'मैं कौन हूं?'
से
संकलित
क्रांतिसूत्र
1966—67
किस संबंध में
आपसे बातें
करूं—जीवन के
संबंध में? शायद यही
उचित होगा, क्योंकि
जीवित होते
हुए भी जीवन
से हमारा संबंध
नहीं है। यह
तथ्य कितना
विरोधाभासी
है? क्या
जीवित होते
हुए भी यह हो
सकता है कि
जीवन से हमारा
संबंध न हो? यह हो सकता
है! न केवल हो
ही सकता है, बल्कि ऐसा
ही है। जीवित
होते हुए भी, जीवन भूला
हुआ है। शायद
हम जीने में इतने
व्यस्त हैं कि
जीवन का
विस्मरण ही हो
गया है।
वृक्षों
को देखता हूं
तो विचार आता
है कि क्या
उन्हें अपनी
जड़ों का पता
होगा? पर
वृक्ष तो
वृक्ष हैं, मनुष्य को
ही अपनी जड़ों
का पता नहीं।
जड़ों का ही
पता न हो तो
जीवन से संबंध
कैसे होगा? जीवन तो
जड़ों में है—अदृश्य
जड़ों में।
दृश्य के
प्राण अदृश्य
में होते हैं।
जो दिखाई पड़ता
है उसका जीवन स्त्रोत
उन मे होता है
जो दिखाई नही
पड़ता है।
दृश्य को
अदृश्य धारण किए
हुए है। जब तक यह
अनुभव न हो तब तक
जीवित होते
हुए भी जीवन
से संबंध नहीं
होता है।
जीवन
से संबंधित
होने के लिए जीवन
मिल जाना ही
पर्याप्त नहीं।
वह भूमिका तो
है,.किन्तु
वही सब कुछ
नहीं। उसमें
सम्मावनाएं तो
हैं, लेकिन
वही पूर्णता
नहीं है। उससे
यात्रा तो
शुरू हो सकती है,
लेकिन उस पर
ही ठहरा नहीं
जा सकता है।
पर कितने ही
लोग हैं जो
प्रस्थान
बिन्दु को ही
गन्तव्य
मानकर रुक
जाते हैं।
शायद
अधिकांशत: यही
होता है। बहुत
कम ही व्यक्ति
हैं जो
प्रस्थान
बिन्दु में, और पहुंचने
की मंजिल में
भेद करते हों
और उस भेद को
जीते हों। कुछ
लोग शायद भेद कर
लेते हैं, पर
उस भेद को जीते
नहीं। उसका
भेद, मात्र
बौद्धिक होता
है और स्मरण
रहे कि बौद्धिक
समझ कोई समझ
नहीं। समझ
जीवन के
अस्तित्व के
अनुभव से आए तभी
परिणामकारी होता
है। हृदय की
गहराई से और
अनुभव की
तीव्रता से ही
वह ज्ञान आता
है जो व्यक्ति
को बदलता है, नया करता है।
बुद्धि
तो उधार विचारों
को ही अपना समझने
की भ्रांति में
पड जाती है।
बुद्धि की संवेदना
है ही बहुत सतही, जैसे
सागर की सतह
पर उठी लहरों
का न तो कोई
स्थायित्व
होता है और न
कोई दृढ़ता
होती है। उनका
बनना—मिटना
चलता ही रहता
है। सागर का
अंतस्थल न तो
उससे
प्रभावित
होता है और नही
परिवर्तित होता
है। ऐसी ही
स्थिति
बुद्धि की भी
है।
बुद्धि
से नहीं, अनुभव से, अस्तित्व से
तथा स्वयं की
सत्ता से यह
बोध आना चाहिए
कि जन्म और
जीवन में भेद है।
चलने और पहुंचने
मे अन्तर है।
जन्म प्रारम्भ
है, अन्त नहीं।
यह दृष्टि न जगह
तो जन्म को ही जीवन
मान लिया जाता
है। फिर जो जन्म
को ही जीवन जानता
और मानता है, अनिवार्यत:
उसे मृत्यु को
ही अन्त और
पूर्णता भी
माननी पड़ती
है! जन्म को
जीवन मानने की
भूल से ही
मृत्यु को
स्वयं की
परिसमाप्ति मानने
की भांति का
भी जन्म होता है।
वह पहली भूल की
ही सहज
निष्पत्ति है।
वह उसका ही
