्रीतिकर भी
हो सकता है।
इसका मतलब
क्या है? इसका
मतलब यह है कि
दोनों तनाव
हैं, और
दोनों तनाव
में रूपांतरण
हो सकता है।
वे एक-दूसरे
में यात्रा
करते रहते
हैं।
अभी वह
एक मित्र यहां
मेरे पीछे आकर
ठहरे थे पूना
के। उन्होंने
कहा कि हम एक
दिन हाउस-बोट
में ठहरे थे
आकर--बहुत
आनंद आया। फिर
दूसरी दफा आए
तो हमने
पंद्रह दिन के
लिए इकट्ठा ही
बुक कर लिया
और पैसे दे
दिए। और हम
ऐसी मुसीबत
में पड़ गए कि
ये पंद्रह दिन
कैसे पूरे
हों! क्योंकि
वही पानी, वही नाव, वही
रोज वहां
जाना! इतनी घबड़ाहट
हो गई कि हम
चौथे दिन भाग
गए वह पैसे
छोड़ कर वहां
से। क्योंकि
वह तो घबड़ाने
वाला हो गया।
वह जो
सुखद मालूम हो
रहा है, वह
कितनी देर
सुखद होगा, यह सोचा कभी?
और जो दुखद
मालूम हो रहा
है, अगर
उसमें जीए ही
चले जाओ, तो
कितनी देर
दुखद रहेगा? दोनों अशांतियां
हैं, दोनों
एक-दूसरे में
मिली-जुली हैं,
दोनों
एक-दूसरे के
छोर हैं। बहुत
जल्दी यहां से
वहां यात्रा
हो जाती है, वहां से
यहां यात्रा
हो जाती है।
इस
सत्य को समझ
लेने वाला
व्यक्ति इस
यात्रा पर ही
नहीं जाता। वह
जैसा है, वहीं
खड़ा हो जाता
है। जो आता है,
उसे ही
देखता है। और
आता दुख ही है,
सुख आता ही
नहीं। सुख
सिर्फ आता
लगता है और आते
लगते ही में
चलता है उसका
सब हिसाब। आते
ही विलीन होना
शुरू हो जाता
है। दुख ही
आता रहता है।
जो
व्यक्ति इसको
देखने खड़ा
होता है--दुख
पूरा अपने
पूरे अंधकार
में, अपनी
पूरी पीड़ा में,
अपने पूरे
रूप में प्रकट
होता है। उसके
साथ ही वे सब
बीज प्रकट हो
जाते हैं, जो
उसने बोए थे, जो वह अब भी
बो रहा है। इस
वक्त भी हो
सकता है बगीचे
में बैठा बो
रहा हो। हाथ
रुक जाता है, वह आदमी
वापस खड़ा हो
जाता है। वह
चुपचाप दुख को
देख लेता है, जी लेता है, भोग लेता है,
लेकिन
भागता नहीं।
भोगा हुआ दुख
मिट जाता है। भागा
हुआ दुख आगे
बढ़ जाता है।
ऐसा जो भोग
लेता है, वह
भीतर चला आता
है।
और जो
दुख में भी
नहीं भागता, वह शांत हो
जाता है, क्योंकि
अब अशांत होने
का क्या कारण
रहा? जो
दुख में भी
नहीं भागता, वह अशांत
कैसे होगा? अशांत हो
सकता था भागता
तो। अब वह
भागता ही नहीं
है, अब तो
जो भी है, वह
ठीक है। वह
शांत हो जाता
है। वह आनंद
को उपलब्ध हो
जाता है, वह
अपने पर लौट
आता है। ऐसी
यात्रा से
पहुंचता है
व्यक्ति
मुक्ति में।
लेकिन यह यात्रा
जरूरी है।
ऐसा
कभी नहीं होता, ऐसा नहीं
होता कि एक
व्यक्ति का
सुख का भ्रम टूट
जाए और आनंद
उपलब्ध न हो।
ऐसा होता ही
नहीं। ऐसा हो
ही नहीं सकता।
यह ऐसा
ही है जैसे