विकास और निष्कर्ष
है। जन्म से जो
बंधे है, वे
मृत्यु से भी
भयभीत होंगे ही।
मृत्यु—भय जन्म
से बंधे होने की
ही दूरगामी प्रतिध्वनि
है।
वस्तुत:
हम जिसे जीवन
कहते हैं, वह जीवन कम
और जीवित मृत्यु
ही ज्यादा है।
शरीर से ऊपर
और शरीर से
भिन्न जिसने
स्वयं को नहीं
जाना, वह
कहने मात्र को
ही जीवित है।
जन्म से पूर्व
और मृत्यु के
पश्चात जिसे
स्वयं का होना
अनुभव नहीं होता,
वह जीवित नहीं
है। उसे जन्म के
बाद और मृत्यु
के पूर्व भी जीवन
का अनुभव नहीं
होगा, क्योंकि
जीवन का अनुभव
तो अखण्ड और
अविच्छिन्न
है। ऐसे व्यक्ति
ने जन्म को ही
जीवन मान लिया
है। सच तो यही
है कि उसने
अभी जन्म ही
पाया है, जीवन
नहीं।
जन्म
बाह्य घटना है—जीवन
आंतरिक। जन्म संसार
है—जीवन परमात्मा।
जन्म जीवन तो नहीं
है लेकिन जीवन
में वह गति का
द्वार हो सकता
है। लेकिन
साधारणत: तो
वह मृत्यु का
ही द्वार सिद्ध
होता है। उस
पर ही छोड़
देने से ऐसा
होता है।
साधना जन्म को
जीवन बना सकती
है। मृत्यु
विकसित हुआ
जन्म ही है।
अचेतन
और मूर्च्छित
जीना मृत्यु
में ले जाएगा—सचेतन
और अमूर्च्छित
जीना जीवन में।
अमूर्च्छित
जीवन को ही
मैं साधना
कहता हूं।
साधना से जीवन
उपलब्ध होता
है। वही धर्म
है।
मैं को
को देखता हूं
और बच्चों को
देखता हूं तो
मुझे जन्म तथा
मृत्यु की
दृष्टि से तो
उनमें भेद
दिखाई पड़ता है
लेकिन जीवन की
दृष्टि से नहीं।
जीवन से सभी
अछूते हैं।
जीवन समय की
गति के बाहर
है। जन्म और
मृत्यु समय
में घटित होते
हैं—जीवन समय
के बाहर। उम्र
का बढ़ते जाना
समय में होता
है। उसे ही
जीवन—वृद्धि न
समझ लेना।
आयुष्य और
जीवन भिन्न
हैं।
जीवन
पाने के लिए
समय के बाहर
चलना होगा।
समय क्या है? परिवर्तन
समय है। संसार
में सब कुछ
अस्थिर है।
वहां कुछ भी
ठहरा हुआ नहीं
है। देखो और
खोजो तो पाओगे
कि स्वयं के
बाहर एक भी
बिंदु एक भी अणु
स्थिर नहीं है।
पर स्वयं में
कुछ है जो
परिवर्तन के
बाहर है।
स्वयं में समय
नहीं है। स्वसत्ता
कालातीत है।
इसी सत्ता में
जागरण ही जीवन
है।
जीवन
को खोजो, अन्यथा
मृत्यु आपको
खोज रही है।
वह प्रतिक्षण
निकट आती जा
रही है। जन्म
के बाद
प्रतिक्षण
उसकी ही विजय
का क्षण है।
कुछ भी आप
करें—केवल
जीवन में
प्रवेश
छोड्कर—उसकी
विजय शुनिश्रित
है। सम्पत्ति,
शक्ति या यश—सभी
उसके समक्ष
निर्जीव
छायाओं की
भांति हैं।
उसकी मौजूदगी
में वे सब
व्यर्थ हो
जाते हैं।
स्वयं की
सत्ता—स्व—अस्तित्व
की अनुभूति ही
केवल अमृत है।
वही और केवल
वही मृत्यु के
बाहर है, क्योंकि
समय के बाहर
है।
समय
में जो कुछ भी
है, सभी
मरण धर्मा है।
समय मृत्यु की
गति है, उसके
ही चरणों का
वह माप है।
समय में दौडना
मृत्यु में
दौडना है और
सभी वहीं दौड़े
जाते हैं। मैं
सभी को स्वयं
मृत्यु के
मुंह में
दौड़ते देखता
हूं। ठहरो और
सोचो! आपके
पैर आपको कहा
लिए जा रहे हैं?
आप उन्हें
चला रहे हैं
या कि वे ही
आपको चला रहे
हैं।
प्रतिदिन
ही कोई मृत्यु
के मुंह में
गिरता है और
आप ऐसे खड़े
रहते हैं जैसे
यह दुर्भाग्य
उस पर ही
गिरने को था।
आप दर्शक बने
रहते हैं। यदि
आपके पास सत्य
को देखने की आंखें
हों तो उसकी
मृत्यु में
अपनी भी
मृत्यु दिखाई
पड़ती है। वही
आपके साथ भी
होने को है—वस्तुत:
हो ही रहा है।
आप रोज—रोज मर
ही रहे हैं।
जिसे आपने
जीवन समझ रखा
है, वह
क्रमिक
मृत्यु है। हम
सब धीरे— धीरे
मरते रहते है।
मरण की यह
प्रक्रिया
इतनी धीमी है
कि जब तक कि वह
अपनी पूर्णता
नहीं पा लेती
तब तक प्रकट
ही नहीं होती।
उसे देखने के
लिए विचार की
सूक्ष्म
दृष्टि चाहिए।
चर्मचक्षुओं
से तो केवल
दूसरों की
मृत्यु का दर्शन
होता है
किन्तु विचार—चक्षु
स्वयं को
मृत्यु से
घिरी और
मृत्योन्मुख
स्थिति को भी
स्पष्ट कर
देते हैं।
स्वयं को इस
संकट की
स्थिति में
घिरा जानकर ही
जीवन को पाने
की आकांक्षा
का उद्भव होता
है। जैसे कोई
जाने कि वह
जिस घर में
बैठा है उसमें
आग लगी हुई है
और फिर उस घर
के बाहर भागे, वैसे ही
स्वयं के गृह
को मृत्यु की
लपटों से घिरा
जान हमारे
भीतर भी जीवन
को पाने की
तीव्र और उत्कट
अभीप्सा पैदा
होती है। इस
अभीप्सा से
बड़ा और कोई
सौभाग्य नहीं,
क्योंकि
वही जीवन के
उत्तरोत्तर
गहरे स्तरों
में प्रवेश
दिलाती है।
क्या
आपके भीतर ऐसी
कोई प्यास है? क्या
आपके प्राण
जात के ऊपर
अज्ञात को
पाने को आकुल
हुए हैं?
यदि
नहीं, तो
समझें कि आपकी
आंखें बन्द
हैं और आप
अन्धे बने हुए
हैं। यह
अन्धापन
मृत्यु के
अतिरिक्त और
कहीं नहीं ले
जा सकता है।
जीवन
तक पहुंचने के
लिए आंखें
चाहिए। उमंग
रहते चेत जाना
आवश्यक है।
फिर पीछे से
कुछ भी नहीं
होता है।
आंखें
खोलें और
देखें तो
चारों ओर
मृत्यु दिखाई
पड़ेगी। समय
में, संसार
में मृत्यु ही
है। लेकिन समय
के—संसार के
बाहर स्वयं
में अमृत भी
है। तथाकथित
जीवन को जो
मृत्यु की
भांति जान
लेता है, उसकी
दृष्टि सहज ही
स्वयं में
छिपे अमृत की
ओर उठने लगती
है।
जो उस अमृत
को पा लेता है, पी लेता
है, जी
लेता है, उसे
फिर कहीं भी
मृत्यु नहीं
रह जाती है।
फिर बाहर भी
मृत्यु नहीं
है। मृत्यु
श्रम है और
जीवन सत्य है।
'मैं कौन
हूं?'
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