कोई कहे, सौ
डिग्री तक
पानी तो गर्म
हो गया, लेकिन
भाप नहीं
बनता। तो हम
कहेंगे, ऐसा
हो ही नहीं
सकता। तो
तुम्हारी
डिग्री नापने
में कहीं भूल
हो गई होगी।
सौ डिग्री तक
पानी गर्म हो
ही गया है तो
भाप बनेगा ही।
इसमें कोई
उपाय ही नहीं
है दूसरा। यह
भाप बनेगा ही।
क्योंकि सौ
डिग्री तक
गर्म होना
यानी भाप
बनना। ये दो
चीजें नहीं
हैं। वह
डिग्री तो
द्वार है, जहां
से भाप बनेगा।
अगर उस डिग्री
तक पहुंच गया
तो भाप बनेगा।
ऐसा नहीं हो
सकता कि सौ
डिग्री पर ठहर
जाए और कहे कि
भाप नहीं बनते
हैं, सौ
डिग्री पर रुक
जाते हैं। सौ
डिग्री तो गरम
हो गए, लेकिन
भाप नहीं
बनते--ऐसा
नहीं होता।
लेकिन डिग्री
नापने में
गलती हो सकती
है।
और
पानी की
डिग्री नापने
में गलती बहुत
कम होगी, क्योंकि
पानी हमसे
अलग-थलग है।
अपनी स्थिति नापने
में हमेशा भूल
हो जाती है।
सुख का
भ्रम हमारा
मिटता नहीं।
बल्कि सच तो
यह है कि हम
आनंद की खोज
में भी सुख के
लिए ही जाते हैं।
जो गहरा
उपद्रव है, वह यह है कि
आनंद की खोज
में भी हम किसलिए
जाते हैं? क्या
हम दुख के
साक्षात से गए?
अगर दुख के
साक्षात से गए
तो जाना ही
नहीं पड़ेगा, हम पहुंच
जाएंगे। अगर
दुख के
साक्षात्कार
से गए हैं तो
हमें जाना
नहीं पड़ेगा, हम पहुंच ही
जाएंगे।
लेकिन हम दुख
के साक्षात्कार
से नहीं गए।
हम दुख से बचने
के लिए सुख
खोजते रहे।
फिर किसी ने
कहा कि सुख
भ्रम है, और
हमारी थोड़ी
समझ में भी
पड़ा, क्योंकि
अतीत का अनुभव
हमारा भी कहता
है कि हां, सुख
पाया नहीं।
लेकिन क्या
तुम्हारा
भविष्य का मन
भी कहता है कि
सुख नहीं पा सकोगी?
जब मैं
कहता हूं कि
सुख भ्रम है, सुख कभी नहीं
पाया, तो
तुम्हारा मन
भी कहता है कि
ठीक कहते हैं
आप, सुख
भ्रम है। बहुत
बार सुख पाने
की संभावना थी,
फिर मिला
नहीं--लेकिन
अतीत में।
लेकिन क्या तुम्हारा
मन यह भी बात
मानने को
तैयार होता है
कि भविष्य में
भी सुख नहीं
मिल सकता है?
नहीं, इस पर राजी
नहीं होता! बस
यहां जरा सी
चूक हो जाती
है। मन कहता
है कि अगर आप
कहते हैं कि
इस तरह से
नहीं मिलेगा,
छोड़िए,
लेकिन आनंद
कैसे मिलेगा,
यह बताइए।
वह कहता है, आनंद कैसे
मिलेगा, यह
बता दें। तो
हम वही पा लें,
छोड़ें सुख
को! और आनंद तो
सुख से भी बड़ी
चीज है। हम
सुख ही छोड़
देते हैं, आनंद
पा लेते हैं!
आनंद की क्या
तरकीब है? फिर
आदमी भजन कर
रहा है, ध्यान
कर रहा है, पूजा
कर रहा है, प्रार्थना
कर रहा है।
फिर वह अब
आनंद की तरकीब
खोज रहा है!
इसलिए
जो मैंने उस
दिन कहा कि
कोई तरकीब
नहीं है, कोई
मेथड
नहीं है!
क्योंकि विधि
हो सकती है
सुख पाने की।
यहां तो सवाल
कुल इतना है
कि जो स्थिति
है, उसको
जान लो और तुम
आनंद में
पहुंच जाओगे।
आनंद में
पहुंचने के
लिए तुम्हें
अतिरिक्त कुछ
भी न करना
पड़ेगा, एक
इंच चलना न
पड़ेगा। लेकिन
हमारे चित्त
की जो तरकीब
है, वह यह
है, वह
कहता है, ठीक
है; आप ठीक
कहते हैं, सुख
तो नहीं मिला,
लेकिन आगे
मिल सकता है? ठीक है, कोई
हर्ज नहीं, सुख न कहिए, आनंद कहिए, हम आनंद ही
खोजने जाते
हैं। वह कहां
है आनंद? हम
कैसे उस आनंद
को पाएं?
अब यह
आदमी फिर दुख
से भाग रहा
है। अभी तक यह
सुख का नाम
लेकर भागता था, अब आनंद का
लेकर भाग रहा
है! अभी तक यह
शराबघर में
जाता था कि
वहां सुख मिल
जाएगा, अब
यह कहता है, वहां नहीं
मिलता; तो
अब यह मंदिर
में जाता है!
यह कहता है कि
वहां आनंद मिल
जाए। लेकिन
जाता है कहीं!
शराबघर छोड़ता
है, मंदिर
खोजता
है--लेकिन
जाता है कहीं।
भाग रहा है।
शराबघर में
जाने वाला
उतना ही भाग
रहा है, जितना
मंदिर में
जाने वाला भाग
रहा है। फर्क
जरा भी नहीं
है भागने की
दृष्टि से।
यह मैं
नहीं कह रहा
हूं कि जाकर
आदमी शराब पीने
लगे। कह मैं
यह रहा हूं, दोनों भाग
रहे हैं।
भागने की
दृष्टि से कोई
भी फर्क नहीं
है। हां, एक
का भागना ऐसा
हो सकता है कि
समाज-सम्मत न
हो, ऐसा हो
सकता है कि
स्वास्थ्य को
नुकसान पहुंचाता
हो। एक का
भागना ऐसा हो
सकता है कि
स्वास्थ्य को
भी फायदा करता
हो, समाज-सम्मत
भी हो; लेकिन
भागना जारी
है।
तो मैं
जो कह रहा हूं, समझ लो उसे
ठीक से। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि मैं
तुम्हें कोई
आनंद की तरकीब
बताऊंगा। मैं
तुमसे यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम आनंद में
जा सकती हो।
यह भी नहीं कह
रहा हूं तुमसे
कि तुम आनंद
पा सकती हो
भविष्य में।
मैं तुमसे
भविष्य की बात
ही नहीं कर
रहा हूं। मैं
तुमसे इतना कह
रहा हूं कि
वर्तमान में
तुम दुख के
लिए जाग सकते
हो। उसके आगे
मुझे नहीं
कहना। मैं
इतना ही कहता
हूं, सौ
डिग्री तक
पानी गरम करो।
आगे पानी अपना
संभाल लेता है,
उसकी
तुम्हें
चिंता नहीं
करनी है। वह
भाप बनेगा।
लेकिन
हमें होता
क्या है, हमें
सारी शिक्षाएं
खतरनाक हो गई
हैं। सब
शिक्षक हमें रेडीमेड
फार्मूला दे
देते हैं। वे
कह देते हैं
कि सुख है ही
नहीं जीवन
में। बस, बात
खतम हो गई। वे
समझते हैं, बात खतम हो
गई। तुमने भी
सुन ली, तुमने
भी समझा कि
ठीक बात तो कह
रहे हो, बिलकुल
बात खतम हो
गई। सुख है
कहां जीवन
में!
लेकिन
सवाल यह नहीं
है कि सुख
जीवन में है
या नहीं। सवाल
यह है कि क्या
तुम इस सत्य
पर पहुंचे हो
कि तुम्हारे
लिए सुख की
कोई संभावना
नहीं--कभी भी, अनंत काल
में? क्या
इस सत्य पर
तुम पहुंचे हो?
क्या यह
तुम्हारी
प्रतीति बन गई
है कि अनंत काल
तक भी
तुम्हारे लिए
सुख की कोई
संभावना नहीं
है? सुख है
ही नहीं
कभी--ऐसी
तुम्हारी
प्रतीति है? तो फिर क्या
करोगे तुम? तब तुम आनंद
के लिए भी
नहीं पूछोगे।
तुम कहोगे, कैसा आनंद? सुख की कोई
संभावना ही
नहीं है, दुख
ही है। और दुख
में ही जीना
है, वहीं
खड़े होना है।
यही सत्य है, इसमें ही
खड़े होंगे।
ऐसे
अगर तुम खड़े
हो गए तो तुम
आनंद में
पहुंच जाओगे।
वह तुम्हारा
पहुंचना नहीं
है। यानी तुम
कुछ करके वहां
नहीं पहुंच
जाओगे, यह
खड़े हो जाना
तुम्हें
पहुंचा देगा।
और तुम इसमें
खड़े होने को
राजी नहीं।
तुम कहते हो
कि ठीक है, यह
दुख तो ठीक है,
आप हमें
आनंद में
पहुंचने का
रास्ता
बताइए। फिर
आनंद भविष्य
में हो
जाएगा--कल। वह
सुख का काम
करने लगेगा।
उससे क्या
फर्क पड़ता है?
फिर स्वर्ग
हो जाएगा, फिर
मोक्ष हो
जाएगा--कल।
फिर पोस्टपोनमेंट
शुरू हो
जाएगा।
सुख की
भूल क्या थी? सुख की भूल
थी पोस्टपोनमेंट।
सुख का भ्रम
क्या था? स्थगन,
आगे के लिए,
कल। सुख का
कसूर क्या था
बेचारे का? आशा थी सुख
भविष्य की।
आनंद भी बन
सकता है
भविष्य की
आशा। आनंद भी
बन सकता है
स्थगन कल के
लिए। आनंद भी
बनेगा कल की
संभावना। तो
तुमने सुख से
तुम जो काम ले
रहे थे, तुमने
आनंद से भी
वही काम ले
लिया! फिर भाग
शुरू हो गई।
यह सवाल थोड़े
ही था कि तुम
किसके लिए भविष्य
में जाते थे? सवाल यह था
कि तुम
वर्तमान से
चले जाते थे, कहीं और चले
जाते थे। इस
दुख को भुला
देते थे। सुख
के नाम से भुलाते
थे कि आनंद के
नाम से, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
मैं यह
कह रहा हूं कि
तुम्हें
संभावना ही
नहीं है।
तुम्हें सुख
मिलेगा ही
नहीं। तुम सुख
पा ही नहीं सकते
हो। आनंद-वानंद
भी नहीं पा
सकते।
समझ
रहे हो मेरी
बात? मेरी बात
यह है, तुम
पा ही नहीं
सकते हो। इस
जाल को तुम
पूरा समझ लो
कि इसमें पाना
हो ही नहीं
सकता। खड़े हो
जाओ। खड़े हो
ही जाओगे! जब
पा नहीं सकते,
तो नहीं दौड़ोगे।
पा सकते हो, तो दौड़ोगे।
नहीं पा सकते,
नहीं दौड़ोगे।
खड़े हो जाओ।
खड़े हुए कि पा
लोगे। लेकिन
उसे तुम
भविष्य का
आश्वासन मत
बनाना, नहीं
तो दौड़ जारी
रहेगी।
मेरी
बात समझ पड़ती
है न? और इसलिए
मुझे निरंतर
दिक्कत होती
है समझाने में।
क्योंकि
बारीक सा
मामला है, जरा
में खिसक जाते
हैं हम।
और तब
कोई मुझसे कह
सकता है फिर
आपकी हम बात
ही क्यों
सुनें, जब
आप कहते हैं
कि आनंद
मिलेगा ही
नहीं, पा
ही नहीं सकते
हो? तो हम
फिजूल आपके
साथ परेशान हो
रहे हैं!
प्रश्न:
और
आपको परेशान
कर रहे हैं!
और
आपको परेशान
कर रहे हैं!
लेकिन मैं
तुमसे कह रहा
हूं कि तुम
अगर यह जान
लोगे तो पा भी
सकते हो।
लेकिन उसे कभी
आशा मत बनाना, उसे कभी
भविष्य का
साध्य मत
बनाना, उसे
कभी लक्ष्य मत
बनाना। वह
बनेगी
उपलब्धि, तुम
तो जो है, उसे
जानना। वह
आएगा अपने से।
वह आना बिलकुल
सहज है।
आज
इतना ही।
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